Book Title: Bhasha Shabda Kosh
Author(s): Ramshankar Shukla
Publisher: Ramnarayan Lal
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private and Personal Use Only Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir জুপুঙ্খা"f=f- ছায়া सम्पादक श्री० पं० रामशङ्कर शुक्ल 'रसाल' एम० ए० प्रकाशक रामनारायण लाल पब्लिशर और बुकसेलर इलाहाबाद थमावृत्ति] सन् १९३७ ई० [ मूल्य For Private and Personal Use Only Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Printed by RAMZAN ALI SHAH at the National Press, Allahabad. 1st Edition-1937. 18lbs. Derry 18 X 24 2 M. For Private and Personal Use Only Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra Kex ए www.kobatirth.org ΚΙΣΣ स्वर्गीय श्रीयुत् लाला रामनारायण लाल Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir “ विमल वैश्य-कुल-कमल, श्रमल शुचि जीवन वारे । कमला के प्रियलाल, सफलता - सिद्धि - दुलारे ॥ सुजन, सरलता मूर्ति, धन्य ! उन्नत उदार - उर । करि हिन्दी-हित, अमर सुजस करि गये अमर-पुर || " »» · For Private and Personal Use Only Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Sardarnprashardanasaluniasardaroro standar OnROaralashasaroriandane TERRED समर्पण । । । श्री० स्वर्गीय लाला जी ! M यह कोश आपकी ही अंतिम अपूर्ण इच्छा का साकार रूप M है, जिसे दैव-दुर्विपाक से आप अपनी आँखों से पूर्ण हुआ न all देख सके और अपने हाथों में न ले सके। यह पूर्ण हुश्रा किन्तु आपके निधन पर । फिर भी आपकी पुण्यात्मा श्राज इसे इस रूप में देखकर, संतुष्ट और प्रसन्न होगी । अस्तु, अाज अापकी यह अंतिमेच्छा-वस्तु आपकी ही शुभात्मा को सस्नेह समपित की जाती है; सप्रेम स्वीकार कीजिए । (622 रमेश-भवन, प्रयाग १८-१२.-३६ आपका . .... रामशङ्कर शुक्ल "रसाल" HERE For Private and Personal Use Only Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir वक्तव्य किसी प्रकार की संचित निधि का नाम कोष है । मनुष्य के लिये रत्नादि जिस प्रकार निधि कहे जाते हैं उसी प्रकार मनोगत भावों के व्यक्त करने तथा चिरकाल तक उन्हें रक्षित रखने वाले शब्द भी उसके लिये निधि का कार्य करते हैं । रत्नादि सम्बन्धी निधि के बिना किसी प्रकार मनुष्य अपना जीवन चला भी सकता है किन्तु शब्द-सम्बन्धी निधि के बिना उसका जीवन अल्पकाल भी नहीं चल सकता । इस निधि का उपयोग उसके लिये प्रत्येक समय, प्रत्येक स्थान पर अनिवार्य हो होता है । इस निधि का रखना भी इसीलिये उसके लिये अत्यंत प्रावश्यक है । शब्द निधि अन्य प्रकार की निधियों की अपेक्षा अत्यधिक व्यापक और सर्वसाधारण है। ऐसा होते हुए भी यह किसी देश समाज या व्यक्तिविशेष की भी होकर रहती है । यह समस्त समाज और एक व्यक्ति विशेष दोनों से सम्बन्ध रखती है । इसी शब्द निधि से मनोगत विचारों को व्यक्त करने तथा चिरकाल तक भावी संतति के लिये उन्हें रक्षित रखने वाली भाषा की उत्पत्ति होती है । इसीलिये इस निधि को भी रत्नादि सम्बन्धी, संचित निधि के समान कोश की संज्ञा दी गई है । शब्दों की उत्पत्ति कब, कहाँ और कैसे हुई ? यह प्रश्न बड़ा ही कष्टसाध्य (यदि साध्य नहीं ) और गूढ़-गहन या जटिल है । अद्यावधि इसका कोई सर्वांग शुद्ध तथा प्रमाण-पुष्ट उपयुक्त उत्तर नहीं निश्चित किया जा सका । fra fra fearनों के इस सम्बन्ध में भिन्न भिन्न मत या विचार हैं, और यह विषय भी वैसा ही विचारणीय, गवेषणीय तथा विवाद अस्त है, जैसा यह कभी था । यह अवश्यमेव प्रत्यक्ष-पुष्ट तथा अनुमानानुमोदित होकर सही है कि शब्द- निधि का संचय क्रमशः तथा शनैः शनैः प्रतीतकाल से होता आया है । शब्दों का विकास - प्रकाश धीरे धीरे किन्तु लगातार होता रहा है और अब भी होता जा रहा है। प्रति दिन नये नये शब्द बनाते आये हैं और बनते भी जा रहे हैं । इसी प्रकार शब्दों के आकार-प्रकारादि में भी क्रमशः धीरे धीरे रूपान्तर या परिवर्तन होता आ रहा है । यह भी सही है कि विकास के साथ ही और उसके समान ही शब्द -हास या शब्द- विनाश भी होता जा रहा है। यदि अनेक नये शब्द प्रचलित हो गये हैं और होते जाते हैं, तो साथ ही अनेक पुराने शब्द प्रचलित होकर विस्मृति के गहन गर्त में विलीन भी होते जाते हैं। अनेक शब्दों के प्रयोग उठते जा रहे हैं, और वे इस प्रकार प्रयोग से परे होकर दुवैध हो गये हैं, बिना arr के अवगत नहीं होते, वे केवल कुछ बची-बचाई हुई प्राचीन पुस्तकों तथा प्राचीन कोशों में ही दबे पड़े हैं, और खोजने पर ही प्राप्त होते हैं । जिन प्राचीन शब्दों का संचय कोशों में किसी कारण वश न हो सका था, जो उन में यथोचित स्थान न प्राप्त कर सके थे, वे अब प्रबोध होते हुए सदा के लिये प्रयोग वाह्य होकर लुप्त होते जा रहे हैं। बहुत से ऐसे ही शब्द सर्वथा For Private and Personal Use Only Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( २ ) समाज से परित्यक्त होकर भाषा कोश से वहिष्कृत या च्युत भी किये जा चुके हैं। हाँ प्रत्युपयोगी कुछ प्राचीन शब्द अब तक बच रहे हैं और प्राचीन ग्रंश् या कोशादि में छिपे पड़े हैं। इसी प्रकार अनेक नवनिर्मित तथा नव-प्रचलि शब्द कोषों में लाये जा रहे हैं और बहुत से ऐसे नवोदित शब्द कोशान्तर्गत भी चुके हैं, फिर भी बहुत से ऐसे नवजात शब्द है जो अभी पूर्णतया प्रचा प्रस्तार नहीं प्राप्त कर सके, और इसी से कोशों में भी वे स्थान नहीं पा सके: इस प्रकार कहा जा सकता है कि कोश में भी सदैव रूपान्तर तथा परिवर्तन होर रहता है, उसमें भी संशोधन, संबर्धन तथा परिमार्जन होता जाता है । कोम इसीलिये सर्वथा पूर्ण नहीं हो सकता या नहीं हो पाता । सदैव उसमें परिवर्त और परिवर्धन का होना ( या किया जाना ) अनिवार्य ठहरता है । शब्द-विनिर्मित भाषा की सहायता से मनोगत सुन्दर, समीचीनत संचयनीय विचारों या भावों की संरक्षित या संचित निधि का नाम साहित्य है । साहित्य की भाषा तथा उसके आकार-प्रकार तथा रीति-नीति साधार बोली (जिसका प्रयोग सर्वसाधारण के बोलचाल में होता है ) तथा उसक रीति-नीति से बहुत कुछ भिन्न और पृथक रहती है। कारण यह है कि साहित् की रचना इस विचार - विशेष से की जाती है कि वह न केवल वर्तमान दे. समाज के ही लिये हो वरन् वह स्थायी होकर अग्रिम समाज के लिये उपयोगी हो सके, उसमें स्वाभाषिकता तथा व्यापकता की मात्रा अधिक प्रवल होती है । इसलिये उसकी भाषा का आकार-प्रकार भी विशेषत पूर्ण रक्खा जाता और रहता है । जन-साधारण की भाषा और उस शब्दों से उसे बहुत कुछ परे रखा जाता है, उसमें बोली के समान इसीलि प्रान्तीयतादि की अनीप्सित कठिनाइयाँ नहीं आने दी जातीं। वह सर्वथ सुसंस्कृत, परिष्कृत तथा परिमार्जित रहती है । इसीलिये उसका शब्द-कोश भ उत्कृष्ट और संस्कृत रहता है । हिन्दी-साहित्य के सम्बन्ध में यह नियम पूर्णत घटित नहीं होता, क्योंकि उसका निर्माण जनसाधारण की बोली या भाषा ही द्वारा किया गया है। हिन्दी के तीन मुख्य रूपों का प्रयोग इसमें हुआ अर्थात् ब्रजभाषा ( जो व्रजप्रान्त की बोली से विकसित हुई है ) अवध (जो अवध प्रान्त की बोली से विकसित की गई है ) तथा खड़ी बोली (जिसे पश्चिमीय हिन्दी का विकसित रूप कह सकते हैं ), इनके अतिरिक्त हिन्दीसाहित्य में हिन्दी की अन्य प्रान्तीय बोलियों (जैसे- बुंदेलखंडी, आदि) फ़ारसी, अरबी तथा अंग्रेजी यदि विदेशीय भाषाओं के भी शब्द और प्रयोग सम्पर्क - प्रभाव से आ गये हैं । अन्य भाषाओं के ऐसे शब्द प्रायः दो रूपों में मिलते हैं, प्रथम तो उन्हें ऐसा रूप दे दिया गया है कि वे अन्य भाषा के शब्द न र कर देशी शब्द से ही जान पड़ते हैं, अर्थात् वे शब्द देशज रूप में रूपान्तरित -* For Private and Personal Use Only Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रके रक्खे गये हैं, किन्तु अनेक शब्द ऐसे भी मिलते हैं जिनमें रूपान्तर नहीं गा और वे अपने उसी मूल रूप में है जो रूप उनका उनकी भाषा में प्रचलित अर्थात् वे अपने शुद्ध तत्सम रूप में ही हैं । ___ इनके अतिरिक्त हिन्दी-साहित्य में कहीं कहीं कुछ ठेठ प्रान्तीय या ग्राम्य इ-विशेष भी प्रयुक्त किये गये हैं। हिन्दी भाषा का शब्द-कोश इसीलिये विध बालियों तथा भाषाओं के शब्द-रत्नों का अनुपम आगार है। हिन्दी भाषा का विकास मुख्यतया दो प्रधान कारणों ( या आन्दोलनों) हुआ है। प्रथमतः धार्मिक आन्दोलन (कृष्णा-राम-भक्ति, संत-ज्ञान या निर्माण द और सूफी मत सम्बन्धी प्रेमात्मक वेदान्ताभासवाद ) से ब्रज भाषा, अवधी गा अन्य प्रान्तीय बालियों का विकास-प्रकाश हुआ, फिर राष्ट्रीय तथा आर्य पाज के अान्दोलनों के कारण खड़ी बाली का विकास हुश्रा। मुसलमानों प्रभाव से हिन्दी का एक नया रूप उर्दू के नाम से ( जिस पर, फारसी और रबी का प्रभाव पड़ा है ) निखर और बिखर गया है । अब इधर कुछ समय हिन्दी (साहित्यिक शुद्ध खड़ी बाली ) और उर्दू (फ़ारसी-प्रभावित श्चिमीय हिन्दी ) को मिला कर हिन्दुस्तानी के नाम से एक नया रूप और रूस पड़ा है। संस्कृत के आधार पर विकसित (उससे सर्वथा प्रभावित होकर) काट साहित्यिक हिन्दी या खड़ी बोली अपना एक विशेष रूप और स्थान बती है । हिन्दी पर प्राकृत और अपभ्रंश भाषाओं की भी छाप पड़ी हुई है। । अतएव प्राचीन और अर्वाचीन हिन्दी के लिये वही कोश उपादय हो सकता है जिसमें उपर्युक्त सभी बालियों तथा भाषाओं के वे सब शब्द संग्रहीत 'हां जो हिन्दी-संसार में सर्वथा व्यापक और प्रचलित हैं। इसी विचार को लक्ष्य रख कर प्रस्तुत कोश का संग्रह किया गया है। बहुत से शब्द तो ऐसे भी हैं जनका उपयोग केवल काव्य-भाषा में ही होता है, गद्य या बोलचाल में उनका योग नहीं किया जाता, ऐसे शब्द भी इसमें संकलित किये गये हैं। .. इस समय हिन्दी-संसार में कई सुन्दर कोश विद्यमान हैं, ऐसी दशा में इस काश की क्या आवश्यकता थी, इस सम्बन्ध में निवेदन है कि अन्यान्य कोशों में लोगों और विशेषतया स्कूलों और कालेजों के विद्यार्थियों को कुछ कमी प्रतीत हुई और एक ऐसे साधारण कोश की आवश्यकता तथा माँग हुई जो जन-साधारण तथा विशेषतया विद्यार्थियों के लिये उपयोगी हो। स्वर्गीय श्री लाला रामनारायण जी बुकसेलर ने यह मांग और आवश्यकता मेरे सामने रख एक काश तैय्यार करने को कहा लाला जी ने कोशों के प्रकाशन द्वारा भाषा, साहित्य और विद्यार्थी-वृन्द तथा जन-साधारण का बड़ा हित किया है । उन्होंने (अँग्रेजी, हिन्दी, संस्कृत, उर्दू के ) कई सुन्दर, सरल, सुबाध और सस्ते काश प्रकाशित किये हैं। मैंने भी यह गुरुतर कार्य उठा लिया। केवल इस सहारे से For Private and Personal Use Only Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ४ ) कि विशाल भाषा-क्षेत्र में विद्वानों ने प्रथम से मार्ग बना रखे हैं और भाषा-सदन से शब्द-रत्न चुन कर कोषों में संचित कर लिये हैं, उन्हीं के आधार पर मैं भी इस कार्य का निर्वाह कर सकेंगा। परम पूज्य पिता जी (श्री० पं० कुञ्ज विहारी लाल) ने भी अपनी चिर-संचित काश-रचना की इच्छा प्रकट कर मुझे उत्साहित किया और महती सहायता भी दी। यदि उनकी सहायता और कृपा न होती तो कदाचित् यह कार्य मुक जैसे व्यक्ति के द्वारा सम्पन्न न हो पाता। इसका बहुत बड़ा अंश उनकी हो लेखनी से आया है, हाँ मैंने इसका सम्पादन अपने ही विचार से किया है। इसके प्रकादि के देखने तथा कवियों के उद्धरणादि के एकत्रित करने में मुझे अपने अनुजवर चि० रामचन्द्र शुक्त 'सरस' से बड़ी सहायता मिली है। यद्यपि इस कार्य के बीच बीच में अनेक बाधायें उपस्थित हुई फिर भी जैसे हो सका वैसे यह कार्य आज इस रूप में समाप्त होकर आप महानुभावों के सम्मुन्द रक्खा गया है। इसके गुण-दोष के विवेचन का सुझे अधिकार नहीं, यह अधिकार सहृदयादा विद्वानों का ही है। में तो यहाँ इसकी केवल कुछ उन विशेषताओं की पोर पाप का ध्यान आकर्षित करता हूँ, जो इस समय के अन्य कोशों में प्रायः नहीं मिलती और जिनको ही लक्ष्य में रख कर इस कोश का संग्रह किया गया है :-- १-इसमें प्राचीन और अर्वाचीन गद्य और पद्य में प्रयुक्त होने वाले ४०००० से अधिक शब्द संग्रहीत किये गये हैं। यथासाध्य कोई भी उपयोगी और आवश्यक शब्द छूटने नहीं पाया। २--ब्रजभाषा, अवधी, बुंदेलखंडी तथा हिन्दी की अन्य शाखाओं के अति श्रावश्यक, उपयुक्त और सुप्रयुक्त शब्द, तथा प्रयोग भी समझाये गये हैं । साथ ही संत-काव्य के विशेष शब्दों और प्रयोगों पर भी प्रकाश डाला गया है। ३–प्रायः सभी आवश्यक और विशेष शब्दों तथा प्रयोगों के उदाहरण भिन्न भिन्न कवियों तथा लेखकों के ग्रंथों से उद्धत किये गये हैं। ४-प्रायः सभी प्रमुख शब्दों की रचना-विधि और उनके विकास या रूपान्तर पर भी यथेष्ट प्रकाश डाला गया है। ५-समस्त शब्दों के तत्सम (शुद्ध संस्कृत मूल रूप) देशज और ग्रामीण रूप भी दे दिये गये हैं और इस प्रकार भाषा-विज्ञान की दृष्टि से शब्दों में रूपान्तर दिखा कर उनके यथेष्ट विकास के दिखाने का भी प्रयत्न किया गया है। -तत्सम शब्दों के प्राकृत और अपभ्रंश-सम्बन्धी रूप भी यथा स्थान दिखला दिये गये हैं। - ७-स्थान स्थान पर संस्कृत शब्दों के संस्कृत-प्रत्ययादि भी दिखलाये गये हैं। For Private and Personal Use Only Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ( 4 ) ८ - विशेष विशेष शब्दों से सम्बन्ध रखने वाले प्राचीन, अर्वाचीन तथा, ग्रामीण मुहावरे, प्रयोग, तथा विशेषार्थ-व्यंजक नये वाक्यांश भी दे दिये गये हैं । ह - फ़ारसी, अरबी, तथा अँग्रेजी आदि अन्य भाषाओं के सुप्रचलित शब्द तथा उनके देशज रूप भी यथा-स्थान समझाये गये हैं । १० – उच्चारान्तर तथा रूपान्तर के साथ मूल शब्दों पर प्रकाश डाला गया है ( यथा - जोग, योग, योग्य ) ११ - शब्दार्थ देने में काव्य-कला-कौतुक से निकलने वाले प्रर्थान्तर विशेष भी यथा स्थान सूचित किये गये हैं । १२ - पद-भंगतादि चातुर्य से प्रर्थान्तर करने की ओर भी यथा स्थान यथेष्ट संकेत किये गये हैं । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १३ – स्थान स्थान पर विशेष विशेष शब्दों से सम्बन्ध रखने वाली लोकोक्तियाँ भी दे दी गई हैं । १४ - काकु (उच्चारान्तर) व्यंजना, ध्वनि आदि के कारण शब्दों में होने वाले अर्थान्तरों या तात्पर्यान्तरों पर भी प्रकाश डाला गया है । इस प्रकार इस कोश को उपयोगी और उपादेय बनाने का यथेष्ट प्रयत्न किया गया है। फिर भी सम्भव है कि इसमें कतिपय त्रुटियाँ और अशुद्धियाँ रह गई हों, जिनका संशोधन और निराकरण अग्रिम संस्करण में हो सकेगा । इनके लिये, मुझे आशा है सहृदय पाठक तथा उदार विद्वान मुझे और इस गुरुतर कार्य को देखते हुये मुझे क्षमा करेंगे और उनके सम्बन्ध में अपनी कृपामयी सम्मति देकर अनुगृहीत करेंगे । अंत में मैं उन सभी कविवरों, सुयोग्य लेखकों, (ग्रंथकारों या कोशकारों) के प्रति अपनी कृतज्ञता प्रकाशित करता हूँ और अपने को उनका आभारी मानता हूँ, जिनके अमर ग्रंथ-रत्नों से मुझे अमूल्य सहायता मिली है । आशा है यह ग्रंथ जनसाधारण तथा विशेषतया विद्यार्थियों के लिये उपयुक्त और उपादेय हो सकेगा । तथास्तु हिन्दी - विभाग प्रयाग - विश्व - विद्यालय ता० ५-१२-३६ ग्रंथ को देखते हुए इसका मूल्य बहुत कम है, कारण यह है कि यह श्री० लाला जी को भेंट है, और सर्व साधारण में इसे व्यापक करना ही अभीष्ट है । श्री लाला जी की भी यही इच्छा थी । तथास्तु विद्वज्जन कृपाकांक्षी रामशङ्कर शुक्ल 'रसाल' एम० ए० संपादक For Private and Personal Use Only Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir संकेत-सूची अं०-अंग्रेजी वि०-विशेषण म.-अरबी ब्रज.-ब्रजभाषा अनु०-अनुकरणात्मक बंदे-बंदेली भाषा अप०-अपभ्रंश व्या०-व्याकरण अल्पा०-अल्पार्थक सं.-संस्कृत भव०-अवधी सं० क्रि०-संयुक्त क्रिया श्रव्य-अव्यय स० क्रि०-सकर्मक क्रिया 4. क्रि०-अकर्मक क्रिया सर्व.-सर्वनाम इब०-इबरानी सा० भू.-सामान्य भूत उप०-उपसर्ग स्त्रो०-स्त्री-लिंग ए.व.-एक वचन स्पे-स्पेनी भाषा क्रि० वि०-क्रिया विशेषण हिं.-हिन्दी क० -क्वचित (कम) प्रयोग * - केवल कविता में प्रयुक्त गुज०-गुजराती भाषा -प्रांतिक प्रयोग ग्रा०-ग्रामीण +--ग्राम्य प्रयोग। तु०-तुरकी भाषा दे०-देशज विशेष दे०-देखो ज्यो०-ज्योतिष पं.-पंजाबी भाषा गणि-गणित पा०-पाली भाषा वैद्य-वैद्यक पुं०-पुल्लिग न्या.-न्याय पू० का० क्रि०-पूर्व कालिक क्रिया सां० .. सांख्य पुर्त०-पुर्तगाली भाषा बी० ग-बीज गणित प्रा० हि-प्राचीन हिन्दी छं०-छंद-शास्त्र प्रत्य०-प्रत्यय भु०-भूगोल प्रा०-प्राकृत भाषा इति०-इतिहास प्रान्ती-प्रान्तीय रे० ग-रेखागणित प्रे० रूप-प्रेरणार्थक रूप पुरा०-पुराण फ०-फरासीसी भाषा नाट्य-नाट्यशास्त्र मा०-फारसी भाषा पिं०-पिंगल बैंग-बैंगला भाषा काव्य-काव्य-शास्त्र ब. २० - बहु वचन सा.- साहित्य मुहा०-मुहावरा ज्या० -- ज्यामिति यू०-यूनानी भाषा यो०-योग यौ०-यौगिक ह. यो-हठ योग लै०-लैटिन भाषा वैशे०-वैशेषिक इनके अतिरिक्त कवियों, काव्य-ग्रंथों तथा अन्य ग्रंथों के नामों के प्रादि वर्ण उद्धरणों के अंत में दिये गये हैं। For Private and Personal Use Only Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ओ३म् জ্বলজ ছাত্র জুঞ্জি अंक अ-संस्कृत और हिन्दी की वर्णमाला का अऊन*--( तद्-सं०-अपुत्र, प्रा०-अउत ) प्रथम अक्षर या स्वर है जिसका उच्चारण कंठ पुत्रहीन, निस्संतान, वारा, मूर्ख, निपूता, से होता है और जो कंठ्य वर्ण कहलाता है। स्त्री-अऊती। बिना इसके व्यंजनों का स्वतंत्र रूप से | अऊलना* --क्रि० प्र० (सं०-उल्-जलना ) उच्चारण नहीं हो सकता, क, च, त आदि जलना. गरम होना, प्रौटना, (कि० अ०) समस्त व्यंजन इस स्वर से युक्त बोले और | (सं०-प्रशूलन ) छिदना, छिलना । लिखे जाते हैं । ( अव्य० ) शब्द के पूर्व अएरना* -- क्रि० स० (सं०-अंगकरण, आकर यह विपरीत या निषेधादि का अर्थ | प्रा०-अंगिअरण, हिं०-अंगेरना) अंगीकार सूचित करता है, अकारण, अयोग्य । नगार्थ- करना, स्वीकार करना, धारण या ग्रहण या नकारार्थ में इसका रूप 'अन्' हो जाता | करना। है, तब यह स्वर से प्रारम्भ होने वाले अं-पानुस्वार, अ, स्वर इसका लघु रूप शब्दों के पूर्व जोड़ा जाता है-अनधिकार, है-। अनाचार, अनागत । ( उप० ) क्रियायों या अंक-संज्ञा पु. (सं० ) चिह्न, निशान, धातुओं के पूर्व आता है-अकथ. अथक, आँक, लेख, अक्षर, लिखावट, संख्या का अलख, अनदेखी अनजानत (“ छमहु चूक चिह्न-१, २, ३, आंकड़ा, अदद, अनजानत केरी ” तु०, “ ताकौ के सुनी (क्रि०-अंकन ) लिखना, भाग्य, काजल औ असुनी सी उत्तरेस तौलौं-अभिमन्युवध, का टीका जो बच्चों के माथे पर नज़र (सं.)--संज्ञा पु० - विष्णु, की तै, सरस्वती, से बचाने के लिये लगाया जाता हैं। (वि० ) शब्द, उत्पन्न करने वाला, अल्प, दिठौना, दाग़, धब्बा, नौ संख्या-सूचक निषेध, अभाव, अनुकम्पा, सादृश्य ( अब्रा- ( संख्या के अंक ६ ही हैं ) नाटक ह्मण ) भेद ( अपढ़ ) अप्राशस्त्य अकाल) का एक अंश या भाग, अध्याय, रूपक-भेद अल्पता (अनुदार), यह १ संख्यावाची भी ( नाटक के भेदों में से एक भेद ) गोद, है। विराट्, अग्नि, विश्व, ब्रह्मा, इंद्र, क्रोड़, शरीर, अंग, देह, वदन, पाप, ललाट, वायु, कुबेर, अमृत। दुःख, वार, दफा, स्थान, अपराध, समीप । अइ-(अव्य-सं० अयि) स्त्री० अरी, संबोध- मुहा०-अंक लेना, लगाना, देनानार्थ या विस्मय अर्थ में। गले लगाना, आलिंगन करना । अंकअउ*-( अव्य० ) और, तथा-सं०-अरु | भरना-हृदय से लगाना, लिपटाना । का प्रा. और अप० में सूचमरूप। अंक सूझना- तरकीब, साधन, “सूझ न अए-अव्य० पु०, सम्बोधनार्थ में,हे,अरे, रे। एको अंक उपाऊ । तुलसी०-- For Private and Personal Use Only Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अंककार अंकुर अंककार-संज्ञा, पु. (सं.) युद्ध या बाज़ी अंकरोरी-( अँकरौरी दे० ) प्रान्तीय०में हार-जीत का निश्चय करने वाला। __कंकड़ या खपड़े का छोटा टुकड़ा। अंकगणित-संज्ञा, पु० (सं०) संख्यायों का अंकाई-संज्ञा, स्त्री. (सं० अंक) आँक, कूत, हिसाब, एक विद्या, संख्यायों की मीमांसा । अटकल, अनुमान, फसल में किसान और अंकज-संज्ञा, पु० (सं०) अंक से उत्पन्न | जमींदार, का हिस्सा-बांट। होने वाला। अंकवार-संज्ञा, पु० (सं०-अंक ) अँकवार, अंकाना-क्रि० (सं० ) अँकाना, परखना, अकोर, काँख, कोख, गोद । जाँचना, मोल ठहराना, अंदाज़ा करना। मु०-अँकवार भरना--गले लगना, गोद अंकाला-संज्ञा, स्त्री० (सं० ) गोद । में बच्चा रहना-“अँकवार भरी रहै निस । अंकाप-संज्ञा पु० (दे०) अंकाव, निर्ख, तिहारी।" भाव, जांच, अन्दाज़। अंकधारण-संज्ञा, पु० (सं०, यौ०) (वि० अंकापतार-संज्ञा, पु. ( सं० )-नाटक अंकधारी) तप्त मुद्रा से चिन्ह कराना, में एक अंक के अन्त में श्रागामी अंक के दगाना, शंख-चक्रादि के चिन्ह गरम धातु अभिनय की पात्रों के द्वारा दी गई सूचना के द्वारा बनवाना। का आभास। अंकन-संज्ञा, पु० (सं.) (वि० अंकनीय अंकास्य- संज्ञा, पु. ( सं० ) नाटक या अंकित, अंक्य ) चिन्ह या निशान करना, रूपक का एक भेद । लिखना, गिनती करना, अंक का बहुवचन अंकित-वि० (सं०-अंक---इत-प्रत्य० ) (ब्रजभाषा या अवधी में)। चिन्हित, लिखा हुआ, खचित, वर्णित, अंकपलई - संज्ञा, स्त्री. (सं०-अंक पल्लव) | निशान किया हुआ। एक ऐसी विद्या जिसमें अंकों को अक्षरों के अंकुड़ा-संज्ञा, पु. ( सं०-अंकुर ) लोहे स्थान पर रख कर उनके समुदाय से वाक्य | का दा काँटा, गाय-भैंस के पेट का दर्द, के समान अर्थ निकाला जाता है। कुलाबा, पायजा, किवाड़ की चूल में लोहे अंकपाली-संज्ञा, स्त्री० (सं०) धाई, दाई । का गोल पच्चड़। अंकमाल - संज्ञा, पु. ( सं० ) प्रालि अँकुडी--संज्ञा, स्त्री० (दे०) हुक, कटिया, गन, परिरंभण, गले लगाना, भेटना-, | झुकी हुई छड़ । नदार-कटिया लगा हार, माला। अंकमालिका-संज्ञा, स्त्री. (सं० ) छोटा हुआ, गड़ारी, हुकदार। माला या हार, भेंट। अंकुर-- संज्ञा, पु. ( सं० )-अंकुवा अंकविद्या-संज्ञा, स्त्री. (सं० ) अंक (अप० दे०) गाभ, नवोद्भिद, डाभ, कल्ला, गणित। कनखा, कोपल, कली, आँख, अँगुसा अँकटा-संज्ञा, पु० ( दे० ) कंकड़ का छोटा ( प्रान्तीय) नोक, रुधिर, रोयाँ, पानी, टुकड़ा। मांस के लाल दाने जो धाव के भरते समय अंकड़ी-संज्ञा, स्त्री० [सं०-अंकुर, अंकुवा-दे०- उठते हैं, अंगूर, श्रांकुर ( ग्रा० ) वि०नोक ) कँटिया, हुक, तीर का टेढ़ा फल, अंकुरित-(सं०-अंकुर + इत प्रत्यय) फूटा बेल, लम्बी, लता, बाँस का डंडा। हुआ,निकला हुआ,कुरना (दे०)-क्रि० अंकरा-संज्ञा, पु. ( सं० ) एक प्रकार का श्र०-अंकुर फोड़ना, उगना, अंकुरित यौवना खर या घास जो गेहूँ के साथ उगती है। वि० (सं०) नव यौवना, उभड़ती हुई अकरा, अँकरी (स्त्री० )। युवती, यौवनावस्था के चिन्हों से युक्त स्त्री। For Private and Personal Use Only Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org अंकुश ३ अंकुश - संज्ञा, पु० (सं०) हाथी के हाँकने का छोटा भाला, प्रांकुस ( ग्रा० प०) प्रतिबंध, दबाव, रोक । मु० - अंकुस न मानना, न होना, ढीठ, अवज्ञाकारी, न डरना, बेअंकुस - निरंकुश । + धारीमहावत, हाथी चलाने वाला, हस्तिपक । -+ ग्रह - संज्ञा, पु० (सं०) फीलवान, निषाद, हथवान | मु० अंकुश रखना - दबाव रखना । कुशादन्ता -- वि० ( सं० अंकुशदंत या दंती ) वह हाथी जिसका एक दाँत सीधा और दूसरा नीचे को झुका हो । गुंडा, अंकुशदाता - रोकने वाला । अँकुसी - संज्ञा स्त्री० (सं० अंकुशी ) टेढ़ी कील, कटिया, हुक । अंकोट - संज्ञा पु० — देखो - अंकोल, एक पहाड़ी पेड़ । अँकोर - संज्ञा पु० (सं० अंकाल - अंकपालि ) अंक, गोद, अँकवार, भेंट, नज़र, घूस, रिशवत, कलेवा, खेतिहारों का प्रातः भोजन, छाक, कोर, दुपहरी - अँकोरे, (दे० ) 'लै बैठे फुसलाय अँकोरे " -- अँकोरना क्रि० प्र० - भेंटना, गरम करना, घूस लेना । 66 " श्रंकोट अंकोरी -- संज्ञा, खी० ( अंकोर + ई ) गोद, लिंगन | अंकोल - देखो पेड़ | अंक्य - वि० (सं० ) चिन्ह करने के योग्य, अंक लगाने के योग्य, दागने के योग्य, अपराधी, मृदंग, पखावज, तबला, आदि जो गोद में रखकर बजाये जाते हैं । खड़ी - संज्ञा स्त्री० (प्रान्तीय ) - श्राँख, 'मुँद गई जब अँखड़ियाँ तब सोज़ सब आनन्द हैं ।" अँखमीचनी (सं० श्रक्षिनिमीलन, (दे०) आंख मिहीचनी ) - संज्ञा, स्त्री०, आँख मिचौनी या मिचौली का खेल, "खेलन श्राँ मिहीचनी आजु गई हुती पाहिले द्यौस की नाई । मतिराम " 64 "" | एक पहाड़ी अंगजा मीनी साथ तिहारे न खेलि पद्माकर । अँखिया - संज्ञा, स्त्री० (हि० श्राँख) आँख, (बहु० अँखियाँ " अँखियाँ भरियाई " ) नक्काशी करने की क़लम, ठप्पा । अँप्रा - संज्ञा, पु० (सं० - अंकुर ) अंकुर, बीज से उगी हुई पौदे की नोक, कनखा, कल्ला, अँखुआना, ( क्रि० प्र० ) अंकुर छोड़ना उगना, जमना । अंग-संज्ञा, पु० (सं० ) शरीर, बदन, देह, तन, गात्र, जिस्म, श्रवयव, भाग, अंश, खंड, हिस्सा, टुकड़ा, भेद, भाँति, उपाय, पक्ष, तरफ़, अनुकूल पढ़ें, सहायक, तरफ़दार, मित्र, प्रकृति, प्रत्यययुक्त शब्द का प्रत्यय - रहित भाग, जन्मलग्न, कार्य करने का साधन, एक देश, भागलपुर ( बंगाल ) के चारों ओर के प्रदेश का प्राचीन नाम, जिसकी राजधानी चंपापुरी - चंपारन थी । एक सम्बोधन, प्रिय, प्रियवर, छः की संख्या, पार्श्व, बग़ल, नाटक का अप्रधान रस, तथा नायक का कार्य साधक । सेना के ४ भाग- हाथी, घोड़े, रथ, पैदल, योग के ८ विधान ( — योग शास्त्र - - अष्टांग योग), राजनीति के ७ अंग- स्वामी, अमात्य, सुहृद, कोप, राष्ट्र, दुर्ग, सेना । शास्त्र विशेष, वेद के छः अंग -- शिक्षा, कल्प, न्याय, ज्योतिष, मीमांसा, व्याकरण या निरुक्त, राजा बलि का क्षेत्रज पुत्र, इसी से इसके देश को भी, जो गंगा और सरयू के सङ्गम में है— अंग कहते हैं । अंगज -- संज्ञा, पु० (सं० ) ( स्त्री० - अंगजा ) शरीर से उत्पन्न -- पुत्र, लड़का, बेटा, पसीना, बाल, रोम, काम क्रोधादि विकार, साहित्य में कायिक अनुभव, कामदेव, मद, रोग । अंगजा -- संज्ञा, स्त्री० (सं० ) पुत्री, अंगजाई, (दे०) संज्ञा, स्त्री०, अंगजन्मा । + राज -- कर्ण । + ग्रह - संज्ञा, पु० (सं० ) बात रोग । " Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private and Personal Use Only Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अंगड-खंगड अंगराग - मुहा०-अंगछूना, शपथ खाना, अंग- अंगभंगी। वि० -- टूटे अंगवाला, अपाहज, टूटना, अँगड़ाई आना, अँग तोड़ना- लँगड़ा, लूला, लुंजा। जंभाई लेना, अंग लगना, लगाना- अंगभंगी-संज्ञा, स्त्री. (सं० ) स्त्रियों के आलिंगन करना, कराना, ( भोजन का) वशीभूत या मोहित करने की शारीरिक शरीर का पुष्ट होना, काम में आना, हिल क्रिया या चेष्टा । जाना, अंगी करना, स्वीकार करना ।-वि० | अंगभाव-संज्ञा, पु. ( सं० ) सङ्गीत या अप्रधान, गौण, उलटा। नृत्य में नेत्र, भृकुटी, हाथ, पैर आदि अंगों अंगड-खंगड-- वि० ( अनु०) बचा-खुचा, से मनोविकारों का प्रकाशन । गिरा-पड़ा, टूटा-फूटा सामान। | अंगभून--वि० (सं० ) अङ्ग से उत्पन्न, अंगड़ाई-संज्ञा, स्त्री० (हिं०, कि० अँगड़ाना) अन्तर्गत, भीतरी, अन्तर्भत --- संज्ञा पु० देह टूटना, पालस्य से जंभाई श्राना। पुन । अंगभू-संज्ञा, पु० (सं० --बेटा। मु०-अँगड़ाई तोड़ना-पालस्य में अंगमर्द -- संज्ञा, पु० (सं० ) हड्डियों का रहना, काम न करना । फटना, दर्द होना, हड़ फूटन, हाथ-पैर दबाने अँगड़ाना -+कि० अ० ( सं० अँग अटन) | वाला नौकर, सेवक । सुस्ती से अंग ऐंठना, देह तोड़ना। अंगरक्षा -- यौ० संज्ञा स्त्री० (सं० -- अंग अंगण-संज्ञा, पु० (सं०) आँगन, सहन । -- शरीर + रक्षा-बचाव) यौगिक शब्द हो अंगत्राण - संज्ञा० यौ० पु. (सं० अंग+' कर एक प्रकार के वस्त्र विशेष के अर्थ में त्राण) शरीर-रक्षक, अँगरखा, कुरता, कवच । रूदि हो गया है । शरीर की रक्षा, देह का अंगद -संज्ञा, पु० (सं०) बाहु का गहना, बचाव, एक प्रकार का सिला हुआ देह पर विजायट, बाजूबन्द बालि वानर का पुत्र, पहिनने का वस्त्र या कपड़ा, अँगरखा (दे०) लक्ष्मण का एक कुमार । अँगरवा-( तद् यौ० दे० ) संज्ञा, पु०अंगदान--संज्ञा, पु० (सं० ) पीठ दिखाना, (सं०-अंग-देह - रक्षक ---बचाने वाला)युद्ध से पीछे भगना, तनुदान, सुरति, अंगा, चपकन, अचकन, एक प्रकार का वस्त्र रति ( स्त्री के हेतु )। जिसमें बाँधने के लिए बंद लगे रहते हैं।। अंगना -- संज्ञा, स्त्री० (सं०) सुन्दर देह | अँगरा-संज्ञा, पु० (तद्०, ग्रा.)---[सं.-. वाली, कामिनी, सार्वभौम नामक उत्तर अंगार ]--दहकता हुया कोयला, बैलों के दिग्वी हाथी की हथिनी। ती पैर का एक रोग। अँगना ( दे० ) संज्ञा० पु०-आँगन । अंगराग-संज्ञा, पु. ( सं० ---- अंग = अँगनाई-संज्ञा, स्त्री०, (दे० ) अँग नैया देह + राग-प्रेम, रंग--शरीर के लिए प्रेम(संज्ञा स्त्री०) पूर्ण व्यापार रंगना ) रूढ़ि शब्द होकरअंगन्यास-संज्ञा, पु. (सं० ) मंत्र पढ़ते चन्दन, केसर, कस्तूरी, कपूर आदि का हुए किसी अंग का स्पर्श करना ( तंत्रशास्त्र) शरीर पर सुगन्धित लेप, उबटन, बटना, अंगपाल-( पु० अंगपालक ) संज्ञा- २-वस्त्राभूषण, ४-शरीर-शोभा के लिए यौ० (सं०) शरीर-रक्षक, अंग-रक्षक, अंग देश महावर श्रादि जैसे पदार्थों की रँगने वाली का राजा। सामग्री, ५-स्त्रियों की पंचांग-सजावट की अंग-भंग-संज्ञा, यौ० पु० (सं०) अवयव का वस्तुयें ----माँग के लिए सिंदूर, मस्तक के टूटना, नाश होना, शरीर के किसी अंग की लिए रोली, कपोल-तिल की रचना के लिये हानि-स्त्रियों के मोहित करने की चेष्टा- कस्तूरी श्रादि काले रंग की वस्तु; केसर For Private and Personal Use Only Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org अँगराना t आदि सुगन्धित पदार्थों का लेप, हाथ-पैर में लगाने के लिए मेंहदी और महावर, लाक्षारस, ६ – एक प्रकार का सुगन्धित चूर्ण जो देह पर लगाया जाता अँगराना* – प्र० क्रि० (दे०) अँगड़ाना, देह मरोड़ना, संज्ञा - स्त्री० - अँगराई, राइबो । अँगरी -संज्ञा, स्त्री० ( , झिलम, बख़्तर, (सं० - अंगुलीय ) अँगुलित्राण, अँगूठी । अँगरेज़ - संज्ञा, पु० (पुर्त० – इङ्गलेज़ ) [वि० अँगरेज़ी ] इंगलैण्ड - देश का निवासी, चांगल देश-वासी । सं० - अंग रक्षा ) कवच, अँगरेज़ी - वि० अंगरेज़ों का, उनके देश का, विलायती, अँगरेज़ों की भाषा या बोली । अँगलेट - संज्ञा, पु० (सं०-अंग ) शरीर का गठन, ढाँचा, काठी, देह की उठान । अँगवना - क्रि० स० ( सं०-अंग ) अंगीकार करना, स्वीकारता, श्रोदना, सिर पर लेना, सहना, झेलना, उठाना । मँगवारा - संज्ञा पु० ( सं० अंग - भाग, साहाय्य !- कार ) ग्राम के एक लघु भाग का मालिक, खेत की जुताई में एक दूसरे की मदद करना । अंगविकृति--संज्ञा स्त्री० (सं० ) अपस्मार, मृगी या मिरगी रोग, मूर्छा, पक्षाघात, चंगों का टेढ़ा-मेढ़ा होना । अंगविक्षेप - संज्ञा पु० ( सं०, यौ० ) -- श्रंगों का मटकाना, चमकाना, नृत्य, नर्तन में कलाबाजी । श्रंगविद्या - संज्ञा स्त्री० (सं०. यौ० द्रिक शास्त्र । अंगशेष -- संज्ञा पु० (सं०, यौ० ) दुर्बलता या कृशता का रोग, सूखा रोग, यह प्रायः बच्चों को होता है । O सामु अंगसिहरी यौ० संज्ञा स्त्री० (सं० - अंग - देह + हर्ष -- कंप) ज्वर से पूर्व शरीर- कंप, कँपकँपी । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अंगारपुष्प अंगहार - यौ०, संज्ञा पु० (सं० ) अंगविक्षेप, नृत्य, नाच | अंगहीन - संज्ञा यौ० पु० (स० ) अंग-रहित, कामदेव | अंगा - संज्ञा पु० (सं० ) अँगरखा, चपकन, कोट के बराबर का बन्ददार वस्त्र । गाकरी - संज्ञा स्त्री० ( सं० - अंगार + हि० करी ) अंगारों पर सेंकी गई मोटी रोटी, बाटी, अंकरी - (दे० ) संज्ञा स्त्री० ( सं० श्रङ्गारिका ) मधुकरी । अंगार - संज्ञा पु० ( सं० ) दहकता या जलता हुआ कोयला, निर्धूम या धुवाँरहित ग्राग, चिनगारी | मु० - अंगार उगलना - कड़ी कड़ी, जलाने वाली बात कहना. अंगारों पर पैर रखना -- जान बूझ कर हानिकारक काम करना, खतरे में डालना, ज़मीन पर पैर न रखना, गर्व या अति करना, अंगारों पर लोटना - रोष या क्रोध करना, यागबबूला होना, दाह, ईर्षा, डाह से जलना, लाल अंगारा होना - क्रुद्ध होना, बहुत लाल । ( तद्० दे० -- अँगार, अँगराअँगारे बरसत है " ) अंगारा - संज्ञा, पु० ( उ० ) जलता कोयला । संज्ञा स्त्री० (अंगारी) ( अँगारी ) - अंगारघानिका - For Private and Personal Use Only संज्ञा 1 स्त्री० (सं० ) अँगीठी, गोरसी । अंगारक - संज्ञा पु० (सं० ) अंगारा, मंगल ग्रह, भृङ्गराज, भँगरैया, भँगरा, कटसरैया । अंगाङ्गी ( भाव ) - संज्ञा यौ० पु० (सं० ) Marai का पारस्परिक सम्बन्ध, अंश का पूर्ण के साथ सम्बन्ध, संकर अलंकार का एक भेद । अंगार - पाचित - संज्ञा यौ० पु० ( सं० ) अंगारों पर पकाया हुआ खाने का पदार्थ, नानखटाई, कबाब यादि । अंगारपुष्प - संज्ञा पु० ( सं० - श्रंगार - अंगारे + पुष्प - फूल ) अंगारे के समान लाल फूल, इंगुदी या हिंगोट का वृक्ष । Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अंगार-मणि अँगुसी अंगार-मणि-संज्ञा पु० (सं० ) लालमणि, अँगुरी-संज्ञा, स्त्री० (दे०) या प्रांगुरीमूंगा। उँगली, अँगुली “अँगुरी छैल छुवाय ।" अंगार-पल्ली-संज्ञा स्त्री. (सं० ) गुंजा, - बिहारी, "अन्तर अँगुरी चार को, साँचधुंघची, चिरमिटी। झूठ में होय ।" अंगुरीन-(बहुवचन. अंगारा-संज्ञा पु. ( उ० ) देखो-अंगार। ब्रजभाषा)। अंगारिणी-संज्ञा स्त्री. (सं० ) अँगीठी अंगुल--संज्ञा, पु. (सं० ) पाठ जव की आतिशदान, सूर्यास्त की अरुणिमा-पूर्ण इतनी लम्बाई, ग्रास या बारहवाँ भाग ।दिशा। आँगुर-(दे० ) एक गिरह का तीसरा अंगारी-संज्ञा. स्त्री० (सं०) चिनगारी, बाटी भाग। अंगाकड़ी, ( सं० अंगारिका ) ईख के सिरे अँगलित्रा-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) गोह के की पत्ती, गँडेरी, या गन्ने के टुकड़े। चमड़े का दस्ताना, जिसे बाण चलाते समय अंगिका - संज्ञा, स्त्री० (सं०) अँगिया, चोली, पहिनते थे। कंचकी, कुरती जो स्त्रियाँ पहिनती हैं। अंगतिपर्व-संज्ञा, पु० यौ० ( सं० ) अँगुअँगिया-संज्ञा, स्त्री० ( तद्० दे० ) चोली, लियों की पोर, उँगली की गाँठों के बीच कंचुकी। का हिस्सा। अंगिरस--संज्ञा. पु. (सं०) दस प्रजापतियों अँगुली-संज्ञा. स्त्री० (सं० ) उँगली, हाथी में से एक प्राचीन ऋषि, वृहस्पति, साठ __ की सूंड का अग्रिम भाग । मु०-अँगुली संवत्सरों में से छठवाँ, कटीला गोंद का उठाना-दोष निकालना, लांछित करना। वृत्त, कतीरा । अंगिरा-संज्ञा, पु० (सं० । अंगुलीय-संज्ञा. स्त्री० (सं० ) अँगूठीअंगिरस ) तारा, ब्रह्मा के मानस पुत्र, जो | अंगुलीयक-- मुद्रिका, मुंदरी।। धर्मशास्त्र प्रवर्तक ऋषियों में से हैं-'अंगिरा अंगुल्यादेश- संज्ञा. पु० यौ० (सं.) उँगली संहिता' इनका ग्रंथ है, ज्योतिष के प्राचार्य । से अपना भाव प्रगट करना, इशारा, संकेत । थे, देवगुरु वृहस्पति इनके पुत्र हैं। अंगुल्यानिर्देश-संज्ञा, पु. यौ० (सं०-- अंगी-संज्ञा, पु. ( सं० ) शरीर वाला, देह- अंगुली--प्रानिर्देश ) लांछन, कलंक, बदधारी, अवयवी, उपकार्य, समष्टि, अंशी, नामी । मुख्य, चौदह विद्यायें, नाटक का प्रधान अंगुश्तनुमाई- संज्ञा, स्त्री. (फा०, उ० ) नायक, या मुख्य रस, मुखिया। दोषारोपण, कलंक, बदनामी [अंगुश्त---- अंगीकार-संज्ञा, पु०(सं०) स्वीकार, ग्रहण, अँगुली-संज्ञा, अँगुली, अंगुष्ठ सं०]। मंजूर, अंगेजना, सम्मति, मानना, प्रतिज्ञा। अंगुश्तरी--संज्ञा, स्त्री० ( फा०, उ०) अँगूठी अंगीकृत-संज्ञा, पु० (सं०) स्वीकृत, मंजूर, मुद्रिका, मुंदरी। ग्रहण किया हुआ, अपनाया हुआ। अंगुश्नाना-- संज्ञा, पु. ( फा०. उ० ) सीने अँगीठा-संज्ञा, पु० (सं० ---अग्नि-~आग+ के समय दर्जियों के उँगली में पहिनने की स्था-ठहरना ) बड़ी अँगीठी, अग्नि-पात्र । लोहे या पीतल की टोपी, पारसी, अँगूठे अँगीठी-संज्ञा, स्त्री. (सं० ) अँगीठा का | पर पहिनने की अँगूठी । अल्प वा०, गोरसी। | अंगुष्ठ- संज्ञा, पु० (सं० ) अँगूठा, हाथ या अंगुर*-संज्ञा, पु. ( दे० या प्रान्तीय )। पैर की मोटी अँगुली। अंगुल, श्राँगुर (दे० )--" बलि पै जाँचत अँगुसी-संज्ञा, स्त्री० (सं०---अंकुश), अँकुसी ही भये, बावन आँगुर गात ।"-रहीम। (दे. तद्) हल का फाल, सोनारों की For Private and Personal Use Only Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - अँगूठा अचक बकनाल या टेढ़ीनली, जिससे दीपक की ईर-जाना ) मंजूर करना, स्वीकृत करना, लौ को फूंक कर छोटे और बारीक टाँके सहना, बरदाश्त करना । जोड़े जाते हैं। अंगोट- संज्ञा, स्त्री० (सं०---अंगेट) डील-डौल, अँगूठा-संज्ञा, पु० (सं० ---अंगुष्ठ ) अउँठा आकार, प्राकृति। ( तद्० दे०) [प्रा० अंगुठ ] हाथ या पैर अँगोछना-कि० अ० (सं०-अंग-देह+ की प्रथम छोटी और मोटी अँगुली। प्रोक्षण-पोंछना ) गीले वस्त्र से शरीर का मु०-अंगूठा चूमना-खुशामद करना, पोछना। सेवा-सुश्रूषा करना, श्राधीन रहना, अगूठा अंगोछा -- संज्ञा, पु. (सं-अंग+प्रोक्षक ) दिखाना-अवज्ञा के साथ किसी बात के शरीर पोंछने का वस्त्र, तौलिया, गमछा, उपलिये इन्कार करना, कुछ देने में नहीं करना, रना, उत्तरीय, उपवस्त्र ।। कुछ करने से मुंह मोड़ना, अस्वीकार अंगाछी--संज्ञा, स्त्री० (हि०-अँगेछा ) देह करना, अंगूठे पर मारना-परवाह न पोंछने का छोटा वस्त्र, जिसे नहाते समय करना, तुच्छ मानना। - कमर पर लपेट भी लेते हैं। अँगूठी--- संज्ञा, स्त्री० (हि० -अँगूठा :-ई)| अंगाजना* - सं० कि० ( दे०, प्रा० ) मुंदरी, मुद्रिका, छल्ला, जुलाहों का अँगुली अँगेजना। में लिंपटाया हुआ तागा। अगोरा-संज्ञा, पु० (दे०) मच्छर, मसा, अंगूर-संज्ञा, पु० (फा०, उ०) एक प्रकार का डाँस, मशक । छोटा नरम फल, जो रसीला और मीठा अँगोगा-- संज्ञा पु० (सं०---अग्र---अगला+ होता है, इसी से किशमिश, दाख, या अंग--भाग ) धर्मार्थ बाँटने या देवता पर मुनक्का, सुखाकर बनाया जाता है, इसकी। चढ़ाने के लिये प्रथम निकाला हुश्रा अन्न या लता होती है। भोजन का पदार्थ, अँगाऊ, पुजौरा, अग्रामु०--अँगूर का मंडवा, या टट्टी-बाँस । शन, अगरासन (दे०)। की खपाचों का बना हुया मंडप जिस पर | अंगोरिया-संज्ञा, पु. ( सं० - अंग-भाग) अंगूर की बेलें चढ़ती हैं, एक तरह की हल-बैल उधार दिया हुश्रा हलवाहा । आतिशबाजी । संज्ञा, पु. (सं० अंकुर) घाव अँघड़ा-संज्ञा, पु० (सं०---अंनि) छोटी जाति का पुरते समय छोटे लाल दाने, मु०-अंगूर की स्त्रियों के पैर के अंगूठे पर पहिनने का तड़कना या फटना-घाव भरते समय ऊपर की मांस की झिल्ली का चटक जाना । अंघस-संज्ञा, पु० (सं०) पातक, पाप, अघ । अंगूरी-संज्ञा, अँगूर की शराब वि. अँगर अंधिया-संज्ञा, स्त्री० (प्रा० ) पाटा या का सा रंग, हलका हरा रंग । मैदा चालने की चलनी, अँगिया, पाखा । अंगूर शेफा- संज्ञा, पु० ( फा०, उ० ) एक | अंधि- संज्ञा. पु० (सं० ) पैर, चरण, ऐंड़ी, प्रकार की हिमालय पर मिलने वाली वृक्षों की जड़, चौथा भाग, अंघ्रिप-संज्ञा, पु०-(सं० ) वृक्ष । अंगेजना*-क्रि० सं० (सं-अंग-देह अच-संज्ञा. पु० (सं० ) स्वर वर्ण, संज्ञा एज-हिलाना ) सहना, उठाना, झेलना, विशेष, क्रि०--छिपाकर करना। स्वीकार करना-'नाहिं अँगेज्यो'--'रनाकर' प्रचक-संज्ञा, स्त्री० ( तद्०, दे०) अचानक, अंगेठी-संज्ञा, स्त्री० दे० अँगीठी (प्रा० ) अचानचक, हठात् , अकस्मात्, बिना जाने. अंगेरना*-सं० क्रि० (सं०-अंग-शरोर - बूझे। । छल्ला । औषधि । For Private and Personal Use Only Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अचका अंजरअवका-वि० (दे० ) अपरिचित, अन- | अंजनशलाका- संज्ञा स्त्री० (सं० ) सुस्म जाना। लगाने की सलाई, सुरमचू । अचकरी-संज्ञा, स्त्री. (सं० ) लम्पटता, अंजनसार-वि० ( सं० अंजन--सारण अनुचित कार्य, अत्याचार, धींगाधींगी। सुरमा लगा हुआ, अंजनयुक्त, अंजन का अँचरा-संज्ञा, पु० (दे० ) अंचल, आँचल, सार भाग। साड़ी का आगे वाला छोर ।। अंजनहारी- संज्ञा स्त्री. ( सं०-अंजन+ अंचल-संज्ञा, पु० (सं०) साड़ी का छोर | कार ) आँख के पलक पर होने वाली फुस जो सामने रहता है, पल्ला, - आँचल या या फुड़िया, बिलनी, गुहाजनी, एक प्रकार आँचर, सीमा के समीपवर्ती भाग, किनारा, का पतिंगा या कीड़ा, इसे कुम्हारी य तट। बिलनी कहते हैं इसके विल की मिट्ट मु०-अंचल बाँधना-संकल्प करना, लगाने से बिलनी अच्छी हो जाती है अंचल पकड़ना-सहायता या सहारा देना। भृङ्ग, अंजन को नाश करने या चुरा वाली। अँचला-संज्ञा पु० (सं०-अंचला ) [दे०आँचल ] साधुओं का एक वस्त्र, जिसे वे अंजना-संज्ञा स्त्री० (सं० ) केशरी नामक बानर की स्त्री तथा हनुमान जी की माता, शरीर पर डाले रहते हैं। अंचित--वि० (सं० ) पूजित, आराधित । बिलनी, गुहाजनी, दो रंग की एक छिपअंचर-संज्ञा पु० (सं-अक्षर ) [अच्छर, कली। संज्ञा पु. एक प्रकार का मोटा पाखर-दे०] मुंह में काँटे से उभर आने धान । अंजनानन्दन--संज्ञा पु० (सं.) का रोग, अक्षर, टोना, जादू ।। हनुमान जी, अंजना के पुत्र । मु०-अंछर मारना-जादू करना, मंत्र आँजना*-क्रि० स० (दे० ) अंजन लगाना। चलाना, टोना मारना।। अंज-संज्ञा पु० देखो कंज । अंजनी- संज्ञा स्त्री० (सं० ) हनुमान जी की अंजन-संज्ञा पु० (सं० ) सुरमा, काजल, माता, माया चंदनचर्चित स्त्री, कुटकी या रात, स्याही, रोशनाई, पश्चिम दिशा के एक प्रकार की औषधि, आँख के पलक की हाथी का नाम, एक दिग्गज, छिपकली, एक फुसी, बिलनी। प्रकार का बगला, नटी, एक प्रकार का वृक्ष, अंजघार - संज्ञा पु० (फा०) सरदी और एक पर्वत, कद् से उत्पन्न होने वाले एक सर्प | कफ में दिये जाने के योग्य एक विशेष का नाम, लेप, माया, काला या सुरमई रंग। प्रकार के पौधे की जड़ ।। ( हिं० दे० ) रेलगाड़ी के आगे का इंजन । अंजर-पंजर-संज्ञा पु० (सं०-पंजर-ठठरी) सिद्धांजन-संज्ञा पु० (सं० ) वह काजल शरीर की हड्डियों का ढाँचा, पसली, ठठरी, जिसके लगाने से पृथ्वी में गड़ा हुआ धन जोड़। दिखलाई देने लगे। मु०--अजर-पंजर ढीला होना-देह के अंजनकेश-संज्ञा पु० ( सं०) दीपक, दिया, जोड़ों का उखड़ना, देह के बन्दों का टूट काजल ही हैं केश जिसके, अंजन के से कर हिल जाना, शिथिल या लस्त हो जाना। श्याम केश। अंजर-पंजर निकल पड़े- ठठरी या अंजनकेशी-संज्ञा स्त्री० (सं० ) नख नाम ! भीतरी चीजें निकल आई । क्रि० वि० का एक सुगन्धित पदार्थ, अंजन के से श्याम अगल-बगल, पार्श्व में। अंजरी-पंजरी केश वाली। (दे०) प्रांजर-पांजर ( दे.) For Private and Personal Use Only Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir গজল अंटाचित अंजल-संज्ञा पु० (सं०-अंजलि ) अंजला, अंजीर-संज्ञा पु. ( फा० उ०) गूलर के अंजली-संज्ञा पु०, देखो-अन्नजल । से फल वाला एक वृक्ष । अंजलि-संज्ञा स्त्री. (सं० ) अंजली-दोनों अँजुरी -( अँजुली)-संज्ञा स्त्री० (दे०, हथेलियों को मिलाकर संपुट करना, हथेलियों प्रा० ) अंजलि-आजुरी (दे० ब०)। से बना हुआ गड्ढा, अँजुली में आने वाला | अँजोरना-स० क्रि० (हि. अँजुरी ) बटोपरिमाण, प्रस्थ, कुडव, सोलह तोले के | रना, हरण करना, छीन लेना, क्रि० स० बराबर की एक नाप, दो पसर, हथेलियों से | (सं० -- उज्वलन ) जलाना, प्रकाशित करना, निकाला हुआ दान या दान का अन्न ।। बालना -दीपक अँजोरना। अँजुरी, आँजुरी (दे० ब्र०)। अंजोरा - वि० (दे० ) उजाला स्त्री०अंजालगत-वि० ( सं०, यौ०---अंजलि-+- अँजोरिया-चंद्रिका, चाँदनी उजेरियागत-गया हुआ ) अंजलि में आया हुआ, उजाला । अँजोरा पाख-शुक्ल पक्ष, अँजोरिया प्राप्त, हाथ में जो भा गया हो, जो हथेली या उजेरिया उइ; चढ़ि, निकरि, छिटिक में हो,-करगत । आई। " अंजलिगत सुभ सुमन ज्यौं, सम सुगंधि | अँजोरी*$-- संज्ञा स्त्री० ( हि• अँजोर+ई ) कर दोय । तु. " प्रकाश, उजाला, चाँदनी, चमक, वि० स्त्री० अंजलिपुट- संज्ञा पु० (सं० ) यौ० उजाली, प्रकाशमयी। अंजलि+पुट-अंजलि। अंझा-- संज्ञा पु० (सं० अनध्याय, प्रा० अनन्झा ) नागा, छुट्टी, ख़ाली, तातील, अंजलिवद्ध-(वद्धांजलि) वि० यौ० (सं०अंजलि+वद्ध-बाँधे हुये), हाथ जोड़े हुए, सूनाप्रणाम करते हुए, विनीत । मु०-- अंझा होना-सूना या नागा होना, अंझा पड़ना-खाली जाना। अंजवाना-स० क्रि०, (दे०) सुरमाया अँटना-क्रि० अ. (सं० अट्-चलना) हुअा, अंजन लगवाना। समा जाना, पूरा पड़ना, किसी वस्तु के "अंजन अँजाये मधुराधर अमी के हैं भीतर आना, सटीक बैठ जाना, ठीक ठीक पद्माकर" चिपकना, पर्याप्त या कानी होना, खपना, अंजहा*-- वि० (हि०, अनाज+हा )प्रा० काम चलना, भर जाना। अनाज का, अन्न के मैल से बनाया हुश्रा, अंटा- संज्ञा पु० (सं०-अंड ) बड़ी गोली, स्त्री-अंजही-(हि० अंजहा ) अन्न का गोला, सूत या रेशम का बड़ा पिंडा, बड़ी बाजार, अनाज की मंडी। कौड़ी, विलियर्ड का अंग्रेजी खेल, जो हाथी जाना*--स० कि. ( हि०, अंजन ) अँज- डॉ की गोलियों से खेला जाता है । अटारी, वाना। अट्टालिका। अंजाम- संज्ञा पु० (फा०, उ० ) अंत, अंटा गडगुड-वि० (हि०-अंटा+गुड़गुड़) परिणाम, फल, समाप्ति, पूर्ति, नशे में चूर, बेहोश, बेसुध, अचेत, बेखबर । मु०-अंजाम देना- पूरा करना, अंजाम- म०---अंटागुडगुड होना-बेख़बर सो निकलना-फल निकलना-बेअंजाम जाना। निष्फल-बाअंजाम-सफल,परिणामयुक्त। अंटाघर- संज्ञा पु० यौ० ( अंटा+घर ) प्रजित-वि० (सं० ) अंजन लगाये हुए, | गोली खेलने का घर, अटारी का घर । आँजे हुये, अंजनसार। | अंटाचित-अंटाचित्त-क्रि० वि० (हि.मा. श. को०-२ For Private and Personal Use Only Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अंटाचित करना अंडा अंटा+चित ) पीठ के बल गिरना, सीधे लपेटने की लकड़ी, विरोध, बिगाड़, लड़ाई, पड़ना, औंधे का विपरीत। कान की छोटी बाली, मुरकी । मु०-अंटाचित होना-सीधे गिर पड़ना, | अँटौतल-संज्ञा, पु. (हि. अँटना) तेली स्तंभित, अवाक या सन्न होना, बेकाम, या के बैल की आँख का ढक्कन । बरबाद होना, नशे से बेसुध, अचेत, अँठई-संज्ञा, स्त्री० (सं० अष्टपदी) किलनी, बेख़बर, चूर होना। पाठ पैर वाला, एक छोटा कीड़ा। अंटाचित करना--पछाड़ देना । अंठी-अाँठी-(दे०) संज्ञा स्त्री० (सं० अष्टि अंटाबंधू-संज्ञा, पु० (हि० --अंटक-+-सं०- -गुठली, गोठ) चियां, गुठली, बीज, गिरह, बंधक ) जुए की कौड़ी। गिलटी, कड़ापन, दही का थक्का ।। अँटिया-संज्ञा, स्त्री० (हि० अंटी ) घास या अंड-संज्ञा, पु० (सं० ) अंडा, अंडकोश, पतली लकड़ियों का बँधा हुआ छोटा गट्टा, फोता, ब्रह्मांड, कस्तूरी, लोक-मंडल, विश्व, पूला, मुर्रा, टेंट-कमर पर बंधी हुई धोती | वीर्य, शुक्र, बीज, रेंड या एरंड, कस्तूरी का के किनारे की तह । नाना, मृगनाभि, पंच प्रावरण,-दे. अँटियाना-स० कि. (हि. अंटी) अँगु- कोश, कामदेव, पिंड, शरीर, मकानों की लियों के बीच में छिपाना. चारों उँगलियों छाजन पर रखे हुए कलश । में लपेट कर तागे की पिंडी बनाना, घास अंडज-संज्ञा, पु. ( सं० अंड+ज-पैदा या पतली लकड़ियों का गठ्ठा बाँधना, होना) अंडे से पैदा होने वाले जीव, जैसे ग़ायब करना, हजम करना, टेंट या मुरी में | पक्षी, सर्प आदि। रखना। अंडकटाह-संज्ञा, पु. (सं० यौ० अंड+ अंटी-संज्ञा, स्त्री. (सं० अष्ठि, प्रा० अहि, कटाह) ब्रह्मांड, विश्व ।। गांठ) उंगलियों के बीच की जगह, धाई, | अंडकोश-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) वृषण, गाँठ, धोती की कमर के ऊपर लपेट, शरारत, अंड, फोता, बैजा, ब्रह्मांड, विश्व-मंडल, बदमाशी। लोक, सीमा, हद, फल का ऊपरी छिलका । म०-अंटी में रखना-टेंट या मुर्रा में अंड-बंड- संज्ञा, स्त्री० (अनु०) असम्बद्ध, उटखोसना। पटांग प्रलाप, अनापशनाप, व्यर्थ की बात, अंटी करना- शरारत करना, धोखा देकर | बे सिर-पैर का बकना, इधर-उधर का, किसी की कोई वस्तु ले लेना, आँख बचा अटांय-सटांय, अस्तव्यस्त, अगड़-बगड़, कर चुपके से किसी का माल उड़ा देना। __ अंट-संट, बकबक। अंटी मारना---जुए में उँगलियों के बीच अँडरना- क्रि० अ० (सं० अंतरण ) बाल में कौड़ी का रख लेना, या छिपाना, कम निकलते समय धान के पौधे की दशा, तौलना, डांडी मारना, तराजू की डांडी में गर्भना, रेंडना। हेर-फेर करना। अंडवृद्धि- संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं० अंड+ तर्जनी या अँगूठे के पास की उँगली के ऊपर वृद्धि ) अंडकोश के बदने या सूजने का रोग। मध्यमा या बीच की उँगली चढ़ाकर बनाई। अंडस- संज्ञा, स्त्री० (दे०) कठिनता, बाधा, गई एक मुद्रा, (जब कोई लड़का कोई संकट, असुविधा। अपवित्र वस्तु छू लेता है तब और लड़के भंडा-संज्ञा, पु० (सं० अंड ) अंड-पत्ती, छूत से बचने के लिये ऐसी मुद्रा बनाते सर्प आदि के उत्पन्न होने की एक सफेद हैं) सूत या रेशम की पिंडी, अंटरेन, मूस, गोल घस्तु । शरीर, देह, पिंड। For Private and Personal Use Only Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir memadras e same अंडा सरकना अंतड़ी मु०-अंडा ढीला होना-नस ढीली नीच" परिणाम, फल, अंतकाल ( उ० होना, थकावट या शिथिलता पाना, द्रव्य- इंतकाल ) मरण, मृत्यु, अन्त समय, हीन होना, दिवालिया होना। नतीजा, समीप, निकट, बाहर, दूर, प्रलय, अंडा सरकना--हाथ-पैर हिलना, अंग- अन्त पाना-पार पाना, अंत जाननाकंपन, उठना, चेष्टा या प्रयत्न होना, अंडा फल जानना, अंत जाना, दूसरे स्थान सरकाना-हाथ-पैर हिलना (प्रेरणार्थक) जाना । (दे० अन्तै-दूसरी जगह) *ग्रंता उठाना, अंडा सेना-पक्षियों का गर्मी *अन्त्, *अन्ते (अवधी) संज्ञा, पु० (सं० पहुँचाने के लिये अपने अंडों पर बैठा रहना, अंतस ) अंतःकरण, हृदय, जी, मन, जैसे घर में बैठा रहना, बाहर न निकलना, अंडा अन्त या अन्तर की बात जानना, भेद, रहस्य, फूट जाना—भेद खुलना। गुप्त बात, मन का भाव । संज्ञा, पु० (सं० अंडाकार-वि• यौ० (सं० अंड + श्राकार ) अंत्र ) श्राँत, अँतड़ी। क्रि० वि० अंत में, अंडे की शक्ल, लम्बाई के साथ गोल।। निदान, आख़िरकार, क्रि० वि० (सं० अंडाकृति-संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०-अंड+ अन्यत्र हि० अनत) और जगह, दूर, अलग, प्राकृति ) अंडे की शकल, वि०-अंडाकार । पृथक-"अनत निहारे' रा० अंडी-संज्ञा, स्त्री० (सं० एरंड ) रेंडी, रेंड अंतक-संज्ञा, पु. ( सं० ) अंत करने वाला, के फल का बीज, रेंड या एरंड वृक्ष, एक नाश करने वाला, मृत्यु जो प्राणी मात्र के प्रकार का रेशमी वस्त्र। जीवन का अन्त करता है, मौत, काल, अँडुआ-संज्ञा पु० (दे० ) साँड, नया यमराज, सन्निपात ज्वर का एक भेद या काल बैल, अंडू। ज्वर, ईश्वर जो सब का संहार या विनाश अँडुआना-क्रि० स० (सं० अंड ) बधिया करता है, रुद्र, शिव । अन्तकर अंतकरना, बछड़े के अंडकोशों को कुचलना। कारी-संज्ञा, पु० (सं० ) अंत करने वाला, अंडू-अँडुश्रा बैल-संज्ञा, पु०(दे०) बिना संहारक, मारनेवाला, अंतकार या अंतकारक, बधियाया, बैल या सांड़, बड़े अंडकोश का मनुष्य, जो न चल सके, सुस्त, आलसी। मृत्यु, रुद्र। अंडैल-वि (हि० अंडा+ ऐल-प्रत्यय ) अंडे | अंत-क्रिया-संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं० अंत+ वाली, जिसके पेट में अंडे हों। क्रिया ) अंत करने की क्रिया, अन्त्येष्टि कर्म, मृत्यु के पश्चात् का क्रिया-कर्म, मृतक अंत-संज्ञा, पु० (सं० ) समाप्ति, पाखीर, | पूर्ति, अवसान. इति, पूर्ण काल । वि० संस्कार, दाहादि कृत्य । अंतिम, अंत्य-शेष या आखीरी भाग, अंतग-संज्ञा, पु. ( सं० अंत + गम् ) पारपिछला हिस्सा, अंत का। मु०-अंत गामी, पारंगत, निपुण, पूरा जानकार, करना, मार डालना, समाप्त करना, इति अंतर्गमन् --- मन की गुप्त बात जानना। श्री करना, अंत होना, ख़तम होना, पूर्ण अंतगति-संज्ञा, स्त्री० (सं० अंत+गति) यौ० अन्तर्गति अंतिम दशा, मृत्यु, मरण, मौत । होना, मर जाना। अन्त श्राना-मृत्यु-समय पाना, पूर्ति पर | अंतघाई --वि० (सं० अंतघाती ) विश्वासपहुँचना। घाती, दगाबाज़, धोखा देनेवाला। अंत बनना-फल अच्छा होना, जीवनलीला अँतडी-संज्ञा स्त्री. (सं० अंत्र ) आँत, की समाप्ति का अच्छा होना, अंत बिग- मु०-अँतड़ी जलना, कुल-बुलाना, इना-बुरा फल होना ।सीमा, हद. अवधि, सूखना, सिकुड़ना-पेट जलना,बहुत भूख पगकाष्टा, निदान, पाखीर-'अंत नीच को लगना, अँतडी गले में पन्ना-विपत्ति में For Private and Personal Use Only Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Roma अंतपाल प्रांत फँसना, अंतड़ियों में बल पड़ना-पेट का मूलाधारादि कमलाकार के छः चक्र, प्रात्मीय ख़ाली होना, अंतड़ियां, मिलना---एक वर्ग, बंधु-बाँधव-मंडल । होना, पैंतड़ियों के बल खोलना- बहुत अन्तरजामी-संज्ञा, पु० (सं० अन्तर्यामी ) समय में भोजन मिलने पर खूब भर पेट मन की बात जाननेवाला, ईश्वर । खाना। ग्रात उतरना- एक रोग जिसे | अन्तर दिशा-संज्ञा, स्त्री० यौ (सं० ) दो हानिया कहते हैं, अंत्रवृद्धि । दिशाओं के मध्य की दिशा, कोण अंतपाल- संज्ञा, पु. (सं० ) यौ०-द्वार- विदिशा। पाल, ड्योढ़ीदार, संतरी, पहरू, दरबान, अन्तर दशा-संज्ञा, स्त्री० यौ० ( सं० ) मन राज्य की सीमा का रक्षक, पहरेदार, प्रतिहारी। की हालत, ज्योतिष में ग्रहों की चाल का अन्तरंग-संज्ञा. पु. ( सं० अंतर । अंग ) विधान, जिससे मानव-जीवन प्रभावित भीतरी, बहिरंग का विपरीत, अत्यंत समीपी, । होता है। अभिन्न, घनिष्ट, गुप्त बातों का जाननेवाला, | अन्तरपट-संज्ञा, पु. यौ० (सं० ) परदा दिली, जिगरी, मानसिक, अंतःकरण ।। भीतरी भाड़, श्रोट, पाड़ करने का कपड़ा, अंतर-संज्ञा, पु० (सं० ) भेद, विभिन्नता, विवाह-मंडप में मृत्यु की आहुति के समय फर्क, अलगाव या विलगता, बीच, मध्य, अग्नि और वर-कन्या के मध्य में डाला हुआ दर्मियान का फासला, दूरी, अवकाश, वस्त्र या परदा, छिपाव, दुराव, धातु या मध्यवर्ती स्थान या समय, श्रोट, भाड़ औषधि को फूंकने के प्रथम, उसको संपुट व्यवधान. परदा, छिद्र, छेद, रंध्र। कर गीली मिट्टी का लेप करते हुए कपड़ा अंतर्धान, अंतर्हित-ग़ायब, गुप्त, लोप, लपेटने की विधि या क्रिया, कपड़कोट, छिपना, दूसरा, अन्य, और-कालान्तर- कपड़-मिट्टी, कपड़ौरी। क्रि० वि० दूर, अलग, पृथक, जुदा बिलग, | अंतरीय-वि० भीतरी, संज्ञा, पु० (सं० ) संज्ञा, पु. (सं० अंतस् ) हृदय, अंतःकरण, अधोवस्त्र । क्रि० वि०-भीतर, अंदर।। अंतर संचारी-संज्ञा, पु० ( सं०-अंतर+ मु०-अंतर रखना, या करना, भेद-भाव संचारी ) संचारी भाव ( काव्य-साहित्यरखना या करना। शास्त्र) अंतर पड़ना - श्राना-वैमनस्य, विगाड़ | अंतरस्थ-वि० (सं० अंतर+स्थ ) अन्दर होना, भेद पड़ना। रहने वाला, भीतरी, अंदर का। अँतरछाल-- संज्ञा, यौ० स्त्री० (हि. अंतर+ | अंतरा-क्रि० वि० (सं० अन्तर ) मध्य, छाल ) पेड़ की भीतरी छाल, गाभा। निकट, रिवाय, अतिरिक्त, पृथक, बिना, सं० अंतर अयन-संज्ञा, पु० (सं० ) यौ० - | पु०-किसी गीत या गान के स्थायी या टेक अन्तर+अयन-अन्तर्गृही, तीर्थों की पद के अतिरिक्त और अन्य पद या चरण एक विशेष परिक्रमा । (संगीत०) प्रातः तथा संध्या के मध्य का अन्तर चक्र-सं० पु० (सं०) यौ० अंतर+ समय, दिन, एक प्रकार का ज्वर जो एक दिन चक्र—दिशाओं और विदिशात्रों के मध्यवर्ती | का व्यवधान देकर आता है, अतरा (दे०) । अंतर को चार समभागों में बाँटने से होने । अँतग- संज्ञा पु० (सं० अंतर )-दे० अंझा, वाले ३२ भाग । दिग्विभागों में पक्षियों के | नागा, बीच, अन्तर, व फ़क़, एक दिन का शब्द श्रवण कर शुभाशुभ फल कहने की नागा देकर श्रानेवाला ज्वर । विद्या, तंत्रशास्त्रानुसार शरीर के आंतरिक प्रतिर संज्ञा पु० (दे०) बीच, अंझा, नागा। For Private and Personal Use Only Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - अंतरात्मा अंतर्भावित अंतरात्मा-संज्ञा स्त्री० यौ० (सं० अन्तर-+ स्थलों की यात्रा-अन्दर के घर का, आत्मा ) जीवात्मा, अंतःकरण, ब्रह्म । अंतर्गृह- संज्ञा पु० ( सं० ) भीतरी घर । अंतराय-संज्ञा पु० (सं०) विघ्न, बाधा, अंतर्जानु- वि० ( सं०) हाथों को घुटनों योगि-सिद्धि के १ विघ्न, ज्ञान का बाधक । के बीच में रखे हुए। "हेरि अंतराय को निकाय हरयौ तल तें-- अन्तर्दशा-- यौ० संज्ञा स्त्री० (सं० ) देखो, अभिमन्यु वध अन्तरदशा-फलित ज्योतिष के मतानुसार अंतराल-संज्ञा पु० (सं० ) घेरा, मंडल, मानव-जीवन में ग्रहों का नियत भोगकाल । घिरा हुआ या श्रावृत स्थान, मध्य, बीच ।। | अन्तर्दशाह-संज्ञा पु० (सं० ) यौ०, मरण अंतरिक्ष-संज्ञा पु. ( सं० ) पृथ्वी और पश्चात १० दिनों के अन्दर होनेवाले सूर्यादि लोकों के मध्य का स्थान, दो ग्रहों | कर्मकांड । या तारों के बीच की शून्य उ (ह, आकाश, | अन्तर्दाह- यौ० संज्ञा स्त्री० (सं० अन्तर+ अधर, शून्य, स्वर्गलोक, तीन प्रकार के दाह ) भीतरी जलन, एक प्रकार का रोग । केतुओं में से एक. वि.-अन्तर्धान, गुप्त, अंतर्धान-संज्ञा पु० (सं० ) लोप, अदर्शन, अप्रगट, लुप्त, ग़ायब, अंतरीक्ष-अंतरिख- छिपाव, तिरोधान, गुप्त, अदृष्ट । वि०अंतरिका-संज्ञा (दै० ), अन्तरिक्ष । अलक्ष, अदृश्य, अंतर्हित, लुप्त, अप्रगट, अंतरित-वि० (सं० ) भीतर किया या छिपा हुआ। रक्खा हुआ, छिपा हुआ, अन्तर्धान, गुप्त, । अन्तनिविष्ट-यौ० वि० (सं०) भीतर बैठा, तिरोहित, आच्छादित, ढका हुआ। हुआ, अंतःकरण में स्थित, मन में जमा अंतरीप-संज्ञा पु० ( सं०) द्वीप, टापू, | हुआ, हृदय में बैठा हुआ। पृथ्वी का वह नुकीली भाग जो सागर में अंतर्राष्टि--संज्ञा, यौ० स्त्री० (सं० अन्तर+ दूर तक चला गया हो, रास। दृष्टि) अन्तर्ज्ञान, प्रज्ञा, आत्म चिंतन । अँतरौटा-संज्ञा पु. (सं० अन्तर - पट) अंतर्द्वार- संज्ञा, यौ० पु. (सं०, अन्तर+ साड़ी के नीचे पहिनने का वस्त्र, स्त्री० | द्वार ) गुप्तद्वार, खिड़की। अँतरौटी-(सं० अंतरपटी)। अन्तर्गिरा--संज्ञा स्त्री० (सं०) मन की वाणी अंतर पट--( संज्ञा पु. यौ० सं० ) भीतर के | या आवाज़, भीतरी शब्द । द्वार या कपाट । अंतःधि संज्ञा, पु. (सं० यौ०- अन्तर+ अंतर्गत-वि० (सं० अंतर-+ गत ) भीतर बोध ) आत्म ज्ञान, आत्मा की पहिचान, गया हुअा, समाया हुआ, अन्तर्भूत, सम्मि- | आन्तरिक अनुभव, अध्यात्म ज्ञान,मानसिक। लित, भीतरी. गुप्त, अन्तःकरण-स्थित, दिल अंतर्भाव- संज्ञा, पु० यौ० (सं० अंतर् + या हृदय या मन के भीतर का छिपा हुआ भाव )-भीतर समावेश, मध्य में प्राप्ति, रहस्य । अंतर्गति-संज्ञा स्त्री. (सं०) तिरोभाव, बिलीनता, छिपाव, अंतर्गत भीतरी दशा, मानसिक दशा, संचित्त, होना, नाश, अभाव, आंतरिक भाव,प्रयोजन, हृदय, मन । मतलब, अभिप्राय, आशय, मंशा, ( वि०अंतर्गतिः- यौ० संज्ञा स्त्री० ( सं० अन्तर+ | अन्तर्भावित, अन्तर्भूत । गति ) मन का भाव, चितवृत्ति, भावना, अंतर्भावना - संज्ञा, स्त्री० (सं० ) ध्यान, अभिलाषा, इच्छा, हार्दिक कामना। चिन्ता, सोच-विचार, गुणन-फलान्तर से अन्तर्गृही- संज्ञा यो० स्त्री० (सं० अन्तर+ संख्याओं को सही करना । गृही ) तीर्थस्थान के भीतर पड़नेवाले प्रमुख [ अंतर्भावित-वि० (सं० ) अन्तर्भूत, लुप्त, For Private and Personal Use Only Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अंतर्भूत अंतसद छिपाया हुआ, अन्तर्गत, शामिल, भीतर अन्तर्वेग- संज्ञा, पु० यौ० ( सं० ) अन्दर के किया हुआ। वेग, छींक, पसीना आदि। अंतर्भत-वि० (सं० ) अन्तर्गत, संज्ञा, पु०, अन्तर्वेगी- संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) ज्वर, जीवात्मा, प्राण, मध्यगत । __ पसीना न आने वाला ज्वर । अन्तर्मनस-वि०-(सं० ) उदास, घबड़ाया | अन्तर्वेद - संज्ञा, पु. ( सं० ) यज्ञों की वेदियों हुआ, व्याकुल। का देश, जो गंगा-यमुना के बीच में है। अन्तर्मुख-वि० (सं० ) यौ० अन्तर + ब्रह्मावर्त, हाव, ( दोश्राव, उ०)। मुख-भीतर की ओर मुखवाला, भीतर की अन्तर्वेदी ( अन्तर्वेदीय )-संज्ञा, पु० (सं०) तरफ मुँह या छिद्र वाला फोड़ा, क्रि० वि० अन्तर्वेद का वासी, गंगा-यमुना के बीच के भीतर की ओर प्रवृत्त, बाहर से हट कर | द्वावा में रहने वाला। भीतर ही लगा हुआ। अंतर्धेशिक-संज्ञा, पु० यौ० (सं० अन्तर+ अन्तर्यामी-वि० (सं० ) पु. भीतर या वेशिक ) अंतःपुर-रक्षक, ख्वाजा। हृदय की जाननेवाला, मन में गति रखने | अन्तहित--वि० (सं० ) तिरोहित, अदृश्य, वाला, अन्तःकरण में रह कर प्रेरित करने अन्तर्धान, गुप्त, गायन "असकहि अन्तर्हित वाला, मन या चित्त पर अधिकार प्रभु भयऊ । रामा० रखनेवाला। अंतर्वर्ण-संज्ञा, पु० यौ० (स० अंतर् + अंतरजामी-संज्ञा पु० (तद्० हिं०) ईश्वर, वर्ण) अन्तिमवर्ण या चतुर्थ वर्ण का, भगवान, परमात्मा। शूद्र । अन्तलम्ब-संज्ञा, पु० यौ० (सं० अन्तर+ | अंतश्छद-संज्ञा, पु० ( सं० ) अंतच्छदलंब) वह त्रिकोण क्षेत्र या त्रिभुज जिसमें __ भीतरी आच्छादन, अन्तस्तल, भीतरी तल । भीतर ही लंब गिरे हों। अंतर्शय्या- संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं० अन्तापिका-संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं० ) वह अन्तर+शय्या ) मृत्युशय्या, मरनखाट, पहेली या प्रहेलिका या प्रश्नोत्तरालंकार भूमिशय्या, श्मशान, मसान, मरघट, मरण युक्त छंद जिसमें प्रश्नों के उत्तर उसी के मृत्यु । शब्दों या अक्षरों से निकलते हों- इसका | अंतस-संज्ञा, पु० (सं० ) अन्तःकरण, विरुद्ध है वाहापिका हृदय, चित्त, मन कोंचि,कोंचि बाँकी अनिअन्तलीन-वि० यौ० (सं० ) मन में ही यान सों अन्तस चलनी कीनो"। ललित कि० मग्न या डूबा हुआ आत्मविलीन, भीतर ही अंतस्ताप- संज्ञा, पु. यौ० (सं०-अन्तस् + छिपा हुआ, विरुद्ध इसका है वहिर्लीन । ताप) मानसिक वेदना, जलन, भीतरी अन्तर्वती--- ( अन्तर्वती) वि० यौ० स्त्री० । पीड़ा या दुख, हार्दिक व्यथा, या दाह । (सं० ) गर्भवती, गर्भिणी, भीतरी, भीतर | अंतस्थ-संज्ञा, पु. (सं० अन्तस् - स्था) रहने वाली, द्विजीवा। मध्यवर्ती, भीतर स्थित, स्पर्श और ऊष्म अन्तर्वाणी--संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) शास्त्रज्ञ, वर्णो के बीच वाले वर्ण-- य, र, ल, व । विद्वान, पंडित । अन्तर्दाह-( अन्तदु:ख ) संज्ञा, स्त्री० यौ० अन्तर्विकार--संज्ञा, पु० यौ० (सं० अन्तर् + (सं० अन्तर+दाह ) भीतरी जलन । विकार ) शरीर के धर्म जैसे भूख, प्यास, | अंतसद- संज्ञा, पु० ( सं० ) शिष्य, चेला, भीतरी दोष। । शागिर्द। For Private and Personal Use Only Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अंत समय अंत्यज अंत समय-संज्ञा. पु० यौ० (सं० ) अंतिम अंतरात्मा, संकल्प, विकल्प, सुख-दुख, काल, मृत्यु समय। निश्चय, स्मरणादि का अनुभव करने वाली अंतस्नान -संज्ञा, पु. (सं० ) यौ० यज्ञ भीतरी इंद्रिय, मन, विवेक, नैतिक बुद्धि, समाप्ति पर किया गया स्नान, अवभृत भला-बुरा पहिचानने और बताने वाली स्नान । शक्ति । अंतस्सलिल-वि० यौ० ( सं० अन्तस -+ अंतः पटी-संज्ञा, स्त्री० (सं०) यौ०, चित्र सलिल ) जिसके जल का बहाव या प्रवाह में नदीपर्वतादि का चित्रण जो चित्र का पृष्ठ बाहर न दिखाई दे, भीतर ही रहे, (स्त्री० भाग सा रहता है, चित्रपट पर दिखाया अंतस्सलिला) हुआ, स्वाभाविक दृश्य, नाटक का परदा, अंतस्सलिला-वि० यौ० स्त्री. (सं० ) संज्ञा स्त्री०-छानने के लिये छानने में रखा सरस्वती और फालगू नदी। हुश्रा सोमरस । अंतहपुर - (अन्तःपुर) संज्ञा, पु० यौ० अंतः पुर -- संज्ञा, पु. (सं० यौ० अन्तः (सं० ) घर की स्त्रियों के रहने का भाग, | +पुर) अंतः पुरिक-ज़नाना, भीतरी जनान ख़ाना, घर के भीतर का हिस्सा। । भाग, महल के अंदर का हिस्सा, रनिवास । अंतावरी-संज्ञा, स्त्री० ( सं० अँत्रावलि, अंतः पुरिक-संज्ञा, पु. ( सं० ) अन्तःअंतावरी ) आँतों या अतड़ियों का समुदाय, पुर-रक्षक, कंचुकी। "अन्तावरि गहि उड़त गीध पिसाच कर गहि अंतः राष्ट्रीय-संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) वि० धावहीं" रामा० । सार्वराष्ट्रीय । अंतापरि--संज्ञा स्त्री० दे०-अंतावरी, प्रांतों | अंतः शरीर- संज्ञा, पु० यौ० ( सं० ) लिंगका समूह, अँतोरी। शरीर। अंतावशायी- संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) नाई, अंतः संज्ञा-संज्ञा, पु. स्त्री० यौ० (सं०) अनुभव, चेतना, जो जीव अपने सुख-दुख हज्जाम, हिंसक, चांडाल, कसाई। अंतिक-संज्ञा, पु. ( सं०) समीप, पास, का अनुभव न कर सके. जैसे वृक्ष ।। अंतः सत्व-संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) गर्भनिकट, सन्निधान । वती। अंतिम-वि० (सं० अन्त+इम् ) पिछला, अंतःश्वेत-संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) हाथी । सब से बाद का, शेष, अवसान, चरम, अन्त अंत्य-वि० (सं० अंत) शेष का, अंत का, वाला, पाखीरी, सब से बढ़ कर। अंतिम, सबसे पिछला, अधम, नीच, अंतिम यात्रा-संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) जघन्य, संज्ञा पु० जिसकी गणना अंत में मृत्यु, महाप्रस्थान, महायात्रा, मरण । हो-लग्नों में मीन, नक्षत्रों में रेवती, दस अंतउर-अंतघर-संज्ञा, पु० (सं० सागर की संख्या ( १०००, ०००, ०००, अन्तःपुर ) अंतःपुर, जनान ख़ाना। ०००, ०००) यम । . अंतेवर-संज्ञा पु० (दे० ) अंतावरी। अंत्यकर्म-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) अंत्येष्टि अंतवासी-संज्ञा, पु० यौ० (सं० अन्ते + क्रिया, प्रेतकर्म । वासो वस +णिनि ) विद्यार्थी, ब्रह्मचारी, | अंत्यज- संज्ञा, पु० (सं० अंत्य+ज ) अंतिम प्रान्तस्थायी, ग्राम के बाहर रहने वाला, वर्ण से उत्पन्न, शूद्र, अछूत जिसे और चांडाल, अंत्यज, गुरु के समीप रहने वाला। जिसका छुवा हुआ अन्न-जल द्विज लोग न अंतःकरण -संज्ञा, पु. (सं०) सद् सद् ग्रहण करें-धोबी, चमारादि सप्त जाति, विवेचनी शक्ति, हृदय । जधन्यज, भघरज | अंत्यजन्मा-शूद्र । For Private and Personal Use Only Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अंथ अंत्यवर्ण अंत्यवर्ण-संज्ञा, पु० यौ० ( सं० ) अंतिमवर्ण, अंदाज-अंदाजा-संज्ञा पु. ( फा० उ० ) शूद्र, अंत का अक्षर, ह, पदान्तवर्ण । अटकल, अनुमान, मान, नाप जोख, ढंग, अंत्यविपुला-संज्ञा, स्त्री० (सं० ) श्रार्याछंद तर्ज, कूत, तख़मीना, ढब, तौर, मटक, का एक भेद । हाव, चेष्टा, इंगन, (सं०-अंदाजी, अंत्या-संज्ञा, स्त्री (सं० ) चंडालिनी।। | अंदाजन-क्रि० वि०)।। अंत्याक्षर-संज्ञा पु० यौ० (सं० अंत्य+ | अंदाज़न-क्रि ० वि० (फा० ) अटकल से, अक्षर ) शब्द या पद का अंतिमातर, लगभग, करीब । वर्णमाला का श्राखीरी वर्ण ह । अंदाजपट्टी-संज्ञा, स्त्री० (फा. अंदाज+ अंत्याक्षरी- संज्ञा, स्त्री० ( सं० यौ० अंत्य+ पट्टी ) खेत में खड़ी फसल को कूतना। अक्षरी) किसी कहे हुए श्लोक या छंद अंदाजा- संज्ञा. पु० (फा० उ० ) अंदाज़, ( पद्य ) के अंतिमाक्षर से प्रारम्भ होने वाला अटकल, कूत अनुमान, तख़मीना । दूसरा छंद या पद्य, बेतबाज़ी ( उ०, फा०) अंदाना-- स० कि०, बरकाना। उक्तरीत्यानुसार पद्यपाठ । अंदु-अंदुक-संज्ञा, पु० (सं० ) स्त्रियों के अंत्यानुप्रास-संज्ञा, पु० यौ० (सं० अंत्य + अनुप्रास ) पद्य में चरणों के अंतिमाक्षरों पैर का एक गहना, पाजेब, पैजनी, पैरी, का मेल, तुक, तुकान्त, एक प्रकार का हाथी के बाँधने का रस्सा। अलंकार ( काव्यशास्त्र) अंदुप्रा - संज्ञा, पु. ( सं० अंदुक ) हाथियों अंत्येष्टि-संज्ञा, पु. (सं० अंत्य + इष्टि ) के पैर में डालने का कांटेदार लकड़ी का प्रेत-कर्म, शवदाह से सपिंडन तक का कृत्य, बना हुआ एक यंत्र। क्रिया-कर्म,मृतक कर्म, अंत्येष्टि क्रिया- अंदेशा- संज्ञा, पु० ( फा० ) सोच, चिन्ता, अंतिमसंस्कार। आशंका, फिक्र, संशय, अनुमान, संदेह, अंत्र-सज्ञा, पु० (सं०)श्रांत, अंतड़ी। शंका, खटका, भय, डर, हरज, हानि, अंत्र-कूजन-संज्ञा, पु. यौ० (सं० अंत्र+ दुविधा, असमंजस, आगा-पीछा, पशोपेश । कूजन ) अाँतों का शब्द या बोलना, “तुमसों अहै अंदेश पियारे-प० । गुड़ गुड़ाहट । अंदार-संज्ञा, पु० (सं० आंदोलन-झूलना, अंत्र-वृद्धि-संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं० ) प्रांत हलचल) शोर, हल्ला-गुल्ला, हुल्लड़, कोलाहल, उतरने का रोग। "बाजन बाजहिं होइ अँदोरा"-५० सू० अंत्रांडवृद्धि-संज्ञा, स्त्री० यौ० ( सं० ) प्रांत अंदोह-संज्ञा, पु. (फा०) शोक, दुख, का उतर कर फोते में आकर उसे बढ़ा रंज, खेद, तरदुद या खटका। देने वाला रोग। अंध-वि० (सं०) नेत्र-हीन, बिना आँखों अंत्री—संज्ञा, स्त्री० (सं० अंत्र ) अँतड़ी। वाला, अंधा, जिसकी आँखों में ज्योति अंदर-क्रि०वि० ( फा० उ० ) भीतर। या रोशनी न हो, देखने की शक्ति से अँदरसा-संज्ञा, पु० (सं० अंतररस ) एक रहित, अज्ञानी, मूर्ख, बुद्धि-हीन, अविप्रकार का पकान या मिठाई। वेकी, अचेत, असावधान, उन्मत्त, मत्त, अंदरी-वि० (फा० उ० ) सं० अंतरी- मतवाला-मदान्ध-संज्ञा, भा०-अंधता--- भीतरी। संज्ञा, पु०-नेत्र विहीन प्राणी, अंधा, जल, अंदरूनी-वि० ( फा० उ०) भीतरी, भीतर उल्लू. चमगादड़, अँधेरा, अंधकार, कविका, अन्दर का। परम्परा के विरुद्ध चलने से सम्बन्ध रखने For Private and Personal Use Only Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अंधक अंध्रभृत्य - वाला काव्यदोष-सूरदास, एक मुनि, | अंधधंध 8-संझा, स्त्री० (दे०) अधाधुंध, एतराष्ट्र, श्रवणकुमार के पिता। अन्याय, गड़बड़ी। अंधक-संज्ञा, पु० (सं०) नेत्रहीन नर, अंधपरम्परा--संज्ञा, पु० यौ० (सं० अन्ध+ दृष्टि-विहीन मनुष्य, कश्यप और दित का | परम्परा ) बिना समझ-बूझे पुरानी चाल एक दैत्य पुत्र, एक देश, युधाजित का पुत्र । का अनुकरण, भेड़ियाधसान, बिना सोच अंधकार- संज्ञा, पु. ( सं० अंध+ कृ० ) विचार के अनुकरण करना,+ग्रस्तअँधेरा, अंधा सा करने वाला। अज्ञानियों का अनुयायी। अंधकाल- संज्ञा, पु० यौ० (सं०) अंधेरे अंधपूतना-संज्ञा, पु. (सं० ) ग्रहका समय,-" जागिये गोपाल लाल प्रगट । बालकों का एक रोग। भई हंस माल, मिट्यो अंधकाल उठौ | अंधवाई --संज्ञा स्त्री. ( सं० अन्धवाय ) जननी मुख दिखाई"। आँधी, तूफ़ान, " धावौ नंद गोहारी लागौ अंधकृप-संज्ञा, पु० ( सं० यौ० अंध+ कूप) किन तेरो प्रन अंधवाई उड़ायो"-सूबे । अंधा कुआँ, सूखा कूप, जो घास-पास से | अंधरा-श्रीधर-संज्ञा, पु. ( दे० ) ढका हो, एक नरक का नाम, अँधेरा। अंधा । अँधरो--"कहै अंध को अँधरो"अंधखोपड़ी-संज्ञा, पु० यौ० (सं० अन्ध+ । रहीम । हि० खोपड़ी ) बुद्धि रहित मस्तिष्क वाला. - अँधरी-संज्ञा, स्त्री० (हि. अँधरा+ ई ) मूर्ख, भोंदू, नासमझ, शून्य मस्तिष्क । __ अंधी स्त्री. पहियों की पुठियों या गोलाई अंधगोलाइल-संज्ञा, पु० (सं० यौ० को पूरा करने वाली धनुषाकृति की चूल । अन्ध -- गो-लांगुल ) अंधे के द्वारा गाय अंधविश्वास-संज्ञा पु० यो० (सं० ) बिना की पूंछ के पकड़ने की क्रिया। जो दशा विचार किये हुए किसी वस्तु या बात अंधे की सहायता लेने वाले अंधे की होती में विश्वास कर निश्चय करना, विवेक-शून्य धारणा। है अर्थात् दोनों अंधे गड़े में गिर पड़ते हैं, अंधर- संज्ञा पु० ( हि० ) अँधेरा, आँधीउसी दशा को यह भी सूचित करता है " नखत चहूँ दिसि रोवहिं अंधर धरत एक प्रकार का न्याय । अकास'"-प०। अंधड़-संज्ञा, पु० (सं० अन्ध ) गर्द मिली | अंचल-संज्ञा, वि. पु. ( दे०) अचक्षु, अंधा, हुई तीव्र झोंकेदार हया, वेगयुक्त पवन, काना। अंधला (दे०)। आँधी, तूफान, अंधर-(दे० ) अंधस-संज्ञा पु० (सं०) भात, राँधे या अंधतमस-संज्ञा, पु. यौ० (सं० अंध+ पकाये हुए चावल । तमस ) महा घोर अंधकार, गाढ़ा अँधेरा, अंध-सुत-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) अंधे निविड़ तम, नरक विशेष।। __ का पुत्र, धृतराष्ट्रात्मज, दुर्योधनादि । अंधता-- संज्ञा, स्त्री० (सं०) अंधापन, दृष्टि- अंध-सैन्य-अंधसैन-संज्ञा, पु. (सं.) हीनता। अशिक्षित सेना। अंधतामिस्र-संज्ञा, पु० ( सं० यौ०) घोर अंध्र-संज्ञा, पु. ( सं० ) बहेलिया, शिकारी, अंधकार युक्त (नरक) की, बड़े नरकों में ___ व्याध, एक राजवंश, दक्षिण देश का एक से दूसरा, सांख्य में इच्छा-विधात अथवा प्रान्त, आँध्र देश। विपर्यय के पंच प्रकारों में से एक भेद, जीने | अंध्रभृत्य-संज्ञा पु० यौ० (सं० अन्ध्र+ की इच्छा रहते हुए भी मरण-भय, पंच भृत्य ) मगध देश का एक प्राचीन राजवंश, केशों में से एक, मृत्यु-भय (योग) । शिकारी नौकर । भा० श. को०-३ For Private and Personal Use Only Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अंधा अँधेरा अंधा-संज्ञा, पु. (सं० अन्ध ) स्त्री० | अंधेर-संज्ञा, पु० (सं० अंधकार ) अन्याय, अंधी-अंध, दृष्टिहीन प्राणी, नेत्र-विहीन, उपद्रव, अत्याचार, गड़बड़ी, कुप्रबन्ध, विचार-रहित, अविवेकी, भला-बुरा न अंधाधुंध, धींगाधींगी। समझने वाला, मूर्ख । अंधेर-खाता-संज्ञा, पु० यौ० (हि० अंधेर मु०-अंधा बनना-जान-बूझ कर किसी +खाता ) गड़बड़ हिसाब-किताब, व्यतिबात पर ध्यान न देना। क्रम, अन्यथाचार, कुप्रबन्ध, अविचार, अंधे की लकड़ी या लाठी-एक मात्र श्रन्याय । सहारा, श्राधार, अासरा, एक पुत्र जो मु०--अंधेर-नगरी, अबूझ राजा । टके सेर कई पुत्रों के बाद बचा हो, इकलौता बेटा, भाजी, टके सेर खाजा ॥ व्यतिक्रम, अविचार अंधा दिया-मंद या धुंधले प्रकाश- और अन्यथाचार का साम्राज्य। अंधेर वाला दीपक, अंधा भैसा-लड़को का | करना, होना, मचाना-अन्यथाचार खेल, अंधो की आँख-अत्यन्त प्रिय और अनाचार करना। वस्तु-अंधा जब आँख पावे नब जानै- | अंधेरना -स० क्रि० (हि. अंधेर ) अंधकारजब काम हो जाये तब ठीक है. पूर्ण करना, तमाच्छादित करना, अन्यथाचार अंधे के आगे रोना-अंधे के आगे रोवै । करना। अपना दीदा खोवै-व्यर्थ प्रयत्न करना, अंधेरा--संज्ञा, पु० (सं० अंधकार प्रा० निस्पार व्यर्थ के लिये हानिकारक प्रयास । अंधयार अ. अँधियार, अंधियारा, अँधेरा) " कहै 'रतनाकर' त्यौं अंधहू के आगे रोइ, (स्त्री० अधेरी) अंधकार, तम धुंध, धुंधलाखोइ दीठि .. पन, प्रकाशाभाव । यो०-अधेरागुपअंधा शीशा या श्राइना-(यौ०) धुंधला ऐसा घना अंधकार जिसमें कुछ न सूझे या दर्पण । दिखाई दे, घोर अंधकार, छाया, परछाँई, अंधाधंध-संज्ञा, स्त्री० ( हि० अन्धा +-धुंध) उदासी, उत्साह-हीनता, शोक । वि०. - गर्द के कारण अस्पष्टता, गर्द-गुब्बार अधकार मय, प्रकाश-रहित । बड़ा अँधेरा, अंधेर, अन्याय, गड़बड़ी. मु०-अँधेरा दीखना -निराशा, अस. धींगाधींगी, विचार-रहित, अधिकता से, हायताप्रगट होना, शून्य जान पड़ना, बिना सोच विचार के, बहुतायत से । शोक या दुख प्रतीत होना, चक्कर आना, अधाधुंध--(दे०) अंधेर श्रादि। अधेरालगना-तिमिर, यातिउँर लगना अंधार® संज्ञा, पु० (दे० ) अन्धेरा, संज्ञा (दे० ) दृष्टि-दोष होना, वृद्धावस्था में नेत्रों पु० (दे०) रस्सी का नाल 'जससे घास- की ज्योति के कम होने पर धुंधला दीखना । भूसा बाँध कर बैल पर लादते हैं। अधेरा हाना शून्य होजाना, घर में सब अंबाहुला-संज्ञा, स्त्री० देखो-चोर पुप्पी। का अंत होजाना या अतिप्रिय (पुत्रादि ) अंधियार -सज्ञा, पु० वि० दे० (प्रा.) का न रह जाना, निराशामय होना ( जैसेअन्धेर । भविष्य अँधेरा है) अंधियारा संज्ञा, पु० वि० (दे०) अंधेरे घर का उजाला-अत्यंत कीर्ति अँधेरा, स्त्री. अँधियारी, अन्धकारमयी। . या कांतिमान् , अतिसुन्दर, सुलतण, अंधियारी--सज्ञा, स्त्री. ( हि. अँधेरी ) शुभगुणयुक्त, कुलदीपक, वंश की मर्यादा उपद्रवी, घोड़ों, शिकारी पक्षियों, चीतों या मान का बढ़ाने वाला, इकलौता बेटा, प्रादि की आँख की पट्टी। अंधेरे मुँह-मुँह अँधेरे- बड़े सबेरे For Private and Personal Use Only Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org अँधेर रिया ( सं० - अंधकार - पक्ष ) 'अँधेरा पाखकृष्ण पक्ष । अँधेरा- उजाला -संज्ञा, पु० यौ० ( हिं० अँधेरा + उजाला, सं० अंधकार + उज्वल ) अंधेरिया - उजेरिया (दे० ) ड़कों का एक काग़ज़ से बना खिलौना, धूपछांह, अंधकार और चाँदनी में लड़कों का एक खेल । मँगेरिया - संज्ञा, स्त्री० ( हिं० अँधेरी सं० अंधेरी, या अंधकारमयी ) अंधकार, अँधेरा, अँधेरी रात, काली रात, अँधेरा पक्ष या पाख. कृष्ण पक्ष । सज्ञा, स्त्री० (दे० ) ऊख की पहिली गोड़ाई | अँधेरी - संज्ञा, स्त्री० ( हिं० अंधेर + ई ) अंधकार, तम, प्रकाशाभाव, अंधेरी रात, काली रात, श्राँधी, अंधड़, घोड़ों या बैलों की आँखों पर डालने का परदा । मु० - अँधेरी डालना या देना -- किसी की aa बंद कर उसकी कुदशा करना, आँख में धूल छोड़ना, धोखा देना, वि०- प्रकाशरहित, तमाच्छादित, जैसे अँधेरी रात । मु० - अँधेरी कोठरी - पेट, गर्भ, कोख, घोटी - संज्ञा, स्त्री० (सं० अंध + पट, प्रा० अंधवटी, अ० अँधोटी) बैल या घोड़े की आँखें बंद करने का परदा । अँध्यार$ - संज्ञा, पु० (दे० ) अँधेरा । अंध्यारी – संज्ञा स्त्री० (दे० ) अँधेरी | थंब - संज्ञा, स्त्री० ( प्रा० ) माता, जननी, दुर्गा | यंत्रा, संज्ञा, पु० (सं० आम्र-प्रा० ब) श्राम का वृक्ष, या फल, - " फूलन दै सखि टेसू कदंबन, अंबन बौरन आवन देरी -" तुलसी संत सु अंब तरु- फूलि फरें पर हेत" | संज्ञा, स्त्री० माता - " जो रह सीय भौन कह बा अंबक - संज्ञा, पु० (सं०) आँख, नेत्र, ताँबा, पिता । " " रामा० अंबल - संज्ञा, पु० वि० (सं० ) खट्टा, अम्ल, चूक, खटाई । १९ अंबष्ट अंबर - संज्ञा, पु० (सं० ) वस्त्र, कपड़ा, पट, स्त्रियों की एक प्रकार की एक रङ्गीन, किनारेदार साड़ी, आकाश, श्रासमान, कपास, छैल मछलियों की श्रांतों से निकली हुई एक सुगंधित वस्तु, एक प्रकार का इत्र, ( फा० ) अभ्रक, अबरक, राजपूताने का एक प्राचीन नगर, अमृत, उत्तरीय भारत का एक प्राचीन प्रदेश, बादल, मेघ ( क्वा० ) अंबारी - संज्ञा, पु० (सं० ) एक झाड़ी या जड़ जिससे रसवत निकलता है । चित्रा, दारूहल्दी | Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir त्र्यंबर - डंबर - संज्ञा, पु० (सं० अंबर + याडंबर ) सूर्यास्त के समय या संध्या की लालिमा - 66 'अंबर-डंबर साँझ के, बारू की सी भीति ।" वेति संज्ञा स्त्री० यौ (सं० ) - अकाश बेलि । अँबराई - संज्ञा, खो० (सं० आम्र - ग्राम + राजी - पंक्ति ) । श्रम का बागीचा, धाम का राजा (अंब + राई - राजा ) । अमराई, अमरैया ( ब० दे० ) आम का बगीचा, " एती बस कीबी, यह अंब atra tatro, कहिबी कि श्रमरैया रामराम कही है दास -'" देखि अमराई' 99 " तु० । बराव * - संज्ञा, पु० ( ० ) अँबराई | अंबरीष -संज्ञा, पु० (सं० ) भाड़, मिट्टी का बरतन जिसमें भड़-भंजे गरम बालू डालकर नाज भूनते हैं, विष्णु, शिव, सूर्य, युद्ध, शावक, सूर्यवंशीय एक राजा, नरक-भेद, आम्रातक वृक्ष, अनुताप, पश्चाताप, किशोरावस्था का बालक, आमले का पेड़ और फल, समर, लड़ाई | अंक - संज्ञा, पु० (सं० ) एक देवता । अंचल - संज्ञा, पु० (सं० ) श्रमल, नशे की वस्तु, खट्टारस, मादक पदार्थ, - संज्ञा, पु० (सं० अंब + स्थान + ड्) पंजाब के मध्य भाग का प्राचीन नाम, For Private and Personal Use Only Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अंबष्ठा २० अंधुभृत वहाँ के निवासी, ब्राह्मण पुरुष और वैश्य | मरने पर यह सत्यवती के साथ वन में जाति की स्त्री से उत्पन्न एक जाति विशेष, तपस्या करते हुये पंचत्व को प्राप्त हुई थी। (स्मृति ) महावत, फीलवान, मुनि विशेष, अंबिकेय- अपत्य० संज्ञा, पु. ( सं० ) अंबिका हस्तिपक, निषाद पिता के औरस से शूद्रा के पुत्र पृतराष्ट्र । स्त्री के गर्भ में उत्पन्न, बंगाल की वैद्य अंबिया-संज्ञा, स्त्री० (सं० आम्र, प्रा० अंब) जाति । कच्चा आम का फल, छोटा आम जिसमें अंबष्ठा-संज्ञा, स्त्री० (सं० ) अंबष्ट की स्त्री, जाली न पड़ी हो, टिकोरा, केरी। ब्राह्मणी लता, पाढ़ा। अबिरथा 8-वि० (सं० वृथा ) वृथा, अंबा-संज्ञा, पु० (सं० ) माता, जननी, व्यर्थ, (प्रा० बिरथा) " तेइ यह जनम अंब, मां, अम्मा, पार्वती, देवी, दुर्गा, | अबिरथा कीन्हा "। अख० काशी-नरेश की बड़ी कन्या, जो बाद को अंबु --(अम्बु ) संज्ञा, पु० (सं० अम्ब+ ( भीष्म पितामह के विवाह न करने पर उ ) पानी, जल, सुगन्धबाला, जन्मकुंडली जल कर ) शिखंडी के रूप में उत्पन्न होकर के १२ स्थानों में से चतुर्थ स्थान, चार की भीष्म की मृत्यु की हेतु हुई । अंबष्ठा, पाढ़ा, संख्या। संज्ञा, पु० (दे० । श्राम, अँवचा (दे०) अंबुकण-संज्ञा, पु० (सं० ) ( यौ०, अंबु"अंबाफल, छाँड़ि कहा सेवर कोधाऊ । सू० पानी + कण) श्रोस, शीत, तुषार। बाड़ा-संज्ञा, स्त्री० (दे०) श्रामड़ा। | अंबुकंटक-संज्ञा, यो० पु० (सं०, अंबुअंबापोली-संज्ञा, स्त्री० (हिं. अंबा+पोलि पानी+कंटक काँटा ) मगर। -रोटी ) अमावट अमरस । अंबुज-संज्ञा, पु. (सं० ) जल से उत्पन्न अंबार--संज्ञा, पु. ( फा० ) ढेर, समूह | वस्तु, कमल, बेत, शंख, घोंघा, ब्रह्मा, अँबार (दे०) वज्र । स्त्री-अंबुजा-लघमी, कमलिनी। "अंबर को लग्यौ है अंबार सभा मांहि अरु" अंबुजन्म (अंबुजन्मा)--संज्ञा, यौ० (सं० ) अंबारी-संज्ञा, स्त्री. ( अ० अमारी ) हाथी - कमल, पद्म, ब्रह्मा, श्री। की पीठ पर रखने का हौदा, जिसके ऊपर | अंबुद-संज्ञा, पु० वि०. (सं० ) जल देने छज्जेदार मंडप भी रहता है, छज्जा। वाला, बादल, मेघ, बारिध नागर मोथा। अंबालिका-संज्ञा, स्त्री० (सं० अंबाला-+ अंबुधर-- संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) पानी का ढक् + आ ) माता, मां, अंबष्टा लता, पाढा, धारण करने वाला, बादल, वारिधि, मेघ । काशिराज इंद्रद्युम्न की सब से छोटी कन्या, | अंबुधि- संज्ञा, पु० (सं० ) समुद्र, सागर, जिसे भीष्म अपने भाई विचित्रवीर्य के | सिंधु, जलधि, वारिधि । लिये हर लाये थे, राजा पांडु के पीछे अंबुनिधि-संज्ञा, यो० पु० (सं० अंबु+ यह अपनी सास सत्यवती के साथ वन | निधि ) पानी का ख़जाना, सागर, समुद्र चली गई थी। जलधि, वरुण । अंबिका-संज्ञा, स्त्री० (सं० अम्बा+ इक् | अंबुप- संज्ञा, पु. (सं० ) समुद्र, वरुण, +आ ) माता, जननी, मां, दुर्गा, देवी, शतभिष नक्षत्र। भगवती, पार्वती, जैनियों की एक देवो, अंबुपति-संज्ञा, यौ० पु. ( सं०-अंबु+ कुटकी का पेड़, पादा, काशी नरेश की पति)-सागर, वरुण ।। मध्यमा कन्या जो विचित्रवीर्य से व्याही अंबुभृत्-संज्ञा, पु. (सं० ) बादल, सागर, गई थी, जिसके पुत्र धृतराष्ट्र थे, पांडु के नागर मोथा। For Private and Personal Use Only Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अंबुबाहु २१ ग्रंशुधर अंबुवाह-संज्ञा, पु० दे० (सं०, अंबु+ अंश-संज्ञा पु० (सं०) भाग, विभाग, हिस्सा, वाह)-बादल। बाँट, भाज्य, अंक, भिन्न की लकीर के ऊपर अंबुराशि - संज्ञा, यौ० पु. (सं० अंबु+ का अंक, चौथा भाग, कला, सोलहवाँ राशि ) सागर। हिस्सा, वृत्त की परिधि का ३६० वाँ हिस्सा अंबुरुह - संज्ञा, पु० यौ० (सं० – अंबु -+- जिसे इकाई मानकर कोण या चाप का रुह ) सरोरुह, कमल. पद्म । प्रमाण कहा जाता है। लाभ का हिस्सा, अंबुवाह-संज्ञा, यौ० पु. ( सं० अंबु+ कंधा, बारह श्रादित्यों में से एक, चाणक्य, वाह ) बादल, बारिद।। अंशक-- संज्ञा पु० (सं०) भाग, टुकड़ा, दिन, अंबुवेतस-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) जल में दिवस, साझीदार, हिस्सेदार, पट्टीदार, अंशहोने वाला एक प्रकार का बेंत। धारी । वि०-बाँटने वाला. विभाजक । अंधा--संज्ञा, पु० (दे०) श्राम, “ मौरे | आँशिका-स्त्री० ।। अँबुवा श्री दुमवली, परिमल फूले - सूबे० अंशपत्र - संज्ञा, पु० यौ० (सं० अंश-पत्र) अंबुशायी- संज्ञा, पु० (सं० ) विष्णु । पट्टीदारों या साझीदारों का भाग-सूचक अंबोह-संज्ञा, पु. ( फा० उ०) भीड़- काग़ज़ । भाड़, मँड, समूह । अंशल-संज्ञा, पु० (सं०) चाणक्य । अम्भ-संज्ञा, पु. (सं० अम्भस् ) जल, अंशावतार—संज्ञा, पु० यौ० ( सं० अंश+ पानी. देव, या पित लोक, लग्न से चतुर्थ अवतार ) परमात्मा का वह अवतार जिसमें राशि, देव, असुर, पितर, चार की संख्या। उसकी शक्ति का कुछ ही अंश हो, जो अंभस-संज्ञा, पु० (सं०) अंभ, पानी आदि।। पूर्णावतार न हो। अंभस्तुति-संज्ञा, यो० स्त्री० (सं० अंम्भस् | अंशांश-- संज्ञा, पु० यौ० (सं०, अंश+ अंश) +तुष्टि ) चार आध्यात्मिक तुष्टियों में से भाग का भाग। एक (सांख्य )। अंशसुता--संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं० अंश+ अंभनिधि-संज्ञा, यौ० पु. ( सं०-अंभ+ | सुता) यमुना नदी। निधि ) अंभानिधि-समुद्र, सागर । अंशो- वि० (सं० अंशिक) अंशधारी, देवअंभोज-संज्ञा, पु. ( सं०-अम्भस्-जन् शक्ति से युक्त, अवतारी। संज्ञा पु०-साझीदार, +ड् ) कमल, चंद्र, मोती, सारस । अवयवी, हिस्सेदार, स्त्री० अंशिनी। अंभोद-संज्ञा, पु. ( सं० अम्भस्- द) अंशु--- संज्ञा पु० (सं०) किरण, प्रभा, सूत, जलद, अभ्र, मेघ । लेश, सूर्य, लता का एक भाग, सूचम भाग, अंभोधर-संज्ञा, पु० (सं०) बादल, रश्मि, मयूख, तेज, दीति, ज्योति । वारिद, समुद्र । अंभोराशि- संज्ञा, यौ० पु. (सं० )समुद्र। अंशुक - संज्ञा पु० (सं० अंशु+ क) पतला अंभोरुह--संज्ञा, पु० (सं० ) कमल । या महीन वस्त्र, रेशमी कपड़ा, उपरना, अंभाधि--संज्ञा, पु. ( सं० ) सागर, समुद्र । दुपट्टा या द्विपटा, ओढ़नी, तेज-पात । अंभोनिधि-सज्ञा, यौ० पु. ( सं० ) सिंधु, | अंशुजाल-संज्ञा पु० यौ० (सं० अंशु+ जाल) सागर। - रश्मि -समूह । अँवरा (ौरा, अमरा, अँवला दे० )- अंशुधर-संज्ञा, पु० यौ० (सं० अंशु+धर) संज्ञा, पु० (दे०) यामला, आंवला । रश्मिधारो, सूर्य, अग्नि, चंद्र, दीपक, देवता, अवदा-वि० (प्रान्ती० ) औंधा। | ब्रह्मा, प्रतापी। For Private and Personal Use Only Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २२ अंशुनाभि अकड़ अंशुनाभि-संज्ञा, यौ० स्त्री० (सं० अंशु+ स्वधर्म-त्याग, कल्मष, अघ, अपराध, नाभि ) वह बिंदु जहाँ सामानान्तर प्रकाश- | दुष्कृत । किरणें तिरछी और एकत्रित होकर मिलती अंहस्पात-संज्ञा, पु० (सं० ) क्षयमास । हों। अंहडी-संज्ञा, स्त्री. (?) एक लता, अंशुमान-संज्ञा. यौ० पु० (सं० अंशु+मान) । बाकिला। सूर्य, चंद्र, अयोध्या का एक सूर्यवंशीय प्रक-संज्ञा पु० (सं०) पाप, दुःख, पीड़ा। राजा जो सगर नृप के पौत्र और असमंजस अकउया ( अकौवा) संज्ञा पु० (दे०) के पुत्र थे, यही कपिल मुनि के आश्रम से __ अर्क, मदार, अकवन । सगर का यज्ञाश्व अपने ६० हजार चाचाओं प्रकंटक-वि० (सं० अ---कंटक ) बिना के भस्म हो जाने पर लाये थे और यज्ञ काँटे का, निर्विघ्न, बेखटके, वाधा-रहित, पूरा कराया था, साथ ही गरुड़ जी से | शत्रुहीन, अविरोधी, बेरोक-टोक, मिरुपाधि । पितृव्यों के उद्धार का उपाय जाना था। अकंपन-वि० (सं०, अ+ कंपन) कंपन( हरिवंश पु० वनपर्व ) । रहित, दृढ़, स्थिर, एकरावस, वि० अपित अंशुमाली-संज्ञा, पु० यौ० (सं० अंशु+ अकंप्य । माली) अंशुनों या किरणों की माला रखने अका-- वि० (सं० अ-कच-पाल)-बिना वाला, सूय, चंद्र, अग्नि, दीपक, देवता | बालों का, संज्ञा, प० केतु नामक ग्रह । आदि। अच्छ - वि० (सं० अ-+कच्छ या कक्षश्रम-संज्ञा, पु० (दे०) अंश, भाग, “वाम धोती) नग्न, नंगा, व्यभिचारी, लम्पट, जैन अंस लसत चाप" "कबहुँक बैठि अंसु भुज साधु, जिन्हें निग्रंथ भी कहते हैं। परस्त्रीधरि के" सूर। गामी। अंसल-वि० (सं०) बलवान, पराक्रमी ।। अकछ-वि० (दे०) अकच्छ । असु-संज्ञा, पु० (सं० अंशु ) अंशु, किर- श्रकट-वि० (हिं०) जो काटा न जा सके णादि । श्रासू-" सुमिरि सुमिरि गरजत _(सं० अकाट्य)। जल-छाँड़त अंसु सलिल के धारे।" अकटक-क्रि० वि० (हिं०) विस्मय की दृष्टि * सुधा (अँसुवा) संज्ञा, पु० दे०) आँसू, | से देखना। (सं० प्रश्र ) “ रहिमन अँसुवा बाहरे, बिथा अकाट्य- वि० (सं० अ + काट्य) न कटने जनावत हीय ।" वाला, दृढ़। अँसुधान-(बहुवचन)। अकड़--संज्ञा, स्त्री० (सं० श्रा-भली भाँति + अँसुवाना-अ० क्रि० (हिं आँसू ) अश्रु- कट्ट-कड़ा होना) ऐंठ, तनाव, मरोड़, बन्ध, पूर्ण होना, आँसू से भर जाना। घमंड, अहंकार, शेख़ी, ढिठाई, हठ, अड़, अहं-संज्ञा, पु० ( सं० अंहस् ) पाप, दुष्कर्म, | ज़िद, बाँकापन, लड़ना। अपराध, विघ्न, वाधा, दुःख, व्याकुलता। मु० अकड़ दिग्बाना--- ऐंठ, घमंड, स० उ० पु. एक ब० (सं० ) मैं। शेखी दिखाना, रोब, धमकी। अकड़ अहँडा-संज्ञा, पु. (दे० ) तौलने का एक | रखना- हठ करना, घमंड रखना। अकड़ बाट । निकालना-घमंड, शेख़ी, ऐंठ दूर करना । अंहनि-अंहनी-संज्ञा, स्त्री० (सं० अंह-+-ति) अकड़ जाना- लड़ना । अकड़ में -दान, त्याग, पीड़ा। श्राना- हठ में श्राना, घमण्ड में आना, अंहसू-संज्ञा पु. (सं०, अंह-+प्रस् ) पाप, अकड़मकड़-ऐंठ से चाल, गर्व । For Private and Personal Use Only Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अकड़ना प्रकर अकड़ना--प्र० क्रि० (सं० आ-अच्छी तरह | अकद-संज्ञा, पु० (सं०) प्रतिज्ञा, वचन, +कड-कड़ापन ) सूख कर सिकुड़ना, टेढ़ा | वादा। होना, कड़ा पड़जाना, ऐंठना, मरोड़ना, | अकदबंदी-संज्ञा, स्त्री० ( हिं० ) प्रतिज्ञाठिठुरना, सुन्न होना, शरीर को तनाना, पत्र, इकरारनामा। शेखी करना, घमंड करना, ढिठाई, हठ, | *कधक संज्ञा, पु. ( हिं० धक ) आशंका, ज़िद करना, अड़जाना, चिटकना, गुस्सा | श्रागा-पीछा, भय, डर, सोच-विचार। दिखाना, रोब या धमकी दिखाना, संज्ञा | अकनना-क्रि० स० (सं० आकर्णन ) कान अकड़, अकड़ाव अकड़पन । लगाकर सुनना, आहट लेना, उनाना (दे०) अकड़बाई-संज्ञा स्त्री० यौ० (सं० कडु- अकना- अ० क्रि० (सं० पाकुल ) ऊबना, कड़ापन+वायु ) ऐंठन, देह की नसों का घबड़ाना। पीड़ा के साथ खिंचना या तनना। अकनि वि० (सं० आकर्य) सुनकरअकड़बाज़-वि० (हि० अकड़बाज़-फा०) "तुएँग नचावहि कुँवर, अकनि मृदंग शेखीबाज़, घमंडी। निसान, रामा० नगर सोर अकनत सुनत अकड़बाज़ी-संज्ञा, स्रो० (हि० अकड़+फा० अति रुचि उपजावत " सूबे । बाज़ी) ऐंठ, शेखी, घमंड, । अकपट-संज्ञा, पु० (सं० अ+कपट) कपटअकड़ाव-संज्ञा, पु० (हि. अकड़ ) ऐंठन, हीन, सरल, सीधा, छलहीन, अकपटता खिंचाव। -संज्ञा भा० स्त्री०-सरलता। अकड़न-वि० ( दे० ) अकड़बाज, अकड़ अकबक - संज्ञा, स्त्री. (अनु० दे० अक+ बक ) निरर्थक वाक्य, व्यर्थ बकना, अनाप-(प्रान्ती० ) अकड़ा--संज्ञा, पु. ( हि० ) रोग विशेष, शनाप, अटाँय शटाँय, अंड-बंड, असंबद्ध खिंचाव, तनाव, ऐंठन । प्रलाप, धड़क, खटका, छक्का-पंजा, चतुराई वि० (सं० अवाक् ) भौचक्का, निस्तब्ध । *अकत-वि० (सं० अक्षत) समूचा, अकबकाना-अ० क्रि० (सं० अवाक् ) पूरा, क्रि० वि० सरासर, बिलकुल । चकित होना, भौचक्का रह जाना, घबराना। *अकत्थ-वि० (दे०) अकथ । (संज्ञा भा०) अकबकी अकबकाहट । अकश-वि. ( सं० अ+कथ) न कहने ! अकवरी-- संज्ञा, स्त्री० (सं० अ+कबरी योग्य, कथन-शक्ति से परे या बाहर, --बालों का गुच्छा) बालों से रहित, जो न कहा जा सके, अनिर्वचनीय, (फा०) अकबर की, एक प्रकार की मिठाई, अवर्णनीय । लकड़ी पर एक प्रकार की नक्काशी । अकथनाय - वि० (सं० ) अवर्णनीय, | अकबाल--संज्ञा, पु० दे० ( फा० इकबाल) अनिर्वचनीय । प्रताप, भाग्य, स्वीकार । अकथ्य-वि० (सं०) न कहा जाने योग्य, अकर-वि० (सं० ) न करने योग्य, कठिन अकथनीय। " कर-अकर दुमाहे पग--." रत्नाकर । अकायतव्य-संज्ञा, पु० (सं०) अवक्तव्य । (अ-कर) बिना हाथ का, हाथ-रहित, प्रकथा-संज्ञा, स्त्री० ( सं० ) कुकथा, मंद बिना कर या महसूल का, आकर, कथा, अपभाषा। खानअकथित-वि० (सं० अ+कथ+ इत ) न "हिम कर सोहै तेरे जसके प्रकर कहा हुआ । (स्त्री०) अकाथता । | सो" भू० For Private and Personal Use Only Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रकरकरा श्रकल अकरकरा-संज्ञा, पु० (सं० पाकरकरभ ) करुणारहित, निर्दय, निष्ठुर, निर्भय, क्रूर, एक जंगली औषधि । __ कठोर, करुणा, कृपाहीन । अकरखना*--स० क्रि० (सं० आकर्षण) अकर्ण-संज्ञा, पु. ( सं० अ+कर्ण ) कर्ण खींचना, तानना, चढ़ाना. आकर्षण. रहित, वधिर, बहिरा, बूचा, साँप । श्राकरखन (दे०)। अकर्णी-वि० (सं० ) असंगत, अनुचित, प्रकरण-संज्ञा, पु० (सं०) अकरन (वि० अकर्तव्य । अकरणीय) काभाव, कर्म का फल-रहित अकर्तव्य-वि० (सं० अ+ कर्तव्य ) न होना, कारण-रहित, अनुचित या कठिन करने योग्य, अनुचित, अकरणीय ।। कार्य,इंद्रिय, साधन या कारण-रहित, ईश्वर, अका -वि० (सं० अ+कतो) कर्म न निष्कारण, न करने योग्य । वि० ( सं० करने वाला, अकमण्य, जो कमों से निलिप्त अकारण-बिना कारण का। हो (साँख्य) कर्म से पृथक् । अकरता वि० प्रकरणीय-वि० (सं०) न करने के योग्य, | दे० (पु.)। अकरनीय (दे०) अकर्तृक-संज्ञा, पु. ( स० ) बिना कर्ता अकरा--वि० (दे० ) (सं० अक्रय्य) | का, कतो या रचयिता से रहित, जिसका मँहगा, अमूल्य, खरा, चोखा, श्रेष्ठ, उत्तम, कर्ता या रचयिता न हो। संज्ञा, पु० (हिं०) एक प्रकार का अन्न। अकर्म- संज्ञा, पु. (सं० अ+कर्म ) न अकराना--क्रि० अ० (प्रान्ती०) एक प्रकार करने के योग्य कार्य, बुरा काम, कर्म का का दुस्स्वाद जो किसी चीज़ के बिगड़ जाने अभाव, पाप, अपराध, अधर्म, बुराई. पर खाने योग्य नहीं रहता। वि०-बेकार, काम-रहित निगोड़ा, चांडाल अकरी-स्त्री०-" नफा जानिकै ह्यां ले आये अपराधी, - अकरम (दे०) सबै वस्तु अकरी" " नाम प्रताप महा महिमा | अकर्मक-संज्ञा, पु. ( स० अकर्म - क ) अकरे किये खोटेउ छोटेउ बाढ़े"- कवि०- कर्म की आवश्यकता न रखने वाली क्रिया अकराथ-वि० (सं० अकारथ) व्यर्थ । (व्या०), कर्म-रहित । अकरात-वि० (सं० अ-कराल ) जो अकर्मण्य-वि० (सं० ) कुछ काम न 'भयंकर या भयावह न हो। करने वाला, बालसी, निकम्मा, काम करने अकरास-संज्ञा, स्त्री० (हि० अकड़) अँगड़ाई के अयोग्य, निठल्ला। सुस्ती, देह टूटना ( प्रान्ती० ) हानि करना, अकर्मा- वि० (सं०) बेकार, अकर्मण्य, सुस्त । कष्ट, दुग्य, बुरा, (सं० अकर ) अकर्मी-संज्ञा, पु. ( सं० अकर्मिन् ) बुरा अकरासू-वि० स्त्री० (हि. अकरास ) काम करने वाला, पापी, दुष्कर्मी, अपराधी, गर्भवती । ( अव० ) अकरास । (स्त्री०प्रकर्मिणी) अकर्षण-- संज्ञा, पु. ( सं० अाकर्षण ) अकराह-संज्ञा पु० (हि० अ कराह-करा अकर्षन, ( दे० ) खिंचाव।। हना) न कराहना। अकल-संज्ञा, पु. ( सं० अ-+ कला ) अकरी-संज्ञा स्त्री० (सं० आ-अच्छी तरह --- अंगहीन, निरंग, निरावयव, निराकार, किरण बिखरना) हल में लगाया जाने वाला परमात्मा, अखंड, सिख संप्रदाय के ईश्वर बाँस का चोंगा जिसके द्वारा खेत में बीज का एक नाम । बिकल वि०-( उ०) बखेरे जाते हैं। अ- कल-चैन - बेचैन, बिकल, व्याकुल प्रकरुण-संज्ञा, पु. (सं० अ- करुण ) | संज्ञा, . स्त्री० ( फ़ा० अक्ल.) अकिल (दे०) HTHHTHE For Private and Personal Use Only Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रकलंक अकाथ बेचैनी। अक्ल, बुद्धि, अकलता-भा० संज्ञा, स्त्री० अकसीर-संज्ञा, स्त्री. (अ.) धातु को सोना या चाँदी बनाने वाला रस या भस्म । अकलंक-वि० (सं० ) निष्कलंक, दोष- रसायन, कीमिया, प्रत्येक रोग को नष्ट हीन, बेऐब, बेदाग़, निर्दोष, न बदनाम, | करने वाली औषधि, वि०-अव्यर्थ, अचूक । अलांछित । अकस्मात् --- क्रि० वि० (सं० ) अचानक, अकलंकता-भा० संज्ञा, स्त्री. (सं० ) अनायास, सहसा, दैवयोग से, संयोगवश, निर्दोषता, कलंक-हीनता, "अकलंकता कि आप से प्राप, बलात्, अचानक, हठात् । कामी लहई" रामा० । अकह-वि० - देखो अकथ, (हिं० अ+ अकलंकित-वि० ( (सं.) निष्कलंक, । कह)" कीन्हीं सिवराज वीर अकह कहानिर्दोष । नियाँ- भू." अकलखुरा:- वि० (हिं. अकेला+फा० | अकहुवा--वि०-देखो अकथ । खोर ) अकेला खानेवाला, स्वार्थी, रूखा, अका-वि० (सं०) निर्बोध, जड़मूद, पागल । मनहूस, डाही, ईर्षालू जो मिलनसार न हो। प्रकांड-वि० (सं० अ+ कांड ) अखंड, प्रकलबीर-~-संज्ञा, पु. ( सं० करबीर ? ) बिना शाखा का, क्रि० वि० अचानक, भाँग का सा एक पौधा, करमबीर, बज्र । | अकारण, अकस्मात् (अ+कांड=घटना), प्रकपन-संज्ञा, पु. ( हिं. आक) पाक, घटना-रहित । मदार । अकांड तांडव संज्ञा, पु. (सं० ) व्यर्थ प्रकल्पन-संज्ञा पु. (सं० अ-1-कल्पना) | की उछल-कूद, व्यर्थ की बकवाद, वितंडसत्य, प्रकृत, यथार्थ, वास्तविक । बाद। अकल्पना। अकांड-पात-संज्ञा, पु. ( सं० ) होते ही अकल्पित-वि० ( सं० अ+ कल्पित ) मरने वाला। कल्पना-रहित, सञ्चा। अकाज-संज्ञा, पु. ( सं० अ+कार्यअकल्याण-संज्ञा, पु० (सं० अ+कल्याण) | काज ) कार्य-हानि, हानि, नुकसान, विघ्न, अमंगल, अशकुन, अशुभ, अमंगल, बुरा। बिगाड़, बुरा कार्य, खोटा काम, क्रि० वि०. प्रकल्मष-संज्ञा, पु. (सं० अ+कल्मष) व्यर्थ, निष्प्रयोजन । निष्पाप । प्रकाजना-अ० क्रि० ( हिं . अकाज ) हादि अकवार -संज्ञा, पु. ( हिं० दे० ) काँख, होना, गत होना, मरना, कि० स०-हानि गोद, कुक्षि । करना, हर्ज करना। प्रकस-संज्ञा,पु० ( सं० अाकर्ष ) बैर, डाह, | अकाजी*-वि० (हिं० अकाज) कार्य-हानि विरोध, " काम काहे बाइकै देखाइयत | करने वाला, बाधक, स्त्री-प्रकाजिनआँखि मोहि, एतेमान अकस कीबे को कार्य बिगाड़ने वाली। आपु प्राहि को" कवि०, द्वेष, शत्रुता, बुरी अकट्य-वि० (सं० अ-+-कट+य ) न उत्तेजना (फा० अक्स)-~-छाया, प्रतिबिम्ब, कटने के योग्य, जो कट या काटा न जा (दे०)-आकाश। सके, अखंडनीय, दृढ़। अकसर-कि० वि० (अ.) प्रायः, बहुधा, | अकाथ-क्रि० वि० (दे०) अकारथ, वृथा, अधिकतर क्रि० वि० (सं० एक+सर ) व्यर्थ भयो है सुगमतो को अमर-अगम, अकेले, बिना किसी के साथ । " कवन हेतु | तन समुझि धौंकत खोवत वि०-अकथ, . मन व्यग्र करि अकसर आएहु तात" रामा० | अकथनीय । अकाथ-वि० भा. श. को०-१ For Private and Personal Use Only Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रकामी अकिंचनक अकामी-वि० (सं०७-+-काम) बिना कामना | अकाल पुष्प-संज्ञा, यौ० पु. (सं०' का, कामना-रहित, निस्पृह, काम-रहित, अकाल कुसुम । जितेन्द्रिय, इच्छा-विहीन, क्रि० वि० --(सं० अकाल मूर्ति-संज्ञा, यौ० पु. (सं.) नित्य अकर्म ) व्यर्थ, बेकाम, निष्काम निकम्मा, या अविनाशी पुरुष, ईश्वर।। निकाम (दे०) निष्प्रयोजन । अकालमृत्यु-संज्ञा, यौ० पु. (सं० अकाम---वि० (हिं०, सं० ) जितेन्द्रिय (हिं० स्त्री० ) असमय की मृत्यु, असाम बिना काम । यिक मृत्यु, अपक्क मरण । प्रकाय-वि० (सं० अ+काय ) काया या अकालवृष्टि-- संज्ञा, यौ. स्त्री. (सं० देह से रहित, शरीर न धारण करने वाला, कुसमय की वर्षा । जन्म न लेने वाला, निराकार, ईश्वर, काम अकालिक-वि. ( सं० अकाल+इक ) देव, अनंग, अदेह । असामयिक, बेमौका। प्रकार-संज्ञा, पु. ( सं० ) 'अ' वर्ण, (सं० आकार ) स्वरूप, प्राकृति, सूरत-शक्ल, अकाली-संज्ञा, पु० (सं० अकाल+ई-प्रत्य. (सं० अ+कार्य ) (हिं० अ--कार-काम) हिं० ) नानकपंथी साधू जो एक चक्र के साथ बेकार, बेकाम । सिर पर काली पगड़ी बाँधते हैं। प्रकारज -संज्ञा, पु. (सं० अ-कार्य) अकाव:--संज्ञा पु० (दे०) श्राक, मदार कार्य की हानि, हानि, अकाज, हर्ज, “पापु अकौवा (ग्रा०)। अकारज अापनों, करत कुसंगति साथ।" | अकास-संज्ञा, · पु० (सं० आकाश ) अकारण- वि० (सं० अ+कारण ) बिना आसमान, शून्य, “ ढील देत महि गिरि कारण, जिसकी उत्पत्ति का कोई कारण न परत, बँचत चढ़त अकास' । तु. हो, हेतु-रहित, स्वयंभू, क्रि० वि०' बेसबब, अकासदिया-संज्ञा, पु० यौ० ( सं० व्यर्थ, बिना कारण के। आकाश-दीपक ) कार्तिक में जो दीपक अकारन-(हिं०, दे०) बिना कारण । बाँस में बाँधकर आकाश में लटकाया अकारथ ---नि० वि० (सं० अकार्यार्थ ) जाता है। बेकाम, निष्फल, निष्प्रयोजन, व्यर्थ, लाभ अकामबानी-- संज्ञा, यौ० स्त्री. ( सं० रहित, फ़जूल " जन्म अकारथ जात "। आकाशवाणी ) देवबाणी, गगन-गिरा। अकाल-संज्ञा, पु. ( सं० ) अनुपयुक्त समय, अनवसर, “बिनही ऊगे ससि समुझि, अकासबेल-संज्ञा, यौ० स्त्री० (सं० प्रकाशदैहै अरघ अकाल"। वि०-कुसमय, दुर्भिक्ष, बेलि ) अमरबेल, अँवरबेल, आकाश-बौर । कासी -- संज्ञा, स्त्री० (सं० आकाशोय ) दुष्काल, मँहगी, घाटा, कमी, “ कलि बार आकाश से सम्बन्ध रखने वाली, चील, हि बार अकाल परै"-रामा० | ताड़ी-“बाँए अकासी दौरी आई" प० । अकालकुसुम-संज्ञा, यौ० पु. ( सं० अकाल + कुसुम ) बे ऋतु या बिना ठीक | A अकिंचन-वि० (सं०) निर्धन, कंगाल, समय के फूला हुआ फूल, अशुभ, बेसमय जो कुछ न हो, दीन, दुखी, कर्म-शून्य, की चीज़ । संज्ञा, पु०-दरिद्र पुरुष । अकाल जलद-संज्ञा, यौ० पु० (सं० ) अकिंचनता-संज्ञा, भा० स्त्री० (सं०) असमय के बादल । दरिद्रता, दीनता, निर्धनता।। अकाल पुरुष--संज्ञा, यौ० पु. (सं०) अकिंचनक-वि० पु. (सं० ) तुच्छ, प्रससिक्खों के ग्रन्थों में ईश्वर का एक नाम। | मर्थ, अकिंचित्कर। For Private and Personal Use Only Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - अकेल अकिल - संज्ञा, स्त्री० (दे० ) अक्ल ( फा० ) | अकुशल-वि० ( सं० ) अमङ्गल, बुरा, जो बुद्धि । चतुर न हो। अकिलदाढ़-संज्ञा, स्त्री० यौ० (हिं.) अकुशलता-भा० संज्ञा स्त्री० (सं० ) पूर्ण अवस्था पर निकलने वाली डाढ़ या अचतुरता, अमंगलता। अतिरिक्त दाँत। अकुशली-वि० (सं०) कौशलविहीन, अकिल्विष-वि० (सं०) पाप-शून्य, निर्मल। अप्रसन्न । अकूत- वि० दे० (अ+ कूतना) जो कूता न प्रकीक-संज्ञा, पु. ( अ०, फा० ) मुहर जा सके, बे अंदाज़, अपरिमित, "सुनि कै दूत खोदने का लाल पत्थर। अकूत मोद लहि चले तुरत तिरहूता" सूर० प्रकीर्ति-संज्ञा, स्त्री० (सं० ) अयश, अप "नारिनर देखन धाए घर घर सोर अकूत ।" यश, बदनामी *अकीरति (हिं०) अप । सूबे० । कीर्ति । अकूहल*--वि० (दे० ) बहुत, अधिक । प्रकीतिकर-संज्ञा, पु० (सं० ) अपयश अकूपार-संज्ञा, पु० (सं०) सागर, कछुवा, कारी, अयशस्कर। पत्थर, चट्टान । अकुंठ-वि० (सं० ) तीषण, चोखा, पैना, अकृच्छ्र-वि० (सं० ) सरल, आसान । खुला हुआ,-"जीवत बैकुंठ लोक जो अकुंठ | प्रकृत-वि० (सं.) बिना किया हुश्रा, गायो है" - सुन्द०, तीव्र, खरा, उत्तम ।। बिगाड़ा हुआ, जो किसी का रचा न हो, प्रकंठ्य -वि० ( सं० ) जो कुंठित न किया नित्य, स्वयंभू, प्राकृतिक, निकम्मा, बेकाम, जा सके, तीषण । बुरा, मन्दा, कर्महीन- "हौं असौच अकृत प्रकुंठित-वि० (सं० ) जो कुंठित न हो, | __ अपराधी सनमुख होत लजाउँ । “सूबे० । पैना। | अकृति-संज्ञा, स्त्री. (सं०) बुरी कृति, अकुताना-अ० कि० (हि० दे०) ऊबना, करणी। घबड़ाना, उकताना। अकृतज्ञ-वि० (सं०) कृतघ्न, किये हुए अकुताही-संज्ञा स्त्री० (दे० ) ऊब, घबड़ा उपकार को न माननेवाला, अकृतज्ञताहट, बिना कोताही ( कमी) के । सं० भा० स्त्री० (सं०) कृतघ्नता। अकुतोभय-वि० ( सं० भ+कुतः+भय ) प्रकृतघ्न-वि० (सं० ) कृतज्ञ, जो उपकार जिसे कहीं डर न हो, निडर, निश्शंक, माने, जो कृतन न हो। निर्भय, साहसी। अकृतघ्नता-संज्ञा, भा० स्त्री. ( सं० ) कृतज्ञता। प्रकुल-वि० (सं० अ-+कुल ) जिसके कुल में कोई न हो, नीच कुल का, कुलहीन, अकृत्रिम-वि० (सं०) प्राकृतिक, जो बना वटी न हो। अकुलीन, सं० पु० नीचकुल। अकेतन-वि० (सं० ) घर-द्वार-हीन, गृहअकुलाना-अ. क्रि० (सं० माकुलन )। रहित। उतावला होना, घबराना, व्याकुल होना, | अकेल-अकेत्ता-वि० (एक+ला) तनहा, मन होना, बेचैन होना। बिना साथी का, एकाकी, अद्वितीय । संज्ञा, प्रकुलिनी-वि० स्त्री० (हि० ) व्यभि- | पु. निर्जन, निराला। चारिणी स्त्री। यौ०-अकेतादम–एक ही व्यक्ति । अकुलीन-वि० ( स०) नीच कुल का, अकेलादुकेला---एक या दो, अधिक नहीं। कुजाति, छुद्र, संकर, जारज, कमीना, शूद्र ।। संज्ञा, पु०-एकान्त, निर्जन स्थान । For Private and Personal Use Only Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अकेले २८ अक्ल अकेले-क्रि० वि० (हिं. अकेला ) एकाकी, मुंह पर फेरना जिससे नज़र या दृष्टि-दोष केवल, सिर्फ । अकेलेदम, एक ही व्यक्ति, दूर हो जावे। अकेले-दुकेले-एक या दो संज्ञा पु० निर्जन | आँखू-मुंखू-वि० (दे० प्रा० ) झूठ-मूठ । स्थान-अकेले में कहना-एकान्त में अक्त-वि० (सं० ) व्याप्त, संयुक्त, एक बताना। प्रत्यय-जैसे विषाक्त, भीगा, गीला, लिपा। अकोट-वि० (सं० आ+कोटि ) करोड़ों, अक्र*-वि० (सं० अक्रिय) अक बके, अक्रिय । करोड़ तक। वि० (अ-कोटि ) करोड़ अक्रम-वि० ( सं० ) विना क्रम के, बेसिलनहीं, बिना किले का। सिले, क्रमहीन, उलटा-पुलटा, अंडबंड । संज्ञा, अकोतरसौ*-वि० (सं० एकोत्तर शत ) पु० -- क्रमाभाव, व्यतिक्रम । एक सौ एक। अक्रमसन्यास-संज्ञा, पु० (सं.) क्रम से अकोर-संज्ञा, स्त्री० (सं० आक्रोड) तोहफ़ा, . न लिया गया सन्यास, ( ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, भेंट, घूस, अँकोर-(दे० ) संज्ञा पु० वानप्रस्थ के बाद)। अँकवार, गोद। अक्रमातिशयोक्ति-संज्ञा, स्त्री० यौ० ( सं० ) अकोला-संज्ञा, पु० (सं० अंकोल ) एक अतिशयोक्ति अलंकार का एक भेद जिसमें प्रकार का वृक्ष, एक नगर। कारण के साथ ही कार्य कहा जाता है अकोविद --संज्ञा, पु० (सं०) मूर्ख, अदक्ष, (काव्य-शास्त्र)। ऊख का सिरा, स्त्री० अकोविदा- मूर्खा, अक्रान्त- वि० (संज्ञा, अक्रान्त) जो अदक्षा। ग्रस्त न हो। अकोसना*-स० क्रि० (दे० ) गाली देना, अक्रिय-वि० (सं० ) क्रिया रहित, जो कर्म कोसना भला-बुरा कहना। न करे, जड़, निश्चेष्ट, स्तब्ध --अक्रियता अकौपाई-(अकौवा) संज्ञा, पु० (सं० अर्क) भा० संज्ञा स्त्री० ( सं० )। प्राक, मदार, गले का कौश्रा, घंटी। अकर-वि० (सं०) जो क्रूर न हो, सरल, अक्खड़-वि० (हिं० अड़ +खड़ा ) उद्धत, दयालु, कोमल स्वभाव वाला, श्रीकृष्ण के किसी का कहना न माननेवाला, उजडु, चचा, ( संज्ञा पु० ) एक यादव, ये श्वफल्क उच्छखल, झगड़ालू, निर्भय, निडर, असभ्य, | और गान्धिनी के पुत्र थे। इनकी ही राय अशिष्ट, उदंड, जड़, खरा, स्पष्टवक्ता, प्रख- से सत्यभामा के पिता शतधन्वा ने सत्राड़पन संज्ञा भा० (हि.) अक्खड़ता। जित को मार कर स्यमंतक मणि को ली अक्खड़पन-(अक्खड़ता ) संज्ञा, भा० । थी, कृष्ण के डराने पर वह उसे अक्रूर को (हि०) उद्दडतादि, जड़ता, अशिष्टता, देकर भाग गया था, किन्तु पकड़ा जाकर मार उच्छृखलता, असभ्यता, उग्रता। डाला गया। अक्ख र*-संज्ञा, पु० (सं० अक्षर ) वर्ण, | "ऐसे क्रूर करम अक्रूर है कराये जो" अक्षर, अक्खड़ (ड़ के स्थान में र हो कर ) रत्नाकर प्राखर (दे०)। अक्ल-संज्ञा, स्त्री. (अ) बुद्धि, समझ, ज्ञान, अक्खा -संज्ञा, पु. ( सं० अक्ष-संग्रह करना) प्रज्ञा । बैलों पर अनाज आदि के लादने का दोहरा मुक-अक्ल का दुशमन-मूर्ख, बेवकूफ, थैला, खुरजी, गोन ( दे०)। अक्ल का पूरा ( व्यंग्य ) जड़ मूर्ख, अक्ल अक्वोमक्खो -संज्ञा, पु० (सं० अक्ष-+मुख) के पीछे डंडा लेकर दौड़ना-बेवकूफी, दीपक की लौ तक हाथ ले जाकर बच्चे के बेसमझी करना, अक्ल का चरने जाना For Private and Personal Use Only Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अक्लमंद २६ अक्षयकुमार समझ का चला जाना, बुद्धि का लोप या में एक बार घूमती हुई मानी गई है । रथ, अभाव होना। यान, मंडल । संज्ञा स्त्री० अक्षाअक्ल मारी जाना-बुद्धि का नष्ट हो जाना। अक्षकुमार-संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) अक्षयअक्ल से काम लेना-सोच-विचार या कुमार, रावण-सुत । समझ बूझकर बुद्धि से काम करना। अक्षकूट--संज्ञा, पु. (सं.) आँख की अक्ल खर्च करना-समझ को काम में पुतली। अक्षक्रीड़ा-संज्ञा, स्त्री० (सं० यौ० अक्ष+ लाना। __ क्रीड़ा) पांसे का खेल, चौसर । अक्ल खो देना-समझ का लोप होना, | अक्षत-वि० (सं० यौ० अ+क्षत ) साजा, अक्ल गुम होना-बुद्धि का लोप हो जाना, समूचा,बिना टूटा । संज्ञा पु० पूजा के काम अक्ल को बालायताक या दूर करना में आने वाले बिना टूटे चावल, धान का समझ को हटा कर बेसमझी करना । लावा, जौ-अच्छत ( दे० )। अक्ल का मोल लाना-किसी समझदार से अक्षतयोनि-वि० स्त्री० (सं० यौ० अक्षत राय लेना। +योनि ) वह स्त्री जिसका सम्बन्ध पति अक्ल पर परदा पड़ना-बुद्धि का लोप या पुरुष से न हुआ हो, कन्या । होना, समझ का काम न करना, दब या अक्षता-वि० स्त्री. (सं० ) अक्षत योनि ग़ायब होना। स्त्री, कन्यका। "पूछा जो उनसे बी कहो परदा कहाँ गया, अक्षपाद-संज्ञा, पु० यौ० ( सं० ) एक बोली जनाब मर्दो की श्रङ्कों पर पड़ गया"।। दार्शनिक ऋषि जिन्हें गौतम भी कहते हैं, अक० । न्यायदर्शन ( शास्त्र) के यही प्रणेता हैं, अक्लमंद-संज्ञा, पु० ( फ़ा ) बुद्धिमान, चतुर, | ६०० से २०० वर्ष पूर्व ईसा के इनका समझदार। होना माना गया है--इनके न्यायदर्शन में अक्लमंदी-संज्ञा स्त्री० बुद्धिमत्ता, समझदारी। ५२८ सूत्र हैं, न्याय (तर्क) से ईश्वर, जीव अक्लान्त-वि. ( सं० अ+क्लान्त ) जो और प्रकृति की सत्ता तथा सम्बन्ध दिखलाते थका या श्रान्त न हो। हुए दुःख की अत्यन्त निवृत्ति या अत्यन्ताअक्लिष्ट-वि० (सं० + क्लिष्ट) सुगम, भाव को मुक्ति कहा गया है इस विद्या को आन्वीक्षिकी या सुनकर अन्वेषण की सहज, आसान। गई विद्या भी कहते हैं । ताकिक, नैयायिक । अक्लेश-वि० (सं० अ+क्लेश ) क्लेश या | अक्षम-वि० ( सं० ) क्षमा-रहित, क्षमताकष्ट-रहित । रहित, अशक्त, असमर्थ, असहिष्णु । संज्ञा, अक्ष-संज्ञा, पु. ( सं० ) खेलने का पाँसा, | भा०-अक्षमता। पाँसों का खेल, चौसर, छकड़ा, गाड़ी, धुरी, | अक्षमता--संज्ञा, भा० स्त्री. ( सं० ) क्षमा पहिया, गाड़ी का जुश्रा, रुद्राक्ष, माशों की | का अभाव , ईर्ष्या असहिष्णुता, असामर्थ्य, तौल, आत्मा, सर्प, गरुड, तराजू की डाँडी | डाह। मामला, मुकदमा, इंद्रिय, आँख, पृथ्वी के अक्षय-वि० ( सं० ) क्षय-हीन, अविनाशी, भीतर केन्द्र से होती हुई रेखा (कल्पित) जो | अनश्वर कल्पान्त स्थायी, अमर, चिरंजीवी, पारपार जाकर दोनों ध्रुवों तक पहुँचती अक्षयकुमार-संज्ञा, यौ० पु० (सं० अक्षय+ हई मानी गई है ( भूगोल ) और जिसपर कुमार ) हनुमान जी से मारा जाने वाला पृथ्वी पूरब से पश्चिम की ओर २४ घंटों | रावण-पुत्र, बहेरा । For Private and Personal Use Only Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अक्षयतृतीया प्रखंडनीय अक्षयतृतीया-संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं० ) अतिगत-संज्ञा पु० (सं०) आँख पर चढ़ा बैसाख शुक्ल तृतीया। हुआ, देखा हुश्रा, शत्रु। प्राखातीज-अकतीज-(दे० हि.)। अतिगोलक-संज्ञा पु० यौ० (सं० ) आँख अक्षयनवमी-संज्ञा, स्त्री० यो० (सं० ) की पुतली। कार्तिक शुक्लनवमी। अक्षितारा-संज्ञा स्त्री० यौ० (सं० ) आँख प्राखानौमी-(दे०)। की पुतली। अक्षयवट-संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) प्रयाग अक्षिपटल-संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) आँख और गया में बरगद के वृक्ष जिनका नाश का परदा। प्रलय में भी नहीं माना जाता-(पौराणिक) अतिषिभ्रम-संज्ञा, पु० यौ० ( सं० ) आँख अक्षय्य-वि० (संज्ञा,) अविनाशी। का घुमाना। अक्षर-वि० (सं०) नित्य, नाशरहित । संज्ञा अतिविक्षेप --संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) पु. आकाशादितत्व वर्ण,हरफ, प्रात्मा, ब्रह्म, कटाक्षपात । आकाश, धर्म, तपस्या, मोक्ष जल, शिव, अक्षुण्ण-वि० (सं०) बिना टूटा हुआ, अपामार्ग (चिचिरा), सत्य, निर्विकार ।। अक्षरन्यास-अक्षर-विन्यास - संज्ञा, पु. अनाड़ी, समूचा, अविकृत, मनस्तापरहित, अधूर्णित । यौ० (सं० ) लेख, लिपि, लिखावट, मंत्र के प्रक्षोट-संज्ञा पु० (सं० ) अखरोट । एक एक अक्षर का उच्चारण करते हुए आँख, प्रक्षोनी-संज्ञा स्त्री० (दे०) प्रक्षोहिणी । कान, नाक आदि का स्पर्श करना, (तंत्रशास्त्र) अक्षोभ- संज्ञा, पु. (सं०) क्षोभ का अक्षर-माला- संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं.) अभाव, शान्ति । वि०-क्षोभरहित, गंभीर, वर्णमाला अक्षर श्रेणी। शान्त, निडर, निर्भय, मोहरहित, बुरे काम अक्षरौटी--संज्ञा, स्त्री० (हि.) वरतनी, वर्ण से न हिचकने वाला। माला, स्वर का मेल (अखरोटी, अखरावट दे०) अक्षरावर्तन-वे पद्य जो वर्णमाला के | | अक्षौहिणी-संज्ञा स्त्री० (सं.) चतुअक्षरों को यथाक्रम लेकर प्रारम्भ होते हैं। रंगिणी सेना, जिसमें १०९३५० पैदल, अक्षवार-संज्ञा पु० (सं.) जुवा खेलने का | ६५६१० घोड़े, २१८७० रथ, और ११८७० हाथी होते हैं। स्थान, जुवाखाना। अक्षांश-संज्ञा पु० (सं० यौ०-अक्ष-- | अक्स-संज्ञा पु. ( म०) प्रतिबिम्ब, छाया, ग्रंश)-उत्तरी और दक्षिणी ध्रव के अन्तर तसबीर, चित्र । के ३६० समान भागों में से प्रत्येक से होती अक्सर क्रि० वि० ( दे० ) अकसर, बहुधा । हुई ३६० कल्पित रेखायें जो पूर्व-पश्चिम | अखंग-8 वि० (सं० अखंड) न चुकने की ओर जाती हुई मानी गई हैं, वह कोण वाला, अविनाशी। जहाँ पर क्षितिज का तल पृथ्वी के अक्ष | अखंड-वि० (सं० ) जिसके टुकड़े न हों, से कटता है । भूमध्य रेखा और किसी समग्र, सम्पूर्ण लगातार, बे रोक, निर्विघ्न । नियत स्थान के बीच में याम्योत्तर का पूर्ण प्रखंडित-वि० (सं०) अविच्छिन्न, निर्विघ्न, झुकाव या अन्तर, किसी नक्षत्र के क्रान्ति- बाधा-रहित । वृत्त के उत्तर या दक्षिण की ओर का | प्रखंडनीय-वि० (सं०) जो खंडित न कोणान्तर। हो सके, जिसके विरुद्ध न कहा जा सके, अति--संज्ञा स्त्री. (सं० ) आँख, नेत्र। पुष्ट, युक्ति-युक्त । For Private and Personal Use Only Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org प्रखंडल प्रखंडल - वि० (सं० अखंड ) अखंड सम्पूर्ण, अविच्छिन्न- संज्ञा पु० (सं०) श्राखं डल । अखज -- वि० (सं० अखाद्य ) न खाने योग्य, बुरा, खराब । खड़ैत -संज्ञा पु० ( हि० अखाड़ा + एत ) मल्ल, पहलवान | खती ( खतीज ) - संज्ञा, स्त्री० ( सं०अक्षय तृतीया ) । अखनी - संज्ञा, स्त्री० ( प्र० यखनी ) मांस का रस, शोरवा । अखबार - संज्ञा, पु० ( ० ) - समाचार पत्र, ख़बर का कागज़ । प्रखय - वि० दे० (सं० अक्षय ) । प्रखर - संज्ञा पु० दे० (सं० अक्षर) श्रखर, वर्णं । अखरना - क्रि० स० (सं० खर) खलना, बुरा लगना, अनुचित, कष्टदायी होना । अखरा - वि० (सं० अ० + खरा सच्चा ) झूठा, बनावटी, कृत्रिम, जो खरा न हो, सं० पु० श्राखर, अत्तर | संज्ञा, पु० भूसीयुक्त जौ का आटा । अखरावट ( अखरावटी ) - संज्ञा स्त्री० दे० रौ । अखरोट - संज्ञा पु० (सं० अक्षोट ) एक प्रकार का फलदार, ऊँचा पेड़ जो भूटान से अफ़ग़ानिस्तान तक होता है । खाई - संज्ञा पु० (दे० ) आखा । अखाड़ा - संज्ञा पु० (सं० अक्षवाट ) कुश्ती लड़ने या कसरत करने का चौखंटा स्थान, साधु की साम्प्रदायिक मंडली, तमाशा या गाने वालों की मंडली, दल, सभा, दरबार, रंगभूमि । अखारा (दे० ) 1 " सूरदास स्वामी ए लरिका, इन कब देखे मल्ल खारे ।” सूबे-सो लंकापति केर44 अखारा " । रामा० । ३१ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रख्याति अखानी – संज्ञा स्त्री० (दे० ) एक प्रकार की टेढ़ी लकड़ी । अखिल - वि० (सं० ) सम्पूर्ण, पूरा, सर्वांगपूर्ण, अखंड | प्रखीन * - वि० दे० (सं० प्रक्षीण ), जो क्षीण या दुर्बल न हो अखीर - संज्ञा, पु० ( ० ) अंत, छोर, समाप्ति, आखीर क्रि० वि० आख़िर - निदान, अंत में, श्राख़िरकार - निदान । अबूट - वि० ( हि० अ० नहीं + खूँटनाकाटना, तोड़ना ) जो न घटे, अक्षय, बहुत, अखंड | प्रखै - वि० दे० (सं० अक्षय ) जिसका नाश न हो । प्रखैव या प्रखैवर - संज्ञा, पु० (सं० अक्षयवट ) यौ - अक्षयवट । खेट - संज्ञा, पु० (सं० आखेट ) श्राखेट, शिकार | अखेटक - संज्ञा पु० (सं० प्राखेटक) शिकारी । अखोर - वि० दे० ( हि० अ + खोट बुरा ) भद्र, सज्जन, सुंदर, साधु प्रकृति का, निर्दोष, वि० ( फा० आखोर) निकम्मा, बुरा, तुच्छ, संज्ञा पु० - कूड़ा करकट, ख़राब घास, बुरा चारा, बिचाली । अखोह - संज्ञा, पु० ( हि० खोह ) ऊंचीनीची, ऊबड़ खाबड़ भूमि, विषम धरातल । खौ श्रखौटा - संज्ञा, पु० (सं० अक्षधुरा) जाँते या चक्की के बीच की कील, गड़ारी के घूमने की लकड़ी या लोहे का डंडा, खूंटी प्रख्खाह - अव्य० उ० ) उद्वेग या विस्मयादि सूचक शब्द । अख्तियार - संज्ञा पु० ( फा० इख्तियार ) अधिकार, अक्त्यार ( दे० ) । प्रख्यान - संज्ञा, पु० दे० (सं० प्राख्यान ) कहानी, कथा । प्रखाद्य - वि० (सं० ) न खाने के योग्य, प्रख्याति - संज्ञा, स्त्री० (सं० ) अकीर्ति, श्रभचय । अपयश, बदनामी | For Private and Personal Use Only Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अगनू अख्यायिका ३२ अख्यायिका-संज्ञा स्त्री० दे० (सं० आख्या- | अगण्य-वि० (सं०) न गिनने योग्य, यिका ) कहानी, कथा। सामान्य, तुच्छ, असंख्य, बे तादाद, अग-संज्ञा पु० (सं० ) न चलने वाला, नगराय। स्थावर, पर्वत, वृक्ष, अचल, टेढा चलने प्रगत*- संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० अगति ) वाला, सर्प, सूर्य वि०-मूर्ख, अज्ञ। दुर्गति, बुरी गति । अगंड-संज्ञा, पु० सं०) कबंध, रुंड, अगति-संज्ञा, स्त्री० (सं०) दुर्दशा, ख़राबी. हाथ-पैर-रहित धड़। मृत्यु के बाद की बुरी दशा, नरक, दाहादि अगज-- वि० ( सं० ) पर्वतोत्पन्न, संज्ञा पु० क्रिया, गति का अभाव, स्थिरता । हाथी, शिलाजीत । "अफजल की अगति, सासता की अपगति, अगटना --अ० कि० (हि० इकठा ) जमा बहलोल की बिपति सों डरात उमराव होना, इकट्ठा होना। अगड़* --संज्ञा, पु० (हि० अकड़ ) अकड़, अगतिक-वि० (सं० अगत+इक) जिसका ऐंठ, दर्प। अगड़-बगड़-अंड-बंड-"अगड़- कहीं ठिकाना न हो, अशरण, निराश्रय, बगड़ तुम काह पढ़ाओ हम पढ़िबे हरि असहाय । नाम ।" अगती- वि० (सं० अगति) बुरी गति वाला, अगड़धत्ता-वि० (सं० अग्रोद्धत ) लंबा पापी, दुराचारी, “अगतिन को गति तडंगा, ऊँचा, श्रेष्ठ, बढ़ा-चढ़ा, ऊंचा, पूरा, दीन्ही-" सूर । वि० पेशगी, क्रि० वि० बड़ा । (सं० अग्रतः) भागे से, पहिले से, अगाऊ । अगड़-बगड़-वि० दे० ( अनु० ) बे सिर- | अगत्या-क्रि० वि० (सं०) आगे चल कर, पैर का, व्यर्थ, क्रमहीन । संज्ञा पु०, असम्बद्ध अंत में, सहसा, अकस्मात, विवश हो, प्रलाप, अनुपयोगी कार्य ।। भविष्य । अगड़ाई-संज्ञा पु० (दे०) अनाज की | अगद-संज्ञा पु० (सं० अ०+गद-रोग) दाना निकाली हुई बाल, खोखली, अखरा। निरोग, आरोग्य, सुस्थ, दवा, औषधि । अगण-संज्ञा पु० ( सं० ) छंद शास्त्र में चार अर्गान-संज्ञा स्त्री० ( स० अग्नि ) आग, बुरे गण - जगण, रगण, सगण और आगी (दे०) अगनी--- (दे० ) अग्नि । तगण, छंद की आदि में इनका रखना अगनिउ- संज्ञा पु. ( सं० आग्नेय ) उत्तरअशुभ माना गया है-"म न भ, य ये पूर्व का कोना । श्रागनी ( अगनि--- उ-- शुभ जानिये, जर, स, त, अशुभ विचार, . हू-भी ) आग भी। छंद आदि वे दीजिये, ये न दीजिये चार | "अगनि होय हिमवत कहूँ, अगनिउ ॥-२० पि० । सीतल होय।" अगणनीय-वि० (सं० ) न गिनने के | अगनित-वि० दे० -( सं० अगणित ) योग्य, सामान्य, अगणित, अनगिनती, असंख्य । असंख्य। अगनी- संज्ञा स्त्री० (सं० अग्नि ) अगिनीअगणित-वि० (सं० ) जिसकी गणना न अगिनि, आग “अगिनि परी तृन रहित हो सके, बहुत, असंख्य, अपार, अगनित थल, आपुहि ते बुझि जाय । (दे०)। अगनू-संज्ञा, स्त्री० (सं० आग्नेय ) अग्नि"अगणित कपि-सेना, साथ ले शक्ति | कोण, दे० - प्रथम गर्भाधान का ७ मास केन्द्र-" मैथि। | पर एक संस्कार विशेष । For Private and Personal Use Only Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir घगनेउ अगला प्रगनेउ संज्ञा पु० (सं० आग्नेय ) आग्नेय अगरई-वि० ( हि० अगर ) श्यामता लिए दिशा, अग्निकोण, दक्षिण-पूर्व का कोना। हुए सुनहला संदली रंग। अगनेत* संज्ञा पु. ( सं० अग्नेय ) अग्नि- अगरचे-अव्य.-( फा० उ०) गोकि, कोण । यद्यपि, बावजूदे कि। अगम-वि० सं० (अ--गम्य ) जहाँ कोई अगरना*-- क्रि० अ० (सं० अग्र ) आगे जा न सके, दुर्गम, दुबोध, कठिन, अवघट, होना, आगे बढ़ना। दुर्लभ, विकट अलभ्य, बहुत, बुद्धि से परे, अगरब- वि० ( सं० अगर्व ) अभिमानअथाह, बहुत गहरा “ अगम सनेह भरत । हीन । रघुबर को-" रामा० सं० पु० दे०- अगरबत्तो--संज्ञा, स्त्री० (सं० अगरबतिका ) प्रागम। यौ० अगर की बत्ती जिसे सुगंधि के लिये प्रगमन-क्रि० वि० (सं० अग्रवान् ) आगे, । जलाते हैं, धूपबत्ती। प्रथम, प्रागे से. पहिले से- अस्ति पाँच अगरवाल-- संज्ञा, पु० (दे० ) दिल्ली से जे अगमन छोय ।" परिचम अगरोहा ग्रामवासी वैश्यों की एक तिन्ह अंगद धरि सड फिराये" प०। जाति विशेष, अग्रवाल । उठि अकुलाइ अगमन लीन, मिलत नैन अगरपार -- संज्ञा, पु० (दे० ) दो क्षत्रियों भरि आये नीर" सूबे०। की एक जाति। अगमनीया-वि० स्त्री. (सं०) जिस स्त्री अगर-बगर-क्रि० वि० (दे० ) अग़लके साथ संभोग करने का निषेध हो । बग़ल-“अगर-बगर हाथी घोरन को अगमनीय-वि० पु० - जहाँ जाने के सोर है" सुदामा० । योग्य न हो। अगरसार-संज्ञा, पु० (दे०) “अगर " अगमानी -- संज्ञा, पु० (सं० अग्रगामी) अगरा*-वि० ( सं० अग्र ) अगला, अगुश्रा (दे० ) नायक, सरदार. ( दे.) प्रथम, श्रेष्ठ, उत्तम, अधिक, ज्यादा। अगवानी-पागे जाकर स्वागत करना। अगरासन - संज्ञा, पु० (सं० यौ० अग्र+ अशन ) भोजन के पूर्व निकाला गया अगमासी-संज्ञा, स्त्री० (दे० ) "अगवाँसी" अतिथि या गो-पास। अगम्य-वि० (सं० ) जहाँ कोई न जा अगरी-संज्ञा, स्त्री० (दे०) एक प्रकार सके, अगम, अवघट, गहन, कठिन, अत्यंत, । की घास (सं० अगल ) व्योंडा, अनुचित् अज्ञेय, दुर्वाध, अथाह। बात, लकड़ी या लोहे का छोटा इंडा जो अगम्या-वि० स्त्री. ( सं० ) जिस स्त्री के । किवाड़ के पल्लों को बंद करने के लिये साथ सम्भोग करना निषिद्ध हो, जैसे गुरु उनके कोढ़ो में डाला जाता है। घास-फूस पत्री, राजपत्नी आदि। के छाने का एक विधान या रीति, संज्ञा, अगर-संज्ञा, पु० (सं० अगुरू)-एक सुगं- स्त्री० (सं० अनर्गल ) उट-पटाँग की बात । धित लकड़ीवाला वृक्ष, एक औषधि, अव्य. अगरु--संज्ञा, पु० (सं० ) अगर की लकड़ी, -(फा० उ० ) यदि, जो। ऊद, चंदन । मुहा०-अगर-मगर करना-हुज्जत अगल-बग़ल-क्रि० वि० (फा०) इधरकरना, सर्क करना, पागा-पीछा करना, उधर, आस-पाप, दोनो ओर । अगर-मगर न होना-शंका, या संदेह अगला--वि० ( सं० अग्र ) ( स्त्रो० अगली) न होना। आगे का, सामने का, प्रथम का, पहिले का, भा० श० को०-५ For Private and Personal Use Only Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अंगना अगहनं पूर्ववर्ती, प्राचीन, पुराना, अागामी, प्राने अगसार -कि० वि० (सं० अग्रसर वाला, अपर, दूसरा। संज्ञा, पु० अगुवा, आगे, पहिले ।। प्रधान, चतुर, पूर्वज, पुरखा ( बहु० अगले ) अगसारी-क्रि० वि०, (दे०) आगे, सामने, अगरो (दे० ) अगला, निपुण (व्रज.)।। " हस्तिक जूह प्राय अगसारी" ५० अगवना-अ० क्रि० (हि. आगे+ना) अगस्त-संज्ञा, पु० (सं० अगत्स्य) आगे बढ़ना, उद्यत होना, सँभालना. अगस्त्य-संज्ञा, पु० (सं० ) एक ऋषि सहना-" अगवै कौन, सिंह की झपटैं" | जिन्होंने समुद्र को सोख लिया था, ये मित्रा. छत्र० बरुण के पुत्र मान हैं, विन्ध्यपर्वत का गर्व अगवाई-संज्ञा, स्त्री० (हि० आगा+अवाई ) खर्व करने के कारण अगस्त्य कहलाये, अगवानी, अभ्यर्थना, स्वागत, " सफदरजंग इनको कुंभज भी कहते हैं, इनका उल्लेख भये अगवाई " सुजा०-मुनि आगमन वेद में भी पाया जाता है, इन्होंने "अगस्त्यसुनत दोऊ भाई, भूपति चले लेन अग संहिता" नाम का एक ग्रन्थ भी रचा था, वाई।" रघु०-संज्ञा, पु० (सं० अग्रगामी) । एक तारा जो भादों में सिंह के सूर्य के आगे चलने वाला, अग्रसर, अगुवा। १७ अंशों पर उदय होता है, इसके उदित अगवाड़ा-संज्ञा, पु. ( सं० अग्रवाट ) घर | होने पर जल निर्मल हो जाता है और के श्रागे का भाग, (विलोम) पिछवाड़ा, वर्षा कम तथा शीत की वृद्धि हो चलती अगवारे (दे० ) अगवारे-पिछवारे (दे०) है. मार्गादि का जल सूख चलता है, राजा श्रागे-पीछे। लोग तभी विजय-यात्रा करते हैं, पितृअगवान-संज्ञा, पु० (सं० अय-+-यान) तर्पणादि का प्रारम्भ होता है-" कहँ अगवानी या स्वागत करने वाला, अभ्यर्थना कुंभज कहँ सिंधु अपारा " " उदित अगस्त करने वाला, विवाह में कन्या पक्ष के लोग पंथ-जल सोखा" - रामा० । जो बारात को आगे से लेते हैं । " अगवा- अर्धचन्द्राकार लाल या सफ़ेद फूलों वाला नन्ह जब दीख बराता"रामा० एक वृक्ष। अगवानी-संज्ञा, स्त्री० ( अग्र --- वान ) । अगस्त्यकूट-संज्ञा, पु० (सं० ) दक्षिण में अतिथि के समीप जाकर आदर से मिलना, एक पर्वत जिस से ताम्रपर्णी नामक नदी निकली है। अम्यर्थना, स्वागत, पेशवाई, विवाह में अगह - वि० (सं० अग्राह्य ) न ग्रहण बारात को आगे से लेने की रोति, संज्ञा, . करने के लायक, चंचल, जो वर्णन और पु० अग्रणी, नेता, अग्रगामी (सं०) चिंतन से परे हो, कठिन, दुर्बोध " निसि" याहीते अनुमान होत है पटपद से बासर यह भरमत इत उत, अगह गही अगवानी" सू० नहि जाई-- सूर०। अगवार-संज्ञा, पु० दे० (सं० अग्र--वर) अगहन-संज्ञा, पु० (सं० अग्रहायण ) हलवाहे आदि के लिये अलग किया हुआ हेमन्त ऋतु का पहिला महीना, मार्गशीर्ष, अनाज का भाग, भूसे के साथ उड़ जाने मगसर। वाला अन्न, (दे० ) अगवाड़ा। अगवार- अगहनिया-अगहनी-वि० (सं० अग्रपिछवार ( दे० )। हायणी ) अगहन में होने वाली फसल, अगवासी-संज्ञा स्त्री० (सं० अग्रवासी ) हल- धान। में फाल लगाने की लकड़ी, पैदावार में हल अगहनी--संज्ञा, स्त्री० (हि. अगहन+ ईवाहे का भाग। । प्रत्य०) अगहन में काटी जाने वाली फसल । For Private and Personal Use Only Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अगहर अगियार अगहर*-क्रि० वि० (आगे+हर ) पागे, अगाह*-वि० (सं० अगाध ) अथाह, बहुत प्रथम, पहिले। गहरा, क्रि० वि० श्रागे से, पहिले से। वि. अगहँड-कि० वि० (सं० अग्र+हि०-हुँड) (फा० आगाह ) विदित, प्रकट, चिन्ताग्रस्त। आगे, श्रागे की ओर। " भवसागर भारी महा, गहिरो अगम अगाउनी -क्रि० वि० (दे०) आगे, संज्ञा, | अगाह".-साखी०।। स्त्री० अगौनी (दे०)। अगाही -संज्ञा, स्त्री० (हि० अगाह ) ( फा० अगाऊ (अगाऊ ) क्रि० वि० दे० (आगा+। आगाही ) प्राथमिक सूचना या संकेत । आऊ-प्रत्य० ) अग्रिम, पेशगी, समय से अगिन* --संज्ञा, स्त्री० (सं० अग्नि ) आग, पूर्व, वि० अगला, आगे का, क्रि० वि० आगे, गौरय्या या बया के समान एक छोटी पहिले, प्रथम । " कौन कौन को उत्तर दीजै चिड़िया, एक तरह की घास, " अगिनपरी ताते भयो अगाऊँ" तृन रहित थल, आपुहिते बुझि जाय ।" अगाडा - संज्ञा, पु० (हि० अगाड) कछार, वि० (अ-+- गिन-गिनना) अगणित, बेतादाद तरी, संज्ञा, पु० (सं० अग्र) पेशखेमा, । यात्रा का सामान जो आगे पड़ाव पर अगिनबोट-संज्ञा, पु. ( हिं० अगिन+ भेज दिया जाता है। बोट-अंग्रे०-नाव ) भाप के इंजन से चलने अगाडी-क्रि० वि० (सं० अग्र० प्रा० वाली नाव, स्टीमर, धुश्राकश । अग्ग + आड़ी, हि. प्रत्य० ) श्रागे, भविष्य में, | अगिनित*-वि० (सं० अगणित ) बेशुमार, सामने, समक्ष, पूर्व, पहिले, संज्ञा, पु. भागे | असंख्य । या सामने का भाग, घोड़े के गराँव में बँधी अगिया-संज्ञा, स्त्री० (सं० अग्नि, प्रा० अग्गि) हुई दो रस्सियाँ जो इधर-उधर दो खंटों से एक प्रकार की घास, नीली चाय, यज्ञ-कुश, बँधी रहती हैं-सेना का पहिला धावा, अगिन घास, एक पहाड़ी पैौदा, जिसके पत्तों हल्ला, ( विलोम)-पिछाड़ो। और डंठलों में विषैले काँटे या रोयें से होते मु०-अगाड़ी मारना-मोहरा मारना, | हैं, घोड़ों-बैलों का एक रोग, अगियासन शत्रु-सेना को आगे से हटाना, (दे० ) भागे। __ कीड़ा। अगाड-क्रि० वि० (दे० ) अगाड़ी, भागे। अगिया कोइलिया-संज्ञा, पु० (हिं० भाग अगाध-वि० (सं०) अथाह, बहुत गहरा, + कोयला ) दो कल्पित बैताल जिन्हें अपार, असीम, समझ में न पाने के योग्य, | विक्रमादित्य ने सिद्ध किया था। दुर्बोध, संज्ञा, पु० छेद, गड्ढा । अगियाना-अ० क्रि० ( सं० अग्नि ) भाग अगान*--वि० (सं० अज्ञान) मूर्ख, सुलगाना, अंगो का दाह-युक्त होना, जल ज्ञान-रहित । उठना, जलाना। अगामैं-क्रि० वि० (सं० अग्रिम ) भागे। अगियाबैताल-संज्ञा, पु० (सं० अग्नि, प्रा०. अगार-संज्ञा, पु० (सं० अागार ) समूह, अग्गि + वैताल ) विक्रमादित्य के दो बैतालों क्रि० वि० (सं० अग्र) आगे, पहिले । में से एक, मुँह से लुक या लपट निकालने " ईसुर कही कि कुंवरजू हजै आप वाला भूत, ब्रह्मराक्षस, बड़ा क्रोधी मनुष्य । अगार "-सु०। अगियार, अगियारी-संज्ञा, स्त्री. (सं० अगास*-संज्ञा, पु० (सं० अग्र+हि.. अग्नि-+-कार्य ) भाग में सुगंधित पदार्थों पास ) द्वार के आगे का चबूतरा, ( दे०- के डालने की पूजन-विधि, धूप देने की प्रकास) (सं० ) आकाश । | क्रिया, संज्ञा, स्त्री० धूप की सामग्री। For Private and Personal Use Only Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अगियासन अगोय अगियासन-संज्ञा, पु. (हिं. आग+ अगुरु-वि० (सं०) जो भारी न हो। सन् ) एक प्रकार की घास, एक कीड़ा, हलका, गुरु से उपदेश न पाने वाला, एक प्रकार का रोग जिसके कारण चमड़े संज्ञा, पु० अगर का वृत्त, ऊद, शीशम । पर फफोले पड़ जाते हैं। अगुवा- संज्ञा, पु० देखो-अगुश्रा, एक पक्षी, अगिला-वि०-देखो ‘अगला" कीड़ा, देवता, मार्ग दिखाने वाला। अगोठा* -- संज्ञा, पु० ( सं० अग्रस्थ ) धागे | अगुवानी- संज्ञा, स्त्री. (दे०) अगवानी, का भाग। स्वागत, श्रभ्यर्थना। अगीत-पछीन*-क्रि० वि०-(सं० अग्रतः अगुसरना-प्र० क्रि० (सं० अग्रसर+ना +पश्चात् ) आगे और पीछे की ओर संज्ञा, | -प्रत्य० ) आगे बढ़ना, अग्रसर होना। पु०-आगे-पीछे का हिस्सा। अगुसारना-स. प्रे० क्रि० (दे०) आगे प्रगुपा (अगुवा )- संज्ञा, पु० दे० (हि. बढ़ाना, “बाम चरन अगुसारल रे"अागा ) भागे चलने वाला, नेता, मुखिया, विद्या। प्रधान, नायक, पथप्रदर्शक, विवाह की अंगूठनाई - स० क्रि० (सं० अवगंठन ) बात-चीत करने वाला। तोपना, ढाकना, घेरना, छेकना, " केहि अगुवाई-संज्ञा, स्त्री० (हिं. आगा+ कारन गढ़ कीन्ह अगूठी"-५० आई ) अग्रणी होने की क्रिया अग्रसरता, अगूठा .. संज्ञा. पु० (सं० अगूढ ) घेरा. प्रधानता, सरदारी, मार्ग-प्रदर्शन “ लेन सुहासिरा। चले मुनि की अगुआई" रघु० । अगूढ़-वि० (सं० ) जो छिपा न हो, " कियेउ निषाद नाथ अगुवाई' रामा० स्पष्ट, प्रकट, सरल, प्रासान संज्ञा, पु० अगुयाना -स. क्रि०(हिं. अागा) अगु गुणीभूत व्यंग के पाठ भेदों में से एक जो श्रा बनना, श्रागे चलना या जाना, नेता वाच्य के समान ही स्पष्ट रहता है । सं० नियत करना, बढ़ना, “संगक सखि अगु भा०-अगूढता-स्पष्टता। श्राइलिरे" विद्या। अगूता-क्रि० वि० (हिं. आगे ) भागे, सामने। "कहै. रतनाकर" पछाये पच्छिराजहू. अगेह-वि० (सं०) गृह-रहित, बेठिकाना, की, बढ़त पुकारहू के पार अगुआये हो।" " --रत्नाकर" अगुवानी-संज्ञा, स्त्री० अगेन्द्र-वि० (सं०-अग-पर्वत + इंद्र+ (दे० ) देखो-" अगवानी" स्वागत, राजा ) पर्वतों का राजा, सुमेरु, हिमालय । अगोचर-वि० (सं०) इंद्रियों के द्वारा अभ्यर्थना। जिसका अनुभव न हो, इंद्रियातीत. अगुण-वि० (सं०) रज, तम, आदि अव्यक्त। गुणों से रहित, निर्गुण, मूर्ख, गुण-रहित, अगोट संज्ञा, पु. ( सं० अग्र+प्रोट-हिं० ) संज्ञा पु० अवगुण, दोष । (दे० ) अगुन, श्रोट, पाड़, श्राश्रय, अाधार । वि० दे० अगुनी-“खल अध-अगुन, साधु " रहिमन' यहि संसार में, सब सुख गुन गाहा।" रामा०। मिलत अगोट।" अगुताना-अ० कि० (दे० ) उकताना, . अगोटना-स० क्रि० ( अग्र+ोट+नाऊबना। प्रत्य०) रोकना, छेकना, कैद करना, पहरे प्रगमन-क्रि० वि०, दे० (सं० अग्र-+ गमन) में रखना, छिपाना, घेरना, क्रि० स०-अंगीआगे, पहिले। | कार या स्वीकार करना, पसंद करना For Private and Personal Use Only Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रगोता ३७ अग्निपरीक्षा चुनना, कि० अ०-रुकना, ठहरना, फँसना। अग्निकोट-संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) समंदर " रसखोट भे ते अगोट प्रागरे में सातौ, नाम का कीड़ा जिसका निवास अग्नि में चौकी डांकि श्रानि घर कीन्ही हद्द रेवा माना जाता है। | अग्निकुंड- संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) आग " सत्र कोट जो भाइ अगोटी" प० जलाने का गढ़ा। जो गुनही तौ राखिये, आँखिन मांहि अग्निकुमार - संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) अगोटि "-वि. कार्तिकेय, दुधावर्धक दवा विशेष । अगोता-क्रि० वि० दे० (सं० अग्रतः) अग्निकीडा--संज्ञा, पु. यौ० (सं०) आतिआगे, सामने-- संज्ञा स्त्री. अगवानी, । शबाज़ी। अगूता। अग्निकुल-संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) क्षत्रियों अगोरना-नि० स० (सं० अग्र ) राह का एक कुल विशेष । देखना, प्रतीक्षा करना, बाट जोहना, अग्निकोण--संज्ञा, पु० यौ० ( सं० ) दक्षिणचौकसी या रखवारी करना, रोकना, “जो पूर्व का कोना। मैं कोटि जतन करि राखति घंघट श्रोटि अग्नि-क्रिया-संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) शव अगोर"-सू० का दाहकर्म, मुर्दा जलाना। अगोरिया-संज्ञा, पु० दे० (हिं. अगोरना) अग्निगर्भ-संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) सूर्यरखवाली करने वाला, पहरेदार, संज्ञा पु. कान्तमणि, आतिशी शीशा। दे० अगीरदार, अगारा. रखवाला। अग्निज--संज्ञा, पु० ( सं० ) अग्नि से उत्पन्न, प्रगाढ़ --- संज्ञा, पु. (हिं. आगे ) पेशगी, अग्नि पैदा करने वाला, अग्नि संदीपक, अगाऊ ( दे० )। पाचक । प्रगौनी*-नि० वि० (सं० अग्र ) श्रागे, अग्निजिह्व--संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) देवता। संज्ञा, स्त्री० अगवानी " इंदिरा अगौनी, इंदु अग्निजिह्वा--संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं० ) आग इन्दीवर अौनी महा, सुन्दर सलौनी, की लपट, ( अग्निदेव की सात जीभे कही गजगौनी गुजरात की "-रवि०। गई हैं-काली, कराली, मनोजवा. लोहिता, प्रगौरा-संज्ञा, पु० (सं० अग्र-ओर ) धूम्रवर्णा, स्फुलिंगिनी, और विश्वरूपी)। ऊख के ऊपर का पतला नीरस भाग, अग्निज्वाला-संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) वि० (अ+ गौर ) जो गौर या गोरा न हो। आग की लपट, आँवला। -साँवला। अग्निदाह-संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) अगों हैं- कि० वि० दे० (सं० अग्रमुख ) जलाना, शवदाह । आगे की ओर। अग्निदीपक-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) अग्नि-संज्ञा, स्त्री. (सं० ) श्राग, ताप, जठराग्नि वर्धक औषधि । प्रकाश, पंच महाभूतों में से एक, वेद के | अग्निदीपन-संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) तीन प्रधान देवताओं में से एक, बाग, पाचन शक्ति की वृद्धि, तद्वृद्धि कारी जठराग्नि, पाचन शक्ति, पित्त, तीन की औषधि। संख्या, सोना, चित्रक वृक्ष, अग्निकोण | अग्निपरीक्षा-संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं.) का देवता, (दे० ) अगिन, अगनी। जलती हुई भाग पर चल कर या जलता अग्निकर्म-संज्ञा, पु. यौ० (सं० ) अग्नि हुआ कोयला, तेल, पानी या लोहा लेकर होत्र, हवन, शवदाह । । झूठ-सच या दोषादोष की परीक्षा करना, For Private and Personal Use Only Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अग्निपुराण अग्रगार्म ( प्राचीन विधान ) सोने चाँदी को श्राग | यज्ञ का रूपान्तरित अग्नि सम्बन्धी वेदोत्त में तपा कर परखना, सीता ने यह परीक्षा | अग्निस्तवन, एक यज्ञ । दी थी। अग्निष्वात्त--संज्ञा, पु० (सं० ) मरीच-पुत्र अग्निपुराण- संज्ञा, पु० यौ० (सं०) अठारह देवताओं के पूर्वज । पुराणों में से एक, अग्निसंस्कार- संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) अग्नि-बाण-आग की ज्वाला प्रगटाने वाला तपाना, जलाना, शुद्धि के लिये अग्निबाण । स्पर्श करना, मृतक-दाह । अग्निवायु-संज्ञा, पु. यौ० (सं० ) पित्ती, अग्निहोत्र-संज्ञा, पु० (सं० ) वेदोक्त मंत्रों रिस पिती, रक्तपित्ती का रोग। से अग्नि में श्राहुति देने की क्रिया। अग्निवीज-संज्ञा, पु. यौ० (सं०) सोना, अग्निहोत्री-संज्ञा, पु० यौ० ( सं०) अग्नि"र" वर्ण । होत्र करने वाला, ब्राह्मणों का एक " का ऽग्निवीजस्य षष्टी '- वैद्य जीवन जाति भेद। अग्निमणि - संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं० ) सूर्य अग्न्याधान- संज्ञा, पु० यौ० ( सं० ) वेदोक्त कान्तमणि, आतिशी शीशा । अग्नि-संस्कार, अग्निहोत्र, अग्नि-रक्षण । अग्निमंथ-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) अरणी | अन्यास्त्र-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) आग वृक्ष, यज्ञार्थ अग्नि निकालने का अरणी निकालने वाला अस्त्र, आग्नेयास्त्र, भाग नामक यंत्र । से चलने वाला अस्त्र, बन्दूक । अग्निमुख-संज्ञा. पु० यो (सं० ) देवता, अन्युत्पात-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) श्राग ब्राह्मण, प्रेत, चीते का पेड़। लगना, आग बरसना. धूमकेतु, उल्काअग्निमांद्य-संज्ञा, पु० (सं०) मंदाग्नि, . पात॥ भूख न लगना। प्रग्य-संज्ञा, पु० (दे० ) सं० अज्ञ-मूर्ख । अग्नियंत्र-संज्ञा, पु. यौ० (सं० ) बन्दूक, अग्या-संज्ञा, स्त्री० (दे० सं० आज्ञा ) तोप, तमंचा। हुक्म, अाज्ञा " अग्या सिर पर नाथ अग्निलिंग- संज्ञा, पु० (सं० ) भाग के तुम्हारी" रामा० वि०-(सं० प्रज्ञा ) मूर्खा । लपट की रंगत, और उसके मुकाव को देख अग्यारी-संज्ञा, स्त्री० (सं०) अग्नि+ कर शुभाशुभ फल कहने की विद्या। कार्य ) अग्नि में धूपादि सुगंधित द्रव्य अग्निवल्लभ-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) सारक डालना, धूपदान, अग्निकुंड । का पेड़, या गोंद। अगियारी-(दे०) धूप, धूपदान । अग्निवंश-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) अग्निकुल । अग्र-संज्ञा, पु० (सं० ) आगे, श्रागे का अग्निशाला-संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं० ) भाग, अगला हिस्सा, अगुवा, सिर, शिखर अग्निहोत्र का स्थान । एक राजा का नाम, मुखिया कि० वि० अग्निशिखा-संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं० ) भाग आगे, प्रथम, श्रेष्ठ, उत्तम । की लपट, कलियारी। अग्रगण्य-वि० (सं० अग्र+गगय ) सबसे अग्निशुद्धि-संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं० ) भाग प्रथम गिनाजाने वाला नेता, प्रधान, छुलाकर किसी वस्तु को शुद्ध करना, अग्नि- मुखिया. श्रेष्ठ, उत्तम । परीक्षा। अग्रगामी-संज्ञा, पु. ( सं० ) आगे जाने अग्निष्टोम-संज्ञा, पु. (सं.) ज्योतिष्टोम | या चलने वाला, नेता। For Private and Personal Use Only Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अग्रज अघाना अग्रज-संज्ञा, पु० (सं० अग्र+ज) बड़ा | अघ-संज्ञा, पु० (सं० ) पाप, पातक, भाई, ब्राह्मण, ब्रह्मा, वि० उत्तम, श्रेष्ठ । । दुःख, व्यसन, दोष, अधर्म, अपराध, अप्रजन्मा- संज्ञा, पु० (सं० अग्र+जन्मा) अघासुर । बड़ा भाई, ब्राह्मण, ब्रह्मा, पुरोहित, वि० घट-वि० (सं० अ- घट—होना ) जो आगे उत्पन्न होने वाला, नेता। घटित न हो, न होने के योग्य, कठिन, अग्रजाति-संज्ञा, स्त्री० (सं०) ब्राह्मण। । दुर्घट, जो ठीक न घटे, स्थिर, अनुपयुक्त, अग्रणो-वि० (सं० ) अगुवा, नेता, श्रेष्ठ । बेमेल, जो न चुके-" दीपक दीन्हा तेल अग्रपश्चात-क्रि० वि० यौ० (सं० अग्र+ | भरि, बाती दई अघट्ट "- साखी, अक्षय, पश्चात् ) श्रागा-पीछा। एक रस । अग्रभाग-वि० (सं० यौ० ) अगला | अघटित-वि० (सं० ) जो घटित न हुआ हिस्सा। हो, असम्भव, न होने योग्य, अनहोनी, अग्रवाल--संज्ञा, पु० (हिं० ) अगरवाल अमिट, अवश्य होने वाला, अवश्यम्भावी, जाति का व्यक्ति। अनिवार्य, अनुचित “काल करम-गति अग्रशोची-संज्ञा, पु. यौ० (सं० अग्र+ अघटित जानी” रामा० वि० (हिं. शोचो ) धागे विचार करने वाला दूरदर्शी, घटना ) बहुत अधिक, जो न चुके । दूरंदेश । अघनाशक--वि० यौ० (सं० ) पाप का अग्रसर-संज्ञा, पु. (सं० ) आगे जाने नाश करने वाला, मंत्र, जप । वाला, मुखिया, नेता, प्रारम्भ करने वाला, अधमर्षण--संज्ञा, पु० (सं० ) पाप को दूर प्रधान, श्रेष्ट, उत्तम, प्रथम । करने वाला संध्योपासन में एक प्रयोग । मु०-अग्रसर होना- आगे बढ़ना, अघवाना- कि० स० (हिं. अधाना ) अग्रसर करना--आगे बढ़ाना । प्रग्रहण-संज्ञा, पु० (सं० ) अगहन का भर पेट खिलाना, सन्तुष्ट करना। महीना। अघाउ-कि० अ० (हिं० ) अघना, तृप्त प्रग्रहायण-संज्ञा, पु० (सं० ) मार्गशीर्ष, होना, " कह कपि नहिं अघाउँ थोरे जल" अगहन मास । रामा० । संज्ञा, पु०-तृप्ति--" ता मिसि अग्रहार-संज्ञा, पु० (सं० ) राजा की अोर | राजकुमार बिलोकत, होत अघाउ न चित्त से ब्राह्मण को भूमि-दान । ब्राह्मण को दी पुनीता" रघु०। हुई भूमि । धान्यपूर्ण खेत, देवत्व, ब्राह्मणत्व, | प्रघाट-संज्ञा, पु. ( देश० ) वह भूमि देवार्पित सम्पत्ति । जिसके बेचने का अधिकार उसके स्वामी को प्रग्राशन- संज्ञा, पु. यौ० (सं० अग्र+ | न हो, बुराघाट। अशन ) देवार्पित भोजन का प्रथम भाग, अघात*-संज्ञा, पु० देखो " आघात" गोग्रास । चोट, प्रहार "बुंद अघात सहैं गिरि अग्राह्य-वि० ( सं० ) न ग्रहण करने के । कैसे" -रामा० योग्य, न लेने लायक, त्याज्य, न मानने | वि० ( हिं० अघाना ) खूब, अधिक । सन्तुष्ट के लायक, तुच्छ, निस्सार, शिव-निर्माल्य। होना, “ को अघात सुख-सम्पति पाई " अग्रिम-वि० (सं०) अगाऊ, पेशगी, अघाना-अ० कि० (सं०अग्रह ) अफरना, आगे आनेवाला, आगामी, प्रधान, श्रेष्ठ भोजन से तृप्त होना, भर पेट खाना या उत्तम। । तृप्त होना, प्रसन्न होना, थकना, " जासु For Private and Personal Use Only Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रघाइ ४० अचभौन कृपा नहिं कृपा अघाती” रामा० " प्रभु अघ्रानना*- स० क्रि० (सं० आघाण ) बचनामृत सुनि न अघाऊँ " - रामा० संघना, गंध लेना। अघाइ-पू० कि० अधाकर, मन भर कर, अच-संज्ञा, पु. ( सं०) स्वरवर्ण, संज्ञा यथेष्ट रूप से। विशेष (व्याकरण ) छिपा कर करना । अधारि-संज्ञा, पु० (सं० यौ० अघ - अरि) अचंचल-वि० (सं० ) जो चंचल या पाप का शत्रु, पापनाशक. श्रीकृष्ण । चपल न हो, स्थिर, थीर, गंभीर । अघासुर- संज्ञा, पु० यौ० ( सं० अघ+ अचंभव-संज्ञा, पु. (सं० प्रसंभव ) मसुर ) बकासुर और पूतना का छोटा अचम्भा। भाई तथा कंस का सेनापति, राक्षस । जो अचमा-संज्ञा, पु० ( सं० असंभव ) आश्चर्य, कृष्ण को मारने के लिये गया था, जिसे अचरज, विस्मय अचरज की बात । अचंभो, कृष्ण ने मारा था। अचंभौ (दे० ब्र०) अघी- वि० (सं० ) पापी, पातकी। अचंभित*- वि० ( हि अचंभा ) चकित, अघोर-वि० (सं० ) सौम्य, जो घोर न विस्मित, श्रारचर्यान्वित । हो. सुहावना, (सं० आघोर ) अति घोर. अचक-संज्ञा, पु० दे० अचानक,अचानचक बड़ा भयंकर, संज्ञा, पु० शिव का एक रूप, अकस्मात्, हठात्, बिना जाने-बूझे। एक सम्प्रदाय जिलके लोग मद्य-मांस. आदि अचकन-संज्ञा, पु. (सं० कंचुक प्रा० भषयाभक्ष्य का सेवन करते हैं और घृणा अंचुक ) लम्बा अंगा। को जीतना अपना उद्देश्य मानते हैं। अचकाँ-नि. वि. अचानक "पै अचकों अघोरनाथ- संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) शिव, आये नहि सूरे"-सुजा० महादेव । | अचक्का- संज्ञा, पु० ( सं० प्रा+चक्र भ्राँति) अघारपंथ- संज्ञा, पु० (सं० ) यौ० अनजान । (अघोर - पंथ ) अघोरियों का मत या अचगरी-संज्ञा, स्त्री० ( सं० अति+ करण ) सम्प्रदाय । नटखटी, शरारत, छेड़-छाड़. बदमाशी । अधारपंथी-संज्ञा, पु० (सं० ) अघोर मत अवगरा - वि०- उत्पाती छेड़-छाड़ का अनुयायी अघोरी, औघड़। करने वाला, नटखट, · जो तेरो सुत खरो अघोरी-संज्ञा, पु० (सं० ) अघोर पंथी, अचगरो तऊ कोख को जायो".- सूबे० औघड़, भच्याभक्ष्य का विचार न करने " लरिकाई ते करत अचगरी में जाने गुन वाला, अधोर मत का अनुयायी। वि० तबही" सूबे० घृणित, घिनौना । ' एते पै नहिं तजत अचना-स० कि० (सं० आचमन ) अघोरी कपटी कंस कुचाली"- सूर०। आचमन करना, पीना। दे. अँचवना - अघोष-संज्ञा, पु. (सं०) वर्णमाला के “लै झारी नृप अचवन कीन्हो"। प्रत्येक वर्ग का प्रथम और द्वितीय वर्ण, श, अचपल-वि० (सं.) अचंचल, धीर, प, और स । वि०-नीरव निःशब्द, ग्वालों गंभोर, (सं० आचपल ) बहुत चंचल, से रहित, अघोस-दे० शोख़ । अघौघ-संज्ञा, पु. ( सं० यौ० अघ-- अचपली-संज्ञा, स्त्री. ( हि० अचपल ओघ ) पापों का समूह । अठखेली, किलोल, क्रीड़ा। अघ्रान -संज्ञा, पु० दे० ( सं० आघ्राण) अचभौन* -- संज्ञा. पु. ( हिं० अचम्भा गंधमय, तथा गंधरहित ( सं० अ + घ्राण )। आश्चर्य । अचभौना-विस्मय की बात For Private and Personal Use Only Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org पु० अचमन प्रचमन - संज्ञा, श्राचमन । प्रवर र - वि० (सं० ) न चलने वाला, ४१ ( सं० आचमन ) स्थावर, जड़ | प्रचरज - संज्ञा, पु० दे० (सं० आश्चर्य ) थारचर्य, अचम्भा, ताश्रजुब श्राजु हमैं (6 | बड़ अचरज लागा १- रामा० । प्राचरज - संज्ञा, पु० दे० (सं० ग्राश्चर्य - अचरज) “ सुनिचरज करें जनि कोई --- रामा० । 1 प्रचल - वि० (सं० ) जो न चले, स्थिर, ठहरा हुआ, चिरस्थायी, ध्रुव, दृढ़, पक्का, जो नष्ट न हो, मज़बूत, पुख्ता, संज्ञा, पु० पहाड़, पर्बत " चित्रकूट गिरि अचल अहेरी ". रामा० जैनियों का प्रथम तीर्थंकर । अचलधृति - संज्ञा स्त्री० (सं० ) एक प्रकार का वणिक वृत्त | प्रचला - वि० स्त्री० (सं० ) जो न चले, स्थिर, ठहरी हुई, संज्ञा, स्त्री० पृथ्वी, भूमि, संज्ञा पु० - एक प्रकार का ढीला और बिना तीन या बाँहों का लम्बा कुरता जो सन्यासी लोग पहना करते हैं । प्रचला सप्तमी - संज्ञा स्त्री० (सं० ) माव शुक्ला सप्तमी । इस दिन के किये कर्म अचल हो जाते हैं इसीसे इसे चला कहते हैं । दे० - चला सातौं । प्रचवन - संज्ञा, पु० (सं० याचमन ) श्राचमन, , पीना, कुल्ला करना, " भोजन करि अचवन कियो " प्रचवना - स० क्रि० (सं० आचमन ) चमन करना, पीना, कुल्ला करना, छोड़ देना, खो बैठना, दावानल अचयो ब्रजराज ब्रज जन जरत बचाये " -- सूबे० । 6 चवाना - स० क्रि० (सं० आचमन ) श्राचमन कराना, पिलाना, कुल्ली कराना । वाई - वि० (दे० ) प्रक्षालित, स्वच्छ | प्रचाक, अचाका* क्रि० वि० (हिं " दिनहिं रात दे० ) अचानक, एकाएक, भा० श० को ० - ६ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रचिंतनीय अस परी चाका, भा रवि अस्त, चंद रथ हाँ " -प० । अचान - क्रि० वि० दे० अचानक । प्रचांचक - क्रि० वि० दे० अचानक, अचांचकी— दे० अचानक - क्रि० वि० दे० (सं० श्रज्ञानात ) एक बारगी, सहसा, अकस्मात, दैवयोग से, हठात् । चार - संज्ञा, पु० ( फा० ) मसालों के साथ तेल में रख कर खट्टा किया हुआ आम आदि फल, कचूमर, थाना, एक फल संज्ञा. पु० (सं० ) श्राचार - श्राचार-विचार, संज्ञा, पु० ( प्रान्ती० ) चिरौंजी का फल, पेड़ । व्यवहार, चाल चलन । अचरज * - संज्ञा, पु० दे० (सं० आचार्य ) देखो - आचार्य | अचारां* संज्ञा, पु० (सं० आचारी ) आचार-विचार से रहने वाला, बिधि पुर्वक नित्य कर्म करने वाला । रामानुज सम्प्रदाय का वैणव संज्ञा स्त्री० ( फा० अचार ) कच्चे ग्रामों की छिली हुई और धूप में सुखाई हुई फाँके । प्रवाह -संज्ञा खो० (हिं० अ + चाह ) अरुचि, अनिच्छा, fro निस्पृह, निरीह, इच्छारहित । $ चाहा - वि० ( हि० दे० ) जिस पर इच्छा या चाह या रुचि न हो । संज्ञा पु० जिस व्यक्ति पर प्रेम न हो, जो प्रेम न करे, निमेोही, जो इष्ट न हो । चाहो * - वि० दे० ( अ + चाह + ई ) न चाही हुई, निःकाम, अनचाही । प्रांत - वि० सं० अचित्य ) न चिंत्य, चिन्ता करने योग्य जा न हो, अज्ञेय, कल्पनातीत, अतुल, आकस्मिक, श्राशा से अधिक, वि० (सं० अचिंत ) निश्चित, चिन्ता रहित, बेफ़िक्र । चिंतनीय वि० (सं० ) जो ध्यान में न या सके, अज्ञेय, दुर्बोध, चिन्ता न करने योग्य | For Private and Personal Use Only Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अचिंतित अच्छाई अचितित वि० (सं० ) जिसका चिंतन न अचाखा-वि० (हि० ) अचेखिी (स्त्री०) किया गया हो, बिना सोचा-विचारा, जो खरा या पक्का न हो, अनुत्तम । आकस्मिक, जिस पर ध्यान न दिया गया | अचाना-संज्ञा पु० (सं० आचमन) प्रचौना हो "शास्त्र अचिंतित पुनि पुनि देखिय"। (दे० ) आचमन करने या पीने का पात्र, निश्चित, बे फ़िक्र । कटोरा, क्रि० अ-आचमन करना। अचिंत्य–वि० (सं० )-कल्पनातीत, जो | अचाप-वि० ( हि० अ-चोप )-क्रोध या चिंतन करने योग्य न हो, अज्ञेय, जिसका आवेश-हीन । अनुमान न किया जा सके, दैवात् । | अच्छ-संज्ञा पु० दे० (सं० अक्षि ) अाँख, अचित्-संज्ञा पु० ( सं० अ + चित् ) जड़, | वि० ( सं० ) स्वच्छ, निर्मल, अच्छा, जो चैतन्य न हो, प्रकृति । " मानहु विधि तनु अच्छ छबि, " वि० अचिर-क्रि० वि० (सं० अ : चिर ) अवि- संज्ञा पु० (सं० अक्ष) आँख, स्फटिक, लम्ब, शीघ्र, जल्दी, तुरन्त, वेग। रावण पुत्र । अचिगत्-क्रि० वि० (सं० अ+चिरात् ) अच्छत-संज्ञा पु० दे० (देखो-अक्षत् ) बिना शीघ्र, तत्काल । टूटे चावल, अखंडित ।। प्रचीता-वि० दे० (सं० अ + चिन्ता हि० ) अच्छर - संज्ञा पु० दे० (सं० अक्षर ) जिसका विचार या अनुमान पहिले से न अक्षर, वर्ण, ब्रह्मा, ईश्वर “ बालरूप हो, असंभावित, आकस्मिक, अनुमान से अच्छर जब कीनौ" छत्र। अधिक, बहुत, ( स्त्री० अचीती ) ( वि० सं० - अच्छर*-( अच्छरी ) संज्ञा स्त्री० दे० अचिन्त ) निश्चित, बे फ़िक, चिन्ता-रहित । ( सं० अप्सरा )-अप्सरा, अपहरा (दे० अचूक-वि० दे० ( सं० अच्युत ) जो न ग्रा० ) देव-वधूटी। चूक सके, जो अवश्य फल दिखलावे, अच्छा-वि० (सं० अच्छ) उत्तम, बढ़िया, अमोघ, ठक, पक्का, भ्रम रहित, कि० वि० श्रेष्ठ, ठीक, भला, चोखा, निरोग, चंगा, सफाई से, चतुरता से, कौशल से, निश्चय, क्रि० वि० अच्छी तरह। अवश्य ज़रूर। पु० अच्छे अाना-ठीक या उपयुक्त समय अचेत-वि० (सं० )-चेतना-रहित, बेसुध, पर पाना, अच्छे दिन--सुख-संपत्ति का बेहोश, मू छत, व्याकुल, विकल, संज्ञा- समय, अच्छा लगना--सुखद या मनोहर शून्य, अनजान, अज्ञान, मूर्ख, नासमझ, होना, सजना, सोहना, रुचिकर होना, मूद, जड़ । संज्ञा पु० (सं० अचित् ) जड़ पसंद आना, स्वीकार-सूचक अव्यय, अच्छा प्रकृति, माया, अज्ञान। अच्छा- हाँ, हाँ, उमदा उमदा, अच्छे से, अचेतन-वि० (सं० ) सुख-दुःखानुभव में, पर, को अच्छा, अच्छा करनाकी शक्ति से रहित, चेतना रहित, जड़, स्वीकार करना, क्रि० वि० खूब, बहुत, संज्ञा हीन, मूर्छित। अधिक, जैसे--हम अच्छा सोये । संज्ञा पु० श्रचेतन्य- संज्ञा पु० (सं० ) जो ज्ञान- बड़ा या श्रेष्ठ व्यक्ति, गुरुजन,-विस्मयादि बोधक स्वरूप न हो, अनात्मा, जड़।। अव्यय-- जैसे “ बहुत अच्छे"-- शाबाश, अचैन-संज्ञा पु० ( अ-1 चैन )-बेचैन, खूब किया, बहुत ठीक, साधुवाद । व्याकुलता, विकलता, वि० - व्याकुल, | अच्छाई-संज्ञा भा० सी० अच्छापन, विकल, विह्वल । सुधराई। For Private and Personal Use Only Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अच्छापन ४३ अछेद अच्छापन-संज्ञा पु० भा० ( अच्छा - पन ) प्रछना*-अ० क्रि० दे० (सं० अस् ) उत्तमता, अच्छा होने का भाव, सुधरता।। विद्यमान रहना, उपस्थित रहना। अच्छा विच्छा - वि० ( हि० अच्छा+ अप*-वि० ( अ-छप-छिपनाा ) न बीछना, चुनना ) चुना हुआ, भला चंगा, | | छिपने योग्य, प्रकट ।। निरोग। अछय*.-वि० (सं० अक्षय ) नाश-रहित, अच्छोत*-वि० दे० ( सं० अक्षत) अधिक, _अखंड। अकरा --संज्ञा स्त्री० दे० ( गं० अप्सरा ), अच्छोहिनी-संज्ञा स्त्री० दे० (सं० अक्षौ- मग, स्त्री० आकरी करन (बहुवचन) हिंगणी ) अक्षौहिणी सेना । स्वर्ग की वेश्या, देवांगना, “ मोहहिं सब अच्युत-वि० (सं० ) जो गिरा न हो, । अछरन के रूपा” “ जनु अछरीन्ह भरा अटल, स्थिर, नित्य, अविनाशी, अमर, कैलासू" - पद्मा० अचल, संज्ञा पु० ( ० ) विगु का एक । संज्ञा पु० (सं० अक्षर, दे० अच्छर आचर, नाम। अकरा आखर ) अतर, वर्ण । अच्युतानंद-संज्ञा पु० (सं० यो. अच्युत + | अकरी* - संज्ञा स्त्री० देखो अछरा । अानंद ), ईश्वर, ब्रह्म, वि० जिसका श्रानंद अछरौटी-संज्ञा स्त्री० (सं० अक्षर + औटी ) नित्य हो। वर्णमाला। अबक-वि० दे० (सं० अ। चक) अछवाई-संज्ञा स्त्री० दे० ( हि० ) सफ़ाई, अतृप्त, भूखा, जो छका न हो, जिपकी शुद्धता, “ भोजन बहुत बहुत रुचिचाऊ तृप्ति न हुई हो। अछवाइ नहि थोर बनाऊ" प० । "तेग या तिहारी मतवारी है अछक तौलौं, | अछवाना*-स० क्रि० दे० (सं० अच्छाजौलौं गजराजन की गजक करै नहीं"भू० साफ़ ) साफ़ करना, सँवारना, सजाना, अछकना-० क्रि०-तृप्ति न होना, न अच्छा बनाना। प्राधाना, कि० वि० अतृप्त, असंतुष्ट । अछवानी-संज्ञा स्त्री० दे० ( हिं० अजवाइन) प्रकृत-क्रि० वि० दे० (कृदंत पालना से ) अजावाइन, सोंठ तथा मेवों के चूण को धी रहते हुए, विद्यमानता में, सामने, सम्मुख, | में पकाया हुआ, प्रसूता स्त्री के खाने योग्य सिवाय, अतिरिक्त, " तुमहि अछत को मसाला, बत्ती, वानी। बरनै पारा" तोर अछत दसकधर मोर | | अछाम* -वि. ( सं० अक्षाम ) मोटा, कि अस गति होय" रामा० । 'गनती भारी, बड़ा, हृष्टपुष्ट, बलवान । गनिबे तैं रहे छत हू अलत समान' वि० | अछूत-वि० दे० (सं० अ+ क्षुप्त) जो छुआ ( सं० अनहीं+ अस्ति-है ) न रहता न गया हो, अस्पृष्ट, जो काम में न आया हुआ, अविद्यमान, अनुपस्थित, वि० (अ+ हो, नवीन, ताज़ा अपवित्र माना जाकर तत) घाव रहित । न छुना गया, अस्पृश्य, कोरा, पवित्र, अछताना-पछताना-अ. क्रि० (हि. संज्ञा पु० -- अन्त्यज ( आधुनिक)। पछताना ) पश्चात्ताप करना, बार बार खेद प्रता-वि० दे० ( स्त्री० प्रानी ) जो प्रगट करना। छुवा न गया हो, अस्पृष्ट, नया, कोरा, अछन*-संज्ञा पु० दे० (सं० अ-न-क्षण) ताज़ा, जो जूठा न हो। बहुत दिन, दीर्घ-काल चिरकाल, क्रि० वि०- | अछेद-वि० दे० (सं० अछेद्य) जिसे छेद धीरे-धीरे, ठहर ठहर कर। । न सकें, अभेद्य, अखंड्य, संज्ञा पु० अभेद, For Private and Personal Use Only Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अछेद्य ४४ निष्कपट, अभिन्नता " चेला सिद्धि सो पावै | बिना श्रम की वृत्ति, अजगर की सी, वि० गुरु सों करै अछेद" प०। बिनाश्रम । अछेद्य-वि० (सं० ) जिसका छेद न हो | “ अजगर करें न चाकरी-" मलूकदास । सके, अभेद्य, अविनाशी। अजगव-संज्ञा पु० (सं० ) शिव जी का अछेव*--वि० दे० (सं० अछिद्र ) बिना धनुष, पिनाक, “ अजगव खंडेउ' उख छिद्र या दूषण के, निर्दोष, बेदाग .. ज्यों,"- रामा० । "सुर सुरानदहु के आनँद अछेव जू".-- अजगुत-संज्ञा पु० दे० (सं० प्रयुक्त, पु. सुन्द। हि० अजुगुति ) जो युक्ति-युक्त न हो, असा. अछेह*--वि० दे० (सं० अक्छेद्य)-निरंतर, धारण बात, अनुचित या असंगत बात, लगातार, ज़्यादा, बहुत अधिक “ धरे रूप आश्चर्य-पूर्ण--"कुदंनपुर एक होत अजगुत गुन को गरब, फिरै अछेह उछाह ” आठौ बाघ हेरी जाय' - सूबे० - वि०–विस्मय. जाम अछेह, दृगु जु बरत, बरसत रहत" कारी, असंगत। वि०। अजगैर-संज्ञा पु० दे० (फा० अज़+अ. अकोप-वि० दे० ( सं० अ- छुप् ) गै ब) अलक्षित स्थान, अदृष्ट या परोक्ष आच्छादन रहित, नंगा, तुच्छ, दीन ।। । स्थान। पालोध-वि० दे० (सं० अक्षोभ) क्षोभ-रहित, अजड-वि० (सं० ) जो जड़ न हो, निक, मोह-रहित, स्थिर, शान्त, गंभीर । चेतन, संज्ञा पु० चैतन्य ब्रह्म, जीव । पाक - संता पु० दे. (सं० अक्षोभ ) | राजरहा-संज्ञा पु. ( उ० )-अजगर । लोणाव, शान्ति, स्थिरता, निर्दयता, | अज -वि. ( सं० ) जन्म बंधन-मुक्त, नि ठुरता। अनादि, स्वयंभू, अजन्मा, वि० (सं०) अकाही वि० दे० निर्दय, नि ठुर, निमे ही। निर्जन, सुनान । ग्रज -- वि० (सं० ) जि का जन्म न हो, अजनवी वि० ( अ०) अनजान अज्ञात, अजन्मा, स्वयंभू, संज्ञा पु. ब्रह्मा, विणु, अपरिचित, परदेशी, बिना जान-पहिचान शिव, कामोव, सूविंशी एक राजा जो का, नावाकिफ़। दशरथ के पिता थे, इन्हें गधर्वराज पुत्र से | गजन्म वि० (सं०) जन्म रहित, अजन्मा। संमोहनास्त्र मिला था, बकरा, मेषराशि, | अजन्मा- वि० (सं० ) जन्म बंधन में न माया शक्ति, अविद्या, प्रकृति, क्रि० वि० श्राने वाला, अनादि, ब्रह्म, नित्य । (सं० अय) अब, अाज, (हुँ या हूँ के साथ- | अजपा- वि० (सं० ) जो न जपा जा अजहुँ अजहूँ) अब, अभी आज भी। सके, जिसका जप न हो, जिसका उच्चारण अजगम-संज्ञा पु. (सं० ) छप्पय का न हो ऐसा मंत्र ( तांत्रिक ) सं० पु. भेद। गड़रिया। अजगंधा -संज्ञा स्त्री यौ० (सं० ) अज- | अजपाल-संज्ञा पु. ( सं० ) गड़रिया, मोदा। (अज-बकरी पाल-पालक )। अजगर- संज्ञा पु० (सं० ) एक प्रकार का | अजब- वि० (अ०) अनोखा, अद्भुत, बहुत मोटा पर्प । विचित्र, विलक्षण। अजगरी संज्ञा स्त्री. (सं० अजगरीय )- अजमत-संज्ञा स्त्री० (अ.) प्रताप, महत्व, अजगर के समान बिना परिश्रम की जीविका, चमत्कार । For Private and Personal Use Only Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अजमाना ४५ अजान - अजमाना-स० क्रि० (अ.) आज़माना, वाच्यार्थ को न छोड़ कर कुछ भिन्न या तजा करना। अतिरिक्त अर्थ प्रगट करे, उपादान लक्षणा । अजमोदा-संज्ञा पु. ( सं० ) अजमोद (काव्य शास्त्र) (हि. ) अजवायन का सा एक पेड़ । अजहद-क्रि० वि० (फा० ) हद से ज्यादा, अजय-संज्ञा पु० (सं० अ-+जय) पराजय, बहुत अधिक । हार, छप्पय छंद का एक भेद, वि०-जो न | अजहुँ-अजहूँ-क्रि० वि० दे० (सं० अद्यापि) जीता जाये, अजेय । ७० अभीतक, “प्रभु अजहूँ मैं पातको, प्रजया-संज्ञा स्त्री० (सं० ) विजया, भाँग, अंतकाल गति तोरि"- रामा० संज्ञा० स्त्री० (सं० अजा ) बकरी। अजा--वि० स्त्री० (सं० ) जिसका जन्म " श्रजया भख अनुसारत नाहीं" सूर० ।। न हुआ हो, जन्मरहित, संज्ञा स्त्री० बकरी, "अजया गजमस्तक चढ़ी, निर्भय कोंप- प्रकृति या माया ( सांख्य ) शक्ति, दुर्गा । लखाय" क.। अजाचक-संज्ञा पु० दे० (सं० अयाचक) जो अजय्य वि० (सं० ) जो जीता न जा भिखारी न हो, न माँगने वाला-" जाचक सके, अजीत, अजेय । सकल अजाचक कीन्हें "-रामा० । अजर-वि० ( सं० अ--जर ) जर रहित, अजाची--- संज्ञा पु० दे० (सं० अयाचित् ) जो वृद्ध न हो, जो सदा एक सा या युवा सम्पन्न , न मांगने वाला। रहे, संज्ञा पु० ---देवता. वि० ( सं अज- अजाड़-संज्ञा पु० (दे०) सनिबाटाट । पचना ) जो न पचे, जो हज़म न हो। जात - वि० (सं० ) जो पैदा न हुआ वि० (हि. अ--जर-जड़, ज्वर ) जड़-रहित, | __ हो जन्म रहित, अजन्मा । वि० (फा. ज्वर-मुक्त। अ--जात, हि० अ + जाति ) बुरी या नीची अजगयन-वि० (सं० अजर ) बलवान जाति का। जिसकी जाति-पांति का पता स्थायी टिकाऊ । जो जीर्ण न हो न हो, कुजात । चिरस्थावी। प्राजातशत्रु-वि० (सं०-1-जात -- शत्रु ) प्रजगत-वि० ( सं० अ- जरा ) वलवान, जिसका कोई शत्रु न हो. शत्रु-विहीन, अमर स्थायी-संज्ञा पु० (सं० अजर -- पाल- संज्ञा पु० राजा युधिष्ठिर शिव, उपनिषद ग्रालय) सुरलोक। में आये हुये एक काशी नरेश, जो ब्रह्मअजवायन-अजवाइन-संज्ञा स्त्री० ( सं० ज्ञानी थे, और जिनसे महर्षि गार्य ने यवनिका) मसाले का एक पेड़, एक औषधि, उपदेश लिया था, राजगृह ( मगध ) के यानी । " क्षुद्रा यवानी सहितः कषायः" | प्राचीन राजा विंबसार के पुत्र, यह बुद्ध देव वैद्य। के समकालीन थे। प्रजस*-संज्ञा पु० (सं० अयश ) अपयश, | अजाती-वि० दे० ( सं० अ+जाति ) अपकीर्ति, बदनामी। जाति-च्युत, जाति वहिष्कृत, जाति-पाँतिअजमी- वि० दे० (सं० अयशिन् ) अपयशी | बिहीन । प्रजाति विजाति त्याज्य । बदनाम, निंद्य। अजान-वि० दे० (सं० अज्ञान) जो न जाने, अजन-क्रि० वि० ( सं०) सदा, हमेशा, अज्ञान, अनजान, अबोध, नासमझ, मूर्ख, निरंतर, बार बार। अविवेकी अपरिचित अज्ञात संज्ञा पु. अजहत्स्वार्था-संज्ञा, स्त्री. ( सं० ) एक | अज्ञानता, अनभिज्ञता, जानकारी का प्रकार की लक्षणा जिसमें लक्षक शब्द अपने प्रभाव, एक पेड़ जिसके नीचे जाने से बुद्धि For Private and Personal Use Only Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रजानपन अजूट भ्रष्ट हो जाती है। अयान--( विलोम- अजी-अव्य० ( सं० अयि ) सम्बोधन सयान ) संज्ञा पु० ( अ० अज़ान ) मसज़िद शब्द, जी। में नमाज़ की पुकार, बाँग। संज्ञा स्त्रो० अजीज़-वि० ( अ० ) प्रिय, प्यारा संज्ञा अजानता। पु० सम्बन्धी, सुहृद। अजानपन- संज्ञा पु० (हिं० ) नासमझी, अजीत-वि० ( हि० ) अजेय, “जीति अज्ञानता। उठिजाइगी अजीत पंडुपूतन की ‘रना । अजानता-संज्ञा स्त्री० दे० (सं० अज्ञानता )- अजीब वि० (अ.) विलक्षण, विचित्र, मूर्खता, मूढ़ता। __ अनोखा, अनूठा। अजामिल-संज्ञा पु० (सं० ) एक पापी अजीम-वि० (अ.) बहुत श्रमीम ।। ब्राह्मण जो मरते समय अपने पुत्र नारायण अजीरन-संज्ञा पु० दे० (सं० अजीर्ण ) देखो का नाम लेकर तर गया था ( पुराण )।। अजीर्ण । प्रजाप-वि० दे० (सं०) देखो 'अजपा"। अजीर्ण-संज्ञा पु० (सं० ) अपच, अध्ययन, अज़ाब- संज्ञा पु० ( अ० ) पाप दोप। बदहज़मी, अत्यंत अधिकता, बहुलता, जैसे अजाय* - वि० (हि० अ । जा फा० ) उपन्यास से अजीणं हो गया है। वि. बेजा, अनुचित । (सं० अ+जीर्ण ) जो पुराना न हो अजायब-संज्ञा पु. ( अ०) अजब का नया। बहुवचन, विचित्र पदार्थ या व्यापार । अजीव -गंज्ञा पु० (सं० ) अचेतन, जड़, अजायबखाना-- संज्ञा पु० ( अ० ) अजीब जो जीव न हो वि० बिना जीव का, प्राणपदार्थो का घर, अद्भुत वस्तुओं का संग्रहा- रहित, मृत, निर्जीव । लय, म्यूज़ियम । अजुगत अजुगुत-संज्ञा पु० (हिं० ७०) अजायबघर-संज्ञा पु० ( अ० ) देखो अयुक्त, अनुपयुक्त अनुचित, अनहोनी, अजायबख़ाना। अन्धेर, उत्पात, अत्याचार, वि० सं०-अयुक्त, अजाया-वि० (सं० अजात ) मृत । असंभव, " हरि जी अजगुत जुगत करेंगे". गोलिन वृथा अजाये है छ । नाग० । अजार*--संज्ञा पु० देखो आज़ार, बीमारी। अजुर ---वि० (दे० ) जो न जुरे, जो न अजारा-संज्ञा पु० (अ० इज़ारा ) इज़ारा। मिले या प्राप्त हो, अलभ्य, अप्राप्त । अजिौरा-संज्ञा पु० दे० ( ह. अजू*-अव्य०-देखो अजी (७. हि.) आजी-+ पुर सं० ) श्राजी या दादी के पिता जू, एजू । का घर। अजूजा-संज्ञा पु० ( दे० ) मुर्दा खाने अजित-वि० (सं० ) जो जीता न गया वाला बिज्जू का सा एक पशु, शव-भक्षक, हो, संज्ञा पु० विष्णु, शिव, बुद्ध, अजीत । । वि० घृणित, नीच । अजितद्रिय वि० (सं० अजित - इंदिय ) अजूबा-वि० (अ.) अनोखा, अद्भुत, जो इंद्रियों के वश में हो, विषयासक्त, । अजीब, "प्रेमरूप दर्पन अहो, रचै अजूबा इंद्रियलोलुप। खेल या मैं अपनो रूप कुछ, लखि परि अजिन-संज्ञा पु० (सं० ) मृगछाला, चर्म । है अनमेल" ( स०।। अजिर-संज्ञा पु० ( सं० ) आँगन, सहन, अजूटा*-(वि० (सं० अयुक्त)- हि० अ--- वायु. हवा, देह, इंद्रियों का विषय, चबूतरा, जुटा-विलग ) न मिला हुआ, संज्ञा पु० चौक, मेंढक। मजदूरी, (दे० ) मजूरी। For Private and Personal Use Only Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अाज अजूह अटकना अजूह*-संज्ञा पु० (सं० युद्ध) युद्ध लड़ाई, | अज्ञानता-संज्ञा, भा० स्त्री० ( सं० ) (हि० अ+ जूह-यूथ-सं० समूह ) समूह, उप. मूर्खता, जड़ता, अविद्या, अविवेक, नासमुदाय । समझी। प्रजेइ-अजेय-वि० (सं० ) जिसे जीता न | अज्ञानतः-संज्ञा, क्रि० वि० (सं० अज्ञान जा सके, अजीत । तः ) अज्ञान से, अनजाने, मूर्खतावश । मजोग-वि० ( सं० अयोग्य ) बेजोड़, अज्ञानी-वि० (सं० ) मूर्ख, जड़, बेसमझ, अनुपयुक्त, अयुक्त, कुयोग, बुरायोग, या | अनारी। संयोग। अज्ञेय-वि० (सं० ) जो समझ में न आ जोता*-संज्ञा पु० (सं० अ- हि० । सके, जो जाना न जा सके, ज्ञानातीत. जोतना ) चैत्र की पूर्णिमा जब बैल नहीं बोधागम्य, दुरूह । जोते या नाधे जाते । अज्यौं * --कि० वि० (हि.) दे. अजों प्रजोरना*—स० कि० (हि० ) बटोरना, | हरण करना, "टोना सी पढ़ि नावत सिर | __“अज्यौं तरयौ ना ही रह्यौ, श्रुति सेवक पर जो चाहत सो लेत अजोरी-सूबे० । ट्रक अड, बिहारी अजौं-क्रि० वि० (सं० अद्य ) ब्र०, अब अझर-वि० (सं० अ+झर ) जो न झरै, भी, अब तक, आज तक। जो न गिरे न बरसे " अझर बारिद सौं अज्ञ-वि० संज्ञा पु० (सं० ) अज्ञानी, जड़, . जनि जाँचिये" - सरस । मूर्ख, नासमझ, दे० -अग्य ।। अट-संज्ञा, स्त्री० ( हि० अटक ) शर्त, कैद, प्रज्ञता-संज्ञा भा० स्त्री० ( सं० ) मूर्खता, प्रतिबंध । जड़ता, नादानी, दे० -अग्यता। अटंबर-संज्ञा, पु० (सं० अट्ट-+-फा० अम्बार) प्रज्ञा-संज्ञा स्त्री० (सं० अाज्ञा ) हुक्म । अटाला, ढेर, शशि, समूह समुदाय । अज्ञात-वि० (सं० ) अविदित, बिना जाना अटक-संज्ञा स्त्री० ( हि० ) बन्धन, रोक, हुश्रा, अप्रगट अपरिचित, जिसे ज्ञात न हो, । विघ्न, रुकावट, अड़चन, बाधा, सङ्कोच कि० वि० बिना जाने, अनजान में। हिचक, सिन्धुनदी. भारत के पश्चिमोत्तर अज्ञातनामा-वि० (सं० ) जिस का नाम | में एक नगर उलझन अकाज हर्ज, गरज़ । ज्ञात न हो, तुच्छ अविख्यात । 'सकल भूमि गोपाल की यामैं अटक कहाँ, प्रज्ञातवास-संज्ञा पु० (सं० ) ऐसे स्थान अबलों सकुच अटक रही अब प्रगट करौं में निवास जहाँ कोई पता न पासके, छिप अनुराग री "सूबे०। कर गुप्त वास । मु०-अपनी अटक पर गधे को मामा अज्ञातयौवना- संज्ञा स्त्री० (सं० ) अपने कहना-अपनी गरज पर मूर्ख और पशु यौवन के आगमन को न जानने वाली- को भी अपनाना। मुग्धा नायिका ( नायिका-भेद ) । अटकन*-संज्ञा पु० ( हि०, दे०) अटक । अज्ञान-- संज्ञा, पु. ( सं० ) ज्ञान का अभाव, अटकनबटकन-संज्ञा, पु० (दे० ) छोटे अबोधता, जड़ता मूर्खता, आत्मा को गुण __ लड़कों का खेल। और गुण-कार्य से अलग न जानने का अटकना-अ. क्रि० (सं० अ+ टिक--- अविवेक, न्याय में एक निग्रह स्थान । चलना) रुकना, ठहरना उलझना, फँसना--- वि० - मूर्ख, जड़, नासमझ अज्ञ, निर्बुद्धि अड़ना, लगा रहना, प्रेम में फंसना, प्रीति अजान, अयान (दे० )। __ करना विवाद करना, झगड़ना, " फबि For Private and Personal Use Only Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अटकनी प्रटम फहरै अति उच्च निसाना जिन महँ अटकत कौतुकी, चंचल, अटखेलियाँ-( स्त्री० विधुधि बिमाना ”-पदमा० । बहु ब०) नटखटी के खेल, मज़ाक से भरे अटकनी*-संज्ञा, स्त्री० (दे०) किवाड़ तमाशे। की आड़, सिटकिनी, अटकाने वाली चीज़ । अटखेली-संज्ञा, स्त्री० ( उ०) खिलवाड़, श्रयकर*- संज्ञा, स्त्री. ( देश० ) देखो चंचलता ढिठाई, कौतुक ।। "अटकल" अन्दाजा। अटन - संज्ञा, पु० (सं०) घूमना, फिरनाप्राकरना*-संज्ञा, नि. (हि. अटकर ) पयटन (सं० परि +-अटन ) घूमना । अन्दाज़ा या अनुमान करना अटकल अरना- अ० कि० ( स० अट् ) घूमना, लग,ना। फिरना, यात्रा करना, सफर करना, विचरना, अटकल-संज्ञा, स्त्री० (सं० अट +-घूमना--- अ. नि. (हि० अटना पर्याप्त होना, काफ़ी कल --गिरना ) अनुमान, कल्पना, अन्दाज, होना, हि० ( अोट ) पाड़ करना, रोकना कूत। छेकना, समाना। अटकलना--स० कि० ( हि• अटकल ) अटपट-वि० (सं० अट-चलना + पत्अनुमान करना। गिरना ) विकट, कठिन टेदा दुर्गम, दुस्तर, अटकल पच्च- संज्ञा, पु० (हि० अटकल+ गूढ़ जटिल, उटपटांग, बेठिकाने, अनियमित, पचना ( सिर ) मोटा अन्दाज़, स्थूलानुमान निराला, अनूठा, स्त्री० अटपटी-टेढ़ी कल्पना । वि०-ख्याली अनुमान से, " सूर" प्रेम की बाट अटपटी मन तरंग उटपटांग । क्रि० वि० अनुमान से अन्दाज़ उपजावति सूर०। जदपि सुनहि मुनि अटपट बानी -रामा० से। राखौ यह सब जोग अटपटो ऊधो पाइ अटका-संज्ञा, पु० (सं अद्-खाना ) जग परौं-- सूर० नाथजी में चढ़ाया हुया भात और धन । मिट्टी का पात्र, स्त्री. अटक रुकावट। "सुनि केवट के बैन; प्रेम-लपेटे अटपटे - रामा अटकाना-स० कि. (हि.) रोकना, लड़खड़ाना--" वाही की चित चटपटी ठहराना, अड़ाना फँसाना, उलझाना, पूर्ण धरत अटपटे पाय"--वि० करने में बिलम्ब करना, अटपटाना-अ० कि. ( हि• अटपट ) "युवती गई घरनि सब अपने गृह कारज जननी अटकाई " --सूबे० अटकना, लड़खड़ाना, गड़बड़ाना. चूकना, -" बातनहि सगरो कटक अटकायो है " हिचकना, सङ्कोच करना, अकुलाना। --रवि । 'अटपटात अलसात पलक पट, मूंदत " यहि प्रासा अटक्यौ रह्यो अलि गुलाब के । कबहूँ करत उघारे' ---सूर० अटपटी*-संज्ञा स्त्री. नटखटी, शरारत, मूल "-बिहारी अनरीति, वि० बेढङ्गी, टेढ़ी, बेतुकी लड़. अटकाव-संज्ञा, पु. ( हि० अटकना ) विघ्न । में खड़ाती हुई। बाधा, रोक रुकावट, प्रतिबन्ध, अटब्बर - संज्ञा पु. (सं० आडंबर ) श्राडप्रटखट*-वि० ( अनु०) अट्टसट्ट, अंडबंड, म्बर, दर्प, कुटुम्ब, समूह (६० टब्बर-परिवार) गड़बड़ । कुनबा खान्दान। अटखेल-संज्ञा, पु. ( उ० ) उलझाने- अटम-संज्ञा, पु. (दे० ) राशि ढेर, वाला खेल, मनबहलाव का, कौतुक, खिलाड़ी, बटारा, समूह । For Private and Personal Use Only Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ४६ प्रटर सटर - क्रि० वि० ( अनु० ) अंड s - अटम्बर टम्बर - संज्ञा, पु० (सं० अटम् + अम्बर ) टूट - वि० दे० वस्त्र का ढेर | प्रटरनी - संज्ञा, पु० ( ० एटरनी ) कलकत्ता, बम्बई के हाईकोटा में एक प्रकार IT बैरिस्टर या मुख्तार । अटल - वि० (सं० अ + हि० टलना ) जो टले, स्थिर, नित्य, चिरस्थायी, अवश्यम्भावी, बुन, पक्का, दृढ़, संज्ञा, पु० दे० गोसाइयों के एक अखाड़े का नाम । श्रटवाटी - खरबाटी - संज्ञा, स्त्री० ( हि० खाट-पाटी) खाट, खटोला, साज-सामान । मु० - वाटी खरबाटो लेकर पड़ना --काम-काज छोड़ रूठ कर पड़ना । श्रटवी - - संज्ञा, स्त्री० (सं० ) वन, जंगल, गहन, भयानक कानन । अटहर - संज्ञा, (सं० अट - अटाला ) घटाला, ढेर, फेंटा, पगड़ी, संज्ञा, पु० ( हिं० अटक ) दिक्कत, कठिनाई, अड़चन, (दे० ) बिगाड़, हानि, बुराई, इधर-उधर का काम । अटा - संज्ञा स्त्री० (संग्रट्ट - अटारी ) घर के ऊपर की अटारी, कोठरी, छत, 'चढ़ी टा देखति घटा, बिज्जु छटासी नारि "--- वि०-संज्ञा, पु० (सं० अट् - अतिशय ) ढेर, राशि, समूह | Ca अटाउ - संज्ञा पु० (सं० प्रट्ट प्रतिक्रमण ) बिगाड़, बुराई, नटखटी, शरारत । टाटूट - वि० (सं० श्रद्ध - ढेर + हिं० टूटना ) नितान्त, बिलकुल अपरिमित, बेशुमार । अटारी - संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० अट्टाली) घर के ऊपर की छत या कोठरी, कोठा, बहुवचन (०) - अटारिन, अटारियाँ । अटाल - संज्ञा, पु० (सं० टाल ) बुर्ज, धरहरा, बहुत । अटाला – संज्ञा, पु० (सं० अट्टाल) ढेर, राशि, सामान, कसाइयों की बस्ती, असबाब । भा० श० को०- ७ अट्ठाईस ( हि० अ + टूटना ) न टूटने के योग्य, दृढ़, पुष्ट, मजबूत, अजेय, बहुत, लगातार, पूरा, कुल, अखंड । टेक - संज्ञा, पु० ( हि० अ + टेक) टेक रहित, निराश्रय, उद्देश्यहीन, भ्रष्टप्रतिज्ञ, हठहीन | टेरन - संज्ञा, पु० (सं० अट-६ - घूमना ) सूत की आँटी बनाने का लकड़ी का एक यंत्र, थोपना, घोड़े के कावा या चक्कर देने की एक विधि | अटेरना - क्रि० स० । अटेरना - स० क्रि० ( हिं० अटेरन ) अटेरन से सूत की आँटी बनाना, मात्रा से अधिक नशा पीना । हिं० यौ० अ + टेरना. ब्र० - Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir बुलाना न बुलाना । टोक - वि० ( हिं० रोक-टोक (6 का करी " - गुलाब | टोल - संज्ञा, पु० (दे० ) असभ्य, अनाड़ी जंगली, बर्बर । अट्टसह - संज्ञा, पु० दे० ( अनु० ) व्यर्थ का प्रलाप, टाँय - साँय । अट्टहास - सज्ञा, पु० (सं० ) जोर की हँसी, ठट्टा मार कर हँसना । 39 अट्टहास-संज्ञा पु० (सं० ) ' अट्टहास ' कहकहा मारना । " अट्टालिका - संज्ञा स्त्री० (सं० ) अटारी, कोठा, धवलागार, हर्म्य | पट्टा - संज्ञा, पु० (सं० अट्टालिका) टा, मचान, कोठा, दे० अंटा । For Private and Personal Use Only + टोकना ) बिना टोंक ड्योढ़ी श्रट्टा - संज्ञा, स्त्री० (सं० श्रट् - घूमना ) सूत की लच्छी अंटी - संज्ञा स्त्री० (दे० ) सूत की लच्छी, शरारत, उलझन । 33 अट्टा -- संज्ञा, पु० दे० (सं० अष्ठ) ताश का पत्ता जिसमें किसी रंग की आठ बूटियाँ हों । अट्ठाइस - वि० देखो " अट्ठाईस ' अट्ठाईस - वि० दे० (सं० अष्टाविंशति ) बीस और आठ २८ ॥ 1 Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अट्ठानबे अठारह अट्ठानबे-वि० दे० (सं० अष्टानवति ) नब्बे | अठमासी-संज्ञा स्त्री० (हि. आठ+ और पाठ, १८ । माशा ) पाठ माशे सोने का सिक्का, सावरन, अट्ठावन-वि० दे० (सं० अटपंचाशत), गिन्नी, वि०-आठ मास की। पचास और पाठ, ५८। अठल-संज्ञा पु० (दे० ) संस्कार विशेष । अट्ठासी-वि० दे० (सं० अष्टाशीति ) अस्सी अठलाना-अठिलाना*-अ. क्रि० (हि. और पाठ, ८८ । अठासी-(दे०) । __ ऐंठ) ऐंठ दिखाना, इतराना, उसक अठंग*-संज्ञा, पु० (सं० अष्टांग, आठ दिखाना, चोचला करना, नखरा करना, अंग ) अष्टांग योग, योग के आठ अंग। | मस्ती दिखाना, अनजान बनना, जान-बूझ अठ- वि० दे० (सं० अष्ट ) ( समास में ) | कर छेड़छाड़ करना, हँसना, उपहास करना । पाठ। “ सुनि अठिलै हैं लोग सब, बाँटि न लैहैं अठइसी-संज्ञा, स्त्री० (हि. अट्ठाइस ) २८ कोय"-रहीम गाही, या १४० फलों की संख्या जिसे आवै अठिलात नंद महर लडैतो लखि"सैकड़ा मानते हैं। अठई-संज्ञा, स्त्री० (सं० अष्टमी) अष्टमी, अठवना*-अ० क्रि (सं० स्थान ) जमना, ठनना। तिथि, वि० आठवीं। संज्ञा, पु० अठएं- अठवांस-वि० ( सं० अष्टपार्श्व ) अठपहलू । आठवें अठवाँ-पाठवाँ। अठवाँसा-वि० (सं० अष्टमास) आठ अठकौंसल-संज्ञा, पु० (हि. आठ-अं० | मास में उत्पन्न होने वाला गर्भ । संज्ञा पु० कौंसिल ) गोष्टी, पंचायत, सलाह, मंत्रणा।। सीमंत-संस्कार, श्रासाद से माघ तक समय अठखेली-संज्ञा, स्त्री० (सं० अष्टक्रीड़ा) समय पर जोता जाने वाला ईख का खेत । विनोद, क्रीड़ा, चपलता, मतवाली या अठधारा-संज्ञा, पु. (हि. आठ-न-सं०. मस्तानी चाल। वार ) आठ दिन का समूह, हफ़्ता, सप्ताह । अट्ठा-संज्ञा, पु० (सं० प्रष्ट ) आठ चीज़ों | अठसिल्या- संज्ञा, पु० (सं० अष्टशिला) का समूह । सिंहासन । अठत्तर-वि० (दे० ) अठहत्तर ७ की | अठहत्तर- वि० (सं० अष्ठ सप्तति, प्रा० अठ्ठसंख्या। हत्तरि ) सत्तर और पाठ, ७८ संख्या। अठन्नी-संज्ञा, स्त्री० (हि. आठ+याना) अठाई-वि० ( सं० अस्थायी ) उत्पाती, आठ आने का एक चाँदी का सिक्का । नटखट, शरारती, उपद्रवी, वि० (हि० अ+ अठपहल-आठ पहला या ठाई-ठानी ) अठानी, न ठानी हुई। आठ पहलू अठान-संज्ञा, पु० (अ+ठानना ) न ठानने वि० (सं० अष्ट+पटल ) आठ कोने वाला, योग्य कार्य, अयोग्य या दुष्कर, बैर, शत्रुता, श्राठ पार्श्व का, अष्टभुज। झगड़ा “ अठान ठान ठान्यौ हैं ”-'सरस' अठपाव-संज्ञा, पु० (सं० अष्टवाद ) उपद्रव, अठाना --स० क्रि० (सं० अठ-- बध ऊधम, शरारत, प्रौटपाय (दे०)। करना ) सताना, पीड़ित करना, ठानना, " भूषन औं अफजल्ल बचै अठपाव के सिंह छेड़ना, जमाना। को पाव उनैठो"- भू०। अठारह-वि० (सं० अष्टादश प्रा० अठ्ठदह अठमासा-संज्ञा पु० (सं० अष्टमास )- अप० अठारह ) दस और पाठ, १८ संख्या, आठमास वाला, अठवांसा (दे०) अठमासी | संज्ञा पु० पुराण-सूचक संकेत-शब्द ( काव्य ( स्त्री० ) अठवाँसी। __ में) चौंसर का एक दाँव । For Private and Personal Use Only Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अठासी अडर अठासी-वि० (सं० अष्टाशीति ) अस्सी वाला लकड़ी का टुकड़ा जो पैरों में अड़कर और पाठ, ८८ संख्या, अठासी ( दे०) उन्हें भागने से रोकता है। अठिलाना- अ० कि० देखो 'अठलाना'। अड़चन-संज्ञा, स्त्री० (दे०) कठिनाई, " बात कहत अठिलात जाति सब हँसत | बाधा, रुकावट ।। देति करतारी"-सूबे०। अड़चल-संज्ञा, स्त्री० (हिं. अड़ना+ ठेल-वि० (हि० अ०+ ठेलना ) जो चलना ) अंडस, दिक्कत, कठिनाई, बाधा, ठेला न जा सके, अविचलनीय, अपरिहार्य, रुकावट, विन्न । दृढ़, यथेष्ट, प्रचुर, स्थिर, बलवान । अड़तल-संज्ञा, पु० (हिं० आड़+सं०-तल ) अठोठ-संज्ञा, पु० (हि० ठाठ) ठाठ, श्राडंबर, प्रोट, अोझल, भाड़, शरण, बहाना, हीलापाखंड, खोज । हवाला। अठोठनाई-स० क्रि० (दे०) खोजना, | अड़तला-संज्ञा, पु० (दे० ) बचाने वाला, ढंदना। रक्षक, प्राश्रय । अठोतरी-संज्ञा, स्त्री० (सं० अष्टोत्तरी ) एक अड़तालीस-वि० (सं० अष्टचत्वारिंशत ) सौ पाठ दानों का माला, ग्रहों की दशा | चालीस और पाठ, ४८ संख्या, अड़ता( ज्यो०)। लिस (दे०)। अठोतरसौ-संज्ञा, पु० (सं० अष्टोत्तर+ अड़तीस-वि० (सं० अष्टत्रिंशत) तीस शत) १०८, एक सौ पाठ।। । और आठ, ३८- अतिस (दे०)। अडंगा-संज्ञा, पु० (हि. अड़ाना ) टांग | अड़दार-वि० (हिं. अड़ना+फा०-दार अड़ाना, रुकावट बाधा, विघ्न, अड़चन ।। (प्रत्य० ) अड़ियल, रुकने वाला, ऐंडदार, अडंग-संज्ञा, पु० (दे० ) मंडी, हाट, मस्त, मतवाला, “ज्यों पतंग अड़दार को, बाज़ार, उत्तार, विन, रुकावट। लिये जात गड़दार"--रस०, अड़दार बड़े अडंड-वि० (दे० सं० अदंड्य ) जो | गड़दारन के हाँके सुनि-भूष। दंडनीय न हो, (सं० श्र+दंड ) दंडे से | अड़ना-अ० क्रि० (सं० अल्-वारण रहित-निर्भय, बिना दंड या सज़ा के। । करना) रुकना, ठहरना, हठ करना, " पापिन की मंडली अडंड छुटि जायगी" अटकना। - रत्नाकर । अडबंग-वि० पु. ( हिं० अड़ना+सं० अड-संज्ञा, पु० (सं० हठ ) हठ ज़िद वक्र ) टेढ़ा-मेढ़ा, अड़बड़, विचित्र, विकट, झगड़ा, विरोध, चेष्टा । कठिन, दुर्गम, अनोखा ऊँचा-नीचा, विलअडकाना-स० क्रि० अड़ना, अड़ाना। क्षण । अडबंगा-वि० बेढंगा, असमान । अडग-वि० (हिं० डग, डगना ) न डिगने | अलबड़-वि० (हिं० दे० ) कठिन, अटपट, वाला, अचल । दुर्गम, कठिन ( अंड बंड ) संज्ञा, पु०-प्रलाप, अड़गड़ा-संज्ञा पु. ( अनु० ) बैल गाड़ियों | निरर्थक, ऊँचा-नीचा। के ठहरने की जगह, घोड़ों बैलों की विक्री अडबंध-संज्ञा, पु० दे० (हिं. अड़ना+सं० का स्थान । अड़गड़-वि० (दे०) बंध ) कटिबंध, कोपीन । अटपट, कठिन, दुस्तर, दुष्कर, संज्ञा पु०- अडबल-वि० (हिं० ) रुकने या अड़ने कठिनाई। | वाला, हठी, ज़िद्दी, अडियल । अडगोड़ा-संज्ञा, पु. ( हिं० अड़+ गोड़ ) | अडर - वि० (सं० अ.+ हिं –डर ) बदमाश जानवरों के गले में बाँधा जाने ) निडर, निर्भय, बेखौफ़ । For Private and Personal Use Only Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अड़सठ अडा अड़सठ-वि० दे० (सं० अष्ट षष्टि) साठ कर बैठते हैं, सूत की पिंड्डी जो लम्बी हो, और पाठ, ६८ संख्या। कुकुरी, फेंटी। अड़हुल-संज्ञा, पु० (सं० प्रोण +फुल्ल ) | अड़ी-संज्ञा, स्त्री० (हि० अड़ना ) ज़िद्द, देवीपुष्प, जया या जपा कुसुम । हठ, अाग्रह, टेक, रोक, ज़रूरत का वक्त, अशा-संजा. प. दे. (हिं. ग्राडपशों | मौका । वि०-हठी। के रहने का अड्डा, हाता, खरिक, (दे० ) | अडूलना-स० क्रि० (सं० उत् --- इलअड़ार। फेंकना ) उड़ेलना, जल आदि का डालना, प्रडाडा-- संज्ञा, पु० (दे० ) ढोंग, पाखंड। गिराना। अडान-संज्ञा, स्त्री० (हि. अड़ना ) पड़ाव, । अडूसा -संज्ञा, पु० (सं० अष्टरुष ) कासरुकने का स्थान । श्वास नाशक एक जंगली पौधा, बासा, रूसा। अडाना-स० क्रि० (हि. अड़ना) टिकाना, अड़ाना- अ. क्रि० (दे० )-बाधक रोकना, टहराना, अटकाना, डाट लगाना, होना, मार्ग रोकना। टेकना, उलझाना, ठूसना, भरना, ढरकाना, गिरना, संज्ञा, पु०-एक राग, गिरती हुई अड़ेयाना-स० कि० ( हि० ) आश्रय देना, दीवाल या छत को गिरने से रोकने वाली रक्षा करना। लकड़ी, डाट, थूनी, चाड़, भाड़। अडैच-संज्ञा, स्त्री० (दे०) शत्रुता, बैरभाव, अडानी-संज्ञा, स्त्री० (हि० अड़ाना ) छाता, बड़ा पंखा, अडंगा, रोकने वाला। अडोल-वि० (सं० अ.+हिं. डोलना) जो हिले नहीं, अटल, स्थिर, स्तब्ध, अचल, अडायता- वि० (हि. आड़ ) आड़ या दृढ़। श्रोट करने वाला, स्त्री० अड़ायती। अड़ार-संज्ञा, पु. (सं० अट्टाल, बुर्ज) अडोस-पड़ोस-संज्ञा, पु० (हिं० पड़ोस ) समूह, राशि, ढेर, लकड़ी का ढेर, लकड़ी का आस-पास, क़रीब, परोस, प्रतिवेश । टाल, ( दे० ) अड्डा, पशुओं के रहने का अड़ोसी-पड़ामी-संज्ञा, पु० ( हिं० पड़ोसी) स्थान । वि० (सं० अटाल ) टेढ़ा, तिरछा, आस-पास का रहने वाला, हमसाया, पाड़ा, नुकीला " जगा डोलै डोलत नैनाहाँ, परोसी ( स्त्री० परोसिन )-- प्यारी पदमाउलटि अड़ार जाँहि पल माहाँ'-५०।। कर परोसिन हमारी तुम"-पद्माकर । अडारनाई-स० क्रि० (हि० डालना) अड़ा-संज्ञा पु० (सं० अट्टा-ऊँचा स्थान ) डालना, देना, उड़ेलना। टिकने या ठहरने का स्थान, मिलने या अडाह--वि० (हि० अ-+-डाह ) डाह या एकत्रित होने की जगह, प्रधान या केन्द्र ईर्षा-रहित । स्थान, चिड़ियों के बैठने की छड़ ( लकड़ी अडिग--वि० (अ+डिगना ) न डिगने या लोहे की ) कबूतरों के बैठने की छतरी, वाला, अचल, अटल । करघा, बैठक का विशेष स्थान, प्रिय अड़ियल-वि. (हि. अड़ना) अड़ कर स्थल, डेरा। चलने वाला, चलते चलते रुक जाने वाला | मु०-अडे पर पाना-अपने स्थान पर सुस्त, मट्टर, हठी, ज़िद्दी।। पहुँचना, अड्डेपर बोलना-स्थान विशेष अडिया- संज्ञा, स्त्री० (दे०) अंडे के पर ही कार्य करना, अड्डे पर चेहकना आकार की लकड़ी जिस पर साधु टेक लगा अपने स्थान पर रोब दिखाना। For Private and Personal Use Only Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अदतिया अतनु अदतिया-संज्ञा, पु० ( हिं० आढ़त ) वह परिमाणुप्रो का) छोटा टुकड़ा, कण, रजकण, दूकानदार जो ग्राहकों या व्यापारियों को माल अत्यन्त सूक्ष्म मात्रा, नैय्यायिक अणुओं के खरीद कर भेजता तथा उनका माल मँगाकर ही द्वारा समस्त सृष्टि की उत्पत्ति मानते बेचता है, आढ़त करने वाला, दलाल । हैं, इसमें मिलने और पृथक् होने की शक्ति अढ़न-संज्ञा, पु० (दे०) आज्ञा, मर्यादा । है, सूर्य के प्रकाश में उड़ते हुए छोटे-छोटे अदवना-स० कि० दे० ( सं० आज्ञापन ) कणों में से एक का साठवाँ भाग । वि०आज्ञा देना, काम में लगाना। अति सूक्ष्म, जो दिखाई न दे, अत्यन्त अढ़वायक* संज्ञा, पु० दे० (सं० आज्ञापक) छोटा । अणु मात्र वि०-छोटा सा । आज्ञा देने वाला, काम लेने वाला। अणुवाद-- संज्ञा, पु० (सं०) वह सिद्धान्त अढ़ाई --वि० दे० (सं० अर्धद्वय ) दो और जिसमें जीव या आत्मा अणु माना गया है अाधा, २३, ढाई (दे० ) गुना-२३ घात। और अणु से ही सब सृष्टि की उत्पत्ति कही पढ़िया-संज्ञा, स्त्री० (दे० ) काठ, पत्थर गई है ( रामानुजाचार्य, बल्लभाचार्यादि) या लोहे का बर्तन । वैशेषिक दर्शन का मत। अढ़ क-अढ़ कि-संज्ञा, पु० (हि० अदुकना ) | अणुवादी-संज्ञा, पु. ( सं० ) नैय्यायिक, ठोकर, चोट। वैशेषिक मतानुयायी, रामानुज या बल्लभअढ़कना-प्र. क्रि० (सं० + आ-भली- सम्प्रदाय का व्यक्ति, अणुवाद का मानने भाँति+टकं-रोक ) ठोकर खाना, सहारा वाला। लेना, चोट खाना, उढ़कना अदुकि पु० कि० अणुधोक्षण-संज्ञा, पु० (सं०) सूक्ष्म उढक कर .. अदुकि परहिं फिरि हेरहिं दर्शक यंत्र, .खुर्दबीन, छिद्रान्वेषण, बाल पाछे"-रामा० । की खाल निकालना। अढैया संज्ञा, पु. ( हिं० अढवना ) आज्ञा अतंक - संज्ञा पु० (दे० ) आतंक (सं.)। देने वाला, संज्ञा पु० (हिं. अढाई )२१ सेर अढाई । २१ सेर अतंद्रिक-- वि० (सं०) आलस्य रहित, की तौल का एक बाट २३ गुने का, चुस्त, ब्याकुल, बेचैन, अतंद्रित (वि० ) पहाड़ा। तंद्रा-हीन । प्रणाद-संज्ञा, पु० (दे० ) अानन्द, सुख । अतः-क्रि० वि० (सं० ) इस वजह से, प्रणि-संज्ञा, स्त्री० (सं० ) अक्षाग्र कीलक, पहिये के धागे का काँटा नोंक बाढ़, धार, | अतएव-क्रि० वि० ( सं० अतः + एव ) इस सीमा या किनारा। लिये, सहेतु, इस कारण, इससे, इस अणिमा-संज्ञा, स्त्री. ( सं० ) अष्ट । वजह से। सिद्धियों में से पहिली सिद्धि, अत्यन्त छोटा अतद्गुण-संज्ञा, पु० (सं० + तद् + गुण) रूप धारण करने की शक्ति, (हि०, दे०) एक प्रकार का अलंकार जिसमें एक वस्तु अनिमा । का दूसरी ऐसी वस्तु के गुणों का न ग्रहण प्रणी-संज्ञा, स्त्री० (सं०) नोक, धार, करना प्रगट किया जाय जिस वस्तु के वह सीमा (हि.) अनी। अति निकटवर्ती हो। अणीय- वि० ( सं० अणी ) अति सूक्ष्म, | अतनु-वि० (सं० ) शरीर-रहित, बिना बारीक। देह का, मोटा, स्थूल ( अ-नहीं+तनु-शरीर, अणु-संज्ञा, पु. ( सं० ) द्वयणुक से सूक्ष्म | पतला, संकीर्ण ) संज्ञा, पु० (सं० ) अनंग, और परिमाण से बड़ा कण, (६० । कामदेव । For Private and Personal Use Only Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org प्रतर अतर - संज्ञा, पु० ( अ ० इत्र ) फूलों की सुगंधि का सार, निर्यास, पुष्पसार । इफ़रोश ( फा० ) संज्ञा, पु०, इत्र बेचने वाला, गंधी । प्रतरदान- संज्ञा, पु० ( फा० इत्रदान ) इत्र रखने का पात्र । तरसों - क्रि० वि० (सं० इतर + श्वः ) परसों के आगे का दिन, अग्रिम तृतीय दिवस, परसों से प्रथम का दिन । तर + सों ( ब्र० ) इत्र से | तरिख - संज्ञा, पु० (सं० अंतरिक्ष ) अंतरिक्ष | अतरंग - वि० (सं० अ + तरंग) तरंग - रहित, संज्ञा, पु० लंगर के उखाड़ कर रखने की क्रिया | अतर्कित - वि० (सं० अ + तर्क + इत) जिसका प्रथम से अनुमान न हो, आकस्मिक, श्रविचारित, बेसोचे-समझे, एकाएक, तर्कयुक्त जो न हो । प्रतर्क्स - वि० (सं० ) जिस पर तर्क-वितर्क न हो सके, अनिर्वचनीय, अचिंत्य | तरणीय - वि० सं० + तरणीय ) जो तरा न जा सके, अतरनीय (दे० ) । अतरे - वि० दे० (सं० इतर ) दिवस, तीसरे दिन । तृतीय अतल- - संज्ञा, पु० (सं०) सात पातालों में से दूसरा । वि० तल रहित, वर्तुल, पेंदी का तलस्पर्श - वि (सं०) अगाध, अति गंभीर, जिसके तल को कोई छू न सके । तलस्पर्शी - वि० (सं० ) अतल को छूने वाला, अथाह, अत्यन्त गहरा । तलस - संज्ञा, स्त्री० ( ० ) एक प्रकार का रेशमी वस्त्र | तवा - वि० (दे० ) अधिक | प्रतवार इतवार - संज्ञा, पु० (दे० ) रविवार ऐतवार, श्रत्तवार (दे०, ग्रा० ) प्रतवार - ( फा० ) ऐतबार । ५४ प्रतिगत अतसी - संज्ञा, स्त्री० (सं०) लसी, पाट, सन, तीसी " श्रतसी-कु - कुसुम बरन मुरलीमुख, सूरजप्रभु किन लाये " - सूबे० । ताई - वि० ( ० ) दक्ष, कुशल, प्रवीण, धूर्त, चालाक, बिना सीखे हुए काम करने वाला, नक्काल, बहुरूपिया तमाशा करने वाला गवैया, " सो तजि कहत और की और तुम श्रति बड़े अताई' 99 भ्र० । अतार - संज्ञा, पु० ( ० ) दवाओं का बेचने वाला, पंसारी, अत्तार, गंधी, देखो Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अत्तार । प्रति - वि० सं०) बहुत, अधिक, संज्ञा, 6: स्त्री० अधिकता ज्यादती । अती, अत्ति (दे० ) रहिमन अती न कीजिये, गहि रहिये निज कानि । अतिकाय - वि० (सं० प्रति + काया ) स्थूल शरीर का, मोटा । रावण का एक पुत्र । प्रतिकाल - संज्ञा, पु० (सं० ) विलंब, देर, कुसमय, बेर । प्रतिकृच्छ्र - संज्ञा, पु० (सं० ) बहुत कष्ट, छः दिनों का एक व्रत, इसमें भोजन करने के दिनों में दाहिने हाथ में जितना श्रा सके, उतना ही भोजन किया जाता है, यह प्राजापत्य व्रत का एक भेद है, पापनाशक व्रत । प्रतिवृति - संज्ञा, स्त्री० (सं० ) पचीस वर्णो के वृत्तों की संज्ञा । प्रतिक्रम - संज्ञा, पु० (सं० ) नियम या मर्यादा का उल्लंघन, विपरीत व्यवहार, क्रम भंग करना, अन्यथाचरण, अपमान, बाँधना, पार होना, उल्लंघन । अतिक्रमण - संज्ञा, पु० (सं०) उल्लंघन, अन्यथाचार, सीमा से बाहर जाना, बढ़जाना । प्रतिक्रांत - वि० सं०) सीमा से बाहर गया हुआ, बीता हुआ, व्यतीत । प्रतिगत- वि० (सं० ) बहुत अधिक । For Private and Personal Use Only Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मोक्ष । अतिगति अतिमुक्त अतिगति-संज्ञा, स्त्री० (सं० ) उत्तमगति, अतिपतन-( अतिपात ) संज्ञा, पु० (सं०) अतिक्रम, बाधा, गड़बड़ी, अतिपात । अतिचार-संज्ञा, पु. (सं०) ग्रहों की अतिपराक्रम-संज्ञा, पु० (सं० ) बड़ा शीघ्र चाल, एक राशि का भोग-काल प्रताप, बड़ा तेज । समाप्त किये बिना किसी ग्रह का दूसरी अतिबल-संज्ञा, पु. ( सं०) बड़े बल वाला, राशि में चला जाना, विधात व्यतिक्रम। एक राक्षस, प्रबल " नारी अति बल होत अतिचारी--वि० (सं० ) अन्यथाचारी है अपने कुल की नाश-गिरधर । प्रतिचर, अति करने वाला। | अतिपात-संज्ञा, पु. (सं० ) अतिक्रम, अतिथि-संज्ञा, पु. ( सं० ) घर में आया | अव्यवस्था, गड़बड़ी, बाधा, विघ्न । हुअा अज्ञातपूर्व व्यक्ति, अभ्यागत, मेह- अतिपातक-संज्ञा, पु० (सं० ) पुरुष का मान, पाहुना एक स्थान पर एक रात से | माता, बेटी, और पतोहू के साथ और स्त्री अधिक न ठहरने वाला संन्यासी, व्रात्य, का पिता, पुत्र, दामाद के साथ गमन, & अग्नि, यज्ञ में सोमलता लाने वाला श्रीराम | प्रकार के पातकों में से ३ बड़े पाप । जी के पौत्र और कुश के पुत्र,-" वार प्रतिपान-संज्ञा, पु० (सं० ) बहुत पीना, है न तिथि है वे अतिथि विचारे हैं" - मत्तता, पीने का व्यसन । रसाल। अतिपाव-क्रि० वि० (सं०) सन्निकट, अतिथि-पूजा संज्ञा, स्त्री० (सं० अतिथि + समीप, पास, बगल में। पूजा ) अतिथि का आदर सत्कार, अतिथि अतिप्रसंग-संज्ञा, पु० (सं० ) अत्यंत मेल, सेवा, मेहमानदारी। पुनरुक्ति, अति विस्तार व्यभिचार, क्रम का अतिथि-भक्ति-संज्ञा, स्त्री० (सं० ) अतिथि नाश करना। पूजा। अतिथि-भक्त-संज्ञा, पु. ( सं० ) अतिथि अतिबला-संज्ञा, स्त्री. (सं० ) एक प्रकार पूजक, अतिथि की सेवा-सुश्रुषा करने की प्राचीन युद्ध-विद्या जिसके प्रभाव से श्रम और प्यास-भूख आदि बाधाओं का वाला। अतिथियज्ञ -संज्ञा, पु० (सं० ) अतिथि भय नहीं रहता, ककई नामक पौधा - का आदर-सत्कार, अतिथि-पूजा। बरियारी। अतिथिसेवा-संज्ञा, स्त्री० (सं० ) अतिथि- | " चुत्पिपासे न ते राम ! भविष्यतेनरोत्तम । सत्कार, प्रातिथ्य-संज्ञा, पु. ( सं० ) | बलामतिबलाम् चैव ....." वाल्मीकिपहुनाई। अतिबरवै-संज्ञा, पु० (सं० ) एक प्रकार तिदेश-संज्ञा, पु० (सं० ) एक स्थान के का छंद (मात्रिक) जिसके प्रथम और तृतीय धर्म का दूसरे स्थान पर प्रारोपण, और में १२ मात्रायें और द्वितीय तथा चतुर्थ विषयों में भी काम आने वाला नियम । में ६ मात्रायें होती हैं, विषम पदों में जगण प्रतिधृति-संज्ञा, स्त्री० (सं० ) उन्नीस और अंत में गुरु वर्ण नहीं आता, बरवा वणों के वृत्तों का नाम । छंद में २ मात्राओं के और बढ़ाने से अतिपन्था-संज्ञा, स्त्री० (सं० ) बड़ा मार्ग अतिबरवै बन जाता है - (पिंगल)। राजपथ, सड़क । “ कवि-समाज को बिरवा-भल चले लगाय" अतिपर--संज्ञा, पु० (सं० ) महाशत्रु, | अतिमुक्त-वि० (सं० ) मुक्तिप्राप्त, विषयउदासीन, असम्बन्ध, अत्यंत शत्रु। विरक्त, संज्ञा, पु० (सं० ) एक लता। For Private and Personal Use Only Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रसन्नता । अतियोग अतीन्द्रिय प्रतियोग-संज्ञा, पु० (सं० ) एक वस्तु का संज्ञा पु० (सं० ) एक प्रकार का अलंकार दूसरी के साथ निश्चित परिमाण से अधिक जिसमें किसी वस्तु की उत्तरोत्तर सम्भावना मिलाव। प्रकट की जाय (प्राचीन )। अतिरंजन-संज्ञा, पु० (सं०) बढ़ा-चढ़ा अतिशयपान-संज्ञा, पु० (सं०) अत्यन्त कर कहने का ढंग, अत्युक्ति, अत्यंत । मद्यपान, मद्याहार। अतिशयोक्ति-संज्ञा, स्त्री. (सं० अतिशय अतिरथी- सज्ञा, पु० (सं०) जो अकेले +उक्ति ) एक प्रकार का अलंकार जिसमें बहुतों से लड़े, महारथी, रण-कुशल । भेद में अभेद, असंबंध में सम्बन्ध दिखलाते अतिरिक्त क्रि० वि० (सं०) सिवाय, हुए किसी वस्तु को बहुत बढ़ा कर प्रगट अलावा, छोड़ कर, वि० शेष, बचा हुआ, करते हैं, अत्यन्त बढ़ा कर चतुराई के साथ अलग, भिन्न । ( अति + रिच---क्त ) यौ० कहना, सम्मान के लिये असम्भव या ( अति + रिक्त ) अत्यंत खाली। अत्यन्त प्रशंसा। अतिरिक्तपत्र-संज्ञा, पु० (सं० ) समाचार अतिशयोपमा-संज्ञा, स्त्री० (सं० अतिशय +उपमा ) देखो "अनन्वय " एक प्रकार पत्र के साथ बँटने वाला विज्ञापन, क्रोडपत्र । अतिरेक-संज्ञा, पु. ( सं० अति ---रिच्+ | का अलंकार, किसी किसी ने इससे उपमा का एक भेद माना है ( केशवदास)। घञ् ) आधिक्य, छयी, अतिशय । अतिसंघ-- सज्ञा, पु. ( सं० ) प्रतिज्ञा था अतिरोग-सज्ञा, पु० (सं० ) यक्ष्मा, क्षयी, आज्ञा का भंग करना, अतिक्रमण, धोखा, महाव्याधि,। विश्वासघात । अतिवाद-संज्ञा, पु० (सं०) खरी बात, अतिसंधान-संज्ञा, पु० (सं० ) अतिक्रमण, डोंग, शेखी, सच्ची बात, कटु बात । धोखा। अतिवादी- वि० (सं० ) सत्यवक्ता, कटु- | अतिसामान्य -संज्ञा, पु. (सं० ) सब बादी, डींग मारने वाला। पर न घटने वाली अतिसामान्य बात, अतिवाहिक-संज्ञा, पु. ( सं०) पाताल- (न्याय० )। वासी, लिंग शरीर। अतिसार-संज्ञा, पु० (सं० अति + +सू अतिविषा-संज्ञा, स्त्री. (सं० ) अतीस । घञ् ) संग्रहणी रोग, पेट की पीड़ा, जठरअतिवृष्टि-संज्ञा, स्त्रो० (सं.) यौ०, अत्यन्त व्याधि, पतलेदस्त आने की बीमारी, वर्षा, एक प्रकार की ईति। जिसमें खाया हुआ सब पदार्थ निकल प्रतिवेल-वि० (सं० ) असीम, अत्यन्त, । जाता है। बेहद्द । अतिहासत-संज्ञा, पु० सं० अति+हसित) प्रतिव्याप्ति-संज्ञा, स्त्री० (सं० ) न्याय में हास के छः भेदों में से एक ; इसमें हँसने किसी लक्षण या परिभाषा के कथन वाला ताली बजाता है और उसकी आखों के अन्तर्गत लक्ष्यवस्तु के अतिरिक्त अन्य | से आँसू भी निकलने लगते हैं, शरीर थर्राने वस्तु के भी आजाने का दोष, एक प्रकार लगता है, बचन अस्फुट निकलते हैं। का तर्क-दोष ( तर्क शास्त्र)। अतीन्द्रिय-वि० (सं० अति+ इन्द्रिय ) अतिशय-वि० (सं०) बहुत ज्यादा, जिसका अनुभव इंद्रियों के द्वारा न हो, अतिसै (दे०) “ मूढ़ तेहि अतिसै अभि- । अगोचर, अव्यक्त, अप्रत्यक्ष " अतींद्रिय माना"-रामा०। ज्ञान निधः --" कालि। For Private and Personal Use Only Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra प्रतीत प्रतीत - वि० (सं० अति + इति ) अत्यन्त इति, ( अति + इ + क्त ) प्रतिक्रांत, बीता हुआ, पृथक, जुदा, अलग, मृत, विरक्त, न्यारा, संगीत शास्त्रानुसार परिणाम विशेष, संज्ञा पु० (सं०) संन्यासी, यति, साधु-अतिथि विरक्त, 'कविरा भेष यतीत का, करै अधिक अपराध " क्रि० वि०- परे, बाहर, वि० ( अ + तीत - (सं० ) तित ) जो तिक्त या कटु न हो । प्रतीतकाल - संज्ञा पु० (सं० ) हुआ समय, प्राचीन काल । प्रतीतना - प्र० क्रि० ( हि० ) बीतना, गुज़रना, छूटना ( व्यतीत - वि + प्रतीत ) बीता "6 हाय रीते से उपाय " " पुत्र सिख लीन तन श्रसर ती होत (6 सरस जौ लगि तीत ही क्रि० स० (सं० ) 39 त्यागना । प्रतीथ – संज्ञा पु० (दे० ) अतिथि (सं० ) मेहमान | प्रतीष - वि० www.kobatirth.org (6 ५७ गत, भूत, सं० प्रति + इव) बहुत, श्रत्यन्त । प्रतीस - संज्ञा पु० (सं० ) एक पहाड़ी पौधा जिसकी जड़ दवा के काम में याती है, प्रतिविधा, विषा । ܕܕ - राम० । बिताना, छोड़ना, प्रतीसार संज्ञा पु० (सं० ) देखो प्रतिसार, एक दस्तों का रोग | प्रतुराईक - मा० संज्ञा स्त्री० (सं० आतुर ) श्रातुरता, जल्दी, चंचलता, चपलता, ( जल्दबाज़ी ) । अतुराना३ - अ० क्रि ( सं० आतुर ) श्रातुर होना, घबराना, जल्दी मचाना, कु लाना । प्रप्ति - मतानुसार ) अनुकूल नायक । तिल का पेड़, तोल, अद्वितीय, अतुल्य, असदृश, अतुलनीय - वि० (सं० ) अपरिमित, अपार, नुपम, द्वितीय। अतुलित--- वि० ( ) बिना तौला हुआ, अपरिमित जिसकी तौल या तुलना न हो सके, अपार, अतुल्य, अनुपम, अद्वितीय, असंख्य श्रेष्ठ, मेघनाद अतुलित बल योधा " - रामा० । ० k इन कौ मिलिबे को --सूर ० चतुरात अतुल - वि० (सं० ) जिसकी तौल या अन्दाज़ न हो सके, अमित, असीम, बहुत अधिक, अनुपम, बेजोड़, संज्ञा पु० ( केशव भा० श० को०-८ । अतुल्य - वि० सं० + तुल्य) असमान, सदृश, अनुपम, बेजोड़ । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रतू - वि० (सं० अति + उत्थ ) अपूर्व, - विचित्र । 33 " देखो सखि अद्भुत रूप तूथ • सू० । अतूल - दे०वि० ( ० ) अतुल, तोल, अतुल्य (सं० ) )। अतृप्त - वि० (सं० ) जो तृप्त या सन्तुष्ट न हो, भूखा, संज्ञा स्त्री० (सं० ) अतृप्ति । प्रतृप्ति -- संज्ञा स्त्री० (सं०) मन न भरने की दशा, असन्तुष्टता । तेज - वि० (सं० अ + तेज ) तेज रहित, हतप्रभ हतश्री, क्षीणता, प्रभा-हीन । प्रतोर - वि० सं० अ + तोड़ना ) जो न टूटे, हद, अभंग, अटूट | तोल - वि० सं०) प्रतौल -- अतुल, अनन्त, अप्रमाण, इयत्ता-रहित, जो न तुल सके, (: . पदवी लहत श्रतोल " अनुपम बृन्द० । प्रतौल - वि० (दे० ) अतोल, अतुल, अतुल्य । प्रत्त ४९ -- संज्ञा स्त्री० दे० (सं० प्रति ) अति, अधिकता, प्रति (दे० ) | यत्ता - प्रत्तिका - संज्ञा स्त्री (सं० ) माता, ज्येष्ठ बहिन, बड़ी मौसी, सास, (प्राची नाटक ) | अत्तार - संज्ञा पु० ( ० ) इत्र या तेल बेचने वाला, गंधी, यूनानी दवा बेचनेवाला । प्रत्तिक - संज्ञा स्त्री० दे० (सं० प्रति ) श्रति, ज्यादती, ऊधम, अत्याचार । For Private and Personal Use Only Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अत्यन्त ५८ RE अत्यन्त-वि० (सं० ) बहुत अधिक, अति- गुणों का अधिक, विचिन और अतथ्य वर्णन शय. ज्यादा। किया जाता है, ( अ० पी० )। अत्यन्ताभाव-संज्ञा पु० (सं० ) किसी अत्युकथा-संज्ञा स्त्री. (सं० ) बारह वस्तु का बिलकुल अभाव, सत्ता की नितान्त | अक्षरों का एक चतुष्पाद छंद विशेष । शून्यता, पाँच प्रकार के अभावों में से एक, अत्युत्कट-वि० (सं० )अति कठिन, तीन । तीनों कालों में असम्भव, (वैशेषिक) अत्युत्कंठा-संज्ञा स्त्री० (सं० ) अत्यन्त बिलकुल कमी। चिन्ता, मनस्ताप, अति अभिलाषा। अत्यन्तगामी---वि० (सं० ) शीघ्रगामी, अत्युत्कृष्ट-वि० (सं० ) अत्युत्तम, श्रेष्ठ । अधिक चलने वाला। अत्युत्तम-वि० (सं०) बहुत अच्छा, श्रेष्ठ । अत्यन्तवासी-संज्ञा पु. (सं० ) बहुत | प्रत्युत्तर-संज्ञा पु० (सं० ) सिद्धान्त, रहने वाला, नैष्ठिक ब्रह्मचारी। मीमांसा का निर्धारण, पाश्चात्य । प्रत्यंतिक-वि० (सं० ) समीपी. निकट- अत्र-क्रि० वि० (सं० ) यहाँ, इस जगह, वर्ती बहुत घूमने वाला। संज्ञा पु० अस्त्र का अपभ्रंश । “चले अत्र अत्यम्ल-संज्ञा पु. (सं० अति ---अम्ल ) लै कृष्ण मुरारी '-५० । इमली-बहुत खट्टा. वि. अति खा। अत्रक--वि० ( सं० ) यहाँ का, इस लोक प्रत्यय-संज्ञा पु० (सं० ) मृत्यु, नाश, दंड, का, ऐहिक । सज़ा, हद से बाहर जाना, कष्ट, दोष, राजाज्ञा | | अत्रत्य-अ० (सं० ) यहीं का, इसी का उल्लंघन, विनाश, अपराध, अति- स्थान का। क्रमण, दुःख। अत्रय-विव्य० (सं० ) निर्लज्ज, बेशर्म, प्रत्यर्थ-संज्ञा पु. (सं.) विस्तार, अधिक। बेहया। अत्यष्टि---संज्ञा पु. (सं० ) १७ वर्णों के | अत्रभवान्-संज्ञा पु. (सं० ) माननीय, वृत्तों की संज्ञा, अष्टादशवर्णवृत्त । पूज्य, श्रेष्ट, श्लाघ्य ( नाटक में)। अत्याचार-संज्ञा पु० (सं० ) आचार अत्रभवती-संज्ञा स्त्री० (सं० ) पूज्या, श्लाघ्या। काप्रति क्रमण, अन्याय, जुल्म, दुराचार. पाप, पाखंड, ढोंग, श्राडम्बर. दौराम्य अत्रस्थ-संज्ञा पु० (सं० ) इसी स्थान का अनीति, दुराचार, निषिद्धाचरण । निवासी, इसी जगह पर रहने वाला। अत्याचारी-वि० (सं०) अन्यायी, अत्रि-संज्ञा पु० (सं० ) ब्रह्मा के पुत्र जो पाखंडी, ढोंगी। सप्तर्षियों में गिने जाते हैं, कर्दम प्रजापति की कन्या अनसूया इन्हें व्याही थीं। अत्याज्य-- वि० (सं० ) न छोड़ने के योग्य, महर्षि, दुर्वासा दत्तात्रेय और चन्द्र इसके जो न छोड़ा जा सके। पुत्र हैं । मनु के दस प्रजापति-पुत्रों में से अत्यावश्यक-वि० (सं० ) अति प्रयोज एक ये भी हैं । सप्तार्षि-मंडल का एक तारा । नीय, बहुत जरूरी। अत्रिजात--संज्ञा पु. ( सं० ) चन्द्र, दिग्गज, प्रत्युक्त-वि. (सं० प्रति+उक्त) बहुत । नेत्रज, नेत्रभू, निशाकर, सुधांशु, चन्द्रमा । बढ़ा-चढ़ाकर कहा हुआ। | अगुण्य-संज्ञा पु० (सं० ) सत्, रज, तम, अत्युक्ति-संज्ञा स्त्री० (सं० ) बढ़ा-चढ़ा कर | __ तीनों गुणों का अभाव । वर्णन करने की शैली, मुबालिग़ा, एक प्रकार | अथ-अव्य. (सं० ) ग्रन्थारम्भ में प्रयुक्त का अलंकार जिसमें उदारता, शूरता आदि | होने वाला, शब्द, अनन्तर, प्रश्न, अधिकार For Private and Personal Use Only Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ... अथकचा अथाह संशय, अकल्प, समुच्चय, पश्चात, तदनन्तर, अथर्वशिर-संज्ञा पु० (सं० ) अथर्ववेद का अब, तदुपरि, अनन्तर । ७ वाँ उपनिषद् । प्रथकचा-संज्ञा पु० (दे०) बेठन, वेष्ठन, | अथर्वशिरा--संज्ञा पु० (सं० ) ब्रह्मा का लपेटने का वस्त्र। जेष्ठ पुत्र, जिन्हें ब्रह्मा जी ने ब्रह्म विद्या प्रथव-अव्य (सं० ) और, संयोजक | सिखलाई थी. और जिन्होंने सर्व प्रथम अव्यय, और भी। 'अग्नि उत्पन्न कर आर्य जाति में यज्ञ का प्रथइ-कि० अ० (हि. अथवना ) " अथइ प्रचार किया था। गयो" --अस्त होना। अथल--संज्ञा पु० (दे० ) जगान लेकर अथऊ ---संज्ञा पु० (हि. अथवना) जैनों का । दूसरे को जोतने बोने को दी गई भूमि । सूर्यास्त के पूर्व भोजन। (सं०-स्थल, अस्थल ) स्थान, बुरा स्थान । अथक-वि० (सं० अ+ थक =थकना अथवना-अ० क्रि० दे० (सं. अस्तमन ) हि० ) जो न थके, अश्रान्त, घोर, सूर्यचन्द्रादि का अस्त होना, डूबना लुप्त अक्लान्त। होना । चला जाना, तिरोहित होना। प्रथना --अ० क्रि० (७० दे०, सं० अस्त) | "उदित सदा अथइहि कबहूँना" ... रामा० । अस्त होना, डूबना. अस्तमित होना अथवा--अव्य० (सं०) एक वियोजक बूड़ना, नष्ट होना मरना। अव्यय. पक्षांतर या प्रकरण में, किम्बा, प्रथमना-~-संज्ञा पु. (सं० अस्तमन) जहाँ कई शब्दों या पदों में से जहाँ किसी पश्चिम दिशा, उगमना का उलटा । एक का ग्रहण करना अभीष्ट होता है वहाँ अथरा-संज्ञा पु० (सं० स्थाल ) मिट्टी का इसका प्रयोग करते हैं वा या कै ( ब )। खुले मुंह वाला चौड़ा बरतन नाँद। | अथाई--संज्ञा स्त्री० दे० (सं० स्थायी, ) स्त्री० अथरी। बैठने की जगह बैठक, चौबारा, पंचायत अथर्व-संज्ञा पु० (सं०) एक वेद का नाम, करने का स्थान, घर के सामने का चबूतरा, चौथा वेद इसके मन्त्र द्रष्टा या ऋषि भृगु मंडली, सभा, जमाव — हाट-बाट, घर गली तथा अंगिरा गोत्र वाले थे। यह वेद ब्रह्मा | लथाई ., ... रामा० । " जनु उड़गण मंडल के उत्तर वाले मुख से निकला है इसमें | वारिदबर नव ग्रह रची अथाई" विना० वि० १ शाखा ५ कल्प और २० कांड हैं, इसका (अ+ स्थायी, स्थायी ) स्थायी जो प्रधान ब्राह्मण गोपथ है, इसके सम्बन्धी | । स्थायी न हो। उपनिषद ३१ या २८ हैं, इसमें प्रायः | अथान ---संज्ञा पु. (सं० स्थाणु ) अचार, अभिचार-प्रयोगों का वर्णन है। (हि० अ-+थान - स्थान ) बुरी जगह स्थान, अथर्षण-अथर्धन-संज्ञा पु० (सं० ) अथर्व अस्त होना (अ० कि०)। वेद शिव, महादेव । अथाना-अ० क्रि० (हि० दे०) अथवना, अथर्वणी-( दे० अथवनी ) संज्ञा पु० । हबना, थाह लेना, ढूँढ़ना, क्रि० स०-थाह (सं० ) कर्मकांडी, यज्ञ कराने वाला पुरो- लेना । संज्ञा पु० (दे० ) अचार, खटाई, हित, अथर्व वेदज्ञ ब्राह्मण । वि० बिना स्थान, बेठिकाना ।। अथर्व शिख-संज्ञा पु. (सं० ) एक | अथावत-अथवन-वि० (हि-अथवना) डूबा उपनिषद् । हुया, दूबते हुए । प्रे० क्रि० --- अथवाना । अथर्व शिखामणि-संज्ञा पु. (सं० ) एक अथाह --वि० दे० (हि अ--थाह ) जिसकी उपनिषद् । | थाह न हो, बहुत गहरा, गंभीर, अपरिमित, For Private and Personal Use Only Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - अथिर गूढ, अगाध, बहुत अधिक, संज्ञा पु०- अदंग-वि० (सं० अदग्ध ) बेदाग़, शुद्ध, गहराई. जलाशय, समुद्र । निर्दोष, अछूता, अस्पृष्ट, साफ, निरपराध, प्रथिर - वि० ( दे० ) (सं० अस्थिर ) अदाग ( हि० प्र+दाग ) दे०, अदग्ग अस्थिर, चंचल, क्षणस्थायी। (दे० ) अदागी-वि०। अथीर-वि० (दे० ) जो थिर, थीर ( सं० अदग्ध-वि० (सं० प्र+दग्ध ) न जला स्थिर) न हो, अशान्त ( क्रि० थिराना)। हुआ, जो दुखी न हो. सुखी। प्रथूल-वि० दे० (सं० स्थूल ) स्थूल, या अदत्त-वि० सं०) न दिया हुआ, जो स्थूल न हो। असमर्पित, अप्रतिपादित, संज्ञा, पु. वह अथै-५० कि० (हि. अथना ) डूबा, वस्तु जिसके दिये जाने पर भी लेने वाले "अथै गयो । को लेने और रखने का अधिकार न हो अथोर-वि० ( हि अ+थोर-थोड़ा ) थोड़ा | (स्मृति)। नहीं, अधिक, स्त्री० अथोरी, वि० ( दे० ) अदत्ता- संज्ञा स्त्री० (सं० ) अविवाहिता अथारा । कन्या, कुमारी, अनूदा।। अदंक ---संज्ञा पु० (सं० आतंक ) डर, भय, अदद-संज्ञा स्त्री. (अ.) संख्या, गिनती, संख्या का चिन्ह या सङ्केत, किता, जैसे ३ भातंक। अदद। अदंड-वि० (सं० ) जो दंड के योग्य न | अदन-संज्ञा, पु० (अ० ) अरब के किनारे हो, जिस पर कर या महसूल न लगे, ! पर एक बंदरगाह, नगर, जहाँ ईश्वर ने निर्भय, स्वेच्छाचारी, उइंड, बली, सज़ा से आदम को रक्खा था, यह स्वर्ग का उपवन बरी, अडंड दे० संज्ञा पु० बिना मालगुजारी भी माना जाता है (पैग़म्बरी मतानुयायियों की मुनाफ़ी भूमि, वि०-(अ+दंड-डंडा) के अनुसार) संज्ञा पु० (सं० अद्-भक्षणे ) दंड या डंडे के बिना। भक्षण, भोजन, जेवनार, आहार, खाना । अदंडनीय-वि० (सं० ) दंड पाने के योग्य अदना-वि० (अ.) तुच्छ, छोटा, छुद्र, जो न हो। मामूली, नीच । प्रदंडमान-वि० (सं० ) दंड के अयोग्य, अदनीय-वि० ( सं० ) भक्षणीय, दंड से मुक्त, जो दंडित न हो, सदाचारी ! खाद्यवस्तु, भोजन । अदंड्य-वि० (सं० जिसे दंड न दिया अदब-संज्ञा पु० (अ.) शिष्टाचार, जा सके। कायदा, श्रादर-सम्मान, गुरु जनों का सत्कार अदंत-वि० (सं०) दंत-विहीन, जिसके लिहाज़, वि०-बाअदब, बेअदब ।। दाँत न हों, बहुत थोड़े दिनों का, दूधमुख, " जिससे मिलती थी कभी दिल में बुजुर्गों दुधमुहा। के जगह, वह अदब बच्चों के दिल से अदंद --वि० (सं० अद्वन्द) देखो, “ अद्वंद" आज कल जाता रहा।" ----अकबर । इंद-रहित । अदबदाकर-क्रि० वि० (सं० अधि+ प्रदंभ---वि० (सं० ) दंभ-रहित, पाखंड वद ) दे०, टेक बाँध कर, बलात्, हठात्, विहीन, सच्चा, निश्छल, स्वाभाविक, अवश्य, ज़रूर, अदबदाय-दे० । प्राकृतिक, स्वच्छ, शुद्ध, निष्कपट । संज्ञा पु० अदभ्र-वि० (सं०) बहुत, अधिक, अपार, शिव, महादेव। अनंत। अदंश-वि (सं० ) जो दंशा न गया हो, अद्भुत- वि० (सं०) विलक्षण, विचित्र, बिना काटा हुआ, घाव-रहित, अद्वैष । अनोखा । For Private and Personal Use Only Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रदम प्रदाग प्रदम-वि० (सं० ) दमन-रहित, इंद्रिय- अदर्शनीय-वि० (सं० ) जो दर्शन या निग्रह न करना। अदमनीय-वि० देखने के योग्य न हो, बुरा, कुरूप, भद्दा । (सं० ) दमन न करने योग्य । | अदल-संज्ञा, पु. ( अ० ) न्याय, इंसाफ । प्रदमपैरवी-संज्ञा, स्त्री० (फा० ) किसी आदिल--वि० ( अ०) न्यायी, अदालत मुकदमे के आवश्यक कार्यवाही न करना।। -संज्ञा, पु. ( अ ) न्याय की कचहरी। अदमसबूत-संज्ञा, पु० ( फा० ) प्रमाणा- ( हि० अ-+ दल ) सेना-रहित, पन्नभाव, सबूत न होना। | विहीन । प्रदमहाजिरी-संज्ञा, स्त्री० (फा० ) गैर | अदल-बदल-क्रि० वि० ( अनु०) उलटहाज़िरी, अनुपस्थिति। पुलट, हेरफेर, परिवर्तन, बदलना, संज्ञा, पु० अदम्य---वि० (सं० ) जिसका दमन न हो | अदला-बदला---परिवर्तन । सके, प्रचंड, प्रबल । अदमनीय-वि०.(सं० अदलं *~संज्ञा, पु० (अ.) न्यायी, हि० भ+दमनीय) दमन न करने योग्य ।। वि० ( अ-दल+ ई ) बिना पत्ते का, दलप्रदय-वि० ( स० ) दया-रहित, निर्दय, विहीन । निष्ठुर। अदवान-अदवायन-संज्ञा, स्त्री० (सं० अधः प्रदयनीय-वि० (सं० ) जो दयनीय न -नीचे-+-हि-वान-रस्सी) खाट या चारहो, दया के योग्य जो न हो। पाई की बिनावट को खींचे रख कर कड़ा अदरक-संज्ञा, पु. ( सं० आईक, फा० रखने के लिये पैताने पर छेदों में पड़ी हुई प्रदरक ) एक प्रकार का पौधा, जिसकी | रस्सी, भोरचाइन (दे०) अदवाइनतीषण और चरफरी जड़ मसाले और दवा , प्रा.) प्रोनचन ( प्रा० ) के काम में आती है। अदहन-संज्ञा, पु० (सं० आ+ दहन) दाल अदरकी- संज्ञा, स्त्री. ( सं० आर्द्रक ) सौठ चावल पकाने के लिये आग पर चढ़ा कर और गुड़ की टिकिया। वि० (हि. + गरम किया हुआ पानी । (सं० अ+दहन ) दरकना) जो दरकी या चिटकी या फटी न जलाना। न हो। अदक्ष-वि० (सं० ) अचतुर, अपटु । प्रदरना-प्र. क्रि० (दे० ) उठ जाना, अदांत--वि० ( सं० अदंत ) जिसके दाँत न व्यवहार से परे हो जाना, जैसे “ यह रीति हों, (पशुओं के लिये ) जिसके दाँत न प्रदरिंग" अप्रचलित हो जाना, खूब पक्का । । आये हों। गाड़ना। अदांत-वि० (सं० ) जो इंद्रियों का दमन अदरसा-संज्ञा, पु० (दे०) अनरसा, न कर सके, विषयासक्त, उदंड, अक्खड़ । एक प्रकार का पकवान या पक्वान्न, मिठाई । अदा-वि० ( अ०) चुकता, बेबाक, संज्ञा, विशेष । स्त्री० (अ.) हाव-भाव, नखरा, ढंग, तर्ज, प्रदरा-संज्ञा, पु० (सं० पार्दा ) एक नक्षत्र। मु० अदाकरना-पालना, पूरा करना, अद्दरा (दे०) या अद्रा । व्यक्त करना, चुकता करना । प्रदराना-अ० कि० ( स० आदर ) आदर | अदाई-वि० (अ० अदा) ढंगी, चालपाकर शेखी में चढ़ना, इतराना, सं० कि. बाजी, चालाक, " सो तजि कहत और की श्रादर देकर घमंडी बनाना। औरै अलि तुम बड़े श्रदाई" -सूबे० प्रदर्शन-संज्ञा, पु० (सं० ) अविद्यमानता, अदाग-वि. ( हि० अ+दाग अ.) असाक्षात, लोप, विनाश, दर्शन न होना।। बेदाग़, सान, निर्दोष, पवित्र । For Private and Personal Use Only Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - अदागी अदीन अदागी -वि० (दे० ) निष्कलंक, अदाह8 - संज्ञा, स्रो ( अ० अदा) हाव-भाव, पुनीत, बेदाग़ । नावरा, संज्ञा, पु० (सं० अ--दाह) दाह या अदाता (अदात--संज्ञा पु० (सं० ) जलन-रहित। कृपण, कंजूप। .. पूरब जनम अदात | अदिति --संज्ञा, पु. (सं० ) आदित्य, जानिकै" - सूबे० रविवार --- "अदिति लूक पच्छिउँ दिमि राहू, प्रदान - वि० (सं० अ+दाना फा० ) बीफै दखिन लंक दिसि दाह ।” प० । अनजान, नादान, ना समझ, (हि. अ+ अदिति-संज्ञा, स्त्री० (सं० ) प्रकृति, पृथ्वी, दान ) दान-रहित, कंजूस, अदाना--वि० | दक्षप्रजापति की कन्या और कश्यप की (सं० अ+दान ) दे० कृपण, वि० अदानी । पत्नी, जो देवताओं की माता हैं, इन्हीं से अदायगी-संज्ञा, स्त्री० (अ.) बे बाकी वामन भगवान भी उत्पन्न हुए थे, नरकाचुकता। सुर बध पर कृष्ण को प्राप्त होने वाले कुंडल अदाया-वि० (सं० अ+दया ) दया- इन्हीं को समर्पित किये गये थे, घुलोक, हीनता, कठोरता, निर्दयता, निष्ठुरता।। अंतरिक्ष, माता, पिता, वाणी। "भय, अविवेक, अशौच अदाया।" रामा० । अदिति-नंदन-संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) अदायाँ-वि० ( हि० अ+ दायाँ ) वाम. देवता, सुर, सूर्य । प्रतिकूल, बुरा। अदिति-सुत-संज्ञा, पु० यौ० ( सं० ) सुर, अदारा-वि० (सं० अ+दारा ) स्त्री- सूर्य, आदितेय-आदित्य । " कश्यप-अदिति रहित । महा तप कीन्हा" -रामा० । अदालत-संज्ञा, स्त्री. (अ.) न्यायालय, अदिन-संज्ञा, पु. ( सं० ) बुरा दिन, सङ्कटकचहरी, न्यायाधीश । वि० अदालती --- काल, अभाग्य, बुरा समय, “ दोष न काहू अदालत से संबन्ध रखने वाला, ( यौ०) कर कछु, यह सब अदिन हमार"। अदालत-ख़फ़ीफ़ा-छोटे मुकदमों की प्रदिव्य-वि० (सं० ) लौकिक, साधारण, दीवानी कचहरी, अदालत-दीवानी बुरा। संपत्ति या स्वत्व-सम्बन्धी मामलों के निर्णय अदिव्य-नायक-संज्ञा, पु० (सं० यौ० ) की कचहरी, अदालतमाल-लगान या मनुष्य-नायक, जो नायक देवता न हो, मालगुजारी-सम्बन्धी मामलों का निर्णय करने बुरा नायक (साहित्य)। वाली कचहरी। संज्ञा, यौ० ( अदा+लत) | अदिष्ट -वि० (सं० अदृष्ट ) संज्ञा पु. देखो " अदृष्ट " हाव-भाव दिखाने की टेंव या आदत। । अदिष्टी -वि० (सं० + दृष्टि ) अदूरअदालती-वि० (अ० ) अदालत-सम्बन्धी, दर्शी, मूर्ख, अभागा, बदकिस्मत, बुरी दृष्टि अदालत करने वाला, मुकदमा लड़नेवाला, दृष्टि-हीन । मुक़दमेबाज़ । अदीठ8-वि० (सं० अदृष्ट ) बिना देखा अदांव-संज्ञा, पु. ( हि० अ-1 दाँव ) बुरी हुआ, गुप्त, छिपा, दृष्टि-विहीन । दाँव-पेंच, असमंजस, कठिनाई। अदीठि–संज्ञा स्त्री० ( सं० अ + दृष्टि ) बुरी अदावत-संज्ञा, स्त्री० ( अ०) शत्रुता, दृष्टि, दृष्टि-रहित । दुश्मनी, बैर, विरोध । अदीन-वि० (संज्ञा ) दीनता रहित, उग्र, अदावती-वि० (अ० अदावत ) अदावत | प्रचंड, निडर, अनम्र, ऊँची तबियत का, रखने वाला, विरोधी, द्वेषी, शत्रु, द्वेषमूलक, उदार, वि. ( अ दीन अ. )-मज़हब विरोधजन्य । विहीन, धर्म-रहित, बे दीन । For Private and Personal Use Only Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सिद्धान्त । अदीयमान प्रदेस प्रदीयमान-वि० ( संज्ञा ) जो न दिया अष्टपूर्व-वि० (सं० ) जो पहिले न देखा जाये। गया हो, अद्भुत, विलक्षण, धर्माधर्म की अदीह-वि० (सं० अदीर्घ ) जो दीर्घ या संज्ञा ( नैयायिक ) अदृष्ट धात्मा का बड़ा न हो, छोटा। | धर्म (वैशेषिक ) बुद्धि-धर्म ( सांख्य-पातंअदीर-वि० ( दे०) सूचम, महीन, छोटा। जलि )। अदद -वि० (सं० अद्वन्द, प्रा० अद्वन्द) अदृष्ट-फल-संज्ञा, पु. ( सं०) पूर्व कृत द्वंद्व रहित, निडु, वाधा-रहित, शांत, | कर्मों के फल, सुख, दुख आदि, अज्ञात निश्चित, बेजोड़, अद्वितीय। परिणाम । अदुनिय-वि० ( सं० अद्वितीय ) बेजोड़ | अद्दष्टवाद-संज्ञा, पु० (सं०) परलोकादि अद्वितीय । परोक्ष बातों का निरूपण करने वाला अदूजा-वि० (सं० अद्वतीय ) (स्त्री. अदुजी हि० अ+ दूजा ) बेजोड़, दूसरा नहीं, 'देव" अदृष्टवादी-संज्ञा, पु० (सं०) अदृष्टवाद अब पाल पूजी तू जी मैं अदजी बसी, दूजी का मानने वाला। तिय भूलें ह न देखत गोपाल हैं "... | अदृष्टार्थ-संज्ञा, पु० (सं०) वह शब्द-प्रमाण देव। जिसके वाच्य या अर्थ का इस संसार में अदूर-क्रि० वि० (सं० अ+दूर ) पास, | साक्षात् न हो सके, जैसे स्वर्ग, ईश्वर । समीप, दूर नहीं। अष्टा -संज्ञा पु० (सं० ) जो देख न सके। अदरदर्शी-वि. (सं० ) जो दूर तक न अदेख-वि० (सं० अ-हि० देखना ) जो सोचे, स्थूल बुद्धि, अननसोची, जो दूरं देखा न गया हो, जो न देखा जाय, न देश न हो, ना समझ । देखने वाला, छिपा हुआ, अदृश्य, गुप्त, अदृष्टअदूरदर्शिता-संज्ञा, भा० स्त्री. (सं० ) | "ऊधौ तुम देखि हू अदेख रहिबो करौ"नासमझी। रत्नाकर। प्रदूषण-वि० (सं०) निर्दोष, दूषण या प्रदेखो-वि० (हि. अ+देखी ) न देखी दोष रहित, शुद्ध, निष्पाप, दे० अदूरखन। गई जो न देख सके, डाही, द्वेषी, ईर्षालु प्रदूषित्त-वि. ( सं० ) निर्दोष, शुद्ध, बहु० व० अदेखे अदेखो, (ब्र०)। स्वच्छ, दे०-अदूखित । अदेय-वि० (सं० ) न देने के योग्य, जिसे अदृश्य-वि० (सं० ) जो दिखाई न दे, न दे सके, " अदेयमासीत् त्रयमेव भूपतेः" अलख, इन्द्रियों से जिसका ज्ञान न हो सके, __-रघु० । किसी का न्यास या धरोहर । अगोचर, लुप्त, ग़ायब, अलक्षित । अदेयदान-संज्ञा, पु० (सं० ) अयोग्य पात्र अदृष्ट-वि० (सं० ) न देखा हुआ, अन्त- को दिया गया दान, अपात्र को दान । नि, लुप्त, अगोचर, अलन, संज्ञा पु० (सं०) “तुम कहँ कछु अदेय जग नाहीं"-- रा. भाग्य, किस्मत, अग्नि और जल श्रादि से | अदेव-संज्ञा, पु. (सं० ) असुर, राक्षस, उत्पन्न होने वाली आपत्ति, दुर्भाग्य, प्रकृति- दैत्य । स्त्री० अदेवी----आसुरी, राक्षसी। जन्य उत्पात । प्रदेस* ---संज्ञा, पु. ( सं० आदेश ) आज्ञा, अदृष्टपुरुष-संज्ञा, पु० (सं० ) किसी कार्य प्रादेश, प्रणाम, दंडवत ( साधु ) में स्वयंमेव कूद पड़ने वाला, बिना बनाये। "ौ महेस कहँ करौं अदेसू"-५० बनने वाला। संज्ञा, पु० अँदेस-अंदेशा, आशंका, संज्ञा, For Private and Personal Use Only Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org प्रदे ६४ पु० ( हि० अ + देश ) विदेश, जो अपना देश न हो, परदेश | प्रदेह - वि० (सं० ) बिना देह का, शरीररहित, संज्ञा, पु० कामदेव, अनंग, अनु विदेह | प्रदोख - वि० (दे० ) श्रदोष दोष-हीन | दोखी - वि० (दे० ) ( सं० प्रदोषी ) निर्दोषी | CC आय | प्रदोखिल* - वि० दे० (सं० प्रदोष) निर्दोष 'सुतै चि पिय श्राप त्यौं, करी अदोखिल "वि० । प्रदोष - वि० सं० ) निर्दोष, निष्कलंक बेब, निरपराध, निर्विकार दे० प्रदोस । अदौरी – संज्ञा, स्त्री० (सं०) ऋद्ध + हि० - बरी) उर्द की दाल से सुखाकर बनाई हुई बरी, कुँहडौरी मिथौरी | I श्रद्ध - वि० (सं० अर्ध ) श्राधा, अर्ध अद्धरज – संज्ञा, पु० (सं० अध्वर्यु ) एक प्रकार का यज्ञ कराने वाला पुरोहित, होम कर्ता । - अद्धा – संज्ञा, पु० ( सं० अद्ध ) किसी वस्तु का श्राधामान, पूरी बोतल की आधी नापवाली बोतल । श्रद्धी - संज्ञा, स्त्री० (सं०द्ध ) दमड़ी का श्राधा, एक पैसे का सोलहवाँ भाग, एक बारीक और चिकना कपड़ा, तनज़ेब । अदभुत - वि० (सं० ) आश्चर्यजनक, विलक्षण, विचित्र, अनोखा, अनूठा । संज्ञा पु० काव्य के नव रसों में से एक जिसमें विस्मय की पुष्टता प्रगटित की जाती है । अद्भुतालय - संज्ञा, पु० यौ० (सं० अद्भुत + श्रालय ) श्राश्चर्यजनक वस्तुयों का घर, अजायब घर । प्रद्भुतापमा -- संज्ञा, स्त्री० ( सं० यौ० अद्भुत + उपमा ) उपमालंकार का एक भेद, जिसमें उपमेय के उन गुणों को दिखलाया जाता है जिनका होना उपमान में सम्भव नहीं होता । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रदिष्टा अद्भर - वि० (सं०) पेटार्थी, लोभी, लालची पेटू । द्य - क्रि० वि० (सं० ) अब, श्राज, अभी । अद्यतन - वि० (सं० ) अद्यजात, श्राज का उत्पन्न, एक काल विशेष ( इसका विलोम अद्यतन ) अद्यापि - कि० वि० (सं० यौ० अद्य + अपि ) आज भी, अभीतक आजतक । अद्यावधि - क्रि० वि० ( सं० यौ० अध + अवधि ) अब तक आज से लेकर, अद्यारम्भ ( समय परिच्छेदार्थक व्यय ) । अद्रक - संज्ञा, स्त्री० (सं० ) श्रार्द्रक, यादी, कच्ची सोंठ, अदरख । अद्रव्य -- संज्ञा, पु० ( सं० ) सत्ताहीन. श्रवस्तु असत् शून्य, अभाव वि० द्रव्य या धन-रहित, दरिद्र । श्रद्धा* - संज्ञा, स्त्री० (सं० श्रार्द्रा ) एक नक्षत्र विशेष | यद्रि - संज्ञा, पु० (सं० ) पर्वत, पहाड़, अचल, वृक्ष, शैल, सूर्य, परिणाम विशेष । अद्विकोला - संज्ञा स्त्री० ( सं० ) भूमि, पृथिवी । अद्रिज -संज्ञा, पु० (सं० ) शिलाजीत, गेरू, पर्वतजात वस्तु | द्विजा – संज्ञा, स्त्री० (सं० ) अद्रितनया, पार्वती, वृक्ष, पहाड़ पर उत्पन्न होने वाली लता, गंगा । " अद्रितनया - संज्ञा स्त्री० (सं० यौ० ) पार्वती जी. गंगाजी, निंदिनी, अद्रिसुता, शैलजा, २३ वर्णों का एक वृत्त । प्रदिपति - संज्ञा, पु० (सं० ) श्रद्विराज, पर्वतराज हिमालय, नगराज । अद्रिवन्हि - संज्ञा, खी० (सं० यौ० अद्रि + वन्हि ) पर्वतोत्पन्न अग्नि, ज्वालामुखी की आग । अद्रिशृङ्ग - संज्ञा, पु० ( सं० यौ० ) पर्वत के ऊपर का भाग, चोटी । For Private and Personal Use Only Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अद्वितीय अधखाया MAITANESHबाळDRASIRAMRU n autanesTo TRINDER अद्वितीय-वि० (सं०) अकेला, एकाकी, संज्ञाओं में ) प्राधा, जैसे-अधकचरा, अधजिसके समान दूसरा न हो, बेजोड़, अनुपम, खुला । धधधाधे-क्रि० वि० ( दे० ) प्रधान, मुख्य, विलक्षण, अतुल्य । । आधे श्राधे। अद्वैत--- वि० (सं० ) एकाकी, अकेला, अघकन-वि० (सं० ) नीचे किया हुश्रा, अनुपम, बेजोड़, एक, तरहित, भेद रहित । अधक्षेपण। अद्वितीय, शंकराचार्य का मत जो वेदान्त अधकचरा----वि० यौ० (दे० ) (सं० अर्ध के श्राशर पर है और जिसके अनुसार जीवन कब्चा हिं० ) अपरिपक्व, अधूरा, अपूर्ण, और ब्रह्म में भेद नहीं दोनों एक हैं, संसार अकुशल, अदक्ष, स्त्री० अधकारी। मिथ्या है, ब्रह्म ही सत्य है.---संज्ञा पु०-ब्रह्म, अधकचरी--वि० (दे० ) अधूरी आदि । ईश्वर। वि० (सं० अर्ध+कचरना-हि० ) श्राधा अद्वैतराद - संज्ञा, पु० सं० ) एक दार्श- कूटा पीपा, दरदरा, प्राधा कुचला हुआ। निक सिद्धान्त, जिपमें एक पैतन्य ब्रह्म की अधकच्चा--वि० यौ० ( दे० ) आधा सत्ता को छोड़ कर और किसी भी वस्तु या कच्चा अपरिपक्क । तत्व की सत्ता नहीं मानी जाती, और श्रात्मा अधककार --- संज्ञा, पु० यो० (दे० ) पहाड़ी और परमात्मा में भी अभेद माना जाता है। हरी-भरी उपजाऊ भूमि । इसे ब्रह्मवाद या वेदाना भी कहते हैं। अधकपारी-अधकपाली- संज्ञा, स्त्री० यौ० अद्वैनवादी-संज्ञा, पु० (सं० ) अद्वैत मत (सं० अर्ध+ कपाल - सिर ) आधे सिर का का मानने वाला, वेदान्ती, एकेश्वरवादी, दर्द--प्राधापीसी (दे०) (सं० अर्ध+ ब्रह्मवादी । शीश) सूर्यावर्त । अधः-अव्य० (सं०) नीचे, तले । संज्ञा अधकरी-संज्ञा, स्त्री० ( हि० यौ० श्राधा+ स्त्री०-पैर के नीचे की दिशा, संज्ञा पु० तल, कर ) मालगुजारी, महसूल या किराये की पाताल। आधी रकम जो एक नियत समय पर अदा अधःपतन-संज्ञा, पु० (सं० यौ० अधः की जाये, किस्त । पतन ) नीचे गिरना अवनति, अधःपात, अधकहा-वि० यौ० (हिं० प्राधा+कहना) दुर्दशा, दुर्गति, विनाश । अस्पष्ट रूप में कहा हुआ, अर्धस्फुटित, अधःपात---संज्ञा, पु० (सं० शौ० ) पतन, प्राधा कहा हुआ। अखिला-वि० (हि. यौ० आधा+ नीचे गिरना, दुर्दशा, अवनति ध्वंस, विनाश, खिला ) आधा खिला हुया, अर्धविकसित, दुगति। स्त्री० -अधखिली, "अरे अभी अधखिली श्रधः प्रस्तरण - - संज्ञा, पु. (सं० यो०) कली है, परिमल नहीं पराग नहीं।" कुशासन, तृणशय्या । अधखुला-वि० ( हि० यौ० अाधाअधःशिरा----संज्ञा, पु० (सं० ) अधोमुख, खुलना ) श्राधा खुला हुअा, स्त्रीसूर्यवंशीय त्रिशंकु राजा। अधखुली। अधात्तिा-संज्ञा, पु० (सं० यौ०) अधस्त्यक्त, अधखुले लोचन औ अधखुली पलकैं" निदित. ययाति राजा. त्रिशङ्क। ---पमाकर अध-अव्य० । दे० ) (सं० अधः नीचा, अधखाया-वि० यौ० (हि. आधा+ तले, श्राधा वि० ( सं० अर्द्ध प्राकृ० खाना ) आधा खाया हुश्रा, श्राधे पेट, अद्ध ) श्राधा शब्द का सूक्ष्म रूप, (यौगिक , जिसने पूरा नहीं खाया। भा० श० को०-१ For Private and Personal Use Only Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org surfa अधगति - संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं० अधोगति ) | पतन, अधोगति, दुर्दशा, दुर्गति, अवनति । प्रधगो - संज्ञा स्त्री० यौ० (सं० ) नीचे की इन्द्रियाँ, गुदा श्रादि • -- प्रधघटक - वि० दे० ( हि० आधा + घटना ) जिससे ठीक अर्थं न निकले, अटपट, कठिन, ( यौ ० अध + आधा + घट, घड़ा ) आधा घड़ा । प्रधचरा - वि० यौ० ( हि० आधा + चरना) श्रधाचरा या खाया हुआ, अधखाया । प्रधजरा - वि० ( हि० दे० ) आधा जला हुआ । इसी प्रकार अध लगा कर अन्य शब्द | प्रधड़ा - वि० सं० अधर ) न ऊपर न नीचे, निराधार, उटपटाँग, असंबद्ध, बेसिरपैर, स्त्री० -घड़ी, श्राधार-रहित । प्रधन# - वि० पु० (सं० अ + धन ) निर्धन, कंगाल, दीन, धन हीन, ग़रीब, दरिद्र, निर्धनी । अधनिया - वि० ( हि० आध + श्राना ) ध श्राने या दो पैसे का, एक ताँबे का सिक्का | अधन्ना – संज्ञा, पु० ( हि० आधा + आना ) श्राध आने का एक सिक्का, टका, स्त्री० अधन्नी । अधपई - संज्ञा, स्त्री० ( हि० आधा + पाव ) एक सेर के आठवें भाग या पाव के आधे भाग की तौल या नाप, २ छटाँक का बाट । प्रधफर - संज्ञा, पु० (सं० अधर ) अधर, अंतरिक्ष, बीच (कबीर ) क्रि० वि० बीच में, अध पर (दे० ) आधी दूर पर, बीच में । अधबर - संज्ञा, पु० ( हि० प्राधा + बाट ) आधा मार्ग, आधा रास्ता, बीच, मध्य में, दूर, अधियार (दे० ) । अधबुध - वि० (दे० ) ( सं० अर्ध + बुध ) अर्धशिक्षित । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रधमुख अधबैसू - वि० पु० यौ० (सं० अर्ध + वयस ) (दे० ) अधेड़, मध्यम अवस्था का स्त्री० अधवैसी । प्रथम - वि० सं०) नीच, निकृष्ट, बुरा, पापी, दुष्ट, अपकृष्ट, निंदित, अधम नायकसंज्ञा पु० उपपति, ( काव्य ० ) | अभ्रमण अधमर्ण - संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) ऋणी धर्ता, देनदार, बुरा ऋण । प्रधमभृतक संज्ञा, पु० ( सं० ) छोटा भृत्य, नीच नौकर, छोटा पहरेदार, कुली, मोटिया | प्रधमई * — संज्ञा, स्त्री० ( हि० प्रथम + ईप्रत्य० ) नीचता, अधमता । अधमाई - (दे० ) अधमता । अधमता -संज्ञा स्त्री० (सं० ) अधम का भाव, नीचता, खोटाई, खोटापन, तुच्छता । अधमरा - वि० ( हि० - आधा + मरा) आधा मरा हुआ, मृतप्राय, ( दे० ) अधमुआ । प्रधमर्ण – संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) ऋणी । कर्ज़दार | (सं० ) अधमाई - संज्ञा स्त्री० ( हि० प्रथम + आई प्रत्य० ) अधमता । अधमा - ( दूती ) - संज्ञा, स्त्री० नायक या नायिका को कड़ी या कटु बातें कह कर संदेशा पहुँचाने वाली दूती, ( नायिका -भेद ) ( नायिका ) संज्ञा स्त्री० (सं० ) प्रिय या हितकारी नायक के प्रति भी श्रहित या बुरा व्यवहार करने वाली स्त्री०, ( नायिका-भेद ) | धमांग -- संज्ञा, पु० (सं० ) नीचे के अंग, पैर, निकृष्ट अवयव । अधमाधम - वि० (सं० यौ० ) नीचातिनीच । अधमुश्रा - वि० (दे० ) अधमरा | अधमुग्व - संज्ञा, पु० दे० (सं० अधोमुख ) मुँह के बल, श्रौंधा, उलटा, नीचे मुख किये, स्त्री० प्रधमुखी, नमित मुखी। For Private and Personal Use Only Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अधर अधस्तल - प्रधर-संज्ञा, पु. (सं०) नीचे का प्रोठ, अधगमृत-संज्ञा, पु० (सं० यौ० अधर+ अोठ संज्ञा पु० (हि. अ+धरना ) बिना अमृत) बदनामृत, अधर-सुधा, अोठों का आधार का स्थान, अंतरिक्ष, निराधार, रस, “पीवै सदा अधरामृत पै".-'सनेही'। पाताल-अधस्तल, योनि, स्मरागार। वि०, अधरीकृत-क्रि० वि० (वि०) (सं०) जो पकड़ में न आवे ( अ+धरना = अपवादित, पराहृत, तिरस्कृत, निन्दित । पकड़ना ) चंचल, नीच, बुरा, क्रि० वि० अधरीभून--वि० (सं० ) विप्रकृत, अधरीअंतरिक्ष में, बीच में, मध्य में, " गूढ़ कपट | कृत, पराहत । प्रिय वचन सुनि, नीच अधर बुधि रानि" + अधर्म--संज्ञा, पु० (सं० ) धर्म के विरुद्ध, रामा० "अधर धरत हरि के परत"-- वि०। कुकर्म, दुराचार, पाप, दुष्कर्म, अन्धेर, मु०-अधर में भूनना, पड़ना, लटकना | अन्याय, विधर्म, धर्म-विरोध,-(पुराणानु-अधूरा रहना, पूरा न होना, पशोपेश में सार-ब्रह्मा की पीठ से इसकी उत्पत्ति हुई, पड़ना, दुबिधा में पडना, अधर में इसके वाम भाग से अलक्ष्मी ( दरिद्रता) छोड़ना, डालना-बीच में या आधी दूर _है जो इसी से व्याही गई।। पर छोड़ना, मझधार में डाल देना, पूरा अधर्मात्मा-वि० पु. ( सं० ) अधर्मी, साथ न देना, अधर का त्रिशंकु होना, पापी, अन्यायी। करना या बनाना-बीच में अटका देना, | अधमाचारा-वि० पु० (सं० यौ० ) नीच कहीं का न रखना। आचार वाला, दुष्कर्मी। " तैसे सक्ति दीन्ही काटि श्रावति अधर अमिष्ट- वि० पु० (सं० ) अति दुराचारी, मैं।" अ० ब०। पापिष्ट। अधरज-संज्ञा, पु० (सं० यौ० अधर+रज ) अधर्मो-वि० पु. (सं० ) पापी, दोषी, अोठों की ललाई, सुर्जी, अोठों पर की पान दुराचारी। या मिस्सी की रेखा। अधरोत्तर-वि० (सं०) ऊँचा-नीचा, अच्छाअधरपान-सज्ञा, पु. ( स० ) श्रोष्ठ का बुरा. कम-ज्यादा, क्रि० वि० ऊँचे-नीचे । चुम्बन। अधरात-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० अर्ध+ अधरबुद्धि -(दे०-अधर + बुधि) वि० यौ. रात्रि ) यो०-आधी रात । (सं० ) नासमझ, अबूझ "तीय अधर बुधि अधवन-वि० ( दे० ) प्राधा, अई, रानि"-रामा०। बराबर का भाग, ( क्रि० स० अधियाना )। अधरम -संज्ञा, पु० दे० (सं० अधर्म ) अधवा--- संज्ञा, स्त्री० (सं० +धव = पति ) अधर्म, पाप, दुष्कर्म । विधवा, बिना-पति की स्त्री राँड़। प्रधरमधु-संज्ञा, पु० यौ० ( सं० ) अधर अधधार (अधवाड़) संज्ञा, स्त्री० (दे०) रस, अधरात। प्रधररस-संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) अधरा श्राधाथान, अधाई, आधे घर के भादमी, मृत, अोठों की मिठास, अधरारस (दे० आधे हिस्सेदार। ७० ) " है मुरली अधरारस पीजै" अधसेरा (अधसेरघा ) संज्ञा, पु. ( दे. यौ० प्राधा+सेर ) दो पाव का मान, आधे अधराधर-संज्ञा, पु० यौ० ( सं० ) दोनों सेर का बाट, अस्सेरा (प्रा.)। मोठ। अधस्तल-संज्ञा, पु. ( सं० ) नीचे की प्रधरा-संज्ञा, पु० दे० (सं० अधर ) श्रोठ, कोठरी, नीचे की तह, तहख़ाना, अधअधोदिक, वि० नीचा, अधीर । स्तात, अधरात। For Private and Personal Use Only Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अधिकारी WISHNAHABADONGATEMEMORRENIMILAIMINISMATICHOOM.DODKARImme अधस्तात ६८ अधस्तात-अव्य० कि० वि० ( सं० )। दूसरे की अपेक्षा अधिक, अति अधिक, नीचे की ओर, नीचे। क्रि० वि०---प्रायः। अधाक-संज्ञा, स्त्री० (हि०) धाक-रहित, अधिकतम-वि० (सं० अधिक--तम प्रत्य०) आतंक विहीन । | अत्यन्त अधिक, बहुतों की अपेक्षा अधिक । अधाधंध-क्रि० वि० ( हि० ) देखो अंधा- अधिका -...संज्ञा, स्त्री० ! सं० ) बहुतायत, धुंध, अन्धेर। ज्यादती, विशेषता, बढ़ती, वृद्धि श्राधिक्य । प्रधान--संज्ञा, पु० (दे० ) तेल आदि। शधिकन्तु .... अव्य० (सं० ) और, दूसरा, अधान्य --- संज्ञा, पु० (सं०) जो धान्य न अपर, विशेषतः। हो, अखाद्य वस्तु, कुअन्न, बुरा धान्य, न अधिकमास - संज्ञा, पु० ( सं० यौ० ) मलखाने योग्य अन्न । मात, लौंद का महीना, शुक्ल प्रति पदा से अधावट-वि. पु. ( हि० आधा ---ौटना) | अमावस्या तक ऐसा काल जिसमें संक्रान्ति प्राधा प्रौटा हुआ, अधौरा (दे० ) दूध ।। न पड़े (प्रति तीसरे वर्ष )-जोतिषः । श्रधार --संज्ञा, पु. ( सं० आधार ) तल, श्रधिकरणा---संज्ञा, पु. ( सं० ) अाधार, श्राधार, अवलंब, सहारा, श्राश्रय, आहार, अालरा, सहारा, व्याकरण में क्रिया का सहारा, अधारा (दे० )-" तासु तात | श्राधार, साँतवाँ कारक, प्रकरण, शीर्षक, तुम प्रान अधारा"-रामा० । दर्शन शास्त्र में आधार विषय, अधिष्ठान अधारी - संज्ञा, स्त्री० (सं० आधार ) आश्रयी, आधिपत्य, अधिकार करण । सहारा, श्राधार, काठ का डंडे में लगा हुआ अधिकाइ- संज्ञा, • स्त्री. (हि० अधिक पीढ़ा जिसे साधुजन सहारे के लिये रखते हैं। आई ----प्रत्यय ) अधिकता, बढ़ती, महिमा सामान रखने का झोला या थैला. (यात्रा। बड़प्पन, उमा न कछु कपि की अधिमें ) वि० स्त्री जी को सहारा देने वाली, काई"..-रामा० । पिया, 'अधारी डारि कँधे माँ, येहैं दौऱ्या अधिकाना*-अ० कि० (सं० अधिक ) वह दौौं । अधिक होना, बढ़ना, "देखतसूर आगि अधार्मिक-वि० ( सं० । अधर्म --- इक | अधिकानी, नमलों पहुँची-मार "..--सूबे०, (प्रत्यय ) धर्महीन, पापी। (प्रेरणाथक) बढ़ाना, उभाड़ना, अधिक अधि-(सं० ) उपसर्ग, जो शब्दों के पूर्व करना, "नैन न समान अधिकाने आँस लगाया जाता है इसके अर्थ होते हैं:-उपर, ऐते अरी-- रसाल '' ऊँचा, जैसे अधिराज, अधिकरण, प्रधान, अधिकार--संज्ञा पु. (सं० अधिक ---- मुख्य, जैसे अधिपति, अधिक, ज़्यादा, । पञ्) कार्य-भार, प्रभुत्व, आधिपत्य, हक, जैसे अधिमास, सम्बन्ध में जैसे प्राध्या- दावा, स्वत्व, प्रधानता, प्रकरण, अस्तिथार, त्मिक, ऊपरी भाग, ईश्वर, सामने, वश कब्ज़ा, प्रालि, सामर्थ्य, शक्ति, योग्यता, में, समीप । जानकारी लिात, शीर्षक, रूपक के अधिक-वि० (सं०) बहुत, ज्यादा, | प्रशन फल की प्राशि की योग्यता ( नाट्य विशेष, अतिरिक्त, बचा हुआ, फाजत् ।। शाख) वि. पु. (सं० अधिक) अधिक । संज्ञा पु०-एक प्रकार का अलंकार जिलमें अधिकार स्य---वि० सं०) वश में रहने वाला, श्राधेय को प्राधार की अपेक्षा अधिक प्रगट जमींदारी में बसने वाला, अधिकार प्राप्त । किया जाता है, न्याय में एक निग्रह-स्थान। अधिकारी--- संशा, पु० (सं० अधिकारिन् ) अधिकतर-वि० (सं० अधिक+ तर-प्रत्य०) प्रभु, स्वामी, स्वत्वधारी, हकदार, योग्यता या For Private and Personal Use Only Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Pramarewearmerrammerrernawwaanwaewwwmom/ment अधियारी समता रखने वाला, उपयुक्त पात्र, नाटक अधिप-संज्ञा, पु० (सं० ) स्वामी, मालिक, का वह पात्र जिसे रूपक का प्रधान फल राजा, प्रभु, सरदार । प्रात हो, पुजारी, पंडा, स्थान या मठा- अधिपति-संज्ञा. पु. ( सं० ) नायक, नेता, धीशों के उत्तराधिकारी, एक जाति विशेष । राजा, सरदार मालिक, प्रभु, स्वामी, अधिकृत--- वि० (सं० ) अधिकार में पाया । अफसर, मुखिया, स्त्री० अधिपत्नी-रानी, दुआ, उपलब्ध, प्रात, संहा, पु० अधिकारी, अध्यक्ष, निरीक्षक, जाँच करने वाला, नियो- अधिभौतिक-- वि० (सं० ग्राधिभौतिक ) जित, कार्य में लगा हुआ, आय-व्यय आधिभौतिक, सांसारिक ।। देखने वाला। अधिमास-संज्ञा, पु० (सं० ) अधिक अधिकम... संज्ञा, पु० (सं.) चढ़ाव, चढ़ाई, मास । प्रारोहण । अधिया-- संज्ञा, स्त्री० ( हि० आधा) अर्द्ध धिगम-वि० (सं० ) प्राप्त, पाया हुआ, भाग, श्राधा हिस्सा, गाँव में आधी पट्टी जाना हुश्रा, ज्ञान, श्रवगत, जानकार, की ज़मीदारी, खेती की एक रीति जिसके स्वर्गीय, मुक्त। अनुसार उपज का श्राधा तो खेत के मालिक अधिगम-संआ. पु. ( सं० । पहुँच, ज्ञान, को और आधा श्रम करने वाले को मिलता गति, परोपरेश से प्राप्त ज्ञान, ऐश्वर्य, है, ऐसे ही गाय के बच्चों के मूल्य का आधा बड़पन, गौरव। या बच्चा गाय के मालिक को और आधा 25-वि ( सं० । धनुष पर ज्या चढ़ाये या बच्चा उसे चराने तथा रखने वाले को हुथे, धनुर्गुण-नियोजित. युद्धार्थी, मुक्त, दिया जाता है संज्ञा पु. आधी पट्टी का " केशेधिज्य धन्वा विचचार दावम् -- | मालिक आधे का हिस्सेदार। रघु० । मु०-- अधिया पर उठाना ( खेत या धत्यका--- संज्ञा, स्त्रो० (सं०) पहाड़ के गायादि के बच्चों का ) श्राधे साझे पर देना। ऊपर को समतल भूनि, ऊँचा पहाड़ी मु०-अधिया पर देना--देहातों में मैदान, टेबुल लैंड, प्लेटो, तराई, कोह। बेचने की रीति जिसके अनुसार अनाज के अधिक्ष्य प्रांधवा )---संज्ञा पु० ( सं०) आधे के बराबर बेचने वाला अपनी चीज़ इष्टदेव, कुलदेव ( स्त्री. अधिदेवी)। देता है। आँवरवी -- संज्ञा, स्त्री० (सं० ) इष्टदेवी, अधियाना- स० क्रि० ( हि० आधा ) श्राधा कुल-देवी। करना. दो समान भागों में बाँटना । अधिदेव - वि० ( सं० ) देविक, अाकस्मिक । अधियार ( अधियारी ) संज्ञा, पु० ( हि० अधवार ----संज्ञा पु० (सं० ) वह प्रकरण आधा ) जायदाद का आधा हिस्सा, प्राधे था मंत्र जिसमें अग्नि, वायु, सूयादि देव- का हिस्सेदार, वह ज़मीदार या असामी जो ताओं के नाम-कीतन से ब्रह्म-विभूति की गाँव या जमीन के अाधे का मालिक हो, शिक्षा मिले, मुख्य, देवता, सूर्य मंडलस्थ, आधा बटाने वाला, मध्यभाग, जायदाद चिन्ता करने योग्य पुरुष, ब्रह्म विद्या, दैव की आधी हिस्सेदारी । स्त्री० अधियारिन । बल वि० देवता सम्बन्धी।। अधियारी-संज्ञा, पु० (हि० अधियार ) अधिनायक ---संज्ञा, पु० (सं० ) सरदार प्राधे की हिस्सेदारी, श्राधे का हिस्सेदार, सुखिया, प्रधान व्यक्ति, खो० अधिनायिका, श्राधा हिस्सा बटाने वाला, अधियाइता सरदारिन । । (दे०)। For Private and Personal Use Only Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अधिरथ ७० अधुना अधिरथ-संज्ञा, पु. (सं०) रथ हाँकने अधिष्ठिन-वि० (सं० ) ठहरा हुआ, वाला, सारथी, रथवान, गाड़ीवान, बड़ा स्थापित, निर्वाचित, नियुक्त ।। रथ, कर्ण का पिता, सूत अधिरथ-सुत- अधोत -वि० (सं० ) पढ़ा हुआ, पठित, संज्ञा, यौ० पु० (सं० ) कर्ण । शिक्षित। अधिराज-संज्ञा, पु० (सं० ) राजा, बाद- | अधोति-संज्ञा, स्त्री० (सं०) अध्ययन, शाह, महाराज। पठन । अधीती-वि० (सं० ) कृताध्ययन अध्ययन अधिराज्य---- संज्ञा, पु० (सं० ) राज्य, विशिष्ठ, संज्ञा, पु० - छात्र, विद्यार्थी । साम्राज्य । अधिरोहण----संज्ञा, पु० (सं०) चढ़ना, अधीन- वि० (सं० ) आश्रित, मातहत, वशीभूत, सेवक, आज्ञाकारी, ताबेदार, सवार होना, ऊपर उठना। वशतापन्न, लाचार, विवश. अवलंवित, अधिवास-संज्ञा, पु. (सं० ) रहने का मुनहसर, संज्ञा पु० दान, सेवक । स्थान, निवास-स्थल शुभ की प्रथम क्रिया, प्रधानता-संज्ञा, भा० स्त्री० (सं०) परवनित्यता, सुगंधि, खुशबू, विवाह से पूर्व तेल. शता परतंत्रता, मातहती लाचारी, बेबसी, हलदी चढ़ाने की रस्म उबटन, प्रतिवासी, दीनता, ग़रीबी, दासत्व। विलम्ब तक ठहरना। अधीनत्ता-- अ. क्रि० (हि. अधीन+ अधिवामी- संज्ञा, पु० (सं० अधिवासिन ) | ता-प्रत्यय ) अधीन होना, बश में होना । निवासी, रहने वाला, बसने वाला अधीर-वि. पु. (सं० ) धैर्य-रहित, प्रतिवासी, परोसी। घबराया हुश्रा, उद्विग्न, बेचैन, व्याकुल, अधिवेदन- संज्ञा, पु० (सं० ) संस्कार चंचल, विह्वल, उतावला, बिकल, आतुर, विशेष, विवाह । कातर, असंतोषी । संज्ञा, पु. अपंडित, अधिवेशन-संज्ञा, पु० (सं० ) बैठक सन्ध, | उतावला, मोह को प्राप्त । जलसा, विचारार्थ कहीं पर सभा या जमाव । अधीग-संज्ञा, स्त्री० (सं०) नायक में अन्य अधिष्ठाता- संज्ञा पु० (सं०) अध्यक्ष, नारी-विलास सूचक चिन्ह देख कर अधीर मुखिया, प्रधान, जिसके हाथ में कार्य-भार हो प्रत्यक्ष कोप करने वाली नायिका, धैर्यहो, ईश्वर, रक्षक, पालने वाला, स्त्री. ... रहित स्त्री, चंचला, विद्युत । अधिष्ठात्री। अधीरता-संज्ञा, स्त्री० (सं०) धैर्य-विहीअधिष्ठान-संज्ञा, पु० (सं० अधि+स्था-- नता, घबराहट, उतावली, आतुरता, बेकली। अनट ) वासस्थान, नगर, शहर, स्थिति, | अधीरज-संज्ञा, पु० दे० (सं० अधैर्य ) क़याम, पड़ाव, आधार, सहारा, प्रभाव अधीरता, घबराहट, अधैर्य । चक्र, व्यवहार चक्र, अध्यशन, अवस्थान, अधीश-संज्ञा, पु० (सं० ) अधीस ( दे० ) स्थायी वह वस्तु जिसमें भ्रम का आरोप स्वामी, मालिक, अध्यक्ष, भूपति, राजा, हो जैसे रज्जु में सर्प का, भोक्ता और भोग अधीश्वर- चक्रवर्ती, मंडलेश्वर । का संयोग ( सांख्य) अधिकार. शासन, अधीश्वर-संज्ञा, पु. (सं०) अधिपति, राज-सत्ता। राजा, स्वामी, पति, अध्यक्ष, ईश्वर, अधीसुर अधिष्ठान शरीर-संज्ञा, पु० (सं० यो०) अधना-कि० वि० (सं० ) अब, संप्रति, मरणोपरान्त पितृ लोक में आत्मा के निवास आज कल. इदानीम्, अभी, (वि.का सूक्ष्म शरीर। माधुनिक )। For Private and Personal Use Only Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अधुनातन अध्यवसायी अधुनातन-वि० (सं० ) वर्तमान काल, अधाभुनन-संज्ञा, पु० (सं० यौ० ) पाताल, या समय का, साम्प्रतिक, हाल का, । बलिराजा के रहने का स्थान । सनातन का उलटा। अधोमस्तक-संज्ञा, पु. (सं० यौ० ) अधूत-संज्ञा, पु० (सं० ) अकंपित, निर्भय, सूर्यवंशीय त्रिशंकु राजा, नीचे मुख किये निडर, ठीक, उचक्का। हुए, नीचा सिर। अधूग-वि० ( हि० अध--पूरा ) अपूर्ण, | अधोमार्ग-संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) नीचे असमाप्त, श्राधा, जो पूरा न हो, स्त्री० | का रास्ता, सुरंग का मार्ग, गुदा । अधूरी। अधोमुख-वि० (सं०) नीचे मुँह किए अधेड़-वि० (हि. आधा+ एड-प्रत्य०) हुए, औंधा, उलटा, क्रि० वि० औंधा, मुंह ढलती जवानी वाला, बुढ़ापे और जवानी | के बल । के बीच की अवस्था वाला, अधबैसा। अधीलंघ-संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) लंव, अधेन-संज्ञा, पु० (दे० ) (सं० अध्ययन ) । वह सीधी रेखा जो दूसरी सीधी रेखा पर पढ़ना । इस प्रकार पाकर गिरे कि उसके पार्श्ववर्ती अधेला- संज्ञा, पु० (हि. आधा+ एला- दोनों कोण बराबर और समकोण हों। प्रत्य० ) आधा पैसा, एक सिक्का “ सान करै । अधोषाय - संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) अपान बड़ी साहिबी की पर दान में देत न एक ! वायु, गुदा की वायु, पाद, गोज़ । अधेला"। अधोरध (अधार्द्ध) क्रि० वि० यौ० अधेली-संज्ञा, स्त्री० (दे०) रुपये का (सं० अध+अद्ध ) ऊपर नीचे, अधऊरध आधा सिक्का, अठन्नी, धेली (दे०)। (दे० ब्र०)" जाकौ अधऊरध अधिक अधैर्य-संज्ञा, पु. ( सं० ) अधीरता, उता मुरझायो है" - रत्नाकर ऊ० श० ।। वली, आकुलता, अस्थिरता। अधैर्यवान-वि० (सं०) श्रातुर, व्यग्र, अध्यक्ष-संज्ञा, पु. ( सं० ) स्वामी, अधीर। मालिक, नायक, सरदार, मुखिया, अधिप्रधो -- अव्य०-(सं० प्रधः ) नीचे, तले, कारी, अधिष्ठाता, अध्यच्छ (दे०)। अध्यच्छ - संज्ञा, पु० (दे०) प्रभु, प्रधान, संज्ञा पु०-नरक। मालिक। अधोगत-वि० (सं० ) अवनत, पतित । अधोगति-संज्ञा, स्त्री० (सं०) पतन, अध्यक्षता-संज्ञा, पु०(सं०) तत्वाधारकता, अवनति दुर्गति, दुर्दशा, अधःपतन। नायकत्व, देख-रेख, निगरानी में, प्रधानता। प्रधागमन-संज्ञा, पु० (सं० ) नीचे जाना, अध्ययन-संज्ञा, पु० (सं०) पठन-पाठन पतन। पढ़ाई, पढ़ना, अभ्यास। अधोगामी-वि० पु. (सं० अधोगमिन् ) अध्यक्षर-संज्ञा, पु० (सं० यौ०) प्रणव, नीचे जाने वाला, अवनति या पतन की ओंकार, भों। ओर जाने वाला, वि० स्त्री०-अधोगामिनी अध्यवसाय-- संज्ञा, पु० (सं०) लगातार -पतिता, कुमार्ग-गामिनी। उद्योग, सतत उद्यम, उपाय, यत्न, परिश्रम, अधोतर -संज्ञा, पु० (सं० अधः+उत्तर ) उत्साह, आस्था, निश्चय, दृढ़तापूर्वक किसी दोहरी बुनावट का एक देशी माटा कपड़ा। कार्य में लगा रहना, उत्तम काम करने की अधोधम-संज्ञा, पु० (सं० यो० अधः+ उत्कण्ठा कर्म दृढ़ता। अधम ) अति नीच, नीचातिनीच। अध्यवसायी--वि. (सं० अध्यवसायिन् ) For Private and Personal Use Only Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अध्यशन ७२ ज्यध्याहार वाला। लगातार उद्योग करने वाला, उद्यमी, अध्यापन · संज्ञा, पु० (सं० शिक्षण, पढ़ाने उत्साही, उद्योगी परिश्रमी, कर्मण्य का कार्य। अध्यशन-- संज्ञा, पु. ( सं० यौ० ) भोजन श्रध्याय - संज्ञा, पु० सं० ) ग्रंथ-विभाग, कर चुकने के बाद ही फिर भोजन करना पाठ, प्रकरण, परिच्छेद, सर्ग, पर्व। अधिक मात्रा में स्वाना। अध्यायी-वि० (सं० ) अध्याय वाली, अध्यशनी-वि० (सं०) अधिक खाने अध्याय युक्त, जैसे “ अष्टाध्यायी'। अध्यारोप संज्ञा, पु. ( सं० ) एक व्यापार अध्यस्त- वि० (सं.) किसी अधिष्ठान को दूसरे में लगाना, मिथ्या आग्रह में भ्रम रखने वाला, जैसे रस्सी में सर्प का अधिक्षेप श्राक्षेप, लोकन, कलंक, दोष, (वेदान्त)। अध्यास, मिथ्या कल्पना. अन्य में अन्य का अध्यात्म-संज्ञा, पु० (सं० ) ब्रह्म-विचार, भ्रम और आरोपण। ज्ञानतत्व, आत्मज्ञान, आत्म-विषयक, यात्म अध्यारोपण ----संज्ञा, १० (सं० ) दोषासम्बन्धी। रोपण। अध्यात्मश संज्ञा, पु० (सं० यौ० )| अध्यारोहण--संज्ञा, पु० (सं० श्रारोहण, ऋषि, मुनि, आत्म-दर्शक । चढ़ना। अध्यात्मविद्या--संज्ञा, स्त्री० (सं० यौ०) अध्यारोही--संज्ञा, पु० (सं०) प्रारोहण ब्रह्मविद्या, आत्मतत्व-विषयक शास्त्र । कर्ता, चढ़ने वाला। अध्यात्मरति -- संज्ञा, स्त्री० (सं० यौ०) । अध्यास.... संज्ञा, पु० (सं०) अध्यारोप, भ्रम, अात्म या ब्रह्म विद्या या विषय में अनुराग, भूल, एक वस्तु में दृररे की कर पना. अध्यात्मरल ---- संज्ञा, पु० (सं० ) ब्रह्म ज्ञान निवास, मिथ्या ज्ञान । में लगे हुए. अध्यात्मरता- संज्ञा स्त्रो० प्राध्यासन-संज्ञा. पु. ( सं० ) उपवेशन, (सं० ) अध्यात्मनिष्टा, जीवात्मा, परमात्मा बैठना, अारोपण। पारमाथिकता। अध्यासी-वि० (सं० ) कृतनिवाल, वि. अध्यात्मवाद-- संज्ञा, पु० (सं० ) आत्मा- अध्यासित, उपविष्ट बैठा हुआ। परमात्मा सम्बन्धी विवेचन या सिद्धान्त, श्रध्यासत्ति-वि० (सं०) कृतारोप, उपविष्ट । वेदान्तबाद। अध्यासीन-- वि० (सं० ) यापनस्थ, कृताअध्यात्मवादी-संज्ञा, पु. (सं० ) अध्यात्म धिवेशन उपविष्ट, बैटा हुआ। सिद्धान्त का मानने वाला, वेदान्ती, अध्याहरणा--- संज्ञा, पु० (सं० ) कल्पना दार्शनिक । या वितर्क करना, विचार, बहस करना, अध्यात्मिक-- वि० (सं० आध्यात्मिक ) वाक्य-पूर्ति के लिये उसमें ऊपर से कुछ आत्मा-सम्बन्धी। अन्य शब्द जोड़ना, अस्पष्ट वाक्य को दृपारे अध्यात्मिकता-संज्ञा, स्त्री० (सं० )। शब्दों में स्पष्ट करना। अध्यापक-संज्ञा, पु० (सं० ) शिक्षक, गुरु अध्याहार ... संक्षा, पु. ( सं०) आकांक्षा, पढ़ाने वाला, पाठक, उपाध्याय, उस्ताद, वाक्य-पूर्ति के लिये शब्द-खोज तथा शब्द स्त्री०-अध्यापिका-शिक्षिका। योजना, वाक्य के लुन शब्दों को खोज कर अध्यापकी-संज्ञा, स्त्री० (सं० ) पढ़ाने का रखते हुए उसे पूरा कर स्पष्ट करना, वाक्यकाम, मुदरिंसी। पूर्ति के लिए शब्दयोजना। For Private and Personal Use Only Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अध्यूढा अनंगारि अध्यूढा- संज्ञा, स्त्री० (सं० ) वह स्त्री अध्वर-संज्ञा, पु. (सं० ) यज्ञ, याग, जिपका पति दूपरा विवाह कर ले. ज्येष्ठा वसुभेद, सावधान । पत्री, विवाहिता या परिणीता स्त्री। अध्वर्य-संज्ञा, पु० (सं० ) यज्ञ में यजुर्वेद अध्येय-वि० स्त्री० (सं० ) पढ़ने के योग्य | के मन्त्रों का पढ़ने वाला ब्राह्मण, होमकर्ता, (सं० अध्ययन ) (अ+ध्येय ) लक्ष के इसका मुख्यकार्य है यज्ञ मंडप में यज्ञ-कुंड अयोग्य, लचय-रहित । रचना, यज्ञीयपात्र, समिध, जलादि का अधेय-वि० (सं० अ-+धेय ) न ध्यान एकत्रित करना, अग्नि प्रदीत करना और करने के योग्य, (दे० ) अध्येय, पढ़ने के | यज्ञ में यजुर्वेद के मन्त्र पढ़ना। योग्य। अध्वान्न-संज्ञा पु० (सं० ) ईषत्, अंधकार, अध्येता-संज्ञा, पु. ( सं० ) छात्र, शिष्य, सन्ध्याकाल, तमोरहित । विद्यार्थी, पढ़नेवाला, पाठक । अन् - अव्य० (सं० ) अभाव या निषेध अध्येषण-संज्ञा, स्त्री. (सं०) याचना. सूचक ना, नहीं, बिना, रहित, जैसे अनमांगना, सादर प्रार्थना, प्रश्न, अध्ययन की धिकार । यह प्रायः स्वर से प्रारम्भ होने इच्छा । वाले शब्दों के पूर्व प्राता है जैसे -- अन् + अध्रव-वि० ( सं० ) चंचल, अस्थिर, आचार = अनाचार । . डंवाडोल, अनिश्चित, बेठौर-ठिकाने का, अनः-- संज्ञा, पु० (सं० ) शकट, अन्न, क्षणिक। जननी, जन्म, अत्यल्प काल । अध्व- संज्ञा, पु० (सं०) मार्ग, पंथ, रास्ता, अनंग वि० (सं० ) बिना शरीर का, वाट, पथ, “ अध्वपरिमाणे च" पा० । अंग-रहित, विदेह, ( क्रि० अनंगना ) । संज्ञा अध्वग-संज्ञा, पु० ( सं० ) पथिक, यात्री, पु. आकाश, मन, कामदेव, मदन, प्रद्युम्न, बटोही मुसाफिर, उष्ट्र, सूर्य, खेचर, वृक्ष रति पति। " एक ही अनङ्ग साधि साध विशेष। सब पूरी अब" -~ऊ. श० । अध्वगा-संज्ञा, स्त्री० (सं० ) गंगा, भागी | अनंगकीडा-संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं० अनङ्ग रथी, जह्नवी। +-क्रीड़ा ) रति, सम्भोग, मुक्तक नामक अध्वगामी- संज्ञा, पु. ( सं० ) पथिक, विषम वृत्त का एक भेद ( छंद शास्त्र)। यात्री, पंथी, मुसाफ़िर। अनंगभीम-संहा, पु० (सं०) ११०४ ई. श्रध्वजा-संज्ञा, स्त्री० (सं० ) वृक्ष विशेष, में उड़ीसा पर राज्य करने वाले तथा वि० (अ+ध्वजा ) ध्वजा या पताका से | जगन्नाथ जी का मन्दिर बनवाने वाले रहित । एक राजा। श्रध्वनीन-संज्ञा, पु० (सं० ) पथिक, पर्यटन अनंगा -अ. क्रि० (सं०) देह की या भ्रमण करने वाला, यात्री, मुसाफ़िर ।। सुधि न रहना, विदेह होना, सुधि बुधि अध्वन्य-सज्ञा, पु० (सं० ) पथिक, यात्रो। भुलाना। अध्वज-वि० (सं० ) ध्वज-रहित । अनंगशेखर-संज्ञा, पु. (सं०) दंडक अवनि-वि० (सं०) ध्वनि या शब्द- नामक वर्णिक वृत्त का एक भेद ।। हीन। अनंगा-वि० (हि. अ+ना-सं० नग्न) अध्वंस-संज्ञा, पु० (सं० ) वंस या नाश- जो नग्न न हो, जो बदमाश या बेशर्म न हो। रहित। अनंगारि-संज्ञा, पु. यौ० ( सं० अनङ्ग+ भा० श. को०-१० For Private and Personal Use Only Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अनंगी ७४ अनक परि ) कामदेव के शत्रु, कामारि, मदन-रिपु, । कज़ियारी, अनन्तमूल, दूब, पीपर, अनन्त शिव, महादेव, त्र्यंबक । सूत्र, वि. पु. (दे०) अनन्त "श्रस्तुति अनंगी-वि० (सं० ) यौ० ( अन+अडी) तोरी केहि विधि करौं अनन्ता"-रामा० । अंग-रहित, बिना देह का, विदेह, संज्ञा, पु० अनंद-- संज्ञा, पु० ( सं० ) चौदह वर्णों का (सं० अनगिन् ) ईश्वर, कामदेव । (वा.)। एक वृत्त, दे० ( संज्ञा, पु० सं० आनन्द) अनंगिनी। आनन्द, वि० (अ+नन्द - पुत्र ) बिना अनंत-वि० (सं० अन् + अन्त) अन्तर पुत्र का, ( दे० ) अनंदा। या पार-रहित, असीम, बेहद, बहुत विस्तृत, अनंदन - वि० सं० अ + नन्दन ) निपुत्री, अपार, अविनाशी, अशेष, अनवधि, संज्ञा, पुत्र हीन, निपूता। पु० वि णु, शेषनाग, लघमण, बलराम, अनंदना*-अ० कि० (सं० आनन्द ) आकाश, बाहु का एक भूषण, सूत का एक आनन्दित या प्रसन्न होना, खुश होना, गंडा जिसे भादों सुदी चतुर्दशी (अनन्त " तब मैना हिमवंत अनन्दे "- रामा० । चतुर्दशी ) के व्रत के दिन बाहु पर बाँधते अनंदी-संज्ञा, पु० (सं० ) एक प्रकार का हैं, अभ्रक, अबरख, सिहुँवार वृक्ष, अनन्त- धान, वि० (सं० अनन्दी ) श्रानन्दयुक्त, जित नामके जैनाचार्य, काश्मीर देश का (स्त्री. आनंदिनी, अनंदिनी)। एक राजा, संज्ञा पु०-ब्रह्म । अनंभ-वि० ( सं० ) बिना पानी का अनन्तगोर-संज्ञा, पु. (सं० ) स्वर-भेद, ( अन् - अम्भ ) *वि० दे० (सं० अन + अंह सङ्गीत-शास्त्र। -विन्न ) निर्विघ्न, अबाध । अनन्त-चतुदशी-संज्ञा, स्त्री० (सं० यौ०) अन-क्रि० वि० (सं० अन् ) बिना, बगैर, भादों शुक्ल चतुर्दशी, जिस दिन लोग अनन्त वि० (सं० अन्य ) अन्य, दूसरा । देव का व्रत रहत हैं और अनन्त बाँधते हैं । “कहि जु चली अनही चितै, ओठनि ही इस व्रत को अनन्त व्रत कहत हैं। मैं बात ।' वि० । अनन्तमूल-संज्ञा, पु. ( स० यो०) एक अनहिवात-संज्ञा, पु० (हि. यौ० अन + पौधा या बेल, जो रक्त-शोधक होता है, अहिवात सौभाग्य ) वैधव्य, विधवापन, औषधि विशेष। डापा । वि० स्त्री० अनअहिवाती। अनंतर-क्रि० वि० (सं०) पीछे, उपरांत, अनइच्छा ( अनिच्छा ) संज्ञा, स्त्री० (दे०) बाद, निरंतर, लगातार, अनवकाश, अव्य | अरुचि, इच्छा-हीन, बिना चाह के, बे मन, निष्प्रयोजनता। वि० अनइच्छित ( अनिवहित, समोप, पाल, परचात् । च्छित ) अनभीष्ट, अरुचि से। अनतरज- संज्ञा, पु. (सं० ) क्षत्रिया से अनइस-वि. पु. ( दे०) अनैप, (सं० उत्पन्न ब्राह्मण का पुत्र, या क्षत्रिय से वैश्या अनिष्ट ) बुरा, व्यर्थ, निकम्मा, स्त्री० अनइसी स्त्री के गर्भ से उत्पन्न सन्तान । अनेसी (ब्र०) अनैपो-“अहित अनैसो अनन्तावजय-संज्ञा, पु० (सं० यो० ) ऐसो कौन उपहास अरी"-पद्माकर । युधिष्ठिर का शङ्ख। अनऋतु-संज्ञा स्त्री० (सं० अन्+ऋतु) अनन्तवाय-वि० यौ० (सं०) अपार | ऋतु के विरुद्ध, बेऋतु, बेमौसिम, अकाल, पौरुष, असीम बल। ऋतु-विपर्यय, ऋतु विरुद्ध व्यापार । अनंता-वि० स्त्री० (सं०) जिसका अंत अनक ---संज्ञा, पु. ( दे० ) प्रानक, या पारावार न हो, संज्ञा, स्त्री० पृथ्वी, पार्वती नगाड़ा, मृदंग, नीच । For Private and Personal Use Only Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रनकना अनगिनत अनकना - संज्ञा, क्रि० (सं० आकर्णन ) | जनद गुस्सा करने वाला, क्रोध दिखाने सुनना, छिप कर या चुपचाप सुनना। वाला, अनुचित, बुरा, ( सूबे० ) क्रोधी अनकरीब-क्रि० वि० ( उ० फा० ) लग- | दीपक ( कविता० ) स्त्री० अनखोही, क्रि० भग, निकटतः, प्रायः। वि० अनाया हैं - " हेरि , ननखौहैं सौं हैं अनकहा-वि० (हि० अन+कहना ) स्त्री० । फेरि बंक भौंहै पुनि" - रसाल।'' अनकही, बिना कहा हुआ, अकथित, अनुक्त, अनगढ़-वि० ( अन् + हि० गड़ना) बिना न कहने के योग्य, संज्ञा, स्त्री. अनकही, गढ़ा हुश्रा, जिसे किसी ने बनाया या गढ़ा अनकहनी- न कहने योग्य, बुरी बात। न हो, स्वयंभू, बेडौल, भद्दा, बेढंगा, उजड्डु, मु० अनकही देना, कुछ न कहना, चुप | अक्खड, वेतुका, अंडबंड, कुडौल, अनारी, रहना, या होना। अनगढा-वि० पु० (दे०) टेढ़ा, अशिक्षित, "तुम तौ उठी श्री अनकही लीनी सबै"- वक्र, अनगढ़ी -- वि० स्त्री० (दे०) बेडौल, ऊ श०। बेढंगी, भदी। अनख-संज्ञा, पु० (सं० यौ० अन + अक्ष प्रानगणित ---वि० दे० (हि. अन् + गणित -आँख ) क्रोध, रोष, नाराज़ी, दुःख, सं० ) अगणित, बहु संख्यक, अपार, ग्लानि, खिन्नता, ईष्या, द्वेष डाह, झंझट, असंख्यात्, अनगनित-(दे० ) वि० । अनरीति, डिठौना, काजल की बिन्दी जिसे | अनगन*-वि० ( सं० अन्+गणन ) नज़र से बचाने के लिये बच्चों के माथे पर अगणित. बहुत, स्त्री० अनगनीलगाते हैं। कुढ़न, द्रोह “ भाव कुभाव बेशुमार, “ अनगन भाँति करो बहु लीला अनख-भाल महूँ "..- रामा० ।-" सुनि जसुदानन्द निवाली"-५०, सूर । अनख भूप उर आवे'-छत्र० । वि० (सं० अनगना -- वि० (हि. अन् + गिनना ) दे०म+नख) बिना नख-या ना खून का। न गिना हुआ, अगणित, बहुत, संज्ञा, पु. अनखना-अ. क्रि० (हि. अनख ) गर्भ का आठवाँ महीना। क्रोध करना, गुस्सा होना, रिसाना, रुष्ट अनगनिया-वि० ( दे० ) अगणित, बेताहोना, रोष करना, अप्रसन्न होना। दाद, “ बरा-बरी बेसन बहु भाँतिन व्यंजन अनखाना-क्रि० स० (दे० ) अप्रसन्न या अति अनगनिया "-सूर०, दे० -- नाराज़ करना। अनखाये-कि० वि० ( हि० अन+खाना) अगनिया । अनगवना-अ० कि० (हि. अन् + गवन बिना खाना खाये, भोजन बिना "जो --सं०-गमन ) रुक कर देर करना, जानतू अनखाये रहै, कस कोऊ अनखाय ।। बूझ कर बिलम्ब करना, आगे न बढ़ना, न -रहीम अनखाहट-संज्ञा स्त्री० (हि० अनखाना + हट | जाना, “ मुंह धोवत ऍड़ी घसति, हँसति अनगवति तीर"--वि०। प्रत्य० ) अनख का भाव, नाराज़ी, क्रोध, अनगाना--- अ० कि. (दे०) देखो रोष, अप्रसन्नता। अनखी - वि० (हि. अनख ) क्रोधी, धनगवना। जो शीघ्र नाराज हो जाये, गुस्सावर, वि० अनगिन-वि० दे० ( हि० अन + गिनना ) (म+नखी) बिना नखवाला, नख-विहीन। असंख्य, बे शुमार, बहुत । अनखौहा-(वि.) (हि. अनख) अनगिनत-वि० दे० ( हि० अन् + गिनना) क्रोध से भरा, कुपित, रुष्ट, चिड़चिड़ा, बेतादाद, बहुत । For Private and Personal Use Only Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अनगिना अनडीठ अनगिना-वि० पु० दे० (हि. अन् + रहा हो, जिसका अनुमान भी न किया गिनना ) न गिना हुआ, असंख्यात्, अपार । गया हो, क्रि० वि० अकस्मात, अचानक, स्त्री० अनगिनो। धोखे में, वि० सी० अनचोती-न सोची शनि- वि० सं० अन् + अग्नि ) श्रुति- हुई अचिंतिता। स्मृति विहित. अग्नि हत्र कर्म हीन, पाचोन्डा--वि० (हि. अन् + चीन्हना) निरग्नि, अग्नि वयन रहित यज्ञ संज्ञा, स्त्री० अपरिचित अज्ञात, वे पहिचान, अनजान । अग्नि का अभाव, अग्नि रहित । अचै-संज्ञा स्त्री० (हि.) अशांति, नगै* -- वि० अ० गैर) गैर परात्रा, बनी। अपरिचित (दे०) अ वि. जो श्र - वि० दे० (सं० अ क्षत् ) क्षत अपना न हो, सगा न हो, संज्ञा पु० अनजान, । या घाव रहित । बेजान पहिचान का। अनास-वि० (दे०) बिना इच्छा का, अनगैया - संज्ञा स्त्री० (दे० ) बॅगनाई, अनिच्छित । आँगन (सं० प्रांगण )-अ यया। नकाला-वि० ( हि० ) अनछिना अनघ-वि० (सं० अन् । अध) नि पाप, बिना रिला, छिलका समेत, अनारी। निर्मल, सुकृति, पुण्यवान, पवित्र, शुद्ध, अनजान-वि० दे० (हि. अन् । जानना) संज्ञा, पु. पुण्य, अनघा, ( स्त्री० ) सुन्दर, अज्ञानी, नादान, अपरिचित, अज्ञात, ना. अच्छे गान का फल, वि०-धनधी। अनघरी-संज्ञा, स्त्री. (हि० सं० अन्+ समझ, अज्ञातकुलशील, अजान दे० ( यही शब्द ठीक है, जाने के पागे अन प्रत्यय न घरी) बुरी सायत, कुसमय, बुरी घड़ी। आन चाहिये थी क्योंकि यह शब्द व्यंजन अनी -वि० ( हि० अन् + घेरना) बिना से प्रारम्भ होता है) क्रि० वि० बिना बुलाया हुअा, अनिमत्रित । अनघार --संवा, पु. (सं० घोर ) अंधेर, जाने बुझे, बिना जाने माने, वि०, स्त्री० अत्याचार ज़्यादती अन्याय, अनाचार । अनजानी, क्रि० ( अनजानना )। वि०-जो घोर न हो। अनजानना-अ० कि० (हि.)न जानना, अनघोग-वि० (हि० अनधोर ) अन्यायी, बिना जाने, “छमहु चुक अनजानत केरी', रामा० । क्रि वि० चुपचाप, अचानक, "जीति पाइ अनघोरी पाये"-छत्र० । अनजामा - वि० (दे०) मरु, बाँझ, बिना अनचहा-'व० दे० (हि० अन् + चाहना ) उगा, उत्पत्ति-शक्ति-विहीन, अफला। अवाँछित, अनभीट, जिस की चाह न हो। अनजीविन- वि० ( दे०) प्राणहीन, मृत, स्त्री० अनचहा। मुर्दा. शव, " अनजीवत सम चौदह प्राणी" अनचाहत-वि० पु. ( हि० ) जो प्रेम न | -रामा०। करे, न चाहने वाला, न चाहते हुए, अनट संज्ञा पु० दे० (सं० अमृत ) उपनिर्मोही-संज्ञा, पु. प्रेम न करने वाला, | द्रव, अन्याय, अनीति, अनाचार, अत्याचार, कि० वि० न चाहते हुए। । दे०) गाँठ, गिरह, ऐंठ, " सो सिर धरि अनचाहा-वि० पु. ( हि० ) अनभीष्ट, धरि करहिं सब, मिटिहि अनट अवरेव" स्त्री० अनचाहो। -रामा०। अनचाना-वि. पु. ( अन् + चीतना ) अनडीठ* - वि० दे० (सं० अन् + दृष्ट) अविचारित, अचिंचित, जिसका विचार न । बिना देखा, न देखा हुआ। For Private and Personal Use Only Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - अनवान अनपत्य अनडवान-संज्ञा पु० (सं०) बैल, साँड, किसी वस्तु के सम्बन्ध में साधारण अनिश्चय वृषभ, अन्डू (सं० )। का वणन किया जाना। अनन-वि० (सं० अ-+नत) न झुका अनध्याय -संज्ञा, पु० (सं०) वह दिन हुआ, सीधा, अनेक क्रि० वि०-(सं. जिप में शास्त्रानुसार पढ़ने पढ़ाने की मनाही अन्यत्र ) दे० और स्थान, दूसरी जगह, है, जिस दिन पढ़ने का नागा हो, ऐसे दिन अन्यत्र और कहीं, (अन्तै, अन्ते--दे०) हैं - अमावस्या, परिवा, अटी , चतुदशी, " मेरो मन अनत कहाँ सुख पावै " र पूणमा, छुट्टी का दिन । सूर० । “सुनत बचन फिर अनत अनन्नार--संज्ञा, पु० (पुर्न० अनानास ) निहारे '-- रामा। रामबाँस का सा एक छोटा पौधा जिलके अनति- वि० (सं०) कम, थोड़ा, अति डंठलों के अंकुरों की गाँठ खटमीठीका उलटा, थोड़ा, संज्ञा स्त्री० नम्रता का और खाने योग्य होती है। अभाव, अहार, गर्व । अन्य वि० (सं० ) अन्य से सम्बन्ध अनदेखा--वि. पु. दे० (हि. अन न रखने वाला, एक निष्ठ, एक ही में लीन, देखना) बिना देखा हुअा, अदेखा, न देखा जैसे अनन्य भक्त, संज्ञा, पु० (सं०) विणु हुआ, स्त्री० अनदाबी, श्रदृष्ट, गुप्त, का एक नाम, जिसके समान दूसरा न हो, " देखी अनदेखी अनदेखी भई देखी सी" स्त्री० अनन्या। -रसाल । अनन्या संज्ञा, स्त्री० (सं० ) एक निष्ठा, अनद्यतन--संज्ञा, पु. ( सं० ) जो श्राज अन्य से सम्बन्ध रखने का अभाव । न हो, जो अद्यतन न हो, अनद्यतन अनन्वय - संज्ञा, पु० (सं० ) एक प्रकार का भविष्य -- संज्ञा पु. यौ० (सं०) संस्कृत अलंकार, जिसमें एक ही वस्तु उपमान और में भविष्यकाल का एक भेद । उपमेय दोनों रूपों से कही जाती है। वि. अनद्यतनभून संज्ञा, पु० यौ० सं०) भूत अन्वय-रहित, ( अन्-नहीं-- अन्वय-वंश) काल का एक भेद। वंशहीन । अनधन --संज्ञा, पु० (दे०) धन धान्य, अनन्धित-वि० (सं० ) असम्बद्ध, पृथक, सम्पत्ति, ऐश्वर्य । अयुक्त, अंडबंड। अनधिकार-संज्ञा, पु० यौ० (सं.) अधिकार का प्रभाव, बेबपी, लाचारी, अयोग्यता, | अनपच- संज्ञा, पु० दे० (हि० अन् + पचना ) अजीर्ण, बदहज़मी, अफ़रा, अपच, अक्षमता, वि० अधिकार-रहित, अयोग्य, अरुचि । अख्तियार न होना, यौ० अनधिकारचर्चा जिस विषय में गति न हो उसमें मु० किसी वस्तु से अनपच या अजीर्ण टाँग अड़ाना। होना, उस वस्तु से अरुचि, घृणा होना, अनधिकार-चेष्टा-संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) चित्त हट जाना। नाजायज़ इरादा। | अनपढ़-वि० (हि. अन्पढ़ना) बेपढ़ा अनधिकारी-वि० (सं० अनधिकारिन् ) अपठित, मूर्ख, निरक्षर, अनपढ़ा (दे०) जिसे अधिकार न हो, अयोग्य, अपात्र, अशिक्षित, स्त्री० अनपढ़ी। स्त्री०-प्रनधिकारिणी । अनपत्य-वि० ( सं० अन् + पत्य ) अनध्यवसाय--संज्ञा, पु. (सं० ) अध्य- निस्सन्तान, निवंश, पुत्र-हीन, अपुत्र, वसाय का अभाव, अतत्परता, ढिलाई, | निपूता (दे०)। . For Private and Personal Use Only Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - प्रनपत्रप प्रनभेदी अनपत्रप- वि० (सं० ) निर्लज्ज, बेशर्म, अनबोल-वि० दे० (ही. अन+बोलना) न बेहया, लज्जा रहित, फूहड़ । बोलने वाला चुःपा. मौन गंगा, जो अपने अनपराध-वि० (सं०) निर्दोष, निर- सुख दुख को भी न कह सके ( पशु श्रादि पराध, शुद्ध, दोष हीन, सच्चरित्र, वि० के लिये ) अवाक्, अबोल, अस्पष्टवक्ता, अनपराधी-निर्दोषी, निरपराधी। " जो तुम हमैं जिवायौ चाहत अनबोले अनपाय-वि० (सं०) अनश्वर, अक्षय, । है रहिये''- सूबे०, अन बोलता, अन. अनाश्य, चिरस्थायी, संज्ञा, पु.- अलंकृत, बोता. अनबोले स्त्री० अनबोनी, न अनपायी -वि. ( स्त्री० अनयिनी) बोलने वाला, गंगा, बेज़बान, (पशु०)। अचल, स्थिर, उपाय रहित, अविन वर, अनव्याहा-वि० दे० (हि. अन + व्याहा) दुर्लभ, दृढ़ नित्य, “पद, सरोज-अनपायिनी. अविवाहित, वारा, स्त्री. अनन्याही वारी, भक्ति सदापतसंग" रामा० । अविवाहिता। अनपेक्ष-वि० (सं० ) बेपरवा, लापरवाह, अनभल -संज्ञा, पु० दे० (हि. अन+ स्वाधीन, निरपेक्ष दि०-अनपेक्षणीय ।। भला ) बुराई, हानि, क्षति, अहित-"अरिअनपेक्षित-वि० (सं० ) जिसकी परवा न | हुँक अनभल कीन्ह न रामा "-रामा० । हो, जिसकी चाह न हो, अनिच्छित, अन- | " अनभल दीख न जाइ तुम्हारा "नुरुद्ध, वर्जित। रामा० । अपेक्ष्य-वि० (सं०) जो दूपरे की | अनभला-वि० (हि. अन + भला ) बुरा, अपेक्षा न करे, जिसे किसी की परवा निंद्य, कुत्सित, संज्ञा, पु० अहित । न हो। अनभाय-वि० दे० (हि० ) अरुचिकर, श्रन कॉम-संज्ञा, स्त्री० (दे०-अन+ अप्रिय। फाँस ) मोक्ष, मुक्ति। अनभावत-अनभाषता, अनभावती अनबन-संज्ञा, पु० दे० (हि० अन+बनना) (ब्र. ) वि० (हि.) अप्रिय, अरोचक । बिगाड़, विरोध, खटपट, वैमनस्य, फूट, अनभिगमन-संज्ञा, पु. ( सं० ) अस्थान वि० भिन्न-भिन्न, नाना, विविध. “ पुनि में जाना, बुरी या ख़राब जगह में जाना। अभरन बहु कादा अनबन भाँति जराव " | अनभिप्रेत-वि० (सं०) अभिप्राय-विरुद्ध, अनभिमत । अनवनाव-संज्ञा, पु. ( हि० ) बिगाड़, फूट, अनरस (दे०)। | अनभिमत-वि. ( सं० ) सम्मत, मतअनबिध-वि० दे० (सं० अन+विद्ध) विरुद्ध, अनिष्ट । बिना बेधा, या छेद किया हुआ, अन अनभिव्यक्त- वि० (सं० ) अस्पष्ट, अव्यक्त, बिधा, अनबेधे ( बहु ब०), अनबेधा- अप्रगट। अनवेधी-स्त्री० (ब) जैसे - अनबेधा अनभिज्ञ--वि० (सं० ) अज्ञ, अनजान, मोती। मूर्ख, अज्ञान, अबोध, अपरिचित, स्त्री० अनबूझ-वि० (हि. अन+ बूझना) अबूझ, अनभिज्ञा--बेसमझ, मूर्खा। नापमझ, अनजान, अजान, जो बूझी न अनभिज्ञता-संज्ञा, स्त्री. ( सं०) अज्ञता, जा सके । स्त्री० अनबूझी। मूर्खता, अनारीपन, अनजानता। अनबेधा-वि० (हि.) बिना छेद किया | अनभेदी-वि० (हि.) भेद न जानने हुश्रा, अनबेधो (ब्र.)। | वाला, ( कबीर ) जो भेदा न जा सके। For Private and Personal Use Only Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रनभो अनरस प्रनमा --संज्ञा, पु० दे० (सं० अन+भव | अनमिलता- वि. (हि. अन + मिलना) -होना) अचंभा, अचरज, अनहोनी बात, अप्राप्य, अलभ्य, अदृश्य, अनमेल का भाव, असम्भव, आश्चर्य, अचरज, वि. अपूर्व, न मिलना, असंयुक्तता, असंबद्धता। अलौकिक, अद्भुत । अनमीलना-सं० कि० (सं० उन्मीलन ) अनभारी-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. भोरा आँख खोलना। =भुलावा ) भुलावा, धोखा, चमा, वि० अनमूल-वि० दे० ( सं० अमूल्य ) ~~( अन + भारी-भोला ) जो भोली-भाली! अमूल्य, वेश क्रीमती, (हि. अन 7 मूल ) न हो, चतुर, चालाक। बेजड़, मूल रहित, बेबुनियाद।। अनभ्यस्त -वि० (सं०) जिसका अभ्यास अनमेल- वि० दे० (हि. अन + मेल) न किया गया हो, जिसने अभ्यास न किया बेनोड़, जिनका मेल न मिले, असंवद्ध, हो, अपरिपक्व, अनधीत । बिना मिलावट का, विशुद्ध, मित्रता के अनभ्यास-संज्ञा, पु० (सं० ) अभ्यास का । बिना। अभाव, मश्क न होना, अव्यवहार, बेमहा- अनमोल-वि० दे० (हि० अन + मोलवरा,-"अनभ्यासे विषं विद्या" मूल्य ) अमूल्य, मूल्यवान, बहुमूल्य, अनभ्र-वि० (सं० ) बादल-रहित । अमोल (दे० ) कीमती, सुन्दर, बढ़िया, मनमन--(अनमना ) वि० (सं० अन्य- उत्तम । मनस्क ) जिसका जी न लगता हो, उदास, अन्य-- संज्ञा, पु० (सं० ) व्यसन, विपद, खिन्न, सुस्त, बीमार, अस्वस्थ, उन्मन- अशुभ, अभाग्य, कुनीति, पाप, अनीति, स्त्री० अ.मनी। अन्याय, अमंगल । प्रनम्र--वि० (सं० ) अविनयी, उइंड, प्रनयन- वि० (सं०) नेत्र-रहित, अंधा, शोख, ढीठ, पृष्ट, अविनीत । अनैन (दे० ) “गिरा अनयन नयन बिनु घनमापा -वि. (हि. अन+मापना) बानी"-रामा० । न नापा जाने के योग्य । अनयस (अनइस )-वि० (दे० ) बुरा, श्रनमारग-संज्ञा, पु. ( हि० अन अस (दे० ) अनैसो स्त्रो० अनैसी। बुरा-+मारग-मार्ग) कुमार्ग, कुपथ वि०'अनमारगी-कुमार्गी। अनयास --कि० वि० (दे०) सं०अनिमिख-वि० दे० ( सं० अनिमेष ) अनायास, अकस्मात्, सहसा, बेश्रम । निमेष-रहित, कि० वि० एकटक, टकटकी अनरश - संज्ञा पु० दे० (सं० अनर्थ )लगाकर, संज्ञा, पु० देवता, मछली, सर्प ।। अनर्थ, अनिष्ट, बिगाड़, उपद्रव, अनरस्थ अनमिल-वि० (हि० अन -+ मिलना) (दे० प्रा० ) “मैं सठ सब अनरथ कर बेमेल, न मिलने के योग्य, बेजोड़, अस- | हेतू "- रामा० । म्बद्ध, बेतुका, अलग, निर्लिप्त अप्राप्य, अनग्ना - सं० कि. ( सं० अनादर ) "अनमिल पाखर अरथ न जापू" अनादर करना, अपमान करना, क्यों तू रामा० । कोकनद बनहि सरै औ औरै सबै "अनरै" "प्रकृति मिले मन मिलत है, अनमिल ते न मिलाय-वृन्द ऊपर दरसै सुमिल सं', अंतर अनरस संज्ञा पु० दे० (हि. अन + रस) अनमिल प्रॉक ।" वि०--अर्नालित, रस-हीनता, शुष्कता, रुखाई, कोप, मान, अनमिलत-दे०, न मिलने वाले । | मनोमालिन्य, मनमोटाव, अनबन, दुःख, For Private and Personal Use Only Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अनरसना ८० प्रमलेख खेद, रंज, रसहीन काव्य, फूट, बिगाड़, | अनर्थक - वि० (सं० ) निरर्थक, अर्थ-रहित, उदासी, विरसता, वि०-अनरसी-दुष्ट, !, व्यर्थ, बेमतलब, बेकायदा, निष्प्रयोजन, बुराई करने वाला। निष्फल । अनरसना-अ० क्रि० (दे०) उदास होना, अनर्थकारी-वि० (सं० अनर्थकारिन् ) खिन्न होना, " हँसे हँसत अनरसे अनरसत उलटा मतलब निकालने वाला, अनिष्टकारी, प्रतिबिंबित ज्यों ज्यों झाँई " गीता । हानिकारी, उपद्रवी, उत्पाती, अनर्थ करने अनरसा -वि० (हि. अन+रस) अन- वाला, स्त्री० अनर्थकारिणी।। मना, उदास, अस्वस्थ, शिथिल, माँदा, अनह- वि० (सं०) अनुपयुक्त, अयोग्य, सुस्त, बीमार, संज्ञा पु० (दे०) एक प्रकार कुपात्र। का पक्वान्न, अंदरसा (प्रान्ती० )। | अनल - संज्ञा, पु० (सं० ) अग्नि, श्राग, अनराता-वि० (हि. अन+ राता ) चीता, भिलावां, भेला, पित्त, बसुभेद, तीन बिना रँगा हुआ, सादा, प्रेम में न पड़ा | की संख्या। हुआ, विरक्त, स्त्री० अनराती। अनलपक्ष-संज्ञा, पु० (सं० यौ०) एक अनति -संज्ञा स्त्री० दे० (हि. अन+ चिड़िया, जो सदा अाकाशही में उड़ती रीति ) कुरीति, कुचाल, बुरा रस्म, अनुचित रहती है पृथ्वी पर नहीं पाती, और अपने व्यवहार। अंडे आकाश से गिरा देती है वह पृथ्वी पर प्रनरीती-वि० दे० ( हि० अन+रीती ) आने से पूर्व ही फूट जाता है और बच्चा (सं० प्ररिक्त ) जो रिक्त या खाली न उसी समय से उड़ने लगता है। हो, संज्ञा स्त्री० बुरी रीति । " अनलपच्छ को चेटुना, गिर्यो धरनि अनवि-वि० स्त्री० दे० ( सं० अरुचि ) अरराय । बहु अलीन यह लीन है, मिल्यौ अनिच्छा, मंदाग्नि, अरुचि । तासु को धाय ॥ वि० मा०।" अनरूप-वि० (हि अन+रूप ) कुरूप, अनलप्रभा-संज्ञा, स्त्री० (सं० यौ० ) ज्योभद्दा, बदसूरत, असमान, असदृश ।। तिष्मती नामक एक लता विशेष, अग्नि शिखा, दीप्ति । प्रनगल - वि० (सं० ) बे रोक, बेधड़क, व्यर्थ, अंडबंड, अबाव, अप्रतिहत, प्रतिबंध अनलप्रिया- संज्ञा, स्त्री० (सं० यौ० ) अग्निरहित, लगातार। भार्या, स्वाहा। अनत्तमुख-वि० (सं० ) जो अग्नि के द्वारा अनर्घ - वि० (सं०) बहु मूल्य, कीमती, पदार्थों को ले, संज्ञा, पु०-देवता, ब्राह्मण । कम मू य का, सस्ता । " अग्निमुखाः वै देवाः -श्रुति । अनध्य-- वि० (सं०) अपूज्य, बहु मूल्य, अनल्प-वि० (सं०) बहुत, अल्प नहीं, अमूल्य, अप्रशस्त । अधिक। अनर्जित-नि० (सं० ) अनुपार्जित, बिना अनलस--वि० (सं० ) घालस्य रहित, श्रम के प्रात, बिना कमाया हुश्रा। फुर्तीला, चैतन्य, परिश्रमी, उद्योगी। अनथ-संज्ञा, पु० (सं०) विरुद्ध अर्थ, उलटा अनलायक -वि० दे० (हि. अन+लायक मतलब, कार्य-हानि, अनिष्ट, ह.नि, विपद्, अ.) नालायक, अयोग्य, मूर्ख । अधर्म से प्राप्त धन, व्यर्थ, निःफल, | प्रनलेख-वि० (दे०-अन+लेख ) गोअनुचित, अकाज, बुराई, बिगाड़, दुष्प- चर, अदृश्य, अलख, " श्रादि पुरुष अनरिणाम । लेख है"- दादू। For Private and Personal Use Only Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir हुश्रा। अनवकाश अनसमझ अनवकाश-वि० (सं० ) अवकाश-रहित, अनस्थिति-संज्ञा, स्त्री० (सं० ) चंचलता, निरक्सर। अधीरता, आधार-हीनता, अवस्थानाभाव, अनवच्छिन्न-वि० (सं० ) अखंडित, अटूट, बास-रहित, समाधि प्राप्त हो जाने पर भी जुड़ा हुआ, संयुक्त। चित्त का स्थिर न होना (योग)। अनवट-संज्ञा, पु. (सं० अंगुष्ट ) पैर के अनवस्थितचित्त-वि० (सं०) उन्माद, अंगूठे में पहिनने का छल्ला .. " अनवट पागलपन, चांचल्य, अनभिनिविष्ट । विछिया नखत, तराई "-५० संज्ञा, पु० अनवास्थत-वि० (सं० ) अधीर, चंचल, (हि. अयन + प्रोट) कोल्हू के बैल की निरवलंब, अशांत, निराधार । आँखों का ढक्कन, ढोका, अन उट ( दे०)। अनवासना-क्रि० वि० दे० (सं० नव+ हि-बसन) नये बरतन को प्रथम काम में अनवध-वि० (सं० ) निर्दोष, बेऐब, लाना, किसी वस्तु का प्रथम बार प्रयोग में अनिंद्य, सुन्दर, स्वच्छ, मान्य, संभ्रान्त ।। लाना । वि० दे० ( अन+वासना ) अनवधांग-संज्ञा पु० (सं० यौ०) सुन्दर बासना-विहीनता, वि० (सं० अ+नव+ अंग, सुडौल शरीर स्त्रो० अनवधांगी। पासना ) पुराने श्रासन वाली। अनवधान-संज्ञा, पु० (सं० ) असावधानी, अनवांसा-संज्ञा, पु. ( सं० अण्वंश ) कटी बेपरवाही, अमनोयोग, अप्रणिधान, चित्त हुई फसल का एक बड़ा पूला, औंसा, का अनावेश, ध्यानाभाव, अनाविष्ट । मुठ्ठा, वि० दे०-प्रथम बार प्रयोग में लाया 'अनवधानता- संज्ञा, स्त्री० (सं० ) मनोयोग शून्यता, प्रमाद, अनवहितता, असाव अनवांसी-संज्ञा, स्त्री० (सं० अरावंश ) एक धानता। विस्वे का भाग, विस्वांसी का बीसवाँ अनवधि-वि० (सं० ) असीम, बेहद, हिस्सा । वि० स्त्री० दे० ( अनवासना ) प्रथम अवधि रहित । क्रि० वि०-सदैव, निरंतर, बार प्रयुक्त की हुई। हमेशा। अनवाद -संज्ञा, पु० दे० ( सं० अन्द+ अनवय-संज्ञा पु० (दे०) (सं० अन्वय ) | वाद ) बुरा वचन, कटु भाषण, संज्ञा पु. वंश, कुल, छंद के पदों का गद्य के रूप में | दे०-शरारत, बुराई, नटखटी। वि. अनव्यवस्थित करना। वादा-शरारती, नटखट । अनवरत-क्रि० वि० (सं०) निरंतर, | अनशन -संज्ञा, पु० (सं०) उपवास, सतत, लगातार, हमेशा, अजस्र, अविरत, | निराहार व्रत, अन्न-त्याग । नित्य, सर्वदा। अनश्वर-वि० (सं.) नष्ट न होने वाला, अनवसर-संज्ञा पु. (सं० ) अवसर न | अविनाशी, अटल, नित्य, सनातन, स्थिर, होना, कुसमय, बेमौका, निरवकाश। शाश्वत । अनवस्था--संज्ञा, स्त्री० (सं०) स्थिति- | अनसखरी-संज्ञा, स्त्री० दे० (अन+सखरी) हीनता, अव्यवस्था, आतुरता, अधीरता, पक्की रसोई, घी में पका हुआ भोजन, न्याय में एक प्रकार का दोष, दुर्दशा, निखरी रसोई। .. अवस्था रहित, दरिद्रता, अस्थिरता। अनसिखा-वि० ( दे० ) अशिक्षित, अपह, अनवस्थान-संज्ञा, पु. (सं०) वायु, मूर्ख, अजान।। अस्थायित्व, कुव्यवहार, अस्थिर, अवस्थिति- | अनसमझ-वि० दे० (हि० अन+समझ) नासमझ, अज्ञान, बिना समझ का, मा० श. को०-११ For Private and Personal Use Only Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अनसत्त ८२ अनागत अनसमझा--वि० दे० स्त्रो० अनसमझी- अनहितू-वि० (दे०) अशुभ चाहने वि०, संज्ञा स्त्री०, नासमझी, मूर्खता, न | वाला, अपकारी, अहितकारी। समझी हुई। अनहोता-वि० (हि. अन+होना) दे०, अनसत्त- वि० दे० (सं० असत्य ) असत्य, | दरिद्र, निर्धन, ग़रीब, असंभव, अलौकिक, झूठ, अनृत। स्रो० अनहोती। अनमहत*-वि० दे० (हि० अन + सहना ) अनहानी-वि० स्त्री० (हि. अन+होनी ) जो सहा न जा सके, असह्य, असहनीय ।। न होने वाली, असम्भव, अलौकिक, संज्ञा, अनमाना-अ० क्रि० (हि दे.) अनखाना, स्त्री० असम्भव बात, "अनहोनी होइ जाय" क्रोधित होना, (हि. अ---नसाना ) न वि० पु० अनहोना--असंभव, न होना। बिगाड़ना। अहवाए* -क्रि० प्र० दे० (सं० स्नान ) अनसुना (अनसुन)- वि० दे० ( हि० अन नहलाये, नहवाए, स्नान कराये । +सुना) अश्रुत, बेसुना, बिना सुना अन्हवाना-अ० कि० (सं० स्नान ) नहहुआ, स्त्री० अनसुनी (असुनी) न सुनी लाना, स्नान कराना, संज्ञा अन्हवैबो अन्ह वाइबो (ब्र०) “प्रथम सखहिं अन्हवावहु मु०-अनसुनी करना-आनाकानी करना, जाई "-रामा० । बहँकि पाना, ध्यान न देना, न सुनना, अन्हाना-अ० क्रि० (सं० स्नान ) नहाना, " ताकौ कै सुनी औ असुनी सी उत्तरेस स्नान करना, संज्ञा पु० (ब्र०) अन्हाइबो, तौलौं - "सरस" अ०व० । अन्हान, अन्हैबो। अनसूया-संज्ञा, स्त्री० (सं० ) असूया रहित, अन्हाए-अ० क्रि० सा. भू० (दे०) दूसरे के गुणों में दोष न देखना, नुक्ता नहाये, “ उतरि अन्हाये जमुन नल-" चीनी न करना, ईर्ष्या का अभाव, अत्रिमुनि रामा० । की पत्नी, ये दक्ष प्रजापति की कन्या अन्होरी-अन्हौरी- संज्ञा, स्त्री० (दे०) गर्मी के दिनों में गर्मी के कारण उठने थीं इनकी माता का नाम प्रसूति था, शकुन्तला की एक सखी या सहेली ( कालि वाली नन्हीं नन्हीं फुसियाँ । दासकृत शकुन्तला ) "अनसूया के पद गहि अनाकनो-अनाकानी पानाकानी--- संज्ञा, सीता"-रामा० । स्त्री० दे० (सं० अनाकर्णन) सुनी-अनसुनी करना, बहलाना बहँटिआना, टाल-मटूल, अनहद-वि० (हि. अन+हद उ. ) बहराना (ब्र.) बहाना करना। असीम, अपार, अनेक। " सुनि दोउन के मृदु बचन, अनाकनी के अनहदनाद-संज्ञा पु० यौ० (सं० अनाहत+ राम ''-रघु०। नाद ) कान बन्द करने पर भी योगियों को अनाकार---वि० (सं० ) निराकार, आकारभीतर सुनाई पड़ने वाला शब्द ( कबीर ) रहित । योग का एक साधन । अनाकरण—क्रि० वि० (सं० ) व्यर्थ, अनहित -- संज्ञा, पु. यो० (हि. अन+ निष्कारण, कारणाभाव, अकारण । हित) अहित, अपकार बुराई. बुराई या हानि अनाखरई-वि० दे० (सं० अनक्षर) निरक्षर, करने वाला, द्वषी, बैरी, अहित-चिंतक, शत्रु। मूर्ख, बेडौल, बेढंगा, बेपढ़ा-लिखा । " आपन जानि न पाजु लगि, अनहित अनागत-वि० (सं०) न आया हुआ, काहुक कीन "-रामा० । | अनुपस्थित, अविद्यमान, भावी, होनहार, For Private and Personal Use Only Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रनागम ८३ अनादर अनायात, अज्ञात, अनादि, अजन्मा, अपूर्व, | अनातप-संज्ञा पु० (सं० ) छाया, घर्माअद्भुत, अपरिचित, विलक्षण, भविष्यत् ।। भाव, ताप-रहित, गर्मी का अभाव, ग्रीष्म " धेयंदुःखमनागतम् "- ( दर्शन शास्त्र ) । ऋतु का अभाव । " नीके करि हम सबको जानतिं बातें कहत | अनातपत्र-वि. (सं० अन् । प्रातपत्रअनागत"-सूबे० क्रि० वि० - अचानक, छाता ) छत्र-रहिन, छत्राभाव, बिना सहसा, अकस्मात् । छाते के। प्रनागम-संज्ञा, पु. ( सं० ) श्रागमन का | अनात्म-वि० (सं० ) आत्मा-रहित, जड़, प्रभाव, न आना, अनागमन । संज्ञा, पु. आत्मा का विरोधी पदार्थ, अचित्. अनाघात- वि० (सं० ) श्राघात या चोट जड़। से रहित, संज्ञा. पु० (सं०) एक प्रकार का अनात्मभान्-- वि० ( सं० ) अवशीभूतमना, ताल या स्वर (संगीत) “ उपजावत श्रात्म-निग्रह-हीन, अात्मा-विहीन । गावत गति सुन्दर, अनाघात के ताल" - अनात्म्य-वि० (सं० ) जो आत्मा से भिन्न सूर०। हो, पर, दूसरा, अपना जो न हो । अनाघ्रात-वि० (सं० ) बिना सूंघा, घ्राण अनाथ-वि० (सं० ) नाथ-हीन, बिना रहित, अस्पृष्ट, अभिनव, कोरा, नया, मालिक का, जिसके कोई पालन पोषण " अनाघ्रातं पुष्पं ---शकु० । करने वाला न हो, असहाय, अशरण, दीन, अनाचार--संज्ञा, पु० (सं० ) कदाचार, दुखी, अनाथा, अनाथू (बु० दे० ) “जो दुराचार, कुरीति, अशुद्धाचार, हीन, कुप्रथा, पै हौ अनाथ तब तुम ही बताओ नाथ" कुचाल, अंधेर,-श्रुति-स्मृति विरुद्ध कर्मा- | -- रत्नाकर । "अनाथ कौन है कि जो चारी, वि• अनाचारी- कुचाली। अनाथ-नाथ साथ हैं"। अनाचारिता-संज्ञा, स्त्री० (सं० ) दुरा- | अनाथा--- वि० दे० (हिं म+नाथना ) जो चारिता, कुरीति, कुचाल, बुरा आचरण, नाथा न गया हो, बिना नाथा हुआ, अ. अत्याचारिता। ब्र० अनाथ । स्त्री. श्रनाथा-पति-हीना, अनाज-संज्ञा पु० दे० (सं० अन्नाद ) अन्न, | विधवा, असहाया, स्त्री. अनाधिनी-- धान्य, दाना, ग़ल्ला, सस्य । विधवा, पतिहीना, अनाश्रिता । अनाड़ी-नारी (दे०) वि० (सं० । अनाथालय-संज्ञा, पु. ( सं० यो० अनाथ+ मनायें ) नासमझ, नादान, अनजान, अदक्ष, प्रालय ) दीन-दुखियों या असहायों के अकुशल, अपटु, जो निपुण न हो, मूर्ख, पालने-पोषणे का स्थान, मुहताजखाना, गवार । यतीम ख़ाना, लंगर ख़ाना, अनाथाश्रम, अनारी-दे० (अ+ नारी) नारी-हीन, । लावारिस बच्चों की रक्षा का स्थान । मूर्ख “ नारि को न जानै बैद निपट अनाथाश्रम-संज्ञा, पु. यौ० (सं० ) अनारी है" " भाय क्यौं अनारिनि को अनाथालय । 'भरत अन्हाई हैं-" ऊ० श०। अनादर-संज्ञा, पु. ( सं० ) श्रादर-रहित, प्रनाडीपन-संज्ञा, भा० पु. (हिं. ) निरादर, अवज्ञा, अपमान, अप्रतिष्ठा, अवमूर्खता नासमझी, अनारीपना (दे०)। हेलन, तिरस्कार, सम्मान, बेइज्जती, एक मनास्य-वि० ( सं० ) दरिद्र, दुखी, ग़रीब, | प्रकार का अलंकार जिसमें प्राप्त वस्तु के .दीन, निर्धन, कंगाल। तुल्य दूसरी अप्राप्त वस्तु की इच्छा के द्वारा For Private and Personal Use Only Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अनादरणीय अनार्य प्राप्त वस्तु का अनादर सा सूचित किया | अनामय-वि० (सं० ) रोग-रहित, निरोग, जाय, ( काव्य शास्त्र)। तंदुरुस्त, निर्दोष, बे ऐब, संज्ञा, पु० निरोअनादरगाोय-वि० (सं० ) जो श्रादर के गता, तंदुरुस्ती, स्वास्थ्य, कुशल-क्षेम । योग्य न हो स्त्री. पनादरगा'या। अनाला संज्ञा, स्त्री. (सं० अनामिका ) अनादग्नि -वि० (सं० ) जिपका आदर न मध्यमा के बाद की अँगुली, वि० अप्रसिद्ध, किया गया हो, अपमानित, तिरस्कृत। बिना नाम का। अनादन-दि० ( सं० ) अपमानित, । अनामिका-संज्ञा, स्त्री. (सं०) कनिष्ठा तिरस्कृत स्त्री० श्रन दूण। और मध्यमा के बीच की अँगुली. अनामा । अनादि-वि० (सं०) आदि-रहित, उत्पत्ति- | अनायक-वि० ( सं० ) नायक-रहित, हीन. जिसका आदि या प्रारम्भ न हो, रक्षक-रहित, बिना स्वामी का। स्वयंभू नित्य, ब्रह्म, बहुत दिनों से जो अगयत वि० ( सं० ) अविस्तृत, अप्रशिष्ट परम्परा से चला आया हो । शस्त। अनादिष्ट-वि० (सं० ) अननुज्ञात, बिना अनायत्त - वि० (सं० ) अनधीन, उच्छृखल, आज्ञा का, आदेश न दिया हुआ। अवशीभूत । अनाद्यन्त-वि० (सं० यौ० अन् ।-आदि--- अनायास-क्रि० वि० (सं० ) बिना प्रयास अन्त ) जिसका आदि और अन्त न हो, का, बिना श्रम, अकस्मात, अचानक, सहज, अनन्त, नित्य, शाश्क्त, सनातन, अनादि, अयन, सौर्य । --"अनायासहि हिय धरब्रह्म। कन"-रत्नाकर-हरि। अनाना*-स. क्रि० दे० (सं० आनयन ) मँगाना, आनना। अनार-संज्ञा, पु. ( फ़ा० ) एक पेड़ और अनाप्त-वि० (सं० ) अपारक, अविश्वासी, उसके फल का नाम दाडिम, (बुन्दे० ) अनिपुण, जो आप्त प्रमाण न हो, साधारण अन्याय, ऊधम । ( सं० अन्याय ) अन्याय, अनीति। जन का, अप्राप्त, अलब्ध, अविश्वस्त, असत्य, अनात्मीय, अबंधु, अनाड़ी। अनारदाना-संज्ञा, पु० यौ० (फा० ) खट्टे अनाप-शनाप .. संज्ञा, पु० (सं० अनाप्त ) । अनार का सुखाया हुश्रा दाना, रामदाना। ऊटपटाँग, अटॉय, सटाँय आँय बाँय, अंड- अनारम्भ-संज्ञा, पु० (सं० ) प्रारम्भ का बंड, व्यर्थ का, निरर्थक प्रलाप, अटसट, अभाव, अनादि, बिना प्रारम्भ किया हुआ । असम्बद्ध बकबाद, कि० वि० -- अति अधिक, अनारो वि० दे० (हि० अनार) अनार बेतादाद, परिमाण से अधिक। के रंग का, लाल, वि० दे०-अनाड़ी नारीअनापा-वि० ( हि० नापना) बिना नापा रहित, जिसके शरीर में नाड़ी की गति बंद हुश्रा, सीमा-रहित, (हि० अन् । पापा-- हो गई हो। घमंड )-आपा या घमंड से रहित । अनारोग्य-संज्ञा, पु० (सं०) अस्वस्थता, अनाम-वि० (सं० ) बिना नाम का, मरणावस्था। अप्रसिद्ध, नाम रहित, स्त्री० अनामा- अनार्य-संज्ञा. पु० ( सं० ) जो आर्य न हो, ख्याति विहीना। अश्रेष्ठ, म्लेच्छ, जिनके प्राचार-व्यवहार, अनामक-संज्ञा, पु० (सं०) बवासीर, नीति-रीति, धर्म-कर्म आर्यो का जैसा न अर्श रोग, वि० नाम न करने वाला, नाम- था वे अनार्य कहलाये, दस्यु या दास, वि० रहित। नीच, अनुत्तम । For Private and Personal Use Only Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ८५ अनार्यकर्मा अनिच्छुक अनार्यकर्मा-वि० यौ० (सं० ) आर्यों से अनास्था-संज्ञा, स्त्री० (सं० ) आस्था का विरुद्ध कर्म करने वाला, निन्दिताचारी, अभाव, अश्रद्धा, अनादर, अप्रतिष्ठा । गर्हित । अनाह-संज्ञा, पु० (सं० ) अफ़रा, पेट अनायजुष्ट - वि० (सं० ) अनार्य सेवित, । फूलना, वि० दे० (ब्र० + नाह-नाथ) अनार्य कर्म । “ अनार्य जुष्टमस्वयं सकीर्ति अनाथ। करमर्जन गीता।" अनाहक* -- कि० वि० ( दे० ) नाहक, अनार्यदश-संज्ञा, पु० (सं० यौ० ) अनार्यो बे नाहक । का स्थान । अनाहत-वि० (सं० ) आघात-रहित, जो अनायोचार-संज्ञा, पु० यौ० ( सं० ) अाहत न हुआ हो, संज्ञा, पु० (सं० ) अनार्यो का व्यवहार । दोनों हाथों के अँगूठों से दोनों कानों के अनार्याचारी - वि० ( सं० यौ० ) नीच कर्म बंद करने पर सुनाई पड़ने वाला एक प्रकार या श्राचार वाला। का शब्द, (योग) शरीर के भीतर के छः अनार्या-वि० स्त्री. ( सं० ) पतिता, ___ चक्रों में से एक (योग)। अधमा। अनाहार -- संज्ञा, पु० (सं० ) भोजनाभाव, अनावश्यक-वि० (सं०) जिसकी आवश्य- भोजन-त्याग । वि०-निराहार, जिसने कुछ न कता न हो, अप्रयोजनीय, अनुपयोगी, गैर | खाया हो, वह व्रत 'जसमें कुछ न खाया ज़रूरी। जाय, उपवास, लंघन । अनावश्यकता-संज्ञा, स्त्री० (सं० ) | अनाहारी-वि० (सं० ) अभुक्त, उपवासी, आवश्यकता का अभाव । अभोजन, लंघन करने वाला। अनाधिल-वि० ( स० ) निर्मल, परिष्कृत | अनाहूत वि० (सं० ) बिना बुलाया हुश्रा, स्वच्छ, साफ़-सुथरा, मैल-रहित । श्राना- | अनिमंत्रित, अकृताह्वान, “अनाहूत पावत विलता संज्ञा, स्त्री. (सं० ) निर्मलता, | अपमाना"। स्वच्छता। अनिभाई--वि० दे० ( सं० अन्यायो ) अनावृत-वि० (सं० ) जो ढंका न हो, | -अनियारी-- दे०–शैतान, अनाचारी, खुला, जो घिरा हुआ न हो। बदमाश, अन्यायी, "अरे मधुप लंपट अनावृष्टि--- संज्ञा, स्त्री. (सं० ) वर्षा का अनिआई"-सूबे० । प्रभाव, अवर्षण, जल-कष्ट, सूखा, झूरा अनिकेत-( अनिकेता) वि० ( सं० ) (दे०) अवर्षा, एक प्रकार की ईति-वाधा। निरालय, गृहशून्य, निर्वास, बिना घर का, प्रनाश्रमी-वि० (सं० ) गार्हस्थ्य आदि अनिकेतन । आश्रमों से रहित, आश्रमभ्रष्ट, पतित, अनिगीर्ण-वि० संज्ञा, पु० (सं० ) अनुक्त, नष्ट । __ अकथित, न निगला हुश्रा, न कहा हुश्रा । अनाश्रय-वि० (सं०) निराश्रय, निरवलंब, | अनिच्छा-संज्ञा, स्त्री० (सं० ) इच्छा क दीन, अनाथ । अभाव, अरुचि, वि० अनिच्छित, अनिच्छुक अनाश्रित-वि० ( सं० ) श्राश्रय-हीन, जिसकी इच्छा न हो, जिसे इच्छा न हो। बे सहारे, असहाय, निरवलंब । स्त्री० | अनिच्छिन्न-वि० (सं० ) जिसकी इच्छा अनाश्रिता। न हो, अनचाहा (दे० ) अरुचिकर । अनाश्रयी-वि० (सं० ) श्राश्रय न रखने | अनिच्छक-वि० (सं० ) इच्छा न रखने वाला, जो किसी का सहारा न ले। वाला, अनभिलाषी, निराकांक्षी। For Private and Personal Use Only Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org प्रनित्य ८६ अनित्य - वि० (सं० ) विनाशी, झूठा, क्षणिक, अस्थायी, नश्वर, ध्वंसशाली, नाशवान, जो स्वयं कारण रूप हो कार्य रूप न हो, असत्य, प्रनित (दे० ) । प्रनित्यता - संज्ञा, भा० स्त्री० (सं०) चिरस्थायिता, नश्वरता अस्थिरता । प्रनित्यतावादी - संज्ञा, पु० (सं० ) जो किसी पदार्थ को स्थायी या नित्य नहीं मानता, बौद्ध विशेष, अनित्यावाद - संज्ञा पु० (सं० ) प्रत्येक पदार्थ को क्षणिक और नश्वर मानने तथा किसी पदार्थ को शाश्वत और नित्य न मानने वाला सिद्धान्त । अनित्यसम - संज्ञा, पु० (सं० ) तर्क न करके केवल उदाहरण के द्वारा प्रतिपादन करना-( न्याय ) | प्रनिंद* - वि० दे० (सं० अनिंद्य ) जो निंदनीय न हो, न निंदनीय | अनिंदक - वि० (सं० ) जो निंदा करने वाला न हो । प्रनिंदित - वि० (सं०) गर्हित, लांछित, उत्तम, प्रशस्त । निंदनीय - वि० (सं० ) जो निंदा के योग्य न हो । अनिंद्य - वि० योग्य न हो, निर्दोष, उत्तम, अच्छा, पु० (सं० ) जो निंदा के / प्रशस्त । अनिद्र - वि० (सं० ) निद्रा - रहित, जिसे नींद न थावे, संज्ञा, पु० (सं०) नींद न थाने का रोग विशेष । निप - संज्ञा, पु० (हि० अनी - सेना + प० = स्वामी ) सेनापति, सेनाध्यक्ष, अनीपति सेना नायक सैन्य संचालक | अनिपुण - वि० पु० (सं० ) अकुशल, अपटु, जो निपुण न हो, अदक्ष, निपुन(दे० ) स्त्री० निपुणा । प्रनिपुणता - संज्ञा, भा० स्त्री० (सं० ) अपटुता, श्रदक्षता । 4 Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अनियायी निमा * - संज्ञा, स्त्री० (सं० अणिमा ) योग से प्राप्त एक प्रकार की सिद्धि या शक्ति । छोटे होने की शक्ति | अनिमित्त- वि० (सं० ) निमित्त या हेतु - रहित, निष्कारण, बिना निमित्त या कारण के । अनिमित्तक - वि० (सं० ) अहेतुक, निष्प्रयोजन, अकारण । अनिमिष - वि० सं० ) स्थिर दृष्टि, निमिष-रहित, टकटकी लगाये हुये, क्रि० वि० बिना पलक लगाये हुये, एकटक निरंतर, संज्ञा, पु० देवता, मत्स्य, मछली, सर्प । निमिषाचार्य - संज्ञा, यौ० पु० (सं० ) देवगुरु वृहस्पति | अनिमेष - वि० क्रि० वि० (सं० ) देखो अनिमिष | अनियंत्रित - वि० (सं० ) प्रतिबंध -रहित, बिना रोक-टोक का. मनमाना अनिवारित, शासित, स्वेच्छाचारी, संज्ञा, पु० (सं० ) नियंत्रण - संज्ञा पु० (सं०) स्वेच्छाचार, नियंत्रण रहित । प्रनियत - वि० (सं० ) जो नियत या निश्चित न हो, अनिश्चित, स्थिर, अहद, परिमित, असीम, अस्थायी, अनित्य । प्रनियम - संज्ञा, पु० (सं० ) नियमाभाव, व्यतिक्रम, अव्यवस्था, विधान-रहित, अनिश्चय । प्रनेम - (दे० ) । अनियमित - वि० (सं० ) नियम-रहित, व्यवस्थित, बेकायदा, अनिश्चित, निर्दिष्ट, निर्धारित, जो नियम बद्ध न हो, जो नियमानुकूल न हो । अनियाई - वि० दे० (सं० अन्यायी ) न्यायी, बदमास, नियारी ( प्रान्ती० ) । नियाउ – संज्ञा, पु० (सं० अन्याय ) दे० अन्याय, अनीति, अनाचार, प्रन्यावश्रनियाव दे० । " अनियायी - वि० दे० ( सं० अन्यायी ) शरारती, बदमाश, अन्यायी, संज्ञा, पु० प्रनियाव - (दे० ) अन्याय । For Private and Personal Use Only 3 Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अनियारा १७ अनिवार्य अनियारा--वि० (सं० अणि + प्रार- जा सके, जो चुनाव के योग्य न हो, न प्रत्य. हि. ) नुकीला, पैना, नोकदार, निर्वाचनीय । धारवाला, तीचण, तीखा, “ये अनियारे अनिल-संज्ञा, पु. (सं० ) वायु, हवा, अरैं 'बलदेवजू'-" " अनियारे दीरघ- पवन, वसुविशेष बतास (दे०) एक देवता, दृगनि" वि० " बेधक अनियारे नयन, कश्यप और अदिति के पुत्र तथा इंद्र के बेधत करि न निषेध , .. वि० " जाहि लगै | भाई हैं, भीम और हनुमान इनके पुत्र थे । सोई पै जाने, प्रेमवान अनियारो "--- सू० । वायु ४६ हैं, इनका रथ कभी तो १०० बाँका, बहादुर, " चंपत राय बड़े अनियारे" | और कभी १००० घोड़ों से खींचा जाता वि० दे० (सं० अन्यारा ) जो न्यारा या है, यज्ञ में अन्यान्य देवताओं के समान पृथक न हो, स्त्री. अनियारी, वि० दे० इन्हें भी भाग दिया जाता है, दमयन्ती के बदमाश, बुरा, कुचाली-" कैसहु पूत होय सतीत्व का साक्ष्य इन्होंने दिया था, त्वष्टा अनियारी'' रामा० । के ये जामाता हैं । देह में ५ प्रकार की अनिरीति-वि० ( सं० ) अनिर्धारित, वायु होती है, प्राण, अपान, समान, अनिश्चित, अरी त अनरीति ( दे० )। उदान, और व्यान, “ सोइ जल अनल अनिरुद्ध-वि० ( सं० ) जो रोका न गया अनिल संघाता-" रामा० । हो, अवाध, बे रोक, जो रुका हुआ न हो, अनिलकुमार-संज्ञा, पु. (सं० यौ० ) संज्ञा पु० श्रीकृष्ण के पौत्र और प्रद्युम्न के हनुमान, भीम । पुत्र जिन्हें ऊषा व्याही थी। अनिलघ्नक-संज्ञा, पु० (सं०) विभीतक, बहेड़े का वृक्ष । अनिर्णय-संज्ञा, पु. ( सं० ) द्विविधा, अनिलसखा-संज्ञा, पु० यौ० ( सं० ) संदेह, संशय, अनिश्चय, अनवधारण, दो बातों में से किसी का भी निश्चय न मरुत्सखा, अग्नि, अनल, आग । होना। अनिलात्मज--संज्ञा, पु० यौ० ( सं०) निर्दिष्ट-वि० ( सं० ) अनिश्चित, । वायु-पुत्र, हनुमान, भीमसेन, मारुती। अनुद्देशित, जो बताया न गया हो, अनिलामय--संज्ञा, पु. (सं० यौ० ) बात अनिर्धारित, असीम, अपार । रोग, अजीणं । अनिलाशी-संज्ञा, पु० यौ (सं० ) वायुअनिर्देश्य-वि० (सं० ) जिपके सम्बन्ध भक्षण से जीवन धारण करने वाला, में ठीक न कहा जा सके, अनिर्वचनीय, तपस्वी, सर्प, व्रत विशेष, बातभक्षी, अकथनीय । पवनसेवी। अनिचि -तवि० पु. ( सं० ) अपरिपक्क बुद्धि, अनालोचित, अविवेचित, अविचारित, अनिवारित--वि० (सं० ) अप्रतिबंधित, अवारित, वारण न किया हुआ, निवारण ऊहापोह, ज्ञान-शून्य । न करने योग्य। अनिर्वचनीय-वि० (सं० ) जिसका वर्णन अनिवार्य - वि० (सं० ) जिसका निवारण न हो सके, जिसके विषय में कुछ कहा न न हो सके, जो न हटे, जो अवश्य हो, जा सके, अकथनीय, अवाच्य, अवर्णनीय, जिसके बिना काम न चल सके, अवश्यवचनातीत । म्भावी, अवाध्य, कठिन, दुर्जय, अजेय, निर्वाच्य ..वि. (सं० ) जो बताया न | न टलने वाला, अवारणीय, दुरत्यय । For Private and Personal Use Only Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org निश अनिश -श्रव्य ० ( सं० ) निरंतर, सतत, सर्वदा, वि० (सं० ) रात्रि का अभाव । निश्चित - वि० (सं० ) जिसका निश्चय न हो, श्रनियत, अनिर्दिष्ट । अनिष्ट - वि० ( सं० ) जो इष्ट न हो, surfभलषित अवांछित, संज्ञा, पु० अमंगल, श्रहित, बुराई, ख़राबी, हानि, अनीठ( दे० ) । अनिष्टकर - वि० ( सं० ) अपकारक, हितकर, हानिकर | अनिष्टकारक - वि० ( ० ) हानिकारक | अनिष्टकारी - वि० (सं० ) अहितकारी, हानिकारी | अनिष्ठुर - वि० (सं० ) अनिर्दय, सरलचित्त, दयावान्, जो निष्ठुर या क्रूर न हो, निठुर (दे० ) | संज्ञा भा० स्त्री० प्रनिष्ठुरता – सदयता । अनिष्णता वि० (सं० ) अप्रवीण, अकृती, अपकार, अपटु, दक्ष । मनी - संज्ञा, स्त्री० (सं० अणि अग्रभाग, नोक ) पैना, नोक, सिरा, कोर, किसी वस्तु का अगला भाग, संज्ञा, स्त्री० (सं० अनीक - समूह ) समूह, झुंड, दल, सेना फ़ौज । संज्ञा, स्त्री० ( हि० थान - मर्यादा ) दृढ़ संकल्प वाला, मान-मर्यादा वाला, टेकवाला । अनीक संज्ञा, पु० (सं० ) सेना, फौज, समूह, कुंड, सैन्य, युद्ध, लड़ाई, कटक, योद्धा, वि० पु० ( हि० श्र + नीकअच्छा ) जो अच्छा न हो, बुरा, ख़राब, वि० [स्त्री० अनाकी-शनी, अनाका - ( ब्र० दे० ) । अनीकस्थ - संज्ञा, पु० (सं० ) सेना - रक्षक, हस्तिपक, राज-रक्षक, चिन्ह, अनीपति । नाकिनी - संज्ञा स्त्री० (सं० ) अक्षौहिणी सेना का दशांश, पद्मिनी, बरुथिनी । नाठक - वि० दे० (सं० अनिष्ट ) जो इष्ट न हो, अप्रिय, बुरा, ख़राब, स्त्री० अनोठी දාස් Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अनु बुरी, " कोऊ श्रनीठी कहौ तौ कहो हमैं मीठी लागे "" - I अनीड़ वि० (सं० ) नीड़ या घोसले से रहित, बेघरबार । प्रनीति - अनीत - संज्ञा, स्त्री० (सं० ) अन्याय, बेइंसाफी, शरारत, अंधेर, अत्याचार, दुराचार, दुर्नीति, । नोदृश - वि० (सं० ) तुल्य, समान, बेजोड़ | 33 अनीश - वि० (सं० ) बिना मालिक या स्वामी का, अनाथ, समर्थ, सर्व श्रेष्ठ, असहाय, संज्ञा, पु० विष्णु, जीव, माया, (दे० ) अनास " इस अनीसहि अंतर तैसे ' - रामा० ( अनी + ईश ) सेनापति । प्रनीश्वर - वि० (सं० ) ईश्वर भिन्न, नास्तिक, ईश्वर या स्वामी से रहित, ( अनी + ईश्वर ) सेनापति, चार्वाक । अनीश्वरवाद - संज्ञा, पु० (सं० ) - ईश्वर के अस्तित्व पर अविश्वास, नास्तिकता, मीमांसावाद, चार्वाक ऋषि का मत, जिसमें ईश्वर की सत्ता नहीं मानी जाती । अनीश्वरवादी - वि० (सं० ) ईश्वर को न मानने वाला, नास्तिक, मीमांसक, For Private and Personal Use Only भक्त, देव-निदक, चार्वाक मतानुयायी । अनीस — संज्ञा, पु० (सं० अनीश) श्ररक्षक, असहाय, अनाथ ( अनी + ईश ) सेनापति, सैन्य-रक्षक, एक हिंदी कवि | अनीह - वि० ( सं० ) इच्छा - विहीन, इच्छा न रखने वाला, निश्चेष्ट, निलोभ, आलसी, बोदा, ढीला, निष्काम । नीहा - संज्ञा स्त्री० (सं० ) अनिच्छा, उदासीनता । अनु - उप० (सं० ) एक उपसर्ग, किसी शब्द के पूर्व लग कर यह प्रायः १--पीछे जैसे- अनुगामी, अनुचर, २-सदृश.-जैसे - अनुकूल, अनुसार, अनुरूप - ३ साथ, जैसे -- अनुपान, ४ -- प्रत्येक, जैसे- अनुक्षण, Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org अनुकंपा ५ - बरंबार जैसे अनुशीलन आदि का अर्थ देता है - अतः इसका अर्थ है, पीछे, पश्चात, सह, सादृश्य, लक्षण, वीप्सा, इत्थम्भाव, भाग, हीन, आयास समीप, ८६ 46 66 परिपाटी, अनुसार, अधीन, अव्य०३. हाँ, ठीक, क्रि० वि० अब, आगे, छाथ, अनुरागी तुम गुरु वह चेला " - प० । अनु पाँडे पुरषहिं का हानी" -- प० । (सं० अणु ) वि० अत्यन्त छोटा, महीन, लघुतम, कम, थोड़ा, संज्ञा, पु० (सं० ty ) करण, परिमाणु । अनुकंपा - संज्ञा स्त्री० (सं० ) दया, कृपा, अनुग्रह, सहानुभूति, हमदर्दी, करुणा, स्नेह | अनुकंपित - वि० (सं० ) जिस पर दया की गई हो, अनुगृहीत, अनुग्राह्य, कारुणिक, वेगवान | अनुकंप्य - वि० ( सं ) अनुग्राह्य, कृपापात्र । अनुकथन -- संज्ञा, पु० (सं०) कहने के बाद कहना, पश्चात कथन बारम्बार कथन, पारस्परिक वार्तालाप, अनुकूल कथन, पुनरुक्ति करना । अनुकरण - संज्ञा पु० (सं० ) देखादेखी कार्य, नकल, वह जो पीछे उत्पन्न हो या आवे, प्रतिरूप करण, अनुरूप या सदृश करण, उतारना । अनुकरणीय वि० ( सं० ) अनुकरण करने के योग्य । अनुकर्ता -- संज्ञा, पु० (सं० ) अनुकरण या नक़ल करने वाला, श्रज्ञाकारी, नकलची, स्त्री० [अनुकर्त्री । अनुकर्षा – संज्ञा, पु० (सं० ) श्राकर्षण, खींच-तान । अनुकार -- संज्ञा, पु० (सं० ) अनुकरण | अनुकारी -- वि० (सं० अनुकारिन् ) अनुकरण करने वाला, नक़ल करने वाला, • श्राज्ञाकारी । स्त्री०, अनुकारिणी । भा० श० को० 1 १०-१२ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अनुक्रमणिका 66 अनुकू - वि० (सं० ) मुधाफ़िक़, पक्ष में रहने वाला, अनुसार, सहायक, प्रसन्न, सदा रहैं अनुकूल " संज्ञा, पु० वह नायक जो एक ही विवाहिता स्त्री में अनुरक्त हो, एक प्रकार का अलंकार जिसमें प्रतिकूल से अनुकूल वस्तु की सिद्धि दिखलाई जाती है, ( काव्य शास्त्र ) क्रि० वि० तरफ़, श्रोर " चली बिपति बारिधि अनुकूला रामा० । अनुकूलता संज्ञा स्त्री० (सं० ) प्रतिकूलता, अविरुद्धता, पक्षपात सहायता, प्रसन्नता अनुकूल्य ( संज्ञा, भा० ) । अनुकूलना - स०, क्रि० (सं० अनुकूलन ) arre होना, हितकर होना, प्रसन्न होना, पक्ष में होना, मध्यरात बिराजत प्रति अनुकूल्यो देव, अनुकूले और फूले देव० । "" तौ कहा सरो "" - जाम० । 33 For Private and Personal Use Only मु- अनुकूल होना या रहना - प्रसन्न या पक्ष में होना । अनुकूल पड़नामुत्राफ़िक होना । अनुकूल जाना --- पक्ष में हो जाना । अनुकूल चलनाइच्छानुसार या श्राज्ञानुसार चलना । अनुकूल पाना या देखना - पक्ष में या प्रसन्न पाना । "" अनुकृत वि० (सं० ) अनुकरण या नकल किया हुआ । अनुकृति - संज्ञा स्त्री० (सं० ) देखादेखी कार्य, नक़ल, एक प्रकार का काव्यालंकार जिसमें एक वस्तु का कारणान्तर से दूसरी वस्तु के अनुसार हो जाने का कथन किया जाय । अनुक्तवि० (सं० ) अकथित, बिना कहा हुआ, स्त्री० अनुक्ता- न कही हुई । अनुक्रम - संज्ञा, पु० (सं० ) क्रमानुसार, सिलसिला, परिपाटी, रीति-भाँति, यथाक्रम, श्रनुपूर्वी । अनुक्रमणिका संज्ञा, स्त्री० (सं० ) क्रम, सिलसिला, सूची, फ्रेहरिश्त निघंटु, 3 Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अनुक्रिया ६० अनुतापित भूमिका, ग्रंथों का मुखबंध, आभास, वाला, कृपालु, उपकारी, दयालु, करुणातालिका, क्रमानुसार सूचीपत्र । युक्त, स्त्री०, अनुग्राहिका। अनुक्रिया-संज्ञा, स्त्री० (सं०) अनुक्रमण । अनुग्राही–वि० ( सं० ) अनुग्राहक, अनुक्रोश-संज्ञा, पु० (सं०) कृपा, दया, कृपालु । वि० अनुग्राह्य । अनुकम्पा, स्नेह । अनुचर-संज्ञा, पु० (सं० ) दास, नौकर, अनुक्षण-कि० वि० (सं० ) प्रतिक्षण, सहचर, साथी, अनुयायी, अनुगामी, भृत्य, लगातार, निरंतर, सदा, सर्वदा, नित्य, सब __ स्त्री. अनुचरी। घड़ी, सर्वक्षण। अनुचित-वि० (सं० ) अयुक्त, नामुनाअनुग-वि० (सं० ) अनुगामी, अनुयायी, सिब, बुरा, ख़राब, अयोग्य, अनुपयुक्त, अनुकूल, मुआफ्रिक, संज्ञा, पु० सेवक, दास, नीति-विरुद्ध, रीति के विपरीत । नौकर, भृत्य, अनुचर, पीछे चलने वाला, अनुच्छ्रित-वि० (सं० ) उन्नति-रहित, जो प्राज्ञाकारी, अनुसार चलने वाला। बहुत ऊँचा न हो। अनुगत-वि० (सं० ) अनुगामी, अनुकूल, अनुज-वि० (सं.) पीछे उत्पन्न होने संज्ञा, पु० सेवक, आश्रित, शरणागत, पाछे वाला, संज्ञा, पु० छोटा भाई, स्त्री० अनुजा चलने वाला, खुशामद, “कत अनुनय " अनुज सखा सँग भोजन करहीं" अनुगत अनुबोधि"-विद्या । -रामा०। अनुगति-संज्ञा, स्त्री० (सं० ) अनुगमन, अनुजा-वि० स्त्री. (सं० ) संज्ञा, पीछे अनुसरण, अनुकरण, नकल, मरण । उत्पन्न होने वाली, छोटी बहिन । " नहिं अनुगमन-संज्ञा, पु० (सं० ) पीछे चलना, मान कोऊ अनुजा तनुजा" -रामा० । अनुसरण, समान आचरण, विधवा का अनुजाधी-वि० (सं० ) पराधीन, पाश्रित, सती होना, सदृश आचरण, सहबास, . परतंत्र, संज्ञा, पु० दास, सेवक, नौकर । सहगमन । अनुगामी-वि० (सं०) पीछे चलने वाला, अनुज्झित-वि० (सं० ) अविक्षत, प्रत्यक्त, न छोड़ा हुना। समान पाचरण करने वाला, आज्ञाकारी अनुयायी, साथी, सहचर, सहकारी, अनु अनुज्ञा-संज्ञा, स्त्री० (सं० ) श्राज्ञा, हुक्म, वर्ती, " फल अनुगामी महिपमनि " इजाज़त, आदेश, एक प्रकार का अलंकार -रामा०। जिसमें किसी दूषित वस्तु में कोई गुण देखकर उसके पाने की इच्छा प्रगट की अनुगुण-संज्ञा, पु० (सं०) एक प्रकार का अलंकार जिसमें किसी वस्तु के पूर्व गुण का जाती है। दूसरी वस्तु के संसर्ग से बढ़ना प्रगट किया अमुज्ञात-संज्ञा, पु. ( सं०) श्राज्ञा-प्राप्त । जाय। अनुतप्त-वि० ( सं० ) अनुशोची, अनुगृहीत-वि० (सं०) जिसपर अनुग्रह पश्चातापविशिष्ठ, पछताने वाला। किया गया हो, उपकृत, कृतज्ञ, प्रतिपा. अनुताप-संज्ञा, पु० (सं० ) तपन, दाह, लित, आश्वासित । स्त्री० अनुगृहीता। जलन, दुःख, रंज, पछतावा, अफसोस, अनुग्रह संज्ञा, पु. (सं०) कृपा, दया, अनुशोचन, पश्चाताप । अनिष्ट-निवारण, रियायत, प्रसन्नता, अनुतापित--वि० (सं० ) पछताने करुणा। वाला, जलन से भरा, दुःखित, अनुशोचक, अनुग्राहक-वि० (सं० ) अनुग्रह करने स्त्री० अनुतापिता। For Private and Personal Use Only Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अनुतारा अनुपयोगी अनुनारा~संज्ञा, स्रो० (सं० ) उपग्रह, अनुनय-संज्ञा, पु० (सं० ) विनय, विनती, उपतारा, जैसे चंद्रमा। प्रार्थना, मनाना, विनम्र कथन । अनुत्तर -वि० (सं० ) निरुत्तर, कायल, अनुनाद - संज्ञा, पु. ( सं० ) प्रतिध्वनि, बे उत्तर या लाजवाब । संज्ञा, पु० दक्षिण प्रतिशब्द, गूंज। दिशा, स्वामी, अधः, स्थिर।। अनुनादित- वि० ( सं० ) प्रतिध्वनित, अनुत्कंठा-संज्ञा, स्त्री. (सं०) निरुद्वेग, | | जित, गुंजित । उत्कंठा-रहित । अनुनाद क-वि० (सं० ) प्रतिध्वनि करने अनुदय-संज्ञा, पु० (सं० ) उदय के पूर्व वाला। काल, उदय-रहित, प्रातः, भोर (दे०) अनुनासिक---वि० ( सं० ) मुख और सवेरा, बिहान (दे०) ऊषाकाल । नाक से बोला जाने वाला स्वर या वर्णअनुदात्त-वि० ( सं० ) छोटा, तुच्छ, जैसे ङ, अ, ण, न, म, नासिका सम्बन्धी, नीचा ( स्वर ) अनुदार, लघु (उच्चारण ) सानुनासिक। संज्ञा, पु० (सं० ) स्वर के तीन भेदों में से अननुनासिक-- वि० (सं०) जो अनुनासिक एक। न हो। अनुदार- वि० (सं० ) अतिशय, दाता अनुप-वि० (सं० ) अनुपम, अतुल्य, नहीं, अदाता, कृपण, स्त्रीवश-वर्ती, अनुत्तम। अपूर्व । भा० संज्ञा, स्त्री० अनुदारना-कृपणता। अनुपकारी-वि० (सं० ) अहितकारी, अनुदिन .. कि० वि० (सं० ) नित्यप्रति, अनुपकारक । संज्ञा, पु० (सं०) अनुपकार, प्रतिदिन, रोज़ाना, रोज़मर्रा, प्रत्यह, नित्य, । उपकार-रहित । भा० संज्ञा, स्त्री. (सं०) सदा, सर्वदा, हमेशा। अनुपकारिता अहितकारिता । अनुद्वाह-संज्ञा, पु. ( सं० ) अविवाह, | अनुपम- वि० ( सं० ) उपमा-रहित, बेअनूढावस्था, कुमारता, फुपारपन ( दे० )। | जोड़, उत्तम, श्रेष्ठ, अद्वितीय, जिसकी अनुद्विग्न-वि० (सं० ) निश्चिन्त, उद्वेग- समानता न हो सके। भा० संज्ञा, स्त्री० रहित, स्वस्थ, स्थिर, शान्त, अखिन्न । । (सं०) अनुपमता। अनुद्वेग-वि. ( सं० ) उद्वेग-हीन, अनुपमेय -वि० (सं० ) असदृश, असम, अव्याकुल, अविकल, निश्चिन्त, स्वस्थ । अतुल्य, अनुपम, विषम, अद्वितीय, बेअनुद्यम --संज्ञा, पु. (सं०) उद्यम रहित, जोड़। अनुपयुक्त-वि० (सं० ) अयोग्य, बे ठीक, अनुचित, अयुक्त, असंगत, जो उपयुक्त अनुद्यमी–वि. (सं० ) उद्यम न करने न हो। वाला, निरुद्यमी, अनुद्योगी। अनुपयुक्तना-संज्ञा, स्त्री. ( सं० ) अनुद्योग-संज्ञा, पु. (सं०) उद्योग-रहित । अयोग्यता, अयुक्तता, उपयुक्तता-रहित । अनुद्योगी-वि० (सं०) उद्योग न करने | अनुपयोग--संज्ञा, पु. ( सं० ) व्यवहार का वाला, निरुद्यमी। _ अभाव, कार्य में न लाना, दुर्व्यवहार। अनुधावन-संज्ञा, पु० (सं०) पीछे चलना, | अनुपयोगिता-संज्ञा, स्त्री० ( सं० ) अनुसरण, अनुकरण, नकल, अनुसंधान । उपयोगिता का अभाव, निरर्थकता। अनुधाधक-वि० अनुसरण करने वाला। अनुपयोगी- वि० (सं०) बेकाम, व्यर्थ अनुधाषित-वि० पीछे चलता हुधा। का, निरर्थक । यत्रहीन । For Private and Personal Use Only Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अनुपल अनुमरण अनुपल-संज्ञा, पु० (सं० ) पल का पाठवाँ भानुभव--संज्ञा, पु० (सं० ) साक्षात करने भाग, काल, सेकेंड, क्षण।। से प्राप्त ज्ञान, परीक्षा से प्राप्त ज्ञान, तजरबा, अनुपलब्ध-वि० ( सं० ) अप्राप्त, जो न | यथार्थज्ञान, उपलब्धि, अनुमान, बोध, मिल सके। समझ, ज्ञान । अनुपस्थित -वि. ( सं० ) अविद्यमान, अनुभवना*-स० कि० (सं० अनुभव ) गैरहाज़िर, जो सामने मौजूद न हो। अनुभव करना. " पुन्यफल अनुभवत सुतहिं अनुपस्थिति- संज्ञा, स्त्री. ( सं० ) अविद्य- बिलोकि कै नन्द-घरनि" सूर० । मानता, गैरहाज़िरी। अनुभवति-वि० (सं० ) अनुभव किया अनुपात-संज्ञा, पु. (सं० ) गणित की हुश्रा, " उर-अनुभवति न कहि सक कोऊ" त्रैराशिक क्रिया, सम, समान, समता-भाव, रामा० । समानता के साथ गिरना, बराबर सम्बन्ध, अनुभधी--वि० ( सं० ) अनुभव रखने समानुपात-संज्ञा, पु० (सं० )। वाला, तजरबेकार, जानकार। अनुपानक-संज्ञा, पु. ( सं० ) ब्रह्महत्या अनुभाव-संज्ञा, पु. ( सं० ) महिमा, के समान पाप, महापातक, बड़े पापों के | बड़ाई, दृढ़ अनुमान, निश्चय, भाव सूचक, बराबर पाप, वि० अनुपातकी-महापापी। प्रभाव, काव्य में रस के चार योजकों में से अनुपान-संज्ञा, पु. (सं० ) औषधि के एक, चित्त के भाव-भावनाओं को प्रगट साथ या उसके ऊपर से खायी जाने वाली करने वाले चिन्ह या लक्षण, जैसे कटाक्ष, वस्तु, पथ्य । रोमांच आदि यांगिक या शारीरिक क्रियायें या चेष्टाय । अनुपाय---वि० (सं० ) उपाय-हीन, निरवलंब, निराश्रय, निरुपाय । संज्ञा, स्त्री० अनुभावी-वि० ( सं० अनुभाविन् ) अनुपायता। अनुभव युक्त, समवेदना-सहित, स्वयमेव अनुप्राशन-संज्ञा, पु. ( सं० ) खाने का सब बातों का देखने सुनने वाला साक्षी, कार्य, खाना, क्रि० सं०-भक्षण करना, चश्मदीद गवाह, स्त्री० अनुभाविनी । खाना, भोजन करना, वि० अनुप्राशित धनुभूत-वि. ( सं०) जिसका अनुभव खाया हुअा, भोजन किया हुआ। या सानात ज्ञान हो चुका हो, तजरबा अनुप्राम-संज्ञा, पु० (सं० ) वह शब्दा की हुई परीक्षित, निश्चित, बीती ज्ञात । लंकार जिसमें किसी पद का एक ही अक्षर | | पानभूति -- संज्ञा, स्त्री. ( सं० ) अनुभव, बराबर पाता है, वणवृत्ति, वर्णमैत्री. परिज्ञान, बोध । पद-मैत्री, यमक, पदविन्यास, मित्राक्षर- अनुमत वि० (सं०) सम्मत, स्वीकृत, योजना, इसमें स्वरसाम्य हो या न हो | अंगीकृत, सहमत, अंगेजा ( दे०)। केवल वर्ण-समानता ही मुख्य है, इसके | अनुमति-संज्ञा, स्त्री. ( सं० ) श्राज्ञा, भेद है :- छेक, वृत्यनुप्राप, श्रुत्यनुप्रास, हुक्म, सम्मति, राय, अनुज्ञा, कलाहीन, लाट, अंत्यानुप्रास, वर्ण-साम्य ।। चन्द्रयुक्त पूर्णिमा। अनुबंध-संज्ञा, पु० (सं० ) बंधन, लगाव, भानुमती-- वि. स्त्री० (सं० ) सहमता, भागा-पीछा, प्रारंभ. मित्र, सुहृद, विन वर, अनुगामिनी। सम्बन्ध, अनुवर्तन, शिशुप्रकृतिका, मुख्यानु- अनुमरण-संज्ञा, पु० (सं०) एक साथ यायी, लेश। मरना, सहमरण, पश्चातमरण, सती होना। For Private and Personal Use Only Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अनुमान १३ अनुराध अनुमान -संज्ञा, पु. ( सं० ) अटकल, | धमकी, घुड़की, तिरस्कार, आक्षेप, प्रश्न, अंदाज़ा, कयास, न्याय के चार प्रमाण- जिज्ञासा, निंदा, शिक्षा, उपदेश, प्रबोध, भेदों में से एक, जिपसे प्रत्यक्ष साधन के ब्रह्मासन । द्वारा अप्रत्यक्ष साध्य की भावना हो, तर्क, अनुयोगकारी---वि. पु. (सं० ) तिरस्काअनुभव, बोध, हेतु के द्वारा निर्णय, विचार. रक, आक्षेपक, प्रश्नकर्ता। कल्पना, एक प्रकार का काव्यालंकार जिसमें अनुयोगी-वि० पु. ( सं० ) निंदित, किसी साधन रूपी ज्ञात वस्तु के अाधार तिरस्कृत । पर तत्सदृश या तत्संबन्धी अन्य वस्तु की अनुयोजक-संज्ञा, पु० (सं० ) उपदेशक, भावना प्रकट की जावे. ( काव्य-शास्त्र)। अनुयोगकारी। अनुमानना *----स० क्रि० (सं० अनुमान ) अनुयाजन--संज्ञा, पु. (सं० ) प्रश्न, अनुमान करना अंदाजा करना, समझना, जिज्ञासा, पूछपाछ। सोचना विचारना, कल्पना करना, अटकल अनयाज्य-- वि० ( सं० ) अनुयोगाई, लगाना। अाज्ञाप्य, निंदनीय, श्राक्षेप के योग्य । " हम तौ न जानै अनुमानै एक मानै यहै" अनुरंजन--संज्ञा, पु. (सं० ) अनुराग, -रत्नाकर। प्रीति. दिल बहलान, मनोरंजन । " जाके जितनी बुद्धि हिये मैं सो तितनी अनुरंजनीय - वि० (सं० ) अनुरंजन के अनुमानै "--सूबे० । योग्य । अनुमापक-संज्ञा, पु० (सं० ) निणयक, अनुरंजक -- वि० (सं० ) प्रसन्न करने अनुमान का हेतु निश्चय का कारण । वाला, मनोरंजक । अमित---वि० ( सं० ) अनुमान किया। अनुरजित-वि० (सं०) अनुरक्त, अनुरंजनहुअा। युक्त, प्रसन्न, सानुराग, रँगा हुआ। अनु मनि--संज्ञा, स्त्री० ( सं० ) अनुमान, अनुरक्त--वि० ( सं० ) अनुराग-युक्त, अंदाज। आसक्त, लीन, रत, प्रेमी, प्रेमाभिभूत । अनुमेय-वि० ( सं० ) अनुमान के योग्य । अनुरत--वि० (सं०) श्रापक्त, लीन । अनुमोदन - संज्ञा, पु० (सं० । प्रसन्नता का अनुराग--संज्ञा, पु० (सं० ) प्रीति, प्रेम, प्रकाशन, खुश होना, समर्थन, सन्तोष- | स्नेह, ममता, आसक्ति, रति, प्रशंसा, थोड़ी प्रकाश, सामोद सम्मति, प्रवृत्ति-प्रदान, लालिमा। प्रसन्नता पूर्वक स्वीकारता, आमोद करण । अनुगगना* -- स० कि० (सं० अनुराग) अनुमादित--वि० ( सं० ) अनुमत, प्रोति करना, प्रेम में मग्न होना, प्रेम करना, आमोदित, पालादित, प्रसन्न, सन्तुष्ट, प्रसन्न होना लीन या रत होना, -- “गारिसमर्थित, स्वीकृत, सम्मत । गान सुनि अति अनुरागे रामा० । अनुमादक- वि० ( सं० ) अनुमोदन करने " बचन सुनत पुरजन अनुरागे"- रामा० वाला, समर्थक, सम्मति प्रकाशक । अनुगगी-वि० (सं० अनुरागिन ) अनुअनुयाया- वि० ( सं० ) अनुयायिन्, राग रखने वाला, प्रेमी, अनुरक्त, स्त्री० अनुगामी, पीछे चलने वाला, अनुकरण अनुगगिन'। " या अनुरागी चित्त की करने वाला, संज्ञा, पु० सेवक, शिष्य, अनु- । गति समुझ नहिं कोय'-बि० । वर्ती, अनुपारी, दास। अनुराध-संज्ञा, पु. ( सं० ) विनती, अनुयोग- संज्ञा, पु. ( सं० ), ताड़ना, | विनय, प्रार्थना। For Private and Personal Use Only Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रतिमूर्ति । अनुराधना अनुवाद अनुराधना-स०, क्रि० (सं० अनुराध ) | अनुलेपन--संज्ञा, पु० (सं० ) किसी तरल विनय करना, मनाना, प्रार्थना करना, वि० वस्तु की तह चढ़ाना, लेपन, उबटन करना, अनुराधित वि० अनुराधक। बटना लगाना, लीपना। अनुराधा-संज्ञा, स्त्री० (सं० ) २७ नक्षत्रों | अनुलेपी संज्ञा, पु. (सं०) अंगलेप, में से १७ वाँ नक्षत्र, इसकी तीन तारायं हैं | __उबटन, बटना। इसका स्थान वृश्चिक राशि का मुख है। अनुलेपिन-वि० ( सं० ) अनुलिप्त, लीपा अनुराधनीय अनुराध्य ---वि० (सं० ) हुआ, उबटन या अंगराग लगाया हुआ । प्रार्थनीय, विनय के योग्य । " अंगराग अनुलेपित अंग".अनुरूप-वि० (सं० ) तुल्य, या समान अनुलोम- संज्ञा, पु. (सं०) ऊँचे से रूप का, सदृश, समान, योग्य, उपयुक्त, नीचे पाने का काम, उतार का सिलसिला, तुल्य, एकसा, अनुहार, अनुकूल । स्वरों का उतार, क्रमशः ( सङ्गीत ) अनुरूपक-संज्ञा, पु० (सं०) सदृश वस्तु, अवरोहण, वि० सीधा, क्रम से, अविलोम, यथाक्रम, सिलसिलेवार, जाति विशेष । अनुरूपता-संज्ञा, भा० सी० (सं.) अनुलोमज - संज्ञा, पु. ( सं० ) ब्राह्मण के औरस और क्षत्रिया के गर्भ से उत्पन्न समानता, सदृशता, अनुकूलता, उपयुक्तता। सन्तान। अनुरूपना* -संज्ञा, कि० (सं० अनुरूप) अनुलोपन-संज्ञा पु० (सं.) पेट की मल सदृश बनाना, अनुसार बनाना, समान वाली कड़ी गाँठों को गिराने वाली औषधि, रूप बनाना, नकल उतारना “ अंग अंग कब्ज़ियत को दूर करने वाली रेचक या अनुरूपियत, अँह रूपक को रूप"- पद्म० दस्तावर दवा। अनरूपित-वि० (सं०) अनुकूल बनाया अनुलामविवाह--संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) हुआ, प्रानुरूप किया गया, सदृश बनाया उच्च वर्ण के पुरुष का अपने से नीचे वर्ण की स्त्री से विवाह । अनुरूपनीय-वि० (हि. अनुरूपना ) अनु अनुवर्तन संज्ञा, पु० (सं०) अनुकरण, रूप किये जाने के योग्य, नकल उतारने अनुगमन, समान पाचरण, अनुसरण किसी के योग्य । नियम का कई स्थानों पर बार बार लगना। अनुगंध-संज्ञा, पु. (सं० ) रुकावट, अनुवर्ग ---वि० (सं० अनुवतिन् ) अनुसरण बाधा, प्रेरणा, उत्तेजना, विनय पूर्वक हठ करने वाला, अनुयायी, अनुगामी, स्त्री. करना, आग्रह, दबाव उपरोध, अनुवर्तन, अनुतिनी। अपेक्षा, मुशाफ़िक। अनुवाक-संज्ञा, पु० (सं० ) ग्रंथ-विभाग, अनुन्नाप-संज्ञा, पु० (सं० ) पुनः पुनः अध्याय, या प्रकरण का एक भाग, वेद के कथन, बारबार कहना, मुहुः मुहुः श्रालाप अध्याय का एक अंश, अंश, स्कंध, करना, वि० अनुनापित, अनुलापनीय, | ग्रंथावयव । अनुलायक। अनुवाद-संज्ञा, पु. (सं०) पुनरुक्ति, अनुलिप्त-वि० (सं० ) अभिषिक्त, लिप्त, दोहराना, फिर कहना, भाषान्तर, उल्था, विदग्ध । तर्जुमा, वाक्य का वह भेद जिसमें कही हुई अनुलेप-संज्ञा, पु० (सं० ) लीपना, अंग- | बात का फिर फिर कथन हो, (न्याय० ) लेप, उबटन, पोतना। निंदा, अपवाद। हुश्रा। For Private and Personal Use Only Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org अनुवादक अनुवादक - संज्ञा, पु० (सं० ) अनुवाद या उल्था करने वाला, भाषान्तरकार, तर्जुमा करने वाला । " अनुवादित - वि० सं० ) अनुवाद या उता किया हुआ । अनूदित वि० (सं० ) जिसका तर्जुमा हो गया हो । अनुवृत्ति-संज्ञा, स्त्री० (सं० ) किसी पद के पहिले अंश से कुछ वाक्य या शब्द उसके पिछले अंश में अर्थ को स्पष्ट करने के लिये लाकर मिलाना, उपजीविका, सेवा मार्ग । अनुवेदना-संज्ञा, स्त्री० (सं० ) समवेदना, सहानुभूति । अनुशय-संज्ञा, पु० (सं० ) पश्चात्ताप, अनुताप, जिघांसा, द्वेष | अनुशयाना -संज्ञा स्त्री० (सं० ) वह परकीया नायिका, जो अपने प्रिय के मिलने के स्थान के नष्ट हो जाने से दुःखी हो, सनाश से दुःख परकीया । अनुशय-संज्ञा, पु० (सं० ) पश्चात्ताप करने वाला, दुखी, रोग विशेष, शत्रु, बैरी 1. अनुशासक संज्ञा, पु० (सं० ) आज्ञा या आदेश देने वाला, हुक्म देने वाला, हाकिम, उपदेष्टा, शिक्षक, देश या राज्य का प्रबंधकर्ता, शासनकर्ता । ६५ " श्रथ अनुशासन - संज्ञा, पु० (सं० ) आदेश, श्राज्ञा, हुक्म, उपदेश, शिक्षा, व्याख्यान, विवरण, महाभारत का एक पर्व, शब्दानुशासनम् " महाभाष्य० । अनुशास्ता - संज्ञा, पु० (सं० ) शिक्षक, उपदेष्टा, अनुशासक । अनुशासित - वि० पु० (सं० ) जिस पर शासन किया जाय, शिक्षा प्राप्त, उपदेशप्राप्त । प्रनुशीलन - संज्ञा पु० (सं०) चिंतन, मनन, विचार, बारम्बार अभ्यास, श्रान्दोलन, अनुसंधान वि० [प्रनुशीलित सुचिंतित, मनन किया हुआ, अभ्यास किया हुआ । अनुशोक- संज्ञा, पु० (सं० ) पश्चात्ताप, खेद, पछतावा । अनुशोचन - संज्ञा, पु० (सं० ) पश्चात्ताप करना, पछताना | अनुषंग - संज्ञा, पु० (सं० ) करुणा, दया, सम्बन्ध, लगाव, प्रसंग से एक वाक्य के गे और वाक्य लगा लेना, प्रणय, मिलाप, मिलन | Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अनुषंगिक - वि० (सं० ) प्रसंगवशात, अन्य जोड़ा हुआ वाक्य, सम्बन्धी, कारुणिक, मिला हुआ । अनुष्टुप - संज्ञा पु० (सं० ) ३२ अक्षरों का एक वणिक वृत्त या छंद, अनुष्टुभ् -८ श्राठ वर्णों के चार समपाद वाला छंद - सरस्वती नामक छंद विशेष | अनुष्ठान - संज्ञा पु० ( सं० अनु - स्था + अनट् - प्रत्य० ) कार्यारम्भ, उपक्रम, नियमानुकूल कोई काम करना, शास्त्र - विहित कार्य करना, किसी अभीष्टफल के लिये किसी देवता का आराधन, प्रयोग, पुरश्चरण, सूचना, आचरण, कार्य । अनुष्ठान शरीर संज्ञा पु० (सं० यौ० ) लिंगदेह, शरीर । अनुष्ठित - वि० (सं० अनु + स्था + क्त ) श्रारब्ध, श्रचरित, जिसका आरम्भ हो चुका हो, आराध्य, प्रयुक्त | अनुष्ठेय - वि० (सं० अनु + स्था + य ) उपक्रान्त, कर्मारब्ध, किया जाने वाला, करने के योग्य | अनुसंधान - संज्ञा, पु० (सं० अनु + सं + धा -+- नट् ) पीछे लगना, खोज, ढूंढ़ना, सोचना, गवेषणा करना, अन्वेषण, चेष्टा, संधान करण, जाँच-पड़ताल, कोशिश, तहक़ीक़ात । अनुसंधानी - संज्ञा पु० (सं० ) अनुसन्धान या खोज या अन्वेषण करने वाला । For Private and Personal Use Only Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - - अनुसंधानना अनूठापन अनुसंधानना-स० क्रि० (सं० अनुसंधान ) लिखते हैं । (-) स्वर के ऊपर की बिन्दी, खोजना, ढूंढना, सोचना, विचारना, इसके आधे रूप को चंद्रविन्दु (") कहते (रामा० ८८) हैं यह अर्ध अनुस्वार है-निगृहीत । अनुमरण-अनुसरन--(दे० ) संज्ञा पु. अनुहरत -वि० (हि. अनुहरना ) अनुसार, (सं० अनु + + अनट ) पीछे या साथ अनुरूप, समान, उपयुक्त, योग्य, अनुकूल, चलना, अनुहार, अनुकरण, नकल, अनुकूल __ "मोहि अनुहरत सिखावन देहू' रामा० । आचरण, अनुगमन। अनुहरना*-- स. क्रि० दे० (सं० अनु. अनुमयाना संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० अनु- हरगा ) अनुकरण या नक़ल करना समान शयाना ) देखो-अनुशयान।। होना, देखा-देखी कोई काम करना, बराबरी अनुसर- वि० (सं० ) अनुसार, समान। करना । अनुसरना-स० क्रि० (सं० अनुसरण ) अनुरिया संज्ञा, स्त्री० ( हि० अनुहार ) पीछे या साथ चलना, अनुकरण करना, श्राकृति मुखानी (दे० )। नक़ल करना, अनुकूल करना, अनुगमन | अनुहार- वि० (सं० अनु + ह - घज् ) करना-“ सिर धरि गुरु-आयसु अनु- सदृश, तुल्य, समान अनुसार, अनुकूल, सरहू".-रामा० । उपयुक्त । संज्ञा, स्त्री० रूप, भेद, प्रकार, अनुसार-वि० (सं० अनु + स. घज् ) मुखानी, श्राकृति, सादृश्य, रूप, (दे०) अनुकूल, सदृश, समान, मुश्राफ़िक, अनुहारि--" वर अनुहारि बरात न भाई".... अनुरूप । रामा० । "देखी सासु आनि अनुहारी".... अनुसारना -- स० क्रि० (सं० अनुसरण ) रामा० । " यह अनुहारिको निहारि अनुमान अनुसरण करना, श्राचरण करना, कोई हम ---अभि० ब०। कार्य करना, चलना, कहना । "पुलकित अनुहारना* -- स० कि. (सं० अनुहारण ) तनु श्रस्तुति अनुसारी"--रामा० 'ताते तुल्य करना, सदृश करना, समान करना, कछुक बात अनुसारी".--रामा० । उपमा दना, “ खंजन न जान अनुहारे "-- अनुसारी*-वि० दे० (सं० अनुसार ) सूर० । अनुसरण या अनुकरण करने वाला, अनुहारी--- वि० (सं० अनुहारिन् ) अनुकरण (रामा०)। या नकल करने वाला, स्त्री. अनुहारिणी अनुसाल*-संज्ञा, पु० दे० ( अनु + हिं० (दे० ) अनुहारिनी। सालना ) पीड़ा, बेदना, दुःख, पीर (दे०)। अनुहार्य-संज्ञा, पु० (सं० अनु -- ह+ स० क्रि० दे० अनुसालना--पीड़ा देना, ध्यण ) मासिक श्राद्ध । वि० अनुहार के योग्य । अनुसासन-संज्ञा, पु० दे० (सं० अनुशासन ) | अनूजरा ---वि० दे० (सं० अनुज्वल ) देखो अनुशासन। मैला, मलीन, मलिन। अनुसूचन-संज्ञा, पु. ( सं० अनु + सूच् + | अनूठा वि० (सं० अनुत्य ) अनोखा, अनट् ) विचार, ध्यान, स्रो० अनुसूचना---- विचित्र, विलक्षण, निराला, अद्भुत, अच्छा, श्रान्दोलन, सुचिन्ता, अनुष्ठान । बढ़िया, स्त्री० अनूठी। अनुस्वार-संज्ञा, पु० (सं० अनु + स + अनूठापन-संज्ञा, पु. ( हि अनूठा - पन --- घज् ) स्वर के पीछे उच्चरित होने वाला प्रत्य० ) विचित्रता विलक्षणता, अपूर्वता, अनुनासिक वर्ण या स्वर, जिसे इस प्रकार अनोखापन, सुन्दरता, अच्छाई । दुखाना। For Private and Personal Use Only Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir बहुजात। अनूदा अनेरा अनूदा-संज्ञा, स्त्री० (सं०) किसी पुरुष अनृतवादी-संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) असत्यसे प्रेम रखने वाली अविवाहिता स्त्री, एक वादी, मिथ्यावादी। प्रकार की नायिका ( नायिका-भेद ) | अनेक-वि० (सं० अन्+एक ) एक से (विलोम-उढ़ा)। अधिक, बहुत, बहु, भूरि, कई, अगणित, अनूदा-गामी-संज्ञा, पु० (सं० ) व्यभि ढेर, (दे० ) अनेग। चारी, लंपट, वेश्यागामी। संज्ञा, भा० स्त्री० अनेकता, अनेकत्व । अनूतन-वि० (सं० ) जो नूतन या नया ब० व० (७०) अनेकन । न हो, पुराना। अनेकज संज्ञा, पु० (सं० ) द्विज, पक्षी, अनूतर*-वि० दे० ( स० अनुत्तर ) निरुत्तर, मौन, उत्तर-रहित । अनेकता-संज्ञा, स्त्री० (सं० ) भेद, विभेद, अनूदित-वि० (सं० ) कहा हुआ, किया विरोध, मताधिक्य आधिक्य, अधिकता, हुआ, भाषान्तरित, उल्था किया हुआ, बहुलता। अनुवादित, तर्जुमा किया हुआ। संज्ञा, पु० भा० अनेकत्व । अनून*-वि० दे० (सं० अन्यून ) न्यून अनेकधा-अव्य. (सं० ) अनेक बार, जो न हो, पूर्ण, बहुत ( भाव० ) बारंबार । अनूप-संज्ञा, पु० (सं० ) जलप्राय प्रदेश, अनेकशः-अव्य० (सं० ) अनेक प्रकार, वह स्थान जहाँ जल बहुत हो, जल-प्लावित | बहु प्रकार, बहुत भाँति ।। या सजल प्रान्त । अनेकार्थ-वि० यौ० (सं० अनेक+अर्थ) वि० दे० (सं० अनुपम ) जिसकी उपमा न | जिसके बहुत से अर्थ हों, अनेकार्थकदी जा सके, निरूपम, बेजोड़, सुन्दर, वि. अनेक अर्थवान् । अच्छा, अद्वितीय, अनूपा दे। संज्ञा, पु. अनेकार्थ वाचक । " इनके नाम अनेक अनुपा"-रामा० । अनेग-वि० दे० (सं० अनेक ) देखो संज्ञा, स्त्री. (सं० अनुपज ) उपज या अनेक । पैदावार का अभाव, फसल का न पैदा अनेड़-वि० दे० (प्रान्ती०) निकम्मा, होना, न जमना। टेढ़ा, ख़राब, बुरा। अनूपज-संज्ञा, पु० (सं०) आर्द्रक, | “ पिय को मारग सुगम है, तेरा चलन अदरक, श्रादी। अनेड़ "-कबीर । अनूपम-वि० (सं० ) अनुपम, निरुपम, अनेम-संज्ञा, पु० दे० (सं० अ+नियम ) अनुपमेय, उपमा रहित, अद्वितीय, बेजोड़। । नियम-रहित, बेकायदा। संज्ञा, भा० स्त्री० अनुपमता-- अद्विती अनेरा-वि० दे० ( सं० अन्त ) झूठ, व्यर्थ, यता, विचित्रता, अनुपमता। " देख्यौ एक अनूपम बाग"-- सूर। निष्प्रयोजन, झूठा, अन्यायी, दुष्ट, निकम्मा, टेढ़ा, उधमी। अनृत-संज्ञा, पु. ( सं० ) मिथ्या, असत्य वि० (अ+नेरा ) जो पास न हो, दूर। मूठ, अन्यथा, विपरीत। " छोटे और बड़ेरे मेरे पूतऊ अनेरे सब वि०-अतथ्य, झूठ, असत्य ।। -कविता० । अनृत-वाद-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) " रेरे चपल-स्वरूप ढीठ तू बोलत बचन असत्य-वाद, झूठ कथन । अनेरे"-- सूर० । मा० श० को०-१३ For Private and Personal Use Only Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अनेह अन्नकूट “ अजहूँ जिय जानि-मानि कान्ह है। “जा कारन सुन सुत सुन्दरवर कीन्हो अनेरो"-सूर० । इतो अनैहो”–सूबे०। कि० वि० व्यर्थ, फ़जूल । अनोकहा-संज्ञा, पु० (सं० ) अपना स्थान "चरन सरोज बिसारि तिहारे निसि-दिन न छोड़ने वाला, स्थावर, वृक्ष। फिरत अनेरो”–विनः । " अनोकहा कंपित-पुष्प गंधी "रघु० । वि० दे० अनेरे (प्रान्ती०) (अनियरे) अनोखा-वि० दे० ( सं० अन् + ईक्ष ) जो नेरे, पास या समीप न हो, दूर। अनूठा, निराला, विलक्षण, विचित्र, नया, अनेह-संज्ञा, पु० दे० (सं० प्रस्नेह ) प्रेम सुन्दर, अपूर्व, अद्भुत, दुर्लभ,।। या स्नेह-रहित, विरक्ति। स्त्री० अनोखी। वि० अनेही-स्नेह-हीन, विरक्त । (विलोम- | अनोखापन-संज्ञा, पु. (हि० अनोखा+ सनेही)। पन-प्रत्य० ) अनूठापन, निरालापन, विचिअनै-संज्ञा, पु० दे० (सं० अनय ) अनीति, ता, नवीनता, सुन्दरता, विलक्षणता । अन्याय। अनोना-अलोना-वि० दे० (सं० अलवण) अनैक्य-संज्ञा, पु. (सं० अन् -+ ऐक्य ) एका लवण-रहित, नमक-हीन, जो नमकीन न न होना, मत-भेद, फूट, विरोध, वैमनस्य । हो, अलोन। अनैठ -संज्ञा, पु० दे० (सं० अन् + पंण्यस्थ) दे० स्त्री. अलोनी ( सलोनी का विलोम ) बाज़ार के बंद रहने का दिन, बाज़ार की लावण्य-रहित । छुट्टी का दिन, पैंठ का उलटा। अनौचित्य-संज्ञा, पु. ( सं० अन्+ अनैस -संज्ञा पु० दे० (सं० अनिष्ट) औचित्य ) अनुचित का भाव, उचित बात बुराई, अहित, अनइस (दे०)। का अभाव, अनुपयुक्तता । वि० दे० बुरा, ख़राब । अनौट -संज्ञा, पु० दे० (हि.) देखो अनैसना -अ. क्रि० (हि० अनैस ) बुरा 'अनवट' पैर के अंगूठे में पहिनने का मानना, रूठना, अनिष्ट होना या करना ।। छल्ला, अनउट (प्रान्ती०)। अनैसा*- वि० पु० दे० ( हि० अनैस) । १० (हि० अनेस ) । अन्न--संज्ञा, पु. ( सं०) खाद्य पदार्थ, अप्रिय, बुरा, खराब, स्त्री० अनैसी। । अनाज, धान्य, दाना, गल्ला, पकाया हुआ " सुन मातु भई यह बात अनैसी".-- अनाज, भात, सूर्य, पृथ्वी, प्राण, जल। रामा०। मु० अन्न-जल उठना-निवास छूटना, "तरुनिनकी यह प्रकृति अनैसी"-सूबे० । अन्न जल बदा होना-कहीं का जाना अनैसे*-वि. बहु० (हि. अनैस) बुरे- और रहना अनिवार्य हो जाना। अन्न-जल क्रि० वि० बुरे भाव से। रूठना-किसी स्थान से बलात् जाना " अजहुँ अनुज तव चितव अनैसे" । पड़ना। --रामा०। वि० (सं० अन्य ) दूसरा, विरुद्ध । अनैसो-वि० दे० (हि० अनैस ) अप्रिय, अन्नकष्ट-संज्ञा, यौ० पु० (सं० ) दुर्भिक्ष, बुरा, अनिष्ट । अकाल । " अहित अनैसो ऐसो कौन उपहास अरी" अन्नकूट-संज्ञा, पु० (सं० ) एक पर्व-दिवस -पद्मा० । जो, प्रायः दिवाली के दूसरे दिन माना अनहा*-संज्ञा, पु० (हिं० अनैस ) उत्पात, जाता है इसमें विविध प्रकार के अन्नों के मचलना। भोजन बनते हैं। और उनका भोग भगवान For Private and Personal Use Only Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ६६ को लगाकर खाते हैं । यह कार्तिक शुक्लप्रतिपदा से पूर्णिमा तक के अन्दर किसी भी तिथि को माना जा सकता है । प्रश्न- क्रेत्र - यौ० संज्ञा, पु० दे० (सं० अन्न क्षेत्र ) भूखों को जहाँ न दिया जाय, अन्नसत्र । प्रश्न-जल - संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) दानापानी, खाना-पीना, खान-पान, याबदाना ( ० ) जीविका, रोज़ी । मु० - अन्न-जल त्यागना या छोड़नाउपवास करना, निराहार, निर्जल व्रत करना, प्रश्न-जल ग्रहण करना-खाना-पीना । अन्न-जल न ग्रहण करना (संकल्प) कार्य कर के ही खाना-पीना, कार्य का पूरा करना या मर जाना ( बिना खाये - पिये ) Do or die | अन्नदाता – संज्ञा, पु० यौ० (सं०) अन्न-दान करने वाला, पोषक, प्रतिपालक, मालिक, स्वामी, स्त्री० अन्नदात्री । । अन्न-दान - संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) अन्न या भोजन देना । न दास - संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) पेट के ही लिये दास होने वाल, पेटू, खुदगर्ज, मतलबी । अन्न- पानी - संज्ञा, पु० यौ० (सं० अन्न + पानी - हिं० ) देखो - " श्रन्न-जल । " अन्नपूर्णा - संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं० ) अन्न की अधिष्ठात्री देवी, दुर्गा का एक रूप, काशीश्वरी, विश्वेश्वरी । अन्नप्राशन- संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) बच्चों को पहिले पहल न खिलाने का संस्कार | विशेषतः ६ वें या ७ वें मास में यह संस्कार किया जाता है । अन्नमय कोश – संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) पंचकोशों में से प्रथम, त्वचा से लेकर वीर्य तक का अन्न से बना हुआ समुदाय, स्थूल शरीर ( वेदान्त) | न्न विकार - संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) शुक्र, वीर्य, विष्टा, मल । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अन्मोल न-ब्रह्म-संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) अन्न स्वरूप ब्रह्म । अन्न-भाजन - संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) अन्न या भोजन का पात्र । अन्न- भिक्षा - संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं० ) अन की भीख, अन्न या भोजन के लिये प्रार्थना । भन्न भोक्ता -- संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) साथ खाने-पीने वाला, जिसके साथ खान पान हो । अन्नमय - वि० (सं० ) अन्न - स्वरूप, अन्नप्रवर्धित | अन्न-रस--संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) अन्न का सार भाग, अन्न से उत्पन्न होने वाला रस, माँड़ । अन्न लिप्सा - संज्ञा स्त्री० यौ० (सं०) क्षुधा, भूख, बुभुक्षा । अन्न-वस्त्र – संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) खानाकपड़ा, वस्त्र- भोजन, ग्रासाच्छादन, जीवन के वश्यक पदार्थ 1 अन सत्र - संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) भूखों को मुफ्त भोजन जहाँ दिया जाये, अन्न क्षेत्र । पन्ना -संज्ञा, स्त्री० (सं० अम्ब) दाई, धाय, उपमाता । वि०- दे० (सं० अनाथ ) जिसका कोई मालिक न हो, स्वतंत्र, अनाथ, स्वच्छंद, जैसे - अन्ना साँड़ । अन्नाभाव - संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) अन्न की विद्यमानता, दुर्भिक्ष, अकाल, मँहगी । अन्नार्थी - संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) अन्न चाहने वाला, भोजनेच्छु । अन्नाहारी - संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) केवल अन्न खाने वाला | ग्रन्नी – संज्ञा, स्त्री० (सं०) धात्री, उपमाता । वि० ( हिं० आना ) आने ( ४ पैसा) वाली, जैसे - एकन्नी, द्विन्नी ( दुन्नी) आदि । अन्मोल - वि० ( सं० ) अमूल्य, वेशक्रीमती, अनमोल, अमोल (दे० ) | For Private and Personal Use Only Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - अन्य १०० अन्यादृश अन्य-वि० (सं०) दूसरा, और, भिन्न, प्रात्मविषयक मिथ्या ज्ञान ( दर्शन० ) गैर, पराया, पर, अपर, पृथक् ।। आत्मा का अयथार्थ ज्ञान । अन्यकृत-वि० ( सं० ) दूसरे का अन्यदेशी (अन्यदेशीय)--संज्ञा, पु० यौ० किया हुआ। (सं० ) पर देशीय, परदेशी, (दे० ) दूसरे अन्यगामी-संज्ञा, पु. ( सं० ) व्यभिचारी, देश का निवासी, परदेसी, (दे० )। परिवर्तन, लम्पट, परदारिक, परस्त्रीगामी।। अन्यपुरुष-संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) दूसरा अन्यचाली-संज्ञा, पु. ( सं०) स्वधर्म- श्रादमी, गैर, पुरुषवाची सर्वनाम का एक त्यागी, कुपथगामी, अन्याचारी। भेद-वह पुरुष-सूचक सर्वनाम, जिसके अन्यज-संज्ञा, पु. ( सं० ) कुयोनि, हीन विषय में कुछ कहा जाये, जैसे-वह, यह, जाति का, अन्यजात। कोई (व्याकरण)। स्त्री० अन्यजा, अन्यजाता। अन्यपुष्ट-संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) दूसरे के अन्यतः-क्रि० वि० (सं०) और जगह, हाथों से प्रतिपालित, अन्य से पोषित, कोकिल, पिक, दूसरे स्थान । परभृत, पर पालित, कोयल। अन्यत्र--वि० ( सं० ) और जगह, स्थानान्तर, | अन्यपूर्वा--संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं० ) परपूर्वा, दूसरे स्थान । विरूदा, जिस कन्या का एक बार विवाह अन्यथा-वि० (सं०) विपरीत, उलटा, हो जाने पर भी पति के मर जाने से विरुद्ध, असत्य, विपर्यय, झूठ, अव्य०- द्वितीय बार फिर व्याह होता है, दो बार नहीं तो। विवाही हुई। मु०-अन्यथा करना-उलटा करना, झूठ अन्यभृत--संज्ञा, पु० (सं० ) काक, परभृत बनाना । अन्यथा-होना-विपरीत होना, । कोकिल, परपालित, पिक ।। असत्य होना। अन्यमनस-अन्यमनस्क-वि० (सं०) जिम अन्यथाचार-संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) झूठ ___ का चित्त न लगता हो, उदास, चितित, या विपरीत व्यवहार, दुष्टाचार, अनाचार । उनमन, अनमन, अनमना (दे०)। अन्यथाचारी-वि० यौ० (सं० ) मिथ्या (दे०) "चलतर्हि श्रादिहि ते अनमन होन चारी, अनाचारी। लाग्यो”-द्विजेश। स्त्री०-अन्यथाचारिणी। अन्यमनस्कता-संज्ञा, भा० स्त्री. (सं० ) अन्यथाचरण-संज्ञा, पु. यौ० (सं०) उदासीनता, अनमनी, अनमनता, चित्त न लगना। विपरीत आचरण, दुराचरण, विपर्ययकरण । अन्य संभोग-दुःखिता-संज्ञा, स्त्री० यौ० अन्यथासिद्धि-संज्ञा, पु. यौ० (सं.)। (सं० )-वह नायिका जो अपने प्रिय नायक यथार्थ कारण न दिखा कर जब असत्य में अन्य स्त्री के साथ के संभोग-चिन्ह देख युक्तियों के द्वारा किसी बात को सिद्ध किया कर दुखी हो ( नायिका-भेद)। जाय, एक प्रकार का हेत्वाभास तर्क (non. अन्यसुरति-दुःखिता-संज्ञा, स्त्री० यौ० causa pro causa) (न्याय०)। (सं० ) अन्य-संभोग दुःखिता ( नायिकाअभावनीय कर्मों की उत्पत्ति । भेद)। अन्यथा-ख्याति-संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं० ) अन्यादृश-वि. ( सं० ) अन्य प्रकार, अपकीर्ति, अख्याति, अपयश, अकीर्ति, विसदृश, भिन्न रूप । For Private and Personal Use Only Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org अन्यापदेश १०१ अन्वादेश अन्यापदेश - संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) देखो अन्यान्य - सर्व० यौ० (सं० ) परस्पर, " अन्योक्ति ।" ग्राफ्स में, उभयतः, एक दूसरे से -- मिथः, संज्ञा, पु० (सं० ) एक प्रकार का अलंकार जिसमें दो वस्तुओं की किसी क्रिया या उनके किसी गुण का एक दूसरे के कारण उत्पन्न होना सूचित किया जाता है । अन्योन्याभाव - संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) किसी एक वस्तु का दूसरी न होना । अन्योन्यभेद - संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) पारस्परिक विरोध, आपस का भेद-भाव । श्रन्योन्याश्रय - संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) परस्पर का सहारा, एक दूसरे की अपेक्षा, एक वस्तु के ज्ञान के लिये दूसरी वस्तु के ज्ञान की अपेक्षा, सापेक्ष ज्ञान, परस्पर ज्ञान, ज्ञानाश्रय, अपने ज्ञान से अन्य वस्तु का ज्ञान और अन्य वस्तु के ज्ञान से अपना ज़ुल्म, अन्याय - संज्ञा, पु० (सं० ) न्याय विरुद्ध श्राचरण, अनीति, बेइंसाफी, अंधेर अनुचित, विचार, धनरीति । दे० - अन्याव, प्रनियाव । अन्यायी - वि० (सं० प्रन्यायिन् ) अन्याय करने वाला, ज़ालिम, दुराचारी, अधर्मी, दुर्वृत्त, दुष्ट, न्याय-रहित, अनीति करने वाला । अन्यान्य - वि० यौ० (सं० ) अपरापर और-और, भिन्न-भिन्न, पृथक-पृथक, दूसरेदूसरे । प्रन्यारा - वि० दे० (सं० अ + हिं०न्यारा) जो पृथक् न हो, जो जुदा या विलग न हो, अनोखा, निराला, खूब, बहुत । " बढ़े बंस जग माँहि अन्यारो " - छत्र० । वि० दे० अनियारा, नुकीला, बाँका । " त्यौं पंचम को भाट अन्यारे "बहु-ब० । -छत्र० । अन्यारे, ( ब० भा० ) अन्यारो, स्त्री० अन्यारी । प्रन्यास - क्रि० वि० (सं० ) अनायास, बिना प्रयत्न किये, अकस्मात् । " मोको तुम अपराध लगावत कृपा भई श्रन्यास " सूबे० । अन्यून - वि० (सं० ) न्यून जो न हो, बहुत, पर्याप्त, अधिक । अन्योक्ति - संज्ञा स्त्री० यौ० (सं० ) वह कथन, जिसका अर्थ साधर्म्य के विचार से कथित वस्तु के अतिरिक्त अन्य वस्तुओं पर घटाया जाय, एक प्रकार का अलंकार ( काव्य - शास्त्र ), धन्य के प्रति कहे हुए कथन को अन्य पर घटित करना, ताना, अन्यापदेश | अन्योदर्य - वि० यौ० (सं० ) दूसरे के पेट से पैदा, सहोदर का विलोम । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ज्ञान । श्रन्योन्याश्रित -- वि० यौ० (सं० ) एक दूसरे के सहारे, एक दूसरे के आधार पर, परस्पर आधारित । अन्वय- संज्ञा, पु० (सं० ) परस्पर सम्बन्ध, तारतम्य, संयोग, मेल, पद्यों के शब्दों या पदों को गद्य की वाक्य-रचना के नियमानुसार यथास्थान या यथाक्रम रखने का कार्य, पदच्छेद, अवकाश, शून्यस्थान, कार्यकारण-सम्बन्ध, वंश, परिवार, ख़ान्दान, एक बात की सिद्धि से दूसरी की सिद्धि का सम्बन्ध । (( तदन्वये शुद्धमति प्रसूतः " ० । अन्वयज्ञ - संज्ञा, पु० (सं० ) वंशावली का जानने वाला, बंदी, भाट । अन्वयी - वि० (सं० ) संबंध विशिष्ट, सम्पर्की, पश्चादर्ती, वंशवाला । अन्वह-संज्ञा, पु० ( सं० ) नित्य, प्रत्यह, प्रतिदिन । अन्वादेश -संज्ञा, पु० (सं० ) किसी को एक कार्य के कर चुकने पर दूसरे के लिये प्रेरित करना, ( व्या० ) । For Private and Personal Use Only Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अन्याय अपकलंक अन्धाधय-वि० (सं०) संयोजित, संयुक्त, संज्ञा, पु. (दे० ) अन्हान-न्हानइंद्व समास, का एक भेद (व्याकरण)। (हि. नहान, सं० स्नान ) असनान । अन्वित-वि. ( सं० ) युक्त, शामिल. श्रन्होना (अनहोना )-संज्ञा, पु० दे० सम्बंधित, मिला हुआ। (हि. अन --होना) न होने वाला, असाध्य, अन्वीक्षण-संज्ञा, पु० (सं० ) गौर, विचार, असम्भव, जो न हो सके । खोज, तलाश, गवेषण, अनुसंधान। स्त्री० अनहोनी। संज्ञा, पु. (सं० ) अन्वीक्षक-खोजने अय-संज्ञा, पु० (सं० ) जल, पानी, वारि, वाला। तोय, अम्बु, पय । स्त्री० अन्वीक्षिका। अपंग-वि० ( सं० अवांग ) अंग-हीन, अन्वीक्षा-संज्ञा, स्त्री० (सं० ) ध्यानपूर्वक लँगड़ा, लूला, अशक्त, असमर्थ, असहाय, देखना, खोज, तलाश, अनुसंधान । बेबस । वि० अन्वीक्षित। संज्ञा, भा० स्त्री० अपंगता। अन्वेषक-वि० (सं० ) खोज करने वाला, अप-उप० (सं० ) उलटा, विरुद्ध, बुरा, पता लगाने वाला, गवेषक । अधिक, नीच, अधम, भ्रंस, असम्पूर्णता, स्त्री० अन्वेषिका। विकृत, त्याग, वियोग, वर्जन, यह शब्दों वि० अन्वेषित, अन्वेषणीय। के आगे आकर शब्दों के अर्थों में इस प्रकार अन्वेषण-संज्ञा, पु. ( सं० ) खोज, विशेषता उत्पन्न कर देता है-निषेधतलाश, अनुसन्धान। अपमान-अपकृष्ट-( दूषण ) अपकर्मस्त्री० अन्वेषणा। विकृति- अपांग - विशेषता - अपाहरण, अन्वेषी-वि० (सं० अन्वेषिन् ) खोजने । विपर्यय । वाला, ढूंढ़ने वाला, तलाश करने वाला। संज्ञा, पु. ( सं० ) चौर्य-निर्देश, यज्ञ-कर्म, स्त्री० अन्वेषिणी। हर्ष, अनिर्देश्य, प्रज्ञा । अन्हवाना-कि० स० दे० ( हिं० नहाना ) सर्व०-श्राप का संक्षिप्तरूप ( यौगिक में ) स्नान कराना, नहलाना, धुलामा। जैसे -..अपस्वार्थी, अपकाजी। " प्रथम सखन अन्हवावहु जाई "- अपकर्ता--संज्ञा, पु. (सं० ) हानि पहुँचाने रामा०......अन्हवाये"... रामा०। वाला, पापी। ग्रन्हाना*-नहाना-स० क्रि० दे० स्त्री. अपकी । (प्रान्ती. ) (हि. नहाना ) नहाना, स्नान अपकर्म- संज्ञा, पु. ( सं० ) बुरा काम, करना। कुकर्म, पाप, दुष्कर्म ।। "उतरि अन्हाये जमुन-जल जो सरीर-सम अपकर्ष-संज्ञा, पु. ( सं० ) नीचे को स्याम"..- रामा० । खींचना, गिराना, घटाव, उतार, निरादर, " कान्ह गये जमुना नहान पै नये सिरसों, . अपमान, पतन, बेकदरी, मुख्य काल के नीकै तहाँ नेह की नदी मैं न्हाइ आये हैं- रहते अमुख्य काल में कर्म करना, ऊ. श० । जघन्यता। " न्हात जमुना मैं जलजात एक देख्यौ अपकर्षण-संज्ञा, पु. (सं० ) खींचना, जात".-ऊ. श० । तानना। " सकल सौच करि जाइ अन्हाये "- अपकलंक -- संज्ञा, पु० (सं० ) अपयश, रामा०। ___ कलंक, मिथ्याबाद, कुनाम, दुर्नाम । For Private and Personal Use Only Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अपकाजी १०३ अपछाया अपकाजी--वि० ( हि० पाप-+-काज ) संज्ञा, स्त्री-अपक्कता-कच्चाई । स्वार्थी, मतलबी। अपगत-वि० (सं० ) दूर गया, मृत, संज्ञा, पु० हि०- अपकाज ---- स्वार्थ, __ मरा हुआ, नष्ट, भागा हुआ। मतलब । अपगा-संज्ञा, स्त्री० (सं०) नदी, सरिता । अपकार-- संज्ञा, पु० (सं० ) बुराई, अनुप- अपघन-संज्ञा, पु० (हि.) शरीर । कार, हानि, क्षति, नुकसान, अहित, अनिष्ट, | वि० मेघ-रहित । निरादर, बुरा व्यवहार, अपमान, अनादर। अपघात-संज्ञा, पु. ( सं०) हत्या, हिंसा, अपकारक-वि० (सं० ) अपकार करने विश्वासघात, धोखा, आत्मघात । वाला, हानिकारक, विरोधी, द्वेषी, अनिष्ट. वि०-अपघातक- हत्यारा, हिंसक । कारी। विश्वासघाती, अात्मघातक । अपकारी-वि० (सं० अपकारिन् ) हानि- वि०---अपघाती--हिंसक, विश्वासघाती। कारक, बुराई करने वाला, विरोधी, द्वेषी। संज्ञा, पु० (हि. अप-अपना+घात-मार) अपकारीचार ---वि० ( सं० अपकार --- आत्महत्या, अात्मघात । आचार ) हानिकारक, विघ्नकारी। अपच-संज्ञा, पु. ( सं० ) अजीर्ण, अनपच "जे अपकारीचार, तिन्ह कह गौरव मान (दे०) कुपच, बदहज़मी। बहु”—रामा०। अपचय-संज्ञा, पु० (सं०) हानि, कमी, अपकीरति*-संज्ञा, स्त्री० दे० ( सं० नाश, पूजा, उबकाई, अजीर्ण । अपकीर्ति) अपयश। अपचार--संज्ञा, पु. ( सं० ) अनुचित अपकीति-संज्ञा, स्त्री० (सं० ) अपयश, बर्ताव, बुरा श्राचरण, दुराचरण, अनिष्ट, अयश, बदनामी, निंदा, अकीर्ति, अख्याति, बुराई, निंदा, अपयश, कुपथ्य, स्वास्थ्यकुनाम । नाशक व्यवहार, टोटा, घाटा, क्षति, अपकृत्-वि० (सं० ) अपमानित, जिसका क्षीणता, भ्रम । अपकार किया गया हो, जिसका विरोध | अपचारी-वि० ( सं० ) दुराचारी, किया गया हो, (विलोम ) उपकृत ।। कुपथगामी। अपकृति--संज्ञा, स्त्री० (सं० ) अपकार, अपचाल -संज्ञा, पु. (दे० ) (हि. अयश, हानि । अप-+-चाल ) कुचाल, नटखटी, शरारत, अपकृष्ट-वि० (सं० ) गिरा हुश्रा, पतित, खोटाई, बुराई ।। भ्रष्ट, अधम, नीच, बुरा, खराब, निकृष्ट । अपची-संज्ञा, स्त्री. ( सं० ) गंडमाल अपकृष्टता-संज्ञा, भा० स्त्री. ( सं० ) रोग का एक भेद। पतन, नीचे गिरना, निकृष्टता, अधमाई अपच्छी*-संज्ञा, पु० दे० (सं० अपक्षीय ) (दे०) जघन्यता, नीचता। .. विपक्षी, विरोधी। अपक्रम-संज्ञा, पु० (सं० ) व्यतिक्रम, | वि०-- पक्ष-हीन, (दे०) अपच्छ, अपक्ष, क्रमभंग, गड़बड़, उलट-पलट, क्रम-विपर्यय, (सं०) विलोम-सपक्षी, सपक्ष । भागना, छूटना, पलायन ।। अपरा*--संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० अप्सरा) अपक्रोश-संज्ञा, पु. ( सं० ) निंदा, देव-वधूटी। भर्त्सना। "बरसि प्रसून अपछरा गाई"-रामा० । अपक्क-वि० ( सं० ) बिना पका हुआ, अपछाया-संज्ञा, स्त्री० (सं० ) प्रेत, उप. कच्चा, अनभ्यस्त, असिद्ध । देवता। For Private and Personal Use Only Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अपजय १०४ अपत्य - अपजय-संज्ञा, स्त्री० (सं० ) पराजय, “जनमहि ते अपड़ाव करत हैं गुनि गुनि हियो कहैं '—सूबे० । अपजसा - संज्ञा, पु० दे० ( सं० अपयश) अपढ़--वि० दे० ( सं० अपठ ) बिना पढ़ाअकीर्ति, अयश। लिखा, मूर्ख, अनपढ़। अपञ्चीकृत---संज्ञा, पु० (सं० ) सूक्ष्मभूत, (दे० ) अनाड़ी, अज्ञानी। आकाश श्रादि पंच महाभूतों के पृथक् स्त्री० अपढ़ी। पृथक भाव । अपत* - वि० (सं० अ-- पत्र ) पत्र या अपट, अपटक-संज्ञा, पु० (सं०७+ पटक पत्तों से हीन, बिना पत्ते का, आच्छादन -वस्त्र ) अर्धाङ्गी, पक्षपाती, दिगंबर, रहित, नग्न । वस्त्र-हीन । वि० (सं० अपात्र) अधम, नीच, अप्रतिष्ठित । अपटन -संज्ञा, पु. ( दे०) उबटन, वि० ( अ-+पत -- लज्जा) निर्लज्ज, पापी। बटना। "अब अलि रही गुलाब मैं, अपत कंटीली अपटी-संज्ञा, स्त्री० (सं० ) वस्त्र-प्रावरण, __डार".-वि०। कनात, तम्बू, शामियाना । अपतई --संज्ञा, पु० दे० ( हि० अपत ) अपटु-वि० ( सं० ) जो पटु या दक्ष न हो, निर्लज्जता, बेशर्मी, बेहयाई, ऊधम, उत्पात, अकुशल, अचतुर, अनिपुण, निर्बुद्धि, चपलता, धृष्टता। व्याधित, रोगी, सुस्त, आलसी। अपताना - संज्ञा, पु० (हि. अप :-- अपना संज्ञा, स्त्री० अपटुता। - तानना ) जंजाल, झंझट, झमेल, प्रपंच । अपमान-वि. (दे० ) (सं० अपठ्य अपति*--- वि० स्त्री० (सं० अ पति ) मान ) जो पढ़ा न जाय, न पढ़ने के योग्य । बिना पति की, विधवा, पति-विहीना । अपठ-वि० ( सं० ) अपढ़, (दे०) जो वि० (सं० अ-+पत्ति-गति ) पापी, दुष्ट । पढ़ा न हो, मूर्ख, अनपढ़ा, बेपदा, अशि संज्ञा, स्त्री. (सं० आपत्ति) दुर्गति, दुर्दशा, क्षित, अपद, निरक्षर भट्टाचार्य । अनादर, अपमान, अप्रतिष्ठा, कुदशा । अपठित-वि० (सं०) अशिक्षित, बेपढ़ा, अपतित-वि. पु. ( सं० ) जो पतित न अपढ़, मूर्ख । हो, स्त्री. अपतिता। स्त्री० अपठिता। अपतिनी-अपतिनीक वि. पु. ( सं. अपडर*-संज्ञा, पु. (सं० अप+डर ) अपत्नी ) पत्नी-रहित, जिसके स्त्री न हो। भय, शंका, डर, भीति । अपतियाना-- स० क्रि० (दे० ) न पतिअपडरना* ---अ० कि० दे० ( हि० अपडर) याना, या विश्वास न करना। भयभीत होना, डरना, सशंकित होना। अपतियारा-वि० (दे०) विश्वास-घातक, अपड़ाना*----अ० कि० (सं० अपर) खींचा- कपटी, छली। तानी करना, रार या झगड़ा करना, लड़ना. अपतोस -संज्ञा, पु. (सं० अपतोप) झगड़ना। ( फा० अफ़सोस ) दुख, पश्चात्ताप, पछिसंज्ञा, अपड़ाव। तावा, खेद, असंतोष । अपड़ाव -संज्ञा, भा० पु. (सं० अपर ) । “ए सखि काहि करब श्रपतोस'.... विद्या । झगड़ा, तकरार, टंटा, रार, लड़ाई। अपत्य-संज्ञा, पु. ( सं० ) संतान, औलाद, क्रि० अपड़ाना। पुत्र-पुत्री, बेटा-बेटी। For Private and Personal Use Only Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रपत्य वाचक अपनयन केकड़ा। अपत्य पाचक-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) संज्ञा, पु० दे० (सं० आपद) आपदा।। संतान सूचक, संज्ञा (व्याकरण) किसी की । वि० पद-रहित, पंगु, कर्मच्युत, उपयुक्त, संतान को प्रगट करने के लिये उसके नाम ! आपत्ति। से दूसरी संज्ञा प्रत्यय विशेष लगा कर कि० वि० अनुचित, अनुपयुक्त रूप से । बनाने का विधान, जैसे दशरथ से | “ सजनी अपद न मोंहि परबोध"--- दाशरथी। विद्या अपत्य-शत्रु- संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) कर्कट, अपदस्थ-वि० ( सं० ) पद या स्थान से च्युत, स्थान-भ्रष्ट, कर्म-च्युत, पद-च्युत, अपत्य-स्नेह- संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) अपने पद से हटाया हुआ। संतति के प्रति स्वाभाविक अनुराग, प्रेम, अपदार्थ-संज्ञा पु० (सं० अ+पदार्थ ) वि० -- अपत्य-स्नेही-सन्तति प्रेमी, अयोग्य वस्तु, कुवस्तु, पदार्थ-विहीन, अनुअपत्यानुरागी, अपत्यानुरक्त । पम पदार्थ, पदार्थ-भिन्न । वि० अपत्यैषो-संतानेच्छु । वि० यौ० (सं० अ+पद+ अर्थ ) जो पद प्रपत्र- वि० ( सं० ) पत्र-रहित, करील।। का अर्थ न हो। (दे० ) अपत । अपदेखा -वि० (हि. आप+देखना) अपत्रप-वि० (सं० ) लज्जा हीन, निर्लज, अपने को देखने या बड़ा मानने वाला, बेशर्म, बेहया, स्त्री० अपत्रपा। प्राप्मश्लाघी, घमंडी, स्वार्थी। अपथ-संज्ञा, पु. ( सं० ) पथ-विहीन, । क्रि० ( दे०) अपदेखना। कुमार्ग, विकट-मार्ग, कुपथ, बीहड़-रास्ता, अपदेवता-अपदेव-- संज्ञा, पु. ( सं० ) अनीति । प्रेत, पिशाच आदि निकृष्ट देवता। अपथाचारी-वि० ( सं० ) कुमागी । अपदेश-संज्ञा, पु. ( सं० ) छल, कपट, अपथगामी-वि० (सं० ) कुपथ-गामी, बहाना, कैतव । दुराचारी, कुमार्ग-गामी। अपद्रव्य-संज्ञा, पु० ( सं० ) निकृष्ट वस्तु, " कहा करौं अब अपथि भई मिलि बड़ी बुराधन । न्यथा दुख दुहरानी"-सूबे०। अपध्वंसक-वि० पु. ( सं० ) घिनोना, अपथ्य-वि० (सं० ) जो पथ्य न हो, खंडनकारी। अहितकारक भोजन, रोग-वर्धक पदार्थ, स्वास्थ्य-नाशक, अहितकर, हानिकारक अपध्वस्त-वि. पु. (सं० ) अपमानित, वस्तु । परास्त, हारा हुआ, तिरस्कृत । अपथ-वि० दे० ( सं० अपथ्य ) जो पथ्य अपन-सर्व० दे० ( हिं० अपना ) अपना, न हो, कुपथ, कुपथ्य । अपान (दे० ) (प्रान्ती. ) हम लोग, संज्ञा, पु० रोगकारी श्राहार-विहार, अहितकर | अपने लोग. अपना, हम । आहार-विहार, मिथ्याहार-विहार । | अपनत्व-संज्ञा, भा० दे० ( हि० ) अपना" कुपथ माँग जिमि "- रामा० ।। पन, आत्मीयता, ममत्व, अपनपी (दे० )। अपथ्याशी-संज्ञा, पु० (सं० ) कुपथ्य- अपनयन-संज्ञा, पु. ( सं० अप+नी+ भोक्ता, कुपथ्याभिलाषी। अनट ) अपनय, खंडन, पूरीकरण, मरण, अपद-संज्ञा, पु० (सं० ) बिना पैर के निकृति, एक स्थान से दूसरे स्थान को ले रेंगने वाले जीव-जन्तु, साँप, केचुया श्रादि। जाना, किसी राशि या संख्या या परिमाण भा० श० को०-१४ For Private and Personal Use Only Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org पनप पनप को समीकरण में एक पक्ष से दूसरे में ले ( गणित ) | २०६ अपन पौ-यापन पौ* – संज्ञा, पु० दे० (हि० अपना + पौ० प्रत्य० ) आत्मीयता, अपनत्व, आत्मभाव, आत्मगौरव, आत्मस्वरूप, गर्व, सम्बन्ध, संज्ञा, सुधि, होश, ज्ञान, अहंकार, मर्यादा, नप (दे० ) । Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra प्रपनीत पु० अपना । अपनीत - वि० (सं० ) हटाया गया, कृत, पसारित । www.kobatirth.org १०७ दूरी - अपश - वि० (सं० ) स्वाधीन, स्वतंत्र अपने बश, स्वच्छन्द । अभय - संज्ञा, पु० (सं० ) निर्भयता, निर्भीकता, व्यर्थ भय, डर, भय, भीति, विगतभय, निडरता । वि० (सं० ) निर्भय, निडर, निर्भीक । (6 अपभय कुटिल महीप डराने " - रामा० । अपभाषा – संज्ञा स्त्री० (सं० ) गँवारी बोली, बुरी भाषा, अशुद्ध भाषा, श्रसाधु " शब्द, कुवाक्य | अपभ्रंश - संज्ञा, पु० (सं० ) पतन, गिराव, बिगाड़, विकृति, बिगड़ा हुआ शब्द, अशुद्ध शब्द, ग्राम्य प्रयोग, अपशब्द, एक प्रकार की विकृत भाषा | वि० विकृत, बिगढ़ा हुआ । वि० - अपभ्रंशित - बिगाड़ा हुआ । अपमान - संज्ञा, पु० (सं० ) अनादर, श्रवज्ञा, तिरस्कार, बेइज्जती, असम्मान, निरादर | अपमानना स० क्रि० (सं० अपमान ) अपमान करना, निरादर करना, तिरस्कार करना । अपमानित - वि० (सं० ) निंदित, असम्मानित, बेइज्ज़त | अपमानी - वि० (सं० अपमानिन् ) निरादर करने वाला, तिरस्कार करनेवाला । स्त्री० अपमानिनी । अपमार्ग-संज्ञा. पु० (सं० ) कुमार्ग, कुपथ, पंथ अपमृत्यु- संज्ञा, स्त्री० (सं० ) कुमृत्यु, कुसमय मृत्यु, अपघात-मरण, अस्वाभाविक कारणों से अकाल मृत्यु | अपयश संज्ञा, पु० (सं० ) अपकीर्ति, बदनामी, बुराई, कलंक, लांछन, ख्याति, प्रतिष्ठा, अपजस (दे० ) । अपरना अपजस संज्ञा, पु० (दे० ) अकीर्ति वि० अपयशी - बदनाब | अपजसी (दे० ) । अपयोग - संज्ञा, पु० (सं० ) कुयोग, कुस मय, कुचाल, कुरीति । " जिनके संग स्याम सुन्दर सखि सीखे सब अपयोग - सूबे० । अपरंच अव्य० (सं० ) और भी, फिर भी, पुनः, आगे 1 अपरंपार - वि० ( सं० अपरं + पारहि० ) जिसका पारावार न हो, अपार, असीम, अनन्त, बेहद | ,י Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अपर - वि० (सं० ) इतर, अन्य दूसरा, पर, भिन्न, पूर्व का, पहिला, पिछला । ( हि० अ + पर ) जो दूसरा न हो । अपरग - वि० दे० पु० (सं० अपर + ग ) अन्य मार्गगामी, श्रन्यगामी, व्यभिचारी, अन्य मार्गी । अपरछन - वि० (सं० प्रप्रच्छन्न, अपरिच्छन्न) श्रावरण-रहित, जो ढका न हो, थावृत, छिपा हुआ, गुप्त । " अपरता - संज्ञा स्त्री० ( हि० ) परायापन, परता नहीं, अपनापन । ( संज्ञा, स्त्री० सं० अ + परता = परायापन ) भेद-भाव - शून्यता । वि० स्वार्थी । परत - वि० दे० ( हि० अप = अपना + रत ) स्वार्थ-रत, स्वार्थी । स्त्री० अपरता । अपरती -संज्ञा, स्त्री० दे० ( हि० अप + रतिसं० ) स्वार्थ, बेईमानी । अपरत्व - संज्ञा, पु० (सं० ) पिछलापन, अर्वाचीनता, परायापन, बेगानगी, ( अ + परत्व ) परता - रहित, अपनत्व । अपरना* - संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० अपर्णा ) पार्वती, उमा । "उमा नाम तब भयउ अपरना' -रामा० । वि० (सं० अ + पर्णा) पर्ण या पत्र से रहिता, पत्र- विहीना । For Private and Personal Use Only Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org अपरबल अपरबल - वि० दे० (सं० अपार + बल, पर + बल) बलवान, उद्धत, प्रचंड, दूसरे का बल, पराये बल पर आश्रित, जिसे दूसरे का बल या सहारा प्राप्त हो । 66 दसो दिसा ते क्रोध की, उठी अपरबल आागि " ' - कबीर । अपरस - वि० (सं० अ + स्पर्श) जिसे किसी ने छुआ न हो, न छूने योग्य, अलग, अस्पृश्य, बुरा रस । संज्ञा, पु० हथेली और तलवे का एक चर्म रोग | (6 अपरस रहत सनेह तगा तें, नाहिन मन अनुरागी - सूर० । (सं० यौ० ) परलोक संज्ञा, पु० परलोक, स्वर्ग, दूसरा लोक । अपरा -- संज्ञा, स्त्री० (सं० ) अध्यात्म या ब्रह्म विद्या के अतिरिक्त अन्य प्रकार की विद्या, लौकिक विद्या, पदार्थ - विद्या, पश्चिम दिशा, एकादशी विशेष का नाम । वि० स्त्री० – दूसरी, जो दूसरी न हो, ( अ + परा ) अपनी । " १०८ अपरांत संज्ञा, पु० (सं० ) पश्चिम का देश, दूसरा अंत या छोर । अपराजय - संज्ञा, पु० (सं० ) अपराभव, श्रजीत, जीत, पराभव - हीनता, विजय । वि० [अपराजयी- अजीत | अपराजित - वि० (सं० ) जो जीता न जाय, अजेय, नर्जित, श्रनिर्जीत । संज्ञा, पु० ऋषि विशेष, शिव । अपराजिता - संज्ञा स्त्री० (सं० ) विष्णुकान्ता लता, कौवाटोटी, कोयल, दुर्गा, अयोध्या का नाम, चौदह अक्षरों का एक af वृत्त, जयन्ती वृत्त, प्रशनपर्णी, स्वल्पफला, शोफाली, शमी-भेद, शंखिनी, स्वनामख्यात लता विशेष । वि० [स्त्री० श्रजेया, अजीता, अनिर्जिता । अपरिणामी अपराध - संज्ञा, पु० (सं० ) दोष, पाप, क़सूर, जुर्म, भूल, चूक, ग़लती, अन्याय, अनीति | अपराधी - वि० पु० (सं० ) दोषी, पापी, मुलाज़िम । स्त्री० - अपराधिनी - दोष युक्ता । अपराधीन - वि० सं० ) स्वाधीन, जो परतंत्र न हो, स्वतंत्र | Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अपराह्न - संज्ञा, पु० (सं० ) दोपहर के पीछे का समय, दिन का शेष भाग, तीमरा पहर, दोपहर के पश्चात का काल । अपरिगृहीता- संज्ञा, स्त्री० (सं० ) कुलस्त्री, विवाहिता स्त्री, जो परिगृहीता न हो । अपरिग्रह संज्ञा, पु० (सं० ) दान का न लेना, दान त्याग, यावश्यक धन से अधिक धन का त्याग, विराग, पाँचवाँ यम ( योगशास्त्र ) संग-त्याग, प्रतिग्रह, अस्वीकार । परिचय संज्ञा पु० ( सं० ) परिचय का अभाव, अज्ञात, अज्ञानता, पहिचान का न होना । अपरिचित - वि० (सं० ) जिसे परिचय न हो, जो जानता न हो, अनजान, जो जाना-बूझा न हो, अज्ञात, बिना जानपहिचान का । स्त्री० परिचिता । अपरिच्छद वि० (सं० ) हीन वस्त्र, मलिन वस्त्र, अनुपयुक्त वेश, मलीन वसन । अपरिचिन्न - वि० (सं० ) जिसका विभाग न हो सके, अभेद्य मिला हुआ, असीम, सीमा-रहित, खुला, जो ढका हुआ न हो । स्त्री० अपरिच्छिन्ना । अपरिणत - वि० (सं० ) अपरिपक्क, कच्चा, ज्यों का त्यों, अपरिवर्तित परिवर्तन -रहित । अपरिणामी वि० ( सं० परिणामिन् ) परिणाम-रहित, विकार - शून्य, जिसकी दशा या रूप में परिवर्तन न हो, निष्फल, व्यर्थ. स्त्री० [परिणामिनी । संज्ञा, पु० परिणाम । For Private and Personal Use Only Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १०६ अपवर्ग अपरिणीत अपरिणीत-संज्ञा, पु. ( सं० ) अविवा- वि० अपरिष्करणीय-परिष्कार न करने हित, कुमार, कारा। योग्य । स्त्री० अपरिणीता--अविवाहिता कन्या, अपरिसर-वि० (सं० ) संकीर्ण, संकुचित, कुमारी, अनूढ़ा, कुँवारी दे० ) । संकोचित । वि० अपरिवर्तित । अपरिहार्य--वि० ( सं० ) जो किसी उपाय अपरितुष्ट-वि० (सं० ) असन्तुष्ट, अतृप्त, से दूर न किया जा सके, अनिवार्य, अत्याज्य, तृप्ति-रहित, संतोष-विहीन, निरानन्द । न छोड़ने के योग्य, आदरणीय, न छीनने स्त्री० अपरितुष्टा। योग्य, जिसके बिना काम न चले । संज्ञा, पु० (सं० ) अपरितोष । अपरीक्षित--वि० (सं० ) अनजाँचा हुआ, अपरितोष - संज्ञा, पु. ( सं० ) असन्तोष, जिसकी जाँच न हुई हो, जिसका इम्तिहान अतृप्ति । न लिया गया हो, अननुभवित। अपरिपक्क-वि० ( सं० ) जो पक्का न हो, अपरुद्ध-वि० (सं० ) पश्चात्तापी, क्षुब्ध, कच्चा, अधकच्चा, अधकचरा (दे० ) अप्रस्तुत, खेद-युक्त पछताने वाला। परिपाक-हीन, अपटु, अप्रौढ़, अपक्व । अपरूप----वि० ( सं० ) बदशकल, भद्दा, अपरिपाटी-संज्ञा, स्त्री० (सं० ) अनरीति, | बेडौल, अद्भुत, अपूर्व, कुरूप, विकृत रूप । जो परिपाटी या प्रणाली न हो, कुरीति, स्त्री० अपरूपा-कुरूपा। अनीति । वि० स्त्री० अपरूपिणी-अरूपिणी । अपरिपुष्ट---वि० ( सं० ) जो परिपुष्ट न हो, अपरोक्ष-वि० (सं० ) प्रत्यक्ष, समक्ष, अपुष्ट । आँखों के सामने । अपरिप्लुत--वि० ( सं० ) जो आई न हो, अपर्णा—संज्ञा, स्त्री० ( सं० ) पार्वती, दुर्गा, सूखा। देवी, उमा, अपरणा, अपर्ना (दे०)। अपरिमित-वि० ( सं० ) असीम, बेहद, अर्याप्त-वि० (सं० ) जो काफ़ी न हो, परिमाण-रहित, अधिक, प्रचुर बाहुल्य, स्वल्प, थोड़ा, न्यून । असंख्य, अगणित, अनगनित (दे० )। प्रपलज्ज-वि० ( सं० ) बेहया, निर्लज्ज, (दे०) असीमित, असींव (दे० )। बेशर्म। अपरिमेय --वि० ( सं० ) बेअंदाज़, जिसकी अपलक्षण---संज्ञा, पु. (सं० ) कुलक्षण, नाप या तौल न हो सके, अकूत, जो बुरा चिन्ह, अपशकुन । कूता न जा सके, असंख्य, अगणित, वि० पु० स्त्री० अपलक्षणी---कुलक्षणी। अनगिनत (दे०)। अपलाप---संज्ञा, पु० (सं०) बकवाद, अपरिम्लान-वि० (सं० ) म्लानता-रहित, मिथ्याबाद, असत्यबाद, मिथ्याप्रलाप, अम्लान, अमलीन, खिला हुआ, जो मुर- ऊटपटांग बकना। झाया न हो। अपलोक----संज्ञा, पु० (सं० ) अपना लोक, अपरिष्कार--संज्ञा, पु. ( सं० ) परिष्कार- निजलोक, अपयश, बदनामी, अपवाद । हीन, मलिन, मैला-कुचैला, अनिर्मल, “लोक मैं लोक बड़ो अपलोक सुकेसवदास अशुद्ध, अस्पष्ट । जु होउ सु होऊ "--राम । अपरिष्कृत-वि० (सं० ) परिष्कार जिसका अपवर्ग-संज्ञा, पु. ( सं० ) मोक्ष, निर्वाण, न हुआ हो, अमार्जित. अपरिमार्जित, मुक्ति, त्याग, दान, परमगति, क्रिया-प्राप्ति, अशुद्ध, म्लान । क्रिया की समाप्ति, निर्जन । For Private and Personal Use Only Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अपवर्तन अपशब्द अपवर्तन-संज्ञा, पु० (सं० ) अपवर्त, अपवाहन-संज्ञा, पु. ( सं० ) दुष्ट वाहन, संक्षेपकरण, अल्पकरण, लेन-देन, अंक फुसला के लाना, भगा देना, एक राज्य से काटना। भाग कर दूसरे में जा बसना। वि० अपवर्तित। वि० अपवाहक--भगाने वाला। अपवर्त--संज्ञा, पु०( सं० ) संक्षेप, एक वि० अपवाहित-भगाया हुआ। विन्दु-रूपी चिन्ह जो उस दशमलव अंक । स्त्री. अपवाहिता-भगाई हुई। के ऊपर रखा जाता है जो बारबार आता है। अपवित्र-वि० (सं० ) जो पवित्र या अर्थात जो किसी दशमलव अंक की श्रावृति: पुनीत न हो, अशुद्ध, नापाक, मलिन, छूत, को सूचित करता है यथा ४, ३५२ ३ अपावन । ( गणित ) अपवर्त दशमलव को भिन्न में अपवित्र .. - संज्ञा, स्त्री. ( सं० ) अशुद्धि, रूपान्तारित करने के लिये अपवर्त अंकों के अशौच, नापाकी, अपावनता, मैलापन । लिये है और केवल दशमलव अंकों के लिये अपविद्ध-वि० ( सं० ) त्यागा हया, परिशून्य रखकर हर बनाते हैं, दशमलव-संख्या त्यक्त, छोड़ा हुया, बेधा हुअा, विद्ध, प्रत्याअंश के रूप में रहती है ( गणित)। ख्यात, निराकृत, चूर्णित । अपयश-वि० दे० (हिं. अप = आप + अपविद्ध-पुत्र--संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) वश सं० ) अपने श्राधीन, स्वाधीन, अपने । बारह प्रकार के गौण पुत्रों में से एक मातृवश का, परवश का उलटा या विलोम,। पितृ-विहीन पुत्र, माता-पिता से त्यक्त पुत्र । (दे०) अपबस--स्वतंत्र । अपव्यय---संज्ञा, पु० (सं० ) निरर्थक व्यय, अपवाद-संज्ञा, पु० (सं० ) विरोध, फजूल-ख़र्ची, बुरे कार्यों में ख़र्च, व्यर्थ व्यय । प्रतिवाद, खडंन, निंदा, अपकी तै, दोष, अपव्ययी---वि० (सं० अपव्ययिन् ) पाप, वह नियम जो साधारण या व्यापक व्यर्थ ही अधिक खर्च करने वाला, फ़जूलनियम से विरुद्ध हो, बदनामी, प्राज्ञा, कुत्सा, . खर्च, अधिक व्यय करने वाला। उत्सर्ग का विरोधी, मुस्तसना, सम्मति, राय, संज्ञा, स्त्री. ( सं० ) अपव्ययताआदेश। फजूलखर्ची। अपवादक-वि० (सं० ) निंदक, विरोधी, अपशकुन ----संज्ञा, पु. ( सं०) कुशकुन, वाधक, अपवाद कारक । असकुन. असगुन (दे०) बुरा शकुन, अपवादी-वि० (सं० ) खंडन करने वाला, अशुभ-सूचक चिन्ह, अमंगल-लक्षण, दोषी, निंदक, अपवाद या बदनामी करने अशकुन । - वाला। "भये एक ही संग सगुन-असगुन संघाती'' अपवादित-वि० ( सं० ) परिवाद-युक्त, हरि० । निदित, खंडित, बदनाम । अपशद-संज्ञा, पु० (सं० ) अपसद, नीच, अपवारण- संज्ञा, पु. ( सं० ) व्यवधान, यह शब्द जिस शब्द के अन्त में श्राता है रोक, आड़, हटाने या दूर करने का कार्य, उसका अर्थ नीच कर देता है. यथा-ब्राह्मणाअंतर्धान, प्रोट, रोक। पशद-नीच ब्राह्मण। अपवारित-वि. (सं० ) रोका हुया, । अपशब्द-संज्ञा, पु. ( सं० ) अशुद्ध शब्द, हटाया हुश्रा, निवारित । बिना अर्थ का शब्द, गाली, कुवाच्य, पाद, वि० (सं०) अपवारणोय-रोकने के गोज़, अपानवायु, निंदित शब्द, कुत्सित योग्य । शब्द। For Private and Personal Use Only Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अपसगुन १११ अपहारक अपसगुन-पंजा, पु. ( हिं० दे० ) है खो खो० अपस्नाता । अपशकुन । | अपस्मार--संज्ञा, पु० (सं० ) एक प्रकार प्रासना-अपसवना-ग्र. क्रि० ( सं० का रोग, जिसमें रोगी काँप कर पृथ्वी पर अपसरण ) खिसकना. सरकना, भागना, मूर्छित हो कर गिर पड़ता है, मृगी रोग, चल देना। मूर्छा, वायु रोग । "पौन बाँधि अपसवहिं अकासा" प० । | अपस्वार्थी-वि० (हिं. अप+ स्वार्थी अपसर-वि० ( हिं. अप=अपना+सर- सं० ) स्वार्थसाधने वाला, मतलबी. प्रत्य० ) श्राप ही प्राप, मनमाना, अप। | खुदग़र्ज। मन का। अपह-वि० (सं०) नाशकरने वाला, क्रि० प्र० सरकना, खसकना । बिनाशक जैसे क्लेशापह । अपसरण-संज्ञा, पु० (सं० ) प्रस्थान, । अपहत वि० ( सं ) नष्ट किया हुआ मारा चना जाना । अपसरन (दे०)। हुया, दूर किया हुआ। अपसर्जन-संज्ञा, पु. ( सं० ) विसर्जन, अपहनन--संज्ञा, पु. ( सं ) हत्या, वध, स्याग, समाप्ति । घात। वि० अपसजिति–विसर्जिति, समाप्त। अपहरई-स० कि० (सं० अपहरण ) चुराता अपसव्य-वि० (सं० ) सव्य का उलटा, है, नाश करता है, चुराले. विनष्ट करले । दाहिना, दक्षिण, उलटा, विरुद्ध, जनेऊ “सरद-ताप निलि ससि अपहरई '' रामा० । को दाहिने कंधे पर रक्खे हुये, वाम भाग, अपहरण- संज्ञा, पु. ( सं० ) हरलेना, बाँया हाथ । लूटना, चोरी, चौर्य छीनना, लेलेना, अपसर्प-संज्ञा, पु. ( सं ) चर, दूत, हर- ( वलात् ) लूट, छिपाव संगोपन । कारा, प्रतिनिधि, गूढ पुरुष, भेदिया। अपहरना---स० कि० (सं० अपहरण ) अपसोसा- संज्ञा, पु० दे० (फा० अफ़सोस ) छीनना, लूटना चुराना, कम करना, घटाना, दुःख, चिता, खेद, पश्चात्ताप । क्षय करना। "काहे को अपसोस मरति हो नैन तुम्हारे अपहर्ता-संज्ञा, पु. ( सं० अप +है+तृच् ) नाही'—सूर० । छीनने या हरने वाला, चोर, लूटने वाला, अपसोसना --अ० कि० ( हि० अपसोस ) : लुटेरा, छिपाने वाला, तस्कर, अपहारक, सोच करना, अफसोस या पश्चात्ताप करना । _चोट्टा (दे० ), अशहरता (दे०)। प्रपसौन--संज्ञा, पु० दे० ( सं० अपशकुन ) | अपहरित-वि० (सं० ) छीना लिया गया, असगुन, बुरा सगुन. अशकुन । हर लिया गया, अपहृत । अपसौना*-- अ. कि. ( ? ) आना, अपहसित-वि० (सं०) उपहसित, जिसका पहुँचना। मज़ाक़ बनाया गया हो। अपस्नान-संज्ञा, पु. ( सं० ) वह स्नान जो अपहा--वि० (सं० अप् + हन् + श्रा) प्राणी के कुटुम्बी उसके मरने पर करते हैं, हन्ता, हत्यारा, हिंसक, बधिक । मृतकस्नान । अपहार--संज्ञा, पु. (सं० अप्-+ह+घञ्) वि. अपस्नात.। अपचय, हानि, धन का निरर्थक व्यय । अपस्नात-वि० ( सं० ) मृतकस्नान किया अपहारक-वि० (सं० ) अपहरण-कर्ता हुधा। । तस्कर, चोर। For Private and Personal Use Only Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अपहारी अपाप अपहारी-संज्ञा, पु० (सं० ) अपहारक, अपात्र-वि० (सं० ) अयोग्य, कुपात्र. छीनने वाला, चोर, लुटेरा। ! मूर्ख, श्राद्धादि में निमंत्रण के अयोग्य " भाजि पताल गयो अपहारी'-सूर०। (ब्राह्मण), पात्र रहित । अपहास-संज्ञा, पु० (सं० ) उपहास, संज्ञा, भा० स्त्री० अपात्रता। अकारण हँसी, मज़ाक, दिल्लगी। अपात्रीकरण संज्ञा, पु. (सं०) नवविधि अपहृत-वि० (सं०) छीना हुआ, हरा पापों में से एक पाप विशेष, या निर्णय हुआ, चुराया, लूटा हुआ। जाति-भ्रष्ट करना । स्त्री० अपहृता। । अपाथ-संज्ञा, पु० (सं० ) कुपंथ, कुमार्ग, अपन्हव-संज्ञा, पु० (सं० ) छिपाव, दुराव, बेरास्ता । मिस, बहाना, टाल-मटूल, कपट, कैतव, अपाथेय-संज्ञा, पु० (सं० ) पाथेय या गोपन, अपलाप, एक प्रकार का अलंकार मार्ग-भोजन से रहित । जिसमें उत्प्रेक्षा के साथ अपन्हुति भी रहता ! अपादान-संज्ञा, पु. ( सं० ) हटाना, है, काव्य-अ० पी० । । अलगाव, विभाग, स्थानान्तरीकरण, ग्रहण, अपन्हुति-संज्ञा, स्त्री० (सं०) दुराव, छिपाव, एक प्रकार का कारक जिससे एक वस्तु से गोपन, बहाना, मिस, टाल मटूल, व्याज, दूसरी वस्तु की क्रिया का प्रारंभ सूचित हो अपलाप, एक प्रकार का अलंकार जिसमें जिससे किसी वस्तु की किसी दूसरी वस्तु से उपमेय का निषेध कर के उपमान का : पृथकता प्रगट की जाये इसका चिह्न "से" स्थापन किया जाये ( काव्य० )--अ० है-जैसे वृक्ष से पत्ते गिरते हैं, पंचम पी०। कारक। अपांग-संज्ञा, पु. ( सं० ) आँख का कोना, अपान-संज्ञा, पु. ( सं० ) दस या पाँच आँख की कोर, कटाक्ष,। प्राणों में से एक, गुदास्थ वायु जो मल-मूत्र वि० अंग-हीन, अंग-भंग, लूला, लँगड़ा, को बाहर निकालता है, तालु से पीठ तथा असमर्थ । गुदा से उपस्थ तक व्याप्त वायु, गुदा से अपांगदर्शन----संज्ञा, पु० ( स० ), टेढ़ा देखना. : निकलने वाली वायु, गुदा, गुह्य स्थान । कटाक्ष-पात, वक्र दृष्टि से देखना, वक्रा- अपान वायु-संज्ञा, पु. (सं०) मलवलोकन । द्वारस्थ वायु, पाद। अपांनिधि-संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) समुद्र अपान - संज्ञा, पु० दे० (हिं. अपना) सागर, जलनिधि । आत्मभाव, आत्मतत्व, आत्मज्ञान, पापा, अपा--संज्ञा, स्त्री. (हि० दे०) गर्भ, (दे०) प्रात्मगौरव, भ्रम, सुधि, होश श्रात्मभाव, श्रापा, ( दे० ) घमंड। हवास, अहम्, अभिमान, घमंड, अपनत्व, अपाक-वि० (सं० ) अपचार, अजीर्णता, अपनापन । वि० पान करने योग्य । संज्ञा, पु० (सं.) उदारमय, अपक्क, श्राम, सर्व० (दे० ) अपना। असिद्ध, अप्रौढ । “देखि भानु कुल भूषनहि. बिसरा सखिन अपाकरण-संज्ञा, पु. ( सं० ) पृथक अपान" रामा० । करना, अलगाना, हटाना, दूर करना, चुकता अपाना-----सर्व० । दे० ) अपना । करना। अपाप-वि० (सं० ) निष्पाप, निर्दोष, अपाटव-संज्ञा, पु० (सं०) अपटुता, धर्मी। अनिपुणता, अचतुरता, बोदापन, मूर्खता। वि० अपापी । For Private and Personal Use Only Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अपामार्ग ११३ अपुनीत अपामार्ग---संज्ञा, पु. ( सं० ) चिचड़ा, लंगड़ा, असमर्थ, अशक्त, श्रालसी, सुस्त, अजाझारा, लटजीरा, चिचड़ी। काम करने के योग्य जो न हो। " गुड़ीच्यपामार्ग, बिडंग, शंखिनी "- अपि—अव्य० (सं० ) भी, ही, निश्चय, वै० जी० । ठीक। अपाय-संज्ञा, पु० (सं० ) विश्लेष, अल- | अपिच-अव्य० (सं० ) और, अरु, अडर । गाव, अपगमन, पीछे हटना, नाश, क्षय, (दे०) श्री, संयोजक शब्द । हानि, अपचय, पलायन । अपिंडी--वि० ( सं० ) अशरीरी, देह8 ( दे० ) अन्यथाचार, अनरीति, उत्पात रहित । वि० (सं० अ+पाय --हि-पैर.) बिना अपितु-अव्य. ( सं० ) किन्तु, परन्तु, पैर का, लँगड़ा, अपाहिज, निरुपाय, बल्कि । असमर्थ । अपिधान--संज्ञा, पु० (सं० ) आच्छादन, अपायो-वि० (सं० ) पलायित, मृत, यावरण, ढक्कन । चलित, निरूपाय । अपीच ----वि० (सं० अपीच्य ) सुन्दर, अपार-वि० (सं०) सीमा रहित, अनंत, । अच्छा, छविमान, शोभायुक्त। असीम, बेहद, असंख्य, अतिशय, अत्यधिक । | अपीन—वि० ( सं० ) हलका, क्षीण, कृश । अपारकः-संज्ञा, पु. ( सं० ) अक्षम, पीनस----संज्ञा, पु० (दे० ) एक प्रकार क्षमता रहित। का नासिका-रोग, पीनस । अपार्थ—संज्ञा, पु. ( सं० ) वाक्यार्थ के अपील-संज्ञा, स्त्री० ( अं० ) निवेदन, स्पष्ट न होने का एक दोष विशेष विचारार्थ प्रार्थना, मातहत अदालत के ( काव्यशास्त्र )। फैसले के विरुद्ध ऊँची अदालत में फिर से अपार्थक्य-संज्ञा, पु. ( सं० अ-+-पृथक् ) विचार करने के लिये मामला या मुकदमा जो पृथक् न हो, अभिन्नता, अभेद, एकत्व, | उपस्थित करना। पृथकता-रहित, विलगाव-विहीन । अपीलान्ट--संज्ञा, पु० (सं० ) अपील अपाव*---संज्ञा, पु० दे० ( सं० अपाय करने वाला, प्रार्थी. निवेदक, मुद्दई ।। नाश ) अन्यथाचार, अन्याय, उपद्रव, अपुत्र--वि (सं०) निस्सन्तान, पुत्र-हीन, अनरीति । निपूता, (दे० ब्र०)। अपावन–वि. पु. ( सं० ) अपवित्र, निपुत्री (दे० ) सन्तान-रहित । अशुद्ध, मलिन, अपुनीत, अशुचि । अपुन-सर्व० दे० ( हि० अपना ) अपने स्त्री० अपावनी। श्राप । संज्ञा, स्त्री० अपावनता। "अपुन भरोसे लरिहौं”- सूर० । अपाश्रय-वि० पु० (सं० ) अनाथ, दीन, | अपना-अपनपौ--संज्ञा, पु० दे० ( हि० निराश्रय, असहाय. अरक्षक । अपना---पन–प्रत्य० ) अपनापन, 'अपनअपाश्रित-वि० (सं० ) त्यागी, एकान्तः । पौ'। (दे० ) अात्म भाव, अपनाइत । सेवी, एकान्तवासी, उदासी, विरक्त । (दे० ) अपौती (दे० प्रान्ती० )। स्त्री० अपाश्रिता। अपुनीत–वि० ( सं० ) अपवित्र, अशुद्ध, अपाहिज-अपाहज-वि० दे० ( सं० । अशुचि, दूषित, अपावन, दोषयुक्त । अपभंज, प्रा० अपहंज ) अंगभंग, खंज, लूला- | संज्ञा, स्त्री० भा० (सं० ) अपुनीतता । भा० श० को०-१५ For Private and Personal Use Only Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - अपूठना अपेक्षा-बुद्धि अपूठना-स०, क्रि०, दे० (सं०- + अपूर्णभू----संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) वह पृष्ट ) विध्वंस या नाश करना, उलटना, भूत काल जिसमें क्रिया की समाति न पाई चौपट करना, विदीर्ण करना। जाथे, जैसे खाता था ( व्याक० ) इलका " रावन हित लै चलौं साथ ही लंका धरौं विलोम है पूर्णभूत । अपूठी”–सूबे० । अपूर्ण-वर्तमान—वह वर्तमान काल जिसमें अपूठा-वि० दे० (सं० अपुष्ट ) अपरिपक्क, क्रिया हो रही हो और पूरी न हुई हो अजानकार, अनभिज्ञ, अस्फुट, अविकसित, जैसे --- खा रहा है, खाता है। ( व्याक० ) बेखिला, अग्रौढ़। इसी प्रकार-अपूर्ण-भविष्य—वह भविश्य " निकट रहत पुनि दूरि बतावत हौ रस नाहिं जिसमें क्रिया भविष्य काल में अपूर्णता के अपूठे"..-सूर० । साथ होती रहे। अपूत–वि० ( सं० ) अपवित्र, अशुद्ध, जैसे---लिखता रहेगा ( व्या० )। अपावन । अपूर्ति--संज्ञा, स्त्री० (सं० ) अपूर्णता, कवि० ( हिं० अ-+पूत ) पुत्र- हीन, पूर्ति या पूर्णता-रहित, असमाप्ति । निपूता (दे० )8 अपूर्व-वि० (सं० ) जो प्रथम न रहा हो, संज्ञा, पु. ( अ+ पुत्र ) कुपूत, बुरा अद्भुत, अनोखा, विचित्र, उत्तम, श्रेष्ठ, लड़का। अपूरच-(दे० ) अनुपम, पूर्व नहीं, अपूप-संज्ञा, पु. ( सं० ) यज्ञीय हवि पश्चिम । प्यान्न विशेष, पुत्रा। वि० (दे० ) अपूत । अपूर--वि० (सं० आपूर्ण ) पूरा, भरा अपूर्वता-संज्ञा, स्त्री० भा० (सं० ) विलपूरा, भरपूर । क्षणता, विचित्रता, अनोखापन । वि० (सं० अ--पूर्ण ) अपूर्ण । (दे० ) श्रपूरबता। अपूरन स० कि० ( सं० प्रापूर्णन ) अपूर्वरूप-संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) एक भरना, आपूरित करना, फंकना, बजाना ( शंख)। प्रकार का अलंकार जिसमें पूर्व गुण की वि० दे० ( सं० अ-पूर्ण ) जो पूर्ण न हो, प्राप्ति का किसी वस्तु में निषेध किया जाय अपूर्ण। (अ० पी० ), विचित्र रूप, अनुपम-रूप सौंदर्य। अपूरब–वि० दे० (सं० अपूर्व ) | अनोखा, उत्तम, पश्चिम । अपेक्षा--संज्ञा, स्त्री. (सं० ) आकांक्षा, अपूरा —संज्ञा, पु. ( सं० आ+ पूर्ण ) इच्छा, अभिलाषा, चाह, आवश्यकता, भरा हुआ, फैला हुआ, व्याप्त । थाश्रय, ज़रूरत, पाशा, भरोसा, पावरा, वि० दे० जो पूरा न हो, अपूर्ण । अनुरोध, कार्य-कारण का अन्योन्य सम्बन्ध, स्त्री० अपूरी। तुलना, मुकाबिला । अपूर्ण—वि० (सं० ) जो पूर्ण न हो, जो अपेक्षाकृत-अव्य० (सं० ) मुकाबिले भरा न हो, अधूरा, असमात, कम, अपूरण, में, तुलना में। अपूरन-(दे०)। वि० अन्य के द्वारा तुलित, अन्य से अपूर्णता-संज्ञा, स्त्री. भा० (सं.) अधूरा- | विवेचित । पन, न्यूनता, कमी, ऊनता, अपूर- अपेक्षा-बुद्धि--संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं० ) नता-(दे० )। अनेक विषयों को एक करने वाली बुद्धि । For Private and Personal Use Only Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir mewana अपेक्षित अप्रचार अपेक्षित-वि. ( सं० ) जिसकी अपेक्षा अप्रकाश-संज्ञा, पु. (सं० ) अंधकार, हो, आवश्यक, अभीष्ट, ईप्सित, अभिलषित, तम, अँधेरा, प्रकाश-हीनता, अज्ञान । वांछित, इच्छित, चितचाही, प्रतीक्षित । वि० अप्रगट, अप्रसिद्ध, गुप्त, छिपा हुआ। स्त्री० अपेक्षिता। अप्रकाश्य-वि० ( सं० ) गोपनीय, न अपेख-वि० दे० ( सं० अ+प्र- इक्ष) प्रकाशित करने योग्य । अदृष्ट, अलेख, अलक्ष, अदृश्य, जो न स्त्री० अप्रकाश्या। दिखाई दे। अप्रकाशित- वि० (सं० ) जिसमें उजाला अपेम--संज्ञा, पु० दे० ( सं० अप्रेम ) या कान्ति न हो, अँधेरा, जो चमक न प्रेम-रहित । सके, जो प्रगट न हुआ हो, गुप्त, अप्रगट, वि० अप्रेमी। छिपा हुआ, जो सर्व साधारण के सामने अपेय-वि० (सं० ) न पीने-योग्य, जो न | न रक्खा गया हो, जो बाहर न आया हो, पिया जा सके, जिसके पान करने का जो छप कर प्रचलित न हुआ हो। निषेध किया गया है। अप्रकृत-वि. ( सं० ) अस्वाभाविक, अपेल वि० दे० (सं० अ-पीड़ =दबाना) बनावटी, कृत्रिम, झूठा। जो न हटे, न टाला जा सकने वाला, अप्रकृति--संज्ञा, स्त्री० (सं० ) प्रकृति का अभाव। अटल, दृढ़, स्थिर, अखंड, अचल, निश्चल, प्रकृतिवाद--संज्ञा, पु० (सं० ) प्रकृति पक्का, मान्य, अनुल्लंघनीय । की सत्ता को न मानने वाला सिद्धान्त । अपैठ-वि० दे० ( हि० पैठना-प्रविष्ट करना ) | संज्ञा, पु० अप्रकृतिवादी-ब्रह्मवादी, जहाँ पैठ ( प्रवेश ) न हो सके, अगम, अद्वैतवादी, प्रकृति की सत्ता को न मानने दुर्गम, जहाँ कोई प्रविष्ट न हो सके। वाला, ( विलोम ) प्रकृतिवादो। प्रपोगंड-वि० (सं० ) सोलह वर्ष से अप्रकट-अप्रगट-वि० (सं०) अप्रकाशित, ऊपर की अवस्था वाला, बालिग। गुप्त, छिपा हुआ। अपाच-वि० दे० (हि. अ---पोच ) जो अप्रगटनीय--वि० (सं० ) प्रकट न करने नीच न हो, जो पोच या पोछा या पतित योग्य, गोपनीय, छिपाने योग्य, प्रकाशित न हो, श्रेष्ठ । न करने योग्य । अपेाहन- संज्ञा, पु. ( सं० ) तर्क के द्वारा | वि० अप्रगटित, अप्रकटित-प्रगट न बुद्धि का परिमार्जन करना। किया हुश्रा, गुप्त । वि० अपाहित—परिमार्जित, परिष्कृत ।। अप्रगल्भ-वि. ( सं० ) अप्रौढ़, कच्चा, निरुत्साहित, शान्त, जो बकबादी न हो। अपौरुष-संज्ञा, पु० (सं० ) कापुरुषत्व, संज्ञा, स्त्री. भा० (सं०) अप्रगल्भता । असाहस, पुरुषार्थ-हीनता, नपुंसकता। | अप्रचलित-वि० (सं०) जो प्रचलित न वि० अपौरुषी-कापुरुष, नपुंसक । | हो, अव्यवहृत, अप्रयुक्त, जिसका चलन अपौरुषेय-वि० (सं० ) जो पौरुषेय या न हो। पुरुषकृत न हो, दैविक, ईश्वरीय । अप्रचार-संज्ञा, पु० (सं० ) प्रचाराभाव, प्रपौत्र-वि० ( सं० अ+पौत्र ) पौत्र- प्रयोग का अभाव, जिसका चलन न हो, विहीन, जिसके नाती ( नप्ता) या पोता उपयोग-रहित, अव्यवहार, जिसकी चाल न हो, जिसके लड़का न हो। न हो। For Private and Personal Use Only Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अप्रचारित ११६ अप्रमाण अप्रचारित-वि० (सं.) जिसका प्रचार वि० अप्रतिरोधित-स्वच्छंद, न रोका न किया गया हो, जिसे ललकारा या | हुआ। बुलाया न गयो हो। अप्रतिह- वि० (सं० ) अनाघात, अवंचित, (हि० प्रचारना - ललकारना, बुलाना)। | अव्यतिक्रम । अप्रचालित--वि० (सं० अ-प्र+चालन ) अप्रतिहत--वि० (सं० ) जो प्रतिहत न न चलाना, संचालित न किया गया, हो, अपराजित, अजीत । असंचालित। वि० स्त्री० अप्रतिहता। अप्रणय-संज्ञा, पु० (सं० ) प्रीतिच्छेद, अप्रतीति-वि० (सं० ) विश्वास के विषाद, भेद, अमीत, प्रकरण-भिन्न, अप्रेम, अयोग्य, अज्ञान, अश्रद्धेय, अविश्वस्त । अग्रीति । संज्ञा, स्त्री० (सं० ) प्रतीति या विश्वास का वि० अप्रणयी-अमित्र, जो प्रेमी न हो। अभाव। अप्रतप्त-वि० ( सं० ) जो तप्त या दग्ध | अप्रतुल-संज्ञा, पु. ( सं० ) अभाव, न हो, न तपाया हुआ। असंगति । स्त्री० अप्रतप्ता। अप्रत्यक्ष-वि० (सं० ) जो प्रत्यक्ष न हो, अप्रताप-वि० (सं०) तेज-हीन, अप्रवल, परोक्ष, छिपा, गुप्त, अप्रगट, अलक्षित, अनैश्वर्य, अप्रचंड, ऐश्वर्य-विहीन । अगोचर। वि० अप्रतापी। संज्ञा, पु० (सं० ) जो प्रत्यक्ष न हो। अप्रतिभ--वि० ( सं० ) प्रतिभा-शून्य, | अप्रत्यय-संज्ञा, पु० (सं० ) अविश्वास, चेष्टा-हीन, उदास, स्फूर्ति-शून्य, सुस्त, । संदेह, शंका, प्रत्यय-रहित । मंद, मतिहीन, निर्बुद्धि, लजीला। अप्रथा-संज्ञा, स्त्री० (सं० ) अव्यवहार, अप्रतिभा-संज्ञा, स्त्री० (सं०) प्रतिभा का छिपाव, अप्रणाली। अभाव, एक प्रकार का निग्रह-स्थान | अप्रथुल--वि० (सं० ) जो विस्तृत न हो। (न्याय० )। संकीर्ण, अविस्तृत। अप्रतिम-वि० (सं० ) अद्वितीय, अनुपम, | अप्रणाली-संज्ञा, स्त्री. (सं०) जिसकी अतुल्य, अनुपम, बेजोड़, असमान । प्रणाली न हो, अपरिपाटी। अप्रतिष्ठा-संज्ञा, स्त्री. (सं० ) अनादर, अप्रधान-वि० (सं० ) गौण, जो प्रधान अपमान, अयश, अपकीर्ति, बेइज्जती। या मुख्य न हो, जघन्य, छुद्र, नीच, अप्रतिष्ठित-वि. ( सं० ) अपमानित, साधारण । अनाहत, तिरस्कृत। संज्ञा, भा० पु. ( सं० ) अप्राधान्य, स्त्री० अप्रतिष्ठिता। अप्रधानता। अप्रतिरथ-संज्ञा, पु. ( सं० ) यात्रा- अप्रबल-वि० ( सं० ) जो प्रबल या गमन, सैनिक-गमन, सामवेद, अमंगल, बलवान न हो। योद्धा, योद्धा-रहित । अप्रमाण-संज्ञा, पु. (सं० ) अनिदर्शन, अप्रतिरुद्ध-वि० (सं० ) जो प्रतिरुद्ध या अदृष्टान्त, अशास्त्र, जो प्रमाण न हो, घिरा हुआ न हो, स्वतंत्र, स्वच्छंद, प्रमाणाभाव । अटोक अरोक । संज्ञा, भा० पु. (सं०) अप्रामाण्य । अप्रतिरोध-संज्ञा, पु. ( सं० ) प्रतिरोध. "प्रत्यक्षादीनामप्रामाण्यं त्रैकालासिद्धे " विहीन, बेरोक, स्वातंत्र्य । -द. श० । For Private and Personal Use Only Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अप्रमेय अप्रैल अप्रमेय - वि० (सं० ) जो नापा न जा परोक्ष, अनागत, अप्रत्यक्ष, परोक्ष सके, अपरिमित, अपार, अनंत, जो प्रमाण अप्रस्तुत, जो न मिला हो । से सिद्ध न हो सके। संज्ञा, स्त्री० अप्राप्ति-प्राप्त न होना। अप्रयुक्त-वि० (सं० ) जो प्रयोग में न अप्राप्त-व्यवहार-वि० यौ० (सं० ) सोलह लाया गया हो, अव्यवहृत, जो काम में न वर्ष से कम का बालक, नाबालिग़ । पाया हो। प्राप्य-वि० (सं०) जो प्राप्त न हो सके, संज्ञा, स्त्री० अप्रयुक्तता। अलभ्य, जो न मिल सके, दुर्लभ । अप्रसंग-संज्ञा, पु. (सं०) प्रसंगाभाव, अप्रामाणिक--वि० (सं० ) जो प्रमाणजिसका प्रसंग न हो। पुष्ट न हो, जो प्रमाण-युक्त न हो, प्रमाण अप्रसन्न-वि० (सं० ) असंतुष्ट, नाराज़, से न सिद्ध हो सकने वाला, प्रमाण-शून्य, खिन्न, दुखी, उदास, मलिन । ऊटपटांग, जिसपर विश्वास न किया जा अप्रसन्नता--संज्ञा, स्त्री० ( सं० ) नाराज़गी, सके। असंतोष, रोष, कोप, खिन्नता। अप्रामाण्य-वि० (सं० ) जो प्रमाण के अप्रसाद-संज्ञा, पु. ( सं० ) निग्रह, योग्य न हो। अप्रासंगिक-वि० (सं० ) प्रसंग-विरुद्ध, अप्रसन्नता, श्रसम्मति । अप्रसार-संज्ञा, पु० (सं० अ--प्रसार जिसकी कोई चर्चा न हो, विषयान्तर । प्रसारण) अविस्तार, फैलाव-रहित, अप्रस्तार।। अप्रिय-वि० (सं० ) अहित, जो प्रिय वि० अप्रसारित । न हो, अरुचिकर, अनभीष्ट, अरोचक, अप्रसिद्ध-वि० (सं०) जो प्रसिद्ध न हो, अनचाहा (दे०)। संज्ञा. पु० (सं० ) शत्रु । अविख्यात, गुप्त, छिपा हुआ। अप्रिय-वचन--- संज्ञा, पु० यौ० कुवाक्य, अप्रसिद्धि-संज्ञा, स्त्री. (सं० ) अख्याति, निष्टुर वाणी। अप्रतिष्ठा। अप्रियवक्ता---संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) निष्ठुर अप्रस्ताविक-वि० (सं० अ-प्रस्ताव+ भाषी, उग्रवक्ता । इत ) जिसका प्रस्ताब न किया गया हो। अग्रीति--संज्ञा, स्त्री० (सं०) अप्रणय, अप्रस्तुत-वि० (सं० ) जो प्रस्तुत या असदभाव, अप्रेम, अरुचि, बैर।। विद्यमान न हो, अनुपस्थित, जिसकी चर्चा | | अप्रीतिकर-वि० ( सं० ) अरुचिकर, न श्राई हो। निठुर, कठोर, जो प्रेमकारक न हो। संज्ञा, पु० (सं० ) उपमान ( काव्य० )। वि० अप्रीतिकारक, अप्रीतिकारी, अप्रस्तुन-प्रशंसा-संज्ञा, यौ० स्त्री० ( सं०)। अग्रीतिकरी। एक प्रकार का अलंकार जिसमें अप्रस्तुत के | अप्रेम-संज्ञा पु० (सं० ) प्रेमाभाव, प्रीतिकथन से प्रस्तुत का बोध कराया जाय, | रहित, अप्रीति। ( काव्य०, श्र० पी०)। वि० अप्रेमी-प्रेमी जो न हो। अप्राकृम-वि० (सं० ) जो प्राकृत न हो, | अप्रैल-संज्ञा, पु. (अ.) वर्ष का चौथा अस्वाभाविक, असाधारण । महीना, जिसमें ३० दिन होते हैं. इसका वि० अप्राकृतिक। प्रथम दिवस हासोपहास का दिन माना अप्राप्त-वि. ( सं० ) जो प्राप्त न हो, जाता है और उसे अप्रैल-फूल ( Aprilदुर्लभ, अलभ्य, जिसे प्राप्त न हुआ हो, fool ) कहते हैं । For Private and Personal Use Only Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १२८ नाTER Un mumm HONDRIALISARSWERSuTurma अप्लावित अब हि० दे० अपरैल । अ मर -- संज्ञा, पु. ( सं० ) हाकिम, बड़े अप्लाषित-वि० (सं०) जो जल-सिक्त श्रोहदे का, नायक, सरदार, प्रधान, अधिया भीगा न हो। कारी, मुखिया। अप्सरा--संज्ञा, स्त्री. ( सं० ) अंबुकण, ( स० ) अंबुकण, अफ़सरी-संज्ञा, स्त्री० (हि. अफ़सर ) वाष्पकण, स्वर्ग की नर्तकी, स्वर्ग-वेश्या, अधिकार, प्रधानता, हुकूमत, शासन, जैसे तिलोत्तमा, घृताची, रम्भा, उरवशी, ठकुराई ( दे० )। मेनका श्रादि जो देवराज इंद्र की सभा में अफ़साना- संज्ञा, पु० (फा० ) कहानी, नाचा करती हैं। ये कामदेव की सहायिकायें किस्सा, कथा, दास्तान ( उ०)। भी हैं-देवांगना, परी, हूर, (उ० फा० )। दे० अपकरा-अत्यंत, रूपवती स्त्री।। अफ़सास-संज्ञा, स्त्री० (फा० ) शोक, रंज, दे० अपसरा (हि.) देववधूटी ।......... दुख, पश्चात्ताप, पछतावा, खेद । " करहिं अपसरा गान"-रामा० । अफीडेविट--संज्ञा, पु. (अ.) हलफ़अफ़ग़ान--संज्ञा, पु० (अ०) अफगानिस्तान नामा। का निवासी, काबुली, आगा। ( उ० ) शपथ पूर्व दिया हुया लिखित बयान । संज्ञा, वि० अफ़ग़ानी। अफ़ीम - संज्ञा, स्त्री. ( पु० अोपियन, अ० (दे०), अफ़ीम । अफ़यून अं० अोपियम ) पोस्ता के ढोंढ़ का अफरना-अ० क्रि० ( सं० स्फार ) पेट भर ___ गोंद, यह कड़वा, मादक और विपैला खाना, भोजन से तृप्त होना, पेट फूलना, होता है। ऊबना, और अधिक की इच्छा न रखना। अफ़ीमची-संज्ञा, पु. (हि. अफ़ीम+ची अघाना (दे०)। ---प्रत्य०) अफ़ीम खाने का स्वाभाव वाला, अफरा-संज्ञा, पु० (सं० स्फार) पेट फूलना, अफ़ीमी। अजीर्ण या वायु-विकार से पेट फूलने का | श्राफ़ीमी-वि० (हि० ) अफ़ीमची। रोग-विशेष । श्रफुल्ल-वि० (सं० ) बिना फूला हुश्रा, वि० खूब खाये हुए, सन्तुष्ट । अविकसित, उदास, पुष्प-रहित, जो खिला अफराई-संज्ञा, स्त्री० (दे० अघाना. | न हो। परितृप्ति, अफरना, अफरा । वि० श्रफुल्लित-- अविकसित । अफराना-अ. क्रि० (हि० अफरना ) प्राडा-वि० पु. (दे०) मनमौजी, भोजन से तृप्त करना, अघवाना, संतुष्ट अहंकारी, अपमानी, रंगी। करना। अफेन-वि० (सं०) फेन-रहित, झागअफल--- वि० (सं० ) फल-रहित, निष्फल, विहीन, बिना फेन या झाग का, बर्फ़-रहित, व्यर्थ, निष्प्रयोजन, बन्ध्या, बाँझ।। वि० अफेनिल - जिसमें फेन न हो। (दे०) संज्ञा, पु. झाबू का वृक्ष । अफैलाव-संज्ञा, पु. (दे०) फैलावटअफला-संज्ञा, स्त्री० (सं० ) आमलकी रहित, संकीर्ण, विस्तार-विहीन । वृत, घृतकुमारी, घीवार (दे० )। अफवाह-संज्ञा, स्त्री० (अ.) उड़ती हुई अब-क्रि० वि० (सं० प्रथ, अद्य) इस ख़बर, बाजारू ख़बर, किंवदंती, गप्प, जन- समय, इस क्षण, अाजकल, इस घड़ी, अभी, श्रुति । अव्य० तदुपरान्त, तत्पश्चात् । For Private and Personal Use Only Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org अबै MADLENDIDIKE MORAINSKIVAMENTOS मु० - अबकी - इसबार प्रबजाकर - इतनी देर पीछे, इतने समय के उपरान्त, अब-तब लगना या होना, मरने का समय निकट थाना । | अब-तब करना श्राज-कल का वादा करना, हीला हवाला या टाल-मटूल करना, raat sea और तब की तब - जो वर्तमान है उसे देखो, आगे-पीछे या भूतभविष्य की बात क्या । --- बै- क्रि० वि० दे० ( हि० अब ) अब ही अभी इसके उपरान्त, बलौं, अवैलौं । (दे० ० ) । क्रि० वि० वहीं, ( ब तक, अभी तक । प्रवहि( दे० ० ) अबहीं, अभी । हूँ हूँ । (दे० ब्र० ) अब भी, अभी भी, अवतें, अवतै । (दे० ० ) ११६ ब से, ब से ही । प्रबौं - क्रि० वि० दे० ( हि० अव ) वहुँ, थवभी, अबतक, श्रबहूँ । प्रभू (दे० प्रान्ती० ) श्रभी, अवतोली, तोडी | ( ० प्रान्ती० ) अब तक । अकर्तन - संज्ञा, पु० (सं० ) सूत्र- यन्त्र, चरखा । अवखरा -- संज्ञा, पु० अ० ) भाप, वाप्प | अवचन - वि० दे० (सं० प्रवचन ) वचन - विहीन, वाक्, बिना कथन के । अबटन - संज्ञा, पु० (दे०) उबटन, बटना | अवतर - वि० (का० ) बुरा, ख़राब, बिगड़ा हुआ । अदतरी -- संज्ञा, स्त्री० ( फा० ) ख़राबी, बुराई । अबद्ध - वि० सं० ) जो बँधा न हो, मुक्त, स्वच्छन्द स्वतंत्र, निरंकुश । प्रबंध - वि० सं०] अवाध ) अचूक जो ख़ाली न जाय, जो रोका न जा सके, बाधा-रहित । वि० हि० ( अ + बध ) जो बधनीय न हो, न मारते योग्य | अबरन अधिक - वि० (सं० ) जो बध करने वाला न हो, जो बधिक न हो । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रबधू - वि० दे० (सं० अबोध ) श्रज्ञानी, अबोध, अल्पज्ञ, मूर्ख | अबधूत - संज्ञा, पु० दे० (सं० अवधूत ) सन्यासी, साधु, योगी, महात्मा, जीवनमुक्त, पाप - रहित । प्रबध्य - वि० (सं० ) जिसे मारना उचित न हो, शास्त्रानुसार जिसे प्राण- दंड न दिया जा सके, जैसे--स्त्री, गुरु, ब्राह्मण, जिसे कोई मार न सके । स्त्री० १० अवध्या । अवनी - संज्ञा, स्त्री० (सं० श्रवनी ) पृथ्वी, धरती । प्रबंध -- वि० (सं० ) बन्धन - रहित, प्रतिबंध-हीन | अबंधन - वि० सं० ) बंधन विहीन, स्वच्छन्द, स्वतंत्र | प्रबंधित - वि० सं० ) बन्धन- रहित, स्वेच्छाचारी | वि० [प्रबंधनीय- जो बन्धन के योग्य न हो । अवर - वि० (सं० प्रबल ) निर्बल, कमज़ोर, बल हीन । वि० दे० ( अ + वर ) श्रेष्ट, अनुत्तम । अबरक - संज्ञा, पु० (सं० अभ्रक ) काँच की सी चमकीली तहों वाली एक धातु विशेष, भोडर, भोडल । (दे०) एक प्रकार का पत्थर, इसको फूँक कर एक प्रकार का रस बनाया जाता है जो संन्निपात यादि रोगों में दिया जाता है। अबरख - दे० । अबरन - वि० (सं० श्रवर्य) जिसका वर्णन न हो सके, अवर्णनीय, अकथनीय । वि० (सं० अ + वर्ण) बिना रूप-रंग का, वर्ण-शून्य, एक रंग का जो न हो, भिन्न भिन्न वर्णों वाला, जो किसी एक जाति का न हो, जाति-च्युत, जाति रहित । यौ० ( हि० अब + रन ) । For Private and Personal Use Only Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अबरस १२० अबाध वि० दे० (अ+बरन-जलन ) जलन अबवाब-संज्ञा, पु० (१०) मालगुजारी जिसमें न हो, लपट-रहित अग्नि । पर लगने वाला सरकारी कर विशेष, अधिक संज्ञा, पु. ( सं० आवरण ) ढकना, आच्छा- कर, अतिरिक्त कर। दित करने वाला, ऊपर का ढक्कन । | अवा-संज्ञा, पु. (अ.) अंगे से नीचा अबरस-संज्ञा, पु० (फा०) सब्ज़ रंग से एक ढीला-ढाला वस्त्र विशेष, अचला, कुछ खुलता हुश्रा, घोड़े का एक सफ़ेद रंग, __ चोगा, चुगा। इसी रंग का घोड़ा। अषाक-क्रि० वि० दे० (सं० अवाक् ) अबरा-संज्ञा, पु. ( फा० ) · अस्तर' का स्तब्ध, बिना बोले, हक्का-बक्का, (दे०) उलटा, दोहरे वस्त्र के ऊपर का पल्ला, शून्य, वाणी शून्य । उपल्ला (दे० ), उपल्लो (दे०)। ऊपर | अबाज ----संज्ञा, स्त्री० दे० ( अ० आवाज़ ) का, न खुलने वाली गाँठ, उलझन । आवाज़, शब्द। वि० स्त्री० (सं० अ+वर-श्रेष्ठ ) अश्रेष्टा, अवात-वि० ( सं० ) निर्वात, वायु-हीन, जो उत्तम न हो, (हि. अ--वर ) बर या दे० ( अ-- बात ) वार्तालाप-रहित, बिना पति-विहीना। बात के। श्रबरी-संज्ञा, स्त्री० (फा० अब ) एक प्रकार अँबात--दे० (हि. अवाना समात, का धारीदार चिकना कागज, पच्चीकारी के | समाना, अटना। काम में आने वाला एक प्रकार का पीला अबाती -- वि० (सं० अ-बात ) बिना पत्थर, एक प्रकार की लाह की रंगाई। वायु का, जिसे वायु न हिला सके, भीतर यौ० ( हि० अब---री) वि० दे० ( अ--बरी | ही भीतर सुलगने वाला । ----जली) विवाही हुई )। वि० दे० (हि० अ-बाती ) बाती या अबरू-संज्ञा, स्त्री० (फा० ) भौंह, भ्रू बत्ती रहित ( दीपक ) । (दे०), (फा० आबरू ) इज्ज़त, मान अयातुल-- वि० ( पं० ) जो बकबादी मर्यादा । न हो। अबल-वि० (सं० ) निर्बल, कमज़ोर, अबादान--- वि० (अ० अावाद ) बसा हुआ, दुर्बल, कृष, बल-रहित । पूर्ण, भरा-पूरा। स्त्री० अबला। प्रधादानी-संज्ञा, स्त्री० (फा० अबादानी) संज्ञा, स्त्री० अबलता। पूर्णता, बस्ती, शुभचिंतकता, चपल-पहल, अबलख-वि० दे०(सं० अवलक्ष ) सफ़ेद । रौनक । और काले, या सफ़ेद और लाल रंग का, अबादी -संज्ञा, स्री. (अ. श्राबादी ) कबरा, दोरङ्गा । श्राबादी, बस्ती, जन-संख्या, गाँव, बस्ती। अबलखा-संज्ञा, पु० दे० ( सं० अवलक्ष ) | वि० ( दे० ) जो बादी या वायु ( बात ) एक प्रकार का काला पक्षी। कारक न हो। अबला-संज्ञा, स्त्री० (सं० ) स्त्री, औरत, अबाध-वि (सं० ) बाधा-रहित, बेरोक, नारी, बल हीना। निर्विघ्न, अपार, अपरिमित, बेहद, जो भा० संज्ञा, स्त्री० अबलता। असङ्गत न हो। दे० वि० अबली (हि. ) जो बली या | “सँग खेलत दोउ झगरन लागे, सोभा बलवान न हो। बड़ी अबाध "-सूर० For Private and Personal Use Only Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अबाधा १२१ अबेध अबाधा-वि० (हि०, सं० अबाध ) वाधा- वि० (अ+वीर ) जो वीर न हो, विहीन, अबाध, निर्विघ्न । " कढिगो अबीर पै अहीर तो कह नहीं" (दे०) अबाधू। -पद्माकर। अबाधित --वि० ( सं० ) वाधा-रहित, " तौलौं तकि बीर लै अबीर-मूठ मारी बेरोक, स्वच्छंद, स्वतंत्र, निर्विघ्न । है"-सरस। अबाध्य-वि० (सं० ) जो बाध्य न हो, अबीरी-वि० ( अ ) अबीर के रंग का, बेरोक, जो रोका न जा सके, अनिवार्य । कुछ श्यामता लिये हुए लाल रंग। अचान -वि. दे. (सं० अ-न-बाना--- संज्ञा, पु० अबीरी रंग। हि० ) शस्त्र-हीन, बिना हथियार के, " मुख पै फबी है पान-बीरी की फबीली निहत्था- (दे०) निरस्त्र, बिना टॅव या फाब, रुख पै अबीरी श्राब महताब स्वभाव के। मोहै हैं "--रसाल। प्रधानक-वि० दे० बिना बनाव के, बना- अबुद्धि-संज्ञा, पु. ( सं०) बुद्धि हीन, वट-रहित । निर्बुद्धि, मूढ़, मूर्ख । प्रबानी-वि० दे० (सं० अ---वाणी) बिना वि० अबोध, नासमझ । बाणी के, वाणी-रहित, बुरी वाणी, | वि० अबुद्ध - अचैतन्य । बदज़बान । अबुध-वि० ( सं० ) मूर्ख, अज्ञानी, प्रबाषील-संज्ञा, स्त्री० ( फा० ) काले रंग | अनारी, अपंडित। की एक चिड़िया, कृष्णा, कन्हैया। अबूझ-वि० दे० ( सं० अबुद्ध ) अबोध, प्रबार - संज्ञा, स्त्रो० (सं० अ-+-बला) नासमझ, नादान, अज्ञानी, जो बूझा या देर, बेर, विलम्ब । जाना न जा सके। " श्राई छाक अबार भई है "- सूबे० ।। " अजगव खंड्यो ऊख जिमि, अजौं न बूझ कि० वि० शीघ्र । अबूझ "-- रामा०। " तुमको दिखावहिं जहँ स्वयंबर होनहार अबूत -कि० वि० (दे० ) वृथा, व्यर्थ, प्रबार"। फ़जूल। वि० ( हि० अ-बाल, आबाल) बाल-रहित, वि० दे० (अ+बूत ) बिना बल के, बाल बच्चों के साथ। असमर्थ, अशक्त । प्रवास -- संज्ञा, पु० (सं० श्रावास) रहने “नाम सुमिरि निरभय भया, अरु सब भया का स्थान, घर, मकान, भवन । अबूत"--कबीर। वि० अबासित। वि. हि. ( अ- बास ) निवास-हीन. बास अबे-प्रव्य० (सं० अयि ) अरे, हे, (छोटे या रहन न होना, सुगंधि-रहित, बुरा गंध । या नीच के लिये संबोधन )। प्रवासना-वि० (दे०) वासना-विहीन । मु०-बे-तबे करना-निरादर-सूचकअबिरल-वि० (सं० अविरल ) घना, जो बचन कहना, कुत्सित शब्दों का प्रयोग विरल न हो। करना। कि० वि० लगातार, बराबर । अबेग-वि० (दे० ) वेग-रहित, शीघ्र नहीं अबीर-संज्ञा, पु. (अ.) रंगीन बुकनी अबेगि ( ब्र०)। गुलाल, या अबरक का चूर जिसे होली में अबेध-वि० (दे० ) अनबिधा, नो छिदा लोग एक दूसरे के ऊपर डालते हैं। न हो, बिना बेधा हुआ, अबेधा । मा०२० को०-१६ For Private and Personal Use Only Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - प्रबेपथु १२२ अभंजन वि० प्रबेधित, अबेधक। अबोला-संज्ञा, पु० (सं० अ-+बोलनाअबेपथु -वि० (सं० ) अकंपित । हि० ) रंज से न बोलना, रूठने के कारण अबेर -संज्ञा, स्त्री० (सं० अबेला ) विलंब, | मौन या चुप रहना। देर, अबार, बेर। अब्ज-संज्ञा, पु. (सं० ) जल से उत्पन्न संज्ञा, स्त्री० दे० (अ+बेर) देर नहीं, वस्तु, कमल, शंख, हिज्जल, ईजड़, चन्द्रमा, अविलम्ब । धन्वतरि, कपूर, सौ करोड़, अरब । अबेला-संज्ञा, स्त्री. ( सं० ) असमय, अब्जा-संज्ञा, स्त्री० (सं०) लक्ष्मी, कमला । | अब्जेश-संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) रमेश, विलम्ब, देर, अबेरा (दे० ) विष्णु, हरि, कमलेश । अा --वि० ( फा० वेश ) अधिक, बहुत, अब्द-संज्ञा, पु० (सं० ) वर्ष, साल, मेघ, अत्यन्त। बादल, आकाश, संवत्सर। संज्ञा, पु० (सं० आवेश) जोश । अब्धि -संज्ञा, पु० (सं०) समुद्र, सागर, अबैन-वि० दे० (हि. (सं० अवचन ) | सरोवर, ताल, सिंधु, सात की संख्या। मौन, मूक, बचन-रहित, अबयन (दे०)। जि -संज्ञा, पु. (सं०) सागरोत्पन्न " लिये सुचाल बिसालवर, समद सुरंग वस्तु, शंख, चंद्रमा, चौदह रन, अश्विनीअबैन " पदाभ। कुमार, मोती आदि। अव्य, यौ० ( अबै+न) अभी नहीं। अब्बास-संज्ञा, पु. (अ.) एक निगंध अबैर-संज्ञा, पु० ( दे० ) वैर-भाव-रहित, फूल वाला पौधा, गुलाबास, गुले अब्बास । शत्रुता-हीन । अब्बासी-संज्ञा, स्त्री० (अ.) मिस्र देश वि० प्रबैरी ... जो बैरी,या शत्रु न हो। की एक प्रकार की कपास, एक प्रकार का शत्रु-हीन । लाल रंग। प्रबोध-संज्ञा, पु० ( सं० ) अज्ञान, मूर्ख, | अब-संज्ञा, पु० (फा० सं० अभ्र ) बादल अज्ञानता। मेघ, जलन, अम्बुद। वि० अबोधनीय-जो समझाने के योग्य अब्रह्मण्य--संज्ञा, पु० (सं० ) वह कर्म जो न हो, जो न समझा जा सके। ब्राह्मणोचित न हो, हिंसादि कर्म, जिसकी वि० श्रबोधित-बोध-रहित, न समझाया श्रद्धा ब्राह्मण में न हो। हुश्रा, न समझा हुआ। अभंग-वि० (सं० ) अखंड, अटूट, पूर्ण, वि० (सं० ) अनजान, नादान, मूर्ख । - अनाशवान, न मिटने वाला, लगातार, संज्ञा, भा० स्त्री० अबोधता-मूर्खता। समूचा। अबोल ---वि० दे० ( हि० अ+बोल ) | अभंगपद-संज्ञा, यौ० पु. ( सं० ) मौन, मूक, अवाक्, जिसके विषय में बोल श्लेषालंकार का एक भेद जिसमें शब्द के या कह न सके, अनिर्वचनीय, चुपचाप । वर्णों को इधर-उधर न करना पड़े, बिना संज्ञा, पु० कटु वाणी, कुबोल, बुरा बोल । तोड़े ही शब्द दूसरा अर्थ दे। क्रि० वि० बिना बोले हुए, चुपचाप । अभंगी --- वि० दे० (सं० अभंगिन्) अभंग, "बोलत बोल अबोल"। पूर्ण, अखंड, जिसका कोई कुछ ले न सके। " कत अबोल तुम अोटन जात "—ल० | अभंजन-वि० ( सं० ) अटूट, अखंड, माधुरी। | जिसका भंजन न किया जा सके। For Private and Personal Use Only Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रभक्त १२३ प्रभागा प्रभक्त-वि० (सं० ) भक्ति-शून्य, श्रद्धा- अभया-संज्ञा, स्त्री० (सं०) दुर्गा, भगवती, हीन, भगवद्विमुख, जो बाँटा या विभक्त न | हर्र, या हारीतकी, हरड़ । किया गया हो, समूचा, पूरा, अविभक्त । अभयावह–वि० (सं०) जो भयावह या संज्ञा, स्त्री० अभक्ति, (सं० ) अश्रद्धा। भयकारी न हो। अभक्ष-वि० (सं० ) अखाद्य, अभोज्य, | अभयानक-वि० (सं०) जो भयङ्कर न हो। जो खाने के योग्य न हो, धर्म-शास्त्र में | वि० अभयाधन, अभयाचना । जिसके खाने का निषेध हो। | अभर-वि० ( सं० अ+भार ) दुर्वह, वि० (सं० ) अभक्षित, अभक्षणीय । न ढोने योग्य, बहन न करने के योग्य । प्रभक्ष्य-वि० (सं० ) अखाद्य, अभोज्य। अभरन-संज्ञा, पु० दे० (सं० प्राभरण) अभगत-वि० दे० ( सं० अभक्त ) भक्ति- | गहना, ज़ेवर। विहीन, जो भक्त न हो। वि० (सं० अवर्ण ) अपमानित, दुर्दशासंज्ञा, स्त्री० दे० (सं० प्रभक्ति ) अभगति । प्राप्त, ज़लील । अभन-वि० (सं० ) जो भग्न या टूटा न अभरम-वि० (सं० अ+ श्रम ) भ्रमहो, अखंड, पूर्ण। रहित, अभ्रांत, निश्शंक, निडर, अचूक, संज्ञा, स्त्री० अभग्नता। मतहीन, अमर्यादा। प्रभद्र-वि० (सं० ) अमांगलिक, अशुभ, ! क्रि० वि० निस्संदेह, निश्चय । अशिष्ठ, बेहूदा, अकल्याणकारी, कमीना। | अभल-वि० (सं० अ-+भला-हि.) अभद्रता-संज्ञा, स्त्री० (सं०) अमांगलिकता, | अनभल, अश्रेष्ठ, बुरा, ख़राब । अशुभ, अशिष्टता, बेहूदगी, असाधुता।। वि० श्रभला स्त्री० अभली । अभय-वि० (सं० ) निर्भय, बेडर, बेख़ौफ, | अभव्य-वि. ( सं० ) न होने योग्य, निर्भीक, अभयभीत । बिलक्षण, अदभुत, असुन्दर, भद्दा, बुरा, " सुनतहि भारत बचन प्रभु, अभय करेंगे अशुभ। तोहिं"-रामा। संज्ञा, स्त्री० अभव्यता। संज्ञा, पु. भय-विहीनता, शरण । अभाऊ*-वि० दे० ( अ-भाव ) जो " ब्रह्मा-रुद्र-लोकहू गये, तिनहू ताहि न भावे, जो अच्छा न लगे, अशोभित, अभय नहिं दयो'-सूर० । अरोचक, अरुचिर, अभद्र, अशिष्ट, अभाउ मु०--अभय देना, अभय बाँह देना- (दे० ) प्रभावन । । भय से बचाने का बचन देना, मुक्त करना, " भइ आज्ञा को भोर अभाऊ "-५०। शरण देना, अभय करना-मुक्त करना, संज्ञा, पु० (सं० अभाव ) अविद्यमानता, निर्भय कर देना। सत्ताहीनता, विचार-रहित। प्रभयदान-संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) भय | अभाए-क्रि० वि० (दे०) न अच्छे लगने से बचाने का वचन देना, शरण देना, वाले, प्रभाये (दे०)। रक्षा करना, क्षमा-दान, मुबानी। वि० अरोचक, अशिष्ट, अरुचिर । प्रभयवचन-संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) भय ! अभाग*-संज्ञा, पु० दे० (सं अभाग्य ) से बचाने की प्रतिज्ञा, रक्षा का वचन, दुर्भाग्य, मंद भाग्य । "माभैः ।, श्रादि वाक्य, निर्भीक वाक्य । अभागा-वि० (सं० प्रभाग्य ) भाग्यहीन, अभयंकर-वि० (सं० ) जो भयंकर या सौभाग्य-विहीन, बदकिस्मत, जो जायदाद भयकारक न हो। | के हिस्से का अधिकारी न हो। For Private and Personal Use Only Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रभागी १२४ अभिजित अभागी-वि० दे० ( सं० अभागिन् ) अभिक्रमण-संज्ञा, पु० (सं० ) चढ़ाई, भाग्यहीन, बदकिस्मत, जो जायदाद के | धावा। हिस्से का अधिकारी न हो। अभिख्या - संज्ञा, स्त्री० (सं० ) नाम, स्त्री० अभागिनी, अभागिन ( दे० )। शोभा, उपाधि । प्रभाग्य-संज्ञा, पु० (सं० ) प्रारब्ध-हीनता, अभिगमन-संज्ञा, पु. ( सं० ) पास जाना, दुर्दैव, दुष्टभाग्य, मन्दभाग्य, बुरादिन, सहवास, संभोग। बदकिस्मती। अभिगामी-वि० (सं० ) पास जाने वाला, संज्ञा, स्त्री० अभाग्यता( हि० )। सम्भोग या सहवास करने वाला। श्रभाजन-वि० (सं० ) पात्र-रहित, कुपात्र, स्त्री० अभिगामिनी। अपात्र, अयोग्य, अविश्वासी। अभिग्रह-संज्ञा, पु० (सं० ) अभिक्रमण, प्रभाज्य-वि. (सं.) जो विभक्त न अभियोग, आक्रम, गौरव, सुकीर्ति, अपहार, किया जाये, न बाँटने योग्य । चोरी, युद्धाह्वान, प्रोत्साहक कथन । अभाय—संज्ञा, पु० (सं० अभाव ) बुरे | अभिघात—संज्ञा, पु० (सं० ) चोट पहुँभाव, दुष्ट भाव। | चाना, प्रहार, मार, श्राघात, दाँत क्रि० वि० मूर्छित, भावना-रहित । से काटना। " पाँय परे उखरि प्रभाय मुख छायो है" | अभिघातक-अभिघाती-वि० ( सं० ) ऊ श० । प्रहार-कर्ता, श्रावात या चोट पहुँमु०-अभायपच्छ( सं० अभावपक्ष ) । चाने वाला। असम्भव रूप से, अकस्मात्, अचानचक। अभिचार-संज्ञा, पु. (सं० ) यंत्र-मन्त्र अभार-वि० (सं० ) भार-रहित, हलका. द्वारा मरण, और उच्चारण आदि हिंसालघु, अगुरु, हरुवा (दे० ब०)। कर्म, पुरश्चरण । अभाव -संज्ञा, पु० (सं० ) अविद्यमानता, अभिचारी-वि० (सं० अभिचारिन् ) यन्त्रन होना, असत्ता, त्रुटि, कमी, घाटा, टोटा, मन्त्रादि का प्रयोग करने वाला। कुभाव, दुर्भाव, विरोध, बुरा भाव । प्रभावन -वि० (हि.) अरुचि कर, स्त्री० अभिचारिणी। वि. अभिचारक-अनिष्ट कारक । अप्रिय, वि०-अभावना। अभाषनीय-वि० (सं० ) अचिंत्यनीय, अभिजात—वि० (सं० ) अच्छे कुल में अतयं । उत्पन्न, कुलीन, बुद्धिमान, पंडित, योग्य, प्रभास-संज्ञा, पु० दे० (सं० आभास ) उपयुक्त, मान्य, पूज्य, सुन्दर, रूपवान, आभास, वि०-अभासित ।। __ मनोरम । अभि-उप० (सं० ) एक उपसर्ग जो शब्दों अभिजन-संज्ञा, पु. ( सं० ) कुल, वंश, के आगे लगकर उनमें अर्थान्तर उपस्थित परिवार, जन्मभूमि, घर में सब से बड़ा, करता है, सामने, बुरा, इच्छा, समीप, ख्याति, पालक, रक्षक, पूर्वजों का निवास बारंबार, अच्छी तरह, दूर, ऊपर, उभयार्थ, स्थान । वीप्सा, आगे,समन्तात, अभिमुख, इत्यंभाव, अभिजित-वि० (सं० ) विजयी। अभिलाष, औत्सुक्य, चिन्ह, धर्षण । संज्ञा, पु. सिंघाड़े के आकार का एक तीन अभिक-संज्ञा, पु० (सं० ) कामुक, लम्पट, तारों वाला नक्षत्र विशेष, मुहूर्त विशेष, लुच्चा । दिवस का अष्टम् मुहूर्त । For Private and Personal Use Only Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - अभिज्ञ अभिप्रेत अभिज्ञ-वि (सं०) जानकार, विज्ञ, निपुण, तथा लक्षणों को धारण करना, नकल कुशल । करना, स्वांग बनाना, नाटक का खेल, अभिज्ञता-संज्ञा, स्त्री० (सं० ) विज्ञता, | नाट्य-कौतुक । पांडित्य, नैपुण्य । अभिनव-वि० (सं० ) नया नवीन, नव्य, अभिज्ञान-संज्ञा, पु० (सं०) स्मृति, ख्याल, नूतन । स्मरण, लक्षण, पहचान, निशानी, सहि अभिनवगुप्त--संज्ञा, पु. ( सं० ) संस्कृत दानी, परिचायक चिन्ह स्मारक चिन्ह । के एक प्रसिद्ध, अलंकार-वेत्ता, ये शैव थे, अभिधा-संज्ञा, स्त्री० (सं० ) शब्दों के इनके ८ प्रधान ग्रन्थ हैं, इनका जन्म समय नियत अर्थी से निकलने वाले अर्थ के १९३ ई० से १०१५ ई० के बीच में प्रगट करने वाली शब्द-शक्ति, नाम कहा जाता है। संज्ञा, वाच्यार्थ देने वाली क्षमता। अभिनिविष्ट-वि० (सं० ) धंसा हुअा, गड़ा अभिधान—संज्ञा, पु. ( ... ) नाम, संज्ञा, ! हुना बैठा हुअा, अनन्यमन से अनुरक्त, कोश, शब्दार्थ-प्रकाशक कोष कथन, लिप्त मग्न, मनोयोगी, प्रणिहित । लकब, उपनाम । अभिनिवेश-संज्ञा, पु० (सं० ) प्रवेश, पैठ, अभिधायक- वि० (सं० ) नाम रखने गति, मनोयोग, लीनता, एकाग्र चिंतन, वाला, कहने वाला, सूचक । दृढ़ सङ्कल्प, तत्परता, मरण भय से उत्पन्न अभिधर्म-वि० (सं० ) प्रतिपाद्य, वाच्य, लश, मृत्यु-शंका, प्रणिधान, विचार । जिसका नाम लेते ही बोध हो जाये। अभिनीत-वि० (सं०) निकट लाया संज्ञा, पु. ( सं० ) नाम, अभिधान । हुआ, सुसज्जित अलंकृत, उचित, न्याय, अभिनंदन - संज्ञा, पु. ( सं० ) अानन्द, अभिनय किया हुआ, खेला हुआ (नाटक ) सन्तोष, प्रशंसा, उनेजना, प्रोत्साहन अभिनेता-संज्ञा, पु० (सं० ) अभिनय विनय, प्रार्थना, विनम्र विनती। करने वाला व्यक्ति, स्वांग दिखाने वाला, यौ० अभिनंदन-पत्र--सादर या प्रतिष्ठा- नट, ऐक्टर ( अं० )। सूचक पत्र जो किसी बड़े आदमी के अाग- स्त्री० अभिनेत्री। मन पर हर्ष और संतोष प्रगट करने के लिये अभिनेय-वि० (सं० ) अभिनय करने उसे सुनाया और अर्पित किया जाता है। योग्य, खेलने योग्य ( नाटक )। ऐडस ( अं० ) अभिनंदन-ग्रंथ-सम्मान- अभिन्न-वि० ( सं० ) जो भिन्न या पृथक सूचक लेखों, कविताओं, संस्मरणों, परि- न हो, एकमय, मिला हुआ, सम्बद्ध, संयुक्त, चायक लेखों तथा स्फुट सुन्दर लेखों । मिश्रित मिलित, अपृथक । का संग्रह जो किसी विद्यावयोवृद्ध बड़े अभिन्नपद--संज्ञा, पु० (सं० ) श्लेशालं. साहित्यिक या महापुरुष को सादर समर्पित कार का एक भेद जिसमें शब्द बिना विभक्त किया जाता है। किये ही अन्य अर्थ देता है, अभंगरलेष । अभिनंदनीय-वि० (सं० ) प्रशंसनीय, अभिन्नहृदय-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) प्रगाढ़ वंदनीय, आदरणीय, प्रशंसा के योग्य । मित्र, सुहृद ।। अभिनंदित-वि० (सं० ) वंदित, प्रशंपित अभिप्राय-संज्ञा, पु० (सं० ) श्राशय, सम्मानित । मतलब, अर्थ तात्पर्य । अभिनय-संज्ञा, पु० (सं० ) कुछ समय | अभिप्रेत-वि० ( सं० ) इष्ट, अभिलषित, के लिये दूसरे व्यक्तियों के कथन, वस्त्राभरण | अभीष्ट । For Private and Personal Use Only Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अभिभव १२६ अभिरना अभिभव-संज्ञा, पु० (सं० ) पराजय, हार, जिन्होंने बौद्ध धर्म का खूब प्रचार किया पराभव, नीचे देखना। था, इनका बसाया हुआ 'अभिमन्यु नगर' अभिभावक-वि० (सं० ) अभिभूत या काश्मीर में है। पराजित करने वाला, स्तंभित करने वाला, अभिमर्षण-संज्ञा, पु० (सं०) मनन, वशीभूत करने वाला, रक्षक, सरपरस्त, चिंतन, परस्त्रीगमन । तत्वावधायक, सहायक, परिपालक । अभिमान-संज्ञा, पु. (सं० ) अहंकार अभिभावकता-अभिभावकत्व-संज्ञा,भा० गर्व, घमंड, मद, आक्षेप, अहंभाव । ( सं० ) तत्वावधायकत्व, सरपरस्ती, अभिमानी-वि० (सं० ) अहंकारी, धमंडी, सहायता, रक्षण, परिपालन । आक्षेपान्वित । अभिभूत--वि० (सं० ) पराजित, हराया स्त्री० अभिमानिनी। हुया, पीड़ित, वशीभूत, जिसे वश में किया | अभिमानजनक-वि० यो० ( सं० ) गया हो, विचलित, पराभूत, विह्वल, | गर्वोत्पादक, अहंकार-युक्त । विकल, व्याकुल । अभिमख-क्रि० वि० (सं०) सामने, अभिमंत्रण-संज्ञा, पु० (सं०) मंत्र-द्वारा | अभिमुखी, सम्मुख, समक्ष, आगे। संस्कार, श्रावाहन, स्त्रो०-अभिमंत्रण। | वि० सामने मुख किये हुये। अभिमंत्रित-वि० (सं० ) मंत्र-द्वारा पवित्र | अभियुक्त-वि० (सं० ) जिस पर अभिकिया हुआ, मन्त्र-प्रभावित, श्रावाहन किया | योग चलाया गया हो, मुलज़िम, प्रतिवादी, हुआ। अपराधी। अभिमत-वि० (सं० ) मनोनीत, वांछित स्त्री० अभियुका। अभीष्ट, सम्मत, राय के मुताबिक, अभियोक्ता--वि० ( सं० ) अभियोग, अनुमत, ( विलोम ) अनभिनत। उपस्थित करने वाला बादी, मुद्दई, फ़रिसंज्ञा, पु० अभिलाषित वस्तु. इष्टपदार्थ, मत, यादी, प्रार्थी। राय, सम्मति, विचार, चितचाही बात, स्त्री० अभियोकत्री। मनोनीत । अभियोग-संज्ञा, पु० (सं० ) किसी के किये हुये अपराध या हानि के विरुद्ध न्या" राजन राउर नाम जस, सब अभिमत यालय में निवेदन, आवेदन, अपराधादिदातार"-रामा० । योजन, नालिश, मुकदमा, चढ़ाई, आक्र. अभिति-संज्ञा, स्त्रो० (सं०) अभिमान, मण, उद्योग। गर्व, अहंकार, यह मेरी है, ऐसी भावना, | मु. अभियोग लगाना-अपराध लगाना । ( वेदान्त ) अभिलाषा, इच्छा चाह, मति, | अभियोगी-वि० (सं.) अभियोग चलाने राय, विचार। वाला, नालिश करने वाला, फरियादी, अभिमन्यु-संज्ञा, पु० (सं० ) अर्जुन और | प्रार्थी, निवेदक । सुभद्रा के पुत्र, श्रीकृष्ण के भांजे. विराट अभिरत-वि० (सं०) अनुरक्त, सहित । सुता उत्तरा के पति और परीक्षित राजा के | क्रि० दे० (दे० अभिरना) भिड़ना, उलझना। पिता थे, महाभारत में चक्रव्यूह तोड़ते | अभिरना8-अ० कि० दे० (सं० अभि+ हुए अन्याय से सप्त महारथियों के द्वारा रण ) लड़ना, टेकना, भिड़ना, झगड़ना, निःशस्त्र होने पर मारे गये थे । २००० पू० उलझना, कि० (सं० ) संलग्न होना, ई० में होने वाले एक काश्मीर-नरेश | मिलाना, टकराना, अवलम्बित होना। For Private and Personal Use Only Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अभिराम अभिव्यंजक " भीतिन सो अभिरै भहराइ गिरै फिरि | अकांक्षी, अभिलाषा रखने वाला, इच्छुक, धाइ भिरै मुखकाढ़े"-भा०। सस्पृह, वांछान्वित । अभिराम-वि० (सं०) मनोहर, सुन्दर, स्त्री०-अभिलाषिणी, आकांक्षिणी। रम्य, प्रिय । अभिलाषुक-वि० (सं० ) इच्छान्वित, स्त्री. अभिरामा। स्पृहा, या वांछा रखनेवाला, इच्छुक । पु० (दे० ) अभिरामा। स्त्री० अभिलाषुका। " लोचन अभिरामा तनु घन-श्यामा " अभिलास, अभिलासा-संज्ञा स्त्री० दे० -रामा० । (सं० अभिलाष, अभिलाषा) इच्छा, आकांक्षा। संज्ञा, पु० आनन्द, प्रमोद। " सब के उर अभिलास अस रामा० । अभिरुचि-संज्ञा, स्त्री. (सं० ) अत्यन्त | अभिवंदन-संज्ञा, पु० (सं० ) प्रणाम, रुचि, चाह पसन्दगी, प्रवृत्ति, तुष्टि, | नमस्कार, स्तुति, प्रशंसा, स्तवन । रसज्ञान, आस्वाद, अभिलाष । अभिरूप-वि० (सं० ) योग्य, उपयुक्त, अभिबंदना-संज्ञा, स्त्री० (सं०) अभिवंदन। उचित, अनुकूल। अभिवंदनीय-वि० पु. (सं० ) श्लाघ्य, वि० पु. ( सं० ) विद्वान, कामदेव, चंद्रमा, प्रशंसनीय, प्रणाम करने योग्य, पूज्य । शिव, विष्णु, सदृश । वि० स्त्री०-अभिवंदनीया। अभिलषणीय वि० (सं० ) वांछनीय, अभिवंदित-वि० पु. ( सं० ) प्रशंसित, मनोहर, सुन्दर, अभिलाषा के योग्य, पूजित, सम्मानित, नमस्कृत । जिसकी इच्छा की जाये। स्त्री. अभिदिता। स्त्री० अभिलषणीया। अभिवंद्य- वि० पु० (सं० ) प्रणाम करने अभिलषित-वि० (सं० ) वांछित, इच्छित, योग्य, रलाध्य, प्रशस्त, पूज्य । इष्ट, चाहा हुआ, मनभाया। स्त्री० अभिधंद्या । अभिलाष-संज्ञा, पु० (सं० ) इच्छा, अभिवाद-संज्ञा, पु० (सं० ) दुर्वचन, मनोरथ, कामना, चाह, वियोग, शृंगार गाली, कुवचन । के अन्दर दस दशाओं में से एक, प्रिय से अभिवादन-संज्ञा, पु. ( सं०) प्रणाम, मिलने की इच्छा, आकांक्षा, स्पृहा, कामना, नमस्कार, वंदना, स्तुति । पाशा । अभिवादनीय-वि० पु. (सं० ) प्रणम्य, (३०) अभिलाख-अभिलाखा,अभिलास। प्रणाम करने योग्य, प्रशंसनीय, श्लाध्य । " सब के हृदय मदन अभि- लाखा"- | स्त्री०-अभिवादनीया । रामा०। अभिवादित-वि० पु. ( सं० ) नमस्कृत, अभिलाषा- संज्ञा, स्त्री० (सं० ) इच्छा, पूजित, वंदित। कामना, चाह, अकांक्षा । स्त्री० अभिवादिता। दे० अभिलाखा-अभिलासा। अभिवादक-संज्ञा, पु० . सं० ) अभिअभिलावना ---स० कि० (सं० अभि- वादन करने वाला। लपण ) इच्छा करना, चाहना. अभिलाषा | स्त्री. अभिवादिका अभिवादिनी । करना। अभिव्यंजक-वि० (सं०) प्रगट करने अभिलाषी-वि० (सं० अभिलाषिन् )| वाला, प्रकाशक, सूचक, बोधक । For Private and Personal Use Only Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अभिव्यंजन १२८ अभिसार अभिव्यंजन-संज्ञा, पु. (सं० ) प्रकट | अभिषेक-संज्ञा, पु. (सं० ) जल से करना, प्रकाशित करना, सूचित करना, सिंचन, छिड़काव, ऊपर से जल डाल कर व्यक्त करना। स्नान, वाधा-शान्ति के लिये मंत्र पढ़ कर अभिव्यंजना- संज्ञा, स्त्री० (सं०) मनो- दूर्वा और कुश से जल छिड़कना, मार्जन, भावों के प्रगट करने की शक्ति, भावना ।। विधिपूर्वक मंत्र द्वारा अभिमंत्रित जल अभिव्यंजित-वि० (सं० ) प्रकाशित, | छिड़क कर राज-पद पर निर्वाचन, यज्ञादि प्रगटित, व्यक्त, सूचित । के पश्चात् शान्ति के लिये स्नान, शिवअभिव्यंज्य- वि० (सं० ) प्रकाशित करने | लिंग पर छेददार धड़े को रखकर पानी योग्य, व्यक्त करने के लायक । टपकाना। अभिव्यंजनीय-वि० (सं० ) प्रकाशनीय, यौ०-राज्याभिषेक- राज-तिलक । । प्रगट करने योग्य । अभिष्यंद-संज्ञा, पु० (सं० ) बहाव, स्राव, अभिव्यक्त-वि० ( सं० ) प्रकाशित, विज्ञा- आँख आना। पित, स्पष्ट किया हुआ, ज़ाहिर किया अभिसंधि-संज्ञा, स्त्री० (सं० ) बंचना, हुआ। धोखा, कई आदमियों का मिलकर चुपचाप अभिव्यक्ति-संज्ञा, स्त्री० ( सं० ) प्रकाशन, किसी काम के लिये सलाह करना, कुचक्र, स्पष्टीकरण, साक्षात्कार, सूचम और अप्रत्यक्ष षडयंत्र। कारण का कार्य में प्रत्यक्ष आविर्भाव, जैसे अभिसंघिता- संज्ञा, स्त्री० ( सं० ) कलहंतबीज से अंकुर निकलना न्याय० ) विज्ञापन, | रिता नायिका, ( काव्य )। घोषणा, सूचना। अभिसंपाता-संज्ञा पु० (सं० ) अभिशाप. अभिशप्त-वि. (सं० ) शापित, जिसे संग्राम, क्रोध, मन्यु, रोष, रिस ( दे० )। शाप दिया गया हो, जिस पर मिथ्या दोष (दे० ) वि० अभिसंपाती। लगाया गया हो। अभिशाप-~संज्ञा, पु. (सं०) शाप, बद अभिसर-संज्ञा, पु० (सं० ) साथी, संगी, दुश्रा, मिथ्या दोषारोपण, क्रोध, दूषणारोप, सहचर, अनुचर, सहायक, मित्र, हितैषी। बुरा मानना, अनिष्ट प्रार्थना । संज्ञा, पु० अभिसरन-सहारा। अभिशापित-वि० (सं० ) अभिशप्त, अभिसरण-संज्ञा, पु० (सं० ) आगे जाना, शाप दिया हुआ, वि०-अभिशापक । समीप गमन, प्रिय से मिलने के लिये अभिषंग-संज्ञा पु० (सं० ) पराजय, निन्दा, जाना । श्राक्रोश, पराभव, कोसना, मिथ्यापवाद, अभिसरन- (दे० ) निकट जाना। झूठा दोषारोपण, दृढ़ मिलाप, आलिंगन, अभिसरना*-- अ० क्रि० दे० (सं० शपथ, कसम, भूत-प्रेत का आवेश, शोक ।। अभिसरण ) संचरण करना, जाना, किसी अभिषध-संज्ञा, पु० (सं० ) यज्ञ-स्नान, वांछित या इष्ट स्थान को जाना संकेत मद्योत्पादक वस्तु, सोमलता-पान। स्थान पर प्रिय से मिलने के लिये जाना । अभिषिक्त-वि० ( सं० ) जिसका अभिषेक | अभिसारना-अ. क्रि० दे० अभिसार किया गया हो, कृताभिषेक, वाधा-शान्ति कराना, अपने पिय के निकट जाना । के लिये जिस पर मंत्र पढ़कर दूर्वा और अभिसार-संज्ञा, पु. (सं० ) सहाय. कुश से जल छिड़का गया हो, राज-पद पर । सहारा, युद्ध नायिका या नायक का संकेतनिर्वाचित । स्त्री० अभिषिक्ता-जल-सिंचिता।। स्थान को मिलने के लिये जाना । For Private and Personal Use Only Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अभिसारना १२६ अभुक्त-मूल अभिसारना-क्रि० अ० (सं० अभिसरण ) | स्त्री० अभीप्सिता। दे० अभिसरना-अभिसार करना। अभीम - वि० (सं० ) जो भीम या भीषण अभिसारिका- संज्ञा, स्त्री० (सं० ) वह | न हो, जो भारी न हो, जो बहुत बड़ा न स्त्री जो प्रिय से मिलने के लिये संकेत हो, छोटा, लधु । स्थान पर जाती है या प्रिय को ही बुलाती अभीर-संज्ञा, पु० दे० (सं० ) गोप, अहीर, है, यह दो प्रकार की होती है -- कृष्णा ग्वाला, एक छंद। भिसारिका और शुक्लाभिसारिका--प्रथम तो वि० ( अ- भीर ) निडर, निर्भय, भीड़श्याम वस्त्राभूषणों के साथ कृष्ण पक्ष की रहित । निशा में और द्वितीय सफ़ेद वस्त्राभूषणों के वि० अभीरी-अहीरी, अहीर की । साथ शुक्ल पक्ष की रात में चलती है। अभिसारिणी-- संज्ञा, स्त्री० (सं०) अभीरु-वि० (सं०) निर्दोष, निर्भय, अभिसारिका। निर्भीक । अभिसारी-वि० (सं० अभिसारिन् ) | संज्ञा, पु. ( सं० ) महादेव, भैरव, शतावरि। साधक, सहायक, प्रिया से मिलने के लिये | अभीष्ट-वि० (सं० ) वांछित, चित चाहा, संकेत स्थल को जाने वाला। मनोनीत, पसंद अभिप्रेत, आशयानुकूल, स्त्री० अभिसारिका।। अभिलषित, इच्छित ।। अभिसेक-अभिसेख-संज्ञा, पु० दे० (सं० । संज्ञा, पु. ( सं० ) मनोरथ, कामना । अभिषेक ) अभिषेक। अभीष्म-वि० (सं० ) जो भीष्म या अभिहार-संज्ञा, पु. (सं० ) आक्रमण, भीषण न हो। हमला, लूट-मार, जादू करना, चमत्कार अभीषण-वि० (सं० ) जो भीषण या पूर्ण माया करना, डकेती। भयानक न हो, अभयावह । "करि अभिहार के सभा को ज्ञान प्रभुपाना-अ० क्रि० (सं० आह्वान ) लूट्यौ है," रत्नाकर। संज्ञा, भा० स्त्री० ---अभिहारी-माया, हाथ पैर पटकना और ज़ोर-ज़ोर से सिर जादू करना, लूट मार । हिलाना भूत-प्रेतादि से पाविष्ट होना । अभिहिन-वि० (सं० ) कथित, कहा । दे० प्रान्ती. अबहाना। हुआ, उक्त, व्यक्त, प्रकाशित, प्रकटित । " एक होय तेहि उत्तर दीजै सूर उठी अभी-नि. वि. ( हि० अव+ही) इसी अभुवानी"-भ्र० । क्षण, इसी समय, इसी वक्त, अबै ( दे०)। अभुक्त- वि० (सं० ) न खाया हुश्रा, बिना वि० (सं० अ-| भीः ) भय रहित । । वर्ता हुअा, अव्यवहृत, अप्रयुक्त, उपभोग न अभीक-वि० (सं०) निर्भय, निडर, . किया हुअा। निष्ठुर कठोर, उत्सुक. कठिन हृदय । अभुक्त-मूल-मूल नामक एक दृशा, यह अभीत--- वि० (सं० ) निर्भय, निडर, बड़े कड़े मूल होते हैं, इनमें पैदा होने साहसी, भीति रहित । वाले लड़के को लोग घर में नहीं रखते, अभीक्षण ---संज्ञा, पु० (सं० ) पुनः पुनः, कहते हैं तुलसीदास इन्हीं मूलों में पैदा बार-बार, भूयोभूयः । हुए थे । ज्येष्ठा नक्षत्र के अंत की दो घड़ियाँ अभीप्सित-वि० ( सं० ) अभीष्ट, वांछित, । तथा मूल नक्षत्र के आदि की दो घड़ियाँप्रिय, मनोभिलषित, इच्छित । गंडान्त । मा० श० को०-१७ For Private and Personal Use Only Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रभू अभ्यंतरिक अभू-क्रि० वि० (दे०) "अभी, अब ही, अभेरना-स० क्रि० दे० (सं० अभि+ रण) श्राज ही। रगड़ना, भिड़ना-भिड़ाना, मिलाकर रखना, वि० (सं०- अभू-होना), जो उत्पन्न सटाना, मिलाना, मिश्रित करना, टकराना, न हो, अकारण, अजन्मा । धक्का देना। संज्ञा, पु० (सं० ) ब्रह्म, विष्णु, ईश्वर। | अभेरा--संज्ञा, पु. दे. (सं० अभि-|-रण ) अभूखन* - संज्ञा, पु० दे० ( सं० रगड़, टक्कर, मुठभेड़, धक्का। आभूषण ) गहना, ज़ेवर, भूषन (भूषण " उठ श्रागि दोउ डारि अभेरा"..-प० । सं०) आभूषन, आभूषण। अभोग--वि० (सं० ) जिसका भोग न अभूत--वि० (सं०) जो न हुया हो, किया गया हो, अनुपभोग। वर्तमान, अपूर्व, विलक्षण, अनोखा। संज्ञा, पु. भोग-विलास-रहित । अभूतपूर्व-वि० (सं० यौ० ) जो प्रथम अभोगी--वि० (सं० ) अविषयी, विरक्त, न हुआ हो, अपूर्व, अनोखा, विलक्षण । विरागी, भोग न करने वाला, अभेद-संज्ञा, पु० (सं० ) भेद का अभाव, अविषयासक्त। अभिन्नता, एकत्व, एकरूपता, सदृशता, अभोज--वि० ( सं० ) अभक्षणीय, जिसका विभाग न हो सके, रूपक अलंकार अखाद्य, न खाने योग्य । के दो भेदों में से एक। अभोजन--संज्ञा, पु० (सं० ) भोजनाभाव, वि० --अभेद्य, जो भेदा न जा सके। अनाहार, उपवास, व्रत, अनशन । वि० (दे०) भेद-रहित, एक रूप, समान । वि० बिना भोजन का। अभेदनीय-वि० (सं० ) जिसका भेदन अभोजो-संज्ञा, पु० (सं० ) न खाने वाला, या छेदन न हो सके, न छेदने योग्य अखादक, अभोगी, उपभोग न करने जिसका विभाग न हो सके । वाला। अभौतिक-वि० (सं० ) जो भौतिक या संज्ञा, पु. हीरा, मणि । सांसारिक न हो, जो पंचतत्वों से न बना अभेदवादी-संज्ञा, पु० (सं०) जीव और हो, जो भूमि से सम्बन्ध न रखे अगोचर, ब्रह्म में भेद न मानने वाला, संप्रदाय, अलौकिक । अद्वैतवादी। संज्ञा, भा० स्त्री० अभौतिकता। "ईश्वर-जीवहिं नहिं कछु भेदा"-रामा। अभ्यंग--संज्ञा, पु० (सं०) लेपन, चारो अभेदवाद-संज्ञा, पु. (सं०) अद्वैतवाद, ओर पोतना, शरीर में तेल लगाना, जीव-ब्रह्म को एक मानने वाला सिद्धान्त । तैल-मर्दन । अभेद्य–वि० (सं० ) जिसका विभाग न हो अभ्यंजन- संज्ञा, पु० (सं० ) तेल-लेपन, सके, जो भेदा या छेदा न जा सके, जो टूट तैल, उबटन, बटना। न सके, अखंडनीय । अभ्यंतर-संज्ञा, पु० (सं०) मध्य, बीच, अभेय:-वि० दे० (सं० अभेद्य ) अभेद्य, हृदय, अन्तर । अभेदनीय, अभिन्न । क्रि० वि० भीतर, अन्दर, बीच । संज्ञा, पु० - अभेद, एकता। अभ्यंतरवर्ती--संज्ञा, पु. (सं० ) अन्तरअभेव--संज्ञा, पु. (सं० अभेद ) अभेद, वासी, मध्यवासी। समानता, एकता। अभ्यंतरिक-वि० (सं० ) अन्दर का, हृदय वि० (सं० अभेद्य ) अभिन्न, एक। का, भीतरी। For Private and Personal Use Only Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अभ्यर्थना अभंगलजनक अभ्यर्थना-संज्ञा, स्त्री० (सं० ) सम्मुख मंजूरी, खंडन की जाने वाली बात को प्रार्थना, विनय, श्रादर के लिये आगे बढ़कर बिना परीक्षा के मान कर उसकी विशेष लेना, दरवास्त, स्वागत, अगवानी, प्रार्थना, परीक्षा करना, ( न्याय०) सादर संभाषण । अभ्र-संज्ञा, पु० (सं० ) मेघ, बादल, अभ्यसित---वि० ( सं० ) अभ्यस्त, आकाश, अभ्रक, धातु, स्वर्ण, सोना, नागरअभ्यास किया हुआ। मोथा, अब० ( फा० उ०)। अभ्यस्त-वि० (सं० ) जिसका अभ्यास | "शुभ्राभ्र-विश्नमधरे शशांककर सुन्दरे" किया गया हो, बार-बार किया हुआ, | -वै० जी०। जिसने अभ्यास किया हो, दक्ष, निपुण ।। अभ्रक-संज्ञा० पु. ( सं० ) अबरक, भोडर, अभ्यागत-वि० (सं० ) सामने आया एक रस जो सन्निपातादि रोगों पर दिया हुया, अतिथि, पाहुना, मेहमान । जाता है। अभ्यास-संज्ञा, पु० (सं० ) पूर्णता या | अभ्रमात्मक--वि० ( सं० ) भ्रम न पैदा दक्षता प्राप्त करने के लिये बार बार किसी करने वाला। काम का करना, आदत, टेंव, साधन, अभ्रम-वि० (सं० ) भ्रम-रहित, भ्रान्तिश्रावृत्ति, मश्क, बान । विहीन । अभ्यासी--वि० (सं) अभ्यस्त, अभ्यास अभ्रान्त-वि० (सं० ) भ्रांति-शून्य, भ्रमकरने वाला, जिसने अभ्यास किया हो, दक्ष, निपुण, किसी काम की टेंव वाला, रहित, स्थिर, शान्त । साधक । अभ्रान्ति-संज्ञा, स्त्री० (सं० ) भ्रांति का न स्त्री० अभ्यासिनी। होना, स्थिरता, भ्रम-शून्यता, शान्ति । अभ्युत्थान--संज्ञा, पु. ( सं० ) उठना, अभ्रामक-वि० ( सं० ) भ्रमात्मक जो न किसी बड़े या गुरुजन के आने पर उसके __ हो, असंदिग्ध । सम्मान के लिये उठ कर खड़ा हो जाना, श्रम-अव्य० (सं० ) शीघ्रता, अल्प । प्रत्युद्गम, बढ़ती, समृद्धि, उन्नति, उठान, संज्ञा, पु० (सं० ) आँव का रोग विशेष । आरंम्भ, उदय, उत्पत्ति । अमकाढमका-यौ० दे० (अनु० ) फलाना, "अभ्युत्थानमधर्मस्य अात्मानंसृजाम्यहम्" | अमुक, अज्ञात, गोपनीय नाम के व्यक्ति --गीता। की सूचक या बोधक संज्ञा । अभ्युदय- संज्ञा, पु० (सं० ) सूर्यादि ग्रहों अमंगल-वि० (सं० ) मंगल-शून्य, का उदय, प्रादुर्भाव उत्पत्ति, मनोरथ की अशुभ, अनिष्ट। सिद्धि, विवाहादि शुभ अवसर, वृद्धि, बढ़ती, संज्ञा, पु० (सं० ) अकल्याण, दुःख, अशुभ, उन्नति, ऐश्वर्य । अनिष्ट । अभ्युदयिक-वि० ( सं० ) अभ्युदय " काक-मंडली कहूँ अमंगल मंत्र उचारैं ," सम्बन्धी, उन्नत, वृद्धि सम्बन्धी। -हरि० अभ्युदयक-श्राद्ध ---संज्ञा, पु. ( सं० ) | अमंगलकारी-वि० (सं० ) अकल्याणयो०-नान्दीमुख-श्राद्ध । __ कारी, अनिष्टकारी। अभ्युपगम-संज्ञा, पु० ( सं० ) सामने अमंगलजनक-वि० (सं० यौ० ) दुःखआना या जाना, प्राप्ति, स्वीकार, अंगीकार, | जनक, अनिष्टकारक । For Private and Personal Use Only Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir शा अमांगल्य अमर अमांगल्य-वि० ( सं० ) अशुभकारक, | अमन--संज्ञा, पु० (अ.) शान्ति, चैन, माँगल्य-रहित, अनिष्ट । श्राराम, रक्षा, बचाव, यौ० अमनचैन । अमांगलीक-वि० (सं० ) मंगल न करने । वि० (हि. अ+ मन ) बिना मन के, वाला, अकल्याणकारक। बिना ध्यान। श्रमंद-वि० (सं० ) जो धीमा या हलका | अमनस्क-वि० (सं० ) मन या इच्छान हो, तेज़, उतम, श्रेष्ठ, उद्योगी, जो मंद- रहित, उदासीन, अनमन। बुद्धि का न हो, चतुर। अमनिया-वि० ( देश० ) शुद्ध, पवित्र, "चंद सो दुचंद है अमंद मुख चंद एक, । अछूता। प्रेमिन के नभ मैं नछत्र हैं न तारे हैं " | संज्ञा, स्त्री० रसोई पकाने की क्रिया। -रसाल ( साधु० ) अमनिया करना--अनाज अमंजु-अमंजुल-वि० (सं० ) जो मंजुल बीनना, साकभाजी छीलना, बनाना । या सुन्दर न हो। अमनैक--संज्ञा, पु० (दे० ) हकदार, अमकली-संज्ञा, स्त्री० (दे० हि० आम --- अधिकारी, सरदार, दावेदार, अवध प्रान्त कली ) कच्चे आम की सुखाई हुई फाँके, के वे काश्तकार जिन्हें पुश्तैनी लगान के थोड़े मसाले के साथ कच्चे श्राम की सूखी सम्बन्ध में कुछ ख़ास अधिकार हैं । फाँके। वि० (दे० ) अरोक, जिसे मना न किया श्रमका-सं० पु० (सं० अमुक) ऐसा-ऐसा, जा सके, उच्छृखल. उदंड । अमुक, फलाँ। अमनोयोग-संज्ञा, पु. ( सं० ) अनवअमचुर-अमचूर-संज्ञा, पु० दे० (हि. धानता, असावधानी। आम+ चूर-चूर्ण ) सुखाये हुए कच्चे अमनोज्ञ-वि० (सं० ) कुरूप, घिनौना, श्रामों का चूर्ण, पिसी हुई कच्चे सूखे आम असुन्दर। की फाँके, कच्चे आम की सूखी फाँके ।। अमनारम, अमनोहर, अमनोभिराम । अमड़ा-संज्ञा, पु. (सं० अाम्रात ) आम अमनोरम---वि० ( सं० ) अरुचिकर, अरोके से छोटे-छोटे खट्टे फलों वाला एक प्रकार चक, असुन्दर। का वृक्ष, अमारी। अमनोहर--वि० (सं० ) अप्रिय, अरुचिर, अमत---संज्ञा, पु० (सं० ) मत का अभाव, कुरूप। असम्मति, रोग, मृत्यु, अनभिप्रेत, काल । अमत्त-वि. (सं० ) मद-रहित, बिना अमनोभिराम----वि० (सं० ) मन को घमंड का, जो मतवाला न हो. शान्त, सुन्दर न लगने वाला, अरोचक, अप्रिय । बिना मस्ती। अमया- वि० (दे०) माया मोह-रहित, अमत्ता-संज्ञा, पु० (सं० ) बिना मात्रा का निर्दय । छंद-जिसमें सिवा ह्रस्व प्रकार वाले वर्ण अमर--वि० ( सं० ) जो न मरे, चिरजीवी, के और कोई भी स्वर वाले वर्ण नहीं नित्य, चिरस्थायी, मृत्यु-रहित । रहते। संज्ञा, पु. ( सं० ) देवता, पारा, हड़जोड़ अमत्सर-वि० (सं०) द्वेषाभाव, मत्सर- का पेड़, कुलिश वृक्ष, अमर कोश, लिंगानुरहित । शासन नामक प्रसिद्ध कोश के रचयिता अमद-वि० (सं० ) बिना मद या गर्व के, अमर सिंह, ये विक्रमादित्य की सभा के नव मद-रहित। रत्नों में थे, उनचास पवनों में से एक। For Private and Personal Use Only Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अमरख अमरूत अमरख-संज्ञा, पु० (सं० अमर्ष -- क्रोध ) | अमरस-संज्ञा, पु० (दे०) (सं० आम्र :क्रोध कोप, गुस्सा, रिस,त्तोभ, दुःख, रंज। रस ) अमावट । संज्ञा, पु० (दे० ) एक वृक्ष और उसके फल अमरसी-वि० ( हिं. अमरस ) आम के जो खटमिट्टे होते हैं, इसे कमरख भी रस के समान पीला, सुनहला, अमरस के कहते हैं। से स्वाद वाला, खट-मिठा । अमरखी*-वि० स्त्री० (हि० अमरख) क्रोधी, ! अमग-वि० ( हिं० अ+मरा ) अमृत, जो बुरा मानने वाला, दुखी होने वाला। मरा न हो। अमरता-संज्ञा, भा० सी० (सं० ) मृत्यु | संज्ञा, स्त्री० ( सं० ) दूब, गुरिच, सेहुँड, थूहर, का अभाव, चिरजीवन, देवत्व, स्थायित्व ।। काली कोयल, गर्भ के बालक पर लिपटी अमरत्व-संज्ञा, भा० पु० (सं० ) अमरता, रहने वाली झिल्ली। देवत्व । संज्ञा, पु० ( दे० ) श्रामलक, आमला श्रीरा अमरज-वि० (सं० ) देवजात, देवता से आँवला। उत्पन्न, देव-भाव । वि० ( हिं० सं० अमला ) मल-रहित । . अमरद्विज- संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) देव- | अमराई – संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० आम्रराजि ) पूजक ब्राह्मण, पुजारी, देवल विन। श्राम का बाग़, ग्राम की बारी, अमरउ, अमरपख - संज्ञा, पु० ( सं० अमर ---पत)। अमरैया (दे० )। यौ० पितृ-पक्ष, पितर-पच्छ (दे०)। "देखि अनूप तहां अमराई" - रामा । अमरपति-संज्ञा, पु० यो० (सं० ) इन्द, धनु श्रमराउ लागि चहुँ पासा"-प० । देवताओं का राजा, देवराज, शचीश, अमरालय--संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) स्वर्ग, अमरेश। देवालय, सुरपुर। अमरपद ---संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) देवपद, अमराव* --- संज्ञा, पु० (दे०) श्रमराई, मुक्ति, मोन। अमराउ। अमरपुर-खंज्ञा, पु० (सं० ) अमरावती, देवलोक, सुरपुर, देवताओं का नगर । अमरावती- संज्ञा, स्त्री० (सं० ) देवपुरी, प्रमरवाटिका-संज्ञा, स्त्री यौ० (सं० ) देव देव-नगरी, इन्द्र-पुरी। कानन, देवोद्यान, अमरोद्यान, अमरोपवन, अमरी-संज्ञा, स्त्री० (सं.) देवता की नन्दन कानन, नन्दनवन, देव-वाटिका। स्त्री, देव-कन्या, देव-पत्नी, एक पेड़, रुग, अमरबधूटी-संज्ञा, सी० यौ० (सं० ) यापन, पियापल। अप्सरा, देवताओं की वेश्या, देवबधूटी। । अमरू --- संज्ञा, पु० ( अ० अहमर, लाल ) एक अमरवेल-संज्ञा, स्त्री० ( सं० ) बिना जड़ों प्रकार का रेशमी वस्त्र । एक राजा और और पत्तों वाली एक पीली लता, या बौर कवि का नाम, कहते हैं कि मंडन मिश्र की आकाशबौर, अमरवल्ली -यह पेड़ों पर स्त्री के प्रश्नों का उत्तर देने के लिये श्री फैलती है, अमरबौर ( दे० )। शंकरचार्य इस राजा के मृत शरीर में प्रविष्ट अमरलोक-संज्ञा, पु० यौ० ( सं० ) इन्द्र हो गये थे और "अमरूशतक" नामक एक पुरी, देवलोग, स्वर्ग, अमरपुरी। काव्यग्रंथ ( शृंगार रस का ) बनाया था। अमरघल्लो-संज्ञा, पु० यौ० (सं० अंबर- अमरून- संज्ञा, पु० दे० (सं० अमृतफल ) वल्ली ) अमर बेल, अाकाशबेल, अमर- एक प्रकार का मीठा फल और उसका बौरिया (दे०)। वृक्ष । For Private and Personal Use Only Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अमरूत् अमली अमरूत्-वि० (सं० ) सुस्थिर, शान्त, | "हरिदरसन अमल पर्यो लाजन लजानी" अचंचल, निर्वात । --- सूबे० । संज्ञा, पु. एक फल विशेष । "अमल चलायो आपुनो, मुदली गरजि अमरूद-संज्ञा, पु० (दे० ) सफरी, बिही, गुमान''-ना० दा० । एक फल । अमलता-- संज्ञा, स्त्री० भ० ( सं० ) निर्मलता अमरेश-संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) देवराज, स्वच्छता, निष्कलंकता, निर्दोषता, विमलता। अमरेश्वर-संज्ञा, पु० यौ ० (सं० ) देवेश, अमत्ततास-संज्ञा, पु. (सं० अल्म ) एक लम्बी गोल कलियों वाला पेड़, एक प्रकार अमरैय्या-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० आम्रराजि ) की औषधि। अमराई, श्राम का बगीचा । अमलदारी-संज्ञा, स्त्री० (अ.) अधिकार, "कहिबी कि अमरैय्या राम राम कही है"-- दखल. एक ऐसी काश्तकारी जिसमें पैदावार दास। के अनुसार असामी को लगान देना पड़ता अमर्याद-वि० (सं० ) मर्यादा के विरुद्ध, है, कनकूत, शासन । बेकायदा, अप्रतिष्टित, अनीति । अमर्यादा- संज्ञा, स्त्री. ( सं० ) अप्रतिष्ठता, शामल पट्टा-संज्ञा, पु० (अ० अमल - पट्टा हिं० ) दस्ताबेज़ या अधिकार-पत्र जो किसी मान-हानि, असम्मान, मर्यादा-विहीन । कारिदे या प्रतिनिधि को किसी कार्य में अमर्यादित-वि० (सं० ) मर्यादा के बाहर नियुक्त करने के लिये दिया जाता है। अमर्याद। अमर्ष-संज्ञा, पु. ( सं० ) क्रोध, रिस, रोष, अमलबेत—संज्ञा, पु. ( सं० अम्लवेतस ) कोप, अक्षमा, अपना तिरस्कार करने वाले एक प्रकार की लता जिपकी सूखी टहनियाँ का कोई अपकार न कर सकने के कारण खट्टी होती और चूरणों में डाली जाती हैं, तिरस्कृत व्यक्ति में उत्पन्न होने वाला झेप एक पेड़ जिसके फल बड़े खट्टे होते हैं । या दुःख, असहिष्णुता, एक प्रकार का अमला---संज्ञा, स्त्री० (सं०) लक्ष्मी, सालका संचारी भाव ( काव्य शास्त्र) । वृक्ष, पाताल । श्रमर्षण-संज्ञा, पु. (सं०) क्रोध, रिस, / संज्ञा, पु० (सं० आमलक) आँवला, श्रीरा रोष, द्वैष । (दे० )। अमर्षित-वि० (सं० ) अमर्षयुक्त, रोषयुक्त । वि० वी० (सं० ) मल-रहित, स्वच्छ, शुद्ध, अमर्षी-वि० ( सं० अमर्षिन ) क्रोधी, अस- विमला। हनशील, जल्दी बुरा मानने वाला। संज्ञा, पु० ( ० ) कार्याधिकारी, कर्मचारी, स्त्री० अमर्षिणी। कचहरी में काम करने वाला। अमल-वि० ( सं० ) निर्मल, स्वच्छ, निर्दोष यौ० अमला फैला-कचहरी के कर्मचारी। पाप-रहित, निष्कलंक, कालिमा शून्य कलुष- "बड़ा जुलुम मचावें ये अदालत के अमला" विहीन । अमली-वि० (सं० ) अमल या प्रयोग संज्ञा, पु. ( अ० ) व्यवहार, कार्य, श्राचरण । में पाने वाला, व्यावहारिक, अमल या साधन, प्रयोग, अधिकार, शासन, हुकूमत, अभ्यास करने वाला, कर्मण्य नशेवाज़, नशा, श्रादत, बान, टेंव, लत, प्रभाव असर तलबी (दे०)। भोग-काल, समय, वक्त । | संज्ञा, स्त्री० (दे० ) इमली। For Private and Personal Use Only Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ADMAAVAILAnyoneRAMRIDAmoenomma अमलोनी १३५ अमान्य अमलोनी-संज्ञा, स्त्री० दें. (सं० अम्ल "तौलौं तब द्वार पै अमानत परो रहो" रत्नाकर। लोणी ) नोनिया घास, नोनी, लोनिया ।। प्रमहर--संज्ञा, पु० दे० ( हिं० ग्राम ) छिले अमानतदार-~-संज्ञा, पु. ( अ०) जिसके पास अमानत रखी जावे, अमानत रखने हुए कच्चे ग्राम की सुखाई हुई फांके, वाला। श्रमचुर । अमहल -संज्ञा, पु० (सं० अ-महल अ० ) | अमानतन-कि० वि० ( अ० ) धरोहर या बिना घर-द्वार का, जिसके रहने का कई अमानत के तौर पर, थाती के समान, या स्थान न हो, व्यापक । रूप में। अमा --संज्ञा, स्त्री० (सं० ) अमावस्या की माप-वि० (सं० अ+माप ) जिसकी कला, घर, मर्त्य लोक, अमावस । माप या तौल न हो सके, अपरिमाण, अमार्ग--संज्ञा, पु० (सं० ) कुमार्ग, मार्ग अतुल । वि० अमापित । या पथ-विहीन, बेरास्ता, कुपथ, विपथा वि० श्रमापनीय- अतुलनीय । अमारग (दे० )। अमाना-अ. क्रि० ( सं० श्रा-+मान ) अमातना -- स० क्रि० (सं० श्रामंत्रण ) पूरा पूरा भरना, समाना, अटना, फूलना, आमंत्रित करना, निमंत्रण या न्योता देना । इतराना, गर्व करना, अवाना ( दे० )। अमात्य-संज्ञा. पु० (सं) मंत्री, वज़ीर, दे० अ० कि० समाना। दीवान, फर्जी। अमानी-वि० (सं० अमानिन् ) निरभिमानी, "सदानुकूलेप्विह कुर्वतेरति नृपेवमात्येषु च निरहंकारी, घमंड-रहित ।। सर्व संपंदा'' --- किरात । संज्ञा, स्त्री. ( सं० अात्मन् ) वह भूमि श्रमाता-वि० दे० (अ+ माता मत ) अप्र- | जिसका ज़मीदार सरकार या गवर्नमेंट हो, मत्त, जो मस्त या मतवाला न हो, खाप, वह भूमि या कार्य जिसका प्रबंध (अ+माता) बिना माता का, माता-रहित, अपने हो हाथ में हो, फसल के विचार से क्रि० स० ( अमाना--दे० ) समाता। रियायत किए हुए लगान की वसूली। अमान-वि० (सं०) जिसका मान या संज्ञा, स्त्री० ( अ--मानना ) अपने मन की अंदाज़ न हो, गर्व-रहित, अपरिमित, बेहद, कोररवाई, अंधेर, मनमानी । बहुत, निरभिमान, सीधा-सादा, अप्रतिष्टित, | " बालकसुत सम दास अमानी "अनाहत, तुच्छ । रामा०। 'पास-पास भूपतिन के बैठे तनय अमान” | अमानुष-वि० (सं० ) मनुष्य की सामर्थ्य -सुजा० । के बाहर, मनुष्य-स्वभाव के विरुद्ध, पाशव, "दुहँ दिसि दीसत दीप अमाना' ... रामा। पैशाचिक, अलौकिक । कविगन को दारिद-द्विरद, याही दल्यो संज्ञा, पु० मनुष्य से भिन्न प्राणी, देवता, श्रमान"- भू० । राक्षस, जो मनुष्य न हो। संज्ञा, पु० (अ० ) रक्षा, बचाव, शरण, अमानुषी-- वि० (सं० अमानुषीय ) मनुष्यपनाह । स्वभाव के विरुद्ध, पाशव, पैशाचिक, मानवअमानत-संज्ञा, स्त्री० (अ० ) अपनी वस्तु शक्ति से परे या बाहर की बात ।। किसी दूसरे के यहाँ कुछ काल के लिये | अमान्य- वि० ( सं० ) मान-रहित, त्याज्य, रखना, धरोहर, थाती। । अनावृत्य, अस्वीकार, न मानने के योग्य, For Private and Personal Use Only Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org अमाय सम्मान के योग्य नहीं, जो माननीय नहीं । माय - वि० दे० (सं० प्र + माया ), माया-रहित । 66 क्रि० सं० ( हि० अमाना ) समाय । 66 श्राध सेर के पात्र में कैसे सेर श्रमाय " । चि० दे० ( हि० अ + माय विहीन | माता ) मातृ श्रमाया - वि० सं०) माया - रहित, निर्लिप्त, निष्कपट, निश्छल, यथार्थ । मन-बच-क्रम मम भगति श्रमाया १३६ अमिया अमावट - संज्ञा, पु० ( हि० ग्राम + आवर्त सं० ) ग्राम के रस का सुखाया हुआ पर्त या तह, अमरस, पहिना जाति की एक मछली । अमावस - संज्ञा स्त्री० दे० (सं० अमावस्या ) अँधेरी रात । "" रामा० । अमारक - वि० (सं० ) जो मारक या मार डालने वाला न हो, अमृत्युकारक ! श्रमारग - वि० दे० (सं० श्रमार्ग ) कुमार्ग, विपथ, मार्ग - विहीन | अमार्गण–संज्ञा, पु० ( सं० ) न ढूँढना, न खोजना | श्रमार्जन - संज्ञा, पु० (सं० ) मार्जन का अभाव, अशोधन । श्रमार्जित - वि० (सं०) शोधित, जिसका मार्जन न किया गया हो । वि० (सं० ) अमार्जनीय - प्रशोधनीय । अमार्तंड - संज्ञा, पु० (सं० ) सूर्य - रहित, सूर्य के बिना । श्रमादव - संज्ञा, पु० (सं० ) मृदुता रहित, कठोर, कठिन । श्रम - संज्ञा, पु० (सं० ) मर्माभाव, बिना के वि० [मार्मिक - जो मर्म सम्बन्धी न हो । अमाल – संज्ञा, पु० ( ० ) अधिकार रखने वाला, मिल, शासक । 16 लौ मार तलबखां मानहु श्रमाल 75 -भू० । वि० (सं० ) माला - रहित, बिना माला के । प्रभावना - अ० क्रि० दे० ( हि० श्रमाना ) श्रमाना, घटाना, भीतर पैठाना । ( प्रे० - मवाना ) | Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir स्त्री० अमावस्या - श्रमावास्या - संज्ञा, ( सं० ) कृष्ण पक्ष की अंतिम तिथि, कुहू निशि । अमाह - संज्ञा, पु० दे० (सं० श्रमांस ) आँख की पुतली से निकला हुआ लाल मांस, नाखून | अमिउ- संज्ञा, पु० दे० (सं० अमृत ) श्रमृत, सुधा, पीयूष । " "" कीन्हेसि श्रमि जिये जेहि पाई प० । अमिट - वि० दे० ( हि० अ + मिटना ) जो न मिटे, जो नष्ट न हो, स्थायी, अटल, निश्चित, अवश्यंभावी, हद, नित्य । अमित- वि० सं० ) अपरिमित, बेहद, असीम, बहुत अधिक, सीमा-रहित, अत्यधिक अमिताभ - संज्ञा, पु० (सं० यौ० ) बुद्धदेव | अमितौजा- संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) असीमशक्तिशाली, सर्वशक्तिमान, ईश्वर । अमित्र - वि० (सं० ) शत्रु, बैरी साथीरहित, रिपु, रि, अमीत - ( दे० ) । अमित्रभूत - वि० (सं० ) विपक्षी, बैरी, ग्रहितकारी । अमिय - संज्ञा, पु० दे० (सं० अमृत ) अमृत, सुधा, पीयूष । श्रमी - (दे० ) । श्रमियमूरि-संज्ञा स्त्री० दे० यौ० (सं० अमृत - मूल ) मृत वृटी, संजीवनी | ● अमिय मूरिमय चूरन चारू -रामा० । " श्रमिय-मूरि-सम जुगवति रहहूँ "" For Private and Personal Use Only " रामा० । अमिया - संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० अम्वा ) ग्राम का कच्चा छोटा फल, कच्चा छोटा श्राम, अँबिया - (दे० ) । Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - रसलीन। अमिती अमूलक अमिरती-संज्ञा, स्त्री० (दे० ) इमरती, “पावक तुल्य अमीतन को भयौ"-. एक प्रकार की जलेबी की सी मिठाई। प्रमिल*--वि० दे० ( अ-+मिलना) न | अमीन-संज्ञा, पु० (अ०) बाहर का काम मिलने योग्य, अप्राप्य, बेमेल, बेजोड़, करने वाला. कचहरी या अदालत का जिससे मेल न हो, ऊबड़-खाबड़, ऊँचा कर्मचारी या अहलकार। नीचा। संज्ञा, स्त्री. अमीनी। " निरखि अमिल सँग साधु "-वि०।। वि० (सं० अ+ मीन) बिना मछली का। अमिली--- वि० दे० ( अ+मिलना ) न अमीर-संज्ञा, पु. (अ.) काम धिकार मिली हुई, अमिश्रित, पृथक, विलग। रखने वाला, सरदार, धनाढ्य, दौलतमंद, संज्ञा, स्त्री० ( दे०) इमली, विरोध, मन उदार, अफ़ग़ानिस्तान के राजा की उपाधि । मुटाव, प्रतिकूलता, वैमनस्य, विद्रोह ।। (दे०) मीर। अमिश्र-वि० (सं० ) न मिला हुआ, " फरजी मीर न कै सके, टेढ़े की तासीर" -रहीम। पृथक, विलग। अमिश्रित-वि० (सं० ) जो मिलाया न अमीराना--वि० (अ.) अमीरों का सा, गया हो, न मिला हुश्रा, बेमिलावट, अमीरी प्रगट करने वाला। ख़ालिस। अमीरी-संज्ञा, स्त्री. ( अ० ) रईसी, संज्ञा, पु० (सं० ) अमिश्रण-न मिलाना, धनाढ्यता, उदारता । अमेल । वि० अमीर का सा, रईस का सा। अमिश्रराशि-संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) अमुक-वि० (सं० ) फलां, ऐश-ऐसा, इकाई से लेकर नौ तक के अंक, इकाई कोई व्यक्ति, ( इसका प्रयोग किसी नाम से प्रगट की जाने वाली राशि । के स्थान पर करते हैं ) सम्मुखागत । अमिष-संज्ञा, पु० (सं० ) छल का अभाव, अमुत्र-अव्य० ( सं० ) पर काल, परलोक । बहाने का न होना, मिस । अमूर्त-वि० (सं० ) मूर्ति-रहित, निराकार। (दे० ) वि. निश्छल, जो हीले-हवाले- संज्ञा, पु० (सं० ) परमेश्वर, आत्मा, जीव, बाज़ न हो। काल, दिशा, आकाश, वायु । संज्ञा, पु० (सं० आमिष ) मांस । अमूर्ति--वि० (सं० ) मूर्ति-रहित, निराकार, अमी* --- संज्ञा, पु. दे. ( सं० अमृत ) अनाकृति । अमृत। अमुर्तिमान--- वि० (सं० ) अमूर्तिमत्अमिय । ( दे०) सुधा। अप्रत्यक्ष, निराकार, अगोचर।। " अमी-हलाहल-मद भरे, स्वेत-स्याम- . स्त्री. प्रमूनिमती। रतनार"--वि०। अमूल-वि० (सं० ) बे जड़ का, निर्मूल । "श्रमी पियावत मान विन, 'रहिमन' हमैं संज्ञा, पु. (सं० ) प्रकृति, (सांख्य ) । न सुहाय" । वि० (सं० अमूल्य ) अनमोल । अमीकर*-संज्ञा, पु० (सं० अमृत-- कर) अमूलक-वि० (सं०) बे जड़, निर्मूल, चंद्रमा, सुधाकर। असत्य. मिथ्या, जड़, शून्य, अनमोल, प्रमीत*—संज्ञा, पु० (सं० अमित्र ) शत्रु, मूल्य रहित, जिसका मूल्य न हो सके, रिपु, अहितकारी। | अमूल्य, कीमती। मा० श० को०-१८ For Private and Personal Use Only Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 2000 अमूल्य १३८ अमृतस्त्रों " पाय अमूलक देह यहै नर "--सुन्दर० । अमृतध्वनि-संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) अमूल्य–वि. (सं० ) जिसका मूल्य न २४ मात्राओं का एक यौगिक छंद इपके निर्धारित किया जा सके, अनमोल । आदि में एक दोहा रहता है उसी के अंतिम अमोल । (दे० ) बहुमूल्य, वेश-क्रीमती ।। चरण को लेकर भागे चार चरण रोला के अमृत-संज्ञा, पु. ( सं० ) वह पदार्थ दिये जाते हैं. इनमें निरर्थक वण वृति ही जिसके पान करने से जीव अमर हो जाता प्रायः प्रधान रहती है, प्रायः संयुक्त वर्णों है, सुधा, पीयूष, जल, घी, यज्ञ के पीछे के साथ चार चरणों में से प्रत्येक में ३ तोन बची हुई सामग्री, अन्न, मुक्ति, दूध, वार यमक रहती है। औषधि, विष, बच्छनाग, पारा, धन, सोना, अमृतफल - संज्ञा, पु० यौ० ( सं० ) पटोल, मीठी वस्तु । परवर। वि० (सं० अ-+मृत ) जो मरा न हो, अमृतफला-संज्ञा, स्त्री० यो० (सं.) मृत्यु रहित । दाख, अंगूर, श्रामलकी। संज्ञा, पु० धन्वन्तरि, बाराहीकन्द, बनमूंग, अमृतबल्ला ---- संज्ञा, स्त्री० यो० (सं० ) देवता। गुरिच की लता। अमृतकर-संज्ञा, पु० (सं० ) चन्द्रमा, (दे०) अमरवेल. अमरबोर । निशाकर । अमृतवान-- संज्ञा, पु. ( सं० अमृत - धी। अमृतकंड-संज्ञा, पु० यौ० ( सं० ) | वान) लाह के रोग़न या पालिश वाला मिली अमृतपात्र । का बर्तन, जिसमें अचार यादि रखते हैं। अमृतकंडली-संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं० ) अमृर्ताबन्द-संज्ञा, पु० यो० (सं०) एक प्रकार का छंद, एक प्रकार का बाजा। एक उपनिषद का नाम । अमृतगति-संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं० ) एक अमृतमूरि-संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) प्रकार का छंद । अमियमूरि, अमरमूरि, संजीवनी बूटी। अमृतजटा-संज्ञा, स्त्री० यौ० ( सं० ) अमृतयांग-संज्ञा, पु. यौ० ( सं० ) फलित जटामासी। अमृततरंगिणी-संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं० ) । ज्योतिष का एक शुभ फलप्रद योग । ज्योत्स्ना, प्रकाशमयी या चंद्रिकायुक्त रात्रि । अमृतरस--- संज्ञा, पु० यौ० ( सं० ) सुधा, पीयूष । अमृतत्व--संज्ञा, भा० पु. ( स० ) मरण का अभाव, न मरना, अमरता, मोक्ष, अमृतलता-संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) मुक्ति, अमरत्व । अमरबेल, अंगूर या गुरिच की लता। अमृतदान--संज्ञा, पु. ( सं० अमृत+ अमृतसंजावना--वि० स्त्री. यौ० ( सं०) आधान ) भोजन की चीजें रखने का ढकने मृतसंजीवनो, एक प्रकार की रसादिक दार बर्तन । औषधि। अमृनदीधिति- संज्ञा, पु० यौ. ( सं० ) । अमृतसार-संज्ञा, पु० यौ० ( सं० ) अंगूर, चंद्रमा,शशांक, सुधाकर, सुधांशु, निशाकर। छो, मक्खन, नवनीत, नेनू । अमृतधारा--संज्ञा, स्त्री. (सं० यौ०) अमृतसंभवा--- संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं.) एक प्रकार का वर्णिक वृत्त, इसके प्रथम गिलोय, गुडीची। द्वितीय, तृतीय, और चतुर्थ चरण में क्रमशः अमृतस्रवा-संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं० ) २०, १२, १६ और ८ वर्ण होते हैं। कदलीवृक्ष, एक प्रकार की लता। For Private and Personal Use Only Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - अमृतांशु अमौना अमृतांशु - संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) सुधांशु, “अति अमोघ रघुपति के बाना "सुधाकर, चन्द्रमा, निशाकर । रामा०। अमृता-संज्ञा, स्त्री० (सं०) गुढीची, अमोघवीर्य-संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) गिलोय, गुरिच, दूर्वा, तुलसी, मदिरा, अखंड तेज. अव्यर्थ प्रताप, अव्यर्थवीर्य । आमलकी होती, पिपली। अमोघास्त्र-संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) " अमृतातिविषा सुरराजयवः "- अचूक अस्त्र, वज्र, यम-दंड, बरुण-पाश, वैद्यजी० । त्रिशूल, पाशुपत, सुदर्शन चक्र, ब्रह्मास्त्र । वि० स्त्री. ( सं०) जो मरी न हो, न मरने | श्रमोधन-वि० (सं.) जो न छूटे, न छूटने वाली । वाला। अमृती-संज्ञा, स्त्री० (सं० ) लुटिया, प्रमोद-संज्ञा, पु० दे० (सं० आमोद ) मिठाई विशेष, एक प्रकार की जलेबी।। श्रानंद, प्रपन्नता। अमृषा-संज्ञा, स्त्रो० (सं० ) असत्य जो न संज्ञा. पु० दे० (सं० अ+मोद ) अप्रसन्नता. हो, सत्य । प्रमष्य-वि० (सं० ) असह्य, अत नव्य । वि० दे० अमोदक -( सं० आमोदक ) अजग* -- स० क्रि० (फा० आमेजन) आनन्दकारी। मिलाना, मिलावट करना। वि० दे० अमोदित-(सं० आमोदित ) अमेधा-वि० (सं० ) मूर्ख, मूढ़, अबोध ।। आनन्दित । अमेध्य-वि० (सं० ) अपवित्र, अशुद्ध, अमोरीws --संज्ञा, स्त्री० (दे०) छोटा दुष्ट, जो वस्तु यज्ञ में काम न दे सके, आम, अँबिया, प्रामड़ा। जैसे मसूर, उर्द, कुत्ता प्रादि, जो यज्ञ अमोल* ~~श्रमोलक-वि० दे० (अ+ कराने योग्य न हो , अपवित्र । मोल ) अमूल्य, कीमती,बहुमूल्य, अनमोल । संज्ञा, पु० (सं० ) विष्ठा, मलमूत्रादि, " लै श्रमोल मन मानिक मेरो, प्यारे बिन अशुचि पदार्थ। ही मोल"--रसाल। अमेठना*-प्रमैटना-२० त्रि.० ( दे० )। " लछिमन-राम मिले अब मोकों दोउ मरोडना, उमेठना, घुमाना। अमोलक मोती"-सूर० । अमेष-- वि० (सं०) अपरिमाण. असीम. अमोला-संज्ञा. पु. (सं० आम्र हि० आम ) बेहद, जो जाना न जा सके. अज्ञेय । श्राम का नया निकला हुआ पौधा । अमेयात्मा- संज्ञा. पु० यौ० (सं० ) जिपकी वि० (दे० ) अमोल। आत्मा अज्ञेय हो, परमात्मा, ईश्वर। मोही-वि० (सं० अमोह ) निर्मोही, श्रमेन-संज्ञा, पु० (दे० ) मेल या मैत्री से कठोर, निष्ठुर, विरक्त । रहित, मनमुटाव, विरोध, अनमेल, बेमेल । अमौथा-संडा, पु० दे० (हि. श्राम+ अमेनी-वि० (दे० ) मेल न करने या | औग्रा प्रत्य० ) ) श्राम के सूखे रप का रखने वाला. असम्बद्ध अनाप-सनाप, बेमेल । सा रंग, जो कई प्रकार का होता हैअमेष-वि० (दे० ) अमेय. असीम, पीला, सुनहरा, मूंगिया श्रादि, इसी रंग का अज्ञेय. जो नाना न जा सके। एक कपड़ा। अमोघ--वि० (सं०) निष्फल न जाने " कतकी का मेला किया, लिया अमौत्रा या होनेवाला, अव्यर्थ, अचूक । छींट"-सरसः । For Private and Personal Use Only Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra बड़ा साना । अम्मारी - संज्ञा, ' अम्बारी ' । www.kobatirth.org अम्मा अम्मा - संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० अम्बा ) माता, मां । अम्मामा - संज्ञा पु० अ० ) एक तरह का अयस्कान्त अय- संज्ञा, पु० (सं० ) लोहा, अस्त्र-शस्त्र, for, न । अयथा - वि० (सं० ) मिथ्या, झूट, अतथ्य, योग्य स्त्री० (दे० ) देखो | अयन - संज्ञा, पु० (सं० ) गति, चाल, सूर्य या चन्द्रमा की उत्तर-दक्षिण की थोर गति या प्रवृत्ति, जिसे उत्तरायण और दक्षिणायण कहते हैं, बारह राशियों के चक्र का आधा, राशि -- रा-चक्र की गति, ज्योतिष शास्त्र एक प्रकार का सेनानिवेश, ( क़वायद ) श्राश्रम, स्थान घर, काल. समय श्रंश, अयन के प्रारम्भ में किया जाने वाला एक प्रकार का यज्ञ, दूधवाली गाय या भैंस के थन का ऊपरी भाग, मार्ग, रास्ता । प्रान्त - संज्ञा, पु० (सं० ) खटाई, तेज़ाब | वि० वट्टा, तुर्श । प्रस्तजन संज्ञा पु० दे० ( ० प्राक्सिजन ) एक प्रकार की प्राणप्रद गैस या वायु । अम्लपित्त संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) पित्तप्रकोप तथा उसके कारण भोजन को खट्टा कर देने और अनपच उत्पन्न करने वाला रोग विशेष । अम्लवेत - संज्ञा, पु० ( दे० ) श्रमलबेत, एक प्रकार की औषधि, जो कुछ खट्टी होती है । अम्लमार - संज्ञा, पु० यौ० ( सं० ) काँजी, चूक, अमलबेत, हिंताला, आमला सार गंधक, सार, (दे० ) । अम्लान - वि० (सं० ) जो मलिन न हो, निर्मल, स्वच्छ, साफ़, शुद्ध, जो उदास या नमन न हो, प्रसन्न, मलिनता-रहित, अकल्मष । भा० संज्ञा, स्त्री० प्रम्लानता प्रसन्नता, निर्मलता । अम्ती-संज्ञा, स्त्री० ( सं० अम्ल + ईहि प्रत्य० ) श्रमिली । (दे० ) इमली, तितिड़ी । (दे० ) एक प्रकार का पेड़ और फल । म्हौरी -संज्ञा स्त्री० दे० (सं० ग्रम्भसर + - हि० प्र०) गर्मी की ऋतु में पसीने के कारण निकलने वाली छोटी छोटी फुंसियाँ, अन्हौरी, अँधौरी (दे० ), धमौरी ( दे० प्रान्ती ० ) । AM १४० अयं - सर्व ० ( सं० ) यह, ऐसा । " अयंनिजः परोवेत्ति " 1 Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पेन (दे० ) । अयन काल - संज्ञा, पु० यौ ० ( सं० ) एक यन में लगने वाला समय, छः महीने का काल । प्रयन संक्राति संज्ञा, पु० (सं० ) मकर और कर्क की संक्रान्ति, श्रयन-संक्रान्ति | अयन-संयात - संज्ञा स्त्री० यौ० (सं०) कर्क और मकर की संक्रान्ति, श्रयन - संक्रमण | प्रयन-संयात - संज्ञा, यौ० (सं० ) पु० नाशों का योग । यश-संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) अपयश. अपकीर्ति, निन्दा, बदनामी । जस (दे० ) । यशस्कर - वि० (सं० ) अपयशकारी. कीर्तिकर | प्रयशकारक प्रथशकारी - वि० (सं० ) कर्तिकारक शकारी, जिससे बद नामी हो । अशी - संज्ञा, पु० (सं० ) बदनाम. अपयशी, जसी (दे० ) 1 अयस्कान्त - संज्ञा, पु० (सं० ) चुम्बक पत्थर, जो लोहे को अपनी आकर्षण शक्ति से खींच लेता है । For Private and Personal Use Only Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अयाचक १४१ अयोग अयाचक-वि० ( सं०) न माँगने वाला, अयाल-सं, पु. ( फा० ) घोड़े और सिंह संतुष्ट, पूर्णकाम, जो किसी वस्तु की आदि के गरदन के बालों का समूह केसर। याचना न करे, ( विलोम-याचक)। अयि-अव्य० (सं० ) सम्बोधन का शब्द, अजाचक (दे०)। हे, अरे, अय, अरी, री। "जाचक सकल अजायक कीन्हें "..--- प्रयुक्त-वि० (सं० ) अयोग्य, अनुचित, रामा०। बेठीक, असंयुक्त, अलग, पृथक, श्रापदअयाचित-वि० (सं० ) बिना माँगा ग्रस्त, अनमन. असम्बद्ध, यति रहित. हुआ, जो माँगा न गया हो। असङ्गत । अजाचित (दे०)। अयक्तता-संज्ञा, भा० स्त्री० (सं० ) अनौ वि० श्रयाचनीय। चित्य, अयोग्यता। अयाचा-वि० (सं० अयाचिन् ) अयाचक, अयुक्ति--संज्ञा, स्त्री. (सं० ) युक्ति का याचना न करने वाला, न माँगने वाला, अभाव, असम्बद्धता, गड़बड़ी, योग न सम्पन्न, धनी, सन्तुष्ट, अजाची ( दे० )। | देना, अप्रवृत्ति, असङ्गति । अयाच्य-वि० (सं०) जिसे मांगने की अयुग-अयुग्म-वि० (सं० ) विषम, ताक, आवश्यकता न हो, भरा-पूरा, पूणकाम, | अकेला, जोड़ा नहीं, एकाकी, अमिथुन, जो तृप्त, सन्तुष्ट, सम्पन्न । दो एक साथ न हो। प्रयान-वि० दे० (सं० अज्ञान ) अज्ञान । अयुग-संज्ञा, पु० बुरा युग, असमय । संज्ञा, स्त्री. श्रयानता। प्रयुगुन्त-वि. ( सं० ) विषम, ताक, अजान, (दे० ) नासमझ, मूर्ख । । अकेला, दो या जोड़ा नहीं। ( विलोम ) सयान, (दे० ) सज्ञान । अयुत-संज्ञा, पु० (सं० ) दस हज़ार की स्त्री० यानी। संख्या का स्थान, उस स्थान की संख्या । वि० (सं० अ + यान ) बिना सवारी का, | अयुत्-वि० (सं० ) अयुक्त, अमिश्रित, पैदल । जो संयुक्त या मिला हुआ न हो। संज्ञा, पु० (सं० ) स्वभाव, स्थिरता। अयुध-संज्ञा, पु. ( सं० ) आयुध, अस्त्रप्रयानता-संज्ञा, भा० स्त्री० (हि.) शस्त्र, हथियार।। अज्ञानता, अजानता, (दे० ) मूर्खता, ना अये-अव्यः ( सं० ) सम्बोधन पद. विषादसमझी। सूचक शब्द, स्मरणार्थक, कोपार्थक पद, " अजहूँ नहिं अयानता छूटी"-नागरी। विस्मयार्थक। अयानप-श्रयानपन -संज्ञा, भा० पु. प्रयाग-संज्ञा, पु. ( सं० ) योग का (दे० ) अज्ञानता, अनजानता, अजानपन अभाव, बुरा योग, दुष्ट या पाप-ग्रह(हि० ) भोलापन, सिधाई, लड़कपन, नक्षत्रादि का जन्म-कुण्डली के स्थानों में (दे०) लरिकाई। पड़ना, या पाप ग्रहों का बुरे नक्षत्रों के प्रयानी ---वि० स्त्री० दे० ( हि० प्रजानी ) साथ एकत्रित होना ( फलित ज्योतिष) अजान, बुद्धिहीना, मूर्खा, नामसझ, भोली- कुसमय, दुष्काल, कठिनाई, सङ्कट, सुगमता भाली, अज्ञानी, ( विलोम) सयानी। से स्पष्ट अर्थ न देने वाला वाक्य विन्यास " कहु को तेहि मेटि सकैगो अयानी" कूट अप्राप्ति, असम्भव, अनैक्य, विच्छेद, -नरो। विश्लेषत। वि० पु० प्रयाना, अयान, अजान । । वि० (सं० ) अप्रशस्त, बुरा । For Private and Personal Use Only Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir momeRNANEEDERED प्रयोग १४२ अरई प्रयोगव- सज्ञा, पु. ( सं० ) वैय कन्या, अरंकना-संज्ञा, भा० स्त्री. ( सं० ) के गर्भ से शूद को और : सन्तान जाति । अदीनता। विशेष । - अरंच-वि० (सं० ) अरंचक-रंच नहीं, वि० (सं० अयोग्य ) अयोग्य, अनुचित। बहुत, अधिक। अयोगी-वि० ( सं० जो योगी न हो, अरञ्ज-वि० ( ह. अरंज-फा ) बिना गृहस्थ । रंज या दुःख के। अयागिक-वि० (सं०) योगिक जो न हो. अगञ्जर- वि० ( सं० ) अप्रपन्नता अमिश्रित, असंयुक्त रूढ़ि सज्ञा । विनोदाभाव । धायोग्य -- वि० ( सं० ) जो योग्य न हो, दे० ( सं० श्रारंजन ) प्रमोदकारी, प्रसन्न अनुपयुक्त, नालायक, निम्म्मा . अपात्र, ! करना । अकुशल, निकाम, ( दे. ) बेकाम, ! अञ्जिन-वि० (सं० ) रंजित या रँगा अनुचित, नामुनासिब, नामाकृल', अक्षम, हगा जो न हो। असमर्थ । अरगड - संज्ञा. पु० दे० (सं० एरंड ) रेंड, अगोगना-संज्ञा, भा० स्त्री० (सं०) ___एक तेल वाला वृत विशेष । अक्षमता, अनुपयुक्तता, अपात्रता। अरंध- वि० (सं० ) रंध्र या छेद रहित, अयोधन- संज्ञा पु० (सं० अयम् - घन ) अछिद्र, संयुक्त, खूब मिला हुआ, बिना एकत्री भूत, लौह पुञ्ज, निहाली हथौड़ा, विलगाव के। निहाई। वि० प्रध्रित-अविलग, अछिद्र । प्रयोध्या-संज्ञा, स्त्री० (सं० अ-+ युध्य । श्ररम्भ - संज्ञा, पु० दे० (सं० प्रारम्भ ) आ ) कोशल पुरी, अवधपुरी, सूर्यवंशीय प्रारम्भ, शुरू। राजारों की राजधानी, राम जन्म भूमि, अरंभना-प्र. क्रि० दे० (सं० आरम्भ ) सरयू तट पर एक प्रसिद्ध प्राचीन तीर्थ- प्रारम्भ होना, या प्रारम्भ होना। नगर। स० क्रि० प्रारम्भ करना। " अयोध्या नाम नगरी तत्रापीत् लोक " अनरथ अवध अंरभेउ जबते "-- विश्रुता"-वा० रामा० । रामा०। अयोधा- वि० (सं० ) जो योधा या वीर अ. क्रि० (सं० आ+रंभ---शब्द करना) न हो, कायर। बोलना, नाद करना, शोर करना, राँभना अयोनि-वि० (सं० ) जो उत्पन्न न हुआ (दे०)। हो, अजन्मा, नित्य । अरंभिक-वि० दे० ( सं० प्रारंभिक ) श्रयानिज--संज्ञा, पु. ( सं० ) जो योनि प्रारंभिक, शुरु का, आदि का। से उत्पन्न न हो जीव जाति विशेष, वृक्ष अरं भत-वि० दे० ( सं० आरंभित ) श्रादि। प्रारंभित, प्रारंभ किया हुआ, शुरु स्त्री. अयोनिजा--सीता । किया हुआ। अरंग-संज्ञा. पु. ( दे० ) सुगन्धि का अर --संज्ञा, पु० दे० ( हि० पाड़ ) ज़िद. झोंका। । अड़, हट, पार (दे० )।। वि० बिना रङ्ग का रंग का अभाव।। अग्ना -अ० कि० दे० ( हि० अड़ना ) हठ अक-वि० (सं० ) जो रंक न हो अदीन, करना, रुकना अटकना । धनी, सम्पन्न । अरई-संज्ञा, स्त्री० (दे० ) एक नुकीली For Private and Personal Use Only Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org अरइत छड़ी जिसे बदमाश बैलों को चलाने के लिये उनके पुट्ठों पर चुभाते हैं । प्रकार का वृत्त, मदार | 66 मु० - प्रई लगाना - बलात् या हठात आगे चने को वाध्य करना, श्राग्रह करके चलाना । उत्ते रइ दना :- उसकाना, उभाड़ना, जित करना । संज्ञा, स्त्री० ( प्रान्ती० ) मथानी, रई, ( दे० ) । अरइल - वि० (दे० ) अड़ने वाला. अरई के लगाने पर चलने वाला । अरक - संज्ञा, पु० ( अ० ) भभके से खींचा जाने वाला किसी पदार्थ का रस, आसव, रप पीना । संज्ञा, पु० दे० (सं० अर्क ) सूर्य, एक अरक जवास पात बिन भयऊ १४३ " रामा० । परकना - अ० क्रि० ( अनु० ) श्ररराकर गिरना, टकराना, फटना दरकना । (दे० ) मना करना, हरकना ( प्रान्ती ० ) । • कहैं बनवारी बादाहि के तखत पास, safar - दरकिलो- लोथनि सों थरकी " अरकना-वर कनाप्र० क्रि० ( अनु० ) इधर उधर करना, खीचातानी करना । अरकनाना - संधा, पु० ( ० ) पुदीना और fair मिला कर खींचा हुआ एक प्रकार का श्राप | प्रर कला - संज्ञा पु० (दे० ) मर्यादा, मान । " अरकान - संज्ञा, पु० (दे० ) प्रमुख राजकर्मचारी, सरदार मुखिया, नेता । " नेगी गये मिले श्रर काना - प० । अरकाटी - सज्ञा, पु० दे० ( अरकाट देश ) कुलियों को भरती करा के बाहर टापुओं मैं भेजने वाला । अरगजा-संज्ञा, पु० ( हि० अरग + जा ) केसर, चंदन, कपूर आदि सुगंधित पदार्थों ** के मिलाने सौरभीला पदार्थ । खर को कहा अरगजा लेपन स्वान नहाये - सूर० । गंग " अरगजा -संज्ञा, पु० ( हि० अरगजा ) अरगजे का सा एक प्रकार का रंग । वि० अरगजे की सी सुगन्धि वाला । रगट - वि० ( हि० अलग ) पृथक. अलग निराला, भिन्न, विलग | ! अरगट ही फानूस सी परगट, होति लखाय " । वि० । अरगनी - संज्ञा स्त्री० (दे० ) अलगनी. कपड़ों आदि के लटकाने के लिये बाँस या रस्सी जो घर में रहती है । अरगवानी - संज्ञा, पु० ( फा० ) लाल रंग, वि० लाल, या बंगनी, अरुण रंग का । अरगल - संज्ञा, पु० दे० (सं० अगल ब्याड़ा, किवाड़ बंद करने की लकड़ी गज । अरगला - सज्ञा, पु० ( स० अगल ) अर्गल. रोक, संयम । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अरघ बना हुआ एक प्रकार का अरगाना * - अ० क्रि० दे० ( हि० अलगाना) अलग करना या होना, पृथक करना, सनाय खींचना बैठना, चुपी साधना, मौन होना । चुपचाप स० क्रि० अलग करना, छाँटना चुनना । 36 सूते सन मथनिया के ढिग बैठि रहे अरगाई - सूबे० । “झुकी रानि अब रहु अरगानी" १- रामा० । मु० - प्राणा गाना - चकित होना । " देस देस के नृपति देखि यह प्राण रहे अरगाई " -- सूत्रे० । 66 अरघ - संज्ञा, पु० दे० (सं० अर्ध ) अर्ध्य, षोडशोपचारों में से पूजन का एक उपचार. हाथ धोने के लिये जल सम्मान प्रदर्शनार्थ गिराया जाने वाला जल । "अरव देइ थान बैठारे " । ara देइ परिकरमा कीन्ही " । For Private and Personal Use Only Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra अरघा *8 अरघा - संज्ञा, पु० (सं० अर्घ ) एक गाव - दुम पात्र जिसमें रखकर अर्घ का जल दिया जाता है, शिव लिंग के स्थापित करने का आकार, जलधरी, जलहरी, कुएँ की जगत पर पानी के लिये बनाया हुआ मार्ग, चवना । अरघान* —— अरघानि - संज्ञा, पु० ( सं० आघाण ) गंध, महक, सुगंधि, स्त्री० आघ्राण । - प० । " तेहि अश्वानि भौंर सब लुबुधे अरचन - संज्ञा, पु० दे० (सं० अर्चन ) पूजन, सम्मान | संज्ञा, स्त्री० दे० ( हि० अड़चन ) कठिनाई | अरचना* - स० क्रि० दे० (सं० अर्चन ) www.kobatirth.org "" 56 पूजा करना, सम्मान करना । अरचा - संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० अर्चन ) पूजा, सम्मान । प्रचि ज्योति, प्रकाश, किरण । पू० का० क्रि० (दे० ) पूजि, पूजा करके । पू० का ० क्रि० ( अ + रचि ) न रचकर । प्ररचित - वि० दे० (सं० अचिंत ) पूजित, सम्मानित । वि० ( अ + रचित) अविरचित न बनाया हुआ । प्ररज - संज्ञा, स्त्री० दे० ( ० अर्ज ) विनय, प्रार्थना, विनती, निवेदन, चौड़ाई । वि० ( अ + रज ) रज-रहित, धूल- विहीन, विमल, स्वच्छ, निर्मल, साफ़ । 1 वह घोड़ा रज कीन्ह अनुसासन पाई अरजल-संज्ञा, पु० ( ० ) जिसके तीन पैर एक रंग के और एक और रंग का हो, ऐसा घोड़ा ख़राब होता है, ऐबी। वि० बदमाश, बुरा, सदोष, नीच जाति का, वर्णसंकर | तीन पांय तौ एक रंग हैं, एक पांय एक संज्ञा स्त्री० दे० (सं० अर्चि ) "> अरण्य रंग, अरजल घोड़ा ताहि कहत हैं, ता कह कहुँ न लीजै संग 1 "" Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir परजना - स० क्रि० दे० ( ० अर्ज़ ) प्रार्थना करना, अर्ज़ करना, विनय करना । राजति - वि० दे० ( सं० अर्जित ) उपार्जित, पैदा की हुई, कमाई हुई, प्राप्त की हुई । वि० रजनीय उपार्जनीय | संज्ञा, पु० दे० अरजन - - ( सं० अर्जन ) उपार्जन | अरजो- संज्ञा स्त्री० दे० (अ० अर्जी ) आवेदन-पत्र प्रार्थना-पत्र, निवेदन-पत्र, प्रार्थना, 8 ) ( ० अर्ज़ ) प्रार्थी, अर्ज़ करने वाला । "गरजी है अरजी करी, टुक मरजी करि दे " -रसाल । 22 1 "अरजी हमारी आगे मरजी तिहारी है। अरझना - ० क्रि० (दे० ) अरुना -- उलझना, फसना, बना, अटकना । 32 agroनी है करन की डार मैं 66 ऊ० श० । अरमा - वि० पु० (दे० ) उलझा, स्त्री० अभी । अरमन - संज्ञा स्त्री० (दे० ) करुनि - (दे० ) उलझन, फंदा, जटिलता । अरकाना - स० क्रि० ( दे० ) उलझाना, फँसाना | प्ररणा - संज्ञा, स्त्री० ( दे० ) जंगली भैंस । अराण, भरणी - संज्ञा, स्त्री० (सं० ) are विशेष, जिसे घिस कर आग निकालते हैं, अग्नि-धारक काष्ट, एक वृक्ष, गनियार, अँगे, सूर्य, यज्ञ में से याग निकालने का एक काठ का बना हुआ यंत्र, श्रग्निमंथ, अरनी- दे० । अरण्ड -संज्ञा, पु० (सं० ) रेंड, थंडी । अरण्य - संज्ञा, पु० (सं० ) वन, जंगल, कायफल, कानन, संन्यासियों के १० भेदों में से एक भेद विशेष । For Private and Personal Use Only Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अरण्यरोदन अरना अरण्यरादन-संज्ञा, पु. यो. ( सं० ) अरदना-स० क्रि० दे० ( सं० अर्दन ) निष्फल रोना, ऐपा क्रंदन या पुकार जिपका रौंदना, कुचलना, ध्वंस करना, वध या सुनने वाला कोई न हो, वह बात जिस नाश करना, मर्दन करना। पर कोई ध्यान न दे। - वि० (अ+रदना) बिना दाँत वाली सी०। अरण्यवासा-संज्ञा, पु. ( सं० ) वनवासी, अरदली-संज्ञा, पु० दे० (अ० आईरली) तपस्वी, मुनि, जंगली लोग, वनमानुष । दरवाजे पर रहने वाला चपरासी, साथ अरत-वि. (सं०) विरक्त, जो लीन न रहने वाला नौकर । हो, उदासीन । क्रि० अ० (हि. अड़ना) अरदावा-संज्ञा, पु० दे० (सं० अर्दित ) श्रड़ता है। कुचला हुआ अन्न, भरता, चोखा । परति-संज्ञा, स्त्री० ( सं० ) विरति, विराग, “नख ते बघारि कीन्ह अरदावा"-५०। वैराग्य, चित का न लगना, अप्रीति । अरदास-संज्ञा, स्त्री० दे० (फा० अर्जदाश्त) श्ररथ -संज्ञा, पु० दे० ( सं० अथ ) अर्थ, । निवेदन के साथ भेंट, नज़र, देवता के मतलब, धन, अभिप्राय, हेतु, तात्पर्य, । निमित्त भेट, विनय, प्रार्थना, प्रार्थना-पत्र । मंतव्य, प्रयोजन । " सुना साह अरदासें चढ़ीं"-प० । नि० (अ+रथ ) रथ-रहित, बिना रथ के। "यह अरदास दास की सुनिये" कबीर० । " अरथ न धरम, न काम-रुचि "- बात माती रामा० । हुई, रौंदा हुआ, मदित, चूर्णित । मु०--अरथ लगाना या बैठानामु० अरथ लगाना या बठाना स्त्री० अरदिता । मतलब निकालना । अरथ निकालना अरधंग-संज्ञा, पु० दे० (सं० अधांग ) तात्पर्ष निकालना। आधा अंग, शिव, महादेव, अधागदेव । प्ररथाना-स० कि० दे० (सं० अर्थ ) (दे० ) अरधंगा। समझाना, प्राशय का स्पष्ट करना, बताना, । अरधंगी-अरधाँगी-संज्ञा, पु० दे० व्याख्या करना, विवेचना करना, विवरण (सं० अधांगी ) श्रद्धांगी, शिव, महादेव । देना। " दसरथ-वचन राम बन गवने यह कहियो । (दे० ) अरधंगा। प्ररथाई" -सूर० । अरघ - वि० दे० (सं० अर्ध) अर्ध, प्राधा। अरथी-संज्ञा, स्त्री० दे० ( सं० रथ ) सीढ़ी (दे० ) आधो। के आकार का एक बाँस का बना हुआ __ कि० वि० (सं० अधः) नीचे, अंदर, भीतर । ढाँचा, जिल पर रखकर मुर्दे को ले जाते | अरन -संज्ञा, पु० दे० (सं० अरण्य ) हैं, टिखटी। बन, जंगल। संज्ञा, पु० (सं० अ+रथी ) जो रथी न हो, संज्ञा, पु. (अ+रण ) रण के बिना, वि० दे० (अर्थी) अर्थयुक्त, धनी, मतलबी। बुरा युद्ध । " अर्थी दोषान्न पश्यति"-1 अरना*-संज्ञा, पु० दे० (सं० अरण्य ) जंगली अरदन-वि० (सं०) बिना दाँत का, भैंसा । दंत-विहीन। नि.. अ० (दे० ) अड़ना, रुकना। स्त्री० अरदना। "नवरंग विमल जलद पर मानौ है ससि संज्ञा, पु० कष्ट पहुँचाना, विनाश, माँगना। पानि अरे"-सूर० । भा० श० को०-३ पैदल । For Private and Personal Use Only Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - परनि अरषी अरनिछ- संज्ञा, स्त्री. ( दे० ) अनि, अरबीला*-वि० दे० ( अनु० ) उटपटांग. अड़ना, हठ, ज़िद। भोलाभाला। अरनी-संज्ञा, स्त्री० दे० ( सं० अरणी) अरभा-वि० दे० (सं० अर्भक ) बच्चा हिमालय पर होने वाला एक अग्निधारी जो पेट में हो। वृक्ष, यज्ञ का अग्नि-मंथन काष्ट । "गरभन के अरभक-दलन, परसु मोर अति " कहा कहौं कपि कहत न पावै, सुमिरत ! घोर "-रामा० । प्रीति होइ उर अरनी"-सूर० । | प्ररभस-वि० (सं० + रभस ) अक्रोध वि० दे० ( सं० अरणि ) जो रणी या अरोप, अवेग, बिना दुःख, अनौत्सुक्य । लड़ाई लड़ने वाला न हो। | अरमणीक-वि० (सं० ) जो रमण क, या भरपन - संज्ञा, पु० दे० (सं० अर्पण ) मनोरम न हो, अमनोहर, अरुचिर। समर्पण। परम्प-वि० (सं० ) न रमण वरने भोग्य अरपना-स० क्रि० दे० (सं० अण) अरोचक, अमनोरम, अरुचिर । अर्पण करना, भेंट देना, आरोपित करना, अरमान-संज्ञा, ५० (तु. ) इच्छा लालला. (ब्रज.)। चाह, साध (दे० ) होउला, इरादा । " अरपन कीन्हें दरपन सी दिखाति देह, अरर---अव्य० ( अनु० ) अत्यंत व्यग्रता वरपन जात तो मैं तरपन कीन्हें ते"द्विजेश । या विस्मय सूचक शब्द । प्ररपित-वि० दे० ( सं अर्पित ) समर्पित, अरराना-अ० कि० (अनु०) श्ररर शब्द भेंट दिया हुआ। करना, टूटने या गिरने का शब्द करना . भहराना, सहसा शब्द के साथ टूटना या अरब- संज्ञा, पु० दे० (सं० अर्बुद ) सौ गिरना। करोड, सौ करोड की संख्या। अरव--संज्ञा, पु० (सं०) निश्शब्द, नीरव "अरब-खरब लौं द्रव्य है "--तुल०। शब्द रहित । संज्ञा, पु. (सं० अर्वन् ) घोड़ा, इंद्र।। वि० शब्द विहीन । संज्ञा, पु० दे० (अ०) एशिया महाद्वीप श्ररथा-संज्ञा, पु० दे० ( अ+ लावना) के दक्षिण-पश्चिम भाग में एक मरु देश, कच्चे या बिना उबाले हुये, धानों से निकाले इसी देश का घोड़, और मनुष्य ।। हुए चावल । भरबर -वि० (दे०) अड़बड़ ( हिं० ) संज्ञा, पु० दे० ( सं० ग्रालय ) भाला, ताक, उटपटांग, विकट, कठिन । । ताख़ा। प्ररबराना*-० कि० दं० (हि. अरबर )। अरवाती-संज्ञा, स्त्रो० (दे०) छप्पर का घबराना, व्याकुल होना, विचलित होना. किनारा, जहाँ से वर्षा का पानी नीचे गिरता चलने में लड़खड़ाना। है, अोरौनी, उरिया, पोरवाती, भोरीती. अरबरी-संज्ञा, स्त्री० (दे०) घबड़ाहट, उलती (दे०)। हरबरी, प्राकुलता, भातुरता, खरभर (दे०) अरविद-संज्ञा, पु. (सं०) कमल, जलज. अरबी-वि० (फा० ) अरब देश का।। पंकज, सार प, उत्पल । संज्ञा, पु०-अरबी घोड़ा, ताजी. ऐराकी. “राम पदार बंद अनुरागी" रामा० । अरबी ऊंट, अरबी बाजा, ताशा । अरवी-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० आलु ) एक संज्ञा, स्त्री-अरब देश की भाषा । | प्रकार की कंद या जर जो तरकारी के रूप For Private and Personal Use Only Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अरस अरक्षित में खाया जाता है, अर्हई (प्रान्ती०) कि० अ० (दे० ) आलस करना, मंद पड़ना घुइयाँ, बंडा। पू० का० क्रि०-अरसाइ-नि० वि० अरस-वि (सं० अ-+-रस ) नीरस, फीका, अरसाई, अरसाये (७०)। शुष्क, गँवार, अनारी, अरसिक, निष्ठुर, । श्ररसाना-प्र. क्रि० दे० (सं० आलस) असभ्य । अलसाना, तंद्रित होना, निद्राग्रस्त होना, संज्ञा० ० ० ( सं० अलस ) सुस्ती चढ़ना।। बालस्य । " पारस गात भरे अरसात हैं "-दास । संज्ञा, पु० दे० (सं० अर्श) छत, पटाव, अरसी -संज्ञा, स्त्री० (दे०) अलसी, धरहरा, महल, अाकाश । | तीली। " जाकी तेज, अरस में डोलै 'छत्र० । रसीला—वि० दे० ( सं० अलस ) "श्रफिल अरस ते उतरी विधिना दीन्हीं। आलस्यपूर्ण, अलसी, अलसाने वाला, बाँटि'कबीर । अलसाया हुआ। अरम-परस-संज्ञा, पु० दे० (सं० स्पर्श) स्त्री० अरसीली। लड़कों का एक खेल, छुआ-छुई, आँख- अरसौंहास-वि० (दे० ) पुं० अलसौंहा मिचौली, आँख-मिचौनी (दे०)। स्त्री० अरसौं ही श्रालस्य-पूर्ण, अलसाया। संज्ञा० ० यौ० ( संदर्श-स्पर्श ) भेंट, देखना, अरहट-संज्ञा, पु० दे० (सं० अरघट्ट) मिलाप । कुएं से पानी निकालने का रहँट नामक अरसट्टा---- संज्ञा, पु० (दे० ) निरख, परख, यंत्र, चरसा, पुर, (दे०)। अंकाव, अड़चन, चूक, भूल, अलक्ष, महसा, अरहन-संज्ञा, पु० दे० (सं० रंधन ) (प्रान्ती० ) अलसेट, अरसेट ।। आटा या बेसन जो तरकारी या सागादि के अरसना--अ० क्रि० दे० (सं० अलस) पकाते समय मिलाया जाता है, रेहन । शिथिल पड़ना, ढीला पड़ना, मंद होना, | अरहना --संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० अर्हणा ) आलस करना। पूजा, अर्चना । स० कि० (हि. अ+रसना) न चूना, न | अरहर-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० आढकी, प्रा. टपकना। अड्ढकी ) दो दल के दाने का एक अनाज संज्ञा, स्त्री० (सं० अ+ रसना ) बिना जीभ के, जिसकी दाल बनती है, तुअर ( प्रान्तो०) बिना रसना वाला, रसना-रहित, बद ज़बान।। तूर, तुवरी अरहरी। अरमना-परमना—(अरसन-परसना ) अरक्षक-वि० (सं० ) रक्षक-रहित, स० कि० दे० (सं० स्पर्शन) श्रालिंगन असहाय । करना, भेंट करना, मिलना, भंटना, छूना, अरक्षण-संज्ञा, पु० (सं०) रक्षा का अभाव अरसनारसन । संज्ञा, पु० दे० (सं० । रता-शून्य । दर्श-स्पर्श, ) भेंट, मिलाप, धालिंगन । अरक्षणीय-वि० (सं० ) रक्षा न करने अरसा-संज्ञा, पु. (अ.) समय, काल, र काल. योग्य ।। देर, अति काल, विलंब, बेर । अरचय–वि० (सं० ) अरक्षणीय, रक्षा के वि० स्त्री० (सं० अ+रसा) अरसिका, विरता। अयोग्य। अरसात-सज्ञा, पु० दे० (सं० अलस ) एक अरक्षित-वि० (सं० ) जो रक्षित न हो, प्रकार का वर्णक वृत्त जि में २१ वर्ण होते रता-रहित । हैं, जिसमें ७ भगण और १ रगण रहता है। । स्त्री० अरक्षिता-रवा-हीना। For Private and Personal Use Only Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - अरा अरियल अरा-संज्ञा, पु० (दे०) लकड़ी चीड़ने अराधो-वि. पु. (दे० ) पूजा या ध्यान का एक औज़ार, पारा, झगड़ा, पहिये के | करने वाला। बीच की खड़ी लकड़ियाँ, केन्द्र का गोला। अराना-स० क्रि० दे० ( हिं० अड़ाना) अरारी-संज्ञा, स्त्री० (दे०) होड़, अड़ाना, अटकाना, फैला देना. बिखराना। अड़ाड़ी, बदाबदी। | अराबा-संज्ञा, पु. (अ.) गाड़ी. स्थ, अराक-संज्ञा, पु० (अ० इराक ) एक देश तोप लादने की गाड़ी, चरख । 'जो अरब में है, वहीं का घोड़ा। " चामिलघाट अराबोरोप्यो "--छत्र० । अराग-वि० (सं० ) राग या प्रेम-रहित अराम-*संज्ञा, पु० दे० (सं० आराम ) विराग, बेराग, बेताल । बाग़, वाटिका। अराज-वि० (सं० अ+राजन् ) बिना " बिनु घनस्याम अराम मैं लागी दुसह राजा का, बिना क्षत्रिय का, राजा-रहित । दवारि"--पदमा०। संज्ञा, पु० (सं० प्र+राजन् ) अराजकता। संज्ञा, पु. (अ. पाराम ) सुख-चैन, भला. शासन-विप्लव, हलचल, राज्याभाव । चंगा, रोग-मुक्त होना। अराजक–वि. (सं० अ-+-राज+ बुञ) अराग-संज्ञा, पु० (दे० ) दरदरा, ददोरा, राजा-रहित, जहाँ राजा न हो, बिना अरराने का शब्द । शासक के, राज्य-शून्य । अरारूट-संज्ञा, पु० (अ० एरारोट ) तीखुर अराजकता-संज्ञा, स्त्री० (सं० ) राजा का की तरह काम में आने वाला एक प्रकार का न होना, शासनाभाव, अशांति, अंधेर, कंद और उसका पौधा । हलचल, विप्लव, क्रांति । अरारोट--संज्ञा, पु० (दे० ) अराख्ट । अराति-रात--संज्ञा, पु. (सं० ) शत्रु, अगल-वि० (सं० ) कुटिल, टेढ़ा। काम-क्रोधादि मनोविकार, छः की संख्या। "जाल दंत-नख-नैन-तन, प्रथु कुच केस अराती (दे०)। अराल".-रवि०। "मृदु को कोउ न अराता "-1 संज्ञा, पु० राल, मस्त हाथी। संज्ञा, पु. (सं० प्र+रात्रि) रात्रि का अभाव। अराघल-संज्ञा, पु० (दे० ) हरावल । वि० अराता-(दे०) अलीन, अननुरक्त । | अरि-संज्ञा, पु० (सं० ) शत्रु, बैरी, रिपु, स्त्री० प्रराती। काम-क्रोधादि शत्र, छः की संख्या, चक्र, अाराधन-संज्ञा, पु० दे० । सं० आराधन) लग्न से जन्म-कुंडली में छठा स्थान, श्राराधन । (ज्यो०) विद, खदिर, दुगंध, खैर । अराधना-स० क्रि० दे० ( सं० भाराधन ) अरिमंडल- संज्ञा, पु० यौ० (सं०) शत्रुपूजा करना। __समूह, शत्रु-राज्य। अराधनीय–वि० दे०(सं० श्राराधनीय) पूजा अरिषट्-वर्ग--संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) के योग्य । स्त्री० अराधनीया । काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर नामक अराधक-वि० (दे०) (सं० आराधक ) मनोविकारों का समूह । पूजा करने वाला। अरिन्दम-वि० ( सं० अरि + दम् + अल् ) स्त्री० अराधिका। शत्रुजयो, योधा, बलो, शत्रुत्रों का दमन प्रराधित-वि० दे० ( सं० प्राराधति ) करने वाला। जिसकी आराधना की जाय, जिसकी पूजा अरियल-वि० दे० ( हि० अड़ियलकी गई हो । स्त्री० प्रराधिता। अड़ना ) अड़ने वाला, अड़ियल । For Private and Personal Use Only Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir परियाना १४६ अरुण अग्यिाना—स० कि० दे० (सं० अरे ) अगति-संज्ञा, स्त्री. (सं० ) अनरीति, अरे कह कर बोलना, तिरस्कार करना, कुरीति, बुरी रस्म । अपमान करना। अरुंतुद वि० ( सं० अरु+तुद+ख ) क्रि० सं० ( हि० अडियाना ) अडाना। मर्म-स्पृक, मर्म-पीड़क, पीडाकारी, नाशक, अग्लि-संज्ञा, पु० दें (सं० अग्लिा ) १६ अपथ्य । मात्राओं का एक छंद विशेष (पिं०)। अरुंधती-संज्ञा, स्त्री० (सं० ) वशिष्ठ मुनि अरिष्ट - संज्ञा, पु० (सं० ) दुःख, पीड़ा, की स्त्री, धर्म से व्याही गई दक्ष की एक आपत्ति, अपशकुन, विपत्ति, दुर्भाग्य, कन्या, सप्तर्षि मंडल में वशिष्ठ तारे के अमंगल, पाप ग्रहों का योग, मृत्यु-योग्य, समीप रहने वाला एक छोटा तारा । धूप में औषधियों का खमीर उठा कर बनाया कहते हैं कि मृत्यु के ६ मास पूर्व यह तारा जाने वाला एक प्रकार का पासव, या मद्य, नहीं दीखता, नासिका का अग्र भाग।। कादा, वृषभासुर, ( कंप-द्वारा कृष्ण-वध के अरु-संयो० अव्य० दे० ( ब्र०) और, औ, लिये भेजा गया तथा कृष्ण से मारा गया पुनः, फिर । था, इसकी देह तथा इसका शब्द बड़ा ई-संज्ञा, स्त्रो० (दे० ) अरवी, घुइयाँ भयानक था ), उत्पात, उपद्रव, अनिष्ट- गर्भिणी स्त्री का चिन्ह, उसकी अरुचि। सूचक चिन्ह, सौरी, सूतिका गृह---- | अरुग्णा-वि० (सं० ) रोग-रहित, जो रोगी "अरिष्ट शव्यां परितोविमारिणा"- रघु०। या बीमार न हो। वि० (सं० ) दृढ़, अविनाशी, शुभ, बुरा, अरुचि---संज्ञा, स्त्री (सं० ) रुचि का अभाव, अशुभ, अनिष्ट । अनिच्छा, अग्नि-मांद्य का रोग, मंदाग्नि, अरिष्ट नेमि-संज्ञा. पु० (सं० ) कश्यप जिसमें भोजन की इच्छा नहीं होती. घृणा. प्रजापति का एक नाम, कश्यप का पुत्र जो नफ़रत, वितृष्णा, जी मचलाना। बिनिता से उत्पन्न हुआ था, राजा सगर के अचिकर---वि० (सं०) जो रुचिकर न ससुर, सोलहवाँ प्रजापति । हो, जा अच्छा न लगे। अरिहन-संज्ञा. पु० दे० (सं० अरिन ) वि० सं० अरुचिर-असुन्दर । शत्रुघ्न । अरुज-वि० (सं० ) निरोग, रोग-रहित । संज्ञा, पु० दे० अरहर। अरुझना-अ० कि० (दे०) उलझना---- परिहा--वि० (सं० ) शत्रु का नाश करने । " उत अरुझे हैं पितु-मातुल हमारे "वाला। श्र० ब०। संज्ञा, पु० (सं० ) लचमणानुज, शत्रन्न। कछ अरुझानी है करीरनि की झार मैं"" लच्छ करौं अरिहा समरथहि "--- ऊ० श०। राम चं० । "छूट न अधिक-अधिक अरुझाई" रामा० । भरी–अव्य० (सं० अयि ) स्त्रियों के लिये अरुझाना–स० क्रि० (दे०) उलझाना । संबोधन पद, री, एरी, अोरी (७०) ऐरी। फँपना, फाँसाना। संज्ञा, पु० दे० (सं० अरि ) शत्रु । अरुण-वि० (सं० ) लाल, रक्त । घरीठा-संज्ञा, पु० (दे० ) रीठा, एक स्त्री. अरुणा। प्रकार का फल । । संज्ञा, पु. ( सं० ) सूर्य । मरीता-वि० दे० (सं० अरिक्त ) जो सूर्य का सारथी, जो गरुड़ के ज्येष्ठ भ्राता नाली न हो। थे, महर्षि कश्यप के औरस और विनिता के For Private and Personal Use Only Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir TRATHI प्रहन प्ररूप गर्भ से उत्पन्न हुये थे, इनके पैर न थे, अरुणोत्पल-संज्ञा, पु० यौ० ( सं० क्योंकि विनिता ने इनके शरीर के पूर्ण होने अरुण + उत्पल ) लाल या रक्त कमल । के पूर्व ही अंडे फोड़ दिये थे, इनकी स्त्री अरुणोपल-संज्ञा, पु. (सं० ) पद्मराग का नाम श्येनी है, संपाति और जटायु | __मणि, लाल, लाल रंग का एक हीरा । इनके पुत्र थे। गुड, अर्कवृन, संध्याराग, अरुन* - वि० दे० (सं० अरुण ) लाल । शब्द-रहित, अव्यक्त राग, ईषद्रक्त, कुष्ट- अरुनई-अरुनाई-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० भेद, कुमकुम, गहरा लाल रंग, सिंदूर, एक अहणाई ) ललाई। देश, मात्र मात्र का सूर्य । अकनारा-दि० पु० (दे० ) । स्त्री० अरुन-(दे०)। अरुनारी । बहु ब० अरुनारे-लाल, अरुण । अरुण कमल-संज्ञा, पु. यो. (सं० ) “ उडइ अबीर मनहु अरुनारी"-रामा० । रक्त या लाल कंज। अरुनाना* --अ० कि.० दे० (सं० अरुण ) श्रण नयन-अरुण लोचन--संज्ञा, पु. लाल होना, रक्त वर्ण का करना। यौ० (सं० ) लाल नेत्र, कपोत, कबूतर, ( स० कि० ) लाल करना । कोकिल, अरुणान। अहरना*S- अ० वि० ( दे० ) लचकना, अमगा-मारभि-संज्ञा, पु. यौ० (सं० ) बल खाना, मुड़ना, सिकुड़ना, संकुचित भानु, सूर्य, दिवाकर । होना। अरुणचूड-संज्ञा, पु. ( सं० ) कुक्कुट, अहवा--संज्ञा, पु० दे० (सं० अरू) एक मुगा। प्रकार की लता जिपका कंद खाया जाता है। अरुणप्रिया-संज्ञा, स्त्री० यौ० ( सं० ) संज्ञा, पु० दे० (हि० रुरुया) उल्लू पती। अप्सरा, छाया और संज्ञा, सूर्य की स्त्रियाँ ।। "अरुवा (सस्त्रा ) चहुँदिसि रत"--। अरुणा शिवा-संज्ञा, पु. यो. (सं० ) अरु-वि० (सं० ) जो रुष्ट या नाराज़ न मुर्गा, कुक्कुट, अरुन सिखा । (दे०)। हो, प्रसन्न । " उठे लषन निसि-विगत, सुनि, अरुन- अरूत-वि० (सं० ) जो रुखा न हो सरस. सिखा-धुनि कान"-रामा० ।। चिकना। अरुणाई --संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० अरुण ) अरुभना-अ. त्रि.( दे० ) भिड़ना. ललाई, रक्तत्ता, लाली, लालिमा। लड़ना, झगड़ना। अरुनाई (ब्र० दे० )। " रन राज कुमार अरुझहिंगे जू"अरुणारे-अरुनारे-वि० दे० ( सं० अरुण ) रामा०। लाल, अरुण रंग वाले, रतनारे । मोसों कहा अरुझति "-सूबे । अरुणिमा-संज्ञा, स्त्री० (सं० ) ललाई, | अरूठा-वि० दे० (सं० आरुट ) रुष्ठ, रूठा लालिमा, सुर्ती । हुश्रा, जो रूठा या मष्ट न हो। (अ+ " अरुणिमा-विनिमज्जत हो गई "- रुष्ट) अरुष्ट । प्रि० प्र०। अरूढ़-वि० दे० (सं० प्रारूढ़) चढ़ा अरुणोदय-संज्ञा, पु० यौ० (सं० अल्ण + हुया, ऊपर बैठा हुआ, तत्पर, तय्यार । उदय ) उषाकाल, ब्राह्म मुहूर्त, तड़का, अरूप-वि० (सं०) रूप-रहित, निराकार. भोर, सूर्योदय । अरुनोदय (दे०)। "अलख अरूप ब्रह्म, हम न कहेंगी तुम " अरुनोदय सकुचे कुमुद -रामा०। । लाख कहिबो करौ"-ऊ० श० । For Private and Personal Use Only Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - प्ररूरना अर्कट अरूरना-अ० क्रि० (दे० ) व्यथित होना, वि० (सं० ) जो न रुचै, अरुचिकर । दुखी होना। | अरोड़ा-वि० संज्ञा अ. (दे०) पंजाबी अरूलना--अ० कि० दे० ( सं० अरुस- खत्रियों की जाति विशेष । तत् = घाव) दिना, चुभना, पीड़ित होना, रोदन-वि० ( सं० ) रोदन-रहित, घाव होना, छिल जाना। रोदनाभाव । अरूला-संज्ञा, पु० (दे० ) अडूसा, रुप, वि० अरोदित-न रोया हुआ। बासा। अरे।पन--संज्ञा, पु० दे० (सं० प्रारोपण ) वि० (दे० अ+ रूसा ) अरुष्ट। ऊपर रखना। (सं० ) स्त्रो० अरुसी। अरोपित-वि० ० (सं० भारोपित) श्ररे-अव्य. (सं० ) संबोधन-शब्द, ए, पारोपण की हुई, जिस पर या जिसका श्रो, रे, थारचर्य-सूचक श्रव्यय, सकोप पारोपण किया गया हो । तिरस्कृत श्राह्वान शब्द। राम-वि० (सं० ) रोम या बाल रहित, अरेचक-वि० ( सं० ) जो रेचक या निलीम। दस्तावर न हो। अरोष-वि० (सं० ) रोष-रहित । अरेणु- वि० (सं० ) रेणु या धूलि से अरास-वि० दे० (सं० अरोष ) रोप रहित, गर्द के बिना। या क्रोध-रहित, यौ० अरास-परोसअरेफ-वि० ( सं० ) २फ या रकार-रहित । अड़ोस पड़ोस ।। अरेव - संज्ञा, पु० (दे० ) पाप, अपराध, अरोहन *-संज्ञा, पु० दे० (सं० प्रारोहण ) दोष, ऐब (दे०)। चढ़ना। अरेरना*---अ० कि० ( अनु० ) रगड़ना, अंगहना ----अ० कि० दे० (सं० प्रारोहण ) मलना। चढ़ना। अरेरा-संज्ञा, पु० (हि. अरेरना ) दरेरा, ' अरोही-संज्ञा, पु० दे० (सं० प्रारोही) दबाव, रगड़। सवार। अरोक-वि० दे० ( हि० अ+रोकना ) जो अर्क-संज्ञा, पु० (सं० ) सूर्य, इन्द्र, ताम्र, रुक न सके, जो रोका न जा सके। ताँबा, स्फटिक, पंडित, ज्येष्ठ भ्राता, रविवार, "रोंकि झरि रंचक अरोक बर बाननि श्रावृक्ष, मंदार, विष्णु, बारह की सख्या । की"-" रत्नाकर" " अर्क-जवाम पात बिन भयऊ - क्रि० वि०-बिना रोक टोक के। रामा० । प्ररोग-वि० (सं०) रोग-रहित, निरोग, संज्ञा, पु. (अ.) उतारा या निचोड़ा हुआ भला, चंगा, पाराग्य । रस, अरक, (दे०) पाउव, अरिष्ट । (सं० ) वि० अरोगी--निरोगी। अकज-संज्ञा, पु० (सं०) सूर्य-पुत्र, यम, अरोगना-अ. क्रि० दे० ( मेवाड़ी) शनि, अश्विनीकुमार, सुत्रीव, कर्ण, सावर्णि खाना, भोजन करना। मनु । अरोत्र -संज्ञा पु० (दे० ) अरुचि, अजा-संज्ञा, स्त्री० (सं०) सूर्य-वन्या, अनिच्छा, अरुचिर। यमुना, तापती, रवितनया, तरनि तनूजा, अरोचक- संज्ञा, पु० (सं० ) अरुचि का रविनंदिनी। रोग, जिसमें भोजनादि नहीं रुचता, अर्कर-संज्ञा, स्त्री. (सं०) सतर्कता, अनिच्छा। सावधानी। For Private and Personal Use Only Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अर्कतनय १५२ अर्य अकरनय-संज्ञा, पु० यो० (सं० ) सूर्य के लिये जल देना, मूल्य, भाव, भेंट, पुत्र, यमादि । सम्मान के लिये जल से सींचना, घोड़ा, स्त्री० अकतनया, यमुनादि। मधु, शहद। अर्कनाना-संज्ञा, पु. (अ.) सिरके के (दे० ) अरघौती या रधोती-भावसाथ भबके से उतारा हुआ पुदीने का अर्क। दर, बाज़ार-भाव, बाज़ार-दर । अर्कमण्डल-संज्ञा, पु. यो. ( सं०) सूर्य अघेपात्र-संज्ञा, पु. ( सं०) शंख के आकार मण्डल, रवि-मंडल, सूर्य का घेरा। __का ताँबे का एक पात्र जिससे सूर्यादि देवों अकवत-संज्ञा, पु. ( सं० यो०) प्रजा की को अर्घ दिया जाता है, अर्धा । । वृद्धि के लिये प्रजा से राजा का कर लेना, अर्घा--संज्ञा. पु० दे० ( सं० अर्घ) अर्घ-पात्र, आरोग्य सप्तमी का व्रत। जलहर।। अर्काचिषि-संज्ञा, पु. यौ० (सं० ) सूर्य अय---वि० (सं० ) पूजनीय, बहुमूल्य, किरण, सूर्य-प्रभा। पूजा में देने के योग्य, (जल, फल, फूल, अर्कोग्ल-संज्ञा, पु. (सं० ) सूर्यकान्त मूल ) भंट या उपहार देने के योग्य, मणि, लाल, पद्मराग, आतिशी शीशा। अकोभा--संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं० ) सूर्य दर्शनी, नज़राना। प्रभा, रवि प्रकाश, अर्क द्युति, सूर्य-प्रतिभा । अर्चक-वि० ( सं०) पूजा करने वाला. अर्गजा---सज्ञा, पु० (दे०) अरगजा। पुजारी, पूज। अर्गनी--संज्ञा, स्त्री० ( दे० ) अरगनी। अचन ( अचना)-संज्ञा, पु. (स्त्री० ) अगल--संज्ञा, पु. (सं० ) किवाड़ बंद (सं० ) पूजा, पूजन, आदर, सत्कार, करने पर लागाई जाने वाली बाड़ी लकड़ी, __ सम्मान, अाराधना, सेवा-सुश्रूषा । अरगल, अगरी, ब्योंडा, किवाड़, अवरोध, अर्चनीय–वि० (सं०) पूजनीय, पूजा कल्लोल, सूर्योदय या सूर्यास्त पर पूर्व या __ करने योग्य, आदरणीय, श्रद्धास्पद । पश्चिम के श्राकाश पर दिखाई देने वाले अचमान----वि० (सं०) अर्चनीय, पूजनीय, रंग-विरंगे बादल, अंबर-डंबर, मांस, हुड़का । (दे० ) खोल, पागल ( दे०)। अर्चा-संज्ञा, स्त्री० ( सं० ) पूजा, प्रतिमा, अर्गला-संज्ञा, स्रो० (सं० ) अरगल, देव-मूति ।। अगरी, बेवड़ा, बिल्ली, सिटकिनी, किल्ली, अर्चित---वि० (सं०) पूजित, प्रादृत, हाथी के बाँधने की जञ्जीर, दुर्गासप्तसती के पूर्व पाठ किया जाने वाला एक स्तोत्र, अचिमान----वि० (सं० ) प्रकाशमान । मत्स्य-सूक्त, अवरोध, बाधक। संज्ञा, पु. (सं० ) सूर्य, अग्नि, चन्द्र। अर्गली-संज्ञा, स्त्री. ( दे० ) मिस्र, अचिराजमार्ग-संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) स्यामादि देशों में पाई जाने वालो एक देवयान, उत्तर मार्ग, मुक्त जीवों के भगवान भेड़ की जाति। के समीप जाने का मार्ग। अर्घ-संज्ञा, पु० (सं० ) षोडशोपचार में अर्चिष्मान-संज्ञा, पु. ( सं० ) अग्नि. से एक, जल, दूध, कुशाग्र. दही, सरसों, सूर्य ।। तंदुल, और जौ को मिला कर देवता को वि० दीप्तिमान, प्रकाशमान । अर्पित करना, अर्घ देने का पदार्थ, अच्य–वि. ( सं० ) पूजनीय, पूज्य, अलदान, सामने जल गिराना, हाथ धोने सेवनीय । For Private and Personal Use Only Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अर्ज अर्थतः अर्ज--संज्ञा, स्त्री० (अ.) विनय, प्रार्थना, | पाशुपत अस्त्र पाया था, द्रोणाचार्य से विनती। इन्होंने धनुर्विद्या प्राप्त की थी। हयहय संज्ञा, पु० (अ.) चौड़ाई, श्रायत । वंशीय एक क्षत्रिय राजा, सहस्रार्जुन या अर्जक-संज्ञा, पु. ( सं०) उपार्जन करने सहसबाहु, सफ़ेद कनैर, मोर, आँख की वाला, अर्जयिता, कमाने या पैदा फूली, एकलौता बेटा। करने वाला। वि० शुभ्र, उज्वल, स्वच्छ । अजेदाश्त-संज्ञा, स्त्री० ( फा० ) प्रार्थना- अर्जुनी-संज्ञा, स्त्री. (सं० ) सफ़ेद रंग पत्र, निवेदन पत्र । की गाय, कुटनी, उषा । अर्जन-संज्ञा, पु० (सं० ) उपार्जन, पैदा संज्ञा, पु० ( सं० ) अभिमन्यु, अर्जुन-सुत । करना, कमाना, संग्रह करना, इकट्ठा करना, अणे-संज्ञा, पु० (सं० ) वर्ण, अक्षर, जैसे संग्रह। पञ्चाण-पंचाक्षर, जल, पानी, एक प्रकार अर्जनीय–वि० ( सं० ) उपार्जनीय, का दंडक वृत्त, शाल वृक्ष । कमनीय। अर्णव-संज्ञा, पु० (सं०) समुद्र, सागर. अर्जमा—संज्ञा, पु० दे० (सं० अर्यमा ) सूर्य, इन्द्र, अंतरिक्ष, दंडक वृत्त का एक मदार, सूर्य उत्तर फाल्गुनी। भेद विशेष, चार की संख्या । अर्जयिता-संज्ञा. पु. ( सं०) कमाने वाला, अर्णव-पोत-संज्ञा, पु० यौ० ( सं० ) अर्जक। जहाज़, बृहद् नौका। अर्जित-वि० ( सं० ) संग्रह किया हुआ, अर्णव-यान - संज्ञा, पु० यौ० ( सं० ) कमाया हुआ, प्राप्त, संग्रहीत, सञ्चित, । समुद्रयान, जहाज़ । लब्ध। अर्थ-संज्ञा, पु० (सं० ) शब्द का अभिप्राय, अर्जी-संज्ञा, स्त्री० ( अ० ) प्रार्थना-पत्र, शब्द-शक्ति, मानी, मतलब, प्रयोजन, निवेदन-पत्र । अभिप्राय, काम, इष्ट, हेतु, निमित्त, इंद्रियों अर्जीदावा संज्ञा, पु. । फा० ) अदालत के विषय, धन, संपत्ति, (च० वि०) के में दादरसी के लिये दिया जाने वाला लिये। प्रार्थना-पत्र । अर्थकर-वि. पु. ( सं० ) धन देने अर्जुन-संज्ञा, पु० (स.) एक बड़ा वृक्ष, । वाला, जिससे धन उपार्जित किया जाये, काहू, पाँच पांडवों में से मैंझले का नाम, लाभकारी। देवराज इंद्र के औरस (पांडु के क्षेत्रज ) स्त्री०-अर्थकरी-लाभ कारी। और कुन्ती के गर्भज पुत्र थे, श्रीकृष्ण के ये "अर्थकरी च विद्या"-हितो० । बहनोई और मित्र थे, कृष्ण इनके सारथी अर्थ-गौरव-संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) अर्थरह कर महाभारत में रहे थे। इनके तीन । गांभीर्य नाम का एक काव्य गुण । प्राधान स्त्रियाँ थीं, द्रौपदी, सुभद्रा और “किराते त्वथं गौरवम् -। चित्रांगदा, कौरव्यय नाग की कन्या उलूपी अर्थज्ञ-वि. पु. ( सं० ) भाव-मर्मज्ञ, भी इनकी स्त्री थी, इंद्र से इन्होंने देव-युद्ध अर्थज्ञाता। एवं देवास्त्र-प्रयोग सीखा था, वहीं उर्वशी अर्थज्ञान-संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) तात्पर्यके कारण इनको नपुंसकत्व प्राप्त हुआ, बोध । जिसका प्रभाव अज्ञात वनवास में रहा, अर्थतः-अव्य० (सं० ) फलतः, वस्तुतः, शिव जी की आराधना करके इन्हों ने मूलतः । भा० श. को०-२० For Private and Personal Use Only Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir INDI अर्थदंड अर्थापत्ति अर्थदंड-संज्ञा, पु. यौ० (सं.) जुर्माना, | अर्थवेद-संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) शिल्पकिसी अपराध के दंड में अपराधी से लिया शास्त्र, अर्थ-शास्त्र जाने वाला धन । अर्थवृद्धि-संज्ञा, स्त्री० (सं० यौ० ) धनअर्थदूषण-अर्थदोष-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) वृद्धि, समृद्धि। अर्थगत दोष, जैसे अविवक्षितार्थ दोष, । अर्थशास्त्र-संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) अर्थ अपरिमित व्यय, अपव्यय, धन-दोष।। की प्राप्ति, रता, और वृद्धि के विधान अर्थना*-स. क्रि० दे० (सं० अर्थ ) बताने वाला शास्त्र, राज-प्रबंध, वृद्धि और माँगना, याचना। रक्षादि की विद्या, नीति-शास्त्र, धनोपाप्रर्थनाश-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) धननाश, जंन का विज्ञान, राज या दंड-नीति । वि०-अर्थ-शास्त्री-अर्थ - शास्त्र - ज्ञाता, निराशा। अथ-हानि, धन हानि । अर्थशास्त्रज्ञ वि० यौ० (सं० ) अर्थ-शास्त्री। अर्थपति-संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) कुबेर, अर्थ-सचिव- संज्ञा, पु० यौ० ( सं . ) अर्थ मंत्री, राज्य के अर्थ सम्बन्धी विषयों की राजा, अति धनी। अर्थपर-वि० ( सं० ) कृपण, व्यग्र, देख-रेख करने वाला मंत्री। अर्थ साधन-संज्ञा, पु० यौ० (सं.) स्वाथ शंकित। का सिद्ध करना, अपना मतलब पूरा करना, अर्थपरायण–वि. ( सं. ) स्वार्थी, प्रयोजन-सिद्धि का उपाय या ज़रिया। मतलबी। अर्थपिशाच-वि० (सं० ) बड़ा कंजूस, अर्थ साधक-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) स्वार्थ को सिद्ध करने वाला, मतलबी, धन-लोलुप। स्वार्थी। अर्थ-प्रयोग-संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) अर्थसिद्धि--संज्ञा, स्त्री० यौ० ( सं० ) मत. वृद्धि, निमित्त, धन-दान । लब का पूरा होजाना, प्रयोजन-पूर्ति । अर्थप्राप्ति-संज्ञा, स्त्री० यौ० ( सं० ) अर्थान्तरन्यास-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) धन लाभ । एक प्रकार का अलंकार जिसमें सामान्य से अर्थमंत्री-संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) अर्थ विशेष का और विशेष से सामान्य का सचिव, खजांची, आर्थिक विषयों की देख साधर्म्य या वैधम्य से समर्थन किया जाय रेख करने वाला राज्य-मंत्री। (काव्य०, अ० पी०)। अर्थवत्व-वि० (सं० ) प्रयोजनार्हता, अर्थात--अव्य० (सं० ) यानी, मतलन यह प्रयोजनीयता। है कि, अथतः, फलतः, विवरण-सूचक शब्द । अर्थवाद-संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) किसी अर्थाना*-स० कि० दे० (सं० अर्थ ) विधि के करने की उत्तेजना को सूचित करने अर्थ लगाना, मतलब समझाना । वाला वाक्य, वह वाक्य जो सिद्धान्त के रूप " कबिरा गुरु ने गम करी, भेद दिया में नहीं वरन् केवल चित को किसी ओर अर्थाय"। प्रवृत्त करने वाला हो, काल्पनिक, फल- अर्थापत्ति-संज्ञा, पु. यौ० (सं०) ऐसा श्रुति, स्तुति, प्रशंसा, प्ररोचक वाक्य ।। प्रमाण जिसमें एक बात से दूसरी बात की अर्थवान-वि० (सं० ) अर्थ युक्त, मतलबी। सिद्धि प्राप ही श्राप हो जाये ( मीमांसा० ) अर्थ-विज्ञान-संज्ञा, पु० यौ० ( सं० ) एक प्रकार का अलंकार जिसमें एक बात शब्दार्थ-ज्ञान-शास्त्र। के कथन से दूसरी की सिद्धि दिखलाई की। For Private and Personal Use Only Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org अर्थालंकार १५५ अर्द्धांगिनी जाये, इसे काव्यार्थापत्ति भी कहते हैं अर्द्धनारीश्वर - अर्द्धनारीश― संज्ञा, पु० ० (सं० ) शिव और पार्वती का सम्मि लित रूप ( तंत्र० ) उमा शंकर, हरगौरि, गौरी-शंकर । अर्द्धनिमेष- संज्ञा, पु० यौ० ( सं० ) ( काव्य० प्र० पी० ) । प्रर्थालंकार - संज्ञा, पु० (सं० ) वह लंकार जिसमें गत चमत्कार प्रगट किया जाय । ( काव्य, प्र० पी० ) 1 प्रर्थी - वि० (सं० अर्थिन ) इच्छा रखने वाला, चाह रखने वाला, कार्यार्थी, प्रयोजन वाला, गज़ 1 संज्ञा, पु० वादी, प्रार्थी, मुद्दई, सेवक, याचक, धनी । संज्ञा, स्त्री० (दे० ) देखो " अस्थी " स्त्री० अर्थिनी । अर्दन - संज्ञा, पु० (सं० ) पीड़न, हिंसा, माँगना । जाना, - स० क्रि० ( सं अर्दन) पीड़ित प्रर्दना. करना, दुःख देना | प्रदली - संज्ञा, पु० दे० ( अं० आर्डरली ) चपरासी । प्रदोषा - वि० (दे० ) मोटा आटा, दलिया । प्रदिन - वि० (सं० ) पीड़ित, हिंसित, याचित, गत, यंत्रणायुक्त, दुखित । अर्द्ध - वि० (सं० ) आधा, तुल्य या सम भाग, मध्य श्रद्धा (दे० ) । अर्द्धचंद्र - संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) आधा चाँद, अष्टमी का चंद्रमा, चंद्रिका, मोरपंख पर बनी हुई आँख, नवचत, एक प्रकार का वाण, सानुनासिक का एक चिह्न चंद्र - विन्दु, एक प्रकार का त्रिपुंड गरदनिया, निकाल बाहर करने के लिये, गले में हाथ लगाने की एक मुद्रा विशेष । अर्धजल - संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) श्मशान मैं शव को स्नान कराके आधा जल में राधा बाहर रखने की क्रिया । अर्द्ध-कंपित - वि० यौ० (सं० ) श्राधा छिपा हुआ । श्रर्द्धनयन - संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) देवताओं की तीसरी आँख जो ललाट में होती है। Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आधा क्षण । " अर्ध निमेष कल्प सम बीता „ रामा० । अर्द्धप्रफुल्ल - वि० यौ० (सं० ) अधखिला, श्राधा फूला वि० अर्धप्रफुल्लित । अर्द्धमागधी - संज्ञा स्त्री० यौ० (सं० ) प्राकृत भाषा का एक भेद, काशी और मथुरा के मध्यवर्ती प्रान्त की प्राचीन भाषा । अर्द्धरथ श्रर्द्धरथी - संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) एक रथी से न्यून योधा, श्राधा रथी । अर्द्धरात्रि - संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं० ) रात्रि का अर्ध भाग, मध्य रात्रि | अधरात ( दे० ) महानिशा, आधीरात (दे० ) । " अर्ध रात्रि गई कपि नहि श्रवा " रामा० । प्रवृत - संज्ञा, पु० ० (सं० ) वृत या गोले का आधा भाग, गोलार्ध । अर्द्धसमवृत्त - संज्ञा, पु० या० ( सं० ) वह छंद जिसका प्रथम चरण तो तीसरे के और दूसरा चतुर्थ के बराबर होता है, जैसे दोहासोरठा (पिं० ) । प्रस्फुटित - वि० ० (सं० ) अधखिला, श्राधा खुला हुआ । वि० [अर्द्धस्फुट - अर्धविकसित । श्रद्धांग - संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) श्राधा अंग, पक्षाघात या एक विशेष प्रकार का लकवा या वायु-रोग जिसमें आधा शरीर काम और शून्य होकर जड़ीकृत सा हो जाता है, फालिज, पक्षाघात । अर्द्धांगिनी - संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं० ) स्त्री, पत्नी, अर्धांगी (दे० ) । For Private and Personal Use Only Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra अर्द्धांगी १५६ अर्द्धांगी - संज्ञा, पु० (सं० अगिन् ) शिव, शंकर, अर्ध शरीरधारी । वि० (सं० ) अधींग रोगग्रस्त, पक्षाघात - पीड़ित । पु० www.kobatirth.org यौ० ( सं० ) श्रद्धांश - संज्ञा, अर्ध भाग । श्रर्द्धाली—संज्ञा, स्त्री० ( सं० ) श्रर्द्धालि, श्री चौपाई, चौपाई की दो पंक्तियाँ । श्रद्धोदय - संज्ञा, पु० ( सं० यौ० ) एक ऐसा पर्व - दिन, जब माघ की अमावस्या रविवार को पड़ती है और श्रवण नक्षत्र तथा व्यतीपात योग होता है। अर्धग- संज्ञा, पु० दे० (सं० ध अर्धगीळ – संज्ञा, पु० दे० (सं० शिव । अर्पण - संज्ञा, पु० (सं० ) देना, नज़र, भेंट, स्थापन करना । प्ररपन ( दे० ) समर्पण | प्रणीय - वि० (सं० ) देने या भेंट करने के योग्य | प्रर्पित - वि० (सं० ) दी हुई दिया हुआ, समर्पित । दान, Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir त संख्या, अरावली पहाड़, एक असुर, कह का पुत्र, एक सर्प, मेघ, बादल, दो महीने का गर्भ, शरीर में एक प्रकार की गांठ पड़ने वाला रोग, बतौरी रोग । अपना-अपना * - स० क्रि० दे० (सं० अर्पण) अर्पण करना, भेंट देना, नज़र अर्भ - संज्ञा, पु० ( सं० ) बालक, शिष्य, शिशिर, सागपात | अर्भक - वि० पु० (सं० ) छोटा, रूप, मूर्ख, दुबला, पतला, कृश, नासमझ, स्वरूप, धींग ) है " - श्र० ब० । धींगी) अर्य - संज्ञा, पु० (सं० ) स्वामी, ईश्वर, वैश्य | सकृश, कृशतृण । संज्ञा, पु० (सं० ) बालक, शिशु, शावक । " गर्भन के अर्भक दलन, परसु मोर प्रति घोर ". रामा० । (< गर्भ माँहि अर्भक द स्त्री० प्रर्या, प्रर्याणी । वि० श्रेष्ठ, उत्तम | अर्यमा - संज्ञा, पु० (सं० अर्यमन ) सूर्य, बारह आदित्यों में से एक, पितर के गणों में से एक, उत्तर फाल्गुनी नक्षत्र, मदार, नित्य । असि -- संज्ञा, पु० ( सं० ) अकस्मात गिरना, एक ही समय गिर पड़ना । प्रर्शना- क्रि० प्र० (सं० ) एक बेर में भहरा पड़ना । करना । वि० [रपित, घरपनीय (दे० ) । - संज्ञा, पु० (दे० ) ( सं० अर्बुद ) दश कोटि, दस करोड़ की संख्या । प्रर्वाक - अव्य० ( सं० ) पीछे, इधर, निपट, समीप, पास । अर्वाचीन - वि० (सं० ) पीछे का, आयुनिक, नवीन, नया, नूतन, अज्ञान, विरुद्ध । यौ० अर्ब खर्ब - श्रसंख्यात् । "अर्ब खर्ब लौं द्रव्य हैं, उदय-ग्रस्त लौं अर्श - संज्ञा, पु० (सं० ) पीड़ा, बवासीर, राज " तु० । रोग विशेष । - दर्ब - संज्ञा, पु० दे० (सं० अर्बुद द्रव्य ) धन-दौलत, सम्पत्ति । अबक - वि० (सं० ) प्राक्, पूर्व, आदि, , वर, निकट, समीप, पश्चात्, बाद । अर्बुद – संज्ञा, पु० (सं० ) गणित में हवें स्थान की संख्या, दश कोटि, दस करोड़ की कि- दसा की सुधि जागी संज्ञा, पु० ( ० ) आकाश, स्वर्ग 1 प्रर्शपर्श- संज्ञा, पु० (सं० ) छुवाछूत, For Private and Personal Use Only अशुद्ध । अर्हत - संज्ञा, पु० (सं० ) जैनियों के पूज्य देवता का नाम, जिन, बुद्ध, पूज्य या समर्थ व्यक्ति । Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org - मुद्रा० । " नमो नमो अर्हत को " श्रर्ह - वि० (सं० ) पूज्य, योग्य, उपयुक्त, श्रेष्ठ, उत्तम, जैसे- पूजाई । संज्ञा, पु० (सं० ) ईश्वर, इंद्र | अर्हणा -- संज्ञा, स्त्री० (सं० ) पूजा, श्राराधना, उपासना । ग्रहणीय - वि० (सं० ) पूजनीय, पूज्य | वि० अति-पूजित, श्राराधित । अ - वि० (सं० ) पूज्य, मान्य, पूजनीय | अर्हत्- अर्हन्– वि० (सं० ) पूजा, सम्मान । संज्ञा, पु० जिन देव, ईश्वर ( जैनियों के ) । अर्हन्नित्यथ जैन- शासन-भृताः "" ܕܕ --- "" ह० ना० । अलं-- अव्य० (सं० ) देखा " लम् काफ़ी । अलंकार - संज्ञा, पु० (सं० ) ज़ेवर, गहना, आभूषण, भूषण, विभूषण, किसी बात को चारु चमत्कार चातुर्य के साथ कहने का ढंग, या रुचिर रोचकता पूर्ण प्रकाशन-रीति ( काव्य ० ) नायिका के सौन्दर्य के बढ़ाने वाले हाव-भाव या श्रांगिक चेष्टायें ( साहि० ) । प्रलंकारिक - वि० ( सं० ) सम्बन्धी, अलंकार से युक्त, अलंकारविभूषित, १५७ चमत्कृत | विभूषित, प्रलंकित- - वि० (दे० ) अलंकृत, (सं० ) श्रभूषित, सजाया हुआ, चमत्कृत, सुसज्जित । अलंकृत - वि० सं०) विभूषित, अच्छी तरह सजाया हुआ, चारु चमत्कृत, समाभूषित, काव्यालंकार युक्त, सँवारा हुआ । स्त्री० प्रलंकृता । अलंकृत काल - संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) हिन्दी साहित्य का वह मध्य काल ( लगभग १६०० ई० से १८०० ई० तक ) जिसमें अलंकार-ग्रंथों तथा काव्यालंकारयुक्त काव्य की विशेष रचना हुई है । प्रलंकृत शैली - संज्ञा, स्त्री० यौ० ( सं० ) Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अलक हिन्दी गद्य लिखने का वह ढंग या तरीक़ा जिसमें शब्द-संगठन और वाक्य - विन्यास काव्यालंकार से सजा हुआ रहता है, गद्यकाव्य की एक विशेष रचना - रीति । अलंग - संज्ञा, पु० ( सं० अलंपुर्ण + अंग ) थोर, तरफ़, दिशा । लँग, (दे० ) अलंग ( प्रान्ती० ) । 16 लेन प्रायो कान्ह कोऊ मथुरा लगते 29 - दास० । स्त्री० बाजू, सेना का पक्ष | वि० ( हि० ० - + लंग लँगड़ा ) जो लँगड़ाता न हो । मुहा०—लंग पर आना या होनाघोड़ी का मस्तान | लंघन - संज्ञा, पु० ( सं० अ + लंघन ) न लाँघना, न फाँदना, अनुल्लंघन, अनुपवास, उपवास का अभाव । वि० [प्रलंबित | प्रलंघनोय - वि० (सं० ) जो लाँघने योग्य न हो, अलंघ्य | अलंध्य - वि० (सं० ) जो लांघने योग्य न हो, जिसे न फांद सकें, जिसे टाल न सकें, अटल । प्रलंब - संज्ञा, पु० (दे० ) आलंब, सहारा, सहाय । आसरा, ( दे० ) श्राश्रय, श्राधार । अलंबन - संज्ञा, पु० दे० (सं० आलंबन ) सहारा, आधार, श्राश्रय, श्रासरा । प्रलंबित - वि० दे० (सं० प्रलंवित ) श्राश्रित, आधारित । For Private and Personal Use Only चाल - संज्ञा, पु० (सं० ) भूषण, पर्याप्ति, वारण, वृथा, शक्ति, निरर्थक I संज्ञा, पु० (दे० ) बिच्छू का डंक, विष । अलक - संज्ञा, पु० (सं० ) मस्तक के इधरउधर लटकने वाले बाल, केश, लट, घुंघरार बाल, छल्लेदार बाल, हरताल, मदार, महावर । Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अलकतरा १५८ अलगनी HINDISTRIYARAMMERARIDHIWumawwarenaaman "प्रथमहिं अलक तिलक लेव साजि" .-- | लक्ष्य-वि० (सं० ) अदृश्य, जो न देख विद्या। __ पड़े, ग़ायब, जिसका लक्षण न कहा जा अलकतरा-संज्ञा, पु. ( अ० ) पत्थर के सके, जो लक्ष के योग्य न हो। कोयले को आग पर गला कर निकाला अलख-वि० (सं० अलक्ष्य ) जो दिखाई हुआ एक काले रंग का गाढा द्रव पदार्थ, न पड़े, अदृश्य, अगोचर, अप्रत्यक्ष, इंद्रियाडामर ( प्रान्ती० ) धूना, कोलतार। तीत, न देखा हुया, अदृष्ट, गुप्त, लुप्त, अलक लडैता - वि० ० ( हि० ईश्वर । अलक = बाल-+-लाड = दुलार ) दुलारा। मुहा०-अलख जगाना-पुकार कर स्त्री. अलक लडैनी। भगवान का स्मरण करना या कराना, "अब मेरे अलक लडैतै लालन कै हैं करत परमात्मा के नाम पर भिक्षा माँगना । सँकोच''--भु। " लखि व्रज-भूप-रूप अलख अरूप ब्रह्म अलक सलोरा--वि० दे० ( सं० ऊ. श० । अलक -- सलोना-हि० ) लाडला, दुलारा। अलखधारी-संज्ञा, पु० (दे. यो०) स्त्री० अलक सलोरी। अलम्ब अलख पुकारते हुए भिक्षा माँगने अलका-संज्ञा, स्त्री. (सं० ) कुबेर की वाले एक प्रकार के साधू । पुरी, पाठ और दस वर्ष के बीच की लड़की। अलखानामी-संज्ञा, पु० दे० यौ० (सं० अलकापति- संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) कुबेर, अलक्ष नाम ) अलखोपासक साधु विशेष, अलकेश, भालकेश्वर। जो अलख कहकर भिक्षा माँगते हैं । अलकाबलि-संज्ञा, स्त्री० औ० (सं० ) अलखित—वि० दे० (सं० अलक्षित) केशों का समूह, बालों का गुच्छा, लटों अप्रगट, गुप्त, अज्ञात, अदृष्ट, न देखा हुआ, की राशि। स्त्री० अलखिता। अलकेश-अलकेश्वर-संज्ञा, पु० यौ० अलखनीय-वि० ( दे. ) जो लखने या (सं० ) कुबेर, धन-पति । देखने के योग्य न हो, जो देखने या अलक्त-अलक्तक-संज्ञा, पु० (सं०) लाख, विचारने या पढ़ने के अयोग्य हो।। चपड़ा, लाह का बना हुया एक प्रकार का अलग--वि० दे० (सं० अलग्न ) पृथक, रंग, जिसे स्त्रियाँ पैर में लगाती हैं, महावर, विलग, जुदा, अलाहिदा, न्यारा, भिन्न. लाक्षारस । अलक्ष-वि० (सं० ) जो लन या लाख के बेलाग, दूर, परे। बराबर न हो, जिसका लक्ष्य न किया गया | मुहा०-प्रालगकरना--- दूर करना, हटाना, हो, न देखा हुआ, अलच्छ-(दे० )। छुड़ाना, बरखास्त करना, बेलाग, बना अलक्षण-संज्ञा, पु. ( सं० ) बुरे लहण, हुया, रक्षित करना। कुलक्षण, अरे चिन्ह, रत्तच्चन (दे०)। अलग हाना-हिस्सा बाँट करके पृथक अलक्षित--- वि० (सं० ) अप्रगट, अज्ञात, हो जाना। अदृश्य, गायव, न देखा हुअा, अविचारित। अलगनी-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० बालग्न) स्त्री० अलक्षिता-अदृश्या । घर में कपड़ों के टाँगने या लटकाने के (दे० ) अलच्छिता। लिये बाँधी हुई रस्सी या आड़ा टँगा हुआ अलक्षणी-- वि० ( सं० ) बुरे लक्षणों- बाँस, डारा। वाला, कुलक्षणी। | अरगनी, (दे०, प्रान्तो०)। For Private and Personal Use Only Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अलगरज अलबेलापन RenceTORNORM A DARIENDRAamamaasummaNDHAROHINR अलगरज--वि० दे० (अ० अलग़रज़) अलतनी-संज्ञा, स्त्री० (दे० ) हाथी की बेपरवाह, बेग़रज़, अलगरजू (दे०) बागडोर । अलगरजी-वि० दे० ( अ० ) बेग़रज़ी, अलता-संज्ञा, पु० दे० (सं० अलक्तक प्रा० लापरवाह, बेपरवाह ।। अलत्ता अप० अलत्ता) स्त्रियों के पैरों में संज्ञा, स्त्री० (दे० ) लापरही, बेपरवाही, . लगाने का एक लाल रंग, जावक, महावर, बेग़रज़ो। खसी की मूत्रेन्द्रिय, थालता. लाख का अलगाना–स० कि० दे० ( हि० अलग ) रंग, लाक्षारस।। अलग करना, छाँटना, चुनना, जुदा करना, अलप-वि० दे० (सं० अल्प ) छोटा, दूर करना, हटाना, पृथक करना, थोड़ा, कम, न्यून । बिलगाना। खंज्ञा, पु० (दे० ) असामयिक मृत्यु का योग अ० क्रि० अलग होना। ( भड्डर)। अलगानी-वि० स्त्री० पृथक हुई। " तू अति बपल अलप को संगी' मु० ! अलगाव-संज्ञा, पु० दे० (हि. अलग) अत्तपी-वि० (दे० ) अल्पकालीन मृत्यु. विलगता, पृथकता, जुदापन दिलगाव, योग वाला। पृथकत्व, भिन्नता, लगाव का अभाव । अलपाका-संहा, पु० दे० (स्पे० एलपका ) अलगबो-श्रलगाइना--संज्ञा, पु० (ब०) दक्षिणी अमेरिका में होने वाला एक ऊँट अलगाना, अलग करना, बिलगाना। की तरह का जानवर, इसी जानवर का अलगोजा-संज्ञा, पु० (१०) एक प्रकार | ऊन, उससे बना हुया एक प्रकार का की बाँसुरी। कपड़ा। अलचक ---वि० ० (सं० अलक्ष) अलफा-संज्ञा, पु० दे० (अ० ) एक प्रकार अलक्ष्य। का बिना बाँहों वाला लम्बा कुरता। वि० दे० (सं० अ-+-लक्ष ) लाख नहीं, स्त्री० अत्तको कुरती, सलू का, बंडी। लक्षण-रहित, अलख । अलबत्ता--अव्य. ( अ० ) निस्पन्देह, " जानत न ब्रह्मह प्रमानत अलच्छ ताह" बेशक हाँ. बहत ठीक. निश्शंसय. लेकिन ऊ० श० । दुरुस्त, किन्तु, परन्तु । अलच्छन-संज्ञा, पु० दे० (सं० ।- " फैशन का लत्ता अलबत्ता फहराता है" लक्षण ) कुलक्षण, बुरे लनण या गुण, ---'सरस'। अशुभ चिन्ह, अपशकुन, असगुन (दे०)। अलविदा---संज्ञा, स्त्री. (अ.) बिदाई, अलच्छनी-वि० दे० (सं० अलक्षणी) प्रयाण । बुरे लक्षण वाला, कुल क्षणी, दुर्गुणी। अलबेला–वि० ० (सं० अलभ्य - ला-- स्त्री० अलच्छिनी--- बुरे लक्षणों वाली।। हि० प्रत्य० ) बांका, छैला, छैलछबीला, अलच्छित-वि० दे० (सं० अलक्षित) बनाठना, गुंडा, अनूठा, अनोखा, सुन्दर, अलक्षित, अगट, अप्रष्ट, गुप्त । अल्हड़, मनमौजी तरंगी, लापरवाह । अलज्ज---वि० (सं० ) निर्लज्ज, बेहया, स्त्री० अलबेली-छबीली, बनीठनी, बेशर्म, लज्जा-रहित, ( विलोम ) सलज्ज । सुन्दर। अलाज दे० वि०। "नायिका नवेली अलबेली खेली नैहर सों।" अलड़-बलड़-वि० स्त्री० (सं० ) जड़, ! अलबलापन--- संज्ञा, पु० ( हि० अलबेला--- बकबादी, मूर्ख, निर्बुद्धि, अव्यवस्थित । पन--प्रत्य०) बाँकापन, सजधज, छैलापन, For Private and Personal Use Only Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra लबी-तलबी सुन्दरता, बेपरवाही | www.kobatirth.org १६० अनोखापन. लबी- तलबी - संज्ञा, स्त्री० दे० (अरवी + अनु० ) अरबी, फ़ारसी या कठिन उर्दू ( उपेक्षा भाव में ) । मुहा० - लबोतलबी छाँटना कठिन और मुहावरा (अरबी, फारसी - मिश्रित ) उर्दू बोलना, योग्यता दिखाना, रोब जमाना, क्रोध दिखाना, पक्की बूकना । ( दे० मुहा० ) । अलबी-तलबी भुलाना - रोब या आतंक का नष्ट कर देना । अलबी-तलबी भूलजाना - रोबया क्रोध का दूर हो जाना। अलवी - तलबी घरी रहना - रोब सब पड़ा रह जाना, रोष का अलग पड़ा रहना, निःफल कोप होना । अलभ्य - वि० सं० न मिलने के योग्य, अल्हड़पन, प्राप्य, जो कठिनता से मिल सके, दुष्प्राप्य दुर्लभ, अमूल्य, अनमोल । अलम् - अव्य० (सं०) यथेष्ट, पर्याप्त, पूर्ण, 4: व्यर्थ, निरर्थक, बहुत, बस, समूह, भीड़, सामर्थ्य, निषेध | अलम् महीपाल तवश्रमेण " - रघु० 1 अलम -संज्ञा, पु० ( ० ) रंज, दु:ख, भंडा, पताका । अलमस्त -- वि० ( फा० ) मतवाला, प्रमत्त, मस्त, बदहोश, बेहोश, बेसुध बेफ़िक्र, बेग़म, लापरवाह | संज्ञा स्त्री० अलमस्ती - प्रमत्तता । अलमारी - संज्ञा स्त्री० दे० (पुर्त० अलमारियो अ० अलमिरा ) चीज़ों के रखने के लिये खाने या दर बनी हुई बड़ी सन्दूक बड़ी, भँडरिया । तर्क -संज्ञा, पु० (सं० ) पागल कुत्ता, सफ़ेद मदार या आक, एक अंधे ब्राह्मण के माँगने पर अपनी दोनों आँखों को निकाल कर दान कर देने वाले एक प्रचीन राजा का नाम । अलसाना अललटप्पू - वि० ( दे० ) अटकलपच्चू, ठौर-ठिकाने का, बेअंदाजे का, अंड बंड, बेहिसाब | अललबोड़ा - संज्ञा, पु० दे० ( हि० ल्हड़ + बछेड़ा ) घोड़े का जवान बच्चा. आदमी | अललानाई - अ० क्रि० दे० (सं० अरबोलना ) चिल्लाना गला फाड़ कर बोलना, बकना । अलवाँती - वि० स्त्री० दे० (सं० बालवती ) स्त्री, जिस के बच्चा हुआ हो, प्रसूता, ज़च्चा | अलवाई - वि० जिसे बच्चा जने समय हुआ हो का उलटा । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अलवान -संज्ञा, पु० ( ० ) ऊँनी चादर, जो जाड़े में श्रोढ़ा जाता है, दुशाला । अलस - वि० दे० (सं० ) आलसी सुस्त, ( हि० + लस चिपकाहट ) लस या चिपकने की शक्ति से रहित, निस्सार, असार, तत्व-रहित | Cs अलसान अलसानिक - संज्ञा, स्त्री० दे० ( हि० बालस) आलस्य, सुस्ती, शैथिल्य शिथिलता, रसान ( ० प्रान्ती ० ) । सानि लखे इन नैननि की " 'सजनी रजनी यवसान भये चख सानपगे लसान लगे" । 1 ८. सी० दे० (सं० बालवती ) एक या दो माह या कम गाय या भैंस ) " बाखरी" शिथिल, अलसानी - वि० स्त्री० ( हि० ) अलसाई हुई, सुस्त, प्रालस्य-युक्त, रसाई ( ० ) । For Private and Personal Use Only अलसाना - प्र०क्रि० दे० (सं० अलस ) आलस्य करना, सुस्ती में पड़ना, शिथिलता का अनुभव करना, सुस्त होना । श्ररसाना(दे० ० ) | are करब ब उचित लाल इत मम त्रियाँ सानी " रघु० । Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - अलसित १६१ प्रलापना स्त्री० वि०-अलसाई, अलासाया, अलाग-वि० दे० (हि० प्र+लगाव ) बिना (पु० वि०)। लगाव के। वि० पु० अलसाने स्त्री० अलसानी। अलाज-वि० दे० (हि. म+लाज अलसित-वि० (हि. आलस्य ) आलस्य- लज्जा) बिना लज्जा के, निर्लज्ज, बेशर्म युक्त, सुस्ती से भरा हुआ, सुस्त, शिथिल, बेहया। वि० (हि. अ+लसना ) जो शोभा न दे, अलात-वि० (सं०) अधजला, जलता, अशोभित, जो न लसे या सजे। हुआ काठ या लकड़ी। अलसी-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० अतसी) संज्ञा, पु० जलता हुआ, पदार्थ । एक प्रकार का पौधा जिसके बीजों से तेल श्रलातचक्र--संज्ञा, पु० यो (सं० ) किसी निकलता है, इसी पौधे के बीज, तीसी। जलती हुई लकड़ी आदि के चारो ओर वि० स्त्री० (अ+ लसना ) जो न छजती घुमाने से बनने वाला श्राग का एक चक्र हो, अशोभित। या चक्कर, श्राग का घेरा, या गोला अलसेट-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० अलस) या वृत। ढिलाई, व्यर्थ की विलम्ब, निरर्थक देर, टाल- अलान-संज्ञा, पु० दे० (सं० आलान ) मटूल भुलावा, चकमा, बाधा, अड़चन, हाथी के बांधने का खूटा या सिक्कड़, बंधन, झगडा, तकरार, झमेला, कठिनाई, रोक बेड़ी, हस्ति-बंधन, बैल चढ़ाने के लिये अरसेट (दे०)। गाड़ी हुई लकड़ी। अलसेटिया-वि० पु० (हि० अलसेर ) | " नवगयन्द रघुबीर-मन, राज अलान व्यर्थ के लिये देर या विलम्ब करने वाला, समान"-रामा०। अड़चन डालने वाला, वाधक, टाल-मटूल संज्ञा, पु० दे० ( उ० एलान ) घोषणा, करने वाला, झगड़ालू. रारी, अरसेटिया, मुनादी, ( दे० ) अलसेटी (वि.)। अलानिया-कि० वि० दे० (अ० एलान) अलसेटी-बि० पु. (हि० दे०) वाधा खुल्लम-खुल्ला, (दे० ) प्रगट में, जाहिर में उपस्थित करने वाला, रोकने वाला। सब को जानकारी में, डंके की चोट पर स्त्री० अल सेटिन। करना या कहना, कह कर, चिल्ला कर । अलाप-संज्ञा, पु० दे० (सं० पालाप ) स्वर, अलसौंहा-वि० पु० दे० (सं० अलस) राग, तान, बातचीत, वार्तालाप । आलस्ययुक्त, क्लांत, शिथिल, श्रान्त, नींद | संज्ञा, पु० अलापन (सं० श्रालापन )। से भरा हुआ, उनीदा, ब० ब० अलसौहैं। अलापनहार-वि० दे० (हि. अलापन+ स्त्री० अलसौंहो, पु० अरसौंहे, स्त्री० अर हार–प्रत्य० ) अलापने वाला, गाने वाला, सौहीं (ब्र.)। अलापनहारो (ब्र०)। अलहदा--वि० (अ.) जुदा, पृथक, अलग " अहि कराल केकी भएं, मधुर पालापनविलग। हार"-वृ.। अलहदी-वि० (अ.) देखो, अहदी। वि० स्त्री० अलापनहारी। प्रलाई-वि० दे० (सं० आलस ) आलसी, प्रलापना-अ० क्रि० दे० (सं० आलापन) काहिल, सुस्त। बोलना, बातचीत करना, तान लगाना, संज्ञा, स्त्री० ---सुस्ती, आलस्य, अम्हौरी। गाना, स्वर देना या उठाना, स्वर का चढ़ाना संज्ञा, पु० घोड़े की जाति । (संगीत)। भा० श० को -२० For Private and Personal Use Only Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अलापित अलि अलापित-वि० दे० (सं० आलापित ) वि० दे० (हि. अ+लाल ) जो लाल बात-चीत किया हुआ, गाया हुश्रा, स्वर न हो। दिया हुया। अलाली--संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० अलस) वि० अलापनीय, अलापने के योग्य ।। अकर्मण्यता, बालस्य निकम्मापन । प्रलापी*-वि० दे० (सं० अालापी) वि० ( अ+ लाली -- लालिमा ) लालिमा बोलने वाला, शब्द निकालने वाला, स्वर | रहित, जिसमें लाली या ललाई न हो। या राग उठाने वाला। अलालिमा-लालिमा का अभाव । अलाब-संज्ञा, पु० ( दे० ) आग का ढेर, मु०-अलाली चढ़ना या सवार होना-- अग्नि राशि, अलाव। अकर्मण्यता आना, सुस्ती याना, निकम्मा अलावू-अलाबु-संज्ञा, स्त्री० ( सं० ) लौवा, | हो जाना। कद्दू, तूंवा, तूमड़ी, तूमड़ी का बना हुआ अलाव-संज्ञा, पु० दे० (सं० अलात ) बरतन । तापने के लिये जलाया हुअा अग्नि का ढेर, अलाभ-संज्ञा, पु० (सं० ) बिना लाभ के, | __ कौड़ा, अग्नि-राशि भट्टी। लाभ-रहित, बेफ़ायदा, हानि, क्षति। अलावा-क्रि० वि० (अ. ) सिवाय अलाभकारी-वि० (सं० ) लाभ न करने अतिरिक्त । वाला, हानि कर। अलिंग-वि० (सं० ) लिंग-रहित, बिना अलाभप्रद-वि० (सं० ) जो लाभप्रद या चिन्ह के, बिना लक्षण का, जिसकी कोई लाभ करने वाला न हो, हानिकारक, फायदा पहिचान न हो, या न बताई जा सके । न करने वाला, क्षतिकारी। संज्ञा, पु० ऐसा शब्द जो दोनों लिंगों में अलाम-वि० (अ. अल्लामा) बात व्यवहृत या प्रयुक्त होता हो जैसे-हम, बताने वाला, बात गढ़ने वाला, मिथ्यावादी, तुम, मैं, वह, मित्र, ब्रह्म ( व्याकरण )। गप्पी, गपोडिया। वि. अलिगी-जिसमें लिंग या लक्षण अलाय-बलाय-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. न हो। बलाय, फा० बला, =आपत्ति ) आपत्ति, अल्लिंगन--संज्ञा, पु० दे० (सं० प्रालिंगन ) विपत्ति, ख़राबी, बुराई, विकार। आलिंगन, भेंटना, हृदय से लगाना। अलायक - संज्ञा, पु० (सं० अ+ अलिगना --सं० कि० दे० (सं० आलिंगन) लायक (अ० ) नालायक अयोग्य, असमर्थ __ आलिंगन करना। मूर्ख। अलिंजर-संज्ञा, पु. (सं० ) पानी रखने अलार-संज्ञा, पु० (सं० ) कपाट, किवाड़। का बरतन या मिट्टी का घड़ा, झझझर, *संज्ञा, पु० दे० (सं० अलात) अलाव, आग घड़ा। का ढेर, अँवाँ, भट्टी। | अलिंद-संज्ञा, पु. ( सं० ) मकान के वि० दे० (हि. अ+लार - राल ) लार या बाहिरी द्वार के आगे का चबूतरा, या छज्जा. राल (जो चच्चों के मुँह से बहती है) संज्ञा, पु० दे० (सं अलीद्रं ) भ्रमर, भौंरा, से रहित । मधुप। अलाल-वि० दे० (सं० श्रालस ) आलसी, अलि-संज्ञा, पु० (सं० ) भौंरा, भ्रमर, काहिल, सुस्त, अकर्मण्य, निकम्मा, निकाम द्विरेफ, मधुप, कोयल, (कैलिया ब्र.) ( दे०) निरुद्यमी, जो उद्योग न करे, कौवा, विच्छू, वृश्चिक, राशि, कुत्ता, मदिरा, बेकाम। अली (ब्र० दे०)। For Private and Personal Use Only Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अलिनि अलूप " अली कलीही मैं रम्यौ "-वि०। स्त्री. अलीना। " इहि श्रासा अटके रहो, अलि गुलाब के अलीपित-वि० दे० (सं० अलिप्त ) मूल”-वि०। जो लिप्त न हो, जो लीपा न गया हो। संज्ञा, स्त्रो० (दे०) अली, पाली, सखी। " रहत अलीपित तोय तैं, जैसे पंकजस्त्री० अलिनी। पात', --दीन। " राधा-माधव अलिबो, अलि को अलि अलील-वि० (अ०) बीमार, रुग्ण, प्रति बैन'-दीन । रोगी। अलिनि-संज्ञा, स्त्री० (सं० अलि ) भ्रमरी, अलीह-वि० दे० (सं० अलीक) मिथ्या, मधुकुरी, अलिनी, भौरी। __ असत्य, झूठ, अनुचित, अनुपयुक्त, अनृत । अलिक-संज्ञा, पु० (३०) ललाट, माथा, “एक कहहिं यह बात अलीहा "मस्तक। रामा०। " लटकै अलिक, अलक चीकनी"-1 | अलुक-संज्ञा, पु० (सं०) समास का वह अलिपक-संज्ञा, पु० (सं० ) कोयल, शहद | भेद जिसमें दो शब्दों के बीच की विभक्ति की मक्खी, कुत्ता, स्वान । का लोप नहीं होता, ( व्याक० ) जैसे, अली-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० आली ) सरसिज, मनसिज। सखी, सहेली, पंक्ति या क़तार, अवली, | अलुंज-वि० ( दे० ) जो लंज न हो, जो अवलि । लँगड़ा न हो। संज्ञा, पु० दे० (सं० अलि ) भौंरा। अलुझना- अ. कि० दे० (हि. अरुअलीक-वि० (सं० ) मिथ्या, झूठ, झना ) अरुझना, उलझना, फँसना, भिड़ना, मर्यादा-रहित, अप्रतिष्ठित, अरुचिकर, | लड़ना, अटकना। असार, अलीका (दे०)। अलुटना-अ० कि० (सं० अ---लुट" लीन्ही मैं अलीक लीक, लोकनि तें लोटना) लड़खड़ाना, लोटना, गिरनान्यारी हौं, (भा वि. ) देव । पड़ना। " वचन तुम्हार न होइ अलीका - स० क्रि० (दे० ) उलटना, उलटा करना। रामा। अल्लुप्त-वि. (सं० श्र+लुप्त ) जो लोप संज्ञा, पु० दे० (अ+ लीक ) लीक या रास्ता न हो, प्रगट, व्यक्त, प्रकाशित, जो छिपा न से-रहित, मार्ग-विहीन, कुमार्ग, अप्रतिष्ठा, | हो, अलोप। अमर्यादा। अलुमीनम--संज्ञा, पु० दे० (अ. एलुमोअलीजा-वि० (दे० ) बहुतसा, प्रचुर, नियम ) एक प्रकार की हलकी धातु जो अधिक। नीलापन लिए हुए सफ़ेद होती है, और अलीन-संज्ञा, पु० दे० (सं० आलीन ) द्वार जिसके बरतन बनाये जाते हैं। के चौखट की खड़ी लंबी लकड़ी, साह, अलून-वि० दे० (सं० अलौन, अलवण ) बाजू, दालान या बरामदे के किनारे का | अलौन, बिना नमक का, नमक-रहित, खंभा जो दीवाल से सटा होता है। अलोन, लावण्य-रहित, (सं० अ+लावण्य)। संज्ञा, पु० घ० ब० (अली)। वि० (सं० अ-+लू =छेदने ) बिना छेदा वि० (सं० अ--- नहीं - लीन----रत) अग्राह्य, हुआ, बिना काटा हुआ। अनुपयुक्त, अनुचित, बेजा, जो लीन न हो, । अलूप--वि० दे० (सं० लुप्त ) लुप्त, लोप, विरत। | छिपा हुआ। For Private and Personal Use Only Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - अलूपी प्रलोन अलूपी-संज्ञा, स्त्री० (सं० ) एक नाग- क्लेश + अनु० ) क्लेश, कष्ट, कठिनाई कन्या जो अर्जुन को व्याही थी, म० भा०।। आदि। अलुम-वि० (दे०) पँछ रहित ।। अलैकपलवा-संज्ञा, पु० (दे० ) अलीक अलूल-जलूल--क्रि० वि० ( अनु० ) उट- प्रलाप, बकबाद, झूठ कथन । पटांग, अंडबंड, अटॉय-सटाँय । प्रलयाचलैया- संज्ञा, स्त्री० (सं० ) निछाअलुला*-संज्ञा, पु० दे० (हि० बुलबुला )। वर हं ना, खेल विशेष । बबूला, भभूका, लपट, बुलबुला । अलोक-वि० (सं.) जो देखने में न प्रलेख-वि० (सं० ) जिपके सम्बन्ध में श्रावे, अदृश्य, निर्जन, एकान्त, पुण्यहीन । कोई भावना, या विचार न हो सके, दुर्बोध, संज्ञा, पु. पातालादि लोक, परलोक, कलंक, अज्ञेय, जो लिखने के योग्य न हो, जिसका अपयश, निंदा, मिथ्या दोषारोपण । लेखा न लगाया जा सके, अगणित, अपरि- संज्ञा, पु० दे० (सं० आलोक ) प्रकाश, मित, बेहिसाब, बिना सोचा-विचारा।। प्रभा, कांति दीप्ति, प्रतिभा। वि० दे० (सं० अलक्ष्य ) श्रदृष्ट, अदृश्य, जो " लीन्ह्यों है अलोक लोक लोकन तै न्यारी न देखा जा सके, बिना देखा हुआ। हैं।"-देव। संज्ञा पु० (सं० अ+लेख ) बुरालेख लेख- " लोक-लोकन में अलोक न लीजिये रहित। रघुराय"-केशव। मु०-अलेख करना-लिखे हये को अलोकना-स० कि० दे० ( सं० आलोमिटा देना, बिना देखा करना, अदेख । कन ) देखना, ताकना, अवलोकन या विचार करना। करना। प्रलेखा-वि० दे० (सं० अलेख ) बे- संज्ञा, पु० (सं० आलोकन ) अलोकन । हिसाब, व्यर्थ, निष्फल, अगणित । अलोकित-वि० दे० (सं० आलोकित) " उपजावत ब्रह्मांड अलेखै "-छन। प्रकाशित, प्रभायुक्त, कांतियुक्त, चमअलेखी*-वि० दे० (सं० प्रलेख) बेहि कीला। साब काम करने वाला, उटपटांग के काम अलोकनीय-वि० दे० (सं० आलोकनीय ) करने वाला, गड़बड़ मचाने वाला, अंधेर प्रकाशनीय, देखने के योग्य। करने वाला, अन्यायी, अत्याचारी, अंधाधुंध | अलोचन-संज्ञा, पु० दे० (सं० आलोचन) मचाने वाला। देखना, विवेचन करना, आलोचन, नुक्तावि० स्त्री० बेहिसाब, जिसका लेखा न चीनी। लगाया जा सके, बिना सोची-बिचारी हुई, संज्ञा, स्त्री० (दे०) अलोचना (सं० न देखी हुई। आलोचना ) गुण-दोष-प्रकाशन, दोषादोष अलेपित-वि० दे० (सं० आलेपित) विवेचना। लेप किया हुआ, उपर चढ़ाया हुआ, लीपा | वि० (अ+लोचन ) बिना नेत्र के, नेत्रहुआ, श्रालिप्त । हीन । वि० दे० (अ+लेपित ) अलिप्त, लेपन अलोचनीय-वि० दे० (सं० आलोचनीय ) न किया हुश्रा, न लीपा हुआ। विवेचनीय। अलेश-प्रलेस-वि० (सं० अ + लेश) अलोचित-वि० दे० (सं० पालोचित ) अशेष, अरंचक। विवेचित, नुक्ता-चीनी किया हुआ। अलेस-कलेस-संज्ञा, पु० दे० (सं० ( अलान-वि० दे० (सं० अ-+लवण ) बिना For Private and Personal Use Only Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रलोना अल्पविषया नमक के, बिना लवण के, लवण-रहित। संज्ञा, पु० (सं० ) एक प्रकार का अलंकार लावण्य-हीन, अलोना (दे०)। जिसमें प्राधेय की अपेक्षा, आधार की अलोना-वि० दे० (सं० अलवण ) नमक- अल्पता या छोटाई दिखलाई जाती है रहित, जिसमें नमक न पड़ा हो, जिसमें (अ० पी० काव्यशा० )। नमक न खाया जाय ( एक प्रकार का व्रत ) (दे० ) अलप---अकाल मृत्यु-भय । फीका, स्वाद-रहित, बेमज़ा, बेज़ायका, | अल्पकालीन-वि० यौ० (सं० ) थोड़े ( विलोम --सलोना ) लावण्य-विहीन, समय की, थोड़े समय तक रहने वाली। जहाँ लोना न लगा हो । स्त्री. अलंलो। शल्पजीवा-वि० ( सं० यौ० ) कम श्रायु अलोप-वि० दे० (सं० लोप ) लोप, वाला, अल्प समय तक जीने वाला, छिपा हुआ, लुप्त, अदृश्य । अल्पायु । "भा अलोप पुनि दिस्टि न पावा"-५०। “जीवे अल्पजी वी तो मैं ,-द्विजेश । वि० (अ+लोप ) प्रगट, अलुप्त, न छिपा ! अल्पज्ञ-वि० (सं.) थोड़ा ज्ञान रखने हुआ। वाला, नासमझ। प्रलोभ-वि० (सं० ) लोभ -रहित,निलोभ, वि० अल्पज्ञानी (सं० यौ० ) वि० अल्पलालच-विहीन, जो लालची न हो। ज्ञाता। संज्ञा, पु० लोभाभाव, वि. अलोभी। अल्पज्ञता-संज्ञा, स्त्री० (सं० ) नासमझी, अलोम-वि० ( सं० ) लोम-रहित, निलाम, मूर्खता । बाल से विहीन, बिना बालों का। । अल्पता-~-संज्ञा, पु० ( सं० ) कमी, न्यूनता, प्रलाय-वि० (दे० ) बिना आँख के, छोटाई, ऊनता। लोचन-रहित । अलपत्ध-संज्ञा, पु० (सं० ) अल्पता, कमी, अलोल--वि० (सं०) अचंचल, स्थिर, दृढ़।। संकीर्णता। प्रलोलिक-संज्ञा, पु० दे० (सं० अलोल ) अल्पप्राण-संज्ञा, पु० यौ० ( सं० ) व्यंजनों अचंचलता, स्थिरता, धीरता, स्थैर्य, के प्रत्येक वर्ग का पहला, तीसरा और अचांचल्य । पाँचवाँ वर्ण या अक्षर, तथा य, र, ल, व, अलोलित-श्रलोडित--वि० दे० (सं० । जिन वर्णो के उच्चारण में प्राणवायु का मलोल, पालोडन ) जो मथा न गया हो, । उपयोग कम किया जाय। बिना बिलोड़ा हुआ, अचंचलीकृत । अल्पबुद्धि --संज्ञा, पु० यौ० (सं०) मन्दअलोहित-वि० (सं० ) जो लाल न हो। बुद्धि, निर्बुद्धि, कम-समझ, असमझ, मन्द अलौकिक-वि० (सं० ) जो इस लोक से मति । सम्बन्ध न रक्खे, इस लोक में न प्राप्त होने | वि० मूर्ख, अबोध, ना समझ । वाला, लोकोत्तर, अनोखा, अद्भुत, अपूर्व, अल्पवयस्क-- वि० यौ० पु० (सं०) थोड़ी या आमानवीय, अमानुषी, सर्व श्रेष्ठ, दैवी, छोटी अवस्था वाला, कम उम्र, कमसिन । दिव्य । अल्पवयस (दे० )। " मन बिहँसे रघुवंसमनि, प्रीति अलौकिक स्त्री. अल्पवयस्का-थोड़ी वयस वाली। जानि"..- रामा०। अल्पविषया--वि० यौ० स्त्री० (सं० ) अल्प अल्प- वि० ( सं० ) थोड़ा, कम, छोटा, विषयों को समझने वाली, साधारण बातों कुछ, किंचित, लघु । या विषयों का बोध करने वाली वुद्धि । "अल्प काल विद्या सब भाई "-रामा०।। " व चाल्पविषया मतिः"-रघ० । For Private and Personal Use Only Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अल्पशः अवकलना अल्पशः-क्रि० वि० (सं० ) थोड़ा-थोड़ा | अल्हड़पन-संज्ञा, पु० (हि. अल्हड़ + करके, धीरे-धीरे, क्रमशः, शनैः शनैः।। पन = प्रत्य० ) बेपरवाही, मनमौजीपन, अल्पायु-वि० यौ० (सं० ) थोड़ी श्रायु- भोलापन, अक्खड़ता, उद्दडता, उद्धतपन, वाला, जो छोटी अवस्था में मर जाये, उजड्डता, व्यवहार-ज्ञान-शून्यता । अल्पावस्था वाला। " क्या खूब तेरी साक़ी अल्हड़पने की अल्पात्यल्य-वि० यौ० (सं० अल्प-+-अति । चाल"-। +अल्प ) बहुत थोड़ा. बहुत कम, अति । अवंती-संज्ञा, स्त्री० (सं० ) उज्जैन, उज्ज छोटा, अत्यन्त न्यून । यिनी, ( यह सात प्रधान पुरियों में से अल्पांश-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) थोड़ा एक है)। या छोटा टुकड़ा, अति लघु अंश या अवंतिका --- स्त्री० प्राचीन उज्जयिनी । भाग । अवंश-संज्ञा, पु. ( सं० ) वंश-हीन, अल्ल-संज्ञा, पु० दे० (सं० पाल ) वंश | निस्संतान, बाँस-विहीन, जिसके वंश का का नाम, उपगोत्र का नाम, जैसे. पांडे, . ठीक पता न हो। शुक्ल, दुबे, (द्विवेदी) त्रिपाठी।। अव-उप० (सं० ) एक उपसर्ग, जिस शब्द अल्ल-बल्ल-संज्ञा, पु० दे० ( अनु०) के पूर्व यह लगता है उसके अर्थ में यह इस अटाँय-सटाँय, अंडबंड। प्रकार के अन्यार्थो की योजना कर देता है-। अल्लम-गल्लम-संज्ञा, पु० दे० ( अनु०) १-निश्चय-जैसे अवधारण, २अनाप-शनाप, व्यर्थ का बकवाद, प्रलाप, अंडबंड ( भोजन ) अंट-संट । अगड़म-बगड़म् नादान--जैसे--प्रावळा, ३-न्यूनता या कमी-जैसे--अवघात, ४--निचाई (दे०)। या गहराई- जैसे- प्रावतार, श्रवक्षेप, अल्ला-अल्लाह-संज्ञा, पु० ( अ० ) ईश्वर, ५ - व्याप्ति- जैसे - अवकाश, अवखुदा, भगवान । गाहन। अल्लाना-प्रललाना *S-अ० क्रि० (दे०) इसका प्रयोग उक्त तथा इन अर्थो में ज़ोर से चिल्लाना, गला फाड़कर बोलना । विशेष होता है --- पालम्बन विशेष, अल्लामाई-वि० स्त्री० (अ. अल्लामा ) विज्ञान, शुद्धि, अल्प, परिभव, नियोग, लड़की, कर्कशा स्त्री। पालन, भेद, अभाव । अल्हजा*-संज्ञा, पु० दे० (अ० अलहज़ल ) अव्य० (दे०) उ, आउर, और श्रो, इधर-उधर की बात-चीत, गप्प, उटपटांग अपर (प्रान्ती० )। की बातें। अवकथन- संज्ञा, पु० (सं० ) अव+ अल्हड़-वि० दे० (सं० प्रल == बहुत + कथ् । अनट ) स्तुति, उपासना, प्रसादक लल =चाह ) मनमौजी, लापरवाह, अनुभव- वाक्य, प्रसन्न करने वाला कथन । रहित, उजड्ड, असावधान, व्यवहार-ज्ञान- वि० --अधकथित, अवकथनीय । शून्य, उद्धत, अनारी, गवार, रीति-नीति न | अवकलन-संज्ञा, पु. ( सं० ) इकट्ठा जानने वाला, तौर-तरीका न जानने वाला, कर के मिलाना, देखना, जानना, ज्ञान, भोला भाला। ग्रहण । संज्ञा, पु० नया बैल या बछड़ा जो हल में अवकलनास अ० क्रि० (सं० अवकलन ) निकाला न गया हो, अल्हण (सं.)।। ज्ञान होना, समझ पड़ना, सूझना । For Private and Personal Use Only Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अधकलित अवगतना "मोहि अवकलत उपाउ न एकू"---रामा भ्रष्ट हो गया हो, अयोग्य वस्तु-सेवी प्रवकलित-वि० (सं० ) समझा या सूझा मनुष्य । हुआ, ज्ञात । अधकुंचन-संज्ञा, पु. ( सं० श्रव--- अधकर्तन-संज्ञा, पु. ( सं० ) सूत बनाने कुच्+ अनट् ) वक्री करण, टेढ़ा करना, का एक यंत्र, चरखा। मोड़ना, मरोड़ना। अपकर्षण-संज्ञा, पु. ( सं० अब -- वि०-अधकुचित--मोड़ा हुआ। कृष् + अनट ) उद्वार, निष्कर्षण, बाहर अवकुंठन - संज्ञा, पु० (सं० अव+कुठ+ खींचना। अनट ) साहस-परित्याग, भीरु होना, असाअवकाश-संज्ञा, पु. ( सं० अव+ हसी होना। काश+ अल् ) अवसर, समय, विश्राम-काल, अवकुंठित- वि० (सं०) असाहसी, का. सुभीता, छुट्टी का समय, रिक्त स्थान, पुरुष, कायर, भीरु । आकाश, अंतरिक्ष, शून्य-स्थान, अंतर, अपकृष्ट--वि० ( सं० अव+कृष् ) फ़ासिला, दूरी, फुर्सत का वक्त, ख़ाली वक्त । खींचा हुआ। अवकास -(दे०)। अवकेशी-वि० (सं०) बाँझ, बन्ध्या, मु०-अघकाश ग्रहण करना-छुट्टी पुत्र-हीन, निस्संतान, निष्पुत्र । लेना, विश्राम करना, या लेना। अधक्रंदन- संज्ञा, पु० (सं० अव+द+ अवकाश होना (या चहोना) समय अनट ) ज़ोर से क्रंदन करना या चिल्लाना, का खाली होना, सिंत रहना। चिल्ला कर रोना। अवकाश सिलना--छुट्टी मिलना, वक्त वि० अपक्रदक-क्रंदन करने वाला। का खाली बचना, समय रहना।। अवकप- वि० (सं० अव+कुश+क्त) अवकाश रहना ---- छुट्टी रहना, खाली भसित, निंदित, मंदध्वनित, कुशब्द-युक्त, वक्त रहना, फुर्सत होना। गाली दिया हुश्रा। " कोउ अवकास कि नभ बिनु पावै"-- अधक्रोष-संज्ञा, पु. ( सं० ) भर्त्सना, रामा० । निंदा, गाली, आक्रोशन । सावकाश-वि० ( सं० सह - सहित+ वि० अवक्रोषित। अवकाश ) अवकाश-युक्त। अवकावन-संज्ञा, पु० दे० ( सं० संज्ञा, पु० (दे० ) साधकास-सामर्थ्य, अवेक्षण ) देखना। शक्ति, योग्यता, क्षमता, समाई । श्रवक्तव्य -वि० (सं० अ+वच्-+-तव्य ) स्त्री० सावकसी। अकथ्य, न कहने योग्य, जो वक्तव्य या अपकिरण- संज्ञा, पु० (सं० ) बखेरना, कथनीय न हो। विखराना, फैलाना, छितराना, बिखेरना। अवखंडन-संज्ञा, पु. ( सं० ) खनना, अवकोर्ण-वि० ( सं० अव-+--क्त) खोदना। फैलाया या बखेरा हुआ, छितराया हुआ, अधगत--वि० ( सं० ) विदित, ज्ञात, जाना नाश किया हुआ, नष्ट, चूर-चूर किया । हुश्रा, मालूम, नीचे गया हुआ, गिरा हुआ, हुआ, विक्षिप्त, अनाहत। परिचित, जाना-बूझा। अवकीर्णी- वि० ( सं० अव-+-+ अवगतना*--स० कि० दे० ( सं० क्त -। इन् ) क्षतव्रत, नियम-भ्रष्ट व्रत, | अवगत--ना--हि० प्रत्य० ) समझना, निषिद्ध वस्तुओं के संसर्ग से जिसका व्रत | विचारना, सोचना। For Private and Personal Use Only Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir म अवगति अवचेष्टा अषगति-संज्ञा, स्त्री. ( सं० ) बुद्धि, अवगुंठित-वि० (सं०) ढंकी, छिपी, धारणा, समझ, बुरी गति, विज्ञता, ज्ञान, घिरी हुई। बोध, गमन । वि० अवगंठनीय-छिपाने के लायक । अवगाढ़-वि० (सं० अव+गाह+क्त) अवगुण-संज्ञा, पु० (सं० ) दोष, ऐब, निमज्जित, कृत स्नान, प्रविष्ट, छिपा हुआ, | बुराई, खोटाई, दुर्गुण । गाढ़ा, घना, निबिड़। औगुन (दे० ब्र०) अवगुन ( हिं० )। प्रवगारना*- स० क्रि० दे. ( सं० । वि० अवगुणो-- दुर्गुणी, सदोष, बुरा । अव-+-गृ) समझाना, बुझाना, जताना।। अवगुन - संज्ञा, पु० दे० ( सं० अवगुण) अवगाह-वि० दे० (सं० अवगाध ) दोष, कुल क्षण, अपराध, प्रौगुन ।। अथाह, बहुत, गहरा। अवगृहन-संज्ञा, पु० ( सं० ) आलिंगन, " तिमि रघुपति, महिमा अवगाहा"- श्राश्लेष, सप्रेम परस्पर अंग-स्पर्शन, भेटना, रामा। अँक भरना। अनहोना, कठिन । अवगृहित-वि. ( सं० ) प्रालिंगित, " तोरेहु धनुष व्याह अवगाहा"-रामा०। आश्लेषित। संज्ञा, पु०-गहरास्थान, संकट का स्थान, अषगृहनीय-वि० (सं० ) श्रालिंगन के कठिनाई, कठिनता, कष्ट, प्रवेश, जल-प्रवेश, योग्य, भेटने लायक। हिलना, जल में हल कर स्नान करना। अपग्रह - संज्ञा, पु० (सं) रुकावट, अड़चन, अवगाहन-संज्ञा, पु० (सं० ) स्नान करण, बाधा, वर्षा का अभाव, अनावृष्टि, बाँध, निमजन, जल-प्रवेश, जल में पैठ कर नहाना, बंद संधि-विच्छेद (ब्याक० ) अनुग्रह का मंथन, विलोडन, डुबकी, गोता, खोज, उलटा, स्वभाव, प्रकृति, कोसना, शाप, छान-बीन चित्त लगाना, लीन होकर ग्रहण, अपहरण, हाथी का मस्तक, हस्तिविचार करना। वृन्द, प्रतिबन्धक। संज्ञा, पु०-अथाह जल, गहरा स्थान, अपघट-वि० दे० (सं० अव-+ घट्ट= घाट) अनन्त, जिसके तल का पता न हो। विकट दुर्गम, कठिन । अवगाहना*-अ० क्रि० दे० ( सं० ! “अवघट घाट बाट गिरि कंदर" - रामा० । अवगाहन ) हल कर या पैठ कर जल में वि० (दे०) अड़बड़, ऊँचा-नीचा, टूटा-फूटा । नहाना, निमजन करना, जल में पैठना, औघट-(दे० )। धंसना, मग्न होना, स्नान करना। अपघात-संज्ञा, पु. ( सं० ) अव+ स० कि०-छानबीन करना, विचलित हन् । घञ् ) अपघात, अपमृत्यु । करना, हलचल मचाना, चलाना, हिलना, अवचट-संज्ञा, पु० दे० (सं० अव ---चट :: देखना, सोचना-विचारना, धारण करना, जल्दी-हि० ) अनजान, अचक्का, कठिनाई, ग्रहण करना। अंउस, औचक, अचानक, संकट । " दिसि विदिसन अवगाहि कै, सुख ही । औचट-(दे० )। केसव दास" रा० चं। कि० वि० अकस्मात, अनजान में। अवगीत-- संज्ञा, पु० ( सं० ) निंदा, दोष- अधचर --- वि० (सं० ) एक दृष्टि, औचक, दुष्ट, अति निंदित, लांछित, सदोष। अचानक, एक बारगी-ौचर (दे०)। अवगंठन-संज्ञा, पु० (सं० ) ढंकना, अवचेष्टा-संज्ञा, स्त्री. ( सं० ) मंद चेष्टा, छिपाना, रेखा से घेरना, बूंघट, बुा । अनारीपन । For Private and Personal Use Only Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra rafच्छन्न चिन्न - वि० (सं० ) अलग किया हुआ, पृथक, विशेषण-युक्त, सीमावद्ध, अवधि सहित । www.kobatirth.org श्रवच्छेद - संज्ञा, पु० (सं० ) अलगाव, भेद, हद, सीमा अवधारण, छान बीन, परिच्छेद, विभाग | १६६ प्रच्छेद्य - वि० (सं० ) अवच्छेद के योग्य, विभाजनीय छानबीन करने योग्य, सीमा के लायक़ | बच्छेदक - वि० सं०) भेदकारी, अलग करने वाला, हद या सीमा बाँधने वाला, श्रवधारक, निरचय करने वाला । संज्ञा, पु० विशेषण । ܕܙ अकुंग - संज्ञा, पु० (दे० ) उछंग, उमंग, उत्साह गोद । " सो लीन्हों श्रवछंग जसोदा अपने भरि भुज दंड - सूर० । अवज्ञा - संज्ञा, स्त्री० (सं० ) अपमान, अनादर, आज्ञा न मानना, अवहेला, पराजय, हार, उपेक्षा, अमान्य करण । ܕܕ (4 साधु अवज्ञा कर फल ऐसा -रामा० । संज्ञा, पु० (सं० ) एक प्रकार का अलंकार जिसमें एक वस्तु के गुण-दोष से दूसरी वस्तु को गुण दोष न प्राप्त होना सूचित किया जाय ( ० पी०, काव्य० ) । श्रवज्ञान - वि० (सं० ) अपमानित, अनाहत, श्रवहेलित, तिरस्कृत । प्रवज्ञेय - वि० (सं० ) अपमान के योग्य, तिरस्कार के योग्य, अनादरार्ह । अघटना - स० क्रि० दे० ( सं० आवर्तन ) मथना, लोडित करना, किसी द्रव पदार्थ को श्राग पर चढ़ा कर गाढ़ा करना, प्रोटना (दे० ) । " धौरी धेनु दुहाइ छानि पय मधुर आँच मैं श्रवटि सिरायौ " सूत्रे ० मु० प्रवटि मरना -- मारे मारे फिरना । " जो थाचरन बिचार मेरो कल्प कोटि लगि अवटि मरौं ” चिन० । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Exaaefeat षटि डालना - खूब घूम डालना, छानबीन कर डालना, मथ डालना । अ० क्रि० घूमना, फ़िरना, चक्कर लगाना । पू० का० अट, औट (दे० ब्र० ) । अट - संज्ञा, पु० ( दे० ) छिद्र, नटवृत्ति से जीवन बिताने वाला, गर्व, ग़रूर । (दे० ) । अवडेर - संज्ञा, पु० ( दे० ) फेर, चक्कर, भट, धोखा, कपट, छल, बहकात्र, बखेड़ा, रंग में भंग । अवडेरनाक - स० क्रि० दे० ( हि० अवडेर) फेर में डालना, भट - झमेले में फँसाना, शान्ति भंग करना, तंग करना, त्याग करना, बसने न देना । " पुनि श्रवड़ेरि मरायेन्हि ताही " - रामा० । " पोषि-तोषि आपने न थापि श्रवडेरिए "" कवि० । अवडेरा - वि० दे० ( हि० अवडेर) चक्कर - फेरफार वाला, झंझट वाला, बेढब, दार, बेढङ्गा । saढर वि० (सं० ) नीच पर भी ढलने या दया करने वाला, बिना विचारे दया करने वाला, परम दयालु, । ० ) | प्रदर ( ० अवतंस - संज्ञा, पु० (सं० ) भूषण, अलंकार, शिरोभूषण, टीका, मुकुट, कर्ण. भूषण, शिरपेंच, चुडामणि, माला. श्रेष्ठव्यक्ति, सब से उत्तम हार, बाली, मुरकी, कर्णफूल, दूल्हा । अवतांसत - वि० (सं० ) आभूषित, अलंकृत | अवतरण - संज्ञा, पु० (सं० ) उतरना, पार होना, जन्म ग्रहण करना, अवरोहण, नमना, नकल, प्रतिकृति, अनुकृति, प्रादुभांव, सोढ़ी, घाट । संज्ञा, पु० अवतार, अवतरन ( दे० ) । अवतरणका - संज्ञा, स्त्री० (सं० ) प्रस्तावना, भूमिका, उपोद्घात, परिपाटी, For Private and Personal Use Only Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अवतरना १७० अवधीत आभास, वक्तव्य विषय की पूर्व सूचना, अवदशा-संज्ञा, स्त्री० (सं०) दुर्दशा, अनुवाद, भाषान्तर, प्राक्कथन । कुदशा, बुरी हालत, दुरावस्था। अवतरना-अ० क्रि० दे० (सं० अवतरण ) अवदात-वि. (सं० ) उज्वल, श्वेत, प्रगट होना, उत्पन्न होना, जन्म लेना, शुद्ध, स्वच्छ, निर्मल, गौर, शुक्ल वर्ण का, प्रकाशित होना, अवतार लेना। पीत, पीला, शुभ्र । " धर्म-हेतु अवतरेउ गोसाई "--रामा० । अवदान--संज्ञा, पु. ( सं० ) शुद्धाअवतरित--वि० (सं० ) अवतार लेना, चरण, अच्छा कार्य, खंडन, तोड़ना, त्याग, नीचे श्राया हुआ, उतरा हुआ, जन्म उत्सर्ग, निवेदन, कुत्सित दान, वध, मार लिया हुआ। डालना, पराक्रम, शक्ति, वल, अतिक्रम, अवतार-संज्ञा, पु० (सं० ) उतरना, नीचे उल्लंघन, पवित्र करना, स्वच्छ या निर्मल बनाना। आना, जन्म, शरीर ग्रहण, देवताओं का मनुष्यादि सांसारिक प्राणियों के शरीर को अवदान्य--वि० (सं० ) पराक्रमी, बली, धारण कर के संसार में श्राना, देहान्तर अतिक्रमणकारी, उल्लंघन करने वाला, सीमा से बाहर जाने वाला, कंजूस, जो धारण, सृष्टि-करण, धर्म-स्थापनार्थ वदान्य या दानी न हो, अनुदार। भगवान ने २४ बार भिन्न भिन्न रूप में अवतार ग्रहण करके पृथ्वी पर लीलायें अवदारण--संज्ञा, पु० (सं.) विदीर्ण की हैं, इन २४ अवतारों में से दस अवतार करना, तोड़ना, चूर करना, फोड़ना, मिट्टी खोदने का रम्भा, खंता। प्रमुख माने जाते हैं, मत्स्य, कच्छप, बराह, अवदारित-वि. पु. (सं०) विदीर्ण नृसिंह, वामन, परशुराम, रामचन्द्र, श्रीकृष्ण किया हुआ, तोड़ा हुआ, चूर किया, फाड़ा बुद्ध और कल्की । हुधा। अवतारण--संज्ञा, पु. (सं०) उतारना, अषदीच्य-वि० ( दे० ) गुजराती ब्राह्मणों नीचे लाना, नकल करना, उदाहृत करना। की एक विशेष शाखा, उत्तर भारत में रहने स्त्री० प्रतारणा। वाले ब्राह्मण जो गुजरात में रहने लगे वे अवतारना-स० कि० दे० (सं० अवतारण) औदीच्य या अवदीच कहलाते हैंउत्पन्न करना, प्रगटाना, रचना, जन्म देना, औदीच (दे०)। प्रकाशित करना, उत्पादित करना। प्रवद्ध-वि० (सं० ) बन्धन-रहित, अनि" धन्य घरी जेहि तुम अवतारी"--सूबे०। यंत्रित, जो बद्ध या बँधा न हो, स्वच्छंद । अवतारित-वि० दे० (सं० ) प्रगटाया अवद्धमुख-वि० यौ० (सं०) अप्रियवादी, हुआ, उत्पन्न किया हुआ, जन्म दिया हुआ, | दुर्मुख, मुखर, बकवादी, कुत्सित भाषी। उत्पादित। | अवद्धपरिकर-वि• यौ० (सं० ) कमर अवतारी-वि० दे० (सं० अवार) उतरने खोले हुए, जो तैयार न हो, असन्नद्ध, वाला, अवतार ग्रहण करने वाला, देवांश- अकटिबद्ध। धारी, अलौकिक, दिव्य शक्ति-सम्पन्न, अषद्य-वि० (सं० ) अधम, पापी, त्याज्य, ईश्वरीय गुणधारी। कुत्सित, निकृष्ट, दोष-युक्त, अतथ्य, अनिष्ट, अवतीण-वि० (सं.) श्रावमूढ़, आविर्भूत, निंदित । उपस्थित, उत्तीर्ण, उत्पन्न, प्रगट, प्रादुर्भूत । अषधोत-वि० (सं० अव---द्युत--धज् ) "तुम हुए जहाँ अवतीर्ण देव !" ईषदुज्वल, किंचिद्दीप्त, अल्प प्रकाश । For Private and Personal Use Only Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अवध अवनति संज्ञा, पु. संस्कृत के व्याकरण का एक म०-अधि बदना-समय या मियाद विशेष ग्रंथ। निश्चित करना, अवधि देना--समय अवध-संज्ञा, पु० (सं० अयोध्या ) कोशल निर्धारित कर देना। देश, जिसकी प्रधान नगरी अयोध्या थी, अवधिमान-संज्ञा, पु. (सं० ) समुद्र, अयोध्या पुरी। सागर, सिन्धु। "घर-घर बाजत अवध बधावा"-रामा। अवधी-वि० (सं० अयोध्या ) अवधसंज्ञा, स्त्री० देखो, अवधि, सीमा-समय। । सम्बन्धी, अवध का, अवध-विषयक । वि० (अ+वध ) न मारने योग्य । संज्ञा, स्त्री. अवध प्रान्त की बोली। अवधान-संज्ञा, पु. (सं०) मनोयोग, संज्ञा, पु. अवध का रहने वाला, चित्त का लगना, चित्त की वृत्तियों का अवधवासी। निरोध कर चित्त को एक ओर लगाना, अषधीर्य-वि०, पू० क० कि० (सं०) समाधि, सावधानी, चौकसी। विचार कर, सोच कर, अपमानित कर । संज्ञा, पु० (सं० प्राधान) गर्भ, पेट । अवधूत-संज्ञा, पु० (सं० ) ( अव+धू+ अवधारण-संज्ञा, पु. (सं०) निश्चय, क) कंपित, कम्पायमान, परिवजित, विचार-पूर्वक, निर्धारण करना, निर्णय, परिष्कृत, उदासीन, योगी, संन्यासी, गुरु स्थिरीकरण । दतात्रेय के समान, (तन्मतानुयायी ) साधु अवधारणीय-वि० (सं०) विचारणीय, विशेष, वर्ण और आश्रमोचित धर्मो को निर्णय के योग्य, स्थिर करने के योग्य । छोड़ कर केवल आत्मा को ही देखने वाले वि० अषधारित, अवधार्य। योगी, अवधूत कहलाते हैं, यती। अवधारना-स० क्रि० दे० (सं० अवधा स्त्री० अवधूतनी। रण) धारण करना, ग्रहण करना, मानना, अवधूतवृत्ति-संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं० ) समझना, विचारना। अवधूतों की वृत्ति या प्रवृत्ति, उनका प्राचार" उपजैइ अँह जिय दुष्टता, सुअस या विचार-अवधूताचार-अवधूत-कर्म या अवधारु"-भाव। रीति-नीति । अषधारी-क्रि० वि० (सं० ) निश्चय अवध्य-वि० (सं० ) वध के अयोग्य, जिसे किया गया, शोधा या विचारा हुआ। प्राणदंड न दिया जा सके, न मारने के लायक। अवधार्य-वि० ( सं० ) विचार्य, चिंत्य, " नाततायि वधे दोषोऽवध्यो भविति निर्णय के योग्य। कश्चन् ".-मनु० । "परिणितरवधार्या यत्नः पंडितेन"-1 अवन-संज्ञा, पु० (दे०) रक्षण, प्रमोदकअवधि-संज्ञा, स्त्री० (सं०) सीमा, हद, कार्य। निर्धारित समय, मियाद, अंत समय, अवनत-वि० (सं० ) नीचा, झुका हुआ, अंतिम काल । गिरा हुआ, पतित, कम, नम्र, विनीत, अव्य० (सं० ) तक, पर्यन्त, लौं। दुर्दशा-ग्रस्त । “राखिय अवध जो अवधि लगि'- अवनति-संज्ञा, स्त्री. (सं० ) घटती, रामा० । न्यूनता, कमी, अधोगति, पतन, हीन दशा, " मंदिर-परध अवधि हरि करिगे".- _दुर्दशा, दुर्गति, विनय, नम्रता । सूर० । वि० अवनतिकारी। For Private and Personal Use Only Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अपना A noonam १७२ अवमानना अपना--प्र. क्रि० दे० (हि. आना ) अपनेजन-संज्ञा, पु० (सं० ) धौत करण, आना-भावना । ( दे० ) प्राधनो मार्जन, धवली करण, परिमार्जन । (व.)। | अवंध-वि० (सं० ) अवंदनीय, अपूज्य, अवनि--संज्ञा, स्त्री० (सं० ) पृथ्वी, भूमि, वंदना के अयोग्य, असेवनीय । धरा, जमीन, रक्षण, पालन । श्रवंध्य-वि० (सं०) सुकुल, कुलवान । अवनि-कुमारी-संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं० ) अवपात-संज्ञा, पु. ( सं० ) गिराव, पतन, सीता, जानकी। गडढा, कुंड. हाथियों के फंसाने का गडढा, अवनिजा-संज्ञा, स्त्री० ( सं० ) पृथ्वी से खाँडा, माला, नाटक में भयादि से भागना, उत्पन्न होने वाली, भूमि-सुता, सीता, व्याकुल होना आदि दिखा कर अंक को जानकी। समाप्त करना। अवनिजेण-संज्ञा, पु. ( सं० ) यो. अधभाम-संज्ञा, पु० सं० ) प्रकाश करण, सीता-पति, रामचन्द्र, जानकी-जीवन, । माया प्रपञ्च, प्रकाशन । सीतानाथ । प्रवासित - वि० ( सं० ) प्रकाशित, अान-दान-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) प्रकटित, प्रपञ्च-पूर्ण, मायामय । भूमि-दान। अवभृथ-संज्ञा, पु० (सं०) मुख्य यज्ञ के अवनि-नाथ- संज्ञा, पु० यौ० (सं.)। समाप्त होने पर वह शेष कर्म जिसके करने पृथ्वी-पति, राजा भूपाल । का विधान किया गया है, यज्ञान्त स्नान, अनिप-संज्ञा, पु. (सं०) राजा, नृप, । यज्ञ-शेष औषधि प्रादि से लिप्त होकर भूपति। कुटुम्बादि के साथ स्नान । अनिपाल-संज्ञा, पु. यौ० ( सं०) अवम-संज्ञा, पु० (सं०) पितरों का एक राजा, भुपाल --भुषाल ( दे०)। गण, मलमास, अधिमा प, तिथि-क्षय, नीच, अवानभू-संज्ञा, पु. (सं० ) मङ्गलग्रह, जिस दिन तीन तिथियाँ हों। भौम, मंगल तारा, कुज, भौम ।। अधमत-वि० (सं०) अवज्ञात, अपमानित, तिरस्कृत। अवनी-संज्ञा, स्त्री० (सं० ) पृथ्वी, भेदनी, अधर्मातथि–संज्ञा, स्त्री. यो० (सं० ) वसुन्धरा। जिस तिथि का क्षय हो गया हो, जिस दिन अवनीपति-संज्ञा. पु० यौ० (सं०) तीन तिथियाँ हों। राजा, भूपति । अवमर्श मन्धि-संज्ञा, स्त्री. (सं० ) प्रधनी परधनी-संज्ञा, स्त्री० यौ० ( सं० ) पाँच प्रकार की सन्धियों में से एक रानी, रामपत्नी। (नाट्य शास्त्र )। अवनीश-संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) राजा, अघमर्षण-संज्ञा, पु० सं० अव + मृष+ अपनोस, (दे०) अवनीश्वर। अनट् ) अवमर्ष-अपक्षय, परिक्षय, लोप । अवनी-देव-अवनि देव-संज्ञा, पु. यौ० वि० अवमषित-लुप्त. परिक्षय प्राप्त । (सं० ) भूदेव, भूसुर, ब्राह्मण । वि० अवमर्षणीय-लोप करने योग्य । अवनोतल- संझा, पु० यौ० (सं० ) धरा अधमान-संज्ञा, पु० (सं० ) तिरस्कार, तल, पृथ्वीमंडल अपमान, अपयश, दुर्नाम, अमर्यादा । " कौन वली अवनीतल मैं, हमसों करि अवमानना-संज्ञा, स्त्री० (सं० ) अनादर, द्रोह सबै कुल बोरो"। अपमान । For Private and Personal Use Only Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir HEELERSPERINomasa r a mRRESENTERACTRESSMEiwwIMASAT HROUTERNAMEAmraPNA प्रतिज्ञा। अवमानित १७३ अवरोधन अवमानित-वि० ( मं० ) असम्मानित, अवराधी - वि० ० (सं० आराधन) तिरस्कृत। आराधना करने वाला, उपासक, पुजारी । वि० अपमानाह-अधमाननीय । | श्रावरुद्ध-वि० (सं० रुश हुआ, घिरा अवमूई- संज्ञा. पु. (सं० ) अधः शिर, या ढका हुआ रुका हुआ, गुप्त, छिपा अधोमुख, नत-मस्तक। हुआ ! अषयव-संज्ञा, पु० (सं० ) अंश, भाग, प्रवरूढ़-वि० सं० ) ऊपर से नीचे पाया हिस्मा, शरीर का अंग, हाथ, पैर श्रादि हुआ, उतरा हुमा. ( विलोम ) आरूढ़ । देहांग, तर्क पूर्ण वाक्य का एक अंश या आवरेख-संज्ञा, स्त्री० (३०) लेख. लकीर, भेद ( न्याय )। अषयवी- वि० ( ० ) अवयव वाला, धावरेखना- सक्रि० दे० (सं० अवअंगी. अंगवाला, कल, सम्पूर्ण, अंगधारी। लेखन ) उरेहना, लिखना. चित्रित करना, मंज्ञा. पु. वह वस्तु जिपके अनेक अवयव या देखना अनुमान धरना, सोचना, कल्पना अंग हों. देह, शरीर। करना, जानना, मानना। अधर-वि० (सं० अपर ) अन्य, दूसरा, " चंपक-पुहुप-बरन तन सुन्दर मनोचित्र और, अधम, मन्द, क्षुद्र, चरम कनिष्ट, अवरेग्वी"... सूर० । नीच अनुनम, अश्रेष्ठ, निर्वल, श्रबल । " रहि जनु कुँवरि चित्र अवरेखी "अव्य० (दे० ) और, श्रउर ( दे० )। रामा० । " अपनी दिपि प्रान नाथ प्यारे श्रवरेखौ अमरज-संज्ञा, पु० (सं० ) कनिष्ठ भ्राता, हरि"..-मज०। छोटा भाई, अनुज, शूद्र। घरेब-संज्ञा, पु० दे० (सं० अव - विरुद्ध अवरजा-संज्ञा, स्त्री. (सं० ) कनिष्टा ---रेव - गति ) वक्रगति, तिरछी या टेढ़ी अनुजा, भगिनी, छोटी बहिन ।। चाल, कुटिल गति, कपड़े की तिरकी काट । अधरत वि० (सं० ) जो रत न हो. औरेव ( दे०)। विरत, निवृत्त, स्थिर ठहरा हुआ, पृथक, यौ० अघरेबदार--- तिरछी काट का घेरदार विलग, अलग, ( विलोम ) अनवरत । कपड़ा। संज्ञा. पु० (दे०) प्राधर्त। संज्ञा, पु० पेंच, उलझन, कठिनाई. बुराई, अपराधक-वि० (सं० आराधक ) धारा खराबी, झगड़ा, विवाद, झंझट, खींचतान । धना करने वाला, पूजा करने वाला, जप। " कुल-गुरु सचिव निपुन नेवनि अवरेब न या भजन करने वाला, उपासक, सेवक, समुझि सुधारी "----गीता० । भक्त, ध्यानी। अवरोध-संज्ञा. पु० (सं० ) रुकावट रोक, अवगधन-संज्ञा, पु. (मां० ) अाराधन, अडचन, घेर लेना, घेरा, मुहालिरा, निरोध उपासन, पूजा, सेवा, ध्यान, जप, भजन ।। बन्द करना, अनुरोध, दबाव, अतःपुर, रनिअवराधना -स० क्रि० दे० (सं० अारा- वास, अटक, राज-गृह, राजदारा, जनाना । धन ) उपासना करना, पूजन सेवा करना, “कंठावरोधन विधौ स्मरणंकुतस्ते"। ध्यान करना। अवरोधक-वि० (सं०) रोकने वाला, " एक हुतो सो गयो स्याम-सँग को घेरने वाला। अवराधै ईस ".-- सूर० । ! अवरोधन-संज्ञा, पु. ( सं रोकना, अपराध्या (७०) पाराध्यो, पूजा की।। छेकना, घेरना, अंतःपुर, जनाना । For Private and Personal Use Only Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अवरोधना अधर्म HORIMEASEENADUINEERamRRRRRENDImraumaarww wJHANSIDHAKAMARINAMUNA अवरोधना-स० क्रि० दे० (सं० अव- निंदा परिवाद, अपकीर्ति।। रोधन ) रोकना, घेरना, निषेध करना. मना। अवर्णनीय- वि० (सं० ) जो वर्णनीय न करना। हो, जिसका वर्णन न किया जा सके, अधरोधित-वि० (सं० ) रोका हुआ, अकथनीय, (दे० ) अवर्ननीय । घेरा हुआ, मना किया हुआ। स्त्री. अवर्णनीया-(दे० ) अवननीया। स्त्री० अवरोधिता। शवगर्य- वि० ( सं० ) जो वर्णन के योग्य वि० अवरोधनीय। न हो। श्रघरोधो-वि० ० ( सं० अवरोध अव- संज्ञा, पु. ( सं० अ+दर्य ) जो वर्ण्य या रोध करने वाला, रोकने वाला! . . उपमेय ( प्रस्तुत ) न हो, उपमान या स्त्री० अवरोधिनी। __अप्रस्तुत, ( कव्य० )। अवरोह-संज्ञा, पु० (सं० ) उतार, गिराव, । पाणित-वि० (मं० ) जिपका वर्णन न पतन, अवनति, अधःपतन। किया गया हो, कथित, अविवेचित । अवरोहण-संज्ञा, पु० (सं० ) नीचे की प्रवर्त- संज्ञा, 'पु० दे० ( सं० श्रावर्त ) पानी ओर पाना, उतार, उतरना पतन, गिराव, का चक्कर, भँवर, नाँद ।। ढाल। अघतमान-वि० (सं० ) जो मौजूद न हो, अवगहना-अ० क्रि० दे० (सं० अव- अविद्यमान, अनुपस्थिति, अभाव, मृत । रोहण ) उतरना, नीचे श्राना. गिरना। अवर्तन--संज्ञा, पु. (सं० ) न बरतना. अ० कि० ( सं० आरोहण ) चढ़ना। प्रयोग न करना, या न होना, अप्रयोग, " तुलसी गलिन भरि दरसन लगि लोग . न होना, अबरतन (दे० )। अटनि अवरोहैं "। अतित-वि० (सं० ) अप्रयुक्त, अव्यवहत, 8स० कि० (सं० अवरोधन ) रोकना, मना । अभाव, अनुपस्थिति । करना। अधर्तल--- वि० (सं० ) जो गोल न हो, 8स० कि० हि० उरेहना ) खींचना, चित्रित ! जो गोलाकार न हो।। करना, अंकित करना. लिखना। अवमन-वि० (सं० ) बिना मार्ग का. अवगहक-वि० ( सं० ) अवरोहण करने पथ-रहित । वाला। प्रवानि (सं० )। अवरोहित-वि० ( सं० ) गिरा हुया, पावर्धक- वि० (सं० ) न बढ़ने या उतरा हुआ. पतित । बढ़ारे वाला। अवरोही-संज्ञा, पु० (सं० अवरोहिन् ) वह । अवधन - संता, पु० सं० ) वृद्धि न होना, स्वर-साधन जिसमें प्रथम षड़न का उदारण न बदना, वृद्धि रहित होना। किया जाय, फिर निषाद से पड़ज तक वि० अवर्धनाय, अवधनोया। क्रमानुसार उतारते हुए स्वर निकाले जाँय, अवर्धमान--वि० ( सं० ) जो न बड़े, ( स्वर-सङ्गीत ) विलोम ( बाराहो)। वृदि-रहित । वि० उतरने वाला नीचे उतरा हुआ। व अपमाना अवर्ण-वि. ( सं० ) वर्ण रहित, बिना धित--वि० (सं० ) न बढ़ा हुआ, न रङ्ग का, बदरंग, बुरे रंग वाला, वणाधम, बढ़ाया हुआ वृद्धि-रहित। धर्म रहित, कुजाति, अकर हीन (अवर्ण) । अधर्म-वि० (सं० अवर्मन् ) कवच-रहित, संज्ञा, पु. (सं० ) अकारादर, अकार । बाल-हीन । For Private and Personal Use Only Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir M RWAROWIKIHIROIRTMaracaaEEEEEWAMALAKICHIVARIOMARAwwaWITMarawenar अप्रधान । अपर्मित अवलेह प्रमित-वि० (सं० ) जो कवच न धारण अवलन्-संज्ञा, पु० (सं०) घुमाव-रहित, किये हो। अविचलन । अपर्य–वि. ( सं० ) अश्रेष्ठ, अनुत्तम, अलत-वि० (सं० ) अगति शील. न लपेटा हुश्रा, न घिरा हुआ, न घूमा हुआ, स्त्री० अपर्या-अश्रेष्टा, जो कन्या न हो। घुमाव-हीन । अवर-संज्ञा, पु. ( सं० ) जो जंगली या । अपलिप्त-वि० (सं० ) पोता या लीपा मूर्ख न हो, अपतित । हुआ, सना हुआ, लीन, घमंडी। अवर्षक-वि० (सं० ) न बरसने वाला। अलिर-वि० (सं०) जो ऐंचाताना न अवर्षण-संज्ञा, पु. (सं० ) वर्षा का न हो, जो भेंड़ा न हो। होना, न बरपना, वर्षाभाव । अवली*--संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० श्रावलि ) अवर्म-संज्ञा, पु. (सं०) शरीराभाव, पंक्ति, पाँति, पांती, समूह, झुड, नवान्न देह-हीनता। करने के लिये खेत से पहिले-पहल काटी अवलंघन--संज्ञा, पु० (सं० ) लावना, गई अन्न की गांठ। उल्लंघन । (दे०) आर्वाल, अधलि । " कबरी भारनि रचें आनि अवली गुंजनि अवलंघना-स० कि. (सं०) लाँधना, की"..--दीन । उलाँघना। वि० अवलंधित, अवलंघनीय।। अवलोक ---वि० दे० (सं० अत्र्यलीक ) पाप-शून्य, निकालंक, शुद्ध', निर्दोष । अवलंब--संज्ञा, पु० (सं.) आश्रय।। अवलेखना-60 कि० दे० (सं० अवलेखन ) पासरा (दे०) सहारा, आधार शरण । वादना, खुरचना, चिन्ह करना, लकीर अवलंबन-संज्ञा, पु. ( सं०) श्राश्रय, खींचना । आधार, सहारा, धारण करना, ग्रहण करना, अधरेखना (दे० ) चित्रित करना, अंकित शरण । करना, सोचना। अवलंबना*--स० क्रि० द. (सं० अय... वि० अवलखक । लम्बन ) अवलंबन करना, प्राश्रय लेना, अवलेखनीय-वि० (सं०) चित्रित करने टिकना, धारण करना, शरण लेना। के योग्य, चिन्हित करने योग्य, विचारणीय । " परम अनाथ देखियत तुम बिनु केहि बिनु काह अघलेखित-वि० (सं०) चिन्हित, चित्रित, अवलंबिय प्रात"--सूबे० । विचारित । अवलंबित-वि० (सं० ) श्राश्रित, अाधा- अषलेखी--वि० (सं० ) चिन्हित, अंकित । रित, सहारे पर स्थिर, निर्भर, टिका हुआ, अवलेप-संज्ञा, यु. (सं० अबलेपन ) उबमनहसर, किसी बात के होने पर निश्चित टन, लेप, घमंड, गर्व, अहकार। किया हुआ। अवलपन-संज्ञा पु० ( सं० ) लगाना, अवलंबी-वि० पु. ( सं० अक्लंबिन्) , पोतना, लगाई जाने वाली वस्तु, लेप, अवलंबन करने वाला, सहारा लेने वाला, चमंड, गर्व, दूपणा, अभिमान, अहकार । आश्रय देने वाला, शरणागत । वि० अषलापत- लीपा या पोता हुआ, स्त्री० अवलंबिनी। दूषित। अवल- वि० (सं० ) अबल, बल-रहित, अवलेह-संज्ञा, पु. (सं० ) न अधिक निर्बल। गाढ़ी और न अधिक पतली लेई, चाटने के For Private and Personal Use Only Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अघलेहन . अवसर लापक चटनी, माजूम, चाटी जाने वाली अवाम, अवस ( दे०)। औषधियों की चटनी, किवाम, जैसे--- "अवसि देखिये देखन जोगू"-- रामा० । वासाघलेह। अवशिष्ट -- वि० ( सं० ) शेष, बाकी, बचा अवलेहन-संज्ञा, पु. ( सं० ) चाटना, हुश्रा, उच्छिष्ट, उद्वत, अवशेष। चीखना, प्रास्वादन करना, स्वाद लेना। अवशेष -संज्ञा, पु० (सं० ) अन्त, शेष अवलाकन--संज्ञा, पु. ( सं० ) देखना, बाकी समाप्ति । वि० बचा हुआ। देख-रेख, देख-भाल. जाँच-पड़ताल, दर्शन, वि० अवशेषित-- बचा हुदा, बाक़ी। दष्टि-पात, ष्टि देना, विचारना, पढ़ना। अवश्यंभावी- वि० (सं० अवश्यंभाविन् ) अवासना*---स० कि० दे० (सं० अवलो-: जो अवश्य हो, अटल, जो टल न सके, कन ) देखना, जाँचना, अनुसंधान करना, ध्रुव, ज़रूर होने वाला। खोजना, विचारना। अवश्य --- कि० वि० (सं० ) निश्चय-पूर्वक, अवलोनि-संज्ञा. स्त्री० दे० ( सं० । निस्सन्देह, निश्चित, निश्चय रूप से, ज़रूर. अवलोकन ) चितवन, दृष्टि , आँख, देखना, उचित कर्तव्य, सर्वथा सम्भव । नज़र। वि० जो वश में न किया जा सके । प्राबलोकनीय-वि० ( सं० ) देखने के वि० श्रावश्यक। योग्य, दर्शनीय, विचारणीय. पठनीय, अवश्या-वि० (सं० ) जो वश में न श्रा खोजने के योग्य । सके, जो वश में न हो। अवलोकित--वि० (सं० ) देखा हुआ, ' अवश्यमेव --- कि० वि० (सं० ) अवश्य ही. विचारा हुथा, खोजा हुआ. पढ़ा हुआ। निस्सन्देह, ज़रूर, निश्चय ही। शवलाकय- वि० क्रि० (सं० ) देख देखा, है भारत धन्य अवश्यमेव "-मै० देखिये, दृष्टि दीजिये, विचारिये, ( यद्यपि श० गु०। यह शुद्ध तत्सम या संस्कृत-रूप है तथा । अघस-क्रि० वि० दे० । सं० अवश्य, हिन्दी में प्रायः प्रयुक्त हुआ है)। माश ) अवश्य, जो वश में न हो। अवलोकिय, अवलोकिये, अवलोकहु अवसि ( दे० ० ) ज़रूर । ( 9. भा० ) अवलोकि पू० का० वि० लाचार विवश. जिसमें अपना वश क्रि० (ब्र.)। न हो। .. गावहिं छबि अवलोकि सहेली " अवमन्न-वि० (सं० ) विषाद-प्राप्त, दुखी, -रामा० । । नष्ट होने वाला सुस्त श्राल सी. निकम्मा-- अपलोचना* ... स० कि० दे० ( सं० निकाम (दे० ) श्रान्त, क्लान्त, गिरा हुआ, आलोचन ) दूर करना, हटाना, अलग । जड़ीभूत, उदास । करना। ग्रघमन्नता–संज्ञा, स्त्री. ( सं० ) सुस्ती, वि० अवलोचित, अवलोचनीय, उदासी, दुख, शान्ति, थकावट । अवलोचक। ___ अधमर-संज्ञा, पु० (सं० ) समय, मौका, अघश-वि० ( ० ) विवश. लाचार, काल, अवकाश, विराम, विश्राम, प्रस्ताव, अनायत, पराधीन, श्रवाध्य, असमर्थ । मंत्र विशेष, वर्षण, वत्सर, क्षण, फुरसत, खो. अषशा ( दे० ) अबस इत्तफ़ाक, श्रोसर ( दे० ब्र०)। अवशि-अवशकि० वि० दे० ( सं० " औसर मिले औ सिरताज कछू पूछहिं अवश्य ) अवश्य, ज़रूर । तौ"---ऊ० श० । For Private and Personal Use Only Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अपसर्पण अवस्थाता मु०-अवसर चूकना-मौका हाथ से | अवसेख* वि० दे० (सं० अवशेष ) शेष, जाने देना । औसर चूके बरसिबो धन को बचा हुआ। कौने काम-अवसर खोजना, हूँढना | अवसेचन-संज्ञा, पु० (सं० ) सींचना, -मौका ढूंढ़ना । पानी देना, पसीजना, पसीना निकलना, अवसर ताकना--मौके की इंतिजारी रोगी के शरीर से पसीना निकालने की करना। क्रिया, देह से रक्त निकलना। संज्ञा, पु. एक प्रकार का अलंकार जिसमें वि. प्रवसेचित-अवसिचित-सींचा, किसी घटना या बात का ठीक या अपेक्षित या पसीजा हुआ। समय पर होना या घटना दिखलाया जाय। वि० अघसेचक-सींचने वाला, पसीना अपसर्पण-संज्ञा, पु० (सं० ) अधोगमन, निकालने वाला, पसीजने वाला । अधःपतन, अवरोहण, नीचे गिरना, वि० अवसेचनीय-सींचने या पसीना उतरना। निकालने के योग्य । अवसर्पित-वि. ( सं० ) गिरा हुआ, | अपसेर-प्रषसेरि -संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० उतरा हुश्रा पतित, अधोगामी।। अवसर ) असबेर, अटकाव, उलझन, देर, अवसर्पिणी-संज्ञा, स्त्री० (सं० ) पतन का विलम्ब, चिंता, व्यग्रता, उचाट, हैरानी, वह समय जिसमें ह्रास होते होते रूपादि क्लेश, व्याकुलता। का क्रमशः पूर्ण नाश हो जाता है ( जैन- " गई रही दधि बेचन मथुरा तहाँ श्राजु शास्त्र)। अवसेर लगाई"-सूबे० । अवसाद-संज्ञा, पु० (सं० ) नाश, क्षय, " गाइन के अवसर मिटावहु-सूर० । विषाद, दीनता, थकावट शैथिल्य, कमज़ोरी, " भये बहुत दिन प्रति अवसेरी "..-- नाश । रामा०। अवसादित-वि० (सं० ) शिथिल, दु.खी, ( असबेर-से उलटकर कदाचित अवसेर दीन, नष्ट, कमज़ोर, थका हुआ। अवसान-संज्ञा, पु. (सं०) विराम, संज्ञा, स्त्री० चाह, आशा। ठहराव, समाप्ति, अन्त, सीमा, सायंकाल, | अघसेरना-स० क्रि० दे० ( अवसेर ) तंग मरण, शेष। करना, दुःख देना, हैरान करना, उलझाना, "दिवस का अवसान समीप था" प्रि०प्र० । परेशान करना। संज्ञा, पु० (दे० ) होश, हवास, संज्ञा। अवस्थ—संज्ञा, पु० (सं०) एक प्रकार " छूटे अवसान-मान धनंजय के " का यज्ञ। रत्नाकर । अवस्था-संज्ञा, स्त्री० (सं०) दशा, हालत, (दे० ) प्रौसान-चेतनता। समय, काल, श्रायु, उम्र, स्थिति, मनुष्य मु०-अघसान छूटना-होश-हवास न की चार दशायें या अवस्थायें-जाग्रत, रहना। स्वप्न, सुषुप्ति, तुरीय, मनुष्य-जीवन की पाठ अवसान जाना या उड़ना-होश न | अवस्थायें-कौमार, पौगंड, कैशोर, यौवन, रहना, सुधि-बुधि न रहना। बाल, वृद्ध, वर्षीयान् , गति । अवसि-क्रि० वि० दे० (सं० अवश्य ) | अवस्थाता- संज्ञा, पु० (सं० ) अवस्थानअवश्य , ज़रूर। कारी, अधिष्ठाता, प्रधान । भा० श० को०-२३ For Private and Personal Use Only Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अवस्थान १७८ अवाक GSOMANISHMES भट्टी। अवस्थान--संज्ञा, पु० (सं० ) स्थान, जगह, स्त्री० अवलिता। ठहराव, टिकाश्रय, स्थिति, वास । अवा-श्रवा- संज्ञा, पु० (दे० ) श्राँवाँ, अवस्थान्तर-संज्ञा, पु. (सं० यौ० ) | दूसरी अवस्था, अन्य दशा, दूसरी गति । " तपइ अवाँ इव उर अधिकाई "--- वि० अवस्थान्तरित। रामा० । अवस्थापन- संज्ञा, पु० (सं० ) स्थापित " याद किये तिनको अवाँ सौं घिरिबौ करना, स्थापना। करें - ऊ० श०। वि० अवस्थापित । स० क्रि० (दे० ) तिरस्कार करना । अपस्थित-दि० ( सं० ) उपस्थित, अवान्तर-वि०( स० ) अन्तर्गत, मध्यवर्ती, विद्यमान, मौजूद, ठहरा हुआ, स्थिरीभूत, संज्ञा, पु० (सं०) मध्य, बीच। कृतावस्थान। यौ० (सं० ) अवान्तर दिशा-बीच की स्त्री० अवस्थिता। दिशा, विदिशा, दिशाओं के मध्यवर्ती अवस्थिति-संज्ञा, स्त्री० (सं० ) वर्तमानता, कोण । स्थिति, सत्ता, विद्यमानता । अवान्तर भेद-अंतर्गत भेद, भाग का अपस्थी- संज्ञा, पु० (सं० ) ब्राह्मणों में | भाग। एक प्रकार की जाति विशेष । अघान्तर दशा- दूसरी दशा, अन्य (सं० श्रावस्थी) अवस्थ नामक एक विशेष अवस्था। प्रकार का यज्ञ करने वाला। अवान्तर घटना--मध्यवर्ती घटना। अघहित-वि० (सं० ) विज्ञात, अवधान, | अवान्तर कथा--भीतरी, मध्यवर्ती, अन्य गत । कथा, कथा के भीतर कथा । अघहित्था-संज्ञा, स्त्रो० (सं० ) छिपाव, अवान्तर कथन-अन्य कथन, बीच का भाव-गोपन, छद्मवेश, चालाकी से अपने को छिपाना, संगोपन, एक प्रकार का संचा- अवान्तर कारण-- कारणान्तर्गत कारण, रीभाव ( काव्य० )। अवान्तरहेतु। अवही-संज्ञा, पु० (सं० ) एक प्रकार का अवार-संज्ञा, स्त्री० (दे० ) देर, विलम्ब बँबूर । अत्याचार। अवहेला-संज्ञा, स्त्री. (सं० ) अवज्ञा, | प्रवासी-संज्ञा, स्त्री० दे० ( सं० अवासित ) अनादर, तिरस्कार, अश्रद्धा । फ़सल में से नवान्न के लिये पहिले ही अवहेलना-- संज्ञा, स्त्री० (सं०) अवज्ञा, पहल काटा गया अन्न का बोझ, कवला, तिरस्कार, ध्यान न देना, लापरवाही, श्रवली। उपेक्षा । अवाई-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि० आना) क्रि० स० दे० (सं० अवहेलन ) अवज्ञा श्रागमन, पाना, गहिरी जोताई, 'सेव ' करना, तिरस्कार करना, अनादर करना, का उलटा। उपेक्षा करना। “ धाँई धाम-धामते श्रवाई सुनि ऊधव अपडेलनीय--वि० (सं० ) तिरस्करणीय, की"-ॐ० श० । उपेक्षणीय। वाक-- वि० (सं० अ + वच् + णिच्प्रचलित - वि० ( सं० ) तिरस्कृत उपे- अवाच् ) चुप, मौन, स्तंभित, चकित, नित, जिलकी अवहेलना हुई हो । विस्मित स्तब्ध । कथन । चवला। For Private and Personal Use Only Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org प्रवागी १७६ वागी - वि० (सं० ) जो न बोले, चुप, मौन | प्रमुख - वि० (सं० ) श्रधोमुख, नतमुख, नमितमुख, नीचे मुँह किये हुए, लज्जित, बिना वाली के, चुप, मौन । प्रवाङ्मनसगोचर -संज्ञा, पु० ( सं० यौ० ) वाणी और मन आदि इंद्रियों के द्वारा जो न जाना या कहा जा सके, ब्रह्म, ईश्वर । अवात्रा - वि० (सं० ) वाचा या वाणीरहित । अधाची - संज्ञा, दिशा । स्त्री० (सं० ) दक्षिण श्रवाच्य - वि० (सं० ) जो कहने योग्य न हो, श्रनिंदित, विशुद्ध कथ्य, मौनी, चुप, जिससे बात-चीत करना उचित न हो, नीच, अधम । प्रवाधी - वि० (दे० ) वाधा-हीन, दुखरहित । वाय - वि० दे० (सं० अनिवार्य ) अनिवार्य, उद्धत । प्रधार - संज्ञा, पु० (सं० ) नदी के इस पार का किनारा, पार का विलोम । अवारजा -- संज्ञा, पु० ( फ़ा० ) हर एक सामी की जोत यादि लिखी जाने वाली बही, जमा-खर्च की बही खाता, खतौनी । जमाबंदी (दे० ) संक्षिप्त लेखा । वारिजा (दे० ) । " करि वारजा प्रेम-प्रीति को असल तहाँ खतिया " - सूर० । पवारना * - स० क्रि० दे० (सं० प्रवारण) रोकना, मना करना, निवारण करना, बारना । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir हरकना (दे० ) । संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० अवार ) किनारा, मोड़, मुख, विवर, मुँह का छेद । प्रवास – संज्ञा, पु० दे० (सं० प्रवास ) वास, घर, निवास स्थान, भवन वास ... संज्ञा, पु० (सं० ) कुवाच्य, गाली । प्रवाज - संज्ञा, स्त्री० दे० ( फ़ा० + आवाज ) शब्द, थावाज़, ध्वनि । प्रवाध्य - वि० ( सं० ) श्रतर्क्स, बिना अधिकार - वि० ( सं० ) विधा, अबाध । स्थान । वि० ( अ + वास ) वास-रहित । अवि-संज्ञा, पु० (सं० ) सूर्य, मंदार, था, सदार ( दे० ) भेवा, बकरा, पर्वत । अधिक वि० (सं० ) ज्यों का त्यों, fer हेर फेर या परिवर्तन के, पूर्ण, पूरा, निश्चल, शांत, जो व्याकुल या विकल न हो, यथार्थ । संज्ञा, विकलता । वि० विकलित | अधिकृत अविकल्प - वि० (सं० ) निश्चित, निस्संदेह, संदिग्ध, शंसय । अविकल्पित- वि० (सं० ) संदेह रहित, , बिना विकल्प के निश्चित । विकार रहित, निर्विकार, निर्दोष, जिसके रूप-रंग में परिवर्तन न हो, परिवर्तन - रहित विकृति - विहीन, विकल, जन्म-मरणादि विकार से रहित, श्रज, अविनाशी, ईश्वर, ब्रह्म, जिसमें किसी भी प्रकार अंतर न पड़े । संज्ञा, पु० (सं० ) विकाराभाव | अधिकारता -- संज्ञा, स्त्री० (सं० ) विकारता - रहित, निर्दोषता विकृति-विहीनता । अधिकारत्व (संज्ञा, पु० ) । अधिकारी - वि० (सं० श्रविकारिन् ) जिसमें विकार या परिवर्तन न हो, जो सदैव एक साही रहे. निर्विकार, जो किसी का विकार न हो, ब्रह्म, ईश्वर । For Private and Personal Use Only वि० [स्त्री० - विकारिणी । अधिकृत - वि० पु० ( सं० ) जो विकृत न हो, जो न बिगड़े या न बदले, अपरिवर्तित, अविकारी | Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अविगत १८० अविधमान स्त्री० प्रविकृता। अनैपुण्य, अप्रवीणता, अबोधता, अपटुता, अधिगत-वि० (सं० ) जो जाना न जाय, अनभिज्ञता, अज्ञता, अज्ञान । अज्ञात, अज्ञय अनिर्वचनीय, अकथनीय, प्रविज्ञान-संज्ञा, पु० (सं० ) जो विज्ञान नाश-रहित, अविनाशी, नित्य, शाश्वत, न हो, विज्ञानाभाव, कला, कौशल । जो विगत न हो, जो कभी समाप्त या गत वि० प्रविज्ञानी। न हो, ब्रह्म, ईश्वर । अधिशेय-वि० पु. (सं० ) जो जाना अविचर-वि० (सं० ) जो न विचरे, न न जा सके, न जानने के योग्य । चले, स्थिर, अचल, अटल । स्त्री० अविज्ञेया। " जुग जुग अविचर जोरी"--सूबे०। अवितर्क-संज्ञा, पु. (सं० ) वितर्क का चिरस्थायी, चिरंजीवी, चिरजीवी। अभाव, जो वितर्क न हो, निश्चित। अविचरता-संज्ञा, स्त्री० (सं० ) स्थिरता, अवितर्कित--वि० ( सं० ) जो वितर्क-युक्त अचलता, चिरस्थायित्व, विचरण-शीलता न हो, निस्संदेह, निश्चित । रहित। अवितत-वि० (सं० ) विरुद्ध, उलटा, अविचरित-वि० ( सं० ) बिना विचरण | विलोम। किया हुआ। अवित्त--संज्ञा, पु० (सं० ) वित्त या धन अविचल-वि० (सं० ) जो विचलित न । का अभाव, धन-रहित, संपति-विहीन । हो, अचल, स्थिर, अटल, न विचलने वाला, | वि० धनहीन, निर्धनी। स्थावर, निष्कम्प, निर्भीक, निडर, दृढ़, धीर । अवितथ–संज्ञा, पु० (सं० ) सत्य, यथार्थ । अविचलता-संज्ञा, स्त्री. भा. (सं०) वि० सत्यवान, यथार्थ, विशिष्ट । अचलता, स्थिरता, दृढ़ता, धीरता, निर्भयता। अषितरण-संज्ञा, पु० (सं० ) वितरणाअविचलित-वि० (सं० ) स्थिर, अचल, | भाव, न बाँटना, न फैलाना। धीर, दृढ़, निश्चित, जो विचलित न हो। अवितरित-वि० (सं० ) न बाँटा हुआ, स्त्री. अविचलिता। वितरण न किया हुआ। अविच्छिन्न-वि० (सं० ) अटूट, लगातार, वि० अवितरणीय---न बाँटने योग्य । अभंग, बराबर चलाने वाला, अविरत । अधिथा-वि० दे० (सं० अव्यथा ) बिना अबिछीन (दे० )। व्यथा या पीड़ा के, व्यथा हीन । अविच्छेद-वि० ( सं ) जिसका विच्छेद न अविदग्ध-वि० ( सं० ) अ+वि+दह+ हो, अटूट, लगातार, अभंग । क्त ) अपंडित, अचतुर, अनभिज्ञ, अविज्ञ, अविजन-वि०(सं०) जन-शून्य जो न हो, __ अपटु । जन-पूर्ण। अविदग्धता-संज्ञा, स्त्री. भा० (सं.) संज्ञा, पु० बस्ती, जो जंगल न हो। अपांडित्य, अचातुर्य, अनभिज्ञता, अविज्ञता। (दे० ) बिजन या पंखे का अभाव।। अविदित-वि. ( सं० ) जो विदित या अविज्ञात-वि० (सं० ) अनजाना, अज्ञात | ज्ञात न हो, अज्ञात, न जाना हुआ, अनवगत । जो ज्ञात या विदित न हो, बेसमझा, अर्थ- अविद्य-वि० ( सं० ) मूर्ख, अनभिज्ञ, निश्चय-शून्य, न जाना हुआ। विद्या-विहीन । अविज्ञ-वि० (सं० ) जो विज्ञ, या भिज्ञ अविद्यमान-वि० (सं० ) जो विद्यमान न हो, अप्रवीण, अपटु, अज्ञ, अनभिज्ञ । न हो, अनुपस्थित, असत्, मिथ्या, असत्य, अविज्ञता-संज्ञा, भा० स्त्री. ( सं० ) अवर्तमान, अभाव, असत्ता। For Private and Personal Use Only Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १८१ अविद्यमानता अविप्रलब्ध प्रविद्यमानता-संज्ञा, भा० स्रो० (सं०) विधेय-विहीन, अकर्तव्य, विधान न करने अनुपस्थिति, अवर्तमानता, अभावता।। अविद्या-संज्ञा, स्त्री० (सं०) विपरीत ज्ञान, अधिनय संज्ञा, पु. (सं० ) विनयाभाव, मिथ्या ज्ञान, अज्ञान, मोह, माया का एक पृष्टता, ढिठाई। रूप या भेद ( दर्शन० ) मूर्खता, कर्म-कांड, प्रबिनै ( दे० ) नम्रता-रहित, अविनम्र प्रकृति ( शास्त्रानुसार ) जड़, अचेतन । उदंडता। अविद्युत्-वि० (सं०) विद्यत् विहीन, बिना अधिनश्वर--वि० (सं० ) जिसका बिनाश बिजली की शक्ति के, विद्युत्-शक्ति-विहीन । न हो, अविनाशी, अनाशवान, चिरस्थायी, अविद्वता-संज्ञा, स्त्री० (सं० ) अपांडित्य, जो न बिगड़े, नाश-रहित, नष्ट न होने अनभिज्ञता, विद्वता का अभाव । वाला। अविद्वान-वि० (सं०) जो विद्वान या संज्ञा, पु. ब्रह्म, ईश्वर । . पंडित न हो, मूर्ख, अपंडित, मूढ़। अविनाभाष- संज्ञा, पु० (सं० ) सम्बन्ध, · अषिदुषी–वि० स्त्री० ( सं० ) अपंडिता, | व्याप्य-व्यापक भाव, या सम्बन्ध, जैसे अग्नि मूर्खा, अशिक्षिता, विद्या-विहीना। और धूम में (न्याय० )। अविदूषण–वि. पु. ( सं० ) दूषणभाव, | अविनाश- संज्ञा, पु० (सं० ) विनाश का निर्दोष, दूषण रहित, अदोष । अभाव, नाश न होना, अक्षय, नाश-रहित । प्रषिदूषित-वि. पु. ( सं० ) जो दूषित अविनाशी-वि० पु. (सं० अविनाशिन् ) या दोष-युक्त न हो, दोष-विहीन । जिसका नाश न हो, अनाशवान्, अविनश्वर, स्त्री० प्रविषिता। अक्षय, अक्षर, नित्य, शाश्वत, संततस्थायी, अविदेह-वि० ( सं० ) जिपके विशेष देह चिरजीवी, जिसका कभी विनाश न हो, सदा न हो, विदेह जो न हो। रहने वाला, परमात्मा, ब्रह्म, जीव, प्रकृति । अविद्रोह- संज्ञा, पु० (सं० ) विद्रोह का अबिनासी (दे० )। उलटा, विद्रोहाभाव, द्रोह-रहित । । अविनीत- वि० (सं० ) जो विनीत या अविद्रोही-वि० (सं० ) जो विद्रोही न । विनम्र न हो, उद्धत, अदांत, उदंड, दुदात, हो, जो विरोधी न हो, भिन्न, विद्रोह न दुष्ट, सरकश, ढीठ, उच्छृखल । करने वाला, बैर-भाव न रखने वाला, जो | स्त्री० अधिनीता। झगड़ालू न हो। अविपक्ष-संज्ञा, पु० (सं० ) जो विरोधी अविधान-संज्ञा, पु० (सं० ) विधान का | पक्ष न हो। अभाव, विधि का उलटा, विधान के विप. वि. अविपक्षी-मित्र, अपने पक्ष का । रीत, रीति, कुरीति । अविपरीत-वि० (सं० ) जो विपरीत, या प्रविधि-वि० (सं० ) विधि विरुद्ध, अनि- | उलटा न हो। यमित, जो नियमानुकूल न हो, नियम के अधिपाक-वि० ( सं० ) विपाक या फलविपरीत। रहित, निष्फल, परिणाम-शून्य, फल-विहीन, प्रविधानता-संज्ञा, भा० स्त्री. (सं०) अफल । बेतरतीबी, बेकायदगी कुरीति । अविप्र-वि० सं० ) जो विप्र या ब्रह्मण न अविधु-वि० (सं० ) विधु या चन्द्रमा हो, अब्राह्मण । रहित, चंद्र-विहीन । संज्ञा, भा० सी० श्रषिप्रता। अविधेय-वि० ( सं० ) विधेय-रहित, | अविप्रलब्ध-वि० (सं० ) अवंचित, अप्र For Private and Personal Use Only Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir न हो। अविप्लव १८२ अधिवादी तारित धोखा न खाया हुआ, न ठगा हुआ। अविरल-वि० (सं० ) मिला हुआ, अपृथक, अविप्लव - संज्ञा, पु० (सं० ) अनुपद्रव, अभिन्न, घना, सघन, निविड, निरंतर, विप्लव शून्य । वि० अविप्लवी। लगातार। अधिपुल-वि० ( सं० ) अविस्तृत, अप्रचुर, संज्ञा, स्त्री० अविरलता। संज्ञा, स्त्रो० (सं० ) अविपुलता। " अबिरल भगति मांगि वर"..-रामा० । अविफल-वि० (सं० ) जो विफल या अविगग-संज्ञा, पु० (सं० ) विराग-विहीन, निष्फल न हो। अनुराग। संज्ञा, स्त्री. अविफलता। वि० अधिरागी-जो विरागी न हो। अविभक्त-वि० (सं० ) मिला हुआ, अधिगम-वि० (सं० ) बिना विश्राम के, अपृथक, अखंड, अभंग, अभिन्न, एक, बिना ठहराव के, लगातार, निरंतर। शामिलाती, जो बाँटा न गया हो, जिसका प्रारुद्ध-वि० ( प्रशिरुद्ध-वि० (सं० ) जो विरुद्ध या विभाग न किया गया हो। खिलाफ न हो। अविभाज्य-वि० (सं० ) जो विभाग के प्रावगध- संज्ञा, पु. ( सं० ) समानता, योग्य न हो -अविभाग वि० भाग रहित । . साम्प, सादृश्य, मैत्री, विरोधाभाव, अनुअधिभाजनीय वि० (सं० )। कूलता, मेल, संगति, एकता प्रीति । अविभु-वि० (सं० ) जो सर्वत्र व्यापक : अविरोधो-वि० (सं० अविरोधिन् ) जो विरोधी या शत्रु न हो. मित्र, अनुकूल, अधिभूषित-वि० पु० (सं० ) अनलंकृत, शान्त । . न सजा हुआ। स्त्री० अविरोधिनी। अधिमुक्त-संज्ञा, पु. ( सं० ) जो मुक्त अविलम्ब - संज्ञा, पु० ( सं० ) शीघ्र, न हो, न छोड़ा हुया, बद्ध, अव्यक्त, मुमुक्षु ।। तुरन्त, बिना देर के। संज्ञा, पु० (सं० ) कनपटी। अघिलोल-वि० (सं० ) जो विलोल या अविमुक्त क्षेत्र--संज्ञा, पु. ( सं० यौ०) चंचल न हो, अचंचल । काशी, बनारस। | अविलोकन-संज्ञा, पु० (सं० ) अवलोकन अविरक्त-वि० (सं० ) जो विरक्त या का अभाव. न देखना। अलग न हो, अनुरक्त । अविलोकनीय-वि० (सं० ) न देखने अविरत-वि० (सं० ) विराम-विहीन, लायक । निरंतर, लगा हुआ, बिना ठहराव के, लीन अविलोकित- वि० ( सं० ) न देखा हुआ. अनुरत । न पढ़ा हुआ। क्रि० वि० ( सं ) निरन्तर, लगातार, नित्य, अविलोचन-वि० ( सं० ) नेत्र-हीन, सर्वदा, हमेशा, बराबर, विराम-शून्य । अंधा, मूर्ख, अज्ञानी। अधिरति-संज्ञा, स्त्री. (सं० ) निवृत्ति अनिलोम-वि० ( सं० ) अविरुद्ध का अभाव, लीनता, अनुरति, विषयासक्ति, अविपरीत, उलटा जो न हो। अशांति। अविवाद-वि० ( सं० ) विवाद-विहीन, अविरथा-कि० वि० दे० व्यर्थ, वृथा। निर्विवाद । अविरद-संज्ञा, पु० ( सं० ) अयश, असं- अविधादी-वि० ( सं० ) विवाद न करने कल्प, अकीर्त। वाला, शान्त, धीर, गंभीर, जो झगड़ालू वि. विरद-रहित, प्रण-हीन। । न हो, मेली। For Private and Personal Use Only Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra अविवाहित अविवादित - वि० पु० व्याह न हुआ हो, ( काँरा ) | स्त्री० अविवाहिता । www.kobatirth.org (सं० ) जिसका कुमारा, कुवाँरा, विविध - वि० (सं०) विविध नहीं, एक । अधिवेक -संज्ञा, पु० (सं० ) विवेकाभाव, श्रविचार, श्रज्ञान, नासमझी नादानी, अन्याय । अविवेकता - संज्ञा, भा० स्त्री० (सं० ) अज्ञानता, मूर्खता, विवेक-हीनता, विचार शून्यता । अविवेकी - वि० ( सं० अविवेकिन् ) ज्ञानी, मूर्ख, अविचारी, मूद, अन्यायी, विवेक-हीन | अविशेष - वि० (सं० ) भेदक धर्म-रहित, तुल्य, विशेषता - रहित, समान । संज्ञा, पु० भेदक धर्माभाव, सामान्य, सांतत्व, धीरत्व और मूहस्व श्रादि विशेषताओं से रहित, सूक्ष्म-भूत ( सांप ) | वि० [प्रविशिष्ट - जो विशेषता-हीन हो साधारण, सामान्य । संज्ञा, पु० स्त्री० प्रविशेषता । विश्वास - वि० सं० ) विश्वास शून्य, ( प्रतीति, निरचय अप्रत्यय | १८३ अवैतनिक अविषम – वि० ( सं० ) जो विषम न हो, सम । विषय - वि० ( सं० ) जो मन या इंद्रिय का विषय न हो, अगोचर, अनिर्वचनीय | त्र्यविषयी - वि० (सं० ) जो विषयवासनाओं में लिप्त न हो, विषय भोगविहीन | अविषैला - वि० (सं० ) जो विषैला या विषयुक्त न हो । वि० [विषाक्त | Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विश्रब्ध - वि० सं० ) बिना विश्वास के, जिसे विश्वास या प्रतीति न हो । अविश्रान्त - वि० (सं० ) जो न रुके, जो न थके, शिथिल, क्लान्त | प्रविश्राम - वि० सं० ) विश्राम -रहित, अविराम, श्राराम का न होना, बेचैन । ) विधि-विरुद्ध, प्रविहड़ - वि० दे० (सं० अ + विघट ) जो खंडित न हो, अखंड, अनश्वर, बीहड़, ऊँचा नीचा । अविहित- वि० (सं० अनुचित न कहा हुआ । अधीरा - वि० स्त्री० (सं० ) पुत्र और पतिरहित स्त्री, स्वच्छंद या स्वतंत्र ( स्त्री ) । प्रवेक्षण- -संज्ञा, पु० (सं० ) अवलोकन, देखना, जाँच-पड़ताल करना, देख-भाल | प्रवेक्षणीय- वि० ( सं० ) अवलोकनीय, देखने लायक | वि० अवेक्षित - अवलोकित । वेग - संज्ञा. पु० (सं० ) वेग रहित, मंदगति, मंथर गति, बिना तेज़ी के । संज्ञा, पु० ( ० एवज ) बदला, प्रवेज प्रतीकार । संज्ञा, पु० विश्वासाभाव, प्रतीति-विहीनता । वि० अविश्वस्त - न विश्वसनीय विश्वास करने के अयोग्य, अविश्वसनीय । अविश्वसनीय - वि० ( सं० ) जिस पर | प्रवेपथु वि० (सं० ) अकंपित, कंपनविश्वास न किया जा सके । विश्वासी - वि० ( सं० श्रविश्वासिन् ) जो | किसी पर विश्वास न करे, जिस पर विश्वास न किया जाय । रहित । प्रवेर - क्रि० वि० (सं० ) विलम्ब, अबेर देरी (वेर) देरी नहीं, शीघ्र । प्रवेश – संज्ञा, पु० (सं० प्रवेश ) जोश, चैतन्यता, भूत लगना, तैश, अवेस, यावेस (दे० ) | अवेष्टित - वि० ( सं० ) लपेटा हुआ, ( श्रावेष्टित ) न लपेटा हुआ ( अ + वेष्टित ) । प्रवैतनिक- वि० (सं० अ + वेतन ) बिना For Private and Personal Use Only Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अवैदिक १८४ अव्यवस्थित वेतन या तनख्वाह के काम करने वाला, ईषत् लोहित, हलका लाल रंग, गौर, आनररी (अ.)। श्वेत । अवैदिक-वि० (सं० ) वेद विरुद्ध, वेद के अव्यक्तराशि-संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं० ) विपरीत। अनिश्चित नाम वाली राशि (बीजगणित)। अवैदिक-धर्म-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) अव्यक्कलिंग-संज्ञा, पु. (सं० ) महत्त. वेद-विरुद्ध धर्म । स्वादि ( सांख्य ) सन्यासी, साधु, न अवैध-वि० (सं० ) बुरा वैद्य, वैद्याभाव । पहिचाना जाने वाला रोग। अवैध-वि० (सं० अ+विधि ) विधि के | अव्यग्र--वि० ( सं० ) घबराहट रहित, प्रतिकूल, अनियमित, बेकायदा। धीर, अनाकुल। अवैयक्तिक-वि० (सं० ) जो व्यक्ति गत अव्यग्रता-( संज्ञा, स्त्री० ) धीरता, या व्यक्ति सम्बन्धी न हो, व्यापक, सर्व- अनाकुलता। साधारण । अव्यय- वि० ( स० ) जो विकार को न अवैराग्य-संज्ञा, पु० (सं० ) वैराग्य का | प्राप्त हो, सर्वदा एक सा या एक रस रहने अभाव, विराग-विहीनता, अविराग। वाला, अक्षय, निर्विकार, नित्य, आद्यंत अवैलक्षणय-संज्ञा, पु० (सं० ) अविलक्ष- हीन, अनश्वर, कृपण । णता, अविचित्रता, साधारणता, संज्ञा, पु० (सं० ) वे शब्द जिनके रूप विशेषताभाव। लिंग, वचन और कारकों के प्रभाव से नहीं अवैवाहिक-वि० (सं० ) जो वैवाहिक बदलते और जो सदैव एक ही या समान या विवाह-सम्बन्धी न हो, विवाह-विषयक रूप से प्रयुक्त होते हैं जैसे-और, अथवा, नहीं। किन्तु, फिर, श्रादि, विष्णु, परमेश्वर, ब्रह्म, अवैज्ञानिक-वि० (सं० ) जो वैज्ञानिक शिव। या विज्ञान सम्बन्धी न हो, अशास्त्रीय । । वि० (सं० + व्यय ) व्यय रहित । अव्यक्त-वि० (सं०) अप्रत्यक्ष, अप्रगट, अव्ययीभाष-संज्ञा, पु. यौ० (सं० ) एक अगोचर, जो ज़ाहिर न हो, अज्ञात, अदृष्ट, अव्यय पद के साथ शब्द संयोजन का अनिर्वचनीय, अकथनीय, जिसमें रूप-गुण । विधान, समास का एक भेद, जैसे प्रतिरूप, न हो, अस्फुट, अस्पष्ट, अप्रकाशित । । अतिकाल । संज्ञा, पु० (सं० ) विष्णु, कामदेव, शिव, | अव्यर्थ-वि० (सं.) जो व्यर्थ न हो, प्रधान, प्रकृति ( सांख्य ) पास्मा, परमात्मा, सफल, सार्थक, अमोघ, न चूकने वाला, क्रिया-रहित ब्रह्म, जीव सूक्ष्म-शरीर, सुषुप्ति अचूक । अवस्था, वह राशि जिसका नाम अनिश्चित अव्यवस्था- संज्ञा, स्त्री० (सं० ) विधि या हो (बीज गणित )। विधान का न होना, बेकायदगी, अनिय" अव्यक्त राशि ततो मूलम् संकलेत्मूलमान- मितता, अविधि, स्थिति या मर्यादा का न येत् "-लीला। होना, शास्त्रादि के विरुद्ध व्यवस्था, बद. " अव्यक्त मूलमनादि तरुत्वच्चारु निगमा इंतज़ामी, गड़बड़ी। गम भने "-रामा० ।। अव्यवस्थित-वि० (सं० ) शास्त्रादि विधि अव्यक्तगणित- संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं० ) के अनुकूल जो न हो, मर्यादा रहित, बीज गणित । बेठिकाने का, चंचल, अस्थिर, सिद्धान्तअव्यकराग-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) रहित, असंगठित । For Private and Personal Use Only Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अव्यवहार्य १८५ प्रशन अव्यवहार्य-वि० (सं० ) जो व्यवहार में अव्युत्पन्न-वि० (सं० ) अनभिज्ञ, अनारी, न लाया जा सके, व्यवहार या प्रयोग वह शब्द जिसकी व्युत्पत्ति या सिद्धि न हो के जो अनुपयुक्त, या अयोग्य हो, पतित, सके ( व्याकरण)। जाति-भ्रष्ट । अव्यूढ-वि० (सं० ) अविपुल, अविशाल । संज्ञा, पु० (सं०) अव्यवहार-दुर्व्यवहार । अव्वल-वि० (०) पहिला, आदि, अव्यवहित-० (सं० ) व्यवधान-रहित, : प्रथम, उत्तम. श्रेष्ठ । संस्कृत, सन्निकट, समीप, पास। संज्ञा, पु० आदि, प्रारम्भ । संज्ञा, पु० (सं०) अव्यवधान, व्यवधाना- अशंक-वि० (सं० ) बेडर, निडर, निर्भय, भाव, दो वस्तुओं को न मिलने देने वाला निश्शंक। या पृथक करने वाले वाधक के बिना। अशंकर--वि० (सं०) अमंगलकारी, अव्याकृत-वि० (सं० ) जिसमें किसी अकल्याणकारक । प्रकार का विकार न हो, अप्रकट, गुप्त, प्रशंका-संज्ञा, स्त्री० (सं० ) शंका का कारण-रूप, प्रकृति ( सांख्य शास्त्र) न होना, संदेह-विहीनता। छिपा हुअा, निर्विकार । । अशोकत-वि० (सं० ) निर्भीक, शंकाअव्याज-वि० (सं० ) व्याज या बहाना से रहित । रहित, सूद से रहित, बेसूद, बिना स्त्री० प्रशंकिता। व्याज के। प्रशंभु-वि० (सं० ) अमंगल, अशिव, अव्यापार-वि० ( सं० ) बिना व्यापार या अहित । काम के, व्यापाराभाव, बिना काम के. पशकुन-संज्ञा, पु० (सं० ) बुरा शकुन, कार्याभाव, बेकाम। बुरा लक्षण, अपशकुन । संज्ञा, पु० बुरा व्यापार या बुरा काम । असगुन ( दे० ) बुरे चिन्ह, अशुभ-सूचक अव्यापक-वि० (सं० ) जो व्यापक न बातें। हो, अविभु। अशक्त–वि० (सं० ) निर्बल, असमर्थ, अव्याप्त--वि० ( सं० ) जो व्याप्त या कमज़ोर। ध्यापक न हो। असत (दे० ) शक्ति-रहित । अव्याप्ति--वि० संज्ञा, स्त्री० (सं.) किसी अशक्तता-संज्ञा, भा० स्त्री० (सं० ) परिभाषा के सर्वत्र घटित न होने का अक्षमता, योग्यता, असमर्थता, निर्बलता। दोष ( न्याय० ) किसी एक पदार्थ में दूपरे | प्रशक्ति-संज्ञा, स्त्री० (सं० ) निर्बलता, पदार्थ का मिला हुआ न होना, अनुमान । इन्द्रियों और बुद्धि का बेकाम होना का कारण न होना ( न्याय०) अविस्तार, । (सांख्य ) क्षीणता, शक्ति-हीनता। सम्पूर्ण लक्ष्य पर लक्षण का न घटित अशक्य-वि० (सं० ) असाध्य, न होने होना । योग्य, असम्भव, शक्ति से परे । अव्यावृत--वि० (सं०) निरंतर, लगातार, | अशक्यता-संज्ञा, भा० स्त्री० (सं० ) अटूट, ज्यों का त्यों, यथास्यात् तथा, असाध्य, साध्यातिरिक्त, असम्भवता। बराबर, अविरल, अविरत । प्रशन-संज्ञा, पु. (सं० ) भोजन, प्रहार, अव्याहत-वि० (सं० ) अप्रतिरुद्ध, बेरोक, अन्न, खाना, चिनक भिलावाँ । सत्य, ठीक, युक्ति-युक्त, अवरोध-रहित । असन--(दे०)। "अव्याहतैः स्वैरगतैःस तस्या"-रघु०। “असन कंद-फल मूल"-रामा । मा० श० को०-२४ For Private and Personal Use Only Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org सनि केतु नहिं राहू प्रशनाच्छादन प्रशनाच्छादन -संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) अन्न-वस्त्र, रोटी कपड़ा, खाना- कपड़ा । शनि -संज्ञा, पु० (सं० ) विद्युत्, वज्र, इन्द्रास्त्र | प्रसनि (दे० ) । लूक न 66 " प्रशम्बल - वि० (सं० ) अर्थ-हीन, मार्ग व्यय - शून्य, पाथेय-रहित । प्रशम्य - वि० (सं० ) विराम योग्य, अविश्रान्त, विश्रामाभाव । शयन - वि० (सं० ) बिना शयन या सोने के, न सोना, अनिद्रा । शरण - वि० सं० ) निराश्रय, रक्षाहीन, निरालंब, अनाथ, जिसे कहीं शरण न हो । १८६ सरन (दे० ) । शरण-शरण - वि० (सं० यौ० ) निराश्रयाश्रय, अनाथ नाथ, भगवान, ईश्वर । सरन सरन (दे० ) । साधुः शरण्य - वि० (सं० ) जो शरण न दे सके, शरण न दे सकने वाला, ( शरणे शरण्यः, अ + शरण्य ) । अशरफी-संज्ञा स्त्री० ( फ़ा० ) से पच्चीस रुपये तक का सोने का एक सिक्का, मोहर । सोलह " (दे० ) पीले रंग का एक फूल, स्वर्णमुद्रा - असरफी (दे० ) । अशरफ़ - वि० ब० व० ( अ० ) शरीफ़, भद्र, सज्जन, भलामानुष, अच्छा आदमी । शरीर-संज्ञा, पु० (सं०) कामदेव, नंग, कन्दर्प वि० शरीर-रहित । प्रशिरस्क वि० अशरीरी - जो शरीर धारी न हो, निराकार | अशांत - वि० (सं० ) अशिष्ट, जो शान्त न हो, अस्थिर, अधीर, दुरन्त, चंचल, संतुष्ट, भावित । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रामा० । यौ० शनि-पात -संज्ञा, पु० (सं० ) प्रशान्ति-संज्ञा, स्त्री० (सं० ) अस्थिरता, वज्रपात, विद्युत्-पतन | चंचलता, क्षोभ, असंतोष, उत्पात, खलबली, गड़बड़ी | वि० (सं० अ + शनि ) शनि-रहित । प्रशमसंज्ञा, पु० (सं० ) लुब्धता, विक्लव, अशान्ति, शमनाभाव । शापित - वि० (सं० ) जिसे शाप न दिया गया हो, शाप-रहित । अशारीरिक - वि० (सं० ) जो शरीरसम्बन्धी न हो, जो देह-विषयक न हो, मानसिक । शालीन - वि० (सं० ) धृष्ट, ढीठ । संज्ञा स्त्री० भा० (सं० ) धृष्टता, ढिठाई । प्रशासित - वि० सं०) शासन - रहित, संज्ञा, स्त्री० भा० (सं० ) अशांतताशिष्टता, दौरात्म्य, अधीरता । अकृतशासन | शावरी -संज्ञा स्त्री० (सं० ) एक प्रकार की रागिनी का नाम ! सावरी (दे० ) | शास्त्र - वि० (सं० ) शास्त्र - विरुद्ध, अवैध, विधि-हीन | शास्त्रीय - वि० (सं० ) शास्त्रध-विरुद्ध, जो शास्त्र सम्बन्धी न हो, अवैज्ञानिक । प्रशिक्षित - वि० (सं० ) जिसे शिक्षा न दी गई हो, जिसने शिक्षा न पाई हो, पढ़, अनपढ़, बेपदा-लिखा, मूर्ख, पंडित, असभ्य, अनभिज्ञ । अशित - वि० सं०) भुक्त, खादित ( श् +) 1 वि० ( अ + शित ) श्याम । शिर-संज्ञा, पु० (सं० प्रश + इर) हीरक, हीरा, अनि, राक्षस, सूर्य । प्रशिरस्क - वि० (सं० ) मस्तक- हीन, कबंध, धड़, रुंड । For Private and Personal Use Only Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org शिव १८७ शिव - वि० (सं० ) अमंगल अशुभ | प्रशिशिर - वि० ( सं० ) अशीतल, उष्ण, गर्म । प्रशिश्विका—संज्ञा, स्त्री० (सं० ) अनपत्या पुत्र-कन्या -हीन स्त्री, निपूती । प्रशिष्ट - वि० (सं० ) उजड्ड, बेहूदा, सभ्य, मूर्ख, प्रगलभ, दुरन्त, साधु । प्रशिष्टता-संज्ञा, भा० स्त्री० (सं० ) श्रसाधुता, ढिठाई, असभ्यता, बेहूदगी, उजडुपन | अशुचि - वि० (सं० ) अशुद्ध, अपवित्र, पुनीत, गंदा, मैला, मलीन, अस्वच्छ, शौच । शुद्ध - वि० (सं० ) अपवित्र नापाक बिना शोधा हुआ, असंस्कृत, ग़लत, अपरिष्कृत अशुचि, जो ठीक या सही न हो । प्रशुद्धता - संज्ञा, स्त्री० भा० (सं० ) थपवित्रता, गंदगी, ग़लती, त्रुटि, अशोधन, भूल । प्रशुद्धि-संज्ञा स्त्री० (सं० ) अशुद्धता | प्रशुन – संज्ञा, पु० दे० (सं० अश्विनी ) अश्विनी नामक एक नक्षत्र । अशुभ संज्ञा, पु० (सं० ) श्रमंगल, अहित, पाप, अपराध । वि० (सं०) बुरा, ख़राब, अमंगलकारी । अशुभचिन्ता – संज्ञा स्त्री० यौ० (सं० ) बुरा चिन्तन, अनिष्ट विचार, या सोचना । वि० शुभ चिन्तक | श्रशुभदर्शन -संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) जिसका देखना मंगलकारी हो, बुरे रूप का, अपशकुन, पापी, बुरे लक्षण या चिन्ह | शुभदर्शक - वि० यौ० (सं० ) अशुभदर्शी, बुराई या पाप या अपशकुन देखने वाला । मु० - अशुभ मनाना - बुरा चेतना, किसी के लिये अमंगल कामना करना, शाप देना । अशोक अशुभ होना - अपशकुन या बुरा होना । श्रशुभेच्छु - वि० (सं० यौ० ) अशुभैषी, बुरा चाहने वाला । अशून्यशयनवत -संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) श्रावण कृष्ण द्वितीया को किया जाने वाला एक व्रत विशेष । अशेष - वि० (सं० ) पूरा, समूचा, समाप्त, अनंत, बहुत, निश्शेष, जो शेष न रहे । अशेषज्ञ - वि० (सं० ) सर्वज्ञ, सर्ववित्. सब जानने वाला । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir संज्ञा, स्त्री० श्रशेषज्ञता । प्रशेषतः -- भव्य ० ( अशेष + तस् ) सब प्रकार से, अनेक रूप से, बहुत भाँति । अशेष- विशेष - भव्य ० यौ० (सं० ) अनेक प्रकार से, बहुत रूप से, अनेक भाँति, विविध प्रकार | अशोक - वि० सं०) शोक - रहित, दुखशून्य, सुख । संज्ञा, पु० एक प्रकार का पेड़ जिसकी पत्तियाँ आम की तरह लम्बी लम्बी और किनारे पर लहरदार होती हैं । सुनहु विनय मम विटप अशोका " 66 रामा० । 16 जनु शोक - श्रंगार " - रामा० । पारा । एक राजा विशेष जो मौर्य वंशीय सम्राट विन्दुसार का पुत्र और चन्द्रगुप्त का पौत्र था, यह २५ वर्ष की ही श्रायु में शत्रुओं को हरा कर सिंहासनारूद हुआ, इनका दूसरा नाम शिलालेखों में प्रियदर्शी पाया जाता है, इनका राज्यकाल ईसा के २५७ वर्ष पूर्व से चलता है, प्रथम ये सनातन धर्मावलम्बी थे, राजा होने के ७ वर्ष बाद बौद्ध धर्म में दीक्षित हो गये, आधा भारत इनके राज्य में था इन्हीं के समय में बौद्धमहासभा का द्वितीय अधिवेशन हुआ । इनके राज्य का प्रबंध बड़ा ही नीति -नयपूर्ण और सुन्दर था । वि० शोकित - शोक-रहित, दुःख-हीन । For Private and Personal Use Only Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रशोक-पुष्पमंजरी 《བད अश्रांत अशोक-पुष्पमंजरी- संज्ञा, स्त्री० यौ० । अशौचनिवृत्ति-संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) (सं० ) दंडक वृत्त का एक भेद विशेष। अशुद्धि से निवृत्त होना, अशुचिता का प्रशोक-बाटिका-संज्ञा. स्त्री० यौ० (सं०) नाश । शोक-नाशक रम्य उद्यान या उपवन, रावण अशौचान्त-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) अशौच की उस प्रसिद्ध वाटिका का नाम जिसमें । का अन्तिम दिवस, सूतक का श्राखीरी उसने सीता जी को रक्खा था और जिसे दिन । हनुमान जी ने उजाड़ डाला था, अशोक- । अशौर्य-संज्ञा, पु. ( सं० ) शूरता का वन, यह परम रमणीक वन था। श्रभाव, भीरुता, कायरता, अशूरत्व, अशाच-सोच-संज्ञा, पु० दे० (सं० श्रविक्रम । अशोक ) शोक-रहित, शोकाभवा, सोच- अश्मंतक-संज्ञा, पु० (सं० ) मूंज की तरह रहित, शोच-हीन । की एक घास, जिससे प्राचीन काल में प्रशोचनीय-वि० (सं० ) जो शोच करने मेखला बनाते थे, श्राच्छादन, ढकना। योग्य न हो। | अश्म-संज्ञा, पु० (सं० अश्+मन् ) पत्थर, प्रशोच्य-वि० (सं० ) शोक के अयोग्य । पर्वत, मेघ, बादल, पाहन, पहाड़ । वि० प्रशोचनीय। _ अश्मक-संज्ञा, पु० (सं० ) दक्षिण के एक " अशोच्याननुशोचस्त्वम् "--गीता०। प्रान्त का प्राचीन नाम, बावनकोर । प्रशोध-संज्ञा, पु० (सं०) शोध या खोज अश्मकेश-संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) अश्मक का अभाव । देश का राजा, जो महाभारत में लड़ा था। वि. जिसका शोध या खोज न हो। अश्मकुट्ट-संज्ञा, पु० (सं०) पत्थर से अन्न प्रशोधन-संज्ञा, पु० (सं०) न शुद्ध करना। को फूट कर खाने वाले वानप्रस्थ अशोधित-वि० (सं० ) जो शुद्ध न किया। विशिष्ट जन । गया हो, असंस्कृत, असंशोधित। अश्मज-संज्ञा, पु. (सं०) शिलाजीत, वि० श्रशोधनीय-न खोजने लायक, लोह, पत्थर से उत्पन्न वस्तु । शुद्ध न करने योग्य । अश्मदारण-संज्ञा, पु० (सं० ) पत्थर प्रशाभन—वि० (सं० ) असुन्दर, अश्री, काटने वाला अस्त्र । जो रम्य न हो, अरमणीक, कुरूप, असौम्य । अश्मरी-संज्ञा, स्त्री० (सं० ) पथरी नामक अशोभनीय-वि० (सं० ) जो शोभा के रोग, मूत्रकृच्छ्र रोग। योग्य न हो, भद्दा, कुत्सित, अरमणीय। अश्रद्धा-संज्ञा, स्त्री० (सं०) श्रद्धा का प्रशोभा-संज्ञा, स्त्री. (सं० ) शोभा या अभाव, अभक्ति, घृणा, अविश्वास । सौंदर्य का प्रभाव, छटा-रहित, छवि-विहीन । अश्रद्धय-वि० ( सं० ) अनादरणीय, वि० कुरूप, बुरा, अनगढ़, भद्दा । भक्ति के योग्य जो न हो, अपूज्य, असेन्य, प्रशोभित-वि० (सं०) जो शोभित या घृण्य, घृणा के योग्य, असेवनीय । सुन्दर न हो, अरम्य, अरुचिर, अरोचक । अश्रय-संज्ञा, पु० (सं० अश्र+पा+ड) प्रशौच-संज्ञा, पु० (सं० ) अपवित्रता, राक्षस, निशाचार। अशुद्धता, किसी प्राणी के मरने या किसी प्रश्रवण-वि० (सं०) कर्णाभाव. बिना बच्चे के पैदा होने पर घर में मानी जानी। कान के, न सुनना। वाली एक प्रकार की अशुद्धि, मल त्याग के अश्रोत-वि० (सं० ) जो थका-माँदा न सम्बन्ध रखने वाली अशुचिता। हो, अशिथिल। For Private and Personal Use Only Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रश्रांति १८६ अश्वतर क्रि० वि० लगातार, निरंतर, अनवरत । अश्लिष्ट-वि० (सं० ) श्लेष-शून्य, जो प्रश्रांति-संज्ञा, स्त्री० (सं० ) अशैथिल्य, जुड़ा या मिला न हो, असंवद्ध, श्लेषविश्राम, अक्लांति । रहित । प्रश्राद्ध-वि० (सं०) प्रेत-कर्म-रहित, श्राद्ध- अश्लील-वि० ( सं० ) फूहड़, भद्दा, विहीन । लजाजनक, नीच, अधम, असभ्य । अश्राव्य-वि० (सं० ) न सुनने के योग्य, अश्लीलता--संज्ञा, स्त्री० (सं० ) फूहड़पन, अश्रोतव्य, नाटक में वह कथन जिसे कोई भद्दापन, लज्जास्पदता, घृणा, लज्जा, न सुने । असभ्यता-सूचक बातों या शब्दों का काव्य प्रश्रि-संज्ञा, स्त्री. (सं० + श्रि-- क्विप् ) में प्रयोग करने का दोष विशेष ( काव्य धार। शा० ) इसके भेद हैं :दि० पैना, तीखा, तीषण । घृणाव्यञ्जक, लजाव्यञ्जक और अमंगल प्रश्री-संज्ञा, स्त्री० (सं० ) श्री-विहीनता, व्यञ्जक (असभ्यता या अशिष्टता-सूचक ), अकांति। यह शब्दगत दोष है। वि०-श्री-विहीन, हतश्री, कांति-रहित। अश्लेष—संज्ञा, पु० (सं०) श्लेषाभाव, प्रभु-संज्ञा, पु० (सं०) आँसू (दे०)। अप्रणय, असंख्य, अप्रीति, अपरिहास, आँस (ब्र०) अँसुवा (प्रान्ती० ) नेत्र- श्लेष-भिन्न । जल, नयनाम्बु । अश्लेषा-संज्ञा, स्त्री० (सं.) २७ नक्षत्रों अश्रुपात-संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) आँसू। में से 8 वाँ नक्षत्र, इस नक्षत्र में ६ तारे (दे०) शालू (ब्र०), गिरना, रोना। हैं।-असलेखा (दे०)। अश्रुपतन-अश्रुप्रधाह, अश्र-विमोचन । अश्लेषा-भव-संज्ञा, पु. ( सं० ) केतु अश्रु-पूर्ण-वि० यौ० (सं० ) अांसुओं से नामक एक ग्रह। भरा हुआ। प्रश्लेष्मा-संज्ञा, पु० (सं० ) कफ विकारप्रश्रत-दि० (सं० ) जो न सुना गया हो, रहित । न सुना हुअा, अनाकर्णित, जिसने कुछ अश्लोक - संज्ञा, पु. ( सं० ) अयश, सुना न हो। अकीर्ति । प्रश्रत पूर्व-वि० यौ० (सं० ) जो पहिले वि. कीर्ति-रहित, अविख्यात । न सुना गया हो, अद्भुत, विलक्षण, अपूर्व, अश्व-संज्ञा, पु० (सं० ) घोड़ा, घोटक, अभूत पूर्व। तुरंग। प्रश्रति-वि० ( सं० ) जो बैदिक, या वेद- अश्वकर्ण-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) एक विहित न हो। प्रकार का शाल वृक्ष, लता, शाल । वि०-कान-रहित, कर्ण-विहीन । अश्वगंधा-संज्ञा, स्त्री० यौ० ( सं० ) प्रश्रेयस-वि० (सं० ) निर्गण, अधम, असगंध, एक औषधि । अमंगल, अकल्याण । अश्वगति-संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं० ) घोड़े प्रश्रेष्ठ-वि० सं० ) बुरा, साधारण, उत्तम की चाल, एक प्रकार का छंद, चित्र काव्य में नहीं, अनुत्तम, सामान्य । एक प्रकार का छंद। स्त्री० प्रश्रेष्ठा। अश्वतर-संज्ञा, पु. ( सं० ) नागराज, संज्ञा, भा० सी० प्रश्रेष्ठता। खच्चर, अश्व विशेष । For Private and Personal Use Only Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - अश्वत्थ अष्टक अश्वत्थ-संज्ञा, पु० (सं० ) पीपल का अश्वारूढ़---संज्ञा, यौ० पु. (सं० ) घोड़े वृक्ष। पर सवार, घुड़चड़ा। अश्वत्थामा-संज्ञा, पु० (सं० ) द्रोणाचार्य | अश्वारोहण-संज्ञा, यौ० पु० (सं० ) घोड़े के पुत्र, पृथ्वी पर आते ही इन्होंने उच्चैःश्रवा की सवारी। नामक घोड़े के समान शब्द किया था, अश्वारोही-वि० यौ० (सं० ) घोड़े का अतएव आकाशवाणी हुई कि इसने जन्म सवार, घुड़ सवार, घोड़े पर चढ़ा हुआ। लेते ही ऐसा शब्द किया है इससे अश्व. अश्वसेन-संज्ञा पु. ( सं० ) तक्षक का स्थामा नामा से यह संसार में प्रसिद्ध होगा, पुत्र, नाग-विशेष, सनत्कुमार, ब्रह्मा जी पांडव-पक्षीय मालवराज इंद्रवर्मा का । हाथी - इसी के मारे जाने पर द्रोणाचार्य ने अश्विनी-संज्ञा, स्त्री. ( सं० ) घोड़ी. धोखे में आकर अस्त्र-शस्त्र रख दिये और २७ ननत्रों में से पहिला नक्षत्र, इसमें योग-द्वारा प्राण विसर्जित किये, तभी | ३ तारे हैं, मेष राशि के सिर पर इसका पृष्टद्युम्न ने उनको मारा। स्थान है, दन प्रजापति की कन्या और अश्वपति-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) घोड़े चन्द्रमा की स्त्री, इस नक्षत्र का आकार घोड़े का स्वामी, सवार, रिसलदार, भरत के मामा के मुख-सदृश है। कैकय देश के राजकुमारों की उपाधि । अश्विनी कुमार--संज्ञा, पु० यो० (सं.) प्रश्वपाल-संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) साईस, त्वष्टा की पुत्री प्रभा नामक स्त्री से उत्पन्न घोड़ों का नौकर। सूर्य के दो पुत्र जो देवताओं के वैद्य माने अश्वमेध-संज्ञा, पु. यौ० (सं० ) एक जाते हैं, अश्व रूपी सूर्य के औरस तथा प्रकार का वह बड़ा यज्ञ जो चक्रवर्ती राजा अश्वरूप धारिणी संज्ञा के गर्भ से इन दोनों करते थे और जिसमें घोड़े के मस्तक पर जय- __की उत्पत्ति हुई थी ( हरिवंश )। पत्र बाँध कर उसे भूमंडल में स्वेच्छा से | अश्वेत-वि० (सं० ) जो श्वेत या सफ़ेद घूमने के लिये छोड़ते थे, जो उसे पकड़ता | न हो, काला, श्याम । था, उससे युद्ध कर उसे हरा कर घोड़े को अश्शी -अस्सी -(दे०) संज्ञा, पु० (सं० ले जाते और उसे मार कर उसकी चर्वी से अशीति ) संख्या विशेष ८० सत्तर और दस । अषाढ -संज्ञा, पु० (दे० ) वर्षा ऋतु का अश्ववार-संज्ञा, पु० (सं० ) असवार । प्रथम मास, आषाढ़ (सं०) व्रतपलाश-दंड, (दे०) सवार, अश्वारोही, घुड़सवार । पूर्वाषाढ़ नक्षत्र इस मास की पूर्णिमा को प्रश्वशाल--संज्ञा, यौ० स्त्री० (सं० ) घोड़ों होता है और उसी दिन चंद्रमा भी उसी के के रहने का स्थान, अस्तबल, तबेला।। साथ रहता है। घुड़साल (दे०)। "आषाढस्य प्रथम दिवसे "-मेघः । अश्ववैद्य-संज्ञा, यौ० पु. ( सं० ) अषाढ़ी-संज्ञा, स्त्री. (सं० ) पापाढ़ की घोड़ों की चिकित्सा करने वाला वैद्य, पूर्णिमा का दिवस जो त्यौहार की तरह अश्वचिकित्सक। माना जाता है। अश्वशिक्षक-संज्ञा, यौ० पु. ( सं० )| अष्ट-वि० (सं० ) पाठ, संख्या ८ । सवार, चाबुक। अष्टक-संज्ञा, पु० (सं०) आठ वस्तुओं अश्व-सेवक-संज्ञा, यौ० पु. ( सं० ) का संग्रह, आठ की पूर्ति, वह स्तोत्र या साईस, घोड़ों का नौकर । काव्य जिसमें पाठ श्लोक या छंद हों। हवन करते थे। For Private and Personal Use Only Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रष्टकमल १९१ अष्टवर्ग अष्टकमल-संज्ञा, पु. यौ० (सं० ) मूला- अष्टधातु-संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) आठ धार से ललाट तक के पाठ चक्र विशेष जो धातुएं, सोना, चाँदी, ताँबा, राँगा, जस्ता, देह में रहते हैं ( हठ योग)। सीसा, लोहा, पारा। प्रष्टकर्ण-संज्ञा, पु. यौ० (सं० ) आठ अष्टपदी-संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं० ) आठ कान वाला, ब्रह्मा, प्रजापति, विधि, पदों या चरणों का एक छंद या गीत, विरंचि, बिधाता। मकड़ी। अष्टका-संज्ञा, स्त्री० (सं० ) अष्टमी, अष्टमी अष्टपाद-संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) शरभ, के दिन का कृत्य, अष्टका याग, अगहन, शारदूल, लूता, मकड़ी। पूस, माव, तथा, फागुन मासों की अष्टमी अष्टप्रकृति-संज्ञा, स्त्री० या० (सं० ) राज्य ( कृष्णपक्ष ) इन तिथियों में पितृश्राद्ध करने के आठ प्रमुख कार्यकर्ता या कर्मचारी-सुमंत्र से पितरों की विशेष तृप्ति होती है। पंडित, मंत्री, प्रधान, सचिव, अमात्य, प्राविवाक, और प्रतिनिधि ।। अष्टकुल-संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) सपों के अष्टप्रहर-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) आठ पाठ कुल, शेष, बासुकी, कंबल, कर्को पहर। टक, पद्म, महापद्म, शंख, और कुलिक (दे० ) पाठयाम, रात दिन के पाठ भाग । (पुराण)। अष्टभुजा-- संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं० ) अष्टवाहु अष्टकृष्ण - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) श्रीकृष्ण वाली देवी, दुर्गा, देवी, पार्वती। की आठ मूर्तियाँ या दर्शन, श्रीनाथ, नवनीत संज्ञा, स्त्री० अष्टभुजी (दे० )। प्रिया, मथुरानाथ, विठ्ठलनाथ, द्वारकानाथ, अष्टभुजक्षेत्र--संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) वह गोकुलनाथ, गोकुलचन्द्र और मदनमोहन क्षेत्र जिसमें आठ किनारे और कोण हों। ( वल्लभीय संप्र०)। अष्टम-वि० पु० (सं० ) पाठवाँ । प्रष्टछाप-संज्ञा, पु० (सं० प्रष्ट +छाप --- अष्टमंगल-संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) पाठ हि.) वल्लभ स्वामी और विट्ठलनाथ के मांगलिक द्रव्य या पदार्थ, सिंह, वृष, नाग, चार चार शिष्य, कवि, जिन्होंने कृष्णकाव्य कलश, पंखा, वैजयंती, भेरी, और दीपक । की ब्रजभाषा में बड़ी सुन्दर रचनायें अष्टमी-संज्ञा, स्त्री० (सं०) शुक्ल या कृष्णा की हैं । सूरदास, कृष्णदास, परमानंददास, पक्ष की आठवीं तिथि, जब चंद्रमा की कुंभनदास ये चार वल्लभ-शिष्य हैं और आठवीं कला की क्रिया हो।। नन्ददास, चतुर्भजदास, गोविंदस्वामी, छीत अष्टमृति-संज्ञा, पु० यौ० (सं) शिव, शिव स्वामी, ये विट्ठल-शिष्य हैं। की पाठ मूर्तियां-सर्व, भव, रुद्र, उग्र, भीम, प्रधद्रव्य-संज्ञा, पु. चौ० (सं० ) हवन के पशुपति, ईशान, और महादेव । काम में आने वाले पाठ सुगंधित पदार्थ- | अष्टयाम-संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) पाठ अश्वत्थ, गूलर, पाकर, वट, तिल, सरसों, पहर, रात-दिन । पायस और घी, या अष्टगंध-धूप के पाठ अष्टयाग-संज्ञा, पु. यो० (सं० ) पाठ पदार्थ-सुगंधवाला, गूगुल, चंदन, कपूर, | प्रकार के यज्ञ, अायज्ञ। भगर, देवदारु, जटामापी, घी। अष्टवर्ग-संज्ञा, पु. यौ० (सं०) पाठ अष्टधाती- वि० (सं० अष्टधातु ) आठ | औषधियों का समाहार, जीवक, ऋषभक, धातुओं से बना हुआ, दृढ़, मज़बूत, | मेदा, महामेदा, काकोली, तीर काकोली, उत्पाती, उपद्रवी, वर्णसंकर। ऋद्धि और वृद्धि । ज्योतिष का एक गोचर, For Private and Personal Use Only Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रष्टवसु अष्टाध्यायी राज्य के आठ अंग-ऋषि, वस्ति, दुर्ग, अष्टादशपुराण-संज्ञा, पु. यो. (सं०) सोना, हस्तिबंधन, खान, करग्रहण, और १८ पुराण-ब्राह्म, पद्म, विष्णु, शैव, भागसैन्य-संस्थापन, इनका समूह । वत, नारदीय, मार्कंडेय, श्राग्नेय, भविष्य, अष्टवसु-संज्ञा, पु० यौ० ( सं० ) देशविशेष, ब्रह्मवैवर्त, लिंग, बाराह, स्कंद, वामन, श्राप. ध्रुव, सोम, धव, अनिल, अनल, कौर्म, मात्स्य, गारुड़ और ब्रह्मांड । प्रत्यूष, प्रभास । अष्टादशविद्या-संज्ञा, स्त्री. यो० (सं० ) अष्टसिद्धि-संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) योग अठारह प्रकार की विद्यार्य-चार वेद, षडंग की पाठ सिद्धियाँ, यथा-अणिमा, महिमा, (६ वेदांग ) मीमांसा, न्याय, पुराण, लधिमा, गरिमा, प्राप्ति, प्रकाम्य, ईशित्व, धर्मशास्त्र, आयुर्वेद, धनुर्वेद, गान्धर्ववेद वशित्व। और अर्थशास्त्र। " अष्टसिद्धि नव निधि के दाता"-तु. अष्टादशस्मृतिकार-संज्ञा, पु. यौ० (सं०) पाठहु सिद्धि नवौ निधि को सुख"-रस० अष्टादश स्मृतियों के बनाने वाले धर्मशास्त्रअष्टांग-संज्ञा, पु० यौ० ( स० ) योग की कार विष्णु पराशर, दक्ष, संवर्त, व्यास, क्रिया के आठ भेद-यम, नियम, आसन, हारीत. शातातप, वशिष्ट, यम, श्रापस्तम्ब प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान, और । गौतम, देवल, शंख, लिखित, भारद्वाज, समाधि । आयुर्वेद के आठ विभाग-शल्य, उशना, अत्रि, याज्ञवल्क, मनु । शालाक्य, कायचिकित्सा, भूत-विद्या, अष्टादशोपचार-संज्ञा, पु. यो. (सं० ) कौमारभृत्य, अगद-तंत्र, रसायनतंत्र, और पूजा के अठारह-विधान, श्रासन, स्वागत, बाजीकरण । शरीर के आठ अंग-जानु, पाद्य, अर्घा, पाचमन, स्नान, वस्त्र, उपवीत, पाँद, हाथ, उर, सिर वचन, दृष्टि और भूषण, गन्ध, पुष्प, धूप, दीप, अन्न, बुद्धि,जिन से प्रणाम करने का विधान है। ( नैवेद्य ) तर्पण, अनुलेपन. नमस्कार, अष्टांगप्रणाम--वि० (सं० ) पाठ अवयव विपर्जन । वाला, अठपहलू ( दे०)। अष्टादशोपपुराण--संज्ञा, पु० या ० (सं० ) अष्टांगी-वि० (सं०) आठ अंगों या गौण, या साधारण पुराण । १ सनत्कुमार अवयवों वाला। २ नारसिंह, ३ नारदीय, ४ शिव, ५ अष्टांगार्थ्य-संज्ञा, पु. यौ० (सं० ) अष्ठा- दुर्वासा, ६ कपिल, ७ मानव, ८ औशनस ६ य---पूजन को पाठ प्रकार की सामग्री वरुण १० कालिक, ११ शांब, १२ नन्दा, का समाहार। १३ सौर १४ पराशर १५ श्रादित्य १६ अष्टाक्षर-संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) पाठ माहेश्वर १७ भार्गव, १८ वशिष्ठ । अक्षरों का मंत्र विशेष। अष्टादशधान्य-संज्ञा, पु. यो. (सं० ) वि० (सं०) आठ अक्षरों का।। अठारह प्रकार के अन्न-यव (जौ ) गोधूम अष्टादश-वि० (सं० ) संख्या विशेष, ( गेहूँ) धान्य (धान) तिल, गंगु, अठारह । (दे० ) सं० अष्टादश, प्रा. कुलित्थ, माष ( मसूर ) मृद्ग (मूंग) अट्ठादह अ० अट्ठारह )-अष्टादशाह-- मसूर, नियाव, श्याम (सांवा ) सर्षप मृत्यु के बाद १८ वें दिन का कृत्य । { सरसों ) गवेधुक, नीवार, अरहर, तीना, अष्टादशांग-संज्ञा, पु. यो० : सं० ) अठा- चना, चीना। रह औषधियों के संयोग से बनी हुई अष्टाध्यायी-संज्ञा, स्त्री. यो. (सं० ) प्रोषधि विशेष । पाणिनि ऋषि-कृत व्याकरण, ( संस्कृत ) For Private and Personal Use Only Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १९३ अष्टापद प्रसंबद्ध का पाठ अध्यायों वाला प्रधान सूत्र-ग्रंथ। कारण तो कहीं बताया जाय और कार्य वि० श्राठ अध्याय वाली। कहीं दिखाया नाय ( काव्य शा०)। प्रष्टापद-संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) सोना, असंगठन-संज्ञा, पु० (सं०) असंवद्धता, मकड़ी, धतूरा, कृमि, कैलाश, सिंह। अनमेल । " जुत अष्टापद शिवा मानि"-रामा०।। असंगठित-वि० (सं० ) असम्बद्ध, पृथक, अष्टाधक-संज्ञा, पु. यौ० (सं०) एक अलग। ऋपि, टेढ़े-मेढ़े अंगों वाल मनुष्य। असंग्रह-संज्ञा, पु० (सं० ) संचय-हीनता, अष्टास्त्रि-सज्ञा, पु० या० (सं० ) अष्टकोण, एकत्रित नहीं। अठकोना। वि० असंग्रहीत । प्रति-संज्ञा, स्त्री० ( सं० ) गुठली, बीज । संघ-संज्ञा, पु० (सं० ) संघ या समूह अटुली (दे०)। का प्रभाव । प्रष्टीला-संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) एक प्रकार असञ्चय-संज्ञा, पु० ( सं० ) असंग्रह, न का रोग जिसमें पेशाब नहीं होता और एकत्रित करना। गांठ पड़ जाती है, पथरी। असंचित-वि. (सं० ) असंग्रहीत, न प्रसंक-वि० दे० (सं० अशंक ) निडर, इकट्ठा किया हुआ । निर्भय, शंका-रहित, असंका (दे०)। असंत-वि० (सं०) खल, दुष्ट, असाधु, प्रसंक्रांति (मास)-संज्ञा, पु० (सं० ) | नीच। अधिकमास, मलमास । " सुनहु असंतन केर सुभाऊ"रामा० । असंख्य-वि० (सं० ) अनगिनत, अग असन्तति- वि० ( सं०) सन्तानाभाव, नित, अपार, बेशुमार, अगणित, अपरि - बुरी सन्तान । असन्तुष्-वि० (सं० ) जो सन्तुष्ट न हो, मित । असंख (दे०)। अतृप्त, जिसका मन न भरा हो, अप्रसन्न, असंख्यात-वि० (सं०) असंख्य, अग नाराज़। णित, अपार। असन्तुष्टि - संज्ञा, स्त्री० (सं० ) असंतोष, असंख्येय-वि० (सं०) अगणनीय, जिसकी अप्रसन्नता। संख्या न हो या जिसे गिन न सके, बहुत असन्तोष-संज्ञा, पु० (सं०) सन्तोषाभाव, अधिक, बेशुमार। अतृप्ति, अप्रसन्नता नाराज़गी। प्रसंग वि. (सं० ) अकेला, एकाकी, असंगत्ति-संज्ञा, स्त्री० (सं०) संपत्याभाव, किसी से सम्बन्ध या वास्ता न रखने वाला, विपत्ति । निर्लिप्त, जुदा, अलग, न्यारा, पृथक, विरक्त। असम्पत्र-वि० (सं०) जो सम्पन्न या धनी संज्ञा, पु० बुरा सग, कुसंग, संग-रहित । न हो, असम्पत्तिवान, असमर्थ, अयोग्य । असंगत- वि० (सं० ) अयुक्त, अनुपयुक्त, असपूर्ण- वि० ( सं०) अपूर्ण, असमाप्त, बेठीक, अनुचित, नामुनासिब, अयोग्य, सब या समस्त नहीं, कुछ, थोड़ा । मिथ्या। असंपूर्णता-संज्ञा, स्त्री० (सं०) न्यूनता, असंगति-संज्ञा, स्त्री० (सं० ) बेसिल- अपूर्णता।। सिलापन, बेमेल होने का भाव, अनुपयु- असंबद्ध-वि० (सं० ) जो सम्बद्ध या ता, नामुनासिबत, कुसंगति, क्रमताभाव, मिला हुश्रा न हो, पृथक, विलग, अनमिल, असम्बद्धता, एक प्रकार का अलंकार, जिसमें बेमेन, अंडबंड, असङ्गठित, असञ्जत । मा..को०-२५ For Private and Personal Use Only Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org असंबाधा संज्ञा, भा० स्त्री० (सं० ) असंबद्धता | असंबाधा -संज्ञा स्त्री० (सं० ) सम्बाधा - भाव, एक प्रकार का वर्णिक वृत्ति । वि० असंबाधित - अबाधित, बाधारहित । असकत संयत - वि० (सं० ) संयम-रहित, जो नियम व न हो, असङ्गत, अनियंत्रित I प्रसंयुक्त- वि० (सं० + सं + युज + क्त ) असंलग्न, अमिलित, पृथक, अलग, न मिला हुआ । संविधान-संज्ञा, पु० (सं० ) श्रविधान, प्रसंयोग- संज्ञा, पु० (सं० ) अनमेल, भिन्नता, पृथकत्व, बेमौक़ा, अनावसर । संयोजन - संज्ञा, पु० (सं० ) न मिलाना, संयुक्त करना । वि० [प्रसंयोजित न मिलाया या एकत्रित किया हुआ । असंलग्न - वि० (सं० ) न लगा हुआ, न मिला हुआ, असङ्गत, जो लीन न हो । संज्ञा, स्त्री० संलग्नता । संशय - वि० (सं० ) निश्चय, निस्सन्देह, संशय-रहित, संसय (दे० ) | " असंशयं क्षत्र - परिग्रहक्षमा "" - शकु० । प्रसंस्कृत - वि० (सं० ) बिना सुधारा हुआ, अपरिमार्जित, संशोधित, जिसका उपनयन संस्कार न हुआ हो, व्रात्य, जो संस्कृत भाषा का न हो । १६४ अव्यवस्था | संबोधित - वि० (सं० अ + संबोधन + इत ) जिसे सम्बोधित न किया गया हो, न बुलाया गया। वि० संबोधनीय । असंभव - वि० सं०) जो सम्भव न हो, जो न हो सके, नामुमकिन, असाध्य । संज्ञा, पु० एक प्रकार का अलंकार जिस में किसी हो गई हुई बात का होना असम्भव कहा जाता है । वि० संभाव्य | प्रसंभूत - वि० (सं० ) जो पैदा न हो, अभूत, अनुत्पन्न, उत्पत्ति-रहित, श्रज, अजन्मा । संभार - वि० (सं० अ + संभार ) जो सँभालने योग्य न हो, अपार बहुत । असंभावना संज्ञा, स्त्री० (सं० ) सम्भा - aar का अभाव, अनहोनापन, एक प्रकार का अलंकार । | वि० संभावनीय । असंभाषित-वि० ( सं० ) जिसके होने का अनुमान न किया गया हो, अनुमानविरुद्ध, असम्भव किया हुआ । संभाव्य - वि० सं०) जिसकी सम्भावना ( न हो, अनहोना । असंभाष्य - वि० ( सं० ) न कहे जाने के योग्य, जिससे वार्तालाप करना उचित न हो, बुरा, न बोलने के लायक़ | संज्ञा, पु० (सं० ) असंभाषण, चुप, मौनता । वि० संभाषित - जिससे बात-चीत न की गई हो । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir असंस्कार - वि० (सं० ) जिसका संस्कार या सुधार न किया गया हो । संज्ञा, पु० (सं० ) संस्काराभाव, बुरा संस्कार, भाग्य, सम्पर्क सम्बन्धाभाव | असंहार -- संज्ञा, पु० (सं० ) संहार या नाश का अभाव, अविनाश, विनाश-रहित । वि० संहारक, जो विनाशक न हो । संज्ञा - वि० (सं० ) संज्ञा या चेतना - शून्य, बेहोश । प्रस - वि० दे० (सं० ईदृश ) ऐसा, इस प्रकार का, तुल्य, समान, इस तरह, इस भाँति । "कस न राम तुम कहहु अस " - रामा० । असकत - वि० दे० (सं० अशक्त ) अशक्त, अक्षम, असमर्थ, अयोग्य, निर्बल, श्रबल । संज्ञा, पु० श्रालस्य, उवाँस । For Private and Personal Use Only Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir असनि असकति १९५ असकति-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० अशक्ति) असत्ता-संज्ञा, स्त्री० (सं० ) सत्ता का शक्ति का अभाव, निर्बलता, कमज़ोरी, अभाव, अस्थिति, अविद्यमानता, अनुअसमर्थता। पस्थितता, अस्तित्व-हीनता। वि० असकती-शिथिल, आलसी। असत्य-संज्ञा, पु० (सं०) मिथ्या, झूठ, असकताना-प्र० कि० दे० (हिं. अस- अनृत, अयथार्थता। कत ) पालस्य में पड़ना, आलसी होना, वि० झूठ, मिथ्या, अवास्तविक, अयाथार्थ । अलसाना (दे०)। संज्ञा, स्त्री. असत्यता, झुठाई। असक्त-वि० दे० ( सं० आसक्त, अशक्त) असत्यवादी-वि० ( स०) झूठ बोलने लीन, आसक्त, संलग्न । वाला, झूठा, मिथ्यावादी। " विषय-असक्त रहत निसि-बासर "- | संज्ञा, पु० (सं०) असत्यवादन-झूठ सूर०। बोलना। वि० (दे०) अशक्त, असमर्थ, अक्षम। संज्ञा, स्त्री असत्यवादिता। प्रसकन्ना-संज्ञा, पु० दे० (सं० असि + अमती-वि० (सं.) जो सती न हो, करण ) लोहे का एक औज़ार जिससे | कुलटा, पुंश्चली। तलवार की म्यान के भीतर की लकड़ी | असत्व--संज्ञा, पु० (सं०) सत्व-विहीन, साफ की जाती है। सत्वाभाव। असकृत-अव्य० (सं० ) पुनः पुनः, असद्गति-संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं० ) बुरी बारंबार। गति, दुर्दशा, दुर्गति। असगंध-संज्ञा, पु० दे० ( सं० अश्वगंधा ) | असदव्यवहार--संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) एक प्रकार का झाड़ीदार पौधा, जिसकी जड़ बुरा व्यवहार, जो साधु व्यवहार न हो, पौष्टिक होती है और दवा के काम में असाधु-व्यवहार, असज्जनता। आती है, अश्वगंधा। असव्यापार- संज्ञा, पु० यौ० (सं.) प्रसगुन-संज्ञा, पु० दे० (सं० अशकुन ) झूठा व्यापार या काम, दिखावा । अपशकुन, अशकुन । | असदवृत्ति-संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) बुरी वि० प्रसगुनी-अशकुन-सम्बन्धी, मनहूस । । वृत्ति, दुष्ट प्रवृत्ति, बुरी रोजी। " असगुन होहि विविध मग जाता"- अमबुद्धि-संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं० ) बुरी रामा० । बुद्धि, असाधु या दुष्ट बुद्धि । प्रसज्जन-वि० ( सं० ) खल, दुष्ट, | अमद्बोध- संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) बुरा, असाधु, अभद्र। मिथ्याज्ञान, अयथार्थज्ञान । संज्ञा, स्रो० भा० असज्जनता-असाधुता, असन-संज्ञा, पु० दे० (सं० अशन) दुष्टता। भोजन, खाना। असज्जित-वि० (सं० ) न सजाया हुआ, "मुदित सुश्रसन पाइ निमि भूखा" रामा०। भनलंकृत, अनाभूषित। " असन कंद-फल-मूल "रामा० । बी० असज्जिता। असनान-संज्ञा, पु० दे० (सं० स्नान ) प्रसत्-संज्ञा, पु० (सं०) असत्य, झूठ, नहाना, स्नान । मिथ्या, जड़, प्रकृति। | असनि-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० प्रशनि ) वि० मिथ्या, असाधु, अन्यायी, अधर्मी, वन, विद्युत् । सत्ता-हीन। | "लूक न असनि केतु नहिं राहू"-रामा । For Private and Personal Use Only Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org सपर्स सपर्म — संज्ञा, पु० दे० (सं० स्पर्श ) छूना स्पर्श करना । वि० [सपर्सित हुधा हुआ, भेंटा हुआ । प्रसवर्ग - संज्ञा, पु० ( फा० ) खुरासान देश की एक लम्बी घास जिसके फूलों से रेशम रँगा जाता है । १९६ असबाब - संज्ञा, पु० ( ० ) सामान, सामग्री, चीज़, वस्तु, प्रयोजनीय पदार्थ प्रसभई संज्ञा स्त्री० (दे० ) ( सं० असभ्यता ) अशिष्टता, असभ्यता, बेहूदगी । असभ्य–वि० ( सं० ) अशिष्ट, अनार्य, गँवार, बेहूदा । असभ्यता – संज्ञा, स्त्री० ( सं० ) अशिष्टता, गँवारपन, बेहूदगी । अड़चन, प्रसमञ्जस - संज्ञा स्त्री० (सं० ) द्विविधा, दुविधा | कठिनाई, (दे० ) श्रागा-पीछा, असङ्गत, अनुपयुक्त । 66 दूसर बर असमंजस माँगा " - रामा० । असमंत - संज्ञा, पु० दे० ( सं० प्रश्मंत ) चूल्हा | असम - वि० (सं० ) जो सम या समान न हो, जो तुल्य या सदृश न हो, जो बराबर न हो, नाबराबर, असदृश, अतुल्य, विषम, ताक़, ऊँचा नीचा, ऊबड़-खाबड़ | संज्ञा पु० (सं० ) एक प्रकार का अलंकार जिसमें उपमान का मिलना असम्भव कहा जाय ( काव्य० ) । असमता - संज्ञा, स्त्री० (सं० ) असाम्य, समता का अभाव, विषमता, नाबराबरी, असादृश्य, भेद-भाव, ऊँचाई - निचाई । समझ - संज्ञा, स्त्री० (दे० ) समझ का अभाव, नासमझी, मूर्खता, अबोधता । वि० नासमझ न समझने वाला, मूर्ख, बालक । वि० समझवार — न समझने वाला, मूर्ख । 66 श्रसमझवार सराहिबो, असमन - संज्ञा, पु० दे० (सं० प्र + शमन ) शमनाभाव, शमन या दमन न करना । समय - संज्ञा पु० (सं०) बुरा समय, कुसमय, समय के पूर्व, विपत्ति-काल, अकाल, कुबेला । की मौंन " Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 1 श्रसमक्ष समझवार क्रि० वि० कुअवसर, बेमौका | असमर्थ - वि० (सं० ) सामर्थ्य हीन, दुर्बल, अशक्त, प्रयोग्य, अक्षम, क्षीण । संज्ञा, स्त्री० भा० (सं० ) असमर्थता । श्रसमर्थन – संज्ञा, पु० (सं० ) समर्थन या पुष्ट न करना, श्रननुमोदन, प्रसम्मति । वि० असमर्थनीय - जो अनुमोदनीय न हो । समात - वि० सं० ) जो समर्थित न किया गया हो, जिसका समर्थन या अनुमोदन न किया गया हो, अननुमोदित, प्रमाणित, पुष्ट । प्रसमर्थक - वि० ( सं० ) जो समर्थन करने वाला न हो, विरोधी, विरोधक, प्रतिवादक । For Private and Personal Use Only श्रसमवायिकारण-- संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) व्यकारण, गुण या कर्म रूप का कारण ( न्याय ० ) वह कारण जिसका कर्म से नित्य सम्बन्ध न हो, वरन् श्राकस्मिक सम्बन्ध हो ( वैशेषिक ) । श्रममशर - संज्ञा, पु० (सं० ) कामदेव, कंदर्प, मन्मथ | समसर (दे० ) मदन, मनोज I असम साहस - संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) दुस्साहस, अतुल्य साहस, सामर्थ्य से बाहर उत्साह, असमान साहस । वि० [समसाहसी । श्रसमक्ष - वि० (सं० ) परोक्ष, अगोचर, सामने नहीं, असन्मुख । Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रसम्मत १९७ असहन असम्मन-वि० (सं.) जो राज़ी न हो, अमरार -क्रि० वि० दे० (हि० सरसर) विरुद्ध, जिस पर किसी की राय न हो, निरंतर, लगातार, बराबर।। असहमत । असगीर-वि० दे० (सं० + शरीर ) प्रसम्मति-संज्ञा, स्त्री. (सं० ) सम्मति शरीर-रहित ।। का अभाव, विरुद्ध या विपरीत मत या गय।। वि० दे० असरीरी (सं० अशरीरी) प्रम्म्मान--- संज्ञा, पु० (सं० ) सम्माना- देह रहित ।। भाव, अनादर, तिरस्कार । श्रमगरिनौगिग-संज्ञा, स्त्री० यौ० दे० वि० स्त्री० अमम्मानिता। (सं० अशरीरिणी गिरा ) आकाश वाणी, वि० सम्मनित-अनाहत. तिरस्कृत। अमम्मुग्व-संज्ञा, पु. (सं०) असमक्ष, अमल-वि (अ० ) सच्चा खरा, उच्च, परोक्ष, प्रोट में। श्रेष्ठ, बिना मिलावट का, स्वाभाविक, असम्यक-वि० (सं० ) असंपूर्ण, सब शुद्ध, ख़ालिस, जो झूठ या बनावी न हो। प्रकार नहीं। संज्ञा, पु. जड़, मूल, मुनियाद, मूलधन । असमान-वि० (सं० ) जो समान या अमलियत-संज्ञा, स्त्री० (अ.) तथ्यता, तुल्य न हो, नाबराबर, असदृश, विषम, वास्तविकता, जड़, मूल, सार तत्व । समान नहीं। असलो-वि० (अ० असल ) सच्चा, खरा, संज्ञा, पु० दे० (फा० आसमान ) पासमान, मूल, प्रधान, बिना मिलावट का, अकृत्रिम, आकाश, अंतरिक्ष, नभ। शुद्ध, यथार्थ । वि० (सं० अ-- सह +मान ) जो मान-अमलील-वि० दे० (सं० अश्लील ) युक्त न हो। भद्दा, असभ्य, अशिष्ट । असमापिका ( क्रिया ) संज्ञा, स्त्री० (सं०) संज्ञा, स्त्रो० असलीलता। जिस क्रिया से वाक्य पूर्ण न हो, कालबोधक असलेउ-(असह ) वि० दे० ( सं० असह्य ) असहनीय । असमान-वि० (सं०) अपूर्ण, अधूरा।। "एक न चलै अब प्रान सूर प्रभु असलेउ संज्ञा, स्त्री० (सं०) असमाप्ति-अपूर्ति, साल सले"- शूर। अपूर्णता। अम्लेष-संज्ञा पु० दे० (सं० श्लेष ) जो असमेल-संज्ञा, पु० दे० (सं० ) अश्वमेध श्लेष न हो, श्लेष । नामक यज्ञ। असलेखा- संज्ञा, पु० दे० (सं० अश्लेषा) असयान-अपयाना -वि० दे० (हि. एक नक्षत्र । म+सयान-सं० + सज्ञान) सीधा हि० यौ० ( अस–ऐसा+ लेखा ) ऐसा सादा, अनाड़ी, मूर्ख, मूढ, भोला-भाला। स्त्री० असयानी। सोचा, हिसाब। संज्ञा, भा० पु. प्रमयानप-अमयानता। असवार *---संज्ञा, पु० दे०(फा० ) सवार, अमर-संज्ञा, पु. (अ.) प्रभाव, दबाव । चढ़ना, सवार होना। वि० दे० (सं० प्र+शर ) वाण-विहीन, असह* --- वि० दे० (सं० असह्य ) असह्य, शर-रहित । दुस्सह, न सहन किया जा सकने वाला। अमरल- वि० (सं० ) जो सरल या सीधा अमहन-संज्ञा, पु० (सं० ) शत्रु, बैरी। व हो, टेवा, वक्र, कठिन, कुटिल। वि० असाय, उग्र, अधीर, असहिष्णु । .. For Private and Personal Use Only Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - प्रसहनशील १९८ असाध्य " असहन निंदा करत पराई "-चाचा- (ब्र०) असाँचे । हित। " हँसेउ जानि विधि-गिरा असाँची "असहनशील-वि० (सं०) जिसमें सहन | रामा० । करने की क्षमता या शक्ति न हो, असहिष्णु, असा-संज्ञा, पु. (अ.) सोंटा, डंडा, चिड़चिड़ा, तुनुक मिजाज़। चाँदी या सोने से मढ़ा हुआ सोंटा । संज्ञा, भा० स्त्री. ( सं० ) असहन- आसार ( दे०)। शीलता। यौ० प्रासा-बल्लभ असहनीय-वि० (सं० ) न सहने योग्य, असाई-वि० दे० (सं० अशालीन ) जो सहन न किया जा सके असह्य, दुस्सह। अशिष्ट, बेहूदा, बदतमीज़ । असहयोग-संज्ञा पु० (सं०) मिल कर असाढ़-संश, पु० दे० (सं० प्राषाढ़ ) वर्षा काम न करना, अनमेल, अमैत्री, श्राधुनिक ऋतु का प्रथम मास ।। राजनीति में प्रजा या उसके किसी वर्ग का असाढ़ी-वि० दे० ( सं० आषाढ़ी ) राज्य से असंतोष प्रगट करने के लिये उसके __ श्राषाढ़ का, आषाढ़ सम्बन्धी। कामों से सर्वथा अलग रहना, सरकार संज्ञा, स्त्री० (दे०) आषाढ़ में बोई जाने से अलग रहना। वाली फ़सल, ख़रीफ़, आषाढ़ मास की असहयोगी--संज्ञा, पु० (सं० ) असहयोग पूर्णिमा । करने वाला, साथ काम न करने वाला। असाध-वि० दे० (सं० अ + साधु ) असहाय-वि० (सं०) जिसका कोई असाधु, असज्जन, बुरा आदमी। सहायक न हो, जिसे कोई सहारा न हो, वि० दे० ( सं० अ+साध्य ) असाध्य, निःसहाय, निराश्रय, अनाथ, दीन। कठिन, दुष्कर, अशक्त । संज्ञा, पु० (सं०) असाहाय्य । " देखी व्याधि असाध नृप "-रामा० । असहिष्णु-वि० (सं०) असहनशील, वि० दे० (अ+साध = इच्छा) इच्छा. चिड़चिड़ा, जो सहन न कर सके, तुनुक- रहित । मिजाज़। असाधारण-वि० (सं० ) जो साधारण संज्ञा, स्त्री० भा० (सं० ) असहिष्णुता- या सामान्य न हो, असामान्य, गैरअसहनशीलता। मामूली। असही-वि० (सं० प्रसह ) दूसरे को देख संज्ञा, स्त्री० असाधारणता । कर जलने वाला, ईालू । असाधु-वि० (सं० ) दुष्ट, दुर्जन, अविवि० दे० (अ+सही) जो सही वा ठीक नीत, अशिष्ट, असज्जन । न हो। असाधू (दे०)। " असही-दुसही मरहु मनहिं मन, बैरिन । स्त्री० असाध्वी। बहु विषाद" -गीता। संज्ञा, भा० स्त्री० (सं०) असाधुता-- असह्य-वि० (सं० ) जो सहन न किया | नीचता, दुष्टता।। जा सके, दुस्सह, असहनीय, जो बरदाश्त असाध्य - वि० (सं०) न होने के योग्य, न हो सके। जो न हो सके. दुष्कर, कठिन, असम्भव, न प्रसांच-वि० दे० (सं० असत्य ) असत्य, आरोग्य होने योग्य, जो साधा या सिद्ध न झूठ, मृषा, अनुत । किया जा सके। स्त्री० असांची (व.) असांचा। संज्ञा, भा० स्त्री० (सं०) असाध्यता। For Private and Personal Use Only Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अनुत्साह। असापित असी प्रसापित-वि० दे० (सं० प्रशापित ) असासा-संज्ञा, पु. (अ.) माल, असजिसे शाप न दिया गया हो। बाब, संपत्ति, साज-सामान, सामग्री। असामयिक-वि० (सं०) जो नियत प्रसासित--वि० दे० (सं० अशासित) समय के पूर्व या पश्चात् हो, बिना समय | उइंड, अनियंत्रित, उच्छृखल, स्वछन्द, का, समयोपयुक्त जो न हो। स्वतंत्र । संज्ञा, भा० स्त्री० (सं०) असामयिकता । स्त्री० असासिता। असामर्थ्य-संज्ञा, स्त्री. (सं०) सामर्थ्य असाहस-संज्ञा, पु० (सं०) साहसाभाव, या शक्ति का अभाव, अक्षमता, अशक्तता, निर्बलता, कमज़ोरी। असाहसा-वि० (सं०) साहस जिसके असामान्य-वि० (सं० ) असाधारण, न हो, कायर, पस्त हिम्मती। गैरमामूली। असाक्षात्-वि० (सं०) अप्रत्यक्ष, प्रदष्ट । असामी-संज्ञा, पु० दे० (अ. प्राप्लामी ) असाक्षात्कार-संज्ञा, पु० ( सं० ) व्यक्ति, प्राणी, जिससे किसी प्रकार का | दर्शनाभाव, अप्रत्यक्षता।। लेन-देन हो, ज़मीदार से लगान पर जोतने प्रासाक्षी-वि० (सं० ) जो गवाह न हो, बोने के लिये खेत लेने-वाला, जिससे किसी गवाही का प्रभाव, बिना गवाह के।। प्रकार का मतलब निकालना हो । असि-संज्ञा स्त्री० (सं० ) तलवार, खङ्ग । असिच्छित-वि० दे० (सं०) अशिक्षित, संज्ञा, स्त्री० नौकरी, जगह। बेपढ़ा-लिखा। असार-वि० (सं० ) सार-रहित, निःसार, असित-वि० (सं० ) काला, दुष्ट, बुरा, शून्य, खाली, तुच्छ, तत्व-रहित, बेमतलब । __अनुज्वल, टेढ़ा, कुटिल, शनि ।। भा० संज्ञा, स्त्री० (सं० ) असारता असिंचन-संज्ञा, पु. ( सं०) सिंचन या निःसारता। सींचने का प्रभाव, बिना सींचे। असारथ-वि० दे० (सं० अ+ सार्थ) जो वि० असिंचित-न सींचा हुआ। . सार्थक न हो, निष्फल, निष्प्रयोजन, व्यर्थ । प्रसिद्ध-वि० (सं०) जो सिद्ध न हो, वि० असारथक-सार्थक । अपूर्ण, विकल, अधूरा, कच्चा, अपक्क, व्यर्थ, असारथि, असारथी-वि० (सं०) सारथी- | अप्रमाणित । रहित, बिना सारथी के। प्रसिद्धि-संज्ञा, स्त्री. (सं०) अप्राप्ति, असालत-संज्ञा, स्त्री० (अ.) कुलीनता, अनिष्पत्ति, कच्चापन, कचाई, अपूर्णता, सचाई, तत्व। सिद्धि-हीन, सिद्धियों का प्रभाव । असालतन्-कि० वि० (अ० ) स्वय, असिपत्रवन-संज्ञा, पु० या० ( स०) खुद, स्वयमेव । एक नरक का नाम । असावधान-वि० (सं०) जो सतर्क न | प्रसिध-वि० दे० (सं० अशिव) अकल्याणहो, जो सावधान या सचेत न हो, ग़ाफिल, कारी, अशुभ। अचेत । ___" असिव वेष सिवधाम कृपाला"असावधानी-संज्ञा, स्त्री० (सं० ) बेख़बरी, रामा०। लापरवाही। असी-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० प्रसि ) एक असावरी-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० आशावरी) नदी का नाम जो काशी के दक्षिण में गंगा ३६ रोगिनियों में से एक। से मिली है। For Private and Personal Use Only Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir असीब २०० असुरसेन संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० प्रसीत ) अस्सी, ८० "असु तियन भ्रमनि लखि सुमति धीर" की संख्या। -के। " असी घाट के तीर"-- असुख-संज्ञा, पु० दे० (सं०) सुखा. संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० असि ) तलवार। भाव, दुख । असीख-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० प्रशिक्षा) वि० सुखी-अप्रसन्न, दुखी, खिन्न । बुरी शिक्षा, बुरा उपदेश । असुग-वि० दे० (सं० भाशुग) शीघ्रवि० दे० असीखा (हि. अ--सीखना) गामी, जल्द गमन करने वाला। अशिक्षित, जिसने कुछ नहीं सीखा। संज्ञा, पु० दे० (सं० प्राशुग ) वायु, बाण । असाझा-वि० दे० (हि. + सीझना) असुगम-वि० (सं०) जो सुगम न हो, जो सीमा या रस-पूर्ण या रस-सिक्त न हो।। असरल, दुर्गम । असीत-वि० दे० (सं० अशीत) शीता. प्रसुगासन-वि० संज्ञा, पु. यो० दे० (सं० भाव, जो ठंढा न हो, गर्म, उष्ण । प्राशुगासन ) धनुष, शरासन । असीनल-वि० दे० (सं० अशीतल) जो असुचि-वि० दे० (सं० अशुचि ) अपवित्र, शीतल या ठंढा न हो, उष्ण, गर्म। मैला । असाम-वि० (सं० ) सीमा-रहित, बेहद, प्रसुचित - वि० दे० (सं० अ+ सुचित्त ) अपरिमित, अनंत, अपार । अनिश्चिंत, चिंता-युक्त, बुरे चित्त वाला। असीव (दे०७०)। असुत- वि० (सं०) सुत या लड़के से संज्ञा, भा० स्त्री० (सं०) असीमता। रहित, निस्संतान, अपुत्र, निपूता। प्रसार-वि० (फा० ) कैदी, बंदी। स्त्री० असुता- कन्या-हीन, पुत्र रहिता। असील-वि० दे० (सं० अशील ) शील- असुनी-वि० दे० (हि. अ+ सुनना ) न रहित, असल, खरा, सच्चा।। सुनी हुई, अन सुनो। असीप-वि० दे० (सं० असीम ) असीम, "ताको के सुनी श्री असुनी सी उत्तरेस सीमा-रहित, अपार, अनन्त । तौलौं "-अ० ब०। प्रसास-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० आशिष ) असुविधा-संज्ञा, स्त्री. (सं० ) कठिनाई, भाशीर्वाद, आसिख । अड़चन, दिक्त, तकलीफ, कष्ट । " सुनु लिय सत्य असील हमारी "- असुर-संज्ञा, पु. (सं० ) दैत्य, राक्षस, रामा०। रात्रि, नीच वृत्ति का पुरुष, पृथ्वी, सूर्य, (दे० अ०) आसिख, (सं०) प्रासिष। बादल राहु, एक प्रकार का उन्माद दानव । प्रसासना-स० कि० दे० (सं० माशिष ) संज्ञा, पु० द० (सं० अ-+- स्वर ) स्वराभाव, श्राशीवाद देना, दुश्रा देना। बुरा स्वर। वि० असुरी-दे० (सं० आसुरी) असुर"भूषन असीसै"- भू०।। सम्बन्धी, बेसुर ताल । असु - संज्ञा, पु० दे० (सं० अश्व ) घोड़ा, | असुरेस-वि० (सं० अपुरेश ) दैत्याधिचित्त । पति, राक्षस पति, निशाचरंश, दानवेन्द्र । संज्ञा पु० दे० (सं० अस +उ ) प्राण वायु, असुरसेन-संज्ञा, पु० (सं० ) एक राक्षस जीवन । ( कहते हैं कि इसके शरीर पर गया नामक " मो असु दै बरु अस्व न दीजै".- के० । नगर बसा हुआ है)। कि०वि० दे० (सं० आशु ) शीघ्र, जल्दी। संज्ञा, पु० खो० यौ० असुरों की सेना। For Private and Personal Use Only Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - असुरारि २०१ असेद असुरारि-संज्ञा, पु. यो० (सं० ) देवता, वि० दे० (सं० असूत्र ) बे सूत का, जिसविष्णु, हरि। का सूत्र-पात न हुआ हो, जिसका रंच (दे०) असुरारी। मात्र भी ज्ञान न हो, न सोया (सूतनाअसुराई-संज्ञा, स्त्री० (दे०) नीच कर्म, सोना ) हुआ। खोटापन, असुर-कर्म । असूद्र-संज्ञा, पु० दे० (सं० प्रशूद्र ) जो संज्ञा, स्त्री० (दे० ) (हि.-अ+सुराई = | शूद्ध न हो। शूरता-सं०) अशूरता। असूधा-वि० पु० दे० ( वि० अ+सीधा) असुरालय-संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) असुरों न सीधा, असरल, टेंदा, वक्र, दुष्ट । का स्थान, दैत्यों का धर या नगर। स्त्री० असूधी। असुस्थ-वि० (सं० ) सुख-स्थिति-रहित, असूना-वि० पु० दे० (सं० अशून्य ) जो अस्वस्थ, रोगी। सूना न हो, अकेला नहीं, शून्यता-रहित । संज्ञा, स्त्री० असुस्थता। स्त्री० असूनी। प्रसुहाग-संज्ञा, पु० दे० (सं० असौभाग्य ) | असूया-संज्ञा, स्त्री० (सं०) दूसरे के गुण अभाग्य, असौभाग्य, विधवापन, वैधव्य ।। में दोष लगाना, ईर्ष्या, डाह, परिवाद, वि० असुहागिन, असुहागिनी। निन्दावाद, द्वेष । एक प्रकार का संचारीअसुहाता-वि० दे० ( हि० अ+सुहाना ) भाव (रसान्तर्गत)। जो न अच्छा लगे. अशोभित. बुरा. अप्रिय, असूर्यग-वि० (सं०) बिना सूर्य के, कुण्डली भरोचक। के घरों में ग्रहों की बिना सूर्य के स्थिति । "नागरिदास बिसारिय नाहीं. यह गति प्रहस्ततः पंचभिरुच्चसंस्थितैरसूर्यगैः "अति असुहाती"-। स्त्री० असुहाती, असुहाई। असूर्यपश्या-वि० स्त्री. (सं० ) जिसे असुहाना--अ० क्रि० दे० (सं० अशोभन ) सूर्य भी न देखे , परदे में रहने वाली, पर्देन अच्छा लगना, अप्रिय. और अरोचक ! नशीन । होना। प्रसूरता-संज्ञा. भा. स्त्री० दे० (सं० प्रसूच्य–वि० (सं० ) जो सूचित करने योग्य न हो, अप्रकाशनीय, अकथनीय।। प्रशूरता ) कायरता, अवीरता, अशौर्य । प्रसूचित --वि० (सं० ) जिसकी सूचना असूल-वि० दे० ( सं० अ-+शूल ) शूल या दर्द-रहित पीड़ा-विहीन, दुःख-हीन, न दो गई हो। क्लेशाभाव, व्यथा-विहीन, अकष्ट । वि० असूचक-सूचना न देने वाला। असूझ-वि० दे० (हि० प्र+सूझना ) संज्ञा, पु० दे० ( उ० ) वसूल. उसूल, उगाअँधेरा, अंधकारमय. जिसका वारापार न । हना एकत्रित करना। दिखाई दे. अपार, विस्तृत, जिसके करने का : असूलना--स० क्रि० (दे०) वसूल करना। उपाय म सूझ पड़े विकट, कठिन. अदृश्य. भूल, ग़लती, जिसमें सूझ या दूरदर्शिता सहने योग्य, असह्य, कठिन । न हो। असेचन-संज्ञा. पु० दे० (सं०) न सींचना, वि० खी० असूझी-नसूझी हुई। असिंचन । प्रस्त*-वि० दे० (सं० प्रस्यूत) विरुद्ध. असेद-वि० दे० (सं० प्रस्वेद ) अस्वेद, असंबद्ध । पसीना-रहित। मा. श० को०- २६ For Private and Personal Use Only Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रसेव २०२ अस्तमन बुरा, भद्दा असेव-वि० दे० (सं० प्रसेव्य ) असेव्य, शोभा या छटा का प्रभाव, असुन्दरता, न सेवने योग्य । असौंदर्य। वि० असेवनीय। असोभित--वि० दे० (सं० ) अशोभित, वि० असेवित। शोभा न देने वाला, असुन्दर, अरुचिर, असेस-वि० दे० ( सं० अशेष ) अशेष, । शेष-रहित । असास- वि० दे० (सं० प्र+शोष ) जो असेसर-संज्ञा, पु० ( ० ) वह व्यक्ति जो न सूखे, न सूखने वाला। जज के फौजदारी के मुकदमें में राय देने के | _ " गोपिन के असुवनि भरी, सदा असोस लिये चुना जाता है। अपार "-- वि०। प्रसैन्य-वि० (सं० ) सैन्य या सेना का प्रसौगंध-संज्ञा, पु० (सं०) सुगंधाभाव, अभाव, बिना सेना के-(दे०) असेन । दुगंध । असैन । वि० सुगंध-रहित । असैला*-वि० दे० (सं० प्र+शैली) दे० संज्ञा, पु० शपथ-रहित । रीति-नीति के विरुद्ध कर्म करने वाली, असोच संज्ञा, पु० दे० (सं० अशौच ) अपकुमार्गी, शैली के विपरीत, अनुचित, वित्रता, अशुद्धता, मलीनता। कुमार्गगामी। असौजन्य-संज्ञा, पु० (सं० ) असुजनता, स्त्री. असैली। (दे०) असज्जनता। असैसव-संज्ञा, पु० दे० (सं० अशैशव) असौंध-संज्ञा, पु० दे० (सं० म+सुगंध शैशव या शिशुता का अभाव, शिशुता- -सौंध ) दुर्गधि, बदबू, कुबास । रहित । वि० दे० (हि० अ+सोंधा ) जो सोंधा असौज-संज्ञा, पु० दे० (सं० अश्वयुज) न हो। पाश्विन, कारमास-कुवार (दे०)। असौम्य-वि० ( सं० ) जो सौम्य या असोक-वि० दे० (सं० अशोक ) शोक- सुन्दर न हो। रहित, दुःखहीन । अस्तंगत-वि० (सं० ) अस्त को प्राप्त, संज्ञा पु० दे० (सं० अशोक ) एक प्रकार का अस्त हो गया हुआ, विनष्ट, अवनत, वृक्ष जिसकी पत्तियाँ लहरदार होती हैं। अन्तर्हित, तिरोहित । वि० असोकित (अशोकित), असोकी। अस्त--वि० ( सं० ) छिपा हुआ, तिरोहित, असोकबाटिका-संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं० अंतर्हित, जो न दिखाई पड़े, अरष्ट, अशोक वाटिका ) रावण का उपवन, अशोक डूबा हुआ, ( सूर्य, चन्द्र श्रादि ) नष्ट, वन । ध्वस्त, निक्षिप्त, त्यक्त, अवसान, प्रेरित, असोच-वि० दे० (सं० अशोच ) शोच- क्षिप्त, मृत। रहित, निश्चिन्त, चिंता-हीन, अपवित्र, संज्ञा, पु० (सं०) लोप, अदर्शन, अवसान, पापी। यौ० सूर्यास्त, चंद्रास्त, शुक्रास्त आदि । वि० असोचित, बिना बिचारा हुना, | अस्तन-संज्ञा पु० दे० (सं० स्तन ) स्तन, शोचरहित । चूचिका, थन, चूंची। वि० असेोची-न सोचने वाला, शोच- | अस्तबल-संज्ञा, पु० दे० (म० स्टेबुल ) रहित, निर्माही, प्रमादी, सुस्थिर । घुड़साल, तबेला। असाभा-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० अशोभा ) अस्तमन-संज्ञा, पु० (सं०) अस्त होना, For Private and Personal Use Only Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रस्तमित २०३ अस्त्रचिकित्सक डूब जाना, ( सूर्यादि ग्रहों का ) छिपना, अस्ति-अस्ति करना--हाँ हाँ या बाह अन्तर्हित होना। बाह करना। प्रस्तमित--वि० ( सं० ) तिरोहित, "अस्ति अस्ति बोले सब लोगू" ---प० । अन्तर्हित, छिपा हुआ, डूबा हुआ, नष्ट, वि० श्रास्तिक--वेद और ईश्वर की सत्ता मृत। को मानने वाला। अस्तर-संज्ञा, पु० ( फा० ) नीचे की तह संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) आस्तिक-वाद । या पल्ला, भितल्ला, दोहरे कपड़े के नीचे का वि० श्रास्तिकवादी। कपड़ा, चंदन का तेल जिसे श्राधार बना संज्ञा, भा० स्त्रो० (सं०) आस्तिकता। कर इत्र बनाये जाते हैं, ज़मीन, आधार, अस्तित्व--संज्ञा, पु. (सं० ) सत्ता का स्त्रियों की बारीक साड़ी के नीचे लगा कर भाव, विद्यमानता, होना, उपस्थिति, पहना जाने वाला वस्त्र-अँतरोटा । सत्ता, भाव, मौजूदगी। (दे०) अंतरपट (सं० )। अस्तु-अध्य० (सं० ) जो हो, चाहे जो अस्तरकारी-संज्ञा, स्त्री. (फा० ) चूने हो. खैर, भला, अच्छा, ऐसा ही हो। की लिपाई, सफ़ेदी, कलई, गचकारी, यौ० तथास्तु-ऐसा ही हो, एवमस्तुपलस्तर। ऐसा हो। अस्तव्यस्त-वि० यौ० (सं० ) उलटा प्रस्तुति-संज्ञा, स्त्री० ( सं० ) निंदा, बुराई, पुलटा, छिन्न-भिन्न, तितर-बितर, विक्षिप्त, अप्रशंसा। आकुल, संकीर्ण। अस्ताचल-संज्ञा, पु० यो० (सं० ) वह संज्ञा, स्त्री. ( दे० ) स्तुति, प्रशंसा। (दे०) असतुति । कल्पित पर्वत जिसके पीछे सूर्य जाकर ....... प्रस्तुति तोरी केहि विधि करौं अस्त या छिप जाता है, पश्चिमाचल, अनन्ता "--रामा०।। (विलोम ) उदयाचल । अस्ति-संज्ञा, स्त्री० (सं० ) भाव, सत्ता, संज्ञा, पु० (सं० ) स्तधन । विद्यमानता, वर्तमानता, उपस्थित रहना। प्रस्तुरा--संज्ञा, पु० ( फा० ) बाल बनाने या० अस्तिनास्ति-हाँ और नहीं। का छुरा, उस्तरा । मु०-अस्ति-नास्ति कहना-(करना) अस्तेय--संज्ञा, पु० (सं० ) चोरी का त्याग, हाँ-नहीं करना, स्पष्ट उत्तर न देना, संदिग्ध । चोरी न करना, दश धर्मों में से एक । बात कहना, अनिश्चित उत्तर देना। | अस्त्र-संज्ञा, पु० (सं० ) फेंक कर शत्रु पर अस्ति-नास्ति में डालना-संदेह में चलाया जाने वाला हथियार, जैसे-बाण, छोड़ना, द्विविधा में डालना। शक्ति, शव के फेंके हुये हथियारों को रोकने अस्तिनास्ति में पड़ना-द्विविधा में | वाले अस्त्र, जैसे-ढाल, मंत्र-द्वारा चलाये पड़ना। जाने वाले हथियार, चिकित्सकों के चीड़अस्ति-नास्ति दिखाना-पक्षापत फाड़ करने वाले हथियार, शस्त्र, हथियार, समझाना। आयुध, प्रहरण । अस्ति-नास्ति न होना-सन्देह या प्रत्रचिकित्सा-संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं० ) दुविधा न होना। वैद्यक-शास्त्र या आयुर्वेद का वह अंश या अस्ति-नास्ति में कुछ कहना-हाँ या भाग जिसमें चीड़-फाड़ का विधान है। नहीं करना। | अस्त्रचिकित्सक-संज्ञा, पु. यो. (सं०) For Private and Personal Use Only Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org अस्त्रविद्या शस्त्र-वैद्य, त्रों के द्वारा चिकित्सा करने वाला वैद्य, जर्राह । २०४ अस्त्रविद्या - संज्ञा स्त्री० ० ( सं० ) अस्त्रचलाने की विद्या, धनुर्वेद । अस्त्र वेद - संज्ञा पु० ० (सं० ) धनुर्वेद, विद्या | अस्त्रशाला - संज्ञा स्त्री० यौ० (सं० ) श्रस्त्रशस्त्र रखने का स्थान, हथियारों के रखने की जगह, नागार । अस्त्रागार - संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) अस्त्रशाला, अस्त्रालय 1 अत्रालय - संज्ञा, पु०या० (सं० ) श्रस्त्रशस्त्र रखने की जगह | अस्त्रधारी - वि० ० (सं० ) अस्त्र धारण करने वाला, सैनिक, योधा । संज्ञा, भा० पु० (सं० ) स्थायित्व | (दे० ) स्थायी, स्थिर, अस्थाई ( दे० ) । प्रस्थान - संज्ञा, पु० (सं० अ + स्थान ) बुरा स्थान, स्थानाभाव, (दे० ) स्थान, जगह । प्रस्थापन -संज्ञा, पु० (सं० अ + स्थापन ) न स्थापित करना, न बिठाना, (दे० ) स्थापन, स्थापना । प्रस्थापित -- वि० (सं० अ + स्थापित ) जो स्थापित न किया गया हो, (दे० ) स्थापित । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir वि० [प्रस्थापनीय | वि० [स्थापक | अस्थि- संज्ञा, स्त्री० (सं० ) हड्डी, शरीरस्थ धातु विशेष । यौ० अस्थिपंजर - हड्डियों का ढाँचा, कंकाल | << अस्पृश्य कुलिस स्थि तें उपल तें " - रामा० । अस्थिर - वि० (सं०) चञ्चल, चलायमान, डाँवाडोल, जिसका कुछ ठीक न हो, अस्थायी, निश्चित | (दे० ) स्थिर, निश्चित । " श्रसथिर रहै न कतहूँ जाई ” – कबीर० । संज्ञा, भा० स्त्री० (सं० ) अस्थिरता - चंचलता, अनिश्चिता । यौ० स्थिरचित्त - चंचलचित्त - स्थिरमति - अधीर । स्त्री-संज्ञा, पु० (सं० अत्रिन्) अस्त्रधारी, हथियार बन्द, योधा, सैनिक I वि० (सं० प्र + स्त्री) स्त्री-रहित, जो स्त्री न हो । स्थिरमना - संज्ञा पु० यौ० (सं० ) चंचल चित्त या मति वाला, अधीर, जिसका अंतःकरण चलायमान हो । प्रस्त्रज्ञ - वि० ( सं० ) अस्त्र - प्रयोग जानने । अस्थिसंचय - संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) वाला । अस्थल - संज्ञा, पु० (सं० प्र + स्थल ) स्थानाभाव, बुरा स्थान बुरी जगह । (दे० ) स्थल, जगह | अस्थायी - वि० (सं० ) स्थिति-रहित, जो स्थायी या ठहरने वाला न हो, अस्थिर, श्रगाध, तलस्पर्श । त्येष्टि संस्कार के अनन्तर जलने से बची हुई हड्डियों के एकत्रित करने की क्रिया । अस्थूल - वि० (सं० ) जो स्थूल या मोटा न हो, सूक्ष्म, कृश, दुर्बल, दुबला-पतला । वि० (दे० ) स्थूल | For Private and Personal Use Only संज्ञा, स्त्री० प्रस्थूलता । यौ० प्रस्थूलधी - सूक्ष्म बुद्धि वाला । अस्थैर्य - संज्ञा, पु० (सं० ) अस्थिरता, चंचलता । १ (दे० ) संज्ञा, पु० स्थैर्य, स्थिरता । अस्नान - संज्ञा, पु० दे० (सं० स्नान ) स्नान, नहाना, धसनान ( दे० ) । अस्पताल --- संज्ञा, पु० दे० ( ० हास्पिटल ) श्रौषधालय, चिकित्सालय, दवाखाना । अस्पृश्य - वि० (सं० ) जो छूने योग्य न हो, नीच या स्थन । यौ० अस्पृश्यजाति - नीच जाति, अछूत । Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अस्पर्श २०५ अस्वीकार अस्पर्श-संज्ञा, पु० दे० (सं० अ-+स्पर्श) | अस्रप-संज्ञा, पु. ( सं० ) राक्षस, मूल न छना, स्पर्श न करना, (दे०) स्पर्श । नक्षत्र, जोंक। वि० श्रस्पर्शित-न छुअा हुमा, स्पर्शित वि० रक्त पीने वाला। अनु-संज्ञा, पु० दे० (सं० अश्रु ) आँसू, अस्पष्ट-वि० (सं० अ+स्पष्ट ) जो आँस ( दे 5 )। स्पष्ट या सुव्यक्त न हो, गृढ़, अस्फुट । अस्वकीय-वि० (सं० ) पराया, अपना ( दे० ) स्पष्ट, स्फुट । नहीं। प्रस्फटिक-संज्ञा, पु० दे० (सं० प्रस्फ अस्व - संज्ञा, पु. (सं० ) निर्धन, कंगाल, दरिद्री, दे० (सं० अश्व ) घोड़ा। टिक) एक प्रकार का उज्वल पत्थर। अस्वथ--वि० (सं० ) अस्वस्थ, रोगी। प्रस्फुट-वि० (सं० अ- स्फुट ) जो स्पष्ट । अस्वस्थ-वि० (सं० ) रोगी, बीमार, न हो, अस्पष्ट, गृढ़, जटिल, (दे० ) स्पष्ट, अनमना। अगूढ़। अस्वन-वि० (सं० ) शब्द-रहित, नीरव, वि० दे० ( सं० स्फुटित ) अस्फुटित स्वर-रहित । फूटना, फूटा हुआ । अस्वर-संज्ञा, पु. (सं० ) व्यंजन, बुरा(सं० म+स्फुटित ) न फूटा हुभा। स्वर, निंदितस्वर, बेसुर। अस्मरण-~-संज्ञा, पु. (सं० अ-+ स्मरण ) वि० अस्वरित-अशब्दायमान, शब्दित। अस्मृति, याद न रहना, भूल, विस्मृति । संज्ञा, पु० (सं० ) जो स्वरित न हो। (दे० ) स्मरण, याद, स्मृति। अस्वपित-वि० (सं०) न सोया हुआ, संज्ञा, स्त्री० अस्मृति (सं० अ+ स्मृति) असुप्त । स्मृति का अभाव, विस्मृति, (दे०) अस्वादिष्ट-- वि० (सं० ) जो स्वादिष्ट या स्मृति, याद, असमरण (दे०)। खाने में अच्छा या रुचिकर न हो, बदमज़ा, अस्मारक-संज्ञा, पु० (सं०+स्मारक ) बदज़ायका। जो स्मारक या स्मरण कराने वाला न हो। संज्ञा, पु० अस्वाद-बुरास्वाद । ( दे०) स्मारक या स्मरण कराने वाला अस्वाभाविक-वि० (सं० ) जो स्वाभाविक चिन्ह । न हो, प्रकृति विरुद्ध, कृत्रिम, बनावटी। अस्मिता-संज्ञा, स्त्री० (सं० ) द्रक्, दृष्टा, स्वास्थ्य-संज्ञा, पु. ( सं० ) रोग, और दर्शन-शक्ति को एक मानना या पुरुष बीमारी । (आत्मा) और बुद्धि में अभेद मानने वि० अस्वास्थ्यकर-रोगकारक, हानिकी भ्रांति, ( योग ) अहंकार, मोह। कारी। वि० (सं० अ+स्मिता ) न मुसकुराई हुई। अस्वीकार--संज्ञा, पु. ( सं० ) स्वीकार का (दे०) स्मिता या मुसकुराती हुई। विलोम, इन्कार, नामंजूरी, नाहीं। मन-संज्ञा, पु. (सं० ) कोना, रुधिर. संज्ञा, भा० स्त्री० अस्वीकारता-। जल, आँसू, केसर, नोक। वि० अस्वीकरणीय-स्वीकार न करने प्रस्रजित-वि० (सं० श्र+स्रजित ) न योग्य । सिरजी या रची या पैदा की हुई, न अस्वीकार-सूचक-संज्ञा, पु० यौ० (सं.) बनाई हुई। । एक प्रकार के सर्वनाम का भेद, जिससे संज्ञा, पु० अस्त्रजन । अस्वीकृति प्रगट हो। For Private and Personal Use Only Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अस्वीकृत २०६ अहमक अस्वीकृत- वि० (सं०) अस्वीकार या | अहटना ( अहटाना ) अ० कि० दे० (हि. नामंजूर किया हुआ, इन्कार किया हुआ, ! अाहट) श्राहट सुनना, खटकना, पता नामंज़र। चलना। संज्ञा, स्त्री० अस्वीकृति । स० कि० प्राइट लगाना, टोह लेना। अस्सी -वि० दे० (सं० अशीति ) सत्सर श्र० कि० -(सं० आहट ) दुखना, चोट और दस की संख्या, दस का पाठ गुना, पहुँचाना “ भरम गये उर फारि पिछौहैं ८०, संख्या विशेष । ( दे० ) असी। पाछे पै अहटाने "भ्र० । अहं (अहम् ) सर्व० (सं० ) मैं। " चलत न पग पैजनियां मग अहटात"प्रकार-संज्ञा, पु० (सं०) अभिमान, गर्व, रंच किरकिरी के परे, पल पल मैं अहटाय" घमंड, मैं हूँ, या मैं करता हूँ, ऐसी भावना, --रतन०। दम्भ, अहंकृति, हृदय चतुष्टय में से एक। अहथिर -वि० दे० (सं० स्थिर ) स्थिर, ग्राहकारी वि० (सं० अहंकारिन् ) अहंकार “जो पै नाहीं अहथिर दसा" --प० । करने वाला, घमंडी, गुमानी, गर्वीला। अहद-संज्ञा, पु. (अ.) प्रतिज्ञा, वादा, स्त्री० अहंकारिणी। संकल्प। प्राकृति-संज्ञा, स्त्री. (सं.) अहंकार, | अहदनामा- संज्ञा, पु० (फा०) एकरारमद, गर्व । नामा, प्रतिज्ञापत्र, सुलहनामा । वि० न मारने वाला। अहदी-वि० पु० (अ.) श्रालसी, आसअहंता-संज्ञा, स्त्री० (सं०) अहंकार, | कती, अकर्मण्य, निठल्ला। घमंड, मद। वि० प्रतिज्ञा का दृढ़। अहंपद-संज्ञा, पु० (सं०) घमंड, गर्व, संज्ञा, पु. ( म०) सब दिन बैठे खाने " जिय मांझ अहंपद जो दमिये "- के। किन्तु बड़ी श्रावश्यकता पर काम देने वाले अहंवाद-संज्ञा, पु. ( सं० ) डींग, शेख़ी, एक प्रकार के सैनिक या सिपाही (अकलम्बी लम्बी बात करना, डींग मारना। बर-काल)। अहंभाव-संज्ञा, पु. (सं०) अहंकार, अहन् - संज्ञा, पु० (सं० ) दिन, दिवस। घमंड, गर्व । अहंमन्य-वि० (सं० ) अपने को बड़ा अहना-अ० कि० (सं० अस = होना ) मानने वाला, अस्मानी। ( इसका प्रयोग अब केवल वर्तमान काल स्त्री० अहंमन्या । के ही रूप में होता है यथा अहै,) तुलसीअहंमन्यना-संज्ञा, स्त्री. ( सं० ) अहंकार, दास ने इसके कई रूपों का प्रयोग किया अपने को बड़ा मानना, गर्व, मद, घमंड । है-ग्रहहूँ, अहे, अहई, अहऊ, अहों। अह-संज्ञा, पु. ( सं० अहन् ) दिन, विष्णु, | अहनिसि-प्रव्य० दे० (सं० अहर्निशि ) सूर्य, दिन का देवता, दिनेश। रात-दिन, या दिन-रात । अव्यः (सं० अहह ) आश्चर्य, खेद, या अहनिशि- अव्य० (सं० ) दिन-रात, सदा, क्लेशादि को सूचित करने वाला शब्द। नित्य, सब काल । अहक-संज्ञा, पु० दे० (सं० ईहा ) अहमक-वि० (प्र.) बेवकूफ, मूर्ख, इच्छा, लालसा, गर्व। मूद, उजड्ड। प्रहकना अ. क्रि० दे० (हि. अहक) संज्ञा, पु० अहमकपन, हिमाकत लालसा करना, प्रबल इच्छा करना। (अ.)। For Private and Personal Use Only Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रहम्मति अहवान अहम्मति-संज्ञा, स्त्रो० (सं० अहम् + अहलकार-संज्ञा, पु० (फा ) कर्मचारी, मति ) मनमौजी, धमंडी, अपने को बड़ा कारिंदा। मानने वाली धारणा। संज्ञा, स्त्री०-अहलकारी। संज्ञा, स्रो० (सं० ) अविद्या, अहंकार । हलमद-संज्ञा, पु. ( फा० ) मुकद्दमों प्रहमित-संज्ञा, खी० दे० (सं० अह- की मिसिलों को रखने और अदालत की म्मति) घमंड, गर्व। आज्ञानुसार हुक्मनामे जारी करने का काम " जिता काम अहमति मन मांहीं"-- करने वाला कचहरी या अदालत का एक रामा०। कर्मचारी। सर्व (सं० अहम् + इति ) मैं ही हूँ यह | संज्ञा, स्त्री० अहलमदी। भाव । अहलना--अ० कि० ( दे० ) हिलना, अहमेव - संज्ञा, पु० (सं० ) गर्व, घमंड, | दहलना। मद, अभिमान, अहंकार, हमेव ( ब्र० दे० ) प्रहलाद--संज्ञा, पु० दे० (सं० प्रह्लाद ) " और धराधरन को मेट्यो अहमेव आनंद, प्रसन्नता, प्रमोद । अहलादित--वि० दे० (सं० प्रह्लादित ) प्रहर-संज्ञा, पु० (दे० ) पोखरा, पानी आनंदित, प्रमुदित । का गड्ढा । प्रहल्या-संज्ञा, स्त्री० (सं० ) गौतम ऋषि प्रहरन--संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० श्रा। की पत्नी, गौतमी, इनके सौंदर्य पर मुग्ध धारण) निहाई। होकर इन्द्र ने चन्द्रमा को मुर्गा बना के और गौतम को प्रातः काल हो जाने का " ज्यौं अहरन सिर धाव "..- कबीर० ।। भ्रम करा स्नान-ध्यान को भिजवा श्राप (दे० ) अहरनि। गौतम-रूप में आकर इनके चरित्र को प्रहरना--स० क्रि० दे० (सं० आहरण ) दूषित किया था, गौतम को यह रहस्य लकड़ी को चीर कर सुडौल करना, डौलाना, योग-ध्यान में ज्ञात हो गया और उन्होंने (दे०) अहारना, मारना, पीटना, मार इन्द्र, चन्द्र तथा असत्य बोलने पर इन्हें मार कर सुधारना । शाप दिया, जिससे इन्द्र के शरीर में सहस्त्र प्रहरा-संज्ञा, पु० दे० (सं० आहरण ) योनि-चिन्ह, चंद्रांक में कलंक हो गये, कंडों का ढेर, कंडों का ढेर ( जलता हुआ) इन्हें उन्होंने वायु सेवन करने, निराहार जिसमें भोजन बनाया जाय । रहने तथा तपस्या करने की आज्ञा दी। (प्रान्ती०-अदहरा)। कौशिक की आज्ञा से राम ने इनका प्रहरहः-अव्ययौ० (सं० अहः । अहः ) अातिथ्य स्वीकार कर इन्हें पवित्री-कृत दिन दिन, प्रतिदिन, रोज़ रोज़ ।। किया और तब ये गौतम को प्राप्त हो अहर्मुख-संज्ञा, पु० (सं०) प्रातः काल, । सकी। तुलसीकृत रामायण में शाप से भोर, सबेरा, प्रत्यूष, प्रभात-समय, भिन. इनका पत्थर होना और राम-पद-स्पर्श सार, सकार (दे० )। से फिर स्त्री होकर गौतम को प्राप्त करना अहर्षण-संज्ञा, पु० दे० (सं० आहर्षण ) लिखा है। प्रसन्नता, प्रमोद, हर्षाभाव । अहवान--संज्ञा पु० दे० (सं० आह्वान ) वि० अहर्षित-प्रसन्न, मुदित, अप्रसन्न। आह्वान, आवाहन, बुलाना, For Private and Personal Use Only Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अहसान २०५ अहिबल्ली अहसान-संज्ञा, पु. (अ.) किसी के अहि - संज्ञा० पु. ( सं० ) साँप, सर्प, राहु, साथ भलाई करना, सलूक, उपकार, कृपा. वृत्तासुर, खल, वंचक, पृथिवी, सूर्य, मात्रिक अनुग्रह, कृतज्ञता। गणों में ठगण, २१ अक्षरों के वृत्तों का एक अहसान मंद-वि० ( अ ) कृतज्ञ, अनुग्रहीत । स्त्री०-अहिनी-सर्पिणी, साँपिन । आहह-अव्य० ( सं० ) आश्चर्य, खेद, अहिगण-संज्ञा० पु० यौ० (सं० ) पांच क्लेश या शोक-सूचक एक शब्द ।। मात्राओं के गण, ठगण का सतवाँ भेद, "अहह प्रलयकारी दुःखदायी नितांत"- सर्प-गण । मैथि०। अहिगति-संज्ञा, स्त्री० यौ० ( सं० ) सर्पअहा--अव्य० दे० (सं० अहह ) श्राह्लाद ! गति, टेढ़ी चाल । और प्रसन्नता-सूचक एक शब्द । | अहिच्छत्र-संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) प्राचीन संज्ञा, स्त्री० (दे०) प्रशंसा, प्रसन्नता। दक्षिण पांचाल । " भरी यहा सगरी दुनियाई "-प० ।। अहिछर-संज्ञा, पु० ( दे० ) विष, सर्पअ० कि० (दे०) था। विष। स्त्री० अही थी। अहित-वि० (सं० ) शत्रु, बैरी, हानि“खेखत श्रही सहेली सेती-५०। कारक । अहाता—संज्ञा, पु० (अ० ) घेरा, हाता, संज्ञा, पु. ( सं० ) बुराई, अकल्याण, बाड़ा, प्राकार, चहार दीवारी, चारदिवारी। हानि । अहान-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० आह्वान ) अहितगिडक-संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) बुलावा, पुकार, चिल्लाहट अावाहन । सपेरा, व्यालग्राही, कंजर। प्रहार -- संज्ञा, पु० दे० (सं० अाहार ) अहिधर-संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) शंकर, भोजन, आहार। महादेव । " नर-अहार रजनीचर करहीं''..-रामा० । अहिनाथ-संज्ञा० पु० यौ० ( सं० ) शेषअहारना --सं० कि० दे० ( सं० अाहरण) नाग, वासुकी । (दे० ) अहिनाह-~-- खाना, भक्षण करना, चपकाना, कपड़े में शेषनाग, अहिराज। माँडी देना। (दे० ) अहरना। अहि-नकुलता--संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं० ) प्रहारी-वि० दे० (सं० आहारी) खाने महज बैर, स्वाभाविक शत्रुता । वाला। अहिनकुन्त न्याय....-पारस्परिक-विरोध । अहाहा-अव्य० दे० (सं० ग्रहह ) हर्ष अहिपति---संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) शेष सूचक शब्द। अहिंसक-वि० (सं० ) हिंसा न करने नाग, नागराज ।। वाला ( विलोम ) हिंसक। अहिफेन--संज्ञा, पु० यौ० ( सं० ) सर्प के अहिंसा-संज्ञा, स्त्री० (सं० ) किसी को मुख की लार या फेन, अफ़ीम। दुःख न देना, किसी जीव को न सताना, अहिबेल --संज्ञा, स्री. यो० (सं० अहि. या न मारना। बल्ली ) नाग-बेल, पान की बेल । अहि"अहिंसा परमो धर्मः "--- | बल्ली । अहिंस्र-वि० (सं० ) जो हिंसा न करे. अहिबल्ली-अहिबल्लरी--संज्ञा, स्त्री० यौ० अहिंसक। (सं०) नाग बेल, अहिलता, पान-बेल । For Private and Personal Use Only Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir शब्द। अहिभुक २०६ अहोरात्र “अहिबल्ली-रिपु की सुता ताके पति को | ग्रहीरो-संज्ञा, स्त्री० (दे० ) अहीर का हार "--सूर० । काम। अभुिक-संज्ञा, पु० (सं० ) मोर, मयूर, | अहारिन-संज्ञा, स्त्री० (दे०) प्रहीगिनि, गरुड़ -अहिभाजा। अहोरिनी, ग्वाले या अहीर की स्त्री, ग्राहमंत्र-संज्ञा, पु० या० (सं०) सर्प- ग्वालिन, अहिरिन ( दे०)। विष दूर करने का मंत्र। प्रहाश-संज्ञा, पु. यौ० (सं०) शेषनाग, अहिमुग्व-संज्ञा. पु० यौ० (सं० ) विषैले शेषावतार लघमण और बलराम, आदि । मुख वाला कुभाषी, शेष नाग ।। अहुटना*-अ० क्रि० दे० ( हिं हटना ) अहिलोक-संज्ञा, पु० यो० (सं) पाताल । हटना, दूर होना, अलग होना, पृथक अहिषर-संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) सपो में | होना। श्रेष्ठ, शेष नाग, दोहे का एक भेद विशेष। अटाना-स० क्रि० (दे०) हटाना, अरिधान .. संज्ञा पु० दे० (सं० अहिवाद ) दूर करना, भगाना। स्त्री का सौभाग्य, स्त्रियों का सुहाग, सध- | अठ-वि० दे० (सं० अध्युष्ठ) साढ़े वापन -हिवाना (दे० )। तीन, तीन श्रार प्राधा, हुंठा। "अचल होय श्रहिवात तुम्हारा"-रामा० | 'अहुठ हाथ तन जस सुमेरू"-५० । "सदा अचल यहि कर अहिवाता''-- आहे-अव्य दे० (सं० हे, रे) संबोधन रामा०। सूचक शब्द, हे, अरे, रे, विस्मयादि सूचक अहवानी-वि० स्त्री० दे० (हिं अहिवात ) सौभाग्यवती सोहागिन, सधवा । अति वि० ( सं० ) बिना कारण का, अहिशत्र—संज्ञा, पु० य० (सं० ) गरुड़, | निमित-रहित, व्यर्थ, जूल, अकारण । नकुल. न्यौला, अहिरिपु। अहेतुक-वि० (सं० ) निकारण, बिनाअहिसत्र संसा, पु० यौ० (सं० ) सर्पयज्ञ, . हेतु के, अकारण। जिसे राजा परीक्षित ने किया था। अहर-संज्ञा, पु० दे० (सं० आखेट ) शिकार, अहिशायी-संज्ञा, पु० यौ० (सं) विष्णु, मृगया, वह जंतु जिसका शिकार किया सर्प या शेष नाग पर सोने वाला, हरि । जाय। ग्रह - प्र. क्रि० (दे० ) हैं हूँ। " जहँ तहँ तुमहिं अहेर खिलाउब"अहान्द्र-संज्ञा, पु० या० (सं०) शेषनाग, रामा० । वासुकी। अहान- वि० ( सं० ) जो हीन या कमजोर प्रहरी-संज्ञा, पु० दे० (सं० अहेर ) न हो, अनीण। शिकारी आदमी, माखेटक, व्याध, किरात । संज्ञा, पु० (दे० व० व० ) साँ, नागों (दे० ) प्रोग्या। अहिन (दे०)। " चित्रकूट-गिरि अचल अहेरी'-रामा । स्त्री० बहिनि। अहो-अव्य० (सं० ) संवोधन-सूचक या "सरसानाम अहिन की माता"-रामा०। विस्मय, हर्ष, करुणा, खेद, प्रशंसा, मादि ग्रहीर-संज्ञा, पु० दे० ( सं० आभीर ) मनोविकारों का द्योतक शब्द। गाय भैंस रखने और दूध दही श्रादि का | अहोभाग्य संत्रा, पु० (सं० ) धन्यभाग्य, रोज़गार करने वाले ग्वाले, एक जाति सौभाग्य । विशेष, ग्वाला, श्राहर (दे०)। | अहोरात्र-संज्ञा, पु० (सं० ) दिन रात । मा. श० को०-२७ For Private and Personal Use Only Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रहारे-बहारे २१० आँकर प्रहारे-बहारे-कि० वि० दे० (हि० बहुरना) अहोरा-बहोरा-संज्ञा, पु० दे० (सं० अहः बार-बार, फिर-फिर । -+बहुरना-हिं० ) विवाह की एक रीति प्रहारे-ब्यौहारे-यौ० दे० (सं० माहार जिसमें दुलहिन ससुराल में जाकर उसी व्यवहार ) भोजन ब्यवहार में। दिन मायके लौट जाती है, हेरा-फेरी, प्रहर-हुर (दे० प्रान्ती), हिर-फिर कर। भावरी। कि० अ० अहारना-बहारना-हेर-फेर | या बदला करना। कि० वि० बार-बार, पुनः पुनः । श्रा श्रा-संस्कृत और-हिन्दी की वर्णमाला का | श्रांक-संज्ञा, पु० दे० (सं० अंक) अंक, द्वितीय अक्षर जो अ का दीर्घ या वृद्धि- चिन्ह, निशान, संख्या का चिन्ह, अदद, अक्षर, हरफ़, गढ़ी हुई बात, हिस्सा, अंश, अव्य० (माङ्, पा) शब्दों की आदि में भाग, लकीर, अर्क, मदार, अकवन । पाकर मर्यादा, अभिविधि, अवधि, पर्यन्त, " आँक बिहनीयौ सुचित, सूनै बाँचति सब प्रकार न्यून और विपरीत का अर्थ | जाइ"-वि०। देता है। मु० - एक (ही) ऑक-दृढ़ बात, पा-संज्ञा, पु. (सं० ) पितामह, वाक्य, पक्का विचार, निश्चित मत । महेश्वर, अव्य० स्मृति, ईषदर्थ, अभिव्याप्ति, " एकहि श्राँक इहै मन माँही "सीमा, पर्यन्त, तक, वाक्य, अनुकम्पा, रामा०। समुच्चय- निषिद्ध, संधिवर्ण, स्वीकार, कोप, कि० वि० एक आँक-निश्चय ही। पीड़ा, स्पर्धा, तर्जन । " जदपि लौंग ललितौ तऊ, तू न पहिर इक (१) सीमा-प्रासमुद्र-समुद्र तक, (२) | आँक"-वि०। पर्यन्त-श्राजन्म-जन्म से ( ३ ) अभिव्याप्ति- अांकड़ा-संज्ञा, पु० (दे० ) (हि० आँक ) पापाताल-पाताल के अंतर्भाग तक, ( ४ ) ___ अंक, अदद, संख्या का चिन्ह, पेंच, संख्याईषत ( थोड़ा, कुछ-प्रापिगल-कुछ कुछ सूचक हिसाब की तालिका। पीला, (५) अतिक्रमण-याकालिक- आँकड़ी-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० प्रांकुशी) असामयिक, बेमौसिम का।। अंकुशी, काँटा, जंजीर। उप० (सं० ) एक उपसर्ग जो प्रायः गत्यर्थक-श्रांकना-स० कि० दे० (सं० अंकन ) धातुओं के पहले लगाया जाता है और चिन्हित करना, अंकित करना, निशान उनके अर्थों में कुछ विशेषता पैदा कर | लगाना, दागना, कूतना, अनुमान करना, देता है - जैसे प्रारोहण, श्राकंपन । जब अंदाज़ लगाना, मूल्य लगाना, जाँचना, यह गम् (जाना ) या ( गाना) दा ठहराना, निरखना, परखना । ( देना) तथा नी (ले जाना) धातुओं आँकर-वि० दे० (सं० पाकर ) गहरा, के प्रथम लगाया जाता है तब उनके अर्थो बहुत अधिक स्त्री० आँकरी। को उलट देता है जैसे गमन (जाना) वि० (सं० ) अक्र-मँहगा। से आगमन (आना), दान ( देना) “बिसरि बेद-लोक-लाज आँकरो अचेतु से प्रादान-नयन से अनियन प्रादि। है"-कवि० । For Private and Personal Use Only Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir नोकरी २११ अखि श्रॉकरी-संज्ञा, स्रो० (दे०) बाण का | स्वस्थ होना, तबियत ठिकाने आना, होश कण या नोक, अंकुश । श्राना, श्राश्चर्य होना। कुस -संज्ञा, पु० ( दे० ) (सं० अंकुश) | अखि न खुतना (खोलना )-अर्भक अंकुश । दशा का न त्यागना, शैशव में ही रहना, मु०-याकुम न मनाना-दाब न अप्रवुद्ध दशा में होना, सचेत न होना। मानना, उदंड या उच्छल होना। (चिड़िये के बच्चे के लिये )। बे प्राकुम होना-स्वच्छंद होना, मन- | श्राव खोलना-पलक उठाना, ताकना, मानी करना। चैतन्य होना या करना, होश में आना या आँकुवे-संज्ञा, पु० (दे० ) अंकुरित हुए, लाना, स्वस्थ होना, ज्ञान पाना या कराना, जन्मे, उगे हुए पौदे। बोध करना या कराना। प्राकू-संज्ञा, पु० दे० (हि० आँक + ऊ = आँख का खिलना (खिल उठना )प्रत्य० ) आँकने या कूतने वाला। प्रसन्नता आना, मुदित हो उठना । अंकैया (दे०)। अाँख का खोना (खोजाना.खो बैठना, खो देना)--आँख की दृष्टि या नज़र प्राख -संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० अक्षि ) का चला जाना, आँख का फूट जाना, ख़राब प्राणियों के शरीर में रूप, वर्ण, विस्तार, श्राकारादि को देखने या अनुभव करके हो जाना, रोशिनी का न रहना, अंधा हो ज्ञान कराने वाली इन्द्रिय विशेष, नेत्र, जाना। नयन, लोचन, विलोचन, दृष्टि, नज़र, आँख गड़ना-(किसी वस्तु या व्यक्ति पर) ध्यान, परख, मोर-पंख, चतु, अम्बक । ताक लगना, ध्यान लगना, लेने, पाने या (व० ब०) आँख, अखियाँ, अखियान ।। अपनाने की इच्छा (प्रबल इच्छा ) या मु०-आँख पाना या उठना-आँख लालसा होना, प्रेम या अनुराग होना, में लाली, पीड़ा और सूजन होना। आँख का दुखना या किरकिराना, दृष्टि प्रांख उठाना-ताकना, देखना, क्रोध जमना, टकटकी लगना, । करना, ध्यान हटना, हानि पहुँचाना, नुक्र आँख में आंख गड़ना-प्रेम-पाश में सान या अनिष्ट करने की चेष्टा करना, बँधना, प्रेमी-प्रेमिका का परस्पर देखकर अहित करने का विचार करना । मुग्ध या प्रेमासक्त या वशीभूत होना। प्रांख से उठाना-सादर स्वीकार करना । आँख गाड़ना (गड़ाना)-दृष्टि जमाना, प्रांख उलटना ( उलट जाना) पुतलियों टकटकी बाँधना या लगाना, ध्यान पूर्वक का ऊपर चढ़ जाना (जैसे मरते समय )। देखना, ताकना, ताक लगाना, लेने की अाँख करकना-प्राँख दुखना या पीड़ा | प्रबल इच्छा करना। करना। आँख में गड़ना (खटकना)-मन में प्रांख में करकना-बुरा लगना, अाँख | बसना, पसंद आना, बुरा लगना, किरमें गड़ना। किराना, अप्रिय होना। खि खुलना (खोलना)-पलक खुलना | आँख दुखना, आँख में चुभना-दुःख या खोलना, नींद टूटना, जागना, ज्ञान पहुँचाना, देना, पीड़ा करना या पीड़ा होना, प्रबुद्ध या सचेत होना, सावधान या । पहुँचाना। सतर्क होना, भ्रम का दूर होना, चित्त श्राख गिरना-( मृत्यु के समय ) आँखों For Private and Personal Use Only Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्राख २१२ प्रख का अन्दर घुस जाना और मुंद जाना, श्राख झशना-आँख छिपाना, भाँख आँख का नीचा होना, लज्जित होना। चुराना, नींद बुलाना। श्राख गिरा लेना (गिराना )-मरने के श्रोत्र टेदी करना- वक्र दृष्टि से देखना, निकट होना, लज्जित होना, शर्म खाना। नाराज़ होना, अहित करना । प्रोग्य से गिरना-मन से उतरना, श्रीख ठंढा करना-देखना (प्रिय वस्तु अप्रिय, अरोचक और अश्रद्धास्पद होना, | का ) देखकर सुख प्राप्त करना, दर्शन से नज़र्ग में गिना ( उ०) घृणित हो प्रसन्नता प्राप्त करना। जाना, त्याज्य हो जाना। श्राव ठंठी होना-आँखों का देख कर श्रोत्र गुरेग्ना-आँखों को टेढ़ा करना, प्रसन्न होना। नाराज़ होना. रोकना, दबाना, मना करना, प्राग्वे डबडवाना-(अ० कि.) आँखों अप्रसन्न होना। में आँसू भर पाना आँखों में आँसू भर श्राव में घर करना-मन में बसना, लाना । ( स० क्रि० । प्रिय हो जाना। गाग्व डालना-देखना बुरी निगाह से अग्वि घुग्ना-मना करना, रोकना, देखना, बुरे विचार से ताकना। डाँटना, नाराज़ होना। श्रोग्य तरेरना-कुपित दृष्टि से देखना, प्रोग्य चढ़ाना-नशे या नींद से पलकों सरोष देखना। का तन जाना और नियमित रूप से न प्रौख तिलमिलाना-बार-बार पलक गिरना, नाराज होना, मना करना, रोकना, लगाना और इधर-उधर आँख चलाना, चकाचौंध लगना। अप्रसन्न होना। गांख निरछाना-- टेढ़ी आँख से देखना, श्रोग्य में चढ़ना-चित्त या ध्यान में वक्र दृष्टि से देखना। रहना, अति प्रिय होना. शिकार बनना प्रोग्य दिग्बाना-सकोप देखना, नाराज़ प्रांखें चार होना (करना)-चार होना, डराना, भयभीत करना, डाँटना, प्राखें होना (करना)-देखा-देखी होना रोकना, मना करना. धमकाना।। ( करना', सामने आना, परस्पर देखना। श्राव देखना-धमकी या दबाव मानना, ऑग्व चलाना- आँखों का इधर उधर डरना, कोप सहन करना, मन की बात घुमाना, मटकाना, खोजना ढूँढ़ना। जानना, इरादा या विचार ताना, मनोश्रग्वि चुगना (किगाना, बनाना) विकार या भावना का अनुभव या अनुमान कतराना, मामने न होना. लज्जा से बराबर करना, तबीयत पहिचानना। सामने न देखना पिना। अखि दुराना-अाँख छिपाना, चुराना खि छिपाना-अाँख चुराना। या बचाना, अप्रिय समझ कर न देखना। प्राग्न जमाना-टकटकी बाँधना एकाग्र अग्नि दौडाना-दृष्टि डालना, खोजना, होना, सध्यान देखना, दृष्टि गाड़ना, या ढूँढना। जमाना। प्राख में धूल डालना (झोंकना) घाख जाना फूट जाना बेकाम होना, प्रत्यक्ष धोखा देना, सामने दग़ा करना। दृष्टि-हीन होना। प्राँग्ब न ठहरना (जमना ) चमक या अखि झपकना-अाँख बंद होना, नींद । द्रुत गति के कारण दृष्टि का न जमना, श्राना, पलक लगना। निगाह न ठहरना (रुकना)। For Private and Personal Use Only Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्राग्व २१३ प्रख श्रग्नि निकलना-पीड़ित होना, कृश या करना, देखते हुए भी न देखना और दुर्बल होना, विस्मय को प्राप्त होना, ग़लती करना। लज्जित होना। अाँखें फटों पीर गई-किमी दुखद वस्तु प्राव निकालना-सकोप देखना, नाराज़ के मूल कारण के नष्ट होने पर प्रयुक्त होता होना, आँख के ढेले को काट कर अलग है, एक अनिष्ट ( अधिक दुखद ) के द्वारा करना। तदाधारित दूपरे अनिष्ट का तूर होना, अग्वि नीची होना (करना ) लज्जित | विवाद ग्रस्त पदार्थ का नष्ट होना, समूल होना, शर्मा जाना, सिर नीचा होना।। किसी चीज़ का नष्ट होना। प्रोख नचाना-मटकाना, चारो ओर अग्वि फेरना पूर्ववत प्रेम या कृपा-दृष्टि देखना, इशारा करना। न रखना, प्रीति तोड़ना, उदापीन होना, श्रोग्य पथराना-पलकों का नियमित विमुख होना, विरुद्ध या प्रतिकूल होना, रूप से न लगना और पुतलियों की गति मर जाना। का मारा जाना, ( मरने का पर्व रूप )। अग्वि फैलाना-दूर तक देखना। प्राग्वों का पलटना--आँखों का उलट | आँख फे'डना-अाँखों की ज्योति का जाना, ( मृत्यु का पूर्व रूप )। नष्ट करना, आँखों पर जोर डालने वाला अाँखों पर परदा पड़ना-अज्ञान का कोई काम करना, बड़े गौर से किसी अंधकार छा जाना, भ्रम होना, धोखा अनुपयोगी वस्तु को देखना, व्यर्थ आँखों होना या खाना मूर्खता था जाना। को श्रमित करना। अग्विों पर परदा डालना-धोखा देना, आँख बंद करना (मूंदना)-किसी बात भ्रम में डालना। पर दृष्टि न डालना, उसकी उपेक्षा करना, प्राव फडकना-आँख की पलक का ध्यान न देना. मर जाना। बार-बार हिलना ( शुभ या अशुभ सूचक अग्वि बंद हाना ाँ व लगना, निद्रा लक्षण, मनुष्य की दाहिनी आँख फड़कना पाना पलक गिरना, मृत्यु होना । शुभ. किन्तु बांई का फड़कना अशुभ है, श्राव बंद कर या मुंकर बिना सब स्त्रियों के सम्बन्ध में इपका उलटा ठीक है।।। बात देखे-सुने, या विचार किये, बिना अव पाड़ना- खूब ध्यान से (गौर सोचे बिचारे । से ) देवना, विस्मय करना, ( अाँख फाड प्राग्व बचाना -सामना न करना. कतकर देखना ) खूब आँग्व खोनकर ध्यान | राना, बिना देख-रेख में करना, लज्जित या बारीकी से देखना, श्राश्चर्य करना।। हना छिपना। प्राग्व फिरना-(फिर जाना । पहिले अाँख बदल जाना-पूर्ववत व्यवहार या की मी कृपा या प्रीति का भाव न रहना. भाव का न रह जाना। बे मुरौप्रती आ जाना, मन में बुराई श्रा | आँख-बिछाना- सप्रेम स्वागत करना, जाना, नाराज़गी या उदारीनता पा जाना । प्रेमपूर्वक प्रतीक्षा करना, बाट जोहना । विमुख हो जाना अप्रपन्नता आ जाना, आँख भर पाना- आँखों में आँसू प्रा आँख उलट जाना (बेहोशी में ) मर जाना । (प्रेम करुणा, दुख से।। जाना प्रेम तोड़ना। आँख भर देखना-खूब अच्छी तरह प्राव फूटना - आँख की ज्योति का नष्ट मन भर कर देखना, श्रातृप्ति देखना, इच्छा हो जाना, बुरा लगना कुढ़न होना, भूल भर कर देखना । For Private and Personal Use Only Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir । प्राख २१४ अखि प्रखं भारी होना-नोंद आ जाना, आँखों से लगाकर रखना-अत्यंत प्यार निद्रालु नेत्र होना। या प्रेम से रखना, बड़े आदर सत्कार या प्राग्व भर लाना-रोने लगना, साश्रु भक्ति-भाव से रखना। नयन हो जाना, दया, करुणा, दुख, प्रेम आँख होना-परख, पहिचान, शक्ति, से द्रवीभूत होना। योग्यता, बुद्धि का होना। अखि मारना-इशारा करना, सनकारना, अाँख और होना-नज़र बदल जाना, आँख के इशारे से मना करना, सैन या आँख फिर जाना, विचार या भाव में अन्तर कनेखी चलाना। श्रा जाना। श्राख मिलाना- आँखें सामने करना, आँख प्राभल ( आँख से अोझल बराबर देखना, ताकना, सामने पाना, होना)-दूर जा कर दृष्टि से परे और श्रोट मुँह दिखाना, प्रेम या प्रीति करना। में होकर छिप जाना। आँख से आँख मिलाना-साहस करना, आँख से दूर या परे हो जाना-दूर बराबरी करना, प्रतिद्वंदता करना, विरोध होना। करना। आँख में समाना (बसना )-प्रिय हो आँख रखना, (किसी पर निगाह जाना, पसंद भाना, चित्त में बसना, मन रखना )-ताकना, निगरानी करना, में स्मरण बना रहना। चौकसी करना, चाह रखना, इच्छा रखना। प्रोखों में चरबी शना-मदांध या श्राख में रखना-ध्यान या चित्त में, प्रमत्त हो जाना, गर्व से किसी की ओर ख्याल रखना, अत्यंत प्रेम करना, प्रेमपूर्वक ध्यान न देना। आंखों में फिरना- ध्यान में रहना, चित्त रखना-प्रांख में बमाना। में चढ़ना, स्मृति में बना रहना । " आँखिन मैं सखि राखिवे जोग' "नैननि मैं अब साई कुंज फिरिबो करें " तुल० ( कवि०)। -ऊ. श०। अखि लगना-नींद लगना, झपकी प्रांखों में रात कटना-कष्ट, चिन्ता लगना, सोना, टकटकी लगना, दृष्टि जमना। या व्यग्रता से सारी रात जागते बीतना । (किसी से ) आँख लगना-प्रीति होना, आँख की पुतली करना-प्रत्यंत प्रिय प्रेम होना। करना, या बनाना। " आँखिन आँखि लगी रहै, आँखी लागत " करहुँ तोहि चख-पूतरि श्राली "नाहिं "-वि० । रामा० । प्रांख लडना-देखा-देखी होना, आँख आँख का काजल (अंजन ) करके मिलाना, प्रेम होना, प्रीति होना। रग्बना- आँखों में बसाना या रखना, प्राँव लड़ाना-देखा-देखो ( सप्रेम ) अत्यंत प्रिय बनाएर समीप रखना। करना। "नैननि मैं कजरा करि राख्यो"- आँखें लाल (पीली) करना, (लाल- अखि का काजल (अंजन) होना-प्रिय, पीली अखि दिवाना )-क्रोध करना, हितकर और सुखद होना। सकोप दृष्टि से देखना, डराना, धमकाना । आँख का काजल चुराना-सामने से श्रीख सेंकना-दर्शन-सुख उठाना, नेत्रा- देखते देखते उड़ा देना। नंद लेना। यो०-श्राख का तारा-आँख का काला For Private and Personal Use Only Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रोख घाँकी तिल, अति प्रिय व्यक्ति, परम प्रिय । आँखो- संज्ञा, स्त्री० (दे० ) आँख, अक्षि । प्रांख की पुतली। (सं०) ब० व. प्रांख-प्रोखो। कि० श्राख का नारा होना- प्रिय होना। अांखू-माखू - अत्र्य० यौ० (दे०) अक्खोअखि की पुत्लो-आँख के भीतर रंगीन मक्खो , झूठ-मूठ । भूरी झिल्ली का वह भाग जो सफंदी पर श्रोग*--संज्ञा, पु० दे० (सं० अंग) अंग, की गोल काट से होकर दिखाई पड़ता है, अवयव, देह स्तन । अति प्रिय व्यक्ति, प्यारा मनुष्य । ......" श्राँग मोरि अँगराइ"- वि० । प्रोखों के डारे-आँखों पर लाल रंग आंगन-संज्ञा, पु० दे० (सं० अंगण ) घर की बारीक नसें। के भीतर का सहन, चौक, अजिरप्राख-भौं टेही करना-ऋद्ध होना। अँगनाई-अंगनैश (दे०)। अग्वि-भौं मटकाना-मुँह बिराना, मूर्ख श्रौगिक-वि० (सं० ) अंग-सम्बन्धी, बनाना इशारा करना। अंग का। प्रोख-संज्ञा, पु० दे० (स. अक्षि) विचार- संज्ञा, पु० (सं०) चित्त के भावों को प्रगट विवेक, परख, शिनाख्त, पहिचान, कृपा- करने वाली चेष्टाये-जैसे भ्रूविक्षेप, हाव दृष्टि, संतति, आँख के आकार का चिन्ह, । आदि, रस के कायिक अनुभाव, नाटक के (सुई का छिद्र)। अभिनय के चार भेदों में से एक। ब० ब० आँखं, अँखियाँ, अँखियान, प्रागिरम-संज्ञा, पु० (सं० ) अँगिरा-पुत्र, अंखड़ियाँ ( दे० )। बृहस्पति, उतथ्य और संवत, अंगिरा के प्रांखडा-संज्ञा, स्त्री० ( दे० ) अाँख ।। गोत्र का पुरुष। आँखफाड़ा--( रिड्डा )-संज्ञा, पु० । वि० अंगिरा सम्बन्धी, अंगिरा का । (दे० ) हरे रंग का एक कीड़ा या पतिंगा, प्रांगी -संज्ञा, स्त्री. (दे०) अँगिया, प्रकृतज्ञ, बेमुरौपत, कृतघ्न । - चोली। अखि-मिचौलो-संज्ञा, स्त्री० यौ० (दे०) गुर* ( श्राँगुल )-संज्ञा, पु. दे. (हि० भाँख+ मोचना ) लड़कों का एक (हि० अंगुल ) अँगुल, अंगुर । खेल जिसमें एक लड़का अपनी आँखें बंद “बावन आँगुर गात "-रहीमः । करता है और सब लड़के छिप जाते हैं, श्राँगुरी* (अाँगुरि )-संज्ञा, स्त्री० दे० जिन्हें वह ढूंढ़ता और छूता है, जिसे वह | (हि. अँगुली ) अँगुली, उँगली-अंगुरी ढूंढ़ कर छू लेता है, फिर वह आँख बंद | (दे० ) आँगुरिया, अंगुरिया। करता है-श्रांख-मिचौनी, आँख- | "गयो अचानक आँगुरी ....." वि० । मोचनी, अाँख-मिहीचनी (दे०)। "काहू उठायो न आँगुर हू है"-रामा० । " खेलन आँख मिहीचनी आजु"...... । आँच- संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० अर्चि) गरमी, मति। । ताप, लौ, आग की लपट, आग, प्रताप, "आँख-मीचनी संग तिहारे न खेलिहैं".-1 चोट, हानि । अखि मुंदाई-श्राख-मुचाई-संज्ञा, स्त्री० मु०-श्रांच खाना-गरमी पाना, श्राग (दे० ) प्रांख-मिचौनी, छुवाछुअव्वल, पर चढ़ना, तपना। आँख-मुदधल, आँख-मीचली (दे०)। श्रांच दिखाना--भाग के सामने रखकर प्रांखा- संज्ञा, पु० (दे० ) एक प्रकार की गरम करना। चलनी, खुरजी। श्रांच दना-गरम करना । For Private and Personal Use Only Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रांच पहुँचाना त श्रांच पहुँचाना-चोट या हानि पहुँचाना, आंजनेय-संज्ञा, पु० (सं० ) अंजना के एक वार पहुँचा हुआ ताप तेज, प्रताप, पुत्र, हनुमान । श्राघात, अहित. अनिष्ट, विपत्ति, संकट ग्रांट- संज्ञा, स्त्री० दे० (हि० अंटी ) हथेली श्राफत, प्रेम, मुहब्बत काम-ताप. दुख।। में तर्जनी और अँगूठे के बीच का स्थान, "अजहूँ हृदय जरत तेहि आँचा "- दाँब, वश, गाँठ, बैर, लागडाँट. गिरह, रामा०। ऐंठन. पूला, गट्टा, विरोध, दुश्मनी, प्रतिश्रावना*-स० कि० दे० (हि० आँच ) | ढूंदता। जलाना, तपाना, गरम करना। प्रौटना-म० क्रि० दे० ( हि० ) अड़ाना, प्राचर संज्ञा, पु० दे० (सं० अंचल ) अटकाना, अँटना, समाना, पूरा पड़ना । अंचल, साड़ी का छोर किनारा, दामन- " छर कीजै बर जहाँ न प्राँटा ''- प० । (दे० ) अचग-आँचल । पार पाना- जहँ बर किये न आँट"मु०-श्रांचर बांधना स्मरण के लिये प०। अंचल में गाँठ बाँधना। मिलना पहुँचना, बरावरी कर सकना।। आँनल*-संज्ञा. पु० दे० (सं० अञ्चल ) " निधि हैं कला मी विधि हूँ न तेहि आँटि धोती दुपट्टे आदि के दोनों छोरों का एक हैं " . दीन । भाग या कोना, पल्ला, छोर, साधुनों का | प्रारी-संज्ञा स्त्री० दे० (हि. अाँटना) अँचला, सामने छाती पर रहने वाला लम्बे तृणों का छोटा गट्ठा, पूला, लड़कों के स्त्रियों की साड़ी या श्रोदनी का छोर या' खेलने की गुल्ली, (अंटी) सूत का लच्छा पल्ला । (पिंडी धोती की गिरह. टेंट, मुरी, ऐंठन । म०-आंचल देना- बच्चे को दूध संज्ञा, स्त्री. ( दे०) शरारत। पिलाना, विवाह की एक रीति । प्रांद-माँट - संज्ञा स्त्री० दे० (हि० आँट+ आँचल फाइना-बच्चे के जीने के लिये सटना ) गुप्त, अभिसंधि, साज़िश, बंदिश, टोटका करना। मेल-जोल, साझा। श्रावन में बांधना-हर समय साथ | प्राठी-मज्ञा, स्त्री० दे० (सं० अष्टि प्रा. रखना, प्रतिक्षण पास रखना और ध्यान __ अट्टि ) दही मलाई श्रादि पदार्थों का रखना, (किपी कही बात को याद रखना) _लच्छा, गाँठ, गिरह, गुठली बीज । कभी न भूलना। श्रोड-सज्ञा, पु० दे० (सं० अण्ड ) आँचल लेना- आँचल छू कर श्रादर या अंडकोरा। सत्कार करना अभिवादन करना। प्रांडू-वि० दे० (सं० अगड ) अंडकोशभ्रांचल्त पकड़ना-पाग्रह करना। युक्त, अंडू. जो बधिया न हो ( बैल )। प्रांछी-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० धृ = क्षरण ) प्रांत-संज्ञा, स्वा० द० (सं० अंब प्राणियों महीन कपड़े से मढी हुई चलनी। के पेट के भीतर की लम्बी नली जिससे प्रांजन -संज्ञा, पु० दे० (सं० अंजन) हो र मल या व्यर्थ पदार्थ बाहर निकलता आँख में लगाने का काजल विशेष, अंजन ।। है और जो गुदा तक रहती है, अंत्र । श्रांजना- स० कि० दे० ( सं० अंजन) अंडी (दे०) ल द । अंजन लगाना। मु०. प्रात उतरना-एक रोग विशेष "खंजन-मद गंजन करें, अंजन आँजे नैन" | जिसमें आँत ढीली होकर नाभि के नीचे पा -'सरस'। जाती है और अंडकोश में पीड़ा होती है। For Private and Personal Use Only Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रांतर २१७ श्रावट श्रांतों के बल खुलना-पेट भरना, भोजन सुने प्रारम्भ करना, बिना समझा-बुझा कार्य से तृप्ति होना। या आचरण, अंधेर, मन माना (बिनाश्राँते कुलकुलाना (सूखना )-बड़ी | सोचा-बिचारा ) काम ।। भूख लगना। प्रांधो-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० अंध = प्रांत बोलना-भूख से पेट कुलकुलाना, अँधेरा ) प्रखर वायु, जिससे इतनी गर्द या पेट बोलना। धूल उड़ती है कि चारो ओर अँधेरा छा प्रांत गले पाना-तंग होना, झगड़े में | जाता है, तूफान, अँधड़, अँधवायु, औंधार, पड़ना । झंझा बात। श्रांतर -संज्ञा, पु० दे० (सं० अंतर ) अंतर, | अाँधे, अँधवाघ (दे० ) " आँधी उठी बीच, भेद । प्रचंड "-गिर० । आंद-संज्ञा, पु० दे० दे० (सं० अंदू-पेड़ी) वि. आँधी की सी तेज़ हवा, प्रचंड, तेज़, लोहे का कड़ा, बेड़ी बाँधने की स कड़, । चुस्त, चालाक। बंधन । मु० आँधो ( उठना ) उठाना-अँधेर प्रांदोलन-संज्ञा, पु० (सं० ) बार-बार ( होना) मचाना, प्रबल या वेगवान हिलना, डोलना, उथल-पुथल करने वाला आन्दोलन उठाना ( होना)। प्रयत्न, हलचल, धूम-धाम । आँधी प्राना (चलना)-विपत्ति श्राना, प्रांदोलित-वि० ( सं० ) प्रकंपित, अँधेर होना, आन्दोलन होना। संचालित। यौ० अाँधी के श्राम-अकस्मात, बिना स्त्री० अांदालिता--हिलाई हुई, कंपिता । प्रयास के कभी प्राप्त होने वाला पदार्थ, वि० आन्दोलक-प्रान्दालनकारा, अनिश्चित समय में नष्ट होने वाला, जिसके आन्दोलनकारक। जीवन का निश्चय न हो, जिसके रहने का भरोसा न हो। वि० आन्दोलनाय- आन्दोलन के योग्य आंध्र--संज्ञा, पु. (सं० ) ताप्ती नदी के बात। किनारे का प्रदेश । प्राध-संज्ञा, स्त्री० दे० सं० अंध) संज्ञा दे । अव । श्राम। अंधेरा, धुंध, रतौंधी, अाफ़त, क्लेश, कष्ट, | अँबधा (दे०)। विपत्त। आंबा हलदी-संज्ञा, स्त्री. (दे० ) आमाअधिना -अ० कि० दे० (हि. आँधी) | हलदी. एक श्रौषधि । बेग के साथ धावा मारना, टूटना, ज़ार से | प्राय-बाय-संज्ञा, स्त्री० (अनु० ) अनापझपटना। शनाप, अटॉय-सटाँय, अंड-बंड, व्यर्थ की प्रांधरा-वि० दे० सं० अंध ) अंधा। बात। धुंधरा (दे०) आँधर। अाँव-संज्ञा. पु० दे० (सं० ग्राम = कच्चा ) आँधरी (दे० ब्र०)। एक प्रकार का चिकना, सफेद, लसदार, मल स्त्री. अंधरी, आँधी। जो अन्न के ठीक न पचने पर पैदा होता है । " कहै अंध को आँधरो-मानि बुरो सत- मु० अाँव पड़ना (गिरना)-पेचिश रात" वृद। होना। अाधारम्भ* -संज्ञा, पु० यौ० दे० (सं० प्रांघठ-संज्ञा, पु० दे० (सं० ओष्ट) अन्ध + प्रारम्भ ) अंधेर खाता, बिना देखे- | किनारा, धोती का छोर। भा० श० को०-२८ For Private and Personal Use Only Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्राधड़ना २१८ श्राइना प्रावड़ना-म० कि० (दे० ) उमड़ना। . . . . . . . . 'श्राँस रोकि साँस रोंकि " --- विड़ा-वि० दे० ( सं० श्राकुंड ) ऊ. श०। गहरा। श्रांसो*-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० अंश) "सोभा-रूप-सागर अपार गुन आँवडे ''- भाजी बैना, मित्रादि के यहाँ भेजी जाने रवि०। वाली मिठाई श्रादि। श्रावल -संज्ञा, पु० दे० (सं० उल्वम् ) | असू-संज्ञा, पु० दे० (सं० अत्र शोक. गर्भ में बच्चों के लिपटे रहने की झिली, प्रेम सुख या करुणादि के कारण नेत्रों से खेंडी, जेरी, साम । निकलने वाला जल । प्राधार-(दे०)। मु०-आंसू गिराना (ढालना )अधिरा-संज्ञा, पु० दे० (सं० आमलक ) । रोना, क्रंदन करना। एक वृक्ष, जिसके फल गोल और खट्टे होते | आँसू पाकर रह जाना-भीतर ही हैं, इनका अचार, मुरब्बा, चटनी श्रादि । भीतर रोकर या कुढ़ कर रह जाना । बनती है और ये दवा के काम में भी प्रांसुओं से मुह धोना- खूब रोना। पाते हैं। आँसू पोंछना-दया करना, समवेदना या आँवला, पौरा, (दे० )। सहानुभूति दिखाना. सान्त्वना देना दुख प्रावला-प्रामला -संज्ञा, पु० दे० (सं० दूर करना दिलासा देना. ढाढ़स बंधाना । आमलक) आँवरा --अवरा, भौंग (दे० । श्रासू पुछना-श्राश्वासन मिलना. दादर प्रचित्तासार-गंधक-संज्ञा, पु० दे० (हि. बँधना। आँवला+सार गंधक - सं० ) खूब साफ़ यौ-रक्त (लाह) के आँसू किया हुआ गंधक जो पार-दर्शक हो। ( बहाना )- रक्त-शोषक दुख से रोना। प्रवा-संज्ञा, पु० दे० (सं. आपाक) अहिड़--संज्ञा, पु० दे० ( सं० भांड ) कुम्हारों के मिट्टी के बरतन पकाने का बरतन। गड्ढ़ा । ग्राह-प्रत्य० दे० (ह. ना - हाँ । मु०-श्रावों का प्राधा बिगड़ना- अस्वीकार या निषेध-सूचक शब्द. नहीं। किसी समाज या वंश के सभी व्यक्तियों का | प्राइंदा-वि० (फा० ) फिर कभी भविष्य खराब हो जाना। श्राने वाला, श्रागंतुक । प्रशिक-वि० ( सं० ) अंश-सम्बन्धी, संज्ञा, पु० (फा० ) भविन्य वाल । अंश-विषयक, कुछ थोड़ी, रंचक, (आंशिक क्रि० वि०--भागे, भविष्य में, फिर कभो । पुर्त, या सफलता)। श्राइ* -- संज्ञा, स्त्री० दे० (हि० सं० आयु ) श्रांशुक जल-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) श्रायु, जीवन । दिन भर धूप में और रात भर चाँदनी और अव्य० दे० ( हि आह ) श्राह, हा, हाय. श्रोस में रखकर छान लिया जाने वाला अयि । जल (वैद्यक)। पू. का. कि० दे० (७०) श्राफर, (हि. श्राम - संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० काश) आना ) श्राके, श्राय । संवेदना, दर्द। " श्राइ पाँय पुनि देखिहौं ".-रामा० । संज्ञा, स्त्री० (सं० पाश ) सुतली, डेरी, " श्राइ गये हनुमान "- रामा० । रेशा। श्राइना-संज्ञा, पु. ( फ़ा० ) आईना. संज्ञा, पु० दे० ( सं० अश्रु ) आँसू । शीशा, दर्पण । For Private and Personal Use Only Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir परखना। आई २१६ श्राकर्ण प्राई-संज्ञा, स्त्री. ( हि० आना ) मृत्यु, श्रार-अ० क्रि० ( हि० आना ) भाये, मौत मीच ( द०)। आगये। संज्ञा, खी० (दे० ) आयु । आओ-वि० कि.( आज्ञा० हि० आना ) कि० अ० स्त्री० ( हि० पाना ) आगई। प्रायो। पाईन-संज्ञा, पु० (फा० ) नियम, कायदा, आकंपन-संज्ञा, पु. ( सं०) काँपना, जाबता, कानून । हिलना पाईना-संज्ञा, पु० ( फा० ) पारसी, दर्पण. वि० श्रापित- काँपता हुआ. हिलता शीशा, किवाड़ का दिलहा।। हुआ। मु०-आईना हाना-स्पट, या स्वच्छ संज्ञा, पु० सं०) प्र.कर-कंपन, काँपना। होना, निर्मल । प्राक- संज्ञा, पु० दे० (सं० अर्क ) मदार, ग्राम -अपनी योग्यता अकौआ, अकवन । या क्षमता को जाँचना या परखना । " धीर श्राक-छोरहूँ न धारे धसकत है" प्राईनाबंदी -- सज्ञा, स्त्री० ( फा० ) झाड़- - ज. श०। फ नूप आदि की सजावट, फर्श में पत्थर या पाकड़ाई- संज्ञा, पु. । दे०) पाक । इंट की जुड़ाई। श्रावन-संज्ञा, स्त्री. (अ.) मृत्यु के आईना साज़-संज्ञा, पु. ( फ़ा० ) आईना पश्चात् की दशा, परलोक । बनाने वाला। प्राकबाक* - संज्ञा, पु० दे० (सं० वाक्य) प्राईना साजी-संज्ञा, स्रो० ( फा० । काँच अकबक, अंडबंड। के टुकड़े पर कलई करने का काम । प्राकर-- संज्ञा, पु. ( सं० ) खान, उत्पत्तिपाईनी - वि० ( फ़ा० कानून, राज नियम स्थान, खजाना, भंडार, भेद. मूल, समूह, के अनुकूल । दक्ष, किस्म, जाति, तलवार चलाने का पाउ8 संज्ञा, पु० दे० (सं० आयु) जीवन, एक गुण या ढंग श्रेष्ठ । उम्र. अवस्था । " श्राकर चारि लाख चौराही"- रामा० । वि० कि.० (हि० आना ) पा, पाव । " पाकरे पद्मरागाणाम् जन्म कांचमणिः " पाउ विभीपन तू कुल-दूपन"राम० चं०। पू० का० क्रि० ( हि० आना ) श्राके प्राइ . कहा लहैगो स्वाद तू , एक स्वांस की श्राउ" श्राकरकरहा-संज्ञा, पु. ( अ०) प्रकर दीन । करहा, अकरकरा। प्राउज*-संज्ञा, पु० दे० (सं० वाद्य )। आकरखना- स० क्रि० दे० ( सं० आकषण ) खींचना। ताशा, बाजा, पाउझ (दे० )। संज्ञा, पु० दे० प्राकरखन (सं० प्राकपाउचाउ-संज्ञा, पु० दे० (सं० वायु ) पण)। आँय-बाँय. अंड-बंड। प्राकरिक-संज्ञा, पु० दे० सं०) खान प्राउन - वि० अ० दे० (हि० आना ) खोदने वाला। श्रावेंगे, अइबै, अइहै, ऐहैं। याकरी-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० पाकर ) माउस-संज्ञा पु० दे० (सं० प्राशु, वा० खान खोदने का वाम । पाउश ) धान का एक भेद, भदई धान, आकर्ण-वि० (सं० ) कान तक फैला मोसहन । । हुश्रा, कान तक। कुतः । For Private and Personal Use Only Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org आकर्ष २२० प्राकालिक कान तक फैले नेत्र | प्राकर्ष - संज्ञा, पु० (सं० ) खिंचाव, कशिश, बल-पूर्वक हटाना, पाँसे का खेल, बिसात, चौपड़, पाशा ( पाँसा ) अक्षक्रीड़ा, इंद्रिय, धनुष चलाने का अभ्यास, कसौटी, चुम्बक । यौ० प्राकर्ण अतु- संज्ञा, पु० ० (सं० ) आकस्मिक - वि० (सं० ) जो अकारण या विना किसी कारण हो, जो अचानक हो, सहसा होने वाला । क्रि० वि० अकस्मात - अचानक । आकांक्षक - वि० सं० ) श्राकांती, इच्छुक । प्राकर्षक - वि० (सं० ) खींचने वाला, आकर्षित करने वाला । आकर्षण - संज्ञा, पु० ( सं० ) किसी वस्तु का दूसरी वस्तु के पास उसकी शक्ति या प्रेरणा से खिंच जाना, खिंचाव, एक तांत्रिक प्रयोग या विधान जिसके द्वारा दूर देशस्थ मनुष्य या पदार्थ पास आ जाता है ( तन्त्र० ) । आकर्षण - शक्ति - संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं० ) भौतिक पदार्थों की वह शक्ति जिससे वे न्य पदार्थों को अपनी र खींचते हैं । आकर्षना३- स० क्रि० दे० (सं० आकर्षण ) खींचना | सम्बद्ध, Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आकांक्षा - संज्ञा, स्त्रो० (सं० ) इच्छा, अभिलाषा, वांछा, चाह, अपेक्षा, अनुसंधान, वाक्यार्थ के ठीक ज्ञान के लिये एक शब्द का दूसरे पर आश्रित होना ( न्याय० ) प्राकांक्षित - वि० (सं० ) इच्छित, अभि लषित, वांछित, अपेक्षित । अकांक्षी - दि० (सं० आकांक्षिन् ) इच्छुक, अभिलाषी । स्त्री० आकांक्षिणी-- श्रभिलाषिणी । वि० [प्राकांक्षणीय - वांछनीय । प्राकार - संज्ञा, पु० (सं० ) स्वरूप, आकृति, सूरत, मूर्त, डील-डौल, कद, बनावट, संघटन, निशान, चिन्ह, चेष्टा, " वर्ण, बुलावा, इशारा, सङ्केत । आकार-गुप्ति-संज्ञा स्त्री यौ० ( सं० ) हर्षादि कृत अंग-विकारों को छिपाना, मनोविकारों का संगोपन, प्राकार 6 आकर्षण - वि० सं०) आकर्षण करने वाली, कुशी । आकर्षित - वि० (सं० ) खिंचा हुआ । वि० [आकर्षणीय | प्राकलन - संज्ञा, पु० (सं० ) ग्रहण, लेना, संग्रह, सञ्चय, इकट्ठा या एकत्रित करना, गिनती करना, अनुष्ठान, सम्पादन, अनुसंधान, बटोरना, जुहाना (दे० ) | प्राकलित - वि० (सं० ) एकत्रित संग्र- प्राकारादि - वि० ( सं० ) जिस शब्द या हीत, सम्पादित । वर्ण के आदि में था हो, श्रा इत्यादि । बन्धन, 3 संज्ञा, पु० (सं० ) अनुष्ठित कृत, परिसंख्यात । प्राकारी - वि० ( सं० ) आह्वान करने वाला, बुलाने वाला, श्राकार वाली' 66 प्राकला - वि० दे० (सं० आकुल ) लघु- श्राकारी " गायन । आकारतः - अव्य० (सं० ) स्वरूपतः, ar, आकृति से । आकारान्त-संज्ञा, पु० यो० (सं० ) दीर्घ " अंत में रखने वाले शब्द या 16 था वर्ण । मृतक एक तहँ हरि० । उतावला, उच्छृंखल । प्राकली - संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० आकुल ) प्राकालिक - वि० (सं० ) अकाल-सम्भव व्याकुलता, बेचैनी । सामयिक | For Private and Personal Use Only Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्राकाश २२१ आकिंचन श्राकाश-संज्ञा, पु. ( सं० ) अंतरिक्ष, आकाशधुरी-संज्ञा, स्त्री० (सं०) आकाशश्रासमान, जहाँ वायु के अतिरिक्त और | भुव, खगोलका नव । कुछ न हो, शून्य, गगन, व्योम, अम्बर, आकाशनीम-संज्ञा, स्त्री० यौ० ( सं० पंचभूतों ( पंच तत्वों) में से एक, अभ्रक, आकाश+नीम-हिं० ) नीम का बाँदा। अबरक-श्राकास, प्रकास (दे० )। आकाशपुष्प-संज्ञा, पु० यौ० ( सं० ) मु०-प्राकाश छूना यः चूमना-- | असम्भव बात, आकाश-कुसुम । अत्यंत ऊँचा होना। श्राकाशबेल-संज्ञा, स्त्री० यौ० (दे०) श्राकाश में चढ़ना ( उडना )--अति अमर बेल, एक प्रकार की लता। करना, कल्पना-क्षेत्र में धूमना बेपर की श्राकाश-भाषित-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) उड़ाना, असंभव कार्य करना। नाटक के अभिनय में वक्ता का ऊपर की श्राकाश-पाताल एक करना-भारी ओर देख कर आप ही आप प्रश्न करना, उद्योग या आन्दोलन करना, हलचल | और उत्तर देना, नभ-भाषित, ( नाट्य०)। मचाना. उपद्रव करना। प्राकाश-मंडल-संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) श्राकाश-पाताल का अन्तर-बड़ा | खगोल, व्योम-मंडल। अंतर या फ़र्क। श्राकाशमुखी-संज्ञा, पु० यौ० ( सं० श्राकाश से बातें करना--बहुत ऊँचा भाकाश+ मुखी-हि० ) आकाश की ओर होना। मुंह कर के तप करने वाले साधु । आकाश-कुसुम-संज्ञा, पु. यौ० (सं०) श्राकाश-लोचन-संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) आकाश का फूल, ख-पुप्प, अनहोनी या वह स्थान जहाँ ग्रहों एवं नक्षत्रों की गति असम्भव बात। श्रादि देखी जाती है, मान मन्दिर, प्राकाश-गंगा--संज्ञा, स्त्री. यो. (सं०) वेधशाला, प्राबजरवेटरी ( अं० ) उत्तर से दक्षिण की ओर एक नदी के श्राकाशवाणी-संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं० ) समान दीखने वाला छोटे छोटे बहुत से आकाश से देवताओं के द्वारा कहे गये तारों का एक विस्तृत समूह, श्राकाशो- शब्द देव-वाणी, गगन-गिरा। पवीत-श्राकाश-जनेऊ, स्वर्गगंगा, मन्दा- अाकाश-विद्या-संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) किनी. आकाश-गामिनी गंगा ( पुराण)। आकाश, ग्रहादि तथा वायु सम्बन्धी विद्या, आकाशगामी-वि० (सं० ) आकाश में | चलने वाला, खेचर। श्राकाशत्ति · संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं० ) प्राकाशचारी-वि० (सं० ) आकाश में अनिश्चित जीविका, ऐसी आमदनी जो चलने या उड़ने वाला, व्योमगामी। नियमित या बँधी न हो। संज्ञा, पु० सूर्यादि ग्रह, नक्षत्र, वायु, पक्षी, | श्राकाशी- संज्ञा, स्त्री० (सं० ) धूप आदि देवता, खेचर। से बचाने के लिये तानी जाने वाली स्त्री० आकाशचारिणी। चाँदनी। प्राकाशदोप-संज्ञा, पु. ( सं० ) कार्तिक श्राकाशीय-वि० (सं०) श्राकाश सम्बन्धी, में बाँस के सहारे कंडील में रख कर ऊपर आकाश का, आकाश में रहने या होने लटकाया जाने वाला दीपक। वाला, दैवागत, आकस्मिक । प्राकासीदिया-(दे० ) कार्तिक का श्राकिंचन-संज्ञा, पु० (सं० ) दरिद्रता, दीपदान । प्रयास, यंत्र, अकिंचनता। For Private and Personal Use Only Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्राकित २२२ प्राक्षेपक प्रा किन-वि० (अ.) बुद्धिमान । प्राक्रंदन- संज्ञा, पु० ( सं० ) रोना, पाकितखानी-संज्ञा, पु. ( अ० फा० ) चिल्लाना, पुकारना। कालिमा लिये हुए लाल रंग। श्राक्रप -- संज्ञा, पु० दे० (सं० पराक्रम ) श्राकोर्ण-वि० ( सं० ) व्यास, पूर्ण, प्रताप, शक्ति, बल. चढ़ाई, अतिक्रम, सङ्कीर्ण, समाकुल, सङ्कुल, व्यास, विस्तारित, क्रान्ति । प्लुत । अाक्रमण-संज्ञा, पु. ( सं० ) बलात् प्राकंचन-संज्ञा, पु. (सं० ) सिकुड़ना, सीमा या मर्यादा का उल्लंघन करना, सिमिटना, पाँच प्रकार के कर्मों में से एक हमला, चदाई, श्राबात पहुँचाने के लिये ( न्याय० ) संकोचन, वक्रता । किसी पर झपटना, घेरना छाना मुहाश्राकंचित -वि० (सं०) सिकुड़ा हुआ, लिरा श्राक्ष प. निंदा. मापना. फैलना । सिमटा हुअा, टेढ़ा, वक तिरछा, कुटिल, प्राक्रमित-वि० ( स० ) जिस पर आक्रमण बाँका। किया गया हो। प्राकंठन-संज्ञा, पु. ( सं० ) गुठलाना या श्राक्रमिता ( नायिका )-संज्ञा, स्त्री० ( स० ) मनपा-वाचा-कर्मणा अपने प्रिय कुंद होना, लज्जा, शर्म। (मित्र) को वश करने वाली प्रौढ़ा प्राठिन-वि० (सं० ) गुठलाया हुआ, नायिका। कुंद, लज्जित, अवाक् । प्राक्रांत- वि० ( सं० ) जिप पर आक्रमण प्राकुल-वि० (सं० ) व्यग्र, घबराया हुअा, , हो, विरा हुआ, श्रावृत्त, वशीभूत, पराजित. उदिन्न, विह्वल, कातर, व्याल, सङ्कुल, विवश, व्यात, यात्रीर्ण, ग्रस्त । क्षुब्ध, पात, प्रस्त, पाकीर्ण पूर्ण । अाक्रीड़-संज्ञा, पु. (सं० ) राजोपवन. श्राकुलता-संज्ञा, स्त्री० (सं० ) व्याकुलता. राजमहल के समीप का बाग, राज-वाटिया । घबराहट व्याति, कातरता । अाक्रीडन --संज्ञा, पु. ( सं० ) मृगया. पाकुलित-वि० (सं० ) घबराया हुआ, . याखेट, शिकार। व्यात, कातर, विह्वल, विकल । | श्राकाश-संज्ञा, पु. ( सं० ) कोसना, प्राकून-संज्ञा, पु. ( सं०) अभिप्राय, शाप देना. गाली देना. श्राक्षेप करना, मतलब, श्राशय । क्रोध पूर्वक कटूक्ति कहना।। प्राकृति-संज्ञा, स्त्री० (सं० ) मनुकी ३ संज्ञा, पु० (सं० ) अाक्राशन-अभिशाप, कन्याओं में से एक जो रुचि नाम के कटूक्ति, भर्सना, अभिम्पात । प्रजापति को व्याही थी, श्राशय, शुभा- आक्रोशित-वि० सं० ) शापित. कृताचरण, उत्साह, सदाचार । क्षेप। प्राकृति-संज्ञा, स्त्री० (सं.) बनावट, प्राक्षिप्त--- वि० (सं० ) फेंका हुया, गिराया गढ़न, ढाँचा, मूर्त, श्राकार, रूप मुख, हुमा, दूषित, निदित, कृताप । चेहरा, मुख का भाव, चेष्टा. २२ अक्षरों प्राग-संज्ञा, पु. ( सं० ) फरना, गिराना, का एक वर्णक वृत्त । दोषारोपण, अपवाद या इलज़ाम लग ना, श्राकर -वि. ( सं० ) खींचा हुग्रा, वटूक्ति ताना, अंग में कॅप कॅपी होने वाटा श्राकर्षित। एक प्रकार का बात रोग, ध्वनि, व्यंाय । श्राद-संज्ञा, पु० (सं० ) रोदन, रोना, श्रापक-वि० (सं० ) फेंकने वाला, श्राह्वान, पुकारना, भयंकर युद्ध । खींचने वाला, याक्षेप करने वाला, निंदक । For Private and Personal Use Only Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्राक्षेपणीय श्राखोर श्राक्षेपणीय-वि० (सं० ) अक्षेप करने | वि० (सं० अक्षय ) कुल, पूरा, समूचा, योग्य । सारा, सम्पूर्ण। प्राखंड-वि० (सं० ) समुदय, खंड रहित, पाखातीज-संज्ञा, स्त्री. यो० दे० (सं० अक्षय तृतिया ) बैताख सुदी तोज, (स्त्रियाँ प्राखडल- संज्ञा, पु० (सं० ) इन्द्र, सह- इ7 दिन बर का पूजन कर दान देती हैं सात. शची रा, देवराज. अमरेश, पाक और व्रत रहती हैं।। शान। पाखान-संज्ञा, पु. ( दे० ) देवखात, पाखंडलसूनु-संज्ञा, पु० यौ० ( सं० ) देव नि मत, जलाशय या झीन । अर्जुन । प्राखान-संज्ञा, पु० दे० (सं० अख्यान ) प्राखत -संज्ञा, पु. ( सं० अक्षत ) कथा, कहानी। बिना टूटे चावल, अच्चन (३०) चंदन आश्विर-वि० (फा) अंतिम, पिछला, या केसर में रंगे चावल, जो पूजा में या पीछे का। मत या दूल्हा दुलहिन के ऊपर चढ़ापे संज्ञा, पु. अंत, परिणाम, फल, समाप्ति । जारे हैं नेग विशेष. ( अन्न-रूप में ) जो क्रि० वि० अंत में, निदान, अंततोगत्वा । काम करने वाले नाई आदि को दिया अाखिरकार-वि० वि० ( फ़ा ) अंत में, जाता है। निदान, खैर, अच्छा, अवश्य । " याही हेतु श्राखत को राखत विधान ! आखिरी-वि० ( फ़ा ) अंतिम. पिछलानाहि "-रत्नाकर श्राखोरी (फ)। शावता_वि. ( फा ) जिपके अंडकोश | श्राखु-संज्ञा, पु० (सं० ) मूपा, चूहा, चीर कर निकाल लिये गये हों, ( घोड़ा)। देवताल, देवताड़, सुअर. चोर । प्राग्बन —नि० वि० दे० (सं० आक्षणा ) श्राखुगपाण--संज्ञा, पु० चौ० (सं० ) प्रतिक्षण, प्रतिपन, हर घड़ी। चुंबक पत्थर. संखिया। भावना—१० कि० वि० दे० ( सं० प्राखेट-संज्ञा, पु० ( सं० ) अहेर, शिकार, पाख्यान) कहना, उल्लघंन करना । मृगया। सं० कि.० ( सं० आकांक्षा ) चाहना, इच्छा श्राखेरक-संज्ञा, पु. ( सं० ) शिकार, करना। अहेर। स० कि० दे० ( हिं० आँख) देखना, वि० अहेरी, शिकारी, व्याध, बहेलिया । ताकना, चलनी से छानना। वि० अन्वेषक, भयानक । " सब दुख पाखों रोय''--कबीर। आखेटो-संज्ञा, पु. ( सं० ) शिकारी, पाखर -संज्ञा, पु० दे० (सं० अक्षर) अहेरी। अक्षर, वर्ण, हरफ। आखोट--संज्ञा, पु. ( दे० ) अखरोट " पाखर मधुर मनोहर दोऊ ”-रामा० । नामक एक मेवा, फल । " ढाई श्राखर प्रेम के पढ़े सं पंडित प्राखोर-संज्ञा, पु० (फ़ा ) जानवरों के होय"। खाने से बचा हुआ, घास, चारा, कूड़ाप्रास्त्रा-संज्ञा, पु० दे० (सं० प्राक्षरणा ) करकट, बेकाम वस्तु । झी या बारीक कपड़े से मढ़ी हुई मैदा वि० (फा) निकम्मा, सड़ा-गला, बेकाम चालने की चलनी, बोरा, गठिया। | रद्दी, मैला-कुचैला। For Private and Personal Use Only Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्राग प्राख्या २२४ प्राख्या—संज्ञा, स्त्री० (सं०) नाम, कीर्ति, | "सूरदास प्रभु ऊख छाँडि के चतुर यश, व्याख्या, अभिधान ।। विचोरत आग"-। पाख्यात-वि० (सं० ) प्रसिद्ध, विख्यात, वि. जलता हुश्रा, बहुत गर्म, जो उष्ण कहा हुआ, राज-वंश का वृत्तान्त, कथित, या तप्त हो, कुपित । उक्त, व्याकरण का धातु-प्रकरण । | मु०-प्राग उठाना-झगड़ा करना, आख्याति-संज्ञा, स्त्री. (सं) नामवरी, कुपित करना। ख्याति, कीर्ति, शुहरत, यश, कथन, प्राग खाना अंगार निकालना--बुरी उक्ति। संगति और बुरा कर्म । श्राख्यान-संज्ञा, पु. (सं० ) वृत्तान्त, आगदना-चिता में भाग छुलाना, फंकना। कथा, गाथा, वर्णन, बयान, कहानी, आग दबाना-क्रोध, या झगड़ा दबा किस्सा, उपन्यास के ६ भेदों में से एक, देना। स्वयमेव लेखक के ही द्वारा कही गई | प्राग लगाना-झगड़ा कराना, क्रोध दिलाना कहानी, उपन्यास, इतिहास । बुराई पैदा करना । गरमी करना, जलन आख्यानक-संज्ञा, पु० (सं०) वृत्तान्त, पैदा करना, जोश या उद्वेग बढ़ाना, वर्णन, बयान कहानी, कथा, पूर्व वृत्तान्त, भड़काना, चुगली करना, बिगाड़ना, नष्ट कथानक। करना, जलाना। कुढ़न होना मँहगी या आख्यानिकी-संज्ञा, स्त्री. (सं० ) दंडक गिरानी होना, अप्राप्त होना। वृत्त का एक भेद। आग लगना-वावेला मच जाना। क्रोध श्राख्यायिका-संज्ञा, स्त्री० ( सं० ) कहानी, श्राजाना, बुरा लगना। कथा, गाथा किस्सा, उपदेशप्रद कल्पित आग लगे-बुरा हो, नाश हो, श्रागी कहानी, ऐसा पाख्यान जिसमें पात्र भी लागै, बरै ( दे० )। स्वयं अपना अपना चरित्र अपने मुंह से प्राग लगा के दूर हाना-झगड़ा-बखेड़ा कुछ कुछ कहें, उपकथा, इतिहास, उपल- कराके अलग हो जाना (लो०-अाग लगा ब्धार्थ कथा। के जमालो दूर खड़ी)। प्रागंतुक-वि० ( सं० ) पाने वाला, | श्राग फैलना-बुराई या वावेला फैलना । आगमनशील, जो इधर-उधर से घूमता- श्रग लगाना ( पानी में) अनहोनी बाते फिरता आजाये, अस्थायी, अचानक पाया होना या कहना, असम्भव कार्य करना, हुआ, अतिथि। जहाँ लड़ाई की कोई भी बात न हो वहाँ श्रागंतुक घर-संज्ञा, पु० (सं० यो०)। भी लड़ाई लगा देना। अाकस्मिक ज्वर, धातु प्रकोप के बिना ज्वर । श्राप लगाकर तमाशा देखना-लड़ाई भाग --संज्ञा, स्त्री० दे० ( सं० अग्नि ) लगवा कर प्रसन्न होना। उष्णता की चरम सीमा तक पहुँची हुई आग लगे कुया खादना-अनिष्ट आने वस्तुओं में दिखाई देनेवाला. तेज था | पर देर में होने या फल देने वाला प्रतीकार प्रकाश का समूह, अग्नि पागा (दे०) करना। वन्दर, जलन, अनल, ताप, गरमी, " श्राग लगे खोद कुंवाँ कैसे आग बुझाय" वैश्वानर, कामाग्नि, काम का वेग, क्राध, -बूंद। पाचन-शक्ति, वात्सल्य, प्रेम डाह, ईयया॑ ।। आग लगे श्रोर धुमान हा-कारण रहे संज्ञा, पु० अख का अगोरा । और कार्य न हो। For Private and Personal Use Only Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रागत २२५ प्रागम बताना " गैर मुमकिन कि लगे आग धुआं फिर स्वागत--शुभागमन, आदर-सत्कार । भी न हो । (विलोम-गत), स्त्री. अगता। आग होना-बहुत गर्म होना, कुपित प्रागत पतिका-संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) होना, सरोष होना, प्रेम की जलन होना, वह नायिका, जिसका पति परदेश से प्रबल इच्छा-ताप होना। लौटा हो। " मुमकिन नहीं कि आग इधर हो उधर प्रागत-स्वागत- संज्ञा, पु० यौ० (सं.) न हो । आये हुये व्यक्ति का सत्कार, आदर-सत्कार, याग बरसना--बड़ी-कड़ी गर्मी पड़ना। श्राव-भगति । प्राग बरसाना-शत्रुनों पर गोलियाँ प्रागम-संज्ञा, पु० (सं० ) श्रवाई, भाना, श्रागमन, श्रामद, भविष्य या आने वाला बरसाना। समय, होनहार । श्राग-पानी सम्बन्ध-स्वाभाविक शत्रुता। मु०-आगम करना-ठिकाना करना, प्राग-पानी साथ रखना-सहज बैर उपक्रम बाँधना, लाभ का डौल करना, भाव वालों को साथ रखना, क्षमा-क्रोध उपाय-रचना। दोनों साथ रखना, असम्भव कार्य करना, श्रागम चेतना--भविष्य की कल्पना अनमिल वस्तुओं को मिलाना, परस्पर करना, आने वाली बातों का अनुमान विरोधी बातें करना। लगाना। भाग फाँकना-झूठी डींग हाँकना, श्रागम जानना-भविष्य की बातों का मिथ्या श्रात्मश्लाघा करना । जानना। प्राग बबूला होना (बनना)-कोपावेश आगम जनाना होनहार की सूचना में होना, अत्यन्त क्रोधित होना । प्राग पर पानी डालना-क्रोध के समय | आगम देखना (दीखना)—होनहार का शीतल वचन कहना, झगड़ा दबाना, शान्त प्रथम ही सोच लेना या जान लेना, दिखाई करना। पड़ना। प्राग निकलना ( आँखों से)-अत्यन्त श्रागम सोचना-भविष्य का विचार कोध में आँखों का अधिक चमकना, अति करना। कुपित होना। श्रागम बांधना-भाने वाली बात का आग उगलना-जलाने या दुखाने वाली व्योंत बनाना, उसका विधान करना, बुरी बात कहना। निश्चय करना। भाग उभाड़ना---पुरानी भूली हुई बुरी प्रागम बताना-भविष्य या भावी बातें और क्रोध या झगड़ा उत्पन्न करने वाली बताना या कहना-पागम कहना। बात छेड़ना। संज्ञा, पु० समागम, संगम, श्रामदनी, प्राग उखाड़ना (गड़ी हुई)-भूली हुई, | आय, व्यकारणानुसार प्रकृति और प्रत्यय नली भुनी बात की याद दिलाना, निपटे के बीच में होने वाले कार्य या शब्द-साधन हुए झगड़े को फिर उठाना। में बाहर से थाया हुआ वर्ण, उत्पत्ति, पेट की प्राग-भुख, बुभुक्षा, क्षुधा। शब्द प्रमाण, वेद, शास्त्र, तंत्र शास्त्र, नीति यागत-वि० (सं०) पाया हुआ, प्राप्त, या नीति शास्त्र, भावी, शिव-दुर्गा और उपस्थित, ( सु उपसर्ग के साथ ) । विष्णु के द्वारा प्रस्तुत किये गये शास्त्र । मा० श० को०-२१ देना। For Private and Personal Use Only Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रागम-जानी २२६ श्रागा-पीछा वि० (सं०) आने वाला, अनागत, " संवत सत्रह से लिखे, आठ आगरे भागामी। बीस"-छत्र। प्रागम-जानी-वि० दे० (आगम ज्ञानी) स्त्री० श्रागरी-कुशला, दक्षा। होनहार या भावी का जानने वाला। आगरी-संज्ञा, पु० दे० (हि. आगर) श्रागम-ज्ञानी-वि. (सं० ) भविष्य का नमक बनाने वाला व्यक्ति, लोनिया। जानने वाला। वि० स्त्री० कुशला, चतुरा। वि० प्रागम-ज्ञाता-दैवज्ञ, ज्योतिषो। । श्रागल-संज्ञा, पु० दे० (सं० अर्गल) संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) आगम-ज्ञान- धागर, व्योंडा, बेवड़ा। भविष्य-ज्ञान । वि० श्रागे का, अगला, भागिल । वि० श्रागमज्ञ-भावी का जानने वाला। प्रागलि-क्रि० वि० दे० (हि. अगला ) वि० श्रागमवेत्ता-भविष्य का ज्ञाता। सामने, भागे। श्रागमन-संज्ञा, पु. (सं०) प्रवाई, पाना, श्रागला--क्रि० वि० (दे०) अगला, श्रामद, प्राप्ति, पाय, लाभ । सामने, आगे। श्रागमवक्ता-वि० यौ० (सं0) भविष्य- अागलान्त-वि० (सं०) गले तक, कंठवक्ता, भावी कहने वाला। पर्यन्त । प्रागवन --संज्ञा, पु० दे० (सं० आगमन ) प्रागम-वाणी-संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं० ) श्राना। भविष्य-वाणी। " मुनि श्रागवन सुना जब राजा"श्रागम-विद्या-संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) रामा०। वेद या ज्योतिष-विद्या। श्रागा-संज्ञा, पु० दे० (सं० अग्र ) किसी प्रागम-सोची-वि० ( सं० आगम+ चीज़ के आगे का हिस्सा, अगाड़ी, देह सोचना-हि.) दूरदर्शी, अग्रसोची, दूरं- का अगला भाग, छाती, वक्षस्थल, मुख, देश (फ्रा.)। मुंह,ललाट, माथा, लिंगेंद्रिय, अँगरखे या प्रागमोक्त-वि० (सं० ) तंत्र-शास्त्र-विहित । कुरते श्रादि की काट में आगे का टुकड़ा, कर्म, वैदिक रीति के अनुसार कार्य, सेना या फ़ौज का अगला भाग, हरावल, शास्त्रोक्त, तांत्रिक उपासना। घर के सामने का मैदान, पेश-खेमा, श्रागमी-संज्ञा, पु. (सं०) ज्योतिषी, आगड़ा, भविष्य, श्राने वाला समय, भविष्य का विचारने वाला। भावी । अंचल, परिणाम, फल । प्रागर-संज्ञा, पु० दे० (सं० आकर ) खान, संज्ञा, पु० दे० (तु. आगा ) मालिक, आकर, समूह, ढेर, कोष, निधि, खजाना, सरदार, काबुली, अफ़ग़ानी। नमक जमाने का गड्ढा।। प्रागान--संज्ञा, पु. (सं० आ-। गान ) "पानिप के आगर सराहैं सब नागर" | बात, प्रसंग, हाल, पाख्यान, वृत्तांत, वर्णन । -दास। प्रागा-पीछा-संज्ञा, पु० यौ० दे० (हि. संज्ञा, पु० दे० (सं० आगार) घर, गृह, आगा + पीछा ) हिचक, सोच-विचार, छाजन, छप्पर, स्थान, व्योंड़ा। दुविधा, परिणाम, नतीजा, फल, शरीर या वि० दे० (सं० अग्र) श्रेष्ठ, कुशल, पटु, वस्तु के आगे-पीछे का भाग। उत्तम, बढ़ कर, अधिक दक्ष, चतुर । मु०.प्रागा-पीछा करना-दुविधा में " हमतें कोउ नागरि रूपा'-५०। ! पड़ना, हिचकिचाना, संदेह में रहना। For Private and Personal Use Only Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रागामि-श्रागामी मागे पड़ना श्रागा-पीछा विचारना (सोचना, प्रागे-क्रि० वि० दे० (सं० अग्र ) दूर पर, देखना)-कार्य के कारण और फल का सामने, सम्मुख, पहिले, प्रथम, तब, फिर, निश्चित करना, अनागत परिणाम का और बढ़कर, पीछे का उलटा, समक्ष, जीवनअनुमान करना, भूत-भविष्य का सोच- काल में, भावी जीवन में, जीते जी, इसके विचार करना। पीछे या बाद, आगे को, अनंतर, बाद, आगा-पीछा होना--दुविधा, शंका, पूर्व, अतिरिक्त, अधिक, गोद में, लालनसंदेह होना, कारण और फल का न होना। पालन में, जैसे उसके आगे एक बच्चा है। श्रागामि-आगामी-वि० ( सं० आगामिन् ) मु०-आगे आना-सामने अाना, संमुख भावी, आने वाला, होनहार, भविष्यगत । पड़ना, मिलना, सामना या विरोध करना, स्त्री० श्रागामिनी। रोकना, भिड़ना, घटित होना, घटना। आगार-संज्ञा, पु० (सं० ) घर, मकान, आगे आना-( लेने के लिये )स्थान, स्थल, जगह. ख़जाना, धाम । स्वागत करना, अगवानी करना । " आगे श्रायउ लेन"-रामा० । प्रागाह-वि० (फा० ) जानकार, वाकिफ । आगे की भविष्य की, भूत की, (पु. संज्ञा, पु. (हि० आगा -- आह-प्रत्य० ) आगे का)। पागम, होनहार, भावी।। प्रागाही-संज्ञा, स्त्री. (फा० ) जानकारी, धागे को-पागे, भविष्य में, आगे के लिये। सूचना। आगे चलना-पथ दिखाना, नेता बनना, अागि *---संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. प्राग) सबसे प्रथम करना, मुखिया होना। अग्नि, (सं.)। आगे चलकर-( आगे जाकर)प्रागी (दे०)। भविष्य में, इसके बाद, पश्चात्, भावी प्रागिल वि० दे० (सं० अग्रिम ) अगला, जीवन में। अगली ( विलोम-पाछिल )। आगे गिना जाना—सर्व श्रेष्ठ होना, " भागिल चरित सुनहु जस भयऊ। प्रमुख होना, (अग्रगण्य होना )। " श्रागिल बात समुझि डर मोही आगे करना-किसी को अपनी पाड़ या रामा० । अगुवा, या प्रोट बनाना, बढ़ाना, उन्नत भागि वर्त-संज्ञा, पु. (सं० ) मेध का करना। एक भेद। श्रागे खड़ा करना-(होना)-अपना आगीळ-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० अग्नि ) प्रति निधि या मुखिया बनाना (होना)। भाग। आगे देखना (दिखाना)-भविष्य का प्रागुल्फ-वि० ( सं० ) गुल्फ-पर्यन्त, अनुमान या विचार करना, (कराना)। टिहुना तक। आगे देखकर चलना-सावधानी या श्राग-कि० वि० दे० ( हि० आगे ) धागे, सतर्कता से. ( सचेत होकर ) चलना, अनुसार, सामने । भविष्य या परिणाम का विचार करके कार्य "बासर चौथे जाय, सतानंद पागू दिये"- करना। रामा०। प्रागे निकलना-बढ़ जाना, सर्व श्रेष्ठ " तें रिसि भरी न देखसि भागू -प० । हो जाना, उन्नति कर जाना। अगाऊ (प्रान्ती०) संज्ञा, पु०-परिणाम । श्रागे पड़ना-आगे आना, रोकना । For Private and Personal Use Only Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रागैं २२८ श्राघ प्रागे-पीछे-एक के पीछे एक, एक के ऋत्विनों में से एक, साग्निक या अग्निहोत्र बाद दूसरा, देर-बेर, पहिले या बाद को, करने वाला, यजमान, यज्ञ-मंडप, होता. क्रम से, आस-पास । गृह, धन से वरण किया गया, ऋत्विज । भागे-पीछे होना-अपने से बड़ों और । आग्नेय- वि० ( सं० ) अग्नि-सम्बन्धी, छोटों का घर में होना, सहायकों या देख- । अग्नि का, जिसका देवता अग्नि हो, अग्नि रेख करने वालों का होना, ( न होना )। से उत्पन्न, जिससे अग्नि निकले, जलाने असहाय या अकेला होना, किसी के वंश । वाला। में किसी प्राणी का होना। संज्ञा, पु० (सं० ) सुवर्ण, सोना, रक्त, भागे-पीछे देखकर चत्तना-सावधानी रुधिर, कृत्तिका नक्षत्र, अग्नि-पुत्र कार्तिकेय, से चलना या कार्य करना, पूर्वापर दशा दीपन औषधि, ज्वालामुखी पर्वत, प्रतिपदा, का विचार कर आचरण करना, गतागत दक्षिण का एक प्रान्त विशेष जिपकी प्रधान का विचार कर कार्य करना। नगरी महिष्मती थी. दक्षिण-पूर्व के बीच आगे को देखकर पीछे का पैर का दिक्कोण, घृत, अगस्त्यमुनि, पाचक, उठाना–भविष्य का विचार या निश्चय ब्राह्मण, आग को भड़काने वाला बारुद करके वर्तमान दशा को छोड़ आगे बढ़ना, जैसा पदार्थ । सोच-विचार कर अपनी दशा में परिवर्तन यौ०-आग्नये स्नान संज्ञा, पु० यौ० करना। (सं०) भस्म पोतना।। आगे का पैर रखकर पीछे का आग्नेयास्त्र-संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) प्राचीन उठाना--भावी स्थिति दृढ़ करके वर्तमान काल के अग्नि सम्बन्धी अस्त्र, जिनसे भाग स्थिति को छोड़ना या बदलना। निकलती थी या जिनके चलाने पर आग प्रागे का पैर पीछे पड़ना--अवनति । बरसती थी, बन्दूक---अग्नि-धारण । होना, पीछे हटना, भयभीत हो व्याकुल आग्नेया-वि० स्त्री० (सं० ) अग्नि दीपनहोना, विपरीति गति या दशा होना। कारक औषधि, पूर्व और दक्षिण दिशा के आगे से-सामने से, आइंदा से, भविष्य बीच की दिशा, अग्निदेव की स्त्री स्वाहा । में, पहिले या पूर्व से, बहुत दिन पीछे से। श्राग्नेगिरि-संज्ञा, पु० यौ० ( सं० ) आगे रखना-भेंट करना, उपहार-रूप ज्वालामुखी। में देना। प्राग्रह--संज्ञा, पु० (सं० ) अनुरोध, हठ, आगे से लेना-अभ्यर्थना या स्वागत ज़िद, तत्परता, परायणता, बल, जोर, करना। आवेश, जोश, अतिशय प्रयत्न, श्रासक्ति, आगे होना-आगे बढ़ना, अग्रसर होना, | ग्रहण, उपकार, अनुग्रह, साहस, श्राक्रमण । उन्नति करना, श्रेष्ठ या उत्तम होना, बढ़ श्राग्रहायण-संज्ञा, पु० (सं० ) अगहन, जाना, सामने आना, मुक़ाबिला करना, मार्गशीर्ष मास, मृगशिरा नक्षत्र । रोकना, रक्षा करना, बचाना, भिड़ना, प्राग्रहायणेष्टि-संज्ञा, स्त्री० (सं०) नवान्न विरोध करना, मुखिया होना। भोजन, नये अन्न का प्रारम्भ । प्रागैं*-क्रि० वि० दे० (७०) आगे। प्राग्रही-वि० (सं० ) हठी, ज़िद्दी, श्राग्रह प्रागौन*-संज्ञा, पु० दे० (सं० आगमन) करने वाला। आगमन, माना। आघ-संज्ञा, पु० दे० ( सं० अर्घ) मूल्य, श्राग्नीध-संज्ञा, पु० (सं० ) यज्ञ के १६ । कीमत । For Private and Personal Use Only Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्राघात २२६ प्राचार श्राघात-संज्ञा, पु० (सं० ) धक्का, ठोकर, “ आचमन कीन्हें श्राँच मनकी समन मार, प्रहार, चोट, अाक्रमण, हनन, वध, । होत "-द्विजेश० ।। कोप, अपचय, वध-स्थान, बूचड़ ख़ाना। । प्राचमनी- संज्ञा, स्त्री० दे० ( सं० वि० श्राघातक-चोट पहुँचाने वाला, आचमनीय ) श्राचमन करने का एक छोटा घातक । चम्मच, चमची। श्राघार-संज्ञा, पु. (सं० ) धूप, घृत, । वि० श्राचमनीय- श्राचमन के योग्य । छिड़काव, हवि, मंत्र विशेष से किसी देव वि० श्रान्तमिल--- आचमन किया हुश्रा । विशेष को घृत देना। प्राचंभित *--वि० दे० (हि. अचम्भा) आघूर्ण- वि० ( सं० ) घूमता हुआ, आश्चर्य-युक्त, दैवात्, हठात्, आकस्मिक, फिरता या हिलता हुआ। अद्भुत, अचंभित । श्राघूर्णन - संज्ञा, पु० ( सं० ) चक्र के सदृश | प्राचरज* --संज्ञा. पु० दे० ( सं० आश्चर्य ) घूमना, चक्कर खाना, घुरना। अचरज । प्राणित-वि. ( सं० ) इधर-उधर "सुनि आचरज करै जनि कोई"- रामा० । फिरता हुआ, चकराया हुअा, घुमाया श्राचरण-संज्ञा, पु. ( सं० ) अनुष्ठान, हुआ। व्यवहार, वर्ताव, चाल-चलन, आचारप्राघोष-संज्ञा, पु० (सं० ) शब्द, निनाद, विचार, आचार-शुद्धि, सफ़ाई, रथ, रीतिउच्चस्वर। नीति, चिन्ह, लक्षण । प्राघोषण संज्ञा, पु० (सं० ) प्रचारण, संज्ञा, पु० दे० आचरन ।। प्रकाश करण, घोषणा करना, मुनादी श्रावरणीय-वि० (सं० ) व्यवहार करने करना। लायक, व्यवहार्य, वर्तने लायक । स्त्री० आघोषणा। प्राचरना-प्र० कि० दे० (सं० आचरण ) श्राघोषणीय - वि० (सं० ) प्रचारणीय, श्राचरण करना, व्यवहार करना, प्रयोग प्रकाशनीय। करना। प्राघोषित- वि० ( सं० ) प्रचारित, " ऐसी बिधि आचरहु"-हरि० । प्रकाशित, प्रगटित, घोषित, ऐलान किया “जो पाचरत मोर हित होई"-रामा० । हुआ। "जे आचरहिं ते नर न घनेरे "--रामा० । पाघ्राण- संज्ञा, पु० (सं० ) संघना, वास पाचरित-वि० ( सं० ) किया हुश्रा, लेना, गंध-ग्रहण, तृप्ति, संतोष, अधाना। ब्यवहृत । अाघ्रात-वि० ( सं० ) सूंघा हुश्रा, प्राचर्य-वि० ( मं० ) श्राचरणीय, कर्त्तव्य, (विलोम-अनाघ्रात)। करणीय। श्रात्रेय-वि० (सं० ) सूंघने के योग्य, प्राचान-प्राचानक-कि० वि० (दे० ) महक लेने लायक़ । अचानक, अकस्मात् । पाचका-वि० दे० (हि. ) अगणित, | श्राचार-संज्ञा, पु. ( सं० ) व्यवहार, अकस्मात, हठात्-अत्राका ( दे० ) चलन, रहन-सहन, चरित्र, चाल-ढाल, अचानक । शील, शुद्धि, सफ़ाई, वृत्त, रीति-रस्म, आचमन-संज्ञा, पु० (सं०) जलपीना, | स्नान, आचमन । पूना या धार्मिक कार्य के प्रारम्भ में दाहिने यौ० प्राचार-धर्जित-वि० यौ० (सं० ) हाथ से थोड़ा जल लेकर पीना। भनाचार, आचार-रहित । For Private and Personal Use Only Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org श्राचारविरुद्ध २३० श्राछा ---- याचार विरुद्ध - वि० यौ० (सं० ) कुरीति, | प्राचित्य - वि० (सं० ) जो चिंतन में न व्यवहार विरुद्ध | प्राचारज - संज्ञा, पु० दे० (सं० आचार्य ) श्राचार्य, विद्या- कला-पटु शिक्षक, पुरोहित । आवारजी - संज्ञा, स्त्री० दे० ( सं० चाचार्य) पुरोहिताई, श्राचार्य होने का भाव, श्राचार्य-वृत्ति । आ सके, ईश्वर, ब्रह्म । वि० [प्रचिंतनीय, प्राचिंतित । श्राचोट-संज्ञा, स्त्री० (दे० ) श्राघात, क्षत विक्षत, घाव अनाकृष्ट, बिना जोती हुई भूमि । प्रच्छन्न वि० (सं० ) ढका हुआ, श्रावृत. छिपा हुआ, व्याप्त, वेष्ठित, रक्षित, ( दे० ) आक्रन्न । प्राच्छा-अच्छा - अव्य० ( दे० ) भला, उत्तम, स्वीकारार्थक शब्द, हाँ । प्राच्छादक - संज्ञा, पु० (सं० ) ढाँकने या छिपाने वाला, श्रावरण, गोपनकारी । प्राच्छादन -संज्ञा, पु० (सं० ) ढकना, छिपाना, वस्त्र, कपड़ा, परिधान, छाजना, छवाई, आवरण | प्राच्छादनीय - वि० सं० ) ढाकने या छिपाने के योग्य, संगोपनीय । प्राच्छादित - वि० ( सं० ) ढका हुआ, वृत, छिपा हुआ, तिरोहित । आचारवान - वि० (सं० ) पवित्रता से रहने वाला, सदाचारी, शुद्धाचरण या सुभाचार वाला ! प्राचार - विचार - संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) चार और विचार, चरित्र और मन सद्भाव, चाल-ढाल, रहने की सफ़ाई, शौच, व्यवहार-भाव | श्राचारी - वि० (सं० प्राचारिन् ) श्राचारवान्, शास्त्रानुगामी, चरित्रवान, सच्चरित्र, सदाचारी | संज्ञा, पु० रामानुजाचार्य के सम्प्रदाय का वैष्णव | प्राचार्य – संज्ञा, पु० ( सं० ) वेदाध्यापक, वेदोपदेष्टा, उपनयन के समय गायत्री मंत्र का उपदेश करने वाला, गुरु शिक्षा, आचार और धर्म का बताने वाला, यज्ञ-समय में कर्मोपदेशक, पुरोहित, अध्यापक, ब्रह्मसूत्र के प्रधान भाष्यकार श्रीशंकर, रामानुज, मध्व और वल्लभाचार्य, वेद का भाष्यकार, धनुर्वेद का पंडित (जैसे द्रोणाचार्य ) किसी शास्त्र का पूर्ण पंडित | वि० ( किसी विषय का ) विशेषज्ञ, शास्त्रपारंगत | स्त्री० प्राचार्याणी - पंडिता, अध्यापिका, आचार्य की स्त्री । श्राचार्यता - संज्ञा भा० (सं० ) पांडित्य, विशेषज्ञता । स्त्री० आचार्या - मन्त्रोपदेशदात्री, भाष्यकारिणी, (विशेष प्रयोग — स्वयमेव श्राचार्य-कर्म करने वाली स्त्री तो श्राचार्य और आचार्य की पत्नी प्राचार्याणी है ) । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्राच्छाद्य - वि० ( सं० ) श्राच्छादनीय, वृत करने के योग्य, ढाकने के योग्य । श्राच्छिन्न - वि० (सं० ) छेदना, काटना, कर्तन | प्राछत– क्रि० वि० दे० ( हिं० क्रि० अ० श्रावना का कृदन रूप ) — होते हुए, रहते हुए, विद्यमानता में, मौजूदगी में, सामने, समक्ष, अतिरिक्त, सिवा, छोड़ कर, अत (दे० ) । 66 तुमहिं छत को बरनै पारा " - रामा० । श्रावना - अ० क्रि० दे० होना ) होना, रहना, उपस्थित होना । प्राछाछ - वि० (३०) अच्छा, व० ब० प्राछे । स्त्री० आछी । For Private and Personal Use Only (सं० ग्रस्= विद्यमान रहना, Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्राछी २३१ भाजी पाछी-वि० स्त्री० ( दे० ) अच्छी, भली, अाजला-संज्ञा, पु० (दे० प्रान्ती०) अंजलि, सुघर । अंजुली, पसर, अँजुरी, आँजुरी। संज्ञा, स्त्री० (दे० ) एक प्रकार का वृक्ष, श्राजा—संज्ञा, पु० दे० (सं० श्रार्य ) पिताइसका पुष्प बहुत मधुर सुगंधि देता है। मह , दादा, बाप का बाप । वि० (दे.) खाने वाला। स्त्री० पाजी। पाछे ---क्रि० वि० (दे० ) अच्छी तरह, | विधि० अ० क्रि० -- श्रा, श्राव, आओ। भली भाँति। आजागुरु-संज्ञा, पु० यौ० ( दे०) गुरु वि० ब० ब० अच्छे । का गुरु। पारेप-संज्ञा. पु० दे. ( सं० आक्षेप) आजाद - वि० ( फ़ा० ) जो वद्ध, परतंत्र आक्षेप, विरोध, नुकता-चीनी, आपत्ति ।। न हो, छूटा हुआ, मुक्त, बरी, बेफ़िक्र, प्राज-क्रि० वि० दे० ( सं० अद्य ) वर्तमान बेपरवाह, निश्चित, स्वतंत्र, स्वाधीन, दिन में जो दिन बीत रहा है, उसमें, स्वच्छंद, निर्भय, निडर, स्पष्टवक्ता, हाज़िरइन दिनों, वर्तमान समय में, इस वक्त, जवाब, उद्वत, स्वतन्त्र विचार के सूफ़ी अब, माजु दे०)। फकीर। "काल करै जो श्राज कर, आज करे सो आज़ाड़ी-संज्ञा स्त्री० ( फ़ा० ) स्वतन्त्रता, अब "—कबीर० । स्वाधीनता, रिहाई, छुटकारा। अाजकल-क्रि० वि० (हिं. आज + कल ) आजादगी-संज्ञा, स्त्री० (फ़ा० ) स्वच्छंइन दिनों, इस समय, वर्तमान समय में, दता, उद्ध तपन, निर्भीकता, निश्चितता। कुछ दिनों में या कुछ समय में । आजानु-वि० (सं० ) जाँध या घुटनों मु०-आज-कल करना ( लगाना )- तक लम्बा। टाल-मटोल करना, हीला-हवाला करना। आजानुबाहु-वि० (सं०) जिसके वाहु आजकल लंगना-अबतब लगना, मरण- या हाथ जानु तक लम्बे हों, जिसके हाथ काल समीप श्राना। घुटनों तक पहुंचे, वीर, शूर (शूरता का याज कल का मेहमान होना--अति लघु चिन्ह ) (सामुदिक० ) विशालवाहु, दीर्घ समय में मरना, मरण-काल निकट होना। वाहु । श्राज-दिन-क्रि० वि० (हिं० आज+दिन ) प्राज़ार-संज्ञा, पु० (फ़ा० ) रोग, बीमारी, आज-कल, आज के दिन, श्राज, इस दिन, दुःख, तकलीफ, अजार (दे०) रोग, इस समय। संक्रामक बीमारी। भाजन-प्रांजन-संज्ञा, पु० (दे०) अंजन । प्राजि-संज्ञा, स्त्री. (सं०) लड़ाई, समर, प्राजन्म-क्रि० वि० (सं०) जीवन भर, युद्ध, रण, संग्राम, आक्षेप, आक्रोश, गमन, जिंदगी भर या श्राजीवन । गति, समान भूमि। प्राजमाइश-संज्ञा, स्त्री० ( फ़ा० ) परीक्षा, आजिज--वि० ( अ०) दीन, विनीत, जाँच, परख । हैरान, तंग। श्राजमाना-स० कि० ( फ़ा० ग्राज़माइश ) आजिज़ी-संज्ञा, स्त्री. (अ.) दीनता, परीक्षा करना, जाँच करना, परखना। विनम्रता। आजमूदा--वि० ( फ़ा० ) श्राजमाया हुआ, श्राजी-संज्ञा, स्त्री० ( दे०) पितामही, परीक्षित। दादी, पिता की माता। For Private and Personal Use Only Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्राजीव २३२ A लिका बरहाती। श्राजीव-संज्ञा, पु० (सं०) जीविका, श्राज्ञाप्रतिघात-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) जीवनोपाय, वृत्ति-बन्धान । स्वामिद्रोह, राज-शासन-त्याग । आजीवन-क्रि० वि० (सं०) जीवन- प्राज्ञापन--संज्ञा, पु. (सं० ) सूचित करना, पर्यन्त, जिंदगी भर, यावज्जीवन, तमाम जताना, आज्ञा प्रदान करना । उम्र, श्रायु भर। वि० श्राज्ञापक, श्राज्ञापित । श्राजीविका-संज्ञा, स्त्री. (सं० ) वृत्ति, प्राज्ञापालक-संज्ञा, पु० यौ० ( सं० ) रोजी, बंधान । श्राज्ञा का पालन करने वाला, श्राज्ञाकारी. प्राजोपी-वि० ( सं०) उपजीवी, उप- नौकर, दास, सेवक --- टहलुवा ( दे.)। जीविक। स्त्री० श्राज्ञा पालिका। श्राजु-क्रि० वि० (दे० ) आज, अद्य।। श्राज्ञा-पालन-संज्ञा, पु. यौ० (सं० ) श्राजू-क्रि० वि० (प्रान्ती. ) प्राजु, श्राज, । श्राज्ञा के अनुसार कार्य करना, फरमांअद्य। बरदारी। "तुम पायेहु सुधि मोसन भाजू"-रामा०। प्राज्ञापित-वि० (सं०) सूचित किया संज्ञा, पु. (सं० ) बिना वेतन के काम हुआ, जताया हुआ, आदेश दिया हुआ। करने वाला, बेगारी अवैतनिक, अवेतन । श्राज्ञा-भंग-संज्ञा. पु. यौ (सं० ) श्राज्ञा आज्ञा-संज्ञा, स्त्री० (सं० ) बड़ों का छोटों न मानना, प्राज्ञोल्लंघन करना, आदेको किसी काम के लिये कहना, श्रादेश, शोच्छेदन। हुक्म, अनुमति, निदेश, शासन । प्राज्ञावर्ती-वि० (सं० ) श्राज्ञा के वश. श्राज्ञाकारी-वि० ( सं० अाज्ञाकारिन् ) आज्ञावह, श्राज्ञाधीन । धाज्ञा मानने वाला, हुक्म या आदेश श्राज्य-संज्ञा, पु. ( सं०) घी. घृत, हवि । मानने वाला, सेवक, दास, प्राज्ञानुवर्ती, प्राज्यप-संज्ञा, पु. (सं०) पितृशोक विशेष, निदेश-पालक । घृतभोजी। स्त्री० आज्ञाकारिणी। पाटना-स० क्रि० दे० ( सं० अट्ट ) श्राज्ञाचक्र-संज्ञा, पु. (सं० ) षट्चक्रों | तोपना, दबाना, अड़ाना। में से एक या छठवाँ चक।। श्राटा-संज्ञा, पु० दे० (सं० अटन = घूमना) प्राज्ञातिक्रम-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) किसी अन्न का चूर्ण, पिसान, चूर्ण, प्राज्ञोल्लंघन, हुक्म अदूली, प्रादेशावहेलन, चून ( दे०)। अवज्ञा। मु०-पाटे-दाल का भाव मालूम प्राज्ञादायक-संज्ञा, पु. ( सं० ) आज्ञा होना-संसार के व्यवहार या दुनियादारी देने वाला, राय देने वाला। का ज्ञान होना। श्राज्ञानुवर्तन-संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) श्राटे-दाल की चिन्ता (फ़िक्र) होना-- आज्ञानुसार चलना, वि० श्राज्ञानुवर्ती। जीविका की चिन्ता होना। आज्ञाएक-वि० (सं० ) आज्ञा देने वाला, पाटे-दाल भर को हाना-अति साधास्वामी, मालिक, प्रभु। रण जीवन या जीवन की केवल अति आज्ञापत्र- संज्ञा, पु० यौ० ( सं० ) श्रादेश- श्रावश्यक वस्तुओं के लिये कानी होना लिपि, निदेश-पत्र, हुक्मनामा, वह लेख (प्राय के लिये )। जिसके अनुसार किसी आज्ञा का प्रचार संज्ञा, पु. ( दे०) किसी वस्तु का चूर्ण, किया नाय । बुकनी। For Private and Personal Use Only Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पाटोप २३३ प्राड आटोप-संज्ञा, पु. (सं०) आच्छादन, प्राड़ना- स० कि० दे० (सं० अल = करण फैलाव, श्राडंबर, विभव, दर्प, अहंकार, करना) रोकना, ठेकना, बाँधना, मना वायु-जन्य उदर-शब्द। करना, न करने देना, ओड़ना, बचाना, वि० पाटोपित-आच्छादित । गिरवी या रेहन रखना, गहने रखना। पाठ-वि० दे० (सं० अष्ट ) चार का प्राडबंद-संज्ञा, पु० ( दे० ) लँगोटी। दूना, दो कम दस। | प्राडा-संज्ञा. पु० दे० (सं० अलि ) एक यौ०-पाठ पहर- संज्ञा, यौ० (दे०) धारीदार कपड़ा, लट्टा, शहतीर । रात-दिन, पाठ याम। वि० -- आँखों के समानान्तर दाहिनी ओर से मु०-पाठ पाठ आँसू रोना- बाई ओर को और बाई से दाहिनी को, अत्यंत रोना, बहुत विलाप करना। गया हुश्रा, वार से पार तक रक्खा हुआ, पाठो गांठ कुम्मैत-सर्व गुण-सम्पन्न बैंड़ा। चतुर, चंट, चाई, छंटा हुआ, धूर्त । मु०-पाड़े पाना-रुकावट डालना, पाठौ पहर (अाठौ याम ) रात-दिन । बाधक होना, कठिन समय में सहायक " ओछी संगत कूर की, आठौ पहर होना, शत्रुता करना, वाम होना, विरोध उपाधि"-कबीर । करना। " रैन-दिन पाठौ याम ....." - पद्मा० । पाड़ा पड़ना--विघ्न डालना, वाधा होना। श्राडंबर-संज्ञा, पु. (सं०) गंभीर शब्द. आड़े हाथों लेना-किसी को व्यंग्योक्तियों तुरही की आवाज़, हाथी की चिग्याइ, ऊपरी के द्वारा लज्जित करना, खरी-खोटी सुनाना, बनावट, दिखावा, तड़क-भड़क, टीम-टाम, डाँटना, फटकारना। चटक-मटक, ढोंग, आच्छादन, तंबू . युद्ध भाड़ा होना-बाधक होना, रुकावट होना, में बजाने का बड़ा ढोल, पटह । बीच-बचाव करना। " तुरत आनि पाड़ा भयो हाड़ा श्री-छत्र. आडंबरी-वि० (सं० ) प्राडंबर करने साल '-छत्र। वाला, ऊपरी, बनावट या दिखावा रखने पाड़े दिन काम पाना-विपत्ति के दिनों वाला, ढोंगी। में सहायता करना। प्राइ-संज्ञा, स्त्री० (दे० ) श्रोट, परदा, पाड़ि-संज्ञा. पु० (दे०) हठ, जिद्द, रोक, आसरा, प्रोझल, सहायता ( वह श्राग्रह। उसकी आड़ में रह कर बच गया) सहारा, " इनको यही सुभाव है, पूरी लागी व्याज, बहाना, लम्बी टिकली, टीका, स्त्रियों श्राड़ि"- कबीर० । का एक भूषण। प्राडी-संज्ञा, स्त्री० (हि. पाड़ा) तबला, (सं० प्रालि =रेखा ) आड़ा तिलक (स्त्रियों मृदंग श्रादि के बजाने की एक रीति या के माथे का ) रक्षा, शरण, थूनी, टेक, : ढंग, चमारों की छुट्टी, भोर, तरफ । अडान । (दे०) श्रारी-सहायक, अपने पक्ष का, (सं० अल =रोक ) श्राश्रय, आधार। रक्षक, स्वर विशेष । संज्ञा, पु० (सं० अल = डंक ) बिच्छू या वि० - बेंडी, तिरछी। भिड़ का डंक । पाड़-संज्ञा, पु० दे० (सं० पालु) एक श्राइन-संज्ञा, स्त्री० (हि. आड़ना ) प्रकार का फल, जो खटमिछे स्वाद का ढाल, आढ़। होता है। भा० १० को०-३० For Private and Personal Use Only Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्राद २३४ प्रतिश आढ़-संज्ञा, पु० दे० (सं० आढक ). चार पातनायो-वि० (सं० ) बधोयन, अनिष्टप्रस्थ या चार सेर की एक तौल, चार सेर कारी, पातकी, श्राग लगाने वाला, विष देने का एक तौलने का बाट । वाला, शास्त्रोन्मादी, धनापहारी, भूमि, पर संज्ञा, स्त्री० (हि. आड़) श्रोट, पनाह, दार अपहारक ये छः थाततायी कहे जाते हैं, परदा, सहारा। (शुक्र. नी.) हत्यारा, डाकू, बदमाश, ® संज्ञा, स्त्री० (दे० ) अन्तर, बीच, दुष्ट. खल, अत्याचारी। नाग़ा, माथे का भूषण । " नाततायी वधे दोषः "-मनु० । वि० दे० (सं० पाढ्य -- संपन्न ) कुशल, दह, प्रातप-संज्ञा, पु० (सं०) धूप, घाम, गर्मी, पटु, संपन्न जैसे, धनाढ़ (धनाढ्य )। उष्णता, सूर्य-प्रकाश, ज्वर । मु०-बाढ़ श्राढ़ करना-- टाल-मटूल | श्रातपी-संज्ञा, पु० (सं० ) सूर्य । करना। वि० उष्णता वाला। श्रादक-संज्ञा, पु० (सं०) चार सेर की प्रातपात्यय-संज्ञा, पु. (सं०) सूर्य-किरणएक तौल, इतने ही तौल का एक काठ का नाश, धूप या घाम का प्रभाव, अनातप । बरतन, जिससे अन्न नापा या तौला जाता पातपाभाव-गर्मी का न होना। है, अरहर। पातपादक-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) मृगसंज्ञा, स्त्री-पादकी-अरहर की दाल । तृष्णा, मरीचिका, सूर्य की किरणों के श्रादत-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. आड़ना = कारण जल-भ्रम । जमानत देना), किसी अन्य व्यापारी के माल श्रातपत्र-प्रातपत्रक-संज्ञा, पु० (६०) का रखना और उसके कहने पर उसकी छन्त्र, छाता। बिक्री करा देने का व्यवसाय, आदत का प्रातपन-संज्ञा. पु० (सं०) तपन या तापमाल जहाँ रक्खा जाय, माल की विक्री पूर्ण, शिव जी का एक नाम । कराने पर मिलने वाला धन, कमीशन, प्रातपित- वि० (सं० ) सब प्रकार तपा या तपाया हुआ, गर्म, उष्ण, जलता हुआ। प्रातप्त-वि० (सं०) तप्त, उष्ण, गर्म, श्रादतिया-संज्ञा, पु० (दे० ) अदतिया, दग्ध, दुखी। आढ़त करने वाला, कमीशन लेकर किसी व्यापारी के माल की विक्री कराने वाला, प्रातम-वि० (दे० ) आत्मा-(सं०), कमीशन एजंट, दस्तूरी लेकर व्यापारियों का संज्ञा, पु० (सं०) यंधकार, अज्ञान । माल खरिदवाने या बिकवाने वाला। प्रातमा-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० पु० आत्मा) श्रात्मा, जीव । प्रात्य-वि० (सं० ) सम्पन्न, पूर्ण, युक्त, प्रातर-श्रातार-संज्ञा, पु. ( दे०) उतविशिष्ट, अन्वित, जैसे गणाढ्य, धनाढ्य । राई, अन्तर, बीच, आँतर (दे०)। प्राणक-संज्ञा, पु० ( सं० ) एक रुपये का प्रातर्पण-संज्ञा, पु० (सं० श्रा+तृप्त--- सोलहवाँ भाग, आना, चार पैसा। अनट्) पीड़न, तृप्ति, मंगलालेपन, प्राणि-संज्ञा, पु० (सं० ) कोण, अस्ति, । साथ, आस्त, संतोष। सीमा । वि० प्रातर्पणीय, प्रातर्पित। अातंक-संज्ञा, पु० (सं० ) रोब, दबदबा, स्त्री० प्रातर्पिता। प्रताप, भय, शंका, रोग, पीड़ा, आशंका। पातश- संज्ञा, स्त्री० (फा० ) भाग, अग्नि, श्रातत-घि० (सं०) पारोपित, विस्तारित । श्रागी (दे०)। दस्तूरी। For Private and Personal Use Only Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भातशक २३५ बातोध LACEMANORI A पातशक-संज्ञा, पु० (फा०) फिरंग रोग, आतिथ्य-संज्ञा, पु० (सं० ) अतिथिउपदंश, गर्मी। सरकार, पहुनाई, मेहमानदारी, अतिथिआतश खाना-संज्ञा, पु० ( फा० ) कमरा | सेवा। गर्म करने के लिये आग रखने की जगह, प्रातिदेशिक-वि० (सं० ) अतिदेश-प्राप्त, पारसियों के अग्नि-स्थापन का स्थान, आग! दूसरे प्रकार से पाने वाला, या उपस्थित । रखने की जगह, चूल्हा।। प्रातिश-संज्ञा, स्त्री० (फा०) भातश, प्रातशदान-संज्ञा, पु० (फा० ) अँगीठी। श्राग। प्रातशपरस्त-संज्ञा, पु० (फा० ) अग्नि प्रातिशय्य-संज्ञा, पु० (सं० ) अतिशय की पूजा करने वाला, अग्नि-पूजक, पारसी।। होने का भाव, आधिक्य, बहुतायत, संज्ञा, स्त्री० पातशपरस्ती। ज़्यादती, अतिरेक । पातशबाजी--संज्ञा, स्त्री० (फा०) बारूद प्रातर-वि० ( सं० ) व्याकुल, व्यत्र, के बने हुए, खिलौने, अग्नि-क्रीडन, बारूद घबराया हुआ, उतावला, अधीर, के खिलौने जो जलाने से कई रंग की उद्विग्न, बेचैन, उत्सुक, दुखी, रोगी, कातर, चिनगारियाँ छोड़ते हैं। अस्थिर। पातशी-वि० (फा० ) अग्नि-सम्बन्धी, क्रि० वि० शीघ्र, जल्दी। अग्नि-उत्पादक, जो आग में तपाने से न में तपाने से न ग्रातुरता-संज्ञा, स्त्री. (सं०) घबराहट, फूटे, न तड़के। बेचैनी, व्याकुलता, विह्वलता, व्यग्रता, यौ० श्रातशी शीशा । संज्ञा, पु० (फा०) जल्दी, शीघ्रता, उतावलापन । सूर्यकान्त मणि, ऐसा शीशा जो सूर्य | श्रातुरताई*-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० आतुर के सामने रखने से भाग पैदा करता +ता+आई = हि० प्रत्य० ) आतुरता, है, और छोटी चीज़ को बड़ा दिखाता शीघ्रता, बेचैनी। प्रातुरसंन्यास-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) प्राता-संज्ञा, पु. (दे०) अत्ता, फल, | मरने के कुछ ही पहिले धारण कराया जाने सीताफल, शरीफ़ा। वाला सन्यास। प्रातापी-संज्ञा, पु. ( सं०) एक असुर अातुराना-प्र० कि० (दे०) उतावला जिसे अगस्त्य मुनि ने अपने पेट में पचा होना, उत्सुक होना, घबराना। डाला था, चील पक्षी। " इंद्रीगन थातुराँय ज्यों तुरंग धायो है " "आतापी भतितो येन......। -दीन। भातायी-प्रताई-वि० (दे० ) धूर्त, प्रातुरी -संज्ञा, स्त्रो० दे० (सं० आतुर शठ, तमाशा करने वाला, बहुरूपिया , +ई-प्रत्य. ) घबराहट, व्याकुलता, संज्ञा, पु० (दे०) अताच । शीघ्रता। संज्ञा, पु० (दे०) पती विशेष, चील । " देखि देखि आतुरी विकल व्रजबारिनि संज्ञा, पु. ( दे० ) धूर्तता, शठता, । की" ऊ० श०। नीचता । प्रातू-संज्ञा, स्त्री० (दे० ) गुरुबाइन, प्रातिथेय-वि. ( सं० ) अतिथि सेवा पंडिताइन । करने वाला, अतिथि-पूजक, अतिथि सेवा श्रातोद्य-वि० (सं० आ+ तुद् + य ) की सामग्री, अभ्यागत का सत्कार करने वाद्य, वीणा, मुरज, वंश का शब्द, चतुर्विध वाला। वाद्य । For Private and Personal Use Only Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रात्त प्रात्मदर्शन पात्त- वि० (सं० अ+ दा+क्त ) गृहीत, | आत्मघाती-वि• यौ० (सं० ) प्रारमप्राप्त, पकड़ लिया गया। घातक। "आत्तकार्मुकः-रघु०। श्रात्मज-संज्ञा, पु० (सं० ) पुत्र, लड़का, यौ० श्रात्तगंध- वि० यौ० (सं०) गृहीत | कामदेव, रुधिर । गंध, हतदर्प, अभिभूत, पराजित । प्रात्मजा-संज्ञा, नी० ( सं० ) पुत्री, प्रात्तगर्ष-वि० यौ० (सं० ) खंडित- कन्या। गर्व, अहंकार-चूर्ण, भग्न-दर्प, मद-भंग, धात्मजाया-संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं० ) अभिमान-नाश । अपनी स्त्री। आत्म-वि० ( सं० आत्मन् ) अपना, निज, प्रात्मजन्मा- संज्ञा, पु० यौ० ( सं० ) स्वीय। पुत्र, लड़का, तनय । संज्ञा, पु० (सं०) श्रात्मा. जीव । आत्मजित-वि० ( सं० ) अपने मन को प्रात्मक-वि० (सं० ) मय, युक्त, अन्वित, जीतने वाला। सहित, (योगिक में जैसे रसात्मक)। प्रात्मज्ञान-संज्ञा, पु० यौ० ( सं० ) स्त्री० आत्मिका। जीवात्मा और परमात्मा के विषय में प्रात्मकलह-संज्ञा, पु० यौ० ( दे. ) जानकारी, अपने को जानना, आत्म-बोध, मित्रों या अपने आदमियों के साथ वाद- ब्रह्म या आत्मा का साक्षात्कार, स्वानुभव, विवाद, गृह कलह । निज स्वरूप-ज्ञान । प्रात्मकार्य-संज्ञा, पु. यौ० ( सं० ) | प्रात्मज्ञ-संज्ञा, पु. यो. (सं० ) अपने अपना काम, गोपनीय कार्य, श्रात्म कर्म, | को जानने वाला, निज स्वरूप का जिसे श्रात्मा का काम । ज्ञान हो, पात्मा का ज्ञान रखने वाला, प्रात्मगरिमा- संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) स्वानुभवी। श्रात्मश्लाघा, अपनी बड़ाई, दर्प, अहंकार, | श्रात्मज्ञानी-संज्ञा, पु० (सं० ) आत्मा प्रात्म-गान। और परमात्मा के सम्बन्ध में जानकारी प्रात्मनाही-वि० (सं० प्रात्मन+ग्रह+ रखने वाला। णिन् ) आत्मम्भरी, स्वार्थपर, स्वार्थी, अात्मता-संज्ञा, स्त्री० (सं० ) बन्धुता, मतलबी। प्रणय, सद्भाव, प्रेम, प्रीति, प्रात्मीयता । आत्मगौरव- संज्ञा, पु. यो. ( सं० ) प्रात्मतुष्टि-संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं.) अपनी बड़ाई या प्रतिष्ठा का ध्यान, आत्मज्ञान से उत्पन्न सन्तोष या प्रानन्द, प्रारमश्लाघा। आत्मसन्तोष प्रात्मतोष । आत्मघात- संज्ञा, पु. यो० ( सं० ) अपने । वि० (सं०) आत्मतुष्ट। ही हाथ से अपने को मार डालने का काम, प्रात्मत्याग-संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) अपने ही आप या स्वयमेव अपने को परहित के लिये अपने स्वार्थ का त्याग मारना, खुदकुशी-अात्महत्या-अपने करना या छोड़ देना। उपाय से अपने को मारना, स्वयंमारण। वि०-प्रात्मत्यागी, आत्मत्याग करने आत्मघातक---वि० ( सं० ) अपने ही वाला। हाथों से अपने ही को मारने वाला, आत्मदर्शन-संज्ञा, पु. (सं०) समाधि श्रात्म-हत्या करने वाला, पापी। के द्वारा आत्मा और ब्रह्म को देखना । For Private and Personal Use Only Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रात्मष्टि २३७ प्रात्मलय - प्रात्मदृष्टि-संज्ञा, स्त्री० (सं०) ज्ञान-दृष्टि । आत्मबोध-संज्ञा, पु. यौ० (सं० ) वि० श्रात्मद्रष्टा, भात्मदर्शक । श्रात्मज्ञान, ईश्वर-ज्ञान। मात्मनिंदा-संज्ञा, स्त्री० यो० (सं.) श्रात्मवाणी-संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) अपनी बुराई, अपनी निंदा, अपनी आत्मा का कथन-प्रात्मगिरा, अंतःकरण अवहेलना। का शब्द, ब्रह्मयात्मनिदेश-संज्ञा, पु. यो. ( सं० ) अात्मभाव-संज्ञा. पु० यौ० (सं० ) अपनी आत्माज्ञा, आत्मादेश, अपनी प्रात्मा का प्रात्मा का सा सब पर भाव रखना, हुक्म या आज्ञा, ईश्वराज्ञा। समदृष्टि। अात्मनिवेदन-संज्ञा, पु. यो. (सं०) प्रात्मभ-वि० यौ० (सं०) अपने शरीर से अपने यापको या अपना सर्वस्व अपने इष्ट उत्पन्न, आप ही श्राप उत्पन्न होने वाला, देव पर चढ़ाना, श्रात्म-समर्पण, (नवधा- स्वयंभू ।। भक्ति में से एक ) प्रारम-विनय, अपने संज्ञा, पु. ( सं० ) पुत्र, कामदेव, ब्रह्मा, विष्णु सम्बन्ध में आप ही कहना। शिव, स्वयंभू। श्रात्म-निर्णय-संज्ञा, पु. यो० (सं०) मात्मम्भरि-वि० (सं० ) अपना ही पेट अपना निर्णय, अपना निश्चय, अपने श्राप पालने वाला, स्वार्थी, खुदग़र्ज़, मतलबी। किसी प्रश्न का निर्णय कना, प्रात्म यात्ममहिमा-संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) निश्चय। अपनी बड़ाई। श्रात्मनीय- संज्ञा, पु० (सं० ) पुत्र, तनय, आत्म-मंत्रणा-संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं० ) सुत, आत्मज, शाला ( साला-दे० ) अंतःकरण की अनुमति, सलाह । विदूषक। प्रात्ममोह-संज्ञा, पु० यौ० ( सं० ) ममता, आत्मनेपद-संज्ञा, पु० ( सं० ) क्रिया का | अज्ञान। चिन्ह या भेद विशेष । आत्मयोनि-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) ब्रह्मा, प्रात्मप्रभाष-संज्ञा, पु. (सं०) अपना विष्णु, शिव, कामदेव । या अपनी आत्मा का प्रभाव।। प्रात्मप्रशंसा-संज्ञा, स्त्री. यो० (सं०) प्रात्मरक्षा-संज्ञा, स्त्री० यो० (सं० ) अपनी रक्षा या बचाव। अपने मुँह अपनी बड़ाई। वि. प्रात्मप्रशंसक-अपने मुख अपनी वि० आत्मरक्षक-अपनी रक्षा करने प्रशंसा करने वाला प्रात्मश्लाघी। वाला। संज्ञा, स्त्री० श्रात्मप्रशस्ति-अपनी संज्ञा, पु० (सं०) आत्मरक्षण । बड़ाई। श्रात्मरत-वि० यौ० (सं०) प्रात्मा में आत्म-प्रीति-संज्ञा, स्त्री. ( सं० ) अपना लीन, आत्मज्ञान में लगा हुआ, ब्रह्मज्ञान में प्रेम, स्वार्थ । लीन, ब्रह्मज्ञान-प्राप्त । वि० श्रात्मप्रेमी-स्वार्थी, मतलबी। प्रात्मरति-संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं० ) प्रात्मा प्रात्म-प्रतीति-संज्ञा स्त्री. ( सं० ) अपना या ब्रह्म में लीनता, प्रारमज्ञान में अनुराग । विश्वास, आत्म विश्वास, अपना भरोसा। प्रात्म-लाभ-संज्ञा, पु० यौ० ( सं० ) श्रात्मप्रेम-संज्ञा, पु० (सं० ) अपने पर उत्पत्ति, स्वलाभ, स्वार्थ । प्रेम, अपनी प्रात्मा पर प्रेम, प्रात्म- प्रात्मलय-संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) ब्रह्म में प्रणति। । लय हो जाना, मुक्त, मोक्ष । For Private and Personal Use Only Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - -- प्रात्मलीन २३८ प्रात्मा प्रात्मलीन-वि० यौ० (सं० ) श्रात्म-दर्शन प्रात्म शांति-संज्ञा, स्त्री० (सं०) अपने याब्रह्म-दर्शन में लगा हुआ, अपने में जो प्रात्मा की शांति, मुक्ति। लीन हो। अात्म-शुद्धि-संज्ञा, पु० यौ० ( सं० ) प्रात्म पंचक-संज्ञा, प. यौ० (सं०) कृपण, अपनो शुद्धि, अपने मन या अपनी आत्मा पापो, नास्तिक, अपने को श्राप ही धोखा को शुद्ध और स्वच्छ करना। देने या उगने वाला। प्रात्म सात्-वि० (सं० ) अपने आधीन, संज्ञा, पु० स्त्री० (सं०) प्रात्म-पंचना।। स्वहस्तगत । आत्मवत्-वि० या० (सं०) अपने सदृश, आत्म सात् करना-क्रि० सं० ( हिं० ) आत्म समान। हज़म कर जाना, हड़प जाना । " अात्मवत् सर्व भूतेषु "। प्रात्म-संभव-संज्ञा, पु. ( सं० ) पुत्र, अात्मवश-वि• यौ० ( सं० ) स्वाधीन, लड़का, तनय, प्रारमज । स्ववश, स्वप्रधान, जिसने अपने को श्राप ही | स्त्री० प्रात्म-सम्भवा-कन्या, पुत्री, वश किया हो। आत्मजा। आत्मवित्-वि० (सं० ) अपनी आत्मा | प्रात्म-संयम-संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) को जानने वाला, आत्मज्ञानी। अपने मन को रोकना, अपनी इच्छात्रों प्रात्म-विश्वास-संज्ञा, पु. यौ० (सं० ) या चित्त की वृत्तियों को वश में करना। अपने पर विश्वास । वि० श्रात्म संयमी-योगी, अपनी चित्तश्रात्म विजय-संज्ञा, स्त्री०या० (सं०) अपनी वृत्तियों को निरोधित करने वाला। प्रात्मा या अपने मन पर विजय प्राप्त करना । मात्म हन्ता-संज्ञा, पु० (सं० ) श्रात्मवि.--'प्रात्म विजयी। घाती, अपने को प्रापही मारने वाला। श्रात्म-विद्या-संज्ञा, स्त्री० यौ० ( सं० ) आत्म हत्या-संज्ञा, स्त्री० यौ० ( सं०) आत्मा और परमात्मा का ज्ञान कराने वाली अपने को श्रापही मार डालना, .खुदकुशी, विद्या, ब्रह्मविद्या, अध्यात्मविद्या, मिस्मरिज़म । आत्मघात, स्ववध । श्रात्मविस्मृति --संज्ञा, स्त्री. यो० (६०) अात्महा-संज्ञा, पु० (सं० ) अपने को अपने को आप हो भूल जाना, अपना | श्रापही मारने वाला, आत्महत्या करने ध्यान न रहना। वाला, अात्मघाती। ज्य-सज्ञा, पु० यो० (सं० ) अपने आत्म हिंसा-संज्ञ', स्त्री. ( सं० ) श्रात्मको आप बेचना, ( जैसे हरिश्चन्द्र ने हत्या, श्रात्मघात । किया था)। वि. अात्महिंसक-श्रात्मघाती । आत्म विक्रयी-दि. या० (सं०) अपने को श्रात्मा-संज्ञा, स्त्री० (सं०) मन या अंतः आप बेचने वाला। करण से परे उसके व्यापारों का ज्ञान करने प्रात्मविक्रेता संज्ञा, पु० यो० (सं० ) जो वाली एक विशेष सत्ता, द्रष्टा, रूह, अपने को श्राप ही बेच कर दास बना हो। जीव, जीवात्मा चैतन्य, ज्ञानाधिकरण श्रात्म श्लाघा-संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं० ) ( " ज्ञानाधिकरणमात्मा ") देह, धृति, अपनी तारीफ़ श्राप करने वाला, श्रात्मगर्व । स्वभाव, परमात्मा, मन, हृदय, दिल, चित्त । आत्मश्लाघो-वि० (सं० ) अपनी इसके लनण हैं--प्राण, अपान, निमेष, प्रशंसा श्राप करनेवाला, श्रात्मप्रशंसक, उन्मेष, जीवन, मनोगत इन्द्रियान्तर-विकार आत्माभिमानी। ( " प्राणापान-निमेषोन्मेष-जीवन-मनोगते प्रार For Private and Personal Use Only Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir S eemasoma श्रात्मानंद २३६ पाथर्षण न्द्रियान्तर्विकारापुखदुःखेच्छाद्वेषप्रयत्नारचा संज्ञा, पु० रिश्तेदार, सम्बन्धी। त्मनो लिंगानिवैशे०)। प्रात्मीयता--- संज्ञा, स्त्री० (सं० ) अपनायत (“ अात्मा देहे तो जीवे स्वभावे स्नेह-सम्बन्ध, मैत्री, अंतरंगता, अपनापन, परमात्मनि ” ) धर्म, यत्न, बुद्धि, पुत्र, मैत्री, बंधुता, प्रणय-भाव, सद्भाव ।। अर्क, अग्नि, वायु। | प्रात्मोत्कर्ष- संज्ञा, पु० यौ ० (सं०) अपनी मु०--श्रात्मा ठंढी ( शीतल ) करना श्रेष्ठता, अपनी प्रभता, अपनी बड़ाई, या होना-तुष्टि करना या होना, तृप्ति अपनी उन्नति, या वृद्धि । करना या होना, प्रसन्न करना या होना, प्रात्मोत्सर्ग-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) दूसरे पेट भरना, भूख मिटाना या मिटना। की भलाई के लिये अपने हिताहिता का श्रात्मा का असीसना--हृदय से प्रसन्न ध्यान छोड़ना।। होकर मंगल-कामना करना, हार्दिक प्रात्मोद्धार-संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) अपनी श्राशीष देना। आत्मा को संसार के दुःख से छुड़ाना, या आत्मानंद - संज्ञा, पु० यै ० (सं० ) आत्मा ब्रह्म में मिलाना, मोक्ष, अपना छुटकारा । का ज्ञान, आत्मा में लीन होने का अलौकिक । वि० आत्मोद्धारक। सुख। आत्मोद्भव -संज्ञा, पु. यौ० ( सं० ) आत्माभिमान-- संज्ञा, पु. यो० (सं०) श्रात्मा से उत्पन्न, पुत्र, लड़का, तनय । अपनी मान-मर्यादा का ध्यान, अपने ऊपर आत्मोत्पन्न । गर्व, अपने मान-सम्मान का विचार, अपनी सी० प्रात्मोद्भवा-कन्या, आत्मजा । सत्ता का ज्ञान। प्रात्मन्निति--- संज्ञा, स्त्री० यौ० ( सं० ) वि० श्रात्माभिमानी।। । अपनी बढ़ती, अपनी वृद्धि। स्त्री०-प्रात्माभिमानिनी। यात्मोन्नत-वि० (सं० ) जिसकी आत्मा प्रात्माभिमत-वि० (सं० ) आत्मसम्मत. उन्नत हो, अपनी उन्नति को प्राप्त । अपने मत का अनुयायी, अपनी आत्मा आत्यंतिक-वि० (सं०) श्रातिशय्य, विस्तार, के विचार का वशवर्ती। प्रचुर, अधिक, बहुतायत से होने वाला। श्रात्माराम-संज्ञा, पु० (सं० ) आत्म- स्त्री० श्रात्यंतिकी। ज्ञान से तृप्त योगी, जीव, ब्रह्म, तोता. आत्रेय-वि० (सं० अत्रि ) अत्रि-सम्बन्धी, सुग्गा (प्यार का शब्द )। अत्रि गोत्रवाला। प्रात्मावलंबी-संज्ञा, पु. यो० (सं.) संज्ञा, पु. ( सं० ) अत्रि के पुत्र दत्त, सब काम अपने ही बल पर करने वाला, दुर्वासा, चन्द्रमा, पात्रेयी नदी के तट का अपने ही ऊपर आधारित रहने वाला, देश जो दीनाजपुर जिले में है। शरीर प्रात्माश्रित । गत रस या धातु । संज्ञा, पु० (सं० ) प्रात्मावलंन । अ.त्रेयी-संज्ञा, स्त्री० (सं० ) वेदान्त-विद्यास्त्री० श्रात्मा घलंधिनी। स्नाता एक तपस्विनी, एक नदी विशेष । संज्ञा, पु. अात्मावलंबन । प्राथना-अ० कि० दे० (सं० अस्ति) अात्मिक-- वि० (सं० ) श्रात्मा-सम्बन्धी होना, श्राछना। अपना, मानसिक । पाथर्षण-संज्ञा, पु० (सं०) अथर्ववेद का प्रात्मीय - वि० (सं० ) अपना, निज का, जानने वाला ब्राह्मण, अथर्व वेदज्ञ, अथर्ववेदस्वकीय, अंतरंग, स्वजन, धात्मजन। विहित कर्म। For Private and Personal Use Only Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्राथी-प्राथि २४० आदि पाथी-प्राथि -संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० श्रादरणीय-वि० (सं० ) श्रादर के योग्य, अस्ति) स्थिरता, पूंझी, जमा। _सम्मान करने के योग्य, मान्य, माननीय । श्रादन-संज्ञा, स्त्री. ( अ० ) स्वभाव, श्रादरना*-सं० कि० दे० (सं० मादर) प्रकृति, अभ्यास, टेव, बान । आदर करना, सम्मान करना, सत्कारश्रादम-संज्ञा, पु. (अ.) मनुष्य जाति करना। का सब से प्रथम मनुस्य, जिससे मानव " श्राक पादरै ताहि किन, दुर्लभ या सृष्टि चली, प्रथम प्रजापति, इनकी स्त्री को संग'-दीन का नाम हवा था -- इन्हीं के कारण मनुष्य श्रादर-भाव-संज्ञा, पु० या० (सं० ) सस्कार, आदमी कहलाते हैं-( इबरानी और | सम्मान, प्रतिष्ठा, क़द्र । अरबी मत)। श्रादर्श-संज्ञा, पु. ( सं० ) दर्पण, शीशा, प्रादमखोर -वि. (अ.) नर-पिशाच, श्राइना, टीका, व्याख्या, अनुकरणीय, वह नर-मांस-भक्षक। जिसके रूप, गुण श्रादि का अनुकरण किया प्रादमज़ाद-संज्ञा, पु० (अ० भादम+फा- जाय, नमूना, चिन्ह । ज़ाद ) आदम से उत्पन्न , उनकी संतति, | वि० अनुपम, अनुकरणीय, अनुपमेय । मनुष्य, आदमी। श्रादरस-संज्ञा, पु० दे० (सं० प्रादर्श) श्रादमियत-संज्ञा, स्त्रो० (अ.) मनुष्यत्व नमूना, आदर्श । इंसानियत, सभ्यता, शिष्टता।। "गौर-स्याम रूप प्रादरस है दरस जाको--- श्रादमी-संज्ञा, पु० ( ० ) पादम की घनानंद"। संतान, मनुष्य या मानव-जाति ।। श्रादा- संज्ञा, पु० (दे० ) मूल विशेष, विशेष-नौकर, पति, मज़दूर। अदरक, अद्रक । मु०-श्रादमी बनना (होना)-सभ्यता आदान--संज्ञा, पु. ( सं० ) ग्रहण करना, सीखना, अच्छा व्यवहार सीखना, सभ्य लेना, स्वीकार करना, रोग-लक्षण । होना। श्रादान-प्रदान-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) लेनाश्रादमी करना-पति बनाना, खसम करना। देना, लेन-देन, त्याग-ग्रहण, परिवर्तन । श्रादमी बनाना-तमीज़ या सभ्यता श्रादाब-संज्ञा, पु. ( अ ) नियम, सिखाना, पढ़ना, सदाचारी एवं शिष्ट बनाना। कायदा, लिहाज़, पान, नमस्कार, सलाम, आदमी कसना- मनुष्य या नौकर की | प्रणाम। परीक्षा करना। मु०-प्रादाबअर्ज़ है नमस्कार, प्रणाम, श्रादमी रखना-नौकर रखना, सेवक, सलाम । रखना। श्रादि-वि० (सं० ) प्रथम, पहला, शुरू श्रादमी देखना-भले-बुरे, बड़े-छोटे, का, प्रारम्भ का, बिलकुल, नितांत, मूल, आदमी का विचार करना।। अग्र, उत्पत्ति-स्थान। श्रादमी परखना (पहिचानना )- संज्ञा, पु. ( सं० ) प्रारम्भ, बुनियाद, मूल मनुष्य के गुण, कर्म, स्वभाव का अनुभव कारण, परमेश्वर । करना, जाँच करना। अव्य० (सं० ) वगैरह, आदिक, ( यह शब्द श्रादर-संज्ञा, पु. ( सं० पा+१०+ अल)। सूचित करता है कि इसी प्रकार और सम्मान, सत्कार, प्रतिष्ठा, इज्जत, खातिर, समझो) इत्यादि। भास्था। , संज्ञा, स्त्री० (दे० ) अदरख, अद्रक । For Private and Personal Use Only Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रादिक २४६ प्रादेशी श्रादिक - अव्य० (सं० ) आदि, वगैरह । । श्रादित्य-मंडल – संज्ञा, पु० यौ० (सं०) आदिकवि-संज्ञा, पु० (सं०) वाल्मीकि- सूर्यमंडल, सूर्यलोक। मुनि, जिन्होंने सब से प्रथम छंदोबद्ध काव्य श्रादित्यसूनु-संज्ञा, पु० यो० (सं०) को जन्म दिया था, क्रौंच-युग्म में से एक सुग्रीव, यम, शनैश्चर, सावर्णि मनु, को निषाद-झारा पाहत और दूसरे को दुखी वैवस्वत मनु, कर्ण । देख निपाद को शाप देते हुए इनकी छंदो- प्रादितेय-वि० (सं०) अदिति के पुत्र, मयी वाणी प्रकाशित हुई तब इन्होंने उसी देवगण ।। छंद में “ रामायण " की रचना की, अत- प्रादि पुरुष-संज्ञा, पु. यौ० (सं०) एव ये ही श्रादि कवि माने जाते हैं। परमेश्वर. ब्रह्म ।। श्रादिकारण--संज्ञा, पु० यो० (सं०) आदिपुरुष (सं० )-रघु० । मूल या प्रथम कारण, पूर्व निमित्त, श्रादि । श्रादिम वि. (सं० ) पहले का, पहला, का हेतु, निदान, सृष्टि का मूल जि पसे श्राद्य, प्राथमिक, प्रथमोत्पन्न । ही सब संसार की उत्पत्ति, हुई है - ब्रह्म, आदिल - वि० (फा० ) न्यायी, न्यायवान, ईश्वर, प्रकृति, हरि। इंसाफ करने वाला। प्रादिदध-संज्ञा, पु० (सं० ) नारायण, प्रादिविपुला--संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं० ) विष्णु । भार्याछंद का एक भेद।। आदि बराह-संज्ञा, पु० (सं०) विष्णु का प्रादिष्ट-वि. (सं० आ+ दिश् + क्त) बराहावतार। श्रादेशित, प्राज्ञप्त, अनुमत, कथित, प्राप्तो. प्रादिराज-संज्ञा, पु. (सं० ) सर्व प्रथम पदेश । राजा पृथुराज। श्रादी-वि० ( अ ) अभ्यस्त । पादिशूर-संज्ञा, पु० (सं० ) सेनवंशीय । वि० दे० (सं० आदि ) आदि, नितांत, सर्व प्रथम राजा बीरसेन जिसने पुटि यज्ञ बिलकुल क्रि० वि० इत्यादि । के लिये कन्नौज से पाँच वेदज्ञ ब्राह्मण "मातु न जानति बालक आदी"-प० । बुलाये थे। क्योंकि बोद्ध धर्म के प्रचुर __" संज्ञा, स्त्री० (दे० ) अदरक, अद्रक"। प्रचार से बंगाल, में वेदज्ञ ब्रामण न रह श्रादून-वि० (सं० अ + दृ + क्त ) गये थे ) इन्हीं कान्यकुब्ज ब्राह्मणों से सम्मानित, पूजित, अर्चित, जिसका आदर मुख्योपाध्याय ( मुकर्जी) बंद्योपाध्याय | किया गया हो। (वनर्जी) आदि ब्राह्मण हुये हैं। प्रादेय-वि० (सं० ) लेने के योग्य । 'प्रादि * - संज्ञा, पु० (दे० ) आदित्य प्रादेश-संज्ञा. पु. (सं० ) श्राज्ञा, उपदेश, (सं०) सूर्य, अदिति के पुत्र, देवता, प्रणाम, नमस्कार, ( साधु ) ज्योतिषशास्त्र इन्द्र, बामन, मदार । में ग्रहों का फल, एक अक्षर का दूसरे के आदित्य-संज्ञा, पु० (सं० ) अदिति के स्थान पर आना (व्याक०) अक्षर. पुत्र, देवता, सूर्य, इन्द्र, वामन, वसु, । परिवत न, प्रकृति और प्रत्यय को मिलाने विरवोदेवा, बारह मात्राओं का एक छंद वाले कार्य। विशेष, मदार या अकौना।। प्रादम-संज्ञा, पु० दे० (सं० आदेश) श्रादित्यवार-संज्ञा, पु. यो. (सं० ) आदेश, अाज्ञा ।। रविवार, एतवार, सूर्य का दिन, सप्ताह का प्रादेशी-संज्ञा, पु. (सं०) धाज्ञापक, अंतिम दिन। गणक, दैवज्ञ, प्राज्ञाकारक । भा० श० को०-३१ For Private and Personal Use Only Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रादेशष्य २४२ श्राधासीसी प्रादेशष्य-संज्ञा, पु० (सं० आ+दिश् + प्राधे प्राध-दो बराबर भागों में विभक्त तृण ) पुरोहित, आजक, श्रादेशकर्ता, हुधा। प्राज्ञाकारक। श्राधी बात-ज़रा सी भी अपमान सूचक प्राधन-- क्रि० वि० (सं० यौ०) आदि से | बात। अन्त तक, शुरू से श्रारखीर तक, आद्यो- श्राधेकान (सुनना)-तनिक भी सुनना । पान्त । श्राधी जान (सूखना )-अत्यन्त भय संज्ञा, पु० यौ० (सं०) श्रादि और अन्त । । लगना। प्राद्यन्तहीन-वि• यौ० (सं० ) आदि- संज्ञा, पु० ( दे० ) अई शिरोवेदना, अर्धअन्त-रहित, अनन्त, ब्रह्म, ईश्वर। कपाली, श्राधासीली। प्राद्य-वि० ( सं० ) पहिला, प्रथम, | यौ० श्राधा-परधा-वि० यौ० दे० ( सं० भोजनीय द्रव्य । अर्ध ) आधा, अपूर्ण, अधूरा, कुछ थोड़ा। यौ० श्राद्य कवि-संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) प्राधा-तिहाई-वि० यो० (दे० ) अपूर्ण, वाल्मीकि, ईश्वर, विधि, ब्रह्मा।। अधूरा कुछ, थोड़ा। प्राधा-संज्ञा, स्त्री. (सं०) दुर्गा, दस प्राधान-संज्ञा, पु. ( सं० ) स्थापन, महा विद्याओं में से एक। रखना, गिरवी या बंधक रखना, धारण श्राद्योपान्त क्रि० वि० (सं० यौ० ) करना, गर्भ धारण करना, द्रव्य, अग्न्याधान, श्रादि से अंत तक, शुरू से आखीर तक, गर्भाधान । सम्पूर्ण, समाप्ति तक। प्राधानिक-संज्ञा, पु० (सं० ) गर्भाधान श्राद्रा-संज्ञा, स्त्री० (सं० आई ) छठवें संस्कार । नक्षत्र का नाम । श्राधार- संज्ञा, पु. ( सं० ) श्राश्रय, महारा, वि० स्त्री० (पु० आई ) गीली। अवलंब, अधिकरण कारक ( व्याक०) प्राध-वि० दे० (हि. आधा, सं० अर्द्ध) थाला, बालबाल, पात्र, नींव, बुनियाद, दो बराबर भागों में से एक, निस्क, अर्धक, | मूल, एक देह-चक्र (योग०) मूलाधार, श्राश्रय श्रद्ध, ( यौगिक में )। देने वाला, पालन करने वाला, आहार । यौ० एक-श्राध-थोड़े से, चंद, कुछ । यौ० प्राणाधार-जिसके श्राधार पर प्राण मु०-पाधो-प्राधा-दो बराबर भागों में। हों, पुत्र, अत्यन्त प्रिय, पति। श्राधकपारी-संज्ञा, स्त्री० यौ० दे० (सं० अाधारित-वि० (सं० ) अवलंबित, ठहरा अर्ध+कपाली ) आधे सिर का दर्द, हुश्रा, सहारे या श्रासरे पर ठहरा हुआ, आधी सीसी। श्राश्रित, स्त्री० श्राधारिता । श्राधा-वि० दे० (सं० अर्द्ध) दो बराबर आधारी-वि० (सं० आधारिन् ) सहारा भागों में से एक, निस्फ, अर्धक, अर्द्ध । रखने वाला, श्राश्रय पर रहने वाला, टेक या स्त्री० श्राधी। अड़े के आकार की लकड़ी (साधुओं की)। वि० प्राधो (ब्र.)। प्राधारेय-संज्ञा, पु. ( स० ) आधार पर मु०-प्राधा तीतर प्राधा बटेर- रहने वाला, आधार पर ठहरने वाला, कुछ एक प्रकार का और कुछ दूसरे प्रकार आधार के योग्य । का, बेजोड़, बेमेल, अंडबंड । प्राधासीसा-संज्ञा, स्त्री० यौ० दे० (सं० प्रध-(दे० यौगिक में ) अधखुली। अर्ध+शीर्ष ) अधकपाली, आधे सिर की प्राधा होना-दुबला होना। । पीड़ा। For Private and Personal Use Only Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २४३ प्राधि श्रानन्दना प्राधि-संज्ञा, स्त्री. (सं०) मानसिक श्राधेक-संज्ञा, पु० दे० (सं० अर्ध + एक ) व्यथा, चिन्ता, रेहन, बंधक, प्रत्याशा, दो समान भागों में से एक, प्राधा। आधार । प्राधेय- संज्ञा, पु. (सं०) किसी सहारे प्राधिक - वि० दे० (हि० प्राधा + एक ) | पर ठहरी हुई वस्तु, ठहरने योग्य, रखने के श्राधा, या प्राधे के लगभग। लायक, गिरों रखने योग्य । क्रि० वि० आधे के लगभग, थोड़ा, किंचित। श्राधोरण-संज्ञा, पु. (सं० ) हस्तिपक, आधिकारिक-संज्ञा, पु० (सं०) मूल महावत, हाथीवान, हाथी चलाने वाला। कथा वस्तु (नाटक या दृश्य काव्य ) | श्राध्मात–वि. (सं०) शब्दित, दग्ध, अधिकारयुक्त। जला हुआ। प्राधिक्य - संज्ञा, पु. (सं०) अधिकता, संज्ञा, पु० बात रोग, युद्ध, संयत । ज़्यादती, बहुतायत, आतिशय्य । प्राध्मान् -संज्ञा, पु. (सं०) एक प्रकार प्राधिदैविक-वि० (सं०) देवता तथा | .का वायु-रोग, वायु से पेट फूलना । भूतादि के द्वारा होने वाला, देवकृत ( दुख) | प्राध्यात्मिक-वि. ( सं० ) श्रात्माबोद्ध पदार्थ, देवाधीन, देवप्रयुक्त, बुद्धि सम्बन्धी, ब्रह्म और जीव-सम्बन्धी, सम्बन्धी, दैवकृत। आत्माश्रित । आधिपत्य-संज्ञा, पु. (सं० ) प्रभुत्व, । श्राध्यान-संज्ञा, पु. (सं० ) ध्यान या स्वामित्व, ऐश्वर्य, अधिकार। चिता, स्मरण, दुर्भावना, अनुशोचन, प्राधिभौतिक-वि० ( सं० ) व्याघ्र-सादि । उत्कंठा-पूर्वक स्मरण । जीवों कृत, जो भूतों या तत्वों के सम्बन्ध प्राध्वनीन-संज्ञा, पु० (सं०) पथिक, से उत्पन्न हो, जीवों या शरीर-धारियों के | पन्थ, पाथेय, मार्ग-व्यय। द्वारा प्राप्त ( दुःख )। प्रानन्द-संज्ञा, पु०( सं० ) हर्ष, प्रसन्नता, प्राधिवेदनिक - वि० (सं.) द्वितीय विवाह | खुशी, सुख, उल्लास । के लिये प्रथम स्त्री को दिया हुआ धन ।। यौ० श्रानंद-मंगल-कुशल-क्षेम, मुदप्राधीन*-वि० (सं० ) आज्ञाकारी, वश, | मंगल।। नम्र, स्वाधिकार युक्त, वशवर्ती-अधीन | श्रानन्दकर-वि० (सं० ) सुख कर, हर्ष(दे० ) श्राश्रित, दीन । प्रद, आनन्दकारक, प्रानन्दकारी। प्राधीनता-संज्ञा, स्त्री० ( सं० ) वशवर्तित्व, | वि० स्त्री० श्रानन्दकारिणी। नम्रता, ताबेदारी, प्राज्ञाकारिता - श्रानन्दकानन—संज्ञा, पु० यौ० (सं०) अधीनता (दे०)। सुखदायक वन, काशीपुरी का नाम । आधुनिक-वि० (सं० ) वर्तमान समय | "पानंद काननेद्यस्मिन् तुलसीजंगमस्तरुः । का, हाल का, अाजकल का, साम्प्रतिक, | श्रानन्द-चित्त-वि० (सं०) प्रसन्न चित्त, अधुनातन, नवीन, नव्य, अभी का, नया, | हर्षात्फुल्ल मन । इदानींतन। प्रानन्दजनक-वि० यौ० (सं० ) सुखप्रद, प्राधून-वि० (सं० ) ईषत्कंपित, चालित, हर्षदायक । व्याकुल, कंपित । श्रानन्ददायक-वि० (सं०) सुखदायक, प्राधेश्राध-संज्ञा, पु. यौ० ( सं० अर्धा ) हर्षप्रद। श्राधे का श्राधा, चौथाई, प्राधा-आधा | प्रानन्दना-अ० कि० (दे०) आनन्दित या ( वीप्सा)। प्रसन्न होना या करना-अनंदना (दे०)। For Private and Personal Use Only Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रानन्दपट २४४ प्रानतान " खरभर परी देव आनन्दे जीत्यो पहिली प्रानन्दित-वि० (सं० ) हर्षित, सुखी, रारि"-सूर० । प्रसन्न । श्रानन्दपट-संज्ञा, पु. ( सं० ) नव. श्रानन्दी-वि. (सं० ) हर्षित, प्रसन्न, विवाहिता वधू का वस्त्र, नवोढा का कपड़ा। सुबी या मुदित रहने वाला, श्रानन्द प्रानन्द पूर्ण-वि० ( सं० ) सुखमय, । देने वाला। मोदमय, हर्षयुक्त। प्रान-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० आणि = अानन्द-प्रभव-संज्ञा, पु० (सं० ) रेत, मर्यादा, सीमा ) मर्यादा, शपथ, सौगन्द, वीर्य, शुक्र। कसम, विनय, घोषणा, दुहाई, ढंग, तर्ज, आनन्दमत्ता-संज्ञा, स्त्री०( सं० ) आनन्द क्षण, लमहा, शान, शर्म, दबाव, भय । संमोहिता स्त्री। " फिरी धान ऋतु बाजन बाजे"-५० । प्रानन्दमय कोष-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) " देहौं मिलाय तुम्है हौं तिहारियै थान पंचकोष के भीतर कोष विशेष, सत्व, करौं वृषभानु लली से"..-रवि० । प्रधान, ज्ञान, कारण शरीर, सुवुप्ति । " कोऊ मानत न ान है" - सुन्दर० । श्रानन्दशय्या-संज्ञा, खो० ( सं० ) नवोदा- हठ, अकड़. ऐठ, ठसक, अदब, लिहाज़, शयन, नवनायिका की सेज। प्रण, प्रतिज्ञा, टेक । प्रानन्दसंमोहिता-संज्ञा, स्रो० यौ० मु०-पान की प्रान में-शीघ्र ही, (सं०) रति के आनन्द में निमग्न होने पर तत्काल, फ़ौरन, चटपट। मुग्धता या प्रसन्नता ( मोह ) को प्राप्त हुई वि० दे० दूपरा, और। प्रौदा नायिका। " श्रान भांति जिय जनि कछु गुनहू ".- प्रानन्दार्णव-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) सुख रामा० । सागर, हर्ष-समुद्र। कि० अ० ( हिं० श्राना ) श्राकर, (शानि) अानन्माश्र-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) सुख लाकर । से उत्पन्न होने वाले आँसू, प्रमोदाश्रु । । " पानि धरे प्रभु पाप".-रामा० । प्रानन्दवर्धन-संज्ञा, पु. ( सं०) सन् प्रानक-संज्ञा, पु० (सं०) डंका, भेरी, ८५५ से ८८० के बीच में से काश्मीर- दुन्दुभी, गरजता हुअा बादल । नरेश अवन्ति वर्मा के राज्य-काल में थे, धानकदुन्दुभी- संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) ये संस्कृत के सुप्रसिद्ध कवि एवं अलंकार- | बड़ा नगाड़ा, कृष्ण के पिता वसुदेव जी। लेखक थे, इन्होंने काव्यालोक, ध्वन्या- " बालक अानकदुन्दुभी के भयो बाजत लोक और सुहृदयालोक नामक प्रमुख ग्रंथ दुन्दुभी श्रानके द्वारे"। संस्कृत में रचे । श्रानत-वि० (सं० ) नम्रीभूत, विनम्र, अानन्दगिरि-संज्ञा, पु. (सं० ) ईसवी विनीत, अवनत, संज्ञा, पु० श्रानतन । ६ वीं शताब्दी में एक प्रधान कवि और स० कि० (दे०) लाता है, लाते हुए। स्वामी शंकराचार्य के शिष्य थे, इन्होंने पानतान-संज्ञा, स्त्री० (दे० ) असम्बद्ध "शंकर दिग्विजय" नामक काव्य संस्कृत बात, दूसरी दूसरी, और से और । में रचा, गीता की टीका और कई उपनिषदों अव्य०-अन्य प्रकार । पर भाष्य लिखे। संज्ञा, स्त्री० (हि. आन = दूसरी+तान = प्रानन्दि-संज्ञा, पु. ( सं० ) श्राह्लाद, गाना ) दूसरी तान या रागिनी। सुख, प्रमोद। संज्ञा, स्त्री० (दे० ) टेक, मर्यादा । For Private and Personal Use Only Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रानद्ध २४५ प्रानाह DECORAKASEANIROMWWEvomsummen - प्रानद्ध - वि० (सं० ) कसा हुआ, मढ़ा अ० क्रि० दे० (सं० अागमन ) श्रागमन हुया, श्रावृत जोड़ा हुआ, वद, मिलित। करना, वक्ता के स्थान की ओर चलना या संज्ञा, पु० चमड़े से ढका हुआ बाजा, जैसे उस पर प्राप्त होना, पहुँचना, उपस्थित ढोल, मृदंग, ताशा। होना, जाकर लौटना, समय प्रारम्भ होना, प्रानन-संज्ञा, पु० ( सं० ) मुख, मुंह, फलना, फूलना, फल-फूल लगना, किसी चेहरा, मुखड़ा, बदन। भाव का उत्पन्न होना ( जैसे दया आना) अानन-फानन-कि वि० ( अ ) अति ठीक होना, समाना, दाम पर मिलना। शीघ्र, तत्काल, फौरन, झटपट । मु०-पाए दिन-प्रति दिन, रोज़-रोज, प्रानना*-स० कि० (दे०) लाना। श्राता-जाता-आने जाने वाला, पथिक, " मानहु चर्म कहा वैदेही " . रामा । बटोही। प्रानन्तये- संज्ञा पु० (सं० ) पश्चाद्भाव, आना जाना---अावागमन, श्रामद रफ्त । अनन्तर, शेष, नैकट्य, संनिकर्ष । श्रा धमकना-एक बारगी श्रा पहुँचना । धानन्त्य-संज्ञा, पु० (सं० ) असीमता, श्रा पड़ना-सहसा आगिरना, एक बारगी गिरना या होना, आक्रमण करना, घटित असंख्यता, अत्याधिक्य, अनन्त का भाव । होना (अनिष्ट बात का) टूट पड़ना । पानबान--संज्ञा स्त्री० (दे० ) सजधज, प्राया-गया--अतिथि, अभ्यागत मेहमान, शान, ठसक, सजावट, शान शौकत, धूम समाप्त हुश्रा। धाम, ठाठ-बाट, तड़क-भड़क, अदा, श्रा रहना-गिर पड़ना। हाव-भाव। श्रा लेना-पान पहुँच जाना, पकड़ लेना, प्रानयन----रज्ञा, पु० (सं०) लाना, उप अाक्रमण करना, टूट पड़ना। नयन संस्कार, स्थानान्तर नयन, आँखों श्रा बनना-(किसीकी) लाभ का अच्छा तक। अवसर प्राना। प्रानरेग-वि० (अ.) बिना वेतन के केवल प्रतिष्टा के लिये काम करने वाला, किसी को कुछ आना-किसी को कुछ जैसे पानरी मजिस्ट्रेट। ज्ञान होना। प्रानर्त- संज्ञा, पु० (सं० ) द्वारका, प्रानत किसी वस्तु में श्राना-समाना, घटना, देश का निवाली, नृत्यशाला, नाच-घर, जमकर बैठना, पूरा पड़ना। युद्ध। आई-गई-समाप्त हो जाना, बीत जाना, मानर्तक-वि० ( सं० ) नाचने वाला । भूल जाना। स्त्री० पानतंकी। श्राइच जास-(दे० ) आना-जाना, प्राननित-वि० (सं.) कम्पित, नृत्य | पाइबो-जाइबो, ऐबो जैबो, पाउब-जाब । विशिष्ट, नाचा हुआ। प्रावतजात-पाते जाते। मानबो-स० क्रि० विधि ( दे०) लाइयो, प्रानाकानी-संज्ञा, स्त्री० दे० ( सं० लेबाश्रो, लामो, लाना। अनाकर्णन ) सुनी-अनसुनी करना, न ध्यान (दे० प्रेरणा प्रान, लामो)। देना, टाल मटूल, हीला हवाला, कानापाना-संज्ञा, पु० दे० (सं० प्राणक ) एक फूडी, श्रागा पीछा। रुपये का सोलहवाँ भाग, सोलहवाँ हिस्सा पानाह-संज्ञा, पु० ( स०) मल-मूत्र रुकने (किसी वस्तु का ), चार पैसा । से पेट फूलना। For Private and Personal Use Only Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २४ - श्रानि प्रापण प्रानि-संज्ञा स्त्री. (दे०) श्रान, शपथ, प्रान-स० क्रि० (दे० प्रानना ) ले जाना, मर्यादा। पानना। पूर्व० का० क्रि० (दे०) लाकर, ले पा कर।। श्राप- सर्व० दे० (सं० प्रात्मन् ) स्वयं, "पानि धरे प्रभु पास"- रामा०।। खुद (तीना पुरुषों में)। आनिहौं-स० कि. भा० का० (दे० ) | यौ० भापकाज--अपना काम, जैसेलाऊँगा। " आपकाज महाकाज"। पानीजानी-वि० स्त्री० ( दे० ) आने- वि० श्रापकाजी-स्वार्थी, मतलबी । जाने वाली, अस्थिर। श्रापबीती-अपने ऊपर घटी हुई घटना। प्रानीत-वि० (सं० प्रा+नो+क्त) श्राप रूप-स्वयं, श्राप । लाया हुआ। मु०-पाप-श्राप की पड़ना-अपनी प्रानुकूल्य-संज्ञा, पु० (सं० ) अनुकूलता, अपनी लगना, अपने-अपने काम या स्वार्थ सहायता, कृपा। में लगना अपनी अपनी रक्षा या लाभ का प्रानुपूर्व-संज्ञा, पु. ( सं० ) क्रमिक, ध्यान रहना। अनुकम, क्रमागत, पर्याय, ढब । पार आप को- अलग-अलग, न्यारेप्रानुपूर्वी-वि० (सं०) क्रमानुसार, एक | न्यारे। के बाद दूसरा, क्रमानुगत, अनुक्रम, | प्रापको भूलना--किसी मनोवेग के श्रानुपूर्वीय (सं.)। कारण बेसुध हो जाना, मदांध होना, प्रानुमानिक-वि० ( सं० ) अनुमान घमंड में चूर होना, अज्ञानता में रहना। संबन्धी, काल्पनिक। श्राप को जानना-अपनी आत्मा का श्रानुवंशिक-वि० (सं० ) जो किसी वंश ज्ञान होना, अपने गुण-कर्मादि का बोध में बराबर होता आया हो, वंशानुक्रमिक, होना। वंशपरम्परागत। श्राप से-स्वयं, खुद, स्वतः, श्राप ही। प्रानुश्राविक-वि० (सं०) परंपरा से | आप से प्राप- स्वयमेव, खुद, अकारण । सुना हुआ, जिसे बराबर सुनते चले । श्राप ही श्राप (प्रापही)- बिना किसी थाये हो। और की प्रेरणा के, श्राप से श्राप, स्वगत, प्रानुषंगिक-वि० (सं० ) जिसका साधन मन ही मन में, किसा को संबोधित न किसी दूसरे प्रधान कार्य के करते समय करके, अकारण। थोड़े प्रयास से ही हो जाये, गौण अप्रधान, सर्व०-तुम और वे के स्थान में श्रादरार्थक प्रासांगिक, प्रसंगाधीन, धानुमंगिक । प्रयोग, (व्यंग्य में ) छोटे के लिये-तू, पानृशस्य-संज्ञा, पु० (सं० ) अनिष्ठुरता, के स्थान पर, ईश्वर, भगवान । दया, स्नेह । " जाके हिरदै साँच है, ताके हिरदै आन्वीक्षिकी—संज्ञा, स्त्रो० (सं० ) प्रात्म- श्राप " -- कबीर० । विद्या, तर्क विद्या, न्याय । संज्ञा, पु० दे० (सं० श्राप = जल ) पानी आनेता-संज्ञा, पु० (सं०) पानयन- वारि। कर्ता, बाहरणकर्ता। प्रापगा-संज्ञा, स्त्री. (सं०) नदी, सरिता। प्रान्तरिक-वि० (सं० ) अन्तःकरण- " शैलापगाः शीघ्रतरं बहन्ति"-वाल्मी० । सम्बन्धी, अन्तरस्थ, अंदरूनी, मनोगत, | प्रापण संज्ञा, पु० (सं० ) पण्य, विक्रयमानसिक । __ शाला, दूकान, हाट, बाज़ार । For Private and Personal Use Only Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - श्रापजनक आपसी प्रापजनक-वि० यौ० (सं० ) विपत्ति | श्रापन-संज्ञा, पु० (दे०) श्रात्मा, जीव, जनक, अनिष्टकारक, आपत्तिकारी। ब्रह्म। आपणिक-संज्ञा, पु० (सं० ) वणिक, "तुलसिदास परिहरै तीन भ्रम, सो आपन व्यवसायी, दूकानदार। पहिचान"। आपत्काल-संज्ञा, पु० यौ० ( सं० श्रापनिक-संज्ञा, पु. ( दे० ) पन्नग, विपत्ति, दुर्दिन, दुष्काल, कुसमय, (दे०) पन्ना, मरकत, इन्द्र, नीलमणि, देशविशेष । प्रापनकाल । प्रापन्न-वि० (सं०) आपद्ग्रस्त, दुखी, " प्रापत काल परखिये चारी"। प्रात, जैसे संकटापन्न । श्रापत-संज्ञा, स्त्री० (दे० ) आपत्ति, "प्रायः समापन्न विपत्ति-काले"-हितो। (सं० ) विपत्ति । प्रापन्नसत्वा--संज्ञा, स्त्री० (सं० ) गर्भवती, आपत्ति-संज्ञा, स्त्री० (सं० ) दुःख, क्लेश, गर्भिणी। विपत्ति, संकट, विघ्न, वाधा, श्राफ़त, कष्ट प्रापन्न नाश-संज्ञा, पु० (सं.) आपत्तिकाल, जीविका कष्ट, कठिनाई, दोषारोपण नाश, विपत्ति-विनाश, क्लेशास्त। उज्र, एतराज़। आपमित्यक-- संज्ञा, पु. ( सं०) विनिमयप्रापद-संज्ञा, स्त्री. ( सं० ) विपत्ति, प्राप्त, बदला किया हुश्रा, ग्रहीत द्रव्य ।। आपत्ति, दुःख, कष्ट, विघ्न । प्रापया*-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० आपगा) वि० यौ० (सं० ) मापदग्रस्त -यापत्ति नदी, सरिता । में फँसा हुआ। श्राप रूप-वि० ( हि० प्राप+रूप (सं० ) अपने रूप से युक्त, मूर्तमान, साक्षात् प्रापदा-संज्ञा, स्त्री० ( सं० ) दुःख, (महा पुरुष के लिये ) आप, ईश्वर ।। विपत्ति, क्लेश, अाफ़त, कष्ट-काल। सर्व०-साक्षात् श्राप पाप, महापुरुष, प्रापद्धर्म-संज्ञा, पु० यौ० ( सं० ) केवल हज़रत ( व्यंग्य)। आपत्काल के ही लिये जिसका विधान हो, प्रापम-संज्ञा, स्त्री. (हि. आप + से) ऐसा धर्म या कर्तव्य विशेष, किसी वर्ण के संबन्ध, नाता, भाई-चारा, (जैसे वापस व्यक्ति के लिये वह व्यवसाय या काम के लोग) एक दूसरे का साथ, पारस्परिक का जिसकी आज्ञा और कोई जीवनोपाय के न सम्बन्ध ( केवल सम्बन्ध और अधिकरण होने पर ही हो-जैसे बाह्मण के लिये कारकों में ) परस्पर, निज । वाणिज्य (स्मृति०)। वि० श्रापमाना। प्रापन आपना 8-सर्व० दे० (हि. अपना) मु०-यापस का-इष्टमित्र या भाईअपना, श्राप, श्रात्मा, ( ७० भा० ) बंधु के बीच का, पारस्परिक, एक दूसरे का, आपनो, आपुनो श्रापुन । परस्पर का। स्त्री० श्रापनी। पापस में परस्पर, एक दूसरे के साथ । " श्रापुन खात नंद-मुख ना३"। 2. धापसदारी-परस्पर का व्यवहार, " एहिते जानहु मोर हित, के आपन बड़। __ भाई-चारा। काज"-रामा० । श्रापसा- संज्ञा, पु० (दे०) श्राप के पापनपो, आपनपौ--संज्ञा, पु. यो. समान, श्राप जैसा। (हि. अपना+पराया ) अपनपौ, प्रात्म- श्रापसो-वि. ( हि. आपस ) निजी, भाव, अपना पराया, सुध। | लगे, घरेलू , अपने। For Private and Personal Use Only Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रापस्तंब २४८ श्रापी प्रापस्तंव-संज्ञा, पु. ( सं० ) कृष्ण प्रापा रखना--अपने अस्तित्व को रक्षित यजुर्वेद की एक शाखा के प्रवर्तक ऋषि. | रखना, अपनी मान-मर्यादा या प्रात्म-गौरव पापस्त ब शाखा के कल्प सूत्र कार जिनके बनाये रखना। रचे हुए तीन सूत्र ग्रंथ हैं, एक स्मृतिकार । संज्ञा, स्त्री० (हि० प्राप) बड़ी बहिन प्रापस्वीय-वि० (सं० ) श्रापस्तंव ( मुसल० )। सम्बन्धी, श्रापस्तंबक। छापाक-संज्ञा, 'पु० (दे० ) आँवा, पजावा, कुम्हारों के मिट्टी के बरतनों के पकाने का पापा-संज्ञा, पु० दे० ( हि० अाप ) अपनी स्थान । सत्ता अस्तित्व, अपनी असलियत, अहंकार, घमंड, गर्व, होश-हवा न, सुधि-बुधि ।। आपात-संज्ञा, पु० (सं० ) गिराव, पतन, " श्रापा मारे गुरु भजै, तब पावै करतार" किसी घटना या बात का अकस्मात् ही हो - कबीर० । जाना, यारम्भ, अंत। " ऐपी बानी बोलिये, मन का श्रापा आपाततः--क्रि० वि० ( सं० ) अकस्मात, खोय" -- कबीर। अचानक, अंत को, अाखिरकार, निदान, अंततः, सम्प्रति, काम चलाने के लिये, मु०-ग्रापा खोना-अहंकार छोड़ना, अन्ततोगत्वा। नम्र होना, मर्यादा नष्ट करना, अपना आपातलिका--संज्ञा, स्रो० (सं.) एक गौरव छोड़ना, अपनी सत्ता का अभिमान प्रकार का छंद। हटाना। प्रापाद-पर्यंत प्रत्य० यौ० ( सं० ) पापा तजना ( छोड़ना)-अपनी सत्ता चरणावधि मस्तक पर्यंत, पैर से लेकर सिर को छोड़ना, अात्मभाव का त्याग, घमंड तक, सिर से पैर तक। हटाना, निरभिमान होना, प्राण छोड़ना। आपाद-मस्तक - संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) आपे में आना-होश में आना, होश सिर से पैर तक। हवास में होना, चेत करना। आपाधापी -- संझा, स्त्री० दे० ( हि० श्राप प्रापा भूनना-अपने अस्तित्व या अपनी -धाप ) अपनी-अपनी चिन्ता, अपनी असलियत को भूल जाना। अपनी शुन, खींचतान, लाग डांट, खैचा. पापा जाना-अपना अस्तित्व था मर्यादा तानी। का नष्ट होना। श्रापान-- संज्ञा, पु० (सं० ) मद्यपानार्थ श्रापे में रहना -- अपनी मर्यादा के अन्दर गोष्टी, मतवालों का झंड, मद्यप मदोन्मत्त । रहना, अपने को अपने वश या काबू में आपा पी-वि० (हि. अाप । पथिन् ---- रखना। (सं० ) मनमाने मार्ग पर चलने वाला, श्रापे में न रहना-बेकाबू होना, अपने कुमार्गी, कुपंथी। ऊपर अपना वश न रखना, घबराना, बद श्रापामासाधारग-अत्र्य. यैः० (सं० ) हवा होना, अत्यन्त क्रोध में आजाना। अन्ध मनुष्यों से लेकर सभी मनुष्य, प्रापे से बाहर होना-क्रोध तथा सर्वसधारण, सब छोटे-बड़े, राव रंक। हर्ष दि मनोवेगों के आदेश में होश हवाप प्रापिजर--संज्ञा. पु० (सं० ) स्वर्ण, हेम, खो देना, सुधि-बुद्धि न र वना, तुब्ध होना, कनक, कंचन, सोना। घबराना, उद्विग्न होना, अपनी मयादा से प्रापा - संज्ञा, पु. दे. (सं० प्राप्य ) बाहर चला जाना। पूर्वाषाढ़ नक्षत्र । For Private and Personal Use Only Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आपीड़ सर्व० दे० ( हि० आप ही ) थापही, स्वतः स्वयमेव । www.kobatirth.org प्रापीड़-संज्ञा, पु० (सं०) सिर पर पहनने की चीज़, जैसे पगड़ी, सिरपेंच, शेखर, शिरोमाला, शिरोभूषण, मुकुट, कलँगी, एक प्रकार का विषम वृत्त ( पिंग० ) । प्रापीन - संज्ञा, पु० (सं० ) गोस्तन, इषत्स्थूल, कठोर, मोटा, बड़ा । 66 घु० । श्रापीनभारोद्वहन प्रयत्नात् " प्रापु – सर्व० दे० ( हि० ग्राप ) आप, २४३ " थापस, परस्पर । प्रापूरनाळ - अ० कि दे० (सं० भापूरण ) भरना, परिपूर्ण करना, संज्ञा, पु० पूरन । पूरण - वि० (सं० ) भरा हुआ, पूर्ण, भरा-पूरा । प्रापूरित - वि० (सं० ) परिपूर्ण, भरा हुआ, संतुष्ट । स्वयम् । पु पु कहँ सब भलो तुलसी० । आपुन - सर्व० दे० (हि० अपना ) अपना, आप, आपुनो (० )। प्रमाण, शब्द-प्रमाण पुस – संज्ञा, पु० दे० ( हि० प्रापस ) प्राप्तवर्ग - संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) चात्मीयजन, स्वजन, बंधु-बांधव, माननीय मित्र । प्राप्तवाक्य -- संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) आर्ष वाक्य, किसी विषय के मर्मज्ञ का कथन । प्राप्तसार संज्ञा, पु० (सं० ) आत्म-रक्षण, स्व शरीर- गोपन, स्वायत्त । प्राप्ति - संज्ञा स्त्री० (सं० ) प्राप्ति, लाभ । आप्तोकि – संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं० ) सिद्धान्त वाक्य प्राप्तवचन, विश्वस्त व्यक्ति का कथन । प्राप्यायित वि० (सं० भा + प्याय + क ) तृप्त, प्रीत, संतुष्ट, आनंदित, तर, वृद्धि, वर्धन, तर्पित, एक अवस्था से दूसरी अवस्था को प्राप्त, मृत धातु को जमाना या जीवित करना, दूसरे रूप बदला हुआ । श्रापूति-संज्ञा, स्त्री० (सं० ) ईषत् पूर्ण, सम्यक् पूरण, पूर्ति तक, समाप्ति तक । श्रापेक्षिक - वि० (सं० ) सापेक्ष, अपेक्षा रखने वाला, दूसरी वस्तु के सहारे पर रहने वाला, निर्भर रहने वाला | प्रापेक्षित - वि० (सं० ) जिसकी अपेक्षा, या परवाह की जाये, इष्ट, अभीष्ट (विलोमउपेक्षित ) | प्रापोशन - संज्ञा, पु० ( दे० ) भोजन के पूर्व का आचमन । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्राप्तव कहा हुआ, विश्वस्त, सत्य, बंधु, अभ्रान्त, विश्वसनीय | संज्ञा, पु० (सं० ) ऋषि, शब्द प्रमाण, भाग का लब्ध । प्राप्तकाम - वि० (सं० ) जिसकी समस्त कामनायें पूरी हो गई हों, पूर्ण काम । प्राप्तकारी - वि० (सं० ) प्राप्त करने वाला, विश्वस्त | प्राप्तगर्व - वि० यौ० (सं० ) आत्माहंकार, दुम्भ । प्राप्तग्राही - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) स्वार्थपर, श्रात्मम्भरि, लोभी, लालची । प्राप्तप्रमाण - संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) आर्ष For Private and Personal Use Only में आप्यायन -संज्ञा, पु० (सं० ) तृप्ति, वृद्धि, संतोष, जीवित, जगाना, रूपान्तर । प्रापृच्छा - संज्ञा, स्त्री० (सं०) श्रभाषण, आप्रच्छन -संज्ञा, पु० (सं० ) प्राते-जाते आलाप, जिज्ञासा, प्रश्न । समय मित्रों में परस्पर कुशल प्रश्न- ननित प्राप्त -- वि० (सं० ) प्राप्त, लब्ध, ( यौगिक श्रानंद, कुशल प्रश्नोत्तर | में) कुशल, दत्त, किसी विषय को ठीक वि० [प्राप्रच्छित । तरह से जानने वाला, साक्षात्कृतधर्मा, प्राप्लव-संज्ञा, पु० (सं० ) स्नान, अवगाहन प्रामाणिक, पूर्ण तत्वज्ञ या मर्मज्ञ का जलमय, डूबा हुआ, जल-निमन । भा० श० को ०-३२ Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २५० मालवव्रती श्राफताबी प्राप्लवव्रती-संज्ञा, पु० (सं०) स्नातक | श्राफ़त मचाना-ऊधम मचाना, दंगा ब्राह्मण, प्रामुतव्रती, स्नान का व्रत करना, गुल-गपाड़ा करना, जल्दी मचाना, रखने वाला। उतावली करना, हलचल मचाना । प्राप्लाधन-संज्ञा, पु. ( सं० ) हुबाना, श्राफ़त मचना-दंगा या झगड़ा होना, बोरना, उतावली होना, गुलशोर होना, ऊधम प्राप्लावित-वि० (सं०) डुबोया हुश्रा, होना। अल-मन। श्राफ़त मोल लेना (अपने सिर)-अपने पालत-संज्ञा, पु० (सं० ) स्नान, नहाना, ऊपर या अपने मत्थे व्यर्थ के लिये बखेड़ा स्नातक। उठाना, झंझट करना, विपत्ति का उपस्थित वि० कृतस्नान, विहितावगाहन, सिक्त, करना, झमेला बढ़ाना, उपद्रव पैदा करना, भीगा, डूबा, जलमग्न, गीला । कठिनाई उठाना। पालतवती-संज्ञा, पु. (सं० ) ब्रह्मचर्य श्राफ़त लाना-विपत्ति का उपस्थित करना, पूर्ण कर गृहस्थ आश्रम में प्रविष्ट होने बखेड़ा खड़ा करना, झंझट पैदा करना। वाला, समाप्त वेदाध्ययन, स्नातक, स्नान श्राफ़त पड़ना-उतावली या जल्दी होना शील । विपत्ति पड़ना। आफ़त-संज्ञा, स्त्री. ( आ. ) आपत्ति, अाफ़त डालना-जल्दी करना, उतावली विपत्ति, ऊधम, कष्ट, दुख, मुसीबत, बला, करना, जल्दियाना ( दे० ) घबड़ाना। कान। श्राफ़त का परकाला-वि० यौ० (फा) मु०-श्राफ़त उठाना-दुःख सहना, किसी काम को तेज़ी या फुर्ती से करने विपत्ति भोगना, ऊधम मचाना, हलचल वाला, पटु, कुशल, दक्ष, घोर उद्योगी, मचाना। श्राकाश-पाताल एक करनेवाला, हलचल श्राफत उठना-गड़बड़ी मचना, विपत्ति मचानेवाला, उपद्रवी, ऊधमी। का पैदा हो जाना, मुसीबत आ जाना।। श्राफताब-संज्ञा, पु० ( फ़ा ) सूर्य, सूरज प्राफ़त करना-शरारत या ऊधम करना, . हलचल मचाना। " श्रावै दिव्य दाम अभिराम आफताब श्राफ़त खड़ी करना-विपत्ति उपस्थित श्राब"-श्र० ब० 'सरस' । करना, मुसीबत का पैदा करना, कठिनाई | अाफताबा-संज्ञा, पु० (फ०) हाथ-मुंह उत्पन्न करना। धुलाने का एक प्रकार का गडुश्रा । श्राफत खड़ी होना-मुसीबत भाना, श्राफताबी-संज्ञा, स्त्री. (फा ) पान के कठिनाई का सामने उपस्थित होना। श्राकार का पंखा जिस पर सूर्य का चिन्ह प्राफ़त गिरना-अकस्मात् विपत्ति का बना रहता है और जो राजाओं या बरात श्रा पड़ना। के साथ चलता है, एक प्रकार की प्रातिसग्राफ़त झेलना-मुसीबत उठाना और बाज़ी, दरवाजे या खिड़की के सामने का दुख सहना, कठिनाई को पार करना। छोटा सायबान, या पोसारी। श्राफ़त ढाना-ऊधम, उपद्रव या हलचल | वि० आफताब के समान चमकीला, कांतिमचाना, गड़बड़ी करना, दुख देना, कष्ट या | मान, पीत वर्ण का, गोलाकार, सूर्यतकलीफ पहुँचाना, अनहोनी बात कहना।। सम्बन्धी। For Private and Personal Use Only Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir माफू २५१ श्रावनूसी यौ०-ग्राफताबी गुलकंद-धूप में तैयार | प्राबजोश-संज्ञा, पु० (फा० ) गरम पानी किया हुआ गुलकंद। में उबाला हुमा मुनक्का। श्राफू-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि० अफीम, मि० श्राबदस्त-संज्ञा, पु० ( फा० ) मल-त्याग भरा. अफू ) अफ़यून, अफीम, अमल, के पश्चात् गुदेंद्रिय को जल से धोना, अहिफेन । सौंचना, पानी छूना, सींचा, जलस्पर्श श्राब-संज्ञा, स्त्री० ( फा) चमक, तड़क- करना। भड़क, प्राभा, कांति, पानी, शोभा, रौनक, प्राब-ताब-संज्ञा, स्त्री. (फा० ) तड़क लावण्य, छवि, प्रतिष्ठा. उत्कर्ष। भड़क, चमक-दमक, द्युति, कांति । , संज्ञा, पु० पानी, जल, श्रावदाना-संज्ञा, पु. (फा० ) अन्न-पानी, लो०-ग्राब प्राब कर मर गये दाना-पानी, अन्न-जल, जीविका, रहने का सिरहने रक्खा पानी। संयोग। मु०-श्राब आना-रौनक या छवि मु०-याबदाना उठना-जीविका न श्रा जाना। रहना, रहने का संयोग न रहना । प्राब, जाना-शोभा या ( कान्ति पानी) श्रावदाना रूठना-जीविका न रह जाना, का नष्ट होना, प्रतिष्टा न रहना। रहने का संयोग टल जाना। श्राब चढ़ाना-कलई करना, पानी चढ़ाना, श्रावदाना बदा होना-जहाँ के रहने या उत्साह देना, उत्तेजित करना, रंग चढ़ाना, पहुँचने का संयोग होता है, जहाँ जाना मुलम्मा करना। ही पड़े। श्राब उतरना-पानी या कान्ति का | श्रावदाने के हाथ होना-जीविका के फीका पड़ना, शोभा या छवि का न | वश में होना, रहने के संयोग के वश में रहना, रौनक या चमक का मलीन | हो जाना। प्राबदार-वि० ( फ़ा० ) चमकीला, कांति. श्राब उतारना-प्रतिष्ठा या उत्कर्ष का मान, द्युतिमान । नष्ट करना, अनाहत करना। संज्ञा, पु० पुरानी तोपों में सुंबा और पानी श्राव रखना-शोभा या कांति रखना, का पुचारा देने वाला आदमी। पानी रखना, लज्जा रखना, प्रतिष्ठा या श्राबदारो--संज्ञा, स्त्री० (फा० ) चमक, मर्यादा रखना, प्रारम-सम्मान बनाये रखना, | काति, शोभा, छवि। शील रखना। प्राबद्ध-वि० (सं० ) बँधा हुआ, कैद, श्राब लाना-रौनक या शोभा बढ़ाना, बंदी, सीमित ।। छबि-छटा पैदा करना, कांति आना, यौ० श्रावद्धांजलि-वद्धांजलि, हाथ युवावस्था को प्राप्त होना। जोड़ कर। प्रावकारी-संज्ञा, स्त्री. (फ़ा० ) जहाँ प्रावनूस-संज्ञा, पु० (फा०) एक जंगली शराब चुभाई या बेची जाती है, हौली, वृक्ष जिसके भीतर की लकड़ी बहुत काली शराबखाना, मयखाना, कलवरिया, भट्ठी, होती है। मादक वस्तुओं से सम्बन्ध रखने वाला मु०-भाबनूस का कुंदा-अति कृष्णएक सरकारी विभाग या मुहकमा । वर्ण का मनुष्य । प्राबखोरा-संज्ञा, पु० (फा० ) पानी पीने | पाबनूसी-वि० (फा० ) आबनूस का सा का बरतन, गिलास, कटोरा, प्याला। । रंग, गहरा काला, आबनूस का बना हुआ। होना । For Private and Personal Use Only Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org प्रापाशी प्रापाशी -संज्ञा, स्त्री० ( फ़ा० ) सिंचाई । श्रावरवाँ - संज्ञा स्त्री० ( फ़ा० ) एक प्रकार की बहुत महीन मलमल । यावरू - संज्ञा, प्रतिष्ठा, मान, बड़ाई, बड़प्पन | ----- स्त्री० ( फा० ) २५२ प्रभास संज्ञा, स्त्री० किसी प्रकार की श्रावपाशी होने वाली खेती की भूमि । ( विलोमख़ाकी ) । इज्जत, प्राब्दिक - वि० (सं० ) वार्षिक, सालाना । प्राभ - संज्ञा, स्त्री० सं० ) शोभा, कांति, पानी, छवि । संज्ञा, पु० (सं० ) पानी, आकाश । " अति प्रिय जिसको है वस्त्र पीताभ शोभी " – प्रि० प्र० । श्राभरण --- संज्ञा, पु० (सं० ) गहना, आभूपण, जेवर, अलंकार, भूषण -ये मुख्यतः १२ हैं : नूपुर, किंकिणी, चूड़ी अँगूठी, कंकण, विजायठ, हार, कंठश्री, बेसर, बिरिया, टीका, सीसफूल, पोषण, परवरिश, पालन, पालन-पोषण । भरन - संज्ञा, पु० दे० (सं० आभरण) भूषण, ज़ेवर, गहना । प्राभा - संज्ञा, स्त्री० (सं०) चमक-दमक, कांति, दीप्ति, झलक, प्रतिबिम्ब, छाया, द्युति, ज्योति, प्रकाश, आलोक, प्रभा । आभार - संज्ञा, पु० (सं० ) बोझ, गृहस्थी का भार, गृह- प्रबन्ध की देख-भाल का उत्तर दायित्व या ज़िम्मेदारी, एहसान, उपकार, एक प्रकार का वर्णिक वृत्त । सं०) उपकार मानने मु० - आबरू जाना- इज्जत जाना, अप्रतिष्ठा होना । आबरू के लिये (पीछे) मरना - मान और प्रतिष्ठा के हेतु सर्वस्व त्यागना, एवं बहुत प्रयत्न करना । आबरू रखना या आवरू बनानामान-प्रतिष्ठा को घटने न देना, इनका बढाना या उपार्जन करना । आबरू उतारना ( लेना ) -- बेइज्जती करना । थाबला - संज्ञा, पु० ( फा० ) छाला, फफोला, फुटका (दे० ) ! प्राबहवा – संज्ञा, स्त्री० यौ० ( फ़ा० ) सरदी - गरमी, स्वास्थ्य यादि के विचार से किसी देश की प्राकृतिक स्थिति या दशा, जलवायु । प्राबाद - वि० (फ़ा० ) बसा हुआ, प्रसन्न, कुशल- पूर्वक, उपजाऊ, जोतने-बोने योग्य ( भूमि ) । " उनको इससे क्या ग़रज़ आबाद हूँ आभारी - वि० बरबाद हूँ " - नूह | प्राबादकार - संज्ञा, पु० ( फ़ा० ) जंगल काट कर आबाद होने वाले काश्तकार । भावादानी -संज्ञा स्त्री० ( फ़ा० ) देखो, " प्रावदानी" । आबादी - संज्ञा, स्त्री० ( फ़ा० ) बस्ती, जनसंख्या, मदुमशुमारी, खेती की भूमि, जनस्थान, कुशलता, गाँव । प्राबी - वि० ( फ़ा० ) पानी -सम्बन्धी, पानी का, पानी में रहने वाला, हलके रंग का, फीका, पानी के रंग का, हलका नीला या आसमानी, जलतट-वासी । संज्ञा, पु० समुद्र लवण, साँभर नमक । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir वाला, उपकृत । मु० - आभारी होना - कृतज्ञ या उपकृत होना, एहसानमंद होना, ऋणी होना । श्राभाष- संज्ञा, पु० (सं०) भूमिका, धनुष्ठान, उपक्रमणिका, प्रबंध, सम्भाष । आभाषण-संज्ञा, पु० (सं० था + भाष + चनटू ) श्रालापन, कथन, सम्भाषण, बातचीत, बार्तालाप | वि० प्रभाषित, आभाषणीय । प्रभास - संज्ञा, पु० (सं० ) प्रतिबिम्ब, छाया, झलक, पता, संकेत, मिथ्या ज्ञान, ( जैसे रस्सी में सर्प का ) जो ठीक या असल न हो, जिसमें सत्य की कुछ झलक For Private and Personal Use Only Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पांडित्य । प्राभासित २५३ प्राम मात्र हो जैसे रसाभास, हेत्वाभास, दीप्ति- | आभ्यंतरिक-वि० (सं० ) भीतरी, दोष, अभिप्राय, अवतरणिका। अन्दर का। प्राभासित-वि० (सं०) झलकता हुआ, | प्राभ्युदयिक-वि० ( सं० ) श्राभ्युदय, प्रतिबिंबित । मांगलिक, सम्पन्न, कल्याण-सम्बन्धी, प्राभास्वर-संज्ञा, पु. ( सं० ) चौसठ सौभाग्यवान, शुभान्वित ।। संख्यकगण, देवता विशेष । आमंत्रण-संज्ञा, पु. (सं०) बुलाना, प्राभिचारक-संज्ञा, पु. (सं० अभि+ श्राह्वान, निमंत्रण, न्योता, नेउता (दे०)। चर+णक ) अभिचार-कर्ता, हिंसाकर्म करने | आमंत्रणा-संज्ञा, स्त्री. (सं० ) सलाह, वाला, हिंसक। मशविरा । आभिजात्य-संज्ञा, पु. ( सं० ) वंश- | आमंत्रित-वि० (सं० ) बुलाया हुआ, सम्बन्धी, कोलीन्य, कुलीनता, सदृश, निमंत्रित, न्योता हुआ, पाहूत । वि. प्रामंत्रणीय-निमंत्रित होने के प्राभिधानिक-वि० (सं० ) कोशवेत्ता, योग्य। अभिमुख करण, संमुखीनत्व, सन्मुखता, प्राम-संज्ञा, पु० दे० (सं० प्रान) भारत सामना। का एक प्रधान रसीला मीठा और परमभाभीर-संज्ञा, पु० (सं० ) अहीर, ग्वाला, स्वादिष्ट फल तथा उसका वृक्ष, रसाल, गोप, एक देश विशेष, ११ मात्राओं का अम्बा, अमवा (दे० ) श्रामाशय रोग, (अम–यौगिक में ) जैसे। एक छंद, एक प्रकार का राग। यौ० भाभीर पल्ली-संज्ञा, स्त्री० (सं० ) यौ० अमचूर-आम्रचूर्ण (सं० )। गोपग्राम, गोष्ठ, घोष। अमरस-(सं० आम्र + रस ) अमहर । भाभीरी-संज्ञा, स्त्री० (सं० ) एक संकर वि० (सं० ) कच्चा, अपक्व, प्रसिद्ध । संज्ञा, पु० खाये हुये अन्न के कच्चा रहने रागिनी, अबीरी, प्राकृत भाषा का एक भेद से अनपचकृत सफेद और लसीला मल, विशेष, अहीरी, ग्वालिनी। आँव, आँव गिरने का रोग। प्राभूषण-संज्ञा, पु० (सं०) गहना, जेवर, वि० (अ.) साधारण, मामूली. जनसाआभरण, अलंकार। धारण, जनता। वि० श्राभूषणीय-सजाने योग्य । यौ० ग्राम-खास (खास-श्राम ) राजा प्राभूषन-संज्ञा, पु० ( दे० ) आभूषण या बादशाह के बैठने का महलों के भीतर (सं० ) गहना। का हिस्सा, दरबार प्राम-वह राज-सभा प्राभूषित-वि० (सं०) अलंकृत, सजा जिसमें सब आदमी जा सकें ( विलोम हुआ, सुसज्जित, सँवारा हुआ, कृतभंगार। दरबार ख़ास )। प्राभोग-संज्ञा, पु. (सं० ) रूप में कोई श्राम तौर से ( पर )-साधारणतः कसर न रहना, किसी वस्तु को लक्षित साधारणतया। करने वाली सब बातों की विद्यमानता, वि० (अ० ) प्रसिद्ध, विख्यात ( वस्तु पूर्ण लक्षण, किसी पद्य के बीच में कवि के या बात। नाम का उल्लेख । लोको०-श्राम के श्राम गुठली के माभ्यंतर-वि० (सं० ) भीतरी, आन्तरिक, दाम-दो प्रकार का लाभ देने वाला अंदरूनी। कार्य। For Private and Personal Use Only Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रामड़ा २५४ प्रामादगी प्रामखाना है या पेड़ गिनना-अपने श्रामरस-संज्ञा, पु० दे० (सं० आम्र + रस) मुख्य उद्देश्य की सिद्धि से अभिप्राय है, । अमरस, अमावट । या व्यर्थ का काम करने से। संज्ञा, पु० दे० (सं० श्रामर्ष) क्रोध । आमड़ा-संज्ञा, पु० दे० (सं० आम्रात) आमर्दन-संज्ञा, पु० (सं० ) ज़ोर से मलना, बड़े बेर के समान श्राम के से खट्टे फलों पीसना, रगड़ना। वाला एक वृक्ष विशेष, पामरा (दे०)। वि० श्रामर्दनीय । श्रामद-संज्ञा, स्त्री. (फा० ) प्रवाई, वि० श्रामर्दित-कुचला हुआ, मला हुआ आना, श्रागमन, पाय, आमदनी। पीसा हुआ । स्त्री० श्रादिता। यौ०-आमद-रा-पाना-जाना, श्रावा- प्रामषे-संज्ञा पु. (सं० ) क्रोध, गुस्सा, गमन । रोष, राग, असहनशीलता, एक प्रकार का प्रामदनी-संज्ञा, स्त्री. ( फा० ) श्राय, संचारी भाव। प्राप्ति, आने वाला धन, अन्य देशों से वि० श्रामर्षित---क्रोधित । अपने देश में आने वाली व्यापार की प्रामलक-संज्ञा, पु० (सं०) आमला, वस्तुयें, ( विलोम रतनी) आयात ।। आँवला-ौरा (दे०) अमरा (दे०) प्रामनाय-संज्ञा०० दे० (सं० श्राम्नाय ) अँवरा ( दे० ) धात्री फल । अभ्यास, परम्परा । स्त्री० अल्प०--श्रामलकी। श्रामना-सामना-क्रि० वि० दे० (हि. यो०-हस्तामलक-हाथ में आँवले के सामना ) मुकाबला, भेंट, समक्ष, सामने, समान । मुलाकात । श्रामलकी-संज्ञा, स्त्री. ( सं० ) छोटी प्रामने-सामने-क्रि० वि० दे० (हि. जाति का आँवला, आँवली। सामने ) एक दूसरे के समक्ष, या मुकाबिले | श्रामला-संज्ञा, पु० दे० ( सं० आमलक) में, सामने, सम्मुख । आँवला, कार्तिक मास में इस वृक्ष की श्रामय-संज्ञा, पु० (सं०) रोग, बीमारी, पूजा होती है और लोग इसके नीचे भोजन पीड़ा, व्याधि। करते हैं। श्रामयाबी-वि० (सं० ) रोगी, पीड़ित । | आमवात-संज्ञा, पु. ( सं० ) अाँव गिरने प्रामरक्त-संज्ञा, पु० (सं०) उदर-रोग, ___ का एक रोग, इसमें कभी कभी शरीर सूजकर लाल मल निकलना और पीड़ा होना, पीला भी हो जाता है, पित्त से उत्पन्न अतिसार। चर्म-रोग। श्रामरक्तातिसार-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) श्रामशूल-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) आँव आँव और रक्त के साथ दस्त होने का रोग। के कारण पेट में मरोड़ होने का रोग। प्रामरख -संज्ञा, पुं० दे० (सं० आमर्ष) वायु गोला, वायुशूल, उदर-पीड़ा। क्रोध । प्रामातिसार-संज्ञा, पु. यौ० (सं.) श्राव श्रामरखना -अ० कि० दे० (सं० आमर्ष) के कारण अधिक दस्तों के होने का रोग क्रुद्ध होना, दुःख-पूर्वक रोष करना। विशेष । वि० श्रामरखी-क्रोध करने वाला। प्रामात्य-संज्ञा, पु. (सं० ) अमात्य, प्रधान श्रामरण-क्रि० वि० (सं० ) मरण काल, मंत्री, पात्र। पर्यंत, जिंदगी या जीवन-पर्यंत, आमरन श्रामादगी-संज्ञा, स्त्री. (फा० ) तैयारी, (दे०)। । मुस्तैदी, तत्परता, सन्नद्धता। For Private and Personal Use Only Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org २५५ श्रमादा आमादा - वि० ( फा ) उद्यत, तत्पर, उता (दे० ) तैय्यार, सन्नद्ध, कटिवद्ध । श्रमान्नसंज्ञा, पु० (सं० ग्रम + अ + क्त) कर्म, करणी, अपक्वान्न, तण्डुल, कच्चा अन्न । श्रीमाल - संज्ञा, पु० ( ० ) करनी (दे० ) । ग्रामालनामा -संज्ञा, पु० ( ० ) कर्माकर्म का लेखा, चरित्र - विवरण । वह रजिस्टर जिसमें नौकरों के चाल-चलन तथा उनकी योग्यता आदि का विशेष विवरण रहता है । मु० - श्रमालनामा ख़राब करनारजिस्टर में किसी नौकर की बुराइयों को दर्ज करना । आमाशय -संज्ञा, पु० (सं० ) पेट के अन्दर की वह थैली जिसमें भोजन किये हुए पदार्थ एकत्रित होते और पचते हैं, श्रामस्थली, अतिसार, श्राम रोग । प्रामाहल्दी – संज्ञा स्त्री० दे० (सं० आम्र + हरिद्रा ) एक प्रकार का पौधा जिसकी जड़ रंग में हल्दी के समान और महक में कचूर के समान होती है । आमाहरदी (दे० ) । श्रमिख – संज्ञा, पु० दे० (सं० प्रामिष ) गोश्त । श्रामिल संज्ञा, पु० ( प्र० ) काम करने वाला, अमल करने वाला, कर्तव्य परायण, श्रमला, कर्मचारी, हाकिम, अधिकारी, भोझा, सयाना, सिद्ध साधु, पहुँचा हुया फकीर । वि० (सं० अम्ल ) खट्टा, अम्ल । वि० ( सं० भा + मिल ) सब प्रकार मिला हुआ । “नवनागरि तन मुलक लहि, जोवन श्रामिल जोर "वि० । श्रामिष- संज्ञा, पु० (सं० ) मांस, गोश्त, योग्यवस्तु लोभ, लालच, सम्भोग, घूस, रिशवत, संचय, लाभ, काम के गुण, रूप, भोजन | Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रानाय श्रामिषप्रिय - वि० (सं० ) जिसे मांस प्यारा हो, कंक और बाज़ नाम के पक्षी, हिंसक जंतु । प्रामिषभुक - संज्ञा, पु० (सं० ) मांसाहारी, मांस भक्षक, मांसाशी, गोश्तखोर । प्रामिषाशी - वि० (सं० आमिषाशिन् ) मांस भक्षक, मांस खानेवाला, मांसाहारी । ग्रामी – संज्ञा, स्त्री० ( हि० ग्राम ) छोटा कच्चा श्रम, बिया, प्रमिया (दे० ), एक पहाड़ी वृक्ष । कारणा संज्ञा, स्त्री० (सं० ग्राम कच्चा ) जौ और गेहूँ की भूनी हुई हरी या कच्ची बाल । प्रमुख - संज्ञा, पु० (सं०) नाटक की प्रस्तावना, ( नाट्य-शास्त्र ) । आमूल - वि० ( सं० ) मूल पर्यंत, afa, पहिले से, आदितः मूल से । आपृष्ठ - वि० (सं० था + पृष् + क्त ) मर्दित, उच्छेदित, अपमानित, तिरस्कृत । अमेजना – सं० क्रि० दे० ( फा० आमेज़ ) मिलाना, सानना । " श्रामेज सुगंध सेजै तजी सुभ्र सीतरे "देव । श्रामीद - ( संज्ञा, पु० (सं० ) धानंद, हर्ष, खुशी, प्रसन्नता, दिलबहलाव, तफरीह, सौरभ, गंध । प्रमोद-प्रमोद - संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) भोग-विलास, हंसी-खुशी । प्रमोदित - वि० (सं० ) प्रसन्न, खुश, हर्षित, जी बहला हुआ —- मुदित (दे० ) प्रमुदित, सुगंधित | मोदी - वि० (सं० ) प्रसन्न रहने वाला, खुश रहने वाला, मुख को सुगंधित करने वाला । प्राम्नाय - संज्ञा, पु० (सं० ) अभ्यास, परंपरा, वेद, निगम, उपदेश, प्राचीन परिपाटी, सम्प्रदाय - वेद पाठ और अभ्यास । यौ० - अक्षराम्नाय - वर्णमालाभ्यास । For Private and Personal Use Only Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ग्राम्बर २५६ प्रायास कुलानाय-वंश या कुल की परंपरा, कुल प्रायतन-संज्ञा, पु० (सं०) मकान, घर, की रीति या परिपाटी। मंदिर, ठहरने की जगह, देव-वंदना का स्थान, " तद्वचनादानायस्य प्रामाण्यम् "-। ज्ञान-संचार का स्थान, यज्ञ-स्थान, लम्बाईप्राम्बर-संज्ञा, पु० (दे०) कहरुवा, बनावटी | चौड़ाई, बिस्तार। मूंसा । प्रायत्त-वि. (सं०) आधीन, परवश । प्राम्र-संज्ञा, पु. (सं०) आम का पेड़ | प्रायत्ति-संज्ञा, स्त्री. (सं० ) अधीनता, और फल । वशता। अाम्रकर-संज्ञा, पु० (सं०) अमर-कंटक श्रायति-संज्ञा, स्त्री. (सं० ) उत्तर काल, नाम का एक पर्वत जो दक्षिण में है भविष्यकाल । (मध्यप्रान्त)। प्रायद-वि० (०) आरोपित, लगाया श्राम्राई-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० आम्र) हुआ, घटित, घटता हुआ। आम का बाग, अमराई, अमरैया। प्रायदा-वि० (सं.) आगन्तुक, मागामी, प्रायँती-पायती-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० भविष्य । अंगस्थ -+ पायताना-फा ) सिरहना-पायताना। | प्रायस-संज्ञा, पु० (सं० ) लोहा, लोहे प्राय-संज्ञा, स्त्री० (सं०) आमदनो, आमद, का कवच । लाभ, प्राप्ति, धनागम । प्रायसी-वि० (सं० आयसीय ) लोहे का । कि० अ. ( आना) पू० का० - प्राइ, | संज्ञा, पु० (सं०) कवच, जिरह-बख़्तर। प्राकर, भाके, अव्य० खेद या दुख-सूचक शब्द, (दे० हि० – हाय ) " रे" के साथ | | प्रायसु-संज्ञा, स्त्री. दे. (सं० आदेश) प्रायरे (हायरे)। प्राज्ञा, हुक्म, प्रेरणा । यौ०-पाय-व्यय-आमदनी और खर्च । “सतानन्द तब प्रायसु दीन्हा"प्रायव्यय-निरीक्षक-संज्ञा, पु. यौ. रामा०। (सं०) जमा-खर्च के हिसाब की जाँच पाया-प्र. क्रि० (हि. पाना) पाना करने वाला, आडीटर ( अं०)। का भूतकालिक रूप। अम्रडन-संज्ञा० . ( सं० ) पुनरुक्ति, संज्ञा, स्त्री. (पुर्त० ) अंग्रेजों के बच्चों को द्विवार या त्रिवार कथन, एक ही बात दूध पिलाने तथा उनकी रक्षा करने वाली, को बार बार कहना।। स्त्री, धाय, धात्री, उपमाता। प्रामेडित-वि० (सं० ) पुनरुक्ति किया अव्य० (फा० ) क्या, कि, ( वज. कैधों हुमा, बारम्बार किया हुश्रा। के समान) यथा-आया तुमने किया या प्रायत-वि० (सं० ) विस्तृत, लंबा-चौड़ा, दीर्घ, विशाल, बहुत बड़ा। प्रायात-संज्ञा, पु. (सं०) देश में बाहर संज्ञा, स्त्री० (म.) इंजील या कुरान का से आया हुमा माल, आगत, उपस्थित, वाक्य । आया हुआ। संज्ञा, पु० (सं०) वह समानान्तर चतुर्भुज मायाम-संज्ञा, पु० ( सं० ) लम्बाई, क्षेत्र जिसका एक कोण समकोण हो और विस्तार, नियमन, नियमित रूप से करने लम्बाई, चौड़ाई की आपेक्षा अधिक हो। की क्रिया, नियंत्रित करने का भाव, "पाथोदगात सरोज मुख राजीव पायत | जैसे प्राणायाम । लोचनम् "-रामा०। | प्रायास-संज्ञा पु० (सं०) परिश्रम, मेहनत नहीं। For Private and Personal Use Only Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आयु २५७ श्रार श्रान्ति, श्रम, क्लेश, व्यायाम, प्रयास, प्रायुष्टोम-संज्ञा, पु० (सं०) आयु-वृद्धियत्न । कारक एक प्रकार का यज्ञ, चिरजीवन-प्रद वि० श्रायासी-परिश्रमी। यज्ञ। प्राय-संज्ञा, स्त्री० (सं०) वय, उम्र, प्रायमान्-वि० ( सं० ) दीर्घजीवी, ज़िन्दगी, अवस्था. जीवन-काल । दीर्घायु, ज्योतिष के २७ योगों में से मु०-" श्रायु खुटना"-आयु कम तीसरा। होना। स्त्री० आयुष्मती-चिरजीविनी। "सो जानै जनु आयु खुटानी"-रामा० ।। आयुष्य-संज्ञा, पु० (सं०) श्रायु, उम्र, प्रायु की रेख मिटाना-मृत्यु का अाह्वान अवस्था । करना, मृत्यु बुलाना, मरण की इच्छा | वि० (सं० ) आयु का हितकारक, प्रायुकरना। वर्धक । "श्रायु की रेख मिटावति मानौ"- श्रायोगव-संज्ञा, पु० (सं० ) वैश्य स्त्री और मति । शूद पुरुष से उत्पन्न एक संकर जाति, प्रायुदीय- संज्ञा, पु० (दे० ) अवस्था, उम्र, बढ़ई ( स्मृति)। श्रायु । प्रायोजन-संज्ञा, पु० (सं० ) किसी कार्य श्रायुध-संज्ञा, पु. ( सं० ) हथियार, में लगना, नियुक्ति, प्रबंध, इंतिजाम, शस्त्र, अस्त्र । तैय्यारी, उद्योग, सामग्री, सामान, साजप्रायुधागार-संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) सामान, संज्ञा, स्त्री० (सं०) प्रायोजना। अस्त्रागार, शस्त्रालय। प्रायोजित - वि० (सं० ) कृतोद्योग, आयुधिक-वि० ( सं० ) अस्त्रजीवी, नियुक्त किया हुआ, सुव्यवस्थित, शस्त्रधारी। विधानित। आयुधीय-वि० (सं० ) अस्त्रधारी, शस्त्रा- | प्रायोधन-संज्ञा, पु० (सं०) युद्ध, रण, जीव । संग्राम, लड़ाई, युद्ध करना। प्रायुबल-संज्ञा, पु० ( सं० ) श्रायुष्य, वि० प्रायोधित-कृत युद्ध । उम्र, अवस्था। वि० (सं० ) प्रायोधनीय-युद्ध के योग्य । आयुर्वेद-संज्ञा, पु० चौ० (सं० ) आयुसम्बन्धी शास्त्र, चिकित्सा शास्त्र, धन्वन्तरि प्रारम्भ-संज्ञा, पु० (सं० ) किसी कार्य की प्रथमावस्था का सम्पादन, अनुष्ठान, उत्थान, प्रणीत श्रायु-विद्या, अथर्ववेद का उपवेद, उपक्रम, शुरू, किसी वस्तु का श्रादि, शुरू वैद्यक विद्या, निदान शास्त्र, श्रायु-विज्ञान, का हिस्सा, उत्पत्ति, श्रादि, श्रीगणेश, वैद्य-विद्या। प्रारम्भ । प्रायुर्वंदीय-वि० यौ० (सं०) आयुर्वेदज्ञ, प्रारम्भना -अ. क्रि० दे० (सं० चिकित्सक, वैद्य, आयुर्वेद सम्बन्धी । प्रारंभण) शुरू होना। प्रायुष्कर-वि० (सं० ) परमायु-जनक, | स० क्रि० प्रारम्भ करना, प्रारम्भ करना, आयुवर्धक, दीर्घायु करने वाला। शुरू करना। प्रायुष्काम-वि० (सं०) दीर्घजीवना- | " अवध अरंभेउ जबते"-रामा० । भिलाषी, परमायुप्रार्थी, दीर्घजीवी, चिर-पार - संज्ञा, पु० (सं०) एक प्रकार का जीवनैषी। | बिना साफ किया हुमा, निकृष्ट लोहा, भा० श. को०-३३ For Private and Personal Use Only Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रारक्त २५८ प्रारबल पीतल, किनारा, कोना जैसे द्वादशार चक्र, श्रारण्यक-वि० ( सं० ) वन का, जंगली । पहिये का थारा. हरताल, कांटा, पैना संज्ञा, पु. (सं० ) वेदों की शाखा का वह अंकुश, मंगल, शनि, ताँबा, लोहार, भाग जिनमें वानप्रस्थों के कृत्यों या कर्तव्यों चमार। । का विवरण और उनके हेत उपयुक्त उपदेश संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० अल = डंक ) सांटे हैं। जैसे वृहदारण्यक उपनिषद् । या पैने में लगी हुई लोहे की पतली कील, | प्रार*- वि० दे० (सं० प्रात) पीड़ित, अनी, पैनी, नरमुर्ग के पंजे के ऊपर का दखी. व्याकल. कातर । काँटा बिच्छू, भिड़ (बरं ) या मधुमक्खी “भारत काह न करै कुकर्मा "-रामा० । का डंक। सुनतहि भारत-वचन प्रभु-रामा० । संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० मारा ) चमड़ा भारता-संज्ञा, पु० (दे०) दूल्हे की छेदने का सुश्रा या टेकुवा, सुतारी।। भारती, विवाह की एक रस्म या रीति संज्ञा, पु० दे० (हि. अड़) ज़िद, हठ, विशेष । टेक। प्रारति-संज्ञा, स्त्री० (सं० ) विरक्ति, "अँखियाँ करति हैं अति भार" निवृत्ति, दुख । सूर० । "चंदहिं देखि करी अति प्रारति"--सूर० । संज्ञा, स्त्री० (अ.) तिरस्कार, घृणा, श्रदा "मो समान भारत नहीं प्रारतिहर तोसों" वत, शत्रुता, शर्म, बैर, लज्जा। --विन। "पार औ प्यार तौ रारि रचें चितचाह श्ररी भारती-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० पारात्रिक ) अनुपारि न पावै"--रसाल । किसी मूर्ति के चारों ओर सामने दीपक प्रारक्त-वि० (सं०) लालिमा लिये हुये, घुमाना, देवता को दीप दिखाना, दीपकुछ लाल, लाल, रक्त वर्ण का। दर्शन, नीराजन, (पोडशोपचार पूजन में ) पारग्वध-संज्ञा, पु० (सं० ) अमिलतास । वह पात्र जिसमें कपूरा या घी की बत्ती रख पारचा-संज्ञा, स्त्री. (सं० ) मूर्ति, प्रतिमा, अर्चा, पूजा। कर भारती की जाती है, भारती के समय पढ़ा जाने वाला स्तवन या स्तोत्र । श्रारज*-वि० दे० (सं० आर्य) श्रेष्ठ, उत्तम, पूज्य । पारन* - संज्ञा, पु० दे० (सं० प्रारण्य ) टूटि गयो धर को सब बंधन छूटिगो आरज जंगल, वन । लाज बड़ाई"-रस०। " कीन्हेंसि सावन आरन रहै "-प० । प्रारजा--संज्ञा, पु० (अ.) रोग, बीमारी, श्रार-पार-संज्ञा, पु. (सं० पार = किनारा व्याधि। +पार = दूसरा किनारा ) यह किनारा और संज्ञा स्त्री० दे० (सं० आर्या ) पूज्या, एक वह किनारा, यह छोर और वह छोर, इधरछंद विशेष। उधर। प्रारजू-संज्ञा, स्त्री० (फा० ) इच्छा, वांछा, क्रि० वि० (सं०) एक किनारे या छोर से अनुनय, विनय, प्रार्थना, बिनती। दूसरे किनारे या छोर तक, एक तल से " तजि पार जू आरजू मेरी सुनौ"- दूसरे तल तक, जैसे आर-पार जाना, बारसरस। पार छेद होना। भारण्य---वि० (सं० ) जंगली, धन का, आरबल-(आरबला) संज्ञा, पु० दे० वन्य। । (सं० आयुर्बल ) श्रायु, अवस्था, उन । For Private and Personal Use Only Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रारब्ध २५६ श्रारामकुरसी श्रारब्ध-वि० (सं० ) उपक्रान्त, प्रारंभ धाराति-संज्ञा, पु. (सं०) शत्रु, बैरी, किया हुअा। बिपक्षी, रिपु, दुश्मन, विरोधी-पाराती। धारभटी-संज्ञा, स्त्री० (सं०) क्रोधादिक उग्र " सुधि नहिं तव सिर पर पाराती"भावों की चेष्टा, नाटक में एक वृत्ति का नाम, रामा। जिसमें यमक का प्रयोग अधिक होता है, श्रारात्-प्रव्य० (सं०) दूर, निकट, और जिसका प्रयोग इन्द्रजाल, संग्राम, समीप । क्रोध, प्राघात, प्रतिघात, रौद्र, भयानक श्रारात्रिक-संज्ञा, पु० (सं० ) आरती, और वीभत्स आदि रसों में किया जाता है। नीराजन, नीराजन-पात्र, आरति-प्रदीप । " झूठो मन झूठी यह काया झूठी प्रार- श्रागधक-वि० (सं० ) उपासक, पूजा भटी"-सूर०। करने वाला सेवक, पुजारी, अर्चक । पारव-संज्ञा, पु० (सं० ) शब्द, आवाज़, __ स्त्री. प्रागधिका। श्राहट । अाराधन-संज्ञा, पु. (सं० ) सेवा, पूजा, " घुरघुरात हय आरव पाये"-रामा० । उपासना, तोषण, प्रसन्न करना। श्रारषी-वि० स्त्री० (सं० आर्ष) आर्ष, अाराधना—संज्ञा, स्त्री. (सं० ) पूजा, ऋषियों की। उपासना, सेवा,। पारस-संज्ञा, पु. ( दे.) आलस्य स० क्रि० (सं० अाराधन ) उपासना (सं० )। करना, पूजना, संतुष्ट करना, प्रसन्न करना। "श्रति ही नींदर नैन उनीदे पारस रंग वि० श्राराधनीय-आराधना के योग्य ।। भयो है "-श्र० अ०। प्रागधित-वि० ( सं० ) उपासित, आरसी-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० आदर्श) सेवित, पूजित । शीशा, दर्पण, आईना, शीशा जड़ा हुआ श्राराध्य--वि० (सं० आ+राध्+य ) कटोरी के आकार का एक प्राभूषण जो उपास्य, सेवनीय, सेव्य, पूज्य, आराधना अँगूठे में पहना जाता है (दाहिने हाथ में)। के योग्य । वि० दे० ( पारस ) आलसी, काहिल, श्राराम-संज्ञा, पु० (सं० ) बाग़, उपवन, अरसीला। बाटिका “परम रम्य पाराम यह, जो रामहिं पारा-संज्ञा, पु. ( सं० ) लोहे की दाँतो. सुख देत"-रामा। दार पटरी जिससे लकड़ी ( रेतकर ) चीरी संज्ञा, पु० ( फ० ) चैन, सुख, चंगापन, जाती है, चमड़ा सीने का टेकुमा सुतारी, सेहत, स्वास्थ्य, विश्राम, थकावट मिटाना, सूजा, कराँत, दरांच, क्रकच। दम लेना, सुविधा, शान्ति । संज्ञा. पु० दे० (सं० ग्रार ) लकड़ी की मु०-माराम करना-सोना, अच्छा चौड़ी पटरी, जो पहिये की गड़ारी और करना। पुट्टी के बीच में जड़ी रहती है, पाला, श्राराम में होना-सुख में होना, सोना । ताक, अरवा (दे०)। श्राराम लेना-विश्राम करना। "थारे मनि खचित खरे "-के। पाराम से--फुरसत में, धीरे धीरे । पाराकस-संज्ञा, पु० (फा० ) पारा पाराम होना-चंगा या भला होना । चलाने वाला, लकड़ी चीरने वाला, बढ़ई। श्रागमकुरमी-'ज्ञा, स्त्री० यो० (फा० प्रागज'-संहा, स्त्री. (अ.) भूमि, +4. ) एक प्रकार की लम्बी कुरसी ज़मीन, खेत । जिस पर लेट भी सकते हैं। For Private and Personal Use Only Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org श्रारामगाह २६० आरोपण ( सं० आरव ) प्रारामगाह -संज्ञा, पु० ( फा० ) आराम करने का स्थान, शयनागार, सोने की आरोळ - संज्ञा, पु० दे० ( शब्द, आवाज़ | आरोग - वि० दे० (सं० आरोग्य ) स्वास्थ्य, निरोग | आरोगना * - स० क्रि० दे० (सं० आ रोगना - रुज - हिंसा ) भोजन करना, जगह । आरामतलब - वि० ( फा० ) सुख चाहने वाला, सुकुमार, सुस्त, श्रालसी । श्रारास्ता- वि० ( फा० ) सजा हुआ, श्रलंकृत | खाना । प्रारिक - संज्ञा, स्त्री० दे० (हि- ग्रड़ ) ज़िद, हठ, मर्यादा, सीमा । “नीके पुल श्रारोगे रघुपति पूरन भक्ति प्रकासी " - सूर० । "( कान्ह बलि जाऊँ ऐसी श्ररि न कीजै " - सू० । आरोग्य - वि० (सं० ) रोग-रहित, स्वस्थ, रोगाभाव, अनामय, धाराम, तंदुरुस्त । उनइ श्राये साँवरे तेज सनी देखि रूप की आरोग्यता - संज्ञा स्त्री० (सं० ) निरोगता, चारि ". - सू० 1 स्वास्थ्य | संज्ञा, पु० (सं० ) प्ररोधन - रोक, बाधा, थाइ । प्रारिया - संज्ञा, स्त्री० (दे० ) बर्सात में प्रारोधना - स० क्रि० दे० (सं० आ + होने वाली एक प्रकार की ककड़ी । धन ) रोकना, छेकना, आड़ना । वि० जिद्दी, हठी, हठ करने वाला । प्रारी - संज्ञा स्त्री० दे० ( हि० धारा का अल्प० 1) लकड़ी चीरने का एक औज़ार, छोटा, धारा, बैलों के हाँकने के पैने की नोक पर लगाई जाने वाली लोहे पतली नुकीली कील, जूता सुतारी । वि०. प्रारोधित -- रुँधा हुआ, घेरा हुआ, रोका हुआ । की एक वि० [प्रारोधक — रोकने वाला, घेरने सीने की संज्ञा, स्त्री० (दे० ) ओर ( सं० श्रार = किनारा ) तरफ, कोर, छोर, श्रवँठ । वि० ( मरि - हि० ) हठी, ज़िद्दी | प्रारंधन -संज्ञा, पु० (सं०) रुंधना, दबाना, स्वासावरोध, बेड़ा, घेरा । वि० आरुंधित – रूंधा या घेरा हुआ, कंठावरोध | वि० [प्रासंधक, प्रारंधनीय | श्रारूढ़ - वि० (सं० ) चढ़ा हुआ, सवार, हद, स्थिर, किसी बात पर जमा हुआ, सन्नद्ध, तत्पर, उतारू, कटिबद्ध, तैयार । प्रारूद यौवना – संज्ञा स्त्री० यौ० (सं० ) मध्या नायिका के चार भेदों में से एक । आरेस संज्ञा, पु० (दे० ) ईर्ष्या, डाह | 66 "" कबहुँ न करेहु सवति श्ररेलू रामा० । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir वाला । वि० [प्रारोधनीय - श्रारोधन - योग्य, घेरने लायक । आरोप - संज्ञा, पु० (सं० ) स्थापित करना, लगाना, मदना, (जैसे, दोषारोप ) किसी वृक्ष को एक स्थान से उखाड़ कर दूसरे स्थान पर लगाना या जमाना, रोपना, बैठाना, झूठी कल्पना, एक पदार्थ में दूसरे के धर्मादि की कल्पना करना, एक वस्तु में दूसरी वस्तु के लक्षणों या गुणों का मदना ( काव्य ) मिथ्या रचना, बनावट, कल्पना, भ्रम । आरोपण - संज्ञा, पु० (सं० ) लगाना, स्थापित करना, मदना, पौधे को एक स्थान से उखाड़ कर दूसरे स्थान पर बैठाना, या लगाना, रोपना, जमाना, किसी वस्तु में दूसरी वस्तु के गुणों की कल्पना करना, मिथ्या ज्ञान स्थापन । For Private and Personal Use Only Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रारोपना २६१ प्रार्दा प्रारोपनास-स० कि० दे० (सं० भारोपण ) खाया हुआ, दुखी, कातर, अस्वस्थ्य, लगाना, जमाना, बैठाना, स्थापित करना, भारत (दे०)। रोपना ( दे०)। | श्रार्तता-संज्ञा, स्त्री० (सं० ) पीड़ा, दर्द, प्रारोपित-वि० ( सं० ) स्थापित किया दुख, क्लेश, व्यथा, विकलता, कातरता । हुआ, बैठाया हुआ, लगाया हुआ, रोपा आर्तनाद-संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) दःखहुअा, जमाया हुआ, मढ़ा हुआ। सूचक शब्द, पीड़ा से निकली हुई ध्वनि, वि० श्रारोपक। आह, कराह, चीत्कार, कातर स्वर । प्रारोपणीय-धारोपनीय (दे० )-वि० श्रार्तव-वि० (सं० ) ऋतु से उत्पन्न, (सं० ) आरोपित करने के योग्य, स्थापित मासिमी, सामयिक। करने योग्य। संज्ञा, पु० (सं० ) स्त्री का रज, स्त्रियों का प्रारोह–संज्ञा, पु० (सं० ) ऊपर की ओर | ऋतु-काल, मासिक पुष्प। गमन, चढ़ाव, थाक्रमण, चढ़ाई, घोड़े-हाथी | प्रार्तस्वर-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) दुःखश्रादि पर चढ़ना, सवारी, जीवात्मा की सूचक ध्वनि, आर्तनाद, कातर गिरा, कराह, ऊर्ध्वगति (क्रमानुसार ) या जीव का चीत्कार। क्रमशः उत्तमोत्तम योनियों का प्राप्त करना | प्राधिज्य-संज्ञा, पु० ( सं० ) ऋत्विज का ( वेदा० ) कारण से कार्य का प्रादर्भाव, कर्म, पौरोहित्य, पुरोहिती, पुरोहित-कर्म । या पदार्थों की एक अवस्था से दसरी की | आर्थिक-वि० (सं० ) धन सम्बन्धी, द्रव्यप्राप्ति, जैसे बीज से अंकुर होना, जुद्र, और सम्बन्धी, रुपये पैसे का, माली । अल्पचेतना वाले जीवों से क्रमानुसार उन्नत यौ० अार्थिक कष्ट ( कठिनाई )--धना प्राणियों की उत्पत्ति, आविर्भाव, विकास, भाव से कष्ट, दैन्य-दुख, ग़रीबी के क्लेश । उत्थान, (अाधुनिक ) नितंब, स्वरों का अार्थिक चिंता- धन की फ़िक्र, धनचढ़ाव या नीचे स्वर के पश्चात् क्रमश: चिंता। ऊँचे स्वर निकालना ( संगीत)। श्रार्थिक दशा-माली हालत, धन-धान्य की अवस्था। प्रारोहण-संज्ञा, पु. ( सं० ) चढ़ना, प्रार्थिक प्रश्न-धन या रुपये-पैसे का सवार होना, चढ़ाव, सीढ़ी, सोपान, अंकुर सवाल या बात। का प्रादुर्भाव । प्रार्थिक-संकट-धन-सम्बन्धी कठिनाई या आरोहित-वि० (सं० ) चढ़ा हुआ, सवार, संकट, दीनता के दुख या कष्ट । उन्नत । प्रार्थिक-समस्या-धन सम्बन्धी बातें । प्रारोही-वि० (सं० प्रारोहिन् ) चढ़ाने प्रार्थी-संज्ञा, स्त्री० (सं० ) अर्थ से सम्बन्ध वाला, ऊपर जाने वाला, सवार । रखने वाली उपमा-भेद, एवं अन्य कतिपय संज्ञा, पु. (सं० ) षड़ज से निपाध तक ! अलंकारों के भेद। क्रमशः या उत्तरोत्तर चढ़ने वाला, | वि० (सं० ) प्रार्थना करने वाला, प्रार्थी । स्वरसाधन । आर्द्र-वि० ( सं० ) गीला, भीगा हुआ, प्रार्जव--संज्ञा, पु. ( सं० ) सीधापन, सरस, सजल । ऋजुता. सरलता सुगमता, व्यवहार का प्राक-संज्ञा, पु० (सं० ) अदरक, श्रादी। सारल्य, नम्रता, विनय, सिधाई (दे०)। आा-संज्ञा, स्त्री० (सं० ) सत्ताईस नक्षत्रों मार्त-वि० ( सं० ) पीड़ित, व्यथित, चोट | में से छठवाँ नक्षत्र, वह समय जब सूर्य For Private and Personal Use Only Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मागी। श्रा -लुब्धक २६२ श्रालंबन श्रार्द्रा नक्षत्र में होता है, श्राषाढ़ का आर्या-संज्ञा, स्त्री० (सं० ) पार्वती, सास, श्रारम्भ-काल, ग्यारह वर्णों का एक वर्णिक | दादी, पितामही, एक प्रकार का अर्ध वृत्त, अदरक, प्रादी-अद्रा (दे०)। मात्रिक छंद। प्रार्दा-लुब्धक-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) यौ० प्रार्या सप्तसती-संस्कृत का एक केतु ग्रह । प्रधान काव्य-ग्रंथ जिसमें ७०० आर्या प्रार्द्रा-धीर--संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) वाम छंद हैं। आर्या-गीत-संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) श्रााशनि-संज्ञा, पु. यौ० (सं० ) बिजली, आर्या छंद का एक भेद विशेष।। एक प्रकार का अग्नि सम्बन्धी अस्त्र । आर्यावर्त-संज्ञा, पु. ( सं० ) उत्तरीय आर्य- वि० (सं० ) श्रेष्ठ, उत्तम, बड़ा, भारत, विन्ध्य और हिमालय पर्वत का पूज्य, श्रेष्ठ कुल में उत्पन्न, मान्य, सेव्य ।। मध्यवर्ती देश, पुण्य भूमि, आर्यों का संज्ञा, पु० (सं० ) श्रेष्ठ पुरुष, सत्कुलोत्पन्न, . निवास स्थान । एक मानव जाति जिसने सबसे प्रथम संसार | प्रार्ष-वि० (सं० ) ऋषि सम्बन्धी, ऋषिमें सभ्यता प्राप्त कर प्रचालित की थी। प्रणीत, ऋषिकृत, वैदिक, ऋषि-सेवित । स्त्री०-आर्या। पार्षप्रयोग-संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) शब्दों प्रार्य पुत्र-संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) पति का वह व्यवहार या प्रयोग जो व्याकरण के पुकारने का एक संबोधन शब्द (प्राचीन) के नियमानुकूल न हो, परन्तु प्राचीन ऋषिभर्ता, स्वामी, गुरु-पुत्र, पति। प्रणीत ग्रंथों में प्राप्त हो। ऐसे प्रयोगों का आर्य भट्ट-संज्ञा, पु० (सं० ) सुविख्यात । अनुकरण नहीं किया जाता, यद्यपि इन्हें भारतीय ज्योतिर्वेत्ता एवं गणित-विद्या- अशुद्ध भी नहीं माना जाता। विशारद, जो ४७५ ई० में कुसुमपुर नामक भाषे विवाह-संज्ञा, 'पु० यौ० (सं० ) पाठ स्थान में हुये थे, इन्होंने प्रसिद्ध ज्योतिष प्रकार के विवाहों में से तीसरे प्रकार का ग्रंथ, आर्य सिद्धान्त की रचना की और विवाह, जिलमें वर के पिता से या वर से सप्रमाण सिद्ध करके सौर केन्द्रिय मत का कन्या का पिता दो बैल शुल्क में लेकर प्रचार किया और पृथ्वी श्रादि ग्रहों को कन्या देता है। अब इस प्रकार के विवाह सौर जगत में अवस्थित होकर सूर्य की का प्रचार नहीं रहा। प्रदक्षिणा करता हुआ सिद्ध किया, इन्होंने | आलंकारिक-वि० ( सं० ) अलंबारबीज गणित का भी एक ग्रंथ रचा। सम्बन्धी, अलंकार युक्त, अलंकार जानने श्रार्य मिश्र-वि० यौ० ( सं० ) मान्य, । वाला श्रालंग-संज्ञा, पु० दे० घोड़ियों की मस्ती। प्रार्य क्षेमेश्वर-संज्ञा, पु० (सं० )[समय- पालंब-संडा, पु० ( सं० ) अवलंब, पाश्रय, १०२६-१०४० ई. के लगभग ] बंगाल के सहारा, गति, शरण, उपजीव । पाल वंशीय राजा कवि, इन्होंने नृपाज्ञा से प्रालंबन --- संज्ञा, पु०( सं० ) सहारा श्राश्रय, चंड कौशिक नामक महीपाल के राज का अवलंब, वह वस्तु जिसके अवलंब से रस एक सुन्दर नाटक संस्कृत में रचा।। की उत्पत्ति होती है, जिसके प्रति किसी श्रार्य समाज-संज्ञा, पु. ( सं० यौ० ) एक भाव का होना कहा जाय, जिसमें किसी धार्मिक समाज या समिति जिसके संस्था स्थायी भाव को जाग्रति हुई हो, जो रस पक स्वामी दयानंद सरस्वती थे। का प्राधार हो, जैसे नायक-नायिका पूज्य, श्रेष्ठ । For Private and Personal Use Only Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गमला। प्रार्लभ प्रालाप (शृंगार ) शत्रु (रौद्र ), किसी वस्तु का के लिये बनाया जाने वाला गड्ढा, जलाधार, ध्यान-जनित ज्ञान (बौद्ध मत) साधन, कारण। पालप-संज्ञा० पु. ( अ०) दुनिया, संसार, पालंभ-संज्ञा, पु० (सं० ) छूना, मिलना, अवस्था, पशा, जन-समूह, जनता। पकड़ना, मारण, वध । पात्तमारी-संज्ञा, स्त्री० दे० (अ० अलमरा) पान--संज्ञा, पु० (सं० ) हरताल, पीत अलमारी। वर्ण। श्रालय -संज्ञा, पु० (सं०) घर, मकान, संज्ञा, स्त्री० (सं० अल-भूषित करना ) एक स्थान, गृह, वाप-स्थान । प्रकार का पौधा जिपकी जड़ और छाल पालस-वि० (सं० ) श्रालसी, सुस्त । से लाल रंग बनता है, इस पौधे से बनाया *संज्ञा, पु. ( दे० ) आलस्य, सुस्ती, हुआ रंग। पारस (दे०)। संज्ञा, पु० ( अनु० ) झंझट, बखेड़ा, झमेला। पालसी-वि० दे० (हि० बालस ) सुस्त, संज्ञा, पु० (सं० आई ) गीलापन, तरी, काहिल, अकर्मण्य । आँसू, “भरि पलकन मैं आल"। प्रालस्य - संज्ञा, पु० (सं०) कार्य करने संज्ञा, स्त्री० (अ.) बेटी की संतति । में अनुत्साह, उत्साहाभाव, ढिलाई. शिथियौ० पाल-औलाद--बालबच्चे, एक- ! लता, सुस्ती काहिली, अलसता, तन्द्रा । यो० प्रालस्यत्याग-( सं० ) जम्भण, कीड़ा, वंश, खानदान, कुल, परिवार । जभाई, गाव-भंग। पालकस-संज्ञा, पु० दे० (सं० आलस्य) पाला-संज्ञा, पु० दे० (सं० प्रालय ) ताक, पालस्य-प्रान्स (दे० ) पारस (दे०) ताखा, अरवा। वि. पालकमी-पालसी।। वि० ( अ० ) सब से बढ़िया, श्रेष्ठ, उत्तम, पालथी-पालयो---संज्ञा, स्त्री० दे० ( हि० | हरा, ताज़ा। पाल थी) बैठने का एक श्रासन जिसमें संज्ञा, पु० (अ.) औज़ार, हथियार । दाहिनी एंडी बाई जंधे पर और बाई एंडी वि० दे० (सं० आई ) श्रोदा, गीला, दाहिनी जाँघ पर रखते हैं। सरस। पालन -- संज्ञा, पु० (दे० ) पाक विशेष, श्रालाइश-अलाइस-(दे०) संज्ञा, स्त्री० अलोना, लवण-रहित । (फा० ) गंदी वस्तु, मल, गलीज़, यौ० पालन-सालन- दाल तरकारी आदि कूड़ाकरकट। रोटी श्रादि के साथ खाने की वस्तुयें।ालात-संज्ञा, पु० (सं०) जलती हुई पालना-संज्ञा, पु. ( दे० ) घोसला, लकड़ी। खुंता, खोता। यौ० पालातचक्र-जलती हुई लकड़ी यौ० पालना-पालना-- पलंग या खाट | आदि के चारों ओर घुमाने से बना हुआ पादि। एक प्रकाश का घेरा या वृत। मालपीन-संज्ञा, स्त्री० ( पुर्त० पालफिनेट) पालान-संज्ञा, पु० (सं० ) हाथी के बाँधने एक धुंडीदार सुई जिससे काग़ज़ आदि का खूटा, रस्सा या जंजीर, बेड़ी, झंझट । के टुकड़े नत्थी किये जाते हैं। | पालाप-संज्ञा, पु. (सं०) कथोपकथन, प्रालबाल-संज्ञा, पु. (सं०) कियारी, संभाषण, बातचीत, सात स्वरों का साधन गला, आँवला, पौधों के नीचे पानी भरने । (संगीत ) तान । For Private and Personal Use Only Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org श्रालापक यौ० वार्तालाप - बातचीत, संभाषण । आलाप प्रलाप - क्रंदन, रोना पीटना । आलापक - वि० (सं० ) बातचीत करने वाला, गानेवाला, वर्तालाप करने वाला । श्रालापचारी -संज्ञा, स्त्री० (सं० प्रालाप + चारी ) स्वरों के साधने या तान लगाने की क्रिया | २६४ श्रालेख्य प्रालिम - वि० ( ० ) विद्वान, पंडित 1 माली - संज्ञा स्त्री० दे० (सं० प्रालि ) सखी, सहेली, सजनी, सहचरो, पंक्ति, रेखा, मधुपी । वि० स्त्री० दे० $ (सं० आई ) भीगी हुई, गीली । प्रलापन-संज्ञा, पु० (सं० ) वार्तालाप, गाना, वि० प्रात्तापनीय - गाने योग्य | आनापना - स० क्रि० दे० (सं० श्रालापन ) गाना, सुर खींचना, तान लगाना । आलापिनी-संज्ञा स्त्री० (सं० ) वंशी, बाँसुरी, मुर्ली । प्रालापित- वि० सं० ) बात-चीत किया हुआ, गाया हुआ । आलापी - वि० सं०) बोलने वाला, आलाप लेने वाला, तान लगाने वाला, गाने वाला । श्रालावु - संज्ञा, स्त्री० (सं० ) लौकी, संज्ञा, झालाय बलाय - ( अलाय बलाय ) पु० (दे० ) बुराई, अपवित्रता, मल, शुद्धि, आपदा, अनिष्ठ, अशुभ बातें । पातारासी- वि० (दे० ) बेफिक्र | लापरवाह, गले से मिलन, आलिंगन - संज्ञा, पु० (सं० ) लगाना, परिरंभण, सप्रीति परस्पर भेंटना, अंग लगाने की क्रिया । श्रालिंगना- 3 - स० क्रि० दे० (सं० प्रालिंगन ) भेंटना, लिपटाना, गले या अंक लगाना । प्रालिंगित – वि० (सं० ) गले या अंग लगाया हुआ, भेंटा हुआ, लिपटाया हुआ । प्रालि -- संज्ञा, स्त्री० (सं०) सखी, सहेली, बिच्छू, भ्रमरी पंक्ति, वली, रेखा, बांध, सजनी, सहचारिणी, सेतु । प्रालिखित- वि० (सं० आ + लिख + क्त ) चित्रित, लिखित, लिखा हुआ, अंकित । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir वि० ( 6 ० ) बड़ा, उच्च श्रेष्ठ, उत्तम । "" यस कहि मन बिहँसी इक थाली ' - रामा० । " बरनैदीन दयाल बैठि हंसनिकी चली " । आलीशान - वि० ( ० ) भव्य, भड़कीला, शानदार, विशाल, उच्च, श्रेष्ठ, उत्तम । यौ० आालाजनाब ( जनाब आली ) श्रीमान् । आलोह -संज्ञा, पु० (सं० या + लिह + क्त) बाण छोड़ने के समय का श्रासन, बायें पैर को पीछे करके और दाहिने को सामने टेक कर बैठना । वि० (सं० ) भक्षित, खादित, अशित, भुक्त, लेहित । प्रालुलायित - वि० (दे० ) बंधन-रहित, न बँधा हुआ । आलू - संज्ञा, पु० दे० (सं० आलु ) एक प्रकार का गोल कंद या मूल जो तरकारी यादि के काम में श्राता और खाया जाता 1 आलूचा - संज्ञा, पु० ( फा० ) एक प्रकार का वृक्ष जिसका फल पंजाब में खाया जाता है, इसी पेड़ का फल, भोटिया बदाम, गर्दा । For Private and Personal Use Only घालू बुखारा - संज्ञा, पु० ( फ़ा० ) श्रालूचा नामक वृक्ष का सुखाया हुआ फल, जो कुछ खटमिट्ठा सा होता है । आलेख - संज्ञा, पु० ( सं० ) लिखावट, लिपि । श्रालेख्य-संज्ञा, पु० (सं० ) चित्र, तसवीर, लिपि । Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir . श्रावन आलेप यौ० आलेख्य-विद्या--चित्रकारी, चित्र- पालोड़ना-स० कि० दे० (सं० भालोडन) कला । मथना, हिलोरना, बिलोड़ना, सोचनावि० (सं०) लिखने या चित्रित करने योग्य । विचारना। अालेप-संज्ञा, पु. (सं० श्रा+लिप+ पालोड़ित—वि० (सं० ) मथा हुआ, घञ् ) मलहम, लेप, लेप करने का पदार्थ । बिलोड़ा हुआ, विमंथित, सुविचारित ।। श्रालेपन-संज्ञा, पु. ( सं० ) लेपन करना, श्रालाल-वि० (सं०) चंचल, चपल, मरहम लगाना। अस्थिर। श्रापित-वि० ( सं० ) लेप किया हुआ, | पाल्हा-संज्ञा, पु० (दे० ) ३१ मात्राओं लीपा हुआ। का एक छंद विशेष जिसे वीर छंद भी पालोक-संज्ञा, पु. (सं०) प्रकाश, कहते हैं, महोबे के एक वीर का नाम, जो चाँदनी, उजाला, रोशनी, चमक, ज्योति, पृथ्वीराज के समय में था, बहुत लम्बाद्युति, दीप्ति, दर्शन । चौड़ा वर्णन, ग्रंथ विशेष जिसमें वीर छंद में पालोकन-संज्ञा, पु० (सं०) दर्शन, युद्ध का वर्णन किया गया है, सैरा (दे०) । देखना, दक्षिण । या पाल्हा-पधारा-अति विस्तृत वर्णन । वि० आलोकनीय-प्रकाशनीय, दर्शनीय । मु०-आल्हा गाना-किसी बात को वि. आलोकित-प्रकाशित, द्युतिमान । बहुत बढ़ा चढ़ा कर कहना, अपने हाल अालोचक-वि० (सं०) देखने वाला, को विस्तार से सुनाना। आलोचना करने वाला, गुणागुण-निरीक्षक। वि० पाल्हेत ( पाल्हइत )-पाल्हा पालोचन - संज्ञा, पु. ( सं० आ-+ लुच् + । ___ गाने वाला। अनट ) दर्शन, देखना, गुण-दोष-विवेचन ।। श्रावळ - संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० आयु) आलोचना-संज्ञा, स्त्री. (सं० ) किसी श्रायु, अवस्था, उम्र । वस्तु के गुण-दोष पर निष्पक्ष विचार कर अ० वि० ( विधि ) श्रा, पायो । उसके मूल्य. महत्वादि का निर्णय करना, आउ ( दे० )-घत० पाता है । विचार-पूर्वक उसकी विशेषताओं या रुचिर | श्रावइ प्रावति-आवै। रोचकताओं की स्पाट विवेचना तथा प्रावक-संज्ञा, पु. (सं० ) झोंकी सहना, तदाधार पर अपनी सम्मति देने का कार्य- उत्तरदायित्व। (श्रा० दर्श०)। श्रावज ( श्रावझ) -संज्ञा, पु० ( दे०) श्रालाचित-वि० ( सं० ) आलोचना - एक प्रकार का बाजा, ताशा । किया हुआ, निरीक्षित, विवेचित, अनु- "तूर तार जनु आवज बाजें"-रामा०। शीलित। श्रावदार-वि० (दे० ) अाबदार (फा० ) वि० अालोचनीय-अालोचना के योग्य मनोहर, चमकीला, शोभायुक्त, छविमान । विवेचनीय, विचारणीय। श्रावटनास-संज्ञा, पु० दे० (सं० आवर्त ) पालोच्य–वि० (सं०) आलोचनीय, । हलचल, उथल पुथल, अस्थिरता, संकल्पविवेचनीय, अलोचना करने के योग्य । विकल्प, ऊहापोह । पालोडन--संज्ञा० पु. (सं० ) मथना, | श्रावन*-संज्ञा० पु० दे० (सं० आगमन ) बिलोड़ना, हिलोरना, खूब सोचना-विचारना, आगमन, श्राना। ऊहापोह करना, विमंथन । स्त्री० पान--प्रवाई, माना। मा० श. को०-३४ For Private and Personal Use Only Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रावभगत भाषागमन करने योग्य । क्रि० प्र० प्राधना (दे०) श्राना, पहुँ- प्रावलि-संज्ञा, स्त्री० (सं० ) पंक्ति, श्रेणी, चना । संज्ञा, पु० श्रावना (दे०)। पाँति (दे०)।। वि० श्रावनेहारा, श्रावनहारा, श्रावना- “या अलि श्रावलि की अधरान मैं"हारो (दे०) अवैया, आने वाला। पद्मा। श्रावनहार (दे०)। भावाल-संज्ञा, स्त्री० (सं० ) पंक्ति, श्रेणी। श्रावभगत-संज्ञा, स्त्री० दे० ( हि० श्रावना संज्ञा, पु० थाल । +भक्ति-सं० ) आदर सत्कार, खातिर प्रावली-संज्ञा, स्त्री० (सं० ) पंक्ति, श्रेणी, तवाजा, सेवा-सुश्रूषा। शृंखला, बिस्वे की उपज का अनुमान लगाने प्राधभाव-संज्ञा, पु० (दे०) आदर. या अंदाज़ करने की एक विधि या युक्ति, सत्कार, मान-सम्मान । श्रावलि । श्राघरण-संज्ञा, पु० (सं० ) आच्छादन. प्रावश्यक-वि० (सं०) अवश्य होने ढकना, किसी वस्तु पर ऊपर ले लपेटा हुआ योग्य, ज़रूरी, सापेक्ष्य, अनिवार्य, प्रयोज वस्त्र, बेठन, परदा, ढाल, दीवार आदि का नीय, जिसके बिना काम न चले, उचित । घेरा, चलाये हुए अस्त्र-शस्त्र को निष्फल | आवश्यकता--संज्ञा, स्त्री० (सं० ) ज़रूरत, करने वाला अस्त्र, अज्ञान ।। अपेक्षा, प्रयोजन, मतलब । श्रावरण-पत्र-संज्ञा, पु. यो० (सं०) प्रावश्यकीय-वि० (सं० ) ज़रूरी, अपेक्षाकृत, आवश्यक, प्रयोजनीय, अवश्य किसी पुस्तक के ऊपर रक्षा के लिये लगाया जाने वाला काग़ज़ । आवसथ---वि० (सं० ) गृह, भवन, गेह, प्रावर्जन-संज्ञा० पु. (सं० या + वृन् । व्रत, एक प्रकार का यज्ञ, इस यज्ञ के करने अनट ) फेकना, मना करना, रोकना-- | वाले अवस्थी कहलाते हैं। हरकना (दे०)। आधह--संज्ञा, पु. ( सं० श्रा--वह -। अल् ) श्रावर्त-संज्ञा, पु. (सं०) पानी की सप्तवायु के अन्तर्गत एक विशेष प्रकार की भँवर, चक्र, फेर, घुमाव, न बरसने वाला वायु, भूवायु। बादल, एक प्रकार का रत्न, राजावर्त, लाज श्रावहमान्-वि० (सं० ) क्रमागत, पूर्वा वर्द, सोच-विचार, चिंत्ता, संसार, दशमूल पर, क्रमिक । अंक के ऊपर एक लघु विन्दु जो उसकी प्राधा-संज्ञा, पु० दे० (सं० आपाक ) पुनरावृत्ति सूचित करता है। कुम्हारों के मिट्टी के बर्तन आदि पकाने का यौ० श्रावर्तदशमलध-पुनरावृत्ति वाला गड्ढा, भट्टी। दशमूल | वि० घूमा हुअा अंक। श्रावा-अ० कि० सा० भू० दे० (हि. श्रावर्तन-संज्ञा, पु० (सं० ) चक्कर देना, आना ) श्राया, श्रागया। फिराव, घुमाव, मथना, हिलाना, छाया __ "इक दिन एक सलूका आवा"-रामा० । का फिरना, तीसरा पहर। | श्राघागमन-संज्ञा, पु. यो० (आवा+गमन वि० श्रावर्तनीय-मंथनीय, घुमाने योग्य । (सं०) आना-जाना, आमद-रफ़्त, बारवि० श्रावर्तित-मथित, घुमावदार, भँवर- बार जन्म लेना और मरना । मु०-श्रावागमन से रहित होना ---- पाषर्दा-वि० (फा० ) लाया हुआ, कृपा. मुक्त होना, मोक्ष प्राप्त करना। पात्र, अउरदा (दे०)। श्रावागमन छुटना---जन्म-मरण न होना। युक्त। For Private and Personal Use Only Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भाषागवन श्रावेग भाघागवन *-संज्ञा, पु० (दे० ) श्रावा- प्रावाहन-संज्ञा, पु० सं० ) मंत्र-द्वारा गमन, पानाजाना, प्रावागौन (दे०)।। किसी देवता के बुलाने का कार्य, निमन्त्रित श्रावाज-संज्ञा, स्त्री० (फा० मिलाओ सं० करना, बुलाना, आह्वान, षोडशोपचार अावाद्य ) शब्द, ध्वनि, नाद, बोली, वाणी, पूजा का एक अंग । वि० आचाहनीय । स्वर, शोर । प्राविद्ध वि० (सं० ) लिदा हुश्रा, भेदा मु०--प्राधाज़ उठाना--विरोध करना, | विरुद्ध कहना। संज्ञा, पु० तलवार के ३२ हाथों में से एक । प्रावाजा कसना-(दे०) व्यंग बात आविर्भाव-संज्ञा, पु० (सं० ) प्रकाश, कहना, ललकारना, चुनौती देना। प्राकट्य, उत्पत्ति आवेश, संचार । श्राघाज बैठना-कफ़ के कारण स्वर का आविर्भूत-वि० (सं०) प्रकाशित, प्रकटित, स्पष्ट न निकलना, गला बैठना। उरपन्न, उद्भूत, प्रादुर्भूत । आवाज़ भारी होना-कफ़ के कारण अाविष्का -वि० ( सं० ) आविष्कार कंठ-स्वर का विकृत हो जाना। करने वाला। श्राघाज़ लगाना (देना)-बुलाना, ज़ोर प्राविष्कार-संज्ञा, पु० (सं० ) प्राकाट्य, से पुकारना। प्रकाश, कोई ऐसी वस्तु तैय्यार करना आवाज़ा-संज्ञा, पु०( फा० ) बोली, टोली, जिसके बनाने की विधि पहिले किसी को न ताना, व्यंग। ज्ञात रही हो, ईजाद, किसी बात का पहिलेमु० ---अावाजा करना--ताना मारना। पहल पता लगाना । यौ० प्रावाजा-ताजा-व्यंग, ताना।। आविष्कारक-वि० ( सं० ) आविष्कर्ता, आवाजाही (श्राव-जाई) --संज्ञा, स्त्री० __ आविष्कार करने वाला, ईजाद करने वाला। दे० (हि० पाना + जाना ) आना-जाना, अाविष्कृत-वि० (सं० आविस् + कृ+क्त) श्रामद-रफ्त, जन्म-मरण । प्रकाशित, प्रगटित, पता लगाया या खोजा मु०--आवाजाही लगाना-बारबार, । हुश्रा, ईजाद किया हुआ, जाना हुआ। आनाजाना, आवाजानी-(दे०)। प्राविष्क्रिया--संज्ञा, स्त्री. (सं० ) श्रा" मिट गई आवाजानी"---ध० द०। विष्कार, गवेषणा, अन्वेषण । प्राचारगी-संज्ञा, स्त्री० (फा० ) श्रावारा प्राविष्ट-वि. (सं० श्रा-+-विश+क्त) पन, शुहदापन, लुच्चापन, धुमक्कड़ी, श्रावा- आवेश-युक्त, मनोयोगी, लीन, किसी की रागरदी (दे०)। धुन में लगना। प्राधारजा-संज्ञा, पु० ( फा० ) जमा-खर्च श्रावृत-वि० (सं० ) छिपा हुश्रा, ढका की किताब, अवारजा (दे०) रोकड़ बही। हुआ, लपेटा या घिरा हुआ, वेष्टित, प्राधारा-वि० (फा०) व्यर्थ इधर-उधर | आच्छादित। फिरने वाला, निकम्मा, बेठौर-ठिकाने का, श्रावृत्ति-संज्ञा स्त्री. ( सं० मा+वृत उठल्लू, बदमाश, लुच्चा-गुन्डा (दे०)। +क्त) बारबार किसी बात का अभ्यास, आवारा गर्द-वि० ( फा० ) व्यर्थ इधर- पढ़ना, उद्धरणी, बारबार किसी वस्तु उधर घूमने वाला, उठल्लू, निकम्मा, गुन्डा। का श्राना। संज्ञा, स्त्री० श्रावारागर्दी-आवारगी। श्रावेग-संहा, पु० (सं०) चित्त की प्रवल प्रावास-संज्ञा, पु. (सं० ) रहने की वृत्ति, मन की झोंक, जोर, जोश, रस के जगह, निवास-स्थान, मकान, घर, धाम । । संचारी भावों में से एक, पाकस्मात इष्ट या For Private and Personal Use Only Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रावेदक २६८ पाशीर्वाद अनिष्ट के प्राप्त होने से चित्त की आतुरता, श्राशंकित-वि० (सं० ) भयभीत, सशंघबराहट, उमंग । वि० श्रावेगपूर्ण । कित, त्रासित। आवेदक-वि० ( सं० ) निवेदन करने | श्राशना-संज्ञा, उभ० ( फा० ) जिससे वाला, प्रार्थी। जान-पहिचान हो, चाहने वाला, प्रेमी । प्रावेदन-संज्ञा, पु. ( सं० ) अपनी दशा श्राशनाई-संज्ञा, स्त्री. ( फा० ) जान का बताना, या प्रगट करना, निवेदन या पहिचान, प्रेम, प्रीति, दोस्ती, अनुचित प्रेम। प्रार्थना करना, अर्ज़ करना। प्राशय-संज्ञा, पु. ( सं० ) अभिप्राय, श्रावेदन-पत्र-संज्ञा, पु. यो. (सं०) मतलब, तात्पर्य, बासना, इच्छा, उद्देश्य, अपनी दशा लिख कर सूचित करने का नीयत, श्राश्रय, गड्ढा, खात । काग़ज या पत्र, प्रार्थना पत्र, निवेदन-पत्र. प्राशा-संज्ञा, स्त्री० (सं० ) अप्राप्त वस्तु के अर्जी। प्राप्त करने की भावना या इच्छा और थोड़ा. आवेदनीय–वि० (सं० ) निवेदन करने बहुत निश्चय, उम्मीद, अभीष्ट वस्तु की के योग्य, प्रार्थनीय । प्राप्ति के थोड़े-बहुत निश्चय से उत्पन्न प्रावेदित-वि० (सं० ) निवेदित, प्रार्थित, संतोष, श्रासरा, भरोसा, दिशा, दक्ष कहा हुआ। प्रजापति की एक कन्या ।। वि० आवेदी-निवेदक, प्रार्थी । यौ० पाशा-भंग-प्राशा का टूटना, श्रावेद्य-वि० (सं० ) श्रावेदन करने योग्य, निराशा, नाउम्मेदी। पाशातीत-वि० (सं० प्राशा । अतीत ) प्रार्थनीय, निवेदनीय, कथनीय । आशा से अधिक, चाह से अधिक । आवेश-संज्ञा, पु० (सं० श्रा+ विश् + घञ् ) व्याप्ति, संचार, दौरा, प्रवेश, चित्त प्राशिक-संज्ञा, पु. (अ.) प्रेम करने वाला मनुष्य, अनुरक्त पुरुष, श्रासक्त ।। की प्रेरणा, झोंक, वेग, जोश, भूत-प्रेत श्राशिष-संज्ञा, स्त्री. (सं० ) आशीर्वाद, बाधा, मृगीरोग उदय, अहंकार, अपस्मार । श्रासीस, दुआ, एक प्रकार का अलंकार श्रावेशन-संज्ञा, पु० (सं० प्रा० । विश् । जिसमें अप्राप्त वस्तु के लिये प्रार्थना अनट ) प्रवेश, शिल्पशाला, कारख़ाना। होती है। यावेष्ठन-संज्ञा, पु० (सं० ) छिपाने या प्राशिषाक्षेप-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) ढकने का कार्य, लपेटने या ढकने की वस्तु । __ एक प्रकार का काव्यालंकार जिसमें दूसरे श्रावेष्ठित-वि. ( सं० ) लपेटा या छिपा | का हित दिखलाते हुए, ऐसी बातों के हुश्रा, ढका हुश्रा । करने की शिक्षा दी जाती है जिससे वास्तव श्रावो-वि० क्रि० अ० ( दे०) श्रायो। में अपने ही दुःख की निवृत्ति हो (के.)। अाश-संज्ञा, स्त्री. ( दे० ) रेशा, सूत, श्राशी--वि० (सं० आशिन् ) खानेवाला, अंश (सं० )। भक्षक। आशंका-संज्ञा, स्त्री० (सं० ) डर, भय, | प्राशीस-संज्ञा, स्त्री० दे० ( आशिष ) शक, शंका, संदेह, अनिष्ट की भावना, श्राशीर्वाद, वर,शुभाकांक्षा, असीस (दे०) । त्रास, संशय, अातंक, भीति । पाशीर्वचन-संज्ञा, पु. ( सं० ) शुभवाक्य, प्राशंकनीय-वि० (सं० ०+शंक+ कल्याण-वचन, मंगलकारी गिरा। अनीयर् ) भयावह, भय का स्थान, शंका | पाशीर्वाद-संज्ञा, पु. (सं०) कल्याण करने योग्य । । या मंगल-कामना-सूचक वाक्य, आशिष, For Private and Personal Use Only Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir MIROMETROM पाशीविष २६९ पाश्लिष्ट दुश्रा, मंगल-प्रार्थना, पासीस, प्रासिर- | आश्रमधर्म-संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) पाद (दे०)। आश्रम के लिये शास्त्रोक्त श्राचार या नियम। वि० ग्राशीर्वादक-मंगलप्रार्थी, श्राशीष प्राश्रमभ्रष्ट-वि० (सं० यौ० ) आश्रम से देने वाला, कल्याण-प्रार्थक । विरुद्ध श्राचार-व्यवहार करने वाला, पतित । वि० श्राशीर्वादी-- आशीर्वाद प्राप्त । श्राश्रमी-वि० (सं०) आश्रम-सम्बन्धी. श्राशीविष-~संज्ञा, पु. ( सं० आशी+ विष आश्रम में रहने वाला, ब्रह्मचर्यादि चार + अल् ) सर्प, साँप, अहि, भुजंग। आश्रमों में से किसी को धारण करने वाला । " श्राशीविष दोषन की दरी"- (के०)। " जिमि हरि-भक्तिहिं पा: जन, तजहि प्राशी:-संज्ञा, पु. (सं०) एक प्रकार श्राश्रमी चारि"-रामा। का काव्यालंकार, जिसमें किसी प्रिय व्यक्ति प्राश्रय-संज्ञा, पु० ( सं० ) आधार, सहारा, को मंगल-कामना की जाय। अवलम्ब, आधार-वस्तु वह वस्तु जिसके श्राशु-क्रि० वि० (सं० ) शीघ्र, जल्द, सहारे पर कोई वस्तु ठहरी हो, शरण, तत्काल. द्रुत, तुरन्त, झटपट, वर्णकाल में पनाह. जीवन-निर्वाह का हेतु, भरोसा, उत्पन्न होने वाला एक प्रकार का धान्य ।। सहारा, घर, रक्षा का स्थान। आशुकवि-संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) तत्काल श्राश्रयभून-वि० यौ० (सं०) शरण्य, कविता रचने वाला कवि ।। भरोसागीर। पाशुग-संज्ञा, पु० (सं०) द्रुतगामी, वाण, शर, वायु, मन,। प्राश्रयस्थान-संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) प्राशुगासन-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) धनुष ।। ठहरने या रक्षा का स्थान, शरण की जगह । प्राशुतोष-वि० (सं० यौ० ) शीघ्र संतुष्ट | प्राश्रयदाता-संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) होने वाला, जल्द प्रसन्न होने वाला। श्राश्रय या शरण देने वाला, सहायक, संज्ञा, पु० (सं० ) शिव, महादेव, शंकर। सहारा देने वाला, जीविका देने वाला। श्राश्चर्य-संज्ञा, पु. (सं० ) किसी नई, श्राश्रयण---संज्ञा. पु० (सं० श्रा+त्रिअभूतपूर्व या असाधारण वात के देखने अनट ) श्राश्रय, शरण, अवस्थान । या सुनने या ध्यान में श्राने से उत्पन्न होने | श्राश्रयणीय-वि० ( सं० आ+ त्रि+ वाला एक प्रकार का मनोविकार, अचंभा, अनीयर् ) आश्रय देने योग्य, श्राश्रयोपयुक्त । ताअज्जुब, विस्मय, रसों के नौ स्थायी भावों प्राश्रयी-वि० (सं०) आश्रय लेने या में से एक, इस का रस अद्भुत है। पाने वाला, सहारा या शरण लेने या पाने श्राश्चर्यित-वि० (सं०) चकित, विस्मित | वाला। श्राश्रम-संज्ञा, पु० (सं० श्रा--- श्रम -- अल ) | श्राश्रित-वि० (सं० ) सहारे पर टिका ऋषियों और मुनियों का निवास स्थान, हुआ, ठहरा हुआ, भरोसे पर रहने वाला, तपोवन, साधु-संत के रहने की जगह, । अधीन, सेवक, नौकर, अवलम्बित, शरणाविश्राम-स्थान, टिकने या ठहरने की जगह, गत, वश्य, कृताश्रम । स्त्री० प्राश्रिता । हिन्दुओं के जीवन की चार अवस्थायें | यौ० आश्रितस्वत्व-संज्ञा, पु० (सं० ) ( स्मृति ) ब्रह्मचर्य, गार्हस्थ, बानप्रस्थ । सेवक का अधिकार, शरणागत का हक़ । और सन्यास । मठ, स्थान, कुटी। आश्लिष्ट-वि० (सं० ) या । श्लिष् । प्राश्रम-गुरु-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) क्त) आलिंगत, लिपटा हुआ, चिपटा हुश्रा, कुलपति, कुलाचार्य । मिला हुआ। For Private and Personal Use Only Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्राश्लेष २७० प्रासन प्राश्लेष—संज्ञा, पु० (सं० श्रा--- श्लिष+ "पाई बहुरि बसंत ऋतु, विमल भई दस घञ्) श्रालिंगन, मिलन, जुड़ना, लगाव । श्रास"-रघु०। प्राश्लेषण -संज्ञा, पु. (सं० ) मिलावट, संज्ञा पु० (दे०) धनुष, शरासन । आलिंगन । प्रासकत-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० अशक्ति) आश्लेषा-संज्ञा, पु० (सं० ) श्लेषा नक्षत्र । सुस्ती, आलस्य, काहिली, पालस, क्रि० आश्वास-प्राश्वासन-संज्ञा, पु० (सं०) प्रासकताना ।। दिलासा, तसल्ली, सांत्वना, ढाढ़स । श्रासकति, असकती-वि० दे० (सं० वि० आश्वासनीय-तसल्ली देने योग्य ।। आक्ति ) श्रालसी। श्राश्वासित-वि. ( सं० आ- श्वस् + संज्ञा, स्त्री. ( सं० भासक्ति ) अनुरक्ति, णिच्+क्त) अनुनीत, आश्वस्त, दिलासा प्रेम। दिया हुआ। | श्रासक्त-वि० (सं० ) अनुरक्त, लीन, श्राश्वस्त-वि० (सं० आ + श्वस् : क्त) लिप्त, आशिक, मोहित, मग्न, प्रेम, लुब्ध सांत्वना-प्राप्त, आशायुक्त, दिलासा दिया मुग्ध, श्रासकत (दे०)। हुआ, ढाढ़स दिया हुआ। प्रासक्ति--संज्ञा, स्त्री० (सं० श्रा+सद्-। प्राश्वास्य-वि० (सं० ) सांत्वना देने के क्ति) अनुरक्ति, लिप्तता, लगन, चाह, प्रेम, योग्य, तसल्ली देने लायक । मोह, इश्क, प्रासकति (दे०)। संगम, आश्विन-संज्ञा, पु. ( सं० ) अाश्विनी मिलन, लाभ, पदों का अत्यंत संनिधान नक्षत्र में पड़ने वाली पूर्णिमा का महीना, ( न्याय० ) अन्यवहित, समीपता, पदो. कार का महीना, कुआँर ( दे०) शरद च्चारण, (शब्दार्थ बोध का एक हेतु )। ऋतु का दूसरा मास । प्रासति -- संज्ञा, स्त्री० (दे० ) सत्य, आषाढ़-संज्ञा, पु० (सं० ) वह चांद्रमास प्रासत्ति, समीपता, मुक्ति । जिसकी पूर्णिमा को पूर्वाषाढ़ नक्षत्र हो, " सूर तुरत यह जाय कहो तुम ब्रह्म बिना अषाढ़, ब्रह्मचारी का दंड। नहिं श्रासति"। भासते-क्रि० वि० दे० ( फा० आहिस्ता ) प्राषाढ़ा--संज्ञा, पु० (सं० श्रा---सह । धीरे-धीरे। क्त+आ ) पूर्वाषाढ़ और उत्तराषाढ़ नक्षत्र । श्रासत्ति-संश, स्त्री० (सं० ) सामीप्य, प्राषाढ़ी-संज्ञा, स्त्री. (सं० ) आषाढ़ निकटता, अर्थ-बोध के लिये बिना व्यवधान मास की पूर्णिमा, गुरु-पूजा । के एक-दूसरे से सम्बन्ध रखने वाले दो पदों आषढ़ भू-प्राषाढ़भव ----संज्ञा, पु० (सं० ) या शब्दों का पास पास रहना और पारस्पमंगलग्रह, उत्तराषाढ़ नक्षत्र । रिक अर्थों को स्पष्ट रूप से व्यक्त करना। श्रासंग-संज्ञा, पु. (सं० ) साथ, संग, भासतोष-वि० दे० (सं० आशुतोष) लगाव, सम्बन्ध, आसक्ति, संसर्ग, संसृष्टि, जल्द प्रसन्न होने वाला। अनुराग। संज्ञा, पु० महादेव, शिव। प्रास-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० आशा) पासथान- संज्ञा, पु० दे० (सं० स्थान ) श्राशा, उम्मेद, लालसा, कामना, सहारा, . प्रास्थान, बैठने की जगह, सभा, समाज। भरोसा, आधार, दिशा। श्रासन-संज्ञा, पु० (सं० ) स्थिति, बैठक, " होत उजागर बनबगर, मधुप मलिन तव बैठने की विधि, या ढब (तरीका ) श्रास" । बैठने की वस्तु, वह वस्तु जिस पर बैठा For Private and Personal Use Only Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रासन कसना प्रासमान जाय, बिछावन, बिछौना, पीठ, पीढ़ा, | आसन देना-सम्मानार्थ बैठने के लिये चौकी, टिकाना, निवास, डेरा, चूतड़. | कोई वस्तु रख कर या बता कर बैठने की हाथी का कंधा, जिस पर महावत बैठता है, प्रार्थना करना। सेना का शत्रु के सम्मुख डटा रहना, जिगीषु- श्रासन मारना-जम कर या स्थिर भाव का अवसर प्रतीक्षार्थ अवस्थान, कुश या उन से बैठना। का बना हुआ बैठक जिस पर बैठ कर पूजा "बैठो हुतासन आसन मारे "-देव० । की जाती है, यौगियों के बैठने की ८४ श्रासन लगाना-स्थिर भाव से प्रासन भिन्न भिन्न विधियाँ या रीतियाँ, यथा- जमा कर बैठना, संध्योपासना करना, पद्मासन, स्वस्तिकासान, वद्धपद्मासन, मयू- योग करना, योग के श्रासनों का अभ्यास रासन, शीर्षासन, श्रादि (यो०) सुरति करना, (पालन करना) पद्मासनादि ( संभोग ) की विविध रीतियाँ (कोक० )। का अभ्यास करना। "छोड़ि दे आसन बासन को "- राम० ।। श्रासना --अ० कि० दे० ( सं० अस = मु. श्रासन उखड़ना-अपने स्थान से होना) होना, बैठना। हिल जाना, घोड़े की पीठ पर रान न श्रासनी-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० श्रासन ) जमना.। छोटा श्रासन. छोटा बिछौना, कुश या ऊन श्रासन कसना-अंगों को तोड़-मरोड़ का छोटा श्रासन जिस पर बैठ कर पूजा की कर बैठना। जाती है। श्रासन गाँठना-श्रासन बनाना, संभोग प्रासन्दी-संज्ञा, स्त्री. (सं० ) चारपाई, में प्रासन कसना। कुर्सी, मचिया । प्रासन छोडना-उठ जाना ( श्रादरार्थ ) अासन्न - वि० ( सं० भासद् + क्त ) प्रामन जमाना -- जिस स्थान पर जिस | निकट श्राया हुआ, समीपस्थ, निकटवर्ती, रीति से बैठे उसी स्थान पर उसी रीति से समीपवर्ती, उपस्थित, प्राप्त, पास बैठा बराबर स्थिर रहना, स्थिर भाव से बैठना।। हुश्रा, शेष, श्रवप्तान । अड्डा जमाना, डेरा जमाना, स्थायी रूप । प्रासनकाल--संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) से रहना, श्रासन जमना-बैठने में स्थिर अन्तिमकाल, मृत्यु का समय, अवसान । भाव पाना। प्रामन्नभूत-संज्ञा, पु० यौ० ( सं० ) श्रासन डिगना (डोलना)-बैठने में स्थिर भूतकालिक क्रिया का वह रूप जिससे भाव न रहना, चित्त चलायमान होना, क्रिया की पूर्णता और वर्तमान काल से मन डोलना. करुणा या दया पाना ( देव- समीपता प्रगट हो, जैसे, मैं जा रहा है। ताओं आदि का) घबड़ाना, भयभीत | | प्रास-पास-क्रि० वि० दे० ( अनु० आस होना। जैसे-कौशिक का तप देख इंद्र का +पार्श्व = सं० ) चारो ओर, निकट, श्रासन डोल उठा। समीप, पास, इधर-उधर। प्रासन डिगाना-स्थान से विचलित आसमान-संज्ञा, पु. (फ़ा०) आकाश, करना, चित्त को चलायमान करना, लोभ गगन, स्वर्ग, देवलोक, नभ, व्योम । या इच्छा उत्पन्न करना, सचेत या सावधान मु०-प्रासमान के तारे तोड़नाकरना, घबरा देना, भयभीत कर देना। कठिन या असम्भव कार्य करना । प्रासन तले श्राना-प्राधीन होना, आसमान में छेद करना- पाश्चर्यअनुगत होना। जनक काम करना, अति करना। For Private and Personal Use Only Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २७२ - श्रासामन श्रासाइश श्रासमान डूट पड़ना-आकस्मिक विपत्ति प्रासमुद्र---क्रि० वि० (सं० ) समुद्र- पर्यंत का प्रा पड़ना, अचानक अनिष्ट होना। समुद्र के तट या किनारे तक । आसमान ताकना-गर्व से तनना, | "पासमुद्र क्षितीशानाम् "-रघु० । इतराना, भुलना, विस्मित हो कर ऊपर श्रासय-संज्ञा, पु० दे० (सं० प्राशय ) देखना। श्राशय, इच्छा, मतलब, प्रयोजन, अर्थ, प्रासमान पर चढ़ना-ग़रूर या घमंड तात्पर्य, अाधार । करना, अति उच्च सङ्कल्प बाँधना, असम्भव आसर-संज्ञा, पु० दे० (सं० असुर ) कार्य करना । चाहत बारिद बंद गहि, राक्षस, असुर । तुलसी चढ़न अकास"। "काहू कहूँ सर श्रासर मा म्यौ -- राम"। प्रासमान में (पर) उड़ना-इतराना, प्रासरना-स० कि० दे० (हि. आसरा) घमंड करना, ऊँचे ऊँचे संकल्प बांधना, आश्रय लेना, सहारा लेना, शरण लेना। असम्भव कार्य करने का विचार करना। प्रासरा-संज्ञा, पु० दे० (सं० आश्रय) प्रासमान पर चढ़ाना-अत्यन्त प्रशंसा सहारा, आधार, आश्रय, अवलंब, भरण करना, बढ़ावा देना, अति श्लाघा करके पोषण की श्राशा, भरोसा, ग्राम, किसी से मिजाज बिगाड़ देना। सहायता पाने का निश्चय, जीवन या कार्यआसमान में थिगरी लगाना-विकट निर्वाह का हेतु, पाश्रयदाता, सहायक, कार्य करना, घमंड करना, असम्भव बात शरण, पनाह, प्रतीक्षा. प्रत्याशा, इंतज़ार, करना। आशा, उम्मीद। श्रासमान सिर पर उठाना-ऊधम आसव-संज्ञा, पु० ( सं० पान सू --- अल् ) मचाना, उपद्रव करना, हलचल मचाना, भभके से चुवाया गया मद्य, केवल फलों अति प्रबल आन्दोलन करना, उत्पात के ख़मीर को निचोड़ कर बनाया गया, मचाना। औषधियों के खमीर को छान कर बनाई प्रासमान गिराना-- अत्यन्त उच्च स्वर । गई औषधि, मद्य, मदिरा मधु, मद, अर्क से चिल्लाना, उत्पात मचाना। जैसे द्राक्षासव। प्रासमान पर दिमाग़ होना- अत्यन्त | यौ० पासपवृक्ष - संज्ञा, पु. ( सं० ) अधिक अभिमान होना, अति उच्च विचार तालवृक्ष । या घमंड होना। प्रासी -वि० (सं० ) मद्यपी, शराबी, प्रासमान से बातें करना-अति उच्च ! अासव-सम्बन्धी। होना, (किसी मकान या इमारत पर्वत श्रासा-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० प्राशा) श्राशा। या अन्य किसी ऊँची चीज़ का)। संज्ञा, पु० ( अ० असा) सोने या चाँदी का आसमान का चूमना- बहुत ऊँचा डंडा, जिसे केवल शोभा या शान-शौकत होना, (किसी मकान या पर्वत का)। के लिये राजा-महाराजाओं अथवा बारात प्रासमानी--- वि० (फा० ) शाकाश-सम्बंधी या जलूस के आगे चोबदार लेकर चलते आकाशीय, आसमान का, अाकाश के रंग हैं, राजदंड। का, हल्का नीला रंग, देवी, ईश्वरीय । यो०-श्रासा-चल्लग, पासा-साटा। संज्ञा, स्त्री० ताड़ के पेड़ से निकला हुआ आसाइश-- संज्ञा, सर. (फा०) आराम, मद्य, ताड़ी। | सुख, चैन । For Private and Personal Use Only Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org प्रासाद प्रसाद - संज्ञा, पु० (दे० ) श्रासाद माह, (सं० ) श्राषाढ़, आसाढ़ी । २७३ आसूदगी आसी - वि० (दे० ) श्राशी: (सं० ) । प्रासीन - वि० (सं० आलू + ईन ) बैठा हुआ, विराजमान, उपस्थित, स्थित, सीना (दे० ) । प्रासादन - संज्ञा, पु० (सं० था + सद् + णिच् + अनटू ) प्राप्रण लाभकरन, मिलन | प्रासादित - वि० (सं० ग्रा+सद् + णिच् + क्त ) प्राप्त, लब्ध, मिलित, भक्षित । आसान - वि० ( फा० ) सहज, सरल, सुगम । , श्रासानी - संज्ञा स्त्री० ( फ़ा० ) सरलता, सुगमता, सुभीता, सुविधा । आसाम - संज्ञा, पु० ( दे० ) भारत के उत्तर-पूर्व में बंगाल का एक भाग, एक पूर्वीय प्रान्त, कामरूप ( प्राचीन ) । प्रासामी - वि० (दे० ) आसाम निवासी संज्ञा, पु० ( फा० ) अभियुक्त देनदार, काश्तकार, धनवान व्यक्ति- - जैसे- २ लाख के श्रासामी । प्रासार- संज्ञा, पु० ( अ० ) चिन्ह, लक्षण, चौड़ाई | संज्ञा, स्त्री० (दे० ) मूसलाधार वृष्टि । आसावरी – संज्ञा स्त्री० ( १ ) श्री नामक राग की एक रागिनी । संज्ञा, पु० एक प्रकार का कबूतर । प्रसासन - संज्ञा, पु० यौ० दे० ( प्रशा सन) नग्न, दिगंबर, नंगा, महादेव, शिव । प्रसिख – संज्ञा स्त्री० दे० (सं० प्राशिष) आशीर्वाद । " तुलसी सुतहिं सिख देइ श्रासु देइ पुनि श्रसिख दई " | प्रसिद्ध - वि० (सं० आ + सिध् + क्त ) अवरुद्ध, वंदीभूत, बंधुवा, बंदी | प्रासिधार - संज्ञा, पु० (सं० ग्रास + धृ + घञ्) युवा और युवती का एक स्थान में विकृत चित्त से श्रवस्थान -रूप व्रत । ध्यासिन - संज्ञा, पु० (दे० ) आश्विन ( सं० ) कुँवार । • ग्रासिखवचन - संज्ञा, पु० ( दे० ) आशीवचन (सं०) आशीष, प्रासिर्वाद (दे० ) । मा० श० को ०–३५ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 66 एकबार प्रभु सुख श्रासीना " - रामा० । 66 प्रभु आसन आसीन " - रामा० । आसीस - संज्ञा, स्त्री० (दे० ) आशिष, (सं० ) आशीर्वाद । संज्ञा, पु० (दे० ) उसीस, तकिया । प्रासु - क्रि० वि० ( दे० ) आशु (सं० ) जल्दी, शीघ्र, सर्व० - इसका । प्रासुग-संज्ञा, पु० (सं०) वायु, वाण, प्रसुतोस - संज्ञा, पु० (दे० ) आशुतोष ( सं० ) महादेव, शिव । वि० (दे० ) जल्द प्रसन्न होने वाला । आासुन - संज्ञा, पु० ( दे० ) आश्विन् (सं०) कार मास, निधि, मुनि, वसु, ससि साल में, घासुन मास, प्रकास, दिन । आसुर - वि० (सं० ) असुर सम्बन्धी, विवाह की एक विशेष रीति, ( स्मृति० ) । यौ० प्रासुरविवाह – कन्या के मातापिता को द्रव्य देकर किया जाने वाला विवाह (स्मृति० ) । संज्ञा, पु० (दे० ) असुर, राक्षस । आसुरी - वि० (सं० ) असुर सम्बन्धी, असुरों का, राक्षसी । 0 यौ० प्रासुरी- चिकित्सा - शस्त्र चिकित्सा, चीड़-फाड़ कर के रोग अच्छा करना । प्रासुरी माया - चक्कर में डालने वाली राक्षसी चाल, धूर्तता, छलछद्म । संज्ञा स्त्री० असुर की स्त्री, राक्षसी । आसूदा - वि० (फ़ा० ) संतुष्ट, तृप्त, संपन्न, भरा-पूरा । आसूदगी - संज्ञा स्त्री० ( फ़ा० ) तृप्ति, संतोष | For Private and Personal Use Only (दे० ) आशुग मन । Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रासेचनक २७४ प्रास्यदेश प्रासेचनक-वि० (सं० प्रा+सिच्-+ अनट पास्तीक-संज्ञा, पु. ( सं० ) जनमेजय के +क) प्रिय दर्शन, जिसे देखने से तृप्ति सर्प-यज्ञ में तक्षक के प्राण बचाने वाले न हो, अतिप्रिय। एक ऋषि, एक सर्प, जरत्काय मुनि का प्रासेब-संज्ञा, पु० (फा० ) भूत-प्रेत की | पुत्र, इनकी मातासर्पराज बासुकी की बहिन, बाधा। जरत्कारी थीं, इसी से इन्होंने अपने मातुल वि० श्रासेबी-भूत-प्रेत-बाधा-युक्त। तथा भाई तक्षक आदि को सर्पसत्र से आसोज -- संज्ञा, पु० दे० (सं० अश्वयुज ) बचाया था। अाश्विन मास, कार या कुंवार (दे०) प्रास्तीन-संज्ञा, स्त्री० ( फा० ) बाँह को का महीन। ढाँकने वाला पहिनने के कपड़े का भाग, " आसोजा का मेह ज्यों, बहुत करे। बाँही, बाँह । उपकार "-कबीर० मु०-पास्तीन का साँप-मित्र होकर प्रासौं -क्रि० वि० दे० (सं० इह-। संवत् ) शग्रता करने वाला, विश्वासघाती। इस वर्ष, इस साल। प्रास्तान में साँप पालना-शत्रु को प्रासौ-संज्ञा, पु० दे० (सं० आसव ) अपने पास मित्र-रूप में रखना, धोखा खाना। पासव, मदिरा। आस्था--संज्ञा, स्त्री. (सं० ) पूज्य, बुद्धि, भास्कंदित-वि० (सं० पा+स्कंद + क्त) श्चद्धा, सभा, बैठक, आलंवन, अपेक्षा, घोड़ों की गति विशेष, घोड़ों की पांचवी श्रादर। गति, तिरस्कृत । श्रास्थान-संज्ञा, पु. (सं० ) बैठने की प्रास्कत-संज्ञा, स्त्री० (दे० ) आलस्य, | जगह, बैठक, सभा, दरबार, स्थान ।। शिथिलता, सुस्ती, ढीलापन । प्रास्पद-संज्ञा, पु० (सं० ) स्थान, कार्य, वि० श्रास्कती-आलसी, सुस्त, ढीला। कृत्य, अल्ल (दे० ) कुल, जाति, प्रतिष्ठा प्रास्तर-संज्ञा, पु० (सं० श्रा+ स्तृ+ " पास्पद प्रतिष्ठायाम्" पा०-वंश, गोत्र । अनट ) हाथी की झूल, उत्तम, श्रासन | वि० योग्य, उपयुक्त, युक्त-जैसे लज्जास्पद । शय्या, ( दे.) अस्तर, भितल्ला। प्रास्फालन-संज्ञा, पु० (सं० पा + स्फाल्--- आस्तिक-वि० (सं० ) वेद, ईश्वर और अनट ) गर्व, घमंड, अहंकार, फैलाव । परलोकादि पर विश्वास करने वाला, प्रास्फालित-वि० (सं० श्रा-+स्फाल्-|-क्त) ईश्वर के अस्तित्व को मानने वाला, ताड़ित, गर्वित, कम्पित, फैलाया हुश्रा । ईश्वर-सत्ता वादी। श्रास्फोट-संज्ञा, पु० (सं० श्रा+स्फोट ) प्रास्तिकता-संज्ञा, स्त्री० (सं०) वेद, ईश्वर फटना, प्रफुल्लन, विकास, प्रकास । और परलोक पर विश्वास, ईश्वर-सत्ता का | प्रास्कोटन-संज्ञा, पु० (सं० आ+स्फुट् धारणा। अनट ) प्रफुल्लित होना, फटना, खिलना, प्रास्तिकवाद - संज्ञा, पु. (सं० ) ईश्वर | विकसना, विकास, प्रकाश, ताल ठोकना । की सत्ता को सिद्ध करने वाला सिद्धान्त, वि० आस्फोटित-विकसित। वेद, ईश्वरादि पर विश्वास करने वालों | प्रास्माकीन-वि० ( सं० आस्मक+ईन) का मत। हमारे पक्ष का, हमारा, हमारी ओर का । वि० श्रास्तिकवादी-आस्तिकवाद के प्रास्य-संज्ञा, पु० (सं० ) मुख, चेहरा। सिद्धान्त का अनुयायी। प्रास्यदेश-संज्ञा, पु० (सं० यौ०) मुख (विलोम नास्तिक, नास्तिकता...)। का विवर, मुंह का स्थान । For Private and Personal Use Only Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रास्त्र २७५ श्राहरणीय प्रास्रष-संज्ञा, पु. (सं० ) उबलते हुये । "बलहद भीम-कद काहू के न पाह के " चावलों का फेन, माँड़, पनाला, इंद्रिय- -भू०, क्रोध--ललकार, प्राहु (दे० ) " गह्यो राहु अति प्राहुकरि वि० । प्रास्वाद-संज्ञा, पु० (सं० प्रा०+स्वद् + आहट-संज्ञा, स्त्री० (हि. आ = आना+ घञ् ) स्वाद, जायका, मज़ा, सवाद । हट-प्रत्य० ) पैर तथा अन्यांगों से चलते (दे०) रस, रुचि, चस्का, रसानुभव । समय होने वाला शब्द, थाने का शब्द, प्रास्वादन-संज्ञा, पु० (सं० श्रा- स्वद् । पाँव की चाप, खटका, वह शब्द, जिससे अनट ) स्वाद लेना, चखना, रसानुभव, किसी के किसी जगह पर रहने का अनुमान करना, ज़ायका लेना। हो, पता, सुराग, टोह ।। प्रास्वादनीय-वि० (सं० ) स्वाद लेने म०-श्राहट लेना-पता या टोह लेना, या चखने योग्य। सुराग़, ढूंढना, किसी के आने के शब्द को प्रास्वादक-वि० (सं० ) स्वाद लेने वाला, सुनना। चखने वाला, मज़ा लेने वाला, रसानुभवी, ग्राहट मिलना-किसी के आने का ज़ायका लेने वाला। शब्द सुनाई पड़ना और उसके आने का प्रास्वादित-वि० (सं० ) चखा हुआ, । अनुमान करना, पता लगना, टोह मिलना। स्वाद लिया हुश्रा, भोगा हुअा, बरता हुआ, पाहत-वि० (सं० ) चोट खाया हुआ, अनुभव किया हुआ । घायल, जखमी, जिस संख्या को गुणित स्त्री० श्रास्वादिता। किया जाये, गुण्य । प्रास्वादु-वि० (सं० ) सुरस, स्वादिष्ट, " चतुराहत वर्ग समै रूपं पक्षद्वयंच गुणयेत् " सुस्वाद, मज़ेदार, ज़ायकेदार। प्राह अव्य० दे० (सं० अहह ) पीड़ा, व्याघात-दोष-युक्त वाक्य, पुराना, कम्पित, गर्हित, ताड़ित, मारा हुआ। शोक, दुःख, खेद, और ग्लानि आदि का संज्ञा, स्त्री० श्राहति । सूचक शब्द। संज्ञा, स्त्री० (दे० ) कराहना,उसाँस भरना, यौ०-हताहत-मारे हुए और जखमी । संज्ञा, पु० घायल व्यक्ति, मारा हुआ। ठंढी सांस, दुःख-क्लेश-सूचक शब्द. शाप, हाय हाय, हा हा। पाहन-संज्ञा, पु० (फा० ) लोहा, सार। मु०-माह पड़ना-शाप पड़ना, किसी प्राहर-- संज्ञा, पु० दे० ( सं० ग्रहः ) को दुःख पहुँचाने का बुरा फल मिलना । समय, वक्त, काल, दिन । पाहभरना-ठंढी साँस खींचना या लेना, संज्ञा, पु० दे० (सं० आहव ) युद्ध, लड़ाई, पीड़ा या ग्लानि श्रादि से उसाँस भरना । रण, संग्राम । प्राह लगना-शाप का सत्य होना, श्राहर-जाहर--संज्ञा, स्त्री० (दे०) श्रानाकोसने का सार्थक होना, किसी को दुःख जाना। देने का बुरा फल मिलना। श्राहरण -संज्ञा, पु. ( सं० ) छीनना, पाह लेना-सताना, और शाप लेना, | हर लेना, किसी पदार्थ को एक स्थान से दुःख देना या कलपाना और उसका कोसना | दूसरे स्थान पर ले जाना, ग्रहण, लेना, साँस खींचना। लूटना, खसोटना। संज्ञा, पु० दे० (सं० साहस ) साहस, हियाव श्राहरणीय-वि० ( सं० ) हरण करने (दे० ) बल, जोर। योग्य । For Private and Personal Use Only Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्राहत - श्राहृत-वि० (सं०) छीना या लूटा हुआ पाहार्य-वि० (सं० ) ग्रहण किया हुआ, अपहृत, हरण किया हुआ। बनावटी, खाने के योग्य, पकड़ा हुआ, पाहरन-संज्ञा, पु० दे० (सं० आहनन) कल्पित। लोहारों और सोनारों की निहाई । संज्ञा, पु० (सं० ) चार प्रकार के अनुभावों आहर्तव्य-वि० (सं० ) ग्रहणीय, ले लेने, में से चौथा, नायक और नायिका का लायक । परस्पर एक दूसरे का वेष बनाना, नेपथ्य, प्राहर्ता-वि० ( सं० पा+ह+क्त ) भूषणादि के द्वारा निर्मित्त, नाटकोक्ति में श्रानयन या उपार्जन करने वाला, ले लेने व्यंजक विशेष, अंग-संस्कार। वाला, छीनने वाला। आहार्य शोभा-संज्ञा, स्त्री० (सं० यौ०) प्राहव-संज्ञा, पु० (सं० ा+हू+अल् ) | कृत्रिम या बनावटी सुन्दरता, भूषणादि के रण, युद्ध, यज्ञ, याग। द्वारा सजाई हुई सुन्दरता। आहवन-संज्ञा, पु. (सं०) यज्ञ करना, पाहार्याभिनय-संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) होंम करना। बिना बोले और कुछ चेष्टादि किये हुए पाहवतीय-वि० सं० यज को केवल रूप और वेष द्वारा नाटक का योग्य, कर्म-कांड की तीन अग्नियों में से अभिनय करना। एक, यज्ञाग्नि। श्राहाव-संज्ञा, पु० ( सं० पा+हा+घञ् ) ग्राहां-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० माह्वान ) हाँक, | छुद्र जलाशय, चहबच्चा, युद्धाद्वान, दुहाई, घोषणा, पुकार, बुलावा । श्रामंत्रण । अव्य-नहीं, हां, ( स्वीकारार्थ में भी)। । श्राहि--म० क्रि० दे० (सं० प्रस ) वर्तमान पाहा-प्रव्य दे० (सं० अहह ) श्राश्चर्य, कालिक रूप " आसना" से, है, श्राही हर्षादि सूचक शब्द, खेद या आक्षेपार्थक | अहै ( दे०)। शब्द । पाहित-वि० (सं० आ+धा-+क्त ) धन्य धन्य, साधु साधु, वाह वाह । रक्खा हुआ, स्थापित, धरोहर या गिरों "भै आहा पदमावति चली"-प०।। रक्खा हुआ, न्यस्त, अर्पित। प्राहार-संज्ञा, पु० (मान-ह+घञ् ) संज्ञा, पु० (सं० ) पंद्रह प्रकार के दोषों भोजन, खाना, खाने की वस्तु । में से एक, जो अपने स्वामी से इकट्ठा धन लेकर सेवा करे और उसे पाटता जाय, आहारक-संज्ञा, पु० ( सं० ) श्राहरणकारी, गिरवी रक्खा हुया माल, न्यास, धरोहर । संग्राहक। अाहितुण्डिक-संज्ञा, पु० (सं० अहि+ पाहार-विहार-संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) तुण्ड+ष्णिक् ) व्यालग्राही, साँप पकड़ने खाना-पीना, सोना आदि शारीरिक वाला, सँपेरा। परिचर्या, रहन-सहन । "मिथ्याहार-विहाराभ्याँ दोषोह्यामाशया प्राहिताग्नि-संज्ञा, पु० यौ० ( सं० ) साग्निक, अग्निहोत्री। श्रितः "-मा० नि। आहिस्ता-कि० वि० ( फा०) धीरे से, प्राहारी-वि० (सं० आहारिन् ) खाने- | धीरे धीरे, शनैः शनैः, चुपचाप । वाला, भक्षक, जैसे मांसाहारी (बुरे अर्थ | संज्ञा, स्त्री० श्राहिस्तगी।। में ) शाकाहारी ( अच्छे अर्थ में)। श्राहक-संज्ञा, पु. (सं.) मृत्तिकावत् स्त्री० पाहारिणी पाहारि (दे०)। । नगर के राजा भोज के वंशज अभिजित For Private and Personal Use Only Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पाहुत इगला - - नरेश के युग्म संतति में से एक, इनकी पाहोश्वित-अव्य (सं०) विकल्प, प्रश्न स्त्री का नाम काश्या था, इनसे ही देवक जिज्ञासादि सूचक शब्द।। और उग्रसेन हुये, देवक श्रीकृष्ण के पिता- आह्निक-वि० (सं० ) रोज़ाना, दैनिक, मह और उग्रसेन कंस के पिता थे। दिवाकृत्य, दिन-साध्य, दिन-सम्बन्धी। माहुत-संज्ञा, पु० (सं० ) आतिथ्य, संज्ञा, पु० (सं० ) भोजन-प्रकरण, समूह, अतिथि-सत्कार, भूत-यज्ञ, वलिवैश्य देव ।। ग्रंथ-विभाग, नित्य क्रिया, नित्य प्रति, पाहुति-संज्ञा, स्त्रो० ( सं० श्रा+ हुक्ति ) इष्टदेवाराधन । मंत्र पढ़ कर देवता के लिये अग्नि में होम प्राला-संज्ञा, पु. ( सं० ) जलार्णव, के पदार्थ डालना, होम, हवन, हवन की जलाशय । सामग्री, एक बार में यज्ञ-कुंड में डाली जाने । श्राह्लाद-संज्ञा, पु० (सं० आ+द+ वाली हवन-सामग्री की मात्रा, शाकल्य। । धनू ) श्रानंद, हर्ष, खुशी, तुष्टि, प्रसन्नता । माहूत-वि० (सं० श्रा। हू+क्त) बुलाया यौ० श्राह्लाद-जनक- वि० यौ० (सं.) हुआ, आह्वान किया हुआ, निमंत्रित, हर्ष-कारक, सुखद, तुष्टिकर। न्योता हुआ। वि० श्राह्लादकारक, श्राह्लादकारी । श्राहृत-वि० ( सं० भा---8+ क्त) अर्जित, श्राह्लादित-वि० (सं० ा+हद् + णिच् पानीत, लाया हुआ, हरण किया हुआ। ___-क्त ) आनन्दित, प्रसन्न, हर्षित सुखी। स्त्री० पाहता। वि० श्राह्लादनीय, प्रानन्दनीय। पाहै-अ. क्रि० दे० (सं० अस ) आह्वय-संज्ञा, पु० (सं० आ+हे+अल ) श्रासना का वर्तमान कालिक रूप, है, है नाम, संज्ञा, तीतर, बटेर, मेढ़े आदि जीवों (दे०)। की लड़ाई की बाजी, प्राणिधूत । श्राहो--अव्य (सं०) विकल्प, खेद, विस्मय, श्राहान-संज्ञा, पु० (सं० आ + ह्वा+ अनट) सन्देह, प्ररनादि-सूचक शब्द. पाहा (दे०)। बुलाना, बुलावा, पुकार, सम्बोधन, श्रावाप्राहो पुरुषिका- संज्ञा, स्त्री० (सं० ) हन, निमंत्रण, न्योता, राजा की ओर से आत्म श्लाघा आत्मगर्वित, अहमिका, बुलावे का पत्र, समन, तलबनामा, यज्ञ धात्मप्रशंसा । | में मंत्र के द्वारा देवताओं का बुलाना । इ इ वर्णमाला में स्वरों के अंतर्गत तीसरा इंग-संज्ञा, पु. (सं०) हिलना. कंपन, स्वर या वर्ण इसके बोलने का स्थान तालु है। चिन्ह, संकेत, हाथी-दाँत । और प्रयत्न विवृत है, ई इसका दीर्घ | इंगन-संज्ञा, पु० (सं० ) संकेत, इशारा। रूप है । "इचुयशानाम् तालुः" इंगनी-संज्ञा, स्त्री० दे० (अं. मैंगनीज़) अध्य० (सं०) भेद, कुपित, अपाकरण, । एक प्रकार का धातु का मोर्चा जो काँच या अनुपा, खेद, कोप, संताप, दुःख, शीशे के हरेपन को दूर करने के काम में भावना। अाता है। संज्ञा, पु० (सं० ) कामदेव, गणेश । इंगला-संज्ञा, सी० दे० (सं० इड़ा) इडा नाम For Private and Personal Use Only Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir इंगलिस्तान २७ इंदिरालय की एक नाड़ी विशेष जो शरीर के वाम | इंजीनियर-संज्ञा, पु. ( अं० एंजीनियर ) भाग में रहती है ( हठ योग)। यंत्र की विद्या जानने वाला, कलों का इंगलिस्तान-संज्ञा, पु० ( अं० इंगलिश+ बनाने, सुधारने और चलाने वाला, स्तान-फा, (सं० स्थान) अंगरेजों का देश, शिल्प विद्या में दक्ष, विश्वकर्मा, सड़कों, इंगलैंड। इमारतों, और पुलों श्रादि का बनवाने, इंगलिश-संज्ञा, स्त्री. ( अं० ) अंग्रेज़ी सुधरने और देख-भाल करने वाला एक भाषा। सरकारी अफसर, संज्ञा, स्त्री० इंजीनियरी । वि० इंगलैंड का, अंग्रेजों की, इंगलैंड- इंजील-संज्ञा, स्त्री० ( पू० ) ईसाइयों की सम्बन्धी। धर्म-पुस्तक। इंगलैंड-संज्ञा, पु. (अ.) अंग्रेजों का इँडहर-संज्ञा, पु. ( दे० ) उर्द की दाल से देश, फ्रांस के उत्तर में एक टापू या द्वीप बनाया हुआ एक प्रकार का भोजन या खाना। का दक्षिणी भाग । इँडुरी*-संज्ञा, स्त्री० (दे०) गेंडुरी, इँडुवा । वि० इंगलैंडीय-इंगलैंड देश-सम्बन्धी। इँडुवा--संज्ञा, पु० दे० (सं० कुंडल ) कपड़े इंगित-संज्ञा, पु० (सं० ) मन के अभिप्राय की बनी हुई छोटी गोल गद्दी जिसे बोझ को किसी चेष्टा या इशारे के द्वारा प्रगट उठाते समय सिर पर रक्खा जाता है, करना, इशारा, चेष्टा, सङ्केत। गेंडुरी, विड़ई (प्रान्ती० )। वि० हिलता हुमा, चलित, इशारा या इंतकाल- संज्ञा, पु० ( अ० ) मृत्यु, मौत, सङ्केत किया हुआ। एक के अधिकार से दूसरे के अधिकार में इंगुदा-संज्ञा, स्त्री० (सं०) हिंगोट का किसी माल या वस्तु का जाना। वृक्ष, ज्योतिष्मती वृक्ष, इसके फल तेल-मय | इंतज़ाम- संज्ञा, पु० ( अ० ) प्रबंध, बंदो. होते हैं और घाव या व्रण के लिये अति बस्त, व्यवस्था। लाभकारी है, मालकँगनी। " ऐसो इंतजाम चेते हैं ".---द्विजेश । संज्ञा, पु० इंगुद-हिंगोट वृक्ष।। इंतजार-संज्ञा, पु० ( अ० ) प्रतीक्षा, रास्ता इंगुर*-संज्ञा, पु० (दे० ) इंगुर, सिंदूर देखना, बाट जोहना, परखना । का एक भेद। संज्ञा, स्त्री० इंन जारी। इँगुरौटी-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. ईंगुर +- इंद-संज्ञा, पु० दे० (सं० इंद्र ) सुरपति, प्रोटी-प्रत्य० ) सौभाग्यवती स्त्रियों की इंद्र, देवराज । ईगुर या सिंदूर रखने की डिबिया, सिंधोरा इंदध-संज्ञा, पु० दे० (सं० एंद्रव ) एक प्रकार का छंद, मत्तगयंद । इंच-संज्ञा, स्त्री० (अं०) एक फुट का बारहवाँ इंदर-संज्ञा, पु० दे० (सं० इंद्र) इन्द्र, सुरेश । हिस्सा, तस्सू । इंदारुन-संज्ञा, पु० दे० (सं० इन्द्रायन ) इँचना - अ० कि० दे० ( हि० खींचना) __एक प्रकार की औषधि । खिंचना, इचना। इंदिरा-- संज्ञा, स्त्री० (सं० ) लक्ष्मी, शोभा, इंजन-संज्ञा, पु. ( अं० एंजिन ) कल, पेंच, छवि, रमा। भाप या बिजली से चलने वाला एक यंत्र, | इंदिरा-मंदिर-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) रेलवे ट्रेन का वह डिब्बा या अगली गाड़ी नीलोत्पल, नीलकमल। जो भाप के ज़ोर से और सब गाड़ियों को | इंदिरालय-संज्ञा, पु. यौ० (सं) नील खींचता और चलाता है (दे०) अंजन। पद्म, पंकज । For Private and Personal Use Only Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir इंद्रदमन इंदिरावर २७६ इंदिरावर -संज्ञा, पु० यौ० (सं०) इन्दिरेश, इन्द्र की परी-अप्सरा, बहुत सुन्दर स्त्री। रमेश, विष्णु । संज्ञा, पु० (सं०) बारह आदित्यों में से एक, इंदीवर-संज्ञा, पु० (सं० ) नीलकमल, सूर्य, बिजली, मालिक, स्वामी, ज्येष्ठा नक्षत्र, नीलोत्पल, नीलपद्म, जलज । " इन्दीवर- बादल, चौदह की संख्या, छप्पय छंद के दल-श्याममिदिरानंद कंदलम् "-म० भेदों में से एक, जीव,प्राण, एक मन्वन्तर के इंदु-संज्ञा, पु० (सं०) चन्द्रमा, कपूर, १४ भाग ( क्योंकि एक मन्वन्तर में १४ शशि, एक की संख्या, “सरद इन्दु कर निंदक | इन्द्र होते हैं ) कुटजवृक्ष, रात्रि । हासा ,-रामा० । | इंद्रकील-संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) मंदरायौ० इंदुकला-इन्दुलेखा, चन्द्रलेखा, चल, मंदर पर्वत । चन्द्रकला। इंद्रकुंजर- संज्ञा, पु० ( सं० ) इन्द्र का हाथी, इंदुकान्ता-संज्ञा, स्त्री० (सं०) रात्रि, निशा।। ऐरावत । इंदुव्रत-संज्ञा, पु० (सं० ) चान्द्रायणव्रत । इंद्रकानन-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) नन्दन वन । इंदुभृत्--संज्ञा, पु. ( सं० ) शिव, शंकर।। इंद्रगोप-संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) बीर बहूटी इंदुमती-संज्ञा, स्त्री० (सं० ) चन्द्रयुक्ता- नाम का एक बरसाती कीड़ा जो लाल रंग रात्रि, पूर्णमासी, अयोध्या-नरेश अज की स्त्री का होता है, खद्योत, जुगनू । ( रानी ) इन्हीं से महाराज दशरथ हुए थे, इंद्रजव--संज्ञा, पु० दे० ( सं० इन्द्रयव) कुडा, यह विदर्भराज की कन्या थी। कौरैय्या के बीज। इंदुदह-संज्ञा, पु० (सं० ) चन्द्रमा का कुंड, इंद्रजाल-संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) मायाचन्द्र का श्याम भाग -- ''सुधासर जनु मकर कर्म, जादूगरी, तिलस्म, नटविद्या, धोखा, क्रीड़त, इन्दुदह दहडोल "- सूर० । छलछद्म, मंत्र-तंत्र-द्वारा अजीब बातें इंदुबदना-संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं० ) चंद्र- | दिखाना। मुखी, चंद्रमा के से मुख वाली, मयंकमुखी, इंद्रजालिक-वि० (सं०) मायावी, मायिक, विधुवदनी । संज्ञा, स्त्री० ( सं० ) एक प्रकार बाजीगर । का वणिक वृत्त । इंद्रजाली-वि० सं० इंदजालिन् ) इन्द्रजाल इंदुर- संज्ञा, पु० (सं०) इन्दुर, मूसा, चूहा, करने वाला, जादूगर, मायावी। मूषिका, “कीन्हेसि लोवा इन्दुर चींटी'प० । स्त्री० इद्रजालिनी। इंद्र वि० ( सं० ) ऐश्वर्यवान, विभूति- इंद्रजित-वि० (सं०) इन्द्र को जीतने वाला। सम्पन्न, श्रेष्ठ, बड़ा, उत्तम, प्रतापी। संज्ञा, पु० (सं० ) रावण का पुत्र, मेघनाद । संज्ञा, पु०-एक वेदोक्त देवता, जिसका स्थान (दे० ) इंद्रजीत, चौराई का पौधा । अंतरिक्ष है और जो पानी बरसाता है, इंद्रत्व-संज्ञा, पु० (सं०) इन्द्र का कर्म, पौराणिक देवता जो अन्य सब देवताओं के | स्वर्ग का असाधारण कार्य, राजत्व, प्राधान्य, राजा माने जाते हैं, अतः ये देवराज या | इन्द्र-पद । सुरेश कहे जाते हैं । पुलोम दानव की कन्या | इंद्रदमन- संज्ञा, पु० यौ० (सं० रूढ़ि) शची इनको व्याही थीं, श्रतः ये शचीश भी। थीं. श्रतः ये शचीश भी बाढ़ के समय नदी के जल का किसी दूरकहाते हैं, इनके पुत्र का नाम जयंत था। वर्ती निश्चित कुंड, ताल, वट या पीपल के यौ० इंद्र का प्रावाड़ा---इन्द्र की सभा, वृक्ष तक पहुँच जाना, यह एक पर्व या जिसमें अप्सराय नाचती हैं, बहुत सजी हुई योग समझा जाता है, मेघनाद का एक सभा, जिसमें खूब नाचरंग होता हो। । नाम या विशेषण । For Private and Personal Use Only Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir इंद्रधनु-इंद्रधनुष २८० इन्द्रिनिग्रह इंद्रधनु-इंद्रधनुष-संज्ञा, पु. यौ० (सं०) इन्द्रायन - संज्ञा, पु० (सं० ) एक प्रकार की सात रंगों से बना हुआ, एक अर्धवृत्त जो लता, जिसका लाल फल देखने में तो वर्षा-काल में सूर्य की विरुद्ध दिशा की ओर अति सुन्दर किन्तु खाने में प्रति कटु, लगता आकाश पर छाये हुये बादलों में दिखाई है इनारू, एक औषधि विशेष, इँदोरन देता है, यह बादलों या वाष्प कणों पर (दे०)। सूर्य-प्रकाश के प्रतिबिम्ब का फल है। इन्द्रायुध-संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) वन, "हरित बाँस की बाँसुरी, इन्द्रधनुष छवि इन्द्रधनुष । होति "-वि०। इन्द्रासन- ज्ञा, पु. यो० (सं० ) इन्द्र का इंद्र-नील-संज्ञा, पु० यौ० (सं० इंद = सिंहासन, इन्द्र का श्रासन, ऐरावत हाथी। बादल + नील ) नीलम रत, नीलमणि । वि० राजसिंहापन, सिंहासन, शाहीतहत । इन्द्रिय-( इन्द्री)-संज्ञा, स्त्री० (सं०) वह इंद्रनीलक-पन्नग, मरकत, पन्ना। इंद्रप्रस्थ-संज्ञा, पु० (सं० ) एक नगर जिसे शक्ति जिससे बाहरी विषयों का ज्ञान प्राप्त होता है, शरीर के वे अवयव जिनके द्वारा पांडवों ने खांडव वन जला कर बसाया था, हरिप्रस्थ, शक्रप्रस्थ ( वर्तमान-दिल्ली यह शक्ति बाहिरी विषयों का ज्ञान प्राप्त यद्यपि यह यमुना के वामतट पर है और करती है. पदार्थो के रूप, रस, गंध, स्पर्श, इन्द्रप्रस्थ दक्षिण तट पर था)। आदि के अनुभव में सहायक होने वाले इन्द्रपुरी-संज्ञा, पु० (सं० ) स्वर्ग का पाँच अंग-चक्षु ( अाँख ) श्रोत्र ( कान ) नगर, अमरावती। रखना ( जीभ ) नासिका ( नाक ) और इंद्रयव-संज्ञा, पु० यौ० ( सं० ) इन्द्रजव, त्वचा ( शरीर के ऊपर का चर्म ) इन्हें ज्ञानेकुडा नाम की औषधि, इसे इन्द्रफल भी न्द्रिय कहते हैं । वे अंग या अवयव जिनसे कहते हैं। भिन्न भिन्न प्रकार के बाहिरी कार्य किये इन्द्रलोक-संज्ञा, पु० यौ० ( स० ) स्वर्ग, जाते हैं, ये भी पाँच हैं-वाणी, हाथ, पैर, देव-लोक, सुरलोक । गुदा. उपस्थ, इन्हें कर्मेद्रियाँ कहते हैं, लिंगेइन्द्रवंशा-संज्ञा, पु० या० (सं० ) १२ न्द्रिय, अंतरेंद्रिय-या मन, बुद्धि, चित्त वणे का एक वृत्त । और अहंकार, पाँच की संख्या। इन्द्रवज्रा-संज्ञा, पु० (सं० ) एक प्रकार इन्द्रियगण-संज्ञा, पु० या० (सं० ) इंद्रियों का समूह । का वर्णिक वृत्त, जिसमें दो तगण, एक इन्द्रिय-गोचर-वि० (सं० ) इन्द्रियों का जगण और दो गुरु वर्ण होते हैं विषय, ज्ञान-गम्य, बोधगम्य । " स्यादिन्द्रवज्रा यदि तौ जागो गः "-। | इन्द्रिय-ग्राह्य-वि० यौ० (सं०) शब्द, रस, इन्द्रवधू-संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) बीर रूप, गंध, आदि विषय, इन्द्रियों के विषय । बहूटी, भृगकीट। इन्द्र-सुत-संज्ञा, पु० यो० (सं० ) जयंत, इन्द्रिजित-वि० (सं० ) इन्द्रियों को जीत लेने वाला, जो विषयासक्त न हो, अर्जुन, सुग्रीव । जितेंद्रिय । इन्द्राणी-संज्ञा, स्त्री० (सं० ) इन्द्र की इन्द्रियदाष-संज्ञा, पु० यो० ( सं० ) कामापत्नी, शची, बड़ी इलायची, इन्द्रायन, दि दोष, कामुकता, लंपटता, । दुर्गादेवी, वाम नेत्र की पुतली । इन्द्रियनिग्रह-संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) इन्द्रानुज-संज्ञा, पु० यो० (सं० ) विःणु, । इन्द्रियों के वेग को रोकना, इन्द्रियों को नारायण, हरि, श्रीकृष्ण । | अपने वश में करना। For Private and Personal Use Only Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २८१ इन्द्रियविषय इकतीस इन्द्रियविषय-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) इकजोर-कि० वि० दे० (सं० एक+ इन्द्रियग्राह्य, नेत्रादि, इन्द्रियों के पथ-स्थित, जोर=हि० ) इकट्ठा, एक साथ, सब मिल इन्द्रियों के कर्म। कर एक। इन्द्रियागांचर-वि० (सं० इंद्रिय + अगो- इकटक-क्रि० वि० (दे० एक टक-हि.) चर) जो इन्द्रियों से न जाना जा सके। निस्पंद नेत्र से देखना, टकटकी लगाकर इन्द्रियार्थ-संज्ञा, पु. यौ० (सं० ) इन्द्रिय- ताकना। जन्य ज्ञान का विषय, रूप, रस, शब्द, इकट्ठा-वि० दे० (सं० एकस्थ ) एकत्र, गंध आदि। जमा, एक ठौर। इन्द्री*-संज्ञा, स्त्री० ( दे०) इंद्रिय (सं०) इकठौर-इकठोरी–वि० दे० (एक+ठौर ) लिंग (दे०)। एक स्थान पर जमा करना, एकत्रित, इकट्ठा । इन्द्रीजुलाब-संज्ञा, पु० दे० ( स० इंद्रिय + इकतर*-वि० दे० (सं० एकत्र ) ऐकत्र, जुलाब-फा० ) पेशाब अधिक लाने वाली इकट्ठा । औषधि। इकतरा-संज्ञा, पु० (दे० ) एकातर (सं.) इन्धन-संज्ञा. पु. (सं० ) जलाने की एक दिन का नागा करके श्राने वाला ज्वर, लकड़ी, इंधन (दे०)। अतरा (दे०) एकाहिक (सं० ) एकतरा । इनारून----संज्ञा, पु० दे० (सं० इंद्रायन ) । इकता -संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० एकता) इद्रायण। ऐक्य, मेल। इन्साफ-संज्ञा, पु. (अ.) न्याय, अदल, इकताई-साज्ञ, स्त्री० दे० ( फ़ा० यकता) फैसला, निर्णय (वि० मुंसिफ ), संज्ञा. पु. एक होने का भाव, एकत्व, अकेले रहने की (सं०) कामदेव। इच्छा, स्वभाव या बान, एकांत-सेविता, इकक-कि० वि० दे० ( इक -- अंक) अद्वितीयता, एकता, ऐक्क, अभेद । निश्चय ही। " एक से जब दो हुए तब लुत्फ़ इकताई "बाल बरन सम है नहीं. रंक मयंक नहीं"। इकंक "-दासः । इकतान*-वि० दे० (हि० एक+तान ) इकंग*-वि० (दे०) एकांग ( सं० ) एक एक रस, एक सदृश, एकसा, इकताना श्रोर का। ( दे०) स्थिर, अनन्य ।। संज्ञा, पु. शिव। इकतार-वि० दे० (हि. एक+तार) इकन-वि० (दे०) एकान्त (सं० ) बराबर, एक रस, समान । अकेले में, नितांत । क्रि० वि० लगातार, निरंतर । संज्ञा. पु. ( दे० ) निर्जनस्थान। इकतारा--संज्ञा, पु० दे० (हि० एक+तार ) इक-वि० ( दे० ) एक (सं० )। सितार के ढंग का एक बाजा जिसमें केवल “ इक बाहर इक भीतरै "..- वृन्द। एक ही तार लगा रहता है, एक प्रकार का इकइस-वि०(दे०) इक्कीस ( दे.) एक हाथ से बुना जाने वाला कपड़ा जिसमें सूत विशंति (सं० ) बीस और एक, सात का एकहरा ही रहता है। तिगुना, संज्ञा, पु० (दे०) इक्कीस का अंक। इकतीस-- वि० दे० (सं० एकत्रिंशत, या इकछतराज-संज्ञा, पु. ( दे०) एक छत्र एकतीस ) तीस और एक।। राज्य (सं० ) चक्रवर्ती राज्य. प्रतिद्वंदी संज्ञा, पु. तीस और एक की संख्या, रहित राज्य । । इकतीस का अंक, ३।। मा० श.का---३६ For Private and Personal Use Only Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २८२ इक्का-दुक्का यौ० इकतीसासौ-एक सौ इकतीस। इकसूत -वि० दे० (सं० एक-- सूत्र ) इकत्र-क्रि०वि० (दे० ) एकत्र (सं.)। एक साथ, इकट्ठा, एकत्र, सीधा, समतल, इकबाल-संज्ञा, पु. ( दे० ) एकबाल, बराबर, हमवार ( जैसे दीवाल इकसूत है) प्रताप, सौभाग्य। एक से, समान, सदृश । इकबारगी-क्रि० वि० (दे०) सहसा, इकहरा-वि० (दे०) एकहरा, एक पर्त का । एक दम, से, एकबारगी। इकहाईस-क्रि० वि० दे० (हि० एक + हाईइकराम-संज्ञा, पु. (अ.) पारितोषिक, : प्रत्य०) एक साथ, फौरन, अचानक, तुरन्त । इनाम, इज्ज़त, श्रादर। इकांत-वि० ( दे०) एकान्त (सं०) यो० (इक+राम) एक राम । निर्जन स्थान । यो० इनाम इकराम-इनाम, बख्रिशस, इकता--वि० (दे० ) अकेला (हि.) पुरस्कार, सम्मान, उपहार । एकाकी (सं.)। इकरार- संज्ञा, पु० (अ.) प्रतिज्ञा, वादा, : इकैठ8-वि० दे० ( सं० एकस्थ ) इकट्ठा, किसी काम के करने की स्वीकृति, ठहराव।। एकत्र ।। इकरस-वि० (दे० ) एक अंग. बराबर, इकोतर-वि० ( दे.) एकात्तर (सं०) एक समान । के एक अधिक, जैसे इकोतर सौ। इकलाछ-वि० (दे० ) अकेला. एकाकी इकौंज-संज्ञा, स्त्री० ( प्रान्सी० ) एक ही (सं.)। संतान वाली स्त्री, काक बंध्या, (सं.)। यौ० इकला-दुकला-इक्का-दुक्का, एक- इकोनी-वि० स्त्री० । दे.) एक कम, एक, दो, अकेला, दुकेला। बेजोड़ (१)। इकलाई-संज्ञा, स्त्री० दे० (एक + लाई = “छिति कीसी छौनी, रूप रासि सी लोई == पर्त ) एक पाट का महीन दुपट्टा । इकौनी"--रवि०। या चद्दर, अकेलापन । वि० पु० इकौना-- अनुपम, बेजोड़ । इकलौता-संहा, पु० दे० (हि० इकला+ इकोसोर-वि० दे० (सं० एक- आवास ) पु० हि० ऊत ( सं० पुत्र ) अपने मां-बाप एकान्त, बिलकुल अलग। के अकेला लड़का, लाडिला बेटा। इका-वि० दे० (सं० एक ) एकाकी, इकल्ला-वि० दे० (हि. एक+ला-प्रत्य०) अकेला, अनुपम, बेजोड़, अद्वितीय, एक हरा, एक पर्त का, *अकेला। अनूठा, उत्तम । इकसठ-वि० दे० (सं० एकषष्ठि ) साठ संज्ञा, पु. एक प्रकार की कान की बाली, और एक। जिसमें एक मोती पड़ा रहता है, अकेला संज्ञा, पु. साठ और एक को सूचित करने ही लड़ाई में लड़ने वाला योधा, अपने वाला संख्यांक, ६१ । एकसठ (दे०)। झुंड को छोड़कर अलग हो जाने वाला इकसर-वि० दे० (हि. एक+सर--: पशु, एक प्रकार की दो पहियेदार धोड़ाप्रत्य०) अकेला, एकहरा, एकाकी (सं.) गाड़ी, जिसमें एक ही घोड़ा जोता जाता एक पर्त का। है। किसी रंग की एक ही बूटी वाला खेलने इकसार-वि (दे०) बराबर, लगातार, के ताश का पत्ता । सरीखा, समान, सहश, एक समान। इको-स्त्री। इकसंग-कि० वि० (दे० ) एक संग, इक्का-दुक्का-वि० दे० (हि. एक दो) एक साथ, एक बारगी। अकेला दुकेला, एक या दो। For Private and Personal Use Only Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir इकीस २८३ इजराय इक्कीस-वि० दे० (सं० एक विंशत् ) इखराज-संज्ञा, पु० (म०) निकास, ख़र्च । बीस और एक। इखलास-संज्ञा, पु. (अ.) मेल-मिलाप, संज्ञा, पु० बीस और एक की संख्या, या मित्रता, प्रेम, भक्ति, प्रीति, एखलाक । अंक, २१। इखुल-संज्ञा, पु० (दे०) इषु (सं०) वाण । इक्यावन-वि० दे० (सं. एक पंचाशत, इख्तियार-संज्ञा, पु. (अ.) अधिकार, प्रा० इक्कावन ) पचास और एक । अधिकार-क्षेत्र, सामर्थ्य, काबू, प्रभुत्व, स्वत्व, संज्ञा, पु० पचास और एक की संख्या या अंक, ५१, इक्कापन (दे.)। इच्छना-स० क्रि० दे० (सं० इच्छन ) इश्चासी-वि० दे० (सं० एकाशीति, प्रा. इच्छा करना, चाहना, लालसा रखना। एक्कासि ) अस्सी और एक । इच्छा-संज्ञा, स्त्री० (सं०) किसी सुखद संज्ञा, पु. अस्सी और एक की संख्या या - वस्तु की प्राप्ति की ओर ध्यान को ले जाने अंक, ८१, एक्यासी। वाली एक मनोवृत्ति, लालसा, श्रभिलाषा इतु-संज्ञा, पु० (सं०) ईख, गन्ना, ऊख। चाह, रुचि । इत्तु-विकार--संज्ञा, पु० यौ० (सं०) इच्छाचारी–वि. पु. ( सं० ) मनमौजी, माधुर्य, चीनी आदि पदार्थ । मन के अनुसार घूमने, फिरने या काम करने यौ० इतुकांड--संज्ञा, पु. यो० (सं०) वाला, स्वतंत्र, स्वच्छंद, निरंकुश, स्वेच्छाईख के पोर, या भाग, मुंज, रामशर, चारी । स्त्री० इच्छाचारिणी। रामबाण। इच्छाभेदी--संज्ञा, स्त्री० (सं० ) विरेचनइतुप्रमेह-संज्ञा, पु. यौ० (सं० ) मधु वटी, साधारण दस्तावर दवा। प्रमेह , मूत्र सम्बन्धी एक प्रकार का रोग। इनुमती-संज्ञा, स्त्री० (०) कुरुक्षेत्र के | इच्छाभोजन-संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) इच्छा के अनुसार खाना, भाभीष्ट भोजन, पास एक नदी। । रुचिकर भोजन । इक्षुरस-संज्ञा, पु. यौ० (सं० ) राब, इच्छालाभ-संज्ञा, पु० यो० (सं० ) खंडरस, ईख का रस इक्षरसोद-संज्ञा, पु. यो० (सं०) ईख अभीष्ट-प्राप्ति । इच्छित-वि. ( सं० ) चाहा हुश्रा, के रस का समुद्र। वांछित, ईप्सित । इतुसार-संज्ञा, पु. ग. (सं० ) गुड़. खाँड आदि पदार्थ । इच्छु --संज्ञा, पु. (दे०) ईख, ऊख, इक्ष्वाकु-संज्ञा, पु. ( सं०) वैवश्वत मनु । इतु (सं०)। के पुत्र और सूर्य-वंश के प्रथम राजा, इच्छुक-वि० (सं० ) चाहने वाला, इच्छा इन्हींने अयोध्या को राजधानी बनाया था, । रखने वाला, अभिलाषी, आकांक्षी। इनके पुत्र का नाम कुक्षि था, सुम्वन्धु | इजमाल-संज्ञा, पु. (अ.) कुल, समष्टि, सुत काशी-नरेश, जो इक्षु-दंड फोड़ कर किसी वस्तु पर कई व्यक्तियों का संयुक्त निकला था, कडुई लौकी। स्वत्व, साझा। इक्ष्वालिका--संज्ञा, स्त्री. (सं० ) नरकट, | | वि० इजमाली (१०) शिरकत का, नरकुल, सरपत, मुंज, काँशा। मुश्तरका, संयुक्त, साझे का। इखद-वि० (दे०) ईषत् (सं० ) | इजराय—संज्ञा, पु. (अ.) जारी करना, थोड़ा, कम। प्रचार करना, व्यवहार, अमल, प्रयोग । For Private and Personal Use Only Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - इजलास २८४ इत-उत यौ० इजराय डिगरी-डिगरी का अमल- इज्जतदार-वि० ( फा० ) प्रतिष्ठित दरामद होना, डिगरी जारी कराना। सम्मानित । इजलास-संज्ञा, पु० (अ० ) बैठक, हाकिम इज्य-वि० (सं० यज्+य) वृहस्पति, देवा की बैठक, मुकदमों के फ़ैसल करने का चार्य, गुरु, शिक्षक, पूज्य । स्थान, कचहरी, न्यायालय । स्त्री० इज्या। इजहार-संज्ञा, पु. (अ.) जाहिर करना, इज्या- संज्ञा, स्रो० ( सं० यङ्- य आ ) प्रकाशन, प्रकट करना, अदालत के सामने दान, याग, यज्ञ, पूजा, अर्चा. आठ प्रकार बयान, गवाही, साक्षी। के धर्मों में से प्रथम । इजाज़त-संज्ञा, स्त्री० (म०) श्राज्ञा, वि० इज्याशील--बार-बार यज्ञ करने हुक्म. स्वीकृति, परवानगी, मंजूरी, सम्मति । वाला, याजक, यज्ञकारी। इजाफा-संज्ञा, पु. (अ.) बढ़ती, वृद्धि, इठलाना-अ. क्रि० दे० (हि. ऐंठ+ तरक्की, खर्च के बाद बचा हुआ धन, बचत। लाना ) इतराना, गर्व या घमंड दिखाना, इजार-संज्ञा, स्त्री० (अ.) पायजामा,सूथन । अहंकार-सूचक चेष्टा करना, भटकना, नखरा इजारबंद - संज्ञा, पु. ( म०) सूत या करना, ऐंठ दिखाना, अनजान बनना, काम रेशम का जालीदार बँधना जो पायजामे में विलम्ब करना, ठसक दिखाना । या लॅहगे के नेफे में उसे कमर से बाँधने | अठिलाना(व. भा० )। के लिये पड़ा रहता है, नारा ! इठलाहट--संज्ञा, स्त्री. (हि. इठलाना) इठ. इजारदार-इजारेदार-वि० । फा० ) किसी लाने का भाव, ठसक, इतराना, घमंड, ऐंठ। पदार्थ को इजारे या ठेके पर लेने वाला, इठाई*--संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० इट+ ठेकेदार, अधिकारी। आई-प्रत्य० ) अभिरुचि, चाह, मित्रता, इजारा-संज्ञा, पु. (अ.) किसी पदार्थ प्रीति, इष्टता । को उजरत या किराये पर देना, ठेका, " नेकहूँ उमैठे गये नेह की इठाई सों।" अधिकार, इख्तियार, स्वत्व ।। -रवि० । इज्जत-संज्ञा, स्त्री० (अ.) मान-मर्यादा, इडा-संज्ञा, स्त्री. (सं०) पृथ्वी, भूमि, प्रतिष्ठा, श्रादर। गाय, वाणी, स्तुति, अन्न, हवि, नभदेवता, मु०--इज्जत उतारना-मर्यादा नष्ट दुर्गा, अंबिका, पार्वती, कश्यप ऋषि की करना। पत्नी जो दक्षप्रजापति की पुत्री थीं, स्वर्ग इज्जत लेना-- मर्यादा या प्रतिष्ठा न करना। हठयोग की साधना के लिये मानी गई इज्ज़त देना-प्रतिष्ठा गँवाना, मर्यादा वामांग ओर की एक कल्पित नाड़ी, खोना, सम्मान या आदर करना या देना। सरस्वती, वैवस्वत मनु की पुत्री जो चंद्रइज्जत मिट्टी में मिलाना--प्रतिष्ठा नष्ट ; पत्र बुध से व्याही थी और जिनसे प्रसिद्ध करना, मर्यादा का बिगाड़ना ।। नृप पुरुरवा पैदा हुए थे। इज्जत बिगाड़ना--(स्त्री के लिये) इडुरी-संज्ञा, स्त्री० (दे० ) एंडुरी, गेंडरी. सतीत्व नष्ट करना, बलात्कार करना। बीड़ा । (साधारणतया) मान-मर्मादा या इत*-- क्रि० वि० दे० (सं० इतः ) इधर, प्रतिष्ठा को नष्ट करना। | इस ओर, यहाँ, इतै (७०) इत्त (दे० । इज्जत रखना-मान-मर्यादा या प्रतिष्ठा | इत-उत-क्रि० वि० दे० (सं० इतः+ततः ) की रक्षा करना, नष्ट न होने देना। इधर-उधर, इत्त उत्त (दे०)। For Private and Personal Use Only Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org इतफाद इतकाद - संज्ञा, पु० दे० ( फा० एतकाद ) विश्वास, दिलजमई । २८४ इतना --- वि० दे० (सं० एतावत् - या पु० हि० ई = यह, + तना ( प्रत्य० ) इरा मात्रा का, इस कदर इ ( ० ), एतो ( ० ) इत्ता ( प्रान्ती० ) इत्तो ( दे० ) । मु० - इतने में इसी बीच में ऐसा होने पर | स्त्री० एती व्र० ) दत्ती ( प्रान्ती० ) । इतमाम - संज्ञा, पु० दे० ( ० इहतिमाम ) इन्तज़ाम, बंदोबस्त, प्रबंध, व्यवस्था । इनगीनान- संज्ञा, पु० ( ० ) विश्वास. दिलजमाई, संतोष, भरोसा | वि० इतमीनानी- भरोसे का । इतर - वि० सं०) दूसरा, अपर, र, अन्य, नीच, पामर, साधारण, सामान्य | संज्ञा, पु० - श्रतर, फुलेल, इत्र, पुष्पसार । यौ० इतर विशेष आप से भिर, प्रभेद । इतर लोक-दूसरा लोक, छोटे लोग । इतर-जाति ( जन ) दूसरी जाति, नीच जाति, सामान्य लोग, अन्य जन. नीच मनुष्य । इतराज विरोध, संज्ञा स्त्री० दे० ( प्र० एतराज ) बिगाड़, नाराजी, पति इतराजो | (सं० उत्तरण ) इनराज (दे० ), वि० इतराना - अ० क्रि० दे० घमंड करना, इठलाना, ऐंठ या उपक दिखाना, उतराइबो ( ब० ) । इतराहट * - संज्ञा स्त्री० ( हि० इतराना दर्प, घमंड, गर्व 1 इतरेतर - क्रि० वि० (सं० इतर - इतर ) अन्यान्य परस्पर आपस में । इतरेतराभाव --- संज्ञा, ५० यौ० (सं० ) एक के गुणों का दूसरे में न होना, श्रन्योम्याभाव ( न्याय० ) । इतरेतराश्रय - संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) एक प्रकार का दोष जो वहाँ होता है जहाँ दो इतिहास वस्तुओं में से प्रत्येक की सिद्धि दूसरी पर निर्भर रहती है- अर्थात् एक की दूसरी पर और दूसरी की सिद्ध प्रथम की सिद्धि पर आधारित होती है ( तर्क न्याय० )1 इतरेद्युः -- अव्य० (सं० ) दूसरे दिन, अन्यदिन । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir , इतरौहाँ वि० (हि० इतराना + चहाँप्रत्य० ) इतराना सूचित करने वाला, इतराने का भाव प्रगट करने वाला । इतवार - इत्तवार संज्ञा, पु० दे० ( सं० आदित्यवार ) शनि और सोमवार के बीच का दिन रविवार - एतवार (दे० ) । इतस्ततः - क्रि० वि० (सं० ) इधर-उधर, इत उत इतै उतै ( ० ) । इताअत इटात संज्ञा, स्त्री० ( ० ) आज्ञा-पालन, ताबेदारी इताति (दे० ) । " निसि बासर ताकहँ भले, मानै राम इतात - तु० । 35 इति - श्रव्य ( सं० ) समाप्ति सूचक शब्द | संज्ञा, स्त्री० (सं० ) समाप्ति पूर्ति, पूर्णता । यौ० इति श्री - समाप्ति, अंत, पूर्ति । इति शुभम् समाप्त, पूर्ण । इति कथा - संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं० ) | - शून्य वाक्य अनुपयुक्त बात । इति कर्तव्य-संज्ञा, स्त्री० यौ० ( सं० ) उचित कर्तव्य, कर्माग | इतिकर्तव्यता- संज्ञा स्त्री० (सं० ) किसी काम के करने की विधि, परिपाटी, प्रणाली । इतिवृत्त संज्ञा, पु० (सं० ) पुरावृत्त, पुरानी कथा, कहानी, जीवनी । इतिहास - संज्ञा पु० (सं० इति + इ + आस् ) पूर्व वृत्तान्त, बीती हुई प्रसिद्ध acari और उनसे सम्बन्ध रखने वाले पुरुषों, स्थानों आदि का काल-क्रम से वर्णन, तारीख़, तवारीख़, पुरावृत्त, उपाख्यान, प्राचीन कथा, अतीत काल की घटनाओं का विवरण | वि० इतिहासज्ञ - इतिहास में दक्ष । For Private and Personal Use Only Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir इती इती8-वि० खी० दे० ( हि० इतनी ) इतनी, इदानी-कि० वि० (सं० ) इस समय में एलो (ब्र०) इत्ती (दे० )। (अव्य० ) सम्प्रति, अधुना । इतेक - वि० दे० (हि. इत---एक ) इदानीन्तन-वि० ( सं० ) अाधुनिक, इतना, इतना ही। साम्प्रतिक, इस समय का । इतो*-वि० दे० (सं० इयतं = इतना ) इधर-कि० वि० दे० (सं० इतर ) इस इतना, एतो (७०) इत्तो (दे०)। ओर, यहाँ, इस तरफ़, इस स्थान पर, अन्न । इत्तफ़ाक-संज्ञा, पु० (अ.) मेल, मिलाप, ..इधर-उधर---यहाँ-वहाँ, इतस्ततः एका, सहमति, सहयोग, मौक़ा, अवसर। आस-पास, इनारे-किनारे चारो ओर, सब वि० इत्तफ़ाकिया-श्राकस्मिक, मौके का। थोर, जहाँ-तहाँ। क्रि० वि० इत्तफाकन-संयोगवश, मौके से। इधर उधर करना-टाल-मटूल करना, मु०-इत्तफाक पडला... संयोग उपस्थित हीला-हवाला करना, उलट-पलट करना, होना, मौका पड़ना। क्रम भंग करना, तितर-बितर करना, हटाना. इत्तफाक से-संयोगवश, अकस्मात् । भिन्न भिन्न स्थानों पर कर देना । इधर-उधर की ( बात ----अफ़वाह, इत्तला-स्त्री. संज्ञा, दे० (ग्र० इतलाम) सुनी-सुनाई बात, बेठिकाने की बात, सूचना, ख़बर। असंवद्ध या बेसिर-पैर की बात, गप्य-सप्प । यौ० इत्तलानामा--सूचना-पत्र । इधर-उधर के काम--व्यर्थ के कार्य, इत्ता-इत्तो*-वि० (दे०) इतो, एता इतना, अनुपयोगी अनावश्यक कार्य । व० व० इत्ते, स्त्री० इत्ती। इधर-उधर की उड़ाना-भूठ-सच और इत्थं-क्रि० वि० (सं० ) ऐसे. यों, इस व्यर्थ की बातें करना, अनुपयोगी बातें या प्रकार, इस तरह। गपशप करना। इत्थंभूत--वि० (सं० ) ऐसा, इस प्रकार । इधर का (को) उधर करना-व्यर्थ इत्थमेव-वि० (सं० ) ऐसाही, योंही। का काम करना, वेठिकाने का काम करना, इत्यादि--अव्य० (सं० ) इसी प्रकार अन्य, चुगली करना, इसकी बात उससे और प्रभृति, आदि, इसी तरह और दूसरे, उसकी बात इससे कहना। वगैरह। इधर को उधर लगाना-चुगली खाना इत्यादिक ---अव्य० (सं० इत्यादि । क) इसी या करना, झगड़ा लगाना, लड़ाई या विरोध प्रकार के अन्य और, वगैरह, प्रभृति, आदि । कराना, परस्पर वैमनस्य पैदा करना । इत्र-संज्ञा, पु० ( उः ) अतर, इतर, पुष्पलार, इधर की दुनिया उधर होना-अनहोनी यौ० इत्रदान संज्ञा, पु०-इतर रखने या असम्भव बात होना, प्राकृतिक नियमों का पात्र । का परिवर्तित होना या बदल जाना। इत्रफ़रोश-संज्ञा, पु० ( फा० ) इतर बेचने । इधर-उधर में रहना-व्यर्थ के कामों वाला। से समय खोना, झगड़ा कराते रहना, इनीफल-संज्ञा, पु० दे० (सं० त्रिफला ) चुग़ली करते रहना, समय बरबाद करना । शहर में बनाया हुआ त्रिफला का अवलेह । इधर-उधर छाना-तितर-बितर होना, इदम्--सर्व. (सं० ) यह, पुरोवर्ती। उलट-पलट होना, बिगड़ना, भाग जाना, इदमित्थं-अव्य० ( ) ऐसाही है, ठीक एक स्थान या मनुष्य से दूसरे स्थान या है, यही है। मनुष्य के पास हो जाना, खो जाना। For Private and Personal Use Only Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २८७ इमरती इधर का उधर हाना-उलट-पलट होना, | इनारा-संज्ञा, पु० दे० (सं० इन्दारा) व्यतिक्रम होना, अव्यवस्थित, या तितर- कूप, पक्का कुआँ । बितर होना, नष्ट होना। इनारुन-संज्ञा, पु० (दे०) इद्रायण का में इधर की कहना न उधर को..- फल (सं.)। पक्षापक्ष में किसी के भी सम्बन्ध में कुछ " अमृत खाइ अब देखि इनारुन, को भूखा न कहना। जो भूलै "-हरि० न इधर हाना न उधः-न पक्ष में होनाइनगिन-वि० दे० ( अनुः इन--- गिनना) न विपक्ष में, तटस्थ रहना। कपियय, कुछ थोड़े से, चुने-चुनाए, चुनिंदा । न इधर का होना न उघर का-दो ! इन्ह®---सर्व० (दे० ) इन (हि. ) जैसे उद्देश्यों में से किसी का भी सफल न होना। इन्होंने, इन्हकर ।। न इधर के रहन उधर के रह-न तो । इप्सु-वि० (सं०) ईप्सित, इच्छुक, लोभी। इस लोक को ही सार्थक किया और न उस इफरात-संज्ञा, स्त्री. (अ.) अधिकता, लोक को ही, भुक्ति और मुक्ति दोनों न। बाहुल्य । मिली, दो पक्षों में ( पतापत ) से किसी इबरानी-वि० (प्र.) यहूदी। ओर भी न रहना किसी काम का न संज्ञा, स्त्री० पैलिस्तान देश की प्राचीन रहना, असफल और व्यर्थ प्रयास होना।। भाषा । इध्म-संज्ञा, पु० ( सं० ) भाग सुलगाने की इबादत--संज्ञा, स्त्री० ( अ० ) पूजा, अर्चा, लकड़ी, इंधन । उपासना। इन-सर्व० (हि. इस ) इस का बहबचन ।। इबारत--संज्ञा, स्त्री. (अ.) लेख, लेखसंज्ञा, पु० (द०) सूर्य, समर्थ, राजा, प्रभु मा. शैली, लिखा हुआ। ईश्वर, हस्ति, नक्षत्र, १२ की संख्या। वि० इबारती---गद्यात्मक ।। इनकार-संज्ञा, पु० (अ० ) अस्वीकृति, । इभ-संज्ञा, पु० (सं० ) गज, कंजर, हाथी, नामंजूरी, इसरार का विलोम । समान. सदृश, नाई, तरह । यौ०-इभपालक-संज्ञा, पु. ( सं० ) इनसान-संज्ञा, पु. (अ.) मनुष्य । महावत । इनसानियत--संज्ञा, स्त्री० (अ. मनुष्यता, इभेश-संज्ञा, पु. ( सं० ) ऐरावत, गजेन्द्र, मनुष्यत्व प्रादमियत, बुद्धि. शऊर. भल. । इभेद्र। ममसी, सौजन्य । इभ्य-वि० (सं०) धनवान, हाथीवान् । इनाम-संज्ञा, पु० दे० (अ. इनग्राम ) इमदाद-संज्ञा, स्त्री० ( अ. ) मदद, पुरस्कार, उपहार, बखशिश, पारितोषिक । । सहायता। यो० इनाम-इकराम-कृपा पूर्वक दिया। क दिया - वि० इमदादा--मदद दिया हुआ, सहायता. गया पुरस्कार, पारितोषिक । प्राप्त। " मेहनत करो इनाम लो इनाम पर इमन-संज्ञा, पु. ( दे०) स्वर का मिलान, इकराम लो"~ एक रागिनी। इनायत-संज्ञा, स्त्री० (अ.) कृपा, दया, । यो० इमनकल्पान - एक रागिनी। अनुग्रह, एहसान । इमरती--संज्ञा, स्वा० दे० (सं० अमृत) मु०-इनायत करना- दया करके देना।' एक प्रकार की जलेबी जैसी मिठाई । या० इनायलनामा---कृपापत्र । अमिरती, श्रमरती। For Private and Personal Use Only Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org इमली २८८ इमली - संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० अल्म + ई० हि० प्रत्य ) एक बड़ा वृक्ष जिसके लम्बे फल खट्टे होते हैं और खटाई के काम में आते हैं, इसी वृक्ष के फल, अमली (दे०) इमली | इमाम - संज्ञा, पु० ( ० ) अगुश्रा, मुसलमानों को धार्मिक कृत्य कराने वाला मनुष्य, अली के बेटों की उपाधि पुरोहित । इमामदस्ता-संज्ञा, पु० दे० (का० हावन दस्ता ) लोहे या पीतल का खल, बट्टा । श्याम बाड़ा --- संज्ञा, पु० ( प्र० इमाम -+बाड़ा - हि० ) शिया मुसलमानों के ताज़िया रखने का हाता. ताज़ियों के दफ़नाने की जगह । इमारत -संज्ञा स्त्री० ( ० ) बड़ा और पक्का मकान, विशाल भवन | इमिक क्रि० वि० दे० (सं० एवम् ) ऐसे, यों, इस प्रकार, इस तरह इस भाँति, इह भाँति विधि | इम्तहान संज्ञा, पु० ( ० ) परीक्षा, जाँच । इयत्ता - संज्ञा स्त्री० (सं० ) सीमा, हद । इरषान् इरिषा - संज्ञा स्त्री० (दे० ) ईर्ष्या ( सं० ) डाह । — राम० । "तुम्हरे इरिषा-कपट विसेखी वि० इरषित - डाह किया हुआ, वि० इरषालू - ईर्ष्या करने वाला । इसी - संज्ञा, स्त्री० ( दे० ) चक्के की धुरी । इरा - संज्ञा, स्त्री० ( सं० ) कश्यप की स्त्री जिससे वृहस्पति और उद्भिन उत्पन्न हुये थे, भूमि, पृथ्वी, वाणी, भाषा जल । इरधान-संज्ञा, पु० (सं० ) समुद्र, मेघ, राजा, अर्जुन-पुत्र, जो दुर्योधन-पत्नीय श्रार्यशृंग राक्षस के द्वारा मारा गया था । इराका - वि० ( ० ) अरब के ईराक प्रदेश का निवासी । संज्ञा, पु० घोड़ों की एक जाति, ईराक का घोड़ा । इलायचीदाना इरादा - संज्ञा, पु० ( ० ) विचार, संकल्प. मंशा | इदर्गिद - क्रि० वि० (अनु० - इर्द गिर्द फा ) चारों ओर, त्रास-पास, चहूँधा ( ब्र० ) । इर्शाद -संज्ञा, पु० ( अ० ) हुक्म, आज्ञा । इर्षमा -- संज्ञा स्त्री० दे० ( सं० एषणा ) Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रबल इच्छा । इलजाम - संज्ञा, पु० ( प्र० ) दोष, अपराध, श्रभियोग दोषारोपण, इल्जाम ( श्र० •) I इलविला - संज्ञा स्त्री० [सं० ) विश्वश्रवा की स्त्री और कुबरे की माता । इलाम- संज्ञा, पु० ( ० ) ईश्वरीय. देववाणी । इलसा - संज्ञा, पु० ( दे० ) हिलसा नामक मत्स्य । इला---संज्ञा स्त्री० (सं० ) पृथ्वी, पार्वती, सरस्वती, वाणी, गो, वैवस्वत मनु की कन्या जो बुध से व्याही गई थी और पुरूरवा राजा की माता थी. इश्वाकु की पुत्री, बुद्धिमती स्त्री । इलावतं - संज्ञा, पु० ( सं० ) जम्बूद्वीप के नववर्षान्तर्गत वर्ष विशेष, इलावृत, भरतखंड, भारतवर्ष । इलाका - संज्ञा पु० प्र० ) सम्बन्ध, लगाव, कई गांवों की ज़मींदारी, रियासत । इलाज -संज्ञा, पु० ( प्र० ) दवा, औषध. चिकित्सा, उपाय, युक्ति, तदबीर । इलाम - संज्ञा, पु० दे० ( ० ऐलान ) हुक्म, आज्ञा, इत्तलानामा, सूचना-पत्र | ठान्यो न सलाम मान्यो साह को इलाम ”—भूः। इलायची -संज्ञा स्त्री० दे० ( सं० एला । ची | फा० प्रत्य० ) एक सदा बहार वृक्ष जिसके फल के बीजों में बड़ी तीव्र सुगंध होती है, बीज पान के साथ या यों ही या मसाले में डालकर खाये जाते हैं, एला । इलायचीदाना -संज्ञा, पु० यौ० ( सं० एला । दाना फा० ) इलायची का बीज, For Private and Personal Use Only Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २८६ 'अपराध। इलावृत इष्टापत्ति चीनी में पागा हुआ, इलायची या पोस्त | इश्क-संज्ञा, पु. (म.) मुहब्बत, प्रेम, का दाना। चाह। इलावृत-संज्ञा, पु० (सं०) जंबूद्वीप के वि० आशिक, माशूक । ६ खंडों में से एक। | इश्तहार-संज्ञा, पु० (०) विज्ञापन, इलाही-संज्ञा, पु० (अ.) ईश्वर, खुदा सूचना। वि० देवी। इश्तियालक-संज्ञा, स्त्री० (दे० ) बढ़ावा, यौ० इलाहीगज़-अकबर का चलाया उत्तेजना । हुया एक प्रकार का गज़ जो ४१ अंगुल | इषण --संज्ञा, स्त्री० दे० (एषणा सं० ) ( ३०३ इंच ) का होता है और इमारतों कामना। के नापने के काम में आता है। इषु-संज्ञा, पु० (सं० ) वाण, शर, तीर, इल्लिजा-संज्ञा, स्त्री० ( अ ) निवेदन, कांड। प्रार्थना। इषुधि-( इषुधी)-संज्ञा, पु० (सं० ) तूण, इल्म-संज्ञा, पु. (अ.) विद्या, ज्ञान, | तरकस, तूणीर। वि० इल्मी। | इषुमान-वि० (सं०) तीर चलाने वाला, संज्ञा, स्त्री० इल्मियत-विद्वता। तीरंदाज़ । इल्लत-संज्ञा, स्त्री. ( अ० ) रोग, बीमारी, इषुपल-संज्ञा, पु० (सं०) दुर्ग के द्वार झंझट, बखेड़ा, दोष, अपराध । की कंकड़, पत्थर फेंकनेवाली तोप। मु०-इल्तत पालना-कठिनाई रखना, इष्ट-वि० ( सं०) अभिलषित, चाहा बखेड़ा बना रहना। हुआ, वाँछित, अभिप्रेत, पूज्य, पूजित । इल्ला-संज्ञा, पु० दे० (सं० कील ) छोटी संज्ञा, पु० यज्ञादि कर्म, अग्निहोत्रादि शुभ कड़ी फंसी, मस्सा, माँस-वृद्धि । कर्म, संस्कार, यज्ञ स्वामी, इष्टदेव, कुलदेव, इल्ली --संज्ञा, स्त्री० (दे० ) अंडे से अधिकार, वश देवता की छाया या कृपा, निकलते ही चींटी या ऐसेही कीड़ों का रूप। मित्र, प्रिय। यौ० इल्ली-बिल्ली भूल ना--होश- इपका-संज्ञा, स्त्री० (सं०) ईट, ईटा (दे०)। हवास टीक न रहना। इष्टगंध-वि० यो० (सं०) सुगंधित द्रव्य, इल्वल-संज्ञा, पु० (सं०) एक दैत्य, एक सौरभ । मछली। इष्टता-संज्ञा, स्त्री० (सं० ) इष्ट का भाव, इल्वला-संज्ञा, पु० (सं०) मृगशिरा नक्षत्र मित्रता। के ऊपर रहने वाला २ तारों का अँड । इष्टदेव (इष्टदेवतो)-संज्ञा, पु. (सं. इव-अव्य० (सं० ) उपमा वाचक शब्द, यौ०) श्राराध्य देव, पूज्य देवता, कुल-देव, समान, सदृश, नाई, तरह, सरीखा ( दे०)। उपास्य देव, प्रिय देवता । इशारा-संज्ञा, पु० (अ.) सैन, संकेत, | इष्ट मित्र-संज्ञा, पु० (सं०.) प्रिय मित्र, संक्षिप्त कथन, बारीक लहारा, सूचम आधार, | मित्रवर्ग। गुप्त प्रेरणा। " इष्ट-मित्र अरु बंधुजन, जानि परत सब संज्ञा, स्त्री० इशारेबाजी। कोय"-वृन्द। मु०-इशारे पर नाचना-संकेत पाते | इष्टापत्ति--संज्ञा, स्त्री० (सं०) वादी के ही श्राज्ञा पालन करना। कथन में दिखाई गई ऐसी आपत्ति जिसे इशारे पर चलना--प्राज्ञानुसार करना। वह स्वीकार कर ले। भा० श० को०-३७ For Private and Personal Use Only Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org इष्टापूर्ति इष्टापूर्ति - संज्ञा, पु० (सं० ) लोकोपका रार्थ यज्ञ, कूप आदि की रचना | २६० इष्टालाप - संज्ञा, पु० (सं० ) अभीष्ट या far कथोपकथन | इष्टि - संज्ञा, स्त्रो० (सं० ) इच्छा, अभि लाषा, यज्ञ, इष्य - संज्ञा, पु० (सं० ) वसन्त ऋतु । इष्वास संज्ञा, पु० (सं० ) धनुष, कार्मुक, धनु । इस - सर्व० दे० (सं० एषः ) यह शब्द का विभक्ति के पूर्व श्रादिष्ट रूप जैसे- इसको । इस पंज - संज्ञा, पु० दे० ( अ० स्पंज ) समुद्र में एक प्रकार के प्रति सूक्ष्म कीड़ों के योग से बना हुधा मुलायम रुई सा सजीव पिंड़ जो पानी खूब सोखता है, और जिसमें बहुत से छेद होते हैं, मुर्दा, बादल । इसपात -संज्ञा, पु० दे० ( ० प्रयस्पत्र, पुर्त० स्पेडा ) एक प्रकार का कड़ा लोहा । इसबगोल - संज्ञा, पु० ( फ़ा० ) फ़ारस की एक झाड़ी या पौधा जिसके गोल बीज हकीमी दवा के काम में आते हैं । इसरार - संज्ञा, पु० ( इसलाम - संज्ञा, पु० ( धर्म | वि० इसलामिया । ० ) हठ, अनुरोध । ० ) मुसलमानी । 1 इसलाह - संज्ञा, स्त्री० ( ० ) संशोधन | इसाई - वि० ( ० ) ईसा के अनुयायी । इसारत8 - संज्ञा, स्त्री० दे० ( ० इशारा ) संकेत, इशारा । इस्से - सर्व० दे० (सं० एषः ) यह का कर्म एवं संप्रदान कारक का रूप । इस्तमरारी - वि० ( ० ) सब दिन रहने वाला, स्थायी, नित्य, अविच्छिन्न । ई-हिंदी वर्ण माला का चौथा स्वर या अक्षर | ( इ + इ ) संयुक्त स्वर । to इस्तमरारी बंदोबस्त - ज़मीन का वह बन्दोबस्त, जिसमें मालगुज़ारी सदा के लिये नियत कर दी जाती है और फिर घटती-बढ़ती नहीं, यह बंगाल - बिहार के प्रान्तों में जारी है। इस्तिंजा - संज्ञा, पु० ( श्र० ) पेशाब कर चुकने पर मिट्टी के ढेले से इंद्री की शुद्धि । इस्तिरी - संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० स्तरी - तह करने वाला) कपड़ों की तह बैठाने वाला धोबियों या दर्जियों का श्रौज़ार, तह बैठना | इस्त्री (दे० ) स्त्री । इस्तीफ़ा - संज्ञा पु० दे० ( ० इस्तेफ़ा ) नौकरी छोड़ने की दरख्वास्त, त्याग-पत्र | इस्तेमाल - संज्ञा, पु० ( ० ) प्रयोग, उपयोग । वि० इस्तेमाली । इस्त्री ( इस्त्रि ) - दे० संज्ञा स्त्री० (सं० स्त्री० ) स्त्री, इस्तिरी । इस्थिति - संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० स्थिति ) दशा, अवस्था । इस्थिर - वि० दे० (सं० स्थिर ) निश्चल, cho Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अचल, ठहरा हुआ । इह - क्रि० वि० (सं० ) इस जगह, इस लोक में, इस काल में, यहाँ, इस । सर्व ० वि० ) तब इह नीति की प्रतीति गहि जायगी " -- ऊ० श० । 66 इहसान - संज्ञा, पु० ( ० ) एहसान, कृतज्ञता, निहोरा (दे० ) । इहाँ क्रि० वि० (दे० ) यहाँ ( हि० ) वाँ ( ० ) । हूँ हैं - क्रि० वि० (दे० ) यहाँ हीं । इहैवि० (दे० ) यही । इहिं - क्रि० सर्व० (दे० ) यहाँ : वि० इस | ई जो इ का दीर्घ रूप है और जिसके उच्चारण का स्थान तालु है । For Private and Personal Use Only Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ई दर्शन, ईक्षण, -अव्य० (सं०) विषाद, अनुकम्पा, क्रोध, दुःख, भावना, प्रत्यक्ष, सन्निधि | संज्ञा, पु० (सं० ) कन्दर्प, कामदेव | संज्ञा, स्त्री० (सं० ) लक्ष्मी, रमा । ईकार - संज्ञा, पु० (सं० ) ई वर्ण । ईक्ष - संज्ञा, स्त्री० (दे० ) देखना | ईक्षक संज्ञा, पु० सं० ई + क ) दर्शक, देखनेवाला, श्रवलोकन कर्ता । ईक्षण-संज्ञा, पु० (सं०) दर्शन, देखना, थाँख, जाँच, विचार, विवेचन | ईक्षित - वि० देखा हुआ । सं०) दृष्ट, श्रावलोकित, ईख - संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० इतु ) शर जाति की एक घास जिसके डंठलों में मीठा रस रहता है, जिससे गुड़ और चीनी आदि पदार्थ बनाये जाते हैं, गन्ना, ऊख । ईखना* – स० क्रि० दे० देखना | २६१ संज्ञा, स्त्री० इच्छा । ईगुर - संज्ञा, पु० (दे० ) सिंदूर के समान एक लाल वर्ण का पदार्थ या पत्थर, जिसमें पारा भी मिला रहता है । ईचना - स० क्रि० दे० ( हि० खींचना ) खींचना | ईट - संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० इष्टका ) साँचे में ढला हुआ, मिट्टी का लंबा, चौकोर, मोटा टुकड़ा जिसे जोड़ कर दीवाल बनाई नाती है। ईटा (दे० ) । मु० - ईंट से ईंट बजना – किसी नगर या घर का ढह जाना या ध्वंस होना । ईंट से ईंट बजाना -- किसी नगर या घर को ढहाना या नष्ट करना । ईट चुनना - दीवाल बनाने के लिये ईंट पर ईंट बैठाना, जोड़ाई करना | डेढ या ढाई ईट की मसजिद अलग बनाना -- जो सब लोग कहते या करते हों, उसके विरुद्ध कहना या करना । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ईठा ईंट पत्थर - कुछ नहीं । संज्ञा, स्त्री० किसी धातु का चौखूंटा ढला हुआ टुकड़ा, ताश के पत्तों में एक रंग । ईटा - संज्ञा, पु० दे० (सं० इष्टका ) ईंट, ईंट का टुकड़ा । ईडरी - संज्ञा, स्त्री० दे० ( सं० कंडली ) कपड़े की कुंडलाकार गद्दी जिसे बोझ रखते समय सिर पर रखते हैं। गेंडुरी । ु 3 (सं० ईक्षण ) ईछना* - स० क्रि० दे० (सं० इच्छा ) इच्छा करना, चाहना, देखना । ( सं० ईक्षण ) । ईका - संज्ञा, स्त्री० (दे० ) इच्छा (सं० ) हा । ईजति -संज्ञा, स्त्री० दे० ( भ० इज्जत ) मान-सम्मान, मर्यादा । दुरी (दे० ) । ईंधन- संज्ञा, पु० दे० (सं० इंधन ) जलाने की लकड़ी या कंडा, जलावन, जरनी । ई-संज्ञा, स्त्री० (सं० ) लक्ष्मी । सर्व० दे० (सं० ई – निकटसंकेत ) यह । अव्य० दे० (सं० हि० ) जोर देने का शब्द, ही । ईछन—संज्ञा, पु० दे० (सं० ईक्षण ) देखना । For Private and Personal Use Only ईजाद - संज्ञा स्त्री० ( अ० ) किसी नई चीज़ का बनाना, नया निर्माण, आविष्कार । ईठ - संज्ञा, पु० दे० (सं० इह ) मित्र, सखा, प्रिय, चाहा हुआ, वांछित । स्त्री० ईठी-सखी, प्रिय । 66 कैर ईठी " - देव० । ईठनाक ३- स० क्रि० दे० (सं० इट ) इच्छा करना चाहना । ईठा -- संज्ञा, स्त्री० (सं० ) स्तुति, स्तवन, प्रशंसा, नाड़ी विशेष, प्रतिष्ठा, मर्यादा । ईठि - संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० इष्टि, प्रा० इट्ठि) मित्रता, दोस्ती, प्रीति, चेष्टा, यत्न, चाह । " बोलिये न झूठ ईठि मूढ पै न कीजिये " -के० ६० । Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ईठी ईषणा यौ० ईठादाडू-संज्ञा, पु० ( दे० ) चौगान | ईदुवा--संज्ञा, पु० (दे० ) उढ़कना, टेकना, खेलने का डंडा। श्राड़, टेक। ईठी-संज्ञा, स्त्री० (दे०) भाला, बरछा। | ईदक्-वि० (सं०) ईदृश, एतत्सदृश, वि० स्त्री० प्रिय । ऐसा, इसके समान, इस प्रकार। ईड़ा-संज्ञा, स्त्री० (सं० ) स्तुति, प्रशंसा, । स्त्री० ईदृशी। इडा नाम की एक नाड़ी ( योग०)। ईदृक्ष-क्रि० वि० ( सं० ) इस प्रकार, इंडित-वि० (सं० इडि+क) प्रशंसित, । ऐसा इस तरह। कृतस्तवन । ईदृश-कि० वि० ( सं० ) इस भाँति, इस ईद-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० इष्ठ, प्रा० तरह, ऐसे। इ8) ज़िद, हठ । वि० ईढी-ज़िद्दी, हठी। वि० इस प्रकार का, ऐसा । ईतर*-वि० दे० (हि० इतराना ) इतराने ईप्सा--संज्ञा, स्त्री० (सं० ) इच्छा, वांछा, वाला, शोख, गुस्ताख, ढीठ। अभिलाषा, चाह। वि० दे० (सं० इतर) निम्न श्रेणी का, नीच । ईप्सित-वि० ( सं० ) चाहा हुआ, संज्ञा, पु० (अ० इत्र ) इतर, अतर, इत्र । इष्ट, अभिलषित, वांछित, अभीष्ट । ईति-संज्ञा, स्त्री० (सं०) खेती को हानि " ईप्सिततमं कर्म"-पा० । पहुँचाने वाले उपद्रव जो छः प्रकार के कहे | वि० इप्सु-इच्छुक, अभिलाषी। गये हैं : | ईफाय डिगरी-संज्ञा, सी० (अ.) डिगरी १-अतिवृष्टि, २-अनावृष्टि, ३-ठिड्डी का रुपया अदा करना। पड़ना, ४-चूहे लगना, ५-पक्षियों की | ईबी-सीबी-- संज्ञा, स्त्री० ( अनु० ) सिसअधिकता। ६-दूसरे राजा की चढ़ाई। कारी का शब्द, सी, सी का शब्द जो बाधा, पीडा, दुख विपत्ति, वित्र, अंडा, आनन्द या पीड़ा के समय मुख से निकलता प्रवास। है, सीत्कार। "टारी अरि-ईति-भीति सारी बाहु-बल " ईमान-संज्ञा, पु. ( अ० ) धर्म, विश्वास, अ० ब०-" सरस"। श्रास्तिक्य-बुद्धि, चित्त की सद्वृत्ति, अच्छी ईथर-संज्ञा, पु. (अ.) एक प्रकार का नियत, धर्म, सत्य, (बिलोम-बेईमान)। अति सूचम और लचीला द्रव्य या पदार्थ । ईमानदार-वि० (फा.) विश्वास रखने जो समस्त शून्य स्थल में व्याप्त है, आकाश- वाला, विश्वास-पात्र, सच्चा, दियानतदार, द्रव्य, एक प्रकार का रसायनिक द्रव पदार्थ जो लेन-देन या व्यवहार में सच्चा और जो अलकोहाम और गंधक के तेज़ाब से पक्का हो, सत्य का पक्षपाती, सद्वृत्ति वाला। बनता है। संज्ञा, स्त्री० ईमानदारी।। ईद-संज्ञा, स्त्री. (अ.) मुसलमानों का ईरखा -संज्ञा, स्त्री० (दे० ) ईर्षा (सं.)। रोज़ा ख़तम होने पर एक त्यौहार, यह ईरमद-संज्ञा, पु. ( दे० ) इरम्मद प्रायः द्वितीया या परिवा को होता है। (दे० ) वज्राग्नि, बिजली। यौ० ईदगाह-मुसलमानों के एकत्रित ईरान-संज्ञा,पु० (फ़ा०) फारस नामक देश । होकर ईद के दिन नमाज़ पढ़ने का स्थान। वि० ईरानी-फारस देश वासी, फारस मु०-ईद के चाँद होना-बहुत कम की भाषा फारसी। दिखाई पड़ना या मिलना, और अति ईषणा -संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० ईय॑ण ) प्रिय होना। ईर्षा, डाह । For Private and Personal Use Only Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - २६३ ईषत् ईर्षा-संज्ञा, स्त्रो० दे० (सं० ईयां ) दूसरे की सिद्धियों में से एक, जिससे साधक सब के उत्कर्ष के न देख सकने या न सहने की | पर शासन या प्रभुत्व कर सकता है। वृत्ति, डाह, हसद, जलन, अक्षमा, परश्री- संज्ञा, स्त्री. (सं० ) प्रधानता, प्रभुता, कातरता, कुढन, दाह। महत्व। ईर्षालु-ईर्षालू-वि० (सं०) ईर्षा करने ईशित्व-संज्ञा, पु. ( सं० ) प्रभुत्व, आधिवाला, डाही, दूसरे की बढ़ती देख कर पत्य, महत्व, ईशिता, एक प्रकार की जलने वाला, द्वेषी। योग-सिद्धि। ईर्षित-वि. ( सं० ) ई युक्त, जलने ईशी-संज्ञा, स्त्री० (सं० ) ईश्वरी, देवी, वाला. पर-श्री-कातर, हमद करने वाला। दुगा, भगवता ।। ईर्षी-वि० (सं०) द्रोही, द्वैषी, डाही, ईश्वर--संज्ञा, पु० (सं० ) मालिक, स्वामी, दूसरे की अभिवृद्धि से जलने या कुढ़ने क्लेश, कर्म, विपाक और श्राशय से पृथक वाला। वि० ईर्ष---हसद करने वाला। पुरुष विशेष, परमेश्वर, भगवान, महादेव, ईर्ष्या-संज्ञा, स्रो० (सं० ) ईर्षा, डाह, शिव, समर्थ । परश्री कातर्य। ईश्वरला-संज्ञा, स्त्री. ( सं० ) प्रभुता, वि० ईर्ष्याधान, प्यालु। ईश्वरत्व। ईश्वर-निषेध-संज्ञा पु० यो० ( स० ) ईश-संज्ञा, पु० (सं० ) स्वामी, मालिक, । नास्तिकता। राजा, ईश्वर, परमेश्वर, महादेव, शिव, रुद्र, ग्यारह की संख्या, ईशान कोण के | ईश्वर-निष्ठ -- वि० (सं० ) ईश्वर-भक्त, अधि-पति, आर्द्रा नक्षत्र, एक उपनिषद्, ईश्वर-परायण , आस्तिक । शिधान-संज्ञा, पु. यौ० (सं० ) पारा, ईस ( दे० ) ईसा ( दे० )। ईश-सखा-संज्ञा, यौ० पु० (सं० ) कुबेर, योग के पाँच नियमों में से अंतिम धनपति । ( योगशा० ) ईश्वर में अत्यंत श्रद्धा और ईशता-संज्ञा, स्त्री० (सं० ) स्वामित्व, भक्ति रखना। ईश्वर-साधन-संज्ञा, पु० यौ० ( सं०) प्रभुत्व, प्रभुता। मुक्ति या योग-साधन । संज्ञा, पु० (सं० ) ईशत्व-एक प्रकार की ईश्वरा-संज्ञा, स्त्री० (सं०) दुर्गा, लचमी, सिद्धि, प्रभुत्व । सरस्वती, शक्ति। ईशा-संज्ञा, स्त्रो० (सं०) देवी ईश्वरी, दुर्गा । ईश्वराधन--संज्ञा, पु० यौ० ( सं० ) परमेसंज्ञा, पु० (सं०) ऐश्वर्य, प्रताप। ईसा (दे०) । श्वरोपासना। ईशान-संज्ञा, पु० (२०) स्वामी, अधिपति, शिव, महादेव, रुद्र, ग्यारह की संख्या, इश्वरी--संज्ञा, स्त्री० ( सं० ) दुर्गा, भगवती श्रादि शक्ति. श्राद्याशक्ति, महामाया। ग्यारह रुद्रों में से एक, पूर्व और उत्तर के बीच का कोना, शिव की अष्ट विधि ईश्वरीय-वि० (सं०) ईश्वर-सम्बन्धी, मूर्तियों में से सूर्य मूर्ति, शमी वृत । संज्ञा, । । ईवश्र का, दैवी। पु० यो० ( स० ) ईशान कागा पूर्वोत्तर ईषण-संज्ञा, पु. ( सं० ) देखना, नेत्र, ईक्षण। कोण पूर्व और उत्तर के बीच की दिशा।। ईषणा-संज्ञा, स्त्री० (सं० ) लालसा, चाह, ईशानी-संज्ञा, स्त्रा० (सं० ) दुर्गा, भगवती, इच्छा । ईश्वरी, देवी, शमी वृक्ष। ईषत्-वि० (सं०) थोड़ा, कुछ, कम, इशिता-संज्ञा, स्त्री. (सं०) आठ प्रकार अल्प, किंचित, लेश । For Private and Personal Use Only Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ईपत्कर २६४ उँगली ईषत्कर-वि० (सं० ) अत्यल्प, किंचित। । ईसरगोल-संज्ञा, पु० (दे० ) ईसब गोल । यौ० ईषत्पांडु-धूसर वर्ण । ईषद्रक्त-कुछ। ईसवी-वि० (फा० ) ईसा से सम्बन्ध लाल । रखने वाला । यौ० ईसवी सन्-ईसा ईषत्स्पष्ट-संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) वर्णो ___ मसीह के जन्म-काल से चला हुआ संवत्, के उच्चारण में एक प्रकार का आभ्यंतर अंग्रेज़ी वर्ष या संवत । प्रयत्न जिसमें जिह्वा, तालु, मूर्धा, और दंत ईसा-संज्ञा, पु. (अ.) ईसाई धर्म के को और दाँत अोष्ठ को कम छूते हैं, य, र, प्रवर्तक ईसा मसीह । ल, व, ये वर्ण ईषत्स्पष्ट माने गये हैं। ईसाई--वि० ( फ़ा ) ईसा का अनुयायी, यौ० ईषदहास-किचित् हाम मुसकान। ईसा को मानने वाला, ईसा के बताये धर्म ईषट-वि० (सं०) ईषत्, कम, थोड़ा। का अनयायी। ईषन्-क्रि० स० दे० ( सं० इक्षण ) । देखना, ईक्षण । ईमान-संज्ञा, पु० (दे० ) ईशान (सं० )। ईषना-संज्ञा, स्त्री० दे० ( सं० एषण ) । ईसुर--संज्ञा, पु० दे० (सं० ईश्वर ) प्रवल इच्छा। । ईश्वर, प्रभु । वि० ईसुरी। ईषु-संज्ञा, पु० दे० ( सं० इषु ) वाण। ईहा-संज्ञा, स्त्री० (सं०) चेष्टा, उद्योग, " नस्यो हर्ष द्वौ ईपु बर्से बिनासी"-के। इच्छा, लोभ, वांछा, यत्न, उपाय । ईस*-संज्ञा, पु० दे० (सं० ईश) ईश्वर, ईहामृग-संज्ञा, पु. ( सं० चौ० ) रूपक का प्रभु । ईसु (दे०)। एक भेद, जिसमें चार अंक होते हैं, कुत्त ईसन*-संज्ञा, पु० दे० (सं. ईशान ) के समान छोटा धूसर वर्ण का एक जन्तु, ईशान कोण । मृग, तृष्णामृग, ( कुसुम-शिखर-विजयईसबगोल-संज्ञा, पु. ( दे० ) एक प्रकार नामक संस्कृत-रूपक इहामृग है)। की औषध । । ईहित--वि० (सं०) ईप्सित, वाँछित, ईसर*-संज्ञा, पु० दे० (सं० ऐश्वर्य ) कृतोद्योग । ऐश्वर्य । | ईहावृक-संज्ञा, पु० (सं० ) लकड़बग्घा । उ-हिन्दी की वर्ण-माला का पाँचवाँ अक्षर रूप में प्रश्न, अवज्ञा, क्रोध, स्वीकृति जिसका उच्चारण-स्थान अोष्ट है। आदि को सूचित करने के लिये प्रयुक्त होता " उपूपध्मानीयानामोष्टौ" पा है, का सूक्ष्मरूप है। उ-संज्ञा, पु० (सं० ) शिव, ब्रह्मा, प्रजा- उंगल-संज्ञा, पु० (दे० ) अंगुल ( हिं० ) पति । अव्य० ( सं० ) संबोधन-सूचक आँगुर-(दे० )। शब्द, रोष-सूचक शब्द, इसका उपयोग उँगली-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० अंगुलि) हथेअनुकम्पा, नियोग, पाद-पूरण, प्रश्न और लियों के छोरों से निकले हुये पाँच अवयव, स्वीकृति में होता है। सर्व० ( दे० ) वह ।। जो चीज़ों के पकड़ने का काम करते हैं अव्य० दे०) हि, हू या हु का सूक्ष्म रूप) और जिनके छोरों पर स्पर्श-ज्ञान की शक्ति भी, जैसे--रामउ =राम भी,तउतौभी। अधिक होती है, अँगुली, अंगुरी, आँगुरी उँ-अव्य (दे०) प्रायः अव्यक्त शब्द के (दे० )। For Private and Personal Use Only Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org उँगली मु० -- उँगली उठाना ( किसी की ओर ) किसी का लोगों की निन्दा का लक्ष्य होना, निंदा करना, बदनामी करना, बुराई दिखाना, नुक्ताचीनी करना, दोषी, बताना, हानि करना, वक्र दृष्टि से देखना, लांछित करना । २५ उँगली उठना- ( किसी की ओर ) निंदा होना, बदनामी होना, बुराई दिखाई जाना | उँगली पकड़ते पहुँचा पकड़ना --थोड़ा सा सहारा पाकर विशेष की प्राप्ति के लिये उत्साहित होना, तनिक आपत्ति जनक बात पाकर अधिक बातों का अनुमान करना, तनिक बुराई पाकर अधिक बुराई देखना | उँगलियों पर नचाना --- जैसा चाहना वैसा कराना, स्वेच्छानुसार ही चलाना । " बड़े घाव को उँगलियों पर नाचायें " ० सिं० उ० । उँगलियों पर नाचना- किसी की इच्छानुसार उचितानुचित सब प्रकार का कार्य करना, जैसा कोई चाहे वैसाही करना । उँगली दबाना ( दाँतों तले ) - श्राश्चर्य करना, अचंभित होना : उँगली देना ( कानों में ) किसी बात से विरक्त या उदासीन होकर उसे न सुनना या उस की चर्चा बचाना । उँगली दिखाना-धमकाना, डराना ताड़ना दिखाना, मना करना, रोकना । उँगली रखना (मुँह पर ) - चुप रहने का इशारा करना । उँगलियाँ चमकाना ( नचाना ) – मटक मटक कर या हाथ मटका कर बातचीत करना । (पाँचो) उँगलियाँ घी में होना - सब प्रकार से लाभ ही लाभ होना । उँगली देना ( साँप के मुँह में ) - हानिप्रद कार्य में हाथ डालना, बिनाश का प्रयत्न करना । उजरिया “साँप के मुख गुरि दीजै " यौ० कानी उँगली - कनिष्टिका या सब से छोटी अँगुली । उँचाई – संज्ञा, खी० (दे० ) ऊँघना, निद्रालु होना, अलसाना, तंद्रावश होना । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir संज्ञा, पु० (दे० ) ऊँघ, घाई (दे० ) । उँधाना- क्रि० अ० ( दे० ) श्रधाना, निद्रालु होना, ऊँचना (दे० ) तंद्रित होना । = उंचन -संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० उदञ्चन ऊपर खींचना या उटाना ) श्रदवायन, अदवान, ओरचाइन (दे० ) 1 उँचना - स० कि० दे० (सं० उदंचन ) श्रदवान कसना या तानना, श्रदवायन खींचना । उँचाना स० क्रि० दे० ( हिं० ऊँचा ) ऊँचा करना, उठाना, उचाना - (दे० ) उठाना, ऊपर करना । " हौं बुधि-बल छल करि पचि हारी लख्यो न सीस उँचाय ". - सूर० । उँचाव – संज्ञा, पु० दे० (सं० उच्च ) ऊँचाई, ऊँचापन उँचास (दे० ) । उँचास - संज्ञा, पु० दे० (सं० उच्च) ऊँचाई । उंचास वि० दे० (सं० ऊन पंचाशत ) एक कम पचास चालीस और नौ की संख्या ४६ । उंच - संज्ञा, स्त्री० (सं० ) मालिक के ले जाने पर खेत में पड़े हुए अन्न के एक एक दाने को जीविका के लिये बिनने का काम, सीला बीनना (दे० ) | उंछवृत्ति - संज्ञा, स्त्री० (सं०) खेत में गिरे हुए दानों को बिन कर जीवन निर्वाह करने का काम । उजरिया - संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० उज्वल ) चाँदनी, रोशिनी, उज्यारी उजेरिया (दे० ) । वि० [स्त्री० उजेरी, उजाली ( हि० ) । यौ० अँजेरिया अँधेरिया - चाँदने चौर अँधेरे में खेला जाने वाला बालकों का एक खेल | For Private and Personal Use Only Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra उजियार २६६ प्रकाश, उजियार ( उजियार ) संज्ञा, पु० दे० (सं० उज्वल ) उजाला ( हि० ) रोशनी, कुल-दीपक, वंश भूषण, ( घर का उजाला ) । वि० प्रकाशमान, उज्वल । 'ताहू चाहि रूप उँजियारा (4 -- प० । स्त्री० दे० उजियारी - उज्यारी- संज्ञा, ( उजियारी हि० उजाली ) उतारी (दे० ) चाँदनी, प्रकाश, उजेरी (दे० ) । उजियारी मुख इंदु की, परी उरोजनि श्रानि " 66 -ल० वि० । www.kobatirth.org — "" वि० प्रकाश युक्त | उजेरा ( उजेरो ) संज्ञा, पु० दे० उजेला ) उजाला, प्रकाश, रोशिनी, (दे० ) उजियर, उजियार । 66 करे उजेरो दीप पै"- -वृन्द । उँदुर - संज्ञा, पु० (सं०) चूहा मूसा इंदुर । उँह - अव्य० ( अनु० ) स्वीकार, घृणा, या बेपरवाही आदि का सूचक शब्द, वेदनासूचक शब्द, कराहने का शब्द | उँहूँ - अव्य० ( अनु० ) हाँ या हूँ का विलोम, नहीं । करति उहूँ उहूँ 1 उ – संज्ञा, पु० (सं० ) ब्रह्म, नर, मनुष्य । अव्य० * भी - "अउरऊ एक गुप्त मत, ' रामा० । (( "" उमना - स० क्रि० ( दे० ) उगना, उदय (सं० ) होना । (6 -प० । उचा सूक जस नखतन माँहा "उचानाक - स० क्रि० दे० (सं० उदय ) उगाना, मारने को हथियार तैय्यार करना, उठाना, उदित करना । (सं० उद्गुरण) मारने के लिये हाथ तानना । उइ - वि० दे० ( हि० उस ) उस, वे 1 क्रि० स० दे० (सं० उदय, उमना, दे० ) उठी, उगी । उई - क्रि० स० (दे० ) उचना का सामान्य भूतकाल स्त्री० । सर्व० (दे० ) वे ही, वे भी, वेई ( ० ) । ( हि० उजेरो ל' उकडू उऋगा - वि० सं० उत् + ऋण) ऋण मुक्त, ऋण से उद्धार होना, जो ऋण मुक्त हो । उप - स० क्रि० (दे० ) उगे, निकले, उदय हुये, देख पड़े, उना का सामान्य भूतकाल मैं व० व० का रूप । उओ (ब) स० क्रि० (दे० ) उगा, उदित हुआ, सा० भूतकाल उच्च (दे० ) विधि० उौ - उधो (दे० ) उयो । उकचनाछ - अ० क्रि० दे० (सं० उत्कर्ष ) उखड़ना, अलग होना, उचड़ना, उठ भागना, पर्त से अलग होना, हट जाना, उठ जाना । "6 सिंह सों डराय याहू ठौर सों उकचिहौं । -भू० । उकरना -- स० कि० दे० ( हि० उघटना ) उखाड़ना, भेदन करना, गुणवान को प्रकाशित करना, बार बार कहना, गड़ी वस्तु निकालना | उकटा - वि० दे० (हिं उकटना ) उकटने वाला, एहसान जताने वाला । स्त्री० उकटी | संज्ञा, पु० किसी के किये हुये अपराध या अपने उपकार को बार बार जताने का कार्य । यौ० दे० उकदा पुरान— गई -बीती और दबी-दबाई बातों का फिर से सविस्तार Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कथन । उकठना - अ० क्रि० दे० ( सं० अव बुरा + काट) सूखना, सूख कर कड़ा होना और टेढ़ा हो जाना, ऐंट जाना । 66 'जिमिन नवै पुनि उकठि कुकाठू 66 रामा० । प० । दीठि परी उकठी सब बारी " उकठा - वि० दे० ( हिं० उकठना ) शुल्क, सूखा, एंठा । स्त्री० उकठी । I "उकठे बिटप लागे फूलन - फरन" -- विन० । " उकठी लकरी बिन पात बढी " उकडू – संज्ञा, पु० दे० (सं० उत्कृतोरु ) घुटने मोड़ कर बैठने की एक मुद्रा जिसमें For Private and Personal Use Only ܙܙ Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २६७ उलौना दोनों तलवे ज़मीन पर पूरे पूरे बैठते है और उकसनि*-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. उकसना) चूतड़ (डियों से लगे रहते हैं । उटकयन उठान, उभाड़, उभड़न, उठाव, उठाने का (दे०)। भाव। उकत-वि० दे० (सं० उक्त ) कहा हुमा, | उकसाना ( उसकाना ) स०-क्रि० दे० ऊपर का, कथित, प्रथम बताया हुआ, (हिं. उकसना का प्रेर० रूप ) ऊपर को पूर्वकथित । उठाना, उभाड़ना, उत्तेजित करना, उठा उकताना-अ. कि दे० (सं० प्राकल)ऊबना, देना, हटा देना, बढ़ाना (दिए की बत्ती) जल्दी मचाना, खिझाना, अधीर होना।। या खसकाना। उकति--संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० उक्ति) “ हाथिन के हौदा उकसाने"-भू० । कथन, उक्ति. चमत्कृत कथन, विचित्र वाक्य । उकसाया--संज्ञा, पु० दे० (हि. उकसाना) यौ० लोकोकति-- दे० (सं० लोकोक्ति)। उत्साह, बढ़ावा। मसल, कहावत, एक प्रकार का अलंकार। | उकसौहा- वि० दे० (हि. उकसना+ उकतारना-स. क्रि० (दे०) संभालना, | औंहा = प्रल०) उभड़ता हुआ. उठता हुआ। पक्ष करना। स्त्री० उकसौंहो, ब० व० उकप्तौंहे। उकलना-अ. कि० दे० (सं० उत्कलन = " आज कालि मैं देखियत उर उकसौंही खुलना ) तह से अलग होना. खुलना, उच भाँति"--बिन। बना, लिपटी हुई चीज़ का खुलना, उध- उकाब- संज्ञा, पु. (अ.) बड़ी जाति का इना, उबलना, खलबलाना, ऊपर उठना, | गिद्ध, गरुड । कै करना, बमन करना, अकुलाना। उकालना -स० क्रि० (दे० ) उकेलना "बँधे प्रीति-गुन सों उठे, पल पल मैं (दे०) उकेलना (दे०) उचाड़ना, अलग करना। उकलाई---संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. उगलना ) उकासना - स० कि० दे० ( हि० उकसाना) वमन, मिचली, कै, उलटी, मचली। उभाड़ना, खोद कर ऊपर फेंकना, उधारना, मु०-उकलाई श्राना-जी मिचलाना, खोलना। कै होना। " वृषभ शृंग सो धनि उकासत"- सूबे० । उकलाना-अ० क्रि० (दे० ) उलटी करना. उकासी--वि० स्त्री० ( दे० ) खुली हुई। वमन करना, कै करना, अकुलाना। संज्ञा, स्त्री. उसाँसी, छुट्टी, उत्सव ।। उकवत ( उकवथ ) संज्ञा, पु. द० (सं० उकुति-संज्ञा, स्त्री० ( दे० ) उक्ति उत्कोथ ) एक प्रकार का चर्म-रोग जिसमें । (सं० ) उकांत (दे० )। दाने निकलते हैं, खुजली होती है और कुछ | उकुति-जुगुति-संज्ञा, स्त्री० यौ० (दे० चेप या मवाद सा बहता है। अनु०) सलाह, उपाय । उकसना-प्र० क्रि० दे० ( सं० उत्कषण या | उकुसना --स० क्रि० दे० ( हि० उकसना ) उत्सुक ) उभरना, ऊपर को उठना, निकलना, | उजाड़ना, उधेड़ना, उचाड़ना। अंकुरित होना, उधड़ना। उकेलना-स० क्रि० दे० (हि. उकलना) " पुनि पुनि मुनि उकसहिं अकुलाही"- तह या पर्त से अलग करना, उचाड़ना, रामा०। लिपटी हुई चीज़ को छुड़ाना, उधेड़ना, " ताफनि की फनि फांसिनु पै फँदि जाय उचालना, खोलना। फँसै, उकसै न कहूँ दिन "-भावः। उलौना-संज्ञा, पु० दे० (हि. मोकाई ) भा० श० को०-३८ For Private and Personal Use Only Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उक्त २६८ उखाड़ना गर्भवती स्त्री की भिन्न-भिन्न पदार्थो के लिये उखड़ी-वि० स्त्री० (दे०) अलग हुई, इच्छा, दाहद। उजड़ी हुई। उक्त-वि० (सं०) कथित; कहा हुआ, | मु०-उखड़ी उखड़ी बात करनाउकत (दे०)। उदासीनता दिखाते हुए या बेमन बात उक्ति-संज्ञा, स्त्री. (सं०) कथन, बचन, करना, विरक्ति-सूचक बात करना, विलअनूठा वाक्य, चमत्कार-पूर्ण कथन, विलक्षण गाव की बातें करना। बचन । उखड़ी ज़बान से---अस्पष्ट वाणी से। उखड़ना-अ. क्रि० दे० (सं० उत्खिदन उखम-संज्ञा, पु० दे० (सं० ऊष्म ) या उत्कर्षण ) किसी जमी या गड़ी हुई गरमी, ताप, ऊखम, उखमा ( दे )। वस्तु का अपने स्थान से अलग हो जाना, | उखमज-संज्ञा, पु० दे० (सं० ऊष्मज) जड़-सहित अलग होना, खुदना, जमना । शुद्रकीट, उष्मज जीव। का विलोम, किसी सुदृढ़ स्थिति से अलग उखर-संज्ञा, पु. (दे०) ऊख बोने के होना, जमा या सटा न रहना, जोड़ से हट स हट बाद हल की पूजा। जाना ( हाथ श्रादि ), चाल में भेद पड़ना उखरना-अ० कि० दे० ( हि० ) (घोड़े के लिये), गति का समान न रहना, उखड़ना, चूकना, ठोकर खाना। बेताल और बेसुर हो जाना ( संगीत में ), उखल ( उखली)--संज्ञा, पु. स्त्री० दे० एकत्र या जमा न रहना, तितर-बितर होना, (सं० उत्खल ) पत्थर या लकड़ी का पृथ्वी हटना, अलग होना टूट जाना, स्वास का में गड़ा हुआ या अलग पात्र जिसमें डाल यथोचित रूप से न चल कर अधिक वेग कर भूसी वाले अनाजों की भूसी मूसल से से और ऊपर-नीचे चलना, च्युत होना, कूट कूट कर अलग की जाती है, कांडी स्खलित होना, चिन्ह पड़ जाना । (दे० ) ऊखल, श्रोखली, उखरा ( दे० )। "कोमल हृदय उखड़ि गेलि हार"- उखा-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० उषा ) तड़का, विद्या। पूर्व प्रभात, डेगची। मु० -दम उखड़ना-साँस फूलना, | हिम्मत छूटना, सांप उखड़ना-साँस | उखाड़-संज्ञा, पु० ( हि उखड़ना ) उखाड़ने फूलना, स्वास रोग होना पैर उखड़ना--- की क्रिया, उत्पाटन, पेंच रद्द करने की जमा या दृढ़ न रहना, हिम्मत छोड़ कर विधि या युक्ति, तोड़। भागना, ठहर न सकना, एक स्थान पर ! मु०-उखाड-पछाड़ करना---डाँटना, जमा न रहना, लड़ने के लिये सामने । डपटना, उल्टी-सीधी बात कहकर डाँट न खड़ा रहना। बताना, नुक्ताचीनी करना, त्रुटियाँ दिखला तबियत उखड़ना-उच्चाट होना, दिल कर उन पर कटूक्तियाँ कहना, कड़ी न लगना, ध्यान न लगना, अरुचि का हो थालोचना करना। जाना, (किसी की ओर से ) पूर्ववत भाव | उखाड़ना-स० कि० ( हि० उखडना का स० न रहना, प्रेम न रहना।। रूप) किसी जमी, गड़ी, या बैठी हुई वस्तु उखड़वाना-स० कि० दे० (हि. उखड़ना। को स्थान से अलग करना, जमा न रहने का प्रेग० रूप ) किसी को उखाड़ने में प्रवृत्त देना, अंग को जोड़ से पृथक करना, करना, उखड़ाना। भड़काना, बिचकाना, तितर-बितर करना, उखड़ा-वि. पु. ( दे० ) उजड़ा, अलग | हटाना, टालना, नष्ट करना, ध्वस्त करना, हुआ, नष्ट हुआ। उखारना, उपारना (दे०)। For Private and Personal Use Only Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - उखारना उगाहना मु०-गड़े मुर्दे उखाड़ना-पुरानी बातों संज्ञा, पु० उगलन । को फिर से छेड़ना, गई-बीती बात को मु०-उगल देना (किसी बात को)उभाड़ना। गुप्त बात को प्रगट कर देना। पैर उखाड़ देना--स्थान से विचलित उगल पड़ना-तलवार का ध्यान से बाहर करना, हटाना, भगाना। निकल पड़ना, बाहर श्राना। उखारना8-स० कि० (दे०) उखाड़ना । जहर उगलना-दूसरे को बुरी लगने उखारी--संज्ञा, स्त्री० दे० (हि ऊख ) ईख | वाली या हानि करने वाली बात कहना, का खेत। या मुंह से निकालना। वि० दे० (हि० उखाड़ना ) उखाड़ी हुई। । उगलवाना--स० क्रि० ( दे० ) उगलना का उखेरना--स० कि० दे० (हि. उखाड़ना ) प्रे० रूप। उखाड़ना, अलग करना। उगलाना-स० कि० दे० हि. उगलना का उखेलना-स० कि० दे० (सं० उल्लेखन ) प्रे० रूप ) मुख से निकलवाना, इकबाल उरेहना, लिखना, खींचना ( चित्र ) । कराना, दोष को स्वीकार कराना, पचे या उलेखना ( दे० )। हड़प किये हुए माल को निकलवाना। उगटना-अ. क्रि० दे० (सं० उद्घाटन उगिलाना (दे०)। या उत्कथन ) उघटना, बार बार कहना, "मातु जसोमति साँटी लिये उगलावति ताना मरना, बोली बोलना। माँटी"-- उगत-संज्ञा, पु० दे० (हि. उगना ) उगधना*-स० क्रि० (दे० ) उगाना उद्भव, उत्पत्ति, जन्म। (हि.)। मु०-उगते ही जलना--प्रारम्भ में ही उगसाना-स० कि० (दे० ) उकसाना कार्य का नाश होना। (हि० ) उभाड़ना। उगना-अ. क्रि० (दे०) उदय होना, उगसारना --स० कि. (दे० ) उकसाना (सं० उद्गमन) निकलना, प्रगट होना, (हि.) बयान करना, कहना, प्रकट (सूर्य-चंद्रादि ग्रहों का) जमना. अंकुरित करना। होना, उपजना, उत्पन्न होना। उगाना-स० कि० (हि. उगना का स० " उग्यो अरुन अवलोकहु ताता .. "..--. रूप ) जमाना, अंकुरित करना, उत्पन्न रामा०। करना, (पौधा या अन्न आदि) उदय उगरना-प्र. क्रि० दे० (सं० उद्गरण) करना, प्रकट करना. तानना। भरे हुए पानी आदि का निकालना, भरे | उगार-( उगाल )--संज्ञा, पु० दे० हुए पानी आदि के निकालने से ख़ाली (सं० उद्गार प्रा० उगाल ) पीक, थूक. होना। खखार, के, निचोड़ा हुआ, पानी, सीठी, उगलना-स० कि० दे० (सं० उगिलन- पाहर (दे०)। प्रा. उग्गिलन ) पेट में गई हुई वस्तु को उगालदान-संज्ञा, पु० (हि. उगाल+दानमुँह से निकालना, न या वमन करना, फा. प्रत्य०) थूकना या खखार आदि के मुँह में गई हुई वस्तु को बाहर थूक देना, गिराने का बरतन, पीकदान। लिये हुए माल को विवश होकर वापस | उगाहना-स० क्रि० दे० (सं० उद्ग्रहण ) करना, छिपाने के लिये कही गई बात वसूल करना, नियमानुसार अलग अलग को प्रगट कर देना। । अन्न, धन आदि ले कर इकट्ठा करना । For Private and Personal Use Only Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उगाही ३०० उघाड़ना "अब तुम आये प्रान-व्याज उगहन को। उग्रा-संज्ञा, सी० (सं० )दुर्गा, कर्कशा स्त्री, ऊ. श०। अजवाइन, बच, धनियाँ। उगाहो-संज्ञा, स्त्री० हि० उगाहना ) रुपया- उघटना-प्र० क्रि० दे० (सं० उत्कथन ) पैसा वसूल करने का काम, वसूली, वसूल ताल देना, सम पर तान तोड़ना, दबी किया हुआ रुपया-पैसा, वसूलयाबी। हुई बात को उभाड़ना, कभी के किये हुए उगिलना–स० क्रि० (दे० ) उगलना | किसी के अपराध और अपने उपकार को (हि.)। बार बार कह कर ताना देना, किसी को उगिलवाना-उगिलाना-स० क्रि० (दे० ) भला-बुरा कहते कहते उसके बाप-दादे को उगलाना, उगलवाना, दोष स्वीकार कराना, भो भला-बुरा कहने लगना, प्रगटना । पंजे से छुड़ाना। उघटहि छंद, प्रबंध, गीत, पद, राग, "गिल्यो बँदेल खंड उगिलायौ".-छत्र। तान, बंधान "उग्गाहा-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० उद्गार या, उघटा-वि० ( हि० उघटना ) किए हुए प्रा० उग्गाहो ) आर्या छंद के भेदों में से उपकार को बार बार कहने वाला, एहसान एक। जताने वाला। उग्र-वि० (सं०) प्रचंड, उत्कट, तेज़, घोर । संज्ञा, पु० ( दे० ) उबटने कार्य । संज्ञा, पु० महादेव, वत्सनाग, विष, सूर्य, उघट-पंची-संज्ञा, स्त्री० ( देर ) उलाहना, एहसान। बच्छनाग ( वत्सनाभ ) नामक विष, उघटाना-उघटवाना स० कि. (हि. क्षत्रिय पिता और शूद्र माता से उत्पन्न उघटना से प्रे० रूप ) ताना दिलाना, एक संकर जाति शिव की वाय-मूर्ति एहसान जतवाना, प्रगट कराना। केरल प्रदेश, रौद्र, तीषण, क्रोधी, कठिन, उघडना-प्र. क्रि० दे० (सं० उदघाटन ) कठोर, भयानक । खुलना, आवरण का हट जाना, नग्न. उग्रगंध-संज्ञा, पु. यौ० (सं०) लहसुन, होना, प्रकट होना, प्रकाशित होना. कायफल, हींग, तीचण गंधवाला । भंडा फूटना। उग्रगंधा-संज्ञा, स्त्री. (सं० ) अजवायन, | उघरना-प्र० कि० दे० (सं० उद्घान ) अजमोदा, बच, नकछिकनी। उधड़ना वि. उघरा स्त्री० उघरी। उग्रचंडा-संज्ञा, स्त्री० (सं० ) भगवती देवी "उघरे अंत न होइ निबाह"... रामा। की एक मूर्ति विशेष, जिसके अष्टादश | उधरि-पू. का. कि. खुलकर, खुल्पम खुल्ला । भुजायें हैं और जो कोटि योगिनी-परिवेष्टित उघगटा-वि० दे० ( हि० उघरना । है, जिसकी पूजा श्राश्विन कृष्णा नवमी खुला हुअा, स्त्री० उघराटी। को होती है। उघराटी-संज्ञा, पु० (दे.) खुला स्थान , उग्रता-संज्ञा, स्त्री० (सं० ) तेज़ी, प्रचंडता, | उघाड़ना-स० कि० दे० (हि० उघड़ना कर कठोरता। स० रूप ) खोलना, आवरण हटान. उग्रतारा-संज्ञा, स्त्री० (सं० ) देवी की ( अावरण के विषय में ) खोलना एक मूर्ति जिसका दूसरा नाम मातंगिनी है। आवरण-रहित करना (श्राकृत के सम्बन्ध में) उग्रसेन-संज्ञा, पु. ( सं० ) मथुरा का | नग्न या नंगा करना, प्रकट करना, गुप्त बात. यदुवंशी राजा जो पाहुक का पुत्र और को प्रकाशित करना या खोल देना, अंडा कंस का पिता था। फोड़ना। For Private and Personal Use Only Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उघारना ३०१ उचाटन उघारना -स. क्रि० (दे०) उघाड़ना विरक्त होना, उदास होना, मन न लगना । (हि.) " सखी बचन सुनि सकुचि सिय, भूलना “ उचटत फिर अंगार गगन लौं सूर दीन्हें दृगनि उघारि' -रघु० " नीके निरखि ब्रज ज्ञान बेहाल "--सूर० । जाति उधारि श्रापनी '... सूबे०, “आये | उचटाना-स० कि० दे० (सं० उच्चाटन ) है तिलोचन तेंलोचन उघारि दै"-- उचाइना, नोचना, अलग करना, छुड़ाना, " सरस"। वि० उधार-उघारा-नग्न, उदासीन करना, विरक्त करना, भड़काना, खुला हुआ। स्त्री० वि० उघारी-नड़ी, | बिचकाना भुलाना । " जब ब्रज की बातें खुली हुई। "हाय दुरजोधन की जंव | यह कहियत तबहिं तबहिं उचरावत "पै उघारी। बैठि..." --रतनाकर । वि० सूर०। उघारू-प्रकाशक, उधारने वाला। उचड़ना-प्र० कि० दे० (सं० उच्चाटन ) उघेलना8-स० कि० दे० (हि उघारना) सटी या लगी हुई चीज़ का अलग होना, खोलना। " को उजियार करै जग झापा | पृथक होन', किसी स्थान से हटना, जाना. चंद उघेलि"-प० । भागना। उचंग-उछंग-संज्ञा. पु. ( दे. ) उमंग। उचना-प्र. क्रि० (दे० ) ऊँचा होना, उच-अव्य० (दे० ) उच्च ( सं० ) ऊँचा । ऊपर उठाना। स० कि. ऊँचा करना, उचकन-संज्ञा, पु० दे० (सं० उच्च + " भौंह उचै अाँचर उलटि, मोरि मारि करण ) इंट, पत्थर आदि का टुकड़ा जिसे | मुँह मोरि "--वि० । अ० कि. (स. नीचे रख कर किसी चीज़ को ऊँचा करते । रूप० ) उचाना, उठाना । संज्ञा, स्त्री० हैं। संज्ञा, पु० (हि. उचकना ) उचकना। उननि-उठान, उभाड़। उचकना-प्र. मि.० दे० (सं० उच्च + उचरंग:--संज्ञा, पु० दे० (हि. उछलना+ करण ) ऊँचा होने के लिये पैरों के पंजों अंग ) उड़ने वाला, कीड़ा, पतंग, पतिंगा। के बल एंडी उठा कर खड़ा होना ऊपर उचरना* -- स० कि० दे० (सं० उच्चारण ) उठना, उछलना, कूदना, स्थान से हटना । उच्चारण करना, बोलना । " चढ़ि गिरिस० क्रि० उछल कर लेना, लपक कर सिखि सब्द इक उचर्यो "- सूर० । छीनना। क्रि० अ०-मुँह से शब्द निकलना, धीरेउचका -- कि० वि० दे० (हि. अचाका) धीरे चलना. काक का एक विशेष प्रकार से अचानक, सहसा। बोलना और चलना ( शकुन विशेष) उचकाना--स० कि० दे० (हि. उचकना । __ " उचरहु काकः पीय मम श्रावत" । कि० का स. रूप०) उठाना, ऊपर करना । अ० (दे०) उचड़ना, उचलना। "केतिकलंक उपारि वाम कर लै आवै । उचाकना-कि० अ० (दे०) बिलगाना, ऊचकाय"--सूरा० । अलग करना, क्रि० स० (प्रे०) उचालनाउचक्का-संज्ञा, पु० (हि. उचकना) उचक | उखाड़ना, ऊपर उठाना। कर चीज़ ले भागने वाला, चाई, ठग, | उचाट-संज्ञा, पु० दे० (सं० उच्चाट ) बदमाश, छली, पाखंडी । स्त्री० उचक्किन । मन का न लगना, विरक्ति, उदासीनता, सचटना-क्रि० प्र० दे० (सं० उच्चाटन ) । उदासी, "भा उचाट बस मन थिर नाही" जमी हुई वस्तु का उखड़ना, उचड़ना, -रामा० । चिपका या जमा न रहना, अलग होना, | उचाटन -संज्ञा, पु० दे० (सं० उच्चाटन ) पृथक होना, छूटना, भड़कना, विचकना, | उच्चाटन, विरक्ति । For Private and Personal Use Only Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ३०२ उचाटना उच्चाटना - स०क्रि० दे० (सं० उच्चाटन ) उच्चाटन करना, जी हटाना, विरक्त या उदासीन करना, " लोग उचाटे श्रमरपति, कुटिल कुअवसर पाइ - रामा० । प्रे० कि० "9 उचटवाना-उचाट कराना । उचाटी - संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० उच्चाट ) उदासीनता, अनमनापन, विरक्ति, उदासी । उचाटू - वि० ( दे० ) ( हि० उचाट ) व्यग्रचित्त, उखड़ा हुआ, उदासीन, विरक्त । उच्चाड़ना - स० क्रि० ( हि० उचड़ना ) लगी या सटी हुई चीज़ को अलग करना, नोचना, उखाड़ना । उच्चानाक - स० क्रि० दे० (सं० उच्च + उठाना, 66 चित चखन उच्चाय करण ) ऊँचा करना, ऊपर उठाना चंद्रचूड़ चेत्यौ कै "" - रघु० । उचायत -- संज्ञा, पु० (दे० ) किसी दूकान से बराबर उधार लेते रहना । उचारक संज्ञा, पु० (दे०) उच्चार (सं० ) उच्चारण । उच्चारन - संज्ञा, पु० ( दे० ) उच्चारण (सं०) उच्चारन ( दे० ) | उचारना–स० क्रि० दे० (सं० उच्चारण ) उच्चारण करना, मुँह से शब्द निकालना बोलना, " घाँस पछि मृदु बचन उचारे " - रामा०, "भई पुष्प वर्षा सब जयजय सब्द उचारे ", - हरि०, सा० भू० उच्चारयो"ज्ञात होत कुलगुरु सूरज हय मंत्र उचार्यो सा० व० उचारें, क्रि० स० (दे० ) उचाड़ना, उखाड़ना । उचित - वि० (सं० ) योग्य, ठीक, मुनासिब वाजिब, उपयुक्त, समीचीन, न्यस्त, विदित, न्याय-युक्त, ( संज्ञा, भा० - श्रौचित्य ) उचेतना - स० क्रि० (दे० ) उकेलना, छीलना, उखाड़ना । I उचार - संज्ञा, पु० (दे० ) ठोकर, ठेस, चोट । उचौंह* - वि० ( हि० ऊँचा + मौंहा - Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उच्चारण प्रत्य० ) उचैहा (दे० ) ऊँचा उठा हुआ, उभड़ा हुआ । स्त्री० उचौंही । उच्च - वि० (सं० ) ऊँचा, श्रेष्ठ बड़ा, उत्तम, महान उन्नत, उत्तुंग, ऊर्ध्व । उच्चतम - वि० (सं० ) सब से ऊँचा, सर्व श्रेष्ठ, सर्वोत्तम । I उच्चतर - वि० (सं० ) दो में से अधिक ऊँचा, उत्तम या अच्छा । उच्चता - संज्ञा, स्त्री० (सं०) ऊँचाई, श्रेष्टता, बड़ाई, उत्तमता, बड़प्पन, भेटता उच्चभाषी - वि० यौ० (सं० ) कटुवक्ता । उच्चमना - वि० यौ० (सं० ) ऊँचे या उन्नत मन वाला, उदार हृदयी, महामना । उच्चरण - संज्ञा, पु० (सं० ) कंठ, तालु, जिह्वा श्रादि से शब्द निकलना, मुँह से शब्द फूटना । उच्चरना 66 स० क्रि० दे० (सं० उच्चारण ) उच्चारण करना | बोलना, वि० उच्चरित - उच्चारण किया हुआ, कथित । उच्चाट- संज्ञा, पु० (सं० ) उखाड़ने या नोंचने की क्रिया, अनमनापन, उचटना, उदास, भई वृत्ति उच्चाट भरि भभरि श्रई छाती " - हरि० । उच्चाटन - संज्ञा, पु० (सं० ) लगी या सटी हुई चीज़ को अलग करना, उचालना, उखाड़ना, विश्लेषण, नोंचना, किसी के चित्त को कहीं से हटाना, ( तंत्र के छः अभिचारों या प्रयोगों में से एक ) अनमनापन, विरक्ति, उदासीनता, । वि० उच्चटित - उच्चाट किया हुआ, वि० उच्चाटनीय -- उच्चाट करने योग्य । उच्चार - संज्ञा, पु० (सं० उत् + चर् + घञ् ) मुँह से शब्द निकालना, बोलना, कथन । संज्ञा, पु० विष्ठा, मल, मूत्र, पुरीष । उच्चारण-- संज्ञा, पु० (सं० उत् + चट् + णि + अनट् ) कंठ ओष्ठ, जिल्हा आदि के द्वारा मनुष्यों का व्यक्त और विभक्त ध्वनि निकालना, मुख से सस्वर व्यंजन बोलना, For Private and Personal Use Only Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उच्चारणीय ३०३ उछलना वों या शब्दों के बोलने का ढंग, तल- में पानी आदि के फँसने से आने लगती फुज़, उल्लेख, कथन । है, सुरसुरी। उच्चारणीय-वि० (सं० उत् + चर् + उच्छृखंल वि० (सं० ) जो शृंखला-वद्ध णिच् + अनीयर ) उच्चारण करने के योग्य, न हो, क्रम-विहीन, अंडबंड, निरंकुश, बोलने के लायक। स्वेच्छाचारी, मनमानी करने वाला, उदंड, उच्चारना-स० क्रि० दे० (सं० उच्चारण) अक्खड़, अनियंत्रित, विशृंखल, अनर्गल, मुँह से शब्द निकालना, बोलना । संज्ञा, स्त्री० (सं० ) उच्छखलता। उच्चारित-वि० (सं० उत् + चर् + णिच्+ उच्छेद-( उच्छेदन )- संज्ञा, पु. ( सं० क) कथित, उक्त, अभिहित, कहा हुना।। उत ---छिद् + अल् ) उखाड़ना, खंडन, उच्चार्य-वि० (सं० ) उच्चारण के योग्य, नाश, उन्मूलन, उत्पाटन, विध्वंस । वि. वि० उच्चायेमागा-उच्चारण के योग्य । उच्छेदनीय । वि. उच्छेदक विनाशक, उच्चैः -अव्य० ( सं० ) ऊर्ध्व, ऊपर, वि० उच्छेदित-उन्मूलित, खंडित । ऊँचा, बड़ा। उच्छाय-संज्ञा, पु० (सं० उत् + श्रि+अक्त) उच्चैःश्रवा--- संज्ञा, पु० (सं० उच्चैः- श्रवस् ) । पर्वत, वृक्षादि की उच्चता, उच्चपरिमाण । खड़े कान और सात मुँह वाला इन्द्र या सूर्य | उच्छित-वि० (सं० उत् + श्रित ) का सफ़ेद घोड़ा, जो समुद्र-मंथन के समय उन्नत, उच्च, ऊँचा। निकला था। वि. ऊँचा सुनने वाला, बहरा। उच्छास-संज्ञा, पु. ( सं० ) ऊपर को उच्छन्न-वि० (सं० ) दवा हुधा, लुप्त ।। खींची हुई साँस, उसाँस, साँस, श्वास, उच्छरना* --- अ० कि. (दे० ) नीचे. ग्रंथ का विभाग, प्रकरण, परिच्छेद । वि० ऊपर उठना, उछलना। उच्छवासी- उसाँस भरने वाला, वि. उच्छलना* - अ० कि० ( दे० ) उछलना। उच्छवासित--उसाँस लिया हुआ। उच्छव -- संज्ञा, पु० (दे० ) उत्सव (सं.) ऊव ( दे०) उछाह। उच्छौ -संज्ञा, पु० (दे० ) उत्सव (सं.)। उच्छाव--संज्ञा, पु. ( दे० ) उत्साह उछग* -- संज्ञा, पु० दे० (सं० उत्संग) (सं० ) उछाव (दे०) धूमधाम | गोद, क्रोड़, कोरा, अकोरा, हृदय, छाती उच्छास-संज्ञा, पु० (दे०) उच्चास, अंक, उर, कनिया, "लेइ उछंग कबहुँ उसाँस, साँस। हलरावै "-रामा०। उच्छाह* --संज्ञा, पु. ( दे० ) उत्साह उछकना-५० क्रि० (हि. कना) नशा (सं० ) उछाह (दे० ) हर्ष। हटाना, चेत में आना, चौंक पड़ना। इच्छिन्न-वि० ( सं० उत् + छि+क्त) कटा उधरना-अ. कि. (दे०) उछलना हुघा, खंडित, उखड़ा हुमा, नष्ट, छिन्न भिन्न, ( हि० ) कूदना, “मृग उछरत श्राकासकौं, निर्मूल । संज्ञा, स्त्री० उचिना-नाश। भूमि खनत बाराह"-रही० । के या वमन उच्छिष्ट-वि० ( सं० उत् + शिष् + क्त ) करना, उपटना, उभड़ना, उतराना । किसी के खाने से बचा हुआ, जूठा, दूसरे । उछल-कूद-संज्ञा, स्त्री० यौ० (हिं. का बर्ता हया. त्यक्त, भक्तावशिष्ठ । संज्ञा, उछलना+कूदना ) खेल-कूद, हलचल, पु० जूठी वस्तु, शहद । अधीरता, चंचलता, गड़बड़ी। उच्छु-संज्ञा, स्त्री० (दे०) (सं० उत्थान, उछलना-अ० क्रि० दे० (सं० उच्छलन) पं० उत्थू ) एक प्रकार की खाँसी जो गले वेग से ऊपर उठना और गिरना, झटके के For Private and Personal Use Only Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - उछलवाना ३०४ उजरना साथ एकबारगी देह को इस प्रकार क्षण उछिन्न-वि दे० (सं० उच्छिन्न ) खंडित, भर के लिये ऊपर उठा लेना, जिससे पृथ्वी निर्मल । का लगाव छूट जाय, कूदना, अत्यंत प्रसन्न उछिष्ट-वि दे० (सं० उच्छिष्ट ) भोजनावहोना, खुशी से फूलना, रेखा या चिन्ह शिष्ट, जूठा, दूसरे का वर्ता हुआ। का स्पष्ट दिखाई पड़ना, उपटना, चिन्ह ! उछीनना-स० क्रि दे० (सं० उच्छिन्न) पड़ना, उभड़ना, उतराना, तरना। उच्छिन्न करना, उखाड़ना, नष्ट करना । उछलवाना--स० क्रि० (हि० उछलना का ! उछीर-संज्ञा, पु० दे० ( हि. छीर = प्रे० रूप ) उछलने में प्रवृत्त करना । किनारा) अवकाश, जगह. छेद, रिक्त स्थान । उछलाना-स० क्रि० (हि. उछालना का | उछेद-संज्ञा पु० दे० (सं० उच्छेद ) खंडन, प्रे० रूप ) उछालने में प्रवृत्त करना । नाश । उछाँटना-स० कि० दे० ( हि० उचाटना ) | उजट-संज्ञा, पु. दे. (सं० उटज ) उटज उचाटना, उदासीन करना, विरक्त करना, नामक एक प्रकार की घास से बनी कुटी, पर्ण-कुटी । *स० कि० (हि० छाँटना) छाँटना, चुनना। उचारना*-स० कि० (दे०) उछालना उजड़-वि० (दे० ) उतावला, उच्छखल, (हि०)। संज्ञा, स्त्री० उछार (उछान्ल) चौगान, शून्य, जनशून्य स्थान, अप्रवीण, उजर---उजड्ड (दे० )। एकाएक ऊपर उठना, ऊँचाई. छोटा, ऊपर उजडना-अ. क्रि० (सं० अव =उउठता हुअा जल-कण, कै, वमन । नहीं-+जड़ना --- हि० ) उखड़ना, उचड़ना, उकाल-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० उच्छालन ) उच्छिन्न होना, ध्वस्त होना, गिर पड़ना, सहसा ऊपर उठने की क्रिया, फलाँग, तितर-बितर होना, बरबाद होना, नष्ट चौकड़ी, कुदान, ऊँचाई जहाँ तक कोई होना, वीरान होना, बिखरना, उजाना । वस्तु उछल सकती है। उलटी, कै. वमन | उलटा, ज. वमन उजडवाना-स० कि० (हि. उजाड़ना, का प्रे० पानी का छींटा। रूप ) किसी को उजाड़ने में प्रवृत्त करना । उकालना-स० कि० दे० (सं० उच्छालन ) उजडा-वि० (दे० ) उजड़ा हुआ, विनष्ट, ऊपर की ओर फेंकना, उचकाना, प्रगट । वीरान, उजटा-(द. ) निर्जन, बरबाद । करना, प्रकाशित करना, उपटना। उजट्ट -- वि० दे० ( सं० उदंड ) वन उछालास-संज्ञा. पु. ( हि० उछाल ) जोश, मूर्ख, असभ्य, अशिष्ठ, उद्दड, निरंकुश, उबाल, वमन, कै, उलटी। संज्ञा, स्त्री० उजड़ता। उछाह-संज्ञा, पु० दे० (सं० उत्साह ) उजडुपन-संज्ञा, पु. (दे० ) उदंडता, उत्साह, उमंग, हर्ष, उत्सव, आनंद की | असभ्यता, उजड्डुता। धूम, जैन लोगों की रथ-यात्रा, इच्छा, उजबक- संज्ञा, पु. (तु.) तातारियों की उत्कंठा, " " मन अति उठ्यौ उछाह " --- एक जाति । वि० उजड्ड, बेवकूफ़, मूर्ख, सूर० " भुवन चारि दस भरयो उछाहू" । अनारी । संज्ञा, पु. एक प्रकार की घास । --- रामा०। उजरत--संज्ञा, स्त्री. (अ.) मजदूरी, उछाही —वि० (दे० उछाल ) उत्साह किराया, भाड़ा । कि० अ० (हि. उजड़ना) करने वाला, उत्साही, हर्ष या अानंद मनाने उजड़ते हुए। वाला, " तब सुकाल महिपाल राम के है है उजरना* - प्र. क्रि० ( दे. ) उजड़न प्रजा उछाही"- रघु०। (हि.) नष्ट होना। For Private and Personal Use Only Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३०५ उजरा उजाला उजग*-वि० दे० (हि. उजड़ना ) उजड़ा, बीरान। वि० ध्वस्त, उछिन्न, गिरा पड़ा, जो बीरान, नट । वि० दे० ( हि० उजला) श्राबाद न हो, वीरान, निजन-ऊजड़ सफ़द, स्वच्छ, दिव्य । स्त्री० उजरी। (दे०)। उजराई-सज्ञा, स्त्री. ( दे० ) उजाली, उजाड़ना - स० क्रि० (हि. उजड़ना ) ध्वस्त सफ़ेदो, उज्ज्वलता (सं०) कांति, स्वच्छता, । करना, बीरान करना, नष्ट करना, उधेड़ना, क्रि० स० । प्रे० रूप-उजराना ) उजाड़ा, बिगाड़ना, उच्छिन्न करना, तितर बितर उजड़ाया, धवलीकृत ।। करना, चौपट करना, निजन करना, उजराना-स० कि० दे० (सं० उज्वल) उजारना (दे.) " मैं नारद कर काह उज्वल कराना, साफ़ कराना, स्वच्छ बिगारा बपत भवन जिन मार उजारा"कराना । अ० कि०---सफ़ेद या साफ़ होना, रामा० । स० कि० दे० (हि. उजड़ाना ) उजाड़ना का | उजान-संज्ञा, पु० (दे० ) नदी का चहाव, प्रे० रूप, किसी को उजाड़ने में प्रवृत्त बाढ़, ज्वार ( भाटे का विलाम ) । करना। उजार-संज्ञा, पु० (दे. ) उजाड़ (हि.) उजरे - वि० दे० (हि. उजड़ ) वीरान, वि० (दे०) वीरान । नष्ट हुए, उजड़े हुए, “ उजरे हरप, विपाद " जग उजार का कीजिय बसडकै "-प० । बसेरे "--रामा० । वि० ब० ब० (दे०) जागर संज्ञा. पु० दे० (हि. उजाला ) उजले (हि. ) स्वच्छ, सफ़ेद ।। उजाला, प्रकाश । वि. प्रकाशमान्. कांतिजन्नत - संज्ञा, स्रो० (प्रा.) जल्दी. मान, " कंचन के मंदिरन दीठि ठहराति उतावली । वि० (हि. उजला ) उज्वलित. नाहि, दीपमाल लाल मदा मानि: उजारे प्रकाशमान, "हँ पन अबीर हीर अति संदर: सां” स० । जो न होत अस पुन्य उजलत परम उजेरी '--श्री गुण्य । उजारा"-५०। क्रि० स० ( मा० भूत.) उज नवाना-स० कि० ( हि० उजालना का उजाड़ा (हि., । प्रे० रूप ) गहने या वस्त्रादि का माफ उजागे संज्ञा, स्त्री० दे० (हि० उजाली) कराना, उतराना (दे.)। चाँदनी, चंद्रिका, प्रकाश, प्रभा, कांति, उजना--वि० दे० ( सं० उज्वल ) वेत, जयार', उज्यारी (दे० ) । " पारसी सनद, स्वच्छ, धवल, साफ, निर्मल. झक, से अंबर मैं आभाती उजारो ठाढ़ी"उजरा, उजरा-उजरा, ऊजरो ( दे० )। रवि० । उजारि -- पू० का० क्रि० ( उजारना स्त्री० उजली। दे०) उजाड़ कर। संज्ञा, स्त्री. (दे०) उजवाना-स० कि० (दे०) ढलवाना, : नवान्न-राशि से देवार्थ अन्न निकालना। उझालना। उजालना स० कि० दे० (सं० उज्वलन) उजागर-वि० दे० (सं० उद् = ऊपर-भली गहने या हथियार यादि का साफ़ करना, भांति--जागर =जागना, प्रकाशित होना ) __ चमकाना, निवारना. प्रकाशित करना, प्रकाशित, जाज्वल्यमान, जगमगाता हुअा, बालना, जलाना । प्रसिद्ध, विख्यात. " राम-जनम जग कीन्ह उजाला-संज्ञा. पु. ( सं० उज्वल ) प्रकाश. उजागर "-रामा० । चाँदना. रोशनी, अपने कुल और जाति में उजाड़-संज्ञा, पु. ( हि० उजड़ना ) उजड़ा : सर्वश्रेष्ठ व्यक्ति। स्त्री० उजाला-चाँदनी हुश्रा स्थान, गिरी पड़ी जगह, निजन स्थान, वि० ---(सं० उज्वल ) प्रकाशवान्, अँधेरा बस्ती हीन स्थान, जगल, बियाबान. का उलटा । स्री उजली । भा० श. को.-३६ For Private and Personal Use Only Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उजाली उजदारी यौ० मु०-आँखों का उजाला-दृष्टि, उजियाला-संज्ञा, पु. ( दे.) उजाला, अत्यंत प्रिय । घर का उजाला-अत्यंत उजियारा, स्त्री. उजियाली, उजियारी। प्रिय, भाग्यमान् और रूप-गुणादि-युक्त | उजीता-वि० (दे०) प्रकाशमान् , रोशन । लड़का, इकलौता बेटा । अंधेरे घर का | उजीर * संज्ञा, पु० दे० (प्र. वज़ीर ) उजाला-जिस घर में केवल एक ही लड़का ! मंत्री । “ सुनि सुउजीरन यों कह्यौ, सरजाहो, अत्यंत प्रिय इकलौता बेटा। सिव महराज"- भू०, “रहिमन सूधी उजाली-संज्ञा, स्त्री० ( हि उजाला ) चाँदनी, चाल सों, प्यादा होत उजीर"। रोशिनी, चंद्रिका -उज्यारी, उजियारी उजुर—संज्ञा, पु० दे० (अ. उन्त्र ) (दे०)। श्रापनि, विरोध " चाकर हैं उजुर किया न उजास-संज्ञा, पु० दे० (हि. उजाला+ जाय नेक पै, .... भु०। स = प्रत्य० ) चमक, प्रकाश, उजाला । वि० उजेर*--संज्ञा, पु० (दे०) उजाला, प्रकाश, उजासित। " नित-प्रति पूनो ही रहत, उजेरा ( दे०)। अानन-श्रोप-उजास "-वि० । उजेरा-संज्ञा, पु० (दे०) उजाला (हि.) उजामना-अ. कि. (दे० ) प्रकाशित प्रकाश-उजेरो । वि. प्रकाशयुक्त (ब०)। करना, चमकना, "......चंद के तेज तें | उजेन्ना -संज्ञा, पु. ( सं० उज्वल ) प्रकाश, चंद उजासै"-सुन्द० । चाँदनी, रोशिनी । वि० प्रकाशमान् । उजियरस-वि० दे० (सं० उज्वल ) उजाला उज्जर* -वि० ( दे.) उज्वल (सं.) (हि०) प्रकाश, सफेद, साफ़. उज्यर (दे०)। उजला, सफ़ेद । संज्ञा, पु० उजाला, प्रकाश । उजि गरिया-संज्ञा, स्त्री० (दे०) उजाली, उज्जल-कि० वि० (सं० उत् ऊपर -।चाँदनी, प्रभा, चंद्रिका-उजेरिया (दे०)। जल ) बहाव से उलटी श्रोर, नदी के चढ़ाव यौ० अंधेरिया उजियरिया-लड़कों की ओर, उजान ( दे० ) । वि० दे० (सं० का चाँदनी और अँधेरे का एक खेल। उज्वल ) सफ़ेद, उजला-उज्जर (दे०)। उजियाना-स० कि. (दे० ) उत्पन्न उज्जयिनी-संज्ञा, स्त्री० (सं० ) मालवा देश करना, प्रगट करना, चमकाना, प्रकाशित की प्राचीन राजधानी जो सिप्रा नदी के तट करना, " पलटि चली मुसकाय, दुति रहीम पर है ( सप्त पुरियों में से एक)। उजियाय अति"। उज्जैन-संज्ञा. पु० (दे०) उज्जयिनी (सं०) । उजियार संज्ञा, पु० (दे० ) उमाला, उज्जैनी, उज्जैन-संज्ञा, स्त्री० (दे० ) प्रकाश-उजेरो (दे०)। उज्जयिनी नामक नगरी। उजियारना - स० क्रि० (दे० ) प्रकाशित उज्याग संज्ञा, पु. ( दे. ) उजाला, करना, जलाना, रोशन करना। उजियारा-उज्यारो, उजेगे (७०) । उजियारा*---संज्ञा, पु. (दे० ) उजाला | संज्ञा, स्त्री० उज्यारी ( दे० ) उजियारी । (हि.) वि० उज्वल, प्रकाशयुक्त "विहँसत उज-संज्ञा, पु. (अ.) बाधा, विरोध, जगत होय उजियारा "---प० । आपत्ति, विरुद्ध वक्तव्य, किसी बात के विरुद्ध उजियारी - संज्ञा, स्त्री० (दे० ) उजाली सविनय कुछ कथन करना । ( हि०), चाँदनी, चंद्रिका, रोशनी " रही उदाग-संज्ञा, स्त्री० (फा०) किसी ऐसे छिटक पूना उजियारी" । प्रकाश, कुल- मामले में उन पेश करना जिसके विषय में कांति-वर्धिनी रूप-गुण-सौभाग्यवती स्त्री। किसी ने अदालत से कोई प्राज्ञा प्राप्त कर उज्यारी (दे०) । वि० प्रकाशयुक्त । । ली हो या करना चाहता हो । For Private and Personal Use Only Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उज्यास ३०७ उठना उज्यास-संज्ञा, पु० (दे० उजास ) उजाला। उझाँकना--स. क्रि० (दे०) झाँकना, उपर उज्वल-वि० (सं०) दीप्तिमान, प्रकाशवान्, । से झाँकना, ऊपर सिर उठाकर देखना। श्वेत, शुभ्र, स्वच्छ, निर्मल, सफेद, बेदाग़। उउझलित-वि० (दे०) छोड़ा हुमा, उज्वलता-संज्ञा, स्त्री० (सं० ) कांति, दीप्ति, | डाला हुआ। चमक, सफ़ेदी, स्वच्छता, निर्मलता। उट-संज्ञा, पु. ( सं० ) तृण, तिनका, उज्वलन-संज्ञा, पु० (सं०) प्रकाश, दीप्ति, उर्ण, पत्ता । जलना, स्वच्छ करने का कार्य, ज्वाला का उटंगन संज्ञा, पु० दे० (सं० उट = घास ) उर्ध्वगमन । वि० उज्वलनीय, उज्वलिन। एक प्रकार की घास जिसका साग ग्लाया उज्वला-संज्ञा, स्त्री. (सं०) बारह अक्षरों जाता है, चौपतिया, गुवा, सुसना । का एक वृत्त। वि० स्त्री० -निर्मला, शुभ्रा। उटंग-वि० दे० (सं० उत्तुंग) ऊँचा, श्रोचा उज्यालन-स० क्रि० (दे०) जलाना, छोटा कपड़ा। प्रदीप्त करना । " उज्यालि लाखन दीपिका | उटकना -स० क्रि० दे० (सं० उत्कलन ) निज नयन सब कहँ देखि'-रघु०। अनुमान करना, अटकल लगाना, अंदाज़ उज भण-संज्ञा, पु० (सं०) विकास, करना। प्रस्फुटन, अन्वेषण। उटक्करलस-वि० (दे० ) उतावला, उज भित-वि० (सं० उत्+जम्भ+क्त) अविवेक। प्रफुल्ल, विकसित, प्रस्फुटित । उटज-संज्ञा, पु० (सं० ) कुटिया, झोपड़ी, उझकना - अ० क्रि० दे० (हि० उचकना)। पर्ण-कुटी, पत्रों से बना छोटा घर । उचकना, उछलना, कूदना. ऊपर उठना, । उठेंकन-वि० (सं० ) संकेत, इंगित, प्रसंग, उभड़ना, उदड़ना ताकने या देखने के लिये प्रस्ताव । वि० --उटुंकित-सांकेतित, ऊपर उठना या सिर उठाना, चौंकना। संज्ञा, चिंहित, उल्लेखित । पु. उझकन-पू० का० कि. उझकि । उट्री-संज्ञा, स्त्री. (दे०) खेल या लाग. "उझकि उझकि पद कंजनि के पंजनिपै"- डांट में बुरी तरह हार मानना, (हि. उठना) ऊ श०। क्रि० अ० सा० भू० स्त्रो० उठी, पु० उहा। उजपना-अ. क्रि० ( दे० ) खुलना उठंगन-संज्ञा, पु० दे० (सं० उत्थ+अंग ) ( विलोम-झपना ) " बरुनी मैं फिरै न झपैं। आड़. टेक, प्राधार, प्राश्रय ।। उझ पलमैन सनाइबो जानती हैं"- | उठंगना-प्र० कि० दे० (सं० उत्थ+अंग) हरि० । टेक लगाना, लेटना, पड़ रहना, सहारा लेना। उझरना-प्र० क्रि० दे० (सं० उत्सरण, प्रा. उउँगाना-स० कि० दे० ( हि० उठेगना) उच्छरण ) ऊपर की ओर उठना, उचकना।। खड़ा करने में किसी वस्तु को लगाना, उमलना-स० क्रि० दे० (सं० उज्झरण) भिड़ाना, बंद करना ( किवाड़)। किसी द्रव पदार्थ को ऊपर से नीचे गिराना, | उठना-प्र. क्रि० दे० (सं० उत्थान ) किसी ढालना, उँडेलना, रिक्त या खाली करना। वस्तु के विस्तार के पहिले की अपेक्षा अधिक अ० क्रि० (दे०) उमड़ना, बढ़ना, उझि- ऊँचाई तक पहुँचने की स्थिति या दशा, लना (दे० ), "...मनु सावन की सरिता ऊँचा होना खड़ी स्थिति में होना हटना, उझली"-सुन०। जगना, उदय होना, ऊँचाई तक ऊपर बढ़ना उमिला संज्ञा, स्त्री. (प्रान्ती०) उबाली या चढ़ना - जैसे लहर उठना ऊपर जाना, हुई सरसों जो उबटन के काम में आती है। या चढ़ना, आकाश में छा जाना, कूदना, For Private and Personal Use Only Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उठवैय्या उठाना उछलना विस्तर छोड़ना, जानना निकलना, +गीर-फा० ) आँख बचा कर चीजों का उत्पन्न होना पैदा होना, जैसे विचार उठना, चुराने वाला, उचक्का, चाई, बदमाश, लुच्चा, भाव उठना, सहसा आरंम्भ होना, जैसे - ठग, चोर । संज्ञा, स्त्री० उठाईगीरीदर्द उठना. उन्नति करना। तैयार होना, आँख बचाकर चीज़ उठाने का काम । उद्यत होना, किसी अंक या चिन्ह का स्पष्ट उठान--संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० उत्थान ) होना, उभड़ना, उपटना, पांस बनना, उठना, उठने की क्रिया, बाद, बढ़ने का खमीर श्राना, सड़ कर उफनाना, किसी दंग, वृद्धि-क्रम, गति की प्रारंभिक दशा, दूकान या कार्यालय का कार्य-समय पूरा आरंभ, खर्च, व्यय, खपत । होना, या उसका बंद होना, टूट जाना, उठाना-स० कि० (हि० उठना का स० रूप) चल पड़ना, प्रस्थान करना, किवी प्रथा खड़ा करना, बेड़ी स्थिति से खड़ी स्थिति में का दूर होना; ख़च होना काम में आना करना नोचे से ऊपर करना, धारण करना, (जैसे रुपया उठ गया) बिकना या भाड़े जगाना, सचेत करना, सावधान करना, पर जाना, याद आना, ध्यान पर चढ़ना, कुछ समय तक ऊपर ताने या लिये रहना, किसी वस्तु ( घर आदि) का क्रमशः जुड़- निकालना, उत्पन्न करना, बढ़ाना, चढ़ाना, जुड़ कर पूरी ऊँचाई तक पहुँचना, बनना उन्नत कर आगे बढाना, आरंभ करना, ( इमारत), गाय, भैंप या घोड़ी आदि का शुरू करना, छेड़ना, जैसे बात उठाना, मस्ताना या अलँग पर आना, ख़तम या तैय्यार करना, उग्रत करना, बनाना ( घर समाप्त होना, चलन या प्रयोग बंद होना। या मकान उठाना) उत्तजित या उत्साहित मु०-उठ जाना-(दुनिया से - करना, नियमित समय पर किती दूकान मर गना. संपार से चला जाना । उठना या कार्यालय का बंद करना, समाप्त बैठना-बाना जाना, संग-पाथ, मेल जोल, करना, ख़तम करना, बंद करना, दूर रहन-सहन । उठन बैठते-प्रत्येक अवस्था करना (किसी प्रथा या रीति आदि का में, हर एक समय, प्रति जण, हर घड़ी । उठाना) खर्च करना. लगाना, भाड़े या उठती जवानी युवावस्था का प्रारम्भ । किराये पर देना, भोग करना, अनुभव उठा-बैठा-लड़कों का एक खेल । उठा. करना, शिरोधार्य करना, मानना, किसी बैठी लगाना-चिलबिली करना. चंचलता वस्तु ( जैसे गंगा-जल, पुस्तक आदि ) करना, शांत न रहना, विकल होना, को हाथ में लेकर शपथ करना, उधार देना, बेचैन रहना । ध्यान से उठना-भूलना। लगान पर देना ( खेत श्रादि) ज़िम्मेदारी उठवैय्या-संज्ञा, पु०(दे०) उठाने वाला, लेना, अपने ऊपर उतरदायित्व लेना सहना, हटाने वाला। बरदारत करना, स्वीकार करना (किसी कार्य उठल्लू -वि० (हि. उठना+लू -- प्रत्य० ) का उठाना ) प्रात करना । एक स्थान पर न रहने वाला, आसन कोपी, मु०-उठा रखना-बाकी रखना, कसर आवारा, बेठौर-ठिकाने का। छोड़ना । (पृथ्वी) श्राममान सर पर म..-उठस्नु चला (उठानू काचन्ह) उठाना-उपद्रव करना, अत्याचार करना, बेकाम इधर उधर फिरने वाला, निकम्मा। ज्यादती करना । सिर उठाना-धमंड उठवाना-स० कि० (हि. उटना क्रिया का करना, अत्याचार करना, शरारत करना। प्रे० रूप) किपी से उठाने का काम कराना। हाथ उठाना-मारना, हानि पहुँचाना । उठाईगीर-उठाईगीरा - वि० (हि० उठाना उँगली उठाना- इशारा करना, ऐब For Private and Personal Use Only Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उठाव उडना निकालना, नुकता चीनी करना । अखि उड़ गझ-संज्ञा स्त्री० यौ० (हि० उड़ना+ उठाना-हानि पहुँचाने की चेष्ठा करना। झांई ) चकमा, बुत्ता, बहाली धोखा । आवाज उठाना--विरोध करना । उठाना- ! उडनफर-संज्ञा, पु. यो० (दे० ) उड़ने बैठाना-उठने बैठने की सज़ा, देना, की शक्ति देने वाला फल । बढ़ाना घटाना उनतावनत करना। उड़ना अ. क्रि० दे० (सं० उड्डयन ) उठाव-सज्ञा, पु० (दे० ) उठान, वृद्धि । चिड़ियों का आकाश या हवा में होकर एक उठाया-वि० दे० (हि. उठाना ) जिपका जगह से दापरी जगह जाना. हवा में या कोई स्थान नियत न हो, ना नियत स्थान । अाकाश में ऊपर उठना, (जैसे पतंग या गुड़ी पर न रहता हो, जो उठाया जाता हो, । उड़ रही है ) हवा में फैलना, इधर उधर उठोपा ( दे०)। हो जाना छितराना, फैलाना, फहराना, उठौश्रा-वि० (दे०) उठावा, उठौवा (दे०)। फरफराना. ( पताका उड़ना ) तेग़ चलना, उठौनी- संज्ञा, स्त्री० दे० हि० ( उठाना ) भागना झटके के साथ अलग होना, कट उठाने की क्रिया, उठाने की मज़दूरो या कर दूर जा पड़ना, अलग या पृथक होना, पुरस्कार, किपी फपल की पैदावार या उधड़ना, जाता रहना ग़ायब होना, खो किसी वस्तु के लिये दिया गया पेशगी। जाना या लापता होना, खर्च होना. भोग्य रुपया, अगौहा, दाहती, मज़दूरी, बयाना, | वस्तु का भोगा जाना, आमोद-प्रमोद की बनियों या दूकानदारों के साथ उधार का वस्तु का प्रयोग या व्यवहार होना, रंगलेन-देन. वर की ओर से कन्या के घर । श्रादि का फीका पड़ना, धीमा पड़ना, मार विवाह के पक्का करने के लिये भेजा जाने पड़ना, लगना, बातों में बहलाना, भुलावा वाला धन, ( छोटा जाति में लगन-परीया) देना धोखा या चकमा देना, घोड़े का तेज़ संकट-समय किसी देवावना के लिये अलग चलना ( भागना ) या चौफाल कूदना, किया गया धन या अन्न, एक रीति जिपमें फलाँग मारना कूदना । स० कि० फलाँग किपी के मरने के दूपरे या तीसरे दिन बिरा. मार कर किली वस्तु को लांघना, कूद कर दरी के लोग इकठे होकर उस मृतक के पार करना । के परिवार के लोगों को कुछ रुपया देते । मु० ---- उड चलना- तेज़ दौड़ना, सरपट और पुरुषों के पगड़ी बाँधते हैं। भागना, शोभित होना, फबना, मजेदार उडंक-वि० दे० (हि० उड़ना+ अंकू-- होना, स्वादिष्ट होना ( बनना ) कुमार्ग प्रत्य० ) उड़ने वाला, जो उड़ सके, चलने- स्वीकार करना बदराह बनना, इतराना, फिरने वाला, डोलने वाला। गर्व करना सबल था शसक्त होना, अपना उड - संज्ञा, पु. ( दे० ) उड्डु ( सं० ) कार्य के करने योग्य हाना। उड़ने लगनातारा, नक्षत्र। चकमा देने लगना, असली बात छिपाते हुए उडगण-संज्ञा, पु० (३०) नक्षत्रगण, | चालाकी से दूसरी बातें सामने रखना, तारागण । सशक्त और सबल होना, अपना कार्य करने के उड़न -संज्ञा, स्त्री० दे० (हि० उड़ना) योग्य हो चलना । उडना-ना-अपना उड़ने की क्रिया उड़ा। कार्य अप करना, कमाना, जीविका प्राप्त उड़न बटोग--संज्ञा, पु० यो० (हि० उड़ना करना । उड़ कर ग्वाना--उद उड़ कर +खटोला) उड़ने वाला खटोला, विमान। काटना, अप्रिय लगना, बुरा लगना।। उड़नछू-वि० दे० (हि• उड़ना) चंपत,ग़ायब। यौ० उड़ती ख़बर-बाजारू ख़बर, गप्प, For Private and Personal Use Only Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उड़नी ३१० उडुपति किंवदंती। उड़ाई उड़ाई (बात )-बे आमोद-प्रमोद की वस्तु का व्यवहार करना, मतलब की बात। प्रहार करना, मारना, लगाना, बात टालना, उड़नी-संज्ञा, स्त्री० (दे० ) बच्चों के सूखा । धोखा देना, चकमा देना, भुलावा देना, की बीमारी, जिसमें बच्चे सूख जाते हैं, झूठही दोष लगाना, किसी विद्या या कला फैल कर होने वाली या छूत की बीमारी, का उसके शिक्षक या श्राचार्य के न जानने जैसे, हैज़ा, चेचक । पर सीख लेना, किसी की निंदा करना, उड़प-संज्ञा, पु० (हि० उड़ना ) नृत्य का बुराई फैलाना, भगाना, ग़ायब करना, एक भेद । संज्ञा, पु० दे० (सं० उडुप ) लापता करना लुटाना. अपव्यय करना, नक्षत्रेश. चंद्र। नष्ट करना, वेग से दौड़ाना । अ० क्रि० उड़पति-संज्ञा, पु० यो० (सं० उडुपति) उड़ना, छितर जाना “ये मधुकर रुचि चंद्रमा, उड़राज। पंकज लोभी ताही ते न उड़ाने"---सू० उड़व-संज्ञा, पु० दे० ( सं० ओड़व ) रागों जीव-जतु जे गगन उड़ाहीं"-रामा० । की एक जाति, वह राग जिसमें पाँच स्वर उड़ायक -वि० दे० (हि• उड़ान + कलगें और कोई दो स्वर न लगें। प्रत्य० ) उड़ाने वाला, “ उड़ी जात कितहूँ उडवाना-स० कि. (हि. उड़ाना का प्रे० तऊ, गुड़ी उड़ायक हाथ "--वि० । रूप०) उड़ाने में प्रवृत्त करना। उड़ास-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० उदास ) उडमना-अ० कि. ( उप० उ+डासन - रहने का स्थान, वास-स्थान, महल, उड़ने बिछौना) बिस्तर या चारपाई उठाना भंग या की इच्छा । नष्ट ह'ना. उदसता. उदामना ( दे०)। उडासना-स० क्रि० दे० (सं० उद्वासन ) उडाऊ- वि० दे० (हिं• उड़ना ) उड़नेवाला, बिछौना समेटना, बिस्तर उठाना, उदासना, खर्च करने वाला, ख़रचीला, अपव्ययः ।। (दे० ) । *किसी वस्तु को तहसनहस या उडाका-उड़ाकू-वि० (हि० उड़ना ) उड़ने नष्ट करना, उजाड़ना, बैठने या सोने में वाला, जो उड़ सकता हो, उडैया ( दे०) विघ्न डालना, दूर करना, हटाना। अपहरण-कर्ता, वायुयान आदि पर उड़ने उडिया-वि० (हि० उड़िसा) उड़ीसा-वासी। वाला। अडियाना संज्ञा, पु. ( ? ) २२ मात्राओं उडान-संज्ञा, स्त्री० दे० ( सं० उड्डयन ) का एक छंद। उड़ने की क्रिया, छलाँग, कुदान, एक दौड़ उडिम-संज्ञा, पु० (दे०) खटमल, खटकीरा। में तय की जाने वाली दूरी, कलाई, गट्टा, उडी-संज्ञा, स्त्री० (दे०) उलाँट, कलाबाजी। पहुँचा। | उडीमा-संज्ञा, पु० (दे०) उत्कल देश, उड़ाना-स. नि. ( हि० उड़ना ) किसी विहार का दक्षिणी भाग । उड़ने वाली वस्तु को उड़ने में प्रवृत्त करना, उडंबर-संज्ञा, पु. ( सं० ) गूलर, उमर । हवा में फैलाना. (जैसे धूल उड़ाना) उड़ने । उडु-संज्ञा, स्त्री० (सं० )नक्षत्र, तारा, पक्षी, वाले जीवों को भगाना या हराना, झटके | चिड़िया, केवट मल्लाह, जल, पानी। के साथ अलग करना, काट कर दूर फंकना, उडुप-संज्ञा, पु. (सं० ) चंद्रमा, नाव, हटाना, चुराना दूर करना, हज़म करना, बदनई डोंगी, धड़नाई, (दे० ) भिलावाँ, नष्ट या ख़र्च करना, मिटाना, बरबाद करना, बड़ा गरुड़ । संज्ञा, पु. ( हि० उड़प । एक खाने-पीने की चीज़ को खूब खाना-पीना, प्रकार का नृत्य । चट करना, योग्य वस्तु को खूब भोगना, उडुपति-संज्ञा, पु. यौ० (सं० ) चंद्रमा । For Private and Personal Use Only Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org उडुपथ उडुपथ – संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) आकाश, गगन | उडुराज - संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) चंद्रमा | उडुस - संज्ञा, पु० दे० (सं० उद्देश ) खटमल । उड़ेरना ( उडेनना ) - स० क्रि० (दे० ) ढालना, डालना, गिराना, उलझना, रिक्त या खाली करना । ३११ -- प० । उड़ैनी – संज्ञा, स्त्री० दे० ( हि० उड़ना ) जुगुनू " साम रैन जनु चलै उड़नी ' उडोहाँ—वि० दे० (हि० उड़ना + श्रौंहाँप्रत्य० ) उड़ने वाला । उड्डयन – संज्ञा, पु० ( सं० ) उड़ना, उड्डीन (सं० ) उड़ना | उड्डीयमान- त्रि० (सं० उड्डीयमत् ) उड़ने वाला, उड़ता हुआ, श्राकाशगामी । स्त्री० उड़ीयमती । उढ़कना - अ० क्रि० दे० ( हि० अड़ना ) 39 ना. ठोकर खाना, रुकना, ठहरना, सहारा लेना, टेक लगाना, भिड़ाना, औंधाना । उदकाना - स० क्रि० ( हि० उढकना ) किसी के सहारे खड़ा करना, भिड़ाना, टेक देकर रखना, श्राश्रित करना । उड़ना - स० क्रि० दे० ( १ ) बाहर निकालना " " रोवत जीभ उ - सू० । संज्ञा, पु० (दे० ) कपड़ा लत्ता श्रोदना ( हि० ) । उदरना - स० क्रि० दे० (सं० ऊड़ा ) चिवाहिता स्त्री का पर पुरुष के साथ चला जाना । घाघ कहै ये तीनौ भकुवा, उदरि जाय श्री रो —घाघ । 64 उदगी - संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० उढ़ा ) जो स्त्री विवाहिता न हो वरन दूसरे पुरुष की हो और दूसरे के साथ स्त्री होकर रहने लगे, उप पत्नी, रखैली, रखुई (दे०) सुरैतिन । प्राढरी (दे० ) । पु० उदरा, प्रांढरा (दे० ) । उढ़ाना - स० किं० (दे० ) थोहाना ( हि० ) ढाँकना, श्राच्छादित करना, कपड़े से ढाकना । उदारना - स० क्रि० ( हि० उढ़रना ) दूसरे की स्त्री को दूसरे के साथ भगाना, उदरने के लिये प्रवृत्त करना, परस्त्री को ले भागना । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उतरना स्त्री० (दे० ) उदावनी- उदौनी-संज्ञा, श्रोदनी ( हि० ) चादर | उतंक -संज्ञा, पु० दे० (सं० उत्तंक ) वेदमुनि के शिष्य एक ऋषि गौतम-शिष्य एक ऋषि । वि० दे० (सं० उत्तुंग ) ऊँचा । उतंग - वि० दे० (सं० उत्तुंग ) ऊंचा, बलंद, श्रेष्ठ, उच्च, ताको तदगुन कहत हैं. भूषन 6. बुद्धि उत्तंग - भू० । श्रोछा. ऊंचा ( कपड़ा) उत - वि० दे० (सं० उत्पन्न ) उत्पन्न, पैदा, वयः प्राप्त, जवान | 68 उत उत् - उप० (सं० ) उद्, एक उपसर्ग | उत४ – क्रि० वि० दे० ( सं० उत्तर ) वहीं, उधर, उस ओर, उत्त, उतै (दे० ) रु हैं पितु-मातुल, हमारे दोउ" श्र०ब० । उतथ्य -संज्ञा, पु० ( सं० उतथ् + य ) मुनि विशेष अंगिरा - पुत्र, वृहस्पति का ज्येष्ट सहोदर । संज्ञा, पु० यौ० (सं०) उतथ्यानुज- बृहस्पति । उतन - कि० वि० दे० ( हि० उ + तनु ) उस तरफ़, उस ओर । उनना - वि० ( हि० उस + तन = प्रत्य—सं० तावान् से उस मात्रा का, उस क़दर । उतपात - संज्ञा, पु० दे० ( सं उत्पात) उपद्रव, अशान्ति, आफ़त, शरारत । For Private and Personal Use Only उतपानना * - स० क्रि० (सं० उत्पन्न ) उत्पन्न करना, उपजाना, पैदा करना । श्र० क्रि० उत्पन्न होना, पैदा होना । उनमंगळ संज्ञा, पु० यौ० दे० (सं० उत्तम + अंग ) सिर । C4 उतर - संज्ञा, पु० दे० ( उत्तर ) जवाब, बदला, दक्षिण के सामने की दिशा, उतर देत छisहु बिन मारे " - रामा० । उतरन - संज्ञा, स्त्री० दे० ( हि० उतरना ) पहिने हुए पुराने कपड़े, उतारा हुआ वस्त्र | संज्ञा, पु० उतरने का काम । उतरना - अ० क्रि० दे० (सं० अवतरण ) ऊंचे स्थान से सँभल कर नीचे थाना, ढलना, अवनति पर होना, ऊपर से नीचे आना, देह की किसी हड्डी या उसके किसी Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - उतरना ३१२ उतला जोड़ का नीचे ( या अपने स्थान से ) हट उतरवाना-स० क्रि० (हि. उत्तरना ) उत. जाना, काँति या स्वर का फीका पड़ना, घट रने का काम कराना। जाना. उग्र प्रभाव या उद्वेग का दूर होना, उतरहा-वि० ( दे०) उत्तर दिशा के देश घट जाना, या कम होना ( नदी उतर गई) का निवासी। बाढ़ का घट जाना, वर्ष, मास या नक्षत्र उतरा-संज्ञा, स्त्री० (दे०) उत्तराषाढ़ विशेष का समाप्त होना, थोड़े थोड़े अंश नक्षत्र का समय, उत्तरा नक्षत्र । में बैठ कर किये जाने वाले काम का पूर्ण . उतराई-संज्ञा, स्त्री० ( हि० उतरना ) उपर होना, ( मोज़ा उतारना ) पहिनने का से नीचे आने की क्रिया, नदी के पार उतरने विलोम, शरीर से वस्त्रादि का पृथक करना. का कर या महसूल, नीचे की भार ढालू ( वस्त्र उतारना) खराद या साँचे पर भूमि, ढाल ( नीचाई ) । “ पद पद्म धोइ चढ़ाई जाकर बनाई जाने वाली वस्तु का चढाइ नाव न नाथ उतराई चहौं'-तु.। तैय्यार होना, भाव का कम होना, डेरा, उतराना--प्र. कि० दे० . ( सं० उत्तरण ) करना, बसना, टिकना, ठहरना , नकल होना, ___ पानी के ऊपर तैरना, पानी की सतह पर खिंचना, अकित करना या होना, बच्चों श्राना उफान या उबाल आना, देख पड़ना, का मरना, भर आना, संचारित होना प्रगट होना, सर्वत्र दिखाई पड़ना । अ० क्रि० ( थन में दूध उतरना ) भभके में खिंचकर दे० ( हि० इतराना ) घमंड करना । तैयार होना, सफाई के साथ करना, उतरायत वि० दे० (हि. उतरना) उचड़ना, उघड़ना, धारण की हु वस्तु का उतारा हुआ, काम में लाया हुआ छोड़ा अलग होना, तौल में पूरा ठहरना किसी हुआ, त्यक्त । बाजे की कसन का ढीला होना. जिपसे । उनगरा-- वि० स्त्री. द. (हि. उत्तर ) उसका स्वर विकृत हो जाता है, जन्म लेना, उत्तरीय, उत्तर दिशा की ( वायु ) उतरहरी, अवतार लेना, श्रादर या शकुन के लिये उतराही ( दे० ), "जो उतरा उतगरी किसी वस्तु का शरीर या मिर के चारों ओर : पावै अोरी का पानी बड़ेरी धावै " .वाघ । घुमाना, वसूल होना, एकत्रित होना । स० उतराव-- संज्ञा, पु० । दे. ) उतार ढाल, क्रि०-पार करना, ( सं० उत्तरण ) नदो, नाले ढालू भूमि । या पुल के एक ओर से दूसरी ओर जाना, . उनरावना-स. कि. (दे० ) किसी की कम होना, बंद होना, अप्रिय होना। सहायता से नीचे लाना, उतारने को प्रेरित मु०-उतर कर-निम्न श्चेणी का, घट कर, या प्रवृत्त करना । नीचे दरजे का, आगे या बाद का, (चित्त उतराहा-क्रि० वि०, वि० (दे० ) उत्तरीय ध्यान से ) उतरना-विस्मृत होना, भूल (सं.)। स्त्री० उतराही, उत्तर की ओर की। जाना, नीचा अँचना, अप्रिय लगना। वि० उत्तर की वायु--" उठी वायु आँधी (चेहरा ) उतरना-मुख का मलिन उतराही" प० । होना, रंग फीका पड़ना, मुख पर उदाली उतराहा - कि० वि० द० (सं. उत्तरछा जाना, खेद, सोच या शोक होना, हाँ-प्रत्य० ) उत्तर की ओर । ( अांखों में खून ) उतरना--क्रोध श्रा उरिन-- वि० दे० (हि. उऋण ) ऋणजाना । पानी उतरना--( मेाती का) आब मुक्त, उऋण । या कांति जाना. ( अंड कोश में ) अंड-वृद्धि उल्ला -०ि दे० ( हि० उतावला ) व्यस्त, का राग होना। प्रातुर, न्यग्र, उतावला । संज्ञा स्त्री. उसाता। For Private and Personal Use Only Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उतलाना ३१३ उतारा उतलाना--प्र० कि० दे० (हि. आतुर ) | करना, उचाड़ना, उखाड़ना, किसी धारण उतावली या जल्दी करना, आतुरता करना। की हुई वस्तु को अलग करना, पहिने हुये उतवंग-संज्ञा, पु० दे० (सं० उत्तमांग ) वस्त्र को छोड़ना, पृथक् करना, ठहराना, मस्तक, लिर। टिकाना, डेरा देना, आश्रय देना, उतारा उतसाह-संज्ञा, पु० दे० ( सं० उत्साह ) करना, किसी वस्तु को मनुष्य के चारों ओर उत्साह । संज्ञा, स्त्री० दे० उतसह कंटा- घुमा कर भूत-प्रेत की भेंट के रूप में चौराहे उत्कंठा । आदि पर रखना, निछावर करना, वारना, उताइल 8-वि० दे० (हि. उतायल ) वसूल करना, किसी उम्र प्रभाव को दूर आतुर, शीघ्रतायुक्त । संज्ञा, स्त्री० उताइली करना, पीना, घुटना, मशीन, खराद, साँचे (दे०)-आतुरता। श्रादि पर चढ़ाकर बनाई जाने वाली वस्तु उतान-वि० दे० (सं० उत्तान ) पीठ को को तैय्यार करना, बाजे आदि की कसन पृथ्वी पर रख कर ऊपर सीधा लेटना, चित्त, को ढीला करना, भभके से खींच कर तैय्यार सीधा। करना, या खौलते पानी में किसी वस्तु का उतायल-वि० दे० (सं० उत् + त्वरा) सार निकालना, निदित करना, बदनाम या धातुर जल्द बाज़ । संज्ञा, स्त्री० (दे०) लोगों की नज़रों से गिराना, काटना, तोड़ना उतायली (हि. उतावली ) धातुरता। (फूल-फल ), निगलना, वज़न में पूरा करना, उतार-संज्ञा, पु. ( हि० उतरना ) उतरने घी में सेंकना और निकालना (पूरी) उत्पन्न की क्रिया, क्रमशः नीचे की ओर प्रवृत्ति, . करना, हटाना, दूर करना, संसार से मुक्त उतरने योग्य स्थान, किसी वस्तु की मोटाई । करना, तारना । पू० का० कि० उतारि या घेरे का क्रमशः कम होना, घटाव, कमी, " अवनि उतारन भार को, हरि लीन्हों नदी में हिल कर पार करने योग्य स्थान, अवतार"-रघु० “आये इतै हम बंधु हिलान, समुद्र का भाटा (ज्वार का उलटा) समेत उतारै प्रसून जो होइ न वारन "ढाल, ढालू या नीची भूमि, उतारन, निकृष्ट, रघु० । “ मनि मुंदरी मन मुदित त्यक्त, उतरायल, उतारा, न्योछावर, सदक़ा, उतारी"--- रामा० स० क्रि० दे० (सं. वह वस्तु या प्रयोग जिससे नशे या विष उत्तारण ) पार ले जाना, नदी नाले के पार आदि का बल कम हो या दोप दूर हो, परि- पहुँचना-राई नोन इत्यादि चारो ओर हार, नदी के बहाव की ओर (विलोम- घुमाकर आग में डालना-" होत बिलम्ब चढाव ) अवनति, पतन। उतारहि पारू"-रामा० " ताहि प्रेतउतारन-संज्ञा, पु० दे० (हि० उतारना ) बाधा वारन-हित राई-नोन उतारयो"। वह पहनावा, जो पहिनने से पुराना हो गया | उतारा-संज्ञा, पु. (हि० उतरना ) डेरा हो, निछावर, उतारा हुआ, त्यक्त, निकृष्ट डालने या टिकने का कार्य, उतरने का घस्तु । यौ० उतारन-पुतारन-उतारा | स्थान, पड़ाव, नदी का पार करना । संज्ञा, हुआ, त्यक्त । पु० दे० (हि. उतारना ) प्रेत-बाधा या इतारना-स० कि० दे० (सं० अवतरण )। रोग की शांति के लिये किसी व्यक्ति की देह ऊँचे स्थान से नीचे स्थान में लाना, प्रति- के चारो ओर कुछ ( खाने-पीने की) रूप बनाना, (चित्र) खींचना, नक़ल करना, | सामग्री, घुमा-फिरा कर चौराहे श्रादि पर चित्र पर एक पतला कागज़ रख कर नकल रखना, उतार की सामग्री या वस्तु । स. करना, लगी या चिपटी हुई वस्तु को अलग । क्रि० सा० भू०--पार किया। For Private and Personal Use Only Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org उतारु उतारु - वि० ( हि० उतारना) उद्यत, तत्पर, तैय्यार । उताल - क्रि० वि० दे० (सं० उद् + त्वर ) जल्दी, शीघ्र, " निज निज देसन चले उताला - रघु० । संज्ञा स्त्री० शीघ्रता, जल्दी, ढीठ, ऊंचा । 39 उताली * - संज्ञा स्त्री० ( हि० उताल ) शीघ्रता, जल्दी, उतावली, श्रातुरता । क्रि० वि० शीघ्रतापूर्वक, जल्दी से, फुर्ती से । उतावल - क्रि० वि० (सं० उद् + त्वर ) जल्दी-जल्दी, शीघ्रता से . कोउ 66 "" उतावल धावत - सूर० । उतावला – वि० दे० (सं० उद् + त्वर) जल्दी मचाने वाला, जल्दबाज़, व्यग्र, चतुर, चंचल, धीर । उतावली -संज्ञा स्त्री० दे० (सं० उद् + त्वर ) जल्दी, शीघ्रता, अधीरता, चंचलता, व्यग्रता, जल्दबाज़ी, आतुरता, वि० स्त्री०जो शीघ्रता में हो, धतुरा । उताहल - उताहिल - क्रि० वि० ( दे० ) शीघ्रता से । उतृण - वि० दे० (सं० उद् + ऋण ) ॠणमुक्त, उऋण, उपकार का जिसने बदला चुका दिया हो । उतै – क्रि० वि० ( दे० ) वहाँ, उधर, उस श्रोर । उतैला - वि० (दे० ) उतावला, आतुर । उत्कंठा - संज्ञा, स्त्री० (सं०) लालसा, प्रबल इच्छा, तीव्र अभिलाषा, एक प्रकार का संचारी भाव, बिना विलंब के किसी कार्य के करने की अभिलाषा, उत्सुकता, श्रौत्सुक्य । उत्कंठित - वि० (सं० ) उत्कंठायुक्त, चाव से भरा हुआ । उत्कंठिता - वि० स्त्री० (सं० ) संकेत स्थान में प्रिय के न आने पर तर्क-वितर्क करने वाली नायिका, उत्सुका, उत्का । उत्कट - वि० (सं० ) तीव्र, विकट, ऊग्र । उत्कलिका -संज्ञा, स्त्री० (सं० ) उत्कंठा, ३१४ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उत्त तरंग, फूल की कली, बड़े बड़े समास वाली गद्य - शैली । उत्कर्ष - संज्ञा, पु० (सं० ) बड़ाई, प्रशंसा, श्रेष्ठता, उत्तमता समृद्धि । उत्कृष्ट - वि० (सं० ) श्रेष्ठ, सर्वोत्तम । उत्कर्षता - संज्ञा स्त्री० (सं० ) श्रेष्ठता, " बड़ाई, उत्तमता, अधिकता, प्रचुरता, समृद्धि । उत्कल - संज्ञा, पु० (सं०) उड़ीसा देश, वहाँ का प्रधान नगर, या पुरी जगन्नाथ । उत्का - वि० स्त्री० (सं०) उत्कंठिता नायिका, संकेत-स्थान में नायक के न थाने पर धनुतप्ता । उत्कीर्ण - वि० (सं० ) लिखा हुआ, खुदा हुआ, छिदा हुआ, उत्क्षिप्त, क्षत । उत्कुण - संज्ञा, पु० (सं० ) मत्कुण, खटमल, बालों का कीड़ा, जूं, जुयाँ । उत्कृति - संज्ञा, स्त्री० (सं० ) २६ वर्णों के वृत्तों का नाम, छब्बीस की संख्या । उत्कृष्ट - वि० (सं०) उत्तम, श्रेष्ठ, अच्छा । उत्कृष्टता — संज्ञा, स्त्री० ( सं० ) श्रेष्ठता, बड़प्पन | उत्कोच -संज्ञा पु० (सं० ) घूँस, रिश्वत । उत्कोश - संज्ञा, पु० (सं० ) पक्षी विशेष, कुररी, टिट्टिभ, राजपक्षी । अ० क्रि० उत्काशना-चिल्लाना । उत्क्रांति -संज्ञा, स्त्री० (सं०) क्रमशः उत्तमता और पूर्णता की ओर प्रवृत्ति । मृत्यु, मरण | वि० उत्क्रान्त (सं० उत् + क्रम + क्त) निर्गत, ऊपर गया हुआ, उल्लंघित । उत्खात - वि० (सं० उत् + त् + क्त ) उन्मूलित, उत्पादित, विदारित, उखाड़ा हुआ । उतंग - वि० दे० (सं० उत्तुंग ) ऊँचा, उतंग (दे० ) । उत्तंस - संज्ञा पु० (सं० ) कर्णपूर, कर्णाभरण, शेखर, करनफूल, शिरोभूषण, मुकुट । वि० पु० अवतंस, श्रेष्ठ । उत्त* -- संज्ञा, पु० (सं० उत्) आश्चर्य, संदेह | क्रि० वि० (दे० ) उत, उधर, उस ओर । For Private and Personal Use Only Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उत्तप्त ३१५ उत्तरदायी उत्तप्त-वि० (सं० ) ख ब तपा हुआ, (सं० ) युधामन्यु का भाई, मनु के दस दुःखी, दग्ध, पीड़ित, संतप्त, उष्ण, परिप्लुत, पुत्रों में से एक । चिंतित । संज्ञा, स्त्री० (सं०) उत्तप्तता- उत्तर-संज्ञा, पु० (सं० ) दक्षिण दिशा के उष्णता, संताप। सामने की दिशा, उदीची, किसी प्रश्न या उत्तम-वि० (सं०) श्रेष्ठ, अच्छा, सब से बात को सुनकर तत्समाधानार्थ कही हुई भला, मुख्य, प्रधान । संज्ञा, पु. श्रेष्ठ नायक, बात, जवाब, बहाना, मिस, व्याज, हीला, राजा उत्तानपाद का, रानी सुरुचि से उत्पन्न प्रतिकार, बदला, एक प्रकार का अलंकार पुत्र जिसे वन में एक यक्ष ने मार डाला था। जिसमें उत्तर के सुनते ही प्रश्न का अनुमान उत्तमतया-क्रि० वि० (सं० ) भली भाँति, किया जाता है या प्रश्नों का अप्रसिद्ध अच्छी तरह से। उत्तर दिया जाता है। एक प्रकार का उत्तमता-संज्ञा, स्त्री० (सं० ) श्रेष्ठता, दूसरा अलंकार (चित्रोत्तर) जिसमें प्रश्न के ख बी, भलाई, उत्कृष्टता । (दे०) उत्तम- वाक्यों ही में उत्तर रहता है अथवा बहुत ताई-बड़ाई। से प्रश्नों का एक ही उत्तर होता है। प्रतिउत्तमत्व-संज्ञा, पु० (सं०) अच्छाई, श्रेष्ठता। वचन । संज्ञा, पु० (सं० ) विराट महाराज उत्तमपद - संज्ञा, पु० ( सं० ) श्रेष्ठ पद, का पुत्र, यह अभिमन्यु का साला था, मोक्ष, अपवर्ग । इसकी बहिन उत्तरा थी। वि०-पिछला, उत्तम पुरुष-संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) बोलने बाद का, ऊपर का, बढ़कर, श्रेष्ठ । क्रि० वाले पुरुष को सूचित करने वाला सर्वनाम वि०-पीछे, बाद, अनन्तर, पश्चात् । (व्या०) जैसे--मैं, हम। उत्तरकाल-संज्ञा, पु० यौ० (सं) पश्चात् उत्तमर्ण-संज्ञा, पु. ( सं० उत्तम + ऋण) काल, भविष्य, श्रागामी काल । ऋणदाता, महाजन, व्यौहर (दे०)। उत्तरकाशी--संज्ञा, स्त्री० (सं० ) हरिद्वार उत्तमादूती-संज्ञा, स्त्री. (सं०) नायक __ के उत्तर में एक तीर्थ ।। या नायिका को मधुरालाप से मना लेने उत्तरकुरु-संज्ञा, पु. (सं०) जम्बूद्वीप के वाली श्रेष्ठ दूती। नव वर्षों में एक, एक जानपद या देश ।। उत्तमानायिका-संज्ञा, स्त्री. (सं० यौ०) उत्तरकोशल-संज्ञा, पु० (सं० ) अयोध्या पति के प्रतिकूल होने पर भी स्वयं अनुकूल | के आस-पास का देश, अवध प्रान्त । बनी रहने वाली स्वकीया नायिका। उत्तरक्रिया-संज्ञा, स्त्री० (सं० ) अन्त्येष्टि उत्तमसंग्रह--संज्ञा, पु० (सं०) सम्यक्संग्रह, | क्रिया, पितृकर्म, श्राद्ध आदि। एकान्त में पर-स्त्री से आलिंगन । वि० | उत्तरच्छद-संज्ञा, पु० (सं० ) आच्छादनवस्त्र, ऊत्तमसंग्रही। पलंगपोश । “शय्योत्तरच्छद विमर्द कृशांगराउत्तमसाहस-संज्ञा, पु. (सं०) दंड विशेष, गम्"-कालि। (८०००० पण) अति साहस, दुस्साहस। | उत्तरदाता-संज्ञा, पु० (सं० ) जवाबदेह, उत्तमांग-संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) मस्तक, | जिससे किसी कार्य के बनने या बिगड़ने की सिर । पूछताछ की जाय, ज़िम्मेदार । उत्तमोत्तम-वि० यौ० (सं० ) अच्छे से | उत्तरदायित्व-संज्ञा, पु० (सं० ) जवाबअच्छा, श्रेष्ठातिश्रेष्ठ, परमोत्कृष्ट । देही, ज़िम्मेदारी। उत्तमौजा-वि० (सं० उत्तम+भोजस् ) उत्तरदायी -वि० (सं० उत्तरदायिन) जवाबउत्तम तेज या पराक्रम वाला । संज्ञा, पु० । देह, जिम्मेदार। For Private and Personal Use Only Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ACI उत्तरपक्ष उत्तेजक उत्तरपक्ष-संज्ञा, पु० (सं.) पूर्व पक्ष या उत्तरीय-संज्ञा, पु० (सं.) उपरना, दुपट्टा, प्रथम किये हुए निरूपण या प्रश्न का खंडन चद्दर, श्रोदन । वि० ऊपर का, ऊपरवाला, अथवा समाधान करने वाला सिद्धान्त उत्तर दिशा का, उत्तर दिशा सम्बन्धी। (न्याय०) जवाब की दलील। उत्तरोत्तर-क्रि० वि यौ० (सं०) एक के उत्तरपथ-संज्ञा, पु० (सं०) देवयान। .. बाद एक, क्रमश: लगातार, बराबर, एक उत्तरपद-संज्ञा, पु. ( सं० ) किसी यौगिक के पश्चात् दूसरे का क्रम । श्रागे भागे । शब्द का अंतिम शब्द । उत्ता-वि० (दे० ) उतना, उत्तो (दे०) । उत्तर-प्रत्युत्तर-संज्ञा, पु. यौ० (सं०) स्त्री० उती। वादानुवाद, तर्क, वाद-विवाद। उत्तान-वि० (सं० ) (ऊत् तिन् +घञ् ) उत्तरफाल्गुनी-संज्ञा स्त्री० (सं०) बारहवाँ उतान (दे० ) ऊर्ध्वमुख, चित्त, पीठ के नक्षत्र, उत्तरा फाल्गुनी । बल, सीधा। उत्तरभाद्रपद-संज्ञा, पु० (सं० ) छब्बी | उत्तानपात्र--संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) तवा, सर्वां नक्षत्र, उत्तराभाद्रपद । रोटी सेंकने का बरतन । उत्तरमीमांसा-संज्ञा स्त्री० (सं० ) वेदान्त | उत्तानपाद-संज्ञा, पु० (सं०) एक राजा जो दर्शन, (शास्त्र)। स्वयम्भुव मनु के पुत्र और प्रसिद्ध भक्त ध्रुव के पिता थे। उत्तरा-संज्ञा, स्त्री० (सं० ) अभिमन्यु उत्तानशय-वि० (सं०) चित्त सोने वाला, की स्त्री, विराट की कन्या और परीक्षित | की माता । (दे०) एक नक्षत्र ।। बहुत छोटा, शिशु। उत्ताप --संज्ञा, पु. (सं.) गर्मी, तपन, कष्ट, उत्तराखंड-संज्ञा पु० (सं०) भारत के उत्तर वेदना, दुःख, शोक, क्षोभ, संताप, उष्णता । हिमालय के समीप का भाग या प्रान्त ।। उत्ताल-वि० (दे० ) उत्कट, महत्, भयाउत्तराधिकार-संज्ञा, पु. यौ० (सं०) नक, श्रेष्ठ, त्वरित । किसी के मरने पर उसकी धन-सम्पत्ति का उत्तिष्ठमान-वि० ( सं० ) उठा हुआ, वर्ध. स्वत्व, वरासत । मान, उत्थानशील। उत्तराधिकारी-वि० यौ०, संज्ञा, पु० (सं०) उत्तीर्ण-वि० (सं० उत् - तृ । हि ) पार किसी के मरने पर उसकी सम्पत्ति का गया हुआ, पारंगत, मुक्त, परीक्षा में कृतकार्य मालिक, वारिस । स्त्री० उत्तराधिकारिणी। या सफल, पासशुदः, उपनीत, पार-प्राप्त । उत्तराभास-संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) झूठा उत्तंग-वि० (सं०) बहुत ऊँचा, उच्च, जवाब, अंड-बंड जवाब (स्मृति)। उन्नत। उत्तरायण-संज्ञा, पु० (सं०) सूर्य की उत्त--संज्ञा, पु. (फा० ) एक प्रकार का मकर रेखा से उत्तर कर्क रेखा की ओर गति, औज़ार या यंत्र जिसे गरम करके कपड़ों पर छः मास का ऐसा समय जिसमें सूर्य मकर बेलबूटों या चुन्नट के निशान डालते हैं, इस रेखा से चल कर बराबर उत्तर की ओर औज़ार से किया गया बेल-बूटों का काम । बढ़ता रहता है, देवताओं का दिन । मु०-उत्त करना - बहुत मारना, तह उत्तराधे-संज्ञा, पु० (सं.)पिछला प्राधा, जमाना, शिथिल करना । वि. बदहवास, पीछे का प्राधा भाग। बेहोश, नशे में चूर। उत्तराषाढ़ा-संज्ञा, स्त्री० (सं०) इक्कीसवाँ उत्तेजक-वि० (सं० ) उभाड़ने, बढ़ाने, नक्षत्र । या उकसाने वाला, प्रेरक, वेगों को तीव्र उत्तराहा-वि० (दे० ) उत्तर दिशा का।। करने वाला। For Private and Personal Use Only Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org उत्तेजन ३१७ उत्तेजन-संज्ञा, पु० (सं० ) प्रेरणा, बढ़ावा । उत्तेजना -संज्ञा, स्त्री० (सं०) प्रेरणा, प्रोत्साहन, वेगों को तीव्र करने की क्रिया । उत्तेजित - वि० (सं० ) प्रेरित, पुनः पुनः श्रावेशित, उत्तेजना - पूर्ण, प्रोत्साहित | स्त्री० उत्तेजिता । उत्तोलन - संज्ञा, पु० ( सं० उत् + तुल् + अनट् ) ऊँचा करना, ऊर्ध्वनयन, तानना, तौलना । वि० उत्तोलित, उत्तोलनीय | उत्थवना स० क्रि० दे० (सं० उत्थापन ) अनुष्ठान करना, श्रारंभ करना । उत्थान - संज्ञा, पु० (सं० ) उठने का कार्य, उठान, प्रारंभ, उन्नति, समृद्धि, बढती । संज्ञा, स्त्री० उत्थानि - श्रारम्भ । उत्थान एकादशी - संज्ञा स्त्री० यौ० (सं० ) कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी, उसी दिन शेषशायी जाग्रत होते हैं, देवउठान एकादशी, देवथान ( दे० ) | उत्थापन - संज्ञा, पु० ( सं० उत् + स्था + शिच् + अनट् ) उठाना, जगाना, हिलाना, तानना, डुलाना | वि० उत्थापित। उत्थाप्य - वि (सं० ) उत्थापनीय, उठाने योग्य । उत्थित - वि० ( सं० उत् + स्था + क्त) उत्पन्न, उठा हुआा, जाग्रत । स्त्री० उत्थिता । उत्पतन - संज्ञा, पु० ( सं० उत् + त् + अनट् ) ऊर्ध्वगमन, ऊपर उठना या उड़ना । उत्पतित- वि० (सं० उत् + त् + क्ति ) ऊपर गया हुआ, उट्ठा हुना, उठा हुआ । उत्पत्ति - संज्ञा, स्त्री० ( सं० उत् + पत् + क्ति ) जन्म, उद्गम, पैदाइश, उद्भव, सृष्टि, शुरू, आरंभ, उनपति ( दे० ) | उत्पथ - संज्ञा, पु० ( ( सं० ) कुमार्ग, सत्पथच्युत । 1 उत्पन्न - वि० (सं०) जन्मा हुश्रा, , पैदा हुश्रा उत्पन्ना - संज्ञा, स्त्री० (सं० ) अगहन बदी एकादशी | उत्पल संज्ञा, पु० (सं० ) नील कमल, मील पद्म । उत्तधन उत्पलपत्र - संज्ञा, पु० (सं० ) पद्मपत्र, स्त्री-नखक्षत । उत्पाटन - संज्ञा, पु० (सं० ) समूल उखाड़ना, उन्मूलन, खोदना, ऊधम, उत्पात । वि० उत्पादित - उन्मूलित, उखाड़ा हुआ, वि० उत्पाटनीय | उत्पात -संज्ञा, पु० ( सं० उत् + त् + धज् ) आकस्मिक घटना, थाफ़त, उपद्रव, कष्टप्रद अशांति, हलचल, ऊधम, दंगा, शरारत, दुष्टता, उपाधि (दे० ) । उत्पाती - संज्ञा, पु० (सं० उत्पातिन् ) उत्पात मचाने वाला, वि० (सं०) उपद्रवी, नटखट, शरारती, बदमाश, दुष्ट । स्त्री०उत्पातिनी । उत्पादक - वि० (सं० ) उत्पन्न करने वाला, उत्पत्ति कर्ता । स्त्री० उत्पादिका - पैदा करने वाली, उत्पन्न करने की शक्ति । उत्पादन - संज्ञा, पु० (सं० उत् + पद् -+ णिच् +- अनट् ) उत्पन्न करना, पैदा करना, उपजाना | वि० उत्पादनीय- उत्पन्न करने योग्य | वि० उत्पादित- - उत्पन्न किया Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir हुधा, उपजाया । उत्पीड़न-संज्ञा, पु० (सं० ) तकलीफ़ देना, दबाना । वि० उत्पीड़ित - सताया हुआ । उत्प्रेक्षा - संज्ञा, स्त्री० ( सं० उत् + प्र + इक्ष + श्रा अनवधान, उद्भावना, श्रारोप, अनुमान, उपेक्षा, सादृश्य, एक प्रकार का अर्थालंकार जिसमें भेद ज्ञान पूर्वक उपमेय में उपमान की प्रतीति होती है और प्रति सादृश्य के कारण उपमान -गत गुण क्रिया श्रादि की सम्भावना उपमेय में की जाती हैं, इसके वाचक, मनु, माना, जाना, जनु आदि हैं। जैसे मुख माना कमल है। उत्प्रेक्षोपमा - संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं० ) एक प्रकार का अर्थालंकार ( उपमा का भेद ) जिसमें किसी एक वस्तु के गुण का बहुतों में पाया जाना कहा जाता है ( केशव ० ) । उत्प्लवन - संज्ञा, पु० (सं० उत् + प्लु+ F For Private and Personal Use Only Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उत्फाल ३१८ उथल-पुथल अनट ) कूदना, लांघना, ऊपर फाँदना। वि० उत्सादित-वि० ( सं० ) विनाशित, उत्प्लवनीय। निर्मलीकृत, छिन्न-भिन्न किया हुआ । वि. उत्फाल—संज्ञा, पु. ( सं० ) लाँघना, उत्सादनीय। कूदना, फाँदना । संज्ञा, पु० (सं० ) उत्फा- उत्सारक-संज्ञा, पु. (सं०) द्वारपाल, लन । वि० उत्फालनीय, वि० उत्कालित। चोबदार। उत्फुल्ल-वि० (सं०) विकसित, खिला उत्सारण-संज्ञा, पु. (सं० उत्+स+ हुआ, फूला हुआ, आनन्दित, प्रफुल्लित, अनट ) दूरीकरण, दूसरे स्थान को भेजना। उत्तान, चित्त । | उत्साह—संज्ञा, पु. ( सं० उत् + सह + उत्संग-संज्ञा, पु० (सं० उत्+संज+अल्) । घञ् ) उमंग, उछाह, जोश, फैसला, हिम्मत, गोद, क्रोड, अंक, मध्य भाग, बीच, उपर | साहस की उमंग, वीर रस का स्थायी भाव । का भाग, अँकोर (दे०)। वि० निर्लिप्त, वि० उत्साहित-कृतोत्साह, उमंगित । विरक्त। उत्साही-वि० (सं० उत् + सह-1-णिन् ) उत्सन्न-वि० (सं० उत्+ सद+क्त ) हत, उत्पाह-युक्त, हौसले वाला, उमंगी, साहसी, नष्ट, उत्थित, उत्पतित । उतसाहिल (दे०)। उत्सर्ग-संज्ञा, पु० (सं० उत् + सृज् + अल) उत्सुक-वि० (सं० उत् + सु +कन् ) त्याग, छोड़ना, दान, विसर्जन, न्यौछावर, । उत्कंठित, अत्यन्त इच्छुक, चित-चाही बात समाप्ति। संज्ञा, पु० (सं० ) औत्सवें । वि० में विलम्ब होना न सह कर तदुद्योग में तत्पर । उत्सर्गी, उत्सर्म्य । उत्सुकता-संज्ञा, स्त्री० (सं० ) आकुलता उत्सर्जन-संज्ञा, पु. (सं० उत्+सृज+ इच्छा, उत्कंठा, इष्ट बात की प्राप्ति में विलम्ब अनट ) त्याग, छोड़ना, दान, उत्सर्ग, वितरण, होना, न सह कर तत्प्राप्ति के लिये सद्यः वैदिक कर्म विशेष जो एक बार पौष में और तत्पर होना, एक प्रकार का संचारीभाव । एक बार श्रावण में होता है। संज्ञा, भा० औत्सुक्य । उत्सर्जित-वि० (सं.) व्यक्त, वितरित, | उत्सूर-संज्ञा, पु० (सं०) संध्याकाल, शाम। दत्त । वि. उत्सजेनीय, उत्सृष्ट। उत्सृष्ठ - वि० (सं०) त्यागा हुश्रा, परित्यक्त । उत्सर्पण -संज्ञा, पु० (सं० ) ऊपर चढ़ना, उत्सेध-संज्ञा, पु. ( सं० ) बढ़ती, उन्नति, चढ़ाव, उन्लंघन, लाँघना। ऊँचाई, सूजना, वि० (सं० ) श्रेष्ठ, ऊँचा। उत्सर्पिणी-संज्ञा, स्त्री. (सं० ) काल की उथपना --- स० कि० दे० (सं० उत्थापन ) वह गति या अवस्था जिसमें रूप, रस, गंध, | उठाना, उखाड़ना, नष्ट करना । स्पर्श इन चारों को क्रम क्रम से वृद्धि होती | उथलना-प्र० क्रि० दे० ( सं० उत् + स्थल ) है (जैन)। डगमगाना, डाँवाडोल होना, चलायमान उत्सव--संज्ञा, पु० (सं० उत्+सु+अल् ) | होना, उलटना, उलट-पुलट होना, पानी उछाह, ऊछौ, उच्छव (दे० ) मंगल कार्य, का उथला या कम होना, तले ऊपर करना, धूम-धाम, प्रमोद-विधान, मंगल-समय, औंधाना, उलट देना, उलधना (दे०)। त्यौहार, पर्व, आनन्द, विहार, यज्ञ, पूजा, स० क्रि० नीचे-ऊपर करना, इधर-उधर करना। श्रानन्द-प्रकाश । उथल-पुथल-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि० उथलना) उत्सादन-संज्ञा, पु० (सं० उत्+सद् + उलट-पुलट, विपर्यय, क्रम-भंग, इधर का णिच् + अनट् ) उच्छेदकरण, विनाश, छिन्न- उधर, गड़बड़ी, हलचल । वि. उलटा-पलटा, भिन्न करना। । अंड का बंड, गड़बड़, व्यतिक्रम । For Private and Personal Use Only Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३१६ उथला उदन्धान मु०-उथल-पुथल होना ( मचना ) पर कितने हाथ की दूरी पर जल है यह गड़बड़ी होना। जानने की विद्या। उथला-वि० दे० (सं० उत् + स्थल ) कम उदगार*-संज्ञा, पु० (दे०) उद्गार (सं०) गहरा, छिछला, उछल (दे०)। उबाल, वमन, आधिक्य, मन में रक्खी हुई उदंत-वि० दे० (सं० अ+दंत) जिसके दाँत बात को एक बारगी प्रगट करना । न जमें हों, अदंत, दाँतों से रहित (पशुओं उदगारना*-स० क्रि० दे० (स० उद्गार ) के लिये )। संज्ञा, पु० दे०-वृत्तान्त, विवरण, बाहर निकालना, बाहर फेंकना, उभाड़ना, "तब उदंत छाला लिखि दीन्हा"-प० ।। उत्तेजित करना, भड़काना, डकार लेना, उद-उप० (सं० ) एक उपसर्ग जो शब्दों कै करना, “ज्यौं कछु भच्छ किये उदगाके पूर्व पाकर उनके अर्थों में विशेषता रत"-सुन्द० ।। पैदा करता है। इसके अर्थ होते हैं:- | उदगारी-वि० ( दे० ) बाहर निकालने १--ऊपर-( उद्गमन ), २-अति वाला, वमन करने वाला, मन की बातों का क्रमण-उत्तीर्ण, ३--उत्कर्ष-उद्बोधन, प्रगट करने वाला। ४–प्रावल्य-उद्वेग, ५-प्राधान्य उदग्ग*-वि० दे० (सं० उदग्र ) ऊंचा, उद्देश्य, ६-अभाव--उत्पथ, ७-प्रगट उन्नत, उग्र, उद्धत, प्रचड । -उच्चारण, दोष-उन्मार्ग । उदघटना-स० कि० दे० (सं० उद्घटन) उदउ-संज्ञा, पु० दे० ( सं० उदय ) सूर्यादि प्रगट होना, उदय होना, निकलना। ग्रहों का प्रगट होना, निकलना, उदय ।। उदघाटना*-स० कि० दे० (सं० उद्घाटन) उदै (दे०)। प्रकट करना, प्रकाशित करना, खोलना । उदक-संज्ञा, पु. ( सं० ) जल, पानी, उदघाटी-स० वि० सा० भू० स्त्री० (दे०) खोली, प्रकटी, प्रकाशित की। संज्ञा, स्त्री० या. सलिल । उदक-क्रिया-संज्ञा, स्त्री० यौ० ( सं० ) मरे (दे० ) उदयाचल पर्वत की घाटी। " तव हुए मनुष्य को लक्ष्य करके जल देना, जल- । भुज-बल-महिमा उदघाटी"-रामा० तर्पण की क्रिया, तिलांजलि, “नष्ट पुण्यो- उदथ - संज्ञा, पु० दे० (सं० उद्गीथ) सूर्य, दक-क्रिया"-गीता। सूरज, - "होत बिसराम जहाँ इन्दु श्री उदकना -अ० कि० (दे० ) उछलना, - उदथ के "-भू०।। कूदना। उदधि-संज्ञा, पु. (सं.) समुद्र, सागर, उदक-परीक्षा-संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं० ) ! घड़ा, मेव । " उदधि रहै मरजाद मैं, बहैं शपथ देने की एक क्रिया विशेष, जिसमें उमड़ि नद-नीर"-वृंद०।। शपथ करने वाले को अपनी सत्यता के उदधि-मेखला-संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) प्रमाणित करने के लिये पानी में डूबना __ पृथ्वी, भूमि । पड़ता था, अब केवल गंगा जैसी पवित्र उदधि-सुत-संज्ञा, पु० यो० (सं० ) सागर नदियों के जल को हाथ में लेना ही पड़ता है। से उत्पन्न वस्तु, चंद्रमा, अमृत, शंख, उदकाद्रि-संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) हिमालय धन्वन्तरि, ऐरावत, आदि, कमल, कल्पवृक्ष, पर्वत। धनुष । संज्ञा, स्त्री. उदधि-सुता-श्री उदगरना-अ० कि० दे० (सं० उद् गरण ) ( लघमी) रंभा, कामधेनु, मणि ( कौस्तुभ ) निकलना, प्रकट होना, बाहर होना, उभड़ना, वारुणी, सीप । प्रकाशित होना। उदन्वान-संज्ञा पु० (सं० ) समुद्र, सागर, उद्गर्गल-संज्ञा, पु. (सं० ) किसी स्थान ! पयोधि । For Private and Personal Use Only Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उदेपान ३२० उदर उदपान-संज्ञा, पु. (सं० ) कुएं के समीप | उदय-संज्ञा, पु. ( सं० ) ऊपर आना, का गड्ढा, कमंडलु, कूल । “ कर उदपान निकलना, प्रगट होना, (विशेषतः ग्रहों के काँध मृगछाला"...प०। लिये पाता है)। उदवर्तन-संज्ञा, पु. (सं०) किसी वस्तु मु०-उदय से अस्त तक (उदय-अस्त को शरीर में लगाना, लेप करना, उबटना, | लौं) पृथ्वी के एक छोर से दूसरे छोर तक, व्यवहार, बटना। " सखी-हेत उदवर्तन सम्पूर्ण भूमंडल में, “अर्ब खर्ब लौं द्रव्य है, लावै"---ध्रुव०। उदय अस्त लौं राज "-तु० । संज्ञा, पु० उदबस*-वि० (सं० उद्वासन ) उजाड़, वृद्धि, उन्नति, बढ़ती, उद्गम स्थान, उदया सूना, एक स्थान पर न रहने वाला, खाना- चल, प्राची, उत्पत्ति, दीप्ति, मंगल, उपज । बदोश, स्थान-च्युत, किसी जगह से अलग | उदयकाल-संज्ञा, पु. यौ० ( सं० ) प्रभात, किया हुआ। प्रातःकाल, सर्प विशेष ।। उदबासना-स० कि० दे० (सं० उद्वासन ) उदयगिरि-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) पूर्व तंग करके स्थान से हटाना, रहने में विघ्न ! की ओर एक कल्पित पर्वत जिस पर सूर्य डालना, भगा देना, उजाड़ना । “ ऊधौ। प्रथम उदित होते हैं. उदयगढ़, "उदित अब लाइकै बिसास उदवासै हम" ऊ. उदयगिरि मंच पर"- रामा० ।। श० । वि० उदबासित-हटाया या भगाया उदयाचल-संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) उदयाद्रि, हुआ, संज्ञा, पु० (दे० ) उदबासन- सूर्य के निकलने का पूर्व दिकवी पर्वत हटाने का काम । ( पुरा० ) "उदयाचल की पोरहिं सों उदबेग-संज्ञा, पु० दे० ( सं० उद्वेग)। जनु देत सिखावन --हरि०। घबराहट, भय, क्लेश, सूचना, पता । “मुनि उदयातिथि–संज्ञा, स्त्री० यौ० ( सं० ) उदबेग न पावह कोई" -- रामा०। सूर्योदय काल में होने वाली तिथि, ( इस उदभट-वि० दे० (सं० उद्भट ) प्रबल, तिथि में ही स्नान, ध्यान एवं अध्ययनादि श्रेष्ठ, “ भूषन भनत भौंसला के भट कार्य होना चाहिये )। उदभट · भू० । उदयन--संज्ञा, पु. (सं० ) प्रकाश होना, उदभव-संज्ञा, पु० दे० ( सं उद्भव ) उत्पत्ति, ऊर्ध्वगमन, अगस्त मुनि, वत्सराज, शतानीक बढती, उन्नति । के पुत्र, इन की राजधानी प्रयाग के पास उदभौत-संज्ञा, पु० ( दे० ) आश्चर्य की कौशाम्बी थी, वासवदत्ता इनकी रानी थीं। वस्तु, अद्भुत बात, घटना। विख्यात दार्शनिक उदयनाचार्य ( १२वीं उदमदना*-अ० क्रि० दे० (सं० उद्+ मद) शताब्दी के मध्य में ) जो मिथिला में पैदा पागल होना, श्रापे को भूल जाना, उन्मत्त हुये थे, बौद्धमत का खंडन इन्होंने किया होना, उमदना (दे०)। है, इन का ग्रंथ 'कुसुमांजलि, है, वाचस्पति उदमाद*-संज्ञा, पु० (दे०) उन्माद(सं०) मिश्र के कई ग्रंथों पर इनकी टीकायें हैं, पागलपन, उन्मत्तता । वि० (दे० ) पागल, इनकी कन्या प्रसिद्ध पंडिता लीलावती थी। उन्मत्त। वि० उदमादो ... मतवाला, पागल। उदयना - अ. क्रि० दे० ( सं० उदय ) उदमान--वि० (दे०) मतवाला, उन्मत्त उदय होना, " पाइ लगन बुध केतु तौ पागल । उदयोहू भो अस्त".-मुद्रा०।। उदमानना-अ० कि० (दे.) मतवाला उदर-संज्ञा, पु० (सं०) पेट, जठर, किसी वस्तु होना, उन्मत्त होना। के मध्य का भाग, मध्य, पेटा, भीतरी हिस्सा। For Private and Personal Use Only Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उदरना ३२१ उदास उदरना - प्र. क्रि० दे० (सं० उदर ) किया हुआ, दयावान, कृपालु, दाता, मोदरना-(दे० ) फटना, उखड़ना. नष्ट उदार, श्रेष्ठ, बड़ा, समर्थ, स्पट, विशद, होना गिरना । “ देखत उँचाई उदरत पाग, ! योग्य संज्ञा, पु० (सं० ) वेदोच्चारण में स्वर सूधी राह" भू०। का एक भेद, जिसमें तालु आदि के ऊपरी उदर-ज्वाला-संज्ञा, स्रो० यौ० (सं०) भाग से उच्चारण किया जाता है. उदात्त भूव, जठराग्नि । स्वर, एक प्रकार का अथ लंकार जिसमें उदर भंग-संज्ञा पुं० यौ० ( सं० ) अतितार. संभाव्य विभूति का वर्णन बहुत बढ़ा चढ़ा पेट का उखड़ना। कर किया जाता है दान, त्याग, दगा। उदरम्भरि ( उदरंभरि )-वि० (सं०) उदाता-वि० (सं०) दाता, त्यागी उदार । अपना ही पेट भरने या पालने वाला, पेटू, । उदान-संत्रा, पु० (६०) प्राण वायु का स्वार्थी। एक भेद, जि का स्थान कंठ है और जिसे उदर-रस-संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) उदरस्थ डकार और छींक प्रातो है, उदरावत, पाचक रस। नाभि, सप विशेष। उदर-वृद्धि-संज्ञा, पु. यौ० (सं०) जलोदर, उदाम-वि० (सं०) बंधन रहित, महान, जलंधर रोग। संज्ञा, पु० (सं० ) वरुण। उदर-सर्वस्व-वि०, चौ० (सं० ) उदर. उदायन-संज्ञा, पु० द० (सं० उद्यान) परायण, पेटू, स्वार्थी। बाग, बगीचा। उदराग्नि-संज्ञा० स्त्री० यौ० (सं० ) जठरा- उदार-वि० (सं० उत् + आ + ऋ+अय) नल, जठराग्नि। दाता, दानशील, बड़ा, श्रेष्ठ, ऊँचे दिल या ऊदरावर्त - संज्ञा, पु० (सं० ) नाभी, ते दी। हृदय का, सरल, सीधा, अनुकूल, " ऐसी उदरामय-संज्ञा, पु० चौ० (सं० ) उदर- धों उदार मति कहौ कौन की भई-के। रोग, अतिसार। उदार चरित---वि० (सं० ) जिरका चरित्र उदरिणी-संज्ञा पु. ( सं०) गर्भिणी, उदार हो, ऊँचे दिल का, शीलवान, ऊँचे द्विजीवा, दुपस्था। विचार वाला । " उदार चरितानां तु बसु. उदरी- वि० (सं० उदरिण.) तोंदीला. धैव कुटुंबकम्"। तोंदवाला । वि० दे० ( उदरना क्रि० ) फूटी उदारचेता-वि. ( सं० उदारचेतस् ) हुई उखड़ी हुई। उदार चित्त वाला, उच्च विचार वाला। उदवत-वि० (दे०) उदित होते हुए उदारता--संज्ञा, स्त्री० (सं०) दानशीलता, " उदवत ससि नियराइ, सिंधु प्रतीची नैय्याजी, उच्च विचार, वदान्यता, कृपालुता. बीचि ज्यौं --गुमा०। उदारत्व। उदवना-अ० कि० ( दे०) प्रगट होना, | उदारना-स. क्रि० दे० (सं० उदारण ) उगना. निकलना, उदय होना। योदारना, गिराना, तोड़ना, छिन्न-भिन्न उदवेग संज्ञा, पु० (दे० ) उद्वेग (सं०) करना, चीरना, फाड़ना। श्रावेश, घबराहट । उदावर्त-संज्ञा. पु० (सं० ) गुदा का एक उदसना-१० कि० (दे० ) उजड़ना, क्रम रोग जिसमें काँच निकल पाती है और भंग होना, बिस्तरों का उठाना, बेसिलसिले मल-मूत्र रुक जाता है, गुद-ग्रह, काँच । होना । उदास-वि० (सं०) जिसका चित्त किसी उदात्त-वि० (सं०) ऊँचे स्वर से उच्चारण: वस्तु से हट गया हो, विरक्त, झगड़े से भा. श. को०-५१ For Private and Personal Use Only Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उदासना ३२२ उदोत अलग, निरपेक्ष, तटस्थ, दुखी, रंजीदा, | कहा हुआ, “ उदित अगस्त पंथ-जन खिन्न, व्यग्रचित्त । सोखा"-रामा० " उदित उदय गिरिउदासना -- स० क्रि० (दे०) उजाड़ना, | मंच पर"-रामा० । समेटना, तोड़ना, फोड़ना, चित्त न लगना। उदित यौवना-संज्ञा, स्त्री. (सं० यौ०) उदासी- संज्ञा, पु. (सं० उदास+ई- मुग्धा नायिका का एक भेद, धागत यौवना हि. प्रत्य० ) विरक्त पुरुष, त्यागी पुरुष, जिसमें तीन भाग यौवन और एक भाग संन्यामी, नानकशाही साधुओं का एक लड़कपन हो। भेद, बैरागी, एकान्त-वासी । संज्ञा, स्त्री०-- उदीची-संज्ञा, स्त्री० (सं० उत् + अ + ई ) खिन्नता, दुख । यौ०-उदासीबाज-एक उत्तर दिशा। प्रकार का बाजा। | उदीच्य--वि० (सं०) उत्तर का रहने वाला, उदासीन-वि० (सं०) विरक्त, जिसका __उत्तर दिशा का,शरावती नदी का पश्चिमोत्तर चित्त हट गया हो, तटस्थ, उपेक्षायुक्त, । देश । संज्ञा, पु० (सं० ) बैताली छंद का ममता-रहित, वासना-शून्य, संन्यासी, समदर्शी, जो पक्षापक्ष में से किसी की ओर उदीपन - संज्ञा, पु० ( दे० ) उद्दीपन (सं०) भी न हो, निष्पक्ष, रूखा, प्रेम-शून्य उत्तेजन । निरपेक्ष, विरोधी बातों से अलग। उदीरण-संज्ञा, पु० (सं० उत् + ईर् + उदासीनता - संज्ञा, स्त्री० (सं० ) विरक्ति अनट ) कथन, उच्चारण, वाक्य, कहना। त्याग, निरपेक्षता, निवहता, उदासी, उदीरित-वि. (सं०) उच्चारित, उक्त, कथित । खिन्नता। उदुम्बर-संज्ञा, पु. ( सं० ) गूलर, देहली, उदाहर-संज्ञा, स्त्री० (दे० ) धुंधला रंग, ड्योढ़ी, नपुंसक, एक प्रकार का कोढ़, ऊमर, भूरा। वि० औदंबर। उदाहरण-संज्ञा, पु. (सं०) दृष्टान्त, उदृखल-संज्ञा, पु० (सं०) ऊखल, अोखली, निदर्शन, उपमा, मिसाल, तर्क के पांच गूगुल। अवयवों में से तीरा, जिसके साथ साध्य उदूल हुक्मी-संज्ञा, स्त्री० (फा० ) आज्ञा का साधर्म्य या वैधयं होता है, एक प्रकार न मानना, प्राज्ञोल्लंघन, अवज्ञा । का अलंकार जिपमें इव, जिमि, जैसे आदि उदेग-संज्ञा, पु० (दे०) उद्वेग (सं०) पदों के द्वारा किसी सामान्य बात का स्पष्टी- व्यग्रता। करण किया जाता है। उदै। - संज्ञा, पु. (दे०) उदय (सं.) उदाहत वि० (सं० उत्+आ+ह+क्त) उन्नति । स० क्रि० दे० प्रगट होना। दृष्टान्त दिया हुआ, उत्प्रेक्षित, उक्त, कथित, उदो--संज्ञा, पु० (दे०) उदय (सं०)। उदाहरण से समझाया हुआ। उदोत-संज्ञा, पु० दे० (सं० उद्योत् ) उदियाना* --अ० क्रि० दे० (सं० उद्विग्न ) प्रकाश, उन्नति, वृद्धि, कांति, शोभा, बढती, उद्विग्न होना, घबराना, हैरान होना, परे- "तिन को उदोत केहि भाँति होय"शान या व्याकुल होना। राम । “तिय ललाट बेंदी दिये, अगनित उदित वि० (सं० उद्-+5+क्त ) जो बढ़त उदोत"-बि० । वि. प्रकाशित, उदय हुआ हो, उद्गत, आविर्भूत, प्रगट उदित, दीप्त, शुभ्र, उत्तम, प्रकट, " होत हुश्रा, निकला हुआ, प्रकाशित, जाहिर, उदोत प्रभाकर को दिसि पच्छिम तौ कछु उज्वल, स्वच्छ, प्रफुल्लित, प्रसन्न, कथित, दोष नहीं है-मो०रा० । For Private and Personal Use Only Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उदातकर ३२३ उद्दालक उदोतकर-वि० (सं० ) प्रकाश करने उद्घाट-संज्ञा, पु. ( सं० ) राज्य की ओर वाला, चमकने वाला। से माल को देख कर ( जाँच कर के ) चुंगी उदोतो-वि० (सं० उद्योत ) प्रकाश करने लेने की चौकी, चंगीघर। वाला, स्त्री० उदातिनो। उद्घाटन--संज्ञा, पु. (सं०) खोलना, उदै-सज्ञा, पु. ( दे० ) उदय (सं०) उधारना, प्रकाशित करना, प्रगट करना, निकलना, प्रकट होना, "... . पिय भाजी रस्सी-युक्त घड़ा ( कुएँ से पानी निकालने देखि उदौ पावत के माज को"-भू०। के लिये )। उद्गत-वि० (सं० ) ऊर्ध्वगत, उदित, उद्घाटक-वि० (सं० ) प्रकाशक, खोलनेउत्थित, बर्धित । वाला। उदगम-संज्ञा, पु० (सं०) उदय, आविर्भाव, उदघाटित--वि० (सं० ) प्रकाशित, प्रगट उत्पत्ति-स्थान उद्भव-स्थान निकास, किती किया हुआ, खोला हुश्रा । नदी के निकलने का स्थान, प्रगट होने की उदघाटनीय-वि० (सं० ) प्रकाशनीय, जगह प्रारम्भ, आदि।। प्रकट करने योग्य । उद्गमन-संज्ञा, पु० (सं०) ऊपर जाना, उद्घात-संज्ञा, पु० (सं० ) ठोकर, धक्का, ऊर्ध्वगमन । श्राघात, प्रारंभ, उपक्रम । उद्गाता-संज्ञा, पु० (सं० ) यज्ञ के चार उद्घातक-वि० ( सं० ) धक्का मारने प्रधान ऋत्विजों में से एक जो सामवेद के वाला, ठोकर लगाने वाला प्रारंभ करने मंत्रों का गान करता है, सामवेदज्ञ, वाला। संज्ञा, पु० नाटक में प्रस्तावना का सामवेत्ता। एक भेद जिसमें सूत्रधार और नटी आदि उद्गाथा-संज्ञा, स्त्री. (सं०) आर्या छंद की कोई बात सुन कर उसका और अर्थ का एक भेद, इसमें विषम पदों में तो १२ लगाता हुश्रा कोई पात्र प्रवेश करता है या और सम पदों में १८ मात्रायें होती हैं और नेपथ्य से कुछ कहता है। विषम गणों में जगण नहीं रहता। उदंड - वि० (सं० ) जिसे दंड आदि का उद्गार-संज्ञा, पु० (सं० ) उबाल उफान, कुछ भी भय न हो, अक्खड़, निडर निर्भीक, बमन, कै, कफ डकार थूक, बाढ़, श्राधिक्य, प्रचंड, उद्धत उजडु । संज्ञा, स्त्री० (सं.) घोर शब्द, गर्जन, किसी के विरुद्ध बहुत उहंडता-निर्भीकता। दिनों से मन में रक्खी हुई बात का एक उइंत-वि० (सं०) वृहत, दतुला, बड़बारगी निकालना, मन की बातों को प्रगट करना, गर्जन। दंता, निकला हुआ दांत । उद्गारित-वि० ( सं० ) वमन किया उद्देश---संज्ञा. पु० (सं० ) मसा, मशक, हुआ प्रकटित, निकाला हुआ। डांस, मच्छर। उद्गारी-वि० (सं०) उगलने वाला, ! उद्दाम-वि० (सं० ) बंधन-रहित निरंकुश, बाहर निकालने वाला प्रकट करने वाला, उग्र, उदंड, स्वतंत्र, गंभीर, महान, प्रबल, गर्जन करने वाला। बेकहा । संज्ञा, पु० (सं० ) वरुण, दंडकवृत्त उदगीत-संज्ञा, स्त्री० (सं.) आर्या छंद का का एक भेद । एक भेद । वि० (सं० ) उच्च स्वर से उद्दालक--संज्ञा, पु० (सं० ) प्राचीन धार्य गाया हुआ। ऋषि इनका प्रकृत नाम थारुणि है, इनके उदगीथ-संज्ञा, पु० (सं०) सामवेद का गुरु आयोद्धौम्य ने इनका यह नाम रक्खा भंग विशेष, प्रणव, भोंकार. सामवेद । था, इनके पुत्र श्वेतकेनु थे, व्रत विशेष । For Private and Personal Use Only Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उहित ३२४ उद्धरना उदित-दि० (दे०) उदित (सं० ), उद्दोत-संज्ञा, पु० (सं० ) प्रकाश, उदय, उद्यत, उद्धत । वृद्धि । वि० प्रकाशित, उदित, प्रकटित । उहिम-संज्ञा, पु. ( दे०) उद्यम (सं.)। 'पुर पैठत श्री राम के, भया मित्र उदोत" प्रयत्न, पुरुषार्थ । " श्री को उद्दिम के बिना, -रामा०। कोऊ पावत नाहिं' -वृंद। उद्दोतिताई-संज्ञा, स्त्री० (दे०) प्रकाश, उद्दिष्ट-वि० (सं०) दिखलाया हुश्रा, __... मिथुन तड़ितवन नीत उद्दोतिताई " इंगित किया हुआ, लचा, अभिप्रेत, --अ० अ०। सम्मत, मनस्थ । संज्ञा, पु०-कोई दिया हुआ उद्ध-कि० वि० (दे०) ऊर्ध्व (सं.) छद मात्रा-प्रस्तार का कौन सा भेद है यह ऊपर “ कलजुग जलधि अपार उद्घ अधरम्भ बतलाने की एक क्रिया विशेष ( पिंग० )। उ ममय"-भू०। उदोपक–वि. ( स० ) उत्तेजित करने उद्धत - वि० (10) उग्र, प्रचंड, अक्खड़, वाला, उभाड़ने वाला, प्रकाशकता । स्री. प्रगल्भ उजड्डु, निडर, धृष्ट दुरन्त, अभिउदापिका। मानो संज्ञा, पु. ( सं० ) चार मात्रायों उद्दीपन-संज्ञा, पु. (सं० ) उत्तेजित करने का एक छंद। की क्रिया, उभाड़ना. बढ़ाना, जगाना, उद्धना-अ० कि० (दे० ) ऊपर उठना, बटाना, प्रकाशन, उद्दीपन या उत्तजित फैल जाना। करने वाला पदार्थ, रतों को उद्दी या उत्ते- | उद्धतपन-संज्ञा, पु. (सं० उद्धत+पनजित करने वाले विभाव. जैसे- ऋतु पवन, हि. प्रत्य० ) उजड्डुपन, उप्रता, प्रचंडता। चंद्रिका, सौरभ, वाटिका ( काव्य०)। उद्धरण संज्ञा, पु० (सं० ) ऊपर उठना, वि० उद्दीपनीय-उत्तेजनीय।। मुक्त होने की क्रिया, बुरी अवस्था से अच्छी उद्दीपित-वि० (सं० ) उत्तजित, उभाड़ा अवस्था या दशा में श्राना, त्राण, फँसे हुआ। हुए को निकालना, पढ़े हुए पिछले पाठ को उदीप्त-वि० (सं० ) उत्तेजित, बढ़ाया हुआ, अभ्यासार्थ फिर से पढ़ना या दोहराना जागा हुग्रा। किली लेख या किताब के किसी अंश को उदीय-वि० (सं०) उद्दीपनीय, उत्तेजनीय। किसी दूसरे लेख या पुस्तक में ज्यों का स्यों उश---ज्ञा, पु. ( सं० ) अभिलाषा, रखना या दोहरा देना, अविकल रूप से साह, मंशा हेतु, कारण, अभिप्राय, अन्वे- नक़ल कर देना। पण, अनुसंधान, नाम निर्देश पूर्वक-वन्तु उद्धरणो --संज्ञा, स्त्री० (सं० ऊद्धरण+ई निरूपण, इष्ट, मतलब, प्रयोजन, प्रतिज्ञा -हि. प्रत्य० ) पड़े हुए पाठ को अभ्यासार्य (न्याय०)। बार बार पढ़ना । श्रावृत्ति, दोहराना। उद्देशिन--वि० (सं.) अन्वेषित, अभि- उद्धरणीय - वि० ( सं० ) उल्लेखनीय, लषित ।.. - दोहराने योग्य। उद्देश्य-वि० ( पं० ) लक्ष्य, इष्ट, प्रयोजन, । उद्धरना -- स० कि० (दे०.) (सं० उद्धरण ) इरादा ! संज्ञा, पु० (सं० ) वह वस्तु जिसके उद्धार करना, उबारना, अलग करना, विषय में कुछ कहा जाय, अभिनेतार्थ, वह काटना। " तब कोपि राबव सत्रु को सिर घस्तु जिप पर ध्यान रख कर कुछ कहा जाय बाण तीपण उद्धर्यो "- राम । अ० कि. या किया जाय, विशेष्य, विधेय का उलटा बचना, छूटना. मुक्त होना, “बूझियत ( काव्य०) मतलब, तात्पर्य, मंशा, इरादा। बात वह कौन विधि उद्धरे".-के० । .... For Private and Personal Use Only Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३२५ उद्भूत - उद्धव-संज्ञा, पु. (सं०) उत्सव, यज्ञ अनट् ) स्मरण, चेत, ज्ञापन, ज्ञान, जगाना की अग्नि, आमोद प्रमोद, श्रीकृष्णजी के एक समझाना, उत्तेजित करना, बोध कराना, मित्र, ऊधव, ऊधौ (दे०)। चेताना । वि० उदबोधनीय । उद्धार-संज्ञा पु० ( सं० ) मुक्ति, छुटकारा, उद्बोधित-वि० ( स०) जिसे बोध कराया निस्तार, सुधार, बचाव, रतण, मोचन, | गया हो, सचेत । उन्नति, दुरुस्ती, ऋण से मुक्ति, बिना व्याज | उद्बाधिता - संज्ञा, स्त्री० (सं० ) उपपति या के दिया हुआ ऋण । परपुरुष के चतुराई-डारा प्रगटित प्रेम को उद्धारना*-स० कि० दे० (सं० उद्वार ) | जान कर प्रेम करने वाली परकीया नायिका । उद्धार करना, छुटकारा देना, मुक्त करना, | उद्भट वि० (रु.) प्रबल उदार श्रेष्ठ, उधारना (दे० ) अलग करना, काढ़ना, प्रचंड, उच्चाशय । सज्ञा, पु० (सं० ) एक उबारना। विद्वान् श्राचार्य और कवि जिन्होंने काव्यउदश्वस्त-वि० (सं०) टूटा-फूटा, ध्वस्त नष्ट। शास्त्र का एक प्रसिद्ध ग्रंथ लिखा। उद्धृत-वि० (सं०) उद्धारित, रतित. उद्भव-संज्ञा, पु० (सं० उत् + भू+अल् ) उगला हुआ, ऊपर उठाया हुआ, किसी उत्पत्ति, जन्म, प्रादुर्भाव, वृद्धि. बढ़ती, ग्रंथ से ज्यों का त्यों लिया हुश्रा, किसी स्थान | पैदाइश, उन्नति “ उद्भव स्थिति संहारसे अविकल रूप से नकल किया हुआ। कारिणीम् रामा। उदबंधन-संज्ञा, पु० (सं० ) ऊपर बाँधना। उद्भावना-संज्ञा, स्त्री० (सं० ) कल्पना, गले में रस्सी लगाना, फांसी देन , टाँगना, मन की उपज, उत्पत्ति, प्रकाश । वि० उभायो० उदबंधन-मृत-वि० (सं० ) फांसी वनीय । वि० उभावित । पाया हुआ. गले में रस्सी डाल कर मारा उद्भास-संज्ञा, पु० (सं० ) प्रकाश, दीप्ति, हुआ। श्राभा, मन में किसी बात का उदय, उद्वाह-संज्ञा, पु० । सं० उद् + वह प्रतीति । घ) विवाह, परिणय, दार क्रिया। यो० । उद्भासित-वि० (सं०) उत् +भास+क) उद्वाहोपयुक्त-वि० ( सं० ) परिणय उत्तेजित, उद्दीप्ति. प्रकाशित, प्रकट, विदित, प्रदीप्त । योग्य, वयस्क। उद्भिज-संज्ञा, पु० ( सं० ) उद्भिज्ज, वृक्ष, उदबुद्ध-वि० (सं० ) विकसित, फूला लतादि। हुश्रा, प्रबुद्ध, चैतन्य, जिसे ज्ञान हा गया उद्भिज्ज-संज्ञा, पु. (सं० ) वृक्ष, लता, हो, जागा हुआ। गुल्म, वनस्पति, श्रादि जो भूमि को फोड़कर उदबुद्धा-सज्ञा, स्त्री. (सं० ) अपनी ही निकलते हैं, पेड़-पौधे । इच्छा से उपपति या पर पुरुष से प्रेम करने | उद्भिद - संज्ञा, पु० (सं० उत् + भिद् + किप ) वाली परकीया नायिका।। वृक्ष, लता वनस्पति श्रादि । वि० अंकुरित, उद्बोध-संज्ञा, पु. (सं०) थोड़ा ज्ञान, विकसित । यौ० उद्भिदविद्या-संज्ञा, स्त्री० अल्प बोध । (सं० ) वृतादि लगाने की कला। ..... उद्बोधक-वि० (सं.) बोध कराने वाला, उद्भिन्न - वि० (सं० उत् + भिद् + क ) चेताने वाला, प्रकाशित. प्रगट या सूचित भेदित, विद्ध. फोड़ा हुआ, उत्पन्न । ...... करने वाला, जगाने वाला उत्तेजित करने उदभू-वि० (सं० उत् + भू+क्त.) उत्पन्न, वाला। निकला हुआ ।.यौ० उद्धृतरूप वि० (सं०:) उदोधन-संज्ञा, पु. ( सं० उत् + बुध् + । प्रत्यक्षरूप, दृग्गोचर होने-योग्य रूपः।..... For Private and Personal Use Only Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उद्भेद ३२६ उद्वाह्य उद्भेद-संज्ञा, पु. (सं० ) फोड़कर निक- उद्योत-संज्ञा, पु० (सं० ) प्रकाश, उजाला, लना, (पौधों के समान ) प्रकाशन, प्रगट चमक, झलक, श्राभा, आलोक, उदोत होना, उद्घाटन, एक प्रकार का अलंकार (दे०)। वि. उद्यातित-प्रकाशित, प्रदीस। जिसमें कौशल या चतुराई से छिपाई हुई उद्र- संज्ञा, पु० (सं० ) ऊदबिलाव, जल किसी बात का किसी हेतु से प्रकाशित या की बिल्ली। संज्ञा, पु० ( दे० ) उदर लक्षित होना कहा जाय । ( प्राचोन० )। । (सं०) पेट । उद्भेदन संज्ञा, पु० ( स० ) तोड़ना, उद्रिक्त-वि० (सं० ) स्फुट, स्पष्ट व्यक्त फोड़ना, छेद कर पार जाना या निकलना : परि छ । स्त्री०-उद्विक्ता । वि० उद्भेदनीय, उद्भिन्न। उद्रेक-संज्ञा, पु० (सं०) बढ़ती, अधिकता, उद्भ्रान्त - वि० (सं०) घूमता या चक्कर वृद्धि, ज्यादती, उपक्रम, उत्थान, प्रकाश, लगाता हुश्रा, भूला या भटका हुआ, प्रारंभ, एक प्रकार का काव्यालंकार जिसमें चकित, भौचका, भ्रांति-युक्त, भ्रमित । वस्तु के कई गुणां या दोषों का किसी एक उद्यत-वि० (सं० उत् + यम् + क्त) तत्पर, गुण या दोष के आगे मंद पड़ जाना कहा प्रस्तुत, उतारू, मुस्तैद, तैय्यार, उठाया जाता है (प्राचीन)। हुआ, ताना हुआ। उद्वह-संज्ञा, पु० (सं०) पुत्र, बेटा, लड़का, उद्यम-संज्ञा, पु० (सं० उत्+यम् + अल्) "एक वीराच कौशल्या तस्या पुत्रो खूद्वहः" उद्योग, उत्साह, प्रयास, प्रयत्न, अध्यवसाय, -के० । तृतीपस्कंध पर रहने वाली वायु, मेहनत, काम-धान्धा, रोज़गार । उद्दिम सात वायुयों में से एक, । स्त्री. उद्वाहा । (दे०) व्यापार । उद्वहन-- संज्ञा, पु० (सं० ) ऊपर खींचना, उद्यमी-वि० (सं० ) उद्यम करने वाला, उठना, विवाह। ' उद्योगी, प्रयत्नशील "पुरुष सिंह जो उद्यमी, उद्वासक--वि. (सं० ) उजाड़ने वाला, लक्ष्मी ताकी चेरि"। भगाने वाला। उद्यान - संज्ञा, पु. ( सं० उत्। या-|- अनट्) उद्वासन-संज्ञा, पु० (सं० ) स्थान छुड़ाना, बाग़, बागीचा, क्रीडावन, उपवन, आराम । भगाना, उजाड़ना, मारना, वध, वास-स्थान यौ० उद्यानपाल-संज्ञा, पु. ( सं० ) नष्ट करना, खदेड़ना । वि० उद्वासनीय । माली, बाग़वान। उद्वासित-वि० (सं०) उजाड़ा हुआ, उद्यापन-संज्ञा, पु. (सं० उत् + या-- खदेड़ा हुथा। णिच-+मनट ) किसी व्रत की समाप्ति पर उद्वास्य-वि० ( सं० ) उदासनीय, उजाड़ने किया जाने वाला कृत्य, जैसे हवन, गोदान योग्य । प्रादि, समापन क्रिया। उद्वाह-संज्ञा, पु. ( सं० ) विवाह । उद्युक्त-वि० (सं० उत् + युज् + क्त) उद्वाहन-- संज्ञा, पु० (सं० ) ऊपर ले जाना, उयमयुक्त, उद्योग में लीन, तत्पर, बलवान उठाना, ले जाना, हटाना, विवाह । वि. उद्योग-संज्ञा, पु० (सं० उत् + युज्+घञ् ) उद्वाहनीय। प्रयत्न, चेष्टा, प्रयास, अध्यवसाय, परिश्रम, उद्वाहित-वि० सं०)विवाहित, उठाई हुई। आयोजन, उपाय, मेहनत, उद्यम काम उद्वाही-वि० (सं०) उपर ले जाने वाला, धंधा, उत्साह । उठाई हुई। उद्योगी-वि० (सं०) उद्योग करने वाला, उद्वाह्य- वि० (सं.) उठाने योग्य, मेहनती, यत्नवान्, उत्साही, परिश्रमी। उद्वाहनीय । For Private and Personal Use Only Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उद्विग्न ३२७ उनतालिस उद्विग्न-वि० (सं०) उद्वेगयुक्त, श्राकुल, व्यग्र। यहाँ केवल कुछ समय के लिये मँगनी के उद्विग्नता--संज्ञा, स्त्री. ( सं० उत् + वि + तौर पर व्यवहार में जाना, मँगनी, उद्धार, त+ता ) आकुलता, व्यग्रता, घबराहट । छुटकारा । यौ० उद्विग्नमना-वि० ( सं० ) व्यग्रचित्त, उधारक-वि० दे० (सं० उद्धारक ) उद्धार घबराया हुआ। करने वाला। उद्वेग --संज्ञा, पु० (सं०) मन की पाकुलता, | उधारन:-वि० (दे० ) मुक्त करने या घबराहट, मनोवेग, चिन्ता, आवेश, जोश, छुड़ाने वाला । “सूर पतित तुम पतितझोंक, चित्त की तीव्र वृत्ति, संचारी भावों में उधारन गहौ बिरद की लाज"--सू० । से एक। उधारना-स० कि० (दे० ) उद्धार करना उद्वेगी-वि० (सं० ) उद्विग्न, उत्कंठित. (सं० उद्धरण) मुक्त करना, छुड़ाना, उबारना। घबडाने वाला भावनायक जोशीला उधारी-वि० दे० (सं० उद्घारिन् ) उद्धार उघड़ना - अ० क्रि० दे० (सं० उद्धरण ) ___ करने वाला। स्त्री० उधारिनि (उद्घारिणी)। सिले हुए का खुलना, जमा या लगा न रहना, उधेड़ना-स० कि० दे. (सं० उद्धरण ) खुलना, उखड़ना, उजड़ना, उचड़ना। पर्त या तह को अलग करना, उचाड़ना, उधम--संज्ञा, पु० (दे०) ऊधम, उपद्रव । टांका खोलना, सिलाई खोलना, छितराना, उधर-क्रि० वि० दे० (सं० उत्तर या ऊ बिखराना, भंग करना, सुलझाना, उधेरना पु० हि० == वह --धर---प्रत्य० ) उस भोर, (दे०) । " जरासंध को जोर उधर्यो उस तरफ़, दूसरी ओर, वा लँग ( दे०)। फारि कियो है फाँको"- सूर० । उधरना-स. क्रि० दे० (सं० उद्धरण ) | उधेड़ बुन-संज्ञा, स्त्री० दे० ( हि० उधेड़ना+ मुक्त होना, उधड़ना, उखड़ना, निकल जाना। बुनना) सोच-विचार. उहा-पोह, युक्ति स० क्रि० उद्धार या मुक्त करना । अ० कि० बाँधना, उलझन को सुलझाना।। उद्धार पाना, उखड़ना । “ सूरदास भगवंत | उनंत-वि० दे० (सं. अवनते ) झुका भजन की सरन गहे उधरे" "तुम मीन हुश्रा, अवनत । मुरझाना । “भई उनंत प्रेम ह्र वेदन को उधरो जू"- राम । कै साखा".--१०। उधराना-अ. क्रि० दे० ( स० उद्धरण ) उन-सर्व० (दे० ) उस का बहुवचन । हवा के कारण छितराना, तितर बितर होना, उन इस-संज्ञा, स्त्री० दे० ( सं० एकोन विंशति ) उन्नीस, वनइस (दे०) ऊधम मचाना, उन्मत्त होना, बिखरना। वि० उनका-संज्ञा, पु० (अ.) एक कल्पित (दे०) उधरा-मुक्त, छूटा, उखड़ा हुआ। पक्षी जिसे आज तक किसी ने नहीं देखा। उधार-संज्ञा, पु० दे० (सं० उद्धार) उद्धार, सर्व० दे० ( हि० उन + का-प्रत्य०) मुक्ति, ऋण, कर्ज़ । "झूठा मीठे बचन कहि, सम्बन्ध कारक में । स्त्री. उनकी, व० . ऋण उधार लै जाय ''-- गि उनके आदि। म०-उधार खाये बैठना--किसी भारी, उनचास वि० दे० (सं० एकोन पंचाशत् ) श्रासरे पर दिन काटते रहना, उधार लिये चालीप और नौ, ४६ । संज्ञा, पु० (दे०) रहना । उधार खाना और भुस में | उन्चास की संख्या । वन्चास ( दे.) आग लगाना-ऋण का प्रति दिन बढ़ना उनतालिस - वि० (दे० ) उन्तालीस (सं. और धीरे-धीरे बढ़ कर बहुत होना, या एकोनचत्वारिंशत् ) ३० और १ । संज्ञा, पु०नाशकारक होना। प्रत्येक समय तैयार तीस और नौ की संख्या, एक कम चालीस रहना, किसी की कुछ चीज़ का दूसरे के | का अदद, ३६ । वन्तालिस (दे.)। For Private and Personal Use Only Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उनतीस ३२८ उनहारि उनतीस-वि० दे० (सं० एकोनविंशत् ) उनमूलन - संज्ञा, पु० दे० (सं० उत् + मूलन) एक कम तीत, बीर और नौ । संज्ञा, पु० उखाड़ना। (दे. ) उन्तीत की संख्या २६ । । उनमूलना-स. क्रि० दे०( सं० उन्मूलन ) उनदा-वि० ( दे० ) उनींदा, (हि.)। उखाड़ना, नष्ट करना । (सं० उनिंद ) नींद का सताया हुआ, | उनमेख-संज्ञा, पु० दे० (सं० उन्मेष) भाँख औघासा, (दे० । उनींदा ( दे०)। का खुलना, फूल खिलना, प्रकाश, विकास। उनदौहाँ-वि० (दे०) उनींदा, उनदा । उनमेखना-स० क्रि० दे० (सं० उन्भेष) (हि.)। आँख का खुलना, उन्मीलित होना, विकसित उनमत-वि० दे० (सं० उन्मत्त) मतवाला होना खिलना। पागल, प्रमत्त । संज्ञा, पु० पागल पुरुष । स्त्री० उनमेद-संज्ञा, पु. (दे०) माँजा, प्रथम उनमाती दे० ) उन्मत्ता (सं०)। वर्षा से उत्पन्न विषैला फेन । " जल उनमेद उनमद-वि० दे० (सं० उत् +-मद् = मीन ज्यों बपुरो".-सूर० । उन्मद ) उन्मत्त । उनयना-प्र. क्रि० (दे० ) झुकना, उनउनमनाउनमन - वि० दे० (सं० उत् + मना) वना ( दे० ) टूटना, उठना, विर आना। अनमन, अनमना, उन्मना, उदास, सुस्त । उनरना-अ० कि० दे० (सं० उन्नरण = उनमाथना-स० क्रि० दे० (सं० उन्मथन)। ऊपर जाना ) उठना, उभड़ना, उमड़ना, मथना, विलोड़ना। उनमाथी - वि० दे० (हि० उनमाथना) मथने उछलना - "उनरत जोवन देखि नृपति मन भावइ है "- 'बचन-पास बाँधे माधववाला, बिलोड़ने वाला. मथन करने वाला। मृग उनरत घालि लये"---भ्र० । उनमाद-संज्ञा, पु० दे० (सं० उन्माद ) ' उनवना - अ० कि० दे० (सं० उन्नमन ) पागलपन, चित्त-विभ्रम । उनमान--संज्ञा, पु. ( दे० ) ( सं० । झुकना, लटकना, घिर आना, टूटना, छाना, अनुमान ) अन्दाज़, अनुमान, अटकल, घिर जाना, ऊपर पड़ना। विचार । “साँई समय न चूकिये, जथा । उनवर---वि० (दे०) न्यून, छुद्र, तुच्छ नीच । सक्ति उनमान"-गि० । संज्ञा, पु० (सं० । उनवान - संज्ञा, पु. ( दे० ) अनुमान (सं०) उद्+मान ) परिणाम, थाह, ' लेन उनमान ख्याल, अटकल । फतेअली ने पठाये दूत"-सुजा० । नाप, उनसठश-वि० दे० (सं० एकोनषष्टि ) तौल, शक्ति, सामर्थ्य, योग्यता । वि.! पचाप और नौ । संज्ञा, पु०-पचास और नौ तुल्य, समान सदृश । “कमलदल नैननि की की संख्या या अंक, उन्सठ, १६ । उनसठि, उनमान"-रही। (दे० ) एक कम साठ। उनमानना-----स० क्र० दे० (हि. उनमान् ) । उनहत्तर - वि० दे० (सं० एकोनसप्तति) अनुमान करना, विचार करना, ख्याल साठ और नौ। संज्ञा, पु. साठ और नौ करना, “ कटि कछनो कर लकुट मनोहर ! की सपा या अंक, उनहतरि (दे०) गो-चारन चले मन उनमानि"-सूर० ।। | एक कम सत्तर, ६६ । उनमना-वि० दे० (हि. अनमना ) मौन, उनहानि-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. अनुहारि ) चुपचाप । स्त्री० उनमनी-"हँसै न बोलै | समता, बराबरो। उनमुनी''कवीर। उनहार -- वि० (सं० अनुसार) समान, सदृश । उनमुनी-संज्ञा, स्त्री० (दे० ) हठयोग की। उनहारि-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० अनुसार ) एक मुद्रा । वि०-मौना। ! समानता, सादृश्य, एकरूपता। For Private and Personal Use Only Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उनाना ३२६ उन्मादक उनाना-स० क्रि० दे० (सं० उन्नमन ) उन्नायक-वि० (सं० ) ऊंचा करने वाला, झुकाना, लगाना, प्रवृत्त करन', सुनना, उन्नत करने वाला, बढ़ाने वाला। स्त्री० धाज्ञा मानना । अ० कि० श्राज्ञा पालन उन्नायिका। करना। उन्नासी-वि० दे० (सं० ऊनाशीति ) सत्तर उनारना-स० कि. (दे०) उकसाना, और नौ, एक कम अस्सी। संज्ञा, पु० सत्तर खसकाना, बढ़ाना, "ज्योति कढ़ावत दसा और नौ की संख्या, ७६ । उनारि"-के। उन्निद्र-वि० (सं० ) निद्रा रहित-जैसेउनासी-वि० दे० (सं० एकोनाशीति ) एक उन्निद्र रोग. जिसे नींद न आई हो, कम अस्ती । संज्ञा, स्त्री० (दे०) उन्नासी की विकसित, खिला हुआ। संख्या ७६ । उन्नीस-वि० (सं० एकोनविंशति ) एक कम उनींदा--वि० दे० (सं० उन्निद्र ) उँचाया बीत, दस और नौ। संज्ञा, पु०-दस और नौ हुआ, अलसाया हुआ, नींद से भरा हुआ । की संख्या १६, उनइस, (दे०)। सज्ञा, पु. (दे०) उनींद-(सं० उनिद्र) मु०-उन्नीस ( उनइस ) विस्वाअर्धनिद्रा, नींद-भरा : लरिका समित अधिकतर, अधिकाँश में, बहुत कर के। उनींद-बस, सयन करावहु जाइ"- रामा०, उन्नोस होना-मात्रा में कुछ कम होना, नैन उनोंदे भे रंगराते "-सूर० । थोड़ा घटना, गुण में घटकर होना, ( दो उन्नइस-वि० (हि. उन्नीस) उनइस (दे०) वस्तुओं की तुलना में )। उन्नीप। उन्नीस-बीस होना-एक का दूसरी से उन्नत-वि० (सं० उत् + नम् --क्त) ऊंचा, कुछ अच्छा या अधिक होना, दो वस्तुओं ऊपर उठा हुआ, बढ़ा हुआ, समृद्ध, श्रेष्ठ, में कुछ थोड़ा अन्तर होना। उच्च, उत्तुंग । यौ०-उन्नतनाभि - वि०. उन्मत्त-वि० (सं० उत् + मद् + क्त ) मतऊँची नाभिवाला। वाला, मदांध, जो श्रापे में न हो, बेसुध, उन्नतानत-वि० यौ० (सं०) उच्च नीचस्थान, पागल, बावला, उन्मादी, बौराह । संज्ञा, स्त्री. उन्मत्तता। ऊबड़-खाबड़। उन्मतता--संज्ञा, स्त्री. (सं० ) पागलपन, उन्नति-संज्ञा, स्त्री० (सं० उत् + नम्+क्ति) प्रमत्तता। ऊंचाई, चढ़ाव, वृद्धि, समृद्धि, उच्चता, बढ़ती, उन्मद-वि० ( सं० उत् + मद् +अल ) तरक्की, उदय, गरुड़भार्या । उन्माद-युक्त, प्रमादी, सिड़ी, उन्मत्त । उन्नतोदर-संज्ञा, पु. यो० (सं०) चाप उन्मना-वि० (सं० उत् + मनस् ) चिंतित, या वृत्त के खंड के ऊपर का तल, ऊपर को | | व्याकुल, चंचल, अनमना, उन्मन । संज्ञा, उठा हुआ, वृत्त-खंड वाली वस्तु । स्त्री०-उन्मनता-अनमनापन । " ...उन्मना उन्नाब-संज्ञा, पु० (अ.) हकीमी दवाओं राधिका थी -प्रि० प्र०।। में डाला जाने वाला एक प्रकार का बेर। उन्माद -- संज्ञा, पु० (सं० ) वह रोग जिसमें बनाबी-वि० (अ० उन्नाव ) उन्नाब के रंग मन और बुद्धि का कार्य-क्रम बिगड़ जाता का, कालापन लिये हुए लाल । है, पागलपन, विक्षिप्तता, चित्त-विभ्रम, ३३ नमित-वि० ( सं० उत् + नम् -।-क्त ) संचारी भावों में से एक जिसमें वियोगादि उत्तोलित, ऊपर उठाया गया, ऊर्वीकृत । के कारण चित्त ठिकाने नहीं रहता। अयन - वि० (सं० ) ऊर्ध्व प्रयाण, उत्तोलन, उन्मादक-वि० (सं० ) पागल करने वाला, उपर ले जाना। नशीला। मा० श० को-४२ For Private and Personal Use Only Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कुढंगी। उन्मादन ३३० उपकारक उन्मादन-संज्ञा, पु. (सं०) उन्मत्त या मुक्त-करण । वि० उन्मोचनीय-मुक्त करने मतवाला करने की क्रिया, कामदेव के पांच | योग्य, त्याज्य । वि० उन्मोचित-मुक्त, वाणों में से एक। स्यक्त, वि० उन्मोचक-छुड़ाने वाला, उन्मादी- वि०(सं० उन्मादिन ) उन्मत्त, । मुक्त करने वाला। पागल, बावला । स्त्री० उन्मादिनी। उन्हानि-संज्ञा, स्त्री० (दे०) बराबरी, समता। "..."थी मानसोन्मादिनी" -प्रि० प्र० । उन्हारा--संज्ञा, पु. ( दे० ) डील-डौल, रूप, उन्मान-संज्ञा, पु० (सं० ) तौल, परिमाण, अनुहारि, उनहारि। उन्हारि-संज्ञा, स्त्री० (दे० ) रूप, आकार, नाप, उनमान (दे०)। शकल, प्रकार । “ज्यौं एकै उन्हारि कुम्हार उन्मार्ग-संज्ञा, पु. (सं० ) कुमार्ग, बुरा के भांडे"-दे। रास्ता, बुरा ढंग । वि. उन्मार्गी-कुमार्गी, उपंग -- संज्ञा, पु० (दे०) एक प्रकार का उन्मिषित-वि० (सं० उत् + मिष् -।-क्त ) बाजा, ऊधव के पिता, " चंग उपंग नाद प्रफुल्लित, विकसित, फूला हुआ,खिला हुआ। सुर तूरा"-प० उपंत - वि० दे० (सं० उत्पन्न ) उत्पन्न, प्रगट । उन्मीलन-संज्ञा, पु० (सं० ) खुलना ( नेत्रों उप-उप० (सं० ) एक उपसर्ग, यह जिन का ) उन्मेष, विकसित होना, खिलना । शब्दों के पूर्व पाता है उनमें इस प्रकार वि. उन्मीलनीय, वि. उन्मीलक श्रर्थान्तर या विशेषता कर देता है--समीविकासक, खोलने वाला। उन्मीलना-स० क्रि० दे० (सं० उन्मीलन) पता- उपकूल, उपनयन, २-सामर्थ्य (श्राधिक्य) उपकार, ३-गौणता-(न्यूनता) खोलना। उन्मीलित-वि० (सं० ) खुला हुआ, उपमंत्री,उपसभापति, ४-व्याप्ति-उपकीर्ण । प्रस्फुटित । संज्ञा, पु. एक प्रकार का अर्थालंकार यौ० उपकंठ-वि० (सं० ) निकट, समीप। संज्ञा, पु. (सं.) ग्राम के समीप अश्व जिसमें दो वस्तुओं ( उपमेय, उपमान ) के गति-विशेष। इतने अधिक सादृश्य का वर्णन किया जाय। उपकथा-संज्ञा, स्त्री० (सं० ) आख्यायिका कि केवल एक ही बात के कारण उनमें भेद कहानी, कल्पित कथा। दिखलाई पड़े। उपकरण-संज्ञा, पु. ( सं० ) सामग्री, उन्मुख-वि० (सं० ) ऊपर मुंह किये हुये, राजाओं के छत्र चवर श्रादि राज-चिन्ह, उत्कंठित, उत्सुक, उद्यत, तैरयार, ऊर्ध्वमुख ।। परिच्छेद, भोजन में चटनी श्रादि बाहिरी वि० स्त्री० उन्मुखा, उन्मुखी। पदार्थ, पुष्प, धूप, द्वीप आदि पूजन की उन्मूलक-वि० (सं० ) समूल नष्ट करने सामग्री, प्रधान द्रव्य या वस्तु, सोधक वस्तु। वाला, बरबाद करने वाला, उखाड़ने वाला । उपकरना8-स० क्रि० दे० (सं० उपकार) उन्मूलन-संज्ञा, पु० ( स० उत् + मूल् + उपकार करना, भलाई करना, हित करना। अनट ) जड़ से उखाड़ना, समूल नष्ट करना, उपकर्ता संज्ञा० ५० (सं० ) उपकारक । उत्पादन, ऊपर खींचना। वि० उन्मूलनीय, उपकार-संज्ञा, पु० (सं० उप+ +-घज्) वि० उन्मूलित-उखाड़ा हुआ, विनष्ट । भलाई. हित, नेकी, सलूक, हितसाधन, उन्मेष-संज्ञा, पु० (सं०)खुलना (आंखोंका) लाभ, फायदा । विकाश, खिलना, थोड़ा प्रकाश, उन्मीलन, उपकारक-वि० (सं०) उपकार करने वाला, ज्ञान, बुद्धि, पलक । वि० उन्मिषित। उपकारी, भलाई करने वाला, हितकारक उन्मोचन-संज्ञा, पु० ( सं० ) परित्याग, स्त्री० उपकारिका, उपकर्ती । For Private and Personal Use Only Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उपकारिका ३३१ उपचय उपकारिका-वि० स्त्री० (सं० उप् + + अल् ) निंदा, कुत्सा, भर्त्सना, गर्हणा । वि. इक् + या ) उपकार करने वाली संज्ञा। स्त्री० उपक्रोशित-निंदित, गर्हित । (सं०) राजभवन, तंबू । उपक्षेप-संज्ञा, पु० (सं० ) अभिनय के उपकारिता-संज्ञा, स्त्री. ( सं० ) भलाई, प्रारम्भ में नाटक के सम्पूर्ण वृत्तान्त का हित, नेकी। संक्षिप्त कथन, आक्षेप। उपकारी-वि० (सं० उपकारिन् ) उपकार उपखान*-संज्ञा, पु. (दे०) उपाख्यान करने वाला, भलाई करने वाला, उपकर्ता, (सं०) कथा । " एक उपखान चलत त्रिभुलाभ पहुंचाने वाला, हितकारक । “ज्यों वन में तुमसों आज उघारि-सू० । रहीम' सुख होत है, उपकारी के अंग-"। उपगत-वि० (सं० उप-+ गम् + क्त ) प्राप्त, स्त्री०-उपकारिणी । उपकारी-(दे०) स्वीकृत, उपस्थित, ज्ञात, जाना हुआ, वि० यौ० (सं० ) उपकारेच्छुक - उपकार अंगीकृत । करने का अभिलाषी। उपगति-संज्ञा, स्त्री० (सं० ) प्राप्ति, उपकार्य-वि० ( सं० उप + कृ -ध्वण ) स्वीकृति, ज्ञान। उपकारोचित, जिसका उपकार किया जाय ।। उपगमन-संज्ञा पु० (सं०) श्रागमन, योग, प्रीति, अंगीकार, निकट गमन । स्त्री० उपकार्या। उपगीत-संज्ञा, स्त्री० (सं० ) आर्या छंद का उपकार्या-संज्ञा, स्त्री० (सं० ) राज-सदन, एक भेद। अन्न रखने का स्थान, गोला। उपगुरु-संज्ञा, पु. ( सं० ) छोटा अध्यापक, उपकुर्वाण-संज्ञा, पु० ( सं० ) विद्याध्यय अप्रधान गुरु, उपदेशक, शिक्षागुरु । नार्थ ब्रह्मचारी, कुछ काल के लिये ब्रह्मचारी, | चारी, ! उपगृहन-संज्ञा, पु० (सं० उप+ गूह + ब्रह्मचर्य, समाप्त कर गृहस्थ होने वाला । - अनट ) आलिंगन, भेंट, अंक भरना । वि. उपकृप-संज्ञा, पु० (सं० ) कूप के समीप । उपगृहनीय । बनाया हुया, पशुओं के जल पीने का उपगृहित-वि० (सं० ) आलिगित, भेंटा जलाशय। हुआ, अंक लगाया हुया। स्त्री० उपगृहिता। उपकूल-संज्ञा, पु० (सं० ) नदी-ताल के उपद्रह--संज्ञा, पु० (सं० ) गिरफ्तारी, कैद, तट का तीर। बँधुश्रा, कैदी, अप्रधान ग्रह, छोटा ग्रह, राहु, उपकृत-वि० (सं० ) जिसके साथ उपकार | केतु, वह छोटा ग्रह जो अपने बड़े ग्रह, के किया गया हो, कृतोपकार, कृतज्ञ । चारों ओर घूमता है जैसे पृथ्वी के साथ उपकृति-संज्ञा, स्त्री० । सं०) उपकार, चंद्रमा ( नवीन )। भलाई। उपघात-संज्ञा, पु० (सं० उप + हन् + घन ) उपक्रम - संज्ञा, पु० (सं० ) कार्यारम्भ की नाश करने की क्रिया, इन्द्रियों का अपने प्रथम अवस्था, अनुष्टान, उठान, कार्यारम्भ अपने कार्य के करने में असमर्थ होना, के पूर्व का आयोजन, तैयारी, भूमिका, अशक्ति, रोग, पीड़ा, आघात, व्याधि, प्राद्यकृति । उपपातक, जाति-भ्रंशीकरण (जातिच्युतउपक्रमणिका संज्ञा, स्त्री० (सं० ) किसी करण) संकरीकरण, अपात्रीकरण, मलिनी. पुस्तक के श्रादि में दी गई विषय-सूची। करण इन पाँच पातकों का समूह (स्मृति)। उपक्रान्त-वि० (सं०) समारब्ध, अनुष्ठित, उपचय - संज्ञा, पु० (सं० उप+चि-अल) प्रस्तुत, श्रारम्भ किया हुआ, कृतारम्भ । वृद्धि, उन्नति, सञ्चय, बढ़ती, जमा करना, उपक्रोश- संज्ञा, पु० (सं० उप+ क्रुश् + । प्राधिक्य । For Private and Personal Use Only Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - उपचरित ३३२ उपशा उपचरित–संज्ञा, पु० (सं० उप---चर् - क्त) उपज-संज्ञा, स्त्री० दे० ( हि० उपजना) उपासित, सेवित, पाराधित, लक्षण से उत्पत्ति, उद्भव, पैदावार, ( खेत की उपज ) जाना हुआ। नई उक्ति, उद्भावना, सूझ, मनगढन्त बात, उपचर्या-संज्ञा स्त्री० (सं० उप + चर् + गाने में राग की सुन्दरता के लिये उसमें क्यप् ) चिकित्सा, रोगों का उपशम, प्रति- बँधी हुई तानों के सिवा अपनी ओर से कार, सुश्रूषा। कुछ तानों का मिला देना, स्फूर्ति, स्फुरण । उपचार-संज्ञा, पु० (सं० उप---चर् +घञ्)| उपजना-(अ० कि० (दे०) (सं० उत्पव्यवहार, प्रयोग, विधान, उपाय, चिकित्सा द्यते, प्रा. उप्पज्जते ) उत्पन्न होना, पैदा दवा, इलाज, सेवा, तीमारदारी, धर्मानुष्ठान होना, उगना, अंकुरित होना। उपकरण, पूजन के अंग या विधान जो उपजाऊ-वि० दे० ( हिं० उपज । पाऊमुख्यतः सोलह माने गये हैं (षोडशोपचार) प्रत्य० ) जिसमें अच्छी और अधिक उपज खुशामद, घूस, रिशवत, दिखावा, उपक्रम, हो, उर्वर, (भूमि ) जरखेज़ । उत्कोच, विसर्ग के स्थान पर स या श हो | उपजाति-संज्ञा, स्त्री० (सं० ) इंद्रवज्रा जाने वाली सन्धि विशेष, जैसे—निश्छल, और उपेन्द्रवज्रा, तथा इंद्रवंशा और वंशस्थ निःछल । “ जेते उपचारु चारु मंजु सुखदाई | के मेल से बनने वाले वर्णिक ( गणात्मक) हैं "-ऊ. श. "..... उपचारः कैतवं । वृत्त । " स्यादिन्द्रवत्रा यदितौ जगा भवति-" उपेन्द्रवज्रा जतजस्त ततोगी । अनन्तरो उपचारक-वि० (सं०) उपचार या सेवा दीरित लक्ष्मभाजी पादौ यदीयाउपज करने वाला, विधान करने वाला, चिकित्सा तयस्ताः "-- करने वाला। उपजाना-स० कि० दे० (हिं० उपजना का उपचारित-वि० (सं० ) उपचार किया सं० रूप) उत्पन्न करना, पैदा करना, उगाना। हुआ, जिसका उपचार किया गया हो। "भलेहु पोच विधि जग उपजाये''-रामा० । उपचारछल-संज्ञा, पु० यौ० ( स० ) वादी के कहे हुए वाक्य में जान-बूझ कर अभिप्रेत उपजित -- वि० ( दे० ) उत्पन्न हुआ, अर्थ से भिन्न अर्थ की कल्पना करके दषण उपजा हुआ। निकालना। उपजिह्वा-संज्ञा, स्त्री० ( सं० ) छुद्र जीभ, उपचारना* -- सं० क्रि० (दे० ) व्यवहार __ छोटी जीभ । में लाना, विधान करना, काम में लाना, उएजोवन--संज्ञा पु. ( सं० ) जीविका, प्रयोग करना। रोज़ी, निर्वाह के लिये किसी अन्य व्यक्ति उपचारी-वि० (सं० उपचारिन ) उपचार का अवलम्बन । वि०-उपजीवक (सं.) करने वाला, चिकित्सा करने वाला। स्त्री० उपजीविका-संज्ञा, स्त्री० (सं०) जीविका, उपचारिणी। उपचित-वि० (सं० उप + चि+क्त) समृद्ध, वृत्ति, जोवनोपाय अवलम्ब ।। वर्धित, संचित, इकठ्ठा । संज्ञा, पु० (सं० ) उपजीवी-वि० (सं० ) दूसरे के सहारे पर उपचयन - वि० उपचयनीय। गुज़र करने वाला। यौ० परभाम्योपजीवी उपचित्र-संज्ञा, पु० (सं० ) एक वर्द्धि -अन्याश्रित व्यक्ति । समवृत्त । उपज्ञा-ज्ञा, स्त्री. (सं०) प्रथम ज्ञान, उपचित्रा—संज्ञा, स्त्री० (सं०) १६ मात्राओं उपदेश के बिना ईश्वरदत्त पूर्वज्ञान, का एक छंद। श्राद्यज्ञान। For Private and Personal Use Only Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org उपटन उपटन - संज्ञा, पु० (दे० ) उबटन, बटना | संज्ञा, पु० दे० (सं० उत्पतन = ऊपर उठना ) श्राघात, दबाने या लिखने से पड़े हुये चिन्ह या निशान, साँट | ३३३ उपटना अ० क्रि० दे० (सं० उत्पट = पट के ऊपर ) श्रावात, दबाव या लिखने से पड़ने वाले चिन्ह, या निशानों का श्रा जाना, निशान पड़ना, उखड़ना, उछल आना, ई गड़ि गाड़ै परी, उपट्यो हार हियै न । वि० बिन गुन पिय aिय हरवा, 66 (6 उपटेउ हेरि " रही० । उपटाना सं० क्रि० दे० ( हि० उबटना का० प्रे० रूप ) उबटन लगवाना, उबटन लगाना । कंचुकी छोरी उतै उपबो को..." देव० | क्रि० स० ( सं० उत्पाटन) 6: उखड़वाना, उखाड़ना, उचाटना, हटाना । 66 उपटारना*—सं० कि० दे० (सं० उत्पटन ) उच्चाटन करना, उठाना, हटाना, उपठारना (दे० ) । मधुबन तैं उपभरि स्याम कहँ या व्रज कै ग्राव - भु० । उपड़ना- प्र० क्रि० दे० (सं० उत्पटन ) उखड़ना, उपटना, अंकित होना, निशान पड़ना । उपढौकन - संज्ञा, पु० (सं० उप + ढौक + भट्) पारितोषिक उपहार, भेंट, इनाम । उपतंत्र - संज्ञा, पु० (सं० ) यामल आदि तंत्रशास्त्र, सूक्ष्म सूत्र । उपतप्त - वि० (सं० उप् + तप् + क्त ) संतापित, दुखित, संतप्त, दग्ध, जला हुथा । उपतारा - संज्ञा स्त्री० (सं० ) क्षुद्र नक्षत्र, नेत्र गोलक । उपत्यका - संज्ञा, स्त्री० (सं० ) पर्वत के पास की भूमि तराई, “उपत्यकाद्रेरासन्ना भूमिः” – थमर० । उपदेश – संज्ञा, पु० (सं० ) दाँत या नाखून लगने से लिंगेंद्रिय पर घाव हो जाने वाला रोग, गरमी, श्रातराक, फिरंगरोग, सुजाक, मेदरोग, सर्पदंश, गज़क, चाट । उपद्रव उपदल --- संज्ञा, पु० (सं० ) मुकुल, पत्ता, पान, दल, पुष्पदल । उपदर्शक संज्ञा, पु० (सं० ) द्वारपाल, प्रहरी । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उपदा - संज्ञा, स्त्री० (सं० ) भेंट, उपायन, दर्शन | उपदिशा - संज्ञा, स्त्री० (सं० ) दो दिशाओं के बीच की दिशा, कोण, विदिशा, चार कोनों की चार दिशायें, ईशान, आग्नेय, नैऋत्य, वायव्य । उपदिष्ट - वि० (सं० उप + दिश + क्त ) जिसे उपदेश दिया गया हो, जिसके विषय में उपदेश दिया गया हो, ज्ञापित, कृतोपदेश | स्त्री० उपदिष्टा । उपदेवता – संज्ञा, पु० (सं० ) भूत प्रेतादि, छोटे देवता । उपदेश – संज्ञा, पु० (सं० उप + दिश् + अल् ) हितकारी बात, शिक्षा, नसीहत, सीख (दे०) दीक्षा, हित-कथन, गुरुमंत्र, सिखावन (दे० ) उपदेस (दे० ) " जो मूरख उपदेस के, होते जोग जहान वृ० । वि० उपदेशकारी - उपदेशकर्ता, उपदेशप्रद, उपदेष्टा । 33 उपदेशक - संज्ञा, पु० (सं० ) उपदेश करने वाला, शिक्षा देने वाला । उपदेश्य - वि० (सं० उप + दिश् +य् ) उपदेष्टव्य, उपदेश के योग्य, उपदेशाधिकारी, सिखाने योग्य ( बात ) । उपदेष्य - संज्ञा, पु० (सं० उपदेष्ट उप + दिश् + तृण) उपदेशकर्ता, श्राचार्य, शिक्षक, शिक्षा - गुरु, उपदेश देने या करने वाला । स्त्री० उपदेष्ट्री | उपदेसना - स० क्रि० दे० (सं० उपदेश + ना -- प्रत्य० ) उपदेश करना या देना, सिखाना ।" उपदेसिबो, जगाइबो, तुलसी उचित न होय " 1 उपद्रव -- संज्ञा, पु० (सं०) उत्पात, हलचल, उपाधि, अधम, (दे० ) गड़बड़, विप्लव, For Private and Personal Use Only Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उपद्रवी उपनीत दंगा-फसाद, झगड़ा बखेड़ा, किसी प्रधान, कर उसके धर्म को उपसंहार के रूप से रोग के बीच में होने वाले अन्य प्रकार के साध्यपर घटित करना (तर्क०) व्याप्ति विकार, विद्रोह, अत्याचार, अन्धेर । विशिष्ट हेतु में पक्षगत धर्मों का प्रतिपादक उपद्रवी-वि० (सं० उपद्रविन् ) उपद्रव या वाक्य । ऊधम मचाने वाला, नटखट, उत्पाती। उपनयन-संज्ञा, पु० (सं० उप + नी+ अनट्) उपद्वीप-संज्ञा, पु. (सं० ) छोटा द्वीप, द्विजों ( ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य ) या त्रिवर्ग जलमध्यवर्ती स्थान । का यज्ञ-सूत्र के धारण करने का संस्कार, उपधरना*-अ. क्रि० दे० (सं० उपधरण) । उपवीत संस्कार, यज्ञोपवीत, जनेऊ, वरुणा अंगीकार करना, अपनाना, सहारा देना । उपधर्म-संज्ञा, पु० (सं० ) पाखंड, पाव, उपनागरिका-संज्ञा, स्त्री० (सं० ) शब्दानास्तिकता। लंकार गत, वृत्त्यनुप्रास का एक भेद जिसमें उपधा--संज्ञा, स्त्री. (सं० ) छल, कपट, श्रुतिमधुर वर्गों की आवृत्ति की जाती है, किसी शब्द के अंतिमाक्षर के पूर्व का अक्षर मंजुल एवं मृदुमधुर वर्गों की संगठन-रीति, ( व्या० ) उपाधि । " अलोऽन्त्यात्पूर्व एक प्रकार की रचना-रीति । उपधा"---अष्टा० । उपनाना-स० कि. (दे०) पैदा करना, उपधातु-संज्ञा, स्त्री० (सं० ) अप्रधानधातु, उत्पन्न करना। लोहे-ताँबे श्रादि धातुओं के योग से बनी उपनाम-संज्ञा, पु० (सं० ) दूसरा नाम, हुई या खान से निकली हुई, जैसे काँसा, प्रचलित नाम, पदवी, उपाधि, तखल्लुस, सोनामक्खी, तूतिया, शरीर के अन्दर पद्धति । रस से बना पसीना, चर्बी आदि। उपनायक - संज्ञा, पु. (सं०) नाटकों में उपधान-संज्ञा, पु. ( सं० उप+धा+ प्रधान नायक का मित्र या सहकारी। अनट ) ऊपर रखना या ठहराना, सहारे की उपनिधि-संज्ञा, स्त्री. ( सं० ) धरोहर, चीज़, तकिया, गेडुअा, विशेषता, उसीसा, __ थाती, न्यस्त वस्तु, स्थापित द्रव्य, अमानत । सिरहना, अाधार । उपनिविष्ट-वि० (सं० ) दूसरे स्थान से उपधायक-वि० (सं० उप + धा+गाक) पाकर बसा हुआ। जन्मदाता, स्थापनकर्ता। उपनिवेश-संज्ञा, पु० (सं०) एक स्थान उपाधि-संज्ञा, स्त्री० (दे० ) कपट, छल, से दूसरे स्थान पर जा बसना, अन्य स्थान से शरारत, उत्पात, उपद्रव... .." अोली आये हुए लोगों की बस्ती, कालोनी (०)। संगति कूर की, आठौ पहर उपाधि "- उपनिषद--संज्ञा, स्त्री. ( सं० उप + नि+ कबी० । संज्ञा, स्त्रो० (सं० उप +धा + कि) षद् । विप) पाप बैठना, ब्रह्म विद्या की प्राप्ति उपनाम, नाम के पीछे जोड़े जाने वाले के लिये गुरु के समीप बैठना, वेद की शब्द, योग्यता एवं सम्मान-सूचक शब्द। शाखाओं के ब्राह्मणों के वे अंतिम भाग उपनना*--अ० कि० (सं० ) उत्पन्न होना, जिनमें श्रात्मा, परमात्मा श्रादि का निरूपण पैदा होना, आगि जो उपनी अोहि किया गया है, निर्जन स्थान, ब्रह्मविद्या, समुन्दा "- प० । वेद-रहस्य, तत्वज्ञान, वेदान्त-विषय । उपनय-संज्ञा, पु० (सं० उप + नी+ अल) उपनिषध-संज्ञा, स्त्री० (सं०) उपनिषद । समीप ले जाना, बालक को गुरु के पास ले | उपनीत—वि० पु. (सं०) लाया हुआ, जाना, उपनयन-संस्कार, एक उदाहरण दे जिसका उपनयन संस्कार हो गया हो, For Private and Personal Use Only Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org उपनेता कृतोपनयन, निकटप्राप्त, उपस्थित, समीपागत, उपवीती । उपनेता - संज्ञा, पु० (सं० उप + नी + तृण् ) नयनकारी, उपस्थापक, लाने वाला, गुरु, श्राचार्य, पहुँचाने वाला, उपनयन कराने वाला । स्त्री० उपनेत्री । उपनेत्र - संज्ञा, पु० (सं०) नेत्रों का सहायक, ३३५ चश्मा । उपन्ना – संज्ञा, पु० ( दे० ) उपरना थोड़ने का दुपट्टा । उपन्यस्त - वि० (सं०) निक्षिप्त, न्यासीकृत, धरोहर रखा हुआ । उपन्यास संज्ञा, पु० (सं० उप + नी + अस् + घञ् ) वाक्य का उपक्रम, बंधान, कल्पित आख्यायिका, कथा, प्रस्तावना, उपकथा, कहानी, गद्यकाव्य का एक भेद । वि० उपन्यासी (दे० ) । उपपति संज्ञा, पु० (सं०) वह पुरुष जिससे किसी दूसरे व्यक्ति की स्त्री प्रेम करे, जार, यार, श्राशना । " जो पर-नारी को रक्षिक, उपपति ताहि बखान "" - रस० । उपपत्ति संज्ञा, स्त्री० (सं० उप + पद् + कि ) संगति, समाधान हेतु के द्वारा किसी वस्तु की स्थिति का निश्चय, चरितार्थ होना, मेल मिलाना, युक्ति, हेतु, सिद्धि, प्राप्ति । उपपत्तिसम संज्ञा, पु० (सं०) बिना बादी के कारण और निगमन यादि का खंडन | किए हुए प्रतिवादी का अन्य कारण उपस्थित करके विरुद्ध विषय का प्रतिपादन । उपपत्नी-संज्ञा, स्त्री० (सं०) वेश्या, रखनी, परस्त्री । उपपन्न - वि० (सं० ) पास या शरण में आया हुआ, प्राप्त, मिला हुआ, युक्त, संपन्न उपयुक्त, प्राप्तयुक्त, लब्ध, मुनासिब । उपपातकसंज्ञा, पु० (सं० ) छोटा पाप, जैसे - परस्त्रीगमन, गुरु- सेवा त्याग, विक्रय, गोवध यादि ( स्मृति ) । श्रात्म Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उपमा उपपादन-संज्ञा, पु० (सं० उप + पद् + णिच् + अनट् ) साधन, सिद्ध करना, साबित करना, ठहरना, कार्य को पूरा करना, संपादन, युक्ति देकर समाधान करना । वि० उपपादनीय - साध्य, संपादनीय । उपपादित- वि० (सं० ) सिद्ध किया हुआ, संपादित | उपपाद्य - - वि० (सं०) उपपादनीय, साध्य | उपपुराण - संज्ञा, पु० (सं० ) छोटे और गौण पुराण, ये भी १८ हैं, सनत्कुमार, नारसिंह, नारदीय, शिव, दुर्वासा, कपिल, मानव, औशनस, वारुण, कालिका, शांव, नन्दा, सौर, पराशर, श्रादित्य, माहेश्वर, भार्गव, वाशिष्ठ । 66 उपवरहन - संज्ञा, पु० दे० (सं० उपबर्हण ) तकिया, उपवई । उप बरहन बर बरनि न जाई ” – रामा० । उपभुक्त - वि० (सं० उप + भुज् + क्त ) काम में लाया हुआ, जूठा, उच्छिष्ट, भक्षित, अधिकृत | उपभोक्ता - वि० (सं० उप + भुज् + तृण् ) उपभोग करने वाला, स्वत्वाधिकारी । स्त्री० उपभोक्त्री । उपभोग संज्ञा, पु० (सं० उप + भुज् + घञ् ) किसी वस्तु के व्यवहार का सुख, मज़ा लेना, काम में लाना, बर्तना, सुख को सामग्री, निर्वेश, श्रास्वादन, विलास । उपमंत्री संज्ञा, पु० (सं० ) प्रधान मंत्री के नीचे कार्य करने वाला मंत्री । उपमा - संज्ञा, स्त्री० (सं० ) किसी वस्तु, व्यापार या गुण को किसी दूसरी वस्तु, व्यापार या गुण के समान प्रकट करने की क्रिया, तुलना, मिलान, बराबरी, समानता, जोड़, मुशाबहत, सादृश्य, एक प्रकार का अर्थालंकार जिसमें दो वस्तुओं के बीच भेद रहते हुए भी उन्हें समान कहा जाता है । "सब उपमा कबि रहे जुठारी " - रामा० । For Private and Personal Use Only Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उपमाता उपराज उपमाता--संज्ञा, पु० (सं० उपमातृ ) उपमा उपर--वि० (सं० ) ऊर्ध्व, ऊँचा। देने वाला । संज्ञा, स्त्री० (सं० उप-माता) उपरक्त-वि० (सं०) विपन्न, पीड़ा-ग्रस्त । दूध पिलाने वाली दाई, धाय, धात्री। संज्ञा, पु० (सं० ) राहु-ग्रस्त चंद्र या सूर्य । उपमान--संज्ञा, पु० (सं०) वह वस्तु जिससे उपरत—वि० (सं० ) विरक्त, उदासीन, किसी दूसरी वस्तु को उपमा दी जाय, मरा हुश्रा, शान्त, विरत, हटा हुआ। जिसके समान या सदृश कोई वस्तु कही। उपरति-संज्ञा, स्त्री० (सं० ) विषय से जाय, प्रतिमूर्ति, चार प्रकार के प्रमाणों में विराग, विरति, त्याग, उदासीनता, उदासी, से एक ( न्या० ) किसी प्रसिद्ध पदार्थ के मृत्यु, मौत, निवृत्ति, परित्याग। साधर्म्य से साध्य का साधन, ३ मात्राओं उपरत्न-संज्ञा, पु. ( सं० ) कम दाम के का एक छंद। रत्न, घटिया रत्न, जैसे सीप, मरकत, मणि । उपमाना-स० क्रि० (दे०) उपमा देना, उपरना---संज्ञा, पु० दे० (हि. ऊपर + समानता दिखाना, “चारु कुंडल सुभग ना–प्रत्य० ) दुपट्टा, चद्दर, उत्तरीय । अ० स्रौननि को सकै उपमाइ"-सू० । क्रि० (दे० ) ( सं० उत्पटन ) उखड़ना। उपमिति-वि० (सं० ) तुल्यकृत, उपमा उपरफट-उपरफट्ट ----वि० दे० ( सं० दिया हुआ, सम्भावित, जि पकी उपमा दी उपरि + स्पुट ) ऊपरी, बालाई, नियमित के गई हो, उत्प्रेक्षिप्त । अतिरिक्त, बे ठिकाने का, बाहिरी, व्यर्थ का । उपमिति---संज्ञा, स्त्री० (सं० ) उपमा या । " मेरी बांह छोड़ि दे राधा करति उपरफट सादृश्य से होने वाला ज्ञान, सादृश्य ज्ञान । बातें"—सूबे० । उपमेय-वि० (सं० ) जिसकी उपमा दी उपरवार—संज्ञा, पु. ( दे० ) नदी के जाय, वर्ण्य, वर्णनीय, उपमा के योग्य । किनारे के ऊपर की भूमि, बाँगर ज़मीन । उपमेयोपमा—संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं० ) वह उपरस-संज्ञा, पु. ( सं० ) पारे के समान अर्थालंकार जिसमें उपमेय की उपमा उपमान गुण करने वाले पदार्थ, जैसे गंधक (वैद्यक)। से और उपमान की उपमेय से दी जाती है। उपरहित-संज्ञा, पु० दे०) पुरोहित उपयना*—अ० कि० दे० (सं० उत्प्रयाण) (सं० ) " प्रभु उपरहित-कर्म अति मंदा" चला जाना, न रह जाना, उड़ जाना। --रामा० । संज्ञा, स्त्री० (दे०) उपरउपयम–संज्ञा, पु० (सं० ) विवाह, संयम ।। हिती--पुरोहिती, पुरोहित का कर्म । उपयुक्त-वि० (सं० ) योग्य, उचित, उपरांत-क्रि० वि० (सं० ) अनंतर, बाद वाजिब, मुनासिब । की, पश्चात्, पीछे, परे। उपयुक्तता—संज्ञा, स्त्री० (सं० ) यथार्थता, उपराग-संज्ञा, पु० (सं० ) रंग, किसी ठीक होने या उतरने का भाव, औचित्य । वस्तु पर उसके पास की वस्तु का आभास, उपयोग-संज्ञा, पु० (सं० ) काम, व्यवहार, विषय में अनुरक्ति, वासना, चंद्र या सूर्यप्रयोग, इस्तेमाल, योग्यता, फ़ायदा, लाभ, ग्रहण, परिवाद, यंत्रणा, निदा, राहु-ग्रहण । प्रयोजन, आवश्यकता। " बिनु घर वह उपराग गह्यौ"--भ्र० । उपयोगिता----संज्ञा, स्त्री० (सं० ) काम में उपराचढ़ी-संज्ञा, स्त्री० (दे० ऊपर+ आने की योग्यता या क्षमता, लाभकारिता। चढ़ना ) चढ़ा ऊपरी, प्रतिद्वंडिता, स्पर्धा । उपयोगी–वि० (सं० उपयागिन् ) काम में उपराज---संज्ञा, पु० ( सं० ) राज-प्रतिपाने वाला, प्रयोजनीय, लाभकारी, अनु- निधि, वाइसराय, गवर्नर जनरल । संज्ञा, कूल, फायदे मंद, मुत्राफिक, मसरफ़ का। । स्त्री० ( दे०) उपज, पैदावार । For Private and Personal Use Only Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उपराजजा ३३७ उपलक्ष उपराजना-स० क्रि० दे० (सं० उपार्जन ) उपरी-उपरा-संज्ञा, पु० (दे० ) प्रति पैदा करना, रचना, उत्पन्न करना, कमाना, द्वंद्विता, चढ़ा-ऊपरी, स्पर्धा । कि० वि० बनाना, उपार्जन करना । " करि मनुहार (दे० ) ऊपर ही से। सुधा धार उपराजै हम"-रखाकर। उपरुद्ध-वि० (सं० ) रक्षित, प्रतिरुद्ध । उपराजा----संज्ञा, पु. ( सं० ) युवराज, । उपरूपक-संज्ञा, पु. (सं० ) छोटा नाटक, छोटा राजा । वि० (उपराजनाहि.)। जिसके १८ भेद हैं। उपजाया, उगाया, उत्पन्न किया हुआ, उपरैना*---संज्ञा, पु० (दे०) उपरना, विरचा, बनाया हुआ। दुपा । " कंचन बरन पीत उपरैना सोभित उपराना-स० कि० दे० (सं० उपरि ) साँवर अंग री"-सूर० । ऊपर करना, उठाना, ऊपर लाना, ऊंचा उपरैनी*---संज्ञा, स्त्री० दे० ( हि० उपरना) करना। अ० क्रि० (दे० ) ऊपर आना, ओढ़नी। उपरोक्त--वि० (हि. ऊपर ---उक्त-सं०) प्रकट होना, उतराना। उपराम–संज्ञा, पु. (सं०) निवृत्ति, विरति, ऊपर कहा हुआ, पूर्व कथित, उल्लिखित, पहिले कहा हुआ (शुद्ध रूप - उपयुक्तविराम, श्राराम । सं० उपरि + उक्त)। उपराला-संज्ञा, पु० दे० (हि. ऊपर+ उपरोध---संज्ञा, पु. (सं०) अटकाव, ला- प्रत्य० ) पत-ग्रहण, सहायता, रता, __ रुकावट, पाच्छादन, ढकना, पाड़। बचाव " उपराला करि सक्यो न कोऊ - । उपरोधक-वि० (सं० ) रोकने या बाधा छत्र। . डालने वाला, भीतर की कोठरी । वि. उपरावटा*-वि० दे० ( सं० उपरि + । उपरोधित-पाच्छादित । मावर्त ) गर्व से सिर ऊँचा करने वाला, | उपरोहित-संज्ञा, पु० (सं० ) कुल-गुरु, अकड़ा हुअा, एठा हुआ, जिसका सिर ऊपर । पुरोधा, पुरोहित । संज्ञा, स्त्री. उपतना हो। रोहिती-पुरोहित कर्म, उपरहिती (दे०) । उपराहना-अ० कि० ( ? ) प्रशंसा उपरौटा-संज्ञा, पु० दे० (हि. ऊपर + पट) करना, सराहना। ऊपर का पल्ला ( किसी वस्तु के )। उपराहो-क्रि० वि० (दे०) ऊपर, “ बरनौं उपरौना-संज्ञा, पु० ( दे० ) उपरना, माँग सीप उपराही"-प० । वि० श्रेष्ठ, (हि.) दुपक्ष। बढ़कर, उत्तम, “ धावहिं बोहित मन उप उपना-संज्ञा, पु० ( दे०) उपरना, (हि.) राही"-प०। चद्दर, चादर। उपरि–क्रि० वि० (सं० ) ऊपर, ऊर्ध्व । उपयुक्त-वि० (सं० उपरि + उक्त ) उपयौ० उपरिदृष्टि----संज्ञा, स्त्री. (सं०) रोक्त, ऊपर कहा हुआ। तुच्छ देवता की दृष्टि, वायु का प्रकोप । उपय्यु परि---अव्य. (सं०) यौ० ऊपर• उपरिष्ठात-क्रि०वि० (सं० ) ऊपर, ऊर्ध्व । ऊपर, ऊपर के ऊपर । उपरिस्थ-वि० (सं०) ऊपर स्थित, उपर्ला-संज्ञा, पु० (दे०) उपल्ला (हि.)। ऊपर का। उपल--संज्ञा, पु० (सं० ) पत्थर, श्रोला, उपरी-वि० (दे० ) ऊपर का, ऊपरी, जोते रन, मेघ, चीनी. बालू, "... उपलदेह खेत के ऊपर की मिटी, भूमि से उखाड़ी धरि धरी '-रामा० । हुई, मिट्टी । संज्ञा, स्त्री० (दे०) उपली, उपलक्ष-संज्ञा, पु० (सं० ) संकेत, चिन्ह, कंडी, छाता। दृष्टि, उद्देश्य । भा० श. को०-३ For Private and Personal Use Only Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उपलक्षक ३३८ उपवेद उपलक्षक–वि० (सं.) अनुमान करने की चादर, जाज़िम, चाँदनी। ( विलोमवाला, ताड़ने वाला। संज्ञा, पु० (सं०) भितल्ला ) । " साँस लेत उडिगो उपल्ला उपादान लक्षणा से अपने वाच्यार्थ के द्वारा श्री भितल्ला सबै '-बेनी० । निर्दिष्ट होने वाली वस्तु के अतिरिक्त प्रायः उपवन-संज्ञा, पु. ( सं० ) बाग़, बगीचा, उसी कोटि की अन्यान्य वस्तुओं का भी । फुलवारी, उद्यान, पाराम, छोटा जंगल, बोध कराने वाला शब्द ।। कृत्रिम वन। उपलक्षण-संज्ञा, पु० (सं० ) बोध कराने | उपवना*-अ० क्रि० दे० (सं० उत्प्रयाण ) वाला चिन्ह संकेत, शब्द की वह शक्ति ग़ायब होना, उदय होना, उड़ जाना । जिससे उसके अर्थ से निर्दिष्ट वस्तु के अति- "मोद भरी गोद लिये लालति सुमित्रा रिक्त प्रायः उसी प्रकार की अन्यान्य वस्तुओं देखि देव कहैं सब को सुकृति उपवियो है"। का भी बोध होता है, अन्यार्थ बोधक, उपवर्ह-संज्ञा, पु० (सं.) तकिया, उपधान । दृष्टान्त । उपवहण--संज्ञा, पु. ( सं० ) तकिया, उपलक्षित-वि० (सं०) सूचक चिन्ह युक्त, उपधान, उपवहन (दे०)। . सूचित । उपवसथ—संज्ञा, पु० (सं० ) गाँव, बस्ती, उपलक्ष्य–वि० (सं० पु० (सं० ) संकेत, यज्ञ करने के पहिले का दिन जिसमें व्रत चिन्ह, दृष्टि, उद्देश्य । यौ०---उपलक्ष्य में- प्रादि के करने का विधान है। दृष्टि से, विचार से । उपवास--संज्ञा, पु० (सं० उप - वस +घञ्) उपलब्ध-वि० (सं०) पाया हुआ, प्राप्त, भोजन का छोड़ना, फ़ाका, लंघन, अनाहार, जाना हुआ। अनशन, निराहार (बिना भोजन का) उपलब्धार्थी-संज्ञा, स्त्री० (सं० ) पाख्या- व्रत । उपास (दे०)। यिका, उपकथा। उपवासी-वि० सं० उपवासिन, उप-- उपलब्धि-संज्ञा, स्त्री० ( सं० उप-+-लम् । वस्- गिन् ) उपवासयुक्त, उपवास करने क्ति ) प्राप्ति, ज्ञान, बुद्धि, मति, अनुभव । वाला, व्रती, उपोषी, उपासी, ( स्त्री०) उपला-संज्ञा, पु० दे० (सं० उत्पल ) इंधन उपासा (पु.)। के लिये गोबर का सुखाया हुआ टुकड़ा, उपविद्य-संज्ञा, पु. (सं० उप-विद् -- कंडा, गोहरा । (दे०) स्त्री० उपली-उपरी क्यप् ) नाटक-चेटक श्रादि, शिल्पकारादि, (दे०)। शिल्पी । उपलेप-संज्ञा, पु० (सं० ) लेप लगाना, उपविद्या--संज्ञा, स्त्री० (सं० ) शिल्पादि लीपना, वह पदार्थ जिससे ( जिसका ) | विज्ञान, कला, कौशल । लेप करें। उपविष-संज्ञा, पु० (सं० ) हलका विष, उपलेपन-संज्ञा, पु० (सं० ) लीपने या कम तेज़ ज़हर, जैसे अफीम, धतूरा, कुचला। लेप लगाने का कार्य । वि० उपलेपित-- उपविष्ट-वि० (सं० उप --- विश-क्त ) लेप लगाया हुश्रा । वि० उपलिप्त---लीपा श्रासीन, बैठा हुश्रा, आसनस्थ, कृतोपवेशन । या लेप लगा हुया । वि. उपलेप्य-लेप- उपवीत-संज्ञा, पु. (सं०) यज्ञ-सूत्र, जनेऊ, नीय, लेप के योग्य। उपनयन । उपल्ला -संज्ञा, पु० (हि. ऊपर -+ला- उपवेद-संज्ञा, पु० (सं० ) वेदों से निकली प्रत्य० ) किसी वस्तु का ऊपर वाला भाग, | हुई विद्याओं के शास्त्र, प्रत्येक वेद के उपवेद पर्त या तह । स्रो० उपल्ली-ऊपर बिछाने , हैं, आयुर्वेद (ऋग्वेद) धनुर्वेद ( यजुर्वेद) For Private and Personal Use Only Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उपवेशन ३३६ उपस्थ गान्धर्ववेद ( सामवेद ) स्थापत्यवेद | पुस्तक का अंतिमाध्याय या भाग जिसमें (अथर्वणवेद ) इनके प्राचार्य एवं प्रचारक उनके उद्देश्य या परिणाम का संक्षेप में क्रमशः ब्रह्मा, (इन्द्र, धन्वन्तरि) भरतमुनि, कथन किया गया हो, सारांश । विश्वामित्र, और विश्वकर्मा हैं। उपस—संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० उप+वास = उपवेशन—संज्ञा, पु. ( सं० ) बैठना, महक ) दुर्गध, बदबू ।। स्थित होना, जमना, आसीन होना । वि० उपसत्ति----संज्ञा, स्त्री० (सं० उप-+ सद् + क्ति) उपवेशनीय। उपासना, सेवा, सविनय गुरु समीप गमन । उपवेशित--वि० (सं०) बैठा हुश्रा, अासीन। उपसना-अ. क्रि० दे० ( सं० उप+ उपवेशी-वि० (सं०) बैठने या स्थित वास= महक ) दुगंधित होना, सड़ना, होने वाला। बदबू करना। उपवेश्य-वि० (सं० ) बैठाने के योग्य, उपसर्ग-संज्ञा, पु० (सं० उप+सृज्-+-धञ्) श्रासीनोचित । वह शब्द या अव्यय जो किसी शब्द के पूर्व उपशम-संज्ञा, पु० (सं० ) वासनाओं को लगाया जाता है और उसमें किसी अर्थ की दबाना, इन्द्रिय-निग्रह, निवृत्ति, शांति, । विशेषता पैदा करता है जैसे, अनु, अव, निवारण का उपाय, इलाज, ब्रह्मा, प्रतीकार। उप, उत्, निर्, प्र, सम् श्रादि। रोग-भेद, उपशमन --- संज्ञा, पु० (सं० ) शांत रखना, उत्पात, उपद्रव, अशकुन, दैवी आपत्ति । शमन, दमन, दबाना, उपाय से दूर करना, उपसर्जन—संज्ञा, पु० (सं० उप+-सृज् + निवारण । वि० उपशमनीय-निवारणीय, __ अनट् ) ढालना, उपद्रव, गौणवस्तु, त्याग । शमनीय । वि० उपशाम्य-उपशमन वि० उपसर्जजीय।। करने योग्य । वि० उपगमित-निवारित, उपसर्जित--वि० (सं० ) त्यागा हुश्रा, शांत, शमन किया। __ ढाला हुआ। उपशय-संज्ञा, पु० (सं० उप-+शी+अल् ) | उपसर्पण----संज्ञा, पु० (सं० उप-+सृप । निदान-पंचक के अन्तर्गत रोगज्ञापक अनट ) उपासना अवगमन, अनुवृत्ति । वि. अनुमान । उपसर्पणीय । वि० उपसर्पित-कृतानुउपशल्य-संज्ञा, पु० (सं० उप-1 शाल् +य) वृत्ति. उपासित। . ग्रामान्त, ग्राम की सीमा, भाला। । उपसागर-संज्ञा, पु० (सं० ) छोटा समुद्र, उपशिष्य-संज्ञा, पु. ( सं० ) शिष्य का समुद्र का एक भाग, खाड़ी। शिष्य । स्त्री. उपशिष्या। | उपसाना-स० क्रि० दे० (हि० उपसना) उपश्रुत--वि० (सं० उप --- श्रु+क्त ) प्रति· | बासी करना, सड़ाना । श्रुति, अंगीकृत, स्वीकृत, वागदत्त, प्रतिज्ञात। | उपसुन्द---संज्ञा, पु० (सं० ) सुन्द नामक उपसंपादक-संज्ञा, पु० (सं० ) किसी दैत्य का छोटा भाई । कार्य में मुख्य कर्ता का सहायक या उसकी उपसेचन--संज्ञा, पु. ( सं० ) पानी से अनुपस्थिति में उसका काम करने वाला सींचना, या भिगोना, पानी छिड़कना, गीली व्यक्ति, सहायक, सहकारी, सम्पादक । चीज़, रसा, शोरबा। वि० उपसेचनीय, उपसंहार--संज्ञा, पु. ( सं० उप+सं+ उपसेचित । ह+घञ् ) हरण, परिहार, समाप्ति, वातमा, उपस्त्री-संज्ञा, स्त्री० (सं०) उपपत्नी, रखेली। निराकरण, शेष, नाश, निष्कर्ष, मीमांसा, उपस्थ-संज्ञा, पु० (सं० उप- स्था-ड्) अाक्रम, संग्रह, संक्षेप, व्यतीत, किसी नीचे या मध्य का भाग, पेड़, पुरुष-चिन्ह, For Private and Personal Use Only Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उपस्यल ३४० उपांत लिंग । स्त्री-चिन्ह, भग, गोद । वि. निकट उपहसित--वि० (सं० उप--- हस्+क्त) बैठा हुआ । यौ० उपस्थ- निग्रह-जितें- कृतोपहास, उपहास-प्राप्त विद्रप । संज्ञा, पु. द्रियरव, काम-दमन । ( उपहास ) हास के छः भेदों में से चौथा. उपस्थल—(उपस्थली-स्त्री०) संज्ञा, पु० (सं०) नाक फुलाकर आँखे टेढ़ी कर गर्दन हिलाते चूतड़, कूल्ह', पेडू। हुए हँसना। उपस्थाता---संज्ञा, पु. (सं० उप-स्था+ उपहार--संज्ञा, पु० (सं० उप-+ ह+घञ् ) तृण) भृत्य, सेवक, नौकर, दास । भेंट, नज़र, नज़राना, सौगात, उपढौकन, उपस्थान—संज्ञा, पु० (सं० उप+स्था -+- शैवों की उपासना के छः नियम, हसित. अनट् ) निकट श्राना, सामने आना, अभ्यर्थना गीत, नृत्य, डुडुक्कार, नमस्कार और जप । या पूजा के लिये समीप आना, खड़े उपहास-संज्ञा, पु० (सं० उप-- हस +धन् ) होकर स्तुति करना, पूजा का स्थान, परिहास, हँसी, दिल्लगी, निंदा, बुराई, ठट्ठा, सभा, समाज। निंदार्थ वाक्य । " खल-उपहास होय हित उपस्थापन-संश, पु. ( सं० उप- मोरा"-रामा० । यौ० उपहासास्पद-. स्था- णिच् । अनट ) उपस्थित करण, वि० (सं०) उपहास के योग्य, निंदनीय, निकट श्रानयन । वि० उपस्थापनीय, खराब, बुरा, हँसी उड़ाने योग्य । उपस्थापित। उपहासी-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० उपहास ) उपस्थित-वि० (सं० उप + स्था+क्त ) | हँसी, ठट्ठा, निंदा, " सो मम उर बासी समीप स्थित, निकट बैठा हुआ, पागत, | यह उपहासी, सुनत धीर मति थिर न थानीत, उपनीत उपसन्न, सामने था पास रहै"-रामा०। पाया हुआ, विद्यमान, हाज़िर, मौजूद, उपहास्य-वि० (सं० उप+ हस+ध्यन् ) वर्तमान, याद, ध्यान में श्राया हुआ। । उपहास के योग्य, निंदनीय, हँसने के योग्य । यौ० उपस्थितवक्ता--संज्ञा. पु. (सं०) उपहास्यता-संज्ञा, स्त्री. (सं० ) गर्हण, सद्वक्ता, वचन-पटु । उपस्थितकवि---वि० कुत्सा, निंदा, उपहास के योग्य होने का भाव । (सं.) आशुकवि । उपस्थितोत्तर--- उपहित--वि० (सं० उप+धा+क) स्थापित। वि० (सं०) हाजिर जवाब। उपही ---संज्ञा, पु० दे० (हि. ऊपर + हा उपस्थिता—संज्ञा, स्त्री. (सं० ) एक प्रकार +प्रत्य० ) अपरिचित व्यक्ति, बाहिरी या की वर्ण-वृत्ति । विदेशीय, अनजान, परदेसी (दे० ) " ये उपस्थिति—संज्ञा, स्त्री० (सं० उप + स्था--- उपही कोउ कुंवर अहेरी"-गी। क्ति) विद्यमानता, मौजूदगी, हाज़िरी, प्राप्ति। उएहत-वि० (सं० उप-- ह + क्त) श्रानीत, उपस्वत्व--संज्ञा, पु० (सं.) ज़मीन या किसी जायदाद की आमदनी का अधिकार | उपाइ ( उपाउ )--संज्ञा, पु० (दे०) उपाय या हत। (सं० ) तदवीर, साधन, युक्ति । " सूझ न उपहत-वि० (सं० उप-+ हन्+क्त ) नष्ट एकौ अंक उपाऊ"-रामा। या बरबाद किया हुआ, बिगड़ा हुआ, उपांग---संज्ञा, पु. (सं०) अंग का भाग, दूषित, संकटापन्न श्राघात-प्राप्त, क्षत, . अवयव, अप्रधान भाग, किसी वस्तु के अंगों अशुद्ध, उत्पात-ग्रस्त । संज्ञा, पु० (दे०) की पूर्ति करने वाली वस्तु, क्षुद्र भाग, उपद्रव, उपाधि, ऊधम । वि० उपहती तिलक, टीका। (दे०) उत्पाती। | उपांत-संज्ञा, पु० (सं० ) अंत के समीप For Private and Personal Use Only Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org उपांत्य ३४१ उपाय IT भाग, आस-पास का हिस्सा, प्रांत, भाग, ! उपादेयता संज्ञा, स्त्री० (सं० ) उत्तमता, उत्कर्षता । छोटा किनारा । वि० निकट, अंतिक । उपांत्य - वि० (सं० ) अंत वाले के समीप वाला, अंतिम से पूर्व का । उपाई-स० क्रि० दे० (सं० उत्पन्न ) उत्पन्न की, रची, उपजाई, बनाई " जेहि सृष्टि उपाई " - रामा० । संज्ञा स्त्री० (दे० ) उपाइ ( उपाय - सं० ) । उपाऊ – संज्ञा, पु० दे० (सं० उपाय ) यत्र, उपाय, इलाज | उपाकर्मसंज्ञा, पु० (सं० ) धारम्भ, वर्षा कालोपरान्त वेदारम्भ का समय, एक संस्कार | उपाख्यान - संज्ञा, पु० (सं० उप + आ + ख्या + श्रनट् ) प्राचीन कथा, पुराना वृत्तान्त, किसी कथा के अंतर्गत कोई अन्य कथा, आख्यान, वृत्तान्त । उपखान ( दे० ) कहानी, लोकोक्ति । यह उपखान लोक सब गावै "-: " - स्फुट० 1 उपाटना -- स० क्रि० दे० (सं० उत्पादन ) उखाड़ना । उपाड़ना-स० क्रि० दे० (सं० उत्पादन ) उखाड़ना । उपात - वि० सं०) गृहीत, प्राप्त । उपातिक-संज्ञा स्त्री० (दे०) उत्पत्ति (सं० ) । उपादानसंज्ञा, पु० (सं० उप + आ + दा + श्रनट् ) प्राप्ति, ग्रहण, स्वीकार, ज्ञान, बोध, परिचय, अपने अपने विषयों की ओर इंद्रियों का जाना, प्रत्याहार, प्रवृत्ति जनक ज्ञान, स्वयंमेत्र कार्य रूप में परिणत होने वाला कारण, किसी वस्तु के तैय्यार होने की सामग्री, चार श्राध्यात्मिक तुष्टियों में से एक जिसमें मनुष्य एक ही बात से पूरे फल की आशा करके प्रयत्न छोड़ देता है ( सांख्य ) । उपादेय वि० (सं० उप + आ + दा + य ) ग्रहण करने के योग्य, लेने लायक, उत्तम, श्रेष्ठ, ग्राह्य, उत्कृष्ट, विधेय कर्म, उपयोगी । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir fi उपाध-संज्ञा, पु० (दे० ) उपद्रव, अन्याय | उपाधि--संज्ञा, स्त्री० (सं० ) और वस्तु को और बतलाने का छल, कपट, वह जिसके संयोग से कोई वस्तु और की और अथवा किसी विशेष रूप में दिखाई दे, उपद्रव, उत्पात, कर्तव्य का विचार, धर्म-चिंता. प्रतिष्ठा या योग्यता सूचक पद, ख़िताब | विघ्न, बाधा, अत्याचार | उपाधी (दे० ) । मोहि कारन मैं सकल उपाधी " रामा० । वि० उपाधी - (दे० ) उपद्रवी, ऊधमी । उपाध्याय संज्ञा, पु० (सं० उप + अधि + इङ् + घञ् ) वेद-वेदांग का पढ़ाने वाला, श्रध्यापक, शिक्षक, गुरु, ब्राह्मणों का एक भेद । उपध्या (दे० ) । उपाध्याया— संज्ञा, स्त्री० (सं०) श्रध्यापिका । उपाध्यायानी-संज्ञा, स्त्री० (सं०) उपाध्याय की स्त्री, गुरु- पत्नी । उपाध्यायी संज्ञा स्त्री० (सं० ) श्रध्यापकभार्या, गुरु- पलो, पढ़ाने वाली, अध्यापिका । उपानत् संज्ञा स्त्री० (सं० ) उपानह ( दे० ) पादुका, जूता । उपानह- संज्ञा, पु० (सं० ) पादुका, जूता, नहीं, पदत्राण | रु पाँय उपानह की नहि सामा - सुदा० । उपाना स० क्रि० दे० (सं० उत्पन्न ) उत्पन्न करना, पैदा करना, सोचना, उपार्जन करना, कमाना, करना, रचना, " हौं मनते विधि पुत्र उपायों . के० । उपाय -संज्ञा, पु० (सं० उप + आ + इ + अल् ) पास पहुँचना निकट थाना, श्रभीष्ट तक पहुँचाने वाला, साधान, युक्ति, तदबीर, शत्रु पर विजय पाने की चार युक्तियाँ - "" "" ". "" साम, दाम, रु दंड, नीति ) श्रंगार के दो साधन, विभेदा - ( राजसाम और दान, उपचार, प्रयत्न । For Private and Personal Use Only Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उपायन ३४२ उपेक्ष्य उपायन-संज्ञा, पु. (सं० उप + यप्+ भक्ति। वि० स० (दे० ) उपासना या अनट ) भेंट, उपहार, सौगात, नज़र, व्रत | पूजा करना, सेवा करना, भजन करना, की प्रतिष्ठा, समीप-गमन । “ब० व० आराधना करना। “संध्याहि उपासत ( उपाय ) उपायों या प्रयत्नों। ....तोरत भूमिदेव" -के० । अ० कि० दे० (सं० फूल उपायन मैं "-- रघु०। उपवास ) उपवास करना, व्रत रहना, निराहार उपाया-क्रि० स० ( दे० ) उपराग (सं०) या अनशन रहना। उपायी-वि० (सं० ) उपाय करने वाला, | उपासनीय-वि० (सं०) सेवा करने योग्य, उपार्जक, खोजी। सेव्य, अाराधनीय, पूजनीय। स्त्री० उपारना8 स० क्रि० दे० (स० उत्पाटना)। उपासनीया। उखाड़ना, " खायेसि फल अरु टिप | उपासित-वि० (सं० उप + आस-+ क्त ) उपारे "-रामा० । श्राराधित, सेवित, पूजित । स्त्री० उपासिता। उपार्जन--संज्ञा, पु० (सं० उप+ अर्ज+ । उपासी-वि० (सं० उपासिन् ) उपासना अनट ) लाभ करना, कमाना, पैदा करना, करने वाला. सेवक, भक्त, पाराधक । “ हम अर्जन, संचय, एकत्र करना । वि० उपार्ज- | व्रजवासी, प्रेम-पद्धति-उपासी ऊधौ "नीय प्राप्त करने योग्य । रत्नाकर । संज्ञा,स्त्री० (दे०) उपासना, पूजा, उपार्जित-वि० (सं० उप-+-अर्ज+क्त) | स्तुति “संध्यासी तिहुँ लोक के किहिनि संचित, कमाया हुआ, प्राप्त किया हुआ, | उपासी श्रानि"-के० । स्त्री. वि. दे. संगृहीत, एकत्रित। ( उपवास ) कृतोपवास, निराहार व्रत करने उपालम्भ--संज्ञा,पु० (सं० उप+या-- लभ वाली । पु० वि० (दे० ) उपासा। +अल्) उलाहना, उराहनी (ब्र.) उपास्य-वि० (सं० उप-+पास+य ) शिकायत, निंदा । वि० उपाल-ध-। उपासना या पूजा के योग्य, आराध्य, सेव्य, उपालभन-संज्ञा पु० (सं०) उलाहना पूजनीय। देना, निंदा करना । वि० उपालंभनीय- उपेन्द्र--संज्ञा० पु. (सं० ) इन्द्र के छोटे उलाहने के योग्य । वि० उपालंभित, भाई, वामन या विष्णु। उपालंभ्य। उपेन्द्रवज्रा-संज्ञा, स्त्री० (सं० ) ग्यारह उपाव--संज्ञा, पु० (दे० ) उपाय (सं०) वर्णो का एक वृत्त " .. .. उपेन्द्रवज्रा उपाउ (दे०)। __ जतजस्तोतो गौ । उपास-संज्ञा, पु० दे० (सं० उपवास ) उपेक्षण-संज्ञा, पु. (सं० ) विरक्त होना, अनशन, लंघन । संज्ञा, पु० दे० (सं० उपा- उदालीन होना, किनारा खींचना घृणा स्य ) इष्टदेव, उपासना के योग्य । करना, तिरस्कार करना। वि० उपेक्षणीय उपासक-वि० (सं० उप-+-पास - क् ) | --उदासीन होने योग्य । पूजा या आराधना करने वाला, भक्त। उपेक्षा--संज्ञा, स्रो० (सं० उप- ईन् । ड्) उपासन-संज्ञा, पु० (सं० उप- प्रास+ अस्वीकार, त्याग, उदासीनता, लापरवाही, अनट ) शुश्रूषा, सेवा, श्राराधना, धनुर्विद्या, विरक्ति, घृणा, तिरस्कार। श्रानुगत्य । उपेक्षित-वि. ( सं० उप+ईक्ष + क्त) उपासना-संज्ञा, स्त्री० (सं० उप- आस-- जिसकी अपेक्षा की गई हो, तिरस्कृत, अन्- पा ) पास बैठने की क्रिया, आराधना, निदित, त्यक्त । स्त्री० उपेक्षिता । पूजा, टहल परिचर्या, सेवा, सुश्रूषा, उपेक्ष्य-वि० (सं.) उपेक्षा के योग्य । For Private and Personal Use Only Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उपेत उबहना उपेत-वि. ( सं० उप-+इ+क्त ) युक्त, संज्ञा, स्त्री० दे० ( सं० उत् +फाल ) लम्बी मिलित, आसन्न, एकत्रित, समागत । डग, “जलजाल काल कराल माल उफाल उपैना-वि० दे० (सं० उ + पहव ) खुला | पार धरा धरी"-के. हुआ, नङ्गा, नग्न । स्त्री० उपैनी। उबकना-~अ० क्रि० दे० (हि. उबाक ) अ० कि० ( ? ) लुप्त हो जाना, उड़जाना। कै करना । उपोद्घात-संज्ञा, पु० (सं० उप + उत्-+- उबकाई - संज्ञा, स्त्री० दे० ( हि० पोकाई ) हन्+घञ् ) ग्रंथ के प्रारम्भ का वक्तव्य, | मिचली, जी मचलना, वमन, के, मचलाई। प्रस्तावना, भूमिका, प्राक्कथन, सामान्य उबट*-- संज्ञा, पु० दे० (सं० उद्वार ) अटकथन से भिन्न विशेष वस्तु के विषय में पट या बुरा रास्ता, विकट मार्ग । वि. कथन, न्याय की छः संगतियों में से एक । | ऊबड़-खाबड़, ऊँचा-नीचा। उपोषण-संज्ञा, पु. ( . उप--वस् + उबटन-संज्ञा, पु० दे० (सं० उद्वतन ) शरीर अनट् ) अनाहार, उपवास, निराहार व्रत। पर मलने के लिये तिल, सरसों, चिरौंजी वि० उपोषणीय । वि० उपोषित-कृतो. आदि का लेप, अभ्यंग, उपटन, बटना। पवास । वि. उपाण्य-व्रत करने योग्य, उबटना - अ० कि० दे० (सं० उद्वर्तन ) उबउपवास के योग्य । टन लगाना, बटना, मलना । " जेहि मुख उपसेथ-संज्ञा, पु० दे० (सं० उपवसथ, प्रा. मृगमद मलय उबटति " - भ्र० । उपसेथ) निराहार व्रत, उपवास, (जैन, बौद्ध)। उबना - अ० कि० (दे० ) उगना, ऊबना उक-अव्य० (अ.) आह, श्रोह, अफ़सोस ।। (दे० )। उफड़ना --अ० कि० दे० (हि. उफनना) उबरण - संज्ञा, पु० (दे० ) उद्वर्तन, बचाव, उबलना, उफानखाना, जोशखाना, टूट भाड़। पड़ना । (दे०) उकरना- टूट पड़ना।। उबरना-अ० कि० दे० (सं० उद्वारण ) उफनना-अ० कि० दे० (सं० उत् +-फेन) उद्धार पाना, निस्तार पाना, मुक्त होना, उबलना, उभड़ना, उफान आना, उबल कर छूटना, शेष रहना, बाकी बचना, बचना, उठना, “ उफनत तक चहुँ दिसि चित " कछु दिन उबरते तो घने काज करतेवति" - सूबे० । जोश खाना दूध आदि) भू० । ..... उबरा सो जनवासहिं आवा" उमड़ना। उफनाना---० क्रि० दे० (सं० उत् + फेन) -रामा० । अ० कि. (दे०) उबलना, उबलना, उमड़ना, उफान श्राना, फेन ऊपर उठना। वि० उबरा-बचा हुया, श्राना, "...... सारी छीर-फेन कैसी भाभा शेष । स्त्री० उबरी। उफनाति है"-रस०। उबलना । अ० क्रि० दे० (सं० उद् = ऊपर-+ फेनयुक्त हो हाँफना, अफनाना (दे० )। बलन = जाना ) आँच या गरमी पाकर " द्रौपदी कहति अफनाय राजपूती सबै" तरल या द्रव पदार्थों का फेन के साथ ऊपर ....' 'रनाकर । उठना, उफनना, उमड़ना, वेग से निकलना, उफान-संज्ञा, पु० दे० (सं० उत् +फेन ) खौलना। गरमी या कर फेन के साथ ऊपर उठना | उबलाना--स. क्रि० दे० (हि. उबलना का (दूध आदि ) उबाल । “ तनक सीत जल | प्र० रूप ) उबलने के लिये प्रेरित करना । सों मिटै, जैसे दूध उफान "-। उबसना-अ० कि० (दे०) सड़ना, गलना । उफाल -संज्ञा, पु० दे० (हि० उफान ) उबहना - स० कि० दे० (सं० उद्वहन, प्रा. उबाल, उफान । उब्बहन ) ऊपर उठाना, हथियार खींचना, For Private and Personal Use Only Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उबहन उभयतोमुखी म्यान से निकालना, शस्त्र उठाना, पानी -सं० ) जी भर जाने पर अच्छा न लगना, फेंकना, उलीचना, ऊपर की ओर उठाना, उबीठना (दे०) भ० कि० ( दे.) उभरना। स० क्रि० दे० (सं० उद्वहन) जोतना ऊबना, घबराना, . . . . दिन राति नहीं " दादू ऊपर उबहिकै" । वि० दे० (सं० रतिरंग उबीठे" ---देव । उपाहन ) बिना जूते का, नगा। उबोधना—अ० कि० दे० (सं० उद्विद्ध ) उबहन-संज्ञा, पु० दे० ( सं० उद्वहन ) कुएँ फँसना, उलझना, धंसना, गड़ना, विद्ध हो से पानी खींचने की रस्सी । स्त्री० उबहनी।। जाना। उबांत --संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० उद्वांत ) उबीधा--वि० दे० (सं० उद्विद्ध ) धंसा उलटी, वमन, कै। हुआ, गड़ा हुआ, काँटों से भरा हुश्रा, उबाना-प्र० कि० (दे०) बोना, रोपना, झाड-झंखाड़ वाला। लगाना, तंग करना, ऊबना, किसी के लिये उबेना--वि० दे० ( हि उ = नहीं + उपानाह पाकुल होना। वि० नंगे पैर, बिना जूतों के, -सं०) नंगे पैर, बिना जूते के, " तबलौं उपानह । संज्ञा, पु० दे० कपड़ा बनने में उबेने पाँय फिरत पेटै खलाय"- कवि । राछ के बाहर रह जाने वाला सूत, बह ।। उबेरना-स. कि. (दे०) उबारना, " भोर ही भुखात है हैं, घर को उबात उद्धार करना, बचाना। उबहना-स० क्रि० दे० (सं० उद्वेधन ) उबार---संज्ञा, पु० दे० (सं० उद्वारण) जड़ना, बैठाना, पिरोना। विस्तार, छुटकारा, उद्धार, श्रोहार, रक्षा, उभ---संज्ञा, पु० (सं०) ऊर्ध्व, ऊपर, द्वि, दो। पर्दा । " नहिं निसिचर-कुल केर उबारा" उभइ--वि० दे० (सं० उभय ) दोनों, उभै -रामा०। । (दे०)। उबारना–स० कि० दे० (सं० उद्वारण) उभक--संज्ञा, पु० दे० (प्रान्ती०) रीछ, भालू । उद्धार करना, छुड़ाना, मुक्त करना, बचाना, । उभड़ना---अ० कि. (दे० ) ऊपर उठना, रक्षा करना, " लाखागृह ते जात पांडु-सुत। उकसना, प्रगट होना, बदना, उभरना। बुधि-बल नाथ उबारे"- सू० । (दे० ) किसी तल या सतह का श्रास पास उबाल--संज्ञा, पु. (हि. उबलना ) पाँच । की सतह से ऊँचा होना, उकसना, फूलना, पाकर फेन सहित उपर उठना, उफान, ऊपर निकलना, उत्पन्न होना, पैदा होना, उफाल, उद्वग, क्षोभ, जोश । खुलना, प्रकाशित होना, अधिक या प्रबल उबालना-स० क्रि० दे० (सं० उद्वालन ) होना, चलदेना, हट जाना, जवानी पर तरल या द्रव पदार्थ को आँच पर रख कर पाना, गाय, भैंस आदि का मस्त होना। इतना गरम करना, कि वह फेन के साथ उभना---० क्रि० (दे०) उठना उभड़ना। ऊपर उठने लगे, खौलामा, चुराना, जोश उभय--वि० (सं० ) दोनों, दो, युग्म, देना, पानी के साथ भाग पर चढ़ा कर गरम । युगुल, उभै (दे०)। " उभय भाँति करना, उसेना, पकाना, । वि० उबला, स्त्री० देखेसि निज मरना"- रामा० । उबली। उभयतः-कि० वि० (". ) दोनों ओर उबासी-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० उश्वास ) से, पार्श्वतः। जभाई। । उभयतोमुखी-वि. (सं० ) दोनों ओर उबाहनासस० कि० (दे० ) उबहना। मुंह वाला। यौ० उभयतामुखी गोउबिठना-स० कि.० दे० ( सं० अव + इष्ट । व्याती हुई गाय जिसके गर्भ से बच्चे का For Private and Personal Use Only Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - उभयत्र ३४५ उमचना मुँह बाहर आ गया हो ( इसके दान का उभैछ–वि० (दे० ) उभय (सं० ) दोनों, बड़ा महात्म्य कहा गया है)। उभौ (दे०)। उभयत्र-कि० वि० (सं० ) दोनों ओर, उमंग-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० उद्+मंग = दोनों तरफ। चलना ) चित्त का उभाड़, सुखद मनोवेग, उभयविपुला-संत्रा, स्त्री० (सं० ) प्रार्या | मौज लहर, उल्लास, जोश, श्रानंद, हृष्टता । छंद का एक भेद। मग्नता, मगनता (दे०) उमग (दे०) उभरना,अ. क्रि० ( हि० उभरना )। उभाड़, अधिकता, पूर्णता, हुलास । अहंकार करना, शेखी करना, उभड़ना । | उमंगना ---( उमँगना) 4. क्रि० (दे०) उतरना, बढ़ना, उठना। उमंगयुक्त होना, प्रसन्न होना, उमगना उभराई-संज्ञा, स्त्री. (दे० ) इतराना, (दे० ) आवेश में श्राना, उल्लास में होना, उभड़ाव। उठना । " प्रेम उमॅगि लोचन जल छाये"उभराना-स० कि० (हि० उभरन' का प्रे० रामा० । उमड़ना, उठना, उभरना। " गोपी रूप ) बढ़ाना, उठाना । ग्वाल बालन के उमँगत आँसू देखि"उभरौहां-वि० दे० (हि० उभरना+ौहाँ ऊ० श०। " उमगत सिंधु दौरि द्वारका -प्रत्य० ) उभार पर पाया हुआ, उभड़ा बचाई दिव्य "-रत्नाकर । हुलास या हुआ, ऊपर उठा हुआ । उत्साह से आगे आना ।पू० का०क्रि० उमँगि। उभा-संज्ञा, स्त्री० (दे०) चिंता, (सं० उमगित - वि० (दे०) उमंग-युक्त, हुलाउभय-दोनों) द्विविधा । “ सबहिं उभा पित, उत्साहित, उल्लासित, आवेरा-युक्त । मैं लगि रहा .... कबी०। उमंगी-वि० (दे०) उमंगवाला, हुलासवाला, उभाड़-संज्ञा, पु० दे० (सं० उद्भिदन ) उल्लास-पूर्ण, श्रानंदी, तरंगी, जोशीला। उठान, ऊँचापन, ऊँचाई, प्रोज, वृद्धि । उमंडना-अ० क्रि० (दे० ) उमड़ना, पानी, उभाड़ना-स० कि० दे० (हि० उमड़ना श्रादि का ऊपर उठना, खौलना, छाना, का प्रे० रूप ) भारी वस्तु को धीरे धीरे आवेश में थाना, बढ़ना, उभड़ना । "उमँडि ऊपर उठाना, उकसाना, उत्तेजित करना, बहैं नद नीर"-वृ०। बहकाना। उमग-संज्ञा, स्त्री० (दे० ) उमंग (हि.)। उभाइदार-वि० (हि० उभाड़+दार-फा० उमगन-(उमगनि)-संज्ञा, स्त्री० (दे०) प्रत्य०) उठा या उभरा हुआ, भड़कीला, उमंग । ऊँचाई लिये हुए। उमगना-प्र० क्रि० दे० ( हि० उमंगना) उभाना-१० कि. (दे० ) सिर हिलाना, उभड़ना, उमड़ना, भरकर ऊपर उठना, हाथ-पैर पटकना, प्रभुनाना, उठाना, उत्ते. उल्लास में होना हुलसना । जित होना, श्रावेश में आना। "एक होय उमगाना-स० कि० (दे०) उभाड़ना, तौ उत्तर दीजै सूर सु उठी उभानी"-सू०।। उत्तेजित करना, उमंगित करना, प्रसन्न करना, उभार-संज्ञा, पु० (दे०) उभाड़, उठान । हुलसाना । अ० कि. (दे०) उमगना । उभारना-स० कि० (दे०) उभाड़ना, “मति कष्ट सों दुखित मोहि रनहित उमगाउठाना, उत्तेजित करना। वत "---मुद्रा...... हिय हिम सैल तैं उभिरना-प्र० कि० ( देश० ) ठिठकना, हमारे उमगानी हैं"-रसाल ।। हिचकना । अभिरना (दे० ) टकराना, उमचना-प्र० कि० ( दे० ) ( सं० उमंच ) ठोकर खाना, भिटकना। किसी वस्तु पर तलवों से अधिक दाव भा० श० को.-४४ For Private and Personal Use Only Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उमड़ उमाचना पहुँचाने के लिये कूदना, हुमचना, हुमकना, उमरी--संज्ञा, स्त्री० (दे० ) वह पौधा जिसे हुमसना, शरीर को झटके के साथ ऊपर उठा- जलाकर सज्जीखार तैय्यार किया जाता है। कर नीचे गिराना, चौंकना, चौकन्ना होना, | उमस-संज्ञा, स्त्री० दे० ( सं० ऊष्म ) हवा सजग होना, सावधान या सतर्क होना। के न चलने पर होने वाली गरमी, जिसमें उमड़-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० उन्मंडन) पसीना खूब पाता है और इसी से जी भी उमंड ( दे०) बाढ़, बढ़ाव, भराव, घिराव, | घबड़ाने लगता है। धावा, श्रावेश । उमसना* --अ० कि० दे० (हि० उमस ) उमड़ना-अ. क्रि० (दे० ) (हि० उमंग ) उमस होना। द्रव वस्तु का प्राधिक्य के कारण ऊपर उठना, उमहना --अ. क्रि० (दे० ) उमड़ना उतराकर बह चलना, उठकर फैलना, छाना, (हि.) छा जाना, उमंग में आना, प्रसन्न घेरना, थावेश में श्राना, जोश में होना । अ० होना, उठना, उचकना या उछलना। क्रि० दे० (सं० उन्मंडन ) उमड़ना ( दे० ) | " कहै 'रतनाकर' उमहि गहि स्याम ताहिउमड़ना, उभड़ना। ... "उमंडि ठोंकि | ऊ. श० । लरिहौं ”—पद्मा० । यौ०-उमड़ना- | उमहाना*--स० क्रि० (दे० ) उमड़ाना, घुमड़ना ( उमरना-घुमरना दे० )- | उमाहना, ( उमहना का स० रूप) छा घूम घूम कर चारों ओर से फैलकर खूब घिर देना, उमंग में लाना। जाना या छा जाना (बादल ) " उमरि- उमा-संज्ञा, स्त्री० (सं० उ---मा- पा) घुमरि घन घोर घहरान लागे . " रसाल । शिव की स्त्री, पार्वती, दुर्गा हरिद्रा, हलदी उमड़ाना-अ. क्रि० (दे०) उमड़ना (हि.) ( दे०) अलसी ( अतसी-दे.) कीर्ति, क्रि० स० (दे०) उमड़ना (हि.) का कांति, शान्ति, भगवती, मैना और हिमांप्रेरणार्थक रूप, उभाड़ना, उत्तेजित करना, चल की कन्या थीं, इन्होंने शिवजी के लिये ऊपर उठाना। उग्र तप किया, जिसे देख माता मैना ने कहा उमदना-अ० कि० दे० (सं० उन्मद ) " उमा " तपस्या मत करो अतएव इनका उमंग में भरना, मस्त होना, उमगना, नाम उमा पड़ गया । ... "अगनित उमा उमड़ना, प्रमत्त होना। रमा ब्रह्माणी-रामा० । यौ० उमापतिउमदा-वि० (दे० ) उम्दा (फा०) संज्ञा, पु० शंकर जी, महादेव । उमेशअच्छा, बढ़िया। संज्ञा, पु० (सं०) शिव, ईश्वर, महादेव । उमदाना--. क्रि० दे० ( सं० उन्मद) उमासुत-संज्ञा, पु० (सं० ) कार्तिकेय, मतवाला होना, मद में भरना, मस्त या गणेश । प्रमत्त होना, उमंग या श्रावेश में श्राना, उमाकना-अ० क्रि० दे० (सं० उ = नहीं उन्मत्त होना। -- मंक ) खोद कर फेंक देना, नष्ट करना, उमर-संज्ञा, स्त्री० दे० ( अ. उम्र ) अवस्था, उपाटना, उखाड़ना । स० कि० (दे.) वय, श्रायु, जीवनकाल, उमरिया (दे०) | उन्मूलन करना। उमिरि (दे०)। | उमाकिनी -वि० स्त्री० (दे०) उखाड़ने उमरा-संज्ञा, पु० (अ.) अमीर का बहु- वाली, खोद कर फेंक देने वाली, उन्मूलित वचन, प्रतिष्ठित लोग, सरदार, बड़े श्रादमी, | करने वाली, नष्ट करने वाली। रईस, अमीर । उमाचना - स० कि० दे० (सं० उन्मंचन ) उमराय ( उमराव )*-संज्ञा, पु. ( दे०) । उभाड़ना, ऊपर उठाना, निकालना । ... उमरा (अ.), सरदार, रईस । " कहूँ नैननि तें नहिं लाज उमाची"-रवि० For Private and Personal Use Only Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उमाद उरगारि उमाद - संज्ञा, पु० (दे० ) उन्माद (सं.)। पाने की प्राशा से किसी दप्तर में बिना पागलपन । वि० उमादी (दे० ) उन्मादी, । वेतन के काम करने वाला, किसी पद पागल । पर चुने जाने या लिये जाने के लिये उमाधो-संज्ञा, पु. ( दे० ) उमापति, | खड़ा होने वाला आदमी, किसी परीक्षा शंकरजी। में बैठने के लिये प्रार्थनापत्र भेजने वाला, उमाह-संज्ञा, पु० दे० (हि० उमहना ) | प्रार्थी । संज्ञा, स्त्री० उम्मेदवारी (फा० ) उत्साह, उमंग, जोश, आवेश, हुलाप, | किसी दफ्तर में नौकरी पाने की श्राशा चित्त का उदगार। से बिना वेतन ही काम करना, अासरा, उमाहना -- अ. कि. (दे० ) उमड़ना, । भरोसा। उमहना, मौज या आवेश में थाना । क्रि० उम्र-संज्ञा, स्त्री. (म.) अवस्था, प्रायु, स० --उमड़ाना, उमगाना, “ साहस के | वयस, जीवन काल, " वह भी एक उम्र में कछुक उमाहि पूछिबै को चाहि'-ऊ० श०। हुश्रा मालूम"। उमर, उमिर, उमिरिया उमाहल*-वि० दे० ( हि० उमाह ) उमं- (दे०)। गित; उमंग से भरा हुआ, उत्साहित । उरंग ( उरंगम)-संज्ञा, पु० (सं०) सर्प, उमेठन-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० उद्बोष्टन ) साँप, उरग। ऐंठन, मरोड़, पेंच, बल। उर—संज्ञा, पु. (सं० उरस् ) वक्षःस्थल, उमेठना-उमैठना स० क्रि० दे० (सं० छाती, हृदय, मन, चित्त । यौ० उरक्षतउदष्टन ) ऐंठना, मरोड़ना, ... उमंग मैं | हृदय का घाव, उर-पीड़ा, हृदय-रोग । उमैठो है "--रसाल । उरकना-अ० कि० (दे० ) रुकना, उमेठवां--वि० दे० ( हि० उमेठना ) एठदार, ठहरना। घुमावदार, ऐठनदार, पेंचदार ।। उरग-संज्ञा, पु० (सं० उरस् । गम् + ड) उमेड़ना-स० वि० ( दे० ) उमेठना, साँप, सर्प, नाग । " नाक उरग झप व्याकुल उमैठना, ऐंठना। मरता"। उमेलना-स० कि० (दे०) (सं० उन्मीलन) उरगना*---स० क्रि० दे० (सं० उरगीकरण ) खोलना, प्रगट करना, वर्णन करना, बयान स्वीकार करना, सहना, ग्रहण करना, करना। जोगवना । “ जो दुख देय तौ लै उरगौ उम्दगी-संज्ञा, स्त्री० ( फ़ा ) अच्छाई. भला. सब बात सुनौ "- रामा० । अ० कि.. पन, खूबी। ग्रहण ( चंद्र या सूर्य ) से मुक्त होना । उम्दा- वि० (अ.) अच्छा, भला, बढ़िया। उरग्र--संज्ञा, स्त्री० (दे० ) भेड़ी। उम्मत - संज्ञा, स्त्री. ( अ० ) किसी मत के उरगाद-संज्ञा, पु० (सं०) सर्प-भक्षक, अनुयायियों की मंडली, जमात, समिति, गरुड़, विष्णु-बाहन । समाज, औलाद. संतान ( परिहास ) पैरो उरगाय---संज्ञा, पु. (सं० ) विष्णु, सूर्य, कार, अनुयायी, साम्प्रदायिक दल । प्रशंसा। "दासतुलसी" कहत मुनिगन उम्मीद ( उम्मेद )--संज्ञा, स्त्री. ( फा० ) जयतिजय उरगाय"-विन । वि० प्रशंसित, पाशा, भरोसा, बासरा । “ ऐ मेरी उम्मीद । फैला हुआ । अ० कि० ग्रहण-मुक्त होना । मेरी जाँ निवाज़"-- उरगारि--संज्ञा, पु. (सं० उरग+ अरि ) उम्मेदवार - संज्ञा, पु० (फा०) श्राशा या गरुड, पन्नगारि, वैनतेय, सपों का खाने भरोसा रखने वाला, काम सीखने या नौकरी। वाला, नकुल । For Private and Personal Use Only Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उरगिनी उरगिनी*—संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० उरगी) रूमाल । यो० ( उर-+ माल ) हृदय पर पड़ी सर्पिणी, नागिन । हुई माला। उरज-उरजात—ज्ञा, पु. (सं० उरोज) उरमी—संज्ञा, स्त्री० (दे०) पीड़ा, दुःख । उरोज, कुच, स्तन । " ये नैना धैना करें, तू तौ पट उरमी रहित"-सुन्द० । उरज उमैठे जाँहि "। रही। उररी-अव्य० (सं० ) स्वीकार । वि. उरझना* —अ० कि० (दे०) उलझना, उररीकृत-स्वीकृत। (हि०) फँसना, लिपटना, लिप्त होना, उरला—वि० (दे०) (सं० प्रापर, अवर - अटकना, श्रासक्त होना । " जिन महँ उरझत | हि० ला–प्रत्य०) पिछला विरला, निराला। विविधु-विमाना"-रामा० । उरविज*-संज्ञा, पु० दे० (सं० उर्वी+ उरझाना-स० कि० दे० (उरझना का स० ज= उत्पन्न ) भौम, मंगल । रूप ) उलझाना, फँसाना, अटकाना, लिप्त उरस-वि० (सं० कुरस) फीका, नीरस । संज्ञा, रखना । अ० क्रि०-फंसना । 'उर उर- पु. (सं० उरस् ) छाती, वक्षःस्थल, हृदय । माहीं''- रामा०। उरसना-अ. क्रि० दे० (हि० उड़सना) उरझर-संज्ञा, पु० (दे० ) झकोरा, "पानी ऊपर नीचे करना, उथल-पुथल वरना, को सो घेर किधौं, पौन उरझरे किधौं'- चलाना । “स्वास उदर उरसति यौं मानौ सुन्द। दुग्ध-सिंधु छवि पावै"-सू० । उरण-संज्ञा, पु० (सं.) भेड़ा, मेदा, यूरेनस | उरसिज-संज्ञा, पु० (सं० ) स्तन, उरोज । नामक ग्रह । उरस्त्राण-संज्ञा, पु० यौ० (..) कवच, उरद—संज्ञा, पु० दे० (सं० ऋद्ध, प्रा०, उद्ध) बख़्तर । एक प्रकार का पौधा जिसके दानों की दाल उरहन*— ( उरहना ) संज्ञा, पु. ( दे.) होती है, माष। उलाहना, उराहनो, पोरहन (दे०)। उरध*-कि० वि० दे० ( सं० ऊर्ध्व ) ऊपर, उरा—संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० उर्वी) पृथ्वी। ऊर्ध्व । ऊरध (दे०)। उराना-( उराजाना ) अ. वि.० (दे०) उरधारना--स० कि० (दे०) उधेड़ना, चुकना, ख़तम होना, समाप्त । " भूरि भरे फैलाना, बिखराना । यौ० (उर+ धारना) हिय के हुलास न उरात है "- ज० श०। हृदय में रखना। उरारा--वि० दे० (सं० उरु) विस्तृत, उरबसी-संज्ञा, स्त्री० दे० ( सं० उर्वशी) विशाल, बड़ा। एक अप्सरा, एक भूषण । यौ० ( उर -+ बसी उराव( उराय)—संज्ञा, पु० दे० (सं. उरस् -- हि० ) दिल में बसी हुई। " तू मोहन + प्राव -- प्रत्य०) चाव, उमंग, हौसला, के उर बसी, है उरबसी समान"-बि० । उत्साह, उराउ, उराऊ, चाह, खुशी । 'तुलसी उरबी*—संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० उर्वी) उराव होत राम को स्वभाव सुनि"- कवि०। पृथ्वी, धरती। उरहना-संज्ञा, पु. (दे०) उलाहना। उरमना*—अ० वि० दे० (सं० अवलंबन, | उरिण (ऊरिन) वि० (दे०) उऋण, प्रा० अोलंबन ) लटकना । " तहँ कलसन ऋण से मुक्त होना। पै उरमति सुठार" - राम ।। उरू-वि० सं०) विस्तीर्ण, विशाल, बड़ा, । उरमाना*---स० कि० दे० (हि. उरमना) संज्ञा, पु० (सं० जरु) जाँघ, जंघा । यौ. लटकाना। उरुपथ–राजमार्ग, उरुव्यचा- संज्ञा, पु. उरमाल*---संज्ञा, पु० दे० (फा० रुमाल )। (सं० ) राक्षस । For Private and Personal Use Only Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org उरुजना उरुजना — प्र० क्रि० (दे० ) उरझना, फँसना | उलझाना उरुषा – संज्ञा, पु० दे० (सं० उलूक, प्रा० उलूम ) रूरूया, उल्लू । उर्वरा - संज्ञा, स्त्री० (सं० ) उपजाऊ भूमि, पृथ्वी, एक अप्सरा । वि० स्त्री० ( उर्वर ) उपजाऊ जरखेज ( भूमि ) । उर्वशी - संज्ञा, स्त्री० (सं० ) एक अप्सरा जो नारायण की जंघा से उत्पन्न हुई थी । इसे देख नर-नारायण का तपोभंग करने वाली इंद्र की अप्सरायें लौट गई थीं । उरुज - संज्ञा, पु० ( ० ) बढ़ती वृद्धि । उरे क्रि० वि० दे० (सं० श्रवर) परे, आगे दूर । उरेखना – स० क्रि० (दे० ) अवरेखना उर्वी— संश, स्त्री० (सं० उरु + ई ) पृथ्वी, ( सं० ) । उरेव - संज्ञा, पु० (दे० ) उलझन, अरेह संज्ञा, पु० दे० (सं० उल्लेख ) चित्रकारी । वंचना | ३४६ उरेहना - स० क्रि० दे० ( सं० उल्लेखन ) खींचन, लिखना, रचना, रँगना, लगाना, ( चित्र ) । उरोज - संज्ञा, पु० दे० (सं० उरस् + जन + ड ) स्तन, कुच । उज्जित - वि० (सं० उर्ज + क्त ) वर्धित, उन्नत, उत्सृष्ट । उर्गा - संज्ञा, स्त्री० (सं० ) ऊन (भेड़ श्रादिका) उर्द - संज्ञा, पु० (दे० ) उरद, माष । उदपर्णी-संज्ञा स्त्री० ( हि० उर्द + पर्णीसं० ) बनउरदी | उदगिनी - चौ० रनिवास की रक्षिका । उर्दू - संज्ञा, स्त्री० (तु० ) फ़ारसी लिपि में लिखी जाने वाली अरबी फ़ारसी के शब्दों से भरी हुई हिन्दी | उर्दू बाज़ार - संज्ञा, पु० ( हि० उर्दू + बाजार) लश्कर का बाज़ार, बड़ा बाज़ार । उर्ध* - वि० (दे० ) ऊर्ध्व (सं०) ऊरध (ब्र०) ऊपर । उर्फ संज्ञा, पु० (०) उपनाम, चलतू नाम । उर्मि -संज्ञा, स्त्री० (दे० ) ऊर्मि (सं० ) 豐 लहर । उर्मिला - संज्ञा, स्त्री० (सं० ऊर्मिला ) सीता जी की छोटी बहिन जो लक्ष्मण को व्याही थीं, सीरध्वज जनक की पुत्री । (दे० ) रमिला । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir धरती । उवजा – संज्ञा, स्त्री० (सं०) सीता, उर्विजा, जानकी । उवीधर - संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) पर्वत, शेषनाग | उलंग - वि० दे० (सं० उन्नग्न ) नग्न, नंगा, विवस्त्र, दिगंबर | उलंघना * - (उलाँघना ) - स० क्रि० दे० (सं० उल्लंघन ) लाँघना, डाँकना, फाँदना, न मानना, अवज्ञा करना, उल्लंघन करना । उलंघन - संज्ञा, पु० (दे० ) उल्लंघन | दे० उलंगना, उलंघना | उलका* – संज्ञा स्त्री० (दे०) उल्का (सं० ) श्रग्निपिंड, मसाल | उलचना ( उलछना ) स० क्रि० (दे० ) छितराना, फैलाना, फेंकना, बिखारना, छानना, पसाना, उलीचना । उलकारना - स० क्रि० ( दे० ) उछालना ( हिं० ) प्रगट करना, ऊपर फेंकना । उलझन - संज्ञा स्त्री० दे० (सं० प्रवन्धन ) अटकाव, फँसान, गिरह, गाँठ, बाधा, पेंच, फेर, चक्कर, समस्या, व्यग्रता, चिंता, तरद्दुद | वि० उलझा । स्त्री० उलझी । उलझना - अ० क्रि० दे० (सं० प्रवन्धन ) फँसना, अटकना, लपेट में पड़ना, घुमावों में फँस जाना, लिपटना, काम में लीन होना, तकरार करना, लड़ना, कठिनाई में पड़ना, अटकना, रुकना, बल खाना, टेढ़ा होना, (विलोम, सुलझना) उरझना (दे० ) | उलझाना - स० क्रि० (हि० उलझना) फँसाना, For Private and Personal Use Only Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उलझाव ३५० उलयना अटकाना, लिप्त रखना । अ० कि. उल | निकट होना । उलटे मुंह गिरना-दूसरे झना, फंसाना। को नीचा दिखाने के बदले स्वयं नीचा उलझाव-संज्ञा, पु. ( हि० उलझना ) देखना । उलटा फिरना (लौटना ) बिना अटकाव, झगड़ा, झंझट, चक्कर, फेर, कठि- ठहरे तुरंत लौटना। उलटे पैर जानानाई । उलझेड़ा (दे०)। लौटना, फिर जाना । उलटी गंगा उलझौहां-वि. (हि० उलझना ) फँसाने बहाना--अनहोनी बात होना, उलटे काम या अटकाने वाला, मुग्ध करने या लुभाने करना, विपरीत कार्य करना । उलटी माला वाला। फेरना-बुरा मनाना, अहित चाहना । उलटना-० कि० दे० (सं० उल्लोठन ) उलटे छूरे से मूडना-उल्लू बनाकर उपर का नीचे और नीचे का ऊपर होना, काम निकालना । वि. काल-क्रम में आगे औंधा होना, पलटना, पीछे मुड़ना, घूमना, का पीछे और पीछे का श्रागे, बेठिकाने, उमड़ना, टूटपड़ना, अस्त-व्यस्त होना, अनुचित, अंडबंड, आयुक्त, इधर का उधर । विपरीत होना, विरुद्ध और क्रुद्ध होना, उलटा जमाना---अंधेर का समय, वह चिढ़ना, नष्ट होना, बेहोश या बेसुध होना, समय जब भली बात बुरी समझी जाय । गिरना, इतराना, गाय-भैंस श्रादि का जोड़ा उलटा सीधा--अव्यवस्थित, अंडबंड । खाकर गर्भ न धारण करना और फिर जोड़ा उलटी-सीधीसुनाना-खरी-खोटी कहना, खाना, घमंड करना । स० कि. ऊपर का भला-बुरा सुनाना, फटकारना । उलटी नीचे और नीचे का ऊपर करना, औंधाना, खोएड़ी-मूर्ख, जड़। संज्ञा, पु. बेसन से पलटना, फेरना, औंधा गिरना, पटकना, बना हुआ एक प्रकार का पक्कान। लटकी हुई चीज़ को समेट कर ऊपर उलटाना---स० कि० (हि. उलटना) चढ़ाना । अंड-बंड करना, और का और, पलटाना, लौटाना, अन्यथा करना, या विपरीत या विरुद्ध करना, उत्तर-प्रत्युत्तर कहना, पीछे फेरना, उलटा करना। देना, बात दोहराना, खोदना, उखाड़ना, उलटा-पलटा ( पुलटा ) - वि० (हि.) बीज मारे जाने पर फिर से बोने के लिये अंडबंड, बेतरतीब, इधर का उधर । जोतना, बेसुध या बेहोश करना, कै या उलटा-पलटो-संज्ञा, स्त्री० (दे०) फेर का वमन करना, उँडेलना, नष्ट करना, रटना, हेर फेर। उलटी-पलटी-विरुद्ध, अंड बंड। जपना, दोहराना । उलठना (दे०)। उलटाव--संज्ञा, पु० ( हि० ) घुमाव, चक्कर, उलट-पलट (पुलट)-संहा, स्त्री० (हि.) | पलटाव, फेर। अदल बदल, अव्यवस्था, गड़बड़ी, अस्त- उलटी-सरसों----संज्ञा, स्त्री० यौ० (हि.) व्यस्त । नीचे मुँह वाली कलियों की सरसों जो उलट-फेर--संज्ञा, पु० (हि.) अदल-बदल, जादू, टोने में काम आती हैं। हेर-फेर, परिवर्तन, भली-बुरी दशा।। उलटे-क्रि० वि० ( हि० ) बेठिकाने, विरुद्ध, उलटा--वि० ( हि० उलटना ) श्रौंधा, न्याय से बिपरीत। विपरीत.क्रमविरुद्व । स्त्री. उलटी । संज्ञा, उलथना ---क्रि० अ० दे० (सं० उद्+ स्त्री० वमन, के, कलाबाज़ी। स्थल = जमना ) उथल-पुथल होना, उल. मु०-उलटीसांसचलना--दम उखड़ना टना, ऊपर नीचे होना, उछलना । स० (मृत्यु-लक्षण ) उलटी सांस लेना- क्रि० उलट-पलट करना । " लहरें उठी विपरीत रूप से साँस खीचना, मरने के | समुद उलथाना प० । For Private and Personal Use Only Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उलथा ३५१ उल्लसन उलथा-संज्ञा, पु० (हि.) नाचते समय उलिचना (उलीचना )-स० कि० दे० ताल से उछलना, कलाबाजी, कूला से (सं० उल्लुचन ) हाथ या बरतन से पानी कूदना, उलटी, उड़ी, अनुवाद. करवट | उछाल कर फेंकना, ख़ाली करना । " सागर बदलना ( पशुओं के लिये )। सीप कि जाँहि उलीचे" -रामा० । उल*---संज्ञा स्त्री (दे०) झड़ी, वर्षण ।। उलूक संज्ञा, पु. ( सं०) उल्लू चिड़िया, उलदना*-स० कि. (दे०) उलटना, | इंद्र दुर्योधन का दूत, वैशेषिककार कणादि उँडेलना, गिराना । अ० कि. खूब मुनि का एक नाम (पू० ई० ५००)। यौ. बरसना । “ बारिधारा उँलदै जलद ज्यों न उलूक दर्शन--वैशेषिक दर्शन । वि० सावानो"-कविता । औलूक्य । संज्ञा, पु० दे० (सं० उल्का) उलमना*-अ० कि० दे० ( सं० अवलंबन ) | लुक, लौ। लटकना, झुकना। उलूखल–संज्ञा, पु. ( सं० ) अोखली, उत्तरना .. क्रि० (दे०) उछलना, खल, गुग्गुल, खरल ।। कूदना, लेटना, झपटना, नीचे-ऊपर होना । उलेड़ना*-स० क्रि० दे० ( हि० उडेलना ) ढरकाना, उँडेलना, ढालना। उललना*--अ. कि. (दे० उड़ेलना) ढरकना, ढलना, उलटना । उलेल*—संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. कुलेल) उलसना-प्र० कि० दे० (सं० उल्लसन ) उमंग, जोश, उछल-कूद, बाढ़ । वि० बेपर वाह, अल्हड़। शोभित होना, सोहना। उल्का -संज्ञा, स्त्री. (सं० ) प्रकाश, तेज, उलहना---० क्रि० दे० (सं० उल्लंभन ) लुक, लुाठा, मशाल, चिराग़, दिया, उभड़ना, उमड़ना, हुलसना, फूलना, रात्रि में आकाश के एक अोर से दूसरी ओर निकलना, खिलना । 'बालतन यौवन रसाल वेग से जाते और गिरते हुए दिखाई देने उलहत लखि"- रस । संज्ञा, पु० (हि.) वाले एक प्रकार के चमकीले प्रकाश-पिंड, उराहना, शिकायत । इनके गिरने का "तरा टूटना" कहते हैं । उलाँघना-स० कि० दे० (सं० उल्लंघन ) उल्कापात--संज्ञा, पु० (सं० ) तारा टूटना, लाँधना, फाँदना, अवज्ञा करना, न मानना, | लुक गिरना, उत्पात, विन्न । वि० उल्काअवहेलना करना । प्रथम घोड़े पर चढ़ना। पाती-(सं०) दंगा करने वाला, उत्पाती। ( चाबुक सवार )। उल्कामुख-संज्ञा, पु० (सं०) गीदड़, एक उलार----वि० दे० (हि. अोलरना-लेटना )। प्रकार का प्रेत जिसके मुंह से भाग निकपीछे की ओर झुका हुआ (गाड़ी-बोझ से)। | लती है, अगिया बैताल, शिव का नाम । उलारनाई-स० कि. (हि. उलरना ) उल्था-संज्ञा, पु० (हि. उलथना) भाषांतर, उछालना, नीचे ऊपर फेंकना । स० क्रि० अनुवाद, तरजुमा । (दे० ) ओलरना (दे०) लेटना। उलपुख-संज्ञा, पु. ( सं० ) अंगारा, उलाहना-संश, पु० दे० (सं० उपालम्भ )। कोयला। किसी की हानिप्रद भूल या चूक को दुख उल्लंघन----संज्ञा, पु. ( सं० ) लाँधना, पूर्वक कहना, गिला, किसी के अपराध या अतिक्रमण, न मानना, अवहेलना करना, दाष का उसस या उसक किसी सम्बन्धी । डाँकना। व्यक्ति से सखेद कहना । उराहना (दे० )। उल्लंघना*--स० कि० (दे० ) उलाँधना स० क्रि० उलाहना देना, दोष रखना। (दे०)। निन्दा करना। उल्लसन--संज्ञा, पु० (सं०) हर्षण, रोमांच, For Private and Personal Use Only Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उल्लाप्य उष्णिक श्रानन्द, प्रमोद। वि० उल्लसित-प्रसन्न । | उल्लोच-संज्ञा, पु. ( सं० उत् + लुच् + वि० उल्लासी-आनंदी। अल् ) चाँदनी, चंद्रिका । उल्ताप्य—संज्ञा, पु. ( सं० ) उपरूपक उल्लोल-संज्ञा, पु० (सं० ) कल्लोल, का एक भेद, एक गीत । हिलोर, लहर। उल्लाल-संज्ञा, पु० (सं० ) एक मात्रिक | उल्व(उल्वण )-संज्ञा, पु० (सं०) आँवर, अर्धसम छंद (१५+ १३ मात्राओं का)। गर्भाशय, जरायु, गर्भवेष्टन, वशिष्ठ-पुत्र । उल्लाला-संज्ञा, पु. (सं०) एक प्रकार उवना -अ० कि. (दे०) उगना, उदय का मात्रिक छंद (१+१३ मात्राओं)। होना, निकलना। उल्लास-संज्ञा, पु० (सं० ) प्रकाश, हर्ष, उशना-संज्ञा, पु. स्त्री. उवनि । (सं०) भानन्द, ग्रंथ का एक भाग, पर्व, एक प्रकार | शुक्राचार्य, भार्गव । “कवीनाम् उशना का अलंकार जिसमें एक के गुण-दोष से | कविः "-गीता। दूसरे में गुण-दोष का होना दिखलाया उशबा-संज्ञा, पु. ( म०) रक्त-शोधक एक जाता है । वि० उल्लसित---उल्लाप युक्त । तरु-मूल । वि० उल्लासक (सं० ) श्रानन्दी, प्रसन्न उशोर-संज्ञा, पु. ( सं० ) गाँडर की जड़, करने वाला। खस। उल्लासन-संज्ञा, पु० (सं०) प्रकट या प्रका- | उषा—संज्ञा, स्त्री० (सं० ) प्रभात, तड़का, शित करना, हर्षित या प्रसन्नहोना । स० कि. ब्राह्म बेला, अरुणोदय की अरुणिमा अनरुद्ध उल्लासना। वि० उल्लासी-आनन्दी, को व्याही गई वाणासुर की कन्या । यौ० सुखी । स्त्री० उल्लासिनी। उषाकाल- भोर, प्रभात । यौ. उषाउल्लिखित-वि० (सं० ) खोदा हुआ, | पति-अनिरुद्ध, काम देव का पुत्र । उत्कीर्ण, छीला या खरादा हुआ, चित्रित, उषित-वि० (सं० वस + क्त) दग्ध, स्वरित, ऊपर लिखा हुआ, लिखित, खींचा हुआ। आश्रित, स्थित । उष्ट्र-संज्ञा, पु० (सं० ) ऊँट । उल्लू-संज्ञा, पु० दे० (सं० उलूक ) एक उष्ण-वि० (सं०) तप्त, गर्म, फुरतीला, पती जो दिन में नहीं देखता, खूपट । वि० बेवकूफ़, मूर्ख, लघमी, पाहन । तेज़ । संज्ञा, पु०-प्याज़, एक नर्क का नाम, ग्रीष्म ऋतु। मु०-उल्लू बनाना-मूर्ख बनाना । यौ० उष्ण नदी-बैतरणी, उष्णवाष्पकहीं उल्लू बोलना-उजाड़ होना, मूर्ख पसीना, स्वेद । उष्ण रश्भि-सूर्य, दिनकर। या जड़ । उल्लू सीधा करना-बेवकूफ उष्णिक-संज्ञा, पु० (सं० ) ग्रीष्मकाल, बनाकर काम निकालना। ज्वर, सूर्य । वि. गरम, तप्त, ज्वर-युक्त, उल्लेख-संज्ञा, पु० (सं०) लिखना, वर्णन, | तेज़, फुर्तीला। लेख, चर्चा, ज़िक्र, चित्रण, खींचना । एक | उष्णकटिबंध-संज्ञा, पु० (सं० ) कर्क और प्रकार का अलंकार जिसमें एक ही वस्तु को मकर रेखाओं का मध्यवर्ती भू-भाग । अनेक रूपों में ( एक ही या भिन्न-भिन्न विलोम शीतकटिबंध । व्यक्तियों के द्वारा ) दिखाया जाता है। उष्णता--संज्ञा, स्त्री. (सं० ) गरमी, ताप। उल्लेखन-संज्ञा, पु. (सं० ) लिखना, संज्ञा, पु० उष्णत्व । चित्रण । वि० उल्लेखनीय (सं० ) लिखने उष्णिक-संज्ञा, पु० (सं०) सात वर्णों के योग्य, प्रसिद्ध, वर्णनीय । | का एक छंद। For Private and Personal Use Only Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra उष्णीष उष्णीष-संज्ञा, पु० (सं० ) पगड़ी, साफ़ा, मुकुट, ताज । उष्म ( उष्मा ) – संज्ञा, पु० (स्त्री० ) (सं० ) गरमी, ताप, धूप, क्रोध, उमस (दे० ) गुस्सा, रोष । www.kobatirth.org उपज - संज्ञा, पु० (सं० ) पसीने और मैल से पैदा होने वाले कीड़े, खटमल, चीलर । उस - सर्व०, उभ० (हि० वह) विभक्ति लगने से पूर्व का रूप, यथा- उसने, उसका । उसकन – संज्ञा, पु० दे० (सं० उत्कर्षण ) उकसन, बरतन माँजने का घास-पात का पोटा । उसकना - प्र० क्रि० ( दे० ) उकसना, उभड़ना । स० क्रि० उसकाना - उभाड़ना, चढाना, चलाना, उस्काना (दे० ) । उसकारना - स० क्रि० (दे० ) उकसाना । उसता-संज्ञा, पु० (दे० ) नाई । वि० ३५३ पकता हुआ । उसनना - स० क्रि० दे० (सं० उष्ण ) उबालना, पकाना, उसेना (दे० ) । प्रे० क्रि० उसनाना -- पकवाना, उसवाना, उसिना (दे० ) । उसनीस - संज्ञा, पु० दे० ( सं० उष्णोष ) पगड़ी, मुकुट । उसमा - संज्ञा, पु० ( ० बसना ) उबटन | उसरना - अ० क्रि० दे० (सं० उद् + सरण) हटना, टलना, बीतना, गुज़रना, भूलना, पूरा होना, बन कर खड़ा होना, बिसरना, उसलना, पानी में उतरना । भा० श० को ०. " उससना --- स० क्रि० दे० (सं० उत् + सरण) खिसकना, टलना । स० क्रि० (हिं० उसास ) उसांस लेना । उसांस - संज्ञा, पु० दे० ( सं० उच्छ्वास ) दुःख की लम्बी सांस । 1... ऊरव उसांस सो कार पुरवा की हैं ". उसारना* – स० क्रि० (दे० ) उखाड़ना, हटाना, छिन्न-भिन्न करना, भगाना दूर करना, (दे० ) उसालना । -ऊ० श० । ०–४५ उहार उसारा - संज्ञा, पु० ( दे० ) श्रोसारा, दालान । स्त्री० उसारी (दे० ) । उसास - संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० उत् + श्वास ) सांस, श्वास, उसाँस, शोक-सूचक ठंठी या लम्बी ऊपर को खींची हुई सांस । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उसासी (उसांसी ) - संज्ञा, स्त्री० दे० ( हि० उसास ) अवकाश, दम लेने की फुरसत, ".. मैं सेस के सीसन दोन्हीं उसाँसी " - - के० । उसीर -- संज्ञा, पु० (दे० ) उशीर (सं० ) खस । उसीला - संज्ञा, पु० ( फा० ) वसीला, सहायक । उसीसा - संज्ञा, पु० दे० (सं० उत् + शीर्ष ) सिरहना, तकिया । उसूल - संज्ञा, पु० दे० ( ० ) सिद्धान्त, उगाहना । उस्तरा - संज्ञा. पु० ( दे० ) उस्तुरा, छूरा । उस्ताद -संज्ञा, पु० ( फा० ) गुरु, शिक्षक, अध्यापक | वि० (दे० ) चालाक, धूर्त, निपुण, दक्ष, चाई । उस्तादी संज्ञा, स्त्री० ( फा० ) गुरुधाई, चतुराई, चालाकी, धूर्तता, विज्ञता, निपुणता । स्त्री० उस्तानी । वि० उस्तादाना - उस्ताद का सा । उस्ताना-स० जलाना । क्रि० (दे० ) सुलगाना, उस्त्र - संज्ञा, पु० (सं० ) वृष, साँड, किरण । स्त्री० उस्र-धेनु । यौ० उत्र धन्वा - इंद्र | उहदाई - संज्ञा, पु० (दे० ) श्रोहदा, पद, स्थान । उहा (दे० ) । यौ० उहदादार- -- अफ़सर उहवां, उहां - क्रि० वि० ( हिं० ) उतै ( ० ) । उहार – संज्ञा, पु० परदा, खाल, पट उधारी " - रामा० । For Private and Personal Use Only पदाधिकारी । (दे० ) वहाँ (दे० ) आहार (दे० ) सिविका सुभग उहार 66 Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - उहिया ३५४ ऊयाबाई, ऊवाया उहिया-संज्ञा, पु० (दे०) कनफटों या उही-सर्व० (दे० ) वही (हि.)। जै योगियों का धातु का कड़ा । " कर उहिया (ब्र०) वहै ( ब्र०)। काँधे मृग छाला"-प० । । उहूल-संज्ञा, स्त्री० (दे० ) तरंग, उमंग। ऊ-संस्कृत या हिन्दी की वर्णमाला का , खाबड़, भला-बुरा, हानि लाभ । ऊँचाछठवाँ अक्षर, इसका उच्चारण ओष्ठ से होता नीचा ( ऊंची-नीची ) सुनाना है-" उपूपध्मानीयानामोष्टौ ” । अव्य० (कहना)--- खरी-खोटी या भला-बुरा सुनाना (सं०) भो । संज्ञा, पु० रक्षा, शिव, ब्रह्मा, । ( कहना), वि०-ज़ोर का या तीब्र (स्वर) मोक्ष, चंद्र, प्रधान । सव० (दे० ) वह । मु०-ऊँचा सुनना-कम सुनना, तीन ऊंख-संज्ञा, पु० (दे०) ऊख - (सं० स्वर ही सुनना। ऊँचे बोल बोलनाइक्षु ) ईख, गन्ना, पौंड़ा (दे०)। घमंड की बातें करना। ऊख*---संज्ञा, पु० दे० (सं० ऊष्म ) उमस, | ऊँचे-क्रि० वि० (हि. ऊँचा ) ऊँचे पर, गरमी। वि. तप्त, गरमी से व्याकुल । ऊपर की ओर, ज़ोर से शब्द । ऊखम (दे०)। मु०-ऊँचे-नीचे पैर पड़ना-बुरे काम ऊँगना-संज्ञा, पु. ( दे०) पशुओं का रोग में फँसना, ऊँचे बोल का बाल नीचाजिसमें कान बहता और शरीर ठंढा हो। घमंडी का सिर नीचा। जाता है । कि० स० (दे० प्रांगना ) गाड़ी। ऊक-संज्ञा, पु० (दे०) एक प्रकार का रोग। की धुरी में तेल आदि देना। । ऊचना-प्र. क्रि० दे० (सं० उच्छन्न = ऊँगा-संज्ञा, पु० (दे०) अपामार्ग (सं०) बीनना ) कंघी करना, बाल ऐंछना। चिचड़ा। ऊर-संज्ञा, पु० दे० (सं० उष्ट्र) एक ऊँचा ऊँघ-संज्ञा, स्त्री० दे० ( सं० अवाड --नीचे । पशु जो सवारी और बोझ लादने के काम में +मुंह ) उँघाई, झपकी, औंवाई। प्राता है । नी० ऊँटनी। ऊँघना--अ० कि० (दे०) झपकी लेना, ऊँट कटारा-संज्ञा, पु० दे० ( सं० उष्टकंट ) नींद में झूमना, निद्रालु होना, उघाना: एक कटीली झाड़ी। उटकटाई (दे०)। (दे०) वि. उया। संज्ञा, स्त्री० ॐघन ऊँटवान-संज्ञा, पु. ( हि० ॐउ+ वान (दे.) ऊँघ, झपकी, उँधाई ( दे०)। (प्रत्य० ) ऊँट हाँकने वाला। ऊँच, ऊँचा*-वि० (दे० ) उच्च (सं० ) ऊँडा* ---संज्ञा, पु० (दे०) (सं० कुंड) ऊपर उठा हुआ, बड़ा, उन्नत, बलंद, श्रेष्ठ, चहबच्चा, धन गाड़ने का बरतन, तहख़ाना । कुलीन, तीव्र, पोछा । स्त्री. ऊँची। संज्ञा, वि०-गहरा, गंभीर । स्त्री० ऊंचाई-दे० (सं० उच्चता) (हि. ऊंदर--- संज्ञा, पु० दे० (सं० उंदुर ) चूहा। ऊंचा+ ई-प्रत्य० ) उठान, उच्चता, गौरव, ऊह-अव्य० ( अनु० ) नहीं, कभी नहीं। बड़ाई, श्रेष्ठता, उँचाई (दे०)। यौ०-- ऊअना*-अ० क्रि दे० (सं० उदयन ) ऊँचनीच-छोटा-बड़ा, छोटी-बड़ी जाति उगना, निकलना, उदय होना। का, हानि-लाभ, भला-बुरा, ऊँचा-नीचा। ऊआवाई, ऊवाबाई--वि० (हि० पाउबाव) मु०-ऊँचा-नीचा (ऊँच-नीच) ऊबड़- अंड-बंड, निरर्थक । For Private and Personal Use Only Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३५५ ऊपना ऊक-संज्ञा, पु० दे० (सं० उल्का ) उल्का, विचार करना। अ० क्रि० (सं० ऊढ़) टूटता तारा, लूक, दाह, ताप । संज्ञा, स्त्री० | विवाह करना, व्याहना। (हि. चूक का अनु०) भूल, चूक । ऊत-वि० दे० (सं० अपुत्र ) निस्संतान, ऊकना*--अ० क्रि० दे० (हि० चूकना) निपूता (दे०) मूर्ख, उजड्ड । संज्ञा, पु०चूकना, भूल करना । स० क्रि० -उपेक्षा | निस्सन्तान मर कर पिंडादि न पाने से भूत करना, छोड़ देना, भूलना। स० क्रि० होने वाला। (दे०) जलाना, भस्म करना । ऊतर* - सज्ञा स्त्री० (दे० ) उत्तर (सं०) ऊखल-संज्ञा, पु० (दे०) (सं० उलूखल ) | उतर ( दे०) जवाब, बहाना। अोखली, काँड़ी(दे० ) हावन । ऊतला - वि० (हिं० उतावला ) वेगवान, ऊज -संज्ञा, पु० दे० (सं० उद्धन ) उप- उतावला। द्रव, ऊधम, अंधेर । अतिम -- वि० (दे० ) उत्तम (सं०) श्रेष्ठ । ऊजड-वि० दे० (हि. उजाड़ ) उजाड़, ऊद-(ऊदबिलाव ) संज्ञा, पु० (दे०) वीरान । उजार-ऊजर (दे०)। बिल्ली का सा एक जल-जन्तु । यौ० ऊदऊजर, ऊजरा ( ऊजा )--वि० दे० बत्ती -- अगर-बत्ती, धूप-बत्ती। (सं० उज्वल) उजला, सफ़ेद, गोरा, उज्जर ऊदल -- संज्ञा, पु० दे० ( उदयसिंह का संक्षिप्त (दे०)। वि. उजाड़, ऊजरो। स्त्री० ऊजरी। रूप) महोबा नरेश परमाल के एक वीर " लसत गूरी ऊजरी - ...'' (म०)। सामन्त । ऊटक-नाटक* -- संज्ञा, पु० दे० (सं० | ऊदा--वि० (अ० ऊद, फ़ा० कबूद ) ललाई उत्कट + नाटक ) व्यर्थ का काम, उटपटाँग लिए काला रंग, बैंगनी। या निरर्थक कार्य । ऊधम--संज्ञा, पु० दे० (सं० उद्धम ) उपद्रव, ऊटना-अ० क्रि० दे० (हि. औटना, उत्पात, धूम, हुल्लड़ । वि. ऊधमी उत्पाती। स्त्री० ऊधमिन। .. प्रोटना), उत्साहित होना, हौसला करना, | तर्कवितर्क या सोच-विचार करना । ओटना, ऊधव (ऊधौ )-संज्ञा, पु० दे० (सं० उटना (दे०)। उद्धव ) कृष्ण-सखा। ऊन-संज्ञा पु० दे० (सं० ऊर्ण ) भेड़-बकरी ऊटपटांग--वि० ( हि० अटपट -- अंग ) आदि के रोयें । वि० (सं० ऊन ) कम, अटपट, टेढामेढ़ा, बेढंगा, बेमेल, व्यर्थ, अस थोड़ा, छोटा, तुच्छ, न्यून । संज्ञा, पु० स्त्रियों म्बद्ध, वाहियात । के लिये एक छोटी तलवार। ऊड़ना*-स० कि० ( दे० ) ऊठना, तर्क ऊनता-संज्ञा, स्त्री० (सं० ऊन ) न्यूनता। वितर्क करना। ऊना-वि० (सं०) कम, न्यून, तुच्छ, हीन, ऊड़ा*—संज्ञा, पु० दे० ( हि ऊन ) कमी, जो पूरा न हो, विषम । संज्ञा, पु० खेद, घाटा, अकाल, नाश, लोप। दुःख, रंज। ऊडी-संज्ञा, स्त्री० (हि०-बड़ना) डुब्बी, गोता, ऊनी-- वि० स्त्री० (सं० ऊन ) न्यून, कम । निशानी, गोताखोर चिड़िया ।। संज्ञा, स्त्री. उदासी, खेद । वि० (हिं. ऊन ऊढ़ ( ऊढ़ा)-वि० ( संज्ञा, स्त्री० ) ई-प्रत्य० ) ऊन की बना वस्त्र । संज्ञा, (सं० ) विवाहिता, व्याही किन्तु पर पति स्त्री० ( दे०) श्रोप। से प्रेम करने वाली नायिका। ऊपना-अ० क्रि० (दे० ) पैदा होना । स० ऊदना*-० क्रि० (सं० ऊह ) सोच क्रि० ऊपाना पैदा करना । For Private and Personal Use Only Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ऊपर ऊपर - क्रि० वि० दे० (सं० उपरि ) ऊँचे स्थान पर, उँचाई पर, श्राकाश की ओर, आधार पर, सहारे पर, उच्च श्रेणी पर, ( लेख में ) प्रथम, पहिले, अधिक, ज्यादा, प्रगट में, देखने में, तट पर, अतिरिक्त, परे, प्रतिकूल । मु० ३५६ ० ऊपर ऊपर चुपके से, बिना किसी के जताये । ऊपर की आमदनी - इधरउधर से फटकारी हुई रकम, बाहिरी श्राय, नियंत श्रय के अतिरिक्त, अन्य साधनों ( द्वारों ) से प्राप्त । ऊपर - तले-आगेपीछे, एक के बाद एक, क्रमशः । ऊपरतले के—वे दो बच्चे (लड़के या लड़कियाँ) जिनके बीच में और कोई बच्चा न हो । ऊपर लेना ( अपने ) - ज़िम्मे लेना, हाथ में लेना । ऊपर से आकाश या ऊँचे से, इसके अतिरिक्त, वेतन से अधिक, बाहर से घूस के रूप में, प्रत्यक्ष में, दिखाने के लिये, प्रगट रूप में। ऊपरी - वि० ( हि० ) ऊपर का, बाहिरी, बँधे हुए के सिवा, नुमाइशी, दिखावटी, विदेशी, पराया । ऊब – संज्ञा, स्त्री० ( हि० ऊबना ) कुछ समय तक एक ही दशा में रहने से चित की खिन्नता, उद्वेग, घबराहट, श्राकुलता, उद्विग्नता । ( हि० ऊभ ) उत्साह, उमंग | ऊबट - संज्ञा, पु० दे० (सं० उत्= बुरा + वर्त्म -- बट्ट = प्रा० मार्ग ) कठिन मार्ग, अटपट रास्ता । ऊबड़-खाबड़ -- वि० ( अनु० ) ऊँचा - नीचा, घटपट, विषम ऊबना–अ० क्रि० दे० (सं० उद्व ेजन ) I उकताना, घबराना, अकुलाना । ऊभ*~वि० दे० (हि० उभना खड़ा होना ) ऊँचा, उभड़ा हुआ, उठा हुआ । संज्ञा, स्त्री० ( हि० ऊब ) व्याकुलता, उमस, हौसला, उमंग । क्रि० प्र० ऊमना - (सं० उद्भवन ) उठना, ऊबना, खड़ा होना। " ऊभी चाम " क० । चटाय ऊर्ध्वतिक ऊमक* —संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० उमंग ) झोंक, उठान, वेग । ऊमर (ऊमरि) संज्ञा, पु० दे० ( उडुम्बर ) गूलर | ऊरज - वि० पु० (सं० ऊर्ज ) बल, शक्ति । ऊरध* - वि० दे० ( सं० ऊर्ध्व ) ऊर्ध्व, Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ऊपर, उच्च। ऊमस संज्ञा, स्त्री० (दे० ) उमस, गरमी । ऊरू-संज्ञा, पु० (सं० ) जानु, जंघा । यौ० ऊरुस्तंभ-पैर जकड़ जाने का एक बात रोग । ऊर्ज - वि० (सं० ) बलवान, शक्तिमान । संज्ञा, पु० (सं०) बल, शक्ति, कार्तिक मास, एक प्रकार का अलंकार जिसमें सहायकों के घटने पर भी गर्व के न छोड़ने का कथन किया जाय । वि० ऊर्जस्वी । ऊर्जस्वल - वि० (सं० ऊर्जस + वल् ) अति शक्तिशाली । ऊर्जस्वी- वि० (सं० ऊर्जस् + विन्) उग्र, अतिवली, प्रतापी, तेजस्वी | संज्ञा, पु० (सं० ) एक अलंकार जो वहाँ होता है जहाँ भाव या स्थायी भाव का रसाभास या भावाभास अंग हो ( काव्य ० ) । ऊर्ण – संज्ञा, पु० (सं० ) भेड़ या बकरी के बाल, ऊन । यौ० संज्ञा, पु० (सं० ) ऊर्णनाभ - मकड़ी, रेशम कीट । ऊर्ध्व क्रि० वि० (सं०) ऊपर, ऊरध ( दे० ) ऊर्णायु -- संज्ञा, पु० (सं० ) ऊनीवस्त्र, कंबल । वि० ऊपरी, ऊर्ध, ऊँचा, खड़ा | संज्ञा, पु० ऊपर का भाग । यौ० (सं० ) मुक्ति, ऊर्ध्वगति – संज्ञा, स्त्री० ऊपर की ओर गति । ऊर्ध्वगामी – वि० (सं० ) ऊपर को जाने वाला, मुक्त, निर्वाण प्राप्त । ऊर्ध्वचरण – संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) शीर्षा सान, शीर्षासन किए हुए तपस्या करने वाले साधु । ऊर्ध्वतिक्त-संज्ञा, पु० (सं० ) चिरायता । For Private and Personal Use Only Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ऊर्ध्वद्वार ARCAROTADTO ऊर्ध्वद्वार - संज्ञा, पु० (सं० ) ब्रह्मरंध | ऊर्ध्वपाद संज्ञा, पु० (सं० ) एक प्रकार का श्रासन, एक कीड़ा, शरभ । ऊर्ध्व पुंड्र – संज्ञा, पु० ( सं० ) वैष्णवी खड़ा तिलक । ३५७ ऊर्ध्ववाह - संज्ञा, पु० (सं० ) अपनी एक बाहु ऊपर उठाकर तपस्या करने वाले तपस्वी । ऊर्ध्व रेखा - संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं० ) हाथ में भाग्य रेखा, पैर के तलवे पर खड़ी रेखा, ये दोनों सौभाग्य-सूचक मानी गई हैं। ( सामु० ) । ऊर्ध्वरेता - वि० (सं० ) जो अपने वीर्य को न गिरने दे, ब्रह्मचारी संज्ञा, पु० भीष्म, महादेव, हनुमान, सनकादि, सन्यासी । ऊर्ध्वलोक-संज्ञा, पु० (सं०) श्राकाश, वैकुण्ठ, स्वर्ग । ऊर्ध्वश्वास- संज्ञा, पु० (सं० ) ऊपर को चढ़ती स्वास, साँस की कमी या तंगी, दमा, उच्च श्वास । ऊर्मि (ऊर्मी ) संज्ञा, स्त्री० (सं० ) लहर, तरंग, पीड़ा, दुःख, छः की संख्या, शिकन, कपड़े की सलवट । यौ० संज्ञा, पु० (सं० ) ऊर्मिमाली - सागर, सिंधु । "" ऋ - हिन्दी और संस्कृत की वर्णमाला का सातवाँ वर्ण, इसका उच्चारण मूर्धा से होता है - " ऋटुरषाणाम् मूर्धा | संज्ञा, स्त्री० (सं०) देव-माता, अदिति, निन्दा, बुराई । संज्ञा, पु० (सं० ) सूर्य, गणेश । ऋक्संज्ञा, स्त्री० (सं० ) ऋषी, वेदमंत्र | संज्ञा, पु० ऋग्वेद | ऋक्थ संज्ञा, पु० (सं० ) धन, सम्पत्ति, सुवर्ण, पितृधन । ऋग्वेद ARTISE ATGANGEN/STROKE ऊलजलूल - वि० (दे० ) संवद्ध, अंडबंड, नासमझ, बेअदब, अशिष्ठ, अनारी । ऊलना - प्र० क्रि० दे० ) उछलना, कूदना । ऊपण - संज्ञा, पु० (दे० ) काली मिर्च | ऊषा - संज्ञा, स्त्री० (सं० ) सवेरा, श्ररुणोदय, उषा । यो० ऊषाकाल संज्ञा, पु० (सं० ) सबेरा । ऊष्म (ऊमा ) संज्ञा, पु० स्त्री० ) (सं० ) गरमी, भाप, तपन, उमस, ग्रीष्म ऋतु । वि० गरम, तप्त । यौ० ऊष्मवर्ण -संज्ञा, पु० (सं० ) श, ष, स, ह ये अक्षर । ऊसन - संज्ञा, पु० ( दे० ) सरसों का सा एक तेल देने वाला पौधा । ऋक्ष संज्ञा, पु० (सं० ) री, भालू, तारा, नक्षत्र, मेष, वृष यदि राशियाँ ऋच्छ ऊसर - संज्ञा, पु० (दे० ) ऊपर ( सं० ) अनुपजाऊ भूमि, रेतीली और लोनी भूमि । ऊसर बरसै तिन नहि जामा 'रामा० । ऊसढ़ - वि० (दे०) फीका, मीठा । ऊह - अव्य० (सं० ) क्लेश या कष्ट सूचक शब्द, श्रोह, विस्मय- सूचक शब्द | संज्ञा, पु० (सं० ) अनुमान, विचार, तर्क, दलील, किंवदंती, अफवाह | संज्ञा, स्त्री० ऊहाकल्पना, अनुमान । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 66 ऋ ऊहापोह - संज्ञा, पु० ( सं० ऊह + अपोह ) तर्क-वितर्क, सोच-विचार | ܕܙ (रिन्छ ) (दे० ) भिलावाँ रैवतक पर्वत, शौनक वृक्ष । यौ० ऋक्ष जिह्वा -संज्ञा, पु० ( सं० ) एक प्रकार का कुष्ट । ऋक्षपति -संज्ञा, पु० (सं० ) जाम्बवान, चन्द्रमा । नक्षत्रेश | ऋतवानसंज्ञा, पु० (सं० ) नर्मदा से गुजरात तक फैला हुआ एक पर्वत । For Private and Personal Use Only ऋग्वेद -संज्ञा, पु० (सं० ) चार वेदों में से प्रथम, वेदाग्रणी । वि० ॠग्वेदी ऋग्वेद का जानने वाला । वि० ॠग्वेदीय । Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ऋचा ३५८ ऋषभ ऋचा—संज्ञा, स्त्री. (सं० ) पद्यात्मक वेद- यौ० संज्ञा, पु. (सं०) मृतदेय यज्ञ मंत्र, कांडिका, स्तोत्र। विशेष, छोटा। ऋच्छरा—संज्ञा, स्त्री० ( दे० ) वेश्या। अति-संज्ञा, स्त्री० ( सं० । निन्दा, स्पर्धा, ऋजोष-संज्ञा, स्त्री. (सं० ) सोमलता, गति, मंगल । कोक, लोहे का तसला। ऋत--संज्ञा, स्त्री० ( सं० ) प्राकृतिक दशाओं जु----वि० ( सं० ) सीधा, सरल, सुगम, के अनुसार वर्ष के दो दो मास वाले छः सहज, सज्जन, प्रसन्न, अनुकूल । विभाग - बसंत ग्रीष्म वर्षा, शरद, हेमंत, ऋजुता-संज्ञा, पु. ( सं० ) सरलता, शिशिर । रजोदर्शनोपरान्त स्त्रियों की गर्भसीधापन, सिधाई (दे० ) सज्जनता, धारण-योग्यता का समय । गौ० ऋत सुगमता । यौ० ऋजुकाय संज्ञा, पु० (सं०) एर्ण--संज्ञा, पु. ( सं० ) एक अयोध्याकश्यप मुनि । वि० सीधी देह ।। नरेश। ऋतुराज–संज्ञा, पु० (सं० वसन्त । जुभुज-संज्ञा, पु० (सं० ) सीधी रेखा। ऋतुचर्या---संज्ञा, स्त्री० (सं० ) ऋतुओं के (+क्षेत्र )-संज्ञा, पु० (सं० ) सीधी अनुकूल आहार-व्यवहार की व्यवस्था । रेखाओं से घिरा हा क्षेत्र । ऋतुमती---वि० स्त्री. ( सं० ) रजस्वला, शा--संज्ञा, पु. (सं० ) कुछ काल के पुष्पवती, मासिकधर्म-युक्ता. जिन स्त्री के लिये किसी से कुछ धन लेना, उधार, कर्ज, रजोदर्शन के बाद १६ दिन न बीते हों ऋन, रिन (दे०)। और जो गर्भधारण के योग्य हो, ऋतुवती। मु०--ऋण उतरना--कर्ज़ अदा होना। ऋतुस्नान-संज्ञा, पु. (सं० ) स्त्रियों का ऋगा चढ़ना --- ज़िम्मे रुपये निकलना, रजोदर्शन से चौथे दिन का स्नान । वि० व्याज से कर्ज़ बढ़ना. नियत समय से ऋण स्त्री. (सं०) ऋतुस्नात...--रजोदर्शनानन्तर मुक्ति में देर होना । मा टना ! कृत स्नान । ( पटाना )--कर्ज़ चुकना या चुकाना। ऋविज-संज्ञा. पु० (सं० ) यज्ञकर्ता, यज्ञ यो० ऋण-पत्र--तमस्सुक पत्र । ऋगण- में वरण किया हुआ, ये १६ हैं, ४-मुख्य मुक्त-वि० (सं० ) उऋण, ऋण-रहित । हैं, १-होता, २ अध्वर्यु, ३ उद्गाता ४ ब्रह्मा, (+पत्र )---फारिग़ख़ती । ऋणमार--- पुरोहित, याजक । खो० अार्विजी। वि० (सं० } जो कर्ज लेकर उसे न दे। ऋद्ध...वि० सं०) सम्पन्न समृद्ध, धनाट्य । णमार्गण-संज्ञा, पु० ( सं० ) जमानत, | ऋद्धि-संज्ञा, स्त्री० (सं० ) एक औषधि ज़मानतदार, प्रतिभु, जामिन। ऋणापन- ( कंद ) समृद्धि, बढ़ती, विभव, पार्वती, यन—संज्ञा, पु. ( सं० ) ऋण-शोधन, आर्याछन्द का एक भेद। यौ० ऋद्धिकर्ज़ चुकाना। सिद्धि-संज्ञा, स्त्री० (सं० ) समृद्धि और मृणार्ण--संज्ञा, पु. यो० (सं० ) कर्ज़ सफलता जो गणेश जी की दासियाँ हैं । चुकाने को लिया हुआ कर्ज़। निया-संज्ञा, 'पु० (दे०) ऋणी, कर्जदार । ऋणो-वि० (सं० ऋणिन्) ऋण लेने वाला, ऋभु-संज्ञा, पु. ( सं० ) एक गण-देवता । कर्जदार । ऋणिक, ऋगिया (दे०) भुत-संज्ञा, पु० (सं० ) इंद्र, वज्र, देनदार, अनुगृहीत, कृतज्ञ। स्वर्ग । स्त्री० मुला-इन्द्राणी, शची। ऋत-संज्ञा, पु० ( सं० ) सत्य, उच्चवृत्ति से ऋषभ---संज्ञा, पु० (सं० ) बैल, श्रेष्ठता निवाह, जल, मोक्ष। वि० दीप्त, पूजित। वाचक शब्द राम-सेना का एक कपि, बैल यौ० संज्ञा, पु० (सं० ) ऋतधामा-विष्णु, । के आकार का एक दक्षिणी पर्वत, सात For Private and Personal Use Only Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ऋषि एक स्वरों में से दूसरा (संगी० ) एक जड़ी ऋषिक----संज्ञा, पु० (सं० ) दक्षिण का एक (हिमालय की)। वि० श्रेष्ट। देश (वाल्मी०) ऋष्टिक । यौ० ऋषभ देव-नाभिनृप-पुत्र, विष्णु के अपोक-संज्ञा, पु० ( सं०) ऋषि-पुत्र । एक अवतार । ऋपमध्वज-संज्ञा, पु० ऋष्य-संज्ञा, बु. ( सं० ) मृग विशेष, (सं० ) शिव, महादेव। स्त्री० ऋषभी- चितकबरा मृग। यौ० ऋष्यकेतु-संज्ञा, पुरुष के से गुणों वाली स्त्री। पु. (सं० ) अनिरुद्ध । ऋष्यप्रोक्ताऋषि-संज्ञा, पु. ( सं० ) वेदमंत्र प्रकाशक, संज्ञा, स्त्री० सं० ) सतावर । मंत्रद्रष्टा, आध्यात्मिक और भौतिकतत्वों ऋष्यमूक-संज्ञा. पु. ( सं०) दक्षिण का का साक्षात्कार करने वाला, तपस्वी। यो० । एक पर्वत । रोखमूख (दे०)। । ऋपिमित्र--संज्ञा, पु० (सं० ) विश्वामित्र मृत्यग-संज्ञा, पु. (सं०) विभांडक (राम०) । ऋषिमृणा-~ऋषियों के प्रति ऋषि के पुत्र श्रृंगी ऋषि जिन्हें लोमपादकर्तव्य, जो वेद के पठन-पाठन से पूर्ण होता नृप की कन्या शान्ता व्याही थी, इन्हीं के है । ऋपिकुल्या---संज्ञा, स्त्री० (सं० ) एक पुत्रेष्टीयज्ञ कराने से रामादि का जन्म नदी। हुआ था। ए--हिन्दी-संस्कृत की वर्णमाला का ११ वाँ एकत-वि० दे० (सं० एकान्त ) एकान्त, अक्षर जो संयुक्त स्वर ( अ-इ) है, और । निराला, अकेला।। कंठतालव्य है । संज्ञा पु० (सं० ) विष्णु। एक-वि० (सं.) इकाइयों में सबसे छोटी अव्य० (सं०) सम्बोधन-सूचक शब्द। सव० और प्रथम संख्या, अद्वितीय, अनुपम, कोई, (दे०) (सं० एप) यह । संज्ञा, स्त्री० (सं० ) अनिश्चित, एक ही प्रकार का, समान, तुल्य, अनसूया, आमंत्रण, अनुकम्पा । अकेला, रीति । एच-पंच----संज्ञा, पु० (फा० पंच ) उलझन, मु०---एक अंक (आँक) ध्रुव ( एक ही) धुमाव, टेढी चाल, घात । बात पक्की या निश्चित बात, एक बार । एंजिन-संज्ञा, पु० (अ.) इंजन । " एकहि आँक इहै मन माँही"-रामा० । एडा-बंडा--वि० ( हि० बेड़ा । डा --- एक (रीति) न आना-ढंग न आना । अनु० ) उल्टा-सीधा, टेढ़ा-मेढ़ा। एक आँख से देखना--समान भाव या एंडो-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० एरंड) अंडी दृष्टि रखना। एक आँख न आनाके पत्ते खाने वाला एक रेशम का कीड़ा, तनिक भी न सुहाना । एक-आध-थोड़ा, इसका रेशम, अंडी, मूंगा। संज्ञा, स्त्री० कम, इक्का-दुक्का । एक-एक--प्रत्येक, सब, (दे०) एड़ी, पैर के तलवे का अंतिम भाग। अलग अलग, पृथक-पृथक् । एक-एक ऍडुआ-संज्ञा, पु० (०) गडुरी, सिर पर करके --धीरे-धीरे, क्रमशः, एक के बाद बोझ के लिये कपड़े की गद्दी। एक । एक कलम-बिल्कुल, सब । एकंग---वि० दे० (सं० एक | अंग ) एकांग, ( अपनी और किसी की जान ) एक अकेला, एक ओर का, एक तरफ़ा । एकांगा करना-मारना और मर जाना, दोनों ( दे०)। स्त्री. एकांगी-अकेली, एक की दशा समान करना । एकटकओर की। अनिमेष, नज़र या दृष्टि गड़ाकर, लगातार For Private and Personal Use Only Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir एकचक्र एकया देखते हुए । एकतरह-समान, तुल्य । एकडाल-संज्ञा, पु० (हि. ) एक ही बोहे एकतार-एक ही रंग-रूप का, समान, का बना पूरा कटार । लगातार, बराबर, समभाव से । एक | एकतः-क्रि० वि० (सं० ) एक ओर से। तो--- पहले तो । एकदम-लगातार, एकत-क्रि० वि० (दे०) एकत्र, एक जगा अकस्मात् । एकाएक---- फ़ौरन । एक पर । " कहलाने एकत बसत अहि-मयूरबारगी-एक साथ । एकदिल-खूब मृग-बाव ''—वि० । मिला-जुला, एक ही विचार का, अभिन्न एकतरफा-यौ०--वि० ( फा० ) एक पद हृदय । एक दूसरे का, को, पर, में, से ---- __ का, पक्षपात ग्रस्त, एक रुख । परस्परं । एक न चलना--कोई युक्ति | मु०-एकतरफा डिगरी--- मुद्दालैह की सफल न होना । एक न गलना-काई | गैरहाजिरी पर मुद्दई को प्राप्त होने वाली उपाय न लगना। एकपेट के–एक ही डिगरी, पक्षपात । माँ के, सहोदर ( भाई ) । एक ब एकता--संज्ञा, स्त्री. (सं० ) ऐक्य, मेल, एक-अकस्मात्, एक बारगी। एकबात | समानता । वि० (फ़ा०) अद्वितीय, अनुपम। ( सौ बात की)-ठीक या पक्की बात, संज्ञा, स्त्री० एकताई । दृढ़ या ध्रुव, सच्ची बात (प्रतिज्ञा )। एक एकतान-वि० ( सं० ) तन्मय, लीन, सा-समान, तुल्य । एक स्वर से एकाग्रचित्त, मिल कर एक। ( कहना-बोलना)—एक मत हो कर | एकतारा-संज्ञा, पु० यौ० ( हि०) एक तार कहना । एक होना-मेल करना, तद्रूप | का सितार । यौ० एक तारा । होना । एक चाल से-एक रूप या ढंग एकताल-संज्ञा, पु० (सं० ) सम ताल, से. लगातार । एक करना (आकाश- एक स्वर । पाताल )-समस्त. सम्भवासम्भव उपाय एकतालीस- वि० (सं० एकचत्वारिंशत् ) कर डालना । संज्ञा, पु० ब्रह्म, ईश्वर, चालीस और एक । संज्ञा, पु० (हि.) ४१ परमात्मा। की संख्या या अंक। एकचक्र--संज्ञा, पु० (सं०) सूर्य का रथ. | एकतीस-वि० दे० (सं० एकत्रिंश ) तीस सूर्य । वि० चक्रवर्ती। और एक । संज्ञा, पु० ३१ की संख्या । एकछत्र-वि० (सं०) बिना किसी दूसरे एकतीर्थी-संज्ञा, पु० (सं०) गुरुभाई, के आधिपत्य के (राज्य) जिसमें कहीं किसी सतीर्थ। और का राज्य या अधिकार न हो। कि. एकत्र-कि० वि० (सं०) इकठा, एक स्थान वि० एकाधिपत्य के साथ । संज्ञा, पु. पर । वि० एकत्रित । (सं० ) राजतंत्र—वह राज्य प्रणाली | एकदंत-संज्ञा, पु० (सं०) गणेश । जिसमें देश-शासन का सारा अधिकार एकदा-कि० वि० (सं० ) एक बार । अकेले एक ही व्यक्ति को प्राप्त होता है। एकदेशीय- वि० (सं० ) एक ही अवसर एकज---संज्ञा, पु० (सं० ) अद्विज, शूद्र, या स्थल के लिये, सर्वत्र न घटित होने राजा । वि० एकमात्र । यौ० एकजन्मासंज्ञा, पु० (सं० ) शूद्र, राजा। वाला, एक दिक् । संज्ञा स्त्री० (दे० ) पहिलोठी। एकदेह-संज्ञा, पु० (सं०) बुधग्रह, अभिज्ञ, वि० एकत्र, इकट्ठा। सगोत्र। एकड-संज्ञा, पु. (अ.) १३ बीधे या एकधा-प्रव्य. ( क्रि० वि० सं० ) केवल ४८४०व० ग० के बराबर का एक भू-माप।। एक बार, एकशः । For Private and Personal Use Only Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir एकनयन ३६१ एकहरा एकनयन--- वि० (सं०) काना, एकात । | एकलिंग-संज्ञा, पु० (सं० ) गहलौत राजसंज्ञा, पु. कौवा, कुवेर, सूर्य, शुक्राचार्य। पूतों ( मेवाड़ ) के कुलदेव, शिव का एक एकनिष्ठ---वि० (सं०) एक ही पर श्रद्धा नाम।। रखने वाला। | एकलौता-वि० (हि० एकला-+-पुत्र) अपने एकनी-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि० एक-1 आना) माँ-बाप का एक ही लड़का, लाड़ला। एक पाने के मूल्य का निकिल धातु का । (स्त्री० एकलोती)। एक सिक्का। एकवचन-संज्ञा, पु० (सं०) एक का वाचक एकपक्षीय-वि० (सं० ) एकतरफ़ा, एक वचन (व्या०)।। श्रोर की। एकवांज-संज्ञा, स्त्री. (हि० एक+बाँझ) एकपत्नी बन-वि० (मं० ) केवल एक ही वह स्त्री जिसके एक ही लड़के को छोड़ कर स्त्री से सम्बन्ध रखने वाला। दूसरा न हुआ हो, काक बंध्या। एकबारगी-क्रि० वि० (फा० ) एक ही एकवाक्यता--संज्ञा, स्त्री० (सं०) एकमत, बार में, अकस्मात्, सारा, बिलकुल ।। मतों का मिल जाना।। एकबाल--संज्ञा, पु. (अ.) प्रताप, ऐश्वर्य, एकवेणी-वि० (सं०) वियोगिनी, विधवा, सौभाग्य स्वीकार । एक ही बेनी ( चोटी) बनाकर बालों को एकमत-वि० (सं.) एक राय के, एक समेट रखने वाली। सम्मति, एक परामर्श ! एकशफ-संज्ञा, पु. ( सं० ) घोड़ा, एक एकम्मात्रिक-वि० (सं.) एक मात्रा का। खुर के पशु। । एकमुखी-वि० (सं० ) एक अोर लगी एकसंग-संज्ञा, पु. ( सं० एक + सञ्ज हुई. एक मुंही. एक मुख वाला। यो० + अच् ) विष्णु, सहवास । संज्ञा, पु. एक मुखी रुद्राक्ष--फाँक वाली, एक ही (सं० ) एकसंगी -संगी, साथी. लकीर वाला रुद्राक्ष । सहवासी। एकगानि - वि० (सं०) सहोदर, एक माँ के। एकसठ-वि० दे० (सं० एक षष्ठि ) साठ एकरंग--वि० (हि.) समान, तुल्य, कपट- और एक । संज्ञा, पु० एकलठ की संख्या। शून्य, सब ओर से एक सा। एकसर*~-वि० (हि. एक + सर -- प्रत्य०) एकरदन-संज्ञा, पु. ( सं० ) गणेश, | अकेला, एकहरा, एक पल्ले का। वि० (फ़ा०) एकदंत । " एकरदन सिंधुरबदन......" बिल्कुल, तमाम। एकरस-वि० (सं०) एक ढंग का, समान, | एकसार-वि० (दे०) समान, एकरस, बराबर. लगातार । एकसा। एकरार-संज्ञा, पु० (अ.) स्वीकार, प्रतिज्ञा, एकसां-वि० ( फा० ) बराबर, समान । वादा । गौ० एकरारनामा-प्रतिज्ञापत्र । एकहत्तर---वि० दे० (सं० एकसप्तति ... एकरूप-वि० (सं० ) समान प्राकृति का, अ. एकहत्तर ) सत्तर और एक। संज्ञा, ज्यों का त्यों, वैसाही, कोरा। संज्ञा, स्त्री० पु. सत्तर और एक की संख्या या अंक। (सं० ) समानता. एकता. सायुज्य मुक्ति । एकहत्था-वि० दे० (सं० एकहस्त, हि. एकल-एकला-वि० (दे०) अकेला, एक हाथ ) एक ही व्यक्ति, अकेला, एक ही एकाकी. निराला । यौ० एकला-दुकला की देख-रेख का काम । --अकेला-दुकेला । संज्ञा, पु० (दे० ) एकहरा--वि० (हि. एक+हरा-प्रत्य०) अोढनी, चादर, उत्तरीयपट । । एक परत का, एक लड़का । स्त्री० एकमा० श० को०-१६ For Private and Personal Use Only Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir एकहायन ३६२ एकादशी हरी । यौ० एकहराबदन-दुबली- | एकाएक पाई है।" ० ० । नि० वि० पतली देह । एकाएकी-एकाएक । वि० (सं० एकाकी) एकहायन-वि० ( सं० ) एक वर्ष का | अकेला। (बच्चा )। एकार—संज्ञा, पु० (सं० ) मिल कर एक एकांग-वि० (सं०) एक ही अंग का, होने की दशा, एक मय होना, अभेद । वि० एक पक्ष का । वि० पु० (स्त्री०) एकांगी---- एक समान, एक श्राकार का, एकाचार, भेद एक तरफ का, हठी। भाव-रहित। एकांत-वि. ( स० ) अत्यंत, बिल्कुल । एकाकी—वि० (सं० एकाकिन् ) अकेला, अलग, अकेला, शून्य, निर्जन, सूना । संज्ञा, तनहा । स्त्री. एकाकिनी। “ सहज एका स्त्री० एकान्तता। संज्ञा, पु. ( सं० ) ! किन्ह के भवन रामा० । निराला या सूना स्थान । यो० एकान्त- एकाल-वि० सं० ) काना (करण सं०) सेवो-एकान्त में रहने वाला। संज्ञा, पु. कौवा, शुक्राचार्य । यौ० एकाक्षएकान्तकैवल्य-संज्ञा, पु० (सं० ) जीवन रुद्राक्ष.... एक मुखी रुद्राक्ष । मुक्ति । एकाक्षरा( एकातरी)-वि० (सं० ) एक एकान्तवास-संज्ञा, पु. ( सं० ) निर्जन ही अक्षर का, एक वृत्त जिसमें एक ही स्थान में अकेले रहना। अक्षर का प्रयोग होता है। इस प्रकार का एकान्तस्वरूप-वि० ( सं० ) निर्लिप्त, वृत्त केवल संस्कृत साहित्य में ही पाया असंग जाता है । यौ० एकाक्षरी कोश-प्रत्येक एकान्तर--संज्ञा, पु० (सं० ) एक अोर, अक्षर के अलग अलग अर्थ देने वाला कोश । अलग। एकान्तर कोण-संज्ञा, पु० (सं० ) एक एका--वि० (सं० एक अग् + र ) एक ओर का कोना। ओर स्थिर अचंचल, एक ही ओर ध्यान एकान्तिक---वि० (सं० ) एक देशीय, एक लगा हुआ। यौ० एकाग्रचित्त-वि० ही स्थान पर घटित। (सं० ) स्थिर चित्त । एकान्ती-संज्ञा, पु० (सं०) अपने भगवत्प्रेम एकाता--संज्ञा, स्त्री. (सं० ) चित्त की को अपने ही में रखने और प्रगट न करने स्थिरता, मनोयोग, अचांचल्य, ध्यानस्थैर्य । वाला भक्त । एकात -वि० (सं०) सार्वभौम, एकच्छत्र, एका—संज्ञा, स्त्री० (सं०) दुर्गा, भगवती। चक्रवर्ती । संज्ञा, स्त्री० (दे० ) ऐक्य, एकता, मेल एकात्मता----संज्ञा, स्त्री. (सं० ) एकता, अभिसंधि, सहमति, एकोद्देश्य ।। अभेद, अभिन्नता, मिल कर एक होना, एकाई-संज्ञा, स्त्री० (हि. एक- आई- एकरूपता । संज्ञा, पु. एकात्मा-एक प्रत्य० ) एक का भाव, एक का मान, वह प्राण, एक देह, अभिन्न । मात्रा, जिसके गुणन या विभाग से दूसरी । एकादश-वि० (सं० ) ग्यारह (एक । मात्राओं का मान ठहराया जाय, अंक- दशन् + डट् ) ग्यारह का ग्रंक। गणना में प्रथमांक या प्रथम स्थान । एकादशाह--संज्ञा, पु. ( सं० ) मरने के इकाई (दे०)। दिन से ग्यारहवें दिन का संस्कार या कृत्य एकाएक-क्रि० वि० (हि. एक -- एक ) (हिन्दू)। अकस्मात्, सहसा । " कठिन समस्या एक एकादशी---संज्ञा, नी० (सं० ) प्रत्येक चांद्र For Private and Personal Use Only Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - - एकादिक्रम मास के शुक्ल और कृष्ण पक्ष की ग्यारहवीं एकोतरा-वि० ( दे.) एक दिन छोड़ कर तिथि, जो व्रत का दिन है, हरि-वासर। | आने वाला, इकतरा, अतरा ( दे०)। संज्ञा, एकादिक्रम-वि० (सं० एक + आदि + पु० (दे० ) रुपये सैकड़े व्याज । क्रम -- अल् ) भानुपूर्विक, अनुक्रम, क्रमिक । एकोदिष्ट-संज्ञा, पु० (सं० ) एक पितृ के एकाधिपति--संज्ञा, पु. (स०) चक्रवर्ती, लिये वर्ष में एक ही बार किया जाने वाला सम्राट । संज्ञा, पु० (सं० ) एकाधिपत्य --- | श्राद्ध कर्म । पूर्णप्रभुत्व । एकौ-वि० ( दे०) एक भी, कोई भी, एकायन---वि० (सं०) एक मति, एक मार्ग, | अनिश्चित व्यक्ति । एक विषयासक्त। । एकौझा*--वि० (दे० ) अकेला, एकाकी । एकार्णव-संज्ञा, पु० (सं०) एकाकार समुद्र। एको तना....स० क्रि० (दे० ) धान-गेहूँ में एकाथ-वि० (सं० ) एक अर्थ वाला, बाल निकलना, (दे० )। क्रि० वि० एक समानार्थ। वि० (सं०) एकार्थक, एकायों। प्रकार भी। एकावलो-सज्ञा, स्त्री० (सं०) एक अलंकार एका-वि० ( हि० एक -का--प्रत्य० ) एक जिसमें पूर्व और पूर्व के प्रति उत्तोत्तर वस्तुओं से सम्बन्ध रखने वाला, अकेला । यौ० का विशेषण भाव से स्थापन अथवा निषेध एक्कादुक्का---अकेला दुकेला। संज्ञा, पु. प्रगट किया जाय, एक प्रकार का छंद-पंकज ( दे० ) झंड छोड़ कर अकेला फिरने वाला वाटिका, एक लड़ी की माला या एक- पशु या पक्षी, एक दोपहियों कीघोड़ा-गाड़ी, लरा हार। बड़े बड़े काम अकेले ही करने वाला सिपाही एकाश्रित--ति० (सं.) एक ही पर ताश या गंजीफे में एक ही बूटी का पत्ता, आधारित रहने वाला। एक्की । एकाह-वि० (सं० ) एक दिन में पूर्ण एकावान --संज्ञा, पु. ( हि. एका - वानहोने वाला, एकाह पाठ । प्रत्य०) एक्का हांकने वाला। संज्ञा, स्त्री० एकाहिक-वि० (सं० एक + अ +इक) एक | एकावानी। साध्य, प्रति दिन उत्पत्तिशील । जैसे | एको-संज्ञा, स्त्री० ( हि० एक ) देखो एकहिक ज्वर। "एक्का '। एकीकरण-संज्ञा, पु० । सं० ) मिला कर एक्यानबे--वि० (सं० एकनवति, प्रा० एकाउइ) एक करना । वि० एकीकृत। नब्बे और एक ११ । संज्ञा, पु. ६० और १ एकोभाव----संज्ञा, पु. (सं० ) मिलाना, | की बोधक संख्या या अंक ।। एकत्र करण। एक्यावन—वि० दे० (सं० एक पंचाशतएकोभूत-वि० (सं०) मिला हुआ, मिश्रित, प्रा.एक्कावन्न ) पचास और एक । संज्ञा, मिल कर एक हुआ। पु. ५० और १ का बोधक अंक । एकंद्रिय- संज्ञा, पु० (सं० ) उचितानुचित, । एक्यासी-वि० दे० (सं० एकाशीति प्रा० दोनों प्रकार के विषयों से इंद्रियों को | एकासि ) अस्सी और एक ८१ । संज्ञा, पु. हटा कर अपने मन में ही लीन करने वाला | ८० और १ का सूचक अंक । (सांख्य )। | एखनी-संज्ञा, स्त्री० (फ़।०) मांस का रसा, एकैक-वि० (सं० एक-- एक ) प्रत्येक। । शोरबा। एकोतरसौ–वि. ( सं० एकोत्तरशत ) एक | एड़--संज्ञा, स्त्रो० दे० (सं० एडूक ) एड़ी, सौ एक। घोड़ा चलाने का कांटा। For Private and Personal Use Only Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir एड़ी मु०-एड लगान ( करना ) हांकना, रवाना एमन-संज्ञा, पु० दे० (सं० यवन, फा० यमन) होना, ऐड देना-लात मारना, उकसाना, | एक राग। उत्तेजित करना, बाधा डालना, घोड़े को एरंड—संज्ञा, पु. ( सं० ) रेंड, रेडी, एंडी से मारना। अंडी। यौ० एरंड खरबूजा-संज्ञा, पु० एड़ी-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० एडूक-हड्डी) (दे०) पपीता। संज्ञा, स्त्री. ( दे०) टखने के नीचे पैर के पीछे का गद्दीदार एरंडी-एक प्रकार की झाड़ी, तुंगा। भाग, एड़। एराक-संज्ञा, पु. (अ.) अरब का एक मु०--एड़ी घिसना ( रगड़ना ) बहुत दिनों प्रदेश । वि० एराकी--एराक का । संज्ञा, से रोग या क्लेश में पड़े रहना, बेकली में | पु. एराक देश का घोड़ा। रहना।" शब करती है एंड़ियां, रगड़ते " एरी--अव्य. स्त्री० (दे०) संबोधन-सूचव हाली। एड़ी से चोटी तक-सिर से शब्द, पु० एरे। पैर तक। एलक-संज्ञा, पु० । दे०) चलनी। एढ़ा-(वि०) दे०-वली, बलवान, टेढ़ा | एलची-संज्ञा, पु. ( तु०) राज-दूत, जो तिरछा। एक राज्य से दूसरे राज्य में संदेश ले एण-संज्ञा, पु० (सं० ) हरिण, मृग । स्त्री० जाता है। एणी-मृगी। यौ० एणाजिन--संज्ञा, पु. एला—संज्ञा, स्त्री. ( सं० ) इलाइची। (सं०) मृगचर्म, एणामद-संज्ञा, पु० " एलात्वक् पत्रकंद्राला ...वैद्य० । (सं० ) मृगमद, कस्तूरी। एलुवा--संज्ञा, पु. ( अ० एलो ) मुसब्बर, एतत् ( एतद् )—सर्व० (सं०) यह । यौ.. एक दवा। एतत्कालोन–(वि०) आधुनिक । एतद - एवं ( एवम् )---क्रि० वि० (सं० ) ऐसा शीय-वि० (सं०) इस देश का, इस ही, इसी प्रकार । यौ० एवमस्तु ऐसा स्थान का । एतदर्थ-अव्य० (सं०) इस ही हो । अन्य०---ऐसे ही और इसी लिये , इस कारण । प्रकार और । एतबार-संज्ञा, पु. ( अ. ) विश्वास, | एव---अव्य० (सं०) एक निश्चयार्थक शब्द, प्रतीति । वि० एतबारी। ही, भी। एतराज-संज्ञा, पु० (अ०) विरोध, धापत्ति । एवज-संज्ञा, पु. ( अ.) प्रतिफल, प्रतिएतवार-संज्ञा, पु० (दे०) इत्तवार, इतवार, कार, बदला, स्थानापन्न, दूसरे के स्थान पर रविवार। एता (एतो )-वि० दे० (सं० इयत् ) कुछ समय के लिये काम करने वाला । संज्ञा, स्त्री० ( अ ) एवजी। इतना । ( स्त्री० एती)। एह --सर्व० दे० (सं० एषः) यह । वि० एतादृक् ( एतादृश् )-वि० (सं० ) ऐसा, इस प्रकार का। यह । एहा (दे०) " सब का मत खगएतावत (एतावता)-अव्य० (सं० ) इतना नायक एहा ''-रामा०। ही, यहाँ तक । इस कारण, इस लिये। एहतियात-संज्ञा, स्त्री० (अ.) सावधानी, यौ० एतावन्मात्र–इतना ही। परहेज़, चौकसी। एतिक-वि० स्त्री. (दे० एती+इक ) एहसान-संज्ञा, पु० (अ.) उपकार,कृतइतनी, इतनी ही। ज्ञता, निहोरा । वि० एहसानमंद (अ.) एनस-संज्ञा, पु. ( दे.) पाप, अपराध । कृतज्ञ, निहोरा मानने वाला। वि० एनसी। | एहि सर्व० दे० ( हि० एव ) विभक्ति के पूर्व For Private and Personal Use Only Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir एह का रूप, इसको । “एहिते अधिक धर्म नहि दूजा ।'-- रामा० ।। एहु ( एहू )-सर्व० दे० (हि० एह ) यह ऐतरेय भी, यही, और भी। एही--अव्य० (दे० ) संबोधन शब्द, है, ऐ। ए--संस्कृत की वर्णमाला का बारहवाँ और । लिये प्रेरित करना । संज्ञा, पु. एंठा---रस्सी हिन्दी का नवाँ स्वर ( संयुक्त स्वर ; जिसका बटने का एक पंच । वि० ----अकड़ा। उच्चारण-स्थान कंठ तालु (एदेता कंठ- एंड -- संज्ञा, पु० दे० (हि. ऐंठ) एंठ, उसक, तालुः ) है। अव्य ..---संबोधन-शब्द, ए, गर्व, पानी की भँवर । वि. निकम्मा, नष्ट । हे, रे । संज्ञा, पु. ( सं०) शिव, आमंत्रण । वि० एंडदार--गर्वीला, टेढ़ा । “ एंड ऐं-अव्य० । अनु० ) भली-भाँति, न सुनी वुन्देल खंड की राखी"..-छत्र । या समझी बात को फिर से कहलाने के ऐडना-अ. क्रि० दे० (हि. ऐठना ) लिए प्रयुक्त होता है, अाश्चर्य-सूचक। ऐंठना, अँगड़ाना, इतराना, घमंड करना । ऐचना-स० क्रि० दे० (हि. खींचना) स० कि०-ऐठना, अँगड़ाना। खींचना, तानना, पर-ऋण को अपने ऊपर ऐंडबैंड (एडाडा )-वि० दे० ( अनु०) लेना, गोदना । संज्ञा, पु० ऐच। एच्यो टेढा, एड़ाबेंडा। वि० एंडा--टेढ़ा, एठा हँसि देवन माद कियो -- " राम। हुश्रा । स्त्री० एंडी। एचाताना--वि• यौ० (हि. ) जिसकी ऐडाना-अ० कि० हि० ऐंडना ) अँग आँख की पुतली दूसरी ओर खिंच जाती हो. डाना, बदन तोड़ना, अकड़ना, इठलाना । भेगा।... सवा लाख में एंचाताना"। "महा मीत्रु मूरति मनौ, एंडानी जमुएचातानी--संज्ञा, स्त्री० यौ० ( हि० ) हाय ।".--रधु० । खींचाखींची, श्राग्रह । वि० स्वी० भेंगी स्त्री। एंद्रजालिक-वि० (सं० ) इंद्र जाल करने पंछनास-स० कि० दे० (सं० उच्छन : वाला, मायाबी । संज्ञा, पु. बाजीगर, कलाबाज़। चुनना ) साफ़ करना, खींचना, कंघी करना, ऊँछना ( दे०)। "देह पोंकि पुनि ऐछि एंद्री-संज्ञा, स्त्री० (सं० ) इन्द्राणी, शची, दुर्गा, इलायची। स्याम कच" रघु०। ऐक्य-संज्ञा, पु. (सं० ) एक का भाव, ऐंठ-संज्ञा, स्त्री० दे० ( हि० ऐठन ) अकड़, एकत्व, एका, मेल । उसक, गर्व, द्वेष, विरोध, दुर्भाव, मरोड़।। । ऐकाहिक-वि० (सं० ) एक दिन का, एक ऐठन-संज्ञा, स्त्री० (सं० आवेष्ठन ) मरोड़, दिन के अन्तर से आने वाला ज्वर, अतरा। लपेट, पेंच, खिंचाव, 'अकड़, तनाव, लपेट। ऐगुन--संज्ञा, पु० ( दे०) अवगुण (सं०) ऐंठना-स. क्रि० दे० ( सं० आवेष्ठन ) औगुन (दे० )। मरोड़ना, बल देना, धोखा देकर या दबाव ऐच्छिक-वि० (सं० ) अपनी इच्छा पर डाल कर लेना, फँसना । अ० कि० बल निर्भर, स्वेच्छाधीन। खाना, तनना, अकड़ना, खिंचना । ऐजन-अव्य० (अ.) तथा, तथैव, वही । मरना, टर्राना, टेढ़ी बातें करना. गर्व ऐलरेय--संज्ञा, पु० (सं० ) ऋग्वेद का एक दिखाना । (प्रे० रूप ) ऐंठपाना-ऐठने के ब्राह्मण, एक अरण्यक । For Private and Personal Use Only Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ऐहिक ऐतिहासिक ऐतिहासिक वि० ( सं० ) इतिहास- | ऐरा गैरा—वि. (अ. गैर ) फ़ालतू, सम्बन्धी, इतिहास जानने वाला, इतिहास अजनबी, तुच्छ, हीन । का, इतिहास-सिद्ध । ऐराक-संज्ञा, पु० देखा-'एराक' । ऐतिह्य—संज्ञा, पु० (सं० ) परम्परा-प्रसिद्ध ऐरापति--संज्ञा, पु. (दे०) ऐरावत हाथी । प्रमाण, लोक-श्रुति। ऐरावण संज्ञा पु० (दे०) रावण सुत । ऐन--संज्ञा. पु. ( दे० ) अयन (सं० ) ऐरावत--संझा, पु. (सं० ) बिजली से घर, एण ( सं० ) कस्तुरी । वि.... (अ.) चमकता हुआ बादल, इन्द्र-धनुष, बिजली, ठीक, उपयुक्त, बिलकुल. सटीक, पूरा। पूर्व दिशा का दिग्गज, इंद्र वाहन । संज्ञा, “साहितनय सिवराज की, सहज टेवं यह स्त्री. ऐरावती-बिजली, ऐरावत की ऐन'--भू०। हथिनी, रावी नदी। ऐनक-संज्ञा, स्त्री० ( अ० ऐन, सं० नयन, ऐरेय--संज्ञा, पु० (सं०) एक प्रकार का मद्य । आँख ) आँख का चश्मा, ऐना। पल-संझा, पु. ( सं० ) इला नृप का पुत्र, ऐना-संज्ञा, पु० ( अ० प्राइना ) दर्पण, पुरूरवा। संज्ञा,* ( हि० अहिला ) बाड़, शीशा, चश्मा। | बूड़ा, प्रबल प्रवाह, प्रचुरता, अधिकता, ऐनि-संज्ञा, पु० (सं०) सूर्य-पुत्र । कोलाहल, समूह । "......श्राइबे को चढ़ी ऐणिक-वि० (सं० ) मेष नाशक, हरिण उर होसनि की ऐल है"--भू० । का मारने वाला। ऐश-संज्ञा, पु० (अ.) पाराम, चैन, भोगऐपन-संज्ञा, पु० दे० (सं० लेपन ) हल्दी विलास । ऐस (दे०) यौ० ऐशो-आराम। के साथ गीला पिसा चावल जिससे व्याह ऐशानी---वि० ( सं० ) ईशान कोण. या देवार्चन में थापा लगाते हैं। यौऐपन सम्बन्धी। बारो-व्याह में ऐपनादि भेजने की रस्म। ऐमू --संज्ञा पु० (दे० ) पशुओं का एक ऐप-संज्ञा, पु० (अ.) दोष, दूषण, कलंक, क. रोग जिसमें वे पागुर करना छोड़ देते हैं। अवगुण । वि० ऐबी-खोटा, बुरा, दुष्ट, ऐश्वर्य-संज्ञा, पु० ( सं० ) विभूति, धनविकलांग -( काना )। संज्ञा, स्त्री० ( दे० ) संपत्ति, सिद्धियाँ, प्रभुत्व, महिमा, गौरव । ऐबजाई-दोष ढूंढना। वि० ऐश्वर्यवान, ऐश्वर्य शाली। स्त्री. ऐवारा—संज्ञा, पु. ( प्रा० ) भेड़-बकरियों ऐश्वर्य शालिनी। ऐपमः--अव्य० ( सं० ) वर्तमान वर्ष । का बाग । ऐषीक-संज्ञा, पु. ( सं० ) त्वष्टा देव का ऐय्या--- संज्ञा, स्वा० द० ( स० आया, श्रा० मंत्र पढ़ कर चलाया जाने वाला एक अस्त्र । अज्जा ) दादी, बूढ़ी स्त्री, माता, अइया । ऐस ( ऐसा )---वि० दे० ( सं० ईदृश्) इस ऐयार-संज्ञा. पु० ( अ० ) चालाक, धूर्त, | प्रकार का, इसके समान । ( स्त्री० ) ऐसी, छली, धोखेबाज़, मायावी । स्त्री० ऐयारा। क्रि० वि० ऐने- इस भाँति से। संज्ञा, स्त्री. ऐयारी, चालाकी, धूर्तता। 30-ऐसा-तैसा (ऐसासा) साधारण, ऐयाश-वि० (अ.) ऐश-आराम करने । तुच्छ, यों ही, न भला न बुरा। ऐसीवाला, विलासी, विषयी, लंपट, इंद्रिय- तैसी----एक प्रकार की गाली। लोलुप। संज्ञा, स्त्री० ऐयाशी---विषयासक्ति, ऐहिक-वि० (सं० इह ) इस लोक से भोग-विलास। । सम्बन्ध रखने वाला, लौकिक, सांसारिक । For Private and Personal Use Only Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रो प्रोजस्विनी ओ प्रो-संस्कृत-वर्णमाला का तेरहवाँ और समूल, पाश्रम, समूह। संज्ञा, स्त्री० (अनु०) हिन्दी वर्णमाला का दसवाँ स्वर वर्ण, मिचली, न । संज्ञा, पु० (हि. बूक ) संयुक्त स्वर । अ+उ) जिसका उच्चारण- अंजलि । क्रि० अ० अोकना--के करना। स्थान -कंठ और श्रोष्ठ है ( " श्रोदौतौ- ओकाई-संज्ञा, स्त्री० (दे० ) वमन, के । कंठोष्ठौ ,) अव्य०-सबोधन, करुणा, प्रोकेश-----संज्ञा, पु० (सं० ) सूर्य, चन्द्र । विस्मय या आश्चर्य-सूचक शब्द । संज्ञा, अोखद:--- संज्ञा, पु० (दे० ) औषध, दवा । पु० (सं०) ब्रह्मा, विष्णु । ओखरी (ोखलो ---संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० ओं-अव्य० ( अनु०) अधीगीकार या उलूखल) ऊखल । स्वीकृति-सूचक शब्द. हाँ, अच्छा, तथास्तु.: go ---अमोललो में सिर देना-कष्ट सहने ब्रह्म-सूचक शब्द जो प्रणव वाचक है, पर उतारू होना। ओ३म् का सूक्ष्म रूप । ओला-रंज्ञा, पु० दे० (सं० अोख ) मिस, श्रोइकना--स० कि० दे० (सं० अंचन् ) बहाना, हीला । वि० ( सं० ओख-सूखना ) वारना, निछावर करना, अोछना, ऐंछना। सूखा सूखा, कठिन, विकट, टेढ़ा, खोटा, ओंकार-संज्ञा, पु० (सं० ) ब्रह्म-सूचक जो शुद्ध या खालिस न हो, चोखा का ओं शब्द, सोहन पक्षी। विपरीत, झीना, विरल । भोंकना ( कना )-अ० कि० (दे० ) प्रोग: ----संज्ञा, पु० दे० (हि. उगहना ) चंदा, के करना. भैंस के समान चिल्लाना, कर, महसूल । “सूर हमहि मारग जनि ऊबना, फिर जाना। "मो से कहा हरि रोकहु धरले लीजे श्रोग"..-- सूर० । को मन ओंको"..-सुदा० । आगरा-संका, पु० (दे०) खिचड़ी. पथ्य । अंगता-स० कि. दे. (सं० अंजन ) अोध - संज्ञा, पु. ( सं० ) समूह, ढेर, घनत्व, गाड़ी की धुरी में चिकनई लगाना ताकि बहाव । धारा, समय श्राये सब हो जायगा' पहिया आसानी से घुमे । संज्ञा, पु० ऑग। ऐसा संतोष, काल-तुष्टि (सांख्य ) पुंज, प्रे० स० क्रि० श्रीगाना। प्रवाह, राशि । ओंठ--संज्ञा, पु० दे० (सं० प्रोष्ठ, प्रा० अोछा-वि० दे० (सं० तुच्छ ) तुच्छ, शुद्र, अोठ ) लब, होठ, ओठ, अधर। छिछोरा, खाटा, जो गहरा न हो, छिछला, -ओठ चबाना -- क्रोध और दुख हलका, छोटा, कम, नीच । संज्ञा, स्त्री० प्रगट करना, ओंठ चाटना-स्वादिष्ट वस्तु ओछाई --ओछापन, तुच्छता। खाकर स्वाद के लिये लालच से अोठों पर प्रोज-संज्ञा, पु० (सं० प्रोजस ) बल, प्रताप, जीभ फेरना । ओंट फड़कना-कोध से तेज, उजाला, प्रकाश, वीरता आदि का श्रोठों का झाँपना। श्रावेश पैदा करने वाला एक काव्य-गुण, श्रोडा--वि दे० (सं० कुण्ड) गहरा.. शरीर के भीतर के रसों का सार-भाग, काँति। गंभीर । संज्ञा, पु०-गड्ढा, चोरों की खोदो ओजस्विता--संज्ञा, स्त्री. (सं० ) तेज, हुई सेंध। कांति, दीप्ति, प्रभाव। अोंक-संज्ञा, पु० (सं० ) घर, निवास-स्थान, ओजस्विनी-वि० स्त्री० (सं० ) श्रोज-पूर्ण, आश्रय, ठिकाना, नक्षत्रों या ग्रहों का प्रावेश-पूर्ण। For Private and Personal Use Only Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir MARAT प्रोजस्वी ३६८ श्रोढ़री ओजस्वी-वि० (सं० भोजस्विन् ) शक्ति- की वस्तु, वार रोकने की चीज़, ढाल, शाली, प्रभाव-पूर्ण। फरी । यौ० अोडन-खांडे-पटेबाज़, अोझ-संज्ञा, पु. दे. ( सं० उदर हि ढाल-तलवार । श्रोझल ) पेट की थैली, पेट, प्रांत, ( दे.) प्रोडना-स० कि० (हि. भोट ) रोकना, प्रोकर--(सं० उदर ) पेट । वारण करना, ऊपर लेना, ( कुछ लेने के झिल ---संज्ञा, पु० दे० (सं० अबरुन्धन, लिये ) फैलाना, पसारना, सहना, “अोड़िय प्रा० अोरुन्झन ) श्रोट, आड़. छिपाव, हाथ असनि के घाये".--रामा० । ' कर एकांत । बो० आमल हाना (करना) ओड़त कछ देह''- पद्मा। धारण करना, छिपना. ( छिपाना ) श्रोट में होना, " सावधान है सोक निवारौ श्रोड़ह दाहिन या करना। हाथ" सुर०। श्रोझा-संज्ञा, पु० दे० (सं० उपाध्याय ) प्रोडघ-संज्ञा, पु. (सं० ) रागों की एक सरयूपारी, गुजराती और मैथिल ब्राह्मणों की जाति, पाँच ही स्वर वाला राग । एक जाति, भूत-प्रेत झारने वाला, सयाना। अंडा-सः। पु. (दे०) बड़ा टोकरा. संज्ञा, स्त्री० आझाई-प्रोझा वृत्ति, भूत- खाँचा । संज्ञा, पु. कमी, घाटा, टोटा। प्रेत के झाड़ने का काम. आभाइत । श्रोड... संज्ञा. पु. ( सं० ) उड़ीसा देश, ऑट-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० उट = घास-फूस ) वहाँ का निवासी । श्राड़, रोक जिससे सामने की वस्तु न दिखाई अोढ़न (ोढ़ना )- संज्ञा, पु. (दे०) दे, व्यवधान । मु०-प्रोड में बहाने या चादर, चदरा, दुपहा, वस्त्र । हीले से श्राड़ करनेवाली वस्तु, शरण, अोढ़ना -- स. क्रि० दे० (सं० उपवेष्ठन ) रक्षा, पनाह । शरीरांग को वस्त्र श्रादि से आच्छादित करना, प्रोटना-स. क्रि० दे० (सं० आवर्तन) अपने सिर या माथे पर लेना, अपने ऊपर कपास को चरखी में दबाकर रुई और। लेना, ज़िम्मेदारी लेना पहिनना, रक्षा बिनौलों को अलग करना. अपनी ही बात करना । संज्ञा. पु० श्रोदने का वस्त्र । कहते जाना, पुनरुक्ति करना, पोलना, | श्रीदनी --- संज्ञा. स्त्री० दे० ( हि० अोढ़नी) दलित या चूर्ण करना, कष्ट देना । स० क्रि० स्त्रियों के प्रोढ़ने का चादर, उपरैनी, (हि. मोट) अपने ऊपर सहना ( लेना) फरिया। ोड़ना ( श्रोढना) श्रोट करना। ओढ़र -- संज्ञा, पु. ( दे० ) मोड़ना श्रोटनी (ओटी)- संज्ञा, स्त्री० (हि. प्रोटना) (हि.) बहाना।। कपास मोटने की चरखी, बेलनी, भाड़, रोक, अोढ़रा--संज्ञा, पु० (दे०) वह पुरुष छिपाव। जिसका व्याह न हुआ हो या जिसकी श्रांठंगना--- अ० कि० दे० (सं० अवस्थान- स्त्री मर गई हो और वह दूसरे की स्त्री अंग ) टेक लगाकर बैठना, सहारा लेना, । को रखे हो। थोड़ा पाराम करना, कमर सीधी करना, प्रोढरना--संज्ञा, स्त्रो० (दे० ) अपने पति टेक लगाना। को छोड़ कर दूसरे पुरुष के यहाँ रहना। प्रोटंगाना-स० कि० दे० ( हि० अोठंगना) “थोदर जाय औ रोवै" धाव।। सहारे से टिकना, भिड़ना, किवाड़ बंद अोढरी-रज्ञा, स्त्री० (दे० ) अपने पति करना या श्रोटकाना। को छोड़ कर पर पुरुष या दूसरे आदमी के श्राइन-संज्ञा, पु० (हि. ोड़ना ) मोड़ने । यहाँ रहने वाली स्त्री, रखेली। For Private and Personal Use Only Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir M AHANI me ओढ़ाना ओर ओढ़ाना-स० कि० दे० (हि. अोढ़ना) अोधाना-स० कि. (दे०) उलझाना, ढाँकना, कपड़े से आच्छादित करना। अटकाना, काम में लगाना, फंसाना । प्रोत-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० अवधि) श्राराम, | अोधे-संज्ञा, पु० ( दे०) अधिकारी, भीतचैन, आलस्य, किफ़ायत । संज्ञा, स्त्री० (हि० रिया, ठाकुरजी का रसोइया (वल्लभ संप्रदाय) आवत) प्राप्ति, बचत, लाभ । " मेरू वि० उलझा, व्यस्त । मैं लुकाने ते लहत जाय श्रोत हैं " भू०। प्रोनचन--संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. ऐचना ) पु० (दे.) ताने का सुत, वि० बुना हुआ, खाट में पैताने की रस्सी, अदवाइन, ओरगुथा हुआ। चावन । क्रि० स० ओनचना-पैताने की श्रोत-प्रोत-वि० (सं० ) बहुत मिला-जुला, | रस्सी खींच कर कड़ा करना। इतना उलझा हुआ कि सुलझाना असंभव अोनवना ---अ० कि० (दे०) उनवना, हो, जटिल । संज्ञा, पु. ताना-बाना। घिरना, झुकना, टूटना, घिरना। श्रोता (ोतो-प्रोत्ता) -वि० (दे०) | श्रोनाइ-संज्ञा, पु० दे० (सं० उद्गमन ) उत्ता, उतना ( हि० ) स्त्री० पोती तालाबों में पानी निकलने का मार्ग, "दुइजहि जोति कहाँ जग अोती"--प० । निकास । वि० (सं० ऊन ) कम । ओतु-संज्ञा, स्त्री० (सं०) बिल्ली, बिलारी। | अोनामासी-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० ऊँ. प्रोतुप्लुत-वि० (सं०) उलटा, विपरीत। नमः सिद्धम् ) प्रारम्भ, शुरू, अक्षरारम्भ । अोथरा--वि० दे० (हि. उथला ) छिछला, ओप-संज्ञा, स्त्री० (दे०) दीप्ति, चमक, उथला । स्त्री० ओथरी। __ काँति, आभा, शोभा, पालिश, जिलह, अोद--संज्ञा, पु० दे० (सं० आई ) नमी, तरी, गीलापन । वि० नम, तर, गीला। प्रोपची. संज्ञा, पु० दे० (सं० अोप ) वि० अोदा-(सं० उद - जल ) गीला। कवच-धारी, योधा, अस्त्रधारी, रक्षक । स्त्री० अोदी। संज्ञा, स्त्री० अोदाई। अोपना---स० कि० दे० (सं० आवपन) अोदक-संज्ञा, पु० (सं० ) पानी, जल । चमकाना, साफ़ करना, प्रकाशित करना, श्रोदन --संज्ञा, पु. ( सं० ) पका हुआ पालिश या जिलह करना । अ० कि० (दे०) चावल, भात। झलकना, चमकना। वि० स्त्री० ग्रोपअोदर- संज्ञा, पु० (दे०) उदर (सं०) निवारी, ओपवारी। पेट । वि० ख़ुदा हुआ। मोदरना--अ. कि. (हि. प्रोदारना) अोपनी-- संज्ञा, स्त्री० (दे० ) माँजने या विदीर्ण होना, फटना, छिन्न-भिन्न होना, | घोटने की वस्तु । नष्ट होना, खुदना । " श्रोदरहिं बुरुज प्रोफ--अव्य ( अनु० ) पीड़ा, खेद, शोकजाँहि सब पीसा''-प० । सूचक शब्द । श्रोदारना ---स. क्रि० (दे० ) (सं० ग्रोबरी-संज्ञा, स्त्री० (दे० ) तंग कोठरी । अवदारण ) फाड़ना, खोदना, विदीर्ण करना, | ओम् ( ओ३म् )-संज्ञा, पु० (सं०) प्रणवछिन्न-भिन्न या नष्ट करना। मंत्र, ओंकार । अोधना-अ० कि० (दे०) बँधना, उलझना अोर-संज्ञा, स्त्री० दे० ( सं० अवार ) नियत काम में लगना, “भारत होइ जूझ जौ स्थान के अतिरिक्त शेष विस्तार, तरफ़, औधा'"--प० । दिशा, किनारा, पक्ष, छोर। संज्ञा, पु. श्रादि, श्रोधान-वि० (दे०) लड़ने में व्यस्त श्रारंभ, पार्श्व, सिरा, छोर, पक्ष । यौ० होना, तैय्यार या लगा होना, उलझना। । ओर-छोर । भा. Team -00 For Private and Personal Use Only Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ओरौती ३७० श्रोसाई मु० ओर निबाहना (निभाना ) अंत ओलरना ( उलरना)-अ० कि. (दे०) तक अपना कर्त्तव्य पूरा करना। लेटना। ओरौती ( ओरती )--संज्ञा, स्त्री० दे० ओला-संज्ञा, पु० दे० (सं० उपल ) वृष्टि (हि० उलती ) भोलती, श्रोदी, अोरिया, के हिम-पाषाण, पत्थर, बिनौला, मिश्री का छप्पर का किनारा । लड्डू। वि० श्रोले साठंडा, बहुत सर्द । संज्ञा, ोरमना-अ० कि० (दे० ) लटकना, . पु० (हि० अोल) परदा, प्रोट, भेद, गुप्त बात । सूजना फूलना । संज्ञा, पु० ओरम- | अोलिक-संज्ञा, पु. ( दे० ) परदा, आड़ । सूजन, वरम । संज्ञा, स्त्री० ओरमा-एक- अोलियाना-स० क्रि० दे० (हि. अोल = हरी सिलाई। गोद ) गोद में भरना, अंचल में लेना। मोरा-संज्ञा, पु० (दे०) अोला (हि.) स० क्रि० दे० (हि० हूलना)हूँसना, घुसाना। वृष्टि-पाषाण । “ोरोसो बिलानो जात ।" अोली- संज्ञा, स्त्री० दे० (हि० अोल ) गोद, अोराना-अ० क्रि० दे० ( हि० ओर - अंचल, पल्ला, धोती। अंत+माना ) समाप्त होना। मु०-अोली पोड़ना-अंचल फैलाकर अोरी संज्ञा, स्त्री० (दे० ) पोलती, अव्य. माँगना। (दे०) ओर, स्त्रियों के लिये सम्बोधन शब्द। ओलौना-संज्ञा, पु० (दे०) उदाहरण,तुलना। अोराहना-संज्ञा, पु० (दे० ) ओरहना ओषधि-संज्ञा, स्त्री. (सं० ) वनस्पति, (दे० ) उलाहना, उपालम्भ, शिकायत ।। जड़ी बूटी, जो दवा के काम में आवे, तृण, ओरेहा-संज्ञा, पु० ( दे०) निर्माण, सृष्टिः घास, पौधा, दवा। रचना। श्रोषधीश-(औषधिपति )-संज्ञा, पु. अोलंदेज (अोलंदेजी)-वि० (हालैंड यौ० (सं० ) चन्द्रमा, कपूर। देश ) हालैंड देश का। अोष्ट --- संज्ञा, पु० ( सं० ) होंठ, ओठ, लब, अोलंबा ( अोलभा )--संहा, पु० दे० रद, अधर।। ( सं० उपालंभ ) उलाहना, शिकायत, प्रोष्ठी- वि० (सं० ) विवाफल, कंदरू । उपालंभ, ग़िला । उराहनो (ब्र०) अोष्ठय-वि० (सं०) ओंठ-सम्बन्धी, ओठ प्रोल-संज्ञा, पु० (सं० ) सूरन, जिमीकंद। से उच्चारित । अोष्टय वर्ण- उ, ऊ, प. वि० गीला, अोदा । संज्ञा, स्त्री० (स० कोड़) फ, ब, भ, म । गोद, भाड़, श्रोट. शरण, पनाह, वह वस्तु अोस - संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० अवश्याय ) या आदमी जो ज़मानत में रहे, धरोहर, हवा में मिली हुई भाप जो रात को सरदी से न्यास, जमानती वस्तु या व्यक्ति, बहाना, जमकर जल-कण के रूप में पदार्थो पर पड़ी मिस । “ लखि लाल गये करिकै कछु हुई प्रातःकाल दिखाई देती है, शबश्रोल्यो"-भाव। नम ( फ़ा)। अोलती-संज्ञा, स्त्री. (दे०) छप्पर का मु०-ओस पड़ना ( पड़ जाना ) किनारा जहाँ से पानी गिरता है, अोरी, कुम्हलाना, बेरौनक होना, उमंग बुझ जाना. पोरौती। लज्जिन होना। अोलना -स० क्रि० दे० (हि० अोल ) परदा श्रोसर*- संज्ञा, खी० (दे०) कलोर, जवान करना, पोट करना, पाड़ना, रोकना, ऊपर गाय, या भैंस ।। लेना, सहना । स० क्रि० (सं० शूल, हि० | अोसाई -- संज्ञा, स्त्री० दे० ( हि० प्रोसाना ) हूल ) घुसाना। । श्रोसाने का काम, श्रोसाई की मजदूरी। For Private and Personal Use Only Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रौंधा ओसाना ३७१ अोसाना-स० कि० दे० (सं० आवर्षण ) श्रोहट -संज्ञा, स्त्री० (दे०) श्रोट, आड़। दाँये हुए अनाज को हवा में उड़ाना, जिससे अोहर-क्रि० वि० (दे०) उधर (हि.) दाना और भूसा अलग अलग हो जाय। संज्ञा, पु० (दे०) श्रोट, अोझल । संज्ञा, ओसरी* ( ग्रोसरा)-संज्ञा, पु० (दे०) पु. ( दे० ) आहार-परदा, आड़ । बारी, पाली, दाँव, क्रम, पारी।। उहार (दे० ) उहर (दे०)। अोसार -संज्ञा, पु. ( दे० ) (सं० ओहदा-संज्ञा, पु. (अ.) पद, स्थान, अवसार = फैलाव ) विस्तार। हुदा (दे०)। संज्ञा, पु० (अ०) ओहदेओसारा-संज्ञा, पु० (दे०) (सं० उपशाला) दार-पदाधिकारी, हाकिम ।। दालान, बरामदा, भोलारा का छाजन, सायबान । स्त्रो० ओसारी। प्रोही- सर्व० ( दे० ) उसे, वही। ओसीसा ( उसीसा )--संज्ञा, पु० (दे०) "चातक रटत तृषाप्रति श्रोही"-रामा० सिरहना, तकिया। | ओहि सर्व० (दे०) विभक्ति के पूर्व का रूप। अोह-अव्य० (सं० अहह ) श्राश्चर्य, खेद, ग्रोही-अव्य० (सं० ) पाश्चर्य या प्रानन्दया उपेक्षा सूचक शब्द, श्रोहो, पोहो हो। सूचक शब्द, अहो । औ-संस्कृत-वर्ण माला का चौदहवाँ और या उभड़ा हुआ किनारा, बारी, छोर, अोठ । हिन्दी-वर्णमाला का ग्यारहवाँ स्वर वर्ण, औंड-संज्ञा, पु० दे० ( स० कुंड ) बेलदार, अ-+ो का संयुक्त वर्ण जो कंठ और मिट्टी खोदने या उठाने वाला। श्रोष्ट से बोला जाता है। अव्य० (दे० औंडा--वि० दे० (सं० कुंड) गहरा, गंभीर । अल्प० ) और, आह्वान, सम्बोधन विरोध, स्त्री० औड़ो। वि० उमड़ा हुआ। निर्णय-सूचक । संज्ञा, पु० (सं० ) अनन्त, औंदना*-अ० कि० दे० (सं० उन्माद, निस्वन । उद्विग्न ) उन्मत्त होना, व्याकुल या बेसुध औं-अव्य० दे० (सं० ) शूद्रों का प्रणव होना, घबराना। वाचक (ों)। औंदाना-प्र० कि० दे० (सं० उद्विग्न ) ओंगा-वि० दे० (सं० अवाक् ) गूंगा, बना, दम घुटने से घबराना या व्याकुल मूक । संज्ञा, स्त्रो० ओंगो-चुप्पी, मौनता. होना, विकल होना। खामोशी, गंगापन । । औंधना-अ. क्रि० (हि० औंधा ) उलट औंगना-स० क्रि० (दे०) देखो "ओंगना''. जाना । स० कि. उलटा कर देना। गाड़ी की धुरी में तेल देना। औंधा-वि० दे० (सं० अधामुख ) उलटा, औंघना (औंघाना ) अ० क्रि० दे० (सं० पेट के बल लेटा हुआ, पट, नीचे मुख किये अवाङ्) ऊँघना, अलसाना । संज्ञा, स्त्री० (दे०) हुये। स्रो० औंधी। औंघाई-झपकी, ऊँघ, हलकी नींद। मु०-औंधी खोपड़ी का-मूर्ख, जड़। औजना-अ० कि० दे० (सं० आवेजन) ओंधी बुद्धि (समझ) उलटी या जड़ बुद्धि ऊबना, व्याकुल होना, अकुलाना। क्रि० औंधे मुंह गिरना-धोखा खाना, नीचा स० (दे० ) उड़ेलना, ढालना। देखना । संज्ञा, पु० (दे०) उलटा या यौंड-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० प्रोष्ठ ) उठा चिल्ला नामक पकान्न । For Private and Personal Use Only Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra औंधाना श्रौतार औंधाना-स० क्रि० दे० (सं० अधः)। अव + चक्र =भ्रांति ) अचानक, सहसा, उलटना, नीचा करना, लटकाना, नीचे को एकाएक। मुँह करना। "श्रौचक दृष्टि परे रघुनायक " ~के । औरा-संज्ञा, पु० दे० (सं० आमलक) औचट-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० आ+ उचटना आँवला, औंला, धात्री फल । यौ० संज्ञा, -हि.) कठिनाई, विकट स्थिति, संकट, पु० (दे० ) औरासार - गंधक विशेष । अंडस । क्रि० वि० अचानक, अनचीते में, औकन-संज्ञा, स्त्री० ( दे० ) राशि, ढेर । | भूल से, सहसा। औक़ात-संज्ञा, पु० बहु० (अ० वक्त) समय, औचिन्त-वि० दे० (सं० अचिंत) निश्चिंत । वक्त । संज्ञा, स्त्री० एक० -- वक्त, समय, हैसि- | औचिती (औचित्य )-संज्ञा, स्त्री० (पु०) यत, बित्त, बिसात, सामर्थ्य । उपयुक्तता, उचित का भाव । औखद (औखध)-संज्ञा, स्त्री० (दे०) औक-संज्ञा, पु० (दे०) दारू हलदी की जड़ । औषध (सं०)। औजल-संज्ञा, स्त्री० (दे०) अोज (सं० ) औखा-संज्ञा, पु० ( दे० ) गाय का चमड़ा, तेज, बल, प्रताप।। चरसा। औजड़-वि० (दे० ) अनारी, उजड्डु । औगत*-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० अब--- औजार-संज्ञा, पु० (अ.) लोहार या बढ़ई गत्ति ) दुर्दशा, दुर्गति । वि० दे० (सं० आदि के हथियार, राछ । अवगत ) ज्ञात, विदित । औझड़ (ओझर ) क्रि० वि० दे० (हि. ओगाहना-~-अ० कि० (दे० ) अवगाहना, अव+झड़ी ) लगातार, निरंतर, बराबर । पार पाना। संज्ञा, पु० (दे० ) धक्का, ठेल, खोंच । औगी-संज्ञा, स्त्री० (दे०) बैलों के हाँकने औटना-स० क्रि० दे० (सं० आवर्तन ) की छड़ी, पैना कोड़ा। संज्ञा, स्त्री० (सं० दूध श्रादि को घाँच पर चढ़ाकर गाढ़ा अवगत ) घास-फूस से ढका जानवरों के करना, खौलाना, उबालना । क्रि-व्यर्थ फँसाने का गड्ढा। धूमना, भटकना, खौलना, थाँच पर गाढ़ा औगुन*-संज्ञा, पु० (दे० ) अवगुण, (सं.)। __ होना । क्रि० स० (ौटना ) औटाना--- दुर्गुण । वि० औगुनी-"ौगुन चित न | ___ संज्ञा, स्त्री० औटन-उबाल, ताप । धरौ".-सूर० । औटपाय (ौठपाय )-संज्ञा, पु० (दे०) औघर-वि० (दे०) अवघट, अटपट, बुरे उपाय, शरारत, बदमाशी के काम, कठिन, दुर्गम, दुस्तर। संज्ञा, पु० दुर्गम | चालबाजी । (दे० ) अउपाव । पथ । “घाट छाँड़ि औघट धर्यो" छत्र। औडुलोमि--संज्ञा. पु० (सं.) एक वेदान्तऔघड़-संज्ञा, पु० दे० (सं० अघोर) अघोरी, वेत्ता ऋषि ।। सोच विचार न करने वाला, मनमौजी। प्रौढर-वि० दे० ( हि० अव- ढार (ढाल)) वि० अटपट-अंडबंड, उलटा, पलटा । स्त्री० जिधर मन भावे उधर ही ढल जाने वाला, औघड़िन । | मनमौजी, तनिक में ही प्रसन्न होने वाला। औघर-- वि० दे० (सं० अव ---घट ) अटपट, औतरना*-अ. क्रि० (दे० ) अवतरना, अनगढ़, विचित्र, अंडबंड, अनोखा, विल- पैदा होना, अवतीर्ण होना । क्षण । वि० सुधरे । “आशुतोष तुम औवर औतार--संज्ञा, पु० (दे०) अवतार (सं०) दानी"-रामा० । सृष्टि, देही। औचक (औझक)---क्रि० वि० दे० (सं० "कीन्हेसि बरन बरन भौतारु"-प० । For Private and Personal Use Only Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir SIROHIDANANDANARTH I RUNAL ODAMBRPANJAY MUNDIANRAILE औत्तमि और औत्तमि--संज्ञा, पु० (सं.) ५४ मनुषों में | (दे० ) अवध, अयोध्या । संज्ञा, स्त्री. से तीसरे । (दे० ) अवधि, सीमा, निर्धारित समय । औत्तानपादी-संज्ञा, पु० (सं०) उत्तानपाद | "ौध तजो मग जात ज्यौं रूख"-तु०। नृप के पुत्र ध्रुव । औधारना—स० कि० ( दे० ) अवधारना। औत्कर्ण्य संज्ञा, पु० (सं०) उत्कर्षता, औनि*-संज्ञा, स्त्री. ( दे० ) अवनि, उत्तमता, वृद्धि। भूमि । संज्ञा, पु० औनिप- राजा। औत्सुक्य-संज्ञा, पु० (सं०) उत्सुकता। औना-पौना --- वि० ( हिं० ऊन = कम + औथरा* -- वि० (दे० ) उथला, छिछला, पौना = भाग ) श्राधा-तिहाई, थोड़ा" अति अगाध अति औथरो..."-वि० । बहुत, न्यूनाधिक । क्रि० वि०-कमतीऔदनिक---वि० (सं०) सूपकार, रसोइया । बढ़ती पर। औदरिक-वि० (सं० ) उदर-सम्बन्धी, मु०--औने-पौने करना—जितना ही बहुत खाने वाला, पेटू, पेटार्थी, स्वार्थी । दाम मिले उतने ही पर बेच डालना। औदसा*--संज्ञा, स्त्री० (दे०) अवदशा, औपचारिक--वि० (सं० ) उपचार (सं०) दुर्दशा। सम्बन्धी, अवास्तविक, जो केवल कहनेऔदात-वि० दे० (सं० अवदात ) श्वेत, सुनने के लिये हो। गौर। औपनिवेशिक-वि० (सं० ) उपनिवेशऔदान-संज्ञा, पु. ( दे० ) सेंत-मेंत का, सम्बन्धी। मुफ़्त, घेलुवा । | औपनिषदिक--वि० । सं० ) उपनिषद् औदार्य-संज्ञा, पु. ( सं० ) उदारता, सम्बन्धी। सात्विक नायक का एक गुण।। औपनी--संज्ञा, स्त्री० (दे० ) अोपनी। औदास्य-संज्ञा, पु० (सं० ) उदासीनता, | औपन्यासिक -- वि० (सं० ) उपन्यासवैराग्य, अनिच्छ । यौ० औदास्यभाव--- सम्बन्धी (विषयक), उपन्यास में वर्णनीय, वैराग्य, उपेक्षा भाव। अद्भुत । संज्ञा, पु० उपन्यास लेखक । औदीच्य संज्ञा, पु. ( सं० ) गुजराती औपपत्तिक (शरीर)-संज्ञा, पु० (सं०) ब्राह्मणों की एक जाति । उपपत्ति-सम्बन्धी, लिंग-शरीर, देव-लोक या औदुम्बर-वि० (सं० ) गूलर का या नरक के जीवों की सहज देह । ताँबे का बना हुधा। संज्ञा, पु. ( सं० ) औपयिक-वि० (सं० ) न्याय्य, उपयुक्त । गूलर का यज्ञ-पात्र, एक प्रकार के मुनि। औपसर्गिक--वि० (सं०) उपसर्ग सम्बन्धी। यौहालिक-संज्ञा, पु० (सं०) दीमक | औपश्लेषिक { आधार )- संज्ञा, पु० आदि के बिलों का चेप, या मधु, एक | (सं० ) अधिकरण कारक के अन्तर्गत वह तीर्थ । आधार जिसके किसी अंश ही से दूसरे का औद्धत्य-संज्ञा, पु० (सं० ) अक्खड़पन, | लगाव हो (व्याक०)। उजडता, धृष्टता, दौरात्म्य, ढिठाई, उग्रता। औबट-वि० (सं० ) बुरा मार्ग, औघट, प्रौद्योगिक-वि० (सं०) उद्योग सम्बन्धी।। दुर्गम । दुगम। औद्वाहिक-वि० (सं०) विवाह-सम्बन्धी औम*—संज्ञा, स्त्री. (सं० अवम ) अवधन । मतिथि, क्षय प्राप्त तिथि। औध (औधि )*----संज्ञा, स्त्री० (पु.) और–प्रव्य० दे० (सं० अपर ) संयोजक For Private and Personal Use Only Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir औरत ३७४ ओहाती शब्द, औ, अरु । वि. दूसरा, अन्य, भिन्न, ओलिया-संज्ञा, पु० (अ. बली का बहु० अधिक, ज्यादा। ब० ) पहुँचे हुए फ़कीर। मु०-और का और कुछ का कुछ, | ओवल-वि० (म.) पहला, प्रधान, अंड-बंड, विपरीत । और क्या-हाँ, मुख्य, सर्वोत्तम । संज्ञा, पु० श्रारम्भ, आदि। ऐसा ही है ( उत्तर में ) उत्साह-वर्धक औशि (ओसि )* --- क्रि० वि० (दे०) वाक्य । और तो और-दूसरों का ऐसा | करना तो उतने आश्चर्य का विषय नहीं। और्व -- संज्ञा, पु० (सं०) बड़वानल, नमक, और ही ( कुछ ) होना-विपरीत होना, भृगुवंशीय एक ऋषि, दक्षिण का वह भाग अचिंतित बात होना। और तो क्या- जहाँ सब नरक हैं (पु.)। और बातों की चर्चा ही क्या। और से | अोर्वशीय - संज्ञा, पु. ( सं० ) वशिष्ठ, और-दूसरे से दूसरा, कुछ का कुछ। अगस्त, उर्वशी पुत्र । औरत-संज्ञा, स्त्री० ( ० ) स्त्री, जोरू। ओषध-संज्ञा, पु० (सं०) अगद, भेषज, दवा । स्त्रो० ओषधि । यो०-ओषऔरस (औरस्य)-संज्ञा, पु. (सं०) धालय-संज्ञा, पु० (सं० ) दवाखाना। १२ प्रकार के पुत्रों में से सर्वश्रेष्ठ, धर्मपत्नी औसत-संज्ञा, पु. (अ.) बराबर का से उत्पन्न पुत्र, स्वपुत्र, सवर्णा स्त्री से | पड़ता, समष्टि का सम विभाग, सामान्य । उत्पन्न । वि०-विवाहिता स्त्री से उत्पन्न । | वि०-माध्यमिक, साधारण । औरसना*-० कि० (हि. अव--- रस) औसना-अ० कि० (हि. उमस + ना ) विरस होना, अनखाना, रुष्ट होना। गरमी पड़ना, उमप होना, खाने की वस्तुओं औरासा-वि० (दे०) विचित्र, विलक्षण, का बासी हो कर सड़ना, व्याकुल होना। बेढंगा। औसर* -- संज्ञा, १० (दे० ) अवसर औरेब-संज्ञा, पु० (दे०) (सं० अव+ (सं० ) समय, मौका।"......ौसर करें ग्ब = गति ) वक्र गति, तिरछी चाल पेंच, ध्यान आन बिबस बनाया है ''-अ० ब०। कपड़े की तिरछी काट, उलझन, चाल की . औसान--संज्ञा, पु० दे० (सं० अवसान ) बात । वि. ओबदार। अंत, परिणाम । संज्ञा, पु० (फा० ) सुधिप्रौद्ध दैहिक-वि० (सं०) प्रेत-क्रिया, बुधि, होश हवास । “छूटे अवसान मान अंत्येष्टि क्रिया, श्राद्ध । सकल धनंजय के"- रत्नाकर । औलाद-संज्ञा, स्त्रो० (म.) संतान, औसेर-संज्ञा, स्त्री० (दे० ) अवसेर, चिंता, संतति, नस्ल । खटका। औला-मौला-वि० ( अनु० ) मन-मौजी, औहत-संज्ञा, स्त्री. ( दे० ) अपमृत्यु, भोला-भाला। औलना-अ० कि० (दे० ) गरमी पड़ना, औहाती-वि० ( दे० ) अहिवाती, साहा. खौलना, जलना। गिन, सौभाग्यवती। दुर्गति । For Private and Personal Use Only Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir क ३७५ कँगला, कंगाल क-हिन्दी-संस्कृत की वर्णमालाओं का प्रथम कंकरी-संज्ञा, स्त्री० दे० ( कंकड़ी हि०) व्यंजन, जिसे स्पर्श वर्ण कहते हैं और जो कंकड़, काँकरी (७०)। कंठ से बोला जाता है। संज्ञा, पु. ( सं०) कंकपत्र-संज्ञा, पु. (सं० ) एक प्रकार का ब्रह्मा, विष्णु, सूर्य, अग्नि, प्रकाश, कामदेव, , बाण । “नखप्रभा भूषित कंकपत्रे"- रघु० दक्ष, प्रजापति, वायु, राजा, यम, मन, । कंकरीट-संज्ञा, स्त्री. (अ. कांक्रीट ) शरीर, आत्मा, शब्द, धन, काल, जल, चूने, कंकड़, रोड़े आदि से बना हुआ मुख, केश, मयूर, सिर । सम्बन्ध कारक गच बनाने का मसाला, छर्रा, बजरी, छोटीकी विभक्ति " का'' का ह्रस्व रूप (दे०)। छोटी कंकड़ियाँ।। " अरिहुँक अनभल कीन्ह न रामा" - कंकाल--संज्ञा, पु० (सं०) ठठरी, अस्थि-पंजर। रामा०। कंकाली-संज्ञा, पु० (हि.) नीच जाति । क-संज्ञा, पु. ( सं० कम् ) जल, मस्तक, वि. पु. दुर्बल, शैतान। वि. सी.मुख, काम, अग्नि. कंचन । सर्व० (सं० ) कर्कशा स्त्री। कौन, किसको। कंकाल-माली-संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) कंउधा-संज्ञा, पु. ( दे० ) विद्युत्प्रभा, । शिव, भैरव। बिजली, कोंधा ( दे०)। कंकालिनी--संज्ञा, स्त्री. (सं० ) डायन, कंक-संज्ञा, पु. ( सं० कंक्+अच् ) सफ़ेद भूतिन। चील. कांक (दे० ), एक प्रकार का बड़ा कोल-संज्ञा, पु० (सं० ) शीतल चीनी श्राम, बक, यम, क्षत्रिय, युधिष्ठिर का कल्पित का एक भेद, यह शीतल चीनी से कुछ बड़े और कड़े होते हैं. कंकाल मिर्च । नाम ( जब वे विराट् नृप के यहाँ थे)। कर्कट । स्त्रो० कंका, कंकी। ' काक कंक | कँखवारी-संज्ञा, स्त्री. ( हि० काँख+ वारी-प्रत्य० ) काँख की फुड़िया, लै भुजा उड़ाही"-रामा० । ......." कखौरी, कांख । कंकड़ ( कंकर )-संज्ञा, पु० दे० (सं० कंगन-संज्ञा, पु० दे० (सं० कंकण) कंकण, ककर ) चिकना मिा पार चूने के योग से सिखों ( अकाली) के सिर का लोहे का बने रोड़े, पत्थर का छोटा टुकड़ा. काँकर चक्र । कंगना ( दे० )। स्रो० कँगनी । ( ब्र० ) सरलता से न पिसने योग्य वस्तु, कँगना-संज्ञा, पु० दे० (हि० कंगन ) कंकण, सूखा या सेंकी तमाखू । " कुस कंटक मग कंकण बाँधते समय का गीत ।। कंकर नाना" -रामा० । स्त्री० (अल्पा०) लो०-"हाथ कंगन को पारसी क्या-" कंकड़ी। वि० पु० -- ककरीला (कक- कँगनी-संज्ञा, स्त्री० (हि. कँगना ) छोटा डीला) कंकड़दार। स्त्री० वि० कँकरीली। कंगन, छत या छाजन के नीचे दीवार की कंकण-संज्ञा, पु० (सं० कं --कण + अल् ) उभड़ी लकीर, कार्निस, कगर, दाँते या कलाई में पहिनने का एक प्राभूषण, बलय, कँगूरेदार, गोल चक्कर । एक अन्न, (सं० कंगन, कड़ा, ककना, दूल्हा दुलहिन के हाथ कंगु ) काकुन, टाँगुन । में व्याह के समय पर रक्षार्थ बाँधा जाने । कँगला, कँगाल-वि० दे० (सं० कंकाल ) वाला तागा। कंकन ( दे०)। कंगना भुक्खड़, अकाल-पीड़ित, निर्धन, दरिद्र, (प्रा०)। "कैंगला जहान के मुसाहिब के बँगला मैं" For Private and Personal Use Only Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir -- - कँगूरा ३७६ कंटकप्रावृता संज्ञा० स्त्री० भा० ---कंगालो-निधनता, | अंगिया । संज्ञा, पु० (सं० कंचुकिन् ) अंतःदरिद्रता । स्त्री० कँगालिन । यौ० -- पुर रक्षक, रनिवास के दास-दासियों का कँगालगंडा-ग़रीब शौकीन और | अध्यक्ष । कँचुवा (दे०)। बदमाश । कंचुरि (कंचुलि ) --संज्ञा, स्त्री० ( दे०) कंगाल बांका-दरिद्र अभिमानी। __ केंचुल, केंचली। कँगूरा--संज्ञा, पु० (फा० कुगरा) शिखर, कँचेरा-संज्ञा, पु० दे० (हि० कांच+एरा चोटी, किले की दीवार पर थोड़ी थोड़ी| प्रत्य० ) काँच का काम करने वाला । दूर पर बने बुज जहाँ से सिपाही लड़ते स्त्री० कॅचेरिन । हैं, बुर्ज, गहनों में छोटा रवा । वि. कंज ---- संज्ञा, पु० (सं०) ब्रह्मा, कमल, कगूरेदार। अमृत, चरण की एक रेखा, केश, सिर के कंघा-संज्ञा, पु० दे० (सं० कंक) लकड़ी, बाल, पद्म । सींग या धातु की दाँतेदार वस्तु जिससे कंजई-वि० (हि० कंजा ) कंजे के रंग का, बाल साफ़ किये जाते हैं, करघे में भरनी के खाकी । संज्ञा, पु० - खाकी रंग, कंजई रंग तागों को कसने का एक यंत्र, बय, बौला। की आँख वाला घोड़ा। स्त्री० अल्पा०-कंघी, अतिबला, एक दवा। कंजड़ ( कंजर ) -संज्ञा, पु. (दे०) या मु०-कंघी चोटी ( करना )-- बनाव कालंजर ) रस्सी, सिरकी आदि बनाने और सिंगार करना। बेचने वाली जाति । स्त्री० कंजड़िन । कॅघेरा-संज्ञा, पु. ( हि० कंघा-+ एरा- वि० नीच, तुच्छ। प्रत्य० ) कंघा बनाने वाला । स्त्री० कंजा-संज्ञा, पु० दे० (सं० करंज) एक कँघेरिन । वृक्ष जिसके फल दवाओं में पड़ते हैं, करंकंच-( कांच)- संज्ञा, पु० (दे० ) जुवा। वि० कंजे के रंग का, भूरा, गहरे काँच, शीशा। खाकी रंग का, भूरे नेत्र वाला। स्त्री० कंचन---संज्ञा, पु० दे० ( सं० कांचन )सोना, -कंजो। कंजावलि-संज्ञा, स्त्री० (सं० ) एक प्रकार मु०-कंचन बरसना- (किसी स्थान का ) | का वर्णवृत्त । यौ० कमल पंक्ति। समृद्धि और शोभायुक्त होना । कंचन कंजूस-वि० दे० ( सं० कण + चूसबरसाना-बहुत कुछ धनादि देना। हि० ) कृपण, सूम । संज्ञा, स्त्री० कंजूसी। "तुलसी" तहाँ न जाइये, कंचन बरसै मेह" कंट (कंटक)- संज्ञा, पु० ( सं० कंटणक् ) धन, संपत्ति, कचनार, धतूरा, रक्त कांचन । काँटा, सुई की नोक, विघ्न, काँट (दे०), (स्त्री० कंचनी ) एक जाति जिसकी स्त्रियाँ काँटो, बाधा, बखेड़ा, छुद्र शन्नु, रोमांच, प्रायः वेश्यावृत्ति की होती हैं। वि०- बाधक, कवच । वि.---कंटकित-काँटेस्वस्थ, स्वच्छ। दार, पुलकित । कंचनक-संज्ञा, पु० ( स० ) कचनार, | कंटकारी-संज्ञा, स्त्री० (सं० ) भटकटैय्या, मैनफल । कटेरी, सेमल । कंचुक-संज्ञा, पु० (सं० ) जामा, चपकन, कंटकदम-संज्ञा, पु० यौ (सं० ) कँटीला अचकन, चोली, अँगिया, वस्त्र, बख़्तर, वृक्ष, बैल, शालमली, बँबूर । कवच, केंचुल । कंटकप्रावृता-संज्ञा, स्त्री. यौ (सं० ) कंचुकी-संज्ञा, स्त्री. ( सं० ) चोली, घृतकुमारी, घीकुवार। सुवर्ण। For Private and Personal Use Only Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir MONEROIN D EARTHKum.remnumanAUGUSTRamanupamaasumeremony कंटकपुष्प ३७७ कंठी कंटकपुष्प---संज्ञा, पु० (सं०) गुलाब, कंठ में होना--कुछ कम याद होना। केवड़ा। संज्ञा, पु०-स्वर, श्रावाज़, शब्द, तोते, पंडुक कंटकफल-संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) पनस, आदि के गले की रेखा, हँसली, किनारा, कटहर, सिंघाड़ा। तट, तीर, कंठा। कंटकभुक्-संज्ञा पु० (सं० ) ऊँट, उष्ट्र । कंठगत-वि. (सं० ) गले में आया या कंटकलता--- संज्ञा, स्त्री० (सं० ) खीरा । अटका हुआ। कंटको-वि० ( सं० ) काँटेदार । संज्ञा, स्त्री० मु०-(प्रागा ) कंठगत होना-मृत्य का (सं० ) भटकटैय्या। निकट होना, प्राण निकलने पर होना।। कंटर-संज्ञा, पु० दे० ( अं० डिकेटर ) शीशे कंठतालव्य-( वि० सं० ) कंठ-तालु से की सुराही, शीशी, जिपमें शराब या इत्र उच्चरित होने वाले वर्ण, जैसे-ए, ऐ। आदि रखते हैं। कंठपाशक-संज्ञा, पु० (सं० ) गले की कंटाइन-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० कात्यायिनी) ___ फाँसी, हाथी के गले की रस्सी। चुडैल, डाइन, कर्कशा। कंठमाला-संज्ञा, स्त्री. (सं० ) गले में कंटाप-संज्ञा, स्त्री० (हि. काँटा ) एक लगातार छोटी छोटी फुसियों के निकलने कँटीला वृक्ष जिसकी लकड़ी से यज्ञ-पात्र __ का एक रोग। बनते हैं। कंठभूषा-संज्ञा, स्त्री० (सं० ) हार, कंठाकंटार -वि० (दे०) कँटीला, खुरदरा । संज्ञा, ___ भरण । स्रो० कंटारिका-भटकटैय्या। कंठला-संज्ञा, पु० (दे०) कठुला, जो कटिया-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. काँटो) बच्चों के गले में डाला जाता है। काँटी, छोटी कील, मछली मारने की छोटी कंठसिरी-संज्ञा, स्त्री दे० ( सं० कंठश्री ) अँकुसी, कुएँ से चीज़ निकालने का कँटियों । कंठी, गले का एक गहना। का गुच्छा, स्त्रियों के सिर का एक गहना। "कल हंसनि कंठनि कंठसिरी"-रामा० कँटोला-वि० (हि. काँटा + ईला --- प्रत्य० ) काँटेदार, " अब अलि रही कंठस्थ-वि. ( सं० ) कंठगत, ज़बानी, गुलाब की, अपत कटीली डार । वि० । कंठाग्र, मुखाग्र, “ कठस्था या भवेद् विद्या स्रो० कँटीली काँटेवाली, चुभने वाली, सा प्रकाश्यासदाबुधः । बाँकी, अाँख। कंठा--संज्ञा, पु. (हि. कंठ ) तोते श्रादि कंटोप--संज्ञा, पु० (हि० कान+तोपना) | पक्षियों के गलों की रंगीन रेखायें, हँसली, सिर और कान ढकने वाली एक प्रकार की सुवर्ण का एक गले का गहना जिसमें बड़े २ टोपी, टोप, टोपा। दाने रहते हैं, कुर्ते या अँगरखे का अर्धकंठ-संज्ञा, पु० (सं० ) गला, टेटुया, चंद्राकार गला । “कंजरमनि कंठाकलित, भोजन जाने और श्रावाज़ निकालने की उर तुलसी, की माल । कंठगत नलियाँ, घाँटी। कंठान- वि० (सं० ) कंठस्थ, ज़बानी । मु०-कंठ फूटना-वर्णा के स्पष्टोच्चारण | कंठी-- संज्ञा, स्त्री० ( हि० कंठा का अल्पा० ) का प्रारंभ होना, घाँटी फूटना, युवावस्था | छोटी गुरियों का कंठा, वैष्णवों के पहिनने का आगमन तथा तत्समय स्वर-परिवर्तन की तुलसी श्रादि की मनियों की छोटी होना । कंठ करना ( में रखना )- ज़बानी माला। संज्ञा, पु. कंठीधारी-भक्त, याद करना। कंठ होना-याद होना। बैरागी । यौ० कंठी-माला। भा० श० को०-४८ For Private and Personal Use Only Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कंठीरव ३७८ कंदर्प " भूखे भगति न होंय गोपाला। लैलो | कंडुन–वि० (सं० ) कडू या खुजली को श्रापन कंठी-माला।" नाशकारक दवा। मु०-कंठी लेना ( नीच जाति, शूद्रों का ) कडूति -- संज्ञा, स्त्री० (सं० ) खुजलाहट । यज्ञोपवीत जैसा संस्कार, भक्त होना, गुरु- कंडेरा-संज्ञा, पु. ( दे०) लाठी, डंडा भक्त होना । कंठी देना--गुरु-मंत्र देना। बनाने वाली एक जाति । शिष्य करना, गुरु होना । वि०-- कंडोल-संज्ञा, पु० ( दे० ) बाँस का बना कंठवाली - जैसे कोकिल कंठी । संज्ञा, हुआ एक पात्र, बँसोला। स्त्री० तोते आदि के गले की रेखा, हँसली। कंडोरा-संज्ञा, पु० दे० ( हि० कंडा। कंठीरव - संज्ञा, पु० (सं०) सिंह, व्याघ्र,शेर । | ौरा---प्रत्य० ) कंडे पाथने की जगह, कंडा कंठोष्ठय-वि० (सं० ) कंठ और अोष्ठ | रखने का स्थान । ( ओंठ ) के सहारे से उच्चरित होने वाले कण्व-संज्ञा, पु० (सं० ) शकुंतला के वर्ण, जैसे, श्रो, औ। । पालक पिता, एक ऋषि । कंठय-वि० (सं० ) गले से उत्पन्न, कंठ केत* --संज्ञा, पु. (दे० ) कांत (सं०) से उच्चरित, गले या स्वर के लिए हितकर। पति, स्वामी, प्रिय, ईश्वर । संज्ञा, पु० (सं.) कंठ से बोले जाने वाले कथा-संज्ञा स्त्री० (सं० ) गुदड़ी, कथरी, वर्ण, अ, आ, क, ख, ग, घ, ङ, ह और "क्वचित्कंथाधारी, क्वचिदपिच पर्यक शयनः" विसर्ग। -भत । (दे० ) कंथ । कंडरा-संज्ञा, स्त्री० (सं० ) रक्त की मोटी कंथी-संज्ञा, पु० ( हि० ) गुदड़ी वाला, नाड़ी। जोगी साधु । कंडा--संज्ञा, पु० दे० ( सं० स्कंदन ) गोबर कंद-संज्ञा, पु० ( सं० ) बिना रेशे की गूदे की सूखी उपली जो जलाया जाता है। दार जड़, जैसे सूरन, शकरकंद, श्रोल, गाजर, स्त्री० कंडी-उपली। मूली, लहसुन, बादल, बिदारी कंद, ज़मी मु०-कंठा होना--सूखना, दुर्बल होन , ! कंद, १३ अत्तरों का एक वर्णिकवृत्त, छप्पय मर जाना अकड़ जाना, भूख से व्याकुल | के ७१ भेदों में से एक । संज्ञा, पु. ( फा० ) होना। उपला, सूखामल, सुद्दा, गोटा। जमाई हुई चीनी, मिश्री, मूल, जड़ । कंडाल-संज्ञा, पु० दे० (सं० करनाल ) यो० कंद वर्धन-संज्ञा, पु० (सं०) मूल । नरसिंह, तुरही तूरी। संज्ञा, पु० (दे०) केद-मूल-संज्ञा, पु० (सं०) मुनि-भोजन । पानी रखने का लोहे या पीतल का बड़ा " कंद-मूल-फल अमिय अहारु "- रामा० । और गहरा बरतन । कंदन-- संज्ञा, पु० (सं० ) नाश, ध्वस्त । कंडोल कंदील - संज्ञा, स्त्री० (अ० कंदील ) | केइरा-- संज्ञा, स्त्री० (सं० ) गुफा, गुहा, ऊपर के मुंह वाली मिट्टी, अबरक या काग़ज कंदर (दे०) । संज्ञा, पु. कंदर-कंद-मूल । की बनी लालटेन । " कंदर खोह नदी नद नारे ''—रामा० । कंडु संज्ञा, स्त्री० (सं० ) खुजली, खाज, . कंदरान- संज्ञा, पु० (सं० ) पर्कटी वृक्ष, खर्जन, कंडू (सं.)। वि० कंडूयमान-- पाकर या अखरोट का पेड़। बहु० व० खुजलाता हुआ "कंडूयमानेन कटं कदाचित् गुफायें। रघु० । कंदराल - संज्ञा, पु. ( सं० ) पाकर, कंडुपुष्पी-संज्ञा, स्त्री० ( सं० ) शंखाहूली. हिंगोट वृक्ष । सखौली, एक जड़ी। कंदर्प-संज्ञा, पु. (सं० कं + दृप् + अच् ) For Private and Personal Use Only Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कन्दल ३७६ कंपायमान कामदेव, मदन, ११ प्रतालों में से एक संज्ञा, पु. घोड़े की एक जाति । (सं० कंधार) ताल ( संगीत )। “ कंदर्प-दर्प-दलने । कंदहार, कहार, मल्लाह, गाँधार । " जाकहँ विरला समर्थाः "....."भत । । ऐस होइ कंधारा''-५०।। कन्दल-वि० (सं० कंद । ला+ड्) उप- कंधावर--संज्ञा, स्त्री० दे० (हि० कंधा+ राग, नवांकुर विवाद, कलह, सोना, कंपाल। अवर-प्रत्य०) कन्हावर (दे० ) बैल के यौ० कंदल कंद - सूरन ।। कंधे पर रहने वाला जुए का भाग, कंधे का कंदला-संज्ञा, पु. (सं० कंदल-सेना) दुपट्टा । सोने या चाँदी का तार, या तार खींचने का कंधि-संज्ञा, पु० (दे० ) समुद्र, मेघ । पाँसा, टैनी, गुल्ली, तारकश के तार खींचने कॅधियाना-- स. क्रि० (दे०) कंधे पर की चाँदी की लम्बी छड़। रखना,..... बासहू बदलि पट नील कॅधिकन्दलित-वि० (सं०) अंकुरित, प्रस्फुटित। याये हौ"- रत्नाकर । कन्दसार-संज्ञा, पु० (हि.) मृग, हरिण, ऊँधेला--संज्ञा, पु० (दे० कंधा + एलानंदनवन। प्रत्य० ) कंधे पर पड़ने वाला, स्त्रियों की कंदा--संज्ञा, पु० दे० (सं० कंद ) कंद, मूल, साड़ी का भाग । स्त्री० कँधेली-जीन, जड़, अरुई, घुइयाँ, शकरकंद । खोगीर, गठिया। कंदासी-संज्ञा, पु० (दे० ) पियावासा कंधैयाँ-संज्ञा, पु. ( दे०) कन्हैया, कृष्ण । नामक औषधि । कंप--संज्ञा, पु० (सं०) कँपकँपी, कांपना, कंदु-संज्ञा, पु. ( सं० कंद+ड) लोहमय, सात्विक अनुभावों में से एक । संज्ञा, पु. पाकपात्र। ( अ० कैंप ) पड़ाव, लश्कर । यौ० कंपकंदुक-संज्ञा, पु० (सं० ) गेंद, गोल ज्वर--संज्ञा, पु० जूड़ी का बुख़ार । तकिया, गेंडुश्रा, सुपारी, पुंगीफल, एक कँपकँपी-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. काँपना) प्रकार का वर्णवृत्त । " कंदुक इव ब्रहमाँड थर थराहट, संचलन ।। उठाऊँ"-रामा०। कंपन-संज्ञा, पु० (सं० ) कँपकँपी, स्पंदन । कंदला-वि० ( हि० काँदो पू० हि० कँदई + कंपना-अ० कि० (सं० कंपन ) हिलना, ला-प्रत्य० ) मलीन, कीचड़- युक्त, गंदला। डोलना, भयभीत होना। कंदोरा- संज्ञा, पु० दे० ( हि० कटि+डोरा) कंपनी-संज्ञा, स्त्री० (अ.) कई व्यक्तियों कमर का तागा. करधनी । की व्यापारार्थ समिति। कंध*- संज्ञा, पु० दे० ( सं० स्कंध ) डाली, कंपमान-वि० (सं०) कंपायमान, सकम्प । कंधा। कंपवायु-संज्ञा, पु. (सं० ) एक प्रकार कंधनी-संज्ञा, स्त्री० दे० ( सं० कटि बंधनी) का वायु रोग, जिसमें शरीर काँपता किंकिणी, मेखला, करधनी। रहता है। कंधर---संज्ञा, पु. (सं० ) गरदन, ग्रीवा, | कंपा-संज्ञा, पु० (हि. कंपना ) बाँस की बादल, मुस्ता, मेथा। पतली तीलियाँ जिन में बहेलिये लासा कंधा--संज्ञा, पु० दे० ( सं स्कंध ) गले और लगा कर चिड़ियों को फँसाते हैं। बाहु-मूल के बीच का देह-भाग, बाहु-कँपाना-स० क्रि० (हि. काँपना का प्रे. मूल, मोढा। रूप) हिलाना डुलाना, भय दिखाना । कंधारी---वि० ( हि० कंधार-एक देश ) गाँधा-कंपायमान-वि० (सं० ) हिलता हुआ, रीय (सं० ) कंधार देशोत्पन्न, कंधार का ।। अकंपित कंपमान । For Private and Personal Use Only Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कंपास ३८० कक्का कंपास--संज्ञा, पु. (प्र०) दिक्-सूचक ककड़ी-ककरी--संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० कर्कटी) यंत्र, परकार । | भूमि पर फैलने वाली एक बेल जिसके फल कंपित-वि० (सं० ) काँपता हुअा, चंचल, लम्बे, पतले होते तथा खाये जाते हैं । भयतीत । ककना (ककनी-स्त्री०)-संज्ञा, पु० (दे०) कंप-(कैंप)—संज्ञा, पु. ( अ. कैप) कंकण, कंगन, कँगना।। छावनी, फ़ौज का स्थान । ककनू-संज्ञा, पु० (दे० ) एक पक्षी जिसके कंबल-संज्ञा, पु० (सं० ) ऊन का बना गाने से उसके घोसले में आग लग जाती हुधा श्रोदने का कपड़ा, एक बरसाती है और वह जल मरता है। " ककनू पंखि कीड़ा, कमला, कमरा । यौ० गल-कंबल- जइस सर साजा"--प० । गाय-बैल के गरदन के नीचे लटकता ककरंजा-संज्ञा, पु० (दे० ) बैजनी रंग । हुश्रा माँस। ककरोंदा-संज्ञा, ३० (दे०) एक वनस्पति (स्त्री० अल्प कमली)। कामरी (दे०) का पौधा, औषधि । कंबु-कंबुक-संज्ञा पु० (सं० ) शंख, घोंघा, ककहरा-संज्ञा, पु० दे० ( क-न-क-+-+राहाथी, " उर मनिमाल कंबुकल ग्रीवा" प्रत्य० ) क से ह तक वर्णमाला । रामा०। ककही-संज्ञा, स्त्री० (दे० ) कंघी, लाल कंबोज-संज्ञा, पु० (सं० ) अफ़ग़ानिस्तान कपास का एक भेद, चौबगला। के एक भाग का प्राचीन नाम जो गाँधार | ककुद-संज्ञा, पु. (सं० ) बैल के कंधे का के पास था। कूबड़, डिल्ला, राज-चिन्ह, एक पर्वत, शिखा! कँवल-संज्ञा, पु० (दे०) कमल (सं०) ककुत्स्थ- संज्ञा, पु० (सं०) इच्वाकु नरेश यौ० संज्ञा, पु० (दे० )कँवलगट्टा--कमल के पौत्र, पुरंजय इन्होंने देव-प्रार्थना मान के बीज (कमलगटा)। इंद्र को वृषभ बना उसी पर चढ़ राक्षसों से कंस-संज्ञा, पु० (सं०) काँसा, प्याला, युद्ध किया अतः ककुत्स्थ कहलाये इनके कटोरा, सुराही, मँजीरा, झाँझ, काँसे का वंशवाले काकुत्स्थ कहलाते हैं।। पात्र, ( बरतन) मथुरा-नरेश उग्रसेन का ककुम--संज्ञा, पु. ( सं० ) अर्जुन का पेड़, पुत्र तथा श्री कृष्ण का मामा जिसे श्रीकृष्ण एक राग, एक प्रकार का छंद, दिशा, वीणा ने मारा था। के ऊपरी टेढ़ा भाग! " ककुभ कूजित थे कंसकार-संज्ञा, पु० (सं.) ब्राह्मण के कल नाद से "-प्रि० प्र० । औरस और वेश्या से उत्पन्न जाति, कसेरा, ककुभा--- संज्ञा, स्त्री० (सं० ) दिशा। बर्तन बेचने वाला। ककोड़ा-संज्ञा, पु० (दे०) खेखसा। कसताल-संज्ञा, पु० (सं०) झाँझ, मँजीरा । ककोरना-- स० कि० (दे० ) खरोंचना, कंसारि-संज्ञा, पु० (सं०) कंस का शत्रु, खोदना, उखाड़ना, खखोलना। श्रीकृष्ण । ककड़-संज्ञा, पु. (दे०) कर्कट (सं० ) कई - वि० दे० (सं० कति, प्रा० कइ ) एक सूखी या सेंकी सुरती का भुरभुराचूर जिसे से अधिक, अनेक, कतिपय, केतिक, किते, छोटी चिलम में पीते हैं, खत्रियों की एक (०) यौ० कइयक- दे० (हि. जाति। कई +-एक) कितेक (व्र०) कई एक। कका–संज्ञा, पु० (दे० ) केकय (सं० ) ककई-संज्ञा, स्त्री० (दे०) कंघी, ककही। केकय देश । संज्ञा, पु० (सं०) नगाड़ा, संज्ञा, पु. (दे०) करवा। दुन्दुभी । संज्ञा, पु० (दे० ) काका, चाचा। For Private and Personal Use Only Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ३८१ कक्ष कक्ष -संज्ञा, पु० (सं०) काँल, बग़ल, काँछ, कछौंटा, लाँग, कछार, कच्छ, कास, जंगल, सूखी घास, सूखावन, भूमि, घर, कमरा, कोठरी, दोष, पातक, काँख का फोड़ा, दर्जा, श्रेणी, सेना के अगल-बगल का भाग, कमर बंद, पटुका । कत्ता - संज्ञा, स्रो० (सं० ) परिधि, ग्रहों के भ्रमण करने का मार्ग, बराबरी, समता, श्रेणी, तुलना, दर्जा, दक़ा, देहली, ड्योदी, काँख, काँखरवार, किसी घर की दीवाल या पा, काँछ, छौ । यौ० समकक्ष - बराबर, समान । कखरी -- संज्ञा, स्त्री० (दे०) काँख, कोख, कुक्षि (सं० ) बग़ल | लौ० -" कखरी लरिका गाँव- गोहार -- वस्तु पास है, शोर करके दूँढ़ते चारो धोर हैं। कखौरी -संज्ञा, स्त्री० ( हि० काँख ) काँख, काँख का फोड़ा । कगर -संज्ञा, पु० दे० (सं० क - जल + अ) कुछ ऊँचा किनारा, बाद, औौंद, बारी, मेंड़, डांड़, छत के नीचे दीवाल पर उभड़ी लकीर, कारनिस, कँगनी । क्रि० वि० किनारे पर, छोर पर, निकट, अलग । कगार- कगारा - संज्ञा, पु० (हि० कगर) ऊँचा किनारा, नदी का करारा । स्त्री० कगरी । कच - संज्ञा, पु० (सं० ) बाल, सूखा फोड़ा या जख़्म, पपड़ी, झुंड, बादल, अँगरखे का पल्ला, सुगंधवाला, मल्लविद्या का एक दाँव, वृहस्पति -पुत्र, जो देवादेश से शुक्राचार्य के पास, मृतसंजीवनी नामक विद्या सीखने गये और प्राण-संहार तक सहकर उसे सीखा और फिर देव-लोक में उसका प्रचार किया | संज्ञा, पु० (अनु० ) चुभने या धँसने का शब्द, कुचलने का शब्द । वि० ( कच्चा का अल्प०) कच्चा ( समास में ) जैसे कलहू, कला | कचक संज्ञा, स्त्री० ( दे० ) दबने से लगने वाली चोट, कुचल जाने की चोट, ठेस । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कचर-कचर कचकच ( चकचक ) संज्ञा, स्त्री० (अनु० ) बकवाद, cars, किचकिच, कोलाहल, वाग्युद्ध | कचकन्न - अ० क्रि० (दे० ) दबना, ठेस लगना, ठुकरना कचकचाना - अ० क्रि० ( अनु० ) कचकच का शब्द करना, दाँत पीसना, ज़ोर से लगना । कचकड़ - संज्ञा, पु० (दे० ) कछुए का खोपड़ा । कचका - संज्ञा, पु० (दे०) कछुए की पीठ । कचकैय्या - संज्ञा, पु० (दे०) धक्का, ठोकर । कचकोल - संज्ञा, पु० ( फा० कशकोल ) दरियाई नारियल का भिक्षा पात्र, कपाल । कचदिला - वि० (हि० कच्चा + दिल ) कच्चे दिल का, साहस या सहनशक्ति रहित, हीन । कचनार - संज्ञा, पु० दे० (सं० कांचनार ) एक प्रकार का फूलदार पेड़ | कचपच - संज्ञा, पु० ( अनु० ) थोड़ी जगह में बहुत से पदार्थों या लोगों का भर जाना, चिपिच, कचमच, गुत्थमगुत्था, सघन । वि० धना, निविड़ । कचपची (कचवची) संज्ञा, स्त्री० ( हि० कचपच ) कृत्तिका नक्षत्र, स्त्रियों के माथे पर लगाने के चमकीले बुंदे, छोटे छोटे तारों का समूह, सितारे | कचपचिया (दे० ) । " मनौ भरी कचपचिया सीपी, " धौ सो चंद कचपची गरासा " प० । कचपकवा - वि० दे० ( हि० कच्चा + पक्का ) कच्चा-पक्का । कचपन - संज्ञा, पु० (दे०) कच्चापन ( हि० ) । कचपेंदिया - वि० ( हि० कच्चा + पैदी ) कमज़ोर पेंदी का, बात का कच्चा, घोड़ा, स्थिर विचार का | कचर-कचर -संज्ञा, पु० (अनु० ) कचकचा, बकवाद, कच्ची वस्तु (श्रम आदि) के खाने का शब्द | For Private and Personal Use Only Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कचरकूट ३८२ कचूमर कचरकूट-संज्ञा पु० (हि. कचरना - कूटना) कचहरी-संज्ञा, स्त्री० ( हि० कचकच = पीटना और लतियाना, मार-कूट, पेट भर विवाद । हरी - प्रत्य० ) गोष्टी, जमाकड़ा, खाना, इच्छा भोजन। दरबार, अदालत, राजसभा, न्यायालय, कचरना-स० कि० दे० (सं० कच्चरण) दफतर। पैर से कुचलना, दबाना, रौंदना, खूब खाना, कचाई ( कच्चाई )-संज्ञा, स्त्री० ( हि. कुचल कर खाना। “कीच बीच नीच तौ | कचा + ई-प्रत्य० ) कच्चापन, अनुभवकुटुम्ब को कचरिहौं "- पद्मा० । शून्यता, अजीर्ण, अनपच ।। कचर-पचर--संज्ञा, पु० (दे० ) गिचपिच । कचाना-अ० कि० (हि. कच्चा) पीछे कचरा-संज्ञा, पु० दे० (हि. कच्चा ) कच्चा हटना, हिम्मत हारना, डरना । खरबूज़ा या फूट, ककड़ी, कूड़ा-करकट, रद्दी | कचायध-संज्ञा, स्त्री० (दे० कचा-+ गंध ) चीज़, उरद या चने की पीठी, समुद्र का कच्चेपन की महक कचाइँध (दे० । सेवार । वि० कुचला हुआ। कचारना-स० क्रि० दे० ( हि०पछारना) कचरी-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. कच्चा) ककड़ी कपड़ा धोना, कुचलना। की जाति की एक जंगली बेल जिसके छोटे कचाल--संज्ञा, पु० (दे०) विवाद, झगड़ा। छोटे फल पकने पर खाये जाते हैं, पेंहटा । कचरिया (दे० ) । हटे के कच्चे सुखाये कचालू-संज्ञा, पु० दे० (हि० कच्चा--आलू) एक प्रकार की अरुई, बंडा, एक प्रकार की हुये फल, वही तले हुए फल, काट कर चाट, निमक-मिर्च आदि मिले उबले आलू सुखाये हुए फल-फूल जो तरकारी के लिये रक्खे जाते हैं, छिलकेदार दाल । वि० स्त्री० के टुकड़े। कचिया-संज्ञा, पु. ( दे०) काँच लवण, कुचली हुई। कचला-संज्ञा, पु० (दे० ) गीली मिट्टी, हँसुवा, दाँती । संज्ञा, पु. ( दे० ) कचिकीचड़। याहट-कचापन । कचलौंदा-संज्ञा, पु० ( हि० कच्चा--- लोंदा) कचियाना-स० क्रि० (दे०) कच्चा करना, लोई, कच्चे आटे का सना हुआ लोंदा ।। कपड़ों में योही डोरे डालना। अ० क्रि० कचलोन-संज्ञा, पु. (हि. कच्चा-लोन ) (दे० ) हिचकिचाना, सहमना, हिम्मत काँच की भट्टियों में जमे हुए क्षार से बनने हारना, झपना, डरना। वाला लवण, या नमक, विट लोन, काला कचीची*---संज्ञा, स्त्री० ( अनु० कच = नमक। कुचलने का शब्द ) जबड़ा, डाढ़, कचपची, कचलोहिया-संज्ञा, स्त्री० (दे० ) कच्चे । कृत्तिका नक्षत्र । लोहे का बना हुया। मु०-कचीची बंधना-दाँत बैठना कचलोहू-संज्ञा, पु. ( हि० कच्चा--लोह ) ( मरते समय ) । खुले जखम से थोड़ा थोड़ा बहने वाला कचुलना-संज्ञा, पु० (दे०) कसोरा, प्याला । पनछा या पानी, रस, धातु । | कचूमर-संज्ञा, पु० दे० ( हि० कुचलना) कचवना-स० क्रि० (दे० ) स्वतंत्रता से, कुचल कर बनाया हुआ अचार, कुचला, निश्चित होकर खाना। कुचली हुई वस्तु, भा, गूदा । कचवाँसी-संज्ञा, स्त्री. ( दे०) बीघे का मु०-कमर निकालना (करना)पाठ हजारवाँ भाग, (२० कचवाँसी = १ खूब कूटना, चूर चूर करना, कुचलना, नष्ट विस्वाँसी)। । करना, खूब पीटना । For Private and Personal Use Only Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org कचूर ३८३ कचूर - संज्ञा, पु० दे० (सं० कर्पूर) हलदी की जाति का एक पौधा जिसकी जड़ में सुगंधि होती है, नरकचूर, कचुल्ला, कटोरा । कचोरा (दे० ) । नयन कचूर भरे जनु मोती ". SC - प० । कचाना - स० क्रि० ( हिं० कच - धँसने का शब्द ) चुभाना, धँसाना, कोंचना । कचोरा* संज्ञा, पु० ( हि० काँसा + ओरा - प्रत्य० ) कटोरा प्याला ( स्त्री० कचोरी, कटोरी ) | कचौरी ( कचौड़ी) --संज्ञा, स्त्री० ( हि० कचरी ) उरद की पीठी भरी हुई एक प्रकार की पूरी । ---- कच्चा - वि० दे० (सं० कषण ) जो पका न हो, हरा और बिना रस का, अपक, जो आँच पर न पकाया गया हो, जो पुष्ट न हो, जिसके तैय्यार होने में कुछ कसर हो, हद, कमजोर, प्रौढ़ । स्त्री० कच्ची । मु० - कच्चे जो (दिल) का - कमज़ोर दिल का, डरपोक, कमहिम्मती, घबड़ाने वाला । कच्चा करना- कपड़े में साधारण रूप से तागा डालना, डराना, भयभीत करना, शरमाना | कच्ची खाना - हारना, हतोत्साह होना । कच्ची जवान बोलना -- अनादर-सूचक शब्दों का प्रयोग करना, गाली देना, शिष्ट शब्द कहना । कच्चीपक्की बात कहना -- झूठ-सच कहना, इधर-उधर की, भली-बुरी, खोटी-खरी कहना | कच्चा चिट्ठा रखना - चरित्र का नग्न रूप रखना, गुप्त रहस्य प्राप्त करना । कच्चा खेल खेलना -- गड़बड़, असफल प्रयत्न करना, दिखावटी काम करना कच्चा पड़ना-झूठा ठहरना, संकुचित होना, ग़लत साबित होना । प्रमाणिक तौल या माप से कम, अपरिपक्क, अपटु, नाड़ी । संज्ञा० पु० कपड़े में दूर दूर पर पड़े हुये तागे या डोभ, ढाँचा, ख़ाका, ढड्ढा, मसविदा, जबड़ा, दाढ़, कच्चा पैसा । कच्छप कच्चा चिठ्ठा संज्ञा, पु० यौ० (दे० ) ज्यों वृत्तान्त, गुप्तभेद, रहस्य । व Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कच्चा माल - संज्ञा, पु० ( दे० ) यौ०वह द्रव्य जिससे व्यवहार की चीजें बने, सामग्री, जैसे रुई, तिल । कच्चा हाथ - संज्ञा, पु० यौ० (दे० ) अनभ्यस्त हाथ, काम में न बैठा हुआ हाथ । कच्ची - वि० स्त्री० ( हि० कच्चा ) कच्चा | संज्ञा, स्त्री० (दे० ) जल में पकाया भोजन, कवी रसोई। मुहा० कच्ची खाना हारजाना । कच्चो चोनी-संज्ञा स्त्री० (दे० ) बिना साफ़ की हुई चीनी । कन्चो शकर, – खाँड़ । कच्चो वही संज्ञा स्त्री० (दे० ) जो हिसाब निश्चित नहीं है उसके लिखने की बही । कच्ची सड़क - संज्ञा, स्त्री० (दे० ) बिना कंकड़ कुटी सड़क | कच्ची सिलाई - संज्ञा, स्त्री० ( दे० ) दूर दूर पर पड़ा हुआ तागा, डोभ, लंगर । कच्चू -- संज्ञा, पु० दे० (सं० कंचु ) अरुई, इयाँ, बंडा । कच्चे-पक्के दिन -संज्ञा, पु० (दे० ) चारया ५ माह का गर्भ काल, दो ऋतुयों का संधि-दिन | कच्चे बच्चे सज्ञा, पु० यौ० ( हि० छोटे छोटे बच्चे, बाल-बच्चे । कच्छ संज्ञा, पु० (सं० ) जलप्राय देश, अनूप देश, नदी तट की भूमि, कछार, छप्पय का एक भेद, गुजरात के समीप का देश | संज्ञा, पु० (सं० कक्ष ) धोती की लाँग | संज्ञा, पु० (सं० कच्छप ) - कछुआ | वि० कच्छी - कच्छ देश का । संज्ञा, पु०कच्छ का घोड़ा । AT THE CENTER IN कच्छप - संज्ञा, पु० (सं० ) कछुआ, के २४ अवतारों में से एक, निधियों में से एक, दोहे मदिरा खींचने का एक यंत्र, For Private and Personal Use Only विष्णु कुबेर की नव का एक भेद, तालू का एक Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कच्छपी ३८४ कजली रोग, विश्वामित्र सुत, तुन का वृक्ष । काछ) पीछे खोंसी जाने वाली धोती की कच्छू कछुवा (दे०)। लाँग, ऐसी धोती पहिनने का स्त्रियों का कच्छपी-संज्ञा, स्त्री. ( सं० ) कछुवी, ढङ्ग, कछनी । स्त्री. अल्पा० कछौटीसरस्वती की वीणा। कछनी, लँगोटी । “ पग पैंजनी बाजति, कच्छा-संज्ञा, पु० (सं० कच्छ ) दो पतवारों पीरी कछौटी"-रस० । की बड़ी नाव जिसके छोर चिपटे और बड़े कज--संज्ञा, पु. ( फ़ा ) टेढ़ापन, कसर, होते हैं, नावों का बेड़ा। संज्ञा, पु० दे० (सं० दोष, ऐब। कता) दर्जा । स्त्री० कच्छो--कच्छदेशोत्पन्न, कजक-संज्ञा, पु० ( दे० ) हाथी का अंकुश। घोड़े की जाति । कछना-सं० कि ( दे० ) पहिनना, धारण *कजरा--संज्ञा, पु० दे० (हि. काजल ) काजर-(दे०) काजल, कज्जल, काली करना। कछनी-संज्ञा, स्त्री० (हि. काछना) घुटने अाँखवाला बैल। ..." आँखिन मैं कजरा के ऊपर चढ़ा कर पहनी हुई धोती, छोटी करि राख्यौ" मति--संज्ञा, स्त्री०-कजरी धोती, काछने की वस्तु । ( दे. ) काछनी -काली गाय, बरसाती गीत विशेष । - " मोर मुकुट कटि काछनी ..वि• घुटने वि० -- काली । यौ० -- कजराबन-घना अंधकार-पूर्ण कालाबन कजरीबन दे०)। तक का धाँधरा ।" कछरा-संज्ञा, पु० (दे० ) चौड़े मुँह का | *कजराई---संज्ञा, स्त्री० (दे०) कालापन, कालिमा । मिट्टी का बरतन । कजरारा-(स्त्री० कजरारी)-वि० (हि. कचलम्पट–वि० ( दे० ) अजितेन्द्रिय, काजर --भार ---प्रत्य० ) काजल वाला, लुच्चा, व्यभिचारी। काजल लगा हुआ, अंजन अँजाये, काजल कछवाहा-संज्ञा, पु० दे० (सं० कच्छ ) सा काला, स्याह । कजरी (कजली) संज्ञा, राजपूतों की एक जाति, जो रामात्मज कुश स्त्री० (दे० ) एक त्यौहार जो बरसात में के वंशज हैं। होता है, उस समय में गाये जाने वाला कछान (कछाना)—संज्ञा, पु० दे० (हि. एक गीत, कालिख, स्याही, काली गाय । काछना ) घुटने के ऊपर चढ़ाकर धोती संज्ञा, पु० (दे० ) एक तरह का धानपहिनना। बासमती आदि। कछार-संज्ञा, पु० दे० ( सं० कच्छ ) | कजरौटा-( कजलौटा )- संज्ञा० पु. सागर या नदी के तट की तर और नीची | (दे०) काजल की दंडीदार डिबिया । भूमि, खादर। " कजरौटा बरु होइ, लुकाठन श्राजै नैना" कछारना-स० कि० दे० (हि. कचरना ) | -गि०। धोना, छाँटना, पछारना। कजलाना-अ० कि. (दे०) काजल कछु (कछुक) कछू---वि० (७०) कुछ पाड़ना, आग बुझाना। स० कि० काजल (हि०) कछूक (दे० ) थोड़ा । " कछु दिन लगाना, आँजना। भोजन बारि-बतासा"-रामा। कजली-संज्ञा, स्त्री० (हि. काजल ) घोटे कछुवा (कछुवा)--संज्ञा, पु० दे० (सं० । हुए पारे और गंधक की बुकनी, रस फूंकने कच्छप ) ढाल की सी कड़ी खोपड़ी वाला में धातु का वह अंश जो आँच से ऊपर चढ़ एक जल-जन्तु, कूर्म, कमठ । कर पात्र में लग जाता है, गन्ने की एक कछोटा-कछोटा-संज्ञा, पु० दे० (हि० | जाति, आँखों के किनारों पर काले घेरे For Private and Personal Use Only Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कजा ३८५ कटना - वाली गाय, एक बरसाती त्यौहार, बरसाती कटकट--संज्ञा, स्त्री० ( अनु०) दाँतों के गीत विशेष । बजने का शब्द, लड़ाई, झगड़ा । कजा--संज्ञा, स्त्री० (दे०) माँड, काँजी। कटकटाना-प्र० कि० ( हि० ) दाँत सज्ञा, स्त्री० ( अ० क़ज़ा ) मौत, मृत्यु, मीच पीसना, अन्हौरियों का चुनचुनाना, चुभना। (दे०)। | कटकी-वि० ( दे०) कटक-सम्बन्धी, कटक कजाक - संज्ञा, पु. ( तु० ) लुटेरा, डाकू नगर का, पहाड़ी। बटमार, कज्जाक " जेहि मग दौरत निरदई, कटकना-अ. क्रि० (दे०) बोलना, तेरे नैन कजाक । रत। ढाँचा बनाना। कजाकी—संज्ञा, स्त्री० (फ़ा ) लुटेरापन, | कटखना-वि० ( हि० काटना+खाना ) लूटमार. छल-छद्म, धोखे बाज़ी, चालाकी । __ काटखाने वाला, कटहा । संज्ञा, पु०-युक्ति, "तासों कैसे चले कजाकी"-छत्र। चाल, हथकंडा। कजावा-संज्ञा, पु० (फ़ा ) ऊँट की काठी। कटघरा-संज्ञा, पु. ( हि० काठ+घर ) कजिया-संज्ञा, पु. ( अ० ) झगड़ा, लड़ाई। बड़ा पिंजड़ा, काठ का अँगलेदार घर, कजो-संज्ञा, स्त्री० (फा ) दोष, ऐब, कसर। कठहरा, कठरा (दे०) कठघरा। कज्जल-संज्ञा, पु० (सं० ) अंजन, सुरमा, | कटड़ा-- संज्ञा, पु० (सं० कटार ) भैंस का काजल, कालिख, बादल, एक प्रकार का पड़वा। छंद । वि० कज्जलित । यौ• कज्जलगिरि- करजोरा-संज्ञा, पु० (दे० ) काला जीरा । काला पर्वत । कटताल-संज्ञा, पु. ( दे० ) करताल कट—संज्ञा, पु० (सं० ) हाथी का गंडस्थल, नामक बाजा। कर्णपाली, नरकट, नरसल, नरकुल को | करती-संज्ञा, स्त्री० ( हि० काटना ) विक्री, चटाई, दामा, दही, खस, सरकंडा आदि खपत, कटोती-जो काट लिया जाय । घास, शव, लाश, हाथी, श्मशान । संज्ञा, करन--संज्ञा, पु० (दे० हि० कटना ) काट, पु० ( हि० कटना ) एक प्रकार का काला कतरन । रङ्ग, काट का संक्षिप्त रूप, जैसे कट बना | कटना-अ० क्रि ० दे० (सं० कर्तन ) किसी कुत्ता। धार वाली चीज़ से दबाकर दोखंड करना, कटक-संज्ञा, पु. (सं० ) सेना, फ़ौज, | पिलना, घाव होना ( धार दार चीज़ से ) राज शिविर, कंकण, समुद्री नमक, पहिया, | दो भाग अलग होना, लड़ाई में मरना कंकड़, चक्र, मेखला, एक नगर, कड़ा, कतर जाना, ब्योंता जाना, छोजना, नष्ट नितम्ब, चूतड़, घास की चटाई, साथरी, | होना, ( समय का) बीतना, (मार्ग) गोंदरी, पर्वत का मध्य भाग, हाथी के | समाप्त होना, धोखा देकर साथ छोड़ना, दाँतों पर जड़े पीतल के बंद या सामी, खिसक जाना, लज्जित होना, झपना, जलना समूह । "छोटे छोटे भुजन बिजायट, छोट | डाह करना, मुग्ध या मोहित होना, बिकना, कटक कर माँही।"-रघु०। खपना, प्राप्ति होना, गुज़रना ( उम्र०) कटकई*-संज्ञा, स्त्री० (सं० कटक-+-ई--- आय होना-जैसे—माल कटता है । कलम प्रत्य० ) कटक, लशकर, सेना । की लकीर से किसी लिखी हुई चीज़ का कटकाई-संज्ञा, स्त्री० (दे० ) बहुत, बात- | रद होना, मिटना, ख़ारिज होना, एक चीत करना, तेज़, चटक, सेना । “जो पावै । संख्या में दूसरी का ऐसा भाग लगना कि मरकट कटकाई-" रामा० । कुछ शेष न बचे, दूर होना, पासक्त होना, भा० श० को०-४६ For Private and Personal Use Only Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org कटनांस बात फ़सल कटना ( जैसे- चैत कट रहा था ) । मु० - कटती कहना - मर्मभेदी कहना | कट जाना - लज्जित होना, कटनांस--संज्ञा, पु० दे० (सं० कीट + नाश) नीलकंठ, चाप पक्षी । पना । कटन - संज्ञा, स्त्री० ( हि० कटना ) काट, . प्रीति, श्रासक्ति, रीझ । " फिरत जो अटकत कनि बिन... वि० । ३८६ कटनी - संज्ञा, स्त्री० (दे० ) काटने का ज़ार, काटने का काम | कटफल - संज्ञा, पु० ( दे० ) कायफल, कैफर ( दे० ) । कटर-संज्ञा, पु० (०) चरखियों पर चलने वाली बड़ी नाव, पनसुइया, छोटी नाव । कटरा - संज्ञा, पु० ( हि० कटहरा ) छोटा चौकोर बाज़ार, कटार | संज्ञा, पु० (सं० कटाह ) भैंस का बच्चा, पड़वा, कड़ाह । 66 कटरा काढ्यो पेट में, दये घाव पर धाव " - छत्र० । ----- कटवां - वि० ( हि० कटना + वां - प्रत्य० ) कटा हुआ, काट कर बना । क्रि० वि० (दे० ) तिरछा काट कर जाना, सूक्ष्म मार्ग । कटसरैया - संज्ञा स्त्री० दे० (सं० कट सारिका ) असे का सा एक काँटेदार पौधा । कटहर - कटहल -संज्ञा, पु० (दे० ) कंटकिफल (सं० ) एक सदा बहार घना पेड़ जिसमें हाथ सवा हाथ के मोटे और भारी फल लगते हैं, इस पेड़ का फल । यौ०कटहरी चंपा - कटहल की सी सुगंधि वाले फूलों का चंपा वृक्ष । कटहा - वि० दे० ( हि० काटना + हा प्रत्य० ) काटने वाला । स्त्री० करही - काट खाने वाली । कटा* - संज्ञा, पु० दे० ( हि० काटना ) मारकाट, वध, हत्या, प्रहार, चोट,... "सुकटा of घालि कटा करती है। । " -- जग० । कटाइक - वि० दे० ( हि० काटना ) काटने वाला, कटैया, कटायक । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कटास कटाई - संज्ञा, स्त्री० ( हि० काटना ) काटने का काम, फ़सल काटने का काम, फ़सल काटने की मज़दूरी । कटाऊ - संज्ञा, पु० ( दे० ) काट, काट-छाँट बेलबूटा, “जावत कहिये चित्रकटाऊ' - प० । कटाकट - संज्ञा, पु० ( हि० कट ) कटकट शब्द, लड़ाई । कटकटी -संज्ञा स्त्री० ( हि० काटना ) मार-काट | कटानी । दे० कटाक्ष-संज्ञा, पु० (सं० ) तिरछी चितवन, वक्र दृष्टि, तिरछी नज़र, व्यंग्य, आक्षेप, कटाच्छ (दे० ) | भावपूर्ण दृष्टि, नेत्रों से संकेत । कटाग्नि - संज्ञा, स्त्री० (सं० ) घास-फूस की अनि कटाच्छ कटाछ - संज्ञा, पु० ( ० ) कटाक्ष ( सं० ) । कटान - संज्ञा, स्त्री० (दे० ) काटने की क्रिया, भाव, ढंग । कटाना स० क्रि० ( हि० काटना का प्रे० रूप ) किसी से काटने का काम प्रेरणा करके कराना, कटवाना | कटार - संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० कट्टार ) छोटा तिकोना और दुधारा हथियार ( स्त्री० अल्पा० ) कटारी । कटाल - संज्ञा, पु० (दे० ) ज्वार, समुद्र का चढ़ाव । 2 कटाव -संज्ञा, पु० ( हि० काटना ) काट, काट-छाँट, कतरब्योंत काट कर बनाये हुए बेल-बूटे, पानी के वेग से गिरता हुआ किनारा | - कटावदार - वि० ( हि० कटाव + दार प्रत्य० ) जिस पर खोद कर या काट कर बेलबूटे बनाये गये हों । कटावन - संज्ञा, पु० (दे० ) कटाई करने का काम, कतरन, कटा हुआ । कटास - संज्ञा, पु० (दे० ) एक बन - बिलाव, कटार, खीखर । A For Private and Personal Use Only Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३८७ कटोल कटाह-संज्ञा, पु० (सं० ) बड़ी कड़ाही, अनिष्ट, रस-विरुद्ध वर्ण-योजना ( काव्य० ), कड़ाह, कछुए की खोपड़ी, कुआँ, नरक, अप्रिय, चरफरा, तिक्त । " कटुक कुवस्तु झोंपड़ी, भैंस का बच्चा, टूह, ऊँचा टीला। | कठोर दुराई"-रामा०। कटि-संज्ञा, स्त्री. (सं० ) देह का मध्य कटुना-संज्ञा, स्त्री० (सं० ) कटुवापन, वैमभाग, पेट के नीचे का हिस्सा, कमर, हाथी नस्य, बुराई, कटुत्व । का गंडस्थल : यौ० कटि-तट-नितंब । कटुकी-( कुटको)-संज्ञा, स्त्री. (सं.) कटि-देश-कमर । कटि-वस्त्र-धोती, कुटकी नामक औषधि, कटु रोहिणी। पाजामा श्रादि। कटुग्रंथि-संज्ञा, स्त्री० (सं०) पिपरामूल, कटिजेब-संज्ञा, स्त्री० (हि. कटि+जेब- सोंठ। रस्सी ) किंकिणी, कटि-सूत्र, करधनी। कटु कट-कटुभद्र-संज्ञा, स्त्री० (सं०) सोंठी। कटिबंध-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) कमरबंद, कटुवादी-वि० (सं० ) कड़वीबात कहने नारा, भूमध्य रेखा के ऊपर और नीचे कर्क वाला, अप्रियवादी " कटुवादी बालक और मकर रेखाओं वाले भाग । सरदी गरमी बध जोगू "--रामा० । के विचार से पृथ्वी के पाँच भागों में से कोई कटुभी--संज्ञा स्त्री० (दे० ) माल काँगुनी। एक भाग ( भूगो०)। कक्ति-संज्ञा, स्त्री० (सं० यौ० ) अप्रिय कटिबद्ध-वि० (सं०) कमर बाँधे हुए, बात, बुरी उक्ति। तैय्यार, तत्पर, उद्यत । संज्ञा, स्त्री० भा० कट्टसा - संज्ञा, स्त्री० (सं०) दुर्वचन, फूहड़ता। (सं० ) कटिबद्धता-तत्परता। | कटेरी-संज्ञा, स्त्री० (हि० काँटा) भटकटैया, कटि-भूषण ---संज्ञा, पु. ( सं० ) करधनी, | कंटकारी (सं० ) कटैय्या (दे० )। कटेहर--संज्ञा, पु० ( दे०) खोपा, हल की कटि-सूत्र--संज्ञा, पु. (सं० ) बच्चों की | लकड़ी जिसमें फल लगा रहता है। कमर में बाँधा जाने वाला तागा, मेखला। कटया--संज्ञा, पु. ( हि० काटना) काटने कटिया-संज्ञा, स्त्री० (दे०) सन का वस्त्र, वाला । संज्ञा, स्त्री० भटकटैया । रनों को काटने-छाँटने वाला कारीगर, कटला-संज्ञा, पु. (दे०) एक कीमती जड़िया, कुटी, गाय-बैल का कटा हुआ पत्थर । चारा ( जुआर के पौधे), नुकीला टेढ़ा कटोरदान-संज्ञा, पु० (हि. कटोरा+ अंकुस, मछली मारने का काँटा। दान—प्रत्य० ) भोजनादि रखने का पीतल कटियाना* --- क्रि० (हि. काँटा) का एक ढकनेदार बरतन । रोगों का खड़ा होना, कंटकित होना, कटोरा -- संज्ञा, पु० दे० (हि. काँसा+ रोमांच होना। ओरा --- प्रत्य० ) कँसरा-खुले मुँह, छोटी कटीला-वि० (हि० काटना) काट करने | दीवाल और चौड़ी पेंदी का बरतन । वाला, तीषण, चोखा, तीव्र प्रभाव डालने कटोरी-संज्ञा, स्त्री दे० (हि. कटोरा का वाला, मुग्ध या मोहित करने वाला, नोंक- | अल्पा० ) छोटा कटोरा, थाली, बिलिया, झोंक का, नुकीला,बाँका । स्त्री० कटीली । अँगिया का स्तन ढाकने वाला भाग, तलवार वि० (हि० काँटा ) काँटेदार, नुकीला, पैना, | की मूठ का ऊपर वाला गोल भाग, फूल के कंटार, काँटों वाला। सीके का चौड़ा और दल वाला भाग । (दे०) कटु-कटुक-वि० (सं० ) छः रसों में से | कटोरिया। एक, चरपरा, कडुवा, बुरा लगने वाला, कटोल- संज्ञा, पु० (दे०) चंडाल, एक फल । तगड़ी। For Private and Personal Use Only Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Recs कटौती ३८८ कठिन करौती-संज्ञा. स्त्री० (हि. काटना ) किसी पुतली ) तार-द्वारा नचाई जाने वाली काठ रक्रम के देते समय हक या धर्मार्थ काटा की गुड़िया। संज्ञा, पु०-कठपुतलाजाने वाला हिस्सा। दूसरे के कहने पर काम करने वाला व्यक्ति । कट्टर-वि० (हि० काटना ) काटने वाला, कठड़ा संज्ञा पु० दे० (हि० कटघरा ) कटकटहा. अपने विश्वास के प्रतिकूल बात को | हरा, कठघरा-काठ का बड़ा सन्दूक, या न सहने वाला, अंध-विश्वासी हठी, दुरा- बरतन, कठौता । स्त्री० कठड़ी। ग्रही, पक्का । संज्ञा, स्त्री० कट्टरता। कठबंधन संज्ञा, पु० (हि. काठ + बंधन) कट्टहा-संज्ञा, पु० (सं० कट = शव-हा- हाथी के पैर में डाली जाने वाली काठ की प्रत्य०) महापात्र, महा ब्राह्मण, कटहा बेड़ी, अँडुआ। (दे०) कट्टिया। कठबिस्की -संज्ञा, स्त्री० (दे०) भेक, कट्टा-वि० (हि. काठ) मोटा-ताज़ा, हद्दा- उखर साँड़ा। कहा, बली । संज्ञा, पु०-जबड़ा, कच्चा। । कठवाय--संज्ञा, पु० ( दे०) सौतेला बाप । मु०-कट्टे लगना-दूसरे के कारण कठमलिया -- संज्ञा, पु. ( हि० काठ -+-माला) अपनी वस्तु का नष्ट होना या उस दूसरे के काठ की माला या कंठी पहिनने वाला, हाथ लगना। वैष्णव, झूठमूठ कंठीवाला, बनावटी साधु, कट्याना अ० कि० (दे०) कंटकित होना, झूठा संत ।.... । रही-सही कठमल्लिया प्रेमानन्द से रोमांच होना। कहिगा ---"। कहा-संज्ञा, पु० ( हि० काठ ) पाँच हाथ का स्त-वि० (हि. काठ । मस्न-फा० ) चार अँगुल के प्रमाण की एक भू-माप, मंड मुसंड़, व्यभिचारी । संज्ञा, स्त्री० विस्वा । मोटा या खराब गेहूँ। कठमस्ती-मुसंडपन, मस्ती। कठ-संज्ञा, पु० (सं० ) एक ऋषि, यजुर्वेदीय करा--संज्ञा, पु. ( हि० काट । रा ) उपनिषद्, कृष्ण यजुर्वेद की शाखा। संज्ञा, कठहरा, कठघरा, काठ का संदूक या बरतन, पु० (सं० काष्ठ ) ( सामासिक पदों में ) कठौता, चहबच्चा । स्त्री० कठरी।। काठ, लकड़ी, जैसे कठपुतली. ( फल श्रादि कठला-कठुला–संज्ञा, पु० दे० (सं० कंठ+ के लिये ) जंगली, निकृष्ट जाति का--जैसे | ला-प्रत्य०) काठ की एक प्रकार की माला कठकेला। जो बच्चों को पहिनाई जाती है। " उर कठकेला-संज्ञा, पु० दे० (हि. काठ + केला) | बघनहाँ कंठ कठुला मँडूले बार--सूर० । सूखे और फीके फलवाला एक प्रकार | कठबल्ली--संज्ञा, पु० (सं० ) कृष्ण यजुर्वेद का केला। की कठ शाखा का एक उपनिषद् । कठकोला-( कठफोड़वा -संज्ञा, पु० | कठहंसी—संज्ञा, स्त्री. (दे०) अकारण (दे०) हि० ( काठ+कोलना या फोड़ना) | शुष्क ( नीरस ) हास । पेड़ों की छाल छेदने वाली एक ख़ाकी रंग | कठारा-संज्ञा, पु० ( दे० ) नदी आदि का की चिड़िया। किनारा। कठन्दर-संज्ञा, पु० (दे० ) काष्टोदर (सं०) | कठारी-संज्ञा, पु० (दे०) काठ का कमंडलु। एक रोग (पेट का )। कठिन-वि० ( सं० कठ् + इन् ) कड़ा, कठताल-संज्ञा, पु. ( दे० ) करताल सस्त, कठोर, निष्ठुर मुश्किल, दुष्कर, नामक बाजा। दुःसाध्य, दृढ़, स्तब्ध, “परो कठिन रावन कठपुतली-संज्ञा, स्त्री. ( हि० काठ+ ! के पाले"- रामा० । For Private and Personal Use Only Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कठिनता ३८६ कड़कड़ाना कठिनता--संज्ञा, स्त्री. (सं०) कठोरता, सख़्ती, निष्ठुरता, दृढ़ता। संज्ञा, पु. भा. कड़ाई, सख़्ती, असाध्यता, निर्दयता, (हि.) कठोरपन, कठोरताई ( दे०) निष्ठुरता, दृढ़ता, कठिनत्व ।। निर्दयता, कठोरता। कठिनाई-संज्ञा, स्त्री. ( सं० कठिन + कठोलिया—संज्ञा, स्त्री० (दे० ) काठ का आई---प्रत्य० ) कठोरता, सख़्ती, मुश्किल, छोटा बरतन । क्लिष्टता, असाध्यता, दिक्कत, बाधा । यौ० कठौता-कठवता-संज्ञा, पु० ( हि० कठौत ) कठिनपृष्टक-संज्ञा, पु० (सं०) कछुवा । काठ का एक बड़ा और चौड़े मुंह का छिछला कठिनिका-संज्ञा, स्त्री० (सं० कट । इक् +- बरतन । कठौत ( दे०), संज्ञा, स्त्री० आ ) खड़िया मिट्टी। ( अल्प० ) कटौती। “छोटो सो कठौता कठिनी—संज्ञा, स्त्री० ( स० ) खड़िया मिट्टी भरि श्रानि पानी गंगाजू को–कविः । की बर्ती, हो (दे० )। " या घर ते कबहूँ न गई पिय टूटो तवा कठिया—वि० । हि० काट ) मोटे और कडे अरु फूटी कठौती"- नरो । छिलके वाला, जैसे कटिया बदाम । संज्ञा, कड़--संज्ञा, पु. ( दे० ) कुसुम का बीज पु० (दे०) गेहूँ की एक जाति । संज्ञा, (डि. भा० ) कमर, बरें। स्त्री० (दे०) कठौती, काठ की माला, कड़क-संज्ञा, स्त्री. (हि. ) कड़कड़ाहट एक प्रकार के मंगे या उनकी माला जो का कठोर शब्द, तड़प, दपेट, गाज, नीच जाति की स्त्रियाँ पहिनती हैं। वज्र, घोड़े की सरपट चाल, कसक कठियाना-अ० क्रि० ( दे०) सूख कर ( करक) रुक रुक कर होने वाली पीड़ा, कड़ा हो जाना, कठुवाना। रुक रुक कर जलन के साथ पेशाब होना कठिल्ला-संज्ञा, पु० (दे० ) करेला, एक गर्जन, कड़ाका, क्रोध, गर्व के साथ तरकारी। कड़ा शब्द। कठुवाना---० कि० ( दे० ) सूखकर काठ कड़कड़--संज्ञा, पु. ( अनु० ) दो वस्तुओं सा कड़ा होना, शीत से हाथ-पैर ठिटुरना। के श्राघात का कड़ा या कठोर शब्द, कड़ी कठूपर—संज्ञा, पु० (हि० काठ -+-ऊमर ) वस्तु के टूटने या फूटने का शब्द, घोर शब्द, जंगली गूलर। कड़ाकड़ (दे०)। " कोउ कड़ाकड़ हाड़ कठेठ कठठा--वि० दे० (हि० काठ --- चाबि नाचत दै तारी"-हरि० । एठ प्रत्य० ) कड़ा, कठोर, कठिन, दृढ़, कड़कड़ाना-अ. क्रि० दे० (सं० कड् ) कड़कड़ शब्द होना, ऐसे शब्द के साथ कड़ी मज़बूत, सहत, कटु, अप्रिय, तगड़ा, अधिक बलवाला । स्त्री० कठेठी ।..." तबलौ वस्तु का टूटना-फूटना, घी, तेल आदि का आँच पर तपकर शब्द करना । स० कि. अरिबाह्यौ कटार कठैठो "..-भू० । कड़कड़ शब्द के साथ तोड़ना, घी, तेल को कठोदर---संज्ञा, पु० दे० (सं० काष्टोदर) खूब तपाना, अंगड़ाई लेकर देह की एक प्रकार का उदर-रोग। नसों को शब्दायमान करना । पु० वि० कठोर-वि० ( स० ) कठिन, कड़ा, सख़्त, कड़कड़ाता--कड़ाके का, तेज़, घोर, निष्ठुर, निर्दय, निठुर (दे० ) दृढ़, बुरा, प्रचंड । स्त्री कड़कड़ाती-बड़बड़ाती, अप्रिय ( जैसे कठोर बात )। " कमठ पृष्ठ कड़कड़ शब्द करती हुई । संज्ञा, पु० भा० कठोर मिदं धनुः "-हनु । ( हि० ) कड़कड़ाहट-कड़कड़ शब्द, कठोरता-संज्ञा, स्त्री. ( सं० ) कड़ाई, गरजन । For Private and Personal Use Only Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - बंदूक । कड़कना कडुश्रा कड़कना-अ० कि० (हि.) कड़कड़ शब्द | चोट ) सहने वाला, झेलनेवाला, धीर, होना, चिटखना, टूटना, फूटना ( कड़कड़ दुष्कर, तीन प्रभाव डालने वाला, तेज़, शब्द कर ) डाँटना, दपटना, फटना, दरकना, असह्य, अप्रिय, कर्कश, बुरा लगने वाला। गरजना (बादल) सरोष या सगर्व ज़ोर | वि० स्वी० कड़ी । संज्ञा, स्त्री० कड़ी-शहसे बोलना। स० प्रे० क्रि० कड़काना । तीर, धन्नी ( मकान की छत पर लगाई कड़कनाल-संज्ञा, स्त्री. ( हि० ) यौ० | जाने वाली ) जंजीर का एक छल्ला । चौड़े मुँह की तोप । कड़ाई- संज्ञा, स्त्री. भा० (हि. कड़ा) कड़क बिजली-संज्ञा, स्त्री० ( हि० यौ० ) कठोरता, कड़ापन, कठिनता, सस्ती, दृढ़ता। कान का एक गहना चाँदवाला, तोड़ेदार कड़ाका—संज्ञा, पु० (हि. कड़कड़ ) किसी कड़ी वस्तु के टूटने का शब्द. उपवास, कड़कच---संज्ञा, पु० ( दे०) समुद्र लवण, । निर्जल व्रत, लंघन । मु०--कड़ाके का-- क्षार, नमक । ज़ोर का, तेज़। कड़का-संज्ञा, स्त्री० ( दे० ) बिजली, कड़ाबीन-संज्ञा, स्त्री० दे० ( तु० कराबीन ) गर्जन, घोर शब्द । चौड़े मुंह की बंदूक, छोटी बंदूक । कड़काना-स० क्रि० (हि. कड़कना ) | कडाहा-कड़ाह-संज्ञा, पु० दे० (सं० कटाह, कड़कड़ शब्द के साथ तोड़ना, घी आदि प्रा० कड़ाह ) अांच पर चढ़ाने का लोहे का का गरम करना। बड़ा गोल बरतन । ( स्त्री. अल्प० ) कड़खा-संज्ञा, पु० (हि० कड़क ) लड़ाई कड़ाही-छटा कडाह, कढ़ाई। के समय का गीत जिससे उत्तेजना प्राप्त होती है, जिसमें वीर-यश-गान होता है। कडियल -वि० दे० ( हि० कड़ा ) कड़ा। कडखैत-संज्ञा, पु० (हि० कड़खान-ऐत - | कड़िहार--संज्ञा, पु० दे० (सं कर्णधार ) प्रत्य० ) कड़खा गाने वाला, भाट, चारण । मल्लाह, केवट, उद्धारक, माँझी । कड़बड़ा-वि० दे० (सं० कर्बर = कबरा ) "धरौ नाम कड़िहार"-कबी० । कुछ सफ़ेद और काले बालों वाला। कड़ी-संज्ञा, स्त्री० (हि. कड़ा) किसी वस्तु कड़वी-वि० ( उ०) कडू, कटु । संज्ञा, स्त्री० के लटकाने या अटकाने के लिये लगाया दे० (सं० कांड, हि. काँडा) भुट्टे कट जाने जाने वाला छल्ला, लगाम, गीत का एक पर चारे के लिये छोड़े हुए जुबार के पेड़, पद । संज्ञा, स्त्री० (सं० काँड ) छोटी धरन, करबी (दे०)। धन्नी, (हि. कड़ा ) अंडस, संकट । कड़ा-संज्ञा, पु. ( सं० कटक ) हाथ या पैर कड़ीदार - वि० दे० (हि० कड़ी+दारमें पहिनने का चूड़ा, खड़वा ( दे०)। प्रत्य० ) कड़ी युक्त, छल्लेदार। चुरवा (दे०) लोहे या अन्य धातु का | कडुआ-वि० दे० (सं० कटुक ) तिक्त, छल्ला या कुंडा, एक प्रकार का कबूतर, तीता (दे० ) कटु, तीखा चरफरा, अप्रिय बलय, कड़ाही के ऊपर उठाने के हत्थे। वि० और उग्र ( स्वाद में ) तीखी प्रकृति का, (सं० कडु ) कठोर, कठिन, दृढ़, ठोस, सख़्त, गुस्सैल अक्खड़, अप्रिय, बुरा, करुया रूखा, निष्ठुर ( निठुर ) उग्र. क्लिष्ट, मुश्किल, (दे० ) " काहू सो कबहूं नहीं, कहो न दुःसाध्य, कसा हुआ, चुस्त, जो गीला न हो, । करूए बैन "सूखा, कम ढीला, हृष्ट-पुष्ट, तगड़ा, दृढ़, मु०-कडुआ करना-बुरा बनाना, प्रचंड जोरदार, तेज़, गहरा, अधिक (कड़ी दुश्मनी कराना अनबन करना, अप्रिय For Private and Personal Use Only Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir काना ३११ कणादि करना । कडुआ होना-(बनना) बुरा करना। करना (दे०)। " सूर तबहूँ और अप्रिय होना। न द्वार छाँडै डारिहौ कढ़राइ"। कडुअा मुंह ( करुया मुख)-कटुवादी, | कढ़वाना-कढ़ाना-स० कि० (हि. काढ़ना अप्रिय और बुरी बात कहने वाला । का प्रे० रूप) निकलवाना, बाहर कराना, " रहिमन करुए-मुखन को चाहियत यही | बेल-बूटे बनवाना । "तौ धरि जीभ कढ़ावहुँ सजाय । लोको०-"कडा करैला तोरी-" रामा० ।। नीमचढ़ा "-दुष्ट और कुसंग में रहने कढ़ाई-संज्ञा, स्त्री० (दे०) कड़ाही (हि.)। वाला अतः और भी दुष्ट । वि० (दे०) संज्ञा, स्त्री० (हि. काढ़ना) काढ़ने (बेलबूटे) विकट, टेढ़ा, कठिन । मु० कडुए कसैले की क्रिया। दिन-बुरे दिन, या कप्ट-प्रद दिन, दो कढ़ाव-संज्ञा, पु. (हि० काढ़ना) बूटे या रसके दिन जो रोगकारी होते हैं। कडुवा, कशीदे बनाने का काम, बेल-बूटों का घंट-कठिन बात या काम ! यौ० कडा उभार। तेल-सरसों का तेल जो चरफरा होता है। कढ़ावना-स० क्रि० (हि० काढ़ना का प्रे० कडुआना-१० कि० दे० (हि. कडुआ) रूप) निकलवाना। कडुआना, बिगड़ना खीझना, आँख में | कढ़ी-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि० कढ़ना=गाढ़ा ( न सोने या उठने से ) होने वाली एक | होना ) बेसन, मट्ठा, (दही) को प्रांच पर विशेष प्रकार की पीड़ा का होना। चढ़ा कर बनाया जाने वाला एक प्रकार कडुआहट-संज्ञा, स्त्री० (हि. कडुग्रा का सालन । " पापर भात, कढ़ी सु, खीर +हट-प्रत्य० ) कटुता, कडुआपन, चना उरदीदार-.'' रसाल । क्रि० प्र० स्त्री. करुयाई (दे०)। सा० भू०—निकली, बाहर आई। कड़ करू (दे० ) वि० दे० (सं० कटु) | मु०-कढी का साउबाल-शीघ्र ही घट कड़ा , कटु। जाने वाला जोश । कड़ेरा-संज्ञा, पु० (दे०) खरादने वाला, | कढ़वा-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. काढ़ना = लाठी डंडा बनाने वाला। उधार लेना) ऋण, जाति-च्युत। कढ़ना-अ. क्रि० दे० (सं०कर्षण) निकलना, | करैया-संज्ञा, खी० (हि. ) कड़ाही। बाहर आना, खिचना, उदय होना, बढ़ना, संज्ञा, पु. ( हि. काढ़ना ) उधार या ऋण श्रागे निकल जाना, (प्रति द्वंदता में) स्त्री | लेने वाला, निकालने या उद्धार करने का उपपति के साथ घर छोड़ कर चला | वाला, बचाने वाला। जाना, लाभ निकलना । “कदिगो अबीर कढ़ोरना*-स० कि० दे० (सं० कर्षण ) 4 अहीर तौ कढ़े नहीं-" पद्मा । " चलिये घसीटना, खींचना। जरूर बैठे कहौ का कढ़त है-"हठी। कण-संज्ञा, पु० (सं.) किनका, रवा, ज़र्रा, म० क्रि० (हि० गाड़ा ) औटाने से दूध का अति सूधम टुकड़ा, चावल का बारीक टुकड़ा, गादा होना। स० क्रि० (हि. काढ़ना ) कना, कन (ब्र० दे०) अन्न के दाने, उपटना, बटना। भिक्षा। कढ़नी---संज्ञा, स्त्री० (दे० ) मथानी घुमाने | कणा--संज्ञा, स्त्री. ( सं० ) पीपल, औषध की रस्सी। विशेष । " सशिशिरा सधना, समहौषधा, कढ़लाना* कढ़राना-स० कि० ( हि० सजलदा सकणा सपयोधरा-" वै० जी० । काढ़ना- लाना) घसीटना, घसीट कर बाहर | कणादि-संज्ञा, पु० (सं० कण + अद्+ For Private and Personal Use Only Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कणिका ३६२ कतली अच् ) सुवर्णकार, वैशेषिक दर्शन-कर्ता एक कतरछांट-संज्ञा, स्त्री० (दे० यौ ) काटमुनि या ऋषि, जो तंडुल-कण खाकर छाँट, कतर-ब्यौंत । जीवन बिताते थे, (अतः यह नाम ) इनका कतर-व्योत-संज्ञा, स्त्री० यौ० (हि० कतरना दूसरा उलूक था, यह परिमाणुवादी थे, । +ब्योंतना ) काट-छांट, उलट-फेर, इधर इनका शास्त्र औलूक्य या वैशेषिक है। का उधर करना, उधेड़-बुन, हेर फेर, सोचकणिका-संज्ञा, स्त्री० (सं० कणिक् + पा) विचार, दूसरे के सौदे में से कुछ रकम अपने किनका, टुकड़ा, बिन्दु, चावल के छोटे छोटे लिये निकाल लेना, युक्ति, जोड़-तोड़, ढंग, टुकड़े कनका, लेश । ढर्रा, सुलझाना। कणिश-संज्ञा, पु. (सं० ) गेहूँ आदि कतरवाना—स० कि० (दे० कतरना का प्रे० अनाज की बाल। रूप ) कतराना। कणी--संज्ञा, स्त्री० (सं० ) टुकड़ा, कनी कतरा--संज्ञा, पु. (अ.) बंद, बिंदु, (दे० ) अति सूक्ष्म भाग। (दे०)। संज्ञा, पु० (हि. कतरना ) कटा कत-संज्ञा, पु. (अ.) देशी कलम की हुश्रा टुकड़ा, टुकड़ा, खंड | वि० (दे.) नोंक की गाड़ी कीट, कलम या लेखनी का कतरा हुआ, काटा हुआ।... कतरे कतरे डंक । ॐ अव्य० दे० (सं० कुतः, प्रा. कुतो) पतरे करिहाँ की "प० । क्यों, किस लिये, काहे को। कतक कतराई-संज्ञा, स्त्री० दे० ( हि० कतराना ) (दे०)। "बिन पूछे ही धर्म कतेक कहिये कतरने का काम, कतरने की मजदूरी । दहिये हिय-"नन्द “कत सिख देइ हमै कतराना-संज्ञा, स्त्री० (हि. कतरना) कोउ माई." रामा० । किसी वस्तु या व्यक्ति को बचा कर किनारे कतई-अव्य० (अ.) बिलकुल, एकदम । से निकल जाना, रास्ता काट कर चला कतक-संज्ञा, पु. ( सं० ) रीठा, निर्मली। जाना । स० कि० (हि. कतरना का प्रे० क्रि० वि० (दे०) कत, क्यों ।। रूप) कटाना, छंटवाना, कटवाना, अलग कतनई-संज्ञा, स्त्री० (दे० ) सूत कातने की करना । अ० कि० (दे०) बचा कर या मजूरी, कताई। काट कर जाना। कतना-अ० क्रि० (हि. कातना) काता कसरी-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० कर्तरी = जाना । अत्र्य० ( दे.) कितना । चक) कोल्हू का पाट जिस पर बैठ कर कतनी-संज्ञा, स्त्री. ( दे. हि. कसना ) सूत कातने की टिकरी। बैल हांके जाते हैं हाथ में पहिनने का पीतल कतरन-संज्ञा, स्त्री० ( हि• कतरना ) काटने का एक गहना, जमी हुई मिठाई का टुकड़ा । छांटने के बाद बचे हुए कपड़े या कागज़ वि० (हि. कतरना ) काटी हुई। के छोटे टुकड़े। कतल-संज्ञा, पु० दे० (अ० कत्ल) बध, हत्या। कतरना-स० कि० दे० सं० कर्तन ) कैची कतलबाज--संज्ञा, पु० दे० (अ. कल --- या किसी औजार से काटना, छाँटना। वाज़ - फ़ा ) बधिक, हत्यारा, जल्लाद । कतरनी-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. कतरना) वि. कल करने वाला, जालिम । बाल, कपड़ा, काग़ज़ आदि काटने का एक कतलाम-संज्ञा, पु० दे० (अ. कल्लेअाम ) औज़ार, कैची , मिकराज धातुओं की चद्दर सर्व साधारण का बध, सर्व संहार। आदि काटने का सँड़सी-जैसा एक औजार, कतली--संज्ञा, स्त्री० दे० (फा० कतरा) जमी काती, कतन्नी ( दे० )। करम कतरनी हुई मिठाई आदि का चौकोर टुकड़ा । वि० ज्ञान का छूरा, बद्धी टेक लगावै-"। । (अ० क़त्ल ) कत्ल करने वाला। For Private and Personal Use Only Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कतवाना ३६३ कथंचन कतवाना–स० क्रि० (हि० कातना का प्रे० | कतिक-वि० दे० (सं० कति+एक ) रूप ) दूसरे से कातने का काम कराना। कितना, किस कदर, बहुत, अनेक, कितेक वि० कतवेया। | (ब्र०) कैसे, थोड़ा, केतो।। कतवार-संज्ञा, पु० दे० (हि. पतवार = | कतिपय–वि० (सं० ) कितने ही, कई पताई ) कूड़ा-करकट, बेकाम घास-फूस । एक, कुछ थोड़े से । यौ० खर-कतवार—घास-फूस ! संज्ञा, पु. कतीरा-संज्ञा, पु० (दे०) गुलू नामक (हि. कातना ) कातने वाला। यो०- वृक्ष का गोंद जो दवा के काम में प्राता कतवारखाना—कूड़ा फेंकने की जगह । है, निर्यास। कतहुँ-कत*-क्रि०वि० श्रव्य० (दे० कत कतुवा–संज्ञा, पु० (दे० ) तकुवा, सुवा, +हूँ ) कहीं, किसी स्थान पर, कभी, किसी तक्ली, टेकुवा ( दे०)। समय, किसी जगह । कहूँ, कहुँ (दे.)। कतेक*—वि० (दे० ) कितने कितेक " कतहुँ सुधाइहु ते बड़ दोपू-" रामा० । (७०) कुछ, थोड़े बहुत, अनेक । कता-संज्ञा, स्त्री. (अ. कतया ) बनावट, कतोनी-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि० कताना) आकार, ढंग, श्रेणी, वज़ा, कपड़े की काट- कातने का काम या मज़दूरी, किसी काम छाँट । यौ० वज़ा-कता । यौ०-कता- | के लिये देर तक बैठे रहना। कलाम-( अ० कता = काटना ) बात | | कत्त-अव्य० (दे०) कहाँ, क्यों कर । काटना। कत्तल-संज्ञा, पु० (दे०) कटा हुआ, टुकड़ा, कताई-संज्ञा, स्त्री० (हि. कातना) कातने पत्थर के टुकड़े, चट्टान ।। को क्रिया, कातने की मजदूरी। कतवाई। कत्ता-संज्ञा, पु० दे० (सं० कर्तरी) बाँस कतान---संज्ञा, पु० (फा० ) अलसी की चीड़ने का औज़ार, बांका, बाँसा, छोटी छाल का बना हुआ एक बढ़िया चमकीला टेढी तलवार, छुरी । कत्तान (दे०)। कपड़ा, बढ़िया बुनावट का एक रेशमी कत्ती-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० कर्तरी ) चाल, कपड़ा। छुरी, छोटी तलवार, कटारी, पेशकब्ज़, कताना-स० क्रि० (हि. कातना का प्रे० सोनारों की कतरनी, बत्ती के समान बट कर रूप ) किसी से कातने का काम कराना, | बाँधी जाने वाली पगड़ी। कतवाना। कत्थई-वि० (हि० कत्था ) खैर के रंग का, कतार-संज्ञा, स्त्री० ( ० ) पंक्ति, श्रेणी, __ कत्था का सा। पांति, समूह, झंड। कत्थक-संज्ञा, पु० दे० (सं० कथक ) एक कतारा-संज्ञा, पु० दे० (सं कांतार ) लाल गाने-बजाने और नाचने वाली जाति । रंग का मोटा गन्ना । संज्ञा, स्त्री० अव्य.- कथिक (दे० )। “ नौ कथिक नचावै कतारी । कतारा जाति की छोटी और | तीन चोर"-ला. सी. रा० । पतली ईख । संज्ञा, स्त्री० (अ० कतार)पंक्ति । कत्था—संज्ञा, पु० दे० (सं० क्वाथ ) खैर कताव--संज्ञा, पु० दे० (हि. कातना) की लकड़ियों का सुखाया और जमाया कातने का काम। हुश्रा काढा जो पान में खाया जाता है, कति*---वि० (सं०) (गिनती में) कितने, खैर का वृक्ष, खैर, खदिर (सं.)। किस क़दर ( तौल या माप में ) कौन, कथम्-अव्य० ( सं० ) क्यों, कैसे, बहुत से, अगणित । केतिक (व.) किते, क्यों कर । यौ० कथमयि-कैसे ही। कितेक, कितो, केते, केतो। (ब्र०) कथंचन–अव्य० (सं०) किस प्रकार । भा० श० को०-५० For Private and Personal Use Only Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कथंचित कदंबकुसुमाकार कथंचित-क्रि० वि० (सं० ) शायद, किसी वक्ता, कथक । “लगे कहन कछु कथा प्रकार, कदाचित । पुरानी''.---रामा० । कथक-संज्ञा, पु० (सं० कट् --णक् ) कथा | कथाकार- संज्ञा, पु० (सं०) कथा कहने या कहानी कहने वाला, कथा वाचक, या बनाने वाला। कथग्गर (दे०) पुराण बाँचने वाला, कथानक-संज्ञा, पु. ( सं० ) कथा, छोटी पौराणिक, कत्थक, कथिक ।। कथा, कहानी, गल्प । कथा-सारांश । कथकीकर-संज्ञा, पु. ( हि० कत्था+ कथामुख–संज्ञा, पु० (सं० ) श्राख्यान या कीकर ) खैर का पेड़ । कथा के ग्रंथ की प्रस्तावना, या भूमिका, कथक्कर-कथकड़-संज्ञा, पु० दे० (हि. कथा का प्रारंभ। कथा+कड़-प्रत्य० ) बहुत कथा कहने कथावस्तु-संज्ञा, स्त्री. ( सं० यौ० ) वाला । स्त्री०, पु० कथकड़ो। उपन्यास या कहानी का ढाँचा, घटना-चक्र, कथन--संज्ञा, पु० (सं०) बखान, बात, उक्ति, प्लाट ( अँ०)। विवरण, वृत्तांत । स्त्री० (दे०) कथनि। कथा सचिव-संज्ञा. पु. ( सं० यौ० ) कथना–स० कि० दे० ( सं. कथन ) | मंत्री, बातचीत में सहायक । कहना, बोलना, निंदा करना, बुराई करना। कथित-वि० (सं० कथ्+क्त ) कहा हुआ, " ऊधौ कहा कथत विपरीत 'भ्र० । उक्त । यौ० कथित-कथन-कहे हुए को कथनि-संज्ञा, स्त्री. (दे०) कहने का ढंग | कहना । पुनरुक्ति ।। या रीति, उक्ति, बात । ब. ब. ( कथा ) कथितव्य-वि० (सं०कथ् । तव्य) कथनीय, कथानि । कथनार्ह, कहने योग्य । कथनी-संज्ञा, स्त्री० (सं० कथन -+-ई---- कथोर-कथोल-संज्ञा, पु० (दे०) राँगा। प्रत्य० हि० ) बात, कथन, हुज्जत, बकवाद, "काँच कथीर अधीर नर, जतन करत है कथनि । ' जब लगि कथनी हम कथी, दूर ___भंग --कबी०। रहा जगदीश "-कबी० । कथनीय-वि० ( सं० ) कहने योग्य, वर्ण . कोद्घात-संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) नीय, वक्तव्य, निंदनीय, बुरा।। प्रस्तावना, कथा का प्रारम्भिक अंश, सूत्रकथरी-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० कंथा -री धार की बात (नाटक) अथवा नाटक के प्रत्य० ) पुराने चिथड़ों को जोड़ जोड़ कर मर्म को लेकर पहिले-पहल पात्र का रंगबनाया हुआ बिछौना, गुदड़ी। भूमि में प्रवेश और अभिनयारम्भ । कथा-संज्ञा, स्त्री० (सं०) जो कहा जाय, कथोपकथन--संज्ञा, पु. यौ० (सं०) बातबात, धर्म-विषयक व्याख्यान, उपाख्यान चीत, संभाषण, वर्तालाप, वाद-विवाद । चर्चा, ज़िक्र, प्रसंग, समाचार, हाल, बाद-कथ्य-वि० (सं० कथ् ।-य ) कथितव्य । विवाद, कहा-सुनी, झगड़ा, कहानी, वृत्तांत, कदंब---संज्ञा, पु० (सं० कद् --अंब ) एक इतिहास । यौ०-कथा-कहानी-- प्रसिद्ध वृत, कदम, समूह, ढेर, झंड।... श्राख्यायिका । कथा-प्रबंध-कहानी “फूलन दे सखि टेसू कदम्बन"--पद्मा० । किस्सा । कथा-प्रसंग-मदारी, विष-वैद्य, कदंबक-संज्ञा, पु० (सं० ) राशि, समूह, संपेरा, किस्सा-कहानी, गल्प, बातचीत।। ढेर, कदंब । कथावार्ता-पुराण-इतिहास की चर्चा, कदंबकुसुमाकार--वि० (सं० यौ०) गोलाबातचीत संभाषण । कथा-प्राण- नाटक कार, वर्तुलाकार कदंब के फूल सा। For Private and Personal Use Only Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कदर्थित कद–क्रि० वि० दे० (सं० कदा ) कब, कदा, | पैंड, फाल, डग, घोड़े की वह चाल या किस समय । गति जिसमें पैर तो चलते हैं किन्तु बदन कद-संज्ञा, स्त्री० ( अ. कद्द ) द्वैष, शत्रुता, नहीं हिलता। हठ, ज़िद । संज्ञा, पु० (अ. कद ) ऊँचाई कदमबाज--वि० (अ.) क़दम की चाल ( प्राणियों के लिए ) डीलडौल । यौ० कदे ___ चलने वाला (घोड़ा) । संज्ञा, स्त्री( क ) आदम--मनुष्य-शरीर के क़दमबाज़ी। बराबर ऊँचा। कदर- संज्ञा, स्त्री. (अ.) मान, मात्रा, कदक्षर--संज्ञा, पु० (सं० ) कुत्सित वर्ण, मिकदार, प्रतिष्ठा, बड़ाई । संज्ञा, पु० (दे०) ख़राब अक्षर । सफ़ेद कत्था, गोखरू, अंकुश, श्रारा, टाँकी। कदध्वा-कदधव ( दे० )-संज्ञा, पु० (सं० कदरई*---संज्ञा, स्त्री० दे० ( हि. कादर ) कद् + अध्वन् ) बुरा मार्ग, कुपथ, कुत्सित कायरता, कादरता, डरपोकपन, कदराई पथ, कुमार्ग। कदन-संहा, पु० (सं० ) मरण, विनाश, | कटरज-संज्ञा. पु० दे० (सं० कदर्य ) एक मारना, वध, हिंसा, युद्ध, संग्राम, पाप, प्रसिद्ध पापी। वि० ( दे० ) कदर्य, कंजूस, दुःख, मर्दन, हत्या। “बिरह कदन करि कायर। मारत लुंजै"-भ्र०। कदरदान -- वि० ( फ़ा० ) क़दर या मान कदन्न-संज्ञा, पु० (सं० कद् + अन् --- क्त ) करने वाला, गुण-ग्राही । संज्ञा, स्त्री० (फा ) कुत्सित अन्न अपवित्र अन्न, मोटा अनाज, कदरदानी-गुण-ग्राहकता। बुरा धान्य---जैसे कोदो, मसूर । कदरम्स*- संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० कदन+ कदम--संज्ञा, पु० दे० (सं० कदम्ब ) एक मस-प्रत्य० हि० ) मार-पीट, लड़ाई । सदा बहार पेड़, समूह, एक घास । कदराई-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि० कादर+ कदम-संज्ञा. पु. (अ.) पैर, पाँव, डग, घोड़े की एक गति। ई--प्रत्य० ) कायरता, भीरुता, कायरपन । "लागत अगम अपनि कदराई "-रामा० । मु०-क़दम उठाना--तेज़ चलना, उन्नति करना, कदम चलना-(चलाना ) कदराना*-अ० क्रि० दे० ( हि० कादर ) घोड़े को एक विशेष गति से चलाना कायर होना, डरना, पीछे हटना। 'तुम (चलना) । कदम चूमना (छूना) यहि भाँति तात कदराहू" रामा० । प्रणाम करना, शपथ खाना । कदम । कदरा-सज्ञा, स्त्रा० द० (स० कद =बुरा+ बढाना ( आगे बढाना ) या बढना | रख - शब्द ) मैना के बराबर एक पक्षी । तेज़ चलना. उन्नति करना । कदम कदर्थ -- वि० (सं० कद् + अर्थ ) निरर्थक, रखना–प्रवेश करना, दाखिल होना, बुरा, कुत्सित । संज्ञा, पु० (सं०) बे काम श्राना, प्रारम्भ करना । कदमबासी वस्तु, कूड़ा-करकट । संज्ञा, स्त्री० भा० - करना-स्वागत या सत्कार करना, पैर कदर्थता। छूना, पैर चूमना। कीचड़ या धूल में कदर्थना--संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० कदर्थन ) बना हुआ पद-अंक । मु०---कदम पर दुर्गति, दुर्दशा। कदम रखना-ठीक पीछे चलना, कदर्थित-वि० (सं० ) दुर्दशा प्राप्त, अनुकरण या नक़ल करना । चलने में | जिसकी दुर्गति की गई हो । वि०एक पैर से दूसरे तक का अन्तर, पग, । कदर्थनीय-विडंबनीय । For Private and Personal Use Only Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कदर्य कनई - HERO कदर्य-वि० (सं० ) कंजूस, सूम, क्षुद्र, कद्र-संज्ञा, पु० (सं०) धूम्र-वर्ण । संज्ञा, कुत्सित, निदित । स्त्री० ( सं० ) नाग माता का नाम, दक्ष कदली-संज्ञा, स्त्री० (सं० ) केला, एक पेड़ | प्रजापति की कन्या, कश्यप मुनि की स्त्री। जिसकी लकड़ी जहाज़ बनाने के काम में | "कद्रबिनतहि दीन्ह दुख"--रामा० । आती है, एक प्रकार का हिरन । “काटे ते । । कद्रज-संज्ञा, पु० (सं०) सर्प, साँप, नाग । कदली फरै"-रामा०। कदद कश-संज्ञा, पु० ( फ० ) लोहे पीतल कदा-क्रि० वि० (सं० किम् +दा) कब, आदि की छेददार चौकी जिस पर कद्दू किस समय । यौ०-यदा-कदा--- कभी- को रगड़ कर उसके महीन महीन टुकड़े कभी, जब तब। किये जाते हैं। कदाकार-वि० (सं० कद्+प्राकृ+घञ्) | कदददाना-संज्ञा, पु० (फा ) उदर के बुरे श्राकार का, भद्दा, बद शकल, कुरूप।। अन्दर छोटे छोटे कीड़े जो मल के साथ कदाकृति-वि० (सं० ) कुरूप, बद शकल । निकलते हैं, चुन्ना। कदाख्य-वि० (सं० ) बदनाम । कद्र- (कद्र) संज्ञा, पु० (सं० ) धूम्रवर्ण । कदाच-क्रि० वि० दे० (सं० कदाचन ) | स्त्री० -- नाग-माता, कश्यप मुनि की स्त्री, शायद, कदाचित् । दक्ष प्रजापति की कन्या इन्हीं से सर्पो की कदाचन-क्रि० वि० (सं० ) किसी समय, उत्पत्ति हुई है। कभी, शायद। कद्रुज-संज्ञा, पु० (सं०) सर्प, नाग, साँप, कदाचार-संज्ञा, पु० (सं०) दुराचरण, __ कद्रुसुत । बदचलनी, बुरी चाल । वि. पु०-कदा- | कधी-क्रि० वि० ( दे० ) कभी ( हि०) चारी-दुराचारी । स्त्री० कदाचारिणी।। किसी समय । कदाचित् (कदाचि)—कि० वि० (सं० ) कन-संज्ञा, पु० दे० (सं० कण ) बहुत कभी, शायद, कबौं ( दे०) “जो कदाचि छोटा टुकड़ा, ज़र्रा, अणु, अन्न या अनाज, माहि मारिहैं-तो पुनि होब सनाथ " का एक दाना या उसका टुकड़ा, प्रसाद, -रामा०। जूठन, बंद, चावलों के छोटे छोटे टुकड़े, कदापि-क्रि० वि० (सं. कदा--अपि ) कना, चावल, भीख, भिक्षान, रेत के कण, हर्गिज़, किसी समय भी। शारीरिक शक्ति, हीर । ." कन मांगत कदी-वि० (अ. ६) हठी, ज़िद्दी। बाँभनै लाज नहीं।"-सुदा० . "कन देवो कदीम-वि० (अ.) पुराना, प्राचीन । सौंप्यौ ससुर-वि० । संज्ञा, पु० ( दे.) वि० (अ.) कदीमी, पुराना, बहुत दिनों कान का सूक्ष्म रूप ( यौगिक शब्दों में ) से चला आता हुआ। जैसे--कनपटी, कनटोप । “कन कन जोरे कदीमा-संज्ञा, पु० (दे०) शावल, लोहाँगी। मन जुरै--" वृन्द। कदुष्ण-वि० (सं०) थोड़ा गर्म, शीत-गर्म। कनक-संज्ञा, पु० दे० (सं० कनक ) सोना, कदूरत-संज्ञा, स्त्री. (अ.) रंजिश, मन- सुवर्ण । " पुन्य कालन देत विप्रन तौलि मोटाव, कीना। तौलि कनंक । "- के। कद्दावर-वि० (फा० ) बड़े डील-डौल या कनई -संज्ञा, स्त्री० दे० ( सं० कांड या क़द का । वि० कद्दी। कंदल) कनखा, नई शाखा, कल्ला, कोंपल । कद्द --संज्ञा, पु० (दे० ) लौकी, लौका, | संज्ञा, स्त्री० ( दे०) काँदव ( हि० ) गीली (फा०) कदू । मिट्टी, कीचड़। For Private and Personal Use Only Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra कनउड www.kobatirth.org कनटोप कनउड-कनऊँड –वि० (दे०) कनौड़ा, कनकतार -- संज्ञा, पु० (सं० ) सुहागा । कनावड़ा । कनकाचल-संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) स्वर्ण पर्वत, सुमेरू । श्रगस्तगिरि । कनकानी - संज्ञा, पु० ( दे० ) घोड़े की एक जाति । कनक संज्ञा, पु० (सं० ) सोना, कंचन, धतूरा, पलास, टेसू, या ढाक नागकेसर, खजूर, गेहूँ का आटा । छप्पय छंद का एक भेद | संज्ञा, पु० दे० (सं० कणक ) गेहूँ | कनकली - संज्ञा, (पु० यौ० सं० कन + कली - हि० ) करन फूल, लौंग । कनककशिपु - संज्ञा, पु० (सं० ) हिरण्यकशिपु, प्रह्लाद के पिता । - ३६७ कनक चंपक संज्ञा, पु० (सं० ) कर्णिकार, कनियादी, कनकचंपा ( हि० ) | कनकटा - वि० ( हि० कान + काटना ) जिसका कान कटा हो, बूचा, कान काट लेने वाले, कनकटवा (दे० ) | कनकना - वि० ( अनु० ) रंचकाघात से टूटने वाला, तनिक में ही चिढ़ने वाला, व्यर्थ कुपित हो बकने वाला । वि० ( हि० कनकनाना ) कनकनाने, या चुनचुनानेवाला, refuse चिड़चिड़ा, बड़बड़ाने वाला | स्त्री० कनकनी | कनमनाना - अ० क्रि० ( हि० कांद, पु० हि० कान ) सूरन, अरवी आदि वस्तुओं के छूने से अंगो में उत्पन्न होने वाली चुनचुनाहट, गला काटना, अरुचि लगना, बड़बड़ाना, लड़ना | झि० प्र० ( हि० कना ) चौकन्ना होना, रोमांचित होना, ज्वर के पूर्व बदन का कुछ कँपना । कनखी - संज्ञा स्त्री० दे० ( हि० कोन + आँख ) पुतली को कोने में ले जा कर टेढ़ी नज़र से देखना, दूसरों को दृष्टि बचा कर देखना, थाँख का इशारा । कनैखी ( ब० ) मु० - कनखी मारना--- - याँख से इशारा करना, सना करना । कनखी चलाना - कनखी मारना । कनखी लगाना-- इशारा करना । (आँख से 'कनकनाहर ' संज्ञा, स्त्री० संज्ञा, पु०. कनकनी । कनखैया - संज्ञा, स्त्री० (दे० ) कनखी | कनखोदनी -संज्ञा स्त्री० दे० ( हि० कान + का फल । कनक पुष्प-संज्ञा, पु० (सं० थौ० ) धतूरे खोदना ) कान का मैल निकालने की सलाई । कनगुरिया - संज्ञा, स्त्री० दे० ( हि० कानी + अँगुरी ) सब से छोटी अँगुली, कनिfar | विनी (दे० ) संज्ञा, पु० (सं० यौ० ) कनछेदना- संज्ञा, पु० दे० ( हि० कान + छेदना ) कर्ण वेध, कान छेदने का एक संस्कार ( हिन्दू ) | कनटोप - संज्ञा, पु० दे० ( हि० कान + टोप कनकफल- संज्ञा, पु० (सं० यौ० ) धतूरे का फल, जमाल गोटा । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कनकरस हरिताल । कनकलोचन - संज्ञा, पु० ( सं० यौ० ) हिर ण्याक्ष राक्षस । कनकी - संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० कणिक ) चावलों के टूटे हुए करण । कनकृत-संज्ञा पु० दे० ( हि० कन + कूत्ना) खेत की खड़ी फसल का अनुमान । कनकौवा - ( कनकौआ ) - संज्ञा, पु० (दे० ) ( हि० कन्ना + कौवा ) बड़ी पतङ्ग, गुड्डी । कनखजूर - संज्ञा, पु० दे० ( हि० कान + खर्जसं ० ) विषैला कीड़ा जिसके बहुत से पैर होते हैं, काँतर, गोजर । कनखा - संज्ञा, पु० दे० (सं० कांडक ). नवांकुर, कोंपल | कनखियाना -- स० क्रि० दे० (हि० कनखी ) तिरछी या । टेढ़ो दृष्टि से देखना, आँख से इशारा करना । For Private and Personal Use Only Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir _ ३६८ कनतू तुर कनाई -तोपना) कानों को ढांकने वाली टोपी, | गाना-बजाना सुनने का आनन्दकारी व्यसन । टोपा। श्रवण-सुखद-रस । कनतूतुर- संज्ञा, पु० दे० ( हि० कान+ कनरसिया-संज्ञा, पु० दे० (हि. कान + तू तू शब्द ) एक छोटा विषैला मेंढक । रसिया ) गाना-बजाना सुनने का शौकीन, कनधार--संज्ञा, पु० (दे० ) कर्णधार मधुर वार्तालाप का सुनने वाला, कर्णरस (सं० ) केवट । प्रेमी। कनपटी—संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. कान + कनल---संज्ञा, पु० ( दे० ) भिलावाँ । पट --- सं० ) कान और आँख के बीच का | कनवई -संज्ञा, स्त्री० ( दे० ) छटांक । भाग, गंडस्थल । कर्णपाली (सं०) कनवा-वि० (दे० ) कारण (सं.) कनपेडा-संज्ञा, पु० दे० (हि. कान+पेड़ा) काना, एक आँख वाला • " कानी आँख कान के पास एक गिल्टी निकलना और वाले को न कनवाँ बुलावही" ---कुला । पोड़ा करने का रोग । कनछांहो (दे०) | कनवाई-संज्ञा, स्त्री० (दे० ) कर्णवेध, कनबुज (दे० ) कर्णशोथ । (सं०) कन छेदन। कनफटा-संज्ञा, पु० दे० ( हि० कान+ | कनसराई--(कनसलाई )-संज्ञा, स्त्री० फटना ) गोरख पंथो योगी जो कानों को दे० ( हि० कान - मलाई ) कानखजूरे का फड़वा कर उनमें बिल्लौर की मद्रायें पहि- सा एक छोटा पतला लम्बा कीड़ा, कननते हैं । साँप-बिच्छू पकड़ने वाले। सरया ( दे० ।। कनकुंडा-वि० दे० ( हि०कान + फूकना ) | कनसाल-संज्ञा, पु० दे० (हि. कान + कान फूंकने वाला, दीक्षा या गुरुमंत्र देने सालना ) चारपाई के पायों के तिरछे छेद वाला, दोक्षा लेने वाला । कनकंकवा जिनके कारण वह कनवाया जाय । (दे०) संज्ञा, पु०-गुरु । कनसार-संज्ञा, पु० दे० (सं० कांस्यकार ) कनफुसी-( कनफुसकी ) संज्ञा, स्त्री० ताम्र-पत्र पर लेख खोदने वाला। (दे०) कानाफूली। कनई -संज्ञा, स्त्री० दे० (हि० कान-+ कनफूल-संज्ञा, पु० दे० ( सं० कर्ण पुष्प ) । सुनना ) श्राहट, टोह । करन फूल ( दे० ) कान में पहिनने का एक मु०-कनाई लेना-भेद लेना, गोबर की गहना, तरोना (ब्र०) गौर फेंक कर सगुन बिचारना । छिप कर कनबुज-संज्ञा, पु० (दे० ) कर्णशोथ, किसी की बात सुनना, पाहट लेना। कनपेड़ा। | कनपर ( कनस्टर )- संज्ञा, पु० दे० कनमनाना-अ० क्रि० दे० ( हि० कान + | (सं० कनिस्टर ) टीन का चौखूटा पीपा, मानना ) सोये हुये प्राणी का किसी आहट जिसमें मिट्टी का तेल पाता है। आदि से हिलना, डुलना, या सचेष्ट होना, कनहा--संज्ञा, पु. ( दे०) अन्न की जाँच किसी बात के विरुद्ध कुछ कहना या चेष्टा करने वाला। करना। कनहार- संज्ञा, पु० दे० ( सं० कर्णधार ) कनमैलिया—संज्ञा, पु० दे० ( हि० कान-+- | मल्लाह, केवट । मैल ) कान का मैल निकालने वाला। " चाहत पार न कोड कनहारा"-रामा०। कनय*--संज्ञा, पु० (दे०) कनय 'बिजुरी कना-संज्ञा, पु० (दे० ) कन, कण । कनय कोट चहुँ पास'-- प० । कनाई--संज्ञा, स्त्री० (दे०) कोना ( हि० ) कनरस-संज्ञा, पु० दे० (हि. कान+रस)। बचाना. किनारा । For Private and Personal Use Only Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कनाउड़ा - कनेव D EMONAMummar ATTAMARHIND - ames मु०-कनाई काटना-किनारा कसी करना, कनिष्ठा--वि० स्त्री० (सं० ) सब से छोटी, छोड़ना, बचाना। अत्यन्त लघु निकृष्ट, नोच । संज्ञा, स्त्री० कनाउड़ा-कनावड़ा--वि० (दे०) कनौड़ा, पीछे विवाही हुई, दो या कई स्त्रियों में से उपकृत । " हजै कनावड़े बार हजार हितूजुपै वह जिस पर पति का प्रेम कम हो ( नायिकादीन दयाल सों पाइग्रे"-नरो । भेद ) छोटी उँगली, छिगुनी। कनागत-संज्ञा, पु० दे० ( सं० कन्यागत ) कनिष्ठिका-संज्ञा, स्त्री. (सं० ) सब से पितृ पक्ष, अपर पक्ष, पितर पच्छ (दे०)।। छोटी अँगुली, छिगुनी। कनात--संज्ञा, स्त्री ( तु० ) किसी जगह को कनिहा-संज्ञा, पु० (दे०) प्रतिहिंसक, धुना। घेर कर पाड़ करने बाला मोटे कपड़े का भनिहार-संज्ञा, पु. ( दे० ) मल्लाह, पाल, तम्बू। केवट । “ज्यौ कनिहार न भेद करै कछु सु० कनारी-संज्ञा, स्त्री. ( हि० कनार + ई | कनी--संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० कण ) छोटा -प्रत्य० ) मद्रास प्रान्त के कनारा नामक टुकड़ा, हीरे का कण, किनकी, चावल के प्रान्त की भाषा, तत्रनिवासी। लघु कण, बंद । “ झलकी भरि भाल कनी कनिारी-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० कर्णिकार) जल की - " कविता० । मींगी-" कूकस कनक चंपा। कूटै कनि बिना ---" कवी।मु०-कनीखाना कनिक-- संज्ञा, स्त्री. (दे०) कणक (सं०) या चाटना-हीरे की कनी निगल कर गेहूँ का आटा। प्राण देना। कनिका*- सं० पु० ( ० ) कणिका कनोनि का-संज्ञा, स्त्री० ( सं० ) आँख की (सं० ) कनूका (७०) छोटा टुकड़ा। पुतली, तारा, कन्या, छिगुनी । कनिगर-( कनगर )--संज्ञा, पु० दे० (हि. कनीयान--वि० (सं० ) कनिष्ठ, अनुज, कानि+गर --फा ) अपनी मर्यादा का अत्यल्प, छोटा। ध्यान रखने वाला, नाम की लाज रखने कनीर--संज्ञा, पु० (दे०) कनेर वृक्ष या फूल । वाला, पानीदार। कने-क्रि० वि० दे० (सं० करणे --स्थान में) कनियां -संज्ञा, स्री हि० काँध ) गोद, पास, निकट, समीप, भोर, अधिकार में । उछंग, कोरा, " जैवत स्याम नंद की | कनूका-संज्ञा, पु० ( दे० ) कणक (सं०) कनियाँ "..--सू० । अति लघु कण । " गोकुल के रजके कनूका कनियाना-अ० कि० दे० (हि. काना) श्री तिनूका सम"-ऊ० श० । आँख बचाकर निकल जाना, कतराना। कनेखो --- संज्ञा, पु० (दे०) कनखी। अ. क्रि० (हि. कन्ना, कनी ) पतंग का | कनेठा-वि० (हि० काना + एठा-प्रत्य०) किसी ओर झुकना, कन्नी खाना । अ० कि. | काना, ऐंचाताना। (हि. कनिया ) गोद में लेना या उठाना। | कनेठो- संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. कान+ कनियार--संज्ञा, पु० दे० (सं. कर्णिकार ) एंटना) कान मरोड़ने की सज़ा, गोशमाली। कनक चंपा, कनि श्रारी (दे०)। कनेर (कर)-संज्ञा, पु० दे० ( सं० कनियाहर-संज्ञा, पु० (दे० ) भड़क, | कणेर ) एक प्रकार का फूलदार पेड़ । वि. संकोच, खींच। कनेरिया--कनेर का सा रंग, श्यामता कनिष्ठ–वि० . ( सं० ) बहुत छोटा, अत्यन्त | युक्त लाल । लघु, जो पीछे उत्पन हुआ हो, आयु में | कनेव-संज्ञा, पु० (हि. कोन+एव ) छोटा, हीन, निकृष्ट । चारपाई का टेढ़ापन । For Private and Personal Use Only Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कनैया ४०० कपड़कोट कनैया-संज्ञा, पु. ( दे० ) कर्णबेधन, कन्याभाव - कुमारीत्व । पंचकन्याकनछेदन । ५ पवित्र स्त्रियाँ “अहिल्या, द्रौपदी. तारा, कनौजिया-वि० दे० (हि. कनौज+ इया कृती मंदोदरी तथा " -- पुराण । -~-प्रत्य० ) कन्नौज निवासी, जिनके पूर्वज | कन्याकुमारी-संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं० ) कन्नौजवासी रहे हों। संज्ञा, पु० (दे०)। भारत के दक्षिणी नोक पर एक अंतरीप, कान्यकुब्ज ब्राह्मण । लोको०-" पाठ | रासकुमारी ( रामेश्वर के निकट )। कनौजिया नौ चूल्हा"-1 कन्यादान--संज्ञा, पु० यौ० ( सं० ) विवाह कनौडा-वि० दे० (हि. काना-+-ौड़ा- में वर को कन्या देने की रीति । यौ० पु. प्रत्य० ) काना, अपंग, कलंकित, निदित, कन्यादाता-~-कन्यादान करने वाला। लज्जित । संज्ञा, पु० (हि. कनिना - मोल | कन्याधन-संज्ञा, पु० (सं०) अविवाहिता या लेना+ौड़ा-प्रत्य०) मोल लिया दास, कन्यावस्था में मिलने वाला धन, स्त्री-धन । कृतज्ञ या तुच्छ मनुष्य । स्त्री० कनौड़ी। कन्यारासी - वि० ( सं० कन्याराशिन् ) कनौती-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. कान :- जिसके जन्म-समय में चन्द्रमा कन्या राशि ौती --प्रत्य० ) पशुओं के कान या उनकी में हो । चौपटा, निकम्मा निकृष्ट, हीन । नोंक, कान उठाने का ढंग, बाली।। कन्यापति - संज्ञा, पु० (सं० ) जमाता, "चलत कनौती लई दबाई".-ल०सि०। दामाद, उपपति, व्यभिचारी। कन्ना-संज्ञा, पु० दे० (सं० कर्ण --प्रा० | कन्यावानी-संज्ञा, स्त्री० (हि. कन्या + करण ) पतंग की डोर जिसका एक सिरा पानी) कन्या के सूर्य के समय की वर्षा । काँप और ठड्ड के मेल पर और दूसरा | कन्हरीया--संज्ञा, पु. ( दे० ) माँझी, पुछल्ले के ऊपर बँधा रहता है, किनारा, कर्णधार, मल्लाह। कोर। संज्ञा, पु. (सं० कण ) चावल का कन्हाई कन्हैया ---संज्ञा, पु० दे० (सं० कृष्ण) कन, वनस्पतियों का कीड़े पड़ने का श्रीकृष्ण-प्रिय-व्यक्ति, सुन्दर लड़का, कन्हा एकरोग । मु०-कन्ने से मटना (काटना) । (दे० ) कंधेया (दे०)। मूल से अगल करना। कन्ना खाना- | कन्हावर-संज्ञा, पु० (दे०) कंधे पर डालने पतंग का किसी ओर भुकना। का चादर । बैल की गर्दन पर रहने वाला कन्नी-संज्ञा, स्त्री० (हि. कना) पतंग के | जुए का भाग। किनारे, पतंग को सीधा उड़ाने के लिये कपट -- संज्ञा, पु० (सं० क+पट --- अल ) उसमें बाँधी जाने वाली धज्जी, किनारा, इष्ट साधनार्थ हृदय की बात छिपाने की वृत्ति, हाशिया । संज्ञा, पु० (सं० करण ) राजगीरों छल, प्रतारण, दंभ, दुराव । वि० कपटीका एक औज़ार। छली, धोखेबाज़, धूर्त । संज्ञा, स्त्री. कन्यका-संज्ञा, स्त्री. (सं० ) वारी लड़की, कपटता-शठता । यौ० कपटवेशपुत्री, बेटी। मिथ्या वेश । कपटभू-संज्ञा, पु. ( सं०) कन्या-संज्ञा, स्त्री० (सं०) अविवाहिता माया भूमि, छल जनिता ।। लड़की, कुमारी, सुता। पुत्री, बेटी, बारह | कपटना-~-स० क्रि० दे० (सं० कल्पन् ) राशियों में से छठवीं । धीकार, बड़ी काटना छांटना, खोंटना । इलायची, एक वर्णवृत्त । ( ४ गुरु वर्गों का ) | कपड़कोट - संज्ञा, पु० दे० ( कपड़ा- कोट) बाराही कंद । यौ० कन्याकाल---रजोदर्शन तम्बू , खेमा ।मु०-कपड़कोट करनाके पूर्व की अवस्था या वाल्यकाल । चारों ओर कपड़ा लपेटना । For Private and Personal Use Only Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - कपड़छान ४०१ कपि कपड़छान (कपड़छन)-संज्ञा, पु० (हि. | कपाल-संज्ञा, पु० (सं० क+पाल्+अल्) कपड़ा+छानना ) पिसी हुई बुकनी या चूर्ण | ललाट, भाल, माथा, मस्तक, अदृष्ट, भाग्य, को कपड़े से छानना। खोपड़ी घड़े आदि के नीचे या ऊपर का कपडद्वार-संज्ञा, पु० यौ० ( हि० कपड़ा+ भाग, खपड़ा (खपर) मिट्टी का भिक्षाद्वार ) वस्त्रागार, तोशाखाना । पात्र, खप्पर, यज्ञों में देवतादि के लिये कपड़धूलि-संज्ञा, स्त्री. (हि. कपड़ा--- पुरोडाश पकाने का बर्तन । (दे० ) धूलि ) एक प्रकार का बारीक रेशमी कपार—" फोरइ जोग कपार अभागा"कपड़ा, करेब । यौ० कपाल क्रिया-संज्ञा, स्त्री० (सं०) कपड़ मिट्टी-संज्ञा, स्त्री० ( हि० ) धातु या मृतक संस्कार के अंतर्गत जलते शव की औषधि फेंकने के सपुट पर मिटी ( गीली) खोपड़ी को बाँस आदि से फोड़ने की क्रिया। के साथ कपड़ा लपेटने की क्रिया कपरौटी, कपालक-वि० (दे०) कपालिक (सं०)। गिल हिकमत । कपाल-मोरन-संज्ञा, पु० (सं०) एक तीर्थ । कपड़विण-संज्ञा, पु० (दे०) दरजी,रफूगर। कपालभृत-संज्ञा, पु० (सं०) महेश्वर, शिव । कपड़ा-कपरा-संज्ञा, 'पु० दे० ( सं० कर्पट) कपालिका-- संज्ञा, स्त्री. ( सं० कपाल+ रूई, रेशम, ऊन या सन के तागों से इक+पा ) खोपड़ी। संज्ञा, स्त्री० (सं० बुना गया वस्त्र, पट ।..." रंगाये जोगी कापालिका ) काली, रण चंड़ी, दंत रोग। कपरा "-कबीर । -कपड़ों से | कपालिनी-संज्ञा, स्त्री० (सं० ) दुर्गा, होना-रजस्वला ( मासिक धर्म से ) कपाल धारिणी देवी। होना । संज्ञा, पु० सिला हुआ पहिनाव, | कपाली-संज्ञा, पु. (सं.) शिव, भैरव, पोशाक, परिधान । यौ० कपड़ा लत्ता- ठीकरा लेकर भीख माँगने वाला, कपरिया, पहिनने श्रोदने के वस्त्रादि।। एक वर्ण संकर जाति, द्वार के ऊपर का कपरौटी-( कपड़ौटी)-संज्ञा, स्त्री० (दे०) काठ। स्त्री कपालिनी। वि० कपालीय---- कपड़ मिट्टी। भाग्यव कपरिया--संज्ञा, पु० (सं० ) एक नीच जाति। कपास-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० कर्पास ) एक कपदे-कपदक-संज्ञा, पु० (सं० ) जटाजूट पौधा जिसके डेढ से रूई निकलती है, (शिवका ), कौड़ी। कपासू (दे० ) " साधु चरित सुभ सरिस कपर्दिका-संहा, स्त्री. ( सं० ) कौड़ी | कपासू"-रामा० । वराटिका। कपासी-वि० (दे०) कपास के फूल के कपर्दिनी-संज्ञा, स्त्री० (सं०) दुर्गा, शिवा। रंग का, हलके पीले रंग का। संज्ञा, पु. कपर्दी- संज्ञा, पु. (सं० कपर्दिन् ) शिव, हलका पीला रंग । शंकर, ११ रुद्रों में से एक। ... "कपर्दी कपिंजल--संज्ञा, पु० (सं० ) चातक, पपीहा, . कैलाशं करिवर प्रभौनं कुलिशभृत् "..- गौरापक्षी, भरदूल, तीतर, एक मुनि, कपाट---संज्ञा, पु. (सं० ) किवाड़, पट, कादम्बरी के नायक का एक सखा । वि. द्वार । यौ० कपाट-वद्ध संज्ञा, पु० (सं० ) (सं० ) पीले रंग का। एक प्रकार का चित्र काव्य जिसके अक्षरों को कपि-संज्ञा, पु. (सं० कप् + इ ) बंदर, विशेष रूप से लिखने पर किवाड़ों का चित्र मर्कट, हाथी, कंजा, करंज, सूर्य, सुगंधित बन जाता है। शिलारस नामक औषधि, एक यंत्र, कपार-संज्ञा, पु० (दे० ) कपाल (सं०) कपिखेल (दे०)। भा० श० को०-५१ For Private and Personal Use Only Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org कपिकच्छु कपिकच्छु - संज्ञा, स्त्री० ( सं० यौ० ) केवाँच. कपिकुंजर - संज्ञा, पु० (सं० यौ० ) बानरेंद्र, हनुमान । कपिकेतु, कपिध्वज-संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) अर्जुन, कपि-प्रिय । कपित्थ- संज्ञा, पु० ( सं० ) कैथे का पेड़ या फल ।... it परिपक्व कपित्थ सुगंध रसम्” – भो प्र० । कपिरथ- संज्ञा पु० (सं० यौ० ) श्रीराम, अर्जुन | कपिल - वि० (सं० ) भूरा, मटमैला, मड़े रंग का सफ़ेद | संज्ञा, पु० - श्रग्नि, कुत्ता, चूहा, शिलाजीत, शिव, वानर, सूर्य, विष्णु, सांख्यशास्त्र के आदि प्रवर्तक एक मुनि, सगर-सुतों को भस्म इन्होंने किया था, कर्दम प्रजापति के औरस और देवत के गर्भज पुत्र थे । इन्हें भगवान का श्व अवतार माना गया है, इनका शास्त्र निरीश्वर दर्शन कहा जाता है, बरना पेड़ | यौ० कपिलधारा - गंगा, तीर्थ विशेष | कपिलता-संज्ञा स्त्री० (सं० ) केवाँच, कौंछ । संज्ञा स्त्री० कपिलता - भूरापन, पीलापन, ललाई, सफ़ेदी । कपिलवस्तु-संज्ञा, पु० (सं० ) गौतम बुद्ध का जन्म-स्थान । " कपिलवस्तु को नृप शुद्धोदन, तासु पुत्र गौतम जानो --" कु० वि० । कपिला - वि० स्त्री० (सं० ) भूरे रंग, मटमैली, सफ़ेद दागवाली, सीधी सादी, भोली भाली। संज्ञा स्त्री० (सं० ) सफ़ेद रंग की सीधी गाय । पुंडरीक नामक दिग्गज की पत्नी, दक्ष नृप की कन्या, जोंक, चींटी, मध्य प्रदेश की एक नदी । जिभि कपिलहि घालै हरहाई -- रामा० । यौ० कपिलागत -- सांख्य-शास्त्र । कपिश - वि० सं०) काला और पीला रंग लिये भूरे रंग का, मटमैला, बादामी, कृष्ण पीत वर्ण । कपिस (दे० ) । ४०२ कपोताक्ष कपिशा - संज्ञा, स्त्री० (सं० ) एक प्रकार का मद्य, एक नदी, कसाई, कश्यप की एक स्त्री जिससे पिशाच उत्पन्न हुए थे, एक नदी । कपीश - संज्ञा, पु० (सं० ) वानरों का राजा, हनुमान, सुग्रीव । कपीश्वर । कपूत - ( कपुत्र) संज्ञा, पु० दे० (सं० कुपुत्र ) बुरा लड़का, दुराचारी पुत्र । कपूती - संज्ञा० स्त्री० पुत्र के योग्य कार्य । afe कमर कपूती पै ० व० | संज्ञा, स्त्री० -- कुपुत्र की माता । (दे० ) दुराचार, "कीन्ही है अनैसी Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private and Personal Use Only "" कपूर -- संज्ञा, पु० दे० (सं० कपूर ) दालचीनी की जाति के पेड़ों से निकला हुआ सफेद रंग का एक जमा हुआ सुगंधित पदार्थ, काफूर । यौ० कपूरतिलकब्रह्मावर्त ( बिठूर ) का एक हाथी । सु० कपूरखाना -- विषखाना । कपूरकच संज्ञा, स्त्री० यौ० ( हिं० ) एक सुगंधित जड़ वाली वनौषधि ( लता ) तिरुती | कपूरी - वि० दे० ( हिं० कपूर ) कपूर का बना हुआ हलके पीले रंग का । संज्ञा पु० (दे० ) हलका पीला रंग, एक प्रकार का कदुवा पान । एक प्रकार का सुगंधित पौधा -- कपूरपत्ती । कपात संज्ञा, पु० (सं० ) कबूतर, परेवा, पारावत (सं० ) पक्षी, भूरे रंग का कच्चा सुरमा । यौ० कपातपालिका कबूतर ख़ाना । कपोतवर्णी - संज्ञा, स्त्री० (सं० ) छोटी इलायची । कपातका - संज्ञा, स्त्री० (सं० ) ब्रह्मी बूटी । कपोतवृत्ति - संज्ञा स्त्री० यौ० ( सं० ) श्राकाशवृत्ति, रोज़ कमाना रोज़ खाना । कपोतव्रत - संज्ञा, पु० (सं० ) चुपचाप दूसरों के अत्याचारों को सहना । कपोतसार संज्ञा, पु० (सं० ) भूरे रंग का सुरमा । कपोतात - संज्ञा, पु० (सं०) एक नद विशेष | Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कपोती-कपोतिका ४०३ कबरी कपोती-कपीतिका--संज्ञा स्त्री. (सं०) का कर जो वे श्मशान पर कफन फाड़ कर कबूतरी पेंडुकी, कुमारी, मूली, तरकारी।। लेते हैं, इधर उधर से भले या बुरे ढंग से वि० (सं० ) कपोत के रंग का, धूमला। धन जमा करने की वृत्ति, कंजूसी । “कफन कपोल--संज्ञा, पु० (सं०) गाल, गंडस्थल, खसौटी माँहि जात यह जनम बितायो । रुखसार । हरि। कपोल कल्पना-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) | कफनाना-स० कि० (दे०) मुर्दे पर मन गढंत, मिथ्या या बनावटी बात, गप्प। कफन लपेटना -- ... “ उतरी हमारी सारी वि०-कपोल कल्पित-झूठ, गप्प। माँहि कफनायगी-' रत्ना० कपोल गया--संज्ञा, पु० यौ० (सं० ककनी --संज्ञा, स्त्री० (हि० कफ़न ) मुर्दे के कपोल + गेंदुप्रा-हि० ) गाल के नीचे रखने | गले का वस्त्र, साधुओं की मेखला। का तकिया, गल तकिया। कफ-संज्ञा, पु० ( अं० ) पिंजड़ा, दरबा, कप्पर --- संज्ञा, पु० ( दे० ) कपड़ा (हि.)। बंदीगृह, कैदरवाना, तंग जगह । कप्पास-संज्ञा, पु० (सं०) कमल, बंदर कोणी--संज्ञा, पु० (सं० ) बाँह के नीचे का चूतड़ । वि०.--लाल। __ की गाँठ, कोहनी। कफ-संज्ञा, पु. ( सं० ) खाँसने पर मुख कबंध-संज्ञा, पु० (सं०) पीपा, कंडाल, और नाक से भी निकलने वाली गाढ़ी और बादल, मेघ, पेट, उदर, जल, बे सिर का लसीली अंठेदार वस्तु, श्लेष्मा, बलग़म, धड़, रुड, एक राक्षस जिसे राम ने जीता शरीर की एक धातु ( वैद्यक)। और भूमि में गाड़ दिया था, राहु । कर ----संज्ञा, पु० ( अं० ) कमीज या कुत्तें | कब-क्रि० वि० दे० (सं० कदा ) किस का आस्तीन के आगे वाली बटन लगाने | समय, किप वक्त ( प्रश्न वाचक ) ? की दोहरी पट्टी । संज्ञा, पु० (फा०)। मु०-कब का, कब के, कब से देर कफन्न--संज्ञा, पु. ( सं०) कफारि-सोंठ से, विलंब से । कब नहीं-सदा, (शुंठी)। झाग, फेन. चकमक से श्राग़ बराबर, कभी नहीं, नहीं । कब लौं निकालने का लोहे का टुकड़ा-" काया (तक) ( ७० )-कितने समय तक । कफ चित चकमकै." कबीर । कफ नाशक, कबहूँ (७०) कबों, कबहुँ (दे०)कफ विरोधी ..मरिच । कभी भी। कब कब (बोप्सा)-किस कवर्धक-संज्ञा पु० यौ० (सं० ) कफ़ | किस समय । बहुत कम । बढ़ाने वाला, तगर वृत्त । कबड्डी-संज्ञा, स्त्री० (दे० ) दो दल बना कहन-कफन--संज्ञा, पु० (अ.) मुर्दे पर कर खेला जाने वाला लड़कों का एक खेल, लपेटा जाने वाला वस्त्र । " हाय चक्रवर्ती | गबड्डी, काँपा कंपा। कौ सुत बिन कफन फुकत है "--हरि। कबरा--वि० दे० (सं० कर्बर, प्रा० कब्बर ) मु०--कफन को कौड़ी न होना सफेद रंग पर काले, लाल, पीले रंग के ( रहना ) अत्यंत दरिद्र होना। ककन | दाग़ वाला, चितला, कोढ़ी। को कौड़ी न रखना----सारी कमाई ख़र्च | कवरिस्तान--संज्ञा, पु० (दे० ) कब्रिस्तान, कर देना। | जहाँ मुर्दे गाड़े जाते हों (मुसलमानों या कफन खसोट—वि० यौ० ( अ० कफ़न+ इसाइयों के )। खसेाट-हि० ) कंजूस, लोभी। कबरी-वि० स्त्री० (हि. कबरा ) विवर्णता कफन खसौटी-संज्ञा, स्त्री० ( हि० ) डोमों । युक्त । संज्ञा, स्त्री० (सं० ) चोटी, बेणी। For Private and Personal Use Only Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कबल ४०४ " कबरी भारनि रचै पानि अवली गुंजन | चलाया हुआ मत । वि० कबीरपंथीकी"-दीन । कबीर के मतानुयायी। कबल-मव्य० ( म० कब्ल ) पेश्तर, प्रथम | कबीला-संज्ञा, स्त्रो० (अ.) स्त्री परिवार, पहिले। जोरू,-" भाई बंधु अरु कुटॅब कबीला कबा-( कबाय )-संज्ञा, पु. (भ० ) एक | प्रकार का लंबा ढीला पहिनाव। कबुलाना-कबुलवाना-स० कि० (हि. कबाड़--संज्ञा० पु० दे० (सं० कर्पट ) बे कबूलना का प्रे० रूप ) क़बूल या स्वीकार काम वस्तु, अंगड़-खंगड़, व्यर्थ का तुच्छ | कराना। व्यापार, रद्दी चीज़, कूड़ा। वि० कबाड़ी, | कबूतर-संज्ञा, पु. ( फा० मिलाओ, सं० संज्ञा, पु०-कबाड़ खाना । संज्ञा, पु० । कपोत ) मुंड में रहने वाला परेवा जाति कबाड़ा कूड़ा, व्यर्थ की बात, बखेड़ा। का पक्षी । स्त्री. कबूतरी। संज्ञा, पु० कबाड़िया-संज्ञा, पु. ( हि० ) टूटी फूटी, . फ़ा० कबूतरखाना-पालतू कबूतरों का रद्दी चीजें बेचने वाला, तुच्छ व्यवसाय करने | दरबा । वि० (फ़ा० ) कबूतरबाज़ - वाला, झगड़ालू । कबाड़ी। कबूतर पालने का शौकीन । कबाब-संज्ञा पु. (अ.) सीखों पर भूना कबूल-संज्ञा, पु. ( म०) स्वीकार, मंजूर । हुधा मांस । कबूलना-स० क्रि० (प्र. कबूल+ना० कबाबचीनी-संज्ञा स्त्री. (अ. कबाब -- प्रत्य० ) स्वीकार या मंजूर करना, सब बात चीनी हि०) मिर्च की जाति की एक लिपटने कह देना। वाली झाड़ी जिसके मिर्च जैसे फल खाने कबूलियत-संज्ञा, स्त्री० (अ.) पट्टा देने में कुछ कटु और शीतल लगते हैं, शीतल वालों को पट्टा लेने वाले के द्वारा लिखा चीनी । इस झाड़ी के फल। गया स्वीकृत पत्र । कबाबी-वि० (अ० कबाब ) कबाब बेचने कबूली-संज्ञा, स्त्री० (फा० ) चने की दाल वाला, मांसाहारी। की खिचड़ी। कबार-संज्ञा पु० (हि. कबाड़ ) व्यापार, काज--संज्ञा, पु. (म०) ग्रहण, पकड़, व्यवसाय, रोज़गार । कबारू ( दे.)। मलावरोध । झंझट । क जा-संज्ञा, पु. ( अ.) मूठ, दस्ता, कबारना-स० क्रि० (दे०) उखाड़ना। | किवाड़ या संदूक में जड़े जाने वाले लोहे कबाला-संज्ञा, पु० (अ.) वह दस्तावेज़ या पीतल के दो चौखूटे टुकड़े, पकड़, जिसके द्वारा कोई जायदाद किसी दूसरे के दखल, वश, अधिकार। अधिकार में चली जाती है। मु०-कब्जे पर हाथ डालना-तलवार कबाहत ( कबाहट )-संज्ञा, स्त्री० (अ.) खींचने के लिये मूठ पर हाथ रखना। बुराई, ख़राबी, अड़चन, झंझट । क-जादार ( काबिज़ )---संज्ञा, पु. (फ़ा०) कवित्त-संज्ञा, पु० (दे० ) मनहरण छंद । कब्ज़ा रखने वाला, दखीलकार असामी । कबीर-संज्ञा, पु. ( अ. कबीर श्रेष्ठ ) एक वि० --जिसमें कब्जा लगा हो । भा० संज्ञा, संत भक्त कवि जिन्होंने कबीर पंथ चलाया | सी०-कम्जादारी । है, होली में गाया जाने वाला एक प्रकार कब्जियत-संज्ञा, स्रो० (फ़ा०) मलावरोध । का गीत । वि० ( म०) श्रेष्ट । | कन्य-संज्ञा, पु० (सं०) पितृश्राद्ध, पितृदान । कबीरपंथ---संज्ञा, पु० (हि.) कबीर का कब-संज्ञा, स्त्रो० (प्र.) मुसलमानों या For Private and Personal Use Only Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४०५ - कभी कमर इसाइयों के मुर्दे गाड़ने का गढ़ा तथा उसके | देवी का एक अभिग्रह-कामरूप, गोहाटी ऊपर का चबूतरा । कबर (दे० )। की एक देवी। मु०-कब में पैर ( पांव ) रखना | कमजोर -वि. (फा०) दुर्बल, अशक्त, ( लटकाना ) मरने के करीब होना। निर्बल । संज्ञा, स्त्री० भा० फ़ा० कमजोरी संज्ञा, पु. ( फ़ा०) कब्रिस्तान मुर्दे गाड़ने नाताक़ती, निर्बलता। का स्थान । कमठ-संज्ञा, पु० (सं० ) कछुवा, साधुओं कभी-कि० वि० (हि० कब+ही) किसी का तुंबा, बाँस । " कमठ पृष्ठ कठोर भी समय पर । कबहूँ ( दे.)। मिदं धनुः-ह. ना० । एक दैत्य, बाजा, म०-कभी का ( के, से) देर से । कभी | सलई वृक्ष । न कभी-किसी समय पागे । कर्भू गे । कभू कमठा संज्ञा, पु. ( दे० ) धनुष । (दे० ) कबों ( व्र०)। कमठी-संज्ञा, स्त्री० (सं०) कछुई। संज्ञा, कमंगर--संज्ञा, पु० दे० (फ़ा० कमानगर ) | पु० (सं० कमठ ) बाँस की पतली लचीली कमान बनाने वाला, उखड़ी हड्डी बैठाने । खपाँची, धनुही। वाला, चितेरा । वि०-दक्ष, निपुण । निपुण । कमती-संज्ञा, स्त्री(फा० कम+ती-प्रत्य०) कमानगर । संज्ञा, स्त्री०-कमंगरी-- कमी, घटती। वि० कम, थोड़ा। कमंगर का पेशा या काम । कमना* - अ. क्रि० (दे०) कम होना, कमंडल-संज्ञा, पु. ( दे० ) कमंडल घटना। ( सं० ) वि० कमंडली-(सं० कमंडलु+ कमनीय ( कमनी)-वि० (सं०) कामना ई+प्रत्य० ) साधु, पाखंडी। करने योग्य, सुन्दर । " ऊँचो जामें बँगला कमंडलु-संज्ञा, पु. ( सं० ) सन्यासियों कमनी सरवर तीर -..." चा. हि० ।...... का जल पात्र, जो धातु, मिट्टी, तूमड़ी या | "कीरति अति कमनीय --" रामा० । दरियाई नारियल का होता है। कमनैत-संज्ञा, पु० (फ़ा० कमान + ऐत-प्रत्य० कमंद-संज्ञा, पु० (दे०) कबंध (सं०) हि०) कमान चलाने वाला, तीरंदाज़। संज्ञा, स्त्री० (फा० ) फंदेदार रस्सी जिससे संज्ञा, स्त्री० भा० कमनैती---तीरंदाजी, बनैले पशु फंसाये जाने या चोर मकानों | तीर चलाने का हुनर । “तिय कित कमपर फेंक कर चढ़ते हैं, फंदा । नैती सिखी......" वि०। कम-वि० फ़ा० थोड़ा, न्यून, अल्प। कमबख्त-वि० (फ़ा०) भाग्यहीन, अभागा। मु०-कम से कम-अधिक नहीं तो कमबख्ती -संज्ञा, स्त्री० (फा०) बदनइतना अवश्य । बुरा-जैसे कमबख्त । सीबी, अभाग्यता। क्रि० वि०-प्रायः नहीं। वि० यौ० -- कम | कमर-संज्ञा, स्त्री० ( फा० ) पेट और पीठ असत -वर्ण संकर, दोगला। के नीचे, पेडू तथा चूतड़ के ऊपर की देह कमखाब-संज्ञा, पु० ( फ़ा ) कलाबत्तू के का मध्य भाग, कटि, लंक । करिहाँ (दे०)। बूटेदार रेशमी वस्त्र । मु०-कमर कसना ( बांधना ) तैयार कपची-संज्ञा, स्त्री० ( तु० मि०, कंचका ) या उद्यत होना, चलने को तत्पर होना। पतली लचीली टहनी जिससे टोकरी श्रादि कमर टूटना-निराश होना, हतोत्साह बनती हैं, तीली, खपाँच । होना। कमर सीधी करना-- लेट कर कमच्छ-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० कामाख्या) आराम करना। कमर खोलना-यात्रा For Private and Personal Use Only Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कमरकस ४०६ कमला समाप्ति पर विश्राम करना। किसी लंबी | के आकार का एक मांस पिंड जो पेट में चीज़ का मध्य भाग ( पतला ) अंगरखे | दाहिनी ओर होता है, क्लोमा, जला, आदि का कमर के ऊपर रहने वाला भाग, ताँबा, एक प्रकार का मृग, सारस, आँख लपेट, कम्मर ( दे० ) " छोरि पितंबर का कोया, डेला, योनि के भीतर एक कमलाकम्मर ते .. " पद्मा। कार गाँठ, फूल, धरन, ६ मात्राओं का कारकस--संज्ञा, पु. (दे० ) ढाक का | एक छंद, छप्पय के भेदों में से एक, गोंद, चिनिया गोंद।। मोमबत्ती रखने का एक कांच का पात्र, एक कमरकोट ( कमरकोटा )-संज्ञा, पु० | प्रकार का पित्त रोग जिसमें आँखें पीली ( फा० कमर --काटा-हि०) किलों या चार पड़ जाती हैं, कामलक (सं० ) काँवर दीवारियों के ऊपर छेद या कँगूरेदार छोटी (दे० ) पीलू ( पीलिया ) मूत्राशय, दीवाल, रक्षार्थ घेरी हुई दीवार। मसाना । पद्म, पंकज, अरविंद, अंबुज, कमरख-संज्ञा, पु० दे० (सं० कर्म रंग, | बनज, आदि।। प्रा० कम्मरंग ) एक पेड़ और उसके फाँक | कमलगट्टा-संज्ञा, पु. ( सं० कमल+गट्टा दार लंबे खट्टे फल। वि० कमरखी- | -हि. ) कमल के बीज, कमल गटा। कमरख की सी फाँकों वाला। कमलज-संज्ञा, पु० (सं० ) ब्रह्मा, कमल कमरबंद-संज्ञा, पु० ( फा० ) कमर बाँधने | योनि, कमलय।। का लम्बा कपड़ा, पटुका, पेटी, नाड़ा, कपल नयन-वि० ( सं० यौ० ) कमल इजारबंद । वि० -मुस्तैद, तैयार । की पंखडियों की आँख वाला, बड़ी सुन्दर कमरबल्ला--संज्ञा, पु० (फा० कमर --- बल्ला आँख (कुछ रक्त) वाला । संज्ञा, पु० -विष्णु, -हि.) खपड़े की छाजन में तड़फ के | राम, कृष्ण । वि० स्त्री० कमल नयनी । ऊपर और कोटों के नीचे लगाई जाने | कमलनाभ-संज्ञा, पु. ( सं० यौ० ) विष्णु। वाली लकड़ी। कमरबस्ता, कमर कोट । | कमलनाल-संज्ञा. पु. यौ० ( सं० ) कमल कारा-संज्ञा, पु० (ले० कैमेरा ) कोठरी, की डंडी, मृणाल । “ कमलनाल इव चाप फोटोग्राफी का वह यंत्र जिसके मुख पर | चढ़ाऊँ"-रामा० लैंस या प्रतिबिंब उतारने का गोल शीशा | कमलबंध-संज्ञा, पु. ( सं० ) एक प्रकार लगा रहता है। संज्ञा पु० ( दे० ) कम्बल । | का चित्र काव्य । कमरिया कामरिया-संज्ञा, पु. ( फा० | कमलबाई-कमलबाय-संज्ञा स्त्री० यौ० कमर ) छोटे डील का ज़बरदस्त एक प्रकार (हि.) कामलक या काँवर का रोग जिसमें का हाथी । संज्ञा, स्त्री० (दे०) कमर, | शरीर और आँख पीली हो जाती हैं। कमली, कमरी ( ऊन का) कम्बल । कमलमूल - संज्ञा, पु० यो० (सं०) मसीड़ा, " या लकुटी अरु कामरिया पर "....... | मुरार । ( रसखान ) । कपला-संज्ञा, स्त्री० (सं०) लक्ष्मी, धन, कारी ( कापरी)-- संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० - ऐश्वर्य, एक प्रकार की बड़ी नारंगी, संतरा, कंवल ) छोटा कंवल का (दे० )--- एक वर्णिक वृत्त, रतिपद, एक नदी । संज्ञा, " सूर स्याम की काली कामरि".."सूर० । पु. ( सं० कवल ) छु जाने से खुजली पैदा एक रोग, चरखी की लकड़ी। करने वाला एक रोयेंदार कीड़ा, सूड़ी, कपल-संज्ञा, पु. (सं०) जल का एक सुन्दर ढोला, सड़े पदार्थ का एक लंबा सफेद फूल वाला पौदा, तथा उसका फूल, कमल कीड़ा। For Private and Personal Use Only Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कमलाकर ४०७ कमानी कमलाकर-संज्ञा, पु० (सं० ) कमल वाला कमान--संज्ञा, स्त्री० (फा०) धनुष । तालाब । मु०-कमान चढ़ना-दौर दौरा होना, कमलाकार --संज्ञा, पु० (सं० ) छप्पय का त्यौरी चढ़ना, क्रोध में होना। इन्द्र धनुष, एक भेद । मेहराब, तोप, बन्दूक । संज्ञा, स्त्री० ( दे०) कमलाकान्त -संज्ञा, पु० (सं० ) कमल की अाज्ञा (अं० कमांड ) फौजी काम का हुक्म, सी कांति युक्त, विष्णु । फ़ौजी नौकरी। कमलाक्ष-संज्ञा, पु. (सं० ) कमल का मु०-कमान पन जाना-लड़ाई पर जाना, बीज, कमल नयन । कमल गट्टा। कमान बोलना - कवायद की आज्ञा देना, कमलापति-संज्ञा, पु. (सं०) विष्णु, | लड़ाई पर भेजना। कमलेश । कमानचा-संज्ञा, पु. (फ़ा०) छोटी कमान, कमलातृया-संज्ञा, स्त्री. ( सं० यौ० ) सरङ्गी बजाने की कमानी, मिहराब, डाट । लक्ष्मी। कमाना-स० क्रि० ( हि० काम ) काम-काज कमलावती-संज्ञा, स्त्री० (सं० ) पद्मावती करके रुपया पैदा करना, सुधारना या काम नामक छंद। लायक बनाना। कमलासन-संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) ब्रह्मा, | यौ-कमाई हुई हड्डीया देह-व्यायाम योग का एक श्रासन, पद्मासन ।। से बलिष्ट देह । कमलासना-संज्ञा, स्त्री. (सं० ) लक्ष्मी, कमाया सोप-वह साँप जिसके विषैले सरस्वती। दांत उखाड़ लिये गये हों । सेवा कमलिनी--संज्ञा, स्त्रो. ( सं० ) छोटा सम्बन्धी छोटे छोटे काम करना ( जैसे कमल, कुमोदिनी, कुहिरी (दे० ) कमल पाखाना, कमाना-उठाना ) कर्म संचय युक्त तालाब, कमलराशि। करना (पाप कमाना ) क्रि० अ०--मेहनत कमली-संज्ञा, पु. ( सं० कमलिन् ) ब्रह्मा, मज़दूरी करना, कसब और कम खर्ची । संज्ञा, स्त्री० (दे० ) छोटा कम्बल, कमरी | स० कि० ( हि० कम ) कम करना, घटाना । कामानिया ---संज्ञा, पु. ( फा० कमान ) कमवाना-स० कि० (हि. कमाना का कमान चलाने वाला। तीरंदाज । वि० धनु प्रे० रूप ) कमाने का काम कराना । षाकार, मेहराबदार। कमसिन---वि० (फा अल्पावस्था । संज्ञा, | कमानी --- संज्ञा, स्त्री० ( फा० कमान ) लोहे स्त्री० (फा० ) कमसिनो-- लड़कपन । की पतली लचीली तीली या तार आदि कमाई-- संज्ञा, स्त्री० (हि. कमाना ) कमाया जो ऐसा बैठाया गया हो कि दबाव पड़ने हुआ धन, कमाने का काम, अजिति द्रव्य, पर दब जाये और हटने पर फिर ज्यों की व्यवसाय, धन्धा। त्यों हो जाय । वि. कमानीदार। कमाऊ-वि० ( हि० कमाना ) कमानेवाला। यौ०-बाल कमानी-घड़ी की पतली उद्यमी। मरोड़ी हुई कमानी जिसके खुलने से चक्कर कमाच-संज्ञा, पु. ( दे० ) एक प्रकार का घूमता है। झुकी हुई लोहे की पतली रेशमी कपड़ा। तीली, एक चमड़े की पेटी जिसे प्रांत उतरने कमाची--संज्ञा, स्त्रो० ( दे० ) कमची, . के रोगी कमर में लगाते हैं, छोटी कमान ( फ़ा कमानचा ) कमान की सी झुकी | जिसके दोनों झुके हुए सिरों पर बाल, तार तीली। | या रस्सी बँधी हो। For Private and Personal Use Only Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org करंबित 66 माखन भरी कमोरी देखी... " सूबे० । कयपूती - संज्ञा, स्त्री० ( मला • क्यु पेड़ + पूती - सफ़ ेद ) एक सदा बहार पेड़ जिसकी पत्तियों से कपूर का सा उड़ने वाला तेल निकलता है । कया* - - संज्ञा, स्त्री० ( दे० ) काया (सं० ) देह | 66 क्या दहत चंदन जनु लावा"- -प० । कयाम संज्ञा, पु० ( ० ) विश्राम स्थान, ठहराव टिकान, निश्चय स्थिरता । कयामत --संज्ञा, स्त्री० ( ० ) सृष्टि के नाश का अंतिम दिन जब सब मुर्दे उठ कर ईश्वर के सामने अपने कर्मों का लेखा देखेंगे और तदनुसार फल पायेंगे, प्रलय, हलचल । 2 कमीज़ - संज्ञा, स्त्री० ( ० कमीस ) कली कयास - संज्ञा, पु० ( और चौबगला रहित कुर्ता | कमीना -- वि० ( फा० ) चोला, नीच, छुद्र | स्त्री० कमीनी | संज्ञा, पु० (दे० ) कमीन - नीच जाति का | संज्ञा, पु० कमीनापन । कमीला - संज्ञा, पु० दे० ( सं० कम्पिल्ल ) एक छोटा पेड़ जिसके फलों पर की लाल धूल से रेशम रंगते हैं । . कमाल f6 1 कमाल -- संज्ञा, पु० (अ० ) परिपूर्णता, कुशलता, दक्षता, अद्भुत कार्य, विशेष विचित्रता, कारीगरी, कबीरदास का पुत्र - तू अब से कबीर का, उपजा पूत कमाल । " " कमी नहीं कद्रदां की अकबर, करे तो कोई कमाल पैदा । " वि० – पूरा, सम्पूर्ण अत्यन्त सर्वोत्तम | संज्ञा, स्त्री० ( ० ) कमालियत - पूर्णता, निपुणता । ग्वाल कवि साहब कमाल इल्म सुहबत हो - " कमासुत वि० (हि० कमाना + सुत ) कमाई करने वाला, उद्यमी । 16 कमी -संज्ञा, स्त्री० ( फा० कम ) न्यूनता, कोताही, हानि । ४०८ * कमुकंदर - संज्ञा, पु० दे० (सं० कार्मुकं + दर ) धनुष तोड़ने वाले राम । कमेरा - संज्ञा, पु० (हि० काम० + एराप्रत्य० ) काम करने वाला, दास, नौकर । स्त्री० कमेरी — “ साँची कहैं ऊधौ हम कान्ह की कमेरी हैं---" ऊ० श० । कमेला - संज्ञा, पु० ( हि० काम + एला י, प्रत्य० ) पशु वध - स्थान । ० कमोदिन, कमोदिनी - संज्ञा, स्त्री० (दे० ) कुमुदिनी ( ) कमोद : कमोदिनी जल में बसै, चन्दा बसै -- कबीर । ( दे० ) कास कमोरा - संज्ञा, पु० दे० ( सं० कुम्भ + ओरा प्रत्य० हि० ) मटका, चौड़े मुँह का मिट्टी का बरतन, घड़ा, कछरा (दे० ) स्त्री० कमोरी अल्प ० ) कमोरिया - मटकी, गगरी । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ० ) अनुमान, ध्यान सोच विचार । वि० कयासी । करक - संज्ञा, पु० (सं० ) मस्तक, ठठरी, पंजर, कमंडल, खोपड़ी । LC काग करंक ठठोलिया "कबीर । ( नारियल की ) करंज, करंजा - सज्ञा. पु० (सं० ) कंजा, एक बनैला पौधा, एक प्रकार की आतिशबाज़ी | सं० पु० ( फा० कुभिंग, सं० कलिंग ) मुर्गा । करंजुवा - संज्ञा, पु० ( सं० करंज ) कंजा | संज्ञा, पु० दे० ) बॉल या ऊख के हानिद अंकुर, धमोई । वि० (सं० करंज ) कंजे के रङ्गका, ख़ाकी | संज्ञा, पु० -- ख़ाकी रंग ।करंड -- संज्ञा, पु० (सं०) शहद का छत्ता, तलवार, कारंडव नामक हंस, बाँस की टोकरी या पिटारी, डला, काक, डिब्बा । संज्ञा, पु० (सं० कुरविंद ) त्रादि के घ कर पैना करने का कुरुल पत्थर । करंतीना -- संज्ञा, पु० दे० ( ० कारंटाइन ) छूत की बीमारियों के स्थान से आये हुए लोगों के रखने का पृथक स्थान । करवित - वि० (सं० ) कूजित, गुंजित । मधुकर निकर करंबित कोकिल कूजति कुंज कुटीरे " - गी० 66 For Private and Personal Use Only Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ४०६ कर कर --- संज्ञा, पु० (सं० ) हाथ, हाथी की सूंड़, सूर्य या चन्द्र की किरण, घोला, महसूल, छल, युक्ति । * प्रत्य० (सं० कृत ) करने वाला ( सुखकर) संबन्ध कारक की विभक्ति, पूर्व कालिक क्रिया की प्रत्य० । करई -संज्ञा, स्त्री० (दे० ) मिट्टी का एक छोटा बरतन, चुकट्टा, मटकन्ना । www.kobatirth.org करक - संज्ञा, पु० (सं० ) कमंडल, करवा, दाड़िम, कचनार, पलस, ठठरी, मौलसिरी करील । संज्ञा, स्त्री० दे० ( हि० कड़क ) रुक रुक कर होने वाली पीड़ा, कसक, चिलक, चमक और गरजन ( बादल बिजली की ) पेशाब का रुक रुक जलन के साथ होना, tara, trs aौर थात्रात से देह पर पड़ा चिन्ह | करकच -संज्ञा, पु० ( दे० ) समुद्री नमक | करकट - संज्ञा, पु० दे० ( हि० रबर + कट सं० कूड़ा, कतवार, झाड़न । } यौ ०. कूड़ा करकट | करकचि -संज्ञा, पु० (दे० ) हल्ला-गुल्ला, पुष्ट, कोमल । करकना - अ० क्रि० ( दे० ) रह रह कर पीड़ा करना आँख का ) तड़कना, चिकना, गड़ना, कसकना । वि० दे० (सं० कर्कर) जिसके कनके हाथ में गड़ें, खुरखुरा । संज्ञा, स्त्री० भा० करकराहट ( करकरा + हटप्रत्य० ) खुरखुराहट, आँख की किरकिरी । करकर - वि० दे०) कड़ा, मजबूत, समुद्री नमक | संज्ञा, पु० करकरा - ( दे० ) एक पक्षी । वि० खुरखुरा, दृढ़ । स्त्री० करकरी । करकस* - वि० (दे० ) कर्कशा ( सं० ) कड़ा, कठोर, काँटेदार | करका -- संज्ञा० स्त्री० (सं० ) शिला, घोला । क्रि० सा० भू० - कड़का | करकाना -- स० कि अ० ( हि० करकना ) तोड़ना मरोड़ना । करख - संज्ञा, पु० दे० (सं० कर्ष ) खिंचाव | हठ, एक तौल, अति द्रव्य । भा० श० को ०. ०-१२ करखना - अ० क्रि० उत्तेजित होना, जोश में आना । .. Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 66 जा दिन शिवाजी गाजी नेक कर खत है-" भू० करखा-संज्ञा, पु० ( दे० ) बढ़ावा, जोश, ताव, दिन दूनी करखा सों " - सू० । संज्ञा, पु० (दे० ) कारिख, काजल, कड़खा । स्त्री० करखी - कजली । करखाना - स० क्रि० ( दे० ) कालिख लगाना । 'कहूँ कोऊ करखायो "हरि० । 66 करगत - वि० (सं० ) हाथ में छाया हुआ, प्राप्त, लब्ध | संज्ञा, पु० (दे० ) हस्ति नक्षत्र (6 करछुल HOR दे० (सं० कर्षण ) गत चन्द्रमा । करगता - संज्ञा, पु० दे० (सं० कटि + गता ) सोने, चाँदी या सूत की करधनी । करगह - करघा - संज्ञा, पु० ( फा० कारगाह) जुलाहों के पैर लटका कर बैठने और कपड़ा बनाने की जगह, कपड़ा बनाने का एक यंत्र | कर्धा (दे० ) करगहना - संज्ञा पुं० यो० (कर + गहनाब० ) दरवाज़े या खिड़की की चौखट पर रखने की लकड़ी । भरेठा, हाथ मोड़ना । करगही - संज्ञा, स्त्री० (दे० ) जड़हन, मोटा धान । करग्रह - संज्ञा, पु० (सं० ) व्याह, विवाह | करगी - संज्ञा, स्त्री० (दे० ) बाद, चीनी 'खुरचने का धौज़ार । करचंग - संज्ञा, पु० यौ० ( कर + चंग - हिं) ताल देने का वाजा, डफ । करछा -संज्ञा, पु० दे० (सं० कर + रक्षा ) बड़ी कजली, चमचा । ( स्त्री० ) करली, कलकी (दे० ) करछाल - संज्ञा, स्त्री० दे० (हि० कर + उछाल) उछाल, छलांग | For Private and Personal Use Only करछुल -- संज्ञा, पु० (दे०) दाल आदि निकालने का बड़ा चम्मच, चमचा, करछुला ( दे० ) स्त्री० करछुली । Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४१० करधनी करज-संज्ञा, पु० (सं० ) नाखून, उँगली, “करतल गत सुभ सुमन ज्यौं-" रामा०। नखनामक सुगंधित वस्तु । करंज। स्त्री० करतली-हथेली का शब्द, करताली। करजोड़ी-संज्ञा, स्त्री० दे० ( हिं० कर+ करता-संज्ञा, पु० (दे०) कर्ता (सं० ) एक जोड़ना ) एक वनौषधि । वृत्त का नाम, बंदूक की गोली के पहुंचने करट-संज्ञा, पु० (सं०) कृकलास, गिरदान, | तक की दूरी । क्रि० सं० ( करना) कौवा, हाथी का गाल, नास्तिक, कुत्सित करतार-संज्ञा, पु० दे० (सं० कर्तार) ईश्वर. जीवी। विधाता, यौ०-- करताल, ताली, हाथ में करटक-संज्ञा० पु. (सं०) कुसुम का पौधा, तार या सूत्र होना । संज्ञा, पु० दे०) करताल, काक, हाथी की कनपटी। एक बाजा .... "गावत लै करतार"-ध्र० । करटी-संज्ञा पु० (सं.) हाथी, रांगा। स्त्री० करतारी-संज्ञा स्त्री० भा० (दे०) कतापन, काक-पत्नी। ईश्वरता । वि० (सं० कर्तार ) ईश्वरीय । करण-संज्ञा, पु. (सं० ) कर्ता का क्रिया संज्ञा, स्त्री० करताली, ताली, थपेड़ी, यौ० के सिद्ध करने के साधन का सूचक एक ( कर -- तानी) हाथ में ताली। ...... कारक ( व्या० ) इसका चिन्ह से,-- सों, - 'दियो करतार दुहूँ करतारी" के०। है। हथियार, इंद्रिय, देह, क्रिया, कार्य, करताल-संज्ञा, पु० (सं० करतल ) हथेलियों स्थान, हेतु, तिथियों का एक विभाग (ज्यो०)। के परस्पर आघात का शब्द, ताली, थपेड़ी, वह संख्या जिसका वर्गमूल पूरा पूरा न | लकड़ी, कांसे आदि का एक बाजा जिसका निकल सके, किसी चतुर्भुज क्षेत्र या समकोण एक जोड़ा, एक एक हाथ में लेकर बजाया त्रिभुज के दो श्रामने सामने के कोणों को जाता है, झांझ, मॅजीरा । स्त्री० करताली मिलाने वाली सीधी रेखा (ज्या० योगियों ताली, थपेड़ी। का एक प्रासन । ये ५ हैं, ७ चल, ८ अचल करतृत-करतूति--संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० दो करण का एक चंद्र दिन होता है । संज्ञा, कर्तृत्व ) कर्म, करनी, कला, गुण, हुनर, पु० (दे०) कर्ण (सं०) करतूती (दे० ) " करतूती कहि देत श्रापु करणी-संज्ञा, स्त्री० (सं० क । अनट् - ई ) कहिये नहिं सांई"गि० "धिक धिक ऐसी खुपी, रांपी, वह राशि जिसका मूल निश्चित कुरुराज करतूती पै-" अ० व०। न हो (गणि०)। करद-वि० (सं० ) कर देने वाला, अधीन, करणीय-वि० (सं० ) करने के योग्य, आश्रयदाता, यौ० करद-पत्र-संज्ञा, पु० कर्तव्य । (सं० ) पट्टा । करतब-संज्ञा, पु० दे० (सं० कर्तव्य ) कार्य, करदा- संज्ञा, पु० ( दे० ) गर्द (हिं ) माल काम, कला, उपाय, करामात, जादू, हुनर में मिला कूड़ा, बट्टा, माल के कूड़ा करकट “ विधि करतब कछु जात न जाना "- के लिये की गई दाम में छूट या कमी, रामा० । वि० करतबी-पुरुषार्थी, निपुण, कटौती (दे०)। वाज़ीगर, करामात दिखाने वाला, कला-कुशल। करदायी-वि० (सं० कर+दा+णिन् ) कर करतरी-करतली--संज्ञा, स्त्रो० (दे०) कर्तरी देने वाला। (सं० ) कैंची, छुरी, “ निसि बासर मग करधृत-वि० (सं० ) हस्तगत, गृहीत । करतरी-" ध्रु०। करधनी-संज्ञा, खी० दे० (सं० किंकिणी ) करतल-संज्ञा, पु. (सं०) हथेली, चार | कमर का एक सोने या चांदी का जंजीरदार मात्राओं के गण ( डगण ) का एक रूप । गहना, कई लडों का सूत, कटिसूत्र । For Private and Personal Use Only Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४११ करधर करभूषण करधर-संज्ञा, पु. ( सं० कर-वर्षोपल + करपत्र -संज्ञा, पु० (सं० ) कराँत, आरा, धर ) बादल, मेघ । क्रकच । करवत। करन-संज्ञा, पु० दे० (सं० करण, कर्ण) करपर-संज्ञा, स्त्री० (सं० कर्पर ) खोपड़ी, करण, कर्ण । वि० (सं० कृपण कंजूस । करनधार8-संज्ञा, पु० (दे०) कर्णधार, | करएरो-संज्ञा, स्त्री० ( दे० ) पीठी ( उद) मल्लाह । की पकौड़ी या बरी। करनफूल--संज्ञा, पु० दे० (सं० कर्गा + | करपल्लवी-संज्ञा, स्रो० (सं०) उँगलियों फूल हिं० ) कान में पहिनने का एक गहना, के संकेत से शब्द प्रगट करने की क्रिया, तरौना, काँप। करपलई (दे०)। करनवेध - संज्ञा, पु० यौ० दे० (सं० कर्ण वेध) | करपिचकी-संज्ञा, स्त्री० (सं० कर+पिचकी.. बच्चों के कान छेदने का एक संस्कार। हि ) जलक्रीडा में पिचकारी की तरह पानी कन छेदन । । छीटने के लिये हथेलियों का संपुट । करना--संज्ञा, पु० दे० (सं० कर्ण) एक सफेद | करपीडन संज्ञा, पु. ( सं० ) विवाह, फूलों वाला पौधा, सुदर्शन । संज्ञा पु० दे० | पाणि ग्रहण । (सं० करुण) विजौरे का सा एक बड़ा नींबू । करपुट-संज्ञा पु० (सं० ) बद्धांजलि, अँजुरी * संज्ञा पु. ( सं० करण ) करनी करतूत । (दे०) स० क्रि० किमी क्रिया को समाप्ति की ओर करपृष्ट-संज्ञा पु० (सं० यौ० ) हथेली के ले जाना, निबटाना, भुगताना, संपादित पीछे का भाग ।। करना, पका कर तैयार करना, रांधना, पहुँ- करबर, करबग-- वि० (दे०) खुरखुरा । घाना, पति या पत्नी रूप में ग्रहण करना, | करबरना--अ० क्रि० ( अनु० ) चहकना रोज़गार, दुकान खोलना, भाड़े पर सवारी | करवरना (दे०) कलरव करना, खरखराना, ठहरा कर लेना, रोशनी बुझाना (जलाना) कुलबुलाना । रूपान्तर करना, बनाना, कोई पद देना | करबला-संज्ञा, पु० ( फा० ) हुसेन के मारे पोतना, रचना, सुधारना। जाने का मैदान ( अरब ) ताजियों के दफकरनाई-संज्ञा, स्त्री० ( अ० करनाय ) तुरही नाने की जगह, निर्जन, जलहीन प्रदेश । बाजा। करबी-संज्ञा, स्त्री० (दे० ) जुबार के पौधे करनाटक-संज्ञा, पु० दे० (सं० कर्णाटक ) ( सूखे ) डांठी, पशु भक्ष्य तृण । मद्रास प्रांत का एक भाग। करबुर-- संज्ञा पु० (दे०) सोना, धतूरा, पाप, करनाटकी--- संज्ञा, पु० दे० (सं० कर्णाटकी), राक्षस । वि० चितकबरा । करनाटक-वासी कलाबाज़, जादूगर। | करवूस-संज्ञा, पु० ( १ ) हथियार लटकाने इंद्रजाली, कसरत दिखाने वाला। की घोड़े की ज़ोन में लगी रस्सी या तस्मा। करनाल--- संज्ञा, पु० दे० ( अ० करनाय ) करम-संज्ञा, पु० (सं०) करपृष्ठ, ऊंट या नरसिंहा, भोपा. एक बड़ा ढोल, एक प्रकार हाथी का बच्चा । कलभ-काम कलभ कर की तोप, पंजाब का एक नगर । भुजबल सीवा"-रामा० । नख नामक करनी-संज्ञा, स्त्री० (हि० करना) कार्य, कर- सुगंधित वस्तु, कमर, दोहे का ७ वाँ भेद । तूत, करतब, अंतेष्टि क्रिया, मृतक-संस्कार, करभीर-संज्ञा, पु० (सं.) सिंह. मृगराज । राजगीरों का एक औज़ार, कन्नी, हथिनी, करभूषण-- संज्ञा, पु० यौ० (सं०) कंकण, करिनी। । पहुँची, कड़ा। For Private and Personal Use Only Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir करभोरु ४१२ करवीर करभोरु-संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) हाथी की फररो-संज्ञा, पु० (दे०) ममरी, बनतुलसी । संड सी जंधा । वि० ऐसी जंघा वाला, कररूह-संज्ञा, पु. ( सं०) नाखून । करम-संज्ञा, पु० दे. (सं० कर्म) काम, भाग्य, | करल-संज्ञा, पु० दे० ( सं० कराह ) कार्य । यौ०-(करम दंड ) करम-भोग | कड़ाही। किए हुए कर्मों का दुखद फल । मुहा० करला-संज्ञा, पु. ( दे० ) कोमल पत्ता, करम फूटना-भाग्यमंद होना, करम | कनखा, कल्ला, स्त्री० करलो। होना-कष्ट या दुख मिलना, बेइज्जती करलगुवा—संज्ञा, पु० (दे० ) स्त्री वश, होना, (सब) करम करना--अपमान करना, स्त्रीजित् । कार्याकार्य करना । यो०-करम-रेख- | करवट-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० करवर्त) भाग्य-विधान, किस्मत में लिखा . करम | हाथ के बल लेटने की मुद्रा, पार्श्व पर रेख नहिं मिटत मिटाये'- करमचंद- लेटना । संज्ञा, पु. ( सं० करपत्र ) करवत, कर्म भाग्य । संज्ञा, पु. (अ.) मेहरबानी। पारा, जिससे शुभ फल की प्राशा से प्राण करमकल्ला -संज्ञा पु० (अ. करम+कल्ला- दिये जाते थे । प्राचीन )। हि ) बंद गोभी, पात गोभी, केवल पत्ते के | मुहा०-करवट बदलना (लेना) पलटा संपुट वाली गोभी। और का शोर होना। करवटवानाहाना) करमनासा -संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० कर्मनाशा खाना, उलट या फिर जाना । करवट न एक नदी। लेना-कुछ ध्यान न रखना या देना । करमट्ठा-वि० दे० (सं० कृपण ) कंजूस । सन्नाटा खींचना। करवटे बदलना-तड़करमठ --वि०दे० (सं० कर्मठ) कर्मठ, कर्म- पना, बेचैन पड़ा रहना। (किस) करवट निष्ठ, कर्म-कांडी, कर्मप्रिय । संज्ञा, पु० | ऊंट बैठना-न जाने क्या होना। कमट-उपाय । करवत-संज्ञा, पु० (दे०) करपत्र (सं०) करमात-संज्ञा, पु० (दे०) भाग्य, कर्म। श्रारा। स्त्री० करामात (अ.)। करवर*-संज्ञा, स्त्री. ( दे० ) विपत्ति, करमाला—संज्ञा, स्त्री० (सं०) माला के संकट, होनहार । संज्ञा, पु० (दे०) तलवार । अभाव में जप की गिनती करने के लिये " करवर टरी श्राजु सीता को"-रा० २०, उँगलियों के पोरों का प्रयोग । संज्ञा, पु. तव पंचम नृप करवर काठयो"-छल । (सं०) अमलतास। यौ० श्रेष्ठ हाथ । करमाली-संज्ञा, पु. ( सं० ) सूर्य । करवा-संज्ञा, पु० दे० (सं० करक ) धातु करमी-वि० दे० (सं० कर्मी ) कर्म करने या मिट्टी का टोटीदार लोटा । यौ० करवा वाला, कर्मकाण्डी। चौथ-संज्ञा, स्त्री० (सं० करका चतुर्थी ) करमुखा*-करमुँहा- वि० दे० (हि. कार्तिक कृष्ण चतुर्थी---जब स्त्रियाँ गौरी का काला + मुख ) काले मुँह वाला, कलंकी। । व्रत रखती हैं। स्त्री०-करमुखी, करमही।। करवाना-स० क्रि० (हि० करना का प्रे० रूप) करर-संज्ञा, पु० ( देश० प्रान्ती० ) गाँठदार करने में प्रवृत्त करना। विषैला कीड़ा, एक प्रकार का घोड़ा। करवार*- (करवाल)- संज्ञा, स्त्री० दे० कररना*-करराना-अ. क्रि० (अनु०) (सं० ) तलवार, नाखून । स्त्री० ( अल्प० ) चरमराकर टूटना, कर्कश शब्द करना, कड़ा करवाली-छोटी तलवार, करौली। होना । संज्ञा, पु० कररान-धनु टंकार। । करवीर-संज्ञा, पु० (सं० ) कनेर का पेड़, For Private and Personal Use Only Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४१३ mom s umaara करवैया कराली तलवार, श्मशान, चेहिदेश का एक नगर। वि० (हि. कड़ा ) सस्त, क्रि० स० सा. करवील ( दे०) करील। भु०---किया। करवैया*-वि० (हि० करना+वैया-प्रत्य०) कराइत ... संज्ञा, पु० दे० (हि० काला ) एक करने वाला। प्रकार का विषैला काला साँप । करवोटी-संज्ञा, स्त्री० (दे० ) करचोटिया कराई---संज्ञा, स्त्री० ( हि० केराना ) उर्दू, चिड़िया। अरहर अादि की भूसी, *( हि० काला) करश्मा-संज्ञा, पु० (फा० ) करामात, श्यामता (हि० करना ) करने कराने का चमत्कार। भाव । करप-करख-संज्ञा, पु० दे० ( सं० कर्ष) करात-संज्ञा, पु० दे० (अ. कीरात) सोना, खिंचाव, मनमुटाव, द्रोह, लड़ाई का चाँदी, दवा के तौलने की चार जौ की एक जोश, ताव (दे०) क्रोध । करषा । तौल । "केत करष हरिसन परि हरहू"-रामा० । कराना---२० क्रि० (हि० करना का प्रे० रूप) करषना*- ( करसना-दे० ) स० कि० दे० करने में लगाना। (सं० कर्षण ) खींचना, तानना, घसीटना, कराबा--संज्ञा, पु. (अ.) अर्क आदि सुखाना, सोखना, बुलाना, समेटना ।। रखने का शीशे का बड़ा पात्र । कर-संपुट-संज्ञा, पु० ( सं० यौ० ) बद्धांजलि । करामात-संज्ञा, स्त्री० (म० करामत का बहु०) चमत्कार करश्मा । वि०-करामाती ( कराकरसान*---संज्ञा, पु० (दे०) कृषाण। मात + ई-प्रत्य०) सिद्ध, करामात करने करसाइल, करसायल, करसायर—संज्ञा, वाला। पु० दे० (सं०-कृष्णासार ) कालामृग । करसी-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० करीष ) कंडो करार--संज्ञा, पु० (अ०) स्थिरता, धैर्य, का चूरा, उपली, कंडी। वि० ( करषी ) संतोष, धाराम, वादा, प्रतिज्ञा, शर्त, (सं० वर्षी ) कर्प या क्रोधवाला। नदी का किनारा (ऊँचा)-" माँगत करहंत-( करहंस )-संज्ञा, पु० दे० नाव करार है ठाढ़े" ---कवि० । करारना*----अ. क्रि० ( अनु० ) काँकाँ (सं० ) एक वर्णवृत्त ।। करह* --संज्ञा, पु० दे० (सं० करभ ) ऊँट, या कर्कश शब्द करना। (सं० कलि०) फूल की कली। करारा--संज्ञा, पु० दे० (सं० कराल) जल के करहाट-(करहाटक)-संज्ञा, पु० (दे०) काटने से बना हुआ नदी का ऊँचा किनारा, कमल की जड़ या उसके भीतर की छतरी। कौत्रा, टीला । वि० (हि. कड़ा, कर्रा) मैनफल । कठोर, कड़ा, दृढ़, खूब भुना हुआ जो करहार-संज्ञा, पु. ( सं० ) मैनफल, | खाने में कुर कुर शब्द करे, उग्र, तीक्ष्ण, शिफाकन्द । चोखा, खरा, गहरा, भयानक, घोर, हृष्ट करांकुल-संज्ञा, पु० दे० (सं० कलाङ्कर ) | पुष्ट । स्त्री० करारी संज्ञा, पु. करारापन । पानी के किनारे रहने वाली एक चिड़िया, कराल वि० (सं० ) भीषण, भयानक, क्रौंच, कुंज ( दे०)। बड़े दाँत वाला। कराँत--संज्ञा, पु० (दे०) क्रकच, आरा। कराली--- संज्ञा, स्त्री. (सं० ) अग्नि की वि० करांती-लकड़ी चीड़ने वाला। सात जिह्वानों में से एक । वि०-डरावनी, करा-संज्ञा, स्त्री० (दे०) कलार (सं.)। भयावनी । For Private and Personal Use Only Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कराव ४१४ करुणा कराव करावा--संज्ञा, पु० ( हि० करना ) | करिहाँ-करिहाय, करिहाँव--संज्ञा, स्त्री० एक प्रकार का विवाह, सगाई। दे० ( सं० कटिभाग) कमर, कटि, " कर कराह-संज्ञा, पु० दे० ( हि० करना --- माह)। जमाय करिहाँय '' --- गंगा०......"कतरे कराहने का शब्द, * संज्ञा, पु० (दे०) कतरे पतरे करिहाँ की "-पद्मा। कराह (सं० ) कड़ाह, कड़ाहा (दे०)। करी--संज्ञा, पु० दे० (सं० करिन् ) हाथी। कराहना-अ. क्रि० (दे० ) व्यथा-शब्द | संज्ञा, स्त्री० (सं० काँड ) छत पाटने की का निकालना, प्राह आह करना। शहतीर, कड़ी * कली ( हि० । पन्द्रह कराही कड़ाहो-- संज्ञा, स्त्री. (दे०) । मात्राओं का एक छन्द । क्रि० स० । करना कराह, कड़ाही। सा० भू० स्त्री० किया। " यौं करवीर करी करिंद-संज्ञा, पु० दे० (सं० करीन्द्र ) बन राजे-के० ।' सब चन्दन की सुभ ऐरावत या सर्वोत्तम हाथी। सुद्ध करी"--के। करिंदा--संज्ञा, पु० दे० ( अ० कारिन्दा) करीना * ----संज्ञा, पु० (दे०) करोना, टाँकी । ज़मीदार का नायब । मसाला। संज्ञा, पु० (अ. करीना ) ढङ्ग, करि - संज्ञा, पु० (सं० करिन् ) हाथी। तर्ज, तरीका, चाल, क्रम, शऊर । पू० का० क्रि० (करना) करके । स्त्री० करिनी। करी-स० कि० ( ब्र० करना ) कीजै । यौ० करिकुंभ-हाथी के मस्तक के टीले । करोब-क्रि० वि० (अ.) पास, समीप, करिज-संज्ञा, पु० (सं०) कलभ, हाथी लगभग । वि० करीबो । का बच्चा। करीम-वि० (अ.) कृपालु, संज्ञा, पु०करिखई-संज्ञा, अ. स्त्री० (दे०) कालिख, ईश्वर । कालिमा । करिखा, करखा, कारिख (दे०) करीर----संज्ञा, पु० ( स० ) बाँस का नवाकरिण-संज्ञा, पु. ( सं० ) हाथी, स्त्री० कर, करील वृत्त, घड़ा। करिणी। करील-संज्ञा, पु. ( सं० करीर ) बिना करिया* वि० (दे०) काला, संज्ञा, पु० पत्तियों का एक काँटेदार वृक्ष । "...करील दे० (सं० कर्ण) पतवार, कलवारी, माँझी, के कुञ्जन ऊपर वारौं ' - रस०।। केवट । “ करियामुख करि जाहु अभागे" --- करीय---संज्ञा, पु० ( सं० ) जङ्गल में मिलने रामा०, .."बहै करिया बिन नाउर" गि। वाला सूखा गोबर, बन कंडा, अरना । करियाई-संज्ञा, स्त्री० (दे०) कारिख, करीस-संज्ञा, पु० दे० ( स० करीश ) कालिमा। गजराज। करियाद-संज्ञा, पु० (सं० ) सूस, जल- | कल्बई-कराई --संज्ञा, स्त्री० ( दे.) हस्ति । कटुता ( सं० ) कडु यापन। करियारी-संज्ञा, स्त्री० (दे० ) लगाम, करुयाना करवाना- अ. क्रि० (दे० ) बाग। कटु या तिक्त लगना, जलन होना, पीड़ा करिल-...संज्ञा, पु० दे० (सं० करीर) कोंपल ।। होना, दुखना । स० क्रि० कडू लगने पर वि० (हि. कारा, काला ) काला : "करिल मुख बनाना । केस विसहर विसभरे। "---१० करखी-वि० दे० (सं० कलुपो) कलुषयुक्त, करिवदन - संज्ञा, पु. ( सं० यौ० ) संज्ञा, स्त्री० (दे० ) कनखी । गणेशजी। करुणा-कम्ना-संज्ञा, स्त्री० (सं०) पर करिष्णु-वि० (सं० ) कर्तव्य, करणशील । दुख से उत्पन्न एक प्रकार का मनोविकार For Private and Personal Use Only Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir RWARIMEHEKHA GALORRIORS करुणाकर करौंदा या दुख जो पर दुख के दूर करने को प्रेरित करेणु-संज्ञा, पु० (सं० ) हाथी, कर्णिकार करता है । दया, तर्स, रहम, प्रिय, जन- वृत्त । स्त्री० करेणुका हथिनी । वियोग जनित दुख, शोक। संज्ञा, पु० करेव-संज्ञा, स्त्री० ( अ. क्रेप ) एक झीना करुण-एक प्रकार का रस ...." एको रेशमी कपड़ा। रसः करुणमेव ''-म० । एक वृक्ष। यौ० करेम् ---संज्ञा, पु. (दे०) (सं० कलंबु) करुण विप्रलम्भ-श्रृंगार रस का एक पानी की एक धाम जिसका साग बनता है। भेद, वियोग शृङ्गार। वि० शोक पूर्ण, करुण करेर करेरा--वि० दे० ( हि० कड़ा) कड़ा, जनक । यो० करुण स्वर, करणगिरा, मज़बूत, दृढ़। स्त्री करेरी। · ..." जैत करुणकंदन। वार जगत करेरी किरवान को।'' ललि। करुणाकर--संज्ञा, पु. ( सं० ) दयालु करेला-करला-संज्ञा, पु. (सं० ) एक भगवान" करुणा करके करुनाकर रोये" प्रकार का कट फल जो तरकारी के काम में ...... 'सुदा० । करुणासागर, करुणासिन्धु । याता है, माला या हुमेल की लम्बी गुरिया, करुणानिधान-संज्ञा, पु. (सं०) करुणा हरें । स्त्री० करेली ( अल्प० ) जङ्गली छोटा करेला। सय, करुणायतन प्रभु। करुणाधि---संज्ञा, स्त्री. ( सं० यो० ) करल-संज्ञा. स्त्री० दे० (हि० कारा, काला) तालों के किनारे की काली मिट्टी। संज्ञा, दयादृष्टि। पु० (सं० कीर ) बांस का नरम कल्ला, करुणानिधि-संज्ञा, वि० (सं०) दयासागर, डोम, कौवा। ईश्वर। करुणा-वि० (सं० यो०) करुणारससिक्त, करोटन--संज्ञा, पु० दे० ( अ. क्रोटन) एक प्रकार के जंगली पौधे जिनके पत्ते रङ्ग दयामय । करूना- संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० करुणा ) विरंगे और टेढ़े मेढ़े आकार के होते हैं। करोड़-करार-वि० दे० (सं० कोटि ) सौ दया, शोक। लाख की संख्या । यौ० करोड़पति-एक मु०---करना करना-रोना, बिलखना, दुख करना और रोना, “जनि अबला इव करोड़ रुपये वाला, धनी। करुना करहू'-रामा० । करोडो-संज्ञा, पु० (दे०) रोकड़िया, तहवीलदार ( मुस० राज्य ) करोरी। करुर, करुवा, करु*---वि० दे० (सं० कटु) करोदना---स. क्रि० दे० (सं० शुरण ) कडुअा, तीता । करुवा--संज्ञा,पु० (दे०) खुरचना । संज्ञा, स्त्री० करोदनी। करवा, मिट्टी का बर्तन । करानो स० क्रि० दे० (सं० चरण ) कप-संझा, पु० (सं० ) गंगातट का एक __ खुरचना । संज्ञा, स्त्री० करोनी-खुर्चन । देश (वा० रा०)। करोला*---संज्ञा, पु० दे० (हि. करवा ) करुला --- संज्ञा, पु० दे० (हि. कडा + ऊला करवा, गडुवा। -~-प्रत्य० ) हाथ का कड़ा। करौंछा* - वि० दे० (हि० काला+ ओंका करेकर -- अव्य० (दे० ) एकत्र, बराबर, -प्रत्य०) कुछकाला, खुरचा हुआ। साथ-साथ। करौंजो* -- संज्ञा, स्त्री. (दे०) कलौंजी, करेत-संज्ञा, पु० (दे० ) एक प्रकार का ___ मँगरैल । सांप, करैत । करौंदा-संहा, पु० दे० (सं० करमर्द) एक करेजा-संज्ञा, पु० ( दे०) कलेजा, हृदय।। कँटीला झाड़ जिसके गोल छोटे फल खटाई For Private and Personal Use Only Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir PERHITRA करोदिया कर्ण के काम में आते हैं, एक जंगली झाड़ी | कर्कघु-संज्ञा, पु० (सं० ) बदरी या बेर जिसमें छोटे फल होते हैं। कान के पास का पेड़ । की गिलटी। कर्कर-संज्ञा, पु. (सं०) कंकड़, कुरंज करोदिया-वि० दे० (हि० करोदा ) करोंदे या सान का पत्थर । वि. कड़ा, करारा, का सा स्याही लिये लाल रंग। खुरखुरा। करौत-संज्ञा, पु० दे० (सं० करपत्र ) | कर्कश—संज्ञा, पु० (सं० ) कमीले का लकड़ी चोड़ने का श्रारा। स्त्री० करोती ।। पेड़, उख, खड्ग । वि० कठोर, कड़ा, खुरसंज्ञा, स्त्री० (हि० करना ) रखेली स्त्री। खुरा, तेज़, तीव्र, प्रचंड, क्रूर । संज्ञा, भा० करौता . संज्ञा, पु० (दे० ) करौत, बारा, स्रो० कर्कशता -- कठोरता, क्रूरता । वि० (हि. करवा ) करावा, कांच का बड़ा स्त्री० कर्कशा-झगड़ालू, लड़ाकी स्त्री। बरतन । स्त्री० करोती। कोट-संज्ञा, पु० (सं०) बेल वृक्ष, खेखसा, करौंट --- संज्ञा, पु० (दे० ) करवट, करोंट ककोड़ा । (दे० ) · ..." इत कितलेति करौंट" कर्चर-कच्चूर--संज्ञा, पु० (सं०) (दे० ) ...-- वि०। सुवर्ण, कचूर, कर्पूर। करौटी-संज्ञा, स्त्री० (दे० ) करवट, कर- कईनी—संज्ञा, स्त्री. ( दे० ) खरोचनी, वटिया, खोपड़ी। एक पात्र । *करौला--- संज्ञा, पु० (हि० रोला = शोर ) | कर्जा-कईल-संज्ञा, पु० (दे० ) कलछी, शिकारी . "करौलनि आप अचेत उठायो" करछुला स्त्री० कई ली। ---- भू०। कळल-संज्ञा, स्त्री० ( दे० ) कुलांच, करौली--संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० करवाली) चौकड़ी। एक प्रकार की छोटी तलवार, छुरी।। कर्ज, की--संज्ञा, पु० (अ.) ऋण, कर्क-संज्ञा, पु. (सं०) केकड़ा, बारह उधार, करजा ( दे.)। वि० ( कड० ) राशियों में से चौथी राशि, ककड़ासिंगी, कर्जदार-ऋणो, कर्जी। अग्नि, दर्पण, घट, कात्यायन शास्त्र के मु०---- कर्ज उतारना-- कर्ज चुकाना, कर्ज एक भाष्यकार । यौ० कर्क रेखा-विपु खाना-कर्ज लेना. उपकृत या वश में वत रेखा से उत्तर की ओर अंशों पर होना । वि० (दे० ) कर्जी, करजी। खिची हुई एक कल्पित रेखा जहाँ तक कर्ण-संज्ञा, पु० (सं० ) कान, श्रवणेंद्रिय, उत्तरायण होने पर सूर्य पहुँचता है। कुन्ती पुत्र, जो पांडवों का बड़ा भाई और (विलोम-मकर रेखा)। सूर्य का औरस पुत्र था, यह बड़ा दानी, कर्कट-संज्ञा, पु० (सं० ) केकड़ा, कर्क परशुराम-शिष्य धनुर्धारी वीर था । अर्जुन राशि, एक प्रकार का सारस, करकरा, ने महाभारत में इसे मारा था। नाव का करकटिया, लौकी, धीश्रा, कमल की मोटी पतवार, समकोण त्रिभुज में समकोण के जड़, सँडसा, भसींडा, तुम्बी, एक नाग, सामने की रेखा, समानान्तर चतुर्भुज के वृत्त की भिस्था, नृत्य विशेष । स्त्री० कर्कटी, संमुख कोणों को मिलाने वाली रेखा, कर्कटा। चारमात्रा वाले गण ( डगण · पिं० )। कर्कटी-संज्ञा, स्त्री० ( सं० ) कछुई, ककड़ी | मु०-कर्ण का पहर-प्रभात काल, सांप, सेमल का फल । दान-समय । For Private and Personal Use Only Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कर्णकटु ४१७ कर्ता कर्णकटु-वि० यौ० (सं० ) कान को या कर्णिका-संज्ञा, स्त्री. (सं० ) करनफूल, सुनने में अप्रिय । कर्णाभरण, हथेली के बीच की उँगली, कर्णकंडू-संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) कान सूंड की नोक, कमल का छत्ता, सेवती, की खुजली। डंठल, सफेद गुलाब, कलम, लेखनी।। कर्णकुहर-संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) कान कर्णिकाचल-संज्ञा, पु. यौ० (सं.) का छेद। सुमेरु पर्वत । कर्णगाचर--संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) कान कर्णिकार-संज्ञा, पु० (सं० ) कनियारी में पड़ना, सुनना। या कनक चंपा का पेड़। कर्णधार-संज्ञा, पु० (सं०) माँझी, मल्लाह, | कर्णी-संज्ञा, पु. (सं० ) वाण । नाविक, पतवार । कर्णीरथ-संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) क्रीड़ार्थ कर्ण नाद-संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) कान __ छोटा रथ, परदेदार (स्त्रियों का) रथ, एक्का । का शब्द । कर्णीजप--संज्ञा, पु० (सं०) चुगुलखोर, कर्णपिशाची-संज्ञा, स्त्री० यो० (सं०)| दुर्जन, ठग। एक तांत्रिक सिद्धि या देवी जिसके सिद्ध कर्णीसुत-संज्ञा, पु. (सं० ) कंसराज । होने पर, कहा जाता है, मनुष्य सब के मन | कर्तन-संज्ञा, पु० (सं० ) काटना, कतरना, की बात जान जाता है। कातना (सूत)। कर्णफूल-संज्ञा, पु० यौ० (सं०+हि० कर्तनी-संज्ञा, स्त्री० (सं० ) कैंची, कतनी, फूल ) करनफूल । कतरनी (दे० )। कर्णमल—संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) कान कर्तरी-कर्तरिका-संज्ञा, स्त्री. (सं०) का मैल, खूट। कैंची, कतरनी, काती ( सुनारों की ) कर्णमूल-संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) कनपेड़ा कटारी, ताल देने का एक बाजा। रोग। कर्तब करतब-संज्ञा, पु. ( दे० ) कर्तव्य, कर्णवेध-संज्ञा, पु. यौ० (सं० ) कान काम, उपाय, चालाकी... .." कर्तब करिये छेदने का संस्कार, कनछेदन (दे०)। दौर।" कर्णशोफ - संज्ञा, पु० (सं० ) कान के | कर्तव्य-वि० (सं० ) करने के योग्य । नीचे सूजने का रोग। संज्ञा, पु०--धर्म, फर्ज । यौ० कर्तव्याकर्णवेष्टन-संज्ञा, पु० (सं०) कुंडल, कर्णा- कर्तव्य-करने और न करने योग्य कर्म, भरण, कान का भूषण । उचितानुचित कार्य । किंकर्तव्य विमूढ़कर्णाकर्णी-संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं० ) काना- जिसे क्या करणीय है यह न ज्ञात हो । कानी, ख्याति । कर्तव्यता--संज्ञा, स्त्री० (सं० ) कर्तव्य का कर्णाट-संज्ञा, पु० (सं० ) दक्षिण का एक भाव, कर्म-कांड की दक्षिणा । यौ०-इति देश, एक राग। कर्तव्यता-उद्योग या यत्न की चरम सीमा, कर्णाटक-संज्ञा, पु० (सं० ) कर्णाट । प्रयत्न की पराकाष्ठा, दौड़ की हद । वि. कर्णटक, करनाटक (दे०)। कर्तव्य-मूढ़-(कर्तव्य-विमूढ) भौचक्का, कर्णाटी-संज्ञा, स्त्री० (सं० ) एक रागिनी, जिसे जान न पड़े कि क्या करना चाहिये । कर्नाटक की स्त्री, वहाँ की भाषा, शब्दा- कर्ता-संज्ञा, पु. ( सं० ) काम करने वाला, लंकार में एक वृत्ति विशेष जिसमें केवल रचने या बनाने वाला, ईश्वर, अधिपति, कवर्ग के ही वर्ण भाते हैं। | ६ कारकों में से प्रथम जिससे क्रिया के भा० श० को०-५३ For Private and Personal Use Only Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कर्मणा कर्तार ४१८ करने वाले का बोध हो ( व्या० ) कपुर-कर्पूर-संज्ञा, पु० (सं० ) कपूर, करता (दे०)। चन्द्रमा । कार-संज्ञा, पु० (सं० पु. कत को प्रथमा कर्बर-संज्ञा, पु. (सं०) सोना, धतुरा, का बहु० ) करने वाला, ईश्वर, करतार जल, पाप, राक्षस, जड़हन धान, कचूर । (दे०) संज्ञा, स्त्री० करतारी। वि० रंग-बिरंगा, कबरा ।। कर्तित-वि० (सं० ) कतरा या काटा हुआ, कर्बरा-संज्ञा, स्त्री. (सं० ) बनतुलसी । काता हुआ। वि० धूमला। कर्तृक-वि० (सं०) किया हुआ, संपादित। कर्म-संज्ञा, पु० (सं० ) वह जो किया कर्तृ-कर्मभाव-संज्ञा, पु० यौ० (सं० )। जाय, क्रिया, कार्य, काम, करनी ( दे०), कर्ता-कर्म-सम्बन्ध । करम ( दे.) भाग्य, ६ पदार्थों में से एक कर्तृत्व-संज्ञा, पु० (सं० ) कर्ता का भाव (वैशेषिक ) यज्ञ, यागादि ( मीमांसा ) और धर्म, स्वामित्व । वह शब्द जिसके वाच्य पर क्रिया का फल कर्तृ-प्रधान-वि० (हि.) जिस वाक्य में या प्रभाव पड़े ( व्या० ) कर्तव्य, मृतककर्ता की प्रधानता हो ( व्या० ) जिसमें | संस्कार । यौ०-क्रिया-कर्म-मृतककर्ता क्रियानुसार हो। संस्कार, कर्म-स्थान, जन्म-चक्र में ५० वाँ कर्तृवाचक-कर्तृवाची--वि० यौ० (सं.)। खाना (ज्यो०)। कर्ता का बोध कराने वाली क्रिया (व्या०)। कर्मकर (कर्मकार)-संज्ञा, पु० (सं०) कर्तृ-चाच्य (क्रिया)-संज्ञा, स्त्री० (सं.)। एक वर्ण-संकर जाति, लोहे पर सोने का वह क्रिया जिससे प्रधानतया कर्ता का बोध काम करने वाला, बैल, नौकर, बेगार, हो (व्या०)। मज़दूर, कार। कर्दम-संज्ञा, पु. (सं०) कीचड़, कीच, | कर्म-कांड-संज्ञा, पु. यौ० (सं० ) जप-यज्ञकांदो (दे०) चहला (दे०) पंक, __ होमादि धार्मिक कृत्य, यज्ञादि के विधानों पाप, छाया, मांस, स्वायंभुव मन्वन्तर का शास्त्र । वि० कर्मकांडी-यज्ञादि धर्मके एक प्रजापति । " चंदन-कर्दम-कलहे, कर्म या कृत्य कराने वाला। मध्यस्थो मंडूको यातः।" कर्मकारक-संज्ञा, पु. ( सं० ) दूसरा कर्धनी-संज्ञा, स्त्री० (दे०) कटिबंध, चाँदी कारक । वि० कर्म करने वाला। या सोने का एक कमर का भूषण। कर्म-क्षेत्र-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) कार्य करने कर्नेता-संज्ञा, पु० (दे० ) रंग के अनुसार ___ का स्थान, कर्म-भूमि, भारतवर्ष, कर्मभू । घोड़े का भेद । कर्मचारी-संज्ञा, पु० (सं० कर्मचारिन् ) कर्पट-संज्ञा, पु० (सं०) कपड़ा-लता, गूदड़। कार्य कर्ता, जिसके आधीन राज्य का कोई कर्पटी-संज्ञा, पु. (सं०) चिथड़े-गुदड़े प्रबंध-कार्य हो, अमला ।। पहिनने वाला, भिखारी। कर्मज-संज्ञा, पु. (सं०) कर्म से उत्पन्न फल । कर्पर-संज्ञा, पु० (सं० ) कपाल, खप्पर, कर्मठ-वि० (सं०) कार्य-कुशल, धर्म-कृत्य कछुए की खोपड़ी। संज्ञा, स्त्री. (सं० ) करने वाला, कर्मनिष्ठ । संज्ञा, पु० (सं०) कर्परी। कर्पास-संज्ञा, पु० (सं० ) कपास, रुई। कर्मणा—क्रि० वि० (सं० कर्मन् का तृतीया में संज्ञा, पु. (सं०) कर्पासी सूत, सूती रूप ) कर्म से, कर्म-द्वारा—जैसे-मनसाकपड़ा। वाचा-कर्मणा, कर्मना (दे०)। धार्मिक कृत्य For Private and Personal Use Only Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कर्मण्य ४१६ कर्म-हीन कर्मण्य-वि० (सं०) खूब काम करने (मुख्य ) होकर कर्ता के रूप में पाया हो, वाला, उद्योगी । संज्ञा, स्त्री० (सं० ) कर्म- | __ कम की प्रधानता-सूचक क्रिया । ण्यता-कार्य-कुशलता, कार्य-तत्परता। कर्मवाद-संज्ञा, पु० (सं०) कर्म को ही कर्मधारय (समास)--संज्ञा, पु० (सं० ) सर्व प्रधान मानने वाला सिद्धान्त, मीमांसा, विशेष्य-विशेषण का समान अधिकरण कर्मयोग । संज्ञा, पु० (सं० कर्मवादिन् ) सूचक एक समास-भेद । कर्मवादी-कर्म को प्रधान मानने वाला कर्मनाशा-संज्ञा, स्त्री. (सं० ) एक नदी मीमांसक, कर्मकांडी। जो चौसा के पास गंगा से मिली है। कर्मवान् -- वि० (सं०) कर्मनिष्ठ, कर्मवीर। कर्मनिष्ट-वि० ( सं०) संध्या-अग्निहोत्रादि कर्म-विपाक-संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) पूर्व करने वाला, क्रियावान । जन्म कृत शुभाशुभ कर्मों का भला-बुरा कर्मनिपुणता-कर्मनिपुनाई–(दे० ) संज्ञा, | फल, ज्योतिष का एक ग्रंथ । स्त्री० ( सं० ) कार्य-कुशलता। कर्मशील-संज्ञा, पु० (सं० ) फल की कर्म-पथ --- संज्ञा, पु. यौ० (सं०) वेद की अभिलाषा छोड़ कर स्वभावतः ही काम या रीति, कर्म-मार्ग। कर्तव्य करने वाला, कर्मवान्, यत्नवान, कर्मप्रधान-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) जहाँ उद्योगी, परिश्रमी । संज्ञा, स्त्री० कर्मकर्म की प्रधानता हो । (व्या० ) कर्मः | शीलता । वाच्य क्रिया। कर्म-शूर-संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) वि०कर्म-फल-संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) कर्म का साहस और दृढ़ता से कर्म करने वाला, विपाक, करनी का फल । उद्योगी, कार्य कुशल, कर्मवीर । कर्म-भोग-संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) कर्म- कर्म-सचिव-संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) कर्मफल, सुख-दुखादि करणी के फल, पूर्व जन्म ___ कर्तव्य की मंत्रणा देने वाला। कृत कर्मों का परिणाम । कर्म-संन्यास- संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) कर्म कर्ममास-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) सावनमास। का त्याग, कर्म-फल-त्याग । वि०-कर्मकर्म-मूल-संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) कर्म का संन्यासी--निष्काम कर्म करने वाला। कारण, कुश। कर्मसमाधि-संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं.) कर्म-युग-संज्ञा, पु० यौ० ( सं० ) कलियुग, | कर्मों का नितान्त त्याग या विरक्ति । शेषयुग। कर्मसाक्षी-वि. (सं० ) कर्म का देखने कर्मयोग- संज्ञा, पु० (सं०) सिद्धि और वाला, जिसके सामने कोई काम हुआ हो । असिद्धि में समान भाव रख कर कर्तव्य-कर्म संज्ञा, पु०-प्राणियों के कर्मों को देखने वाले का साधन, शुद्ध चित्त से शास्त्र-विहित देवता जो कर्मों की साक्षी देते हैं -सूर्य, कर्म । वि० कर्मयोगी। चंद्र, अग्नि, यम, काल, पृथ्वी जल, वायु, कर्मरंग - संज्ञा, पु. (सं० ) कमरख, फल श्राकाश, आत्मा। विशेष । कर्म-साधन-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) कर्म के कर्म-रेख-संज्ञा, स्त्री. यो० (सं० ) कर्म की उपाय, उद्योग, कार्य-संपादन । रेखा ( सामु०) भाग्य-विधान, तकदीर ।। कर्म-हीन-वि० (सं०) जिससे शुभ कर्म "कर्म-रेख नहिं मिटति-मिटाये।" न बन पड़े, प्रभागा। संज्ञा, स्त्री० कर्मकर्मवाच्य-कर्मवाचक-(क्रिया) संज्ञा, हीनता । " कर्म हीन नर पावत नाहीं।" स्त्री० (सं० ) वह क्रिया जिसमें कर्म प्रधान -रामा० । For Private and Personal Use Only Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कलई - -दीन। कार कर्मार-संज्ञा, पु० ( सं० ) लौहकार, वंश, | का कल्कि अवतार (पु०)... "रंकिनि कलं. कमरख, बाँस । किनि कुनारी हौं-" मीरा । कर्मिष्ठ-वि० (सं०) कार्य-कुशल, कर्मनिष्ठ । कलगा-संज्ञा, पु० (दे० ) शिरोभूषण । कर्मी-वि० ( सं० कर्मिन् ) कर्म करनेवाला, स्त्री० कलँगी, कलगी (दे०)। फल की इच्छा से यज्ञादि कर्म करने वाला, कलंज-संज्ञा, पु. (सं० कलं+जन्+ड्) कर्मनिष्ट, भाग्यमान् शुभ कर्मासक्त । यौ० | तमाखू का पौधा, हिरन, एक पक्षी, पक्षीकर्मी-धर्मी-धर्म-कर्म करने वाला। मांस, १० पल की तौल । कर्मेंद्रिय-संज्ञा, स्त्री. यो. (सं० ) क्रियायें | कलंदर-संज्ञा, पु० ( ० ) जग-विरक्त करने वाले अंग, ये ५ हैं-हाथ, पैर, मुसलमान साधु, मदारी, रीछ और बंदर वाणी, गुदा, उपस्थ। नचाने वाला ।......."अहो कलंदर लोभ " कर्रा-वि० (हि.) कड़ा, कठिन, सख़्त ।। संज्ञा, पु० जुलाहे का एक, यंत्र, कर्धा। | कलंदरा-संज्ञा, पु. (सं० ) एक प्रकार का कर्राना* अ० कि० (हि० कर्रा) कड़ा रेशमी कपड़ा, तंबू का अँकुडा, गुद्दड़ । होना, सख़्त होना। कलंब-संज्ञा, पु० (सं०) शर, शाक का कर्ष संज्ञा, पु० सं०) १६ माशे का एक डंठल, कदंव ।। मान, एक पुराना सिक्का, सिंचाव, जोताई, कलंबिका-संज्ञा, स्त्री० (सं०) गले के पीछे ( लकीरादि) खींचना, जोश, विरोध ।। की नाड़ी, मन्या। "बातहि बात कर्ष बढ़ि गयऊ-रामा० । | कल-संज्ञा, पु. ( सं० ) अव्यक्त मधुरध्वनि, कर्षक-संज्ञा, पु. (सं० ) खींचने वाला, वीर्य । वि. प्रिय, सुन्दर, मधुर । संज्ञा, स्त्री० जोतने वाला, किसान। (सं० कल्य ) आरोग्य, पाराम, सुख, चैन, ( विलोम-बेकल)। मुह०-कल सेकर्षण-संज्ञा, पु. ( सं० कृष् । अनट् ) | चैन से, धीरे धीरे। संज्ञा, पु. संतोष । खींचना, खरोंच कर लकीर डालना, जोतना, क्रि० वि० (सं० कल्य) श्रागामी या आने कृषि-कर्म। वि० कर्षणीय, कर्षित, कर्ण्य । वाला ( भविष्य ) दूसरा दिन, गया या कर्षना-स० क्रि० (दे० ) खींचना । बीता हुआ दिन (भूत) । मु०-कल का कर्षफला-संज्ञा स्त्री० यौ० (सं० कर्ष+ -थोड़े दिनों का । लो०-'कल कभी फल+म.) आमलकी वृक्ष, बहेड़ा। नहीं पाता' । संज्ञा, स्त्री० (सं० कला) कर्षा-संज्ञा, स्त्री० (दे० ) कर्षण (सं०) श्रोर, बल, पहलू , अंग, पुरज़ा, युक्ति, ढंग, उत्साह, क्रोध, जोश। पेंचों और पुरजों से बना यंत्र । यौ० वि० कहचित्--अव्य. (सं०) किसी समय, कलदार—कल या यंत्र से बना हुआ कदाचित् । पेंचदार । संज्ञा, पु०-रुपया. पेंच, पुरज़ा। कलंक-संज्ञा, पु. (सं०) दाग, धब्बा, मु०-कल ऐंठना (घुमाना)-किसी के चंद्रमा का काला दाग, काजल, लांछन, ऐब, चित्त को किसी ओर फेरना । बंदूक का घोड़ा दोष, बदनामी । वि० कलंकित-लांछित, या चाप । वि० (हि.) काला का संक्षिप्त दोषयुक्त, दाग़ी। रूप (यौगिक में ) जैसे-कलमुँहा। कलंकी--वि० (सं० कलंकिन् ) दोषी, अप- कलई-संज्ञा, स्त्री० (अ.) राँगा, राँगे का राधी, बदनाम, स्त्री० कलंकिनी-कलं- पतला लेप, जो बरतनों पर चढ़ाया जाता किनि । संज्ञा, पु० (सं० कल्कि ) कलयुग है, मुलम्मा, रंग चढ़ाने और चमकाने के For Private and Personal Use Only Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४२१ कलईदार कलपना लिये वस्तुओं पर चढ़ाया जाने वाला लेप आदि चिड़ियों के पगड़ी, ताज आदि पर ( मसाला ) बाहिरी चमक-दमक, तड़क- लगाये जाने वाले पर, मोती, सोने, चाँदी भड़क, चुना, भेद । मुहा०-कलई करना | आदि से बना शिरोभूषण, पत्तियों के सिर (चढ़ाना ) असली बात छिपाना और की चोटी, इमारत का शिखर, लावनी का उसे दूसरे चमत्कृत या झूठे रूप में रखना। एक ढंग। कलई खुलना-असली भेद या रूप प्रगट कलचुरि- संज्ञा, पु० (सं० ) दक्षिण का होना । कलई खोलना-- वास्तविक रूप | एक प्राचीन राजवंश । या बात का प्रगट कर देना। कलई न कलछा-संज्ञा, पु० दे० (सं० कर+रक्षा) लगना ( चढ़ना ) झूठी युक्ति न चलना । बड़ी डांड़ी का चम्मच, संज्ञा, स्त्री० कलछी चूने का लेप, सफ़ेदी। ( अव्य. ) चम्मच, दालादि चलाने या कलईदार-वि० (फा) कलई या राँगे का डालने की चमची। लेप चढ़ा हुआ। कलजह वा--वि० दे० कलूटा, कलछांह । कलकंठ---संज्ञा, पु० यौ० ( सं०) कोकिल, | कलजिभा-वि० (हि. काला+जीभ ) पारावत, हंस, परेवा । वि. मधुर, मृदु ध्वनि काली जीभ वाला, जिसकी अशुभ बातें करने वाला, सुंदर कंठ वाला । स्त्री० प्रायः ठीक उतरें, कलजोहा (दे० )। कलकंठी। कलजिन - वि० (सं०) द्वेषी, हिंसक, पापी। कलक-संज्ञा, पु. ( अ० कलक ) बेचैनी, कलमांवा- वि० दे० (हि० काला + झांई) रंज, घबराहट, खेद, पश्चात्ताप, दुख, काले रंग का, साँवला। कल्क (दे० )। कलत्र-संज्ञा, पु. ( सं० कल+त्र) स्त्री, कलकना*-अ० कि० (दे०) कलक होना, | __भार्या, नितम्ब, किला । यौ० कलत्र-लाभ चिल्लाना, शोर करना, खटकना, पछतावा पत्नी-लाभ, विवाह । होना, चीत्कार करना। कलधृत-संज्ञा, पु० (सं) चांदी। कलकल- संज्ञा पु० यौ० (सं० ) झरने कलधौत-संज्ञा, पु० (सं० ) सोना, चाँदी, श्रादि से जल गिरने या बहने का शब्द, कलध्वनि, सुमधुर शब्द "कोटि करौं कलकोलाहल । संज्ञा, स्त्री. (दे०) झगड़ा, । धौत के धाम......” रस० । बाद-विवाद, खुजली, राल । कलन-संज्ञा, पु. (सं० ) उत्पन्न करना कलकान-कलकानि $-संज्ञा स्त्री० दे० बनाना, धारण करना, आचरण, लगाव, (अ० कलक) विकृत, हैरानी, कलह, चिंता, संबन्ध, गणित की क्रिया-संकलन, व्यवपरेशानी।..." नितके कलकान ते छूटिबो कलन, ग्रास, कौर, शुक्र-शोणित का गर्भ है"-हरि० । संज्ञा, स्त्री० यौ० (दे० ) की प्रथम रात्रि का विकार जिससे कलल सुन्दर मर्यादा । बनता है। कलकूजक–वि. पु. ( सं०) मधुर ध्वनि कलप-संज्ञा, पु० दे० (सं० कल्प) कलफ़, करने वाला। स्त्री० कलकूजिका । वि. खिजाब, कल्पना, दुख, कल्प । कलप कलकूजित । संज्ञा, पु० यौ० (सं०) कल- करना-काट देना "..... करै जो सीस कलप्प " कबी०। कलगा-संज्ञा, पु० दे० ( तु. कलगी ) मरसे कलपना-अ. क्रि० दे० (सं० कल्पन ) जाति का एक पौधा, जटाधारी, मुर्गकेश । | बिलखना, विलाप करना, कुढ़ना, कल्पना कलगी-संज्ञा, स्त्री. (तु.) शुतुरमुर्ग, मोर करना । स० कि. (सं० ) काटना, छांटना। कूजन । For Private and Personal Use Only Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कलपाना ४२२ कलवरिया संज्ञा, स्त्री० दे० कल्पना । विलाप, रचना, कलम-कसाई-संज्ञा, पु. यौ० (अ०) लिखअध्यारोप, अनुमान। पढ़ कर हानि करने वाला। कलपाना-स० कि० ( हि० कल्पना ) दुखी कलम-कार-संज्ञा, पु. ( फा) चित्रकार, करना, दुखाना, तड़पाना, तलफाना, नक्काशी या दस्तकारी करने वाला । संज्ञा, कुढ़ाना, तरसाना । "कल देवेगा, कल स्त्री० (फा) कलमकारी-चित्रकारी, पावेगा, कलपावेगा कलपावेगा"-यौ० रंगसाज़ी, नक्काशी, दस्तकारी। ( कल+ पाना ) श्राराम पाना । कलम-तराश-संज्ञा, पु० (फा) कलम कलफ़-संज्ञा, पु० दे० (सं० कल्प) चावलों बनाने का चाक । की पतली लेई जिसे कपड़ों पर उनकी तह कलमदान-संज्ञा, पु० ( फा) कलम-दवात कड़ी करने और बराबर करने के लिये धोबी आदि रखने का डिब्बा । कलमकल-संज्ञा, स्त्री० ( दे० ) घबराहट, लगाते हैं, माँड़ी, चेहरे के दाग, झांई। कलबल-संज्ञा, पु० दे० (सं० कला+बल) दुःख, कसमकस, बेकली। कलमना-स० क्रि० (हि० कलम) काटना, उपाय, दाँव-पेंच, छल, युक्ति । संज्ञा, पु० छांटना, कलम करना। ( अनु० ) शोर-गुल । वि. अस्पष्ट स्वर । कलमलना*-अ. क्रि० ( अनु०) कुलकलबूत--संज्ञा, पु० दे० (फा. कालबुद ) बुलाना, दबाव से अंगों का हिलना । प्रे० ढांचा, सांचा, लकड़ी का ढाँचा जिस पर रू. (स० क्रि०) कलमलाना-कुलबुलाना चढ़ा कर जूता सिया जाता है, फरमा, टोपी, “अहि, कोल, कूरम कलमले"---रामा० । या पगड़ी का गुंबदनुमा ढांचा, गोलंबर, | कलमा-संज्ञा, पु. (अ.) वाक्य, मुसलकालिब । “ पूरे कलबूत से रहेंगे सब ठाढ़े मान-धर्म का धार्मिक मूल मंत्र, 'ला इलाह तब '...दीन। ईल्लिल्लाह महम्मद रसूलिल्लाह, कुरान । कलभ-संज्ञा, पु० (सं० ) करभ, हाथी या मुहा० कलमा पढ़ना (पढ़ाना) मुसलऊँट का बच्चा। मान होना ( करना )। यौ० कलमाकलम-संज्ञा, पु. ( स्रो०) (अ० सं० ) कुरान । लेखनी, (लिखने की ) किसी पेड़-पौधे की | कलमी-वि० (फा ) लिखा हुश्रा, लिखित, टहनी जो कहीं अन्यत्र बैठाने या दूसरे पेड़ जो कलम लगाने से पैदा हो, (कलमी प्राम) में पैबंद लगाने के लिये काटी जाय । क़लम या रवा वाला ( कलमी शोरा )। मु० कलम चलाना—(चलना) लिखना, कलमुँहा-वि० (दे० ) काले मुख वाला, लिखाई करना । कलम तोड़ना-लिखने दोषी, कलंकित । अभागा ( गाली)। की हद कर देना, अनूठी उक्ति कहना। कलरव-संज्ञा पु० यौ० (सं० ) मृदु मधुर मुहा० कलम करना-काटना, छांटना। स्वर, जन-समूह का अस्पष्ट शब्द, कूजन, संज्ञा, पु० जड़हन धान, कनपटियों के पास गुंजन, कोकिल, कपोत । के बाल ( कान के ऊपर के ), चित्रकारों की | कलल-संज्ञा, पु० (सं०) गर्भाशय में रज रंग भरने वाली बालों की कूँची, भाड़ में और वीर्य के संयोग की वह अवस्था जिसमें लटकाया जाने वाला शीशे का लम्बा टुकड़ा एक बुलबुला सा बन जाता है। शोरे-नौसादर का छोटा जमाया लंबा टुकड़ा, कलवरिया-संज्ञा, स्त्री० (हि. कलवार+ काटने खोदने या नकाशी करने का महीन इया- प्रत्य० ) कलवार, शराब की दूकान, औज़ार। __ कलार, एक जाति । For Private and Personal Use Only Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कलवार ४२३ कला कलवार-संज्ञा, पु० दे० (सं०-कल्यपाल) शरीर की ७ विशेष झिल्लियाँ (श्रायु०) एक शराब बनाने वा, बेंचने वाली जाति, किसी कार्य के करने में कौशल, फ्रन, हुनर, कलार, शुण्डी, कलाल । काम-शास्त्र की ६४ कलायें, मानव देह के कलविंक-संज्ञा, पु० (सं) चटक, गौरैय्या आध्यात्मिक १६ विभाग, ५ ज्ञानेन्द्रियाँ, पक्षी, तरबूज़, सफ़ेद चँवर। ५ कर्मेन्द्रियाँ, ५ प्राण, १ मन, बुद्धि, सूद, कलश, (कलस, कलसा)- संज्ञा, पु० जिह्वा । स्त्री का रज, विभूति, शोभा, तेज, सं० (दे०) घड़ा, गगरा, मंदिर चैत्यादि छटा, प्रभा, कौतुक, खेल, लीला, छल, का शिखर, मन्दिरों-मकानों आदि के ऊपर धोखा, ढङ्ग, युक्ति, नटों की एक कसरत के कँगूरे। संज्ञा, स्त्री० ( अव्य० ) कलशी | जिसमें खिलाड़ी सिर नीचे कर उलटता है, (कलसी, कलसिया) गगरी, गागरि, गग- करतब, ढेकली, यंत्र, पेंच, एक वर्णवृत्त । रिया, घइलिया, घैला (दे०)। ६४ कलायें -१ गीत-( स्वरग, पदग, कलहंतरिता-कलहांतरिता-संज्ञा, स्त्री० लयग, अवधानग) २ वाद्य-३ नृत्यदे० ( सं० कलह + अंतरित + आ ) वह (नाट्य या अभिनय, अनाव्य या नृत्त) नायिका जो अपने नायक या पति का अप- ४ आलेख्य-(चित्रकला)-(इसके ६ मान करके पछताती है। अंग हैं-रूप, प्रमाण, भाव, सौंदर्य, कलहंस-संज्ञा, पु० (सं० ) हंस, राजहंस, । सादृश्य, चित्रण वैचित्र्य और रङ्ग-संनिवेश, श्रेष्ठ राजा, परमात्मा, एक वर्णवृत्त, ब्रह्म, ५ विशेषकच्छेद्य-( तिलक के साँचे क्षत्रियों की एक शाखा । बनाना) ६ तंडुल-कुसुमावलि-विकार कलह-संज्ञा, पु० (सं० ) विवाद, म्यान, ---पुष्प-चावलों से विविध प्रकार के साँचे रास्ता, झगड़ा । वि. कलही। यौ० कलह-प्रिय-संज्ञा, पु. (सं०) नारद । भूषणादि बनाना, ७ पुष्पास्तरण-पुष्पवि० लड़ाका, झगड़ालू , लड़ाई-पसन्द । शय्यादि रचना ८ दशनवसनाङ्गराग" कुटिल कलह-प्रिय इच्छाचारी " सँवारना, ६ मणिभूमिका-कर्म-फर्श सजाना. १०शयनरचना-पाचक शय्या रामा० । कलहकारी--वि० (सं०) झगड़ा करने वाला । स्त्री० कलहप्रिया, कलह बनाना, ११ उदकवाद्य - जलतरङ्ग कारिणी। बजाना, १२ उदक घात-पानी से चोट कलहारा*-वि० दे० (सं० कलहकार ) पहुँचाना, १३ चित्र योग-रूप बदलना, लड़ाका, झगड़ालू । स्त्री० कलहारी १४ माल्य-ग्रन्थ-विकल्प-विविध प्रकार कर्कशा। के हार बनाना, १५ शेखरक पीड़ योजन कलही-वि० दे० (सं० ) लड़ाका । स्त्री० -पुष्पकृत शिर-शृंगार, २६ नेपथ्य-प्रयोग कलहिनी। -देशकालानुसारवस्त्रादि धारण १७ कला-वि० (फ़ा० ) बड़ा, दीर्घाकार । कर्णपत्रभंग-हाथी-दाँत और शंख से कला-संज्ञा, स्त्री. (सं० ) अंश, भाग, गहने श्रादि बनाना, १८ गन्ध-युक्तिचन्द्रमा का १६ वाँ भाग, सूर्य का १२ वाँ सुगंधियों का बनाना, १६ अलङ्कार-योगभाग, अग्निमंडल के दस भागों में से एक, । ( संयोग्य-असंयोग्य ) श्राभूषण बनाना, एक समय-विभाग जो ३० काष्ठा का होता २० ऐन्द्रजाल-बाज़ीगरी, २१ कौचुहै, राशि के ३० वें अंश का ६० वाँ भाग, मार योग-सुन्दरता की कला, २२ हस्तवृत्त का १८०० वाँ भाग, राशि-चक्र के एक लाघव-२३ पाक विद्या (कला)-- अंश का ६० वाँ भाग, मात्रा (पिङ्ग०)भषय-क्रिया, भोजन-कला, २४ पानस For Private and Personal Use Only Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - कला ४२४ कलापिनी रसासव योग-पासवादि बनाना, २५ | धतक्रीड़ा-ई. अाकर्ष क्रीडा-पांसे सूचीवान कला-सुईकारी, सिलाई ।। का खेल । ६१ बाल क्रीड़नक-गुड़ियों २६ सूची-क्रीड़ा-एक सूत से अनेक का खेल । १२ वैनयिको-प्रश्वादि को वस्तुये बनाना, २७ वीणाडमरुवाद्य- गति सिखाना । ६३ व्यायामिकी२८ प्रहेलिका -२६ प्रतिमाला-(अंता- वैजयिकी-व्यायाम कला । ६४ शिल्प तरी विवाद) ३० कुर्वाचक या कूट योग कला । संज्ञा, स्त्री. शिव, नौका, ज्योति, -दृष्टिकूट रचना या उलझाना ३१ | बहाना । वाचन-राग से पठन, ३२ नाटका- कलाई.-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० कलाची) ख्यायिका दर्शन -३३ समस्या पूर्ति मणिबंध, गट्टा, प्रकोष्ट । संज्ञा, स्त्री. (सं. -( काव्य कला )-(त्रिपद. मूक आदि कलाप ) सूत का लच्छा, कुकरी, कलावा, समस्यायें बनाना), ३४ पट्टिकावान दाल । विकल्प-पलंग-कुरसी आदि बिनना,कलाकंद-संज्ञा, पु. ( फा० ) खोए और ३५ तक्ष कर्म-तक्षण या बढ़ई की | मिश्री की बरती। कला, ३. वास्तु या निर्माण कला- कलाकर-संज्ञा, पु. ( सं० ) चन्द्रमा, राजगिरी, ३७ रूप्परत्न-परीक्षा-३८ वृक्ष विशेष । धातुवाद-कीमिया गीरो (धातु-शोधन, कला-कौशल -- संज्ञा, पु. यौ० (सं० ) मिश्रणादि ) ३६ मणि रागाकरज्ञान- किसी कला में निपुणता, दस्तकारी, हीरादि की खान जानना, ४० वृक्षायुर्वेद कारीगरी, शिल्प। योग-वृक्षरोपणादि कला, ४१ सजीव. | कलाद-संज्ञा, पु० (सं०) सुनार । संज्ञा,* धत- (मेषादि शिक्षण ) पशुओं को पु० दे० (सं० कलाप) कलादा--हाथी की सिखाना । १२ शुक-सारिका-प्रलापन- गर्दन परमहावत का स्थान, किलावा (दे०)। ४३ उत्सादन-देह दाबना। ४४ अक्षर कलाधर संज्ञा, पु० (सं०) चंद्रमा, शिव, मुष्टिका कथन-गुप्त बातों के संकेत । कलायों का ज्ञाता, दंडक छंद का एक भेद। ४५ म्लेच्छित विकल्प-सांकेतिक शब्दों कलापूर्ण। का ज्ञान । ४६ देश-भाषा-विज्ञान- कलाना-अ० कि० (दे०) भूनना, अकोरना। अन्य देश की भाषायें जानना। ४७ पुष्प कलानिधि-संज्ञा, पु. यौ० (सं०) चंद्रमा . शकटिका-फूलगाडी रचना । ४८ कलानाथ। निमित्त-ज्ञान-प्राकृतिक बातों या | कलाप--संज्ञा, पु. (सं० कला-+-पा+ड्) पशुओं आदि की चेष्टा, वाणी से भावी समूह, ढेर, भुंड, मोर की पूंछ, पूला, मुठ्ठा, शुभाशुभ कथन । ४६ यंत्र-मंत्रिका- तरकश, बाण, कमरबन्द, पेटी, करधनी, गमन वृष्टि, युद्ध आदि के सजीव निर्जीव चंद्रमा, व्यापार, वेदकी शाखा, एक रागिनी, यंत्र रचना । ५० धारणमात्रिका- अर्ध चंद्राकार अस्त्र, भूषण, कातंत्र व्यास्मृति वर्वन कला। ५१ संपाद्य-अश्रुत करण । बात कहना । ५२ मानसी-मन की बातें | कलापक-संज्ञा, पु० (सं० ) समूह, पूला, बताना । ५३ काव्य क्रिया-५४ अभि- हाथी के गले का रस्सा, चार श्लोकों का धान कोष-शब्दार्थ निरूपण । ५५ (जिनका धन्वय साथ हो) समूह, मयूर । ईद कला-१६ क्रिया कल्प-५७ | कलापिनी-संज्ञा, स्त्री. (सं० ) रात्रि, छलित-ठगना-५८ वस्त्रगोपन-५६ | मोरनी। For Private and Personal Use Only Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org कलापी कलापी - संज्ञा, पु० ( सं० कलापिन् ) मोर, कोयल । वि० तरकसबंद, झुंड में रहने वाला | संज्ञा, पु० वटवृक्ष | कलाबत्त - संज्ञा, पु० दे० ( तु० कलाबतून ) सोने-चांदी आदि का तार जो रेशम के साथ ४२५ बटा जाय । कलाबाज़ - वि० (हि० कला + बाज़ -- फा० ) कला करने वाला, नट | संज्ञा, स्त्री० कलाबाज़ी - नट-क्रिया, खेल, कलैया । कलामृत - संज्ञा, पु० (सं०) चंद्रमा, शिव । कलामुख | कलाम -- संज्ञा, पु० ( ० ) वाक्य, वचन, बातचीत, कथन, वादा, उज्र, एतराज़ | कलार - कलाल-संज्ञा, पु० दे० (सं० कल्यपाल ) कलवार । स्त्री० कलारिन, कलाली । स्त्री० कलारी - कलार का काम । "दूध कलारी हाथ लखि” – वृंद० । कलावंत - संज्ञा, पु० दे० (सं० कलावान् ) संगीतज्ञ, गवैया, कथक, कलाबाज़, नट । वि० कलाओं का ज्ञाता । स्त्री० कलावती - शोभावाली, कलाकुशला । वि० कलावान्, गुणी, कला कुशल | कलावा - संज्ञा, पु० दे० (सं० कलापक ) सूत का लच्छा, विवाहादि में हाथों या घड़ों पर बाँधने का लाल-पीले सूत का लच्छा, हाथी की गरदन । कलिंग – संज्ञा, पु० (सं० ) मटमैले रंग की एक चिड़िया, कुलंग, कुटज, कुरैया इंद्रजव, सिरस का पेड़, पाकर वृक्ष, तरबूज़, कलिंगड़ा राग, गोदावरी और बैतरणी नदियों के बीच कलिंगड़ा - संज्ञा, पु० दे० (सं० कलिंग ) दीपक राग का पुत्र एक राग, रात का राग, कलिंग वासी । कलिंद - संज्ञा, पु० (सं० ) बहेड़ा, सूर्य, एक पर्वत जिससे यमुना नदी निकली है । संज्ञा, स्त्री० कलिंदजा -- (सं० कलिंद + जा ) यमुना नदी । कालिंदी, कलिंदी (दे० ) । भा० श० को ०-१४ कलिल कलि- संज्ञा, पु० (सं० ) बहेड़े का फल या बीज, कलह, शिव, विवाद, पाप, पापानीत प्रधान चौथा युग, ८ गण का एक भेद, ( पिं० ) सूरमा, वीर, क्लेश, दुख, युद्ध । " कलि कलेस, कलि सूरमा, कलि निषंग, संग्राम | कलि कलिजुग यह थान नहि, केवल केशव नाम नम | त्रि० (सं०) श्याम, काला । यौ० कलिकाल - कलियुग । कलि-मल - कलि के कुकर्म, पाप । कलिमलसरि कर्मनासा नदी । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कलिका -संज्ञा, खो० (सं० ) बिना खिला फूल, कली । (कलि – दे० ) वीणा का मूल, एक प्राचीन बाजा, एक छंद, मुहूर्त, अंश, मँगरैल | कलिकान - वि० (दे० ) हैरान परेशान, संज्ञा, स्त्री० कलिका का ब० व० ब्र० भा० । कलित - वि० (सं० ) विदित ख्यात, विकसित, खिला हुआ, प्राप्त, गृहीत, सुसज्जित, सुन्दर, रुचिर, युक्त | 'कुंजर-मनि कंठाकलित " कलिया संज्ञा, पु० ( ० ) रसेदार भूना और पका मांस | संज्ञा, स्त्री० कलियाँ - कली का ब० व० । कलियाना - अ० कि० दे० ( हि० कली ) कलियों का निकलना, कली-युक्त होना, नये पंख निकलना (पक्षियों के), फूलना । कलियारी - संज्ञा, स्त्री० ( हि० कलिहारी ) एक विषैली जड़वाला पौधा । कलिहारी । कलियुगाद्या – संज्ञा, स्त्री० (सं० ) कलियुगारम्भ का दिन, माघ की पूर्णिमा । कलियुगी - वि० (सं० ) कलियुगका, दुराचारी, पापी । I कलिवर्ज्य - वि० यौ० (सं० ) जिन कार्यों का करना कलि में निषिद्ध है - जैसे अश्वमेध | 66 For Private and Personal Use Only - तु० --- कलिल - संज्ञा, पु० ( दे० ) राशि, कीचड़, दलदल । वि० घना, मिश्रित t Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org कलौंदा कलींदा ( कलिंदा ) – संज्ञा, पु० (दे० ) तरबूज़ | हिंद्वाना (दे० ) । कली - संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० कलिका) बिना खिला फूल, कलिका, बोंड़ी, कलई । "ली कली ही मैं रम्यौ - वि० । मु० - दिल की कली खिलना - चित्त प्रसन्न होना | संज्ञा, स्त्री० कुर्ते या अँगरखे आदि में लगाया जाने वाला तिकोना कटा कपड़ा, हुक्के के नीचे का भाग, ( अ० कुलई ) पत्थर, सीपादि का फुंका हुआ भाग, चूना । कलीरा - संज्ञा, पु० ( दे० ) कौड़ियों और छुहारों की माला जो विवाह में दी जाती है । कलीसिया – संज्ञा, पु० ( यू० इकलिसिया ) ईसाइयों या यहूदियों को धर्म-मंडली । कलुवावीर - संज्ञा, पु० यौ० ( हि० ) एक टोना-टाबर का देवता । कलुष - कलुख – संज्ञा, पु० (सं०) मलिनता, पाप, दोष । वि० ( स्त्री० कलुषा, कलुषी ) मैला, दोषी, निंदित । वि० कलुषित, दुष्कृती, पापी । स्त्री० कलुषिता । कलुपाई -संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० कलुष + भाई - प्रत्य० ) चित्त की मलीनता, अपवित्रता, दोष । कलुषी - वि० स्रो० (सं०) दोषी, मलिना । वि० पु० गंदा, मैला, पापी, निंदित, दूषित । कलूटा - वि० दे० ( हि० काला + टा - प्रत्य० ) काला, स्त्री० कलूटी। कलेऊ - ( कलेवा ) - संज्ञा, पु० (दे० ) जलपान, प्रातः काल का सूक्ष्म भोजन, संबल, बासी, विवाह में बर का ससुराल में भोजन, पाथेय । 68 करन कलेऊ हेतु पठावौ रामकले० । मु० - कलेवा करना- -खा जाना, मार डालना । कलेजा - संज्ञा, पु० दे० शरीर में रक्त संचारक बाईं ४२६ (सं० यकृत् ) ओर का एक Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कलेवर -भय भीतरी अवयव, दिल, करेजो ( ब्र० ) । साहस, छाती, जीवट ( दे० ) । मुहा० कलेजा उलटना वमन से जी घबराना, होश न रहना । ( हाथों, बांसी) कलेजा उछलना- उमंग या उत्साह होना । कलेजा काँपना -जी दहलना, डर लगना । कलेजा टूक टूक होना शोक से हृदय विदीर्ण होना, कलेजा टंढा करना ( होना ) - संतुष्ट करना ( होना ) । कलेजा जलाना - दुख या पीड़ा देना । कलेजा थाम कर रह जाना -- मन मसोस कर या शोक के वेग को रोक कर रह जाना । कलेजा धक धक करना - भयभीत होकर काँपना । कलेजा धड़कनासे काँपना, व्याकुल होना, चिंता होना, खटका होना । कलेजा निकाल कर रखना - प्रतिप्रिय वस्तु देना, हृदय की बात खोल कर रखना । कलेजा पक जाना -- दुख सहते सहते तंग आना या ऊबना । पत्थर का कलेजा - कठोर हृदय, कड़ा दिल | कलेजा पत्थर करना - हृदय को कड़ा कर दुख सहने को तैयार करना । कलेजा फटना - दुख देख कर मन को अति कष्ट होना । कलेजा बैठ जाना - तीणता से देह - दिल की शक्ति का मंद पड़ना | कलेजा मुँह को ( तक ) आना-जी घबराना, ऊबना, व्याकुल होना । कलेजा हिलना ( दहलना ) - भयभीत हो काँपना । कलेजे पर सांप लोटनाकिसी दुखद बात के याद आने पर एकबारगी शोक छा जाना । कलेजे से लगाना-- भेंटना, थालिंगन करना, गले लगाना । स्त्री० कलेजो - बकरे यादि के कलेजे का मांस | For Private and Personal Use Only -- कलेवर - संज्ञा, पु० (सं०) शरीर, ढाँचा, देह, चोला, आकार । मुहा०—कलेवर बदलना - एक शरीर Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org कलेस छोड़ दूसरे में जाना, रूपान्तर करना, पुरानी मूर्ति के स्थान पर नई मूर्ति स्थापित करना ( जगन्नाथ जी की ) । कलेस – संज्ञा, पु० (दे० ) क्लेश (सं० ), दुख | कलैया - संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० कला) कलाबाजी । 0 1 कलोर - कलोरी - संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० कल्या ) बिना बरदाई या व्याई हुई जवान गाय । ..." बगरे सुरधेनु के धौल कलोरे " - कवि० कलोल - संज्ञा, पु० दे० (सं० कल्लोल ) केलि, क्रीड़ा, श्रामोद-प्रमोद अ० क्रि० (दे० ) कलोलना - क्रीड़ा, केलि करना । कलोलिनी - वि० ( सं० कल्लोलिनी ) कलोल या क्रीड़ा करने वाली, लहराती, प्रवाहित | संज्ञा, स्त्री० नदी । 'स्फुरन्मौलि कल्लोलिनी चारु गंगा : रामा० । कलौंजी -- संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० कालाजाजी) मसाले के महीन काले दाने की कलियों का एक पौधा, मगरैल, मरगल, एक प्रकार की तरकारी । 66 कलौंस -- वि० दे० ( हि० काला + औंस -- प्रत्य० ) कालिमालिए, स्याहीमायल | संज्ञा, पु० कालापन, कलंक । कल्क – संज्ञा, पु० (सं०) चूर्ण, पीठी, गूदा, दंभ, पाखंड, शठता, मैल, ( कान का ) कीट, विष्टा, पाप, अवलेह, भीगी श्रोषधियों को बारीक पीस कर बनाई गई चटनी, बहेड़ा । यौ० कल्कफल - अनार । कल्की - ( कल्कि ) संज्ञा, पु० (सं० ) विष्णु का १० वाँ अवतार जो ( मुरादाबाद ) में कुमारी कन्या के गर्भ से होगा । वि० पापी, अपराधी, कलंकी । कल्प - संज्ञा, पु० (सं० ) विधान, विधि, कृत्य ( जैसे प्रथम कल्प ) यज्ञादि के विधान वेद के छः अंगों में से एक, प्रातः काल, रोग-निवृत्ति की एक युक्ति ( जैसे संभल वाला, ૪૨૭ कल्मष 66 केश कल्प, काया कल्प ) प्रकरण, विभाग, १४ मन्वंतर या ४३२००००००० वर्षोंवाला ब्रह्मा का एक दिन या समय का एक विभाग, प्रलय, अभिप्राय, ' निमिष विहात कल्प सम तेही "रामा० । वि० तुल्य, समान ( जैसे देव -कल्प ) | कल्पक-संज्ञा, पु० (सं० ) रचने वाला, नाई, कचूर | वि० काटने वाला । कल्पकार -- संज्ञा, पु० (सं० ) काव्यशास्त्र का रचयिता । कल्पतरु - संज्ञा, पु० (सं० ) कल्पवृत्त, कल्पद्रुम, अभिलषित फल देने वाला एक देव - वृक्ष जो समुद्र से १४ रत्नों के साथ निकला था । दीर्घ जीवी महान वृक्ष, Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विनश्वर पेड़, गोरख इमली । कल्पशाखी । कल्पना - संज्ञा, स्त्री० (सं० ) रचना, बनावट, सजावट, इंद्रियों के सम्मुख अनुपस्थित वस्तुनों के स्वरूपादि को उपस्थित करने वाली अन्तःकरण की एक शक्ति, उद्भावना, अनुमान, किसी वस्तु पर अन्य वस्तु का श्रारोप, अध्यारोप, फ़र्ज़ करना, मनगढंत बात । - यौ० संज्ञा, स्त्री० कल्पनोपमाएक प्रकार की उपमा ( के० ) । कल्पवास - संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) माघ मासभर गंगा तट पर संयम से रहना । कल्पसूत्र - संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) यज्ञादि कमों के विधान का सूत्र-ग्रंथ । कल्पान्त - संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) प्रलय, संहार या युगान्त काल, ब्रह्मा का दिवसावसान कल्पान्तस्थायिनोगुणाः " य० वि० कल्पान्तस्थायी - अक्षय्य, चिरस्थायी । कल्पित - वि० सं० क्लिप् + ) रचित, श्रारोपित, बनावटी फ़र्जी, मनगढंत, कल्पना किया हुआ, कृत्रिम, नक़ली । कल्मष -संज्ञा, पु० (सं० ) पाप, अधर्म, मैल, एक नरक, पीब, मवाद | कलमख (दे० ) | .. For Private and Personal Use Only Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कल्माष ४२८ कवरना कल्माष-संज्ञा, पु० (सं० कल् + मष् + | कल्लोल-संज्ञा, पु० (सं० ) लहर, तरंग, घल् ) काला, रंग-विरंगा, चितकबरा, क्रीड़ा, आमोद-प्रमोद, हर्ष, हिलोर, कलमाष (दे०)। उमंग, कलोल (दे० ) वि० सी० कल्य-संज्ञा, पु० (सं० कल् +य ) सबेरा, | कर नोलिनी-नदी। भोर, प्रत्यूष, प्रातःकाल, कल (दे०) अगला कल्ह ( क )-क्रि० वि० (दे०) कल, या पिछला दिन, मधु, शराब । काल्हि (दे० )। कल्यपाल-संज्ञा, पु० (सं०) कलवार। कल्हरना-अ० कि० दे० (हि० कड़ाह+ कल्या-संज्ञा, स्त्री० (सं०) देने योग्य बछिया ना--- प्रत्य०) कड़ाही में तला जाना, भुनना, या कलोर । कराहना ( दे० ) अ० कि० (सं० कल्लकल्याण-संज्ञा, पु० (सं०) मंगल, शुभ, । शोक करना ) दुःख से चिल्लाना। भलाई, सोना, एक प्रकार का राग । कल्हण संज्ञा, पु. (सं० ) काश्मीर का वि० भच्छा, भला । स्त्री० कल्याणी । इतिहास राजतरंगिणी के लेखक ( सन् कल्यान*-(दे०) यौ० कल्याणभार्य ११४८ ई. ) एक संस्कृत-कवि । (पु.) वह जिसकी स्त्री मर गई हो। कल्याणवर्मन्-बराह मिहिर के सम कल्हार--संज्ञा, पु० (सं०) एक पुष्प कमल । कालीन ( सन् १७८ ई. ) एक प्रसिद्ध कल्हारना—स० क्रि० दे० ( कल्हरना) ज्योतिषी, इनका ग्रंथ साराली है। कड़ाही में भूनना, तलना। अ० क्रि० (दे०) कल्याणी-वि० (सं०) स्त्री० कल्याण कराहना, क्रन्दन करना। करने वाली, सुन्दरी। कवच-संज्ञा, पु० (सं०) आवरण, छाल, कल-वि० (दे०) बहरा, बधिर (सं.)। युद्ध में योद्धाओं के पहिनने का लोहे की कल्लर-संज्ञा, पु० (दे०) देह, नोना जाली का एक पहिनावा, जिरह-बक़तर, मिट्टी, उसर, बंजर, कल्हर । सन्नाह (सं० ) वर्म, झिलम (दे०) कल्लांच-वि० दे० (तु. कल्लाच ) लुच्चा, शरीरांग-रक्षार्थ मन्त्रों के द्वारा प्रार्थना गुंडा, दरिद्र । (तंत्र ) ऐसी रक्षा का मंत्र या मन्त्र युक्त कल्ला- संज्ञा, पु० दे० (सं० करीर ) अंकुर, ताबीज, युद्ध का बड़ा नगाड़ा, पटह, डंका, किल्ला, गोंफा, कोपल, बत्ती रहने वाला वि० कवची। लंप का सिरा, बर्नर (१०) संज्ञा, पु. कवन ( कौन )-सर्व० ( दे० ) कौन (फा० ) जबड़ा, जबड़े के नीचे गले तक (हि.) " कवन हेतु वन विचरहु स्वामी" स्थान । वि० दे० (हि० काला) काला । स्त्री० -रामा०। कल्ली। यौ० वि० कल्लतोड़-मुंहतोड़, कवर (कौर)-संज्ञा, पु० दे० (सं० कवल) प्रबल, जोड़-तोड़ का। ग्रास, लुकमा, निवाला, ( फा० ) "पंच कल्लुदराज-वि० (फा० ) मुँहज़ोर, बढ़ कवर की जेंवन लागे"-रामा० । संज्ञा, बढ़ कर बातें करने वाला। संज्ञा, स्त्री. पु० (सं०) केश-पाश, गुच्छा । स्त्री० कवरी, कल्लादराजी। चोटी, जुड़ा । (अं० ) ढकना, प्रावरण । कल्लाना-प्र० क्रि० दे० (सं० कड् या कल्) | कवयी-संज्ञा, स्त्री० (दे० ) एक प्रकार की चमड़े पर जलन लिये हुये कुछ पीड़ा। __ मछली। कल्लापरवर---संज्ञा, पु० (दे०) एक प्रकार कवरना-स० कि० (दे० ) सेंकना, रंचक का भुना चबैना। भूनना। For Private and Personal Use Only Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कवर्ग ४२६ कश्मीर-काश्मीर कवर्ग--संज्ञा, पु० (सं० ) कादि पाँच वर्ण, | कविराज-कविराय - संज्ञा, पु० सं० (दे०) क से ङ तक वर्ण-समूह । श्रेष्ठ-कवि, कविशेखर, कवीन्द्र, भाट, कवल-संज्ञा, पु० (सं० ) मुख में एक | बंगाली वैद्यों की उपाधि, “ राघवबार में रखी जाने वाली खाने की वस्तु, पांडवीय नामक संस्कृत काव्य-ग्रन्थ के कौर, ग्रास गस्सा, कुल्ला। संज्ञा. पु० । लेखक एक कवि (ई. १११६)। ( दे० ) एक पक्षी, घोड़े की एक जाति ।। कविलास-संज्ञा, पु० दे० (सं० कैलास ) स्त्री० कवली-एक मत्स्य । कैलास, स्वर्ग। कवलित-वि० (सं० कवल+क्त ) ग्रसित, कवेला-संज्ञा, पु० (हि. कौवा+ एलाभुक्त, खाया हुआ । वि० कवलीकृत- प्रत्य० ) कौए का बच्चा । कौर किया हुआ, भक्षित । | कव्य-संज्ञा, पु० (सं०) पितृ-यज्ञादि में कवाम (किवाम )-- संज्ञा, पु. ( अ०) | पिंडे का अन्न । यौ० कन्यवाह-संज्ञा, पु० चाशनी, शीरा, पका गाढ़ा रस (तंबाकू | (सं० ) पितृयज्ञ की अग्नि । का अवलेह)। कश- संज्ञा, पु० (सं०) चाबुक । स्त्री० कशा कवायद-संज्ञा, स्त्री. ( अ ) नियम, कोड़ा, रस्सी, हुक्के की दम या फक । व्यवस्था, व्याकरण, सेना के युद्ध-नियम, (कषा) संज्ञा, पु० (फा०) खिंचाव । तथा उनकी अभ्यास-क्रिया। कवि-संज्ञा, पु० (सं०) काव्यकार, कविता यौ० कशमकश-संज्ञा, स्त्री० ( फा० ) खींचातानी, अागापीछा, धक्कमधक्का, सोचबनाने वाला, ऋषि, वाल्मीकि, व्यास, शुक्रा विचार, द्विविधा, भीड़भाड़। चार्य, ब्रह्मा, सूर्य, पंडित, ब्रह्म ..... "कविमनीषी परिभूः स्वयंभूः–वेद०। कशकीर--संज्ञा, पु० (दे० ) कजफील । कविक ( कविका)—संज्ञा, पु. ( स्त्री० । कशाघात--संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) कोड़े ( सं० कविक+पा ) लगाम, केवड़ा। की मार, कशाह-वि० यौ० ( कशा+ कवई-मछली। अर्ह ) चाबुक मारने योग्य, अपराधी। कविता-संज्ञा, स्वी० (सं० ) हृदय पर कशिपु-संज्ञा, पु० ( सं० ) तकिया, प्रभाव डालने वाली सरस, रमणीयार्थ-प्रति- | बिछौना, अन्न, भात, श्रासन, कपड़ा, पादक पद्य, काव्य । संज्ञा, पु. कवित्व प्रह्लाद-पिता। कवि-काव्य का भाव, काव्य-रचना की शक्ति, कशिश--संज्ञा, स्त्री. ( फा० ) श्राकर्षण, काव्य-गुण । संज्ञा, स्त्री० कबिताई ( दे० ) | खिचाव ।। कबिता । ....." बूझहिं केसव की कशीदा ( कसीदा)- संज्ञा, पु० ( फा० ) कविताई"। कपड़े पर सुई तागे से काढ़े हुए बेलबूटों, कवित्त-संज्ञा, पु० दे० (सं० कवित्व) काव्य, शेरों का एक समूह ( काव्य०)। कविता, दंडकान्तर्गत ३९ वर्णों ( १६+ कश्चित-वि. ( सर्व०) (सं० ) कोई १५) का एक वृत्त, मन हरण, घनाक्षरी एक, कोई व्यक्ति । श्रादि, कबित्त (दे०)। ".....'कबित कश्ती ( किश्ती )-- संज्ञा, स्त्री० ( फा० ) प्रबन्ध एक नहिं मोरे"-रामा०। । नौका, नाव, बायना या पानादि बाँटने की कविनासा*-संज्ञा, स्त्री० (दे०) कर्म- छिछली तश्तरी, एक मोहरा ( शतरंज )। नाशा नदी। कश्मीर-काश्मीर-संज्ञा, पु. ( सं० ) कविमाता--संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं० ) प्रकृति-सौंदर्य, केसर तथा शालों के लिये शुक्राचार्य की माता, काश्मीर-भूमि । । प्रसिद्ध पक्षाब के उत्तर में एक पहाड़ी प्रांत । For Private and Personal Use Only Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कश्य ४३० कसनी वि. कश्मीरी ( काश्मीर ---ई-प्रत्य० ) कसाव का संक्षिप्त रूप, सार, तत्व । *कि. कश्मीर का । संज्ञा, स्त्री० कश्मीर की भाषा | वि० कैसे, क्यों। " कस न राम तुम कहहु संज्ञा, पु. कश्मीर-निवासी, कश्मीर का | अस " - रामा०। घोड़ा । स्त्री० कश्मीरिन । कसक-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० कषक) हलका कश्य-वि० (सं० ) कशाह । संज्ञा, पु० ___ दर्द, टीस, पुराना द्वेष, बैर, सहानुभूति, घोड़े का तङ्ग, रकाब।। हौसला। कश्यप-संज्ञा, पु. ( सं०) एक वैदिक मुहा०-कसक निकालना---पुराने बैर कालीन ऋषि, एक प्रजापति, ( महर्षि का बदला लेना। मरीचि के पुत्र ) सृष्टि के पिता इनकी दो कसकना-अ. कि० दे० ( हि० कसक) स्त्रियाँ थीं, दिति, अदिति । कछुआ, सप्तर्षि- दर्द करना, टीसना, सालना। " चतुरन के मण्डल का एक तारा । यौ० कश्यपमेरु कसकत रहै.... 'रही। - एक पर्वत, कश्मीर । कसकुट-संज्ञा, पु० दे० (हि० काँस + कष-संज्ञा, पु. (सं० कष--अल् ) सान, कुट-टुकड़ा ) ताँबे और जस्ते के सम मेल कसौटी (पत्थर), परीक्षा, जाँच, कषण- से बनी एक धातु, काँसा। संज्ञा, पु. ( सं० ) परीक्षा। कसकसा–वि० (दे०) कसकने वाला, कषाय-वि० (सं० ) कसैला, बाकठ। किरमिरा । कसाव (दे०) सुगन्धित, गेरू के रंग का, कसन-संज्ञा, स्त्री० (हि. कसना) कसने रँगा हुआ । गैरिक । संज्ञा,पु. कसैली वस्तु, की क्रिया, रस्सी । संज्ञा, स्त्री० (सं० कप ) छः रसों में से एक रस, गोंद, गाढ़ा रस, क्लेश, पीड़ा, कसनि (ब्र.) लपेट । क्रोध, लोभ, श्रादि विकार, कलियुग, कसना-स० कि० दे० (सं०कर्षण ) बन्धन काढा, क्वाथ । दृढ़ करने की डोरी को खींचना, बन्धन कष्ट-संज्ञा, पु. (सं० कप + क्त) पीड़ा, खींच कर बँधी वस्तु को दबाना, बाँधना, क्लेश, संकट, आपत्ति, कृच्छ्र । वि० कष्टकर परखना, जाँचना। (कष्टप्रद ) आदि। मुहा० --कसकर-ज़ोर से, पूरा पूरा, कष्टकल्पना-संज्ञा, स्त्री० यो० (सं० ) अधिक । कसा-पूरा पूरा जकड़ना, घोड़े खींच-खाँच और कठिनता से ठीक घटने पर साज लगाना । मुहा०-कसावाली युक्ति, दुःख की कल्पना । कसाया-- चलने को बिलकुल तैयार, लूंस कष्टसाध्य - वि० यौ० (सं० ) जिसका कर भरना । अ. क्रि० जकड़ जाना, करना कठिन हो। किसी पहिनने की चीज़ का तङ्ग होना, कष्टित—वि० (सं० कष्ट + इत् ) कष्टयुक्त। बँधना, साज रख सवारी तैयार होना, वि० कष्टी-प्रसव पीड़ा युक्ता । ( स्त्री) भरजाना । क्रि० स० (सं. कषण ) सोने आदि का कसौटी पर घिसना, परखना, कस-संज्ञा, पु० दे० (सं० कष) परीक्षा, तलवार चलाकर जाँचना, खोया बनाना, कसौटी, तलवार की लचक । संज्ञा, पु० क्लेश देना। बल, वश, काबू । कसनी---संज्ञा स्त्री० (हि० कसना ) बाँधने मुहा०-कसका-अपना इख्तियारी, । की रस्सी, बेठन, गिलाफ, कंचुकी, अंगिया, कस में रखना (करना) प्राधीन रखना। कसौटी, परख । " कह 'कबीर' कसनी सहै, संज्ञा, पु. रोक, अवरोध, (सं० कषाय ) । के हीरा के हेम"। दुःखी। For Private and Personal Use Only Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कसब कसेरू कसब-संज्ञा, पु. (अ.) श्रम, पेशा, कसाई-संज्ञा, पु. (अ. कस्साव ) बधिक, व्यवसाय, वेश्यावृत्ति । बूचड़ । वि० निर्दय, निष्ठुर । संज्ञा, स्त्री. कसबल - संज्ञा, पु० (हि. कस+बल)| बाँधना, खिंचाई।। बल, साहस । कसाना-अ० क्रि० (हि. कसाव ) कसैला कसबा—संज्ञा, पु. ( अ०) बड़ा गाँव, होना, काँसे के योग से खट्टी चीज़ का बिगड़ छोटा शहर। वि. कसबाती- जाना । स० कि० दे० कसवाना। कसबे की। कसार--संज्ञा, पु० दे० (सं० कृसार ) चीनी कसबी-संज्ञा, स्त्री० ( अ० ) वेश्या, व्यभि- | मिला भुना आटा, पँजीरी। चारिणी स्त्री, कसबिन । कसाता-संज्ञा, पु. दे. (सं० कष्ट ) कष्ट, कसम-संज्ञा, स्त्री० (अ.) शपथ, सौगंध, कठिन श्रम । “सिसिर के पाला कौन व्यापत सौंह (व.)। कसाला तन्हैं "-पद्मा० । मुहा०-कसम उतारना--किसी काम | कसाव-संज्ञा, पु० दे० ( सं० कषाय ) को नाम मात्र को करना, कसम देना, कसैलापन ।। दिलाना, रखना-शपथ-द्वारा वाध्य | कसावट-संज्ञा, स्त्री० (हि० कसना ) कसने करना, कसम लेना--प्रतिज्ञा कराना, | का भाव, तनाव, खिंचावट । कसम खाने को-नाम मात्र को। कसी-संज्ञा स्त्री० (दे०) हल की कुसी, कसम खाकर कहना-सत्य कहना। | भू-माप, एक पाला। कसमसाना अ० कि. ( अनु० ) कुल- | कसीदा-संज्ञा, पु० (अ०) स्तुति-निंदा वाली बुलाना, बहुत से पदार्थों या लोगों का ___ एक प्रकार की कविता, वस्त्र पर बेल बूटे । परस्पर रगड़ खाकर हिलना-डुलना, खल कसीस-संज्ञा, पु० दे० (सं० कासीस ) बलाना, घबराना, अगा-पीछा करना, खानों में मिलने वाला लोहे का विकार । हिचकिचाना । संज्ञा, स्त्री० ( भा० ) कस- संज्ञा, स्त्री०-निर्दयता। “ भूषन असीसै मसाहट-कुलबुलाहट, कसमस-घबराहट, तोहि करत कसीसैं-"। हिलना-डोलना । स्त्री० कसमसी।। कसर-संज्ञा, स्त्री० (अ० ) कमी, न्यूनता, | | कसुंभा--वि० (सं० ) कुसुम के रंग का, लाल, कुसंभी, कसुंभी (दे० )। मुहा० -कसर निकालना-बदला कसून--संज्ञा, पु० (दे०) काँजी आँख का लेना, कमर रहना-कमी रहना । फोड़ा। घटी. हानि. दोष, विकार मखने यहा | कसूर-संज्ञा, पु. (अ. ) अपराध, दोष। करकट के निकलने से कमी। त्रुटि । संज्ञा० वि० कसूरी-दोषी । वि. कसूरमंद, स्त्री० ( अं० ) भिन्न ( गणि० ) कसूर वार- अपराधी। कसरत-संज्ञा, स्त्री०, (म० ) दंड-बैठक कसेरा ( कसेरा)-संज्ञा, पु० (हि. काँसा श्रादि शारीरिक श्रम-कार्य,व्यायाम, मेहनत । +एरा प्रत्य ) काँसे आदि के बरतन बनाने संज्ञा, स्त्री. ( अ०) अधिकता । वि. या बेचने वाला । स्त्री० कसेरिन। कसरती-व्यायाम करने वाला, हृष्टपुष्ट, कसेरू-संज्ञा, पु० दे० (सं० कभेरू) तालाबों बली। श्रादि में होने वाले एक प्रकार के मोथे कसवाना-स० कि० (दे०) कसना का की जड़ का फल जो गठीला और मीठा प्रे० रूप, कसाना। होता है। द्वेष, बैर। For Private and Personal Use Only Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कसैय्या ४३२ कहरुबा कसैय्या*--संज्ञा, पु० (हि० कसना ) बाँधने कथन, (सं०) उक्ति, बात, कहावत, कविता। वाला, परखने या कसौटी पर कसने वाला । | कहना-स० क्रि० दे० (सं० कथन ) बोलना, कसैला-वि० (हि. कसाव + ऐला-प्रत्य ) । व्यक्त या प्रगट करना,वर्णन करना, उच्चारण कषाय स्वाद-युक्त । स्त्री० कसैली। करना। कसोरा- संज्ञा, पु० (हि. काँसा+ओरा- मुहा०-कह-बदकर-दृढ़ संकल्प या प्रत्य०) मिट्टी का प्याला, कटोरा । प्रतिज्ञा करके, जता कर, दावे से, ललकार कसौंदा-संज्ञा, पु० (दे०) एक जंगली फल । | कर । कहना-सुनना ---- पातचीत करना, कसौटी संज्ञा, स्त्री० दे० ( सं० कषवटी । वाद-विवाद कर तय करना, कहने कोप्रा० कसवटी ) सोने-चाँदी को रगड़ कर नाम मात्र को, भविष्य में स्मरण को। के जाँचने का एक काला पत्थर, परीक्षा, कहने की बात--जो वास्तव में न हो। जाँच, परख । “सोने को रंग कसौटी कहते-सुनते-बातचीत या व्यवहार में । लगै, पै कसौटी को रंग लगै नहिं सोने"। प्रगट करना, खोलना, सूचना या ख़बर -पद्मा। देना, नाम रखना, कविता करना, पुकारना, कस्तुरा-संज्ञा, पु० (दे० ) शंख-युक्त एक समझाना-बुझाना । मुहा० कहना-सुनना कीड़ा, मछली, कस्तूरा । समझाना, बहस करना । संज्ञा, पु० कथन, कस्तूर-संज्ञा,पु० (सं० कस्तूरी) कस्तूरी-मृग।। आज्ञा, अनुरोध । कस्तूरा--संज्ञा, पु० (सं०) कस्तूरी मृग, कहनाउत ( कहनावत ) संज्ञा स्त्री० दे० लोमड़ी का सा एक पशु (दे० ) मोती ( कहना+आवत--प्रत्य० ) बात, कथन, वाला सीप, एक बलकारक औषधि, जो | कहावत, कहनावति (दे०) लोकोक्ति। पोर्ट ब्लेयर की चट्टानों के खुरचने से | "कहनावति जो लोक की, सो लोकोक्ति निकलती है। प्रमान ''-भू० । कस्तूरिका-कस्तूरी-संज्ञा स्त्री० (सं०) कहनत --संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. कहना + एक प्रसिद्ध सुगंधित द्रव्य जो एक प्रकार के ___ ऊत-- प्रत्य०) कहावत, मसल, कहानी । मृग की नाभि से निकलता है, मृग-मद, | कहर-संज्ञा पु० (अ.) आपत्ति, श्राफ़त । मुश्क (फा )। वि० कस्तूरिया (हि. वि० (अ. कहहार) अपार, घोर, भयंकर, कस्तूरी ) कस्तूरी वाला, कस्तूरी-युक्त, मुश्की, कठिन । मुहा०-कहर करना-अनोखा कस्तूरी के रंग का संज्ञा, पु० (हि.) कस्तू- काम या अत्याचार करना “ कहर जूह द्वै रीमृग-जो ठंढे पहाड़ी स्थानों में होता है। पहर भो'...छत्र०, " रूप कहर दरियाव कहँ-प्रत्य० दे० (सं० कक्ष ) कर्म और | में "-रतन। संप्रदान का चिन्ह, को, के लिये । क्रि० वि० कहरना-अ० क्रि० (दे०) कराहना,कहरना। (दे०) कहाँ, “ सुठि सुहाग तुम कह कहरत भट घायल तट गिरे-रामा० । दिन दूना' कहँ गे नृप किसोर-मनचीता" कहरवा-संज्ञा, पु० दे० (हि० कहार) पाँच रामा। मात्राओं का एक ताल, कहरवा चाल का कहगिल-संज्ञा, स्त्री० (फा०—काह = घास नाच और दादरा। -+-गिल - मिट्टी) मिट्टी का गारा । क़हरी–वि. (अ. कह) श्राफत या आपत्ति कहत-संज्ञा पु० ( अ०) दुर्भिक्ष, अकाल । लाने वाला। यौ० कहतसाली। कहरुबा-संज्ञा, पु० (फा ) एक प्रकार का कहन-कहनि--संज्ञा स्त्री० (हि. कहना), गोंद जिसे कपड़े श्रादि पर रगड़ कर घास For Private and Personal Use Only Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कहल कहीं, कहुँ, कहूँ, कतों या तिनके के पास रखें तो उसे चुंबक सा वि० दे० (सं० कथम् ) कैसे, सर्व० व. पकड़ लेता है। (सं० कः ) क्या, क्यों। वि० कौन । “ मैं कहल -संज्ञा पु० (दे० ) उमस, ताप, संकर कर कहा न माना "-रामा० । कष्ट (कहर)। “ मन मानै नहीं तो कहा करिये "कहलना-अ० कि.० (हि० कहल ) गरमी संज्ञा, स्त्री० कथा । " बचन परगट करन या ऊमस से व्याकुल होना, दहलना ।। लागे प्रेम-कहा चलाय"-भ्र० । यौ० कहलवाला कहलाना - स० क्रि० (हि. कहा-सुनी-संज्ञा, स्त्री० यौ० (हि. कहना का प्रे० रूप ) दूपरे को कहने के लिये कहना + सुनना ) वाद-विवाद, झगड़ा, प्रेरित करना, संदेशा भेजना, बुलवाना, कहा-सुना--संज्ञा, पु० (हि. ) भूल-चूक, जतलाना। अनुचित कथन और व्यवहार, जैसे कहाकहलाना-अ० कि० (हि. कहल ) ऊमस सुना मुश्राफ करना । कहा-कही-संज्ञा, से व्याकुल, शिथिल । "कहलाने एकत बसत स्त्री० वाद-विवाद, झगड़ा। अहि, मयूर, मृग, वाघ"-वि०। कहाना-स० क्रि० (दे०) कहलाना । कहवां-कहाँ कि० वि० (दे०) कहाँ, कह कहानी-संज्ञा स्त्री० दे० (सं० कथानिका ) (दे०) किस स्थान पर। कथा, किस्सा, भाख्यायिका, झूठी या गढ़ी कहवा-संज्ञा, पु. ( अ० ) एक पेड़ के बीज बात । यौ०-राम-कहानी-लम्बाजिन्हें चाय की तरह पीते हैं। चौड़ा वृत्तान्त । कहवाना-स० कि० ( दे० ) कहाना (हि. कहार- संज्ञा, पु. ( सं० कं =जल + हार ) कहना का ० रूप) कहलाना । पानी भरने, डोली उठाने का काम करने कहवैया कहैया-वि० दे० (हि० कहना+ वाली एक जाति, धीवर, कहारा (दे०)। वैया-प्रत्य० ) कहने वाला। कहारा - संज्ञा, पु. (दे०) दौरी या कहां-क्रि० वि० हि० ( वैदिक सं० कुहः ) | टोकरी, कहार। किस जगह, कुत्र, कह कहवाँ (दे०)। कहाल संज्ञा, पु० (दे० ) एक बाजा। मुहा०-कहां का-असाधारण, बड़ा कहावत-संज्ञा स्त्री० (हि. कहना) चमत्कृत भारी, कहीं का नहीं, नहीं है, न जाने किस ढंग से संक्षेप में अनुभवजन्य बात-सूच जगह का, कहाँ का कहां-बहुत दूर वाक्य, मसल, उक्ति । अभीष्ट स्थान, वस्तु या बात से अतिरिक्त | कहिया-क्रि० वि० दे० (सं० कुहः ) किस अन्य, कहाँ की बात-यह बात ठीक नहीं | दिन, कब । अनुपयुक्त है। कहाँ यह कहाँ वह-इनमें कहीं, कहुँ, कहूँ, कतों-क्रि० वि० (हि. बड़ा अंतर है। "कहँ कुंभज कहँ सिंधु अपारा" | कहाँ ) किसी अनिश्चित स्थान में । --रामा० । कहाँ तक (लौं ) किस जगह मुहा०-कहीं और-किसी दूसरी जगह, या कब तक, कह लगि (दे० ) " कहाँ अन्यत्र, बड़ा भारी, कहीं का । कहीं का न लौं कहीं मैं कथा रावन, जजाति की"-- रहना या होना--दो पक्षों में से किसी " कह लगि सहिय रहिय मन मारे " पक्ष के योग्य न रहना। किसी काम का न रामा० । कहाँ से-क्यों, व्यर्थ, नाहक । । रहना । कहीं न कहीं-किसी स्थान पर कहा* --संज्ञा, पु० हि० (सं० कथन ) कथन, । अवश्य । ( प्रश्न रूप और निषेधार्थक) बात, श्राज्ञा, उपदेश, स्त्री. कही ( विलो. नहीं, कभी नहीं, यदि, (आशंका और -अनकहा ) सा. क्रि० सा० भू० । क्रि० | इच्छा-पूर्वक) बहुत अधिक । भा० श० को०-१५ For Private and Personal Use Only Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir काँइया ४३४ काँजी काइया-वि० (अनु०--काँव काव) चालाक, बनने वाला एक पारदर्शक पदार्थ, शीशा। धूर्त, चंट, चाँई (दे०)। " यह जग काँचो काँचसों "-वि. कोई-प्रव्य० दे० (सं० किम् ) क्यों। कच्चा, अदृढ़, अपक्व । कांचा (दे० ) काँकर -संज्ञा, पु. (दे०) कंकड़ । स्त्री० स्त्री० काँची। कांकरी-कंकड़ी। कांचन-संज्ञा, पु० (सं० ) सेना, कचनार, महा०—कांकरी चुनना--चिंता या | चंपा. धतग: चंपा, धतूरा, नागकेसर, (दे० ) कंचन । वियोग-दुख से काम में जी न लगना" वि० कांचनीय । संज्ञा, स्त्री० कांचनी........."ता थल काँकरी बैठी चुन्यो हलदी। यौ० कांचन-पुष्पिका-मूसली करै" -रस। औषधि । काँक्षनीय–वि० (सं० ) इच्छा करने या कांचनचंगा-( किंचिन् चिंगा)-संज्ञा, चाहने योग्य। पु० दे० ( सं० कांचन-ग) हिमालय की कांक्षा-वि. (सं० कांक्षिन् ) चाहने या | एक चोटी। इच्छा करने वाला । स्त्री० वि० कांक्षी, | कांचरी-कांचली—संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० कांक्षिणी। कंचुलिका) कांचुरी, काँचुली (दे०) काँख-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० वृक्ष ) बग़ल, साँप की केंचुली, · अँगिया, चोली, बाहुमूल के नीचे का गड्ढा । कँचुकी ( सं० ) “ ज्यों काँचुरी भुअंगम काँखना- अ० कि० ( अनु० ) श्रम, पीड़ादि तनहीं-" सूर०। से ऊँह आँह शब्द करना, मल-मूत्रादि के कांची--संज्ञा, स्त्री० (सं०) मेखला, करधनी, लिये पेट की वायु का दबाना। छुद्र घंटिका, गोटा-पट्टा, धुंघची, गुंजा, काँखासेती - संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. कांख+ एक पुरी, कांजीवरम्, काँची पुरी। वि. श्रोत्र-सं० ) दाहिनी बग़ल के नीचे से ले स्रो० (दे०) काँचीकच्ची, “काँची जाकर बाँये कंधे पर दुपट्टा डालने का ढंग । पाट भरी धुनि रुई-" प० । “काँची काहू काँगड़ा-संज्ञा, पु० (दे०) पंजाब का एक कुशल कुलाल ते कराई ती " २० वि० प्रान्त जहाँ ज्वालामुखी पर्वत और देवी यो. कांचीपद-- जघन, नितंब । का प्रसिद्ध मंदिर है, यहीं एक गुरुकुल भी है। कांगड़ी-संज्ञा, स्त्री० (दे०) काँगड़ा का, कांचनाचल-- यौ० संज्ञा, पु० (सं०) कांचनकाश्मीरियों के जाड़े में गले में लटकाने की वपु, सुमेरु, स्वर्ण-गिरि। एक अँगीठी। कांचनक-संज्ञा, पु० (सं० ) हरताल । कांगन-संज्ञा, पु. ( दे० ) कंकण (सं० ) कांचन-कदली-संज्ञा, स्त्री० (सं० ) केला, स्त्री० काँगनी। चंपा। काँग्नी-संज्ञा, स्त्री० (दे०) धूनी, अँगीठी। काँछ-संज्ञा, स्त्री० (दे० ) काँच । कांच-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० कक्ष ) कांछ कांछना-स० क्रि० (दे०) काछना, सँवा(दे०) जाँघों के बीच से पीछे ले जाकर रना, पहिनना। खोंसी जाने वाला धोती का छोर, लाँग, | कांछा ---संज्ञा, स्त्री० (दे० ) कांक्षा, गुदेंद्रिय के भीतर का भाग, गुदा-चक्र । अभिलाषा।। महा०—कांच निकलना-श्राघात या| कॉजी--संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० कांजिक) श्रम से बुरी दशा होना । संज्ञा पु० (दे० ) | मठा, दही, राई श्रादि से बनने वाला, एक बालू, रेह या खारी मिट्टी के गलाने से । खट्टा पदार्थ, मही या दही का पानी, छाँछ । For Private and Personal Use Only Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कांट-कांटा ४३५ । कान्त ...... " दूध दही ते जमत है, काँजी ते काँटी-संज्ञा, स्त्री० (हि. काँटा-अल्प०) फटि जाय-"-रही।। | छोटा काँटा, कील, छोटा तराजू, अँकुड़ा, कॉट-काँटा-संज्ञा, पु० दे० (सं० कंटक) बेटी, कटिया। बबूलादि वृत्तों के नुकीले अंकुर, कंटक। कांठा -संज्ञा, पु० दे० ( स० कंठ) गला, मुहा०-कांटा निकालना-बाधा या तोते आदि के गले की रेखा, किनारा, कष्ट दूर करना, खटका मिटाना। रास्ते में बग़ल । .. "प्रभु श्राइ परे सुनि सायर काँटे बिछाना-बाधा या विघ्न डालना। काँठे।" कवि०। कांटे बोना-बुराई करना, अनिष्ट या | कांड-संज्ञा, पु० (सं० ) दो गाँठों के बीच हानि-प्रद कार्य करना । " जो तोकों काँटा वाला, बाँस या ईख का भाग, गाँडा, पोर, बुवै-" कबी० । संज्ञा, पु. मोर, मुर्ग | शर, सरकंडा, तना, शाखा, डंठल, गुच्छा, तीतर श्रादि पक्षियों के पंजों का काँटा, किसी कार्य या विषय का विभाग, (जैसेमैनादि पक्षियों के रोग से निकलने वाला | कर्मकांड ) एक पूरे प्रसंग वाला किसी ग्रंथ काँटा, जीभ की छोटी नुकीली और खुर- का विभाग, समूह, वृंद, घटना, खंड,प्रकरण, खुरी फुसिया । (ब० काँटो) स्त्री० (अल्प० दंड, व्यापार, वर्ग, परिच्छेद, अवसर, काँटी ) लोहे की बड़ी कील, मछली प्रस्ताव । यौ० कांडकार-संज्ञा, पु० पकड़ने की झुकी हुई नुकीली अँकुड़ी, (सं० ) बाण बनाने वाला । कांड-ग्रहकटिया, कुएँ से बरतन निकालने का कॅटियों संज्ञा, पु. (सं० ) प्रकरण-ज्ञान । कांडका गुच्छा, नुकीली वस्तु-“साही का पट---संज्ञा, पु. (सं०) जवनिका, पर्दा । काँटा, तराजू की डाँड़ी के बीच की सुई, । कांड-पृष्ठ-संज्ञा, पु. (सं०) व्याध । जिससे दोनों पल्लों की बराबरी ज्ञात होती कांडरुह-संज्ञा, स्त्री० (सं०) कटुकी वृक्ष । है। काँटेदार तराजू । मुहा०-कांटे की काँडना-स० कि० दे० (सं० कंडन ) तौल-न कम न अधिक, बिलकुल ठीक । रौंदना, कुचलना, कूटना, खूब मारना, कांटे में तलना--मॅहगा होना । संज्ञा, पु०- चावल आदि को श्रोखली में कूट कर भूसी नाक में पहिनने की कील, लौंग, अंग्रेजों अलग करना. " भारी भारी रावरे के के खाने का एक पंजे का सा औज़ार, घड़ी | चाउर सों काँडिगो । "कवि० । की सुई, गुणन-फल के शुद्धाशुद्ध की जाँच | कांडर्षि-संज्ञा, पु. (सं० यौ० ) वेद के की क्रिया । वि० कटीला, स्त्री. कँटीली। किसी एक कांड ( कर्म, ज्ञान, उपासना) मु०-काँटो में घसीटना-अनुपयुक्त | पर विचार करने वाला, या उसका अध्यापक, या अयोग्य प्रशंसा या श्रादर करना ।। माना । जैसे-जैमिनि । काँटा सा खटकना-भला या प्रिय न | कांडी-संज्ञा, स्त्री० दे० ( सं० कांड ) होना अप्रिय या दखद होना।निसिदिन | लकड़ी का बाड़ा पोरदार डंडा, बाँस या काँटे लौं करेजें कसकत है-" ऊ० श० । लकड़ी का पतला सीधा लहा। कांटा होना (सूख कर) बहुत दुबला मुहा०—कांडी-कफ़न-मुर्दे की रथी का या हीन होना । कांटों पर लोटना सामान । संज्ञा, स्त्री. (दे०) अोखली दुख से तड़पना या बेचैन होना। कांटे से का गड्ढा। काँटा निकालना-... बुराई का बदला कान्त--संज्ञा, पु. (सं० कम् ---क्त) पति, बुराई से लेना, बुराई को बुराई से या शत्रु श्री कृष्ण, चंद्रमा, विष्णु, शिव, बसंत ऋतु, को शत्रु के द्वारा दूर करना, (सं०) कंटके कुंकुम, कार्तिकेय, एक प्रकार का बढ़िया नैव कंटकम् । लोहा, कांतसार अयस्कान्त । For Private and Personal Use Only Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir काई कांता कांता-संज्ञा, स्त्री० (सं०) प्रिया, सुन्दरी मुहा०-कांधी देना-कंधा देना। स्त्री, पत्नी। कॉप-कांपा-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० कंपा) कांतार--संज्ञा, पु० (सं०) महावन, भया- | बाँस आदि की पतली लचीली तीली, नक स्थान, दुर्भेद्य गहन वन, एक प्रकार की पतंग की धनुषाकार तीली, सुअर का ईख, बाँस, छेद। खाँग, हाथी-दाँत, कान का एक गहना। कांतासक्ति-संज्ञा, स्त्री० (सं० ) ईश्वर | कांपना-अ० कि० दे० ( सं० कंपन ) को पति और अपने को पत्नी मान कर हिलना, थर्राना, डरना।। की जाने वाली भक्ति, माधुर्य भक्ति। । कांबोज-संज्ञा, पु० ( सं० ) कंबोज देश, कान्ताह-संज्ञा, स्त्री० (सं०) प्रियंगु औषधि। वहाँ के घोड़े। कांति-संज्ञा, स्त्री० (सं० ) दीप्ति, प्रकाश, काय-काय-कांव-काँव-संज्ञा, पु. (अनु०) आभा, शोभा, छवि, चंद्र की १६ कलाओं अव्यक्त शब्द, व्यर्थ शोर, कौवे का शब्द । में से एक, आर्या छंद का एक भेद, यौ०- ......" संपति मैं कांय-काय बिपति मैं कांतिपाषाण-चुम्बक पत्थर । भांय-भांय-देव। कांती-संज्ञा, स्त्री० (दे०) बिच्छू का डंक, कांवर-कांवरि--संज्ञा स्त्री० दे० ( हि० तीव्र व्यथा, छुरी, कैंची।-'कठिन विरह कांध- पावर--प्रत्य० ) बाँस की बंहिगी, की काँती"-सूर० । "भरि भरि काँवरि चले कहारा-'रामा०। काथी-संज्ञा, स्त्री० (दे० ) कथा (सं०) कामला रोग । वि. कांवरा (पं० कमला) कथरी (दे०) गुदड़ी। घबराया हुआ । संज्ञा पु. काँवरिया--- काँदना-अ० क्रि० दे० (सं० नंदन) रोना। | काँवर लेकर यात्रा करने वाला, कामारथी, कांदा (कान्दा)-संज्ञा, पु० दे० (सं० कंद) काँवारथी। एक गँठीली गुल्म, प्याज, मूल । (दे०) कांवरू-संज्ञा, पु० (दे०) कामरूप (सं०)। काँदो। काँस काँसा-संहा, पु० दे० (सं० काश) कांदो, काँदो कांदव--संज्ञा, पु० दे० एक प्रकार की घास। (सं० कर्दम) कीचड़, कीच।। काँसा–संज्ञा, पु० दे० (सं० कांस्य ) ताँबे काँध-संज्ञा, पु० दे० (सं० स्कंध ) कंधा, । और जस्ते से बनी एक धातु, कसकुट । काँधा। संज्ञा, पु० (फा० कासा ) भीख माँगने का काँधना-स० क्रि० दे० (हि. कंधा) टीकरा, खप्पर । वि. काँसी। संज्ञा, पु० कंधे पर उठाना, सँभालना, सिर पर धारण (हि. काँसा-+-गर-फा. प्रत्य० ) कांसाकरना, ठानना, मचाना, स्वीकार करना, | गर-काँसे का काम करने वाला। भार लेना, सहना । “रन हित आयुध | कांस्य-संज्ञा, पु० (सं० ) काँसा, कसकुट । काँधन काँधे ।"-रघु०। संज्ञा, पु. कांस्यकार । काँधर, काँधा*-संज्ञा, पु० (दे०) कान्ह का-प्रत्य० दे० (सं० क) संबन्ध या षष्टी (७०) कृष्ण । का चिन्ह व्या० । सर्व० (दे०) क्या। कॅधियाना-स० क्रि० दे० (हि० कंध) काई-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० कावार ) जल कंधे पर लेना।--........ बासहू बदलि पट या सीड़ में होने वाली बारीक घास या नील कॅधियाये हो"- रत्ना० । बनस्पति-जाल । काँधी-संज्ञा, स्त्री० (दे०) कंधा लगाना, मुहा०---काई छड़ाना--- मैल हटाना, दुख स्वीकृति। दरिद्र दूर करना । काई सा फट जाना For Private and Personal Use Only Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir काऊ ४३७ काकु तितर-बितर होना, छुट जाना । काई काकवन्ध्या--संज्ञा, स्त्री. (सं० ) सकृत्प्रलगना-मैला हो जाना । -"सरीर लस्यो सूता, स्त्री जिसके एक ही बार संतान होकर तजि नीर ज्यों काई " -- कवि० । मल, रह जाये, फिर दूसरी न हो। मैल, एक प्रकार का लोहे-ताँबे का मुर्चा। काकबलि-- संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं० ) श्राद्धकाऊ ( काह)-कि० वि० दे० (सं० समय कौवों को दिये जाने वाले भोजन कदा ) कभी । सर्व० (सं० कः ) कोई. का भाग, कागौर ( दे० ) कोऊ (व.) कुछ । . . . . "सपनेहु लखेउ | काकभुशंडि' ( काकभुसंड )--संज्ञा, पु० न काऊ"--विन। (सं० ) लोमश ऋषि के शाप से कौवा काक-संज्ञा, पु. (सं० ) कौआ, काग हो जाने वाले एक ब्राह्मण-मुनि जो राम(व.) संज्ञा, पु. ( अं० कार्क) एक प्रकार भक्त और रामायण-वक्ता थे। की नर्म लकड़ी जिसकी डाट शीशियों में | काकरी--संज्ञा, स्त्री० (दे० ) ककड़ी, लगाई जाती है। यो०-काकगोलक- कंकड़ी। संज्ञा, पु० (सं० ) कौवे की अाँख की काकरेजा--संज्ञा, पु. (हि. काक-रंजन ) पुतली जो एक ही दोनों आँखों में घूमती एक प्रकार का रंगीन कपड़ा। संज्ञा, स्त्री० है । काक-जंधा-- संज्ञा, स्त्री. (सं.) काकरेजो (फा० ) लाल और काला गुंजा, धुंधची, मुगवन ( मुगौन ) लता | मिला रंग, कोकची, वि. काकरेजी रंग का । चकसेनी । काकटम्ब पुष्पी --- संज्ञा, स्त्री० काकलो-- संज्ञा, स्त्री. (सं० ) मधुर ध्वनि, (सं०) महमुंडी औषधि । काकतालीय-- कल नाद, सेंध लगाने की सबरी, साठी वि० (सं० ) संयोगवश होने वाला, इत्त- धान, गुंजा, कौवे की स्त्री। फ़ाकिया, संज्ञा, पु० (सं० ) काकताली- काका-संज्ञा, पु० दे० (फा० काका-बड़ा यन्याय । काकड़ासिंगी-संज्ञा, स्त्री० दे० भाई ) बाप का भाई, चाचा, काकोली, (सं० कर्कट-गी) काकड़ा नामक पेड़ | धुंघची, मकोय, कौवा । स्त्री० काकीमें लगी एक प्रकार की लाह जो दवा के चाची, कौवे की माँदा। काम में आती है। काकतिक्त-संज्ञा, | काकाकौया (काकातूा)-संज्ञा, पु. स्त्री० (सं० काकजंघा ) एक औषधि। (दे० ) एक पक्षी। काकदंत - संज्ञा, पु० (सं० ) असम्भव बात, | काकाक्षि-गोलक-न्याय-संज्ञा, पु. यौ० बात, अद्भुत घटना। (सं० ) एक शब्द या वाक्य को उलट-फेर काक-पक्ष ( काकपच्छ-संज्ञा, पु. यौ० | कर दो भिन्न भिन्न अर्थों में लगाना । (सं०) बालों के पट्टे जो दोनों ओर काकिणी ( काकिनी)—संज्ञा, स्त्री० सं० कानों और कनपटियों के ऊपर रहते हैं, जुल्फ, (दे० ) घुघची, गुंजा, पाँच गंडे कौड़ियों कुल्ला-कौवे के पर । “काक, पच्छ सिर सोहत | के पण का चतुर्थ भाग, ! माशा, कौड़ी, नीके ।” रामा० । छदाम। काक-पद ( काक-पाद )-संज्ञा, पु० यौ० काकु-संज्ञा, पु० (सं०) छिपी हुई चुटीली (सं० ) छूटे हुए शब्द या वर्ण का स्थान, बात, व्यङ्ग, ताना, वक्रोक्ति अलंकार के सूचित करने के लिये लगाया जाने वाला दो भेदों में से एक, जिसमें शब्दों की ध्वनि चिन्ह । ही से दूसरा अभिप्राय लिया जाता है। काकपदी-संज्ञा, स्त्री० (सं०) एक प्रकार यौ० काकृक्ति ( सं० ) व्यङ्ग कथन, की औषधि । कातरोक्ति। For Private and Personal Use Only Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir काकुत्स्थ ४३८ काज काकुत्स्थ-संज्ञा, पु. ( सं० ) श्रीराम, कागारोल~ संज्ञा, पु० दे० (हि. काग+ ककुत्स्थ-वंशज। रोर-शोर ) शोर-गुल, हल्ला-गुल्ला ।। काकुल-संज्ञा, पु. (फा० ) कनपटी पर कागौर - संज्ञा, पु० (दे० ) काक-बलि । लटकते लंबे बाल, जुल्फ । काचलवण-संज्ञा, पु. (सं० ) कचिया काकोल-संज्ञा, पु. ( सं० ) नरक विशेष, नोन, काला नमक एक विषैली धातु । काकोली-संज्ञा, स्त्री० (सं.) सतावर की काची - संज्ञा, स्त्री० ( हि० कच्चा ) दूध सी एक अप्राप्य औषधि । की हाँडी, दुर्दैहड़ी, तीखुर, सिंघाड़े आदि काकोलूकिका-संज्ञा, स्त्री. (सं० ) काक का हलुश्रा। वि. स्त्री० (सं० काचा = और उल्लू की सी शत्रुता। कचा ) कच्ची। काग-संज्ञा, पु० दे० (सं० काक ) कौया । कार-संज्ञा, पु० दे० (सं० कक्ष ) पेडू संज्ञा, पु. ( अं० कार्क) एक नरम लकड़ी। और जाँघ के जोड़ या उसके नीचे तक यौ० कागासुर-कृष्ण-द्वारा मारा गया का स्थान, काँछ या पीछे खोंसने का धोती एक दैत्य । कागावासी-संज्ञा, स्त्री० (दे०) का छोर, लाँग, अभिनयार्थ नटों का वेश सबेरे कौवा बोलते समय का भाग, एक या बनाव । मुहा०-काछ काछनासमय का भाग, एक मोती, जो कुछ | वेष बनाना। काला हो। काछना-स० क्रि० दे० (सं० कक्षा ) लाँग काग़ज़-कागद (७०)-संज्ञा, पु. (अ.) या काँछ मारना ( खोंसना) वेष बनाना, सन्, रुई, पटुना और पेड़ों के गूदे को पहिनना, " तापस भेस बिराजत काछे" सड़ाकर बनाया हुआ लिखने का पत्र । - रामा० । स० कि० दे० (सं० कषण ) वि. काग़ज़ी-काग़ज का, काग़ज़ के से तरल पदार्थ को हाथ या चम्मच से खींच पतले छिलके का, जैसे काग़ज़ी नीबू या | कर उठाना । काँक्ना (दे०) बादाम, लिखा हुआ, लिखित । यौ० काछनी-कछनी-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. मुहा०--काग़ज़ी घोड़ा दौड़ाना काछना ) कस कर श्री रान पर चढ़ा कर लिखा-पढ़ी करना। ..." सत्य कहौं लिखि पहिनी हुई धोती जिसकी दोनों लाँगें कागद कोरे " रामा० । यौ० काग़ज-पत्र पीछे खोसी जाती हैं, एक प्रकार का कटि( अ० सं० ) लिखे हुए काग़ज़, प्रमाणिक वस्त्र । संज्ञा पु० (दे० ) काछा, काँछा । लेख, दस्तावेज़, प्रमाण-पत्र, समाचारपत्र, प्रामिसरी नोट । काछिन--संज्ञा, स्त्री० (दे०) काछी की स्त्री। मुहा०—काग़ज़ काला करना या रँगना काकी-संज्ञा, पु० दे० (सं० कच्छ == जल प्राय देश ) तरकारी बोने और बेचने वाला, -व्यर्थ कुछ लिखना । काग़ज़ की नाव --- अस्थायी वस्तु । काग़जी फूल-सार मुराई (दे०)। हीन कृत्रिम (दिखावटी) पदार्थ । काळू - संज्ञा, पु० (सं० कच्छप ) कछुवा । काग़जात--संज्ञा, पु. (अ. काग़ज़ का ब. | काछे--क्रि० वि० दे० (सं० कक्षे ) निकट, व०) काग़ज़-पत्र । पास । स० कि० (दे०) सा० भूतकागर -संज्ञा० पु. ( दे० ) काग़ज़ । (हिं०-काछने ) पहिने, पहिने हुए। (हि. काग ) चिड़ियों के मुलायम पर जो काज-संज्ञा पु० दे० (सं० कार्य ) काम, मुड़ जाते हैं। " कीर के कागर ज्यों नृप- कृत्य, प्रयोजन, अर्थ, व्यवसाय, पेशा, चीर".."कवि० । वि. कागरी-तुच्छ । । विवाह, कारज (दे०)। " अवसि काज For Private and Personal Use Only Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir काकर-काजल ४३६ काठ GARMENDRATONKARAMMAWATIONSamum मैं करिहौं तोरा-" रामा०,..." सो बिन अंश अलग करना, कम करना, वध करना, काज गँवायो-" वि०। युद्ध में मारना, ब्योंतना, समय नष्ट करना, मुहा०—काज ( के काज )-के हेतु, रास्ता तय करना, अनुचित प्राप्ति करना, निमित्त, के लिये । काजू (दे०)। संज्ञा पु० किसी लिखावट को क़लम से काट देना, दे० (अ० कायजा ) बटन फँसाने का छेद छंकना, लकीर से कुछ दूर तक जाने वाले या घर। कामों को तैयार करना, ( सड़क काटना) काजर काजल-संज्ञा, पु० दे० (सं० लकीरों से विभाग किये जाने वाले काम कज्जलो) दीपक के धुएँ की जमी हई कालिख करना ( क्यारी काटना) बिना शेष बचे जो आँखों में लगाई जाती है, अंजन । एक संख्या का भाग दूसरी में लगाना, मुहा०—काजल धुलाना, इलना, देना, सारना, लगाना--(आँखों में ) काजल कैद भोगना, विषैले जंतु का डंक मारना या लगाना । काजल पारना --दीपक के धुएँ डसना, तीषण वस्तु का शरीर में लगकर को किसी बरतन पर जमाना। काजल जलन और छरछराहट होना, एक रेखा की कोठरी--- कलंक लगने का स्थान का दूसरी के ऊपर ४ कोण बनाते हुए या काम । संज्ञा, स्त्री० (दे० ) काजरी निकल जाना, खंडन करना । किसी मत ( काजली ) (सं० कजली) वह गाय जिसके का) अप्रमाणित करना, बोलते हुए (किसी आँखों के चारों ओर काला घेरा हो, को) रोककर बीच में बोलना, दुखद लगना। काली गाय । कजरी (दे०) मु०-काटने दौड़ना-चिड़चिड़ाना, काजी-संज्ञा, पु० (प्र. ) धर्म-कर्म, रीति खीझना । डरावना ( बुरा ) लगना । काटे नीति एवं न्याय की व्यवस्था करने वाला खाना-चुरा, भयानक और सूना (उजाड़) ( मुसल०)। काजो वि० (दे० काम लगना, चित्त को दुखित करना। काज करने वाला, यो० काम-काजी। काटू-संज्ञा, पु० (हि० काटना ) काटने वाला, डरावना, कटहा, लकड़हारा । काजू-संज्ञा, पु० दे० ( कांक० --- काज्जु ) काठ-संज्ञा, पु० दे० (सं० काष्ठ ) पेड़ का एक पेड़ जिसके फलों की गिरी को भून कर खाते हैं, इस पेड़ के फलों की गुठली की __ स्थूल अंग जो पृथक हो गया हो, लकड़ी, इंधन, लक्कड़, शहतीर, लकड़ी की बेनी, मींगी या गिरी । चौ० काजू भोजू कलंदरा, काठू (दे०)। यौ० काठ का वि० दे० (हि -काज - भोग) दिखावटी और उल-जड़, वज्र मूर्ख। काठ होनाजो टिकाऊ न हो । संज्ञा, पु० (सं०) काज । संज्ञा या चेतना से रहित होना, स्तब्ध या काट-संज्ञा, स्त्री० (हि. काटना ) काटने सूख कर कड़ा होना, काठ की हाँडीकी क्रिया या भाव । यो० काट-छांट- एक बार से अधिक न चलने वाली धोखे मार-काट, कतरन या काटने से बचा हुआ, की दिखावटी वस्तु-" जैसे हाँड़ी काठ कमी-वेशी, घटाव-बढ़ाव । मार-काट- की, चढ़े न दूजी बार "-वृद. "जिमि न तलवार की लड़ाई । काटने का ग, कटाव, नवै पुनि उकठा काठू । ' रामा० । घाव, कपट, चालबाज़ी कुश्ती के पेंच का मु०-- काठ मारना, या काठ में पांव तोड़ । संज्ञा, स्त्री० ---मैल, मुरचा। यौ० दना ( डालना)-अपराधी को काठ की काट-कूट-काटना-छाँटना । बेड़ी पहिनाना, जान बूझ कर बंधन में काटना-स० क्रि० दे० (सं० कर्तन) शस्त्रादि पड़ना । काठ की पुतली होना-(कठ से खंड करना, छिन्न-भिन्न करना, कतरना, पुतली बनना ) अशक्त होना । काठपीसना, घाव करना, किसी वस्तु का कोई चबाना-दुख से निर्वाह करना। For Private and Personal Use Only Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra काठड़ा Ci "" काठड़ा-संज्ञा, पु० ( हि० काठ + डा - प्रत्य० ; कठौता । स्त्री० काठड़ी | काठिन्य - संज्ञा, पु० (सं० ) कठिनता । काठियावाड़ – संज्ञा, पु० ( दे० ) गुजरात का एक भाग । काठी - संज्ञा, स्त्री० ( हि० काठ ) घोड़ों, ऊंटों आदि की पीठ पर करने की ज़ीन, जिसमें काठ लगा रहता है, शरीर की गठन, तलवार या कटार की स्थान । वि० काठियावाड़ का, इंधन । हाड़ जराइ दीन्ह जस काठी पा० काढ़ना - स० क्रि० (दे० ) कर्षण (सं० ) किसी वस्तु से कोई वस्तु बाहर करना, निकालना, आवरण हटा कर प्रत्यक्ष करना, अलग करना, लकड़ी कपड़े आदि पर बेल बूटे बनाना, उरेहना, उधार लेना, कड़ाह से पकाकर निकालना, छानना । काम कादि चुप रहै, गिर०, साजनु हमरे माथे काढा ' - रामा०, " जहँ तहँ मनहुँ चित्र लिखि काढ़ेकाढ़ा – संज्ञा, पु० ( हि० काढ़ना ) श्रौषधियों को पानी में उबाल या यौटा कर बनाया हुआ शरबत, क्वाथ, जोशाँदा | काणा - वि० (सं० ) एकाक्ष, एक आँख का, काना (दे० ) । रामा० । कातंत्र संज्ञा, पु० (सं० ) कलाप व्याक रण । ܕܐ www.kobatirth.org 6 कातना- - स० क्रि० दे० (सं० कर्तन ) रुई को ऐंठ या बट कर तागा बनाना, चरखा चलाना | संज्ञा, पु० काता -- तागा, डोरा । बुढ़िया का काला --महीन सूत सी एक मिठाई | कातर - वि० (सं० ) अधीर, व्याकुल, भयभीत, श्रार्त, कादर (दे० ) चंचल, दुखित, बुज़दिल | संज्ञा, स्त्री० (सं० कर्त ) कोल्हू में बैठने का तख़्ता | संज्ञा, पु० (दे० ) जबड़ा, एक मछली | संज्ञा, स्त्री० ० (सं०) कातरता - अधीरता । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कान कातिक-संज्ञा, पु० दे० (सं० कार्तिक ) क्वाँर के बाद का महीना, कार्तिक । वि० कार्तिकी (सं० कार्तिकी) कतकी (दे०) कार्तिक पूर्णिमा, कार्तिक का । क़ालिब - संज्ञा, पु० ( अ० ) लिखने वाला, लेखक । कातिल वि० ( ० ) घातक, हत्यारा । काती - - संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० कर्त्री ) कैंची, कतरनी, चाकू, छुरी, छोटी तलवार, कत्ती । कात्यायन -संज्ञा, पु० (सं० ) कत ऋषि के गोत्र में उत्पन्न ऋषि - १ विश्वामित्र के वंशज, २ -- गोभिल - पुत्र, ३ सोमदत्त - पुत्र वररुचि, पाली व्याकरण कार, पाणिनि -सूत्रों पर वार्तिककार एक बौद्ध श्राचार्य, इनके ग्रन्थ हैं - १ श्रौत और गृह्यसूत्र, कर्म प्रदीप स्मृति । कात्यायिनी - संज्ञा, स्त्री० ( सं० ) कत गोत्रोत्पन्ना स्त्री, कात्यायन -पत्नी, कषाय वस्त्रधारिणी अधेड़ विधवा, दुर्गादेवी, कात्यायन ऋषि - पूजित देवी (मार्क० पु० ) याज्ञवल्क जी की पत्नी । कादम्ब – संज्ञा, पु० (सं० ) कदम्ब वृत्त, राजहंस, ईख, वाण एक प्राचीन राजवंश । कादम्बरी-संज्ञा, पु० (सं० ) कोकिल, सरस्वती, मदिरा, मैना, वाणभट्टकृत एक आख्यायिका - ग्रन्थ | काम्बिनी - संज्ञा स्त्री० (सं० ) मेघ-माला | कादर - वि० दे० ( सं० कातर ) डरपोक, भीरु, अधीर | संज्ञा, स्त्री० कादरता, संज्ञा, स्त्री० दराई (दे० ) । कादर करत मोहिं बादर नये नये । " कादिरी - संज्ञा, स्त्री० ( ० ) एक प्रकार की चोली | "" कान – संज्ञा, पु० दे० (सं० कर्ण ) शब्दज्ञान कराने वालो इन्द्रिय, काना ( दे० ) श्रवण, श्रुति, श्रोत्र | मुहा०-कान उठाना -- श्राहट लेना, चौकन्नाहोना, सचेत होकर सुनना । कान उमेठना ( ऐंठना ) दण्ड देने के लिये कान मरोड़ना, For Private and Personal Use Only Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कान काना NON कान गण करना, कान खींचना, कान सुनाने के लिये धीरे से कहना । कान में उखाड़ना-कान ऐंठना, किसी काम के न उँगली देना (डालना)-उदासीन होकर करने की प्रतिज्ञा करना । कान करना- सुनना । कान में तेल डाले बैठना सुनना, ध्यान देना, "बालक बचन करिय (सी रहना)-बात सुन कर भी ध्यान न नहि काना".--रामा० । शपथ करना, दाब देना । कान में डाल देना-सुना देना। मानना । कान काटना-मात करना, कान में रस डालना-श्रवण-सुखद मधुर बढ़ कर (होना ) कान का कच्चा- बात सुनाना । कान में पड़ना-सुनाई पड़ बिना विचारे किसी के कहने पर विश्वास जाना, सुनना । कान न हिलाना-कुछ उत्तर कर लेने वाला। कान खड़े करना- न देना, उपेक्षा भाव रखना ! कान लगाना सचेत या सावधान करना ( होना )। --सध्यान सुनने के लिये सावधान होना, कान खाना (खा जाना) बहुत शोर- सचेत हो सुनना । (अपने ही) कान तक गुल या बातें करना, कान खोलना । ( में ) रखना-सुन कर किसी और को सध्यान एवं सावधान होकर सुनना । कान न सुनाना । एक कान से दूसरे में होना फोड़ना (फाड़ना)-शोर करना । कान ----- किसी बात का फैल जाना। कानागरम करना-कान ऐंठना । कान-प्रंक कानी करना-चर्चा करना, अफवाह, दबा कर निकल जाना—चुप चाप या उड़ाना । कान तक पहुँचाना---(पहुँचना) बिना विरोध किए चला जाना। कान बड़े किसी को सुना देना या सुन लेना । कानोहोना-- भयभीत या सचेत होना, । कान कान स्वबर न होना-सुनने में न आना, देना (किसी बात पर ) या धरना....... ज़रा भी ख़बर न होना-आधे कान ध्यान देना, सध्यान सुनना..." सुर-असुर सुनना (न) थोड़ा सुनना ( न ) ऋषि-सुनि कान दीन्हे "-रामा० 1 कान ..." राधे कहूँ श्राधे कान सुनि पावै ना।" पकड़ना-कान उमेठना, अपनी भूल या श्रवण शक्ति, हलके अगले भाग में बाँधने छोटाई स्वीकार करना । (किसी बात से) का लकड़ी का टुकड़ा, कन्ना, कान का कान पकड़ना - पछतावे के साथ किसी | एक गहना, चारपाई का टेढ़ापन, कनेव, काम के फिर न करने को प्रतिज्ञा करना। किसी चीज़ का निकला हुआ कोना जो कान पर नुं न रेंगना-कुछ भी परवा न भद्दा लगे, तराजू का पसंगा, तोप या बन्दूक होना, कान पर हाथ रखना --- इंकार | में रञ्जक रखने और बत्ती देने का स्थान, करना । कान फैकवाना-गुरु-मंत्र लेना। रञ्जकदानी, नाव की पतवार । संज्ञा, स्त्री० कान फेंकना-- मंत्र देना, चेला बनाना, दे० (कानि)-मर्यादा। दीक्षा देना, उलटी-सीधी बात कहना। कानन-संज्ञा, पु० (सं० ) जंगल, वन, घर, कान फूटना - बहरा होना, किसी की | ... " कानन कठिन भयङ्कर भारी" कुछ न सुनना। कान फटना-बड़े शब्द | . रामः । से कानों को कष्ट होना । कान भरना- काना-वि० दे० (सं० काणा ) एक फूटी किसी के विरुद्ध किसी के मन में कोई बात आँख वाला, एकाक्ष । वि० (सं० कर्णक ) बैठा देना, ख़्याल खराब करना, कान फंकना। कीड़ों के द्वारा कुछ खाया हुआ फल । संज्ञा, कान सलना--- दण्डार्थ कान उमेठना, | पु० (सं० कर्ण) श्रा की मात्रा (1) पाँसे की भूल मान कर उसके लिये पछताना। बिंदी, जैसे तीन काने । वि०-तिरछा, टेढ़ा कान में कहना-केवल उसी व्यक्ति को | या निकला हुमा भाग। संज्ञा, पु० कान । भा० श० को०-५६ For Private and Personal Use Only Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कानाकानी काफूर कानाकानी-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० कर्णा- कापर*-कपरा-संज्ञा, पु० (दे०) कपड़ा। कर्ण) कानाफूसी, चर्चा। ___" कापर रंगे रंग नहिं हाई-"प० । कानाफूसी-संज्ञा, स्त्री० (दे०) (हि. कान कापट्य-संज्ञा, पु. ( सं० ) कपटता, --- फुस-फुस-अनु० ) कान के पास धीरे से शठता, छल। कही जाने वाली बात । कानाबाती, (दे०)। कापथ --- संज्ञा, पु. (सं० ) कुपथ, कुमार्ग। कानि-संज्ञा, स्त्रो० (दे०) लोकलज्जा, | कापाल ---संज्ञा, पु. (सं०) एक प्राचीन __ मर्यादा, लिहाज, संकोच ।। अस्त्र, वायविडंग, एक प्रकार की संधि । कानी-वि. स्त्री० (हि. काना ) एक फूटी कापालिक संज्ञा, पु० (सं० ) वर्ण-संकर, आँखवाली। वाममार्गी जाति, अघोरी, तांत्रिक साधु जो मु०-कानी कौड़ी-फूटी या झंझी कौड़ी।। | नर-कपाल रखते और मद्य-मांस खाते हैं, वि. स्त्री. ( सं० कनीनी ) सबसे छोटी एक प्रकार का कष्ट । उँगली, (दे०) कानि । कापाली-संज्ञा, पु० (सं० कापालिन) कानीन-संज्ञा, पु० (सं० ) कुमारी कन्या शिव, एक प्रकार का वर्ण-संकर (दे०), कपाली । स्त्री० कापालिनी। से उत्पन्न, अनूढा-जात, कर्ण, व्यास । कापिल-वि० (सं० ) कपिल-सम्बन्धी, कानीहौस-संज्ञा, पु. यौ० दे० ( अं० कपिल का, भूरा । संज्ञा, पु. ( सं०) सांख्य काइन-हाउस) हानि करने वाले पशुओं को दर्शन, सांख्य का अनुयायी, भूरा रंग । पकड़ कर बन्द करने का घर, काँदोहोस, कापुरुष-संज्ञा, पु. ( सं०) कायर, डरपोक, कांजीहौस (दे०)। निकम्मा । संज्ञा० भा० प्र० कापुरुषत्व । कानून-संज्ञा, पु० (अ. भू० केनान ) राज्य काफ़िया-संज्ञा, पु. (अ.) अंत्यानुप्रास, के नियम, विधि। तुक । यौ० काफ़ियाबन्दी-तुकबन्दी । मु०-कानून छाँटना-कानूनी बहस, कुतर्क या हुज्जत करना । कानून बँकना मु०-काफ़िया तंग पड़ना-तुक का शिथिल होना, ठीक तुक न मिलना । -तर्क-कुतर्क करना । वि० कानूनदाँ। काफ़िया तंग करना---हैरान या परेशान हुज्जती, कानून जानने वाला । कानूनिया करना, नाकों दम करना। -कुतर्की। कानूनी-वि० ( ० ) काफिर-वि० (अ.) मुसलमानों से भिन्न कानून-सम्बन्धी, नियमानुकूल, अदालती, धर्मानुयायी, अनीश्वर वादी, निष्ठुर, दुष्ट, हुज्जती, तकरार करने वाला। काफ़िर देश-वासी। संज्ञा, पु०-अफ्रीका का कानूनगो-संज्ञा, पु० (फा ) माल का एक एक देश । वि. काफ़िरी।। कर्मचारी जो पटवारियों के काग़जातों की काफ़िला-संज्ञा, पु. ( अ०) यात्रियों का जाँच करता है। समूह । “ काफिले तुमसे बढ़ गये कोसों" कान्यकुब्ज, कानकुब्ज- संज्ञा, पु. -हाली। (सं० ) कन्नौज के आस-पास का प्राचीन काफ़ी-वि• (प.) यथेष्ट, यथोचित्, प्रान्त, इसके निवासी, यहाँ के ब्राह्मण, | पर्याप्त, पूरा। कनौजिया (दे०)। काफूर-संज्ञा, पु० (फ़ा० सं० कपूर) कपूर । कान्ह-कान्हर*--संज्ञा, पु० दे० (सं० कृष्ण) | _ वि. काकरी-कपूर-संबन्धी, कपूर के श्री कृष्ण । रंग का। कान्हडा-संज्ञा, पु० दे० (सं० कर्णाट) मु०-काफर होना-कपूर या कपूर के एक प्रकार का राग । रङ्ग का उड़ जाना, चम्पत होना । संज्ञा, पु. For Private and Personal Use Only Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir काब ४४३ कामचलाऊ काफ़री रङ्ग-कुछ हरापन लिए सफेद रङ्ग। काम निकलना । काम होना-मरना, काब-संज्ञा, स्त्रो० (तु. ) बड़ी रकाबी।। कष्ट पहुँचना । कठिन शक्ति या कौशल का काबर-वि० दे० (सं० कर्बुर ----प्रा० कब्बुर) कार्य। चितकबरा, एक प्रकार की भूमि (उमाड़)। मु०-काम रखता है -मुश्किल या काबा-संज्ञा, पु. (अ.) मक्के (अरब) कठिन काम (बात) है । प्रयोजन, मतलब । शहर का एक स्थान जहाँ मुहम्मद साहब मु०-काम निकलना-प्रयोजन सिद्ध रहते थे, जहाँ मुसलमान हज करने जाते होना, कार्य निर्वाह होना। श्रावश्यकता हैं, उनका तीर्थ । पूरी होना, काम अटकना-अावश्यकता काबिज़-- वि० (भ० ) अधिकारी, दस्त होना, ग़रज़ लगना । ग़रज़, वास्ता । रोकने वाला। मु०-किसी से काम पड़ना--पाला काबिल-वि० (म०) योग्य, विद्वान । संज्ञा, पड़ना, व्यवहार या संबन्ध होना, ग़रज़ स्त्री० काबिलीयत-योग्यता, विद्वता। पड़ना । काम से काम रखना-प्रयोजकाबिस-संज्ञा, पु० दे० (सं० कपिश) मिट्टी नीय बात पर ध्यान रखना, व्यर्थ की बातों के बरतनों के रँगने का रंग।। में न पड़ना । उपयोग, व्यवहार । काबुक-संज्ञा, स्त्री० (अ.) कबूतरों का मु०-काम आना-उपयोगी या सहादरबा। यक होना, सहारा देना । काम काकाबुली-वि० ( हि० काबुल ) काबुल- उपयोगी, व्यवहार का। काम देनावासी, काबुल का। उपयोग में थाना । काम में लानाकावू-संज्ञा, पु. ( तु०) वश, इख़्तियार, बर्तना, प्रयोग करना । कार-बार, रोज़गार, जोर। कारीगरी, रचना, बेल-बूटे या नक्काशी का काम-संज्ञा, पु० ( सं० कम् +घञ् ) मदन, | काम, कला-कौशल । कंदर्प, इच्छा, महादेव, इंद्रियों की स्वविषयों | काम-कला-संज्ञा, स्त्री० या० (सं०) मैथुन, की ओर प्रवृत्ति ( कामशा० ) मैथुनेच्छा, | | रति, कामदेव की स्त्री, कामशास्त्र का चार पदार्थों ( अर्थ, धर्म, काम, मोक्ष ) में प्रयोगात्मक रूप, चन्द्रमा की कला। से एक, वासना, विषय । संज्ञा, पु. (सं० । काम-काज-संज्ञा, पु. यो० (हि.) कारकर्म, प्रा० कम्म) व्यापार, कार्य, काज। बार, व्याह-शादी श्रादि । वि० कामकाजी मु०-काम आना-~~-उपयोग में श्राना, -काम या उद्योग-धन्धे वाला, उद्यमी। लड़ाई में मारा जाना। काम करना- | कामकार-वि० (सं० ) कामी, कामासक्त, प्रभाव या असर करना, फल उत्पन्न करना।। सम्भोगी। काम चलना --निर्वाह होना, काम जारी | कामकान्ता-संज्ञा, स्त्री० यौ० ( सं० ) रहना । काम चलाना-निर्वाह करना। कामपत्नी-रति । काम तमाम करना-काम पूरा करना, काम-केलि-काम-क्रीड़ा-संज्ञा, स्त्री० या० मार डालना । काम निकालना--मतलब (सं० ) रति, मैथुन । पूरा करना । काम पड़ना-काम या कामगार--संज्ञा, पु० (दे० ) कामदार, स्वार्थ अटकना, उपयोग में श्राना। काम कारिंदा । वि० बेल-खूटेदार।। में आना--प्रयोग में श्राना, अभीष्ट में | कामचलाऊ-वि० ( हि० काम--चलाना ) सहायता देना । काम लगना-श्रावश्य- जिससे किसी प्रकार कुछ काम निकल सके, कता पड़ना। काम सधना (सरना)- बहुत अंश में काम देने वाला। For Private and Personal Use Only Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कामचारी कामवती कामचारीवि० (सं० ) कामुक, स्वच्छंद अनु० ) काम-काज । संज्ञा, पु० यौ० (सं०) विचरण-शील, उच्छं खल, स्वेच्छाचारी, काम का स्थान, योनि, स्त्री की गुह्येन्द्रिय । मनमाना घूमने या करने वाला । संहा, स्त्री० कामधुक-संज्ञा, स्त्री० (सं०) कामधेनु, कामचारिता। सुरभी गाय । कामचोर-वि० (हि. काम+चोर ) काम कामधेनु-संज्ञा, स्त्री. (सं०) इच्छा-फल से जी चुराने वाला, अकर्मण्य, आलसी। देने वाली देवताओं की गाय जो सागर से कामज-वि० (सं० ) वासनोत्पन्न । १४ रत्नों के साथ निकली थी, वशिष्ठ की कामजित-वि० (सं० ) काम को जीतने शवला ( नंदिनी ) जिसके लिये विश्वामित्र वाला । संज्ञा, पु. (सं० ) शिव, कार्तिकेय, से युद्ध हुआ, जिसने दिलीप को पुत्र दिया जिन देव । था (पुरा० रघु० )। कामज्वर-संज्ञा, पु. (सं० ) एक प्रकार | कामना -- संज्ञा, स्रो० (सं०) इच्छा, मनोरथ। का ज्वर जो स्त्रियों या पुरुषों को अखंड ब्रह्म- कामपाल-संज्ञा, पु० (सं०) शिव, बलराम | चर्य पालने से हो जाता है। कारवाण-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) कामदेव कामडिया-संज्ञा, पु० (हि० कामरी ) राम- के ५ वाण-मोहन, उन्मादन, संतापन, देव के मतानुयायी चमार साधु । शोषण, निश्चेष्टकरण । ५ पुष्प-वाण-लाल काम-तरु-संज्ञा, पु. यो० (सं०) कल्पवृक्ष । कमल, अशोक, अाम्रमंजरी, चमेली, नील कामता-संज्ञा, पु० दे० (सं० कामद ) कमल | चित्रकूट पर्वत । कामयाब - वि० (फा०) सफल, कृतकार्य । कामद-वि० (सं० ) मनोरथ पूरा करने संज्ञा, स्त्री० (फा०) कामयावी.-सफलता। वाला, अभीष्ट दाता, स्त्री० कामदा। कामरिपु-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) कामारि कामदमणि-संज्ञा, स्त्री० यो. ( सं० ) -शिव, मदन विजेता। चिंतामणि । कामरी-कामरिया कामरि -संज्ञा,स्त्री० दे० काम-दहन-संज्ञा, पु० या० (सं० ) कामदेव (सं० कंवल) कमली, कारी (दे०)।कामलो। को जलाने वाले शिव । कामरुचि-संज्ञा, स्त्री० (सं० ) एक प्रकार कामदा-संहा, स्त्री. ( सं०) कामधेनु, का अस्त्र। भगवती, १० वर्णों का एक वृत्त ।। कामरू-संज्ञा, पु० (दे० ) कमरूप-प्रदेश । कामदानी-संज्ञा, स्त्री० (हि० काम-+-दानी कामरूप-संज्ञा, पु. यौ० (सं० ) कामाख्या -प्रत्य० ) तार या सलमें सितारे से बने देवी का प्रदेश (आसाम) कामाक्षा, शत्रु के बेल-बूटे । अस्त्रों को व्यर्थ करने वाला एक प्राचीन कामदार-संज्ञा, पु० (हि० काम+दार- अस्त्र, २६ मात्राथों का एक छंद, देवता। प्रत्य० ) कारिंदा, प्रबंध-कर्ता। वि० सलमें- वि० मनमाना या इच्छानुसार रूप बनाने सितारे या कलाबत्तू आदि के बेल-बूटे वाला। वाला । “काम-रूप केहि कारन अाया"कामदुहा-संज्ञा, स्त्रो० (सं०) कामधेनु, रामा० । वि० कामरूपी- संज्ञा, पु० (सं०) कामद गो, सुर गौ। एक विद्याधर कामदेव--संज्ञा, पु. (सं० ) स्त्री-पुरुष को कामल-कागला-संज्ञा, पु. ( सं० ) संयोग की प्रेरणा करने वाला एक देवता, कामलक -- रोग, कमल या पीलिया रोग । मदन, वीर्य, संभोगेच्छा। कामलोल-वि० (सं०) चंचल, चलचित्त । काम-धाम-संज्ञा, पु० (हि. काम+ धाम- कामवती--- संज्ञा, स्त्री. ( सं० ) संभोग For Private and Personal Use Only Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कामवान् काय वासना वाली स्त्री । “कामवती नायिका | कामिका-संज्ञा, स्त्री० (सं०) श्रावण-कृष्ण नबेली अलबेली खेली .."। एकादशी। कामवान्-वि० (सं०) संभगेच्छा वाला। कामिनी... संज्ञा, स्त्री. (सं० ) कामवती काम-शर-संज्ञा, पु० (सं० ) कामवाण । स्त्री, सुंदरी, युवती, कामयुक्ता, मदिरा, कामशास्त्र-संज्ञा, पु. यो. (सं० ) स्त्री- दारुहलदी, माल कोष राग की एक रागिनी। पुरुषों के समागम आदि के व्यवहारों या | कामिनी-मोहन---संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) विधानों का एक शास्त्र । सग्विणी छंद का एक नाम । काम-सखा ---संज्ञा, पु. ( सं० कामसख ) | कामिल---वि० ( अ० ) पूरा, समूचा, योग्य वसंत, कास-दूत । व्युत्पन्न पूर्ण । कामाच्या (कामाक्षी)-संज्ञा, स्त्री० (सं०) । कामी-वि० (सं काम + णिन् ) कामना देवी की एक मूर्ति जो आपाम के कामरूप रखने वाला, इच्छुक, विषयी, कामुक । संज्ञा, प्रान्त में है दे. कामाख्या)। पु० (सं०) चकवा, कबूतर, सारस, चंद्रमा, कामा-संज्ञा, स्त्री० (सं० काम ) दो गुरू ककड़ासिंगी, चिंडा, विष्णु। वर्ण वाला एक वृत्त । संज्ञा, पु. ( अं०) कामुक-वि० (सं० कम् + उकण ) इच्छा विराम, (दे० ) काम।। वाला, कामी, विषयी, लम्पट । वि० स्त्री० कामातुर-वि• यौ० (सं० ) काम-वेग से | कामुका, कामुकी। व्याकुल । कामासक्त, कामार्त-काम- | कामेश्वरी--संज्ञा, स्त्री० या ० (सं० ) एक पीड़ित, कामी-कामुक-भोगी। भैरवी ( तंत्र ) कामाख्या की ५ मूर्तियों कामात्मा-वि० (सं० ) लम्पट, कामुक, में से एक । पु० कामेश्वर शिव । व्यभिचारी। कामोद-संज्ञा, पु० (सं० ) एक राग । कामाधिकार--संज्ञा, पु० यौ० (सं०) स्त्री० कामोदा-एक रागिनी।। प्रेमोत्पत्ति, स्वेच्छाधीन । कामोद्दीपन- संज्ञा, पु. यो० (सं०) सहकामाधिष्ट----वि० (सं० ) कामवशग। वासेच्छा की उत्तेजना। वि० कामोद्दीकामान्ध-वि. ( 0 ) काम के वशीभूत पक-कामेच्छावर्धक। तथा हिताहित-विवेक-शून्य । काम्य-वि० (सं० कम् + ध्यण् ) कामनीय, कामायुध-संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) कामदेव कामना-योग्य, इच्छित, जिससे कामना की के वाण, प्रामादि। सिद्धि हो कमनीय । संज्ञा, पु० (सं.) किसी कामारण्य-संज्ञा, पु० यौ० (सं.) मनोहर कामिनी की सिद्धि के लिये किया जाने उपवन । वाला यज्ञ या कर्म विशेष, काम्यकर्म । कामारथी, (कामार्थी )-वि. (सं० ) संज्ञा, पु. ( सं०) काम्यत्व-आकांक्षा । कामेच्छुक । संज्ञा, पु. ( दे. ) काँवाँरथी। काम्यदान-यौ० संज्ञा, पु. ( सं० ) कामारि --संज्ञा, पु० या. ( सं० ) कामरिपु, कामना-सहित या नैमित्तिक दान । शिव, महादेव, मन्मथारि। काम्येष्टि--संज्ञा, स्त्री० (सं० ) कामना के कामात -वि० (सं०) कामातुर, कामासक्त, सिद्धयर्थं एक यज्ञ विशेष । कामवश । काय-संज्ञा, पु० (सं० ) प्राजापत्यतीर्थ, कामवशायिता-संज्ञा, स्त्री. ( सं० )। शरीर, काया (दे० ) कनिष्ठा और अनायोगियों की पाठ सिद्धियों में से एक, सत्य- मिका के नीचे का भाग ( स्मृति० ) प्रजासंकल्पता। | पति का हवि, मूर्ति, प्राजापत्य विवाह, मूल For Private and Personal Use Only Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कायजा कारकदीपक धन, समुदाय । वि० (सं० ) प्रजापति- परमात्मा, एक जाति । स्त्री० कायस्थासम्बन्धी। वि० यौ० कायस्थित --देहस्थ ।। हरीतकी, आँवला, छोटी-बड़ी इलायची, वि० कायक-शरीर-सम्बन्धी, देही, जीव, तुलसी, ककोली। दैहिक । यौ० काय-क्लेश-संज्ञा, पु. काया—संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० काय) शरीर । (सं० ) देह का कष्ट । काय-चिकित्सा- मुहा०—कायापलट होना ( जाना )संज्ञा, स्त्री० (सं० ) ज्वर, कुष्ठादि सींग- रूपान्तर या और से और हो जाना। व्यापी रोगों के उपशयन की व्यवस्था। कायाकल्प-संज्ञा, पु. यो. ( सं० ) कायजा-संज्ञा, पु. (सं० काय जा ) घोड़े | औषधियों से वृद्ध शरीर को पुनः तरुण की लगाम की डोर जिसे पूँछ में बाँधते | और सशक्त करने की क्रिया। हैं । वि० स्त्री० तनुजा, देह से उत्पन्ना। पु. काया-पलट-संज्ञा, स्त्री० यो० (हि. काया कायज - तनुज, देह-जात । +पलटना ) भारी हेर-फेर या परिवर्तन कायथ-संज्ञा, पु० (दे०) कायस्थ । होना, एक शरीर का दूसरे में बदलना, कायदा-संज्ञा, पु० (अ. कायदः ) नियम, रूपान्तर होना। रीति, ढङ्ग, विधि, क्रम, विधान, व्यवस्था। कायिक-वि० ( सं० ) शरीर-सम्बन्धी कायफल (कायफर )-संज्ञा, पु० दे० देह-कृत या उत्पन्न, दैहिक, संघ-सम्बन्धी (सं० कटफल) एक वृक्ष जिसकी छाल (बौद्ध)। दवा के काम में आती है। कायोढज-संज्ञा, पु. ( सं० ) प्राजापत्य कायम-वि० (प.) स्थिर, निर्धारित, . विवाह से उत्पन्न हुआ पुत्र ।। निश्चित, मुकर्रर । वि० यौ० कायममुकाम कारंड ( कारंडव )—संज्ञा, पु. ( सं०) (अ.) स्थानापन्न, एवज़ी। हंस या बतख जाति का पक्षी। कायमनोवाक्य-वि० यौ० (सं० काय+ कारंधमी--संज्ञा, पु. ( सं० ) रसायनी, मनस्+व+ ध्यण् ) मनसा-वाचा-कर्मणा, कीमियागर। देह-मन-वचन से। कार-संज्ञा, पु० (सं० कृ+घज् ) क्रिया, कायर-वि० (सं० कातर ) भीरु, डरपोक । __ कार्य, करने, बनाने या रचने वाला, जैसे संज्ञा, स्त्री० (सं०) कायरता (कातरता) ग्रंथकार, एक शब्द जो वर्णो के आगे लग कादरता-भीरुता, कदराई। कर उनका स्वतंत्र बोध कराता है, जैसे-- कायल–वि. (अ.) जो तर्क-पुष्ट या चकार, एक शब्द जो श्रानुकृत ध्वनि के सिद्ध बात को मान ले, कबूल करने साथ लग कर उसका संज्ञावत बोध कराता वाला लज्जित । संज्ञा, स्त्री० कायली-- है, जैसे-चीत्कार । संज्ञा, पु. ( फा० ) लज्जा, ग्लानि, मथानी, सुस्ती। कार्य, काम, उद्यम, उपाय । वि० (दे०) कायव्यूह-संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) बात, काला। पित्त, कत, त्वक्, रक्त, मांस श्रादि के कारक-वि० ( कृ+ ) करने वाला, स्थान और विभाग का क्रम, स्वकर्म- | जैसे-हानिकारक । संज्ञा, पु. ( सं० ) संज्ञा भोगार्थ योगियों की चित्त में एक एक या सर्वनाम की वह अवस्था जिसके द्वारा इन्द्रिय और अङ्ग की कल्पना, सैनिकों वाक्य में क्रिया के साथ उसका सम्बन्ध का घेरा। प्रकट होता है ( व्याक० ), निमित्त ।। कायस्थ-वि० (सं० । काया या देह में कारकदीपक-संज्ञा, पु. यौ० (सं० ) स्थित । संज्ञा, पु. ( सं० ) जीवात्मा, । एक प्रकार का अर्थालङ्कार जिसमें कई For Private and Personal Use Only Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कारकुन कारसाज़ क्रियाओं का अन्वय एक ही कर्ता के साथ हेतुओं की श्रेणी, एक अर्थालङ्कार जिससे प्रगट किया जाय। किसी कारण से उत्पन्न हुआ कार्य पुनः कारकुन-संज्ञा, पु. ( फा० ) प्रबन्धकर्ता, किसी अन्य कार्य का कारण होता हुआ करिंदा। प्रगट किया जाता है (अ० पी० ) घटनाकारखाना-संज्ञा, पु. ( फा० । व्यापारिक परम्परा । वस्तुओं के बनाने का स्थान, कार-बार, कारण-शरीर-संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) कार्यालय, व्यवसाय, घटना, दृश्य । सुषुप्त अवस्था में वह कल्पित शरीर जिसमें कारगर-वि० ( फा० ) प्रभाव-जनक, इन्द्रियों के विषय-व्यापार का तो अभाव उपयोगी, असर करने वाला, सफल । रहता है किन्तु अहङ्कार श्रादि संस्कार रह कारगुज़ार - वि० (फा०) स्वकर्तव्य को पूर्ण- | जाते हैं ( वेदा०)। तया करने वाला। संज्ञा, स्त्री० ( फा० ) | कारतूस-संज्ञा, पु० दे० ( पुर्त० कारटूश) कारगुजारी-कर्तव्य पालन, होशियारी, गोली-बारूद भरी एक नली जिसे बंदूक में कार्य-कुशलता, कर्मण्यता ।। भर कर चलाते हैं । वि० कारतूसी । कारचोब--संज्ञा, पु० ( फा० ) लकड़ी का | कारन*—संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० कारण्य ) चौखटा जिस पर कपड़ा तान कर जरदोजी रोने का आर्त स्वर, करुण स्वर । संज्ञा, पु. या क़सीदे का काम बनाया जाता है, अड्डा, | (दे० ) कारण । ज़रदोजी या कसीदे का काम करने वाला, | कारनिस-संज्ञा, स्त्री. (अ.) दीवाल की जरदोज़ । वि० (फा० ) कारचोबी- | कँगनी या कँगूरे। जरदोज़ी का । संज्ञा, स्त्री. ( फा० ) जार- कारनी-संज्ञा, पु० दे० (सं० कारण ) दोज़ी, गुलकारी। प्रेरक । संज्ञा, पु० (सं० कारिनि ) भेदक, कारज* संज्ञा, पु० (दे० ) कार्य (सं०) बुद्धि पलटने वाला। काम, काज । " जब लौं कारज होय" कारपरदाज़...वि. ( फा०) काम करने -गिर० । वाला, कारिन्दा, प्रबन्धक । संज्ञा, स्त्री० कारटा-संज्ञा, पु० दे० (सं० करट ) (फा० ) कारपरदाजी-कार्य करने की कौवा । तत्परता, प्रबन्धकारिता। कारण-कारन-संज्ञा, पु० (सं० कृ+णिच् कारबार, कारोबार-संज्ञा, पु० ( फा०) +ल्युट ) जिससे कार्य की सिद्धि हो, हेतु, सबब, जिसके विचार से कुछ किया जाय काम-काज, व्यापार, पेशा । वि० कारबारी ---काम-काज करने वाला। या जिसके प्रभाव से कुछ हो, जिससे दूसरे पदार्थ की संप्राप्ति हो, निमित्त, प्रत्यय, काररवाई कार्रवाई-संज्ञा, स्त्री० ( फा० ) श्रादि, मूल, साधन, कर्म, प्रमाण, प्रयोजन, काम, कृत्य, करतूत, कार्य-तत्परता, गुप्तनिदान । यौ० संज्ञा, पु० (सं० ) कारण प्रयत्न, चाल । कार्यवाही (श्रा० हि० )। करण-कारण का कारण, ब्रह्म । कारण कारवाँ--संज्ञा, पु. ( फा०) यात्रियों का गुण (धर्म )-कारण के लक्षण । संज्ञा, झुण्ड । " उतरा तेरे किनारे जब कारवाँ स्त्री. ( सं० ) कारणता हेतुता । हमारा".-डा० इक० । कारणवादी--अभियोग उपस्थित करने | कारवल्ली (कारवेली)-संज्ञा, स्त्री० (सं०) वाला, फ़रियादी। कटु फल, करेला। कारणमाला-संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) कारसाज़-वि० ( फा० ) बिगड़े काम For Private and Personal Use Only Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org कारसाजी को सँभालने वाला, कार्य की युक्ति निकालने वाला । " ऐ मेरी दिल सोज़ मेरी कारसाज़ " । कारसाजो-संज्ञा, स्त्री० ( फा० ) चालबाज़ी, छल, प्रयत्न, कामसिद्धि की युक्ति । कारस्तानी - संज्ञा, स्त्री० ( फा० ) कारवाई, चालबाज़ी । 1 कारवी-संज्ञा स्त्री० ( सं० कारव + ई ) मयूर सिखा, रुद्र- जटा, अजमोदा, कलौंजी । कारा - संज्ञा, स्त्री० (सं० ) बन्धन, पीड़ा, क्लेश, क़ैद | वि० (दे० ) काला । कारागार ( कारागृह ) – संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) कैदखाना, जेल । कारावासबन्दीगृह | कारिंदा -संज्ञा, पु० ( फ़ा० ) गुमाश्ता, संज्ञा, स्रो० ( फा० ) कर्मचारी । कारिंदगीरी | कारिका - संज्ञा, स्त्री० (सं० ) किसी सूत्र की श्लोक - वद्ध व्याख्या, नट की स्त्री, नटी । कारिख कालिख - संज्ञा, स्त्री० (दे० ) कालिमा, कलङ्क, दोष, करिखा, दे० ) स्याही | धूम कुसङ्गति कारिख होई " " रामा० । कारित - वि० (सं० ) कराया हुआ । कारी -संज्ञा, पु० (सं०) करने वाला । वि० ( फा ) घातक, मर्मभेदी | वि० (दे० ) काली । स्त्री० कारिणी | वि० पु० (दे०) कारो (०), कारा । "कारी निसि कारी fafe कारियै डरा घटा कारीगर -संज्ञा, पु० ( फा ) धातु, लकड़ी, पत्थर आदि से सुन्दर वस्तुयें बनाने वाला, शिल्पकार | वि० कला-कुशल, हुनरमंद, निपुण | - पद्म० । कारीगरी -संज्ञा, स्त्री० ( फा ) अच्छे अच्छे काम बनाने की निर्माण कला, मनोहर कला, रचना । कारू करूकर संज्ञा, पु० (सं० ) विश्वकर्मा, शिल्पी, निर्माता । कारुक – संज्ञा पु० (सं० ) कारीगर । ܕܕ ४४५ कार्पण्य कारुणिक वि० (सं० ) कृपालु, करुणायुक्त, कारुणीक । कारुण्य-संज्ञा, पु० (सं० ) करुणा का भाव, दया । कारू - संज्ञा, पु० ( ० ) हज़रत मूसा का भाई (चरा) जो बड़ा धनी और कृपण था । मुहा० कारू का खजाना - अनंत संपत्ति | कारुनी - संज्ञा, स्नो० ( ? ) घोड़ों की एक जाति । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कारूरा -संज्ञा, पु० ( अ० ) फुंकना शीशा, मूत्र, पेशाब । कारोंक - संज्ञा, स्त्री० (दे० ) कालौंछ (०) कालिमा | कारोबार- संज्ञा पु० ( फा ) कारबार ! कार्कश्य - संज्ञा पु० (सं० ) कर्कशता, परुपता, क्रूरता, कठोरता । कार्तवीर्य - संज्ञा, पु० (सं० ) कृतवीर्य - सुत सहस्रार्जुन, हैहय या सहस्रबाहु, हैहय देश में महिष्मती नगरी इनकी राजधानी थी, इन्होंने रावण को जीत कर बंदी कर लिया था, परशुराम ने इन्हें मारा, इन्होंने कार्तवीर्य तंत्र नामक एक तंत्र ग्रंथ रचा । कार्तस्वर - संज्ञा पु० (सं०) सुवर्ण, सोना । कार्तान्तिक - संज्ञा पु० (सं०) दैवज्ञ, ज्योति - वैता | कार्तिक - संज्ञा, पु० (सं० ) कार और अगहन के बीच का एक चांद्र मास, कातिक (दे० ) । इसकी पूर्णिमा को चंद्रमा कृत्तिका नक्षत्र के पास रहता है कार्तिकेय संज्ञा, पु० (सं० ) कृत्तिका नक्षत्र से उत्पन्न होने वाले स्कंद जी, astra, शिव के ज्येष्ठात्मन जिन्हें चंद्र- पत्नी कृतिका ने निज पय से पाला था, ये देवताओं के सेनापति थे, इन्हींने तारकासुर ar मारा और तारकारि कहलाये, देवसेना ( ब्रह्मात्मजा ) इनकी स्त्री हैं ( ब्रह्मवै० ) । कार्पण्य-संज्ञा, पु० (सं० ) कृपणता, I कंजूसी । For Private and Personal Use Only Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सिक्का। कार्पास ४४९ कालकूट कास-संज्ञा, पु० (सं० ) कपास, रुघा- | कार्याध्यक्ष - संज्ञा, पु. यो० (सं० ) मुख्य वृक्ष, सूती कपड़ा। | कार्य-कर्ता । कार्याधीश । कार्मण-संज्ञा, पु० (सं०) मंत्र-तंत्रादि का कार्याधिकारी-संज्ञा, पु० यो० (सं.) कर्मप्रयोग, कर्म-दक्ष । ® (दे० ) कार्मना- | चारी, कार्य-भार-वाहक । कृत्या, मंत्र, तंत्र, मोहनादि प्रयोग। कार्यार्थी- वि० (सं० ) कार्य की सिद्धि कार्मिक-वि० (सं.) कारचाबी के वस्त्र, चाहने वाला, ग़रज रखने वाला 'मनस्वी बुनावट में ही बेल-बूटे या शंख-चक्रादि कार्यार्थी न गणयति दुःखं न च सुखम्" । बनाये गये वस्त्र । कार्यालय-संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) जहाँ कोई कामुक-संज्ञा, पु० (सं० ) धनुष, चाप, काम होता हो. दफ्तर, कारखाना । परिधि का एक भाग, इन्द्र-धनुष, बाँस, कार्य-संज्ञा, पु० (सं०) क्षीणता, दुर्बलता, सफेद खैर, बकायन, धनु राशि (६ वीं०) कृशता। कर्म संपादन करने वाला। " रामः करोति | कार्षाक -संज्ञा, पु. ( सं० कृष्- गाक् ) शिव-कार्मुकमाततज्यम् "..--ह० न०। । कृषक, किसान । कार्य-संज्ञा, पु० (सं० कृ+ ण्यत् ) काम, कर्षापण—संज्ञा, पु० (सं० ) एक प्राचीन कृत्य, व्यापार, कारज (दे०) धंधा, कारण का विकार या फल, कर्ता का उद्देश्य, फल, | काल-संज्ञा, पु० (सं० कल्+घञ् ) वह परिणाम । वि० यौ० कार्य-कुशल संबंध-सत्ता जिसके द्वारा, भूत, भविष्य, कार्य-पटु । वर्तमान की प्रतीति हो, समय, वक्त, कार्य-कर्ता-संहा, पु. यौ० (सं० ) काम अवसर बेला। करने वाला, कर्मचारी, कार्यकार। मुहा०-काल पाकर-कुछ दिनों के कार्य-कारक-वि० कार्य-दक्ष-कार्य चतुर । पीछे, यथा समय। अंतिम समय, मृत्यु, कार्य-कलाप-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) कार्य- नाश का समय, यमराज, यम-दूत, उपयुक्त समय, मौक़ा, अकाल । शिव का एक नाम, कार्यक्षम-वि० (सं० ) कार्य करने की महाकाल, शनि, साँप, नियत समय । वि. योग्यता वाला, कृती। काला। क्रि० वि० (दे०) कल, काल्ह, कार्य-कारण-भाव--संज्ञा, पु० या० (सं० ) काल्हि । “काल दसहरा बीतिहै "-। कार्य-कारण-सम्बंध । काल-कंठ-संज्ञा पु० यौ० (सं०) महादेव, कार्यतः-क्रि० वि० (सं० ) कार्यरूप से, मोर, नीलकंठ पक्षी, खंजन, खिडरिच । यथार्थतः। कालक-संज्ञा, पु० (सं०) ३३ प्रकार के कार्य-प्रद्वेष-संज्ञा, पु० यो० (स०) पालस्य । केतुओं में से एक, आँख की पुतली, दूसरी कार्यवाही-संज्ञा, सी० (सं० ) काररवाई। अव्यक्त राशि ( बीजग० ) पानी का साँप, कार्यहन्ता-वि० (स० ) प्रतिबंधक, कार्य यकृत। पाधक। कालका-संज्ञा, स्त्री० (सं० ) दक्ष प्रजा. कार्यसम--संज्ञा, पु. (सं० ) न्याय की २४ । पति की कन्या जो कश्यप को व्याही थी। जातियों में से एक, इसमें प्रतिवादी किसी काल-कील---संज्ञा, पु. (सं० ) कोलाहल, कारण से उत्पन्न कार्य के सम्बन्ध में वादी- हरबरी, राड़बढ़ी। द्वारा कही हुई बात के खंडन का प्रयत्न वैसे कालकृट-संज्ञा, पु० (सं० ) एक भयंकर हो और कार्य बताकर करता है जिनमें वह / विष, काला बच्छ नाग, चित्तीदार सींगिया बात नहीं पाई जाती। जाति का एक पौधा हलाहल । भा० श० को०-५७ For Private and Personal Use Only Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir काल-केतु कालयवन काल-केतु-संज्ञा, पु. या० (सं०) एकराक्षस कालनेमि-संज्ञा, पु० (सं० ) रावण का कालकेय-संज्ञा, पु० (सं० ) वृत्तासुर का मामा, एक राक्षस, एक दानव, जिसने मित्र (राक्षस)। देवताओं को हरा के स्वर्ग पर अधिकार काल-कोठरी-संज्ञा, स्त्री० या० (सं०) अँधेरी कर लिया था। कालनेमि जिमि रावन छोटी कोठरी, जिसमें तनहाई के कैदी रक्खे । राहू"-रामा०। जाते हैं, कलकत्ते के फोर्ट विलियम किले | कालपर्णी-संज्ञा स्त्री० ( सं० ) काला की एक तंग कोठरी जिसमें शिराजुद्दौला ने निसोत । अंग्रेज़ों को बंद कर दिया था ( इति० )। काल-पालक-संज्ञा, पु. यौ० (सं०) समय काल क्रम-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) समया- की अपेक्षा करने वाला, गूढ़नीतिज्ञ । नुसार, समय के मुताबिक़ । कालपास--संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) यमकालक्षेप · संज्ञा, पु. यो. (सं० ) दिन पाश, कुछ समय तक जिस नियम से भूतकाटना, निर्वाह, गुजर-बसर । प्रेत अनिष्ट न कर सकें। कालखंड-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) परमेश्वर। | कालपुरुष-संज्ञा पु० यौ० (सं०) ईश्वर कालख-कालिख-संज्ञा, पु० (दे० ) का विराट रूप, काल, ज्योतिष शास्त्र, यम कालिमा. कारिख (दे० ), लहसन, तिल । जो ब्रह्मा के पौत्र और सूर्य के पुत्र हैं, इनके कालगंडेत-संज्ञा, पु० दे० (हि. काला+ | ६ मुख, १६ हाथ, २४ आँखें, ६ पैर हैं, गंडा ) काली चित्तियों वाला विषधर साँप। इनका रंग काला और वस्त्र लाल हैं। काल-चक्र—संज्ञा, पु० यौ० ( सं० ) समय कालप्रभात-संज्ञा.पुख्यौ० (सं०) शरत्काल । का हेर-फेर, ज़माने की गर्दिश, एक अस्त्र । कालबंजर--संज्ञा, पु० यौ० ( हि० काल+ कालज्ञ- संज्ञा पु. ( सं० ) समय की गति बंजर ) बहुत दिनों से न बोई गई भूमि । जानने वाला, ज्योतिषी काल-ज्ञाता, | कालवूत-संज्ञा, पु० ( फा० कालवुद ) कच्चा काल-ज्ञानी। भराव जिस पर मेहराव बनाई जाती है, काल-ज्ञान-संज्ञा, पु. यौ० (सं० ) स्थिति चमारों का काठ का साँचा जिस पर चढ़ा और अवस्था की जानकारी, मृत्यु-काल का कर जूता बनाये जाते हैं। ज्ञान । वि. कालज्ञानी। कालवला-संज्ञा स्त्री० (सं०) अयोग्य काल, काल-तुष्टि-संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) समय निदित समय । पाने पर सब ठीक हो जायेगा यह विचार कालबेलिया---संज्ञा पु० ( दे०) साँप को रख संतुष्ट रहना, तुष्टि (सांख्य ) विष उतारने वाला। काल-दंड-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) यमराज कालभैरव-संज्ञा पु० (सं०) शिव के अंश का दंड। काल-धर्म- संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) मृत्यु, से उत्पन्न उनके एक मुख्यगण, ब्रह्मज्ञान शून्य। विनाश, अवसान, समयानुसार धर्म, किसी विशेष समय पर स्वभावतः होने वाला कालमा--संज्ञा, पु० ( दे० ) सन्देह, व्यापार । दुविधा। काल-निर्यास-संज्ञा,पु० (सं०) एक सुगंधित | कालमूल-संज्ञा, पु. ( सं० ) लाल चित्रक पदार्थ, गूगुल । औषधि। काल-निशा-संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) दिवाली | कालमेषिका (कालमेषी)-संज्ञा, स्त्री० की रात, अँधेरी भयानक रात, प्रलय-रात्रि, | (सं० ) मजीठ, बाचकी, काला निसोत । मृत्यु-निशा । कालयवन-संज्ञा, पु० (सं० ) महर्षि गर्ग For Private and Personal Use Only Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir MNDHAR काल-यापन ४५१ काला पहाड़ से गोपाली नामक एक अप्सरा के गर्भ से करना-किसी अरुचिकर या बुरी वस्तु या उत्पन्न तथा यवनराज (जो अपुत्र थे) द्वारा व्यक्ति का दूर करना,कलंक का कारण होना, पालित हुश्रा, यह जरासन्ध का मित्र व्यर्थ की झंझट दूर करना, बदनाम करना या था और कृष्ण से लड़ा था। बदनामी का सबब होना । काला मुँह या काल-यापन-संज्ञा, पु० यौ० (सं.)। मुह काला होना-कलंकित या बदनाम काल-क्षेप, दिन काटना, गुज़र करना। होना । कलुषित, बुरा, भारी, प्रचंड । कालरा-संज्ञा, पु. ( . ) हैजा, मुहा०-कालेकोसों-बहुत दूर । संज्ञा, विसूचिका। पु० (सं० काल ) काला साँप । यौ०कालरात्रि-संज्ञा, स्त्री० यौ० ( सं० )। काला-कलूटा - वि० यौ० ( हि० ) दिवाली की रात, ब्रह्मा या प्रलय की रात । बहुत काला ( व्यक्ति )। जिसमें सब सृष्टि लय की दशा में रहती है, | कालाक्षरी--वि० ( सं० ) काले अक्षर विष्णु ही रहते हैं । मृत्यु-निशा, दुर्गा की __ मात्र का अर्थ करने वाला, विद्वान् । लो० एक मूर्ति, यमराज की बहिन जो प्राणियों " काला अक्षर भैंस बराबर-मूर्ख का नाश करती है, मनुष्य के ७० वें वर्ष व्यक्ति। के ७ वें मास की ७वीं रात जिसके बाद कालाग्नि-संज्ञा, पु. यौ० (सं० ) प्रलय वह नित्य कर्मादि से मुक्त समझा जाता की प्राग, प्रलयाग्नि-पति रुरूद्र । है, भयावनी अँधेरी रात, कालराति कालागुरु- संज्ञा, पु० (सं०) एक सुगंधित (दे० ) कालीरात (दे० )। काला काठ । कालवाचक (कालवाची)-वि० (सं०) काला चोर--संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) बुरे समय का ज्ञान करने वाला, काल का से बुरा या बड़ा चोर, अनजान व्यक्ति । सूचक अव्यय (व्या० )। कालाजीरा--संज्ञा, पु० यौ० ( हि० ) कालशाक-संज्ञा, पु० (सं० ) करेमू, __ स्याह या मीठा जीरा । सरफोंका। कालातीत-वि० यौ० (सं० ) जिसका कालसर्प--संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) वह समय बीत गया हो। संज्ञा, पु०-५ विषैला सर्प जिसके काटने से कोई प्रकार के हेत्वाभासों में से एक, जिसमें अर्थ नहीं जीता। एक देश-काल के ध्वंस से युक्त होकर असत् कालसार-संज्ञा, पु० (सं०) तेंदू का वृक्ष । | ठहरता हो । साध्य के श्राधार में साध्य काल-सूत्र--संज्ञा, पु० (सं०) एक नरक । के अभाव का निश्चय वाला एक बाध काल-सूर्य-संज्ञा, पु० यौ० ( सं० ) प्रलय | (पा० न्याय०)। काल का सूर्य । कालादाना-संज्ञा, पु. या० (हि.) एक कालस्कंध-संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) तमाल लता जिसके काले दाने रेचक होते हैं, या तिदुक तरू। इसके दाने। काला--वि० दे० (सं० काल ) काजल या कालानमक--संज्ञा, पु० यौ० (हि.) सज्जी कोयले के रंग का, स्याह, कृष्ण वर्ण । के योग से बना एक प्रकार का पाचक मुहा०-मुँह काला करना--कुकर्म | लवण, सोंचर नोन (दे०)। या पाप या कलंककारी कार्य करना, । कालानाग-संज्ञा, पु० (हि. यौ० ) काला व्यभिचार करना, किसी बुरे श्रादमी का | विषैला साँप, कुटिल व्यक्ति।। दूर होना। (दूसरे का ) मुँह काला । काला पहाड़-संज्ञा, पु० यौ० (हि.) For Private and Personal Use Only Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कालापानी ४५२ कालो भारी, भयानक, दुस्तर वस्तु, बहलोल कालिकाला ( कालिकला )-कि. लोदी का भांजा जो लिकंदर लोदी से लड़ा | वि० (हि.) कदाचित, कभी। था, नवाब मुरशिदाबाद का कट्टर और कालिख —संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० कालिका) कर सेनापति। कालौंछ, कारिख (दे० ) स्याही। कालापानी-संज्ञा, पु० यौ० (हि.) मुहा०—मुंह में कालिख लगना बंगाल की खाड़ी का वह भाग जहाँ पानी (लगाना)-बदनामी के कारण मुँह दिखाने श्याम दीखता है, देश-निकाले का दंड, योग्य न रहना ( रखना ) कालिख अंडमानादि द्वीप जहाँ देश-निकाले के कैदी पोतना, पुतजाना। भेजे जाते हैं, शराब। कालिख्या—संज्ञा, स्त्री० (सं० ) किन्दवाली काला भुजंग-वि० (हि. काला--- भुजंग --सं०) बहुत काला, घोर श्याम वर्ण का। कालिदास-संज्ञा, पु० (सं० ) ई० ५८८ संज्ञा, पु. यो० (हि. ) काला साँप।। से पूर्व के लोक-प्रसिद्ध संस्कृत के महाकवि कालास्त्र-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) एक प्रकार और नाटककार जो विक्रमादिस्य की सभा का अमोघ वाण । के : रत्नों में से एक थे, दूसरे भवभूति कालायस-संज्ञा, पु० यौ० (सं० काल+ के समकालीन ( ई० ७४८) महाकवि प्रयस् ) इस्पात । थे, ( तीसरे ११वीं शताब्दी) राजा भोज कालिंग–वि० (सं० कलिंग ) कलिंग देश | के समय के प्रसिद्ध विद्वान ग्रन्थकार थे। का। संज्ञा, पु. कलिंग-वासी, हाथी, साँप, कालिब-संज्ञा, पु० (प्र.) टोपियों को तरबूज़ । चढ़ा कर दुरुस्त करने का गोल ढाँचा, कालिंजर—संज्ञा, पु. ( सं० कालंजर ) शरीर, देह । बाँदा प्रान्त का एक पुराण-प्रसिद्ध पवित्र कालिमा-संज्ञा, स्त्री. ( सं० काल+ पर्वत एवं तीर्थ स्थान । इमन् ) कालापन, कालिख, अँधेरा, कलंकी, दोष, लांछन । कालिंदी-संज्ञा, स्त्री. (सं० ) कलिन्द ! कालीय-कालिय-काली-संज्ञा, पु० (सं०) पर्वत से निकली यमुना नदी, कृष्ण की कृष्ण का वश किया हुआ एक सर्प, यह एक स्त्री, एक वैष्णव-सम्प्रदाय । गरुड़ के भय से समुद्र को छोड़ व्रज में कालि (काल्ह, काल्हि )-क्रि० वि० यमुना के भीतर रहता था, कृष्ण की आज्ञा (दे०) कल । कालिक-वि० (सं० ) समय-सम्बन्धी, | कालियङ--संज्ञा, पु० (दे० ) मलय से फिर समुद्र में रहने लगा। अनिश्चित समय, कालोचित । चन्दन । कालिका—संज्ञा, स्त्री. (सं०) देवी की काली-संज्ञा, स्त्री. (सं० ) चण्डी, दुर्गा, एक मूर्ति, चंडिका, काली, कालिख, बिछुथा पार्वती, १० महाविद्याओं में से प्रथम, पौधा, मेघ, स्याही, मसि, शराब, आँख अग्नि की ७ जिह्वानों में से प्रथम, एक की काली पुतली, रोम राजी, जटामासी, नदी, श्राद्या प्रकृति, शान्तनु-नृप-पत्नी। शृगाली, काकोली, कौवे की मादा, कुहरा, | क्रि० वि० (दे०) कल-"राम तिलक झाड़ी, ४ वर्ष की कन्या, सुवर, दक्ष की जो साँचेहु काली "-रामा०। वि० कन्या, काली मिट्टी। यौ० कालिका- | स्त्री० (हि० काला ) काले वर्ण की। यौ० पुराण-संज्ञा, पु० (सं०) कालिका देवी | कालीघटा-कादम्बिनी, काले बादल । के माहात्म्य का एक उपपुराण । कालीरात-अँधेरी रात । कालीज़बान For Private and Personal Use Only Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कालीजीरी ४५३ काश्त (गिरा)-वाणी-जिसकी अशुभ बातें | ( काव्य-कौशल ( कविता की रचना-कला सत्य हो जायें। और उसमें दक्षता। काव्यत्व-संज्ञा, पु० कालीजोरी- संज्ञा, स्त्री० दे० ( सं० । (सं०) काव्य का लक्षण या स्वरूप। काव्यकणज़ीर ) एक पेड़ की बोंड़ी के बीज जो शास्त्र-काव्य-रचना से सम्बन्ध रखनेदवा के काम में थाते हैं। वाले नियमों या विधानों का सिद्धान्त कालीदह--संज्ञा, पु. (दे०) काली नाग ग्रंथ । “काव्य-शास्त्र-विनोदेन" - भतृ । के रहने का कालिन्दी-कुण्ड (वृन्दावन )। | काव्यलिंग-संज्ञा, पु० (सं.) एक अर्थाकालीन ---वि० ( सं० ) काल-सम्बन्धी, लंकार जिसमें किसी कही हुई बात का जैसे समकालीन, भूतकालीन । कारण वाक्य या पद के अर्थ-द्वारा प्रगट कालीन-संज्ञा, पु. (अ.) मोटे तागों किया जाता है। से बुना हुआ बेल-बूटेदार मोटा और काव्यार्थापत्ति-संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) भारी बिछावन, गलीचा। अर्थापत्ति नामक अलंकार। कालीमिर्च-संज्ञा, स्त्री० (हि. ) गोल काव्या-संज्ञा, स्त्री० (सं० ) पूतना, वृद्धि । मिर्च। काश-संज्ञा, पु० (सं०) एक घास, काँस, काली शीतला-संज्ञा, स्त्री० चौ. (हि.) | खाँसी, खोखी, (दे०)। एक प्रकार का एक प्रकार की चेचक जिसमें काले दाने | चूहा, एक मुनि । संज्ञा, स्त्री. (सं०) निकलते हैं। काशनी-भारंगी नामक औषधि । कालेश्वर-संज्ञा, पु. यो. ( सं० ) | काशि-संज्ञा, पु० (सं०) सूर्य, काशी महादेव, महाकाल । नगरी । यौ० संज्ञा, पु. ( सं० ) कालोछ–संज्ञा, स्त्री० ( हि० काला+औंछ | काशिराज--काशी नरेश, दिवोदास, -प्रत्य० ) कालिख , स्याही। धन्वन्तरि। काल्पनिक--संज्ञा, पु. (सं० ) कल्पना काशिका-संज्ञा, स्त्री० (सं० ) काशीपुरी, से उत्पन्न, कल्पित, कल्पना करने वाला। जयादित्य और वामन-रचित पाणिनीय वि० मनगढन्त, मिथ्या, कृत्रिम । व्याकरण पर वृत्ति ग्रंथ, वि० स्त्री० (सं०) कावा-संज्ञा, पु० ( फा० ) घोड़े को वृत्ता- प्रकाश करने वाली, प्रदीप्ति, प्रदीपिका। . कार चक्कर देने की क्रिया। काशी-संज्ञा, स्त्री. (सं० ) वाराणसी, मुहा०-कावा काटना-वृत्त में दौड़ना, शिवपुरी, वि० (सं.) काशरोगी, तेजोमय, चक्कर खाना, आँख बचा कर दूसरी ओर | यौ० काशीनाथ (पति)-शिव । कासी निकल जाना । कावा देना-चक्कर देना । " " काटतिकावा गं० २० | काशीकरवट--संज्ञा, पु० दे० (सं० काशी. ......" कर-पत्र ) काशी का एक तीर्थ-स्थान जहाँ काव्य-संज्ञा, पु० (सं० ) रमणीयार्थ प्रति प्राचीन काल में लोग आरे से अपने को पादक, अलंकृत, रसात्मक विचित्रता या चिराया करते थे। चमत्कार, चातुर्य से पूर्ण वाक्य या रचना | काशी-फल-संज्ञा, पु० दे० (सं० काशफल) जो अलौकिक आनन्द दे सके, कविता, कुम्हड़ा।। काव्य का ग्रन्थ, रोला छन्द का एक भेद। काश्त-संज्ञा, स्त्री० (फा० ) खेती, कृषि, यौ०-काव्यचौर-दूसरे की कविता चुरा ज़मींदार को वार्षिक लगान देकर उसकी कर अपनी कहने वाला। काव्य-कला- | जमीन पर कृषि करने का स्वत्व । For Private and Personal Use Only Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org काश्तकार काश्तकार - संज्ञा, पु० ( फ़ा० ) किसान, खेतिहर (दे० ) ज़मींदार से लगान पर भूमि लेने वाला | संज्ञा, स्त्री० ( फ़ा० ) काश्तकारी -किसानी, खेती, काश्तकार का हक़ । काश्मरी - संज्ञा, स्त्री० (सं० ) गंभारी का पेड़ । ४५४ काश्मीर - संज्ञा, पु० (सं०) भारत के उत्तर मैं एक पहाड़ी प्रान्त, पुष्करमूल, सुहागा, केसर | संज्ञा, पु० (सं० ) काश्मीरजकश्मीर में उत्पन्न कूट, कुंकुम । वि० काश्मीरी-काश्मीर सम्बन्धी, काश्मीरवासी । काश्मीरा-कशमीरा—संज्ञा, पु० ( दे० ) एक प्रकार का मोटा ऊनी कपड़ा । काश्यप – दि० ( सं० ) कश्यप प्रजापति के वंश या गोत्रका | संज्ञा, पु० (सं०) करणादि मुनि, मृग विशेष । यौ० काश्यपमेरू काश्मीर देश, कश्यप मुनि का पर्वत । काश्यपि संज्ञा, पु० (सं० ) अरुण, सूर्य का सारथी । काश्यपी -संज्ञा, स्त्री० (सं०) पृथ्वी, प्रजा । काषाय - वि० (सं० ) हर-बहेड़े श्रादि कसैले पदार्थों में रँगा, गेरुचा । काष्ठ- संज्ञा, पु० (सं०) लकड़ी काठ (दे० ) ईंधन | काष्ठा -- संज्ञा, स्त्री० (सं० ) सीमा, अवधि, ऊँचाई, ऊँची चोटी, उत्कर्ष, १८ पल या ३० कला, समय, चन्द्रमा की एक कला, दिशा, धोर, दत्त - कन्या, सड़क । काठी-संज्ञा, स्त्री० (सं० ) फिटकिरी । कास संज्ञा, स्त्री० (सं० ) कास या श्वासखाँसी, (दे० ) सरपत | संज्ञा, पु० दे० (सं० काश ) काँस, तृण । "फूले कास सकल महि छाई" - रामा० । कासनी - संज्ञा, स्त्री० ( फा० ) एक औषधि का पौधा, कासनी के बीज, कासिनी के फूलों सा नीला रंग । किंकर्तव्यविमूढ़ कासबी - संज्ञा, पु० ( दे० ) तंतुवाय, जुलाहा, कोरी ( ० ) । कासा - संज्ञा, पु० ( फ़ा० ) प्याला, कटोरा, आहार, दरियाई नारियल का बर्तन ( फ़कीरों का ) । कासार - संज्ञा, पु० (सं० ) छोटा ताल, २० रगण का एक दंडक भेद, पँजीरी । क़ासिद - संज्ञा, पु० ( अ० ) हरकारा, पत्र - बाहक । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कासु–सर्व० (दे०) किस का क़ाको (०) केहिकर ( श्रव० ) । काह* - क्रि० वि० दे० (सं० कः ) क्या, कौन वस्तु । काहिण – संज्ञा, पु० (सं०) १६ पण की एक तौल | काहि – सर्व दे० ( हि० प्रत्य० ) किसे, किसको किससे " कहहु काहि यह लाभ न भावा ।" रामा० । काहिल - वि० (अ० ) सुस्त | संज्ञा, स्त्री० ( श्र०) काहिली - सुस्ती । -सर्व ० (दे० ) काहू (दे०) किसी । काहु न संकरचाप चढ़ावा " रामा० । काहू सर्व० दे० ( हि० का + हू – प्रत्य० ) किसी काहु (दे० ) संज्ञा, पु० ( फ़ा० ) गोभी सा एक पौधा जिसके बीज दवा के काम में आते हैं। काहे - क्रि० वि० दे० (सं० कथं प्रा० कह ) क्यों, किस लिये । सर्व० (दे० ) किस, जैसे -- काहे से, काहे को क्यों 1 किं - भव्य ० ( सं० किम् ) क्यों, वि० (सं० किम् ) क्या, सर्व० (सं० ) कौन सा । यौ० किमपि - —कुछ भी, कोई भी, कैसे ही। किंकर -संज्ञा, पु० (सं० किं + कृ + भ ) दास, नौकर, राक्षसों की एक जाति । स्त्री० किंकरी - दासी | किंकर्तव्यविमूढ़ - वि० यौ० (सं० ) क्या करना चाहिये यह जिसे न सूझे, भौचका, घबराया हुआ, व्याकुल | संज्ञा स्त्री० किंकर्तव्यविमूढ़ता | I काहु 66 For Private and Personal Use Only Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४५५ .. किंकिणी कितना किंकिणी--संज्ञा, स्त्री० (सं०) चुद्र घंटिका, किचकिच-संज्ञा, स्त्री० ( अनु० ) बकवाद, करधनी, कमरकस । किकिनि-(दे०) झगड़ा, दाँत-पीसी। " कंकण, किंकिन, नूपुर धुनि सुनि”- किचकिचाना--अ० कि० ( अनु० )) (क्रोध रामा०। से ) दाँत पीसना, दाँत पर दाँत दबाना। किंगरी--संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० किनरी) संज्ञा, स्त्री० किचकिची-किचकिचाहटछोटा चिकारा, जोगियों की छोटी सारंगी। किचकिचाने का भाव । "गिरी बीन सितारे"---कबी०, किंनरी किचड़ाना-किचराना-अ. क्रि० (हि. कीचड़ + आना-क्रि० ) आँख की कीचड़ से किंचन-संज्ञा, पु. ( सं०) थोड़ी वस्तु, | भरना । थोड़ा, तुद्र। किचपिच-संज्ञा, पु० (दे०) अव्यक्त शब्द, किचित-वि. (सं० ) कुछ थोड़ा, यौ० । कीचड़, कि० अ० किचपिचानाकिंचिन्मात्र-थोड़ा भी, कुछ ही दुबिधा होना, कीचड़ होना। क्रि० वि० . कुछ, थोड़ा। किचिरपिचिर-वि० (दे०) गिचपिच, किजल्क-संज्ञा पु० (सं० ) पद्म-केसर अस्पष्ट, गन्दा। | किछुछ—वि० ( दे० ) कुछ, कछु, (ब्र०) कमल, कमल के फूल का पराग, नाग केशर । वि. (सं० ) पद्म-केसर के रंग का।। __ कछू, कळूक (७०)। किंतु-अव्य० ( सं० ! पर, लेकिन, परन्तु, किटकिट--संज्ञा, स्त्री० । अनु०) किटकिट वरन, बल्कि । का शब्द। क्रि० अ० किटकिटानाकिन्तुवादी-वि० (सं० ) दूसरों की बात | | (सं० किटकिटाय ) क्रोध से दाँत पीसना, काटने वाला। किटकिट शब्द करना, करकना । किटकिना किटकिन्ना-संज्ञा, पु० दे० (सं० किंपुरुष-संज्ञा पु० (सं.) किन्नर, दोगला, वर्ण-संकर, एक प्राचीन मनुष्य-जाति, कृतक) वह दस्तावेज जिसके द्वारा ठेकेदार वि० -निंदित । अपने ठेके की चीज़ का ठेका दूसरे को देता किंवदंती-संज्ञा, स्त्री० (सं०) उड़ती है, चालाकी, निशान, दाँते । किटकिनाख़बर, जनश्रुति, अफ़वाह ।। दार-संज्ञा, पु० (हि. किटकिना+ दार—प्रत्यफ़ा ) ठेकेदार से ठेके पर किंवा-अव्य. ( सं० ) या, याती, लेने वाला दाँतेदार। अथवा, किंबा--(दे० )" नृप-अभिमान किट-संज्ञा, पु० (सं०) कोट ( दे०) मोहबस किंबा" - रामा० । धातु का मैल, तेल आदि के नीचे का मैल । किंशक-संज्ञा, पु. ( सं० ) पलाश, ढाक, किटि-संज्ञा, पु० (सं०) सुअर, बाराह । टेसू. " निगंधाः इव किंशुकाः।" किटिभ- संज्ञा, पु० (सं०) जू, केश-कीट । कि-सर्व० दे० (सं० किम् ) क्या, किस किण्व-संज्ञा, पु० (सं०) मदिरा । प्रकार , अव्य० (सं० किम् , फ़ा० कि) एक कित-क्रि० वि० दे० (सं० कुत्र ) कहाँ, संयोजक शब्द जो कहना आदि क्रियाओं के किधर, किस ओर, कितै (व.)। बाद विषय-वर्णन के लिये आता है, इतने कितक-वि० कि०, वि० दे० ( सं० में, तत्क्षण, या, अथवा । कियत् ) कितना । कितिक (दे०)। किकियाना-अ. क्रि० ( अनु०) कींकी | कितना-वि० दे० (सं० कियत् ) किस या के के का शब्द करना, रोना । परिमाण, मात्रा या संख्या का, (प्रश्नार्थक) For Private and Personal Use Only Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कितव किनारे अधिक, क्रि० वि०-कहाँ तक, बहुत, चाहे । संज्ञा, पु० (सं० किण) चिन्ह, दाग़ । कितनो, केतो, कित्तो (व.)। " बिगरी बात बनै नहीं, लाख करौ किन कितव-संज्ञा, पु० (सं० ) जुआरी, धूर्त, कोय"-रही। छली, दुष्ट, बंचक, धतूर, गोरोचन । किनका-किनिका, किनुका-संज्ञा, पु० किता-संज्ञा पु० (अ.) सिलाई के लिए | दे० (सं० कणिक ) अन्न का टूटा हुआ कपड़ों की काट-छाँट, व्योंत, ढंग, चाल, टुकड़ा, चावलों का कना, छोटा दाना, संख्या, अदद, विस्तार का भाग, प्रदेश, बूंदें, कनूका (७०) “ बिद्रुम, हेम, वज्र भू-भाग। __ को किनुका"। किताब-संज्ञा, स्त्री. (अ.) पुस्तक, ग्रंथ, किनवानी-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० कण + बही, रजिस्टर, कितेब-(दे० ) वि०- पानी ) छोटी छोटी बंदों की झड़ी, फुहो। किताबी-किताब का, किताब का सा। किनवैय्या--वि० (दे० ) ग्राहक, गाहक । म०--किताबीकीड़ा-सदैव पुस्तक पढ़ने | क्रि० स० (दे० ) खरीदना। वाला, किताबी चेहरा--किताब का किनहा- वि० दे० ( सं० कर्णक, प्रा. सा लंबा चेहरा। करण-+ हा-प्रत्य० ) जिसमें कीड़े पड़ कितिक-वि० (दे० ) कितक, कितना। गये हों ( फल ) कन्ना। कितीक-केतिक (दे०)। किनार-किनारा*--संज्ञा, पु० (फा०) कार, कितक-वि० दे० (सं० कियदेक) कितना, तीर, तट, छोर, प्रान्त, हाशिया, किसी असंख्य, बहुत । "बारन कितेक करै "- | लंबी-चौड़ी वस्तु का लंबाई या चौड़ाई के ऊ. श०। अंतिम भाग। कितै*-अव्य० ( दे० ) कित, कहाँ। मु०-किनारे लगना-( या लगाना)कितो*-वि० दे० (सं० कियत् ) कितना, किसी कार्य को समाप्ति पर पहुँचाना, पार केतो (७०) क्रि० वि०--कितना । स्त्री० लगाना (जीवन या नौका ) । लंबाई किती, कित्ती। चौड़ाई वाली वस्तु के विस्तार के अंतिम कित्ता-वि० दे० (सं० कियत् ) कितना, भाग, भिन्न रंग या बुनावट वाले कपड़े कित्तो । स्त्री० कित्तो। श्रादि का छोर, गोट, बिना चौड़ाई की कित्ति-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० कीति, वस्तु का छोर, पार्श्व, बग़ल । प्रा० कित्ति) कीर्ति, यश । “अखंड कित्ति मु०-किनारा खींचना (किनारा कशी लेय देय मान लेखिये "--राम । करना) दूर होना, हटना । किनारे न किदारा-केदारा-संज्ञा, स्त्री० (दे०) गर्मी जाना–अलग रहना, बचना। किनारे में आधी रात को गाई जाने वाली एक बैठना ( रहना, होना ) अलग या दूर रागनी। होना । किनारा करना छोड़ देना। किधर-क्रि० वि० दे० (सं० कुत्र) किस वि० किनारदार-जिसमें किनारा बना ओर, कहाँ, कितै (दे०)। हो । स्त्री० किनारी । ब० व० किनारे। किधौं *-अव्य० दे० (सं० किम् ) अथवा, . किनारी-संज्ञा, स्त्री० (फ० किनारा) सुन या, या तो, न जानें । कैधौं (दे०) “ किधौं | हरा या रूपहला पतला गोटा जो किनारे पमिनिकौं सुख देत धनो"--- राम। पर लगाया जाता है, मगजी, गोट । किन-सर्व० (हि०) किस का ब० व०। किनारे-क्रि० वि० (हि० किनारा) कोर कि० वि० दे० (सं० किम् + न ) क्यों न. या बाढ़ पर, तटपर, अलग । For Private and Personal Use Only Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir किन्नर ४५७ किरण-किरन किन्नर-संज्ञा, पु० (सं० किं+नर ) घोड़े । खेतों, बगीचों में थोड़े थोड़े अंतर पर पतली के से मुख वाले एक प्रकार के देवता, गाने- | मेड़ों के बीच की भूमि, जिसमें पौधे लगाये बनाने के पेशे वाले। स्त्री० किन्नरी, यौ० जाते हैं, क्यारी, सिंचाई के लिए खेतों में किन्नरेश-कुबेर । बनाये गये विभाग, समुद्र के खारा पानी के किन्नरी-संज्ञा, स्त्री. (सं० ) किन्नर की रखने का कडाह (नमक जमाने के लिये )। अप्सरा, स्त्री, एक प्रकार का तबूरा, सारंगी, कियाह-संज्ञा, पु० (सं० ) लाल घोड़ा। विद्याधरी । " कहँ किन्नरी किन्नरी लै किरंटा-संज्ञा, पु० दे० ( भ० क्रिश्चियन ) सुनावै "- रामा०। केरानी (दे०) तुच्छ, क्रिस्तान या ईसाई। किफ़ायत-संज्ञा, स्त्री० ( म०) काफ़ी या | किरका-संज्ञा, पु० दे० (सं० कर्कट =कंकड़ी) अलम् का भाव, कम ख़र्च, बचत । वि० छोटा टुकड़ा, कंकड़ी, किरकिरी । किफ़ायती-कम खर्च करने वाला। किरकिट -संज्ञा, पु० दे० (अ० क्रिकेट) किबला-संज्ञा, पु० (भ० ) पश्चिम दिशा, गेंद-बल्ले का खेल। पूज्य, पिता। किरकिरा-वि० दे० (सं० कर्कट) कॅकरीला, किबलानुमा-संज्ञा, पु० (१०) अरब महीन और कड़े रवे वाला। लोगों का पश्चिम दिशा बताने वाला यंत्र।। मु०-किरकिरा होना-रंग में भंग किम-वि० सर्व० (सं० ) क्या, कौन सा। होना, आनंद में विघ्न होना। (मन) यौ० किमपि-कुछ भी। यो० किमर्थ - किरकिरा होना-विमनता होना । किरकिराना-अ० कि० (हि. किरकिरा ) किस लिए, क्यों। किरकिरी पड़ने की सी पीड़ा होना। किमाकार-वि० (सं० ) कुत्सित प्राकृति- किरकिराहट-संज्ञा, स्त्री० (हि. किरकिरा वाला, अनभिज्ञ । +हट-प्रत्य० ) अाँख में किरकिरी पड़ने किमाछ—संज्ञा, पु० (दे० ) केवाँच। । की सी पीड़ा, दाँत तले कँकरीली वस्तु का किमाम -- संज्ञा, पु० (अ० ---किवाम् ) गाढ़ा, | शब्द, कॅकरीलापन । शहद का शरबत, तंबाकू का ख़मीर । किरकिरी-किरकिटी-संज्ञा, स्त्री० दे० किमाश-संज्ञा, पु. (म.) तर्ज, ढंग, (सं० कर्कर ) धूल या तिनके का कण जो ' वज़ा, ताज, गंजीफे का एक रंग। आँख में पड़कर पीड़ा पैदा करे, अपमान, किमि-क्रि० वि० दे० (सं० किम् ) कैसे, हेठी। "तनिक किरकिरी परत ही-"रामा० किस प्रकार । " स्याम गौर किमि कहौं किरकिल संज्ञा, पु० दे० (सं० क्रकलास ) बखानी"-रामा०। गिरगिट । संज्ञा, स्त्री० (दे०) कृकल । किमत - भव्य० (सं० ) प्रश्न, वितर्कादि संज्ञा, पु० (दे० ) किलकिल, झगड़ा। सूचक । किरच-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० कृति =कैंची) किम्पच-वि० (सं०) कृपण, सूम। नोंक के बल सीधी भोंकी जाने वाली एक किम्भूत-वि० ( सं० किं+भू+क्त ) | छोटी तलवार, छोटा नुकीला टुकड़ा । की दृश, कैसा। " जनु पीक कुपूरन की किरचै"-रामा । कियत-वि० (सं० ) कितना । किरचक ( दे०)। किम्मत -संज्ञा, स्त्री० दे० (अ. हिकमत ) | किरण-किरन-संज्ञा, स्त्री० (सं० ) रश्मि, युक्ति, होशियारी। अंशु. तेज की रेखा । यौ० किरणमालीकियारी-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० केदार ) संज्ञा, पु. (सं०) सूर्य, चंद्र, किरणकर। भा० श. को०-१८ For Private and Personal Use Only Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir किरिपा ४५८ किरीटी प्रकाश की अति सूक्ष्म रेखायें जो सूर्य, किरात-संज्ञा, स्त्री० दे० ( अ० केरात) चंद्र, दीपक आदि कांतिमान पदार्थों से । ४ जौ के बराबर जवाहिरातों की एक तौल। निकल कर फैलती हैं। किरान-क्रि० वि० (दे०) पास, निकट । मु०-किरण फूटना-सूर्य या चंद्र का किराना–संज्ञा, पु० (दे० ) केराना, मेवा. उदय होना । कलेबतून या बादले की मसाला आदि । प्र. क्रि० (दे०) कुंठित बनी झालर । किरिन् (दे०)। या गोठिल होना, टूट कर दाँतेदार होना । किरिपा-संज्ञा, स्त्री० (दे० ) कृपा ''काटि ना किरानीहै "- ( रत्नाकर ) । (सं०)। किरानी-संज्ञा, पु० (दे० ) क्रिश्चियन किरपान-संज्ञा, पु० (दे० ) कृपाण । (अं० ) ईसाई, केरानी। (सं० ) तलवार । किराया--संज्ञा, पु० (अं० ) दूसरे की किसी किरम (किरिम )-संज्ञा, पु० दे० (सं० वस्तु को काम में लाने के बदले जो उसके कृमि ) कीट, कीड़ा, किरमदाना ( दे० )। मालिक को दिया जाय, भाड़ा, मुआवज़ा। किरमाल*- संज्ञा, पु० दे० (सं० करवाल ) । यौ० किराया-भाडा। तलवार । किरवार (दे०)। किरायेदार - संज्ञा, पु. ( फ़ा. किरायादार) किरमिच-संज्ञा, पु० दे० ( अं० कैनवस ) कुछ भाड़ा, देकर दूसरे की वस्तु को कुछ एक प्रकार का महीन टाट या मोटा विला- काल तक काम में लाने वाला। यती कपड़ा जिसके जूते, बेग आदि बनते हैं। किरार--- संज्ञा, पु० (दे०) एक नीच जाति । किरमिज (किर्मिज )-संज्ञा, पु० दे० किरावल-संज्ञा, पु० दे० (तु० करावल ) (सं० कृमिज ) हिरमिजी, मटमैलापन लिये युद्ध क्षेत्र को ठीक करने के लिये आगे करौंदिया । वि. किरमिजो-किरमिज भेजी गई सेना, बंदूक से शिकार करने के रंग का। वाला, शिकारी। किरराना-अ. क्रि० ( अनु० ) क्रोध से किरासन (किरासिन)-संज्ञा, पु० दे० दाँत पीसना, किरकिरें शब्द करना। ( अं० किरोसिन ) मिट्टी का तेल । किरवान*--संज्ञा, पु. (दे० ) कृपाण किरिच ( किर्च )---संज्ञा, पु० (दे०) (सं० ) तलवार, एक प्रकार का दंडक टुकड़ा, खंड, फिरच नामक अस्त्र । छंद-भेद। किरिमदाना-संज्ञा, पु. (दे०) कृमि । किरवारा -संज्ञा, पु० दे० (सं० कृतमाल ) (सं० ) थूहर का किमिज नामक कीड़ा श्रमलतास, खड्ग । (लाख कासा) जो सुखा कर रंगने के किराँची-संज्ञा, स्त्री० दे० ( अं० कैरेज ) काम में शाता है। रेल की माल गाड़ी का डिब्बा, भूसा आदि किरिया-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० क्रिया ) लादने की बैल गाड़ी। शपथ, सौगंध, कसम कर्तव्य, मृतक-कर्म, किरात (किरातक)-- संज्ञा, पु० (सं० ) श्राद्धादि कृत्य ( काल), सौंह । ( दे० ) एक प्राचीन जंगली जाति, हिमालय के । यौ०-किरिया-करम-क्रिया-कर्म (सं०) पूर्वीय भाग के आस-पास का प्रदेश मृतक-कर्म श्राद्धादि। ( प्राचीन ) भील, निषाद, चिरायता, किरीट-- संज्ञा, पु० (सं० ) मस्तक का साईल । “ यह सुधि कोल-किरातन पाई" एक भूषण, शिरोभूषण मुकुट, ताज, --रामा० । स्त्री किरातिनी, किरातिन, ८ भगण का एक वर्णिक सवैय्या। किराती यौ० किरात पति--शिव। किरीटी- संज्ञा, पु० (सं० ) इंद्र, अर्जुन । For Private and Personal Use Only Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org किरीरा ४५६ 66 किरीरा - संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० क्रीड़ा ) खेल, कौतुक, सहि हंस श्री करहि किरीरा " किर्तनिया - संज्ञा, पु० दे० ( सं० कीर्तन ) कीर्तन करने वाला | -प० । किर्मीर - संज्ञा, पु० (सं० ) भीम द्वारा मारा गया एक राक्षस । किल - अव्य० (सं० ) निश्चय, सचमुच । किलक - संज्ञा, स्त्री० ( हि० किलकना) हर्ष - ध्वनि करने की क्रिया, प्रभा, किलकार । संज्ञा, स्त्री० ( फा०-किलक ) एक प्रकार का नरकट जिसकी क़लम बनती है । किलिक (दे० ) । किलकना - ० क्रि० दे० (सं० किलकिल ) हर्ष - ध्वनि करना | "किलकत. हँसत, दुरत, 199 प्रगटत मनु सूर किलकार -- संज्ञा स्त्री० ( हि० किलक ) हर्ष ध्वनि । स्त्री० किलकारी । किलकिंचित संज्ञा, पु० (सं० ) संयोग शृंगार के ग्यारह हावों में से एक, जिसमें नायिका एक साथ कई भाव प्रगट करती है । " हरप, रब, अभिलाष, श्रम, हास, रोप, अरु भीति । होत एक ही संग सो, किलकिंचित की रीति ॥ " मति० । किलकिल संज्ञा स्त्री० (दे० ) झगड़ा, बाद-विवाद | किलकिला-संज्ञा स्त्री० (सं०) हर्प - ध्वनि, किलकारी, बानरों का शब्द | संज्ञा, पु० ( सं० कृकल ) मछली खाने वाली चिड़िया, संज्ञा, पु० ( अनु० ) समुद्र का वह भाग जहाँ तरंगें शब्द करती हों । किलकिलाना ( - अ० क्रि० ( हि० ) प्रमोदध्वनि करना, चिल्लाना । हल्ला-गुल्ला या झगड़ा करना, वाद-विवाद करना | किलकिलाहट - संज्ञा, स्त्री० ( हि० ) किलकिलाने का भाव । किलना - अ० क्रि० ( हि० कील ) कीलन होना, कीला जाना, वश में किया जाना, Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir किल्ली गति का अवरोध होना | संज्ञा, पु० (दे० ) एक छुद्रजन्तु | किलनी -- संज्ञा, स्त्री० (दे० ) पशुओं की देह में चिपटने वाला एक छुद्र कीड़ा । किलबिलाना- -प्र० क्रि० ( दे० ) कुलबुलाना । किलवाँक - संज्ञा, पु० ( दे० ) एक प्रकार काली घोड़ा | किलवाना - स० क्रि० (हि० किलना का प्रे० रूप) कील जड़ाना या लगवाना, तंत्र-मंत्रद्वारा भूत-प्रेत की वाधा को शान्त कराना । किलवारी - संज्ञा स्त्री० दे० (सं० कर्ण ) पतवार, कक्षा, छोटा डाँड़ । किलविष-संज्ञा, पु० दे० (सं० किल्विष ) पाप, रोग, दोष । किलहंटा - संज्ञा, पु० (दे० ) एक प्रकार का सिरोही पक्षी । " फ़िल - संज्ञा, पु० ( ० ) दुर्ग, गढ़, कोट, सुदृढ़ स्थान ( सेना का ) संज्ञा, पु० किलेदार- दुर्गपति । यौ० किताबन्दी - दुर्गनिर्माण, मोरचाबन्दी, व्यूह-रचना । किलाना ० क्रि० ( दे० ) किलवाना | किलावा - संज्ञा, पु० ( फ़ा० कलावा ) हाथी के गले का रस्सा जिसमें पैर फँसा कर महावत उसे चलाता है । किलोल संज्ञा, पु० दे० ( सं० कलोल ) कल्लोल, मौज, आमोद-प्रमोद | किल्लत - संज्ञा, स्त्री० ( अ० ) कमी, तड़ी | किल्ला - संज्ञा, पु० ( हि० कील ) बड़ी कील, खूँटा । किल्ली -संज्ञा, स्त्री० ( हि० कील ) कील, खूँटी, सिटकिनी, किल्ली, किसी कल या पेंच की मुटिया, अर्गल । मु० - ( किसी की ) किल्ली (कील ) किसी के हाथ में होना- किसी का किसी पर वश होना। किल्ली घुमाना ( ऐंठना ) - दाँव या युक्ति लगाना । For Private and Personal Use Only Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir किल्विष किस्मत किल्विष-संज्ञा, पु० (सं० ) पाप, दोष, | किसनई-संज्ञा, स्त्री० (दे०) किसानी, रोग, अपराध । खेती, कृषक-कर्म। किवांच-संज्ञा, पु० (दे०) केवाँच (सं० किसब*-संज्ञा, पु० ( दे० ) कसब, कारीकच्छु ) सेम की सी एक बेल जिसकी लम्बी गरी, व्यवसाय । कलियों की तरकारी बनती है, कपिकच्छु, किसवत-संज्ञा, स्त्री० (40) नाइयों की कौंछ, कौंच (दे०)। उस्तरा, कैंची आदि रखने की पेटीया थैली। किवाड़-संज्ञा, पु० दे० (सं. कपाट ) किसमत - संज्ञा, स्त्री. (दे०) किस्मत द्वार की चौखट पर जड़े हुए लकड़ी के पल्ले (फा ) भाग्य, कई प्रान्तों या ज़िलों का जिनसे द्वार बन्द हो जाता है, पट, कपाट, समूह, कमिश्नरी । केवाड़ा । स्त्री० अल्प०-किवाड़ी। किवार किसमी*-संज्ञा, पु० दे० (अ. कसंबी) केवार (दे०)। श्रमजीवी, कुली, मजदूर। किशमिश-किसमिस-संज्ञा, स्त्री० ( फा) | किसान-संज्ञा, पु० दे० (सं० कृषाण, प्रा० सूखा छोटा बेदाना अंगूर । वि. किश- किसान ) कृषि या खेती करने वाला। मिशी-किशमिश-युक्त, किशमिश केसे रंग किसानी-संज्ञा, स्त्री० (हि. किसान) खेती, का। संज्ञा, पु० एक प्रकार का अमौना।। किसान का काम । किशलय-संज्ञा, पु० (सं० ) नया कोमल किसी-सर्व०, वि० (हि. किस + ही) पत्ता, कल्ला, कोपल, किसलय (दे०)। विभक्ति लगने से पूर्व काई का रूप। किशोर-संज्ञा, पु० (सं० ) ११ से १५ | किसू (दे०) काहू (व.)। वर्ष तक का बालक, पुत्र, बेटा, बाल और किसे-सर्व० (हि. किस ) किसको। युवा अवस्था के बीच की ( १० से १५ वर्ष किस्त-सज्ञा, त्रा० ( अ०) कई बार की) अवस्था । स्त्री० किशोरी-किशोरा- ऋण चुकाने का ढंग, निश्चित समय पर वस्था प्राप्त स्त्री०, कुमारी । दिया जाने वाला ऋण-भाग । किश्त- संज्ञा, स्त्री० ( फा० ) बादशाह का किस्ताबन्दी-संज्ञा, स्त्री० (फ़ा किश्त) थोड़ा किसी मोहरे की घात में होना (शतरंज में) थोड़ा करके रुपया अदा करने का ढंग । शह, किसी रकम का भाग। क्रि० वि०-किस्तवार (फा) किस्त करके, हर किस्त पर। किश्ती-संज्ञा, स्त्री० दे० (फा० कश्ती) | किस्म-संज्ञा, स्त्री० (म.) प्रकार, भेद, नाव, छिछली थाली या तस्तरी, शतरंज में ढंग, तर्ज, चाल, भाँति। हाथी का मोहरा। किस्मत-संज्ञा, स्त्री. ( . ) भाग्य, किश्तीनुमा-वि० (फा० ) नाव के आकार प्रारब्ध, नसीब, तकदीर । का, जिसके दोनों किनारे धन्वाकार होकर म-किस्मत आज़माना-किसी काम को छोरों पर कोना बनाते हुए मिले । उठा कर देखना कि उसमें सफलता होती किष्किंधा-संज्ञा, पु. (सं० ) मैसूर के है या नहीं । किस्मत चमकना या आस-पास के देश का प्राचीन नाम । संज्ञा, जागना-भाग्योदय होना, भाग्य का प्रबल स्त्री० (सं.) किष्किंधा - एक पर्वत, होना। किम्मत फटना होना। किस्मत फूटना-मन्द भाग्य उसको गुफा । बालि बानर की राजधानी।। होना । किस्मत को (पर) रानाकिस-सर्व० दे० (सं० कस्य ) विभक्ति अपनी मन्दभाग्यता पर दुख करना, किसी लगने से पूर्व कौन और क्या का रूप । काम में असफल होकर पछताना । किस्मत For Private and Personal Use Only Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - - कस्सा कीधों ठोंक कर कुछ करना-- अपने भाग्य पर कीचर (दे०) आँख का सफ़ेद मैल । भरोसा करके करना । किसी प्रान्त या प्रदेश "...आँखिन-बरौनिन-मैं कीचर छपानो के कई जिलों का एक भाग, कमिश्नरी।। है-' बेनी० । वि० ( फा ) किस्मतवर-भाग्यवान । कीजिय ( कीजै)-स० क्रि० (हि० करना) किस्सा- संज्ञा, पु. ( . ) कहानी | कीजिये, करिये। (दे०) कथा, समाचार, कांड, झगड़ा, कीट-- संज्ञा, पु० (सं० ) रेंगने या उड़ने वृत्तान्त । यौ० किस्सा-कहानी। वाले तुद्र जन्तु, कीड़ा-मकोड़ा, कृमि, की --प्रत्य० (हि.) सम्बन्ध कारक की कोरा ( दे० ) किरवा (दे.)। विभक्ति का का स्त्रीलिङ्ग रूप । स० कि० । मु०-कीड़े काटना -- चंचलता होना, (सं० कृत प्रा० कि) करना (हि.) के | जी ऊबना, कीड़े पड़ना-- ( वस्तु में ) सा० भू० काल का स्त्री० रूप । कीड़े उत्पन्ना होना, दोष होना । कीड़ा कोक-संज्ञा, स्त्री० (अनु०) चीख, चीत्कार। होना - किसी बात या कार्य में व्यस्त कीका-संज्ञा, पु० (दे०) घोड़ा। होना । साँप, जू खटमल श्रादि । संज्ञा, कीकान-संज्ञा, पु० दे० (सं० केकाण)। स्त्री० (सं० किट्ट) जमा हुआ मैल, पश्चिमोत्तर का एक प्रदेश जो घोड़ों के | मल । संज्ञा पु० कीटन-गंधक । लिये प्रसिद्ध है, वहाँ का घोड़ा। यौ० कीट-शृंग-संज्ञा, पु० (सं०) दो या कोकर ---संज्ञा, पु० (सं.) मगध देश का अधिक वस्तुओं के मिल कर एक रूप हो प्राचीन वैदिक नाम । संज्ञा, स्त्री० कोकरी। जाने पर प्रयुक्त होने वाला एक न्याय । घोड़ा, कीकर देश-वासी अनार्य जाति विशेष यौ०-कीट मणि-संज्ञा, पु० (सं०) (प्राचीन )। वि० कृपण, दरिद्र, पापी। जुगुनू खद्योत। कीकना-५० क्रि० ( अनु० ) कीकी करके कीड़ा--(कोरा) संज्ञा, पु० दे० (सं० चिल्लाना, चीख़ना, चिल्लाना । कीट, प्रा० कीड़) छोटा उड़ने या, रेंगने वाला कीकड़, कीकर -- संज्ञा, पु० दे० (सं० कंक जन्तु, कृमि, कीट । यौ० कोड़ा-मकोड़ा। • राल ) बबूल । " कीकर पाकर ताल संज्ञा, स्त्री० (हि. कीड़ा) कीडी---छोटा तमाला"-रामा० । कीड़ा, चींटी, पिपीलिका, जुगार के कीकस-संज्ञा, पु० (सं० ) हाड़, अस्थि । पेड़ों में लगने वाला एक कीड़ा, कीरी कीच-संज्ञा, पु० दे० (सं. कच्छ ) कर्दम (सं० ) कीचड़, पंक, " अन्तहु कीच तहाँ (दे०)। वि० किड़हा (किरहा )। जहँ पानी-" रामा०। कीड़े वाला, घुना, कीट-युक्त । “सांई के सब जीव हैं, कीरी, कुंजर दोय"-कबी० । कीचक-संज्ञा, पु० (सं० ) एक प्रकार का बाँस जिसके छेदों में घुस कर वायु शब्द कीतनक-संज्ञा, पु० (सं० ) मुलहटी, करता है, केकय नृप पुत्र, राजा विराट का जेठी मधु । साला. इसकी द्रौपदी पर दृष्टि देख भीम | कीदहूँ—भव्य० ( प्रान्ती० ) किधौं. शायद. ने इसे मार डाला था, एक दैत्य । “सकीच. कैधौं, “ कीदहुं रानि कौसिलहि, परिगा कै: मारुत-पुर्ण रंधेः कूजद्भिरापादित वंश- भोर हो"---तुल० । केतुम्-" रघु। कीदूक-वि० (सं.) किस प्रकार का, कीचड़-संज्ञा, पु० (हि. कीच+३ = प्रत्य०) कैसा, किम्भूत । कीदत (सं.)। पानी से गीली मिट्टी, कर्दम, कीच, पंक। कीधौं-अव्य० ( प्रान्ती०) किधौं (ब०) । For Private and Personal Use Only Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org कीनना कीनना ईख़रीदना, मोल लेना । कीना-संज्ञा, पु० ( फ़ा० ) द्वेष, बैर । ( हि० करना) सा० भू० (कीन्हा) किया । कीनिया - वि० ( [फा० कांना ) द्वेषी, कपटी | ४६२ (स० क्रि० दे० (सं० क्रीणन) कीर्ति संज्ञा, स्त्री० (सं० ) सक्रिया, कीमा - संज्ञा, पु० ( ० ) बहुत छोटे छोटे टुकड़ों में कटा गोश्त । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कोप- संज्ञा, स्त्री० दे० ( अ० कीफ़ ) द्रवपदार्थ को ठीक तरह से तंग मुंह के बरतन में डालते समय लगाई जाने वाली घोंगी, goat | यश कीबो- स० क्रि० प्रान्ती० ( हि० करना ) | कीर्ति शेष संज्ञा, पु० (सं० ) मरण, करना । स्त्री० कोबी । कीमत- संज्ञा, स्त्री० ( ० ) दाम, मूल्य । वि० कोमती ( अ० ) बहुमूल्य, अनमोल, अमूल्य । की समाप्ति । कीर्तिस्तम्भ - संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) किसी की कीर्ति को स्मरण कराने के लिये बनाया गया स्तंभ या खंभा, कीर्ति को स्थायी करने वाला कार्य या वस्तु | कीर्तित - वि० (सं०) कथित, प्रसिद्ध, उक्त । कीलना पुण्य, ख्याति, बड़ाई, यश, नेकनामी, राधा की माता, प्रसाद, आर्या छंद के भेदों में से एक, एक दशातरी वृत्त । वि० कीर्तिकर यशस्कर, ख्याति देने वाला । यौ० कोर्तिपताका- संज्ञा, पु० (सं० ) यश - चिह्न | वि० कीर्ति-प्रिय कीर्तिकामी- यश चाहने वाला । कीर्तिमान कीर्तिवान - वि० ( सं० ) यशस्वी, विख्यात | क्रिया, रसायन । कीमियागर - संज्ञा, पु० ( फा० ) रसायनिक परिवर्तन में दक्ष, रसायन बनाने वाला | संज्ञा, स्त्री० कीमियागीरी । कोमुख्त संज्ञा, पु० ( ० ) हरे रंग दानेदार घोड़े या गधे का चमड़ा । कीर - संज्ञा, पु० (सं० ) शुक, सुग्गा, तोता, सुप्रा (दे० ) व्याव, बहेलिया, काश्मीर देश, काश्मीरी व्यक्ति । कीरति कीरत - संज्ञा स्त्री० दे० ( सं० कीर्ति ) यश, बड़ाई, नामवरी, प्रशंसा, कीती (दे० ) कित्ति 1 " कीरति श्रति कमनीय ". -र: मा० । कीर्तन -संज्ञा, पु० (सं० ) कथन, यश या गुण-कथन, कृष्ण-लीला सम्बन्धी भजन या कथा श्रादि । कीर्तनिया - संज्ञा, पु० दे० (सं० कीर्तन + इया -- प्रत्य० ) कीर्तन या कृष्ण-लीला सम्बन्धी भजन, कथा कहने वाला, कथक, गाने वाला । कोमिया -संज्ञा, स्त्री० (का० ) रसायनिक कील संज्ञा, स्त्री० (सं० ) लोहे या काठ श्रादि की खूँटी, मेख, काँटा, योनि में अटक जाने वाला मूढ गर्भ नाक का एक छोटा आभूषण ( स्त्रियों का ) लौंग, मुहासे या फुड़िया की मांस- कील, जाँते के बीच का खूँटा, कुम्हार के चाक की खूँटी । स्तंभन मंत्र, तृण, परेग । चौकील काँटा - साज-सामान, औज़ार । कोलक - संज्ञा पु० (सं० ) कील, खूँटी, एक देवता ( तंत्र ) किसी मंत्र की शक्ति या उसके प्रभाव का नाशक मंत्र, ६० वर्षो में से एक, केतु विशेष, रोक, किवाड़ की कील, एक स्तोत्र | कोलन-संज्ञा, पु० (सं० ) बंधन, रोक, रुकावट, मंत्र के कीलने का काम । कीलना - स० क्रि० दे० ( सं० कीलन ) कील लगाना, कील ठोंक कर तोपादि का मुँह बन्द करना, किसी मंत्र या युक्ति के प्रभाव को नष्ट करना, साँप को ऐसा मुग्ध करना कि वह काट न सके, श्राधीन या वशीभूत करना, स्तंभित करना । For Private and Personal Use Only Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कीला कँजर। कीला-संज्ञा, पु० दे० (सं० कील ) बड़ी जिसमें गुलाल भर कर होली में मारते हैं। कील, खू टा। कुंगड़ा-वि० (दे०) बलवान, स्वस्थ्य, कीलाक्षर-संज्ञा, पु० चौ० ( सं० ) बाबुल संडमुसंड। की एक अति प्राचीन लिपि जिसके अक्षर कुंचन-संज्ञा, पु. ( सं० ) सिमटना, कील के प्राकार से होते थे। सिकुड़ने की क्रिया । कीलाल-संज्ञा, पु० (सं० ) अमृत, जल, कुंचको--संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० कंचुकी) रक्त, मधु, पशु । संज्ञा, पु० (सं० ) कोला- झूला, चोली। लाधि-समुद्र। कुचि--संज्ञा, स्त्री० (दे० ) पसर, अञ्जलि । कीलित-वि० (सं० ) कील जड़ा, मंत्र से | कुंजी, कुंची। स्तंभित, कीला हुआ। कुंचित-वि० (सं०) धूमा हुआ, टेढ़ा, कोली- संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० कील) चूंधरवाले, छल्लेदार ( बाल )। चक्र के मध्य की कील, कील, किल्लो। कुंचो-कुंजो-संज्ञा, स्त्री. (सं०) ताली, कीश-कोस-संज्ञा, पु. (सं.) (दे०) चाभी। कुचिका (सं० ) किसी किताब बंदर, वानर, चिड़िया, सूर्य, कीरा ( दे.) की टीका। वि० (सं० ) नंगा, विवस्त । यौ० कोश- कुंज-संज्ञा, पु० (सं०) वृक्ष, लतादि से ध्वज-अर्जुन । मंडप सा ढका स्थान । संज्ञा, पु. ( फा० कीशपर्णी--संज्ञा, स्त्री० (सं० ) अपामार्ग, कुज-कोना ) दुशाले के कोनों के बूटे । चिरचिरा। कुंजक * -संज्ञा, पु० (सं०) अन्तःपुर में कीसा-संज्ञा, पु० ( फा० ) थैली, खीसा. आने-जाने वाला ड्योढ़ी का चोबदार, जरायुज, बन्दर। कंचुकी। . कुर-कोटा-संज्ञा, पु० दे० ( सं० कुंज-कुटीर-संज्ञा, स्त्री. यो० (सं० ) कुमार ) लड़का, पुत्र, बालक, राज-पुत्र ।। कंज-गृह, लताओं से घिरा घर, "कंजसंज्ञा, स्त्री कुमारी, कुरि कुंअरेटी। कुटीरे यमुना-तीरे मुदित नटत वन. "कुर कुअरि कल, भाँवरि देहीं 'रामा० । माली"। कुवर ( दे०) यौ० कुार-विलास-- कुंज-गली-संज्ञा, स्त्री०, (हि. ) बगीचों संज्ञा, पु. एक प्रकार का धान । में लताओं से छाया हुआ पथ, पतली कुना-कुवा--संज्ञा, पु० दे० (सं० कूप) | तंग गली। कूप, इनारा । कुंजड़ा--संज्ञा, पु० दे० (सं० कुंज+ड़ाकुयारा-वि० दे० (सं० कुमार ) कुवाँरा, प्रत्य० ) तरकारो बोने और बेचने वाली एक बिना ब्याहा। स्त्री. कुमारि, कुमारी, जाति । स्त्री० कुंजडिन, कजरी । " कूजरी कुवारी ( दे० ) " कुरि कुआँरि रहै का साग की बेचनेहारी"करऊँ "- रामा०। | कुंजर-संज्ञा, पु० (सं० ) हाथी । स्त्री० कुई - संज्ञा, स्त्री० (दे० ) कुमुदिनी। कुजरा, कुंजरी। कुंकड़-वि० (दे०) एकट्ठा । मु०--कुंजरो वा नरोवा, कुंजरो-नरो। कुंकुम--संज्ञा, पु० (सं० ) केसर, स्त्रियों के श्वेत या कृष्ण, अनिश्चित या दुविधा की माथे पर लगाने की रोली, कुंकुमा। बात बाल, केश, अंजना के पिता और कुंकुमा-संज्ञा, पु० दे० (सं० कुकुम) हनुमान के नाना, छप्पय का २१वाँ भेद, झिल्ली या लाख का बना पोला गोला | पाँच मात्राओं के प्रस्तर में प्रथम, पाठ की For Private and Personal Use Only Page #475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org कंजविहारी I 23 संख्या, एक नाग, पर्वत, देश, व्यवन ऋषि के उपदेशक, एक शुक, हस्त नक्षत्र, पीपल । यौ० कुंजर-मणि - हाथी के मस्तक से निकलने वाली मणि । " कुंजर मणि कंठा कलित तुल० । वि० - श्रेष्ठ | " कपि - कुंजरि हि बोलि ले आये " - रामा० । कुंजबिहारी -संज्ञा, पु० यौ० ( सं० ) श्रीकृष्ण । कुंजल - संज्ञा, पु० (दे० ) काँजी, कुंजर । कुंजिका - ( कुंचिका ) - संज्ञा, ( सं० ) कुंजी, काला जीरा । कुंज - संज्ञा, पु० (दे० ) पुरवा, कुल्हड़ | कुंजी - संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० कुंचिका ) चाभी, ताली । मु० - ( किसी की ) कुंजी हाथ में होना- किसी का वश में होना । कुंजो घुमाना ( किसी की ) - उसके साथ युक्ति से काम करना, वह पुस्तक जिससे किसी पुस्तक का अर्थ खुले, टीका । कुंठ - वि० (सं० ) जो चोखा या तीक्ष्ण न हो, गुठला, कुंद, मूर्ख | ४६४ | कुंठित - वि० (सं० ) जिसकी धार तीक्ष्ण न हो, गुठला, गोठिल ( दे० ) कुंद, मंद, बेकाम, निकम्मा । " कुंठित है गो कुठार अनैसो " - रामा० । कुंड - संज्ञा, पु० (सं० कुंड + प्रल् ) चौड़े मुँह का गहरा बर्तन, कुंडा, अन्न नापने का एक प्राचीन मान, छोटा तालाब, श्रग्नि होत्रादि करने का एक गड्ढा या धातु का पात्र, बटलोई, थाली, पूला, लोहे का टोप, कुंड (दे० ) । हौदा, खड्डु, पति रहते, उपपति से उत्पन्न पुत्र, जारज, यज्ञ गर्त । कुँडरा - संज्ञा, पु० दे० (सं० कुंड ) कुंडा, मटका । कुंडल -संज्ञा, पु० (सं० ) सोने या चाँदी का मंडलाकार, कान का एक भूषण, बाली, मुरकी, गोरखपंथी, कनफटों के कानों का एक गोल गहना, कड़ा, रस्सी का गोल Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कंडिन कुंदा, मोट या चरसे के मुँह का लोहे का गोल मँडरा, मेखला, लम्बी लचीली वस्तु की कई गोल फेरों में सिमटने की स्थिति फेंटा, मंडल, चंद्र या सूर्य के चारों ओर बदली या कुहरे में दीख पड़ने वाला मंडल, दो मात्रा और एक वर्ण का एक मात्रिक गण (पिं०), २२ मात्राओं का एक छंद, नाभि । कुंडलाकार - वि० यौ० (सं० ) वर्तुलाकार, गोल, मंडलाकार । कुंडलिका -संज्ञा, स्त्री० (सं० ) मंडलाकार रेखा, कुंडलिया । कुंडलिनी - - संज्ञा, स्त्री० (सं०) सुषुम्ना नाड़ी के मूल में मूलाधार के निकट की एक कल्पित वस्तु (तंत्र०), इमरती, जलेबी । कुंडलिया - संज्ञा, स्त्री० ( सं० कुंडलिका ) एक दोहे और एक रोले के संयोग से बना एक मात्रिक छंद, इसके श्रादि और अंत में एक ही शब्द या वर्ण-समूह रहते हैं धौर दोहे के अंतिम पद की श्रावृत्ति रोले के प्रथम पद की आदि में रहती है । कुंडली - संज्ञा, त्री० (सं० ) जलेबी, कुंडलिनी गुडि ( गिलोय) कचनार, सर्प के बैठने की मुद्रा, गंडुरी, जन्म-काल के ग्रहों की स्थिति बताने वाला एक बारह घरों का चक्र | संज्ञा, पु० (सं० कुंडलिन् ) साँप, बरुण, मोर, विष्णु । यौ० जन्मकुंडली - जन्मांकचक्र | वि० कुंडलीकृत - साँप, मयूर, कुंडलधारी, वरुण, विष्णु, चित्तलमृग । 1 कुंडा - संज्ञा, पु० दे० (सं० कुंड ) चौड़े मुँह का गहरा बड़ा बरतन, बड़ा मटका, कोंढा, कछरा | संज्ञा, पु० (सं० कुंडल ) दरवाज़े की चौखट में लगा हुथा, कोंढा जिसमें किवाड़े बंद करके साँकर फँसाई जाती और ताला लगाया जाता है । कुंडिन - - संज्ञा, पु० (सं०) एक मुनि, विदर्भ नगर, जो दो भागों में विभक्त था उत्तरीय For Private and Personal Use Only Page #476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कुंडी कंभ और दक्षिणीय कुंडिन इनके स्थान पर अब "कुंद की सी भाई बातें"- कविता । अमरावती और प्रतिष्ठानपुर हैं । यौ० कुंदन-संज्ञा, पु० दे० (सं० कुंड ) अच्छे कंडिनपुर-विदर्भ का एक प्राचीन नगर। और साफ़ सोने का पतला पत्तर जिसे कंडी—संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० कुंड) दही, लगाकर जड़िये गहनों पर नगीने जड़ते हैं, चटनी आदि के रखने का पत्थर या कटोरे | बढ़िया या ख़ालिस सोना। वि. कुंदन के आकार का बरतन, कुंडी (दे०), पथरी। सा चोखा, खालिस, स्वच्छ, नीरोग । संज्ञा, स्त्री० ( हि० कुंडा ) जंजीर की कड़ी, "कुंदन को रंग फीको लगै"। किवाड़ की साँकल, सँकी (दे०)। कुंदुरू-संज्ञा, पु० दे० (सं० कुंडर = करेला) कुंत-संज्ञा, पु. (सं० ) गवेधुक, कौडिल्ला, | एक बेल जिसमें ४ या ५ अंगुल लम्बे फल भाला, बरछा, जं, अनख, पानी, पवन, लगते हैं जो तरकारी के काम में आते हैं, कुन्ती-पिता। बिम्बाफल । कुंतल-संज्ञा, पु० (सं० ) सिर के बाल, कुंदलता-संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) २६ केश, शिखा, प्याला, चुक्कड़, जौ, हल, वर्णो की एक वृत्ति । कोंकण और बरार के मध्य का एक देश, कंदा-संज्ञा, पु० दे० (फ० मिलामो सं० (प्राचीन) बहुरूपिया, भेष बदलने वाला, स्कंध ) लकड़ी का बड़ा मोटा, बिना चीरा सुगंध वाला, श्रीराम की सेना का एक वानर, हुया टुकड़ा, लक्कड़, बढ़इयों के लकड़ी सूत्रधार, राग विशेष । यौ० पु० (सं०) | काटने का एक काष्ठ, कुंदीगरों का कपड़ों कंतलवर्धन-भृगराज, भँगरैया। पर कुंदी करने और किसानों के कटिया कुंतिभोज-संज्ञा, पु० (सं० ) सूरसेन के | काटने का काठ, निहठा (निष्ठा) बंदूक का पिता की बहिन के पुत्र जो राजा थे, चौड़ा पिछला भाग, अपराधियों के पैर निस्सन्तान होने से इन्होंने शूरसेन की | ठोंकने की लकड़ी, काठ, दस्ता, मूठ, बेंट, कन्या पृथा (कृती) को गोद लिया, अस्तु लकड़ी की बड़ी मुंगरी । संज्ञा, पु. (हि. पृथा का नाम कुंती हुश्रा, महाभारत के युद्ध कुंधा) चिड़िया का पर, कुश्ती का एक पेंच । में ये भी रहे थे। संज्ञा, पु. (सं० कुंदन ) खोवा, मावा । कुंती (कंता)-संज्ञा, स्त्री. (सं० ) राजा | कुंदी-संज्ञा, स्त्री० (हि. कुंदा ) कपड़ों की शूरसेन (वसु) की कन्या, जिसका विवाह सिकुड़न और रुखाई दूर करने तथा तह पांडु नरेश के साथ हुआ था, नारद जी ने जमाने के लिये उन्हें मुंगरी से कूटने की इसे वशीकरण मंत्र बतलाया जिससे यह । क्रिया, खूब मारना, ठोंक-पीट । संज्ञा, पु. देवताओं को बुला लेती थी, युधिष्ठिर, | (हि. कुंदी+गर-प्रत्य०) कंदीगरभीम और अर्जुन इसके पुत्र थे, पृथा। कुंदी करने वाला। संज्ञा, स्त्री० (सं०) भाला-बरछी । कंदुर - संज्ञा, पु० (सं० अ०) दवा के काम कुँथना--प्र० क्रि० (दे०) मारा-पीटा-जाना। का एक पीला गोंद । कुंद--संज्ञा, पु. ( सं० ) जूही का सा सफ़ेद कुँदेरना--स० कि० दे० (सं० कुंजलन ) फूलों का एक पौधा, कनेर का पेड़, कमल, | खुरचना. खरादना।। कुंदुर नामक गोंद, एक पर्वत, कुबेर की ६ | कँदरा-संज्ञा, पु. (हि. कुँदेरना-- एरानिधियों में से एक, ६ की संख्या, विष्णु, । प्रत्य० ) खरादने वाला, कुनेरा । स्त्री० खराद । वि० (फा० ) कुंठित, गुठला, कुँदेरी, कुँदेरिन । स्तब्ध, मंद । यौ० कुंदजेहन मंद बुद्धि । | कुंभ-संज्ञा, पु. ( सं० ) मिट्टी का घड़ा, मा० श० को०-५६ For Private and Personal Use Only Page #477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ४६६ कुंभक घट, कलश, हाथी के सिर के दोनों ओर वाले उभड़े भाग, ज्योतिष में दशवीं राशि, दो द्रोण या ६४ सेर का एक प्राचीन मान, प्राणायाम के ३ भागों में से एक (कुंभक) प्रति १२ वें वर्ष में पड़ने वाला एक पर्व, प्रह्लाद-सुत एक दैत्य, गुरुगुल, वेश्यापति, मेवाड़ के एक राजा ( १४१६ ई० ) । कुंभक - संज्ञा, पु० (सं० ) प्राणायाम का एक अंग जिसमें सांस की वायु को भीतर ही रोक रखते हैं । कुंभकर्ण – संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) रावण का भाई । कुंभकार – संज्ञा, पु० (सं० ) मिट्टी के बर्तन बनाने वाला, कुम्हार, मुर्गा । स्त्री० कुंभकारी - कुम्हारिन, कुलथी, मैनसिल । कुंभज - कुंभजात -- संज्ञा, पु० ( सं० ) घड़े से उत्पन्न पुरुष, अगस्त्य मुनि, वशिष्ठ, द्रोणाचार्य । " कहँ कुंभज कहँ सिंधु अपारा "" -रामा० । कुंभसंभव - संज्ञा, पु० (सं०) अगस्त्य ऋषि । कुंभवीर्य -संज्ञा, पु० (सं० ) रीठा । कुंभा - संज्ञा, पु० (सं० ) छोटा घड़ा, एक राजा, वेश्या । कुंभिका-संज्ञा, खो० (सं० ) कुंभी, जलकुंभी, वेश्या, कायफल, आँख की फुंसी, हजनी, बिलनी, परवल का पेड़, शूक रोग । कुँभिलाना - प्र० क्रि० (दे० ) कुम्हलाना । कुंभिनी- -संज्ञा, स्त्री० (दे०) पृथ्वी, जमालगोटा । कुंभी - संज्ञा, पु० (सं० ) हाथी, मगर गुग्गुल, एक विषैला कीड़ा, बच्चों को कुंश देने वाला एक राक्षस | संज्ञा, स्त्री० (सं०) छोटा घड़ा, कायफल का पेड़, दंती वृक्ष, दाँती (दे० ), जलकुंभी या जलाशयों की एक वनस्पति, कुंभीपाक नरक । यौ० कुंभीपुर - हस्तिनापुर | कुंभीधान्य - संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) घड़ा या मटका भर अन्न जिसे कोई व्यक्ति या Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कुकु परिवार ६ दिन या १ ( श्रन्यमत से ) साल में खा सके (स्मृति) | संज्ञा, पु० (सं० ) कुंभीधान्यक - कुंभीधान्य रखने वाला । कुंभीनस - संज्ञा, पु० (सं०) क्रूर सर्प, एक विषैला कीड़ा, रावण । स्त्री० कुंभीनसा । कुंभीपाक - संज्ञा, पु० (सं०) एक नरक ( पुरा० ) नाक से काला रक्त गिरने वाला सन्निपात । कुंभीर - संज्ञा, पु० (सं० ) नक्र या नाक नामक एक जल-जन्तु, एक प्रकार का कीड़ा। कुंभीकरुणा – संज्ञा, स्त्री० (सं० ) औषधि विशेष, निसोत । कुँवर - कुँवरेटा - संज्ञा, पु० दे० (सं० कुमार) लड़का, पुत्र, बेटा, राज पुत्र, बच्चा । स्त्री० कुँवरेटी - (दे० ) । कुवरि कुवँरी - संज्ञा स्त्री० (दे० ) कुमारी, पुत्री, राजकन्या । " रहि जनु कुवँरि चित्रश्रवरेखी " रामा० । कुवाँरा - वि० दे० (सं० कुमार ) बिना व्याहा, युवक, कुमार । स्त्री० कुवाँरी( सं० कुमारी ) । " ताते अबलगि रही कुवाँरी ". कुँह-कुँह * - संज्ञा, पु० दे० (सं० कुंकुम ) कुंकुम, केसर । रामा० । कु- उप० (सं० ) संज्ञा शब्दों के पूर्व लगकर उनके अर्थों में बुरा, नीच, कुत्सित आदि का भाव बढ़ाता है, जैसे कुमार्ग | संज्ञा, पु० (सं) पाप, अधर्म, निन्दा | संज्ञा, स्त्री० (सं० ) पृथ्वी । कुआँ कुवाँ - संज्ञा, पु० दे० (सं० कूप प्रा० कूब ) पानी के लिये पृथ्वी में खोदा हुआ गहरा गड्ढा, कूप, इँदारा । मुहा०- ( किसी के लिए ) कुआँ खोदना - नाश करने या हानि पहुँचाने का प्रयत्न करना | कुवाँ खोदना -जीविकार्य श्रम करना । कुएँ में गिरनाविपत्ति में पड़ना । कुएँ में बाँस पड़ना ( डालना ) - बहुत खोज होना (करना) । For Private and Personal Use Only Page #478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org --- ४६७ कुरकुर कुएँ में भांग पड़ना - सब की बुद्धि मारी जाना । कुमार कुवर - संज्ञा, पु० दे० (सं० कुमार, प्रा० कुंवार ) हिन्दुओं का ७ वाँ महीना, श्राश्विन् कर । वि० बिन व्याहा । वि० कुवांरी-कुरी कार मास का, काँरी । कुइयां - संज्ञा, स्त्री० दे० ( हि० कुत्राँ ) छोटा कुँ । यौ० कठकुइयाँ ( पटकुइयाँ ) - काठ से बँधा छोटा कूप । | कुई - संज्ञा, स्त्री० दे० ( हि० कुआँाँ ) कुइयाँ, कुकुही कुमुदिनी (सं० कुव ) । कुकटी - संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० कुक्कुटी - सेमल ) लाल रुई की कपास । कुकड़ना -- अ० क्रि० ( हि० सिकुड़ना ) सिकुड़ना, संकुचित होना । कुकड़ो कुकरी - संज्ञा, स्त्री० दे० ( सं० कुक्कुटी ) तकले में कातकर उतारा हुआ कच्चे सूत का लच्छा, मुठा, थंडी, श्राँड़ी (दे०), खुरखुरी, मुर्गी । कुकनन् संज्ञा, पु० (यू० ) एक कल्पित पक्षी जिसके विलक्षण गान से भाग निकल पड़ती है और वह जल मरता है, श्रातशज़न । कुकरी* - संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० कुक्कुट ) बनमुर्गी, कुक्कुट । कुकरौंधा --संज्ञा, पु० दे० (सं० कुक्कुरद्रु) तीव्र गंध वाली पत्तियों का एक पालक जैसा पौधा । कुकर्म --- संज्ञा, पु० (सं० कु + कृ + मन्) बुरा या खोटा काम, पाप । वि० कुकर्मीबुरा काम करने वाला, पापी । कुक्रिया । कुकुभ - संज्ञा, पु० (सं०) एक मात्रिक छंद । कुकुर - संज्ञा, पु० (सं० ) यदुवंशी क्षत्रियों की एक शाखा, एक प्राचीन प्रदेश, एक साँप, कुत्ता, कुकुर (दे० ) । स्त्री० कुकुरी । कुकुरखाँसी - संज्ञा स्त्री० यौ० (हि०) सूखी खाँसी जिसमें कफ न गिरे, ढाँसी । कुकुर - दंत - संज्ञा, पु० यौ० (हि० कुक्कुर + दंत) वह दाँत जो किसी किसी के साधारण कुगुरु दाँतों के अलावा उनसे कुछ नीचे थाड़ा निकलता है और जिससे श्रोठ कुछ उठा रहता है । वि० कुकुरदंता । कुकुरमुत्ता - संज्ञा, पु० (हि० कुक्कुर + मूत) बुरी गंध वाली एक प्रकार की खुमी, छत्राक, कुकरौंधा (दे० ) । कुकुर माँछी - संज्ञा, स्त्री० के चिपटने वाली एक Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (दे० ) पशुओं प्रकार की लाल मक्खी, बगई (दे०), कुकुरौंछो (दे० ) । संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० कुक्कुभ ) नमुर्गी । कुक्कुट, कुक्कट - संज्ञा, पु० (सं० ) मुर्गा, चिनगारी, लुक, जटाधारी पौधा. अरुणशिखा, ताम्रचूड़ । यौ० कुक्कुट नाड़ीसंज्ञा, स्त्री० (सं०) भरे बरतन से रीते बरतन में पानी पहुँचाने वाली नली । कुक्कुट मस्तक - संज्ञा, पु० (सं० ) चव्य, चाव । यौ० कुक्कुटवत -- भाद्र शुक्ला सप्तमी का व्रत । कुक्कुटशिखा - कुसुम वृत्त । कुक्कुटक - संज्ञा, पु० (सं० ) एक वर्णसंकर जाति, बनमुर्गी । For Private and Personal Use Only 1 कुक्कुर - संज्ञा, पु० (सं०) कुत्ता, कुकुर (दे० ) श्वान, कुकुर, यदुवंशियों की एक शाखा, एक मुनि । वि० गाँउदार । कुत-संज्ञा, पु० (सं० ) पेट, उदर । कुक्षि-कुक्षी - संज्ञा, स्त्री० (सं०) पेट, कोख, किसी वस्तु के मध्य का भाग, गुहा (गुफा), संतति | संज्ञा, पु० (सं० ) एक दानव, राजा बलि, एक प्राचीन देश । कुवेत - संज्ञा, पु० दे० (सं० कुक्षेत्र ) बुरा स्थान, कुठाँव | कुख्याति -संज्ञा स्त्री० ( सं० ) निंदा, बदनामी । वि० कुख्यात । कुर्गात - संज्ञा, स्त्री० (सं०) दुर्गति, दुर्दशा । कुगहनि - संज्ञा स्त्री० दे० (सं० कु + ग्रहण) अनुचित श्राग्रह, हठ, ज़िद । कुगुरु- संज्ञा, पु० (सं० ) अशुभ या मंद ग्रह, दुखद ग्रह | Page #479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कुघा कुछ कुघा*-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० कुक्षि) दिशा, और राज-दंतों के बीच के दाँत, कीला, सीता ओर, तरफ । दाँत । स्रो० सा० भू० (हि० कुचलना)। कुघाट–संज्ञा, पु० (हि.) बुरा घाट, कुरूप, कुचाल-संज्ञा, स्त्री० (हि. कु०+चाल) बेडौल । बुरा आचरण, खराब चाल-चलन, दुष्टता, कुघात-संज्ञा, पु. ( हि० ) कुअवसर, छल, बदमाशी, बुरी चाल । वि०, संज्ञा, पु० (हि. कपट, बेमौका । “बड़ कुधात की पात- कुचाल) कुचाली-कुमार्गी, दुष्ट । "बिधन किनी "-रामा०। मनावहिं देव कुचाली"--रामा० । कुच-संज्ञा, पु० (सं०) स्तन, छाती, उरोज । | कुचाह - संज्ञा, स्त्री० (हि०) अशुभ बात, वि० कृपण, संकुचित । बुरी ख़बर, बुरी इच्छा। कुचकुचवा-संज्ञा, पु० ( दे० ) उल्लू कुचिल-कुचील-वि० दे० (सं० कुचैल) चिड़िया। मैले वस्त्र वाला, मैला-कुचैला। कुचोला कुचकुचाना-स० क्रि० ( अनु० ) लगातार | (दे० ), कुचैला, कुचेल। कोंचना, बार बार नुकीली चीज़ फँसाना, | कुची-फॅची-संज्ञा, स्त्री० (दे० ) कैंची, कुछ कुचलना। वि० कुचकुची--मसली | बुहारी, ब्रुश, झाड़ । हुई, ध्वस्त-विध्वस्त । “काची रोटी कुच कुचेष्टा-संज्ञा, स्त्री० (सं० ) बुरी चेष्टा, कुची"-गिर। बुरी चाल, हानिप्रद यत्न, चेहरे का बुरा कुचना*-अ. क्रि० दे० (सं० कुंचन ) | भाव । वि० कुचेष्ट-बुरी चेष्टा वाला। नुकीली चीज़ का फंसना, सिकुड़ना, गड़ना। कुचैन -संज्ञा, स्त्री० (हि.) कष्ट, दुख, संज्ञा, स्त्री. (दे० ) कुचन---कुचित्राना, | व्याकुलता । वि० बेचैन, व्याकुल । गड़ना, कुचका ब० व०। कुचैला-वि० (सं० कुचैल) मैले वस्त्र वाला, कुचक्र-संज्ञा, पु. (सं० ) हानिप्रद गुप्त | गंदा । स्त्री० कुचैली । यौ०-मैलाप्रयत्न, षडयंत्र । कुचैला। कुचक्री-संहा, पु० (सं० ) षडयंत्र रचने | कुचोध-संज्ञा, पु. ( सं० ) वितंडावाद । वाला, गुप्त प्रयत्न करके दूसरे को हानि | कुच्छित*-वि० दे० (सं० कुत्सित ) बुरा, पहुँचाने वाला। अधम, नीच । कुचंदन- संज्ञा, पु० (सं० ) लाल चंदन, | कुछ--वि० दे० (सं० किंचित ) थोड़ी संख्या बिना सुगंध का चंदन । या मात्रा का, जरा, तनिक, रंच, थोड़ा। कुचर-संज्ञा, पु० (सं० ) श्रावारा, नीच मुहा०-कुछ एक-- कुछ थोड़ा सा, थोड़े । कर्म करने वाला, परनिंदक, बुरे स्थानों में कुछ कुछ-थोड़ा-बहुत, थोड़ा । कुछ घूमने वाला। ऐसा-विलक्षण । कुछ न कुछकुचलना (कुचरना )-स० क्रि० (दे०) । थोड़ा बहुत, कम या ज्यादा । सर्व. मसलना, रौंदना, दबाना, चूर करना। (सं० कश्चित् ) कोई ( वस्तु )। मु० --सिर कुचलना-पराजित करना । मुहा०-कुछ का कुछ-और का और, कुचला (कुचिला)-संज्ञा, पु० दे० ( सं. उलटा । कुछ, कहना-कड़ी बात कहना, कच्चीर) दवा के काम में आने वाले विषैले बिगड़ना, विरुद्ध बात कहना, साधारण बीजों का एक पौधा, उसके बीज, सा. बात कहना । कुछ कर देना-जादू-टोना भू. (हि• कुचलना)। कर देना, मंत्र प्रयोग करना। किसी को कुचली-संज्ञा स्त्री० (हि० कुचलना ) डाढों । कुछ हो जाना-कोई रोग या भूत-प्रेत For Private and Personal Use Only Page #480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कुजंत्र कुटास की बाधा होना । कुछ (भी) हो-चाहे दवा में पड़ती हैं, एक जड़ी। संज्ञा, सी० जो कुछ भी हो, बुरी या अच्छी बात, सार (हि० कुटका ) कंगनी, चेना । संज्ञा, स्त्री० या काम की वस्तु, गण्य मान्य पुरुष । दे० (सं० कटु-न-कीट) कुत्ते आदि के मुहा०-कुछ लगाना (अपने को)- रोयों में चिपटा रहने वाला एक छोटा कीड़ा बड़ा या श्रेष्ठ समझना । कुछ हो जाना- | जो काटता है, धनकुटनी। किसी योग्य या मान्य या बड़ा हो जाना, कुटज-संज्ञा, पु० (सं०) कुटैया, इंद्रयव, कुछ अनिष्ट होना । कछु, कछुक-कछुक कूड़ा, कर्ची, अगस्त्य मुनि, द्रोणाचार्य, (ब्र०) कडू । “ नहिं संतोष तौ पुन । एक फूल । कछु कहहू"-रामा० । कुटनई—संज्ञा, स्त्री० (दे०) कुटनपन, दूतीकुत्र*-संज्ञा, पु० दे० (सं० कुयंत्र ) बुरा कर्म, कूटने का काम । यंत्र, अभिचार, टोटका, टोना। " कलि कुटनपन--संज्ञा पु० दे० (सं० कुट्टनी) कुकाठ कर कान्ह कुज"-रामा। कुटनी का काम, दूती-कर्म, झगड़ा लगाने कुज-संज्ञा, पु० (सं० ) मंगल ग्रह, नरका- | का काम । यौ० कुटनपेशा (दे०)। सुर, मंगलवार, वृत्त । वि०-लाल । कुटनहारी-संज्ञा, स्त्री० ( हि० कूटना कुजा-संज्ञा, स्त्री० (सं० कु =पृथ्वी+जा | +हारी-प्रत्य० ) धान आदि कूटने जायमान ) जानकी. कात्यायिनी, वाली स्त्री। अवनिजा अव्य० ( उ० ) कहाँ। कुटना--संज्ञा, पु. (दे०) स्त्रियों को कुजाति-संज्ञा, स्त्री. (सं०) बुरी जाति, बहका कर उन्हें पर पुरुष से मिलाने वाला, नीच जाति । संज्ञा, पु. नीच कुल का दूत, दो व्यक्तियों में लड़ाई लगाने वाला, मनुष्य, अधम व्यक्ति, कुजात। चुग़लखोर । स्त्री० कुटनी । संज्ञा, पु० कुजोग-संज्ञा, पु० (दे० ) कुयोग (सं.)। (हि० कूटना) कुटाई करने का औज़ार । कुसङ्ग, बुरामेल, अशुभ योग या अवसर, अ. क्रि० (हि० कूटना) कूटा जाना, अनमेल सम्बन्ध । वि० कुजांगी-कुयोगी __ मारा-पीटा जाना। (सं०) असंयमी। कुटनाना--स० क्रि० (हि. कुटना ) किसी कुज्जा-संज्ञा, पु० ( दे०) पुरवा, मिट्टी स्त्री को बहका कर कुमार्ग पर ले जाना, का पात्र । फुसलाना। कुटत संज्ञा, स्त्री. ( हि० कूटना--त- कुटनापा-संज्ञा, पु० (दे०) कुटनपन । प्रत्य० ) कुटाई, मार, चोट । कुटनी-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० कुट्टनी) कुट-संज्ञा, पु० (सं० ) घर, गृह, कोट, स्त्रियों को फुसला कर पर पुरुष से मिलाने गढ़, कलश, हथौड़ी, शिखर, समूह, पेड़। वाली स्त्री, दूतो, दो व्यक्तियों में लड़ाई संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० कुष्ट ) एक सुगन्धित लगाने वाली। जड़वाली झाड़ी । संज्ञा, पु. ( सं० कुट = | | कुटवाना-स० कि० (हि० कूटना का प्रे० रूप) कूटना ) कूटा हुआ टुकड़ा जैसे---यवकुट, कूटने का काम दूसरे से कराना, कुटाना । छोटा टुकड़ा। कुटाई-संज्ञा, स्त्रो० (हि. कूटना) कूटने कुटका संज्ञा, पु० दे० ( हि० काटना)। का काम, कूटने की मजदूरी। छोटा टुकड़ा ( स्त्री. अल्पा० ) कुटकी। । कुटास-संज्ञा, स्त्री० (हि. कूटना+आस) कुटकी-संज्ञा, स्त्रो० (सं० कटुका ) एक मार-पीट, मार खाने की इच्छा, कूटने या पहादी पौधा जिसकी जड़ों की गोल गाँठे । कुटने की इच्छा। For Private and Personal Use Only Page #481 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ese कुटिया (सं० कुटिया -संज्ञा, स्त्री० दे० झोपड़ी, कुटी, मँड़ैया ( दे० ) । पर्णकुटी - पत्तों या घास-फूस की छोटी सी कुटिया मेरी है कैसे 6. झोपड़ी । तुम्हें बुलाउँ मैं" - मयं ० । कुटिल - वि० (सं० कुट + इल् ) वक्र, टेढ़ा, कुंचित, छल्लेदार, घुँघराला, दगाबाज़, क्रूर, कपटी, खोंटा, दुष्ट | संज्ञा, पु० (सं० ) खल, पीत- श्वेत वर्ण और लाल नेत्रों वाला, १४ वर्णों का एक वृत्त । " कपटी, कुटिल मोहिं प्रभु चीन्हा ' रामा० । कुटिलता-संज्ञा स्त्री० भा० (सं०) छल, कपट दुष्टता, टेढापन, कुटिलाई, कुटिलपन - खोदाई, वक्रता । यौ० कुटिलान्तःकरा-कपटी, छली, क्रूर हृदयी । कुटिला -संज्ञा, स्त्री० (सं०) दुष्टा, सरस्वती नदी एक प्राचीन लिपि, वि० स्त्री० टेढ़ी । कुटी कुटीर -संज्ञा, स्त्री० (सं० ) घासफूल से बना छोटा घर, पर्णशाला, कुटिया, पुत्र पड़ी, मुरा नामक गंधद्रव्य, श्वेत कुटज । कुटीचक कुटीचक-संज्ञा, पु० सं० (दे० ) शिखा सूत्र न त्यागने वाला संन्यासी, (४ प्रकार के संन्यासियों में से प्रथम ) त्रिदंडी, के अन्न से जीने वाला | कुटीचर - संज्ञा, पु० (सं०) कुटी चक्र, यति छली । (सं० कुचर ) चुगलखोर | कुटुम्ब – संज्ञा, पु० (सं० ) परिवार, कुनबा, सन्तति ख़ानदान, कुटुम । दे० ) | कुटुम्बी ( कुटुमी ) संज्ञा, पु० ( सं० कुटुम्बिन् ) परिवार वाला कुटुम्ब के लोग, सम्बन्धी, नातेदार, जाति- बाँधव परिजन, सन्ततिवाला - " विविध कुटुम्बी जनु धनहीना '- रामा० । "" कुटेक - संज्ञा स्त्री० (सं० कु + टेक = हिं० ) अनुचित हठ, बुरी ज़िद । वि० कुटेकीदुराग्रही । कुर्टेव संज्ञा, त्रो० ( हिं० कु + टॅव ) बुरी कुठार - संज्ञा, पु० (सं०) कुल्हाड़ी, परशु, आदत, बुरी बान | फरसा, नाश करने वाला, भंडार, कुठला । रामा० । कुटी ) यौ० Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कुठार कुटौनी -संज्ञा, स्त्री० ( हि० कूटना ) कुटाई, कूटने की मजदूरी । कुट्टनी-संज्ञा, स्त्री० (सं० ) कुटनी दूती (हि० ) । कुट्टमित - संज्ञा, पु० (सं० कुट्ट + मा + क्त ) संयोग - समय में स्त्रियों की सुखदुख की मिथ्या चेष्टा सूचक एक हाव । जहँ सँजोग मैं करत है, दुख-सुख-चेष्टा वाम । ताको कहत रसाल कवि हाव कुट्टमित नाम । " २०२० । << कुट्टा - संज्ञा पु० दे० ( हि० कटना ) पर कटा कबूतर, पैर बँधा, जाल में पड़ा पत्ती जिसे देख दूसरे पक्षी श्रा फँसते हैं 1 कुट्टी - संज्ञा स्त्री० दे० ( हि० काटना ) छोटे छोटे टुकड़ों में कटा हुआ चारा या arat, r और सड़ाया हुआ कागज़ जिससे टोकरी आदि बनाते हैं, मैत्रीभङ्ग का एक शब्द या क्रिया ( जिसे बालक दाँतों से नाखून बुलाकर करते हैं, खुट्टी, खट्टी ) पर कटा कबूतर | कुठला संज्ञा, पु० दे० (सं० कोष्ठ प्रा० कोट्ट + ला = प्रत्य० ) थनाज रखने का मिट्टी का बड़ा बरतन । स्त्री० प्रत्या० कुठली । कुठाँउ कुठाँव-संज्ञा, पु० दे० ( हि० कु + ठाँ) बुरी जगह | कुठॉय, कुठौर, कुठाम (दे० ) बुरा स्थान | मुहा० - कुठाँव मारना - ऐसे स्थान पर मारना जहाँ बहुत कष्ट हो, मर्मस्थल में मारेसि मोहिं कुठाँव रामा० । यौ० ठाँव - कुठाँघ - धच्छे-बुरे मारना --- स्थान पर । कुठाट - संज्ञा, पु० ( हि० कु + ठाट ) बुरा साज-सामान, बुरा प्रबन्ध, या धायोजन, बुरे काम की बन्दिश या तैय्यारी । मोंहि लगि यह कुठाट तेहि ठाटा । " 66 — For Private and Personal Use Only "" Page #482 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir घरिया। कुठाराघात ६७१ कुतनु " न तु यहि काटि कुठार कठोरे।"- | और उतना ही गहरा अन्न नापने का एक रामा०। मान, सेर, सेर का ५ वाँ भाग। कुठाराघात-संज्ञा, पु. यौ० ( सं० ) कुडा-संज्ञा, पु० (सं० कुटज ) इन्द्र-यव कुल्हाड़ी की चोट, गहरी चोट। का वृक्ष । कुठारी-संहा, स्त्री. ( सं० ) कुल्हाड़ी, कुडुक - संज्ञा, स्त्री० दे० (फा० कुरक) टाँगी, नाश करने वाली: वि. कुठार | अंडा न देने वाली मुरगी, व्यर्थ, खाली। धारण करने वाला, कठिला, " जनि कुडौल-वि० (हि• कु+डोल ) बेढंगा, दिन कर कुल होसि कुठारी।"-रामा०।। भद्दा, कुरूप । कुठाली-संज्ञा, स्त्री० दे० ( सं० कु+ | कुढङ्ग-संज्ञा, पु० (हि.) बुरा ढङ्ग, कुचाल, स्थाली ) सोना-चाँदी गलाने की मिट्टी की कुरीति । वि० बेढङ्गा, भद्दा, बुरा, बुरी तरह का । वि. कुढङ्गा-बेशकर, उजड्डु, कुठाहर--संज्ञा, पु० ( हि० कु+ठाहर ) | भद्दा । स्त्री० कुढङ्गी कुटंगिनी।। कुठौर, कुठाँव, बेमौक़ा, कुअवसर, बुरा कुढङ्गी-वि० ( हि० कुढङ्ग) कुमार्गी, बदस्थान । " भयउ कुठाहर जेहि बिधि बामू' | चलन, कुचाली। -रामा०। कुढ़न-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० क्रुद्ध ) मन कुठौर-संज्ञा, पु० ( हि० कु+और ) कुठाँव, ही मन में रहने वाला क्रोध या दुःख, बे मौका, बुरा स्थान । चिढ़, ग्लानि, डाह । कुड-संज्ञा, पु० दे० (सं० कुष्ठ, प्रा० कुट्ट) कुढ़ना- अ. क्रि० (सं० क्रुद्ध ) भीतर कुट नामक औषधि, खेत में बोने के लिये ही भीतर क्रोध करना, खीझना, चिढ़ना, बनाई गई क्यारी। डाह करना, जलना, मन ही मन बुरा कुड़कना-अ. क्रि० (दे० ) घूरना, मानना या दुखी होना, मसोसना। गुर्राना, कुड़ कुड़ करना कुढव-वि० (हिं. कु+ डब) बुरे ढङ्ग का, कुडकुड़ाना-अ० क्रि० । अनु०) मन में बेढब, कठिन । संज्ञा, पु. बुरा ढङ्ग, कुरीति । कुढ़ना, बड़बड़ाना । (दे० ) कुढ़ना। कुडकुड़ी—संज्ञा, स्त्री० ( अनु० ) भूख या कुढ़ाना–स० क्रि० ( हि० कुठना ) चिढ़ाना, अजीर्ण से होने वाली पेट की गुड़गुड़ाहट । खिझाना, दुखी करना, कलपाना, जलाना। मुहा०—कुड़कुड़ी होना-किसी बात के | कुणप- संज्ञा, पु० (सं०) शव, लाश, इंगुदी जानने के लिये श्राकुलता होना। वृक्ष, गोंदी, राँगा, बरछा । (दे०) कुनप। कुड़बुड़ाना-अ० कि० ( अनु० ) मन में | कुणाशी-संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) मुर्दा खाने कुढ़ना, कुड़कुड़ाना । वाला एक प्रेत, मुर्दा खाने वाला जन्तु । कुडमल-संज्ञा, पु० (सं० कुड्मल ) कली, कुतः---अव्य० (सं० ) कहाँ से, क्यों। कलिका । “ कुलिस कुन्द कुडमल दामिनि कुतका - संज्ञा, पु० (हि० गतका ) गतका, दुति --विन। सेटा, मोटा डंडा, भंग-घोटना, मुट्ठी बंद कुडल-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० कुञ्चन ) करके अँगूठा दिखाने की मुद्रा । रक्त की कमी या उसके ठंढे पड़ने से शरीर | कुतना-अ० कि० (हि. कूतना ) कूतने में होने वाली ऐंठन या एक प्रकार की का कार्य होना, कूता जाना । पीड़ा या दर्द। कुतनु-वि० (सं०) बुरे शरीर वाला। कुड़व-संज्ञा, पु० (सं०) ४ अंगुल चौड़ा संज्ञा, पु० बुरी देह, यक्षराज, कुबेर । For Private and Personal Use Only Page #483 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ४७२ कुतप कुतप - संज्ञा, पु० (सं० ) दिन का ८ वाँ मुहूर्त ( मध्याह्न काल ) श्राद्ध में आवश्यक वस्तुयें, मध्याह्न, गैंडे के चमड़े का पात्र, तिल श्रादि, एकोदिष्ट श्राद्ध के प्रारम्भ का समय, सूर्य, अग्नि, प्रतिथि, भांजा, द्विन । यौ० कुतप-काल- गरमी का समय, मध्याह्न । कुश, कुतरना - स० क्रि० दे० (सं० कुर्तन ) दाँत से छोटा टुकड़ा काटना, बीच ही में से कुछ अंश काट लेना, चोंच से काटना । कुतरू - संज्ञा, पु० (सं० ) बुरा वृक्ष, बँबूल | ( दे० ) पिल्ला | कुतर्क ( कुतरक ) - संज्ञा, पु० सं० (दे०) कुत्सितर्क, बेढंगी दलील, वितंडा, दुर्बल युक्तियों का तर्क । कुतर्की ( कुतरको ) – संज्ञा, पु० (सं० ) कुतर्क करने वाला, वितंडा वादी, बकवादी, हुज्जती ।" मति न कुतरकी - " रामा० । कुतल - संज्ञा, पु० (सं०) भूतल, पृथ्वीतल । कुतवार - कुतवाल - संज्ञा, पु० ( दे० ) कोतवाल । संज्ञा, पु० ( कूतना - हि०) कूतने वाला | कुतवाली -कुतवारी - संज्ञा, स्त्री० (दे० ) कोतवाली, कोतवाल का काम या स्थान । कुतिया कुत्तिया - संज्ञा स्त्री० (हि० कुत्ती ) कूकरी, कुकुरिया (दे० ) । - . कुतुब- कुतुब- संज्ञा, पु० (अ० ) ध्रुव तारा, किताबें । . कुतुबखाना -संज्ञा, पु० ( ० ) पुस्तकालय | . कुतुबनुमा - संज्ञा, पु० ( ० ) दिग्दर्शक यंत्र, दिशा सूचक यंत्र | कुतुबफ़रोश -- संज्ञा, पु० ( ० ) पुस्तकविक्रेता, बुकसेलर | कुतूहल -- संज्ञा, पु० (सं० ) किसी वस्तु के देखने या किसी बात के सुनने की प्रबल इच्छा, विनोद-पूर्ण उत्कंठा, वह वस्तु जिसके देखने की इच्छा हो, कौतुक, क्रीड़ा, खिलवाड़, अचंभा, कौतूहल, परिहास | Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कुदरत वि० कुतूहली - (सं० ) कौतुकी, जिसे देखने-सुनने की प्रबल उत्कंठा हो, खिलवाड़ी, पूर्वता । 1 कु. तृण संज्ञा, पु० (सं० ) बुरी घास । कुत्ता - संज्ञा, पु० (दे० ) भेड़िया, गीदड़, लोमड़ी आदि की जाति का एक पशु जो घर की रक्षा के लिए पाला जाता है, श्वान, कूकुर ( दे० ) ग्राममृग । स्त्री० कुत्ती । यौ० कुत्ते- खसी - व्यर्थ और तुच्छ कार्य 1 मु० का कुत्ते ने काटा है- क्या पागल हुए हैं | कुत्ते की मौत मरना - बहुत बुरी तरह मरना । कुत्ते का दिमाग़ होना ( कुत्ते का भेजा खाना) - अधिक बकवाद करने की शक्ति होना । कपड़ों में लिपटने वाली बालों की घास, लपटो (दे० ) कल का वह पुरज़ा जो किसी चक्कर को उलटा या पीछे की ओर घूमने से रोकता है, दरवाज़े के बंद करने का एक लकड़ी का छोटा चौकोर टुकड़ा, बिल्ली, बंदूक का घोड़ा, नीच या तुच्छ व्यक्ति, क्षुद्र । कुत्सन- संज्ञा, पु० (सं० कुत्स + भनट् ) निन्दा, भर्त्सना | कुत्सा - संज्ञा, स्त्री० (सं० ) निंदा, गर्हा, श्रवज्ञा । कुत्सित - वि० (सं० ) नीच, निंद्य, गर्हित, अधम | संज्ञा, पु० ( सं० कुत्स + क ) कुद, कोरैया औषधि | कुथ - संज्ञा, पु० (सं० कुथ + अल् ) हाथी की भूल या बिछावन, रथ का श्रोहार, प्रातः स्नायी ब्राह्मण, कथरी, एक कीड़ा । कुथरी -कुथली - संज्ञा, स्त्री० (दे० ) घोली, कोथली -- (दे० ) बुरे स्थान का । कुदकना -- -- प्र० क्रि० (दे० ) कूदना, फुदकना, फाँदना । कुदका -कुदका - संज्ञा, पु० ( हि० कुतका ) अँगूठा । संज्ञा. पु० (हि० कूदना ) उछल-कूद | . कुदरत - संज्ञा, स्त्री० ( ० ) शक्ति, प्रभुत्व, प्रकृति, माया, ईश्वरीय शक्ति, कारीगरी । For Private and Personal Use Only Page #484 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कुदरती कुनारी ४७३ कुदरती-वि० (अ.) प्राकृतिक, स्वाभाविक, कुदृश्य-वि० (सं० ) अभव्य, कुरूप । दैवी। कुदेश-( कुदेस )-संज्ञा, पु० सं० (दे०) कुदरना-कुदराना-अ. क्रि० (दे० ) बुरा देश । कूदना, फाँदना, दौड़ना। | कुदेव-संज्ञा, पु० (सं० कु = पृथ्वी+देव ) कुदर्शन -वि० (सं० ) कुरूप, बदसूरत । । भू-देव, ब्राह्मण । संज्ञा, पु० (सं० कु = बुरा+ कुदलाना-प्र० क्रि० दे० (हि.-कुदराना) देव) राक्षस। कूदते हुए चलना, उछलना। कुद्रव-संज्ञा, पु. ( सं० ) कोदो (अन्न), कुदाँउ-कुदांव-संज्ञा, पु० (हि. - + तलवार चलाने का एक प्रकार । दांव-हि० ) बुरा दाँव, कुवात, विश्वास- कुधर-संज्ञा, पु. ( सं० कुध्र ) पहाड़, घात, धोखा, औचट, बुरी स्थिति, बुरा शेषनाग। स्थान, मर्म-स्थान, बुरा मौका। कुधातु-संज्ञा, स्त्री० (सं० ) बुरी धातु, कुदाई - वि० (हि. कुदाँव ) बुरे ढंग से लोहा “पारस परसि कुधातु सुहाई।" दाँव-पेंच करने वाला, छली, दगाबाज़ ।। - रामा०। | कुधारा-संज्ञा, स्त्री. (सं० ) कुरीति, कुदान- संज्ञा, पु० (सं० ) बुरा दान, (लेने | दुर्व्यवहार। वाले के लिये ) जैसे शय्या-दान, कुपात्र या | कुनकुना--वि० (सं० कुदुष्ण ) कुछ गरम, अयोग्य को दिया जाने वाला दान । यौ० गुनगुना । (कु = पृथ्वी+दान ) पृथ्वी-दान । संज्ञा, कुनख -संज्ञा, पु. (सं० ) बुरा नख । वि. स्त्री० (हि० कूदना ) कूदने की क्रिया या कुनखी-बुरे नख वाला। भाव, बहुत पहुँच कर कहना, एक बार कुनबा-संज्ञा, पु० (दे०) कुटुम्ब । में कूद कर पार करने की दूरी । कुनबी-- संज्ञा, पु० दे० (सं० कुटुंबी ) प्रायः कुदाना-स० कि० ( हि० कूदना प्रे० ) | खेती करने वाली एक हिन्दू जाति, कुरमी, कूदने में प्रवृत्त करना। गृहस्थ । कुदाम-संज्ञा, पु० (हि. कु० + दाम ) कुनवा-संज्ञा, पु० (हि• कुनना ) बर्तन खोटा सिक्का । आदि खराइने वाला, खरादी। कुदाय-संज्ञा, पु० (दे० ) कुदाँव, पू० कि० कुनह - संज्ञा, स्त्री० दे० (फा० कीन ) द्वेष, . (हि० कूदना ) कूद कर । पुराना बैर । वि० कुनहो-द्वेषी, बैर कुदाल-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० कुद्दाल ) । रखने वाला। मिट्टी खोदने और खेत गोड़ने का औज़ार । कुनाई-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि० कुनना) स्त्री० कुदाली, कुदार, कुदारी । “मरमी खुरचने या खरादने से निकलने वाली सजन सुमति कुदारी''-रामा० । बुकनी या किसी वस्तु का चूर, बुरादा, कुदिन-संज्ञा, पु. (सं०) बुरा दिन, खरादने का भाव, या उसकी मज़दूरी। विपत्ति काल, एक सूर्योदय से दूसरे तक | का समय, सावन-दिन, ऋतु-विरुद्ध और कुनाम-संज्ञा, पु. (सं०) बदनामी । कष्ट प्रद घटनाओं का दिन, दुर्दिन ( विलोम ___" हम ना कुनाम की कुलाहल कराबैंगी" -सुदिन)। -रता। कुदिष्टि-कुदृष्टि-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० ) | कुनारी-संज्ञा, स्त्री. (सं० ) दुष्टा स्त्री, बुरी नज़र, पाप-दृष्टि, बुरे भाव से देखना भ्रष्टचरित्रा । ......." रंकिनि, कलंकिनि, " इनहिं कुदिष्टि बिलोकइ जोई"-रामा०।। कुनारी हौं"। भा० श० को०-६० पोडा.कम। For Private and Personal Use Only Page #485 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कुनाल - ४७४ कुबानि कुनाल-संज्ञा, पु० (सं० ) प्रसिद्ध महाराज कुपुत्र-संज्ञा, पु० (सं० ) कुमार्गी पुत्र, दुष्ट अशोक का पुत्र, जिसने अपनी सौतेली माँ पुत्र, कुपूत ( दे०) कपूत (दे० )। की पापेच्छा न पूर्ण कर तदादेश से अपनी कुपुरुष-संज्ञा, पु० (हि.) अधम मनुष्य, आँखें निकाल दी और अशोक के द्वारा नीच, कापुरुष ( सं०) “ भाग्य भरोसे उसका वधादेश सुन अपनी प्रार्थना से जो रहै, कुपुरुष भापहि टेरि।" कु० वि० । उसे बचाया। कुपूत--- संज्ञा, पु० दे० (सं० कुपुत्र ) कपूत कुनित -वि० दे० (सं० क्वणित) शब्दायमान। कुनोति-संज्ञा, स्त्री० (सं० ) अन्याय, कुप्पा -संज्ञा, पु० दे० (सं० कूपक याकुतुप ) अनुचित रीति । घड़े का सा चमड़े का बना हुआ घी, तेल कुनैन--संज्ञा, स्त्री० दे० ( अं० किनिन ) आदि रखने का पात्र । सिनकोना नामक पेड़ की छाल का ज्वर- मुहा०-कुप्पा होना (हो जाना) फूल नाशक सत । संज्ञा, पु० दे० (हि. कु = जाना, सूजना, मोटा होना, हृष्ट-पुष्ट या प्रसन्न बुरा+ नैन ) बुरे नेत्र, कुपित नेत्र। होना, रूठना, मुँह फुलाना । ( स्त्री० कुपंथ-संज्ञा, पु० दे० (सं० कुपथ) बुरा मार्ग, __ अल्पा० ) कुप्पी-छोटा कुपा । कुचाल, कुमार्ग, कुत्सित सिद्धान्त या संप्र- कु.फुर* -- संज्ञा, पु० दे० (अ. कुफ़) मुसलदाय, बुरामत, निषिद्धाचरण। वि० कुपंथी- मानी मत से विरुद्ध या भिन्न मत । वि. कुमार्गी। काफिर (अ.)। कुपढ़-वि० (हि. कु+पढ़ ) अनपढ़। कुफेन-संज्ञा, स्त्री० ( सं० ) काबुल नामक कुपथ-संज्ञा, पु. (सं० ) बुरा रास्ता, । नदी का प्राचीन नाम । निषिद्धाचरण, कुचाल । यौ०-कुपथगामी कुबंड-संज्ञा, पु० दे० (सं० कोदडं) धनुष । कुत्सिताचरण वाला, पापी । संज्ञा पु० (सं० वि० ( कु+बंड + खंज) विकृतांग, खोंडा। कुपथ्य ) स्वास्थ्य के लिये हानिकर भोजन । कुब-कूब-संज्ञा, पु० ( दे०) कूबड़ा, कूबर । " कुपथ निवारि सुपंथ चलावा,-रामा० (दे०) "साई करि कूब राधिका पै "कुपथ माँग रुज-व्याकुल रोगी"- रामा०। पानि फाटी है"-उ० श० । कुपथ्य-संज्ञा, पु. (सं०) स्वास्थ्य के | कुबड़ा-संज्ञा, पु० दे० (सं० कुब्ज ) कूबड़ लिये हानिकारक अहार-विहार, बदपरहेजी वाला, जिसकी पीठ टेढ़ी या भुकी हो। (फा०)। वि०-टेढ़ा, झुका हुआ, कूब वाला । (दे०) कुपना -- अ. क्रि० ( दे० ) कोपना, कूबर। स्त्री० कुबड़ी-कुबरी-कूबड़ वाली, नाराज़ होना। स्त्री, मुके हुए सिरे वाली छड़ी।, मंथरा । कुपाठ-संज्ञा, पु० (सं०) बुरी सलाह, " कुबरी कुटिल करी कैकेयी " रामा०, कंस बुरा पाठ । " कीन्हेसि कठिन पढाइ कुपाटू" की दासी, कुब्जा। -रामा०। कुबत-संज्ञा, स्त्री० ( हि• कु-+बात ) कुपात्र-वि० (सं०) अनधिकारी, अपात्र, कुबात, निंदा, बुरी चाल या बात, (सं० अयोग्य, शास्त्रों में जिसे दान देना निषिद्ध है। कु+ बात-वायु ) बुरी हवा। कुपार-संज्ञा, पु० दे० (सं० अकूपार ) कुबाक-कुवाक्य-संज्ञा, पु० दे० ( सं०) समुद्र, सागर । बुरा वाक्य, कुत्सित शब्द, निंदा, गाली। कुपित - वि० (सं०) क्रुद्ध, अप्रसन्न, कोप- | कुबानि-संज्ञा, स्त्री० (हि० कु+बानि) बुरी युक्त, नाराज। । श्रादत, बुरी टेंच । ( कुवाणी) बुरी वाणी। For Private and Personal Use Only Page #486 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कुबानी ४७५ कुमारग कुबानी -संज्ञा, पु० दे० (सं० कुवाणी) संज्ञा, स्त्री०-हाथियों के पकड़ने में मदद देने बुरी वाणी, गाली, निंदा । संज्ञा, पु० (सं० | वाली सिखाई हुई हथिनी। कुवाणिज्य, कुवणिक ) बुरा व्यापार, बुरा कुमकुम ~ संज्ञा, पु० (सं० कुंकुम ) केसर, बनिया । कुमकुमा। कुबुद्धि-वि० ( सं० ) दुर्बुद्धि, मूर्ख । संज्ञा, | कुमकुमा-- संज्ञा, पु. (तु. कुमकुम ) लाख स्त्री. ( सं० ) मूर्खता, कुमंत्रणा, बुरी का बना एक पोला गोला जिसमें अबीर या सलाह। गुलाल भर कर होली में लोग मारते हैं कुबेला--संज्ञा, स्त्री. ( सं० कुवेला ) बुरा तंग मँह का छोटा लोटा, काँच के छोटे समय। पोले गोले। कुबोल -- संज्ञा, पु० (दे० ) बुरे बोल। वि० । कुमति - संज्ञा, स्त्री० (सं०) दुर्बुद्धि, दुर्मति । स्त्री० कुबोलनी। कुमद- संज्ञा, पु० दे० (सं० कुमुद ) दुरभिकुब्ज–वि० (सं० ) कुबड़ा, कूवरो (ब०) मान, एक कमल । स्त्री० कुमदनी-कमलनी। टेढ़ा, वक्र । संज्ञा, पु० (सं०) एक वायु रोग | कुमंत्रणा-संज्ञा, स्त्री० (२०) बुरी सलाह । जिससे पीठ टेढ़ी हो जाती है, अप-मार्ग । संज्ञा, पु० (सं० ) कुमंत्री। संज्ञा, भा० स्त्री० (सं० ) कुब्जता --वक्रता। कुमरिया-संज्ञा पु. ( ? ) हाथियों की एक जाति । कुन्जक-संज्ञा, पु० (सं०) मालती लता। कुमरी-संज्ञा, स्त्री० (अ० ) पंडुक जाति कुब्बा-संज्ञा, पु० (दे० ) कूबड़, कूबर।। की एक चिड़िया, कुररी (दे० )। कुब्जा-संज्ञा, स्त्री० (सं० ) कस की एक कुमाच-संज्ञा, पु० दे० (प्र. कुमाश ) एक कुबड़ी दासी जो कृष्ण पर बहुत प्रेम रखती रेशमी कपड़ा । संज्ञा, स्त्री० ( दे० ) कौंच । थी, जिसका कूबड़ उन्होंने दूर किया था, कुमार-संज्ञा, पु० (सं०) १ वर्षीय बालक, कुबरी, कैकेयी की मंथरा दासी। कुबजा पुत्र, युवराज, कार्तिकेय, सिंधुनद, तोता, (व.) "कूर कुबजा पठाये हो" ऊ. श०।। खरा सोना, सनक, सनंदन, सनत् और कुब्जिका–संज्ञा, स्त्री० (सं० ) दुर्गा का सुजात श्रादि सदा बालक रहने वाले ऋषि, नाम, ८ वर्ष की कन्या ।। युवावस्था की पूर्व अवस्था वाला, बालकों कुभा-संज्ञा, स्त्री० (सं० ) पृथ्वी की छाया, पर उपद्रव करने वाला एक ग्रह, मंगल ग्रह, बुरी दीप्ति, काबुल नदी। जैन विशेष, अग्नि, प्रजापति, अग्नि-पुत्र, वृक्ष कुभार्या - संज्ञा, स्त्री० (सं०) कुलटा या विशेष । वि० (सं० ) बिना व्याहा, कुआँरा कर्कशा स्त्री। (दे०) यौ०-कुमार-पाल ( सं० ) नृप कुभाव-संज्ञा, पु० (सं० ) बुरा भाव, द्वेष, । शालिवाहन । "भाव कुभाव, अनख-भालस हूँ"- रामा० । कुमार-तंत्र - संज्ञा, पु. (सं० ) बालतंत्र, कुभृत-संज्ञा, पु० (सं० ) बुरा नौकर, शेष बच्चों के रोगों का निदान और उनकी नाग, पर्वत, ७ की संख्या।। चिकित्सा, बाल वैद्यक-भाग । कुमंठी -संज्ञा स्त्री० दे० (सं० कमठ कुमारिका-संज्ञा स्त्री. (सं० ) कुमारी, बांस ) कमटी (दे०) बाँस की पतली कुआँरी कन्या, राज-पुत्री, पुत्री, भारत के खपाँच, कमची, लचीली टहनी। दक्षिण में एक अंतरीप, भरत राजा की कुमक-संज्ञा, स्त्री० (तु०) सहायता, पक्ष- कन्या । पात, तरफ़दारी, प्रसन्नता। कुमारग-संज्ञा पु० दे० (सं० कुमार्ग) कुपथ, कुमकी-वि० (तु.) कुमक संबन्धी। बुरा मार्ग।। For Private and Personal Use Only Page #487 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ४७६ कुमारबाज़ कुमारवाज़ - संज्ञा, पु० दे० ( ० किमार + बाज़ - फा० ) किमारबाज़, जुारी । कुमारभृत्य – संज्ञा, पु० (सं० ) गर्भिणी को सुख से प्रसव कराने की विद्या, गर्भिणी एवं नव प्रसूत बालकों की चिकित्सा । कुमारललिता - संज्ञा स्त्री० (सं० ) ७ व का एक वृत्त । कुमारलसिता - संज्ञा, स्त्री० (सं०) ८ वर्णे का एक वृत्त । कुमारिल ( भट्ट ) संज्ञा, पु० (सं० ) दक्षिण देशीय एक प्रसिद्ध दार्शनिक या मीमांसक ( ई० ६५० से ७०० ई० ) जो शंकराचार्य के समकालीन थे । इन्होंने वेदों का भाष्य किया, मीमांसा वार्तिक और तंत्र वार्तिक नामक ग्रंथ रचे, येही शवर भाष्य तथा श्रौतसूत्रों के टीकाकार भी थे । इन्होंने बौद्धों के मत का खंडन किया और प्रयाग में तुषानल से शरीर छोड़ा । कुमारी - संज्ञा स्त्री० (सं०) १२ वर्ष तक की कन्या, घीकुवाँर नवमल्लिका, बड़ी इलायची, सीता, पार्वती, दुर्गा, भारत के दक्षिण में एक अंतरीप, कन्या कुमारी, पृथ्वी का मध्य, श्यामा पक्षी, चमेली-सेवती, शाकद्वीपी ७ सरिताओं में से एक । वि० स्त्री० बिना व्याही, अपराजिता । यौ० संज्ञा पु० (सं० ) कुमारी -पूजन ( कुमारीपूजा-स्त्री ) - एक प्रकार की देवी पूजा, जिसमें बालिकाओं का पूजन किया जाता है (तंत्र) 1 कुमार्ग -संज्ञा पु० (सं०) बुरा मार्ग, अधर्म । वि० कुमार्गी – कुचाली, अधर्मी, कुमार्गगामी - बद चलन । कुमुख - वि० पु० (सं० ) बुरे मुख वाला, दुर्मुख, कटुभाषी स्त्री० - कुमुखी । कुमुद - ( कुमोद ) – संज्ञा, पु० (सं० ) कुई ( दे० ) कोका, लाल कमल, चांदी, विष्णु, एक वानर ( जो राम- सेना में था ) "लंकायाम् उत्तरे कोणे कुमुदो नाम वानरः ' "" Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कुम्ही कपूर, दक्षिण-पश्चिम कोण का दिग्गज, एक द्वीप, दैत्य, नाग, केतुतारा, संगीत की एक ताल या रागिनी । कुमुद-बंधु- संज्ञा, पु० यौ० (सं०) चंद्रमा । कुमुद बंधु कर निंदक हासा - रामा० । कुमुदिनी कमोदिनी -संज्ञा, स्त्री० (सं०) कुई, कोई (दे० ) कमलिनी कुमद-युक्त सरोवर, नीलोफर, कमोदिनी (दे० ) । कुमुदिनीश - संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) कुमुदिनीपति, चंद्रमा । ܕܕ कुमेढ - संज्ञा, पु० ( सं०) दक्षिणी ध्रुव । कुम्मैत - ( कु.मैत) संज्ञा पु० दे० ( तु० ) लाल रंग, लाख, कुम्मैद (दे०) इसी रंग का घोड़ा । " तुर्की, ताजी और कुमैता घोड़ा अरबी, पचकल्यान । आल्हा | मुहा० - आठौ गाँठ कुम्मैत - चतुर, चालाक, धूर्त । For Private and Personal Use Only ܐܙ कुम्हड़ा - संज्ञा, पु० दे० (सं० कुष्मांड ) एक प्रकार की फैलने वाली बेल जिसके बड़े फल तरकारी के काम में ाते हैं, पेठा, (कुम्हड़ा दो प्रकार का होता है, सफ़ेद पेठा, हरे-पीले रंगा, जिसे काशीफल या कद्दू कहते हैं) । मुहा० - कुम्हड़े की बतिया ( कुम्हड़बतिया ) - कुम्हड़े का छोटा कच्चा फल अशक्त मनुष्य । " इहाँ कुम्हड़ बतिया को नाहीं ”कुम्हडौरी, कुम्हरौरी - संज्ञा, स्त्री० (दे० ) उर्द की पीठी में कुम्हड़े के टुकड़े मिलाकर बनाई जाने वाली बरी, कँहरौरी (दे० ) । कुम्हलाना- - भ० क्रि० दे० (सं० कु + म्लान) मुरझाना, सूखने पर होना, प्रभा-हीन होना, प्रसन्नता - रहित होना । वि० कुम्हलाया, - रामा० । स्त्री० कुम्हलाई । कुम्हार - संज्ञा, पु० दे० (सं० कुंभकार ) कुलाल, मिट्टी के बरतन बनाने वाला, कुंभार (दे० ) । स्त्री० - कु. म्हारिन । कुम्ही* – संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० कुभी ) जलकुंभी, पानी पर फैलने वाला पौधा । Page #488 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org कुयश 66 कुयश – संज्ञा, पु० (सं० ) अपयश, दुर्नाम । कु.योग ( कुजोग ) – संज्ञा, पु० सं० (दे० ) बुरा योग या काल, दुखद ग्रह | कुयोगी - संज्ञा, पु० (सं० ) विषयानुरक्त | 'पुरुष कुयोगी ज्यों उरगारी " - रामा० । कुरंग - संज्ञा, पु० (सं०) बादामी रंग का हिरन, मृग, बरवै छंद | संज्ञा, पु० ( हि० कु + रंग -- ढंग ) बुरा लक्षण, बुरा रंग-ढंग, लाह जैसा लोहे का रंग, नीला, कुम्मैत, लाखौरी, इसी रंग का घोड़ा । वि० बदरंग, बुरे रंग का ।" "कत कुरंग श्रकुलाय" वि० । कुरंगसार - संज्ञा, पु० (सं० ) कस्तूरी, मृग-मद, कुरंग नाभि । कुरंगिनी - संज्ञा, स्त्री० ( सं० ) कुरंगिनि, हिरनी, मृगी । ૪૭૭ 1 कुरंगनयना - वि० स्त्री० यौ० (सं०) मृग के से नेत्र वाली । मृगनैनी (दे०), कुरंगनैनी । कुरंदक - संज्ञा, पु० (सं०) पीली कटसरैया, पियाँer | " I कुरंड - संज्ञा, पु० दे० (सं० कुरुविंद ) एक खनिज पदार्थ, जिसके चूर्ण को लाख श्रादि में मिलाकर शान का पत्थर बनाते हैं। कुरकी . कुर्की - संज्ञा, स्त्री० ( तु० कुर्क + ई - प्रत्य० ) कर्ज़दार या अपराधी की जायदाद का ऋण या जुरमाने की वसूली के लिये सरकार द्वारा जब्त किया जाना । कुरकुट-कुरकुटा - संज्ञा, (दे०) टुकड़ा, रवा, कड़ा, मोटा अन्न. रोटी का टुकड़ा । यौ० कौरा - कुरकुटा 66 - प० भीखहि चहा ( सं० कुक्कुट ) मुर्गा | कुरकुर -- संज्ञा, पु० (अनु० ) खरी वस्तु के दबकर टूटने का शब्द | कुरकुरा - वि० पु० ( हि० कुरकुर ) खरा, करारा, कुरकुराने वाला । वि० स्त्री० कुरकुरी | संज्ञा, स्त्री० पतली हड्डी । कुरकुराना - प्र० क्रि० ( अनु० ) कुरकुर शब्द करना, टूटना | | जूड़ कुरकुरा । संज्ञा, पु० दे० | कुरसी कुरच - संज्ञा, पु० (दे० ) क्रौंच (सं० ), टिटिहरी । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कुरता - कुर्ता-संज्ञा, पु० ( तु० ) एक पहिनने का ढीला वस्त्र | संज्ञा, स्त्री० ( तु० कुरता ) कुरती - स्त्रियों की फतुही । कुरना* - अ० क्रि० (दे० ) कुरलना, (सं० कलरव ) मधुर स्वर से पक्षियों का बोलना, ढेर लगाना, कुरवना (दे० ) । " जसुदा की को एक बार ही कुरै परी " - देव० । कुरबक संज्ञा, पु० ( सं० ) कटसरैया औषधि । - वि० ( ० ) निछावरया बलिदान कुरबानदिया हुआ । मु० - कुरबान जाना ( होना ) — निछावर या बलि होना । कुरबानी - संज्ञा, स्त्री० (०) बलिदान । कुरर – संज्ञा, पु० (सं० ) गिद्ध जाति पत्ती, कराँकुल, क्रौंच, टिटिहरी, कुररा (दे० ) । स्त्री० कुररी - श्रार्या छंद का एक भेद, टिटिहरी, भेड़, चील्ह, भेषी । "1 3. रलना* - श्र० क्रि दे० (सं० कलरव ) कुरना, पक्षियों का मधुर स्वर करना । खूदहिं, कुरलहिं जनु सब हंसा"कुरला - संज्ञा स्त्री० (दे०) क्रीड़ा, कुल्ला कुरला - काम करे मनुहारी " प० । कुरव - वि० (सं०) बुरा शब्द करने वाला । संज्ञा, पु० बुरा शब्द | -प० । 1 "6 कुरवना स० क्रि० ( हि० कूरा ) राशि लगाना, ढेर करना | कुरवद - संज्ञा, पु० ( दे० ) कुरुविंद । कुरवारना स० क्रि० (दे० ) खोदना, खरोंचना । " सुख कुवारि फरहरी खाना "" - प० । 1 कुरसी - (कुर्सी) -संज्ञा, स्त्री० ( ० ) पीछे टेक या सहारे की पटरी लगी हुई एक प्रकार की ऊँची चौकी । यौ० आराम कुरसी - लेटने की बड़ी कुरसी, वह ऊँचा चबूतरा जिस पर इमारत बनाई जाती है, पीढ़ी, पुश्त, मकान की नींव की ऊँचाई । For Private and Personal Use Only Page #489 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - कुरसीनामा ४७८ कुरूपता मु०-कुरसी पाना-पद, अधिकार या सब "......, " तेइसत बोहित कुरीसम्मान पाना । कुरसी देना-आदर चलाये "-५० । करना। कुरीति-संज्ञा, स्त्री० (सं० ) बुरी रीति, कुरसीनामा--संज्ञा, पु० (फ़ा०) लिखी हुई कुचाल, कुप्रथा। वंश-परंपरा, शज़रा, पुश्तनामा, वंश-वृक्ष । कुरीर-संज्ञा पु० (सं० ) मठी, मैथुन । कुरा-संज्ञा, पु० दे० (अ० कुरह) पुराने कुरु-संज्ञा, पु० (सं० ) वैदिक आर्यों का जखम की गाँठ । संज्ञा, पु० (सं० कुरव) एक कुल, हिमालय के उत्तर और दक्षिण कटसरैया। का एक प्रदेश, एक सोमवंशीय राजा जिससे कुराइ8--संज्ञा, स्त्री० (दे०) कुराय, कुराह । कुराई-संज्ञा, स्त्री० ( दे.) रास्ते के गड्ढे, कौरव (वृतराष्ट्र) और पांडु हुये थे, कुरुवंशीय पुरुष, भरत, कर्ता, पृथ्वी के ६ खंडों में से कुराय, कुराह, ऊँची नीची भूमि । “कुस एक । यो. कुरुकेतु-संज्ञा, पु० (सं० ) कंटक काँकरी कुराई "--रामा०। दुर्योधन, युधिष्ठिर, परीक्षित । कुरुक्षेत्रकुरान - संज्ञा, पु० (अ.) अरबी भाषा में संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) दिल्ली के प्रासपास मुसलमानों का एक धर्म-ग्रंथ । कुराय-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. कु+राह ) ( अंबाला और दिल्ली के बीच ) का मैदान, जहाँ महाभारत का युद्ध हुआ था, पानी से पोली भूमि का गड्ढा । पु०- | यहाँ इसी नाम की एक झील है जहाँ कुंभ बुरा राजा। का मेला होता है, एक तीर्थ, सरस्वती के कुराह-संज्ञा, स्त्री. (हि. कु-+-राह-फा०) कुमार्ग, बुरी चाल, खोटा आचरण । वि. दक्षिण और दृषद्वती नदी के उत्तर का प्रान्त । कुरुवंश-यो० (सं०) राजा कुराही-कुमार्गी, बदचलन । संज्ञा, स्त्री० (कुराह + ई-प्रत्य०) बदचलनी, दुराचार । कुरु का कुल । कुराहर-संज्ञा, पु० (दे०) कोलाहल । | कुरुई-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० कॅडव ) बाँस “काग कुराहर करि सुख पावा -५०।। और मूंज की एक छोटी डलिया, मौनी । कुरिया-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० कटी) घास वि० स्त्री० करुई ( दे० ) तिक्त, कटु। फूस की झोपड़ी, कुटी, कुटिया (दे०), अति | कुरुखेत-संज्ञा, पु० (दे०) कुरुक्षेत्र (सं.)। छोग गाँव । कुरुख-वि० दे० ( हि० कु+रुख-फा०) कुरियाल—संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० कल्लोल) अप्रसन्न चेहरे या बदन वाला, नाराज़ । चिड़ियों का मौज में बैठकर पंख खुजलाना। | कुरुजांगल—संज्ञा, पु० यौ० (सं०) पाँचाल मु०-कुरियाल में आना---(चिड़ियों | देश के पश्चिम का देश । का) श्रानन्द या मौज में श्राना। कुरुचि-संज्ञा, स्त्री० (सं० ) बुरी रुचि, कुरिहार—संज्ञा, पु० दे० (सं० कोलाहल ) । ( विलो०-सुरुचि )। शोर । "को नहिं करै केलि-करिहारा"- कुरुबक-संज्ञा, पु० (सं० ) एक वनस्पति । प० । वि० कुटीवाला। कुरुम -संज्ञा, पु० ( दे० ) कूर्म (सं० ) कुरी-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि० कुरा ) मिट्टी | कछुआ, कुरम (दे०)। का छोटा धुस या टीला । संज्ञा, स्त्री० (सं० | कुरुविंद-संज्ञा, पु० ( सं० ) मोथा, उरद, कुल ) वंश, घराना, राशि । संज्ञा, स्त्री० । दर्पण, काच, लवण । ( हि० कूरा ) खंड, टुकड़ा। | कुरूप---वि० (सं०) बदसूरत, बेढंगा, भद्दा । यौ० मु०-कुरी कुरी होना-खंड खंड | स्त्री० कुरूपा । होना, फूट-फैल जाना । “ अस्सी कुरी नाग कुरूपता संज्ञा, स्त्री० ( सं० ) बदसूरती। For Private and Personal Use Only Page #490 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कुरेदना ४७६ कुलक्षण कुरेदना-स० क्रि० दे० (सं० कर्तन) खुरचना, कुलंग-संज्ञा, पु० (फा० ) लाल सिर और खोदना, करोदना, ढेर को इधर-उधर मट-मैले रंग के शरीर वाला एक पक्षी, चलाना, फैलाना। मुगा। कुरेर -संज्ञा, स्त्री. (दे०), कुलेल- कुलंजन-संज्ञा, पु० (सं० ) अदरक का कल्लोल (सं०) क्रीड़ा, कलोल । सा एक पौधा जिसकी जड़ गरम, दीपन कुरेलना--स० क्रि० (दे० ) कुरेदना, और स्वर-शोधक होती है, पान की जड़, खोदना । संज्ञा, पु० (दे० ) राशि, ढेर। कुलींजन (दे० )। कुरैना-स० क्रि० (दे०) डालना, ढेर | कुल-संज्ञा, पु. ( सं० ) वंश, घराना, लगाना, कुरौना (दे०)। जाति, गोत्र, समूह, झुण्ड, घर, वाममार्ग, कुरैया-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० कुटज) इंद्रयव कौल-धर्म, व्यापारियों का संघ । वि. का जंगली पौधा जिसके फूल सुन्दर होते हैं। (अ.) समस्त, सब, सारा (७०)। कुरोना - स० कि० दे० (हि० कूरा = ढेर ) यौ०-कुलजमा-सब मिलाकर, केवल, कूरा या ढेर लगाना। मात्र । कुर्क-वि० (तु. कुक) जन्त, कुरुक (दे०)। कुलकना-अ. कि० ( हि० किलकना) . कुर्कअमीन-संज्ञा, पु. (तु० कुर्क ---अमीन | प्रसन्न या खुश होना, मोद से उछलना। -फा० ) अदालत के आज्ञानुसार किसी कुल-कंटक -संज्ञा, पु० यो० (सं०) कुपुत्र । अपराधी की जायदाद की कुर्की करने वाला कुल-कन्या—संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं० ) सरकारी कर्मचारी, कुरूकमीन ( दे०)। कुलीन या अच्छे घर की लड़की, (द्वंद्व कुर्की-संज्ञा, स्त्री० (तु० कुर्क --ई-प्रत्य०) समास ) वंश और कन्या, कुलीन-कन्या । किसी अपराधी के जुरमाने या कर्ज़दार के कुल-कर्म-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) कुलाचार, कर्ज़ के लिये उसकी जायदाद का सरकार कुल क्रिया, वंश-परम्परा । कुल-धर्म । द्वारा जब्त करने की क्रिया। कुल-कलंक-संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) कुलकुर्कुट-संज्ञा, पु० ( दे०) कुरकुटा, टुकड़ा कीर्ति में दाग़ लगाने वाला । "कुल-कलंक कूड़ा-करकट । तेहि पामर जाना"-रामा० । कुकुटी-संज्ञा, पु० (सं० ) सेमर वृक्ष ।। कुल-कानि-संज्ञा, स्त्री० (सं० कुल+ कानि कुछल-संज्ञा, स्त्री. ( दे० ) कुलाँच, = मर्यादा ) कुल या वंश की मर्यादा, कुल चौकड़ी, कुदान, उछाल । की लज्जा या प्रतिष्ठा। कुर्बा-कु-बा-संज्ञा, पु० (दे०) कूब, | कुलकुलाना-अ. कि० ( अनु० ) कुल कुल शब्द करना। मुहा०—ाँत कुल कुर्मी · संज्ञा, पु० (दे० ) कुरमी, कुनवी कुलाना- भूख लगना। (दे०)। कुलकुला-संज्ञा, पु. ( दे० ) कुल्ला, कुर्मक-संज्ञा, पु० (दे०) सुपारी। गंडूष । कुर्याला-संज्ञा, पु० (दे० ) श्राराम, सुख। कुलकुली—संज्ञा, स्त्री. ( दे० ) कुल्ली, मुहा०-कुर्याल में गुलेल लगाना- चुलबुली, खुजली। निराश होना, सुख में दुःख होना। कुलक्षण-संज्ञा, पु० (सं०) बुरा लक्षण, कुर्रा ( कुरी)-संज्ञा, स्त्री० (दे० ) हेंगा, | कुचाल, कुलच्छन । वि० (सं०) दुराचारी, बुरे सुहागा, कुरकुरी हड्डी, कुर्रा-- गोल | लक्षण वाला । स्त्री. कुलक्षणा, कुलक्षणी टिकिया। कुलच्छनी (दे०)। For Private and Personal Use Only Page #491 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कुलघाती ४८० कुलबधू कुलघाती-वि० (सं०) कुल-नाशक, कल- अध्यापक, दस हजार विद्यार्थियों को अन्न घालक ।" हम कुल घालक सत्य तुम..." ( भोजन ) और विद्या देने वाला ऋषि । रामा०। कुल-पालक-वि० (सं० ) वंश का पालन कुलच्छन-संज्ञा, पु० (दे० ) कुलक्षण पोषण करने वाला, कुल-पति। "..'कुल (सं० ) वि० कुलन्छनी स्त्री० पु०। पालक दससीस'—रामा० । कुलचा (कुरचा )- संज्ञा, पु. ( दे०) कल-परम्परा--संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं० ) बचत पूँजी, मूलधन, कोरचा (दे० )। । वंश, प्रणाली, कुल की बहुत समय से कुलज-वि० (सं० ) कुलीन, सवंशीय । चली आई हुई रीति, परिपाटी। कुलज्ञ-संज्ञा, पु० (सं० ) कुलाचार्य, भाट । कुल-पूजक-संज्ञा. पु. यो० (सं०) वंश कलट–वि. पु. (सं० ) व्यभिचारी, बद- की पूजा करने वाला, वंश का पूज्य, चलन, औरस के अतिरिक्त अन्य प्रकार का | पुरोहित, कुल-देव ।। पुत्र, जैसे दत्तक । कुल-पूज्य–वि० (सं० ) कुल-परम्परा से कुलटा-वि० स्त्री० (सं० ) छिनाल, बहुत जिसका मान या पूजन होता आया हो, पुरुषों से प्रेम रखने वाली स्त्री, परकीया | कुल गुरु, कुल-देव । नायिका जो कतिपय पुरुषों में अनुरक्त हो। कुलफ-कलुफ -संज्ञा, पु० दे० ( अ. "कोऊ कहौ कुलटा, कुलीन, अकुलीन कहो" कुफुल ) ताला। -मीरा। कुलकत-संज्ञा, स्त्री० (अ.) मानसिक कुलतारण ( कुलतारन )-वि० सं० । व्यथा, चिंता। (दे०) कुल को तारने वाला। स्त्री० | कुलफा--संज्ञा, पु० दे० ( फा० खुर्की ) एक साग, बड़ी जाति की श्रमलौनी। कुलथी-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० कुलस्थ, कली —संज्ञा, स्त्री० (हिं. कलफ़) पेंच, टीका कुलत्थिका ) एक प्रकार का मोटा अन्न । श्रादि का चोंगा जिसमें दूध भर कर बर्फ़ कुल-देव-संज्ञा पु० (सं० ) किसी कुल की जमाते हैं, इस प्रकार जमा दूध, मलाई आदि। परम्परा से जिस देवता की पूजा होती आई | कुलबुल-संज्ञा, पु. ( अनु०) छोटे छोटे हो, कुलदेवता । जीवों के हिलने-डोलने की श्राहट । स्त्री० कुल-द्रोही-वि० (सं० ) वंश-दूषक, वंश- कुलबुली-चुलचुली। इषी, कुमार्गी। कुलबुलाना-अ. क्रि० ( अनु० ) बहुत कुल-धर्म-संज्ञा, पु० यौ० ( सं० ) कुल- से छोटे जीवों का एक साथ मिल कर हिलनापरम्परा से चला आया कर्तव्य-कर्म, कुला- डुलना, इधर उधर रेंगना, चंचल होना, चार, वंश-व्यवहार। श्राकुल होना, कलम लाना । कुल-नाश-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) सन्तान कुलबुलाहट-संज्ञा, पु. ( अनु० ) कुलहीनता, कुल-भ्रष्टता। वि० कुल-नाशक- बुलाने का भाव। वंश का नाश करने वाला। कुलबोरन-वि० ( हि० कुल + बोरना) कलना-अ. क्रि० दे० (हि. कल्लाना )। कुल-कानि को भ्रष्ट या नाश करने वाला, दर्द करना, टीस होना। कुल-कलङ्क । स्त्री० कलबोरनी। कुल-पति-संज्ञा, पु. ( सं० ) घर का | कुल-बधू-संज्ञा, स्त्री. (सं० ) कुलवती, मालिक, विद्यार्थियों का भरण-पोषण | सच्चरित्रा स्त्री, पतिव्रता, वंश-मर्यादा रखने करता हुआ शिक्षा देने वाला गुरु या । वाली स्त्री। कुलतारनी। For Private and Personal Use Only Page #492 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org कुलवन्त कुलवन्त – वि० ( सं० ) कुलीन, श्रेष्ठ कुल का । स्त्री० कुलवन्ती । कुलवान - वि० का । स्त्री० कुलवती । कुलह (कुलहा ) संज्ञा, स्त्री० पु० ( फा० कुलाह ) टोपी, शिकारी चिड़ियों की आँखों का ढक्कन, अँधियारी । कुमति - विहंग 86 सं०) कुलीन, सश कुलह जनु खोली " कुलही - संज्ञा, स्त्री० दे० बच्चों के सिर की टोपी, कनटोप । दस्तकार, कारीगर, श्रेष्ठ वंशोत्पन्न, प्रधान पुरुष । कुल का रामा० । कुलिया - संज्ञा, स्त्री० ( दे० ) छोटी तक गली, कालिया ( प्रान्ती० ) । कुलिश ( कुल्लिस ) - संज्ञा० पु० सं० (दे० ) हीरा, वज्र, बिजली, राम-कृष्णादि देवताओं के पैर का एक चिन्ह, कुठार | " कुलिसहु चाहि कठोर अति " -- रामा० । ( फा० कुलाह ) कुली - संज्ञा, पु० ( तु० ) बोझ ढोनेवाला, मजदूर । यौ० कुली कबारी-छोटी जाति के आदमी । कुलीन - त्रि० (सं० ) उत्तम कुलोत्पन्न, अच्छे वंश या घराने का, पवित्र, शुद्ध, ख़ानदानी | संज्ञा, स्त्री० भा० (सं० ) कुलीनता, कुलिनाई, कुलीनताई (दे० ) । कुलुफ संज्ञा, पु० दे० ( ० कु. फुल ) ताला । कुल्लू ( कुलूत ) - संज्ञा, पु० (सं० कूलूत ) काँगड़े के पास का प्रदेश । THE कुलांगार – संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) कुल नाशक, सत्यानाशी । कुन्तांच, कुंलॉट-संज्ञा, स्त्री० दे० ( तु० कुलाच ) चौकड़ी, छलाँग, उछाल । कुलांगना – संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं० ) कुलीना, श्रेष्ठ स्त्री, कुल-बधू । कुलाचार - संज्ञा, पु० रीति, वंश-परम्परा | कुलाचार्य संज्ञा पु० यौ० (सं० ) कुलगुरु — पुरोहित । यौ० (सं० ) कुल कुलाधिसंज्ञा स्त्री० (सं०) पाप, पातक । कुलाबा - संज्ञा पु० ( अ० ) लोहे का मुरका जिसके द्वारा किवाड़ बाजू से जकड़ा रहता है, पायजा । कुलाल - संज्ञा, पु० (सं० ) मिट्टी के बरतन बनाने वाला कुम्हार, काँची काहू कुसल कुलाल ते कराई ती " - रसि० । जंगली मुर्गा, उल्लू । कुलाह -- संज्ञा, पु० (सं० ) गाँठ से सुमों तक काले पैरों वाला भूरे रङ्ग का घोड़ा । संज्ञा, स्त्री० ( फ़ा० ) अफ़ग़ानों की एक ऊँची टोपी । --रत्ना० । कुलाहल संज्ञा, पु० (दे० ) कोलाहल, (सं० ) शोर-गुल । “ I हम ना कुनाम को कुलाहल करावेंगी ".. कुलिंग - संज्ञा, पु० (सं० ) चिड़ा, गौरा पक्षी । कुलिक - संज्ञा, पु० (सं० ) शिल्पकार, भा० श० को ० - ६१ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कुल्हरा - कुल्हाड़ी कुलेल - संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० कल्लोल ) कलोल, क्रीड़ा । कुलेलना* – प्र० क्रि० दे० ( हि० कुलेल ) क्रीड़ा या खेल करना, किलोल आमोदप्रमोद करना । For Private and Personal Use Only कुल्माष -संज्ञा, पु० (सं० ) कुलथी, माष, उर्द, द्विदल अन्न, बोरो धान । कुल्मा - संज्ञा, स्त्री० (सं० ) कृत्रिम नदी, नहर, छोटी नदी, नाला, कुलवती स्त्री । कुल्ला - संज्ञा, पु० दे० (सं० कवल ) मुखशुद्धि के लिये पानी भर कर फेंकने की क्रिया, गरारा | संज्ञा, पु० ( ? ) घोड़े का एक रंग जिसमें पीठ पर बराबर काली धारी होती है, इसी रंग का घोड़ा | संज्ञा, पु० ( फ़ा० काकुल ) . जुल्फ़ । स्त्री० कुल्लीकुल्हड़ -संज्ञा, पु० दे० (सं० कुल्हर) पुरवा, चुक्कड़ | स्त्री० कुल्हिया, कुलिया (दे० ) । कुल्हरा - कुल्हाड़ा - संज्ञा, पु० दे० (सं० कुठार ) लकड़ी काटने या चीड़ने का एक श्रौज़ार, कुठार, कुल्हार (दे० ) कुहाड़ा कुहारा - ( दे० ) फरसा । Page #493 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कुल्हरी-कुल्हाड़ी ४८२ कुशल कुल्हरो-कुल्हाड़ी-संज्ञा, स्त्री० दे० ( हि० | कुवृत्ति-संज्ञा, स्त्री० (सं० ) नीच बासना, कुल्हाड़ा) कुठारी (सं०)" ऐसे भारी वृक्ष अधम कर्म । को कुल्हरी देत गिराय"-गिर० । कुवेर-- संज्ञा, पु० (सं०) यक्षों का राजा कुल्हिया-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. कुल्हड़) एक देवता, धनेश, महर्षि पुलस्त्य के पोते छोटा पुरवा, चुकरिया। और विश्रवा ऋषि के पुत्र हैं, यह देवताओं मुहा०-कुल्हिया में गुड़ फोड़ना-चुप- | के कोषाध्यक्ष हैं, चतुर्थ लोकपाल होकर चाप, छिपाकर कुछ काम करना।। अलकापुरी में राज्य करते हैं, कुरूप होने से कुवलय-संज्ञा, पु० (सं०) नीलो कुई, कुवेर कहलाये, इनके ३० पैर और ८ दाँत कोक, नील कमल, भूमंडल, एक प्रकार के हैं, भरद्वाज जी की कन्या देववर्णिनी इनकी असुर " कुवलय विपिन कुंत हिम बरसा।" | माता है, इन्हें वैश्रवण भी कहते हैं, है -रामा० । निधियों के यह भंडारी हैं। कुवलयाश्व-संज्ञा, पु० (सं०) धंधमार और ऋतुध्वज राजा (गंधर्व-राज-कन्या कुश-संज्ञा, पु० (सं० कुश ---अल) दर्भ, कुशा, एक तृण, जो कांस के समान होता मदालसा के पति ) एक घोड़ा जिसे ऋषियों के यज्ञ-विध्वंसक पातालकेतु के वधार्थ सूर्य है और यज्ञादि में प्रयुक्त होता है, एक द्वीप, श्री रामचन्द्र के पुत्र, इनकी राजधानी कुशाने भेजा था। कुवलयापीड़-संज्ञा, पु० (सं० कुवलय+ वती थी, जल, कुली, काल, हलकी कील, प्रा+पीड़ ) हाथी (कंसका) या हाथी रूपी कुसी। कुस (दे०) कुसा। या० संज्ञा, एक दैत्य जिसे श्री कृष्ण ने मारा था। पु० (सं० ) कुशद्वीप-- घृत-सागर से कुवाच्य (कुवाक्य)-वि० (सं० ) न | घिरा हुश्रा ७ द्वीपों में से एक।। कहने योग्य, गंदा, बुरा । संज्ञा, पु. (सं० ) | कुशकेतु - संज्ञा, पु० (सं० ) राजा जनक के दुर्वचन, गाली। एक भाई। कुवादी-वि० (सं०) दुर्वचनवक्ता. मुँहफट। | कुशध्वज-संज्ञा, पु. (सं० ) सीरध्वज, कुवार ( कुवार )-संज्ञा, पु० दे० (सं० । जनक के छोटे भाई ( सीता के चचा ) आश्विन, कुमार) आश्विन मास, क्वाँर (दे०) इनकी दो कन्यायें मांडवी और श्रुतिकीर्ति असोज, कुआँर (दे०)। वि० बिना व्याहा, | यथाक्रम भरत और शत्रुघ्न को व्याही थीं। वि० स्त्री० कुवारी-कुआँर का। कुशनाभ-संज्ञा, पु० (सं० ) महाराज कुश कुविक्रम- संज्ञा, पु० (सं० ) अत्याचार, | शठता । वि० कुविक्रमी-शठ। कुशकंडिका- संज्ञा, स्त्री० (सं०) सब प्रकार कुविचार-संज्ञा, पु. (सं० ) नीच या अधम के यज्ञों के लिये अग्नि के संस्कार की एक विचार, अन्याय विचार । वि० कुविचारी- विधि, जिसमें हवनकर्ता कशासन पर बैठ, बुरे विचार वाला । स्त्री० कुविचारिणी | दाहिने हाथ से कुश लेकर उसकी नोक से "मिल्यौ दसकंठ सदा कुविचारी"-राम। वेदी पर रेखा खींचता है। कुविंद-संज्ञा, पु. ( सं० ) तन्तुवाय, | कुश-मुद्रिका-संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) कुशकी जुलाहा, कपड़ा बुनने वाला......" गुबिंद पैंती ( दे०) पवित्री। सुकुबिंद बनि पाये हैं"। कुशल-वि० (सं० ) चतुर, दक्ष, प्रवीण, कविन्दु-संज्ञा, पु० (सं०) अधम पुत्र।। श्रेष्ठ, पुण्यशील, क्षेम, मंगल, राजी-खुशी। कुविहंग- संज्ञा, पु० (सं० ) बुरा या नीच | वि० स्त्री० कुशला-निपुणा । यो० कुशलपक्षी, बाज़। । क्षेम-कुसल-छेम (व.) राजी-ख़ुशी। For Private and Personal Use Only Page #494 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४५३ दुरुस्ती। कुशलता कुष्मांड "आपनेई अोर सोंतू बूझियौ कुसल-छेम" वृक्ष के नीचे गौतम बुद्ध के निर्वाण का ......दास । अब कहु कुसल बालि कहँ | स्थान । अहई "--रामा० । कुसल, (दे.)। कुशीलव-संज्ञा, पु. (सं०) कवि, चारण, कुशलता-संज्ञा, स्त्री० ( सं० ) दक्षता, नट, नाटक खेलनेवाला, गवैया, वाल्मीकि चतुरता, निपुणता, योग्यता, कल्याण, | ऋषि, कथक । राजी खुशी । कुसलता ( दे० ) कुशूलधान्यक-संज्ञा, पु. (सं० ) ३ वर्ष अच्छाई, भलाई। के लिये जिस गृहस्थ के पास खाने के लिये कुशलाई ( कुसलात)-संज्ञा, स्त्री० (हि०) धान्य इकट्ठा हो। कुशल-क्षेम, मंगल,कल्याण, कुसलई (दे०) कुशूला- संज्ञा, स्त्री० (सं० ) देहरी, कुठिली, कुसरात (प्रान्ती०) । “दच्छन पूंछी कछु, धान्य का पात्र । कुसलाता।'-रामा० । चतुराई, दक्षता, कुशेशय--संज्ञा, पु० (सं०) कमल, सारस । संज्ञा, पु० (सं० ) कुशेशयकर-सूर्य । कुशा-( कुसा)-संज्ञा, पु० (दे०) कुश कुशोदक-संज्ञा, पु. या० (सं०) कुशयुक्त (सं०) एक धास। जल, तर्पण । कुशाग्र-वि० (सं० ) कुश का अग्रभाग जो कुश्ता-संज्ञा, पु० (फा) धातुओं की (रसाय पैना होता है, कुश की नोक सी तीखी, निक क्रिया से बनाई हुई ) भस्म, रस । तेज़, तीव, पैना, जैसे-कुशाग्रबुद्धि- । कुश्ती-संज्ञा, स्त्री० ( फा) मल्लयुद्ध, दो कुशादा-वि० (फा० ) खुला हुआ, विस्तृत, श्रादमियों का परस्पर बलपूर्वक पटकने का फैला हुआ, लंबा-चौड़ा । संज्ञा, स्त्री० / प्रयत्न करना । मुहा०—कुश्ती मारनाकुशादगी (फा० )। कुश्ती में किसी को पछाड़ना। कुश्तीखानाकुशासन-संज्ञा, पु. यो. (सं० कुश+ | कुश्ती में हार जाना । वि० कुश्तीबाज़-- पासन ) कुश का बना हुआ श्रासन, (सं० कुश्ती लड़ने वाला, पहलवान ।। कु-+ शासन ) बुरा शासन या प्रबंध । कुषीद-संज्ञा, पु० (सं० ) वृत्ति, जीविका, कुशावर्त-संज्ञा, पु० (सं०) एक ऋषि, ब्याज पर रुपया देना। वि. जड़, निर्दय, एक तीर्थ । चेष्टा-रहित । कुशाश्व-संज्ञा, पु० (सं० ) इच्वाकु-वंशीय कुष्ठ-संज्ञा, पु० (सं०) कोढ़, इसके १८ एक प्रसिद्ध राजा। भेद हैं, ७ तो अति दुखद और असाध्य हैं, कुशिक-संज्ञा, पु० (सं० ) एक प्राचीन | शेष कम दुखद और कष्ट-साध्य हैं । कुट आर्यवंश, एक राजा जो विश्वामित्र ऋषि | नामक औषधि, कुडा वृक्ष। के पितामह और गाधि के पिता थे, फाल। कुष्ठी -संज्ञा, पु. ( सं० ) कोदी। स्त्री. कुशिक्षा-संज्ञा, स्त्री० (सं०) असदुपदेश, | कुष्ठिनी। बुरी सिखावन । कुष्ठ तन-संज्ञा, पु० (सं० ) पँवर । कुशी-संज्ञा, पु. ( सं०) वाल्मीकि ऋषि, | कुष्ठनाशिनी-संज्ञा, स्त्री० (सं०) सोमराजकुशवाला, घात । बल्ली नामक औषधिलता। कुशीद ( कुसीद )- संज्ञा, पु० (सं०) कुष्ठसूक्ष्म-संज्ञा, पु० (सं० ) किर वाली सूद, व्याज, वृद्धि, व्याज पर दिया गया | औषधि । धन । वि० कुशीदक। कुष्मांड-संज्ञा, पु० (सं०) कुम्हड़ा, शिव के कुशीनार-संज्ञा, पु० (सं० कुशनगर ) साल | अनुचर । For Private and Personal Use Only Page #495 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कुसंग-(कुसंगति) कुहुँ कुहुँ कुसंग(कुसंगति )-संज्ञा, पु. ( स्त्री०) | कुसुम्भी-संज्ञा, स्त्री० (सं० ) लाल रंग। (सं० ) बुरों का साथ, बुरे लोगों के साथ | वि० कुसुम के रंग का। हेल-मेल ।...“दुख कुसंग के थान'- कुसुम-संज्ञा, पु. (स्त्री०) फूल, पुष्प, कुसंगी, कुसंगती-कुसंग वाला। छोटे छोटे वाक्यों वाला गद्य, आँख का कुसंस्कार-संज्ञा, पु० (सं० ) बुरी बासना, । एक रोग, मासिक धर्म, एक प्रकार का लाल बुरा संस्कार। फूल, रजो-दर्शन, रज, छन्द में डगण का कुसगुन-संज्ञा, पु. (हि. कु+सगुन) एक भेद । संज्ञा, पु० (दे० ) कुसुंब । संज्ञा असगुन (दे०) बुरा लक्षण, अपशकुन पु. (सं. कुसुंभ) पीले फूलों का एक (अशकुन-सं०)। पौधा, बरैं। कुसमड़-संज्ञा, पु० (सं० ) बुरे दिनों में, | कुसुमपुर-संज्ञा, पु० (सं० ) पटना नगर दुख की सामग्री। का एक प्राचीन नाम। कुसमय-संज्ञा, पु० (सं.) बुरा समय, अ- | कुसुमवाण-संज्ञा, पु. यौ० ( सं० ) समय, अनुपयुक्त अवसर, निश्चित समय से । कामदेव, कुसुमशर। आगे-पीछे का समय, संकट-काल, दुख के कुसुम विचित्रा-संज्ञा, स्त्री० (सं० ) एक दिन, (विलोम-सुसमय )। प्रकार का वर्ण-वृत्त । कुसलई-कुसलाई, कुसलात-संज्ञा, स्त्री. कुसुमस्तवक-संज्ञा, पु. (सं०) दंडक (हि.) कुशलता, मंगल, चतुरता। छंद का एक भेद, फूलों का गुच्छा। कुसली-(कुशली) वि० दे० (सं०) सकुशलई कुसुमाकर - संज्ञा, पु० (सं०) वसन्त ऋतु। संज्ञा, पु० (हि. कसैली ) श्राम की गुठली, कुसुमांजलि-संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं० ) पिरांक ( एक मिष्ठान्न, गुझिया ) अँजुली में फूल भर कर देवता पर चढ़ाना, कुसवारी-कुसियारी-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० पुष्पांजलि, न्याय का एक ग्रंथ । कोशकार ) रेशम का जंगली कीड़ा, रेशम | कुसुमायुध-संज्ञा, पु. यौ० ( सं० ) का कोया। कामदेव। कुसाइत-संज्ञा, स्त्रो० दे० (सं० कु --- कुसुमारक -संज्ञा, पु० ( सं० ) वसन्त, समृत) बुरी साइत, बुरा मुहूर्त, अयुक्त | छप्पय छंद का एक भेद । अवसर, कुसमय, कुधरी। कुसुमावलि-संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं० ) कुसाखी ( कुशाखी )-संज्ञा, पु० दे० फूलों का समूह, पुष्प-पंक्ति। (सं०) बुरा वृक्ष । कुसुमित-वि० ( सं० ) फूला हुश्रा, कुसीद-संज्ञा, पु० (सं०) व्याज, वृद्धि, पुष्पित, स्त्री० कुसुमिता पुष्पिता। व्याज पर दिया धन । वि० कुसीदक। | कुसूत-संज्ञा, पु० दे० (सं० कु + सूत्र, कुसंब-संज्ञा, पु० (सं०) एक बड़ा वृक्ष प्रा. सुत) बुरा सूत, कुप्रबन्ध, कुब्योंत, जिसकी लकड़ी से जाठ और गाड़ियाँ बुरी व्यवस्था । बनती हैं। कुसूर-संज्ञा, पु. (अ.) अपराध, दोष । कुसुम्भ-संज्ञा, पु. ( सं० ) कुसुम, बरै, कुसेस*-कुसेसय-संज्ञा, पु. ( दे० ) केसर, कुमकुम । कमल, कुशेशय (सं० )। कुसुम्भा-संज्ञा, पु० दे० (सं० कुसुंभ) कुहुँ कुहुँ-कुह कुह--संज्ञा, पु० (दे०) कुसुम का रंग, अफीम और भाँग से बना कुमकुम, केसर । " कुहुँ कुहुँ केसर बरन एक मादक द्रव्य । स्त्री० आषाढ शुक्ल छठ।। सुहावा"-५०। For Private and Personal Use Only Page #496 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४८५ नाना कुह-संज्ञा, पु० (सं० ) कुबेर ।। शिकारी चिड़िया, कुहर, बाज़ । संज्ञा, पु० कुहक-संज्ञा, पु० (सं०) माया, धोखा, | दे० (फा-कोही) पहाड़ी घोड़े की जाति, जाल, धूर्त, मक्कार, मुर्गे की कूक, इन्द्र- टाँगन । जाल जानने वाला, मेढ़क । कुहुक ----- कुहूक - संज्ञा, पु. ( अनु०) कुहाना--अ० कि० (सं० कुहुक, कुहू) कोकिल या पत्तियों का कूजन, कूक, मधुर पक्षी का मधुर स्वर में बोलना, कुहुकना। स्वर ।। कुहकुहाना-अ० कि० ( दे. ) कोयल कुहुकना-अ. क्रि० ( हि० ) कूकना, का कूकना, कू कू करना। कोकिल आदि पक्षियों का मधुर स्वर से कुहना*-स० क्रि० (दे० ) मारना, बोलना। " . कासी कामधेनु कलि कुहत कसाई है" कुहुकबान--संज्ञा, पु. ( हि० कुहुकना -कवि० । संज्ञा, पु० (दे०) गान प्रलाप । +वाण ) एक वाण जिसके चलते समय कुहनी-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० कफोणि ) कुछ शब्द विशेष होता है। हाथ और बाहु के जोड़ की हड्डी । कोहनी | कुहू-कहु-संज्ञा, स्त्री. (सं० ) अमावस्या की चन्द्र-विहीना निशा, मोर, कोयल आदि कुहप-संज्ञा, पु० (सं० कुहू = अमावस्या का मधुर स्वर । इस अर्थ में कंठ, मुख आदि +प) रजनीचर, राक्षस । शब्दों के लगा देने से कोकिल वाची शब्द कुहबर ( कोहबर )-संज्ञा पु० ( दे०) सिद्ध होते हैं। ..." कुहू कुहू वैलिया विवाह के बाद दूल्हा दुलहिन के बैठने का कूकन लागी"- ... कुहू निसि में ससि सजा हुश्रा कमरा, स्थान विशेष । पूरन देखै---'' शिव० । कुहर -- संज्ञा, पु० (सं० ) गट्ठा, बिल, छेद, कख-कोख --- संज्ञा, स्त्री० (दे० ) कुक्षि, गहर, गले का छिद्र । संज्ञा, स्त्री. (दे०) (सं०) कोख, उदर, गर्भ, काँखने का शब्द । एक शिकारी पक्षी, गुहा, गुफा ( दे.)। | कॅखना-अ० कि० (दे० ) काँखना।। कहरा-कहर - संज्ञा पु० दे० ( सं० कॅच-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० कुचिका = नली) कुहेड़ी) जल के सूक्ष्म कणों का समूह जो एड़ी के ऊपर या टखने के नीचे एक मोटी शीत से वायु की भाप के जमने से पैदा होता | नस, घोड़ा-नस। है, नीहार । "...दोष कुहर को फाट्यो-" | कचना, कृचना - स० क्रि० (दे०) सूबे । कोहिरा (प्रान्ती०)। कुचलना। वि. कँचा-कुचला हुआ। कुहराम-संज्ञा, पु० दे० (अ. कहर + कॅचा-संज्ञा पु० दे० (सं० कूर्च ) झाडू, ग्राम ) विलाप, रोना-पीटना, हलचल, बोहारी ( दे० ) बढ़नी। खलबली। | कैंची-संज्ञा, स्त्री० (हि. कँचा) छोटा कुहाना*-- अ. क्रि० दे० (हि. कोह + कचा, झाड़ , कूटी हुई मूंज या बालों का ना-प्रत्य०) रूठना, रिसाना, नाराज़ या गुच्छा, जिससे चीज़ों का मैल साफ़ करते या कुपित होना कोहाना (प्रान्ती०)। उन पर रंग फेरते हैं, चित्रकार की रंग भरने "तुमहिं कुहाब परमप्रिय अहई-"रामा०।। की कलम । कुहारा-संज्ञा, पु० ( दे० ) कुल्हाड़ा। कँज- संज्ञा, पु० दे० (सं० क्रौंच ) कुहासा-संज्ञा, पु० (दे० ) कुहरा, कुहे- क्रौंच पक्षी, कूजना । लिका (सं०)। ___कँड-संज्ञा, पु० दे० (सं० कुंड ) लड़ाई के कुही-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० कुधि ) एक समय में पहिनने की लोहे की टोपी, खोद, For Private and Personal Use Only Page #497 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कँडा ४८६ मिट्टी या लोहे का गहरा बरतन, जिससे कूकस-संज्ञा, पु० (दे०) भूसी। सिंचाई के लिये कुएँ से पानी निकालते हैं, कूकरी-संज्ञा, स्त्री. (दे० ) कुकुरी, सूत खेत में हल से बनी नाली, कंड। की लच्छी, कुतिया, कुकुरिया ( दे० )। कैंडा-संज्ञा, पु० दे० (सं० कुंड ) पत्थर का --संज्ञा, पु. (हि. कूकना ) सिक्खों या मिट्टी का चौड़ा बरतन, छोटे पौधे का एक पंथ । लगाने का बरतन, गमला, रोशनी की बड़ी | कूच-संज्ञा, पु० ( तु० ) प्रस्थान, रवानगी, हाँड़ी, डोल, कठौता, मठौता, कुंडा (दे०)। प्रयाण । मु०-कूच कर जाना-मर कँडी-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. कँडा ) पत्थर जाना । (किसी के ) देवता कूच कर की प्याली, पथरी, कुंडी, गेंडुरी, छोटी जाना-होश-हवाश चला जाना, भय नाँद। आदि से स्तब्ध हो जाना । कूच बोलना कॅथना*-अ० कि० दे० (सं० कुंथन ) दुख | प्रस्थान करना। या श्रम से अस्पष्ट शब्द मुँह से निकालना, कूचा-संज्ञा, पु० (फ़ा) छोटा रास्ता, गली। काँखना, कबूतरों का बोलना। स० कि. | (दे०) कुंचा, क्रौंच पक्षी। स्त्री. कृची मारना-पीटना। -कूँची वि० (हि. कुचना ) कुचली हुई। कँदना-स० कि० (दे०) खरादना। "कुंदन कूज-संज्ञा, स्त्री० ( हि० कूजना) ध्वनि । बेलि साजि जनु कू दे" प० । कूजन-संज्ञा, पु. ( सं० ) पक्षियों का कँई-कुई-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० कुछ + मधुर स्वर से बोलना। वि० कृजितई०-प्रत्य०) कुमुदिनी। ध्वनित, गूंजा हुआ, ध्वनि पूर्ण । कूक-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० कूजन ) लम्बी कूजना-० कि० दे० (सं० कूजन ) मृदु सुरीली ध्वनि मोर या कोयल की बोली। मधुर स्वर करना । जल-खग कूजत गूंजत संज्ञा, स्त्री० (हि• कुंजी ) घड़ी या बाजे | भृगा-" रामा०। श्रादि में कुंजी भरने की क्रिया। कूजा-संज्ञा, पु. (फा कूजा ) मिट्टी का कूकना-अ० कि० दे० (सं० कूजन) कोयल पुरवा, कुल्हड़, अर्ध गोलाकार मिश्री या या मोर का बोलना. चिल्लाना । स० कि० मिश्री की डली। ( हि० कुंजी) कमानी कसने के लिये घड़ी कूट- संज्ञा, पु. (सं० ) पहाड़ की ऊँची आदि में कुंजी लगाना। " जेबी घड़ी हैं ये | चोटी, जैसे हेमकूद, जाल, सींग, (अना. इन्हें शबोरोज़ कूकिये"-प्रक०। जादि की ) ऊँची और बड़ी राशि, छल, कूकर-कूकुर-संज्ञा, पु० दे० (सं० कुक्कुर)। हथौड़ा, धोखा, फरेब, मिथ्या, गूढ़ भेद, __ कुत्ता, श्वान । स्त्री० कृकुरी, कृकरी (दे०)। गुप्त रहस्य, निहाई, वह कविता या वाक्य कूकर-कोर-संज्ञा, पु० यौ० (हि.) जिसका अर्थ शीघ्र न प्रकट हो, दृष्ट कूट, कुत्ते को दिया गया जूठा भोजन, टुकड़ा, ( सूर-कृत ) गूढार्थ-पूर्ण हास्य या व्यंग्य । तुच्छ वस्तु । विष ( काल-कूट ) । वि० (सं०) झूठा, कूकुर-निदिया-संज्ञा, स्त्री० यौ० (हि.) छलिया, कृत्रिम, प्रधान । संज्ञा, स्त्री० दे० कुत्ते की सी नींद, श्वान-निद्रा। (सं० कुष्ट ) कुट नामक औषध । संज्ञा, कूकुरमुत्ता-संज्ञा, पु. (दे० ) एक बर- स्त्री० (हि. काटना, कूटना ) काटने, कूटने साती पौधा । या पीटने की क्रिया-जैसे--मारकूट, काटकूकरलेंड-संज्ञा, पु. (दे० ) श्वान-मैथुन कूट। वि०-कुटायल । दे०) मार खाने वाला। व्यर्थ की भीड़। | कूटता-संज्ञा, स्नो० ( सं० ) कठिनाई, For Private and Personal Use Only Page #498 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कटकर्म मंद बुद्धि । ४८७ कूप-मंडूक जटिलता, झुठाई, छल, कपट । कूटत्व- घास-फूस आदि गंदी चीजें, निकम्मी संज्ञा, भा० पु० (सं० ) कूटता, मार। वस्तुयें। यो० कूड़ा-करकट । कटकर्म-संज्ञा, पु. यो० (सं० ) कपट, कूड़ाखाना- संज्ञा, पु० (हि० कूड़ा+खाना धोखे का काम । वि०-क्रूरकर्मा-धोखे. -फा० ) कूड़ा फेंकने की जगह, कतवार बाज़, छली। खाना घूर ( ग्रा० )। कूटपाश-संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) पक्षी कूढ़-संज्ञा, पु० दे० (सं० कुष्टि ) हलकी फँसाने का फंदा । गाड़ी में डाल कर बीज बोने की एक रीति कूट-लेख-संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) जाली (विलो. छींटा )। वि० दे० (सं० क+ या झूठा दस्तावेज । वि० कट-लेखक- ऊह = कूह, पा० कूध ) नासमझ, मूर्ख, मूढ़, जाली लेख या दृष्टकूट लिखने वाला। अज्ञानी, कृड (प्रान्ती ) यौ० वि०कूट-साक्षी-संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) झूठा कूढ़मग्ज-( हि० कूढ़-+- मरज़-फा० ) गवाह । कृटना-स० कि० दे० ( सं० कुट्टन ) किसी कृत--संज्ञा, स्त्री० दे० ( सं० आकूत = वस्तु को तोड़ने आदि के लिये उस पर आशय ) वस्तु, संख्या, मूल्य या परिमाण बारबार किसी चीज़ से प्राघात करना, का अनुमान, अंदाजा, परख ।। मारना, पीटना,कुचलना। संज्ञा,स्त्री०-कुटाई। कूतना-स० कि० (हि. कूत ) अनुमान मुहा०—कूटकूट कर भरना-ठसाठस या अंदाज़ा करना, परखना, जाँचना, अटया कसकस कर भरना। सिल आदि में टाँकी कल लगाना। से छोटे छोटे गड्ढे करना, दाँते निकालना। कृथना-अ० कि. (दे०) कराहना । कूट-नीति-संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) दाँव- कूद-संज्ञा, स्त्री० (सं० ) कूदने की क्रिया पेंच की चाल, घात, छल-नीति। या भाव, खेल-कूद । यौ० कूद-फाँदकूटयुद्ध-संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) धोखे या कूदने-फाँदने की क्रिया। छल की लड़ाई। कूदना-अ० क्रि० दे० (सं० स्कुदन ) दोनों कूटस्थ-वि० ( सं० ) सर्वोपरिस्थिति, पैरों को पृथ्वी से बल पूर्वक उठा कर देह अटल, अचल, अविनाशी, गुप्त, छिपा | को किसी ओर फेंकना, उछलना, फाँदना । हुधा । संज्ञा, पु० (सं०) प्रात्मा, परमात्मा, जान-बूझ कर ऊपर से नीचे गिरना, बीच जागृत, स्वप्न, सुषुप्त में समान रहने वाला में सहसा आ मिलना या दखल देना, क्रम परिमाण-रहित श्रात्मा ( सांख्य०)। भङ्ग कर एक स्थान से दूसरे पर पहुँचना, कूटार्थ-संज्ञा, पु. यौ० (सं०) गूढार्थ, अत्यन्त प्रसन्न होना, बढ़ बढ़ कर बातें क्लिष्टार्थ, व्यंगार्थ । करना, शेख़ी मारना। कूटी-वि० (हि० ) कूट या व्यङ्ग वचन मुहा०-किसी के बल पर कूदनाकहने वाला । क्रि० वि० -कुटी हुई। किसी का सहारा पाकर शेखी मारना । स० कूट-संज्ञा, पु० (दे० ) एक पौधा जिसके | क्रि० उल्लंघन कर जाना, लाँघना। बीजों का श्राटा व्रत में फलाहार के रूप कृप-संज्ञा, पु. (सं० ) कुआँ, इनारा, में खाया जाता है, काफर कुल्टू, काठू, कुंड, नदी-मध्य पर्वत या वृक्ष, छेद, गहरा कोटू ( प्रान्ती०)। गड्ढा । कूड़ा-संज्ञा, पु० दे० (सं० कूट, प्रा० कूड कूप-मंडूक-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) कुएँ = ढेर ) कतवार, करक्ट, ज़मीन की गर्द, । का रहने वाला मेंढक, अपना स्थान छोड़ For Private and Personal Use Only Page #499 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ४८५ कूपार कर बाहर न जाने वाला, बहुत थोड़ी जानकारी का व्यक्ति, अल्पज्ञ | कूपार -- संज्ञा, पु० (सं० ) सागर, समुद्र | कूब, कूबड़, कूबर - संज्ञा, पु० ( सं० कूबर) पीठ का टेढ़ापन, किसी चीज़ की टेढ़ाई । वि० पु० कुबड़ा, कुबरा । स्त्री० कूबरी, कुबरी, कुबड़ी । मंथरा, कुब्जा, बाँस की टेढ़ी छड़ी | क्रूर - वि० दे० (सं० क्रूर ) निर्दय, भयङ्कर, मनहूस, असगुनिया, दुष्ट, बुरा, निकम्मा, मूर्ख, जड़, कायर, मिथ्या, कठोर । क्रूरता ( कूपन ) संज्ञा, स्त्री० ( पु० ) ( सं० ) निर्दयता, कठोरता, जड़ता, कायरता, अरसिकता, डरपोकपन, बुराई, दुष्टता, करता (सं० ) 1 कुरम -- संज्ञा, पु० (दे० ) कूर्म (सं० ) agar, पृथ्वी "कूरम पै कोल कोलहू पै सेस " | - पद्मा० । कूरा - संज्ञा, पु० दे० (सं० कूट ) ढेर, राशि, भाग, हिस्सा । स्त्री० कूरी । वि० कुटिल । कूर्च - संज्ञा, पु० (सं० ) भौहों के मध्य का भाग, मयूर-पुच्छ, अँगूठे और तर्जनी का मध्य भाग, मूठ, कूँची, मस्तक । कूचिका - संज्ञा, स्त्री० (सं० ) कूँची, कली, कुञ्ज, सुई । कूर्म -संज्ञा, पु० (सं० ) कच्छप, कछुआ, पृथिवी, प्रजापति का एक अवतार, एक ऋषि, वह वायु जिसके प्रभाव से पलकें खुलती और बंद होती हैं, विष्णु का दूसरा वतार, नाभिचक्र के पास एक नाड़ी। यौ० कूर्मचक्र -- पूजा का एक यन्त्र, कृषि का एक चक्र | कूर्मपुराण - संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) १८ पुराणों में से एक । कूर्म - पृष्ठ – संज्ञा, पु० ० ( सं० ) कछुए की कठोर पीठ । वि० प्रति कठोर पदार्थ । कूर्मराज - संज्ञा, पु० ० (सं० ) विष्णु | कूल - संज्ञा, पु० (सं० ) किनारा, तट, सेना Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कृत के पीछे का भाग, समीप, बड़ा नाला, नहर, तालाब । कूलक संज्ञा, पु० ( सं ० ) कृत्रिम पर्वत । कूलद्रुम - संज्ञा पु० ० (सं० ) नदी आदि के किनारे का पेड़ । कूल्हा - संज्ञा, पु० दे० (सं० क्रोड़ ) कमर में पेडू के दोनों पोर की हड्डियाँ, कूल ( दे० ) । कृवत-संज्ञा, पु० ( ० ) शक्ति, बल । कुवर - संज्ञा, पु० (सं० ) युगंधर, रथ में ा बाँधने का स्थान, हरसा (दे० ), रथी के बैठने का स्थान, कूबड़ा । कूष्मांड -संज्ञा, पु० (सं० ) कुम्हड़ा, पेठा, कोहड़ा (दे० ) एक ऋषि (वैदिक काल ) शिव-गण, वाणासुर का मन्त्री । कूष्मांडा - संज्ञा, स्त्री० (सं० ) भगवती । कूह – संज्ञा, स्त्री० ( हि० कूक) चिग्वार, हाथी की चिकार, चिल्लाहट, चीख़ । कृकर कृकल - संज्ञा, पु० ( सं० ) छींक लाने वाली मस्तक की वायु, शिव, चबैना, कनेर - वृक्ष, पक्षी । कृकवाक – संज्ञा, पु० ( सं० ) मोर । यौ० संज्ञा, पु० (सं० ) कृकवाक ध्वज - कार्तिकेय, षडानन | कृकलास - संज्ञा, पु० (सं० ) गिरगिट, गिरदान (दे० ) | कृकार कृकाटक --- संज्ञा, पु० (सं०) गले में रीढ़ का जोड़ | कृच्छ्र - संज्ञा, पु० (सं० ) कष्ट, दुःख, पाप, मूत्रकृच्छ्र रोग, पंचगव्य, प्राशन कर दूसरे दिन किया जाने वाला व्रत, तपस्या । वि० कष्टसाध्य, कष्टयुक्त । वि० कृच्छ्रगतपापी, रोगी, दुखी । कृच्छ्रातिकृच्छ-संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) व्रत विशेष । वि० प्रति कृच्छ्र । कृत - वि० (सं० ) किया हुधा, संपादित, रचित | संज्ञा, पु० (सं० ) ४ युगों में से प्रथम, सत्युग, ४ की संख्या, किसी नियत For Private and Personal Use Only Page #500 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra कृतकर्म कृतकर्मा काल तक सेवा करने की प्रतिज्ञा करने वाला दास, एक प्रकार का पाँसा । वि० कृतक (सं० ) कृत्रिम | कृतकर्म - कृतकर्मा - वि० यौ० (सं० ) कार्यक्षम, निपुण, कृतकाम (हि० ) शिक्षित, दक्ष । कृतकार्य - वि० सं०) सफल - मनोरथ, सिद्ध-प्रयोजन | www.kobatirth.org कृतकृत्य - वि० (सं० ) जिसका काम पूरा हो चुका हो, कृतार्थ । कृतघ्न - दि० (सं० ) किए हुए उपकार को न मानने वाला, कृतनी (दे० ) अकृतज्ञ | कृतघ्नता संज्ञा, स्त्री० (सं० ) प्रकृतज्ञता, ܕ 58 उपकार न मानने का भाव । कृतज्ञ - वि० (सं० ) किये हुए उपकार को मानने वाला, एहसानमन्द | संज्ञा, स्त्री० (सं० ) कृतज्ञता - एहसानमन्दी | कृतयुग - संज्ञा, पु० ० (सं० ) सतयुग जो १७२८००० वर्षों का होता है । कृतवर्मा - संज्ञा, पु० (सं० ) यदुवंशी राजा कनक का पुत्र, महाभारत का कौरव पक्षीय एक वीर राजा । कृतविद्य - वि० (सं० ) किसी विद्या में अभ्यास प्राप्त, पंडित । " शूरोऽसि कृतविद्योऽसि कृतहीन - वि० (सं० ) कृतघ्न, कृतघ्नी (दे० ) कृतज्ञ | कृतवीर्य - संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) एक यदुवंशी राजा । कृताञ्जलि - वि० यौ० (सं० ) हाथ जोड़े हुए, वृद्धाञ्जलि । कृतांत - संज्ञा, पु० (सं० ) अंत या समाप्त करने वाला, यम, धर्मराज, पूर्व जन्म कृत शुभाशुभ कर्म-फल, मृत्यु, पाप, देवता, दो की संख्या, शनिवार, भरणी नक्षत्र । कृतात्यय - संज्ञा पु० (सं० ) भोग द्वारा कर्मों का नाश ( सांख्य० ) । कृतार्थ - वि० ० (सं० ) कृतकृत्य, सफल भा० श० को ० - ६२ I Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कृपा होशियार, मनोरथ, संतुष्ट, कुशल, निपुण, कामयाब, कृतकार्य | कृति - संज्ञा, स्त्री० (सं० ) करतूत, करणी, काम, आघात, क्षति, इंद्रजाल, जादू, दोसमान अंकों का घात, वर्ग संख्या (गणि०), बीस की संख्या, डाकिनी, कटारी, एक छंद । कृती - दि० (सं० ) कुशल, निपुण, साधु, पुण्यात्मा । कृति - संज्ञा, स्त्री० (सं०) मृगचर्म, भोजपत्र, कृत्तिका नक्षत्र | कृतिका - संज्ञा, स्त्री० (सं० ) २७ नक्षत्रों में से तीसरा. छकड़ा | वृत्तिवास - संज्ञा पुं० (सं० ) महादेव, चर्मधारी । कृत्य - संज्ञा, पु० (सं० ) कर्तव्य कर्म, वेदविहित, श्रावश्यक कार्य, जैसे यज्ञ, करनी, करतूत, श्रभिचारार्थ पूजे जाने वाले भूत, प्रेतादि । कृत्यका - संश, स्त्री० (सं० ) इत्यादि भयानक कार्य करने वाली । कृत्या संज्ञा, स्त्री० (सं०) एक भयंकर राक्षसी जिसे तांत्रिक अपने अनुष्ठान से शत्रु के नष्ट करने को भेजते हैं, श्रभिचार, दुष्टा या कर्कशा स्त्री । कृत्रिम - वि० (सं० ) नक़ली, १२ प्रकार के पुत्रों में से एक, दूसरे के द्वारा पाला गया बालक | संज्ञा, पु० ( सं० ) रसौत | कृदंत - संज्ञा, पु० (सं०) धातु में कृत प्रत्यय लगाने से बना शब्द, जैसे नंदन । कृपण ( कृपिण, संज्ञा, पु० (सं०) कंजूस, सूम, क्षुद्र | संज्ञा, स्त्री० (सं०) कृपणताकंजूसी, (दे० ) कृपिन, कृपिनता, कृपनाई (दे० ) किरपिन ( ग्रा० ) । कृपया -- क्रि० वि० ( सं० ) कृपापूर्वक, मिहरबानी करके | For Private and Personal Use Only कृपा – संज्ञा, स्त्री० (सं० ) बिना किसी प्रतिकार की आशा के दूसरे के हित करने Page #501 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कृपाण ४६० कृष्णसार की इच्छा या वृत्ति, अनुग्रह, दया, किरपा कृशोदरी-वि० स्त्री. यौ० (सं० ) पतली (दे०) क्षमा। यौ० संज्ञा, पु. (सं०) कमर वाली स्त्री। कृपाचार्य-द्रोणाचार्य के साले । कृषक-संज्ञा, पु० (सं०) किसान, खेतिहर, कृपाण-संज्ञा, पु० (सं० ) तलवार, कटार, । हल की फाल । दंडक वृत्त का एक भेद, कृपान, किरपान कृषारण-संज्ञा, पु० (दे० ) किसान, कृषि(दे०)। स्त्री० ( अल्पा०) कृपाणिका- जीवी, खेतिहर। कटारी। कृषि--संज्ञा, स्त्री. (पं०) खेती, काश्त, कृपा-पात्र-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) कृपाकांक्षी, किसानी । वि. कृष्य-खेती के योग्य कृपा का अधिकारी, जिस पर कृपा की भूमि । यौ० कृषि-कर्म । कृष्ण-वि० (सं.) श्याम, काला, नीला । गई हो। कृपायतन-संज्ञा, पु० (सं०) अति कृपालु, | संज्ञा, पु. ( सं० ) यदुवंशीय वसुदेव और कृपानिधि, कृपासिंधु । कसानुजा देवकी के पुत्र जो विष्णु के प्रधान कृपालु-कृपाल-वि० (सं०) (दे०) कृपा अवतारों में हैं, एक असुर, जिसे इन्द्र ने करने वाला । संज्ञा, स्त्री० (सं०) कृपालुता मारा था, एक मंत्र-द्रष्टा ऋषि, अथर्ववेद के -दयालुता। अंतर्गत एक उपनिषद, छप्पय छंद का एक कृमि-संज्ञा, पु० (सं०) छोटा कीट, कीड़ा, | भेद, ४ वर्णों का एक वृत्त, वेद-व्यास, हिरमिजी या मिट्टी, लाह, किरवा अर्जुन, कोयल, कौवा, कदम वृक्ष, अँधेरा (प्रान्ती)। वि० कृमिल--कटियुक्त ।। पक्ष, कलियुग, चंद्र-कालिमा, सुरमा, कृमिज-वि० (सं०) कीड़ों से उत्पन्न । करौंदा । कान्ह, कन्हाई, कन्हैया,कान्हा संज्ञा, पु० (सं० ) रेशम, अगर, किरमिजी । काँधा ( ब )। कृष्णकर्मा-संज्ञा, पु. यौ० (सं० ) पापी, स्त्री० कृमिजा। कृमिघ्न-संज्ञा, पु० (सं० ) बायबिडंग । | अपराधी, दुष्कृत, निदित कर्म करने वाला। कृमिजंघा--संज्ञा, पु० (सं०) काला अगर । | कृष्णगंधा-संज्ञा, स्त्री० (सं० ) शोभांजन या सहिजन का वृक्ष । कृमिरोग--संज्ञा, पु० यो० (सं०) प्रामाशय में कीड़े उत्पन्न होने का रोग। कृष्णचंद्र--संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) श्रीकृष्ण । कृश-वि० ( सं० ) दुबला, पतला, क्षीण, कृष्णद्वैपायन-संज्ञा, पु० (सं० ) महर्षि पराशर और दासराज की पालित कन्या अल्प, सूक्ष्म । वि० कृशित (सं०)। सत्यवती के पुत्र, जो द्वीप में उत्पन्न होने से कृशता-संज्ञा, स्त्री. ( सं० ) दुर्बलता, | द्वैपायन और वेदों का विभाग करने से अल्पता, कमी, कृसताई ( दे०)। कृशर--संज्ञा, पु. ( सं० ) तिल-चावल की वेदव्यास कहलाये, इन्हीं महर्षि ने १८ पुराण रचे । खिचड़ी, खिचड़ी, लोबिया मटर, केसारी, कृष्ण पक्ष-संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) मास का दुबिया, कृसर (सं.)। वह अर्ध भाग जिसमें चंद्रमा की कलाओं कृशांगी-वि० यौ० (सं० ) पतली दुबली __ का क्रमशः हास होता और पूर्वनिशा में स्त्री, क्षीणांगी। अंधकार बढ़ता जाता है, धेरा पाख । कृशाक्षि-वि० (सं० ) मंद दृष्टि वाला। कृष्णफला-संज्ञा, स्त्री. (सं० ) वाकुची, कृशानु-कसान ( दे० )--संज्ञा, पु० (सं०) करौंदा। अग्नि, आग, चित्रक या चीता औपध। कृष्णसार-संज्ञा, पु० (सं० ) काला हिरन, कृशित-वि० (सं० ) दुबला-पतला। । करसायल, सेंहुड, थूहर वृक्ष । For Private and Personal Use Only Page #502 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org कृष्णजीरा ४६१ के कृष्णजीरा - संज्ञा, पु० (दे० ) काला जीरा, कृष्णाभिसारिका - संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) कलौंजी । वह अभिसारिका नायिका जो श्याम वस्त्रादि पहिन कर अँधेरी रात में अपने प्रेमी के पास संकेत स्थान को जाती है । कृष्णता - संज्ञा, स्त्री० (सं० ) कालिमा, घु, श्यामता । कृष्णभद्रा - संज्ञा, स्त्री० (सं० ) कुटकी क्लुप्त - वि० (सं० ) रचित, निर्मित । यौ० श्रौषधि | वि० क्लुप्तकेश - जटाधारी । कृष्णलौह - संज्ञा, स्त्री० (सं०) श्रयस्कांत, चंबक | के-के - संज्ञा, स्त्री० ( अनु० ) चिड़ियों का कष्ट - सूचक शब्द, झगड़ा या असंतोषसूचक शब्द | चलो, केंचुली, केंचुल केंचुरी -संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० कंचुक ) सर्पादि के शरीर का झिल्लीदार चमड़ा जो प्रति वर्ष गिर जाता है । मु० - केंचुल बदलना -- साँप का केंचुल छोड़ना, कायाकल्प करना, रंग-ढंग बदलना | केंचुआ - संज्ञा, पु० दे० ( सं० किचिलिक ) डोरे का सा लम्बा-पतला एक बरसाती कीड़ा जो मिट्टी खाता है, ऐसे ही सफ़ेद कीड़ा जो मल के साथ पेट से निकलता है। केन्द्र - संज्ञा, पु० (सं०, यू० केंट्रन ) वृत के बीच का वह विन्दु जो सब ओर परिधि से बराबर दूरी पर हो या जिससे परिधि तक खींची गई रेखायें बराबर हों, ठीक मध्य - विन्दु, नाभि, किसी निश्चित अंश से 80, १८०, २७०, ३६० अंश के अंतर का स्थान, मुख्य या प्रधान स्थान, रहने का स्थान, बीच का स्थान, लग्न और उससे ४था, वाँ, १० वाँ, स्थान ( ज्यो० ) । केंद्री - वि० (सं० केदिन् ) केंद्र में स्थित, केन्द्र-युक्त, वृत्त । केन्द्रीभूत-संज्ञा, पु० (सं० ) एकत्रित, संकुचित, संकीर्ण | के- - प्रत्य० ( हि० का ) संबन्ध सूचक "का" विभक्ति का बहुवचन रूप, "का" विभक्ति का ( एक० वच० ) वह रूप जो उसे संबन्धवान के विभक्ति-युक्त होने पर प्राप्त होता है, जैसे राम के घर पर । सर्व० (हि०) कौन, कोई, (सं० कः ) ( अवधी ० ) । कृष्णवक्त्र – संज्ञा, पु० (सं० ) काले मुँह का वानर, लंगूर, कृष्ण वानर । कृष्णवर्मा - संज्ञा, पु० (सं०) श्रग्नि चित्रक वृक्ष | कृष्ण कृत्तिका - संज्ञा, पु० (सं० ) कम्भा afa, भारी (दे० ) | कृष्ण - सखा - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) कृष्ण के मित्र, अर्जुन । कृष्णसारंग – संज्ञा, पु० यौ० ( सं० ) कृष्णसार, हरिण 1 Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir यमुना, कृष्णा - संज्ञा, स्त्री० (सं० ) द्रौपदी, दक्षिण की एक नदी, पीपल, काली दाख, काली (देवी), मिकी ७ जिह्वाथों में से एक, काली तुलसी ( श्यामा या कृष्ण तुलसी ) - काली सरसों । कृष्णाग्रज - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) बलदेव, बलराम । कृष्णागुरु -- संज्ञा, पु० (सं०) काला गर । कृष्णाचल – संज्ञा, पु० यौ० ० (सं० ) काला पहाड़, रैवतक पर्वत । कृष्णाजिन - संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) कृष्ण मृग का चर्म । " विना केन विना नाभ्यां कृष्णाजिनमकल्मषम् " सु० २०, भा० । कृष्णा फल - संज्ञा, पु० (सं० ) काली मिर्च | कृष्णार्पण -संज्ञा, पु० (सं० ) फलाकांक्षा रहित कर्म- संपादन, दान | कृष्णाष्टमी -संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) भाद्रकृष्णपक्ष की अष्टमी, जन्माष्टमी । कृष्णापकुल्या - संज्ञा स्त्री० (सं० ) पीपर, पिप्पली । For Private and Personal Use Only Page #503 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir केउ ४१२ केदारनाथ केउ —सर्व० ( हि० के+उ ) कोई। कियत् ) कितना, कित्ता, केतो, कित्ती । केउर-संज्ञा, पु० दे० (सं० केयूर) विजायट, | स्त्री० केती, केतिक, किती, किती। वलय, एक बाँह का आभूषण । केतिक*-वि० दे० (सं० कति + एक ) केऊ-सर्व० (दे०) कोई, कई. कितने ही।। कितना, कितीक, केतिक, कितेक (व.)। केकड़ा-संज्ञा, पु० दे० ( स० कर्कट ) पाठ केतु --- संज्ञा, पु०( सं० ) ज्ञान, दीप्ति, प्रकाश, टाँगों और दो पंजों वाला एक जल-जन्तु या ध्वजा, पताका, निशान, एक राक्षस का कीड़ा, कर्क। कबन्ध ( पुरा० ) पुच्छलतारा ( तारा, केकय-संज्ञा, पु. ( सं० ) व्यास और जिसके पीछे प्रकाश की एक पूँछ सी दीखती शाल्मली नदी के दूसरी ओर का देश है)। इसका उदय अनिष्ठसूचक माना गया (प्राचीन) जो अब काश्मीर में है और है, है ग्रहों में से एक जिसकी दशा ७ वर्ष कक्का कहलाता है। केकय देशाधिपति या रहती है, ( ज्यो० फ० ) चंद्र-कक्ष और वहाँ का निवासी। क्रांति रेखा के अधः-पात का विन्दु (गणि. केकयो-केकई– संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० ज्यो० ) राहु का शरीर। वि० विनाशक, कैकेयी) राजा दशरथ की रानी और भरत जी । श्रेष्ठ । “लूक न असनि, केतु नहिं राहू-" की माता, यह केकय-राज ( पंजाब में | " कहि जय जय जय भृगु-कुल-केतू-" विपासा और शतद् के बीच का प्रदेश ) की रामा० । यौ० धूमकेतु--पुच्छल या धूमकन्या थीं । “ सुनतहि तमकि उठी केतु तारा। कैकेई -" रामा०। केतुमती-संज्ञा, स्त्री० (सं० ) एक वर्णार्ध केका-संज्ञा, स्त्री० (सं० ) मोर की बोली। समवृत्त, रावण की नानी या सुमाली की पत्नी। केकी-केकि- संज्ञा, स्त्री० पु. (सं० । केकिन ) मोर, मयूर । “अहि कराल केकी केतुमान-वि० (सं० ) तेजस्वी, ध्वजावाला, भई-"" केकी कंठाभनील" रामा० । | बुद्धिमान । | केतुमाल - संज्ञा, पु. ( सं० ) जम्बुद्वीप के केचित-सर्व० (सं० ) कोई कोई । “केचिद् | ६ खंडों में से एक। वृष्टिभिरायंति धरणीम्-" भर्तु । केतुवृक्ष-संज्ञा, पु. (सं० ) मेरु पर्वत के केडा--संज्ञा, पु० दे० (सं० कांड ) नया चारों ओर के पर्वतों पर के वृक्ष-ये चार पौधा, अंकुर, कोंपल, नवयुवक । हैं --कदंव, जामुन, पीपल, बरगद । केत-संज्ञा, पु. ( सं० ) घर, निकेत, केत-वि० दे० ( सं० कियत् ) कितने स्थान, बस्ती, केतु, ध्वजा, क्रीड़ा, कोड़ा, (केतो-ब० ब० ) कित्ते (दे० ) किते (७०) चिन्ह । केतो*—वि० (सं० कति ) कितना, स्त्री० केतक-संज्ञा, पु० (सं० ) केवड़ा। केती (व.), कित्ती (दे० )। केतकर-केतकी * --संज्ञा, स्त्री० दे० केदली-संज्ञा, पु० ( दे० ) कदली (सं०) (सं०) एक छोटा पौधा जिसमें तलवार के से | केला। लम्बे काँटेदार पत्ते और कोश में बन्द | केदार ---संज्ञा, पु. (सं०) धान बोने या मंजरी जैसा अति सुगन्धित फूल होता है, रोपने का खेत, क्यारी, खेत, वृक्ष के नीचे केवड़ा "भौंर न छाँडै केतकी"..''। का थाला, शिव ।। केतन-संज्ञा, पु० (सं०) निमंत्रण, ध्वजा, | केदारनाथ-संज्ञा, पु० (सं०) हिमालय के चिन्ह, घर, स्थान। अंतर्गत एक पर्वत जिस पर केदार नाथ केता-केती *(ब्र.)-वि० दे० ( | नामक शिवलिंग है, शिव । For Private and Personal Use Only Page #504 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - - TO केबली केन-संज्ञा, पु० (सं० ) प्रसिद्ध उपनिषद, मीठे और लम्बे होते हैं, यह गर्म स्थानों में तवलकार उपनिषद । सर्व० (सं.) किससे किसके द्वारा। केलि केली (दे०)—संज्ञा स्त्री० (सं०) कना संज्ञा, पु० (दे० ) छोटा-मोटा सौदा, | क्रीड़ा, खेल, रति । स्त्री-प्रसंग, हँसो,दिल्लगी, अन्न से खरीदी वस्तु, तरकारी, केजा (दे०)।। पृथ्वी। संज्ञा, स्त्री० ( हि० केला ) केला। केम-संज्ञा, पु. (दे०) कदम्ब..." केम केलि-कला-संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं० ) कुसुम की बास" सरस्वती की वीणा, रति। केमद्रुम---संज्ञा, पु० (सं० ) जन्म काल का केलि-गृह-संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) रंगग्रह, एक दरिद्र-योग ( ज्यो०)। शाला विहार-स्थान । केयुर—संज्ञा, पु० (सं० ) बाँह का बिजा- केवका-संज्ञा, पु. ( सं० कवक = ग्रास) यट भूषण, बजुल्ला, अंगद, भुज बन्ध, प्रसूता स्त्री को दिया जाने वाला मसाला । बहुँटा ( दे.)। केवट-संज्ञा, पु० दे० (सं० कैवर्त ) क्षत्रिय " केयूरा न विभूषयन्ति पुरुषं .." भ ।। पिता और वैश्य माता से उत्पन्न एक जाति, केयूरी-वि० (सं० ) केयरधारी। जो अब नाव चलाने का काम करती है, केर- प्रत्य० दे० (सं० कृत ) सम्बन्ध- | धीवर, मछवा, मल्लाह । स्त्री० केवटिनसूचक विभक्ति, केरा, केरी। ( अव० ) स्त्री० "केवट उतरि दण्डवत कीन्हा--" रामा० । केरी। संज्ञा, पु. ( दे० ) केरा-केला -- | केवटोदाल--संज्ञा, स्त्री. यो० ( हि० केवट..." बेर केर कर संग " रही। संकर + दाल) दो या अधिक प्रकार की मिली केरल-संज्ञा, पु० (सं.) दक्षिण भारत का हुई दाल । एक प्रान्त, कनारा । वि० (ब०) केरलो- केवटोमोथा--संज्ञा, पु० दे० (सं० कैवर्तकेरेलवासी। स्त्री० केरलो-एक फलित मुस्तक ) सुगंधित मोथा। ज्योतिष । केवड़ई - वि० ( हि० केवड़ा + ई - केराना-संज्ञा, पु० दे० (सं० क्रयण ) | प्रत्य० ) हलका पीला और हरा मिला मसाला, मेवा श्रादि । स० कि० (दे०) हा सफेद रंग, केवड़ई रंग। पछोरना। केवड़ा-केवरा (दे० )-संज्ञा, पु० दे० (सं. केरानी-संज्ञा, पु० (दे० ) (म० क्रिश्चियन) केविका ) केतकी से कुछ बड़ा सफेद रंग का यूरेशियन ( जिसके माता-पिता में से कोई | पौधा, इसी पौधे का फूल, इसके फूल से हिन्दुस्तानी हो) किरंटा, अंग्रेज़ी दफ्तर | उतारा हा सुगंधित फूल या पासव, का मंशी या क्लर्क । किरानी (दे०)। केवड़ा-जल । केराव -संज्ञा, पु० दे० (सं० कलाप) मटर। केवल-वि० (सं0) एक मात्र, अकेला, केरि-केरी - प्रत्य० दे० (सं० कृत ) का, | शुद्ध, श्रेष्ठ । कि० वि० मात्र, सिर्फ । संज्ञा, केरा का । स्त्री० संज्ञा, स्त्री० ( दे० ) केली, | पु० ( वि. केवली ) भ्रांतिशून्य और विशुद्ध केला। ज्ञान । केरोसिन-संज्ञा पु. ( म० ) मिट्टी केवलात्मा-संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) पापका तेल । पुण्य-रहित, ईश्वर, शुद्ध स्वभाव का पुरुष । केला केरा-संज्ञा, पु० दे० (सं० कदल, केवली-संज्ञा, पु. ( सं० केवल + ई - प्रा० कपल ) गज़ सवा गज़ लम्बे पत्तों- प्रत्य० ) केवल-ज्ञानी, मुक्ति का अधिकारी वाला एक कोमल पेड़, जिसके फल गूदेदार, साधु, मुक्ति, जन्म-पत्री। For Private and Personal Use Only Page #505 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir केवलव्यतिरेकी ४६४ केसारी केवलव्यतिरेकी-संज्ञा, पु. यौ० । सं० ) में से एक, केश या प्रकाश-पूर्ण पदार्थों कार्य को प्रत्यक्ष देख कर कारण का अनु- वाला केसव (दे०)। मान, शेषवत् । " अंशवों ये प्रकाशंतेममते केशसंज्ञिताः। केवलान्वयी - संज्ञा, पु. यो० (सं० )| सर्वज्ञाःकेशवंतस्मान्प्राहा द्विजसत्तम् ।" कारण-द्वारा कार्य का अनुमान, पूर्ववत (विलो०-- केवलव्यतिरेकी)। केश-विन्यास --- संज्ञा, पु० यौ० (सं०) केवांज---संज्ञा, पु. ( दे०) कौंच, सेम कीसी बालों का सँवारना। फली और वृक्ष । केशांत - संज्ञा, पु० यौ० ( सं० ) १६ केवा-संज्ञा, पु० दे० (सं० कव = कमल ) संस्कारों में से एक, जिसमें यज्ञोपवीत के कमल, केतकी, केवड़ा । संज्ञा, पु० (सं० किंवा) | बाद बाल मूड़े जाते हैं, मंडन, गोदान-कर्म । बहाना, मिस, टाल-मटूल, संकोच | केशि-संज्ञा, पु. ( सं० ) केशी नामक "केवा जनि कीजै मोरि सेवा सब भाँति एक राक्षस जो कंस का दास था और लीजै-" रघु०। उसकी आज्ञा से घोड़े का रूप धर कृष्ण केवाड-केवाड़ा--संज्ञा, पु० ( दे०) किवाड़, | को मारने गया किन्तु आप ही कृष्ण से कपाट (सं० ) स्त्री० केवाडी। मारा गया, घोड़ा, सिंह, केवाँच । केसी केश (केस)-संज्ञा, पु० सं० ( दे० ) किरण, बरुण, विश्व, विष्णु, सूर्य, केशिनी - संज्ञा, स्त्री. (सं० ) सुन्दर बड़े सिर के बाल । बालों वाली स्त्री, एक अप्सरा, पार्वती की केश-कलाप—संज्ञा, पु० यौ० ( सं० ) केश- एक सहचरी, रावण-माता, कैकसी। समूह, चोटी, जूड़ा। केशी-संज्ञा, पु० (सं० ) एक गृहपति केश-कर्म-संज्ञा, पु० यौ० ( सं० ) बाल (प्राचीन ) एक कृष्ण-द्वारा मारा गया झारने और गूंधने की कला, केश विन्यास, असुर, घोड़ा, सिंह । वि० किरण या प्रकाश केशान्त नामक संस्कार। वाला, सुन्दर बालों वाला। केसी (दे०)। केश-ग्रह-संज्ञा पु० (सं०) बाल पकड़ केस-संज्ञा, पु० दे० (सं०) केश । संज्ञा, पु० कर खींचना। ( अं० ) चीज़ रखने का घर, मुक़दमा, केश-पाश-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) बालों । दुर्घटना। की लट, काकुल । केसर--संज्ञा, पु० (सं० ) फूलों के बीच केश-रंजन-संज्ञा, पु० यो० (सं०) भँगरैया।। के बाल से पतले सींके, ठंढे देशों का एक केशर--संज्ञा, पु० (दे० ) केसर, नागकेशर, पौधा जिसके केसर सुगंधित होते हैं, कंकुम, सिंह और घोड़े की गरदन के बाल । घोड़े, सिंह आदि के गरदन के बाल, अयाल, केशराज-संज्ञा, पु० (सं० ) भुजंगा पक्षी, नागकेसर, बकुल, मौलसिरी, स्वर्ग।। भृगराज ( भैंगरैया )। केसरिया-वि० दे० (हि. केसर + इयाकेशरिया- केसरिया - वि० (सं०) प्रत्य० ) पीला, केसर-युक्त, केसर के केसर के रंग का, युद्ध का वस्त्र । रंग का। केशरी, केसरी (दे०)--संज्ञा, ए० ( सं०) केसरी-- संज्ञा, पु० (सं० ) केशरी, सिंह, सिंह, एक बानर, हनुमान जी के पिता। घोड़ा, नागकेसर । केशव--संज्ञा, पु. (सं०) विष्णु, कृष्ण, | केसारी- संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० कृसर ) ब्रह्म, परमेश्वर, विष्णु की २४ मूर्ति-भेदों। दुबिया मटर । For Private and Personal Use Only Page #506 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir man केहरी .कैदक कोहरी --संज्ञा, पु० दे० ( ० केसरी) | कैटभ-संज्ञा, पु० (सं० ) एक दैत्य जिसे सिंह, घोड़ा, केहरी (दे०) । " भालु बाघ विष्णु ने मारा था । बृक, केहरि, नागा''- रामा०। कैटभेश्वरी--संज्ञा, स्त्री० यौ० ( सं० ) केहा-संज्ञा, पु० दे० (सं० केका ) मोर, दुर्गादेवी।। मयूर। कैटभारि-संज्ञा, पु० यौ० (सं.) विष्णु । केहि*---वि० । हि. के+हि-प्रत्य० )। कैत-संज्ञा, पु० (दे० ) कैथा । स्त्री० तरफ़, किसको ( अव० )। और-कैती, ( दे० )। केहूँ-कि० वि० दे० (सं० कथम् ) किसी | केतक --- संज्ञा, पु० (सं० ) कपड़े के फूल, प्रकार, किसी भाँति । केतकी-पुष्प । केहू-सर्व० ( हि० के ) केई, केही, केहि, कैतव-संज्ञा, पु० (सं० ) धोखा, कपट, जुश्रा,, बहाना, वैदूर्यमणि, धतूरा, मूंगा, कैंकर्य-संज्ञा, पु. ( सं० ) किंकरता, चिरायता, लहसुनिया। वि० छली, धूर्त, दासता। कैंचली--संज्ञा, स्त्री० (दे० ) साँप के जुआरी, शठ । संज्ञा, पु० कैतववाद। केचुल, कंचुली। कैतवापन्हुति--संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं० ) कैंचा-वि० (हि. काना+एचा-कनैचा ) अपन्हुति अलंकार का एक भेद जिसमें एंचाताना, भंगा। संज्ञा, पु. ( तु. कैंची) वास्तविक विषय या वस्तु का गोपन या बड़ी कैंची। निषेध किसी व्याज से किया जाय, स्पष्ट कैंची-संज्ञा, स्त्री. ( तु०) बाल, कपड़े शब्दों में नहीं। श्रादि काटने या कतरने का श्रीज़ार, | केतून-संज्ञा, स्त्री० ( अ०) कपड़ों में लगाने कतरनी, दो सीधी तीलियाँ जो कैची की की एक बारीक लैस । तरह एक दूसरे के ऊपर तिरछी रखी जाये, | कैथ-कथा-संज्ञा, पु० दे० (सं० कपित्थ ) एक कसरत या पेंच। ___ एक कँटीला कसैले, खट्टे और बेल जैसे फलों कैंडा--संज्ञा, पु० दे० (सं० कांड ) किसी वाला पेड़, उसका फल । चीज़ के नक्शे के ठीक करने का यंत्र, | कोथिन-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि० कायस्थ ) पैमाना, मान, नपना, चाल, ढंग, काट-छाँट, कायस्थ या कायथ ( दे० ) की स्त्री, कैथिचतुराई. चालाकी। निया (दे०)। कैश-वि० दे० (सं० कति, प्रा. कह) | कैथी—संज्ञा, स्त्री. (हि० कायस्थ ) शीर्ष कितना, कितने, *अध्य० (सं० किम् ।। रेखा रहित या मुड़िया हिन्दी-लिपि (पुरानी) या, अथवा, वा । संज्ञा, स्त्री० (अ० कै ) जो कुछ शीघ्र लिखी जाती है और जिसे वमन, उलटी। प्रायः कायस्थ लिखते थे। कैइक, कैएक-वि० दे० (सं० कति + एक) | कैद -- संज्ञा, स्त्री० ( अ० ) बन्धन, अवरोध, कई एक, कितने ही। कारावास। कैकस-संज्ञा, पु० (सं०) एक राक्षस । मुहा०—कैद करना-जेल में बन्द करना, कैकसी-संज्ञा, स्त्री० (सं० ) रावण की कैद काटना-कैद में दिन बिताना । माता, सुमाली की कन्या।। संज्ञा, स्त्री० ( अ०) शर्त, अटक, प्रतिबंध, कैकेयी ( कैकई-कैकई )-संज्ञा, स्त्री० सं० जिसके होने पर कोई बात हो, रुकावट । (दे० ) केकय गोत्रोत्पन्ना स्त्री, राम को वन कैदक-संज्ञा, पु० (अ.) काग़ज़ श्रादि भेजने वाली राजा दशरथ की स्त्री। रखने का कागज़ का बन्द, या पट्टी। For Private and Personal Use Only Page #507 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४६६ कोछना एक उपनिषद कैदखाना कैदखाना---संज्ञा, पु० ( फा० ) कारागार, ललाई लिये श्वेत, सोकना, वि. कैरे या बन्दीगृह, जेलखाना। भूरे रंग का, कंजा, भूरी आँख का । कैदतनहाई-संज्ञा, स्त्री० यौ० (अ० फा०) कैलास-संज्ञा. पु. ( सं० ) तिब्बत में कैदी को तंग कोठरी में अकेले रखना, काल- रावणहद झील से उत्तर हिमालय की एक कोठरी की सजा। चोटी, (शिव का निवास स्थान), शिव-लोक कैदमहज-संज्ञा, स्त्री० (प्र.) सादी कैद, यौ कैलाशनाथ. कैलाशपति, कैलाश जिसमें कैदी को काम न पड़े। निकेतन- महादेवजी, कैलासवास--- कैदसख्त - संज्ञा, स्त्री० (अ० फा० ) कड़ी कैद जिसमें कैदी को कठिन श्रम पड़े। संज्ञा. प. ( सं केवट. मलाह। कदी-संज्ञा, पु० (अ.) कैद की सज़ा कैवर्त-मुस्तक संज्ञा, पु. यौ० (सं.) पाया हुश्रा, बंदी, बँधुवा (दे०)। केवटी मोथा। कैधौं*- अव्य० (हि० कै+धौं ) या, वा, | कैवल्य- संज्ञा, पु. ( सं० ) शुद्धता, अथवा, किधौं, कै धौं, कैतौ ( 40 )। निर्लिप्तता, एकता, मुक्ति परित्राण, मोक्ष, कैक- संज्ञा, पु० (म० ) नशा, मद । वि० कैकी--मतवाला नशेबाज़ । कैशिक ---संज्ञा, स्त्री० (सं.) बालों की कैफ़ियत-संज्ञा, स्त्री. (अ.) समाचार, लट । वि. कड़े केशों वाला। हाल, वर्णन, विवरण, व्यौरा। कैशिकी--- संज्ञा, स्त्री० (सं० ) नाटकी मुख्य मुहा०-कैफियत तलब करना-नियमा ४ वृत्तियों में से एक जिसमें नृत्य, गीत, नुसार विवरण या कारण पूछना, आश्चर्य भोग विलास होते हैं। या हर्षोत्पाद घटना। कैसर -- संज्ञा, पु. (लै सीज़र ) सम्राट, कैबर--संज्ञा, स्त्री० ( दे.) तीर का फल । । बादशाह । कैबा-संज्ञा, स्त्री०, अव्यवत् (हि० के+बार) कितने या बहुत बार कैसा--वि० दे० (सं० कीदृश ) किस प्रकार कैतिक न्याय-संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) का, किस रूप या गुण का, ( निषेधार्थक ) किसी प्रकार का नहीं, सदृश, ऐसा (दे० एक प्रकार का न्याय या उक्ति जिससे यह दिखलाया जाता है कि जब यह बड़ा काम ब्र०) कैलो, स्त्री० कैसी, ब, व० कैसे । (क्रि. वि० ) कैसे। हो गया तब यह (छोटा) क्या है। एक की सिद्धि से दूसरे की अनायास सिद्धि कैसे-क्रि० वि० (हि. कैसा) किस प्रकार सूचक उक्ति। से, क्यों, किस लिये वि० किस प्रकार के । कैयट--संज्ञा, पु० (सं० ) ११ वीं शताब्दी कोई*-संज्ञा, स्त्री० (दे०) कुई, कुमुद। के व्याकरण महाभाष्य के टीकाकार प्रसिद्ध कोंकण-संज्ञा, पु० (सं०) दक्षिण भारत संस्कृत-विद्वान, काश्मीर-वासी। का एक प्रदेश, वहाँ का निवासी। कैर-संज्ञा, पु. ( दे० ) करील। कोंचना-स० क्रि० दे० (सं० कुच ) चुभना, कैरव-संज्ञा, पु० (सं०) कुमुद, श्वेत | । गोदना, गड़ाना। कमल, शत्रु, कुई। कोंचा-संज्ञा, पु० (दे०) क्रोंच । संज्ञा, पु. कैरवि-संज्ञा, पु. ( सं० ) चंद्रमा । (हि. कोंचना ) बहेलियों की चिड़िया कैरवी-संज्ञा, स्त्री० (सं० ) चन्द्र मैत्री। फँसाने की लासा लगी हुई लम्बी छड़ । कैरा--संज्ञा, पु. ( सं० कैरव ) भूरा (रंग) | कोंकना - स० क्रि० (दे० ) कोंछियाना, For Private and Personal Use Only Page #508 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कोंछियाना ४६७ कोकनी बोली में लेना । संज्ञा, पु० कोंछ (सं० कुक्षि ) (दे० ) कटहल के गूदेदार पके हुए बीज अंचल, अोली (दे०)। कोष, आँख का ढेला । "..'कोए राते कोंछियाना–स० कि० (हि० कोंछ) साड़ी | बसन भगोहे भेष रखियाँ"-देव०। का वह भाग जो ऊपर से पहिनने में पेट कोइ-सर्व० (दे० ) कोई, कोय (ब्र०) के नीचे खोंसा जाता है। स० क्रि० यौ० कोइ-कोइ। (स्त्रियों के ) अंचल के कोने में कोई चीज़ | कोइरी-संज्ञा, पु. ( हि. कोयर ) सागभर कर कमर में खोंस लेना। मुहा० - तरकारी श्रादि बोने और बेचने वाली जाति, कोंभरना-गर्भाधान के बाद ५ वें काछी ( दे० )। या ७ वें मास में एक संस्कार, जिसमें कोइलिया-कोइली-संज्ञा, स्त्री. (दे०) कोकिल ( सं० )। कोइल, कोयल, स्त्री की कोंछ में चावल और गुड़ तथा मिष्ठान्नादि भरे जाते हैं। कैलिया (७०) केली (दे०)। कोइली-संज्ञा, स्त्री० (हि० कोयल ) एक कोंढा--संज्ञा, पु० दे० ( सं० कुंडल ) किसी वस्तु के अटकाने के लिए छल्ला या कड़ा | विशेष प्रकार का श्राम पर पड़ा काला और सुगंधित दाग़, आम की गुठली, कोकिला, ( धातु का ) । स्त्री० अल्प -कोंढ़ी। | कोयल। वि० कोंढा, कोंढहा—कोंढ़ेदार, जैसे. कोई-सर्व० वि० दे० (सं० कोऽपि ) ऐसा कोंदा रुपया। एक जो अज्ञात हो, ( मनुष्य या पदार्थ ), कोंथना--अ० क्रि० ( दे० ) . थना, न जाने कौन एक। गूंथना। मु०---कोई न कोई-एक नहीं तो दूसरा, कोपर-- संज्ञा, पु० (हि० कोंपल ) छोटा यह न सही तो वह, बहुतों में से चाहे जो अधपका या डाल का पका प्राम। एक, अविशेष व्यक्ति या वस्तु, एक भी, कोपल-कोपर-कोप --संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० ( व्यक्ति ) । क्रि० वि० लगभग, क़रीब । कोमल, कुपल्लव ) नई और मुलायम पत्ती, कोउ-( कोऊ ) --सर्व० (दे०) कोई। अंकुर, कल्ला, कनखा ( दे०)। "अजया । _ "कोउ इकपाव भक्ति जिमि मोरी।" रामा । गज मस्तक चढ़ी निरभय कोंपल खाय' कोउक-सर्व० (दे० काउ-+-एक ) कोई -कबी०। एक, कतिपय, कुछ। कोवर *--वि० दे० (सं० कोमल ) मृदुल, कोक-संज्ञा, पु० (सं०) चकवा, चक्रवाक नर्म, मुलायम । (सं० ), सुरख़ाब, विष्णु, मेंढक । " कोककोहड़ा- संज्ञा, पु० (दे० ) कुम्हड़ा, कुष्मांड सोक-प्रदपंकज द्रोही"-रामा० । (सं० )। संज्ञा, स्त्री० कोहँडौरी-(हि. | कोकई-वि० (तु. कोक ) गुलाबी की कोहड़ा + बरी ) कुम्हड़े या पेठे की बरी। झलक वाला नीला रंग, कौडियाला। को-सर्व० दे० (सं० कः) कौन, प्रत्य. | कोक-कला-संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं० ) रति (हि.) कर्म, सम्प्रदान, और सम्बन्ध कारक या संभोग-विद्या। की विभक्ति, कौं (७०) । "को कहि सकत | कोकटेव-संज्ञा. प. (सं० ) रति-शाम के बड़ेन की"-वि०। रचयिता एक पंडित। कोग्रा-कोवा--संज्ञा, पु० दे० (सं० कोशा, कोकनद-संज्ञा, पु० (सं०) लाल कमल हि० कोसा ) रेशम के कीड़े का घर, कुसि- या कुमुद। यारी, टसर नामक एक रेशम का कीड़ा, कोकनी-संज्ञा, पु. (तु. कोक = आसमानी) महुए का पका फल, कोलैंदा, गालैंदा एक रंग । वि० (दे०) छोटा, घटिया । भा० श० को०-६३ For Private and Personal Use Only Page #509 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ४६८ कोक शास्त्र कोटिशः कोक शास्त्र - संज्ञा, पु० (सं० ) को ककृत कोचकी -संज्ञा, पु० ( ? ) ललाई लिए काम या रति-शास्त्र । हुए भूरा रंग । कोचवान - संज्ञा, पु० दे० ( अं० कोचमैन ) घोड़ा गाड़ी हाँकने वाला | संज्ञा, स्त्री० कोचवानी - कोचवान का काम । कोचा - संज्ञा, पु० ( हि० कोंचना ) तलवार, कोका - संज्ञा, पु० (०) दक्षिणी अमेरिका का एक वृक्ष, जिसकी सूखी पत्तियाँ चाय या कहवे सी होती हैं | संज्ञा, पु० स्त्री० ( तु० ) धाय की संतान, दूध-भाई या बहिन | संज्ञा, स्त्री० (सं० ) कोकाबेली नामक एक फूल, कुई । starबेरी-कोकाबेली --- संज्ञा, स्त्री० (सं० कोकनद + बेल = हि० ) नीली कुमुदनी । कोकाह - संज्ञा पु० (सं० ) सफ़ेद घोड़ा । कोकिल - कोकिला - संज्ञा, पु० स्त्री० (सं०) कोयल, नीलम की एक छाया, छप्पय का १६ वाँ भेद, कोयल । कोकिलावास - संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) आम्रवृक्ष | कोकी - संज्ञा, स्त्री० (सं०) चक्रवाकी, चकई । कोकीन कोकेन -संज्ञा, स्त्री० ( अं० ) -कोका नामक वृक्ष की पत्तियों से तैयार की हुई एक मादक औषधि या विष जिसे लगाने से शरीर सन्न (शून्य) हो जाता है । कोको -संज्ञा, स्त्री० (भनु० ) कौधा, लड़कों को बहकाने का शब्द । यौ० कोकोजेमएक प्रकार का वनस्पती घी । कोख - संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० कुक्षि ) उदर, जठर, पेट के दोनों बग़ल का स्थान, गर्भाशय । मु० -- कोख उजड़ जाना - संतान मर नाना, गर्भ गिर जाना । कोख बंद होना - बंध्या होना । कोख या कोख माँग से ठंढी या भरी-पूरी रहना - संतान और पति का सुख देखते रहना ( आशीष । कोगी - संज्ञा, पु० (दे० ) कुत्ते का सा एक शिकारी जंगली पशु जो झुंड में रहता है, सोनहा ( प्रान्ती० ) । कोच - संज्ञा, पु० ( ० ) एक चौपहिया बढ़िया घोड़ा गाड़ी, गद्देदार पलंग, बेंच या कुरसी । यौ० कोचवत - गाड़ीवान के बैठने का ऊँचा स्थान । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कटार आदि का हलका घाव, लगती हुई बात, ताना । कोजागर - संज्ञा, पु० (सं० ) आश्विनमा स की पूर्णिमा, शरद पूनो, उत्सव ) । जागरण का कोट कोट्ट (प्रा० ) - संज्ञा, पु० (सं० ) दुर्ग, गढ़, किला, शहर - पनाह, प्राचीर, महल । संज्ञा, पु० (सं० कोटि ) समूह, यूथ | संज्ञा, पु० ( अं० ) अँग्रेज़ी ढंग का एक पहनावा । कोटपाल - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) किलेदार, दुर्ग - रक्षक | कोटवार (दे० ) । कोटर - संज्ञा, पु० (सं० ) पेड़ का खोखला, दुर्ग के आस-पास रक्षार्थ लगाया गया कृत्रिम वन (दे० ), कोठर । कोटवारण - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) कोट के रक्षार्थ चारदीवारी | कोटवी - संज्ञा, स्त्री० ( सं० ) नग्न या विवस्त्रास्त्री | कोटि - संज्ञा, स्त्री० (सं० ) धनुष का सिरा, o की नोक या धार, वर्ग, श्रेणी, वादविवाद का पूर्व पक्ष, उत्कृष्टता, समूह । जथा (दे० ), ३० अंश के चाप के दो भागों में से एक, त्रिभुज या चतुर्भुज की भूमि और कर्ण से भिन्न रेखा, अर्धचंद्र का सिरा । वि० (सं० ) सौलाख करोड़ । " कोटि कोटि मुनि जतन कराहीं " रामा० । कोटिक - वि० (सं० कोटि +क) करोड़, गणित " कोऊ कोटिक संग्रहै" तु० । कोटिर - संज्ञा, पु० (सं० ) जटा, किरीट, मुकुट कोटिशः - क्रि० वि० (सं० ) अनेक भाँति, बहुत प्रकार से । वि० अनेकानेक, बहुत अधिक | For Private and Personal Use Only Page #510 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कोटीश ४६९ कोतवार कोटीश-वि० (सं०) करोड़-पती, महाधनी। कोठीवाली-कोठी चलाने का काम, कोट्याधीश (सं.)। मुड़िया लिपि। कोठ-(गोंठ) - वि० दे० (सं० कुंठ) कुंठित, कोड़ना-स० क्रि० दे० ( सं० कुंड ) खेत गोंठिल (दाँत)। की मिट्टी को कुछ गहराई तक खोदकर कोठरी-संज्ञा, स्त्री. (हि. कोठ+ड़ी- उलटना । गोड़ना (दे०) खोदना।। री-प्रत्य० ) (अल्पा० ) छोटा कमरा या| कोड़ा-संज्ञा, पु० दे० (सं० कवर ) डंडे में कोठा, घर का वह छोटा भाग जो चारों | बँधी बटे सूत या चमड़े की डोर जिससे ओर से ढका या बंद हो। जानवरों को चलाने के लिये मारते हैं। कोठा- संज्ञा, पु० दे० (सं० कोष्टक ) बड़ी कशा, (सं०) चाबुक, साँटा, उत्तेजक बात, कोठरी, चौड़ा कमरा, भंडार, मकान की। चेतावनी, मर्मस्पर्शी बात, एक पेंच ।. छत के ऊपर का कमरा, अटारी। यौ० | कोड़ी-संज्ञा, स्त्री० दे० (म० स्कोर ) बीस कोठेवाली-वेश्या । संज्ञा, पु. (दे०) का समूह, कोरी (दे०), बीसी। पेट, पक्वाशय। कोढ़-संज्ञा, पु० दे० (सं० कुष्ठ ) रक्त और मुहा०-कोठा बिगड़ना-अपच से दस्त । स्वचा सम्बन्धी एक संक्रामक और घिनौना आना, बदहज़मी होना । कोठा साफ़ रोग, मैल, दोष। । होना-दस्त साफ होना । संज्ञा. पु० (दे०) मुहा०-- कोढ़ चूना (टपकना)-कोद गर्भाशय, धरन, खाना, घर, एक खाने में | (गलित कुष्ठ ) से अंगों का गलकर गिरना, लिखा अंक या पहाड़ा, किसी विशेष शक्ति अति मलिनता होना। कोढ़ की ( में) या वृत्ति वाला शरीर या मस्तिष्क का खाज-दुख पर दुख,..." तामैं कोढ़ की प्रांतरिक भाग। सी खाज या सनीचरी है मीन की" तुल० । कोठार-संज्ञा, पु० दे० ( हि० कोठा ) अन्न, | कोढ़ी-संज्ञा, पु० (हि.) कोढ़ रोग वाला धनादि के रखने का स्थान, भंडार। व्यक्ति । स्त्री० कोदिन । वि० अपंग, मलिन, कोठारी-संज्ञा, पु. (हि. कोठार+ई- | अशक्त, असमर्थ । प्रत्य०) भंडार का अधिकारी या प्रबंधकर्ता, | कोण - संज्ञा, पु. ( सं० ) कोन, कोना (दे०) भंडारी। एक विंदु पर मिलती या कटती हुई दो कोठिला-संज्ञा, पु० (दे०) कुठिला ।। रेखाओं के बीच का अन्तर, दीवारों के कोठी-संज्ञा, स्त्री० (हि. कोठा ) बड़ा पक्का मिलने का स्थान, गोशा (फ्रा) दो दिशाओं मकान जिसमें बहुत से कोठे हों, हबेली, के बीच की दिशा, विदिशा, जो ४ हैं अग्नि, बँगला, रुपये के लेन-देन या बड़े कार-बार | नैऋती, ईशान, वायव्य, अस्त्रों का अग्रभाग, का मकान,बड़ी दूकान, कुठिला (अन्न रखने वीणादि बजाने का साधन, गज़, मंगल, का) बखार, गंज, कुएं की दीवाल या पुल | शनिग्रह। के खंभे में पानी के भीतर जमीन तक होने | कोत - संज्ञा, स्त्री० दे० (१०) कुवत, शक्ति, वाली इंट-पत्थर की जुड़ाई, गर्भाशय । संज्ञा, | दिशा, ओर । स्त्री० (सं० कोटि =समूह ) मंडलाकार एक कोतल-संज्ञा, पु० ( फा०) बेसवार सजासाथ उगने वाले बाँस । सजाया घोड़ा, जलूसी घोड़ा, राजा की कोठोवाल-संज्ञा, पु. (हि. कोठी+वाला सवारी या ज़रूरत के समय का घोड़ा । -प्रत्य०) महाजन, साहूकार, महाजनी "कोतल संग जाँहि डोरित्राये"- रामा० । अक्षर ( कई प्रकार के ) मुड़िया। स्त्री० | कोतवार-संज्ञा, पु० (दे०) कोटपाल, दुर्ग For Private and Personal Use Only Page #511 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org कोतवाल रक्षक । " पौरि पौरि कोतवार जो बैठा " -प० । कोतवाल - संज्ञा, पु० दे० (सं० कोटपाल ) पुलिस का एक प्रधान कर्मचारी या इंस्पेक्टर, पंडितों की सभा, बिरादरी की पंचायत, साधुत्रों के अखाड़े की बैठक, भोजादि का निमंत्रण देने या ऊपरी प्रबन्ध करने वाला । कोतवाली -संज्ञा, स्त्री० ( हि० ) कोतवाल ५०० का दफ़्तर या उसका पद या काम | कोता — वि० दे० ( फ़ा० कोतह) छोटा, कम, अल्प | ( स्त्री० कोती ) । कोताह - वि० ( फा० ) छोटा, कम । कोताही - संज्ञा, स्त्रो० ( फा० ) त्रुटि, कमी कोति* - संज्ञा, स्त्री० (दे० ) कोद, दिशा, 1 र, तरफ़ । कोथला - संज्ञा, पु० ( हि० गोथल, कोठला ) बड़ा थैला, पेट । कोथली - संज्ञा, स्त्री० ( हि० कोथला ) कमर में बाँधने की रुपयों-पैसों की एक लम्बी थैली, बसनी, हिमयानी । कोदंड - संज्ञा, पु० (सं०) धनुष धनुराशि, भौंह | " कोदंड खंड्यौ राम " - रामा० । कोद ( कोध ) - संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० कोण - कुत्र) दिशा, चोर, कोना । कोदो, कोष, कोदों-संज्ञा, पु० दे० (सं० कोद्रव, कोद्रव्य) एक प्रकार का मोटा अनाज, कदन्न । मु० - कोदो देकर पढ़ना ( सीखना ) - अधूरी या बेढंगी शिक्षा पाना । छाती पर कोदो दलना- किसी को दिखाकर कोई बुरा लगने वाला काम करना । कोन-कोना - संज्ञा, पु० दे० (सं० कोण ) पृथक रह कर एक बिंदु पर मिलती हुई दो रेखाओं के बीच का अंतर, अंतराल, नुकीला किनारा या सिरा, लम्बाई-चौड़ाई के मिलने का स्थान, खूंट, दो दीवारों के मिलने का स्थान, एकान्त या छिपा हुआ कोमल स्थान । मुहा० - कोना झाँकना - सर्वत्र ढूंढ़ना भय या लज्जा से जी चुराना या बचने का उपाय करना । कोने में घुसनाछिपना । यौ० कोने-कोतरे- (कोथरे ) - कोने में, (दे० ) कोनौधे । कोनिया - संज्ञा, स्त्री० ( हि० कोना ) दीवाल के कोने पर चीजें रखने की पटिया, दो छप्परों के मिलने का स्थान। क्रि० स० (दे० ) कोनियाना -कोने में छिपा कर रखना ! कोप संज्ञा, पु० (सं० ) क्रोध, रिस, गुस्सा | वि० कुपित (सं० ) । कोपना - अ० क्रि० दे० (सं० कोप ) क्रोध करना, नाराज़ होना । कोपेउ जबहिं बारिचर - केतू - " रामा० । कोप भवन - संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) रूठ कर बैठने का स्थान । " (C कोप भवन गवनी कैकेयी – " रामा० । कोबर - संज्ञा, पु० दे० ( हि० कोंपल ) डाल का पका श्रम, टपका, सीकर । कोपल संज्ञा, पु० दे० (सं० कोमल पल्लव) नई मुलायम पत्ती, कल्ला । कोपि सर्व० यौ० ( कोऽपि ) (सं० ) कोई भी । पू० क्रि० (हि० कोपना ) कुपित होकर । कोपी - वि० (सं० कोपिन् ) कोप करने वाला, क्रोधी । कोपीन - संज्ञा, पु० दे० (सं० लँगोटी । कोफ़्ता - संज्ञा, पु० ( फा ) एक प्रकार का कौपीन ) - Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir क़बाब | कोबिद - संज्ञा, पु० (दे० ) कोविद (सं० ) | कोबी - संज्ञा, स्त्री० ( दे० ) गोभी नामक तरकारी । कोमल - वि० (सं० ) मृदु, मुलायम, नर्म, सुकुमार, नाजुक, अपरिपक, कच्चा, सुंदर, एक स्वर-भेद ( संगीत ० ) संज्ञा, स्त्री० (सं० ) कोमलता - मृदुलता, नरमी । कोमलाई कोमलताई - (दे० ) ....... For Private and Personal Use Only Page #512 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra कोमला www.kobatirth.org कोमलाई श्री ललाई पदुमन " जीतो की ” ० । " अपने रघु कोमला - संज्ञा, स्त्री० (सं) कोमल पद वाली वृत्ति या वर्ण - योजना, प्रसाद गुण युक्त (का० शा० ) । कोय - सर्व (दे० ) कोई. कहँ कोइ कोय - " रही० । कोयर - संज्ञा, पु० दे० (सं० कोपल ) सागपात, सब्ज़ी, हरा चारा । कोयल - संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० कोकिल ) सुन्दर बोलने वाली एक काली चिड़िया, ५०१ लिया (दे०) कैली (दे० ) । गुलाब की पत्तियों सी पत्तियों वाली एक लता । कोयला - कैला - संज्ञा, पु० दे० ( सं० कोकिल अंगारा) जली हुई लकड़ी का बुझा हुआ अंगारा जो बहुत काला होता है, एक खनिज पदार्थ जो कोयले जैसा जलाया जाता है 1 -- कोया -संज्ञा, पु० दे० (सं० कोण ) आँख का डेला, या कोना, (सं० काश ) कटहल का गूदेदार बीज, कोश, कोवा । कोर-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० कोण ) किनारा, सिरा, कोना, कपड़े यादि का छोर। मुहा०—-कोर दबना- किसी प्रकार के दबाव या वश में होना । द्वेष, दोष, ऐब, हथियार की धार. बाढ़, पंक्ति, क़तार | गाँठ, पोर, करोड़, दृष्टि, (C करहु कृपा की कोर - " " कोर कोर कटि गये। हटि कै न पग दयो जतन कीजियत कोर..." " झलक लोचन - कोर - " सू० । कोरक - संज्ञा, पु० (सं०) कली, मुकुल, फूल या कली की आवारभूता हरी पत्तियाँ, फूल की कटोरी, मृणाल या कमल - नाल, शीतल चीनी । 95 66 कोर-कसर - संज्ञा, स्त्री० यौ० ( हि० कोर + कसर फा) दोष- त्रुटि, ऐब, कमी, कमी-बेशी । कोरना - स० क्रि० (दे०) खोदना, कुतरना, ------ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 46 कुरेदना, पूतरी बनाइ राखी –„ कोरंगी - संज्ञा, स्त्री० इलायची | कोरमा संज्ञा, पु० ( तु० ) बिना शोरबे का भुना मांस । को रहन संज्ञा, पु० ( १ ) एक प्रकार का धान । कोरा - वि० दे० गया हो, नया, (सं० केवल ) जो बर्ता न अछूता, ( कपड़ा या मिट्टी का बरतन ) जो धोया या बर्ता न गया हो, जिस पर लिखा या चित्रित न किया गया हो, सादा । For Private and Personal Use Only कोलाहल जैसे - काठ - कोरि ता सुन्द० 1 ( दे० ) छोटी मुहा० - कोरीधार ( बाढ़) - बिना सान रखी हथियार की धार कोरा जवाबसाफ़ इंकार, स्पष्ट शब्दों में अस्वीकार । ख़ाली, रहित, वंचित, बेदाग़, बिना आपत्ति या दोष का, मूर्ख, धन-हीन, केवल | संज्ञा, पु० दे० (सं० कोड़ ) गोद, उछंग, अँकोर ( ० ) | संज्ञा, पु० (दे०) बिना किनारे की रेशमी धोती, एक जल-पक्षी । "बैसहू की थोरी एक कोरी यति भोरी बाल । " स्त्री० कोरी । यौ० कोरा घड़ा - जिस पर कुछ प्रभाव न पड़ा हो । कोरापन -संज्ञा, पु० ( हि०) नवीनता | कोरि - वि० दे० (सं० कोटि ) करोड़ | ०क्रि० (दे० ) पू० का० खोद कर । कोरिया - संज्ञा, स्त्री० ( दे० ) कुरिया | कोरी -संज्ञा, पु० (दे० ) ( सं० कोल सुर ) हिंदू जुलाहा, कुविंद | कोल संज्ञा पु० (सं० ) शूकर, सुअर, (दे० ) गोंद, उत्संग, बेर, बदरीफल, एक तोले की तौल, काली मिर्च, दक्षिण का एक प्राचीन प्रदेश ( राज्य ) एक जंगली जाति, चित्रक, शनिग्रह, कोरा । " अहि, कोल, कूरम कलमले - रामा० । कोलाहल - संज्ञा, पु० हौरा, कुलाहल ( ब० ) कुहराम । (सं० ) शोर-गुल, ܕܙ Page #513 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir नगर। कोलिया ५०२ कोस कोलिया-संज्ञा, स्त्री० (दे० ) सँकरीगली, अयोध्या नगर । यौ० कोशलपुर (कोशलम्बा खेत, कुलिया। लपुरी )- अयोध्या, कोशलाधीशकोली- संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० - कोड़) संज्ञा, यौ० पु. (सं० ) श्रीराम, कोशलेश, गोद, संज्ञा, पु० ( दे० ) कोरी। कोसल । दे०)। कोल्हू-संज्ञा, पु० दे० (हि. कूल्हा १) कोशवृद्धि-संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं० ) अंडतिल आदि से तेल या गन्ने से रस निका- | वृद्धि रोग, धन की बढ़ती। लने का यंत्र। कोशांबी - संज्ञा, स्त्री. ( दे०) कोशांबी मुहा०-कोल्हू का बैल ( तेली का बैल )--अति कठिन श्रम करने वाला, कोशागार--संज्ञा, पु० यौ० ( सं० ) नासमझ, अंधा । कोल्हू में डाल कर खजाना। पेरना-अति कष्ट देना। कोशिश--संज्ञा, स्त्री. ( फा० ) प्रयत्न, कोविद-वि० सं० ) पंडित, विद्वान, चेष्टा, श्रम। कृतविद्या। कोष-संज्ञा, पु० (सं० ) कोश, ख़जाना, शब्द-संग्रह। कोविदार-संज्ञा, पु० ( सं० ) कचनार कोषाध्यक्ष संज्ञा, पु. ( सं० ) ख़जानची, वृक्ष। कोषाधीश, भंडारी। कोश-संज्ञा, पु. (सं० ) अंडा, संपुट, की बँधी कली पंचपात्र ( पूजा का पात्र कोष्ठ~संज्ञा, पु० (सं०) उदर का मध्य बरतन ) तलवार आदि की म्यान, श्रावरण, भाग, पेट का भीतरी हिस्सा, किसी विशेष शक्ति वाला शरीर का आंतरिक भाग, गर्भाखोल, प्राणियों के अन्नमय आदि ५ श्राव. शय, पाकाशय, कोठा (दे०), घर का रण ( वेदा० ) थैली, संचितधन, अर्थ और भीतरी भाग जहाँ अन्न रहता हो, गोला, पर्याय के साथ एकत्रित किए गये शब्द कोश, भंडार, प्राकार, शहर पनाह, चहारसमूह का ग्रंथ, अभिधान समूह, अंड कोश, दीवारी, लकीर, दीवाल या बाट आदि से रेशम का कोया, कुसियारी, कटहल आदि घिरी जगह। फलों का कोया, मद्य-पात्र, कमल का मध्य कोष्ठक-संज्ञा, पु० (सं० ) खाना, कोठा, भाग, खज़ाना, कोस (दे०)। खाने या घर वाला चक्र, सारिणी, लिखने कोशकार -संज्ञा, पु० (सं० ) म्यान या में एक प्रकार के चिन्हों का जोड़ा जिसके शब्द कोश बनाने वाला, शब्द-संग्रहकार, अन्दर कुछ वाक्य या अंक लिखे जाते हैं। रेशम का कीड़ा। जैसे-[], { }, ()। कोशपान-संज्ञा, पु. (सं०) अभियुक्त | कोष्टवद्ध-संज्ञा, पु. (सं० ) पेट में मल को एक दिन उपवास करा कुछ प्रतिष्ठित | का रुकना, कब्जियत । जनों के समक्ष ३ चुल्ल, जल पिला कर उसके | कोष्ठागार-संज्ञा, पु० यो० (सं० ) कोष । अपराध की परीक्षा करने का एक प्राचीन कोष्ठी संज्ञा, स्त्री. (सं०) जन्म-पत्रिका । विधान या ढंग। कोस-संज्ञा, पु० (दे०) (सं० क्रोश ) कोशपाल कोशपालक-संज्ञा, पु. यौ । दूरी की एक नाप जो ४००० या ८००० (सं०) खज़ाने का रक्षक। हाथ (प्राचीन ) या २ मील ( ३५२० कोशल (कोशला)-संज्ञा, पु. (सं०) गज़) के बराबर ( वर्तमान समय में ) सरयू (घाघरा ) के दोनों तटों का प्रदेश, | होती है। संज्ञा, पु० दे० (सं० कोश, कोष) वहाँ की रहने वाली एक क्षत्रिय जाति, | खज़ाना । For Private and Personal Use Only Page #514 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कौयाना कोसना मुहा०-कोसों या काले कोसों बहुत | कोहाना - प्र० कि० (हि. कोह ) रूठना, दूर । के सों दूर रहना-अलग रहना। मान करना, क्रोध करना, नाराज़ होना, कोसना-स० कि० दे० (सं. क्रोशष ) | " तुमहिं कोहाब परम प्रिय अहई "शाप के रूप में गालियाँ देना। । रामा० । संज्ञा, पु० कोहाब। मुहा०-पानी पी पी कर कोसना- कोहिरा-संज्ञा, पु० (दे०) कोहरा, कुहरा, बहुत अधिक शाप देना, बुरा मनाना। कुहासा ( दे.)। कोसना-काटना शाप और गाली| कोहिस्तान-संज्ञा, पु० (फ्रा०) पहादी देश । देना, दुर्वाक्य कह अमंगल चाहना। कोही-वि० ( हि० कोह ) क्रोधी, " सुनि कोसा- संज्ञा, पु० दे० (सं० कोश ) एक रिपाइ बोले मुनि कोही"-रामा० । प्रकार का रेशम । संज्ञा पु० दे० (सं० कोश वि० ( फा० ) पहाड़ी। = प्याला) मिट्टी का बड़ा दिया, कोरा। कोहु-कोहू-संज्ञा, पु० (दे०) कोह, क्रोध । कोसा-काटी- संज्ञा, स्त्री० (हि० कोसना + कौं-को-विभक्ति, (कर्म कारक) (०) को। काटना ) शाप के रूप में गाली देना, बद- कौंकिर-संज्ञा, सी० (दे०) हीरे की दुआ, अमंगल चाहना। | कनी, काँच की रेत । कोसिला-कौसिला-संज्ञा, स्त्री० (दे०) कौंच-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० कच्छ ) कौशल्या, राम-माता। केवाँच, कोछ ( दे.)। कोहँडौरी-संज्ञा, स्त्री० (हि० कुम्हड़ा + बरी) | कौंता-संज्ञा, स्त्री० (दे०) कुन्ती।। उर्द की पीठी और कुम्हड़े से बनी बरी। कौंता-संज्ञा, स्त्री० (सं०) भाला धारण कुम्हडौरी (दे० )। करने वाला। कोह-संज्ञा, पु० (फा० ) पर्वत, पहाड़। कौंतेय-संज्ञा, पु० (सं० ) कुंती-पुत्र, युधिसंज्ञा, पु० दे० ( सं० क्रोध ) क्रोध, रोष । ष्ठिर अर्जुनादि, अर्जुन वृक्ष । संज्ञा, पु० (सं० ककुभ ) अर्जुनवृक्ष । “ सूध कौंध-कौंधा-संज्ञा स्त्री० (हिं. कौंधना ) दूध-मुख करिय न कोहू"-रामा०। | बिजली की चमक, चमक । ...... " अंगन कोहनी-संज्ञा, स्त्री० ( दे०) कुहनी, बाहु | तेज मैं ज्योति के कौंधे"-पद्मा०। के बीच की गाँठ। कौंधना-अ.क्रि. (दे०) (सं० कनन कोहनूर-संज्ञा, पु० यौ० (फा० कोह = =चमकना+अंध ) बिजली का चमकना । पर्वत + नूर -अ-रोशनी ) भारत के किसी कौल-संज्ञा, पु० (दे०) कमल (सं०) स्थान से प्राप्त एक बहुत बड़ा प्राचीन प्रसिद्ध | कवल (दे०)। हीरा जो अब सम्राट के राजमुकुट में लगा है। कौंला- संज्ञा, पु० दे० (सं० कमला) एक कोहबर-संज्ञा, पु. दे. ( स० कोष्टबर ) मीठा नींबू, मंगतरा, संतरा । विवाह में कुल-देवता के स्थापित करने का | कौहर - संज्ञा, पु० (दे० ) इन्द्रायन जैसा स्थान ( घर में ), कौतुक-गृह । एक लाल फल। कोहल-संज्ञा, पु. (सं०) नाट्य शास्त्र के | कौश्रा-कौवा–संज्ञा, पु० दे० (सं० काक ) प्रणेता एक मुनि। काक, काग गले के भीतर लटकता हुआ कोहार-संज्ञा, पु० (दे० ) कुम्हार- मांस का टुकड़ा, चालाक व्यक्ति । " जैसे भँवै कोहार का चाका"-पा०। कौयाना-प्र. क्रि० दे० (हिं० कौमा) कोहान - संज्ञा, पु० (दे०) (फा०) ऊँट भौच का होना, चकबकाना, बर्राना, सहसा की पीठ का कूबड़ । कुछ बड़ बड़ाना। For Private and Personal Use Only Page #515 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org कौटिल्य कौटिल्य - संज्ञा, पु० (सं० ) टेदापन, कुटि - लता, कपट, चाणक्य । यौ० कौटिल्य शास्त्र - अर्थशास्त्र । कौटुम्बिक - वि० (सं० ) कुटुम्ब का, परिवार-सम्बंधी | ५०४ कौड़ा - संज्ञा, पु० दे० ( सं० कपर्दक ) बड़ी कौड़ी | संज्ञा, पु० दे० (सं० कुराड ) आड़े में तापने के लिये जलाई हुई आग, अलाव । कौड़िया - वि० ( हि० कौड़ी ) कौड़ी के रंग का, स्याही लिए सफ़ेद | संज्ञा, पु० (दे० ) कौडिल्ला पक्षी, किलकिला । कौड़ियाला - वि० ( हि० कौड़ी ) कौड़ी के रंग का कुछ गुलाबी झलक वाला हलका नीला, कोकई। संज्ञा० पु० ( दे० ) को कई रंग, एक विषैला सांप, कृपण धनी एक goat जैसे फूलों वाला वृक्ष, कौडिल्ला पत्ती । कौड़ियाही संज्ञा स्त्री० दे० ( हि० कौड़ी ) कुछ कौड़ियों की मज़दूरी । कौडिल्ला - संज्ञा, पु० ( दे० ) मछली खाने वाला कौडिया पक्षी । कौड़ी - संज्ञा, स्त्री० दे० ( सं० कपर्दिका ) एक घोंघे सा अस्थिकोश में रहने वाला समुद्री कीड़ा, उनका अस्थि - कोश, जो सब से कम मूल्य के सिक्के की तरह बर्ता जाता है' वराटिका, धन, रुपया-पैसा द्रव्य । वशवर्ती राजाओं में से सम्राट् द्वारा लिया जाने वाला कर, आँख का डेला, छाती के नीचे बीचोबीच पसलियों के मिलने की छोटी हड्डी, जंबे, काँख और गले की गिल्टी, कटार की नोक | मुहा०-कौड़ो काम का नहीं - निकम्मा, निकृष्ट, कौड़ी का या दो कौड़ी का - तुच्छ, निकम्मा, ख़राब, जिसका कुछ मूल्य न हो । कौड़ो के तोन तीन होना बहुत सस्ता होना, तुच्छ या नाचीज़ होना, बेकदर होना । कौड़ी कौड़ी चुकाना ( अदा करना, भरना ) पाई-पाई देना, सब ऋण चुका कर बेबाक़ कर देना । कौड़ी कौन कौड़ी जोड़ना - बहुत थोड़ा थोड़ा करके कष्ट से धन इकट्ठा करना । कौड़ी भरबहुत थोड़ा। कानीया भी ( फूटी ) कौड़ी - टूटी कौड़ी, अत्यंत अल्प द्रव्य । चित्त ( पट्ट) कौड़ी - ऊपर मुख किये कौड़ी का पड़ना ( विलोम - पट्ट ) | चित्ती कौड़ी - पीठ पर उभरी हुई गाँठों वाली कौड़ी ( जुए में काम देती है ) । " कौड़ी के न काम के ये आये बिन दाम के 'बेनी० । ..53 कौणप - संज्ञा, पु० (सं० ) रातस, पापी, धर्मी, कौन (दे० ) । कौण्डिन्य - संज्ञा, पु० (सं० ) कुंडिन मुनि Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir का पुत्र, चाणक्य | कौतुक संज्ञा पु० (सं० ) कौतिक, कौतिग, (दे० ) कुतूहल, श्राचर्य, विनोद, दिल्लगी, खेल-तमाशा | वि० कौतुको - (सं० ) कौतुक करने वाला, खेल-तमाशा या विवाह सम्बध कराने वाला, विनोदशील कौतु किया – संज्ञा, पु० ( हि० कौतुक + इया - प्रत्य० ) कौतुक या विवाह सम्बन्ध कराने वाला नाऊ, पुरोहित, कौनट, खिलाड़ी । ' तौ कौतुकियन्ह थालस नाहीं"कौतूहल - संज्ञा, पु० (सं० ) कुतूहल, लीला, कौतुक कौतूह (दे० ) । कौथ-संज्ञा, स्त्री० ( हि० कौन + तिथि ) कौन सी तिथि, कौन सम्बंध | कौथा - वि० ( हि० कौन + स्था – (स्थान) सं० ) किस संख्या का, गणना में कौन - रामा० । सा स्थान । कौन – सर्व० दे० (सं० कः, किम् अभिप्रेत व्यक्ति या वस्तु की जिज्ञासा सूचक प्रश्नवाचक सर्वनाम | मुहा०— कौन सा कौन, कौन होनाक्या अधिकार, मतलब रखना, कौन सम्बंधी या रिश्ते में होना । " कौन दिना कौन घरी कौन समै कौन ठौर, जाने कौन कौन को For Private and Personal Use Only Page #516 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कोप ५०५ कौलीन कोप-वि० (सं० ) कूप-सम्बन्धी जल, । (प्रान्ती०) चक्की में एक बार पिसने के कूपोदक । लिये डाला जाने वाला अन्न । कौपीन-संज्ञा, पु० (सं० ) ब्रह्मचारियों या कौरना-स० कि० (दे० ) सेंकना, थोड़ा संन्यासियों श्रादि के पहिनने की लँगोटी, । भूनना, (हि. कौड़ा )। चीर, कफ़नी, काछा, कौपीन से ढाँके जाने | कौरव-संज्ञा, पु. ( सं० ) राजा कुरु की वाले शारीरिक अंग, पाप, अनुचित कर्म । | संतान, कुरु-वंशज । वि० (सं० स्त्री० ) " कूपे पतितं योग्यं कौपीनम् ।" कौरवी-कुरु सम्बन्धी। कौरवेश, कौरवकोम-संज्ञा, स्त्री० (१०) वर्ण, जाति । पति-यौ० संज्ञा, पु० (सं० ) दुर्योधन । कौमार-संज्ञा, पु० (सं०) कुमारावस्था, कौरव्य-संज्ञा, पु० (सं० ) कुरु-वंश, एक जन्म से ५ वर्ष तक की या १६ वर्ष तक मुनि, एक नगर । ( तंत्रशा० ) की अवस्था, कुमार । स्त्री० कौरा-कउरा-संज्ञा, पु० (दे० ) द्वार के कौमारी ! यौ० कौमारतंत्र--कौमार- दोनों ओर का वह भाग जिससे खुलने पर भृत्य-संज्ञा, पु. ( सं० ) बालकों के किवाड़ सटे रहते हैं, कौड़ा, अलाव, कौर । चिकित्सा, लालन-पालनादि की विद्या, यौ० कौरा-कुरकुटा-खाने से बचा हुआ धातृ-कला। भोजनांश । स्त्री० कौरी। मुहा०-कोरे कौमारी-संज्ञा, स्त्री० (सं० ) किसी की लगना-दरवाजे के पास । किसी घात प्रथम स्त्री, ७ मातृकानों में से एक, पार्वती, में ) छिप कर खड़ा रहना । कौरी-संज्ञा, स्त्री० (दे०) अँकवार, गोद, बाराहीकंद, कार्तिक-शक्ति । अंक, किवाड़ के पीछे की दीवाल, कौड़ी। कौमी- वि० (अ० ) कौमका, जातीय । | कोरियाना स०कि० दे०गोद में लेना, भेटना । संज्ञा, स्त्री. कौमियत, जातीयता । कौल-संज्ञा, पु. ( सं० ) उत्तम कुल में कौमुदी--संज्ञा, स्त्री. ( सं० ) ज्योत्स्ना, | उपन्न, कुलीन, कुलाचार नामक वाम मार्ग चाँदनी, चंद्रिका, 'जुन्हैया, जुन्हाई ( दे.) का अनुयायी ( तांत्रिक ) "नाना रूप धरा कार्तिकी-पूर्णिमा, आश्विनी पूर्णिमा, दीपो कौला " - वाममार्गी । संज्ञा, पु० दे० त्सव तिथि, कुमुदिनी, एक व्याकरणग्रंथ (सं० कवल ) कौर, ग्रास (सं० कमल) "सिद्धान्तकौमुदी" ( भट्टाजकृत ) । कमल, कँवल । कौमोदकी-कोमादी-संज्ञा, स्त्री० (सं०) | कौल-संज्ञा, पु० (अ० ) कथन, उक्ति, विष्णु-गदा। वाक्य, प्रतिज्ञा, प्रण, वादा । यौ० कौलकार-संज्ञा, पु० दे० । सं० कवल ) एक करार-परस्पर दृढ़ प्रतिज्ञा । " बकौले बार मुँह में डाला जाने वाला भोजन, ग्रास, हसन किसको भाता नहीं"-कौल (दे०) गस्ला, निवाला, ( फा० ) कवर (दे०) ....... कीन्यौ कौल अनेक"-दीन । " पंच कौर करि जेंवन लागे"-रामा० । | कौलव-संज्ञा, पु० (सं० ) ११ करणों में मुहा०—मुंह का कौर छोनना-देखते। से ३रा करण । देखते किसी का अंश (हक) दबा बैठना, रोज़ी कौलिक-वि० (सं० ) कुल-परम्परा प्राप्त, छुटाना । मुँह का कार है-श्रासान या | कुल-परम्परानुयायी । संज्ञा, पु० (सं० ) सरल होना, (काल ) कौर होना- शाक्त, तन्तुवाय, ताँती, पाखंडी। मर जाना, मृत्यु के वश होना " काल-कौर कोलीन-वि० (सं० ) श्रेष्ठ, उत्तम, शिष्ट । ढहै छिन माँही" ---रामा० । कउर ..."अच्छा कर्म ही कौलीन है"-का०गु० । भा० श० को०-६४ For Private and Personal Use Only Page #517 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कौलेय ५०६ क्या कौलेय-संज्ञा, पु. ( सं० ) कूकुर ( दे०) कौशांब की नगरी, वत्सपट्टन (प्रयाग से कुत्ता। ३० मील दक्षिण-पश्चिम में )। कौलेली-संज्ञा, पु० (दे० ) गंधक। | कौशिक-संज्ञा, पु० (सं० ) इंद्र, कुशिक कौवा-( कौा )-संज्ञा, पु० दे० (सं० नृप-पुत्र, गाधि, विश्वामित्र, कोषाध्यक्ष, काक) काक, काग, कागा । मु०-कोवा- कोशकार रेशमी वस्त्र, शृंगार रस, एक उपगुहार ( कौवारोर ) बहुत बकबक, | पुराण, उल्लू, नेवला. मज्जा, ६ रोगों में गहरा शोर-गुल । वि०-बड़ा धूर्त, चतुर से एक । कौसिक (दे० ) "कौलिक सुनहु या काँइयाँ । संज्ञा, पु. (दे० ) बँडेरी के मंद यह बालक"-रामा० । श्राड़ या सहारे की लकड़ी, कौहा, गले के कौशिकी-संज्ञा, स्त्री० (सं० ) चंडिका, ऊपर तालू से लटकता हुआ मांस, घाँटी। कुशिक नृप की पोती और ऋचीक मुनि की लंगर, बगले के चोंच की सी मुँह वाली। स्त्री, करुणा, हास्य और श्रृंगार इसके वर्णन एक मछली। कौवा-टोंटी यौ०-संज्ञा, | वाली सरल वर्ण युक्त एकवृत्ति (काव्य-नाटक) स्त्री० दे० ( सं० काकतुंडी ) काकनासा, एक नदी (कुशी) एक रागिनी । कौषिकी। सकेद और नीचे काक-चंचु जैसी प्राकृति कौशेय-वि० (सं० ) रेशम का, रेशमी। वाले फूलों की एक लता। कौषीतकी--संज्ञा, स्त्री० (सं०) ऋग्वेद कौवाल-- संज्ञा, पु. (अ.) कौवाली गाने की एक शाखा, उसका एक ब्राह्मण और वाला। उपनिषद कौवाली-संज्ञा, स्त्री० ( ० ) सूफ़ियों का कोसिला--संज्ञा, स्त्री० (दे०) कौशल्या भगवत्प्रेम-संबन्धी गीत, उसी धुनि की (सं० ) " जस कौसिला मोर भल ताका" ग़ज़ल, कौवालों का पेशा। -रामा० । कौवेर संज्ञा, पु० (सं० ) कुवेर का, कूट कौसुम्भ संज्ञा, पु० (सं० ) वन-कुसुम, नामक औषधि, उत्तर दिशा । स्त्री० कौवेरी - उत्तर दिशा, कुवेर की शक्ति। कौस्तुभ-संज्ञा, पु० (सं०) समुद्र से निकले कौशल -संज्ञा, पु० (सं०) कुशलता, निपु हुए १४ रनों में से एक मणि, जो विष्णु के णता, मंगल, कोशल देश-वासी । कौसल वत-स्थल पर रहती है। (दे०)। यौ०-कौसल-पुर-अयोध्या। क्या-सर्व० दे० (सं० किम् ) प्रस्तुत या अभिप्रेत वस्तु की जिज्ञासा-सूचक एक कौशलेय-कौशलेश-संज्ञा, पु० या० (सं०) प्रश्न-वाचक सर्वनाम, कौन वस्तु. बात । रामचन्द्र-कोशल का राजा । कौसलेस (दे०) मुहा०-क्या कहना है-क्या खूब क्या " कौसलेश दसरथ के जाये"-- रामा०। बात है--प्रशंसा सूचक वाक्य, धन्य, वाह कौशली-( कुशली)-संज्ञा, स्त्री० (सं० ) वाह बहुत अच्छा है । क्या कुछ, क्या क्या कुशल-प्रश्न, कुशलता । वि० सकुलश। कुछ-सब या बहुत कुछ, क्या चीज़ है कौशल्या--संज्ञा, स्त्री० (सं० ) कोशल-नृप ( बात है ) नाचीज़ या तुच्छ है। क्या दशरथ की प्रधान स्त्री, राम-माता, कौसल्या, जाता है-क्या हानि होती है, कुछ नुककौसिला ( दे० )। पुरुराज और सत्यवान सान नहीं । क्या जाने ---ज्ञात नहीं, कुछ की स्त्रियाँ, पृतराष्ट्र-माता, पंचमुखी नहीं जानता । क्या पड़ी है-क्या श्रावभारती। श्यकता या ज़रूरत है, कुछ ग़रज नहीं । कौशांबी--संज्ञा, स्त्री० (सं०) कुश-पुत्र और क्या-हाँ ऐसा ही है। क्या क्या UT क। For Private and Personal Use Only Page #518 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir क्यारी ५०७ क्रमान्वय नहीं सब कुछ । वि० कितना, बहुत ऋतुमाली--संज्ञा, स्त्री० (सं.) एक औषधि, अधिक, अपूर्व, विचित्र, बहुत अच्छा। क्रि० । किरवाली। वि० क्यों, किसलिये । श्रव्य-केवल प्रश्न- कथन-संज्ञा, पु० (सं०) सफ़ेद चंदन, ऊँट । -सूचक शब्द । काह (७०) कहा (५०) क्रम-संज्ञा, पु० (सं० ) पैर रखने या डगका (प्रान्ती. ) भरने की क्रिया, वस्तुओं या कार्यों के क्यारी---संज्ञा, स्त्री० (दे० ) कियारी। परस्पर आगे-पीछे होने का विधान या क्यों-क्रि-वि० (सं० किम् ) किसी कारण ! नियम, पूर्वापर सम्बन्ध व्यवस्था, शैली, की जिज्ञासा का शब्द, किस कारण, किस सिलसिला, तरतीब, कार्य को उचित रूप लिये, काहे (७०) क्यौं (०) । यो क्योंकि से धीरे धीरे करने की प्रणाली, परिपाटी, ---इस लिए या इस कारण कि, चूंकि ।। कल्पविधि, वेद-पाठ की एक प्रणाली, वैदिक मुहा०-कोंकर---किस प्रकार, कैसे। विधान, कल्प, रीति, एक अलंकार जिसमें क्यों नहीं-ऐसा ही है, ठीक है, निस्संदेह, प्रथमोक्त वस्तुओं का वर्णन कम से किया बेशक, सही कहते हो, हाँ, ज़रूर, कभी जाय (१० पी०) । संज्ञा, पु० (दे०) कर्म । नहीं, मैं ऐसा नहीं कर सकता। क्योहूँ "मन, क्रम, बचन चरन-रत होई"- रामा। (७०) कैसे ही, किसी प्रकार भी। * क्रि० मु०-क्रम क्रम करके-धीरे धीरे, शनैः वि. किस भाँति या प्रकार । शनैः, कम से कम-क्रम से.-(एक क्रम कंदन -संज्ञा, पु. (सं०) रोना, विलाप, से) धीरे धीरे, एक सिलसिले से, यथायुद्ध-समय वीरों का आह्वान । वि० क्रदित क्रम-क्रम बांध कर-नियम बाँध कर, -विलपित, रोदित । क्रम लगाना-सिलसिला लगाना । क्रकच-संज्ञा, पु० (सं० ) एक अशुभ योग क्रमनासा - संज्ञा, स्त्रो० (दे० ) कर्मनाशा (ज्यो०) करील, पारा, करवत, एक नरक, नदी। गणित की एक क्रिया। क्रमशः - कि० वि० (सं० ) क्रम से, धीरेऋतु-संज्ञा, पु० (सं० ) निश्चय, संकल्प, धीरे, थोड़ा-थोड़ा करके, सिलसिलेवार । अभिलाषा, विवेक, प्रज्ञा, इंद्विय, जीव, | क्रम-भंग-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) विधि-हीनता अश्वमेधयज्ञ, विष्णु, याग, आषाढ़, ब्रह्मा के एक प्रकार का दोष ( साहित्य० )। मानस पुत्रों या विश्वेदेवों में से एक, कृष्ण क्रमयोग-संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) विधिके एक पुत्र । यो क्रतुपति-विष्णु, नियोग। क्रतु-फल-यज्ञ-फल, स्वर्ग । क्रम-संन्यास-संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) ब्रह्मक्रतद्वैषी-संज्ञा, पु. यो० (सं०) असुर, चर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ के पश्चात क्रमानुसार दैत्य, नास्तिक। लिया गया सन्यास, परंपरागत । ऋतुध्वंसी-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) शिव, क्रमागत-वि० (सं० यौ०) परंपरागत, (दक्ष प्रजापति के यज्ञ को नष्ट करने वाले) क्रम-प्राप्त। महादेव। ऋतु-पशु-संज्ञा, पु. यो. (सं० ) घोड़ा। क्रमानुकूल-क्रमानुसार-वि०,कि०वि० (सं० क्रतु-पुरुष--- संज्ञा, पु० यौ० (सं०) नारायण, यौ०) श्रेणी के अनुसार, क्रम से, तरतीब से। विष्णु। क्रमानुयायी-वि० यौ० (सं० ) व्यवस्थित, क्रतुभुज-संज्ञा, पु० (सं० ) देवता, सुर । ऋतुविक्रय-संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) धन से क्रमान्वय–वि. यौ० (सं०) क्रमानुयायी, यज्ञ-फल का बेचने वाला। यथाक्रम, क्रमागत । For Private and Personal Use Only Page #519 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 0 क्रमण क्रियाविदग्धा १०८ क्रमण-संज्ञा, पु० (सं० ) पैर, पाँव के ! क्रियमाण --संज्ञा, पु० (सं० ) वर्तमान कर्म, १८ संस्कारों में से एक ! जो किये जा रहे हों, जिनका फल आगे क्रमिक-वि० (सं० ) क्रमशः। मिलेगा, प्रारब्ध कर्म । क्रमुक-संज्ञा, पु. ( सं० ) सुपारी, नागर- क्रिया-संज्ञा, स्त्री० (०) किसी काम का मोथा, एक प्राचीन देश, कपास का फल, ! होना या किया जाना, कर्म, प्रयत्न, चेष्टा, पठानी लोध । गति, हरकत, हिलना-डोलना, अनुष्ठान, क्रमेल-क्रमेलक-संज्ञा, पु. ( सं० ) क्रमेलस प्रारंभ, शब्द का वह भेद जिससे किसी (यूना० ) ऊँट, शुतुर । काम या व्यापार का होना या किया जाना क्रय - संज्ञा, पु० (सं०) मोल लेना, ख़रीदना। प्रगट हो-जैसे आना, जाना ( व्या० ) यौ० क्रय-विक्रय-व्यापार, ख़रीदने और शौचादि कर्म, नित्य कर्म । " नित्य क्रिया बेचने का काम। करि गुरु पहँ पाये".-रामा० । श्राद्धादि क्रयी-संज्ञा, पु० (सं०) मोल लेने वाला । प्रेत-कर्म, कृत्य, उपाय, विधि, शपथ, क्रयिक-मोल लिया। उपचार, चिकित्सा, रीति । यौ० क्रियाक्रयणीय-वि० (सं० ) क्रय, केतव्य, कर्म-अंत्येष्टि क्रिया। ख़रीदने योग्य । क्रिया-चतुर-संज्ञा, पु. (सं०) क्रिया या क्रय्य-वि० (सं० ) जो बिक्री के लिये हो। घात में चतुर नायक । वि० किया-कुशल क्रव्य-संज्ञा, पु० (सं० ) मांस । -काम करने में दक्ष। त्रिया-पटु-- चतुर । कव्याद--संज्ञा, पु० (सं०) मांस-भक्षी, क्रियातिपत्ति-संज्ञा, स्त्री० (सं० ) एक चिता की भाग। अलंकार जिसमें प्रकृति से भिन्न किसी विषय क्रांत-वि० (सं० ) दवा या उका हुअा, का वर्णन कल्पना करके किया जाये, यह ग्रस्त, जिस पर आक्रमण हो, आगे बढ़ा अतिशयोक्ति का एक भेद है (अ० पी०)। हमा-जैसे-सीमाक्रान्त क्रियानिष्ठ-वि० (सं०) संध्या-तर्पणादि क्रान्ति - संज्ञा, पु० (सं०) गति, कदम- नित्य कर्म करने वाला: रखना, वह कल्पित वृत्त जिग्य पर सूर्य क्रियान्वित--वि० (सं० ) क्रिया-युक्त । पृथ्वी के चारों ओर घूमता जान पड़ता है। क्रियापर-वि० (सं०) क्रियापटु, सुकर्मा । ( खगोल ) अपक्रम, भारी परिवर्तन, फेर- क्रियापाद-संज्ञा, पु. ( सं० ) चतुष्पाद, फार, उलट-फेर, उपद्रव, अत्याचार, दीप्ति, व्यवहार का तीसरा पाद, सानियों का शपथ प्रकाश । यौ० कान्तिवृत्त-सूर्य पथ करना। ( खगो०), क्रान्ति-मंडल-संज्ञा, पु० क्रियायोग-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) देव-पूजन, यो० (सं०)राशि-चक्र, सूर्य का कल्पित पथ मंदिरादि बनवाना। क्रान्तिकारी-वि० (सं०) क्रांति या परिवर्तन | कियार्थ-संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) वेद में करने वाला। __ यज्ञादि कर्म-प्रतिपादक विधि-वाक्य । क्रिचयन -संज्ञा, पु० दे० (सं०कृच्छचांद्रायण) | क्रियावसन्त--वि० (सं० ) पराजित । चांद्रायण व्रत । क्रियावान-वि० (सं०) कर्मोद्यत, कर्म में क्रिमि-संज्ञा, पु० (सं० ) कीड़ा, कृमि, नियुक्त, सच्चरित्र, कर्मनिष्ठ, कर्मठ । पेट में कीड़ों का रोग। क्रियाविदग्धा-संज्ञा, स्त्री० (सं० ) वह क्रिमिजा--संज्ञा, स्त्री० (सं०) लाह, लाख । नायिका जो नायक पर किसी क्रिया के द्वारा क्रय-संज्ञा, पु० (सं० ) मेषराशि । अपना भाव प्रगट करे। For Private and Personal Use Only Page #520 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org क्रिया-विशेषण क्रिया-विशेषण-संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) वह शब्द जिससे क्रिया के किसी विशेष भाव या रीति से होने का बोध हो ( श्राधु० व्या० ) जैसे- कैसे, धीरे । क्रिया-रूप-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) धातुरूप, " थाख्यात । क्रिया-लोप- संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) कर्म - निवृत्ति | किसान-संज्ञा, पु० दे० ( ० क्रिश्चियन ) ईसाई | वि०किस्तानी — ईसाइयों का । कीट - संज्ञा, ५० दे० (सं० किरीट ) मुकुट के ऊपर धारण किया जाने वाला ग्राभूषण | क्रीडना प्र० क्रि० (दे० ) क्रीड़ा या खेल करना । प्रभु क्रीडत, मुनि, सिद्ध, सुर, व्याकुल देखि कलेस - रामा० । क्रीडनक - संज्ञा, पु० (सं० ) खेल, खेलने की वस्तु | 66 क्रीडान – संज्ञा, स्त्री० (सं० ) क्रीडन, खेल, केलि, कौतुक, ग्रामोद-प्रमोद, खेल-कूद, एक छंद या वृत्त | य० क्रीडा-वन- प्रमोदवन, केलि-कानन | क्रीडामृग -- खेल के पशु, घोड़ा, वानरादि । क्रीडाचक संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) ६ गणों का एक वृत्त, महामोदकारी । क्रीडा - कौतुक – संज्ञा, पु० यौ० (सं०) खेल तमाशा । क्रीत - वि० (सं० ) खरीदा हुआ । यौ० कीतपुत्र संज्ञा, पु० (सं०) १२ प्रकार के पुत्रों में से एक, ख़रीदा हुआ पुत्र | क्रीतदास -- संज्ञा, पु० ० (सं०) १५ प्रकार के दासों में से एक मोल लिया हुआ । कीतक संज्ञा, पु० ( ० ) क्रीत पुत्र, धन देकर माता-पिता से लिया गया पुत्र, १२ प्रकार के पुत्रों में से एक । क्रुद्ध - वि० (सं० ) क्रोध से भरा हुआ, कोपयुक्त, क्रोधित । कुमुक - संज्ञा, पु० (सं०) सुपारी, पुंगीफल । कुश्वा - संज्ञा, पु० (सं०) शृगाल, सियार । ५०६ क्रोध कर - वि० (सं०) पर पीड़क, निर्दय, कठिन, तीक्ष्ण,..." एते क्रूर करम अक्रूर है कराये जो " ऊ० श० । संज्ञा, पु० (सं०) १, २, ५, ७, ६, ११ राशि, मति, लाल कनेर, बाज पक्षी, सफ़ेद चील, रवि, मंगल, शनि, राहु, केतु, ( ज्यौ० क्रूर ग्रह ) । स्त्री० क्रूरी | संज्ञा, स्त्री० क्रूरता । क्रूरकर्मा - संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) क्रूर काम करने वाला । वि० निष्ठुर दुरात्मा । संज्ञा, पु० (सं०) सूरजमुखी, तितलौकी का पेड़ । करगंध - संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) उग्रगंध, गंधक | Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir क्रूरता - संज्ञा स्त्री० ( सं० ) निष्ठुरता, निर्दयता, कठोरता । करलोचन - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) शनिग्रह, कराकार - संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) रावण | वि० भयंकर आकार वाला । क्रराचार - संज्ञा, पु० ० (सं० ) निष्ठुर - व्यवहार | वि० क्रराचारी । करात्मा - वि० (सं० ) दुष्ट प्रकृति वाला । क्रेतव्य - वि० सं०) क्रेय, क्रयणीय, ख़रीदने के योग्य । क्रेता - वि० (सं०) खरीदार, खरीदने वाला । क्रेय - वि० (सं०) क्रमणीय, ख़रीदने योग्य | क्रोड़ - संज्ञा. उ० (सं०) दोनों बाँहों के बीच का भाग, ( श्रालिंगन में) भुजांतर, वक्षःस्थल, गोद, कोल, अंक । कोड-पत्र - संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) किसी पुस्तक या समाचार-पत्र में उसकी पूर्ति के लिये ऊपर से लगाया गया पत्र, परिशिष्ठ, पूरक, ज़मीमा, अतिरिक्त पत्र | क्रोध - संज्ञा, पु० (सं० ) चित्त का वह उग्रभाव जो कष्ट या हानि पहुँचाने वाले या अनुचित कार्य करने वाले के प्रति होता है, कोप, रोष, गुस्सा, ६० संवत्सरों में से ५६ वाँ । यौ० क्रोधमूर्च्छित - संज्ञा, पु० ( सं० ) एक सुगंधित द्रव्य | वि० अत्यंत को से भरा हुआ । क्रोधातुर - वि० For Private and Personal Use Only Page #521 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org क्रोधन ५१० क्षणद (सं०) क्रोध - पूर्ण । क्रोधान्य - वि० (सं० ) | क्लेश - संज्ञा, पु० (सं० ) दुख, कष्ट, वेदना, क्रोध से जिसकी बुद्धि ठिकाने न हो । क्रोधन- संज्ञा, पु० ( सं० ) क्रोधयुक्त, कौशिक-पुत्र, श्रयुत-पुत्र या देवातिथि के पिता, एक संवत्सर । पीड़ा, झगड़ा, भय, श्रायास । वि० क्लेशित दुखित | वि० यौ० शाह - क्लेशनाशक । क्लैव्य -- संज्ञा, पु० (सं० ) क्लीवता । क्लोम - संज्ञा, पु० (सं० ) दाहिनी ओर का फेफड़ा | क्रोधित - वि० (हि० क्रोध + इत) कुपित, क्रुद्ध, रोषयुक्त । क्रोधी - वि० वाला । स्त्री० क्रोधिनी । सं० क्रोधिन् ) क्रोध करने क्रोश - संज्ञा, पु० (सं० ) कोस, २ मील । क्रौंच - संज्ञा, पु० (सं०) करांकुल पक्षी, वक, एक पर्वत, ७ द्वीपों में से एक ( पुराण० ) एक स्त्र, एक वर्ण-वृत्त । यत्क्रौंच मिथुनादेकमवधी काममोहितम् -वा० । "" क्रौर्य - संश, पु० (सं० ) क्रूरता । क्लांत - वि० (सं० ) थका हुआ, श्रान्त | क्लांति - संज्ञा, स्त्री० (सं० ) श्रम, थकावट । वि० क्लांतिकर क्लांतिकारी । क्रांतिच्छिद - वि० (सं० ) विश्राम, स्वास्थ्य | क्लिन्न - वि० (सं० ) आई, भीगा, गीला, क्लेदयुक्त, मैला । क्लिशित - वि० (दे० ) केशित दुखी । क्लिश्यमान - वि० (सं०) संतापित, पीड़ित । क्लिष्ट - वि० (सं०) क्लेशयुक्त, बेमेल, (बात ) पूर्वापर विरुद्ध (वाक्य) कठिन कष्ट साध्य | संज्ञा स्त्री० क्लिष्टता, पु० क्लिष्टत्व - कठिनता, काव्य में दुर्बोध-भाव जन्य दोष । क्लीव - वि० पु० (सं०) षंढ, नपुंसक, कायर, डरपोक | संज्ञा, स्त्री० क्लीवता - संज्ञा, पु० ( सं० ) क्लीवत्व | कुद – संज्ञा, पु० (सं० ) आर्द्रता, पसीना, गीलापन | कुंदक- संज्ञा, पु० (सं० ) पसीना लाने वाला, एक प्रकार का स्वेदोत्पादक कफ, देह की १० प्रकार की अग्नियों में से एक । संज्ञा, पु० (सं० ) कुंदन - स्वेद लाने की क्रिया । वि० केदित -- श्रार्द्र, गीला, स्वेदयुक्त | Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir क्व - क्रि० वि० (सं०) कहाँ । " व सूर्य प्रभवो वंशः " - रघु० । कत्रित -- क्रि० वि० (सं०) कोई ही, शायद " क्वचित्कंथाधारी... ० । ही कोई बहुत कम | भर्तृο करण - संज्ञा, पु० (सं० ) शब्द, ध्वनि, ( वीणादि की ) । वि० कणित- शब्द करता हुआ । " वणित था करता कल नाद से " - प्रि० प्र० । काथ - संज्ञा, पु० (सं० ) पानी में उबाल कर औषधियों का निकाला हुआ गाढ़ा रस, कादा, जोशाँदा । कार - संज्ञा पु० (दे० ) श्राश्विनमास, कुवार र, कुर (दे० ) । कारपन - कारापन -संज्ञा, पु० ( हि० क्वारा + पन ) कुमारपन, कौमार्य (सं० ) । कारा - संज्ञा, पु० दे० (सं० कुमार ) बिना व्याहा, कुआँ । स्त्री० क्वारी - कुचरी । वासि - वाक्य ( सं० क्वा + असि है ) कहाँ है। कान - संज्ञा, पु० (दे० ) 46 For Private and Personal Use Only कण, झनकार Taarifaat are कैला - संज्ञा, पु० (दे०) 46 जरै काम कैला मनो तंतव्य - वि० (सं० ) पल । वि० क्षणिक | योग्य | क्षण-क्षणक-संज्ञा, पु० (सं० ) समय का सब से छोटा भाग, मुहा०—तरण मात्र थोड़ी देर काल, अवसर, उत्सव, पर्व का दिन, छन, छिन ( ० ) लमहा । क्षणद-संज्ञा, पु० (सं० ) जल, ज्योतिषी, -- .. ' - ग० भट्ट । कोयला, कोइला - ". के० ६० । क्षम्य, क्षमा करने Page #522 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org क्षणभंगु क्षणभंगुर ५११ रतौंधिया । स्त्री० क्षणदा (सं० ) रात्रि, निशा । यौ० क्षणदाकार - संज्ञा, पु० ( सं० ) चन्द्रमा । यौ० क्षणदांध( वि० ) उल्लू, रतौंधिया । क्षणद्युतिसंज्ञा, स्त्री० यौ० (सं० ) बिजली, क्षणप्रभा । क्षणध्वंसी - वि० सं० ) after स्थायी | क्षणभंगु क्षणभंगुर - वि० (सं० यौ० ) शीघ्र या क्षण में ही नष्ट होने वाला, अनित्य, 'कहै ' पदमाकर ' बिचारु छनभङ्गुर रे ।" "तदपि तत्क्षणभंगु करोति"" क्षणप्रति अ० (सं० ) सतत, अनवरत । क्षणरुचि संज्ञा, स्त्री० (सं० ) बिजली, 66... प्रकाश । 1 क्षणिक - वि० (सं० ) क्षण भर रहने वाला, अनित्य । स्त्री० क्षणिका - बिजली । क्षणिकवाद – संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) संसार में प्रत्येक वस्तु उत्पत्ति से दूसरे क्षण में ही नष्ट हो जाने वाला सिद्धान्त (बौद्ध) वि० संज्ञा, पु० (सं०) क्षणिकवादीबौद्ध | क्षणिनी-संज्ञा स्त्री० ( सं० ) रात, निशा । क्षत - वि० (सं०) क्षत या श्राघात-युक्त, घाव-युक्त | संज्ञा, पु० (सं० ) घाव, व्रण, फोड़ा, मारना, काटना, श्रावात । क्षतज - वि० (सं० ) चल से उत्पन्न, लाल, सुर्ख | संज्ञा, पु० ( सं० ) रक्त, रुधिर, 1. खून, घाव के कारण प्यास । क्षतघ्नी - संज्ञा, स्त्री० (सं० ) लाख, लाह । क्षतयोनि - वि० यौ० (सं०) पुरुष समागमकृता स्त्री । विलो० अक्षतानि - पुरुष - समागम - रहित । क्षतव्रत - वि० (सं० ) नष्ट व्रत | ततवरण -- संज्ञा, पु० ० (सं० ) श्राघातस्थान के चीरने से उत्पन्न घाव | क्षत-विक्षत - वि० यौ० (सं०) घायल, लहूलुहान, चोट खाया हुथा । विक्षत होकर शरीर से बहने लगी रुधिर की धार ” – मैथिली । (6 क्षत Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir क्षपणक क्षता संज्ञा, स्त्री० (सं० ) विवाह से पूर्व पर पुरुष से दूषित सम्बन्ध रखने वाली कन्या ( विलो० - अक्षता ) । क्षताशौच - संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) घायल होने से लगने वाला अशौच । क्षति ) हानि, क्षय, नाश | छति (दे० ) खति (दे० ) । "काछति लाहु जीर्न धनु तोरे - " रामा० । क्षता -- संज्ञा, पु० (सं० ) सारथि, दरबान, मछली, दासी-पुत्र, नियोग करने वाला पुरुष । संज्ञा, स्त्री० (सं० क्षेत्र - संज्ञा, पु० (सं० ) बल, राष्ट्र, धन, जल, देह, क्षत्रिय, छत्र (दे० ) | क्षत्र-कर्म-संज्ञा, पु०या० (सं० ) क्षत्रियोचित कर्म । क्षत्र- धर्म -- संज्ञा, पु० (सं० ) क्षत्रियों का धर्म अध्ययन ( शस्त्रास्त्र - विद्या वेदादि का ) दान, यज्ञ, प्रजापालनादि । क्षत्रप - संज्ञा, पु० (सं० या पु० [फा० ) ईरान के प्राचीन मांडलिक राजाओं की उपाधि जिसे भारत के शक राजाओं ने ग्रहण किया था राष्ट्रपालक । क्षत्रपति - संज्ञा, पु० (सं० ) राजा, क्षत्रधारी, छत्रपति (दे० ) । तत्रबन्धु- संज्ञा, पु० क्षत्रिय | ० (सं० ) निन्दित क्षत्रयोग - संज्ञा, पु० येो० (सं० ) एक प्रकार का राज योग ( ज्यो० ) । क्षत्रवेद - संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) धनुर्वेद | क्षत्रान्तक - संज्ञा पु० ० (सं० ) परशुराम । क्षत्रिय - संज्ञा, पु० (सं० ) ब्रह्मा की बाहु से उत्पन्न वर्ण विशेष, चार वर्णों में से दूसरा, क्षत्री, छत्री (दे० ) । इस वर्ण का मुख्य कार्य देश का शासन, पालन, एवं संरक्षण करना है, राजा । स्त्री० क्षत्रिया, त्राणो | (हि०) क्षत्रिन, छत्रिन (दे० ) । क्षपणक संज्ञा, पु० (सं० ) नङ्गा रहने For Private and Personal Use Only Page #523 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir RBE क्षपा ५१२ वाला यती ( जैन ) दिगम्बर, नागा, बौद्ध क्षमितव्य-वि० (सं० ) क्षेतव्य, क्षमा संन्यासी, राजा विक्रमादित्य की सभा के । __ करने योग्य । ६ रत्नों में से दूसरे ( ६ वीं सदी ई.) क्षमिता--वि० (सं.) सहिष्णु, क्षमाशील । वि० (सं० ) निर्लज्ज, उन्मत्त । तमी-- वि० ( सं० क्षमा + ई---प्रत्य० ) क्षपा-संज्ञा, स्त्री. (सं०) रात, निशा, क्षमाशील। वि० (सं० क्षम) सशक्त, छपा ( दे०) हलदी। “क्षपानाथ लीन्हें समर्थ । छमी (दे०) । “सुर अति छमी रहे क्षत्र जाको" 'के० '... "दिनक्षपा मध्य असुर अति कोही"-सूर० । गतेव संध्या"-रघु० ।। क्षम्य ... वि. (सं० ) क्षमा करने के योग्य । क्षपाकर- संज्ञा, पु. ( स० ) चन्द्रमा, क्षय--संज्ञा, पु० (सं०) धीरे धीरे घटना, कपूर, क्षपेश, पानाथ, क्षपापति । हास, अपचय, कल्पांत, नाश, प्रलय, घर, क्षपाचर -- संज्ञा, पु. (सं०) निशाचर, यघमा रोग, क्षयी, अंत, समाप्ति, दो रानस । स्त्री० क्षपाचरी। संक्रांतियों वाला एक मास जिपके तीन क्षपानाथ-संज्ञा, पु. यो० (सं०) चन्द्रमा। मास पूर्व और पीछे एक एक अधिक मात्र क्षपान्त-संज्ञा, पु. यो० (सं० ) सबेरा पड़ता है ( ज्यो०), ६० संवत्सरों में से प्रभात । "क्षपान्त का लीन रुपेश की प्रभा' अंतिम । यौः क्षयकाल प्रलय । क्षय--सरस । कास-यमा रोग, क्षत्थु संज्ञा, पु. क्षम --- वि० सं० ) सशक्त, योग्य, समर्थ, (सं०) खाँसी। जयपत--संज्ञा, यौ० पु० उपयुक्त । संज्ञा, पु० (सं०) शक्ति, बल। (सं० ) कृष्ण पक्ष, क्षयपन--संज्ञा, पु. संज्ञा, स्त्री० क्षमता योग्यता, सामर्थ ।। (यो०) मलमाल । क्षमणीय- वि० ( सं० क्षम+अनोयर ) क्षयिष्णु-वि० (सं० क्षय । इष्णुच् ) नष्ट क्षमा के योग्य । होने वाला। क्षमना छाना-स० कि० ( दे०) क्षमा क्षयी वि० (सं० ) क्षय या नष्ट होने करना, मुश्राफ़ करना। 'छमिसबकरिहहि" वाला, यक्ष्मा का रोगी । संज्ञा, पु० (सं० ) -रामा०। चन्द्रमा । संज्ञा, स्त्री० (सं० १०) तपेदिक, क्षमा--संज्ञा, स्त्री० (सं० ) सहिष्णुता, यघमा का रोग जिसमें कम से फेफड़ा सड़ सहन-शक्ति, शांति, सुश्राफी, अन्यकृत जाता, ज्वर रहता और शरीर धीरे धीरे दुख, दोषादि को सह लेने की चित्त-वृत्ति, जल जाता है। पृथ्वी, एक की संख्या, दक्ष की कन्या, क्षय्य-वि० सं०, क्षय होने के योग्य । दुर्गा, रात्रि, कृपा, १३ वर्णो का एक क्षर-वि० (सं०) नाशवान । संज्ञा, पु० वर्णवृत्त, राधिकाकीसखी छिमा (०)। संज्ञा, स्त्री० क्षमाई-क्षमा करनेकी क्रिया छमता सं०) जल मेव, जीवात्मा, शरीर, अज्ञान । तरण --- संज्ञा, पु० (सं० ) रम रम कर (दे०)। स० कि० (दे०) क्षमाना-छमाना चूना, रसना, झरना, नाश होना, छूटना, मुश्राफ करना । छमावना (दे०) । " निज स्राव होना। अपराध छमावन करहू "-रामा० । तांत--वि० (सं० ) समाशील, सहनशील । क्षमालु-वि. (सं०) क्षमाशील । क्षमावान--वि. पु. ( सं०) क्षमा करने तांति-संज्ञा, स्त्री. (सं.) क्षमा सहन वाला, सहनशील । स्त्री० क्षमावती। शीलता, सहिःणुता ।। क्षमाशील-वि. पु. ( सं० ) क्षमावान्, क्षात्र-वि० (सं० ) क्षत्रिय-सम्बन्धी। संज्ञा, शांत प्रकृति का छमावन्त दे०)। पु० (सं० ) क्षत्रियत्व, क्षत्रियपन । For Private and Personal Use Only Page #524 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५१३ नाम क्षीरसागर ताम–वि० (सं०) क्षीण. कृश,, दुबला।। क्षितीश्वर--संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) महीश, स्त्री. तामा। यौ० तामकठ- वि० राजा । सूखा कंठ, मंद स्वर । दामोदरी-पतली क्षिप्त-वि० (सं० ) फेंका हुआ, विकीर्ण, कमर वालो (स्त्री०) अल्प, कमज़ोर । त्यक्त, अवज्ञात, अपमानित, पतित, बात. क्षार---संज्ञा, पु० (सं० ) दाहक, जारक, रोग-प्रस्त, चंचल, उचटा हुआ । संज्ञा, पु. या विस्फोटक औषधियों को जला कर ! (सं.) चित्त की ५ अवस्थाओं में से या खनिज पदार्थों को पानी में घोल कर | एक (योग)। रसायनिक क्रिया से साफ़ करके बनाया क्षिप्र–क्रि. वि. (सं०) शीघ्र, जल्दी, हुया नमक, खार, भस्म, नमक, सज्जी, तुरन्त । वि० ( सं० ) तेज़, जल्द । शोरा, सुहागा, राख, समुद्री लवण, काँच, तिप्रहस्त-वि० या० (सं०) शीघ्र काम गुड़ । वि० (सं० ) खारा, क्षरणशील । करने वाला। क्षारपत्र--संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) बथुश्रा क्षीण-वि० ( सं० ) दुबला-पतला, सूचम, का शाक। क्षयशील, छीन (दे०)। घटा हुआ। क्षारभूमि -- संज्ञा, स्त्री० यो० (सं० ) खारी, यौ० संज्ञा, पु. (सं०) क्षीगा चन्द्रऊपर भूमि। कृष्णपक्ष की ८ मी से शुक्ल पक्ष की ८ मी क्षारमृत्तिका-संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) | तक का चन्द्रमा । खारी, लोना मिट्टी। क्षीणता-संज्ञा, स्त्री. (सं० ) निर्बलता, क्षारलवण-संज्ञा, पु० यौ० ( सं० ) खारी, दुर्बलता, सूचमता। नमक। क्षारश्रेष्ठ --संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) ढाक, तीर-संज्ञा, पु० (सं० ) दूध, पय, छीर पलास वृक्ष । (दे०) " - धीर श्राकछीर हू न धारैक्षारसिंधु-संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) लवण । धसकत हैं "-ऊ० श० । यौ० क्षीरसार समुद्र। --मक्खन । क्षीरकंठ-संज्ञा, पु० ( सं०) क्षालन-संज्ञा, पु० (सं० ) प्रक्षालन, धोना, दुधमुहा बच्चा। तीरपाक-खूब औटाया स्वच्छ करना। हुधा दूध या दूध में पकाया हुआ। संज्ञा, क्षिति-संज्ञा, स्त्री. (सं०) पृथ्वी, वास- पु० (सं० ) द्रव पदार्थ, जल, पेड़ों का स्थान, गोरोचन, क्षय, प्रलय काल । रस या दूध खीर, छोर (दे०)। क्षितिज--संज्ञा, पु. (सं० ) मंगल ग्रह, तीर-काकोली-संज्ञा, स्त्री. ( सं० ) नरकासुर, केचुया, वृक्ष, वह तिर्यग् वृत अष्टवर्ग की काकोली जड़ी। जिसकी दूरी अाकाश के मध्य से १० अंश क्षीरघृत-संज्ञा, पु० (सं० ) मक्खन । पर हो, ( खगोल ) दृष्टि की पहुँच पर वह क्षीरज संज्ञा, पु. (सं० ) चन्द्रमा, कमल, वृत्ताकार घेरा जहाँ पृथ्वी और आकाश शंख, दही । स्त्री० क्षीरजा लक्ष्मी, दोनों मिले हुए जान पड़ें । धातु, उपधातु, कमला। पृथ्वी से उत्पन्न पदार्थ, भौमासुर । छितिज क्षारधि-संज्ञा, पु० (सं० ) समुद्र, क्षीर | सागर । तीरनिधि, क्षीर समुद्र।। तिति मंडन-संज्ञा, पु. यौ० ( सं० ) तीर व्रत-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) पयाहार, ब्रह्मा, श्रादर्श पुरुष । केवल दूध पीकर रहने का व्रत । तितीश-संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) क्षिति- तीरसागर--संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) दूध पाल, नितिनाथ, राजा। | का समुद्र ( पुराण )। भा० श० को०-६५ For Private and Personal Use Only Page #525 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir क्षीरिणी ५१४ क्षेत्रफल तीरिणी-संज्ञा, स्त्री० (सं० ) काकोली, | तुभित-वि० (सं० ) क्षुब्ध । खीरनी (दे०)। | तुर-संज्ञा, पु. (सं०) छुरा, उस्तरा, तीरोद-संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) क्षीर- पशुओं के खुर, पूँज। सागर। यौ० क्षीरोदतनया-लक्ष्मी। तुरक-संज्ञा, पु० (सं० ) गोखरू । तुरागा-वि० (सं०) अभ्यस्त, दलित, तुरधार-संज्ञा, पु. (सं०) एक नरक, खंडित, संतापित। एक वाण । नुत् - संज्ञा, स्रो० (सं० ) भूख, क्षुधा, । तुरप्र-संज्ञा, पु. ( सं० ) एक प्रकार "तुत्पिपासा न ते राम"---वा० । यो । का वाण, खुरपा। क्षुत्पिपासा-भूख-प्यास । तुरिका-संज्ञा, स्त्री० (सं० ) छुरी, चाकू, तुद्र-वि० ( सं० ) कृपण, अधम, एक यजुर्वेदीय उपनिषद, पालकी का शाक । अल्प, क्रूर, खोटा, दरिद्र । संज्ञा, पु० (सं०) तुरी-संज्ञा, पु० (सं० चुरिन् ) नाई, खुर चावल के कण । वाले पशु । संज्ञा, स्त्री. (सं०) चाकू, तुद्रघंटिका-संज्ञा, स्त्री० यौ० ( सं० ) छूरी । स्त्री० चरिनी। घुघरूदार करधनी, पूँघरू। तुल्लक-संज्ञा, पु० (सं० ) कौड़ी, नीच, तुद्रता संज्ञा, स्त्री० (सं० ) नीचता, अोछा- क्षुद्र, तुच्छ । पन, टुच्चा। क्षेत्र-संज्ञा, पु. (सं०) खेत, समतल तुद्रप्रकृति--वि० यौ० (सं० ) नीच प्रकृति __ भूमि, स्थान, उत्पत्ति-स्थान, प्रदेश, तीर्थ । या स्वभाव का। स्त्री, शरीर, अंतःकरण, रेखाओं से घिरा तुद्रबुद्धि-वि० यौ० (सं० ) नीच बुद्धि- हुश्रा स्थान, द्रव्य, प्रकृति, गृह, नगर । वाला, मूर्ख । क्षेत्र-गणित-संज्ञा, स्त्री. यो० (सं०) तुद्रा-संज्ञा, स्त्री० (सं० ) वेश्या, अमलोनी, __ क्षेत्रों के नापने, क्षेत्रफलादि निकालने की लोनी, मधुमक्खी, जटामांसी, बालछड़, विधि बताने वाला गणित । कौडियाला, हिचकी, " तुद्रायवानी-सहितो | क्षेत्रज-वि० ( सं० ) खेत से उत्पन्न । संज्ञा, कषायः "-वै० जी०। पु. (सं० ) निस्सन्तान विधवा ( या तुद्रावली-संज्ञा, स्त्री० यौ० ( सं० ) क्षुद्र- असमर्थ पति-युक्ता ) के गर्भ से अन्य पुरुषघंटिका, घुघरूदार करधनी। द्वारा उत्पन्न सन्तान । तुद्राशय-वि• यो० (सं० ) नीच प्रकृति, क्षेत्रज्ञ--संज्ञा, पु. (सं० ) जीवात्मा, परकमीना, महाशय का विलोम । मात्मा, किसान । वि० (सं०) जानकार, तुधा : संज्ञा, स्त्री. (सं० ) भोजन करने | ज्ञाता। की इच्छा, भूख । वि० तुधालु-भुक्खड़ । क्षेत्र-देव- संज्ञा, पु० यो० ( सं० ) खेत के तुधातुर-वि० यौ० ( सं० ) भूखा, देवता । तुधित, सुधावन्त, तुधावान । क्षेत्रपाल---संज्ञा, पु० (सं० ) खेत का क्षुधित-वि० (सं०) भूखा, बुभुक्षित । रखवाला, एक प्रकार के भैरव, द्वारपाल, नुधालु-वि० (सं०)। प्रधान-प्रबन्ध-कर्ता। तुप-संज्ञा, पु. (सं० ) छोटी डालियों क्षेत्र-पति—संज्ञा, पु० यौ० (सं०) खेतिहर, वाला वृक्ष, पौधा रतिबंध, श्रीकृष्ण-सुत । । जीव, ईश्वर । तुब्ध-वि० (सं० ) चञ्चल, अधीर, व्याकुल, क्षेत्रफल-संज्ञा, पु. यो० (सं० ) किसी भयभीत, कुपित, क्रुद्ध । | खेत का वर्गात्मक परिमाण, रकबा । For Private and Personal Use Only Page #526 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - क्षेत्रविद् क्ष्वेड क्षेत्रविद-संज्ञा, पु० (सं०) जीवात्मा, कृषि- क्षितिग । संज्ञा, पु० (सं० ) मंगल ग्रह । शास्त्र-विशारद। यौ० क्षोणि-देव-(सं० ) ब्राह्मण । क्षेत्राजीव-संज्ञा, पु० (सं० ) कृषक । क्षोणिप-संज्ञा, पु. ( सं० ) राजा । क्षेत्राधिपति-संज्ञा, पु. यौ० (सं० ) छोनिप-(दे० )। खेत का देवता, मेघ, बारह राशियों के | क्षोणी-संज्ञा, स्त्री० (सं० ) छोनी (दे०) स्वामी, ज़मीदार। पृथ्वी । यो० क्षोणीपति--(सं० ) राजा क्षेत्री-संज्ञा, पु० (सं० ) खेत का मालिक, ... छोनी में के छोनीपसि." कवि० । नियुक्ता स्त्री का विवाहित पति, स्वामी। क्षोद-संज्ञा, पु०( सं० ) बुकनी, चूर्ण । क्षेप-संज्ञा, पु. ( सं०) फेंकना, ठोकर, क्षोभ-संज्ञा, पु० (सं० ) विचलता, घबत्याग, घात, अक्षांश, शर, निंदा, दूरी, राहट, भय, रज, शोक, क्रोध वि० तुब्ध, बिताना-जैसे---काल-क्षेप। क्षुभित- छोभ (दे०)। " तजिय छोभ क्षेपक-वि० (सं० ) फेंकने वाला, । जनि छॉड़िय छोहू" . रामा० ।। मिलाया हुआ, निंदनीय, मिश्रित, अशुद्ध क्षोभण-वि० (सं०) क्षोभित करने वाला। भाग। संज्ञा, पु० (सं० ) ऊपर या पीछे से | | संज्ञा, पु० (सं०) काम के ५ बाणों में से एक। मिलाया हुआ अंश । क्षेपण-संज्ञा, पु० (सं०) फेंकना, गिराना, क्षोभित-वि० दे० (सं० क्षोभ ) छोभित बिताना, निंदा। (दे०) व्याकुल, चलायमान, भयभीत, क्षेपणी-संज्ञा, स्त्री० ( सं० ) नाव का डंडा , गुस्सा। क्षोभी-वि० (सं० क्षोभिन्) व्याकुल, चञ्चल या बल्ली। क्षेमकरी--संज्ञा, स्त्री० (सं० ) सफ़ेद गले क्षौणि-क्षौणी-संज्ञा स्त्री० (सं० ) क्षोणी, | पृथ्वी, एक की संख्या। की एक चील, एक देवी, कुशल करने वाली, क्षेमकरी, छेमकरी (दे०)। 'छेमकरी क्षौद्र-संज्ञा, पु० (सं० ) तुद्र का भाव, कह छेम बिसेषी"-रामा० । क्षुद्रता, छोटी मक्खी का मधु, जल, धूल, चम्पावृक्ष, वर्णसङ्कर ".....'मदासारिवोद्रजा क्षेम-संज्ञा, पु. ( सं० ) सुरक्षा, प्राप्तवस्तु बौद्युक्ता "-वै० जी० । वि० क्षौद्रग की रक्षा । यौ० संज्ञा, पु० (सं० ) योग मधु से उत्पन्न पदार्थ । क्षेम-कुशल-मंगल, अभ्युदय, सुख, मुक्ति, क्षौम-संज्ञा पु० (सं०) सन आदि से बना धर्मशासन से उत्पन्न पुत्र । यौ० वि० (सं.)। वस्त्र, अंडी, कपड़ा, अटारी के ऊपर का क्षेमकृत-मंगलकर्ता । क्षेमकर-संज्ञा, कोठा। पु० (सं.) मंगलकर । या० संज्ञा, पु० पु° | सौर-संज्ञा, पु. ( सं० ) हजामत, मुंडन, ( सं०) क्षेम-कुशल--आनंद-मंगल । । बाल बनवाना। क्षेमेंद्र-संज्ञा, पु० ( सं० ) काश्मीर निवासी तौरक-ौरिक-संज्ञा, पु० (सं० ) नाई, ( ११ वीं शताब्दी) संस्कृत के एक विद्वान् नापित, हज्जाम । कवि, इनके २६ या ३० ग्रंथ हैं। क्ष्मा--संज्ञा, स्त्री० (सं० ) पृथ्वी, एक की क्षण्य --संज्ञा, पु० (सं०) क्षीण का भाव, | संख्या । यौ० माभुक-राजा, माक्षीणता। | भृत-राजा, पर्वत । क्षोणि-संज्ञा, स्त्री० (सं० ) पृथ्वी, एक क्ष्वेड-संज्ञा पु० (सं०) अव्यक्त शब्द, की संख्या। वि० क्षणिग-( सं० ) | विष, ध्वनि । वि० (सं०) छिछोरा, कपटी। For Private and Personal Use Only Page #527 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir खंडना ख-हिन्दी और संस्कृत की वर्ण-माला में स्पर्श खंजन ) खंजन पती । संज्ञा, स्त्री० खंजता । व्यञ्जनों के अंतर्गत कवर्ग का दूसरा अक्षर। खंजड़ी-संज्ञा, स्त्री० ( दे० ) खंजरी। खं-संज्ञा, पु. ( सं० खन् ) शून्य स्थान, बंजन--संज्ञा, पु. (सं० ) शरत् से शीत बिल, छिद्र, आकाश, निकलने का मार्ग, काल तक दिखाई देने वाला एक प्रसिद्ध इंद्रिय, विन्दु, शून्य, स्वर्ग, सुख, ब्रह्मा, पक्षी, खंडरिच, ममोला, खञ्जन के रंग का मोक्ष । घोड़ा । 'खान मंजु तिरेछे नैननि" खंख-वि० दे० (सं० कंक) ठूछा, उजाड़, __- रामा० । वीरान । खंखर-(दे०)। खंजर - संज्ञा, पु० (का० ) कटार । बँखरा-संज्ञा, पु. ( दे. ) चावल आदि खंजरी--संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० खंजरीट --- के पकाने का एक ताँबे का डेग। वि० एक ताल ) डफली सा एक बाजा। संज्ञा (दे०) छेददार, झीना। स्त्री० ( फा० खंजर ) धारीदार कपड़ा, खखार-संज्ञा, पु० (दे०) खखार । लहरियादार धारी। खंग-संज्ञा, पु० दे० (सं० खङ) तलवार, खंजरीट---संज्ञा, पु. ( सं० ) ममोला, गैंडा। खञ्जन । ....... खेलत खरीट चटकारे" बँगना-अ० कि० दे० (सं० क्षय) कम -सू० । खंजा-संज्ञा, स्त्री० (सं० ) एक वर्धि सम होना, घट जाना। खंगर-संज्ञा, पु. ( प्रान्ती० ) झामा, लोहे वृत्त । इसमें अंत लघु-युक्त २८ वर्ण सम चरणों में और अंत गुरु युक्त ३१ वर्ण का मैल । विषम में होते हैं। बँगारना-खंगालना-स० क्रि० (दे०) ° क्रि० (६०) खंड-संज्ञा, पु० (सं० ) भाग, टुकड़ा, देश, पीने से यों ही साफ़ करना, खाली करना। वर्ष, नौ की संख्या, समीकरण की एक खंघारना-(दे० प्रान्ती०)। क्रिया (गणि० ) काला नमक, दिशा, खगहा-वि० ( दे० खाँग+ हार प्रत्य०) खाँड, चीनी, अध्याय । वि० खंडित, अपूर्ण, निकले हुए दाँत वाला। संज्ञा, पु० गैंड़ा। लघु, छोटा । संज्ञा, पु० (सं० खड़) खाँडा। खंगी-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. बँगना) यौ० संज्ञा, स्त्री० (सं.) मंत्री या ब्राह्मण कमी, घटी। नायक तथा चार प्रकार की विरह के वर्णन खंगैल-वि० (दे०) बड़े दाँत वाला। से यक्त कथा, जिसमें करुण रस प्रधान बँचना-अ० क्रि० (हि. खांचना ) चिह्नित रहता है, और कथा पूरी नहीं रहती। होना, निशान पड़ना। खंड-काव्य-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) छोटा बँचाना-स० कि० (हि. खाँचना अंकित कथात्मक, प्रबन्ध काव्य, जिसमें काव्य के करना, चिन्ह बनाना, खींचना, जल्दी जल्दी समस्त लक्षण न हों, जैसे -- मेघदूत । लिखना । " रेख बँचाइ कहौं बल भाषी" | | खंडन-संज्ञा पु० (सं० ) तोड़ना, भंजन, . -रामा०। छेदना, किसी बात को अयथार्थ प्रमाणित बँचिया-संज्ञा, स्त्री. ( दे० ) खाँची, करना, ( विलो०-मंडन )। टोकरी । खचिया (दे०)। खंडना*-स० कि० दे० (सं० खंडन ) खंज-संज्ञा, पु० (सं० ) पैर जकड़ जाने टुकड़े टुकड़े करना, तोड़ना, बात काटना, का रोग, लँगड़ा, पंगु । संज्ञा, पु. (सं० । खण्डन करना। For Private and Personal Use Only Page #528 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - वाला। खंडनी ५१७ खंडनी-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० खंडन ) । निहारि। दुखित होय सो खण्डिता, बरनत मालगुजारी की किस्त, कर। | सुकवि विचारि"--रस० । खंडनीय-वि० ( सं० ) खण्डन करने के खंडिया---संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० खंड) योग्य, जो अयुक्त ठहराया जा सके। ___ छोटा टुकड़ा। खंडपरशु-- संज्ञा, पु. ( सं० ) महादेव, संडौरा-संहा, पु० (हि. खाँड । गौरा विगु, परशुराम, “ खण्डपरशु को सोभिजै .--प्रत्य०) मिश्री का लड्डु, या श्रोला। सभा-मध्य कोदंड "..-राम। खंतरा--- संज्ञा, पु० दे० ( सं० कोन्तार, हि. सं री खंडपुरी-संज्ञा, स्त्रो० ( हि० अंतरा ) दरार, कोना, तरा. छोटा गड्ढा। खाँड + पूरी) एक भरो हुई मीठी पूड़ी नंगा---संज्ञा पु.. दे० ( सं० खन्नित्र) कुदाल, घडवलय ---संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) एक । फाड़वा । स्त्री. संती। चतुर्यगी के बाद की प्रलय । खंदक ---संज्ञा, स्त्री० । अ० ) शहर या किले वडवरा--संज्ञा, पु० यौ० ( हि० खाँड । के चारों ओर की खाँई, बड़ा गड्ढा । बरा ) मीठा बरा। चंदा * --- संज्ञा, पु० ( हि० खनना ) खोदने खंडमरु-संज्ञा, पु० यो० सं० ) पिंगल में एक क्रिया। सैंधवाना-स० क्रि० (हि. खाली ) खाली खंडरना-स० क्रि० ( दे०) खण्डित करना, करना। • ताहि सिय-पूत तिल तल सम खण्डरै " संधार*----संज्ञा. पु० दे० (सं० स्कन्धावार ) -राम। छावनी, तंबू, खेरा खेमा । संज्ञा, पु. ( सं० खंडरा----संज्ञा, पु० दे० (सं० खंड । रा-- खंडपाल) राजा, सामंत, सरदार । हि० ) बेसन का एक चौकोर बरा। मसँधियाना-स. क्रि० दे० (हि० खाली) सारच --संज्ञा, पु० दे० ( स० खंजरीट ) | बाहर निकालना, ख़ाली करना। खञ्जन पक्षी। जन्नर-भा- संज्ञा पु० दे० (सं० स्कंभ, खंडवानी----संज्ञा, स्त्री० (हि. खाँड --- पान।) स्तंभ ) स्तम्भ, पत्थर ईंट या लकड़ी आदि खाँड का रस, शरबत, कन्या पक्ष की ओर i का लम्बा, खड़ा टुकड़ा जिपके आधार पर से बरातियों को जल-पान या शरबत भेजने छत या छाजन रहती है बड़ी लाट, सहारा, की क्रिया, मिरचवान (प्रान्ती०) । '' पानी प्रधान । स्त्री० अल्पा० भिया । देहिं खंडवानी कुवहिं खाँनु बहु मेलि” । नार—संज्ञा. पु० दे० (सं० नोभ प्रा० खाभ ) अंदेशा, घबराहट, डर, शोक, संडसाल -संज्ञा, स्त्री० (सं० खंड -शाला) “फिरहु तो सब कर मिटइ खंभारू" खाँड या शक्कर बनाने का कारवाना। -रामा०। खंडहर-संज्ञ', पु० । सं० खंड + घर - सँसना-अ. कि० (दे० ) खसकना, हि० ) टूटे-फूटे, वा गिरे हुए मकान का गिरना, “ सुरपुर ते जनु खसेउ जजाती" बचा हुअा हिस्सा। -रामा० । खंडित-- वि० सं०) टूटा हुआ, भङ्ग, अपूर्ण। ख ---संज्ञा, पु. ( सं० ) गड्ढा, गर्त, निर्गम, खंडिता--संज्ञा, स्त्री. ( सं० ) जिपका निकाल, छेद, बिल, इन्द्रिय, गले की प्राणनायक रात को किसी अन्य नायिका के वायु वाली नली, कुंआ, आकाश, स्वर्ग, पास रहकर सबेरे श्रावे ( नायिका० । तीर का घाव, मुख, कर्म, बिन्दु, ब्रह्म, " पति-तन औरी नारि के, रति के चिन्ह | शब्द, सुख, आनन्द । For Private and Personal Use Only Page #529 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir खई ५१८ खजाना-खजीना खई-संज्ञा, स्त्रो० (सं० क्षयी ) क्षय, लड़ाई, खग्ग---संज्ञा, पु० दे० (सं० खड़) तलवार । झगड़ा । " सुत-सनेह तिय सफल कुटम खनास-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) सूर्य या चन्द्र मिलि निस-दिन होत खई"-सूर। के समस्त मंडल के ढक जाने वाला ग्रहण, खखा-संज्ञा, पु० दे० ( अ० कहकहा ) ज़ोर पूर्ण ग्रहण। की हंसी, अट्टहास, अनुभवी पुरुष, बड़ा, खचन-संज्ञा, पु. (सं० ) बाँधने, जड़ने ऊँचा हाथी खक्खा (दे०)। या अंकित करने की क्रिया। खखार -संज्ञा, पु. ( अनु० ) गाढ़ा थूक या खचना -अ० कि दे. (सं० खचन ) जड़ा कफ़, खखारने की क्रिया। जाना, अंकित होना, रम या अड़ जाना, खखारना-अ० क्रि० (अनु० ) थूक या अटक रहना, फँसना। स० कि० जड़ना, का के बाहर निकालने के लिए शब्द- अंकित करना, बनाना। सहित वायु का गले से बाहर फेंकना। खचाना-स० कि० (दे०) त्रींचना, अंकित खखेरना -स० क्रि० दे० (सं० आखेट) करना, शीघ्र लिखना । दबाना, भगाना, घायल करना, पीछा मुहा०—अपनी खचाना-अपने ही पर करना, छेदना, व्याकुल करना । ज़ोर देना। खखेटा-संज्ञा, पु० (दे० ) छिद्र, शंका, | खचर-संज्ञा, पु० (सं० ) सूर्य, मेघ, ग्रह, खटका। नक्षत्र, वायु, पक्षी, वाण । वि०-पाकाश. खखारना-प्र० क्रि० ( दे० ) खोदना, कोई गामी -- संज्ञा, पु० राक्षस, कसीस । वस्तु ढूंढना। खचरा-वि० दे० (हि. खचर ) दोगला, खग-संज्ञा, पु० (सं० ) आकाशचारा, वर्णशङ्कर, दुष्ट, पाजी, कूड़ा करकट । पक्षी, गंधर्व,वाण, ग्रह, तारा, बादल; देवता, खचाखच-क्रि० वि० ( अनु० ) बहुत भरा सूर्य, चन्द्रमा, वायु । “खग जाने खग ही हुआ, ठसाठस । की भाषा"-रामा० । यो० खगकेतुविष्णु, खगनायक-सूर्य, गरुड़। खचित--वि० (सं० ) चित्रित, लिखित, निर्मित, गड़ा हुआ। खगना --अ० क्रि० ( हि० खाँग = काँटा ) खचीना---संज्ञा, स्त्री० . दे०) लकीर, रेखा । चुभना, धंसना, लगजाना, लिप्त होना, खच्चर- संज्ञा, पु० (दे०) गधे और घोड़ी उपट पाना, अटक या अड़ जाना, चित्त में के संयोग से उत्पन्न एक पशु । बैठना, प्रभाव पड़ना, “न सुगन्ध-सनेह के ख्याल खगी "-दास । “ तेहि खेत | खज-वि० (सं० खाद्य, प्रा० खाजा ) खाने खगिय सूरज बली”–सूजा। खगनाथ-खगनायक, खगपति - संज्ञा, पु० | खजरा-वि० (दे० ) मिलावटी, बँडेरी, मगरा। यौ० (सं०) सूर्य, गरुड़, खगेश-खगेंद्रचन्द्रमा । खजला-संज्ञा, पु. ( दे०) खाजा । खगहा-संज्ञा, पु० (दे०) गैंडा। खजहजा—संज्ञा, पु० (दे०) (सं० खाद्याद्य) खगेश-संज्ञा, पु० यौ० ( सं० ) गरुड़, । खाने के योग्य फल या मेवा । सूर्य, चन्द्र । खज़ानची संज्ञा, पु. ( फा० ) खज़ाने का खगोल-संज्ञा, पु० (सं० ) श्राकाश मंडल, मालिक, कोशाध्यक्ष । खगोल विद्या । यौ० खगोलविद्या --- | खज़ाना-खजीना-संज्ञा, पु० ( फा० ) धन नभ के नक्षत्र-ग्रहादि के ज्ञान प्राप्त करने या अन्य पदार्थो के संग्रह का स्थान, धनाकी विद्या, ज्योतिष। गार, राजस्व, कर, कोश, भंडार । योग्य, भच्य। For Private and Personal Use Only Page #530 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir खजुश्रा-खजुवा खटाई खजुआ-खजुवा–संज्ञा, पु० (दे०) खाना की) चिड़ियों के उड़ाने का पेड़ में बँधा मिठाई। हुश्रा काठ का टुकड़ा। खजुरा -संज्ञा, पु० दे० (हि. खजूर ) खटकाना--स० कि० (हि. खटकना ) खटसिर की चोटी गूंधने की डोरी (नियों की) खट शब्द करना, ठोंकना, हिलाना, बजाना, खजुरी-खजुली -संज्ञा, स्त्री. ( दे० ) शंका उत्पन्न करना । प्रे० कि० खटकवाना। खुजली । संज्ञा, स्त्री. ( हि० खाजा ) खाजे खटकोरा-खटकीड़ा-संज्ञा, पु० यौ०(हि.) की सी एक मिठाई। खटमल। खजूर—संज्ञा, पु० स्त्री० दे० (सं० खर्जर ) खटखट-संज्ञा, स्त्री. ( अनु० ) झझट, ताड़ की जाति का एक पेड़ जिसके छोहारे ठोंकने-पीटने का शब्द, झमेला, लड़ाई, जैसे फल खाये जाते हैं, एक मिठाई । स्त्री० खटपट । अल्या०-खजूरी। वि० खजूरी, खजूरिया। खटखटाना-स० क्रि० (अनु०) खड़खड़ाना, खजूरा-खनखनूर संज्ञा, पु० (दे०) गोजर, खटखट करना। एक विषैला कीड़ा। खटना-स० क्रि० ( ? ) धन कमाना, अ. खजूरी-वि० (हि. खजूर) खजूर का, खजूर | क्रि० काम-धंधे में लगना, चलना । सा, तीन लरका गुँथा। खटपट-संज्ञा, स्त्री० (अनु०) अनबन, लड़ाई, खज्योति-संज्ञा, स्त्री० यौ० सं० ) श्राकाश ठोंकने-पीटने आदि का शब्द । का प्रकाश, बिजली। खटपद-संज्ञा, पु० (दे० ) षटपद (सं०) खट-संज्ञा, पु० (दे० अनु० ) दो कड़ी भौंरा। चीजों के टकराने या कड़ी चीज़ के टूटने का खटपाटी--संज्ञा, स्त्री० (हि० खाट - पाटी) शब्द, ठोंकने-पीटने की आवाज़ । संज्ञा, पु० खाट की पाटी, खटवाट । (दे० ) षट् ( सं० ) छः, कफ, कुल्हाड़ी। खटवुना-खरबिनवा---संज्ञा, पु० (हि. खाट संज्ञा, स्त्री०, खाट, घूसा, अंधकूप । +बुनना ) चारपाई प्रादि बुनने वाला। मुहा०--खट से ---चट से, तुरंत, शीघ्र । खटमल-संज्ञा, पु० (हि० खाट । मल-मैल) खटक-संज्ञा स्त्री० (दे० ) खटका, चिंता, | खाट या कुर्सियों में होने वाला एक छोटा खटखटाने का शब्द । लाल कीड़ा। खटकना-अ० क्रि० ( अनु० ) खटखट शब्द खटमिट्टा-वि० ( हि० खट्टा---मिट्ठा ) कुछ होना, टकराने या टूटने का शब्द होना, खट्टा कुछ मीठा । स्त्री० खटभिट्री। रह रह कर दर्द होना, बुरा मालूम होना, खरमुख-संज्ञा पु० (दे०) पटमुख ( सं०)। खलना, विरक्त होना, उचटना, डरना, परस्पर । खटरस-संज्ञा, पु० यौ० (दे०) षट रस झगड़ा होना, अनिष्ट की आशंका होना, | (सं० ) छः स्वाद। ठीक न जान पड़ना, चिंता उत्पन्न करना, | खटराग-संज्ञा, पु० दे० (सं० पट्टाग) गड़ना, चुभना । " खटकत है जिय माहिं अनमेल, झंझट, बखेड़ा, व्यर्थ वस्तुयें, ६राग। कियो जो बिना बिचारे "--गि० । । खटला-संज्ञा, पु. ( दे० ) खाट आदि खटका- संज्ञा, पु० ( हि० खटकना) खटखट वस्तुयें, व्यर्थ का सामान, खाट, शय्या । शब्द, टकराने या पीटने का शब्द, डर, खटहट--वि० (दे० ) बिना बीली (विस्तरआशंका, चिंता, पंच या कमानी, जिसके बिना ) खटिया। दबाने या घुमाने आदि से कोई चीज़ खुले | खटाई-संज्ञा, स्त्री० ( हि० खट्टा ) खट्टापन, या बंद हो, सिटकिनी, या बिल्ली ( किवाड़ | तुरशी, खट्टी चीज़, रंजिश, अनबन । For Private and Personal Use Only Page #531 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - खटाखट खड़मंडल मुहा०—खटाई में डालना-द्विविधा में | खट्टी-संज्ञा, पु० (हि. खट्टा ) खट्टा नीबू, रखना, निर्णय न करना, किसी कार्य के । इमली। काने में विलंब करना । खटाई में पड़ना खट्ट ----संज्ञा, पु० (हि० खाना) कमाने वाला। द्विविधा में डाल रखना। मजूर, चाकर। खटाखट-संज्ञा, पु. ( अनु० ) ठोकने-पीटने | खट्रांग---संज्ञा, पु. यौ० (सं० ) चारपाई श्रादि का लगातार शब्द । कि० वि० खट- का पाया या पाटी, शिव का एक अस्त्र, खट शब्द के साथ, शीघ्र, बिना रुकावट के, प्रायश्चित के समय भिक्षा पात्र, एक मुद्रा बिना डर के। ( तंत्र.) खटाना--अ० क्रि० (हि. खट्टा ) किसी वस्तु खट्टा-संज्ञा, स्त्री. ( सं० ) खटिया. खाट । में खट्टापन श्राना, खट्टा होना, अ० क्रि० खडंजा -- संज्ञा, पु. (हि. खड़ा- अंग ) दे० ( सं० स्कब्ध ) निर्वाह होना, निभना, ईटों की खड़ी चुनाई । ठहरना, जाँच में पूरा होना : वि० स्लटाऊ. खड़क-संज्ञा, स्त्री० ( हि० ) खटक; खटाने वाला, टिकने वाला। सड़कना - अ० क्रि० ( हि० ) खटकना । खापनो---संज्ञा स्त्री० ( दे०) खटपट, अन खड़खड़ा--संज्ञा, पु० ( अनु०) खटखटा, घोड़ों के सधाने का एक काठ का गाड़ीबन, झगड़ा। जैला ढाँचा। खटाव--संज्ञा, पु० ( हि. खटाना ; निर्वाह खड़खड़ाना--- अ० कि०, अनु०) कड़ी गुज़र । वस्तुओं का श्रापस में टकराकर शब्द करना, खटास-संश, पु० (सं० खट्वास ) गंध टकराना । क्रि० स० (हि.) कड़ी वस्तुओं विलाव । स्त्री० (हि० खट्टा) खट्टापन, तुरशी। का टकराना। खटिक-खटीक संज्ञा, पु० (दे० ) खट्टिक खड़खड़िया-संज्ञा, स्त्री० (हि० खड़खड़ाना) (सं०) एक छोटी जाति । स्त्री खटकिन । पालकी, पीनस । खटिया-ज्ञा स्त्री० (हि० वाट ) छोटी खड़गः --संज्ञा, पु० दे० (सं० खड़) तलवार, चारपाई, खोली । “ खटहट खटिया बत वि० ( दे० ) स्त्री० लड़गी। कट जोय"--घाघ । खड़गा--- दे०) ( सं० खड्डी ) तलवार खटेट-खटेहट ---वि० ( हि० खाट एटो वाला । संज्ञा, पु० ( स० खड़) गेंडा। प्रत्य०) बिना बिछौने की । स्व० वटेयो। खड़बड़-संज्ञा, स्त्री० ( अनु०) खट-खट खटोलना-खटोला-संज्ञा, पु. ( हि. शब्द, उलट फेर, हलचल ।। खाट --प्रोला-प्रत्य० ) छोटी बाट। स्त्री० खड़बड़ाना-अ० क्रि० ( अनु० । धबड़ाना, अल्प० खटोली। बेतरतीब होना, त्रि० स० वस्तुओं को खट्टा-वि० दे० (सं० कटु) अम्ल, तुर्श, कच्चे उलट-पलट कर खड़बड़ शब्द करना, उलटनाश्राम या इमली के स्वाद सा । स्त्री० खट्टी। पलटना, घबरा देना । संज्ञा, स्त्री० खड़मुहा०—जो वट्टा होना---अप्रसन्न होना, बड़ाहट -- संज्ञा, स्त्री० बड़बड़ी-व्यतिदिल फिर जाना । संज्ञा, पु० गलगल नामक क्रम, उलट-फेर, हलचल । फल । यौ०-खट्टा-मोठा वि०--खटमिट्ठा, खडबाड-वि० ( दे.) खड़बिड़ा, ऊँचासंज्ञा, पु० भला बुरा । स्त्री० दे० खट्टी-मीठी नीचा, ऊबड़ खबड़। (खादी-मीठी दे० ) बुरी-भली (बात) खडमंडल--संज्ञा, पु. द. ( सं० खंड --- " रहिगे कहत न ग्वाटी-मीठी "- रामा० मंडल ) गड़बड़ । For Private and Personal Use Only Page #532 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir खडसान खदबदाना खड़सान-संज्ञा, पु० (दे०) अस्त्र तेज़ करने खत--संज्ञा, पु० (प्र.) पत्र, लिखावट, का पत्थर । । रेखा, कान के पास के बाल, दाढ़ी के बाल । खड़ा-वि० (सं० खड़क = खंभा, थूनी) खतखोट-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० तत+ ऊपर को सीधा उठा हुआ, दंडायमान, खड्डु-हि.) घाव के ऊपर की पपड़ी, खुरंड । ठहरा (टिका) हुआ, स्थिर, प्रस्तुत, तैय्यार, खतना--संज्ञा, पु० (अ०) सुनत, मुसलमानी। उद्यत, प्रारंभ, स्थापित, निमित, बिना खतम-वि० (अ० खत्म ) पूर्ण, समाप्त । उखाड़ा या काटा हुअा, बिना पका (फ़सल)। मुहा०-खत्म करना--मार डालना। असिद्ध, कच्चा, समूचा, पूरा (खड़ा चना) खतमी-संज्ञा, स्त्री० ( म०) गुलखैरू की मुहा०-खड़े खड़े-तुरंत, शीघ्र जल्दी जाति का एक पौधा।। में । खड़ा जवाब-चटपट किया गया ख़तर-खतरा---संज्ञा, पु. (अ.) डर, इंकार कोरा उत्तर। खड़ा होना-सहायता आशंका, भय ।। देना, ( मार्ग में ) खड़ा होना, विरोध खतरी-संज्ञा, पु० (दे०) एक वैश्य जाति, करना रोकना। खत्री । स्त्री० खतरानी, खत्रानी । खतरेटा खड़ाऊँ-संहा, स्त्री० दे० (हि० काठ+-पाँव (दे० )। या खटखट अनु० ) पादुका, काठ का खुला खता- संज्ञा, पु० ( अ.) कुसूर, अपराध, जूता, खराऊ (दे०)। भूल, ग़लती, धोखा। खड़िया-संज्ञा स्त्री० दे० (सं० खटिका ) खता-संज्ञा, पु. ( दे.) खत, खता। खरिया. खड़ी, एक प्रकार की सफेद मिट्टी। फोड़ा, घाव, अपराध, दोष । खड़ी-संज्ञा स्त्री० (दे० ) खरी, खड़िया। खतावार- वि० ( अ० खता+वार-फा०) वि० स्त्री० खड़ा। दोषी. अपराधी। खड़ीबोली--संज्ञा, स्त्री० यौ० (हि.) दिल्ली खति-संज्ञा, स्त्री० (दे०) क्षति (सं.)। " के पास-पास बोली जाने वाली पश्चिमी | खतियाना--स० कि० (हि.) आय-व्यय, हिन्दी, जिसमें उर्दू और वर्तमान हिंदी गद्य क्रय-विक्रयादि को खाते में अलग अलग लिखा जाता है, चलतू बोली, ठेठ भाषा, दर्ज करना, खाता लिखना। कच्ची ( असस्कृत ) बोली। खतियौनी-खतौनी- संज्ञा, स्त्री. ( हि. खतियाना ) हिसाब की बही, खाता, पटवाखड़वा-संज्ञा, पु. ( दे० ) कड़ा, चूड़ा, रियों का एक रजिस्टर, खतियाने का काम । चुरवा (दे० ) बलय (सं.)। खत्ता--संज्ञा, पु० दे० (सं० खात ) गड्ढा, खड्ग-संज्ञा, पु० (सं०) तलवार, खाँडा, अन्न रखने का बड़ा गहरा स्थान । स्त्री० गैड़ा, चोट, एक जंतु, तांत्रिक मुद्रा विशेष । खत्ती-खों (प्रान्ती०)। वि० खड्गा-खड्गधारी। ख़त्म-संज्ञा, पु. (अ.) ख़तम, समाप्त । खड्ग-पत्र-संज्ञा, पु० यौ० ( 0 ) तलवार | खत्री-संज्ञा, पु० दे० (सं. क्षत्रिय ) के से पत्तों वाला यमपुरी का एक वृक्ष । हिंदुओं में एक वैश्य जाति । स्त्री० खतरानीखड्गी-संज्ञा, पु० (सं० खड़िन ) खड्ग-धारी, खत्रानी। गडा। खदंग-खदंगी-संज्ञा, पु० (दे० ) बाण । खड्ड-खड्ढा -संज्ञा, पु० दे० (सं० खात) | "जबुर कमानै तीर खदंगी-प०।। गड्ढा, अधिक रगड़ से उत्पन्न दाग। खदबदाना-अ. कि. ( अनु० ) उबलने खत-संज्ञा, पु० दे० (सं० क्षत) घाव, जखम। का शब्द । भा० श. को०-६६ For Private and Personal Use Only Page #533 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir खदान खपुर खदान-संज्ञा, स्त्री० (हि. खोदना ) खान, | खनित्र-संज्ञा, पु. ( सं०) खोदने का धातु आदि के निकालने को खोदा अस्त्र, ग्वन्ता (दे०)। गया गढ़ा। खन्ता-संज्ञा, पु० दे० (सं० खनित्र ) खोदने खदिर- संज्ञा, पु० (सं० ) खैर का पेड़, का अस्त्र । स्त्री० खन्ती। कत्था, चन्द्रमा, इन्द्र। खपची-संज्ञा, स्त्री० दे० । तु. कमची) खदेरना - स० कि० (हि० खेदना ) दूर | बाँप की पतली, लचीली तीली, कमची, करना, पीछा करना, खदेड़ना । खपाची, पु. खपांच। खद्दड़-खद्दर-संज्ञा, पु. ( ? ) हाथ के खपटा-संज्ञा, पु० (दे० ) खपरा, ठीकरा । कते सूत का वस्त्र, खादो। खपडा-खपरा-संज्ञा, पु० दे० (सं. खद्योत-संज्ञा, पु० (सं०) जुगनू, पटबीजन, खपर) मकान छाने का मिट्टी का पका हुआ सूर्य । " निलि तम-धन खद्योत विराजा" | पटरे के आकार का टुकड़ा, मिट्टी का भिक्षा-रामा० । पात्र, खप्पर, ठीकरा, कछुए की पीठ का खन*~संज्ञा, पु. (दे०) क्षण (सं०) | कड़ा ढक्कन । समय, तुरन्त, वृत । “खन भीतर खन | खपड़ी-वपरी-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० बाहिर भावति "..--सूबे० । संज्ञा, पु० दे० । खपरं ) नाँद सा मिट्टी का छोटा बरतन, घड़े (सं० खंड ) खण्ड, टुकड़ा। का टूटा हिस्सा, खोपड़ी। खनक-संज्ञा, पु. ( सं० ) खोदने वाला, पडल- परैल-संज्ञा, पु० दे० (हि. चूहा, सेंध लगाने वाला, सेना आदि के खपड़ा+ ऐल-प्रत्य० ) खपरों से छाई हुई निकालने का स्थान, खान, भूतत्व-शास्त्रज्ञ । घर की छत । संज्ञा, स्त्री० ( अनु०) धातु-खंड के टकराने खपत-संज्ञा स्त्री० दे० (हि० खपना) समाई, और बजने का शब्द । ".... तनक तनक गुंजाइश, माल की कटती या बिक्री । तामैं खनक चुरोन की" . देव० । खपती (स्त्री० )। खनकना-अ० क्रि० ( अनु० ) खनखनाना, खपना-अ० कि० दे० (सं० क्षेपण ) किमी धातु खण्डों के टकराने का शब्द । प्रकार व्यय होना, काम में आना, क.ना. खनकाना-स० क्रि० (अनु० ) खनखनाना, चल जाना, निभना, नष्ट होना, तंग होना । खनखन शब्द करना। खनखनाना-अ० क्रि० ( अनु०) खनकना, खपरिया--संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० खरी ) स० कि० ( अनु०) खनकाना । एक भूरा खनिज पदार्थ, दर्विका, रक । खनन—संश, पु० (सं० ) खोदना, गोड़ना, खपार होना । खपांच-संज्ञा, स्त्री० दे० (तु. कमाच) विदारना। खपाच, वपची। स्त्री. खपाचो। खनना* -- स. क्रि० दे. (सं० खनन ) खपाना-स० क्रि० दे० (सं० क्षेपण) खोदना। वि० खननहार । स० कि. काम में लाना, व्यय करना। खनाना-वनवाना (प्रे० कि० )। मुहा०-माथा ( सिर ) खपाना खनि-संज्ञा, स्त्री. (सं.) श्राकर, खान । (खोपड़ी)-सिर पच्ची करना, सोचते पू० कि. खोदकर । “ वह खनि सुखमा सोचते हैरान होना, निर्वाह कराना, की, मंजु हीरा कहाँ है "-प्रि० प्र०।। निभाना, नष्ट या समाप्त करना, तंग करना । खनिज-वि० ( सं० ) खान से निकाला खपुत्रा--वि० (दे० ) डरपोक । हुमा, खानिज । | पुर--संज्ञा, पु० यो० ( स० ) गंधर्व नगर, For Private and Personal Use Only Page #534 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir खपुष्प ५२३ ख़यानत आकाश नगर ( पुरा० ) राजा हरिश्चन्द्र दुःख, " किहेहु न नैसुक हिये खभारा" की नभ नगरी। .- रघु०, डर, व्याकुलता .... " कपि-दल खपुष्प-संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) श्राकाश | भयउ खभार"--रामा०। कुसुम, असंभव बात, अनहोनी घटना।। खम-संज्ञा, पु० (फा० ) टेढ़ापन, वक्रता, खप्पर-संज्ञा, पु० दे० (सं० खर्पर ) तसले झुकाव । मुहा० --खम खाना-मुड़ना, का सा पात्र, भिक्षा-पात्र, खोपड़ी। झुकना। 'तीन ख़म खाता है यों लफज़ कमर मुह०-- खप्पर भरना-खप्पर में मदि- तहरीर में''-- दबाना, हारना। स्वमठोंकना रादि भर कर देवी पर चढ़ाना । -लड़ने के लिये ताल ठोंकना दृढ़ता या ख़फगी-संज्ञा, स्त्री० (का०) अप्रसन्नता, तत्परता दिखाना । बम ठोंककर-ज़ोर क्रोध । दे कर, निरचा पूर्वक । खफा-वि० ( फा०) नाराज़, अप्रसन्न, रुट । खमकना-अ० क्रि० ( दे०) ठमकना, खमखफ़ीफ़-वि० (म०) थोड़ा, हलका, तुच्छ, खम शब्द करना। लज्जित । खमदम-संज्ञा, पु० (फा० ख़म + दम ) खसीफा ( जज ) - संज्ञा, पु. ( . ) पुरुषार्थ साहस। छोटे माल के मुकदमें करने वाला खमसा-संज्ञा, पु. ( अ. खमसः = पाँच न्यायाधीश। सम्बन्धी ) एक प्रकार की ग़ज़ल । खबर, खबरि, खबरिया-संज्ञा, स्त्री० खमा*-संज्ञा, स्त्रो० (दे०) क्षमा, छिमा (१०) समाचार, वृत्तांत, हाल, सूचना, जानकारी, संदेशा, चेत सुधि । 'ज्ञा, पता, (दे०)। खमीर-संज्ञा. पु० (अ.) गूंधे हुए आटे खोज । मुहा०—बर उड़ाना - चर्चा का सड़ाव, माया, कटहल, अनन्नान आदि फैलाना, अफवाह होना । ग्वबर लेना का सड़ाव जो पीने की तम्बाकू में डाला सहायता करना, सहानुभूति दिखाना, दंड जाता है, स्वभाव, प्रकृति । देना । खबर करना—सूचना देना। खमीरा - वि० पु. ( अ ) खमीर से संज्ञा, स्त्री० खबरगीरी-देख-भाल । बनाया हुआ, शीरे में पका कर बनाई खबरदार-वि० ( फा० ) होशियार, हुई दवा, जैसे ख़मीर-बनफ़शा । स्त्री० सजग, सचेत। खमीरी। खबरदारी-- संज्ञा, स्त्री० (फ़ा०) सावधानो। | खमीलन- संज्ञा, पु. ( दे० ) थकावट, खबसा-संज्ञा, पु० ( दे० ) पंक, कीचड़। क्लाति, शिथिलता। खबीस-संज्ञा, पु० (१०) दुष्ट, भयंकर, खम्बा-खम्मा--संज्ञा, पु० (दे०) खम्भ, दानव, दैत्य । स्तंभ, (सं.)। खन्त-संज्ञा, पु. (अ.) पागलपन, सनक, खम्तचि-खभाँच, खमाच-संज्ञा, स्त्री० झक्क । वि० खब्ती-सन की। ( हि० खंभावती ) मालकोस राग की दूसरी खब्बा-वि० (दे० ) बाँया हत्था। रागिनी। खभ-संज्ञा, पु० (सं०) ताल, भुजा, खम्भ । खय*—संज्ञा, पु० (दे०) क्षय (सं०)। खभरना—स० क्रि० दे० (हि. भरना ) त्रया - संज्ञा, पु० (दे० ) खवा। भुजमूल, मिलाना, उथल-पुथल करना । ..." करकत नैन खये" खभार-खभारू-संज्ञा, पु० ( दे०) चिंता, खयानत -- संज्ञा, स्त्री० ( ० ) धरोहर धरी For Private and Personal Use Only Page #535 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ख़याल-ख्याल ५२४ खरभरना वस्तु का न देना या कम देना, ग़बन, चोरी, खरग -- संज्ञा, पु. ( दे० ) खङ्ग (सं० ) बेईमानी। तलवार । खयाल ख्याल - संज्ञा, पु० (अ०) ध्यान, खरगोश- संज्ञा, पु० (फा०) खरहा (दे०)। स्मृति, विचार। खरच, खरचा-संज्ञा, पु. (दे०) ख़र्च खर - संज्ञा, पु. (सं०) गधा, खच्चर, (फा० ) व्यय, खर्च ।। बगला, कौवा, रावण का भाई, तृण, घास, खरचना -स. क्रि० दे० (फा० ख़र्च ) साठ संवत्सरों में से एक, छप्पय छंद का व्यय या ख़र्च करना, व्यवहार या प्रयोग एक भेद, कङ्क । वि० (सं०) कड़ा, प्रखर, में लाना, लगाना । तेज़, तीचण, हानिकर, अशुभ, तेज़ खरछरा--वि० (दे० ) दरदरा, गड़बड़। धार वाला । “पसु खर खात सवाद । खरता-संज्ञा स्त्री० (हि. खर ) तीषणता, सों.२० तेज़ी। खरक-संज्ञा, पु० दे० (सं० खड़क) चौपायों स्वरतल - वि० (दे० ) खरा, स्पष्टवादी, के रखने का लकड़ियाँ गाड़ कर बनाया गया | शुद्ध हृदय वाला, बेमुरौवत, प्रचण्ड, उग्र। घेरा, बाड़ा, चरने का स्थान, बासों की खरतुया—संज्ञा, पु० ( दे.) एक निकम्मी खपाचों का केवाड़, टट्टर । संज्ञा, स्त्री० घास, “खेत बिगारयौ खरतुआ"-कवी० । (दे०) खटक, डर, चिता, शङ्का । खरदुक- संज्ञा, पु० दे० (फा० खुर्दा ) ... " ब्रज के खरक मेरे हिये खरकत __ एक प्राचीन पहनावा। हैं " -- रस० । संज्ञा, स्त्री. खड़क, खर-दूषण --- संज्ञा, पु० यौ० (सं०) खर और खड़खड़ाहट । दूषण नामक राक्षस जो रावण और सूर्पखरकना-अ० कि० (अनु० ) खड़कना, | नखा के भाई लगते थे, धतूरा, तृण विनाशक कसकना, फाँस के चुभने का सा दर्द होना, सूर्य .. "वृष के खर-दूषण ज्यों खर-दूषण' सरकना, चल देना। ".. कौन पातसाह के ...रामा०। न हिये खरकत हैं "- भू० । अ० कि. खरपत्र-संज्ञा, पु० (सं० ) भरुवा, सुगन्धित खरखराना,. ...."चौंकि परे तिनके खरकेहूँ" पौधा । -रस० । खरपा-संज्ञा, पु. ( दे० ) खड़ाऊं, चौबखरका-संज्ञा, पु. (हि. खर ) तिनका, गला, स्त्रियों का जूता। दाँत खोदने का तिनका या चाँदी की खरब---संज्ञा, पु० दे० (सं० खर्व ) सौ पतली, लम्बी तीली। अरब की संख्या। 'अरब खरब लौं द्रव्य महा० --खरका करना-भोजनान्त में है" - तु. तिनके से खोद कर दाँत साफ़ करना। खरबूजा-संज्ञा, पु० दे० ( फ़ा० खर्वज़ा ) संज्ञा, पु० (दे० ) खटका, खरक । ककड़ी की जाति का एक गोल फल । खरखरखरखरा-वि० ( दे० ) खरहरा, । खरभर संज्ञा, पु० दे० (अनु०) हलचल, दरदरा, शीघ्र, द्रुत, खुरखुरा । यौ० गड़बड़, शोरगुल । ' खर-भर देखि सकल खराखरा । नर-नारी"-रामा०। खरखशा-संज्ञा, पु. ( फा०) झगड़ा, खरभरना-खरभराना--अ० क्रि० दे० भय, श्राशंका, झंझट । (हि०खरभर) खरभर शब्द करना, गड़बड़ या खरखौकी-संज्ञा, स्त्री० (हि. खर+खाना) | __ हलचल मचाना, व्याकुल होना। " तब खर या तृण आदि खाने वाली, अग्नि । जलधर खरभरो त्रासलहि..." सू० । For Private and Personal Use Only Page #536 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir खरभरी खरिक-बरिका खरभरी-संज्ञा, स्त्री० (दे०) खरभर, । रुपये नगद ) मिलना, लेना. या निश्चय "परी खरभरी ताहि सरबरी". होना । वि० ( हि० ) स्पष्टवक्ता, ( बात ) खरमंजरी -- संज्ञा, स्त्री० (सं० ) अपामार्ग, | यथातथ्य, सच्चा, बहुत अधिक । लोको ऊंगा। .... " खरी मजूरी चोखा काम "। खरमस्ती-संज्ञा, स्त्री० (फा० ) दुष्टता, " राम सों खरो है कौन, मोंसों कौन शरारत। खोटो " --- विन० . हय हाथिन सों खरमास-खरवाँस-संज्ञा, पु० यौ० (हि०) सोहत खरी ' के० । खरो (७०) धन और मीन राशि के सूर्य का माह, पूस. यौ० खरा-लोटा-भला-बुरा ( स्त्री० ) चैत, ( इनमें मांगलिक कार्य करना खरी खोटी-" बिन ताये खोटो खरो वर्जित है)। गहनो लखै न कोय "-०। खरमिराव-संज्ञा, पु० दे० (हि. खर-+ | खराई-संज्ञा. स्त्री० (हि. खरा+ ई -- प्रत्य०) मिटाना ) जल-पान, कलेवा। खरापन । संज्ञा, स्त्री. (दे०) सवेरे देर तक खरयटिका-संज्ञा, स्त्री० (सं० ) खिरहरी जलपान या भोजन न मिलने से उग्र औषधि । पिपासा से जी खराब होना। खरल - संज्ञा, पु० दे० ( सं० खल ) खल, खराद—संज्ञा, स्त्री० दे० (फ़ा० खर्राद) लकड़ी, औषधि कूटने की कँडो। धातु प्रादि की चीज़ की सतह को चिकना खरवा-संज्ञा, पु० दे०) पैर में पानी और करने के लिये चढ़ाने का एक औज़ार । संज्ञा, मैल से पक कर होने वाला गढ़ा। स्त्री० खरादने की क्रिया, गढ़न । खरसा-संज्ञा, पु० दे० (सं० षड्स ) एक | मुहा०-खराद पर चढ़ाना-सुधारना, पकवान । सँवारना, शान पर रखना, बहकाना । खरसान-संज्ञा, स्त्री० यौ० (हि.) अस्त्र खरादना-स. क्रि० (दे०) खराद पर पैना करने की सान । " काम-बान खर चढ़ा कर किसी वस्तु को चिकना और सुडौल सान सँवारे "- सू० । करना, काट-छांट करना. बराबर करना । खरहरा--संज्ञा, पु० (हि. खरहाना) अरहर खरादी- संज्ञा, पु० ( दे.) खरादने वाला, के डंठलों का झाड़-फंखरा, घोड़े के रोंयें एक जाति, बढ़ई। साफ़ करने का काँटेदार कंधा । स्त्री० खरापन-संज्ञा, पु. (दे०) खरा का भाव । खरहरी। सत्यता। खरहरी--संज्ञा, स्त्री० (दे०) एक प्रकार नवराब-वि० (अ.) बुरा, पतित, मर्यादा भ्रष्ट। का मेवा। खराबो- संज्ञा, स्त्री० (फा) बुराई, दोष, खरहा-संज्ञा, पु. ( दे० खर = घास + दुर्दशा, अवगुण। हा-प्रत्य० ) खरगोश । खरायध-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० क्षार + खरही--- संज्ञा, स्त्री० (दे० ) टाल, ढेर, खर. गंध ) क्षार या मूत्र की सी गंध ।। गोश की मादा। खरि -संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) रामचंद्र, खरा-वि० (सं० खर = तीक्ष्ण ) तीखा, तेज़, । विःगु, कृष्ण । खरारी (दे०) " जबहि बढ़िया, खूब सेंका हुश्रा, विशुद्ध, करारा. | त्रिविक्रम रहे खरारी" रामा० । चीमड़, कड़ा, बिना धोखे के, साफ़, छल- बराश-सज्ञा, स्त्री. (फ़ा) खरोंच, छिलन । छिद्र-शून्य. नगद ( दाम )। स्त्री० सरी। सरिक-खरिका - संज्ञा, पु० (दे० ) खरक, मुहा०-खरे करना ( होना-रुपये )। तिनका, गोशाला । खरीक ( दे०) For Private and Personal Use Only Page #537 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir खरिया खल - खरिया-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. खर + इया- सर्ग-संज्ञा, स्त्री० (दे० ) खड्ग (सं०) प्रत्य० ) धाप, भूग बाँधने की पतली खर्च संज्ञा, पु० दे० (अ० खर्ज ) व्यय, रस्पी की जाली, पांसी, झोली, “घर बात सर्फा, खपत, किसी काम में लगने वाला धरे, खुरपा खरिया"-कवि., खडिया धन, खर्चा ( दे०) वि० स्त्री-चोखी। रूचना-स० कि० (दे०) खरचना, व्यय खरियाना स० कि० दे० (हि. खरिया- | करना। झोली ) झोली में भरना। खर्चीला- वि० (हि० खर्च + हीला- प्रत्य०) खरिहान-खलिहान-संज्ञा, पु. (दे० ) अति खर्च करने वाला। जहाँ खेत से अनाज काट कर जमा किया खर्ज-संज्ञा, पु० (दे०) षडज (सं० ) जाय । एक राग स्वर। खरी - संज्ञा, स्त्री० (दे० ) खड़िया, खली | सर्जन-संज्ञा, पु० (सं० ) खुजली। (तिल या सरसों आदि की) वि० स्त्री. खजूर-संज्ञा, पु० (सं०) खजूर. छुहारा (हि. वि. पु. खरा ) चोखी।। (दे०) चाँदी, हरताल, विच्छू । स्त्री० अल्प० खरीता संज्ञा, पु. (अ.) थैला, जेब, खरिका पिंड खजूर। खांसा, प्राज्ञा-पत्रादि के भेजने का बड़ा खरी-संज्ञा, स्त्री० (सं०) मूसली औषधि । लिफ़ाफ़ा। स्त्री० खरीती (थल्पा०) (दे०)। खपर-संज्ञा. पु० (सं० ) तसले जैमा मिट्टी खरीद - संज्ञा स्त्री० (फा ) मोल लेने की का पात्र, रुधिर पान करने का काली देवी क्रिया, क्रय, खरीदी हुई वस्तु । यौ० खरीद- का पात्र-खप्पर । (दे० ) भिक्षा पात्र फरोख्त। खोपड़ा, खपरिया। खरीदना-स० क्रि० ( फा० खरीदना ) सर्व-संज्ञा. पु० (सं०) कुवेर की : निधियों मोल लेना। में से एक सौ अरब की संख्या । वि. न्यू खरीदार-संज्ञा, पु० (फा ) ग्राहक, मोल नांग, भग्नांग, छोटा, लघु, वामन, बौना लेने वाला, चाहने वाला। (दे०) "हस्वः खर्वः तु वामनः" --अमर० । खरीफ़ संज्ञा, स्त्री. (अ.) आषाढ खर्बर-संज्ञा, पु० (२०) पर्वत का गाँव । अगहन तक की फसल । | खर्बजा-( खरबूजा)- संज्ञा, पु. (अ.) खरोंच-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० शुरण ) | खुरचना, छीलना, खरोंट (३०) खर्रा - संज्ञा, पु० (दे० ) मसविदा लंबा खरोंचना-स० क्रि० दे० (सं० तुरण) लिखा काग़ज़, चिट्ठा, खसरा, खाँी, खरखुरचना, करोना, खसोटना । खरा, पीठ पर छोटी फुरियों का रोग। खरांट -- संज्ञा, स्त्री० दे०) खरोंच (हि.) खराच-वि० (दे० ) खर्चीला । खरीट (दे०)। खर्राटा-संज्ञा, पु. ( अनु० ) सोते में नाक खरोष्ट्रो-खराष्ट्री-संज्ञा, स्त्री. (सं०) दाहिने का शब्द । से बायीं ओर लिखो जाने वालो प्राचीन | मुहा० खरा-मारना ( भरना, लेना) गांधार लिपि। बेखबर सोना । खरौंहा-वि० ( हि. खरा - प्रौहा ) कुछ खल-वि० (सं०) दुष्ट, क्रूर नीच । संज्ञा, खरा, या नमकीन । पु० (सं०) सूर्य तमाल वृक्ष, धतूरा लि. खरोटना-स० कि० (दे० ) गादा गाढा हान, पृथ्वी, स्थान, खरल, औषधि कूटने लीपना, खरोंचना। का पात्र । संज्ञा, स्त्री. खलता। For Private and Personal Use Only Page #538 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ख़वास खलक ख़लक - संज्ञा, पु० ( ० ) दुनिया, संसार, खलाल - संज्ञा पु० ( भ० ) दाँत - खोदनी । खलित-- वि० दे० (सं० खलित ) चलाय मान, गिरा हुत्रा । जग के प्राणी | खलियान - खलिहान - संज्ञा, पु० दे० (सं० खल + स्थान ) फसल काट कर रखने और मां श्रादि का स्थान, राशि, ढेर, खरिहान (दे० प्रान्ती० ) । खलियाना स० क्रि० दे० ( हि० खाल ) खाल उतारना, स० क्रि० (दे० ) ( हि० खाली ) खाली करना । खलिश-संज्ञा, स्त्री० ( फा० ) कसक पीड़ा । खली - संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० खल) तेल निकालने पर तिलहन की बची हुई सीठी । वि० खलने वाला | खलोता संज्ञा, पु० देखो खरीता । खलीफा -संज्ञा, पु० ( ० ) अध्यक्ष, बूढ़ा व्यक्ति, खुरट, खानसामा, हज्जाम, चालाक, दर्जी । ܕ ܕ - ५२७ .. हलचल, 66 ख़लकत - संज्ञा, पु० ( ० ) सृष्टि, समूल । खलड़ी - संज्ञा, स्त्री० (दे०) खलरी, खाल। खलना - अ० क्रि० दे० (सं० खर = तीक्षण) बुरा, अप्रिय लगना, चूर्ण करना, घोटना, सहित लंक खलखलतो " गीता० । खलबल - संज्ञा, पु० दे० (अनु० शोरगुल, घबराहट खलबल भारी खलमैं मचैगो जब दल -प्र० य० । खलबलाना - ० क्रि० दे० ( हि० खलबलअनु० ) खलबल शब्द करना, खौलाना हिलना डोलना, व्याकुल या विचलित होना । क्रि० प्र० खलबलना. खलमलाना (दे० ) गड़बड़ी करना, पानी को मथना । खलबली - संज्ञा स्त्री० ( हि० खलबल घबराहट, व्याकुलता चल । यौ० बलवान खल । " ऐसी कीन्ही खलबली भये खलबल | भाजि " रसाल । खलान -- संज्ञा, पु० (सं० ) लगाम । खलभल -- सज्ञा, पु० (दे० ) उत्तेजना, खलु - अव्य० क्रि० वि० (सं०) शब्दालङ्कार, व्याकुलता खलखली । प्रश्न, प्रार्थना, नियम, निषेध, निश्चय । बिलेल संज्ञा पु० ( हि० खली तेल) खली आदि का फुजेल में रह जाने वाला भाग, गादा तेल, कीट । खलनड़ संज्ञा, पु० दे० (सं० खल्ल ) चमड़े की मशक या थैला, श्रौषधि कूटने का खल, चमड़ा । खल्व -संज्ञा, पु० (सं० ) सिरके बाल झड़ने का गंज रोग । खलल -- सज्ञा, पु० (अ० ) रुकावट, वाघा, " दौरि दौरि खोरि खारि खलल धूम । मचाया है " - रघु० । खलाई S संज्ञा खो० ( हि० खल + आई प्रत्य० ) खलता, दुष्टता । खलाना - स० क्रि० ( हि० खाली ) ख़ाली करना, रीता करना पिचकाना, नीचे धँसाना, गड्ढा -रना । - "फिरते पेट खलाये" वि० खलार - संज्ञा, पु० ( दे० ) नीची भूमि | खलारु (दे० ) । ख़लारि - संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) विणु, Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सज्जन । खलास - वि० ( ० ) छूटा हुआ, मुक्त, समाप्त, च्युत । खलासी संज्ञा स्त्री० (हि० खलास ) छुटी • समाप्ति, मुक्ति | संज्ञा, पु० (दे० ) सईस, ( जहाज का ) | 66.... खल्वाट संज्ञा, पु० (सं० ) गंज रोग । वि० ( सं० ) गंजा । 'कचित्खल्वाट निर्धनः " । वाख्वा - संज्ञा, पु० दे० (सं० स्कंध ) कंधा, भुज मूल । खवाना - स० क्रि० दे० (हि० खिलाना ) | ख़वास -संज्ञा, पु० ( ० ) राजाथों धादि का ख़ास खिदमतगार । स्त्री० खवासिननाई, मंत्री, "सुनियत हुते खवास्यो " भ्र० For Private and Personal Use Only Page #539 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org खवासी "" अ०, "कहि खवास को सैन दै सूत्रे० । खवासी - संज्ञा, स्त्री० ( हि० खवास + ईप्रत्य० ) चाकरी, ख़िदमतगारी, हाथी या गाड़ो के खवास के बैठने का पीछे स्थान । खवैया - सा. पु० ( हि० खाना : वैया खाने वाला । प्रत्य० ५२८ खश खस-संज्ञा, पु० ( सं० ) गढ़वाल और उसके उत्तरवर्ती प्रदेश का प्राचीन नाम, इसी प्रदेश की एक जाति | संज्ञा, स्त्री० ( फा० खस ) गाँडर घास की सुगंधित जड़, उशीर | खसकंत - संज्ञा स्त्री० दे० ( हि० खसकन + अंत प्रत्य० ) खसकना । | खसकना - भ० क्रि० ( अनु० ) सरकना, हटना, चुपके से चला जाना, धीरे धीरे फिसलन | | खसकाना–स० क्रि० ( हि० खसकना) हटाना, गुप्त रूप से कोई चीज़ हटा देना, खसटा - सज्ञा, पु० ( दे० ) खाज, खुजली । खसना - थ० क्रि० ( हि० खसकना ) खसकना, हटना, गिरना । खाँग ख़सलत-संज्ञा, स्त्री० ( ० ) धादत, स्वभाव | खसाना - स० क्रि० ( हि० खसना ) गिराना, फ़ेंकना, ढकेना । मुकुट खसेत सगुन " Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir -रामा० । ताही " खसिया - वि० दे० ( श्र० खुस्सी ) बधिया, नपुंसक, हिजड़ा, बकरा । खसी - संज्ञा, पु० दे० ( स्त्री० सा० भू० ( हि० खसना ) गिरी, ० खुस्सी) बकरा | " खली माल मूरति मुसकानी" रामा० । खसीस - वि० ( ० ) कंजूस, सूम | संज्ञा, स्त्री० खसीसी । खसोट - संज्ञा, स्त्री० ( हि० खसोटना ) बुरी तरह नोचने की क्रिया, उचकने या छीनने की क्रिया । यौ० - नोन-खसोट । खसोटना स० क्रि० दे० (सं० कृष्ट ) उखाड़ना, नोचना, छीनना, लूटना । खसोटी संज्ञा स्त्री० (दे० ) खसोट, कफन -खसोटी माँहि जात " -- हरि० । " सरकाना । खसखस – संज्ञा, पु० ( सं० खसखस ) पोस्ते का दाना, खसखास (दे० ) । सूर्य-मणि । खसखसा - वि० (अनु० ) भुरभुरा । वि० ( हि० खसखस ) अति लघु ( बाल ) 1 खस्वस्तिक - संज्ञा, पु० (सं० ) ( श्राकाश में कल्पित शीर्ष विन्दु ( विलो० - पद खसखाना - संज्ञा, पु० ० ( फ़ा० ) कीटट्टियों से घिरा स्थान । वि.दु ) | खसाखसी - वि० ( हि० खसखस ) पोस्ते खस्सी - संज्ञा, पु० ( अ० ) बकरा । वि० के रंग का, नीलिमा-युक्त श्वेत । ( अ० ) बधिया, हिजड़ा । खस खस्फटिक -संज्ञा पुं० ( दे०) काँच, ख़स्ता - वि० दे० ( फ़ा० खुस्तः ) भुरभुरा । " खहर संज्ञा, पु० (सं० ) शून्य हर वालो राशि ( गणि० ) । खां - संज्ञा, पु० देखो, ख़ान । बिरल बुनावट का, खोखला, भीना । स्त्री० खांखरी । ख़सम - संज्ञा, पु० ( ० ) पति, ख़्वाबिंद, खाँखर - वि० दे० ( हि० खांख ) छेददार, स्वामी, भर्ता 1 ख़सरा - संज्ञा, पु० ( प्र० ) पटवारियों का एक काग़ज जिसमें प्रत्येक खेत का नम्बर, रकबा यादि लिखा रहता है, हिसाब-किताब का कच्चा चिट्ठा। संज्ञा, पु० ( फ़ा० ख़ारिश ) खुजली, खाज । खॉग - संज्ञा, पु० दे० ( सं० खड़ - प्रा० खग्ग ) काँटा, कंटक, तीतर, मुर्ग, धादि के पैर का काँटा, गैंडे के मुँह का सींग, जंगली सुधर का दाँत । संज्ञा खो० ( हि० खगना ) For Private and Personal Use Only Page #540 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir खांगना ५२६ खागना त्रुटि, कमी, “ बरिस बीस लगि खाँग न खाँसी-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० काश-कास) होई"-५०। कफादि को गले या स्वास-नालियों से बाहर खांगना-अ० कि० दे० ( सं० खंज = करने के लिये सशब्द वायु फेंकने की क्रिया, खांड़ा) कम होना, घटना, छेदना, “ तन कास रोग, खांसने का शब्द । घाव नहीं मन प्रानन खाँगै"-रामा०। खांई--संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० खानि ) गाँव, खाँगड़-खाँगड़ा-वि० दे० ( हि० खांग--5 महल या किले के चारों ओर खोदी गई -प्रत्य० ) खाँगवाला, शस्त्रधारी, अक्कड़, गहरी नहर, खंदक, खाँई (दे०)। उदंड, अक्खड़ । खाऊ-वि० दे० (हि. खाना, खा+ऊ) खाँगी-संज्ञा, स्त्री० ( हि० खांगना ) कमी, | प्रत्य० ) पेटू, बहुत खाने वाला। घाटा, टि। खाक-संज्ञा, स्त्री० (फा० ) धूल, मिट्टी। खाँच–संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. खींचना ) मुहा०-( कहीं ) खाक उड़नासंधि, जोड़, गठन, खचन । उजाड़ या बरबाद होना । खाक उड़ाना खाँचना-स० कि० दे० (सं० कर्पण ) या छानना ---मारा मारा फिरना, खाक अंकित करना, चिन्ह बनाना, खींचना. जल्द में मिलना ( मिलाना )-बिगड़ना, लिखना । “पूछेउ गुनिन्ह रेख तिन खाँची" बरबाद होना ( करना )। खाक रहना -रामा० । वि० खंचैया। ( न रहना )--नष्ट हो जाना । तुच्छ, कुछ खाँचा-संज्ञा, पु. ( दे० ) पतली टहनियों नहीं, वे ख़ाक पढ़ते हैं। खाख ( दे० )। का बड़े छेद वाला टोकरा, झाबा । स्त्री० खाकसारी-संज्ञा, स्त्री. (फा० ) नम्रता, खाँची, खचिया ( दे० )। दीनता " खाकसारी पालियों की बेसबब खाँड-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० खंड ) कच्ची होती नहीं"। शक्कर । सौ० बँडरस-राब, जिससे कच्ची खाकसाही-संज्ञा, स्त्री. (दे०) काली खाँड़ बनती है। खांडना-स० कि० दे० ( सं० खंडन ) भस्म, " मारिमारि खाकसाही पातसाही कीन्हीं"-भू० तोड़ना, चबाना, कूचना । खाकसीर-संज्ञा, स्त्री० दे० (फा खाकशीर) खाँडर-संज्ञा, पु० दे० (सं० खंड) टुकड़ा। खाँडा-संज्ञा, पु० दे० (सं० खड़) खड्ग । खूबकलाँ औषधि । संज्ञा, पु० (सं० खंड ) टुकड़ा, भाग। खाका-संज्ञा, पु. (फा० खाक ) ढाँचा, ....... एक म्यान द्वै खाँडे "-भ्र०।। नक़शा, थनुमान-पत्र, चिट्ठा, मसौदा, खाँधना-स० कि० ( दे० ) खाना, तख़मीना, नमूना । मुहा०-खाका .....'चोरि दधि कौने खाँधो-भ्र० । उड़ाना ( खींचना)-उपहास करना। खाँभ*-संज्ञा, पु० (दे०) खम्भा, लिफाफ़ा। खाका उतारना-नकल करना । स० क्रि० खाँभना। खाकी-वि० ( फा० ) खाक या मिट्टी के खाँवा--संज्ञा, पु० दे० (सं० खं) चौड़ी रंग का, भूरा, बिना सींची भूमि, खाक खाँई, एक पौधा। का । खाखी (दे०) राख लगाने वाला खांसना-अ. क्रि० दे० (सं० कासन) साधु। कफादि निकालने के लिये बल पूर्वक वायु खाग-संज्ञा, पु० (दे० ) गैंडे का सींग। को कंठ से बाहर निकालना, तथा शद खागना-प्र० कि० दे० (हि. खाँगकरना। | काँटा ) गड़ना, चुभना। भा० श० को०-६७ For Private and Personal Use Only Page #541 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir खाज ५३० खान . खाज-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० खर्जु) खुजली खातिर-संज्ञा, स्त्री. (अ.) आदर । रोग। मुहा०-कोढ़ की खाज-दुःख | अव्य० ( अ० ) वास्ते, लिये । में दुःख बढ़ाने वाली वस्तु । ख़ातिरखाह--ग्रव्य० क्रि० वि० (फा० ) खाजा-संज्ञा, पु० दे० (सं० खाद्य ) भषय | __ यथेच्छ । वस्तु, एक मिठाई। खातिरजमा-संज्ञा, स्त्री. यो० (अ.) खाजो-संज्ञा, स्त्री. ( हि० खाजा ) | सन्तोष, तसल्ली, “ घर में जमा रहै तो खाद्य पदार्थ, भोजन । मुहा०-खाजी | ___ खातिर जमा रहै "-बेनी । खाना - मह की खाना, बुरी तरह खातिरदारी-संज्ञा, स्त्री० [फा० ) सम्मान, हारना। श्राव-भगत, श्रादर-सत्कार । खाट-संज्ञा, स्त्री० दे० ( सं० खट्वा ) चार- खातिरी—संज्ञा, स्त्री० दे० (फा० खातिर ) पाई, खटिया। सम्मान, तसल्ली, सन्तोष, श्रादर।। खाड़*-संज्ञा, पु० दे० (सं० खात ) गड्ढा, | खातो-संज्ञा, स्त्री. (दे०) (सं० खात) गर्त, लो. “ खाड़ खनै जो और को ताको खादी भूमि, खन्ती, खतिया, बढ़ई की कूप तयार।" जाति। खाडव * --संज्ञा, पु. (दे० ) पाडव | खाद-संज्ञा, पु. (दे०) खाद्य (सं०) (सं.)। उपज बढ़ाने वाला पदार्थ, पाँस । खाड़ी-संज्ञा, स्त्री. (हि. खाड़) तीन खादक-संज्ञा पु. (सं० ) ऋणी। वि० ओर स्थल से घिरा समुद्र-भाग, भक्षक, खाने वाला। श्राखात। खादन-संज्ञा, पु० (सं० ) भोजन, खाना । खात--संज्ञा, पु० (सं० ) खोदाई, तालाब, | वि० खादित, खाद्य, खादनीय । पुष्करिणी, गड्ढा, कुआँ कूड़ा या खाद का | खादर-संज्ञा. पु० दे० ( हि० खाड़ ) कछार, गड्ढा, शराब के लिये रखी महुए की राशि, नीची भूमि (विलो बाँगर ) गोचर-भूमि । खाद। खादित-वि० (सं० ) खाया हुआ । खातमा—संज्ञा, पु० (फा० ) अंत, समाप्ति, । खादिम--संज्ञा, पु. ( अ०) नौकर, दास । मृत्यु। खादी-वि० (सं० खादित ) भक्षक, शत्रुखाता-संज्ञा, पु० (सं० खात ) अन्न रखने | नाशक, रक्षक, कँटीला । संज्ञा, स्त्री० का गड्ढा, बखार । संज्ञा, पु० (हि. खत ) ( प्रान्ती० ) गजी, गाढ़ा या हाथ का कता. मितीवार और व्यौरेवार हिसाब किताब | बुना कपड़ा, खद्दर । वि. (हि. खादि = की बही। मुहा०-खाता खोलना - दोष ) छिद्रान्वेषी, दूषित । नया व्यवहार ( लेन-देन ) करना । खादुक-वि० (सं०) हिंसालु, हिंसक । खाता बंद करना (होना )-हिसाब- खाद्य-खादु-वि० (सं० ) खाने-योग्य । किताब बंद होना, खाता चलना- संज्ञा, पु. भोजन, खाध, खाधु, खाधुक लेन-देन के व्यवहार का जारी रहना ।। (दे०)। संज्ञा, पु० (हि. ) मद, विभाग । खाधु-खाधू-संज्ञा, पु. ( दे० ) खाद्य " कहै रतनाकर खुल्यो जो पाप-खाता | वस्तु । वि० खाने वाला। मम " ।- स० कि० (सा० भू०) खान-संज्ञा, पु. ( हि० खाना ) खाने की खाना । यौ० खाता-पीता साधारण क्रिया, भोजन, खाने का ढंग । संज्ञा, स्त्री० स्थिति का। | दे. (सं० खानि ) खानि, आकर, खदान, For Private and Personal Use Only Page #542 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir खाम खानक ५३१ ख़ज़ाना, उत्पत्ति-स्थल । संज्ञा, पु. ( ता०, । (डालना)-मार डालना, खाने दौड़ना मगो०-काङ- सरदार ) सरदार, पठानों | -चिड़चिड़ाना, क्रुद्ध होना, भयानक की उपाधि, खां । लगना । खाना हराम करना-बहुत कष्ट खानक - संज्ञा, पु० (सं० खन) खान देना, तंग करना । यौ० खाना कपड़ाखोदने वाला, बेलदार, राज । भोजन और वस्त्र (देना-पर रखना)।खानाखानकाह-संज्ञा, स्त्री. (अ.) मुसलमान पीना- दावत, भोज, भोजन । मुहा०साधुओं का मठ । मुंहकी खाना - दबना, हार जाना। खानखर-संज्ञा, पु. (प्रान्ती० ) सुरंग, | खाना-संज्ञा, पु. ( फा० ) घर, मकान, खोह। जैसे-दवाखाना, किसी वस्तु के रखने का घर, खानखाना-संज्ञा, पु. ( तु. ) मुग़ल केस ( अं० ), विभाग, कोठा, सारणी सरदारों की एक उपाधि ।। (चक्र ) का विभाग, कोष्टक । खानगी-वि० (फा० ) निज का, घरेलू, खानाजात--संज्ञा, पु. (फा० ) दास । श्रापस का । संज्ञा, स्त्री. (फ़ा० ) तुच्छ, वि० घर-जाया, गृह-पालित । वेश्या, कसबी। खाना-तलाशी- संज्ञा, स्त्री० यौ० (फा० ) खानदान--संज्ञा, पु० (फा०) वंश, कुल । | किसी खोई हुई चीज़ के लिये मकान के वि० खानदानी- अच्छे कुल का, पैतृक, | अंदर छानबीन करना। वंश-परंपरागत। खानापुरी-संज्ञा, स्त्री० ( फा० खाना+ खान-पान--संज्ञा, पु० यो० (सं० ) अन्न- | पूरना -हि.) किसी सारिणी या चक्र के पानी, आबदाना, खाना-पीना, खाने पीने कोष्टकों में यथा स्थान संख्या या शब्द का सम्बन्ध या श्राचार। " खान-पान, | श्रादि लिखना, नकशा भरना। सनमान, राग-रूँग, मनहिं न भावै "- स्वाना-बदोश-वि० ( फा० ) बिना स्थायी घर-बार वाला। खानसामा-संज्ञा, पु. (फा० ) अँगरेजों | खानि-संज्ञा, स्त्री० (सं० खनि ) खान, या मुसलमानों का रसोइया । ओर, प्रकार, ढङ्ग, उत्पति-स्थान, कोष, खाना--स० कि० (सं० खादन ) भोजन धाम, " फिरतो चारौ खानि"--" चारि करना, पेट में डालना, खर्च कर डालना, खानि जग जीव जहाना"-रामा० ।। उड़ा डालना, शिकार कर खा जाना, विषैले | खानिक --संज्ञा, स्त्री० (दे०) खान । वि० कीड़ों का काटना, डसना, तंग करना, कष्ट खानि सम्बन्धी, खानि का, खान,...... देना, नष्ट करना, दूर करना, हजम करना, ___ " जहाँ जे खानिक"—रामा० ।। मार या हड़प लेना, बेईमानी से रुपया खाप-संज्ञा, स्त्री० (दे०) म्यान, कोष । पैदा करना, रिशवत लेना, श्राघात, प्रभा- खाब- संज्ञा, पु० (दे० ) ख्वाब (प्र.) वादि सहना। स्वप्न, सपना (दे०)। मुहा०-खाता-कमाता-खाने-पीने भर | खाबड़-वि० (दे०) ऊँची-नीची। यौ. को कमाने वाला, खाना-कमाना- ऊबड़-खाबड़। काम-धंधा करके जीविका निर्वाह करना । | खाम-संज्ञा, पु. ( हि. खामना ) लिफ्राना, खा पका जाना (डालना)-ख़र्च कर संधि, टाँका, खम्भा । वि० (सं० शाम ) या उड़ा डालना । खाना न पचना-चैन घटा हुआ, क्षीण । खाम-( फा०) कम, न पड़ना । खा जाना (कच्चा) या खाना कच्चा, अनुभव-हीन । गिर। For Private and Personal Use Only Page #543 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org खामखाह खामखाही ५३२ ख़ाली खामखाह खामखाही - क्रि० वि० (दे० ) खारिक- संज्ञा, पु० दे० (सं० तारक ) छोहारा । खारिज - वि० ( ० ) बाहर किया ( निकाला ) हुआ, थलग बहिष्कृत, जिस (अभियोग ) की सुनाई न हो । खारिश - संज्ञा, स्त्री० ( फा० ) खुजली । खारी - संज्ञा, स्त्री० ( हि० खारा ) एक क्षार लवण | वि० क्षारयुक्त, जिसमें खार हो । ख़्वाहमख़्वाह । खामना – स० क्रि० दे० (सं० स्कंभन ) किसी पात्र के मुँह को गीली मिट्टी या आटे से बंद करना, लिफ़ाफ़ में रखना । ख़ामी – संज्ञा, नो० ( दे० ) कमी, त्रुटि, बाधा, कच्चाई, " कविन के कामन मैं करें जौन खामी " .."" - कर० । संज्ञा, पु० खम्भा । वि० घटने वाला । 1 ख़ामोश - वि० ( फा० ) चुप, मौन | संज्ञा, स्त्री० खामोशी -- मौनता । मुहा० - खामोशी - नीमरजा - " मौनं स्वीकृति लक्षणम् । " मौनता स्वीकृतिलक्षण है । खार - संज्ञा, पु० दे० (सं० क्षार ) सज्जी, लोना, कल्लर, रेह, राख, धूल, एक खार निकालने का पौधा, छोटा तालाब, डबरा, " दई न जात खार उतराई "- - " श्रघ - सिंधु बढ़त है 'सूर' खार किन पाटत | संज्ञा, पु० ( प्रान्ती० ) क्रोध । "" मुहा०- -'खार उतारना'- क्रोध उतारना ( करना ), उबटन श्रादि से मैल छुड़ाना, विवाह में कन्या को सिन्दूर दान देना । खार - संज्ञा, पु० ( फा० ) काँटा, फाँस, खाँग ( दे० ) डाह । “गुलों से ख़ार अच्छे हैं जो दामन थाम लेते हैं " । मुहा०—खार खाना- डाह करना, जलना, क्रोध करना । यो ० आदि --- खारका - संज्ञा, पु० (दे० ) छुहारा । खरका-1 - चिरौंजी - छुहारे चिरौंजी की खीर | खारिक (दे० ) । खारा - वि० ० पु० दे० (सं० क्षार ) क्षार या नमक के स्वाद का, कडुआ अरुचि कर, श्राम तोड़ने का थैला । संज्ञा, पु० खाँचा, घास आदि बाँधने की जाली, झीना कपड़ा, खारो ( ० ) होता जो न खारो अनिखारो..." ० व० । 46 Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir खारुमा खारुवा-संज्ञा, पु० दे० (सं० क्षारक ) थाल से बना एक लाल रंग, इससे रँगा कपड़ा ( मोटा ) । बाल-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० चाल ) शरीर के ऊपर का चमड़ा, त्वचा, श्रावरण । मुहा० ० खाल उधेड़ना ( खींचना ) - बहुत मारना या कड़ा दंड देना । आधा चरसा, धौंकनी, भाथी, मृत शरीर | संज्ञा, स्त्री० (सं० खात ) नीची भूमि, ख़ाली जगह, खाड़ी । मानुस की खाल कछू काम नहि आई है ख़ालसा - वि० ( राज्य का, सरकारी, जिस पर एक का अधिकार हो । संज्ञा, पु० ( पं० ) सिक्ख - मंडली विशेष | मुहा० - खालसा करना - ज़ब्त या नष्ट करना, स्वायत्त करना । (. ० खालिस - शुद्ध ) खाला - वि० ( हि० खाल ) नीचा, निम्न । स्त्री० ख़ाली । खाला संज्ञा, स्त्री० ( ० ) माता की बहिन, मौसी । در 16 मुहा० - खाला (जी) का घर -- सहज काम, अपना घर । खाला केरी बेटी व्या हैं " – कबी० । ख़ालिस - वि० ( ० ) शुद्ध, बेमेल, (दे०) निखालिस । For Private and Personal Use Only खाली - वि० ( ० ) रीता, रिक्त, अन्तर, शून्य रहित, विहीन, बिना काम के, जो व्यवहार में ( काम में ) न हो, व्यर्थ, निष्फल । क्रि० वि० केवल, सिर्फ । Page #544 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org खाले ५३३ मुहा०-हाथ खाली होना ( खाली हाथ ) - हाथ में रुपया-पैसा न होना, निर्धन, असफलता के साथ, प्राप्ति-रहित । खाली पेट - बिना कुछ खाए । वार ( निशाना ) खाली जाना-ठीक न बैठना, यत्न सिद्ध न होना, चाल न चलना. मौक़ा चूक जाना, लक्ष्य पर न पहुँचना । बात ( ज़बान ) खाली जाना। ( पड़ना ) -वचन निष्फल होना, कथनानुसार कुछ न होना । खाले - वि० क्रि० वि० ( दे० ) नीचे, गहरे बुढ़ाई में खाविंद - संज्ञा, पु० ( फा० ) पति, मालिक, स्वामी, भर्ता । ख़ास - वि० ( ० ) विशेष, मुख्य, प्रधान, ( विलो० ग्राम) निज का, स्वयं श्रात्मीय, खुद, ठीक, विशुद्ध । संज्ञा, स्त्री० ( ० कीसा ) गाढ़े की थैली । मुहा०- खास कर - विशेषतः, प्रधानतया । यौ० ( हर ) ख़ासी ग्राम -सर्व साधारण । खास कलम --- संज्ञा, पु० ( ० ) प्राइवेट सिक्रेटरी, निजी मुंशी । . खासगी - वि० ( ० खास + गी - प्रत्य० ) मालिक या निज का । खासबरदार - संज्ञा, पु० ( फा० ) राजा की सवारी के ठीक गे चलने वाला सिपाही । खासा - संज्ञा, पु० ( अ० ) राज-भोग, राजा की सवारी का घोड़ा या हाथी, एक पतला सूती कपड़ा । वि० पु० (दे० ) अच्छा भला, स्वस्थ, मध्यम श्रेणी का, सुडौल, भरपूर, पूरा । स्त्री० खासी । खासियत - संज्ञा स्त्री० ( ० ) स्वभाव, यादत, गुण, सिफ़त । खिंचना- अ० क्रि० दे० (सं० कर्षण ) घसीटा जाना, थैले यादि से बाहर निका लना, छोर को एक ओर बढ़ाना, तनना, खिजना - खिझना पृथक होना, किसी की ओर बढ़ना, थाकर्षित या प्रवृत्त होना, खपना, अर्क ( भभके ) तैय्यार होना, तत्व या गुण का निकल जाना, चुपना। मुहा०—पीड़ा (दर्द) खिंचना --- ( दवा से ) दर्द दूर होना । चित्रित होना. रुकना, माल खपना, प्रेम कम होना । मुहा०-हाथ खिचना -- देना बन्द होना । तबीयत खिंचना - प्रेम होना, आकर्षित होना, प्रेम न रहना । खिंचवाना-स - स० क्रि० ( खींचना का प्रे० रूप) खींचने का काम दूसरे से कराना । खिंचाई -संज्ञा, स्त्री० ( हि० खींचना ) खींचने की क्रिया या मजूरी । खिंचाना - स० क्रि० ( हि० खींचना ) खिंच Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir वाना । खिंचाव - संज्ञा, पु० (हि० खिंचना ) खिंचने का भाव । खिंडाना- - स० क्रि० दे० (सं० क्षिप्त ) विखराना | खिखिंद - संज्ञा, पु० दे० (सं० किष्किंधा ) for " कीन्हेसि मेरु खिखिंद पहारा " प० । खिचड़वार - संज्ञा, पु० (हि० खिचड़ी + वार ) मकर संक्रान्ति | खिचड़ी-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० कसर ) एक में पका दाल-चावल । बरातियों को कच्ची रसोई खिलाने की रस्म, दो या अधिक पदार्थों की मिश्रण, मकर संक्रांति । वि० मिला-जुला, गड़बड़ | मुहा० खिचड़ी पकाना - गुप्त रूप से करना । ढाई चावल की खिचड़ी लग पकाना - सब की राय से विरुद्ध या सब से अलग होकर कुछ काम करना । खिजना - खिझना - अ० क्रि० (दे०) कुंझला उठना, चिढ़ना, ...... " तबहिं खित बलभैया " - सूबे० । हठ करना, कहत सलाह 6C For Private and Personal Use Only Page #545 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org खिजलाना जननी दूध डारत खिझत कछु अनखाइ - सूर० । खिजलाना - श्र० क्रि० ( हि० खोजना ) ॐ लाना, चिढ़ना । स० क्रि० (हि० खीजना का प्रे० रूप) चिढ़ाना, दुखी करना । खिजाब - संज्ञा, पु० (०) केश कल्प, सफ़ेद बालों को काला करने की दवा | खिझ - संज्ञा स्त्री० (दे० ) खीझ, खीज, चिदना | विझना- - प्र० क्रि० ( हि०) खीजना, चिढ़ना । खिझाना - विभावना- - स० क्रि० (दे० ) तंग करना, चिदाना । ५३४ " खिड़कना - प्र० क्रि० (दे०) चुपके से चल देना, खिसक जाना । खिड़काना - स० क्रि० ( हि० खिड़कना ) हटाना, बेच डालना । खिड़की - संज्ञा स्त्री० दे० (सं० खटक्किका ) . दरीची, झरोखा | दे० खिरको खिरकिया । खिताब - संज्ञा, पु० ( ० ) पदवी, उपाधि | खित्ता - संज्ञा, पु० ( ० ) प्रान्त, देश | खिदमत - संज्ञा, स्त्री० ( फा ) सेवा, टहल | ख़िदमतगार - संज्ञा, पु० ( फा ) सेवक, टहलुवा | संज्ञा, स्त्री० खिदमतगारीसेवा, सेवक - कर्म । ख़िदमती - वि० ( फा० खिदमत ) सेवक, खिलाई खिन्नी (दे० ) एक छोटे मोठे फल वाला वृक्ष. उसके छोटे मीठे फल | खिराज - संज्ञा, पु० ( अ० ) राजस्व कर, मालगुज़ारी । खिरिरना - स० क्रि० ( प्रान्ती० ) सूप में Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अनाज चालना, खुरचना । खिरेंटी - संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० खरयष्टिका ) बरियारी, बीजबंद | खिरौरा - संज्ञा, पु० दे० (हि० खीर + औरा ) एक लड्डू । स्त्री० खिरौरी -- केवड़े से बसी कत्थे की टिकिया । खिल - संज्ञा, पु० (दे०) धन्नी । श्रव्य० (सं०) निश्चयादि सूचक | खिलप्रत -खिलात संज्ञा, स्त्री० ( अ० ) सम्मानार्थ राजप्रदत्त उपहार, भेंट, बकसीस । खिलत, खिलति (दे० ) 1 ख़िलकत - संज्ञा, स्त्री० ( ० ) सृष्टि, जनसमूह, भीड़ । खलकत (दे० ) । खिलकौरी - संज्ञा, स्त्री० ( हि० खेल + कारी - प्रत्य० ) खेल । खिलखिलाना - क्रि० प्र० (अनु० ) ज़ोर से शब्द कर हँसना | खिलना - अ० क्रि० दे० (सं० स्खल) विकसित होना, प्रसन्न, या शोभित होना, ठीक जँचना, बीच से फटना या अलग होना । खिलवत - संज्ञा, स्त्री० ( प्र० ) एकान्त, शून्य स्थान । यौ० संज्ञा, पु० ( फा ) खिलवतखाना- एकान्त मंत्रणा स्थान | खिलवाड़ - संज्ञा, स्त्री० ( हि० खेल ) खेलवाड़, खेलवार खिलवार (दे० ) । खिलवाना - स० क्रि० ( हि० खाना ) दूसरे से भोजन कराना । स० क्रि० ( खिलाना का प्रे० रूप ) प्रफुल्लित कराना, स० क्रि० खेलवाना | सेवा-सम्बन्धी | खिन -- संज्ञा, पु० (दे० ) क्षण (सं० ) खिन्न - वि० (सं० ) उदासीन, चिंतित, प्रसन्न, दीन-हीन, दुखी | संज्ञा, स्त्री० खिन्नता - उदासीनता । खिपना * - प्र० क्रि० दे० (सं० क्षिप् ) खपना, तल्लीन या निमग्न होना । खियाना ई- - प्र० क्रि० दे० (सं० क्षय - हि० खाना) रगड़ से घिस जाना । कि० वि० (स० क्रि० हि० खिलाना ) खिलाना । खियाल - संज्ञा, पु० दे० ( फ़ा० ख्याल ) खिलाई - संज्ञा, स्त्री० ( हि० खाना ) खाने या विचार, हँसी-खेल | खिरनी-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० क्षीरिणी ) खिलाने का काम | संज्ञा, स्त्री० (हि० खेलाना) बच्चे खेलने वाली दाई । For Private and Personal Use Only Page #546 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir खिलाऊ खीप खिलाऊ-वि० (दे० ) अपव्ययी, खिलाने बहुत खिसियाना "-रामा० । संज्ञा, पु० वाला। खिसियाहट। खिलाड़ी-खिलाड़----संज्ञा, पु० (हि० खेल खिसी*-संज्ञा, स्त्री० ( हि० खिसियाना ) +आड़ी-प्रत्य०) खेल करने वाला कौतुकी, । लजा, ढिठाई । खेलने वाला, पटा बनेटी या कौतुक करने | खिसौहां ---वि० (हि. खिसाना ) लज्जित वाला, नट, जादूगर, खिलारी (दे०)।। या कुढ़ा या रिसाया सा, शमिंदा । खिलाना-स० कि० ( हि० खेलना ) खेल | खींच - संज्ञा, स्त्री० ( हि० खींचना ) खींचने करना, खेल में किसी को लगाना। स० कि० का काम । यौ० संज्ञा, स्त्री० खींचतान(हि. खाना का प्रे० रूप ) भोजन कराना। ( हि० खींचना-तानना) दो व्यक्तियों का स० कि० (हि. खिलना ) विकसित करना, पारस्परिक विरुद्ध उद्योग, खींचा, खींची। क्लिष्ट फुलाना। कल्पना से किसी शब्द या वाक्यादि का खिलाफ़-वि० (अ.) विरुद्ध, उलटा, विप. अन्यथा अर्थ करना । खींचातानी (दे०) । रीत । संज्ञा, पु० खिलाफ़त ( श्राधुनिक ) | खींचना - स० क्रि० (सं० कर्षण) घसीटना, एक मुसलिम आन्दोलन ।। कोष या थैले श्रादि से बाहर निकालना, खिलैय्या-वि० ( दे० हि० खेलना + ऐया)। छोर या बीच से पकड़ कर अपनी ओर खेलय्या, खेलाड़ी। लाना, बलात् अपनी पोर लाना, ऐंचना, खिलौना-संज्ञा, पु० (हि. खेल ---ौना तानना, किसी ओर ले जाना, प्राकर्षित प्रत्य० ) बालकों के खेलने की वस्तु । करना, सोखना, चूमना, अर्कादि को भपके खिलजी-संज्ञा, स्त्री० (हि. खिलना ) हंसी, से निकालना, किसी वस्तु के गुण या तत्व हास्य, मज़ाक । यो०-खिल्लीबाज़- को निकाल लेना, लिखना, रेखादि अंकित दिल्लगीबाज़ । संज्ञा स्त्री. (हि. खील) करना, रोक रखना, चित्रित करना। पान का बीड़ा, गिलौरी, कील, काँटा। महा० - चित्त खींचना (ध्यान, मन या खिसकना-अ० कि० (दे० ) खसकना, | प्राख ) मन को मोहित करना, आकर्षित फिसलना, सरकना, चुपके से चला कर मुग्ध करना। पीड़ा या दर्द खींचना, जाना । क्रि० प्रे० खिसकाना-खसकाना, ( औषधि से) दूर करना । हाथ खींचनाफिसलाना। रोक देना या और कोई काम बंद करना। खिसना-- अ० क्रि० (दे०) नम्र या शरणा- खींचाखींची-खीचातानी-संज्ञा, स्त्री० गत होना। यो० (दे० ) खींच-तान। खिसलना-अ० कि. (दे०, खिसकना। | खीज-संज्ञा, स्त्री० (हि० खीजना ) खीझ वि० खिसलहा (दे० ) संज्ञा, स्त्रो० (दे०) (दे० ) अँझलाहट। खिसलाहट । खोजना-अ० क्रि० दे० (सं० खिद्यते ) खिसाना*-अ० कि० (दे०) खिसियाना दुखी (क्रुद्ध होना, झुंझलाना । खीझना " हँस्यौ खिसानी गर गह्यौ वि०। (दे०)। खिसारा-संज्ञा पु० ( फा) घाटा, हानि। खीन-वि० दे० (सं० क्षीण) क्षीण, हीन । खिसियाना ---अ० कि० (हि. खीस = दांत) | संज्ञा स्त्री० खीनता, खीनताई। लजाना, शरमाना, रिसाना, क्रुद्ध होना । खोप- संज्ञा, पु० (दे०) एक घना पेड़, खिसियाना (दे० ) " सुनि कपि-बचन | लजालु । For Private and Personal Use Only Page #547 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir खीर खुटपन, खुरपना खीर--- संज्ञा स्त्री० दे० (सं० क्षीर ) दूध में | खुयार* -वि० (दे०) ख्वार ( फा०)। पकाया चावल । मुहा० --नीर चटाना- स्त्री० संज्ञा-खुवारी- बरबादी। बालक को अन्न-प्राशन में श्रन्न ( खीर ) खुव—वि० दे० (सं० शुष्क या तुच्छ ) खिलाना संज्ञा पु० (दे०) दूध। क्षीर | Vछा, ख़ाली।। (सं.)। | खुखड़ी-सुखरी-संज्ञा, स्त्री० (दे० ) तकुए खीरा--संज्ञा, पु० दे० (सं० क्षीरक) ककड़ी पर चढ़ाकर लपेटा हुआ सूत या ऊन, कुकड़ी की जाति का एक फल । (दे०), नैपाली छुरी। खीरी ---- संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० तीर ) बाख, | खुगीर--- संज्ञा, पु० (फा०) नमदा, चारजामे गाय-भैंस प्रादि का प्रायन (दूध का स्थान, के नीचे का वस्त्र, जीन । मुहा०-खुगीर या थन का ऊपरी मांस), पिस्ता (मेवा) या की भरती-अति अनावश्यक लोगों या गाय । संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० क्षीरी) खिरनी।। वस्तुओं का संग्रह । खील-संज्ञा स्त्री० (हि. खिलना ) भूना | खुचर-खुचुर--संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० कुचर) धान, लावा । संज्ञा, स्त्री० ( दे० ) कील, ऐबजोई, व्यर्थ या झूठ दोष दिखाने का काम । फुड़िया में मवाद की गाँठ ।। खुजलाना-स० नि० दे० (सं खर्जु) नखादि खीला- संज्ञा, पु० दे० (हि. कील ) काँटा, से खुजली मिटाना. सहलाना। अ० क्रि० मेख, कील, खील । किसी अंग में सुरसुरी या खुजली लगना । खीली- संज्ञा स्त्री० दे० ( हि० खील ) पान | संज्ञा, स्त्री० खुजलाहट-खुजली । का बीड़ा, कीलो। खुजानी-संज्ञा, स्त्री० (हि. खुजलाना ) खीवन-खीवनि- संज्ञा, स्त्री० (सं० क्षीवन) खुजलाहट, एक रोग या, सुरसुरी, खर्जन । मस्ती. मतवालापन । खुजाना- स० कि०, अ० कि० (दे०) खीस* --- वि० दे० (सं० किष्क) नष्ट, बरबाद, | खुजलाना, खजुश्राना ( दे० )। संज्ञा, स्त्री० (हि० खीज ) क्रोध, अप्रसन्नता । खुटक-संज्ञा, स्त्री० ( हि० खटकना ) संज्ञा, स्त्री० (हि० खिसियाना) लज्जा, हानि, । खटका, चिन्ता, शंका । खुरका-खटका । संज्ञा, स्त्री० दे० ( सं० कीश ) अोठ से बाहर " कह गिरधर कविराय, खुटक जैहै नहिं निकले दाँत ।..." कछू न ह है खीस" ताकी ।" -छत्र० । मुहा०-खोस कढ़ाना-- खुटकना-स० कि० दे० ( सं० खुड--- खुराड) निकालना (बाना ) श्रोठ से बाहर दाँत किसी वस्तु को ऊपर से तोड़ना, नोचना। निकालना, डरना, हँसना, आधीन होना, खुटचाल -संज्ञा, स्त्री० (हि. खोटी+ डराना। खीसा--संज्ञा, पु० दे० ( फा० कीसा ) थैला, | चाल ) दुष्टता, कुचाल, पाजीपन, उपद्रव । जेब, खलीता । स्त्री. अल्पा० खीसी. / वि० खुटचाली- दुराचारी, पाजी, नीच, खिलीसी पु० खिलीसा (दे० प्रान्ती०)। बदचलन, दुष्ट । खुदाना--स० क्रि० दे० (सं० क्षुण रौंदा हुया) | खुटना ---अ. क्रि० दे० ( सं० खुड ) कुदाना (घोड़ा। खुलना, टूटना। अ० क्रि० समाप्त होना, खुदी-- संज्ञा, स्त्री० (दे० ) खूद, घोड़े का | अलग होना, पुरा होना । ..." सोई जानै थोड़ी जगह में कूदना। जनु आयु खुटानी"- रामा० । खुबी-खं भी-संज्ञा, स्त्री० (दे०) कान का | खुटपन, खुटपना-संज्ञा, पु० दे० (हि. एक भूषण, कील । खोटा+पन-प्रत्य० ) खोटाई, दोष, ऐब । For Private and Personal Use Only Page #548 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir खुटाई खुभराना खुटाई-संज्ञा, स्त्री० (हि० खाटाई ) खोटा- खुदना-अ० क्रि० (हि. खोदना) खोदा पन, दोष। जाना। खुटाना-अ० कि० दे० (सं० खुड -खांडा खुदमुख्तार-वि० (फा०) स्वतंत्र, स्वच्छंद, होना, खोट ) खुटना, ख़तम होना, क्षीण जो किसी के प्राधीन न हो। संज्ञा, स्त्री० या नष्ट होना, तुल्य करना। खुदमुख्तारी- स्वच्छन्दता, स्वतंत्रता । खुटिला-संज्ञा, पु०(दे० ) नाक या कान खुदरा-संज्ञा, पु० (सं० क्षुद्र ) छोटी साधाका एक गहना। रण वस्तु, फुटकर चीज़। अव्य. (फ़ा०) खुट्टो - संज्ञा, स्त्री० ( ? ) खेड़ी (मिठाई ) अपनी, " ..."लो० - खुदरा फ़ज़ीहत, मित्रता-भंग ( बालकों का)। दीगरा नसीहत' ( फा० )। खुट्टी--संज्ञा, स्त्री० ( ? ) घाव की पपड़ी, खुदवाई-संज्ञा, स्त्री. ( हि. खुदवाना ) खुरंड। खुदवाने की क्रिया या भाव, मजूरी । खुडुआ-खुदुघा-संज्ञा, पु. ( दे० ) कम्बल | खुदवाना-स० क्रि० (हि. खोदना का प्रे० से देहावरण, घोघी। रूप ) खोदने का काम कराना। खुड्डी-खुडढी-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि० गड्ढा) खुदा संज्ञा, पु. ( फा०) स्वयंभू , ईश्वर । पाखाने का पायदान, या ग़ड्ढा ।। संज्ञा, स्त्री० फा०) खुदाई-ईश्वरता, सृष्टि । खुतवा -- संज्ञा, पु. (अ.) प्रशंसा, साम- खुदाई-संज्ञा, स्त्री. ( हि० खादना) खोदने यिक राजा की घोषणा। का भाव, या मजदूरी, खोदाई (दे०)। मुहा०- ( किसी के नाम का ) खुतवा | खुदावंद- संज्ञा, पु० (फ़ा०) ईश्वर, मालिक, पढ़ा जाना-जनता की सूचना के लिये | श्रीमान, हुजूर । राज्यासीनता की घोषणा करना। खुदी- संज्ञा. पु० ( फ़ा० ) अहंकार, शेख़ी, खुत्था-संज्ञा, पु० (दे०) लकड़ी का बाहर घमंड, अहंमन्यता। निकला हुआ भाग । स्त्री० खुत्थी। | खुद्दी -संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० क्षुद्र ) चावलखुत्थी-खुथी—संज्ञा, स्त्री० (हि.खू टी ) दाल आदि के छोटे छोटे टुकड़े। फसल कटने पर पौधों की खूटी, लूँ थी, खुनखुना--संज्ञा, पु. ( अनु० ) घुनघुना, थाती, अमानत, रुपये रख कर कमर में भुनभुना । बाँधने की थैली, बसनी (प्रान्ती०) खुनस-खुनुस-संज्ञा, स्त्री० दे० ( सं० हिमयानी, सम्पत्ति। खिन्नमनस् ) क्रोध, रिस, रोष। वि० खुनसी खुद -- अव्य० ( फा० ) स्वयं, श्राप । क्रोधी “खेलत खुनस न कबहूँ देखी"मुहा०—खुदब.खुद-- अपने श्राप, आप रामा० । ही आप, बिना दूसरे की सहायता के। खुनसाना--अ० कि० (दे०) गुस्सा होना, खुदकाश्त-संज्ञा, स्त्री० यो० ( फ़ा० ) रिसाना। वह भूमि जिसे उसका मालिक स्वयं जोते । खुफ़िया-वि० ( फा०) गुप्त, छिपा हुश्रा । बोवे, पर वह सीर न हो। यौ खुफ़िया पुलीस-संज्ञा, स्त्री० (फा. खुदग़रज़-वि० ( फा० ) अपना मतलब | +अं० ) जासूस, भेदिया। साधने वाला, स्वार्थी, " खुदगरज़ जो खुबना-वुभना-स० क्रि० (अनु०) चुभना, दोस्त है वह है अदू"-हाली। धंसना, पैठना, घुसना। खुदग़रज़ी-संज्ञा, स्त्री. ( फा० ) स्वार्थ- खुभराना *---अ० कि० दे० (सं० सुन्ध ) परता स्वार्थ, परायणता। | इतराये फिरना, उपद्रवार्थ घूमना । भा० श० को०-६८ For Private and Personal Use Only Page #549 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir खुर्दा खुभाना खुभाना-स० क्रि० (दे० खुभना ) चुभाना, होना । प्र. क्रि० (वि० खुरखुरा ) खरदरा गड़ाना.... मतिराम तहाँ हग-बान लगना, खरखराना (दे० )। खुभायौ।" खुरचन--संज्ञा, स्त्री० (हि. खुरचना ) खुरच खुभिया-खुभी-संज्ञा, स्री० दे० (हि.. कर निकाली गई वस्तु, दूध की एक खुभना ) कान की लौंग, कील. हाथी के | मिठाई (मथुरा)। दाँत पर चढ़ाया जाने वाला पीतल, चाँदी खुरचना-अ. कि० दे० (सं० शुरण ) श्रादि का पोला, " मनमथ-नेजा-नोकसी, करोचना, करोना, कुरेदना, खरोंचना खुभी खुभी जिय माहि-वि० । ..... " खुभी छीलना, स० प्रे० कि० खुरचाना। दन्त झलका"-सू०। खुरचाल—संज्ञा, स्त्री० (दे० ) खुटचाल, खुमान-वि० दे० (सं० आयुष्मान ) दुष्टता, खोटी चाल । दीर्घजीवी ( आशीष ) " ग्रीषम के भानु खुरजो - संज्ञा, स्त्री. ( फा० ) सामान से खुमान को प्रताप देखि "-भूः। । रखने का झोला, बड़ा थैला । खुमार-संज्ञा, पु० (फा०) नशे का अंतिम | खुरतार-संज्ञा, स्त्री० (हि० खुर + ताड़ना) प्रभाव । खुर, टाप या सुम की चोट । खुमारी (खुम्हारी)-संज्ञा, स्त्री० अ० | | खुरपका-संज्ञा, पु. (हि. खुर + पकना ) (दे०) मद, नशा, नशे के उतरने पर चौपायों के खुर और मुँह पकने का रोग। हलकी शिथिलता, रात भर जागने की | खुरपा-संज्ञा, पु० दे० (सं० सुरप्र ) घास थकावट । “ राजत सुख सैन नैन मैन की छीलने का यंत्र। स्त्री० अल्प०-खुरपी, खुमारी"-अ० अ०। छोटा खुरपा। खुमी-संज्ञा, स्त्री० दे० ( म० कुमा ) दाँतों खुरमा-संज्ञा, पु. (अ.) छोहारा, एक की कील, हाथी के दाँत का पोला, कुकुर- पकवान या मिठाई। मुत्ता, भूफोड़, जैसे पत्र, पुष्प-हीन उद्भिज। खुराक-संज्ञा, स्त्री० ( फा० ) भोजन, खुरंड-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० शुर+ अंड) खाना, खुराक (दे०) दवा की एक मात्रा । सूखे घाव की पपड़ी, खुरंट ( दे०)। खुराका-संज्ञा, स्त्री० (फा०) खुराक के खुर-संज्ञा, पु० (सं० ) सींग वाले पशुत्रों | लिये दिया हुआ धन । (चौपायों) के पैर की कड़ी और बीच से | खुराफ़ात-संज्ञा, स्त्री. ( अ. ) बेहूदा फटी टाप, सुम। ( रद्दी ) बात, झगड़ा, गाली-गलौज, व्यर्थ खुरक-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. खुटक) खटका, का बखेड़ा। अंदेशा। खरी-संज्ञा, स्त्री. (हि० खुर ) टाप का खुरखुर-संज्ञा, स्त्री. (अनु० ) गले का चिन्ह । खुरहर ( दे.)। का से खरखराने का शब्द, घरघर शब्द, खुरुक*-संज्ञा, पु० (दे०) खुरक । खरहरा । संज्ञा, स्त्री० खुरखुराहट-गले । .खुर्द-वि० (फा० ) छोटा, लघु । का खरखर शब्द, खुररापन । खुर्दबीन-संज्ञा, स्त्री. ( फा० ) सूक्ष्म खुरखुरा--वि० दे० ( सं० चुर-खोरचना) | दर्शक यन्त्र, अणु-वीक्षण, छोटी चीज़ को जिसे छूने से हाथ में रवे या कण गड़ें, बड़ा दिखाने वाला यन्त्र । खरहरा, विषमतल । स्त्री० खुरखुरी। खुर्दबुर्द-कि० वि० (फा० ) नष्ट भ्रष्ट । खुरखुराना-अ. क्रि० (हिं० खुरखुर) खर- खर्दा-संज्ञाा, पु. (फ्रा०) छोटी-मोटी खराना, घरघराना, गले में कफ से शब्द । चीज़, फुट कर, स्फुट (सं.)। For Private and Personal Use Only Page #550 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir .खुरीट ५३६ खूटना .खुरीट-वि० (दे० ) बुड्ढा, अनुभवी, खुशबू---संज्ञा, स्त्री० [फा० ) सुगंधि, चालाक, चाई। सौरभ । वि० खुशबूदार-सौरभीला । खुलना-अ० कि० दे० (सं० खुड, खुल = खुशमिजाज--वि० ( फा०) प्रसन्न चित्त । मदन ) अवराध या बद न रहना, आवरण खुशहाल-वि० (फा०) सुखी, सम्पन्न । का दूर होना, छाये या घेरे हुई वस्तु का खुशामद-संज्ञा, स्त्री० ( फा० ) चापलूसी, हटना, दरार होना, फटना या छेद होना, प्रसन्नतार्थ झूठी प्रशंसा । बाँधने या जोड़ने वाली वस्तु का हटना, । खुशामदी-वि० ( फा० खुशामद +ईजारी होना, रेल, सड़क, नहर आदि का प्रत्य० ) खुशामद करने वाला, चापलूस । तैय्यार होना, कार्यालय, दफ़्तर, दूकान खुशामदी टट्ट-संज्ञा, पु० यौ० (फा० आदि का कार्य चलने लगना, सवारी का +हि० ) खुशामद करने वाला निकम्मा । रवाना हो जाना, गुप्त या गूढ़ बात का खुशी-संज्ञा, स्त्री० ( फा० ) आनन्द, प्रगट होना, भेद ( मन की बात) बताना, प्रसन्नता। सजना, शोभा देना। खुश्क- वि० ( फा० मि० सं० शुष्क) सूखा, मुहा०-खुलकर-बिना रुकावट के, | रूखे स्वभाव का, नीरस, केवल, मात्र, बिना बिना सङ्कोच के, बिना डर । खुले आम, बाहिरी आमदनी के। खुले खजाने, खुले मैदान-सब के | .खुश्की-संज्ञा, स्त्री० ( फा० ) शुष्कता, सामने, छिपाकर नहीं। खुलता रंग- नीरसता, स्थल, रुखाई। हलका, सोहावना रंग। खुसाल-खुस्याल 8--वि० दे० ( फा० खलवाना–स० कि० (हिं. खोलना का खुशहाल ) आनन्दित. खश । स्त्री. संज्ञा. प्रे० ) दूसरे से खोलाना। खुस्याली । “ खूनी फिरत खुस्याल " खुला-वि. पु. ( हि० खुलना ) बंधन- | -वि०। रहित, बिना रुकावट, स्पष्ट, जाहिर, प्रगट । खुसिया-संज्ञा, पु. ( अ० ) अंडकोश । खुलासा-संज्ञा, पु. ( अ० ) सारांश । खुसुर-खुसुर-संज्ञा, पु० दे० ( अनु० ) वि० (हि. खुलना) खुला हुआ, स्पष्ट, धीरे धीरे बातें करना। अवरोध-हीन, क्रि० वि०-स्पष्ट रूप से। खुही-संज्ञा, स्त्री० (दे०) वर्षा से बचने खुल्लमखुल्ला-क्रि० वि० (हि० खुलना) को कम्बल या कपड़े की लपेट । प्रकाश्य रूप से, खुले प्राम। खू खार-वि० (फा० ) खून पीने वाला, खुधारी-संज्ञा, स्त्री० (फ़ा० रुवारी) ख़राबी, । भयंकर, क्रूर, निर्दय । संज्ञा, स्त्री० ( फा० ) अपमान, बरबादी। खू खारी--क्रूरता, भयङ्करता। खुश-वि० ( फा० ) प्रसन्न, आनन्दित, खंच-संज्ञा, स्त्री० (दे० ) जानु की नाड़ी। अच्छा ( यौगिक में)। खट-संज्ञा, पु० दे० (सं. खंड ) छोर, खुशकिस्मत--वि० (फा० ) भाग्यवान् । कोना, भोर, भाग । संज्ञा, स्त्री० (हि० खोट) खुशखबरी-संज्ञा, स्त्री. (फा०) सुखद कान का मैल। समाचार, अच्छी खबर। | खूटना*-अ० कि० दे० (सं० खंडन ) खुशदिल-वि० (फा० ) सदा प्रसन्न रहने । रुकना, बंद या समाप्त होना, टूटना, घट वाला, हँसोड़। जाना । स० कि० छेड़-छाड़ या पूछताछ खुशनसीब-वि० (फा० ) भाग्यवान् । । करना, रोकना, टोंकना, तोड़ना । खूटना, For Private and Personal Use Only Page #551 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org खू ** खुटना (दे० ) 1... " तौ गनि विधाता हू की आयु खुटि जायगी " - रत्ना० । खूँटा -- संज्ञा, पु० दे० (सं० तोड़ ) लकड़ी ET, ( पशु बाँधने वा ) । खूंटी -- संज्ञा, स्त्री० द० ( हि० खूँटा ) छोटी मेख, कील, अरहर, ज्वार आदि के पौधों के निचले भाग जो काटने पर गड़े रह जाते हैं, अंटी, गुल्ली, बालों के नये कड़े अंकुर, सीमा । खू ड -संज्ञा, पु० (दे०) श्रंक, खाँई, खान । खूद - संज्ञा, स्त्री० (दे० ) थोड़ी जगह में घोड़े का कूदना । खूँदना - अ० क्रि० दे० ( सं० खुडन तोड़ना ) उछल-कूद करना, पैरों से रौंद कर बरबाद करना, कुचलना । खोदना (दे० ) रौंदना, टाप पटकना । प्रे० रूप० खुदाना, खुदवाना - खुदराना -- दुलकी चलाना । खूक- खूख संज्ञा, पु० ( प्रान्ती० ) सुअर | ख़ूझ्झा-संज्ञा, पु० दे० (सं० गुह्य, प्रा० गुज्झ ) फल का भीतरी रेशेदार व्यर्थ का भाग, उलझा हुआ लच्छा । खूटना - प्र० क्रि० दे० (सं० खंडन ) रुकना, अंत होना । स० क्रि० छेड़ना, रोकटोक करना, घटना, चुक या बीत जाना, टोंकना । श्रायुर्वल, खूढ्यौ धनुष जु टूट्यौ " - राम० । 64 ", खूद - खूदड़ - खूदर -संज्ञा पु० दे० (सं० क्षुद्र ) तलछट, मैल | रुधिर, खून संज्ञा, पु० ( फा० ) रक्त, बध, हत्या | मुहा०- खून उबलना ( खोलना ) क्रोध से देह ( ख ) लाल होना, गुस्सा चढ़ना, खून का प्यासा - वध का इच्छुक | ख़ून सिर पर चढ़ना ( सवार होना ) किसी को मार डालने या ऐसा ही अनिष्ट करने पर उद्यत। खून पीना- --- मार डालना, सताना, तंग करना । खून के घूँट पोनालगने वाली बात को चुपचाप सह · Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir खेचरा लेना । यौ० -- खून खच्चर, खून-खराबी ( खराबा ) मार-काट | लॉ० खून लगा कर शहीदों में मिलना-झूठमूठ अगुश्रा या नेता बनना किसी व्याज से श्रागे बढ़ना, बिना योग्यता के अधिकारी होने का दम भरना सुहा०- खून लगनाकिसी हिंसक पशु का खूंखार हो जाना । खून करना - हत्या करना । वि० खूनीहत्यारा, अत्याचारी । खुब - वि० ( फा ) अच्छा, भला, उत्तम । क्रि० वि० ( फा० ) भली भाँति | संज्ञा, स्त्री० खूबी । खूबकलां - संज्ञा, स्त्री० ( फा० ) खाकसीर । खूबसूरत - वि० ( फा० ) सुन्दर, रूपवान | संज्ञा, स्त्री० खूबसूरती -सुन्दरता । खुबानी - संज्ञा स्त्री० ( फ़ा० ) ज़रदालु ( , नामक एक फल | खूबी-संज्ञा, स्त्री० ( फा० ) अच्छाई, भलाई, विशेषता, गुण । खुभना - अ० क्रि० (दे० ) अजीर्ण होना, पुराना होना । खूसट-खूबा - संज्ञा, पु० दे० (सं० कौशिक ) उल्लू । वि० मनहूस, मूर्ख, नीरस, खूसर (दे० ) " सुमिरे कृपालु के मराल होत खुसरो ” – कवि० । सृष्टीय – वि० (हि० ख्रीष्ट + ई – सं० प्रत्य० ) ईसा संबन्धी, ईसाई | खेकसा - खेखसा - संज्ञा, पु० ( प्रान्ती० ) परवल जैसा एक रोंएदार फल (तरकारी) कोड़ा | खेचरा - संज्ञा, पु० यौ० (सं० खे + चर ) कचारी, सूर्य, चंद्र, ग्रह, तारा, वायु, देवता, पक्षी, विमान, भूत-प्रेत, राक्षस, बादल, पारा, कसीस, शिव, विद्याधर । ० खेचरी गुटिका संज्ञा, स्त्री० (सं० ) योग - सिद्ध एक गोली जिसे मुख में रखने से प्रकाश में उड़ने की शक्ति था जाती For Private and Personal Use Only Page #552 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir खेल खेजड़ी ५४१ है। ( तंत्र०)। यौ०-खेचरी मुद्दा- खेतीबारी-संज्ञा, स्त्री० यौ० (हि. खेती+ संज्ञा, स्त्री० (सं०) जीभ को उलट कर बारी ) किसानी, कृषि-कर्म । ताल में लगाने और दृष्टि को मस्तक पर खेद -संज्ञा, पु० (सं० ) दुःख, शिथिलता, रखने की एक मुद्रा ( योग-साधन)। अप्रसन्नता । वि० खेदित, खिन्न । खेजड़ी-संज्ञा, स्त्री० (दे०) शर्म का पेड़। खेदना-स० कि० दे० (सं० खेट ) भागना, खेट-संज्ञा. पु. ( सं० ) ग्रह, अहेर, नक्षत्र, | खदेरना शिकार के पीछे दौड़ना। ढाल, का, लाठी, चमड़ा, तृण, घोड़ा, खेरा । | खेदा--संज्ञा, पु. ( हि० खेदाना) किसी खेटक--संज्ञा, पु० (सं०) खेड़ा, गाँव, | बनैले पशु को मारने या पकड़ने के लिये सितारा, बलदेव की गदा. अहेर, ढाल, | घेर कर एक निश्चित स्थान पर लाने का तारा, आखेट (सं० ) काम, शिकार, अहेर. आखेट ।। खेटकी-संज्ञा, पु० (सं० ) शिकारी, बधिक | खेदित-वि० (सं० ) दुखित, शिथिल । (आखेट ) संज्ञा, पु० (सं०) भडुरी, भड्डर । | खेना-स० कि० दे० (सं० क्षेपण ) डाँड़ों खेटिक-संज्ञा, पु. ( सं० ) बधिक, व्याध, को चलाकर नाव चलाना, कालक्षेप करना, बहेलिया। बिताना, काटना। खेड़ा-संज्ञा, पु० दे० (सं० खेर ) छोटा खेप --संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० क्षेप ) एक बार गाँव, पुरवा (दे०) खेरा। में ले जाने योग्य वस्तु, लदान गाड़ी श्रादि खेड़ी-संज्ञा, स्त्री० (दे०) झरकटिया (कान्ति की एक बार की यात्रा। सार ) या ईस्पात लौह, जरायुज जीवों के खेपना - स० कि० दे० (सं० क्षेपण) गुज़ारना, बच्चों की नाल के दूसरे छोर का माँस खंड । बिताना। खेड़ी (दे० ) गर्भावरण। खेम-संज्ञा, पु० ( दे०) क्षेम (सं.)। खेत-संज्ञा, पु० दे० (सं० क्षेत्र ) अनाज खेमटा-संज्ञा, पु. ( दे० ) १२ मात्राओं के लिये जोतने-बोने की भूमि, खेत की की एक ताल,इसी ताल का गान या नाच । खड़ी फसल, किसी चीज़ ( पशुधों आदि ) | खेमा --संज्ञा, पु. (अ.) तंबू, डेरा कनात । के उत्पन्न होने का स्थान, समर-भूमि, | यो० डेरा-खेमा। तलवार का फल, पावन भूमि, योनि । खेरी-संज्ञा, स्त्री. (प्रान्ती०) बंगाल का मुहा०-खेत करना-समथल करना, | गेहूँ, एक पक्षी। उदय-काल में चंद्रमा का प्रथम प्रकाश | खेल-संज्ञा, पु० दे० (सं० केलि ) व्यायाम फैलना। खेत पाना-- रहना ) युद्ध या मनोरंजनार्थ उछल-कूद, दौड़-धूप जैसा में मारा जाना । खेत रना--समर में कृत्य, क्रीड़ा हार-जीत वाले कौतुक, मामला, जीत जाना, खेत लेना--युद्ध छेड़ना । हलका ( तुच्छ ) काम, अभिनय, तमाशा, "सानुज निदरि निपातउँ खेता" लीन्यौ स्वांग, करतब, अद्भुत बात, लोला । खेत भारी कुरुराज सों अकेले जाइ "- | मुहा० --खेल करना-व्यर्थ का विनोद अ० व०। या मज़ाक के लिये छोटे काम करना । खेल खेतिहर - संज्ञा, पु० दे० (सं० क्षेत्रधर ) समझना- तुच्छ या साधारण बात कृषक, किसान। जानना। खेल खेलाना -बहुत तंग करना, खेती-संज्ञा, स्त्री० (हि० खेत+ ई-प्रत्य०) खेल बिगड़ना -काम बिगड़ना, रंग-भंग, कृषि, किसानी, खेत की फसल, खेत का | होना । खेल न होना- साधारण बात काम । " उत्तम खेती, मध्यम बान"। । न होना । यौ० हँसी-खेल । बायें हाथ का For Private and Personal Use Only Page #553 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir खेलना खैर-भैर-खेल-मैन खेल-बहुत साधारण बात या काम । संज्ञा, । खेवना - स० कि० दे० (हि० खेना ) नाव पु. (हि. खेलना ) खेलक-खिलाड़ी। चलाना, खेना । खेलना-अ० कि० दे० (सं० केलि, केलन) खेवा ---संज्ञा, पु. ( हि० खेना ) नाव का उछलना कूदना दौड़ना क्रीड़ा-कौतुक करना, किराया, नाव से नदी का पार करना, वार, काम-क्रीड़ा ( विहार ) करना, भूत- दफा, समय, नाव का बोझ । प्रेत-प्रभाव से हाथ-पैर या सिर हिलाना, खेवाई-संज्ञा, स्त्री० (हि. खेना ) नाव खेने श्रभुत्राना, विचरना, बढ़ना नाटक या का काम या किराया, खेने की मजदूरी। अभिनय करना । यौ• खेलना-खाना- खेवाना-स० कि० (हि. खेना का प्र० रूप) आनंद करना "कहाखेल्यौ अरूखायौ"-- नाव चलवाना। हरि०। खेस-संज्ञा पु० ( प्रान्ती.) बहुत मोटे सूत मुहा०-जान (जी) पर खेलना-मृत्यु का वस्त्र । खेसड़ा (दे०)। के भय का काम करना । चाल खेलना - खेसारी-संज्ञा, स्त्री. दे. (सं० कृसर ) कुछ चालाकी करना । स०क्रि० -मनोविनोद दुबिया मटर, लतरी। का काम करना, जैसे गेंद या ताश खेलना । खेह-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० क्षार ) धूल, खेलवाड - संज्ञा, पु. ( हि० खेल+वाड़ राख। 'नेहरी कहाँ को जरि खेहरी भई..." प्रत्य० ) खेल, क्रीड़ा, तमाशा, हँसी, । द्विजः । मुहा०-खेह-खाना-धूल दिल्लगी, तुच्छ या साधारण काम, मनो फाँकना, दुर्गति में फँसना, व्यर्थ समय रंजक काम । खेला ( दे० )। वि. खोना । खेहर-(दे०) ... " सोना खेहर खेलवाडी-विनोदशील । खेलवार (दे०)। खाउ"-बिन। मुनि श्रायसु खेलवार"-रामा० । बँचना-स० क्रि० ( दे० ) खींचना । खेलाड़ी-वि० (हि० खेल+बाड़ी-प्रत्य०) बैंच-संज्ञा, स्त्री० (दे०) खिंचाव । " लेत विनोदी, कौतुकी, खेलने वाला । संज्ञा, पु० चढ़ावत बँचत गाढ़े"..-रामा०। खेलने वाला व्यक्ति, कौतुकी, मदारी, ईश्वर, खैर-संज्ञा, पु० दे० (सं० खादिर) एक प्रकार बाज़ीगर, खिलाड़ी, खेलारी (दे०)। खेलाना-स० क्रि० (हि० खेलना का प्रे० रूप) ___ का बबूल, कथ या सोनकीकर, इसी की लकड़ी को उबाल कर जमाया हुआ रस, किसी को खेल में लगाना, उलझाए रखना, जो पान में खाया जाता है, कत्था, एक बहलाना, खेल में शामिल करना, शत्रु को पक्षी । संज्ञा, स्त्री० (फा० खैर ) कुशल, बढ़ने देना तथा उससे साधारणतया लड़ना, क्षेम । अव्य. -कुछ चिंता नहीं, कुछ परवा “यहि पापिहिं मैं बहुत खेलावा" रामा० । नहीं, अस्तु, अच्छा । - जानकी देहु तो खेलार -संज्ञा, पु० (दे०) खेलाड़ी, " चढ़ी चंग जनु खैच खेलारु-रामा० । जान की खैर ।" खेवक-खेवट*-संज्ञा, पु० दे० (सं० क्षेपक) खैर-आफ़ियत-- संज्ञा, स्त्री. ( फा० ) नाव खेने वाला, केवट, मल्लाह, खेवटिया क्षेम-कुशल । ( कवी.)। खैरखाह--वि० ( फा० ) शुभचिंतक, (हि. खेत-बाँट) पटवारी हितेच्छु । संज्ञा, स्त्री० खैरखाही। का एक काग़ज जिसमें गाँव के प्रत्येक | खैर-भैर-खैल-मैल-संज्ञा, पु० यौ० (दे०) पट्टीदार का भाग लिखा रहता है, मल्लाह, हलचल, शोरगुल । " खैरभैर चहुँ ओर केवट । । मच्यो"-रघु०। खवर For Private and Personal Use Only Page #554 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org खैरा खोट खैरा - वि० ( हि० खैर ) खैर के रंग का, कत्थई, एक मछली । का घोंसला, नीड़ (सं०) खुन्था, खुंता, खोंतल ( प्रान्ती० ) । खैरात - संज्ञा, स्त्री० ( फा० ) दान, पुण्य, खोंप-संज्ञा, पु० (दे० ) सिलाई के दूर वि० खैराती । ख़ैरियत संज्ञा, स्त्री० ( फा० ) तेम-कुशल, भलाई, राजी खुशी । खैला - संज्ञा, पु० (दे० ) बछड़ा, नया बैल | खखना- - प्र० क्रि० ( प्रान्ती० ) खाँसना खोखी - संज्ञा, स्त्री० ( प्रान्तो० ) खाँसी । खोंगाह - संज्ञा, पु० (सं० ) श्वेत-पीत वर्ण का घोड़ा । खोंच-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० कुच ) किसी नुकीली चीज़ से छिलने का श्राघात, खरोंच, खरोंट, काँटे से वस्त्र का फटना, तुलसी चातक पेम-पट, भरतहु लगी न खोंच " | संज्ञा, पु० (दे० ) मुट्ठी भर न । खोंचा (दे० ) खोंची। खोंचा -संज्ञा, पु० दे० (सं० कुच ) चिड़ियों के फँसाने का लम्बा बाँस, खरोंच । खोंचिया संज्ञा, पु० (दे० ) खोंची लेने वाला, भिखारी । 16 खोंची संज्ञा, स्त्री० (दे० ) भीख, थोड़ा अन जो बाज़ार में दूकानों से निकाल लिया जाता है, कर, खाई खोंची माँगि मैं " ---- बिन० । 66 खोट - संज्ञा स्त्री० ( हि० खोटना ) खोंटने या नोंचने की क्रिया, खरोंट, खोंच । वि० बुरा, खोटा (दे० ) ( विलो ० खरा ) । खोंटना- - स० क्रि० दे० (सं० खुराड ) किसी चीज़ का ऊपरी हिस्सा तोड़ना, कपटना, उपाटना । खोंडर - संज्ञा, पु० (दे०) पेड़ का खोखला, गड्ढा, खोंडरा (दे० ) । खोंडा - वि० दे० (सं० खुराड ) अंग-भंग, आगे के टूटे दाँतों वाला | खोड़हा (दे० ) स्त्री० खोड़ी। खोता - खोथा - संज्ञा, पु० (दे० ) चिड़ियों ५४३ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir दूर टाँके । खोंपा - संज्ञा, पु० ( प्रान्ती० ) फाल लगी लकड़ी, छाजन का कोना, चोटी, जूड़ा । लकड़ी आदि में अटक कर वस्त्र का फटना, बेणी (दे०) । खोंसना - स० क्रि० दे० (सं० कोश + ना -- प्रत्य० ) अटकाना, किसी वस्तु को स्थिर रखने को उसके कुछ अंश को कहीं घुसेड़ देना । खोया - संज्ञा, पु० (दे० खोई संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० रस निकले गन्ने के लीकी, धान की खील, लाई, कम्बल की घोघी, खुही । सा० भू० स० क्रि० ( खोना ) स्त्री । खोऊ - वि० दे० ( हि० खोना ) अपव्ययी । खोखला - वि० दे० ( हि० क्ख+लाप्रत्य० ) पोला, थोथा । संज्ञा, पु० बड़ा छिद्र | खोखा - संज्ञा, पु० (दे०) चुकती हुई हुँडी, बच्चा । खोज - संज्ञा, स्त्री० ( हि० खोजना ) अनुसन्धान, शोध, चिन्ह, पता, गाड़ी की लीक या पद चिन्ह | "इत उत खोज "रामा० । दुराइ मुहा० खोज पड़ना - पीछे पड़ना, ...." सखी परीं सब खोज " वि० खोजक खोजी-ढूंढने वाला । खोजना - स० क्रि० दे० (सं० खुज चोराना ) ढूँढना, पता लगाना । स० क्रि० ( खोजना का प्रे० रूप) खोजवाना, खोजाना । खोजा – संज्ञा, पु० ( फ़ा० ख़्वाजा ) नवाबों का नपुंसक नौकर ( हरमों का ) माननीय व्यक्ति, सरदार, हिजड़ा । खोट - संज्ञा, स्त्री० (सं०) दोष, ऐब, बुराई, किसी अच्छी चीज़ में ख़राब चीज़ की For Private and Personal Use Only खोवा, खोया । क्षुद ) छोई, -प० । Page #555 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir खोटा __ खोल मिलाव । अंगूर, फुड़िया का दिउल, "छोट | कपाल, सिर, गरी का गोला, नारियल, सिर कुमार खाट अति भारी".. रामा० । वि. की हड्डी। दुष्ट, ऐबी। खोपड़ी-संज्ञा, स्त्री० ( हि. खोपड़ा ) मुहा०-खोटहोना-मिलावट, या दोष कपाल, सिर । महा०-अंधी ( औंधी) होना। खोपड़ी का--मूर्ख, बेवकूफ. खोपड़ी खोटा-वि० दे० (सं० क्षुद्र ) बुरा. ( विलो. खा ( चाट ) जाना-बहुत बकबाद -खरा) स्त्री० खोटी । खोटो (७०)। करके तंग करना । खोपड़ी गंजी मुहा०-चोटी-खरी सुनाना (सुनना) होना-मार से सिर के बालों का झड़ —फटकारना, डाँटना, बुरा-भला कहना। जाना । खोपड़ी खाली होना-मस्तिष्क "बिन ताये खोटो-खरो"-वृं। में बातें करते करते शिथिलता आ जाना, खोटाई-खोटापन-संज्ञा, स्त्री. ( हि० अधिक मानसिक श्रम करना । खोटा + ई-पन–प्रत्य०) क्षुद्रता, बुराई, खोभरा-संज्ञा, पु० (प्रान्ती० ) लकड़ी का मिलावट, दोष, छल, खोटे का भाव । उभड़ा भाग, खुंटी। खोटपन (दे० । खोम--संज्ञा, पु. (अ. कौम ) समूह । खोद--संज्ञा, पु. ( फा० ) युद्ध में पहिनने खोय-संज्ञा, स्त्री० दे० (फा. खू) आदत । का टोप, फँड, शिर त्राण । खोया- संज्ञा, पु० दे० (सं० क्षुद्र ) खोवा, खोदना-स० क्रि० दे० (सं० खुद-भेदन मावा, प्रौटा कर खूब गाढ़ा किया हुआ दूध । स० भू० (स० कि० खोना) खो करना ) गड्ढा करना, खनना, मिट्टी श्रादि डाला। उखाड़ना, नक्काशी करना, उँगली, छड़ी आदि खोर-खोरि-संज्ञा, स्त्री० दे० ( खुर---हि.) से कुरेदना, छेड़-छाड़ करना, छेड़ना, उस सँकरी गली, कूचा, चौपायों के चारे की काना, उभाड़ना। स० कि० ( खोदना प्रे० नाँद । संज्ञा, स्त्री. (हि. खोरना ) स्नान, रूप) खोदाना, खोदवाना। नहान । संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० खोट-खोर) खाद-विनोद - संज्ञा, स्त्री. (हि० अनु० ) दोष, बुराई । " कहों पुकारि खोरि मोहिं छान बीन, जाँच-पड़ताल । नाहीं "- रामा०। ( दे० ) खारी। खोदर-वि० (दे०) ऊँचा-नीचा, अड़. हिँभिबे जोग हँसै नहिं खोरी।" बड़, खोदरा (दे०)। खोरना-अ. कि० दे० (सं० क्षालन ) खोदाई-संज्ञा, स्त्री० (हि. खोदना ) खोदने । नहाना। का काम, खोदने की मज़दूरी। खोरा--संज्ञा, पु० दे० (सं० खोलक फा० खोना-स० क्रि दे० (सं० क्षेपण ) गँवाना, प्राबखोरा ) कटोरा, बेला, श्राबखोरा । भूल से कोई वस्तु कहीं छोड़ आना, खोरवा (ग्रा.) स्त्री० खोरिया (अल्प.)। बिगाड़ना, नष्ट करना, कोई वस्तु व्यर्थ वि० (दे०) अंग भंग, लँगड़ा। जाने देना । अ० क्रि० पास की चीज़ का खोराक--संज्ञा, स्त्री० (दे० ) खुराक निकल जाना या भूल से कहीं छूट जाना। (फा० ) भोजन, एक मात्रा ( दवा)। खोनचा-संज्ञा, पु. (फा० खानचा ) फेरी- खोरे-वि० (दे०) लँगड़ा, ऐबी, दुर्गुणी, वालों के मिठाई श्रादि रखने का थाल, "काने, खोरे, कूबरे". रामा। बड़ी परात, कचालू आदि। खोल-संज्ञा, पु० दे० (सं० खोल = कोश खेपड़ा-खोपरा-संज्ञा, पु० दे० (सं० खर्पर)। -आवरण ) गिलाफ़, कीड़ों का ऊपरी For Private and Personal Use Only Page #556 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir खोलना ५४५ ख्वाब चमड़ा जो समय समय पर बदलता है, । लना, गर्म करना ( दूध आदि.) प्रे० रूप. मोटी चादर, ऊपर का ढकना, म्यान । खौलवाना। खोलना-स० क्रि० दे० (सं० खुड-खुल | ख्यात-वि० (सं० ) प्रसिद्ध, विदित । -भेदन ) छिपाने ( रोकने ) की वस्तु को __ संज्ञा, स्त्री० ख्याति-प्रसिद्धि ।। हटाना, दरार या छेद (शिगाफ़ ) करना, ख्यातिन-वि० (सं०) अपवादी । ख्यातिबंधन तोड़ना, कोई काम जारी करना मत्व-संज्ञा, पु० (सं० ) प्रतिष्ठा । या चलाना, सड़क, नहर आदि तैयार ख्यात्यापन्न- वि० (सं० ) यशस्वी । करना, दूकान या दप्तर श्रादि शुरू ख्यापन--- संज्ञा, पु० (सं०) विज्ञापन । करना, गुप्त (गूढ़ बात को प्रगट ( स्पष्ट ) ख्यापक-संज्ञा. पु. (सं० ) प्रकाशक, व्यंजक। करना। खोली-संज्ञा, स्त्री० ( हि० खोल श्रावरण, ख्याल-संज्ञा, पु० (अ०) ध्यान, मनोवृत्ति, गिलान ( तकिया ) झोपड़ी। विचार भाव, सम्मति, आदर, एक प्रकार का गाना, याद, स्मृति, ख़याल । खोह-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० गोह ) गुहा, मुहा०--ख्याल रखना- ध्यान रखना गुफा, कंदरा। देख-रेख रखना । किसी के ख्याल खौं-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० खन् ) खात, पड़ना - तंग करने पर उतारू होना । गड्ढा, अन्न रखने का गढ़ा । खत्ती (दे०)। ख्याल से उतरना-भूल जाना । *संज्ञा, खौंचा-संज्ञा, पु० दे० (सं० षट्+च) पु. ( हि० खेल ) खेल, क्रीड़ा। साढ़े छः का पहाड़ा ख्योचा (दे०)। ख्याली–वि. (म. ख्याल ) कल्पित, खौफ़-संज्ञा, पु. ( अ० ) डर, भय । वि. ___ फ़र्जी। वि० (हि० खेल ) कौतुकी, खेल खौफ़नाक-ौफ़ज़दा।। करने वाला। खौर ( खौरि)-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० | मुहा०-ख्याली पुलाव पकानातौर-- क्षुर ) चन्दन का तिलक, टीका, हवाई किले बनाना, कल्पित बातें सोचना, स्त्रियों के सिर का एक गहना, ' मन्द असम्भव बातें विचारना, मन-मोदक खाना । पर्यो खार हर-चन्दन-कपूर कौ"रत्ना० । ख्वार-वि० (दे० ) नष्ट, खराब । संज्ञा, खौरना--स० कि० (हि. खौर ) खौर स्त्री० ख्वारी -- खराबी, नाश । (तिलक) लगाना। खिष्टान - संज्ञा, पु० दे० (हि. ख्रीष्ट अं० खौरहा-वि० (हि० खौरा- हा -प्रत्य० ) क्रिश्चियन ) ईसाई, क्रिस्तान (दे०)। | खिष्टीय-वि० दे० ( अं० क्राइष्ट ) ईसाई, जिसके सिर के बाल झर गये हों, खौरा, ईसाई धर्म-सम्बंधी। खुजली वाला । स्त्री० खौरही। | खंष्ट-संज्ञा, पु० दे० ( अं० क्राइष्ट) ईसा खौरा-संज्ञा, पु० दे० (सं० क्षौर ) एक मसीह । प्रकार की बुरी खुजली जिससे बाल तक ख्वाजा-संज्ञा, पु० (फा० ) मालिक, सरगिर जाते हैं । वि० खारा रोग वाला (फ़ा दार, ऊँचा फकीर, नवाबों के रनिवास का बाल खोरा)। नपंसक नौकर, ख्वाजापरा। खौलना- अ० कि० दे० (सं० वेल) ख्वाब- संज्ञा, पु. ( फा० ) नींद, स्वप्न । ( तरल वस्तु का ) उबलना, गर्म होना। ख्वाबगाह - संज्ञा, पु. यो० ( फा० ) खौलाना–स० कि० (हि. खौलना ) उबा- शयनागार . भा० श० को०-६६ For Private and Personal Use Only Page #557 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ख्वाह गंज ख्वाह-अव्य० (फा० ) या, अथवा, ख्वाहिश-संज्ञा, स्त्री० (फा०) इच्छा, चाह, यातो। यो० ख्वाहमख्वाह-चाहे कोई आकांक्षा । वि० ख्वाहिशमंद-(फा० ) चाहे या नहीं, बलात्, हठात्, अवश्य । इच्छुक, अभिलाषी। ग–व्यंजनों में कवर्ग का तीसरा अक्षर, जो गंगाधर--संज्ञा, पु. ( सं० ) महादेव जी, गले से बोला जाता है। संज्ञा, पु० (सं०) शिव जी। गीता, गंधर्व, गणेश, गाने वाला, जाने गंगापुत्र-संज्ञा, पु. यो० (सं० ) भीष्म, . वाला, गुरु मात्रा। गांगेय, एक तरह के ब्राह्मण जो नदियों के गंग-संज्ञा पु. ( सं० गंगा ) एक हिन्दी कवि किनारों पर दान लेते हैं, एक वर्ण संकर ( १७ वीं सदी) एक मात्रिक छंद । स्त्री० जाति । एक नदी, जाह्नवी, भीष्म-माता । यौ०--- गंगा-यात्रा-संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) मरणगंग-सुत-भीष्म पितामह । सन्न पुरुष का मरने के लिये गंगातट पर गंगबरार-संज्ञा, पु. ( हि० गंगा+फा० जाना, मृत्यु । - बरार ) वह ज़मीन जो किसी नदी की धारा गंगाल-संज्ञा, पु. ( सं० गंगा-- प्रालय ) के हट जाने से निकल आती है। पानी रखने का बड़ा बर्तन, कंडाल । गंग-शिकश्त-संज्ञा, पु. ( हि० गंगा+ । गंगा लाभ-संज्ञा, पु० यो० (सं० ) मृत्यु, शिकश्त-फा०) वह जमीन जिसका कोई मौत, गंगा-प्राप्ति । नदी काट ले गयी हो। गंगा-सागर-संज्ञा, पु. यौ० ( हि० गंगा+ गंगा-संज्ञा, स्त्री० (सं० ) भारत को एक सागर ) एक तीर्थ स्थान जहाँ गंगा नदी मुख्य नदी, भीष्म की माता। समुद्र से मिलती है, टोंटी दार बड़ी भारी। गंगा-जमनी--वि० यौ० (हि० गंगा+जमुना) गङ्गीभूत- वि० (सं० ) पवित्र, पावन । मिला-जुला, दो रंग का संकर वर्ण । सोना. गंगेरन-संज्ञा स्त्री. (सं० गांगेरकी) चार चाँदी, ताँबा-पीतल दो धातुओं का बना | प्रकार की बला नाम की औषधियों में से हुश्रा । काला-उजला, स्याह-कबरा, सफेद, एक नागबला । अबलक रंग का। गंगा-यमुनी (सं०) गंगोदक-संज्ञा, पु. यौ० ( सं० गंगा+ गंगा-जल--संज्ञा, पु. यौ० (सं०) गंगा का उदक ) गंगाजल, २४ अक्षरों का एक छंद । पानी, गंगोदक । एक महीन सफेद कपड़ा। गंज-संज्ञा, पु. ( सं० खंज वा कंज) सिर गंगाजली-संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं० गंगा-जल) के बालों के उड़ जाने का रोग, सिर में छोटी वह शीशी या सुराही जिसमें लोग गंगा-जल छोटी फुनसियों का रोग। चाई, चंदवा, भर कर ले जाते हैं, धातु की सुराही। चॅदलाई, खल्वाट (सं०) बालखोरा फा०)। (दे० ) गंगा-जलिया। संज्ञा, स्त्री० (फा०, सं० ) ख़ज़ाना, कोष, मुहा०—गंगा-जली उठाना - शपथ ढेर, अंबार, राशि, अटाला, समूह, मुंड (कसम) खाना । गंगाली पर कहना- अनाज की मंडी, हाट, बाज़ार, गोला, वह गंगा की शपथ खाकर कहना। चीज़ जिसके भीतर बहुत सी काम की गंगा-द्वार--संज्ञा, पु० यौ० (सं.) हरिद्वार ।। चीजें हों। For Private and Personal Use Only Page #558 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गजन गदुमा - गंजन-संज्ञा, पु० (सं०) अनादर, तिरस्कार, गड-माला-संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं० ) एक अवज्ञा, कष्ट, दुख, पीड़ा, नाश।..." पाप- रोग जिसमें गले में छोटी छोटी बहुत सी तरु-भंजन, विधन-गढ़-गंजन भू०। फुनसियाँ निकलती हैं, कंठमाला. गलगंड । गंजना--कि० स० (सं० गंजन ) निरादर | गंडस्थल-संज्ञा पु० (सं० ) कनपटी।। करना, अवज्ञा करना, नाश करना, चूर चूर गंडा-संज्ञा, पु० दे० (सं० गंडक ) गाँठ, करना, तोड़ना। संज्ञा, पु० (दे० ) मंत्र पढ़ कर गाँठे लगाया गॅजना-स० कि० दे० (सं० गंज) ढेर लगाना, हुआ धागा जिसे लोग रोग तथा भूत-प्रेतराशि करना। बाधा दूर करने को गले में बाँधते हैं। गंजा-संज्ञा, पु० (सं० खंजवा कंज ) गंज- मुहा०-गंडा ताबीज-मंत्र-यंत्र, टोटका। रोग । वि० जिसके गंज रोग हो, खल्वाट । संज्ञा, पु० पैसों कौड़ियों के गिनने में चार गंजी-संज्ञा, स्त्री० (सं० गंज ) समूह, ढेर, चार की संख्या का समूह । संज्ञा, पु० (सं० गाँज, शकरकन्द, कन्दा । संज्ञा, स्त्री० ( अं. गंड = चिन्ह ) आड़ी लकीरों की पंक्ति, गुएरनेसी = एक द्वीप) बुनी हुई छोटी कुरती तोते आदि पक्षियों के गले की रंगीन या बंडी जो शरीर में चिपकी रहती है। धारी, कंठा, हँसुली। बनियाइन । संज्ञा, पु० (दे० ) गजेड़ी। गँडासा-संज्ञा, पु० (हि. गेंडो+प्रसिगंजीफ़ा-संना, पु० (फा० ) एक खेल जो सं०) चौपायों के चारे या घास के टुकड़े पाठ रंग के ६६ पत्तों से खेला जाता है। काटने का हथियार, गडास (दे०) (स्त्री० गंजेड़ी-वि० (हि. गांजा+एड़ी-प्रत्य०) अल्पा० ) गैंडासी। गाँजा पीने वाला। गंडूष-संज्ञा, पु० (सं० ) कुल्ला, चिल्ल । गँठका–संज्ञा, पु० (सं० ग्रन्थिकर्तक ) गाँठ ' मानहु भरि गंडूष कमल हैं डारत अलि काटने वाला, चोर। प्रानन्दन" सूबे०। गठजोड़ा । संज्ञा पु० (हि. गाँठ + बंधन) गडेरी संज्ञा, स्त्री. (सं० कांड या गंड) गठबन्धन । विवाह की एक रीति जिसमें गन्ना वा ईख का छोटा सा टुकड़ा । दूल्हा-दुलहिन के कपड़ों में गाँठ बाँधी गंदगी-संक्षा, स्त्री. ( फा० ) मैलापन, जाती है। मलीनता, अशुद्धता, अपवित्रता, नापाकी, गंड-संज्ञा, पु. (सं०) गाल, कपोल। मल, मैला, गलीज़ । कनपटी, गंडा जो गले में पहिना जाता गंदना संज्ञा, पु. (सं० गंधन या फा०) है, फोड़ा, लकीर, चिन्ह, दाग़, गोलाकार | प्याज और लहसुन की तरह का एक चिन्ह या लकीर, गोल, गरारी, गंडा । मसाला। गांठ, बीथी नामक नाटक का एक अंग। गॅदला-वि० ( हि० गंदा + ला. प्रत्य०) गज-कभ । मलिन, गंदा, मैला कुचैला, मलीन । गंडक-संज्ञा, पु० (सं०) गले में पहिनने | गंदा-वि० । फा० ) मलिन, मैला, अशुद्ध, का जंतर, गाँड़ा-गंडा ( दे० ) गंडकी नदी | अपवित्र, नापाक, घृणित, घिनौना । स्त्री० के किनारे का देश तथा वहाँ के निवासी। गंदी। संज्ञा, स्त्री० (दे०) गंडकी नदी।-" नर. को नदी ।“ नरः | गंदुम-संज्ञा, पु. ( फा० ) गेहूँ, " गंदुम है बद गंडक नदिन के"-कु० वि० ला गेहूँ खालिक बारी"। गंडकी-संज्ञा, स्त्री० (सं०) उत्तरीय भारत गंदुमी-वि० ( फा० गंदुम ) गेहूँ के की एक नदी जो गंगा में गिरती है। । रंग का। For Private and Personal Use Only Page #559 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गंध ५४८ गंधिका गंध (गंधि )-संज्ञा, स्त्री. (सं० गंध) होते हैं, मृग ( कस्तूरी), घोड़ा, वह महक, वास, सुगंध, अच्छी महक, सुगं- आत्मा जिसने एक शरीर छोड़ कर दूसरा धित द्रव्य जो शरीर में लगाया जाय, ग्रहण किया हो, प्रेत, एक जाति जिसकी लेशमात्र, अणुमात्र, संस्कार, संबंध । कन्याएँ गातीं और वेश्या वृत्ति करती हैं, जैसे- " उसमें सौजन्य की गंध भी विधवा स्त्री का दूसरा पति । नहीं है । " वि० यौ. गंधप्रिय (सं० ) गंधर्व नगर-संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) गाँव गंधग्राही । संज्ञा, पु. यो० (सं०) या नगर आदि का वह मिथ्या आभास गंधवणिक-अत्तार, इत्रफरोश । जो श्राकाश या स्थल में दृष्टि-दोष से दिखगंधक-संज्ञा, स्त्री. (सं.) एक खनिज | लाई पड़ता है, झूठा ज्ञान, भ्रम, चन्द्रमा पदार्थ, जो पीले रंग का होता है और के किनारे का मंडल जो हलकी बदली में आग के छुलाने से शीघ्र जल उठता है, दिखाई पड़ता है, संध्या के समय पश्चिम इसके धुएँ से दम घुटने लगता है। वि० दिशा में रंग-बिरंगे बादलों के बीच में गंधकी। फैली हुई लाली, अंबर-डंबर । गंधकी--वि० (हि. गंधक ) हलका पीला गंधर्ष-विद्या संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं० ) रंग, गंधक के रंग का । गाना, गान-विद्या, संगीत-कला। गंधगर्भ-संज्ञा, पु० यौ० (सं०.) बेलवृक्ष । गंधर्व-विवाह-संज्ञा, पु. यौ० ( सं०) गंधद्विप-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) उत्तम पाठ भाँति के विवाहों में से एक, वह हाथी। सम्बंध जो वर और कन्या अपने मन से गंधद्रव्य-संज्ञा, पु. यौ० (सं० ) चन्दन, फूल प्रादि ( पूजा में )। गंधपत्र-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) सफ़ेद गंधर्व-वेद-संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) चार उपवेदों में से ( सामवेद का ) एक उपवेद, तुलसी, नारंगी, मरुवा, बेल ।। गंधबिलाव-संज्ञा, पु. यौ० (हि० गंध+ सङ्गीत-शास्त्र। बिलाव ) नेवले की भाँति का एक जंतु गँधाना–स० कि० दे० (हि० गंध ) बुरी जिसकी गिलटी से सुगंधित चेप निक महक, बदबू देना, बदबू करना, बसाना, लता है। दुर्गंध करना। गंधमार्जार-संज्ञा, पु. यौ० (सं० ) गंध- गंधाबिरोजा--संज्ञा, पु. ( हि० गंध+ बिलाव। बिरोजा ) चीड़ नामक पेड़ का गोंद, गंधमादन-संज्ञा, पु. ( सं०) एक विण्यात " चन्द्रस।" पहाड़, भौंरा, वानर, सेनापति । गंधार-संज्ञा, पु० (दे० ) गांधार (सं०) गंधवह-संज्ञा, पु० (सं० ) पवन, नासिका, कंधार, सात स्वरों में से तीसरा स्वर । कस्तूरी मृग । गंधारी-संज्ञा, स्त्री० (सं० ) कंधार के गंधसार-संज्ञा, पु० (सं० ) चन्दन । राजा की पुत्री, दुर्योधन की माता, जवाँसा, गंधरब-संज्ञा, पु० दे० (सं० गंधर्व ) एक गाँजा। देव-जाति । गंधाश्मा-संज्ञा, पु. ( सं० ) गंधक, गंधर्व-संज्ञा, पु० (सं०) (सं० स्त्री० उपधातु । गंधर्वी) (हि. स्त्री. गंधर्विन ) देव-भेद, गंधिका-संज्ञा, स्त्री. ( सं०) पाहूबेर, एक प्रकार के देवता, ये गाने में बड़े निपुण | गन्धक । कर लें। For Private and Personal Use Only Page #560 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गंधिकारिणी ५४९ गऊ गंधिकारिणी-संज्ञा, स्त्री० (सं० ) लाज- अनारी अजान । वि० (हि० गाँव - पार - वंती, लजारू औषधि । प्रत्य०) ( स्त्री० गवारी, गँवारिन) वि. गंधिपर्ण -- संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) सुगंधित | गवारू, गँवारी। पत्तों वाला छतिवन वृक्ष । गॅवारी--संज्ञा, स्त्री० दे० ( हि० गँवार ) गंधी- संज्ञा, पु. ( सं० गंधिन ) ( स्त्री० | देहातीपन, गँवारपन, मूर्खता, बे समझी, गंधिनी ) इत्र फुलेल का बेचने वाला, गँवार स्त्री । वि० (हि० गँवार + ई (प्रत्य॰) अत्तार, गँधिया घास, गँधिया कीड़ा। । गँवार का सा, भद्दा, बदसूरत । यौ० गवारीगधैला-गांधी - वि० (दे० गंध-+ एला- भाषा-- देहाती बोली। प्रत्य० ) बदबूदार गँवारू वि० (दे० ) "गँवारी "। गँभारी-वि० ( सं० ) एक बड़ा पेड़, गॅस* - संज्ञा, पु० दे० (सं० ग्रंथि ) गाँठ, काश्मरी । द्वेष, बैर, मन में चुभने वाली बात, ताना, गंभीर-वि० (सं०) अथाह, नीचा, गहरा, चुटकी, गूंधना, फँसना, गाँस (दे०) घना, गहन, गूढार्थ, जटिल, भारी, घोर, । यौ० गांस-फांस..." जामैं गाँस-फाँस को सौम्य, शांत, गंभीर (दे०)। बिसाल जाल छायो है।" रसाल । संज्ञा, गंभीर-वेदी-संज्ञा, पु० यौ० (सं० गंभीर | स्त्री० (सं० कषा ) बाण की नोंक । -+विद् + णिन् ) मस्त हाथी। संज्ञा, स्त्री. गॅसना - क्रि० स० दे० (सं० ग्रंथन ) गंभीरता। पु० भा० गांभीर्य। अच्छी तरह कसना, जकड़ना, गाँठना, गँव--संज्ञा, स्त्री० (सं० गम्य ) दाँव, घात, गूंधना, बुनावट में सूतों को खूब प्रयोजन, मतलब अवसर । " जिमि गर्दै मिलाना । क्रि० अ० बुनने में सूतों को तकइ लेउँ केहि भाँती"- रामा० । मौका, | अति घना रखना, ठसाठस भरना। उपाय, युक्ति, ढङ्ग। गॅसीला--वि० (हि. गाँसी ) ( स्त्री० मुहा०-गव से--(दे० गँवही ) युक्ति से, गँसीली ) बाण के समान नोंकदार, ढङ्ग से, मतलब से, धीरे से, चुपके से। पैना, चुभने वाला, द्वेष रखने वाला, "उठेउ गँवहिं जेहि जान न रानी' रामा। फाँसदार। गँवई - संज्ञा, स्त्री० दे० ( हि० गाँव ) ( वि० ग--संज्ञा, पु. ( सं०) गीता, गंधर्व, गुरु गँवाइयाँ ) गाँव की बस्ती। .. ... "गँवई | मात्रा, गणेश, गाने वाला, जाने वाला। गाहक कौन"-वि०। गई करना क्रि० प्र० (हि० गई+करना) गँवर-मसला-संज्ञा, पु० दे० ( हि० गँवार छोड़ देना, क्षमा करना, माफ़ करना, -अ.-मसल ) गँवारों की कहावत या | तरह देना, जाने देना। '...गई करि जाहु उक्ति। दई के निहोरे"गवर-दल- संज्ञा, पु० दे० (हि. गँवार+ | गई-बहोर-वि० (हि० गया + बहुरि ) खोई दल सं० ) गवारों का समूह या झंड । गँवार- | हुई वस्तु को फिर से देने वाला, बिगड़े पन । वि० गँवारों का सा, मुर्खता। काम को फिर से बनाने वाला । " गई. गँवाना-क्रि० स० दे० (सं०-गमन ) खो बहोर ग़रीब निवाजू".-. रामा०।देना, खो डालना, ( समय ) बिताना या गऊ- संज्ञा, स्त्री. (सं० गो) गायी, गाय, खोना, पास के धन को निकल जाने देना। गौ, गैय्या (७०) । यौ० - गऊ-ग्रामगँवार-संज्ञा, पु० दे० (सं० ग्रामीण ) गांव भोजन का अग्रिमांश जो गाय को दिया का रहने वाला, देहाती, असभ्य, मूर्ख। जाय, गो ग्रास (सं०)। For Private and Personal Use Only Page #561 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org गगन गगन - संज्ञा, पु० (सं० ) श्राकाश, आसमान, शून्य स्थान, छप्पय छन्द का एक भेद । यौ० – गगन-गिरा आकाशवाणी । " गगन गिरा गंभीर भै " - रामा० गगनचर - संज्ञा, पु० (सं०) चिड़िया, पक्षी, बादल, ग्रह, वायु, विमान । वि० गगनचारी । गगनधूल-संज्ञा, स्त्री० (सं० गगन + धूलहि० ) एक प्रकार का कुकुरमुत्ता, केतकी के फूल की धूल, खुमी का एक भेद । गगन बाटिका - संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं० ) आकाश की फुलवाड़ी ( असंभव बात गगन भेड़-संज्ञा, स्त्री० यौ० दे० ( हि० गगन + भेड़ ) कराकुल या कंज नाम की चिड़िया, गीध । । 1 ५५० गगन भेदी, गगनस्पर्शी - वि० यौ० (सं० ) आकाश तक पहुँचने वाला, बहुत ऊँचा । खूब ज़ोर का गूँजने वाला ( शब्द ) 1 गगनानंग-संज्ञा, पु० (सं० ) एक मात्रिक छन्द जो २५ मात्राओं का होता है । गगरा – संज्ञा, पु० दे० ( सं० गर्गर ) ( स्त्री० अल्पा० गगरी ) धातु या मिट्टी का बड़ा घड़ा, कलसा, गागरि ( ब० ) गागरी । गच - संज्ञा, पु० (अनु० पक्का फ़र्श, चूने से पिटी हुई भूमि, किसी कड़ी वस्तु में पैनी वस्तु के घुसने का शब्द | गचकारी संज्ञा स्त्री० ( हि० गच + कारी फा० ) गच का काम चुने- सुर्खी का काम । गचना* स० क्रि० ( अनु० गच ) बहुत, अधिक, या कप कर मारना (दे० ) गाँसना | गहना - अ० क्रि० (सं० गच्छ-जाना ) जाना, चलना । स० क्रि० चलाना, निबा हना, अपने ज़िम्मे लेना, अपने ऊपर लेना । गज -संज्ञा, पु० ( सं० ) ( स्त्रो० गजी ) हाथी, एक राक्षस, कपड़े आदि की एक नाप का नाम ( दो हाथ ), राम-सेना का एक बन्दर आठ की संख्या । गज धौ ग्राह लरै जल भीतर.. 16 ..."" गजपुट गज़ - संज्ञा पु० ( फा० ) तीन फीट या दो हाथ की लम्बाई की नाप, बन्दूक के साफ़ करने की लोहे या लकड़ी की छड़ी, एक तरह का बाण | गज़इलाही – संज्ञा, पु० (का० गज़ + इलाही) अकबरी गज़ जो ४१ अंगुल का होता है । गज़क - संज्ञा, पु० ( फा० कज़क ) वे पदार्थ जो शराब पीने के पीछे मुँह का स्वाद बदलने के लिए खाये जाते हैं, क़बाब, पापड़ नाश्ता, जल-पान, एक प्रकार की मिठाई ( भाग ) | गज गति--संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) हाथी की सी चाल, एक वर्ण वृत्त या छंद । गज-गमन संज्ञा पु० यौ० (सं० ) हाथी की सी धीमी चाल मंद गति या मंद Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गमन । गजगामिनी - वि० स्त्री० (सं० ) हाथी के समान धीमी चाल से चलने वाली स्त्री । गजगाह - संज्ञा, पु० दे० (सं० गज + ग्रास) हाथी की भूल । "जगौन - संज्ञा, पु० दे० यो० ( सं० गज + गमन) हाथी की चाल । गजदन्त - संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) हाथी का दाँत, दाँत के ऊपर निकला हुआ दाँत, वह घोड़ा जिसके दाँत निकले हों, दीवार गड़ो खूँटी । 16 .." गज- दान - संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) हाथी का दान । हयदान, गजदान, भूमिदान, धन्नदान.." बेनी० । गज-नाल - संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं० ) बड़ी तोप जिसे हाथी खींचते हैं । गजपिप्पली -संज्ञा, स्त्री० (सं० ) एक पौधा जिसकी मंजरी श्रौषधि के काम में श्राती है। गजपीपल संज्ञा स्त्री० ( दे० ) गज पिप्पली (सं० ) गजपीर (दे० ) | गजपुट - संज्ञा, पु० (सं० ) गड्ढे में धातुत्रों के फूकने की एक रीति, ( वैद्य० ) । For Private and Personal Use Only Page #562 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ५५१ ग़ज़ब ग़ज़ब - संज्ञा, पु० ( अ० ग़ज़ब ) कोप, क्रोध, गुस्सा, धापत्ति, धाफ़त, विपत्ति, विलक्षण बात, अंधेर, अन्याय, ज़ुल्म, अनोखी बात, पूर्व गजबाँक-गजबाग - संज्ञा, पु० यौ० (सं० गज + बाँक या बाग ) हाथी का अंकुश । ज-मुक्ता - संज्ञा, स्त्री० यौ० ( सं० ) वह मोती जो हाथी के मस्तक से निकाला जाता है, गजमोती (दे० ) । गजमोती-संज्ञा, पु० यौं० ( दे० ) 23 गजमुक्ता 1 "6 गजर - संज्ञा, पु० (सं० गर्ज हि० गरज ) पहर पहर पर घंटा बजने का शब्द, पहरा, सबेरे के समय का घंटा । मुहा०-- गजरदम - सबेरे, तड़के चार श्राठ, और बारह बजे पर उतने ही बार फिर जल्दी जल्दी घंटे का बजाना । गजरा - संज्ञा, पु० ( हि० गंज ) फूलों की माला, हार, एक गहना जो कलाई में पहिना जाता है, एक रेशमी कपड़ा, मशरू | गँजरा (दे० ) । गज - राज - संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) ऐरावत, बड़ा हाथी, हाथियों का राजा । गज़ल - संज्ञा, स्त्री० ( ० ) एक प्रकार की उर्दू-फारसी की कविता | गजवदन - संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) गणेश जी जिनका मुख हाथी के मुख के समान सिद्धि के सदन गज- बदन विशाल है । "; 33 तनु । गजघान -संज्ञा, पु० ( हि० गज + वान प्रत्य० ) हाथी वाला, महावत, फ़ीलवान । गज-शाला – संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं० ) वह घर जिसमें हाथी बाँधे जाते हैं, फीलखाना ( फ़ा० ) हथसाल (दे० ) । गजबुसा - संज्ञा, पु० (सं० ) केले का पेड़, केला । गजा -संज्ञा, पु० (दे० ) खजूर का फल, खुर्मा, एक प्रकार का मिष्ठान्न । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गठ्ठर गजाधर - संज्ञा, पु० (दे० ) " गदाधर " ( सं० ) 1 गजानन - संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) गणेश जी, जिनका मुख हाथी का सा है । "गजान चारु विशाल नेत्रम् ।" गजाना - संज्ञा, स्त्री० (दे० ) पचाना, सड़ाना, गंध देना, बसाना, राशि करना । गजाली - संज्ञा, पु० ( सं० ) हाथियों का समूह | "न याचे गजालि न वा वाजिराजम् " पं० रा० । गज़ी - संज्ञा, स्त्री० ( फ़ा० गज ) देशी मोटा कपड़ा, गाढ़ा | संज्ञा, स्त्री० (सं०) हथिनी । गजेंद्र - संज्ञा, पु० यौ० ( सं० गज + इन्द्र ) ऐरावत हाथीराज, बड़ा हाथी । गज्मा संज्ञा, पु० दे० ( सं० गज = शब्द ) पानी और दूध आदि के छोटे छोटे बुलबुलों का समूह, गाँज्ञी | संज्ञा पु० दे० (सं० गंज) गाँज, ढेर, अम्बार, खजाना, कोष, धन । गझिन - वि० दे० ( हि० गछना ) घना, गाढ़ा, मोटा, घना बिना 'हुआ गटई - संज्ञा, स्त्री० (दे० ) गला, गर्दन | गटकना - क्रि० स० दे० ( गट से अनु० ) निगलना, खाना, हड़पना, दबा लेना । गटगट - संज्ञा, पु० ( ग्रनु० ) घूँट घूँट पीने में गले का शब्द, गटागट ( दे० ) । गट-पट - संज्ञा, स्त्री० दे० ( मनु० ) बहुत ज़्यादा मेल, घनिष्टता, साथ रहना, प्रसङ्ग, बातचीत, मिलावट | -- गट्ट - संज्ञा, पु० दे० : अनु० ) किसी पदार्थ के निगलते समय गले का शब्द । गट्टा - संज्ञा, पु० दे० ( सं० ग्रन्थ प्रा० गंठ हि० गाँठ ) हथेली और पहुँचे के बीच का जोड़, कलाई, पैर की नली और तलुए के बीच का जोड़ या गाँठ, माँठ, बीज, एक प्रकार की मिठाई । गट्ठर - संज्ञा, पु० दे० ( हि० गाँठ ) बड़ी गठरी, गठरिया दे० ( स्त्री० अल्पा० ) पोटली । For Private and Personal Use Only Page #563 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गठ्ठा ५५२ गड़गड़ाना गट्ठा-संज्ञा, पु० दे० (हि. गाँठ स्त्री. गठिवन्ध -संज्ञा, पु० (दे०) गठबन्धन । . अल्पा० गठ्ठा) गठिया, घास, लकड़ी श्रादि | गठिया-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. गाँठ ) बोरा, का बोझ, बड़ी गठरी, बुकचा, बचका थैला, खुरजी बड़ी गठरी, बात रोग, बाई (दे० ) प्याज या लहसुन की गाँठ। की बीमारी । यौ० गठियाबात। गठन-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० ग्रन्थन ) बना- | गठियाना-क्रि० स० दे० (हि. गाँठ) वट, संगठन । गाँठ बाँधना, गाँठ लगाना, गाँठ में गठना-क्रिया० अ० दे० (सं० ग्रन्थन ) । बाँधना । दो पदार्थों का मिल कर एक होना, जुड़ना, गठिवन-संज्ञा, स्त्री० दे० ( सं० ग्रन्थिपर्ण ) सटना, मोटी सिलाई। बनावट का दृढ़ साधारण या मध्यम आकार का एक पेड़ होना । प्रे० स० क्रि० गठाना। जो औषधि है। यौ०-गठाबदन-हृष्टपुष्ट, कड़ा या सुदृढ़ | गठिहा संज्ञा, पु० (दे० ) गाँठों वाला, शरीर, किसी षट-चक्र या षड यंत्र, या गुप्त बोरा। विचारों में सहमत होना, सम्मिलित होना, गठीला-वि० (हि. गाँठ - ईला प्रत्य) दाँव पर चढ़ना, अनुकूल होना, सधना, (स्त्री० गठीली) बहुत गाँठों वाला। वि० भली भाँति निर्मित होना, अच्छी तरह (हि० गठना) गठा हुआ, मिला हुआ, रचा जाना, सम्भोग होना, विषय होना, सुडौल, मज़बूत, दृढ़, हृष्टपुष्ट खूब चुस्त या अधिक मेल-मिलाप होना। गठबन्धन-संज्ञा, पु० दे० (सं० ग्रन्थि+ गठा ( कसा ) हुआ जैसे- गठीला बदन । बंधन ) गठजोड़ा, वर-वधू के वस्त्रों के छोरों | गठोत, गठौती- संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. को मिला कर बाँधना। गठना ) मेल-मिलाप, मित्रता, मिलकर ठीक गठर-संज्ञा, पु० (दे०) बड़ी गाँठ । वि० की हुई बात, अभिसंधि । गठीला। गडंग-संज्ञा, पु० दे० (सं० गर्व ) ( वि० गठरी-संज्ञा, स्त्री० दे० ( हि० गट्ठर ) कपड़े | गड़गिया ) घमंड, अहंकार, शेख़ी, डींग, में गाँठ लगा कर बाँधा हुश्रा सामान, बड़ी श्रात्मश्लाघा बड़ाई प्रारम-प्रशंसा, पोटली, मोट, गठर, बोझा, भार, गठरिया अहम्मन्यता, अभिमान ।। गड़न्त–संज्ञा, पु० दे० (हि. गाड़ना ) महा०-गठरी मारना-उगना, चोरी गाडने का कार्य। करना, धोखा देकर धन ले लेना, अनुचित | गड़-संज्ञा, पु० (सं० ) पाड, प्रोट, घेरा. रूप से किसी का धन ले लेना। चहार दीवारी, गड्ढा । गठवाँसी-संज्ञा, स्त्री० दे० ( हि० गट्ठा+ गडक-संज्ञा, स्त्री० (दे० ) एक प्रकार की अंश ) गडे या विस्वे का बीसवाँ भाग, मछली। बिस्वांसी। गडगड- संज्ञा, स्त्री० दे० (अनु०) बादल गठवाना- स० कि० (हि० गाठना) गठाना की गरज, गाड़ी के चलने का शब्द, पेट की ( जूते आदि का ), सिलवाना, जुड़वाना, वायु के बोलने का शब्द, हुक्के का शब्द । जोड़ मिलवाना। | गड़गड़ा-संज्ञा, पु० दे० (अनु०) एक गठाव-संज्ञा, पु० (दे०) गठन, मिलावट, जोड़। प्रकार का हुक्का, एक प्रकार की गाड़ी। गठित-वि० (सं० ग्रन्थित ) गठा हुआ, गड़गड़ाना-क्रि० अ० दे० ( हि० गड़बड़ ) जुड़ा हुभ्रा। __ गरजना, कड़कना, हुक्का बजाना, किसी For Private and Personal Use Only Page #564 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - गड़गड़ाहट गड़ाना गाड़ी आदि को घसीट कर गड़गड़ शब्द बड़ा, ऊँचा ) (वि०-गड़बड़िया ) ऊँचा करना। नीचा, अंड-बंड, अस्त-व्यस्त, अनुचित, गड़गड़ाहट-संज्ञा, स्त्री० (हि. गड़गड़ाना ) | जटिल, छिन्न-भिन्न, तितर-बितर । संज्ञा, पु. गड़गड़ाने का शब्द, गड़गड़। क्रमभंग, कुप्रबंध, अव्यवस्था। संज्ञा, स्त्री. गड़गडो-संज्ञा, स्त्री० (दे०) छोटा नगाड़ा, गड़बड़ी-हलचल । यो०-गड़बड़ नौगड़िया-गड़गड़िया (दे०)। झाला-गोल-माल, श्रव्यवस्था । गड़गड़गूदर----संज्ञा, पु० (दे०) चिथड़ा, फटा- बड़ घोटाला-गड़बड़ी । गड़बड़ापुराना कपड़ा। ध्याय -(दे०) गड़बड़ झाला, उपद्रव, गड़दार-संज्ञा, पु० दे० (सं० गँड़ = गँडासा झगड़ा, आपत्ति, हलचल, गोलमाल । +दार ) वह नौकर जो भाला लेकर मत- गड्डी-बड्डा (प्रान्ती० ) " पहिल दौंगरा वाले हाथी के साथ रहता है, बल्लम- भरिगे गड्डा, घाघ समैय्या गड्डी बड्डा"। बरदार। गड़बड़ाना-प्र० क्रि० दे० ( हि० गड़बड़ ) गडना-क्रि० प्र० दे० (सं० गत) घुसना, गड़बड़ी में पड़ना, भूल, चक्कर और धोखे धंसना, चुभना, शरीर में चुभने की पीड़ा, . में पड़ना, क्रम भ्रष्ट होना, अव्यवस्थित खुरखुरा लगना, दर्द करना, दुखना, होना, बिगड़ना, अस्तव्यस्त होना । मिट्टी आदि के नीचे दबना, दफ़न होना, छिन्न-भिन्न होना । स० कि. गडबडी समाना, पैठना । मुहा०-गड़े मुर्दे । में डालना, चक्कर, जटिलता, भूल और उखाड़ना -- दबी दवाई या पुरानी बात धोखे में डालना, उलझन में या भय में को उठाना, अनिष्टकारी पुरानी झगड़े | डालना, बिगाड़ना, विपत्ति में फंसाना । की बात का उठाना । अाँख में गड़ना-- गड़बड़ाहट-संज्ञा, स्त्री० (दे० ) गड़बड़ी । अति प्रिय या अप्रिय लगना । गड़ भय, डर, भूल, भ्रम में पड़ना । अनिश्चित, जाना-झपना, लज्जित होना, खड़ा अनियमितता, अव्यवस्था। होना, जमना, स्थिर होना। मुहा० गड़बड़िया-वि० (हि० गड़बड़ ) गड़बड़ दिल (मन, चित, जो ) में गड़ना करने वाला, उपद्रव करने वाला, बिगाड़ने डटना, बुरी बात का दिल में चुभना अति वाला। अभीष्ट वस्तु का दिल में रहना। गड़प-संज्ञा, स्त्री० ( अनु० ) पानी या गड़बड़ी-संज्ञा, स्त्री० (दे० ) गड़बड़ । कीचड़ में किसी के सहसा समाने का गड़रिया-सं० पु० दे० (सं० गड्डरिक) शब्द, किसी वस्तु का निगलना या पचा (स्त्री० गड़रिन, गड़ेरिन) गाड़र या भेड़ डालना, किसी की वस्तु या सम्पत्ति को पालने वाली एक जाति । लेकर उड़ा डालना, हजम कर डालना। | गड़हा-संज्ञा, पु० ( दे.) " गड्ढ़ा" गढ़ा गड़पना- स० क्रि० दे० ( अ० गड़प ) (हि० अल्प० स्त्री० गड़ही)। निगलना, खा लेना, पचाना, अनुचित | गड़ा-संज्ञा, पु० दे० (सं० गण ) ढेर, राशि। अधिकार जमाना, किसी की चीज़ को जब्त | क्रि० वि० (हि० गड़ना ) गड़ा हुआ। कर लेना। यौ०-गड़े-गड़ाये। गड़प्पा-संज्ञा, पु० दे० (हि० गाड़ ) गड्ढा, गड़ाना-स० क्रि० दे० ( हि० गड़ना ) धोखा खाने की जगह । भोंकना, चुभाना, फँसाना, गड़ाना।स० कि० गड़बड़-वि० ( हि० गड़ गड्ढा---बड़= J (हि० गाड़ना का प्रे० रूप ) गाड़ने का काम भा. श. को०-७० For Private and Personal Use Only Page #565 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गड़ायत ५५४ गढ़ पति कराना । प्रे० क्रि० (हि० गाड़ना) गड़- पालने वाला, भेड़ सम्बन्धी, भेड़ के समान । पाना-धंसवाना, गाड़ने का कार्य किसी गड्डाम-वि० दे० ( प्र० गाड +- ड्याम ) और से करवाना । संज्ञा, स्त्री. गड़वाई। नीच, तुच्छ, लुच्चा, पाजी, बदमाश । यो. गड़ायत-वि० दे० (हि. गड़ना ) गड़ने गड्डाम-पाजी। वाला, चुभने वाला। | गडालिका—संज्ञा, स्रो० (सं० ) देखा-देखी गडारी-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० कुंडल) काम करना, बिना सोचे-बिचारे करना, गोल लकीर, मंडलाकार रेखा, वृत, घेरा । भेड़िया धसान, अंध-अनुकरण । संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० गंड = चिन्ह ) पास गडो-संज्ञा, स्त्री० ( दे०) गड्डु, आँटी, दश पास आड़ी धारियाँ, गंडा, गोल चरखी दस्ता कागज़, रुपयों का ढेर। घिरनी, गरारी, गलारी (दे०)। गड्ढा --संज्ञा, पु. दे. (सं० गर्त, प्रा. गड़ारीदार--वि० दे० (हि० गड़ारी+फा० | गड्ड ) पृथ्वी में गहरा स्थान, खात, दार ) जिस पर गंडे या धारियाँ पड़ी हों, | गढ़ा, गड़हा, थोड़े धेरे की गहराई, खाड़ घेरेदार, जैसे गड़ारीदार पायजामा। (७०)। मुहा०—किसी के लिये गड़ाई-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. गडुवा) गडढा खोदना- अनिष्ट का प्रयत्न पानी पीने का टोंटीदार छोटा बर्तन, झारी, करना, किसी को हानि पहुँचाने का गड़ई। उपाय करना, किसी की हानि का प्रयत्न गड़वा-संज्ञा, पु० दे० ( हि० गेरना = करना। गड्ढे में गिरना-पतित होना, गिराना+डुवा प्रत्य० ) गेरुवा, टोंटीदार हानि उठाना। लोटा, गेड़वा (दे०)। गढन्त-वि० ( हि० गढ़ना ) बनावटी, गडुर, गडुल संज्ञा, पु० सं० (दे०) पक्षी-राज कल्पित (बात)। यौ---मन-गढन्त वैनतेय, विष्णु-बाहन, कुबड़ा मनुष्य । कल्पित, कपोल कल्पित। अ. संज्ञा, गाडुरकी-गडुर के सम्बन्ध का। गढ़-संज्ञा, पु० (सं० गढ़ = खाँई ) (स्त्री० गड़ेरिया-संज्ञा, पु० ( दे० ) "गड़रिया"। अल्पा० गढ़ी ) कोट, किला, खाँई, दुर्ग, गड़ेरी-संज्ञा, पु० दे० (सं० खंडु ) गन्ने या राज महल । मुहा०- गढ़ जीतना या ईख के छोटे छोटे टुकड़े। तोड़ना-किला जीतना, बहुत कठिन गडोना-स० कि० (दे०) "गड़ाना" __ कार्य करना। चुभाना, फँसाना। गत-संज्ञा, स्त्री० (दे०) बनावट, रचना। गडोना--संज्ञा, पु० दे० (हि० गड़ाना ) एक गढ़न-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. गढ़ना) प्रकार का पान । स० क्रि० (दे० ) गड़ाना, बनावट, प्राकृति, रचना, गठन । चुभाना, गड़ोना। गढ़ना-स. क्रि० (सं० घटन ) काट-छाँट गड़- संज्ञा, पु० दे० (सं० गण ) ( स्त्री० कर काम की वस्तु बनाना, सुडौल या गड्डी ) किसी वस्तु का समूह, समुदाय, ढेर, सुघटित करना, रचना, ठीक करना, दुरुस्त राशि । संज्ञा, पु. (सं० गत) गढ़ा (दे०) करना, बात बनाना, कपोल कल्पना करना, गडढा । यौ० गड्डबड्ड-मिलावट । मारना, पीटना, ठोंकना। गड्डबड्ड, गड्डमड--संज्ञा, पु० दे० ( हि. मुहा०-बातें गढ़ना-कल्पित बातें गड्ड ) बेमेल की, गड़बड़ी, मिलावट, घाल- बनाना। मेज़, घपला, अंडबंड । गड़ी-बड्डा (ग्रा०)। गढ़-पति-संज्ञा, पु. यौ० ( हि० गढ़+ गडरिक-संज्ञा, पु० (सं० ) गड़ेरिया, भेड़ | पति) किलेदार, राजा, सरदार, दुर्ग-स्वामी । For Private and Personal Use Only Page #566 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गढ़वई गणितज्ञ गढ़पई, गढ़वै-संज्ञा, पु. ( दे.) "गढ़- | गण-देवता -संज्ञा, पु० यौ० (सं०) समूहपति"। चारी देवता, जैसे विश्वेदेवा, रुद्र, वसु । गढ़धार, गढ़वाल-संज्ञा, पु० दे० (हि. गणन-संज्ञा, पु० (सं० ) गिनना, गिनती, गढ़ + वाला ) किले का स्वामी, किलेदार, गणना। वि० गणनीय, गणित, गण्य । गढ़-रक्षक, एक नगर या प्रदेश जो उत्तर | गणना-संज्ञा स्त्री० (सं०) गिनती, शुमार, में है । संज्ञा, पु० गढ़वाली (हि.) गढ़वाल | | हिसाब, संख्या, गिनना, गनना ( दे० )। प्रान्त का। गण-माथ-संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) गणेश, गढ़ाई- संज्ञा, स्त्री० (हि० गढ़ना ) गढ़ने का | शिव। काम, गढ़ने की मज़दूरी । गढ़वाई (दे०)। गण-नायक-संज्ञा, पु. यो. ( सं० ) गढ़ा-संज्ञा, पु० दे० (सं० गत ) गड़हा, गणेश, गणपति । गननायक-(दे०)। गड्ढा । " गन-नायक बर-दायक देवा" - रामा० । गढ़ाना-स० कि० (हि० गढ़ना का प्रे० गण-पति-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) गणेश, रूप ) गढ़ने का काम कराना, गढ़वाना। शिव, गनपति (दे०)। गढ़िया-संज्ञा, पु० दे० ( हि. गढ़ना) गणनीय-वि०, संज्ञा, पु. (सं०) गिननेगढ़ने वाला, भाला, बरछी, कुन्त, प्रास, योग्य, विख्यात । बर्तन आदि गढ़ने वाला, ठठेरा । गढ्या गण-पाठ-संज्ञा, पु० यौ० (सं.) एक (प्रान्ती०) गढ़इया (दे०) छोटा गड्ढा । पुस्तक विशेष, भू श्रादि क्रिया-समूहों का गढ़ी-संज्ञा, स्त्री० दे० ( हि० गढ़ ) छोटा पाठ (सं० व्या०)। किला। | गण-राऊ-संज्ञा, पु० दे० (सं० गणराज) गदेला-संज्ञा, पु. (हि. गढ़ा ) गढ़ा, गणेश, गनराय, गनराउ, (दे० ) " नामगड्ढा । वि. गढ़ा हुआ । प्रताप जान गनराऊ"-रामा० । गरैया-वि० दे० (हि० गढ़ना) गढ़ने वाला, गण-राज-संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) गणेश, बनाने वाला, रचने वाला, तुक्कड़ कवि ।। शिव। गाई-संज्ञा, पु० (दे०) “ गढ़पति" गण-राज्य-संज्ञा, पु० यौ० (सं.) वह किलेदार। राज्य जो चुने हुये मुखियों के द्वारा चलाया गण-संज्ञा, पु. ( सं० ) झुण्ड, जावे, प्रजातन्त्र राज्य का एक रूप । समूह, जत्था, श्रेणी, जाति, कोटि, तीन | गणाधिप-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) गणेश, गुल्म की सेना, तीन वर्षों का समुदाय | महन्त, " गणाधिपं गौरि-सुतं नमामि।" तीन वर्षों का एक समूह, पिंगल में | गणाध्यक्ष-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) गणेश, गण ८ हैं-म, न, भ, य, ज, र, स, त | शिव, जमादार, स्वैरिणी, कुलटा स्त्री। गण, प्रथम ४ शुभ और शेष अशुभ हैं, | गणिका-संज्ञा, स्त्री. (सं० ) वेश्या, समान साधनिका वाले शब्दों और धातुओं पतुरिया, रंडी, तवायफ । गनिका (दे०)। के समूह (सं० व्या० ), शिव-पारिषद, एक वेश्या जिसे भगवान ने तारा था। प्रमथ, दूत, सेवक, पारिषद, परिचारक, अनु- गणित-संज्ञा, पु० (सं० ) हिसाब, अंकघर । प्रत्य०-बहु वचन बनाने का एक प्रत्यय, विद्या। जैसे-- तरागण। गणितज्ञ-संज्ञा, पु० (सं० ) हिसाब लगाने गणक-संज्ञा, पु० (सं०) ज्योतिषी, हिसाबी, वाला, हिसाबदाँ, ज्योतिषी, हिसाबी, गणित गनक (ब्र.)। विद्या का ज्ञाता। For Private and Personal Use Only Page #567 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org गणेश गणेश – संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) शिव-पुत्र गणपति, जिनका शरीर तो मनुष्य का सा और मुख हाथी का सा है, वे मंगल कार्यों में प्रथम पूज्य और विघ्न नाशक हैं, विद्या बुद्धि के देने वाले हैं। ५५६ गराय - संज्ञा, पु० (सं० ) गिनने योग्य | जिसे लोग प्रति योग्य समझें प्रतिष्ठित, विख्यात । यौ०—गण्य - सब से प्रथम गिनने योग्य, प्रधान । यौ० गरायमान्य-प्रतिष्ठित, सम्मानित । - गत - वि० (सं० ) गया हुआ, बीता हुआ, गुज़रा हुआ, मरा हुआ, रहित, हीन, विगत । ( विलो ० - भागत ) | संज्ञा, स्त्री० (सं० गति ) अवस्था, दशा, गति 1 मुहा०—गत बनाना - दुर्दशा करना । रूप, रंग, वेष । काम में लाना, सुगति, उपयोग, कुगति, दुर्गति, नाश । बाजों के बोलों का कुछ क्रम-वद्ध मिलना, नाच में शरीर का विशेष संचालन और मुद्रा, नाचने का ठाठ, स्वरों का साम्यपूर्ण प्रवाह | गतका - संज्ञा, पु० (सं० गत) लकड़ी खेलने का दण्ड़ा जिसके ऊपर चमड़े की खोल चढ़ी रहती है । गतांक - वि० संज्ञा पु० यौ० (सं०) समाचार - पत्र का पिछला अंक गया, बीता, गुज़रा, निकम्मा । गति - संज्ञा, स्त्री० (सं० ) चाल, गमन, हिलने-डोलने की क्रिया, हरकत, स्पन्द, अवस्था, दशा, हालत, रूप, रंग, वेष पहुँच, प्रवेश, पैठ. प्रयत्न की सीमा, अन्तिम उपाय, दौड़, तदबीर, सहारा, अवलम्ब, शरण, चेष्टा, प्रयत्न, लीला, माया, ढंग, रीति, मृत्यु के पीछे जीव की दशा, मोक्ष, मुक्ति, लड़ने वालों के पैर की चाल, पैतरा | गत्ता - संज्ञा पु० ( देश० ) काग़ज़ के कई गदर - पचीसी परतों को मिलाकर बनी हुई दफ़ती, कुट, गाता (दे० ) । गत्ताल खाता - संज्ञा, पु० दे० यौ० (सं० गर्त प्रा० गत+ खाता हि० ) बट्टा - खाता, खोई हुई या गई- बीती रक़म का लेख । गथ गत्थ - संज्ञा, पु० दे० (सं० ग्रन्थ ) धन, पूँजी, जमा, माल, झुंड, " माल बिन गथ पाइये - रामा० । "" गथना- क्रि० स० दे० (सं० ग्रंथन ) एक में एक जोड़ना, आपस में गूंधना, बात गढ़ना, बात बनाना । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गढ़-संज्ञा, पु० (सं० ) विष, रोग, श्रीकृष्ण चन्द्र का छोटा भाई | संज्ञा, पु० ( अनु० ) वह शब्द जो किसी गुलगुली वस्तु पर या गुलगुली वस्तु का आघात लगने से होता है । गद्द (दे० ) यौ० गद-बद - गद गद शब्द । गदका - संज्ञा, पु० (दे० ) " गतका 99 1 गदकारा - वि० पु० ( अनु० गद + काराप्रत्य० ) ( स्त्री० गदकारी ) नम्र, मुलायम, गुलगुला, दब जाने वाला पदार्थ, नरम | " गोरी गदकारी परै हँसत कपोलन गाद" । गदगद - वि० दे० ( सं० गद्गद ) गदगद वचन कहति महतारी रामा० । गढ़ना - स० क्रि० (सं० गदन ) कहना, बोलना | 46 "" ग़दर - संज्ञा, पु० ( अ० ) हलचल, बलवा, खलबली, उपद्रव, क्रांति (सं० ) | संज्ञा, पु० (दे० ) गदगद शब्द करके गिरना, चलना, यौ० गदर-बदर | गदराना - प्र० क्रि० दे० (अनु० - गद) ( फल आदि का ) पकने पर होना, नवानी में अंगों का भरना, आँखों में कीचड़ आदि का थाना । वि० गदरा - गदराया हुआ । स्त्री० वि० गदरी । गदर - पचीसी -- संज्ञा, स्त्री० यौ० (हि० गदहा + पचीसी ) १६ से २५ वर्ष तक की अवस्था For Private and Personal Use Only Page #568 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गदह-पन ५५७ गधा जिसमें मनुष्य को अनुभव कम रहता है, | न हो, अधपका । मोटा गद्दा, गदरा (दे०) अनुभव-शून्य बात या काम । क्रि० अ० गदराना-अधपका होना। गदह-पन-संज्ञा, पु. ( हि. गदहा-+-पन | गद्दा-संज्ञा, पु० (हि. गद से अनु० ) रुई प्रत्य०) मूर्खता, बेवकूफ़ी। आदि से भरा बहुत मोटा और गुलगुल गदह-पुरना - संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० गदह = बिछौना, भारी तोषक, गदेला, रुई आदि रोग+पुनर्नवा ) पुनर्नवा नामी पौधा, गदा मुलायम वस्तु से भरा बोझा, किसी पुन्ना ( ग्रामी.) मुलायम वस्तु की भार गदहा - संज्ञा, पु० (सं० ) रोग हरने वाला, गद्दी-संज्ञा, स्त्री. ( हि० गद्दा का स्त्री० वैद्य. चिकित्सिक, भिषम् । संज्ञा, पु० दे० और अल्प० ) छोटा गद्दा, वह वस्त्र जो (सं० गर्दभ ) ( स्त्री० गदही ) गधा, गर्धप घोड़े, ऊंट आदि की पीठ पर ज़ीन आदि (सं० ) स्त्री० गधी। के रखने के पहिले डाला जाता है। मुहा० गदहे पर चढ़ाना-बहुत बेइज्जत व्यापारी आदि के बैठने का स्थान । राजा या बदनाम करना । गदहे का हल का सिंहासन, किसी बड़े अधिकारी का पद, चलना-बिलकुल उजड़ जाना, बरबाद महन्त आदि का पद । हाथ या पैर के तल हो जाना । वि०-मूर्ख, नासमझ, नादान, | का मांस-भरा भाग। बेवकूफ़ । मु०-गद्दी पर बैठना-सिंहासन पर बैठना गदा-संज्ञा, स्त्री० (सं० ) प्राचीन हथियार या उत्तराधिकारी होना। किसी राज-वंश की जिसमें दण्ड़े के सिरे पर एक बड़ा लट्ट पीढ़ी या प्राचार्य की शिष्य-परम्परा । रहता है, यह भगवान विष्णु, हनुमान, और | हाथ वा पैर की हथेली (गदेरी, गदोरी. भीम का मुख्य अस्त्र है । संज्ञा पु० ( फा०) प्रान्ती. ) । मु० - गद्दी जगना-वंश फ़कीर, भीख माँगने वाला, दरिद्र । या शिष्य-परम्परा का चला जाना, गद्दी गदाई-वि० (फा० गद - फकीर + ई प्रत्य०) जगाना-परम्परा का कायम रखना । गदा का काम, तुच्छ, नीचे, ग़रीबी, रद्दी। । गद्दी आबाद रहना-वंश वा राजभीख माँगना, दरिद्रता। सिंहासन या शिष्य परम्परा का बराबर गदाधर-संज्ञा, पु० (सं०) विष्णु भगवान् । जारी रहना। गदेरी, गदोरी-संज्ञा, स्त्री० (दे० ) गद्दीनशीन -- वि० (हि. गद्दी+ नशीनहथेली, कर-तल (सं०)। फा० ) गद्दी या सिंहासन पर बैठना, जिसे गदेला-संज्ञा, पु० (दे०) तोषक, बालक, राज्याधिकार मिला हो, उत्तराधिकारी । बच्चा । ( स्त्री०) गदेली। संज्ञा, स्त्री० गही नशीनी। गदगदु-वि० (सं०) बहुत हर्ष, प्रेम, गद्य-संज्ञा, पु० (सं० ) वह लेख जिसमें श्रद्धा श्रादि के श्रावेग से पूर्ण, अधिक प्रेम, मात्रा और वर्ण की संख्या, गति, स्थानादि हर्ष आदि के कारण रुका हुआ, अस्पष्ट वा का कोई नियम न हो परन्तु शब्दों का असम्बद्ध, प्रसन्न, खुश । गदगद (दे०)। क्रम व्याकरणानुसार ठीक रहे। वार्तिक, गद्द-संज्ञा, पु० (अनु०) नम्र स्थान पर वाचनिका. पद्य का विलोम । यौ० गद्यकिसी वस्तु के गिरने का शब्द, किसी काव्य-काव्य-गुण पूर्ण गद्य, उपन्यास, गरिष्ठ या शीघ्र न पचने वाली वस्तु के कथादि। कारण पेट का भारीपन । गधा-संज्ञा, पु० (दे० ) “गदहा, गर्धप गद्दर-वि० (दे० ) जो भली भाँति पका । (सं.)। स्त्री० गधी । For Private and Personal Use Only Page #569 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गन ५५८ गफ्फा गन-संज्ञा, पु० (दे०) गण (सं०) संज्ञा, अफ़वाह, वह झूठी बात जो बड़ाई प्रगट पु. (अ.) बंदूक। करने के लिये की जाय, डींग, शेखी। गनगन-संज्ञा, स्त्री० (अनु० ) कांपने या मु०-गप्प हांकना-लड़ाना- काल्पनिक रोमांच होने की मुद्रा । किसी वस्तु के तेज़ी बातें करना । संज्ञा, पु. ( अनु० ) वह शब्द से घूमने का शब्द। जो झट से निगलने, किसी नरम वा गली गनगनाना-अ. कि. ( अनु० गनगन) वस्तु में घुसने से होता है, सरलता से शीत आदि से रोमांच या कंप आदि का निगलने योग्य । होना, बड़े वेग से किसी वस्तु का चक्कर मु०-गप कर जाना-हड़प जाना, किसी लगाना या घूमना। की किसी वस्तु का हरण करके हजम कर गनगौर-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० गण+ लेना, चुरा लेना । यौ० गपागप---जल्दी गौरी ) चैत्र शुक्ल तृतीया, इस दिन स्त्रियाँ जल्दी निगलना, झटपट खाना। निगलने या गणेश और गौरी की पूजा करती हैं। ख़ाने की क्रिया, भक्षण करना। गनना -स० कि० (दे०) "गिनना | गपकना-स. कि. ( अनु० गप+हि. (सं० गणना )। करना) चटपट निगलना, झट से खा लेना, गनाना-स० कि० (दे० ) "गिनाना" अपहरण करना। अदा कर लेना, ले लेना । अ० क्रि०- | गपड़चौथ-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. गपोड़गिना जाना। बातचीत+चौथ ) व्यर्थ की बात-चीत, गनियारी-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० गणि- लीपपोत, अंड-बंड, अव्यवस्था । कारी ) छोटी अरनी, शमी की तरह का गपना-स० क्रि० दे० (हि० गप) बकना, एक पौधा। बकबाद करना, गप मारना। गनी-संज्ञा, पु. (अ.) गनी (दे०) धनी, गपशप-संज्ञा, पु० (दे०) झूठी-सच्ची ......गनी गरीब नेवाज"-तु.। | बात मनोरञ्जन या मनोविनोद की बात । ग़नीम-संज्ञा, पु. (अ.) लुटेरा, डाकू, गपिहा, गपिया-वि० (दे० ) गप मारने बैरी, शत्रु । गनीम (दे.)। वाला, बकबादी, बातूनी। गनीमत-संज्ञा, स्त्रो० (अ.) लूट का माल गपोड़ा-- संज्ञा, पु० दे० (हि. गप ) मिथ्या वह माल जो बिना परिश्रम के मिले, मुफ्त | बकबाद, व्यर्थ की बात, कपोल कल्पना, का माल, सन्तोष की बात (दे०) गनीमत । वि०-गप मारने वाला-गपोडिया (दे०)। गन्ना-संज्ञा, पु० दे० (सं० कांड) ईख, गप-संज्ञा, स्त्री० (दे०) गप, वि०-गप्पीऊख, मोटी ईख । गप मारने वाला। गप-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० कल्प) (वि० | गप्पा-संज्ञा, पु० दे० ( अनु० गप ) धोखा, गप्पी ) इधर उधर की बात जिसकी सत्यता | छल, झूठ। का निश्चय न हो । वह बात जो केवल जो गप्पी-वि० दे० (हि. गप ) गप मारने बहलाने के लिये की जाय, काल्पनिक बात, या हाँकने वाला, छोटी बात को बढ़ा कर बकवाद, मिथ्याबाद, गप्प-(दे० )। कहने वाला। यौ०-गपशप–इधर-उधर की बातें। गफ-वि० ( फा० ) घना, ठस, गाढ़ा, धनी मु०-गप उड़ाना-झूठी बातें कहना। बुनावट का ( वस्त्र ) गप मारना-झूठी विनोदपूर्ण बात | गफ्फा - संज्ञा, पु० दे० ( अनु० गप ) बहुत करना। झूठी खबर, मिथ्या सम्वाद, बड़ा कौर, बड़ा ग्रास, लाभ, फायदा। For Private and Personal Use Only Page #570 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गफ़लत ग़मी ग़फ़लत-संज्ञा, स्त्री० (अ.) बे परवाई, वस्तु या विषय में ) प्रवेश, पैठार, पहुँच, लापरवाही, असावधानी, बेखबरी, बेसुधी। गुज़र । मुहा०--गम करना-धैर्य धारण भूलचूक । करना, ठहरना। ग़बन-संज्ञा, पु. (अ.) खयानत, दूसरे के ग़म-संज्ञा, पु० (०) दुख, रंज, शोक । सौंपे हुये माल को खा जाना या उड़ा मु०-ग़म खाना-क्षमा करना, ध्यान न जाना। देना, जाने देना, ठहरना। चिता, फिक्र, गबरूा-वि० (फा० ख बरू ) उभड़ती या | ध्यान, सोच-विचार । उठती जवानी का, जिसके रेख उठती हो, गमक-संज्ञा, पु० (सं.) जाने वाला, पट्टा । भोला-भाला, सीधा-सादा । संज्ञा, बोधक, सूचक, बतलाने वाला । संज्ञा, स्त्री० पु. ( दे.) दूल्हा, पति ।। (दे० ) सुगंधि, महक, तबले की आवाज़, गबरून-संज्ञा, पु० (फा० गबरून ) चारखाने संगीत में एक स्वर से दूसरे पर जाने की तरह का एक मोटा कपड़ा । का ढंग। गबड़न-(दे०)। गमकना-० क्रि० दे० (हि. गमक ) गबाशन-संज्ञा, पु० (दे०) चमार, चंडाल, महकमा, तबला बजना । म्लेच्छ । गमकीला-संज्ञा, पु० (दे०) (हि. गमक ) गम्बर-वि० दे० (सं० गर्व, प्रा. गब्ब) महकने वाला, सुगन्धित, खुशबूदार, सहनअहंकारी, घमंडी, गीला, महर, मंद, . शील। सुस्त । बहुमूल्य, कीमती, मालदार, धनी, ग़मखोर-वि० (फा. ग़मख्वार ) सहनजल्दी काम न करने वाला या बात का | शील, सहिष्णु, ग़म खाने वाला। संज्ञा, उत्तर न देने वाला, हठी, ज़िद्दी । स्त्री.—ग़मवारी। गभस्ति-संज्ञा, पु. ( सं० ) किरण, रश्मि । गमत-संज्ञा, पु० दे० (सं० गम ) मार्ग, प्रकाश, सूर्य, हाथ, वाहु, पाताल ( स्त्री०) रास्ता, व्यवसाय, गाने-बजाने का समाज, अग्नि की स्त्री, स्वाहा। गम्मत (दे.)। गभस्तिमान-संज्ञा, पु० (सं० गभस्तिमत् ) गमन-संज्ञा, पु. (सं०) (वि० गम्य ) सूर्य, एक द्वीप, एक पाताल । जाना, चलना, यात्रा करना, मैथुन, संभोग, गभीर-वि० (दे० ) गंभीर, गंभीर जैसे-वेश्यागमन, राह, रास्ता। | गमना*-० क्रि० (सं० गमन ) जाना, गभुषार-वि० (सं० गर्भ+पार-प्रत्य) चलना । अ० कि० ( म० ग़म ) सोच वा गर्भ का ( बालक ), जन्म के समय का रंज करना, ध्यान देना। रखा हुआ ( बाल ), वह लड़का जिसके गमला-संज्ञा, पु. (२) फूलों के पेड़ सिर के बाल जन्म से लेकर न कटे हों। और पौधे लगाने का बर्तन, कमोड़ा, जिसका मुंडन न हुआ हो, नादान, अनजान, पाखाना फिरने का बर्तन । अबोध । गमाना*-स० कि० ( दे० ) गँवाना, गभुआरे-वि० (दे.) (हि. गभुमार ) खो देना। लड़कों के जन्म के बाल, धुंधर वाले बाल । | ग़मी-संज्ञा, स्त्री० दे० (अ. ग़म ) शोक संज्ञा, पु० (दे० ) गभुधार "तोतर बोल की अवस्था वा काल, वह शोक जो किसी केस गभुमारे।" तुल। के मरने पर उसके सम्बन्धी करते हैं। गम-संज्ञा, स्नी० दे० ( सं० गम्य ) (किसी ! सोग ( दे० ) मृत्यु, मौत । For Private and Personal Use Only Page #571 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गमी गरजना गमी --संज्ञा, पु० (सं० ) आगे जाने वाला, | गरई-प्र० कि० (हि. गलना ) गल जाता चलने वाला, गमनकर्ता। है, पिघल जाता। गम्भारी-संज्ञा, स्त्री० (सं० ) वृक्ष विशेष गरक-वि० दे० (म. ग़र्क ) डूबा हुआ, जो औषधि के काम में आता है। निमग्न, विलुप्त, नष्ट, बरबाद । स० कि.. गम्भीर-संज्ञा, पु० (सं.) गहिरा, अथाह ।। गरकना - डुबोना, छिड़कना ।... " गरके वि० गहन, गूढ़ । गुबिंद के धौं गोरी की गोराई मैं"। गम्मत-संज्ञा, स्त्री. ( दे० ) विनोद, हँसी, | ग़रकाब--वि. ( फा० ) पानी में डूबा मौज, बहार, गाना-बजाना । गमत (दे०)। हुआ, किसी वस्तु में डूबा हुआ । गम्य-वि० सं०) जाने योग्य, गमन-योग्य, गरकी ... संज्ञा, स्त्री. (फा० ) डूबने की प्राप्य, लभ्य, संभोग या मैथुन करने योग्य क्रिया या भाव, डूबना, बूड़ा, बाढ़, योग्य, साध्य । स्त्री० गम्या ।। वह भूमि जो पानी के नीचे हो, नीची गयंद-संज्ञा, पु० दे० (सं० गजेन्द्र) बड़ा हाथी। भूमि, खलार, अति वर्षा । गय-संज्ञा, पु. (सं०) घर, मकान, आकाश, गरगज-संज्ञा, पु० दे० (हि. गढ़ -। गज ) धन, प्राण, पुत्र, एक राजा, एक दैत्य | किले की दीवालों पर बना हुआ बुर्ज़, जिस एक तीर्थ का नाम, हाथी (सं० गज )। पर तापें चढ़ी रहती हैं, वह ढूह या टीला गयनाल-संज्ञा, स्त्री० यौ० (दे० ) गज- | जहाँ से बैरी की सेना का पता चलाया नाल (सं.)। जाता है, तख्तों से बनी हुई नाव की गयल-संज्ञा, स्त्री० (दे० ) गइल मार्ग, छत, फाँसी की टिकटी। ॐ वि०-बहुत रास्ता, "गैल" (व्र०) "कुल-गैल गहिबेको बड़ा, विशाल, (प्रान्ती० ) ढेर, समूह, हठि हटकत आवै है" रत्ना। गयशिर--संज्ञा, पु० (सं० ) आकाश, गया गरगरा-संज्ञा, पु० (अनु०) गराड़ी, घिरनी। के निकट का एक पहाड़। गरगराना-प्र. क्रि० (दे०) गर्जना, ज़ोर गया-रंज्ञा, पु. ( सं० ) एक तीर्थ का नाम से बोलना, शोर करना, गर गर शब्द जो बिहार में है, जहाँ पिंड-दान किया | करना। जाता है, एक शहर, जो बिहार में है। | गरगाव- वि० (दे० ) ग़रकाव, पानी क्रि० प्र० (हि. जाना, सं० गम) जाना में डूबा हुआ। क्रिया का भूत कालिक रूप, प्रस्थानित हुआ। गरज - संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० गर्जन ) बहुत मुहा---गया-गुज़रा या गया-चीता- गम्भीर शब्द, बादल या सिंह का शब्द । बुरी दशा को पहुँचा हुआ, नष्ट-भ्रष्ट, निकृष्ट। (दे०) ग़रज़ (म.)। गयाघाल-संज्ञा, पु० ( हि० गया+वाल ) गरज-संज्ञा, स्त्री० (१०) श्राशय, प्रयोजन, गया तीर्थ का पंडा, गया वाला। मतलब, श्रावश्यकता, ज़रूरत, चाह, गर-संज्ञा, पु० (सं० ) रोग, बीमारी, विष, इच्छा । ... " गरज न जानै मेरी गरजन ज़हर । अव्य० (फा० अगर ) अगर का जानैरी" । अव्य०-निदान.अाखिरकार, अन्तसूचम रूप । संज्ञा, पु० दे० ( हि० गला) तोगत्वा, अन्त को जाकर, मतलब यह कि, गला, गर्दन, गरो।(व.) यौ० ( दे०) तात्पर्य यह कि, सारांश यह कि। यौ० गरबहियाँ-गलबाही - गले में हाथ डाल | अलग़रज-तात्पर्य यह कि । वि० ग़रज़कर भेंटना । (फा० प्रत्य०) किसी काम को मंद, स्वार्थी । लो०-ग़रज़मंद घावला। बनाने वाला जैसे-कलईगर, ज़रगर, सौदागर ।। गरजना-प्र० क्रि० दे० (सं० गर्जन ) बहुत राशि। For Private and Personal Use Only Page #572 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ग़रज़मंद गरम गहिरा और भारी शब्द करना, जैसे बादल ही जगह पर आने वाला, चक्कर लगाने का गरजना, मोती का चटकना, तड़कना, वाला । संज्ञा, पु० (फा० ) शब्दों के रूपफूटना। " घन घमंड नभ गरजहिं घोरा" | साधना, घूम-फिर कर सदा अपने स्थान रामा। वि० गरजनेवाला । संज्ञा० स्त्री०- , पर श्राने वाला कबूतर । गर्जन। गरदानना-स० क्रि० (फा० गरदान ) शब्दों गरजमंद-वि० (फा० ) ( संज्ञा स्त्री० गरज- के रूपों का सिद्ध करना, श्रावृत्ति कहना, मंदी) गरजी (दे० ) जिसे ज़रूरत हो, उद्धरणी करना, गिनना, समझना, मानना । जिसे आवश्यकता हो, चाहने वाला, गरना अ० क्रि० (दे०) गलना, इच्छुक, स्वार्थी। पिवलना गड़ना, एक क्रम से ऊपर-नीचे ग़रज़ी-वि० (दे०) गरजमंद । “गरजी | रखकर ढेर लगाना । अ० क्रि० दे० (सं० गरीबन पै गजब गुजारौ ना"। गरण ) निचुड़ना, निचोड़ना। गरजू-वि० ( दे० ) गरजमंद, गरजी। । गरनाल-संज्ञा, पु० यौ० दे० (हि. गर+ गरट्ट- संज्ञा, पु. ( सं० ग्रंथ ) समूह, झंड।। नली ) अति चौड़े मुँह वाली तोप, धननाल, गरद-संज्ञा, स्त्री० (दे०) गर्द, धूल, मिट्टी।। घननाद । गरदन-संज्ञा, स्त्री० (फा० ) गला. ग्रीवा | गरब*-संज्ञा, पु० दे० (सं० गर्व ) घमंड, ( सं० ) गर्दन । मुहा०-- गरदन | गर्व, हाथी का मद। " गरब करहु रघु उठाना-विरोध करना, विद्रोह करना। नन्दन जनि मन माँह"-तु०।। गरदन काटना-( मारना ) गला काटना, । गरबई-संज्ञा, स्त्री. (दे०) गर्वीलापन, मार डालना, बुराई करना, हानि पहुँ- घमंड, अभिमान । चाना । गरदन उड़ाना-गला काट | गरब-गहेला-वि० दे० (हि. गर्व+गहना) कर मार डालना । गरदनपर-ऊपर, । | गर्व धारण करने वाला, गर्वीला, अभिमानी, ज़िम्मे (पाप के लिये), गरदन मारना- | घमंडी। सिर काटना, मार डालना। गरबना-गरबाना* + --अ० कि० दे० (सं० गरदन में हाथ देना या डालना-- गर्व ) घमंड में श्राना, अभिमान करना। गरदन पकड़ कर निकालना गरदनियाँ गरबाँहीं-- संज्ञा, स्त्री. यौ० (दे०) गलदेना । (दे०) बर्तन आदि का ऊपरी । बाँहीं। “दै गर-बाही जु नाहीं करी वह हिस्सा, पहिनने के कपड़ों के गले । ले| नाँहीं गोपाल को भूलति नाहीं"। में हाथ (बाह) डालन-भेंटना। गरबित-वि. ( दे० ) अभिमान-युक्त, गरदना-संज्ञा, पु० ( हि० गरदन ) मोटी घमंडी। गरदन, गरदन पर लगने वाली धौल। गरबीला - वि० दे० (सं० गर्व ) (हि. गरब गरदनियाँ ---संज्ञा, स्त्री० दे० (हि० गरदन + + ईला-प्रत्य०) जिसे गर्व हो, अभिमानी, इयाँ-प्रत्य०) किसी को कहीं से गरदन | घमंडी। पकड़ कर निकालने की क्रिया । बहु० व०- गरम-संज्ञा, पु० (दे०) गर्व (सं०) गर्भ गरदनों। (सं०)। गरदा-संज्ञा, पु० दे० (फा० गर्द) धूलि, गरभाना-अ. क्रि० दे० ( सं० गर्भ ) मिट्टी, खाक, गर्द ।......" कटि के दरद गर्भिणी होना, गर्भ युक्त होना, धान, गेहूँ को गरद करि डारती"-कुं० वि०। आदि के पौधों में बालों का आना। गरदान-वि० (फा० ) घूम-फिर कर एक गरम-वि० दे० ( फा० गर्म ) जलता हुआ, भा० श० को०-७१ For Private and Personal Use Only Page #573 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गरजना गरमाना गरियाना तप्त, उष्ण, तत्ता । यौ० गरमा-गरम- गरल-संज्ञा, पु. ( सं०) विष, जहर,..... उष्ण, तप्त, तत्ता, तीक्ष्ण, उग्र, खरा । यौ० | "गरल सुधा रिपु करै मिताई"-रामा० । गरमागरमी-परस्पर क्रोध में आना या गरहन-संज्ञा, पु० (दे०) ग्रहण (सं.)। सरोष विवाद करना । मुहा०-मिजाज गराँव--संज्ञा, पु० दे० (हि. गर-गला ) गरम होना-क्रोध आना, पागल होना। चौपायों के गले में बाँधी जाने वाली गरम होना ( पड़ना ) तेज़ पड़ना, दोहरी रस्सी । गेरवाँ (प्रान्ती० )। आवेश में आना, क्रुद्ध होना। (बाज़ार) गरा-संज्ञा, पु. ( दे० ) गला, गरो गरम होना-भाव तेज होना, चहल- (व.)। पहल होना, भीड़ होना। यो०-गरम | गराज - संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० गर्जन ) कपड़ा - शरीर गरम रखने वाला कपड़ा। गरज, गर्जन। अ० कि० (दे०) गराजनागरम मसाला-धनिया, जीरा, लौंग | इलाइची आदि, उत्तेजक वस्तु या बात । गराड़ी-संज्ञा, स्त्री० दे० ( अनु० गड़ या सं० उत्साह-पूर्ण । गरमा-गरमी-मुस्तैदी, कंडली ) काठ या लोहे का गोला जिसके जोश, क्रोधित होना, कहा-सुनी । यौ० मध्यस्थ गड्ढे में रस्सी डाल कुयें से पानी गरम खबर ( चर्चा) ज़ोरों की ख़बर खींचते हैं, चरखी । संज्ञा, स्त्री० (सं० गंड = या चर्चा, अति कथित बात । चिन्ह ) रगड़ से पड़ी हुई गहरी लकीर, गरमाना-अ. क्रि० (हि. गरम ) गरम | साँट, गरारी (दे०)। पड़ना, तेज़ पड़ना, उमंग पर आना, गराना-स० कि० (दे०) गलाना स० मस्ताना, आवेश में आना, क्रोध करना, क्रि० (हि. गारना ) गारने का काम झल्लाना, कुछ देर दौड़ने या परिश्रम करने कराना, गारना, निचोड़ना, गाड़ना, काजल पर बदन में गरमी आना, अपने को का फेंटना, रगड़ना, गरने या राशि करने गरम करना, घोड़े आदि पशुओं का तेज़ी का काम कराना। पर आना। स० क्रि० (दे०) गरम करना, | मरारा-वि० दे० (सं० गर्व+पार-प्रत्य० ) तपाना, प्रौटाना। गर्व-युक्त, प्रचंड, बलवान । संज्ञा, पु० गरमाहट-संज्ञा, स्त्री० (हि. गरम+हट (म० गरगरा ) कुल्ली, कुल्ला की औषधि । प्रत्य०) गरमी। गरमी-संज्ञा, स्त्री० (फा० ) उष्णता, ताप, संज्ञा, पु० (हि० घेरा ) पायजामें को ढीली जलन, तेज़ी, उग्रता, प्रचंडता । वि० गर मोहरी, बड़ा थैला। मीला-गरम, क्रोधी, गरमी करने वाला। गरास* -- संज्ञा पु० ( दे० ) ग्रास (सं.)। मुहा०-गरमी निकालना- गर्व दूर गरासना*-क्रि० सं०(दे०) ग्रसना (सं०)। करना । श्रावेश, क्रोध, उमंग, जोश, ग्रीष्म गरिमा-संज्ञा, स्त्री० (सं० गरिमन ) गुरुत्व, ऋतु, कड़ी धूप के दिन, एक रोग, श्रात- बोझा, भारीपन, महिमा, महत्व, गुरता शक, फिरंग रोग । मुहा०-गरमी चढ़ना, गवे, अहंकार, प्रारमश्लाघा, आत्मगौरव या पाना ( दिमाग में )--दिमाग़ पाठ सिद्धियों में से एक जिससे साधक बिगड़ना, क्रोध आना, पागल होना। अपने को यथेष्ट रूप से भारी कर गररा*--संज्ञा, पु० (दे०) गरी दे०)। सकता है। गरराना-अ. क्रि० दे० (अनु०) घोर ! गरियाना-अ० क्रि० दे० (हि. गारी+ ध्वनि करना, गंभीर स्वर से गरजना। माना-प्रत्य०) गाली देना। For Private and Personal Use Only Page #574 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गरियार गर्जन गरियार-वि० दे० ( हि० गड़ना---एक गरुड़गामी- संज्ञा, पु. ( सं० ) विष्णु, जगह रुक जाना) सुस्त, मट्टर । श्रीकृष्ण। गरिष्ठ-वि० (सं०) बहुत भारी, अति गरुडध्वज-संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) विष्णु गुरु, जो जल्दी न पके या पचे। भगवान। गरी- संज्ञा, स्त्री० दे० ( सं० गुलिका ) | गरुड़-पुराशा -संज्ञा, पु. यौ० (सं०) १८ नारियल के फल के भीतर का मुलायम गूदा पुराणों में से एक पुराण । मींगी, जिसे गिरी भी कहते हैं। | गरुड़रुत-संज्ञा, पु० (सं० ) सोलह वर्णों गरीब-वि० दे० (अ. गरीब ) नम्र, दीन- का एक वर्णित वृत्त । हीन, दरिद्र, कंगाल, मुसाफिर, बापुरा, | गरुड-व्युह-संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) लड़ाई (७०) बे सामान, असहाय। “जे गरीब पर के मैदान में सेना के जमाव या स्थापन का हित करहि".--- रही। । एक क्रम । गरीब-निवाज-वि० दे० यौ० ( फा०- वाई-- संज्ञा, स्त्री० (दे०) गराई, गरोब+निवाज़ ) दीनों पर दया करने गुरुता। वाला, दीनदयालु, दीन-प्रतिपालक, “गई. गरुता-संज्ञा. स्त्री० (सं०) भारीपन, गुरुत्व । बहोर गरीब-निवाजू".-रामा० । गरू-वि० दे० (सं० गुरु ) भारी, वज़नी। गरीब-परवर-वि० यौ० ( फ़ा० ) ग़रीबों ग़रूर--संज्ञा, पु० (अ.) घमंड, अहंकार । का पालने वाला, दीन-प्रतिपालक, गरी- गरुर (दे०)। परवर (दे० )। गरूरता-गरूरताई-पंज्ञा, स्त्री० दे० (अ.. गरीबी-संज्ञा, स्त्रो० दे० ( अ० गरीब ) ग़रूर ) धमंड, अहंकार, अभिमान, गर्व । आधीनता, दीनता, विनम्रता, दरिद्रता, गरी-गरूरा--वि० दे० (अ. ग़रूर ) मग़निर्धनता, मुहताजी। रुर (अ० ) घमंडी, अहंकारी, अभिमानी। गरीयस-वि० (सं० ) ( स्त्री० गरीयसी) गरेबान-संज्ञा, पु. ( फा०) श्रागे, कुरते अति भारी, गुरु, महान । गरु (दे०)। श्रादि में गले पर का भाग। गरु-गरुपा -वि० दे० ( सं० गुरु ) | गरेरना-२० कि० दे० (हि. घेरना) घेरना। ( स्त्री० गई ) भारी, वज़नी, गौरवशील, गरेरा-संज्ञा, पु० (दे०) घेरा। वि. (दे०) गरू (प्रा.), गरुश्रो (३०)। (विलोम घुमावदार। हस्त्रो )। गरैयाँ-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. गला) गरुपाई-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. गरुया ) | गराँव, रस्सी, गेरवाँ ( प्रान्ती० )। गुरुता, भारीपन । म० कि. सा. भू० गरोह-संज्ञा, पु० (फ़ा०) झंड, जत्था, गिरोह । (गरू आना)। गरुपाना-प्र. क्रि० (दे०) भारी या गर्ग-संज्ञा, पु. (सं० ) एक ऋषि, एक वज़न होना। ... "अधिक अधिक गरु गोत्र, बैल, साँड़, एक पहाड़, एक जाति की उपाधि । आई"-रामा०। गरुड़-संज्ञा, पु. (सं०) पतीराज, वैनतेय. गज-संज्ञा, स्त्री० (दे०) गरज, (१०)। विष्णु भगवान के वाहन, उताब (अ.) गरज ( हिं० । को भी बहुतेरे गरुड़ कहते हैं, सेना की गर्जन -- संज्ञा, पु० (सं० ) भीषण ध्वनि, व्यूह-रचना का एक भेद, छप्पय छंद का | नाद, रव, गरजना, गंभीर नाद, बादल या एक भेद । सिंहादि का नाद । For Private and Personal Use Only Page #575 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गर्जना ग यौ० गर्जन-तर्जन-तड़प, डाँट-डपट । मन्दिर की वह कोठरी जिसमें मूर्तियाँ रखी गर्जना-अ० कि. (दे०) गरजना। जाती हैं। गर्जित-वि० (सं० ) बादल के शब्द-युक्त, गर्भ-नाल-संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं० ) फूलों मतवाले हाथी के शब्द से युक्त । के भीतर की वह पतली नाल जिसके सिरे गर्त्त-संज्ञा, पु. (सं० ) गड्ढा, गढ़ा, पर गर्भ-केसर रहता है। ..."वरं गावर्ते गहन जल मध्ये "। गर्भ-पात-संज्ञा, पु. यौ० (सं० ) बच्चे का गर्द-संज्ञा, स्त्री. (फा० ) धूल, राख, पूरी बाढ़ के पहले ही पेट से निकल जाना, गरद (दे०) "... दरद करहै अरी पेट गिरना, गर्भ गिरना। गरद गुलाल की"-गर्दा ( दे०) । यौ० गर्भवतो-वि० स्त्री० (सं०) वह स्त्री जिसके गर्द-गुबार-धूल, मिट्टी, रज-राशि। पेट में लड़का हो, गर्भिणी, गुर्विणी। गर्द-खोर-गर्द-खोरा-वि० (फा० गर्दखोर) गर्भ-सन्धि-संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं० ) गर्द और धूलि पड़ने से जल्द ख़राब या नाटक की संधियों के पाँच भेदों में से एक, बरबाद न होने वाला । संज्ञा, पु. पाँव (नाट्य० )। पोछने का टाट या कपड़ा, पायंदाज़ । गर्भस्थ वि० (सं० ) जो गर्भ में हो। गर्दन-संज्ञा, स्त्री० ( फा० ) गरदन ( दे०) गर्भ-स्त्राव-संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) चार गला। महीने के अन्दर होने वाला गर्भ पात । गर्दभ-संज्ञा, पु. (सं०) गधा, गदहा। गर्भ-स्थापन-संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) गर्भ"गर्दभो नैव जानाति · ..."। स्थिति के लिए मैथुन । गर्दिश-संज्ञा, स्त्री० (फा० ) घुमाव, चक्कर, गीक-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) नाटक के विपत्ति, आपत्ति, श्राफ़त । मुहा०-- बीच में किसी घटना विशेष सूचम दृश्य, (वक्त, दिनों को ) गर्दिश--भाग्य चक्र नाटकांक का एक भाग या दृश्य (नाट्य०) । का उलट-फेर । यौ०-गर्दिशे अय्याप। गर्भाधान--संज्ञा, पु० यौ० (सं०) मनुष्य के गद्ध-संज्ञा, पु० (सं० गई+अल् प्रत्य०) सोलह संस्कारों में से प्रथम जो गर्भ में स्पृहा, लिप्सा, चाह, पलखा, पाकर। बच्चे के आने के समय होता है, गर्भगर्भ-संज्ञा, पु. (सं०) पेट के भीतर का | | स्थिति, गर्भ-धारण । बच्चा, गरभ-(दे०) हमल । “गर्भन गर्भाशय-संज्ञा, पु० (सं० ) स्त्रियों के पेट के अर्भक-दलन"-रामा० । भीतरी भाग, में बच्चा रहने का स्थान । अदृष्ट स्थान, अज्ञात स्थल, आन्तरिक देश, गर्भिणी-वि० स्त्री० (सं० ) जिसे गर्भ हो जैसे-भविष्य के गर्भ में। | वह स्त्री, गर्भवती, हामिला, पेटवाली। महा०-गर्भ गिरना-गर्भ के बच्चे का | गर्भित—वि० (सं०) गर्भयुक्त, भरा हुश्रा, पूर्ण वृद्धि के पूर्व ही निकल जाना, गर्भ पूर्ण, पूरा, जैसे-सार गर्भित बात। पात । गर्भ गिराना-बलात् औषधि | गर्रा-वि० दे० (सं० गरहाधिक ) लाख के प्रयोग से गर्भ का पात कराना। रंग का । संज्ञा, पु० ( दे० ) लाखी रंग, गर्भ-केसर-संज्ञा, पु. यौ० (सं०) फूलों घोड़े का एक रंग, जिसमें लाही और सफ़ेद में वे पतले सूत जो गर्भ-नाल के भीतर | दोनों रंग मिले होते हैं, इसी रंग का होते हैं। घोड़ा, लाही रंग का कबूतर । गर्भ-गृह-संज्ञा, पु. यौ० (सं.) घर के गर्ष-संज्ञा पु० (सं०) अहङ्कार, घमंड, मद। बीच की कोठरी, बीच का घर, आँगन, वि. गर्वित (सं.) गीला (हि.)। For Private and Personal Use Only Page #576 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गर्वाना गल-तकिया गर्वाना-प्र० कि० दे० (सं० गर्व ) गर्व | गलगंड-संज्ञा, पु० (सं० ) एक रोग जिसमें करना। गला फूल कर लटक आता है, गंडमाला, गर्विता-संज्ञा, स्त्री० (सं० ) वह नायिका | कंठमाला । जिसे अपने रूप, गुण या पति-प्रेम का गलगल-संज्ञा, स्त्री० ( दे० )।मैना के जाति घमंड हो। की एक चिड़िया, सिरगोटी, गलगलिया गर्वित-वि० (सं० ) गर्वयुक्त, धमंडी, अह- दे० । संज्ञा, पु० (दे०) एक प्रकार का बड़ा कारी, गर्वीला। नीबू । “गलगल निबुवा श्री घिउ तात" गर्षिष्ट - संज्ञा, पु० वि० (सं० ) अभिमानी, -घाघ। घमंडी। गलगला-वि० (दे० ) भीगा हुआ, तर । गर्वी–वि. पु. (सं० गर्विन ) धमंडी, गलगाजना-अ० कि० यौ० ( हि० गाल + अभिमानी। गाजना ) गाल बजाना, बहुत बढ़ कर बात गर्वीला-वि० ( सं० गर्व + ईला प्रत्य० ) __ करना, गर्जना।..."स्वैरिनी सी गलगाजि ( स्त्रो० गर्वीली ) घमंड से भरा हुआ, अभि रही है -उ० श० । मानी, अहङ्कारी। गलगुच्छ-संज्ञा, पु० (दे०) गलगुच्छा, गर्हण - संज्ञा, पु० (सं०) निन्दा, शिकायत ।। गालों तक मोछे। गहणीय-संज्ञा, पु० (सं०) निन्दायोग्य, ! | गलगुथना-वि० (हि. गाल ) जिसका निन्दनीय, तिरस्कार करने योग्य, दुष्ट, बुरा । शरीर बहुत भरा और गाल फूले हों, मोटा. गह -संज्ञा, स्त्री. (सं० गर्ह ) तिरस्कार, ताज़ा, हृष्ट-पुष्ट, हट्टा-कट्टा । अपवाद, निन्दा, बुराई, अनादर । गलग्रह-संज्ञा, पु० यौ० ( सं०) मछली का गहित-वि. (सं० ) जिसकी निन्दा की काँटा, ऐसी विपत्ति जो कठिनाई से दूर हो । जाय, निन्दित, दूषित। गलछुट-संज्ञा स्त्री० ( दे० ) गलफड़ा। गह-वि० (सं० ) गर्हणीय, निन्दनीय । गलजंदड़ा-संज्ञा, पु० दे० (सं० गल+ यंत्र, गल-संज्ञा पु० (सं०) गला, कंठ । मुहा०गलबहियाँ-गलबाही-आपस में कन्धों पं० जंदरा ) कभी पिंड न छोड़ने वाला गले का हार, कपड़े की पट्टी जिसे गले में पर हाथ रख कर चलना, गले में हाथ चोट लगे हुये हाथ के सहारा के लिये गल-कंवल-संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) गाय बाँधते हैं। के गले के नीचे लटकने वाला हिस्सा, | गलझंप-संज्ञा, पु० दे० (हि० गला + सास्ना, झालर, लहर । " गलकँवल बरुना झांपना ) हाथी के गले की लोहे की विभाति', वि०। झूल या जंजीर। गलका--संज्ञा, पु० दे० ( हिं० गलना ) एक गलतंस-संज्ञा, स्त्री. (हि.) निस्संतान प्रकार का फोड़ा जो हाथ की अँगुलियों में | पुरुष या उसका धन । होता है, एक प्रकार का कोड़ा या चाबुक । | ग़लत-वि. (अ.) (संज्ञा, स्त्री० ग़लती) गलगंज-संज्ञा, पु. यौ० (हि. गाल+ अशुद्ध, भ्रम-मूलक, मिथ्या, झूठ, भूल गाजना ) कोलाहल, शोर-गुल, हल्ला। चूक, त्रुटि । गलगंजना-प्र० कि० (हि. गलगंज ) शोर गल-तकिया--संज्ञा, पु. यौ० (हि० गाल+ करना, हल्ला करना, कोलाहल करना तकिया ) गालों के नीचे रखने का एक या मचाना। J छोटा, गोल और मुलायम तकिया । डालना। For Private and Personal Use Only Page #577 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गलतनी गला गलतनी - संज्ञा, स्त्री० (दे० ) गल-बन्धन, सं०) शिवजी के पूजन के समय गाल बजाने गले का बँधना, गुलूबन्द । की मुद्रा, गलमुद्रा, गाल बजाना। ग़लत फ़हमी-संज्ञा, स्त्री० यौ० (अ.) गलमुच्छा-संज्ञा पु. यौ० दे० (हि० गाल किसी बात को और से और समझना, भ्रम, +मूल) गाल पर के बढाये हुए बाल, गलभूल-चूक। गुच्छा, गलमुच्छ। ग़लती--संज्ञा, स्त्री० ( अ. गलत+ई.) गलमद्रा- संज्ञा स्त्री० यौ० (सं० गल + मुद्रा) भूल-चूक, अशुद्धि, त्रुटि । गलमंदरी। गलथन, गलथना-- संज्ञा पु० दे० (स० गल+ गलवाना - स० कि० (हि० गलना का प्रे० स्तन) वे थन जो बकरियों के गलों में होते हैं। रूप ) गलाने का काम दूसरे से कराना। गलथैलो-संज्ञा, स्रो० यौ० ( हि० गल+ गलशंडी--- संज्ञा, स्त्री० (सं० ) जीभ जैसा थैली) मर्कस्कोष बन्दरों के गालों के नीचे मांस का एक छोटा टुकड़ा जो जीभ की जड़ की थैली जिसमें वे खाने के पदार्थ भर के पास रहता है। छोटी जीभ, जीभी, लेते हैं। कौश्रा, एक रोग जिसमें तालू की जड़ सूज गलन-संज्ञा, पु० (सं.) गिरना, पतन, श्राती है। गलना । (दे०) अत्यंत शीत, तुषार-पात । गलसुत्रा -- संज्ञा, पु० यौ० (हि. गाल+ गलना-अ० कि० दे० (सं० गरण ) किसो सूजना ) वह रोग जिसमें गाल के नीचे पदार्थ के घनत्व का कम या नष्ट होना, - सूज जाता है। पिघल कर द्रव या कोमल होना, अति गलसुई-संज्ञा, स्त्री० (दे०) गलतकिया। जीर्ण होना, शरीर का दुर्बल होना, देह गलस्तन-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) गले के सूखना, अधिक सरदी से हाथों-पैरों का थन (दे०)। ठिठुरना, व्यर्थ या निष्फल होना। गलस्तनी-संज्ञा स्त्री० (दे०) बकरी जिसके गलन्दा-संज्ञा पु० (दे०) कटुभाषी, मुखर, गले में थन होते हैं। दुर्मुख । वि०-बकवादी। गलहँइ- संज्ञा पु० ( दे० ) घेघा रोग, गले गलफड़ा--संज्ञा, पु० दे० (हि. गाल+ __ का रोग । फटना) जल-जंतुओं का वह अवयव जिससे वे गला-संज्ञा पु० दे० (सं० गल ) गर्दन, पानी में भी सांस लेते हैं, गले का चमड़ा। कंठ । मुहा०-गला काटना-सिर काटना, गलफटाकी-संज्ञा, स्त्री० (दे०) बड़ाई, गर्दन काटना, बहुत हानि पहुँचाना, सूरन घमंड, अपने मुख अपनी प्रशंसा । और बंडे श्रादि से गले में जलन होना। गलफाँसी-संज्ञा स्त्री० यौ० (हि. गला+ गला घुटना-दम रुकना, अच्छी तरह साँस फाँसी ) गले की फाँसी. कष्टप्रद वस्तु या न लिया जाना। गला घोटना-गले काम, जंजाल, आफ़त, गरफाँसी (दे०)। को ऐसा दबाना कि साँस रुक जाय, गलबल-संज्ञा, पु० (दे०) कोलाहल, हल- टेटुवा दबाना ( प्रान्ती० ) ज़बरदस्ती चल । “भई भीर गलबल मच्यो.” छत्र० । करना, मार डालना । गला छूटनागलवाह गलवाँहो-संज्ञा स्त्रो० (हि. गला पीछा छूटना, छुटकारा मिलना । गले +बाँह) गले में हाथ डालना, कंठालिंगन, तक आना-बहुत गहरा होना, कुछ वि० यौ० गरबाहीं। स्मरण पाना, गलादबाना-अनुचित गलभंग-(सं०) स्वरबद्ध, बैठा हुआ कंठ ।। दबाव डालना। गला पड़ना-कंठ-स्वर गलमंदरी-संज्ञा स्त्री० ( हि० गल+मुद्रा- का बिगड़ जाना। For Private and Personal Use Only Page #578 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गलाना गलेबाज़ गला बैठना, गला फाड़ना-इतना गलित कुष्ट-संज्ञा, पु. यौ० (सं.) चिल्लाना कि गला दुखने लगे । गला ऐसा कोढ़ जिसमें शरीरांग गल कर गिरने रेतना-( दे० ) गला काटना, बहुत लगते हैं। बड़ी हानि (अनिष्ट) करना, दबाव डालना, गलियाना-स० क्रि० दे० (हि. गाली) गले का हार-किसी पुरुष या वस्तु का | गाली देना, बुरा कहना, अभिशाप, भोजन इतना प्यारा होना कि उसे पास से कभी कर चुकने पर भी और भोजन कराना, अलग न किया जा सके, बहुत प्यार, पीला, गले में हूँ सना।। न छोड़ने वाला । “ह गो साई अब हार | गलियारा-संज्ञा, पु० दे० (हि. गली) गरे को "-रसाल। (बात ) गले के छोटी गली, पैंड, रथ्या, (सं०) छोटी राह । नीचे उतरना या गले से उतरना- | गलियार (दे०)। मन में बैठना, जी में जंचना,ध्यान में श्राना, | गलित यौवन -संज्ञा, पु० यौ० (सं० गलित बात का पेट में न रहना । गले पड़ना- + यौवन ) वह पुरुष जिसकी जवानी बीत इच्छा के विरुद्ध प्राप्त होना, न चाहने गयी हो, बूढ़ा, बुड्ढा । संज्ञा, स्त्री० गलित पर भी मिलना, पीछे पड़ जाना, लो०-- यौवना--- बूढी स्त्री। उलटे रोजे गले पड़े-अच्छा काम बुरा | गली संज्ञा, स्त्री. ( सं० गल ) घरों की हो गया। ( दूसरे के ) गले बांधना | कतारों के बीच से जाने वाली तंग या मढ़ना--दूसरे की इच्छा के विरुद्ध राह, खोरी, खोरि (दे०), कूचा, रास्ता । उसे देना, ज़बरदस्ती देना, या ऊपर मुहा०-गली गली मारे फिरनाआरोपित करना । गले लगाना- इधर-उधर व्यर्थ घूमना, जीविका या किसी भेंटना, मिलना, प्रालिंगन करना, दूसरे कार्य के लिये इधर से उधर भटकना, की इच्छा के विरुद्ध उसे देना। गला चारों ओर अधिकता से मिलना, सब जगह बांधकर डूबना (डूब मरना )-अति | दिखाई पड़ना। मुहल्ला, मुहाल । वि० स्त्री० लज्ज़ा से डूब मरना । गर बाँधि के इबि | (हि. गलना ) गलित । मरौ राम० । गले का स्वर-कंठ-स्वर, गलीचा-संज्ञा, पु. ( फा० गलीचा ) एक संज्ञा, पु० (हि.) गरेवान बर्तन के मुंह के मोटा बुना हुआ बिछौना जिस पर रंगनीचे का पतला भाग, चिमनी का कल्ला। विरंगें बेल-बूटे बने होते हैं, कालीन । गलाना-स० क्रि० (हि० गलना का स० " गुलगुली गिलमैं गलीचा हैं " गुनी रूप) पिघलाना, गीला करना, खर्च करना। जन हैं,... 'पद्मा० । गलानि-* संज्ञा स्त्री. (दे० ) ग्लानि | गलीज़-वि० ( अ०) मैला, गँदला, अशुद्ध, (सं० ) " भयो लाभ बड़, मिट्टी गलानी" अपवित्र, नापाक । संज्ञा, पु. कूड़ा, करकट, -रामा० । मैला, मल, पाखाना, गन्दगी। संज्ञा, पु. गलाव-सं० पु० (दे.) पिवलना, द्रव यौ० गलीज़याना-कूड़ा-घर। होना, द्रवत्व । गलीत---वि० दे० (अ० गलीज़ ) मैलागलित-वि० (सं० ) गिरा हुमा, बहुत कुचैला । वि० दे० (अ० ग़लत) अशुद्ध, जैसे दिनों का होने के कारण नरम पड़ा हुया, --" मीत न नीति गलीत यह " -वि०। गला हुआ, पुराना, जीर्ण-शीर्ण, चुवाया गलेफ-संज्ञा, पु० दे० (म० ग़लाफ) दोहरा, हुश्रा, नष्ट-भ्रष्ट, खूब पका हुआ । "निगम अोढ़ने का कपड़ा, दोहर । कल्पतरोगलितं फलम्-भाग० । गलेबाज़-वि० (हि. गला+बाज़-फ्रा०) For Private and Personal Use Only Page #579 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra गलौ जिसका गला अच्छा हो, अच्छा गाने वाला । गलौ-संज्ञा, पु० दे० (सं० ग्लौ ) चन्द्रमा | गलौच्या संज्ञा, पु० दे० (हि० गाल) गाल, बन्दरों के गले की थैली । --- www.kobatirth.org ५६८ " | गल्प - संज्ञा स्त्री० दे० (सं० जल्प वा कल्प ) गप्प, मिथ्या प्रलाप, डींग मारना, शेख़ी मारना, छोटी कहानी, उपन्यास या कल्पित कथा | गल्ला - संज्ञा, पु० ( ० गुल ) कोलाहल, शोर, हौरा | संज्ञा, पु० ( फा० गल्ला ) झुंड, दल, ( चौपायों के लिये ) नार । गलता - संज्ञा, पु० ( अ० ) ( वि० गल्लाई । फल-फूल आदि की उपज, फ़सल, पैदावार, अन्न, अनाज, दुकान में नित्य की विक्री से प्राप्त क्रम गिलक ( प्रान्ती ० ) । गलताना -संज्ञा, पु० (दे०) कुल्ली का काढ़ा । गवँ - संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० गम ) प्रयोजन सिद्धि का अवसर, घात, मतलब, दाँव, गरज | "जिमि गँव तकइ लेउँ केहि भाँती ' रामा० । गौं (दे० ) । मुहा०--ग से - दाँव-घात देख कर, मौक़ा तजबीज़ करके, धीरे से, चुपचाप । गँवतकना-मौका देखना | वय - संज्ञा, पु० (सं० ) ( स्त्री० गवयी ) नीलगाय, एक छंद । 4: (6 "" "6 मरु मालव गवहिं - अव्य० दे० (अत्र०) गौव से, प्रयोजन से, मतलब से, मौके से, अवसर से, चुपके से, हँ तहँ काय गवहिं पराने " - रामा० । ( अ० क्रि० ) जाते हैं, गवन करते हैं । गवाक्ष -संज्ञा, पु० (सं० ) छोटी खिड़की, झरोखा, एक औषधि, इन्द्रायण, गौंखा, राम-सेना का एक वानर । 66 मूल- गवाक्षस्मर-मंदिरस्थ " - वै० जी० । गवाख संज्ञा, पु० (दे० ) गवाक्ष 1 गवामयन - संज्ञा, पु० (सं० ) एक यज्ञ | गवारा - वि० ( फा० ) मन भाया, अनुकूल, पसन्द, सह्य, श्रङ्गीकार करने के योग्य । गवास, गवसा -संज्ञा, पु० (दे० ) गोभक्षक, गो-वधिक, कसाई । महि देव गवासा " - रामा० । गवाह – संज्ञा, पु० ( फा० ) ( संज्ञा, स्त्री० गवाही ) किसी घटना को साक्षात् देखने वाला व्यक्ति जो किसी मामले की जानकारी रखे, साक्षी (सं०) साखी (दे० ) । गवाही - संज्ञा स्त्री० ( फा० ) किसी घटना के सम्बन्ध में किसी श्रादमी का बयान जिसने उसे अच्छी तरह देखा हो, जो उसके विषय में जानता हो, साक्षी का प्रमाण, साक्ष्य, प्रमाण, सबूत । मुहा०- गवाही होना ( देना ) प्रमाण देना, प्रगट करना, सिद्ध करना, जैसे- तुम्हारा चेहरा गवाही देता है । यौ० गवाही साखी । गवीश-संज्ञा, पु० (सं० गो + ईश ) गोस्वामी, साँड़, विष्णु भगवान, श्रीकृष्ण, शिव । गवेजा -- संज्ञा, पु० ( हि० गप, गव ) गप, बात-चीत । | गवन-संज्ञा पु० दे० (सं० गमन) प्रस्थान, प्रयाण, चलना, कूच जाना, बधू का पहिले पहल पति के घर आना या जाना, गौना, भोग । “सिंह, गवन, सुपुरुष । वचन कदलि फर इकबार - ६० ह० । गवनचार - संज्ञा, पु० यौ० ( हि० गवन - + चार ) वर के घर में बधू के आने की रस्म, गौनाचार - ( दे०) गमनाचार (सं० ) । गवनना - अ० क्रि० दे० (सं० गमन) जाना । गवना – संज्ञा, पु० (दे० ) गौना चाला, द्विरागमन - बहू का वर के घर दुबारा थाना । ...... गवने आईरी" । गवन, गवनी - संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० गमन ) गमन करने या चलने वाली, " हंस-गवनि तुम नहिं बन जोगू - रामा० । सा० भू० Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गवेधु-गवेधुक " गवनी स्त्री० (दे०) चली, कूच किया । बाल मराल - गति ". - रामा० । गई. चली गयी। गवेधु - गवेधुक – संज्ञा, पु० (सं० ) कसेई, गँगेथा, कौड़िला । ( स्त्री० गवेधुका ) । For Private and Personal Use Only Page #580 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गवेल-गवेला गहन गवेन-गवेला-संज्ञा, पु० दे० (हि० गाँव) गस्तान-संज्ञा, स्त्री० ( फ़ा० ) कुलटा स्त्री, देहाती, ग्रामीण. गँवार, गवैहाँ। व्यभिचारिणी नारी। गवेषणा-संज्ञा, स्त्री० (सं०) खोज, तलाश, गस्सा-संज्ञा, पु० दे० सं० ग्रास) ग्रास, कौर। अन्वेषण। संज्ञा, पु. ( सं० ) गवेषक- गह-संज्ञा, स्त्री. ( सं० ग्रह ) पकड़, पकड़ने अन्वेषक। की क्रिया या भाव, हथियार आदि के पकड़ने गवेषी-वि० (सं० गवेपिन) (स्री. गवेषिणी) ___ का स्थान, मूठ, दस्ता, बेंट, हत्था । मुहा०खोजने वाला, ढूँढ़ने वाला, तलाश करने | गह बैठना--मूठ पर भरपूर हाथ जमाना । बाला, अन्वेषक । | गहई-स० कि० दे० (हि. गहना ) स्वीकार गवेसना-स० क्रि० (दे०) खोजना, ढूँढ़ना। करते हैं, धरते हैं, पकड़ते हैं, ग्रहण करते हैं, "अगम पंथ जो कहै गवेसी ।-" प०। । "करि माया नभ के खग गहई।-रामा० । गवैया–वि. पु. ( हि० गाना ) गाने वाला, | गहक-कि० वि० दे० (हि. गहकना) चाह गायक । संज्ञा, स्त्री० (दे०) झगड़ा, लड़ाई, से भरना, लालसा-पूर्ण होना, ललकना, बैर। लपकना, उमंग-युक्त होना, प्रमत्तता । गहा-वि. पु. दे. ( हि० गाँव + ऐंहा गहकना-अ० कि० (सं० गदगद ) चाह से प्रत्य० ) गाँव का रहने वाला, ग्रामीण, | भरना, गहक । “ गहकि गाँस औरे गहै" गँवार, देहाती। -वि०। गव्य-वि० (सं० ) गो से उत्पन्न, गाय गहकियाना-अ० क्रि० दे० ( हि० गाहक ) से प्राप्त, जैसे--दूध, दही, घी आदि । गाहक जान कर हठ करना । संज्ञा, पु० गायों का झंड, पंचगव्य । गहगड-वि• यो० दे० (सं० गह = गहिरा+ गव्युति-संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं० गो-यूति)। गड्ड = गड्ढा ) गहरा, भारी, घोर, ( नशे दो कोश की दूरी। के लिए ) संज्ञा, पु. ( ग्रा० ) ढेर। ग़श - संज्ञा, पु० (अ० ग़शी से फा०, मूर्छा, गहगह*-- क्रि० वि० (सं० गद्गद) प्रफुल्लित, बेहोशी, असंज्ञा, ताँवर । मुहा०--गश प्रसन्नता पूर्ण, उमंग से पूरित । क्रि० वि० खाना (आना)-बेहोश होना। घमाघम, धूम के साथ (बाजे के लिए )। गश्त-संज्ञा, पु. (फा० ) ( वि० गश्ती) गहगहा-वि० दे० (सं० गद्गद ) उमंग घूमना, टहलना, फिरना, भ्रमण, दौरा, और धानन्द से भरा हुआ, प्रफुल्लित, घमाचक्कर, पहरे के लिये किसी स्थान के चारों घम, धूमधाम वाला ।... गहगहेनिसाना"। श्रोर या गली कूचों श्रादि में घूमना, रौंद, | गहगहाना- अ० कि० दे० ( हि० गहगहा ) गिरदावरी। आनन्द से फूल जाना, प्रसन्न होना, पौधों गश्ती-वि० ( फा० ) घूमने वाला, फिरने _का लहलहाना। वाला। गहगहे-कि. वि. (हि. गहगहा ) बड़ी गसना-स० क्रि० (दे०; जकड़ना, बाँधना, प्रसन्नता के साथ, धूम-धाम से । “ नम गाँठना, उसना। गहगहे बाजने बाजे"-रामा० ।। गसीला-वि० (हि. गसना) (स्त्री० गसीली) गहडोरना-सं० कि० (दे०) पानी को जकड़ा हुश्रा, बँधा हुश्रा, गँठा हुआ, गुथा | मथ या हिला-डुला कर गॅदला करना। हुआ, एक दूसरे से खूब मिला हुआ। गहन-वि० (सं० ) गंभीर, गहिरा, अथाह, ( कपड़ा आदि ) जिसके सूत परस्पर खूब दुर्गम, धना, दुर्भेद्य, कठिन, दुरूह, निबिड । मिले हों, गफ़। । जटिल । संज्ञा, पु० गहराई, दुर्गम स्थान, भा० श. को०-७२ For Private and Personal Use Only Page #581 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गहनकर गहवारा वन में गुप्त स्थान । संज्ञा, स्त्री०-गहनता गहरा पेट (दिल )-वह पेट ( दिल ) संज्ञा, पु० दे० (सं० ग्रहण) ग्रहण, कलंक, जिसमें सब बातें पच जावें, ऐसा हृदय जिसका दोष, दुख, कष्ट, विपत्ति, बंधक, रेहन, गिरौं । भेद न मिले। जिलका विस्तार नीचे की ओर संज्ञा, स्त्री० दे० (हि० गहना :- पकड़ना) अधिक हो, बहुत अधिक, ज़्यादा. घोर । पकड़ने का भाव, पकड़, ज़िद, हठ । बुहा-(कितने गहरे में होनागहनकर--पू० कि० (दे० ) प्रमत्त होना, (कितनी योग्यता रखना । यो मुहा०-- श्रानन्दित होना, पकड़ कर, ग्रहण करके । गहरा असामी- भारी अथवा बड़ा गहना-संज्ञा, पु. ( सं० ग्रहण =धारण श्रादमी। गहरे लोग-चतुर लोग, भारी करना ) आभूषण, श्राभरण, ज़ेवर, रेहन, उस्ताद, बड़ा धूर्त । पहरा हाथ-हथियार बंधक । स० क्रि० दे० (सं० ग्रहण ) पकड़ना, का भरपूर वार या चोट जिलसे खूब चोट धरना, लेना (व.)। लगे। दृढ़ मज़बूत. भारी, कठिन, जो गहनि*-संज्ञा, स्त्री० दे० ( सं० ग्रहण ) हलका या पतला न हो, गाढ़ा ! मुहा०टेक, अड़, ज़िद, पकड़ । “ गहनि कबूतर | पहरा हाथ मारना-बड़ी लम्बी रकम की गहै"-को। या अति उत्तम वस्तु का उड़ाना या प्राप्त गहने-क्रि० वि० (दे० ) रेहन के तौर पर करना । गहरी घुटना या छनना- खूब धरोहर । “ कौनौ नग गहने धर दीजै" गाढ़ी भाँग घुटना, पिसना या पीना, गाढ़ी -स्फुट। मित्रता होना, बहुत अधिक हेल-मेल गहबर-वि० दे० (सं० गह्वर ) दुर्गम, होना। गहरी बात--- गूढ़ या दिल में विषम, व्याकुल, उद्विग्न, आवेग-परिपूरित, बैठने वाली बात। मनोवेग से प्राकुल । “ गहवर अायो गरो गहराई-संज्ञा, स्त्री० (हि. गहरा-+ ई प्रत्य०) भभरि अचानक ही".-- रत्ना० ।। गहरे का भाव, गहरापन । गहबरना-अ. क्रि० दे० (हि. गहवर) | गहराना-अ० क्रि० दे० (हि० गहरा) गहरा आवेग से भरना, मनोवेग से श्राकुल होना, होना, गाढ़ा, बहुत तेज़ या मोटा करना, अधिक तीव बनाना । स० कि० (हि० गहरा) घबराना, उद्विग्न होना। गहर-संज्ञा, स्त्री० ( ? ) देर, विलम्ब, गहरु गहरा करना, अति प्रबल करना । अ० क्रि० (दे०) गहरना। (दे०) " भई गहर सब कहहिं सभीता', गहराव--संज्ञा, पु० दे० (हि. गहरा) गहराई। -रामा० । संज्ञा, पु० दे० (सं० गह्वर ) | गहरू --संज्ञा, स्त्री० (दे०, गहर. विलंब, देर । दुर्गम, गूढ, गुफा, गुहा । गहलौत-संज्ञा, पु. ( ? ) राजपूताने के गहरना-अ० कि० दे० (हि. गहर -देर ) क्षत्रियों का एक वंश । देर लगाना, विलम्ब करना। अ० कि० दे० | गहवरा-वि० (हि.) गहवर, उद्विग्नता । (सं० गह्वर ) झगड़ना, उलझना, कुढ़ना, | गया--- संज्ञा, पु० (दे० ) चिमटा, सनसी। नाराज़ होना। गहवाना-स० क्रि० दे० (हि. गहना का गहरवार-संज्ञा, पु० (दे० ) (गहिरदेव = प्रे० रूप) पकड़ने का काम कराना, पकड़ाना एक राजा) एक क्षत्रिय वंश, ठाकुरों की गहाना (७०)। एक जाति। गहवार-संज्ञा, पु० (दे०) क्षत्रियों की जाति गहरा-वि० दे० ( स० गंभीर) जिसकी थाह | विशेष । बहुत नीचे हो, गम्भीर, अतलस्पर्श, अथाह । गहवारा-संज्ञा, पु० दे० (हि. गहना) गहिरो (७०) स्त्री० गहरी । मुहा०- पालना, झूला, हिंडोला । For Private and Personal Use Only Page #582 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir EPANDONTINE N E गहाई ५७१ गांठ गहाईव -संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. गहना ) | स० क्रि० दे० (हिं० गाना का एक वचन गहने का भाव, पकड़, पकड़ा देना। विधि ) गायो। गहा-गडड-वि० (दे०) गहगड्ड, ढेर। गाई-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० गो) गौ, गाय, गहाना-स० क्रि० दे० ( हि० गहना का प्रे० | धेनु । 'सुर. महिसुर, हरि-जन अरु गाई" रूप) धराना, पकड़ाना, देना। -रामा० । स० क्रि० सा. भू० (हि. गहागह-क्रि० वि० दे० (हि.) गहगह। गाना ) गाया का स्त्री० रूप। . गहासना-स० क्रि० दे० (हि. गरासना ) | गाऊँ-संज्ञा, पु० दे० (सं० ग्राम) ग्राम, गाँव, निगल लेना। "ौ चाँदहि पुनि राहु नगर, पुर, पुरवा । स० क्रि० (हि० गाना का गहासा"--प० । संभाव्य० ) गाना करूँ, गान करूँ । गहिरा-गहिरो-वि० दे० (हि. गहरा ) | गांग-वि० (सं०) गंगा सम्बन्धी, गंगा का। गंभीर, अथाह । ( स्त्री. गहिरी)। गांगेय-संज्ञा पु० (सं०) गंगा का पुत्र, भीष्म, गहिला-वि० ( दे० ) गर्व. घमंड । (स्त्री० कार्तिकेय या षडानन, ढल सी मछली, गहिली) "गहिली गवन कीजिये"- वि० । कसेरू। गहीर-वि० ( दे.) गंभीर, गहिरा ।...| गाँज - संज्ञा पु० दे० (फ़ा० गंज) राशि, ढेर । ..." सीतल गहीर छाँह" .. देव०। गाँजना-स० क्रि० दे० (हिं. गांज, फा० गहोला-वि० दे० ( हि० गहेला ) ( स्त्री० , गंज) राशि लगाना, ढेर लगाना। . गहीली) गर्व-युक्त घमंडी, पागल, पकड़ने गाँजा-संज्ञा पु० दे० (सं० गंजा ) भाँग की वाला । " परम गहीली वसुदेव-देवकी की जाति का एक पौधा जिसकी कली का चरस यह"-- उ. श० । "भये अब गर्व गहीले” | बनता है, एक मादक वस्तु । -विनय० । गाँठ -- संज्ञा, स्त्री० दे० ( सं० ग्रन्थि ) ( वि. गहेजुआ-संज्ञा, पु० ( दे० ) छछू दर। गँठीला) गिरह ग्रंथि, रस्सी आदि का जोड़, गहेलरा-वि० (दे० ) पागल, मूर्ख, गँवार । बाँस आदि का जोड़ या गाँठी, गठरी, बोरा, गहेला-वि० दे० (हि. गहना -- पकड़ना । गट्ठा, अंग का जोड़ "ज्यौँ तोरे-जोरे बहुरि, एला-प्रत्य०) हठी, ज़िद्दी अहंकारी, घमंडी, गाँठ परत गुन माहि" वृ०। मुहा०---- मन या हृदय की गाँठ खोलना-दिल मानी, ग़रूरी, पागल, गँवार, अनजान, खोल कर कुछ बात कहना, मन में पड़ी हुई मूर्ख । ( स्त्री० गहेली)। बात का कहना, अपनी भीतरी इच्छा (साध) गहैया-वि० दे० (हि. गहना+ ऐया-प्रत्य०) का प्रगट करना, हौसला निकालना, पकड़ने या ग्रहण करने वाला, अंगीकार लालसा पूरी करना। मन में गाँठ पड़ना --- या स्वीकार करने वाला। पारस्परिक प्रेम में भेद पड़ना, मन-मोटाव गह्वर-संज्ञा, पु. ( सं० ) अंधकारमय कोई होना । मुहा०--गाँठ कतरना या काटना गृढ स्थान भूमि में छोटा छेद, बिल, विषम (मारना)---गाँठ काट कर रुपये आदि स्थल, दुर्भद्य स्थान, गुफा, कंदरा, गुहा, निकाल लेना, जेब कतरना । गाँठ कानिकुञ्ज, लता-गृह, झाड़ी, जङ्गल, वन । वि. पास का, पल्ले का। गाँठ से ( देना ) दुर्गम, विषम, गुप्त । पास से रुपया देना । गाँठ का पूरागा-स० क्रि० (दे० ) (हि० जाना का सा० । धनी, मालदार । लो० " आँख का अंधा भू० गया) गया, चला गया, जाता रहा। गाँठ का पूरा"। गांठ जोड़ना--- "जो तुम अवसि पार गा चहह"--रामा० विवाह आदि के समय स्त्री पुरुष के कपड़ों For Private and Personal Use Only Page #583 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - गांठगोभी ५७२ गाँसना के सिरे परस्पर बाँधना, गँठजोड़ा करना। उपवेद जिसमें साम-गान के ताल-स्वर (कोई बात) गाँठ में बाँधना-भली भाँति । श्रादि का वर्णन है । गन्धर्व-विद्या, गंधर्वयाद या स्मरण रखना, सदा ध्यान में । वेद, गान-विद्या, संगीत-शास्त्र, आठ प्रकार रखना । गाँठ से (जाना)-पास बना या । के विवाहों में से एक, जिस में वर और पल्ले से जाना । यौ० संज्ञा, पु०-गठकटा कन्या स्वेच्छानुसार प्रेम-पूर्वक मिल कर -गाँठ काटने वाला। पति पत्निवत् रहने लगते हैं। गाँठगोभी- संज्ञा० स्त्री० यो० (हि० गाँठ+ गांधर्ववेद-संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) सामगोभी ) गोभी की एक जाति जिसकी जड़ में | वेद का उपवेद, संगीत-शास्त्र । खरबूजे सी गोल गाँठ रहती है। गांधार-संज्ञा, पु. ( सं० ) सिन्धु नदी के गाँठदार-वि० (हि० गाँठ-+ दार-प्रत्य॰) । पश्चिम का देश, इस देश का निवासी गठीला, जिसमें बहुत सी गाँठे हों। संगीत के सात स्वरों में से तीसरा स्वर, गांठना-स. क्रि० दे० (सं० प्रथन, या वर्तमान कंधार-प्रदेश । (स्त्री० गांधारी )। गंठन ) गाँठ लगाना, सीना ( जूता ), मुर्रा गांधारी-संज्ञा, स्त्री. (सं० ) गांधार देश लगा कर या बाँध कर मिलाना, साँटना, फटी | की स्त्री या राज-कन्या, धृतराष्ट्र की स्त्री हुई चीज़ों को टाँकना या उसमें चकती और दुर्योधन की माता । जवासा, गाँजा। लगाना, मरम्मत करना, गूंथना, मिलाना, गांधिक-संज्ञा, पु. (सं०) गन्धसहित जोड़ना, तरतीब देना । मुहा०-मतलब पदार्थ। गांठना-काम निकालना । अपनी ओर | गांधी-संज्ञा, स्त्री. (सं० ) एक छोटा हरा मिलना, स्वानुकूल करना, स्वपक्ष में करना, कीड़ा. हींग, एक घास । संज्ञा पु०-गंधीगर, गहरी पकड़ पकड़ना, वश में करना, गुजराती वैश्यों की एक जाति । वशीभूत करना, वार को रोकना। गांभीर्य-संज्ञा, पु. ( सं० ) गहराई. गांडर-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० गंडाली) गम्भीरता, स्थिरता, हर्ष, क्रोध, भय, मूंज की सी एक घास, गंडदूर्वा (सं०) आदि मनोवेगों से चंचल न होने का एक गहरा गढ़ा। गुण, शान्ति का भाव, धीरता, गूढ़ता, गांडा-संज्ञा, पु० दे० (सं० काँड या खंड) गहनता। ( स्त्रो० गेंडी ) किसी पेड़, पौधे या गांव-गांव--संज्ञा, पु० दे० (सं० ग्राम ) डंठल का कटा हुआ छोटा टुकड़ा, जैसे- | वह स्थान जहाँ बहुत से किसानों के घर ईख का गाँड़ा, ईख का कटा हुआ छोटा हों, छोटी बस्ती, खेड़ा । यौ० गवई-गाँव । खंड, गँडेरी, गाँठे लगा हुआ अभिमंत्रित | गांस-संज्ञा, स्त्री० दे० ( हि. गाँसना ) सूत की माला, गंडा । यौ० गंडा-ताबीज । रोक-टोक, बन्धन, वैर, द्वेष, ईर्ष्या, हृदय गाँडीव--संज्ञा, पु. (सं० ) अर्जुन का | की गुप्त या भेद की बात, रहस्य, गाँठ, धनुष । संज्ञा, पु०-गाँडीवधर--अर्जुन । फंदा, गँठनि, या बरछी तीर का फल, गांती-संज्ञा, स्त्री० (दे०) गाती। वश, अधिकार, शासन, देख-रेख, निगरानी, गांथना-सं० कि० दे० (सं० ग्रंथन ) अड़चन, कठिनाई, संकट । गूंथना, मोटी सिलाई करना, गूंधना। गाँसना--सं० क्रि० दे० (हि० ग्रंथन ) गांधर्व-वि० ( सं० ) गन्धर्व सम्बन्धी, परस्पर मिला कर कसना, गूंथना, सालना, गन्धर्व-देशोत्पन्न, गन्धर्व जाति का, एक छेदना, चुभोना, तान में कसना, जिससे अस्त्र-भेद । संज्ञा, पु० (सं० ) सामवेद का बुनावट ठस हो। For Private and Personal Use Only Page #584 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गाँसी गाढ़ा मुहा-बात को गाँस कर रखना-मन गड्ढा, अन्न रखने का गढ़ा कुयें का ढाल, में बैठा कर रखना, हृदय में जमाना, स्ववश भगाड़ खाड़, (प्रान्ती०) “गाड़ खनै जो स्वशासन में रखना, पकड़ में करना, दबो- और को ".--कवी। चना, सना, भरना। गाड़ना-स० कि० दे० (हि. गाड़-गड्ढा ) गाँसी-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि० गाँस) तीर या गड्ढा खोद कर और उसमें किसी चीज़ बरछी श्रादि का फल, हथियार की नाक, को डाल कर ऊपर से मिट्टी डाल देना, गाँठ, गिरह, कपट, छल-छन्द, मनोमालिन्य । जमीन के भीतर दफनाना, तोपना, गड्ढा गाइ-गाई-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० गो) गाय, खोद कर उसमें किसी लम्बी चीज़ के एक गैया ( दे०) “सुर, महिसुर हरिजन, सिरे को जमा कर खड़ा करना, जमाना, अरु गाई "-रामा० । सा० भू० स० कि. किसी नुकीली चीज़ को नोक के बल किसी स्त्री. गाया। चीज़ पर ठोंक कर जमाना, घुसाना, गुप्त गागर-गागरी-संज्ञा, स्त्री. (दे० ) गगरी गागरि (दे० ) " उन्हें भूलि गई गइयाँ रखना, छिपाना । गाड़र-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० गड्डरी ) भेंडी, इन्हैं गागरि उठाइबो"-रस। भेड़। गाच-संज्ञा, स्त्री० दे० (प्र० गाज ) बहुत | गाडा - महीन जालीदार सूती कपड़ा जिस पर संज्ञा, पु० दे० (सं० शकट ) गाड़ी, छकड़ा, बैल-गाड़ी, लढ़ा (प्रान्ती०)। रेशमी बेल-बूटे बने रहते हैं, फुलवर (दे०)। गाछ- संज्ञा पु० दे० (सं० गच्छ ) छोटा संज्ञा, पु० (सं० गर्त प्रा० गड ) वह गड्ढा पेड़, पौधा, वृत्त । जिस में आगे लोग छिपकर बैठ रहते थे गाज-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० गर्ज) गर्जन, और शत्रु या डाकू आदि का पता लेते थे। गरज, शोर, बिजली गिरने का शब्द, गाड़ी-संज्ञा स्त्री० दे० (सं० शकट ) एक वज्र-पात-ध्वनि, बिजली, वज्र । मुहा० स्थान से दूसरे स्थान तक माल असबाब किसी पर गाज एड़ना (गिरना)- या मनुष्यों के पहुँचाने के लिये एक यंत्र, आपत्ति प्राना, ध्वंस या नाश होना । यान, शकट । "कबहूँ गाड़ी नाव"-- स्फुट । संज्ञा पु० ( अनु० गजगज ) फेन, झाग। गाड़ीवान-संज्ञा, पु० (हि. गाड़ी+वानगाजना-प्रक्रि. ० (सं० गर्जन या प्रत्य०) गाड़ी हाँकने वाला, कोचवान । गज्जन ) शब्द या हंकार करना, गरजना, गाढ़--वि० (सं०) अधिक, बहुत, दृढ़, चिल्लाना, हर्षित होना, प्रसन्न होना । मज़बूत, घना, गाढ़ा, जो पतला न हों, मुहा० - गलगाजना--हर्षित होना। गहिरा, अथाह, विकट. कठिन, दुर्गम। संज्ञा, गाजर--संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० गूजन ) एक पु. कठिनाई, धापत्ति, संकट । मुहा०---- पौधा जिसका कन्द मीठा होता है । गाद पड़ना -- संकट पड़ना, हानि होना। मुहा०--गाजर-मूली समझना-तुच्छ गाढ़ा-वि० दे० (सं० गाढ़ ) (स्त्री० समझना, पाधारण जानना। गाढ़ी) जिसमें पानी के सिवाय ठोस गाज़ा-संज्ञा, पु० (फा० ) मुँह पर मलने वस्तु भी मिली हो, जिसके सूत परस्पर का एक रोगन । खूब मिले हों, उस, मोटा ( कपड़े आदि गाजो---संज्ञा पु० (०) वह मुसलमान के लिये ) घनिष्ट, गहरा, गूढ, बढ़ाचढ़ा, वीर जो धर्म के लिये विधर्मियों से युद्ध घोर, कठिन, विकट । मुहा०-गाढ़े करे, बहादुर, वीर। की कमाई--बहुत मेहनत से कमाया गाड़—संज्ञा, स्त्री० दे० ( सं० गत ) गड़हा, । हुआ धन, गाढ़ी कमाई । गाढ़े का For Private and Personal Use Only Page #585 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - गाढ़े ५७४ गाभा साथी या संगी-संकट-समय का मित्र, संज्ञा, पु. ( स्त्री० गादड़ी ) गीदड़, सियार । विपत्ति के समय में सहारा देने वाला । | गादा-- संज्ञा, पु० दे० (सं० गाधा=दलदल) गाढ़ा समय - गाढ़े दिन )-संकट के खेत का वह अन्न जो भली भाँति पका न दिन, विपत्ति, कठिनाई पाना । संज्ञा, पु. हो, अधपका अन्न, गहर, बे पकी या कच्ची (सं० गाढ़ ) एक प्रकार का मोटा सूती फसल, जुआर का कच्चा दाना (दे०)। कपड़ा, गज़ी, मस्त हाथी। गादी संज्ञा, स्त्री. ( हि० गद्दी ) एक पक. गाढे -क्रि० वि० दे० (हि. गाढ़ा) वान, हथेली, गदेरी ।(दे०) गद्द गद्दी। दृढ़ता से, ज़ोर से, अच्छी तरह । " लेत “गादी पै देख्यौ तौ सीतला बाहन"। चढ़ावत बँचत गाढ़े''--रामा। | गादुर-संज्ञा, पु० (दे०) चमगादर। गाणपत--वि० दे० (सं० ) गणपति " गादुर मुख न सूर कर देखा"--१०। सम्बन्धी। संज्ञा, पु० . एक सम्प्रदाय जो गाध--संज्ञा, पु० (सं०) स्थान, जगह, गणेश जी की उपासना करता है। जल के नीचे का स्थल, थाह, नदी का गाणपत्य--संज्ञा, पु. (सं० ) गणेश जी बहाव, कूल, लोभ । वि. (स्त्री० गाधा ) का उपासक। जिसे हिलकर पार कर सकें, जो बहुत गहरा गात-संज्ञा, पु० दे० (सं० गात्र ) शरीर, न हो, छिछला, थोड़ा, स्वप्न । (विलो०अंग। “दरपन से सब गात".--वि०।। अगाध)। गाती-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० गात्री) वह गाधि-- संज्ञा, पु० (सं०) विश्वामित्र के चद्दर जिसे गले में बाँधते हैं, चद्दर या पिता। यौ० गाधि सुवन-विश्वामित्र । अंगौछे के लपेटने का एक ढंग। क्रि० स० "गाधि सुवन मन चिंता व्यापी' . रामा०। (हि० गाना) गा रही ( स्त्री० )। गान-संज्ञा, पु० (सं० ) (वि० गेय गेतव्य) गात्र - संज्ञा, पु० (सं०) शरीर, अंग, देह। गाने की क्रिया संगीत, गाना, गीत । गाथ-संज्ञा, पु० दे० (सं० गाथा ) यश गाना-स० कि० दे० (सं० गान ) ताल, प्रशंसा, "मूरख को पोथी दई बाँचन को स्वर के नियमानुसार शब्दों का उच्चारण गुन-गाथ " वृ। करना, अलाप के साथ ध्वनि निकालना, गाथा-संज्ञा, स्त्री० (सं.) स्तुति, वह श्लोक मधुर ध्वनि करना, वर्णन करना, सविस्तार जिसमें स्वर का नियम न हो, प्राचीन कहना । मुहा०-अपनीही गानाकाल की ऐतिहासिक घटनाएँ जिनमें किसी अपनी की बात कहते जाना, अपना ही हाल के दान-पुण्य प्रादि का वर्णन रहता है, कहना, स्तुति करना, प्रशंसा करना लो० । आO छन्द, एक प्रकार की प्राचीन भाषा, "जिसका खाना उसकी गाना"। श्लोक, गीत, कथा. वृत्तान्त, पारसियों के संज्ञा, पु०-गाने की क्रिया, गान, गीत । धर्म-ग्रन्थ का भेद, जैसे-गाथा शमशती। गान्धिक-- संज्ञा पु० (सं०) सुगन्धित द्रव्य, मुहा०-गाथा गाना--कथा या प्रशंसा । व्यवहारी। करना। गाफ़िल - वि० (अ.) बेसुध, बे ख़बर, गादा-संज्ञा, स्त्री० दे० ( सं० गाध ) तरल बेहोश, असावधान । (संज्ञा, पु०-गफ़लत)। पदार्थ के नीचे बैठी हुई गादी चीज़, तल- गाभ--संज्ञा, पु० दे० ( सं० गर्भ; प्रा० गम्भ) छट, तेल की कीट, गाढ़ी चीज़, गोंद (दे०)। पशुओं का गर्भ (दे० ) गाभा-पेड़ के गादड-गादर-वि० दे० (सं० कातर या बीच की छाल । कर्य, फा० कादर ) कायर, डरपोक, भीरु । गाभा-संज्ञा पु० (सं० गर्भ ) (वि० गाभिन) For Private and Personal Use Only Page #586 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - गाभिन-गाभिनी गार्हपत्याग्नि नया निकलता हुश्रा मुँहबधा नरम पत्ता, गार-संज्ञा, स्त्री० (हि. गाली) गाली, अभिनया कल्ला, कोंपल, केले आदि के डंठल का शाप, गारि (दे०) । “सबको मन हरषित भीतरी भाग, लिहाफ़ रज़ाई श्रादि की करें ज्यौं विवाह में गार -बृन्द० । निकाली हुई पुरानी रुई, गुद्दड़, कच्चा गार--सज्ञा, पु. (अ.) गहरा गड्ढा, अनाज, खड़ी खेती। गुफ़ा, कन्दरा। गाभिन-गाभिनी - वि० स्त्री० दे० (सं० गारत-वि० (फ़ा० ) नाश, नष्ट, बरबाद । गर्भिणी ) वह स्त्री जिसके पेट में बच्चा हो, गारद-संज्ञा, स्त्री० दे० ( अ. गार्ड ) गर्भिणी-(चौपायों के लिए)। अ० कि० रक्षार्थ सिपाहियों का झंड, पहरा, चौकी। (दे०) गभियाना। वि० (फा० गारत) विनष्ट । गाम-संज्ञा, पु० दे० ( सं० ग्राम ) गाँव। गारना- स० क्रि० दे० ( सं० गालन ) दबागामी-वि० दे० (सं० गामिन ) ( स्त्री० कर पानी या रस निकालना, निचोड़ना, गामिनी) चलने वाला, गमन या सम्भोग पानी के साथ घिसना, जैसे चन्दन गारना, करने वाला । " रे तिय चोर कुमारग- *निकालना, त्यागना । स० क्रि० दे. गामी"-रामा० । (सं० गल) गलाना। मुहा०-तन या गाय-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० गा) गायी, शरीर गारना-शरीर गलाना, शरीर को बैल की मादा, गऊ, गैय्या ( दे०)। कष्ट देना, तप करना, नष्ट करना, बरबाद गायक-संज्ञा, पु० (सं० ) (स्त्री० गायकी) करना। गाने वाला, गवैया। गारा–संज्ञा, पु. ( हि० गारना) मिट्टी, चूने, गायगोठ-संज्ञा, स्त्री० दे० यौ० (सं० या सुखी आदि का लसदार लेप जिससे गोगोष्ट ) गोशाला । “गायगोठ, महिसुर, ईटों की जुड़ाई होती है। पुर जारे" - रामा० । गारी - संज्ञा, स्त्री० । दे० ) गालो । गायताल - संज्ञा, पु. ( अ. ग़लत ) । " मीठी लगैं ससुरारि की गारी"। निकम्मा मनुष्य या पशु, बेकाम वस्तु । गारुड़--संज्ञा, पु० (सं० ) गरुड़-सम्बन्धी, मुहा०—गायताल लिखना-बट्टे-खाते । सर्प-विषनाशक मन्त्र, सेना की एक व्यूहमें लिखना। रचना सुवर्ण, सोना। गायत्री-संज्ञा, पु० (सं०) एक वैदिक गारुडी-संज्ञा, पु० (सं० गारुडिन् ) मंत्र से छंद, एक वेद-मन्त्र जो हिन्दू-धर्म में सब सर्प विष उतारने वाला। से अधिक महत्व का माना जाता है, गारुत्मत - संज्ञा, पु० (सं०) गरुड़-सम्बन्धी, दुर्गा, गङ्गा, ६ अक्षरों का एक वर्ण-वृत्त गरुड़ का अस्त्र, पन्ना। (पिंग.)। गारो*-संज्ञा, पु० दे० (सं० गौरव, प्रा. गायन-संज्ञा, पु० (सं० ) गाने वाला, । गारव ) गर्व, घमंड अहंकार, महत्व-भाव, गायक, गवैया, गान, गाना, कार्तिकेय, बड़प्पन, मान : "भूषण प्राय तहाँ सिवराज ( स्त्री० गायनी)। लयो हरि औरंगजेब को गारो"- भू० । गायब-वि० ( अ० ) लुप्त, अन्तरध्यान, गार्गी-संज्ञा, स्त्री. (सं० ) गर्ग गोत्र में छिपा हुआ, गुप्त । उत्पन्न, एक ब्रह्मवादिनी प्रसिद्ध स्त्री। गायिनी-संज्ञा, स्त्री. (सं० ) गाने वाली, गार्हपत्याग्नि-संज्ञा, स्त्री० (सं० ) ६ प्रकार एक मात्रिक छन्द (पिंग०)। की अग्नियों में से पहली और प्रधान अग्नि For Private and Personal Use Only Page #587 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गार्हस्थ्य ५७६ गाहक जिसकी रक्षा शास्त्रानुसार प्रत्येक गृहस्थ को | गाली खाना-दुर्वचन सुनना, गाली करनी चाहिये। सहना। गाली देना-दुर्वचन कहना, गार्हस्थ्य -संज्ञा, पु० (सं०) गृहस्थाश्रम, | कलङ्क सूचक अारोप करना । गाली गृहस्थ के मुख्य कृत्य, पंच महा यज्ञ । गाना-व्याह में गाली भरे गीत गाना । गाल-संज्ञा, पु० दे० (सं० गंड, गल्ल ) | गाली-गलौज-संज्ञा, स्त्री० यौ० ( हि. मुँह के दोनों ओर ठुड्डी और कनपटी के गाली+ गलौज : अनु०) परस्पर गाली देना, बीच का कोमल भाग, गंड, कपोल । तू तू मैं मैं, दुर्वचन । मुहा०---गाल फुलाना-रूठ कर न गाली-गुफ्ता - संज्ञा, पु. (दे० ) गालीबोलना, रूठना, रिसाना, क्रोध करना। गलौज"। गाल बजाना या मारना -- डींग मारना गालना-गाल्हना* --अ० क्रि० दे० (सं० बढ़बढ़ कर बातें करना, बकबाद करने की गल्प = बात ) बात करना, बोलना । लत, मुंहजोरी। " बालि कबहुँ अस गालू - वि० दे० ( हि० गाल ) गाल बजाने गाल न मारा"-रामा० । काल के वाला, व्यर्थ डींग मारने वाला, बकवादी, गाल में जाना मृत्यु के मुख में पड़ना। गप्पी । संज्ञा, पु० (दे०) गाल । " हँसब गाल करना-मुंह जोरी करना मुँह से ठठाय फुलाउब गालू"-रामा० । अंडबंड निकालना, बढ़ बढ़ कर बातें गाव-संज्ञा, पु. (सं० गो, फ़ा. गाव ) करना, डींग मारना, “गाल करब केहि गायी, गाय । कर बल पाई "--रामा०। गावकुशी- संज्ञा स्त्री० यौ० (फा०) गो बध। गालगूल*-संज्ञा, पु० दे० (हि० गाल+ गाव-जबान-संज्ञा, पु. (फा०) फारस अनु० ) व्यर्थ बात, गपशप, अनापशनाप ।। देश की एक बूटी।। गालमसूरी-संज्ञा, स्त्री० (दे० ) एक पक- | गावघप्पी-संज्ञा, पु. (दे० ) चापलूस, वान या मिठाई। फुसलाऊ, स्वार्थी । वि० (दे.) चुःपा, गालव-संज्ञा, पु० (सं.) एक ऋषि एक मौन, मट्टर, गाऊघाप (दे०)। प्राचीन वैयाकरण, लोध का पेड़, एक स्मृति-गाव-तकिया- संज्ञा, पु० यौ० (फा०) बड़ा कार,..." गालव, नहुष नरेस "-रामा० । तकिया जिससे टेक लगाकर लोग फर्श गाला- संज्ञा, पु० दे० (हि. गाल = ग्रास) पर बैठते हैं, मसनद । चनी हई रूई का गोला जो चरखे में कातने | गावदी-वि० दे० (हि. गाय +धी सं०) के लिए बनाया जाता है, पूनी। मुहा० -- कुंठित बुद्धि वाला, अबोध, नासमझ, सई का गाला-बहुत उज्वल, हलका। बेवकूफ़ भोला भाला, मूर्ख । संज्ञा, पु. (हि. गाल ) बड़बड़ाने की | गावदुम-वि० दे० (फा०) जो उपर से प्रादत, अंड-बड़ बकने का स्वभाव, मुंह बैल की पूँछ की तरह पतला होता पाया जोरी, कल्ले दराज़ी, ग्रास । हो, चढ़ाव-उतार वाला, ढालुवाँ । गालिब-वि. (अ.) जीतने वाला, बढ़- गास--संज्ञा, पु० (दे०) संकट, आपत्ति । जाने वाला, विजयी श्रेष्ठ । संज्ञा, पु०-एक | गासिया-संज्ञा, पु० दे० (अ. ग़ाशिया ) प्रसिद्ध उर्दू कवि। जीनपोश । गालिम-वि० (दे०) ग़ालिब । गाह-संज्ञा, पु० दे० ( सं० ग्राह ) ग्राहक, गाली-संज्ञा, स्त्री. (सं० गालि ) निन्दा गाहक, पकड़, घात, ग्राह मगर । था कलंक सूचक वाक्य, दुर्वचन । मुहा० --- गाहक-संज्ञा, पु० (सं० ) अवगाहन करने For Private and Personal Use Only Page #588 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org गाहकताई वाला | संज्ञा, पु० दे० ग्रहण करने वाला, माल लेने वाला, गाहक आये बेचिये, सच्चा ख़रीददार | माल बताय । (...... तुल० । "नहीं "? यह जानकी जान की गाहक । मुहा०जो, जान या प्राण का गाहक - प्राण या जान लेने वाला, मार डालने की ताक में रहने वाला, दिन करने या सताने वाला, क़दर करने या चाहने वाला । | गाहकताई* -- संज्ञा, स्त्री० दे० (हि० गाहकता) क़दरदानी, चाह, मोल लेना । "" ܙܙ ૭૭ गिद्ध (सं० ग्राहक ) गिड - संज्ञा, पु० दे० (सं० ग्रीवा ) गला, गरदन | गिच पिच - वि० ( अनु० ) जो साफ़ साफ़ या क्रम से न हो, अस्पष्ट, भीड़-भाड़ । गिच पिचिया - संज्ञा, पु० ( दे० ) गिचपिच करने वाला, भीड़-भाड़ करने वाला | गिचिर- पिचिर - वि० (दे०) गिचपिच । गिजगिजा - वि० ( अनु० ) ऐसा गीला और मुलायम जे खाने में भला न लगे, छूने में जो मांसल ज्ञात हो । ग़िज़ा - संज्ञा, स्त्री० ( ० ) भोजन, खाद्य वस्तु, खुराक । गिटकारी - संज्ञा, स्त्री० (दे० ) गिड़ - गिड़ी, गिट्टी । गाहन - संज्ञा, पु० (सं० ) ( वि० गाहित ) गिटकिरी - संज्ञा, स्त्री० ( अनु० ) तान गोता लगाना, विलोड़ना, स्नान । लेने में विशेष रूप से स्वर का काँपना, गिड़गिड़ी | गाहको संज्ञा स्त्री० दे० ( सं० ग्राहक ) बिक्री, गाहक होना । " कवि-वृन्द चाहसों करत हैं गाहकी " – सेना० । गाहना- - स० क्रि० दे० (सं० अवगाहन ) श्रवगाहन करना, डूब कर थाह लेना, विलोड़ना, मथना, हलचल मचाना, दाने गिराने को धान आदि के डंठल झाड़ना श्रहना । गाहा— संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० गाथा) कथा, वृत्तान्त, चरित्र, वर्णन, श्राय्र्या छंद । गाहि गाहिइस० क्रि० पू० [फा० (दे०) बूँदढूँढ़ कर, खोज खोज कर । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गाही -संज्ञा, स्त्री० दे० ( हि० गहना ) फल यादि के गिनने का पाँच पाँच का एक मान । गाहू – संज्ञा, स्त्री० दे० (हि० गाना) उपगीत छंद । जिना - अ० क्रि० दे० (हि० गींजना किसी चीज़ ( विशेष कर कपड़े ) का उलटेपुलटे हो जाने से ख़राब हो जाना, गींजा जाना । गिंजाई - संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० गुंजन ) एक Satara कीड़ा, विनाही, धनौरी । ( प्रान्ती०) गिंडरी - संज्ञा, स्त्री० (दे० ) गेंदुरी, बिड़ई । गिंदौड़ा -गिंदौरा - संज्ञा, पु० दे० ( हि० गेंद ) मोटी रोटी जैसे चीनी से ढाला हुआ क़तरा । भा० श० को० – ७३ गिटकौरी - संज्ञा, स्त्री० (दे०) पथरी, पत्थरनिर्मित, पत्थर के टुकड़े । 2 गिट-पिट - संज्ञा स्त्री० ( अनु० ) निरर्थक शब्द मुहा०-गिटपिट करना - टूटी फूटी या साधारण अंग्रेज़ी भाषा में बोलना । गिट्टक- संज्ञा, स्त्री० दे० ( हि० गिट्टा ) चिलम में रखने का कंकर, चुग़ल । गिट्टा - संज्ञा, पु० (दे० ) कंकड़-पत्थर का टुकड़ा । स्त्री० गिट्टी | गिट्टी - संज्ञा, स्त्री० ( हि० गिट्टा ) पत्थर का छोटा टुकड़ा, मिट्टी के बरतन का टूटा हुआ छोटा टुकड़ा, ठीकरो, चिलम की गिट्टक | गिड़गिड़ाना - अ० क्रि० अनु० ) अत्यंत fara tree कोई प्रार्थना करना । गिड़गिड़ाहट - संज्ञा, स्त्री० (हि० गिड़गिड़ाना) विमती, गिड़गिड़ाने का भाव । गिद्ध - संज्ञा, पु० दे० (सं० गृध्र ) एक बड़ा मांसाहारी पक्षी, छप्पय छंद का बावनवाँ भेद, शकुनि, गीध ( ग्रा० ) । For Private and Personal Use Only Page #589 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गिरना - गिद्ध-राज गिद्ध-राज-संज्ञा, पु० दे० यौ० (हि. गिद्ध + | गियाह-संज्ञा, पु० ( ? ) एक प्रकार का राज) जटायु । “गिद्धराज सुनि भारत | घोड़ा। (फा०) एक घास । बानी"-रामा०। | गिर-संज्ञा, पु० दे० (सं० गिरि) पहाड़, गिनतो-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. गिनना+ पर्वत, सन्यासियों के दश भेदों में से एक । ती= प्रत्य० ) संख्या निश्चित करने की गिरई-संज्ञा, स्त्री० (दे० ) एक प्रकार की क्रिया, गणनांक, गणना, शुमार । मुहा०- मछली । गिनती में आना वा होना-कुछ महत्व गिरगट-गिरगिट-संज्ञा, पु० दे० (सं० का समझा जाना । गिनती गिनाने के कृकलस वा गलगति) छिपकली की जाति लिये-नाम मात्र के लिये, कहने-सुनने का एक जन्तु जो दिन में दो बार अपना भर को। संख्या, तादाद । मुहा०-गिनती रंग बदलता है । गिगिटान, गिदौना, के-बहुत थोड़े। कोई (कसी) गिनती गिरदान, (ग्रा.)। मुहा०-गिरगट ( में ) न होना-अति तुच्छ या साधारण । की तरह रंग बदलना-बहुत जल्दी होना । गिनती न होना--असंख्य होना। सम्मति या सिद्धान्त बदल देना। उपस्थित की जाँच, हाज़िरी (सिपाही) गिरगिरी-संज्ञा, स्त्री० (अनु० ) लड़कों का एक से सौ तक की अंक-माला। एक खिलौना। गिनना-स० कि० दे० (सं० गणन ) गणना गिरजा-संज्ञा, पु० दे० ( पुर्त० इग्रिजिया ) या शुमार करना, संख्या निश्चित करना। ईसाइयों का प्रार्थना-मन्दिर । ( सं० मुहा०-अँगुलियों पर गिनना-किसी| गिरिजा ) पार्वती, शैल-सुता। चीज़ का अति अल्प संख्या में होना। गिरदा-संज्ञा, पु. (फ़ा. गिर्द ) घेरा, (दिन) गिनना-श्राशा में समय बिताना, चक्कर, तकिया, गिडुवा, बालिश, काठ की किसी प्रकार काल-क्षेप करना। गणित | एक थाली जिसमें हलवाई मिठाई रखते हैं। करना, हिसाब लगाना, कुछ महत्व का | ढाल, फरी । संज्ञा, पु. (फ़ा-गिर्द ) पोर, समझना, ख़ातिर में लाना । कुछ (न) तरफ़ । जैसे-चौगिर्दा (ग्रा० ) चारों ओर । तरक्त गिनना-किसी योग्य (न) समझना। गिरदान-संज्ञा, पु० (हि. गिरगट) गिरगिट। गिनवाना-स० कि. (दे०) गिनना का | गिरदावर-संज्ञा, पु. ( दे.) गिर्दावर। प्रे० रूप गिनाना। गिरधर-संज्ञा, पु. (सं० गिरिधर ) पहाड़ उठाने वाले श्रीकृष्ण, गिरधारी । गिनाना-स० कि० (हि० गिनना का प्रे० रूप) | गिरना-अ० क्रि० दे० (सं० गलत ) एक गिनने का काम दूसरे से कराना। दम उपर से नीचे आ जाना, अपने स्थान गिनी-संज्ञा, स्त्री. ( अं० ) सोने का एक से नीचे आ जाना, पतित होना, खड़ा न सिक्का, एक विलायती घाम । यौ० गिनी रह सकना, ज़मीन पर पड़ जाना, अवनति गोल्ड-ताँबा मिश्रित सोना। या घटाव पर या बुरी दशा में होना, जलगिनी-संज्ञा, स्त्री० (दे०) गिनी। धारा का बड़े जलाशय में जा मिलना, शक्ति गिब्बन--संज्ञा, पु० (अं० ) एक प्रकार | या मूल्य आदि का कम या मंदा होना, का बन्दर। बहुत चाव या तेजी से आगे बढ़ना, टूटना, गिमटी-संज्ञा, स्त्री० (अं० डिमिटी ) एक अपने स्थान से हट, निकल, या झड़ जाना, बूटीदार मज़बूत कपड़ा। किसी ऐसे रोग का होना जिसका वेग ऊपर गिय*-संज्ञा, पु० (दे० ) गिउ । से नीचे को पाता हुआ माना जाय जैसे For Private and Personal Use Only Page #590 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - - गिरनार गिरिधारन फालिज गिरना, सहसा उपस्थित या प्राप्त गिरही*-संज्ञा, पु० (दे०) गृही (सं०) होना, युद्ध में मारा जाना। गृहस्थ, गिरस्त (ग्रा.)। गिरनार-संज्ञा, पु. (सं० गिरि + नार = | गिरी–वि० दे० (फा० गरी ) जिसका दाम नगर ) जैनियों का एक तीर्थ जो गुजरात अधिक हो, महँगा, भारी, जो भला न लगे, में जूनागढ़ के निकट एक पर्वत पर है, अप्रिय । संज्ञा, स्त्री० गिरानी, गरानी। रैवतक पर्वत । ( वि. गिरनारी)। गिरा-संज्ञा, स्त्री० (सं० ) वाणी की शक्ति, गिरपड़ना-अ. कि. (दे० ) फिसल बोलने की ताकत, जिह्वा, ज़बान, बचन, जाना, कूद या झुक पड़ना, पतित होना। वाणी सरस्वती देवी। “गिरामुखर तन " गिरफ़्त-संज्ञा, स्त्री० ( फा० ) पकड़ने का | -रामा०, “गढ़ गिरा सुनि"- रामा० । भाव, पकड़, दोष के पता लगाने का ढब । गिराना-स. क्रि० (हि. गिरना का स. गिरफ्तार-वि० ( फा० ) जो पकड़ा, कैद | रूप ) अपने स्थान से नीचे डाल देना, पतन किया या बाँधा गया हो, ग्रस्त । करना, खड़ा न रहने देकर पृथ्वी पर डाल गिरफ़्तारी-संज्ञा, स्त्री. ( फा० ) गिरफ्तार | देना, अवनति करना, घटाना, किसी जलहोने का भाव, गिरफ्तार होने की क्रिया। धारा के प्रवाह को ढाल की ओर ले जाना, गिरमिट-संज्ञा, पु० दे० (अं० गिमलेट) लकड़ी शक्ति या स्थिति आदि में कमी कर देना, में छेद करने का बड़ा बरमा। संज्ञा, पु० किसी वस्तु को उसके स्थान से हटा या ( अं० एग्रीमेंट = इकरारनामा ) इकरारनामा, निकाल देना, ऐसा रोगउत्पन्न करना जिसका शर्तनामा, स्वीकृति या प्रतिज्ञा, इकरार।। वेग ऊपर से नीचे को आता हो, सहसा गिरवर-संज्ञा, पु० (दे०) बड़ा पहाड़। उपस्थित करना, लड़ाई में मार डालना। गिरवान*-संज्ञा, पु० (दे०) गीर्वाण । गिरानी-संज्ञा स्त्री० (फा० ) महँगापन, संज्ञा, पु. (फा गरेबान) गले के चारों ओर | महँगी, अकाल, कहत, कमी, गरानी। का कुरते के धागे का गोल भाग, गला। गिरापति-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) ब्रह्मा, गिरवाना–स० कि. (हि० गिराना का प्रे०) सरस्वती के स्वामी। गिराने का काम दूसरे से कराना। गिरापित-संज्ञा, पु. यो० दे० (सं० गिरा गिरवी-वि० (फा० ) गिरों रखा हुथा, पितृ ) सरस्वती के पिता ब्रह्मा । बंधक, रेहन । गिरावट-संज्ञा, स्त्री० ( हि० गिरना ) गिरने गिरवीदार--संज्ञा, पु. (फा० ) वह व्यक्ति की क्रिया, भाव या ढंग। जिसके यहाँ कोई वस्तु गिरों रखी हो। गिरास-संज्ञा, पु० (दे० ) ग्रास (सं० ) गिरह-संज्ञा, स्त्री. (फा०) गाँठ, ग्रंथि कौर, कवल । (सं० ) जेब, कीमा, ग्वरीता, दो पोरों के गिरासना -स० क्रि० ( दे० ) ग्रसना । जोड़ का स्थान, एक गज़ का सोलहवाँ गिरि-संज्ञा, पु. (सं० ) पर्वत, पहाड़, भाग, कलैया, उलटी, कलाबाजी।..."नाते दश संप्रदायों के अन्तर्गत एक प्रकार की गिरह ताहि नैननि निबेर दै"-द्विजः। के सन्यासी, परिव्राजकों की एक उपाधि । गिरहकट-वि० यौ० ( फ़ा. गिरह = गिरिजा-संज्ञा, स्त्री. ( सं० ) पार्वती, गाँड+ काटना-हि० ) जेब या गाँठ में बंधे गौरी, गंगा । “सर-समीप गिरिजा-गृह हुए माल को काट लेने वाला, चालाक। सोहा''-रामा०।। गिरहबाज़ -- संज्ञा, पु. ( फा० ) उड़ते हुए गिरिधर-संज्ञा, पु० (सं० ) श्री कृष्ण । उलटी कलैया खाने वाला एक कबूतर। गिरिधारन*-संज्ञा, पु. (दे० ) गिरिधर For Private and Personal Use Only Page #591 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गिरिधारी ५८० गिलहरी गिरिधारी-संज्ञा, पु. ( सं० गिरिधारिन ), जाय, “तिमिर तरुन तरनिहिं सक गिलई" श्री कृष्ण । रामा०। गिरि-नंदिनी-संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) गिलकार-संज्ञा, पु. ( फा० ) गारा या पार्वती, गंगा नदी ।... ... "गिरि-नंदिनी- पलस्तर करने वाला। नन्दन चले"-मैथि। गिलकारी- संज्ञा, स्त्री० (फ़ा०) गारा लगाने गिरिजाथ-संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) महादेव, वा पलस्तर करने का कार्य । शिव, शम्भु। | गिलगिल-संज्ञा, पु० (सं० ) एक जलजंतु, गिरिराज-संज्ञा, पु० दे० (सं० ) बड़ा- ० (फा०-गिल) पिलपिला. गीला। पर्वत, गिरिपति, हिमालय, गोवर्धन गिलगिलिया-संज्ञा, स्त्री० (अनु०) सिरोही सुमेरु पर्वत । चिड़िया, गलगलिया ( दे०)। गिरिव्रज-संज्ञा, पु. ( सं० ) केकय देश की राजधानी, जरासंध की राजधानी जिसे गिलगिली-संज्ञा, पु. (दे०) घोड़े की एक जाति । राजगृह कहते हैं। | गिलट - संज्ञा, पु० दे० ( अं० गिल्ड ) सोना गिरि-सुत- संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) मैनाक । चढ़ाने का काम, चाँदी सी सफ़ेद बहुत पर्वत । हलकी और कम मूल्य की एक धातु । गिरि-सुता-संज्ञा, स्त्री० यौ० ( सं० ) १० | गिलटी-संज्ञा, स्त्रो० दे० (सं० ग्रंथि ) देह पार्वती । में संधि स्थान पर चेप की छोटी गोल गाँठ, गिरीन्द्र-संज्ञा, पु० यौ० (सं.) बड़ा पर्वत, हिमालय, सुमेरु, शिव । संधिस्थान की गाँठे, सूजने का रोग । गिरी- संज्ञा, स्त्री० ( हि गिरी) बीज के गिलत-संज्ञा, पु० (सं० ) ( वि. गिलित ) तोड़ने से उसमें से निकला गूदा जैसे निगलना, लीलना। नारियल की गिरी। | गिलना-स० कि० (सं० गिरण) बिना दाँतों गिरीश-संज्ञा, पु० यौ० ( सं० ) महादेव, | से तोड़े गले में उतार जाना, निगलना शिव, हिमालय सुमेरु कैलाश या गोवर्द्धन । __ मन ही में रखना, प्रगट न होने देना। पर्वत, बड़ा पहाड़। गिलबिलाना-अ० क्रि० ( अनु० ) अस्पष्ट गिरैया- संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. गेराँव ) उच्चारण से कुछ कहना। छोटा या पतला गेराँव, गिराई (प्रान्ती०), गिलम-संज्ञा, स्त्री० (फा० गलीम = कंवल) गिरवाँ, गरेवाँ (ग्रा०)। नरम और चिकना ऊनी कालीन,मोटा मुलागिरों-वि० (फ़ा०) रेहन, बंधक, गिरवी। यम गद्दा या बिछौना । " गुलगुले गिलम गिर्द अन्य० (फ़ा) आस पास, चारों ओर। गलीचे हैं'- पद्मा० । वि०-कोमल, नरम । यौ०-इर्द-गिर्द -श्रास-पास । गिर्दा- गिलमिल-संज्ञा, पु० (दे० ) एक तरह (ग्रा० ) जैसे-चौगिर्दा । का कपड़ा। गिर्दावर--संज्ञा, पु. (फा० ) घूमने या गिलहरा-संज्ञा, पु० (दे०) एक प्रकार दौरा करने वाला, घूम घूम कर काम की का धारीदार कपड़ा। (दे०) बेलहरा, पान जाँच करने वाला, एक प्रकार के कानूनगो। के रखने का केस । संज्ञा, स्त्री०-गिर्दावरी। गिलहरी- संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० गिरि = गिल-संज्ञा, स्त्री. (फा० ) मिट्टी, गारा।। चुहिया ) चूहे का सा एक मोटे रोएँ और गिलई-स० कि० (दे०) निगल या लील लम्बी पूंछ वाला एक जन्तु, जो पेड़ों पर For Private and Personal Use Only Page #592 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गीधना गिला रहता है। गिलाई, चेखुरा, गिल्ली (प्रान्ती०)। | गीत-संज्ञा पु० (सं० ) वह वाक्य, पद, गिला-संज्ञा, पु० (फा०) उलाहना, शिका- या छंद जो गाया जाय, गाने की चीज़, यत, निन्दा, बुराई। गाना। यौ०-गीत-काव्य-गाया जाने गिलाफ़--संज्ञा, पु. ( अ० ) तकिये रजाई वाला काव्य । “गावहिं गीत मनोहर बानी" आदि पर चढ़ाने की कपड़े की बड़ी थैली, रामा० । मुहा०-गीत गगना-बड़ाई खोल, रज़ाई, लिहाफ़, म्यान । करना, प्रशंसा करना । .." गाना जय के गिलापा-सिंहा, पु० ( फा० गिल - प्राव ) गीत कहीं''-अयो० । अपनाहीं गीत गीली मिट्टी जिससे ईंट-पत्थर जोड़ते हैं, गाना - अपनी ही बात कहना, दूसरे की गारा।" प्रेम-गिलावा दीन" कवीर० ।। न सुनना, बड़ाई करना, यश गाना, गिलास-संज्ञा, पु० दे० ( अं० ग्लास ) आत्म प्रशंसा करना। पानी पीने का एक गोल लंबा बरतन, गीता-संज्ञा स्त्री. (सं.) ज्ञानमय उप देश जो किसी महात्मा से माँगने पर मिले, आलू-वालू या अोलची का पेड़। भगवद् गीता, छब्बीस मात्राओं का एक गिलिम-संज्ञा, स्त्री० (दे०) गिलम (फा०)। छंद, कथा, वृत्तान्त, हाल । “भगवद् गीता गिली-संज्ञा स्त्री० (दे० ) गुल्ली, गिल्ली किंचित धीता.".- चर्प० । " सीता गीता (दे०), गिलहरी। पुत्र की"-राम। गिलोय - संज्ञा स्त्री० (फा० ) गुरिच, या | गीति—संज्ञा स्त्री. (सं० ) गान, गति, गुरुच नामक एक औषधि-लता जो कभी श्रा- छंद, एक छन्द-भेद। नहीं सूखती, अमृता (सं० )। गीतिका- संज्ञा स्त्री० (सं०) २६ मात्राओं गिलोला-संज्ञा, पु. ( फा० गुलेला) मिट्टी का एक मात्रिक छंद (पि०), गीत, गाना। का छोटा गोला, जो गुलेल से फेंका जाता यौ०-हरिगीतिका- २८ मात्रानों का है, गुल्ला (दे०)। एक मात्रिक छंद "-(पि०)। गिलौरी-संज्ञा, स्त्री० (दे०) पानों का गीत रूपक-संज्ञा पु० यौ० (सं०) एक प्रकार बीरा। का नाटक या रूपक जिसमें गद्य तो कम गिलौरीदान - संज्ञा पु० (हि० गिलौरी-+ | किन्तु पद्य अधिक रहता है। दान-फा०) पान रखने का डिब्बा, पानदान। गीदड़- संज्ञा पु० दे० (सं० गृध्र, फा० गीदी) गिल्टी-संज्ञा, स्त्री० (दे० ) गिलटी। सियार, शृगाल। "सिंह-प्रतापहिं देखि शत्रुगिल्ली-संज्ञा, स्त्री० ( दे० ) दोनों छोरों गण गीदड़ भागे"-प्रता० । यौ०-गीदड़ पर नुकीला और बीच में मोटा लकड़ी का भबकी-मन में डरते हुये ऊपर से छोटा टुकड़ा, गुल्ली ( ग्रा० ) गिलहरी। दिखावटी साहस या क्रोध प्रगट करना । गींजना-स० कि० दे० (हि० मींजना) वि० डरपोक, बुज़दिल, " गीदड़ भबकी किसी कोमल पदार्थ विशेषतया कपड़े आदि | देखि तुम्हारी नहीं डरेंगे"! हमी० । को यो मलना कि वह ख़राब हो जाय। । | गीदी-वि० (फा० ) डरपोक, कायर । गी-संज्ञा, स्त्री. ( सं० ) वाणी, बोलने की | गीध-संज्ञा पु० (दे०) गिद्ध, गृद्ध (सं.)। शक्ति, सरस्वती." गीर्वाक् वाणी सरस्वती' | गीधना-*अ. नि० दे० (सं० गृध्र = --अमर० । लुब्ध ) एक बार कुछ लाभ उठा कर सदा भीउ - संज्ञा, स्त्री. (दे० ) गीव, ग्रीवा उसी का इच्छुक रहना, परचना, लहटना । (सं०)। "गीधो गधि आमिख डली, जानत अली For Private and Personal Use Only Page #593 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गँधना - गीवत ५८२ सुगंध'-दीन० ।..." गीध मुख गीधे | करना, भौरों का गूंजना, भनभनाना, शब्द है".. पद्मा०। करना, गरजना। गीवत-संज्ञा स्त्री. (अ.) अनुपस्थित, | गुंजा - संज्ञा स्त्री० (सं.) घुघची की लता, गैर हाज़िरी, पिशुनता, चुगुलखोरी। घुघची । “गुंजा मानिक एक सम"-० । गीर-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० गोः ) वाक्, | गुंजाइश--संज्ञा स्त्री. ( फा० ) सुभीता, वाणी, सरस्वती। सुबीता, अटने की जगह, समाने भर को गीर्देवी-संज्ञा स्त्री० यौ० (सं० ) सरस्वती।। स्थान, अवकाश, समाई। गीति - संज्ञा पु० यौ० (सं० ) वृहस्पति, | गुंजान वि० (फा०) सघन, घना, अविरल । विद्वान, वाक्पति । गंजायमान-वि० (सं०) गुंजारता हुश्रा, गीर्वाण-संज्ञा पु० (सं० ) देवता, सुर। | गूंजता हुआ। गीला-- वि० ( हि० गलना ) भीगा हुआ | गुजार-संज्ञा पु० (सं० गुंज --- प्रार-प्रत्य०) तर, नम, आर्द्र । ( स्त्री० पीली)। भौरों की गूंज, भनभनाहट । गीलापन-संज्ञा पु० (हि० गील + पन- गुंठा-संज्ञा पु० दे० (हि० गठना) एक प्रकार प्रत्य० ) गीला होने का भाव, नमी, तरी। का नाटे कद का घोड़ा, टाँधन घोड़ा, छोटे गीव*---संज्ञा स्त्री० (दे०) ग्रीवा (सं०) गरदन।। डील का मनुष्य । गीपति-संज्ञा पु० यौ० (सं० ) वृहस्पति, | गुंडई-सिंज्ञा स्त्री० दे० (हि. गुंडा) गुंडापन, बदमाशी। विद्वान् । गुंडली संज्ञा स्त्री० दे० (सं० कुंडली) फेंटा, गुंग-गुंगा- संज्ञा पु० वि० (दे० ) गूंगा। कुंडली, गेंडुरी, इँडुरी ( प्रान्ती० )। स्त्री० गूंगी। गंडा-वि० दे० (सं० गुंडक ) बदचलन, गुंगी-संज्ञा स्त्रो० दे० (हि० गँगा) दोमुहाँ कुमार्गी, बदमाश, छैल-चिकनियाँ । ( स्त्री०. साँप, चुकरैल। गुंडई-गुंडी)। गँगुयाना-अ० कि० (अनु०) धुआँ देना, | गुंडापन - संज्ञा पु० दे० (हि० गुंडा- पन भली प्रकार न जलना, D D शब्द करना, प्रत्य०) बदमाशी, शरारत । संज्ञा, स्त्री० गंगे की तरह बोलना। गुंडेबाज़ी (दे०)। गुंचा - संज्ञा पु० (फ़ा०) कली, कोटक, नाच. गुंथना-प्र० कि० दे० (सं० गुत्थ = गुच्छा) रंग, बिहार, जश्न । तागों या बालों आदि का गुच्छेदार लड़ी के गंज-संज्ञा स्त्री० (सं० गुंज ) भौरों के भन. रूप में बाँधना, उलझकर मिलना या भनाने का शब्द, गुंजार, अानन्द-ध्वनि, बँधना, मोटे तौर पर सिलना, नत्थी होना कलरव । “जामै ध्वनि रह गुंज"-रसा. गूंथना। स० कि. ( गुंथन का प्रे० रूप ) गुंजन--- संज्ञा स्त्रो० (सं० ) भौरों के गूंजने गॅथाना, गथवाना । संज्ञा पु० गुंथन, की क्रिया, भनभनाहट, कोमल-मधुर ध्वनि । गँथाई, (दे० )। गुंजना-अ० कि० दे० (सं० गुंज ) भौरों गुंदला-संज्ञा, पु० दे० ( सं० गुंडाला ) का भनभनाना, मधुर ध्वनि करना, गुन. | नागरमोथा। गुनाना, "गुंजत मधुकर-निकर अनूपा” | गधना-क्रि० दे० अ. (सं० गुध-क्रीड़ा) -रामा० । वि०-गंजित। पानी में सान कर मसला जाना, माँड़ागंजनिकेत-- संज्ञा पु० यौ० (सं० गुंज + जाना, (पाटे आदि का)। बालों का निकेतन ) भौंरा, मधुकर, भ्रमर । सँवारना या उलझाना। 4. क्रि० (दे०) गुजरना-- अ० कि० दे० (हि० गुंजार) गुंजार गुंथना। For Private and Personal Use Only Page #594 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गुंधवाना ५८३ गुजर-बसर गंधवाना-सं० कि० दे० (हि. [धना जिससे राल या धूप निकलती है। "मदन का प्रे०) गूधने का काम दूसरे से कराना। सैंधव गुग्गुल गैरिकाह्य . " वै० जी० । स० कि० ( प्रे० रूप ) गुंधाना ( दे.)। गुच्ची-संज्ञा, स्त्री० ( अनु० ) वह छोटा गँधाई-संज्ञा, स्त्री० ( हि० गूंधना ) गधने गड्ढा गोली या गुल्ली-डंडा खेलने का। या माड़ने की क्रिया या भाव, गँधने या वि० स्त्री० बहुत छोटी, नन्ही । वि. पु. माँड़ने की मजदूरी । बालों को सँवारना। गुच्चा, गुब्बू (प्रान्ती०)। गँधावट-संज्ञा, स्त्री० (हि. धना) गँधने गुच्चीपारा, गुच्चीपाला-संज्ञा, पु० दे० या गूंथने की क्रिया या ढंग। (हि. गुच्ची = गड्ढा -- पारना = डालना ) एक गुंफ- संज्ञा, पु. ( सं० ) उलझना, फँसाव, खेल जिसमें लड़के एक छोटा सा गड्ढा बना कर उसमें कौड़ियाँ फेंकते हैं। गुस्थम-गुत्था (दे०)। गुच्छा, दाढ़ी, गल गुच्छ, गुच्छक-संज्ञा, पु० (सं० ) एक मुच्छ, कारणमाला, नामक एक अलंकार में बँधे हुये फलों फुलों या पत्तियाँ का (अ० पी० ) । ( वि० गुंफित )। समूह, गुच्छा, घास की पूरी, पत्तियाँ या गुफन -संज्ञा, पु० (सं०) (वि० गंफित) पतली लचीली टहनियों वाला पौधा, उलझाव, फँसाब, गुत्थमगुत्था (दे०) गूंथना, | झाड़, मोर की पूँछ, स्तवक (सं.)। गाँछना । वि० गुंफनीय। गुच्छा -संज्ञा, पु० दे० (सं० गुच्छ ) एक गुंबज-संज्ञा, पु० दे० ( फा० गुंबद ) में लगे या बँधे हुए कई पत्तों या फूलोंऊपर उठी हुई गोल छत, गुंबद। फलों का समूह, गुच्छ, एक में लगी या बँधी गॅबजदार-वि० ( फा० गुंबद + दार ) हुई छोटी वस्तुओं का समूह, जैसे-कुंजियों जिस पर गुंबज हो। का गुच्छा। गुंबद -संज्ञा, पु. ( दे० ) गुंबज । गुच्छी --संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० गुच्छ ) गबा-संज्ञा, पु० दे० (हि० गोल + अंब = | करंज, कंजा, रीठा, एक तरकारी, (स्त्री० ग्राम ) चोट से उत्पन्न कड़ी गोल सूजन, अल्प०) गुच्छा। गुलमा (ग्रा.)। गुच्छेदार-वि० (हि. गुच्छा+दार-फा० गुंभी संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० गुफ) प्रत्य० ) जिसमें गुच्छा हो। अंकुर, गाभ। गुजर-संज्ञा, पु. ( फा०) निकास, गति, गुश्रा-संज्ञा, पु० दे० ( सं० गुवाक ) चिकनी पैठ, पहुँच, प्रवेश, निर्वाह, कालक्षेप । संज्ञा, सुपारी, सुपारी। पु० (फा०) गुज़ारा-जीवन-निर्वाह को वृत्ति । गुइयां-संज्ञा, स्त्री० पु० दे० (हि० गाहन ) गुजरना-अ० कि० (फा० गुज़र + नासखी, सहेली, साथी, सखा, मित्र, सहचरी। प्रत्य॰) समय व्यतीत होना, कटना, बीतना, निकल जाना गुखरू-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० गाक्षुर ) एक महा-किसी पर गुजरना-किसी पर काँटेदार बेल, गोखुरू नामक औषधि । आपत्ति ( संकट या विपत्ति ) पड़ना। गुगुलिया संज्ञा, पु० ( दे०) मदारी। किसी स्थान से होकर आना या जाना। गुग्गुर-गुग्गुल संज्ञा, पु० दे० (सं० गुग्गुल) मुहा०—गुजर जाना-मरजाना, निर्वाह एक काँटेदार पेड़ जिसका गोंद सुगंधि के होना, निपटना, निभना। लिये जलाते और औषधि के काम में लाते गुजर-बसर- संज्ञा, पु० यौ० ( फ़ा० ) हैं, गूगुल, गूगुर (दे० ) सलई का पेड़ ! निर्वाह, गुज़ारा, कालक्षेप। For Private and Personal Use Only Page #595 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ५६४ गुजरात गुजरात - संज्ञा, पु० दे० (सं० गुर्जर + राष्ट्र) ( वि० गुजराती ) भारतवर्ष के दक्षिणपश्चिम प्रांत का एक देश । गुजराती - वि० ( हि० गुजरात ) गुजरात का निवासी गुजरात देश में उत्पन्न, गुजरात का बना हुआ | संज्ञा, स्त्री० - गुजरात देश की भाषा, छोटी इलायची । गुजरान संज्ञा, पु० (दे० ) गुज़र | गुजराना – स० क्रि० (दे० ) गुज़ारना गुजरिया - संज्ञा, स्त्री० दे० ( हि० गूजर ) गूजर जाति की स्त्री, ग्वालिन, गोपी, मिट्टी की बनी स्त्री ( खेलौना ) | गुजरी - संज्ञा, स्त्री० दे० ( हि० गूजर ) कलाई में पहनने की एक पहुँची, कानकटी भेंड़, (दे०) गूजरी । गुजरेटी - संज्ञा स्त्री० दे० (हि० गूजर ) गूजर जाति की कन्या, गूजरी, ग्वालिन । गुजरता - वि० (फा० ) बीता हुआ, विगत, व्यतीत, भूत काल | गुज़ारना - स० क्रि० दे० ( फ़ा० ) बिताना, काटना, पहुँचाना, पेश करना | गुज़ारा - संज्ञा, पु० ( फा० ) गुज़र, गुजरान, निर्वाह, जीवन निर्वाह के लिये वृत्ति, महसूल लेने का स्थान | गुज़ारिश - संज्ञा, स्त्री० ( फा० ) निवेदन, विनय, प्रार्थना । गुजिया - संज्ञा स्त्री० (दे० ) कर्णफूल, कान का भूषण - विशेष, गुझिया, गुज्झी ( ग्रा० ) । गुज्जरी - संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० गुर्जर + ईप्रत्य० ) गूजरी, एक रागिनी । गुझरोट-गुरौट - संज्ञा, पु० दे० (सं० गुह्य + श्रावर्त) कपड़े की सिकुड़न, शिकन, सिलवट, स्त्रियों की नाभि के आसपास का भाग । " कर उठाय घूँघट करति उसरति पट गुरौट " वि० । गुझिया - संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० गुह्यक ) एक प्रकार का पकवान, कुसली, पिराक, खोये की एक मिठाई, कर्णफूल, गुज्की ( मा० ) । गुड़ गुझौट - संज्ञा, पु० (दे० ) गुरौ । गुटकना - प्र० क्रि० दे० ( अनु० ) कबूतर भाँगुटुर करना । स० कि० (दे० ) निगलना, खा जाना । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गुटका - संज्ञा, पु० दे० (सं० गुटिका) गोली, टुकड़ा, छोटे श्राकार की पुस्तक, लट्टू, गुपचुप मिठाई । गुटरगूं - संज्ञा स्त्री० दे० ( अनु० ) कबूतरों की बोली । गुटिका -- संज्ञा, स्त्री० (सं० ) बटिका, बटी, गोली, एक सिद्धि जिसके कारण एक गोली के मुँह में रख लेने से योगी जहाँ चाहे वहीं चला जाय और कोई देख न सके । यौ० गुटिका सिद्धि । घन विश्वशिवा गुड़जा गुटिका वै० जी० (6 । गुट्ट- संज्ञा, पु० दे० (सं० गोष्ट ) समूह, कुंड, समुदाय, दल, यूथ । गुट्टल - वि० दे० ( हि० गुठली ) फल जिस में बड़ी गुठली हो, जड़, मूर्ख कूदमग़ज़, गुठली के आकार का, गोठिल | संज्ञा, पु० (दे० ) किसी वस्तु के इकट्ठा होकर जमने से बनी हुई गाँठ, कुलथी, गिलटी । गुठलाना- क्रि० प्र० (दे० ) फलों में गुठली होना, कुंठित ( सं० होना दाँतों का खट्टा होना, गोठिल होना ( पैनी धार के अस्त्र का ) गुठली - संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० गुटिका ) ऐसे फल का बीज जिसमें एक ही बड़ा और कड़ा बीज होता है, जैसे ग्राम की गुठली । गुडंबा - संज्ञा, पु० दे० (हि० गुड़ -+ ब्रॉंब आम) उबाल कर शीरे में डुबाया हुआ कच्चा धाम । 1 गुड़ - संज्ञा, पु० (सं० ) पका कर जमाया हुआ ऊख या खजूर का रस, जो बही या भेली के रूप में होता है " विषम रुजमजाजी हंति युक्ता गुडेन" - वै० जी० । मु० - गुड़ गोबर होना अच्छा काम बिगड़ जाना, रंग में भङ्ग होना, बरबाद हो जाना । (बहुत) गुड़ में चींटे लगते हैं For Private and Personal Use Only Page #596 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५६५ गुणक अत्यधिक प्रेम में निदान विमनता पैदा हो गुरिच । " गुड़ीच्यपामार्ग विडंग शंखिनी" जाती है । मुहा०—(कुल्हिया में ) गुड़ | --वै० जी०। फूटना-गुप्त रीति से कोई कार्य होना, | गुडीची- संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० ) गुरिच, छिपे छिपे कोई सलाह होना । लो०-गुड़ | गुरुच, गिलोय । खाय गुलगुले से छूत-- झूटा ढोंग गुड्डा-- संज्ञा, पु० दे० (सं० गुड़-खेलने रचना। की गोली ) गुड़वा, कपड़े का पुतला । गुड़-गुड़-संज्ञा, पु० दे० ( अनु० ) वह मुहा०-गुड्डा बांधना-अपकीर्ति करते शब्द जो जल में नली आदि के द्वारा हवा फिरना, निदा करना । संज्ञा, पु० (हि. के फूकने से होता है, जैसा हुक्के में। गुड्डी ) बड़ी पतंग। गुड़गुड़ाना--अ० कि.० दे० ( अनु० ) गुड़ गुड्डी -- संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० गुरु + उड्डीन) गुड़ शब्द होना। स० क्रि० दे० ( अनु० ) पतंग, कनकौवा, चङ्ग । संज्ञा, स्त्री. (सं० हुक्का पीना। गुटिका ) घुटने की हड्डी, एक प्रकार का गुड़गुड़ाहट-संज्ञा, स्त्री० (हि. गुड़गुड़ाना+ छोरा हुक्का। हट-प्रत्य०) गुड़गुड़ होने का भाव । गुढ़ना-अ० कि० (दे० ) छिपना. चुपचाप गुड़गुड़ी-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि० गुड़गुड़ाना) चुगुली या बात करना। एक प्रकार का हुक्का, पेंचवान, फरशी। गडधनियां-गडधानी-संज्ञा. स्त्री. . गुहा-संज्ञा, पु० दे० (सं० गूढ ) छिपने यौ० (हि० गुड़+ धान ) भुने हुए गेहूँ को की जगह, गुप्त स्थान, मवास। गुड़ में पाग कर बाँधे गये लडडू। गुण---संज्ञा, पु० (सं.) (वि० गुणी) किसी गुरू-संज्ञा, पु० (दे०) एक चिड़िया, वस्तु में पाई जाने वाली विशेषता जिसके गदुरी ( ग्रा० ) द्वारा वह वस्तु दूसरी वस्तुओं से पृथक् पहगुड़हर-संज्ञा, पु० दे० (हि. गुड़ + हर ) | चान ली जाय, धर्म, सिफ़त, प्रकृति के तीन अड़हुल का पेड़ या फूल, जवा, छोटा वृक्ष । | भाव-सत्व, रज, और तम, निपुणता, प्रवीगुड़हल-संज्ञा, पु० (दे०) गुड़हर। णता, कोई कला या विद्या, हुनर, असर, गुड़ाकू-गुड़ाव--संज्ञा, पु० दे० ( हि० तासीर, प्रभाव, अच्छा स्वभाव, शील, गुड़ + तमाखू) गुड़ मिला पीने का तमाकू । सद्वृत्ति, गुन (दे०)। मुहा०---गुणगुड़ाकेश-संज्ञा, पु० (सं०) शिव, महादेव, गाना-प्रशंसा, तारीफ़ या बड़ाई करना । अर्जुन ।...' गुडाकेशेन भारत ''-गी० । गुण मानना-एहसान मानना, कृतज्ञ गुड़ाना-स० क्रि० ( दे० ) खुदवाना, होना। विशेषता, ख़ासियत, तीन की संख्या, खनाना, गोड़ाना (दे० ) गोड़ना। । प्रकृति, सन्धि में अ+ अ, अ- इ, अ+ गुड़िया-संज्ञा, स्त्री० (हि.) (पु० गुड्डा ) उ का मिलकर श्रा, ए, और ओ होना कपड़े की पुतली जिससे लड़कियाँ खेलती (व्या० ), रस्सी, तागा, डोरा, सूत, हैं । संज्ञ, पु० गुडा, गुड़वा (दे० ) कपड़े धनुष की प्रत्यंचा । प्रत्य -- एक प्रत्यय जो का पुतला । मुहा०--गुड़ियों का खेल संख्या-वाचक शब्दों में लग कर उतने -सरल या आसान काम । ही बार और होना सूचित करता है, जैसेगुडी--संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. गुड्डी) पतंग, द्विगुण, चतुर्गुण ।। चंग, कनकौवा, गुड्डी । "उड़ी जाति कितहूँ। गुणक-संज्ञा. पु० (सं० ) वह अङ्क जिससे गुड़ी"-वि० । संज्ञा, स्त्री० (सं०) गुड़ीची, किसी अंक को गुणा करें । For Private and Personal Use Only Page #597 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गुणकारक गुणोत्कीर्तन NEPCHARPAN गुणकारक (कारी)-वि० (सं०) फायदा गुणागार-गुणों की खानि, गुण-सागर, करने वाला, लाभदायक, लाभकारी। गुणनिधि, गुण निधान गुनाकर (दे०)। गुणगौरि-संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) पतिव्रता गुणागार-संज्ञा, पु० (सं० गुण -- आगार = या सोहागिन स्त्री, स्त्रियों का एक व्रत, घर) गुण-भवन, बड़ा गुणी, गुनागर दे०)। गनगौर (दे०)। "गुणागार संसार-पारं नतोऽहं"- रामा० । गुणग्राहक-संज्ञा, पु० या० (सं०) गुणों या गुणागुण-संज्ञा, पु० यौ० (सं० गुण-+ गुणियों का आदर करने वाला, क़दरदान । अगुण) गुण-दोष, भलाई-बुराई । गुनागुन वि० गुणों की प्रतिष्ठा करने वाला, गुन (दे०)। गाहक-(दे० )। संज्ञा, स्त्री० गुण गुणाढ्य- वि० (सं० गुण + पाढ्य ) गुणग्राहकता । वि० गुणग्राही। पूर्ण, गुणी, कात्यायन मुनि के समकालीन गुणज्ञ-वि० (सं० ) गुण को पहचानने एक प्राचीन कवि जिन्होंने वृहत्कथा नामक या जानने वाला, गुण पारखी. गुणी । संज्ञा, ग्रंथ बनाया। स्त्री० गुणज्ञता। गुणातीत-संज्ञा, पु० यौ० (सं० गण-+गुणन-संज्ञा. पु. (सं०) गुणा करना, जरब अतीत ) गुणों से परे, निर्गुण, गुणशून्य, देना, गिनना, तख़मीना या उद्धरण करना, परब्रह्म, परमात्मा । गुनातीत ( दे० )। टूटना, मनन करना, सोचना विचारना, गुणानुवाद-संज्ञा, पु. यौ० (सं० गुण + गुनना ( दे०)। वि० गुण्य, गुणनीय, अनुवाद) गुणकथन, प्रशंसा, तारीफ़, बड़ाई। गुणित । गुणित--वि० (सं० ) गुणा किया हुआ । गुणनफल-संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) एक गुणी--वि० (सं० गुणिन) गुणवाला, जिसमें अंक को दूसरे अंक के साथ गुणा करने से कोई गुण हो, गुनी (दे०)। संज्ञा, पु. प्राप्त अंक या संख्या। कला-कुशल पुरुष, हुनर-मन्द, झाड़-फ्रैंक गुणना-स० क्रि० दे० (सं० गुणन ) गुणा करने वाला, श्रोझा । ( विलो०-निर्गणी) करना, ज़रब देना । गुनना (दे०)। " मूरख गुण समझे नहीं, तौ न गुणी मैं गणवन्त-वि० दे० (हि० गुण + वन्त- चूक ”-बृ । " गुणी गुणं वेत्ति न वेत्ति प्रत्य० ) गुणवान, गुणी। निर्गुणी"। गणवाचक-वि० यौ० (सं० ) जो गुण | गुणीभूत व्यंग्य-संज्ञा, पु. यौ० (सं०) प्रगट करे। यौ० गुणवाचक संज्ञा- काव्य में वह व्यंग्य जो प्रधान न हो। वह संज्ञा जिससे पदार्थ का गुण प्रगट हो, गुणेश्वर-संज्ञा, पु० यौ० (सं० गुण+ विशेषण ( व्या०)। ईश्वर ) गुणों का स्वामी, परमेश्वर, चित्र. गुणवान् -वि० (सं० गुणवत् ) (स्त्री० कूट पर्वत। . गुणवती ) गुणवाला, गुणी, हुनर-मन्द। गुणोपेत–वि. यौ० (सं० गुण-+- उपेत = गुणांक -संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) वह अंक | युक्त ) गुणयुक्त, गुणी, कला-निपुण । जिसे गुणा करना हो। गुणोत्कर्ष-संज्ञा, पु. यौ० (सं० गुण+ गुणा-संज्ञा, पु० यौ० (सं० गुणन) ( वि०)। उत्कर्ष ) गुणों की प्रधानता, गुणकी अधिगणित की एक क्रिया, जरब, गुना ( दे०)। कता, गुण की सुन्दरता, गुण की व्याख्या। गुण्य, गुणित । गुणोत्कीर्तन-संज्ञा, पु. यौ० (सं० गुण-+ गुणाकर- उशा, पु०यौ० (सं० गुण + आकर) | उत्कीर्तन ) गुणगान, यश-कथन, स्तुति । For Private and Personal Use Only Page #598 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - गुणोघ ५८७ गुदारा गुणोघ-संज्ञा, पु० यौ० (सं० गुण--अोघ) गुदगुदाहट -- संज्ञा, स्त्री० ( दे० ) सुहराहट, गुण-समूह । चुलबुली। गुण्डा -संज्ञा, पु० (दे० ) लम्पट, दुराचारी, गुदडी- संज्ञा, स्त्री० दे० ( हि० गूथना ) फटे दुरात्मा, दुष्ट, निर्लज, लुच्चा, बदमाश । पुराने टुकड़ों को जोड़ कर बनाया हुआ संज्ञा, स्त्री० गंडई। संज्ञा, पु. गंडापन । कपड़ा, कंथा (सं० ), कथरी (दे०), गुण्य-संज्ञा, पु० (सं० ) वह अंक जिसे जीर्ण वस्त्र । गुदरी, गदरी (दे०)। गुणा करना हो, गुणनयोग्य । मुहा०--गुदड़ी में (के) लाल-तुच्छ गुत-वि. पु. ( दे० ) उदासीन, मौन, स्थान में उत्तम वस्तु । संज्ञा, पु० (दे.) गम्भीरता, चुपचाप, लापरवाह, गुप्त (सं.)। गूदर, गुदरा। गुत्थमगुत्था-संज्ञा, पु० दे० (हि० गुथना ) उलझाव, फँसाव, भिड़त, (दे०) हाथापाई । गुदड़ी बाज़ार-संज्ञा, पु० यौ० (हि. गुदड़ी+बाज़ार-फा० ) फटे पुराने कपड़ों या गुत्थी-संज्ञा, स्त्री० दे० ( हि० गुथना ) कई टूटी-फूटी चीज़ों का बाज़ार। वस्तुओं के एक में गुथने से पड़ी गाँठ, गाँठ, गिरह, उलझन । गुदना-संज्ञा, पु० (दे०) गोदना। गुथना-अ० क्रि० दे० (सं० गुत्सन ) एक गुदभ्रंश - संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) काँच लड़ी या गुच्छे में नाथा या गाँथा जाना, निकलने का रोग। टाँकना, भद्दी सिलाई होना, टाँका लगाना, गुदर--संज्ञा, पु० (दे० ) गूदर, गूदड़ एक का दूसरे से लड़ने को खूब लिपट फटा-पुराना वस्त्र । जाना। प्रे० स० कि० (हि० ) गुथाना. गुदत-स. गुदरत-स० कि० (दे०) जानता है, जनाता गुथवाना। है, जाते हैं, चलते हैं, निवेदन । “कहि न गुथवाना---स० क्रि० दे० (हि. गूथना का जाय नहिं गुदरत बनई "-- रामा० । प्रे० ) गूथने का काम दूसरे से कराना। गुदरना-स० क्रि० (दे०) (फा० गुज़र + गुथवा--वि० दे० ( हि० गुथना) जो गूंथकर ना०-हि. प्रत्य० ) जनाना, जानना, बनाया गया हो। गुज़रना, बीतना। गुदकार, गुदकारा--वि० यौ० ( हि० गुदरानना -स० कि० दे० (फा० गुज़रान गूदा या गुदार ) गूदेदार, जिसमें गूदा हो, +हि० --ना-प्रत्य०) पेश करना, सामने गुदगुदा, मोटा, मांसल । रखना, निवेदन करना। गुदगुदा-वि० दे० ( हि० गूदा ) गूदेदार, | | गुदरैन --संज्ञा, स्त्री० दे० (हि० गुदरना) मांस से भरा, मुलायम । पढ़े हुए पाठ को शुद्धता पूर्वक सुनाना, गुदगुदाना-अ. क्रि० दे० ( हि० गुदगुदा) परीक्षा, इम्तिहान । हँसाने या छेड़ने के लिये किसी के तलवे, गुदा-संज्ञा, स्त्री० (सं० ) मल-द्वार । काँख आदि को सहलाना, मन-बहलाव या गुदाना-स० क्रि० दे० (हि. गोदना, प्रे० विनोद के लिये छेड़ना, किसी में उत्कंठा रूप ) गोदने की क्रिया कराना, गुदवाना। उत्पन्न करना। गुदाम-संज्ञा, पु० दे० ( अं० गोडाउन ) गुदगुदी-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. गुदगुदाना ) गोला, वस्तुओं का भंडार, जहाँ बहुत सी वह सुरसुराहट या मीठी खजुली जो मांसल वस्तुयें जमा रहें, गोदाम । स्थानों पर अँगुली आदि के छू जाने से गुदार-वि० दे० (हि० गूदा ) गूदेदार। होती है, उत्कंठा, शौक, पाल्हाद, उल्लास । गुदारा --संज्ञा, पु० दे० (फ़ा. गुजारा) For Private and Personal Use Only Page #599 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गुद्दी गुफा नाव से नदी के पार करने की क्रिया, गुणी । "प्रीति अड़ी है तुझसे बहु गुनियाला उतारा, (दे०) गुज़ारा । वि.-गूदेदार।। कंता।'-कबी० । गुद्दी-संज्ञा, पु० दे० ( हि० गूदा ) फल के गनी-वि०, संज्ञा, पु० (दे०) गुणी । प्रत्य० बीज का गूदा, मगज़, गिरी, मांगी, हथेली स्त्री०-जैसे-चौगुनी। का मांस, सिर का पिछला हिस्सा। गुप-वि० (दे० ) चुप, गुप्त (सं.)। गुन -संज्ञा, पु० (दे० ) गुण (सं.)। | गुपचुप-- क्रि० वि० दे० ( हि०) गुप्त रीति गुनगुना-वि० ( दे०) कुनकुना, कुछ गर्म । से, छिपाकर, चुपचाप । सं० पु. (दे० ) गुनगुनाना-अ० क्रि० दे० ( अनु० ) गुन __एक मिठाई। गुन शब्द करना, नाक से बोलना, अस्पष्ट गुपाल-संज्ञा, पु० ( दे० ) गोपाल । स्वर में गाना। गुपुत ---वि० ( दे० ) गुप्त ( सं० ) गुनना-स० क्रि० दे० (सं० गुणन ) गुणा छिपा हुआ। करना, ज़रब देना, गिनना, तख़मीना या | गुप्त----वि० (सं० ) छिपा हुश्रा, पोशीदा, उद्धरणी करना, रटना, सोचना, विचारना गूढ, कठिनता से जानने योग्य । संज्ञा, पु० चिंतन करना । '' गुनन गोविंद लागे” (सं०) वैश्यों का अल्ल । यो०-गुप्त-वंश ऊ श०। -एक प्राचीन राज-वंश ( इति०)। गुनहगार-वि० (फा०) पापी, दोषी, अपराधी । संज्ञा, स्त्री० (फा० ) गुनहगारी गुप्तचर-संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) चुपचाप -~-जुर्माना, गुनाही। छिपकर भेद लेने वाला, दूत, भेदिया, गुनही-संज्ञा. पु० दे० (फा० गुनाह) गुनाही, जासूस । गुनहगार, अपराधी। गुप्तदान-संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) वह दान गुनहु-संज्ञा, पु० ( फा० गुनाह ) अपराध, जिसे देते समय केवल दाता ही जाने और कुसूर, दोष, ( विलो०-गुण ) "गुनहु कोई न जाने । लखन कर हम पर रोषू"--रामा० । स० कि. | गुप्ता-संज्ञा, स्त्री० (सं० ) स्वप्रेम के छिपाने (दे०) विचारो, सोचो, समझो, शुनह का उद्योग करने वाली, नायिका रखी (दे०) "श्रान भाँति कछु जिय जनि गुनहू" हुई स्त्री, सुरेतिन, रखेली (दे०)। -रामा० । गुनार--संज्ञा, पु. ( दे०) छिपा, लुका, गुना-संज्ञा, पु० दे० (सं० गुणन ) किसी अयोध्या में सरयू नदी का एक घाट । संख्या वाची शब्द में लग कर उस संख्या | गुप्ति---संज्ञा, स्त्री० (सं० ) छिपाने या रक्षा का उतने ही बार और होना सूचित करने करने की क्रिया, कारागार, कैदखाना, गुफा, वाली प्रत्यय जैसे पँचगुना, गुणा, (गणि०) । अहिंसा आदि योग के अंग. यम । गुनाह-संज्ञा, पु. ( फा० ) पाप, दोष, गुती-संज्ञा, स्त्री (सं० गुण) भीतर गुप्त रूप अपराध, कुसूर । से किरच या पतली तलवार वाली छड़ी। गुनाही--संज्ञा, पु० (दे०) गुनहगार । गुफना- संज्ञा, पु. ( दे० ) घुमाकर पत्थर गुनिया-संज्ञा, पु० दे० ( हि० गुणी) गुण- फेंकने की एक प्रकार की जाली। गोफन, वान, राज लोगों का एक यंत्र जिससे वे गोफना ( ग्रा० )। नाप-जोख करते या दीवाल की सिधाई। गुफा संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० गुहा ) भूमि देखते हैं। या पहाड़ में बहुत दूर तक चला गया, गुनियाला-वि० पु. (दे०) गुणवान, गहरा अँधेरा गढ़ा, कन्दरा, गुहा । For Private and Personal Use Only Page #600 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org गुबरैला ANTINOTEKTOROKOPTER गुबरैला - संज्ञा, पु० दे० हि० गोबर + ऐलाप्रत्य० ) गोबर का एक छोटा कीड़ा । गुवार - संज्ञा० पु० ( अ० ) गर्द, धूल, मन में दबाया हुआ क्रोध, दुख, द्वेष | गुवार (दे० ) । गुधिन्द - संज्ञा, पु० ( दे० ) गोविन्द | "बिंद जू कुबिंद बनि आये हैं" सरस | गुब्बारा - संज्ञा, पु० दे० ( हि० कुप्पा ) गरम हवा या हलकी गैस से श्राकाश में उड़ने वाला थैला । ५८ गुमसा - वि० (दे० ) सड़ा, गला । गुमान -- संज्ञा, पु० ( फा० ) अनुमान, क्रयास, घमंड, गर्व, ज्ञान, लोगों की बुरी धारणा, गुमानी | Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गरबी गुमाना- स० क्रि० ( दे० ) गँवाना, खा देना । गुमानी - वि० ( हि० गुमान ) घमंडी, श्रहं - कारी, ग़रूर करने वाला । गुमाश्ता संज्ञा, पु० ( फ़ा० ) बड़े व्यापारी की घोर से ख़रीदने और बेचने पर नियुक्त मनुष्य, एजेंट ( अं० ) । यौ० मुनीमगुमाश्ता । गुरुमट - संज्ञा, पु० दे० ( फा० गुंबद ) गुंवद, संज्ञा, पु० ( सं० गुल्म ) गुमटा (दे० ) । गुम - संज्ञा, पु० ( फा० ) गुप्त, छिपा हुआ, गुम्मा - वि० दे० ( फा० गुम ) चुप्पा, न प्रसिद्ध, खोया हुआ | बोलने वाला | संज्ञा, पु० (सं० गुल्म ) दे० बड़ी ईंट | गुमकना - अ० क्रि० (३०) भीतर ही भीतर गूँजना, बाहर प्रगट न होना । " धमकि मायौ घाव श्राय गुमकि हिये रह्यो " । गुमटा- संज्ञा, पु० दे० (सं० गुंवा + टा० प्रत्य०) मत्ये या सिर पर चोट से हुई सूजन, गुलमा, गुरमा ( ग्रा० ) । गुमडी संज्ञा स्त्री० दे० ( फा० गुंबद ) मकान के ऊपरी भाग में सीढ़ी या कमरों आदि की ऊपर उठी हुई छत । गुमना - प्र० क्रि० दे० ( फ़ा० गुम ) गुम होना, खो जाना । संज्ञा स्त्री० दे० ( हि० गुरुच ) सिकुड़न, बट, वल । गुमनाम -- वि० यौ० ( फा० ) श्रप्रसिद्ध, अज्ञात, जिसमें नाम न दिया हो । गुमर --- संज्ञा, पु० दे० ( फा० गुमान ) अभिमान, घमंड, शेखी, मन में छिपाया हुआ क्रोध या द्वेष, गुवार, धीरे की बातचीत, काना - फँसी । | गुरचों - संज्ञा स्त्री० दे० ( अनु० ) परस्पर धीरे धीरे बातें करना, कानाफूसी । गुरजना - स० क्रि० (दे० ) घुस्टना, घुड़कना, गरजन । › गुरदा – संज्ञा, पु० ( फ़ा० सं० गोर्द ) रीढ़ दार जीवों के देहान्तर में कलेजे के निकट एक अंग, साहस, हिम्मत, एक छोटी तोप | गुमसना - अ० क्रि० (दे०) दुर्गंधित होना, गुरमुख - वि० यौ० ( हि० गुरु + मुख ) गुमराह - वि० यौ० ( फ़ा० ) बुरे मार्ग में चलने वाला, भूला भटका हुया । संज्ञा स्त्री०गुमराही - भुलावा देना । उमस से सड़ना | गुरु से मंत्र लेने वाला, दीक्षित, शिक्षित । संज्ञा, पु० (दे०) गुरमुखी- पंजाबी लिपि । गुरम्मर - वि० पु० (दे० ) मीठा ग्राम । गुरवी - वि० पु० (दे० ) अभिमानी, घमंडी, गर्वीला, गुर्वी (सं०) भारी । गुर - संज्ञा, पु० ( सं० गुरु-मंत्र ) वह साधन या क्रिया जिसके करने से कोई कार्य तुरंत हो जाय, मूल-मंत्र, भेद, युक्ति | संज्ञा, पु० (सं० ) गुड | संज्ञा, पु० (दे० ) गुरु । गुरगा - संज्ञा पु० दे० (सं० गुरुग ) चेला, शिष्य, टहलुआ । (ग्रा० ) नौकर, गुप्तचर, जासूस, गुरगी (स्त्री० ) । गुरगावी - संज्ञा, पु० ( फ़ा० ) मुंडा जूता । गुरच - संज्ञा, पु० (दे० ) गिलोय, गुरुचि, गुरिच, गुड़िa | गुरची For Private and Personal Use Only Page #601 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गुरसी ५१० गुरूपदिष्ट गुरसी-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० गो+रस) गुरुजन--संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) बड़े लोग, अँगीठी, प्राग रखने का बरतन । माता, पिता, प्राचार्य आदि। गुराई- संज्ञा, स्त्री० (दे० ) गोराई, गौर गुरुता-संज्ञा, स्रो० (सं०) गुरुत्व, भारीपन, . वर्ण, गौरता। महत्व, बड़प्पन, गुरुपन, गुरुग्राई। गुराब-संज्ञा, पु. (दे०) तोप लादने | गुरुताई:--संज्ञा, स्रो० (दे०) गुरुता। की गाड़ी। | गुरुतोमर-संज्ञा, पु. यो० (सं०) एक छंद । गुरिद--® संज्ञा, पु० दे० (फ़ा० गुर्ज) गदा। गुरुत्व गुरुत्व-संज्ञा, पु० (सं० ) भारीपन, वज़न, गुरिया-संज्ञा, स्त्री० दे० ( सं० गुटिका ) बोझा, महत्व, बड़प्पन । माला का दाना या मनका, चौकोरा या | | गुरुत्वकेन्द्र-संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) किसी गोल कटा हुआ छोटा टुकड़ा, मछली पदार्थ का वह विन्दु जिस पर उसका के मांस की बोटी। | बोझा एक हो कार्य करे। गुरुत्वाकर्षण --- संज्ञा, पु० या० (सं० ) वह गुरीरा-संज्ञा, पु० दे० (हि० गुड + ईला आकर्षक शक्ति जिसके कारण वस्तुएँ पृथ्वी +प्रत्य० ) मीठा, उत्तम । पर विच पाती हैं। गुरु-वि० (सं० ) लम्बे-चौड़े श्राकार वाला, गमवात्तिगा--संज्ञा, स्त्री० या० (सं०) विद्या भारी, वज़नी, कठिनाई से पकने या पचने | पढ़ लेने पर गुरु को दी गई दक्षिणा । वाला (खाद्य०) । संज्ञा, पु० ( सं० ) (सी० गुरुद्वारा- संज्ञा, पु० दे० (सं० गुरु+ द्वार ) गुरुग्रानी) देवताओं के प्राचार्य, वृहस्पति, प्राचार्य या गुरु का वास-स्थान, सिक्ख. वृहस्पति ग्रह, पुष्य नक्षत्र, यज्ञोपवीत मन्दिर। संस्कार में गायत्री मंत्र का उपदेशक, गुरु-भाई- संज्ञा, पु० यौ० (सं० गुरु + आचार्य, मंत्र का उपदेष्टा, किसी विद्या या । भाई-हि. ) एक ही गुरु के शिष्य । कला का शिक्षक, उस्ताद, दो मात्राओं का गुरु-सुख - वि० यौ० ( सं०----गुरु + मुख ) वर्ण (पिं० ) ब्रह्मा, विष्णु, शिव । संज्ञा, दीक्षित, गुरु से मंत्र प्राप्त। स्त्री० (सं० ) गुरुता । (दे०) गुरुताई, । (दे०) गुरुआई-चालाकी। गुरुमुखी-संज्ञा, स्त्री० (सं० गुरु-+ मुखी ) गुरुग्रानी-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० गुरु -- पानी गुरु नानक की चलाई एक लिपि । वि. प्रत्य० ) गुरु की स्त्री, वह स्त्री जो शिक्षा स्त्री०--गुरु-मंत्र से दीक्षिता स्त्री। देती हो, गुरुग्राइन (दे०)। गुरुवाइन-संज्ञा, स्त्री० (हि. गुरु-- आइन प्रत्य० ) गुरु पत्नी, गुरु-माता । गुरुप्राइन गुरुवाई-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० गुरु - आई (दे०)। प्रत्य०) गुरु का धर्म, गुरु का काम चालाकी, | गुरुवार-संश, पु० या० (सं० ) वृहस्पति धूर्तता. गुरुनई (दे०)। का दिन, वृहस्पति, बीफै। गुरुकुल-संज्ञा. पु० यौ० ( सं० ) गुरु, श्राचार्य या शिक्षक का वास स्थान जहाँ गुरुविनी--वि० स्त्री० (सं० ) गर्भवती स्त्री। वह विद्यार्थियों को अपने साथ रखकर | गुरू-संज्ञा, पु० (सं० गुरू ) गुरु, प्राचार्य, शिक्षा देता हो। अध्यापक । (दे०) चाई, चालाक) । यौ०. गुरुच-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० गुडूची ) एक गुरू-घंटाल -- बड़ा भारी चालाक, धूर्त । मोटी बेल जो पेड़ों पर चढ़ती और दवा में गुरूपदिष्ट-वि० यौ० (सं०) (सं० गुरु+ पड़ती है, गिलोय, गुड़िच । ___ उपदिष्ट ) गुरु से शिक्षा या उपदेश प्राप्त । For Private and Personal Use Only Page #602 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५६१ घूरना। गुरूपदेश गुलचना गुरूपदेश-संज्ञा, पु० यो० (सं० गुरु - श्रादमियों के बाद एक बचे हुए व्यक्ति का उपदेश) गुरु की शिक्षा। भी मर जाना, घर में कोई न रह जाना । गुरेरना-स० क्रि० दे० (सं० गुरु =बड़ा+ चिराग गुल करना-दिया बुझाना या हि०-हेरना ) आँखें फाड़ कर देखना, ठंढा करना। पीने की तमाकू का जला हुआ भाग, किसी वस्तु पर भिन्न रंग का गुरेरा --संज्ञा, पु० (दे० ) गुलेला। गोल निशान जलता हुश्रा कोयला। संज्ञा, गुर्गरी-संज्ञा, स्त्री० (दे०) कम्पज्वर, जूड़ी। पु० कतरटी। गुर्ज-संज्ञा, पु० ( फ़ा० ) गदा, सोंटा : यौ० गुल---संज्ञा, पु. ( फा० ) शोर, हल्ला । गुर्ज-बरदार = गदाधारी सैनिक । संज्ञा, यो० गुलगपाड़ा-हल्लागुल्ला, शोरगुल | पु० (दे० ) बुर्ज । गुल अ-बास--संज्ञा, पु० यौ० ( फ़ा० गुल गुर्जर --- संज्ञा, पु० (सं० ) गुजरात देश, +- अब्बास-प्र. ) एक पौधा जिसमें वहाँ का निवासी, गूजर ( दे०)। बरसात में लाल या पीले फूल लगते हैं। गुर्जरो- संज्ञा, स्त्री० [सं० ) गजरात देश | गुलाबास ( दे०)। की स्त्री, भैरव राग की रागिनी। गुलकन्द--संज्ञा, पु० यौ० (फ़ा०) मिश्री या गुर्राना-अ. कि० दे० ( अनु० ) डराने के चीनी में मिला कर धूप में सिझाई हई लिये घुर घुर या गम्भीर शब्द करना। गुलाब के फूलों की पखुरियाँ जिनका व्यव(जैला-कुत्ते-बिल्ली करते हैं ) क्रोध वा हार प्रायः दस्त को साफ़ लाने के लिये अभिमान से कर्कश स्वर से बोलना। होता है। गुर्रा--संज्ञा, स्त्री० (दे० ) भूना तथा कूटा गुनकारी-संज्ञा, स्त्री(फा० ) बेल-बूटे हुअा जव, रस्सी या तागे की ऐंठन जो | का काम । श्राप से श्राप बन जाये। गुलकेश-संज्ञा, पु. ( फ़ा० गुल + केश ) गुर्वागना--संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं० गुरु+ ! मुर्गकेश का पौधा या फूल, जटाधारी। अंगना ) गुरु-पत्नी, माननीय स्त्री। गुलखेरा-संज्ञा, पु० या० (फा० गुल + खैर) गुर्विणी-संज्ञा, स्त्री० (सं० ) गर्भवती। एक पौधा जिसमें नीले फूल होते हैं। गुर्वी-वि० स्त्री० (सं०) गर्भवती, भारी गुलगपाड़ा-संज्ञ, पु० यौ० (अ० गुल+ या श्रेष्ठ वस्तु । गप ) बहुत अधिक चिल्लाहट, शोर, गुल | गुल-संज्ञा, पु० ( फा० ) गुलाब का फूल, गुलगुल-वि. (हि. गुलगुला ) नरम, फूल, पुष्प । मुहा०-गुलखिलना- मुलायम, कोमल । विचित्र घटना होना, बखेड़ा खड़ा होना। गुलगुला-वि० पु० (दे०) गुलगुल, नरम । गुल खिलाना—कोई ख़ास या विचित्र संज्ञा, पु. ( दे० ) एक पक्वान्न । बात करना, उपद्रव खड़ा करना । पशु शरीर ! गुलगुलाना-स० क्रि० दे० (हि० गुलगुल) में फूल जैसा भिन्न रंग का गोल दाग़, । गूदेदार चीज़ को दबाना, मलकर मुलायम गालों में हँसने पर पड़ने वाला गडढा, करना या होना। शरीर पर गरम धातु से दागने से पड़ा गुलगोथना-संज्ञा, पु० दे० (हि. गुलगुल हुआ चिन्ह, दाग, छाप, दीप-बत्ती का जल +तन ) नाटा और मोटा व्यक्ति जिसके कर उभरा भाग। मुहा०---चिराग गुल गाल प्रादि अंग फूले हों। होना-( घर का) किसी ख़ास प्रिय गुलचना -- स० क्रि० (दे०) गुलचे का व्यक्ति का मरना, (दीपक) घर के सब | आघात करना. गालों में प्राघात करना। For Private and Personal Use Only Page #603 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गुलचा गुलामी गुलचा-संज्ञा, पु० दे० ( हि० गाल ) धीरे | गुलबदन --- संज्ञा, पु० यो० (फा०) एक से प्रेम-पूर्वक गालों पर हाथ का प्राधात । । प्रकार का धारीदार रेशमी कपड़ा। वि० गुलचाना-गुलचियाना -- स० क्रि० दे० फूल सी देह । (हि. गुलचाना ) गुलचा मारना । ..." गाल गुलमेंहदी-संज्ञा, स्त्री. ( फ़ा. गुल + गुलचे गुलाल लै"। मेंहदी-हि० ) एक प्रकार के फूल का पौधा । गुलछर्रा--संज्ञा, पु० दे० (हि० गोली+ छर्रा) गुलमे--संज्ञा, सी० यौ० ( फा० ) गोल परम स्वच्छंदता और अनुचित रीति का सिरे की कील, फुडिया। भोग-विलास या चैन । मुहा---गुलबर्रा गुललाल-संज्ञा, पु. (फा० ) एक प्रकार उड़ाना-मौज या, आनंद करना। का पौधा, इस का फल ।। गुलजार-संज्ञा पु. ( फा० ) बाग़, बाटिका, ! गुलशन - संज्ञा, पु. (फा०) बाटिका, बाग । वि०-हरा-भरा, आनन्द और शोभा-युक्त, गुलशब्बी--संज्ञा, स्त्री० (फा० ) लहसुन रमणीक, खूब आबाद। जैसा एक छोटा पौधा जो रात में फूलता गुलझटी-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि० गोल -+ सं०- है, रजनीगंधा, सुगंधरा, सुगंधिराज । झट = जमाव ) उलझन की गाँठ, सिकुड़न । गुलहजारा--संज्ञा, पु० ( फा०) एक प्रकार गुलथी--संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. गोल + का गुललाल।। अस्थि-सं० ) पानी ऐसी पतली वस्तुओं के गुलाव--संज्ञा, पु० (फा० ) सुन्दर सुगंधित गाढ़े होकर स्थान स्थान पर जमने से बनी फूलों का कटीला झाड़ या पौधा । हुई गुठली या गोली, माँस की गाँठ। गुलाबजल -- संज्ञा, पु० यौ० (दे० ) गुलाब गुलदस्ता-- संज्ञा, पु. यौ० (फा० ) सुन्दर । __ का पासव या प्रक, गुलाब । फूलों और पत्तियों का बँधा हुआ समूह, गुलाबजामुन--संज्ञा, पु० यौ० (हि. गुलाब गुच्छा , गुंचा (अ.)। +जामुन-हि० ) एक मिठाई, नींबू से कुछ गुलदाउदी-संज्ञा, स्त्री० यौ० ( फा० गुल। चिपटे स्वादिष्ट फलों का एक पेड़। +दाउदी ) सुन्दर गुच्छेदार फूलों का एक गुलाबपास-संज्ञा, पु० दे० यौ० (हि. छोटा पौधा। गुलाब -+-पाश फ़ा० ) झारी के आकार का गुलदान-संज्ञा, पु. ( फ़ा० ) गुलदस्ता एक लम्बा पात्र जिसमें गुलाब-जल भर कर रखने का पात्र । छिड़कते हैं। गुलदार --- संज्ञा, पु० (फा० ) एक प्रकार का गुलाबबाड़ी-संज्ञा, स्त्री० यौ० (फ़ा० गुलाब सफ़ेद कबूतर, एक प्रकार का कसीदा । वि० +बाड़ो-हि. ) श्रामोद या उत्सव का (दे०) फूलदार। गुलाब के फूलों से सजा स्थान । गुलदुपहरिया-संज्ञा, पु. या० ( फ़ा. गुल गुलाबी--वि० ( फ़ा० ) गुलाब के रंग का, + दुपहरिया-हि० ) कटोरे जैसे गहरे लाल गुलाब-सम्बन्धी, गुलाब-जल से बसाया सुन्दर फूलों का एक छोटा सीधा पौधा। हुआ, थोड़ा, कम, हलका । संज्ञा, पु०-एक गुलनार -- संज्ञा, पु. ( फा० गुल+नार- प्रकार का हलका लालरंग । प्र०) अनार का फूल, उसका सा गहरा गुलाम संज्ञा, पु. (अ.) मोल लिया हुआ लाल रंग। दास, ख़रीदा हुआ नौकर, साधारण सेवक। गुलबकावली-संज्ञा, स्त्री० यौ० (फा० गुल | गुलामी-संज्ञा, स्त्री. ( अ. गुलाम+ई + बकावली-सं०) हलदी की जाति का पौधा प्रत्य० ) गुलाम का भाव, काम, या जिसमें सुन्दर सुगन्धित फूल होते हैं। दासता, सेवा, नौकरी, पराधीनता । For Private and Personal Use Only Page #604 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गुलाल गुस्सैल गुलाल-संज्ञा, पु० दे० (फा० गुल्लाल ) | गुल्ली-संज्ञा स्त्री० दे० (सं० गुलिका एक प्रकार की लाल बुकनी या चूर्ण जिसे गुठली ) महुए या किसी फल की गुठली, हिन्दू होली के दिन चेहरों पर मलते हैं। किसी वस्तु का लम्बोतरा छोटा गोल पेट गुलाला--संज्ञा, पु० (दे० ) गुललाला। का टुकड़ा, छत में मधु का स्थान, लड़कों गुलियाना-१० कि० (दे०) दवा आदि के खेलने की अंटी (प्रान्ती०), गुल्लू । को बाँस के चोंगे में भर कर पिलाना। | गुवा-संज्ञा पु० (दे०) सुपारी, पूंगीफल । गुलिस्ता-संज्ञा, पु. (फ़ा०) बाग़, बाटिका। गुवाक-संज्ञा पु० (सं०) सुपारी का पेड़, गुली-संज्ञा, स्त्री० (दे०) बाजरे की भूसी। सुपारी। गुलूबन्द-संज्ञा, पु. (फा०) लंबी और गुवाल-संज्ञा. पु० दे०) ग्वाल । प्रायः एक बालिश्त चौड़ी पट्टी जिसे सरदी | गुवालिन-संज्ञा, स्त्री. (दे० ) ग्वालिनी से बचने के लिये सिर, गले या कानों पर | गुवारिन, (व.)। बाँधते हैं, गले का एक गहना । गुविन्द-संज्ञा, पु० (दे०) गोविन्द । गुलेनार-संज्ञा, पु० (दे० ) गुलनार। गुवैया-संज्ञा स्त्री० (दे० ) सखी, सहेली, गुलेल–संज्ञा, स्त्री० दे० (फ़ा. गिलूल )। वयस्या, ग्वय्या, गुइयाँ ( ग्रा०)। मिट्टी की गोलियाँ चलाने की कमान ।। गुसाई --संज्ञा, पु० ( दे० ) गोसाई गुलेला-संज्ञा, पु० दे. (फा० गुलूला) गोस्वामी, एक प्रकार के साधु, प्रभु । मिट्टी की गोली जिसे गुलेल से फेंक कर गुसा-* संज्ञा पु. ( दे०) गुस्सा । वि० चिड़ियों का शिकार करते हैं। गुसैल (दे०)। गुल्फ-संज्ञा, पु० (सं० ) ऍड़ी के ऊपर की गुसैयां- संज्ञा पु० (दे०) गोसाँई, ईश्वर । गाँठ। __ "उपर छत्र गुसैयाँ केर"-पाल्हा।। गुल्म-संज्ञा, पु० (सं० ) ऐसा पौधा जो गुस्ताख-वि० (फा० ) सृष्ट, अशालीन, एक जड़ से कई होकर निकले और जिसमें | अशिष्ट, बे अदब । वि० गुस्ताख़ाना । कड़ी लकड़ी या डंठल न हो, जैसे-ईख, गुस्ताखी-संज्ञा, स्त्री. (फा० ) सृष्टता, शर श्रादि, सेना का एक भाग जिसमें । ढिठाई, अशिष्टता, बे अदबी। ६ हाथी ६ रथ, २० घोड़े, ४५ पैदल रहते | गुरुल-संज्ञा, पु. (अ.) स्नान, नहाना । हैं, पेट का एक रोग। गुस्लखाना-संज्ञा पु० यौ० (अ. गुस्ल+ गुल्लक-संज्ञा, स्त्री. ( दे० ) गोलक, खाना-फा० ) स्नानागार, नहाने का घर । रुपये-पैसे की छोटी संदूक ।। गुस्सा -संज्ञा, पु० (अ.) (वि० गुस्सावर, गुल्लर-संज्ञा, पु० दे० (सं० उदम्बर, हि. गुस्सैल ) क्रोध, कोप, रिस । मुहा०गूलर ) उदम्बर, उमर, गूलर, गोली। गुस्सा उतरना या निकलना--क्रोध गुल्ला-संज्ञा, पु० दे० (हि. गेला ) मिट्टी शांत होना । (किसी पर) गुस्सा की बनी हुई गोली जिसे गुलेल से फेंकते हैं। उतारना क्रोध में जो इच्छा हो उसे संज्ञा पु० दे० ( अ० गुल) शोर, हल्ला । संज्ञा पूर्ण करना, अपने क्रोध का फल चखना। पु० (दे० ) गुलेल । यौ०-हल्ला-गुल्ला । गुस्सा चढ़ना-क्रोध का श्रावेश होना। गुल्लाला-संज्ञा, पु० दे० (फा० गुलेलाला)| गुस्सा पी जाना-गुस्से को दबा लेना। एक लाल फूल जिसका पौधा पोस्ते के पौधे गुस्सैल-वि० (प्र. गुस्सा+ ऐलसा होता है। प्रत्य० ) जिसे जल्दी क्रोध भावे, गुस्सावर । भा० श. को०-७१ For Private and Personal Use Only Page #605 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गूढगेह गुह-संज्ञा पु० (सं० ) कात्तिकेय, षडानन, मुहा०-गूंगे का गुड़-ऐसी बात अश्व, घोड़ा, विष्णु का एक नाम, राम- जिसका अनुभव तो हो पर वर्णन न हो मित्र निषाद-नायक, गुफा, हृदय । सिंज्ञा | सके, (स्त्री० गूंगी)। पु० दे० (सं० गुह्य ) गृह, मैला । गूंज--संज्ञा स्त्रो० दे० । सं० गुज ) भौरों के गुहक-संज्ञा पु० (सं० ) निषाद या केवट | गूंजने का शब्द, कलध्वनि, गंजार, प्रतिजिसने रामचन्द्र को गंगा पार उतारा था। ध्वनि, व्याप्त ध्वनि, लट्ट, की कील, कान गुहना-स० कि० (दे०) गथना, पिरोना। की बालियों का मुड़ा हुआ सिरा, गले का गुहर-संज्ञा, पु० (दे०) गुप्त, छिपा, ढका। एक भूषण, गुंज। गुहराना-स० कि० दे० (हि० गुहार ) गूजना-अ० क्रि० दे० (सं० गुजन ) भौंरों पुकारना, चिल्ला कर सहायता के लिये | __ या मक्खियों का मधुर ध्वनि करना, बुलाना । गोहराना (दे०)। गुंजारना, प्रतिध्वनि होना । “गूंजत मधुगुहवाना (गुहाना)--स० कि० दे० (हि. कर-निकर अनूपा'' - रामा०। गुहना का प्रे० रूप ) गुहने का काम कराना, गेड़ा-संज्ञा, पु० (दे०) नाव का आड़ा काठ। गुंधवाना। | गॅथना-स० कि० (दे०) गूंधना, सीना। गहाजनी-संज्ञा, स्त्री० (दे० ) आँख की गंदना-स० कि. (दे.) मानना गाँटना फुड़िया, गुहेरी, बेलनी। (पाटा ) एकत्रित करना, गोला बनाना । गुहा--संज्ञा स्त्री० दे० (सं.) गुफा, कंदरा। गेंदनी-संज्ञा, स्त्री. (दे० ) गुंदेला, वृक्ष गुहाई-संज्ञा स्त्री० दे० ( हि० गुहना ) | विशेष, गोंदा। गुहने की क्रिया, ढंग, भाव या मज़दूरी। गदा—संज्ञा, पु० (दे०) अंतःसार । गहार, गृहारि-संज्ञा स्त्री० दे० ( हि० ) | गधना-स० क्रि० दे० (सं० गुध-क्रीड़ा) पुकार, दुहाई । गेोहार ( ग्रा० )। मु० पानी में सान कर हाथों से दबाना या गुहार लगना-सहायता करना, "कौन मलना, माड़ना, मसलना । स० वि० जन कातर गुहार लागिबे के काज"... (सं० गुंफन ) गूथना, पिरोना, बालों का रस्ना० । “दीन-गुहारि सुनै स्रवननि भरि" उलझाना। -सू०। गू-संज्ञा, पु० (दे० ) मल, मैला । गुहिल-संज्ञा पु० (दे०) धन, वित्त, गूजर- संज्ञा, पु० दे० (सं० गुर्जर ! (स्त्री० विभव, निधि, सिसौदिया वंश का प्रथम गूजरी, गुजरिया) अहीरों की एक जाति । राजा, इसी से वे गुहिलोत कहाते हैं। गूजरी-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० गुर्जरी) गूजर गुहेरी-संज्ञा, स्त्री० ( दे० ) गुहाँजनी। जाति की स्त्री, ग्वालिन, पैर का एक ज़ेवर, गुत्थ-वि० (सं० ) गुप्त, छिपा हुश्रा, गोपनीय, छिपाने योग्य, गूढ, जिसका तात्पर्य गूझा-संज्ञा, पु० दे० (सं० गुह्यक ) ( स्त्री० सहज में न खुले। गुझिया ) गोझा, पिरांक, फलों का रेशा । गुह्यक-संज्ञा पु. (सं० ) कुवेर-कोष रक्षक गूढ़-वि० (सं० ) गुप्त, छिपा हुआ, अभियक्ष । प्राय-गर्भित, गम्भीर, जिसका आशय जल्दी गुह्यकेश्वर--संज्ञा पु० यौ० (सं० गुह्यक + _ न समझ पड़े, कठिन, गहन । ईश्वर ) यशराज कुबेर, गुहाकपति। गूढगेह-संज्ञा, पु० यो० दे० (सं० गूढगृह ) गूंगा-वि० (फा० गूग----जो वोल न सके) गुप्त भवन, यज्ञगृह । “प्रौढ़ रूढ़ि को समूह जो बोल न सके, वाणी-रहित, मूक ।। गूढ़ गेह में गयो"-रामः । For Private and Personal Use Only Page #606 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - गूढ़ता गृहणी गूढ़ता-संज्ञा, स्त्री० (सं० ) गुप्तता, छिपाव, | गृहड़िया-संज्ञा, पु० (दे० ) पूरा, कूड़ा, गंभीरता, कठिनता। __कतवार, गोबर, गलीजखाना। गूढाक्ति -संज्ञा, स्त्री. यौ० (सं० ) एक | गृद्ध-संज्ञा, पु० (सं० ) गोध पक्षी। अलंकार जिसमें कोई गुप्त बात किसी दूसरे | गृधनु-वि० पु. ( दे० ) लोभी, इच्छुक । के ऊपर छोड़ किसी तीसरे के प्रति कही | गृधनुता-संज्ञा, स्त्री. (सं०) लोलुपता, जाती है (१० पी०)। | लोभ, लालच, आकांक्षा, अभिलाषा।। गूढ़ेत्तर-संज्ञा, पु० यो० (सं०) वह काव्या- | गृध्र-संज्ञा, पु० (सं०) गिद्ध, गीध, जटायु. लङ्कार जिसमें प्रश्न का उत्तर किसी गूढ़ | सम्पाति आदि पक्षी। अभिप्राय से दिया जाय (अ० पी०)। गृष्ट्री-संज्ञा, स्त्री. (सं० ) एक बार की गूथना--स० कि० दे० (सं० ग्रन्थन ) कई | ब्याई गौ, लता विशेष, बाराही कंद । चीज़ों को एक गुच्छे या लड़ी में नाथना, | "गृष्टिगुरुत्वात् वपुषोनरेन्द्रः"-रघु० । पिरोना, सुई-तागे से टाँकना । गृह-संज्ञा, पु० (सं.) (वि० गृही) घर, गूदड़-संज्ञा, पु० दे० (हि० गूथना) चिथड़ा, मकान, निवास स्थान, कुटुम्ब, वंश ।। फटा-पुराना कपड़ा, गूदर (दे०) । (स्त्री० गृहजात-संज्ञा, पु० (सं.) घर की दासी गूदड़ी)। से उत्पन्न दास, घर जाया। गूदा–संज्ञा, पु० दे० ( हि० गुप्त ) ( स्त्री० गृहप-गृहपति-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) गूदी ) फल का भीतरी भाग, भेजा, मग्ज, घर का मालिक, अग्नि, (स्त्री० गृहपत्नी)। खोपड़ी का सार भाग, मींगी, गिरी। गूदिया-संज्ञा, वि० (३०) लोभी, इच्छुक ।। गृहयुद्ध-संज्ञा, पु० यो० (सं० ) घर की | कलह, किसी देश के भीतर आपस गुन-संज्ञा, पु० दे० (सं० गुण) नाव में होने वाली लड़ाई। खींचने की रस्सी। गृहस्थ-संज्ञा, पु० (सं० ) ब्रह्मचर्य के गूप-वि० दे० (सं० ) गुप्त, छिपा। पीछे व्याह करके घर में रहने वाला व्यक्ति, गूमड़ा-संज्ञा, पु० (दे०) फोड़ा, सूजन, ज्येष्ठाश्रमी, घर बार ( वाला), बाल-बच्चों गिलटी, व्रण, (सं.)। वाला किसान । संज्ञा, स्त्री० गृहस्थी (सं०) गूमड़ी-संज्ञा, स्त्री० (दे० ) गाँठ, ग्रन्थि । । गृहस्थ की क्रिया, घर का साजसामान, गुमा-संज्ञा, पु० दे० (सं० कुम्भा ) एक | गिरिस्ती (दे० प्रा०)। छोटा पौधा जो दवा के काम में आता है, | गृहस्थाश्रम--संज्ञा, पु० यौ० (सं०) चार द्रोणपुष्पी (सं.)। आश्रमों में से दूसरा जिसमें लोग विवाह गूलर -संज्ञा, पु० दे० (सं० उदम्बर) एक | करके रहते और घर का काम-काज करते बड़ा पेड़ जिसमें गोल फल लगते हैं, या देखते हैं। उदम्बर, उमर (दे०)। " गूलर-फल-समान | गृहस्थी -संज्ञा, स्त्री० (सं० गृहस्थ-+ईतव लंका"-रामा० । मुहा०--गूलर | प्रत्य० ) गृहस्थाश्रम, गृहस्थ का कर्तव्य, घरका फूल-जो कभी देखने में न श्रावे, | बार, गृहव्यवस्था, कुटुम्ब, लड़के-बाले, घर दुर्लभ व्यक्ति या वस्तु । “दीवाने हो गये हैं | का साज-सामान या खेतीबारी । संज्ञा, गूलर का फूल लेंगे"। स्त्री० गृहस्थिनी-गिहथिनी (दे०) स्त्री। गृह--संज्ञा, पु० दे० (सं० गुह्य ) गलीज़, गृहणी—संज्ञा, स्त्री० (सं०) घर की स्वामिनी, मैला, मल, विष्ठा, गू। | स्त्री, भार्या । “गृहणी सहायः'-रघु० । For Private and Personal Use Only Page #607 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गृही गृही-संज्ञा, पु. (सं० गृहिन ) (स्त्री० गृहिणी) | गेंदुक-संज्ञा, पु० दे० (सं० गेंडुक ) गृहस्थ, गृहस्थाश्रमी, कुटुम्बी। " गृही तकिया, गेंद, निज भुजलता-" गंदुक विरति ज्यों हर्ष-युत" - रामा० । खवितानम्"। गृहीत-विपु. (सं० ) पकड़ा हुघा, गेंदौरा-संज्ञा, पु० ( दे०) एक प्रकार की स्वीकृत । " ग्रह-गृहीत पुनि बात-बस" | मिठाई, चीनी की मोटी रोटी। -रामा। गेय-वि० (सं० ) गाने के योग्य । गृह्य-वि० (सं० ) गृह-सम्बन्धी, गृहस्थों गेया-संज्ञा, पु० (दे०) मिटनी, बोटा, खंड । के कर्तव्य-कर्म, ग्रहण करने योग्य, कर्मकांड | गेरना-स. क्रि० दे० (७०) (सं० गलन वा के ग्रन्थ, धर्म-संहिता। गिरण) गिराना, नीचे डालना, उड़ेलना । गृह्यसूत्र-संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) वह वैदिक गेरुया--वि० दे० (हि. गेरू+पा प्रत्य० ) पद्धति जिसके अनुसार गृहस्थ लोग मुंडन, गेरू, मटमैला, गेरू में रंगा, गैरिक (सं०) यज्ञोपवीत, विवाह आदि संस्कार करते हैं। जोगिया, भगवा (प्रान्ती)। गेठी-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० गृष्टि) बाराहीकंद। | गेरुई-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. गेरू ) चैत गेंड-संज्ञा, पु० दे० (सं० कांड ) ईख के की फसल का एक लाल रंग का रोग ऊपर का पत्ता, अगौरा (दे०)। जो बहुधा गेहूँ के पौधों में होता है। गेडना-स. क्रि० दे० (सं. गंड =चिन्ह, " तरे श्रोद ऊपर बदराई । कहैं घाघ अब हि० गंडा ) लकीर से घेरना, चारो ओर गेरुई खाई"। घूमना, परिक्रमा या प्रदक्षिणा करना। गेरू-संज्ञा, पु० दे० (सं० गवेरुक) एक प्रकार गेंडना-स० कि० दे० (हि. गेंड़ ) खेतों की लाल कड़ी मिट्टी जो खानों से निकलती को मेंडों से घेर कर हद बाँधना, अन्न रखने है, गिरिमाटी, गैरिक । के लिये गैड बनाना, घेरना, गोंठना। गेह* --संज्ञा पु० ० (सं० गृह ) घर, गेंडली-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० कुंडली) मकान । " सुरति रही न रंच देह की कुण्डल, फेंटा, जैसे-साँप की गेंडली। न गेह की"। गेंडा-संज्ञा, पु० दे० ( सं० कांड ) ईख के | गेहनी*-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि० गेह ) घर ऊपर के पत्ते, अगौरा ईख, गन्ना। वाली गृहणी (सं.)। गेंडा -संज्ञा, पु० दे० (सं० गेंडुक) गेंदुआ, | गेही-संज्ञा, पु० (हि० गेह ) गृहस्थ । उसीस, तकिया, गोल सकिया। गेंदवा | गेहुँअन-संज्ञा, पु० दे० (हि० गेंहू ) मटमैले (दे०)। रङ्ग का एक प्रति विषैला साँप । गेंडवा-संज्ञा, पु० दे० (सं० गंडुक-तकिया) | गेहुँा -वि० दे० (हि. गेहूँ ) गेहूँ के रङ्ग तकिया, सिरहाना, बड़ा गेंद । गेंदुक (सं०)। का, बादामी रङ्ग का। गेंडुरी-संज्ञा, सी० दे० (सं० कुंडली) रस्सी | गेहूँ-संज्ञा, पु० दे० (सं० गोधूम) एक प्रसिद्ध का बना हुआ घड़ा रखने का मेंडरा, इन्डुरी, | अनाज जिसके चूर्ण की रोटी बनती है। विड़वा, फेंटा, कुण्डली। | गैंडा-संज्ञा, पु० दे० (सं० गटक ) भैंसे के गेंद-संज्ञा, पु० दे० (सं. गेंडुक, कंदुक) आकार का एक पशु जो जंगली दलदलों कपड़े, रबड़ या चमड़े का गोला जिससे | और कछारों में रहता है। लड़के खेलते हैं, कंदुक, कालिब, कलबूत । गैंती-गैती- संज्ञा, स्त्री. (दे०) कुदाल, गेंदा-संज्ञा, पु० दे० (हि. गेंद ) लाल- मिट्टी खोदमे का अस्त्र विशेष, कुदारी। पीले फूलों का एक पौधा। | गैन -संज्ञा, पु० दे० (सं० गमन ) गैल, For Private and Personal Use Only Page #608 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - - गैना मार्ग। संज्ञा, पु० (दे०) गगन । " सुख गैरा-संज्ञा, पु. ( दे०) घास का पूला, पैइयो तो बिरमियो, नहिं करि जैयो गैन'। शाँटी, मुट्ठा। गैना-संज्ञा, पु० (दे०) नाटा बैल, राह। । गैरिक -संज्ञा, पु० (सं०) गेरू, सोना। गैनी–वि. स्त्री. ( 40 ) गामिनी। "नैन भये जोगी लाल लाल गैरिकरंग"। गैब -संज्ञा, पु. (अ.) परोक्ष, जो सामने | गैरेय-संज्ञा, पु० (सं० ) शिलाजीत । न हो । “स्यों ही आई गैब से ऐसी निदा" | गैल-संज्ञा, स्त्री० ० ( हि० गली ) मार्ग, -हाली । रास्ता, गली। " गैल गहिबे को हठि"... गैबी-वि० (अ० गैब ) गुप्त, छिपा हुआ, रवा० । महा०-गैल बताना-दग़ाबाजी अजनबी, अज्ञात। करना । “घायल के प्यारे अब गैल बतरावै गैयर -संज्ञा, पु० दे० (सं० गजवर ) | हैं-ऊ. हाथी । “मन मतङ्ग गैयर हनै'-कवी०। गैहरी-संज्ञा, स्त्री० (दे०) दण्ड, रोकने गैया-संज्ञा, स्त्री० दे० (७०) (सं० गो) का दण्ड, अर्गल, बेड़ा। गायी, गाय, धेनु । " उनबिन लगत न गेइिंठा - संज्ञा, पु० (दे० ) कंडा, उपला, मोरी गैया "-सूर० । गोहरा (प्रान्ती०)। गैर- वि० (प्र. ) अन्य, दूसरा, अजनवी, | गांइँड, गेइिँडा- संज्ञा, पु० (दे० ) गाँव अपने समाज या कुटम्ब से बाहर का पुरुष, की तटवर्ती भूमि। पराया। “गैर से है प्रेम हमसे बैर है"। | रोठ-संज्ञा स्त्री० दे० (सं० गोष्ट) कमर स्फु० । विरुद्ध अर्थवाची या निषेधवाची पर धोती की लपेट, मुरी, गाँठ (दे०) शब्द, जैसे-औरमुमकिन, गैरहाज़िर । संज्ञा, | "गोठमों दाम सब काम सिद्धि जानिये'। स्त्री० ( अ० ) अत्याचार, अँधेर । गांठना-स० कि० दे० (सं० कुंठन ) किसी गैरत--संज्ञा, स्त्री. (अ.) लजा, हया ।। वस्तु की कोर या नोक गुठला देना, "हमसे मिलने में है गैरत उसे श्राती गोझे या पुवे की कोर को मोड़ कर उभड़ी लेकिन ।” हुई लड़ी के रूप में करना । स० क्रि० दे० गैर मनकूला-वि० यौ० (अ.) जिसे (सं० गोष्ट ) चारो ओर से घेरना।। एक स्थान से उठा कर दूसरे स्थान न ले जा सकें, स्थिर, स्थायी, अचल, जड़ । गांड-संज्ञा, पु० (सं० गाड़ ) मध्यप्रदेश की गैरमामूली - वि० (अ.) असाधारण ।। एक असभ्य जाति, बंग और भुवनेश्वर के गैर मिसिल-कि. वि. (अ.) बेतर बीच का देश । संज्ञा, पु० गोंडवाना। तीबी से, अनुचित जगह में । " गैरमिसिल | गोंडराई-संज्ञा, पु० दे० (सं० कुंडल ) ठादो कियो"-भू०। (स्त्री. गोंडरी ) लोहे का मँडरा जिस पर गैर मुनासिब - वि० या० (अ०) अनुचित । मोट का घरसा लटकता है, कुंडल के गैर-मुमकिन-वियो. (म०) असम्भव । । आकार की वस्तु, मंडल, गोल घेरा। गैर वाजिब ---वि० ( अ ) अयोग्य, गोंडा*-संज्ञा, पु० दे० (सं० गोष्ट ) बाड़ा, अनुचित, अनुपयुक्त, नामुनासिब । घेरा हुआ स्थान (विशेषतः ) चौपायों का गैर हाज़िर-वि० ( ० ) श्रनपस्थित, पुरवा, गाँव, खेड़ा । " निकसि घरतें गयीं अविद्यमान, नामौजूद। गोंड़े"-सू०। गैर हाज़िरी--संज्ञा, स्त्री० (अ.) अनुप- गांद-संज्ञा, पु० दे० ( सं० कुंदरू या हि. स्थिति, अविद्यमानता, नामौजूदगी। गूदा ) पेड़ों के तने से निकला हुआ चिप For Private and Personal Use Only Page #609 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir हिंगोट । गोंदनी ५१८ गोधात चिपा या लसदार पसेव, लासा, निर्यास, गोई-संज्ञा, स्त्री० (दे० ) गोइयाँ । वि० तृण विशेष । यौ० गेांददानी-गोंद भिगो (दे० ) गुप्त की, छिपाई हुई। रखने का पात्र । गोऊ- वि० दे० (हि. गाना-ऊ गांदनी- संज्ञा, स्त्री० ( दे० ) तृण विशेष, (प्रत्य०)) चुराने वाला, छिपाने वाला। नरकट, एक पेड़, लहरगोंदी। गोप–स० क्रि० दे०) गुप्त किये, छिपे हुये। गेांदपंजीरी-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. गांद -+ | "चंचल नैन हैं नहिं गोए'.- स्फु० । पंजीरी ) प्रसूता के खिलाने की गोंद मिली गोकर--संज्ञा, पु० (सं० गो-+-कर ) सूर्य । हुई पंजीरी। गोकणी--संज्ञा, पु० यौ० (सं०) मलावार में गेदरी ---संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० गंदा ) पानी हिन्दुओं का एक शैव क्षेत्र की शिव-मूर्ति । की एक घास जिसकी चटाई बड़ी मुलायम वि० ( सं० ) गऊ के से लम्बे कान वाला। होती है, गोंद (ग्रा०)। गोकर्णी--संज्ञा, स्त्री. यौ० (सं० ) एक गांदा--संज्ञा, पु. । दे०) पक्षी के खाने लता, मुरहरी, चुरनहार प्रान्ती० )। और फंसाने की लोई, लभेरा, लसोड़ा। गोकुल-संज्ञा पु० यौ० (सं०) गौओं का झंड, गोंदी संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० गावंदनी = गोसमूह, गोशाला, एक प्राचीन प्रसिद्ध प्रियंगु ) मौलसिरी सा एक पेड़, इँगुदी, । व्रज ग्राम । | गोकुलेश-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) (गोकुल + गर-संज्ञा स्त्री. (सं० ) गाय गो, गऊ, ईश) गोकुल का अधिपति, श्रीकृष्ण ।। धेनु, किरण, वृषराशि, इन्द्रिय, वाणी, गोकोस-संज्ञा, पु० यौ० (सं० गा+ काश) बोलने की शक्ति, वाक, सरस्वती, आँख, उतनी दूरी जहाँ तक गाय के बोलने का दृष्टि, बिजली, दिशा पृथ्वी, जमीन, माता, शब्द सुन पड़े, छोटा कोस, दो मोल । दूध देने वाले पशु-जैसे, बकरी, भेंडी, भैस गोचर--संज्ञा, पु० (सं० ) गोखरू (हि. प्रादि, जीभ । संज्ञा. पु. (सं.) बैल.. " उच्चटा मटी गोक्षुरैश्चूर्णितैः " वै० जी०। नन्दीनामक शिवगण, सूर्य, चन्द्रमा घोड़ा, गोखरू-संज्ञा, पु० दे० (सं० गोक्षुर एक बाण, तीर, आकाश, स्वर्ग, वन, जल, प्रकार का क्षुप्र जो काँटेदार होता है, पत्ते नौका शब्द, अंक, अव्य. (फा०) यद्यपि । चने के से होते हैं, एक बनौषधि, लोहे के यौ० गाकि-अव्य. (फा० ) यद्यपि, गोल कँटीले टुकड़े जो प्रायः हाथियों के अगर्चि । प्रत्य० (फा० ) कहने वाला। पकड़ने के लिये उनके रास्ते में फैला दिये ( यौ० में ) जैसे-बदेगो। जाते हैं, गोटे और बादले के तारों से गूंथ गोपाल--संज्ञा, पु० दे० (हि. ग्वाल )। कर बनाया हुआ एक साज़, कड़े का सा गोपाल, गोप, अहीर । “ नन्दराय के द्वारे । श्राभूषण । आये सकल गोपाल "-सू०। | गो -संज्ञा, पु० (दे० ) झरोखा, गौखा गोइँठा-संज्ञा, पु० दे० ( सं० गा+विष्टा ) (दे० ) अरवा, ताक । सुखाया हुआ गोबर, उपला, कंडा। गोखग-संज्ञा, पु. ( सं० ) थलचारी पशु । गाइदा-संज्ञा, पु. ( फा० ) गुप्त भेदिया, गोग्रास-संज्ञा, पु० या० ( सं० ) पके हुये गुप्तचर, जासूस । अन्न का भाग जो भोजन या श्राद्धादिक के गोइ-संज्ञा पु० दे० ) गोय, गोप। प्रारम्भ में गाय के लिये निकाला जाता है। गोइयाँ-संज्ञा, पु० दे० स्त्री० (हि. गोहनिया) गोग्रास (दे०)। साथ रहने वाला, साथी, सहचर। गाघात --- संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं० ) गोहत्या, For Private and Personal Use Only Page #610 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गोचना गोडारी गाय मारना। वि० गाघाती, गाघातक- | गोष्टी । संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० गुटक) गाय मारने वाला। चौपड़ का मोहरा, नरद। गोचना–स० क्रि० (दे० ) धरना, पकड़ | गोटा--संज्ञा, पु० ( हि० गोट) बादले का लेना । संज्ञा, पु. गेहूँ और चना । बुना हुआ पतला फ्रीता जो कपड़ों के गोचर-संज्ञा, पु. यो० (सं० ) वह विषय किनारों पर लगाया जाता है, धनियाँ की जिस का ज्ञान इन्द्रियों द्वारा हो सके, गायों सादी या भुनी हुई गिरी, छोटे टुकड़ों में के चरने का स्थान. चरागाह, चरी (ग्रा०)। कटी इलायची, सुपारी, खरबूज़ और बादाम गोचर्म-संज्ञा, पु० या ० (सं० ) गाय का | की गिरी, सूखा हुआ मल, कंडी, सुद्दा । चमड़ा। | गोटी-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० गुटिका ) गोचा-स० क्रि० (दे०) दबाना, धोखा देना। | कंकड़, गेरू पत्थर इत्यादि का छोटा गोल गोची-- वा० (दे०) धोखा पर धोखा, टुकड़ा जिससे लड़के खेलते हैं, चौपड़ खेलने दबाव पर दबाव, बलात्कार से धोखा देना। का मुहरा, नरद, गोटियों से खेलने का गोचारण-संज्ञा, पु. यौ० (सं० ) गाय | खेल, लाभ का आयोजन । मुहा०--गोटी चराना, गोपालन । जमना या बैठना-युक्ति सफल होना, गोचिकित्सा-संज्ञा, स्त्री. यो० (सं०) आमदनी की सूरत होना। गा की औषधि, गा की दवा करना! गाठ-संज्ञा स्त्री० दे० (सं० गोष्ट) गोशाला, गोचिकित्सक-संज्ञा, पु० यौ० (सं०)| गोस्थान, गोष्टी. श्राद्ध, सैर। गायों का वैद्य। गोठा-संज्ञा, पु० (दं० ) सलाह । "सावगोक-संज्ञा, पु० (दे०) मूंछ, गोंछ, गांछा। धान करि लेहिं अपन पी तव हम करि करि गोज--संज्ञा, पु. ( फा) अपानवायु, पाद । गोठो"---भ्र०। गोजई--संज्ञा, पु० । दे० ) गेहूँ और जव | गोड़ा-संज्ञा, पु० दे० (सं० गम, गो) पैर । मिला हुआ अन्न। गोड़इत--संज्ञा, पु. ( हि० गाइंड+ऐत गाजर - संज्ञा, पु० (सं० खजू) कनखजूरा। प्रत्य०) गाँव का पहरेदार. चौकीदार । गाजिका-संज्ञा, स्त्री० (दे०) वृतविशेष । | गोड़ना-स० कि० दे० (हि० कोड़ना) खोद गोजिता --- संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं० ) गोभी, कर मिट्टी उलट देना, जिससे वह पोली कोबी, ( प्रान्ती० ) गावज़बाँ। और भुरभुरी हो जाय, कोड़ना (दे० )। गोजी-संज्ञा, स्त्री० दे० ( सं० गवाजन ) गोड़ा-संज्ञा, पु. ( हि. गोड़ ) पलँग आदि गौ हाँकने की लकड़ी, बड़ी लाठी, लट्ठ।। का पाया, गोड़िया। गोझनवट-संज्ञा, स्त्री० (दे० ) स्त्रियों की | गोड़ाई-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि० गोड़ना) साड़ी का अंचल, पल्ला। गोड़ने का काम या उसकी मजदूरी। गोझा-संज्ञा, पु० दे० (सं० गुह्यक) (स्त्री० गोडाना--स० क्रि० (हि. गोड़ना का प्रे० अल्पा० गाझिया, गुझिया) गुझिया | रूप ) गोड़ने का काम दूसरे से कराना। नामक पकवान, पिराँक. एक प्रकार की गोजचाना। कटीली घास, गुज्झा, जेब, खलीता। | गोडापाई- संज्ञा, स्त्री० यौ० (हि० गाड़+ गोट–सं० स्त्री० दे० सं० गोष्ट ) वह पट्टी | पाई = जोलाहों का ढाँचा ) बारम्बार या फ़ीता जिसे कपड़े के किनारे पर लगाते | श्राना-जाना। हैं, मगज़ी, किसी प्रकार का किनारा । गोडारी--संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. गोड़ = पैर संज्ञा, स्त्री दे० (सं० गोष्टी ) मंडली, नारी-प्रत्य०) पलँग आदि के पैताने For Private and Personal Use Only Page #611 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org गोडिया ६०० का भाग, पैताना, जूता, ( प्रान्ती ० ) घास । गोड़िया - संज्ञा, स्त्री० दे० ( हि० गोड़ ) छोटा पैर | संज्ञा, पु० (दे० ) केवटों की एक जाति । 1 गोदोहनी गोद - संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० क्रोड़ ) एक या दोनों हाथों का घेरा बनाने से छाती के पास उठने वाला स्थान जिसमें प्रायः बालकों को लेते हैं, उत्सङ्ग, श्रंक, कोरा । ......fi भूपति विहँसि गोद बैठारे "रामा० । मुहा०—गोदका - छोटा बालक, बच्चा | गोद बैठाना ( लेना ) – दत्तक बनाना, अंचल | मुहा० गोद पसार कर - अत्यन्त थाधीनता से । गोद भरी रहना - सपुत्र रहना । गोद भरनासौभाग्यवती स्त्री के अंचल में नारियल आदि पदार्थ देना, सन्तान होना । गोण - संज्ञा, पु० (दे० ) बोरा, थैला ! गोणी - संज्ञा, स्त्री० (सं० ) टाट का दोहर बोरा, गोत, एक प्राचीन माप । गोत- संज्ञा, पु० दे० (सं० गोत्र ) कुल, वंश, ख़ानदान, समूह, गरोह । "यौं 'रहीम' सुख होत है, बढ़त देखि निज गोत " 1 गोतम - संज्ञा, पु० (सं० ) एक ऋषि, गोदनहारी- -संज्ञा, स्त्री० ( हि० गोदना + गौतम ऋषि । हारी प्रत्य० ) कंजर या नट की स्त्री जो गोदना गोदती है । गोदना - स० क्रि० दे० ( हि० खोदना ) चुभाना, गड़ाना, किसी कार्य के लिए बार बार जोर देना, चुभती या लगती हुई बात कहना, ताना देना | संज्ञा, पु० (दे० ) तिल जैसा काला चिन्ह जो बदन पर नील या कोयले के पानी में डूबी हुई सुइयों से बनता है । गोदा- संज्ञा, पु० ( हि० घौद ) बड़, पीपल, या पाकर के पक्के फल, गोदावरी नदी, श्रीरंग जी की पत्नी । गोदान - संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) गौ को सविधि सङ्कल्प कर ब्राह्मण को देने का केशान्त संस्कार | काम, गोदाम संज्ञा, पु० दे० ( ० गोडाउन ) बिक्री आदि के माल रखने का बड़ा स्थान, गुदाम (दे० ) बटन ( प्रान्ती० ) । गोदावरी - संज्ञा, स्त्री० (सं० ) दत्तिणीय भारत की एक नदी । गोड़ी - संज्ञा, स्त्री० (दे० ) प्राप्ति, लाभ, प्राप्ति का आयोजन । गोतमी - संज्ञा, स्त्री० (स० ) गोतम ऋषि की स्त्री, हिल्या | गोता - संज्ञा, पु० ( ० ) डूबने की क्रिया, दु:बी, डुबकी। मुहा०-- गोताखाना धोखे में धाना, फ़रेब में आ जाना, चूक जाना । गोता मारना ( लगाना ) - डुबकी लगाना, डूबना, बीच में अनुपस्थित रहना, गोता देना -- धोखा देना । गोताखोर - संज्ञा, पु० ( भ० ) डुबकी लगाने Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( मारने ) वाला | गोतिया - वि० (दे० ) गोती (दे० ) । गोती - वि० दे० ( सं० गोत्रीय ) अपने गोत्र का, जिसके साथ शौचाशौच का सम्बन्ध हो, गोत्रीय, भाई-बन्धु, सगोत्र । गोतीत-संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) इन्द्रियों से परे, इन्द्रियों से न जानने योग्य । गोत्र - संज्ञा, पु० (सं० ) संतति, सन्तान | एक क्षेत्र, वत्स, राजा का क्षेत्र, समूह, गरोह, बन्धु, भाई, एक जाति-विभाग, वंश, कुल, कुल या वंश-संज्ञा, जो उसके किसी मूल पुरुष के नामानुसार होती है । " गोत्रापत्यम् - पा० । गेोदी - संज्ञा, स्त्री० (दे० ) गोद, थँकोरा । गोदोहन- स० क्रि० यौ० ( सं० ) गाय दुहना, गाय से दूध निकालना । "" गोदन्ती - संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० गोदन्त ) गोदोहनी - संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं० ) गोदो कच्चा या सफेद हरताल, एक रत्न । हन पात्र, दुधेड़ी, दुधाड़ी (दे० ) दुधहँडी | For Private and Personal Use Only Page #612 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गोधन गोपालतापन गोधन-संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) गायों का | इया--प्रत्य० ) अपनी पीठ या बैलों पर समूह या झुण्ड, गोरूपी सम्पति, एक प्रकार | लाद कर बोरे ढोने वाला। का तीर । *संज्ञा, पु० (सं० गोबर्धन ) गोनी-सं० स्त्री० दे० (सं० गोणी) टाट गोबर्धन पर्वत । " गोधन, शान सबै लै | का थैला, बोरा, पटुआ, सन, पाट । जइये"-सू० । दिवाली के दूसरे दिन गोप-संज्ञा, पु० (सं०) गौ की रक्षा करने का त्योहार, जिसमें गोवर्धन पर्वत ( उसके वाला, खाला, अहीर, गोशाला का अध्यक्ष गोबर के नमूने ) की पूजा होती है। या प्रबन्धक, भूपति, राजा, गाँव का "अबकै हमारे गाँव गोधन पुजैहै को" मुखिया। संज्ञा, पु० (सं० गुंफ) गले में -ऊ. श०। पहनने का एक श्राभूषण, गोफ (ग्रा.) गोधा-संज्ञा, स्त्री. (सं.) गोह नामक यौ० गंजगोफ। जन्तु, धनुर्धारी लोगों के हाथ में बाँधने गोपक-संज्ञा, पु० (सं० गोप+ क (प्रत्य॰)) की एक चमड़े की पट्टी। गोधिका-संज्ञा, स्त्री० ( सं० ) गोह जन्तु । | गोप, बहुत ग्रामों का। वि० (सं० गोपन | +क) छिपाने वाला। गोधूम--संज्ञा, पु. ( सं० ) गेहूँ, (ग्रा.)। । गोधूलि-गोधूली--संज्ञा, स्त्री० (सं०) गोपति--संज्ञा, पु० यो० (सं०) साँड़, जंगल से चर कर लौटती हुई गायों के खुरों | वृष, बैलराज, गो-रक्षक, अहीर । से धूल उड़ने से बँधुली छा जाने का समय, | गोपद-संज्ञा, पु० यौ० (सं० गोष्पद ) संध्याकाल । गोधौरा- संज्ञा, पु० (दे०)। पृथ्वी पर गाय के खुर का चिन्ह, गायों के गोधेनु:--संज्ञा, स्वी० यो० (सं०) दुग्धवती | रहने का स्थान । गौ, दुधार गाय । गोपन--संज्ञा, पु० (सं० ) छिपाव, दुराव, गोन-संज्ञा, स्त्री० (सं० गाणी ) कम्बल, छिपाना, लुकाना, रक्षा । वि० गोप्य । टाट, चमड़े श्रादि से बना हुआ दोहरा बोरा गोपना*-१० क्रि० दे० (सं० गोपन) जो बैलों की पीठ पर लादा जाता है, छिपाना, गोना (ब्र०)। साधारण बोरा, खाल । संज्ञा, स्त्री० दे० | गोपनीय-- वि० ( सं० ) छिपाने योग्य, (सं० गुण ) नाव खींचने को मस्तूल में गोप्य । वि० गोपित । बाँधने की रस्सी। गोपर-संज्ञा, पु० (सं० ) गोतीत, इन्द्रियों गोनई-संज्ञा, पु० (सं०) नागरमोथा, से परे। सारस पक्षी, वह प्राचीन देश जहाँ महर्षि पतंजलि का जन्म हुआ था। गोपाँगना-संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं० ) गोप गोनीय-- संज्ञा, पु० (सं० ) पतंजलि मुनि, की स्त्री, गोपी। गोनई देश का, देश-सम्बन्धी। | गोपा-संज्ञा, स्त्री० (सं०) गाय पालने गोनस-संज्ञा, पु० (सं० ) एक प्रकार का वाली, गोपी, ग्वालिन, अहीरी, श्यामा साँप, वैक्रांतिमणि । लता, महात्मा बुद्ध की स्त्री। गोना--स. क्रि० दे० ( स० गापन ) | गोपाल, गोपालक-संज्ञा, पु० यौ० (सं.) छिपाना। गौ का पालने वाला अहीर, ग्वाल, गोप, गोनिया-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० कोण ) श्रीकृष्ण, एक छंद। दीवाल या कोण आदि की सीध के नापने | गोपालतापन - गोपालतापानीय--संज्ञा, का यंत्र । संज्ञा, पु० (हि० गोन = डोरा+ | पु. (सं० ) एक उपनिषद् । For Private and Personal Use Only Page #613 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गोमय गोपालक ६०२ गोपालय-संज्ञा, पु. यौ० (सं०) गोपगृह, | गोफा-संज्ञा, पु० (दे०) (सं० गुंफ) ग्वालों या अहीरों का घर। नया निकला हुआ मुँह बँधा पत्ता, मुँह गोपाष्टमी-संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) कार्तिक बँधा कमल । शुक्ला अष्टमी, जब गो पूजा होती है। फिया--संज्ञा पु० (दे० ' गोफन, गोफना, गोपिका-संज्ञा, स्त्री. (सं०) गोप की स्त्री, ढेलवाँस । गोपी, ग्वालिन, अहीरी। गोवर--संज्ञा, पु० दे० (सं० गामय ) गाय गोपित-वि. (सं०) रक्षित, पालित, का मैला। गुप्त, अप्रकाशित । गोवरगणेश-वि० यौ० (हि. गोबर-+ गोपी-संज्ञा, स्त्री० (सं०) गोप की स्त्री, गणेश ) भद्दा, बदसूरत, भोंड़ा, मूर्ख, ग्वालिनी। बेवकूफ गोपीचन्द-संज्ञा, पु० यौ० (सं० गोपीचन्द्र) गोवरी-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि० गावर + एक प्राचीन राजा। ई-~-प्रत्य० ) गोबर की लिपाई, गोबर गोपीचंदन-संज्ञा, पु. या० सं०) एक का लेप, कंडा। प्रकार की पीली मिट्टी, पीला चन्दन । गोबरीला-संज्ञा, पु० दे० (हि० गोबर + गोपीत-संज्ञा पु० (दे०) खंजन पक्षी का ईला---प्रत्य० ) गुबरैला, गोबर का कीड़ा। एक भेद, "अछरी छपी छपी गोपीता।" गोबरेता, गोबरौदा।। गोम-गाभा--संज्ञा, स्त्री० (प्रान्ती० ) लहर, गोपीनाथ-संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) श्री पानी की तरंग, पौधों का एक रोग। कृष्ण, गोपीश । "गोकुल बूरत है बहुरि, "रसिकन हिये बढ़ावती नवल प्रेम की राखो गोपीनाथ ।" कुं० वि०। गोभ " -चाचाहित० । " जेहि देखत गोपुच्छ-संज्ञा, पु० यौ० ( सं० ) गौ की उठति सखि श्रानन्द की गोभा"--. गदा०। पूँछ, एक प्रकार का गावदुम हार। गामित--संज्ञा, पु. ( सं० ) सामवेदीय गोपुर-संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) नगर-द्वार. गृह्यसूत्र के रचयिता एक प्रसिद्ध ऋषि ।। शहर या किले का फाटक, दरवाज़ा, स्वर्ग। गांभी- संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० गाजिह्वा गोपेंद्र-संज्ञा, पु० यौ० (सं.) श्रीकृष्ण, पण, या गुंफ = गुच्छा ) एक प्रकार की घास, गोपों में श्रेष्ठ, नन्द जी । “इन्द्र बिनासत | गोजिया (दे० ) वनगोभी, एक शाक। है ब्रजै कृपा करौ गोपेंद्र" । स्। गोम--संज्ञा, स्त्री० (दे०) घोड़ों की एक गोप्ता-संज्ञा, पु. ( सं० ) रक्षक, पालक । भंवरी । संज्ञा, पु० स्थान । “गहन में गोहन रक्षाकर्ता-प्रप्रकाशका ।......"गोप्ता गृहणी गरूर गहे गोम है "--भू० । सहायः"-रघु । गोप्य-वि० (सं०) रक्षणीय, गोपनीय. गोलका-संज्ञा, पु० (दे० ) कुम्हड़ा, छिपने योग्य । कोहँडा, कोहका ( प्रान्ती० )। गोप्रकांड-संज्ञा, पु० या० (सं० ) श्रेष्ठ या | गोमती-संज्ञा, स्त्री० (सं० ) एक नदी, · उत्तम गौ। वाशिष्ठी, एक देवी, ग्यारह मात्राओं का गोफन-गोफना-संज्ञा, पु० दे० ( सं० । एक छंद ।। गोफण ) छींके जैसा एक जाल जिससे | गोमन्त---संज्ञा, पु० (सं० ) एक पहाड़। ढेले श्रादि फेंकते हैं, ढेलवाँस, फन्नी | गोमय-संज्ञा, पु० (सं० ) गाय का मल, (प्रान्ती०)। गोबर । For Private and Personal Use Only Page #614 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १०३ गोमर गोरस गोमर-संज्ञा, पु. ( दे.) गाय मारने | गोर-संज्ञा, स्त्री० (फा० ) शरीर के गाड़ने वाला, कसाई । " कामधेनु-धरनी कलि. का गढा, कब्र । वि० (सं० गौर ) गोरा, गोमर "...स्फु०। मदायन, इन्द्र धनुष, “धनु है यह गोर गोमक्षिका-संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) मदायन ही सर-धार बहै गल-धार वृथा वनमक्खी । “धर्मवृष गोमक्षिका कलिदेत ही"-स्फु० । पीड़ा वेश"-तुल। गोरख इमत्ती- संज्ञा, स्त्री० यौ० (हि. गोमाय, गोमायु-संज्ञा, पु० ( सं० ) गीदड़, गोरख -+ इमली ) इमली का बहुत बड़ा स्यार, शृगाल, सियार (दे०) उल्कामुखक । पेड़, कल्पवृक्ष । गोलिथुन-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) दो गोरखधंधा-- संज्ञा, पु० यौ० (हि० गोरख+ गायें, गायों की जोड़ी, गायुग्म। धंधा ) कई तारों, कड़ियों या लकड़ी के गोमुग्ध---संज्ञा, पु० यौ० (सं०) गाय का टुकड़ों इत्यादि का समूह जिन को विशेष मुख । बुहा--गोमुख नाहर या व्याघ्र युक्ति से परस्पर जोड़ या अलग किया जाये, -- वह मनुष्य जो देखने में तो बहुत ही | वह पदार्थ या काम जिसमें बहुत झगड़ा या सीधा हो पर वास्तव में बड़ा क्रूर, दुष्ट | उलझन हो, गढ़ बात। और श्रात्याचारी हो । गाय के मुँह जैसे | गोरखनाथ--संज्ञा, पु० (हि.) एक प्रसिद्ध आकार वाला शंख, नरसिंहा बाजा। अवधूत या हठयोगी। ( सं० गोरक्षनार्थ )। गोमुखी -- संज्ञा, स्त्री. (सं० ) एक प्रकार | गोरख पंथी - वि० यौ० (हि.) गोरखकी थैली जिसमें हाथ डाल कर माला | नाथ के सम्प्रदाय का अनुयायी । संज्ञा, फेरते हैं, जपमाली, जपगुथली, गौके मुँह पु० यौ० (हि० ) गोरखपंथु ।। के आकार का गंगोत्री नामक स्थान जहाँ गोरखमुण्डी -संज्ञा, स्त्री. (सं० मुंडी) से गंगा निकली है। एक प्रकार की घास जिसमें मुंडी के समान गोमढ-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) वि० बैल | गोल और गुलाबी रंग के फूल लगते हैं। के समान मूर्ख, अतिशय अज्ञान, अबोध । गोरखर—संज्ञा, पु. (फा०) गधे की गोमूत्र-संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) गाय का | जाति का एक जंगली पशु।। मूत्र, गोमूत, ( दे०)। गोरखा-संज्ञा, पु. ( हि० गोरख ) नेपाल गोमत्रिका-- संज्ञा, स्त्री. (सं० ) तृण | के अन्तरगत एक प्रदेश, इस देश का विशेष, चित्र काव्य में एक छंद रचना । । वासी। गोमेद-गोमेदक - संज्ञा, पु० (सं० ) एक | गोरज-संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) गायों के मणि या रत्न जो कुछ ललाई लिये हुये | खुरों से उड़ी हुई धूलि । “गोरजादि पीला होता है, शीतल चीनी, कवाब चीनी, | | प्रसंगे यत् "-पाणि । राहु-रत्न । गोरटा* ---वि० पु. ( हि० गोरा) ( स्त्री० गोमेध - संज्ञा, पु. (सं० ) एक यज्ञ जिसमें गोरटे ) गोरे रंग वाला, गोरा । "छोरटी गो से हवन किया जाता था। है गोरटी वा चोरटी अहीर की"-बेनी । गोय---संज्ञा, पु० (फा०) गेंद । (हि. गोपना, | गोरस-संज्ञा पु० यौ० ( सं० ) दूध, दही, सं० गे पन ) छिपाना, बचाना, “मन ही महा श्रादि, इन्द्रियों का सुख । “ रस राखौ गोय"-रही। तजि गोरस लेहु तुम, बिरस होत क्यों गोया--क्रि० वि० (फा० ) मानों। लाल"-स्फुट० । “ गोरस लेहु तौ लेहु For Private and Personal Use Only Page #615 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra " www.kobatirth.org गोरसी भले तुम जो रस चाहौ न सो रस पैहौ " - रसाल । "6 गोरसी - संज्ञा, स्त्री० यौ० ( सं० गोरस + ई - प्रत्य० ) दूध गरम करने की अँगीठी, गुरसी, गुरौसी (दे० ) । गोरसी पै दूध उफनात देखि दौरी मातु गोरक्षनाथ - संज्ञा, पु० (सं० गोरक्ष + नाथ ) गोरखनाथ | 1 गोरा - संज्ञा, पु० दे० (सं० गौर ) सफ़ेद और स्वच्छ वर्ण वाला, जिसके शरीर का चमड़ा सफेद और साफ़ हो ( मनुष्य ) फिरङ्गी, स्वच्छ वर्ण । गोराई -संज्ञा, स्त्री० ( हि० गोरा + ई, भाई- - प्रत्य० ) गोरापन, सुन्दरता, गुराई ( व्र० ) । गोरिल्ला -संज्ञा, पु० (अफ्रिका) बड़े आकार का एक वनमानुष, गोरिला (दे० ) । गोरी – संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० गौरी ) सफेद और स्वच्छ वर्ण वाली (स्त्री), सुन्दरी । “ गोरी को बरन देखे सोनो न सलोनो लागे " । गोरुत - संज्ञा, पु० (सं० ) दो कोस । गोरू—संज्ञा, पु० दे० ( सं० गो ) चौपाया, मवेशी । यौ० – गोरु- बछेरु । ६०४ गोला वृत्त, के आकार का । यौ० गोलाकार । गोलमटोल - वि० गोला | मुहा० - गोलगोल - स्थूल रूप से, मोटे हिसाब से, अस्पष्ट रूप से, साफ साफ नहीं । गोलवात - ऐसी बात जिसका अर्थ स्पष्ट न हो, घुमावदार बात | संज्ञा, पु० (सं० ) मंडलाकार क्षेत्र, गोलाकार पिंड, गोला, वटक | संज्ञा, पु० ( फा० गोल ) मंडली, झुण्ड । गोलक - संज्ञा, पु० (सं० ) गोलोक, गोल पिंड, विधवा का जारज पुत्र मिट्टी का बड़ा आँख का डेला ( पुतली, गुम्बद, धन रखने की सन्दूक या थैली, गल्ला, गुल्लक | (दे० ) किसी विशेष कार्य के लिए संग्रहीत धन या फंड । कुण्डा, गोरोचन - संज्ञा, पु० (सं० ) पीले रंग का एक सुगन्धित द्रव्य जो गौ के पित्त या मस्तक में से निकलता है । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir | गोलंबर - संज्ञा पु० दे० ( हि० गोल + अंबर) गुम्बद, गुम्बद के श्राकार का गोल ऊँचा उठा हुआ पदार्थ, गोलाई, कलबूत, कालिब | गोल - वि० (सं० ) वृत्ताकार घेरे या परिधि वाला, चक्र के आकार का वृत्ताकार, ऐसे घनात्मक श्राकार का जिसके पृष्ठ का प्रत्येक विन्दु उसके भीतर के मध्य विन्दु के समान अन्तर पर हो, सर्व वर्त्तुल, गेंद आदि गोलगप्पा -संज्ञा, पु० दे० ( हि० गोल + अनु० - गप ) एक प्रकार की महीन और घी में तली करारी फुलकी । गोलचला – संज्ञा, पु० (दे० ) गोलन्दाज़, तोप चलाने वाला | गोलमाल - संज्ञा, पु० दे० ( सं० गोल – योग ) गड़बड़, अव्यवस्था । गालमिर्च - संज्ञा, स्त्री० यौ० दे० (हि० गोल + सं० मरिची ) काली मिर्च । गोल - यंत्र - संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) ग्रहों, और नक्षत्रों की गति और अयन - परिवर्तन आदि के जानने का एक यन्त्र | गोलंदाज - संज्ञा, पु० ( फा० ) तोप से गोल- योग-- संज्ञा, पु० यौ० ( सं० ) ग्रहों का एक बुरा योग ( ज्यो० ), गड़बड़, गोलमाल । गोला चलाने वाला, तोपची । गोला - संज्ञा, पु० दे० ( हि० गोल ) किसी पदार्थ का बड़ा गोल पिंड, लोहे का वह गोल पिंड जिसे तोपों से शत्रुधों पर फेंकते हैं, वायु-गोला ( रोग ), जङ्गली कबूतर, नारियल की गिरी का गोल पिंड, अनाज या किराने की बड़ी दुकानों वाली मंडी या बाज़ार, लकड़ी का लम्बा लट्ठा जो छाजन में लगाने आदि के काम में श्राता For Private and Personal Use Only Page #616 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कान। गोलाई गोसाई है, काँड़ी, बल्ला, रस्सी, सूत आदि की गोल गोवशा-संज्ञा, स्त्री. (सं०) बंध्या या पिंडी, पिंडा । स्त्री० अल्प० गोली। बहिला गाय । गोलाई-संज्ञा, स्त्री. ( हि० गोल+ आई। गोविंद-संज्ञा, पु० (सं.) श्रीकृष्ण, वेदान्त प्रत्य० ) गोल का भाव, गोलापन। वेत्ता, तत्वविद् । गोलाकार-गोलाकृति-वि० यौ० (सं०) गोश-संज्ञा, पु० (फ़ा० ) सुनने की इंद्रिय, जिसका आकार गोल हो, गोल शक्ल वाला। | गोलाध्याय --संज्ञा, पु० यौ० (सं०) ज्योतिष गोश-गुज़ार-संज्ञा, पु० यौ० ( फा० ) विद्या, ज्योतिष का एक ग्रंथ ।। सुनाना, कहना का कर्ता । गोलार्द्ध-संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) गोले गोशमाली--संज्ञा, स्त्री. (फा० ) कान का आधा भाग, पृथ्वी का प्रार्ध भाग जो उमेठना, ताड़ना, कड़ी चेतावनी देना। ध्रुवों के बीचों बीच से काटने पर बने । गोशवारा .. संज्ञा, पु० (फा० ) खंजन नामक गोली-संज्ञा, स्त्री० (हि० गोला का अल्पा०) पेड़ का गोंद, कान का बाला, कुण्डल, छोटा गोलाकार पिंड, बटिका, बटिया, सीप का अकेला बड़ा मोती, कलाबत्तू औषधि की बटिका, बटी, खलने की मिट्टी, से बना हुआ पगड़ी का अंचल, तुर्रा, काँच आदि का छोटा गोला, गोली का कलगी, सिरपंच, मीज़ान, जोड़, वह संक्षिप्त खेल, सीसे आदि का ढला हुआ छोटा । लेख जिसमें हर एक मद का अाय व्यय गोल पिण्ड जो बन्दूक में भर कर चलाया | पृथक् पृथक् लिखा गया हो (पटवारी० )। जाता है, छर्रा । वि० स्त्री० गोलाकार। गोशा--संज्ञा, पु० (फा० ) कोना, अन्तराल, गोलोक-संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) सब लोकों __एकान्त स्थान, तरफ़, दिशा, भोर, कमान से ऊपर, श्रीकृष्ण जी का निवास स्थान । की दोनों नोकें, धनुष्कोटि । “ पीतम चले मुहा०—गालोक वासी होना.... मर कमान, मोंकहँ गोशा सौंपिक --स्फु० । जाना। वि० गोलीक वासी-स्वर्गीय, गोशाला संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) गायों मृत, मरा हुआ। के रहने का स्थान, गोष्ट, गो-स्थान । गोलोमा-संज्ञा, स्त्री. ( सं० ) औषधि गोश्त-संज्ञा, पु. (फ़ा० ) मांस । यौ० विशेष, बच। गोश्तखोर-मांस-भक्षक ! गोवध-संज्ञा, पु० यो० (सं० ) गोहत्या, गौ का वध । संज्ञा, पु० गोवधिक। | गोष्ट-संज्ञा, पु० (सं०) गोशाला, परामर्श, गोवना-स० क्रि० ( दे० ७.) छिपाना, सलाह, दल, मंडली। लुकाना, ढाँकना, गाना (व.)। गोष्टी--संज्ञा, स्त्री० (सं० ) बहुत से लोगों गोवर्द्धन-संज्ञा, पु० (सं०) वृन्दावन का का समूह, सभा, मंडली, समाज, वार्तालाप, एक पवित्र पर्वत जिसे श्री कृष्ण जी ने व्रज बातचीत, एक अङ्क का एक रूपक-भेद रक्षार्थ अँगुली पर उठाया था। ( नाट्य० )। गोवर्द्धनधारी-संज्ञा, पु. (सं.) श्री. गोसमावल- संज्ञा, पु० (दे०) गोशवारा । कृष्ण जी, गिरिधारी। गोसाई-संज्ञा, पु० दे० (सं० गोस्वामी ) गोवर्द्धनाचार्य-संज्ञा, पु. ( सं० ) श्री गायों का स्वामी या अधिकारी, ईश्वर, नीलाम्बरात्मज संस्कृति के एक कवि जो संन्यासियों का एक संप्रदाय, विरक्त, साधु, शृंगार रस की कविता में सिद्ध-हस्त थे अतीत, प्रभु, गोसैयां (ग्रा.)। " धर्म ( १२ वीं शताब्दी)। हेतु अवतरेहु गोसाँई "-रामा० । For Private and Personal Use Only Page #617 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org गोस्तन ६०६ गौण गोस्तन - संज्ञा, पु० ० ( सं० ) गाय का । सुयोग, मौका, घात। यौ० गौघात - उपयुक्त अवस्था या स्थिति, प्रयोजन मतलब. गरज़, अर्थ । वि० गाती। मुहा० - गौं का यार-मतलबी, स्वार्थी । निकालना -- काम निकालना, स्वार्थ साधन होना। गौ पड़ना - गरज़ होना, काम टकना | गवं (दे० ढक, तर्ज़, ढब, पार्व. पन | गौ-संज्ञा, स्त्री० (सं० ) गाय, गायी, शैवा ( ० ) गऊ । hraj - संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० गवाक्ष, छोटी खिड़की, झरोखा, दालान या बरामदा | गोरखा (ग्रा० ) याला ताक । गोहिंसा । गोहन —– संज्ञा, पु० दे० (सं० गोधन ) | गौखा - संज्ञा, पु० (दे० ) गौख | संज्ञा, पु० सङ्ग रहने वाला, साथी सङ्गी, साथ । दे० ( हि० गौ गाय + खाल ) गाय गोहरा - संज्ञा, पु० ( सं० गो + ईल्ला या का चमड़ा । गोहल्ला ) ( स्त्री० अल्पा॰ गोहरी ) सुखाया हुआ गोबर, कंडा, उपला । मोहराना - अ० क्रि० दे० ( हि० गोहार ) गौग़ा -- संज्ञा, पु० ( अं० ) शोर, गुल, हल्ला अफ़वाह, जनश्रुति, किम्बदन्ती । गौचरी - संज्ञा, स्त्री० दे० ( हि० गौ + पुकारना, बुलाना, आवाज़ देना, चिल्लाना । गोहार – संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० गो + हार थन, गुच्छा, स्तवक । गोस्तनी - संज्ञा, पु० (सं० ) दाता दाख अंगूर | गोस्वामी - संज्ञा, पु० ० (सं०) इन्द्रियों को वश में करने वाला, जिनेन्द्रिय, वैष्णव सम्प्रदाय में चाचायों के वंशधर या उनकी के धिकारी | गोह-- संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० गोधा ) छिप कली की जाति का एक जंगली जंतु । विषखपरा (दे० ) | गोहत्या - संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं० ) गोवध, ( हरण ) गुहार (दे० ) पुकार, दुहाई, रक्षा या सहायता के लिए चिल्लाना, हल्ला - गुल्ला, शोर । " कौन जन कातर गोहार afra के काज गोहारी - संज्ञा, स्त्री० ( दे० ) गोहार | मुहा० - गोहारी । गोहार ) लगना -- ..... रत्ना० । सहायता या रक्षा करना । गोही - संज्ञा, स्त्री० (सं० गोपन ) दुराव, छिपाव, गुठली, गाँठ, गुप्त बात | गोय (20)1 गोहुवन - संज्ञा, पु० ( दे० ) लाल रंग का साँप P गोहूँ - संज्ञा, पु० दे० (सं० गोधूम ) गेहूँ, गोधूम | गोहेरा -- संज्ञा, पु० (दे० ) एक विषैला जतु । गौ-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० गम प्रा० गाँ) प्रयोजन सिद्ध होने का स्थान या अवसर, Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चरना) गाय चरने का कर या महसूल । गौछाई - संज्ञा, स्त्री० (दे० ) अंकुर, कैरी, फुनगी । गौड़ - संज्ञा, पु० (सं० ) वंग देश का एक प्राचीन विभाग, ब्राह्मणों का वर्ग जिसमें सारस्वत, कान्यकुब्ज, उत्कल, मैथिल, गौड़ सम्मिलित हैं, ब्राह्मणों की एक जाति, गौड़ देश का निवासी, कायस्थों का एक भेद, संपूर्ण जाति का एक भाग । यौ० गौड़ेश्वर - चैतन्य स्वामी, गौरांग प्रभु, कृष्ण । गौडा - संज्ञा, पु० (दे० ) उड़ीसा, कहार | गौड़िया - वि० (सं०गौड़ + इया (पत्य ० ) गौड़ देश का, गौड़देश सम्बन्धी, प्रभुचैतन्य के मतानुयायी, गोड़ाय । गौड़ी - संज्ञा, स्त्री० (सं० ) गुड़ से बनी मदिरा, राग विशेष काव्यरीति विशेष, का० शा० ) । गौण - वि० (सं० ) जो प्रधान या मुख्य For Private and Personal Use Only Page #618 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गौणी गोशाला न हो, साधारण, अप्रधान, सहायक, गोरता-संज्ञा, स्त्री० (सं०) गोराई, गोरापन, सहचारी, गौणी वृत्ति से बोधित अर्थ । सफ़ेदी गौणी-वि० (सं० ) अप्रधान, साधारण, गौरव संज्ञा, पु० सं०) बड़प्पन, महत्व, जो मुख्य न मानी जाय । संझा, स्त्री० (सं०) । बड़ाई, गुरुता, भारीपन, सम्मान, श्रादर, एक लक्षणा जिसमें किसी एक वस्तु का उत्कर्ष, अभ्युत्थान, इउज़त । संज्ञा, स्त्री० गुण दूसरी पर आरोपित किया जाता है। गौरवता ( दे०) “गौरवता जग में गौतम-संज्ञा, पु. ( सं० ) गोतम ऋषि लहैं-७०। । के वंशज ऋषि, बुद्धदेव, सप्तर्षि-मंडल के गौरांग संज्ञ', पु० यौ० (सं० ) श्वेतवर्ण, तारों में से एक तारा। गोरे रंग वाला, पीतवर्ण, यूरोपियन, गौतमी -- संज्ञा, स्त्री. (सं०) गौतम ऋषि की विष्णु, श्रीकृष्ण, चैतन्य महाप्रभु। स्त्री, अहिल्या, कृपाचार्य की स्त्री, गोदावरी गौरा -- संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० गौर ) गोरे नदी, दुर्गा, शकुन्तला की सेहली। यौ० रंग की स्त्री, पार्वती, गिरिजा, हल्दी। गौतमनारी- गौतमनारी सापवस " गौरिका - संक्षा, स्त्री. (सं० ) पार्वती, --रामा० । आठ वर्ष की कन्या। गौदुमा-वि० (दे०) गावदुम । गारिया-- संज्ञा, स्त्री० दे० (१) काले रंग गौनां- संज्ञा, पु० (दे०) गमन “गौन रौन का एक जल पक्षी, मिट्टी का बना हुआ एक रेती सौं कदापि करते नहीं 'ऊ० श०। प्रकार का छोटा हुक्का । गौनहाईवि० स्त्री० दे० (हि. गौना -। हाई गोरिला--संज्ञा, स्त्रो० (सं०) पृथ्वी, धरणी, (प्रत्य० ) ) जिस स्त्री का गौना हाल में गोरिल्ला । संज्ञा, पु० ( अफ्री० ) एक प्रकार हुआ हो । “आई गौनहाई वधू सासु के | का वन मानुन या बनैला।। लगति पाय"। गौरी-संज्ञा, स्त्री० (२०) गोरे रंग की गौनहार--संज्ञा, स्त्री० दे०) ( हि० गान-- | स्त्री, पार्वती, गिरिजा, आठ वर्ष की कन्या, हार---प्रत्य० ) वह स्त्री जी दुलहिन के | “ अष्टवर्षाभवेद्गौरी" - हल्दी, तुलसी, साथ उसकी ससुराल जाय ।। गोरोचन. सर्फ़द रंग की गाय, सफ़ेद दूब, गौनहारिन-गौनहारी--संज्ञा, स्त्री० दे० पृथ्वी, गंगानदी । गौरि --- " बहुरि गौरि (हि. गावन --- हार -- प्रत्य०) गाने के पेशे | कर ध्यान करेहू"-- रामा० । वाली स्त्री, गाने वाली, गावनिहार ( ब्र०)। गौरीशंकर--संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) गौना-संज्ञा, पु० दे० (सं० गमन ) विवाह । महादेव जी, शिव, पार्वती, हिमालय पर्वत के पीछे की रस्म जिसमें वर वधू को अपने | की सब से ऊँची चोटी। घर ले जाता है, द्विरागमन, मुकलावा गौरीश-गौरोस-संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) (प्रान्ती०)। महादेव, शिव । गौर-वि० ( सं० ) गोरे चमड़े वाला, गोरा, श्वेत, उज्वल, सफ़ेद । " स्याम गौर किमि गरिया- संज्ञा, स्त्री० ( दे० ) गौरिया चिड़िया। कहौं बखानी"-रामा० । संज्ञा, पु० (सं०) लालरंग, पीला रंग, चन्द्रमा, साना, गालिमक-संज्ञा, पु० (सं० ) एक गुल्म या केसर । संज्ञा, पु० (दे०) गौड़। ३० सिपाहियों का नायक या स्वामी । गौर-संज्ञा, पु. (अ.) सोच-विचार, गौशाला- संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं० गोशाला) चिंतन, ध्यान, ख़्याल । गायों के रहने का स्थान । For Private and Personal Use Only Page #619 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गौहर ६०८ ग्रहदशा गौहर --- संज्ञा, पु० (फा०) मोती । " कद्र ग्रसना-स० क्रि० दे० ( सं० ग्रसन ) बुरी गौहर शाहदानद"। तरह पकड़ना, सताना। असित-वि० ग्यान--संज्ञा, पु० (दे०) ज्ञान । असनीय ग्रस्त । ग्यारस-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. ग्यारह ) ग्रस्त-वि० (सं०) पकड़ा हुआ, पीड़ित, एकादशी तिथि। खाया हुश्रा। ग्यारह-वि० दे० (सं० एकादश प्रा० एगारस) प्रस्ताग्रस्त-संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) ग्रहण दश और एक । संज्ञा, पु० (दे०) दश और लगने पर चन्द्रमा या सूर्य का बिना मोक्ष एक की सूचक संख्या, ११। हुये अस्त होना। ग्रंथ-संज्ञा, पु० (सं०) पुस्तक, किताब, प्रस्तोदय-संज्ञा, पु० यौ० (सं.) चन्द्रमा गाँठ देना या लगाना, ग्रंथन, धन । यौ० या सूर्य का ग्रहण लगने पर उदय होना। ग्रंथ साहब-सिक्खों का धर्म ग्रंथ । ग्रंथक-संज्ञा, पु० (सं.) ग्रंथ रचने वाला। ग्रह-संज्ञा, पु. ( सं० ) वे तारे जिनकी गति, उदय और अस्तकाल आदि का पता ग्रंथकर्ता-ग्रंथकार-संज्ञा, पु० (सं० ) ग्रंथ प्राचीन ज्योतिषियों ने लगा लिया था, वह रचने वाला। तारा जो अपने सौर जगत में सूर्य की ग्रंथचुंबक-संज्ञा, पु० यौ० ( सं० ग्रंथ+ परिक्रमा करे, जैसे पृथ्वी, मंगल, शुक्र आदि, चुंबक = चूमने वाला ) पुस्तकों या ग्रंथों नौ की संख्या, ग्रहण करना, लेना, अनुग्रह, का केवल पाठ करने वाला, अल्पज्ञ। कृपा, चन्द्रमा या सूर्य का ग्रहण, राहु, ग्रंथन-संज्ञा, पु. ( सं० ) गोंद लगाकर जोड़ना, जोड़ना, गूथना, गुंफन (सं.)। स्कन्द, शकुनी आदि, छोटे बच्चों के रोग । वि० ग्रंथनीय, ग्रंथित--- गूंथा हुश्रा, गाँठ मुहा०-अच्छे ग्रह होना-अच्छा समय होना, शुभ या अनुकूल ग्रह होना (फ० दिया हुआ, गुंफित (सं० )। ज्यो०)। बुरे ग्रह होना-ग्रहों का ग्रंथसंधि-संज्ञा स्त्री. यौ० (सं० ) ग्रंथ प्रतिकूल होना ( फ० ज्यो०), बुरे दिन का विभाग, जैसे--सर्ग, अध्याय । होना । वि० बुरी तरह से पकड़ने या तंग ग्रंथि- संज्ञा, स्त्री. (सं०) गाँठ, बन्धन, करने वाला, दिक करने वाला। माया-जाल, एक रोग जिसमें गोल गाँठों की भाँति सूजन हो जाती है । ग्रंथिल ग्रहण-संज्ञा, पु० (सं० ) सूर्य, चन्द्रमा या गाँठदार, गँठीला। किसी दूसरे श्राकाशचारी पिंड की ज्योति का ग्रंथिपर्णी-संज्ञा, स्त्री. (सं०) गाँडर, दृव । आवरण जो ष्टि और उस पिंड के बीच में ग्रंथिवंधन-संज्ञा, पु. या० ( सं० ) विवाह किसी दूसरे श्राकाशचारी पिंड के श्राजाने के समय वर-कन्या के कपड़ों के कोनों को या छाया पड़ने से होता है ( लगना) परस्पर गाँठ लगा कर बाँधने की क्रिया। उपराग, पकड़ने या लेने की क्रिया, स्वीकार, गठ-बाँधन-गैंठ जोड़ा। मंजूर, अंगीकार । ग्रंथिमान - संज्ञा, पु० (सं० ) हरसिंगार, ग्रहणी-संज्ञा, स्त्री० ( सं० ) अतिसार रोग हड़जोड़, यव, टूटी हुई हड्डी जोड़ने वाली संग्रहणी (सं.)। औषधि । ग्रहणीय-वि० (सं.) ग्रहण करने के ग्रसन-संज्ञा, पु० (सं०) भक्षण, निगलना, योग्य । ग्राह्य (सं० )। पकड़, गहन (व.) बुरी तरह से पकड़ना, ग्रहदशा-संज्ञा, स्त्री०, यौ० (सं०) गोचर ग्रास, ग्रहण । वि० ग्रसित, ग्रस्त । । ग्रहों की स्थिति, ग्रहों की स्थिति के अनुसार For Private and Personal Use Only Page #620 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ग्रहपति ६०१ ग्लान किसी मनुष्य की अच्छी या बुरी अवस्था, | दोष, अश्लील शब्द या वाक्य, जैसे-मैथुन, अभाग्य, कमबख़्ती। स्त्री प्रसंग आदि के सूचक । ग्रहपति-संज्ञा० पु० यौ० (सं० ) सूर्य, | ग्राम्यधर्म--संज्ञा पु० यौ० (सं० ) मैथुन, शनि, आकाश का पेड़। स्त्री प्रसंग। ग्रहवेध-संज्ञा०, पु० यौ० (सं० ) ग्रह की | ग्राव--संज्ञा पु० (सं०) पत्थर, पर्वत, श्रोला। स्थिति आदि का जानना। ग्रास-संज्ञा पु० (सं०) एक बार मुँह में डालने ग्रहस्थापन--संज्ञा, पु० यौ० (सं०) नवग्रहों योग्य भोजन, कौर, निवाला, गस्सा (दे०) की स्थापना, एक पूजा विशेष । पकड़ने की क्रिया, पकड़, ग्रहण लगना । ग्रहीत-वि० (सं०) गृहीत, पकड़ा हुआ। " मधुर ग्रास लै तात निहोरे' व्र० वि०। " ग्रह ग्रहीत पुनि बात-बस"-रामा। ग्रासक-वि० (सं० ) पकड़ने या निगलने ग्रहीता-वि० (सं०) ग्रहण-कर्ता, ग्राहक, | वाला, छिपाने वा दबाने वाला। पकड़ा हुआ । स्त्री० ग्रहण की हुई। ग्रासना-स० कि० (दे०) ग्रसना, भक्षण ग्रांडील-वि० (अं० ग्रेडियर ) लम्बे और | _करना। ऊँचे कद का, बहुत बड़ा या ऊँचा। ग्राह -- संज्ञा पु० (सं० ) मगर, घड़ियाल, ग्राम-संज्ञा, पु. (सं० ) छोटी बस्ती, गाँव। ग्रहण, उपराग, पकड़ना, लेना। गाम ( दे० ) मनुष्यों के रहने का स्थान, | ग्राहक-संज्ञा पु० (सं० ) ग्रहण करने या बस्ती, श्राबादी, जनपद, समूह, ढेर, शिव, मोल लेने वाला, ख़रीदार, लेने या पीने की क्रम से सात स्वरों का समूह, स्वर-सप्तक इच्छा वाला, चाहने वाला, बँधा दस्त (संगी०) स, र, ग, म, प, ध, नी, आदि । लाने की औषधि, गाहक (दे०)। " गिरिग्राम लै लै हरिग्राम मारै ।” नाही-संज्ञा पु. ( सं० ) ( स्त्री० ग्राहिणी) " स्फुटी भवद् ग्राम विशेष मुर्छनाम् " | ग्रहण या स्वीकार करने वाला, मलावरोधक -माघ। पदार्थ । ग्रामणी-संज्ञा, पु० (सं.) गाँव का स्वामी, ग्राह्य–वि० (सं० ) लेने या स्वीकार करने मुखिया (दे० ) प्रधान, अगुवा। योग्य, जानने योग्य । ग्रीखम-संज्ञा स्त्री० (दे० ) ग्रीषम, ग्रीष्म ग्रामदेवता-संज्ञा, पु० यौ० ( सं० ) किसी (सं० )..." भीषम सदैव रितु ग्रीखम बनी एक गाँव में पूजा जाने वाला देवता, गाँव रहै"- रत्ना० का रक्षक, देवता, डीहराज, ग्राम-देव । ग्रीवा-संज्ञा स्त्री० (सं० ) गर्दन, गला । ग्रामिक-वि० (सं० ) ग्राम का, देहाती, | __ "उर मनि-माल कंबु कल ग्रीवा'-- रामा०। गँवइँया। ग्रीष्म- संज्ञा स्त्री० ( सं० ) गरमी की ऋतु, प्रामीण-वि० (सं०) देहाती, गवार, मूर्ख । जेठ असाढ़ का समय, उष्ण, गरम । ग्रामेश-संज्ञा पु. यौ० (सं० ग्राम + ईश) वेय-संज्ञा पु. (सं० ) कंठभूषण, कंठा, गाँव का मालिक, ज़मीदार, ग्रामपति । हँसुली आदि। ग्राम्य-वि० (सं० ) गाँव से सम्बन्ध रखने ग्लपित-वि० (सं.) श्रवसन्न,थकित, श्रान्त । वाला, ग्रामीण, मूर्ख, बेवकूफ़, प्राकृत, ग्लह- संज्ञा पु० (सं०) जुए की बाजी पण, असली । "अहा ग्राम्य जीवन भी क्या है" | दाँव । मै० श० । संज्ञा पु० (सं० ) काव्य में भद्दे | ग्लान-वि० (सं० ) रोगद्वारा दुर्बल शरीर, या गँवारू ( ग्रामीण ) शब्दों के आने का रोगी, खिन्न, कमजोर, उद्विग्न, लज्जित । भा० श० को०-७७ For Private and Personal Use Only Page #621 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ग्लानि ग्लानि-संज्ञा स्त्री० (सं० ) शारीरिक या | फली ) ग्वार की फली जिसकी तरकारी मानसिक शिथिलता, अनुत्साह, खेद, बनती है। लज्जा, अपनी दशा, कार्य की बुराई या ग्वारी-संज्ञा स्त्री० ( दे० ) ग्वार । दोषादि से उत्पन्न अनुत्साह, अरुच्चि और ग्वाल-संज्ञा पु० (सं० गोपाल, फा० गोवाल ) खिन्नता। | अहीर, एक छन्द, ग्वाला, (दे०)। ग्वार-संज्ञा स्त्री० दे० (सं० गोराणी ) एक | ग्वालिन-संज्ञा स्त्री. (हिं० ग्वाल ) ग्वाले पौधा जिसकी फलियों की तरकारी और | की स्त्री, ग्वारिन, गुवारिन ( ७० दे०) बीजों की दाल होती है। घीकुवार, कौरी, (सं० गोपालिका ) एक बरसाती कीड़ा, खुरप्पी। गिजाई, घिनौरी। ग्वारनट-ग्वारनेट-संज्ञा स्त्री० दे० (प्रा० बैठना 8 स० कि० दे० (सं० गुंठन हि० गारनेट ) एक प्रकार का रेशमी कपड़ा। गुमेठना ) गोंठना, मरोड़ना ऐंठना, घुमाना, गिरंट ( दे०)। __ उमैठना (दे०) ग्वार-पाठा-संज्ञा पु० यौ० (सं० कुमारी बैंडा -संज्ञा पु० (दे०) गोइँड़ गाँव के +पाठा ) घीकुवार । चतुर्दिक निकटवर्ती स्थान । ग्वारफली-संज्ञा स्त्री० दे० (हि० ग्वार+ ] ग्लो-संज्ञा पु० (सं०) चन्द्रमा, विष्णु, कपूर। घ-हिन्दी और संस्कृत की वर्णमाला के रात का चौबीसवाँ भाग, साठ मिनट का व्यञ्जनों में से कवर्ग का चौथा वर्ण जिसका समय । उच्चारण जिह्वामूल या कंठ से होता है। घंटाघर-संज्ञा पु. यो० (हि. घंटा+घर ) घुघरा (घुघरी ) संज्ञा पु. (स्त्री० अल्प०) वह ऊँचा धौरहरा जिस पर एक ऐसी बड़ी (दे० ) बड़ा लँहगा। स्री० घुघरिया, धर्मघड़ी लगी हो जो चारों ओर से दूर घाँघरा, घाँघरो (व.) “ घेर को घाँघरो तक दिखलाई देती हो और जिसका घंटा चूँ टनि लौं"-द्विजः। घौधरी ( स्त्री० दूर तक सुनाई देता हो। अल्प० )। | घंटिका-संज्ञा स्त्री० (सं०) एक बहुत छोटा घुघोलना- घोरना-स० कि० दे० (हि० घंटा, धुंधुरू । यौ० तुद्र घंटिकाघन+घोलना ) हिलाकर घोलना, पानी को किंकिणी, तगड़ी ( दे.)। हिला कर उसमें कुछ मिलाना या मैला घंटी-- संज्ञा, स्त्री० दे० ( सं० घटिका ) करना। पीतल या फूल की छोटी लोटिया । संहा, घंट-संज्ञा पु० (सं० घट ) ( स्त्री. अल्पा० स्त्री. ( सं० घंटा ) बहुत छोटा घंटा । घटी ) घड़ा, मृतक की क्रिया में वह जल- घंटी बजाने का शब्द, घुघुरु, चौरासी पात्र जो पीपल में बाँधा जाता है । "लटकट ( प्रान्ती० ) गले की निकली हुई हड्डी, जामै घंट घने"-रत्ना० । संज्ञा पु० (दे०,घंटा। गुरिया, गले में जीभ की जड़ के पास लटकती घंटा-संज्ञा पु० (सं० ) ( स्त्री० अल्पा० हुई मांस की छोटी पिंडी, कौश्रा (प्रान्ती०)। घंटी) धातु का एक बाजा, घड़ियाल जो घई-संज्ञा स्त्री० दे० ( सं० ) गंभीर भँवर, समय सूचनार्थ बजाया जाता है, दिन, पानी का चक्कर, थूनी, टेक, चूल्हे में रोटी For Private and Personal Use Only Page #622 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir घिघरावेल घटाटोप सेकने का स्थान । वि० दे० (सं० गंभीर ) घटनाई-घटनई-संज्ञा स्त्री० दे० (सं० घटनौका) अथाह, बहुत गहरा । | घड़ों की नाव, घड़नई, घनई (ग्रा.)। घघरावे त-संज्ञा स्त्री० (दे० ) बंदाल । घटनीय-वि० पु. ( सं० ) योजनीय, घवाघच --दे० कि० वि० (वा.) खचाखच, सम्भाव्य. घटने या होने योग्य । ठसाठस, अत्यन्त संकीर्णता लबालब भरा। घरन्त-संज्ञा स्त्री० (दे०) ह्रास, हीनता, घर-संज्ञा पु० (सं० ) घड़ा, जलपात्र, उतार, अल्पता, न्यूनता कमी। कलसा, पिंडा, शरीर । "जो लौं घट में प्रान घटव-अ० क्रि० ( दे०) कम या न्यून आन करि टेक निबैहैं' -रत्ना० । मुहार- होना। घट में बसना या बैठना=मन में बसना, घटबढ़-संज्ञा स्त्री० यौ० (हि. घटना+ ध्यान पर चढ़ा रहना । यौ०-घटघटवासी बढ़ना ) कमीवेशी, न्यूनाधिकता। ईश्वर । वि० (हि. घटना) घटा हुआ, कम, | घटयोनि-संज्ञा पु० यौ० (सं०) अगस्त्य हीन । “ को न करै घटकाम"-गिर। मुनि, “वालमीक नारद घटयोनी"-रामा० । घटक-संज्ञा पु० (सं०) बीच में रहने वाला, | घटवई-घटवाई-संज्ञा पु० दे० (हि० घाट+ मध्यस्थ, विवाह तय कराने वाला । वाई ) घाट का कर लेने वाला। बरेखिया, दलाल, बिचवानी (दे० ) काम | घटवाना - स० कि० दे० (हि० घटाना का पूरा करने वाला, चतुर व्यक्ति, भाट, कुल प्रे० ) घटाने का काम कराना, कम कराना । परम्परा बतलाने वाला, चारण। घटवार-घटवारिया - घटवालिया-संज्ञा, घटकर्ण - संज्ञा पु० यौ० (सं०) कुम्भकर्ण । पु० दे० (हि. घाट- पाल या वाला) घाट का घटकपर-- संज्ञा पु० (सं०) विक्रमादित्य की महसूल लेने वाला, मल्लाह, केवट, घाट पर सभा के एक पंडित जिन्होंने 'यमक प्रधान' बैठने और दान लेने वाला ब्राह्मण,घाटिया। नामक काव्य रचा है। | घट-संभव-संज्ञा पु० (सं०) अगस्त्य मुनि । घटका-संज्ञा पु० दे० (सं० घटक = शरीर ) घटस्थापन--संज्ञा पु० यौ० (सं० ) किसी कंठावरोध, मरने के पूर्व साँस के रुक रुक कर मंगल कार्य या पूजन आदि से पूर्व जलपूर्ण घरघराहट के साथ निकलने की दशा, गले घड़ा, पूजन के स्थान पर रखना, नवरात्रि की का रुकने की अवस्था, घर्रा (प्रान्ती०)। का प्रथम दिवस (इस दिन से देवी की पूजा घटती --- संज्ञा, स्त्री. ( हि० घटना) कमी, आरम्भ होती है। कलश-स्थापन । कसर, घटी - न्यूनता, हीनता, अवनति, घटहा—संज्ञा पु० (दे०) घाट का ठेका लेने अप्रतिष्ठा। वाला, नदी उतरने वाले, नाव, अपराधी, घटन--संज्ञा पु० (सं०) (वि. घटनीय दोषी। घटित) गढ़ा जाना, उपस्थित होना। घटा-संज्ञा स्त्री० ( सं० ) बादलों का धना घटना-अ० क्रि० (सं० घटन ) उपस्थित समूह, उमड़े हुए बादल, मेघ-माला, कम । या वान होना, होना, लगना, सटीक घटाई*- संज्ञा स्त्री० (हि० घटना+इ-प्रत्य०) बैठना, ठीक उतरना, चरितार्थ होना। हीनता, अप्रतिष्ठा, बेइज्जती। अ० कि० दे० ( हि• कटना ) कम या क्षीण घटाकाश-संज्ञा पु० यौ० (सं० : घड़े के होना, काफ़ी न रह जाना, न्यून होना। भीतर की खाली जगह ! संज्ञा स्त्री० (सं० ) कोई बात जो हो जाय, घटाटोप-- संज्ञा पु० यो० (सं० ) बादलों वाकया, वारदात । । की घटा जो चारों ओर से घेरे हो, गाड़ी For Private and Personal Use Only Page #623 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ६१२ घटित - वि० (सं० ) बनाया, रचा हुआ, रचित, निर्मित, होनेवाला । घटाना या बहली को ढकने वाला थोहार, पर्दा, जवनिका । घटाना - स० क्रि० (हि० घटना) कम करना, क्षीण या न्यून करना, बाक़ी निकालना, काटना, श्रप्रतिष्ठा करना, घटावना ( ग्रा० ) । घटाव - संज्ञा पु० ( हि० घटना ) कम होने का भाव, न्यूनता, कमी, अवनति, घड़घड़ाना - अ० क्रि० दे० ( अनु० ) गड़ तालाब का घाट । तनज्जुली, नदी की बाढ़ की कमी । घटिक - संज्ञा पु० (सं० ) घंटा पूरा होने पर घंटा बजाने वाला, घड़ियाली | घटिका - संज्ञा स्त्री० (सं० ) छोटा घड़ा या नाँद. घड़ी यंत्र, घड़ी, एक घड़ी या २४ मिनट का समय । यौ० घटिका शतकएक घड़ी में १०० छंदों की रचना करने वाला कवि । घटिया - वि० दे० (हि० घट + इया प्रत्य० जो अच्छे मेल का न हो, ख़राब, सस्ता, अधम, तुच्छ, ( विलोम - बढ़िया ) घटिहा ( ग्रा० ) नीच, बुरा। घड़ी कर ) जीतने का वरदान पाया था, एक राक्षस । घट्टा -- संज्ञा, पु० दे० (सं० घट्ट ) शरीर पर वह उभड़ा हुआ कड़ा चिन्ह जो किसी वस्तु की रगड़ लगते लगते पड़ जाता है, नदी या - घटिहा - वि० दे० (हि० घात + हा प्रत्य० ) घात पाकर स्वार्थ साधने वाला, चालाक, मक्कार, धोखेबाज, बेईमान, व्यभिचारी, लम्पट, दुष्ट | संज्ञा, स्त्री० घटिहई (दे० ) । घटी -संज्ञा, स्त्री० (सं० ) २४ मिनट का समय, घड़ी, मुहूर्त्त, समय-सूचक यंत्र । संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० घटना) कमी, न्यूनता, हानि, क्षति, नुकसान, घाटा । घटूका - संज्ञा, पु० (दे० ) घटोत्कच (सं० ) भीमसुत घटोत्कच -संज्ञा, पु० (सं०) हिडिंबा राक्षसी से उत्पन्न भीमसेन का पुत्र । घटोत्कर्ण - संज्ञा, पु० (सं० ) शिव जी का अनुचर जो शाप -वश उज्जैन में मनुष्य हुआ था और जिसने तपस्या करके विक्रमादिव्य के सब रत्नों के ( कालिदास को छोड़ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गड़ या घड़घड़ शब्द करना, गड़गड़ाना । घड़घड़ाहट - संज्ञा स्त्री० दे० (अनु० घड़घड़) घड़घड़ शब्द होने का भाव । घड़ना -- स० कि० (दे० ) गड़ना । घड़नई - घड़नैल – संज्ञा, स्त्री० यौ० दे० (हि० घड़ा + नैया नाव ) छोटी नदियों के पार करने को बाँसों में घड़े बाँध कर बनाया हुआ ढाँचा, घन्नई, घन्नाई, घटनई, घटना (दे०) घटनौका (सं० ) । घड़ा - संज्ञा, पु० दे० (सं० घट ) पानी भरने का मिट्टी का बरतन, जलपात्र, कलसा, नगरा। मुहा०--घड़ों पानी पड़जाना ति लज्जित होना, लज्जा के भार से गड़ जाना । घड़ाना - स०क्रि० (दे० ) गढ़ाना । घड़िया - संज्ञा स्त्री० दे० (सं० घटिका ) सोना, चाँदी गलाने का मिट्टी का बरतन, मिट्टी का छोटा प्याला, घरिया (दे० ) । घड़ियाल - संज्ञा, पु० दे० ( सं० घटिकालि घंटों का समूह ) पुजा में या समय बतलाने को बजाया जाने वाला घंटा । संज्ञा, पु० दे० ( हि० घड़ा --- भाल - वाला ) एक बड़ा हिंसक जल-जन्तु, ग्राह, घरियार (दे० ) । घड़ियाली -- संज्ञा, पु० दे० ( हि० घड़ियाल ) घंटा बजाने वाला | घड़ी - संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० घटी ) ६० पल या २४ मिनट का समय, घरी (ग्रा० ) | " पाये घरी ट्रैक मैं जगाइ लाइ ऊधौ तीर" - ऊ० श० । मुहा० - घड़ी घड़ीबार बार थोड़ी थोड़ी देर पर, घरी घरी For Private and Personal Use Only Page #624 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ६१३ घड़ीदया CC ( ग्रा० ) । श्रावत-जात बिलोकि घरी घरी " - ठा० । घड़ी गिनना- किसी बात का बड़ी उत्सुकता से आसरा देखना | मरने के निकट होना । समय, अवसर, उपयुक्त काल, समय-सूचक यंत्र | घड़ोदिया – संज्ञा, पु० यौ० ( हि० घड़ी + दिया --- दीपक ) वह घड़ा और दिया जो घर में किसी के मरने पर रखा जाता है । घड़ीसाज - संज्ञा, पु० यौ० ( हि० घड़ी ना० साज़ ) घड़ी की मरम्मत करने वाला | संज्ञा, स्त्री० घड़ीसाज़ी । घड़ौची - संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० घट-मंच ) पानी से भरे घड़ों के रखने की तिपाई, धनौची ( ग्रा० ) । घतिया - संज्ञा, पु० दे० ( हि० घात + इया | - प्रत्य० ) घात करने या धोखा देने वाला । घतियाना- -स० क्रि० दे० ( हि० घात ) अपनी घात या दाँव में लाना, मतलब पर चढ़ाना, चुराना, छिपाना, घात लगाना । घन -संज्ञा, पु० (सं० ) मेघ, बादल, लोहारों का बड़ा हथौड़ा, समूह, झुण्ड, कपूर, घंटा, घड़ियाल, वह गुणन - फल जो किसी श्रंक को उसी श्रक से दो बार गुणा करने से मिलता है, लम्बाई, चौड़ाई और मोटाई ( उंचाई या गहराई ) तीनों का विस्तार, ताल देने का बाजा, पिंड, शरीर । वि० (दे० ) घना, गन, गठा हुआ, ठोस, दृढ़ मजबूत, बहुत अधिक, ज्यादा, घना ( ब्र० ) । धन- गरज --- संज्ञा, स्त्री० यौ० ( हि० घन + गर्जन ) बादलों के गरजने का शब्द, एक प्रकार की खुमी जो खाई जाती है, ढिंगरी ( प्रान्ती०) एक प्रकार की तोप, घननाद । घनघनाना - ० कि० दे० (अनु० ) घंटे का सा शब्द होना, घनघन शब्द करना । घनघनाहट - संज्ञा, स्त्री० ( अनु० ) घनघन शब्द होने का भाव या ध्वनि । घनघोर - संज्ञा, पु० यौ० (सं० घन + घोर ) भीषण ध्वनि, बादल की गरज, बहुत घना, Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir घनात्मक I गहरा, भीषण । यौ० घनघोर घटाबड़ी गहरी काली घटा, भयङ्कर बादल । घनचक्कर - संज्ञा, पु० यौ० दे० ( सं० घन + चक्र ) चञ्चल बुद्धि वाला, अज्ञान, मूर्ख, बेसमझ, बेवकूफ़, मूढ़, व्यर्थ इधर-उधर फिरने वाला, आवारा । घनत्व -- संज्ञा, पु० (सं० ) घन होने का भाव, घनापन सघनता, लम्बाई, चौड़ाई, मोटाई तीनों का भाव, गढ़ाव, ठोसपन । घननाद - संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) बादल की गरज, मेघनाद । घनफल- संज्ञा, पु० यो० (सं० ) लम्बाई, चौड़ाई और मोटाई ( गहराई, उँचाई ) तीनों का गुणनफल, किसी संख्या को उसी संख्या से दो बार गुणा करने से प्राप्त गुणनफल । - घनबान - संज्ञा पु० यौ ( हि० घन + बाण ) एक बादल पैदा करने वाला बाण । घनबेल - वि० यौ० (हि० घन + बेल) बेलबूटेदार | घनमूल - संज्ञा पु० यौ० (सं० ) किसी धनराशि का घनमूल अंक, जैसे- २७ का घनमूल ३ है ( गणि० ) । घनश्याम – संज्ञा, पु० ० ( सं० ) काला बादल, श्रीकृष्ण, श्रीरामचन्द्र । घनसार - संज्ञा, पु० (सं० ) कपूर । घना - वि० दे० (सं० घन - स्त्री० घनी ) जिसके अवयव या अंश बहुत सटे हों, सघन, निबिड़, बहुत, गफ़, गुंजान, गझिन (दे० ) घनिष्ठ, नजदीक, अति निकट का, घनो ( ब० ) । घनाक्षरी - संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) १६ और १५ के विराम से ३१ वर्णों को दंडक या मनहर छंद जिसे कबित्त भी कहते हैं । घनात्मक - वि० (सं० ) जिसकी लम्बाई, चौड़ाई और मोटाई, गहराई या उँचाई तीनों बराबर हों, इन तीनों का गुणनफल, घनफल । For Private and Personal Use Only Page #625 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir घनानन्द घर घनानन्द-संज्ञा, पु० (सं०) गद्य-काव्य का अहंकारी, अभिमानी, मग़रूर । लो०एक भेद, बहुत प्रसन्नता, सुख, एक | घमंडी का सिर नीचा। हिन्दी कवि। घमकना-वि० दे० ( अनु० घम ) घम घम घनाह-संज्ञा, पु० (सं०) नागरमोथा, दवा। या और किसी प्रकार का गम्भीर शब्द घनिष्ठ-वि० (सं० ) गाढ़ा, घना, निकट | होना, घहराना, गरजना । सं० क्रि० (दे०) का, अतिप्रिय, समीपी। चूसा मारना। घने--वि० दे० (सं० घन । बहुत से, अनेक, घमका- संज्ञा, पु० दे० अनु० ) गदा या सघन, घना का ब० व० । घुसा पड़ने का शब्द, श्राघात की ध्वनि । घनेरा-घनेरे*---वि० (हि० घना ---एरा संज्ञा, पु० (प्र. ) घाम की तेजी से उत्पन्न ---प्रत्य०) (स्त्री० घनेरी) बहुत अधिक, गरमी। अतिशय, घनेरी (व.)। घमघमाना-अ. क्रि० दे० ( अनु०) "भये भानु कुल भूप घनेरे''-- रामा। घम घम शब्द होना । सं० कि. (दे.) घन्नई, धन्नाई - संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० घट प्रहार करना, मारना। -+-नौ ) छोटी नदियों के पार करने को घड़ों घमर - संज्ञा, पु० दे० ( अनु० ) नगाड़े. को लकड़ियों में बाँध कर बनाया हुआ ढोल श्रादि का भारी शब्द, गम्भीर प्राधात बेड़ा, घटनोका। ध्वनि। घपची-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि० घन-+ पंच) घमरौल-संज्ञा, स्त्री० (दे० )रौला, कोलादोनों हाथों की मज़बूत पकड़ । हल, भीड़-भाड़। घपला- संज्ञा, पु० दे० ( अनु० ) ऐसी घमस-संज्ञा, स्त्री० ( दे० ) निर्वात, मिलावट जिसमें एक से दूसरे का अलग वायु-रहित उमस, बहुत गरमी, घमसा । करना कठिन हो, गड़बड़, गोलमाल । घमका। घबराना-घबड़ाना-अ. क्रि० ( सं० घमसान- घमासान--संज्ञा, पु० ( अनु० गहर, गहूर, हि० गड़बड़ाना ) व्याकुल, चंचल घम + सान प्रत्य० ) भयकर युद्ध, गहरी या उद्विग्न होना, भौचक्का हो जाना, किंकर्तव्यविमूढ़ या उतावली में होना, जल्दी | धमाका--संज्ञा, पु० दे० ( अनु० घम ) भारी मचाना, जी न लगना, उचाट होना । क्रि० प्राघात का शब्द। स०-व्याकुल, अधीर या भौचक्का करना, | घमाघम-- संज्ञा, स्त्री० दे० ( अनु० घम ) जल्दी ( उतावली) में डालना, गड़बड़ी घम धम की ध्वनि, धूमधाम, चहल पहल । डालना, हैरान या उचाट करना। कि० वि० (दे० ) धम धम शब्द के साथ । घबराहट-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि० घबराना ) घमाना--प्र० कि० दे० ( हि० घाम , घाम व्याकुलता, अधीरता, उद्विग्नता, किंकर्तव्य- लेना, गरम होने के लिये धूप में बैठना । विमूढ़ता, उतावली, आतुरता। घमोई-घमाय · संज्ञा, स्त्री. (दे०) कटीले घमंड-संज्ञा पु० दे० (सं० गर्व ) अभिमान, पत्तों का एक पौधा, सत्यानाशी, अँडभाँड़, शेखी, ज़ोर, भरोसा। कि० वि० (दे०) बेनु बंश सुत भइस घमोई " ~ रामा० । घुमड़ते हुए । “ घन घमंड नभ गरजत घमौरी-संज्ञा, स्त्री. ( दे० ) अम्भौरी, घोरा"-रामा० । अँधौरी। घमंडी-वि० (हि० घमंड स्त्री० घमंडिन ) घर--संज्ञा, पु० दे० (सं० गृह) वि. घराऊ For Private and Personal Use Only Page #626 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir घर घर-द्वार Romammeem e घरेलू )--मनुष्यों के रहने का मिट्टी, इंट बैठना--किसी के घर पत्नी भाव से जाना, आदि की दीवारों से बना मकान, श्रावास, | किसी को अपना स्वामी या पति बनाना। सदन, सा, ख़ाना। "घर कीन्हें घर जात घर उजड़ना ( स्वाहा होना )-घर के है, घर छोड़े घर जाय".---तु० । मुहा० --- प्रधान व्यक्ति या अंतिम व्यक्ति का मर घर करना-बसना, रहना, निवास जाना, कोई न रहना। घर बिगाड़नाकरना, समाने या अँटने के लिये स्थान घर में फूट या कलह पैदा करना, घर के निकालना, धुमना, धंसना, पैठना, घर- व्यक्तियों में विरोध कराना। -घर फूक बार जोड़ना, संसार के माया जाल में तमाशा करना--व्यर्थ के कामों या शानफँसना। दिल ) चित्त, मन या अांखों शौकत में व्यर्थ धन बरबाद करना, बिना में घर करना--इतना पसन्द श्राना कि विचारे अत्यधिक व्यय करना । घर बह उसका ध्यान सदा बना रहे, रुचिर या जाना-सब नष्ट हो जाना। घर सेरोचक जंचना, अति प्रिय होना। घर पास से, पल्ले से । संज्ञा, पु० पति, स्वामी। का-निनका, अपना, आपस का, सम्ब- स्त्री० पत्नी। जन्म-स्थान, जन्म-भूमि, स्वन्धियों या श्रात्मीय जनों के बीच का । देश, घराना, कुल, वंश, ख़ानदान, स्थान, घर का न घाट का--जिसके रहने का | कार्यालय, कारखाना, कोठरी, कमरा, कोई निश्चित स्थान न हो, निकम्मा, श्राड़ी खड़ी खीची हुई रेखाओं से घिरा बेकाम । लो०-"धोबी का कुत्ता न | स्थान, कोठा, ख़ाना, वस्तुधों के रखने घर का न घाट का"। घर के बढ़े- का डिब्बा, कोष, खान, पटरी आदि से घर ही में बढ़ बढ़ कर बातें करने वाला। घिरा हुआ स्थान, किसी वस्तु के अँटने या " द्विजदेवता घरहि के बाड़े"--रामा०। समाने का स्थान, छोटा गढ्ढा, छेद, बिल। घर ही के घर रहना--न हानि उठाना मूल कारण उत्पन्न करने वाला, गृहस्थी। न लाभ, बराबर रहना। घर-घाट -- रङ्ग- यौ०-घर-गृहस्थी, घर-द्वार, घरढङ्ग, चाल-ढाल, गति और अवस्था । घर बाहर, घर-बार घर-घराना। का घर-घर के सब आदमी। ढङ्ग, ढब, घर घराना अ० क्रि० (अनु०) कफ से गले प्रकृति, ठौर, ठिकाना, घर-द्वार, स्थिति । । से साँस लेने में शब्द होना, घर घर शब्द घर घालना (बिगाड़ना)----घर बिगाड़ना, | निकालना । संज्ञा, पु० (दे०) घर घराहट । परिवार में अशान्ति या दुःख फैलाना, | घर घायल - वि० (दे० ) घर घालना। कुल में कलंक लगाना, मोहित करके वश घर घालन--वि० या० दे० (हि० घर+ में करना, किसी को ख़राब ( नष्ट ) करना । घालन ) (स्त्री०) घर घालिनी घर या बिगाड़ना, कुमार्ग में ले जाना । घर | बिगाड़ने वाला, कुल में कलंक लगाने फोड़ना -- परिवार में झगड़ा लगाना, | वाला, कुल-घालक । बिगाड़ना। "जो श्रग्स कहसि कबहुँ घर घरजाया-संज्ञा, पु० यौ० ( हि • घर+ फोरी' -रामा० । घर बसना-घर जाया = पैदा ) गृहजात दास, घर का श्राबाद होना, घर में धन-धान्य होना, घर | गुलाम । में स्त्री या बहू पाना, व्याह होना, घर | घर दासी-- संज्ञा, स्त्री० यौ० (हि. घर+ बैठे-बिना कुछ काम किये, बिना हाथ- दासी ) गृहिणी, भार्या, पत्नी, दासी।। पैर डुलाये या हिलाये, बिना परिश्रम । घर-द्वार-संज्ञा, पु. यो. (दे० ) घर(किसी स्त्री का किसी पुरुष के ) घर । बार। For Private and Personal Use Only Page #627 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir घरनाल घलना घरनाल-संज्ञा, स्त्री० दे० यौ० ( हि घड़ा रिक-कि० वि० दे० ( हि० घड़ी--एक ) +नालो ) एक प्रकार की पुरानी तोप। एक घड़ी भर, थोड़ी देर। घरनी-संज्ञा, स्त्री० दे० ( सं० गृहिणी, धरिया-संज्ञा, स्त्री० ( दे० ) घड़िया, मिट्टी प्रा० घरणी) घरवाली, भार्या, गृहिणी। __ की छोटी कटोरी ( सोनारों की)। "गौतम की घरनी ज्यों तरनी तरेगी घरी-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि० घर = कोठा, मोरी ---कविः। खाना) तह, परत, लपेट । संज्ञा, स्त्री० (दे०) घरफोरी- संज्ञा, स्त्री० (हि० घर+फोड़ना ) घड़ी, घरी, " श्रावत जात विलोकि घरी परिवार में कलह फैलाने वाली। "धरेउ घरी"-ठा। मोर घर-फोरी नाऊँ "-रामा० । घरीक -क्रि० वि० (हि. घड़ी+एक ) घर बसा-संज्ञा, पु० यौ० ( हि० घर + | एक घड़ी भर, थोडी देर )। "परखौ पिय वसना ) (स्त्री०) घर बसी-उपपति, प्रेमी, छाँह घरीक ह ठाड़े"-कवि० । यार, पति। घरू-वि० दे० ( हि० घर - ऊ प्रत्य०) घरबार- संज्ञा, पु० दे० (हि० घर+बार ) | जिसका सम्बन्ध घर-गृहस्थी से हो, घर का, (वि० घरबारी) रहने का स्थान, ठौर, घर वाला पदार्थ । ठिकाना, घर का जंजाल, गृहस्थी, निजी | घरेला ----वि० (हि. घर - एला---प्रत्य० ) सम्पत्ति या साज-सामान । __ घर का उत्पन्न, घर का पाला, घर-सम्बन्धी। घरबारी-संज्ञा, पु. (हि. घर - बार ) घरेलू-वि० (हि० घर + एलू प्रत्य० ) जो बाल-बच्चों वाला, गृहस्थ, कुटुम्बी। घर में आदमियों के पास रहे, पालतु, पाल, घरवात*- संज्ञा, स्त्री० यौ० (हि० घर- घर का, निजी, घरू, ख़ानगी, घर सम्बन्धी। बात-प्रत्य०) घर का सामान, गृहस्थी। घरैया-वि० दे० (हि० घर-+-एया ( प्रत्य०) घरवाला-संज्ञा, पु. (हि. घर+वाला | घर या कुटुम्ब का, अत्यन्त घनिष्ट सम्बन्धी। प्रत्य०) (स्त्री० घरवाली) घर का घरौंदा-घरौंधा-संज्ञा, पु० दे० (हि. घर मालिक, पति, स्वामी । +ौंदा- प्रत्य० ) कागज़, मिट्टी आदि का घरसा -संज्ञा, पु० दे० (सं० वर्ष) रगडा। बना हुआ छोटा घर, बच्चों के खेलने का घरहाई-@-संज्ञा, स्त्री० ( हि० घर+सं० छोटा-मोटा घर। घाती, हि० घाई ) घर में विरोध कराने वाली घर्घर-वि० ( अनु० ) शूकर या चक्की का स्त्री, अपकीर्ति फैलाने वाली, घरघाती। शब्द का पूर्ण गले का शब्द । घराऊ-वि० ( हि० घर - आऊ प्रत्य० ) घर्घरा--संज्ञा, स्त्री० (सं०) धाघरा नदी, घर से सम्बन्ध रखने वाला, गृहस्थी-सम्बंधी, सरय नदी। आपस का, निजी, आत्मीय, घरेलू । । धर्म-संज्ञा, पु० (सं० ) घाम, धूप । घर्रा--संज्ञा, पु. ( अनु० ) एक प्रकार का घराती--संज्ञा, पु० दे० ( हि० घर आती मंजन, गले की घरघराहट जो कफ के कारण प्रत्य०) विवाह में कन्या पक्ष के लोग होती है। (विलो० बरातो)। घर्राटा-संज्ञा, पु. ( दे०) खर्राटा । घराना-संज्ञा, पु० दे० (हि. घर + पाना- | घर्षण--संज्ञा, पु० (सं० ) रगड़, घिसन । प्रत्य०) ख़ानदान, वंश, कुल, कुटुम्ब ।। घर्षित-वि० (सं० ) घृष्ट, घिसा हुआ। घरामी-संज्ञा, पु० दे० (हि. घर + मामी- | घलना-प्र० कि० दे० ( हि० घालना) छूट प्रत्य० ) छवैया, घर छाने वाला। । कर गिर पड़ना, फेंका जाना, चढ़े हुये तीर For Private and Personal Use Only Page #628 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - - घलाघल-घलाघली या भरी हुई गोली का छूट जाना, मार-पीट घहरात-कि० वि० (दे.) टूटते-पड़ते, हो जाना, दाँव लगना। टूटते ही, गरजते ही। घलाघल-घलाघली-संज्ञा, स्त्री० (घलना) घहराना-अ० कि० दे० ( अनु० ) गरजने मारपीट, आघात प्रतिघात, खूब भरा का सा शब्द करना, गम्भीर शब्द करना होना । “अँखियान में नींद घलाघल है" संज्ञा, स्त्री. घहरान, घहरानि ।। -~-रना। घहरानि: -संज्ञा स्त्री० दे० (हि. घहराना) घलुवा --संज्ञा, पु० दे० (हि० घाल ) गम्भीर ध्वनि, तुमुल शब्द, गरज । ख़रीदार को उचित तौल के अतिरिक्त दी घहरारा*--संज्ञा पु० (हि० घहराना ) गई वस्तु, घिलौना घेलुवा (ग्रा० )। घोर शब्द, गम्भीर ध्वनि, गरज । घवरि -संज्ञा, स्त्री० ( दे०) घौद। घा (घा) wi--संज्ञा स्त्री० (७०) (सं० खा घसखदा-संज्ञा पु० दे० (हि० घास- वा घाट = ओर ) दिशा, घाँई ( दे०) दिक, खोदना) घास खोदने वाला, अनाड़ी, मूर्ख । ओर, तरफ़, जैसे चहुँघा । पु० घाँह (ग्रा०) घसना -प्र० क्रि० ( दे० ) घिसना। घाँघरा--संज्ञा, पु० (दे०) घाघरा, लहँगा। घसिटना-प्र. क्रि० दे० (सं० घर्षित+ स्त्री० घांघरी, घुघरिया (दे०)। ना-प्रत्य० ) घसीटा जाना। घाँटी-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० घंटिका ) घसियारा-संज्ञा, पु. ( हि० घास --- यारा गले के भीतर की घंटी, कौश्रा, गला। (प्रत्य०) ( स्त्री० घसियारी, घसि घाँटो-संज्ञा पु० दे० (हि० घट ) चैत में यारिन ) धास बेचने या लाने वाला। गाने का एक चलता गाना। घसीट-संज्ञा स्त्री० दे० (हि० घसीटना ) जल्दी जल्दी लिखने का भाव, जल्दो लिखा घाइ8-संज्ञा, पु० (दे०) घाव । हुधा लेख, घसीटने का भाव । घाई।*-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि० घाँ या घा) घसीटना-स० क्रि० दे० (सं० घृष्ट प्रा. ओर, तरफ, दो वस्तुओं का मध्य स्थान, घिष्ट - ना-प्रत्य०) किसी वस्तु को यों संधि, बार, दफ़ा, पानी का भँवर, गिरदाव, खींचना कि वह भूमि से रगड़ खाती जाय, संज्ञा, स्त्री. (सं० गभिस्ति = उँगली ) दो कदोरना, जल्दी जल्दी लिख कर चलता अंगुलियों के बीच की संधि, अाँटी । करना, किसी कार्य में बलात् सम्मिलित संज्ञा, स्त्री० (हि० घाव) चोट, आघात, करना। प्रहार, वार, धोखा, छल । घाह (ग्रा०)। घसीला-वि० (दे० ) अधिक घास वाला, | घाईन--संज्ञा, स्त्री० (दे०) पाला, बार, तृणमय, हरियाली। बेर, भोसरी। घस्मर-वि० (सं० ) पेटू, खाऊ, पेटार्थी । घाउ (घाव)-संज्ञा, पु० (दे०) घात, चोट, घन -संज्ञा पु० (सं० ) दिन, दिवस, पहर। क्षत, वण, फोड़ा। घस्रा-संज्ञा पु० (सं०) हिंसक, नृशंस, | घाऊ-संज्ञा पु० (दे०) घाउ । यौ० घाऊकर, कुटिल, निर्दय। घप्प-मट्टर । " यह सुनि परयो निशाननि घहनाना -अ० क्रि० दे० ( अनु० ) घंटे | घाऊ रामा० आदि की ध्वनि निकलना, घहराना। घाऊघप-वि० दे० (हि. खाऊ+गप वा घहरना-अ० क्रि० दे० ( अनु० ) गरजने घप ) चुपचाप, महर, माल हज़म करने का सा शब्द करना, गम्भीर ध्वनि वाला, हड़प जाने वाला। निकालना। | घाएँ- अव्य० दे० (हि. धां) ओर, तरफ। भा० श० को०-७८ For Private and Personal Use Only Page #629 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ६१८ घाघ घाना घाघ-संज्ञा, पु० (दे०) गोंडा निवासी नीचता, घटियाई-घटिहई ( ग्रा० ) बम्बई एक चतुर और अनुभवी पंडित जिनकी में कुलियों की एक जाति । बहुत सी कहावतें उत्तरीय भारत में प्रसिद्ध घाटिया--संज्ञा, पु० (हि० घट +- इया-प्रत्य०) हैं, एक पक्षी । वि०-चालाक, खुर्राट, घाटवाल, गङ्गापुत्र, घटवार (ग्रा.)। चतुर, अनुभवी, बुद्धिमान ।। | घाटी-संज्ञा, स्त्री० दे० ( हि० घाट ) पर्वतों घाघरा-संज्ञा पु० दे० (सं० घर्घर = तुद्र के बीच का सङ्कीर्ण मार्ग, दर्रा। " तव घंटिका ) ( स्त्री० अल्पा० घाघरी ) घेरदार प्रताप महिमा उदघाटी"-रामा०। पहनाव (स्त्रियों का ) लहँगा, घांघरा। घात-संज्ञा, पु० (सं०) (वि० घाती) संज्ञा स्त्री. (सं० घर्घर ) सरयू नदी। प्रहार, मार, चोट, धक्का, जरब, हत्या, बध, घाघस--संज्ञा, पु० (दे०) एक प्रकार की अहित, बुराई, गुणनफल (गणि०)। संज्ञा, मुरगी। स्त्री० कार्य की अनुकूल स्थिति, दाँव, घाट-संज्ञा, पु० दे० (सं० घ) किसी जला सुयोग । मुहा०-यात पर चढ़ाना या शय के नहाने, धोने या नाव पर चढ़ने का घात में आना--अभिप्राय साधन के स्थान । लो०-"धोबी का कुत्ता न घर अनुकूल होना, दाँव पर चढ़ना, हाथ में का न घाट का" | "धोबी कैसो कूकुर न आना। घात लगना-मौका मिलना । घर को न घाट को"-तु.। मुह०--घाट घात लगाना- युक्ति भिड़ाना, ताक घाट का पानी पीना=चारों ओर देश लगाना, किसी पर आक्रमण करने या देशान्तर में घूम फिर कर अनुभव प्राप्त किसी के विरुद्ध कुछ करने के लिए अनुकूल करना, इधर-उधर मारे मारे फिरना, अवसर देखना। मुहा०—घात में ताक में, दाँव-पेंच, चाल, छल, चालबाज़ी, चढ़ाव-उतार का पहाड़ी मार्ग, पहाड़, भोर, तरफ़, दिशा, रंग ढंग, चाल-ढाल, डौल, रङ्ग ढंग, तौर तरीका । " ऐसे नर सों बचि ढब, तौर-तरीका, तलवार की धार । " यहि रहौ, करै न कबहूँ घात"-वृं० । घाट तें थोरिक दूरि है...' क. रामा। घातक-संज्ञा, पु. (सं०) मार डालने " बोलत ही पहिचानिये, चोर साहु के | वाला, हत्यारा, नाशक, हिंसक, वधिक । घाट"-वृं० ।। संज्ञा, स्त्री० (सं० घात या घातकी ( दे०) घातुक ( ग्रा.)। घातिनि, घातिनी-वि० स्त्री० (सं०) मार हि. घट = कम ) धोखा, छल, बुराई । +वि० दे० (हि० घट ) कम, थोड़ा। डालने या बध करने वाली, विनाशिनी। घाती-वि० दे० (सं० घातिन् ) (स्त्री० घाटवाल-संज्ञा, पु० दे० (हि. घाट+ घातिनी) घातक, संहारक, नाश करने वाला, वाला प्रत्य०) घाटिया, गंगा-पुत्र, घटवई । __“खोजत रहे तोहि सुत-घाती"-रामा। घाटा-संज्ञा, पु० दे० (हि० घटना ) घटी, | घात्य-संज्ञा, पु० (सं० ) हनन योग्य, हानि, क्षति । __मारने योग्य । घाटारोह*-संज्ञा, पु. (हि. घाट । रोध | धान-संज्ञा, पु० दे० (सं० घन-समूह ) -सं०) घाट रोकना, घाट से जाने न देना। एक बार में कोल्हू में पेरी या चक्की में पीसी “बाँस सहित बोरहु तरनि कीजै घाटारोह' | जाने की मात्रा, एक बार में पकाई जाने की -रामा० । मात्रा। संज्ञा, स्त्री० घानी। संज्ञा, पु० घाटि*-वि० (हि. घटना ) कम, न्यन, (हि. घन ) प्रहार, चोट । घटका, घटी । संज्ञा, स्त्री. (सं० घाट ) | घाना*- स० कि० दे० (सं० घात) मारना For Private and Personal Use Only Page #630 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir धिन घाम घामा-संज्ञा, पु० दे० (सं० घर्म ) धूप, (लोन ) छिड़कना ( लगाना)-दुःख सूर्य ताप। “ धाम धूम नीर औ समीरन | के समय और दुख देना, शोक पर और ...' ल०सि०। शोक उत्पन्न करना । घाव पूरना या घामड़-वि० दे० (हि० घाम ) घाम या भरना-घाव का अच्छा होना। “वैद धूप से व्याकुल, ( चौपाया) मूर्ख, सुस्त, | रोगी, ज्वान जोगी, सूर पीठी घाव "। घबड़ाने वाला। घावपत्ता-संज्ञा, पु. ( हि० घाव+पत्ता ) घाय*-संज्ञा, पु० (दे०) घाव । एक लता जिसके पान जैसे पत्ते घाव या फोड़े घायक-वि० दे० (हि. घाव) विनाशक, पर बाँधे जाते हैं। मारने वाला। घावरिया - संज्ञा, पु. (हि. घाय--- घायल-वि० दे० ( हि० घाव ) जिसके घाव वार या - चाला---प्रत्य० ) घावों की दवा लगा हो, पाहत, चुटैल, जख्मी। घाइल करने वाला, जर्राह । (ग्रा० ) " घायल गिरहि बान के लागे" घास—संज्ञा, स्त्री. (सं.) तृण, चारा । -रामा०। घास-भूसा-(यो०)। यौ० घासपात घाये-स० कि० ( दे. ) गहाये, देदिये । या घासफूस-तृण और वनस्पति, खरघाल-संज्ञा, पु० दे० (हि. घलना) घलुश्रा । पतवार, कूड़ा-करकट । मुहा-घास मुहा०—घाल न गिनना · तुच्छ समझना। काटना ( खोदना या छीलना)घालक-संज्ञा, पु० (हि० घालना ) (स्त्री. तुच्छ काम करना, व्यर्थ काम करना। घलिका) मारने या नाश करने वाला, | घासी, घासू-संज्ञा, पु० दे० (सं० घास ) फेंकने वाला। घास वाला, घसियारा । घास बेचने या घालकता—संज्ञा, स्त्री० दे० (हि० घालना) लाने वाला। विनाश करने का काम । “बह दुसार राक्षस विभ-घिउ-संज्ञा, पु० दे० (सं० घृत ) घालकता"-रामा। धी, घिव (ग्रा० ) " औ घिउ तात" घालन-संज्ञा, पु. (हि० घालना) हनन, -घाघ०। बधन, मारन । ( स्त्री० घालिनी या घिग्घी-संज्ञा, स्त्री० दे० ( अनु० ) साँस घालिका)। लाने में रोने से पड़ने वाली रुकावट, घालना-स० क्रि० दे० (सं० घटन ) हिचकी, हुचकी, बोलने में रुकावट भय से भीतर या ऊपर रखना, डालना, फेंकना. पड़ने वाली। मुहा०—घिग्घी बँधनाचलाना, छोड़ना, बिगाड़ना, नाश करना, भयादि से बोल रुक जाना। मार डालना । पू० का० कि० घालि। घालमेल--संज्ञा, पु० दे० (हि० घालना+ घिधियाना-प्र० क्रि० दे० (हि. घिग्घी ) मेल ) भिन्न प्रकार की वस्तुओं की मिलावट, करुण स्वर से प्रार्थना करना, गिड़गिड़ाना । गडबड्ड. मेलजोल । | घिचपिच-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० धृष्ट+ घालित-वि० ( दे० ) मारा, नष्ट किया या पिष्ट ) जगह की तंगी, सकरापन, थोड़े उनाड़ा हुश्रा। स्थान में बहुत सी वस्तुओं का समूह । वि. घाव-संज्ञा, पु० दे० (सं० घात, प्रा० घाव) अस्पष्ट, गिचपिच । . देह पर काटा या चिरा स्थान, क्षत । घाउ घिन-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० घृण ) अरुचि, ( ग्रा० ) जखम ।..... 'घाव करत घृणा, गन्दी वस्तु देख जी मचलाने की सी गम्भीर"। मुहा०-घाव पर नमक अवस्था, जी बिगड़ना । घिना । (दे०)। For Private and Personal Use Only Page #631 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir घिनाना ६२० घुइयाँ घिनाना-प्र. क्रि० दे० ( हि० घिन ) घिसघिस-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. घिसना) घृणा करना। कार्य में शिथिलता, अनुचित विलम्ब, घिनावना-वि० (दे०) घिनौना। अतत्परता, अनिश्चय । घिनौना-वि० दे० (हि. घिन ) ( स्त्री० | घिसना--स० कि० दे० ( सं० घर्षण ) एक घिनौनी ) जिसे देखने से घिन लगे, वस्तु को दूसरी पर खूब दबा कर घुमाना, घृणित, बुरा। रगड़ना। (ग्रा० ) घसना-अ० क्रि० घिनौरी-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. घिन-+ (दे० ) रगड़ खा कर कम होना। औरी-प्रत्य० ) घिनोहरी, एक बरसाती | घिसपिसा--संज्ञा, स्त्री० दे० (अनु०) घिसकीड़ा। घिस, सटाबटा, मेल-जोल । घिन्नी-संज्ञा, स्त्री० (दे० ) घिरनी, (दे० ) घिसवाना-स० क्रि० दे० (हि. घिसना गिन्नी। का प्रे०) घिसने का काम कराना, रगड़वाना। घिय-संज्ञः, पु० दे० (सं० घृत ) घी, घृत । घिसाना। धिया--संज्ञा, स्त्री० दे० ( हि० घी ) एक घिसाई-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. घिसना ) बेल जिसके फलों की तरकारी होती है, घिसने की क्रिया या मजदूरी। नेनवा ( प्रान्ती०) धियातोरी (तरोई)। घिसाव - संज्ञा, पु० दे० (हि. घिसना ) घियाकश-संज्ञा, पु. ( दे० ) कदृकश । रगड़, घर्षण, खियाव । घिसन ( ग्रा० ) । घिरत संज्ञा, पु० दे० (हि. घी) घी, घिसाघट-संज्ञा, स्त्री० दे० ( हि० घिसाना घृत | "घेवर अति घिरत चभोरे"-सू० __ ---वट--प्रत्य०) रगड़, रगराहट, घिसान। अ० क्रि० सा० भू० (घिरना )। धिरना-प्र. क्रि० (सं० ग्रहण ) सब ओर घिसियाना-स० क्रि० (दे०) घसीटना, से छेका जाना, आवृत्त होना, घेरे में श्राना, | घर्षण करना। चारों ओर इकट्ठा होना। घिस्सा-संज्ञा, पु० दे० (हि. घिसना ) रगड़, धक्का ठोकर, पहलवानों का कुहनी घिरनी-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० घूर्णन ) | और कलाई से किया हुआ आघात, कुन्दा, गरारी, गराड़ी, चरखी, चक्कर, फेरा, रस्सी | रद्दा । यौ० घिस्सापट्टी-छल-कपट ।। बटने की चरखी, गिन्नी (दे०)। घिराई --संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. घेरना) घीच-संज्ञा, स्त्री० ( दे० ) गरदन, ग्रीवा । घेरने की क्रिया या भाव, पशु चराने का घी - संज्ञा, पु० दे० (सं० घृत प्रा० घीय ) काम या मज़दूरी। तपाया हुआ मक्खन, घृत । लो०-"सीधी घिराना–स० क्रि० दे० ( हि० धरना का प्रे० । अंगुरी धी जम्यो क्योंहूँ निकसत नाहिं" रूप ) घेरने का काम कराना। घिरवाना। -वृ० । मुहा०-घी के दिये जलाना घिराव-संज्ञा, पु० दे० (हि. घेरना ) घेरने -कामना या मनोरथ का पूरा या सफल या घिरने का भाव, घेरा। होना, आनन्द-मंगल या उत्सव होना। घिरावना-स० क्रि० दे० (हि. घेरना । (किसी की पाँचों अँगुलियाँ) घी में घेरने का काम दूसरे से कराना। "सिगरे । हाना-खूब पाराम-चैन का मौका मिलना, ग्वाल घिरावत मोसो मेरो पायँ पिरात, खूब लाभ होना। घी कुवार ( घी गुवाँर )-संज्ञा, स्त्री० दे० घिरीना-स० कि० दे० (अनु० घिर) (सं० घृत कुमारी ) ग्वारपाठा औषधि । घसीटना, गिड़गिड़ाना । । घुइयाँ -संज्ञा, स्त्री० (दे० ) अरवी कंद । For Private and Personal Use Only Page #632 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ORD घुगची, घुघची घुड़की घुगची, घुघची—संज्ञा, स्त्री (दे०) घुमचिल, मुहा० - घुट घुट कर मरना - दम तोड़ते रत्ती, गुंजा (सं०)। हुये साँसत से मरना । यो० दम घुटनाघुघनी-संज्ञा, स्त्री ( दे०) भिगोकर तला साँस न ले सकना, उलझ कर कड़ा पड़ हुआ चना, मटर आदि । बुधरी (ग्रा.)। जाना, फँसना, गाँठ या बन्धन का दृढ़ घुघरारे-धुंघराले वि० (हि० घुमराना-+- वाले) होना । अ० क्रि० हि०--घोटना घोटा ( स्त्री० घुघरालो ) घूमे हुये टेढ़े और बल- जाना-चिकना करना, मूंड़ना, बाल खाये बाल, छल्लेदार केश । धुंधुवारे- बनाना। घर वाले “ विकट भृकुटि कच धू घर- मुहा०-घुटा हुआ-पक्का, चालाक, रगड़ वारे" रामा० । घुघराली लटें लटकै मुख खाकर चिकना होना, घनिष्टता या, मेल ऊपर" -कवि० रामा। होना। घुघुरू-संज्ञा. पु. ( अनु० धुन धुन+ घुटन्ना--संज्ञा पु० (हि• घुटना ) घुटने तक रख या रू सं०) किसी धातु की गोल पोली का पायजामा। गरिया जिसमें बजने के लिये कंकड़ भर देते घुटरूं--संज्ञा पु० दे० (सं० घुट) घुटना। हैं, इनकी लड़ी, चौरासी, मंजोर, ऐसी घुटवाना--क्रि० स० (हि. घोटना का प्रे०) गुरियों से बना पैर का एक गहना, मरते घोटने का काम कराना, बाल मुड़वाना, समय में कफावरोधित कंठ का घुर धुर ! स. क्रि० घुटाना (प्रे० रूप )। शब्द, घटका, घटुका ( ग्रा० )। | घुटाई- संज्ञा, स्त्री० दे० ( हि• घुटना ) धुडी--संज्ञा, स्त्री दे० ( सं० ग्रंथि ) कपड़े। घोटने या रगड़ने का भाव या क्रिया। का गोल बटन, गोयक, हाथ-पैर में पहनने | घटाना-स. क्रि० दे० (हि० घोटना का के कपड़े के दोनों छोरों पर की गाँठ, कोई | प्रे० रूप ) घोटने का काम दूसरे से कराना । गोल गाँठ। घुटी-घुट्टी-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि• घुटकना) घुमा- संज्ञा, पु. ( दे० ) घूआ, किवाड़ घूटी, बच्चों को एक पाचक दवा । " चतुर का चूल । सिरोमनि सूर नन्द-सुत लीन्ही अधर घुटी।" बुग्यू-संज्ञा पु० दे० (सं० घूक ) उल्लू पक्षी, सू० । वि० स्त्री० चतुर स्त्री, मक्कार । मुहा० घुघुआ, घुघुआर (ग्रा० )। -घुट्टी में पड़ना स्वभाव में होना । " घुट्टी पान करत हरि रोवत "--सू० । धुचाना-अ. क्रि० दे० (हि. घुग्घु ) उल्लू पक्षी का बोलना, बिल्ली का गुर्राना । घुटुहन, घुटुश्वन-क्रि० वि० (दे०) घुटनों के बल । “घुटुरुवन चलत स्याम मनि घटकना-स० कि० दे० (हि. चूंट+ आँगन"---सू। " कबहुँ उलटि चलें धाम करना ) घुट घुट कर पीना, निगल जाना को घरुन करि धावत"-सू०।। घटकी-रज्ञा, स्त्री० दे० (हि. चूँट ) चूट | घडकना–स० कि० दे० (सं० घुर ) क्रुद्ध चूंट पीने की नली जो गले में होती है। हो डराने के लिये ज़ोर से कुछ कहना, कड़क घुटना—संज्ञा, पु. दे० (सं० घंटक ) पाँव कर बोलना, डाँटना, आँखें चढ़ा कर के मध्य या टाँग और जाँच के बीच की। क्रोध दिखाना। गाँठ । अ० क्रि० दे० (हि. चूटना या | धुड़की-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. घुड़कना ) घोरना ) साँस का भीतर ही दब जाना क्रोध में डराने के लिये ज़ोर, से कही गई बाहर न निकलना, रुकना, फॅसना, भंग बात, डाँट, डपट, फटकार, घुड़कने की क्रिया। श्रादि का घोंटा जाना। । यौ० धमकी-जुड़की। यौ० बंदर घुड़की For Private and Personal Use Only Page #633 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir घुड़चड़ा घुरकना -मूठ मूंठ डर दिखाना, आँख चढ़ा कर द्वारा अनाज लकड़ी श्रादि का खाया जाना, डराना, घुड़की में न आना, न डरना। दोष से भीतर ही से छीजना।। घुड़चढ़ा-संज्ञा, पु० दे० यौ० (हि० घोडा+ घुनिया-वि० (दे० ) घुना, छली, कपटी। चढ़ना ) घोड़े का सवार, अश्वारोही। । घुन्ना-वि० दे० ( अनु० घुनघुनाना ) ( स्त्री० घडचढी-संज्ञा, स्त्री० यौ० दे० ( हि । घुन्नी ) जो अपने क्रोध, द्वेष आदि भावों घोड़ा + चढ़ना ) विवाह में दूल्हा के घोड़े | को अपने मन ही में रखे, चुप्पा । पर चढ़ कर दुलहिन के घर जाने की रस्म | धुप-वि० दे० (सं० कूप वा अनु० ) गहरा एक प्रकार की तोप, घुड़नाल । अँधेरा, निविड़ अंधकार। घडदौड - संज्ञा, स्त्री० यौ० (हि. घोडा-+- घुमक्कड़-वि० दे० ( हि० घूमना + अकड़दौड़ा) घोड़ों की दौड़, एक प्रकार का जुश्रा, प्रत्य० ) बहुत घूमने वाला। घोड़े दौड़ाने का स्थान या सड़क, एक प्रकार घुमघुमा-संज्ञा, पु० (दे०) घुमाव, टाल, की बड़ी नाव । फिर फिर वही। घुमघुमाना-स० कि० (दे०) घुमाना, घुड़नाल-संज्ञा, स्त्री० यौ० ( हि० घोड़ा । फिराना, बात फेरना या उलटना । नाल ) एक प्रकार की तोप जो घोड़े पर चलती है। घुमटा-संज्ञा, पु० दे० (हि० घूमना+टा प्रत्य०) सिर का चक्कर, जी घूमना, घुड़वहल-संज्ञा, स्त्री० यौ० (हि. घोड़ा+ घुमरी (ग्रा.)। बहल ) वह रथ जिसमें घोड़े जोते जायें । धुमड़ --- संज्ञा, स्त्री० दे० (हि० घुमड़ना) घुड़साल-संज्ञा, स्त्री० यौ० दे० (हि. बरसने वाले बादलों की घेरघार । घोड़ा+शाला ) घोड़ों के बाँधने का स्थान, घुमड़ना-१० कि० दे० (हि० घूम-|-अड़ना) अस्तबल (दे०)। बादलों का घूम घूम कर इकट्ठा होना, मेघों घुड़िया-संज्ञा, स्त्री० दे० घोड़िया, घोड़ी। का छा जाना । घुमरना-घुमरानाघुडित्ता-संज्ञा, पु० दे० ( हि० घोड़ा+ (घुम्मरना ) ( अनु० घम घम) घोर शब्द इला–प्रत्य० ) ) कोटा घोड़ा, टाँघन। करना, बजना। घुणाक्षर-न्याय-संज्ञा, पु० यौ० (सं० घुमरी-घुमड़ी-संज्ञा, स्त्री० (दे०) तिमिरी, घुण + अक्षर+न्याय) ऐसी कृति या रचना | चक्कर, धुर्नी, मूर्छा रोग, परिक्रमा । जो अनजान में उसी प्रकार हो जाय जिस घुमाना--स० क्रि० (हि. घूमना ) चक्कर प्रकार धुनों के खाते २ लकड़ी में अक्षर देना, चारो ओर फिराना, इधर उधर से बन जाते हैं। टहलाना, सैर कराना, किसी विषय की धुन-संज्ञा, पु० दे० (सं० घुण ) अनाज, ओर लगाना, प्रवृत्त करना । लकड़ी आदि में लगने वाला छोटा कोड़ा। घुमाघ-संज्ञा, पु० दे० ( हि. घुमाना) घूमने मुहा०-धुन लगन!--धुन का अनाज या घुमाने का भाव, फेर, चक्कर, मोड़ । लकड़ी आदि का खाना, भोतर ही भीतर मुहा०-घुमाव शिराव की बातकिसी वस्तु का क्षीण होना । धुनजाना- पेंचीली, हेर फेर की बात । घुमावदारघुन से नष्ट होना, क्षीण हो जाना। वि० (हि. घुमाव + दार ) चक्कर दार । घुनघुना-संज्ञा, पु० दे० झुनझुना । घरकना-स० कि० दे० घुड़कना। संज्ञा स्त्री० घुनना-अ० क्रि० दे० (हि० घुन ) घुन के | धुरकी-घुड़की, धमकी। For Private and Personal Use Only Page #634 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir घंटी का घुरघुरा घुरघुरा- संज्ञा, पु० (दे०) झींगुर, एक मुँह में रखकर धीरे धीरे रस चूसना, गलाना, रोग । गरमी या दाब पहुँचा कर नरम करना, घुरघुराना-अ० कि० दे० (अनु० घुर घुर) सुरमा या काजल लगाना, सारना, समय गले से घुर घुर शब्द निकलना। बिताना। घुरना8-० क्रि० दे० ) घुलना, क्षीण घुलावट-- संज्ञा स्त्री० (हि. घुलना )घुलने होना । अ० कि० दे० (सं० घुर ) शब्द करना, बजना। घुवा-संज्ञा, पु० (दे० ) सेमर या मदार धुरविनिया--संज्ञा, स्त्री० दे० ( हि घूरा+ की रुई। बीनना ) धूर से दाना इत्यादि बीन कर या घुसड़ना, घुसना-अ० कि० दे० (सं० कुश गली कूचे से टूटी-फूटी चीजें चुन कर एकत्र = आलिंगन करना या घर्षण ) भीतर बैठना करने का काम । " तुलसी मन परिहरत या जाना, प्रवेश करना, जाना, धंसना, नहिं पुरविनिया की वानि"। चुभना, गड़ना. अनधिकार चरचा या घुरमना --अ० क्रि० (दे० ) घूमना, चक्कर कार्य करना, मनोनिवेश करना। खाना । “घुरमि घुरमि घायल महि परहीं" घुसपैठ-संज्ञा स्त्री० यौ० दे० (हि० घुसना + -रामा० । पैठना ) पहुँच, गति, प्रवेश, रसाई । घराना-अ.क्रि. (दे०) भर पाना । घुसाना-स० कि० ( हि० घुसना ) भीतर "बड़ि बड़ि अँखियन नींद घुरानी"—स्फु०। घुसेड़ना, पैठाना, फँसाना, चुभाना, घुमित—कि० वि० दे० (सं० घूर्णित ) घुसेड़ना। घूमता हुथा। | घुस्टराज - संज्ञा पु० (सं०) गंधद्रव्य विशेष । घुलना-कि० वि० दे० ( सं० घूर्णन कुंकुम, कुमकुमा। प्रा० घुलन ) पानी दूध आदि पतली | घुस्की - संज्ञा, स्त्री० (दे० ) कुलटा, वस्तुओं में खूब हिल-मिल जाना, हल दुराचारिणी । होना, घुरना ( ग्रा० ) । मुहा०- घुघट-संज्ञा पु० दे० (सं० गुंठ ) कुल-वधू घुल घुल कर बातें करना-खूब का मुँह ढंकने वाला वस्त्र के सिर पर का मिल-जुल कर बातें करना। द्रवित होना, भाग, बाहिरी दरवाजे के सामने भीतर की गलना, पक कर पिलपिला होना, रोग | ओर वाली दीवाल (परदे की) गुलाम आदि से शरीर का क्षीणा या दुर्बल होना।। गर्दिश, पोट ।। मुहा०-घुला हुआ-बूदा, वृद्ध । घुल घुघर-संज्ञा पु० दे० (हि. घुमाना) बालों धुल कर काँटा होना-बहुत दुर्बल हो | में पड़ हुये छल्ले या मरोड़ । जाना। घुल घुल कर मरना-बहुत घघर वाले--वि० (हि० चूंघर ) टेढ़े छल्ले दार, कुंचित, धुंघराले। घुलवाना-स० क्रि० (हि. घुलाना का प्रे० | घुट-संज्ञा पु० दे० (अनु० घुट घुट) एक बार रूप ) गलवाना, दूषित कराना, आँख में | सुरमा लगवाना, घुलाना । स० कि. (हि. में गले के नीचे उतारी जाने वाली द्रव घोलना का प्रे० रूप) किसी द्रव पदार्थ में वस्तु की मात्रा। मिलाना, हल कराना। घुटना स० क्रि० ( हि० घूट ) द्रव पदार्थ धुलाना-(स० क्रि० दे० (हि. घुलना ) का गले के नीचे उतारना, पीना। गलाना, द्रवित करना, शरीर दुर्बल करना, | चॅटी-संज्ञा स्त्री० दे० (हि० चूंट ) एक दिनों तक कष्ट भो कर मरना। For Private and Personal Use Only Page #635 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ६२४ घूँसा औषधि जो छोटे बच्चों को नित्य पिलाई जाती हैं। घुटी (दे० ) मुहा० - जन्म घूँटी = बच्चे की उदर-शुद्धि के लिये दी जाने वाली औषधि । घूँसा – संज्ञा पु० ( हि० घिस्सा ) बँधी हुई मुट्ठी ( मारने के लिये ) और उसका प्रहार, मुक्का, डुक, घमाका । धूम - संज्ञा पु० ( दे०) काँस, मूँज, या सरकंडे आदि का फूल, भुवा ( ग्रा० ) एक कीड़ा जिसे बुलबुल प्रादि पक्षी खाते हैं। धूगसां-संज्ञा पु० (दे० ) ऊँचा बुर्ज़ | घूघ—संज्ञा स्त्री० ( हि० घोघी या फा० खोद) लोहे या पीतल की टोपी । धूम - - संज्ञा स्त्री० ( हि० घूमना ) घूमने का भाव या काम | घूमना - अ० क्रि० दे० ( सं० घूरानि ) चारों थोर फिरना, चक्कर खाना, सैर करना. टहलना, देशान्तर में भ्रमण या, यात्रा करना, वृत्त की परिधि पर चलना, कावा काटना (दे० ) मडराना, किसी श्रोर को मुड़ना, लौटना। मुहा० - धूम पड़ना = सहसा कुछ हो जाना । उन्मत्त या मतवाला होना । घूर — संज्ञा पु० ( हि० घूरा ) घूरा, कूड़ा का ढेर । घूरना - अ० क्रि० दे० ( सं० घूरानि ) बार बार आँख गड़ा कर बुरे भाव या क्रोध से एक टक देखना | घूरा – संज्ञा पु० दे० (सं० कूट हि० कूटा ) कूड़े करकट का ढेर, कतवारखाना । घूर्णन -संज्ञा पु० (सं०) भ्रमण, सफ़र । घूर्णित - वि० (सं०) भ्रमित, घुमाया गया । लागत सर घूर्णित महि गिरहीं 44 "" - रामा० । घूस – संज्ञा स्त्री० दे० (सं० गुहाशय ) चूहों की जाति का एक बड़ा जन्तु, वह पदार्थ जो वेरा किसी को अनुकूल कार्य कराने के लिये अनुचित रूप से दिया जाय, रिश्वत, उत्कोच, लाँच ( प्रान्तो० ) | यौ० घूस खोर = घूस खाने वाला | घृणा - संज्ञा स्त्री० ( सं० ) घिन, नफ़रत | घृणित - वि० सं०) घृणा करने योग्य, जिसे देख या सुन कर घृणा उत्पन्न हो । घृण्य - वि० (सं० ) निन्दनीय, तिरस्कार योग्य, घृणा के योग्य । -संज्ञा पु० (सं० ) घी, पका हुआ वृत: Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मक्खन । घृतकुमारी - संज्ञा स्त्री० यौ० (सं० ) घीकुवार (दे० ) । घृतानी - संज्ञा स्त्री० (सं० ) एक अप्सरा | वृष्ट वि० (सं० ) घिसा या पिसा हुआ, घर्षित | घृष्टि वि० (सं० ) सुवर, औषधि । विष्णुकान्ता घेघा - संज्ञा पु० (दे० ) गले की नली जिससे भोजन और पानी पेट में जाता है, गले में सूजन होकर बतौड़ा सा निकल थाने का रोग, गलगंड रोग । घेतल - घेतला - संज्ञा पु० (दे०) जूती विशेष | घेवन -- स० क्रि० ( दे० ) मिलाना, मिश्रण .... करना । घेर - संज्ञा पु० ( हि० घेरना चारों ओर का फैलाव, घेरा, परिधि, चक्कर, घुमाव । घेरघार - संज्ञा स्त्री० ( हि० घेरना ) चारों ओर से घेरने या छा जाने की क्रिया, फैलाव, विस्तार, खुशामद, विनती । घेरना - स० क्रि० दे० (सं० ग्रहण ) चारों थोर हो जाना, चारों ओर से छेंकना और बाँधना रोकना, श्राक्रांत करना, छेंकना, ग्रसना, चौपायों को चराना, किसी स्थान को अधिकार में रखना, खुशामद करना । घेरा -- संज्ञा, पु० ( हिं० घेरना ) चारों ओर की सीमा, लम्बाई, चौड़ाई यादि का पूरा विस्तार या फैलाव, परिधि या सीमा For Private and Personal Use Only Page #636 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir घोड़िया घेवर की माप का जोड़ या मान, किसी स्थान के दवाना कि साँस रुक जाय । संज्ञा, पु. चारों ओर की वस्तु (जैसे-दीवार आदि) | घोटने का औज़ार ( स्त्री. घोटनो)। घिरा हुआ स्थान, हाता, मंडल, सेना का | घोटवाना-स० क्रि० दे० (हि० घोटना का किले या गढ़ के चारों ओर से छेकने का प्रे० रूप ) घोटने का काम दूसरे से कराना, काम, मुहासरा । सा० भू० स० कि० (हि. घोटाना, रगड़वाना। घेरना) घेर लिया। घोरा- संज्ञा, पु० दे० (हि. घोटना) वह घेवर-संज्ञा, पु० दे० ( हि० घी--पूर ) एक वस्तु जिससे घोटाजाय, घुटा हुआ, चमकीला प्रकार की मिठाई। कपड़ा, रगड़ा, घुटाई, घोट्टा (ग्रा० )। घेया-संज्ञा, पु० दे० (हि. घी या सं० | घोटाई-संज्ञा, स्त्री० (हि. घोटना+भाईघात ) ताजे और बिना मथे हुए दूध पर | प्रत्य० ) घोटने का काम या मज़दूरी । तैरते हुये मक्खन के इकट्ठा करने की | घोटाला-संज्ञा, पु० (दे०) घपला, गड़बड़ । क्रिया, थन से छूटती हुई दूध की धार जो घोटू-संज्ञा, पु० (दे०) नम्र, मीठा, मधुर । मुहँ लगा कर पिई जाय । संज्ञा, स्त्री० (हि. घोड़साल-संज्ञा, स्त्री० (दे० ) घुड़साल । घाई या घां)ोर, तरफ। घर-धेरु-धेरा *-संज्ञा, पु. ( दे० ) चबाव घोड़ा संज्ञा, पु० (सं० घोटक प्रा. घोड़ा स्त्री० घोड़ी ) सवारी और गाड़ी आदि (७०), बदनामी, अपयश, चुगुली। खींचने के काम का जानवर, अश्व, घोंघा--संज्ञा, पु० (दे०) शंख जैसा एक हय, वाजी, शतरंज का एक मोहरा । कीड़ा, शम्बुक (सं.)। वि. सारहीन, मूर्ख । स्त्री. घोंघी। मुहा०-घोड़ा उठाना-घोड़े को तेज़ घोंटना-स० कि० (हि. धूट पू० हि० दौड़ाना । घोडा कसना-घोड़े पर सवारी के लिये जीन या चारजामा कसना । घोट ) घूट वूट करके पीना, हज़म करना । घोड़ा डालना-वेग से घोड़ा बढ़ाना। स० कि० (दे० ) घोटना, रगड़ना। घोड़ा निकालना-घोड़े को सिखला कर घोंपना-स० कि० ( अनु० घप ) धंसाना, सवारी के योग्य बनाना । घोड़ा फेंकनाचुभाना, गड़ाना, बुरी तरह सीना। वेग से घोड़ा दौड़ाना। घोड़ा बेच कर घोंसला (घोसला)-संज्ञा, पु. (सं० सोना- खूब निश्चित हो कर सोना । वह कुशालय ) पक्षियों के रहने का घास-फूस पेंच या खटका जिसके दबाने से बन्दूक से से बनाया हुआ स्थान, नीड़, खोता, गोली चलती है, भार संभालने के लिये घोंसुआ (ग्रा०)। दीवाल में लगा हुआ खूटा, शतरंज का घोखना-स० क्रि० दे० (सं० घुष ) पाठ एक मोहरा । की बार बार श्रावृत्ति करना, रटना, घोंटना, याद करना । संज्ञा, स्त्री० घोखाई। | घोडा-गाड़ी-संज्ञा, स्त्री. यौ० (हि. घोड़ा घोघी-संज्ञा, स्त्री० (दे०) घुग्घी। + गाड़ी) घोड़े से चलने वाली गाड़ी। घोट-घोटक-संज्ञा, पु० (सं० घोटक) घोड़ा। घोड़ानस-संज्ञा, स्त्री० यौ० (हि. घोड़ा+ घोटना-स० कि.दे. (सं. घट = नस ) वह बड़ी मोटी नस जो एड़ी के पीछे आवत्तन ) चिकना या चमकीला करने से उपर को जाती है। या बारीक पीसने को बार बार रगड़ना, बट्टे घोडायच-संज्ञा, स्त्री० यौ० (हि. धोड़ा श्रादि से रगड़ कर परस्पर मिलाना, हल +वच ) खुरासानी वच (औषधि )। करना, डाँटना, फटकारना, (गला ) इतना | घोडिया-संज्ञा, स्त्री. ( हि. घोड़ा+इया भा० श. को०- For Private and Personal Use Only Page #637 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चंग घोड़ी प्रत्य०) छोटी घोड़ी, दीवार में गड़ी खूटी, अहीर, गोशाला, तट, किनारा, आवाज़, छज्जे का भार सँभालने वाली टोड़ो। | नाद, गरजने का शब्द, शब्दों के उच्चारण घोड़ी-संज्ञा, स्त्री० (हि. घोड़ा ) घोड़े की में एक प्रयत्न । मादा, पायों पर खड़ी काठ की लम्बी पटरी, | घोषणा-संज्ञा, स्रो० (सं० ) उच्च स्वर से पाट, विवाह में दूल्हा के घोड़ी पर चढ़ | किसी बात की सूचना, राजाज्ञा आदि का कर दुलहिन के घर जाने की रीति । । प्रचार, मुनादी या डुग्गी, ढिंढोरा । घोर-वि० (सं० ) भयंकर, भयानक, विक- | घोषणा-पत्र-सर्वसाधारण के सूचनार्थ राल, घना, दुर्गम, कठिन, कड़ा. गहरा. राजाज्ञा-पत्र, गर्जन, ध्वनि, शब्द, आवाज़ । गादा, बुरा, बहुत ज़्यादा । संज्ञा, स्त्री० (सं० | घोषणीय-वि. (सं०) प्रचारित करने घुर) शब्द, गर्जन, ध्वनि । | योग्य, प्रकाशनीय, सूचनीय । घोरना-प्र. क्रि० दे० (सं० घोर) भारी घोसी-संज्ञा, पु. ( सं० घोष ) अहीर । शब्द करना, गरजना, घोलना, कष्ट देना। घौद-संज्ञा, पु. ( दे० ) फलों का गुच्छा। घोरिला*-संज्ञा, पु० (हि० घोड़ी) लड़कों घौदा-संज्ञा, पु० (दे० ) चुटैल, पाहत । के खेलने का घोड़ा ( मिट्टी श्रादि का) घ्राग-संज्ञा, स्त्री. (सं० वि० प्रेय ) नाक घोल-संज्ञा, पु० ( हि० घोलना ) घोल कर | के सूंघने की शक्ति, सुगंधि। बनाया गया पदार्थ । घ्राणेन्द्रिय-संज्ञा, पु० यौ० ( सं० घाण + घोलना-स० क्रि० (हि. घुलना ) पानी इन्द्रिय) नासिका, नाक, गंध लेने की इन्द्रिय। या किसी द्रव पदार्थ में किसी वस्तु को | घ्रात-वि० (सं०) गृहीत गंध, पुष्प आदि हिला कर मिलाना, हल करना, घोरना का गन्ध लेना । (विलो-अनाघ्रात )। (दे०)। घ्रायक-वि० (सं० ) गन्ध-ग्राहक, सूंघने घोष-संज्ञा, पु० (सं० ) अहीरों की बस्ती, । वाला। ङ-संस्कृत और हिन्दी में कवर्ग का अंतिम ङ- संज्ञा, पु० (सं० ) सूंघने की शक्ति, स्पर्श वर्ण, जिसका उच्चारण स्थान कंठ गंध, सुगंधि, भैरव । और नासिका है । "नमणनानाम् नासिका च"। च-संस्कृत या हिन्दी भाषा की वर्णमाला चंक्रमण-संज्ञा, पु० (सं०) इधर-उधर का २२ वाँ अक्षर, द्वितीय वर्ग का प्रथम घूमना, टहलना। वर्ण जिसका उच्चारण स्थान तालु है। चंग-संज्ञा, स्त्री० दे० (फा०) डफ़ के श्राकार "इचुयशानाम् तालु"। का एक छोटा बाजा । संज्ञा, पु०-गंजीफ़ा का चंक्र—वि० (सं० चक्र) पूरा पूरा, समूचा, रङ्ग । संज्ञा, स्त्री० (सं० चं चन्द्रमा) पतङ्ग, सारा, समस्त । गुड़ी। "नीच चंग सम जानिये" -तु० । For Private and Personal Use Only Page #638 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चगना चंडाल मुहा०-चंगचढ़ाना या उमहना-बढ़चढ़ | अव्यवस्थित, जो एकाग्र न हो, उद्विग्न, घबकर बात होना, खूब ज़ोर होना। चंग पर राया हुआ, चुलबुला, नटखट । “चंचल नयन चढ़ाना- इधर-उधर की बात कह कर | दुरै न दुराये।"- स्फुट०। अनुकूल करना, मिज़ाज बढ़ा देना। चंचलता-संज्ञा, स्त्री० (सं० ) अस्थिरता, चगना*-- सं० क्रि० दे० (हि० चंगा, फा० चपलता, नटखटी, शरारत । चंचलताई* तंग ) तंग करना, कसना, खींचना। चंचलाई ( दे०) "मोहिं तजि पाँव-चंचचंगा-वि० (सं० चंग) स्वस्थ, निरोग, अच्छा, | लता धौं कहाँ गई।"-पद्मा० । 'खंजन की भला, सुन्दर, निर्मल, शुद्ध । स्त्री. चंगी। मीनन की चंचलाई आँखिन में"-देवः । यौ० --भला-चंगा। लो-" वैद वैदकी | चंचला--- संज्ञा स्त्री० (सं० ) लचमी, ही करै, चंगा कर भगवान "-स्फुट०। । बिजली, पीपर ( औषधि )। चंगु-संज्ञा, पु० दे० ( हि० चौ = चारि+ | चंचु-संज्ञा, पु० (सं०) एक शाक, चेंच अंगुल । चंगुल, पंजा, पकड़, वश । । (ग्रा० ) रेंड का पेड़, मृग, हिरण । संज्ञा, । चंगुल - संज्ञा, पु. (हि. चौ= चार + | स्त्री० चिड़ियों की चोंच। अँगुल ) चिड़ियों का टेढ़ा पंजा, अँगुलियों चंचोरना-स. क्रि० (दे०) चचोड़ना। से किसी वस्तु के उठाते या लेते समय पंजे चंट—वि० दे० (सं० चंड ) चालाक, होशिकी स्थिति, बकोटा ( ग्रा० )। मुहा०- यार, सयाना, धूर्त, चाई (ग्रा० ) संज्ञा, चंगुल में फंसना (आना, पड़ना, स्त्री. चंटई। होना)-वश या पकड़ या काबू में श्राना ! | चंड-वि० (सं० स्त्री० चंडा ) तीचण, उग्र, चगेर-चगेरी-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० प्रचंड, प्रखर, बलवान, दुर्दमनीय, कठोर, चंगोरिक ) बाँस की छिछली डलिया या कठिन, विकट, उद्धत, कोधी । संज्ञा, पु. चौड़ी टोकरी, फूल रखने की डलिया, (सं० चंड ) ताप, गरमी, एक यमदूत, डगरी, चमड़े का जल-पात्र, मशक, पखाल एक दैत्य जिसे दुर्गा ने मारा था। पालना, रस्सी में बाँध कर लटकाई हुई | चंडकर संज्ञा, पु० यौ० (सं०) सूर्य, रवि । टोकरी जिसमें बच्चों को मुला कर सुलाते हैं। चंडता-संज्ञा, स्त्री० (सं० ) उग्रता, प्रबचगेली-संज्ञा, स्त्री० (दे०) चंगेर। | लता, घोरता, बल, प्रताप । चंच-संज्ञा, पु० (दे०) चंचु (सं०) चोंच। चंडमुंड-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) देवी से मारे चंचरी-संज्ञा, स्त्री० (सं० ) भ्रभरी, भँवरी। गये दो राक्षस । चाँचरि, होली का एक गीत, हरिप्रिया, | चंडरसा-संज्ञा, स्त्री० (सं०) एक वर्णवृत्त । छंद, एक वर्ण वृत्त, चॅचरा, चंचली (ग्रा०) चंडवृष्टि-प्रताप-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) विवुध प्रिया छंद (छब्बीस मात्राओं का)। एक दंडक वृत्त ।। चंचरीक-संज्ञा, पु० (सं० ) भ्रमर, भौंरा । | चंडाँशु-संज्ञा, पु. यौ० (सं०) सूर्य, " गुञ्जत चंचरीक मधुलोभा"-रामा० । भानु, रवि । स्त्री० चंचरीकी। चंडाई-संज्ञा, स्त्री. (सं० चंड तेज़) चंचरीकापली-संज्ञा स्त्री० यौ० (सं०) शीघ्रता, उतावली, प्रबलता, ज़बरदस्ती, भ्रमर-पंक्ति, भ्रमरसमूह, भौंरों का झुंड । | अत्याचार। १३ अक्षरों का एक वर्ण वृत्त । चंडाल-चांडाल-संज्ञा, पु. ( सं० ) चंचल-वि० सं० ( स्त्री. चंचला) चलाय- श्वपच, भंगी, मेहतर। स्त्री. चंडालिनी, मान, अस्थिर, हिलता, डोलता, अधीर, I . चंडालिनि । For Private and Personal Use Only Page #639 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चंडालिका चंदिया चंडालिका-संज्ञा, स्त्री० (सं०) दुर्गा, एक | एक अर्ध चन्द्राकार गहना, नथ में पानप्रकार की वीणा। जैसा एक साज । चंडालिनी-संज्ञा, स्त्री० (सं०) चंडाल की चंदन-संज्ञा, पु. ( सं० ) एक सुगंधित वृक्ष स्त्री, दुष्टा या पापिनी स्त्री, एक प्रकार का | और उसकी लकड़ी जो देव-पूजन और तिलक (दूषित ) दोहा। श्रादि में प्रयुक्त होती है, श्रीखंड, संदल, चंडावल-संज्ञा, पु० (सं० चंड+अवलि) घिसे हुए चन्दन का लेप, छप्पय छंद का सेना के पीछे का भाग, हराबल का उलटा, तेरहवाँ भेद । “अनल प्रगट चन्दन ते होई" बहादुर सिपाही, संतरी। -रामा० । चंडिका-संज्ञा, स्त्री. (सं० ) दुर्गा, गायत्री चंदन-गिरि-संज्ञा, पु० यौ० (सं.) देवी, लड़ाकी स्वी। मलयाचल । चंडी-संज्ञा, स्त्री० (सं०) महिषासुर के चंदनहार-संज्ञा, पु० यौ० (दे०) चन्द्रहार । बधार्थ धारण किया हुश्रा दुर्गा का रूप, | चंदना -- संज्ञा, पु० (दे० ) चन्द्रमा, चाँदना कर्कशा और उग्र स्त्री, तेरह अक्षरों का एक " रसिक चकोरन हेतु सुप्रगट्यो चंदना" -अलबेली। वर्णवृत्त । "कलौ चंडी विनायकौ"-स्फुट । चंडीश-संज्ञा, पु. यौ० (सं० चंडी+ईश)। चंदनी- संज्ञा, स्त्री० (दे०) चाँदनी, चंद्रिका। चंदनौता- संज्ञा, पु० (दे० ) एक प्रकार शिवजी, चंडीपति। "तब चंडीश दीन्ह | का लहँगा। वरदाना"-सरस। चंदवान--संज्ञा, पु. ( दे०) चन्द्र-बाण । चंडू- संज्ञा, पु० दे० (सं० चंड = तीक्ष्ण) चंदवाना-स० कि० दे० (सं० चंद दिखअनीम का किवाम जिसका धुआँ नशे के लाना ) बहकाना, बहलाना, जान बूझ कर लिये एक नली के द्वारा पीते हैं। अनजान बनना। चंडखाना-संज्ञा, पु. (हि. चंडू + फा०ला -वि० दे० । हि चाँद = खोपडी ) खाना ) चंडू पीने का स्थान ! मुहा० । गंजा। चंडूखाने की गप-मतवालों की झूठी चंदवा-संज्ञा, पु० दे० (सं० चंद्र ) एक बकवाद, निरी झूठी बात। प्रकार का छोटा मंडप, चँदोवा (ग्रा.) चंडूवाज-संज्ञा, पु. (हि. चंडू+फा० | शामियाना । संज्ञा, पु० दे० (सं० चंद्रक) वाज़ ) चंडू पीने वाला। गोल चकती, मोर के पंख पर अर्द्ध चन्द्राचंडूल-संज्ञा, पु. (दे.) खाकी रङ्ग की कार चिन्ह, गंजा। एक छोटी चिड़िया जिसे लोग पालते हैं। चंदा-संज्ञा, पु० दे० (सं० चंद या चंद्र ) "भे पंछी चंडून"-तु०।। चन्द्रमा। संज्ञा, पु० दे० (फा० चंद = कई चंडोल-संज्ञा, पु० दे० (सं० चंद्र + दोल)। एक ) कई आदमियों से थोड़ा थोड़ा लिया एक पालकी, डोली। जाने वाला धन, बेहरी, उगाही, सामयिक चंद-संज्ञा, पु० दे० (सं० चंद ) चन्द्र, पन, पुस्तकादि का वार्षिक मूल्य । हिंदी भाषा के बहुत पुराने कवि जो पृथ्वी- | चंदिका--संज्ञा, स्त्री० (दे० ) चन्द्रिका । राज के मित्र और सामन्त थे, जिन्होंने रासो | | चौदिनि-चंदिया- संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० नाम का ग्रन्थ रचा । "कबी कव्यचंदं सु चंद्र) चाँदनी, चन्द्रिका । " चोरहिं चाँदिनि माधौ नरिंदं ।" वि० (फा०) थोड़े से, कुछ। रात न भावा"-रामा० ।। चंदक- संज्ञा, पु. (सं० चंद्र ) चन्द्रमा, चंदिया--संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. चाँद ) चाँदनी, चाँद नाम की मछली, माथे का | खोपड़ी, सिर का मध्य भाग, एक मिठाई । For Private and Personal Use Only Page #640 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org मंदिर चंदिर - संज्ञा, पु० ( सं ० ) चन्द्रमा | चंदेरी - संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० चेदि वा हि० चंदेल ) ग्वालियर राज्य का एक प्राचीन नगर, चेदि देश की राजधानी । चंदेरीपति - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) शिशुपाल । चंदेल -संज्ञा, पु० (सं० ) तत्रियों की एक शाखा जो पहिले कालिंजर और महोबे में राज्य करते थे । ६२६ चंद्रवर्म चंद्र धनु - संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) रात्रि में चन्द्रमा के प्रकाश से प्रगट इन्द्र-धनुष । चंद्रधर - संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) शिव, शशिधर, चंद्रभाल, चंद्रमौलि । चंद्रप्रभा - संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) चन्द्रज्योति, चाँदनी, चन्द्रिका | चंद्रवारण - संज्ञा, पु० यौ० ( सं० ) अर्द्ध चन्द्राकार फलवाला बाण । चंद्रबिंदु - संज्ञा पु० ० ( सं० ) अर्द्ध अनुस्वार की बिंदी, ( ) । चंद्रबिंब – संज्ञा, पु० यौ० ( सं० ) चन्द्रमा (सं०) पंजाब की चंदोया - चंदोवा -- संज्ञा, पु० ( दे० ) चंदवा, शामियाना, चाँदनी । “रतन दीप सुठि चारु चंदोवा" - पद्म० । चंद्र - संज्ञा, पु० (सं०) चन्द्रमा, एक की संख्या, मोर पंख की चन्द्रिका, जल, कपूर सोना, १८ द्वीपों में से एक द्वीप (पुरा०) अनुनासिक वर्ण के ऊपर की बिन्दी, टगण का दसवाँ भेद (पिं० ) (IISI) हीरा, आनन्ददायी वस्तु । वि० आनन्द-दायक, सुन्दर । चंद्रक - संज्ञा, पु० (सं० ) चन्द्रमा, चन्द्रमा का सा मंडल या घेरा, चन्द्रिका, चाँदनी, मोर पंख की चन्द्रिका, नाखून, कपूर । चंद्रकला - संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं० ) चन्द्र 0- मंडल का सोलहवाँ अंश, चन्द्रमा की किरण या ज्योति, एक वर्णवृत्त, माथे का गहना । चंद्रकांत - संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) एक मणि या रत्न जो चन्द्रमा के सामने पसीजता है । विलो०- सूर्यकान्त | चंद्रकान्ता - संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) चन्द्रमा की स्त्री, रात्रि, १५ अक्षरों की एक वर्णवृत्त । चंद्रगुप्त - संज्ञा पु० (सं० ) चित्रगुप्त, मगध देश का प्रथम मौर्य वंशी राजा, गुप्त वंश का प्रसिद्ध राजा । चंद्र ग्रहण – संज्ञा, पु० यौ० (सं०) चन्द्रमा का ग्रहण । चंद्रचूड़ - संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) शिवजी । चंद्र जोति संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं० चंद्र + ज्योति ) चन्द्र- प्रकाश, चाँदनी । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir का मंडल | चंद्रभागा - संज्ञा, स्त्री० चना नामी नदी । चंद्रभाल - संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) शिवजी । चंद्रभूषण - संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) महादेव जी । चंद्रमणि - संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) चन्द्रकांत मणि उल्लाला छंद । चंद्रमा - संज्ञा, पु० (सं० चंद्रमस ) सूर्य से प्रकाशित रात्रि को प्रकाश देने वाला पृथ्वी का उपग्रह, चाँद, शशि, विधु । चंद्रमा- ललाम - संज्ञा, पु० यौ० ( सं० चंद्रमा + ललामभूषण ) महादेव जी । चंद्रमाला - संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं० ) २८ मात्राओं का एक छंद । चंद्रमौलि -- संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) शिवजी । चंद्ररेखा - चंद्रलेखा - संज्ञा, स्त्री० यौ० ( सं० ) चन्द्रमा की कला या किरण, द्वितीया का चन्द्रमा, एक वर्णवृत्त । चंद्रलोक-संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) चन्द्रमा का लोक । चंद्रवंश - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) चन्द्र-कुल, क्षत्रियों के दो यदि 'शों में एक जो पुरुरवा से प्रारम्भ हुआ था । " सूर्य वंस की वधू चन्द्र-कुल की है कन्या " - रत्ना० । चंद्र - संज्ञा, पु० (सं० ) एक वर्णवृत्त । For Private and Personal Use Only Page #641 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चंद्रवधू चंद्रवधू-चंद्रवधूटी-संज्ञा, स्त्री० (सं० ) चपना-अ० कि० दे० ( सं० चप् ) बोझ से वीर बहूटी नामक लाल रङ्ग का कीड़ा। दबना, उपकार आदि से दबना। "धरती कहँ चन्द्र बधू धरि दोन्ही'-राम। चंपा-संज्ञा पु० दे० (सं० चंपक ) हलके चंद्रबधू, चंदबधूटी (दे० )। पीले रंग और कड़ी महक के फूलों का एक चंद्रवार-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) सोमवार । छोटा पेड़, अंग देश की प्राचीन राजधानी चंद्रशाला--संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं० ) एक मीठा केला, घोड़े की एक जाति, रेशम चाँदनी, सबसे ऊपर की कोठरी। का कीड़ा। चंद्रशेखर-संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) शिवजी, चंपाकली-संज्ञा, स्त्री० यौ० ( हि० चंपा+ चन्दसेखर (दे०)। कली ) स्त्रियों के गले का एक गहना । चंद्रहार-संज्ञा, पु. (सं० ) गले की एक चंपारण्य-संज्ञा, पु. यौ० (सं० ) वर्तमान . माला, नौलखा हार, चन्दहार। चंपारन । चंद्रहास-संज्ञा, पु. यौ० (सं० ) खड्ग, चंपू - संज्ञा, पु० (सं.) गद्य-पद्य युक्त काव्य । रावण की तलवार । 'चन्द्रहास मम हरू " गद्य-पद्यमयी वाणी चंपूरित्यभिधीयते " परितापा''-रामा० । चंबल-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० चर्मरावती ) चंद्रा-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० चंद्र ) मरने के नदी, नालों के किनारे की एक लकड़ी जिससे समय टकटकी बँध जाने की दशा। सिंचाई के लिये पानी ऊपर चढ़ाते हैं। चंद्रातप-संज्ञा, पु. यौ० (सं० ) चाँदनी, चँवर-संज्ञा, पु० दे० (सं० चामर ) ( स्त्री. चन्द्रिका, चाँदनीका ताप, चॅदावा, वितान । अल्पा० चँवरी) डाँड़ी में लगा हुश्रा सुरागाय चंद्रपीड़ --संज्ञा, पु० (सं०) उज्जैन के राजा की पूंछ के बालों का गुच्छा, जो राजाओं तारापीड़ के पुत्र। या देवमूर्तियों पर डुलाया जाता है। चंद्रायण- संज्ञा, पु० (सं० चाँद्रायण ) व्रत मुहा०-चवर ढलना (चलना ) ऊपर विशेष । ●वर हिलाया जाना । घोड़ों हाथियों के सिर चंद्रावती संज्ञा, पु० (सं०) एक वर्णवृत्त ।। पर लगाने की कलँगी, झालर, फंदना। चंद्रिका-संज्ञा, स्त्री० (सं० ) चन्द्रमा का जबरदार -- संज्ञा, पु० दे० (हि. बँवर+ प्रकाश, चाँदनी, कौमुदी, मोर पंख का | ढारना ) चँवर डुलाने वाला, सेवक । गोल चिन्ह, इलायची, जूही या चमेली। चंसुर -- संज्ञा, पु० दे० (सं० चंद्रशूर ) हालों एक देवी, एक वर्णवृत्त, माथे का एक भूषण, बेंदी, बेंदा । या हालिम नाम का पौधा ।। चंद्रोदय-संज्ञा, पु० यौ० ( सं० ) चन्द्रमा | च-संज्ञा, पु० (सं० ) कच्छप, कछुआ। का उदय, एक रसायन ( वै० ) चँदोवा । चन्द्रमा, चोर, दुर्जन। चंपई-वि० दे० (हि. चंपा ) चंपा के फूल चउहट्ट -संज्ञा, पु० (दे०) चौहट्ट ' चउहह के रंग का, पीले रंग का। हाट बजार बीथी चारु पुर बहु बिधि चंपक-संज्ञा, पु. (सं०) चंपा, चंपा के बना"-रामा०। फूल, सांख्य में एक सिद्धि। | चक-संज्ञा पु० दे० (सं० चक्र ) चकई, चंपकमाला-संज्ञा, स्त्री. (सं० ) एक वर्ण | खिलौना, चक्रवाक पक्षी, चकवा (दे०)। वृत्त । चक्र अस्त्र, चक्का, पहिया, बड़ा भूभाग, चंपत-वि० ( दे० ) चलता, ग़ायब, । पट्टी, छोटा गाँव, खेड़ा, पुरवा, किसी बात अन्तर्धान, भाग गया। की निरंतर अधिकता, अधिकार दखल । For Private and Personal Use Only Page #642 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ६३१ चकई चकला वि. भरपूर, अधिक । वि० (सं०) चक- तातार अमीर चकताई खाँ जिसके वंश में पकाया हुआ। " संपति चकई भरत चक" बाबर आदि मुगल बादशाह हुये, चकताई -रामा० । वंश का पुरुष, “ चौंके चकत्ता सुने जाकी चकई--संज्ञा, स्त्री० दे० ( हि० चकवा ) मादा बड़ी घाक है--- भूष। चकवा या सुरखाव, चक्रवाकी, "लखि चकई | चकना* --अ० क्रि० दे० (सं० चक्र =भ्रांत) चकवान"-वि० । संज्ञा, स्त्री० (सं० चक्र) चकित या भौचक्का होना, चकपकाना, एक गोल खिलौना। चौकन्ना, या पाश्चर्यित होना । चकचकाना-अ० कि० दे० (अनु०) किसी चकनाचूर-वि० दे० (हि० चक = भरपूर+ द्रव पदार्थ का सूचम कणों के रूप में किसी | चूर ) टूट-फूट कर बहुत से छोटे छोटे वस्तु के भीतर से निकालना, रस रस कर टुकड़े हो गया हुआ, चूर चूर, खंड खंड, ऊपर पाना, भीग जाना। चूर्णित, बहुत थका हुआ। चकचाना*-अ० कि० ( अनु०) चौंधि- चकपकाना-अ० कि० दे० (सं० चक्र = याना, चका चौंध लगना। भ्रांत ) श्राश्चर्य से इधर उधर ताकना, चकचाल*--संज्ञा, पु. (सं० चक + चाल | भौचक्का या चौकन्ना होना।। हि.) चक्कर, भ्रमण, फेरा। चकफेरी-संज्ञा, स्त्री. यो० (सं० चक्र, हि० चकवाय *-संज्ञा, पु० (अनु०) चकाचौंध।। चक + हि. फेरी) परिक्रमा, भँवरी। चकचून-वि० दे० (सं० चक्र + चूर्ण ) चूर | चकबंदी- संज्ञा, स्त्री० यौ० (हि० चक+ किया या पिसा हुश्रा, चकनाचूर। फ़ा० बंदी ) भूमि को कई भागों में विभक्त चकचौंध-संज्ञा, स्त्री. ( दे० ) चकाचौंध ।। करना। चकचौंधना- अ. क्रि० दे० (सं० चक्षुष + चकमक-संज्ञा, पु० ( तु०) एक प्रकार का अंध ) आँखों का अधिक प्रकाश के सामने कड़ा पत्थर जिस पर लोहे की चोट पड़ने से ठहर न सकना, चकाचौंध होना। स० क्रि० आग निकलती है। चकाचौंधी उत्पन्न करना। चकमा-संज्ञा, पु० दे० (सं० चक्र =भ्रांत) चकडोर-संज्ञा, स्त्री० यौ० (हि. चकई -- भुलावा, धोखा, हानि, नुकसान । डोर ) चकई नामी खिलौने में लपेटा सूत । चकरा*-संज्ञा, पु० दे० (सं० चक्र) चक्रनका _हा.प. ( चकल्लस.झगडा। वाक या चकवा पक्षी, चक्र । चकती-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० चक्रवत् ) चकरबा-संज्ञा, पु० दे० (सं० चक्र व्यूह ) चमड़े, कपड़े आदि का गोल या चौकोर छोटा कठिन स्थिति, असमंजस, बखेड़ा। टुकड़ा, पट्टी, टूटे-फूटे स्थान के बंद करने के | चकराना-प्र. क्रि० दे० (सं० चक्र ) लिये लगी हुई पट्टी या धज्जी, पिगली, दिमाग का चक्कर खाना, सिर घूमना, भ्रांत थिगरी (ग्रा.)। महा०-बादल में या चकित होना, चकपकाना, घबराना, चकती लगाना-अनहोनी बात या चकाना (दे०) । स० कि० आश्चर्य में काम के करने का प्रयत्न करना। डालना। चकत्ता-संज्ञा, पु० दे० (सं० चक्र + वर्त) चकरी-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० चक्री) चक्की, रक्त-विकार आदि से शरीर पर पड़े गोल चकई खिलौना, एक पातशबाज़ी। वि० चक्की दाग़, खुजलाने आदि से हुई चमड़े के ऊपर सा घूमने वाला, भ्रमित, अस्थिर, चंचल । चिपटी सूजन, दरोरा, दाँतों से काटने का | चकला- संज्ञा, पु० दे० (सं० चक्र हि. चक चिन्ह । संज्ञा, पु. (तु. चकताई) मुगल या | +ला–प्रत्य० ) रोटी बेलने का पत्थर या For Private and Personal Use Only Page #643 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - चकली-चकरी चक्का काठ का गोल पाटा, चौका, चक्की, इलाका, | चकुला*-संज्ञा, पु० (दे०) चिड़िया जिला, व्यभिचारिणी स्त्रियों का अड्डा। का बच्चा, चेटुवा ।। वि० स्त्री० चकली वि० चौड़ा। | चकृत -वि० (दे० ) चकित । चकली-चकरी-संज्ञा, स्त्रो० दे० (सं० चकरा- वि० (दे०) बड़ी आँख वाला। चक्रहि चक्र ) घिरनी, गड़ारी, छोटा चकला, । चकोटना-स० कि० दे० (हि. चिकोटो) होरसा (प्रान्ती०)। चुटकी से मांस नोचना, चुटकी काटना । चकलेदार-संज्ञा पु० (दे० ) किसी प्रदेश | चकोतरा-संज्ञा, पु० दे० (सं० चन = का शासक या कर-संग्रह करने वाला। गोला) एक प्रकार का बड़ा नींबू, चकोत्रा। चकवड़-संज्ञा, पु० दे० (सं० चक्र मर्द ) चकोर - संज्ञा पु० (सं०) एक बड़ापहाड़ी एक बरसाती पौधा, पमार, पवार । (ग्रा०) तीतर जो चन्द्रमा का प्रेमी और अंगार चकोंडा। खाने वाला प्रसिद्ध है । स्त्री० चकोरी चकवा - संज्ञा, पु० दे० (सं० चक्र वाक). • ज्यौं चकोर ससि जोर तें, लीलै विषएक जल-पक्षी जिसके विषय में प्रवाद है कि अंगार'"-वृन्द । “ देखहिं विधु चकोररात्रि को जोड़े से अलग पड़ जाता है, सुर. समुदाई"- रामा०॥ खाब, चकवाह (ग्रा० ) स्त्री. चकवी । चकौंड-संज्ञा, पु० (दे०) एक बरसाती चकवाना*-4. क्रि० (दे०) चकपकाना। पौधा जिसकी पत्तियों का रस दाद रोग का चकहा /*--संज्ञा, पु० दे० (सं० चक्र ) नाशक है, चकौंडा, चकौदा, चकउँड़ पहिया। चका -संज्ञा, पु० दे० (सं० चक्र) पहिया, (ग्रा०)। चाका, चक्का, चाक, चकवा पक्षी। चक-संज्ञा, पु० दे० (सं० चक्र ) चक्रवाक, चकवा, चक्र, कुम्हार का चाक, चक्की, चकाचक-वि० (अनु०) सराबोर, लथ पहिया। पथ । क्रि० वि० खूब, भरपूर । चक्कर- संहा, पु० दे० (सं० चक्र) पहिये के चकाचौंध-संज्ञा, स्त्रो० (सं० चक्र = श्राकार की कोई (विशेषतः) घूमने वाली चमकना+चौं = चारों ओर--- अंध ) अत्यन्त बड़ी गोल चीज़, मंडलाकार पटल या गति, अधिक चमक के सामने आँखों की झपक, चाक, गोल घेरा, मंडल, परिक्रमण, फेरा, तिलमिलाहट, तिलमिली, चकचौह पहिये सा भ्रमण, अक्ष पर घूमना । वि. चकचौंध (ग्रा०)। चकरदार । मुहा०-चक्कर काटना चकाना*-अ० क्रि० (दे० ) चकपकाना, (लगाना)-परिक्रमा करना, मँडराना, चकराना, आश्चर्य में आना। चक्कर खाना, पहिये के समान घूमना, चकावू-संज्ञा, पु० दे० (सं० चक्र व्यूह) भटकना, भ्रांत या हैरान होना। चलने एक के पीछे एक कई मंडलाकार पंक्तियों में अधिक घुमाव या दूरी, फेर, हैरानी, में सैनिकों की स्थिति, व्यूह, भूलभूलैया । असमंजस, पेंच, जटिलता, दुरूहता । मुहा० चकित-वि० (सं० ) चपकाया हुआ, | -(किसी के) चकर में श्राना, पड़ना विस्मित, दंग, हक्का-बक्का, हैरान, घबराया —किसी के धोखे में प्राना, पड़ना । हुमा, चौकन्ना, सशंकित, डरा हुश्रा, कायर, सिर घूमना, घुमरी, घुमटा, पानी का भँवर, पाकुलित । " चितवति चकित चहूँ दिसि सीता"-रामा०। | चक्का-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० चक्र प्रा० चक) जजाल For Private and Personal Use Only Page #644 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चक्की पहिया, चाका, पहिये सी गोल वस्तु, बड़ा चक्रवर्ती वि० (सं० चक्रवर्तिन् ) श्रासचिपटा टुकड़ा या कतरा। मुद्रांत भूमि पर राज्य करने वाला, सार्वचक्की-संज्ञा, स्त्री० दे० ( सं० चक्री ) श्राटा भौमराजा, चक्कवइ, चक्कचे ( दे०) स्त्री० पीसने या दाल दलने का यंत्र, जाँता। चक्रवर्तिनी।। "घर की चक्की कोई न पूजै"--कवी०। चक्रवाक-संज्ञा, पु० (सं० ) चकवा पक्षी। मुहा०-चक्की पीसना-कड़ा परिश्रम | यौ० चक्रवाक-बन्धु-सूर्य । “देखिय करना । संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० चक्रिका ) पैर चक्रवाक खग नाही"-रामा० । के घुटने की गोल हड्डी, बिजली, वन ।। चक्रवात-संज्ञा, पु. यौ० (सं०) वेग चक्कू-संज्ञा, स्त्री० (दे० ) चाकू, छुरी।। से चक्कर खाती हुई वायु, वात-चक्र, चक्र--संज्ञा, पु. (सं.) पहिया, चक्का, बवंडर। चाका (दे०) कुम्हार का चाक चक्की, चक्रवृद्धि- संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं० ) व्यान जाँता, तेल पेरने का कोल्हू, पहिये सी पर भी व्याज लगाने का विधान, सूद दर गोल वस्तु, एक पहिये सा लोहे का अस्त्र, सूद, व्याज पर व्याज । विष्णु ( कृष्ण ) का अस्त्र, पानी का चक्रव्यूह-संज्ञा, पु. यौ० (सं० ) प्राचीन भँवर, वायुचक्र, ववंडर, समूह, मंडली, | युद्ध में किसी व्यक्ति या वस्तु की रक्षा एफ व्यूह या सेना की स्थिति, मंडल, प्रदेश, के लिये उसके चारों ओर कई घेरों में सेना राज्य, एक सिन्धु से दूसरे तक फैला हुश्रा | की चक्करदार या कुंडलाकार स्थिति । प्रदेश, पासमुद्रांत भूमि, चक्रवाक, चकवा, चक्रा-संज्ञा, स्त्री० (सं० ) समूह, गिरोह । योग के अनुसार शरीरस्थ पद्म, अँगुलियों चक्रांकित-संज्ञा, पु० या० (सं० चक्र+ के सिरों पर चक्र चिह्न ( सामु०) फेरा, अंकित ) बाहु पर चक्र-चिन्ह छपाये वैष्णव, भ्रमण, घुमाव, चक्कर, दिशा, प्रांत, एक रामानुजानुयायी। वर्ण वृत्ति । यौ० काल-चक्र । चक्रायुध-संज्ञा, पु० यौ० ( सं० ) विष्णु, चकतीर्थ-संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) दक्षिण कृष्ण, चक्रधारी। में ऋष्यमूक पर्वतों के बीच तुंगभद्रा नदी के चक्रित*-वि० (सं०) चकित ।। घुमाव पर एक तीर्थ, नैमिषारण्य का कुंड। चक्री-संज्ञा, पु० (सं० चकिन् ) चक्रधारी चक्रधर-वि० यौ० (सं.) जो चक्र धारण विष्णु, गाँव का पंडित वा पुरोहित, चक्रकरे ! संज्ञा, पु० (सं० ) विष्णु, श्रीकृष्ण, वाक, कुम्हार, सर्प, जासूस, मुखविर, चर, तेली, चक्रवर्ती, चक्रमई, चकवड़ । बाज़ीगर, इन्द्र-जाल करने वाला, कई ग्रामों या नगरों का स्वामी । चक्रधारी। चक्रेला--वि० (सं०) चकाकार, गोल : चक्रपाणि-संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) विष्णु, चतु-संज्ञा, पु० ( सं० चक्षुस् ) दर्शनेंद्रिय, आँख, चख, वर्तमान पाकसस या चेहूँ नदी। श्री कृष्ण। चनुष्य-वि० (सं०) नेत्र-हितकारी औषधि चक्रपूजा-संज्ञा, स्त्री० या० (सं०) तांत्रिकों आदि, सुन्दर, नेत्र-सम्बन्धी, चाक्षुष ।। की एक पूजा विधि । चख -संज्ञा, पु० दे० (सं० चक्षुस्) आँख । चक्रमर्द-संज्ञा, पु० (सं० ) चकवँड (दे०)। संज्ञा, पु. (फ़ा०) झगड़ा, कलह । वक्रमद्रा-संज्ञा, स्त्री. यो. (सं०) चक्र यौ०-खचख-तकरार, कहा सुनी, आदि विष्णु के श्रायुधों के चिन्ह जो वैष्णव | व० ब०-चखन-"दिये लोभ चसमा अपने बाहु श्रादि अंगों पर छपवाते हैं। चखन"-वि०। भा० श. को०-८० For Private and Personal Use Only Page #645 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चखना चटकाना चखना-स० कि० दे० (सं० चष) स्वाद चकता । संज्ञा, स्त्री० (अनु०) टूटने का लेना, पास्वादनार्थ मुँह में रखना। शब्द, अंगुलियों को मोड़ कर दबाने चखाचखी-संज्ञा, स्त्री० दे० (फा० चख = | का शब्द । वि० (हि. चाटना) चाट-पोंछ झगड़ा ) लागडाँट, विरोध, वैर । कर खाया हुआ। क्रि० वि० यौ० ( दे०) चखाना-स० क्रि० दे० (हिं. चखना का चटपट-तेज़ी से । संज्ञा, स्त्री० चटपटा प्रे० रूप ) खिलाना, स्वाद दिलाना। हट । वि० चटपटा--चटकारा, चरपरा । चखैया*-संज्ञा पु० दे० ( हि चख-+ ऐया | स्त्री० चटपटी। संज्ञा, पु० चाट । मुहा० प्रत्य० ) चखने या स्वाद लेने वाला। चट करना (करजाना)--सब खा जाना, चम्बोड़ा*-संज्ञा, पु० दे० (हि. चख+ दूसरे की वस्तु लेकर न देना । यौ० चट प्रोड़ा-प्रत्य० ) दिठौना, डिठौना। शाला-पाठशाला, चटसार (७०)। वगड़-वि० (दे०) चतुर, चालाक, चघड़ चटक-संज्ञा, पु० (सं० ) ( स्त्री. चटका ) चग्घर (ग्रा.)। गौरा पक्षी, गौरवा, गौरैया, चिड़ा। वि० चग़ताई--संज्ञा, पु. ( तु. ) धगताई खाँ चटकदार । संज्ञा, स्त्री. ( सं० चटुलका एक तुर्की वंश, मुगुल । सुन्दर ) चटकीलापन, चमकदमक, कांति । बगलाना-स० क्रि० (दे०) चबाना, "जो चाहौ चटक न घटै "-वि० । वि. चलाना, दाँतों से पीस कर खाना।। चटकीला, चमकीला । संज्ञा, स्त्री० (सं० चचा-संज्ञा, पु० दे० (सं० तात ) बाप | चटुल ) तेज़ी, फुरती, चटकई (ग्रा० )। का भाई. पितृव्य, चाचा, काका (दे०) चटकना--प्र० कि० दे० ( अनु० चट ) स्त्री० चाची, चची। चटचट शब्द से टूटना या फूटना, तड़कना, चचिया- वि० ( हि० चचा ) चाचा के | कड़कना, कोयले, गंठीली लकड़ी आदि बराबर का सम्बन्ध रखने वाला । यो०- का जलते समय चटचट करना, चिड़चचिया ससुर-पति या पत्नी का चाचा। चिड़ाना, झुंझलाना, दराज़ पड़ना, स्थान चचिया सास- सास की देवरानी। स्थान पर फटना, कलियों का फूटना या चचीडा-संज्ञा, पु० दे० (सं० चिचिंड ) | खिलना, प्रस्फुटित होना, अनबन होना, तोरई की सी एक तरकारी, चिचंड़ा (ग्रा०)। खटकना। संज्ञा, पु० ( अनु० चट ) तमाचा, चचीर संज्ञा, पु० (दे० रेखा, लकीर, डाँडी। थप्पड़, चटकन ( दे०)। चचुलाई-संज्ञा, स्त्री. ( दे० ) चचेंड़ा । चटकनी-संज्ञा, स्त्री. ( अनु० चट ) चचेरा-वि० दे० ( हि० चचा + एरा प्रत्य० ) चाचा से उत्पन्न, चाचाजाद, | चटकमटक--संज्ञा, स्त्री० यौ० (हि. चटक जैसे चचेरा भाई। स्त्री० चचेरी। +मटक) बनाव, सिंगार, वेशविन्यास, हावचचोड़ना-चचोरना-स० क्रि० (दे०) भाव, नाज़-नखरा। दान्तों से खींच खींच या दबा दबा कर चटका-संज्ञा, पु० दे० (हि. चट) फुरती, चूसना, निचारना । " कहूँ स्वान इक | शीघ्रता, अति तृषा की व्याकुलता। अस्थि खंड लै चाटि चिचोरत "-रत्ना०। चटकाना-स० कि. ( अनु० चट ) कोई चट-कि० वि० दे० (सं० चटुल - चंचल ) वस्तु चटका देना, तोड़ना, ऊँगलियों को झट, तुरन्त, शीघ्र, जल्दी, फौरन । संज्ञा, खींचते या मोड़ते हुये दबा कर चटचट स्त्री. चटकई-शीघ्रता। संज्ञा, पु. शब्द निकालना, बार बार टकराना जिससे दे० (सं० चित्र ) दाग, धब्बा, घाव का चट चट शब्द निकले, चटकना का प्रे० For Private and Personal Use Only Page #646 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - चटकारा चटी रूप । मुहा०-जूतियां चटकाना-जूते | चटपटिया-वि० (दे० ) फुर्तीला, चतुर । घसीटते हुये फिरना, मारा मारा फिरना। चटपटी--संज्ञा, स्त्री० (दे०) उतावली, चटकारा-वि० दे० (सं० चटुल) चट- | घबराहट, चञ्चलता। वि० स्वादिष्ट, मज़ेदार, कीला, चमकीला, चञ्चल, चपल, तेज़। चरपरी। वि० ( अनु० चट ) स्वाद से जीभ चटकाने | चटवाना-स० कि० (दे०) चटाना, का शब्द। चाटने का प्रे० रूप। चटकारी-संज्ञा, स्त्री० ( अनु० ) कलियों चटशाला. चटसार*-संज्ञा, स्त्री० (हि. के चिटखने का शब्द ।....." जगावत | चट्टा .. चेला-+ सार-शाला ) पाठशाला, गुलाब चटकारी दै"-देव० । मदर्सा, मकतब। चटकाली-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० चटक+ चटाई-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० कट-चटाई ) पालि ) गौरय्यों या चिड़ियों की पंक्ति। फूस, सींक, पतली पट्टियों श्रादि का बिछाचटकीला- वि० (हि. चटक+ ईला वन, तृण का डासन, साथरी। संज्ञा, स्त्री. प्रत्य० ) खुलते रंग का शोख, भड़कीला, (हि. चाटना) चाटने की क्रिया। चमकीला, चमकदार, आभायुक्त, चरपर, चटाक-संज्ञा, स्त्री० (दे०) धड़ाका, कड़ाका, चटपट, मज़ेदार (स्त्री० चटकीली)। घोर नाद । चटाका-संज्ञा, पु. ( अनु०) लकड़ी या चरखना--स० क्रि० संज्ञा, पु. (दे०) किसी कड़ी वस्तु के ज़ोर से टूटने का शब्द । चटकना। चटाचट-सज्ञा, पु० (दे० ) शीघ्र शीघ्र, चटचट-संज्ञा, स्त्री. ( धनु० ) चटकने का | लगातार, चटाचट शब्द, प्रतिध्वनि । शब्द, चटाचट (दे०)। चटाना-स० क्रि० दे० (हि. चाटना का चटचटाना-अ० क्रि० दे० (सं० चट प्रे० रूप ) चाटने का काम कराना, थोड़ा भेदन ) चट चट करते हुए टूटना वा फूटना, थोड़ा किसी दूसरे के मुंह में डालना, कोयले, लकड़ी आदि का चट चट शब्द खिलाना, घूस देना, रिशवत देना, तलवार करते हुये जलना। श्रादि पर शान रखना। चटाटया-वि० (दे०) हरबरिया ( दे० ) चटापटी-संज्ञा स्त्री० दे० (हि० चटपट) चञ्चल, उतावला। शीघ्रता, जल्दो, पु० चटापट । चटनी-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि० चाटना ) चटावन-संज्ञा पु० दे० (हि० चटाना) चाटने की वस्तु, अवलेह, भोजन का स्वाद बच्चे को पहले पहल अन्न चटाना, अन्नबढ़ाने वाली गीलो चरपरी वस्तु । मुहा० प्राशन । चटनी चटाना-मारना, पीटना। चटिक—कि० वि० दे० (हि० चट) चटपट, चटपट (चटापट)-क्रि० वि० (अनु०) | शीघ्र । शीघ्र, जल्दी । संज्ञा, स्त्री० चटपटाहट। चटियल-वि० (दे० ) जिसमें पेड़-पौधे न चटपटा-वि० दे० (हि. चाट (स्त्री० हों, निचाट मैदान, चट्टान वाला। चटपटी) चरपरा, तीषण स्वाद का, मज़दार। चटिया, चाटी-संज्ञा पु० (दे०) विद्यार्थी संज्ञा, पु० चाट, खोंचा। शिष्य, छात्र, चेला । वि० चाटने वाला, चटपटाना-अ. क्रि० (दे०) व्याकुल पत्थर की शिला । होना, फड़फड़ाना, तड़फड़ाना। | चटी-संज्ञा स्त्री० (दे०) चटसार, चट्टी, ध्यान, चटपटाहट-संज्ञा, स्त्री० (दे०) व्याकुलता, स्थिरता, ध्वनि, विचार । " जोगी जतीन शीघ्रता, भातुरता। की छूटी चटी" --राम । For Private and Personal Use Only Page #647 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चटु चढ़ाना चटु-संज्ञा पु० (सं० ) खुशामद, उदर, चढ़ना---० क्रि० दे० (सं० उच्चलन ) नीचे यतियों का एक आसन, सुन्दर, मनोहर से ऊपर उँचाई पर जाना, ऊपर उठना, बिजली । संज्ञा स्त्री० चटुता। उड़ना, ऊपर की ओर सिमिटना, ऊपर से चटुल-वि० (सं०) चंचल, चपल, चालाक, ढंकना, उन्नति करना, बढ़ जाना । मुहा० सुन्दर, मनोहर । संज्ञा, स्त्री. चटुलता। -चढ़ बनना-सुयोग मिलना, नदी या " छायां निजस्वी चटुलालसानां मदेन किंचि- पानी का बाढ़ पर पाना, धावा या चढ़ाई चटुलालसानाम् "-माध०। करना, लोगों का एक दल में किसी काम चटोरा-वि० दे० ( हि० चाट+ ओरा के लिये जाना, महँगा होना, स्वर ऊंचा प्रत्य० ) अच्छी चीज़ों के खाने की होना, धारा था बहाव के विरुद्ध चलना, लत वाला, स्वाद-लोभी, लोलुप। स्रो० ढोल, सितार आदि की डोरी या तार का चटोरी। कस जाना, तनना । आँखें चढ़ना-क्रोध चटोरापन- संज्ञा पु० (हि. चंटारा-+-पन श्राना, नशा हो जाना। नस चढ़ना--- प्रत्य०) स्वाद लोलुपता। नस का अपने स्थान से हट जाने के कारण चट्टा-वि० दे० (हि० चाटना ) चाट पोंछ तन जाना । दिमाग़ चढ़ना-धमड होना, कर खाया हुश्रा, समाप्त, नष्ट, ग़ायब, चट (दिन) सूरज चढ़ना-दिन के समय का कर जाना यो०-बट्टपट्ट-चटपट ।। आगे बढ़ना । देवार्पित होना, सवार होना, चट्टा-संज्ञा पु. (दे०) चटियल मैदान, | वर्ष, मास, नक्षन्न श्रादि का प्रारम्भ होना, शरीर पर कुष्ट श्रादि के दाग । ऋण होना, बही या कागज़ आदि पर चट्टान-संज्ञा स्त्री० दे० (हि. चट्टा ) पत्थर लिखा जाना, दर्ज होना, किसी वस्तु का का चिपटा बड़ा टुकड़ा, विस्तृत शिल-पटल बुरा और उद्धंग-जनक प्रभाव होना, या खंड। पकने या प्राँच के लिये चूल्हे पर रख जाना, लेप होना, पोता जाना। चट्ट-बट्टा-संज्ञा पु० दे० (हि. चट्ट+बट्टा चढ़वाना-स० क्रि० (हि० चढ़ाना का प्रे० गोला ) छोटे बच्चों के लिये काठ के खिलौनों रूप ) चढ़ाने का काम दूसरे से कराना । का समूह, बाज़ीगर की गोले और गोलियाँ चढ़ाई - संज्ञा स्त्री. ( हि० चढ़ना ) चढ़ने की मुहा० एक ही थैली के चट्टे-बट्टे-एक क्रिया का भाव, उँचाई की ओर ले जाने मेल के मनुष्य । चट्टे बट्टे लड़ाना-इधर वाली भूमि, शत्रु से लड़ने के लिये प्रस्थान, की उधर लगा कर लड़ाई कराना। धावा, अाक्रमण, हमला। चट्टी- संज्ञा स्त्री० (दे०) टिकान, पड़ाव । चढा-उतरी-संज्ञा स्त्रीयो० (हि० चढ़ना+ संज्ञा स्त्री० (हि. चपटा व अनु० चट चट)। उतरना ) बारबार चढ़ने उतरने की क्रिया । एंडी पर खुला जूता, स्लिपर ( अं० )। चढ़ाऊपरी-संज्ञा स्त्री. यौ० दे० (हि. चट्ट-वि० दे० (हि० चाट) स्वाद-लोलुप चढ़ना - ऊपर ) एक दूसरे के आगे होने या चटोरा । संज्ञा पु० ( अनु० ) पत्थर का बड़ा बढ़ने का प्रयत्न, लाग-डाँट, होड़। खरल। चढ़ाचढ़ी-संज्ञा स्त्री० यौ० (दे०) चढ़ा चड़ढी-संज्ञा स्त्री० (दे० ) एक खेल जिसमें | ऊपरी परस्पर वृद्धि । “ जानै न ऐसी चढ़ा जीता हुआ लड़का हारे लड़के को पीठ पर चढ़ | चढ़ीते "-पद्मा० । कर पूर्व निर्दिष्ट स्थान तक जाता है। मुहा० चढ़ाना-स० कि० (हि० चढ़ना का प्रे०रूप) चड्ढी गाँठना-अधिकार जमाना। चढ़ने में प्रवृत्त करना, या सहायता देना, For Private and Personal Use Only Page #648 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ६३७ - चढ़ाव चतुर्दशी ऐसा काम करना जिससे मन चढ़े, पी जाना, प्रत्य०) चतुराई, प्रवीणता । संज्ञा, स्त्री. भेंट करना, उन्नत करना, प्रशंसा करना, चातुरी । संज्ञा, पु० ( दे०) चतुरपना । बढ़ावा देना, बाढ़। चतुरस्र--वि० (सं० ) चौकोर । चढ़ाव--संज्ञा पु० (हि. चढ़ना ) चढ़ने की चतुरसमां--संज्ञा, पु० (दे०) चतुस्सम । क्रिया का भाव, देवार्पित वस्तु, चढ़ाई । | चतुराई --- संज्ञा, स्त्रो० दे० (सं० चतुर + भाईयौ० चढ़ाव-उतार-ऊँचा-नीचा स्थान, प्रत्य० ) होशियारी, निपुणता, दक्षता, बढ़ने का भाव, वृद्धि, बाढ़, न्यूनाधिक्य धूर्तता, चालाकी । “सुन रावण परिहरि यौ० चढ़ाव उतार-एक सिरे पर मोटा चतुराई ".---रामा । और दूसरे सिरे की अोर क्रमशः पतले होते चतुरानन संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) चार जाने का भाव गावदुम प्राकृति, चढ़ावा, मुख वाले ब्रह्मा जी । " चतुरानन बाइ वह दिशा जिधर से नदी की धारा भाई हो रह्यौ मुख चारौ"-के० । (बहाव का उलटा )। चतुराश्रम--संज्ञा पु० यौ० (सं०) चार चढावा-संज्ञा पु० दे० (हि० चढ़ाना) आश्रम-ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वाणप्रस्थ, संन्यास। दूल्हे की ओर से दुलहिन को विवाह के चतुरास--संज्ञा स्त्री. यो. (सं० ) चारों दिन पहिनाया गया गहना, किसी देवता दिशा, चारों ओर। पर चढ़ाई गई वस्तु, पुजापा, बढ़ावा, दम। चतुरासी--वि० दे० (हि० चतुर+अस्सी) मुहा०-चढ़ावा-बढ़ावा देना-उत्साह | चौरासी, चौरासी लाख योनि । बढ़ाना, उसकाना, उत्तेजित करना। चतुरिद्रिय-संज्ञा, पु० यो० (सं०) चार चढ़त, चढता-संज्ञा, पु० दे० (हि० चढ़ना) इन्द्रियों वाले जीव जैसे मक्खी, धादि। चढ़ाई करने या धावा मारने वाला, सवार, चतुरुपवेद-संज्ञा, पु. यो० (सं०) चार घोड़ा फेरने वाला। उपवेद, धनुर्वेद, आयुर्वेद, गंधर्वेद, शिल्प चणक-संज्ञा, पु० (सं० ) चना । चतुरंग---संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) वह गाना चतुर्गुण- वि० यो० (सं०) चौगुना, चार जिस में चार प्रकार के बोल गठे हों, सेना गुणों वाला । "पूर्ण के मूल को घात के चार अँग, हाथी, घोड़े, रथ, पैदल। चतुर्गुण"-कुं० वि० ला० । यौ० खो० चतुरंगिणी सेना । शतरंज, चतुर्थ--वि० (सं० ) चौथा। संज्ञा पु. "राघव की चतुरंग चमूचय धूरि उठी" यौ० (सं० ) चतुर्थाश-चौथाई।। -रा. चं० । चतुर्थाश्रम-संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) चौथा चतुरंगिणी-वि० स्त्री० (सं० ) चार अंगों आश्रम, संन्यास । वाली सेना, चतुरंग चम्। चतुर्थी--संज्ञा, स्त्री. (सं० ) किसी पक्ष चतुर-वि. पु. (सं० ) ( स्त्री. चतुरा) की चौथी तिथि, चौथ (दे०) विवाह के टेढ़ी चाल चलने वाला, वक्रगामी, तेज़, चौथे दिन का संस्कार। फुरतीला, प्रवीण, निपुण, धूर्त, चालाक । चतुर्दश-संज्ञा, पु. यौ० (सं० ) चार संज्ञा, पु० श्रृंगार रस में नायक का एक और दश अर्थात् चौदह, १४ विद्या, १४ भेद । चातुर (दे०) संज्ञा, स्त्रो० चतुरई, भुवन । चतुराई। चतुर्दशी-संज्ञा, स्त्री० (सं०) किसी पक्ष की चतुरता-संज्ञा, स्त्री. (सं० चतुर+ता | चौदहवीं तिथि, चौदस (दे०)। For Private and Personal Use Only Page #649 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चतुर्दिक चनखना चतुर्दिक-संज्ञा, पु० यौ० ( सं० ) चारों चारों वेदों का ठीक ठीक जानने वाला दिशायें । क्रि० वि० चारों ओर। पुरुष, ब्राह्मणों की एक जाति । चतुर्भज-वि० या० (सं०) स्त्री. चतुभुजा चतुव्यूह - संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) चार चार भुजाओं वाला । संज्ञा, पु. विष्णु, चार | मनुष्यों अथवा पदार्थों का समूह, विष्णु, भुजायें और चार कोण वाला क्षेत्र। जैसे, राम, लक्ष्मण, भरत, शत्रुघ्न, कृष्ण, चतुर्भजा--संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं० ) एक बलदेव, प्रद्युम्न, अनुरुद्ध । देवी, गायत्री रूपधारिणी महाशक्ति। | चतुष्क-वि० (सं० ) चौपहला । संज्ञा, पु. चतुर्भुजी-- संज्ञा, पु. ( सं० चतुर्भुज + ई- एक प्रकार का भवन । प्रत्य० ) एक वैष्णव सम्प्रदाय । वि० चतुष्कल-वि० यौ० ( सं० ) चार कलाओं चार भुजाओं वाला। या मात्राओं वाला। चतभोजन--संज्ञा, पु० या ० ( सं० ) चार चतुष्कोण-वि० यौ० (सं० ) चार कोने प्रकार का भोजन, भक्ष्य, भोज्य, चोप्य वाला, चौकोर, चौकोना।। लेह्य । चतुष्य -संज्ञा, पु० सं०) चार की संख्या, चतुर्मास-संज्ञा, पु. या० (सं०) चातुर्मास चार चीज़ों का समूह । (दे० ) चौमास (ग्रा.)। चतुष्पथ--संज्ञा, पु. या० (सं०) चौराहा । चतुर्मुक्ति-संहा, स्त्री. य० (सं० ) चार चतुष्पद-संज्ञा, पु० या ० ( सं०) चौपाया, प्रकार की मुक्ति, सायुज्य, सामीप्य, सारूप्य, चार पावों वाला। सालोक्य । चतुष्पदा-संज्ञा, स्त्री० (सं०) चौपैया छंद। चतुर्मख--संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) ब्रह्मा। चतुष्पदी-संज्ञा स्त्री० यो० । सं० ) १५ वि० ( स्त्री. चतुर्मुखी ) चार मुख वाला। मात्राओं का चौपाई छंद, चार पदों का क्रि० वि० चारों ओर।। चतुर्यगी-संज्ञा, खो० (सं० ) चारों युगों चतुस्सम्प्रदाय-संज्ञा पु० यौ० (सं० ) का समय । ४३२००००० वर्ष, चौयुगी, वैष्णवों के चार प्रधान संप्रदाय, श्रीरामानुज, चौकड़ी। श्रीमाध्व, श्री निवार्क, श्रीवल्लभीय ।। चतुोनि-संज्ञा पु० यौ० (सं०) चार प्रकार चत्वर - संज्ञा, पु. (सं० ) चौमुहानी, से उत्पन्न, अंडज, पिंडज, स्वेदज, जरायुज। चौरास्ता, वेदी, चबूतरा। चत्वार संज्ञा, चतुर्वर्ग--संज्ञा, पु० यौ० (सं) ४ पदार्थ, पु० (सं० ) चार। अर्थ, धर्म काम, मोक्ष। चदरा--संज्ञा, पु० (फा० चादर ) चादर, चतुर्वर्ण--संज्ञा पु० यौ० ( सं० ) चार जातें, चद्दर (दे० ) स्त्री. अल्प० चदरिया। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र। | चादर संज्ञा, पु० (सं० ) कपूर, चन्द्रमा, चतुर्विश-- वि० यौ० (सं० ) चार और । हाथी, साँप । बोस, चौबीसवाँ। चद्दर-संज्ञा, स्त्री. (फ़ा. चादर ) चादर, चतुर्विशति-वि. या० (सं० ) चार और (वस्त्र), किसी धातु का लम्बा चौड़ा चौकोर बीस संज्ञा, पु. चौबीस की संख्या । पत्तर, उस नदी की धारा जो बहुत ऊँचाई चतुर्विधि - वि० यौ० ( सं० ) चार प्रकार। से गिरती है। चतुर्वेद---संज्ञा, पु० यौ० (सं०) चारों वेद, चनकना- अ. क्रि० (दे०) चटकना । ऋग, यजु. साम, अथर्व, परमेश्वर । चनखना--- अ. क्रि० दे० (हि. अनखना) चतुर्वेदीक्षा , १० चौ. (२० चतुर्वेदवित्) क्रोधित या खफा होना, चिढ़ना, चिटकना । | गीत। For Private and Personal Use Only Page #650 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir SameeruREONAIRemorou चना चपेट चना-संज्ञा, पु० दे० (सं० चणक ) चैती चपरा-अव्य० दे० (हि० चपराना) झटपट । फसल का एक प्रधान अन्न, बूट, संज्ञा, पु० ( दे० ) चपड़ा। छोला, लहिला, रहिला ( प्रान्ती०)। चपरास--संत, रबी (हि. चपरासी ) मुहा० -- नाकों चने चबवाना (चबाना) दफ्तर या मालिक का नाम खुदी हुई पीतल -बहुत तंग करना, होना, बहुत दिक या आदि की छोटी पट्टी जिसे पेटी या परतले हैरान करना होना। लोहे का चना-- में लगा कर चौकीदार, अरदली आदि अत्यन्त कठिन काम। पहनते हैं बिल्ला, बल्ला, बैज, (अं०)। चपकन--संज्ञा, स्त्री० (हि. चपकना ) एक चपरासी--सं० पु. ( फ़ा० चप = बायाँ+ प्रकार का अंगा, अँगरखा. किवाड़, संदूक रास्त = दाहिना ) चपरास पहनने वाला आदि में लोहे या पीतल का साज ।। नौकर, प्यादा, अरदली ( दे० अं०)। चपकना-अ० क्रि० (दे०) चिपकना। चपरि*-क्रि० वि० दे० (सं० चपल ) चपकाना-स० कि० दे० (हि. चपकना ) फुरती से. शीघ्र 'चपरि चढ़ायौ चाप, सुत सटाना, जुड़ाना, मिलाना, जोड़ाना, दशरथ को बिचसम-स्फुट । लपटाना, चिपकाना। चपल्ल-वि० (सं०) स्थिर न रहने वाला, चपकुलिश-संज्ञा, स्त्री० (तु०) कठिनस्थिति, चंचल, चुलबुला, क्षणिक, उतावला, अड़चल, फेर, कठिनाई, झंझट, अंडस, जल्दबाज़, चालाक पृष्ट । " चपल चखन भीड़-भाड़। वाला चाँदनी में खड़ा था।"-रही । चपटना-अ० क्रि० (दे०) चिपकना । प्रे० चपलता- संज्ञा, स्त्रो० (सं० ) चंचलता, स० क्रि० चपटाना, चिपटना । तेज़ी, शीघ्रता, जल्दी सृष्टता, ढिठाई । चपटा-वि० (दे०) चिपटा । 'सहस अनीति चपलता माया" ---रामा०। चपड़ा-संज्ञा, पु० दे० (हि० चपटा ) साफ़ चपलाई (दे०)। किया हुआ लाह का पत्तर, लाल रंग का चपला-वि० स्त्री० (सं.) चञ्चल, फुरतीली, एक कीड़ा या पतिंगा, एक लसदार पदार्थ । तेज़ । संज्ञा, स्त्री-लक्ष्मी बिजली. छंदभेद, चपत-संज्ञा, पु० दे० (सं० चपट) तमाचा, पुंश्चलो । स्त्री जीभ 'चपला चपलासी, थप्पड़, धक्का, हानि । अ० क्रि० (दे०) चपल रहति न फिर कहूँ ठाँव "। चपतियाना। चपलाना अ० क्रि० दे० (सं० चपल) चपना-अ० कि० दे० (सं० चपन -- चलना हिलना, डोलना. चंचल करना। कूटना, कुचलना ) दबना, कुचल जाना, स० क्रि० चलाना, हिलाना । लज्जा से गड़ जाना। चपली---संज्ञा, स्त्री० दे० (हि० चपटा ) चपनी-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि० चपना) जूती, जूता, चप्पल। छिछला कटोरा, कटोरी, दरियाई नारियल चपाती-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० चर्पटी ) का कमंडल, हाँड़ी का ढक्कन । पतली रोटी जो हाथ से पतली और चपरगट्ट, चपड़गट्ट---वि० दे० (हि. चौपट | बड़ी की जाती है। + गटपट ) सत्यानाशी, चौपटा, आफत का | नपाना-स० क्रि० दे० । हि० चपना) दवाने मारा, अभागा, गुत्थमगुत्थ । ___ का काम कराना, दबवाना लज्जित करना, चपरना-* अ० कि० दे० (अनु० चप। झिपाना, शमिदा करना। चप ) चुपड़ना, परस्पर मिलना। | चपेट-संज्ञा० स्त्री० दे० (हि. चपाना) For Private and Personal Use Only Page #651 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चपेटना ६४० चमकारी MarwarmewmarIMLINEERSONamAWNameMasmu n MMIKALAKMAMAINMMANSAMARONTAGMAINMENT झोंका. रगड़, धक्का, आघात, थप्पड़, चर्वण, भूना अन्न, चबैना (ग्रा०) “ मानहु झापड़, तमाचा, दबाव, संवाद। लेई माँगि चबेना".-रामा० । चपेटना-स० कि० दे० (हि. चपेट) दवाना | चबेनी-संज्ञा स्त्री० दे० (हि. चबाना) दबोचना, बल-पूर्वक भगाना, फटकार जल-पान का सामान । “ चना-चबेनी, गंग बताना, डाँटना। जल, जो पुरवै करतार"- स्फु०। चपेटा-संज्ञा पु० (दे०) चपेट । चव्या--संज्ञा स्त्री० (सं० ) औषधि विशेष, चपेटना-8स० कि० (हि. चापना) दबाना। चाभ । (दे०) " बचा चव्य तालीस सुंठी चप्पड़-संज्ञा पु० (दे० ) चिप्पड़ । सुहाई"--कुं० वि० ला० । चप्पन-संज्ञा पु० दे० (हि. चपना ) छिछला चभाना-सं० क्रि० दे० (हि. चायना का कटोरा। प्रे० रूप ) खिलाना, भोजन कराना । चप्पल-संज्ञा पु० दे० (हि० चपटा ) ऍड़ी। चभोरना-स० कि० दे० (हि० चुभको ) पर बिना दीवार का जूता । डुबोना, गोता देना, तर करना, भिगोना । चप्पा-संज्ञा पु० (सं० चतुष्पाद ) चतुर्थीश, चमक - संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० चमत्कृत ) चौथा या थोड़ा भाग, चार अंगुल या थोड़ी प्रकाश, ज्योति, रोशनी, कांति, दीप्ति, जगह, स्वल्प स्थान । आभा, कमर श्रादि का वह दर्द जो चोट चप्पी-संज्ञा स्त्री० दे० (हि० चपना = दबना) लगने या एकबारगी अधिक बल पड़ने धीरे धीरे हाथ-पैर दबाना, चरण सेवा।। से हो लचक, चिक । " उटै चित मैं चमक सो चमक चपला की है"---ऊ० श० । चप्पू- संज्ञा पु० दे० (हि. चाँपना ) एक चमक-दमक-संज्ञा स्त्री० यौ० दे० (हि. डाँड़ जो पतवार का भी काम देता है, चमक-+ दमक-अनु० ) दीप्ति, किलवारी। श्राभा, तड़क-भड़क। चफाल-संज्ञा स्त्री० (दे० ) दलदल से घिरा चमकदार-वि० (हि० चमक -- दार फा०) द्वीप । जिसमें चमक हो, चमकीला। चबवाना-स० क्रि० दे० (हि० चबाना का चमकना-अ० कि० ( हि० चमक ) प्रकाश प्रे० रूप ) चबाने का काम कराना। या ज्योति से युक्त दिवाई देना, जगमगाना, चबाना-स० कि० दे० (सं० चर्वण ) बात कांति या श्राभा से युक्त होना, दमकना, करना, जुगालना, दाँतों से पीस कर खाना श्री-सम्पन्न होना, उन्नति करना, जोर पर या कुचलना । मुहा०-चबा चबा होना, बढ़ना, चौंकन्ना, भड़कना फुरती से कर बातें करना-एक एक शब्द धीरे खसक जाना, एकबारगी दर्द उठना, मटधीरे बोलना, मठार मठार कर बातें करना। कना अँगलियाँ श्रादि हिला कर भाव चबे को चबाना (सं० चर्वित चर्वणम्)- बताना, कमर में चिक या, लचक जाना । किये हुये काम को फिर करना. पिष्टपेषण चमकाना--स० कि० ( हि० चमकना का प्रे. करना ।। दाँत से काटना, दरदराना। । रूप ) चमकीला करना, चमक लाना, झलचबूतरा-संज्ञा पु० दे० (सं० चत्वाल) काना, उज्वल या साफ़ करना, भड़काना, बैठने के लिये चौरस बनाई हुई ऊँची जगह, चौंकाना, चिदाना, खिझाना, घोड़े को चौतरा ( दे. ) कोतवाली, बड़ा थाना। चंचलता के साथ बढ़ाना, भाव बताने के चबेना-संज्ञा पु० ( हि० चबाना ) चबाकर लिये अँगुली श्रादि हिलाना. मटकाना। खाने के लिये सूखा भुना हुश्रा अनाज, चमकारी*- संज्ञा स्त्री० ( दे.) चमक । For Private and Personal Use Only Page #652 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चमकी ६४१ चमकी-संज्ञा स्त्री० दे० (हि. चमक )| चमत्कार-संज्ञा पु० (सं.) (वि. कारचोबी में रुपहले या सुनहले तारों के चमत्कारी, चमत्कृत) आश्चर्य, विस्मय, छोटे छोटे गोल चिपटे टुकड़े, सितारे, तारे। आश्चर्य का विषय या विचित्र घटना, कराचमकीला-वि० दे० (हि० चमक+ईला मात, अनूठापन, विचित्रता । प्रत्य०) जिसमें चमक हो, चमकनेवाला, | चमत्कारी-वि० (सं०) (स्त्री० चमत्काभड़कीला, शानदार । (स्त्री० चमकीली)। रिणी) विलक्षण, अद्भुत चमत्कार या चमकौवल-संज्ञा स्त्री० दे० (हि. चमक+ | करामात दिखाने वाला। औवल-प्रत्य० ) चमकाना या मटकाना। चमत्कृत-वि० (सं०) श्राश्चयित, विस्मित। चमको-संज्ञा स्त्री० दे० (हि. चमकना ) चमत्कृति-संज्ञा स्त्री० (सं०) आश्चर्य । चमकने या मटकने वाली स्त्री, चंचल और चमन-संज्ञा पु० (फा० ) हरी क्यारी, फुलनिर्लज स्त्री, कुलटा या झगड़ालू स्त्री। | वारी, छोटा बगीचा। चमगादड़ चमगादड़-चमगीदुर-संज्ञा पु० चमर-संज्ञा पु० (सं०) (स्त्री० चमरी) दे० (सं० चर्मकटक ) रात में उड़ने वाला | सुरागाय की पूंछ का बना चँवर, चामर । एक जंतु जिसके चारों पैर परदार होते हैं। चमरख-संज्ञा स्त्री० दे० (हि. चाम+रक्षा) चमचम-संज्ञा स्त्री. (दे०) एक बँगला | मुंज या चमड़े की बनी हुई चकती जिसमें मिठाई। क्रि० वि० (दे०) चमाचम से होकर चरखे का तकला घूमता है। उज्वल, चमकदार। चमर-शिखा-संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं० चमचमाना-प्र० कि० दे० ( हि० चमक) | चामर-शिखा ) घोड़े की कलगी। चमकना, दमकना । क्रि० वि० चमकाना, " | चमरौटी-संज्ञा स्त्री० (दे० ) चमारों की चमक लाना । संज्ञा, स्त्री० चमचमाहट।। चमचा-संज्ञा पु० दे० (फा० मि० सं० बस्ती। चमस ) एक प्रकार की छोटी कलछी, चम्मच | चमरौधा--संज्ञा पु० (दे०) चमौवा (ग्रा०) चमारों का। डोई (ग्रा० ) चिमटा, (स्त्री० अल्पा० चमची, चिमची। चमला-संज्ञा पु० (दे०) ( स्त्री. अल्पा० चमजूई-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० चर्ममूल ) | चमली) भीख मांगने का टोकरा या पात्र । एक किलनी, पीछा न छोड़ने वाली वस्तु । | | चमस-संज्ञा पु० (सं०) (स्त्री. अल्पा. चमड़ा-संज्ञा, पु० दे० (सं० चर्म) प्राणियों | चमसी) सोमपान करने का चम्मच जैसा के सारे शरीर का श्रावरण, चर्म, स्वचा, | यज्ञ-पात्र, कलछा, चम्मच। खाल, जिल्द, चाम ( ग्रा०), छाल, चमाउ-संज्ञा पु० दे० (सं० चामर) चँवर । छिलका । मुहा०-चमड़ा उधेड़ना या चमार-संज्ञा पु. ( सं० चर्मकार ) खींचना-चमड़े को शरीर से अलग करना, | (स्त्रो. चमारिन, चमारी) एक नीच बहुत मार मारना, चमड़ी उखाड़ना। जाति जो चमड़े का काम बनाती है । वि. प्राणियों के मृत शरीर पर से उतारा हुआ | -नीच, दुष्ट । चर्म जिससे जूते, वेग आदि बनते हैं, खाल, चमारी-संज्ञा स्त्री० दे० (हि० चमार) चमार चरसा । मुहा० चमड़ा सिझाना-चमड़े की स्त्री, चमार का काम,बुरा काम, शरारत । को बबूल की छाल, सज्जी नमक आदि के | चमू-संज्ञा स्त्री० (सं.) सेना, फौज जिसमें पानी में डाल कर मुलायम करना । संज्ञा ७२६ हाथी, ७२६ रथ, २१८७ सवार, स्त्री० चमड़ी। । ३६४५ पैदल हों। भा० श० को.-1 For Private and Personal Use Only Page #653 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org चिमूकन ર चरण चमूकन - संज्ञा पु० (दे० ) किलनी (प्रान्ती०) चरई -वरही - - संज्ञा स्त्री० (दे०) जानवरों के पानी पीने का कुंड । पशुओं का जुवाँ ! चमेटा - संज्ञा पु० (दे० ) चमड़े की थैली जिसमें नायी अपने रखता है, धतुरों की धार पक्की करने का चमड़े का टुकड़ा । चमेली - संज्ञा स्त्री० दे० ( सं० चंपकवेलि ) श्वेत सुगंधित फूलों की एक झाड़ी या लता, मालती लता | चमोटी-संज्ञा स्त्री० दे० ( हि०चम + मौटी -प्रत्य० ) चाबुक, कोड़ा, पतली छड़ी, कमची, बेंत, चमेटा | चौवा - संज्ञा पु० दे० ( हि० चाम ) चमड़े सेसिया भद्दा जूता, चमरौधा ( ग्रा० ) । चम्मच - संज्ञा पु० ( फा० मि०, सं० चमस) एक छोटी हलकी कलछी । चय --- संज्ञा पु० (सं० ) समूह, ढेर, राशि | धुस्स, टीला, दह ( ग्रा० ) गढ़, क़िला, चहारदीवारी, प्राकार, बुनियाद, नींव, चबूतरा, चौकी, ऊँचा श्रासन | चयन - संज्ञा पु० (सं० ) इकट्ठा करने या चुनने का कार्य, संग्रह, संचय, चुनाई, यज्ञार्थ अग्नि-संस्कार, क्रम से लगाना या चुनना । संज्ञा पु० (दे० ) चैन । चर - संज्ञा पु० (सं०) अपने या पराये राज्यों की भीतरी दशा का प्रकट या गुप्त रूप से पता लगाने पर नियुक्त राज-दूत, गूढ़ पुरुष, भेदिया, जासूस विशेष, कार्य्यार्थ भेजा हुधा दूत, क़ासिद, चलने वाला, अनुचर, खेचर | खंजन पक्षी, कौड़ी, कपर्दिका, मंगल, भौम, नदियों के किनारे या संगम के स्थान की गीली भूमि जो नदी से बहा लाई मिट्टी से बने, गीली भूमि, दलदल, नदियों के बीच में बालू का टापू विलो० वि० [अवर । यौ० चराचर स्थावरजंगम | वि० (सं० ) श्रापसे चलने वाला, जंगम, स्थिर, खाने वाला (चर गति भक्षणयोः " ) Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चरक-संज्ञा पु० (सं० ) दूत, चर, क़ासिद गुप्तचर, भेदिया, जासूस, वैद्यक विद्या के एक प्रधान श्राचार्य, बटोही, पथिक, मुसाफर, वैद्यक ग्रंथ, चरक संहिता । चरकटा - संज्ञा पु० दे० (हि० चारा + काटना) चारा काट कर लाने वाला आदमी । चरका संज्ञा पु० दे० ( फा० चरकः ) हलका घाव, जखम, गरम धातु से दागने का चिन्ह, हानि, धोखा, छल । चरकी - संज्ञा पु० (दे० ) श्वेत कुष्ट रोगी । चरख - संज्ञा पु० दे० ( फा० चर्ख ) घूमने वाला गोल चक्कर, खराद, सूत कातने का चरखा, कुम्हार का चाक, आकाश, आसमान, गोफन, गोफल, ढेलवाँस, सोप की गाड़ी, लकड़बग्घा, एक शिकारी चिड़िया । -- चरख पूजा – संज्ञा स्त्री० यौ० दे० (सं० चरक एक वैद्य, तांत्रिक-सम्प्रदाय + पूजा ) चैत की संक्रांति में एक उग्र देवी की पूजा | चरखा -संज्ञा पु० दे० ( फ़ा० चख ) घूमने वाला गोल चक्कर, चरख, लकड़ी का ऊन, कपासादि से सूत कातने का एक यंत्र, रहट कुयें से पानी निकालने का रहँट, सूत लपेटने की गराड़ी, चरखी, रील, घिरनी ( प्रान्ती० ) बड़ा बेडौल पहिया, नया घोड़ा निकालने की गाड़ी का ढाँचा, खड़खड़िया, झगड़े, बखेड़े या कट का काम । चरखी - संज्ञा स्त्री० दे० ( हि० चरखा का स्त्री० अल्पा० ) पहिये सी घूमनेवाली वस्तु, छोटा चरखा, कपास थोंटने की चरखी, बेलनी, श्रोटनी, सूत लपेटने की फिरकी, कुयें से पानी खींचने की गराड़ी, घिरनी, (दे० ) श्रतशवाजी का एक खेल । चरगा - संज्ञा पु० ( फा० चरग ) बाज़ की जाति की एक शिकारी चिड़िया, चरख, लकड़बग्घा । For Private and Personal Use Only Page #654 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org चरचना દુર્ चरपराहट चरण दासी संज्ञा स्त्री० यौ० (सं० ) स्त्री, पत्नी, जूता, पनही । चरचना - स० क्रि० दे० ( सं० चर्चन ) देह में चन्दन यादि लगाना, लेपना, पोतना, भाँपना, अनुमान करना । चरचराना - अ० क्रि० दे० ( अनु० चरचर ) घर चर शब्द से टूटना या जलना, घाव श्रादि का खुश्की से तनना और दर्द करना, चना | स० क्रि० चर चर शब्द से लकड़ी श्रादि तोड़ना । 16 चरण पादुका --- संज्ञा स्त्री० यौ० (सं० ) खड़ाऊँ, पावड़ी, पत्थर आदि पर बना चरणाकार पूजनीय चिन्ह | चरणपादुका पायकै, भरत रहे मनलाय रामा० । चरण- पीठ - संज्ञा पु० यौ० (सं० ) चरण - पादुका, खड़ाऊँ । " चरणसेवा - संज्ञा स्त्री० यौ० (सं० ) पैर दबाना, सेवा करना । चरचा - संज्ञा स्त्री० ( दे० ) चर्चा | चरवारी * - संज्ञा पु० दे० ( हि० चरचा ) चरचा करने वाला, निन्दक | चरचित- - वि० ० पु० (सं० ) पोता या लेप लगाया हुआ | "चन्दन चरचित अंग"। चरचेला—संज्ञा पु० वि० दे० ( हि० चरचा ) गप्पी, बक्की, मुखर, बकवादी । चरचैत -संज्ञा पु० वि० ( हि० चरचा ) चर्चा करने वाला, कीर्तिमान । चरज - संज्ञा पु० (दे० ) चरख नामक पक्षी । चरजना* - अ० क्रि० दे० (सं० चर्चन ) बहकाना, भुलावा देना, अनुमान करना, अंदाजा लगाना । "चरज गई ती फेरि चरज न लगीरी -पद्मा० । "" चरट - संज्ञा पु० (सं० ) खंजन पत्ती, खंज - रीट, खड़रैचा ( दे० ) । चरण - संज्ञा पु० (सं० ) पग, पैर, पाँव, कदम, बड़ों का सान्निध्य या संग, किसी छंद आदि का एक पाद, किसी वस्तु का चौथाई भाग, मूल, जड़, गोत्र, क्रम, आचार, घूमने की जगह, किरण, अनुष्ठान, गमन, जाना, भक्षण करने का काम । चरन (दे० ) चरण धरत चिंता करत 66 ܕܝ 1 चरण गुप्त - संज्ञा पु० (सं० ) एक प्रकार का चित्र काव्य । चरण चिन्ह - संज्ञा पु० यौ० (सं० ) पैर के तलुए की रेखा, पैर का निशान । चरणदास - संज्ञा पु० यौ० (सं० ) चरण सेवक, नाई यदि Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चरण- सेवक -- संज्ञा पु० यौ० (सं० ) पैर दबाने वाला नाई । चरणामृत -संज्ञा पु० यौ० (सं० ) महात्मा या बड़ों के पैरों का पानी । चरणायुध - संज्ञा पु० यौ० (सं० चरण+ युध) अरुण - शिखा, मुग़ । चरणोदक -- संज्ञा पु० यौ० (सं०) चरणामृत । चरता - संज्ञा स्त्री० (सं० ) चलने का भाव, पृथ्वी, भूमि । चरती - संज्ञा पु० ( हि० चरना = खाना ) व्रत के दिन उपवास न करने वाला, खाने वाला । चरना स० क्रि० दे० (सं० चर = चलना ) पशुओं का घूम घूम कर घास, चारा यादि खाना । अ० क्रि० (सं० चर ) घूमना, फिरना, संज्ञा पु० (सं० चरण = पैर ) कान्छा । चरनि - संज्ञा स्त्री० दे० (सं० चर = गमन ) चाल, ठवनि (ग्रा० ) चलनि । चरनी - संज्ञा स्त्री० दे० ( हि० चरना) पशुओं के चरने का स्थान, चरी, चरागाह, पशुओं को चारा देने की नाँद, घास, चारा आदि । चटपट - संज्ञा पु० दे० (सं० चर्पट) चपत, तमाचा, थप्पड़, चाई, उचक्का, एक छंद । चरपरा- T – वि० दे० (अनु० ) ( स्त्री० चरपरी ) तीत, तीता कुछ कडुवा । चरपराहट - संज्ञा स्त्री० ( हि० चरपटा ) तीतापन, झाल, धाव आदि की जलन, द्वेष, डाह, ईर्ष्या । For Private and Personal Use Only Page #655 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चरु - चरफराना चरफराना -प्र० कि० (दे०) तड़पना। चराई-संज्ञा स्त्री० (हि. चरना ) चरने का चरब-वि० (फा० चर्व) तेज़, तीखा।। काम, या मज़दूरी। चरबना-संज्ञा पु० (दे०) चबैना। चरावा-संज्ञा पु० (दे०) चरवाहा, चराने चरबाक-चारवाक-वि० दे (सं० चार्वाक ) वाला, एक प्रकार का पती। चतुर, चालाक, शोख, निडर। चरागाह-संज्ञा, पु. (फा०) पशुओं के वरबा-संज्ञा पु० दे० (फा० चरवः) प्रति चरने की भूमि, चरनी, चरी। । मूर्ति, नकल, खाका। चराचर-वि० यौ० (सं० ) चर और अचर, चरबी--संज्ञा स्त्री० (फा० ) प्राणियों के जड़ और चेतन, स्थावर और जंगम । चराना-सं० कि० दे० (हि. चरना का प्रे० देह का सफ़ेद या कुछ पीले रंग का एक रूप ) पशुओं को चारा खिलाना, बातों में चिकना गादा पदार्थ, पौधों का गाभा, मेद, वसा, पीब । मुहा०-चरबी चढ़ना बहलाना, चालबाज़ी करना। मोटा होना । चरबी छाना-शरीर में मेव चरावरा*-संज्ञा स्त्री. (दे०) व्यर्थ की बात, बकवाद। बढ़ना, मदांध होना। चरम-वि० (सं० ) अंतिम, चोटी का, | चरिंदा-संज्ञा० पु. ( फा० ) चरने वाला जीव, पशु, हैवाना। आखिरी, अति उत्कृष्ट । चरमर-संज्ञा पु० दे० (अनु०) तनी या चरित-संज्ञा पु० (सं०) रहन सहन, पाचरण, चरित्र, काम, करनी, करतूत, कृत्य, किसी के चीमड़ वस्तु ( जूता, चार पाई ) के दबने जीवन की घटनाओं या कार्यों का वर्णन, या सिकुड़ने का शब्द । जीवन-चरित्र, जीवनी । " राम-चरित कलि चरमराना-अ० कि० दे० ( अनु० ) चरमर शब्द होना । स० कि. चरमर शब्द कलुष नसावन" रामा० । “ साधु-चरित सुभ सरिस कपासू"- रामा०। करना। चरितनायक-संज्ञा पु० यो० (सं०) प्रधान चरवाई -संज्ञा स्त्री० दे० (हि० चराना) चराने पुरुष जिसका चरित्र लिखा जाय, चरित्रका काम या मजदूरी, चरवाही, (ग्रा० )। नायक (सं.)। चरवाना-स० कि० (हि. चराना का प्रे०) चरितार्थ-वि० यौ० (सं०) कृतकृत्य, चराने का काम दूसरे से कराना। कृतार्थ, जो ठीक ठीक घटे। चरवाहा-संज्ञा, पु० (हि. चरना+-बाहा = | चरित्तर-संज्ञा पु० दे० (सं० चरित्र) धुर्तता वाहक ) गाय, भैंस, आदि का चराने वाला, की चाल, नखरे बा जी, नकल, चरित्र । चरवैया (दे०)। चरित्र-संज्ञा पु० (सं० ) स्वभाव, वह जो चरस-चरसा-संज्ञा पु० (सं० चर्म ) भैंस किया जाय, कार्य, करनी, करतूत, चरित या बैल आदि के चमड़े का सींचने को कुएँ (दे०)। यौ० चरित्रनायक। से पानी खींचने का बहुत बड़ा डोल, | चरित्रवान-वि० (सं०) अच्छे चरित्र या नरसा, पुर, मोट, भूमि नापने का एक आचरण वाला। (स्त्री० चरितवती) परिमाण जो २१०० हाथ का होता है। चरी-संज्ञा स्त्री० (सं. चर या हि. चरा) गोचर्म, गाँजे के पेड़ का नशीला गोंद या पशुओं के चराने की ज़मीन, ज्वार के छोटे चेप जिसे चिलम में पीते हैं। संज्ञा पु० हरे पेड़ जो चारे के काम में आते हैं, कड़वी, (फा० चर्ज) आसामी पक्षी (आसाम का ) करबी (ग्रा०)। वनमोर, चीनी मोर। | चरु-संज्ञा पु० (सं०) हवन या यज्ञ की For Private and Personal Use Only Page #656 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चरुखला चल आहुति के लिये पका अन्न । वि. चरस्य ! चमकील-संज्ञा स्त्री० (सं०) बवासीर ( एक हव्यान्न, हविषान्न, हव्यान्न-पात्र, यज्ञ, रोग) न्यच्छ । पशुओं के चरने की ज़मीन । चर्मचतु-संज्ञा पु० यौ० (सं० ) साधारण चरुखला-संज्ञा पु० दे० (हि. चरखा ) चतु, ज्ञान-चतु ( विलो०) सूत कातने का चरखा। चर्मरावती-संज्ञा स्त्री. (सं०) चंबल नदी, चरुपात्र- संज्ञा पु० यौ० ( सं० ) हविषान्न- केले का पेड़, “चर्मण्वती वेदिका" । पात्र, यज्ञ का वर्तन । | चर्मदंड-संज्ञा पु० यो० (सं० ) चमड़े का चरेरा-वि० दे० ( चरचर से अनु० ) कड़ा कोड़ा या चाबुक, कषा। और खुरदरा, कर्कश, चरेर ( दे० ) । स्त्री. चर्मदृष्टि-संज्ञा स्त्री० यौ० (सं० ) साधारण चरेरी। दृष्टि, आँख । ( विलो. ) ज्ञान दृष्टि । चरैया-संज्ञा पु. ( हि० चरना ) चरने या चर्मवसन- संज्ञा पु० यौ० (सं०) शिव, चराने वाला। चर्माम्बर। चर्चक-संज्ञा पु० (सं०) चर्चा करने वाला। चर्मा-संज्ञा पु० (सं०) ढाल रखने वाला, चर्चन-संज्ञा पु० (सं० ) चर्चा, लेपन । वि० ची या चर्म-धारी। चर्च रिका-संज्ञा स्त्री० (सं.) किसी एक चर्य-वि० (सं० ) जो करने योग्य हो। विषय की समाप्ति और जवनिका पात चा-संज्ञा स्त्री० (सं० ) वह जो किया पर गान ( नाटक०)। जाय, आचार, आचरण, चाल-चलन, वृत्ति, चर्चरो-संज्ञा स्त्री० (सं० ) वसंत ऋतु का | जीविका, सेवा, चलना, गमन । यौ० दिनचर्या, रात्रिचर्या । गान, फाग, चाँचर (दे०) होली की चर्राना -अ० कि० दे० ( अनु० ) लकड़ी धूम-धाम का हुल्लड़, एक वर्ण वृत्त, करतलध्वनि, चर्चरिका, आमोद-प्रमोद, क्रीड़ा। श्रादि के टूटने या तड़कने पर चरचर शब्द करना, चिटखना, घाव पर खजुली या सुरसुरी चर्चा--संज्ञा स्त्री० (सं०) ज़िक्र, वर्णन, बयान, मिली हलकी पीड़ा होना, रुखाई से किसी वर्तालाप, बातचीत, किंवदन्ती, अफ़वाह, अंग में तनाव होना, प्रबल इच्छा होना । लेपन, गायत्री रूपा महादेवी, चरचा (दे०)। चरी-संज्ञा स्त्री० दे० ( हि० चर्राना ) लगती "चरचा चलिबे की चलाइये ना"। हुई व्यंग पूर्ण बात, चुटीली बात । चर्चिका-संज्ञा स्त्री० (सं० ) चर्चा, ज़िक्र, बर्षण-संज्ञा पु० (सं० ) चबाना, वह वस्तु दुर्गा देवी। जो चबाई जाय, भूना हुआ अन्न जो चबाया चर्चित-वि० (सं० ) लगा या लगाया जाये, चबैना, बहुरी। वि० चर्षित-चबाया हुअा, लेपित, जिसकी चर्चा हो। हुधा । (वि० चर्य )। चर्पट-संज्ञा पु० (सं०) चपत, थप्पड़, हाथ चर्वितचर्वण-संज्ञा पु० यौ० (सं० ) किसी की खुली हथेली। किये हुये काम को फिर से करना, कही चर्म-संज्ञा पु० (सं०) चमड़ा, ढाल, सिपर, बात को फिर से कहना, पिष्ट-पेषण (सं०) । चाम (दे०) यौ० चर्म बुद्धि ।। चळ - वि० (सं०) चबाने योग्य । संज्ञा पु. चर्मकशा, चर्मकषा-संज्ञा, स्त्री० (सं०) जो चबा कर खाया जाय ।। एक प्रकार का सुगंधित द्रव्य, चमरख (दे०) चल-वि० ( सं० ) चंचल, अस्थिर, चर । चर्मकार-संज्ञा पु० (सं० ) चमार, ( स्त्री० " चलचित पारे की भसम भुरकाय कै"चर्मकारी)। ऊ. श० । संज्ञा पु. ( सं०) पारा, लोहा। For Private and Personal Use Only Page #657 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चलकना चलनी छंद-भेद, शिव, विष्णु | यौ० - चलाचल, यौ०-चलन-कलन-गणित की किया जंगम, स्थावर। विशेष । संज्ञा, पु. ( स०) गति, भ्रमण । चलकना-अ. क्रि० ( दे० ) चमकना। चलन-कलन-संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) दिन चलचलाव-संज्ञा पु० दे० (हि० चलना ) रात के घटने-बढ़ने की गणित, ( ज्यो०)। प्रस्थान, यात्रा, चलाच ती, मृत्यु । चलनसार- वि० ( हि० चलन + सार चलचाल-वि० यौ० (सं० ) चल-विचल, प्रत्य० ) प्रचलित, उपयोग या व्यवहार चंचल, चपल, यो० चलचलातू । वाला, टिकाऊ ( दे०)। चलचूक-संज्ञा स्त्री. यौ० (सं० चल = चलना-अ० कि० दे० (सं० चलन ) एक चंचल+चूक = भूल ) धोखा, छल, कपट । स्थान से दूसरे स्थान को जाना, गमन या चलता-क्रि० वि० (हि. चलना) चलता प्रस्थान करना, हिलना, डोलना। मुहा०हुआ। मुहा०-चलता करना-हटाना, पेटचलना--- दस्त श्राना, अतिसार होना, भगाना, भेजना, किसी प्रकार निपटाना । निर्वाह या गुज़र होना । मन चलना चलता बनना-चल देना । यौ०- .... इच्छा या लालसा होना । चल बसना चलता-फिरता । मुहा०-चलते फिरते - मर जाना। जीभ चलना-बहुत बकना, नज़र आना-चला जाना । जिसका क्रम बढ़ बढ़ कर बात करना, कुत्सित बकना । भंग न हुआ हो, जो बराबर जारी हो, अपने चलते-भरसक, यथाशक्ति । हाथ जिसका रिवाज या चलन बहुत हो, प्रचलित, चलना-मारने-पीटने का स्वभाव होना। काम करने योग्य, जो अशक्त न हुआ हो, कार्य-निर्वाह में समर्थ होना, निभना, चालाक । यौ०-चलता-पुर्जा-चालाक, प्रवाहित या वृद्धि पर होना, बदना, किसी चतुर । संज्ञा पु० ( दे० ) बेल केसे फलों- कार्य में अग्रपर होना, किसी युक्ति का वाला एक बड़ा सदाबहार पेड़, कवच, काम में आना, श्रारम्भ होना, छिड़ना, झिलम । यौ०-चलता काम करना । जारी रहना. क्रम या परम्परा का निर्वाह साधारण रूप से काम करना, जो काम होना, बराबर काम होना, टिकना, ठहराना, जारी हो । संज्ञा, स्त्री. (सं० ) चल होने लेन-देन में प्राना, प्रचलित या जारी होना, का भाव, चञ्चलता, अस्थिरता। यो०- प्रयुक्त या व्यवहृत होना, तीर, गोली श्रादि चलता खाता। का छूटना, लड़ाई-झगड़ा या विरोध चलती-संज्ञा स्त्री० यौ० (हि. चलना) होना, पढ़ा या बाँचा जाना, कारगर होना, मान, मर्यादा, अधिकार । लो०---"चलती उपाय लगाना, वश चलना, आचरण या का नाम गाड़ी है।" व्यवहार करना, निगला या खाया जाना । चलतू-चलातू-वि० दे० यौ० (हि० चलना) मुहा०-नाम चलना. संघत चलना-- प्रचलित, टिकाऊ, अस्थिर । कीर्ति होना। सिक्का चलना-राजा होना, चलदल-संज्ञा पु. यौ० (सं० ) पीपल । प्रभाव फैलना । स० क्रि० शतरंज या चौसर चलन-संज्ञा, पु. ( हि० चलना) चलने आदि खेलों में किसी मोहरे या गोटी आदि का भाव, गति, चाल, रिवाज, रस्म, रीति, को अपने स्थान से बढ़ाना या हटाना, ताश चलनि (दे०) किसी वस्तु का व्यवहार, और गंजीफे आदि खेलों में किसी पत्ते उपयोग, या प्रचार । संज्ञा, स्त्री० (सं०) को खेलने वालों के सामने रखना। संज्ञा, ज्योतिष में विषुवत् पर समान दिन और पु० (हि. चलनी) बड़ी चलनी। रात के समय, भू-विषुवत-गति ( ज्यो०) | चलनी-संज्ञा, सी० (दे०) छलनी, For Private and Personal Use Only Page #658 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चलपत्र चलितव्य लो.--" चलनी में गाय दुहै कमैं दोस न भेजे जाने या चलने की क्रिया, अपराधी देय। का पकड़ा जाकर न्यायार्थ न्यायालय में चलपत्र-संज्ञा, पु. यो० (सं० ) पीपल भेजा जाना, माल का एक स्थान से दूसरे का पेड़, चलदल। पर भेजा जाना, भेजा या आया हुमा चलपंजी-संज्ञा, स्त्री० यौ० (हि.) चलधन, माल, बीजक, सूचनार्थ भेजी हुई वस्तुओं एक स्थान से दूसरे स्थान में ले जाने योग्य | की सूची। धन, जंगम, संपत्ति, जैसे, रुपया पैसा | चलाना–स० कि० ( हि० चलना ) किसी आदि। को चलने में लगाना या प्रेरित करना, चलफेर- संज्ञा, पु० यौ० (दे० ) धूमधाम गति देना, हिलाना-डुलाना, प्रचलित गमन, गति । करना (सिक्का प्रस्तादि) । मुहा०-अपनी चलवाना-स० क्रि० (हि. चलता का प्रे० | ही चलाना-अपनी ही बात कहना । रूप ) चलाने का कार्य दूसरे से कराना। किसी की चलाना-किसी के बारे में चलविचल-वि० यो० (सं० चल + विचल) कुछ कहना । आँख चलाना-आँखें जो ठीक जगह से इधर उधर हो गया इधर-उधर घुमाना। मुह चलाना-भोजन हो, उखड़ा-पुखड़ा, बे ठिकाने, व्यतिक्रम, करना । जवान चलाना-बकवाद करना, अव्यवस्थित, घबड़ाया हुआ। संज्ञा, स्त्री० । गाली देना । हाथ चलाना-मारने के किसी नियम या क्रम का उल्लंघन । लिये हाथ उठाना, मारना, पीटना। काम चलविधरा--संज्ञा, वि० (दे० ) अड़ियल, चलाना---निर्वाह करना, कार्य निर्वाह में समर्थ करना, निभाना, प्रवाहित करना, मचलने वाला, कालज्ञ, मौका जानने बहाना, वृद्धि या उन्नति करना, किसी वाला। चलवैया-संज्ञा, पु० ( हि० चलना ) चलने कार्य को अग्रसर या प्रारम्भ करना, छोड़ना, जारी रखना, बराबर काम में या चलाने वाला, चलैया। लाना, टिकाना, व्यवहार में लाना, लेन-देन चला -- संज्ञा, स्त्री. (सं० ) बिजली, पृथ्वी, | के काम में लाना, प्रचार करना, व्यवहृत या भूमि, लघमी । “लक्ष्मी चला रहीम कह" । प्रयुक्त करना, तीर गोली श्रादि छोड़ना, चलाऊ-वि० दे० (हि. चलना ) जो किसी चीज़ से मारना। बात चलानाबहुत दिनों तक चले, मज़बूत, टिकाऊ । जिक्र करना । संज्ञा, पु० चलावा यात्रा। चलाका-* संज्ञा, स्त्री० (सं० चला ) | चलायमान-वि० (सं०) चलने वाला, बिजली, चालाक। चञ्चल, विचलित । चलाचल* --- संज्ञा, स्त्री० या० (हि० चलना) | चलावा-संज्ञा, पु० दे० हि० चलना) रीति. चलाचली, गति, चाल । संज्ञा, पु. यौ० रस्म. रिवाज. याचरण । रस्म, रिवाज, श्राचरण, चाल-चलन, ( सं० ) जंगम-स्थावर । वि० (सं०) द्विरागमन, गौना, मुकलावा, (ग्रा०) गाँवों चञ्चल, चपल । में भयंकर बीमारी के समय किया गया चलावली—संज्ञा, स्त्री० यौ० (हि० चलना) उतारा (दे०)। चलते समय की घबराहट, धूम या तैयारी, चलित-वि० (सं० ) अस्थिर, चलायमान, रवा-रवी, बहुत से लोगों का प्रस्थान वि० चलता हुआ। (दे० ) जो चलने के लिये तैयार हो। चलितव्य-वि० (सं० ) चलने योग्य, चलान-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि० चलना) गमन करने के उपयुक्त । For Private and Personal Use Only Page #659 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चलित्री चहकना चलित्री-संज्ञा, स्त्री. (दे.) खिलाड़ी, जोड़ा जो माँखों पर दृष्टि-वृद्धि या शीतलता रसिक, चञ्चल, चपल, चरित्री। के लिये लगाया जाता है, ऐनक, पानी का चले-क्रि० वि० ( दे० ) चल निकले, सोता, स्रोत (सं.)। प्रचलित हो, जाने लगे, हो सके । मुहा०- चष*-संज्ञा, पु० दे० ( सं० चक्षु ) आँख, तुम्हारी चले-तुमसे हो सके, "तेरी चले | नेत्र । “ शनि, कज्जल चष झख लगनि'। तो ले जैयो"। वि० । चषक - संज्ञा, पु० (सं०) मथ पीने का पात्र, चलेन्द्रिय-वि० यौ० (सं० ) अजितेन्द्रिय, मधु, मद्य, मदिरा। इन्द्रियाधीन, लम्पट, असदाचारी, इन्द्रिय चषचोल*-संज्ञा, पु० दे० (हि० चषसुखासक्त । “कामासक्त चलेन्द्रियः "। चाल = वस्त्र ) आँख की पलक । चलैया-संज्ञा, पु० दे० (हि० चलना ) वर्षाण-संज्ञा, पु० (सं० ) भोजन, खाना. चलने वाला। मारण । संज्ञा, स्त्री० मूर्छा, मदान्धता, क्षय, चलौना-संज्ञा, पु० (दे०) चरखे का दंडा। दुर्बलता, वध, हत्या। चवई-चवय-अ० क्रि० (दे०) चुवै, वहै, चषाल-संज्ञा, पु. (सं० ) यज्ञ के खम्भे टपके । “ वरु पयोद तें पावक चवई" | पर रखा हुआ एक काष्ट, मधु-स्थान, --रामा०। मधु-कोष। चवन्नी-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि० चौ-चार का चसक-संज्ञा, स्त्री० (दे०) हलका दर्द । अल्पा०+पाना+ई---प्रत्य०) चार पाने | संज्ञा, पु० (दे०) चषक । मूल्य का चाँदी या निकल का सिक्का। चसकना --अ. क्रि० दे० ( हि० चसक ) चवर्ग-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) च से लेकर ज हलकी पीड़ा होना, टीसना, दर्द करना। तक के अक्षरों का समूह । वि० चवर्गोय। चसका-संज्ञा, पु० दे० (सं० चषण) किसी चवा --संज्ञा, स्त्री० दे० (हि० चौवाई) एक वस्तु या कार्य से प्राप्त सुख, जो उसके साथ सब दिशाओं से बहने वाली वायु । फिरने या करने की इच्छा उत्पन्न करता है, शौक, चाट, आदत, लत । "चवा धूम राखा नभछाई "। |चसना-अ. क्रि० दे० (हि. चाशनी ) चवाई-संज्ञा, पु. ( हिं० चबाव ) बदनामी दो वस्तुओं का एक में सटना, लगना, फैलाने वाला, निन्दक, चुगुलखोर। स्त्री० चिपकना चिपटना। चवाइन । चस्पा-वि० (फा० ) चिपका हुआ । चवाघ-संज्ञा, पु० दे० (हि. चौवाई) चारों चस्सी -संज्ञा, स्त्री० (दे०) अपरस रोग। श्रोर फैलने वाली चर्चा, प्रवाद, अफ़वाह, चह-संज्ञा, पु० दे० (सं० चय) नदी-तट बदनामी, निन्दा। का नाव पर चढ़ने के लिये चबूतरा, पाट । चव्य-संज्ञा, पु० (स० ) चाब औषधि ।। *संज्ञा स्त्री० दे० (फा० चाह ) गड्ढा । चश्म-संज्ञा, स्त्री० (फा० ) नेत्र, आँख । । चहक-संज्ञा, स्त्री० ( हि० चहकना ) खगचश्मदीद-वि• यौ० ( फा०) जो आँखों रख, चिड़ियों का चहचहाना । चहकार से देखा हुआ हो । यो०-चश्मदीद (दे० )। गवाह-वह साखी जो अपनी आँखों से चहकना---५० कि० दे० (धनु०) पक्षियों देखी घटना कहे। का आनन्दित होकर मधुर शब्द करना, चश्मा-संज्ञा पु० ( फा० ) कमानी में जड़े चहचहाना, उमंग या प्रसन्नता से अधिक हुए शीशे या पारदर्शी पत्थर के खंड का | बोलना । चहकारना (दे०)।। For Private and Personal Use Only Page #660 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चहका ६४६ चांकना चहका-संज्ञा, पु. ( दे० ) जलन, व्यथा, | चहला-संज्ञा पु० दे० (सं० चिकिल ) बनैठी। कीचड़ । चहकैट-वि० (दे०) प्रौदन्त साँड़, बलवान। | चहारदीवारी-संज्ञा स्त्री० यौ० (फा०) चहचहा-संज्ञा, पु० दे० (हि. चहचहाना )। किसी स्थान के चारों ओर की दीवाल, चहचहाने का भाव, चहक, हंसी दिल्लगी, | प्राचीर, घेरा। ठट्ठा। वि. जिसमें चहचह शब्द हो, चहारूम-~-वि० (फ़ा० ) चतुर्थीश, चौथाई । उल्लासयुक्त शब्द, आनन्द और उमंग चहुँ नहूँ ---वि० दे० (हि. चार) चार, चारों पैदा करने वाला, मनोहर, ताज़ा । __ ओर, " चहुँ दिशि चितै पूछि माली गन" चहनहाना - अ. नि. (अनु०) पत्तियों का --रामा० । " चितवति चकित चहूँ दिशि चहचह शब्द करना, चहकना । संज्ञा, स्त्री. सीता".-रामा०। चहचहाहट। चहुँक---वि० ( दे० ) चौंक, चिहुक । चहनना--स० कि० दे. ( अनु० ) अच्छी | चवान-संज्ञा पु. ( दे० ) चौहान । तरह खाना। चटना-अ० क्रि० दे० (हिं. चिमटना) चहना --स० क्रि० (दे०) चाहना । __ सटना, लगना मिलना। चहनि -संज्ञा स्त्री० (दे०) चाह । चहेटना-- स० क्रि० (ग्रा० ) गारना, निचो. चबच्चा-संज्ञा पु० यो० दे० ( फा० चाह = | इना, खूब खाना, चपेटना। कुमाँ + बचा । पानी का छोटा गड्ढा यात्रता-वि० दे० (हि. चाहना+ एता हौज़, धन गाड़ने या छिपाने का छोटा प्रत्य० ) जिसे चाहा जाय, प्यारा, भावता । तहखाना। स्त्री० चहेतो। चहर -संज्ञा स्त्री० दे० (हि. चहल) चहारना, बहोड़ना-ग्र० कि० (दे० ) आनन्द की धूम, रौनक, शोरगुल, हल्ला। पौधे को एक जगह से उखाड़ कर दूसरी यौ० चहरपहर-चहलपहल । " चहर- जगह लगाना. रोपना, बैठाना, सहेजना, पहर चहुँकित सुनि चायन"---रघु० । वि०- संभालना। भीरमा (दे०)-- गीला करना। बदिया. चुलबुला । “नेकहू नहिं सुनति चहों-सं० कि० (दे०) (हि. चहूँ) चाहता स्रवननि करता है हम चहर ----सूबे० ।। हूँ। " पद न चहौं निर्वान "-रामा० । चहरना ---अ० कि० दे० (हि. चहल ) चाई-वि० (दे०) ठग, उचक्का, छली, आनन्दित या प्रसन्न होना। चालाक । यौ० चाई चंट, यौ० चांई माई चहराना--अ० कि० (दे० ) आनन्दित | घूमना, चकर लगाना । होना, फटना, दरकना। चाँई चई ---संक्षा, स्त्री० (दे० ) गंज रोग । चहल-संज्ञा, स्त्री० दे० (अनु० ) कीचड़, चांक-- संज्ञा पु० दे० (हि० चौ = चार + कींच । संज्ञा, स्त्री० (हि० चहचहाना ) अंक = चिन्ह ) खलियान में अन्न की राशि श्रानन्दोत्सव, रौनक । पर ठप्पा लगाने की छाप की थापी। चहलकदमी-संज्ञा, बो. यो० ( हिं० चांकना स० क्रि० दे० ( हि० चाँक ) चहल +फा० क़दम ) धीरे धीरे टहलना या खलियान में अन्न राशि पर मिट्टी राख या घूमना-फिरना। उम्पे से छापा लगाना, जिसमें यदि अनाज चहलपहल-संज्ञा स्त्री० ( अनु०) किसी निकाला जाय तो मालूम हो जाय, सीमा स्थान पर बहुत से लोगों के आने जाने की करना, हद खींचना, बांधना, पहचान के धूम, प्रामदरफ्त, रौनक, धूमधाम । लिये किसी वस्तु पर चिह्न डालना। भा० श० को०-८२ For Private and Personal Use Only Page #661 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - चांगल चांद्र चाँगल -वि० दे० (सं० चंग, हि० चंगा) | चाँद पर थूकना-किसी महात्मा को स्वस्थ, तन्दुरुस्त, हृष्ट-पुष्ट, चतुर । संज्ञा, | कलंक लगाना जिसके कारण स्वयम् पु. घोड़े का एक रंग। अपमानित होना पड़े । किधर चाँद चाँचर-चाँचरि-संज्ञा स्त्री० दे० (सं० निकला है—ाज क्या अनहोनी बात चर्चरी) बसन्त ऋतु का एक राग, चाचर । हुई जो आप दिखाई पड़े। यौ०-ईद का चांचुछ-संज्ञा पु० दे० (सं० ) चोंच, चंचु । चाँद-मुश्किल से दिखाई पड़ने वाली यौ० चंचुप्रवेश-थोड़ा ज्ञान, थोड़ी पैठ । वस्तु । चंद्रमाल , महीना, द्वितीया के चॉटना-स० क्रि० ( दे० ) चपना, दबाना चंद्रमा सा एक प्राभूषण । चाँदमारी में चिह्न करना। निशाना लगाने का काला दाग । संज्ञा स्त्री० चाँटा--संज्ञा पु० दे० (हि. चिमटना : बड़ी खोपड़ी का मध्य भाग । "चाँद चौथ को यूँ टी, चिउँटा, चींटा (स्त्रो० चाटो चीटी) देखियो मोहन भादों मास"-प्रेम० । संज्ञा, पु० दे० ( अनु० चट) थप्पड़, चाँदतारा-संज्ञा पु० यौ० (हि. चाँद + तमाचा । तारा ) चमकीला बूटीदार बारीक मलमल, चांड-वि० दे० (सं० चंड) प्रवल, बलवान, एक पतंग। उग्र, उद्धत, शोख, बढ़ा चढ़ा, श्रेष्ठ, संतुष्ट चाँदना--संज्ञा पु० (हि. चाँद ) प्रकाश, धना। संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० चंड = प्रबल ) उजाला। भार सँभलाने का खम्भा, टेक, थूनी किसी चाँदनी-संज्ञा स्त्री० (हि. चाँद ) चंद्रमा का प्रभाव की पूर्ति के लिये श्राकुलता, बड़ी प्रकाश । चंद्रिका । मुहा०-चाँदनी का जरूरत या चाह । मुहा०-चाँड सरना खेत-चंद्रमा का चारों ओर फैला हुआ इच्छा पूरी होना । “टूटे धनुष चाँड नहि प्रकाश । लो० चार दिन की चांदनी सरई.''-रामा० । दबाव, संकट, प्रबलता, (फिर अँधियारा पाख) थोड़े दिन का सुख अधिकता, बढ़ती। या आनन्द, बिछाने की बड़ी सक्नेद चादर, चांडना-सं० क्रि० दे० (१) खोदना, ऊपर तानने का सफ़ेद कपड़ा । “छिटक खोदकर गिराना, उखाड़ना, उजाड़ना ।। चंदनी सी रहति"-वि०। चाँदवाला-संज्ञा पु० यौ० (हि. चाँद+ चाँडाल, चंडाल-संज्ञा, पु० दे० (सं० ) बाला ) कान का एक गहना। एक अत्यन्त नीच जाति, डोम, डोमरा, | चाँदमारी - संज्ञा स्त्री. (हिं० चांद ---मारना) श्वपच । वि० पतित, गाली, दुष्ट, वधिक, दीवाल या कपड़े पर बने चिन्हों को लक्ष्य निर्दयी । ( स्त्री० चांडाली, चांडालिन, करके गोली चलाने का अभ्यास। चांडालिनी ) " बन्यो चण्डाल अधोरी" चाँदी—संज्ञा स्त्री० (हिं. चाँद ) एक सफ़ेद -रना। और चमकीली धातु जिसके सिक्के, प्राभूषण चाँडिला- -वि० दे० (सं० चंड) और बरतन श्रादि बनते हैं, रजत, सिलवर, प्रचण्ड, प्रबल, उग्र, ऊद्धत, नटखट, अधिक, | (अं०) । मुहा०-चाँदी का जूता-घूस, (स्त्री० चांडिली)। रिशवत । चाँदी काटना (होना)चांडी-संज्ञा स्त्री दे० (चंडी) चोंगी, कीप। खूब रुपया पैदा करना ( होना )। चांद-संज्ञा पु० दे० (सं० चन्द्र) चन्द्रमा, चांद्र-वि० (सं० ) चंद्रमा सम्बंधी। संज्ञा चन्द, चन्दा (दे०) । मुहा०-चाँद | पु० (सं० ) चाँद्रायण व्रत, चंद्रकांतका टुकड़ा----अत्यन्त सुन्दर मनुष्य ।। मणि, अदरख । For Private and Personal Use Only Page #662 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चांद्रमास चाचा चांद्रमास-संज्ञा पु० यौ० (सं०) उतना चाकचक-वि० (तु० चाक+चक अनु०) काल जितना चंद्रमा को पृथ्वी की एक | चारों ओर से सुरक्षित, दृढ़, मज़बूत । परिक्रमा करने में लगता है। पूर्णिमा से चकाचक (दे०)। पूर्णिमा या अमावस्या से अमावस्या तक चाकचक्य -- संज्ञा, स्त्री. ( सं०) चमक, समय। दमक, उज्ज्वलता, शोभा। चांद्रायण-संज्ञा, पु. (सं० ) महीने भर चाकना-स० क्रि० (हि० चाक ) सीमा का एक कठिन व्रत जिसमें चंद्रमा के घटने बाँधने के लिये किसी वस्तु को रेखा से बढ़ने के अनुसार श्राहार घटाना बढ़ाना । चारों ओर घेरना, हद खींचना, खलियान पड़ता है, एक मात्रिक छंद। में अनाज की राशि पर मिट्टी या राख से चाँप*-संज्ञा स्त्री० (हि. चपना ) दब जाने छाप लगाना जिसमें यदि अनाज निकाला का भाव, दबाव, रेलपेल, धक्का, बलवान जाय तो मालूम हो जाय, पहचान के लिये की प्रेरणा, बंदूक के कुंदे और नली का । किसी वस्तु पर चिन्ह डालना। जोड़। * संज्ञा, पु. (हिं. चंपा) चंपा चाकर-संज्ञा पु० (फ़ा० ) दास, भृत्य, का फूल। सेवक, नौकर : स्त्री. चाकरानी। संज्ञा चाँपना-सं० क्रि० दे० (सं चपन) दबाना। स्त्री. चाकरी-" जाकी जैसी चाकरी" " चरण कमल चाँपत विधि नाना " यो० नौकर-चाकर। -रामा०। चाकसू- संज्ञा पु० दे० (सं० चाक्षुष ) वनचाय चाय-संज्ञा, स्त्री० ( अनु० ) व्यर्थ की कुलथी, निर्मली। बकवाद, बक बक, झक झक, चिड़ियों का | चाकी संज्ञा स्त्री० (दे० ) चक्की। संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० चक्र ) बिजली, वज्र ।। चा-संज्ञा स्त्री० (दे०) पौधा विशेष उसकी चाकू-संज्ञा पु० (तु.) छुरी, चक्कू (ग्रा०)। पत्ती, चाय । चाक्रायण - संज्ञा पु० (सं० ) चक्र ऋषि के चाइ, चाउ* -- संज्ञा पु० (दे०) चाव। वंशज ( छन्दो० उप०)। "कर कंकन को पारसी, को देखत है। चातुष-वि० (सं०) आँख सम्बंधी, जिस चाई"-वृन्द। का बोध नेत्रों से हो, चतुर्ग्राह्य, छठे मनु । चाउर-संज्ञा पु० (दे० ) चावल । “ देन यौ०-चानुष-प्रत्यक्ष, नेत्रों से देखा को चारि न चाउर मेरे"-नरो। हुआ, (न्या० प्रमाण)। चाक-संज्ञा पु० दे० (सं० चक्र ) एक कील चाख-संज्ञा पु० (दे० ) नीलकंठ पक्षी। पर घूमता हुआ पत्थर का गोल टुकड़ा जिस 'चारा चाख बाम दिसि लेई'-रामा० । पर मिट्टी का लोंदा रख कुम्हार बरतन चाखना-स० क्रि० दे० चखना। बनाता है, कुलालचक्र, पहिया, चरखी, चाचर-चाचरि-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० गराड़ी, घिरनी, थापा जिससे खलियान चर्च री ) चाँचर, होली में गाने का गीत । की राशि पर छापा लगाते हैं, मंडलाकार | चचरी राग, होली के खेल-तमाशे, धमार, रेखा, चाका (दे०) चाको (व.)। उपद्रव, हलचल, हल्ला-गुल्ला। संज्ञा पु० (फा० ) दरार, चीड़, काटना । | चाचरी-संज्ञा स्त्री० दे० (सं० चचरी) वि. ( तु० चाक) दृढ़, मज़बूत , पुष्ट । योग की एक मुद्रा। यौ०-चाक-चौबंद-हृष्ट-पुष्ट, चुस्त, चाना-संज्ञा, पु० दे० (सं० तात ) काका चालाक, फुरतीला, तत्पर । | (ग्रा०) पितृव्य, बाप का भाई। स्त्री० चाची। चहचहाना। For Private and Personal Use Only Page #663 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org चाट ६५२ | चाट - संज्ञा स्त्री० दे० ( हि० चाटना ) घटपटी वस्तुओं के खाने या चाटने की इच्छा, एक बार किसी वस्तु का श्रानन्द पर फिर उसी के लेने की चाह, चसका, शौक, लालसा, चाह, इच्छा, लोलुपता, लत, यादत, बान, देव, चरपरी और नमकीन खाने की चीजें, चटपटा, गजक | चाटना - स० क्रि० दे० (अनु० चटक ) स्वाद के लिये किसी वस्तु को जीभ से उठाना या खाना, पोंछ कर खा लेना, चट कर जाना, ( प्यार से ) किसी वस्तु पर जीभ फेरना, कीड़ों का किसी वस्तु को खा जाना । यौ० - चाटना - चूमना - प्यार करना | मुहा०-दिमाग ( खोपड़ी ) चाटना- व्यर्थ बकवाद या अधिक बात से उबाना या दिक करना । चाटु-संज्ञा, पु० (सं० ) मीठी या प्रिय बात, खुशामद, चापलूसी । संज्ञा स्त्री० चाटुकारिता । चाटुकार——संज्ञा, पु० (सं० ) खुशामद करने वाला, चापलूस, खुशामदी । । चाटुकारी - - संज्ञा० स्त्री० (सं० चाटुकार + ई - प्रत्य० ) झूठी प्रशंसा या खुशामद | चाड - संज्ञा स्त्री० (दे० ) सहारा, आश्रय, aareकता, प्रयोजन। चोंट, ढेकली, दबाव । चाँडर ( ग्रा० ) चादा* संज्ञा पु० दे० ( हि० चाड ) प्रेमपात्र, प्यारा । स्त्री० चाढ़ी। चाणक --- संज्ञा पु० (सं० ) सुनि विशेष ! गोत्र विशेष, उभाड़ने या क्रोध पैदा करने! वाली बात । चाणक्य - संज्ञा पु० ( सं० ) राजनीति के आचार्य पटना के राजा चन्द्रगुप्त के मंत्रो कौटिल्य । यौ० - वाक्य-नीतिकूटनीति | संज्ञा पु० - राजनीति चतुर । बापूर - संज्ञा पु० (सं० ) कंस का पहलवान जो श्रीकृष्ण जी से मारा गया । चाप चातक- संज्ञा पु० (सं० ) पपीहा पक्षी, चात्रिक, चातृक । स्रो० चातकी, "चातक रटत तृषा श्रतिश्रोही " - रामा० । चातर - वि० (दे०) चातुर । संज्ञा पु० (दे० ) 1 महाजाल, दुष्टों का जमघट, षड्यंत्र । चातुर - वि० (सं० ) नेत्र गोचर, चतुर, खुशामदी, चापलूस | संज्ञा स्त्री० चातुरता चातुरी - संज्ञा स्त्री० (सं० ) चतुरता, चतुराई, व्यवहार-दक्षता, चालाकी । " चातुरी विहीन थातुरीन पै "रना० । चातुर्भद्र चातुर्भद्रक - संज्ञा पु० (सं०) चार पदार्थ, अर्थ, धर्म, काम, मोत, चतुर्वर्ग । चातुर्मासिक - वि० यौ० (सं० ) चार महीने में होने वाला यज्ञ कर्म थादि । चातुर्मास्य - संज्ञा पु० यौ० (सं० ) चार महीने में होने वाला एक वैदिक यज्ञ, वर्षा के चार महीने का एक पौराणिक व्रत । चातुर - संज्ञा, पु० ( सं० ) चतुराई । चातुर्वशर्य - संज्ञा पु० (सं०) चारों वर्णों के धर्म ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र । चातुर्वेद्य - संज्ञा पु० यौ० (सं० ) चार वेदों के ज्ञाता चतुर्वेदी ब्राह्मणों का भेद | बारवाल - संज्ञा पु० (सं० ) गर्त, अग्निहोत्र | -- Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गढ़ा, चादर (चारा ) - संज्ञा स्त्री० ( फा० ) श्रोढ़ने-बिछाने का कपड़े का लम्बा-चौड़ा टुकड़ा, श्रोदना, चौड़ा दुपट्टा, पिछौरी, किसी धातु का बड़ा चौखूटा पत्तर, चद्दर, पानी की चौड़ी धार जो ऊँचे से गिरती हो, पूज्य पर चढ़ाने की फूलों की राशि | " हा ! हा! एती दूर बिना चादर थाई हैं'"--- रत्ना० । For Private and Personal Use Only यानक - क्रि० वि० (दे० ) अचानक । चाप - संज्ञा पु० (सं०) धनुष, कमान, अर्धवृत्त क्षेत्र ( गणि० ) वृत्त की परिधि का कोई भाग, धनु राशि | संज्ञा स्त्री० (सं० चाप धनुष ) दबाव, पैर की आहट । Page #664 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir HEORAMODATERIAGEमान चापना चारदीवारी चापना-स० क्रि० दे० (सं० चाप = धनुष )। जिन्होंने शुंभनिशुंभ के चंड मुंड नामक दबाना। दो दैत्य सेनापतियों का वध किया था। चापलता-संज्ञा स्त्री० (दे० ) चपलता। | चाम्पेय-- संज्ञा. पु. ( सं० ) चम्पा का फूल, चापलूस-वि० (फा० ) खुशामदी। संज्ञा | नाग केसर (ो०)। स्त्री० चापलूसी। चाय-संज्ञा, स्त्री० (चीनी-चा ) एक पहाड़ी चापल्य- संज्ञा पु० (सं०) चपलता, अधीरता पौधा जिसकी पत्तियों का काढा पीते हैं। चाफंद-संज्ञा पु० (दे० ) मछली मारने यौ० चाय-पानी-जल-पान । *संज्ञा, पु. का जाल । ( दे० ) चाव, चाह । चाब-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० चव्य) गज- | चायक -- संज्ञा, पु० (हि. चाय) चाहनेवाला। पिप्पली की जाति का एक पौधा जिसकी चार-वि० दे० (सं० चतुर ) दो का लकड़ी और जड़ औषधि के काम में पाती | दूना, तीन से एक अधिक । मुहा०है, चव्य, इसका फल । संज्ञा, स्त्री० (हि. चार आँख होना-नज़र से नज़र चाबना ) खाना कुचलने के चौखूटे दाँत, मिलना, देखा देखी या साक्षात्कार होना। डाढ़, चौभड़, चाभ (ग्रा०) बच्चे के | "जब आँखें चार होती हैं"। बुद्धिमत्ता जन्मोत्सव की एक रीति ।। होना-“विद्या पढ़े आँखें चार-चार चाबना ( चामना)-स० कि० दे० (सं० चाँद लगना-चौगुनी प्रतिष्ठा या शोभा चवण ) चबाना, खाना। होना, सौंदरय बढ़ना । चार की कहीचाबी ( चाभी)- संज्ञा, स्त्री० (हि० चाप) पंचों या लोगों का कहना। चारों फूटनाकुंजी, ताली। चारों आँखें ( भीतर-बाहर की ) फूटना । चाबुक-संज्ञा, पु० (फा० ) कोड़ा, हन्टर, चारो खाने चित्त-पूरा फैल कर चित्त (अं०)। गिरना, कई एक, बहुत से, थोड़ा-बहुत, चाबुकसवार-संज्ञा, पु० यौ० (फ़ा०) घोड़े कुछ । संज्ञा, पु० चार का अंक ४ । संज्ञा, का सिखानेवाला । संहा. चाबुक सवारी। पु. (सं० ) वि. चारित, चारी, गति, चाम--संज्ञा, पु० दे० (सं० चर्म ) चमड़ा, चाल, बन्धन, कारागार, गुप्तदूत, चर, खाल, "मुई खाल सों चाम कटावैघाघ, | जासूस, दास, चिरौंजी का पेड़, पियार, ..."चाम ही को चोला है"- पद्मा ।। अचार, प्राचार। मुहा० चाम के दाम चलाना--अन्याय चार आइना - संज्ञा, पु० यौ० (फा० ) एक करना। कवच या बख़्तर। चामर-संज्ञा, पु० (सं० ) चौर, चवर, चार काने- संज्ञा, पु. यौ० (हि. चार-+ चौंरी, मोरछल, एक वर्णावृत्त, (पंचचामर)। काना = मात्रा) चौंसर या पाँसे का एक दाँव । चामरी- संज्ञा, स्त्री० (सं० ) सुरागाय ।। चारालाना--संज्ञा, पु० यौ० (फ़ा०) रंगीन चामर पाटना-स० कि० (दे० ) दाँतों से धारियों के चौकोर खाने वाला कपड़ा। होंठ काटना, दाँत कट कटाना । चारजामा--- संज्ञा, पु० (फ़ा०) जीन, पलान । वामीकर-संज्ञा, पु. ( सं० ) सोना, स्वर्ण, चारण-संज्ञा, पु० (सं० ) वंश की कीर्ति धतूरा । वि० स्वर्णमय, सुनहरा। या यश गाने वाला, बंदीजन, भाट, राजचामंडराय-संज्ञा, पु. ( दे० ) पृथ्वीराज पूताने की एक जाति, भ्रमणकारी। के एक सामन्त राजा। चारदीवारी-संज्ञा, स्त्री० (फा० ) घेरा, चामंडा-संज्ञा, स्त्री. (सं०) एक देवी | हाता, शहर पनाह, प्राचीर, परिखा। For Private and Personal Use Only Page #665 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चारना चालनी चारना*-स. क्रि० दे० (सं० चारण) चारेक्षण -वि० पु० यौ० (सं.) राज-मंत्री, चराना। राजनीतिज्ञ । चारपाई-संज्ञा, स्त्री० यौ० ( हि० चार+ चार्वगी-वि० स्त्री० यौ० (सं०) सुन्दरी नारी। पाया ) छोटा पलङ्ग, खाट, खटिया, मंजी | चार्वाक-संज्ञा, पु० (सं०) एक अनीश्वरवादी (प्रान्ती.)। मुहा०-चारपाई चरना, | और नास्तिक, तार्किक । पकड़ना या लेना-इतना बीमार होना | चाल-संज्ञा, स्त्री० (हि. चलना ) गति, कि चारपाई से उठ न सकना, खाट गमन, चलने की क्रिया, ढंग, आचरण, सेना (दे०)। बर्ताव, व्यवहार, श्राकार-प्रकार, बनावट, चारपाया-संज्ञा, पु० (दे०) चौपाया, (दे०) रीति, रस्म, प्रथा, परिचारी, मुहूर्त, चाला जानवर, पशु। (ग्रा० ) युक्ति, ढंग, ढब, चालाकी, छल, चार-बाग-संज्ञा, पु० (फा० ) चौकोर धूर्तता, प्रकार, तरह, शतरंज ताशादि के बगीचा, चार सम भागों में बटा हुधा खेलों में गोटी को एक घर से दूसरे में ले रूमाल । जाने या पत्ते या पाँसे को दाँव पर डालने चारयारी-संज्ञा, स्त्री० यौ० (हि. चार+ | की क्रिया, हलचल, धूम, आंदोलन, हिलनेयार फा०) चार मित्रों की मंडली, सुनी लोगों | डोलने का शब्द, श्राहट, खटका । की मंडली (मुसल०), खलीफ़ा के नाम | चालक-वि० (सं०) चलाने वाला, संचाया कलमा वाला चाँदी का चौकोर सिक्का। लक । संज्ञा, पु० (हि० चाल) छली, ठग, धूर्त । चारा-संज्ञा, पु. (हि. चरना ) पशुओं के | चालचलन-संज्ञा, पु० यौ० (हि० चाल+ खाने की घास, पत्ती, पक्षियों का खाना । चलन ) आचरण, व्यवहार, चरित्र, शील । संज्ञा, पु० (फ़ा०) उपाय, तदबीर । यो०- चालचलना-- स० कि. यौ० ( हि० ) छल चारादाना। चारा जोई-संज्ञा, स्त्री० करना, धोखा देना, ठगना, जाना, खेल में (फ़ा.) नालिश, फरियाद । गोट आदि की जगह बदलना । चारिणी-वि० स्त्री० (सं०) श्राचरण करने चाल-ढाल---संज्ञा, स्वी० यौ० (हि.) वाली, चलने वाली ( योगिक में )। व्यवहार, पाचरण, तौर-तरीका । यौ०चारित-वि० (सं०) चलाया हुआ। हालचाल-वृत्तान्त । चारित्र - संज्ञा, पु० (सं०) कुल-क्रमागत | चालन-संज्ञा, पु० दे० (सं०) चलने या श्राचार, चाल-चलन, व्यवहार, स्वभाव, | चलाने की क्रिया, गति, संचालन । संज्ञा, संन्यास (जैन)। पु. ( हि० चालन ) ( पाटा ) चालने पर चारित्र्य- संज्ञा, पु. ( सं० ) चरित्र। बचा, भूसी या चोकर आदि। चारी-वि० ( सं० चारिन् ) चलने वाला, चालना*- स० क्रि० (सं० चालन ) श्राचरण करनेवाला । संज्ञा, पु० पदाति चलाना, परिचालित करना, एक स्थान से सैन्य, पैदल सिपाही, संचारी भाव . स्त्री० | दूसरे स्थान को ले जाना, (बहू को) बिदा चारिणो। वि० (संख्या) चार। करा ले पाना, हिलाना, कार्य-निर्वाह चारु-वि० (सं० ) सुन्दर, मनोहर । संज्ञा, करना, भुगताना, बात उठाना, प्रसंग स्त्री. चारुता। छोड़ना, श्राटे को चलनी में रख कर छानना, चारु हासिनी-वि० स्त्री. यौ० (सं.)। अ० क्रि० (सं० चालन ) चलना। सुन्दर हँसने वाली। संज्ञा, स्त्री० चैताली चालनी संज्ञा, स्त्री दे० (हि. चालन ) छन्द का एक भेद। । श्राटा आदि पदार्थों के छानने का यन्त्र । For Private and Personal Use Only Page #666 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org चालबाज चालबाज - वि० (हि० चाल + बाज़ फा० ) छली, धूर्त, ठग, चालाक । चाला - संज्ञा, पु० (हि० चाल ) कूच, प्रस्थान, नयी वधू का पहले पहल मायके से ससुरे जाना, यात्रा का मुहूर्त । "सोम सनीचर पुरुन चाला" । ६५५ - चालाक - वि० ( फ़ा० ) चतुर, दक्ष, धूर्त, चालबाज़, ठग, चालिया (दे० ) | चालाकी – संज्ञा स्त्री० ( फ़ा० ) चतुराई. पटुता, व्यवहार कुशलता, होशियारी, धूर्तता, चालबाज़ी, युक्ति । चालान - संज्ञा, पु० (दे० ) चलान, अपराधी को न्यायार्थ अदालत में भेजना, रवानगी । चाली -- वि० दे० ( हि० चाल) धूर्त, चाल बाज़, चञ्चल, नटखट | चालीस ( चालिस ) वि० दे० (सं० चत्वारिंशत् ) बीस का दूना | संज्ञा, पु० तीस और दस की संख्या या अंक । चालीसा - संज्ञा, पु० दे० ( हि० चालीस ) चालीस वस्तुओं का समूह, चालीस दिन का समय, चिल्ला । स्त्री० बालासी । चालुक्य - संज्ञा, पु० (सं० ) दक्षिण का एक प्राचीन पराक्रमी राज-वंश | बालू - वि० संचालन | दे० ( हि० चालना ) प्रचलित, चाल्ह - संज्ञा, स्त्री० (दे० ) चेल्हवा मछली । चावँ चावँ - संज्ञा, स्त्री० (दे० ) चायँ चायँ । चाव- संज्ञा, पु० दे० ( हि० चाह ) श्रभि लाषा, लालसा, इच्छा प्रेम, चाह, उत्कंठा, शौक, दुलार, लाड़-प्यार, नखरा, उमङ्ग, उत्साह, श्रानन्द, चाय ( दे० ) | चावड़ी - संज्ञा स्त्री० ( दे० ) पड़ाव, चट्टी, पथिकों के उतरने का स्थान । चावल - संज्ञा, पु० (सं० तंदुल ) धान की गुठली, तंदुल, भात, चावल जैसे दाने, एक रत्ती का आठवाँ भाग, चाउर ( प्रा० ) । चाशनी -- संज्ञा, स्त्री० ( फा० ) मिश्री, शक्कर या गुड़ को आग पर गादा और शहद के Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चाहिए सा किया हुआ शीरा । चसका, मज़ा, नमूने का सोना जो सोनार को गहना बनाने के लिये दिये हुए सोना से लेकर गाहक रख लेता है। चाप - संज्ञा, पु० (सं०) नीलकंठ, चाहा, पक्षी, चाख (दे० ) । " चारा चाष बाम दिसि लेई " - रामा० । चास - संज्ञा, पु० (दे०) खेती, कृषि, जुताई । नासा -- संज्ञा, पु० (दे० ) हलवाहा, किसान, खेतिहार । चाह - संज्ञा, स्त्री० (दे० ) ( सं० इच्छा या उत्साह ) इच्छा, अभिलाषा, प्रेम, प्रीति, पूछ, आदर, माँग, जरूरत, चाहना | संज्ञा, स्त्री० (हि० चाल = ग्राहट) ख़बर, समाचार | चाहक * — संज्ञा पु० ( हि० चाहना ) चाहने या प्रेम करने वाला । चाहत -- संज्ञा स्त्री० ( हि० चाह) चाह, प्रेम । चाहना - स० क्रि० ( हि० चाह ) इच्छा या अभिलाषा करना, प्रेम या प्यार करना, माँगना, प्रयत्न करना । "जाकी यहाँ चाहना है ताकी वहाँ चाहना है 1 देखना, ताना, ढूँढ़ना । संज्ञा स्त्री० (हि० चाहना ) चाह, ज़रूरत । " चाहा - संज्ञा पु० दे० (सं० चाष) बगुले का सा एक जल-पक्षी । स्त्री० चाही । यौ० चाहाचाही । -- 66 कर चाहाचाही संज्ञा स्त्री० यौ० (दे० ) परस्पर प्रीति सा मैत्री, चाहा का जोड़ा । चाहि* - अव्य० (सं० चैव = और भी ) अपेक्षाकृत (अधिक ) बनिस्बत, देखकर, इच्छा से, प्रेम से । क्रि० चाहिये, I कंगन को आरसी को देखत है चाहि" वृन्द० । चाहिए - अव्य० ( हि० चहचहाना ) उचित है, चाहि ( दे० ) उपयुक्त है, पसंद या प्यार कीजिये -" आपको न चाहै ताके बाप को न चाहिये " " कुलिसह चाहि कठोर श्रति” – रामा० । For Private and Personal Use Only Page #667 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चिक चाहित चाहित-वि. पु. ( दे०) इच्छित, अभि- ध्यान, विचार, विवेचना, पाराधन । “हितलाषित, प्रिय । स्त्री० चाहिता-प्रिया, प्यारी। चिंतन करो करै"- रत्ना। चाहो-वि० स्त्री० (हि. चाह ) चहेती, तिना-स० कि० (दे०) ( सं० चिंतन ) प्यारो, अभीट । "सरस बखानै चित-चाही | सोचना, ध्यान या स्मरण करना। संज्ञा करिबै मैं इमि"। स्त्री. (सं० चिंतन ) ध्यान, स्मरण, भावना, चाहि-चाहे चाहो-अव्य० ( हि० चाहना ) | चिंता, सोच। जी चाहे जो इच्छा हो, मन में श्रावे, यदि चिंतनीय --वि० (सं० ) चिंतन या ध्यान जी चाहे, तो, जैसा जी चाहे, होना चाहता | करने योग्य, भावनीय, चिंता या विचार या होने वाला हो, चाहै चाहौ, ( दे०)। करने योग्य, संदिग्ध । वि० नित्य । " चाहै तो मूल को मूल कहै”। चितवन- संज्ञा पु० ( दे०) चिंतन । चित्रां-संज्ञा पु० दे० (सं० चिंचा ) इमली चिंता--संज्ञा स्त्री० (सं०) ध्यान, स्मरण, का बीज। सोच, भावना, फ़िक्र, खटका। " चिंता विउँटा--संज्ञा पु० दे० (हि० चिमटना ) साँपिनि काहि न खाया'-रामा०। "चिंता एक बहुत छोटा कीड़ा जो मीठे के पास कौनेउ बात की-रामा० । बहुत श्राता है, चींटा । स्री. चिउँटो पिपीलिका । मुहा०-बिउँटी का चाल | चिंतामणि - संज्ञा पु० यो० (सं० ) एक बहुत सुस्त चाल, मंद गति । चिउँटी के ऐसा कल्पित रत्न जो अभिलाषा को तुरन्त पर निकलना-ऐसा काम करना जिससे | पूर्ण कर देता है, ब्रह्मा, परमेश्वर, सरस्वती मृत्यु हो, मरने या विनाश पर होना। का मंत्र जिसे विद्या प्राप्ति के लिये लड़के की चिंगना-संज्ञा पु० (दे० ) किसी पक्षी या जीभ पर लिखते हैं । 'चिंतामनि (दे० ) विशेषतः मुरगी का छोटा बच्चा, छोटा " चिंतामनि मंजुल पंचारि धूर धारनि बच्चा । अ० कि० (दे०) चिढ़ना। मैं" ऊ. श.। . चिंतामनिमय सहज चिंघाड़ -- संज्ञा स्त्री० दे० ( सं० चीत्कार ) । सुहावन -राम सुहावन'-रामा० । चीख, चिम्पार ( दे० ) किसी जंतु का चितित- वि० (सं०) चिंता युक्त, फिक्रमंद । घोर चिल्लाटहाथी की बोली। " चिंतित रहहिं नगर के लोगू"--- रामा० चिंघाड़ना- क्रि० ( सं० चीत्कार ) चिंत्य -- वि० (सं० ) विचारणीय, चिंतनीय, चीख़ना, चिल्लाना, हाथी का बोलना, सोचनीय, भावनीय, संदिग्ध । चिग्घारना (दे०) चिंदी-संज्ञा स्त्री० ( दे० ) टुकड़ा । यौ० चिंचिनो *-संज्ञा स्त्री० दे० (सं० तितिड़ी) विदी-बिंदी । मुहा०-चिंदी की बिदी इमली का पेड़ और फल । निकालना-अत्यन्त तुच्छ भूल या ग़लती चिंजा -संज्ञा पु० दे० (सं० चिरंजीव ) निकालना, कुतर्क करना। लड़का, पुत्र, बेटा । स्त्री० चिजी । यो. चिउड़ा-संज्ञा पु० (दे०) चिड़वा, चिउरा । चिजा-विजो। चिक-संज्ञा स्त्री० ( तु. चिक) बाँस या चिंत-संज्ञा स्त्री० (दे०) चिंता, या नि- सरकंडे की तीलियों का बना हुआ झंझरीश्चित ( विलो. अचिन )। दार परदा, चिलमन. जवनिका । संज्ञा पु० चिंतक-वि० (सं०) चिंतन या ध्यान | पशुओं को मार उनका माँस बेचने करने वाला, सोचने वाला। वाला, बूचर, बकर-कसाई, चिकवा चिंतन--संज्ञा पु० (सं० ) बार बार स्मरण, (दे० )। संज्ञा स्त्री० (दे० ) अकस्मात् बल For Private and Personal Use Only Page #668 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org चिकट पड़ने से उत्पन्न कमर का दर्द, चमक, चिलक, झटका | चिकट - वि० (सं० चिल्किद ) चिकना और मैल से गंदा, मैला-कुचैला, लसीला. चीकट (दे० ) । चिकटा - संज्ञा पु० (दे०) मैला वस्त्र, तेली, चिकवा | ६५७ चिकटना - अ० क्र० (हि० चिकट या चिकट) मे हुये मैल के कारण चिपचिपा होना । चिकन - संज्ञा पु० ( फा० ) बूटेदार महीन सूती कपड़ा । वि० ( दे० ) चिकना । चिकना - वि० दे० (सं० चिकण ) जो छूने में खुरदुरा न हो, जो साफ़ और बराबर हो, जिस पर पैर आदि फिसलें, जिसमें तेल, घीयादि पदार्थ लगे हों । स्त्री० चिकनी । संज्ञा पु० चिकनाहट, चिकनई ( दे० ) । मुहा० - चिकना घड़ा - निर्लज्ज, बेशरम, बेहया । साफ-सुथरा, सँवारा हुआ, सुन्दर । मुहा० - चिकनी-चुपड़ी बातें करना -- बनावटी स्नेह से भरी बातें, कृत्रिम मधुर भाषण | सपथखाय बोलै सदा चिकनी-चुप बात चुं० चाटुकार, खुशामदी, स्नेही, प्रेमी | संज्ञा, पु० तेल, घी आदि । 60 >> चिकनाई - संज्ञा स्त्री० ( हि० चिकना + ई प्रत्य० ) चिकना का भाव, चिकनापन, चिकनाहट, स्निग्धता, सरसता, चिकनई (दे० ) तेल, घी । चिकनाना - स० क्रि० दे० ( हि० चिकना + ना - प्रत्य० ) चिकना या स्निग्ध करना, साफ़ करना, सँवारना । अ० क्रि० चिकना या स्निग्ध होना, चरबीयुक्त या हृष्ट-पुष्ट होना, मोटापन | I चिकनापन - संज्ञा पु० (हि० चिकना + पन -- प्रत्य० ) चिकनाई | संज्ञा स्त्री० चिकनाहट, चिकनिया - वि० दे० (हि० चिकना ) छैला, शौकीन, बाँका, बनाठना । यौ० - कैलचिकनिया | भा० श० को० ८३ चिक्क चिकनीसुपारी - संज्ञा स्त्री० यौ० ( सं० चिक्कणी ) एक प्रकार की उबाली हुई सुपारी । (1 चिकरना - ० क्रि० दे० ( सं० चीत्कार ) चीत्कार करना, चिंवारना, चीखना । संज्ञा पु० विकार - चिंघाड़ | भूमि परयो करि घोर चिकारा " - रामा० । विकारना - अ० क्रि० (दे० ) चिंघाड़ना | चिकारा - संज्ञा पु० दे० ( हि० चिकार ) (हि० अल्पा० चिकारी) सारंगी, एक बाजा, हिरण की जाति का एक जानवर । चिकित्सक संज्ञा पु० (सं० ) रोग-नाश का उपाय करने वाला, वैद्य चिकित्सा - संज्ञा स्त्री० (सं० ) ( वि० ) रोगनाशक युक्ति या क्रिया, इलाज, वैद्य का व्यव साय या काम | चिकित्सित, चिकित्स्य " चिकित्सा नास्ति निष्फला " - भाव प्र० । चिकित्सालय - संज्ञा पु० यौ० (सं० ) SOMAGA Ora Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir शफ़ा खाना स्पताल | चिकित्सित - वि० (सं० ) चिकित्सा किया हुआ । वि० - चिकित्स्य किकित्सा के योग। चिकीर्षा - संज्ञा स्त्री० (सं०) करने की इच्छा, अभिलाषा | चिकीर्षित-वि० (सं० ) अभिलषित, इच्छित, वांछित, अभिप्रेत, चाहा हुआ । चिकीर्षु - संज्ञा पु० (सं०) करने का इच्छुक, अभिलाषी । -संज्ञा स्त्री० (दे० ) चिकोटी, चिकुटी चुटकी। चिकुर - संज्ञा पु० (सं० ) सिर के बाल, केश, पर्वत, साँप आदि रेंगने वाले जंतु, छछूंदर, गिलहरी | चिकोरना - स० क्रि० ( दे० ) चोचियाना, aa से बिखेरना | चिकोरा - वि० (दे०) चंचल, चपल, तरल । चिक - वि० (दे० ) चिपटी नाक वाला | संज्ञा स्त्री० बकरी, अजा, छाग । खेत चिक्न रु बिटियन बढ़वारि" । " पाही For Private and Personal Use Only Page #669 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चिकट चिड़िया चिकट-संज्ञा पु. (हि० चिकना-|-कीट या संज्ञा पु. (?) झूठा बढ़ावा । वि. काट) जमा हुआ गर्द, तेल आदि का मैल । चिट्टेबाज़ । संज्ञा स्त्री० चिट्टेबाजी। वि० मैला, कुचैला, गंदा। चिट्टा-संज्ञा, पु० दे० (हि० चट) हिसाब चिकण-वि० (सं० ) चिकना। की बही, खाता, लेखा, वर्ष भर के नफाचिक्करना-अ० क्रि० (दे० ) चिंघाड़ना नुकसान के हिसाब का ब्योरा, फर्द, किसी _ “चिक्करहिं दिग्गज डोल महि." रामा० ।। रकम की सिलसिलेवार मिहरिस्त, सूची, चिक्कार--संज्ञा पु० ( दे० ) चियाड़ वह रुपया जो प्रति दिन, प्रति सप्ताह, या चिक्की-संज्ञा स्त्री० ( दे० ) सड़ी सुपारी। प्रतिमास मज़दूरी या तनख़्वाह के रूप में चिखुरी-संज्ञा स्त्री० (दे०) गिलहरी । पु० हशिलद्वीप बाँटा जाय, ख़र्च की फ़िहरिस्त । मुहा०चिखुरा-चूहा। कच्चाचिट्ठा-बिना कुछ छिपा, सविस्तर चिचड़ा-संज्ञा पु० (दे०) डेढ़ दो हाथ वृत्तान्त । ऊँचा एक छोटा सा पौधा जो दवा के काम चिट्टी- संज्ञा, स्त्री० यौ० (हि० चिट ) कहीं भेजने के लिये समाचार आदि लिखा काग़ज़, आता है, भोंगा, अपामार्ग, अंझाझार, | लटजीरा । स्त्रो० -चिचड़ी, चिचिरा पत्र, ख़त, कोई छोटा पुरजा या काग़ज़ जिस (ग्रा०) चिरचिग। पर कुछ लिखा हो, एक क्रिया जिससे यह निश्चित किया जाता है कि किसी माल के चिचडी-संज्ञा स्त्री० ( ? ) चौपायों के शरीर पाने या काम के करने का अधिकारी कौन हो, में चिपट रक्त पीने वाला छोटा कीड़ा, किसी बात का श्राज्ञा-पत्र, चीठी (दे०) । किलनी, किल्ली ( दे०)। "राम लखन की करबर चीठी"—रामा। चिचान--संज्ञा पु० दे० (सं० सचान ) चिठ्ठीपत्री--संज्ञा,स्त्री० यौ० (हि. चिट्ठी + बाज पक्षी। पत्री ) पत्र, ख़त, पत्र-व्यवहार । चिचिंडा-संज्ञा पु० (दे० ) चचीड़ा। चिट्ठीरसाँ-संज्ञा, पु० (हि० चिट्ठी + फा०चिचियाना-अ. क्रि० (दे०) चिल्लाना। रसाँ) चिट्ठी बाँटने वाला, डाकिया। चिचुकना-अ० क्रि० (दे०) चुचकना। | चिड़चिड़ा -- संज्ञा पु० (दे०) चिचड़ा। चिचोरना-स० क्रि० ( दे० ) चचोड़ना। वि० (हि० चिड़ चिड़ाना ) शीघ्र चिढ़ने या चिजारा-संज्ञा पु. ( फा० चदिन - चुनना) अप्रसन्न होने वाला। कारीगर, मेमार, राज। चिड़चिड़ाना-अ० क्रि० दे० (अनु०) जलने चिट-संज्ञा स्त्री० दे० (हि० चीड़ना) कागज, में चिड़ चिड़ शब्द होना, सूख कर जगह कपड़े आदि का टुकड़ा, पुरजा, रुक्का । जगह से फटना, खरा होकर दरकना, चिढ़ना, चिटकना-अ. क्रि० ( अनु०) सूख कर भुमुलाना। जगह जगह पर फटना, लकड़ी का जलते | चिडवा--संज्ञा, पु. (सं० चिविट) हरे, समय चिट चिट शब्द करना, चिढ़ना। भिगोये या कुछ उबाले हुये धान को भाड़ चिटकाना-स० कि० (अनु.) किसी सूखी में भुना और कूट कर बनाया हुआ चिपटा हुई चीज़ को तोड़ना या तड़काना, खिझाना, दाना, चिउड़ा, चिउरा (दे० )। चिढ़ाना, ताना मारना।। चिड़ा-संज्ञा, पु० दे० (सं० चटक ) गौरा चिटनवीस-संज्ञा पु० यौ० (हि. चिट-+- पक्षी। स्त्री० चिड़ी, चिड़िया। नवीस-फ़ा० ) लेखक, मुहर्रिर, कारिन्दा। चिडिया--संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० चटक ) चिट्टा--वि० दे० (सं० सित) सफेद, श्वेत ।। पक्षी, पखेरू, पंछी । मुहा० चिड़िया उड़ For Private and Personal Use Only Page #670 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चिड़िया-खाना चितेरा जाना - चिरैया, शिकार का चला जाना । चितना-स० क्रि० (दे० ) रँगा जाना, मुहा० ---चिड़िया का दूध-अप्राप्यवस्तु। ताकना, देखना। सेोने की चिड़िया ---- धन देनेवाला वितभंग ...संज्ञा, पु० यो० (सं० चित+भंग) असामी, चिड़िया के आकार का गढ़ा या ध्यान न लगना, उचाट, उदासी, मतिभ्रम । काटा हुअा टुकड़ा, ताश का एक रंग। चितरना88 --- स० क्रि० दे० (सं० चित्र ) चिड़ी ( दे०) । " तब पछिताने क्या हुश्रा चित्रित करना, चित्र बनाना। जब चिड़िया चुग गई खेत "..--कवीर० । चितरोख-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० चित्र + चिड़िया-खाना--संज्ञा, पु. यौ० (हि० रुख-फ़ा) एक प्रकार की चिड़िया, चितरवा। चिड़िया + फा० ख़ाना) वह स्थान या घर चितला-वि० दे० (सं० चित्रल) कबरा, जिसमें अनेक प्रकार के पक्षी, पशु तथा चितकबरा, रंग-बिरंगा । संज्ञा, पु. लखनऊ जंतु देखने के लिये रखे जाते हैं, चिड़ियाघर। का एक ख़रबूजा, एक बड़ी मछली। चिड़िहार - संज्ञा,पु० (दे०) चिड़ीमार । चितवन-चितौन---संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. चिड़ीमार-संज्ञा, पु० यौ० (हि. चिड़ी चेतना) देखने या ताकने का भाव या ढंग, मारना ) चिड़िया पकड़ने वाला, बहेलिया। अवलोकनि, दृष्टि, चितवनि चितौनि संज्ञा, स्त्री० चिड़ीमारी। "वह चितवनि और कछू ''--वि० । चिढ़ - संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. चिड़चिड़ाना ) | चितवना-स० क्रि० दे० (हि० चेतना) चिढ़ने का भाव, अप्रसन्नता, कुढ़न, खिज- देखना, चितौना। लाहट, नफरत, घृणा। वितवाना - स० कि० दे० (हि० चितवना चिढ़ना-प्र० कि० दे० (हि. चिड़चिड़ाना) का प्रे० रूप ) तकाना, दिखाना। चितअप्रसन्न या नाराज़ होना, बिगड़ना, कुढ़ना, वाइबी (ब्र०)। द्वेष रखना, बुरा मानना, चिटकना। चितहट-संज्ञा, स्त्री० यौ० (दे०) अनिच्छा, चिढ़ाना-स० कि० (हि. चिढ़ना का प्रे० खींच, घृणा। रूप ) अप्रसन्न या नाराज़ करना, खिझाना, चिता-संज्ञा, स्त्री० (सं० चित्य) मुरदा जलाने कुढ़ाना, कुढ़ाने को मुँह बनाना या ऐसी ही को लकड़ियों का चुना हुआ ढेर, श्मशान, अन्य कोई चेष्टा या उपहास करना ।। मरघट। चित-संज्ञा, स्त्री० (सं०) चेतना, ज्ञान । चिताना-स० क्रि० दे० (हि. चेतना ) चित-संज्ञा, पु० (सं० चित्त ) चित्त, मन । होशियार या सावधान करना, स्मरण या संज्ञा, पु० दे० ( हि० चितवन ) चितवन, आत्म-बोध कराना ज्ञानोपदेश देना, (ग) दृष्टि। वि० (सं० चित - ढेर किया हुआ) | जलाना, सुलगाना । चेताना ( दे०)। पीठ के बल पड़ा हुश्रा, चित्त ( दे.) चितावनी-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि० चिताना) ( विलो० पट )। चिताने की क्रिया, सतर्क या सावधान करने चितकबरा-वि० दे० (सं० चित्र -+ कवूर ) की क्रिया, सावधान करने को कही गयी ( स्त्री. चितकबरी) रंगविरंगा, कबरा, बात, चेतावनी (दे० )। चितला। चिति--संज्ञा, स्त्री. ( सं० ) चिता, ढेर, चितचार-संज्ञा, पु० यौ० (हि. चित --- चुनने या इकट्ठा करने की क्रिया, चुनाई, चार ) चित्त को चुराने वाला, प्यारा, प्रिय, चैतन्य, दुर्गा देवी। "मामन मो निसिदिन बसै ऊधौ वह चितेरा--संज्ञा, पु० दे० (सं० चित्रकार ) चित-चोर"। चित्रकार, मुसौविर, " वैद्य चितेरा बानियाँ For Private and Personal Use Only Page #671 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चित चित्रगुप्त हरकारा औ कव्व"। स्त्री -चितेरिन | चित्तोन्नति-संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं० ) गर्व, "चित्र तै दीठि चितेरिन पै"-रत्ना। अहंकार, अभिमान, घमंड । चितै-स० कि० दे० (हि. चितवना ) देख | चित्तौर---संज्ञा, पु० दे० (सं० चित्रकूट) उदय कर, ताककर । "प्रभुतन चितै प्रेमप्रण पुर के महाराणाओं की प्राचीन राजधानी । ठाना" रामा० । चित्य-संज्ञा, पु० (सं०) समाधि का स्थान। चितौन-संज्ञा, स्त्री. ( दे०) चितवन, | चित्र-संज्ञा, पु० (सं० ) (वि० चित्रित ) चितौनि, चितवनि ( दे.)। चंदन आदि का माथे पर चिन्ह, तिलक, चितौना-स० कि० (दे० ) चितवना।। किसी वस्तु का स्वरूप और श्राकार जो चित्त-संज्ञा, पु० (सं० ) अंतःकरण का कलम और रंग श्रादि से बना हो, तसवीर। एक भेद, मन, दिल । मुहा० -चित्त | मुहा० -चित्र उतारना-चित्र बनाना, चढ़ना-अति प्रिय या अभीष्ट होना । तसवीर खींचना, वर्णन आदि के द्वारा ठीक चित्त पर चढ़ना--मन में बसना, बार ठीक दृश्य सामने उपस्थित कर देना। बार ध्यान में श्राना, स्मरण होना, याद यो-चित्र काव्य-काव्य के तीन भेदों पड़ना। चित्त बँटना-मन एकाग्र न में से एक जिसमें व्यंग की प्रधानता नहीं रहना । चित्त में धंसना, जमना, पैठना, रहती, अलंकार, काव्य में एक प्रकार की बैठना-हृदय में दृढ़ होना, मन में धंसना रचना जिसमें पद्यों के अक्षर इस क्रम से या गड़ना, समझ में आना, असर करना । लिखे जाते हैं कि खड्ग, कमल श्रादि के चित्त से उतरना-ध्यान में न रहना, भूल जाना, दृष्टि से गिरना । चित्त चुराना श्राकार बन जाते हैं, एक वर्ण वृत्त, मन मोहना। चित्तदेना . ध्यान देना, मन अाकाश, देह पर सफ़ेद दाग़वाला कोद, लगाना । चित्त हटाना-ध्यान या रुचि चित्रगुप्त, चीते का पेड़, चित्रक। वि० हटाना। अदभुत, विचित्र, चितकबरा, कबरा। चित्तभूमि- संज्ञा, स्त्री० यौ० ( सं० ) योग | चित्रक -- संज्ञा, पु० (सं०) चित्र, तिलक, चीते में चित्त की पाँच अवस्थायें, क्षिप्त, मूढ, का पेड़, चीता, बाव, चिरायता, चित्रकार । विक्षिप्त, एकाग्र, निरुद्ध ।। "काजर लै भीति हू पै चित्रक बनायौ है" चित्तविक्षेप-संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) चित्त चित्रकला-संज्ञा, स्त्री० यौ० ( सं० ) चित्र की चंचलता या अस्थिरता।। | बनाने की विद्या। चित्तविभ्रम-संज्ञा, पु. यौ० (सं.) चित्रकार-संज्ञा, पु० (सं.) चित्र बनाने भ्रांति, भ्रम, भौचक्कापन, उन्माद। वाला, चितेरा, मुसौविर । चित्तवृत्ति-संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं० ) चित्त | चित्रकारी-- संज्ञा, स्त्री० (हि. चित्रकार - की गति या अवस्था, मनोवृत्ति । ई० प्रत्य० ) चित्रविद्या, चिन्न बनाने की चित्ता-संज्ञा, पु० दे० (सं० चित्र ) एक | कला, चितेरे का काम।। पौधा (औषधि) बाघ का सा जन्तु, चीता। चित्रकूट-संज्ञा, पु. ( सं० ) एक प्रसिद्ध चित्ती- संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० चित्र ) रमणीय पर्वत जहाँ वनवास के समय राम छोटा दाग़ या चिन्ह, छोटा धब्बा, बँदकी। और सीता ने निवास किया था, चित्तौर। संज्ञा, स्त्री० (हि. चित ) जुएँ खेलने की चित्रगुप्त --- संज्ञा, पु० (सं० ) १४ यमराजों कौड़ी, टैंया ( ग्रा० )। में से एक जो प्राणियों के पाप-पुण्य का चित्तोद्वग-संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) मन का लेखा रखते हैं । "केती चित्रगुप्त जम श्रौधि उद्वेग, विरक्ति, व्याकुलता, धबराहट । कुटि जायगी"-रखा। For Private and Personal Use Only Page #672 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - चित्रना चिदाभास चित्रना-स० कि० दे० (सं० चित्रण ) चित्रांगदा संज्ञा स्त्री. ( सं० ) अर्जुन की चित्रित करना। स्त्री और बभ्रुवाहन की माता।। चित्रपट-संज्ञा, पु. यौ० (सं०) वह कपड़ा, चित्रा-संज्ञा, स्त्री० (सं० ) २७ नक्षत्रों में काग़ज, या पटरी जिस पर चित्र बनाया | से १४ वाँ नक्षत्र (ज्यो०), मूषिकपर्णी, जाय, चित्राधार, छींट, सेनिमा (आधु०)।। ककड़ी या खीरा, दंती वृक्ष, गंडदूर्वा, मजीठ, चलचित्र, छाया-चित्र । वायविडंग, मूसाकानी, पाखुपर्णी, अज. चित्रपदा - संज्ञा, स्त्री० (सं.) एक छंद। वाइन, एक रागिनी, १५ अक्षरों का एक चित्रमद-संज्ञा, पु० यो० (सं० ) किसी । वर्णवृत्त (पिं० ।। स्त्री का अपने प्रेमी का चित्र देख विरह- वित्रिणी-संज्ञा, स्त्री० (सं०) पद्मिनी आदि भाव दिखाना (नाटक)। स्त्रियों के चार भेदों में से एक । चित्रमग-संज्ञा, पु० यौ० ( सं० ) चित्तीदार चित्रित-वि० (सं० ) चित्र में खींचा या हिरन, चीतल ( दे०)। दिखाया हुआ, बेल-बूटेदार, जिस पर चित्रयोग--संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) बुड्ढ़े चित्तियाँ या धारियाँ आदि हों। को जवान और जवान को बुड्ढा या नपुंसक चित्रोक्ति-संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं० ) अलंबना देने की विद्या या कला। कार युक्त भाषा में कहना, व्योम, आकाश । चित्ररथ-संज्ञा, पु० (सं० ) सूर्य । चित्रोत्तर-संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) एक चित्रलेखा-संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं० ) एक ! काव्यालंकार जिसमें प्रश्न ही के शब्दों में वर्ण वृत्त, चित्र बनाने की कलम या फँची। उत्तर या कई प्रश्नों का एक ही उत्तर होता चित्रविचित्र-वि० यौ० (सं० ) रंगविरंगा, है (अ० पी०)। कई रंगों का बेल-बूटेदार। चिथड़ा--संज्ञा, पु० दे० (सं० चीर्ण या चीर) चित्रविद्या--संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं० ) चित्र फटा-पुराना कपड़ा, लत्ता, लगुरा, गुदरा बनाने की विद्या। (ग्रा० )। चित्रशाला-संज्ञा, स्त्रो० यौ० । सं० ) वह चिथाड़ना--स० कि० दे० (सं० चीर्ण ) घर जहाँ चित्र बनते या रखे हों या जहाँ चीरना, फाड़ना, अपमानित करना, लिथारंग-विरंग की सजावट हो। डना, चिथोड़ना चित्थारना। संज्ञा स्त्री० चित्थाड़। चित्रसारी-संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं० चित्र। चिद् ---संज्ञा, पु० (सं० ) चैतन्य, सजीव, शाला) वह घर जहाँ चित्र टँगे या दीवार पर __ जीवधारी। बने हों, सजा हुआ विलास-भवन, रंगमहल । निदाकाश--संज्ञा, पु० यौ० (सं०) चैतन्य, चित्रहस्त-संज्ञा, पु० यौ० ( सं० ) वार, अाकाश, ब्रह्म, परमात्मा, शिव । " चिदाहथियार चलाने का एक हाथ । काशमाकाशवासं भजेऽहं"-रामा० । चित्रांग- वि० यौ० ( सं० ) जिसके शरीर चिदात्मा-संज्ञा, पु० यौ० ( सं० ) ब्रह्म, पर चित्तियाँ या धारियाँ आदि हों । स्त्री. ज्ञानरूप । चित्रांगी । संज्ञा, पु०-चित्रक, चीता चिदानन्द-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) आनन्द (दे० ) एक सर्प, चीतल (दे० ) इंगुर। रूप, ब्रह्म, शिव । "चिदानन्द संदेह मोहाचित्रांगद-संज्ञा, पु० यौ० ( सं० ) राजा पहारी"- रामा० । शान्तनु के पुत्र जो सत्यवती के गर्भ से चिदाभास-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) चैतन्यउत्पन्न हुये और इसी नाम के गंधर्व से युद्ध स्वरूप परमात्मा का आभास या प्रतिबिम्ब में मारे गये ( महा० )। जो अंतःकरण पर पड़ता है, जीवात्मा। For Private and Personal Use Only Page #673 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra चिद्रप चिद्रूप - संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) ज्ञानरूप, ज्ञानमय, परमात्मा, ब्रह्म । चिनक संज्ञा, स्त्री० दे० ( हि० चिनगी ) जलन लिये हुये पीड़ा, चुनचुनाहट । चिनगारी -- संज्ञा, स्त्री० (सं० चूर्ण - हि० चून + अँगार ) जलती हुई आग का टूटा हुआ छोटा उड़ने वाला करा या टुकड़ा, अग्निकरण मुहा० आँखों से चिनगारी छूटना - क्रोध से आँखें लाल होना । चिनगी-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि० चुन + अग्नि) -कण, चिनगारी, चुस्त- चालाक लड़का, टों का खेलाड़ी लड़का । चिनचिनाना ० क्रि० (दे० ) चिल्लाना, www.kobatirth.org 1 • चीखना, श्राह मारना । चिनिया - वि० दे० ( हि० चीनी) चीनी के रंग का, सफ़ेद, चीन देश का । चिनिया - केला -संज्ञा, पु० दे० यौ० ( हि० चिनिया + केला) छोटी जाति का एक केला । चिनिया बदाम – संज्ञा, पु० यौ० (दे० ) मूँगफली चिन्मय वि० यौ० (सं० ) ज्ञानमय, ज्ञानरूप | संज्ञा, पु० - परमेश्वर । चिन्मात्र - वि० यौ० (स० ) ज्ञानमय ब्रह्म । चिन्ह* 1 - संज्ञा, पु० ( दे० ) चिन्ह | चिन्हवाना -स० क्रि० (दे० ) चिन्हाना | चिन्हाना - स० क्रि० ( हि० चीन्हना का प्रे० रूप) पहिचानवाना, परचित कराना । चिन्हानी -- संज्ञा स्त्री० (हि० चिन्ह ) चीन्हने की वस्तु, पहिचान, लक्षण, स्मारक, यादगार, रेखा, धारी, लकीर, निशानी । चिन्हदानी (दे० ) | चिन्हार संज्ञा, पु० दे० ( हि० चिन्ह ) परचित, पहिचाना हुआ, लक्षित, अंकित, जान पहिचान | | | चिन्हारी - संज्ञा स्त्री० (हि० चिन्ह ) जान पहिचान, परिचय, निशानी, चिन्हानी (ग्रा० ) चिन्हित -- वि० सं० ) चिन्ह-युक्त, अंकित, मनोनीति, सांकेतिक ६६२ Paneer चिपकना- - अ० क्रि० दे० ( अनु० चिप ) किसी सीली वस्तु के कारण दो वस्तुओं का परस्पर जुड़ना, सटना, चिमटना । चिपकाना स० क्रि० दे० ( हि० चिपकना ) लसीली वस्तु को बीच में देकर दो वस्तुओंों को परस्पर जोड़ना, चिमटाना रिलष्ट करना चसप करना चिपटाना । प्रे० रूप०चिपकवाना | चिपचिपा - वि० दे० ( अनु० चिप चिप ) जो चिपकता जान पड़े, लसदार, लसीला । चिपचिपाना ० क्रि० दे० ( हि० चिप ) छूने में चिपचिपा जान पड़ना, लसदार मालूम होना । चिपटना--- प्र० क्रि० ( दे० ) चिपकना, चिपटा होना । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चिपटा -- वि० (सं० चिपिट ) जिसकी सतह Eat और बराबर फैली हुई हो, बैठा या धँसा हुआ । स्त्री० - चिपी चिपटाना - स० क्रि० दे० ( हि० चिपटना ) चिपकाना, अंक लगाना, चिपटा करना । चिपडाहा - वि० पु० (दे० किचड़ाई या कचराई घाँख, कीचड़ भरी आँख | चिपरता (ग्रा० ) । चिएड़ी-चप-संज्ञा स्त्री० दे० ( हि० चिप्पड़ ) गोबर के पाये हुये चिपटे टुकड़े, उपली, चिपटी या किचराई हुई आँख | पु०, वि० चिपरा | 1 चिप्पड़ - संज्ञा, पु० दे० (सं० चिपिट) छोटा चिपटा टुकड़ा, सूखी लकड़ी यादि के ऊपर की छाल का टुकड़ा, किसी वस्तु के ऊपर से छीला हुआ टुकड़ा | त्रिप्पो संज्ञा स्त्री० दे० ( हि० चिप्पड़ ) For Private and Personal Use Only 1 66 छोटा चिप्पड़ या टुकड़ा, उपली, गोटी । चिबुक - संज्ञा, पु० (सं० ) ठोढ़ी | चारु चिबुक नासिका कपोला"- --रामा० । चिमटना- क्रि० अ० दे० ( ६ि० चिपटना ) चिपकना, सटना, आलिंगन करना, लिपटना, हाथ-पैर यदि सब अंगों को लगा Page #674 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चिमटा चिरौंजी कर दृढ़ता से पकड़ना, गुथना, पीछा या चिरना-अ० कि० दे० ( सं० चीर्ण) फटना, पिंड न छोड़ना। सीध में कटना, लकीर के रूप में घाव होना। चिमटा -- संज्ञा, पु० दे० (हि. चिमटना ) | चिरमिटी-संज्ञा, स्त्री० (दे०) गुंजा, एक यंत्र जिससे उस स्थान पर की वस्तुओं | धुंधुची । को पकड़ कर उठाते हैं जहाँ हाथ नहीं ले चिरवाई-संज्ञा, स्त्री० दे० ( हि० चिरवाना) जा सकते, दस्त-पनाह, कर-रक्षक । स्त्री० चिरवाने का भाव, कार्य या मज़दूरी। अल्पा० चिमटी । “चाह चिमटी हूँ सों | चिरवाना-स० कि० ( हि० चरिता का प्रे०) न बँचे खसकत है'-रत्ना। चीने का काम कराना, फड़वाना । चिमटाना-स० कि० दे० ( हि० चिमटना ) चिरस्थायी-वि० यौ० (सं० चिर स्थायिन् ) चिपकाना, सटाना, लिपटाना। बहुत दिनों तक रहने वाला, दृढ़। चिमड़ा--वि० (दे० ) चीमड़, कठिनता चिरस्मरणीय-वि० यौ० (स० ) बहुत से टूटने वाला। चिरंजीव-वि० यौ० ( सं० ) बहुत काल दिनों तक स्मरण रखने योग्य, पूजनीय । तक जीते रहो, पाशीर्वाद का शब्द यौ० चिरहटाा-संज्ञा, पु० ( दे. ) चिड़ीमार । चिरंजीवी भव, भूयात् ।। चिराई-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. चोरना) चिरंतन वि० ( सं० ) पुराना। चीरने का भाव, क्रिया या मज़दूरी, चिर-वि० (सं० ) बहुत दिनों तक रहने । चिरवाई। वाला । क्रि० वि० बहुत दिनों तक । संज्ञा, चिराग-संज्ञा, पु० (फा० ) दीपक, दिया। पु० तीन मात्रामों का ऐसा गण जिसका __ " था वही ले दे के उस घर का चिराग़ " प्रथम वर्ण लघु हो। चिराना–स० क्रि० (हि. चीरना का प्रे० चिरई -- संज्ञा, स्त्री. ( दे० ) चिड़िया, रूप) चीरने का काम दूसरे से कराना, चिरैय्या ( दे० )। " गगन चिरैय्या उड़त | फड़वाना लखावति'-सू०। चिरायध--संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० चर्म + चिरकना-अ. नि० दे० ( अनु० ) थोड़ा गंध ) चमडे, बाल, मांस श्रादि के जलने थोड़ा मल निकालना या हगना। की दुर्गधि । चिरकाल --- संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) दीर्घ चिरायता--संज्ञा, पु० दे० (सं० चिरतिक्त या काल, बहुत समय । वि० चिरकालीन चिरात् ) एक कड़वा पौधा (औष० )। बहुत समय का। चिरायु-- वि० यौ० (सं० चिरायुस् ) बड़ी चिरकीन-वि० (फा० ) गेंदा । उम्र वाला, दीर्घायु । चिरकुट-संज्ञा, पु० दे० सं० दिर। कुट्ट = | चिरारी- संज्ञा, स्त्री० ( दे० ) चिरौंजी । काटना) फटा-पुराना कपड़ा, चिथड़ा, गूदड़। चिरया - संज्ञा स्त्री० (दे०) चिड़िया । चिरचिटा--- संज्ञा, पु० (दे० ) चिचड़ा, अपामार्ग। चिरिहार--संज्ञा, पु० ( दे० ) चिड़ीमार । चिरजीवी-वि० यौ० (सं० ) बहुत दिनों चिरेता-संज्ञा, पु० (दे० ) एक औषधि, तक जीने वाला, अमर । संज्ञा, पु० ----विष्णु, कैफर कायफल । कौत्रा, मार्कंडेय ऋषि, अश्वत्थामा, वलि, चिरौंजी--संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० चार+वीज) व्याल, हनुमान, विभीषण, कृपाचार्य और पियाल वृक्ष के फलों के बीजों की गिरी परशुराम चिरजीवी माने गये हैं, (पु.)।। (मेवा)। For Private and Personal Use Only Page #675 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org चिरौरी " चिरौरी - संज्ञा, स्त्री० (दे० ) विनती, प्रार्थना, विनय, अनुनय, खुशामद । 'जसुदा करति चिरौरी .. सूर० । चिलक-संज्ञा, स्त्री० दे० ( हि० चलकना) क्रांति, युति, रह रह कर उठने वाला दर्द, टीस ( दे० ) चमक | चिलकना- - प्र० क्रि० दे० ( हि० चिल्ली ६६४ विजली या अनु० ) रह रह कर चमकना या दर्द उठना, चमचमाना । चिलकाना - स० क्रि० दे० ( हि० चिलक का प्रे० रूप० ) चमकाना, झलकाना । चिलगोजा -संज्ञा, पु० ( फ़ा० ) चीड़ या सनोवर का फल, मेवा । चिलचिल -संज्ञा, स्त्री० (दे० ) अबरक, अभ्रक । चिलचिलाना - अ० क्रि० (दे० ) शोरगुल मचाना, किकियाना, चिल्लाना, चंचल होना । चिलड़ा - संज्ञा, पु० (दे० ) घी लगाकर की रोटी, उल्टा, चिल्ला (दे० ) । चिलहाड़ा - वि० (दे०) जुधों या चिल्लरों से भरा हुआ । चिलता - संज्ञा, पु० दे० ( फ़ा० चिलतः ) एक कवच, लोहे का अँगरखा । चिलबिला - चिलबिल्ला - वि० दे० (सं० चल + वल ) ( स्त्री० चिलबिली, चिलबिल्ली ) चंचल, चपल । अ० क्रि० चिलविताना | चिलम चिलिम -संज्ञा स्त्री० ( फ़ा० ) कटोरी सा नलीदार मिट्टी का बरतन जिस पर तम्बाकू जला धुाँ पीते हैं । चिलमची - संज्ञा, स्त्री० (का० ) हाथ धोने कुल्ली करने का देग जैसा पात्र | वि० चिलम पीने वाला | चिलमन -- संज्ञा, स्त्री० ( फ़ा० ) बाँस की पाँचों का परदा, चिक । चिलहारा - वि० (दे० ) पंकिल, किचडाहा (दे० ) चीलर वाला चिटनी चिलहोरना - स० क्रि० ( दे० ) ठोकराना । चिलिक - संज्ञा, स्त्री० ( दे० ) मोच, दर्द, चिलक, चमक, टीस | चिल्लड़ - संज्ञा, पु० ( सं० चिल = वस्त्र ) की तरह का एक बहुत छोटा सफ़ेद कीड़ा, चिल्लर, चीलर (ग्रा० ) । चिल्लपों -- संज्ञा, स्त्री० यौ० (हि० चिल्लाना + अनु० पी० ) चिल्लाना, शोरगुल । चिलवाना -- स० क्रि० ( हि० चिल्लाना का प्रे० रूप ) चिल्लाने में दूसरे को प्रवृत्त करना या लगाना । चिल्ला - संज्ञा, पु० ( फ़ा० ) चालीस दिन का समय | मुह चिल्ले का जाड़ाबहुत कड़ी सरदी, चालीस दिन का बँधेन या किसी पुण्य कार्य का नियम । " धनके पंद्रा मकर पचीस चिल्ला जाड़ा दिन चालीस " - लो० । संज्ञा, पु० ( दे० ) एक जंगली पेड़, उड़द या मूंग घादि की घी लगा कर सेंकी हुई रोटी, चीला, उलटा, धनुष की डोरी, प्रत्यंचा । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ---- चिल्लाना - य० क्रि० दे० ( हि० चीत्कार ) ज़ोर से कीलना, शोर मचाना, हल्ला करना | संज्ञा, स्त्री० चिल्लाहट । चिल्ली - संज्ञा, स्त्री० (सं० ) झिल्ली कीड़ा | संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० चरिका ) बिजली, बज्र । चिल्हवाड़ा- संज्ञा, पु० (दे० ) पेड़ों पर चढ़ कर खेले जानेवाला बाल-खेल । चिहाना - अ० क्रि० ( दे० ) तंग होना, विराग उत्पन्न होना । For Private and Personal Use Only चिद्दिकना - अ० क्रि० (दे० ) पत्तियों या पहियों का बोलना, चेहेकना (दे० ) । चिहुँकनाळा - क्रि० प्र० (दे० ) चौंकना | चिहुँटना - स० क्रि० (सं० चिमिट हि० चिपटना ) चुटकी काटना। मुहा०-चित्त चिहुँटना-मर्म - स्पर्श करना, चित्त में चुभना । चिहुँटनी - संज्ञा, स्त्री० (दे०) घुंघची, गुंजा । Page #676 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org चिहुँटी चिहुँटी - संज्ञा, स्त्री० ( ? ) चुटकी, चिकोटी । चिर - संज्ञा, पु० (सं० चिकुर ) शिर के बाल, केश | संज्ञा, स्त्री० चिहुरी- चिभुरी चाभ, डाढ़ । ६६५ चिन्ह -- संज्ञा, पु० (सं० ) वह लक्षण जिससे किसी वस्तु की पहचान हो, निशान, पताका, मंडी, दाग, धब्बा । वि० चिन्हित | चीं चींचीं -संज्ञा स्त्री० ( अनु० ) पक्षियों अथवा छोटे बच्चों का बहुत महीन शब्द । च पड़-संज्ञा, स्त्री० अनु० ) विरोध में कुछ बोलना । चीं चींटा - संज्ञा, पु० ( दे० ) चिउँटा । स्त्री० चींटी । चीक ( चीख ) - संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० चीत्कार ) बहुत ज़ोर से चिल्लाने का शब्द, चिल्लाहट | चीकट - संज्ञा, पु० दे० ( हि० कीचड़ ) तेल का मैल, तलछट, लसार मिट्टी। संज्ञा, पु० (दे० ) चिकट नामक पहाड़ । वि० बहुत मैला या गंदा । चीकन - वि० (दे० ) चिकना, फिसलन, चिकन (ग्रा० ) । चीकना (दे० ) । चीकना-चीखना --म० क्रि० (सं० चीत्कार) ज़ोर से चिल्लाना, बहुत जोर से बोलना । चीखना -- स० क्रि० दे० (सं० चपण ) स्वाद जानने के लिये थोड़ी मात्रा में खाना, शोर करना | संज्ञा स्त्री० चीख । चीख-चीखल - सं० पु० ( दे० ) कीचड़ । चीखुर - संज्ञा पु० (दे० ) गिलहरी, कठबिल्ली, चूहा, मूसा चीज़ - संज्ञा स्त्री० ( फा० ) सत्तात्मक वस्तु, पदार्थ, द्रव्य, आभूषण, गहना, गाने की चीज़, गीत, विलक्षण या महत्व की वस्तु । चीठ संज्ञा स्त्री० ( दे० ) मैल, कीचड़ | कि ं गूदरी चीठ ।” – कबीर । चीठा - संज्ञा पु० (दे० ) चिट्ठा | संज्ञा स्त्री० चीठी-चिट्ठी । "राम लखन की करवर चीठी" - रामा० । C भा० श० को० ०-८४ चीना चीड़-चीढ़ - संज्ञा पु० दे० (सं० चीड़ा ) एक ऊँचा पेड़ जिसके गोंद से गंधा-पिरोजा र ताड़पीन का तेल निकलता है । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir " चीत - संज्ञा पु० दे० (सं० चित्रा ) चित्रा नक्षत्र | "हाथी चीत नखत के घाम थाहा । चित्त, चितावर, चीता । चीतना - सं० क्रि० दे० (सं० चेत ) ( वि० चीता ) सोचना, विचारना, चैतन्य होना, स्मरण करना, चेतना । स० कि० (सं० चित्र ) चित्रित करना या बेलबूटे बनाना । "श्रापुन चीती होय नहि" । चीतल - संज्ञा पु० दे० ( हि० चित्ती ) एक सफ़ेद चित्तीदार हिरन, चीता, अजगर की जाति का एक चित्तीदार साँप । चोता - संज्ञा पु० दे० (सं० चित्रक ) बाघ की जाति का एक हिंसक पशु, एक पेड़ जिसकी छाल और जड़ औषध के काम आती है । चितावर (दे० ) । संज्ञा पु० (सं० चित्त) चित्त, हृदय, होश | संज्ञा वि० ( हि० चेतना ) सोचा या विचारा हुआ । "मन का चीता कठिन है प्रभु चीता ततकाल"चीत्कार -- संज्ञा पु० (सं० ) चिल्लाहट, हल्ला, शोर, गुल चीख़ ! । चीथड़ा - चीथरा - संज्ञा पु० (दे०) चिथड़ा | चीथना - स० क्रि० दे० ( सं० चीर्ण ) चिथेड़ना, बकोटना, फाड़ना, नोचना, खरोचना, टुकड़े करना चीन - संज्ञा पु० (सं० ) झंडी, पताका, सीसा धातु, तागा, सूत, एक रेशमी कपड़ा, एक हिरन, एक साँवाँ, चेना, एक देश । चीनना - स० क्रि० (दे०) चीन्हना । " जामें तव रुचि चीनी " - ललित० । चीनांशुक - संज्ञा पु० (सं० ) चीन देश का रेशमी कपड़ा या लाल बनात । - चीना - संज्ञा पु० दे० (हि० चीन ) चीन देशवाली, एक साँवाँ, चना, चीनी कपूर । वि० चीन देश का । For Private and Personal Use Only Page #677 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चीना-बदाम चंघाना चीना-बदाम-संज्ञा पु० ( दे० ) मूंगफली। चीरफाड़-संज्ञा स्त्री० यौ० ( हि० चीर+ चीनिया- वि० (दे० ) चीन देश का। फाड़ ) चीरने-फाड़ने का काम या भाव, चीनी-संज्ञा स्त्री० दे० (चीन देश )+ई। शस्त्र-चिकित्सा, जर्राही। - प्रत्य० ) मिठाई का सफ़द चूर्ण जैसा चीरा-संज्ञा पु० दे० ( हि० चीरना ) पगड़ी सार, ईख के रस, चुकंदर, खजूर आदि से | का एक लहरियादार रंगीन कपड़ा, गाँव बना, शक्कर । वि. चीन देश का जैसे की सीमा पर पत्थर का खम्भा, चीर कर चोबचीनी आदि । बनाया हुआ क्षत या घाव, “चीरा सीस चीनी-मिट्टी-संज्ञा स्त्री० यौ० (हि. चोनी प्रागरे वाल"-पाल्हा० । +मिट्टी) एक सफ़ेद मिट्टी जिस पर पालिश | चीरी-संज्ञा स्त्री. (दे०) चिड़िया। कर बरतन, खिलौने आदि बनाते हैं। ज्ञा स्त्री० झींगुर । चीन्हीं-संज्ञा पु० (दे०) चिन्ह, चीन्हा | चीरता-संज्ञा पु० (दे०) चिरायता। (ग्रा० ) चिन्हारी-"मातु मोहिं दीजै | चीण-वि० (सं० ) फाड़ा या चीरा हुआ। कछु चीन्हा"-रामा०। चील-संज्ञा स्त्री० दे० (सं० चिल्ल ) गीध चीन्हना-स० क्रि० दे० (सं० चिन्ह ) पह- या गिद्ध की जाति की एक बड़ी चिड़िया, चानना। चील्ह (दे० )। चीन्हा-संज्ञा पु० दे० (सं० चिन्ह ) पहि- चीलड़-चीलर-संज्ञा पु० ( दे० )चिल्लड़ । चान, चिन्ह, निशानी। स० क्रि० (हि. चीला-संज्ञा पु० (दे०) उलटा नामक चीन्हना) जाना, पहिचाना। "कपटी पकवान, चिलड़ा। कुटिल मोहिं प्रभु चीन्हा-" रामा। चील्ही-संज्ञा स्त्री. (दे०) बाल-कल्याचीपड़-चीपर-संज्ञा पु० ( दे०) आँख का णार्थ स्त्रियों का एक तंत्रोपचार। “चील्ही मैल या कीचड़ । कर वाय राई नोन उतरायो है"- रघु० । चीमड-चीमर-वि० दे० (हि० चमड़ा ) जो चीवर--संज्ञा पु० (सं० ) सन्यासियों या खींचने, मोडने या झुकाने आदि से न फटे | भिक्षुकों का फटा-पुराना कपड़ा, बौद्ध सन्याया टूटे। सियों के पहनने के वस्त्र का ऊपरी भाग । चीयां-संज्ञा पु० (दे० ) चियाँ, इमली का चीवरी-संज्ञा पु० (सं० ) बौद्ध भिक्षुक, बीज। भिक्षुक । चीर-संज्ञा पु० (सं० ) वस्त्र, कपड़ा, वृक्ष | चीस-संज्ञा स्त्री० (दे० ) टीस।। की छाल, चिथड़ा, लत्ता, गौ का थन, | चुंगल-संज्ञा पु० दे० यौ० ( हि० चौ+ मुनियों या बौद्ध भिक्षुकों का कपड़ा, धूप अंगुल ) चिड़ियों या जानवरों का पंजा, का पेड़, छप्पर का ऊपरी भाग । संज्ञा स्त्री० चंगुल, किसी वस्तु को पकड़ने में मनुष्य के ( हि० चीरना ) चीरने का भाव या क्रिया, पंजे की स्थिति, पंजा। मुहा०—चंगुल में शिगाफ या दरार। फैसना (फँसाना)--वश में आना । चीर-चर्म ta संज्ञा पु० यौ० (सं० चीरचर्म ) | चंगुल में आना (पड़ना)-वश में होना। बाघाम्बर, मृगछाला। चंगी-संज्ञा स्त्री० दे० (हि. चुंगल) चुगल चीरना-स० कि० दे० (सं० चीर्ण) या चुटकी भर चीज़, शहर में आने वाले विदीर्ण करना, फाड़ना । मुहा०-माल बाहरी माल पर महसूल । यौ०-चंगीधर। या रुपया आदि चीरना-अनुचित रूप | चुंघाना-स० कि० दे० (हि. चुसाना ) से बहुत धन कमाना। चुसाना, चुगाना। For Private and Personal Use Only Page #678 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org चंडा चंडा - संज्ञा पु० (सं० ) ( स्त्री० अल्पा० चुंडी ) कूप, कुछ । चंडित - वि० ( हि० चुडी ) चुटिया या चंदो - संज्ञा स्त्री० दे० (सं० चूड़ा ) सिर पर की शिखा (हिन्दू) चुटैया । चोंदई ( ग्रा०, चोटी, चोटिया । चुंधलाना - अ० क्रि० दे० ( हि० चौ = चार + अंध) चौंधना, चकाचौंध होना । चुधियाना (दे० ) चौंधियाना । बुंधा - वि० दे० ( हि० चौ = चार + अंध ) जिसे सुझाई न पड़े छोटी छोटी आँखों वाला, चिमधा ( ग्रा० ) । चुंबक - संज्ञा पु० (सं० ) वह जो चुं अन करे, कामुक, कामी, धूर्त मनुष्य । यौ० ग्रन्थ-चुंबक-ग्रन्थों को केवल इधर उधर उलटने वाला, लोहे को अपनी ओर खींचने वाला एक पत्थर या धातु । चुंबन - संज्ञा पु० (सं० ) ( वि० चुंबित ) मादि अंगों hi | का स्पर्श, चुम्मा, बोसा | चुंबनीय | चुंबना - सं० क्रि० (दे० ) चूमना । चुंबित - वि० सं०) चूमा या प्यार किया हुआ, स्पर्श किया हुआ । चुंबी - वि० (सं० ) चूमने वाला । यौ० गगनचुंबी । चुना* - अ० क्रि० ( दे० ) चूना । चुमाई - संज्ञा स्त्री० दे० ( हि० चुक्राना ) चुआना या टपकाने की क्रिया या भाव। चुमान - संज्ञा स्त्री० दे० ( हि० चूना ) खाई, नहर, गड्ढा । चुआना - स० क्रि० ( हि० चूना = टपकना ) टपकना, बूँद २ गिराना, चुपड़ना, चिकनाना, रसमय करना, भबके से उतारना । चुकंदर - संज्ञा पु० ( फ़ा० ) गाजर की सी एक जड़ जो तरकारी के काम में आती है । चुक - संज्ञा पु० (दे० ) चूक । चुकचुकाना -म० क्रि० दे० ( हि० चूना | Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चुगलखोर टपकना ) किसी द्रव पदार्थ का बहुत बारीक छेदों से होकर बाहर आना, पसीजना | चुकता - वि० दे० ( हि० चुकना) बेवाक़, निःशेष, अदा (ऋण) भुगतान । वि० स्त्री० चुकती । चुकना - स० क्रि० दे० (सं० च्युत्कृत् ) समाप्त या ख़तम होना, बाक़ी न रहना, बेवाक या श्रदा होना, चुकता होना, तै होना, निबटना. चूकना, भूल करना, त्रुटि करना, खाली या व्यर्थ जाना, व्यर्थ होना, एक समाप्ति सूचक संयोज्य क्रिया । चुकाई - संज्ञा स्त्री० दे० ( हि० चुकता ) चुकने या चुकता होने का भाव । चुकाना - स० क्रि० दे० ( हि० चुकना ) किसी प्रकार का देना साफ़ करना, श्रदा या बेवाक करना, तै करना, ठहराना, भूल करना । " तेउ न पाय अस समय चुकाहीं" - रामा० । चुकौता -- संज्ञा पु० (दे०) निपटारा, नियम | चुक्कड़ - संज्ञा पु० (सं० चपक) पानी या शराब पीने का मिट्टी का गोल छोटा बरतन पुरवा, करई । चुक्कार - संज्ञा, पु० (दे० ) गर्जन, गरज | चुकी – संज्ञा, स्त्री० (दे० ) छली, धूर्तताई । धोखा, चाईंपन, निःशेष । चुकी - संज्ञा, स्त्री० (दे० ) नियम, निरूपण, परिमित, परिणाम, समाधान, निष्पत्ति । चुक - संज्ञा, पु० (सं० ) चूक नाम की खटाई महाल, खट्टा शाक, चूका (दे० ) काँजी । चुग़द - संज्ञा, पु० ( फा० ) उल्लू पक्षी, मूर्ख, बेवकूफ़ । 'हुमा को कब चुग़द पहचानता है" चुगना स० क्रि० दे० (सं० चयन ) चिड़ियों का चोंच से उठा कर खाना, चुनना । चुगलखोर - संज्ञा, पु० यौ० ( फा० ) पीठ पीछे शिकायत करने वाला, लुतरा | संज्ञा, स्त्री० चुगलखोरी | For Private and Personal Use Only Page #679 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चुगली - चुटेल चुगली-संज्ञा, स्त्री. (फा० ) किसी की ज़रा सा । चुटकियों में (पर) उड़ाना ... अनुपस्थिति में उसकी निन्दा। अत्यन्त तुच्छ या सहज समझना, कुछ न चुगाई-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि० चुगाना+ई- जानना। चुटकी भर पाटा-थोड़ा प्रत्य०) चुगने या चुगाने का भाव या क्रिया।। श्राटा । चुटकी माँगना- भिक्षा माँगना । चुगाना-स० क्रि० दे० (हि. चुगना ) चुटकी बजने का शब्द, अँगूठे और चिड़ियों को दाना या चारा डालना। तर्जनी के संयोग से किसी प्राणी के चमड़े चुगुल -संज्ञा, पु० (दे० ) चुग़ली। । को दबाने या पीड़ित करने की किया। चुचकारना—स० कि० दे० ( अनु० ) मुहा०-चुटकी भरना-चुटकी काटना, चुमकारना। चुभती या लगती हुई बात कहना । चुटकी चुचकारी -संज्ञा, स्त्री० दे० ( अनु०) चुच. लेना हँसी या दिल्लगी उड़ाना, चुभती कारने या चुमकारने की क्रिया या भाव, या लगती हुई बात कहना, अँगूठे और चुचकार, चुमकार । अँगुली से मोड़ कर बनाया हुआ गोखुरी, चुचाना*-. क्रि० ब० (सं० च्यवन ) गोटा या लचका, बंदूक के प्याले का ढकना चूना, टपकना, रसना, निचुड़ना । चुचुअाना या घोड़ा। (दे० ) "प्रेम परयो चपल चुचाइ पुतरीनि चुटकुला-संज्ञा, पु० दे० (हि. चोट+ कला) सों'-रत्ना०। चमत्कार-पूर्ण उक्ति, मज़ेदार बात । मुहा० चुचुक-संज्ञा, पु० (दे०) स्तन का अग्रभाग। --चुटकुला छोड़ना--हँसी या दिल्लगी चुचुकना चुचकना-अ. क्रि० दे० (सं० । की बात कहना, कोई ऐसी बात कहना शुष्क-ना-प्रत्य०) ऐसा सूखना जिसमें | जिपसे एक नया मामला खड़ा हो जाय, झुर्रियाँ पड़ जायँ, तुचकना (ग्रा० )। दवा का कोई छोटा गुणकारी नुसखा, लटका। चुच्चड़-संज्ञा, पु. (दे०) बड़ी चूँची, | चुटफटा---संज्ञा स्त्री० दे० (हि० ) स्फुट या मोटे स्तन। फुटकर वस्तु, चुटपुट (दे०)। चुटकी-संज्ञा, पु० दे० (हि० चोट) कोड़ा, | चुटाना-- अ. क्रि० (दे०) चोट लगना, चाबुक । संज्ञा, स्त्री० अनु० चुट२) चुटकी। चुटैल होना, चोटाना ( दे०)। चुटकना- स० कि० दे० (हि. चोट ) कोड़ा। चुटिया - संज्ञा, स्त्री० दे० (हि० चोटी) बालों या चाबुक मारना । (दे०) बहुत बोलना। की वह लट जो सिर के बीचोबीच रखी स. क्रि० दे० (हि. चुटकी ) चुटकी से | जाती है, शिखा, चोटी ( हिन्दू ), चोटिया, तोड़ना. साँप काटना। चुटइया ( दे० ) चांदई (ग्रा.)। चुटका-संज्ञा, पु० दे० ( हि० चुटकी ) बड़ी | चुटियाना-स० कि० (दे०) घाव या चुटकी, चुटकी भर अन्न । स्त्री० चुटको। आक्रमण करना, चोटी पकड़ कर जबरदस्ती चुटकी-संज्ञा, स्त्री० दे० ( अनु० चुट चुट) | ले जाना, चोटियाना (दे०)। किसी वस्तु को पकड़ने, दबाने या लेने | चुटीला-वि० दे० (हि० चोट ) जिसे चोट आदि के लिये अँगूठे और पास की अंगुली __ या घाव लगा हो, चोटोला। संज्ञा, पु. का अँगूठे से मेल । मुहा०-चुटकी (हि. चाट) अगल-बगल की पतली चोटी, बजाना-अँगूठे की बीच की अँगुली पर मेड़ी । वि० सिरे का, सबसे बढ़िया । रख कर ज़ोर से छटका कर शब्द निकालना। चुटैल-वि० दे० (हि. चाटी ) जिसे चोट चुटकी बजाते-चटपट, देखते देखते, लगी हो, घायल.. चोट या आक्रमण बात की बात में । चुटकी भर- बहुत थोड़ा, करने वाला। For Private and Personal Use Only Page #680 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चुड़िहारा चुपाना चुडिहारा-संज्ञा, पु० दे० (हि. चूड़ी + हारा चुनाव-संज्ञा, पु० दे० (हि० चुनना ) चुनने प्रत्य०) चूड़ी बेचने वाला, चुरिहार, मनिहार। का काम, बहुतों में से कुछ को किसी कार्य स्त्री०-चुड़िहारिन । के लिये पसन्द या नियुक्त करना, चुन्नट । चुडैल-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० चूड़ा + ऐल- चुनिदा -वि० ( हि० चुनना + इंदा-प्रत्य०) प्रत्य० ) भूतनी, प्रेतनी, डाइन, पिशाचिनी, चुना या छटा हुआ, बढ़िया। कुरूपा, दुष्टा या क्रूर स्त्री। चुरैल (ग्रा.)। चुनो- संज्ञा, स्त्री. ( दे० ) चुन्नी। क्रि० वि० चुनचुना-वि० दे० (हि. चुनचुनाना ) (हि० चुनना ) छटी हुई, चुन्नटदार। जिसके छूने या खाने से जलन लिये ए चुनोटी-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. चूना + प्रोटी पीड़ा हो। संज्ञा, पु. सूत के से महीन प्रत्य० ) चूना रखने की डिबिया। संज्ञा, पु० सफ़ेद पेट के कीड़े, चुन्ना (ग्रा०)। -चुनाटा। चुनचुनाना-अ.क्रि. ( अनु० ) कुछ चुनौती संज्ञा, स्त्री० दे० ( हि० चुनचुनाना जलन लिये हुए चुभने की सी पीड़ा होना। वा चूना ) उत्तेजना, बढ़ावा, चिट्टा, युद्ध के संज्ञा, स्त्री० -चुनचुनाहट। लिये बुलवाना, ललकार, प्रचार । ..."मनहु चुनचुनी-संज्ञा, स्त्रो० (दे०) खुजलाहट, चुनौती दोन्ही'-रामा० । चुन्नी-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० चूर्ण ) मानिक, कंडू, खुजली। हीरा, याकूत या और किसी रत्न का बहुत चुनट-चुनन--संज्ञा, स्त्री० दे० (हि० चुनना) छोटा सा टुकड़ा, बहुत छोटा नग, अनाज दाब पाकर कपड़े, काग़ज़ आदि पर पड़ी का चूर चूनी (दे०) लकड़ी का बहुत सिकुड़न, सिलवट, शिकन, चुन्नट । बारीक चूर, कुनाई, चमकी, सितारा । चुनना-स० कि० दे० ( स० चयन ) छोटी चुप-वि० दे० (सं० चुप चोपन-मौन ) वस्तुत्रों को हाथ, चोंच आदि से एक एक अवाक, मौन, ख़ामोश । यो०-चुपचाप करके उठाना । छाँट छाँट कर अलग करना, मौन, खामोश, शान्त भाव से, बिना चञ्चबहुतों में से कुछ को पसन्द करके लेना। लता के, धीरे से, छिपे छिपे, निरुद्योग, तरतीब से लगाना या सजाना, जुड़ाई करना, प्रयत्न हीन, विरोध में कुछ कहे बिना, बिना दीवार उठाना । मुहा०-दीवार में चुनना चींचपड़ के । संज्ञा, स्त्री० मौनावलंबन, । संज्ञा -किसी मनुष्य को खड़ा करके उसके ऊपर स्त्री० (दे०) त्रुप्पी । मुहा०--चुप लगाना, इंटों की जुड़ाई करना, कपड़े में चुनन या चुप्पी साधना-चुप रहना या बैठना । सिकुड़न डालना। प्रे० रूप चुनवाना, चुपका-वि० (हि. चुप ) खामोश, मौन, चुनाना । संज्ञा पु० चुनाव । जुप रहने वाला। मुहा०-चुपके सेचुनरी-संज्ञा, स्त्री० दे० ( हि० चुनना ) बद- बिना कुछ कहे सुने, गुप्त रूप से, धीरे से। कीदार रंगीन कपड़ा, याकूत, चुन्नी, चूनरि, स्त्री० चुपकी। .. "चूनरि बैजनी पैजनी पाँयन"--- द्विजः । चुपड़ना-स० क्रि० दे० (हि. चिपचिपा) चुनाई-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. चुनना) चुनने किसी गीली या चिपचिपी वस्तु का लेप की क्रिया या भाव, दीवार की जुड़ाई या __करना, जैसे रोटी पर घी चुपड़ना, किसी दोष उसका ढंग, चुनने की मज़दूरी । के दूर करने को इधर-उधर की बातें करना, चुनाना---स० कि० दे० (हि. चुनना का चिकनी चुपड़ो कहना, चापलूसी करना। प्रे० रूप ) चुनने का काम दूसरे से कराना, | चुपाना *~-अ० क्रि० दे० (हि. चुप ) चुप चुनवाना। { हो रहना, मौन रहना। प्रे० रूप चुपवाना। For Private and Personal Use Only Page #681 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ६७० चुप्पा चुलचुली चुप्पा-वि० दे० (हि. चुप ) जो बहुत | वस्तु का पकना, सीझना, आपस में गुप्त कम बोले, बुन्ना । स्त्री० चुप्पी। मंत्रण या बातचीत होना । चुबलाना, चुभलाना-स० कि० दे० चुरमुर-संज्ञा, पु० दे० (अनु०) खरी या कुर( अनु० ) स्वाद लेने को मुंह में रख कर कुरी वस्तु के टूटने का शब्द । वि. चुरमुराइधर उधर डुलाना । चबलाना (दे०)। करारा, खरा। चुभकना-अ० कि० दे० ( अनु० ) गोता. चुरमुराना--अ० कि० दे० (अनु०) चुरमुर खाना, डूबना। शब्द करके टूटना । स० कि० (अनु०) चुभकी-संज्ञा, स्त्री० दे० ( अनु० ) डुब्बी, चुरमुर शब्द करके तोड़ना, करारी या खरी गोता, डुबकी। चीज चबाना। चुभना- अ० क्रि० ( अनु०) किसी नुकीली चुरवाना–स० कि० ( हि० चुराना = पकानावस्तु का दबाव पाकर किसी नरम वस्तु के प्रे० रूप ) पकाने का काम कराना । स० भीतर घुसना, गड़ना, धंसना, हृदय में कि. (दे०) चोरवाना । खटकना, मन में व्यथा उत्पन्न करना, मन चुरा*-संज्ञा, पु० ( दे०) चूरा, कि० वि० में बैठना या पैठना । पका हुआ। चभाना (चुभोना)-स० क्रि० दे० (हि. चुराना - स० क्रि० दे० ( स० चुर = चोरी चुभना का प्रे० रूप ) फँसाना, गड़ाना । प्रे० करना ) गुप्त रूप से पराई वस्तु का हरण रूप-चुभवाना। करना, चोरी करना, बोराना (दे०)। चुमकार --संज्ञा, स्त्री० दे० ( हि० चूमना+ मुहा० -- चित्तचुराना---मनमोहित करना, कार ) चूमने का सा शब्द जो प्यार दिखाने लोगों की दृष्टि से बचना, छिपना । मुहा० के लिये निकालते हैं, पुचकार । आँख चुराना-नज़र बचाना, सामने चुमकारना–स० क्रि० दे० (हि. चुमकार ) मुँह न करना, काम के करने में कसर प्यार दिखाने के लिये चूमने का सा शब्द करना । स० क्रि० (हि. चुरना ) खौलते निकालना, पुचकारना, दुलारना । पानी में पकाना, सिझाना। चुम्मा-संज्ञा, पु. ( दे०) चुंबन, चूमा। चुरी --संज्ञा, स्त्री० ( दे०) चूड़ी, चूरी । चुर--संज्ञा, पु० ( दे० ) बाघ आदि के रहने | क्रि० वि० पकी, उबली। का स्थान, माँद, बैठक । *वि० (सं० प्रचुर। चुरुगना-अ. क्रि० (दे० ) बड़बड़ान । बहुत, अधिक। चुरुट - संज्ञा, पु० दे० ( अं० शोरूट ) तंबाकू चुरकना-म० कि. ( अनु० ) चहकना, की पत्ती या चूर की बत्ती जिसका धुंआ ची ची करना, (व्यङ्ग या तिरस्कार), लोग पीते हैं, सिगार ( अं० )। चटकना, टूटना। चुरू -संज्ञा, पु० (दे०) चुल्लू । चरकी-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि० चोटी ) चुल --संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० चल == चंचल) चुटिया । किसी अंग के मले या सहलाये जाने की चुरकुट-चुरकुस-वि० दे० ( हि० चूर+ इच्छा, खुजलाहट, किवाड़ का चूल । कूटना ) चकना चूर, चूर चूर. चूर्णित । चुलचुलाना---० क्रि० दे० (हि. चुल ) चुरगाना-स० क्रि० (दे०) बकना, चिल्लाना खुजलाहट होना, चुलबुलाना, चञ्चलता चे चे करना। करना । संज्ञा स्त्री० चलचुलाहट । चुरना --अ० कि० दे० (सं० चूर-न-जलना, चुलचुली-संज्ञा स्त्री० दे० (हि० चुलचुलाना) पकना ) पाँच पर खेलते हुए पानी में किसी खुजलाहट, चपलता, चुलबुली। For Private and Personal Use Only Page #682 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चुलबुला चूक चुलबुला-वि० दे० (सं०चल + बल) चंचल, | चुस्त-वि० ( फा० ) कसा हुआ, जो ढीला चपल, नटखट । स्त्री. चुलबुली। न हो, संकुचित, तंग, निरालस्य तत्पर, चुलबुलाना-अ. क्रि० (हि० चुलबुल ) फुरतीला, चलता हुश्रा, दृढ़, मजबूत, चुलबुल करना, रह रह कर हिलना, चंचल लो०-मुद्दई सुस्त, गवाह चुस्त । यौ० होना, चपलता करना । संज्ञा, स्त्री०-चुल- चुस्तचालाक। बुलाहट, चुलबुली। चुस्ती-संज्ञा स्त्री. ( फा० ) फुरती, तेज़ी, चुलबुलाएन-संज्ञा पु० (हि. चुलबुला+ कसावट, तंगी, दृढ़ता, मज़बूती। यौ० पन ( प्रत्य०) चंचलता, शेखी । चुस्ती-चालाको। चुलबुलिया-वि० (हि. चुलबुल -+ इया- चुस्सी-संज्ञा स्त्री० (दे० ) फल का रस । प्रत्य०) चुलबुल, चंचल, चिलबिल्ला ।। | चुहँटी-संज्ञा स्त्री० (दे०) चुटकी। चुलहाई-वि० (दे०) कामातुर, लम्पट, चुहचुहा-वि० (अनु० स्त्री. चुहचुही ) व्यभिचारी। चुहचुहाता हुश्रा, रसीला, शोख़, रंगीला । चुलहारा - वि० (दे० ) कामुक, कामातुर। चुहचुहाता। चुलाना--स० क्रि० (दे०) चुवाना। चुहचुहाना-अ० क्रि० दे० (अनु० ) रस चुलियाला----संज्ञा, पु. (?) एक मात्रिक टपकना, चटकीला, चिड़ियों का बोलना छंद। चहचहाना। चुल्ला-- वि० (दे०) चुंधला, चुंधा, तिरमिरा। चुहचुही- संज्ञा स्त्री० (अनु०) चमकीले काले चुल्लू-संज्ञा पु० दे० (सं० चुलुक ) गहरी की रंग की एक बहुत छोटी चिड़िया फुलचुही। हुई हथेली जिसमें भर कर पानी आदि पी चुहटना- स० क्रि० (दे०) रौंदना, कुचलना। सकें । मुहा०-चुल्लू भर पानी में डूब चुहल-संज्ञा स्त्री. ( अनु. चहचह-चिड़ियों मरना-मुँह न दिखाना, लज्जा से मरना । की बोली ) हंसी, ठठोली, मनोरंजन | चुवना-अ० कि० (दे० ) चूना, टपकना । चुहलबाज-वि० (हि. चुहल + फा० बाज़ चुवाना--स० क्रि० (हि. चूना का प्रे० प्रत्य०) ठठोल, मसखरा, दिल्लगीबाज़ । रूप ) बूंद बूंद करके गिराना, टपकाना। । वि० चुहला- (दे०) स्त्री० चुहली। चसकी-संज्ञा स्त्री० दे० (हि० चूसना) चष्टिया- संज्ञा स्त्री० ( हि० चूहा ) चूहा का होंठ से लगाकर थोड़ा थोड़ा करके पीने की | स्त्री० और अल्प रूप। क्रिया, सुड़क, चूट, दम चूसना । चुहँटना -स. कि. (दे०) चिमटना। चुसकर-वि० (दे०) चूसने या पीने वाला। चुहँटनी-संज्ञा स्त्री० (दे०) चिरमिटी। चुसना---० कि० दे० (हि० चूसना) चूसा | चूँ-संज्ञा पु० ( अनु० ) छोटी चिड़ियों के जाना, निचुड़ या निकल जाना, सार-हीन | बोलने का चूँ शब्द । मुहा०-चूँ करना. होना, देते देते पास में कुछ न रह जाना। कुछ कहना, प्रतिवाद करना, विरोध में चुसनी---संज्ञा स्त्री० दे० (हि० चूसना ) बच्चों कुछ कहना। के चूसने का एक खिलौना, दूध पिलाने की | चूँकि--क्रि० वि० (फा ) इस कारण से शीशी। कि, क्योंकि, इसलिये कि। चुसाना-स० क्रि० दे० (हि० चूसना का चॅदरी (चंदरी)-संज्ञा स्त्री. ( दे.) प्रे० रूप ) चूसने का काम दूसरे से कराना, चुनरी, चूनरी, चनरि। चुसवाना । संज्ञा स्त्री० चुसाई । चूक-संज्ञा स्त्री० दे० (हि० चूकना ) भूल, For Private and Personal Use Only Page #683 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चूकना चूनी गलती, कपट, धोखा, छल । संज्ञा पु० (सं० स्वामी के मरने पर स्त्री का अपनी चूड़ियाँ चूक ) नीबू, इमली, अनार श्रादि खट्टे | उतारना, या तोड़ना : चूड़ियाँ पहनना फलों के रस से बना गाढ़ा अत्यन्त खट्टा - स्त्रियों का वेष धारण करना ( व्यंग पदार्थ, एक खट्टा शाक, अत्यधिक खट्टा। । और हास्य ) फोनोग्राफ़ या प्रामोफ़ोन चूकना-अ. क्रि० (सं० च्युत्कृत प्रा० चूकि)। बाजे के गाने भरे रेकार्ड। भूल या ग़लती करना, लयभ्रष्ट होना, चूडीदार- वि० दे० (हि. चूड़ी--दार फा०) सुअवसर खो देना। " चौक पर चूक गया | जिसमें चूड़ी या छल्ले अथवा इसी श्राकार सौदागर' “समय चूकि पुनि का पछिताने" के घेरे पड़े हों । यो०-चूडीदारपायचुका- संज्ञा पु० (सं० चूक ) एक खट्टा जामा--एक चुस्त या कड़ा पायजामा । शाक । वि० ( हि० चूकना ) (खो० चकी) चूत-संज्ञा पु. ( सं० ) श्राम का पेड़ । भूल या ग़लती करने वाला। "ौसर पाम्रश्चूतो रसालः।"- अमर० । संज्ञा चूकी डोमिनी गावे सारी रैन" स्फुट ।। स्त्री० दे० (सं० च्युति ) योनि, भग। चूची (चंची)-संज्ञा स्त्री० (सं० चूचुक ) | चूतड़- संज्ञा पु० दे० ( हि० चूत+तल ) स्तन, कुच । पीछे की भोर कमर के नीचे और जाँघ के चँजा-संज्ञा पु० (फा० । मुरगी का बच्चा।। ऊपर का मांसल भाग, नितम्ब, चूतर (दे०) चूड़ांत--वि० यौ० (सं० ) चरम सीमा । | चूतिया-संज्ञा पु० (दे०) मूर्ख, नासमझ । क्रि० वि० अत्यन्त, अधिक, बहुत । चून-संज्ञा पु० दे० (सं० चूर्ण ) आटा, चूड़ा-संज्ञा स्त्री० (सं०) चोटी, शिखा, पिसान, चूना । "मोती मानुस चून" रही। चुरकी, मोर के सिर की चोटी, कुआँ, गुंजा, चूनर-वुनरी-संज्ञा स्त्री. (दे०) चुनरी. धुंधची, बाँह का एक गहना, चूड़ा ( कर्म ) चॅदरि चूनरि, चूनरी ( दे० )। करण नामक एक संस्कार । संज्ञा पु० चूना-संज्ञा पु० दे० (सं० चूर्ण) एक तीचण (सं० चूड़ा ) कंकन, कड़ा, हाथी दाँत की और सफेद क्षारभस्म जो पत्थर, कंकड़, शंख, चूड़ियाँ। मोती आदि पदार्थो को भट्टियों में फूंक कर चूड़ाकरण-संज्ञा पु० यौ० (सं० ) बच्चे बनाया जाता है, चून । अ० कि० दे० (सं० का पहले पहल सिर मुड़वा कर चोटी रख- च्यवन ) किसी द्रव पदार्थ का बूंद बूंद होकर वाने का संस्कार मुंडन । " धूमधाम सों नीचे गिरना, टपकना, रसना (दे० ) किसी नंद महरि ने चूड़ा करण करायो", सूर० । वस्तु विशेषतः फल श्रादि का अचानक ऊपर चूडाकर्म--संज्ञा पु० यौ० (सं०) चूड़ा- से नीचे गिरना, गर्भपात होना, किसी करण, मुंडन । “चूडाकर्म कीन्ह गुरु श्राई" वस्तु के छेद या दराज से होकर द्रव पदार्थका -रामा०। बंद बंद गिरना ।—वि० (हि० चूना ( कि० चूडामणि संज्ञा पु० यौ० (सं० ) सिर का अ.) जिसमें किसी वस्तु के चूने योग्य छेद सीस फूल, बीज, सर्वोत्कृष्ट, सब से श्रेष्ठ, | या दराज हो। शिरोमणि, चुरामनि (दे० , " चूड़ामणि चुनादानी-चूनदानी-संज्ञा स्त्री० (हि. उतारि तब दयऊ"-- रामा० । चूना-फा० दान ) चूना रखने की डिबिया, चूड़ी-संज्ञा स्त्री० दे० ( हि० चूड़ा ) गोला- चुनौटी, चुनहटी (ग्रा० )। कार वस्तु, गोल पदार्थ, हाथ का एक वृत्ता- चनी - संज्ञा स्त्री० दे० (सं० चूर्णिका ) कार गहना, चूरी, चुरी (दे०) मुहा०---- अन्न का छोटा टुकड़ा, अन्न-कण, चुन्नी, चूड़ियाँ ठंढी करना या तोड़ना- यौ० चूनी-भूसी, चूनी-चोकर । For Private and Personal Use Only Page #684 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चूमना चंचे चूमना-स० क्रि० दे० (सं० चुंबन ) होंठों सिरा जो किसी दूसरी लकड़ी के छेद में उसे से (किसी दूसरे के) गाल आदि अंगों | जोड़ने के लिये ठोंका जाय, खाट का चूल । या किसी पदार्थ का स्पर्श करना या दबाना | चूलिका-संज्ञा, स्त्री० (सं०) नाटक में चुम्मा या बोसा लेना, प्यार करना । यौ० नेपथ्य से किसी घटना की सूचना । चूमना-चाटना। चूल्हा---संज्ञा, पु० दे० (सं० चूल्लि) मिट्टी, चमा--संज्ञा पु० दे० (सं० चुंवन हि० चूमना), लोहे आदि का वह पात्र जिसमें नीचे भाग चूमने की क्रिया का भाव, चुंबन, चुम्मा। जला कर भोजन पकाया जाता है। यौ० चूमाचाटी-संज्ञा, स्त्री० यौ० (हि० चूमना चूल्हा-न्यौता-सब घर का निमन्त्रण । +चाटना) चूमचाट कर प्रेम दिखाने की मुहा०-चूल्हा जलना-भोजन बनना । एक क्रिया। चूल्हा फूकना-भोजन पकाना। चूल्हे चूर-संज्ञा, पु० दे० (सं० चूर्ण) किसी | में जाना या पड़ना-नष्ट-भ्रष्ट होना। पदार्थ के बहुत छोटे या महीन टुकड़े चूषण-संज्ञा, पु० ( सं० ) चूसने की क्रिया । जो उसे तोड़ने, कूटने आदि से हों, बुकनी। वि० चूषणीय । चूरा (दे०)। वि० तन्मय, निमग्न, चूष्य- वि० (सं०) चूसने के योग्य । तल्लीन, मद-विह्वल । यो०-चिन्ताचूर । | चूसना-स० क्रि० दे० (सं० चूषण ) जीभ नशे में बहुत मस्त। और होंठ के संयोग से किसी पदार्थ का चूरन-संज्ञा, पु० (दे० ) चूर्ण । "श्रमिय- रस पीना, सार भाग ले लेना, धीरे २ मूर मय चूरन चारू"- रामा०। शक्ति या धन आदि लेना। चूरना -स० कि० दे० (सं० चूर्णन) चूहड़ा--संज्ञा, पु० दे० (?) भंगी या चूर चूर या टुकड़े टुकड़े करना, तोड़ना, | मेहतर, चण्डाल, श्वपच, चहर (ग्रा.)। पीसना । स्त्री० चूहड़ी। चूरमा-संज्ञा, पु० दे० (सं० चूर्ण) रोटी चूहा-संज्ञा, पु० दे० (अनु० ~ +हाया पूरी के चूर और धी-चीनी से बना खाद्य प्रत्य० स्त्री. अल्प० वुहिया ), चूही श्रादि पदार्थ । एक छोटा जंतु जो प्रायः घरों या खेतों में चूरा--संज्ञा पु० दे० (सं० चूर्ण) चूर्ण, बिल बना कर रहता और अन्न आदि खाता बुरादा, चूर । चूर्ण-संज्ञा पु० ( सं० ) सूखा पिसा हुआ है। मूसा, मूस (दे०)। अथवा बहुत ही छोटे छोटे टुकड़ों में किया | चूहादन्ती-संज्ञा, स्त्री० यौ० ( हि० चूहा + हुआ पदार्थ, बुरादा, सफूफ, बुकनी, पाचक दांत ) स्त्रियों की एक पहुंची। औषधों का बारीक चूरन, तोड़ा-फोड़ा या | चूहादान-संज्ञा, पु. (हि० चूहा+फा० नष्ट-भ्रष्ट किया हुना। दान ) चूहों के फंसाने का पिजड़ा। स्त्री० चूर्णक- संज्ञा पु० (सं०) सत्त, सतुश्रा (दे०)। चूहेदानी। छोटे २ शब्दों से युक्त तथा लंबी समासों | चें-संज्ञा, स्त्री० ( अनु० ) चिड़ियों के बोलने से रहित गद्य-रचना, धान । का शब्द, चे, ची ची।चूर्णा--संज्ञा स्त्री० (सं० ) आर्या छंद का चंच-संज्ञा, पु० दे० (सं० चंचु०) एक देसवाँ भेद। प्रकार का शाक। चूर्णित-वि० (सं० ) चूर्ण किया हुआ। चंचें- संज्ञा, स्त्री. ( अनु०) चिड़ियों या चूल-संज्ञा, पु० (सं०) शिखा, बाल । संज्ञा उनके बच्चों का शब्द, चींची, व्यर्थ का स्त्री० ( दे.) किसी लकड़ी का वह पतला । बकना, बकवाद । भा० श. को०-१५ For Private and Personal Use Only Page #685 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चंटुआ चेपली चेटुआ-संज्ञा, पु० दे० (हि. चिड़िया) “तब ना चेता केवला जब ढिग लागी चिड़िया का बच्चा। बेर"-स्फु०। चे-संज्ञा, स्त्री० दे० ( अनु०) चिल्लाहट, चेतावनी-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. चेतना) असन्तोष की पुकार, बकबक ।। किसी को होशियार करने के लिये कही चेकितान-संज्ञा, पु० (सं०) महादेव, गई बात, सतर्क होने की सूचना । एक प्राचीन राजा । " सृष्टकेतुश्चेकितानः | चेतिका*-संज्ञा, स्त्री० दे० ( सं० चिति) काशिराजश्च वीर्यवान् "-गीता। मुरदा जलाने की चिता, सरा। चेचक संज्ञा, स्त्री० (फा०) शीतला रोग। चेदि-संज्ञा, पु० (सं०) एक प्राचीन देश, इस चेचकरू-संझा, पु० (फा०) शीतला के देश का राजा. इस देश का निवासी, चंदेरी। दाग़ वाला। चेदिराज-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) शिशुपाल । नेट-संज्ञा, पु० (सं०) (स्त्री० चेटी या चेटिका) | चेना--संज्ञा, पु० दे० (सं० चणक ) कँगनी दास, नौकर , पति, स्वामी, नायक और या साँवा की जाति का एक मोटा अन्न, नायिका को मिलाने वाला मैं डुवा, भाँड़। चेटक-संज्ञा, पु. (सं०) सेवक, दास, चेप-संज्ञा, पु० ( चिपचिप से अनु० ) कोई चटक-मटक, दूत, जादू या इन्द्रजाल की गाढ़ा चिपचिपा या लसदार रस, चिड़ियों विद्या । स्त्री० चेटकनी । स्त्री० चेटको।। __के फंसाने का लासा। चेटकी-संज्ञा, पु० (सं०) इन्द्रजाली, जादू चेपदार-वि० ( हि० चेप+दार फा०) गर, कौतुकी। संज्ञा, स्त्री० चेटक की स्त्री। जिसमें चेप या लस हो, चिपचिपा । चेटी-संज्ञा, स्त्री. ( सं० ) दासी, चेटिका।। ।। चेर-चेरा -संज्ञा, पु० दे० (सं० चेटक ) चेड़क-चेड़ा-संज्ञा, पु० (दे०) दास, चेला। नौकर, सेवक, चेला, शिष्य । (स्त्री० चेरी) चेत-अव्य० (सं०) यदि, अगर, शायद, | चेराई -संज्ञा, स्त्री. (हि. चेरा-+-ई ) कदाचित् । दासत्व, सेवा, नौकरी। चेत--संज्ञा, पु० (सं० चेतस् ) चित्त की चेरी (चेरि )*-संज्ञा, स्त्री. ( दे० ) वृत्ति, चेतना। संज्ञा, होश, ज्ञान, बोध, सावधानी, चौकसी, स्मरण, सुधि । “उग्यौ दासी । “चेरी छाँड़ि कि होउब रानी" "चेरि केकई केरि"--रामा० । सरद राका ससी, करति न क्यों चित चेत"-वि० । विलो० अचेत। चेल-संज्ञा, पु० (सं० ) कपड़ा, वस्त्र ।। चेतन-वि० (सं०) जिसमें चेतना हो। चेलकाई-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. चेला ) संज्ञा, पु. प्रात्मा, जीव, मनुष्य, प्राणी, चेलहाई। जीवधारी, परमेश्वर। चेलहाई-संज्ञा, स्त्री० (हि० चेला + हाई चेतनता-संज्ञा, स्त्री. (सं० ) चेतन का प्रत्य० ) चेलों का समूह, शिष्य वर्ग। धर्म, चैतन्यता, ज्ञानता। चेला- संज्ञा, पु० दे० ( सं० चेटक ) धार्मिक चेतना-संज्ञा, स्त्री. (सं० ) बुद्धि, मनो- उपदेश लेने वाला शिष्य, शिक्षा-दीक्षा वृत्ति (ज्ञानात्मक ) स्मृति, सुधि, चेतनता, प्राप्त, शागिर्द, विद्यार्थी । स्त्री० चेलिन, संज्ञा, होश । अ० कि० दे० (हि० चेत+ चेली । “आपु कहैं तिनके गुरु हैं किधौं ना प्रत्य०) संज्ञा में होना, होश में आना, चेला हैं'–० श०। सावधान या चौकस होना । क्रि० स० चेवली-संज्ञा, स्त्री० (दे०) रेशमी वस्त्र विचरना, समझना। विशेष, चेली का बना वस्त्र । For Private and Personal Use Only Page #686 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चेल्हवा ६७५ .... चौधर चेल्हवा-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० चिल मछली)। चैत्ररथ-संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) कुबेर के एक छोटी मछली। बाग का नाम । चेष्टा-संज्ञा, स्त्री० (सं०) शरीर के अंगों | चैद्य-संज्ञा, पु० (सं०) चेदि देश का राजा, की गति, या अवस्था जिससे मन का भाव शिशुपाल । प्रगट हो, उद्योग, प्रयत्न, कार्य, श्रम, चैन-संज्ञा, पु० दे० (सं० शयन ) पाराम, इच्छा, कामना। सुख । “ रैन-दिन चैन है न सैन इहि चेहरा-संज्ञा, पु० (फा०) सिर का अगला उहिम मैं"- रत्ना० । मु०-चैन उड़ाना भाग जिसमें मुख, आँख, नाक श्रादि रहते | -आनन्द करना । चैन पड़ना-शान्ति हैं. मुखड़ा । (दे०) यौ०-चेहराशाही- या सुख मिलना । वह रुपया जिस पर किसी बादशाह का चैल-संज्ञा, पु० (सं० ) कपड़ा, वस्त्र । चेहरा बना हो, प्रचलित रुपया । मुहा०- चैला-संज्ञा, पु० दे० ( हि. छीलना) चेहरा उतरना---लज्जा, शोक, चिन्ता, कुल्हाड़ी से चीरो हुई जलाने की लकड़ी या रोग आदि के कारण चेहरे के तेज का ___ का टुकड़ा। नाता रहना। चेहरा होना--फ़ौज में चोक—संज्ञा, स्त्री० दे० (हि० चोख ) वह नाम लिखा जाना । किसी चीज़ का अगला | चिन्ह जो चबन में दाँत लगने से पड़ता है। भाग, प्रागा (दे०)। देवता, दानव, चोंगला-संज्ञा, पु० (दे०) बाँस, कागज या या पशु आदि की आकृति का वह साँचा टीन की नली जिसमें कागज़, पुस्तकें आदि जो लीला या स्वाँग आदि में चेहरे के उपर | रक्खी जाती हैं। पहना या बाँधा जाता है। | चेांगा-संज्ञा, पु. ( ? ) कोई वस्तु रखने के चै* --संज्ञा, पु० ( दे० ) चय। लिये खोखली नली, काग़ज़, टीन बाँस चैत-संज्ञा, पु० दे० (सं० चैत्र ) फागुन के आदि की बनी हुई नली । वि० खोखला, बाद और बैसाख के पहले का महीना, चैत्र। मूर्ख, मूढ ।। चैतन्य-संज्ञा, पु. ( सं० ) चित्स्वरूप चोंधना* स० क्रि० (दे०) चुगना। श्रात्मा या जीव, ज्ञान, बोध, चेतन, चेांच-संज्ञा, स्वी० दे० (सं० चंचु) पतियों ब्रह्म, परमेश्वर , प्रकृति , एक प्रसिद्ध के मुख का निकला हुआ अग्र भाग, टोंट, बंगाली महात्मा, गौरांग प्रभु। तुंड, ( व्यंग०) । मुहा०—दो दो चचें चैती-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि० चैत+ई प्रत्य०)। होना-कहा-सुनी या कुछ लड़ाई-झगड़ा वह फ़सल जो चैत में काटी जाय, रबी, होना । वि० मूख । चैत का गाना, चैत सम्बन्धी। चांडा-- संज्ञा, पु० दे० (सं० चूड़ा) चैत्य-संज्ञा, पु० ( सं० ) मकान, घर. स्त्रियों के सिर के बाल, झोंटा। संज्ञा, पु० भवन, मंदिर , देवालय , यज्ञशाला , | (सं० चुंडा = छोटा कुआँ ) सिंचाई के लिये गाँव में वह पेड़ जिसके नीचे ग्राम-देवता छोटा कुना। की बेदी या चबूतरा हो, किसी देवी-देवता | चेथि---संज्ञा, पु० दे० ( अनु० ) एक बार के का चबूतरा, बुद्ध की मूर्ति, अश्वत्थ का . गिरे गोबर का ढेर। पेड़, बौद्ध सन्यासी या भिन्तुक, भितु-मठ, चेथिना-स० कि० ( अनु० ) किसी वस्तु बिहार, चिता। में से उसका कुछ भाग बुरी तरह नोचना। चैत्र-संज्ञा, पु० (सं०) सम्वत् का प्रथम मास चेधिर-वि० दे० (हि० चैाधियाना ) जिस चैत, बौद्ध भिक्षु, यज्ञ-भूमि, देवालय। की आँखें बहुत छोटी हों, मूर्ख । For Private and Personal Use Only Page #687 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ६७६ चोप्रा - चोवा चोप्रा - चोवा - संज्ञा, पु० दे० (हि० चुआना) एक सुगंधित द्रव पदार्थ जो कई गंध - द्रव्यों को मिलाकर उनका रस टपकाने से तैयार होता है । " चोथा चार चंदन चढ़ायो' ऊ० चोकर - संज्ञा, पु० दे० (हि० चून = आटा + कराई = छिलका) गेहूँ, जौ श्रादि का छिलका जो घाटा छानने के बाद बचे । यौ० चूनी चोकर । हुआ एक ढीला पहनावा लबादा । चोचला चोंचला -संज्ञा, पु० ( अनु० ) हृदय की किसी प्रकार की ( विशेषतः जवानी की ) उमंग में की गई शारीरिक गति या चेष्टा, हावभाव, नख़रा, नाज़ | चोज़ - संज्ञा, पु० ( ? ) मनोरंजक चमत्कार - पूर्ण उक्ति, सुभाषित, हँसी, ठठ्ठा, विशेषतः व्यंग पूर्ण उपहास | चोट - संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० चुट= काटना) एक वस्तु का दूसरी पर वेग से पतन या टक्कर, आघात, प्रहार । मुहा०—चोट करना - हमला या प्रहार करना । चोट खाना -- श्राघात ऊपर लेना । शरीर पर आघात या प्रहार का प्रभाव, जखम । यौ० - चोट-चपेट - घाव, ज़ख़म । किसी को मारने के लिये हथियार श्रादि चलाने की क्रिया, वार, श्राक्रमण, किसी हिंसक पशु का आक्रमण, हमला, हृदय पर का श्राघात, मानसिक व्यथा, किसी के Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चोप धनिष्टार्थ चली हुई चाल, श्रवाज़ा, बौछार, ताना, विश्वासघात, धोखा, बार, दफ़ा, मरतबा । चोटा - संज्ञा, पु० दे० ( हि० चोथा ) राब का पसेव जो छानने से निकलता है । चोआ (ग्रा० ) । चोटारो - वि० दे० ( हि० चोट + श्रारप्रत्य० ) चोट खाया हुआ, चुटैल । दे० ( हि० चोट ) चोका – संज्ञा, पु० दे० (हि० चुसकना) चूसने चोटारना- - प्र० क्रि० की क्रिया या भाव, या वस्तु । चोख -संज्ञा, स्त्री० ( हि० चोखा) तेज़ी । चोखा - वि० दे० (सं० चेन ) जिसमें किसी प्रकार का मैल, खोंट या मिलावट आदि न हो, शुद्ध, उत्तम, सच्चा, ईमानदार, खरा, तेजधार वाला, पैना | संज्ञा, पु० उबाले या भूने हुये बैंगन, घालू श्रादि से नमक मिर्च श्रादि डाल कर बनाया गया सालन, भरता (ग्रा० )। चोगा -संज्ञा, पु० ( तु० ) पैरों तक लटकता चोट करना । चोटी-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० चूड़ा ) सिर के बीच में थोड़े से बड़े बाल जिन्हें प्रायः हिन्दू नहीं कटाते, शिखा, चुदई (प्रा० ), चोरैया (दे० ) । मुहा० चोटी दबनाबेश या लाचार होना। किसी की चोटी किसी के हाथ में होना- किसी प्रकार के दबाव में होना । पर्वत का सर्वोच्च स्थान, शिखर, श्रृंग, एक में गुंधे हुये स्त्रियों के सिर के बाल, सूत या ऊन आदि का डोरा जिससे aियाँ बाल बाँधती हैं, स्त्रियों के जूड़े का एक आभूषण, कुछ पक्षियों के सिर के ऊपर उठे पर, कलगी, शिखर । मुहा०चोटी का - सर्वोत्तम । चोटा-पेटी |-- वि० स्त्री० ( दे० ) खुशामद भरी बात, झूठी या बनावटी बात । चोट्टा - संज्ञा, पु० दे० ( हि० चोर ) चोर, ( स्त्री० चोट्टी ) । चोड़ -संज्ञा, पु० (सं० ) उत्तरीय वस्त्र, कुरती, अँगिया, चोल नामक प्राचीन देश । चोदक - वि० सं०) प्रेरणा करने वाला | चोदना - संज्ञा, स्त्री० (सं० ) वह वाक्य जिसमें किसी काम के करने का विधान हो, विधिवाक्य, प्रेरणा, योग आदि के संबंध का प्रयत्न | स० क्रि० (दे०) मैथुन करना । चोप - संज्ञा, पु० दे० ( हि० चाव ) गहरी चाह, इच्छा, चाव, शौक, रुचि, उत्साह, उमंग, बढ़ावा । " चोप करि च ंदन चढ़ायो जिन श्रंगनि पै " - रत्ना० । For Private and Personal Use Only Page #688 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org चोपना चोपना - प्र० क्रि० दे० ( हि० चाप ) किसी वस्तु पर मोहित या मुग्ध होना । चोपो - वि० ( हि० चाप ) इच्छा रखने वाला, उत्साही | ६७७ बाब - संज्ञा स्त्री० (फ़ा० ) शामियाना खड़ा करने का बड़ा खम्भा नगाड़ा या ताशा बजाने की लकड़ी, सोने या चाँदी से मदा हुथा डंडा, छड़ी, सोंटा । चोबकारी - संज्ञा स्त्री० ( फा० ) कलाबत्तू का काम । चोबचीनी - संज्ञा, स्त्री० यौ० ( फ़ा० ) एक काष्टौषधि जो एक पौधे की जड़ है । चोबदार - संज्ञा, पु० ( फ़ा० ) हाथ में चाब या श्रासा लेने वाला दास । चोभा - संज्ञा, पु० (दे०) खोंच, खोल, कीला । स्त्री० या अल्पा० चोभी । 1 चोया -संज्ञा, पु० (दे०) चाश्रा, चोवा (दे० ) । चोर - संज्ञा, पु० (सं० ) चुराने या चोरी करने वाला, तस्कर, चोरटा (दे०) चोट्टा ( ग्रा० ) । मुहा० - मन में चोर पैठनामन में किसी प्रकार का खटका या संदेह होना। ऊपर से अच्छे हुये घाव में वह दूषित या विकृत अंश जो भीतर ही भीतर पकता और बढ़ता है, वह छोटी संधि या छेद जिस में से होकर कोई पदार्थ वह या निकल जाय या जिसके कारण कोई त्रुटि रह जाय, खेल में वह लड़का जिससे दूसरे लड़के दाँव लेते हैं, चोरक ( गंधद्रव्य ) । वि० जिसके वास्ताविक स्वरूप का ऊपर से देखने पर पता न चले। कट = चोरकर - संज्ञा, पु० यौ० दे० (हि० चोर + = काटने वाला) चोर, उचक्का । चोरटा - संज्ञा, पु० (दे० ) चाहा, चोर । बोरदंत - संज्ञा, पु० यौ० ( हि० चोर + दंत) बत्तीस दाँतों के अतिरिक्त कष्ट से निकलने वाला दाँत । चोर दरवाज़ा - संज्ञा, पु० यौ० ( हि० चोली चोर + दरवाज़ा फा० ) मकान के पीछे की र का गुप्त द्वार । चोर-पुष्पी - संज्ञा० स्त्री० यौ० ( सं० ) धाहुली। चोर-महल - संज्ञा, पु० यौ० ( हि० चोर + महल ) वह महल जहाँ राजा और रईस लोग अपनी अविवाहिता प्रिया रखते हैं । चोरमिहोचनी -संज्ञा स्त्री० दे० ( हि० चोर + मीचना बंद करना ) आँख मिचौली का खेल । " खेलन चोरमिहीचनी आजु ” - मति० । चोराचोरी - क्रि० वि० यौ० ( हि० चोर + चेरी) छिपे छिपे, चुपके चुपके। चोरी - संज्ञा, स्त्री० ( हि० चोर ) छिपकर किसी दूसरे की वस्तु लेने का काम, चुराने की क्रिया या भाव । " चोरी छोड़ कन्हाई - सूर० । " चोल - संज्ञा पु० ( सं० ) दक्षिण का एक प्राचीन प्रदेश, उक्त देश का निवासी, स्त्रियों के पहनने की चोली, कुरते के ढंग का एक पहनावा, मजीठ । " फीको परै न बरु घटे, रँगो चोल रँग चीर "वि० । बोलना - संज्ञा, पु० ( दे० ) चोला । चोला - संज्ञा, पु० (सं० चाल ) साधु फकीरों का एक बहुत लंबा और ढीलाढाला कुरता, नये जन्मे हुये बालक को पहले पहल कपड़े पहनाने की रस्म, शरीर, तन, देह, दक्षिण का एक प्राचीन प्रदेश ( राज्य ) . तन चाम ही को चोला है " - पद्मा० । मुहा० - चोला छोड़ना मरना, प्राण त्यागना, चोला बदलना - एक शरीर परित्याग करके दूसरा ग्रहण करना, साधु । चोली - संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० चाल) अँगिया कासा स्त्रियों का एक पहिनावा, श्राँगी । मुहा० - चोली-दामन का साथ - बहुत अधिक साथ या घनिष्टता । " चोली रतन जड़ाय की प्रति सोहै गौरांग । " - सू० । " Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चोला, कवच, जिरह-बख़्तर For Private and Personal Use Only Page #689 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चोषण ६७८ चौकसाई-चौकसी चोषण -संज्ञा, पु० (सं०) चूसना। वि० चौक-संज्ञा, पु० दे० (सं० चतुष्क, प्रा० चउक्क) चोषणीय चौकोर भूमि , चौखूटी खुली ज़मीन चोष्य - वि० ( सं० ) चूसने के योग्य । घर के बीच में कोठरियों और बरामदों से चौंक-- संज्ञा, स्त्री० दे० (हि० चौंकना ) घिरा हुआ चौखूटा खुला स्थान, आँगन, चौंकने की क्रिया या भाव । सहन, चौखूटा चबूतरा, बड़ी वेदी, मंगल3 कना-अ० क्रि० दे० (हि. बैंक+ना समय पर पूजन के लिये प्राटे, अबीर आदि ---- प्रत्य० ) एकाएक डरजाने या पीड़ा की रेखाओं से बना हुआ चौखटा क्षेत्र, श्रादि के अनुभव करने पर झट से काँप या । शहर के बीच का बड़ा बाजार, चौराहा, हिल उठना, झिझकना, चौकन्ना या भौ. चौमुहानी, चौपर खेलने का कपड़ा, चक्का होना, भय या अाशंका से हिचकना, बिसात , सामने के चार दाँतों की पंक्ति । भड़कना । “बैल चौकना जोत में", चौकड़ा-संज्ञा, पु० दे० (हि. चौ+कड़ा ) घाघ। दो दो मोतियों वाली कान में पहनने की चौंकाना-स० क्रि० (हि. चौकना) भड़काना। बालियाँ । कवाना-स० कि० दे० (हि० चौकना का | चौकडी-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि० चौ =चार + प्रे० रूप) भड़काने का काम दूसरे से कराना। कला=अंग सं० ) हिरन की वह दौड़ चैध - संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० चक - चमकना) जिसमें वह चारों पैर एक साथ फेंकता जाता चकचैांध, तिलमिलाहट । है, चौफाल, कुदाना, फलाँग, कुलाँच । चौंधा*-क्रि. वि. व. (हि० चहुँधा ) | मु०-चौकड़ी भूल जाना—बुद्धि का चारो ओर, चहूधा, चहूँ । काम न करना, सिटपिटा जाना, घबरा चौंधियाना-अ. क्रि० दे० (हि० चौध ) जाना, चार आदमियों का गुट्ट, मंडली । अत्यन्त अधिक चमक या प्रकाश के सामने यौ० - चंडाल चौकटी-उपद्रवियों की दृष्टि का स्थिर न रह सकना, चकाचौंध मंडली, एक प्रकार का गहना, चारयुगों होना, आँखों से दिखाई न पड़ना। का समूह, चतुर्युगी, पलथी। संज्ञा, स्त्री० चौंधी-संज्ञा स्त्रो० (दे.) चकचौध ।। (हि. चौ = चार + घोड़ी ) चार घोड़ों की चौर-संज्ञा, पु० (दे०) चवर । बन्धी। चौंराना*-स० कि० दे० (सं० चार) च वर चौकन्ना-वि० (हि० चौ = चारों ओर + कान) डुलाना, या करना, झाडू. देना।। सावधान, चौकस. सजग, चौंका हुश्रा, चौरी-- संज्ञा, स्त्री० दे० ( हि० चौर ) काठ आशंकित । की डंडी में लगा हुश्रा मक्खियाँ उड़ाने को घोड़े की पंछ के बालों का गुच्छा, चोटी या चौकरना-चौकपूरना-क्रि० अ० (दे० ) वेणी बाँधने की डोरी, सफेद पूंछ वाली विवाह आदि मंगल कार्यो में गेहूँ के श्राटे गाय, विवाह में एक रस्म। से शुद्ध भूमि पर बेल-बूटे बनाना । चौ-वि० दे० (सं० चतुः) चार की संख्या चौकल-- संज्ञा, पु० यौ० (सं०) चार मात्राओं ( केवल यौगिक में ) जैसे चैपिहल । संज्ञा, का समूह (पि० )। पु०-मोती तौलने का एक मान । | चौकस - वि० (हि० चौ=चार - कस = कसा चौथा-संज्ञा, पु० (दे० ) चौवा । हुआ ) सावधान, सचेत, ठीक, दुरुस्त, चौघाना *-० क्रि० दे० (हि० चौंकना) । __ पूरा । "राम भजन में चौकस रहना" क० । चकपकाना, चकित या चौकन्ना होना। चौकसाई चौकसी- संज्ञा, स्त्री० दे० For Private and Personal Use Only Page #690 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ខ្ញុំ चौघड़ - चौका (हि. चौकस ) सावधानी, होशियारी, | चार+काठ लकड़ियों का वह ढाँचा जिसमें खबरदारी। किवाड़ के पल्ले लगे रहते हैं, देहली, चौका-संज्ञा, पु० दे० (सं० चउष्क) पत्थर का डेहरी ग्रा०) यौ०-चौखट-बाजू।। चौकोर टुकड़ा, चौखू टी शिला, रोटी बेलने चौखटा-संज्ञा, पु० दे० (हि. चौखट ) चार का काठ या पत्थर का पाटा, चकला, सामने लकड़ियों का ढाँचा जिसमें मुंह देखने के चार दाँतों की पांति, सिर का एक | या तसबीर का शीशा जड़ा जाता है, फ्रेम। गहना, सीसफूल, रसोई बनाने या खाने | चौबना-वि० दे० (हि० चौ = चार+खंड) का लिपा-पुता स्थान, सफाई के लिये मिट्टी चार खंड वाला, चार मंज़िला (घर)। या गोबर का लेप । यौ०-चौका चल्हा । चौखा-संज्ञा. पु० (दे० ) वह स्थान जहाँ मु० - चौका लगाना--लीप-पोत कर बरा- चार गाँवों की सीमा मिले, घोड़े, हिरन बर करना, सत्यानाश या नष्ट करना, एक | आदि का छलाँग भरकर भागना । ही प्रकार की चार वस्तुओं का समूह, जैसे | चौखानि-संज्ञा, स्त्री० (हि. चै = चार+ मोतियों का चौका, चार बूटियों वाला ताश खानि =जाति ) अंडज, पिंडज, स्वेदन, का पत्ता। उद्भिज आदि चार प्रकार के जीव । चौकिया-सोहागा-संज्ञा, पु० यौ० ( हि० चौखट-संज्ञा, पु० दे० (चौ+ खूट ) चारों चौकी+ सोहागा) छोटे छोटे चौकोर टुकड़ों में | दिशायें, भूमंडल । क्रि० वि० चारों ओर । कटा हुआ सोहागा। चौखटा-वि० (दे०) चौकोर । चौकी-संज्ञा, स्त्री० दे० सं० चतुष्की) | चौगड़ा --- संज्ञा, पु० (दे०) खरहा, खरगोश । चारपाये वाला, चौकोर श्रासन, छोटा | चौगट्टा-संज्ञा, पु० (दे० ) वह स्थान जहाँ तख़्त, कुरसी, मंदिर में मंडप के स्तभों के | पर चार गाँवों की सीमा या सरहद मिले, बीच का प्रवेश-स्थान पड़ाव, ठहरने की चौहट्टा, चार वस्तुओं का समूह । जगह, ठिकाना, अडा, पाल पास की रक्षा । | चौगान—संज्ञा, पु० (फ़ा०) एक खेल जिसमें के लिये नियुक्त थोड़े से सिपाहियों का लकड़ी के बल्ले से गेंद मारते हैं , चौगान, स्थान, पहरा, खबरदारा, रखवाली, | खेलने का मैदान, नगाड़ा बजाने की लकड़ी। किसी देवता या पीर आदि के स्थान पर | " खेलन को निकरे चौगान-प्रे० सा०। चढ़ाई गई भेंट या पूजा, गले का एक | चौगिर्द-क्रि० वि० यौ० (हि० चौ+फा० गहना, पटरी, रोटी बेलने का छोटा चकला। गिर्द = तरफ) चारों ओर, चारों तरफ, यौ०-चौकी-पहरा। चौगिर्दा (दे०)। चौकीदार- संज्ञा, पु० (हि. चौकी --- फा० | चौगुना-वि० दे० (सं० चतुर्गुण ) चार से दार ) पहरा देने वाला गोडैत (ग्रा.)। गुणित, चतुर्गुण । चौकीदारी-संज्ञा, स्त्री० (हि० ) पहरा देने | चौगोड़िया--संज्ञा, स्त्री० यौ० (हि० चौ = का काम, रखवाली, चौकीदार का पद, चार--- गोड़ = पैर ) एक प्रकार की ऊँची चौकीदार रखने के लिये चंदा ( कर )। चौकी। चौकोन-चौकोना-वि० (दे० सं० चतुष्कोण) | चौगोशिया-वि० (फ़ा०) चार कोने वाला। चौकार। संज्ञा, स्त्री. एक टोपी। संज्ञा, पु० तुरकी चौकोर-वि० दे० यौ० (सं० चतुष्कोण ) | घोड़ा। जिसमें चार कोण हों, चौखूटा, चतुष्कोण । चौघड़-संज्ञा, पु० (हि० चौ= चार+दाढ़) चौखट-संज्ञा, स्त्री० दे० यौ० ( हि० चौ= | आहार कूचने था चबाने या किनारे का For Private and Personal Use Only Page #691 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चौघडा-चौघरा ६८० चौदस चौड़ा चिपटा दाँत, चौभर, चौहर (ग्रा० )। | चौतारा-संज्ञा, पु० (दे०) तँबूरे का सा चार चौघड़ा-चौघरा-संज्ञा, पु० दे० ( हि० चौ तारों का एक बाजा। -: चार+घर=खाना) पान, इलायची रखने चौताल-संज्ञा, पु. ( हि० चौ+ताल ) का चार खानों वाला डिब्बा, चार खानों मृदंग का एक ताल, होली का एक गीत । का बरतन, चार बड़े पानों की खोंगी। चौतका-वि० दे० ( हि० चौ+तुक ) चौधरी- वि० (दे० ) घोड़ों की एक चाल, जिसमें चार तुक हों। संज्ञा, पु०-एक चौफाल, पोइया, सरपट। प्रकार का छंद जिसके चारों चरणों के तुक चैौघोड़ी-संज्ञा, स्त्री० दे० ( हि० चौ+ मिलते हों। घोड़ा) चार घोड़ों की गाड़ी, चौकड़ी। चौथ-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० चतुर्थी ) पक्ष चौचंद*-संज्ञा, पु. ( हि० चौथ --- चंद या | की चौथी तिथि, चतुर्थी । मुहा०-चौथ चबाव+चड ) कलंक-सूचक अपवाद, । का चांद-भाद्रपद शुक्ल पक्ष की चतुर्थी बदनामी की चर्चा, निन्दा । का चाँद जिसके विषय में प्रसिद्ध है कि चैौचंदहाई-वि० स्त्री० (हि० चौचंद + हाई यदि कोई उसे देख ले तो उसे झंठा कलंक -प्रत्य० ) बदनामी करने वाली। लगता है--" चाँद चौथ को देखिये "चौड़-संज्ञा, पु० (दे० ) मुंडन, चूड़ाकरण प्रे० स० । चतुर्थाश, चौथाई भाग के रूप संस्कार, चौपट, सत्यानाश । में लिया गया आमदनी या तहसील का चौड़ा-वि० दे० (सं० चिविट = चिपटा ) | चतुर्थांश (मरहटा०)। -वि. चौथा । लंबाई की ओर के दोनों किनारों के बीच चौथपन-संज्ञा, पु. यौ० (हि० चौथा + का विस्तृत या चकला भाग, लम्बा का पन ) जीवन की चौथी अवस्था, बुढ़ापा, उलटा. अर्ज । ( स्त्री० चौड़ी)। वृद्धावस्था। " मनहुँ चौथपन अस उपचौडाई- संज्ञा, स्त्री० (हि० चौड़ा+ई प्रत्य०) देसा -रामा० । चौड़ापन, फैलाव, अर्ज़ । संज्ञा, स्त्री० | चौथा-वि० दे० (सं० चतुर्थ ) क्रम में चार चौड़ान । __ के स्थान में पड़ने वाला । (स्त्री० चौथी) चौडॉल-संज्ञा, पु० ( दे० ) पालकी, चौपंक्ति या पालकी। चौथाई---संज्ञा, पु० (हि० चौथा + ई प्रत्य० ) चौथा भाग, चतुर्थीश, चहारुम ( 0 )। चौतनियां- संज्ञा, स्त्री० (दे० ) चौतनी। | चौथिया- संज्ञा, पु० दे० (हि. चौथा ) वह चौतनी-संज्ञा स्त्रो० दे० ( हि० चौ=चार+ ज्वर जो प्रति चौथे दिन आवे, चौथाई का तनी=बंद ) बच्चों की वह टोपी जिसमें चार | बंद लगे रहते हैं। "पीत चौतनी सिरन्ह हकदार। सुहाई "-रामा० । चौथी-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि० चौथा) विवाह के चौथे दिन की एक रीति जिसमें वरचौतरफा-संज्ञा, पु० (दे०) पटमंडप, कन्या के हाथ के कंकन खोले जाते हैं, फसल वस्त्रागृह, तम्बू, कनात, रावटी। क्रि० वि० (दे०) चारो तरफ । की बाँट जिसमें ज़मीदार चौथाई लेता है । चौतरा-संज्ञा, पु. ( दे० ) चबूतरा | चौदंत-वि० (दे० ) चार दाँत का बच्चा, चउतग (ग्रा० ) " सम्पति में ऐठि बैठे । पशु, बली, हृष्टपुष्ट । चौतरा अदालत के "-देवः। चौदंती-संज्ञा, स्त्री० (दे०) शूरता, वीरता, चौतही-संज्ञा, स्त्री० दे० ( हि० चा-+ तह ) अल्हड़पन। खेस की बुनावट का एक मोटा कपड़ा। चौदस-संज्ञा, स्त्री. (सं. चतुर्दशी) पक्ष चौपरत (दे०) चार तह वाली। का चौदहवाँ दिन, चतुर्दशी। For Private and Personal Use Only Page #692 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चौदह चौभड़ चौदह वि० दे० ( सं० चतुर्दश ) जो चौपहल-चौपहला-चौपहलू- वि० दे० गिनती में दस और चार हो । संज्ञा, पु० दस (हि० चौ - पहलू-फा० ) जिसके चार पहल और चार के जोड़ की संख्या १४ । या पार्श्व हों, वर्गात्मक, वर्गाकार। चौदांत --संज्ञा, पु० दे० यौ० (हि० चौ चौपाई-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० चतुष्पदी) =चार --- दाँत ) दो हाथियों की लड़ाई या १६ मात्राओं का छंद, चार पाई। मुठभेड़। चौपाया ---संज्ञा, पु० दे० (सं० चतुष्पद) चार चौधर-वि० ( दे० ) बलवान, बली, पैरों वाला पशु, गाय, भैंस आदि। मोटा ताज़ा । संज्ञा, पु० मुखियापन । चौपार-चौपाल---संज्ञा, पु० दे० (हि. चौधराई-संज्ञा, स्त्री० दे० ( हि० चौधरी) चौवार) बैठने-उठने का वह स्थान जो ऊपर चौधरी का काम, पद। से छाया हो पर चारों ओर खुला हो, बैठक, चौधरी-संज्ञा, पु० दे० (सं० चतुर । धर ) | दालान, एक पालकी। किसी समाज या मंडली का मुखिया जिस चौपुरा--संज्ञा, पु. (दे०) चार पुरों के का निर्णय उस समाज वाले मानते हैं, चलने के लिये चार घाटों वाला कुआँ । प्रधान, मुखिया। चौरैया-संज्ञा, पु० दे० ( सं० चतुष्पदी ) चौपई-- संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० चतुष्पदी) एक मात्रिक छंद, चार पाई. खाट । १५ मात्राओं का एक छंद। चौबंदी-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि० चौ+ वंद) चौपट-वि० दे० (हि. चौ= चार+पट - एक छोटा चुस्त अंगा, बगलबन्दी ( ग्रा० )। किवाड़) चारों ओर से खुला हुअा, अरक्षित। चौबसा-संज्ञा, पु० (दे० ) एक वर्ण वृत्त । वि० नष्ट-भ्रष्ट, बर्बाद, तबाह, चौपट्ट | चौबगला--संज्ञा, पु० दे० (हि० चौ+ बगल) (ग्रा० )। "तोहिं पटकि महि सेन हति ___ कुरते, अँगे इत्यादि में बग़ल के नीचे और चौपट करि तव गाँव" -- रामा० । कली के ऊपर का भाग, चारों ओर का । चौपटहा-चौपटा-वि० दे० (हि० चौपट) चौबरसी-संज्ञा स्त्री० दे० (हि० चौ+ चौपट या नष्ट-भ्रष्ट करने वाला। बरसी ) चौथे वर्ष का श्राद्ध या उत्सव । चौपड़-संज्ञा, स्त्री० (दे०) चौसर, एक खेल। चौबाई-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि० चौ+बाई चौपता-संज्ञा, स्त्री० दे० यौ० (हि० चौ - हवा ) चारों ओर से बहने वाली हवा । =चार + परत ) कपड़े की तह या घरी, अफवाह, किंबदन्ती, उड़ती ख़बर। चौपरत। चौबारा-संज्ञा, पु० दे० (हि. बौवार ) चौपताना-स० कि० दे० ( हि० चौपत ) कोठे के ऊपर की खुली कोठरी, बँगला, कपड़े की तह लगाना, चौपरतना (ग्रा०)। वालाखाना, खुली हुई बैठक । चौपार चौपतिया-चौपत्ती --संज्ञा, स्त्री० दे० (ग्रा० ) । क्रि० वि० (हि० चौ - चार-- वार (हि० चौ+ पती ) एक घास, एक साग, =दफा ) चौथी दना, चौथी बार। छोटी पुस्तक या कापी, हाथ-बही, कसीदे चौबीस- वि० दे० (सं० चतुर्विशत् ) चार में चार पत्तियों वाली बुटी, ताश का एक अधिक बीस, चार और बीस. २४ । खेल । चौबे-संज्ञा, पु० दे० (सं० चतुर्वेदी) ब्राह्मणों चौपथ-संज्ञा, पु० दे० यौ० (सं० चतुष्पथ) की एक जाति या शाखा । स्त्री० चौवाइन । चौराहा, चौक। चौबोला-संज्ञा, पु० दे० (हि० चौबोल) एक चौपद -वि० दे० (हि. च-चार - पद प्रकार का मात्रिक छंद।। =पाँव ) चौपाया, चार पाँव के पशु। | चौभड़-संज्ञा, स्त्री० (दे०) चौघड़। मा० श० को०-८६ For Private and Personal Use Only Page #693 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org चौमंजिला ६८२ चौमंजिला - वि० दे० ( हि० चौ चार + फा० मंजिल ) चौखंडा मकान, चार खंडों वाला, चार महला । चौमासा - संज्ञा, पु० दे० (सं० चतुर्मास ) थापाद से कुवार तक के चार महीने, वर्षा ऋतु, चौमास । चौमासिया - चौमसिया - वि० दे० ( हि० चौमास) वर्षा के चार महीनों में होने वाला । संज्ञा, पु० ( हि० चार + माशा ) चार माशे का बाट या तौल | == चौमुख - क्रि० वि० ( हि० चौ चार + मुख = ओर) चारों श्रोर, चारों तरफ़, चारों शोर मुख । चौमुखा - वि० यौ० (हि० चा = चार + मुख) चारों धर चार मुहों वाला । स्त्री० चौमुखी । चौमुहानी - संज्ञा, स्त्री० यौ० ( हि० चा = चार + मुहाना फा० ) चौराहा, चतुष्पथ | चौरङ्ग - संज्ञा, पु० यौ० ( हि० चौ = चार + रङ्ग = प्रकार ) तलवार का एक हाथ । वि० तलवार के वार से कटा हुआ । चौरङ्गा -- वि० यौ० ( हि० चौ + रंग) चार रंगों का, जिसमें चार रंग हों । स्त्री० चौरङ्गी चौर - संज्ञा, पु० (सं०) दूसरे की वस्तु चुराने वाला, चोर, एक गंध द्रव्य । चौरस - वि० यौ० ( हि० चौ चार + एक रस = समान ) जो ऊँचा - नीचा न हो, तल बराबर, चापहल, वर्गात्मक, एक प्रकार वर्णवृत्त । । spong सम चौरस्ता - संज्ञा पु० (दे० ) चौराहा । चौरा - संज्ञा, पु० दे० (सं० चतुर ) ( स्त्री० अल्पा० चौरी) चबूतरा, वेदी, किसी देवता, सती, मृत महात्मा, भूत-प्रेत, आदि का स्थान, जहाँ वेदी या चबूतरा बना हो, चौपार, चौवारा, लोबिया, बोड़ा. अरवा, खाँस, परस्पर बात-चीत, सलाह । चौराई – संज्ञा, स्त्री० (दे०) चौलाई, एकसाग । चौरासी - वि० दे० (सं० चतुराशीति ) अस्सी से चार अधिक | संज्ञा, पु० अस्सी से चाही चार अधिक की संख्या, ८४ । चौरासी लक्ष योनि, नर्क । ' आकर चार लाख चौरासी " Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - रामा० । मुहा०- - चौरासी में पड़ना, - निरन्तर बार बार कई प्रकार या भरमना ----- के शरीर धारण करना । संज्ञा, स्त्री० - नाचते समय पैर में बाँधने का घुंघुरू । चौराहा - संज्ञा, पु० ( हि० चौ = चार + राह = रास्ता ) चौरस्ता, चौमुहाना, चौडगरा चौगेला (ग्रा० ) ! चौरी - संज्ञा, स्त्री० दे० ( हि० चौरा) छोटा चबूतरा । चौरीठा - चौरेठा - संज्ञा, पु० दे० ( हि० चाउर + पीठा ) पानी में पिसा चावल । चौर्य - - संज्ञा, पु० (सं० ) चोरी | चौलाई संज्ञा, स्त्री० दे० (हि० चौ + राई = दाने) एक पौधा जिसका साग बनता है । चौलुका - संज्ञा, पु० (दे० ) चालुक्य | चैौवा - संज्ञा, पु० दे० ( हि० चौ चार ) हाथ की चार अँगुलियों का समूह । अँगूठे को छोड़ कर हाथ की बाकी अँगुलियों की पंक्ति में लपेटा हुआ तागा, चार अंगुल की माप, चार बूटियों वाला ताश का पत्ता । चौसर - संज्ञा, पु० दे० ( स० चतुस्सारि ) संज्ञा, पु० (दे० ) चौपाया । एक खेल जो बिसात पर चार रङ्गों की चार चार गोलियों से खेला जाता है, चौपड़, नर्दबाजी, इस खेल की बिसात | संज्ञा, पु० दे० ( चतुरंसक ) चार लड़ों का हार । चौसठ - चौंसठ वि० ( सं० चतुर्षष्ठि ) साठ और चार की संख्या, नाम कला, योगिनी, चउँसठ | चौहट्टा – संज्ञा, पु० ( दे० ) चौहट्टा | " चौहट्ट हाट बाजार बीथी चारु पुर बहु विधि बना" -- रामा० । -- .. चौहट्टा - संज्ञा, पु० दे० ( हि० चौ = चार + हाट) वह स्थान जिसके चारों ओर दुकाने हों। चौक, चौमुहानी, चौरस्ता । चौहद्दी - संज्ञा, स्त्री० यौ० ( हि० ची + हदफा० ) चारों ओर की सीमा । For Private and Personal Use Only Page #694 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ६८३ चौहरा छक चौहरा-वि० दे० (हि० चौ --चार - हरा) च्यवनप्राश-संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) एक जिसमें चार फेरे या तहें हों, चार परत- प्रसिद्ध पौष्टिक अवलेह (वैद्य०)। वाला। चौगुना, जो चार वार हो। च्युत-वि० ( सं० ) गिरा या झड़ा हुआ, चौहान--संज्ञा, पु० ( दे० ) क्षत्रियों की एक भ्रष्ट, अपने स्थान से हटा हुआ, विमुख, प्रसिद्ध शाखा। परांमुख । संज्ञा, पु० च्युतक, यथा-मात्रा चों हैं-क्रि० वि० दे० (हि. ची ) चारों । च्युतक, वर्ण च्युतक। ओर। संज्ञा, स्त्री० चौह चउँ हैं (दे०) जबड़ा। च्युति --- संज्ञा, स्त्री० (सं० ) गिरना, झड़ना, च्यवन - संज्ञा, पु. ( सं० ) चूना, झरना, गति उपयुक्त स्थान से हटना, चूक, भूल, टपकना, एक ऋषि का नाम । कर्तव्य-विमुखता। स्थान तालु है। ई-हिन्दी या संस्कृत की वर्णमाला में ईद- संज्ञा, पु० (सं० छंदस) वेदों के वाक्यों चवर्ग का दूसरा अक्षर, जिसका उच्चारण का वह भेद जो अक्षरों की गणना के अनु सार किया गया है, वेद-वाक्य, जिसमें वर्ण छंग -- संज्ञा, पु० (दे० ) उछंग । या मात्राओं की गणना के अनुसार विराम छगा-छंगू-वि• 'पु. (दे०) छः अँगु- ! आदि का नियम हो, पद्य, वर्ण या मात्रा लियों वाला। की गणना के अनुसार पद या वाक्य वगुनिया-उँगुली--संज्ञा, स्त्री० (दे०) रखने की व्यवस्था, पद्य बन्ध, छंदों के कनिष्टका, हाथ या पाँव की सब से छोटी लक्षणादि की विद्या, इच्छा, स्वेच्छाअँगुली। चार, बन्धन, गाँठ, जाल, संघात, समूह, उँछौरी-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि० छाछ - वरी) कपट । “छंद-प्रबन्ध अनेक बिधाना''एक पकवान जो छाँछ में बनाया जाता है। रामा० । यौ०-- छलछंद-कपट, धोखेटना-प्र. क्रि० दे० (सं० चटन ) कट बाज़ी, चाल, युक्ति, रंग-ढंग, आकार, चेष्टा, कर अलग होना, दूर या छिन्न होना, पृथक अभिप्राय। संज्ञा, पु० दे० (सं० छंदक) हाथ होना, चुन कर अलग कर लिया जाना । | का एक गहना। मुहा०-Jटा हुआ---चुना हुआ, चालाक, छन्दोबद्ध-वि० यौ० (सं० ) श्लोक-बद्ध, चतुर, धूर्त । साफ होना, मैल निकलना, जो पद्म के रूप में हो। क्षीण या दुबला होना। रवाना--स० कि० दे० ( हि. छांटना वंदोभंग संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) छंद द का प्रे० रूप) करवाना, चुनवाना, छिलवाना। रचना का एक दोष जो मात्रा, वर्णादि के ईंटाई-संज्ञा. स्त्री० दे० (हि. छाँटना ) नियम के न पालन से होता है। छाँटने का काम, भाव, मजदूरी। छः - वि० दे० ( सं० षट् प्रा० छ) पाँच से उड़ना-स० क्रि० दे० (हि. छोड़ना )। एक अधिक । संज्ञा, पु. पाँच से एक अधिक छोड़ना, स्यागना, अन्न को श्रोखली में डाल की संख्या, इसका सूचक अंक, छ । कर कूटना, छाँटना, चरना (ग्रा०) काँड़ना। छ-संज्ञा, पु० (सं०) काटना, ढाँकना, उड़ाना* ----स० कि० दे० ( हि० छुड़ाना) आच्छादन, खंड, टुकड़ा घर।। छीनना, छुड़ा ले जाना। छक-संज्ञा, स्त्री० (दे०) लालसा, अभिलाषा, For Private and Personal Use Only Page #695 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir छकड़ा ६८४ नशा । “मोरे छक है गुरुन को, सुनौ खोलि | छज्जा-संज्ञा, पु० दे० (हि. छाजना या कै कान"--ब्रज। छाना ) छाजन या छत का दीवार से बाहर छकड़ा-संज्ञा, पु० दे० ( सं० शकट ) बोझ निकला भाग, अोलती, दीवाल से बाहर लादने की बैल-गाड़ी, सग्गड़, लढ़ी, कोठे या पाटन का निकला हुआ भाग । लदिया, (ग्रा० )। छटकना- अ. क्रि० दे० ( अनु० वाहि. लकड़ी-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. छः -- कड़ी) छूटना ) किसी वस्तु का दाब या पकड़ से छः का समूह, वह पालकी जिसे छै कहार वेग के साथ निकल जाना, सटकना, दूर दूर उठाते हों, छः घोड़ों या बैलों की गाड़ी, रहना, अलग अलग फिरना, वश में से छोटी गाड़ी, छुकरिया (ग्रा०)। निकल जाना, कूदना, छिटकना।। छकना-अ० क्रि० दे० (सं० चकन ) छटकाना-स० क्रि० दे० (हि. छटकना) खा, पी कर अघाना, तृप्त होना, मद्य आदि दाब या पकड़ से बल पूर्वक निकल जाने पीकर नशे में चूर होना । अ० क्रि० दे० देना, झटका देकर पकड़ या बन्धन से (सं० चक्र =भ्रान्त ) अचंभे में पड़ना, छुड़ाना, पकड़ या दबाव में रखने वाली दिक होना, लज्जित । संज्ञा, पु० छाक। वस्तु को बल-पूर्वक अलग करना। छक्का-संज्ञा, पु० दे० ( सं० अंक ) छः का छटपटाना - अ० कि० दे० ( अनु० ) बंधन समूह या छः अवयवों से बनी वस्तु, जुए या पीड़ा के कारण हाथ-पैर फटकारना, का एक दाँव जिसमें फेंकने से छः कौड़ियाँ तड़फड़ाना, बेचैन या व्याकुल होना, किसी चित्त पड़ें । मुहा०-का-पंजा-चाल- वस्तु के लिये श्राकुल होना। बाज़ी, जुत्रा, छः बुंदियों बाला ताश का छटपटी---- संज्ञा, स्त्री० दे० ( अनु० ) घबराहट, पत्ता। होश-हवास, संज्ञा, सुधि । मुहा०--- बेचैनी, आकुलता, गहरी उत्कंठा। छक्के छूटना-होश-हवास जाता रहना, बुद्धि का काम न करना, हिम्मत हारना, छटॉक-संज्ञा, स्त्री० दे० ( हि० छः + टंक ) साहस छूटना। सर के सोलहवें भाग की तौल | "मन लेत छगड़ा-संज्ञा, पु० दे० (सं० छागल) बकरा। पै देत छटाँक नहीं'-~-घना । "छोटी छगना--संज्ञा, पु० दे० (सं० छंगट = एक सी छबीली है छटाँक भर'-प० । छोटी मछली) छोटा प्रिय बालक । वि० । छटा-संज्ञा, स्त्री० (सं० ) दीप्ति, प्रकाश, बच्चों के लिये एक प्यार का शब्द।। शोभा, सौंदर्य, बिजली। छगुनी--छिगुनी-संज्ञा, स्त्री० ( हि० छोटी छठ-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० पटी ) पक्ष की +उँगलो) कनिष्ठिका, कानी अँगुली।। | छठवीं तिथि। छछिया-छिया-संज्ञा, स्त्री० दे० ( हि० कठा-वि० दे० ( सं० पाठ ) पाँच वस्तुओं के - छाँछ ) छाँछ पीने या नापने का छोटा आगे की वस्तु, छटवां (दे०)। स्त्री० पात्र । "छछिया भर छाँछ पै नाच नचावै" छठी, छठवीं। -रस०। छठी-ज्ञा स्त्री० दे० (सं० षष्ठी ) जन्म से छछू दर-संज्ञा, पु० दे० (सं० छुछुदरी) | छठे दिन की पूजा या संस्कार, छट्टी (दे०)। चूहे सा एक जन्तु, एक यन्त्र या ताबीज, एक आतिशबाजी। मुहा०-छठी का दूध याद अाना - छजना---० कि० दे० (सं० सज्जन) शोभा सब सुख भूल जाना, बहुत हैरानी होना । देना, सजना, अच्छा लगना, उपयुक्त या छड़- संज्ञा स्त्री० दे० (सं० शर ) धातु या ठीक ऊँचना। लकड़ी धादि का लंबा पतला बड़ा टुकड़ा। For Private and Personal Use Only Page #696 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir बड़ा छत्री छड़ा--संज्ञा पु० दे० (हि० छड़ ) स्त्रियों के छतिवन-- संज्ञा पु० दे० (सं० सप्तपर्णी) पैर में पहनने का एक गहना, छरा (७०)। सप्तपर्णी ( औषधि )। वि० (हि. छाँड़ना ) अकेला, एकाकी। छतीसा-वि० दे० (हि. छत्तोस ) चतुर, छड़ाना-स० क्रि० दे० (हि. छड़ना) सयाना, धूर्त, छत्तीसा ( स्रो० छतीसी) चावल साफ़ कराना, बकला छुड़वाना, नाई (ग्रा० ) करना (दे० ) छीनना।। उत्तर--संज्ञा पु० (दे० ) छत्र, सत्र । बड़िया-संज्ञा पु० दे० (हि. छड़ी) दरबान, छत्ता-संज्ञा पु० दे० (सं० छत्र)-छाता, पहरेदार । " द्वार खड़े छड़िया प्रभु के " छतरी, पटाव या छत जिसके नीचे से रास्ता -- नरो। चलता हो, मधु मक्खी, भिड़ आदि का घर, छड़ी-संज्ञा स्त्री० दे० (हि. छड़ ) सीधी छाते सी दूर तक फैली वस्तु, छतनार, चकत्ता, पतली लकड़ी या लाठी, मुसलमान पीरों कमल का बीज, कोश, छत्र, 'ये देखौ छत्ता की मजार पर चढ़ाने की झंडी ( मुस० )। पता"--- भू०। छडीला-चरीला--संज्ञा पु० (दे० ) जटा- त्तीस-वि० दे० (सं० षट त्रिशत नीम मासी पुष्प विशेष. एक प्रकार का सुगंधित और छ, ३६, रागिनियों की गिनती। सिवार, काई, कोहार की मिट्टी। वि० “ जगते रहु छत्तीस "--तु० । एकाकी, अकेला। कत्र-संज्ञा पु० (सं०) छाता, छतरी । छत-संज्ञा स्त्री० दे० (सं० छत्र ) घर की राजाओं का सोने या चाँदी वाला छाता, दीवारों पर चूने ककड़ से बना फर्श, पाटन, । जो रान चिन्हों में से एक है। यौ?-- ऊपर का खुला काठा, छत पर तानने की छत्रछांह, छत्रछाया-रक्षा, शरण, खुमी, चादर, चाँदनी। 8 संज्ञा पु० दे० (सं. भूफोड़, कुकुर मुत्ता। क्षत) घाव, जखम, हानि । कि० वि० दे० छत्रक-संज्ञा पु० (सं० ) खुमी, कुकरमुत्ता, (सं० सत) होते या रहते हुए, श्राछत, छाता, तालमखाने सा एक पौधा, मंदिर, अछत। कृतगीर-छतगीरी-संज्ञा स्रो० (हि. छत --- मंडप, शहद का छत्ता । " तारौं छत्रक-दण्ड गीर फा० ) ऊपर तानी हुई चाँदनी। जिमि”–रामा। छतना - संज्ञा पु० दे० (हि. छाता ) पत्तों छत्रधारी-वि० यौ० (सं० धारिन लो का बना हुआ छाता, छत्ता (बर्र आदि का)। छत्र धारण करे, जैसे छत्रधारी राजा । कतना -वि० दे० (हि. छाता या कृतना) छत्रपति--संज्ञा पु० यौ० (सं० ) राजा । छाते सा फैला हुआ, विस्तृत (पेड़)। छत्रभंग--संज्ञा पु० यौ० (सं० ) राजा का (स्त्री० इतनारी)। नाश, राजा का नाशक योग ( ज्यौ०), छतरी-संज्ञा स्त्री० दे० (सं० छत्र ) छाता, अराजकता। मंडप, समाधि-स्थान पर बना छज्जेदार छत्रा-संज्ञा स्त्री. (सं०) धनियाँ, धरती मंडप, कबूतरों के बैठने की बाँस की पट्टियों का फूल, खुमी, सोवा, मजीठ, रासन । का टट्टर, खुमी। छत्राक-संज्ञा पु० (सं० ) कुकुरमुत्ता, जल. छतिया --संज्ञा स्त्री० (दे० ) छाती।। कृतियाना स० कि० दे० (हि. छातो) छत्री-वि० दे० (सं० छात्रिन् ) छत्र-युक्त, छाती के पास ले जाना, बंदूक छोड़ने के राजा । संज्ञा, पु० (दे०) क्षत्रिय, "छत्रीतन समय कुंदे को छाती के पास लगाना। धरि समर सकाना"---रामा०। For Private and Personal Use Only Page #697 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ६८६ छद-संज्ञा पु० (सं० ) ढक लेने वाली वस्तु तेल आदि में पानी या गीली वस्तु पड़ने से प्रावरण, जैसे-रदच्छद, पत, पंख, पत्ता। छन छन शब्द होना, झंझनाना. मनकार छदाम-संज्ञा पु० यौ० (हि छः- दाम ) होना । स० कि० छन छन का शब्द उत्पन्न दाम ( दे० ) पैसे का चौथाई भाग। करना, झनकार करना। दि-संज्ञा स्त्री. (सं० ) छप्पर, छानी, छनबि* - संज्ञा स्त्री० दे० (सं० क्षगाकवि) ग्रहाच्छादन, पाटन । बिजली। छदिकारिपु संज्ञा पु० यौ० (सं० ) छोटी छनदा -संज्ञा स्त्री० ( दे० ) क्षणदा (सं०) इलायची, वमन रोकने की औषध । “ गावत कविन्द गुन-गन छनदा रहैं " - रत्ना०। छद्म संज्ञा पु० (सं० छान् ) छिपाव, गोपन, छनना-म० कि० दे० ( सं० क्षरण ) किसी व्याज, बहाना, हीला, छल-कपट, जैसे-छद्म वेश । ' दुरोदरच्छद्म जितां समीहितुम्" पदार्थ का महीन छेदों में से यों नीचे गिराना कि मैल-मिट्टी आदि ऊपर रहे । -कि० । छलनी से साफ होना, किसी नशे का पिया छद्मवेश-संज्ञा पु० यौ० (सं० ) कपट वेश, जाना । मुहा०-गहरी छनना–खूब कृत्रिम वेश । वि० छद्मवेशी। मेल-जोल या गाढ़ी मैत्री होना, लड़ाई छमिका-संज्ञा स्त्री० (सं०) गुरिच, मजीठ। होना, बहुत से छेदों से युक्त होना, छलनी छद्मी-वि० (सं० छमिन् ) बनावटी वेश हो जाना, बिंध जाना, कई स्थानों पर धारण करने वाला, छली, कपटी। स्त्री० चोट खाना, छानबीन या निर्णय होना, उद्मिनी। कड़ाह से पूड़ी पकवान श्रादि निकालना। छन—संज्ञा पु० (दे० ) क्षण, छिन (ग्रा०), छनाना-स० कि० दे० (हि० छानना) किसी "कहै, पदमाकर विचारु छन भंगुर रे" । दूसरे से छानने का काम कराना । (प्र. रूप कनक - संज्ञा पु० दे० ( अनु०) छन छन छनवाना )। करने का शब्द, झनझनाहट, झनकार । निक-वि० (दे०) क्षणिक, छिनक संज्ञा स्त्री. ( अनु०) आशंका से चौंक (ग्रा० )8....संज्ञा पु० दे० (हि० छन । कर भागना, भड़क ।* संज्ञा, पु० (हि. एक ) क्षण भर, छनेक । छन+एक) छिनक (दे०) एक क्षण ।। छन्दना-स० कि० (दे० ) ठगना, बन्धना। छनकना- अ. क्रि० दे० ( अनु० छन छन ) उलझना, उलझन । किसी तपती हुई धातु पर से पानी श्रादि छन्द-पातन- संज्ञा पु० यौ० (सं० ) कपटी की बूंद का छन छन करके उड़ जाना, या धूर्त तपस्वी, छहा तापस, तापस-वेशझनकार करना, बजना, चौकन्ना होकर धारी धूर्त । भागना, सशंकित होना। छन्दवंद-संज्ञा पु० (दे०) छल-बल, छनकाना-स० कि० दे० ( हि० छनकना) कपट, प्रतारण, मक्कर । छन छन शब्द करना, चौंकाना, चौकन्ना | छन्दानुवी -वि० यौ० (सं० छंद | अनुवर्ती) करना, भड़काना। अाज्ञानुवर्ती, श्राज्ञाकारी। छनछनाना-अ. कि. ( अनु० ) किसी छन्दी वि० दे० ( सं० छंद ) कपटी, धूर्त, तपी हुई धातु पर पानी आदि के पड़ने से प्रतारक, छली, ठग । छन छन शब्द होना, खौलतें हुये घी, छन्न-संज्ञा पु० दे० (अनु०) किसी तपी For Private and Personal Use Only Page #698 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रुप ६८७ छमछम हुई वस्तु पर पानी आदि के पड़ने से उत्पन्न प्रे० रूप ) छापने का काम दूसरे से कराना। शब्द, झनकार, ठनकार, एक गहना। . स० कि० ( दे० ) छिपना।। छप-संज्ञा स्त्रो० दे० ( अनु० ) पानी में | पानाथ-पाकर-संज्ञा, पु० (दे०) क्षपाकिसी वस्तु के एक बारगी ज़ोर से गिरने नाथ, क्षपाकर । " छपानाथ लोन्हे रहैं छत्र का शब्द, पानी के छीटों का ज़ोर से पड़ने जाको '"-राम । का शब्द। छप्पन-वि० दे० (सं० षट पंचाशत् ) पचास छपका-संज्ञा पु० दे० ( हि० चपकना ) सिर और छः। संज्ञा, पु. पचास और छः का का एक गहना । संज्ञा पु. (अनु० ) पानी अङ्क । का भरपूर छीटा, पानी में हाथ-पैर मारने छप्पर-संज्ञा, पु० दे० ( हि० छोपना ) फूस की क्रिया। आदि की छाजन, ( मकान की) यौ०छपछपाना-अ० कि० दे० ( अनु० ) पानी छानी-छप्पर---छानी । मुहा०-छप्पर पर कोई वस्तु पटक कर छपछप शब्द पर रखना-छोड़ देना. चर्चा करना। करना । स० कि. पानी में छपछप शब्द | छप्पर फाड़ कर देना-अनायास, अकपैदा करना। स्मात् देना। छोटा ताल या पोखर, गड्ढा । छपद-संज्ञा पु० यौ० दे० ( षट्पद ) भौंरा। छपरा (दे०)। छपना-वि० दे० (हि० चपना == दवना ) | बतखती*-संज्ञा, स्त्री० दे० ( हि० छवि गुप्त, ग़ायब । संज्ञा पु० दे० (सं० क्षपण) | +० तकती ) शरीर की सुन्दर बनावट । नाश, संहार । बि-कवि-संज्ञा, स्त्री. (दे० ) छवि, छटा छपना-म० कि० दे० ( हि० चपना = शोभा। दखना ) छापा जाना, चिन्ह या दबाव कबीला--वि० दे० (हि. कवि---ईला-प्रत्य०) पड़ना, चिन्हित या अंकित होना, यंत्रालय शोभायुक्त, सुन्दर । स्त्री. छपीली । में किसी लेख श्रादि का मुद्रित होना, छरे छबीले छैल सब"-रामा०। “छीन शीतला का टीका लगाना । स० कि० (दे०) | कटि छोटी सी छबीली"-५०। छपाना, (प्रे० रूप ) छपवाना । । अ० कब्बीस - वि० दे० (सं० षट विंशत् ) बीस क्रि० (दे०) छिपना। और छ । संज्ञा, पु० (दे०) २० और ६ की, छपरखट-छपरखाट-संज्ञा स्त्री० दे० यौ०। संख्या, २६ । ( हि० वापर - खाट ) मसहरीदार पलंग। छम-संज्ञा, स्त्री० दे० (मनु० ) धुंधुरू बजने छएरी--संज्ञा स्त्री० दे० (हि. छप्पर ) का शब्द, पानी बरसने का शब्द । झोपड़ी । संज्ञा, पु० छपग। संज्ञा, पु० (दे० ) क्षम (सं०)। छपा- संज्ञा स्त्री० (दे०) क्षपा, निशा। मकर-संज्ञा, पु. ( दे० ) कपटी, व्यभि. क्रि० वि० ( हि० छपना ) मुद्रित । चारी, छिनरा, दुराचारी। छपाई-संज्ञा स्त्री० दे० (हि० छापना छापने छमकना-अ. क्रि० दे० (हि० छम । क ) का काम मुद्रण, अंकन, छापने का ढंग, | धुंघरू श्रादि बजाते हुये हिलना-डोलना, छापने की मजदूरी। गहनों की झनकार करना। प्रे० रूपछपाका-संज्ञा पु० दे० ( अनु० ) पानी पर | छमकाना । संज्ञा, स्त्री० कमक। किसी वस्तु के ज़ोर से गिर पड़ने का शब्द, कमलम - संज्ञा, स्त्री० दे० (अनु०) पायजेब, ज़ोर से उछाले हुए पानी का छींटा। घुघुरू, पायल आदि के बजने का शब्द । छपाना-स० कि० दे० (हि. छापना का | पानी बरसने का शब्द, छमाछम (दे०)। For Private and Personal Use Only Page #699 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org छमछमाना ६८८ छमछमाना - अ० क्रि० दे० (अनु० ) छम छम शब्द करना, छम छम शब्द कर चलना । क्रमगड -संज्ञा, पु० (दे०) निराधार, निरालंब, अनाथ, बालक | कमना-- श्र० क्रि० दे० सं० क्षमन् ) क्षमा करना. पू० का० छमि - " छमि सब करिहहिं कृपा बसेखी" - रामा० । क्रमा | - संज्ञा स्त्री० (दे० ) क्षमा, छिमा ( ग्रा० ) । , क्रमाक्रम - क्रि० वि० दे० ( अनु० ) लगातार छम छम शब्द के साथ । क्रमासी-संज्ञा, स्त्री० दे० यौ० ( हि० छः मास + ई-प्रत्य० : छठे महीने का श्राद्ध कृत्य विशेष, छः माही, कमलो (ग्रा० ) । माहो- संज्ञा, स्त्री० ( दे० ) प्रत्येक छः छः मास का, कुमासी । कमिच्छत संज्ञा स्त्री० (सं० ) इशारा, संकेत, चिन्ह, समस्या । मुख संज्ञा, पु० दे० ( हि० छः + मुख ) षड़ानन । क्य - संज्ञा, पु० (दे० ) क्षय, नाश । कयना * - अ० क्रि० दे० ( हि० कय + ना ) जय को प्राप्त होना, छीजना, नष्ट होना । कर - संज्ञा, पु० (दे० ) छल । संज्ञा पु० (दे० ) तर | संज्ञा, पु० (दे० ) जटामासी, फड़दाडा ( प्रान्ती० ) । करकना - ० क्रि० (दे० ) छलकना, छड़कना, बिखरना | छवि-संज्ञा स्त्री० ( दे० ) पाखाना, शौचस्थान | करकर - संज्ञा, पु० दे० ( हि० कर ) कणों या छरों के वेग से निकलने और गिरने का शब्द, पतली लचीली छड़ी के लगने का शब्द | करकराना-प्र० क्रि० दे० (सं० क्षार ) नमक आदि के लगने से शरीर के घाव या छिले हुये स्थान में पीड़ा होना। संज्ञा, स्त्री० करकराहट । छलकना करना ० कि० दे० (सं० तरगा ) चूना, टपकना, चकचकाना, चुचुवाना । + ० क्रि० दे० ( हि० कलना ) छलना, काँडना (दे० ) धोखा देना, ठगना, मोहित करना । करभार - संज्ञा, पु० यौ० दे० (सं० सार + भार ) कार्य - भार, झंझट, बखेड़ा । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir करस - संज्ञा, पु० (दे० ) छः रस, षटरस | करहरा - वि० दे० (हि० छड़ + हरा प्रत्य० ) atriग, सुबुक, हलका, तेज़ फुरतीला । स्त्री० कम्हरी । " गोरा रंग चौ बदन छरहरा" - कु० वि० । करा संज्ञा, पु० दे० (सं० तर ) छड़ा (दे० ) लर, लड़ी, रस्सी, नारा, इजारबंद, नीबी, चुना हुधा । क्रि० वि० (दे० ) काँडा या छाना हुआ । करिंदा - वि० (दे० ) एकाकी, असहाय, केला, रिक्तहस्त, रीते हाथ । करी* - संज्ञा, स्त्री० वि० (दे० ) छड़ी या छली । " हरी हरी छरी लिए । करीला -- संज्ञा, पु० दे० ( सं० शैलेय) काई की तरह का एक पौधा, पत्थर - फूल, बुड़ना, ( प्रान्ती० ) । वि० अकेला । करे - वि० (दे० ) छटे, चुने या बराये हुये, उत्तम उत्तम अलग किये या बीने हुये । "छरे छबीले छैल सब शूर सुजान नवीन ।" छर्दन - संज्ञा, पु० (सं० ) वमन, क़ करना । छर्दायन - संज्ञा, पु०यौ० दे० (सं० शरद् + श्रयण ) खीरा, ककड़ी | कर्दि - संज्ञा, स्त्री० (सं०) वमन, नै, उलटी । छर्रा - संज्ञा, पु० दे० ( अनु० करकर ) छोटे कंकड़ या कण, लोहे या सीसे के छोटे छोटे टुकड़े जो बंदूक से चलाये जाते हैं । छल - संज्ञा, पु० (सं० ) दूसरे को धोखा देने का व्यवहार, ब्याज, मिस, बहाना, धूर्तता, वंचना, ठगपन, कपट । कलकलकन - संज्ञा, स्त्री० दे० ( हि० छलकना) छलकने की क्रिया का भाव । छलकना - अ० क्रि० दे० ( अनु० ) किसी For Private and Personal Use Only Page #700 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir छलकाना छवि तरल पदार्थ का बरतन से उछल कर बाहर छलाँग-संज्ञा स्त्री० दे० यौ० (हि० उछल गिरना, उमड़ना, बाहर होना, मर्यादा से +अंग ) कुदान, फैदान, फलाँग, चौकड़ी। बाहर होना। " श्रोछे छलकै नीर घट" बला--संज्ञा, पु. ( दे०) छल्ला। --बूंद : बलाई-संज्ञा स्त्री० दे० (हि. छल+ छलकाना --- स० क्रि० दे० (हि छलकना) | आई प्रत्य० ) छल का भाव, कपट. छल । किसी पात्र में भरे हुये जल यादि को हिला-चलाना--- स० क्रि० दे० ( हि० छलना का डुला कर बाहर उछालना ! प्रे० रूप ) धोखा दिलाना, प्रतारित करना । कानछंद-संज्ञा, पु. यो० (हि. छल+छंद) छलावा-संज्ञा, पु० दे० ( हि० छल ) कपट का जाल, चालबाजी, धूर्तता, ठगी। दिखाई देकर अदृश्य होने वाली भूत-प्रेत "छाई छल-छंद दिकपालनि छलति है"। | आदि की छाया, वह प्रकाश जो दलदलों छलछलाना---० क्रि० दे० ( अनु०) छल | या जंगलों में रह रह कर दीखता और छल शब्द होना, पानी आदि का थोड़ा छिपता है, अगियाबैताल, उल्कामुख प्रेत, थोड़ा करके गिरना, जल से पूर्ण होना। चपल, चञ्चल, शोख, इन्द्रजाल, जादू।। छलछाया-संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं० ) वलित-वि० (सं० छल + इत ) वंचित, जो कपट-जाल, माया, प्रपंच, छल । “पालु | ठगा गया हो। बिबुध करि छलछाया"---रामा० । छलिया-छत्ती--वि० दे० (सं. छलिन् ) इलछिद्र-संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) कपट कपटी, धोखेबाज, छल करनेवाला । " किन व्यवहार, धृर्त्तता, धोखेबाजी।। किन की मति माहि छली छलिया तू मरु कूप" --दीन। चलना-स० क्रि० दे० (सं० छलन ) धोखा अल्ला--संज्ञा, पु० दे० (सं० छल्ली - लता) देना, भुलावे में डालना, प्रतारित करना। अंगूठी, मुंदरी, गोलाकार वस्तु, कड़ा (दे०) " चली छैल को छलन यापु छैल सौं छली गई"--सरस० । संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० ) वलय, छला (ग्रा०)। धोका, चाल । बल्लेदार---वि० (हि० छल्ला+दार-फा० ) जिसमें गोलाकार चिन्ह या घेरे हों। बलनो-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि० चालना या सं० क्षरण ) बाटा चालने के लिए बरतन, चना-संज्ञा, पु० दे० (सं० शावक) बच्चा, चलनी (ग्रा०) । मुहा०-छलनी हा सूअर या मृग का बच्चा, छाना (ग्रा०)। जाना-किसी वस्तु में बहुत से छेद हो स्त्री० छवनी, छोनी। जाना । कलेजा छलनी हाना--दुख इवा -संज्ञा, पु० दे० (सं० शावक ) सहते सहते हृदय जर्जर हो जाना। किसी पशु का बच्चा, बछवा, ऍड़ी। “छूटे इलबल-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) कपट, धोखा, जोखा छवान लौं केस विराजत"-रवि०।। शठता। "छलबल करि हिय हारि"राम। इवाई ---संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. छाना ) छाने इल-विनय --- संज्ञा, पु० यो० (सं० ) कपट | का काम, भाव या मज़दूरी । से बड़ाई, धोखा देने के लिये प्रशंसा । छवाना-स० क्रि० दे० ( हि० छाना का "तू छल-बिनय करसि कर जोरे "-- प्रे० रूप ) छाने का काम दूसरे से कराना । राम । वधि-संज्ञा, स्त्री० (सं० ) शोभा, सौंदर्य, छलहाई*-वि० स्त्री. ( सं० छल+हा | कान्ति, प्रभा । वि. इवीला । “ कहा कहौं प्रत्य०) छली, कपटी, चालबाज़ । छवि आज की '"--तु० । .... . भा० श० को०-८७ For Private and Personal Use Only Page #701 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir छाँही। छवैया छागल छवैया-संज्ञा, पु० (दे० ) छाने वाला। घोड़े या गधे के पिछले पैरों को सटा कर छहरना-प्र. क्रि० दे० (सं० क्षरण) । बाँध देना, सांदना (ग्रा.)। छितराना, फैलना, शोभा देना। छांदोग्य · संज्ञा, पु० (सं० ) सामवेद का छहराना*-प्र. क्रि० दे० (सं० क्षरण ) | एक ब्राह्मण, छांदोग्य ब्राह्मण का उपनिषद् । छितराना, बिखराना, चारों ओर फैलाना। | छाँव--संज्ञा, स्त्री० (दे०) छाँह । "बिच बिच छहरत बंद मनो मुक्तामनि छांवड़ा --संज्ञा, पु० दे० (सं० शावक) स्त्री० पोहति "---हरि० । “ टूटी तार मोती जानवर का बच्चा, छोटा बच्चा, छाँधड़ी। छहरानी"-पद्मा। छाँह-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० छाया) जहाँ छहरीला-वि० दे० (हि. छरहरा) आड़ या रोक के कारण धूप या चाँदनी न छितराने या विखेरने वाला, छबीला । स्त्री० पड़े, छाया, ऊपर से छाया हुआ स्थान, बहरीली। बचाव या निर्वाह का स्थान, शरण, संरक्षा, छहिया -संज्ञा, स्त्री० (दे० ) छाया, छाँह, छाया, परछाँहीं, छांव (ग्रा० ), छाँही (दे० ) " पाँय पखारि, बैठि तरु छाँही" छाँगना-स० कि० दे० (सं० छिन्न-+ करण) । -रामा० । मुहा०-छाँह न छूने देनाडाल आदि को काट कर अलग करना। पास न फटकने देना, निकट न आने देना। छांगुर-संज्ञा, पु० दे० (हि. छः+अंगुल ) छाँह न छू पाना-न प्राप्त कर पाना । छै अंगुलियों वाला, छंगा (दे०)। छाँह पड़ना-प्रभाव या असर पड़ना । छांट-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. छाँटना) छाँटने, छाँह बचाना-दूर दूर रहना, पास न काटने या न करने की क्रिया या ढंग, कै जाना। प्रतिबिम्ब, भूतप्रेत आदि का करना, अलग की हुई निकम्मी वस्तु स्त्री० । प्रभाव, आसेब-बाधा । "मोही मैं रहत तऊ छटनी। संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० छर्दि) छवावत न छाँह मोहिं "--देव० । वमन, कै। छाँहगीर-संज्ञा, पु० (हि. छाँह ---गीर फा०) छाँटना-स० क्रि० दे० (सं० खंडन ) छिन्न राजछत्र, दर्पण, शीशा । “मनोमदन छितिकरना, काट कर अलग करना, किसी पाल को, छाँहगीर छवि देत"---वि० । वस्तु को किसी विशेष आकार में लाने के | छाक-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. छकना ) तृप्ति, लिये काटना या कतरना, अनाज में से इच्छा-पूर्ति, दोपहर का भोजन, दुपहरिया, कन या भूसी कूट फटकार कर अलग कलेवा, नशा, मस्ती। करना, चुनना, पृथक या दूर करना, छाकनाta-अ. क्रि० दे० ( हि० छकना) हटाना, साफ करना, किसी वस्तु का कुछ खा-पीकर तृप्त होना, श्रघाना, अफरना, नशे अंश निकाल कर छोटा या संक्षित करना, में मस्त होना, हैरान होना, छाके (ग्रा०)। चिन्दी की बिन्दी निकालना, अलग या "जगजीव मोह मदिरा पिये, छाके फिरत दूर रखना । मुहा०-पक्की छांटना-शुद्ध | प्रमाद में"-भर० । "प्रेममद छाके पद परत भाषा बोलना। कहाँ के कहाँ".-रखा। छोडना*-स० क्रि० (दे० ) छोड़ना। | काग-संज्ञा, पु. (सं० ) बकरा। स्त्री० छाँद-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० छद =बंधन) छागी। चौपायों के पैर बाँधने की रस्सी, नोई। छागल -संज्ञा, पु० दे० (सं० ) बकरा, बकरे छांदना-स० क्रि० दे० (सं० छंदना) की खाल की चीज़ । संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. रस्सी आदि से बाँधना, जकड़ना, कसना, सांकल ) पैर का एक गहना, झाँझन । For Private and Personal Use Only Page #702 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir -- - छादित छाछ-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० एच्छिका )। दुख से कलेजा दहल जाना, मानसिक मक्खन निकाला पनीला दूध या दही, व्यथा होना, ईर्ष्या से हृदय व्यथित होना, मट्ठा, मही, छांछी (दे० ) " चहिय जलन होना। छाती पीटना-दुख या अमिय जग जुरै न छाँछी"--रामा० । शोक से व्याकुल होकर छाती पर हाथ "पीवत छाँछहि कि"- पटकना। छाती फटना (विदरना)बाज-संज्ञा, पु० दे० (सं० छाद) अनाज दुख से हृदय व्यथित होना, लजा या संताप फटकने का सींक का बरतन, सूप, छाजन, होना । “बल बिलोकि विदरति नहिं छप्पर, छज्जा, शोभा। "पूंछ बाँधियो छाती"-रामा० । छाती से लगानाछाज"-वृं। " श्रोही छाज छत्र अरु आलिंगन करना, गले लगाना । वज्र की पाटू"-१०। छातो--कठोर हृदय जो दुःख सह सके, छाजन-संज्ञा, पु० दे० (सं० छादन) सहिष्णु हृदय । कलेजा, हृदय, मन, जी। आच्छादन, वस्त्र, कपड़ा । यो०-भाजन मुहा०-छाती जलना--अजीर्ण आदि छाजन - खाना-कपड़ा। संज्ञा, स्त्री० दे०) के कारण हृदय में जलन होना, शोक से छप्पर, छानी, खपरैल, छाने का काम या हृदय व्यथित या सन्तप्त होना, डाह या ढंग, छवाई। जलन होना। छाती जडाना-(दे०) हाजना--अ. क्रि० दे० (सं० छादन ) शोभा देना, अच्छा या भला लगना, छाती ठंढी करना। छाती ठंढी करनाफबना । वि० छाजित । “माथे मोर-मुकुट चित शान्त और प्रफुल्लित करना, मन अति छाजत"- स्फु० । की अभिलाषा पूर्ण करना। छाती धड़छाजा*-संज्ञा, पु० (दे०) छन्जा । कना (धरकना )-खटके या भय से प्र० कि० (दे०) शोभा देता है। "जो कलेजा जल्दी जल्दी उछलना, जी दहलना । कुछ करहिं उन्हें सब छाजा"--रामा० ।। छाती पसीजना--मन में करुणा आना, छात*-संज्ञा, पु० (दे० ) छाता, छत ।। स्तन, कुच, हिम्मत, साहस । मुहा०छाता-संज्ञा, पु० दे० (सं० छत्र ) बड़ी | छाती ठोंक कर-साहस करके। छतरी, छत्र, मेह, धूप आदि से बचने के छात्र-संज्ञा पु० (सं०) शिष्य, चेला । यौ०लिये पाच्छादन, खुमी। छात्र-धर्म। छाती-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० छादिन् ) छात्रवृत्ति-संज्ञा स्त्री० यौ० (सं०) वह वृत्ति हड्डी या ठठरियों का पल्ला जो पेट के या धन जो विद्यार्थी को विद्याभ्यास के उपर गर्दन तक होता है, सोना, वक्षस्थल । सहायतार्थ दिया जाय। "तोहिं देखि सीतल भई छाती"--रामा। छात्रालय-संज्ञा पु० यौ० (सं०) विद्या. मुहा०-छाती कड़ी या पत्थर की करना र्थियों के रहने का स्थान, वोर्डिंग हाउस -भारी दुःख सहने के लिये हृदय कठोर हास्टिल (अं०) छात्रावास । करना । छाती पर मँग या कोदो दलना छादन--संज्ञा पु. (सं० ) छाने या ढकने -किसी को कठोर बात कहना, दिल का काम, जिससे छाया या ढाका जाय । दुखाना, उपद्रव करना । छाती पर होला प्रावरण, आच्छादन, छिपाव, वन । ( वि. भूनना--पास ही उपद्रव करना, दुख छादित ) यो०---भोजन-छादन । देना । शती पर पत्थर रखना- छादान-संज्ञा पु० (दे०) जल-पात्र, मसक । दुख सहने के लिये हृदय कठोर करना। छादित-वि० (सं० छादन ) ढका हुआ, छाती पर सांप लोटना या फिरना- आच्छादित । वि० छादनी । For Private and Personal Use Only Page #703 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir छान ६६२ छायादान छान-संज्ञा स्त्री० दे० (सं० छादन ) छप्पर, उसके खुदे या उभरे हुये चिन्हों को चिन्हित छानी । यो०-द्वान बीन-खोज । करना ठप्पे से निशान डालना, मुद्रित या छानना–स० कि० दे० (सं० चालन, क्षरण) अंकित करना, काग़ज़ प्रादि को छापे की चूर्ण या तरल पदार्थ को महीन कपड़े या कल में दबाकर उस पर अक्षर या चित्र और किसी छेददार वस्तु के पार निकालना अंकित करना । (दे०) गिरी हुई दीवाल जिससे उसका कूड़ा-करकट निकल जाय ।। | पर मिट्टी चढ़ाना, घेर या दबा लेना। छाँटना, बिलगाना, अलगाना, जाँचना छापा-संज्ञा पु० दे० (हि. छापना ) साँचा ढंदना, अनुसंधान करना, भेद कर पार जिस पर गीली स्याही आदि पोत कर करना, नशा पीना। स० क्रि० (दे०) छादना। उसके खुदे चिन्हों को किसी वस्तु पर उताछान-बीन-संज्ञा स्त्री० यौ० (हि० छानना+ रते हैं। ठप्पा, मुहर, मुद्रा, ठप्पे या मुहर से बीनना) पूर्ण अनुसंधान या अन्वेषण, जाँच- उतारे चिन्ह या अक्षर, शुभ अवापरों पर पड़ताल, गहरी खोज, पूर्ण विवेचना, विस्तृत हलदी श्रादि से छापा गया ( दीवार, कपड़े विचार, गहन गवेषणा। श्रादि पर ) कर चिन्ह, रात में बेख़बर लोगों छाना - स० क्रि० दे० (सं० वादन ) किसी पर आक्रमण, हमला । मुहा॰—छापा वस्तु पर दूसरों का फैलाना कि वह पूरी ढक मारना-हमला करना। जाय, पाच्छादित करना, पानी, धूप आदि छापाखाना-- संज्ञा पु० यौ० ( हि० कापा-+ से बचाव के लिये किसी स्थान के ऊपर कोई फा० खाना) पुस्तकादि छापने का स्थान, वस्तु तानना या फैलाना, बिछाना, फैलाना मुद्रालय, प्रेस ( अं० ) शरण में लेना। अ० कि. (दे० ) फैलना, छार-वि० (दे० ) नाम । पसरना, बिछ जाना, घेरना, डेरा डालना, कामादरी* --- वि० स्त्री० यौ० (दे०)क्षामोदरी। रहना ..." रहो प्रेम-पुर छाय"... तु०। छायल-संज्ञा पु० (दे० ) एक ज़नाना पह छानि-छानी--- संज्ञा स्त्री० दे० ( सं० छादन ) नावा ।..." छायल बंद लाए गुजराती" घास-फूस का छाजन, छप्पर । " कलि में | -५०।। नामा प्रगटियो ताकी छानि छवावै''-सूर० । छाया-संज्ञा स्त्री. ( सं० ) उजाला रोकने " विधि भाल लिखी जुपै टूटियै छानी" वाली वस्तु के पड़ जाने से उत्पन्न अंधकार या -नरो। कालिमा, साया, भाड़ या आच्छादन के छाप-संज्ञा स्त्री० दे० ( हि० छापना ) छापने कारण धूप, मेह आदि का प्रभाव, स्थान का चिन्ह, मुहर का चिन्ह, मुद्रा, शंख-चक्र जहाँ श्राड़ के कारण किसी आलोकप्रद वस्तु श्रादि के चिन्ह जिन्हें वैष्णव अपने अंगों का उजाला न हो, परछाई, प्रतिबिम्ब, पर गरम धातु से अंकित कराते हैं, मुद्रा, अक्स, तप वस्तु, प्रतिकृति, अनुहार, वह अँगूठी जिसमें अक्षर श्रादि खुदे हों, पटतर, अनुकरण, सूर्य की एक पली, कवियों का उपनाम । मुहा० छाप कांति, दीप्ति शरण, रक्षा, अंधकार, प्रभाव, हाना-प्रभाव होना । छाप लगाना -.. श्रा- छंद का एक भेद, भूत प्रेत का विशेषता या प्रभाव लाना । छाप रखना भाव । क्रि० वि० ( हि० छाना ) घिरा । प्रभाव या उपनाम रखना । छायात्राहिणी --संज्ञा स्त्री० यौ० (सं० ) छापना-स० कि० दे० (सं० चपन ) स्याही समुद्र फांदते हुये हनुमान जी को छाया आदि लगी वस्तु को दूसरी पर रखकर उसकी पकड़ खींचने वाली राक्षसी । प्राकृति उतारना, किसी साँचे को दबाकर छायादान--संज्ञा पु० यौ० (सं० ) घी या For Private and Personal Use Only Page #704 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कायापथ छिटफूट तेल से भरे काँसे के कटोरे में अपनी परछाही | छाबरा*-संज्ञा पु० (दे० ) छौना । देखकर दिया जाने वाला दान । छाधा--संज्ञा पु० दे० (सं० शावक ) बच्चा, छायापथ-संज्ञा, पु० यो० (सं०) श्राकाश- पुत्र, बेटा, जवान हाथी । स० कि० (हि. गंगा, देव-पथ। काना ) छाया हुआ। छायापुरुष-संज्ञा पु० यौ० (सं०) हठ योग | छाह -- संज्ञा स्त्री० (दे०) मट्टा, छाँछ, मही। के अनुसार मनुष्य की छाया-रूप प्राकृति छिउँको--- संज्ञा स्त्री० दे० (हि. चिंउटी ) जो आकाश की ओर स्थिर दृष्टि से बहुत | एक छोटी चींटी, एक छोटा उड़ने वाला देर तक देखते रहने से दिखाई पड़ती है कीड़ा, चिकोटी। बार--- संज्ञा पु० दे० (सं० क्षार ) जली हुई किउल-संज्ञा पु० (दे० ) ढाक, पलाश, वनस्पतियों या रसायनिक क्रिया से जलाई टेसू छयुत (मा.)। धातुओं की राख का नमक, क्षार, खारी | चिकनी-संज्ञा स्त्री० दे० (हि० छीकना ) नमक, खारी पदार्थ, भस्म, राख, खाक, खार नकछिकनी नामक घास । (दे० ) जैसे-जवाखार । यौ० छार-बार छिकुनी-संज्ञा स्त्री० (दे० ) छड़ी, कमची। करना-नष्ट-भ्रष्ट करना, जलाकर राख शिका--- संज्ञा स्त्री० (सं० ) छींक । करना । धूलि, गर्द, रेणु ।..." जारि करै | छिगुनी-संज्ञा स्त्री० दे० (सं० क्षुद्र -+ अंगुली) तेहि छार"--०। सबसे छोटी अँगुली, कनिष्ठिका । शल संज्ञा स्त्री० दे० (सं० क्षाल ) पेड़ों के विच्छ * -- संज्ञा स्त्री० (दे० ) छिछ। धड़ आदि के ऊपर का प्रावरण, बल्कल, छिछकारना--स० कि० ( दे० ) छिड़कना। बकला ( दे०)। छिछड़ा-संज्ञा पु० ( दे० ) छीछड़ा । हालटी-संज्ञा स्त्री० दे० (हि० छाल+टी) छिछला--वि० दे० (हि० ठूछा- ला प्रत्य०) छाल या सन का बना हुआ वस्त्र । उथला । ( स्त्री० छिछली)। छालना--प्र० कि० दे० (सं० चालन) विछोरपन-किछोरापन-ज्ञा पु० दे० छानना, छलनी सा छिद्रमय करना। (हि० छिछोरा ) छिछोरा होने का भाव, बाला- संज्ञा पु० दे० ( सं० छाल ) छाल | शुदता अोछापन, नीचता। या चमड़ा, जिल्द जैसे मृगछाला, जलनेछिकोरा-वि० दे० (हि० छिछला) क्षुद्र, या रगड़ खाने श्रादि से देह के चमड़े की अोछा, तुच्छ । ( स्त्री० बिछारो)। ऊपरी झिल्ली का उभार जिसके भीतर पानी किटकना अ. क्रि० दे० (सं० क्षिप्ति ) सा चेप रहता है, फफोला, फलका (दे०) इधर उधर पड़ कर फैलना, बिखरना, प्रकाश झलका (ग्रा.)। का चारों ओर फैलना । " चहू खंड छिटकी छालित-- वि० दे० (सं० क्षालित) प्रक्षालित, वह श्रागी".-प० ।। धोया हुआ । “ रघुवर भक्ति वारि छालित | छिटकनी--- संज्ञा स्त्री० दे० (हि० सिटकिनी) चित बिन प्रयाप ही सूझे" ... बिम। किवाड़ बंद करने की कीली, सिटकिनी । कालिया-कालो--संज्ञा स्त्री० दे० ( हि० छिटकाना-स० कि० दे० ( हि० छिटकना छाला) सुपारी। प्रे० रूप ) चारों ओर फैलाना बिखराना । छावना-स० क्रि० (दे० ) छाना। छिटका--- संज्ञा, पु० (दे० ) परदा, भाड़, छावनी -- संज्ञा स्त्री० दे० (हि. छाना) छप्पर, पालकी का अगला भाग । छान, श्वनई ( ग्रा० , डेरा, पड़ाव, सेना छिटफूट--वि० (दे० ) बिखरा, इधर उधर के ठहरने का स्थान । । पड़ा हुआ। For Private and Personal Use Only Page #705 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir छिनवाना छिड़कना छिड़कना-स० कि० दे० ( हि. छींटा+ बितिरह- संज्ञा पु० दे० (सं० क्षितिरुह ) करना ) द्रव पदार्थ को इस प्रकार फेंकना । पेड़, वृक्ष। कि उसके महीन महीन छींटे फैल कर इधर- छितीस-संज्ञा पु० दे० यौ० (सं० क्षितीश) उधर पड़ें। किरकना (दे०)। राजा, महिपाल । छिड़कवाना–स. क्रि० दे० (हि० छिड़कना चिदना--प्र. कि० दे० (हि. छेदना ) का प्रे० रूप ) छिड़कने का काम दूसरे से छेदयुक्त होना, घायल होना, चुभना गड़ना । कराना। छिड़काना। पकड़ना (दे० ) (प्रे० रूप) छिदवाना । छिड़काई-संज्ञा स्त्री० दे० ( हि० छिड़कना) छिदाना-स० कि० दे० ( हि० छेदना ) छेद छिड़कने की क्रिया का भाव या मज़दूरी, कराना, चुभाना, फँसाना, पकड़ाना, देना। छिड़काव । छिद्र--संज्ञा पु० दे० (सं० ) छेद, सूराख, छिड़काव-संज्ञा पु० दे० (हि० छिड़कना ) बिल, गड्ढा, विवर, अवकाश । ( वि. पानी आदि के छिड़कने का काम । छिदित ) जगह ।..." छिद्रेष्वनाः बहुली भवंति"। छिड़ना-प्र. क्रि० दे० हि० छेड़ना) प्रारंभ | या शुरू होना, चल पड़ना, झगड़ा होना। छिद्रान्वेषण -- संज्ञा. पु० यौ० (सं० ) छिड़ाना - स० कि० ( दे० ) छिनाना, दोष हूँदना, खुचुर निकालना, (वि० छिनवाना, छीनना, फँडाना (ग्रा.)। | छिद्रान्वेषो ) वि. छिद्रान्वेषक। छिण-संज्ञा पु० दे० (सं० क्षण ) थोड़ा विद्रावधान छिद्रान्वेषी-वि• यो० (सं० छिद्रान्वोषिन् ) समय, क्षण, छिन (ग्रा.) खिन (प्रांतीय पराया दोष ददने वाला। स्त्री० छितनियाँ-कितनी-संज्ञा स्त्री० (दे० ) छिद्रान्वेषिणी। डलिया, बांस की दौरी, चंगेली, चंगेरी छिद्रित--वि० (सं. छिद्र ) छेद किया (प्रान्ती० )। हुआ, दूषित। छितरना-प्र० कि० (दे० ) फैलना या | छिन—संज्ञा, पु. (दे०) क्षण, छन (दे०) बिखरना। "तेहि छिन मध्य राम धनु तोरा' - रामा०। वितर-बितर-संज्ञा पु० (दे० ) फैले हुये, छिन -कि० वि० दे० यौ० ( हि छिन तितर-बितर । एक) एक क्षण, दम भर, थोड़ी देर । क्षणैक (सं०) छिनेक (दे०)। छितराना-अ० कि० दे० ( सं० क्षिप्त + छिनकना-स० कि० दे० (हि. छिड़कना ) करण ) किसी वस्तु के खंडों या कणों का नाक का मल ज़ोर से साँस-द्वारा निकालना, गिर कर इधर-उधर फैलना, तितर-बितर | पानी छिड़कना। होना, बिखरना । स० क्रि० खंडों या कणों | छिनवि-संज्ञा, स्त्री० दे० यो० (सं० को फैलाना, बिखारना, छींटना, दूर दूर या | क्षण - छवि ) बिजली। "छिनछबि छबि विरल करना । (प्रे० रूप ) छितरवाना। नहिं गगन विराजत " -रामा० । छिति*-संज्ञा स्त्री० (दे० ) तिति, पृथ्वी। छिनदा-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० क्षणदा) यौ०-छिति-मंडल। रात्रि, निशा। वितिकत, (नाथ, पति, स्वामी, पाल ) छिनना-अ० कि० दे० (हि० ) छीन संज्ञा पु० यौ० दे० (सं० क्षितिकांत ) ज़मीन लिया जाना, हरण होना। का मालिक, राजा, भूपति । छिनवाना-स० कि० (हि. छीनना का प्रे० छितिज-संज्ञा स्त्री० (दे० ) क्षितिज (सं०)। रूप ) छीनने का काम दूसरे से कराना। For Private and Personal Use Only Page #706 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org हिनाना किनाना- - स० क्रि० (दे० ) छिनवाना । ० क्रि० (दे० ) छीनना, हरण करना । छिनार - विनाल - वि० स्त्री० दे० (सं० छिन्ना + नारी ) व्यभिचारिणी, कुलटा, पर पुरुष - गामिनी । पु० निरा | किनारा-छिनाला - संज्ञा, पु० दे० ( हि० छिनाल ) स्त्री-पुरुष का अनुचित सहवास, व्यभिचार । चिन्न - वि० (सं० ) जो गया हो, खंडित । " छिन्न मूल तरु सम है सोई " - रामा० । कट कर अलग हो ६१५ छिन्नभिन्न - वि० यौ० (सं०) कटा हुआ, खंडित, टूटा-फूटा, नष्ट-भ्रष्ट अस्त व्यस्त, तितर-बितर | छिन्नमस्ता -- संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं० ) महा विद्याथों में छठी, एक देवी । किन्ना - संज्ञा, स्त्री० (सं०) गुड़िच, गुड़ीची, 'छिन्ना शिवा पर्पट तोय पानात् " - वै० । faaraar - संज्ञा स्त्री० (सं० ) गुड़िच, गुड़ीची, छिन्नरूहः । छिनवा पर्पट वारिवाह: "छिप - संज्ञा, पु० (दे० ) बनसी, बड़िया, मछली पकड़ने का यंत्र । .C वै० । छिपकली - संज्ञा, स्त्री० दे० (हि० चिपकना ) पल्ली, गृहगोधिका, बिस्तूया, बिसतुझ्या (ग्रा० ) छिपकली । | छिपना - अ० क्रि० (सं० छिप = डालना ) ओट में होना, ऐसी स्थिति में होना जहाँ कोई न देखे, गुप्त या श्रोझल होना । छिपाना- -ल० क्रि० दे० (सं० छिप्= डालना ) आवरण या श्रोट में करना, दृष्टि से श्रोल करना, प्रगट न करना, गुप्त रखना | संज्ञा, पु० छिपाव ( प्रे० रूप ) छिपवाना | त्रिपात्र - संज्ञा, पु० दे० ( हि० छिपना ) छिपाने का भाव, गोपन, दुराव | छिपी - संज्ञा, पु० (दे० ) छीपी, दरजी । छींक जइयो नन्दन छिपी सभागौ ” - छत्र० । वििप्र* - क्रि० वि० (दे० ) क्षिप्र ( सं० ) शीघ्र । यौ० – द्विप्रवाहिनी । संज्ञा स्त्री० नदी, बिजली । विप्रोद्भवा - संज्ञा, स्री० यौ० (सं० क्षिप्र + उद्भवा ) गुडची, गुड़िच, गिलोय, अमृता । हिमा - संज्ञा स्त्री० (दे०) क्षमा, छमा । छिया-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० क्षिम ) घृणित वस्तु, घिनौनी चीज़, मल, ग़लीज़ । छिति के छिति पाल सब जानि परै छिया" -भू०। मुहा०-छिया, करद करनाairat करना, घृणित समझना । छियाबिया C "" Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir करना - ख़राब या बरबाद करना, नष्टभ्रष्ट करना | वि० मैला, मलिन, घृणित । संज्ञा, स्त्री० दे० (हि० बचिया) छोकरी, लड़की | हिरकना - स० क्रि० (दे० ) छिड़कना । छिरेटा - संज्ञा, पु० दे० ( सं० छिलहिड ) एक छोटी बेल, पाताल-गारुड़ी । छिलका - संज्ञा, पु० (दे० ) ( हि० छाल ) परत या खोल जो फलों आदि पर हो । छिलना-म० क्रि० दे० ( हि० छीलना ) छिलके का अलग होना, ऊपरी चमड़े के कुछ भाग का कट कर अलग हो जाना । ( प्रे० रूप० ) छिलवाना । दिलाना - स० क्रि० दे० ( हि० छिलना ) कटवाना, fिomer अलग कराना । बिलौरी - वि० पु० (दे० ) मोटी अँगुली के पार पर का घाव ( रोग ) । किना- - प्र० क्रि० (दे० ) ढेर लगाना, एका करना, क्षीण होना (ग्रा० ) । विहरना - य० क्रि० (दे० ) छितरना, नष्ट होना, बिखरना | किहानी - संज्ञा पु० (दे०) श्मशान, मसान, छींक - संज्ञा, स्त्री० दे० सं० चिक्का) नाक से सहसा शब्द के साथ निकलने वाला For Private and Personal Use Only Page #707 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - छींकना छुपाना वायु का झोंका या स्फोट । “ दाहिन छींक | छीन-वि० (दे०) क्षीण. खीन ( ग्रा० )। तड़ाक भई '"-स्फु०। छीनना-स० कि० दे० (सं० छिन+ना छौंकना-अ० क्रि० दे० ( हि० छींक ) नाक प्रत्य०) काट कर अलग करना, दूसरे से वेग के साथ वायु निकालना। की वस्तु जबरदस्ती लेना, हरण करना, छीट--संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० क्षिप्त ) महीन चक्की श्रादि को छेनी से खुरदुरा करना, बूंद, छींट, जलकण, सीकर, रंग विरंग । कूटना, रेहना, छिड़ाना। के बेल-बूटेदार कपड़ा। छीनाछीनी--संज्ञा, स्त्री० यौ० दे० (हि. कीटना-स० कि० (दे० ) छितराना। छीनना ) छीना झपटी। छींटा-संज्ञा, पु० (सं० क्षिप्त प्रा० छिप्त ) छीनाझपटी- संज्ञा, स्त्री० यौ० दे० (हि. जलकण, सीकर बूंद, हलकी वृष्टि, पड़ी छीनना । झपटना ) किसी वस्तु को किसी से हुई बूंद का चिन्ह, छोटा दाग, मदक छीन कर ले लेना। या चंडू की एक मात्रा, व्यंगपूर्ण उक्ति । काम छीप्र--वि० दे० (सं० क्षिप्र) तेज़, वेगवान, मुहा०-कीटा कसना-कटूक्ति कहना । शीघ्र । संज्ञा, स्त्री० दे० (हि० छाप ) छाप, छी-अव्य० दे० (अनु० घृणा-सूचक चिन्ह, दाग़, सेहुाँ रोग ( ग्रा०)। शब्द । मुहा०-छी की करना--धिनाना, छापा-सज्ञा, पु० ६० (हि० छाप ) कपड़ अरुचि या घृणा प्रगट करना । पर बेल बूटे या छींट छापने वाला। स्त्री. छींका-संज्ञा, पु० (सं० शिक्य ) रस्सियों | छपिनि। का जाल जो छत में खाने-पीने की चीजें | छीबर-संज्ञा, स्त्री० दे० ( हि० छापना ) मोटी छींट। रखने के लिये लटकाया जाता है, सिकहर, जालीदार खिड़की या झरोखा, बैलों को छीमी-संज्ञा, स्त्री दे० (सं० शिबी) फली। छीर संज्ञा, पु० (दे०) क्षीर, दूध । “धीर मुँह पर चढ़ाया जाने वाला रस्सियों का जाल, रस्सियों का झूलनेवाला पुल. झूला । पाक-छीरौं हू न धारै धसकत है "- रत्ना० । " लो०-बिल्ली के भाग से छीका टूटता यौ०-छोरपाक · आधा दूध और श्राधा पानी मिला हुश्रा ! यौ०-हीर सागर । संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. छार) कपड़े का वह किनारा छीछड़ा-संज्ञा, पु० दे० (सं० तुच्छ, प्रा० जहाँ लम्बाई समाप्त हो, छोर ।...'द्रुपदछुच्छ) मांस का तुच्छ और निकम्मा टुकड़ा। सुता को चीर-छोर तब गो"- रत्ना० । छीछालेदर-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि० छी छी) छीलन- संज्ञा, स्त्री० दे० (हि० छीलना) दुर्दशा, दुर्गति, ख़राबी। काटन, कतरन, व्योंतन, छाँटन । हीज- संज्ञा, स्त्री० दे० (हि० छीजना) घाटा, । कीलना-अ. क्रि० (हि. छाल ) छिलका कमी, हास। या छाल उतारना, जमी हुई वस्तु को छोजना-अ० क्रि० दे० (सं० चयण ) खुरच कर अलग करना। क्षीण या कम होना, घटना । " मनुवाँ राम कीलर संज्ञा, पु० (हि. छिल्ला) छिछला बिना तन छीजै"-मीरा० । गड्ढा, तलैया (ग्रा०)। छोति संज्ञा स्त्री० दे० (सं० क्षति) हानि, ऊँगली-संज्ञा, स्त्री० दे० ( हि० छंगुली) घाटा, बुराई। एक प्रकार की घुघुरूदार अँगूठी, छागल होतीछान-वि० दे० (सं० क्षति + छिन्न) (प्रान्ती. ) छिगुनी. छोटी अँगुली । छिन्न-भिन्न, तितर-बितर, इधर-उधर। छुआना-स० कि० ( दे० ) छुलाना । For Private and Personal Use Only Page #708 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir छुवाछूत छुरित छुआछूत-संज्ञा स्त्री० यौ० दे० (हि. छूना) कार्य या नौकरी से हटाना, बरखास्त करना, अछूत को छूने की क्रिया, अस्पृश्य-स्पर्श, किसी प्रवृत्ति या अभ्यास को दूर करना । स्पृश्य-अस्पृश्य का विचार, छूत-छात का (छोड़ना का प्रे० रूप) छोड़ने का काम कराना। विचार । “छुआछूत दारुण कुलीनता को छत-संज्ञा स्त्री० दे० (सं० सुत्) भूख, क्षुधा, अंगमानि" -मिश्र बंधु० । बुभुक्षा। छुईमुई-- संज्ञा, स्त्री० दे० या० (हि० छूना+ छतहरा-वि० (दे० ) अशुद्ध, अपवित्र । मुवना ) लज्जालु, लज्जावन्ती, लजाधुर। तिहा--वि० दे० (हि० ठूत+हा-प्रत्य०) छुगुन-संज्ञा, पु० (दे० ) घुघुरू। छूत वाला, जो छूने योग्य न हो, अस्पृश्य, छुच्छी-संज्ञा स्त्री० दे० (हि. छूछा) पतली, कलंकित, दूषित । पोली नली, नाक की कील, लोग छतिहर-संज्ञा पु० (दे० ) कुपात्र, नीच (प्रान्ती०) वि० खोखली, पाली, ठूछी।। मनुष्य, अशुचि वस्तु के संसर्ग से अशुद्ध छुछमछली-संज्ञा, स्त्री० (सं० सूक्ष्म + हि. हुआ बरतन या घड़ा। मछली ) मछली के रूप का अंडे से निकला | छद्र-संज्ञा पु० (दे०) क्षुद्र । “छुद्र नदी मेढ़क का बच्चा । भरि चलि उतराई"-रामा०। छुट*-अव्य० (छूटना ) छोड़ कर, सिवाय, | छुद्रा-संज्ञा स्त्री० दे० (सं० क्षुद्रा ) नीच अतिरिक्त, छूटने का भाव । स्त्री, वेश्या, एक वनौषधि । " शुद्रा यवानी छटकाना* -- स० क्रि० दे० ( हि० छूटना) सहितो कषायः "-वैद्य० । छोड़ना, अलग करना, साथ न लेना, मुक्त छद्रावल-छद्रावलि-संज्ञा स्त्री० (दे०) तुद्र करना, छुटकारा देना। घंटिका । “कटि छुद्रावलि अभरन पूरा"--401 छुटकारा-संज्ञा पु० दे० ( हि० छुटकाना ) | छधा-संज्ञा, स्त्री० दे०) क्षुधा। वि० (दे०) बंधन आदि से छूटने का भाव या क्रिया, छुधित---वि० दे० । “छुधित बहुत अघात मुक्ति, रिहाई, आपत्ति या चिंता आदि से | नाहीं निगमगुम दल-खाय "—सूर० ।। रता, निस्तार । छुपना--म० क्रि० (दे०) छिपना । स० क्रि० छुटना-प्र० कि० ( दे० ) छूटना। छुपाना । प्रे० रूप छुपवाना। छुटपन -संज्ञा, पु० दे० (हि. छोटा + पन छभित*-वि० दे० (सं० जुभित ) विच प्रत्य० ) छोटाई, लघुता, बचपन । लित, चंचल चित्त, घबराया हुआ। छुटाना-स० कि० ( दे० ) छुड़ाना।। छुभिराना*--० क्रि० दे० (हि. क्षोभ ) छुट्टा-वि० दे० (हि० छूटना ) जो बँधा न सुब्ध या चंचल होना। हो, एकाकी, अकेला, मुक्त, स्वच्छंद । स्त्री० छुरधार*-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० शुरधार) छुट्टी। छुरे की धार, पतली पैनी धार । संज्ञा स्त्री० छुट्टी- संज्ञा, स्त्री० दे० (हि० छूट) छुटकारा, (दे० ) छरहरी-छुरा रखने की पेटी। मुक्ति, अवकाश। छुरा-छुरा-संज्ञा, पु० दे० (सं० क्षुर ) छुड़वाना-स० कि० दे० ( हि० छोड़ना का | बेंट में लगा लंबा धारदार हथियार, नाई प्रे० रूप) छोड़ने का काम दूसरे से कराना। के बाल बनाने का हथियार, उस्तुरा । छुड़ाना--स० क्रि० दे० (हि. छोड़ना) (स्त्री० अल्पा० छुरी) बँधी, फँसी, उलझी या लगी हुई वस्तु छरित-संज्ञा पु० दे० (सं०) लास्य नृत्य को पृथक करना, दूसरे के अधिकार से का एक भेद, बिजली की चमक । “छुरिताअलग करना, पुती हुई वस्तु को दूर करना, ! मलाच्छविः"-माघ । भा० श. को०-८८ For Private and Personal Use Only Page #709 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org छुरी-छूरी छुरी छूरी -- संज्ञा, स्त्री० दे० ( हि० कुरा) चीजें काटने या चीरने - फाड़ने का एक बेंटदार छोटा हथियार, चाकू, आक्रमण करने का एक धारदार हथियार । ६६८ छूत छूट - संज्ञा, स्त्री० दे० ( हि० छूटना ) छूटने का भाव, छुटकारा, मुक्ति, अवकाश, फुरसत, बाकी रुपया छोड़ देना, छुड़ौती, किसी कार्य से संबंध रखने वाली किसी बात पर ध्यान न जाने का भाव, वह रुपया जो देनदार से न लिया जाय, स्वतंत्रता, गाली गलौज । छुलकना - ० क्रि० (दे० ) पानी आदि काछलक कर गिरना, कष्ट से मूतना । कुलकुलाना-स० क्रि० (दे० ) छलक छलक कर या थम थम कर गिरना । कुलाना-स० क्रि० दे० ( हि० छूना का प्रे० रूप ) स्पर्श करना | कुवाना) - (दे० ) स० क्रि० (दे०) छुलवाना । छुवाष - संज्ञा पु० (दे० ) लगाव, सम्बन्ध, उपमा | स० क्रि० (दे०) छुवाना - घुलाना । ३- अ० क्रि० दे० ( हि० छुवना ) छुहनाछू जाना, रँगा जाना, लिपना । स० क्रि० ( दे० ) छूना । " हे पुरट घट सहज सुहाये -रामा० । " छुहाना - स० क्रि० (दे० ) दया या प्रेम करना, चूना पोतना, कोहाना (दे० ) । उज्जल करना । छुहारा कोहारा - संज्ञा पु० दे० (सं० क्षुत + हार) एक प्रकार का खजूर, खुरमा, पिंड खजूर । छोहार (दे० ) । छुहावट - संज्ञा, स्त्री० ( दे० ) लगाव, स्पर्श, छूत, प्रेम, स्नेह | छुही – संज्ञा, स्त्री० (दे० ) पोतने की सफ़ेद मिट्टी, खड़िया छूही ( प्रा० ) । का - वि० दे० (सं० कुच्छ ) खाली, रीता, रिक्त, जैसे छूछा घड़ा, जिस में कुछ तत्व न हो, निस्सार, निरधन । स्त्री० घूँ छी " तातैं परे मनोरथ छू छे" - रामा० । छू - संज्ञा, पु० दे० (अनु० ) मंत्र पढ़ कर फूँक मारने का शब्द | विधि स० क्रि ( हि० छूना ) यौ० धूमंतर - जादू । मुहा०छूमंतर होना-चट पट दूर होना, जाता रहना, गायब होना । छूबोलना (होना) - भाग जाना, दूर होना, उड़ जाना । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir छूटना - अ० क्रि० दे० (सं० छुट ) बँधी, फँसी या पकड़ी हुई वस्तु का अलग होना । मुहा० - शरीर (प्राण) छूटना - मृत्यु होना, किसी बाँधने या पकड़ने वाली वस्तु का ढीला पड़ना या अलग होना, जैसे बंधन छूटना, किसी पुती या लगी हुई वस्तु का अलग या दूर होना, बंधन से मुक्त होना, छुटकारा पाना, प्रस्थान करना, दूर पड़जाना, वियुक्त होना, बिछुड़ना, पीछे रह जाना, दूर तक जाने वाले अस्त्र का चल पड़ना, बराबर होती रहने वाली बात का बंद होना, न रह जाना। मुहा० अवसान छूटना - होश न रहना । छक्के छूटना - चकित होना । नाड़ी छूटना - नाड़ी का चलना बंद हो जाना। जवान छूटनागाली देना। हाथ छूटना - मारना, पीटना । किसी नियम या परम्परा का भंग होना, जैसे व्रत छूटना, किसी वस्तु में से वेग के साथ निकलना, रस रस कर ( पानी ) निकलना, ऐसी वस्तु का अपनी क्रिया में तत्पर होना जिसमें से कोई वस्तु कणों या छीटों के रूप में वेग से बाहर निकले, शेष रहना, बाकी रहना, किसी काम या उसके किसी अंग का भूल से न किया जाना, किसी कार्य से हटाया जाना बरखास्त होना, रोज़ी था जीविका का न रह जाना । छूत - संज्ञा, स्त्री० (हि० छूना) छूने का भाव, संसर्ग, छुवाव, गंदी अशुचि या रोगकारी वस्तु का स्पर्श, अस्पृश्य का संसर्ग । यौ० छुआछूत | यौ० - छूत का रोग - वह रोग जो किसी रोगी के छू जाने से हो । अशुचि For Private and Personal Use Only Page #710 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir छूना मकरी या अपवित्र वस्तु के छूने का दोष या दूषण | छेड़ना - स० क्रि० दे० (हि. छेदना) अशुद्धि के कारण अस्पृश्यता, ऐसी अशुद्धि | खोदना खादना, दबाना, कोंचना, छू या जिसके छूने से दोष लगे, भूत-प्रेतादि के खोदखाद कर भड़काना या तङ्ग करना, लगने का बुरा प्रभाव । किसी के विरुद्ध ऐसा कार्य करना जिससे छूना-अ० कि० (सं० छुप ) एक वस्तु का वह बदला लेने को तैयार हो, हँसी-ठठोली दूसरी के इतने पाय थाना कि दोनों करके कुढ़ाना, चुटकी लेना, कोई बात या सट जायँ, स्पर्श होना । स० क्रि० किसी कार्य प्रारम्भ करना, उठाना, बजाने के वस्तु तक पहुँच कर उसके किसी अंग को | लिये बाजे में हाथ लगाना, नश्तर से फोड़ा अपने किसी अङ्ग से सटाना या लगाना, चीरना, अलापना । स्पर्श करना। मुहा०-आकाश छूना- छेड़वाना-स० कि० दे० (हि. छेड़ना का बहुत ऊँचा होना । हाथ बढ़ा कर अँगुलियों | प्रे० रूप ) छेड़ने का काम दूसरे से कराना। के संसर्ग में लाना हाथ लगाना । छेत्र - संज्ञा, पु० (दे०) क्षेत्र । कान छूना-शपथ या प्रतिज्ञा करना। छेद-संज्ञा, पु० (सं० ) छेदन, काटने का दान के लिये किसी वस्तु को स्पर्श करना, काम, नाश, ध्वंश, छेदन करने वाला, दौड़ की बाज़ी में किसी को पकड़ना, उन्नति भाजक (ग्रा.)। संज्ञा, पु० दे० (सं० की समान श्रेणी में पहुँचना, बहुत कम काम छिद्र ) सूराख, छिद्र, रंध्र, विल, दराज, में लगना, पोतना । खोखला, विवर, दोष, दूषण, ऐब । मुहा० छेकना-स० क्रि० दे० (सं० छद ) आच्छा- - (पत्तल में) छेद करना-हानि करना। दित करना, स्थान घेरना, जगह लेना, छेदक-वि० (सं० ) छेदने या काटने वाला, रोकना, जाने न देना, लकीरों से घेरना, नाश करने वाला, विभाजक । काटना, मिटाना, घेरना। छेदन- संज्ञा, पु० (सं०) काट कर अलग छेक-संज्ञा, पु० दे० (हि० छेद ) छेद, करने का काम, चीर-फाड़, नाश, ध्वंस, सूराख, बिल, कटाव, विभाग। काटने या छेदने का अस्त्र, कान छेदने का छेकानुप्रास-संज्ञा पु० यौ० (सं० ) वह संस्कार, कनछेदन, छेदना ( ग्रा० )। अनुप्रास जिसमें वों की आवृत्ति केवल एक छेदना-स० क्रि० दे० (सं० छेदन ) कुछ ही बार हो (१० पी०)। . चुभा कर किसी वस्तु को छेद-युक्त करना छेकापह्नति-संज्ञा, स्त्री. यो. (सं.) एक वेधना, भेदना, क्षत या घाव करना, काटना, अलंकार जिसमें वास्तविक बात का अयथार्थ छिन्न करना। उक्ति से खंडन किया जाता है (अ० पी०)। छेकोक्ति-संज्ञा, स्त्री० यौ० ( सं० ) अर्थातर, केना-संज्ञा, पु० दे० (सं० छेदन ) खटाई गर्भित उक्ति सम्बन्धी अलंकार । से फाड़ा हुआ पानी-निचोड़ा दूध, फटे | दूध का खोया, पनीर। छेरा-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० क्षिप्त) वाधा, छेनी - संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. छेना) लोहे रुकावट। छेड-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. छेद ) छू या | ___ का वह हथियार जिससे लोहा, पत्थर आदि काटे या नकाशे जाते हैं, टाँकी (दे. )। खोद-खाद कर तग करने की क्रिया, हँसीठठोली करके कुढ़ाने का काम, चुटकी, छम -संज्ञा, पु० (दे० ) क्षेम । यौ. चिढ़ाने वाली बात, रगड़ा, झगड़ा। संज्ञा, केम-कुसल । स्त्री० छेड़खानी । यो० छेड़छाड़। । छेमकरी --संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० क्षेमकरी) For Private and Personal Use Only Page #711 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ७०० छेमण्ड छोड़ना मंगल-दायक, कल्याणकारी, चील पक्षी। मथने की मथानी, लड़का, छोरा । स्त्री०-. "छेमकरी कह छेम विशेषी"-- रामा० । छोडि-छोड़ी. छोरी। छेमण्ड--संज्ञा, पु० ( दे०) बिना माँ-बाप छोई- संज्ञा, स्त्री० (दे०) नीरस गँडेरी, का लड़का। निस्सार वस्तु | " श्रीभट अटकि रहे स्वामी छेरना-अ. क्रि० (दे०) अपच रोग या वन धान वृतै मानै सब छोई"।। दस्त होना। छोकड़ा-छोकरा-ज्ञा, पु० (सं० शावक ) छेरी-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० हेलिका) लड़का, बालक, लौंडा । संज्ञा पु० छोकड़ाबकरी । "छेरी चढ़ी बँबूर पै . " स्फु० । पन । स्त्री. छोकड़ी-छोकरी। छेव-संज्ञा, पु० दे० (सं० छेद ) जखम, छोकला-संज्ञा, पु० ( दे० ) छिलका, घाव । मुहा०-छलछेव-- कपट-व्यवहार। बक्कल, छाल। पाने वाली श्रापत्ति, होनहार दुःख । संज्ञा, छोछो-संज्ञा, स्त्री० (दे०) गोदी, कोला, स्त्री० ( दे.) टेंव। उत्सङ्ग। छेवना-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. छेना) छोटा--वि० दे० (सं० क्षुद्र ) जो बड़ाई ताड़ी। स० क्रि० दे० (सं० छेदन ) काटना, और विस्तार में कम हो। डील-डौल में छिन्न करना, चिन्ह लगाना | *स० कि० कम, नीच । स्त्री० कोटी । यौ०-छोटादे० (सं० क्षेपण ) फेंकना, डालना, ऊपर | मोटा-साधारण अवस्था में कम, तुच्छ, डालना। मुहा०-जी पर छेवना सामान्य, पोछा, तुद्र। जी पर खेलना, सङ्कट में जान डालना। छोटाई--संज्ञा, स्त्री० ( हि० छोटा+ई० छह-संज्ञा, पु० दे० (हि० छेव ) छेव, प्रत्य०) छोटापन, लघुता, नीचता, बचपन । खंडन, नाश, परम्परा-भंग । वि. टुकड़े २ संज्ञा, पु. छोटापन । किया हुश्रा, न्यून, कम । संज्ञा, स्त्री० (दे०) छोटी इलायची-संज्ञा, स्त्री० यौ० (हि. छोटी+ इलायची ) सफ़ेद या गुजराती खेह, धूल। छेहर-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० छाया) छाया। इलायची, एला। छोटी हाज़िरी-संज्ञा, स्त्री० यौ० (हि. छ-वि० (दे०) छः । संज्ञा, स्त्री० (दे.) छोटी+हाज़िरी) यूरोपियनों का प्रातःकाल क्षय नाश, छय। का कलेवा। छैया *-संज्ञा, पु० दे० (हि. छवना) छोड़ना-स० क्रि० दे० ( सं० छारण ) बच्चा। पकड़ी हुई वस्तु को पकड़ से अलग करना, छैल*-संज्ञा, पु० (दे०) छैला । "छरे छबीले छैल सब"-रामा० । किस लगी या चिपकी हुई वस्तु का अलग हो जाना, बन्धन श्रादि से मुक्त करना, छैलचिकनियाँ-संज्ञा, पु० यौ० (दे० ) छुटकारा देना, अपराध क्षमा करना, न शौकीन, बना-ठना प्रादमी। ग्रहण करना, प्राप्य धन न लेना, देना, छैलछबीला-संज्ञा, पु० (दे०) सजाबजा परित्याग करना, पास न रखना, पड़ा रहने और जवान आदमी, बाँका, छरीला पौधा । देना, न उठाना या लेना, प्रस्थान करना, छैला-संज्ञा पु० दे० (सं० छवि+ इल्ल. चलाना । मुहा०—किसी पर किसी को प्रत्य०) सुन्दर और बना-ठना पुरुष, छोड़ना-किसी को पकड़ने या चोट सजीला, बाँका, शौकीन । पहुँचाने के लिये उसके पीछे किसी को लगा छोड़ा-संज्ञा, पु० दे० (सं० दवे ) दही | देना। चलाना या फेंकना, क्षेपण करना, For Private and Personal Use Only Page #712 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir छोडवाना ७०१ छोहू किसी वस्तु, व्यक्ति या स्थान से आगे बढ़ | यौ० ओर-छोर-श्रादि-अन्त । स० क्रि० जाना, हाथ में लिये हुये कार्य को त्याग । (दे०) छोरना, छीनना, छोड़ना, खोलना । देना, किसी रोग या व्याधि का दूर करना, | विस्तार, सीमा, हद, नाक, कोर (दे० ) वेग के साथ बाहर निकलना, ऐसी वस्तु को किनारा । चलाना जिसमें कोई वस्तु कणों या छीटों छोराना-स० क्रि० दे० (सं० छारण ) के रूप में वेग से बाहर निकले, बचाना, __ बन्धन आदि अलग या मुक्त करना, शेष रखना। मुहा०-छोड़कर-अति खोलना, हरण करना, छीनना। छोड़ाना रिक्त, सिवाय, किसी कार्य या उसके किसी (हि.)। अङ्ग को भूल से न करना, ऊपर से गिराना। छोरा-संज्ञा. पु. (सं० शावक ) छोकड़ा, छोड़वाना-स० कि० दे० ( हि० छाड़ना का लड़का । स्त्री छोरी, छोकरी। प्रे० रूप ) छोड़ने का काम दूसरे से कराना । छोरा-छोरी-संज्ञा, स्त्री० यौ० (हिं. छारना) छोड़ाना-स० क्रि० (दे०) छुड़ाना। छीन खसोट, छीना छीनी । संज्ञा, पु-|-स्त्री. छोनिप -- संज्ञा पु० (दे०) क्षोणिप, राजा। दे० (सं० शावक ) लड़का, लड़की । छोनी-संज्ञा स्त्री० (दे०) क्षोणी। " छोनी में न छाँड़ा कोऊ छोनिप कौ | छोलदारी-संज्ञा, स्त्री० ( दे० ) खेमा, तम्बू । छौलदारी ( ग्रा०)।। छौना छोटो"-क. रामा०। छोलना-स० क्रि० दे० ( हि० छाल ) छोप-संज्ञा, पु० दे० (सं० क्षेप) मोटा छीलना। लेप, लेप चढ़ाने का कार्य, श्राघात, प्रहार, | वार, छिपाव, बचाव । छोह-छोहू-संज्ञा, पु० दे० (हि० क्षेाभ ) छोपना-स० क्रि० दे० (हि. छुपाना ) ! ममता, प्रेम, स्नेह, दया, अनुग्रह, कृपा । गीली वस्तु मिट्टी आदि को दूसरी वस्तु - "तजहु छोभ जनि छाँडहु छोहू'-रामा० । पर फैलाना, गाढ़ा लेप करना, गिलाव | छोहरिया छोहरी- संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. लगाना थोपना, दबा कर चढ़ बैठना. धर छाह ) लड़की, छोरटी ( प्रान्ती. )। दबाना, ग्रसना, श्राच्छादित करना, ढकना, "नौवा केरि छोहरिया मोहि संग कूर" २० । छेकना, किसी बुरी बात को छिपाना, परदा छोहना - अ. क्रि० दे० (हि. छाह+ना डालना, वार या श्राघात से बचाना, धारोप प्रत्य० ) विचलित, चंचल या क्षुब्ध होना, करना। प्रेम या दया करना। छोभ-संज्ञा, पु० (दे०) क्षोभ । " तिनके छोहरा-संज्ञा, पु० (दे० ) छोरा । "छोटे तिलक छोभ कस तोरे "-रामा० । | छोहरा पै दयावान न भयो "-रघुराज० । कोभना*-अ० कि० दे० ( हि० छ।भ-न कोहाना-अ० क्रि० (हि. छोह ) मुहब्बत प्रत्य० ) करुणा, शंका, लोभ आदि के | करना, प्रेम दिखाना, अनुग्रह या दया करना। कारण चित्त का चंचल होना, क्षुब्ध होना। "कैसो पिता न हिये छोहाना"-प० । वि० छोभित । " सहज पुनीत मोर मन छोहिनी-संज्ञा, स्त्री० (दे०) अक्षौहिणी। छोभा "-रामा०। छोही*-वि० (हि० छ। ह ) ममता रखने छोम-वि० दे० (सं० शाम ) चिकना, वाला, प्रेमी, स्नेही, अनुरागी । कोमल। कोह'---संज्ञा, पु. ( दे० या हिं० छाह ) प्यार छोर-संज्ञा, पु० दे० ( हिं० छोड़ना) आयत | प्रेम, स्नेह । “ तजब छोभ जनि छाँडव विस्तार की सीमा, चौड़ाई का हाशिया। छोहू "-रामा० । For Private and Personal Use Only Page #713 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir छौंक ७०२ जंजीर छौंक-संज्ञा, स्त्री दे० (अनु०) बघार, तड़का। छौंकना-प्र. क्रि० दे० (सं० चतुष्क) छौंकना -- स० कि० दे० (अनु० छायँ २) जानवर का कूदना या झपटना। बासने के लिये हींग ,मिरच आदि से मिले । छौना-संज्ञा, पु० दे० (सं० शावक ) पशु कड़कड़ाते घी को दाल आदि में डालना, : का बच्चा, जैसे मृग-छौना ( दे० ) लड़का । बघारना, मसाले मिले हुए कड़कड़ाते घी स्त्री० ौनी । “ छोनी में न छाँडा कोऊ में कच्ची तरकारी प्रादि भूनने के लिये डालना, तड़का देना । (प्रे० रूप) छौंकाना छोनिप को छौना छोटो"-लु० । छौंकवाना। वाना–स० क्रि० ( दे० ) छुआना। ज-हिन्दी या संस्कृत की वर्ण-माला के चवर्ग जंगी-वि० ( फा०) लड़ाई से सम्बन्ध का तीसरा व्यञ्जन । रखने वाला, जैसे--जंगी जहाज़, फ़ौजी, जंग-संज्ञा, स्त्री. (फा० ) लड़ाई, युद्ध, सैनिक, सेना-सम्बन्धी, बड़ा, बहुत बड़ा, संग्राम। वि० जंगी। दीर्घकाय, वीर, लड़ाका। जंग-संज्ञा, पु० (फा०) लोहे आदि का संघा-संज्ञा, स्त्री० दे० ( सं० जंघ ) पिंडुली, मुरचा। जाँध, रान, ऊरू (सं० )। जंगम-वि० (सं० ) चलने-फिरने वाला. जनना-जाँचना-प्र० कि० ( हिं० जाँचना) चर, जो एक स्थल से दूसरे पर लाया जा जाँचा जाना, देखा-भाला जाना, जाँच में सके, जैसे मनुष्य, पशु, पक्षी श्रादि जीव पूरा उतरना, उचित या अच्छा ठहरना, और चल सम्पत्ति । जान पड़ना, प्रतीत होना, माँगना। “मैं जंगल- संज्ञा, पु. (सं० ) जल-शून्य देश, जाँचन पायउँ नृप तोही"- रामा०। मरु भूमि, रेगिस्तान, वन । वि० जंगली। अँगला-संज्ञा, पु० दे० ( पुत्त० जेंगिला ) जत्रा-वि० दे० । हिं० जाँचना ) जाँचा खिड़की, दरवाजे, बरामदे आदि में लगी हुआ, सुपरीक्षित, अव्यर्थ, अचूक । हुई लोहे की छड़ों की पंक्ति, कटहरा, बाड़ा जज जंजल-वि० दे० ( सं० जर्जर ) पुराना, लोहे की छड़दार चौखट या खिड़की। कमज़ोर, बेकाम, निकम्मा । जंगली-वि० दे० (हि. जंगल ) जंगल में जंजाल संज्ञा, पु० दे० ( हि० जग --जाल) मिलने या होने वाला, जंगल-सम्बन्धी, प्रपञ्च, झंझट, बखेड़ा, बन्धन, फँपाव, बिना बोये या लगाये उगने वाला पौधा, । उलझन, पानी की भँवर. एक बड़ी पलीतेजंगल में रहने वाला, बनैला, ग्रामीण, दार बंदूक, बड़े मुंह को तोप, बड़ा जाल । असभ्य, उजड्ड । " संसारी जंजाल जाल दृढ़, निकरि सकै जंगार-संज्ञा, पु० (फा० ) ताँबे का कसाव, कोउ कैसे"- स्फु० । तुतिया, कसाव का रङ्ग । वि. जंगरी : जंजाली-वि० (हि. जंजाल , झगड़ालू, जंगारी-वि० दे० (फा० जंगार ) नीले बखेड़िया, फ़सादी। ' मनुवाँ जंजाली, तू रंग का। कौन चिरैया पाली' क०।। जंगाल--संज्ञा, पु० (दे० ) जंगार। संज्ञा, जंजीर-~संज्ञा स्त्री० (फ़ा०) साँकल, सिकड़ी, पु० (दे०) बड़ा बरतन । कड़ियों की लड़ी। (वि० जंजीरी)। For Private and Personal Use Only Page #714 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org जंतर जंतर- संज्ञा पु० दे० (सं० यंत्र) कल, श्रौज़ार, यंत्र, तांत्रिक यंत्र, चौकोर या लंबी तावीज़ जिसमें यंत्र या कोई टोटके की वस्तु रहती हैं, गले का एक गहना, कटुला । जंतर-मंतर - संज्ञा ५० यौ० दे० ( हि० यंत्र + मंत्र ) यंत्र-मंत्र, टोना-टोटका, जादूटोना मान मंदिर जहाँ ज्योतिषी नक्षत्रों की गति श्रादि का निरीक्षण करते हैं, श्राकाशलोचन, वेधशाला। ७०३ जंतरी - संज्ञा स्त्री० दे० (सं० यंत्र ) तार बढ़ाने का छोटा जाँता (सुनार) पत्रा, , तिथिपत्र, जादूगर, भानमती, बाजा बजाने वाला। जंतसार -- संज्ञा स्त्री० यौ० दे० (सं० यंत्र + शाला ) जाँता गाड़ने का स्थान, कलघर, जाँताघर | जंता - संज्ञा पु० दे० (सं० यंत्र ) यंत्र, कल, तार खींचने का श्रौज़ार । स्त्री० जंती, जंतरी वि० (सं० यंत्र-यंता ) दंड देने या शासन करने वाला । जंती - संज्ञा स्त्री० ( हि० जंता ) छोटा जाँत, जँतरी । + - संज्ञा स्त्री० (हिं० जनना) माता | जंतु -- संज्ञा पु० (सं० ) जीव, प्राणी, जानवर " जीव-जंतु जे गगन उड़ाहीं " - रामा० । यौ० - जीवजंतु - प्राणी, जानवर । जंतुघ्न - वि० (सं० ) जंतुनाशक, कृमिघ्न । जंत्र - संज्ञा पु० दे० (सं० यंत्र) कल, प्रज्ञार, तांत्रिक यंत्र, ताल | जंत्रना – स० क्रि० दे० ( हि० जंत्र ) ताले के भीतर बंद करना, जकड़ना । संज्ञा स्त्री० (दे० ) यंत्रणा । जंत्र-मंत्र – संज्ञा पु० ( दे० ) जंतर-मंतर, यंत्रमंत्र | " तंत्र मंत्र टोना यादि झूठ ही लखात " शाज रघु० । जंत्रित - वि० दे० (सं० यंत्रित ) यंत्रित, बंद, बँध 'हुआ 1 जंत्री - संज्ञा पु० दे० (सं० यंत्र ) बाजा, तिथिपत्र, जंतरी । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भान जंद - संज्ञा पु० दे० ( फा० जंद ) फ़ारस का त्यंत प्राचीन धर्म-ग्रंथ, उसकी भाषा । जंदरा - संज्ञा ५० दे० (सं० यंत्र ) यंत्र, कल, जाँता, ताला । जंपना - स० क्रि० दे० (सं० जल्पन ) बोलना, कहना । 'यौं कवि भूषण जंपत है" जंबीर --- संज्ञा पु० (सं० ) जंबीरी नीबू मरवा, बन-तुलसी । जंबीरी नीबू - संज्ञा, पु० यौ० (सं० जंबीर ) एक खट्टा नीबू, जिसमें सुई चुभाने से गल जाती है, जँभीरी नीबू । जंबु - संज्ञा पु० (सं० ) जामुन ( फल ) | जंबुक संज्ञा पु० (सं०) बड़ा जामुन, फलंदा ( प्रान्ती० ) फरेंदा, केवड़ा, शृगाल, स्योर । " 86 ' जूथ जंबुकन ते कहूँ - वृं० जंबुद्वीप - संज्ञा पु० यौ० (सं० ) सात द्वीपों में से एक जिसमें भारत है ( पुरा० ) । जंबुमत् - संज्ञा पु० ( दे० ) जांबवान् । जंबू - संज्ञा पु० (सं० ) जामुन, कश्मीर का एक प्रसिद्ध नगर । तुप जंबूर - संज्ञा पु० ( फा० ) जंबूरा, जमुरका, तोप की चरख. पुरानी छोटी तोप जो प्रायः ऊँटों पर लादी जाती थी, जंबूरक। जंबूरक- संज्ञा स्त्री० ( फ़ा० ) छोटी तोप, तोप का चर्ख, भँवर, कली । जंबूरची - संज्ञा पु० ( फा० ) तोपची, कची, वर्कन्दाज़ सिपाही । जंबूरा - संज्ञा पु० (फ़ा० जंबूर + भौंरा ) तोप चढ़ाने का चर्ख, भँवर - कड़ी, भँवर - कली, सुनारों का बारीक काम का एक औज़ार । जंभ - संज्ञा पु० (सं०) दाद, चौभड़ ( प्रान्ती० ) जेबड़ा, एक दैत्य, जँबीरी नीबू, जंभाई । जंभाई - संज्ञा स्त्री० दे० (सं० जंभा ) निद्रा या आलस्य से मुँह के खुलने की एक स्वाभाविक क्रिया, जमुहाई (ग्रा० ) उवासी । जँभाना - प्र० क्रि० दे० (सं० जृंभण ) जँभाई लेना, जमुहाना जम्हाना ! ( ग्रा० ) For Private and Personal Use Only Page #715 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जंभारि ७०४ जगजीवन जंभारि-संज्ञा पु० यौ० (सं०) इन्द्र, अग्नि, ज़कात-संज्ञा, स्त्रो० (अ०) दान, खैरात, बज्र, विष्णु। कर, महसूल । ज-संज्ञा पु० (सं० ) मृत्युंजय, जन्म, पिता, | जकिता*-वि० दे० (हि० चकित) चकित, विष्णु, श्रादि-अंत में लघु और मध्य में गुरु | विस्मृत, स्तम्भित । जके, जकी (दे०) । वर्ण वाला एक गण (पि० ।।) । वि०-वेग जकी-- संज्ञा, स्त्री० (दे० ) बुलबुल की वान, तेज, जीतने वाला । प्रत्य० - उत्पन्न, | एक जाति । वि० बक्की, झक्की । जात, जैसे-जलज। जक्त- संज्ञा, पु० दे० (हि. जगत ) जगत, जई-संज्ञा स्त्री० दे० (हि. जौ ) जौ की संसार, दुनिया। जाति का एक अन्न, जौ का छोटा अंकुर जो जक्ष-संज्ञा, पु० दे० (सं० यक्ष) यक्ष । मंगल द्रव्य के रूप में ब्राह्मण या पुरोहित भेंट जमा- संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० यक्ष्मा ) करते हैं, अंकुर, फलों की फूल-युक्त बतियाँ, यचमा, तपेदिक (रोग), जच्छमा। जैसे कुम्हड़े की जई । वि० (दे०) जयी । जईफ़-वि. (अ.) बुड्ढा, वृद्ध, बूदा। जखम -- संज्ञा, पु० दे० (फा० जख़म ) संज्ञा स्त्री० ( फ़ा ) ज़ईफ़ी-बुढ़ापा । । क्षत, घाव, मानसिक दुःख का आघात । जखन (ग्रा.)। मुहा०-जखम ताज़ा जकंद-संज्ञा, स्त्री० दे० (फा. जगंद ) या हरा हो जाना-बीते हुये कष्ट का छलाँग, चौकड़ी, उछाल । फिर लौट या याद श्राना। जकंदना -प्र० कि० (हि. जकंद ) जखमी-वि० ( फ़ा० जखमी ) जिसे ज़ख़म कूदना, उछलना, टूट पड़ना। लगा हो, घायल । जक-संज्ञा, पु० दे० (सं० यक्ष ) धनरक्षक भूत प्रेत, यक्ष, कंजूस, सूम । संज्ञा स्त्री० जखीरा-संज्ञा, पु० ( अ० ) एक ही सी (हि० झक ) जिद्द, हठ, धुनि, रट । “छोड़ि चीजों का संग्रह-स्थान, कोश, खजाना, ढेर, सबै जग तोहिं लगी जक"- नरो० । अ० समूह. विविध पौधों और बीजों के बिकने कि० (दे०) जकना-रटना, बड़बड़ाना का स्थान, बाटिका । "जोग जोग कबहूँ... न जानै कहा जोइ जग-संज्ञा, पु० ( सं० जगत् ) संसार, संसार जको"---ऊ० श० । ( वि० जको ) के लोग । *संज्ञा, पु० (दे०) यज्ञ, जग्य । जक-संज्ञा, स्त्री० (फा० ) हार, पराजय, जगजगा-वि० दे० (हि. जगजगाना ) हानि, पराभव, लजा। " सिवा तैं औरंग- चमकीला, प्रकाशित, जगमगाने वाला । जेब पाई ज़क भारी है। जगजगाना-अ० क्रि० (अनु०) चमकना, जकड़-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि० जकड़ना) जकड़ने जगमगाना। का भाव, कसकर बाँधना । मुहा०--जकड़ जगजगाहट-संज्ञा, स्त्री० (हि. जगजगाना) बंद करना-खूब कसकर बाँधना, पूरी चमक, प्रकाश । तरह स्ववश करना। जग-जगी-संज्ञा, स्त्री० दे० ( हि० जग+ जकड़ना-स० क्रि० दे० (सं० युक्त+करण) । जागी ) प्रसिद्ध, विख्यात, संसार में विदित। कसकर या सुदृढ़ बाँधना। अ० कि० "जगाजगी प्रभु कीर्ति तिहारी'--स्फु० । तनाव आदि से अंगों का न हिल सकना। | जगजीवन-संज्ञा, पु० यौ० ( सं० ) संसार जकना*-अ० कि० ( हिजक या चक) का प्राण, दुनिया की जिंदगी, ईश्वर, वायु, भौचक्का होना, चकपकाना, झक में बोलना। जल । “जगजीवन जीवन की गति देखी" | For Private and Personal Use Only Page #716 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - जगजानि जगन्माता जगजोनि--संज्ञा, पु० ( दे० ) जगद्योनि। जगच्चक्षु- संज्ञा, पु० यौ० (सं०) सूर्य । जगड्वाल- संज्ञा, पु. ( सं० ) श्राडम्बर, जगजनक-संज्ञा, पु० यौ० ( सं०) विश्व मिथ्या दिखावा, प्रपंच, व्यर्थ का आयोजन। पिता। जगण---संज्ञा, पु. ( सं० ) प्राद्यन्त लघु | जगजननी- संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं० ) संसार और मध्य वर्ण गुरु वाला एक गण (पि०)। की माता । "जगजननि अतुलित छबि भारी" जगत- संज्ञा, पु० (सं० ) संसार, विश्व, -रामा०। जंगम जीव, महादेव, वायु । “ जगत तपोवन जगद्धाता-संज्ञा, पु० यौ० (सं० जगद्धातृ ) सों किया''-- वि० । यौ०-जगत्पति- विष्णु, शिव, ब्रह्मा । (स्त्री० जगद्धात्री )। जगत्पिता-ईश्वर। जगद्धात्री-संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं० ) दुर्गा, जगत-संज्ञा, स्त्री० (सं० जगति = घर की लचमी, सरस्वती। कुरसी ) कुयें के चारों ओर का चबूतरा । . जगद्योनि-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) शिव, संज्ञा, पु० ( दे० ) जगन् । अ० कि० (दे०) विष्णु, ब्रह्मा, पृथ्वी, जल । जगना, जलना। जगद्वंद्य–वि० यौ० (सं० ) जिसकी बंदना जगत-सेठ-संज्ञा, पु. यौ० (सं० जगत् + संसार करे, पूज्य, ईश्वर । श्रेष्ठ ) धनी, महाजन, विश्व श्रेष्ठ । जगद्विख्यात-वि० यौ० (सं० ) संसार जगत्पिता-संज्ञा, पु० यो० (सं० ) संसार में प्रसिद्ध । के पिता (जनक) ईश्वर, जगजनक। जगना-अ. कि० दे० (सं० जागरण ) "जगत पिता रघुपतिहि निहारी"--रामा०। नींद से उठना, निद्रा-स्याग करना, सचेत जगती-संज्ञा, स्त्री० (सं० ) संसार, विश्व, या सावधान होना, देवी-देवता या भूतदुनिया, जहान, पृथ्वी, भूमि, एक वैदिक प्रेत आदि का अधिक प्रभाव दिखाना, छंद । “ मानगुमान हरो जगती को" राम० | उत्तेजित होना, उभड़ना या उमड़ना, जगदंबा-जगदंबिका--संज्ञा स्त्री०, यौ. (भाग का) जलना, दहकना। जागना, ( सं० ) दुर्गा देवी, सरस्वती, लघमी।। (प्रे० रूप ) जगाना, जगवाना। “जगदंबिकारूप गुन खानी।" " जगदंबा जगन्नाथ-- संज्ञा. पु० यौ० (सं० ) विश्वपति. जानहु जिय सीता''---रामा०। ईश्वर । " जगन्नाथ मनाथ गौरीशनाथं "। जगदाधार-संज्ञा, पु. यो० (सं.) ईश्वर। जगन्नाथ–संज्ञा, पु० (सं० ) ईश्वर, विष्णु, जगदानंद-संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) ईश्वर। उड़ीसे के पुरी नामक स्थान में प्रसिद्ध जगदीश-संज्ञा, पु० (सं.) जगन्नाथ, विष्णु-मूर्ति । परमेश्वर । “जगदीश अब रक्षा करौ" जगन्नियंता---संज्ञा, पु. (सं० जगन्नियंत) जगदीश्वर--संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) परमे- परमात्मा, ईश्वर। श्वर, भगवान, जगन्नायक । जगन्निवास--संज्ञा, पु. (सं०) विष्णु जगदीश्वरी-संज्ञा, स्त्री० यौ० ( सं० ) " जगन्निवासो, बसुदेव सदमनि० -- भगवती, दुर्गा जी। माघ । जगद्गुरु-संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) परमेश्वर जगन्माता--संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं० ) शिव, नारद, अत्यन्त पूज्य या प्रतिष्ठित संसार की माता, दुर्गा, सरस्वती, लक्ष्मी, पुरुष, लोक-शिक्षक। जगजननी जगदम्बा। भा० श० को.-८६ For Private and Personal Use Only Page #717 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जगन्माहिनी ७०६ जटाधारी जगन्मोहिनी-संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) “सुविपुल जघना बद्ध नागेंद्र काँची" दुर्गा, महामाया, विश्व-विमोहिनी। -हनु । जगबंद* - वि० ( दे० ) जगद्वंद्य। जघनचपला-संज्ञा, स्त्रो० यौ० (सं.) जगमग, जगमगा--वि० (अनु.) प्रकाशित, श्रार्या छंद का एक भेद ।। जिस पर प्रकाश पड़ता हो, चमकीला, जघन्य-वि० सं० ) अंतिम, चरम, गर्हित चमकदार, जगामग । स्त्री० जामगी। त्याज्य, अत्यन्त बुरा, नीच, निकृष्ट । संज्ञा, जगमगाना-अ० क्रि० ( अनु० ) खूब पु.--शूद्र, नीच जाति । चमकना, झलकना, दमकना। संज्ञा, स्त्री० जचना--अ० कि. (दे० ) अँचना । जगमगाहट-जगमगाने का भाव, चमक । जच्चा- संज्ञा, स्त्री० ( फ़ा० जच्चः ) प्रसूता जगमगी (दे०)। स्त्री, वह स्त्री जिसके हाल में बच्चा हुश्रा जगरमगर-वि० (दे०) जगमग । हो । यौ० ---जच्चाखाना-सूतिका-गृह, जगवाना-- स० क्रि० दे० (हि. जगना) सौरी (दे० )। जगाने का काम दूसरे से कराना, जगाना । जच्छा -संज्ञा, पु० (दे०) यक्ष । 'कारज जगह-संज्ञा, स्त्री० दे० (फा० जायगाह ) सौं उनमत्त भयो इक जच्छ नै खोइ" -हि० । मेघ० । स्थान, स्थल, मौका, अवसर, पद, मोहदा, जजमान - संज्ञा, पु० ( दे० ) यजमान । नौकरी, जागह (दे०)। जजिया-संज्ञा, पु० ( ० ) दंड, एक प्रकार जगाती--संज्ञा, पु० दे० (अ. जकात ) का कर जो मुसलमानी राज्य-काल में अन्य दान, खैरात, महसूल, कर। धर्म वालों पर लगता था ( इति०)। जगाती--- संज्ञा, पु० दे० (हि. जगात ) जजीरा--संज्ञा, पु० (फा०) टापू, द्वीप । वह जो कर वसूल करे, कर उगाहने का -स. क्रि० दे हि जाट ) धोका काम । “बैठि जगाती चौतरा। देकर कुछ लेना, ठगना 18 - स० कि० दे. जगाना-स० क्रि० दे० (हि. जागना) (सं० जटन ) जड़ना। जागने या जगाने का प्रेरणार्थक रूप, नींद जटल-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० जटिल ) त्यागने को प्रेरणा करना, चेत में लाना, व्यर्थ और झूठ बात, गप्प, बकवाद। होश दिलाना, बोध कराना, फिर से ठीक जटा-संज्ञा, स्त्री० (सं०) एक में उलझे स्थिति में लाना, आग को तेज़ करना, हुये सिर के बहुत से बड़े बड़े बाल, पेड़ सुलगाना । यंत्र-मंत्र श्रादि का साधन की जड़ के पतले पतले सूत, झकरा, करना, जैसे मंत्र जगाना । जगाधना (७०) एक साथ बहुत से रेशे आदि, शाखा, "कान्ह दिवारी की रैन चले बरसाने मनोज जटामासी, जूट, पाट, कौंछ, केवाँच, वेदको मन्त्र जगावन ।" पाठ का एक भेद । “जटा कटाह संभ्रम जगार-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि० जागना ) निलिंप निरी"-शिव०। जागरण, सब का जाग उठना । जगहर जटाजूट--संज्ञा, पु० ( सं० ) बहुत से लंबे (ग्रा०)। बालों का समूह, शिव की जटा।। जगीला-वि० दे० (हि० जागना ) जागने जटाधर-संज्ञा, पु० (सं० ) शिव, महादेव । के कारण अलसाया हुआ, उनींदा। जटाधारी-वि० (सं० ) जो जटा रखे हो। जवन-संज्ञा, पु. (सं०) कटि के नीचे संज्ञा, पु०-शिव, महादेव, मरसे की जाति आगे का भाग, पेडू, जंघा । नितंब, चूतड़।। का एक पौधा, मुर्ग केश, साधु । For Private and Personal Use Only Page #718 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ७०७ - जटाना जड़िया जटाना-स० कि० दे० (हि० जटना) जटने | "जड़ता विषम तमतोम दहिबो करै"..का काम दूसरे से कराना। अ० कि०- | ऊ. श०। ठगा जाना, ठगवाना। जड़त्व--संज्ञा, पु० (सं० ) अचेतन, स्वयं जटामासी-संज्ञा, स्त्री० (सं० जटामांसी) हिल डोल या कोई चेष्टा न कर सकने का एक सुगंधित पदार्थ जो एक वनस्पति की भाव, अज्ञता, मूर्खता । जड़ है, बालछड़, बालूचर । जड़ना -- स० क्रि० दे० (सं० जटन ) एक जटायु-संज्ञा, पु० ( सं० ) एक प्रसिद्ध गिद्ध वस्तु को दूसरी वस्तु में बैठाना, पञ्ची करना। ( रामा०) जटायु, जटाई (दे०) गुग्गुल । ठोंक कर बैठाना, जैसे नाल जड़ना, प्रहार " जाना जरठ जटायू एहा''--रामा०। करना, चुगली खाना । वि० जड़ाऊ । जटित-वि० ( सं० ) जड़ा हुआ। जड़पेड़ -संज्ञा, पु० यौ० (दे० ) मूल सहित जटिल-वि० (सं० ) जटावाला, जटा- वृक्ष, सम्पूर्ण या समूचा पेड़। यौ०धारी, अति कठिन, दुरूह, दुर्बोध, कर | जड़-पेड़ (मूल ) से उखाड़ना--समूल दुष्ट, उलझा हुआ । संज्ञा, स्त्री० जटिलता। नष्ट करना। जठर-संज्ञा, पु० (सं० ) पेट, कुन्नि, एक जड़बट - संज्ञा, पु० (दे०) बरगद का ढूंठ । उदर-रोग, शरीर । वि०-वृद्ध, बूढ़ा, | जड़भरत-संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) अंगिरस कठिन जरठ (सं.)। __गोत्रीय एक ब्राह्मण जो जड़वत रहते थे। जठराग्नि-संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं० ) पेट जड़वाना-स० क्रि० ( हि० जड़ना का प्रे० की वह गरमी जिससे अन्न पचता है। रूप ) जड़ने का काम दूसरे से कराना, जड़-वि० दे० (सं० ) जिसमें चेतनता न जड़ाना (दे० )। संज्ञा स्त्री० जड़वाई। हो, अचेतन, चेष्टा-हीन, स्तब्ध नासमझ, जड़हन-संज्ञा, पु. (हि. जड़+ हनन = मूर्ख, ठिठुरा हुअा, शीतल, ठंढा, गंगा, मूक, गाड़ना) वह धान जिनके पौधे एक ठौर बहिरा, जिसके मन में मोह हो। संज्ञा, से उखाड़ कर दूसरे ठौर पर बैठाये जाते स्त्री० (सं० जटा) वृक्षों और पौधों का! हैं, शालि। पृथ्वी के भीतर दबा भाग जिससे उन्हें जड़ाई-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. जड़ना ) जल और आहार पहुँचता है, मूल, सोर. जड़ने का काम या भाव या मज़दूरी। नींव, बुनियाद । मुहा० ... जड़ उम्बाड़ना जड़ाऊ-वि• ( हि० जड़ना ) जिस पर नग या खोदना, जड़ काटना-किसी की या रत्न आदि जड़े हों, जडुआ (ग्रा.)। सत्ता को सकारण नष्ट करना, अहित जड़ाना-स० क्रि० (दे०) जड़वाना । करना, ऐसा नष्ट करना कि फिर पूर्व प्र. क्रि० दे० (हि० जाड़ा ) सरदी या स्थिति से न पहुँचे, बुराई या अहित | शीत लगना, ठंढ खाना। करना । जड़जमना ( जमाना ) --स्थिति जडाव-संज्ञा, पु० दे० ( हि० जड़ना ) जड़ने का दृढ़ या स्थायी होना ( करना ) । का काम या भाव, जड़ाऊ काम । जड़ पकड़ना-जमना, दृढ़ होना । हेतु, जड़ावर-संज्ञा, पु० दे० (हि. जाड़ा ) जाड़े कारण, सबब, श्राधार । यो०--जड़- के गरम कपड़े। जंगम-स्थावर-जंगम । जड़ित —वि० दे० (सं० जटित ) जड़ा जड़ता- संज्ञा, स्त्री० (सं० जड़ का भाव ) | हुआ, नग जटित । अचेतना, मूर्खता, स्तब्धता, चेष्टा न करने | जड़िया-संज्ञा, पु० दे० ( हि० जड़ना ) नगों का भाव । एक संचारी भाव (का० शा०)। के जड़ने का काम करने वाला, कुंदन-साज़। For Private and Personal Use Only Page #719 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra जड़ी जड़ी - संज्ञा, स्त्री० (हि० जड़) एक वनस्पति ( औषधि ), विरई । यौ० - जड़ी-बूटी - जंगली औषधि । क्रि० वि० ( जड़ना ) जड़ी हुई। जड़ीभूत ( कृत ) - संज्ञा, स्तम्भित, चकित | www.kobatirth.org पु० ७०८ यौ० (सं० ) जडुआ - वि० (दे० ) जड़ाऊ | जड़या - संज्ञा, त्रो० दे० ( हि० जाड़ा + ऐया प्रत्य०) जूड़ी का बुखार | संज्ञा, पु० दे० ( हि० जड़ना + ऐया ) जड़ने वाला, जड़िया । यत्न जत - वि० दे० ( सं० यत् ) जितना, जिस मात्रा का. जेता, जित्ता, जेतो ( ० ) । जतन ( जत्न ) संज्ञा, पु० (दे०) यत्र । " कोटि जतन कोऊ करें ". वृं० । जतनी - संज्ञा, पु० दे० (सं० यत्न ) करने वाला, चतुर, चालाक । जतलाना – स० क्रि० ( दे० ) जताना | जताना - स० क्रि० दे० ( हि० जानना ) ज्ञात कराना, बतलाना, पहले से सूचना देना, श्रागाह करना |..." देत हम सब - हिं जताये " - रत्ना० । यती । " जोगी " के० । जती - संज्ञा, पु० (दे० ) जतीन की छूटी तटी जतु - संज्ञा, पु० (सं०) वृक्ष का गोंद, लाख, लाह, शिलाजीत । जतुक - संज्ञा, पु० (सं० ) हींग, लाह, लाख, लच्छना | पहाड़ी नमक, जतुका - संज्ञा, स्त्री० ( सं० लता, चिमगादड़ । (सं० ) लाह या जतुगृह संज्ञा, पु० यौ० लाख का बना घर, घास-फूस का बना घर, कुटी । " राति माहिं जतु-गृह जरवाया दुरजोधन स पापी "- - महा० । जतेका ४ -- क्रि० वि० दे० ( हि० जितना + एक ) जितना, जिस मात्रा का, जेतिक, जिते, जितेक, जेते ( व्र० ) । जनकौर - जनकौरा जत्था - संज्ञा, पु० दे० (सं० यूथ) बहुत से जीवों का समूह, कुंड, गरोह, वर्ग, फ़िरका । जथा* - क्रि० वि० (दे० ) यथा । यौ०जथा - तथा, जथाजोग | संज्ञा, पु० (दे० ) जत्था | संज्ञा, स्त्री० दे० ( सं० गथ ) पूंजी, । जद- क्रि० वि० दे० (सं० यदा) जब, जब कभी जदा - अव्य० दे० (सं० यदि ) जब, जब कभी । जदि (दे०) यदि अगर । जदपि - क्रि० वि० (दे० ) यद्यपि | जदवार - संज्ञा, स्त्री० दे० ( ० ) निर्विषी, नीच । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जदुनाथ - संज्ञा, पु० ( दे० ) यदुनाथ, यदुपति, जदुपति । जदुनायक – संज्ञा, पु० (दे० ) यदुनायक । जदुपति - संज्ञा, पु० (दे० ) यदुपति, कृष्ण । जदुवंसी - संज्ञा पु० (दे० ) यदुवंशी, यादव | जदुराय, जदुराई-- संज्ञा, पु० यौ० (दे० ) यदुराज, श्रीकृष्ण । जदुवर-जदुवीर - संज्ञा, पु० (दे० ) यदुवर, यदुवीर, श्री कृष्ण । जहां वि० दे० ( ० ज्यादा) अधिक, ज़्यादा | वि० प्रचंड प्रबल । जदपि - क्रि० वि० (दे० ) यद्यपि, जद्यपि । जद्दबद्द - संज्ञा, पु० (दे० ) अकथनीय बात, दुर्वचन, बुरा-भला । जन - संज्ञा पु० (सं० ) लोक, लोग, प्रजा, गँवार, अनुयायी, दास, समूह, भवन, मज़ दूरी, सात लोकों में से पाँचवाँ लोक । जनक - संज्ञा, पु० (सं० ) जन्मदाता, उत्पादक, पिता, मिथिला के प्राचीन राजवंश की उपाधि, सीता के पिता । जनकनंदिनी - संज्ञा, स्त्री० (सं०) सीता जी । जनक- सुता, जनकात्मजा, जनकजा । जनकपुर - संज्ञा, पु० (सं० ) मिथिला की प्राचीन राजधानी । जनकौर - जनकौरा - संज्ञा, पु० दे० ( सं० जनक+पुर ) जनकपुर, जनक राजा के कुटुम्बी, या भाई-बन्धु | For Private and Personal Use Only Page #720 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जनखा जनाई जनखा -- वि० ( फ़ा० जनक ) स्त्रियों के से जनमने का काम कराना, प्रसव करना । हाव-भाव वाला, हिजड़ा, नपंसक। जनमेजय-संज्ञा, पु. ( सं० ) विष्णु, राजा जनता - संज्ञा, स्त्री० (सं० ) जनन का भाव, . परीक्षित के पुत्र जिन्होंने सर्प यज्ञ किया था। जन-समूह, सर्वसाधारण । जनयिता-संज्ञा, पु. (सं० जनयितृ) पिता। जनन-संज्ञा, पु० (सं० उत्पत्ति, उद्भव, जनयित्री-संज्ञा, स्त्री. ( सं० ) माता। जन्म, आविर्भाव, मन्त्रों के दस संस्कारों में | | जनरव- संज्ञा, पु० यौ० ( सं० ) किंवदन्ती, से पहला ( तंत्र.), यज्ञ श्रादि में दीक्षित अफवाह, लोक-निन्दा, बदनामी, कोलाहल, व्यक्ति का एक संस्कार, वंश, कुल, पिता, शोर, हल्ला। परमेश्वर । जनलोक-संज्ञा, पु० (सं० ) ऊपर के सात जनना-स० क्रि० दे० (सं० जनन ) जन्म लोकों में से एक लोक। देना, पैदा करना ब्याना । (प्रे०रूप ) जन- | जनवाई-संज्ञा, स्त्री० ( दे० ) जनाई। घाना, जनाना। जनवाद-संज्ञा, पु० (सं०) किंवदन्ती, जननि-संज्ञा, स्त्री० (दे०) जननी, “जगत | जन-श्रुति, अफवाह, समाचार, ख़बर । जननि अतुलित छबि भारी' -रामा० । जनवाना-स० क्रि० दे० (हि० जनना का जननी-- संज्ञा, स्त्री० ( सं० ) उत्पन्न करने | प्रे० रूप) प्रसव कराना, लड़का पैदा कराना । वाली, माता, कुटकी, अलता, दया, कृपा, | स० कि० (हि० जानना ) समाचार दिलजनी नामक गंधद्रव्य । “जननी तू जननी वाना, सूचित कराना, जनाना । भई, विधि सों कहा बसाय "-रामा० । जनवास (जनवासा)-संज्ञा, पु० यौ० जननेंद्रिय--संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं० ) भग, दे० (सं० जन-1 वास ) बरात या सर्वयोनि, गुह्यन्द्रिय । साधारण के ठहरने या टिकने का स्थान, जनपद (जानपद )-संज्ञा पु० (सं०) सभा, समाज। श्राबाद देश, वस्ती। जनश्रुति-संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं० ) किंव. जनप्रवाद-संज्ञा पु० यौ० (सं० ) निन्दा, | दन्ती, अफ़वाह । लोक-निन्दा, लोकापवाद । जनसंख्या संज्ञा स्त्री० यौ० (सं० ) बसने जनप्रिय--वि० यो० ( स० ) सर्वप्रिय । । वाले मनुष्यों की गिनती या तादाद, जनम-संज्ञा पु० (दे.) जन्म । श्रावादी। जनम-घंटी--- संज्ञा, स्नी. यौ० दे० (हि. जनस्थान--संज्ञा, पु. ( सं० ) दण्डकारण्य जनम | घूटी , बच्चों को जन्म-काल में दो के समीप खरदूषण का स्थान । जाने वाली चूटी। महा---( किसो | जनहरण --संज्ञा, पु० (सं०) एक दण्डक बात का ) जनमघटी में पड़ना-जन्म वृत्त । से ही किसी बात की आदत पड़ना। जनहाई-संज्ञा, पु. ( दे० ) प्रति मनुष्य, जनमना-अ० कि० दे० ( सं० जन्म ) पैदा हर एक व्यक्ति । जनासी ( ग्रा० )। होना, उत्पन्न होना, जन्म लेना, जन्मना । जना-संज्ञा. पु० (दे०) जन, मनुष्य, लोग, जतम-मंगाती. जनम-मैंघाती --संज्ञा. स. क्रि० पैदा किया, उत्पन्न किया। पु० दे० यौ० (हि. जन्म । सँघाती) वह जनाई-- संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. जनना) जनाने जिसका साथ जन्म से ही हो या जन्म | वाली, दाई, जनाने की मज़दूरी। स० कि. भर रहे। ( हि० जनाना ) जताना ।सो जानै जेहि देहु जनमाना-स० क्रि० दे० ( हि० जनम )। जनाई -रामा० For Private and Personal Use Only Page #721 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जनाउ ७१० जन्मकुंडली जनाउ8-संज्ञा, पु० (दे०) जनाब। जनिका-संज्ञा, स्त्री० (दे०) लोकोक्ति, जनाउर-संज्ञा, पु. (ग्रा.) भेड़िया । पहेली, दो अर्थ वाले शब्द। जडाउर ( ग्रा० )। जनित-वि० (सं० ) उत्पन्न, जन्मा हुश्रा। जनाज़ा---संज्ञा, पु. (अ.) शव, लाश, "मोह-जनित संसय दुख हरना"-रामा० । अरथी, लाश रख कर गाड़ने या जलाने की | जनिता-वि० (सं० ) पिता, बाप । संदूक । जनित्रि-जनित्री-वि० (सं०) माता, माँ। जनातिग-संज्ञा, पु. "(सं० ) अतिमानुष, जनियां-संज्ञा, स्त्री० दे० (फा० जान ) मनुष्य की शक्ति से बाहर । प्रियतमा, प्रेयसी, प्यारी । जानी (ग्रा०)। जनाधिनाथ—संज्ञा, पु० यौ० ( सं० ) जनी-संज्ञा, स्रो० दे० (सं० जन ) दासी, राजा, विष्णु । अनुचरी । स्त्री. माता, पुत्री. एक गंधद्रव्य । जनानखाना-संज्ञा, पु. (फा०) स्त्रियों वि० स्त्री० उत्पन्न या पैदा की हुई । व० क. के रहने का स्थान, अंतःपुर, निशान्त ।। स्त्री० प्रत्य। जनाना स० कि० ( दे०) जताना। स० जनु - क्रि० वि० दे० ( हि० जानना ) मानो, क्रि० (हि० जनना) उत्पन्न (प्रसव ) कराना। गोया, मनो, मनु (व.) ( उत्प्रेक्षा जनाना--वि० (अ.) स्त्रियों का, स्त्री- वाचक ) " सोई जनु दामिनी दमंका"सम्बन्धी, हीजड़ा, निर्बल, डरपोंक। संज्ञा, रामा०। पु० (दे०) जनखा, मेहरा, अन्तःपुर, ज़नान- जनेऊ-संज्ञा, पु० दे० (सं० यज्ञ ) यज्ञोखाना, पत्नी, जोरू । संज्ञा, पु० जनाना- पवीत-संस्कार, यज्ञोपवीत, जनेष (दे०)। पन । ( स्त्री० जनानी ) " द्वारे द्वारपालक | "दीन्ह जनेउ मुदित पितु माता'-- रामा० । हैं साहब जनाने हैं" जनेत-संज्ञा, स्त्री० (सं० जन+ एत-प्रत्य०) जनान्तिक - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) अप्रकाश, | बरात, वर-यात्रा । गोपन, छिपा सम्बाद, नाटक में आपस । जनैया-वि० दे० ( हि० जानना -- ऐया. में बात करने की एक मुद्रा, कर-संकेत से एक प्रत्य०) जानने वाला, जानकार । व्यक्ति को बुला कर धीरे २ बात करना। जनोदाहरण-वि. पु. यौ० (सं०) यश, जनाब-संज्ञा, पु. ( अ०) आदर सूचक गौरव, कीर्ति, मान । शब्द, महाशय, श्रीमान् । जनौं-क्रि० वि० दे० (हि. जानना) जनाईन-संज्ञा, पु० यो० (सं०) विष्णु, कृष्ण ।। जानो, जन, मानो, गोया । "जानौं घनजनाव--संज्ञा, पु० दे० (हि० जनाना) श्याम रैन श्राये मोरे भौन माहि"। जनाने की क्रिया का भाव, सूचना, इत्तला, | जन्म-संज्ञा, पु० (सं०) गर्भ से निकल कर ' भीतर करहु जनाव"- रामा० । जीवन धारण करना, उत्पत्ति, पैदाइश | जनावर--वि० (दे०) पशु, जानवर, मूर्ख । महा0-जन्म लेना--- उत्पन्न या पैदा “ कहि हरिदास पिंजरा के जनावर लौं"।। होना अस्तित्व में पाना । प्राविर्भाव,जीवन, जनि-संज्ञा, स्त्री० (सं० ) उत्पत्ति, जन्म ज़िन्दगी। मुहा०-जन्म हारना- व्यर्थ पैदाइश, नारी, स्त्री, माता, एक गंधद्रव्य, जन्म लेना, दूसरे का दास होकर रहना । पत्नी, जन्म-भूमि । ॐ अव्य० (७०) मत, | आयु, जीवनकाल, जैसे-- जन्म भर। नहीं । " कह प्रभु हँसि जनि हृदय डराहू” । जन्मकुंडली--संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) जन्म-रामा०। | समय में ग्रह-स्थिति का चक्र-फ० ज्यो। For Private and Personal Use Only Page #722 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - जन्मकाल ७११ जबरई जन्मकाल-संज्ञा, पु. यौ० (सं०) उत्पत्ति । जन्यु-संज्ञा, पु० (सं०) ब्रह्मा, अग्नि, प्राणी, का समय। जन्म, सप्त ऋषियों में से एक । जन्मतिथि-- संज्ञा, स्त्री० यौ० (दे०) जन्म का जप-संज्ञा, पु. (सं.) किसी मन्त्र या वाक्य दिन, जयंती। का बार २ धीरे २ पाठ करना, पूजा आदि जन्मदिन---संज्ञा, पु० यौ० (सं०) जन्म-दिक्स, में मन्त्र का संख्या-पूर्वक पाठ । उत्पत्ति का दिन, वर्ष गाँठ। जपतप- संज्ञा, पु. यौ० (हि.) संध्या पूजा, जन्मना-अ. क्रि० दे० (सं० जन्म+ना- जप और पाठ श्रादि, पूजा-पाठ । “ जपतप प्रत्य०) उत्पन्न या पैदा होना, अस्तित्व | कछु न होय यहि काला"- रामा० । में आना। जपना--स० क्रि० दे० (सं० जपन ) किसी जन्मपत्र--संज्ञा, पु० यौ० (सं०) जन्म-पत्री वाक्य या शब्द को धीरे २ देर तक कहना (स्त्री०) जन्म-कुण्डली। या दोहराना, संध्या, यज्ञ या पूजा आदि जन्मभूमि--संज्ञा, स्त्री. यौ० (सं०) वह के समय संख्यानुसार बार २ मंत्रोच्चारण स्थान या देश जहाँ किसी का जन्म हुआ करना, खाजाना, ले लेना। हो । “ जननी-जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि जपनी-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि० जपना) माला, गरीयसी" "जन्म भूमि मम पुरी सुहावनि" गोमुखी, गुप्ती। --रामा०। जपनीय-वि० (सं०) जप करने योग्य । जन्मस्थान - संज्ञा, पु. यौ० (सं०) जन्मभूमि, जन्मभूमि, जपमाला-संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) जप करने राम-जन्म-स्थल ( अयो०)। का माला। " जप माला छापा तिलक" जन्मांतर-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) दूसरा जन्म। | -वि०। " जन्मांतरे भवति कुष्टो. "-भावः ।। जपा-संज्ञा, स्त्री. (सं०) जवा, अड़हुल । जन्मांध-वि० यौ० (सं० जन्म + अंध) जन्म | संज्ञा, पु० दे० (सं० जापक ) जपने वाला। से अन्धा, आजन्म नेत्रहीन । जपीतपी-संज्ञा, पु. यौ० (सं०) पूजक, जन्माना- स० क्रि० दे० (हि. जन्मना) अर्चक, जपतप-परायण, तपस्वी। उत्पन्न ( प्रसव ) कराना, जन्म देना। जफा-संज्ञा, स्त्री० (फा०) सख़्ती, जुल्म । जन्माष्मी-- संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) भादों की कृष्णाष्टमी कृष्ण की जन्म तिथि। जफील-संज्ञा, स्त्री० दे० (अ. जफ़ीर ) सीटी का शब्द, सीटी। जन्मेजय-संज्ञा, पु० (सं०) जनमेजय।। जन्मोत्सव-संज्ञा, पु. यौ० (सं०) किसी के । जब-क्रि० वि० दे० (सं० यावत् ) जिस जन्म का उत्सव तथा पूजन । समय, जिस वक्त । मुहा०-जब २जन्य-संज्ञा, पु. (सं०) साधारण मनुष्य, जब कभी, जिस २ समय । जब-तबजनसाधारण, किंवदन्ती, अफ़वाह, राष्ट्र, कभी २ । जब देखो तब-सदा, सर्वदा, । किसी एक देश के वासी, लड़ाई, युद्ध, जबड़ा-संज्ञा, पु० दे० (सं० ज भ ) मुंह पुत्र, बेटा, पिता, जन्म। स्त्री. जन्या। में दोनों ओर ऊपर-नीचे की वे हड़ियाँ वि० जन-सम्बन्धी, किसी जाति, देश, या जिनमें दाढ़ें जमी रहती हैं। राष्ट्र से सम्बन्ध रखने वाला, राष्ट्रीय, | जबर- वि० दे० (फा. जबर ) बलवान, जातीय, जो उत्पन्न हुअा हो, उद्भूत। | मजबूत, दृढ़, अधिक। जन्या- संज्ञा, स्त्री० (सं०) माता की संगिनी, जबरई -- संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. जबर ) वधू की सखी। अन्याय-युक्त, अत्याचार, सख्ती, ज़्यादती। For Private and Personal Use Only Page #723 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ज़बरदस्त ७१२ ज़बरदस्त - वि० ( फ़ा० ) बलवान, मज़. बूत, दृढ़ | संज्ञा, स्त्री० ज़बरदस्ती । ज़बरदस्ती - संज्ञा, स्त्री० (का० ) अत्याचार, सीनाजोरी, ज़ियादती क्रि० वि० बलात् ज़बरन - क्रि० वि० दे० (का० जनन) बलात्, ज़बरदस्ती, बल पूर्वक, हठात् । जबरा - वि० दे० ( हि० जबर ) बलवान, बली । -- लो० " ज़बरा मारै गेवै न देय" । संज्ञा, पु० दे० ( अं० जेवरा ) गदहे से कुछ बड़ा एक सुन्दर जङ्गली जानवर । ज़बह -संज्ञा, पु० ( ० ) गला काट कर प्राण लेने की क्रिया, हिंसा । जबहा - संज्ञा, ५० दे० ( हि० जीव ) जीवट. साहस । ज़बान -संज्ञा, स्त्री० ( फ़ा० ) जीभ, जिह्वा । मुहा० - ज़वान खींचना -- धृष्टव्य पूर्ण बातें करने के लिये कठोर दण्ड देना । ज़बान खुलना - बोलने में लिहाज़ न रहना, दृष्ट हो जाना । ज़बान पकड़नाबोलने न देना, कहने से रोकना । जबान बंद रखना, ज़बान पर ताला लगाना( कुल्लित व्यर्थ ) न बोलना | ज़वान चलना (नाना ) - बद बढ़ कर बोलना, कुत्सित बोलना, गाली बकना । जवान पर आना -मुँह से निकलना । ज़बान बन्द होना ( करना ) - बोल न सकना, बोलने न देना । जुबान पर लगाम न होनासोच-समझ कर बोलने के अयोग्य होना, बिना सोचे मनमाना बकना । दो ज़बान होना- झूठ-सच सब बोलना | ज़बान हिलाना -मुँह से शब्द निकालना । ज़बान का ठीक में हाना -बात का विश्वास न होना । (दवी ) ज़वान से बोलना ( कहना ) - स्पट रूप से बोलना, भय से साफ़ २ न कहना, आधीन होना । ज़बान साफ़ ( ठोक ) दुरुस्त न होना - शुद्ध और स्पष्ट न बोल सकना, बरज़वान - ( होना) कंठस्थ उपस्थित | जमघट - जमघटा, जमघट्ट लम्बी ज़ब न रखना (ज़बान गिरना ) - खाने का लालची होना । वे ज़बान - बहुत सीधा, बे उज्र । जवान को अपने काबू में रखना -सोच कर बोलना, कुल्लित न बकना, कुपथ्य न खाना । जवान खोलना - कुछ ( बुरा भला कहना, बात, बोल, प्रतिज्ञा, वादा, कौल, भाषा, बोली । यौ० मादरी जवान मातृ-भाषा । ज़बानदराज़ - वि० यौ० (का० ) ता पूर्वक अनुचित बातें करने वाला | संज्ञा, स्त्री० ज़बान दराज़ी । जवानी - वि० ( हि० जुबान ) केवल ज़बान से कहा जाय किया न जाय, मौखिक, जो लिखित न हो मुँह से कहा हुआ, स्मरण, कंठस्थ | Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जबाला - संज्ञा, स्त्री० (सं०) नाबाल ऋषि की माता, जो एक दासी थी । ज़बून - वि० ( तु० ) बुरा, ख़राब । ज़क्त - संज्ञा, पु० ( ० ) किसी अपराध में राज्य द्वारा हरण किया, सरकार से छीना या अपनाया हुआ | संज्ञा, खो० जन्ता । जब संज्ञा, पु० ( ० ) ज्यादती, सख़्ती । क्रि० वि० (अ० ) जवन । जभाँना - अ० क्रि० (दे०) जमुहाना, निद्रालु होना | संज्ञा, स्त्री० (३०) जभाँई, जम्हाई । जभी - क्रि० वि० ( हि० जब + ही ) जबही । जम जमराज - संज्ञा, ० ( दे० ) यमराज । यौ० जमदूत - यम के दूत । जमकना - अ० क्रि० दे० ( हि० जमना) जम जाना, बैठना, सख़्त होना । (प्रे० रूप) जसकाना, जमकवाना जमकात जमकातरां - संज्ञा, ५० दे० ( सं० यम + कातर हि० ) पानी का भँवर । संज्ञा, खो० दे० (सं० यम + कत्तरी ) यम का बुरा वा खाँड़ा, खाँड़ । जमघंट - संज्ञा, ५० यौ० (दे०) यमघंट | जमघट - जमघटा, जमघट्ट संज्ञा, पु० दे० For Private and Personal Use Only - Page #724 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जमज ७१३ जमाबंदी यौ० (हि. जमना+घट्ट ) मनुष्यों की परदा । " हृदय जमनिका बहु विधि भीड़, ठह, जमाकड़ा, जमाघ । लागी"-रामा० । जमज-संज्ञा, पु० दे० (सं० यमज ) एक | | जमवट-संज्ञा, स्त्री० दे० ( हि० जमना) साथ जन्मे बच्चों का जोड़ा, जुड़वाँ । कुआँ के झगाड़ में रखने का काष्ट-चक्र । जमान-अध्यादे मातरजमा-वि० दे० (प.) संग्रह किया हुआ, ठहर या रह २ कर। एकत्र, इकट्ठा, सब मिल कर, जो अमानत जमडाढ़- संज्ञा, खी० दे० यौ० (सं० यम+ के तौर पर या किसी खाते में रखा गया डाढ़ हि० ) कटारी जैसा एक हथियार । हो । संज्ञा, स्त्री० ( म०) मूलधन, पूंजी, जमदग्नि-संज्ञा, पु० (सं०) एक प्राचीन धन, रुपया-पैसा, भूमिकर, मालगुजारी, ऋषि, परशुराम के पिता (अ० वा० संज्ञा,) लगान, जोड़ (गणि०)। .."घर में जमा रहै तौ खातिर जमा रहै"-बेनी । जामदग्नि । | जमाई-संज्ञा, पु० दे० (सं० जामातृ) दामाद, जमदिया-जपदीया--संज्ञा, पु० दे० यौ० जंवाई (ग्रा० ) । संज्ञा, स्त्री. ( हि. जमना ) (सं० यमदीपक ) यम-दीपक, कार्तिक कृष्ण जमावट। प्रयोदशी को जो दिया यम जी के नाम से जमा-खर्च-संज्ञा, पु० यौ० (फा० जमा+ घर के बाहर जलाया जाता है। खर्च ) आय और व्यय । जमदुतीया-संज्ञा, स्त्री० दे० यौ० (सं० जमात-संज्ञा, स्त्री० दे० (अ० जमाअत ) यमद्वितीया ) यमद्वितीया, भैया बैज (दे०)। मनुष्यों का समूह, कक्षा, श्रेणी, दरजा । जमदूत--संज्ञा, पु० यौ० दे० (सं० यमदूत ) जमादार-संज्ञा, पु. (फा०) सिपाहियों या यमदूत, मृत्यु के दूत। पहरेदारों का प्रधान । संज्ञा, जमादारी जमधर-संज्ञा, पु० दे० (सं० यम+धर) स्त्री० जमादारिन । कटारी सा एक हथियार. तलवार । " नमधर जमानत - संज्ञा, स्त्री० (अ.) वह ज़िम्मेदारी यम ले जायगा, पड़ा रहेगा म्यान" क०। जो ज़बानी, कोई कागज लिख या कुछ जमन -संज्ञा, पु० (दे०) यमन। रुपया जमा कर ली जाये। ज़ामिनी (दे०)। जमना-अ० क्रि० दे० ( सं० यमन ) तरल | जमाना-स० क्रि० दे० (हि. जमना का प्रे० पदार्थ का ठोस या गाढ़ा हो जाना, जैसे रूप ) जमना का सकर्मक, जमने में सहायक बरफ़ जमना, दृढ़ता पूर्वक बैठना, अच्छी होना, उगाना, स्थिर करना । (प्रे० रूप ) तरह स्थित या स्थिर होना, एकत्र या इकट्ठा | जमवाना। होना, हाथ से होने वाले काम में पूरा पूरा | जमाना-संज्ञा, पु. (फ़ा०) समय, काल, अभ्यास होना, बहुत से आदमियों के | वक्त, बहुत अधिक समय, मुद्दत, प्रताप या सामने होने वाले किसी काम का उत्तमता | सौभाग्य का समय, दुनिया, संसार, जगत । से होना, जैसे गाना जमना, किसी व्यवस्था | "जमाना नाम है मेरा कि मैं सब को या काम का अच्छी तरह चलने के योग्य दिखा दूंगा"। हो जाना, जैसे-दूकान जमना, पैठना, ज़मानासा:-वि० (फ़ा०) जो वक्त या लोगों बैठना, प्रभावी होना । अ० कि० दे० (सं० का रंग-ढंग देखकर व्यवहार करता हो। जन्म---ना-प्रत्य०) उगना, उपजना संज्ञा, स्त्री० जमाना साजी-दुनियादारी। उत्पन्न होना । संज्ञा, स्त्री० (दे०) यमुना। जमाबंदी-संज्ञा, स्त्री० (फ़ा०) असामियों जमनिका-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० यवनिका)। के लगान की रकमों की बही (पट०) । भा० श० को०-६० For Private and Personal Use Only Page #725 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जमामार ७१४ जयदेव जमामार-वि० दे० यौ० (हि. जमामारना) जम्हाना (दे०)। संज्ञा, स्त्री. जमुहाई। दूसरों का धन दबा रखने या ले लेने वाला। जमूरक-जमूरा-संज्ञा, पु० दे० (फा० जमालगोटा-संज्ञा, पु० दे० (सं० जयपाल) जंबूरक ) एक छोटी तोप ।। एक पौधे का रेचक बीज, जयपाल, दंतीफल। जमोगा--- संज्ञा, पु० दे० (हि. जमोगना) जमाव-संज्ञा, पु० दे० (हि. जमाना) जमने | ___ जमोगने अर्थात् स्वीकार करने की क्रिया। या जमाने का भाव, समूह, हुंड । जमांगना-स० कि० दे० ( फ़ा. जमा+ जमावट-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि० जमाना ) योग ) हिसाब किताब की जाँच करना, जमने का भाव । स्वयं उत्तरदायित्व से मुक्त होने के लिये जमाकड़ा-संज्ञा, पु० दे० (हि. जमना = दूसरे को भार सौंपना, सरेखना, तसदीक एकत्र होना) बहुत से लोगों का समूह, भीड़। । करना, बात की जाँच करना । जमीकंद-संज्ञा, पु० दे० ( फ़ा० ज़मीन + | जयंत---वि० (सं०) बहुरूपिया । संज्ञा, पु० कंद) सूरन, श्रोल (प्रान्ती०)। (सं०) रुद्र, इन्द्र के पुत्र, उपेंद्र का नाम, जमीदार-संज्ञा, पु. ( फ़ा०) नम्बरदार, स्कंद, कार्तिकेय, जयंता । " नारद देखा ज़मीन का मालिक, भूमि का स्वामी । स्त्री० विकल जयंता'-रामा० । (स्त्री. जयंती)। जमींदारिन । जयंती--संज्ञा, स्त्री. (सं०) विजय करने जमींदारी-संज्ञा, स्त्री० (फ़ा०) ज़मींदार की | वाली, विजयिनी, स्वजा, पताका, हलदी, जमीन, ज़मीदार का पद। दुर्गा, पार्वती, किसी महात्मा की जन्मतिथि जमीन-संज्ञा, स्त्री० (फ़ा०) पृथ्वी (ग्रह) | पर उत्सव, वर्ष-गाँट का उत्सव, एक बड़ा भूमि, धरती (दे०) सु० (घरों तले से) पेड़, जैत या जैता, बैजंती का पौधा, जौ जमीन खिसकना-पाश्चर्य या भय के छोटे पौधे जिन्हें विजया दशमी के दिन लगना । मुहा०—जारान आसमान एक ब्राह्मण यजमानों को देते हैं। जई (दे०)। करना, जमीन आसमान के कुला जय-संज्ञा, स्त्री० (०) युद्ध, विवाद आदि मिलाना-बहुत बड़े बड़े उपाय करना। में विपक्षियों का पराभव, जीत । यौ०जमीन आसमान का फरक-बहुत जयपत्र-विजय की स्वीकृति का लेख । अधिक अंतर । जमीन देखना (दिखाना) मुहा०—जय मनाना--विजय की कामना गिरना (गिराना ) पटकना, नीचा देखना करना, समृद्धि चाहना । यो जयजर्यात( दिखाना)। जमीन पर आना-गिर जय हो (श्राशीष ), विष्णु के एक पार्षद जाना । अभी जमीन से उठना-अल्प महाभारत का पूर्व नाम, जयंती, जैत का वयस्क होना । कपड़े श्रादि की वह सतह पेड़, लाभ, अयन । यौ-जयकाव्य जिस पर बेल-बूटे श्रादि बने हों, वह (गीत) वीर-विजय-कान्य । सामग्री जिसका व्यवहार किसी द्रव्य के | जयकरी-संज्ञा, स्त्री. (सं०) चौपाई छंद । प्रस्तुत करने में आधार-रूप से किया जाय, वि०-विजय कराने वाली। डोल, भूमिका, प्रायोजन । जयजीव*--संज्ञा, पु. यौ० (हि० जयजानुकना-अ० क्रि० दे० ( ? ) पास पास जी) एक प्रकार का अभिवादन या प्रणाम होना, सटना जमकना (दे०) चिपकना, जिसका अर्थ है जय हो और जियो । दृढ़ होना। “कहि जयजीव सील तिना नावा" रामा० । जरंद-संज्ञा, पु० (फा०) पन्ना ( रन)।। जयदेव--संज्ञा, पु० यौ० (सं०) गीत-गोविंदजमुँहाना-अ० कि० (दे०) अँभाना | कार एक संस्कृत-कवि । For Private and Personal Use Only Page #726 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org जयद्रथ जयद्रथ - संज्ञा, पु० (सं०) सिंधु सौबीर का राजा जो दुर्योधन का वहनोई था । जयना* - अ० क्रि० दे० (सं० जयन् ) जीतना, विजय प्राप्त करना : ७१५ जयपत्र - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) वह पत्र जो पराजित पुरुष अपने पराजय के प्रमाण में विजयी को लिख देता है, विजय-पत्र | जयपाल- संज्ञा, पु० (सं०) जमालगोटा ( श्र० ) । विष्णु, राजा, भूपाल । जयमंगल - संज्ञा, ५० यौ० (सं०) राजा की सवारी का हाथी । जयमाल - संज्ञा, स्त्रो० यौ० (सं० जयमाला ) विजयी को विजय पाने पर पहनाने की माला, वह माला जो स्वयंवर के समय कन्या अपने बरे हुये पुरुष को पहनाती है । 'पहिराबहु जयमाल सुहाई" "ससिहि सभीत देत जयमाला' - रामा० । जयस्तंभ - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) विजय का स्मारक स्तंभ या धरहरा, विजय स्तंभ, जयखंभ (दे० ) । ܝܕ 0 जया - संज्ञा, स्त्री० (सं०) दुर्गा, पार्वती, हरी दूब, श्ररणी या जैत का पेड़, हरीतकी, हरपताका, ध्वजा, गुड़हल का फूल । वि० जय दिलाने वाली, जयकारिणी । जयी - वि० (सं० जयिन् ) विजयी, जयशील । जर - संज्ञा, पु० दे० (सं० जरा ) वृद्धा वस्था, बुढ़ापा | संज्ञा, पु० (दे०) ज्वर बुख़ार । ज़र - संज्ञा, पु० ( फा० ) सोना, स्वर्ण, धन दौलत, रुपया-पैसा । यौ०-ज़रगरसोनार संज्ञा, स्त्री० ज़रगरी । जरकटी - संज्ञा, पु० (दे०) एक शिकारी पक्षी | जरकस, जरकसोक - वि० दे०फा० ० ज़रकश) जिस पर सोने के तार आदि लगे हों । जरखेज - वि० ( फा० ) उपजाऊ, उर्वरा भूमि । जरठ- वि० (सं०) कर्कश, कठिन, वृद्ध, बुड़ढा, जीर्ण, पुराना । " जाना जरठ जटायू एहा रामा० । जरांकुश जरतार -- संज्ञा, पु० दे० ( फा० जर + हि० तार) सोने या चाँदी आदि का तार, ज़री I ज़रतुश्त संज्ञा, पु० (दे०) जरदुश्त । जरत - वि० (सं०) वृद्ध, पुराना, बुड्ढा । स्त्री० जरती । जरत्कारु -- संज्ञा, पु० (सं०) एक ऋषि । ज़रद - वि० दे० ( [फा० ज़र्द ) पीला, पीत । संज्ञा, स्त्री० जरदी | ज़रदा--- संज्ञा, पु० (फ़ा० ) चावलों का एक व्यंजन, पान में खाने की सुगंधित सुरती, पीले रंग का घोड़ा | Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पन, ज़रदालू - संज्ञा, पु० ( फा० ) . खूबानी, (मेवा) । ज़रदो- संज्ञा, त्रो० ( फा० ) पिलाई, पीलाअंडे के भीतर का पीला चेप । ज़रदश्त- संज्ञा, पु० ( फ़ा० ) फ़ारस देश के पारसी धर्म का प्रतिष्ठाता, आचार्य । ज़रदोज़- संज्ञा, पु० ( फा० ) जरदोजी का काम करने वाला ! ज़रदोजी- संज्ञा, स्त्री० (फ़ा० ) कपड़ों पर सलमे सितारों आदि की दस्तकारी । जरन - संज्ञा, स्त्री० (दे०) जलन, जरनि । जिय की जरनि न जाय "" ܕܐ - रामा० । ) जरना ३ - प्र० क्रि० (दे० जलना । स० क्रि० (दे०) जड़ना । स० क्रि० (दे०) जराना । ज़रब -- संज्ञा, स्त्री० ( ० ) श्राघात, चोट । मुहा०-- जरब देना - चोट लगाना, पीटना, गुणा करना ( गणित ) । ज़रवक्त-संज्ञा, पु० ( फ़ा० ) कलाबत्त बेल-बूटे का रेशमी वस्त्र । जवाफ़ी - वि० ( फा० ) जिस पर जरवाफ़ का काम बना हो । संज्ञा, त्रो० जरदोजी । जरबीला - वि० (फा० जरब + ईला प्रत्य०) भड़कीला और सुन्दर । For Private and Personal Use Only ज़रर - संज्ञा पु० ( ० ) हानि, क्षति, श्राघात, चोट । जरांकुश - संज्ञा, पु० दे० (सं० यज्ञकुश, ज्वरांकुश ) मूँज जैसी एक सुगंधित घास, ज्वर की दवा | Page #727 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - जरा जलचादर जरा-संज्ञा, स्त्री० (सं०) बुढ़ापा। | जर्जरी- संज्ञा, स्त्री० (सं०) नीर्ण, बेकाम, जरा-वि०, क्रि० वि० (अ० ज़र्रा) थोड़ा, 'देहे जर्जरी भूते रोगग्रस्ते कलेवरे"- स्फु०। कम, न्यून । | जर्द-वि० (फा०) पीला, पीत । संज्ञा, स्त्री० जराग्रस्त-वि० यौ० (सं०) बुड्ढा, वृद्ध, (फा०) जर्दी-पीलापन। यौ० । जराजीर्ण बुढ़ाई से गलित । जरी- संज्ञा, पु. (प.) अणु, परमाणु, जरातुर - वि० यौ० (सं०) जीर्ण, दुर्बल, बूढ़ा। बहुत छोटा टुकड़ा या खण्ड, कण । जरायु-संज्ञा, पु. यौ० (सं०) वह झिल्ली जर्राह--संज्ञा, पु. (अ.) फोड़ों आदि को जिसमें बँधा हुआ बच्चा उत्पन्न होता है। चीड़कर चिकित्सा करने वाला, शस्त्रगर्भवेष्टन, गर्भाशय, आँवल (प्रान्ती०)। । चिकित्सक। संज्ञा, स्त्री० जर्राही । जरायुज-संज्ञा, पु. (सं०) वह प्राणी जो जलंधर--संज्ञा, पु० (सं०) एक राक्षस जिस जरायु सहित उत्पन्न हो, पिंडज-भेद। की स्त्री तुलसी अति पतिव्रता और सुन्दरी जराव -वि० (दे०) जड़ाऊ, जड़ाव। थी, भगवान ने इसे मारा और तुलसी को जरावस्था-संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) वृक्षा- अपनी भक्ति दी। संज्ञा, पु० (दे०) जलोदर। वस्था, जीर्णावस्था, बुढ़ाई, बुढ़ापा। जल-संज्ञा, पु० (सं०) पानी, उशीर, खस, जरासंध-संज्ञा, पु. (सं० जरा = राक्षसो+ एक नक्षत्र संध =जोड़ा ) मगधदेश का एक प्राचीन जलअलि-संज्ञा, पु. यौ० (सं• जल+ प्रसिद्ध राजा। अलि ) एक काला कीड़ा जो पानी पर तैरा जरिया --संज्ञा, पु० (दे०) जड़िया। करता है, पैरौवा, भौंतुका ( प्रान्ती०)। ज़रिया- संज्ञा, पु० (अ.) सम्बन्ध, लगाव, जलकर--संज्ञा, पु. यौ० (हि. जल+ द्वारा, हेतु, कारण, सबब । कर ) जलाशयों या तालाबों में होने वाले जरी-संज्ञा, स्त्री० ( फा० ) बादले से बुना पदार्थ, जैसे मछली, सिंघाड़ा आदि, उन पर ताश, कपड़ा, सोने के तारों श्रादि से महसूल या लगान, पानी को बनाने वाली बुना हुश्रा काम। वायु (अं० हैड्रोजन)। जरीब-संज्ञा, स्त्री० (फा० ) भूमिनापने की | जल-क्रीड़ा-संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) वह क्रीड़ा जो जलाशय में की जाय, जल-बिहार। जंजीर। जरीवाना-संज्ञा, पु० (दे०) जुरमाना। जलखावा-संज्ञा, पु० यौ० (दे०) जलपान, किलों के चारों ओर की खाँई। जरूर-क्रि० वि० (प्र०) अवश्य, निःसंदेह, जलघड़ी-संज्ञा, स्त्री० यौ० (हि० जल+ जरूर (दे०)। घड़ी ) समय जानने का प्राचीन यंत्र जिसमें जरूरत-संज्ञा, स्त्री० (०) आवश्यकता, नौद में भरे जल के ऊपर एक महीन छेद प्रयोजन। की कटोरी पड़ी रहती थी जो घंटे भर में जरूरी-वि० (फा० ) जिसके बिना काम | जल से भर कर डूबती थी। जलघरिया न चले, प्रयोजनीय, पावश्यक । (दे०)। जरौटी*-वि० दे० (हि. जड़ना) जड़ाऊ। जलचर-संज्ञा, पु० (सं०) पानी में रहने जर्क बर्क-- वि० यौ० (फ़ा० ) तड़क-भड़क वाले जंतु, जैसे मछली श्रादि । (स्त्री० जल वाला, भड़कीला, चमकीला, उज्वल,स्वच्छ। चरी, जलचारी (स.) । “जलचर थलचर जर्जर-वि० (सं०) जीर्ण, पुराना होने से | नभचर नाना".--रामा०। बेकाम, टूटा-फूटा, खण्डित, वृद्ध, बूढ़ा। जलचादर-संज्ञा, स्त्री० यौ० (हि. जल+ For Private and Personal Use Only Page #728 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org जलज चादर ) जल का फैला हुधा पतला प्रवाह । जलज - वि० (सं०) जो जल में उत्पन्न हो । संज्ञा, पु० (सं०) कमल, शंख, मोती, जलजन्तु । जलज नयन जल 66 मछली, जानन जटा हैं सिर ७१७ ------ ( हि० सं० ) - तु० । जलजला -- संज्ञा, पु० ( फा० ) भूकंप, भूडोल । जलजात - संज्ञा, पु० वि० (दे०) जलज | "लखि जलजात लजात " वि० । जलजीव- संज्ञा, पु० यौ० जलजंतु, जल के प्राणी | जलडमरूमध्य - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) दो बड़े समुद्रों को जोड़ने वाला समुद्र का पतला भाग | ( भूगो० ) | ( विलो०-स्थलडमरूमध्य ) जलतरंग - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) जल से भरे प्यालों को क्रम से रखकर बजाने का बाजा, पानी की लहरी | जलत्रास - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) कुत्ते, शृगालादि के काटने पर जल देखने से उत्पन्न भय, जलातंक | जलथंभ - संज्ञा, पु० यौ० (दे०) जलस्तंभ जलथंभन । " कछु जानत जलथंभ बिधि, दुर्योधन लौं लाल " - वि० । जलद - वि० (सं०) जल देने वाला, जल के पर्यायवाची शब्दों के धागे द लगाने से इसके पर्यायवाची शब्द बनते हैं । संज्ञा, 1 पु० (सं०) मेघ, बादल, मोथा, कपूर । जलधर - संज्ञा, पु० (सं०) बादल, मोथा, समुद्र | जल के पर्याय शब्दों के आगे धि ( धर ) लगाने से इसके पर्याय शब्द बनते हैं । जलधरी - संज्ञा, स्त्री० (सं०) शिवलिंग का श्रर्धा, जलहरी (दे० ) । जलधारा - संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) पानी का प्रवाह या धारा, जलधारा के नीचे बैठे रहने की तपस्या | संज्ञा, पु० बादल, मेघ । 'भूमितें प्रगट होहिं जलधारा " - रामा० । 46 जलपक्षी जलधि-संज्ञा, पु० (सं०) समुद्र, दसशंख की संख्या । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जलन - संज्ञा, स्त्री० ( हि० जलना ) जलने की पीड़ा या दुख, दाह, ईर्ष्या, डाह । जरन जरनि (दे० ) । जलना - प्र० क्रि० दे० (सं० ज्वलन ) श्रग्नि के संयोग से अंगारे या लपट के रूप में हो जाना, दग्ध होना, बलना, श्राँच का भाफ़ दि के रूप में हो जाना, श्राँच लगने से किसी का पीड़ित होना, झुलसना, दुखी होना, कुदना, डाह या ईर्षा करना, कुपित होना। मुहा० - जलाभुना होना ( बैठना ) - प्रति कुपित होना ( बैठना ), जलकर खाक (राख) या लाल होनाश्रति कुपित होना, आग-बबूला होना । जले को जलाना --- दुखी को दुख देना । मुहा० - जले पर नमक ( माहुर देना ) छिड़कना - किसी दुखी या व्यथित मनुष्य को और दुख देना । ईर्ष्या या द्वेष आदि के कारण कुढ़ना । मनहुँ जरे पर माहुर देई "- - रामा० । मुहा० - जली-कटी या जली-भुनी बात--खलती या लगती हुई बात, द्वेष, डाह या क्रोधादि से कही गई कटु बात । ( प्रे० रूप) जलाना, 66 जलवाना । जलनिधि - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) समुद्र | " जलनिधि रघुपति दूत विचारी " रामा० । जलपति - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) समुद्र, वरुण, जलेश, जलाधिपति । ( यौ० ) | जलपना - प्र० क्रि० दे० (सं० जल्प ) लंबीचौड़ी बातें करना । " यहि विधि जलपत भा भिनसारा" - रामा० । स० क्रि० (दे० ) डींग मार कर कहना ! "" कटु जलपसि निसिचर अधम " " जलपहिं कलपित बचन श्रनेका " रामा० । संज्ञा स्त्री० (दे०) डींग, व्यर्थ की बकवाद | जनि जलपना करि सुजस नासहि "- रामा० । जलपक्षी - संज्ञा, पु० यौ० (सं० जल पक्षिन् ) " For Private and Personal Use Only Page #729 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जलपाटल ७१८ जलाना जल के पास पास या समीप रहने वाले उत्सव, समारोह जिसमें खाना-पीना, पक्षी, जल-खग। गाना-बजाना हो, सभा, समिति श्रादि का जलपाटल-संज्ञा, पु० यौ० (हि० जल+ बड़ा अधिवेशन, बैठक । पटल) काजल । जलसेना-संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) समुद्र में जलपान- संज्ञा, पु. यौ० (सं०) थोड़ा और | ___ जहाज़ों पर लड़ने वाली सेना। हलका भोजन, कलेवा, नाश्ता। | जलस्तंभ-संज्ञा, पु. यौ० (सं०) दैवयोग से जलपीपल-संज्ञा, स्त्री० यौ० ( सं० जल+ जलाशयों या समुद्र पर दिखाई देने वाला पिप्पली) पीपल जैसी एक औषधि । । एक स्तंभ, मंत्रादि के द्वारा जल-गति के जलप्रपात- संज्ञा, पु. यौ० (स०) नदी अवरोध की विद्या, (दुर्योधन जानता था)। आदि का ऊँचे पहाड़ से गिरना, झरना।। पानी बाँधना, जलस्तभन । जलप्रवाह-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) पानी का जलहर--संज्ञा, पु० (दे०) जलाशय, जलाहल, बहाव, नदी में बहा देने की क्रिया। तालाब । “जीवजंतु जलहर बसैं"-क० । जलप्लावन-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) पानी की जलहरण-संज्ञा, पु. यौ० (सं०) बत्तीस बाढ़, एक प्रकार का प्रलय ।-वि० जल- | अक्षरों की एक वर्णवत्ति या दंडक छंद । प्लावित। जलहरी-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० जलधरी ) जल-बुझना, जल-भुनना-अ० क्रि० यौ० शिवलिंग का अर्घा, शिव मूर्ति के ऊपर टाँगने (हि.) क्रोध से अधीर होना, प्रतीकार न का मिट्टी का सछिद्र नलघट । कर सकने से अति दुखी होना। जलांजलि-संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) प्रेतादि जलबंत-संज्ञा, पु० दे० यौ० (सं० जलवेत्र) | के लिये अंजुली में भरकर जल देना।। जलाशयों के समीप होने वाला बेंत । जलाक-संज्ञा, स्त्री० (दे०) लू, गर्म हवा । जलभंवरा-संज्ञा, पु० यौ० (हि.) एक | "कहै पदमाकर त्यों जेठ की जलाकै तहाँ"। काला कीड़ा, जो पानी पर शीघ्रता से जलाजल-संज्ञा, पु० दे० (हि० झलझल ) दौड़ता है, भौंतुवा ( प्रान्ती०)। गोटे श्रादि की झालर, झलाझल, जलाहल, जलभृत-संज्ञा, पु० (सं०) बादल । (दे०)। वि. जलमय । "सिंधु ते हहैं जलमानुष--संज्ञा, पु. यौ० (सं०) एक जल- जलाजल सारे"- तोष । जंतु जिसकी नाभी के ऊपर का भाग मनुष्य जलातंक-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) जलत्रास । का सा और नीचे का मछली का सा होता | जलातन-वि० दे० यौ० (हि. जलना+ है। ( स्त्री० जलमानुषी) तन ) क्रोधी, बदमिज़ाज, ईर्ष्यालु, डाही। जलयान-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) जल पर की जलाधार--- संज्ञा, पु० यौ० (सं०) पुष्करणी, सवारी, नाव, जहाज़ । वापी, तड़ाग, जलाशय । जलराशि- संज्ञा, पु० यौ० (सं०) समुद्र, जलाधिप-संज्ञा, पु. यौ० (सं०) वरुण, जल का समूह । जलाधिपति. जलेश । जलवर्त- संज्ञा, पु० (दे०) जलावर्त, भँवर । जलाधीश-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) वरुण । जलवाना-स० क्रि० (हि. जलाना ) जलाने जलाना-स० क्रि० दे० (हि. जलना) का काम दूसरे से कराना, जलाना। अग्नि-संयोग से अङ्गारे या लपक के रूप में जलशायी-संज्ञा, पु० यौ० (सं० जलशायिन) कर देना, किसी पदार्थ को आँच से भान विष्णु, जल पर सोने वाला। या कोयले श्रादि के रूप में करना, आँच जलसा-संज्ञा, पु० (अ) आनन्द या | से विकृति या पीड़ित करना, प्रज्वलित या For Private and Personal Use Only Page #730 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जलापा ७१६ जवनिका भस्म करना, झुलसाना, संताप या ईर्ष्या जलेन्धन- संज्ञा, पु. यौ० (सं०) बाड़वाग्नि, उत्पन्न करना, दुख देना। बड़वानल। जलापा-संज्ञा, पु. (हि. जलना --- आपा- जलेतन--वि० (दे०) अति क्रोधी, रिसहा प्रत्य० ) डाह या ईष्या की जलन । (दे०) । जलावला--वि० (हि. ) भस्मीभूत, खाक जलेबा-संज्ञा, पु० दे० (हि० जलव ) बड़ी हुआ, कोधी, चिड़चिड़ा, दग्ध । जलेबी (मिठाई)। जलामय-वि० (सं०) जलभरा, जलमय, जलेबी-संज्ञा, स्त्रो० दे० (हि० जलाव ) एक जल में डूबा, भीगा, गीला, श्रा, अंदा, कुंडलाकार मिठाई, एक प्रकार की (दे०) । “ऐसी है जलामय ब्रज भूमि न आतिशबाजी। दिखात कहूँ।" संज्ञा, पु. ( स्त्री० ) जलेश-संज्ञा, पु. यौ० (सं०) वरुण, समुद्र, जलामयी। जलेश्वर। जलाल-संज्ञा, पु० ( अ०) तेज, प्रताप, जलेशय-संज्ञा, पु० (सं०) विष्णु, जलजंतु । प्रकाश, प्रभाव, धातंक । " देखि कै जलाल जलोच्छवास--संज्ञा, पु० यो० (सं०) पानी सिवरान चिहरे को "-भू०। की लहरी या तरंग। जलावन-- संज्ञा, पु० दे० ( हि० जलाना ) | जलोत्सर्ग-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) तालाब, इंधन, किसी वस्तु के तपाये या जलाये जाने कूप और बावली का विवाह ( पुरा० )। पर उसका जला भाग, जलता । जलोदर--- संज्ञा, पु. यौ० (सं०) पेट के जलावर्त्त-संज्ञा, पु. यौ० (सं०) पानी का चमड़े के नीचे की तह में पानी भर जाने भँवर, चक्कर। से पेट फूलने का रोग, जलंधर । जलाशय -- संज्ञा, पु० यौ० (सं०) जलभरा जलौका---संज्ञा, स्त्री० (सं०) जोंक । स्थान, तालाब, नदी । “ जल जलाशय का जल्द-कि० वि० (अ० ) शीघ्र, चटपट, घटने लगा"---ऋतु । झटपट, तेजी से । संज्ञा, स्त्री० जल्दो । जलाहल-वि० दे० (हि. जलाजल ) जल. जल्दबाज़-वि० (फा०) ( संज्ञा, स्त्री० जल्द मय । संज्ञा, पु० सागर । "धूटिहैं हलाहल | वाज़ी ) काम में बहुत जल्दी करने वाला, कै बूड़िहैं जलाहल मैं"- रत्न उतावला संज्ञा, स्त्री० जल्दबाजी। जलिका-- संज्ञा, पु० (दे०) जोंक, जलौका। जल्द-संज्ञा, स्त्री० (अ०) शीघ्रता फुरती । जलिया-संज्ञा, पु० (दे०) धीवर, मछवाहा, 1-क्रि० वि० देखो जल्द । केवट । “जलिया छलिया है बड़ो'-स्फु० । जलप ---- संज्ञा, पु० (सं०) कथन, कहना, बकजलील-वि० ( अ० ) तुच्छ, बेक़दर, . वाद, प्रलाप। जल्पन--संज्ञा, पु. (सं.) अपमानित, नीच। बकवाद, प्रलाप, डींग, व्यर्थ की बातें। जलक-जलका --- संज्ञा, स्त्री० (दे०) जोक, जल्पक-वि० (सं०) बकवादी, वाचाल । जलोका, (सं०)। जल्पना-अ० क्रि० दे० (सं० जल्पन ) जलूस-संज्ञा, पु० ( अ.) बहुत से लोगों व्यर्थ बकवाद करना, डींग मारना। का सजधज कर किसी सवारी के साथ जल्लाद-संज्ञा, पु. ( अ०) प्राण दंड पाये प्रस्थान, उत्सव-यात्रा। हुये अपराधियों का वध करने वाला। जलेचर-संज्ञा, पु० (सं०) जल में चलने या घातक, हिंसक, क्रूर व्यक्ति । चरने वाले जीव, जलजंतु, जलपक्षी। जवनिका-संज्ञा, स्त्री० (दे०) यवनिका (सं०) For Private and Personal Use Only Page #731 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir . aar जबामर्द ७२० जहमत जबामर्द-वि० ( फ़ा० ) शूर वीर, बहादुर। जवाहर-जवाहिर-संज्ञा, पु. ( म०) रत्न, संज्ञा, स्त्री. जवांमर्दी। मणि। बहु व. जवाहरात-जवाहिरात । जवा-जव-संज्ञा, स्त्री० (दे०) जया, एक अन्न, जवैया-वि० (हि० जाना+ऐया-प्रत्य०) संज्ञा, पु० दे० (सं० यव) लहसुन का दाना। जाने वाला, गमनशील । जवाई।---संज्ञा, स्त्री० दे० (हि० जाना) जाने जशन-संज्ञा, पु० (फा०) उत्सव, जलसा, की क्रिया का भाव, गमन । यो०-प्रवाई- श्रानन्द, हर्ष । जवाई-याना जाला। जस-*:-क्रि० वि० दे० ( सं० यथा ) जवाखार-संज्ञा, पु० दे० (सं० यवक्षार)। जैसा । संज्ञा, पु० (दे०) यश । जव के क्षार से बना नमक । जसुधा, जसुदा-संज्ञा, स्त्री० दे० ( सं० जवान-वि० (फा०) युवा, तरुण, वीर । संज्ञा, यशोदा ) यशोदा, जसोदा (दे०) जसावै। पु० (दे०) मनुष्य, सिपाही। जसुमति-जसुमती--संज्ञा, स्त्री० (दे०) जवानी-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं०) अजवाइन । यशोदा जसोमति । 'जसुमति अचगर तुद्रा, “जवानी सहितो कषायः"--वैः ।। __ कान्ह तिहारे'-सूर०। संज्ञा, स्त्री० (फा०) यौवन, तरुणाई,। मुहा० जस्ता-संज्ञा, पु० दे० (सं० जसद ) ख़ाकी -जधानी उतरना या ढलना-बुढ़ापा रंग की एक प्रसिद्ध धातु। श्राना, उमर ढलना। जवानो चढ़ना- जहँ-क्रि० वि० (दे०) जहाँ । 'जहँ तह रहे यौवन का आगमन होना। पथिक थकि नाना"-रामा० । जवाब - संज्ञा, पु. (अ.) किसी प्रश्न या जहँड़ना-जहंडाना- क्रि० अ० दे० (सं० बात के समाधान में कही हुई बात, उत्तर, जहन ) घाटा उठाना, धोखे में थाना । “तासु किसी बात के बदले में की गई बात । विमुख जहँड़ाय"-कवी० । बदला मुकाबले की चीज़, जोड़, नौकरी जहतिया-संज्ञा, पु० दे० (हि० जगात ) छूटने की आज्ञा, मौकूफ़ी। जगात या लगान उसूल करने वाला। जवाबदावा-संज्ञा, पु० यौ० (अ०) बादी " मनमथ करै कैद अपने मा, ज्ञान जह. के निवेदन-पत्र के संबंध में प्रतिवादी का तिया लावे "-सूर०। अदालत में लिखित उत्तर । जहत्स्वार्था-संज्ञा, स्त्री० (सं०) वह लक्षणा जवाबदेह-वि० (फा०) उत्तरदाता, ज़िम्मे- | जिसमें पद या वाक्य अपने वाच्यार्थ को दार । संज्ञा, स्त्री० जवाबदेही । बिलकुल छोड़े हुए हों, लक्ष्य । जवाबी - वि० (फा०) जिसका नवाब देना हो। जहदना-अ० कि० दे० (हि० जहदा) कीचड़ जवारा-संज्ञा, पु. ( हि० जी) जव के हरे होना, थक जाना । संज्ञा, पु० (दे०) जहदाअंकुर, जई (ग्रा.) कीचड़, दलदल। जवाल---संज्ञा, पु. ( अ० ज़वाल ) अवनति, जहना*-स. क्रि० दे० (सं० जहन ) उतार, घटाव, जंजाल, आफ़त, जवार त्यागना, छोड़ना, नाश करना। (दे०)। जहन्नुम--संज्ञा, पु. (अ.) नरक, दोज़ख । जवाला-संज्ञा, पु० (दे०) गोजई, बेझर, जौ | मुहा०—जहन्नम में जाय-चूल्हे या भाड़ और गेहूँ मिला हुआ अन्न । में जाय, हमसे कोई संबंध नहीं, नष्ट हो । जवास, जवासा-संज्ञा, पु० दे० (सं० - जहमत-संज्ञा, स्त्री० (अ.) आपत्ति, आफत, यवासक) एक कटीला पौधा । "अर्क जवास झंझट, बखेड़ा, झगड़ा । मुहा०-जहमत पात बिन भयऊ"--रामा० । | पालना- झंझट साथ रखना । For Private and Personal Use Only Page #732 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जहर जाँघ ज़हर-संज्ञा, स्त्री० ( अ० जह) विष, गरल । कौश्रा जो किसी जहाज के छूटते समय उस मुहा०---ज़हर उगलना --मर्म-भेदी या पर बैठ जाता है और जहाज़ के बहुत दूर कटुबात कहना । ज़हर का धूर पोना- समुद्र में निकल जाने पर और कहीं शरण किसी अनुचित बात को देखकर क्रोध को | न पाकर उड़ उड़ कर फिर उसी जहाज़ मन ही मन दबा रखना। ज़हर का पर आता है । ऐसा मनुष्य जिसे एक को बुझाया हुआ -- बहुत अधिक उपद्रवी या । छोड़कर दूसरा ठिकाना न हो। " जैसे दुष्ट, अप्रिय बात या काम । जहर करना काग जहाज को सूझत और न ठौर"। या कर देना--बहुत अधिक अप्रिय या जहान-संज्ञा, पु. ( फा० ) ससार, जगत । असह्य कर देना । जहर होना - हानिकर जहानक- संज्ञा, पु० (दे०) लोक "मूरख जो होना । जहर लगना-बहुत अप्रिय जान धनवान हो मानै सकल जहान"-स्फु० । पड़ना। वि० घातक, मार डालने वाला।। जहालत-संज्ञा, स्त्री० (अ.) अज्ञान । मुहा०---जहर में बुझाया-विषैला।। | जहिया-क्रि० वि० दे० (सं० यद् ) ज़हर वाद संज्ञा, पु० दे० (फा०) एक भयंकर जिस समय जब, जहाँ । " भुजबल विश्व और विषैला फोड़ा। जितव तुम जहिया --रामा। ज़हर माहरा--संज्ञा, पु० दे० यौ० ( फा० । जही -अव्य० दे० ( सं० यत्र ) जहाँ ही, जहर -- मुहरा ) सर्प विष नाशक एक काला जिस स्थान पर। अव्य० (दे०) ज्योंही । पत्थर, हरे रंग की एक विषघ्न वस्तु । " जहीं बारुणी की करी रंचक रुचि द्विजजहरीला - वि० ( अ० जहर -+-ईला प्रत्य० ) राज"-. रामा। जिसमें जहर हो, विषैला। ज़हीन वि० (अ०) बुद्धिमान, समझदार । जहेज-संज्ञा, पु० दे० (अ.) विवाह में जहल्लक्षणा--- संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं० ) कन्या-पक्ष द्वारा बर को दी गई संपत्ति, जहत्स्वार्था । दहेज । जहाँ-क्रि० वि० दे० (सं० यत्र) जिस स्थान जन्हु - संज्ञा, पु० (सं०) विष्णु, एक ऋषि पर, जिस जगह । “ जहाँ सुमति तहँ संपति जिन्होंने गंगा को पी लिया था और फिर नाना ''-रामा० । मुहा०-जहां का काम से निकाल दिया था, इसी से गंगा तहाँ---जिस जगह पर हो उसी जगह पर, का नाम जान्हवी पड़ा। इधर उधर या अस्तव्यस्त । जहां-तहाँ जन्हुकन्या-संज्ञा, स्त्री० (सं०) गंगा जी, इधर-उधर. सब जगह, सब स्थानों पर । जन्हुसुता, जन्हुतनया, जान्हवी । जहाँगारी-संज्ञा, स्त्री० (फ़ा०) हाथ का एक | जांगडा-संज्ञा, पु० (दे०) भाट, बंदी। जड़ाऊ गहना या चूड़ी। जार- संज्ञा, पु० दे० (हि. जान या जांघ). जहाँपनाह -- संज्ञा, पु० यौ० (फ़ा०) संसार | शरीर का बल, बूता ! का रक्षक ( बादशाहों का संबोधन )। जांगल-संज्ञा. पु० (सं०) तीतर, मांस, ऊपर जहाज----संज्ञा, पु. ( अ.) समुद्र में चलने देश । वि०-जंगल संबंधी, जंगली। वाली बड़ी नाव, पोत : मुहा०—जहाज जांगलू - वि० दे० (फा० जंगल ) गँवार, का कोया या काग-जहाजी कौत्रा, जो अन्यत्र न जा सके वहीं फंसा रहे। जाँघ-संज्ञा, स्त्री० (सं० जाँघ = पिंडली) जहाज़ी- वि० (अ.) जहाज से संबंध रखने जंघा, घुटने और कमर के बीच का अंग, वाला । यौ०-जहाजी कौया-वह ऊरू । भा० श. को०-११ For Private and Personal Use Only Page #733 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जांघिया ७२२ जागर्ति जांघिया--संज्ञा, पु० दे० (हिं. जाँघ+इया- जाक-संज्ञा, पु० (दे०) यक्ष, जच्छ (दे०)। प्रत्य० ) पायजामे सा घुटने तक का एक जाकड़ -- संज्ञा, पु० दे० ( हि० जाकर ) माल पहनावा, काछा, घुटना (ग्रा०)। इस शर्त पर ले अाना कि पसंद न होने जाँच-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. जाँचना) जाँचने पर फेरा जायगा ( विलो०-पक्का )। की क्रिया या भाव, परीक्षा, परख, गवेषणा, जाखिनी-संज्ञा, स्त्री० (दे०) यक्षिणी।। निरीक्षण । यौ०-जांच पड़ताल । जाग-संज्ञा, पु० दे० (सं० यज्ञ ) यज्ञ, जाँचक- संज्ञा, पु० (दे०) जाचक। मख, याग। संज्ञा, स्त्री० दे० ( हि० जगह) जाँचना-स० कि० दे० (सं० याचन) सत्या- जगह, स्थान । संज्ञा, स्त्री. (हि. जगह ) सत्य का अनुसन्धान करना, परीक्षा या प्रार्थना जागने की क्रिया या भाव, जागरण । संज्ञा, करना, माँगना, परखना, निरीक्षण करना। पु. ( फा० जग ) कौया। जाँजरा- वि० (दे०) जाजरा। जागती जोति-संज्ञा, स्त्री० दे० यौ० ( हि० जांत, जाँता-संज्ञा, पु० दे० (सं० यंत्र ) जागना- ज्योति ) किसी देवता विशेषतः श्राटा पीसने की बड़ी चक्की। देवी की प्रत्यक्ष महिमा या चमत्कार । जाँब-संज्ञा, पु० (दे०) जामुन, जम्बू । जागती-कला-संज्ञा, स्त्री० - (सं०) दिया, जांबवंत-संज्ञा, पु० (दे०) जाँबवान, जाम- दीपक, दीप्ति, ज्योति । वंत। “जाँबवत मत्री अति बूढ़ा''- रामा।| जागना-अ० क्रि० दे० (सं० जागरण ) जाँबवंती-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० जांबवती) | सोकर उठना, जगना, नींद त्यागना, जाँववान की कन्या, श्री कृष्ण की स्त्री | जाग्रत अवस्था में या सजग होना, सचेत सत्यभामा। या सावधान, उदित होना, चमक उठना । जाबधान-संज्ञा, पु. (सं०) सुग्रीव का मंत्री मुहा०—जागता--प्रत्यक्ष, साक्षात्, प्रकाएक भालू जो राम की सेना में लड़ा था, शित, भासमान, सचेत, समृद्धि होना, बढ़जाँबुवान (दे०) जामवंत । चढ़ कर या प्रसिद्ध होना, ज़ोर-शोर से जाँवर*-संज्ञा, पु० दे० (हि० जाना) उठना, प्रज्वलित होना, जलना । यौ०गमन, जाना। जीता जागता--सजीव ।। जा-संज्ञा, स्त्री० (सं०) माता, माँ, देवरानी, | जागबलिक -संज्ञा. पु० (दे०) याज्ञवल्क्य देवर की स्त्री। वि० स्त्री० उत्पन्न, संभूत। __ जागवलक (दे०)। 8 सर्व० (हि. जो ) जिस । “जा थल जागर-संज्ञा, पु. (दे०) जागरण, होश । कीन्हें विहार अनेकन "- रस। वि. जागरण-संज्ञा, पु. (सं०) निद्रा का अभाव, (फ़ा०) उचित ( विलो०-बेजा)। अ० जागना, किसी पर्व के उपलक्ष में सारी रात्रि क्रि० विधि ( जाना )। यौ० --जाबेजा .. जागना, जागरन (दे०)। उचितानुचित, भला-बुरा। जागरित-संज्ञा, पु. (सं०) नींद का न जाइ8-वि० (दे०) जाय । अ० क्रि० पू० होना, जागरण, मनुष्य की इन्द्रियों द्वारा का० ( हि० जाना ) जाकर। सब प्रकार के कार्यो की अनुभवावस्था । जाइफर-जाइफल- संज्ञा, पु० (दे०) जाय- जागरूक-संज्ञा, पु. (सं.) वह जो जाग्रत फल। अवस्था में हो। जाई-संज्ञा, स्त्री० दे. (सं० जा) बेटी, पुत्री। जागति-संज्ञा, स्त्री. (सं०) जागरण, "या जाउर-जाउरि-संज्ञा, स्त्री. (दे०) खीर। निशा सर्व भुतानां तस्यां जागत्ति संयमी" "पुति जाउरि पछियाउरि पाई "-- --गी। For Private and Personal Use Only Page #734 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जागा ७२३ जाति जागा-संज्ञा, स्त्री० दे० (फा० जगह) जगह। जाड-जाड़ा - संज्ञा, पु. दे. (सं० जड़) संज्ञा, पु० (दे०) भाटों की सी एक जाति ।। ठंढक की ऋतु, शीत काल, सरदी, शीत, सा० भू० अ० क्रि० ( हि० जागना , जगा। | पाला, ठंढ ! जागी --संज्ञा, पु० (सं० यज्ञ ) भाट । जाज्य- संज्ञा, पु० (सं०) जड़ता, कठोरता, जागीर- संज्ञा, स्त्री० ( फ़ा० ) राज्य की मूर्खता । "जाइयं धियो हरति" ~ भर्तृ । भोर से मिली भूमि या प्रदेश ।। जात--संज्ञा, पु. (सं०) जन्म. पुत्र, बेटा, जागीरदार-संज्ञा, पु. ( फा० ) जागीर- जीव, प्राणी । वि० उत्पन्न, पैदा या जन्मा प्राप्त, जागीर का मालिक, अमीरी, रईसी। हुआ। " सजातो येन जातने"--व्यक्त, जाग्रत-वि० (सं०) जो जागता हो, सब प्रगट, प्रशस्त, अच्छा, जैसे नवजात । संज्ञा, बातों की परिज्ञानावस्था। स्त्री० (दे०) जाति । जाग्रति-संज्ञा, स्त्री० (सं० जाग्रत ) जागरण जात--संज्ञा, स्त्री० (अ०) शरीर, देह, जाति । जागने की किया, चैतन्यता। जातक-संज्ञा, पु. (सं०) बच्चा, बत्तन, जाचक ---संज्ञा, पु० दे० (सं० याचक) भिक्षु, फलित ज्योतिष का एक भेद (बिलो. माँगने वाला, भिखमङ्गा । " जाचक सबहिं | ताजक) जिनमें महात्मा बुद्ध के पूर्व जन्मों अजाचक कीन्हें "--रामा०। की कथायें हों (बौद्ध)। जाचकता-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० याचकत्व) | जातकर्म--संज्ञा, पु. यौ० (सं०) हिन्दुओं मांगने का भाव, भीख माँगने की क्रिया के दश संस्कारों में से चौथा संस्कार (बाल" रहिमन जाचकता गहे "--- रही। जन्म समय का ) " सजात कर्मण्यखिले जाचनास-स० कि० दे० (सं० याचन ) | तपस्विना"- रघु० । माँगना, याचना। जातना -- संज्ञा, स्त्री० (दे०) यातना, जाजम-जाजिम-संज्ञा, स्त्री० (तु० जाजम ) जातनाई । “कीजै मोको जम जातनाई" छपी हुई चादर. बिछाने का कपड़ा। -वि०। जात-पाँत जाति-पांति-संज्ञा, स्त्री० यौ० जाजराछ-वि० दे० ( सं० जर्जर ) जर्जर, दे० (सं० जाति---पंक्ति ) जाति, बिरादरी, भाई-चारा । "ब्याह ना बरेखी जाति पाँति जाजरूर-संज्ञा, पु. यौ० (फा० जा+प्र. न चहत हौं'–कवि०। ज़रूर ) पाखाना, टट्टी, शौचगृह । जातरूप-संज्ञा, पु० (सं०) सोना, धतूरा । जाज्वल्य- वि० (सं०) प्रज्वलित,प्रकाशयुक्त। जाकी सुन्दरता लखे, जातरूप को रूप"। जाज्वल्यमान--वि० (सं०) प्रज्वलित, प्रका- | जातवेद-संज्ञा, पु. (सं०) अग्नि, सूर्य । शित, दीप्तिवान, तेजवान, तेजस्वी।। जातांध-वि० यौ० (सं० जात + अंध) "जाज्वल्य माना जगतः शान्तये-माघ०। जन्म से अन्धा, जन्मांध । जाट-संज्ञा, पु. (?) पंजाब, सिंध और जाता-संज्ञा, स्त्री. (सं०) कन्या, पुत्री। राजपूताने में पाई जाने वाली एक जाति। वि. स्त्री०--उत्पन्न । जाठ-संज्ञा, पु० दे० (सं० यष्टि ) वह बड़ा जातापत्या- संज्ञा, स्त्री० यौ० ( सं० जात+ लट्ठा जो कोल्ह की कड़ी के बीच में रहता अपत्य-+-श्रा ) प्रसूता स्त्री जिस स्त्री के पुत्र है। तालाब के बीच में गड़ा लट्ठा। या कन्या पैदा हुई हो। जाठर-संज्ञा, पु० दे० (सं० जठर ) पेट, जाति-संज्ञा, स्त्री० (सं०) जन्म, पैदाइश, भूख, जठराग्नि । वि० पेट-सम्बन्धी। हिन्दुओं में समाज का वह विभाग जो जीर्ण पुराना। For Private and Personal Use Only Page #735 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जातिच्युत ७२४ जान पहले पहल कर्मानुसार किया गया था, ! जादू---संज्ञा, पु० ( फ़ा० ) वह आश्चर्यजनक निवास-स्थान, वंश-परम्परा के विचार से कृत्य जिसे लोग अलौकिक और अमानुषी मनुष्य-समाज का विभाग, धर्म, प्राकृति । समझते हों, इन्द्रजाल, तिलस्म, वह आदि की समानता के विचार से किया अद्भुत खेल या कृत्य जो दर्शकों की दृष्टि गया विभाग, कोटि, वर्ग, सामान्य, सत्ता, और बुद्धि को धोका देकर किया जाय, वर्ण, कुल, वंश, गोत्र, मात्रिक छंद। टोना टोटका, मोहने की शक्ति, मोहनी। "जाति न जाति बराति के खाये---स्फु०। जादगर -- संज्ञा, पु. ( फा० ) वह जो जादू जातिच्युत-वि० यौ० (सं०) जाति से गिरा करता हो । स्त्री० जागरनी। या निकाला हुआ, जाति-वहिष्कृत । संज्ञा, | जादुगरी-संज्ञा, स्त्री० ( फ़ा०) जादू करने स्त्री० ( यौ० ) जातिच्युति । की क्रिया, जादूगर का काम । जाती-संज्ञा, स्त्री० (सं०) चमेली की जाति जादोराय-संज्ञा, पु. यौ० (सं० यादव का एक फूल, जाही, जाई, जुही, छोटा +राज) श्रीकृष्ण चंद्र, जदुराई (दे०)। आँवला, मालती। “ भवन आपने ले गये विप्रै जादवराय" जाती-वि० (अ० जात) व्यक्तिगत, अपना, जान--संज्ञा, स्त्री० ( सं० ज्ञान ) ज्ञान, जाननिज का, निजी। जातीफल-संज्ञा, पु० (सं०) जायफल । कारी, ख़याल, अनुमान । "लखन कहा जातीय-वि० (सं०) जाति-सम्बन्धी। हँसि हमरे जाना"-- रामा० । यौ०-जानजातीयता-संज्ञा, स्त्री० (सं०) जाति का पहचान-परिचय । वि०-सुजान, जान कार, चतुर । संज्ञा, पु० (दे०) यान । संज्ञा, भाव, जाति की ममता, जातित्व ।। जातु अव्य० (सं०) कदाचित. कभी, संभा स्त्री० (फा० ) प्राण, जीव, प्राणवायु, दम । वनार्थक, पिपासुता, शान्तिमुपैति. वारिणान यौ-जान का गाहक- प्राणान्तकारी। ४०-जान के लाले पड़ना-प्राण जातु दुग्धान्मधुनोधिकादपि -- नैष । बचना कठिन दिखाई देना, जी पर प्रा बनना। जातुधान - संज्ञा, पु० (सं०) राक्षस । “जातु जान देना- अधिक श्रम करना । जान धान सुनि रावण बचना''---रामा० ।। को जान न समझना-अत्यन्त अधिक जातेष्टि - संज्ञा, पु० (सं०) पुत्र उत्पन्न होने कष्ट या परिश्रम सहना । जान खानाके समय का एक योग, नाँदीमुख-श्राद्ध, तंग करना, बार बार घेर कर दिक करना । जातकर्म का एक अंग। जान छुड़ाना या बचाना-प्राण बचाना, जात्य--वि० (सं०) कुलीन, प्रधान, श्रेष्ठ, किसी झंझट से छुटकारा करना, संकट मनोहर, सुन्दर। टालना। (किसी पर) जान जाना जात्रा--संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० यात्रा) यात्रा। (देना)-किसी पर अत्यन्त अधिक प्रेम जादव - संज्ञा, पु. (दे०) यादव, जादौ । होना । जान जाखों- प्राण-हानि की जादवपति -संज्ञा, पु० दे० यौ० (सं० आशंका । जान निकलना--प्राण निक यादवपति ) श्रीकृष्ण, यदुनाथ, जादवराय । लना, मरना, भय के मारे प्राण सूखना। जादमपति -संज्ञा, पु० दे० (सं० यादसां- जान पर खेलना - प्राणों को भय या पति ) जलजन्तुओं का स्वामी, वरुण ।। जोखों में डालना, मरने को तैयार होना। जादा-वि० (दे०) अधिक, ज्यादा, जिप्रादहः, । जान से जाना—प्राण या दम खोना। पुत्र, जैसे शाहजादा। । मरना, बल, शक्ति, बूता, सामर्थ्य, सार, For Private and Personal Use Only Page #736 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जानकार ७२५ जानी तत्व, अच्छा या सुन्दर करने वाली वस्तु, जानमनि--संज्ञा, पु. यौ० दे० (हि. जान + शोभा बढ़ाने वाली वस्तु । मुहा०—जान मणि ) ज्ञानिया में श्रेष्ठ, ज्ञानमणि । पाना- शोभा बढ़ना : जान में जान जानराय--संज्ञा, पु० दे० यौ० (हि. जान + आना-धैर्य या ढाढ़स होना, सान्त्वना राय) जानकारों में श्रेष्ठ, बड़ा बुद्धिमान । प्राप्त होना। जानवर-संज्ञा, पु० ( फा० ) प्राणी, जीव, जानकार---वि. ( हि० जानना+कार- पशु, जंतु । प्रत्य० ) जाननेवाला, अगिज्ञ, विज्ञ, चतुर । | जानहार - वि० दे० ( हि० जाना-- हारसंज्ञा, जानकारी। प्रत्य० ) जाने वाला. जनैया ( दे० ) गमनजानकी--संज्ञा, स्त्री. (सं०) जनक पुत्री, शील । सीता। " तब जानकी सासु पग लागी" जान* -- भव्य० दे० (हि० जानना) मानो, - रामा। जानौ, जनु । विधि० स० वि० “जीव चराजानकी जानि----संज्ञा, पु० यौ० (सं०) राम चर में सब जानहु" --रामा । चन्द्र । " लखन-जानकी-सहित उर. बसहु जाना ० क्रि० दे० (सं० यान) एक जानकी-जानि"---रामा० । स्थान से दूसरे स्थान पर प्राप्त होने के लिये जानकी-जीवन - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) राम गति में होना, गमन करना. बढ़ना, हटना, चन्द्र जी । “ जानकी जीवन की बलि प्रस्थान करना कि० वि०-जाना हुआ, जैहौं',-विनय । ( हि० जानना )। मुहा०-जाने दोजानकीनाथ----संज्ञा, पु. (सं०) रामचन्द्र जी, क्षमा करो, माफ़ करो चर्चा या प्रसंग जानकीश, जानकी-पति । छोड़ो । किसी बात पर जाना- किसी जादार- वि० ( फा० ) जिसमें जान हो, | बात के अनुसार कुछ अनुमान या निश्चय सजीव, जीवधारी। करना. तदनुकूल चलना या करना । अलग जाननहार-संज्ञा, पु० (दे०) जानने वाला। या दूर होना हाथ या अधिकार से निक "जानि लेय जो जाननहारा"---रामा० ।। लना, हानि होना, खो जाना गुम हो जाना, जानमा- स० क्रि० दे० (सं० ज्ञान ) ज्ञान | बीतना, गुज़रना नष्ट होना। मुहा० --- प्राप्त करना, अभिज्ञ या परिचित होना, गया घर-दुर्दशा प्राप्त घराना । गयामालूम करना, सूचना पाना, खबर रखना, बीता-दुर्दशा प्राप्त. निकृष्ट । बहना, जारी अनुमान करना, सोचना । होना। --स० क्रि० दे० (सं० जनन ) जानपद---संज्ञा, पु० (सं०) जनपद सम्बन्धी उत्पन्न या पैदा करना. जन्म देना । वस्तु, जनपद का निवासी, लोक, मनुष्य, जानि-संज्ञा, स्त्री. (सं०) स्त्री, भार्या । देश, लगान । पू० का स० क्रि० समझ कर । जानपना- संज्ञा, पु. ( हि जान - पन- जानी-वि. ( फ़ा० ) जान से सम्बन्ध रखने प्रत्य० ) बुद्धिमत्ता, चतुराई। स्त्री० जान- वाली । यौ० -- जानी दुश्मन- जान पनी । “ दमदानदया नहिं जानपनी" लेने को तैयार दुश्मन । जाली दोस्त-रामा० । दिली दोस्त, पूर्ण मित्र । संज्ञा, स्त्री० ( फा० जान पहचान-संज्ञा, पु० यौ० (हि० जान + जान ) प्राणधारी । स० क्रि० (हि. जानना) पहचान ) चिन्हार परिचित । जाना-पहि- जान ली समझ ली “हम जानी तुम्हारि चाना (दे०) जाना माना। मनुजाई "- रामा०। For Private and Personal Use Only Page #737 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir MOHAARTIME mame - जानु जामुनी जानु-संज्ञा, पु० (सं०) जाँघ और पिंडुली " रुचिर रजनि जुग जाम सिरानी"--- के मध्य का भाग घुटना ! विधि स० क्रि० राम० । संज्ञा, पु. (फा०) प्याला, कटोरा । (हि. जानना) जानो। संज्ञा, पु० (फ़ा० जान) संज्ञा. पु० (दे०) जामुन । जाँघ. रान, जंघा जायगी---संज्ञा, पु. ( ? ) बंदूक या तोप जानुपाणि-कि० वि० यौ० (सं०) घुटनो, का फलीता। बैयाँ बैयाँ, घुटनों और हाथों से चलना। जामदानी संज्ञा, स्त्री० द. ( फा० जमः "जानुपानि धावत मनि अाँगन".- सूर०।। दानी ) एक कढ़ा हुआ फूलदार कपड़ा। जानुफलक-संज्ञा, पु. ( सं० ) यूँ दी जामदग्न्य---संज्ञा, पु. (सं०) जमदग्नि का चकति, घुटना। पुत्र, परशुराम । जानो-अव्य० दे० (हि० जानना ) मानो, जामन-संज्ञा, पु० दे० (हि० जमाना ) दूध जैसे, जनु । विधि० स० कि० (हि० जानना। का जमा कर दही बनाने के लिये डालने जाप--- संज्ञा, पु० (सं०) नाम आदि जपने का दही, मही या खट्टो वस्तु । की क्रिया, जप, जपने की थैली या माला। जामना-प्र० कि० (दे०) जमना, उगना । " जपमाला छापा तिलक" - कबी०। जाम -वि० (दे०) यावनी। संज्ञा, स्त्री. जापक-संज्ञा, पु० (सं०) जाप करने वाला। (दे०) यामिनी, रात, ज़मानतदार । वि० जापी । " जापक जनप्रह्लाद जिमि" । जामवंत-संज्ञा, पु० (दे०) नाँववान् या -- रामा। जाम्बवन्त । 'जामवंत कह रहु खल ठाढ़ा" जापा- संज्ञा, पु० दे० ( सं० जनन ) सौरी, -रामा० । स्त्री जामती। प्रसूतिका गृह । जामा - एंज्ञा, पु. ( फा० ) कपड़ा, वस्त्र, जापान -- संज्ञा, पु० (दे०) एक द्वीप एशियाः । चुननदार धेरे का एक पहनावा । सा० भू० जाफा-संज्ञा, पु० दे० (अ. जाफ़) बेहोशी, स० क्रि० (दे०) उगा । " राम जी के सोहै घुमरी, मूर्छा, थकावट । केसरिया जामा " -- स्फु० । मुहा०जाफत—संज्ञा, स्त्री० दे० (अ० ज़ियाफ़त ) जामे से बाहर होना-पापे से बाहर भोज, दावत। होना, अत्यन्त क्रोध करना । जाफ़रान - संज्ञा, पु. ( अ० ) केसर। | जामाता* --- संज्ञा, पु. (सं० जामातृ) दामाद । जाबाल-संज्ञा, पु० (सं०) जाबाला के पुत्र, जामिक*-संज्ञा, पु० दे० (सं० यामिक ) एक मुनि ! पहरुमा पहरा देने वाला रक्षक । जाबालि-संज्ञा, पु. (सं०) दशरथ-गुरु जामिन जामिनदार एंज्ञा, पु. (अ.) कश्यप वंशीय एक ऋषि । ज़मानत करने वाला, ज़िम्मेदार, प्रतिभू । जाब्ता--संज्ञा, पु० ( अ ) नियम, कायदा, जामिनी--- संज्ञा, स्त्री० (दे०) यामिनी रात । व्यवस्था, कानून । यौ०-जान्ता (दे०) ज़मानत। दीवानी ---सर्व साधारण के परस्पर प्रार्थिक जान--- संज्ञा, पु० दे० ( सं० जंघु ) बरसात व्यवहार से सम्बन्ध रखने वाला कानून में पकने पर काले रंग का एक खटमिट्टा जाता फौजदारी-दंडनीय अपराधों से । फल, बैंगनी या बहुत काले फलों का सम्बन्ध रखने वाला कानून : सदा बहार पेड़। जाम-संज्ञा, पु० दे० (सं० याम) पहर, जामुनी-वि० (हि. जामुन ) जामुन के प्रहर, साढ़े सात या तीन घंटे का समय ।। रंग का बैंगनी या काला। For Private and Personal Use Only Page #738 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir sesमयक जामेवार ७२७ जालदार जामेवार - संज्ञा, पु. (फा० जमा+वार)। उपपति से उत्पन्न पुत्र । “जारज जाइ एक सर्वत्र बुटेदार दुशाला, ऐसी हो छींट : कहावहु दोऊ '' ... राम । जाम्बूनद-... सज्ञा, पु० (स.) सोना, सुवर्ण । जारजया-पंज्ञा, पु० यौ० (सं०) स्त्री के जाय -प्रव्य० दे० ( फ़ा. जा ) वृथा, ज़ार या उपपति से पुत्र की उत्पत्ति के निष्फल । वि. उचित, वाजिब, ठीक । जानने का नियम फ़. ज्यो०)। " जाय कहब करतूति बिन, जाय योग विन जारण--संज्ञा, पु. (सं०) जलाना, भस्म छम"। करना, जारन (दे०)। जायका-- संज्ञा, पु० ( ० ) खाने पीने की जानी-संज्ञा, पु. (हि. जलाना ) इंधन, चीज़ों का मज़ा, स्वाद । वि. जायके- जलाने की क्रिया या भाव । दार। जारना ---- स० कि० (दे०) जलाना, (जराना जायचा-संज्ञा, पु. ( फा० ) जन्म-पत्री का प्रे० रूप ) जराना। जायज-वि० ( अ० ) उचित, मुनासिब । जारल-संज्ञा, पु० (दे०) काष्ठ विशेष । जायजा ... संज्ञा, पु. ( अ०) जाँच-पड़ताल, जारिणी - संज्ञा, स्त्री० (सं०) व्यभिचारिणी, हाज़िरो, गिनती। दुश्चरिका या बदचलन स्त्री। जायद-वि० ( ० ) अधिक अतिरिक्त । जारी-वि० (प्र.) बहता हुआ, प्रवाहित, जायदाद - संज्ञा, स्त्री० ( फा०) भूमि, धन चलता हुश्रा, प्रचलित । संज्ञा, स्त्री० ( सं० या सामान आदि जिस पर किसी का | जार - ई-- प्रत्य० ) परस्त्रीगमन, छिनाला, अधिकार हो, सम्पत्ति । व्यभिचार । जाय-नमाज-संज्ञा, स्त्री० यौ० ( फा० ) जारीब-संज्ञा, स्त्री० (फा०) झाडू, बदनी। नमाज़ के लिये बिछाने का छोटी दरी या जालंधर-संज्ञा, पु० (दे०) जलंधर। बिछौना ( मुस० ) जालंधरी विद्या--संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं० जायपत्री-संज्ञा, स्त्री० (दे०) जावित्री। जालंधर दैत्य ) मायिक विद्या, माया, प्रपंच, जायफल-संज्ञा, पु० दे० (सं० जातीफल ) इन्द्रजाल । अखरोट सा एक छोटा सुगधित फल जो जालंध्र-संज्ञा, पु. (स०) झरोखे की जाली। औषधि, मसाले में पड़ता है। ! जाल-संज्ञा, पु० (सं०) मछलियों और जाया-पंज्ञा, स्त्री० (सं०) विवाहिता स्त्री, पत्नी, जोरू, उपजातिवृत्ति का सातवाँ भेद।। का पट, एक में श्रोत-प्रोत बुने या गुथे हुये बहुत से तारों या रेशों का समूह, ज़ाया-- वि० ( फा० ) खराब, नष्ट । किसी को फंसाने या वश में करने की जाये-संज्ञा, पु. ( हि० जाना ) उत्पन्न किया युक्ति, मकड़ी का जाला, समूह, इन्द्रजाल, हुश्रा, बेटा, पुत्र । " कौशलेश दशरथ के एक तोप । संज्ञा, पु. (अ. जमल, मि० जाये".-रामा० । सं० जाल ) फरेब, धोखा, झूठी कार्रवाई । जार-संज्ञा, पु० (सं०) पर-स्त्री से प्रेम यौ०--जालफरेव । करने वाला पुरुष, उपपति, यार, प्राशना। जालगि-सर्व० (दे०) जिसके लिये, जिस वि० मारने या नाश करने वाला ! ___ कारण, जिस हेतु। जारकर्म-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) व्यभिचार, जाल गोगिकी--- संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) छिनारा ! दधिमंथन भाण्ड, मथेड़ी, मथनी । जारज-ज्ञा. पु० (सं.) किसी की स्त्री का जालदार-वि० ( सं जाल-+दार हि० ) For Private and Personal Use Only Page #739 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - - जालरंध्र ७२८ जाहिरा जिसमें जाल की भाँति पास पास बहुत से जावका-संज्ञा, पु० (सं०) लौंग, लौंग का छेद हों। जालरंत-संज्ञा, पु० यौ० (स०) जाली का जावन* --संज्ञा, पु० (दे०) जामन । झरोखा या छिद्र। " जावन लौं को बचत नहिं दधि खावें जालसाज-संज्ञा, पु० ( म० जग्रल + फ़ा. गोपाल।" साज़ ) दूसरों को धोखा देने के लिये जावानी- संज्ञा, स्त्री० ( सं० जवानी) अजझूठी कार्रवाई करने वाला। वाइन । “तुद्रा जवानी सहितोकषायः " जालसाज़ी-संज्ञा, स्त्री० ( फा० ) फरेब या जाल करने का काम, दगाबाज़ी | जावा-- संज्ञा, पु० (दे०) भारत के पूर्व में जाना-संज्ञा, पु. ( सं० जाल ) मकड़ा का एक उपद्वीप । बुना हुआ पतले तारों का वह जाल जिसमें जावित्री-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० जातिपत्र ) वह मक्खियां और कीड़े मकोड़ों को फँसाती है, आँख की पुतली के ऊपर सफ़ेद झिल्ली जायफल का सुगंधित छिलका ( औषधि )। सी पड़ने का रोग, घाल-भूरा बाँधने का जापनी-संज्ञा, स्त्री० (दे०) यक्षिणी। जाल, पानी रखने का मिट्टी का बड़ा जादु *----वि० ( हि० जा ) जासू (दे०) बरतन, माला (ग्रा० )। जिसका, जिपकी, जिसके । 'जासु बिलोकि जालिक-संज्ञा, पु. ( स०) मछुवा, केवट, अलौकिक साभा" --रामा० । धीवर, मकरी, मकरा, इन्द्रजालिक, मदारी जासूस--- संज्ञा, पु. (अ.) गुप्त रूप से बाज़ीगर । वि० जाल से जीने वाला। किली बात या अपराध आदि का पता जालिका- संज्ञा, स्त्री० (सं०) जाली, समूह लगाने वाला, भेदिया, मुखबिर । दल। जासूसी-संज्ञा, स्त्री० (हि. जासूस ) गुप्त जालिम-वि० ( अ०) जुल्म करने वाला, रूप से किसी बात का पता लगाना, क्रूरकर्मा, अत्याचारी। जासूस का काम । जालिया-वि० (हि० जाल ---इया प्रत्य० ) जहा--संज्ञा, पु. (दे०) देखा, निरीक्षण जालसाज़, फरेब करने या धोखा देने वाला। किया । " औ फिर मुख महेस का जाहा" जाली-संज्ञा, स्त्री. ( हि० जाल ) लकड़ी पत्थर या धातु की चादर में बना छोटे छोटे जाहिाँ*-वि० दे० (हि. जो) जाही छेदों का समूह, कसीदे का एक काम, भरना, । (दे०) जिसको, जिसे, जाकह (दे०)। छोटे छोटे छेद वाला महीन कपड़ा, कच्चे । " जाहि जोहि वृन्दारक वृन्द मुनि मोहेहै " श्राम की गुठली के ऊपर का तंतु-समूह ।। -रना। वि० ( अ० जअल ) नकली । जैसे—जाली | जाहिर-वि० ( अ० ) प्रगट, प्रकाशित, सिक्का, फरेबी। प्रत्यक्ष, खुला या जाना हुआ, विदित । जाला-संज्ञा, पु० (सं०) पामर, ऋर। जाहिरदारो-संज्ञा, स्त्री० ( अ० ) दिखावे जाव*-संज्ञा, पु० दे० (सं० यावज) | की बात या काम प्रत्यक्षता । लाह से बना पैरों में लगाने का लाल रंग जाहिरा--क्रि० वि० (अ.) देखने में, (स्त्रियों) अलता (प्रान्ती० ) महावर। प्रगट रूप में प्रत्यक्ष में । " जाहिरा काबे " चरन प्रिय के जावक रचे"-शकु० । का जाना और है।" For Private and Personal Use Only Page #740 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ARRIOR जाहिल ७२६ जिच-जिच्च जाहिल-वि० (प्र.) मूर्ख, अज्ञान, ना- जिउकिया-संज्ञा, पु. (हि. जीविका ) समझ । संज्ञा, स्त्री. जहालत, जाहिली। जीविका करने वाला, रोजगारी, जङ्गलों जाही--संज्ञा, स्त्री० (सं० जाति ) चमेली सा | की वस्तुयें बेंचने वाले लोग। एक सुगंधित फूल । सर्व० (दे०) जिसको। जिउतिया संज्ञा, स्त्री० (दे०) जिताष्टमी। जान्हवी-संज्ञा, स्त्री० (सं०) जन्तु ऋषि से ज़िक्र-संज्ञा, पु. ( अ०) चर्चा. प्रसंग। उत्पन्न, गङ्गा। जिगजिगिया-वि० (दे०) चापलूस । जिगनो-जिगिनी- संज्ञा, स्री० (सं०) जिगिन | जिगजिगी-संज्ञा, स्त्री० (दे०) चिरौरी का पेड़ । खुशामद, अनुनय, चापलूसी. मिथ्या जिंद-संज्ञा, पु. ( अ० ) भूत, प्रेत, जिन । प्रशंसा। जिंदगी जिंदगानी--- संज्ञा, स्त्री. ( फा०) जिगमिष--संज्ञा, स्त्री. (सं०) गमनेच्छा, जीवन, जीवन-काल, आयु । मुहा० --- जाने की अभिलाषा। जिंदगी के दिन पूरे करना (भरना)- जिगमिषु-- संज्ञा, पु० (सं०) गमनेच्छु, जाने दिन काटना, जीवन बिताना, मरने को | की इच्छा वाला। होना। जिगर-संज्ञा, पु. (फा०) (मि० सं० यकृत) जिंदा-वि० ( फा० ) जीवित, जीता हुआ। कलेजा, चित्त मन, जीव, साहस, हिम्मत, जिंदादिल-वि० (फा० ) साहसी, खुश- | गूदा, सत्त, सार । वि. जिगरी-दिलो। मिज़ाज, हँसोड़: (संज्ञा, स्त्री० जिंदादिली), जिगरा-संज्ञा, पु. ( हि० जिगर ) साहस, "जिंदगी जिंदादिली का नाम है।" | हिम्मत, जीवट। जिंघाना-स० क्रि० (दे०) जिमाना, जिगरी-वि. (फा० ) दिली, भीतरी, ज्योंवाना। अत्यन्त घनिष्ट, अभिन्न हृदय । जिंस-संज्ञा, स्त्री० ( फा०) प्रकार, भाँति, जिगीषा-संज्ञा, स्त्री० (सं०) जयेच्छा, जीतने चीज़, वस्तु । की इच्छा, विजय लालसा। जिंसवार-संज्ञा, पु. ( फा० ) खेतों में जिगीष-वि० (सं०) जयेच्छु, जीतने की बोये हुये अन्नों की सूची (पटवारी)। इच्छा वाला। " होते हैं युधिष्ठिर जिगीषू जिअत-क्रि० वि० (हि० जीना ) जीते हुये, | महाभारत के ''---अनू० । जीते जी । " जित न करब सौति सेव- जिघत्सा-संज्ञा, स्त्री० (सं०) भोजनेच्छा। काई" -रामा०। | जिघत्सु-वि० (सं०) चुधित भूखा, भोजन जिग्राउ-जियाव-स० क्रि० (हि. जिलाना) की इच्छा वाला। जिलावे, जीने दे। “ ऐसेहु दुख जिग्राउ जिघांसु- वि० (सं०) बध की इच्छा वाला, बिधि मोही'-- रामा०। घातक, हिंसक, नृशंस, क्रूर, वधोद्यत । ज़ियान-संज्ञा, पु० (दे०) हानि, क्षति। संज्ञा, पु० (सं०) जिघांसा। जियाना-स० क्रि० (दे०) जिलाना. जिघासा-संज्ञा, स्त्री० (सं०) क्षुधा, भूख, जिवाना, जेंवाना। भोजन की इच्छा। जियाये-वि० (दे०) पालित, पाला-पोषा, जिन-जिच्च-संज्ञा, स्त्री० (१) बेवसी, जिलाये हुये। | तंगी, मजबूरी शतरंज के खेल में वह जिउ- संज्ञा, पु० (दे०) जीव । अवस्था जिसमें किसी पक्ष को मोहरा जिउका-संज्ञा, स्त्री०:(दे०) जीविका। चलने की जगह न हो। For Private and Personal Use Only Page #741 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir फर जिजीविषा ७३० जिन्ह जिजीविषा-संज्ञा, स्त्री० (सं०) जीने की जितामित्र-वि० यौ० (सं० जित + अमित्र) इच्छा, जीवनेच्छा। विष्णु, विजयी। जिजीविष-वि० (सं०) जीने की इच्छा जिताष्टमी - संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) आश्विन वाला, जीवनेच्छुक । कृष्ण अष्टमी के दिन पुत्रवती स्त्रियों का जिजिया-संज्ञा, पु० (दे०) जज़िया। व्रत ( हिन्दू ) जिउतिया (ग्रा०) । जिज्ञासा-संज्ञा, स्त्री० (सं०) जानने या जिताहार--संज्ञा, पु. यौ० (सं० जित+ ज्ञान प्राप्त करने की इच्छा, पूछताछ. प्रश्न । आहार ) अन्न जयी अन्न को स्वाधीन करने जिज्ञासु-वि. (सं०) जानने की इच्छा वाला । रखने वाला, खोजी। जितेंद्रिय -- वि० यौ० (सं०) इन्द्रियों को जिज्ञास्य-वि० (सं०) पूछने योग्य । - वश में करने वाला, समवृत्ति वाला, शांत, जिठाई-संज्ञा, स्त्री० दे० ( हि० जेठा+ ई. जितेंद्री। प्रत्य० ) बड़ाई, जेठापन । जिते -वि. वहु० (हि. जिस + ते) जितने। जिठानी-संज्ञा, स्त्री० ( जेठा ---नो-प्रत्य० ) | जितक्ष-क्रि० वि० दे० (सं० यत्र प्रा० यत्त ) पति के बड़े भाई की स्त्री। जिधर, जिस थोर । “ गोला जाय जबै जब जित्-वि० (सं०) जीतने वाला, जेता। जिते"-रामा । जित-वि० (सं०) जीता हुया । संज्ञा, पु० जितो-जितौ--- वि० दे० (हि.जिस ) (सं०) जीत, विजय | *-क्रि० वि० दे० जितना, जेतो (दे०) ( परिमाण सू. )। (सं० यत्र ) जिधर, जिस ओर, जिते, जित्वर-वि० (सं०) जेता, विजयी। "भ्रातृजहाँ। भिजित्वरैर्दिशाम् ।” जितना-वि० (हि. जिस-+ तना प्रत्य०) जिद-जिद्द-संज्ञा, स्त्री. (अ. ज़िद ) वैर जिस मात्रा या परिमाण का। क्रि० वि० शत्रुताहठ, दुराग्रह । वि. जिद्दी। जिस मात्रा या परिणाम में, जित्ता, जितो, ज़िद्दी-वि० (फा० ) ज़िद करने वाला, जेतो (ब.)। (स्त्री० जितनी)। हठी, दुराग्राही। जितवना-स० क्रि० (दे०) जिताना। जिधर क्रि० वि० दे० (हि. जिस + धर जितवाना-२० क्रि० (दे०) जिताना।। प्रत्य. ) जिस भोर, जहाँ, जंघे (ग्रा०)। जितवारी-वि० दे० (हि. जीतना ) जीतने | जिन--संज्ञा, पु० (सं०) विष्णु, सूर्य, बुद्ध, वाला, विजयी। जैनों के तीर्थकर । वि. सर्व० दे० (सं० जितवैया-वि० दे० (हि. जीतना+ यानि ) जिस का बहु० । अव्य. - मत । संज्ञा, पु. ( अ.) भूत। वैया-प्रत्य० ) जीतने वाला। ज़िना --संज्ञा, पु० (अ.) व्यभिचार ! जितशत्रु-संज्ञा, पु. यौ० (सं०) विजयी । जिनाकार-वि० ( फा० ) व्यभिचारी, जीतने वाला। छिनरा । संज्ञा, स्त्री० जिनाकारी। जिता-संज्ञा, पु० (दे०) किसानों की जिना-बिल्जत-संज्ञा, पु. यो(अ जुताई, बुआई में परस्पर सहायता, हूँड़। किसी स्त्री के साथ उसकी इच्छा के विरुद्ध क्रि० वि० अ० (दे०) जितो. जेतो, जितना। बलात संभोग करना । जिताना-स० क्रि० दे० (हि० जीतना का जिनि - अव्य० ( हि० जनि ) मत, नहीं। प्रे० रूप ) जीतने में सहायता करना, जिनिस-संज्ञा, स्त्री० (दे०) जिस । (प्रे० रूप ) जितवाना। जिन्हीं*- सर्व० (दे०) जिन । For Private and Personal Use Only Page #742 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जिब्मा-जिभ्या जिल्दबंद जिब्भा-जिभ्या* -- संज्ञा, स्त्री० (दे०) जिह्वा। जियारी --संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. जीना) जिमाना-स० कि० दे० (हि. जीमना) | जीवन, जिंदगी, जीविका, हृदय की दृढ़ता, खाना खिलाना, भोजन कराना, जिंवाना।। जीवट, जिगरा । जिमि* -क्रि० वि० ( हि० जिस + इमि ) | जिरगा-सज्ञा, पु. (फा०) झुंड, गरोह, जिस प्रकार, जैसे, यथा, ज्यों। " जिमि | मंडली, दल । दसनन बिच जीभ बिचारी"-- रामा० । जिरह-संक्षा, स्त्री० दे० ( अ० जुरह) हुजत, जिमीकंद-संज्ञा, पु० (फा०) सूरन, रस्सी। खुचुर, कथन-सत्यतार्थ पूँछताँछ, बहस । जिम्मा--संज्ञा, पु. अ. ) किसी बात या | जिर-संज्ञा स्त्री० (फा० ) लोहे की कड़ियों काम के अवश्य करने और न होने पर दोषः | से बना हुआ कवच, वर्म, बख़्तर । भार के ग्रहण करने की स्वीकृति दायित्व पूर्ण यौ-जिरह पोश- जो बख़्तर पहने हो। प्रतिज्ञा. जवाबदेही। मुहा०—किसी के जिम्मे रुपया आना-निकलना या होना जिरही-वि० (हि० जिरह ) कवचधारी । --किसी के ऊपर रुपया का ऋण-स्वरूप जिराफा-संज्ञा, पु० (दे०) जुराफा पशु । होना, देना, ठहरना। जिला- संज्ञा, स्त्री० (अ.) चमक, दमक । जिम्मादार-जिम्माघार--- संज्ञा, पु० (फा०) मुहा०--जिला देना-माँज या रोग़न जो किसी बात के लिये जिम्मा ले, जवाब- आदि चढ़ाकर चमकाना, सिकली करना । देह, उत्तर दाता, जिम्मेदार, जिम्मेवार । यौ०---जिलाकार - सिकलीगर-माँज जिम्मावारी-संज्ञा, स्त्री० (हि० जिम्मावार ) या रोग़न आदि चढ़ा कर चमकाने का किसी बात के करने या कराने का भार, काय। जिम्मेदारी, उत्तर दायित्व, जवाव दिही, जिला-संज्ञा, पु. (अ.) प्रांत, प्रदेश, सपुर्दगी, संरक्षा। एक कलेक्टर या डिप्टी कमिश्नर के प्राधीन जिय-जिया --संज्ञा, पु० दे० (सं० जीव) प्रांत ( भारत०), इलाके का छोटा भाग । जीव, मन, चित्त । " अस जिय जानि सुनो | ज़िलादार--संज्ञा, पु. ( फ़ा० ) अपने सिख भाई"- रामा०। इलाके के किसी भाग का लगान वसूल जियन--संज्ञा, पु. ( हि० जीवन ) जीवन, करने के लिये नियत ज़मीदार का नौकर, जियनि (दे०)। नहर, आदि के किसी हलके का अफसर, जियबधा-संज्ञा, पु० यौ० (दे०) जल्लाद ।। ज़िलेदार । संज्ञा, स्त्री०-जिलादारी। जियराछ-संज्ञा, पु० दे० (हि. जीव) जिलाना-स० क्रि० (हि. जीना का स० रूप) जीव दिल मन होश मा जीवन देना, ज़िन्दा या जीवित करना, (दे०)। पालना-पोसना, प्राण-रक्षा करना। जियान-- संज्ञा, पु. (अ.) घाटा, टोटा, जिलासाज----संज्ञा, पु० यौ० (फा०) अस्त्रादि हानि। पर ओप चढ़ाने वाला, सिकलीगर । ज़ियाफ़त--संज्ञा, स्त्री० (अ.) आतिथ्य, जिल्द-संज्ञा, स्त्री० (अ.) खाल, चमड़ा, मेहमानदारी, भोज, दावत ।। त्वचा, किसी किताब के ऊपर रक्षार्थ लगी ज़ियारत-संज्ञा, स्त्री० (अ.) दर्शन, तीर्थ- दफ़्ती, पुस्तक की एक प्रति, पुस्तक का दर्शन । मुहा० --जियारत लगना- प्रथक सिला भाग, खंड । वि० जिल्दीदार । भीड़ लगना। | जिल्दबंद-संज्ञा, पु० (फा० ) किताबों की For Private and Personal Use Only Page #743 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जिल्दसाज जिन्द बाँधने वाला। संज्ञा, स्त्री० जिल्द- नोक । मुहा०-जिह्वाग्र करना-कंठस्थ बंदी। या ज़बानी याद करना । " अनुष्य विद्या जिल्दसाज-संज्ञा, पु० (दे०) जिल्दबंद। जिह्वाय नर्तकी"-नैष० ।। संज्ञा, स्त्री० जिलदसाजी। जिह्वामूल-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) जीभ की जिल्लत-संज्ञा, स्त्री. (अ.) अमादर, अप- जड़ या पिछला स्थान । वि. जिह्वामूलीय। मान. तिरस्कार, झंझट । मुहा०--जिल्तत जिह्वामूलीय - संज्ञा, पु. यौ० (सं०) वह उठाना या पाना-अपमानित होना। वर्ण जिसका उच्चारण जिह्वामूल से हो, क, दुगति, दुदशा, होन दशा । मुहा- ख के पहले विसर्ग आने से वे जिह्वामूलीय जिल्लत में पड़ना (होना, डालना) हो जाते हैं । “जिह्वामूलीयस्य जिह्वामूलं" -झंझट या दुर्गति में पड़ना। -~-पा०। जिवा-संज्ञा, पु० (दे०) जीव. जिउ, (ग्रा०) जींगना-संज्ञा, पु० दे० (सं० जगण ) जीउ । वि० कि० (हि. जीना) जिभो।। जुगुन । जिवनमूरि, जिवनमूरी-- संज्ञा, स्त्री० यौ० | जी-संज्ञा, पु० दे० (सं० जीव ) मन, दिल, दे० (सं० जीवन + मूल)+संजीवनी औषधि, । चित्त, हिम्मत, दम, जीवट, संकल्प, विचार। जिलाने वाली बूटी। “जिवनमूरि सम मुहा०-जी अच्छा होना---चित्त स्वस्थ्य जुगवति रहऊँ "-रामा० । होना, नीरोग होना। किसी पर जी जिवाना-स. क्रि० (दे०) जिलाना। आना किसी से प्रेम होना। जी उचजिस-वि० दे० (सं० यः, यस् ) विभक्ति- टना-चित्त न लगना, मन हटना। जी युक्त विशेष्य के साथ जो का रूप, जैसे .... उड़ जाना-भय, शा आदि से सहसा जिस पुरुष ने । सर्व-विभक्ति लगने के चित्त व्यग्र हो जाना। जो करना-हिम्मत पहले जो का रूप, जैसे -जिसको । करना, साहस करना, इच्छा होना, स्वीकार जिस्ता-संज्ञा, पु० (दे०) जस्ता, दस्ता। करना। जी का बुखार निकलनाजिस्म- संज्ञा,पु० (फा०) शरीर, देह । क्रोध, शोक, दुःखादि के वेग को रो, कलप जिष्णु-संज्ञा, पु० (सं०) अर्जुन, इन्द्र ।। या बक-झक कर शांत करना । (किसो '. आजगामाश्रमम् जिष्णोः प्रतीतः पाक- के) जी का जी समझना-किसी के शासनः" -किरा०। विषय में यह समझना कि वह भी जीव है जिह*-संज्ञा, पु० दे० (फ़ा० ज़द सं० ज्या)। उसे भी कष्ट होगा। जी खट्टा होना धनुष की प्रत्यंचा ( डोर), रोदा, ज्या।। मन फिर जाना याविरक्त होना, घृणा होना, ज़िहन (जेहन )-संज्ञा, पु० (अ०) समझ, ! जी (जिगर ) खोलकर-बिना किसी बुद्धि । मुहा०—ज़िहन खुलना-- बुद्धि संकोच के, बेधड़क, जितना जी चाहे, का विकास होना। जिहन में थाना- यथेष्ट । जी (जिगर) थाम वैठना--- समझ में आना । ज़िहन लड़ना (लगाना) धैर्य रखना। जी चलना--मन चाहना, - खूब सोचना। इच्छा होना। जी चुराना-हीलाहवाली जिहाद-संज्ञा, पु० ( म० ) मज़हबी लड़ाई, करना, किसी काम से भागना । जो छोटा अन्य धर्मियों से स्वधर्म प्रचारार्थ युद्ध । करना-मन उदास करना, उदारता _(मुस.)। छोड़ना, कंजूसी करना। जी हँगा रहना जिह्वा-संज्ञा, स्त्री० (सं०) जीभ, ज़बान । या होना-ध्यान या चिंता रहना, चित्त जिह्वाग्र--संज्ञा, पु. यौ० (सं०) जीभ की! चिंतित रहना । जी डूबना-चित्त स्थिर For Private and Personal Use Only Page #744 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जीना जी, जीउ ७३३ न रहना, व्याकुल होना। जी दुखना-- जीगन- संज्ञा, पु० (दे०) जुगनू । चित्त को कष्ट पहुँचना। जी देना मरना, जीजा-संज्ञा, पु० दे० (हि. जीजी) बड़ी अत्यन्त प्रेम करना। जी धंस। जाना- बहिन का पति, बड़ा बहनोई। जी बैठ जाना । जी धड़कना-भय, जीजी-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० देवी ) बड़ी आशंका से चित्त स्थिर न रहना, कलेजा बहिन । अव्य० ( वीप्सार्थ ) हां हां। धक धक करना। जी निठाल होना - जीत--संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० जिति ) युद्ध चित्त का स्थिर या ठिकाने न रहना।। या लड़ाई में विपक्षी के विरुद्ध सफलता, जो पर पाबनना--प्राण बचाना कठिन | जय, विजय, कार्य में विपक्षी के रहते हो जाना । जो (जान) पर खेलना-जान | सफलता, लाभ, फ़ायदा । को पात में डालना, मरने को तैयार होना। जीतना-स. क्रि० दे० (हि. जीत-नाजी बहलना--चित्त का श्रानन्द में लीन प्रत्य० ) युद्ध में विपक्षी पर विजय प्राप्त होना, मनोरंजन होना। जी बिगड़ना - करना, दो या अधिक परस्पर विरुद्ध पक्ष जी मचलाना, के करने की इच्छा होना। के रहते काय में सफलता, दाँव ( जुआ) (किसी की ओर से) जी बरा करना- में सफल होना। किसी के प्रति अच्छा भाव न रखना, घृणा जीता - वि० (हि. जीना ) जीवित, तौल या क्रोध करना । जो भरना-म० क्रि० या नाप में ठीक से कुछ बढ़ा हुआ, विजयी। चित्त संतुष्ट होना, तृप्ति होना । जी भरना | जीन*-वि० दे० (सं० जोर्ण) जर्जर, पुराना, -- क्रि० दूसरे का सन्देह दूर करना, | कटाफटा, वृद्ध, बूढ़ा। खटका मिटाना । जी भर कर-मनमाना, | जीन-संज्ञा, पु० ( फा० ) घोड़े पर रखने की यथेष्ट । जी भर याना-चित्त में दुःख गद्दी, चारजामा, काठी, पलान, कजावा या करुणा का उद्रेक होना, दया उमड़ना। __ (ग्रा.), एक बहुत मोटा सूती कपड़ा। जी मचलाना या मतलाना-उलटी या “जगमति जीन जड़ाउ जाति से "कै करने की इच्छा होना। जी में आना-- रामा०। चित्त में विचार उत्पन्न होना, जी चाहना। जीनपोश--- संज्ञा, पु० यौ० ( फा० ) जीन के (किसी का) जा रखना-मन रखना, ढकने का कपड़ा। इच्छा पूर्ण करना, प्रसन्न या संतुष्ट करना। जोन सवारी-संज्ञा, स्त्री० यौ० (फा०) जी लगना--मन का किसी विषय में योग घोड़े पर जीन रखकर चढ़ने का कार्य । देना, (किसी से ) जो लगाना-किसी जोना-अ० क्रि० दे० ( सं० जीवन ) जीवित से प्रेम करना। जो से-जीजान से-- | या जिंदा रहना । मुहा०-जीता-जागता जी लगा कर, ध्यान देकर। जी से उतर --जीवित और सचेत, भला-चंगा, स्वाभाजाना----दृष्टि से गिर जाना, भला न | विक, साक्षात, साकार। जीती मक्खी अँचना । जी से जाना-मर जाना।। निगलना-जान-बूझ कर कोई अन्याय अध्य० दे० (सं० जित् या श्रीयुत् ) एक | या अनुचित कर्म करना, हानिकारक कार्य सम्मान-सूचक शब्द जो किसी के नाम के | करना । जीते जी मर जाना—जीवन में आगे लगाता है या किसी बड़े के कथन प्रश्न ही मृत्यु से अधिक कष्ट भोगना। जीना या संबोधन के उत्तर में सक्षिप्त प्रतिसंबोधन | भारी हो जाना--जीवन का आनन्द या स्वीकृति के रूप में प्रयुक्त होता है। जाता रहना । प्रसन्न या प्रफुल्लित होना। जीश्र, जीउ*--- संज्ञा, पु० (दे०) जी, जीव। संज्ञा, पु० दे० (फा० जीनः ) सीढ़ी। For Private and Personal Use Only Page #745 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जीभ ७३४ जील जीम--संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० जिह्वा) मुँह जियत । " जीयत धरहु तपसी दोऊ में रहने वाली लम्ने, चिपटे मांस-पिंड की | भाई"-रामा० । वह इन्द्रिय जिससे रस या स्वाद का अनु- जीयदान-संज्ञा, पु० यौ० (सं० जीवनदान) भव और शब्दों का उच्चारण हो, ज़बान, प्राणदान, जीवनदान, प्राण रक्षा । '. जीय. रसना, जिह्वा । 'अब कस कहब जीभ दान सम नहिं जग दाना '- स्फु० । कर दूजी"- रामा०। मुहा०-जीभ जीर-संज्ञा, पु० दे० (सं०) जीरा, फूल का चलना - भिन्न भिन्न वस्तुओं का स्वाद जीरा, केलर, खड्ग, तलवार । * --संज्ञा, लेने के लिये जीभ का हिलना, डोलना, पु० दे० (फा. जिरह ) जिरह, कवच | चटोरेपन की इच्छा होना। जीभ गिरना * वि० दे० (सं० जीण ) जीर्ण, पुराना। -स्वादिष्ट भोजन को लालायित होना । जीरक- संज्ञा, पु. (२०) जीरा, जीर (दे०)। जीभ निकालना-जीभ खींचना, जीभ लशुन जीरक सेंधव गंधक" वै०जी० । उखाड़ लेना | जीभ पकड़ना-बोलने जीरणा* -- वि० (दे०) जीर्ण. जीरन (दे०)। न देना, बोलने से रोकना। जीभ बंद जीरा - संज्ञा, पु० दे० (सं. जीरक ) दो करना-बोलना बन्द करना, चुप रहना। हाथ ऊँचा एक पौधा जिसके सुगंधित छोटे जीभ हिलाना-मुँह से कुछ बोलना : फूलों के गुच्छों को सुखा कर मसाले के छोटी जीभ-गलमुंडी। जीभ रोकना काम में लाते हैं। इसके दो मुख्य भेद हैं -कुपथ्य या कुल्लित भाषण न करना। सफेद और स्याह, जीरे के आकार के छोटे (किसी को) जोभ के नीचे जाम महीन लंबे बीज, फूलों का केसर। होना-किसी का अपनी कही हुई बात जीरी संज्ञा, पु० दे० (हि. जीरा ) एक को बदल जाना। दो जोभ हाना-जीभ प्रकार का अगहनीधान जो बरसों रह सकता के आकार की कोई वस्तु, जैसे निब। है काली जीरी ( औष० )। जीभी-संज्ञा, स्त्री० दे० ( हि० जीभ ) धातु जीर्ण-वि० (सं०) बुढ़ापे से जर्जर, टूटाकी एक पतली धनुषाकार वस्तु जिससे जीभ फूटा और पुराना, जीरन, जीन (दे०)। छील कर साफ़ करते हैं, निब, छोटी जीभ, संज्ञा, स्त्री० जीर्णता । यो०-जीर्ण-शीर्ण गलशुंडी। ---- फटा-पुराना, पेट में अच्छी तरह पचा जोमना-स० क्रि० दे० (सं० जेमन ) भोजन हुधा, (विलो. अजीर्ण) । " का ति लाहु करना, जैवरा (दे०)। जीन धनु तोरे''-रामा० । जीमार--वि० (दे०) घातक, मारने वाला। जीमृत-संज्ञा, पु. (सं०) बादल, इन्द्र, सूर्य, जीर्णज्वर--संज्ञा, पु० यौ० (सं०) बारह दिन से अधिक का ज्वर, पुराना बुखार, पर्वत, शाल्मली द्वीप का एक वर्ष, एक दंडक वृत्त जिसके प्रत्येक चरण में दो नगण " जीर्णज्वरं कफकृतं".... वै० जी० । और ग्यारह रगण होते हैं। यह प्रचित के ! जीर्णता- संज्ञा, स्त्री. (सं०) बुढ़ापा, बुढ़ाई, अन्तर्गत है। पुरानापना, " पश्चाजीर्णातां याति" - जीमूतवाहन- संज्ञा, पु. यौ० (सं०) इन्द्र ।। माघ । जीयो-संज्ञा, पु० (दे०) जी, जीव, हृदय । | जीणे।द्धार-संज्ञा, पु. यौ० (सं०) फटी, जीयट-संज्ञा, पु० (दे०) जीवट । पुरानी या टूटी-फूटी वस्तुओं का फिर से जीयत-जीयति *-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. सुधार, पुनः संस्कार, मरम्मत । जीना ) जीवन, जीवित, जीता हुआ, जिप्रत, जील-संक्षा, स्त्री० (दे०) धीमा, स्थिर । For Private and Personal Use Only Page #746 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जीला ७३५ जीवात्मा जीला*-वि० दे० (सं० झिल्ली) झीना, + हि. बूटी ) मरे हुए को जिलाने पतला, महीन । संज्ञा, पु० (दे०) ज़िला। वाली एक पौधा या बूटी, संजीवन मूरि, स्त्री. जील्ली। संजीवनी। जीवंत-वि. (सं०) जीता-जागता। जीवनमूरि-संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं० जीवन जीवंती-संज्ञा, स्त्री० (सं०) एक लता जिसकी +मूल ) जीवनबूटी, पत्यन्त प्रिय वस्तु । पत्तियाँ औषधि के काम में आती हैं। अमियमूरि (दे०)। मीठे मकरंद वाले फूलों की एक लता। जीवना- अ. क्रि० (दे०) जीना। बढ़िया पीली हड़, बाँदा, गुडूची। जीवनी-- संज्ञा, स्त्री० ( जीवन -- ई-प्रत्य०) जीव-संज्ञा, पु. (सं०) प्राणियों का चेतन | जीवन भर का वृत्तान्त, जीवन-चरित्र । तस्व, जीवात्मा. श्रारमा, प्राण, जीवन तस्व, | जीवनोपाय-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) जीविका, जान, प्राणी, जीवधारी, स्वामी, राजा । रोज़ी, रोज़गार। "कहि जय जीव दूत सिर नाये"-रामा।| जीवनोषधि-संज्ञा, पु० (सं०) जिस औषधि यौ०-जीवजन्तु-जानवर, प्राणी. कीड़ा से मरे हुये भी जी जाते हैं, जीवन रक्षामकोड़ा । " जीव-जंतु जे गगन उड़ाही" कारी, जीवनोपाय, उपजीविका। -रामा०। जीवन्मुक्त-- वि० यौ० (सं०) जो जीवित जीवक-संज्ञा, पु. (सं०) प्राण धारण करने | दशा में ही श्रात्म-ज्ञान-द्वारा साँसारिक वाला, क्षपणक, सँपेरा, सेवक, व्याज से | माया-बंधन से छूट गया हो। जीविका चलाने वाला, सूदखोर, पीतशाल जीवन्मृत--वि• यौ० (सं०) जिसका जीवन वृक्ष, अपवर्ग के अन्तर्गत एक जड़ो या सार्थक या सुखमय न हो, दुखद जीवन पौधा, पेड़। वाला, दुखिया। जीवखानि- संज्ञा, पु. (सं.) परमात्मा। | जीव-मंदिर--संज्ञा, पु० यौ० (सं०) शरीर। जीवट-संज्ञा, पु० दे० (सं० जीवथ ) हृदय | जीवयोनि--संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) जीव, की दृढ़ता, जिगरा, साहस । जन्तु । " लख चौरासी जीवयोनि में भटकत जीवदान- संज्ञा, पु० यौ० (सं०) अपने वश | फिरत अनाहक "-वि.।। में आये हुये शत्रु या अपराधी को न मारने | जीवरा-8 संज्ञा, पु. ( हि० जीव ) जीव। का कार्य, प्राणदान। जीवरि- संज्ञा, पु० (सं० जीव या जीवन ) जीवधारी-संज्ञा, पु० (सं०) प्राणी, जानवर। जीवन-संज्ञा, पु. (सं०) ( वि० जीवित ) जीवलोक--संज्ञा, पु० यौ० (सं०) जीवों का जन्म और मृत्यु के बीच का काल, ज़िन्दगी, लोक, भूमि, ज़मीन । जीवित रहने का भाव, जीवित रखने वाली जीवहत्या- संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) जानवरों वस्तु, परमप्रिय, जीविका, पानी, वायु । या जीवों का मारना । जीवन-चरित्र-संज्ञा, पु. यौ० (सं०) जीवन जीवहिंसा--संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) जीवों में किये हये कार्यों श्रादि का वर्णन, ज़िन्दगी का सताना, जीवों का मार डालना। का हाल । जीवन-वृत्त- यौ० (सं.)। जीवा-संज्ञा, स्त्री० (सं०) धनुष की डोरी, जीवनधन-संज्ञा, पु. यौ० (सं०) सब से पृथ्वी, जीवन । प्रिय व्यक्ति या वस्तु, प्राण-प्रिय । जीवात्मा-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) परमारमा जीवनबूटी-संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं० जीवन | से भिन्न, जीव । For Private and Personal Use Only Page #747 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जीवाधार जुझवाना जीवाधार-संज्ञा, पु० (सं०) प्राणों का जकाम-संज्ञा, पु. (फ़ा० एकरोग, श्लेष्मा । सहारा-हृदय । महा०--मेढ़की का जुकाम होनाजीवानुज-संज्ञा, पु. यौ० (सं० जीव - | किसी छोटे श्रादमी का कोई बड़ा काम बृहस्पति + अनुज = भाई ) वृहस्पति के छोटे | करना, “मेंडकी राजु काम पैदा शुदं"। भाई, गर्ग मुनि । जुग-संज्ञा, पु० दे० (सं० युग ) जोड़, दो, जीवान्तक--संज्ञा, पु० यौ० (सं० जीव = समय-विभाग, युग जो चार हैं, सत्युग, प्राणी + अंतक = काल ) काल, यम जीवों त्रेता, द्वापर कलियुग। को मारने वाला, वधिक, कसाई, राक्षस। | जुगजुगाना अ० कि० दे० (हि० जगना) जीविका--संज्ञा, स्त्री० (सं०) रोज़ी, उद्यम, कुछ कुछ उन्नति को प्राप्त होना, तरक्की रोज़गार, धंधा। करना, टिमटिमाना। जीवित-वि. (सं०) ज़िन्दा, सजीव । जुगत- संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० युक्ति ) ढंग, जीविता-वि० (सं०) जीवधारी, ज़िन्दा। तदवीर, उपाय, हथ-कंडा, जुगति (७०) जीवी--वि. (सं० जीविन् ) जीव वाला, जुगनी-जुगनू-संज्ञा, पु. दे. ( हि० जुगउद्यमी, रोज़गारी । जैसे - शिल्प जीवी।। जुगाना) खद्योत, पटवीजन, चमकदार कीड़ा, जीवेश-संज्ञा, पु. यौ० (सं० जीव + ईश )| गले का एक भूषण । जीवों का स्वामी, परमेश्वर, स्त्री का पति ।। जुगल-जुगुल वि० (दे०) युगल । “सुनत जीह-जीहा-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. जीभ ) जुगुल कर माल उठाई"-- रामा० । जिह्वा, जीभ, ज़बान । " राम नाम मनि जुगधना-स० कि० दे० (सं० योग--- दीप धरु, जीह देहरी-द्वार"-तु.। अवना-प्रत्य० ) रक्षित रखना, बचाये रहना । "श्रमियमूरि सम जुगवति रहऊँ"--- रामा० । जुबिश-संज्ञा, स्त्री० (फ़ा०) हिलना. डोलना। मुहा०-जुबिश खाना- हिलना, इधर जुगाना- स० क्रि० (दे०) जुगवना । उधर होना। जुगालना-अ० क्रि० दे० (सं० उगिलन ) जु-वि० क्रि० वि० दे० (हि. जो ) जो, पागुर करना, पगुराना, जुगाली करना । जिस । जुगानुजुग (बोलचाल में)---बहुत पुराना । जुना-संज्ञा, पु० दे० (सं० यूका ) छोटे जुगुत, जुगुति-- संज्ञा, स्त्री० (दे०) युक्ति । छोटे कीड़े जो बालों में हो जाते हैं, एक जुगुप्सक--वि० (सं० जुगुप्सा ) निष्प्रयोजन खेल, हल में बैल जोतने का स्थान । निन्दा करने वाला, व्यर्थ निदक । जुआँरा, जुआँरी-- संज्ञा, पु० दे० ( हि० जुगुप्मा - संज्ञा, स्त्री०(सं०) निन्दा. तिरस्कार। जुया ) जु प्राँ खेलने वाला, जुआरी। जुगुप्सित-वि० (सं.) निन्दित, तिरस्कृत । "सूझ जुआँरिहि आपन दाऊँ"-रामा० । जुज़-संज्ञा, पु० ( फ़ा० ) सोलह या पाठ जुआचोर-संज्ञा, पु० ( हि० ) धोखा देने सफे, एक फारम, हिस्सा। वाला, ठग। जुजबी-वि० ( फ़ा० ) कोई कोई, बहुतों जुभार-भाटा-संज्ञा, पु० (दे०) ज्वारभाटा। में से कोई एक । जारि-संक्षा, स्त्री० (दे०) एक अनाज जो जुझ*-संज्ञा, स्त्री० (दे०) युद्ध । अगहन-कातिक में होता है, ज्वार । जुभवाना-स. क्रि० ( हि० जूझना का प्रे० जुई- संज्ञा, स्त्री० दे० (हि० जूं ) छोटा रूप ) औरों को श्रापस में लड़ा देना। जूं, जुआँ । जुझाना (दे०) जुझावना । For Private and Personal Use Only Page #748 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - जुझाऊ ७३७ जुरमुरी जुझाऊ-वि० दे० (हि० जूझ+ पाऊ- जुड़वाना -स० क्रि० (हि.) ठंढा करना, प्रत्य० ) लड़ाई के काम का, संग्राम संबंधी। मिलवाना । जुड़ावना (दे०)। " कहेसि बजाव जुझाऊ बाजा'-रामा० । | जुड़ाई -संज्ञा, स्त्री० (दे०) जोड़ाई । जुझार, जुझारा - वि० (हि० जुझ+ जुड़ाना-अ. क्रि० (हि० ) ठंढा होना भार-प्रत्य० ) बहुत लड़ने वाला, शूरवीर । | या करना, शीतल या सुखी होना । "वीर सुरासुर जुरहिं जुझारा"-रामा । जुत*—वि० (दे०) युक्त। जुझावट --- संज्ञा, स्त्री० (दे०) लड़ाई, समर, जुतना-अ० क्रि० (हि.) गाड़ी, हल आदि लड़ाई के वास्ते बढ़ावा।। में बैल आदि का नधना, जुड़ना, किसी जुट-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० युक्त ) मिली काम में जुटना या लगना, खेत जोता जाना। हुई, दो चीजें, जुट्ट (दे०)। जुतवाना-स० क्रि० दे० (हि. जोतना) जुटना-अ० कि० दे० (सं० युक्त- ना- | जोतने का काम दूसरे से कराना, जुताना । प्रत्य०) मिलना, एक में जुड़ जाना, लग जुताई – संज्ञा, स्त्री० (दे०) जोताई। जाना, गुथना, इकट्ठा होना, काम में लग जुतियाना-- स० कि० (हि० जूता + इयाना --- जाना । (प्रे० रूप) जुटवाना। प्रत्य० ) जूते मारना या लगाना । जुटली-वि० दे० (सं० जूट ) जटा-जूट जुत्थ*-संज्ञा, पु० (दे०) यूथ । " जुत्थ वाला, जटाधारी। ___ जुत्थ मिलि सुमुखि सुनैनी"-रामा० । जुटाना-स० क्रि० ( हि० जुटना ) मिलाना, जुदा - वि० ( फा० ) अलग, भिन्न, प्रथक । लगाना, गुथाना, जुड़ाना, इकट्ठा कराना। जुदाई - संज्ञा, स्त्री. (फा०) अलग होने जुटया-वि० पु० (दे०) जुट जाने वाला। का भाव, वियोग, भिन्नता, विलगाव । जुट्टो-संज्ञा, स्त्री० दे० ( हि० जुटना ) गड्डी, जुद्ध-संज्ञा, पु० (दे०) युद्ध । पूरा, मिली हुई। जुधिष्ठिर-संज्ञा, पु० दे० (सं० युधिष्ठिर ) जुठारना-स० क्रि० (द०) ( हि० जूठा ) एक राजा, पांडवों में सब से बड़े । जूठा करना। जुन्हरी—संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० यवनाल) जुठिहारा-संज्ञा, पु० ( हि० जूठा+हारा - ज्वार, जुनार, जोधरी (ग्रा०)। प्रत्य० ) जूठा खाने वाला, जुठेला । ( स्त्री० जुन्हाई संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० ज्योत्स्ना प्रा० जुठिहारी)। जोन्ह ) चन्द्रमा का प्रकाश, चाँदनी । जुठेला-- वि० (हि० + जूठा+ऐला-प्रत्य०) जुन्हैया, जोंधैया (ग्रा०)। जूठा खाने वाला। ' मूसा कहै बिलार सों सुन री जूठ जठेलि "-गिर० । (स्त्री० जुबराज-संज्ञा, पु० दे० (सं० युवराज) राज्याधिकारी राजकुमार | "सुदिन सुअवसर जुठली)। जुड़ना-अ० कि० दे० (हि० जुटना) मिलना, साइ जब, राम होहिं जुबराज-रामा० । इकठा होना । जुरना (ग्रा०) पटना। जुमला--वि० ( फ़ा० ) सब के सब, कुल । जुड़हा--संज्ञा, पु० (दे०) जुड़वाँ, दो संज्ञा, पु० (फ़ा०) पूर्ण वाक्य । ..." जुमला मिले हये। बताय कर लूटि लेत कमला''-बे० । जुड़पित्ती-संज्ञा, स्त्री० दे० यौ० ( हि० जूड़ जुमा-संज्ञा, पु. (अ.) शुक्रवार, सुक्कर । +पित्त ) सितपिती। जुमिल--संज्ञा पु. (?) एक घोड़ा। जुड़वा-वि० ( हि० जुड़ना ) युग्मबच्चे, जुरअत-संज्ञा, स्त्री० (फ़ा०) हिम्मत, साहस। मिलित । | जुरझुरी-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० वर-+-हि. भा० श. को०-१३ For Private and Personal Use Only Page #749 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - जुरना ७३८ जूता झरझराना ) थोड़ा सा ज्वर, ज्वर की थोड़ी जुहारना-स० क्रि० दे० (सं० अवहार ) सी गरमी। मदद माँगना, सहायता चाहना, सलाम जुरना -स. क्रि० (दे०) जुड़ना । "साँवा करना। जवा जुरतो भरि पेट"- सुदा। जुहावना--स० कि० दे० (हि.) इकट्ठा जुरवाना, जुरमाना-संज्ञा, पु. (फा०) करना । अ० क्रि० इकट्ठा होना । "महाभीर रुपये की सज़ा, जरीबाना (ग्रा.)। भूपति के द्वारे लाखन विप्र जुहाने"-रघु०॥ जुगफा-संज्ञा, पु० (दे०) ( अ० जुर्राफ़ा ) जुही-संज्ञा, स्त्री० (दे०) जूही, एक पुष्प । अफ्रिका का पशु, जुर्राफी। ज़ं- संज्ञा, स्त्री० दे० ( सं० यूका ) बालों का जुरुग्रा-संज्ञा, स्त्री० (दे०) स्त्री, भार्या, छोटा कीड़ा । मुहा० --कानों पर जूं पत्नी, जोरू, जोरुवा (दे०)। रेंगना-अपनी दशा समझ में श्राना, जुरै-. क्रि० (दे०) जुड़ना, एकत्रित होश में, असर होना पाना। होना, मिलना। जू- अव्य० दे० (सं० (श्री) युक्त, जी। जुर्म-संज्ञा, पु० (०) कुसूर, अपराध । जूया-संज्ञा, पु. ( सं० युग) हल या गाड़ी जुर्रा-संज्ञा, पु० (फा०) नरबाज । का वह काठ जो बैलों के कंधे पर रहता है। जुर्राब-संज्ञा, स्त्री० (पु०) मोज़ा, पायतावा। जुआ, जुआठ (ग्रा० ) । संज्ञा, पु० दे० जुल-संज्ञा, पु० दे० (सं० छल ) धोखा (सं० द्यूत, प्रा० जुपा ) एक खेल। देना, छल करना। जूजू-संज्ञा, पु. ( अनु० ) हाऊ, लड़कों जुलाब-संज्ञा, पु. ( फ़ा० ) रेचन, दस्त, । के डराने का शब्द। रेचक दवा, जुल्लाब (दे०)। जूझ--संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० युद्ध) लड़ाई । जुलाहा-संज्ञा, पु० दे० (फा० जोलाहा) जूझना - अ. क्रि० दे० (सं० युद्ध) मुसलमान कोरी, कपड़ा बुनने वाला। | लड़ मरना, काम में पिस जाना। जुल्क, जुल्फी-संज्ञा, स्त्री० (फा० ) पट्ठा, जूट-संज्ञा, पु० (सं०) जूड़ा की गाँठ, बालों कुल्ले, काकुल । की लट, एक प्रकार का सन ( बंगाल )। जुल्म-संज्ञा, पु० (अ.) अंधेर, अन्याय, जूठन - संज्ञा, स्त्री० दे० (हि० जूठा ) भुक्त, अत्याचार । मुहा०--ज़ल्म टूटना- छोड़ा भोजन या पदार्थ, जूठनि (ग्रा०)। श्राफ़त का पड़ना । जल्म दाना-अंधेर जूठा--वि० दे० (सं० जुष्ठ ) छोड़ा भोजन, या अत्याचार करना, अनोखा काम करना। छोड़ी वस्तु, भुक्त। स० कि. 'जुठारना जुलुस-संज्ञा, पु. (अ.) तख़्त पर बैठना। (स्त्री० जूठी)। किसी उत्सव में धूम की यात्रा। जूड़ा संज्ञा, पु० दे० (सं० जूट) बालों का जुलोक-संज्ञा, पु० दे० (सं० युकि) बंधा हुश्रा समूह । सुरलोक, देवलोक । " ब्रह्म रंध्र फोर जीव जूडी-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि० जूड़) जाड़े यौं मिल्यो जुलोक जाय"-रामा०। । का ज्वर । जुस्तजू-संज्ञा, स्त्री० (फा०) खोज। जूता-संज्ञा, पु० दे० (सं० युक्त ) जोड़ा, जुहाना-स. क्रि० दे० (सं० यूथ + पाना- पनही, उपानह । मुहा० किसी का जूता प्रत्य०) इकट्ठा करना, जोड़ना। उठाना-किसी की दासता करना, झूठी जुहार--सज्ञा, स्त्री० दे० (सं० अवहार ) बड़ाई करना । जूता उछलना या सलाम, बंदगी । " श्राप श्रापमहँ कहिं चलना-जूतों की मार सहना, मार-पीट जुहारा"-५०। होना, फटकार सहना । जूते से खबर For Private and Personal Use Only Page #750 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - जूताखोर ७३९ जेठौत-जेठौता लेना या बात करना-पनही से मारना। समूह, जूथ । “राम-प्रताप प्रबल कपि जूता खाना-जूते की मार सहना अप- जहा"- रामा० । मानित होना । जूतों दाल बटना- | जूहर* --संज्ञा, पु० दे० ( अ० जौहर ) लड़ाई-झगड़ा होना। जवाहिर, रन । जूताखार-वि० (हि. जूता + फा० खोर ) जूही-संज्ञा, खो० दे० (सं० यूथी ) एक जूता खाने वाला, बेशर्म निर्लज। फूल, जुही (दे०)। जूती--संज्ञा, स्त्री० (हि० जूता) छोटा जूता। जभ, जभण--संज्ञा, पु० (सं०) अँभुभाई । जूती पैजार-संज्ञा, स्त्री० यौ० ( हि० जूती वि० जभक । ( स्त्री० ज भा)। +पैजार फ़ा० ) जुता चलने वाली लड़ाई। 'भिका--वि० (सं०) जेंभुभाई लेने वाला, जूथ*-~संज्ञा, पु. ( सं० यूथ ) झंड, जुन्थ। एक बाण । (दे०) । “ जूथ जंबुकनते कहूँ'-वृ०। जभा-संज्ञा, स्त्री० (सं०) जमुआई, जम्हाई जूथका-जूथिका-संज्ञा, स्त्री० (हि. जूथ ।- (दे०)। इका-प्रत्य ) एक फूल | "हे मालति हे जाति जेवन-संज्ञा, पु० दे० (हि. जेवना) भोजन जूथिके सुन चित दै टुक मेरी"। करना । "पंचकौर करि जेवन लागे" जूना - संज्ञा, पु० दे० ( सं० धुवन् ) वक्त, -रामा० । समय । संज्ञा, पु० (सं० जर्ण) घास, फूस । जैवना-स. क्रि० दे० (सं० जेमन) खाना । (अं०) एक मास । जवाना-स० कि० दे० (हि. जेवना का जूप--संज्ञा, पु० दे० ( सं० द्यूत ) जुया, प्रे० रूप ) खिलाना, भोजन करना। पाँसे का खेल । जे*--सर्व० दे० (सं० ये ) वे, जो । “जे जूमना*-म० कि० दे० (भ० जमा ) गंगाजल श्रानि चढ़े हैं'- रामा० । मिलना, भिड़ना, झूमना, जुटना । जेड, जेई, जेउ, जेऊ*-सर्व० दे० (सं० जूर-संज्ञा, पु० दे० ( हि० जुरना ) योग, ये ) जो भी, जे । “जेउ कहावत हितू जोड़। हमारे"-रामा० । जरना*-स० क्रि० दे. (हि. जोड़ना) जेठ-संज्ञा, पु. दे. (सं० ज्येष्ठ ) एक योग, मेल करना। महीना, ज्येष्ठ, पति का बड़ा भाई, बड़ा जूरा-संज्ञा, पु० दे० (सं० जूट ) बालों भाई । स्त्री०--जेठी। का जूड़ा । "खुलि जूरेकी गाँठ तरेसरकी"। जेठरा-वि० दे० (सं० ज्येष्ठ) जेठा. बड़ा। जूरी-संज्ञा, स्त्री० ( हि• जुरना) घास श्रादि ! जेठा-वि० दे० (सं० ज्येष्ठ ) बड़ा भाई, का पूरा, पकवान, (अं० ) न्यायालय का पति का बड़ा भाई । (स्त्री० जेठी)"जेठी पंच, मुखिया। पठाई गई दुलही"-मति। जस-संज्ञा, पु० दे० (सं० जूठा) पकी दाल जेठाई -- संज्ञा, स्त्री० दे० (हि० जेठ) बड़ाई। या चावल आदि का छाना हुआ पानी। जेठानी-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि० जेठ ) जेठ (फ़ा० जुल्फ़ ) दो पर बटने वाली संख्या। की पत्नी, जिठानी (दे०)। जूस ताक-संज्ञा, पु० यौ० (हि० जूस -- ताक | जेठीमधु-संज्ञा, स्त्री० यो० (सं० यष्टिमधु ) फ़ा० ) जोड़ा या अकेला, ऊना पूरा। । मौरेठी, मुलहटी ( औष०)। जूसी-~-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि० जूस ) शकर | जेठौत-जेठौता -संज्ञा, पु० दे० (सं० का तलछट । वि० रसदार । __ ज्येष्ठ + पुत्र ) जेठ का लड़का। (स्त्री० जूह जूहा-संज्ञा, पु. (सं० यूध ) झंड, जेठौती। For Private and Personal Use Only Page #751 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जेता-जेतो ७४० जैमाल जैमाला जेता-जेतो-संज्ञा, पु० (सं० जेतृ ) जीतने भूषण । यौ॰—ज़ेघर रखना-गहना रख वाला, विजय करने वाला, विष्णु भगवान ।। ऋण लेना। *वि० (७०) जितना । वि. स्त्री. (दे०) जेवरी-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० जोवा) रखरी, जेती, जित्ती । वि० दे० (७०) जितने,जेते । रस्सी, "होति अँधेरे मों परी, यथा जेवरो वि. जितना, जित्तो, जित्ता प्रान्ती०)। सर्प -वृन्द० । जेतिक-क्रि० वि० दे० (सं० यः) जितना। जेह--संज्ञा, स्त्री० दे० (फ़ा० जिह = चिल्ला) "जेतिक उपाय हम कीन्हें रिपु जीतबे को। कमान का चिल्ला । जेनो*-क्रि० वि० दे० (सं० यः ) जित्ता, जेहन-संज्ञा, पु. (अ.) ज्ञान, समझ, जित्तो (दे०) जितना, जितो व्र०) । धारणा शक्ति । "जेतो गुन दोष सो बताये देत तेतो सबै"। जेहर-जेहरि-जेहरी-संज्ञा, स्त्री० (दे०) जेब--संज्ञा, पु. ( फा०) खीसा, खलीथा। पाज़ेब, जेवर । " जानें जगमगी जाकी जेबकट-संज्ञा, पु० यौ० दे० (फा० जेब+ जेहरी जराय जरी" - दीन । काटना हि० ) जेब का काटने वाला, चोर । जेहन-संज्ञा, पु० दे० ( अ० जेल ) बंदीगृह जेबखर्च-संज्ञा, पु० यौ० (फा०) निजी खर्च। कैद खाना, जेहल खाना (दे०) । जेबघड़ी-संज्ञा, स्त्री० यौ० ( फा० जेब+ जेहिजेही*- सर्व० दे० (सं० यस ) जिसको, घड़ी हि० ) जेब में रखने की छोटी घड़ी। जिसे, "जेहि सुमिरे सिधि होय".--रामा० जेबी-वि• (फा०) जेब में रखने की वस्तु ।। (विलो. तेहि, तेही)।। जेय-वि० (सं०) विजय के योग्य, जीतने जै- संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० जय) जीत, फतह, योग्य । ( विलो०-अजेय )। -- वि० दे० (सं० यावत् । जितने । 'जै जेर-संज्ञा, स्त्री० (दे०) बच्चादानी। वि० रघुवीर प्रताप समूहा''-- रामा० । ( फा० जेर ) हराना. परेशान, तंग, नीचे । जैता-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० जयति ) जैति यौ० जेरसाया (फा०) छत्र छाया, रक्षा में। (दे०) जीत. फतह । संज्ञा, पु० दे० (सं० ज़ेरपाई-संज्ञा, स्त्री. ( फा० ) औरतों के | जयंती ) एक पेड़।। पहनने के जूते। जैतपत्र--संज्ञा, पु० दे० यौ० (सं० जयति जेरबार-वि० (फ़ा०) बोझ से दबा, दुखी, + पत्र ) विजय-पत्र । परेशान, हैरान, अपमानित । जैतवार* - संज्ञा, पु० दे० (हि. ) जीतने जेरबारी-संज्ञा, स्त्री० (फ़ा०) बोझ से दबना, वाला, विजेता, विजयी । दुखी, या परेशान होना। जैतून-संज्ञा, पु० (अ.) एक पेड़ जिसके जेरी-संज्ञा, स्त्री० (दे०) बच्चेदानी, छड़ी। पत्ते, फल, फूल औषधि के काम आते हैं। जेन-संज्ञा, पु० (अं०) बंदीगृह. कारागार, जैन, जैनी-संज्ञा, पु० (सं०) जैन मत तथा जेलखाना। उसके अनुयायी। जेलखाना- संज्ञा, पु० यौ० ( अ० जेल+ जैनु -संज्ञा, पु० दे० (हि. जेंवना) खाना। फ़ा० खाना ) बंदीगृह । जैबो-अ. क्रि०७० (हि० जाना) जाना, जेवना-स० क्रि० दे० (सं० जेमन ) भोजन | जाइबो (व.)। "जैबो भलो नहि गोकुल करना, खाना खाना। गाँव को"-कु० वि०। जेवनार - संज्ञा, पु० दे० (हि. जेवना) जैमाल-माला-संज्ञा, स्त्री० यौ० दे० (सं० खाना खाने वालों का जमघट । जयमाल ) विजय या स्वयम्बर की माला । जेवर- संज्ञा, पु. (फ़ा०) प्राभरण, गहना, “पहिरावहु जैमाल सुहाई "-रामा० । For Private and Personal Use Only Page #752 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जैमिनि ७४१ जोगिन-जोगिनि-जोगिनी जैमिनि-संज्ञा, पु. (सं०) एक ऋषि । जोइ, जाई* ---संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० जाया) जैयट-संज्ञा, पु. (सं०) महाभाग्य के टीका- स्त्री पत्नी, जोय. जोरू । सर्व० (दे०) जो । कार, कैयट के पिता पू० का क्रि० (दे०) देख कर, जोही। जैयद-वि० दे० (अ० जद्द == दादा ) बहुत जोइसी-जोसी --- संज्ञा, पु० दे० (सं० ज्योबड़ा भारी। तिषी) ज्योतिष का जानने वाला। वात्रिक .... संज्ञा, पु. (सं०) चंद्रमा, कपूर, जाउ--- सर्व० व० दे० जो. जेऊ, जौन, जोऊ । दीर्घ जीवी। जोत्र--संज्ञा. स्त्री० (दे०) तौल. वज़न ! जैलदार - संज्ञा, पु. (अ. जल-+ फा० दार) जोखना--स० क्रि० दे० (सं० जुष -- जाँचना) जिलादार, कई गावों का प्रबंध करने वाला जाँचना, तौलना, परखना । अफसर। जोखा-~संज्ञा, पु० दे० (दी. जोखना) तौला, जैसा-वि० दे० (सं० यादृश ) जिप तरह लेखा, हिसाब या प्रकार का, जिप भाँति का । जैसो जोखिम-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. झोंका) (७०)। ( स्त्री० जैसी ) महा.--जैसे भारी हानि की शंका, विपति पाने का भय । का तैसा-वैपा ही, उसी प्रकार का, उसी जाखों (दे०)। महा-जोखिम उठाना के तुल्य । जैसा चाहिये जैसा-ठीक ठीक।। या सहना काम जिपसे हानि का भय जैसे-कि० वि० (हि. जैसा ) जिस भाँति हो, हानि उठाना । जाखिम में डालना-- से । 'राजत राम अतुल बल जै" - रामा०। हानि में डालना । जान जोखिम होनामुहा०-जैसे तैसे --किसी भाँति, बड़ी मरने का डर होना। कठिनता से । “जैसे तैसे फिरेउ निषादू ।" जागंधर ---पंक्षा, पु० दे० (सं० योगंधर ) जैहे- ह] अ. क्रि० दे० ( हि. जाना) वैरी की चोट से बचने की युक्ति। जायेंगे, जैहों, जाइहैं । " जैहहुँ अवध कवन जोग संज्ञा, मुं० दे० ( स० याग) मन की मुँह लाई "-रामा० । वृत्तियों का रोकना जोड़ना, मिलाना । वि. जों -क्रि० वि० दे० (हि. ज्यों ) जैसे, दे० ( सं० योग्य ) लायक, उपयुक्त ।। जिप भांति, ज्यौ। जोगडा--- संज्ञः, पु० दे० ( हि. जोग+ड़ाजेई-सर्व० (दे०) जो, जो कोई । स० कि० प्रत्य०) पाखडी. ढोंगी, योगी। (दे०) देखीं, जोही। जोगवना ( जुगवना )-स. क्रि० दे० जोंक- संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० जलौका) पानी (सं० योग + श्रवना--प्रत्य० ) बचाये का एक कीड़ा जो रक्त चूसता है। "पियै रखना यन्त्र या श्रादर से रखना । " अमिय रुधिर पय ना पियै, लगी पयोधर जोंक "। मूरि सम जोगवति रहहूँ"-रामा० । जोधरी -- संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० जूर्ण) जुनार, जापानल-संज्ञा, स्त्री० दे० यो० (सं० योगा नल ) योग से उत्पन्न भाग। जोंधैया-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० ज्योत्स्ना ) जोगाभ्यास-संज्ञा, पु० दे० यौ० (सं० योगाचंद्रमा, चंद्र का प्रकाश, चाँदनी। भ्यास) योग की क्रियाओं का साधन करना। जो-सर्व० दे० (सं० यः ) सम्बन्धवाची जोगासन -- संज्ञा, पु० दे० यौ० (सं० योगासर्वनाम, ( विलो. सो)। अव्यः (दे०) सन ) योग की बैठक । अगर, यदि, जोपै, जुपै। जोगिंद -ज्ञा, पु० दे० यौ० ( सं० जोना-स० कि० दे० (हि. जोवना) योगीन्द्र) बड़ा भारी योगीराज, शिवजी। देखना, राह देखना, परखना, जोहना (दे०)। जोगिन-जागिनि-जोगिनी-संज्ञा, स्त्री० दे० ज्वार For Private and Personal Use Only Page #753 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जोगिया ૭ર जोधन (सं० योगिनी ) योगी की स्त्री, पिशाचिनी जोड़ी! पाँव के जूते. धोती का जोड़ा, ६४ हैं, एक विचार (ज्यौं० )। " योगिनी नरमादा । मुहा०--जोड़ा खाना-पशु सुखदा वामे"- ज्यौं । पतियों के नर-मादे का प्रसंग।। जोगिया-वि० दे० (हि. जोगी + इया- | जोडाई -- संज्ञा, स्त्री० दे० । हि० जोड़ना + प्रत्य० ) गेरू से रंगा वस्त्र । संज्ञा, पु० (दे०) श्राई-प्रत्य०) जोड़ने की क्रिया का भाव, योगी। दीवार उठाना ( ईटों की) जोड़ने की जेगी--- संज्ञा पु० दे० ( सं० योगी) योगी। मज़दूरी। "तौलौं जोगी जगत गुरु, जौलौं रहै निराम' ! जोडी - संज्ञा, स्त्री० दे० ( हि० जोड़ा ) जोड़ा जैसे बैलों का मुदगर, मंजीरों की जोड़ी, जोगीडा-संज्ञा, पु० दे० (हि. जोगी+ दो घोड़ों की गाड़ी। डा-प्रत्य० ) गान-भेद भिक्षुक विशेष। जोड़-संज्ञा, स्त्री० दे० ( हि० जोड़ा ) स्त्री, जोगेश्वर--संज्ञा, पु० दे० यौ० (सं० यागे- पत्नी औरत, जोरू। यौ०-जोड-जाँता । श्वर) बड़ा भारी योगीराज श्रीकृष्ण, शिव। जोत--संज्ञा, स्त्री० (हि. जोतना ) जो रस्सी जोजन--संज्ञा, पु० दे० ( सं० याजन ) चार बैल या घोड़े के गले में गाड़ी जोतते समय कोल की दूरी । " सोरा जोजन प्रानन बाँधी जाती है, जोतने का मौका, जोता ठयऊ"--रामा०। (दे०) । (सं० ज्योति ) प्रकाश | जोति । जेोटा -संज्ञा, पु० दे० (सं० याटक ) जोतना-स० कि० दे० (सं० योजन या युक्त) जोड़ा, दो जोड़ी। "दोन्ह असील जानि भल ! गाड़ी में बैल या घोड़े नाँधना, बल पूर्वक जोटा''-- रामा० । किसी से काम लेना, भूमि जोतना।। जेटिंग-संज्ञा, पु० दे० (सं०) महादेव जी। जोनाई -- संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. जोतना + जोड़-संज्ञा, पु० दे ( सं० याग ) याग करना, पाई-प्रत्य० ) जोतने का भाव या काम जोड़ना, (दे०) जोड़ती (स्त्री०) । योग-फल, या मजदूरी मीज़ान, टोटल ( अं०)। पदार्थों की संधि, । जाति-जाती-संज्ञा, स्त्री० दे० ( सं० ज्योति ) दो पदार्थों के संधि स्थान, श्राप का मेल प्रकाश रोशनी : " मनि मानिक मय पदजोड़ा, समान । यौ० जोड़-तोड़-छल । नख जोती"-रामा० * - संज्ञा, स्त्री० दे० कपट, दाँव-पेंच. मुख्य युक्ति । मुहा०-- (हि. जोतना ) जोतने बोने-योग्य भूमि । जोड तोड मिलना-समान होना। जोतिष-जातिम-संज्ञा, पु० दे० ( स० जोडन- संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. जोड़ ) जावन ! ज्योतिष ) ग्रहों-नक्षत्रों की गति आदि का दृध से दही जमाने की वस्तु । शास्त्र गणित-शास्त्र। जोड़ना-स० क्रि० दे० (सं० युक्त) दो पदार्थों जोतिषी-जेन्सिी - वि० द० (सं० ज्योतिषी) का मिलाना, इकट्ठा करना, योग करना। । दैवज्ञ, गणितज्ञ ज्योतिषज्ञाता ! जोड़वाँ. जुड़वा-वि० दे० (हि० जोड़ + वा ! प्रत्य० ) साथ उत्पन्न दो बच्चे, यमज।। जोत्स्ना-संज्ञा, स्त्री० दे० ( स० ज्योत्स्ना ) जोड़वाना-स० कि० दे० (हि. जोड़ना का चाँदनी, चंद्रिका ।। प्रे० रूप) जोड़ने का काम औरों से कराना, जोत्स्नी --संज्ञा, स्त्री० दे० ( स० ज्योत्स्नी ) जेडाना। । उजेली रात चाँदनी रात ।। जोडा-संज्ञा, पु० दे० (हि० जोड़ना ) एक जोधन-संज्ञा, पु० दे० ( स० योधना ) लड़ाई, सी दो चीजें, दो समान वस्तुयें । स्त्री० संग्राम, युद्ध, झगड़ा। For Private and Personal Use Only Page #754 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जोधा ७४३ जोवत जोधा*--संज्ञा, पु० दे० ( स० योद्धा) के लिये जोर देना-हठ या श्राग्रह लड़ने वाला, शूरवीर । " चला इन्द्रजित करना । जोर मारना या लगाना-बहुत अतुलित जोधा"- रामा० । कोशिश करना । यौर-जोर-जुल्मजोनि-जोनी- संज्ञा, स्त्री० दे० ( स० योनि) अन्याय, अत्याचार । मुहा०-जारों पर भग, उत्पत्ति-स्थान " वालमीकि नारद घट- ! होना-बड़ी बाढ़, वेग या ताकत पर जोनी"-रामा। होना । मुहा-जोरों पर-भरोसे, जोन्ह जोन्ह ई --- संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० सहारे । मुहा०—किसी के जार पर ज्योत्स्ना ) चन्द्रमा का प्रकाश, चाँदनी। कृदना ( भूतना) सहायक को बली जान जुन्हाई, जोन्हैया । " ऐपी गयी मिलि । कर अपना बल दिखाना। जोन्ह को जोति में रूप की राशि न जाति | जोरदार-वि० (फ़ा०) शक्तिशाली, वलिष्ठ, बखानी"। बली, प्रभावशालो। जापै*----अव्य० यौ० (हि. जो+ पर-- जोरनास० कि० दे० (सं० योग) जोड़ना, प्रत्य०) अर्गाच, यद्यपि, कदाचित, जुपै __इकट्ठा करना। (ब)।' जोपै सीय-राम वन जाहीं।" ! जार-शोर-संक्षा, पु. ( फा० ) बहुत शक्ति, -रामा। अधिक बल। जोफ-संज्ञा, पु. ( अ०) कमजोरी, निर्व- | जाग-जारी*--संज्ञा, स्त्रो० (फा० ) बल लता, बुढ़ाई। पूर्वक, ज़बरदस्ती । क्रि० वि० ज़बरदस्ती से । जोराघर-वि० (फा० ) शक्तिमान, बली, जोवन-- संज्ञा, पु० दे० ( स० यौवन ) जवानी, ' ताकतवर । ( संज्ञा, जारावरी)। युवावस्था कुच, उरोज, सुन्दरता । " सूर - जा। * संज्ञा, स्त्री० (हि. जोड़ी) जोड़ा, श्याम लरिकाई भूली जोबन भये मुरारी" : जोड़ी। “जोरि जोरि जोरी चरें विवश जोबना जीवनया--संज्ञा, पु० दे० (सं० करावे सुधि" - शिव।। यौवन ) कुच, उरोज, जवानी। जोरू-सज्ञा, स्त्री० दे० ( हि० जोड़ी ) जोड़, जोम-संज्ञा, पु. ( अ.) घमंड, अभिमान, . स्त्री, पत्नी. जास्वा । दे०)। जोश, उमंग, उत्साह । जाल-संज्ञा, पु० (दे०) समूह, झंड । यौ०-- जाय*- संज्ञा, स्त्री० दे० (स० जाया ) मेन-जल । “कहा करौं वारिजमुख ऊपर औरत, पत्नी, स्त्री । सर्व. पु. ( दे०) जो, विथके षटपद जोल"-सूर० । जिस । स० कि० देखो। “नन्द जोय धनि जोला-सज्ञा, पु. (दे०) कपट, धोखा, भाग निहारे "-सू० । रही पंथ नित जोय ।। ठगी। संज्ञा, स्त्री० ( सं० ज्वाला ) आग की जायना-स० कि० दे० ( हि० जोड़ना ) लपट, जुबाला। जलाना । " दीपक है जायना सो छायो जोलाहल*--- संज्ञा, स्त्री० दे० (सं. अंधकार है -स्फू०। , ज्वाला ) आग की लपट या ज्वाला। जोयसी*- संज्ञा, पु० दे० ( सं० ज्योतिषी ) जोलाहा- संज्ञा, पु. ( हि० जुलाहा ) जुलाहा ज्योतिषी। । जोलहा, जुलहा, मुसलमान कोरी। “पकरि जार -- संज्ञा, पु. ( फा० ) ताक़त, बल, जोलाहा कीन्हा"--.बी०। पराक्रम । मुह ०-किसी बात पर जोर जोलो -- सज्ञा. स्त्री० दे० (हि. जोड़ी) देना-किसी बात को बहुत जरूरी और बराबर के तुज्य जैसे, हमजोली। बढ़ा कर दृढ़ता से कहना ।।कसी बात जावत-स० क्रि० दे० (हि. जोवना ) देखते For Private and Personal Use Only Page #755 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir TATO जोवना, जोहना ७४४ ज्ञातयौवना या खोजते हुए। "राधामुख चन्द्र ताहि ! जोंग-अव्य० दे० (सं० यदि ) जो । क्रि० जोवत कन्हाई हैं - स्फु० । वि० हिं० ज्यों ) जैसा, जैसे।। जीवना, जाहना-स० क्रि० दे० ( सं० जोकना-स० कि. (दे०) डाँटना, फटकारना जुषण = सेवन ) देखना, खोजना, राह देखना, डौंकना (ग्रा०)। परखना। जोरा-भौंरा- संज्ञा, पु० (दे०) बालकों को जोश---संज्ञा, पु. ( फा० ) उबाल, उफान जोटा, दो लड़के । श्रावेश, उत्साह, उमंग । मुहा०-जोश जौ--सज्ञा, पु० दे० (सं० जव ) जव, जवा में आना-श्रावेश में आना । अंश अव्य० (७०) यदि । क्रि० वि० (दे०) खाना-उफनाना । जोश देश-पानी जव । “जौलगि श्रावहुँ सीतहिं देखी" में पकाना। मुहा०--ग्वन का जाश-- जातीय प्रेम । जौख-संज्ञा, पु० दे० ( तु० जूक ) समूह । जोशन--- संज्ञा, पु० ( फ़ा०) भुजा का एक जौजा-संज्ञा, स्त्री० ( अ० जोनः ) स्त्री, गहना कवच । औरत, जोड़ , जोरू। जाशांदा-संज्ञा, पु. ( फा० ) काढा, काथ। जातुक -- संज्ञा, पु० दे० (सं० यौतुक ) दायज, जाशोला-- वि० (फ़ा० जोरा+ईला प्रत्य०) दहेज, ब्याह में वर के लिये दिया गया धन। जोश से भरा : स्त्री० जाशाली। जौन - सर्व० दे० ( सं० यः ) जो, जवन जोष-- संज्ञा, स्त्री० दे० ( सं० योषा ) औरत, ज उन (ग्रा०)। संज्ञा, पु० दे० (सं० यमन) स्त्री० । सज्ञा, स्त्री० दे० (हि. जेखना ) मुसलमान । तौलना। जौ ---अव्य. ब्र० ( हिं० जौ---पै) यदि, जाषित-जाषिता--- संज्ञा, स्त्री. (सं०) औरत, जो जुपै (व.)। "जोपै सीयराम वन जाही' स्त्री। " उमा दारू जाषित् की नाई" - रामा० । -रामा०। जौहर-संज्ञा, पु० ( ० ) (फा० गौहर ) जोषी संज्ञा, पु० दे० (सं० ज्योतिषी ) रत्न, तलवार आदि की काट, हुनर, गुण, दैवज्ञ, ज्योतिषी, गणितज्ञ ।। कट मरना ( राजपूत०)। जौहरो - संज्ञा, पु. ( फ़ा० ) रन बेचने या जोह, जाहनि --- सज्ञा, स्त्री० दे० (हिं. परखने वाला। जोहना ) तलाश, प्रतीज्ञा, खोज देखना । श-संज्ञा, पु० (सं०) एक संयुक्ताक्षर, ( ज+ " सूने भवन पैठि सुत तोरो, दधिमाखन | ज) ज्ञान, बोध, समझ, ज्ञानी, जैसेतहँ जोह"-सूर० । “ मोहन को मुख | नीतिज्ञ, गुणज्ञ । सोहन जोहन जोग " -वा० । शप्त वि० (सं.) जाना या समझा हुआ, जाहा-स० क्रि० दे० (सं० जुषण = सेवन ) ज्ञापित। देखना. खोजना, प्रतीक्षा करना। पू० का. ज्ञप्ति-संज्ञा, स्त्री० (सं०) समझदारी, बुद्धि । कि० (७०) जाहि, जाही। "बार २ मृहु ज्ञात ---वि० (सं०) जाना समझा, विदित, मूरति जोही''-- रामा। प्रगट। जाहार--संज्ञा, स्त्री० दे० ( सं० जुषण = ज्ञातयौवना----संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) अपनी सेवन ) बंदग', सलाम । युवावस्था को जानने वाली एक नायिका, जाहारना-अ० क्रि० दे० (जुषण सं० = | ( नायका-भेद ) । ( विलो०-अशात सेवन ) बंदगी या सलाम करना । यौबना )। For Private and Personal Use Only Page #756 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ज्ञातव्य ज्योतिषी ज्ञातव्य - वि० सं०) जानने योग्य, ज्ञान गम्य । ज्यायान - वि० पु० (सं०) जेठा, श्रेष्ठ, बड़ा । ज्यारना, ज्यावना * - प्र० क्रि० स० (सं० जिलाना ) जिलाना, पालना, खिलाना (दे० ) ज्यू | - अव्य० दे० (हिं० ज्यों ) जैसे, ज्यों । ज्ञाति - संज्ञा, पु० (सं०) एक जाति के लोग, ज्येष्ठ - वि० (सं०) जेठा, बड़ा | संज्ञा, पु० (सं०) गरमी का एक महीना । ज्ञाता - वि० (सं० ज्ञातृ, ज्ञाता ) जानने वाला, ज्ञानी । ( स्त्री० ज्ञात्री ) । जाति । ज्ञान - संज्ञा, पु० (सं०) समझ, बोध, यथार्थ ज्येष्ठता - संज्ञा, खो० (सं०) बड़ाई, श्रेष्ठता । ज्ञान, तत्व-ज्ञान | ज्येष्ठा - संज्ञा, खी० (सं०) तीन तारों से बना एक नक्षत्र, पति प्रिया स्त्री, बड़ी अँगुली, छिपकली । ज्ञानकांड -- संज्ञा, पु० यौ० (सं०) वेद का वह भाग जिसमें ज्ञान का वर्णन है, उपनिषद् | ज्ञानगम्य—संज्ञा, पु० यौ० (सं०) जो ज्ञान से जाना जा सके ज्येष्ठाश्रम - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) श्रेष्ठ श्राश्रम, 66 99 / ज्ञानगम्य जय रघुराई ७४५ रामा० । ज्ञानगोचर -संज्ञा, पु० यौ० (सं०) जो ज्ञान से जाना जावे | ज्ञानगम्य । ज्ञानयोग - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) ज्ञान लाभ द्वारा मुक्ति प्राप्ति का साधन । ज्ञानवान - वि० (सं०) बुद्धिमान, ज्ञानी । ज्ञानवृद्ध - वि० यौ० (सं०) ज्ञान में बड़ा । ज्ञानी – वि० ( सं० ज्ञानिन् ) बुद्धिमान, समझदार, ज्ञाता । ज्ञानेन्द्रिय- संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) विषय बोधक इन्द्रियाँ, आँख, नाक, चमड़ा श्रादि । ज्ञापक – वि० (सं०) समझाने या सूचना देने वाला, ज्ञात कराने वाला । ज्ञापन - संज्ञा, पु० (सं० ) वि० समझाने और सूचना देने का काम । ज्ञाप्य, ज्ञापित । ज्ञापित - वि० (सं०) समझाया हुआ, सूचना दिया हुआ । वि० ज्ञापनीय । ज्ञेय - वि० (सं०) जानने योग्य । ज्या - संज्ञा, स्त्री० (सं०) प्रत्यंचा, कमान की ताँत या डोर, वृत्त के चाप की रेखा, ज़मीन । ज़्यादती - संज्ञा, स्त्री० ( फा० ) बहुतायत, अधिकता, अन्याय, अत्याचार | ज़्यादा - वि० ( फा० ) बहुत अधिक । ज्याफ़त -- संज्ञा, खो० ( ० ) भोज, दावत । ज्यामिति - संज्ञा, स्त्री० (सं०) रेखागणित, ज्यामेटरी, (अं०) क्षेत्रमिति । भा० श० को० -६४ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गृहस्थाश्रम | - 66 ज्यों, ज्यौं – क्रि० वि० (सं० यः + इव ) जैसे, जिस भाँति । " ज्यों दसनन महँ जीभ बिचारी " - रामा० । मुहा० - ज्यों त्योंजैसे तैसे, किसी न किसी ढंग से । ज्यों ज्यों-जैसे २, जिस २ तरह से, जितना २, ज्यों ज्यों नीचो है चलै " - वि० । ज्योतिः शिखा -- संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) एक ज्योति — संज्ञा, स्त्री० ( सं० ज्योतिस् ) प्रकाश, विषम वर्ण वृत्त ( पिं० ) । लौ, उजेला, परमेश्वर । ज्योतिरिंगण - संज्ञा, पु० (सं०) खद्योत, जुगनू । ज्योतिर्मय - वि० (सं०) प्रकाश रूप, चमकता हुधा तेजोमय, कांतिमान | ज्योतिर्लिंग - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) शिव या महादेव जी । ज्योतिर्लोक - संज्ञा, पु० (सं०) ध्रुवलोक । ज्योतिषिद् - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) ज्योतिषी । ज्योतिर्विद्या - संज्ञा, खो० यौ० (सं०) ज्योतिष विद्या । ज्योतिर्वेत्ता - संज्ञा, पु० (सं० ) ज्योतिषी । ज्योतिश्चक्र - संज्ञा, पु० (सं०) ग्रहों और राशियों का गोला या मंडल । 1 ज्योतिष- संज्ञा, पु० (सं०) खगोल विद्या । ज्योतिष शास्त्र -२ - यौ० ज्योतिषी - संज्ञा, पु० (सं० ज्योतिषिन् ) ज्योतिष-ज्ञाता । For Private and Personal Use Only Page #757 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ज्योतिष्क ७४६ झंझनाना ज्यातिष्क संज्ञा, पु. (सं०) नक्षत्रों, तारा- ज्वरति-वि० यौ० (सं०) बुखार से तंग। गणों और ग्रहों का समूह, मेथी, चितावरी। नरित-वि० (सं०) जिसे बुखार हो । ज्योतिष्टोम-संज्ञा, पु० (सं०) एक यज्ञ। ज्वलंत-वि० (सं०) दीप्तिमान, प्रकाशित, ज्योतिष्पथ-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) श्राकाश । बहुत प्रगट, स्पष्ट । ज्योतिष्पुंज-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) तारागण। ज्वल-संज्ञा, पु० (सं०) आग की लपट । ज्योतिष्मती - संज्ञा, स्त्री० (सं०) रात्रि, माल ज्वलन- संज्ञा, पु० (सं०) जलने का भाव केंगुनी (औष०)। या क्रिया, जलन, दाह, लपट । " प्रसिद्ध ज्योतिष्मान-वि० (सं०) प्रकाशमान | मूर्धज्वलनंहविर्भुजः "-माध० । संज्ञा, पु० (सं०) सूर्य । ज्वलित-वि० (सं०) जला हुआ, प्रकाशित । ज्वाना-वि० दे० (सं० युवा) जवान । ज्योतीरथ-संज्ञा, पु० (सं०) ध्रुवतारा।। ज्वार-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० यवनाल) ज्योत्स्ना-संज्ञा, स्त्री० (सं०) चन्द्रमा का प्रकाश, या चाँदनी, उजेली रात । जुनरी, जुवार, जोन्हरी, जोंधरी (ग्रा०) अन्न, समुद्र का बढ़ाव, ( विलो. ) भाटा। ज्योनार-ज्योनार-संज्ञा, स्त्री० दे० ( सं० ज्वारभाटा-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) समुद्र के जेमन = खाना ) न्योता, ज्यानत, दावत । बढ़ाव-घटाव। ज्योरी-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० जीवा) रस्सी, ज्वाल-ज्वाला-संज्ञा, पु० स्त्री० (सं०) भाग डोरी, जौरी, जउरो ( ग्रा० )। की लपट । “ सीरी परी जाति है वियोग ज्योहत, ज्योहर - संज्ञा, पु० [सं० जीव+ ज्वाल हुतौ अब"-रत्ना०। हत) .खुदकुशी श्रात्म-हत्या, जौहर। घालादेवी-संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) काँगड़ा ज्यौतिष-वि० (सं०) ज्योतिष-संबंधी। । की देवी। ज्वर-संज्ञा, पु० (सं०) बुखार, ताप। ज्वालामुखी (पर्वत)- संज्ञा, पु० (सं०) वह ज्वरांकुश-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) ज्वर की एक पर्वत जिससे धुवाँ, श्राग के गोले, लपट, दवा (रसायन)। | पिघले पदार्थ निकलते हैं। झ झ-संस्कृत हिन्दी की वर्ण माला के चवर्ग| अनु० ) काँटेदार झाड़ी, काँटेदार पौधा, का चौथा व्यंजन, इसका उच्चारण स्थान | बिना पत्तों का पेड़, बेकाम वस्तु-समूह । यौ० झाड़ी-झंखाड़। झंकना-१० कि० दे० (हि. झीखना) पछि झंगा-संज्ञा, पु० दे० (हि. भगा) छोटे ताना, अफसोस करना। बच्चों का अँगरखा, मँगा, मँगवा (ग्रा०)। झंझार-संज्ञा, स्त्री. (सं०) झन झन का शब्द, छोटे २ जन्तुओं के बोलने का शब्द । " सीस पगा न मँगा तन में "-नरो । झंकारना-स० क्रि० दे० (सं० झंकार ) | अंगुली-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. मँगा) झन २ शब्द उत्पन्न करना। __ छोटा मँगवा । अँगुलिया (दे०)। झंखना--अ. क्रि० (हि. झीखना) पश्चा- झंझट-संज्ञा, स्त्री० (अनु०) नाहक झगड़ा, ताप करना, पछिताना। " पान खाय भी लड़ाई, बखेड़ा। कल को झंखै',-क०। झंझनाना-प्र. क्रि० (भनु०) झन २ झंखाड़-संज्ञा, पु० दे० (हि० झाड़ का ) शब्द करना, मंकार होना, अप्रसन्न होना। For Private and Personal Use Only Page #758 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ७४७ झकझेलना झंझर-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. झज्झर) लपकना, एक बारगी कूद पड़ना, झपना, पानी रखने का मिट्टी का छोटा बरतन। । शर्मिन्दा होना । प्रे० रूप. मँपाना, झंझरा-वि० (अनु०) जिस पदार्थ में | मैंपवाना। बहुत से छोटे २ छेद हों। स्त्री० मँझरी। फंपरी-संज्ञा, स्त्री० (हि० झाँपना ) पालकी झंझरी-झांझरी-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. का उहार । मैंझरा ) जिस वस्तु में बहुत से छोटे २ मँपान- संज्ञा, पु० (सं० झंप ) पहाड़ों की छेद हों, झरोखे की जाली। " झमकि सवारी, झप्पान ( प्रान्ती०)। झरोखे झूमि झाँझरी सों झाँकि झूकि'। | मैंपोला-संज्ञा, पु० दे० (हि० झापा + प्रोलाझंझा--संज्ञा, पु० (सं०) बड़ी वेगवान आँधी प्रत्य० ) छोटा टोकरा, झाबा । (स्त्री. या वायु । यौ० झंझावात-झंझावायु ।। __ अल्पा० ) कँपोली, मैंपोलिया। झंझी-संज्ञा, स्त्री० (दे०) फूटी हुई कौड़ी।। कँवाकार--वि० दे० हि० झावला+काला) मँझोड़ना-स० क्रि० दे० (सं० झंझा) काले रंग का, झाँवरे रंग का झांवर (ग्रा.)। किसी वस्तु को जोर से हिलाना, झकोरना, | भँवराना-अ० क्रि० दे० (हि. झांवर ) काला २ होना, श्याम पड़ना, कुम्हिलाना। झकझोरना, झटका देना। झंझोरना। | कँवा-संज्ञा, पु. ७० (सं० झामक ) झाँवाँ । झंडा--संज्ञा, पु० दे० (सं० जयंत ) पताका, "सकुचति फूल गुलाब के, मँवाँ मँवावत निशान, बैरख, ध्वजा। (स्त्री० अल्पा० पाय"-वि०। झंडी। “ झंडा ऊँचा रहे हमारा" मँवाना-अ० कि० (सं० झामक) कुछ कुछ - स्फु० । मुहा० -झंडा ऊँचा होना | या थोड़ा २ काला होना, मुरझाना, झाँवे प्रताप या आतंक फैलना, विजय होना। से पैर भादि को रगड़ना-रगड़ाना । मुहा०-झंडा खड़ा करना-लोगों को | फँसना-स० क्रि० दे० ( अनु० ) तलवे या इकट्ठा करना, लड़ने की तैयारी करना, सिर में धीरे २ तेल मलना, धोखा देकर धन आधिपत्य जमाना | झंडा गिरना या आदि हर लेना । संज्ञा, पु० (दे०) झांसा। झुकना-पराजय या दुखद बात होना । झंडा गाड़ना या फहराना-अधिकार झ -- संज्ञा, पु० (सं०) तेज़ हवा, पाँधी, वृहस्पति, शब्द । था विजय की सूचना देना, अधिकार झाई-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० छाया) झाँई । जमाना। झउपा-संज्ञा, पु० (हि. झाँपना) झाबा, मँडला-वि० दे० (हि. मंड+ऊला झौवा, टोकरा। प्रत्य०) बिना मुंडन का लड़का, जिस पेड़ में झक-संज्ञा, स्त्री० दे० (अनु०) धुनि, सनक, घने पत्ते हों, घने बालों वाला। अफ़सोस झक (ग्रा.)। वि० स्वच्छ । यौ० झंप-संज्ञा, पु० (सं०) छलाँग. उछाल ढका, | भकाभक । वि० भकी (दे०)। छिपा । वि० झपित । मुहा०-झंप देना झकझक-संज्ञा, स्त्री० (अनु०) नाहक -उछलना, कूदना, घोड़ों का गहना। झगड़ा, व्यर्थ लड़ाई. बकबक । " जलद पटल झपित तऊ"-०। झकझका--वि० दे० (अनु० ) साफ़, चमफँपन-वि० दे० (सं०) ढक्कन । “सब को कता हुआ। झंपन होत है, जैसे वन का सूत"-स्फु०। झकझकाहट-संज्ञा, स्त्री० (अनु०) प्रकाश । कँपना-झोपना-म० कि० दे० (सं० झप) झकझेलना-स० क्रि० दे० (हि. झककिसी वस्तु को मूंदना, ढकना, छिपाना, । झोरना) बड़े जोर से हिलाना, झटका देना। For Private and Personal Use Only Page #759 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra कोर झकझोर - संज्ञा, पु० टका देना, हिलाना । कोर " www.kobatirth.org 66 ( अनु० ) ज़ोर से देत करम भक ७४८ - वृ० । झकझोरना- - स० क्रि० दे० ( अनु० ) बड़े ज़ोर से झटका देकर हिलाना, कफकोरना ( ग्रा० ) । झकझोरा - संज्ञा, पु० दे० ( अनु० ) झटका देना, हिलाना । भकना - प्र० क्रि० दे० ( अनु० ) बकना, व्यर्थ बात करना, क्रोध से कहना । झकाझक - वि० दे० (अनु०) प्रति उज्वल, स्वच्छ, चमकता हुआ । झकुराना- - प्र० क्रि० (हि० भकोरा ) भूमना । स० क्रि० (दे० ) झूमने में लगाना । झकोर – संज्ञा, पु० दे० ( अनु० ) वायु का कोंका या कोरा (दे० ) । बल पूर्वक धागे पीछे हिलना । " डारति पवन झकोर " - वृ० । “सो झकोर पुरवा की है" ना० । भकोरना - प्र० क्रि० (अनु० ) वायु का का मारना, हिलाना । झकोज - संज्ञा, पु० (दे०) झकोर | झक्कड़ - संज्ञा, पु० दे० ( अनु० ) वेगवान आँधी । वि० झक्की, सनकी, बकवादी । झक्खना-ग्र० क्रि० (हि० झखना) पछि ताना, चिंता करना । " आज खाय श्री कल को भक्खै" - गोरख० । झख – संज्ञा, स्त्री० दे० ( हि० झखना ) खने की क्रिया या भाव। (सं० भष ) छोटी मछली । मुहा०-- झख मारना - व्यर्थ परिश्रम करना, समय नष्ट करना, अपनी ख़राबी करना । 66 मकर नक्र झख नाना व्याला "रामा० । चख झख लगनि ” – वि० । झखकेतु - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) कामदेव । भवराज - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) मगर । भावना - अ० क्रि० दे० ( हि० भींखना ) " शनि कज्जल " पछताना, झखना (दे० ) । झखी -- संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० भष ) मछली । ककन झगड़ना झगरना - भ० क्रि० दे० ( हि० भक भक ) आपस में तक़रार करना या लड़ना, वाद-विवाद या बहस करना । यौ० लड़ना झगड़ना | झगड़ा-झगरा - संज्ञा, पु० दे० ( हि० झक्क (क) आपस में बहस या विवाद, लड़ाई, कष्टप्रद बात । यौ० लड़ाई-झगड़ा । मुहा०-- झगड़ा लगाना - लड़ाई करना, कराना, बाधा खड़ी करना । झगड़ालिनी - संज्ञा स्त्री० ( हि० झगड़ा ) बहुत झगड़ा करने वाली । झगड़ालू - वि० ( हि० झगड़ा + बालूप्रत्य०) झगड़ा करने वाला, बड़ा लड़ाका, बड़ा तकरारी, झगराऊ (दे० ) । झगड़ी - झगरी - संज्ञा, पु० दे० ( हि० झगड़ा + ई - प्रत्य० ) झगड़ा करने वाला | संज्ञा स्त्री० (हि० झगड़ा +- इन् प्रत्य०) झगड़ा करने वाली । झगर- संज्ञा, पु० (दे०) एक चिड़िया, Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir झगड़ा, झगरा ( ० ) 1 भगला - संज्ञा, पु० दे० ( हि० मँगा ) अँगरखा, कोट, झगुला ( ग्रा० ) । झगा - संज्ञा, पु० दे० (सि० मँगा) अँगरखा, कोट । "नव स्याम बपू पट पीत झगा " तु० । झगुलिया-झगुली - संज्ञा, स्त्री० दे० ( हि० गा) छोटे बच्चों का अँगरखा । झज्कर, झझड़ - संज्ञा, पु० दे० ( सं० अलिंजर ) पानी रखने का छोटा सा मिट्टी का बरतन । झज्भी - संज्ञा, स्त्री० (दे०) एक फूटी कौड़ी । झझक, झिझक - संज्ञा, स्त्री० दे० ( हि० कना ) फकने की क्रिया या भाव, भड़क, ॐ झलाहट, दुर्गन्धि । झझकन - संज्ञा, स्त्रो० दे० ( हि० झम्फकना ) रुकने का भाव, भय से रुकना, ठिठकना, faranना, भड़कना, चौंकना, रिना । कना - अ० क्रि० दे० ( अनु० ) भय से एकबारगी रुक जाना, ठिठकना, बिचकना, भड़कना, चौंकना । For Private and Personal Use Only Page #760 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir झझकाना-झिझकाना ७४६ झपकौंहा झझकाना-झिझकाना-स० क्रि० दे० | झडाझड़-कि० वि० दे० ( अनु० ) लगा. (हिं० झझकना का प्रे० रूप ) किसी को तार, खूबी से। भड़काना बिचकाना, चौंकाना। झड़ी-झरी-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. झाड़ना) झझकारना-स० कि. ( अनु० ) किसी लगातार पानी बरसना, लगातार बातें को डाँट-डपट बताना, कुछ न समझना, करना । मुहा०-झड़ी लगना (लगाना) दुतकार बताना । (सं० झझकार )। झड़ी बाँधना (बातों की)। झट-क्रि० वि० दे० (सं० झटिति ) शीघ्र, झन-संज्ञा, स्त्री० (अनु०) बरतनों का शब्द । तुरन्त, तुरत तत्काल । यौ० झटपट । झनक-संज्ञा, स्त्री० दे० ( अनु०) झनझन झटकना-स० कि० दे० ( हि. झट) झटका | का शब्द।। देकर हिलाना, झोंका देना, झटके से | झनकना--म० क्रि० ( अनु०) झनझन खींचना, बलात छीनना। " झटकत सोऊ | का शब्द होना, क्रोध करना । ( प्रे० रूप ) पट बिकट दुसासन है ',-रत्ना० । मुहा० झनकाना। -झटककर-झोंके के साथ, ज़बरदस्ती झनकार--संज्ञा, स्त्री० (दे०) झंकार । छीन लेना, चालाकी से लेना, ऐंठ लेना, झनझनाना अ० क्रि० दे० ( अनु०) झन झन का शब्द होना या करना। संज्ञा, स्त्री० दुबला होना (दे०)। झटका-संज्ञा, पु. (अनु० ) थोड़ा सा भनझनाहट, झनझनी । धक्का, झोंका, तलवार के एक ही वार में | मनाझन-संज्ञा, स्त्री० दे० ( अनु० ) झंकार बकरे का गला काट देना, भारी शोक या झन झन शब्द । क्रि० वि० झन झन शब्द-युक्त। रोग होना। झरकारना-स० कि० दे० (हि. झट) झनिया--वि० (दे०) झीना । झटकना। | झन्ना - संज्ञा, पु. ( दे० ) सेव श्रादि गिराने झटितां-क्रि० वि० (सं०) शीघ्र, तुरन्त । | का करछुल । (स्त्री० अल्पा०) भनी। . झड़-झर-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. झड़ना ) | भन्नाहट-संज्ञा, स्त्री० दे० ( अनु०) झनलगातार, बराबर, बड़ी देर तक पानी कार, झनझनाहट । बरसना, झड़ी लग जाना. पतन, (यौ । झप-क्रि० वि० दे० (सं. झंप ) शीघ्र. में ) जैसे—पतझड़ । जल्दी से, भट। झड़न-संज्ञा, स्त्री० (हि. झड़ना ) झड़ने | झपक- संज्ञा, स्त्री० दे० (हि० झपकनी) की क्रिया या भाव, पतन । आँख की पलक बंद होना, अति थोड़ा झड़ना-क्रि० दे० (सं० क्षरण ) बहु समय, थोड़ा सो जाना, झपकी लगना। तायत से किसी वस्तु के टुकड़े गिरना। | झपकना-अ० कि० दे० (सं० झप) आँखों झड़प-संज्ञा, स्त्री० दे० (अनु० ) क्रोध, की पलकों का बन्द होना, झपकी लगना, झगड़ा, मुठभेड़। डपटना, झेपना। झड़पना--प्र० कि० दे० ( अनु० ) झगड़ा झपकाना-स० कि० दे० ( अनु०) बारम्बार या धावा करना, लड़ना, किसी से बल पलकें बन्द करना, झपकी लगाना।। पूर्वक कोई वस्तु छीन लेना। झपकी-संज्ञा, स्त्री० ( अनु० ) थोड़ी निद्रा, भड़बेरी-संज्ञा, स्त्री० दे यो० (हि. माड़+ बहकावट, धोखा, चकमा। बेर ) बन के या झाड़ के बेर । झपकौंहा- वि० दे० (हि. झपकना ) भड़वाना-स० क्रि० दे० ( हि० झाड़ना का आँखों में निद्रा भरे हुए, नशे में मस्त । प्रे० रूप ) दूसरे से भड़ाना, साफ़ कराना। | स्त्री. झपकौंही। For Private and Personal Use Only Page #761 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir झपट भमाका झपट-संज्ञा, स्त्री० दे० ( सं० झप ) झपटने | प्रत्य०) जिसके बड़े बड़े बाल चारों ओर का भाव। को बिखरे हों। झबरैला, झबरैरा - झपटना-प्र० कि० दे० (सं० झप) वेग | स्त्री० झबरीली। से दौड़ना या चलना, टूट पड़ना। झवा-संज्ञा, पु० दे० (हि. झब्बा ) झब्बा। झपटाना-.स. क्रि० दे० (हि. झपटना का झबिया-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. झब्बा) प्रे० रूप ) दूसरे को झपटने में लगाना। । छोटा झब्बा, छोटा फुदना।। झपट्टा-संज्ञा, पु० दे० (हि० झपट) चढ़ाई, | झबुवा, झबुबा-वि० (दे०) झबरा, धावा या अाक्रमण करना । बहु केश-युक्त। झपताल-संज्ञा, पु. (दे०) गान, विद्या | भबकना-अ० क्रि० ( अनु० ) चौंकना, की ताल । झिझकना, चमकना। झपना--म० क्रि० अनु०) आँख की पलकें भब्ब-झम्बा --संज्ञा, पु. (अनु० ) गुच्छा। बन्द होना या झुकना, झपकना, झपना। झमक-संज्ञा, स्त्री० दे० (अनु० चमक का) झपलाना-स. क्रि० (दे०) बरतन श्रादि । उजेला, प्रकाश, मटक कर चलने का ढङ्ग । का भली भाँति धोना। " झमकि चली कसइनयाँ दै दै सान"। झपसनी-अ० क्रि० (हि० झपना) लतायें | झमकना-अ. क्रि० दे० (हि. झमक) घनी और फैली होना। धीरे धीरे चमकना, झपकना, छाजाना, झपाझपी-संज्ञा, स्त्री० (दे०) शीघ्रता, | अकड़ तकड़ दिखाना। जल्दी, हड़बड़ी, हरबरी। झमकाना-स० कि० दे० (हि. झमकना झपाट-झपाक संज्ञा, स्त्री. (दे०) शीघ्र, का प्रे० रूप) दमकाना, चमकाना, गहने जल्दी, झटपट । - ब. "झपाक मन लै गई" अादि बजाना। झपाना-अ. क्रि० (दे०) झपकी लेना, | झमका–संज्ञा, पु० (दे०) प्रताप, प्रभाव । आँखें मूंदना, नींद आना, झेपाना। झमकारा-वि० दे० (हिं. झम झम ) बरझपित-वि० दे० (हि. झपना ) ढंका या | सने वाले काले बादल । मुंदा हुआ, निद्रालु शर्मिन्दा । झमकी- संज्ञा, स्त्री. (दे०) चमक, झलक । झपेट-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. झपट ) झमझम-संज्ञा, स्त्री० दे० (अनु० ) पैर के झपट, दौड़, झपेटा (दे०)। गहनों का शब्द, पानी के बरसने का शब्द, झपेटना - स० कि० दे० ( अनु० ) धावा कर बहुत चमकने वाला । झमाझम (दे०)। के दबा लेना. दबोचना, छोप लेना। | झमझमाना--स० क्रि० दे० (अनु०) गहनों झपेटा-संज्ञा, पु० दे० ( अनु०) झपट, | आदि का बजना, पानी के बरसने का शब्द, दपट, चपेट भूतों की बाधा या आक्रमण । चमकना। झप्पान-संज्ञा, पु० दे० (हि. झपान) झमना अ० क्रि० दे० (अनु० ) लचना, एक प्रकार की पालकी। झुकना, दबना। भबकाना-स० कि. (दे०) घबड़वाना, अच- झमरझमर-अव्य० (दे०) अकस्मात म्भित या चकित करना। बरसना, बूंदें पड़ना। भबरा- वि० दे० ( अनु०) जिसके बाल झमाका-संज्ञा, पु० दे० ( अनु०) गहनों के लम्बे और बिखरे हुए हों । स्त्री० भबरी।। बजने या पानी बरसने का शब्द, कुएँ में भवरीला-वि० दे० (हि. मबरा+ईला- कुछ गिरने का शब्द, झमाक (दे०)। For Private and Personal Use Only Page #762 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir झमाझम ७५१ झलमला झमाझम-क्रि० वि० दे० अनु०) झम झम गौंख ) जंगलादार छोटी खिड़की, गवाक्ष । शब्द के साथ, प्रकाश युक्त ।। "राम झरोखा बैठि कै सब का मुजरा लेय"। भमाट-संज्ञा, पु० दे० (अनु० ) झुरमुट, झझरा- भरी-संज्ञा, स्त्री० ( दे०) रंडी, संध्या, गोधूली। वेश्या, डफली, खंजली। झमाना-प्र० कि० दे० (अनु० ) छाना, | झल-संज्ञा, पु० दे० (सं० ज्वल = ताप) घेरना, मँवाना। गरमी, जलन, भारी इच्छा, क्रोध, समूह । झमेल-झमेला-संज्ञा, पु० दे० (अनु० झाँव | झलक-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० झल्लिका) झांव) बहुत भीड़-भाड़, झंझट, बखेड़ा, चमक, प्रतिबिंब, दमक । झगड़ा, व्यर्थ का कार्य-भार। झलकदार-वि० दे० (हि. झलक+फा० झमेलिया, झमेली-संज्ञा, पु० (हि० झमेल दार ) चमकीला। +इया, ई - प्रत्य० ) झमेला करने वाला, झलकना-अ० कि० दे० (सं० मल्लिका) झगड़ालू । भर-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं०) पानी गिरने की दमकना, चमकना, प्रतिविबित होना, थोड़ा प्रगट होना। जगह, झरना, सोता, समूह, झंड, वेग, झलकनि संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० झल्लिका) तेज़ी, झाड़ी। दमक, प्राभा, चमक, प्रतिविब । झरझर--संज्ञा, स्त्री० दे० (अनु०) पानी के झलका-- संज्ञा, पु० दे० (सं० ज्वल= बहने, बरसने या हवा के वेग से चलने का जलना) फफोला, फुलका । “ झलका शब्द, झर कर गिरने का भाव । झरन-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. झरना ) जो झलकहिं पाँयन कैसे "-रामा० । झर कर निकले, झरने की क्रिया। झलकाना-स. क्रि० दे० (हि० झलकना का झरना-अ० क्रि० दे० (सं० क्षरण) झड़ना, प्रे० रूप० ) दमकाना, चमकाना, दरसाना । गिरना । संज्ञा, पु० (दे०) सोता, सोते का " श्रुति कुंडलहू झलकावत हैं"। पानी, छन्ना, झन्ना (ग्रा.)। झलझल-संज्ञा, स्त्री० दे० ( हि० झलकना) झरप-संज्ञा, स्त्री० दे० (अनु० ) झोंका, चमक, दमक, झलाझल । झकोरा, परदा, झड़प। झलझलाना-स० क्रि० दे० (अनु०) चमभरपना-अ० कि० दे० ( अनु०) बौछार | कना, चमकाना, चमचमाना, छलकना, होना, झोंका देना, झड़पना। (आँसू) तनिक दिखाई पड़ना। झरहरना-अ० कि० दे० (अनु० ) झर झर | झलझलाहट-संज्ञा, स्त्री० ( अनु० ) दमक, शब्द करना। चमक, भलकना, आभासित होना। झरहरा-वि० (दे०) झंझरा । झलना-स० क्रि० दे० (हि. झलझल = झरहराना-अ.क्रि० दे० ( अनु०) हवा हीलना ) पंखा हिलाना. इधर उधर हिलना, के कारण पत्तों का शब्द करना, झटकना, | अपनी शेखी बघारना, अपनी बड़ाई करना, झाड़ना। डींग हाँकना ( मारना )। झराझर-क्रि० वि० दे० ( अनु० ) झर झर | झलमल-संज्ञा, पु० (सं० ज्वल =दीप्ति) शब्द के साथ, वेग से, एक चाल । थोड़ा थोड़ा प्रकाश, चमक, दमक । झरी-झही-संज्ञा, स्त्री० (हि. झरना) पानी | झलमला-वि० (हि. झलमलाना) चम की झड़ी, बाजारों में सौदे पर कर, महसूल।। कीला, झिलमिला।" झिलमिला सा हो झरोखा-संज्ञा, पु० दे० (अनु० झर झर+ । गया था शाम का"। For Private and Personal Use Only Page #763 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir झलमलाना ७५२ झांझ भलमलाना-प्र. क्रि० (हि० झलमल )| भहनाना-स० कि० दे० (अनु०) झनकार थोड़ा थोड़ा प्रकाश होना, टिमटिमाना, करना, मनमनाना। झिलमिलाना। झलझलाहट-संज्ञा, स्त्री० (दे०) चमक, महरना-अ० कि० दे० (मनु० ) झर झर शब्द करना, आग की लपट का वायु-वेग झलक, प्रकाश, रोशनी।। से शब्द करना। . झलरा-संज्ञा, पु० दे० (हि. झालर ) एक महराना-अ० कि० ( अनु० ) झर झर पकवान । वि० झबरीला, झालर या जन्म | के बालों वाला बच्चा। शब्द करना, आग की लपट का शब्द,खीझना, चिढ़ना, क्रोधित होना। झलराना-अ.क्रि. (हि० झालर ) चारों ओर फैलकर छा जाना, बालों का बहुत | झाई-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० छाया) परबढ़ जाना। छाहीं, प्रतिबिंब, झलक, अँधेरा, छल, देह झलवाना-स० क्रि० दे० (हि. झलना का पर काले धब्बे । “जा तन की झाँई परे" प्रे० रूप ) पंखा चलवाना, हिलवाना। -वि० । मुहा०-झाँई' बताना-धोखा भला*-संज्ञा, पु० दे० (हि. झड़ ) देना, चालाकी करना। थोड़ी बरसा झालर, बंदनवार, पंखा, समूह। झांक-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० झांकन) झाँकने झलाभल-वि० दे० ( अनु०) चमकता | का भाव । हुआ, झलकता हुआ। झांकना-अ० क्रि० दे० (सं० अध्यक्ष) प्रोट झलझली-वि० दे० ( अनु० ) चमकदार। या झरोखे या इधर उधर से झुक कर झलाबोर - संज्ञा, पु० दे० (हि. झलमल) देखना । कलबतुन से बना हुश्रा किसी का किनारा, झाँकनी-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. झाँकी) कारचोबी, चमकीला। किसी देवता के दर्शन । झलमला-संज्ञा, स्त्री० दे० ( हि० झलझल | झांका-संज्ञा, पु० दे० (हि. झांकना) चमक ) दमक, चमक, झिलमिल । मल्ल-संज्ञा, स्त्री० दे० (अनु०) पागलपना। झांकी-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. झाँकना ) झल्ला -संज्ञा, पु० (दे०) बड़ा झौवा, | दर्शन, देखना, दृश्य, झरोखा । “जैसी यह टोकरा, झाबा । (हि० झल्लाना ) पागल, झाँकी तैसी काहू नाहिं झाँकी कहूँ" पद्मा। बक्की । संज्ञा, स्त्री० झल्लाहट। झाँकी-झांका झोंका-अँकी-संज्ञा, पु. भल्लाना-(मल्लना)-अ० क्रि० दे० (हि. यौ० (दे.) ताका ताकी, देखा देखी, झल ) खीझना, चिढ़ना, क्रोध से बकना, आपस में देखना। गप्प मारना। झांख-संज्ञा, पु० (दे०) हिरन का भेद । झष-संज्ञा, पु० (सं०) छोटी मछली। झषकेतु-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) कामदेव । झांखना- क्रि० दे० (हि. झीखना) झषनाथ- संज्ञा, पु० (सं०) बड़ा मच्छ, मगर पश्चाताप करना, पछिताना। यौ० झषपति, झखगज-झषनायक भाखर-संज्ञा, पु० दे० (हि. झंखाड़) काँटे झषराज। दार पेड़ों की सूखी टहनियाँ, दुष्ट, झक्की। भसना-स० क्रि० (दे०) फँसना, ठगना। झांगला-संज्ञा, पु० (दे०) ढीला अंगरखा। भहनना--अ० क्रि० दे० (अनु०) सन्नाटे या मँगा, झांगा ( दे.)। झन्नाटे में थाना, झन झन शब्द होना, | झांझ-संज्ञा, स्त्री० दे० (अनु० झन झन से) रोमाँच होना। __ काँसे के गोल गोल चिपटे ढाले हुये दो झरोखा। For Private and Personal Use Only Page #764 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir झाँझड़ी झाड़ना टुकड़े जो गाने आदि में बजाये जाते हैं। झांसा-संज्ञा, पु० दे० (सं० अध्यास) धोखा, क्रोध, दुष्टता, पैर का एक गहना। | ठगाई, दगाबाज़ी, बहकावा । यौ० झांसाझाँझड़ी-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. झाँझन)। पट्टी-धोखा-धड़ी । स० कि. (दे०) पैर का एक गहना । झांझरी (दे०)।। झाँसना। झाँझन-संज्ञा, स्त्री० दे० ( अनु० ) पैर का झाँसू-वि० दे० (हि० झांसा ) धूर्त, उग, गहना। धोखेबाज़, फुसलाऊ, बिगाड़ । झाँझर - संज्ञा, स्त्री० दे० (अनु०) झाँझ, । झा--संज्ञा, पु० दे० (सं० उपाध्याय ) गुजपैर का गहना, चलनी। वि० छेददार, पुराना। राती और मैथिल ब्राह्मणों की पदवी। झाँझरी-संज्ञा, स्त्री० (दे०) पैर का गहना, भाऊ-संज्ञा, पु० दे० (सं० झखुक) एक झाड़। लो. " जहँ गंगा तहँ भाऊ, जहँ ब्राह्मण छेददार, झाँझ बाजा, झरोखे की जाली। तहँ नाऊ' (ग्रा०)। झांझा-संज्ञा, पु० (दे०) लोहे की छेददार भाग-- संज्ञा, पु० दे० (हि. गाज ) जल बड़ी करछी, झींगुर कीड़ा, जो ऊनी, रेशमी का फेन, गाज। कपड़े बरसात में खा लेता है। झागड़ा-संज्ञा, पु० दे० (हि० झगड़ा) माझिया-वि० (दे०) क्रोधी, खिज्जू । लड़ाई, फरसाद। झाँझी- संज्ञा, स्त्री० (दे०) खेल विशेष। । झाझा-संज्ञा, पु० (दे० ) भाँग, गाँजा। संज्ञा, पु० वि० क्रोधी, झगड़ालू । झाड़-संज्ञा, पु० दे० (सं० झाट ) धनी झोप-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि० मापना) पर्दा, डालियों और पत्तियोंवाला पौधा, काँच झाप, नींद, झपकी। की झाड़ जिसमें रोशनी की जाती है। झाँपना-स० क्रि० दे० (सं० झंप ) ढकना, यौ०-भाड-फानूस-काँच की बनी छिपाना, छोप लेना। झाड़, हाँडी और गिलास । झॉपी-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि० झाँपना) | झाडखंड - संज्ञा, पु० दे० यौ० (हि. झाड ढाँकने का पात्र, मूंज की पिटारी। +खंड ) वन, जंगल । " झाड़-खंड झीनो झॉपो-संज्ञा, स्त्री० (दे०) छिनाल स्त्री, परो सिंहो चलो बराय"-गिर० । व्यभिचारिणो, धोबिन, पक्षी।। झाझंखाड़- संज्ञा, पु० दे० यौ० (हि.) भावना--स० क्रि० दे० ( हि० झाँवा ) हाथ | काँटेदार झाड़ियाँ, बे काम वस्तुयें। पाँवों को झाँवाँ से रगड़ना। झाड़दार-वि० (हि. झाड़+फा० दार) झांवरी-वि० दे० (सं० श्यामल ) काला, | बहुत ही घना, बहुत कँटीला। मलिन, धूमला, थोड़ा काला, मुरझाया या झाड़न-संज्ञा, स्रो० दे० (हि. झाड़ना) कुम्हिलाया हुश्रा, ढीला, सुस्त । स्त्री०- कूड़ा कर्कट, वस्तुओं के साफ़ करने का वस्त्र । झांवरी। झाड़ना-स० कि० दे० (सं० शरण या झॉवली-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. छाँव = | शायन ) हटाना, छुड़ाना, भगाना, निका छाया ) आँख का इशारा, कनखी, झलक । लना, अपनी योग्यता प्रगटने के लिये बढ़ झावा- संज्ञा, पु० दे० (सं० झामक ) जली कर बातें करना, बिछौने को साफ़ करने के इंट का छेददार टुकड़ा जिससे पाँव-हाथ | लिये उठा झटकना, झटकारना, फटकारना, को रगड़ कर मैल छुटाते हैं, मँवा (ग्रा०)। किसी से किसी यत्न से धन ले लेना, झांसना-स० कि० दे० (हि. झाँसा ) किसी ऐंठना, झटकना. रोग या प्रेत हटाने को को उगना, धोखा देना। मन्त्र पढ़ कर फूंकना, डाँट या फटकार भा० श० को०-१ For Private and Personal Use Only Page #765 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir झाड़फूक ७५४ भिनषा बताना, झारना (प्रा.) बटोरना, झाडू से | झारखंड-संज्ञा, पु० यौ० दे० ( हि० झासाफ करना। खंड ) एक पहाड़, वन, बीहड़। झाड़फूंक-संज्ञा, स्त्री० यौ० (हि.) रोग झारना-स० क्रि० दे० (सं० झर) बालों या प्रेत भगाने के लिये मन्त्र पढ़ कर किसी में कंघी करना, छाँटना, बहोरना, झाड़ना। पर फैक छोडना। " झूठी झाड़-फूकहू | झारी-संज्ञा, स्त्री० (हि. झरना ) गड़श्रा, फकीरी परी जाति है" - रत्ना। जल पात्र । झाडबुहार-संज्ञा, स्त्री० यौ० (हि.) सफ़ाई | झाल-संज्ञा, पु० दे० (सं० मल्लक ) झाँझ करना, कर्कट कूड़ा आदि हटाना। बाजा । संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० झाला ) चरझाड़ा-संज्ञा, पु० दे० (हि. झाड़ना) झाड़- | पराहट, कटुता, तरंग, लहर । फूक, तलासी, मल, मैला, पाख़ाना। झालना --स० क्रि० ( ? ) पीतल आदि के झाड़ी-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. झाड ) छोटी बरतन को टाँका लगा कर जोड़ना, गर्म झाड़, छोटे छोटे पौधों का समूह,घना वन । चीज़ों को ठंढा करने को बरफ पर रखना । झाडे-झपटे जाना-अ० क्रि० (दे०) शौच झालरी-संज्ञा, पु. ( ? ) एक पकवान । या मल त्यागने या पाखाने जाना। संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० झल्लरी) चादर आदि झाड़-संज्ञा, पु० दे० (हि. झाड़ना ) कुंचा, के किनारे पर लटकने वाला किनारा । बहोरी, बढ़नी, सोहनी, पूछलतारा, केतु । झालरना-प्र० क्रि० (दे०) झलराना। मुहा०-झाड़ फिरना-कुछ न रहना। झालि-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. झड़ ) पानी __ की झड़ी। झाड़ लगाना-बटोरना, कूड़ा साफ़ करना। | भिंगवा-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० चिंगट ) झाड मारना-निरादर करना, धिन करना।। ___ एक छोटी मछली, लम्बा ढीला अँगरखा । झापड-संज्ञा, पु० दे० (सं० चपट) तमाचा, | भिगली -संज्ञा, स्त्री० (दे०) मंगा। थप्पड़, चटकना। झिझिया-संज्ञा, स्त्री० दे० (अनु० ) छोटे झाबर-संज्ञा, पु० (दे०) कीचड़ वाली भूमि, छोटे छेदों वाला मिट्टी का छोटा बरतन दलदल, खादर भूमि, झाबा। जिसमें दिया जला कर लड़कियाँ खेलती हैं। भाबा-संज्ञा, पु० दे० (हि० झॉपना) टोकरा, झिझोटी-संज्ञा, स्त्री० (दे०) एक रागिनी । खाँचा, झन्वा । (स्त्री० भल्पा०) झबिया। झिझकना-अ० कि० दे० (हि. झझकना) भामां-संज्ञा, पु० (दे०) गुच्छा, झब्बा, झझकना। डाँट-डपट, घुड़की, छल, कपट, धोखा। झिझकारना-स० क्रि० दे० (हि.) मामी-संज्ञा, पु० (हि. झाम ) दगाबाज़, झझकारना, झटकना। छली, कपटी। झिड़कना-स० कि. ( अनु० ) तिरस्कार से झायँ भायँ-संज्ञा, स्त्री० दे० ( अनु० ) झन बिगड़ कर कोई बात कहना, डाँट बताना। झन शब्द, वायु का शब्द, बकवाद, लड़ाई, झिड़का झिड़की-संज्ञा, स्त्री० (दे०) झगड़ा, कहासुनी। फसाद, बकाझकी। झा झाव-संज्ञा, स्त्री० दे० ( अनु०) तक- झिड़की-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. झिडकना ) रार, झगड़ा, बक बक, झक झक ।। झिड़क कर बोलना, डाँट, फटकार । भारी-वि० दे० (सं० सर्व ) कुल, सब, झिड़झिड़ाना-अ. क्रि० (दे०) अधिक निःशेष, सब का साथ, बिलकुल । संज्ञा, क्रोधित होना, चिड़चिड़ाना। स्त्री० दाह, जलना, आँच, ईर्ष्या, डाह, | | झिनवा-संज्ञा, पु० (दे०) बारीक चावलों चरपराहट । संज्ञा, पु. (व०) झाड़ी। वाला धान । For Private and Personal Use Only Page #766 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir झिपना मँगुना, मँगना झिपना-स० क्रि० दे० (हि० झेपना) लजित | झिल्लिका- संज्ञा, स्त्री. ( सं०) झींगुर, या शर्मिन्दा होना, झैपना। मिल्ली। झिपाना-स० क्रि० दे० (हि० झपना का स० झिल्ली -संज्ञा, पु० दे० (सं०) झींगुर । संज्ञा, रूप ) शर्मिन्दा या लज्जित करना, झेपाना । स्त्री० दे० (सं० चैल ) बहुत पतली खाल, झिरझिरा-वि० (हि० झरना ) झीना, आँख का जाला, पतली तह । मैंझरा, बारीक (कपड़ा)। झींक-झींका-संज्ञा, पु० (दे०) सिकहर, झिरझिराना-अ० क्रि० (दे०) क्रोधित छींका, सींका, चक्की का एक कौर, होना, टपकना, बहना। पछतावा। झिरना-प्र. क्रि० दे० (हि. झरना) रसना। झींकना-अ० कि० दे० (हि. झींझना) संज्ञा, पु० (दे०) सोता, झरना । पछिताना, अफसोस करना। (प्रे० रूप ) झिराना-स. क्रि० (दे०) छन्ने से दो झिंकाना। अनाजों को अलग अलग कराना, धीरे धीरे झीखना-झीखना-म० कि० दे० (हि. रसना, झरना। खोजना ) भारी पश्चाताप करना, पछिताना, झिलैंगा-संज्ञा, पु० दे० (हि. ढीला--- कुदना खीजना, दुख और विपत्ति की कथा अङ्ग) पुरानी बिनी खाट जिसकी बुनावट सुनाना, रोना रोना। ढीली पड़ गई हो । संज्ञा पु० भींगा। झिलना-अ० क्रि० ( ? ) घुसना, धंसना, झींगा-संज्ञा, पु० दे० (सं० चिंगट) छोटी अधाना, तृप्त या मगन होना, झेला या मछली, एक धान । सहा जाना। झींगर-संज्ञा, पु० दे० (अनु० झी+कर) झिलम--संज्ञा, स्त्री. (हि. झिलमिला) झिल्ली, एक कीड़ा। लोहे की टोपी । “ कहै रतनाकर न ढालन झीसी-संज्ञा, स्त्री० (अनु० या झीना ) पै खालन पै, झिलम झपालन पै क्योंहू कहूँ। फौव्वारे सी पानी की छोटी छोटी बूंदे । उमकी"। मीठा- वि० (दे०) झूठ। “ भारी कहूँ तो झिलमा-संज्ञा, पु० (दे० ) एक धान । बहु डरूँ हलुका कहूँ तो मीठ"-कबी० । झिलमिल-संज्ञा, स्त्री० दे० (अनु०) प्रकाश झीना-वि० (सं० क्षीण ) बहुत बारीक, जो घटता बढ़ता या हिलता सा प्रतीत हो, महीन, पतला, झंझरा, दुबला। स्त्री. एक कपड़ा, लोहे का कवच । झीनी । “ सारँग झीनो जानि त्यों, सारंग झिलमिला--वि० दे० ( अनु० ) झीना, कीन्हीं घात"। महीन, चमकता हुआ, जो अति प्रगट न झील-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० क्षीर) बहुत हो, टिमटिमाता। झिलमिलाना-प्र. क्रि० दे० (अनु.) बड़ा भारी ताल, सरोवर । | झीलर-संज्ञा, पु० दे० ( हि० झील ) छोटी अगोचर गम नहीं, जहाँ झिलमिलै जोत" __ झील, छोटा सरोवर। -कबी०। झीवर, भीमर-संज्ञा, पु० दे० (सं० धोवर) झिलमिली-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. मिल मल्लाह, केवट, धीवर (ग्रा०)। मिल) चिक, परदा, खड़खड़िया, कर्णभूषण । | अँगुना, अँगना--संज्ञा, पु० (दे०) जुगुनू । झिल्लड-वि० दे० (हि. झिल्ली) बारीक, खद्योत । “ सूरज के आगे जैसे अँगुना महीन, झिझिरा कपड़ा। दिखाइयो"-सुन्दर० । For Private and Personal Use Only Page #767 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org झंझना ७५६ कुंझना - संज्ञा, पु० (दे०) घुनघुना, कुनकुना, 'कबहूँ चटकोरा चटकावति कुँझना कुन कुन ना भूलें" सूर० । ॐफलाना- - अ० क्रि० दे० ( अनु० ) चिड़चिड़ाना, खीजना, खिलाना, क्रोधित होना | संज्ञा, स्त्री० -ॐझलाहट । झुंड - संज्ञा, पु० दे० (सं० यूथ) समूह, गरोह | "झुंड झुंड मिलि सुमुखि सुनैनी " -रामा० । 66 - झुकना- - अ० क्रि० दे० (सं० युज् ) लचना निहुरना, नवना, किसी काम में मन लगाना, तत्पर या प्रवृत होना, नम्र या विनीत होना, क्रोधित होना । प्रे० रूप- झुकाना, कुकवाना। मुहा०-- झुक झुक पड़ना - नशा या निद्राधीन हो खड़े या बैठ न सकना । जियत मरत झुकि कि परत – वि० । भुकमुख – संज्ञा, पु० दे० यौ० (हि० भुटपुटा) संध्या समय, प्रकाश और अंधकार का समय, झुटपुटा, स्त्री० -कामुखी । कराना - अ० क्रि० दे० ( हि० झोंका ) har खाना, बरीला होना । झुकवाना - स० क्रि० ( हि० झुकना ) दूसरे से किसी पदार्थ के झुकाने को कहना झुकाना - स० क्रि० दे० ( हि० झुकना ) लचाना, नवाना, निहुराना, किसी चीज़ के दोनों किनारों को किसी ओर मोड़ना, लगाना, नम्र या विनीत बनाना । झुकाव -संज्ञा, पु० दे० (हि० झुकना) झुकने की क्रिया या भाव, उतार, ढाल, किसी श्रोर मन की प्रवृत्ति । ܕܪ 66 झुटपुटा - संज्ञा, पु० ( अनु० ) संध्या का समय, सम प्रकाश और अँधेरे का समय । 'झुटपुटा सा हो गया है शाम का , भुटुंग - वि० दे० ( हि० फोंटा ) जिसके खड़े और फैले बाल हों । 1 कुठलाना -- स० क्रि० दे० (हि०) झूठा बनाना या ठहराना, धोखा देना । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir झुरमुट झुडाई - संज्ञा स्त्री० दे० ( हि० झूठ + आई ) झूठ का भाव, असत्यता, मिथ्या । कुठाना स० क्रि० दे० ( हि० झूठ + आनाप्रत्य० ) झूठा बनाना, मिथ्या ठहराना । झुनक - संज्ञा, पु० दे० ( अनु० ) पायज़ेब का शब्द । कुनकना - प्र० क्रि० दे० (अनु० ) कुन कुन शब्द करना । नकारा - वि० ( हि० फोना ) बारीक, महीन, पतली भंकार । स्त्री० झुनकारी । कुनकुन - संज्ञा, पु० ( अनु० ) पायज़ेब का शब्द | कुनकुना - संज्ञा, पु० दे० ( हि० कुन कुन से अनु० ) घुनघुना ( खेलौना ) | झुनझुनाना - प्र० क्रि० दे० ( अनु० ) कुम कुन शब्द होना, हाथ पैर में कुन चढ़ना । भुनभुनियाँ- संज्ञा स्त्री० दे० (अनु० ) झुनझुन शब्दकारी भूषण, पायजेब, बेड़ी, सन की फलियाँ। " विपति में पैन्हि बैठे पाँय नकुनियाँ " - देव० । झुनझुनी - संज्ञा, त्रो० दे० (हि० भुनभुनाना ) देर तक एक ही दशा में रहने से उत्पन्न हाथ, पैर की सनसनी | बबी - संज्ञा, स्त्री० (दे० ) पपी, कान का एक गहना । झुपड़ी, झुपरी -संज्ञा, स्त्री० (हि० झोपड़ी ) छोटा पड़ा, झोपड़ी । झुपड़िया (दे० ) । झुमका - संज्ञा, पु० दे० (हि० भूमना) कर्णाभूषण, भूमक । कुमाना- स० क्रि० दे० ( हि० भूमना ) किसी को भूमने में लगाना । ( प्रे० रूप ) मवाना | भुरभुरी - संज्ञा, स्त्री० दे० ( अनु० ) कम्प, थोड़ा सा ज्वर । 66 कुरना- अ० क्रि० दे० ( हि० चूर या धूल ) सूखना, भुराना । भुर भुर पींजर धन भई " – प० । दुबला होना, घुल जाना । कुरमुट - संज्ञा, पु० दे० (सं० भुट = झाड़ी) For Private and Personal Use Only Page #768 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अरवाना ७५७ मूठ मिलित झाड़ या छुप समूह, लोगों का मुंड, | झुलसाना-स. क्रि० दे. (हि० झुलसना) थोड़ा थोड़ा अँधेरा । "दिन इक महँ झुरमुट किसी पदार्थ को झुलसाना, झौंसाना, होइ बीता"-५०। जलाना। अरवाना--स० कि० दे० (हि० झरना) मुलाना-स० क्रि० दे० (हि. भूलना ) दूसरे से सुखाने का काम कराना। किसी को मूले में बिठा कर हिलाना, किसी झरसना*-अ० कि० दे० (सं० ज्वल+ को किसी उम्मेद में बहुत दिनों तक रखना। अंश ) झुलसना, झौंसना (ग्रा० )। " जसोदा हरि पालने मुलावै "-सूर० । किसी पदार्थ के ऊपरी भाग का जल कर झुलवा-झुलुवा-संज्ञा, पु० दे० (हि. या गर्मी से काला पड़ना या सूखना “ तर झूला ) झूला, मुलना, स्त्रियों की कुरती। झुरसी ऊपर गयी"-वि०। प्रे० रूप- झुलावन -२० क्रि० दे० (हि० झूलना) झुरसाना, मुरसवाना। मुलाना, झुलावना। झुराना-स. क्रि० दे० (हि. झरना ) | मुलौवा-मुलौश्रा-संज्ञा, पु० (दे०) कुरता सुखाना । अ० कि० सूखना, डर और दुख से | ( स्त्रियों का ) ढीली कुरती। घबरा जाना, दुर्बल होना। “सींचें लगि मुल्ला - संज्ञा, यु० (दे०) कुरता, चोला, भुरानी बेली"-५०। कुरती, झुलिया (ग्रा०)। झुरावन-संज्ञा, पु० दे० (हि. झुरना) | मुहिरना-स० कि० (दे०) लदना, लादा किसी पदार्थ का सूखाभाग, सूखन, मुरवन । | जाना । झरियाना-झोरियाना, झोलियाना-स. भूक संज्ञा, पु० दे० (हि० झुकना) वायु कि० (दे०) झोली में किसी पदार्थ को भर | का धक्का, झटका, झकोर झोंका । झोंक। लेना, खेत निराना। '. रंगराती हरी लहराती लता झुकि जाती झुर्रा--संज्ञा, स्त्री० दे० (हि० भुरना) शिकन, | समीर के झू कनि सों"-- देव० । सिकुड़न । अँकना-स. क्रि० दे० (हि० झोंक ) किसी मुलना--संज्ञा, पु० दे० (हि. झूला) पदार्थ को आग में फेंकना झोंकना, झुकना। दोला, झूला । वि० (हि० झूलना ) झूलने | खना- अ. क्रि० (हि. खीजना) पछिवाला। प्रे० रूप झलवाना, झुलाना ।लो.. ताना, झीखना। " झुलना बैल होय धन नाश "-स्फु० । झल- संज्ञा, स्त्री० (दे०) झंझलाहट । मुलनी, झूलनी-संज्ञा, स्त्री० (हि० झूलना) | फँसना-प्र० क्रि०+ स० ( हि० झुलसना) लटकन, छोटी नथ । “ झोंकदार झूलनी झुलसना, जल जाना। झपाक मन ले गई"-ब०।। अँकटी-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. झूट+ झुलझली-संज्ञा, स्त्री० (दे०) कानों में | कांटा ) छोटी झाड़ी। पहनने के पत्ते, थोड़ा सा बुख़ार, मुरमुरी। मुलमुला-वि० ( अनु० ) झिलमिला, फंका-संज्ञा, पु० दे० (हि० झोंकना ) महीन, पतला, झिलमिल । झोंका, झकोरा। झुलसना-प्र. क्रि० दे० (सं० ज्वल + | | फंसी-संज्ञा, स्त्री० (दे०) फुहार । अंश ) किसी वस्तु के ऊपरी भाग का सूख | झूझना-अ० क्रि० दे० ( सं० युद्ध ) जूझना, या जल कर काला होना । झुरसना, झौंसना, लड़ना. युद्ध करना। अधजला होना। प्रे० रूप झुलसवाना। झूठ-संज्ञा, पु० (सं० प्रयुक्त प्रा० अयुत्त) For Private and Personal Use Only Page #769 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir झूठमूठ ७५८ झूला असत्य । " मूठहि दोष हमहि जनि देहू" | बादलों का इकट्ठा होकर मुकना, नशे या -रामा० । मुहा०-झूठ-सच कहना या गर्व से शरीर को हिलाना । लगाना-झूठी निन्दा करना, शिकायत | झूमर -- संज्ञा, पु० दे० (हि० झूमना ) सिर का एक भूषण या गहना, होली का एक झूठमूठ-क्रि० वि० दे० (हि. झूठ + मूठ गीत, नाच, एक ताल, एक काठ का अनु० ) बे जड़ या व्यर्थ की बात कहना। खिलौना। झुट्टी मुट्ठी (दे०)। भू -वि० दे० ( हि० चूर) सूखा हुश्रा, झूठा-वि० ( हि झूठ ) असत्य, मिथ्या, खुश्क । ( हि० झूठ ) व्यर्थ, खाली । संज्ञा, बनावटी, असत्यभाषी, झूठ बोलनेवाला, स्त्री० दाह-दुख । यौ० --भूरझार । नक़ली, जूठा । “झूठा मीठे वचन कहि" | झूरा-वि० दे० (हि० झूर) .खुश्क, सूखा, -गिर। खाली । संज्ञा, पु० (दे०) पानी न बरसना, झुठाना-स० क्रि० दे० (हि. झूठ ) असत्य | अकाल, अवर्षण, कमी । “जेठ-वाय पुरकरना या ठहराना। वा बहै सावन भूरा होय"-भड । झूना-वि० ( हि० मीना ) झीना, महीन । झू -क्रि० वि० दे० ( हि० झूर ) नाहक, झूम-संज्ञा, स्त्री० ( हि० झूमना ) झूमने का | झूठमूठ, बेमतलब, व्यर्थ । ' किगिरी गहे भाव, हिलना, डोलना। बजावै मूरै'-५० । वि० दे० (हि० चूर या झूमक-संज्ञा, पु० दे० (हि०झूमना) झुमका, भूर) सूखा, खाली, व्यर्थ, दुख. दाह ।। कर्ण-भूषण, झूमका, झुमका-होली में | झूल-संज्ञा, स्त्री० दे० ( हि० झूलना ) हाथी स्त्रियों का घेरा सा बना नाचते हुए गाना, | घोड़े आदि के साज का ऊपरी वस्त्र, भद्दा एक पूर्वी गीत, झूमर, स्त्रियों की साड़ी या बुरा वस्त्र, झूलने का नाव। के मब्बे। झूलन-संज्ञा, पु. ( हि० भूलना ) सावन में झमकसाडी-संज्ञा, स्त्री० दे० यौ० (हि.)। कृष्ण-झूले का एक उत्सव, हिंडोला। जिस साड़ी में झूमक लगे हों। मूलनि (व.) झूलने का ढंग। " कैसी मूमझूम-संज्ञा, पु० (दे०) घन घोर बादलों यह झूलनि तिहारी है "-द्वि०। का उमड़ना, घुमड़ना, घमंड से झूमते भूलना -- म० कि० दे० (सं० दोलन ) भूले चलना । “धाये धन श्याम भूमि झूमि घन पर बैठ या खड़े खड़े पैगें मारना, लेटे या बैठे श्याम नहीं"-स्फु०। किसी के द्वारा मुलाया जाना, रस्सी आदि झूमड़-संज्ञा, पु० दे० ( हि० झूमना) शीश- में लटक कर हिलना, किसी प्राशा में बहुत फूल सा एक शिर भूषण, झूमर । काल तक पड़े रहना, फाँसी पर लटकना । झूमड़-झामड़-संज्ञा, पु० यौ० (हि० दे०)। संज्ञा, पु. अंत में गुरु लघुयुक्त २६ मात्राओं व्यर्थ की बात, ढकोसला, झूठा प्रपंच, | का एक छंद, अन्त में एक लघु दो गुरु या पाखंड । " दुनियाँ झूमड़ झामड़ अटकी" यगण युक्त ३० मात्रात्रों का छंद, हिंडोला, -कबी०। मूला। "स्याम झूलै प्यारी की अन्यारी झूमना-प्र. क्रि० दे० (सं. झंप ) इधर अँखियान मैं"-पद्मा० । उधर चलना, ऊपर नीचे, आगे पीछे को झूला-संज्ञा, पु० दे० (सं० दोला) हिंडोला, बार बार हिलना, झोंके खाना, गर्व करना, रस्से या तार श्रादि से बना पुल, जैसे ऐंठ से चलना। "रंझा झूमत है कहा" लघमण झूला, पालना, पेड़ों की डाली या -दीन । मुहा०-बादल झूमना- छत की कड़ियों से बँधी हुई रस्सी के For Private and Personal Use Only Page #770 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir झंपना-झपना ७५६ झोल सहारे लटकते हुये पलंग, खटोला, या झोंकी-संज्ञा, स्त्री० (हि. झोंक ) जवाबचिपटी लकड़ी का टुकड़ा, झोंका, झटका। देही, बुराई या घटी का डर, जोखों, झंपना-झपना-अ० कि० दे० ( हि० जोखिम (ग्रा०)। झिपना) लजित होना, शरमाना । (प्रे० | झोंझ-संज्ञा, पु. (दे०) घोसला, गीध रूप स० ) झपना, झंपवाना। आदि पत्तियों के गले की थैली, खुजली। झर-झेरा-संज्ञा, स्त्री० दे० (फा० देर ) झोंझल-संज्ञा, स्त्री० दे० ( हि० झंझलाना) देर, विलंब, झगड़ा-बखेड़ा। । क्रोध, मुंझलाहट, रिस । झरना -सक्रि० दे० (हि० झेलना ) | झोंटा-संज्ञा, पु० दे० (सं० जूट ) बड़े बड़े झेलना । स० क्रि० दे० (हि. छेड़ना )। बालों का समूह, एक हाथ में आने योग्य प्रारम्भ करना। पतली चीज़ों का समूह, जरा, जुट्टा (ग्रा०)। झेल-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि० झेलना ) तैरने | संज्ञा, पु० (हि. झोंका ) झूले के हिलानेमें हाथों-पाँवों से पानी हटाने का काम, वाला धक्का, झोंका, पैंग । स्त्री० झोंटी। धीमा धक्का, धमकी, हिलोर, झेलने का | झोंझा-संज्ञा, पु० (दे०) पेट, झोझर। भाव । संज्ञा, स्त्री० (दे०) देर, विलंब । झोंपड़ा-संज्ञा, पु० दे० (हि. छोपना) झेलना-स० क्रि० दे० ( सं० स्वेल ) सहना, | मिट्टी की छोटी छोटी दीवारों और घासबरदाश्त करना, हटाना, पैठना, हेलना, फूस से बना छोटा घर, कुटी, पर्णशाला। ठेलना, ढकेलना, पचाना, ग्रहण या स्वीकार।। ( स्त्री० अल्पा० झोंपड़ी ) मुहा०-अंधा झोंक-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. झुकना ) झोंपड़ा--पेट । झुकाव, बोझ, तेज़ चाल, धूमधाम से काम | झोंपा-संज्ञा, पु० दे० (हि. झब्बा) गुच्छा, उठाना, सजावट, प्रवृत्ति, उमंग । यो०- मब्बा। नोक-झोंक-ठाठ-बाट, धूमधाम, बैर- झोटिंग-वि० दे० (हि. झांटा) जिसके विरोध, समानता, वाद-विवाद, पानी की | सिर के बाल खड़े और बड़े बड़े हों। हिलोर या लहर। झोंटे वाला। संज्ञा, पु० (दे०) भूत बैताल झोंकना-स० कि० द० ( हि० झोंक) किसी श्रादि । पदार्थ को अग्नि में फेंकना या डालना। | झोदियाना-स० क्रि० (दे०) चोटी पकड़ (प्रे० रूप ) झोंकाना, झोंकवाना। कर खींचना, मारना-घसीटना, ले जाना। मुहा०-भाड़ झोंकना (चूल्हा बुझाना) | झोरई-वि० दे० (हि. झाल ) रसेदार -तुच्छ या व्यर्थ काम करना, बल-पूर्वक आगे बढ़ाना, ठेलना, ढकेलना, बे सोचे- झोरना-स० कि० दे० (सं० दोलन) किसी समझे अधाधुंध खर्च करना, विपत्ति, दुख चीज़ की तोरना, जोर से हिलाना झटका और भय से कर देना, बुरे स्थान में झेलना, | दे ऐसा हिलाना कि साथ की चीजें गिर अधिक काम देना, दोष लगाना, व्यर्थ पड़ें, पेड़ आदि पर फलों के लिये ढेले या बातें या आत्मश्लाघा करना, गप्प मारना । । घा करना. गप्प मारना। लाठी फेंकना । (प्रे० रूप ) झारना, झोंका-संज्ञा, पु. दे० (हि. झोंक ) धक्का, । झोरवाना। झटका, हवा की झिकोर, झकोरा, पानी की झोरि, झोरी-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि० झाली) लहर, सजावट, ठाठ। | झोली, पेट, उदर, झोरिया (ग्रा.)। झोंकाई-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. झोंकना) | झोल-संज्ञा, पु० दे० (हि० झालि) तरकारी झोंकने की क्रिया या भाव या मजदूरी। | आदि का रस, शोरबा, कढ़ी, लेई, माँड़, For Private and Personal Use Only Page #771 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir झोलमाल ७६० टंक मुलम्मा। संज्ञा, पु० दे० ( हि० झूलना) झौंद-संज्ञा, पु० दे० (हि० झोंझ ) पेट, पहने या ताने हुये कपड़े का लटका हुआ | उदर, झोझर (प्रा.) झोंझ, घोसला । भाग, परदा, झाप, ढोला, बेकाम, निकम्मा, झोर -संज्ञा, पु० दे० (सं० युग्म, जुग्म बुरा । संज्ञा, पु. भुल, धोखेवानी। संज्ञा, हि० झूमर ) गरोह, मुंड, पत्तियों, फूलों, पु० (हि. झिल्ली ) गर्भाशय, बच्चेदानी। फलों का गुच्छा, एक गहना, झाड़ियों और संज्ञा, पु० दे० ( सं० ज्वाल ) राख, भस्म । पेड़ों का धना समूह, कुंज (प्रान्ती०)। झोलमाल-संज्ञा, पु० (दे०) ढीला-ढाला, भरना- अ. क्रि० दे० ( अनु० ) झौरना, चरपरा रस, धोखा, छल, भेद, गड़बड़ा। | गुच्छाना, गूंजना, मुल्सना । झोलदार-वि० (हि. झाल --फा० दार ) जिसमें रसा हो, मुलम्मे वाला, ढीला भौंराना-अ० कि. ( हि० झूमना) झूमना । ढाला, झोल वाला। " अ० क्रि० दे० (हि. झांवरा ) काले रंग का झोला-संज्ञा, पु० (हि० झूलना ) झोंका, हो जाना, कुम्हलाना, मुरझाना, झौरियाना। झकोरा । संज्ञा, पु. ( हि० झूलना ) कपड़े झोंसना-अ० क्रि० (दे०) झुलसना, मँउकी बड़ी झोली या थैला, ढीला ग़िलाफ सना (ग्रा०) झोरियाना। या कुरता, चोला, बात रोग, लकवा, पेड़ों झौर -- संज्ञा, पु० दे० (अनु० झाँव २) झगड़ा का रोग जिसमें पत्ते एक बारगी सूख जाते विवाद, कहा-सुनी, डाँट-फटकार, झुंड । हैं। स्त्री० अल्पा० झोली । झटका, धक्का, मोरना-स० कि० दे० (हि. झपटना ) वाधा. विपत्ति, संकेत। छोप या दबा लेना, झपट कर पकड़ झोली-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. झूलना ) लेना। छोटा झोला, या थैली, घास बाँधने का मौरी-संज्ञा, स्त्री० (दे०) खेत की घास । जाल, पुर, चरसा, अनाज उड़ाने का वस्त्र, कुश्तो का पेंच । संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० झोरे-क्रि० वि० दे० (हि. धौरे ) पास, ज्वाल ) राख, खाक, भस्म । मुहा० झोली बुझाना-कार्य पूर्ण होने पर फिर उसे | झोवा -संज्ञा, पु० दे० (हि. झाबा) झाबा, करने को चलना। टोकरा, झउवा (ग्रा०)। झोलना-स० कि० दे० (सं० ज्वलन) मोहाना-अ.क्रि० दे० ( अनु० ) गुर्राना, जलाना, मूलना। । चिल्लाना, चिड़चिड़ाना। लाल समाप.साथ.सग। अ-हिन्दी या संस्कृत की वर्णमाला के | स्थान नासिका है। चवर्ग का पाँचवाँ व्यंजन इसका उच्चार ट-संस्कृत या हिन्दी की वर्णमाला के टवर्ग का | टंक-संज्ञा, पु. ( सं०) चार माशे की तौल, पहला व्यंजन, इसका उच्चार-स्थान मूर्धा है। एक सिक्का, पत्थर गढ़ने की टाँकी, छेनी, For Private and Personal Use Only Page #772 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रंकण ७६१ टकटोना-टकटोरना कुल्हाड़ी, फरसा, कुदाल, तलवार, टाँग, | या चढ़ना । संज्ञा, पु० जिस पर कपड़े आदि रिस, घमंड, सुहागा, कोष । लटकाये जाते हैं, अरगनी, अलगनी टंकण-संज्ञा, पु० (सं०) सुहागा, जोड़ लगाने | (प्रान्ती० )। का काम, घोड़े की जाति, दक्षिण देश। टँगारी-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० टंग) कुल्हाड़ी, टँकना-अ० कि० दे० (सं० टंकण ) सिया | फरसा, परशु (सं०)। या टाँका जाना, सिलना, लिखा जाना, टंचा-वि० दे० (सं० चंड ) कृपण, कंजूस, चक्की थादि में दाँते बनाये जाना, रेता | निठुर, कठोर हृदय । वि० दे० (हि. टिचन) जाना, कुटना। तैयार, प्रस्तुत। टँकवाना-स० कि० दे० (हि० टॉकना का टंटघंट-संज्ञा, पु० दे० (अनु० टन टन+ प्रे० रूप ) चक्की आदि में दाँते बनवाना, | घंट) दिखावे के लिये घड़ी-घंटा, बाजा, किसी को टाँकों से सिलवाना या जुड़वाना, पूजा का ढोंग या प्रपंच, कूड़ा-कबार ।। लिखवाना, टॅकाना। टंटा-संज्ञा, पु० दे० (अनु० टनटन) दिखावा, टंकाई- संज्ञा, स्त्री० (हि. टाँकना ) टाँकना | आडम्बर, खटराग, (ग्रा०) झगड़ा, बखेड़ा, क्रिया का भाव या मज़दूरी। उपद्रव । यो० टंटा-बखेड़ा। टँकाना-स० कि० दे० ( हि० ) किसी चीज़ट - संज्ञा, पु० (सं० ) नारियल का वृक्ष, को टाँकों-द्वारा जुड़वाना या सिलवाना, | चौपाई, हिस्सा, शब्द।। चक्की आदि में दाँते बनवाना, लिखाना। | | टक-संज्ञा, स्त्री० (सं० टक या त्राटक ) ताक टॅकार-संज्ञा, स्त्री० (सं.) टन टन का शब्द | लगा कर, निरंतर, बिना पलक बन्द किये जो धनुष की तांत पर हाथ मारने से होता | देखना, अनिमेष, अखंडावलोकन । मुहा० है, पीतल आदि धातु-खंडों पर चोट लगाने -टक बांधना (बंधना ) ठहरी हुई का शब्द, उनकार, झनकार । " जब कियो निगाह से देखना। टकटक देखनाधनु टंकार"-रामा । अनिमेष देर तक देखना । टक लगानाटंकारना-स० क्रि० दे० (सं० टंकार) धनुष | पासरा देखते रहना। की डोरी या ताँत बजाना। टकटका -संज्ञा, पु० दे० ( हि० टक ) टंकिका-- संज्ञा, स्त्री० (सं०) टाँकी, छेनी।। ठहरी निगाह । स्त्री० टकटकी। वि० ठहरी टंकी-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० टंक = खड्डु या | या बँधी दृष्टि वाला। गड्ढा ) पानी भरने का लोहे, पीतल आदि टकटकाना-स० क्रि० दे० ( हिं० टक ) एक का बड़ा बरतन । टक ठहरी निगाह से देखना, टफ टक टंकोर-संज्ञा, पु. ( सं० टंकार ) धनुष की शब्द करना । " हाटके टकटकायते" । ताँत बजाना, टन टन शब्द करना । "जब टकटकी-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि० टक) प्रभु कीन्ह धनुष टंकोरा "रामा। निनिमेष ठहरी या गड़ी हुई दृष्टि । मुहा० टँकोरना-स० क्रि० दे० (सं० टंकार) धनुष -टकटकी बाँधना (बँधना, लगाना) की ताँत या डोरी से शब्द करना, कमान ठहरी निगाह से देखना। के चिल्ले से शब्द करना। टकटोना-टकटोरना-स० कि० दे० सं० टॅगड़ी-संज्ञा, स्त्री० दे० हि० टाँग, सं० टंग) त्वक + तोलन ) टटोलना, खोजना। " पायो जाँघ से नीचे का भाग। नहिं श्रानन्द लेस मैं सबै देश टकटोये"टॅगना-प्र० कि० दे० (सं० टंगण ) ऊँचे । नाग० । “ टकटोरि कपि ज्यों नारियर से नीचे को लटकना, फाँसी पर लटकना सिर नाय सब बैठत भये"--उदे । भा० श. को०-१६ For Private and Personal Use Only Page #773 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir टकटोलना टकटोलना-स० क्रि० दे० ( सं० त्वक पैसे या आध पाना प्रति रुपया मासिक तोलन ) टटोलना, स्पर्श करना, छूना या व्याज की दर । दबाना, जाँचना, परीक्षा लेना, पता टकाही-संक्षा, स्त्री० दे० (हि० टका ) तुच्छ, लगाना । टकटोहना (ग्रा०)। नीच, कुलटा, छिनाल, हरजाई । टकही। टकराना--अ० क्रि० दे० (हि० टक्कर ) वेग टकुवा-टकुवा-संज्ञा, पु० दे० (सं० तक क) से भिड़ जाना, ठोकर लेना, मारा मारा चरखे में सूत कातने की नोकीली सलाख, फिरना, इधर-उधर व्यर्थ घूमना । स० क्रि० तकुवा (ग्रा०)। (दे०) एक चीज़ को दूसरी पर ज़ोर से | टकेत-टकैत-वि० दे० (हि० टका ) टके पटकना, भिड़ाना, लड़ाना। वाला, धनवान । टकसाल-टकसार-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० टकोर-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० टंकार ) थोड़ी टंकशाला) रुपये पैसे आदि बनाने का चोट, नगाड़े या डंके की महीन आवाज़, स्थान । मुहा०-टकसाल बाहर धनुष की ताँत का शब्द, शरीर में पोटली वह रुपया-पैसा जिसका चलन न हो, से सेकना, झाल (प्रान्ती०)। अप्रचलित, अनुपयुक्त शब्द या वाक्य, जाँचा टकोरना -स. क्रि० दे० (हि० टकोर) और प्रमाणीभूत। थोड़ी चोट पहुँचाना, नागड़े, डंके आदि का टकसाली-वि० दे० ( हि० टकसाल ) टक बजाना, पोटली से सेंकना। साल संबंधी, ठीक, खरा, चोखा, अफसरों टकोरा-संज्ञा, पु. ( हि० टकोर ) नगाड़े या ज्ञानियों द्वारा प्रमाणित, सर्वसम्मत, या डंके में प्राघात, जिसका शब्द महीन संशोधित । संज्ञा, पु० (दे०) टकसाल का हो, धौंसा । संज्ञा, पु० (दे० ) अँबिया, अधिकारी, स्वामी, टकसाल में काम करने छोटा प्राम। वाला । टकसालिया (दे०)। टकोना-संज्ञा, पु० दे० (हि० टका) अधनी, टकहाई-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि० टका-+ आई- दो पैसे। लो०-" एक टकौना, एकहु लैगा प्रत्य०) नीच, तुच्छ, कुलटा स्त्री, हरजाई । परे परे तू लेखा"। संज्ञा, पु० टकहा। टकौरी-संज्ञा, स्त्री० (दे०) छोटा काँटा टका-संज्ञा, पु० दे० (सं० टक) दो पैसे, (तौलने का)। प्रधना, कभी कभी दो रुपया, धन, “यस्य गृहे टक्कर-संज्ञा, स्त्री० दे० ( अनु० ठक ) टका नास्ति हाटके टकटकायते"-स्फु० । वेग से दौड़ने या चलने वाली दो वस्तुओं वि० टका पाले-(दे०) धनी। मुहा०- की ठोकर। मुहा०-टक्कर खानाटका सा जवाब देना-कोरा ( स्पष्ट ) | किसी बड़ी वस्तु से भिड़ कर चोट खाना, उत्तर देना। टका सा मुँह लेकर रह मारा-मारा फिरना । मुकाबिला, सामना, जाना-शर्मिन्दा या लज्जित हो जाना, लदाई, मुठभेड़ । मुहा०-टकर काखिसिया जाना। टके गज की चाल- समानता का। टक्कर खाना (लेना)धीमी या मीठी चाल, थोड़े खर्च में गुज़र । सामना करना, भिड़ना, बराबर होना, चोट धन, दौलत, रुपया पैसा । तीन तोले भर । सहना, ज़ोर से मस्तक मारने का धक्का । लो० टके की होड़ी गई तो गई कुत्ते की | मुहा० टक्कर मारना-वह उपाय जिस चाल जान ली"। का फल जल्द न हो, माथा मारना । टक्कर टकासी—संज्ञा, स्त्री० दे० (हि० टका ) दो लगाना-व्यर्थ किसी के यहाँ जाना। For Private and Personal Use Only Page #774 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir टखना टनाटन टक्कर लड़ाना-दूसरे के सिर पर सिर कुछ ढूढ़ने को हाथ या पैर इधर-उधर मार कर लड़ना, घाटा, हानि। रखना, बातों से दिल का हाल जानना, टखना-संज्ञा, पु० दे० ( सं० टंक ) एंडी के थाह लेना, अंदाज़ा या जाँच करना, परीक्षा, ऊपर उभड़ी हड्डी की गाँठ, गुल्फ | लेना, परखना। टगण-संज्ञा, पु. (सं० ) मात्रिक गणों में टटोन्न-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. टटोलना ) से एक गण ( पिं०)। टटोलने का भाव या उसकी क्रिया, छूना। टगर- संज्ञा, पु० दे० (हिं. तगर ) सुहागा, टट्टर-- संज्ञा, पु० दे० (सं० तट या स्थाता) तगर। बाँस की खपाचों से बना ढाँचा जो किवाड़ों टगरना- अ० क्रि० (दे०) डगरना, लुढ़कना, का काम दे, टट्टा। बहना, गिरना, टघरना, पिघलना। टट्टी-- संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० तटी या स्थात्री) टगरा--वि० (दे०) टेढा, बाँका, तिरछा, टटिया, द्वार के लिये बाँस की खपाचों से सरगपताली (ग्रा.)। बना ढाँचा । मुहा०-ट्टी की आड़ टगराना-स० कि० (दे०) घुसाना, डगराना, . (ोट ) से शिकार खेलना-छिप कर लुढ़काना, फिराना। कोई चाल चलना या बुराई करना। धोखे टघरना-टघलना अ० क्रि० (दे०) पिघ- का टट्टी-धोखा देने या हानि पहुँचाने लना, द्रवीभूत होना, घुलना, गलना, दिघ- वाली बात । चिक, पतली दीवाल, पाखाना। लना । (प्रे० रूप ) घराना-टघलाना- टट्ट-संज्ञा, पु० दे० ( अनु० ) छोटा घोड़ा, टघरवाना, टघलवाना। टाँगन (ग्रा०) । मुहा०-भाड़े (किराये) टचटच - क्रि० वि० दे० (हि० टचना ) भाग का टू-रुपया लेकर दूसरे का काम की लपट का शब्द, धक-धक या धॉय __ करने वाला। धाँय होना। टठिया-संज्ञा, स्त्री० (दे०) छोटी टाठी, थाली, टटका-वि० द० ( सं० तत्काल ) हाल का थरिया ( दे० )। ठुलिया ( ग्रा० )। तुरन्त का, नया, कोरा, ताज़ा । स्त्री० टटकी। टन-संज्ञा, पु० ( अनु० ) किसी धातु के टटडी-टटरी--संज्ञा, स्त्री० (दे०) घेरा, मेड़, टुकड़े पर चोट पड़ने का शब्द, टनकार। थाला, खोपड़ी, ठठरी, टट्टी, अरथी। (अं०) २८ मन की तौल ।। टटप जिया-वि० (दे०) थोड़ी पूंजी या | टनकना -अ० क्रि० ( अनु० टन ) टन टन थोड़े धन वाला। टुटपुजिया (ग्रा.)। शब्द होना, गरमी या धूप से सिर में दर्द टटलबटला-वि० दे० (अनु० ) ऊटपटांग । होना, ठनकना । टटिया-संज्ञा, स्त्री० दे० ( हि० टट्टी) अर- टनटन-संज्ञा. पु. ( अनु० ) घंटा श्रादि के हर या बाँस आदि की बनी टट्टी या परदा। बजने का शब्द । टटीधा-संज्ञा, पु० दे० ( अनु०) घिरनी, टनटनाना-स० कि० अ० ( अनु० ) टन टन चक्कर। शब्द होना, जोर से बोलना, बड़बड़ाना । टीहरी-- संज्ञा, स्त्री० (दे०) टिटीहरी । टनमना-वि० दे० (सं० तन्मनस् ) स्वस्थ, टटुआ-टुवा-संज्ञा, पु० (दे०) छोटा घोड़ा, चंगा, प्रसन्न । ट, गरदन, गला स्त्री० टटुई-टटुबानी। | टनाका-संज्ञा, पु. ( अनु०) ठनाका, घंटे टटोरना-दटोलना-स० क्रि० दे० (त्वक | या रुपये की आवाज़ । वि० कड़ी धूप । +तोलन ) किसी वस्तु की दशा जानने | टनाटन-संज्ञा, स्री० दे० ( अनु० ) देर तक को उसे अंगुलियों से छूना या दबाना, | होने वाला टन टन शब्द, ठनाठन (दे०)। For Private and Personal Use Only Page #775 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir टनाना टरकना - टनाना-स. क्रि० (दे०) फैलाना, तनाना, | पड़ना, सहायता करना, बिना सोचे-समझे पसारना, ज़ोर से बाँधना। किसी काम को उठा लेना। टप-संज्ञा, पु० दे० (हि. टोप) फिटन, टपरा--संज्ञा, पु० (दे०) छप्पर, झोपड़ा। टमटम आदि का सायवान जो इच्छानुसार क्रि० वि० (दे०) अधिक, पूर्ण । चढ़ाया या गिराया जाय, लटकाने वाले टपाटप-कि० वि० (अनु०) लगातार पानी लैंप की छतरी। संज्ञा, पु० दे० ( अनु०) आदि का टप टप शब्द करके या बूंद बूंद कर पानी आदि के टपकने का शब्द, एक बारगी के गिरना, शीघ्रता से एक एक कर पाना । ऊपर से गिरे हुये पदार्थ का शब्द । संज्ञा, टपाना-स. क्रि० दे० (हि. तपाना ) पु० दे० (अं० टब ) नाँद जैसा बरतन, खिलाये-पिलाये बिना ही पड़ा रहने देना, नवीन कर्ण-भूषण, मुर्गियों के बंद करने का व्यर्थ भरोसे में रखना । क्रि० वि० दे० (हि. बाँस का टोकरा। टपना) फाँदना, कूदना। टपक-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. टपकना) टप टप्पर-संज्ञा, पु० दे० (हि. छप्पर ) ठाठ, कने का भाव, बूंद बूंद गिरने का शब्द, रुक | छप्पर, टट्टर। रुक कर होने वाला दर्द, टीस । टप्पा-संज्ञा, पु० दे० ( हि० टाप) मार्ग में टपकना-अ० कि० दे० (अनु० टप टप) पड़ाव, टिकान, उछाल, कूद, फलाँग, नियत पानी आदि का बूंद बूंद गिरना, पाम आदि । दूरी, दो स्थानों का अन्तर, एक प्रकार का का पेड़ से गिरना, एक बारगी ऊपर से नीचे गाना ( ग्रा.)। आना, किसी भाव का प्रगट होना, झल. टब-संज्ञा, पु. ( अं० ) नाँद जैसा पानी कना, घाव आदि का ठहर ठहर कर दर्द रखने का बरतन । करना, चिलकना, टीस मारना । प्रे० रूप ट-बर-संज्ञा पु० (दे०) परिवार, गोत्र । टपकाना, टपकवाना। टभक-संज्ञा, स्त्री० (दे०) दर्द, पीड़ा, पानी टपका-संज्ञा, पु० दे० (हि० टपकना) पानी | में पानी गिरने का शब्द।। आदि के गिरने का भाव, टपकी वस्तु, श्राप टभकना-अ० कि० (दे०) चूना, टपकना, से श्राप गिरा पका फल प्राम, ठहर ठहर | घाव में दर्द होना। कर होने वाला दर्द । चीता जन्तु । टमकी-संज्ञा स्त्री० (दे०) डुगडुगिया । टपका-टपकी-संज्ञा, स्त्री० दे० यौ० (हि. टमटम-संज्ञा, स्त्री० दे० ( अं० टैंडम ) एक टपकना ) फुहार, हलकी झड़ी, पेड़ से पके हलकी खुली दो पहियों की घोड़ा-गाड़ी। फलों का लगातार गिरना । टमटी-संज्ञा, स्त्री० (दे०) एक बरतन । टपकाना-स० कि० दे० (हि. टपकना ), टमाटर-संज्ञा पु० दे० (अ. टोमैटेा) विलापानी आदि का बूंद बूंद गिराना, चुवाना यती बैगन । भबके से अर्क उतारना। टर-संज्ञा स्त्री० दे० (अनु०) दुखद या कर्कश टपजाना-अ० कि० (दे०) कूद पड़ना, शब्द, कड़वी बोली, टर्र (दे०) । मुहा०उछल जाना, भागे होना। टर टर करना ( लगाना)-ढिठाई से टपना-अ० क्रि० दे० (हि. टपना ) खाये- बोलते ही जाना, मेढ़क की बोली। कड़ी पिये बिना पड़े रहना, व्यर्थ के भरोसे पर बातें, ऐंठ, हठ । अ० क्रि० (दे०) टर्राना। बैठा रहना। टरकना-अ. क्रि० दे० (हि० टरना ) टल टप पड़ना- क्रि० (दे०) बीच में कूद जाना, हट या खिसक जाना। For Private and Personal Use Only Page #776 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org 6. टरकाना टरकाना - स० क्रि० दे० ( हि० टरकना ) हटाना, खिसकाना, टाल देना, भगा देना, चलता करना, धता बताना । टरटराना अ० क्रि० दे० ( हि० टर ) बक बक करना, ढिठाई से बोलना । दर्शना । टरना स० क्रि० दे० ( हि० टर० ) टलना संत दरस जिमि पातक टरई "" ७६५ हटना । रामा० । टराना - अ० क्रि० (दे०) हटाना, हटा देना टाल देना, भगा देना, दूर करना । रनि) - संज्ञा स्त्री० दे० ( हि० टरना ) टरने का भाव, क्रिया । ढीठ, दर्रा - वि० दे० ( अनु० ) टर्शने वाला, कटुवादी, उद्दंडता से लड़ने वाला । दर्शना- अ० क्रि० दे० ( अनु० टर ) ढिठाई और कठोरता से उत्तर देना । संज्ञा पु० पन, टरपन | टलना - ० क्रि० दे० (सं० टलन) सरकना, खिसकना, हटना, चला जाना। मुहा०अपनी बात से टलना - प्रण या प्रतिज्ञा का पूर्ण न करना । मिटना, रह न जाना, नियत समय का बीत जाना, किसी काम का न होना, किसी श्राज्ञा का न माना जाना । स० क्रि० टालना । प्रे० रूप० टलाना । टप - संज्ञा स्त्री० (दे०) छाँट, टुकड़ा, कतरन, भाग. खंड । टलमलाना - अ० क्रि० (दे०) डगमगाना, हिलना, ललचाना | संज्ञा, स्त्री० टलामली। लहा - वि० (दे०) खोटा माल ( सोनाचाँदी ) । खो० टलही । दलाली– संज्ञा स्त्री० (दे०) हीलेबाजी, बहाना, हीला हवाला । टालमटूल (दे० ) टलाना - स० क्रि० दे० ( हि० टलना ) हटवाना, लुकवा देना । टल्ला - संज्ञा, पु० (दे०) झूठ, बे काम । टल्ली - संज्ञा, पु० (दे०) एक प्रकार का बाँस । टल्लेनवीसी-संज्ञा स्त्री० यौ० (दे०) व्यर्थ रहलुआ का काम, निठल्लापन, बहाना बाज़ी, टालमटूल, हीलेबाज़ी । टवाई - संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० घटना == घूमना) व्यर्थं का घूमना, आवारगी, श्रावारा गरदी । -संज्ञा स्त्री० दे० ( अनु० ) किसी भारी चीज़ के हटने या खिसकने का शब्द | टस मुहा० टस से मस न होना - कुछ भी न हिलना, कहने-सुनने का प्रभाव न होना । दसक - संज्ञा स्त्री० दे० (अनु० टपकना ) ठहर कर होने वाला दर्द, टीस, कसक । टसकना - अ० क्रि० दे० (सं० टस + करण ) किसी स्थान से हटना, खिसकना, टलना, टीस मारना, कहने सुनने का प्रभाव पड़ना, कहना मानने को उद्यत होना । टसकाना - स० क्रि० दे० । ( हि० टसकना ) सरकाना हटाना, टालना । टसना - ० क्रि० (दे०) मसकना, टसर - संज्ञा पु० दे० ( सं० त्रसर ) घटिया, कड़ा और मोटा रेशम । फटना । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुनाई - संज्ञा पु० दे० (हि० अँसुश्रा) धाँसू । रहना - संज्ञा पु० (सं० तनः ) पेड़ की डाली ( स्त्री० अल्प ० ) टहनी । टहल - संज्ञा स्त्री० ( हि० टहलना ) सेवा, खिदमत | नीच टहल गृह की सब करिहौं”- - रामा० । यौ० - टहल-टकोर सेवा-सुश्रूषा, काम धंधा | टहलना - अ० क्रि० दे० (सं० तत् + चलन ) धीरे-धीरे या मंद-मंद चलना | मुहा०टहल जाना - टल या खिसक जाना । हवा खाने या जी बहलाने को शाम सुबह बाहर घूमना, सैर करना । ( प्रे० रूप ) टहलाना, टहलवाना | टहलनी - संज्ञा स्त्री० दे० (सं० टहल) दासी, दिया की बत्ती हटाने की लकड़ी । टहलुया - संज्ञा, पु० दे० (हि० टहल) दास, सेवक । टहलू (दे० ) । स्त्री० - टहलुई, टहलनी । For Private and Personal Use Only Page #777 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org रही ७६ टाप टही संज्ञा स्त्री० दे० (हि० घाल. घाट) स्वार्थ | टाँच-संज्ञा, त्रो० दे० ( हि० टाँकी ) परसाधने का ढंग, प्रयोजन - सिद्धि की घात, जोड़-तोड़ | संज्ञा, पु० (दे०) जन्मते बालक के रोने की ध्वनि । कार्य-नाशक बात या वचन, भाँजी मारना । संज्ञा, स्त्री० दे० (हि० टाँका) डोभ, सिलाई, टाँका, पैबंद लगाना, जड़ देना । टहूक, टहूका संज्ञा, पु० (दे०) पहेली, चुटकुला | - भटक टहोक-टहोका – संज्ञा, पु० (दे०) घूँसा, थप्पड़ | मुहा०—हांका देनादेना, ढकेलना । टोका खाना - धक्का या ठोकर खाना । । टाँक - संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० टंक) चार माशे की तौल, थाँक | संज्ञा, स्त्री० दे० ( हि० टीना) लिखावट, कलम की नोक । टांकना - स० क्रि० दे० (सं० टंकन) दो चीज़ों को जोड़ना, सीकर जोड़ना, चक्की आदि में दाँते बनाना, रेती पैनी करना, लिखना, मार लेना, अन्याय से छीन लेना । टाँका - संज्ञा, पु० दे० ( हि० टाँकना ) जोड़ मिलाने वाली चीज़, जैसे कील, काँटा, डोभ, सीवन, चिप्पी, घाव की सिलाई, धातु के जोड़ने का मसाला | टांकी - संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० टंक ) पत्थर काटने का हथियार, छेनी धातु आदि का पानी का बड़ा बरतन, टंकी । टाँकू - वि० दे० (हि० टाँका) टाँकने वाला | टांग - संज्ञा, स्त्री० दे० ( सं० ढंग ) जाँघ के नीचे का भाग, पिंडुली । मुहा० - टांग अड़ाना - - बिना अधिकार के काम में दखल देना, बाधा डालना । टाँग तले से ( नीचे से ) निकलना — हार मानना । टाँग पसार कर सोना - बे खटके सोना । टांगन - संज्ञा, पु० दे० (सं० तुरंगम ) छोटा घोड़ा ( पहाड़ी देशों, नेपाल, भूटान का ) । टाँगना- स० क्रि० दे० (हि० टँगना) लटकाना । टांगा - संज्ञा, पु० (सं० टंग) बड़ी कुल्हाड़ी | स्त्री० टांगी | संज्ञा, पु० ( हि० टँगना ) एक तरह की गाड़ी । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चना - स० क्रि० दे० ( हि० टाँच) टाँकना, सीना, काटना, छाँटना | टाँट | संज्ञा, पु० दे० ( हि० टट्टी) खोपड़ी | वि० (दे० अनु० ) टॉट-टांटा कड़ा, कठोर । टांड़ संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० स्थाणु) परछती, मचान, हाथों का गहना, टड़िया (दे० ) । टाँडा – संज्ञा, पु० (हि० टाड़ = समूह) वरदी, वनजारों का झुंड, वंश, कुटुम्ब, झींगुर । टाँडी - संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० टिट्टिभ) टिड्डी | टॉय-टॉय - संज्ञा, स्त्री० दे० ( अनु० ) दें दें टाँव-टाँव, कड़ा शब्द, तोते का शब्द, बकबाद | मुहा० - टांय टॉय फिसनिष्फल asवाद व्यर्थ आयोजन । टाट-संज्ञा, पु० दे० (सं० तंतु ) सन की सुतली का मोटा कपड़ा | मुहा०—- टाट में पाट को बखिया - वस्तु भद्दी और कम मूल्य की उसके साज-सामान सुन्दर और 'बहुमूल्य । बे मेल सामान, बिरादरी या उसका अंग, महाजनी गद्दी । मुहा० - टाट उलटना- दिवाला निकालना | टाट बाहर होना - जाति- च्युत होना । टाटर - संज्ञा, पु० दे० (सं० स्थातृ हो ) टहर, दट्टी, खोपड़ी । टाटिक टाटी - संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० तटी) बाँस की पाँचों का ढाँचा, टट्टी, टटिया । टान - संज्ञा, स्त्री० दे० ( सं० तान ) तनाव । टानना-स० क्रि० दे० तानना ( हि० ) । टाप संज्ञा स्त्री० दे० ( सं० स्थापन ) घोड़े के पैर का कड़ा नाखूनदार तलवा, सुम, घोड़े के पैरों का शब्द, मछली पकड़ने का = जो खड़ा बा, मुर्गियों के बंद करने का बाँस का टोकरा | For Private and Personal Use Only Page #778 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir टापना ৩৪৩ टिकाऊ टापना-अ० क्रि० (हि. टाप+ना-प्रत्य०) करना, धता बताना, टरकाना, फेरना, घोड़ों का पैर पटकना, किसी वस्तु के लिये पलटना। इधर-उधर फिरना, हैरान होना, उछलना, टालमटूल-टालमटोल-संज्ञा, स्त्री० दे० कूदना, फाँदना । मुहा०-टापते रह ! (हि० टालना ) बहाना, टालटूल । जाना-निराश हाथ मल कर रह जाना। टाली-संज्ञा, स्त्री० (दे०) जानवरों के गले टापा-संज्ञा, पु० दे० (सं० स्थापन ) ऊसर में बाँधने की घंटी, चञ्चल गाय या बछिया। या उजाड़ भूमि, उछाल, ढकने का झाबा, । टारी (दे०)। टोकरा । "आये टापा दीन"--- कबी। टाहला-संज्ञा, पु० दे० (हि. टहल) टापू-संज्ञा, पु. ( हि० टापा, टप्पा ) द्वीप । __सेवक, दास, मजदूर, टहली। टाबरा-संज्ञा, पु. दे० ( पंजाबी टब्बर ) | टिंड-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० टिडिश ) एक लड़का, बालक, कुटुम्ब । यौ० टोनाटाबर।। बेल जिसके फूलों की तरकारी बनती है। टामका- संज्ञा, पु० दे० (अनु०) डिमडिमी। टिकट-संज्ञा, पु. ( अ०) कर देने वाले टामन-संज्ञा, पु. (दे०) टोटका टोना, को रसीद के तौर पर देने का काग़ज़ का लटका, मंत्रयंत्र । टुकड़ा, रोज़गारियों पर लगाया गया महटार-अ० क्रि० (दे०) टाल कर, हटाकर । - सूल, टिकस, टिक्कस (दे०)। "सकै को टार टेक जेहिं टेकी "-रामा० । टिकटिकी--संज्ञा, स्त्री० दे० (हि० टिकठी) टारन-संज्ञा, पु० (दे०) टालना, उलंघन । तिपाई, ठठरी। टारना-स० कि० दे० (हि० टलना) टालना, टिकठी--संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० त्रिकाष्ठ ) तिपाई, टिकटी। हटाना। टारी-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. टार) दूर, टिकड़ा-संज्ञा, पु० दे० (हि. टिकिया) अंतर । वि० दे० ( हि० टलना ) टाल रोटी, बाटी, अँगाकड़ी, तीन बैलों की मटोल करने वाला । स० कि० दे० (हि. गाड़ी । स्त्री० अल्पा० टिकड़ी। टलना) टालना। " जो मम चरन सकहु सठ टिकना-अ० क्रि० दे० (सं० स्थित) ठहरना, टारी"-रामा० । रहना, मिट्टी आदि का पानी आदि के टाल-संज्ञा, स्त्री. (सं० अट्टाल ) ऊँचा तल में जम जाना, कुछ समय तक काम ढेर, लकड़ी या भूसे की दुकान, गंज । देना, भड़ना। संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. टालना ) टालने | टिकरी-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. टिकिया ) का भाव । संज्ञा, पु० दे० (सं० टार) कुटना, टिकिया, एक नमकीन पकवान । मैं डा। टिकली- संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. टिकिया) टालट्रल-संज्ञा, खो० दे० (हि. टालना ) छोटी टिकिया. छोटी बिंदी, सितारा। बहाना, टालमटूल । टिकुली (ग्रा०)। टालना-स० कि० (हि. टलना ) हटाना, टिकस- संज्ञा, पु० दे० (अ० टैक्स) महसूल। सरकाना, खिसकाना, दूर करना, भगा | टिकाई-संज्ञा, पु० दे० (हि. टीका ) युवदेना, मिटाना, दूसरे समय को ठहराना, राज । संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. टिकना) मुलतबी करना, समय बिताना, श्राज्ञा न टिकने का भाव । मानना, बहाना कर पीछा छुड़ाना, हीला- टिकाऊ-वि० दे० ( हि टिकना ) मज़बूत, हवाली या टाल-मटोल करना, झूठा वादा हक, कुछ समय तक ठहरने वाला। For Private and Personal Use Only Page #779 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir टिकान G+ टिमटिमाना टिकान-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि० टिकना ) टिटिहरी-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० टिटिभ, टिकने का भाव, पड़ाव, चट्टी। हि. टिटिह) जलाशयों के तट पर रहने टिकाना-स० क्रि० दे० (हि. टिकना) वाली एक छोटी चिड़िया, कुररी। ठहराना, बोझा, उठाने में मदद देना, देना | टिभि -संज्ञा, पु. (सं०) टिटिहरी, कुररी, ( कम या तुच्छ वस्तु )। टेकाना (दे०)। टिडी। स्त्री-टिटिभी। टिकाव-संज्ञा, पु. ( हि० टिकना ) ठहराव, टिडडा-संज्ञा, पु० दे० ( सं० टिटिभ ) एक स्थिरता, पड़ाव। छोटा परदार कीड़ा। टिकासर- संज्ञा, पु० (दे०)टिकने की जगह ।। टिडडी- संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० टिटिभ ) टिड्डा टिकासा-वि० (हि० टिकना) टिकने वाला, का सा उससे बड़ा परदार कीड़ा, टोड़ी। राही, बटोही। टिढ़बिडंगा- वि० दे० (हि. टेढ़ा+सं० टिकिया-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० वटिका ) किसी पदार्थ का गोल चिपटा छोटा टुकड़ा, वंक ) टेढ़ा-मेढ़ा । टेढ-बंगा । ग्रा०)। जैसे औषधि कोयले या मिठाई का । टिपका-संज्ञा, पु० दे० ( हि० टिपकना ) टिकुरा-संज्ञा, पु० (दे०) टोला, भीटा।। बूंदी, बूंद। टिकुली-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. टिकिया ) | टिप-टिप-संज्ञा, स्त्री० ( अनु० ) पानी बंदी, सितारा, चमका ।। आदि का बूंदों गिरने का शब्द । टिकैत-संज्ञा, पु० दे० (हि. टोका + ऐत | टिपवाना-स० क्रि० दे० (हि. टीपना) -प्रत्य० ) युवराज, अधिष्ठाता, सरदार।। टीपने का काम दूसरे से कराना। टिकोरा-संज्ञा, पु० दे० (सं० वटिका ) टिपारा-संज्ञा, पु० दे० (हि. तीन-+फा. अम्बिया, छोटा कच्चा प्राम।। पारः खंड ) मुकुट जैसी एक टोपी, ढक्कनटिक्कड़-संज्ञा, पु० दे० (हि. टिकिया) छोटी दार डलिया । टेपारा (दे०)। मोटी रोटी, बाटी, अंगाकड़ी, अंकरी। टिप्पणी, टिप्पनी-संज्ञा, स्त्री० (सं०) सरल टिक्का-संज्ञा, पु० दे० (हि० टीका सं० तिलक) | और संक्षिप्त टीका या तिलक । पु० टिप्पण। तिलक, टीका। टिप्पण-संज्ञा, पु. द० (सं०) सरल और टिक्की-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. टिकिया ) संक्षिप्त टीका या तिलक, व्याख्या, टिकिया, बाटी, अंगाकड़ी। संज्ञा, स्त्री० (हि. जन्म-कुंडली टिप्पन । टिपना, टीपना टीका ) टिकुली, वेंदी, ताश की बंदी। (ग्रा.)। टिघलना-अ० क्रि० दे० ( सं० प्र+ टिप्पस-संज्ञा, स्त्री० (दे०) युक्ति, प्रयोजन गलन ) पिघलना, द्रवीभूत होना, गल या सिद्धि का ढंग या डौल । घुल जाना। | टिभाना-स० क्रि० (दे०) लालच देना, प्रति टिचन-वि० दे० ( अ० अटेंशन ) दुरुस्त, दिन थोड़ी थोड़ी वृत्ति देना । तैयार, उद्यत, प्रस्तुत। टिभाव-संज्ञा, पु० (दे०) प्रतिदिन थोड़ी टिटकारना-स० क्रि० दे० (अनु०) टिकटिक सी जीविका, लालच मात्र की वृत्ति । कर पशुओं को हाँकना या चलाना । टिमटिम-संज्ञा, पु० दे० (सं० तिम= शीतल संज्ञा, स्त्री० टिटकारी। होना ) मन्द वृष्टि, धीमे धीमे जलना । टिटिह-टिटिहा-संज्ञा, पु० दे० ( सं० टिमटिमाना-अ० क्रि० दे० (सं० तिम= टिटिभ ) टिटिहरी (पुरुष)। । ठंढा होना ) दिया का धीरे जलना, बुझने For Private and Personal Use Only Page #780 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir टीला टिर-टिर के समीप दीप-दशा, झिल-मिलाना, मरणा- टीका-संज्ञा, पु० दे० ( सं० तिलक ) तिलक, सन्न होना, धीमे धीमे चमकना (तारा)। फलदान ( व्याह ), भौहों के बीचों बीच, टिर-टिर्र-संज्ञा, स्त्री० दे० ( अनु० ) ऐंठ, मस्तक का मध्य भाग, शिरोमणि, श्रेष्ठ, अकड़, हठ, जिद्द, ट। राज्य-तिलक, युवराज, स्वामी या अधिपति टिरफिस-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. टिर+ होने का चिन्ह, मस्तक का गहना, किसी फिस ) श्राज्ञा न मानना, ढिठाई, चींचपड़ बीमारी का टीका, जैसे चेचक या प्लेग का विरोध । टीका । स्त्री० किसी वाक्य या पुस्तक का टिरीना-अ० क्रि० दे० (अनु० टिर) टर्राना, पूरा अर्थ, व्याख्या, टिप्पणी । “सोई कुल ढिठाई से कड़ा जवाब देना । वि०-टिरी उचित राम कह टीका"---रामा०। ढीठ, पृष्ट । टीकाकार- संज्ञा, पु० (सं०) किसी ग्रंथ का टिलटिलाना --स० क्रि० दे० (अनु०) किसी विवरण, व्याख्या, अर्थ या तिलक का पुरुष को चिढ़ाना, छेड़ना, दस्त आना। करने वाला। टिलिया--संज्ञा, स्त्री० (दे०) छोटी मुर्गी, टीकैत-वि० (दे०) तिलक या टीक विशिष्ट, मुर्गी का बच्चा। तिलक-युक्त ग्रंथ या राजा आदि, नाथद्वारे टिलूषा-संज्ञा, पु० (दे०) चिरौरी करने या के गोस्वामी जी की पदवी। फुसलाने वाला, खुशामदी। टीटली संज्ञा, स्त्री० (दे०) एक औषधि । टिल्ल -संज्ञा, पु० दे० (हि. टीला, टेलना) टीड़ी- संज्ञा, स्त्री० दे० (हि० टिड्डी) टिड्डी । टीन-संज्ञा, पु० दे० (अ० टिन) एक धातु । टीला, धक्का, बहाना, धोखा। टिल्लेनवीसी-संज्ञा, स्त्री० दे० यौ० (हि. टीप-संज्ञा, स्त्री० दे० ( हि० टीपना ) दबाव, टिल्ला--- नवीसी फा० ) हीला-हवाली, दाब, चूने की गच कूटने का काम, भारी और भयंकर शब्द, टकार, पंचमस्वर का बहाना-बाजी, धोखे-बाज़ी। आलाप (संगो०), शीघ्र लिखने की क्रिया, टिसुपा-टिसुवा-संज्ञा, पु० दे० ( सं० टाँक लेने की क्रिया, तमस्सुक, जन्मपत्र, अनु० ) आँस, (दे०) टेसू पलाश, ढाक। दर्जाबंदी "देन को कुछ नहीं ऋणी हौं टिहुनी-संज्ञा, स्त्री० दे० ( सं० पुंठ, हि. मासों टीप लिखाउ"-गीता। घुटना ) घुटना, कोहनी। टीपन-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. टीपना) जन्मटिहुकना-अ० कि० (दे०) चौंकना, झझ पत्र, टिपना (दे०) टेवा ( प्रान्ती०)। कना, क्रोधित होना। टीपना-स० कि० दे० (सं० टेपन) किसी टिहूका-संज्ञा, स्त्री० (दे०) चौंकने की वस्तु को दबाना या चांपना, धीरे धीरे क्रिया का भाव, चौंक, झिझक, क्रोध । । ठोंकना, उड़ा, या चुरा लेना। स० क्रि० टीट-टीटू-संज्ञा, पु० (दे०) करील का फल । | (सं० टिप्पनी) लिखना, टाँकना। टीडसी- संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. टिंड ) एक टीबा-संज्ञा, पु० (दे०) टीला, भीटा । बेल जिसके फूलों की तरकारी बनती है। | टीमटाम--संज्ञा, स्त्री० दे० ( अनु० ) श्रृंगार, टिंडस (दे०)। .. सजावट, बनाव। टीक-संज्ञा, स्त्री० द० (सं० तिलक) मस्तक | टील-संज्ञा, स्त्री० (दे०) छोटी मुर्गी, टिलिया। और गले का एक गहना, चोटी, टीका। टीला-संज्ञा, पु० दे० सं० अष्टीला) भीटा, टीकना-स० क्रि० दे० (हि० टीका ) तिलक | ऊँचा भूखंड, मिट्टी का ऊँचा ढेर, धुस, या टीका लगाना, चिन्ह या रेखा बनाना।। छोटी पहाड़ी। भा० श. को०-१७ For Private and Personal Use Only Page #781 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org टीस ७७० टूटना टीस - संज्ञा, स्त्री० दे० ( अनु० ) कसक, | टुटरु – संज्ञा, पु० दे० ( अनु० ) थोड़ी चमक, रह रह कर होने वाली पीड़ा । टीसना - अ० क्रि० दे० (हि० टीस) कसकना, चमकना, चसकना, रह रह कर दर्द होना । टुंडा टुंडा - वि० दे० (सं० सुंड ) हूँठा पेड़, लूला, लुंजा पुरुष । ( स्त्री० टुंडी ) । टुंइयाँ संज्ञा, स्त्री० (दे०) तोते की एक छोटी जाति, छोटा तोता, तोती । टुक - वि० दे० (सं० स्तोक ) रंच, तनिक, थोड़ा, रेचक, नैसुक, नेक, नैक ( ० ) । टुकड़गदा - संज्ञा, पु० यौ० दे० ( हि० टुकड़ा + गदा फ़ा० ) टुकड़े माँगने वाला भिखारी, मंगता । वि० तुच्छ कंगाल | संज्ञा, स्त्री० टुकड़गदाई, टुकड़खोर । टुकड़तोड़ - संज्ञा, पु० दे० ( हि० ) दूसरे पुरुष के टुकड़े खाकर जीवन निर्वाह करने वाला पुरुष, निकम्मा, टुकदखोर । टुकड़ा - संज्ञा, पु० दे० ( सं० स्तोक ) खंड, श, भाग, टूका, रोटी का थोड़ा भाग । स्रो० अल्पा० टुकड़ी। " देवे कौ टुकड़ा भलो " – तु० । मुहा० - दूसरे का टुकड़ा तोड़ना - परदत्त भोजन पर जीवन व्यतीत करना । टुकड़ा मांगना -- भिक्षा माँगना । टुकड़े का मोहताज होनामहा दीन होना । टुकड़ा सा जवाब देना - खुल्लम खुल्ला इनकार करना, कोरा जवाब देना । टुकड़ी - संज्ञा, स्त्री० दे० ( हि० टुकड़ा ) बहुत छोटा टुकड़ा, झुंड, समुदाय, मडली । टुकसा - वि० दे० ( हि० टुक ) जरासा, थोड़ा सा, नैसुक, रंचक | टुच्चा - वि० दे० ( सं० तुच्छ ) नीच, तुच्छ, हलका | संज्ञा, पु० टुच्चापन-टुच्चई । टुटका - सज्ञा, पु० दे० (सं० त्रोटक ) टोटका, मंत्र-यंत्र | टुटपुंजिया वि० यौ० दे० ( हि० टूटी + जी) जिसके पास व्यापार के लिये अल्प नया पूँजी हो । ܘ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पूँजी या धन । टुटरू हूँ - वि० दे० ( अनु० ) अकेला, कमजोर, दुर्बल, निर्बल, पंडुकी का शब्द | टुनगा) – संज्ञा, पु० दे० (सं० तनु + अ ) पतली टहनी का अग्र भाग या खंड, फुनगी । स्त्री० टुनगी । टुपकना - 1- अ० क्रि० दे० ( अनु० ) धीरे से काटना या डंक चुभाना, चुगुली करना । दुरी - संज्ञा, पु० (दे०) कण, डली, छोटा सा खण्ड, जुधार का कड़ा भुना दाना । ट्रुसकना टुसुकना- - अ० क्रि० (दे०) सिसकना, विलखना, रोना, क्रोधित होना । दुसनाना - अ० क्रि० (दे०) लालच करना, सिहाना | ट्रेंगना - अ० क्रि० दे० ( हि० दुनगा ) दुगना चुगना, थोड़ा थोड़ा धीरे धीरे खाना । ढूँड - संज्ञा, पु० दे० ( सं० तुंड) छोटे कीड़ों का डंक, जवा, गेहूँ श्रादि के सींकुर, सींग, शृंग । ( स्त्री० अल्पा० दूँडी ) । दूँडी - संज्ञा, स्त्री० दे० " ( सं० तुंड ) छोटा सातुंड ढोंदी, नाभी, लम्बी नोक । ट्रक - संज्ञा, पु० दे० (सं० स्तोक ) खंड, भाग, टुकड़ा । “घर घर माँगे टूक पुनि"-- तु० ट्रक टूक है है मन मुकुर हमारो हाय " - ऊ० श० । टूकर - संज्ञा, पु० दे० ( हि० टूक ) टुकड़ा, भाग, खंड टुकरा (ग्रा० ) 1 टूका - संज्ञा, पु० दे० ( हि० टूक ) टुकड़ा, भाग, खंड, रोटी का भाग, भिक्षा । टूट - संज्ञा, स्त्री० दे० ( हि० टूटना सं० त्रुटि ) टुकड़ा, भाग, खंड, टूटने का भाव, भूल से लिखने को रह गया वाक्य, शब्द या तर, भूल, ग़लती | संज्ञा, पु० टोटा, हानि, घटी, क्षति, घाटा | टूटना - अ० क्रि० (सं० त्रुटि) खंड खंड या टुकड़े टुकड़े होना, खंडित या भंग होना, सिलसिला बंद होना, किसी ओर एकाएक, " For Private and Personal Use Only Page #782 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ७७१ टेकाना वेग से जाना, एकाएक बहुत से लोगों का टेंटर संज्ञा, पु० दे० (सं० तुड) आँख में श्रा जाना, पिल पड़ना, हमला करना, उभरा हुआ मांस पिंड, टेंट, टेंढर (ग्रा०)। झपट पाना, वेग और पातुरता से लग टेंटी-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. टेंट) करील । जाना । मुहा०-टूट टूट कर बरसना- संज्ञा, पु० (अनु० टेंटें) झगड़ालू. तकरारी । मूसलाधार बरसना । एकाएक धावा मारना | टेंटुवा, टेटुवा-संज्ञा, पु० (दे०) गला।। या कहीं से श्रा जाना, किसी से अलग, टॅडसी-संज्ञा, स्त्री० (दे०) एक बेल जिसके सम्बन्ध छूटना, दुबला या निर्धन होना, फूलों की तरकारी बनती है, टिंडसर । बंद होना, किला खो जाना, घटी पड़ना, | टेउको-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. टेक ) थूनी, देह में ऐंठन या दर्द होना।। छोटा काठ का खंभा। टूटा-वि० दे० ( हि टूटना) भग्न, खंडित। टेउना-संज्ञा, पु. (ग्रा० ) अस्त्रादि टेने मुहा०-टूटी फूटी बात या बोली, | की चीज़ । भाषा-असंबद्ध या अस्पष्ट वाक्य, बे- टेक-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. टिकना) थूनी, मुहाबिरा भाषा, निर्बल, कंगाल । संज्ञा, थम, सहारा, ऊँचा टीला, मन में बैठी पु० दे० (हि. टोटा ) घटी, हानि । बात, हठ । “सकै को टारि टेक जिहि टूठना--अ० क्रि० दे० ( सं० तुष्ट प्रा. तुह) टेकी"-रामा० । मुहा०-टेक निबासंतुष्ट, होना। हना-प्रण पूरा करना । टेक पाड़ना टूठनि-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. टूठना ) ! (गहना)- हठ, या ज़िद करना । स्वभाव, संतोष, तुष्टि, संतुष्टि । गीत का प्रथम स्थायी पद। टूम---संज्ञा, स्त्री० दे० (अनु० टुन टुन) भाभ टेकना-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. टेक) भाड़, रण, ज़ेवर, गहना । यो०-ट्रमटाम थाँभ, टेक, सहारा । स्त्रो० टेकनी। गहना-गुरिया, गहना कपड़ा, बनाव, सिंगार, टेकना-स० क्रि० दे० (हि. टेक) सहारा, ताना, व्यंग। लेना, भाड़ पकड़ना, थामना, लेना, ठहराना, ट्रमना-स० क्रि० दे० (अनु०) झटका या लेना । मुहा०-माथा टेकना-प्रणाम धक्का देना, ताना मारना । करना । किसी वस्तु को सहारा के लिये ट्रसा-संज्ञा, पु० (दे०) मदार का फल, कुशा पकड़ना, हाथ आदि का सहारा लेना, हठ करना, बीच में रोकना या पकड़ना । की जड़, पेड़ों की कोंपल, फली, अंकुर । टेकरा- संज्ञा, पु० (हि. टेक) टीला, पहाड़ी। स्त्री० टूसी। टिकुरा (प्रा.), स्त्री. अल्पा० टेकरी । ट, टेंटें- संज्ञा, स्त्री० दे० ( अनु० ) तोते की टेकला-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. टेक ) हठ, बोली । मुहा०-₹ ₹ करना-व्यर्थ धुनि। बकबक करना, तकरार करना । ₹ हो टेकान-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. टेकना) जाना या बोलना--शीघ्र मर जाना। द्वार या छत के नीचे धाड़ या सहारे के टंगना-टेंगरा-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० तुंड) वास्ते खड़ी की हई लकड़ी आदि. टेक, एक मछली, इमली का लंबा फल । थूनी, थंभ, सहारा। टेंट-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. तट+ऐठ) | टेकाना-स० कि० दे० (हि. टेकना ) किसी धोती की मुरीं । संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० तुड) पदार्थ से उठने-बैठने में सहारा लेना, कपास का फल या डोंड़ा, आँख का उभरा किसी पदार्थ को ले जाने में किसी दूसरे हुआ मांस-पिंट, टेंटर (ग्रा.)। | को थामना, पकड़ना। For Private and Personal Use Only Page #783 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir टेकी टोकना टेकी-संज्ञा, पु० (हि. टेक ) अपनी प्रतिज्ञा ! टेबुल-संज्ञा, पु. (अं०) मेज़, डेस्क, सूची, या प्रण पर स्थिर या दृढ़ रहने वाला, हठी। (टाइम-टेबुल )। टेकुवा-टेकुवा- संज्ञा, पु० दे० (सं० तर्कुक) टेम--संज्ञा, स्त्री० (हि० टिम टिमाना ) दिया चरखे का तकुला, तकुत्रा (ग्रा० )। की लौ, ज्योति, या चोटी, दीपशिखा । टेकुरा-संज्ञा, पु. (दे०) पान, ताम्बूल। संज्ञा, पु० दे० (अ० टाइम) समय, टैम (दे०)। टेकुरी-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. टेकुआ ) रस्सी टेर-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० तार) पुकार, हाँक, बटने या सूत कातने का तकुला, चमारों ज़ोर से बुलाना, गुहार । "गज की टेर सुनी के तागा खींचने का सूत्रा. गले का गहना। रघुनन्दन ".- स्फु० । टेघरना-अ० क्रि० (दे०)पिघलना, टिघलना। टेरना-स० कि० दे० (हि.) पुकारना, हाँक द्रव होना, टघरना (ग्रा० )। | लगाना, चिल्ला कर पुकारना, बुलाना, टेटका- संज्ञा, पु० दे० (सं० ताटंक ) कर्ण- गुहारना (व.) गुहराना (दे०)। भूषण, ढाएँ । वि०-टेढ़ा। टेरी-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि.) पतली डाली। टेडा-संज्ञा, पु० (दे०) पेड़ी, एक चर्खा । टेव-व-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. टेक) स्वभाव, टेढ़-संज्ञा. पु० दे० (सं० तित्सू ) वक्र, प्रकृति, बान, आदत । “जाको जैसी टेंव टेदा । " टेढ़ जानि संका सब काहू "- परी री"--- सूर० । रामा० । यौ०-टेढ़बंगा-टेद-मेढ़। टेवना-वना ---स० कि० दे० ( हि० टेना) टेढविडंगा-वि० ( हि० टेड़ा --बेढंगा ) पैना करना, धार निकालना, टेना, हथियार टेदा-मेढा । यो०-टेदक-मेढ़क (ग्रा.)। पैना करने का पत्थर, टेउना (ग्रा०)। टेढ़ा-वि० दे० (सं० तिरस् ) कुटिल, वक, ! टेवा-संज्ञा, पु० दे० (सं० टिप्पन ) जन्मकठिन, पेंचदार । टेढ, टेदक (ग्रा०) ( स्त्री. कुंडली, जन्म-पत्र, टिपना (प्रान्ती०) टेढ़ी) य-टेढ़ा मेढ़ा । संज्ञा पु०- टपैया-संज्ञा, पु० दे० (हि. टेना) पैना करने टेढ़ापन, स्त्री. टेढ़ाई । मुहा०-टेढ़ी वाला. टेने वाला। खीर-कठिन कार्य । कुशील, मूढ़, उद्धत, टेसू-संज्ञा, पु० दे० (सं० किंशुक) ढाक, पलाश, उजड्ड । टेढ़ी चाल-कुमार्ग, दुष्टता, " टेसू फूले देखिकै समुझी लगी दवागि" दुराचार । मुहा०-टेढ़ा पड़ना या स्फु० । होली का एक उत्सव, उस समय होना-बिगड़ना, टर्राना, अकड़ना, अकड़ का गीत । जाना। टेढ़ी-सीधी सुनाना ( सुनना) टेहरा-संज्ञा, पु० (दे०) छोटा गाँव, पुरवा । बुरा-भला कहना (सुनना) मुहा०- टैक्स-संज्ञा, पु. (अ.) कर, महसूल, टेढ़े टेढ़े जाना-इतराना, घमंड करना।। टिकस, टिकस (ग्रा० )। " प्यादा तें फरजी भयो, टेढ़े टेढ़े जाय" टैया-टैयाँ-संज्ञा, स्त्री. (दे०) एक तरह -रही। की कौड़ी, अतिगोलक, आँख का गोल टेना-स. क्रि० (हि. टेवना) किसी लोहे मांस-पिंड । के हथियार को पैना करने के लिये पत्थर टोंक-टोंका - संज्ञा, पु० दे० (सं० स्तोक = श्रादि पर रगड़ना, मूछों को ऐंठना. मूछों थोड़ा) किसी वस्तु का किनारा, सिरा, कोना, पर ताव देना - संज्ञा, पु. टेउना (ग्रा.)। नोक । स्त्री० रोक । यौ०-रोक-टोक । "कपट छुरी जनु पाहन टेई "-रामा० । टोंकना-स. क्रि० दे० (हि. टोंक) किसी टेनी-संज्ञा, स्त्री० (दे०) छोटे डील का पुरुष को कुछ करने से मना करना, रोकना, पूछपा स्त्री, छोटी छड़ी। ताँच करना, छेड़ना। For Private and Personal Use Only Page #784 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir होकना ७७३ टोला टोंकना-स० कि० दे० (सं० टंकन) चुभोना, टोनहा-वि० दे० (हि. टोना) टोना-टोटका उलाहना, ताना, उपालम्भ । करने वाला, जादूगर, टोनहाया । (स्त्री. टोटा-संज्ञा, पु० दे० ( सं० तंड) लोटे में टोनही टोनहाई, टोनहाइन, टोनहिन)। पानी गिराने की नली ( स्त्री० टोंटी)। | टोना-संज्ञा, पु० दे० ( सं० तंत्र ) तंत्र-मंत्र, टोका-संज्ञा, स्त्री० दे० ( सं० स्तोक ) टोकने | जादू, टोटका, वैवाहिक गीत । संज्ञा, पु. का भाव । यो०- रोक-टोक - मनाही, । (दे०) एक शिकारी पक्षी । - स० कि. रोक-टोंक, निषेध । दे० (सं० त्वक् + ना ) टटोलना, टोहना, टोकना-स. क्रि० दे० ( हि. टोक ) मना खोजना, छूना । करना, रोकना, निषेध करना। संज्ञा, पु० टॉप-संज्ञा, पु० दे० (हि. तोपना = ढंकना) (दे०) झाबा, टोकरा, झौवा ( ग्रा० )। बड़ी टोपी, हैट ( अं० ) लोहे की टोपी, डला. बड़ी डलिया, हंडा । (स्त्री० टोकनी)। (युद्ध में ) खौद. फँड, ग़िलाफ। -संज्ञा, टोकरा-संज्ञा, पु० ( दे०) झाबा, टोकना, पु. ( अनु० टप ) पानी श्रादि की बूंद । डला, खाँचा । ( स्त्री. टोकरी ) डलिया, टोपा-संज्ञा, पु० दे० ( हि० टोप) बड़ी टोकनी। टोपी, कनटोप, (ग्रा.), कान सिर आदि टोकारा- संज्ञा, पु० दे० (हि. टोक ) साव- ढाँकने की टोपी। -संज्ञा, पु० (हि. तोपना) धानी या चितावनी या याददहानी के टोकरा, झाबा। लिये कथन । “दै टोकारा तोहिं राधे हौं टोपी-संज्ञा, स्त्री० दे० ( हि. तोपना ) छोटा जताये देति"। टोपा. राजमुकुट, बन्दूक के घोड़े का खोल टोकाटोकी-संज्ञा, स्त्री० (दे०) छेड़-छाड़। या पड़ामा, बाज आदि शिकारी पक्षियों रोक टोंक, पूंछ-ताँछ। की आँखों का पर्दा । टोटका-संज्ञा, पु० दे० ( सं० त्रोटक ) मंत्र- टोपरा-संज्ञा, पु. ( दे. ) टोकरा, दौरा, यंत्र, टोना टम्बर । मुहा०-टोटका करना डलवा । (स्त्री० अल्पा० ) टोपरी-टोकरी, अहितकारी कार्य या अपशकुन करना। दौरी, खचिया। मुहा०-टोटका करने आना-पाकर टोभ-संज्ञा, पु० दे० (हि. डोभ ) टाँका, तत्काल चले जाना। डोभ (ग्रा.)। टोटकहाई - संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. टोटका ) टोरी. संज्ञा, स्त्री० ( दे. ) कटारी, कटार । टोटका करने वाली. जदूगरनी टोकिहाई। टोरना-स० क्रि० दे० (सं० त्रुटि) तोड़ना। टोटा-संज्ञा, पु० दे० (सं० तुंड ) टुकड़ा. मुहा०-आँख टोरना-शर्म से आँख भाग. कारतूप | संज्ञा, पु० दे० (हि० टूटना) हटाना। क्षति, घटी, हानि । टोरा-टोड़ा-संज्ञा पु० ( दे०) छप्पर आदि टोडरमल-संज्ञा, पु० (दे० ) अकबर बाद- के साधने वाले काठ के टुकड़े । स्त्री टोरी। शाह के मंत्री ये अपने धर्म के बड़े पक्के थे। टोरी-संज्ञा पु० दे० ( सं० तुवर ) छिलका भूमि और लगान व्यवस्थापक मंत्री, मुड़िया- सहित अरहर का दाना, रवा । लिपि प्रवर्तक थे। टोल- संज्ञा स्त्री० दे० ( सं० तोलिका ) मुंड, टोडी-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० त्रोटक ) एक समुह, मंडली, पाठशाला । स्त्री० टोली। रागिनी, नाभी या तोंदी। टोला-ज्ञा पु० दे० ( सं० तोलिका = घेरा, टोनवा-संज्ञा, पु० (द०) बाज़ पती, टोटका, घाड़ा ) (स्त्री० टेलिका, टेली) महला, पुरा, टोना। J थोक, रोहा, ट्वाला (प्रा.)। For Private and Personal Use Only Page #785 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ठकठकिया. टोली ७७४ टोली-संज्ञा स्त्री० दे० (सं० तोलिका ) छोटा टोहाटार-संज्ञा पु० यौ० ( दे०) चीजों का टोला, महल्ला, थोक, मुंड, समूह, पत्थर इधर उधर करना । टौहाटार टउहाटार की वर्गाकार चट्टान, सिल, बाँस-भेद । (ग्रा.) टोवना-स० कि० दे० (हि. टोना) मंत्र,यंत्र टोहिया-संज्ञा पु. ( हि. टार ) खोजी, या तंत्र का प्रयोग करना, टटोलना, छूना। अन्वेषक, गवेषक। टोह-संज्ञा स्त्री० ( दे० ) खाज, पता, अनु. टोही-वि० (हि. टाह) खोजी, पता लगाने संधान । वाला। टोहना–स० कि० दे० (दे०) पता लगाना, टोरना स० क्रि० दे० ( हि. टेरना ) जाँच खोजना, अनुसंधान या अन्वेषण करना, परताल करना, थाह लेना, पता लगाना । हूँदना, टटोलना। ट्रॅक-संज्ञा पु. (म०) लोहे या टोन का सन्दुक । टोहाटाई-संज्ञा स्त्री० (दे०) छानवीन, तलाश, ट्रेन संज्ञा स्त्री० (अ० ) रेलगाड़ी के सम्मिजाँच पड़ताल। लित कई डब्बे । ठ-संस्कृत और हिन्दी की वर्ण-माला के सुख-शान्ति से, चुपचाप, पाराम याप्रसन्नता टवर्ग का दूसरा वर्ण । संज्ञा पु० (सं० ) से। मुहा०-ठंढा होना-मर जाना, महादेव, भारी शब्द या ध्वनि, चन्द्र मंडल, दीपक बुझ जाना । (दिमाग ) ठंढा होना शून्य स्थान । (करना) गर्व या शेखी दूर होना (करना), ठंठ- वि० दे० (सं० स्थाणु) हूँग, सूखा वृक्ष । ताजिया ठंढा करना-ताज़िया दफ़न ठंठार-वि० दे० (हि. ठंठ ) खाली, शून्य, करना, गाड़ना । (किपी पवित्र और रीता। प्यारी चोज को ) ठंढा क'ना--उस ठंढ-संज्ञा स्त्री० दे० ( हि० ठंडा ) सरदी, वस्तु को फेंक देना या तोड़-फोड डालना । जाड़ा, शीत। ठंढाई- संज्ञा स्त्री० दे० ( हि० ढंढा ) देह की ठंढई-संज्ञा स्त्री० दे० ( हि० ठंढा ) शरीर में गर्मी शान्ति कर ठंढक देने वाली औषधियाँ । ठंढक लाने वाली औषधियाँ, जैसे धनिया, ठई-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि० ठानना ) ठानी, सौंफ आदि, ठंढाई। ठहराई । “काह विधाता ने यह ठई"ठंढक-संज्ञा स्त्री० दे० ( हि० ठंढा ) जाड़ा. __ लल्लू । "जैसी कुबुद्धि ठई उर मैं"-रामा० लल्लू० । "जैसी सरदी, शीत, तृप्ति, प्रसन्नता, शान्ति । | ठक-संज्ञा, स्त्री० दे० (अनु० ) दो पदार्थों ठंढा-वि० दे० (सं० स्तब्ध) सर्द, शीतल । के टकराने का शब्द. ठोंकने की आवाज़ । (स्त्री० ठंढी)। मुहा०-ठंढी सांस वि०-भौचक्का, अचंभित । दुख और शोक से भरी सांस । ठंडे दिल ठक ठक-संज्ञा, स्त्री० दे० (अनु०) बखेड़ा, से-शान्तिपूर्वक, भावावेश-रहित । बझा झगड़ा, झमेला, झझट । हुप्रा. शांत । मुहा०-ठंढा करना - क्रोध | ठकठकाना- स० कि० दे० ( अनु० ) किसी मिटाना या शान्त करना, धैर्य देकर शोक | वस्तु को ठोंकना, पीटना, खटखटाना । मिटाना । धीर, गंभीर, निरुत्साह, सुस्त, | ठकठकिया-वि० दे० (अनु० ठक ठक ) उदास । मुहा०-ठंढे ठंढे-बिना खरखसे, झगदाल, बखेदिया। For Private and Personal Use Only Page #786 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ठकठेला ठकठे ता-संज्ञा, पु० (दे० ) धक्काधक्की टंटा - बखेड़ा | झगड़ा, ठकठौ ठकठोवा-संज्ञा, स्त्री० ( दे० ) डोंगी, पनसुइया ( प्रा० ) करताल, भिखारी का एक बाजा । ठकुरई -संज्ञा, स्त्री० दे० (हि० ठाकुर) प्रभुत्व, बड़प्पन, अधिकार, ठकुरी, राज्य, ठकुराईक्षत्रियत्व, श्रातंक | ७७५ ܙܙ ठकुर - सुहाती - संज्ञा, स्त्री० द० यौ० ( हि० ठाकुर + सुहाना ) स्वामी को प्रसन्न करने वाली मुँह देखी बात, लल्लोचप्पो ( ग्रा० ) । कहहिं सचिव सत्र ठकुरसुहाती (6 रामा० । 44 13 -राम० । 66 ठकुराइत, ठकुरायत—संज्ञा, स्त्री० यौ० (हि० ठाकुर + श्राइत - प्रत्य० ) प्रभुत्व, राज्य, श्राधिपत्य | ठकुराइस ( ग्रा० ) जेहिकी ठकुita aataraf ठकुराइन. ठकुरानी--संज्ञा, स्त्री० दे० (हि० ठाकुर + आइन प्रत्य० ) ठाकुर की पत्नी, स्त्री, स्वामिनी, रानी, नाइन । राधा ठकुराइन के पायन पलोटही " - देव । ठकुराई- संज्ञा, स्त्री० ( हि० ठाकुर + भाईप्रत्य० ) प्रभुत्व. राज्य, अधिकार, महत्व | ་ सब गाँव 'छ सातक की ठकुराई" - राम० ठकुराय - संज्ञा, पु० दे० ( हि० ठाकुर ) ठाकुरों की एक जाति । स्त्री० ठकुरायति । ठकुरी - संज्ञा, स्त्री० (दे० ) क्षत्रियत्व, प्रभुत्व, थातंक | ठगी ठगने का काम या भाव, धूर्तता, चालाकी । ठगी - छल. धोखे बाज़ी । ठगण - संज्ञा, पु० (सं०) पाँच मात्राओं का एक गण (पिं० ) । ठगना - स० क्रि० दे० ( हि० ठग ) छल या चालाकी से लूटना, धोखा देना, छल करना । मुद्दा० - ठगासा - चकित, भौचक्कासा । माल बेचने में बेईमानी करना । भि० कि० (दे०) धोखा खाना, दंग होना, चक्कर में पड़ना । ठगनी - संज्ञा, स्त्री० दे० ( हि० ठग ) ठगने वाली, ठग की पत्नी, कुटनी । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ठगपना -संज्ञा, पु० दे० ( हि० ठग + पन ) ठगने का काम या भाव, चालाकी, धूर्तता । स्त्री० ठगी । ठगमूरी-संज्ञा, स्त्री० यौ० दे० ( हि० ठग + मूरि) एक नशेदार जड़ जिसे ठग लोगों को खिला कर लूटते हैं। मुहा० - ठगमूरी खाना मस्त होना । ठगमोदक- संज्ञा, पु० यौ० ( हि० ठग + सं० मोदक == लड्ड ू) ठगों के नशीले लड्डू । ठगलाडू (दे० ) । मुहा० - ठगलाडू खाना - मस्त या बे होश होना । ठगवाना - स० क्रि० दे० ( हि० ठगना का प्रे० रूप) दूसरे से किसी को धोखा दिलवाना, ठगाना । ठगविद्या - संज्ञा, स्त्री० यौ० ( हि० ठग + सं० विद्या ) धूर्त्तता, छल-प्रपंच | ठगाई - उगाही | 1 ठकोरी – संज्ञा, स्त्री० दे० ( हि० टेकना + भौरी) सहारा देने वाली लकड़ी, जोगिनी ठक्कर - संज्ञा, स्त्री० दे० (अनु० ठक) टक्कर | ठकुर - संज्ञा, पु० दे० ( हि० ठाकुर ) ठाकुर, पूज्य मूर्ति, ठाकुर जी । संज्ञा, स्त्री० दे० ( हि० ठग + भाई - प्रत्य० ) धूर्त्तता, छल. धोखा । ठगाना - - अ० क्रि० दे० ( हि० ठगना ) छल या धोखे में पड़ कर ठगा जाना या हानि सहना, ठगवाना । ठांगनि ठगिनी - संज्ञा, स्त्री० दे० ( हि० ठग ) लुटेरिन, ठग की पत्नी । ठगिया - सज्ञा, पु० दे० ( हि० ठग + इया) छली, कपटी, धूर्त्त । ठग– सज्ञा, पु० दे० । सं० स्थग ) छल और धोखे से लूटने वाला, छली, धूर्त्त । स्त्री० ठगनो, ठगिन, ठगिनी । यौ० - ठगविद्या छल प्रपंच | ठगई - संज्ञा, स्त्री० दे० (हि० ठग + ई - प्रत्य० ) | ठगी – संज्ञा, स्त्रो० दे० ( हि० ठग ) छल से प्रत्य० For Private and Personal Use Only Page #787 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उगोरी ७७६ उनकार लूटने का भाव या काम, धोखा देना, ठठना-प्र० कि० दे० (हि० ठाढ़) ठहरना, धूर्तता। वि० छलीती। सजना। ठगोरी-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि० ठग+चौरी) ठठाना सक्रि० दे०(मनु० ठकठक) मारना, टोना, जादू, मोहनी। “सुधि बुधि सब पीटना। अ० कि० दे. (सं० महास) मुरली हरी प्रेम ठगोरी लाय"-५० गी। बड़े ज़ोर से हँसना । पू० का । ठठाइ उचरा-- संज्ञा, पु० (दे०) झगड़ा, बैर- "सँसव ठठाइ फुलाउब गालू"--रामा० । विरोध, टंटा, बखेड़ा। ठठेर-मंजारिका-संज्ञा, स्त्री० यौ० (हि. ठर-संज्ञा, पु० दे० (सं० स्थाता ) समूह, ठठेरा + मार्जारिका ) ठठेर की बिल्ली जो ठठेरे रचना, सजावट। के गढ़ने का ठक ठक शब्द सुन कर भी ठटकाला-वि० दे० ( हि० गट ) सना- | नहीं डरती। सजाया, ठाटदार। ठठेरा-संज्ञा, पु० दे० ( अनु० ठक ठक ) ठटना-स० क्रि० दे० (हि. ठाढ़ ) ठहरना, कसेरा, पीतल, फूल के बरतन बनाने वाला। सजाना । अ० क्रि० खडा रहना, सजना। स्त्री० ठठेरी-ठठेरिन । मुहा०-ठठेरे ठठेरे (हि. ठाठ ) गाना प्रारम्भ करना । बदलाई - जैसे के साथ तैसा व्यवहार । उनि-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. ठटना) बनाव, ठठरे की बिल्ली-निर्भय, निडर मनुष्य । रचना, सजावट। ठठेरी-संज्ञा, स्त्री० दे० ( ठठेरा) ठठेरे ठटरी-ठठरी-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. ठाट ) का काम । यौ० ठठेरी बाज़ार-कसेरों अस्थिपंजर खरिया. अरथी। की बाजार, ठठेरहाई (ग्रा.)। ठटु- संज्ञा, पु. ( हि० ठाट ) रचना, बनाव, ठठोल-सज्ञा, पु० दे० (हि. टट्ठा) दिल्लगीविधि क्रि० (दे०) ठाठ बनाओ। बाज, हँ ही दिल्लगी। सज्ञा, स्त्री० टठोली ठट्ट - सज्ञा, पु० दे० (स० स्थाता) समूह, "जो मैं कहूँगा तू उसे समझेगा है ढेर रचना, सजावट । ठठोल " -- ग्रा०॥ ठट्टा-सज्ञा, स्त्री० दे० (हि. ठाट ) ठटरी, भरथी । “जरिगौ लोहू मास रहि गई हाड़ ठड़ा-ठढ़ा-वि० दे० (हि० स्थातृ ) सीधा की ठही"-गिर। खड़ा । ठाढा (ग्रा०)। | ठन-संज्ञा, स्त्री० दे० ( अनु० ) रुपया श्रादि ठट्ठा-संज्ञा, पु० दे० (सं० अट्टहास ) मसखरी, दिल्लगी। यौ० ठट्टेबाज-दिल्लगी बाज . या धातु के खड़कने या बजने का शब्द, सज्ञा, स्त्री० ठठ्ठ बाजी। मुहा०-ठट्ठा उनक, ठनकार । उड़ाना-उपहास करना। ठठ्ठा मारना ठनक-संज्ञा, स्त्री. ( अनु० ठन ठन ) ढोल -उपहास या हँसी करना, खूब हँसना । आदि बाजे का शब्द, चसक, टीस । उठ-सज्ञा, पु० दे० (सं० स्थाता ) समूह, । ठनकना-अ. क्रि० दे० (अनु० ठनठन) . रचना, सजावट। ठन ठन की आवाज़ होना, चसकना, ठठई*-संज्ञा, स्त्री० द० (सं० अट्टहास ) | टीप मारना । मुहा०-माथा ठनकनाहैंसी, दिल्लगी। भारी चिन्ता होना, सन्देह या शंका होना। उठकना -अ० कि० दे० ( सं० स्थष्ट+ | ठन काना-२० क्रि० दे० ( हि० ठनकना) करण ) एकाएक रुक या ठहर जाना, ढोल, तबला आदि बजाना। ठिठकना । “छिनकु चलति ठठकत छिनकु" ठनकार-संज्ञा, स्त्री० दे० (अनु०) उन -वि०। ठन शब्द। For Private and Personal Use Only Page #788 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra उनगन www.kobatirth.org ૭૭૭ उनगन-संज्ञा, पु० दे० (हि० ठनना ) नख़रा ( फ़ा० ) मान, बहाना, हठ । ठनगनगोपाल - ठनठनगोपाल-संज्ञा, पु० ( अनु० ठन ठन + गोपाल ) सारहीन, बिलकुल छ्रछी वस्तु, कंगाल पुरुष । उनठनाना - स० क्रि० दे० ( अनु० ) घंटा श्रादि बजाना, ठन ठन शब्द निकालना । ० क्रि० (दे०) बजना । ठनना अ० क्रि० दे० ( हि० ठानना ) कोई काम सोत्साह प्रारम्भ होना, छिड़ना, मन में कुछ पक्का होना, मन में लगना, जमना ठहरना, छिड़ जाना, उन जाना, वैमनस्य या लड़ाई झगड़ा होना । ठनाका - संज्ञा, पु० दे० (अनु० ठनठन ) ठन ठन शब्द, उनकार । उनाउन -- क्रि० वि० दे० ( अनु० ठनठन) उन ठन शब्द-युक्त । वि० पक्का, दृढ़ । उन्ना - अ० क्रि० दे० ( अनु० ) परखना, ठहरना, निश्चय होना । ठपका | संज्ञा, पु० (दे०) धक्का, ठेस । उपना अ० क्रि० दे० (सं० स्थापन ) छपना, छपजाना, चिन्हित करना, थापना । ठप्पा - संज्ञा, पु० दे० ( सं० स्थापन ) छापा, साँचा, एक गोटा । ठमक -संज्ञा, स्त्री० दे० ( हि० ठमकना ) चाल की उसक, लचक, मटक, ठुमक । ठमकना - अ० क्रि० दे० ( सं० स्तंभ ) ठिठकना, रुकना, घमंड से रुक रुक कर चलना, हाव-भाव दिखाते चलना, ठुमकना ( ० ) । 'सुभट सुभद्रा-सुत ठमकत श्रावै है 66 39 - सरस० । ठमकाना ठमकारना - स० क्रि० दे० ( हि० ठमकना ) चलते हुए रोकना, ठहराना, ठुमकाना । ठयना - स० क्रि० दे० ( सं० अनुष्ठान ) हृद प्रतिज्ञा से प्रारम्भ करना, ठानना, समाप्त करना, मन में ठहराना या निश्चित करना । अ० क्रि० (दे०) छिड़ना, श्रारम्भ होना, मन भा० श० को ० १०-१८ ठसनी में पक्का होना या ठहरना या जमना । स० क्रि० दे० (सं० स्थापित ) बैठाना, ठहराना, योजित करना, स्थित होना, बैठना, जमना । ठरन -संज्ञा, खो० ( हि० ठरना ) अधिक सरदी, जाड़ा, शीत | Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ठरना - अ० क्रि० दे० (सं० स्तब्ध ) जाड़े या सरदी से अकड़ जाना, बहुत जाड़ा या ठंडक पढ़ना । ठरिया - संज्ञा, पु० (दे०) मिट्टी का हुक्का । ठर्रा - संज्ञा, पु० दे० ( हि० ठड़ा ) मोटा सूत, अधपकी ईंट, ख़राब शराब । ठवना - स० क्रि० दे० (सं० अनुष्ठान ) कोई काम पक्के विचार से प्रारम्भ करना, ठानना, पूर्ण रूप से करना, मन में ठहराना, निश्चित करना, स्थापित करना, बैठाना 1 ठवनि-ठवनी -- संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० स्थापन) बैठक, स्थिति, खड़े होने का ढङ्ग, श्रासन, मुद्रा । वृषभ कंध केहरि ठवनि " 66 - रामा० । उस - वि० दे० (सं० स्थान ) कड़ा, ठोस, घना बुना वस्त्र, गफ़, गाढ़ा, हद, घना, भारी, आलसी, ठीक न बजने वाला रुपया, कृपण और धनी । ठसक - संज्ञा, स्त्री० दे० ( हि० उस ) अहंकार युत चेष्टा, शान, नखरा, घमंड, शेखी । मिटि गई उसक तमाम तुरकाने की " —भू०| 66 ठसकदार - वि० दे० ( हि० ठसक + फा० दार ) अभिमानी, शेखीदार, शानदार, घमंडी, तड़क-भड़कदार | " तूने ठसक दार या चकत्ता की उसक मेटी" - भू० । ठसकना - स० क्रि० दे० ( हि० टस ) पटकना, तोड़ना, देमारना । ठसका संज्ञा, पु० दे० ( अनु० ) सूखी खाँसी जिसमें कफ़ न गिरे, ठोकर, धक्का, व्यंग (दे० ) । ताना, ठसनी - संज्ञा, स्त्री० दे० ( हि० उस ) डाँसने का सामान, जिससे कोई चीज ठाँसी For Private and Personal Use Only Page #789 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - ठसाठस ७७८ ठाकुर-सेवा (गाँसी) जावे, घनी, जैसे बन्दूक का गज़ । ठहरौनी-संज्ञा, स्त्री० दे० ( हि० ठहराना ) ठसाठस-क्रि० वि० दे० (हि० ठस ) हँस दहेज का करार।। ह्स या ठाँस ठाँस कर भरा हुआ, खचा- ठहाका-संज्ञा, पु० द० ( अनु०) जोर खच या अधिकता से भरा हुआ, अति घना। । की हँसी, अट्टहास, श्राघात | उस्सा -संज्ञा, पु० (दे०) गर्व भरी चेष्टा, ठहियाँ-ठइयो - संज्ञा, स्त्री० (दे०) (सं० घमंड, उसक, शेखी, शान । स्थान ) ठौर, स्थान । ठहना-अ० कि० दे० ( अनु० ) घोड़े का । ठा-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० स्थान) ठौर, स्थान । बोलना, घंटा बजना । अ० कि. द० ( सं० ठाँई-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. ठाँव ) जगह, संख्या ) बनाना, सँवारना। ठौर, स्थान, तई, प्रति, निकट । ठहर-ठाहर-संज्ञा, पु० दे० । सं० स्थल) ठाँउ-ठाँऊँ-संज्ञा, स्त्री० दे० ( सं० स्थान) स्थान, ठौर, चौका। " ठहर देखि उतरे | ठौर, स्थान, पास, निकट । “पाँडे जी सब लोगू"-रामा०। यहि बात को को बूझे इहि ठाँउ"--दीन । ठहरना-- अ० क्रि० दे० (सं० स्थैर्य) रुकना । संज्ञा, पु० दे० ( अनु० ) बंदूक का शब्द । स्थिर होना, टिकना, स्थित रहना, डेरा ठाँठ--वि० दे० ( अनु० ठन ठन ) सूखने से डालना । मुहा०-मन ठहरना -- मन __ रस-रहित पदार्थ, नीरस, दूध न देता पशु । की व्याकुलता मिट जाना, चित्त स्थिर ठायँ- संज्ञा, पु. स्त्री० (सं० स्थान ) ठौर, होना । फिसल न पड़ना, खड़ा रहना, नाश | ठाम (व.), स्थान, पास, निकट । संज्ञा, पु. न होना, कुछ दिनों तक काम देना या द० (अनु०) बंदूक का शब्द । चलना, थिराना, धैर्घ्य धरना, पासरा करना ठाँय-ठाँय-संज्ञा, स्त्री० दे० ( अनु० ) बंदूक या देखना, पक्का, ठीक या निश्चित होना। या छींकादि का शब्द, झगड़ा, झाँय झायें । मुहा०---किसी बात का ठहरना- ठाँध-- संज्ञा, पु०, स्त्री. द. (सं० स्थान ) किसी बात का संकल्प या निश्चय होना। ठौर, स्थान । म. क्रि० ठहरा है, जैसे-वह अपना ठाँसना-स० कि० द० (सं० स्थास्न) किसी सम्बन्धी ठहरा। बरतन में कुछ दबा दबा कर भरना, रोकना, ठहराई-संज्ञा, स्त्री. द. (हि. ठहरना) मना करना, घना करना। गाँसना । अ० ठहराना क्रिया का भाव या मज़दूरी, अधि- क्रि० (दे०) ठन ठन शब्द करके खाँसना । कार, दखल, कज़ा। ठाकुर-संज्ञा, पु० द० (सं० ठक्कर ) देवता, ठहराऊ---वि० ( हि० ठहरना ) टिकाऊ, परमेश्वर, विष्णु, बड़ा प्रादमी, राजा, सररक, मज़बूत । दार, स्वामी, नायक, जमीदार, क्षत्रियों या उहराना-~० कि० दे० ( हि० ठहरना) और नाइयों की पदवी । स्त्री० ठकुरानी, किसी को चलने से रोकना, दिकाना, कहीं ठकुराइन । " ठाकुर तिलोक के कहाइ जाने न देना, होते हुये कार्य को रोक करिहैं कहा ''---ऊ० श० । देना, ठीक या पक्का या तै करना। ठाकुरद्वारा---संज्ञा, पु० यौ० ( हि० ठाकुर -- ठहराघ---संज्ञा, पु० दे० (हि. ठहरना) ठह- द्वारा ) विष्णु-मंदिर, देवस्थान, देवालय । रना क्रिया का भाव, स्थिरता, रुकाव, ठाकुरबाड़ी-- संज्ञा, स्त्री० द० यौ० (हि. निश्चय । " हो ठहराव चित्त चंचल का ठाकुर --- बाड़ी ) मंदिर, देवालय ।। वही योग कहलावे "--स्फु०। | ठाकुर-सेवा-संज्ञा, स्त्री० यौ० ( हि० ठाकुर For Private and Personal Use Only Page #790 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ठाकुरी Rom ७७६ ठिकरा-ठिकड़ा +सेवा ) देवपूजन, मंदिर को अर्पित धन नारि धर्म कुल धर्म बचायो"-स्फु० । या ज़मीदारी श्रादि। | ठानना-स० क्रि० दे० (सं० अनुष्ठान ) ठाकुरी-संज्ञा, स्त्री० (हि. ठाकुर + ई-प्रत्य०) कोई काम प्रारंभ करना, छेड़ना, पक्का राजत्व, आधिपत्य, प्रातङ्क, ज़मीदारी। करना, ठहराना। ठाट-संज्ञा, पु० दे० ( सं० स्थातृ ) बाँस ठाना*-स० क्रि० दे० (सं० अनुष्ठान ) की खपाचों का परदा, शरीर, पंजर, खपरों पक्का या स्थापित करना, रखना, ठानना, या फूस के नीचे का बाँसों या लकड़ियों उठाना । स्त्री० ठानी। का टट्टर, ढाँचा, सजावट । अ० क्रि० ठठना ठाम *-संज्ञा, पु० स्त्री० दे० (सं० स्थान ) (दे०), बनाना । यौ० --ठाट-बाट -सजा- ठौर, स्थान, चलने का ढंग, ठवनि, मुद्रा। वट । मुहा०-ठाट बदलना-वेश बद ठार-संज्ञा, पु० दे० ( सं० स्तब्ध ) अधिक लना, झूठा बड़प्पन था प्रभुत्व-दिखावट, जाड़ा या सरदी, हिम, पाला। रंग जमाना या बाँधना, दिखावा, आडंबर, ठाला---संज्ञा, पु० दे० (हि. निठल्ला ) उद्यमबाहरी तड़क-भड़क, ढंग, तर्ज, तैयारी, हीन, बेकार । यौ-बैठा-ठाला। सामान, युक्ति, उपाय । संज्ञा, पु० दे० (हि. ° ठाली-वि० स्त्री० (हि. निठल्ला ) बेकार, ठाट ) मुंड, समूह, ज़्यादती, अधिकता। कता। बेरोज़गार, ख़ाली। (स्त्री० ठाटी)। ठावना-क्रि० वि० (सं० अनुष्ठान ) पक्का ठाटना*-स. क्रि० दे० (हि० ठाट) या ठीक करना, निश्चित करना। बनाना, सजाना, सँवारना, ठानना, रचना। ठाहर-ठाहरु--संज्ञा, पु० दे० (सं० स्थान ) ठाट-बाट -संज्ञा, पु० दे० (हि० ठाट) सजा- ठौर, ठाम, स्थान, डेरा । “ तन नाहीं सब वट, आडंबर, सजधज, तड़क-भड़क । ठाहर डोला"-40। " गिरें तो ठाहरु ठाटर--संज्ञा, पु० दे० (हि० ठाट ) पंजर, नाहिं"- कबी०। ठाट, टट्टर, ठाटबाट, शृङ्गार। ठिंगना-ठिगिना, ठिंगुना-वि० दे० ( हेठ ठाटी-संज्ञा, स्त्री० दे० ( हि० ठाट ) मुंड, +अंग ) नाटा पुरुष. वामन, छोटे डील समूह । का । (स्रो० ठिंगनी, ठिगिनी, ठिंगुनी)। ठाठा-संज्ञा, पु० दे० (सं० स्थातृ) टट्टर, ठिक-संज्ञा, स्त्री. (दे०) स्थान, अवसर पंजर, सजावट, बनावट, ठाट । विशेष, थिगरी (दे०), टीप, चकती। क्रि० ठाढ़ा*--वि० दे० (सं० स्थातृ ) खडा, वि० ठीक। समूचा, पैदा, उत्पन्न । “जामवन्त कह ठिकठैन -संज्ञा, पु० दे० यौ० ( हि० ठीक रहु बल ठाढ़ा ".-रामा० । मुहा०- + ठयना ) ठीक-ठाक, व्यवस्था, प्रबन्ध, ठाढ़ा देना-ठहराना, टिकाना। वि. आयोजन । “ ठये नये ठिकठन "---वि० । हृष्टपुष्ट, दृढ़, हट्टाकट्टा । ठिकना-प्र० क्रि० दे० (हि० ठहरना) ठादरी-संज्ञा, पु० (दे०) लड़ाई, झगड़ा, ठहरना, टिकना, रुकना, ठीक होना । मुठभेड़ । “ देव श्रापनी नहीं सँभारत करत ठिकरा ठिकड़ा-संज्ञा, पु० दे० (हि. इन्द्र सों ठगदर"- सूबे। टुकड़ा) मिट्टी के घड़े आदि का खंड, ठान—संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० अनुष्ठान) कार्या- पुराना टूटा-फूटा बर्तन, भिक्षा का रंभ, प्रारंभिक कार्य, ह निश्चय या बरतन । वि. तुच्छ । स्त्री० ठिकरी, विश्वास, अंदाज । “ठान जहर व्रत ठीकरी (दे०) । For Private and Personal Use Only Page #791 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ठिकान-ठिकाना ठिकान-ठिकाना - संज्ञा, पु० दे० ( सं० स्थान ) ठौर, स्थान, रहने की जगह, घर । स० क्रि० (दे०) ठीक होना। " कहीं भी नहीं मेरा ठिकाना – हरि० । मुहा०— ठिकाने आना - रास्ते पर श्राना, ठीक ठीक जगह पर श्राना, किसी बात का मतलब बड़े सोच-विचार के पीछे समझ में धाना, शुद्ध या ठीक होना, यथोचित रूप में होना । ठिकाने की बात-ठीक या प्रमाणिक बात समझ या अकृ की बात । कौन ( क्या ) ठिकाना - क्या निश्चय या विश्वास (पता) । ठिकाने पहुँचाना या लगाना-ठीक स्थान पर पहुँचाना, मार डालना हटा देना । कुछ ठिकाना है - कोई निश्चय या सीमा है । दृढ़ स्थित ठहराव, बन्दोबस्त, सीमा । ठिकानी - वि० ( हि० ठिकाना ) ठीक ठिकाने वाला, जिसका ठिकाना लग गया हो, जो अपने ठिकाने पर हो । ७८० ठीवन एक एक पर गिरना, धक्कम धक्का करना । ठेलमठेला - (दे० ) ठिलिया - संज्ञा स्रो० दे० (सं० स्थाली ) गगरी, छोटा घड़ा । ठिलुआ, ठिलुषा - वि० दे० (हि० निटल्ला) बेकाम, निठल्ला, निकम्मा | ठिल्ला -- संज्ञा पु० दे० ( हि० ठिलिया ) छोटा घड़ा | ठिहारी - संज्ञा स्त्री० दे० ( हि० ठहरना ) निश्चय, समझौता, ठहराव । ठीक - वि० दे० (हि० ठिकाना ) यथार्थ, सत्य, उचित, सही, शुद्ध, अच्छा जिसमें कुछ अन्तर न पड़े, निश्चित । क्रि० वि० (दे० ) जैसा चाहिये वैसा । संज्ञा पु० पक्की बात, निश्चय । मुहा०— ठीक देना - मन में पक्का करना, जोड़, मीज्ञान । ठीकठाक – संज्ञा, पु० दे० यौ० ( हि० ठीक ) यथार्थ प्रबंध, पक्की व्यवस्था, निश्चय वि० (दे० ) अच्छी तरह, भली भाँति । ठीकरा - संज्ञा पु० दे० ( हि० डुकड़ा ) मिट्टी के घड़े आदि का टुकड़ा, पुराने धौर टूटे फूटे बरतन, भिक्षा का पात्र । (स्त्री० प्रल्पा० ठीकरी ) । ठीकरी - संज्ञा स्त्री० दे० ( हि० ठीकरा ) मिट्टी --- Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ठिठक -- संज्ञा, खो० दे० ( ठिठकना ) रुकाव, ठहरावा, आश्चर्य या भय-युक्त, सिकुड़ना । यौ० - ठिक जाना, ठिठक रहनाभया में सुधि बुधि भूल जाना । ठिठकना - ० क्रि० दे० (सं० स्थित + करण ) सहसा रुक जाना, ठहर जाना, दबकना, सिकुड़ना, शंक चित्त होना । ठिठरना-ठिठुरना - ० क्रि० दे० ( सं० स्थित ) जाड़े से सिकुड़ना या ऐंठ जाना । ठिनकना - ० क्रि० ( अनु० ) लड़कों का रुक रुक कर रोना, मचलना । घड़े आदि का खंड, तुच्छ वस्तु । ठीका - संज्ञा पु० दे० ( हि० ठीक ) निश्चित धन ले काम करने का वादा, प्रण, जिम्मा, इजारा, पट्टा | ठीकुरी - संज्ञा स्त्री० ( दे० ) परदा, पत्थर । " निज आँखिन पै घरे ठीकुरी, कितने और रहोगे " - सत्य० । ठिरना -- स० क्रि० दे० ( हि० टिर) जाड़े से ठिठुरना । अ० क्रि० बहुत सरदी पड़ना । ठिलना- - अ० क्रि० दे० ( हि० टेलना ) ठेला या ढकेला जाना, घुसना, धँसना । ठिलाठिल | - क्रि० वि० दे० ( हि० ठिलना ) ठिर - संज्ञा, स्त्रो० दे० (सं० स्थिर) कड़ा जाड़ा ठीकेदार– संज्ञा पु० दे० ( हि० ठीका + फा० या सरदी | दार ) ठीका लेने वाला, ठीकेदार । ठीलना |- स० क्रि० दे० ( हि० टलना ) किसी को धक्का दे आगे बढ़ाना, ढकेलना, रेलपेल करना, ठेलना (दे० ) | ठीवन - संज्ञा पु० दे० (सं० ष्टीवन ) थूक, खकार । For Private and Personal Use Only Page #792 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ठोह ७८१ ठेका ठीह-संज्ञा स्त्री० दे० ( अनु०) घोड़े का | ठुसना-अ.क्रि० दे० (हि. हॅसना ) बरतन हिनहिनाना। में दाब दाब कर कुछ भरना, ठूसना । ठीहा-संज्ञा पु० दे० (सं० स्थान ) कारीगर ठुसाना-स० क्रि० दे० (हि.ट्सना ) दाब के काम करने का पृथ्वी में गड़ा लकड़ी का दाब कर भरना, पेट भर कर खिलाना। टुकड़ा, ऊँचा बैठका, अड्डा, गद्दी, सीमा, | ठुस्ती-संज्ञा स्त्री० ( दे०) एक गहना । स्थान। टॅग--संज्ञा स्त्री० दे० (सं० तुंड ) चोंच, चोंच टॅट, ठंठ-संज्ञा पु० दे० (सं० स्थाणु ) सुखा से मारने का काम । पेड़, हाथ कटा व्यक्ति । ठठ, ट्ठा-संज्ञा पु० दे० ( सं० स्थाणु ) पेड़ी ठुकना-अ० कि० दे० (अनु०) मार खाना, मात्र या सूखा पेड़, कटा हाथ । वि० ठापिटना, ठोंका जाना, हानि या कैद होना, लूला, टुंद लुज मनुष्य । पैर में बेड़ी पहनना, ठोकाना (दे०)। ठठिया-वि० दे० (हि० ठूठा ) पेड़ी मात्र ठुकगना-स० क्रि० दे० (हि० ठोकर ) ठोकर खड़ा सूखा पेड़। लगाना, लात मारना, तुच्छ जान हटाना। ठी-संज्ञा स्त्री० दे० (हि.टूठा) बँटा, ठुकवाना-स० कि० दे० (हि. ठोकना का अनाज की छोटी डाँड़। प्रे० रूप ) पिटवाना. लातों से मरवाना। सना-स० क्रि० दे० (हि० ठस ) खूब दबा ठड़ी-संज्ञा स्त्री० दे० (सं० तँड) ठोढ़ी, चिबुक दबा कर किसी बरतन में कुछ भरना, संज्ञा स्त्री० दे० (हि० ठड़ी) टुरी, टोरी। - घुसेड़ना, भर पेट खाना।। ठुनक, ठुनुक - संज्ञा स्त्री० दे० (हि० ठुनकना) | ठेगना-वि० दे० (हि. हेठ + अंग ) छोटे सिसका, रुक रुक कर लड़के का रोना। डील का मनुष्य, वामन, ठिगना ( दे०) ठुनकना-ठुनुकना-अ० क्रि० (दे०) सिस (स्त्री० ठंगनी)। कना, रुक रुक कर लड़के का रोना। ठेगा-संज्ञा पु० दे० (हि० अंगूठा ) अँगूठा, ठुमक-ठमकि-संज्ञा स्त्री० दे० (हि. ठुमकना) दंडा, सोंटा, ठिगस्सा (ग्रा०)। मुहा०मंद गमन, रुक रुक कर धीमी चाल ।। ठेगा दिखाना-इंकार करना । "मुकि चलें रामचन्द्र बाजति पैजनियाँ"। ठेठ-वि० ( दे०) शुद्ध, प्राकृतिक, स्वभावठुमकना--अ० क्रि० दे० (अनु०) मंद गमन, | सिद्ध, कान का मैल, ठेठ (दे०)। यौ०रुक रुक या पाँव पटक पटक कर चलना या । ठेठ-हिन्दी (भाषा)। नाचना जिसमें पैजनियाँ शब्द करें । “ठुमकि ठेठी-संज्ञा स्त्री० (दे०) कान का मैल, कान ठुमकि प्रभु चलिहिं पराई "-रामा० । के छेद में लगी हुई डाट, ठेठी (ग्रा०)। ठेपी-संज्ञा स्त्री० (दे०) उँठी कान का मैल, ठुमका-वि० दे० ( अनु० ) वामन, नाटा, ठेपी (ग्रा.)। किसी चीज़ के छेद को बंद ठिनगिना, ठिगना ( ग्रा० )। __करने वाली वस्तु। ठमकी-संज्ञा स्त्री० दे० ( अनु० ) रुकावट, टेक-संज्ञा स्त्री० दे० (हि. टिकना ) सहारा, ठिठकना, खूब पकी छोटी पूरी । वि० स्त्री० टेक, पञ्चड़, पेंदा, घोड़े की चाल | (दे० ) नाटी, छोटे डील वाली। ठेकना-स० कि० दे० ( हि० टिकना, टेक ) ठुमरी-संज्ञा स्त्री० ( दे०) एक गीत। टेकना, आश्रय लेना, टिकना, ठहरना । ठुरी-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. ठड़ा = खड़ा) ठेका-संज्ञा पु० दे० (हि. टिकना ) पासरे भूनने पर लावा न होने वाला दाना, टुरीं ।। की चीज़, टेक, अड्डा, तबले या ढोलक में हँसी। संज्ञा, पु० ( दे० ) हुर्रस-हँसी। केवल ताल देना, बाँयाँ तबला, ठोकर । For Private and Personal Use Only Page #793 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ठेकाई संज्ञा पु० ( दे० ) ठीका | यौ० -- ठेकेदार, संज्ञा स्त्री० ठेकेदारी । ठेकाई -- संज्ञा स्त्री० ( दे० ) कपड़े में हाशिया की छपाई । ठेकी - संज्ञा स्त्री० ( हि० टेक ) टेक, सहारा, अनाज की बखारी । ७८२ ठोड़ी, ठोढी मारना पीटना, किसी कील पर चोट मार उसे गाड़ना या धँसाना, किसी पर नालिश करना, क़ैद करना, हथकड़ी बेड़ी पहनाना हथेली से थपथपाना। मुहा०- ठोंकनाबजाना - परखना, जाँचना, हाथ से मार कर बजाना । ठेगना * -- स० क्रि० ( हि० टेकना ) टेंकना, ठोंग- संज्ञा स्त्री० दे० (सं० तुड ) चोंच या अँगुली की मार या ठोकर | ठोंगना - स० क्रि० दे० ( हि० ) चोंचियाना ( ग्रा० ), चोंच से बिखेरना, चिल्होरना ( प्रान्ती० ) । ठोंगाना-- स० क्रि० दे० ( हि० ठोंगना ) ठोंगना, चोंचियाना । ठोंठ - संज्ञा स्त्री० (दे०) चोंच, ठोर, श्रोठ । ठोंठी - संज्ञा स्त्री० (दे०) चने के दाने का सहारा लेना, मना करना । ठेघा - संज्ञा पु० दे० ( हि० टेक ) टेक | ठेठ - वि० (दे० ) बिलकुल, सबका सब, सारा, निपट, निरा, निकला ( प्रा० ) शुद्ध, प्रारम्भ | संज्ञा स्त्री० सीधी-सादी भाषा या ग्राम्य | 1 कोश या खोल, पोस्ता की ढोंदी या बोंड़ी। ठो - अव्य० दे० ( हि० टौर ) संख्या वाची, पीछे लगाया जाता है- जैसे-छैठो, चार ठो । ठेलना - स० क्रि० दे० (हि० टलना) ढकेलना, धक्का देना । प्रे० रूप—- ठेलाना, ठेलवाना। ठेला- संज्ञा पु० दे० ( हि० ठेलना ) धक्का, टक्कर, भीड़-भाड़, धक्कमधक्का, ठेल कर चलाने की गाड़ी । ठेलाठेल - संज्ञा स्त्री० ( हि० ठेलना ) धक्के ठोकर - संज्ञा स्त्री० दे० (हि० ठोकना) चलने में किसी चीज़ की पैर में चोट, ठेस, धक्का, श्राघात, टक्कर। मुहा०-- ठोकर या ठोकरें खाना- किसी भूल के कारण दुख सहना, धोखा खाना, चूक जाना, दुर्गति सहना । ठोकर लेना - ठोकर खाना, सामना या मुठभेड़ करना, लड़ना । पहिने हुए जूते के अग्र भाग से चोट, कड़ा धक्का | ठोकरा - वि० दे० ( हि० ठोकर ) कड़ा, कठोर, कठिन । बाजी, रेलापेल ( ग्रा० ) । ठेका - संज्ञा पु० ( दे० ) वह स्थान जहाँ खेतों की सिंचाई के लिये पानी गिरे । ठेस - संज्ञा स्त्री० दे० ( हि० उस ) चोट । ठेसरा - संज्ञा पु० (दे०) घमंडी, नकचढ़ा । ठेहरी - संज्ञा स्त्री० (दे०) द्वार के पल्लों के नीचे किवाड़ों की चूल घूमने की लकड़ी । ठेही - संज्ञा स्त्री० (३०) मारी हुई ईख । छैन - संज्ञा खो० दे० (सं० स्थान ) ठौर, स्थान । ठयां - संज्ञा स्त्री० दे० (सं० स्थान ) ठाम, स्थान कहा कहौ तू न गयी वहि ठयाँ" रसा० । ठैरना -- ० क्रि० दे० ( हि० ठहरना ) ठहरना, " Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir टिकना । ठैल - संज्ञा स्त्री० (दे०) दबाव, चोट । ठोंक - संज्ञा स्त्री० दे० ( हि० ठोंकना ) मार, प्रहार, श्राघात । यौ० - ठोंक - पीट । ठोंकना - स० क्रि० ( अनु० टक टक ) चोट मारना पीटना, आघात या प्रहार करना, ठोकरी - संज्ञा, स्त्री० दे० ( हि० ठाकर ) कई महीने की ब्यायी गाय । ठोकराना - अ० क्रि० दे० ( हि० ठोकर ) आप ही आप या घोड़ा आदि का ठोकर खाना, ठुकराना । ठोड - वि० (दे०) जड़, मूर्ख, गावदी (ग्रा० ) | ठोठरा –वि० दे० (हि० ठूंठ ) पोपला (दे०), दन्त - विहीन । ठोड़ी, ठोढी - संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० तुड ) ठुड्डी, दादी, चिबुक | For Private and Personal Use Only Page #794 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ठोप ७८३ डॅडवी ठोप-संज्ञा, पु० (दे०) बूंद, विन्दु । ठोसा-संज्ञा, पु० (दे०) अँगूठा, ठेगा । ठार-संज्ञा, पु० (दे०) एक पकवान । संज्ञा, ठोहना -१० क्रि० दे० (हि. लँदना) पु० द० (सं० तुड ) पक्षियों की चोंच। खोजना, हूँदना, जाँचना। ठोल-संज्ञा, स्त्री० (दे०) ठोर, चीनी में पगी ठोहर-संज्ञा, पु० (दे०) अकाल, महँगी। छोटी मोटी पूरी। ठौनि-ठौनी* -- संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० स्थापन) ठोला-संज्ञा, पु. (दे०) पालू पक्षियों के ठेवनि (७०) खड़े होने का ढंग। भोजन और जल का पात्र, कुल्हिया, अंगु- ठौर-संज्ञा, पु० दे० (हि. ठाँव ) स्थान, लियों की गाँठ। जगह, अवसर । " ठौर देखि कै हूजियेठोली-संज्ञा, स्त्री० (दे०) ठठोली, दिल्लगी।। वृं० । मुहा०-ठौर न आना-पास न ठोस-वि० द० ( हि० ठस ) दृढ़, मज़बूत, आना । ठौर देखना-मौक़ा या स्थान पोलाई-रहित । संज्ञा, पु. (दे०) डाह, देखना। ठौर रखना-मार डालना । कुढ़न, जलन । ठौर रहना-- जहाँ का तहाँ पड़ रहना, ठोसना-स० क्रि० द० (हि० ठूसना ) किसी | मर जाना । यौ०-ठौर-कुठौर-बुरा पात्र में कुछ दबा दबा कर भरना, हूँ सना। स्थान, मौके बे मौके । ठाँव-कुठाव (ग्रा०)। ड-हिन्दी और संस्कृत की वर्णमाला के टवर्ग | डंगूज्वर --संज्ञा, पु० दे० ( म. डेंगू ) चकते कातीसरा वर्ण,इसका उच्चारण स्थान मूर्धा है। पड़ने वाला ज्वर । डंक-संज्ञा, पु० दे० (सं० दंश) बिच्छू, मधु- इंटया-संज्ञा, पु० दे० (हि. डाँटना ) डाँटने मक्खी, भिड़ ( बर्र ), आदि की पंछ का वाला, घुड़की, धमकी दिखाने वाला । विषधर काँटा, डंकमारी जगह, होलडर की। जीभी, निब, लेखनी की नोक । “सूखि जाति " कौन सुने बहु बार इँटेया - तु । स्याही लेखनी की नैकुडंक लागे"----ऊ०श० । डंठल-संज्ञा, पु. द० (सं० दंड ) छोटे डंकना-अ० क्रि० द० ( अनु० ) गर्जना - छोटे पौधों की पेंडी, मोटी डालियाँ । या डरवाना शब्द करना। डंठी-संज्ञा, स्त्री० ( सं० दंड ) डंठल । डंका-संज्ञा, पु० दे० ( सं० ढक्का ) छोटा डंड-संज्ञा, पु० दे० ( सं० दंड) डंडा, सोंटा, नगाड़ा । "डंका दै बिजै को कपि कूदि गयौ बाह, एक कसरत, सजा, जुर्माना, डॉड़ लंका तै" । मुहा०---डंके की चोट पर (दे०) । मुहा०-डंड पेलना-खूब डंडे कहना- सबको सुना या पुकार या सचेत कर करना । यौ० ... इंड-बैठक। कहना. खुले मैदान या खुल्लमखुल्ला कहना। इंडपेल-संज्ञा, पु० दे० यौ० (हि. हुंड -- डंकिनी----संज्ञा, स्त्री० (हि० डंका ) चुडैल, पेलना ) पहलवानी, कसरती, डंडबाज़ । भतिनी, पिशाची, राक्षसी, डाकिनी। इंडवत--संज्ञा, पु. यौ० दे० (सं० दंडवत् ) डंगर-संज्ञा, पु. (दे०) पशु, चौपाया, डोंगर (ग्रा० ), भैंसा। डंडवारा-संज्ञा, पु० द० (हि. डांड़ - वार ) डंगरा----संज्ञा, पु० (दे०) खरबूजा। डंगरी-संज्ञा, स्त्री. द. (हि. डंगरा ) : . सीमा बनाने वाला, कम ऊँची दीवार । स्त्री. लंबी लकड़ी । संज्ञा. स्त्री० दे० (हि. डाँगर) अल्पा० डॅडवारी। डडुवार (ग्रा० प्रान्ती०)। डाइन, चुडैल, डाकिनि। । डॅडवी*- संज्ञा, पु० (हि. ) दंड, डंडा For Private and Personal Use Only Page #795 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir डंडा ७८४ डगडगाना देने वाला, मालगुजारी या कर देने वाला, डक-संज्ञा, पु. (अं० डाक) जहाजों के करदी, करद। ___पाल का वस्त्र, मोटा कपड़ा । 'डक कुडगति डंडा-संज्ञा, पु० दे० (हि० दंड) मोटी सी छबै चली" .. वि० । छड़ी, सोंटा, डडवारा। डकरना-अ० क्रि० दे० (सं० उद्गार) डकार डंडाकरन-डंडकारन -- संज्ञा, पु० दे० यौ० | लेना, खाकर तृप्त होना। " डकरी चमुंडा (सं० दंडकारण्य ) दंडक वन, विन्ध्याचल गोल कुंडा की लड़ाई में "- कालि० । से गोदावरी नदी तक का देश जो पहले ! डकराना- अ. क्रि० (अनु०) भैंसे या बैल उजाड़ जंगल था। का बड़े ज़ोर से बोलना, डकराना, डकारना। इंडिया-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि० डाँड़ी = रेखा) डकार-संज्ञा, पु० दे० ( सं० उद्गार ) एक साड़ी, गेहूँ के बालों की सींक । संज्ञा, मनुष्य के भोजन से तृप्त होने पर मुँह से वायु पु० दे० (हि. डाँड़ ) कर वसूल करने का शब्द । 'शत्रुन सँधार लई चंडिका वाला, डांडिया (ग्रा०)। डकार है" । मुहा०- डकार न लेना-- डंडी-संज्ञा, स्त्री० दे० ( हि० डंडा ) पतली किसी का रुपया मार बैठना। उकार छड़ी, बेंट, दस्ता, मुठिया, तराजू के पल्ले जाना-किसी के धनादि का अपहरण बांधने की लकड़ी, डाँडी, पौधे की पैड़ी, करना, हज़म करना ( उ० )। सिंह की पारसी का छल्ला, झप्पान सवारी पहाड़ों गरज, दहाड़। पर) दडधारी सन्यासी । द० वि० (सं० दत) | डकारना-अ० क्रि० द० (हि. डकार ) पेट चुगुलख़ोर । भर भोजन के पीछे मुख से वायु का शब्द डेडारना-स० कि० दे० ( अनु० ) खोजना, निकालना, डकार लेना, किसी का धन ढूंदना, तलाश करना। मार बैठना, पचा डालना, सिंह का दहाड़ना। डंबर-संज्ञा, पु० (सं०) दिखावा, पाखड, डकैत - संज्ञा, पु. द. (हि. डाका+ ऐतश्राडम्बर, विस्तार, शामियाना, चंदोवा ।। प्रत्य० ) डाका डालने वाला, लुटेरा, डाकू। " अम्बर-डंबर सांझ के, ज्यों बालू की " मन बनजारा लादि चला धन काल डकैता भीत'-० । यो०-भंघ-डंबर- घेरी"-स्फु०। दलबादल, शामियाना । अम्बर-डंबर . डकैती-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि० डकैत) लूट शाम के प्राकाश की लाली। या डाका मारने का काम, छापा । वस्था -संज्ञा, पु० द० ( सं० डमरु ) डकौतिया-संज्ञा, पु० दे० (हि० डाका+ गठिया, बात। ___ौतिया ) भडुरी, ज्योतिषी के वंशज जो ढुवाँडोल- वि० दे० ( हि• डोलना ) चंचल, दान लेते हैं, डाकू। अथिर, अस्थिर। डग-संज्ञा, पु० दे० (हि. डॉकना ) पग, डंस-संज्ञा, पु० दे० (सं० दंश ) डाँस वन. फाल, कदम । " डग भई बावन की साँवन मच्छड़, बिच्छू आदि के डंक चुभाने का की रतियाँ ।" मुहा०-डग देना-भागे स्थान । ' मसक डंस बीते हिम ग्रासा"- को पैर रखकर चलना। डग भरना या रामा। मारना--तेज़ी से चलना, लम्बे पैर या डंसना-डसना-स० क्रि० दे० (सं० दंशन) कदम बढ़ाना। साँप आदि विषैले जंतुओं का काटना, डगडगाना-अ० क्रि० द० (अनु०) काँपना, बिच्छू आदि का डंक मारना। " काम इधर-उधर, आगे-पीछे या दाँयें-बाँयें, भुजंग डेंसत जब जाही"--रामा०। हिलना, डगमगाना । For Private and Personal Use Only Page #796 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org डगडोलना डगडोलना- - अ० क्रि० यौ० दे० ( अनु० ) डगमगाना, हिलना । डगडोर - वि० दे० ( हि० डोलना ) चंचल, चपल, अस्थिर । डग - संज्ञा पुं० (सं०) चार मात्राओं का गण ( प० ) । 66 उगना - डिगना+अ० क्रि० दे० ( हि० डग ) हिलना, चलना, डोलना, स्थान छोड़ना । डिंगै न संभु सरासन कैसे " - रामा० । डगमग - वि० यौ० दे० ( हि० डग + मग = रात ) चंचल, अथिर, हिलने या काँपने वाला, डाँवाडोल, डगामाग | संज्ञा, स्त्रो० डगमगी । " ७८५ b. डगमगाना ० क्रि० दे० (अनु० ) इधरउधर डोलना, हिलना । डगमगान महि दिग्गज डोले - रामा० । संज्ञा, पु० डगमग, कंपन | डगर-डगर-संज्ञा स्त्री० दे० ( हि० डग ) राह, रास्ता, मार्ग, पंथ, डगरिया ( ० ) । डगरना* - अ० क्रि० दे० ( हि० डगर ) चलना, राह पकड़ना, रास्ता लेना । प्रे० रूप० - डगराना, डगरवाना | डग-संज्ञा, पु० दे० ( हि० डगर ) राह, मार्ग, डहर ( ग्रा० ) | संज्ञा, पु० (दे० ) छावा, छवरा डलरा, मार्ग, गली, पंथ । 66 कहाँ गयो मनमोहन स्याम डगरिया सूझि न परी ” सूर० । डगri - संज्ञा, पु० (हि० डागा ) नगाड़े बजाने की चोब या डंडा, डागा । यौ०——काँपना । डगा -- पद्मा० । 16 31 डगाना - स० क्रि० दे० ( हि० डिगना ) चंचल होना, टलना, हटना, खिसकना, स्थान त्यागना । डट - संज्ञा, पु० (दे० ) निशाना | डट जाना - जम कर बैठना, तैयार होना, लग जाना । डटना - अ० क्रि० ( हि० ठाढ़ ) भली भाँति स्थिर या तैयार होना, घड़जाना, ठहरा भा० श० को० २०६६ डपटना रहना, जम या लग जाना, सजना, पहिनना । रसिया की डीठि डटि जात 66 39 - रत्ना० । * – स० क्रि० दे० (सं० दृष्टि ) देखना, ताकना, खूब खाना । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उटाना- - स० क्रि० दे० ( हि० डटना ) किसी पदार्थ को दूसरे से भिड़ाना, सटाना या मिलाना, जमाना खड़ा करना, सजाना, पहनाना । प्रे० रूप — डरवाना, डटाना । डटाई - संज्ञा, स्त्री० दे० ( हि० डटना) डटाने का काम या मज़दूरी | डटैया - वि० दे० ( हि० डटाना ) डाटने या डटाने वाला, उद्यत, प्रस्तुत, तैयार I डट्टा - संज्ञा, पु० दे० ( हि० डाटना ) डाट. काग, बड़ी मेख, हुक्के का नैचा, साँचा । उड्ढार - वि० दे० ( हि० डाढ़ी ) बड़ी डाढ़ी वाला, शूर वीर, साहसी । डढ़ना डढ़नि ---- संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० दग्ध) उढ़ियल - वि० दे० (हि० डाढ़ी ) बड़ी डादी युक्त, डाढ़ी वाला । डढ़ीई, डा, डढ़वा - वि० दे० (सं० दग्ध) जला हुआ, दग्ध | संज्ञा, पु० दे० (सं० दग्ध ) पाताल यन्त्र से निकाला गया तेल । कछु कहि चला तबल देह डहूढ़ना स० क्रि० दे० (सं० दग्ध ) --डगामग जलन, डाह । डढ़ना अ० क्रि० दे० (सं० दग्ध ) जल जाना, जलना, कुढ़ना । उढ़मुंडा - वि० दे० यौ० ( हि० ) जिसकी मूँड़ दी गई हो । डहार डढारा - वि० दे० (हि० डाढ़ ) डाढ़ों या डाढ़ी वाला । -- जलाना । डढ्योर-डयोरा - वि० दे० ( हि० डाढ़ी ) डाढ़ी वाला ! डपट - संज्ञा, स्त्री० दे० ( सं० दर्प ) फटकार, घुड़की, झिड़की, डाँट । यौ०1 -डॉटडपट | संज्ञा, स्त्री० दे० ( हि० रपट ) घोड़े की वेगवान गति । डपटना - स० कि० दे० ( हि० डपट ) क्रोध For Private and Personal Use Only Page #797 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir डपोर शंख, डफोल शंख, ढपोर शंख ७८६ डभकना में बड़े जोर से बोलना, डाँटना, झिड़कना, डबकोहां-वि० दे० (अनु०) आँसू भरा या वेग से जाना। __ डबडबाया हुआ नेत्र । स्त्री० डबकौंहीं। डपोर शंख, डफोल शंख, ढपोर शंख- डबगर--संज्ञा, पु० (दे०) चमार, मोची, संज्ञा, पु० यौ० दे० (अनु० डपोर-बड़ा-।- शंख) चमड़े का साफ़ करने या कमाने वाला । जो कहे बहुत किन्तु कर कुछ भी न सके, | डबड़बाना--अ० क्रि० दे० ( अनु० ) आँखों झूठी डींग मारने वाला, जो डील में तो में आँसू भर पाना। बड़ा परंतु बुद्धि में छोटा हो, मूर्ख। डबरा-संज्ञा, पु० दे० (सं० दभ्र ) पानी डप्पू-वि० (दे०) बड़ा और मोटा मनुष्य ।। भरा छोटा गड्ढा, कुण्ड, हौज़ आदि। डफ-संज्ञा, पु० दे० (अ० दफ) छोटा डफला, | डाबर (ग्रा०) । स्त्री० डबरी। चंग। " धुनि डफ तालनि की आनि बसी | डबरिया-वि० (दे०) डेबरा, बाम हाथ से काननि में"- रत्ना। काम करने वाला, डेबरा। संज्ञा, स्त्री० डफलना-स० क्रि० (दे०) व्यर्थ डींग मारना, (दे०) छोटा डबरा, डबरी। गप्प उड़ाना, बकवाद करना । डबल-वि० दे० ( अ० डबुल ) दोहरा, दो डफला-डफुला-संज्ञा, पु० दे० ( हि० डफ) गुना । संज्ञा, पु० (दे०) अंगरेज़ी राज्य का बड़ा डफ। पैसा, डम्बल (ग्रा०)। डफली-डफुली- संज्ञा, स्त्री० दे० (हि० डफ) | डबलरोटी- संज्ञा, स्त्री० यौ० (अ० डबल - छोटा डफ़, खंजरी। मुहा०-अपनी हि० रोटी ) पावरोटी। अपनो डफली अपना अपना राग---- डबस--संज्ञा, पु. (दे०) चिन्ता, व्यवस्था, जितने पुरुष उतनी ही सम्मतियाँ या रायें | तैयारी,रक्षण,समुद्र-यात्रा के उपयोगी वस्तु । लो०-डफली बजी राग पहचाना-- | डबा-संज्ञा, पु० (दे०) डब्बा, डबरा, पानी कारण से कार्य का ज्ञान होना। का गढ़ा। डफार-संज्ञा, स्त्री० दे० ( अनु. ) जोर से विधा-संज्ञा, स्त्री० दे० ( हि० डिबिया ) रोने-चिल्लाने का शब्द, चिग्घाड़। छोटा डब्बा, डिबिया, डेबिया । डफारना--अ० क्रि० द० ( अनु०) जोर | डबी ----संज्ञा, स्त्री० (दे०) डब्बी, छोटा से रोना या चिल्लाना, चिग्घाड़ना। डब्बा, डिबिया । डफाली-संज्ञा, पु० दे० (हि० डफ) डफ डवुलिय--संज्ञा, स्त्री० (दे०) छोटा डबला, बजाने वाला मुसलमान, फकीरों की | कुल्हिया। एक जाति। मुहा०-डफाली का राग | डबोना-स० क्रि० (हि• डूबना) पानी आदि ---वह बात जिसका ओर-छोर या श्रादि- में बोरना, दुगना, डुवाना (हि.) गोता अन्त न हो। देना, चौपट या नष्ट करना । मुहा०—नाम डफोरना-अ० कि० दे० ( अन० ) हाँक | डवोना--अयश करना । देना, ललकारना। डब्बा-संज्ञा, पु० दे० (सं० डिंब ) कटोरडब-संज्ञा, पु० दे० (हि. डब्बा) थैला, दान, संपुट, रेलगाड़ी की एक गाड़ी। थैली, जेब । ड-बी-संज्ञा, स्त्री० (हि. डब्बा) छोटा डब्बा । डबकना--अ० क्रि० दे० ( अनु० ) दर्द या | डब्बू-संज्ञा, पु० दे० ( हि० डब्बा ) पीड़ा करना, टीसमारना । बड़ा करछा। डबका-संज्ञा, पु० (दे०) कुयें का ताज़ा या | डभकना-अ० क्रि० दे० ( अनु० डभडभ ) हाल का पानी, डाभक (ग्रा०)। पानी आदि में तैरना, डूबना, उतराना, For Private and Personal Use Only Page #798 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir डभकौरी ७८७ डली चुटकी लेना, आँखों में पानी भर आना, डरवैया-वि० दे० (हि० डर-1-वैया-प्रत्य०) आँख डबडबाना। डरने या डराने वाला। डभकौरी-- संज्ञा, स्त्री० दे० (हि० डभकना ) | डराऊ-वि० दे० (हि० डरा+ऊ-प्रत्य०) उरद की बरी, डुभकी (दे०)। डराने वाला, भयंकर, भयानक, भयावना । डभाका- संज्ञा, पु० (दे०) कुयें का ताज़ा उराडरी--संज्ञा, स्त्री० यौ० (हि. डर ) पानी। डाभक (ग्रा०) भुना हुआ मटर । __ भय, डर। डमर- संज्ञा, पु. (दे०) डर या भय से | डराना-स० क्रि० दे० (हि. डरना ) भय भागना, एक राजा को दूसरे का भय, | दिखाना, भयभीत करना । लड़ाई, युद्ध । डरालू--वि० दे० (हि. डर+आलू-प्रत्य०) डमरुश्रा--संज्ञा, पु० (दे०) गठिया बात । डरपोक, भीरु। डमरू-संज्ञा, पु० दे० (सं० डमरू ) डमरू डरावना-स० क्रि० दे० (हि. डराना) भय बाजा, हुड़क, चमत्कार, श्राश्चर्य । भीत करना, डर दिखाना । वि० भयानक । डमरूमध्य-संज्ञा, पु० यौ० (सं० डमरू+ | डगवा-संज्ञा, पु० दे० (हि० डराना) डराने मध्य) पृथ्वी के दो बड़े विभागों को मिलाने | वाली बात, खटखटा, धड़का, पक्षी आदि वाला पतला भू-भाग, स्थल डमरूमध्य । के डराने को पेड़ की डाली में बँधा एक विलो०---जल डमरूमध्य। मोटा छोटा बाँस या कनस्टर आदि। डमरू-यंत्र--संज्ञा, पु० यौ० ( सं० डमरू -|- डरिया--संज्ञा, खो० (दे०) डाल, पेड़ों से यंत्र ) पारा श्रादि के शोधनार्थ एक हाँडी में | निकली छोटी मोटी शाखा। पारा रख उसके ऊपर दूसरी का मुँह से | डरी--- संज्ञा, स्त्री० (दे०) डली, सुपारी, छोटे मुँह मिला कपड़-मिट्टी करना (वैद्य०)। टुकड़े । अ० क्रि० स्त्री० डरगयी। डयन-संज्ञा, पु. (सं०) उड़ना, आकाश डरीला-वि० दे० (हि० डाल) डलीवाला। मार्ग में चलना। (सं० दर ) डरावना, भयंकर। डर--संज्ञा, पु. दे० (सं० दर ) भय, त्रास, डरौना--वि० दे० (हि० डरना) भयंकर, भीति, आशंका । " जाके डर डर कहँ डर भयानक । होई"-रामा०। डल--संज्ञा, पु० दे० (हि० डला) खंड, भाग, डरना-अ० क्रि० दे० (हि. डर+ना टुकड़ा । संज्ञा, स्त्री० कश्मीर की झील | डलला-अ. क्रि० दे० (हि० डालना) पड़ना, प्रत्य०) अाशंका करना, भयभीत होना । डाला जाना। डरपना --- अक्रि० (हि० डरना) डरना, डलवा - संज्ञा, पु० (दे०) टोकरा, झौवा । भयभीत होना। "प्रिया हीन डरपत मन मोरा"- रामा० ! " डरपति फूल गुलाब डलवाना--स० क्रि० (हि० डालना का प्रे० के"-वि०। रूप ) दूसरे से डालने का काम लेना। डला-संज्ञा, पु० दे० (सं० दल ) किसी डरपाना-- स० कि० दे० (हि० डराना) डर वस्तु का टुकड़ा, खंड । स्त्री० डली । भय या शङ्का दिलाना, डराना, डरवाना। डलिया-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि० डला ) छोटा डरपोंक-वि० दे० (हि. डरना-+-पोकना ) डला. टोकरी, दौरी, बँसे लिया। कादर, कायर, भीरु, डरने वाला, डर। डली-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि० डला) किसी डरवाना-२० क्रि० दे० ( हि० डरना ) भय | वस्तु का छोटा सा टुकड़ा, भाग, सुपारी। या डर दिखाना, डराना। संज्ञा, स्त्री० (दे०) डलिया। For Private and Personal Use Only Page #799 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir डसन ७५८ डोड़ डसन-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० दंशन ) काटने | डहरी-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. डगर ) मार्ग, की क्रिया, भाव या ढंग। पंथ, राह. डहारि (ग्रा०)। " रोकत डहरि डसना-स० क्रि० दे० (सं० दंशन) साँप महरि तेरो सुत ऐसो है अनियारो"-स्फु० । श्रादि विषधर कीड़े का काटना या बिच्छू डहरना-अ. क्रि० दे० (हि. डहर ) पादि का डंक मारना । "साँप हम को डसि | चलना, जाना, राह लेना। लीन्यो"-रत्ना०।। डहराना-स० क्रि० दे० (हि. डहरना) डसाना-स० क्रि० दे० (हि० डसना का चलाना, ले जाना। प्रे० रूप ) किसी विषैले जन्तु के द्वारा किसी उहरि-डहरिया-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. को कटवाना, डसवाना, दसाना (ग्रा०); डगर ) मार्ग, पंथ, राह । कि० (दे०) दसाना, बिछाना। डहार--संज्ञा, पु० दे० (हि. डाहना ) तंग इसौना--संज्ञा, पु० (दे०) विस्तर, बिछौना, करने या दुख देने वाला, डाहने वाला। दसना, दसौना (दे०)। डह-संज्ञा, पु० (दे०) बड़हर का पेड़ तथा डहक-संज्ञा, पु० (दे०) कंदरा, गुफा, खोह, __ फल या फूल । छिपने की जगह । डॉक-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. दमक ) ताँबे डहकना-स० क्रि० दे० (हि. डाका) धोखा | श्रादि का बारीक पत्तर जो बहुधा नगीनों देना, छल करना, जट लेना, ठगना, भरोसा के तले रखा जाता है । संज्ञा, स्त्री० दे० या लालच दे फिर न देना । (प्रे० रूप ) (हि. डॉकना ) वमन, कै। संज्ञा, पु० दे० डहकाना । अ० क्रि० दे० (हि. दहाड़, (हि० डंका ) छोटा नगाड़ा । " दान डॉक धाड़) विलाप करना, विलखना, दहाड़ बाजै दरवारा"-प० । विच्छू आदि मारना । अ० क्रि० (दे०) फैलाना, छितराना। का डंक । “दै बीबी के डाँक "-वि०। डहकाना–स० क्रि० दे० (हि. डाका ) डाँकना-स० क्रि० दे० (सं० तक चलना) खोना, गँवाना, नष्ट करना । अ० कि. लाँघना, फाँदना, वमन या कै करना। (दे०) धोखे में आकर अपना धन खो देना, डाँग-संज्ञा, स्त्री० (दे०) पहाड़ के ऊपर की ठगा जाना । स० क्रि० (दे०) धोखा देकर जमीन, वन । संज्ञा, पु० कूद, फलाँग, लट्ठ । किसी की चीज़ ले लेना, ठग लेना, देने डाँगर-वि० (दे०) पशु, चौपाये, भैंसा। को कह कर न देना । ( पू० का० ) डहकि । डॉट-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० दांति ) घुड़की, डपट, फटकार । डहडहा-वि० दे० (अनु०) हरा-भरा, डाँटना-स० क्रि० दे० (हि. डाँट) घुड़कना, ताज़ा, उसी समय का । (स्त्री० डहडही)। डपटना, डराने को ज़ोर से चिल्लाना । डहडहाह - संज्ञा, स्त्री. (हि. डहडहा ) डांट-डपट-संज्ञा, स्त्री० यौ० (हि.) डराने हरापन, ताज़गी, प्रफुल्लता, आनन्द । __ या धमकाने को घुड़कना, डपटना, तिरस्कार डहडहाना-अ० क्रि० दे० (हि. डहडहा ) करना। पेड़ों आदि का भली भाँति हरा-भरा | डाँठ-डाँठला—संज्ञा, पु० दे० (सं० दंड ) होना, प्रसन्न होना, लहलहाना। पौधे का डंठल । डहन-संज्ञा, पु० दे० ( सं० डयन ) पक्षियों डाँठी-संज्ञा, स्त्री० (दे०) डंडा, डाली, डाँठ । के पंख, पर । अ० कि० जलन । डाँड... संज्ञा, पु० दे० (सं० दंड) डंडा, डहना-अ० क्रि० दे० (सं० दहन ) जलना, गदका, नाव खेने का बल्ला, सीधी रेखा, द्वेष करना, बुरा मानना । स० कि० (दे०) ऊँची मेंढ़, छोटा भीटा या टीला, सीमा, भस्म करना, दुख देना, दहना। जुरमाना, हरजाना। For Private and Personal Use Only Page #800 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ७८९ डाँड़ना डाख डोड़ना-अ० कि० दे० (हि० डाँड ) दंड वह स्थान जहाँ सवारी के घोड़े या हरकारे लेना, जुरमाना करना। बदले जाँवें । सरकार की तरफ से चिट्ठियों के डाँडा- संज्ञा, पु० दे० (हि० डाँड़ ) डंडा, आने जाने का प्रबंध, जो कागज़-पत्र डाक छड़, नाव खेने का डाँड, सीमा, मेंड़ । से आवे । संज्ञा, स्त्री० ( अनु० ) वमन, कै। डाँडा-मेंडा-संज्ञा, पु० यौ० दे० ( हि० डाँड | संज्ञा, पु. ( वंग० ) नीलाम की बोली। + मेंड़ ) अति निकटता, झगड़ा। डाकखाना--संज्ञा, पु० यौ० (हि. डाक+ डाँडी- संज्ञा, स्त्री० दे० ( हि० डाँड़ ) किसी ख़ाना फ़ा० ) लेटर बक्स में चिट्ठियाँ छोड़ने, चाकू श्रादि का बेंट, हत्था, दस्ता, तराजू मनीआर्डर करने और बाहर से आई हुई की लकडी, पेड़ की टहनी, हिंडोले की चिट्ठियाँ लेने का स्थान, पोस्ट आफिस (अं०)। रस्सियाँ, डाँड़ खेने वाला, सीधी रेखा, डाकगाड़ी-संज्ञा, स्त्री० यौ० दे० (हि० डाक लीक, मर्यादा, पक्षियों के बैठने का अड़ा। +गाड़ी ) डाक ले जाने वाली रेल गाडी। झप्पान ( प्रान्ती० )। डाकघर - संज्ञा, पु. यौ० दे० (हि० डाक-+ डाँढरी-संज्ञा, स्त्री० (दे०) भूनी हुई मटर घर) डाकखाना, पोस्ट आफिस । की फली। डाकना-स० क्रि० दे० (हि. डाँक+ना) डाँबू-संज्ञा, पु० (दे०) दलदल में उत्पन्न होने लाँघना, फाँदना । अ० क्रि० दे० (हि. डाक) वाला नरगट या नरकुल । वमन, कै करना। डॉमाडोल-संज्ञा, पु० दे० (हि. डोलना ) डाकबंगला-- संज्ञा, पु० यौ० (हि. डाक+ अस्थिर, चंचल, डाँवाँडोल (दे०)। बंगला ) अफ़सरों या परदेशियों के टिकने डाँवरा - संज्ञा, पु० दे० ( सं० डिव ) लड़का, का सरकारी घर। पुत्र । ( स्त्री० डाँवरी)। डाका संज्ञा. पु० दे० (हि. डाकना या डाँवरी - संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० डिंव) लड़की, सं० दस्यु ) माल लूटने को जन-समूह का बेटी या बिटिया, पुत्री। धावा, बटमारी (व्र०)। डाँवरु-संज्ञा, पु० दे० (सं० डिव ) बाघ डाकाज़नी--संज्ञा, स्री० यौ० (हि० डाका+ का बच्चा। ज़नी फ़ा० ) डाका डालने या मारने का डाँवाँडोल-वि० दे० यौ० (हि. डालना ) | कार्य, बटमारी।। इधर-उधर फिरना, स्थिर न रहना, चंचल, डाकि डाकिनी-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० अस्थिर । "डाँवा डोल रहै मन निसदिन"। डाकिनी ) डाइन, भूतिनी, पिशाचिनी, डाँस-संज्ञा, पु० दे० सं० दंश) वन-मच्छड़। काली जी की दासी। डाइन-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० डाकिनी ) | डाकिया-संज्ञा, पु० दे० (हि. डाक) डाकू, भूतिनी, चुडैल, टोनहाई स्त्री, कुरूपा और | डाक ले जाने वाला, पियून, पोस्ट मैन (अं०)। डरावनी स्त्री, डाकिनी। डाकी-वि० दे० (हि. डाक ) बहुत खाने डाक --- संज्ञा, पु० दे० (हि. डॉकना) बराबर या काम करने वाला, खाऊ, पेटू, वमन, के। दूरी पर ऐसा सवारी का प्रबंध कि तत्काल | डाकू-संज्ञा, पु० दे० (हि० डाकना सं० दस्यु) बदली जा सके । मुहा०-डाक बैठाना डाका डालने या लूटने वाला, लुटेरा । या लगाना कोई यात्रा जल्दी पूर्ण करने | डाकोर-संज्ञा, पु० दे० (सं० ठक्कुर) ठाकुर के लिये और ठौर सवारी के बदले जाने का जी, विष्णु जी, (गुज.)। ठीक ठीक प्रबंध करना या चौकी नियत डाख-संज्ञा, पु० दे० ( सं० आषाढक) ढाख, करना । यौ० -डाका चौकी-रास्ते का या ढाक, पलाश, छिउल (प्रान्ती०) । For Private and Personal Use Only Page #801 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir डागा ७६० डाघरा डागा-संज्ञा, पु० दे० (सं० दंडक ) नगाड़ा डामल-संज्ञा, स्त्री० दे० (अ० दायमुल हव्स) बजाने की चोब या छड़ी। जन्म कैद, देश निकाला। डागुर-संज्ञा, पु० (दे०) जाटों की एक जाति। डामाडोल- वि० (दे०) चञ्चल, अस्थिर । डाट-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० दान्ति ) टेक, डायँ डाय-क्रि० वि० ( अनु० ) व्यर्थ मारे चाँड़, छेद बंद करने की वस्तु, काँच की मारे फिरना, व्यर्थ घूमना। शीशी या बोतल आदि के मुख को बंद डायन--संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० डाकिनी) करने वाला काग, गट्टा, ठेठी, मेहराबदार राक्षसी, पिशाचिनी, चुडैल, कुरूपा स्त्री। दरवाजे या छत को रोकने के ईंट आदि की डार -- संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० दारु ) पेड़ की भरती । संज्ञा, पु. (सं० दांति शासन, . शाखा डालो, डाल. तलवार का फल, फानूस दबाव, डपट, फटकार, घुड़की। के लिये दीवाल में लगी खूटी । “ठाढ़े हैं डाटना-स० क्रि० दे० (हि० डाट ) किसी नवद्रुम डार गहे "-कवि० । चीज़ को कस कर दूसरी पर दबाना, दो डारना--स० कि० दे० ( सं० तलन ) फेंकना, वस्तुओं को मिला कर ठेलना, टेकना ठेक | नीचे गिराना, छोड़ना, डालना । या चाँड़ लगाना, छेद बंद करना, हँस कर डारिया-संज्ञा, पु० दे० (हि. डार + इया भरना, पेट भर कर खाना, गहने और कपड़े ----प्रत्य०) अनार ( वृत्त, फल ) दाडिम । आदि भली भाँति पहनना, मिलाना। डाल-संज्ञा, स्त्री० (सं० दारु ) वृक्ष की डाढ़-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० दंष्ट्रा ) चौड़े शाखा, डार, डाली। वि० स० क्रि० (हि. दांत, दाढ़। डालना ) डालो। डादना*-स० क्रि० (सं० दग्ध) जलाना । "जैसे डाढयो दूध को"-वृ०। डालना-स० क्रि० दे० (सं० तलन ) किसी डाढ़ा-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० दग्ध ) वस्तु को नीचे गिराना, फेंकना, छोड़ना, दावानल, श्राग, दाह, जलन, छौंक । उडेलना । मुहा०-डाल रखना--रख छोड़ना, देर लगाना, रोक रखना । एक डाढ़ी-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. डाड़ ) ठोड़ी, पदार्थ को दूसरे पर गिराना, छोड़ना, टुड्डी, चिबुक, दाढ़ी। रखना, मिलाना, घुसेड़ना, प्रवेश करना, डाब-संज्ञा, पु० (दे०) कच्चा नारियल, तलवार पता या खोज-खबर न लेना, भुला देना, लटकाने का परतला, डाभ, दर्भ, कुश ।। चिन्ह बनाना, फैला कर रखना, पहनना, डाबर, डबरा-संज्ञा, पु० दे० (सं० दभ्र०) किसी के जिम्मे करना या भार देना, गर्भ गड़ही, पोखरा, पोखरी, गड़हा, तलैया, गिराना, उलटी या न करना, पर स्त्री को मैलापानी । “डावर जोग कि हंस कुमारी"। पत्नी बनाना, काम में लाना, लगाना। " भूमिपरत भा डाबर पानी"- रामा० । | डालिय-संज्ञा, पु० दे० (हि. डाल + डाबा-संज्ञा, पु० दे० (सं० डिव ) डब्बा, इय-प्रत्य० ) दाडिम, अनार । संपुट, रेल गाड़ी का एक कमरा, डिब्बा । डाली-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि० डाला) टोकरी, डाभ-संज्ञा, पु० दे० ( सं० दर्भ) कुश, कच्चा डलिया, भेंट करने के फल, फूल, मेवे आदि नारियल, आँबिया, बौर। रखने की डालिया । संज्ञा, स्त्री. हि० डाल) डामर-संज्ञा, पु० दे० (सं०) एक तंत्र, धूम, । पेड़ की शाखा, डारी (द०)। हलचल, ठाठ-बाट, आडम्बर, चमत्कार, डावरा-- संज्ञा, पु० प्रान्ती ( सं० डिव) लड़का, तारकोल जैसा एक पदार्थ । बच्चा, बालक, बेटा । ( स्त्री. डावरी)। For Private and Personal Use Only Page #802 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir डावरी डिबिया डावरी-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. डावरा) डिबक-संज्ञा, पु. (सं०) एक राना जो श्री लड़की, कन्या, पुत्री। कृष्ण जी से लड़ा था। डासना--संज्ञा, पु० दे० (हि. डाभ+ डिबिका-संज्ञा, स्त्री. (सं०) कामिनी, प्रासन ) बिछौना, विस्तर, कथरी, दसना । कामुकी, जल नीम्ब । साथरी (ग्रा.)। | डिभ-संज्ञा, पु० (सं०) छोटा बच्चा, मूर्ख । डासना-स. क्रि० दे० (हि. डासन) संज्ञा, पु० (सं० दंभ ) पाखण्ड, आडम्बर, बिछाना, फैलाना, डालना । स० कि० दे० अहंकार घमण्ड । (हि० डसना ) डसना, काटना । पू० का० डिभक-संज्ञा, पु. (सं०) बालक, लड़का । क्रि० डासि-डासो-बिछाकर । “तिन डिभा--संज्ञा, स्त्री० (सं०) गदेला (ग्रा०) किसलय कुस सम महि डासी"-रामा०। शिशु, दुधमुहाँ बच्चा । डासनी-- संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. डासना) डिगना-अ० क्रि० दे० (सं० टिक ) अपनी पलँग, खटोली, खाट, चारपाई, बिछौना, जगह से खिसकना या हटना, स्वस्थान, तोषकादि, साथरी, दसनी (ग्रा० । । छोड़ना, हिलना, चञ्चल होना । 'डिगै डाह-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० दाह) जलन, न संभु सरासन कैसे" -रामा० । द्वेष, ईर्ष्या । " तिनके तिलक डाह कस | डिगलाना-अ० कि० दे० (हि० डगमगाना) तोही".-रामा० । इधर-उधर हिलना, डोलना, खिसकना, डाहना-स० क्रि० दे० (सं० दहन ) किसी काँपना। को जलाना, तंग करना. सताना, चिढ़ाना। | दिगाना-स० क्रि० दे० (हि० डिगना ) डाही वि० दे० (हि० डाह + इन-प्रत्य०) | किसी भारी चीज़ को हिलाना, खिसकना, जलाने वाला, द्वेषी, द्रोही, ईर्ष्या, क्रोधी, हटाना, चलाना, सरकना, विचलित करना । मन्दाग्नि रोगी। स० कि० सा० भू० स्त्री० डिग्गी -- संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० दीर्घका) पक्का तालाब । संज्ञा, स्त्री. (दे०) साहस, (सं० दहन ) जलादी। हिम्मत, हियाव (ग्रा० )। डाहुक-संज्ञा, पु० (दे०) एक पक्षी। | डिठार, डिठियार-वि० दे० (हि. डोठ डिंगर-- संज्ञा, पु० (सं.) स्थूल या मोटा == निगाह ) कुदृष्टी, देखने वाला, जिसे आदमी, दुष्ट श्रादमी, दास । संज्ञा, पु० (दे०) दिखाई दे, टोना मारने वाला। (सं.) दुष्ट चौपायों के गले में रस्सी से डिठौना - संज्ञा, पु० दे० (हि. डीठ ) बाँध कर आगे के पैरों के बीच में लटकाने लड़कों के मत्थे में नज़र से बचाने को का काठ जिससे वे भाग न सके । काजल का टीका, डिठौरा (ग्रा०)। डिंगल- वि० दे० (सं० डिंगर ) नीच, बुरा, " राजत डिठौरा मुखससि को कलंक दूषित । संज्ञा, स्त्री० (दे०) भाटों की काव्य- है"- कुं० वि०। भाषा ( राज पू० )। डिढ़ाना- स० क्रि० दे० (सं० दृढ़) पक्का डिंडसी-संज्ञा, स्त्री० (दे०) एक बेलि जिसके । या दृढ़ करना। पु० का० डिढ़ाय डिढाइपत्तों की तरकारी बनाई जाती है। "कहेसि डिदाय बात दशकंधर"-रामा० । डिब-संज्ञा, पु० (सं.) शोर, गुल, डर की डिढ़यां-संज्ञा, स्त्री० (दे०) इच्छा, कामना, श्रावाज़, झगड़ा, लड़ाई, दंगा, फसाद, तृष्णा, लालसा, चाह ।। अंडा, केकड़ा, प्लीहा, तापतिल्ली, कीड़े डिबिया - संज्ञा, स्त्री० दे० (हि० डिब्बा ) का बच्चा। | डबिया, छोटा डिब्बा। For Private and Personal Use Only Page #803 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir डिब्बा PATH ७६२ डुबाना डिवा-संज्ञा, पु० दे० (सं० डिव ) डब्बा, डीला-संज्ञा, पु० (दे०) डेला, ढेला, मिट्टी बड़ी डिबिया । स्त्री० डिब्बी। । का टुकड़ा, बैलों का ठिठौरा ।। डिभगना-स० क्रि० (दे०) मोहित करना, | डीह- संज्ञा, पु० दे० (फा० देह ) गाँव, छलना, डहकना। श्राबादी, बस्ती, उजड़े गाँव का टीला, डिम - संज्ञा, पु० (सं०) नाटक का एक भेद, ग्रामदेव, ढीह (ग्रा.)। ( नाट्य० ) संग्राम । डीहा—संज्ञा, पु. दे. (हि० डीह ) मिट्टी डिमडिमी--संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० डिंडिम) का ऊँचा ढेर, टीला, पहाड़ी। डुग्गी, बाजा, डमरू का शब्द । | डंग-संज्ञा, पु० दे० (सं० तुंग) किसी डिल्ला--संज्ञा, पु० दे० (सं०) प्रति चरण | वस्तु का ढेर, टीला, भीटा, पहाड़ी। में १६ मात्राओं और अंत में एक भगण | डंडा -- संज्ञा, पु० दे० (सं० दंड ) हूँठ । युक्त छंद, प्रति चरण में २ सगण वाला | डुक-संज्ञा, पु० (दे०) चूसा, मुक्का, मार | छंद, बैलों का ठिठौरा, (ग्रा.)। डुकर या डुकरा- संज्ञा, पु. (दे०) बूढ़ा, डींग--संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० डीन) शेख़ी, बुड्ढा, पुराना, जीर्ण. डोकरा (प्रान्ती.)। शान वाली बात, अपनी बड़ाई. श्रात्म- डुकरिया-संज्ञा, स्त्री० दे० ( हि० डुकरा ) प्रशंसा । मुहा०--डींग हाँकना (मारना) वृद्धा, बुढ़िया, डोकरी। -शेखी बघारना, बढ़ बढ़ कर शान वाली | डुगडुगाना-अ. क्रि० (दे०) डुग डुग बात करना । अ० क्रि० (दे०) डोंगना। करना, डंका या नगाड़ा पीटना या बजाना। डीठ, डीठि --- संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० दृष्टि) | डुगडुगी - संज्ञा, स्त्री० दे० ( अनु० ) डुग्गी, निगाह, दृष्टि, दीठि, देखने की शक्ति, समझ, डौंडी ( ग्रा० )। ज्ञान । स० क्रि० (दे०) डीठना .. " सो | डुग्गी-- संज्ञा, स्त्री. ( अनु० ) डुगडुगी, खुसरो हम आँखिन डीठा ।" बाजा, भेजा. सिर के पीछे का भाग (ग्रा०)। डीठना-अ० क्रि० दे० (हि० डीठ ) देख डुगडु डुण्डुभ-संज्ञा, पु० दे० (सं०) साँप पड़ना, दिखाई देना, निगाह में आना। | ( पनिहाँ)। " संतों राह दोऊ हम डीठा"-कबी० । । डुपटना-स० क्रि० दे० (हि० दोन पट ) स० क्रि० दिखाना, नज़र लगाना । कपड़ा चुनना, चुनियाना या तह करना । डीठिभूठि*-संज्ञा, स्त्री० यौ० दे० (हि. डुपट्टा-संज्ञा, पु० दे० (हि. दो+पट ) डीठ -+-मूठ ) जादू, टोटका, टोना, नज़र । चादर, चादरा, दुपट्टा, द्विपट, दुपटा । डीठबंध-संज्ञा, पु० दे० यौ० (सं० दृष्टिबंध) डुबकी-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि० डूबना ) पानी नज़रबंदी, इन्द्रजाली, जादूगर, इन्द्रजाल । में गोता लगाना या डूबना, बुड़की, दुब्बी, डिठबंध (दे०)। बिना तली उद की बरी, बुड्डी (ग्रा०)। डीबुआ-संज्ञा, पु० (दे०) पैसा । "डुबकी लैं उझकी पर्यो त्यों केस अानन डीमडाम - संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० डिंब) पैमानौ ससिमंडल पै श्याम घन घिरिगो।" टीमटाम, ठाठ-बाट, उसक, ऐंठ, ठाठ। डुबाना-स० क्रि० (हि. डूबना ) पानी डील-संज्ञा, पु० दे० (हि. टीला) जीवों | श्रादि में किसी को गोता देना, बोरना, के शरीर की ऊँचाई, क़द, उठान । यो..- किसी वस्तु को नाश या चौपट करना, डील-डौल-शरीर का विस्तार, लंबाई- बिगाड़ देना, अस्त करना, डुबाना, बुडाना चौड़ाई-मुटाई, शरीर का ढाँचा, काठी, (ग्रा० )। मुहा०-नाम डुबाना नाम प्राकार, देह, प्राणी, मनुष्य । में ऐब लगाना, मान-मर्यादा खोना, यश For Private and Personal Use Only Page #804 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir या ख्याति को नष्ट करना। लुटिया डुबाना चित्त घबराना या व्याकुल होना, बेहोश (डूबना )- बड़ाई या इज्ज़त मिटाना। हो जाना, ग्रहों का अस्त होना, जैसे सूर्य डुबाव -संज्ञा, पु० दे० ( हि० डूबना ) डूबने । डूबना, चौपट या नष्ट होना, खराब या योग्य, पानी की गहराई। बरवाद होना, बिगड़ जाना । मुहा०-नाम डुबोना-स. क्रि० (हि० डुबाना) दुबाना । डूबना-बड़ाई या प्रतिष्ठा नष्ट होना, इभकौरी-संज्ञा, स्त्री० ( हि० डुबकी+बरी) इज्जत मिटना, बदनामी होना । किसी को बिना तली हुई उर्द की बरी। उधार दिये या किसी धंधे में लगाये हुए डुरियाना-स० कि० (दे०) चलाना, फिराना, धन का नष्ट हो जाना, चिन्ता में मग्न ले चलना, रस्सी में बाँधकर घुमाना, घोड़े । होना, लीन या तन्मय या लिप्त होना । को बागडोरी के द्वारा ले चलना ।। डूबा-वि० दे० (हि० डूबना) डूबा हुआ, इलना-अ.क्रि० दे० ( हि० डालना ) | निमग्न । संज्ञा, पु. पानी का अधिक पाना. हिलना, चलना, काँपना। बूड़ा (ग्रा.), बाढ़, मूर्छा । " डूबा बंस डुलाना-स० कि० दे० (हि. डोलना) | कबीर का, उपजे पूत कमाल "-कबी०। चलाना, हटाना. हिलाना, भगाना, घुमाना, डेंडसी-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० टिंडिस ) फिराना । “ विजन डुलाती थीं वे बिजन | टिंड, टिंडसी, ककरी सी एक तरकारी। डुलाती हैं ''-भू.। डेउढ़-संज्ञा, पु० (दे०) बन्दूक की बाढ़, इंगर-संज्ञा, पु० दे० (सं० तुंग) मिट्टी डेवढ़ा, डेढ़ । डेउढ़ा-संज्ञा, पु० दे० (सं० आदि का ढेर, पहाड़ी टीला, भीटा, । अध्यर्द्ध) आधा और एक, ड्योढ़ा । स्त्री० ( ग्रा.)। इंगर को घर नाम मिटावे " डेउढी, ड्योढ़ी। -प्रेम० । एक जाति । डेउढ़ी-संज्ञा, स्त्री० (दे०) दरवाजा, फाटक डंगरी-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० तुंग, हि० पौर, ड्योढ़ी (ग्रा.)। "डंगर) छोटा टीला याभीटा, छोटी पहाड़ी। डेग-संज्ञा, पु० (दे०) देग, पद, पग, दो ईंगी-संज्ञा, पु० दे० (सं० तुंग ) चम्मच, | पैरों के बीच की भूमि जो चलते समय "डोंगा, रस्सी का गोल लच्छा। छूटती जाती है। इँडा-वि० (दे०) छोटे या बिना सींग | डेगना-संज्ञा, पु० (दे०) ठेकुर, डेंगना, अडया एक सींग का बैल, श्राभूषण-रहित स्त्री गोड़ा, चौपायों के अगले पैरों के बीच में का हाथ । स्त्री. डॅडी । लो०-" डंडी लटकाई गई लकड़ी जिसमें वे भाग न सकें। गइया सदा कलोर।" डेठी-संज्ञा, स्त्री० (दे०) डंडी, नाल ! वि. डूबना-अ. क्रि० दे० (अनु० डुब डुब)। डेउदी। पानी आदि द्रव पदार्थों में घुस जाना, डेडहा-संज्ञा, पु० दे० (सं० डुडुभ ) पनिहाँ समा जाना, मग्न होना, बूड़ना, गोता | साँप । खाना । मुहा०-डूब मरना-लजा के | डेढ़-वि० दे० (सं० अध्यर्द्ध) एक पूरा मारे मुख न दिखाना। "गर बाँधि कै । और उसी का प्राधा, सार्द्ध । मुहा०-डेढ़ सागर डूबि मरौ"-राम० । चुल्लू भर ईट की मसजिद (दीवाल) बनानापानी में डूब मरना-बहुत लजित होना मारे शेखी के सब से अलग काम करना । किसी को अपना मुख न दिखाना। (मन | डेढ़ (ढाई ) चावल की खिचड़ी में ) इबना-उतराना-चिन्ता-मग्न होना, ! पकाना-अपनी सम्मति या राय सब से सोच विचार में पड़ जाना। जी डूबना- | पृथक रखना। भा. श. को.-१.. For Private and Personal Use Only Page #805 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org डेढ़ा डेढ़ा - वि० दे० ( हि० डेढ़ ) डेवदा, डेउढ़ा, यौदा | संज्ञा, पु० प्रत्येक संख्या का डेढ़ गुना बताने का पहाड़ा । डेना - संज्ञा, पु० (दे०) परदेश का घर, घर, तम्बू, नाचने-गाने वालों की मंडली । वि० बाँया डेबरा ( ग्रा० ) । डेरा संज्ञा, पु० दे० ( हि० ठहरना ) पड़ाव, टिकाव, तम्बू, सामान असबाब, सामग्री । मुहा० - डेरा डालना – किसी जगह जाकर उतरना, ठहरना, रहना, अपना डरना) सामान फैला कर रखना। डेरा कूच होना — यात्रारंभ हो जाना । डेरा पड़नाटिकान या ठहराव होना ठहरने की जगह, खेमा, झोपड़ा, छोटा घर । - वि० (सं० डहर ) बाँयाँ. सव्य । डेराना - - अ० क्रि० दे० ( हि० भयभीत होना, डरना, डराना । डेल - संज्ञा, पु० दे० (सं० डुंडुल ) घुग्घू. उल्लू, चिड़िया । संज्ञा, पु० ( सं० दल ) ढेला, रोड़ा, पत्तियों के बंद करने का भावा । डेला -संज्ञा, पु० दे० (सं० दल ) धाँख का सफ़ेद उभरा हुआ भाग जिसके बीच में पुतली रहती है, रोड़ा या कोया, ढेला, डेल । डेली' – संज्ञा, स्रो॰ ( हि० ब्ला) छोटा झाबा, डलिया, खाँची, दौरी, टोकरी, छोटा डेला । - ७६४ डोमड़ा डोंगर - संज्ञा, पु० दे० (सं० तुंग) पहाड़ी, टीला | डेहरी - संज्ञा, स्त्री० (दे०) देहली । डैना - संज्ञा, पु० दे० ( सं० डयन ) पक्षियों का पंख, पर, बाजू, पक्ष, मनुष्यों के हाथ । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir डोंगा - संज्ञा, पु० दे० (सं० द्रोण ) छोटी नाव, बिना पाल की नाव । त्रो० डोंगी । डोंगी - संज्ञा, त्रो० दे० (हि० डोंगा ) छोटा डोंगा, डोंगिया, बहुत छोटी नाव । डोंड़ा - संज्ञा, पु० दे० (सं० तुण्ड ) टोंटा, कारतूस, बड़ी इलायची, मदार का फल | " थॉबन की हौंस कैसे श्राक-ड़ेोड़े जात है" — सुन्दर० । डोंड़ी-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० तुण्ड ) पुस्ता का फल, उठा हुधा मुख, टोंटी । डोई - संज्ञा, त्रो० दे० (हि० डोकी) गरम दूध और शकर की चाशनी चलाने की काठ की डाँड़ी लगी कलछी । -- डोकरा – संज्ञा, पु० दे० (सं० दुष्कर ) बहुत बूढ़ा पुरुष, वृद्धतर वृद्धतम । स्त्री० डोकरी । डोकरी - संज्ञा, त्रो० दे० (हि० डोकरा ) बहुत बूढ़ी स्त्री, डोकरिया, डुकरिया (ग्रा० ) । डोका - संज्ञा, पु० (दे० ) तेलादि रखने का काठ का छोटा पात्र, बूढ़ा मनुष्य । डोकिया- डोकी - संज्ञा, स्त्री० दे० ( हि० डोका ) तेल, उबटनादि रखने का काठ का एक छोटा बरतन । डोडो – संज्ञा, पु० ( ० ) बतख़ ऐसा पक्षी, ( अब अप्राप्य ) डोब-डोबा - संज्ञा, पु० दे० ( हि० डूबना ) डुबाने का भाव, डुबकी, बुड्डी, गोता । डेोबना - स० क्रि० दे० (हि० डुबना) डुबाना, बोरना । 66 इत माया अगाध सागर तुम stबहु भारत नैया ". -सत्य० । डेाम – संज्ञा, पु० दे० ( सं० डम) एक नीच जाति, दुमार, भंगी, धानुक, ढाढी, मीरासी ( प्रान्ती० ) । त्रो० डामिनी । डेवढ़ा - वि० दे० ( हि० डेवढ़ा ) डेउढ़, डेउड़ा, ड्यौद, डेढ़ गुना | संज्ञा, स्त्री० (दे०) ढंग, क्रम, सिलसिला, तार । मुहा० - ड्योढ़ बैठना — सिलसिला लगना । डेवढ़ा - वि० संज्ञा, पु० ( हि० डेढ़ ) ड्यौदा, डेढ़ गुना, श्राधा और एक इंटर क्लास ( रेल० ) । डेवढ़ी -संज्ञा, स्रो० (सं० देहली ) द्वार, डोमकौआ - संज्ञा, पु० दे० यौ० ( हि० चौखट, फाटक पौरी, ड्योढ़ी । डोम + कौश्रा) बड़ा और बहुत काला कौथा । डोमड़ा - संज्ञा, पु० दे० ( हि० डोम ) डुमार, डोमरा. भंगी, डोमार, मेहतर, ढाढी, मीरासी ( प्रान्ती० ) । For Private and Personal Use Only Page #806 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir डोमिन-डोमिनी ७६५ डौलियाना डोमिन-डामिनी-सज्ञा, स्त्री० (हि. डोम ) | होना, डिगना, हिलना। "पीपर-पात-सरिस दुमारिनी, दुमारिन, डाम की स्त्री, ढादिनी, मन डोला -रामा० । मीरासिनी (प्रान्ता०)। "औसर चूकी डोमिनी | डोला-सज्ञा, पु० दे० (सं० दोल ) झूला, गावे सारो रात” लो। पालकी, मियाना, डोली, पैंग। स्त्री० डोर--सज्ञा, स्त्री० दे० (सं० डोरक ) धागा, | डाली। मुहा०-डाला देना-अपनी तागा, डोरा, आँखों की महीन लाल नस, लड़की देना। डाला लाना-लड़की को गर्म घी या तलवार की धार, एक करछी। वर के घर पहुँचा देना। स्त्री० डोरी । मुहा० डोरा डालना डोलाना--स० क्रि० दे० (हि. डोलना) स्नेह के तागे में बाँधना, परचाना । सुराग़, हिलाना, चलाना, हटाना, भगाना, दूर पत्ता, काजल या सुरमें की लकीर। करना, कंपित करना। डोरिया-संज्ञा, पु० दे० । हिडोरा) एक डोला-सज्ञा, स्त्री० (हि. डोला) छोटा डा डोरादार कपड़ा, एक बँगला ।। डोला। "पावैति है एक डोली गढ़ लंक सों" डोरियाना-स० क्रि० दे० ( हि० डोरी+ इहै की प्रभु-मन्ना। आना-प्रत्य० ) घोड़े आदि पशुओं को डाही-संज्ञा, स्त्री० दे० ( हि० डोकी ) डोई, डोरी से बाँध कर ले जाना, साथ रखना, करछी। डौंडी-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० डिंडिम ) (लिये फिरना)। "कोतल अस्व जाहिं ढिढोरा, मुनादी, डुगडुगिया, बुग्गी। मुहा० डोरियाये"-रामा०।। -डौंडी देना (पीटना)-मुनादी करना, डारिहार-संज्ञा, पु० दे० (हि० डोरी+ सब से कहते फिरना। डौंडी बजानाहारा-प्रत्य० ) पटवा । स्त्री० डोरि-हारिन, ढिंढोरा पीटना, मुनादी या घोषणा करना, डोरि-हारिनी। जयजयकार होना। डोरी-संज्ञा, स्त्री० (हि• डोरा ) रस्सी, डौंरू-संज्ञा, पु० दे० (सं० डमरू ) ढक्का, रज्जु । मुहा० -डोरी ढोली छोड़ना- डमरू (बाजा)। निगरानी न रखना, चौकसी कम करना। डौबा-संज्ञा, पु० (दे०) काठ का चम्मच । डाँडीदार कटोरा या करछा, डोरा । डौल-संज्ञा, पु० दे० (हि. डोल ) ढंग, डोरे-क्रि० वि० दे० (हि० डोर) अपने साथ __ ढाँचा । मुहा०-डौल पर लाना- काटसाथ लिये, संग संग लिये। छाँट कर सुडौल या दुरुस्त करना । बनावट डोल-सज्ञा, पु. दे. (सं० दोल ) पानी का ढंग, रचना, प्रकार, ढब, तरह, युक्ति, भरने का लोहे का कड़ादार बरतन, झूला, उपाय । मुहा०-डौल पर करनाहिंडोला, डोली, पालकी, हलचल, चंचल । अपने उपयुक्त ठीक करना। डौल बांधना " झूलत डोल दुलहिनी दूलहु"-हरि० । या लगाना-उपाय या कोशिश करना, डोलची-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. ढोल) युक्ति बिठाना । रंगढंग, लक्षण, सामान । छोटा डोल, डाल चिया-अल्पा। यौ० डौलडाल-मतलब, उपयुक्त, अवडोलडाल-संक्षा, पु० दे० (हि. डोलना )। सर या संयोग । डउल ( ग्रा.) घूमना, चलना, फिरना, शौच या टट्टी | डोलदार--संज्ञा, पु. ( हि• डौल+दार जाना ( साधु०)। फा०) सुलक्षण युक्त, सुन्दर । डोलना - स० कि० दे० (सं० दोलन) चलना, डौलियाना-स. क्रि० दे० (हि. डौल ) घूमना, फिरना, हटना, दूर होना, विलित अपने मतलब के पूरा होने के अनुकूल करना, For Private and Personal Use Only Page #807 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ड्यौदा ७६६ पना, ढपना राह या ढंग पर लाना. गढ़ कर ठीक या | ड्योढ़ीदार - संज्ञा, पु० दे० ( हि० ज्यौदी + दार फ़ा० ) द्वार पर पहरे वाला, द्वारपाल, दरवान, प्रतीहार । ड्योढ़ीवान - संज्ञा, पु० ( हि० ब्योढ़ी + वान - प्रत्य० ) द्वारपाल, प्रतिहार, पहरेदार । उपयुक्त करना । ड्योढ़ा - वि० दे० ( हि० डेढ़ ) पूरी चीज़ और उसी का आधा, डेढगुना । यौ० ड्यौदा दर्जा -- (रेल० ) । ड्योढ़ी - संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० देहली) चौखट, फाटक, द्वार, दरवाजा, पौरी । ढ ढ - हिन्दी-संस्कृत की वर्णमाला के टवर्ग ढँगलाना - स० क्रि० दे० ( हि० ढाल ) लुढ़काना, ढनगाना, दुनगाना ( ग्रा० ) नखरा या बहाना करना, होला करना । ढंगी - वि० दे० ( हि० ढंग ) चतुर, चालाक, मतलबी, स्वार्थी । ढँगीला (दे० ) । ढँगियाना – स० क्रि० दे० ( ६ि० ढंग ) ढंग का चौथा वर्णं । ढ - संज्ञा, पु० (सं०) बड़ा ढोल, कुत्ता, ध्वनि, शब्द, नाद । ढँकन -- संज्ञा, पु० दे० (हि० ढँकना) ढक्कन, मुँदना, ढकना । ढकना ढकना - स० क्रि० दे० ( सं० ढक्कन ) ढाँकना, मूँदना, छिपाना । अ० क्रि० दिखाई न देना । सज्ञा, पु० ढक्कन, मुदना । ढंख | संज्ञा, पु० दे० (हि० ढाक, सं० भाषादक) छिउल, पलाश, ढाँक (दे०) । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ढंग - संज्ञा, पु० दे० (सं० तंगन ) रीति, प्रकार, ढब, शैली, बनावट, गढ़न, उपाय, तदवीर, युक्ति | मु० ढंग डालना - स्वभाव या बान डालना । ढंग पर चढ़नामतलब पूरा होने के उपयुक्त होना, कार्य सिद्धि के अनुकूल होना । ढंग पर लाना - कार्य सिद्धि के अनुकूल करना । ढंग लगना - उपाय या युक्ति चलना । ढंग लगाना - स्वार्थ सिद्धि का उपाय करना, उपयुक्त साधन करना | चाल, व्यवहार, आचरण, पाखंड, बहाना, लक्षण, भास | ढंग बैठना ( बैठालना ) - युक्ति लगना, सफलोपाय होना, सिलसिला लगना । यौ० रंग-ढंग - दशा, स्थिति, अवस्था, लक्षण, अवसर । वि० ढंगदार ढंगी, ढँगीला । 'दिन ही मैं लला तब ढंग लगायो - मसि० । पर लाना, उपयुक्त या स्वानुकूल बनाना । देंढार - संज्ञा, पु० दे० ( अनु० धाँय धाँय ) अग्नि ज्वाला, आग की लपट या लौ । ढंढारची - संज्ञा, पु० दे० ( हि० ढंढोरा ) मुनादी करने या डौंड़ी पीटने वाला, ढिढोरा फेरने वाला । ढढारना ढढोलना - स० कि० दे० ( सं० ढुंढन ) द्वंदना, तलाश करना, खोजना | " तहँ लगि हेरै समुद ढंढोरी छान डालना, मथना, टटोल कर खोजना । " सायर माहि ढोलता, हीरे परिगा हत्थ"कबी ० ० । "तुम सूने भवन ढिंढोरे हो" - गदा० । ढंढोरा, ढिंढोरा - संज्ञा, पु० दे० (अनु०ढम + ढोल ) मुनादी करने का ढोल, डौंड़ी, दुगडुगी, मुनादी ( ढोल से ) घोषणा । ढँढोरिया - संज्ञा, पु० ( हि० ढढोरा ) मुनादी और घोषणा करने वाला, डौंड़ी या डुग्गी पीटने वाला, ढोरने खोजने या ढूंढने वाला । कान्ह सों ढ ढोरिया, न मोंसों है छिपैया कोऊ ". - स्फु॰ । ढँपना- ढपना- संज्ञा, पु० दे० (सं० ढक = छिपना) ढक्कन । अ० क्रि० - छिपना, दिखाई न देना । "" For Private and Personal Use Only "" -प० । Page #808 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ढब ढई-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि० ढहना ) धरना | ढटिया- संज्ञा, स्त्री० (दे०) वागडोर, एक देना । " श्राजु मैं लगैहौं ढई नन्द जू के लगाम । द्वारे पर"-स्फुट। ढटींगर-ढटींगड़-संज्ञा, पु० (दे०) बड़े डील ढकना-संज्ञा, पु० दे० (सं० ढक = छिपना) | का, मोटा-ताजा। ढक्कन, मुंदना । ( स्त्री. अल्पा० ढकनी) ढहा- संज्ञा, पु० (दे०) ज्वार-बाजरे का सूखा अ० कि० छिपना, दिखाई न देना, ढांकना। डंठल, साना का एक छोर ।। ढकनिया-ढकनियां -संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. ढही-संज्ञा, स्त्री० (दे०) डादी बाँधने का ढकना ) छोटा ढक्कन या मुंदना । “सुभग कपड़ा, शीशी का कार्क। ढकनियाँ ढाँपि बाँधि पट जतन राखि छीके | ढडकौमा-- संज्ञा, पु० (दे०) जंगली या भयासमदायो”–सूबे०। नक कौश्रा। ढकनी-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि० ढकना) छोटा | ढडवा-संज्ञा, पु० (द०) मैना की जाति का ढक्कन या मुदना। एक पक्षी ढका -संज्ञा, पु० दे० (सं० ढक्का ) बड़ा ढडढा - वि० (दे०) बेढंगा । संज्ञा, पु० पाडढोल । क्रि० वि० (हि० ढकना) छिपा, अदृष्ट। म्बर, ढाँचा। संज्ञा, पु० दे० (अनु० ) धक्का, टक्कर, तौल। | ढडढा-वि० (दे०) बहुत बेढंगा, या बड़ा । ढकिल-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. ढकेलना) संज्ञा, पु. ( हि० ठाट ) झूठा ठाट-बाट, चढ़ाई, आक्रमण, सिमिट कर, ढकेला हुआ। ढकेलना-स० कि० दे० ( हि० धक्का) किसी ___ आडम्बर। ढनमनाना--अ० क्रि० (अनु० ) लुढ़कना, को धक्का दे या ठेलकर गिराना, हटाना या फिसिलना, गिर पड़ना ढनगनाना, ढनसरकाना। ढकला-ढकेली-संज्ञा, स्त्री० यौ० दे० (हि. गाना (दे०)। ढकेलना) रेलापेली, ठेलमठेली, धक्कमधक्का । |ढनमनी-स० क्रि० (अनु०) लुढ़क गयी, ढकेल-संज्ञा, पु० दे० ( हि० ढकेलना ) धक्का फिसल पड़ी, वि० स्त्री० लुढ़कने वाला “रुधिर देने या ठेलने वाला, ढकेलने वाला, हटाने बमत धरनी ढनमनी"-रामा० । या भगाने वाला। ढप-ढफ-संज्ञा, पु० वि० दे० (हि. डफ) ढकोसना -स० कि० दे० (अनु० ढक ढक) एक एक बाजा, डफ (व.)। "धुनि ढप. साथ बहुत सा पीना। तालन की प्रानिसी प्राननि मैं"-रला० । ढकोसला-संज्ञा, पु० दे० (हि. ढंग+ ढपना-संज्ञा, पु० दे० (हि. ढाँपना ) ढक्कन, कौशल-सं० ) स्वार्थ-सिद्धि की युक्ति, पाखंड, मुंदना । अ० क्रि० दे० (हि० ढकना) ढंका, भाडम्बर । या छिपा होना, मँपना, लुकाना। ढक्कन—संज्ञा, पु० दे० (सं०) किसी पदार्थ के ढपला--संज्ञा, पु० (दे०) डफला बाजा। ' ढाँकने की वस्तु, ढकना, मुंदना। ढक्का-संज्ञा, स्त्री० (सं.) डमरू, हुड़क, ढप्पू-वि० (दे०) बहुत ही बड़ा । ढोल, दुग्गी। ढब-संज्ञा, पु० दे० (सं० धव = गति) तरोक्का ढगण-संज्ञा, पु. (सं०) तीन मात्रामों का रीति, ढंग, युक्ति, प्रकार, बनावट, गढ़न, एक मात्रिक गण (पिं० )। उपाय । मुहा०-ढब पर चढ़ना-स्वार्थढचर-ढचरा-संज्ञा, पु० दे० (हि. ढाँचा) सिद्धि के अनुकूल होना । ढब पर लगाना ढाँचा, ढकोसला, धाडम्बर, टंटा, बखेड़ा, यालाना- स्वार्थ सिद्धि के अनुकूल किसी झगड़ा, युक्ति, रीति। काम में लगाना, स्वभाव, टेव । For Private and Personal Use Only Page #809 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ढयना दद्दावाना ढयना - अ० क्रि० दे० ( सं० ध्वंसन् ) दीवार ढलकना - अ० क्रि० ( हि० ढाल ) लुढ़कना, फैलना, गिरना । ढलका - सज्ञा, पु० (हि० ढलकना) आँख से पानी बहना, ढरका (दे०) । ढलकाना- स० क्रि० (हि० ढलकना) लुढ़काना | ढलना - ० क्रि० ( हि० ढाल ) दरकना, लुढ़कना । प्रे० रूप ढलाना, ढलवाना । मुहा०-दिन ढलना - शाम होना, दिन डूबना । सूय्ये या चांद ढलना -सूर्य या चाँद का अस्त होना । व्यतीत होना, बोना, एक बरतन से दूसरे में द्रव पदार्थ का उडेला जाना, डोलना, लहराना, किसी ओर खिंच जाना, रीझना, प्रसन्न होना, साँचे से ढाला जाना। मुहा०सांचे में ढला - बहुत ही सुन्दर । ढलवाँ - वि० ( हि० ढालना ) जो साँचे में ढाल कर बना हो । ढलाई -संज्ञा, स्त्री० ( हि० ढालना ) ढालने का काम या भाव या मज़दूरी । ढलाना- - स० क्रि० ( हि० ढालना ) ढालने का काम दूसरे से कराना । प्रे० रूप ढलवाना | संज्ञा, स्त्री० ढलवाई, ढलन । ढवरी - संज्ञा स्त्री० दे० (हि० ढलना) लगन, धुन, लौ, रट, ढोरी ( प्रान्ती० ) । दहना - अ० क्रि० दे० (सं० ध्वंस ) घर शादि का गिर पड़ना, ध्वस्त या नष्ट होना । ढहरो- संज्ञा, स्त्री० (दे०) देहली, डेहरी, मिट्टी का एक बरतन, डहरी ( ग्रा० ) " ● नकद रुपैया ढहरी तीन, रहें दहेली कुरमी पीन" - स्फुट | दहवाना - स० क्रि० दे० (हि० ढहाना का प्रे० रूप) गिरवाना । “बिन प्रयास रघुबीर ढहाए" - रामा० । ध्वस्त कराना, तुड़वाना । ढहाना- स० क्रि० दे० (सं० ध्वंसन) घर आदि गिरवाना, ध्वस्त करना, तुड़वाना । दहावाना - स० क्रि० दे० ( हि० ढहाना ) गिराना ध्वस्त करना । "निसिचर सिखर समूह ढहावहिं " - रामा० । " ලදිදී या घर गिरना, ध्वस्त होना । ढरकना -- अ० क्रि० दे० (हि० ढार या ढाल) पानी आदि का नीचे बहना, दुलकना, नीचे को गिरना, फैल जाना । ढरका - सज्ञा, पु० दे० (हि० ढरकना) पशुओं को गीली दवा पिलाने की बाँस की नली, खों से अनादि के कारण निकले आँसू । ढरकाना - --स० क्रि० दे० ( हि० ढरकना ) पानी यादि को नीचे गिराना, फेंकना, बहाना, फैलाना । " दधि ढरकायो भाजन फोरी " - सूबे० । दरकी - संज्ञा, स्त्री० दे० ( हि० ढरकना ) कपड़ा बुनने का एक हथियार । दरनाांक - ० क्रि० दे० ( हि० ढाल ) पारा आदि के समान द्रव पदार्थों का नीचे खिसक या सरक जाना, ढरकना, बहना, द्रवित या कृपालु होना, चाँदी-सोने का गला कर साँचे के द्वारा कोई रूप देना, चेचक का मवाद निकलना । " जापै दीनानाथ - सू० / नैननि दरें मोति श्रौ मूंगा - प० । “ सोन ढरै जेहि के टक 66 ढरै० " सारा - पद० 1 ढरनि -- संज्ञा, स्त्री० दे० (हि० ढरना) गिरना, पड़ना, हिलना, डोलना, मन की प्रवृत्ति, दया, करुणा, कृपालुता, रीना, प्रसन्न होना । यहि दर्शन रघुवीर निज दास पर " तु० । „ ढरहरना†- अ० क्रि० दे० ( हि० ढरना ) सरकना, हटना, खिसकना, ढलना, झुकना । ढरहरी - संज्ञा, स्त्री० (दे०) पकौड़ी । दराना - स० क्रि० ( हि० ढालना ढलाना । ( प्रे० रूप) दरवा | दरारा - वि० दे० (हि० ढार ) गिर कर बहने वाला, लुढ़कने वाला । त्रो० दरारी । दर्रा - संज्ञा, पु० दे० ( हि० धरना ) राह, रास्ता, मार्ग, पंथ, ढङ्ग, बान, रीति, युक्ति उपाय, चाल-चलन, सिलसिला 1 Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private and Personal Use Only Page #810 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ढांकना ढाल ढांकना-स० कि० दे० (सं० ढक = छिपाना) मारि कै राजा रोवा"-पद० । मुहा०छिपाना, श्रोट में करना, मूंदना, ढाँपना, ढाड़ मार कर रोना-चिल्लाकर रोना । झाँपना, बंद करना। ढाढ़ना-स० कि० दे० (सं० दाहन) जलाना, ढाँख- संज्ञा, पु. दे० ( हि० ढाक ) छिउल, तपाना, दुख देना, सताना। पलाश । "जिउ लै उड़ा ताकि बन ढाँखा। ढाढ़म-संज्ञा, पु० दे० सं० दृढ़) दृढ़ता, ढाँग-संज्ञा, स्त्री० (दे०) कन्दला, शिखर, स्थिरता, भरोसा, साहस, धैर्य । यौ०शृंग, पहाड़ की चोटी। ढाढस देना-भरोसा या धैर्य देना, ढाँचा-संज्ञा, पु० दे० ( सं० स्थाना ) ठाठ, साहस या हिम्मत देना। ढाढ़स बंधाना ठहर, मान-चित्र, डौल, प्रारूप, प्रथम रूप। -धैर्य धारणार्थ उपदेश देना, साहस या "नरतन निरा हाड़ कर ढाँचा" स्फु० । देह- | । धीरज देना। “विपति परे जो ढाढ़स पंजर, ठठरी, बनावट, गढ़न, भाँति, प्रकार। | देई "- स्फुट । ढाँपना-स० कि० दे० (सं० ढक = छिपाना) ढादिन, ढादिनि. ढादिनी-संज्ञा, स्त्री. ढाँकना, छिपाना, पोट में करना । (प्रे० दे० ( हि० ढाढी ) ढाढ़ी की स्त्री, मीरासिनी, रूप ) ढंपवाना। गाने नाचने वाली। ढांसना-अ० क्रि० दे० (हि. ढास) खाँसना, ढाढ़ी- संज्ञा, पु. (दे०) गाने नाचने वाली सूखी खाँसी पाना, दोष या कलंक लगाना, नीच जाति, मीरासी (प्रान्ती०)। " गावें अपवाद करना। ढादी जस चहुँ ओरा" - स्फुट । ' होतो ढांसा-संज्ञा, पु० दे० ( हि० ढांसना ) दोष, तोरे घर को ढादी सूरदास मों नाऊँ"कलंक, अपवाद, खाँसी की ठसक । “ ढाँसा सूर० । देत सदा सुजनन को चूकत कबौं न मौका" | | ढान-संज्ञा, पु. (दे०) घेरा, बड़ा हाता। -कु० वि०। ढाना-स० क्रि० दे० (हि० ढहाना) गिराना, ढाई-वि० दे० (सं० साद्ध द्वितीय, हि० | उजाड़ना। अढ़ाई ) दो और श्राधा । मुहा०-ढाई ढाबर-संज्ञा, पु० दे० (हि. डाबर ) गॅदला, रत्ती का मिजाज बनाना-अनोखा ढङ्ग मैला । “भूमि परत भा ढाबर पानी'रखना । ढाई चावल की खिचड़ी अलग | रामा। पकाना-सब से पृथक रह कार्य करना । ढाबा-संज्ञा, पु० (दे०) ओसारा, बरण्डा, ढाक-संज्ञा, पु० दे० ( सं० प्राषाढ़क )छिउल, होटलखाना पोरी. पोलती । ग्रा० )। पलाश । “ मलयागिर की बास में बेधा ढार-संज्ञा, स्त्री० (दे०) कर्ण-भूषण, प्रकार, ढाक, पलास"-कबी० । मुहा०-ढाक के | भौति, भेद, भेष. ताटक, ढाल । “नेजा, भाला तीन पात - हमेशा एक ही ढङ्ग । संज्ञा, तीर कोउ, कहत अनोखी ढार"-रस० । पु० दे० ( सं० ढक्का ) जुझाऊ ढोल। ढारना--स० कि० दे० (सं० धार ) पानी ढाटा-ढाठा-संज्ञा, पु० दे० (हि. दाढ़ी आदि का गिरना, उड़ेलना, मद्य पीना, दाढ़ी बाँधने की पट्टी, दृढ़ बंधन, ठाकुरों की ताना मारना, व्यंग बोलना, साँचे के एक पगड़ी ( राज पू०)। द्वारा बनाना, आरोपित करना । ढाठी-संज्ञा, स्त्री० (दे०) घोड़े के मुंह पर ढारस-संज्ञा, पु० दे० (सं० दृढ़ ) ढाढस । बाँधने की रस्सी या जाली, मुँह-बँधना। ढाल -- संज्ञा, स्त्री० (सं०) गेंड़े की खाल की ढाड़-ढाढ़-संज्ञा, स्त्री० दे० (अनु०) चीत्कार, फरी चर्म, फलक, उतार भूमि, ढार (ग्रा०) चीख, चिग्वाड़, दहाड़, चिल्लाहट । “ ढाद ढङ्ग, तरीका। For Private and Personal Use Only Page #811 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ढालना ८०० ढालना-स० क्रि० दे० (सं० धार ) कोई छोड़ाना, देर करना। प्रे० रूप० ढिलवाना। गहना या बरतनादि साँचे से बनाना, एक दिसाना-अ० क्रि० दे० ( सं० ध्वंस ) से दूसरे बरतन में द्रव पदार्थ डालना, सरक पड़ना, फिसल जाना, झुकना । उड़ेलना, ताना या व्यंग बोलना। ढींगर-ढिंगरा-संज्ञा, पु० दे० (सं० डिंगर) ढालवा-ढालुवा-वि० दे० (हि. ढाल ) | हृष्ट-पुष्ट, हट्टा-कहा, पति या उपपति, गुंडा, ढालू जमीन, साँचे में ढाल कर बनी वस्तु ।। दुष्ट, धिंगरा (ग्रा०)। ढालिया- संज्ञा, पु० दे० (हि. ढाल +इया- ढींढा-संज्ञा, पु० दे० (सं० ढुंढ़ि = लंबोप्रत्य०) साँचे में ढाल कर गहने श्रादि बनाने दर, गणेश ) बड़े पेट वाला, गर्भ, हमल । वाला ठठेरा, सुनार, तँबेरा। ढीट संज्ञा, स्त्री० (दे०) रेखा, लकीर । ढालू-वि० दे० (हि० ढालना ) ढाल- ढीठ-ढोठ्यो-वि० दे० ( सं० धृष्ट) निडर, युक्त, ढलवाँ, ढालवाँ, ढलुवाँ । धृष्ट, साहसी। संज्ञा, स्त्री० ढिठाई । ढासा-संज्ञा, पु० दे० (सं० दस्यु ) डाकू, ढीठता*-संज्ञा, स्त्री. ( हि० ढीठ +तालुटेरा, बटमार । संज्ञा, स्त्री० (दे०) खाँसी, _प्रत्य०) ढिठाई, धृष्टता । तकिया, उढ़कन । ढीठ्यो -संज्ञा, पु०७० (हि० ढीठ) ढीठ, पृष्ट, ढासना-संज्ञा, पु० दे० (सं० धारण + अासन) |" | ढिठाई । “प्रभुसों मैं ढीठ्यो बहुत करी" गी. कुरसी, मसनद, तकिया। अ० कि० खाँसना । ढीढ़स-संज्ञा, पु० (दे०) ढिंढा, एक शाक । ढाहना-स. क्रि० दे० (हि. ढाना ) ढीम, ढीमा-संज्ञा, पु० (दे०) पत्थर का गिराना। " भवन बनावत दिन लगै, ढाहत | बड़ा टुकड़ा, मिट्टी का पिंड । ढिम्मा लगै न वार"-वृं० । ढिंढोरना-स० क्रि० दे० (अनु०) खोजना, (ग्रा.)। हूँढ़ना, मथना, छान मारना, मुनादी करना। ढील-संज्ञा, स्त्री० दे० ( हि० ढीला ) सुस्ती, ढिंढोरा--संज्ञा, पु० दे० (अनु. ढम + ढोल) शिथिलता, जूं । " ढील देत महि गिरि मुनादी, घोषणा। परत "-तु० । मुहा०—ढील देनाढिकाना-ढिकान- सर्व० (दे०) अमुक । छोड़ना, भुलाना, रियायत करना । वि०-- ढिग-क्रि० वि० वा (सं० दिव ) समीप, न्यून, कम । “सील-ढील जब देखिये"-- निकट, पास, तट, किनारा, कोर। रही । ढिठाई-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि० ढीठ) धृष्टता। | ढीलना-स० कि० दे० (हि. ढीला ) ढीला ढिबरी-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. डिब्बी ) करना, छोड़ना, खोलना । काँच या मिट्टी की डिबिया जिसमें मिट्टी ढीला- वि० दे० (सं० शिथिल ) आलसी, का तेल जला कर दीपक का काम लेते हैं, सुस्त, असावधान, जो कड़ा या कस कर न पेंच के सिरे पर का छल्ला । बँधा हो, जो गाढा न हो, गीला । मुहा:ढिमका-सर्व० दे० (हि. अमुक का अनु० ) ढीली आँख-मद-भरी चितवनि । तबीअमुक, फलाँ, फलाना। स्रो० ढिमकी। यत ढीली होना-तबीयत ठीक न होना। ढिलाई -संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. ढोला ) | ढीलापन-संज्ञा, पु० दे० । हि० ढीला+पन ढीलापन, सुस्ती, शिथिलता, ढीला। प्रत्य० ) ढिलाई, सुस्ती, शिथिलता । ढिलाना-स० क्रि० दे० (हि. ढीलना का | ढीह-संज्ञा, पु० (दे०) टीला, छोटा पहाड़ । प्रे० रूप ) किसी से ढीलने का काम कराना, | ढंढा-संज्ञा, पु० दे० ( हि० हूंढ़ना ) ठग, ढीला कराना या करना, खोलवाना, । उचक्का, चोर । For Private and Personal Use Only Page #812 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org इंढपानि ढंढपाणि ढुंढपानि ढंढपाणि - संज्ञा, पु० दे० (सं० दंडपाणि) दण्डपाणि, भैरव, शिव के एक गण, यम, ढंढिपानि (दे० ) । इंद्रवाना - स० क्रि० दे० ( हि० ढूँढना का प्रे० रूप) किसी दूसरे से ढुंढाना, तलाश या खोज कराना | " ८०१ ढूंढा - संज्ञा, स्त्री० (सं०) हिरण्यकशिपु की बहन । इंढिराज - संज्ञा, पु० (सं०) गणेश जी । ढुंढी - संज्ञा, स्त्री० (दे०) बाँह, मुरक । महा० - इंडियाँ चढ़ाना - मुश्कें बाँधना । दुकना- ० क्रि० (दे० ) किसी स्थान में घुपना, प्रवेश करना, धावा करना, टूट पड़ना, ताक या लालसा लगाना कुछ सुनने या देखने को धोट में छिपना, किसी चीज़ के लिए तत्पर होना । दुकाई - संज्ञा, स्त्री० (दे०) ललचाना, छिपना । दुकाना - स० क्रि० (दे०) लालच देना । दुकास - संज्ञा, स्त्री० (दे०) तेज़ प्यास | दुटौना - संज्ञा, पु० दे० (सं० दुहितृ = लड़की ) लड़का, ठोटा । "तुम जानति मोहिं नन्द दुना नन्द कहाँ तें आये सू० । दुनपुनिया | संज्ञा, स्त्री० दे० ( हि० टनमनाना ) लुढकने की क्रिया का भाव । दुरकना- दुलकना अ० क्रि० दे० (हि० ढार) फिसल पड़ना, लुढ़क जाना, झुक पड़ना । - ग्र० क्रि० दे० ( हि० द्वार ) गिर कर दुरना बहना ठुरकना, लुदकना, इधर-उधर होना, डगमगाना लहराना, फिसल जाना, हिलाना, कृपालु या प्रसन्न होना । दुरि दुरि बंद परत कंचुकि पर मिलि काजर सों कारो ". --सु० / ग्रीवा दुनि मुनि कल C "( कटि की " - श्रल० । दुरहुरी - संज्ञा स्त्री० दे० ( हि० दुरना ) दुरकने का भाव, पगडंडी, छोटा रास्ता । दुराना - स० क्रि० दे० ( ६ि० दुरना ) दुरकाना, लुढ़काना, लहराना, हिलाना, प्रसन्न या दया पूर्ण करना । दुरावना -- स० क्रि० दे० (हि० दुराना) दुरकाना, भा० श० को ० - १०१ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कना लुढ़काना, लहराना, हिलाना, प्रसन्न करना । "चमर दुरावत श्री ब्रजराज " - सूर० । दुर्री - संज्ञा, स्त्री० दे० ( हि० दुरना) छोटी राह, पगडंडी | दुलकना -- श्र० क्रि० दे० ( हि० ढाल + कनाप्रत्य० ) दुरकना, लुढ़कना । संज्ञा स्त्री० दुलकनि । दुलकाना – स० क्रि० दे० ( हि० दुलकना) दुरकाना, लुढ़काना । दुतना प्र० क्रि० दे० ( हि० तुरना) गिर कर बहना, दुरकना, लुढ़कना, डगमगाना, लहराना, फिपल जाना, प्रसन्न होना, हिलाना, ढोया जाना | संज्ञा, पु० ( प्रा० ) एक गहना । दुनवाई - संज्ञा स्त्री० दे० ( हि० ढाना ) ढोने का काम या भाव या मज़दूरी । - स० क्रि० दे० ( हि० ढाना का दुलवानाप्रे० रूप ढोने का काम दूसरे से कराना । दुलाना- -- स० क्रि० दे० (हि० ढाल ) दरकाना, ढालना, गिराना, लुढ़काना, झुकाना, प्रसन्न करना, हिलाना, फेरना, पोतना | स० क्रि० दे० ( हि० ढाना ) ढोने का काम लेना । ढूंढ़ - संज्ञा स्त्री० दे० ( हि० ढूंढ़ना ) पता, खोज, तलाश । -- दह ढाँढ़ - संज्ञा, स्त्री० यौ० (दे०) पूँछताछ, खोज, अनुसंधान । ू ढूँढना - स० क्रि० दे० (सं० ढूंढन ) खोज करना, पता लगाना । संक्षा, स्त्री० (दे०) दाई, ढंढवाई | ढूँढौर - संज्ञा, पु० (दे०) जयपुर राज्य का एक प्रान्त । ढढ़िया - संज्ञा, पु० (दे०) जैन. सन्यासी । *वि० दे० ( हि० टूढ़ना ) ढूँढ़ने वाला, पता लगाने वाला, खोजी । हूकना - ० क्रि० (दे०) घुसना, पैठना, पास श्राना, बंध कटना ताक या लालच लगाना । For Private and Personal Use Only Page #813 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir इक-दूका ८०२ ढोलकिया इक इका-संज्ञा, स्त्री० पु. (दे० ) ताक, | चौथ, जब लोग दूसरे के घर में ढेले फेंकते दुक्की, दुकाई (ग्रा० )। हैं । ढेलहो-वउथि, डेलही चौथ (ग्रा०) । इसर-संज्ञा, पु. (दे०) बनियों की एक | ढैया-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. ढाई ) ढाई जाति, भार्गव। सेर का बाट, ढाई गुने का पहाड़ा, अढैया। दह-दहा-संज्ञा, पु० दे० (सं० स्तूप) मिट्टी "बेद के पया कौ तौ द्वैया को न जोग श्रादि का ढेर, अटाला, टोला, भीटा, (ग्रा०)। लागै"ढेक-संज्ञा, स्त्री० दे० ( सं० ढेक ) पानी के | ढोंका - संज्ञा, पु० (दे०) ढेला, बड़ा डेला । समीप रहने वाला एक पक्षी। ढोंग-संज्ञा, पु० दे० ( हि० ढंग ) पाखण्ड, ढेकलो, ढेकुली-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. ढेंक ढकोसला । यौ० ढोंग-ढांग। पक्षी ) कुएँ से पानी निकालने का एक यंत्र ढोंग-बाजी- संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. डोंग+ धान कूटने का यंत्र धनकुट्टी, ढेंकी (ग्रा०)। बाजी फा० ) पाखण्ड, श्राडम्बर । ढेको-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. ढेक पक्षो) ढोंगी-वि० दे० (हि. ढोंग) पाखण्डी, धान आदि अनाज कूटने की ढेकुली।। ढकोसले बाज़। ढस-संज्ञा, पु० (दे०) एक तरकारी।। | ढोंढ़-सज्ञा, पु. दे. (सं० तुंड ) कपास टेंडो-संज्ञा, स्त्री. (दे०) पुस्ता का फूल, पुस्ते श्रादि का डोंडा, कली । स्त्री० ढोंढी । कान का भूषण । ढोंढ़ी-संज्ञा, स्त्री० दे० ( हि० ढोंढ़ ) नाभि । ढंढ-संज्ञा, पु० (दे०) एक नीच जाति, कौवा, ढोटा-- संज्ञा, पु० दे० ( सं० दुहितृ = लड़की) मूर्ख, कपास आदि का डोंडा. ढोंढ़ (ग्रा०)। लड़का, बेटा, पुत्र । ढोरौना। स्त्री. ढोटी। ढंढर संज्ञा, पु० दे० (हि. ढेड ) टेंटर "नन्द के ढोटौना मोरे नैनों भरि भारी हो" (ग्रा० ), वह आँख जिसका कुछ मांस -सूर० । ढोना-स० क्रि० दे० (सं० बोढ़ ) बोझा या ऊपर उभड़ा हो। भार ले जाना। टेंडा-संज्ञा, पु. (दे०) गर्भ, बड़ा पेट. टेंटर।। ढोर-संज्ञा, पु० दे० (हि० ढुरना ) पशु, ढेंढी-संज्ञा, स्त्री० (दे०) कान का भूषण । चौपाये, गाय, भैंस, बैल श्रादि। ढपुनी-संज्ञा, स्त्री० दे० ( हि० ढेप ) लैंप, ढोरना*-स० क्रि० दे० (हि. ढारना) टोंट. कुचाप्र, ढपनी। लुढ़काना, ढरकाना. बहाना। टेंबुवा-संज्ञा, पु० (दे०) पैसा । ढोरी--संज्ञा, स्त्री० दे० ( हि० ढारना) ढालने देर-संज्ञा, पु० दे० (हि. धरना ) राशि, या ढरकाने की क्रिया का भाव, धुन, समूह, अंबार, अटाला। स्त्री० ढेरी। रट, लगन । मुहा०-ढेर करना-मार डालना, राशि ढोल-संज्ञा, पु० दे० (सं०) एक तरह का लगाना । ढेर होना-मर जाना । ढेर | बाजा । मुहा० ढोल के भीतर पोलहा रहना या जाना-गिर कर मर जाना, | बाहर से अच्छा किन्तु अन्दर से बुरा । मुहा० थक कर चूर हो जाना । वि० बहुत, अधिक । -~~ढोल पीटना या बजाना-सब से ढेलवांस-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. ढेल + सं०. कहते फिरना । कान का परदा । पाश ) गोफना। ढोलक-ढोलकी-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० ढाल) ढेला-संज्ञा, पु० दे० (सं० दल) इंट, पत्थर, छोटा ढोल अल्या०-ढोलकिया। कंकर आदि का टुकड़ा, डेला, एक धान । ढोलकिया-संज्ञा, पु० दे० ( हि० ढोलक+ ढेला-चौथ-संज्ञा, स्त्री० दे० यौ० ( हि० | इया-प्रत्य. अल्पा) ढोलक बजाने वाला। देला+चौथ) भादों सुदी चौथ और पूष सुदी संज्ञा, स्त्री० (दे०) ढोलक । For Private and Personal Use Only Page #814 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ढोलन ८०३ तंग ढोलन-संज्ञा, पु० (दे०) प्रीतम, रसिक, | ढोलैत-संज्ञा, पु० दे० (हि. ढोल ) ढोलक रसिया, प्रेमी। या, ढोल बजाने वाला। ढोलना-संज्ञा, पु० दे० (हि. ढाल ) बड़े | ढोव-संज्ञा, पु० दे० (हि. ढावना ) डाली, ढोल सा सडक में कंकर आदि पीटने का भेंट, नज़र । बेलन, एक यन्त्र या, गहना । स० क्रि० दे० | ढोवा-संज्ञा, पु० दे० (हि० ढावना ) लूट । (सं० दोलन ) ढालना, लुढ़काना, ढरकाना, “कस होइहि जब होइहि ढोवा"-१०। डुलाना, डोलना। ढोहना-स० क्रि० दे० ( हि ढूँढना ) ढोला-संज्ञा, पु० दे० ( हि० ढाल) छोकडा, खोजना, हुँदना । " सूर सुबैद बेगि ढोहौ लड़का, बालक, बच्चा, मारू का प्रसिद्ध किन भये मरन के जोग"-सूर०।। प्रेमी स्त्री, एक छोटा कीड़ा, गाने वाली ढौंचा, ढ्यौंचा-संज्ञा, पु० दे० (सं० अर्ध एक जाति, सीमा का चिन्ह, लदाव, शरीर, + चार हि० ) साढ़े चार, चार और आधा, साढ़े चार गुना, साढ़े चार का पहाड़ा। ढोलिन ढोलिनि-ढोलिनी-संज्ञा, स्त्री० दे० ढौंसना-ढासना- अ० क्रि० दे० (हि. धौंस) (हि. ढोलिया ) ढोला जाति की स्त्री, हर्ष या प्रानन्द से ध्वनि करना । “गोपी गोप ढोल बजाने वाली स्त्री, डफालिन, ढौंसना मचाये दधिकाँदो करि "-स्फुट । मीरासिनी। | ढोकन--संज्ञा, पु० दे० (सं० ढोक+प्रटन् ) ढोलिया--संज्ञा, पु० दे० (हि. ढाल )| घूस, अकोर ( ग्रा० ) डाली, भेंट, लालच ढोल बजाने वाला, डफाली मीरापी, गाने दिखला स्वार्थ-साधन का उपाय । बजाने वाली जाति स्त्री० ढोलिनी।ौरी --संज्ञा, स्त्री० (दे०) ढङ्ग, रट, धुनि । ढोली-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. ढाल ) २०० यौ० ढंग-ढौरी लगाना-किसी काम पानों की एक गड्डी या आँटी। में लगाना । पति, मूर्ख । ण-संस्कृत और हिन्दी की वर्णमाला के शिव, दान, अस्त्र, उपाय, विद्वान, जलटवर्ग का पाँचवाँ वर्ण । इसका उच्चार-स्थान स्थान, मोथा । नासिका है। णगण-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) एक मात्रिक ण-संज्ञा, पु० (सं०) विन्दु, देव, भूषण, , गण (पि.)। निर्गुण, निर्णय, ज्ञान, बोध, बुद्धि, हृदय, त-संस्कृत-हिन्दी की वर्णमाला के तवर्ग का तं*--संज्ञा, स्त्री० (सं०) नौका, नाव, पुण्य । पहला वर्ण, इस वर्ग के वर्षों का उच्चा- तंग-संज्ञा, पु. (फ़ा०) कसन, घोड़े की रण-स्थान दंत है। " लुतुलसानांदताः"। जीन या पलान करने का चमड़े का तस्मा। त-संज्ञा, पु० (सं०) नाव, पुण्य. चोर, दुम, | वि० (दे०) कमा. दृढ़. दिक, बीमार, हैरान, झूठ, गोद, गर्भ, रन । क्रि० वि० (सं० विफल, संकुचित, सिकुड़ा, छोटा, कड़ा, चुस्त । तद् ) तो। मुहा०-तंग पाना या होना-घबरा For Private and Personal Use Only Page #815 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ८०४ तंबाकू - - - तंगदस्त जाना. ऊब उठना । तंग करना-सताना, सारंगी, वीणा प्रादि तार वाले बाजों का दिक करना। बजाने वाला, तंत्री। तंगदस्त-वि० यौ० (फा०) कंगाल, ग़रीब, तंतुवाय-संज्ञा, पु. (सं०) कोरी, जुलाहा, कंजूप । संज्ञा, स्त्री० तंगदस्ती। ताँती. कपड़े बुनने वाला, कारीगर । तंगहाल-वि० यौ० (फा०) कंगाल, निर्धन, तंत्र-संज्ञा, पु० (सं०) डोरा, तागा, ताँत, विपत्ति-ग्रस्त । वस्त्र, वंश का पालन पोषण, प्रमाण, तंग--संज्ञा, पु० (दे०) एक पेड़. अधन्ना, औषधि, निश्चित सिद्धान्त, मंत्र, कार्य, डबल, पैसा । कारण, राजा के नौकर, राज्य प्रबन्ध, सेना, तंगी-संज्ञा, स्त्री० ( फा० ) कंगाली, निर्ध- धन, शासन, प्राधीनता, वंश, ग्रन्थ । यौ० नता. संकोच. कमी, कड़ाई। तत्र-मंत्र, तंत्र-शास्त्र, प्रजातंत्र । तंजेब-संज्ञा, स्रो० (फा०) महीन और | तंत्रण- संज्ञा, पु० (सं०) हुकूमत, शासन, बदिया मलमल । प्रबन्ध का काम । तंड-संज्ञा, पु० दे० (सं० तांडव) नाच, नृत्य । तंत्र--संज्ञा, स्त्री० (सं०) सितार, वीणा तंडव-संज्ञा, पु० दे० सं० तांडव) नाच. नृत्य । । श्रादि तारों के बाजे और उनके तार, रस्पी, तंडुल--संज्ञा, पु. (सं०) चावल, तंदुल, देह की नसें, गुरिच । “ वीणागता तंत्री " छाइ जात नैनन में तंदुल सुदामा के" | सर्वाणि, रागानि प्रकाश्यते "-स्फुट । -रत्ना०। | तंदरा --संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० तंद्रा ) तंत -संज्ञा, पु० दे० (सं० तंतु ) तागा, ऊँघ, उँघाई, थोड़ी बेहोशी, तंदा। डोरा ताँत, ग्रह, संतान, विस्तार, परम्परा, | तंदुरुस्त-वि० ( फा० ) स्वस्थ, निरोग । मकड़ी का जाला । सज्ञा, पु० दे० स० तत्र) तंदुरुस्ती- संज्ञा, स्त्री. (फा०) स्वास्थ्य, वस्त्र, कोरी, जुलाहा, निश्चित, सिद्धान्त, नीरोग होने की दशा या उसका भाव । प्रमाण, ग्रंथ, दवा, तंत्र, राज कर्मचारी, “ तंदुरुस्ती हज़ार न्यामत है।" फ़ौज राज-प्रबन्ध, धन, आधीनता, वंश, तदुल -संज्ञा, पु० दे० (सं० तंडुल चावल । एक शास्त्र । संज्ञा, स्त्री० दे० ( हि० तुरंत ) तंदूर-तंदूल-संज्ञा, पु० दे० (फा० तनूर ) शीघ्रता, आतुरता। संज्ञा, पु० दे० (सं० | रोटी पकाने की भट्ठी। तत्व ) सारांश, ५ तत्व । वि० (दे०) तौल, तंदूरो-वि० दे० ( हि० तंदूर ) तंदूर में बना ठीक, सारंगी, सितार। पदार्थ, रोटी आदि। तंतमंत-संज्ञा, पु० दे० यौ० (सं० तंत्र मंत्र ) तंदेही-संज्ञा, स्त्री० दे० (फा० तनदिही ) तंत्र-मंत्र, जादू. जंतर-मंतर। परिश्रम, प्रयत्न, उपाय. युक्ति, चितावनी। तंत -संज्ञा, पु० दे० ( सं० तंत्री) तंद्रा--संज्ञा, स्त्री० (सं०) ऊँच, उँचाई, थोड़ी | बेहोशी, मूर्छा। वि०-तंद्रित । सारंगी सितार आदि तारवाले बाजे तंद्रालु- वि० (सं०) तंद्रारोगी, तंद्रित । और उनका बजाने वाला, तंत्र शास्त्र का ज्ञाता, तंत्र-मंत्र करने वाला, जादुगर। तंबा-संज्ञा, पु० दे० ( फ़ा० तंबान ) चौड़ी | मोहरी का पायजामा। तंतगक-संज्ञा, स्त्री० (सं०) एक औषधि । वाक-संज्ञा, पु० दे० ( पुतः टुवैको ) तंत-संज्ञा पु. (सं०) सूत, ताँत. तागा. एक पौधा जिस के पत्तों को लोग नशे के ग्राह, संतान, फैलाव, मकरी का जाला, हेतु खाते, संघते और जला कर धुएँ के रूप परम्परा । में पीते हैं । तमाखू तमाक (दे०) सुरती। तंतुवादक-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) सितार, । (प्रान्तो०)। For Private and Personal Use Only Page #816 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ८०५ तंबिया तकलीफ़ तबिया-संज्ञा, पु० दे० (हि० तांब+ इया- तउ-तऊ8-अव्य० दे० ( हि० तब + ऊप्रत्य० ) ताँबा या पीतल का तसला। प्रत्य० ) तौहू. तिस पर भी, तोभी, तथापि। तंबियाना-अ० क्रि० दे० (हि. ताँबा ) "भये पुराने बक तऊ, सरवर निपट कुचाल" ताँबे के रंग या स्वाद का हो जाना। तंबीह- संज्ञा, स्त्री. (अ.) चितावनी, | तर-प्रव्य० (दे०) तब । वि० (दे०) तपे हुए। शिक्षा, उपदेश, सिखावन । तक अव्य० दे० ( सं० अंत - क) परयंत, तंत्र-संज्ञा, पु० दे० (हि० तनना ) खेमा, लौं (व.)। संज्ञा, स्त्री० (द०) ताक या टकटकी। डेरा, शिविर, शामियाना। तकदमा-- संज्ञा, पु० दे० (अ० तखमाना) तंवरची-संज्ञा, पु० दे० (फ़ा० तंबूर + ची तख़मीना, अंदाजा, श्राकूत । प्रत्य० ) तंबूरा बजाने वाला। तकदीर – संज्ञा, स्त्री० (अ०) भाग्य, प्रारब्ध । तंबूरा - संज्ञा, पु० दे० (हि. तानपूरा) यो०-तकदोर आजमाइश । एक बाजा, तंबूरा। तकदीरवर - वि० (अ० तकदीर+वर फा०) तंबूल-तंबाला --संज्ञा, पु. द० (सं० तांबूल) भाग्यवान् . भाग्यशाली। पान, पान का बीड़ा। तकन-तकनि- संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. तंबोली- संज्ञा, पु० दे० (हि. तंबोल ) __ ताकना ) देखना, दृष्टि । पान बेचने वाला, बरई, तमोली, तँबोली। तकना-अ० क्रि० दे० (हि० ताकना) (ग्रा.)। स्त्री० लॅबोलिन ।। निहारना, टकटकी लगाना, मौका देखना, तंभ-तंभन-संज्ञा, पु० दे० (सं० स्तंभ ) देखना, शरण लेना, दृढ़ निचय करना । रोकना, शृंगार रस में एक संचारी भाव, "त्रास सों तनु तृषित भो हरि तकत आनन स्तम्भ ( का.)। तार' --सू० । “तब ताकेसि रघुपति सर तअज्जुब- संज्ञा, पु० (अ०) ताज्जुब (दे०), । मरना"- रामा० । श्राश्चर्य, अचंभा (दे०), अचरज | तकमा--संज्ञा, पु० दे० (तु० तमगा) पदक। तअल्लुका-संज्ञा, पु. (अ०) बड़ा इलाका, बहुत गाँवों की ज़मींदारी। संज्ञा, पु. ( फ़ा० तुकमा ) धुंडी फँसाने तअल्चकादार--संज्ञा, पु. ( अ०) बड़ा का फंदा, तममा (दे०)। ज़मीदार, इलाकेदार, तअल्लुके का स्वामी। तकमील-संज्ञा, स्त्री. (अ.) पूर्णता, संज्ञा, स्त्री० तअल्लु केदारी।। समाप्ति । तअल्लुक-संज्ञा, पु० (अ०) लगाव, संबंध। तकगर--संज्ञा, स्त्री० (अ.) किसी बात तबस्सुब - संज्ञा, पु. ( अ०) जाति या को बार बार कहना, विवाद. हुज्जत, धर्म सम्बन्धी पनपात । झगड़ा। तइस-सइ -वि० दे० (हि. तैसा) तकगरी- वि० (अ० तकरार - फा० ई ) वैपा, तैसा, तैसो (३०) । (विलो० जइस)| हुज्जती, झगडालू । तई-ताई*-प्रत्य० दे० ( हिं० ) से, समान तकरीर--संज्ञा, स्त्री. ( अ०) बात चीत, प्रति, लिये । अध्य. (सं० तावत् ) हेतु, भाषण, वक्तता। लिये, सीमा. हद । संज्ञा, स्त्री० । " बात | तकला-संज्ञा, पु० दे० (सं० तर्क ) टेकुश्रा, चतुरन के ताई"-गिर। | तकुला, रस्सी बनाने की टिकुरी । (बी. तई-संज्ञा, स्त्री० दे० (हिं. तवा का स्त्री०)। अस्पाताली ।। थाली सी छिछली कड़ाही । सर्व० (दे०) तकलीफ़-संज्ञा, स्त्री० ( अ०) दुख, केश. उतने ही, तितने । कष्ट, विपत्ति । वि० तकलीफ़ देह। For Private and Personal Use Only Page #817 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org तकल्लुफ़ το तकल्लुफ – संज्ञा, पु० ( ० ) सिर्फ दिखाने के लिये दुख सह कर कोई काम करना, शिष्टाचार | 39 Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तखान तत - संज्ञा, पु० (सं०) भरत-पुत्र, रामचन्द्र के भतीजे | तकवाहा - संज्ञा, पु० दे० ( हि० ताकना ) ताकने वाला, रक्षक, चौकीदार | संज्ञा, खो० तवाही, तिकवाही, पहरा । तक्षक संज्ञा, पु० (सं०) आठ नागों में एक, जिसने राजा परीक्षित को काटा था, एक ना जाति, साँप, नाग, बढ़ई, विश्वकर्मा, एक नीच जाति, सूत्रधार । बाँटना, भाग देना, ( ग्रा० ) । तकाई - संज्ञा, स्त्री० दे० ( हि० ताकना + ई प्रत्य० ) ताकने की क्रिया का भाव, रक्षा | वि० तकैय्या (दे० ) | ताज़ा - संज्ञा, पु० ( तकसीम - संज्ञा, स्त्री० ( अ० ) बटाई, तक्षशिला - संज्ञा, स्रो० (सं०) एक प्राचीन नगर जो भरत जी के पुत्र तक्ष की राजधानी थी, अब भूमि खोद कर निकाला गया है । परीक्षित के पुत्र जन्मेजय ने यहीं पर सर्पयज्ञ किया था । - ० ) ऋणी से अपना न माँगना, किसी से अपनी वस्तु माँगना, तगादा (दे० ) | किसी से उसके स्वीकृत काम के करने को फिर कहना, उत्तेजना, प्रेरणा | " अन्तर्यामी स्वामी तुमतें कहा तकाजा कीजै - स्फुट । तकाना - स० क्रि० दे० ( हि० ताकना का प्रे० रूप ) किसी को ताकने के काम में लगाना, दिखाना, रक्षा कराना । तकात्री - संज्ञा, खो० ( ० ) किशनों की सहायता के लिये सरकार द्वारा उधार दिया गया रुपया | तकिया --संज्ञा, पु० ( फा० ) उसीसा, मसनद गिडुश्रा, विश्राम स्थान, श्राश्रय, सहारा, फ़कीरों की कुटी । " तकिया कीनखाब की लागि ". • श्राल्हा० । तकिया कलाम - संज्ञा, पु० यौ० ( ० ) सखुनत किया. वह व्यर्थ शब्द जो प्रायः बात करने में बीच बीच में बोले जाते हैं । तकुत्र्या तकुवा - संज्ञा, पु० दे० (हि० तकला) चरखे के अग्र भाग में लगाई गई लोहे की पतली नोकीली सलाई, जिसके द्वारा सूत कतता और लिपटता जाता है । तकला, टेकुमा (दे० ) । तक्र - संज्ञा, पु० (सं०) मठ्ठा, छाँछ तथा नराणां भुवि तक माहुः " 'तक्रं नरोचतेऽस्माकं दुग्धंच मधुरायते " - - स्फुट । तखफ़ीफ़- संज्ञा, स्त्री० (०) कमी. संक्षेप | तख़मीनन्- क्रि० वि० ( ० ) अंदाज या अनुमान से । तखमीना - संज्ञा, पु० ( ० ) अनुमान, टकल थंदाज । तख़्त तखत - संज्ञा, पु० दे० (फा० ) सिंहासन, राजगद्दी चौकी । यौ० - तख्त ताऊसशाहजहाँ बादशाह का राज सिंहासन । तख्तनशीन - वि० यौ० ( फा० ) राजगद्दी - प्राप्त. राज-सिंहासन पर बैठा हुआ । तख्तपोश - संज्ञा, पु० यौ० ( फ़ा० ) तख़्त पर का बिछौना | तख्तबंदी - संज्ञा, खो० यौ० ( फ़ा० ) तख़्तों से बनी हुई, जैसे दीवाल | तख्ता-संज्ञा, पु० ( फा० ) बड़ा पटरा, पल्ला | मुहा०— तख्ता उलटना - बनेबनाये काम को बिगाड़ देना । तख्ता हो जाना-कड़ जाना । लकड़ी की बड़ी चौकी, अस्थी, टिखटी, कागज का ताव, बाग़ की कियारी तखता (दे० ) | तख्ती - संज्ञा, स्त्री० दे० ( फ़ा० तख़्त ) छोटा तख़्ता, विद्यार्थियों के लिखने की काठ की पट्टी पाटी (दे० ) । तखड़ी-खरी - संज्ञा, स्त्री० (दे० ) पलड़ा, पला, तराजू । तखान - संज्ञा, पु० (दे०) बढ़ई, लकड़ी काटने वाला, तक्षक | For Private and Personal Use Only Page #818 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तगड़ा ८०७ तटाक तगडा-वि० दे० (हि तन+कड़ा ) हृष्ट- तच्छन, तच्छिन*-क्रि० वि० दे० (सं० पुष्ट, मोटा-ताजा, बलवान । (स्त्री० तगड़ी) तत्क्षण ) उसी समय, तत्काल, तत्क्षण, संज्ञा, स्त्री० (प्रान्ती.) करधनी।। ताछन, ताच्छिन । (ग्रा० )। तगण-संज्ञा, पु० (स०) दो गुरु और एक तज-संज्ञा, पु० (सं० स्वच) उस पेड़ की लघु का एक वर्णिक गण, 51 बारीक छाल. जिसका पत्ता तेजपात, मोटी तगदमा-संज्ञा, पु. दे. ( अ० तखमोना) छाल दालचीनी, फूल जावित्री और फल तखमीना, अंदाज़, अनुमान । जायफल है। तगमा-संज्ञा, पु. ( तु० तमगा ) तमग़ा, तजकिरा - संज्ञा, पु. (अ.) बातचीत, चर्चा। तकमा (दे०), पदक। तजन -संज्ञा, पु० दे० (सं० त्यजन) त्याग, तगर--संज्ञा, पु. (सं०) सुगंधित लकड़ी छोड़ना । संज्ञा, पु० दे० (सं० तजीन) चाबुक । वाला पेड़ ( औष०)। "लौंग औ उसीर तजना-स. क्रि० दे० (सं० त्यजन) छोड़ना, तज-पत्रज तगर सोंठ -कु० वि०। । त्यागना। " तजहु तो कहा बसाय "तगता-संज्ञा, पु० दे० (हि० तकला ) चरखे | रामा० । का तकुया। तति-स० कि० पू० का० दे० (हि० तजना) तगा-संज्ञा, पु० दे० (हि. तागा) डोरा त्याग या छोड़ कर। धागा, तागा। तजरबा-सज्ञा, पु० (अ०) अनुभव, ज्ञानार्थ तगाई-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. तागना)। परीक्षा। तागा डालने या तागने का भाव, काम तजरबाकार- संज्ञा, पु. (अ. तजरबा- या मज़दूरी। कार फा० ) परीक्षक, अनुभवी। तगादा -सज्ञा, पु० दे० (अ० तकाज़ा ) तजवीज़- सज्ञा, स्त्री० ( अ०) निर्णय, राय, माँग, तकाज़ा। सम्मति, प्रबंध। तगाना- स० कि० दे० (हि. तागना ) दूर तज्ञ वि० (सं०) ज्ञानी, समझदार, तत्वज्ञ । दूर पर मोटी सिलाई कराना। तज्यो-स० क्रि० दे० ७. (हि० तजना) तगार-तगाग-संज्ञा, स्त्री० (दे०) चूना गारा त्यागा, छोड़ा, "तज्यो पिता प्रह्लाद"-वि०। के बनाने का स्थान, या ढोने का तसला, तटक-संज्ञा: पु० दे० (सं० ताटक ) ढार, अोखली, गाढ़ने का गड्डा । । (ग्रा०) करनफूल, तरकी, तरौना (प्रान्ती, तगीर -संज्ञा, पु० दे० (अ० तगय्युर ) एक मात्रिक छंद । परिवर्तन, बदल या उलट फेर हो जाना। तट- संज्ञा, पु० (सं०) किनारा, कूल, तीर । तगीरी-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. तगीर ) क्रि० वि० (दे०) पास, निकट, समीप । उलट-फेर, हेर फेर, परिवर्तन । तटका-वि० दे० (सं० तत्काल ) हाली, तवना-अ० कि० दे० (सं० तपन ) गर्म ताज़ा, तत्काल या तुरंत का, नया, कोरा। तप्त या संतप्त होना, कष्ट सहना, प्रताप तटनी-संज्ञा, स्त्री. (सं० तटिनी) किनारे । दिखाना, जलना, तप या तपस्या करना, वाली नदी । “प्रगटी तटनी जो हरै अघकुकर्मों में व्यर्थ व्यय करना, कुपित होना। गाढ़े"-कवि० । "ज्यौं तचि तचि मध्यान्ह लौं".... वृं०। तटस्थ-वि० (सं.) अलग रहने वाला, पक्ष. तचा-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० त्वचा) पात-रहित, उदासीन, मध्यस्थ । चमड़ा। तटाक-संज्ञा, पु. (सं० तडाग ) तालाब, तचाना–स० क्रि० दे० (हि० तपाना) तपाना।। सरोवर, तड़ाग । For Private and Personal Use Only Page #819 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - तटिनी ८०८ तड़ाड़ा तटिनी- सज्ञा, स्त्री. (सं०) नदो, सरिता। तड़पाना-स. क्रि० दे० (हि. तड़पना का "तटिनी तट छोड़ि सुमतहि राम'- स्फुट ।। प्रे० रूप ) दूसरे को तड़पने में लगा देना, तटी-सज्ञा, स्त्री. ( हि० तट ) नदी, घाटी कष्ट दे कर व्याकुल करना, चमकाना । तराई. थुनि, हट, इच्छा । “ सब जोगी तड़पीला वि० दे० ( हि० तड़पना) प्रभाव जतीन की छूटी तटी" - राम०। शाली, फुर्तीला, चटपटिया। तड़-सज्ञा, पु० दे० (सं० तट ) श्राप का तड़फ- संज्ञा, स्त्री० दे० (हि० तड़प ) तड़प, बाँट, पक्ष । सज्ञा, पु. (अनु०) किसी पदार्थ व्याकुलता, घबराहट । को बड़े वेग से पटकने का शब्द, श्रामद की। तड़फड़ाना-अ० कि० दे० ( हि० तड़फ ) शक्ल। तडपना, व्याकुल होना, छटपटाना, तर. तड़क-संज्ञा, स्त्री० यौ० ( हि० तड़कना )। फराना, (ग्रा०)। चमकने, तड़कने या टूटने का भाव, तड़कने से चिन्हित हो जाना । यौ-तड़क- तड़ड़ाहट- संज्ञा, स्त्री० दे० (हि० तड़फना) व्याकुलता. घबराहट, धड़क. तड़क । संज्ञा, भड़-चम-दमक, शान शौकत । तड़कना-अ० कि० दे० (अनु० तड़) फूटना स्त्री० तड़फड़ी। या टूटना, चट स्ना, कड़ा शब्द करना, तड़ाना--अ० कि० दे० । हि० तड़पना) क्रोधित होना, बिगड़ना, झंझलाना, कूदना | तड़पना, छटपटाना, घबराना । फाँदना, उछलना चकना ( बिजली)। तड़काना-स० कि० दे० (हि. तड़पाना ) तड़का- संज्ञा, पु० (दे०) भोर, सबेरा। तड़पाना. व्याकुल करना। तड़के-संज्ञा, पु० (दे०) सबेरे, प्रातःकाल, तडबदी संज्ञा, स्त्री० दे० यौ० ( हि० तड़. अ० क्रि० चमके, टूटें । छौंक, बधार, “ टूटे फा० बंदी ) स्वजाति या वंश का विभाजन । धनु छायो है तडाका सब्द लोकन मैं" तडा--संज्ञा, पु० (दे०) द्वीप, टापू. दोयाब । तड़ाक-संज्ञा, स्त्री० दे० ( अनु० तह से तड़काना-स० क्रि० दे० (हि० तड़कना ) बोलने का शब्द । क्रि० वि० (दे०) शीघ्र, किमी पदार्थ के तोड़ने में तड़ का शब्द । तुरन्त, तत्काल, चटपट, झटपट । यौ०उत्पन्न करना, तोड़ना, चटकाना, क्रोधित तड़ाक-पड़ाक-तुरन्त, तत्काल, झटपट । करना। तडाका-संज्ञा, पु० (अनु०) तड़ तड़ शब्द तड़का-क्रि० वि० दे० ( हि० तडाका ) तड़ होना । क्रि० वि० झटपट, चटपट । संज्ञा, पु. तड़ शब्द, तड़का, सबेरा । तड़तड़ाना-अ० क्रि० ( अनु० ) तड़तड़ (ग्रा० ) कड़ी प्यास, थप्पड़ । शब्द होना । स० कि० (दे०) तड़ तड़ शब्द | तड़ाग-संज्ञा, पु० (सं.) सरोवर, ताल, करना, हुक्का पीना। तालाब । 'बाग तड़ाग बिलोकि प्रभु"-- तड़प-सज्ञा, स्त्री० दे० (हि. तड़पना ) रामा०। तड़पने का भाव, चमक, भड़क । संज्ञा, पु० तडाघान-संज्ञा, पु० यौ० (हि० तड । सं० एक टाँगने की लैम्प । - आघात) ऊपर उठी हाथी की सँड़ की चोट । तड़पना-अ० क्रि० दे० (अनु०) छटपटाना, तडातड़-- क्रि० वि० दे० ( अनु० ) तड़तड़ क्रोधित होना तलमलाना, व्याकुल होना, शब्द-युक्त कर्म तड़ तड़ शब्द, लगातार । गरजना । " लगी तोप तडपन तेहि श्रौंसर ! तडाड़ा-संज्ञा, पु० (दे०) पानी की तीन धारा परयो निसानन घाऊ ".-- रघु० । __ तरेड़ा, तिरखा, कड़ी प्यास । For Private and Personal Use Only Page #820 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org तड़ाना तड़ाना - स० क्रि० दे० ( हि० ताड़ना का प्रे० रूप ) किसी दूसरे को ताड़ने में लगाना, भाँपना, अनुमान करना । तड़ाया -- संज्ञा, पु० (दे०) रसिकता, छैलपन, पुत्र, बाजे । संज्ञा, ८०६ चटक-मटक, तड़क-भड़क तड़ावा - संज्ञा, पु० दे० (हि० तड़ाना) ऊपरी तड़क-भड़क, छल, धोखा, कड़ी प्यास । तड़ित, तड़िता - संज्ञा, स्त्री० (सं० तडित् ) बिजली । “ घनं घनान्ते तडितां गुणैरिव "" - माघ० । तड़िया - संज्ञा, स्त्री० (दे० ) समुद्र तट की वायु, हाथ का गहना । तड़िल्लता-संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं० तडित् + लता ) बिजली की लता । तड़ी - संज्ञा, स्त्री० दे० ( अनु० तड़ते ) थपेड़ा, चपत, धौल, छल, बहाना, धोखा । तत् - संज्ञा, पु० (सं०) परमेश्वर, ब्रह्म, वायु, सर्व० (सं०) वह । तत -संज्ञा, पु० (सं०) पवन, पिता, विस्तार, सितार आदि तार वाले * * - वि० दे० (सं० तप्त ) उष्ण | पु० दे० ( सं० तत्व ) सारांश, तत्व | ततताई - संज्ञा, स्त्री० दे० (अनु० ) नाच के बोल | ततबाउ - संज्ञा, पु० दे० (सं० तंतुवाय ) कोरी, जुलाहा । यौ० -- गर्महवा । ततबीरळ†–संज्ञा, स्त्री० दे० (अ० तदवीर ) तत्वदर्शी - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) ब्रह्मज्ञानी, तत्वता - संज्ञा, स्त्रो० यथार्थता, सारता, सत्यता । तदवीर, उपाय, युक्ति | ततसार* +- संज्ञा, स्त्री० दे० यौ० (सं० तप्त शाला आग में तपाने या घाँच देने की जगह, तापशाला । तताई* - संज्ञा, त्रो० दे० (सं० तप्त ) गरमी, तत्वविद्या, तत्वशास्त्र ततैया - संज्ञा, त्रो० दे० ( सं० तिक) बरं, भिड़ तत्काल -- क्रि० वि० यौ० (सं०) तुरत, तुरन्त, शीघ्र, तत्क्षण, उस समय । तत्कालीन - वि० यौ० (सं०) उसी समय का, तात्कालिक ! उष्णता, तत्ता (प्रा० ) । ततारना - स० क्रि० दे० (सं० तप्त ) गरम पानी से तरेश देकर धोना । तति, तती - संज्ञा, स्त्री० (सं०) पाँति, समूह, श्रेणी । "अलिकदम्बक अम्बुरुहाम् ततिः " । " वृततीततीश्च ". भा० श० को० '-माघ० । १०- १०२ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तत्क्षण - क्रि० वि० यौ० (सं०) तुरन्त, शीघ्र । तत्त-संज्ञा, पु० दे० (सं० तत्व) सारांश, तत्व । तत्ता* - वि० दे० (सं० तप्त ) उष्ण, गरम | तत्तायंत्रा -- संज्ञा, पु० दे० ( हि० तत्ता = गरम + थामना ) दम दिलासा, बहलावा, बीचबचाव, शान्ति-स्थापन, बखेड़ा टालना । तत्व - संज्ञा, पु० (सं०) सार, विश्व का मूल कारण, पाँच तत्व पृथ्वी, जल, तेज, वायु, थाकाश, भगवान, ब्रह्म, सारांश | तत्व प्रेम कर मम श्ररु तोरा " तत्वज्ञ - संज्ञा, पु० (सं०) ब्रह्मज्ञानी, तत्वज्ञानी, दार्शनिक | 66 - रामा० । तत्वज्ञान -- संज्ञा, पु० यौ० (सं०) श्रात्मज्ञान, ब्रह्मज्ञान, जीव ब्रह्म और प्रकृति का ज्ञान या बोध ! तत्वज्ञानी - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) ब्रह्मज्ञानी, श्रात्मज्ञानी, दार्शनिक, जीव, ब्रह्म, प्रकृति का यथार्थ ज्ञाता । (सं०) ठीक ठीक, आत्मज्ञानी, जीव, ब्रह्म, प्रकृति का ज्ञाता । तत्वदृष्टि - संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) ज्ञाननेत्र, दिव्य या सूक्ष्म दृष्टि | For Private and Personal Use Only तत्ववाद - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) दर्शन शास्त्रसंबंधी विचार | संज्ञा, पु० यौ० (सं०) तत्ववादी ---तत्ववाद का ज्ञाता और उसका समर्थक, ठीक ठीक बात करने वाला । तत्वविद् - संज्ञा, पु० (सं०) तस्वज्ञाता, तत्वज्ञानी, तत्ववेत्ता । तत्वविद्या, तत्वशास्त्र - संज्ञा, स्त्रो० यौ० (सं०) दर्शन शास्त्र । Page #821 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org तत्ववेत्ता तन तत्ववेत्ता - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) तत्वज्ञानी, दार्शनिक | तदानीम-श्रव्य (सं०) उस समय, उस काल । तदासक- संज्ञा, पु० ( ० ) प्रबंध, पेशबंदी, सजा, दंड, जाँच | तत्वावधान - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) परीक्षा, जाँच पड़ताल, देखरेख, निगरानी । तदीय-- सर्व ० (सं० तत् +इयम् ) उसका | संज्ञा, पु० बल, शक्ति, तत्व । 66 तत्थ - वि० दे० (सं० तत्व) मुख्य, प्रधान । तदुक्ति -- संज्ञा, खो० यौ० (सं०) उसकी बात तदुक्ति: परिभाव्यच १ – सि० कौ० । तदुत्तम - वि० यौ० (सं०) उससे बढ़ कर । तदुत्तर - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) उसका जवाब | तदुपरान्त - क्रि० वि० यौ० (सं०) उसके बाद, उसके पीछे, तत्पश्चात् । तदुपरि - श्रव्य यौ० (सं०) उसके ऊपर | तदेकचित्त - वि० यौ० (सं०) उसके समान स्वभाव, उसका प्रेमी, अनुरक्त, अनुवर्ती । तदेव - श्रव्य० यौ० (सं०) वही । तद्गत — वि० यौ० (सं०) उसके बीच में या व्याप्त, उससे संबंध रखने वाला । तद्गुण - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) एक अलंकार, जिसमें कोई वस्तु अपनी समीपवर्ती अन्य वस्तु का गुण ग्रहण करती है ( श्र० पी० ) उसी का गुण । ८१० तत्पर - वि० (सं०) संनद्ध, उद्यत, चतुर, निपुण | संज्ञा, स्त्री० (सं०) तत्परता । तत्परता - संज्ञा, स्त्री० (सं०) संनद्धता, दक्षता, चतुरता, मुस्तैदी । तत्पुरुष - संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) परमेश्वर, भगवान, एक रुद्र, एक समास ( व्या० ) । तत्र – क्रि० वि० (सं०) वहाँ, उस ठौर । तत्रभवान - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) माननीय, पूज्य, श्रीमान् । तत्रापि - अव्य० यौ० (सं०) तथापि, तिस पर भी, वहाँ भी, तब भी । तत्सम - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) संस्कृत का वह शब्द जो भाषा में भी शुद्ध ही प्रयुक्त हो । तथा, तथैव- - अव्य० (सं०) उसी प्रकार, वैसा ही । यौ० तथास्तु - ऐसा ही हो, एवमस्तु । तथागत - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) गौतम बुद्ध । तथापि - (- प्रव्य० यौ० (सं०) तो भी, तब भी । तथ्य - वि० सं०) यथार्थ, सत्य | संज्ञा, स्त्री० (सं०) तथ्यता । यौ० - तथ्यातथ्य | तद् - वि० (सं०) वह, जो । + क्रि० वि० ( सं० तदा ) तब, उस वक्त । तदंतर- तदनंतर - क्रि० वि० यौ० (सं०) उसके पीछे या उपरान्त । तदनुरूप - वि० यौ० (सं०) उसी के समान, या उसी रूप का । तदनुसार- तदनुकूल - वि० यौ० (सं०) उसके अनुसार या अनुकूल । तदपि - अव्य० यौ० (सं०) तो भी, तिस पर भी । ( विलो० - यदपि ) तदवीर - संज्ञा, त्रो० (प्र०) युक्ति, उपाय । तदा- क्रि० वि० (सं०) उस वक्त, तब । तदाकार - वि० यौ० (सं०) वैसा ही, उसी आकार का, तन्मय, तद्रूप । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तद्वन - वि० यौ० (सं०) वही धन, उतना ही धन, कंजूस, सूम । तद्धित - संज्ञा, पु० (सं०) संज्ञाओं में प्रत्यय लगाकर संज्ञायें बनाने का विधान ( व्या० ) जैसे, पुत्र से पौत्र । यौ० -- १० -- उसका हित । तदुभव - संज्ञा, पु० (सं०) संस्कृत का वह शब्द जिसका अपभ्रंशरूप भाषा में प्रचलित हो, जैसे- कपाट का किवाड़ । तद्यपि - अव्य० (सं०) तथापि, तो भी । तद्रूप - वि० यौ० (सं०) सदृश, समान, रूपकालंकार का एक भेद ( श्र० पी० ) । तद्रूपता - संज्ञा, त्रो० यौ० (सं०) सादृश्य, समानता, समरूपता । तद्वत् — वि० (सं०) उसी के समान, तत्तुल्य, तत्सदृश, तत्समान । तन - संज्ञा, पु० दे० (सं० तनु ) शरीर, गात, देह | "तन पुलकित मन परम उछाहू"रामा० । मुहा० - तन को लगना - हृदय For Private and Personal Use Only Page #822 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तनक, तनको ८११ तनुक पर प्रभाव पड़ना, जी में बैठना । तन देना तनराग-संज्ञा, पु० दे० यौ० (सं० तनुराग) - ध्यान देना, मन लगाना । तन-मन | शरीर में केसर, चन्दन आदि का लेप । मारना-इन्द्रियों को वश में करना । क्रि० तनरह-संज्ञा, पु० दे० (सं० तनुम्ह ) रोवाँ, वि० ओर, तरफ । “पिय तन चितै भौंह करि । रोम, तनूरूह । बाँकी,-रामाः। वि० तनिक, थोड़ा। तनवाना-स० क्रि० दे० (हि. तनना का तनक, तनको-वि० दे० (सं० तनु) तनिक, प्रे० रूप ) तनाना, फैलाना । थोड़ा, रंच । “ तनक तनक तामै खनक तनसुख-संज्ञा, पु० दे० यौ० (हि. ) फूल चुरीनि की"-देव० । __ दार बढ़िया वस्त्र या कपड़ा, शरीर-सुख । तनकऊ-वि० दे० (सं० तनु० = छोटा ) तनहा-वि० (फ़ा०) एकाकी, अकेला। क्रि० छोटा, थोड़ा भी, तनिकहू।। वि० अकेले । तनकीह --संज्ञा, स्त्री० ( अ०) फ़ैसले की तनहाई- संज्ञा, स्त्री. ( फा० ) अकेलापन. एकान्त होना । “ मयकशी का लुत्फ तनज़रूरी बातों की जाँच, तहकीकात । हाई में क्या कुछ भी नहीं"। तनखाह-संज्ञा, स्त्री० दे० ( फा० तनख्वाह ) तना -संज्ञा, पु. (फा०) पेंड़ी, पेड़ का धड़ । वेतन, तलब (ग्रा० ) मासिक मज़दूरी। क्रि० वि० (हि. तन ) तरफ़, ओर । क्रि० तनगना, तिनगना-अ० कि० दे० (अनु०) वि० ( हि० तनना ) अकड़ा हुआ। अप्रसन्न या क्रोधित होना चिढ़ या रूठ तनाकु -क्रि० वि० दे० (हि. तनिक ) जाना, चिटकना। तनिक, थोड़ा, तनिक, तनकु। तनजेब-- संज्ञा, स्त्री० ( फा० ) महीन और | तनाजा-- संज्ञा, पु. ( अ०) बैर, झगड़ा। बढ़िया मलमल । तनाना-स० कि० दे० (हि. तनना) तनवाना। तनज्ज़ल-वि० (अ०) अवनत । संज्ञा, स्त्री० तनाव-संज्ञा, स्त्री० दे० (अ. तिनाव ) डेरे तमज्जली, अवनति, कमी । की रस्सी, खिंचाव, फैलाव । “ मानो गगन तनतनाना-अ० क्रि० दे० (अ० तनूतनः ) तम्बू तनो ताको विचित्र तनाव हैं"-भू०। शेखी या शान दिखाना, क्रोध करना। तनिक-वि० दे० (सं० तनु) थोड़ा सा, कम। तनत्राण-संज्ञा, पु० दे० यौ० (सं० तनुत्राण) क्रि० वि० थोड़ा, कम, तनिको (ग्रा०)। कवच, बख़्तर, जिरह । तनिया--संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. तनी ) तनधर, तनुधारी-संज्ञा, पु. यौ० (सं० जापौर कौपीन, लँगोटी, जाँघिया। तनुधारी ) शरीर धारी, जीव-जन्तु, देही। तनिष्ट-संज्ञा, पु० (सं०) बहुत थोड़ा, अति, तनना-अ० क्रि० दे० (सं० तन या तनु) अल्प, सूक्ष्म । सीधा खड़ा होना, अकड़ना, ऐंठना, घमंड | तनी-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. तानना ) बंद, से रूठना, शेखी दिखाना। बंधन, कौपीन, लँगोटी। क्रि० वि० (ग्रा०) तनिक । यौ०-तनी तना (तनना)तनपात-संज्ञा, पु० दे० यो० (सं० तनुपात) विवाद, झगड़ा, लड़ाई। मरना, देह का नाश।। तनीयान्-वि० (सं०) सूधमतर, अल्पतर, तनमय-वि० दे० (सं० तन्मय) लगाहुश्रा, बहुत ही कम, थोड़ा या छोटा। मग्न, तप, मिलित। तनु-वि० (सं०) दुबला, पतला, क्षीण, सूचम, तनय-संज्ञा, पु० (सं०) लड़का, पुत्र, बेटा। थोड़ा, फम, छोटा सुन्दर । संज्ञा, स्त्री० (सं०) "तनय ययातिहिं यौवन दयउ"-रामा०।। तनुता संज्ञा, स्त्री० (सं०) देह, शरीर, खाल । तनया-संज्ञा, स्त्री० (सं०) लड़की, पुत्री, बेटी, तनुक-क्रि० वि० दे० (सं० तनु) तनिक, " तात जनक-तनया यह सोई"--रामा। थोड़ा, पतला । संज्ञा, पु० छोटा शरीर, देह । For Private and Personal Use Only Page #823 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तनुज ८१२ तपना तनुज-संज्ञा, पु. (सं०) लड़का, पुत्र, बेटा। तन्ति, तन्ती-संज्ञा, पु० दे० (सं० तन्तु) तनुजा-संज्ञा, स्त्री० (सं०) लड़की, बेटी, कोरी, जुलाहा, तारवाले बाजे । पुत्री । “नहिं मानै कोऊ अनुजा तनुजा" तन्तुना-संज्ञा, पु० दे० (सं० तंतु ) ततुना, -रामा०। (ग्रा०) तार। तनुत्राण- संज्ञा, पु० यौ० (सं०) अँगरखा, तन्नाना-अ. क्रि० (हि. तनना ) ऐंठना, कवच । खिंचना, अकड़ना, शेखी या शान दिखाना। तनुधारी-वि० यो० (सं०)शरीर या देहधारी तन्नी-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० तनिका ) जोती, प्राणी । " कहौ सखी श्रस को तनुधारी" जिस रस्सी में तराजू के पल्ले लटकते हैं वह -रामा० । रस्सी, नाव, खोंचा रखने का मोदा।। तनुमध्या, तनुमध्यमा-संज्ञा, स्त्री० यो० तन्मय-वि० सं०) मग्न, दत्तचित्त, तद्रूप, (सं०) वर्ण वृत्त, पतली कमर की स्त्री। तदाकार। तनुराग-संज्ञा, पु. यौ० (सं०) देह पर लगाने | तन्मयता-संज्ञा, स्त्री० (सं०)लिप्तता, मग्नता, का चन्दन, केसर श्रादि, अंगराग। लीनता, तदाकारता, तद्रूपता । तनू-संज्ञा, पु० दे० (सं० तनु ) शरीर, देह, तन्मयो-संज्ञा, पु० (सं०) तदाकार, तद्रूप, काया। मग्न, तत्पर । तनूज* --संज्ञा, पु० दे० (सं० तनुज) लड़का, बेटा, पुत्र । तन्मात्र- संज्ञा, पु० (सं०) उतनाही, पंचभूत। संज्ञा, स्त्री. तन्मात्रा- पाँच तत्व । तनूजा-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० तनुजा) लड़की, पुत्री, बेटी। " आई तजि हौं तो ताहि तन्वंगी-वि. यौ० (सं० तनु - अंगी) सुंदर देह वाली, कोमलांगी। तरनि तनूजा-तरी"-पद्मा। तनेना-वि० दे० (हि. तनना+ एना-प्रत्य०) तन्वी-संज्ञा, स्त्री० (सं०) एक वर्ण वृत्ति । वि० खिंचा या तना हुआ, टेढ़ा या तिरछा, दुबली पतली, कोमलांगी स्त्री। | तप- संज्ञा, पु. ( सं० तपस् ) तपस्या, नियम, अप्रसन्न, क्रोधित । (स्त्री० तनेनी) ज्ञान । “ यद् ज्ञानं तंतपः"। सत्यः । तनै-संज्ञा, पु० दे० (सं० तनय) पुत्र, लड़का, गरमी । " तपसोध्यजायत् "- वेद । "तनै जजातिहिं जोबन दयऊ"-रामा० । तनैया- संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० तनया) लड़की, " तपबल ब्रह्मा सृष्टि बनावत "-रामा० । पुत्री, कन्या। यौ० तपलोक-(सं०) तपोलोक । तनोज - संज्ञा, पु० दे० (सं० तनूज ) रोवाँ, तपकना-अ० कि० द. ( हि० टपकना ) रोम, बेटा, पुत्र । व्याकुल होना, तड़पना, धड़कना, उछलना, तनोरुह-संज्ञा, पु० दे० (सं० तनुरुह) रोवाँ, । चूना, टपकना, गिरना। रोम । “गोरी गोरे में तनोरुह सुहात तपती-संज्ञा, स्त्री० (सं०) सूर्य-पुत्री, यमुना। ऐसे"-स्फुट। तपन, तपनि- संज्ञा, स्त्री० (सं०) ताप, जलन, तन्त-संज्ञा, पु० दे० (सं० तन्तु ) संतान, सूर्य्य। सूर्य-कान्तिमणि, ग्रीष्म ऋतु, कुटुंब, उपाय, औषधि, व्यवस्था, सुख-सिद्धि गरमी, आग, धूप, वियोगाग्नि । (सं० तंत्र) तंत्र। तपना-अ० क्रि० (सं० तपन ) गरमी का तन्तनाना-अ० क्रि० (दे०) पिनपिनाना, __ फैलना या ज़्यादा होना, कष्ट सहन करना, तनना, भन्नाना, तेज़ पड़ना, क्रोध से बकना। प्रताप या प्रभाव दिखाना, आतंक फैलाना, तन्तनाहट-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि० तन्तनाना) तप करना, बुरा व्यय । " भीम सो तपत पिनपिनाहट, जलने की पीड़ा, तेजी। रसोई"-गि०। For Private and Personal Use Only Page #824 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तपनि ८१३ तपोवन तपनि- संज्ञा, स्त्री० दे० ( सं० तपन ) गरमी, तपार्वत-संज्ञा, पु० ( हि० तप+वंत-प्रत्य०) जलन । तपसी, नपस्वी। तपनी-- संज्ञा, स्त्री० (सं० तपन ) अलाव, | तपास-संज्ञा, पु. (दे०) खोज, अनुसंधान, कौड़ा, तपस्या। अन्वेषण । स्त्री० (दे०) तापने या सेंकने की तपनीय-संज्ञा, पु. (सं०) तपाने योग्य, | - इच्छा । सोना, स्वर्ण । “ शुद्धतपनीय संकाश"। तपित-वि० (सं०) तपा हुश्रा, गरम, तपश्चर्या-संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) तपस्या, दुखित, दग्ध । तप। तपिया-संज्ञा, पु० दे० (सं० तप ) तपस्वी, तपश्चरगा-संज्ञा, पु० (सं०) तप, तपस्या। तापसी । " जपिया तपिया बहुत हैं, सीलतपसा--संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० तपस्या ) तप, | वंत कोउ एक "- कबी०। तपस्या, तापती नदी। तपिश--संज्ञा, स्त्री० (फ़ा०) गरमी, उष्णता, तपसाली-तपशाली-संज्ञा, पु० दे० यौ० तपन, जलन। (सं० तपः शालिन् ) तपस्वी। तपी-संज्ञा, पु० (सं०) तपसी, तापस, तपसी-संज्ञा, पु० (सं० तपस्वी) तपस्वी। तपस्वी । " जपी तपी त्यों गपी पुरुष को "धरि बाँधहु तपसी दोउ भाई" - रामा। विद्या कबहुँ न श्रावे"--स्फुट । तपस्क-संज्ञा, पु. ( सं० ) तपस्वी, योगी। तपेदिक-संज्ञा, पु. यौ० ( फा० तप+प्र. तपस्य-संज्ञा, पु० (सं०) फाल्गुन मास, दिक) क्षयी रोग, राजयचमा, दिक। अर्जुन, कुन्द फूल, तप, मनु के पुत्र । तपेश्वर-तपेश्वरी-संज्ञा, पु० यौ० (हिं०) तपस्या-संज्ञा, स्त्रो० (सं० ) तप, व्रत । तपी, बड़ा तपस्वी। "तपी तपस्यानाहिं'-कुं० वि०। तपोधन-तपोधनी-संज्ञा, पु. यौ० (सं०) तपस्विता-संज्ञा, स्त्री. (सं०) तपस्वी बड़ा तपस्वी, जिसके तप ही केवल धन है। होने की दशा। "ब्राह्मणानां तपस्विता"। तपोबल-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) तप का तपस्विनी-संज्ञा, स्त्री. (सं०) तपस्वी की बल । वि० तपोबली--जिसके केवल तप स्त्री, तपस्या करने वाली स्त्री, सती या | ही का बल हो। पतिव्रता । स्त्री० कंगालिनी स्त्री। तपोभूमि संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) तप करने तपस्वी-संज्ञा, पु० (सं० ) तपसी, तपस्या की पृथ्वी, तप-स्थान, तपोवन, तपस्थली। करने वाला, कंगाल । स्त्री० तपस्विनी। तपोमूर्ति-संज्ञा, पु. यौ० (सं०) तपस्या की तपा-संज्ञा, पु० दे० (सं० तप ) तपसी, । मूर्ति, महा तपस्वी, परमेश्वर, तपमूर्ति । तपस्वी । यौ०- नौ (दस) तपा-जेठ के तपोरति- संज्ञा, पु० यौ० (सं०) तप-प्रेमी, दस उष्ण दिन । तपस्वी, तपस्यानुरागी। तपाक-संज्ञा, पु. (फा० ) जोश, तेज़ी, तपोगशि-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) तपस्वी, फुरती, वेग। बड़ा तपस्वी। तपाना-स० क्रि० दे० (हि. तपना ) गर्म | तपोलोक-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) पृथ्वी से करना, दुख देना, जलाना। | ऊपर ६ वाँ लोक। तपात्यय-संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) ग्रीष्मा- तपोवृद्ध- वि० यौ० (सं०) अधिक तपस्या वसान, वर्षा या प्रावृट काल । के कारण तपस्वियों में श्रेष्ठ, बड़ा तपस्वी। तपानल-संज्ञा, पु. यो० (सं०) तपस्या का तपोवन-संज्ञा, पु. यो० (सं०) तपस्या करने तेज या प्रताप। | या तपस्वियों के निवास का जंगल । For Private and Personal Use Only Page #825 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ८१४ तप्त तमग़ा तप्त - वि० (सं०) उष्ण, तपाया हुआ, दुखी, कंगाल, दग्ध, संतप्त । तप्तकुंड – संज्ञा, पु० यौ० (सं०) गरम पानी तबलिया – संज्ञा, पु० ( फ़ा० ) तबला बजाने तबलची - संज्ञा, पु० ( फ़ा० ) तबला बजाने चाला, तबलिया । वाला, तबलची । तबाशीर - संज्ञा, पु० दे० (सं० तवक्षीर ) वंशलोचन ( श्रौष ० ) । तबाह - वि० ( फ़ा० ) नष्ट-भ्रष्ट, बरबाद । संज्ञा, स्त्री० तबाही । तबीयत - संज्ञा, खो० ( ० ) मन, चित्त दिल, जी । मुहा० - किसी पर तबीअत आना - प्रेम या स्नेह या श्रासक्ति होना । तबीयत फड़क उठना-मन का उत्सा हित या प्रसन्न हो जाना । तबीअत लगना - मन में प्रेम होना, ध्यान लगा रहना । समझ, ज्ञान । तबीअतदार - वि० ( ० तबीअत + फा०दार) उत्साही, रसिया (दे०) रसिक, प्रेमी, समझदार | कुंड तप्तकृच्छ्र - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) पाप नाशक एक व्रत (पु० ) | तप्तमाष-संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) सत्यता दिखाने को एक शपथ । तप्तमुद्रा - संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) चक्र, शंख यादि के गर्म छापे जो वैष्णव लोग अपने शरीर में छपवाते हैं तप्प - संज्ञा, पु० दे० (सं० तप ) तपस्या, ब्रह्मा तप्पै तप्य सदासिव करै तप्प नित " - स्फुट | 1 66 तप्पा - संज्ञा, पु० (दे०) पुरवा. छोटा गाँव । तफ़रीह - संज्ञा, स्त्री० ( अ० ) प्रसन्नता, हँसी, दिल्लगी, सैर, घूमना, वायु सेवन । क्रि० वि० ० तफ़रीहन - विनोदार्थ । तफ़पील—– संज्ञा, स्त्री० ( अ०) व्यौरा, टीका, विस्तृत वर्णन | तफावत -संज्ञा, पु० ( ० ) अन्तर, दूरी । तब - अव्य० दे० ( सं० तदा ) उस समय, इस कारण । क्रि० वि० (दे०) तबै तभी । तबक - संज्ञा, पु० ( ० ) परत, लोक, वरन । तबक़गर -- संज्ञा, पु० यौ० ( प्र० तबक + फ़ा० Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - गर ) सोने, चाँदी के वरक बनाने या बेचने वाला । तबीब-संज्ञा, पु० ( श्र० ) हकीम, डाक्टर, वैद्य । तभी- - भव्य० दे० ( हि० तब + ही ) उसी वक्त या समय, इसी कारण । तमंचा - संज्ञा, पु० ( फ़ा० ) पिस्तौल, छोटी बंदूक | तम-संज्ञा, पु० (सं० तमस् ) अँधेरा, अंधकार, राहु, बाराह, पाप, क्रोध, अज्ञान, कलंक, मोह-नरक, एक गुण, तमोगुण । तमक संज्ञा, पु० दे० ( हिं० तमकना ) जोश, तेज़ी, उद्वेग, क्रोध । पू० का० क्रि० तमकि । " तमकि ताकि तकि सिव-धनु धरहीं " - रामा० । तबका - संज्ञा, पु० दे० ( ० तबक ) खंड, भाग, परत, लोक, जन-समूह | तब किया - संज्ञा, पु० ( फा० ) चाँदी, सोने के वरक़ बनाने या बेचने वाला । तबदील - वि० ( ० ) जो बदला गया तमकना - भ० क्रि० दे० (अनु० ) कोध दिखाना, श्योरी चढ़ाना, चिढ़ना । हो, परिवर्तित | संज्ञा, स्त्री० तबदीली । तमका - संज्ञा, पु० दे० ( हि० तमकना ) तबर - संज्ञा, पु० ( फा० ) परसा, कुठार, बहुत गरमी या उष्णता । सा० भू० अ० क्रि० तब्बर ( ग्रा० ) । तेगो तबर तमंचा क्रोधित हुआ । सुनतहि तमक उठी पाबंद ला के हैं सब " – अ० । कैकेयी "तबल - तबला -संज्ञा, पु० ( फ़ा० ) छोटा तमगा -- संज्ञा, पु० ( तु० ) पदक, तकमा नगाड़ा, डंका, एक बाजा । 66 " -रामा० । तगमा (दे० ) । For Private and Personal Use Only Page #826 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तमगुना ६१५ तमोपहा तमगुना-संज्ञा, पु० दे० यौ० (सं० तमोगुणी) | तमामी-संज्ञा, स्त्री० (फा०) एक रेशमी तमोगुणी। कपड़ा। तमचर-संज्ञा, पु० दे० (सं० तमीचर) राक्षस, तमारि-तमारी-संज्ञा, पु० यौ० (हि. तम+ उल्लू, तमीचर। अरि) सूर्य । " तूल लौं उडैहौं ताहि देखत तमचुर-तमचूर, तमचोर-संज्ञा, पु० दे० तमारि के "-सरस०।। (सं० ताम्रचूड़ ) कुक्कट, मुर्गा । " भोर भये | तमाल-संज्ञा, पु० (सं० ) एक पेड़ जिसके बोले पुर तमचुर मुकुलित विपुल विहंग" | पत्ते तेजपात और छाल दालचीनी कहलाती -प्राग०। है। " तरनि-तनूजा-तट तमाल तरुवर बहु तमतमाना-अ. क्रि० दे० (सं० ताम्र) छाय'-हरि० ।। क्रोध या धूप से मुख लाल हो जाना। तमाशबीन--संज्ञा, पु. ( अ० तमाशः+ फा० तमता-संज्ञा, स्त्री. (सं०) तम का भाव, । वीन ) तमाशा देखने वाला, वेश्यागामी । अँधेरा। संज्ञा, स्त्री० तमाशबीनी । तमप्रभ--संज्ञा, पु. यौ० (सं०) एक नरक। । तमाशा-तमासा-संज्ञा, पु. (अ०) अनोखा तमस-संज्ञा, पु० (सं० ) अँधेरा, अज्ञान | दृश्य, मन बहलाने वाली बात । मुहा०पाप, तमसा नदी। तमाशा बनाना-अनोखी या साधारण तमसा-संज्ञा, स्त्री. (सं०) टौंस नदो। या मनोरंजक समझना। "प्रथम बास तमसा भयो"-रामा० ।। तमित्र-संज्ञा, पु० (सं०) अँधेरा, क्रोध । तमस्विनी-संज्ञा, स्त्री० (सं०) अँधेरी रात्रि, तमिस्रा - संज्ञा, स्त्री० (सं०) रात्रि । हलदी। तमी-संज्ञा, स्त्री० (सं०) रात्रि । तमस्सुक-संज्ञा, पु. ( म०) टीप, ऋण तमीवर--संज्ञा, पु० (सं०) राक्षस, चन्द्रमा । पत्र, दस्तावेज़ । तमीज़- संज्ञा, स्त्री० (अ.) विवेक, विचार, तमस्तति-संज्ञा, स्त्री० (सं०) अंधकार का ज्ञान. बुद्धि, लियाकत कायदा ! समूह, घोर अंधकार । तमीश-संज्ञा, पु. यौ० ( सं० तमी+ईश) तमहीद-संज्ञा, स्त्री० ( अ० ) भूमिका।। चन्द्रमा, तमीस (दे०)। तमा-संज्ञा, पु० दे० (सं० तमस् ) राहु । तमोगुण-संज्ञा, पु० (सं०) तीन गुणों में से एक। संज्ञा, स्त्री० रात्रि । संज्ञा, स्त्री० दे० (१० तम) लोभ । | तमोगुणी-वि० (सं०) तमोगुण-युक्त, अहं कारी, क्रोधी। तमाकू, तमाखू-संज्ञा, पु० दे० (पुर्त-टुवैको) एक नशीला पौधा जिसके पत्ते चूने से खाये, | तमान-संज्ञा, पु. (सं०) अंधकार-नाशक, सूंघे और चिलम में पिये जाते और अग्नि, सूर्य-चन्द्रमा, विष्णु, ब्रह्मा, शिव, औषधि के काम में आते हैं, तम्बाकू। दीपक, ज्ञान, गुरु । तमाचा-संज्ञा, पु० दे० (फा० तवानूचः ) तमोज्योति-संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) जुगनु, खद्योत। थप्पड़, थापर (ग्रा.)। तमानुद- संज्ञा, पु. (सं०) अंधकार-नाशक, तमादी-संज्ञा, स्त्री० (अ.) किसी कार्य का अग्नि, चन्द्रमा, सूर्य, दीपक, ब्रह्मा, विष्णु, निश्चित समय व्यतीत या टल गया हो।। शिव, गुरु, ज्ञान। तमाम-वि० (अ.) सम्पूर्ण, समाप्त, ख़तम । तमोपहा-संज्ञा, पु० (सं.) अंधकार-नाशक, मुहा०—काम तमाम करना (होना) सूर्य, अग्नि, चन्द्रमा, दीपक, ब्रह्मा, विष्णु, -मार डालना ( मरना)। शिव, ज्ञान, गुरु। For Private and Personal Use Only Page #827 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org तमोमय तमामय - वि० (सं० ) तमोगुणी, अज्ञानी, मूर्ख, क्रोधी, पाप प्रकृति, अंधकार युक्त । तमोर, तमोल - संज्ञा, पु० दे० (सं० ताम्बूल ) पान | ८१६ तमोरी- तमोली - संज्ञा, पु० दे० ( सं० ताम्बोली ) तम्बोली, पान बेचने वाला, बरई । तमोरिन-तमोलिन - संज्ञा, स्रो० दे० (सं० ताम्बूलिनी ) तम्बोलिन, पान बेचने वाले की स्त्री, पान बेचने वाली । तमोहर - संज्ञा, पु० (सं० ) अंधकार - नाशक, श्रग्नि, चन्द्रमा, सूर्य, ज्ञान, दीपक, गुरु, ब्रह्मा, शिव, विष्णु । तय - वि० ( ० ) पूरा या ठीक या समाप्त किया हुआ, निर्णित, निश्चित । तयारte - वि० दे० ( ० तैयार ) प्रस्तुत, तत्पर, ठीक, दुरुस्त, आमादा, तैयार (दे० ) | तरंग-तरंगा - संज्ञा, स्त्री० (सं० ) पानी की लहर, मौज, स्वरों का उतार-चढ़ाव, चित्त की उमंग या मौज़ । वि० तरगी । तरंगवती - संज्ञा, स्त्रो० (सं०) नदी, सरिता । तरंगिणी - संज्ञा, स्त्री० (सं०) नदी, सरिता । तरंगित – वि० (सं०) लहराता हुआ, हिलोरें भरता या मौजें मारता हुआ । तरकश तरकस - संज्ञा, पु० ( फा० ) तूणीर, भाथा, बारा रखने का चोंगा | तयना - ० क्रि० दे० ( हि० तपना ) तरकशी - तरकसी-संज्ञा, स्त्री० दे० ( फा० *†तपना, गर्म या दुखी होना । तर्कश ) छोटा तूरणीर या भाथा । तरंगी - वि० दे० (सं० तरंगिन ) लहर या तरंग-युक्त, हिलोर या मौज वाला, दिलचला, मन का मौजी, उमंगी । स्त्री० तरंगिणी | *6 परम तरंगी भूत सब 33 -रामा० । तर – वि० (फ़ा०) आर्द्र, गीला, भीगा, ठंढा, हरा, धनी । क्रि० वि० दे० (सं० तल ) तले, नीचे । प्रत्य० (सं० ) दो में से एक का आधिक्य बाचक, जैसे लघुतर । तरई तरैया) - संज्ञा स्त्री० दे० (सं० तारा ) तरइया (ग्रा० ) तारा, छोटा तारा । अ० क्रि० (दे० तरना ) पार हो, तर जावे, Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तरखान "" 66 मोक्ष पावे । " राम कहते भवसागर तरई - स्फुट | वि० (दे०) तरैया - तरनेवाला । तरक - संज्ञा, स्त्री० दे० ( हि० तड़कना ) तड़क | संज्ञा, पु० दे० (सं० तर्क ) अज्ञात विषय के ज्ञानार्थ किया हुआ प्रश्न, प्रतिपादन, योग्य प्रश्न, सोच-विचार । तत्व ज्ञानार्थमूहस्तर्कः " न्या० द० । तरकऊ - श्रव्य० (दे०) तर्क, विचार, रोष । तरकना +8 - अ० क्रि० दे० ( हि० तड़कना ) तड़कना, उछलना, कूदना, फाँदना । अ० क्रि० (सं० तर्क ) प्रश्न करना, पूछना, सोचविचार करना, तर्क - शक्ति । तरका - संज्ञा, पु० ( ० ) बरासत, मृतक व्यक्ति का छोड़ा हुआ माल जो उसके वारिस को मिले। तरकारी - संज्ञा, स्त्री० दे० ( फा० तरः = सज़ी + कारी) शाक, भाजी, एक वनौषधि । " तरकारी- सिगु-पंचोपण - घुणदयिता " वै० जी० । तरकि-तरकी - वि० दे० (सं० तर्किन् ) तर्क करने वाला, तर्क-शास्त्री | संज्ञा, स्त्री० (सं० ताडकी ) करनफूल, तरौनी, तड़की, तरकी ( प्रान्ती ० ) । तरकीब - संज्ञा, स्त्री० ( ० ) बनावट, युक्ति, ढङ्ग, उपाय । तरकुल - संज्ञा, पु० दे० (सं० तड़ ) ताड़ का पेड़ । तरकुली - संज्ञा, खो० (सं० ताडंकी ) करनफूल, तरकी, तरौनी । " नील निचोल तरकुली कानन " - हरि० । तरक्की - संज्ञा स्त्री० ( ० ) उन्नति, बढ़ती । तरखा -संज्ञा, पु० दे० ( सं० तरंग ) नदी आदि की तीच्ण, बेगवान धारा । तरखान - संज्ञा, पु० ( सं० तक्षण) बढ़ई । For Private and Personal Use Only Page #828 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तरगुलिया ८१७ तरफ़दार तरगुलिया -- संज्ञा, स्त्री० (दे०) अन्न आदि | तरतरा- संज्ञा, पु० (दे०) एक थाल । भरने का एक बहुत छिछला पात्र। तरतराना*-अ० क्रि० दे० (अनु०) तड़तड़ तरछाना* -- अ० क्रि० दे० (हिं. तिरछा , । का शब्द करना, तड़तड़ाना। तिरछी आँख, इशारा करना, कनखी, (ग्रा०)। तरतीब-संज्ञा, स्त्री. (अ.) सिलसिला, तरजना-अ० कि० दे० ( सं० तर्जन) चम क्रम, व्यवस्था। कना, क्रोधित होना, डाँटना, फटकारना, तरदीद-संज्ञा, स्त्री. (अ.) रद करना, झिड़कना, बिगड़ना, बकना । 'तब हनुमान काट देना, मंसूखी, खंडन, प्रत्युत्तर । विटप गहि तरजा"- रामा० । कूदना, तरदुदुद-संज्ञा, पु. ( अ०) फ़िक्र, चिन्ता, उछलना। "भिरे उभौ बाली प्रति तरजा" प्रबन्ध, धापत्ति, वाधा। -रामा । “तरजि गई ती फेरि तरजन तरन*-संज्ञा, पु० दे० (सं० तरण) पार लागीरी"-पद्मा० । होने या तरने वाला, मुक्त । तरजनी-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० तर्जनी) तरनतार-संज्ञा, पु० दे० (सं० तरण ) मुक्ति, अँगूठे के समीप वाली अँगुली। "जो तर निस्तार, मोक्ष । जनी देखि मरि जाही"-रामा०। तरनतारन-संज्ञा, पु. यो० दे० (सं० तरण+ तरजमा--संज्ञा, पु० (अ०) उल्था, भाषांतर, हि. तरना ) संसार-सागर से पार लगाने अनुवाद। वाला ईश्वर, मोक्ष, निस्तार । तरण - संज्ञा, पु० (सं०) नदी आदि से तैर कर पार होना, मुक्त। तरना-स० क्रि० ( सं० तरण ) नदी आदि तरणि-तरणी, तरनि-संज्ञा, पु० दे० (सं०) को तैर कर पार करना, उतरना, मोक्ष या उद्धार, निर्वाह, सूर्य, निस्तार। संज्ञा, स्त्री० मुक्त होना । स० क्रि० (दे०) तलना। गाव, नौका । “तिमिर तरुण तरणिहि तरनी-संज्ञा, स्त्री० पु. ( सं० तरणि, तरणी) सक गिलई "-रामा । नाव, सूर्य । “गौतम की घरनी ज्यों तरनी तरणिजा-संज्ञा, स्त्री. (सं०) यमुना जी, तरैगी मेरी।" छोटा मोढ़ा। सूर्य-पुत्री, रवितनया, एक वर्णवृत्त । तरपत-संज्ञा, पु० दे० ( सं० तृप्ति ) पाराम, तरणितनूजा-संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) सूर्य- सुभीता, डौल। तनया, भानुपुत्री, यमुना जी। तरणितजा. तरपनि–० क्रि० दे० (हि० तड़पना) तरनितनुजा । “ तरणि-तनूजा-तट तमाल | तड़पती है, तलफती है। " ताकि तकि तरुवर बहु छाये"--हरि० । तारापति तरपति ताती सी"-पद्मा० । तरणितनया-संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) यमुना तरपन-संज्ञा, पु० दे० ( सं० तर्पण) पितरों नी, तरणिसुता, तरणि जा। को जल-दान करना, पानी देना। तरणिसुत-संज्ञा, पु० (सं०) सूर्य का पुत्र, | तरपना-अ० क्रि० दे० (हि. तड़पना ) शनिश्चर, यम, कर्ण, तरणितनय। तड़पना, बेचैन होना, फड़ फड़ानातलफना तरणिसुता--संज्ञा, स्त्री. (सं०) यमुना, (दे०) चमकना ( बिजली)। सूर्य-पुत्री। | तरपर-क्रि० वि० दे० (हि. ) ऊपर-नीचे, तरणी-तरनी-संज्ञा, स्त्री० (सं०) नाव, एक के पीछे दूसरा, तर-ऊपर (दे०)। मौका, सूर्य । “गौतम की घरनी ज्यों तरनी तरफ़-संज्ञा, स्त्री. (अ.) दिशा, ओर, तरैगी मेरी" "ते सब तिहिं तरनि ते ताते" किनारे, पत। -तु.। तरफ़दार-वि० दे० (म० तरफ़+दार फ़ा०) भा० श० को०-१०३ For Private and Personal Use Only Page #829 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तरफराना ८१८ तरहर सहायक, पक्षपाती, सलाही। संज्ञा, स्त्री०- | तरघर-संज्ञा, पु० दे० यौ० (सं० तरुवर ) तरफ़दारी। बड़ा पेड़ । “समय पाय तरवर फरै"-वृं। तरफराना-अ० क्रि० दे० (हि. तड़फड़ाना) तरवरिया-तरवरिहा-संज्ञा, पु० (दे०) तड़पना तड़फड़ाना। - तलवार चलाने या रखने वाला। तरबतर-वि० यौ० ( फा० ) गीला, भाई, तरवा-तलवा-संज्ञा, पु० दे० (हि० तलवा) भीगा । प्रादा (ग्रा०)। पादतल, पदतल। तरबूज-संज्ञा, पु० दे० (फा. तर्बुज़) | तरधार-तरवारि--संज्ञा, स्रो० दे० (सं० कलींदा ( फल )। तरवारि ) तलवार, खड्ग, कृपाण, असि । तरभर-संज्ञा, स्त्री० (दे०) तडातड़ का शब्द, | "तरवार वही तरवाके तरे लौं"-पाल। खलभली । "बजी बंदूक तर भर माची'- तरस-संज्ञा, पु० दे० (सं० त्रास) कृपा, छत्र। दया, रहम । मुहा०—किसी पर तरस तरमीम-संज्ञा, स्त्री० ( अ०) दुरुस्ती, घट- खाना (आना )--कृपा या दया करना बढ़, संशोधन। (पाना)। तरराना-स. क्रि० (दे०) ऐंठना, मरोड़ना। | तग्मना--अ० क्रि० दे० (सं० तर्वण ) किसी " मुछन सहित पखा तरराने"-छत्र। वस्तु के पाने को व्याकुल या उत्कंठित तरल-वि० (सं०) चंचल, द्रव, चलायमान, होना । " त्यौं रघुपति-पदपदुम परस को लोल, क्षणभंगुर, नाशवान । स्त्री० तरला। तनु पातकी न तरस्यो"-वि० । स० " पातुर तरल तरंग एक पै इक इमि क्रि० (दे०) तराशना, काटना। “पट-तंतुन श्रावति "- हरि०। उंदुर ज्यौं तरसै"-राम। तरलता-संज्ञा, स्त्री० (सं०) चंचलता, क्षण तरसाना-स. क्रि० दे० (हि० तरसना) किसी भंगुरता, द्रवत्व । संज्ञा, पु०--तरलत्व। को किसी वस्तु के लिये लालच में डालकर व्यथित करना। तरलनयन - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) एक वर्णवृत्त, वह पुरुष जिसकी आँखें चंचल हों। तरह-संज्ञा, स्त्री० (अ.) समान, भाँति, प्रकार, ढाँचा, बनावट, रीति, उपाय । तरला-संज्ञा, स्त्री० (सं० तरल ) जवागू, महा०-तरह देना-ग़म खाना, टाल मधुमक्खी । वि० स्त्री०-चंचल । देना विचार न करना । हाल, दशा । 'इन तरलाई-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० तरल + आई तेरह सों तरह दिये बनि पावै साँई "प्रत्य०) चपलता, लोलता, चंचलता, | गिर० । द्रवत्व। तरहटी-तलहटी-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. तर) तरलायित-वि० (सं० तरल ) जिसमें नदी या पहाड़ की तराई, नीची भूमि । तरलता उत्पन्न हुई हो, जाततारस्य । संज्ञा, " मनौ मेरु की तरहटी भयो सितासित पु. बड़ी लहर। संग"-रस। तरलित-वि० (सं०) चंचलतायुक्त, आन्दो- तरहदार- वि० (फा०) सुन्दर, शौकीन, लित, द्रवीभूत ' तरलीभूत । अच्छे साज-सामान या रंग-ढंग का, भलातरलीकृत-वि० (सं०) चंचल किया हुमा।। मानुस । ( संज्ञा, तरहदारी)। तरव-संज्ञा, पु० दे० (सं० तरु ) तरु, पेड़ । | तरहरा--क्रि० वि० दे० (हि. तर + हर तरवन-संज्ञा, पु० दे० (हि. ताड़-+-धनना) | प्रत्य० ) निन्न, तले नीचे। " चरन कमल करनफूल, तरकी, तरौना, तरौनी। तरहर धरी"-रामा० । For Private and Personal Use Only Page #830 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तरहारि ६१३ तरी तरहारि-क्रि० वि० दे० (हि. तर+हारि) तराषट-संज्ञा, स्त्री० दे० (फा० तर+प्रावटनीचे, तले, निम्न । “पाँच चौक मध्यहिं प्रत्य०) भीगापन, आर्द्रता, शीतलता, रचे सात लोक तरहारि''.-राम।। शारीरिक उष्णता को शान्त करने वाला तरहुँड-वि० दे० (हि. तर+हुँड ) निम्न, खाने का पदार्थ । नीचे, तले । ' दीठि तरहुँडी हेर न मागे" | तराश-संज्ञा, स्त्री० ( फ़ा० ) छिलाई, काट छाँट, ढङ्ग, बनावट । तरहेल-वि० दे० (हि. तर+ हेल ) हारा | तराशना-स० क्रि० (फ़ा०) छीलना, काटना, हुआ, प्राधीन । " पहुप-बास श्री पवन- कतरना, काट-छाँट करना, तरासना (दे०)। अधारो कँवल मोर तर हेल"--प० । तरास-संज्ञा, पु० दे० (सं० वास) भय, तराइ-सज्ञा, स्त्री० दे० (हि. तर = नीचे+ त्रास, प्यास । भाई-प्रत्य०) पहाड़ या नदी की घाटी, तरासना-स. क्रि० दे० (सं० त्रास) डराना, पहाड़ के निचले भाग की सीड़ वाली गीली धमकाना। भूमि, तारा, नक्षत्र । " अनवट बिछिया तराहीं-क्रि० वि० ( हि० तर ) नीचे । नखत तराई "--प०। तरि-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० तरी) नाव, तराजू-सज्ञा, पु. (फ़ा०) काँटा, तुला, नौका । तखड़ी । तखरा (प्रान्ती०)। तरिका-तरिकी-संज्ञा, पु० दे० (सं० ताडंक) तराटक- सज्ञा, पु० दे० (सं० त्रोटक) टोटका, तरकी. तरौना, तरौनी। संज्ञा, स्त्री० (सं० योग-मुद्रा । “ त्रिकुटी सँग भ्रूभंग तराटक तडित् ) बिजली। नैन नैन लगि लागो"---सू०। तरिता-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० तडिता) तरान-संज्ञा, पु० (दे०) उगाहन, वसूल बिजली, तडित् । किया गया। तरियाना-स० कि० दे० (हि. तरे =नीचे) तराना-संज्ञा, पु० (फा० ) बचाना, उद्धार किसी वस्तु को तह में नीचे बैठाना. छिपाना। करना, एक प्रकार का गाना । अ० क्रि० (दे०) तह में या तले बैठ जाना, तराप*--संज्ञा, स्त्री० दे० ( अनु०) बंदूक नीचे जम जाना। आदि के छूटने का तदाका शब्द । | तरिवन-संज्ञा, पु० दे० (हि. ताड़) तलवे, तरापा-संज्ञा, पु० दे० (अनु०) रोना पीटना, तरकी, तरौनी, करनफूल । " श्राभा तरिवन हाहाकार, कुहराम, त्राहि त्राहि की पुकार। लाल की, परी कपालनि पान "-ललिः । तराबार-वि० दे० यौ० ( फ़ा० तर + पोरना- तरिवर--संज्ञा, पु. दे. (सं० तरुवर ) हि० ) भली भाँति भीगा हुश्रा, शगवोर। पेड़, वृक्ष । “तरिवर ते इक तिरिया तराभर- संज्ञा, स्त्री० (दे०) बंदूक के छूटने उतरी”—खुस । का तडातड़ शब्द। “दुहुँ दिसि तुपक तरिहता—क्रि० वि० दे० (हि. तर+हँततराभर माची"~~छन । प्रत्य०) नीचे, तले, तलहरी में। तरामीरा-संज्ञा, पु० (दे०) एक पौधा। | तरी-संज्ञा, स्त्री० (सं०) नौका. नाव । संज्ञा, तरायला-वि० (दे०) चंचल, चपल, तेज़, स्त्री० (फ़ा० तर ) आर्द्रता, भीगापन, गीला तरल, तलहटी का। “आगे भागे तरुन पन. शीतलता, नीची भूमि जहाँ वर्षा का तरायल चलत चले"-भू०। जल भरा रहता हो, नदी आदि का कछार, तरारा-संज्ञा, पु. (दे०) लगातार पानी की तराई (दे०)। संज्ञा, स्त्री० दे० ( हि० ताड़) धार, उछाल, कुलाँच, अति प्यास । करनफूल, तरौनी। सा० भू० स्त्री० (हि. तरना) For Private and Personal Use Only Page #831 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तरीका ८२० तर्कश तर जाने वाली, तर या पार हो गयी, मुक्त तरेरना-स० कि० दे० (सं० तर्ज+हेरना हो गयी। " गौतम-नारि तरी तुलसी"। हि) क्रोध से देखना, आँख गुरेरना, आँख तरीका-संज्ञा, पु. ( अ०) रीति, व्यवहार, के इशारे से रोकना। " कहत दसानन विधि, ढङ्ग, उपाय । यौ०–तौर-तरीका।। नयन तरेरी।" " सुनि लछमन बिहँसे तरु-संज्ञा, पु. (सं०) पेड़, वृक्ष । " तरु- बहुरि, नयन तरेरे राम"-राम । पल्लव में रहा लुकाई -रामा० ! तरैया-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० तारा ) तारा । तरुण-तरुन-वि० (सं०) जवान, नया, युवा। “कहा वापुरो भानु है तपै तरैयन खोय" ( स्त्री. तरुणी, तरुनी )। " तिमिर -रही । संज्ञा, पु० दे० (हि. तारना) तरुण तरणिहिं सक गिलई "--रामा० । तारने या पार लगाने या मुक्ति देने वाला। तरुगाता, तरुनता-संज्ञा, स्त्री. (सं०) | तरोई-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० तूर ) एक बेल जवानी, युवावस्था। का फल जिसकी तरकारी बनती है, तुरई। तरुणाई, तरुनाई, तरुनई -संज्ञा, स्त्री. तरोघर-संज्ञा, पु० दे० यौ० (सं० तरुवर ) दे० (सं० तरुण ---आई-प्रत्य०) जवानी, जवानी पेड़, वृत्त । की उम्र, युवावस्था, यौवन । तरौंछी-संज्ञा, स्त्री० (दे०) जुलाहे के हत्थे तरुणाना, तरुनाना-अ० कि० दे० (सं० के नीचे की लकड़ी। तरुण + आना-प्रत्य० ) जवान होना, जवानी तरौंटा-संज्ञा, पु. (दे०) चक्की के नीचे पर धाना। वाला पत्थर । तरुणापन, तरुनपन-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० तरौंस-संज्ञा, पु० दे० (हि० तर+औंस तरुण+पन-प्रत्य०) जवानी, युवावस्था ।। | प्रत्य० ) किनारा, तट, तीर। "असुवनि तरुणी-तरुनी-संज्ञा, स्त्री. (सं०) युवती, करति तरौंस तिय. खिनक खरौंहो नीर" जवान स्त्री। "तरुण भये तरुणी मन मोहै "-स्फु० । ब० ५० संज्ञा, पु० तरुनि तरौना-संज्ञा, पु. (हि. ताड़+बनना) (सं० तरु) वृत्तों। कर्णफूल, ढार, तरकी। " लसत स्वेत सारी तरुनई-तरुनाईछ - संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० तरुण दियो, तरल तरौना कान"-वि० । +पाई-प्रत्य०) जवानी, युवावस्था। तर्क-संज्ञा, पु. (सं०) अज्ञात विषय के तरुनापन-तरुनापाच-संज्ञा, पु० दे० (सं० यथार्थ ज्ञानार्थ ठीक ठीक किये गये प्रश्न, तरुण ) जवानी, युवावस्था । दलील, व्यंग, ताना मारना । संज्ञा, पु. तरुबाही-संज्ञा, स्त्री० दे० यौ० (सं० तरु (अ.) छोड़ना, त्यागना, तजना। +बांह हि०) पेड़ की डाली। तर्कक-संज्ञा, पु० (सं०) मँगता, याचक, तरेंदा-संज्ञा, पु० दे० (सं० तरंड) जल में तर्क करने वाला, तार्किक, तर्की (दे०)। उतराता हुआ काठ, बेड़ा। तर्कन-तर्कण--संज्ञा, पु० (सं०) तर्क करना। तरी-क्रि० वि० दे० (सं० तल) तले, निम्न, स्त्री० तर्कना-तर्कणा-तर्क-शक्ति । नीचे । सा० भू० ब० व० (हि. तरना ) तर तर्कना-अ० कि० दे० (सं० तर्क) तर्क या मुक्त हो गये। करना, सोचना विचारना। तरेटी-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. तर = नीचे ) तर्क-वितर्क-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) वाद तलहटी, तराई, घाटी, नीची जमीन। विवाद. सोच-विचार। तरेड़ा-संज्ञा, पु० (दे०) गडवा आदि की तर्कश-संज्ञा, पु० ( फ़ा० ) भाषा, तूणीर, टोंटी, तरेरा (दे०)। बाण रखने का चोंगा। For Private and Personal Use Only Page #832 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तर्कशास्त्र ८२१ तलपट तर्कशास्त्र-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) न्याय | तर्ब-संज्ञा, स्त्री० (दे०) स्वर की ध्वनि । शास्त्र । तर्राना-अ० क्रि० (दे०) बड़बड़ाना, बक तर्काभास- संज्ञा, पु० यौ० (सं०) बुरा तर्क, बक करना, कुढ़ना, चिढ़ना, अलाप । कुतर्क । तरिया संज्ञा, पु० (दे०) खड्गधारी, तलतर्कित-वि० (सं०) तर्क-युक्त, शंकित। | वार बाँधने या चलाने वाला । "कब तें ती-संज्ञा, पु. ( सं० तर्किन् ) तर्क करने बेटा तर्वरिया भए"-श्राल्हा० । वाला । (स्त्री० तर्किनी)। तर्ष-संज्ञा, पु. (सं०) अभिलाषा तृष्णा, तर्क-संज्ञा, पु. (सं०) सूत कातने का इच्छा, क्रोध, समुद्र, सूय्या । " बातें बात तकला, टकुवा, तकुवा । तर्ष बदि भाई"- रामा० । तर्का-वि० (सं०) विचारणीय, चिंत्य । तर्षण-संज्ञा, पु० (सं०) प्यास, तृषा, अभितर्खा-संज्ञा, पु० (दे०) तीचण, प्रखर, लाषा, इच्छा। शीघ्रवाहिनी धारा । तर्षित- वि० (सं०) प्यासा, तृषित । तर्ज-संज्ञा, पु० (अ०) रीति, विधि, ढङ्ग, तर्स-संज्ञा, स्त्री० (दे०) कृपा, दया। स० बनावट, तरीका। कि० (दे०) तर्सना । मुहा०-तसं खाना तर्जन-संज्ञा, पु० दे० (सं० तर्जन ) डाँट- (आना )-कृपा या दया करना । फटकार, डाँट-डपट, डराना, धमकाना, डपट, | तर्साना-स. क्रि० (दे०) लुभाना, ललक्रोध, चमकना। यौ०-तर्जन-गर्जन- चाना, दुखी करना। क्रोध प्रगट करना, बादल गरजना, बिजली तसी-अव्य० दे० (हि. ) वर्तमान दिन से चमकना । ( वि० ) तर्जित। २ दिन पहले या पीछे का दिन, अतसी तर्जना- अ. क्रि० दे० ( तर्जन ) फटकारना, (दे०), परसों ( ग्रा.)। डपटना, डाँटना, क्रोधित होना। तल-संज्ञा, पु० (सं०) नीचे का भाग या तर्जनी-संज्ञा, स्त्री० (सं० तर्जनी ) अँगूठे __ खंड, पानी के नीचे की ज़मीन, सतह, के पास की अँगुली। “जो तर्जनी देखि ___ एक पाताल, किसी वस्तु की ऊपरी सतह । मरि जाही"-रामा । तलका-भव्य० दे० (हि० तक) तक, तर्जित-वि० (सं०) भसित, ताड़ित, डाँटा. पयंत, तलुक, तालुक (ग्रा०)। फटकारा गया। | तल-कर--संज्ञा, पु० यौ० (सं०) धरातल का तर्जुमा-संज्ञा, पु० (अ०) उल्था, अनुवाद । | लगान या महसूल । तर्णक-संज्ञा, पु० (सं०) नया बछवा । तलघरा-- संज्ञा, पु० यौ० दे० (हि०) ज़मोन तर्तराता-वि० (दे०) चिकना, स्निग्ध । के नीचे की कोठरी। तर्तराना-स० क्रि० (दे०) चंचलता या तलछट--- संज्ञा, स्त्री० दे० यौ० (हि. तल+ चपलता करना, सन्नाटा भरना, गलफटाकी घटना ) पानी आदि द्रव पदार्थों के नीचे करना, तड़तड़ाना। बैठी हुई मिट्टी आदि। ततराहट-संज्ञा, स्त्री० (दे०) सन्नाटा, गीदड़ तलना-स० कि० दे० (सं० तरण = तिराना) भभकी, गालफटाकी, श्लाघा, तड़तड़ी। घी, तेल आदि में कुछ पकाना । तर्पण-तरपन-संज्ञा, पु० दे० (सं०) पितरों | तलप --संज्ञा, पु० दे० (सं० तल्प०) पलँग, को पानी देना। तर्पन (दे०)। " नरपन | चारपाई। जात तो मैं तरपन कीन्हे तै" द्वि० । | तलपट--वि० (दे०) खराब, नष्ट, चौपट । (वि०) तर्पणीय। यौ० (सं० तलपट ) अंतर्पट । For Private and Personal Use Only Page #833 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तलफ़ ५२२ तली तलफ़-वि० (अ.) ख़राब, बरबाद, नष्ट । तलवार को म्यान से निकालना। तलवार तलफना-अ० कि० दे० (हि. तड़पना) सौंतना-मारने के लिये तलवार उठाना । तड़पना, छटपटाना, तिलमिलाना, चिल्लाना। तलहटी-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० तल-+ घट्ट) तलब- संज्ञा, स्त्री० (अ०) चाह, पाने की तराई, पहाड़ों के नीचे की जमीन, नीचे इच्छा, बुलावा, वेतन। की सतह । तलबगार-वि० ( फ़ा० ) चाहने वाला। तला-सज्ञा, पु० दे० (सं० तल ) पेंदा, तलबाना-संज्ञा, पु० ( फा० ) गवाहों के | जूते के नीचे का चमड़ा, तल्ला (दे० )। बुलाने का ख़र्च । छोटा ताल । (क्रि०वि०हि०) भली-भाँति भूना। तलबो-सज्ञा, स्त्री० (अ.) बुलाहट, माँग, तलाई -- सज्ञा, स्त्री० दे० ( सं० तल ) तलैया, हाज़िरी। तलने का भाव । तलबेली-तलाबेली-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. तलाक-सज्ञा, पु. (अ.) स्त्री-पुरुष का तलफना ) उत्कंठा, बड़ी बेचैनी, छटपटी, परस्पर का त्याग । घबराहट, आतुरता। "तनपरी तलबेली तलातल-सज्ञा, पु० यौ० (सं०) पाताल महा लायो मैन सरु है"-सुख० । का एक खंड। तलमलाना-अ० वि० दे० ( स० तिमिर ) तलाब-तालाबा-संज्ञा, पु० दे० (सं० तल्ल) आँखों का चौंधियाना, तिलमिलाना। ताला, ताल, तालाब, सरोवर, तडाग (सं.)। तलवकार-- सज्ञा, पु० (स.) एक उपनिषत् ।। तलाव (ग्रा०) । " सिमिटि सिमिटि जन तलवा-संज्ञा, पु० दे० (सं० तल ) पादतल, भरै तलावा"-रामा० । तरुया ( ग्रा० ) तलुवा (दे०) । मुहा०- तलाबेली-संज्ञा, स्त्री० (दे०) प्रबल उत्कंठा, तलवा खुजलाना-यात्रा का शकुन। बेचैनी। तलवे चाटना (सहलाना )-- बहुत तलामली-संज्ञा, स्त्री० (दे०) प्रबल उत्कंठा, खुशामद करना । तलवे छलनी होना बेचैनी । " तलामली परिजात चट, निरखत (घिस जाना)-बहुत चलना । तलवे | स्याम बिकासा"-लालत। धो धो कर पीना-बहुत सेवा करना। तलाश-सज्ञा, स्त्री० ( तु० , खोज, ज़रूरत, तलवों में आग लगना-बहुत क्रोध आवश्यकता, चाह । करना। तलाशना -स० क्रि० द० (फा० तलाश) तलवार-तलवारि-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० खोजना, दिना। तरवारि ) कृपाण, असि, खड्ग, करवाल। तलाशी-सज्ञा, स्त्री० ( फ़ा० ) झारा लेना, तरवार-तलवार के बल ( जोर से)- खोज, छान-बीन । मुहा०-तलाशी लेना युद्ध करके। मुहा०-तलवार का खेत- - झारा लेना, खोजना, छान-बीन करना । युद्ध क्षेत्र । तलवार का घाट-तलवार तलित-वि० दे० (हि० तलना ) घी आदि में टेढ़ेपन के शुरू या प्रारम्भ होने की से खूब भूनी या तली हुई। जगह । तलवार के घाट ( उतरना) तलिन-संज्ञा, स्त्री० दे० ( सं० तल ) पलंग, उतारना-काट कर मार डालना (मर | चारपाई। संज्ञा, पु० (दे०) विरल, दुर्बल, जाना)। तलवार का पानी --तलवार थोड़ा, साफ़ । की चमक, पैनापन । तलवारों की छाँह तली-संज्ञा, स्त्री० दे० ( सं० तल ) पेंदी, में लड़ाई के मैदान में । तलवार सब से नीचे का भाग। तरी (दे०)। क्रि० खींचना-युद्ध या चोट करने के लिये वि० ( हि० तलना ) भूनी हुई। .. For Private and Personal Use Only Page #834 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org तले ८२३ - एक तले - क्रि० वि० दे० (सं० तल ) नीचे, तरे (दे० ) । मुहा० - तले ऊपर - एक दूसरे के ऊपर, उलट-पलट | तले ऊपर के - एक साथ होने वाले दो लड़के, जुड़वाँ, दूसरे के बाद उत्पन्न | तलेटी- संज्ञा, त्रो० दे० तलहटी (दे०), पहाड़ के तलैंचा - संज्ञा, पु० (दे० ) ( सं० तल ) पेंदी, नीचे की भूमि । मेहराब के ऊपर तल्ला - संज्ञा, पु० दे० ( सं० तल ) भितल्ला, अस्तर, पास नज़दीक, मुहल्ला, जूते का तला, साथ तल्तिका - संज्ञा, पु० (दे०) कुंजी, ताली, तालिका | तारा -- संज्ञा पु० दे० (सं० ताप हि० ताव ) ताप, गरमी, जलन, दाह । तवारीख - संज्ञा, स्त्री० ( ० ) इतिहास, पुराण, तारीख (दे० ) । वि० – तवारीखी तारीखी इतिहास सम्बन्धी | तवालत - संज्ञा, स्रो० (०) लम्बाई, अधिकता, भट, बखेड़ा, बढ़ावा । का भाग । तलैया - संज्ञा, स्त्री० ( हि० ताल ) छोटा तशखीस - संज्ञा, स्त्री० (अ० ) ठीक, निश्चय, ताल, गढ़या । मुकर्रर, निदान । तलौंछ - संज्ञा, स्त्री० दे० ( सं० तल = नीचे ) तशरीफ़ - संज्ञा, स्त्री० (प्र०) महत्व बड़प्पन | तलछट, मैल 1 तल्ख - वि० ( ० ) कडुआ । ( संज्ञा, तलछी) कडवाहट । मुहा० - तशरीफ़ रखना-बैठना विराजना । तशरीफ़ लाना-थाना । तशरीफ़ ले जाना - चला जाना । तल्प - संज्ञा, पु० (सं०) पलंग, चारपाई, तश्तरी संज्ञा, खो० ( फ़ा० ) रकाबी, अटारी । सनकी, तस्तरी (दे० ) ! तपना - स० क्रि० (दे०) बाँटना, भाग देना । तपरी - संज्ञा, खो० (दे०) वर्धा | तष्ट - वि० (सं०) दला या पिसा हुआ, कटा या छिला हुआ । 6 तब - सर्व ० (सं०) तुम्हारा तिहारी ( ० ) । 'तव भुजबल महिमा उद्घाटी" - तवतीर - संज्ञा, पु० (सं० भि० [फा० तवाशीर) -रामा० । तीखुर, तवाशीर । तवजह - संज्ञा, त्रो० (अ०) ध्यान, दया । तधना - अ० क्रि० दे० (सं० तपन ) गरम होना, तपना दुखी, तेज या प्रताप फैलाना, क्रोध से लाल हो जाना । - सुदा० । तवा - संज्ञा, पु० दे० (सं० तप तपना ) रोटी सेकने का लोहे का बरतन । " पिय टूटा तवा अरु फूटी कठौती ". मुहा० - तवा की बंद - तत्काल नाश होने वाला। उलटा नवा-बहुत काला तवाज़ा संज्ञा स्त्री० (प्र०) मेहमानी, दावत, भोजन का निमंत्रण । यौ० - ख़ातिर तवाज़ा । d ---- तसला तवायफ़ - संज्ञा, स्त्री० (प्र०) वेश्या, पतुरिया, रंडी, मंगलामुखी । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तया - संज्ञा, पु० (सं०) बदई, विश्वकर्मा | संज्ञा, पु० ( फा० तरत ) छोटी रकाबी । तस - वि० दे० (सं० तादृश ) वैसा, तैसा, तइस (प्रा० ) । " तस मति फिरी रही जस भावी - रामा० । तसकीन -- संज्ञा, स्त्री० 35 ०) धैर्य देना, ढाढ़स, तसल्ली । तसदीक संज्ञा, त्रो० ( ० ) सत्यता, सचाई, सचाई की परीक्षा या जाँच या निश्चय, प्रमाणित, समर्थन, गवाही । तमदीह+ - संज्ञा, स्त्री० दे० ( प्र० तसीदी ) सिर पीड़ा, दुख तसबीह - संज्ञा, स्त्री० ( ० ) सुमिरनी, जप की माला । -- तसमा - संज्ञा, पु० ( फा० ) चमड़े का कसना । तसला - संज्ञा, पु० दे० ( फा० तश्त ) पीतल आदि का गहरा बरतन । (स्त्री० तसली) । For Private and Personal Use Only Page #835 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org तसलीम तसलीम - संज्ञा, स्त्रो० (प्र०) सलाम, बंदगी, मान लेना, स्वीकार करना । तसल्ली - संज्ञा, स्त्री० (०) तसकीन, धैर्य देना, सांखना, आश्वासन | तसवीर - संज्ञा, स्त्री० (०) चित्र, सबिह । वि० - मनोहर | ८२४ तसी - संज्ञा, पु० (दे०) तीन बार जोता हुधा खेत । तसू, तस्सू - संज्ञा, पु० दे० (सं० त्रि + शूक) १३ इंच की नाप । तस्कर - संज्ञा, पु० (सं०) चोर, कान, एक दवा | तस्करता - संज्ञा, स्त्री० (सं०) चोरी | तस्करी - संज्ञा, खो० (सं० तस्कर ) चोरी, चोर की स्त्री । तस्म -संज्ञा, पु० (दे०) चमीटा, चिमटा, चिमटी संज्ञा, पु० तस्मा कसने का छल्ला । तस्मई – संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० तस्मयी ) खीर, जाउर (ग्रा० ) । तस्मात् - अव्य० (सं०) इस हेतु या वास्ते, इस कारण । तस्मिन् - सर्व ० (सं०) उसमें, वहाँ पर । तस्मै -- सर्व० (सं०) उसके हेतु या वास्ते । तस्य - सर्व ० (सं०) उसका । तहँ तहँवाँ – क्रि० वि० (सं० तत् + स्थान ) वहाँ, उस ठौर, स्थान, या जगह पर । ( विलो० - जहँ, जहँवा ) " जहँ तहँ कायर गवहिं पराने" - रामा० । तब हनुमान यो चलि तहँवाँ - रामा० । "" 39 तहसीलना मार्मिक या पते की बात। ( किसी बात की ) तह तक पहुँचना - ठीक ठीक भेद या रहस्य या असली बात समझ लेना या मर्म जान लेना । वरक़, झिल्ली । तहकीकात - संज्ञा, स्त्री० ( ० तहक़ीक़ का बहु० ) ठीक ठीक खोज, जाँच-पड़ताल, अनुसंधान, पता लगाना । तहखाना - संज्ञा, पु० यौ० ( फा० ) भुइँधरा, तलगृह, तरघर | तहज़ीब -- संज्ञा, स्त्री० (प्र०) सभ्यता, मनुष्यस्व, भलमंसी । तह पेंच - संज्ञा, पु० यौ० तले का वस्त्र । तहरी - संज्ञा, स्त्री० (दे०) पेठे की बरी और चावल की खिचड़ी, मटर की खिचड़ी । तहरीर - संज्ञा, स्त्री० (अ०) लेख, लिखने की शैली, ढङ्ग, परिपाटी, रीति, लिखी बात, लिखाई, लिखावट | तहरीरी -- वि० ( फ़ा० ) लिखा हुआ । तहलका - संज्ञा, पु० (प्र०, खलबली, हलचल, धूम, मृत्यु । तहवील - संज्ञा स्त्री० (०) अमानत, धरोहर ख़जाना, सुपुर्दगी । तहवीलदार - संज्ञा, पु० ( प्र० तहवील + दार फा० ) खजानची, कोषाध्यक्ष, पोतदार । तहसनहस - वि०यौ० (दे०) नष्ट-भ्रष्ट, ख़राब बरबाद, तबाह | तह - संज्ञा, स्त्री० ( फ़ा० ) परत । मुहा०तह करना या लगाना- किसी कपड़े आदि को सब ओर से समेटना । तह कर रखना -- रहने देना नहीं चाहिये, रक्षित या छिपा रखना । तह तोड़ना-झगड़ा निपटाना कुये का उतरना । किसी चीज़ की तह देना - हलका परत चढ़ाना या रंग देना । तल, पेंदा। मुहा० - तहकी बात- छिपी या गुप्त या Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तहसील - संज्ञा, स्त्री० (०) उगाही, लगान । तहसीलदार की कचहरी या दफ़तर तह - सीली (दे० ) । यौ० -- घसूल तहसील । तहसीलदार - संज्ञा, पु० ( प्र० तहसील - फा० दार) तहसील का हाकिम या अफ़सर । तहसीलदारी - संज्ञा, खो० ( प्र० तहसील + फा० दार + ई ) तहसीलदार का पद या काम, उसकी कचहरी या दफ़तर । तहसीलना - स० क्रि० अ० तहसील ) कर रहस्य की बात, | आदि उगाहना या उसूल करना । For Private and Personal Use Only ( फ़ा० ) पगड़ी के Page #836 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ताक तहाँ क्रि० वि० दे० (सं० तत् + स्थान) वहाँ, तांबड़ा-तामड़ा-संज्ञा, पु० दे० (सं० ताम्र) तत्र (सं०), उस स्थान या जगह पर । "जहाँ | ताँबा सम्बन्धी पदार्थ या रंग, लाल रंग, तहाँ मारै सब कोय"-राम। झूठी चुनी। तहाना स० क्रि० दे० (हि० तह ) लपेटना, तांबा-संज्ञा, पु० दे० (सं० ताम्र) एक लाल तह करना। धातु जिससे पैसे और बरतन बनते हैं। तहियाँ-क्रि० वि० दे० (सं० तदाहि) तब, | तांबिया-संज्ञा, स्त्री० दे० हि० ताँबा) ताँबे उस समय, वहीं। | की बनी वस्तु, ताँबे के रंग का । तहियाना- स० कि० दे० (हि० तह) लपेटना, | ताँबी-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. तांबा ) ताँबे तह करना। से बना पदार्थ । तहीं, तहैं।-क्रि० वि० दे० ( हि० तहाँ ) | तांबूल-संज्ञा, पु० (सं०) पान, पान का तत्रैव (सं०) उसी ठौर या स्थान पर, वहीं।। बीड़ा । “ मृषावदतिलोकोऽयं ताम्बूलं मुख ता-प्रत्य० (सं०) भाववाचक या समूह-वाचक, | भूषणम्"। जैसे चतुरता, जनता । भव्य० (फ़ा०) पर्यन्त, | तासना-स० कि० दे० (सं० त्रास ) डराना, तक । *-सर्व० दे० (सं० तद् ) उस ।। । धमकाना, डाँटना, सताना, घुड़की बताना। at-वि० (दे०) उस। ताई-अव्य० दे० (सं० तावत् या फ़ा० ता) ताँई-कि० वि० दे० (हि. ताई) समान, | तक, पर्यन्त, पास या समीप, किसी तक, पर्यन्त, प्रति, हेतु, लिये, निमित्त, के प्रति, हेतु, निमित्त, कारण, लिये, वास्ते, तई (दे०)। " दूरि गयो दासन के ताँई समान । “बात चतुरन के ताई"-गिर० । व्यापक प्रभुता सब बिसरी"-सूर। ताई - संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. ताऊ ) ताऊ की तांगा-संज्ञा, पु० दे० (सं० टंग) एक घोड़ा- स्त्री, बड़ी चाची, एक छिछली कड़ाही। गाड़ी, टाँगा। ताईद-संज्ञा, स्त्री० ( अ०) नकल, पक्षपात, ताँडव-संज्ञा, पु० (सं०) शिव का नाच, अनुमोदन, समर्थन । उद्धत नाच, पुरुषों का नाच । ताऊ-संज्ञा, पु० दे० (सं० तात ) पिता का तांत- संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० तंतु) बकरी आदि। बड़ा भाई, बड़ा चाचा । मुहा० बछिया की आँत, झिल्ली आदि से बनी पतली डोरी, के ताऊ-मूर्ख, बैल । राछ ( प्रान्ती०)। ताऊन-संज्ञा, पु० दे० (अ०) प्लेग रोग, तांता- संज्ञा, पु० दे० (सं० तति = श्रेणी)। महामारी ज्वर, काल ज्वर। कतार, पाँति,पंक्ति । मुहा०-तांता लगना | ताऊस-संज्ञा, पु० (अ०) मोर, मयूर, केकी। (बँधना)-एक के पीछे एक का मिला | यौ० तख्त ताऊस–मोर की शक्ल का हुश्रा बराबर चलना या आना। शाहजहाँ का रत्न-जटित सिंहासन, एक बाजा। ताँति--संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० तंतु ) ताँत, | ताक-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि० ताकना) ताकना धनुष की डोरी। क्रिया का भाव, टकटकी, अवलोकन, अबतांती-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि० ताँता ) पाँति, सर या ौसर की प्रतीक्षा, मौके की इन्तपंक्ति, औलाद । संज्ञा, पु० (दे०) कोरी, जारी, घात । मुहा० ताक में रहनाजुलाहा। मौका देखते रहना। ताक रखना या तांत्रिक-- वि० (सं० ) तंत्र संबंधी संज्ञा, लगाना-धात में रहना, मौका देखते रहना। पु. (सं०) तंत्रशास्त्री, · मंत्राधी। स्त्री. खोज, तलाश । ताक रखना-देख-भाल तांत्रिक । रखना। भा० श० को०-१०४ For Private and Personal Use Only Page #837 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ८२६ ताक ताक - संज्ञा, पु० ( अ० ) घाला, ताखा । मुहा० - बालायेता या ताक़ पर धरना या रखना पड़ा रहने देना, काम में न लाना, छोड़ या डाल रखना । विषम संख्या, द्वितीय, अनोखा | ताकझांक - संज्ञा, स्त्री० दे० यौ० ( हि० ताकना + झाँकना ) ठहर ठहर या छिप छिप कर देखना | 66 ताक़त - संज्ञा, स्त्री० (०) बल, पौरुष, शक्ति, जोर, सामर्थ्य ताक़त (दे० ) । ताकत रहे ये नैन ताकत गँवाइकै " - रसाल । ताक़तवर - वि० ( फा० ) बली, शक्तिमान । ताकना - स० क्रि० दे० (सं० तर्कण ) ताड़ना, देखना, ध्यान रखना, रक्षा या रखवाली करना, पहरा देना । पू० का० ताकि । ताकि ) -- अव्य० (फ़ा०) जिसमें, इसलिये कि । ताकीद - संज्ञा, स्त्री० (०) बलपूर्वक आज्ञा या अनुरोध, चेतावनी के साथ कही बात । तागड़ी-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि० ताग + कड़ी) तगड़ी - करधनी, कमरबंध, कटि-सूत्र, करगता (दे० ) । तागना—स० क्रि० दे० (हि० तागा, मोटी सिलाई करना, डोभ या लंगर डालना । तागपाट - संज्ञा, पु० दे० यौ० (हि० तागा + पाट = रेशम) विवाह के समय का आभूषण । तागा - संज्ञा, पु० दे० ( सं० तार्कक ) धागा, डोरा । ताज - संज्ञा, पु० (अ० ) राजा का मुकुट, तुर्रा, कलंगी, मोर और मुर्गे की कलँगी, मकान का बुर्ज । वि० ताजदार - बादशाह, राजा । ताजक - संज्ञा, पु० (फ़ा० ) एक ईरानी जाति, देहवार ( विलोचि ० ) ज्योतिष का एक भेद । ताज़गी - संज्ञा, स्त्री० (फ़ा० ) हरापन, नवीनता, प्रफुल्लता । ताड़का करै लौकी करै लगाम । सबद गुरु का ताजना पहुँचै संत सुठाम "कबी० " ताजनो विचार को के व्यंजन बिचारु है ” – राम० । ताजपोशी - संज्ञा, स्रो० यौ० ( फ़ा० ) राजमुकुट धारण करने या राज-गद्दी पर बैठने का उत्सव | Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ताजवाबी -संज्ञा, स्त्री० ( ० ) शाहजहाँ की पत्नी, मुमताज महल । ताजमहल - संज्ञा, पु० ( ० ) मुमताज महल का समाधि स्थान ( आगरा ) । ताज़ा - वि० ( फ़ा० ) हरा-भरा, हाली, स्वस्थ । यौ० मोटा ताज़ा - खो० ताज़ी । हृष्ट-पुष्ट | नया, नवीन, उसी समय का । ताज़िया - संज्ञा, पु० ( ० ) इमाम, हसन हुसेन के मकबरों की नक़्ल | संज्ञा, स्त्री० (सं०) ताजियादारी -- ताजिया की पूजा । ताज़ी - वि० ( फा० ) अव का, अरबी । संज्ञा, पु० ( फ़ा० ) अरब का घोड़ा, शिकारी कुत्ता । " तुरकी, ताजी और कुमैता, घोड़ा अरबी पचकल्यान - आल्हा० । ताज़ीम – संज्ञा, स्त्री० ( ० ) आदर-प्रदर्शन, सम्मान दिखाना, खड़े होना, बंदगी करना । ताज़ीमी सरदार - संज्ञा, पु० यौ० ( फा० ताज़ीमी + सरदार प्र०) वे सरदार जिनके लिये राजा सम्मान प्रदर्शित करे । ताटंक - संज्ञा, पु० (स० ) करनफूल, ढारें, 99 एक छंद । 'मंदोदरी करण ताटंका' रामा० । तटस्थ्य — संज्ञा, पु० (सं० ) उदासीनता, अलगाव, समीप, समीपता । ताडंक - संज्ञा, पु० (सं०) करनफूल, तरकी, तरौनी । ताजन - ताजना -संज्ञा, पु० दे० ( फा० ताजियाना ) कोढ़ा, चाबुक । " चित चेतन तानी 1 | ताड़ - संज्ञा, पु० (सं० ) एक पेड़, ताड़न, शब्द, जुही, हाथ का एक गहना, ढड़िया । "बाढ़ेहु सो बिन काज ही, जैसे ताड़, खजूर" -रही० । ताड़ - पत्र - संज्ञा, पु० यौ० ( हि०) ताड़ का पत्ता । ताड़का - संज्ञा स्त्री० दे० (सं० ) एक राक्षसी । For Private and Personal Use Only Page #838 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ताड़न-ताड़ना ८२७ तानारीरी ताड़न-ताड़ना-संज्ञा, पु. स्त्री० (सं०) । तादृश–वि० (सं०) ताहक उसके तुल्य, मार, डाँटफटकार, शासन, सज़ा । " लाइन वैसा ही, उसी प्रकार का । स्त्री. तादृशी। में बहु दोष हैं, ताड़न में गुण भूरि"- ताधा--संज्ञा, स्त्री० दे० (अनु०) ताथेई, स० कि० (दे०) मारना, पीटना, डाँटना, | ताताथेई । फटकारना । स० क्रि० (सं० तकण ) भाँपना, | तान-संज्ञा, स्त्री० (सं०) खिंचाव, अलाप,गान, लक्षण से समझ लेना, हटा या भगा देना। खींच-तान । मुहा०-तान उड़ानाताडनीय-वि० (सं० ताडन) ताड़ने योग्य, गीत गाना। किसी पर तान तोड़नाअपराधी। श्राक्षेप करना, ताना मारना, ज्ञान का ताडित-वि० (सं०) जिसे ताड़ना की विषय समाप्त करना। गयी हो। तानना-स० क्रि० दे० (सं० तान ) फैलाने ताड़ी-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. ताड़ ) ताड़ के लिए बल-पूर्वक खींचना, ऊपर उठाना, का नशीला रस । संज्ञा, पु० ताड़ीखाना । उड़ाना । मुहा०—तान कर बल-पूर्वक, ताडयमान-संज्ञा, पु० (सं० ) जो ताड़ना जोर से चिपकी और लिपटी वस्तु को खूब दिया गया हो. ताडित। खींच कर फैलाना। मुहा०-तान कर तात-ताता-संज्ञा पु० (सं०) पिता, गुरु, सोना-बेखटके या बेफिक्र, आराम से पुत्र, भाई । "तात मात सब करहिं पुकारा" सोना ।शामियाना श्रादि को फैला कर खड़ा -रामा०। करना, बंदीगृह भेजना, भेजना। ताता-वि० दे० ( सं० तप्त) तत्ता गरम । तानपरा-संज्ञा, पु० यौ० दे० (सं० तान स्त्री० ताती, तत्ती। +पूरा हि० ) तँबूरा। ताता-थेई-संज्ञा, स्त्री० दे० ( अनु०) नाच | तान-बान -संज्ञा, पु० दे० यौ० (हि. तान में पैर का अनुकरण शब्द, ताथेई। +-बाना ) कपड़ा बुनते समय लम्बाई और तातार-- संज्ञा, पु. (फ़ा०) एक देश (चीन चौड़ाई के बल फैलाये हुये सूत, तानाबाना। के उत्तर में )। तानसेन-संज्ञा, पु० (दे०) अकबर बादशाह तातारी-वि० ( फा० ) तातार देश-वासी, के समय का एक प्रसिद्ध गाने वाला। तातार का, तातार-सम्बंधी। तातील-संज्ञा, स्त्री० (अ० ) छुट्टी का दिन, | ताना-संज्ञा, पु० दे० (हि. तानना ) कपड़े अंझा (ग्रा.)। की बुनावट में लम्बाई के सूत, दरी और तात्कालिक-वि० (सं०) उसी समय का। कालीन के बुनने का करघा । स० कि० दे० तात्पर्य-संज्ञा, पु. (सं०) मतलब, श्राशय, (हित्तख+ना-प्रत्य०) ताव देना तपाना, अभिप्राय, अर्थ । गरम करना, पिघलाना, गलाना, जाँचना । तात्विक-वि० (सं०) तत्वज्ञान-युक्त, यथार्थ, स० कि० दे० (हि. तवा ) गीली मिट्टी तत्व या सारांश सम्बन्धी। आदि से किसी बरतन का मुँह बंद करना । तादर्थ्य-संज्ञा, पु. (सं० तदर्थ ) समान संज्ञा, पु. (प.) फबती, चाही बात, अभिप्राय, उसके प्रयोजन, लिये, वास्ते। व्यंग । 'मेरे कौन तनेगा ताना"-कबी। तादवस्थ्य -संज्ञा, पु. (सं०) तद्रूपता, | ताना-बाना-संज्ञा, पु. यौ० दे० (हि. उसी प्रकार या रीति से, वही भाव । | ताना+बाना ) तानाबाना। तादात्म-संज्ञा, पु. यौ० (सं०) उसी रूप तानारी-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. तान+ में या प्रारमा में लीन हो जाना। रीरी = अनु० ) साधारण या सादा गाना, तादाद-संज्ञा, स्त्री० (म०) गिनती, संख्या। अलाप, राग । For Private and Personal Use Only Page #839 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - तानी ५२८ तामजान-तामजाम तानी-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. ताना) कपड़े । तापहीन-वि० (सं० ) उष्णता-रहित । की बुनावट में लम्बाई के सूत । वि० तापा-संज्ञा, पु. ( हि० तोपना ) मुरगी गायक । स० क्रि० सा. भू. स्त्री (हि. का दरबा या निवास स्थान, ताप । तानना)। तापिच्छ- संज्ञा पु० (सं०) श्याम तमाल ताप-संज्ञा, पु० (सं० ) गरमी, उष्णता, | का पेड़ । " प्रफुल्लतापिच्छ-निभैः " आँच, ज्वाला. लपट, ज्वर, कष्ट, ताप तीन -माघ । हैं :-" दैहिक, दैविक, भौतिक तापा" तापित-वि० (सं०) गरम किया या तपाया -रामा० । “गात के छुए ते तुम्हें ताप गया, दुखित, पीड़ित । चढ़ि श्रावेगी"--पद्मा० । तापी-वि० (सं० तापिन् ) तपाने या गरमी तापक--संज्ञा, पु० (सं०) गरमी पैदा करने देने वाला, उष्णता युक्त, तपवाला । संज्ञा, वाला, रजोगुण, ज्वर, दाहक ।। पु० (दे०) बुद्ध देव । संज्ञा, स्त्री० (दे०) सूर्यतापतिल्ली-संज्ञा, स्रो० यौ० दे० (हि. ताप+ या० दे० {हि० ताप+ पुत्री, तापती नदी, यमुना नदी। तिल्ली) प्लीहा या तिल्ली के बढ़ने का रोग। तापीय-संज्ञा, पु० यौ० (दे०) सोनामाखी, तापती-संज्ञा, स्त्री० (सं०) ताप्ती या | एक औषधि । तप्ती नदी। तापूस संज्ञा, पु० (दे०) तेजवान । तापत्रय-संज्ञा, पु० (सं० ) तीन भाँति के | तापेन्द्र-संज्ञा, पु० (सं०) सूर्य । दुःख। “दैहिक, दैविक, भौतिक तापा" | ताप्य-संज्ञा, पु. ( सं० तप्य ) सोनामाखी -रामा०। औषधि । तापन-संज्ञा, पु० (सं० ) गरमी देने वाला, ताफ़्ता-संज्ञा, पु० (फा० ) रेशमी कपड़ा। सूर्य, एक काम-वाण, सूर्यकान्तिमणि, ताब-संज्ञा, स्त्री० (फा०) गरमी, उष्णता, मदार, शत्रु-पीड़क एक प्रयोग ( तंत्र )। दीप्ति, कांति, चमक, शक्ति, धैर्य । " दवि तापना-अ० क्रि० दे० (सं० तापन ) अग्नि तम-तोम ताव तमकति पावै है"..- सरस० । के द्वारा शरीर गरम करना । स० क्रि० (दे०) । ताबड़तोड़-क्रि० वि० द० (अनु०) लगातार, जलाना. फूंकना, नष्ट कर देना, तपाना, बराबर। गरम करना । यौ० फूकना-तापना। ताबा-ताबे-वि० दे० (अ० तावत्र) श्राधीन, तापमानयंत्र-संज्ञा, पु० (सं० ) उष्णता नीचे, मातहत, वश में । संज्ञा, पु. मापक-यन्त्र, थरमामीटर (अ.) ताप ताबेदार। मापक यन्त्र। ताबूत-वि० (अ.) मुर्दे को रख कर दफन तापस-संज्ञा, पु० दे० (सं०) तपस्वी, करने या गाड़ने की संदूक, श्ररथी, ठठरी। तेजपत्ता। तपसी (दे०) स्त्री. तापसी, तपसिनी, " तापस-भेस विसेस उदासी" | ताबेदार-वि. (अ० ताबम-नफा० दार) -रामा०। | आज्ञाकारी, सेवक, वशीभूत । संज्ञा, स्त्री० तापसतरु-नापसद्रम-संज्ञा, पु० यौ० (सं.)। ताबेदारी-दासता। हिंगोट, इंगुदी पेड़। ताम-संज्ञा, पु० (सं०) बुराई, दोष, विकार, तापसी-संज्ञा, स्त्री. ( सं०) तपसिनि, ब्याकुलता, कष्ट । वि० (दे०) भयङ्कर, तपसिनी । तप करने वाली या तपस्वी की | डरावना, हैरान । संज्ञा, पु० दे० (सं० तामस) स्त्री संज्ञा, पु० (सं०) तपसी तपस्वी। " है | रिस, क्रोध, अँधेरा. तांबा । तपसी तपपी वन पाये। सुन्दर सुन्दर तामचीनी-संज्ञा, स्त्री० (दे०) एक धातु । सुन्दरि ल्याये"। । तामजान, तामजाम-संज्ञा, पु० दे० यौ० For Private and Personal Use Only Page #840 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तामड़ा ८२९ तार (हि. थामना+यान सं० ) एक तरह की | ताम्रकूट-संज्ञा, पु० यौ० ( सं०) तम्बाकू छोटी पालकी। तामझाम (प्रान्ती०)। का पौधा । तामड़ा-वि० दे० (हि. तावा-+डा- ताम्रगर्भ ... संज्ञा, पु. यौ० (सं०) तूतिया, प्रत्य०) ताँबे के रग का, एक मणि चुनी। नीला थोथा। तामरस-संज्ञा, पु. ( सं०) कमल, सोना, ताम्र-चूड़-संज्ञा० पु० यौ० (सं०) मुर्गा धतूरा, ताँबा, सारस पक्षी, एक वर्ण वृत्त । । पक्षी, अरुण शिखा, कुक्कुट । " श्याम तामरस-दाम शरीरं, "परसत | ताम्र-पात्र-संज्ञा, पु० यो ( सं० ) ताँबे का तुहिन तामरस जैसे".-रामा। बना पत्र जिस पर प्राचीन काल में राजाज्ञा तामलकी-संज्ञा, स्रो० (सं० ) भू आँवला। लिखी या खोदी और प्रमाण-रूप में दी तामलिप्ती-संज्ञा, स्त्री० (सं० ) बंगाल का । जाती थी। एक नगर, तामलूक, तामलूम ।। ताम्रपर्णी-संज्ञा, स्त्री० (सं० ) बावली, तामलोट-तामलोटा-संज्ञा, पु० दे० यौ० | तालाब, एक नदी (मदरास)। ( अ० टंबलर ) कलईदार टीन या ताँबे का | ताम्र-वर्ण वि० यौ० ( सं० ) ताँबे के रंग बरतन या लोटा। का। संज्ञा, पु० (सं०) शरीर की खाल, तामस-वि. (सं०) तमोगुणी, क्रोध, | सोलोन, या लंका द्वीप । अज्ञान, मोह, अंधकार । स्त्री. तामसी। ताम्र-लिप्त-संज्ञा, पु. यो० (सं०) तामलुक, 'तामस तन कछु साधन नाहीं"-रामा० ।। __तमलूक, नगर ( बंगाल)। तामसिक-वि० (सं०) तमोगुणी, तामसी। तांय-श्रव्य. (दे०) से, "कोऊ पायो तामसी-वि० स्त्री० (सं० ) तमोगुण वाली। उतताँय जितै नँद-सुवन सिधारे"- सूर० । स्त्री । संज्ञा, स्रो० (सं०) काली राति, माया ।। ताय+-संज्ञा, पु. (सं० ताप ) गरम, संज्ञा, पु० (सं० ) क्रोधी, मोही तमोगुणी।। ताप, धूप । सर्व० (हि. तिस ) ताहि, उसे, तामा-संज्ञा, पु० दे०( सं० ताम्र) ताँबा । उसको । पू० का० (दे० ताना) तपाकर । ताम (दे०) तमा, क्रोध । तायदादा-संज्ञा, स्त्री० दे० (आ० तादाद) तामिल- संज्ञा, स्त्री० (दे०) एक देश वहाँ गिनती, संख्या, तादाद । कीभाषा और जाति, तामील (दे०)। तायफा--- संज्ञा, पु०, स्त्री० (अ.) वेश्याओं तामित्र-संज्ञा, पु. (सं० ) एक अँधेरा के समाजी। नरक, क्रोध, मोह द्वेष, अविद्या । स्त्री० तायना*-सं० कि० दे० ( हि० ताव ) तमिस्रा (सं०)-रात्रि। गरम करना या तपाना, ताना । " नाथ तामील-संज्ञा, स्त्री० (अ.) हुक्म बजाना, वियोग ताप तन तायें"--रामा० । आज्ञापालन । संज्ञा, पु० (दे०) तामिल देश।। तायनि--संज्ञा, स्त्री. (सं० ताप) तपन, तामीली-संज्ञा, स्त्री० दे० ( फा०) आज्ञा जलन, गरमी । “सौति के सराप तन तायनि पालनीय, प्राज्ञा पूर्ण करना । वि० (दे०) तपी रहै" ---देव० । तामील का। ताया--संज्ञा, पु० दे० (सं० तात ) पिता का तामेसरी-संज्ञा, स्त्री० दे० ( सं० ताम्र ) बड़ा भाई, ताऊ, दाऊ । स्त्री० ताई। ताँबे का सा लाल रंग। स० कि० दे० (सं० ताप ) तपाया या गरम तामेश्वर-तानेश्वर-संज्ञा, पु० यौ० (सं० किया । धातु का तार ।। तामेश्वर ) ताँबे की भस्म । तार --संज्ञा, पु० (सं०) चाँदी, रूपा, धातु का ताम्र-संज्ञा पु० (सं० ) ताँबा। तागा, टेलीग्राफ, तार-द्वारा प्राप्त समाचार । ताम्रकर--संज्ञा, पु० यौ० (सं०) ठठेरा। मुहा०-तार आना, तार देना (भेजना)। For Private and Personal Use Only Page #841 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तारट्रटना ६३० तारा तारट्रस्ना-अ. क्रि० यौ० दे० (हि.) समाचारों के जाने पाने का स्थान । कारबार नष्ट हो जाना, टिक्का उड़ाना, प्रवेश तारघाट-संज्ञा, पु० यौ० ( हि० ) कार्यबंद होना, सिलसिला बिगड़ना, वशीभूतका सिद्धि का सुभीता, व्यवस्था । छड़क जाना । मुहा०-तार तार करना-- | तारण-संज्ञा, पु० (सं.)तारन (दे०) नदी सूत सूत अलग अलग कर देना । लगातार, श्रादि से पार उतारने का कार्य, उद्धार, परंपरा, सिलसिला, क्रम । मुहा० -तार | निर्वाह, निस्तार, तारने या मुक्ति देने वाला, बँधना-बाँधना-किसी काम का लगातार | भगवान, विष्णु, शिव । "जगतारण कारण चला जाना, सिलसिला जारी रहना । ब्योंत, भव भंजन धरणी-भार" --रामा० । ढङ्ग, व्यवस्था। मुहा०—तार जमना, बैठना, तारणतरण- संज्ञा, पु० (सं०) नाव से उतारने बँधना-ब्योंत बनना, कार्य-सिद्धि का | वाला । मुक्ति या मोक्ष देने वाला, विष्णु, ढङ्ग या सुभीता होना । युक्ति, ढङ्ग, एक | शिव, तारने वालों का तारनेवाला। वर्ण वृत्त । मुहा०—तार ढीले पड़ना तारतम्य-संज्ञा, पु० (सं० ) कमी-वेशी, कम-ज्यादा, न्यूनाधिक्य, न्यूनाधिक्यानुसार शिथिलता पाना । संज्ञा, पु० दे० (सं० ताल) क्रम, गुणादि का आपस में मुकाबिला, गुप्त. गाने की ताल, ताड़ पेड़ । संज्ञा, पु० दे० (सं० भेद का रहस्य । वि० तारतिक। तल) तल,सतह । (संज्ञा, पु० दे० (हि० ताड़) तारतोड़- संज्ञा, पु० (दे० ) कारचोबी करनफूल, तरौना। वि० दे० (सं.) का काम। साफ़, स्वच्छ । तारक-संज्ञा, पु० (सं०) तारा, आँख, | तारन-संज्ञा, पु० दे० (सं० तारण ) पार आँख की पुतली, तारकासुर । “ों रामाय उतारना, उद्धार, निस्तार, निर्वाह । नमः " यह मंत्र । नदी श्रादि या संसार- तारनतरन-संज्ञा, पु० दे० (सं० तारणतरण) सागर से पार उतारनेवाला, एक वर्ण तारनेवालों का तारनेवाला, मुक्तिदाताओं वृत्त । "गिरि वेध खड़मुख जीति तारक | का मुक्तिदाता । "सकृत उर मानत जिन्हें _ नर होत तारन-तरन "- कं० वि०। यौ० तारक-मंडल-तारा-मंडल | तारना-सं० क्रि० दे० ( स० तारण ) पार तारकश-संज्ञा, पु० यौ० (हि. तार+ | __ लगाना, मुक्ति देना। कशा फा० ) धातु का तार बनाने वाला। तारपतार-वि० (दे० ) तितर-बितर, छिन्न-भिन्न । संज्ञा, स्त्री. तारकशी। तारका-संज्ञा, स्त्री० (सं०) तारा गण, तारपीन-संज्ञा, पु० दे० ( अं० टारपेंटाइन) चीड़ का तेल । आँख की पुत्तली, अंगद की माँ, तारा । तारबी संज्ञा, स्त्री० (सं० ताड़का) ताड़का । "तुलयति -संज्ञा. पु० यौ० (हि. तार+का. वर्क) बिजली का तार । स्म विलोचन तारका"-माघ० । तारल्य-- संज्ञा, पु० (सं०) द्रवत्व, तरलता तार-कण-संज्ञा, पु० (सं) षडानन, शिव । चंचलता। तारकात--संज्ञा, पु० यो० (सं० ) तारका- तारा-संज्ञा, पु० (सं० ) सितारा, आँख की सुर का पुत्र । पुतली, अंगद की माँ। "तारा बिकल देखि तारकासुर-संज्ञा, पु. यो० (सं०) एक दैत्य रघुराया"-रामा० । मुहा० तारे गिननाजिसे षडानन ने मारा था। चिंता या दुख से रात बिताना । तारा तारकेश्वर-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) शिवजी । टूटना-उल्कापात होना । तारा डूबनातार-घर-संज्ञा, पु. यो० (हि.) वार से शुक्रास्त होना। For Private and Personal Use Only Page #842 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ताराग्रह ५३१ ताल-बैताल तारे तोड़ लाना-महा कठिन कार्य चतु- इतिहास । मुहा०-तारीख डालनारता से करना। तारोडाह-बड़े तड़के | तारीख नियत करना। या सबेरे । आँख की पुतली, भाग्य । संज्ञा, | तारीफ-संज्ञा, स्त्री. (अ०) परिभाषा, लक्षण, स्त्री० (सं०) बुध या अंगद की माँ । संज्ञा, विवरण, प्रशंसा, गुण । मुहा०-तारीफ़ पु० (दे०)ताला, तालाब । य० तारागण । के पुल बांधना-बहुत अधिक प्रशंसा ताराग्रह-संज्ञा, पु. (सं०) मंगल, बुध, करना। तारीफ़ करना--परिचय बताना । बृहस्पति, शुक्र, शनि. ये पाँच ग्रह । तारुण्य-संज्ञा, पु. (सं.) जवानी युवाताराज--- संज्ञा, पु० (फा० ) लूट-मार, नाश, वस्था। बरबादी। तारु, तारू--संज्ञा, पु० दे० (सं० तालु) तालू, ताराधिप-संज्ञा, पु. यौ० (सं०) चन्द्रमा, तालु । " अतिहि सुकंठ दाहु प्रीतम को शिव, बृहस्पति, बालि, सुग्रीव, तारापति। तारु जीभ मन लावत "-सूर० । ताराधीश-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) चन्द्रमा, | तारेश-तारेस-संज्ञा, पु० (दे०) (सं० तारेश) शिव, बृहस्पति, वालि. सुग्रीव । ताराधिपति। चन्द्रमा, बृहस्पति, बालि, सुग्रीव । तारापति --- संज्ञा, पु० (सं०) चन्द्रमा, शिव, | तार्किक-संज्ञा, पु० (सं०) तर्कशास्त्री, दार्शबृहस्पति, बालि, सुग्रीव । "कास कास देखे निक, तत्वज्ञानी । संज्ञा, स्त्री० तार्किकता। होति, जारत अकाश बैठि तारापति, तारा-ताल-संज्ञा, पु० (सं०) ताली, नाच-गान में पति ध्यान न धरत हैं"-1 गान और बाजों की गति, करताल । तारापथ-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) तारों का “धुनिडफ तालन की अनि बासी प्रानन मार्ग, आकाश । मैं "- रता० । मुहा०-ताल-बालतराबाई- संज्ञा, स्त्री. (दे०) सीसोदिया जिसका ताल ठीक न हो, मौके बे मौके । वीरवर पृथ्वीराज की पत्नी, महाराष्ट्र राजाराम जाँघा पर हाथ मारने का शब्द । मुहा०की पत्नी जो औरंगजेब से ३ वर्ष तक | ताल ठोंकना-कुश्ती लड़ने के लिये लड़ी थी और अंत में जीती। तैय्यार होना या ललकारना, हरताल, ताड़ तारामंडल-संज्ञा, पु. यौ० (सं०) नक्षत्र- का फल या पेड़, तालाब, तलवार की मूंठ, समूह तारों का समुदाय । सलाह ' ताल ठोंकि हौं लरिहौं”-सू० तारिका - संज्ञा, स्त्री० (सं० तारका) नक्षत्र, | तालक,तालुक -संज्ञा, पु० (दे०) तत्रतारा, अाँख की पुतली । " तारकादिभ्यो ल्लुक, सम्बंध, ताला,हरताल अध्य. - तक। इतच्"-पा०। तालकेतु-संज्ञा, पु. यौ० (सं०) ग्रीष्म, तारिणी-वि० स्त्री० (सं०) तारने या उद्धार गरमी, बलराम । करने वाली, मुक्ति देने वाली। तालजंघ-संज्ञा, पु० (सं०) एक देश, उस तारी --संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० तालो) कुंजी, देश का निवासी। कुंचिका, ताली, चाभी. चाबी। - संज्ञा, तालध्वज-संज्ञा, पु. (सं०) तालकेतु, ग्रीष्म, सो० दे० (हि० ताड़ी ) ताड़ का मादक रस, | बलराम । ताड़ी (दे०)। | तालपर्णी-संज्ञा, स्त्री० (सं०) सौंफ़, मुसली, तारीक-वि० (फा०) अँधेरा, काला। __ कपूर कचरी। (संज्ञा, स्त्री० तारीकी)। ताल-बैताल-- संज्ञा, पु० (सं० ताल-बेताल) तारीख-संज्ञा, स्त्री० (फा०) महीने का दिन, दो देवता या यक्ष जो विक्रमादित्य राजा के तिथि, किसी कार्य के लिये नियत तिथि, | वशीभूत थे। For Private and Personal Use Only Page #843 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir wear तालमखाना ८३२ तावना तालमखाना-संज्ञा, पु० दे० यौ० (हि. यौ०-तालीम-यात्का-शिक्षित । वि० ताल + मक्खन ) एक पौधा या फल । । तालीमी-शिक्षा-सम्बन्धी। तालमूली-संज्ञा, स्त्री० (सं०) मुसली। तालीशपत्र-संज्ञा, पु. यौ० (सं०) पनियाँ तालमेल-संज्ञा, पु० यौ० दे० हि० ताल + आँवला, एक औषधि । मेल ) ताल-सुर की मिलावट । तालु-संज्ञा, पु० (सं०) तालू । तालरस--संज्ञा, पु. यौ० (सं०) ताड़ी। तालुका, ताल्लुका-संज्ञा, पु० दे० (अ. तालवन-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) ताड़ के पेड़ों तअल्लुका ) बहुत से गावों की ज़मींदारी, का बन या व्रज का एक बन । बड़ा इलाक़ा संज्ञा, पु० तालुकेदार संज्ञा, तालव्य-वि. (सं०) तालु सम्बन्धी, तालु स्त्री० तालुकेदारी। से बोले जाने वाले वर्ण । तालू - संज्ञा, पु० दे० ( सं० तालु ) मुख के ताला-संज्ञा, पु० दे० (सं० तलक ) कुफुल, भीतर का ऊपरी भाग । मुहा०—तालू में तालाब । मुहा०--मुंह (ज़बान पर) दांत जमना-विपति या बुरा समय ताला लगाना-बोलना रोकना । ताला श्राना । तालू से जीभ न लगना-बके तोड़ना --चोरी करना । ताले में बंद जाना, चुप न रहना। तालेबर-वि० दे० (अ० तालः + बर) दौलतरखना-संदूक में बंद रखना। मंद, धनी, मालदार, भाग्यवान । तालाकुंजी- संज्ञा, स्त्री० यौ० ( हि० ताल+ ताल्लुक-संज्ञा, पु० दे० (अ० तअल्लुक ) कंजी ) ताला और ताली या चाभी। लगाव, सम्बन्ध, रिश्तेदारी।। तालाब-संज्ञा, पु० (हि. ताल + आब फ़ा०) ताव-संज्ञा, पु० दे० (सं० ताप) किसी पदार्थ सरोवर, ताल, जलाशय, तलाव-(प्रा.) के पकाने या गरम करने के लिये यथोचित, तालाबेली-संज्ञा, स्त्री० (दे०) व्याकुलता। ताप । मुहा०—किसी वस्तु में ताघ "जाट तालाबेलिया ताको लायो सोधि" | आना-यथायोग्य गरम हो जाना । ताव -कबी०। खाना-श्राग पर गरम होना, ताप-पीड़ित तालिका--संज्ञा, स्त्री० (सं०) ताली, कुञ्जी।। होना । ताव दना--भाग पर रखना, गरम सूची, फेहरिस्त । करना, उत्तेजित करना । मूछों पर ताव देना तालिब-संज्ञा, पु. (अ.) चाहने वाला, -~-बल और प्रताप श्रादि के अभिमान पर खोजने या हूँढने वाला। मूछों पर हाथ फेरना, अधिकार प्राप्त क्रोध तालिबइल्म-संज्ञा, पु० यौ० (अ०) विद्यार्थी, का प्रगट होना। मुहा०—ताव दिखानाइल्म का चाहक । घमंड से रोष प्रगट करना । ताव में पाना तालिम -संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० तल्य ) -घमंड मिले क्रोध के आवेग में होना, विस्तर, सेज, शय्या। शेखी बघारना, जोश में आना । उतावली, तालो-संज्ञा, स्त्री० (सं०) कुंचिका, कुंजी, इच्छा । ताप चढ़ाना (चढ़ना, आना)चाबी, ताड़ का मद्य, ताड़ी, मुसली, एक । जोश पाना, बड़ी भारी इच्छा या अभिलाषा छंद (पिं०)। संज्ञा, स्त्री० दे० [सं० ताल) थपेड़ी। होना, उत्तेजना देना या पाना । संज्ञा, पु० मुहा०-ताली पीटना या बजाना- (फा० ताव ) कागज़ का तख़ता। दिल्लगीबाज़ी करना, हँसी उड़ाना, करतल तावत्-क्रि० वि० (सं०) तब तक । (विलो. ध्वनि करना । संज्ञा, स्त्री० (हि. ताल) गड़ही, यावत्) "द्रुतंकुलाऽऽनन्द ! ततस्व तावत्" तलैया। -भट्टी। तालीम-संज्ञा, स्त्री० (अ०) पदाना, शिक्षा।। तावना*-स० क्रि० दे० (सं० तापन) गरम For Private and Personal Use Only Page #844 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तावभाव तिखाई करना, तपाना दुख देना, सताना । “जदपि तिअहा-संज्ञा, पु० दे० (सं० त्रिविवाह ) ज्योति तन तावत"-सूर० । “प्रीतम तीसरा ब्याह, जिस व्यक्ति का तीसरा व्याह तन तावति तरुनि, लाइ लगनि की लाइ” हुआ हो। -मति०। तिउहार- संज्ञा, पु० (दे०) त्यौहार, पर्व, तावभाव--संज्ञा, पु० यौ० (हि. ताव -- भव) उत्सव । संज्ञा,-स्त्री० (दे०) त्यौहारी-त्यौहार मौका, अवसर । वि. ज़रा सा, थोड़ा सा। का इनाम।। तावर-तावरा-संज्ञा, स्त्री० पु० दे० ( सं० तिकड़ी संज्ञा, स्त्री० यौ० दे० (हि. तीन ताप ) जलन, ताप, धूप, घाम, ज्वर, +कड़ो ) जिसमें तीनि कड़ियाँ हो. तीन गरमी का चक्कर या मूर्छा, ताघरा (व.)। रस्सियों से चारपाई की बुनावट, तीन बैलों ताधरी- संज्ञा, स्त्री० (सं० ताप ) दाह, ताप, की गाड़ी। तिकतिक-संज्ञा, पु. ( अनु० ) गाड़ी आदि धूप, ज्वर, मुर्छ। के बैल हाँकने या चलने का शब्द, टिकतावना--संज्ञा, पु० (फा०) हानि का बदला, दिक ग्रा०)। जुरमाना दंड। तिकोन, तिकोना, तिकोनिया--- वि० दे० ताबीज़- संज्ञा, पु० (अ० तप्रवीज़ ) यंत्र, ( सं० त्रिकोण ) तीन कोनों का, त्रिभुज जंतर, जंतुर (दे०)। ताश-तास- संज्ञा, पु. (अ० तास) जरवत्फ़ ! क्षेत्र । संज्ञा, पु० (दे०) समोसा, पकवान । खेलने का ताश, सीने का डोरा, लपेटने | | सिक्का-संज्ञा, पु० दे० (फा० तिकः ) माँस की बोटी, ताश में ३ बूटियों का पत्ता ।। का कागज का टुकड़ा। ताशा-तासा-संज्ञा, पु० दे० (अ० तास) एक तिकी-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० तृ) ताश में तीनि बूटियाँ का पत्ता। बाजा। विक्ख - वि० दे० (सं० तीक्ष्ण ) चपरा, तासीर-संज्ञा, स्त्री० (१०) प्रभाव, असर। तीखा, बुद्धिमान, तीचण या तीव्र बुद्धि । "फरजी शाह न है सके, गति टेढी तामीर"। निक्त-वि० (सं०) क दुवा, तीता (दे०), तासु. तासू -सर्व० व० (हि० ता) उसका चिरायता। " तासु बचन सुनि के सब डरौं'- रामा० तिक्तक-संज्ञा, पु० (सं०)चिरायता, (औष०)। तासू,तासों* --सर्व ७० (हि० ता) उससे | तिक्तका-संज्ञा, स्त्री० (सं०) कटुतुम्बी, चिर. वासौं (व्र०) “तासों नाथ बैर नहिं कीजै" पीटा। -रामा। तिक्तता-संज्ञा, स्त्री० (सं०) कड़ाहट, ताहम-अव्य० (फा०) तो भी, तिस पर भी। तिताई, करुण्याई (ग्रा०)। ताहि-ताही*-सर्व० ० (हि० ता ) उसे, तिक्ता-संज्ञा, स्त्री० (सं०) कटुकी । “तिक्ताउसको । 'ताहि पियाई बारुणी'-रामा०। कषायो मुख तिक्तताघ्नः "-वै० जी० । ताहिरी-संज्ञा, स्त्री० (अ०) भोजन विशेष । तिक्ष-वि० दे० (सं० तीक्ष्ण) तीक्ष्ण, पैना । ताहीं-अव्य. व. (सं० तावत् या फा० | तिक्षता - संज्ञा, स्त्री० (सं० तीक्ष्णता) तेजी। ता) तक, समीप, लिये, हेतु, निमित्त, तई, तिखटी-संज्ञा, स्त्री० दे० ( सं० त्रिकाष्ठ ) ताई, तहाँ, वहीं, तहीं (७०)। तिपाई, टिखटी (ग्रा०)। तितिडी-संज्ञा, स्त्री० (सं०) इमली। तिखरा-वि० (दे०) तिहरा, तीन रस्सियों तिभा, तिया-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० स्त्री), का, तीन वार का। स्त्री, नारी, औरत । "वायस, राहु, भुजंग, हर, तिखाई-संज्ञा. स्त्री० दे० (हि. तीखा ) लिखति तिमा तत्काल"-स्फु०। __ कटुता, तीखापन, तेजी। भा० श० को०-१०५ For Private and Personal Use Only Page #845 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir . . .) तिखराना ८३४ तित्तरि-तित्तर तिखराना-अ.क्रि० दे० (सं० त्रि+हि०- तितर-बितर-वि० दे० यौ० (हि. तिधर + भाखर ) कोई बात पक्का करने के लिये तीन अनु०) बिखरा हुआ, फैला हुआ, अस्तव्यस्त, बार कहना, कहाना, त्रिवाचा बांधना। तितिर-बितिर (दे०)। तिखटा, तिखटा-वि० दे० यौ० (हि. तीन | तितली- संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. तीतर ) एक +खूट) तिकोन, त्रिभुज, तीन कोने का। पखेरू, कीड़ा, एक घास । तिगुन-तिगुना-वि० दे० यौ० (सं० त्रिगुण) तितलौकी-संज्ञा, स्त्री० दे० यो० (हि. तीन गुना, तीगुन (ग्रा०)। तीता--- लौआ ) क दुवी लौकी, कटुतुम्बी। तिग्म-वि० (सं०) तेज़, पैना, तीक्ष्ण । तितारा-संज्ञा, पु० दे० यौ० (सं० त्रि+ तिग्मता-संज्ञा, स्त्री० (सं०) तेज़ी, पैनापन, हि० तार ) तीन तारों का एक बाजा । तीषणता । संज्ञा, स्त्री० तितारी (अल्पा०)। तिग्मरश्मि-संज्ञा, पु. यौ० (सं०) सूर्य, तितिबा-संज्ञा, पु० दे० (अ. तितिम्मः) रवि । " अभि तिग्मरश्मि चिरमा विरमात्" ढकोसला, पुस्तक का परिशिष्ट, उपहार । -माघ । तितिक्ष-वि० सं०) सहने वाला, सहन-शील। तिग्मराशि-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) अग्नि, तितिक्षक संज्ञा, पु० (सं०) सहनशील, सूर्य, गरमी का ढेर या समूह। सहिष्णु, क्षमावान । तिग्मांशु-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) सूर्य । तितिक्षा-संज्ञा, स्त्री० (सं०) क्षमता, सहितिच्छ-तिच्छन --वि० दे० (सं० तीक्ष्ण ) (णुता, सहनशीलता, क्षमा। तेज, तीव्र, प्रखर, प्रचंड, तीखा, पैना, । | तितितु-वि० (सं०) क्षमावान, क्षमी। तिरछा,चरपरा, कर्णकटु, असा,तीछन (दे०)। तितिम्मा-संज्ञा, पु. ( अ०) बचा भाग, "तिच्छ कटाच्छ नराच नवीनो"-राम। परिशिष्ट, उपसंहार। तिजरी-संज्ञा, पु० दे० (हि. तिजार) तीसरे | तितीर्षा-संज्ञा, स्त्री० (सं०) तैरने या तरने या पार होने की इच्छा। दिन जाड़ा लगकर पाने वाला ज्वर, तिजारी। तिजारत-संज्ञा, स्त्री० (अ.) व्योपार, तितीर्घ-संज्ञा, पु० (सं०) तैरने तरने या वाणिज्य, सौदागरी। वि०तिजारती। पार होने की इच्छा वाला। "तितीर्पा, दुस्तरं तिजारो-संज्ञा, स्त्री० (हि० तिजार ) प्रति | मोहाद"-रघु०। तीसरे दिन जाड़ा लगकर पाने वाला ज्वर । तिते-तित्तेछ--वि० ० (सं० तति ) तेते तिजिल-संज्ञा, पु० दे० (तिज-+ दल) चंद्रमा, | (३०), उतने, तितने। (विलो० जिते)। जेते, जिते। राक्षस। तितेक -वि० ० (हि. तितो+एक ) तिजोरी-संज्ञा, स्त्री० (दे०) लोहे की संदूक । उतना, तितना। तिडी-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० ४) तिक्की। तित -क्रि० वि० दे० (हि. तित + ऐ तिडीबिड़ी-वि० यौ० (दे०) इधर-उधर, प्रत्य० ) वहाँ, वहीं, तहाँ, तहीं । " होत तितर-बितर, फैला हुआ, छितराया हुआ। । सबै तब ठाकुर तितै"-राम। तित*-क्रि० वि० दे० (सं० तत्र ) वहाँ, तितो-तित्तो+-वि० कि. व. (सं. तहाँ, उस ओर : " बातन की रचनानि कौं, । तति) उतना, जितना । तेतो (विलो० जितो) तित को कहा अकथ्य"-राम। " जितो कियो पायो तितो, घट बढ़ नहीं तितना-क्रि० वि० दे० (सं० तावत् ) बराट"-स्फु०। उतना, उस प्रमाण या परिमाण का।(विलो० ! तित्तरि-तित्तर-संज्ञा, पु. (सं० ) तीतर जितना)। । पक्षी, तीतुर, तीतुल (दे०)एक मुनि । For Private and Personal Use Only Page #846 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org तिथ तिथ -- संज्ञा, पु० (सं०) आग, कामदेव, तिनुका-तिनूका | काल, वर्षा ऋतु । तिथि - संज्ञा, स्त्री० (सं० ) तारीख, पंद्रह की संख्या । तिमि संज्ञा, पु० दे० (सं० तृण ) तृण, घास, । “होय तिनूका वज्र वज्र तिनुका होइ टूटै "- रामा० । तिन्ना - संज्ञा, पु० (सं० ) एक वर्ण वृत्त, (पिं०) रसेदार वस्तु, एक धान । तिन्नी - संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० तृण) एक धान | संज्ञा स्त्री० (दे०) नींबी, फुफुदी । तिन्हां - सर्व० दे० ( हि० तिन ) उन्ह, तिन ८३५ तिथिक्षय - संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) तिथि की हानि । । तिथिपत्र - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) पंचांग, जंत्री तिदरा - संज्ञा, पु० दे० यौ० (सं० त्रिद्वार ) तीन द्वारों की दालान | संज्ञा, स्त्रो० तिदरी (अल्पा० ) । 66 तिधर – क्रि० वि० दे० ( हि० तितै) उधर, उस ओर । ( विलो० जिधर ) I तिधारा - संज्ञा, पु० दे० यौ० (सं० त्रिधार ) बिना पत्तों का थूहर तीन धारायें । तिन - सर्व० दे० (सं० तेन ) तिसका बहु०, उन । " तिन नाहीं कछु काज बिगारा " - रामा० | संज्ञा, पु० दे० (सं० तृण) तृण, तिनका, तिनूका (दे० ), फूस, घास । "far after कहति बैदेही " - रामा० । तिनकना - ० क्रि० (अनु० ) चिढ़ना, झल्लाना । तिनका- संज्ञा, पु० (सं० तृण) तृण, फूस, घास । राज सभा तिनका करि देखों " - राम० । मुहा० - तिनका दाँतों में पकड़ना या लेना -- गिड़गिड़ाना, क्षमा चाहना । दसन गहु तिन कंठ कुठारी - रामा० । तिनका तोड़ना-सम्बन्ध तोड़ना, बलैया लेना । " तिनतोरहीं " रामा० ( डूबते को ) तिनके का सहारा - थोड़ा भरोसा, स्वरूप साहाय्य । तिनके को पहाड़ करना- -छोटी बात को बड़ी कर देना । सर्व० (दे०) उनका । तिनगना - अ० क्रि० दे० ( अनु० ) चिढ़ना | तिनगारी – संज्ञा, स्रो० (दे० ) चिंगारी, एक 66 , Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (दे०) । 1 तिपति तिरपति† -- संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० तृप्ति ) संतोष, तृप्ति । वि० तिपित, तिरपित (दे० ) । तिपल्ला -- वि० दे० यौ० ( हि० तीन + पल्ला ) जिस वस्तु में तीन पल्ले हों । तिपाई -संज्ञा, स्त्री० दे० यौ० ( हि० तीन + पाया) तिकंठी, तीन पावों की चौकी । तिपाड़ - संज्ञा, पु० दे० यौ० ( हि० तीन + पाड़) तीन पाट से बना, तीन पल्ले वाला । तिपैरा - संज्ञा, पु० (दे०) तीन घाटों का कूप । तिवारा तीबारा - वि० दे० ( हि० तीन + वार) तीसरा बार। संज्ञा, पु० (दे०) तीन बार खींचा मद्य | संज्ञा, पु० ( हि० तीन +वार = द्वार ) तीन द्वार का दालान या घर । तिवासी - वि० दे० यौ० (हि० तीन + बासी) तीन दिन का बासी भोजन श्रादि । यौ० बासी - तिबासी । तिब्बत - संज्ञा, पु० (सं० त्रि + भोट ) एक देश | वि० तिब्वती - तिब्बत का, तिब्बत में उत्पन्न | संज्ञा, स्त्री० तिब्बत की भाषा, बोली | संज्ञा, पु० तिब्बत - वासी । तिमंज़िला - वि० यौ० ( हि० तीन + मंजिल प्र०) तीन खंडों का । तिमिंगिल - संज्ञा, पु० (सं० ) बड़ी भारी सामुद्री मछली | पकवान । तिनपहला - वि० दे० चौ० ( हि० तीन + तिमि - संज्ञा, पु० ( सं०) सामुद्रीय मछली, पहल ) जो तीन पहल का हो । समुद्र, रतौंधी रोग । श्रव्य० ० ( सं० तिनिश - संज्ञा, पु० (सं०) तिनास, तिनसुना, तद् + इमि) तैसे, उस एक पेड़ । तुम्हार श्रागमन सुनि " प्रकार, वैसे । “तिमि - रामा० । For Private and Personal Use Only Page #847 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तिमिर ८३६ तिरमिरा तिमिर-संज्ञा, पु. ( सं० ) अँधेरा, अंधकार, तिरछाई।-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. तिरछा ) धुन्धी रोग। " तहाँ तिमिर नहिं होय" | तिरछापन । -वृन्द। तिराना-अ० क्रि० दे० (हि० तिरछा ) तिमिरारि-तिमिरारी-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) तिरछा होना । स० कि० (दे०) टेढ़ा करना । सूर्य, अंधकार का शत्रु ।। तिरछापन-संज्ञा, पु० दे० (हि. तिरछा + तिमिरहर-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) सूर्य । पन ) तिरछा होने का भाव । तिमिराली-तिमिरावलि-संज्ञा, स्त्री० यौ० तिरछी-वि० स्त्री० (दे०) टेढ़ी। संज्ञा, स्त्री. (सं०) अंधकार का समूह ।। (दे०) छानी-छप्पर। तिमुहानी-संज्ञा, स्त्री० यौ० दे० ( हि. तीन तिरौहां-वि० दे० (हि. तिरछा+ौहां +मुहाना फ़ा० ) जहाँ से तीन ओर को प्रत्य० ) कुछ तिरछापन लिए । स्त्री० रास्ते गये हो, त्रिमार्गी त्रिपथ । तिरकोंहीं। तिय*-संज्ञा, स्त्री० दे० ( सं० स्त्री० ) औरत, तिरको हैं-क्रि० वि० दे० (हि. तिरछौहाँ ) स्त्री। “तिय बिसेसि पुनि चेरि कहि "- | तिरछेपन के साथ। " औचकि दीठि परी रामा०। तियला-संज्ञा, पु० दे० (हि० तिय + ला) एक तिरछौ "- कवि०। गहना। तिरना-अ० कि० दे० (मं० तरगा) उतराना, तिया-संज्ञा, पु० दे० ( सं० तृ ) तिक्की, तैरना, पैरना, पार होना, मुक्ति पाना। तिड़ी। संज्ञा, स्त्री० (सं० स्त्री) औरत, स्त्री। तिरनी - संज्ञा, स्त्री. (दे०) नीबी, तिन्नी, तियाग-संज्ञा, पु० दे० ( सं० त्याग ) त्याग, घाँघरे या धोती का नाभी के ठीक ठीक उत्सर्ग। नीचे का भाग। तिरकुटा-संज्ञा, पु० दे० (सं० विकटु) तिरप-संज्ञा, स्त्री० (दे०) नाच में एक ताल। लोंठ, मिर्च, पीपल । तिरपटा--वि० (दे०) कठिन, टेढ़ा । तिरकोना-संज्ञा, पु० दे० (सं० त्रिकोण ) तिरपटा-वि० (दे०) ऐंचा-ताना, भींगा, तीन कोने का, त्रिकोण, तिकोना । भंगा, भिंगा। तिरखा*-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० तृष्णा) तिरपाई -संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० त्रिपाद ) प्यास, पिपासा (दे०)। तिपाई स्टूल. (अं०)। तीन पाँव की चौकी । तिरखित*- वि० दे० (सं० तृषित) प्यासा।। तिरपाल-संज्ञा, पु० दे० (सं० तृण + हिं. तिरखूटा-वि० दे० यौ० (सं० त्रि+ हि.. पातना == बिछाना ) सरकंडे के पूले । संज्ञा, खूट) तिकोना, त्रिकोण । वि० स्त्री० | पु० दे० (अं० टारपालिन) रोगन चढ़ा टाट । तिरतूंटी, तिखंटी। तिरपित-- वि० दे० (सं० तृप्त ) संतुष्ट । तिरछई।-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. तिरछा) | तिरपोलिया-संज्ञा, पु० दे० यौ० (सं० वि+ तिरछापन। पोल हिं० ) हाथी श्रादि के निकलने योग्य तिरछा-वि० दे० ( सं० तिरश्चनि ) जो सीधा तीन फाटकों वाला स्थान । न होकर इधर-उधर मुड़ा हो, टेढ़ा स्त्री० तिरफला-संज्ञा, पु० दे० (सं० त्रिफला) प्रौरा, तिरछी। यौ०-बांका तिरछा-छबीला, हर, बहेरा । वि०-तीन फल वाला सुन्दर । मुहा०-तिरछी चितवन या तिरबेनी-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० त्रिवेणी) नज़र-बगल भर देखना, टेढ़ी या वक्र त्रिवेणी। दृष्टि । तिरछी बात या पचन--कटु | तिरमिरा- संज्ञा, पु० दे० (सं० तिमिर ) वाणी, अप्रिय वचन। रेशमी वस्त्र । । चकाचौंध, तिलमिलाइट । For Private and Personal Use Only Page #848 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तिल तिरमिराना ८३७ तिरमिगना-अ० कि० दे० (हि. तिरमिरा) में तैरता हुआ पीपा जो चट्टानों आदि चौंधियाना, तिलमिलाना। के प्रगट करने के लिये छोड़ा जाता है। तिरशूल, तिरसूल-संज्ञा, पु० दे० (सं० तिरोधान—संज्ञा, पु. ( सं० ) अंतर्धान, त्रिशूल । तीन फल का भाला। "वाको है | छिपना। तिरसूल''- कवी । तिरोधायक संज्ञा, पु० (सं०) श्राड़ करने तिरस-वि० दे० (सं० तिरस ) टेढ़ापन से ।। । वाला, छिपाने वाला। तिरसठ-वि० (दे०) साठ और तीन । वि० तिरोभाव--संज्ञा, पु० (सं०) अंतर्धान, तिरसठवां । छिपाना, गोपना। तिरस्कार--संज्ञा, पु. ( सं०) अपमान, तिरोभूत-तिरोहित-वि० (सं०) छिपा अनादर, फटकार । वि० तिरस्कृत । हुआ, अंतहित। तिरस्कृत -- वि० (सं०) अनाहत, अपमानित, तिरौंछा-वि० दे० हि० तिरछा) तिरछा । परदे की अोट में। तिर्यक -- वि० (सं०) तिरछा, टेढा । संज्ञा, पु. तिरस्क्रिया--संज्ञा, स्त्री. ( सं० ) अनादर, पशु, पक्षी, सर्पादि। आच्छादन, अपमान । तिर्यक्ता -- संज्ञा, स्त्री० (सं.) तिरछापन । तिरहुत--संज्ञा, पु० दे० (सं० तीरभुक्ति ) तिर्यगति--संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) टेढ़ी या मिथिला प्रदेश । "जिन तिरहुत तेहि काल तिरछी चाल, पशु-योनि की प्राप्ति । निहारा"-रामा० । तिर्यग्यानि--- संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) पशु,पक्षी तिरहुतिया-वि० दे० ( हि तिरहुत ) तिर- आदि जीव । हुत का । संज्ञा, पु० तिरहुत-वासी, तिरहुत तिलंगा--- संज्ञा, पु. ( सं० तैलंग ) अँग्रेज़ी की भाषा। | सेना का देशी सिपाही. कनकौवा, तैलंगतिगना-स० क्रि० दे० (हि० तिरना) तैरना, वासी। पार उतारना, उबारना। तिलंगाना--संज्ञा, पु० दे० ( सं० तैलंग ) तिराहा-संज्ञा, पु० दे० यौ० ( हि तीन + तैलंग देश । फ़ा० राह ) तिरमुहानी, जहाँ से तीन मार्ग तिलंगी---वि० दे० पु० (सं० तैलंग) तिलंगाने तीन दिशाओं को गए हों। ___ का निवासी। संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. तीन-+तिरिया-त्रिया-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० स्त्री) लंग ) एक तरह का पीतल । औरत, स्त्री। “तिरिया तेल हमीर हठ | | तिल--- संज्ञा, पु० दे० (सं०) तेल वाला एक चढ़े न दूजी बार".-हमीर हठ० । यौ०- पौधा या बीज, तिल दो प्रकार के हैं, काले तिरिया-चरित्तर-स्त्रियों की चालाकी और सफेद । मुहा०—तिलकी अोट या धूर्तता "तिरिया चरित न जानै कोय' पहाड़--किसी ज़रा सी बात का बड़ा -लो। मतलब । तिलका ताड़ करना-छोटी तिरीका-वि० दे० (हिं० तिरछा) तिरछा, सी बात को बहुत बढ़ा देना । तिल तिलटेढ़ा। स्त्री० तिरछी।। थोड़ा थोड़ा। तिल धरने की जगह न तिरी बरी-अव्य० (दे०) तितर-बितर, | होना---तनिक सा भी स्थान न होना। तिडीबिड़ी (दे०)। तिल भर--थोड़ा सा । " तिल भर भूमि तिरंदा-संज्ञा, पु० दे० (सं० तरंड ) मछली न सक्यो छुड़ाई"-रामा० । देह पर काले मारने की वंशी में एक छोटी लकड़ी जो रंग का छोटा सा चिह्न । ' कमरे ना जुके काँटे से थोड़ी दूर पर बँधी रहती है, समुद्र | जाना पै कहीं तिल होगा"। काले विन्दु For Private and Personal Use Only Page #849 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ८३८ तिलक तिलावा सा गोदने का चिन्ह, आँख की पुतली के तिलपट्टी-संज्ञा, स्त्री० दे० यौ० ( हि० तिल बीच का गोल काला विन्दु। +पट्टी) चीनी या शक्कर में बना तिलों तिलक-संज्ञा, पु० (सं०) टीका, राज्याभिषेक, । का कतरा। राजतिलक, टीका ( व्याह का ) माथे का तिलपपड़ी, तिलपट्टी-संज्ञा, स्त्री० यौ० दे० ( हि० तिल -+-पपड़ी ) शक्कर के साथ बना गहना, शिरोमणि, सिरताज, श्रेष्ठ, एक पेड़, एक प्रकार का घोड़ा, तिल्ल खेटकी, किसी तिलों का कतरा, तिलपपरी। पुस्तक की अर्थ-सूचक व्याख्या या टीका । ति नपुष्प-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) तिल का संज्ञा, पु० दे० ( तु० तिरलोक) औरतों का - फूल, बघनखा, व्याघनख । एक कुरता, खिलत। तिलभुगगा-संज्ञा, पु. यौ० दे० (हि. तिल तिलकना-अ० कि० दे० (हि० तड़कना) +भुग्गा) शक्कर की चाशनी में मिले कुटे तिल। गीली मिट्टी सूखने पर जो फट जाती है, । तिलमिल-संज्ञा, स्त्री० दे० ( हि० तिमिर) तिरमिराहट, चकाचौंध । फिसलना। तिलक-मुद्रा-संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) केसर तिलमिलाना- अ० क्रि० दे० (हि० तिमिर ) चौंधियाना, तिरमिराना, झपना। चंदन आदि का टीका और शंखादि का छापा ( वैष्णव)। तिलवा-संज्ञा, पु० दे० ( हि० तिल ) तिलों का लड्डू। तिलकहार-संज्ञा, पु० यौ० (हि० तिलक +हार ) फलदनहा, तिलकहा, वर को | तिलस्म-संज्ञा, पु० दे० (यू. टेलिस्म ) तिलक चढ़ाने वाला। जादू, करामात, चमत्कार, करिस्मा । तिलस्मी-वि० दे० (हि. तिलस्म ) जादू तिलका-संज्ञा, स्त्री० (सं०) एक वर्ण वृत्त. वसंततिलक (पिं०) तिल्लाना गीत, कन्नौज संबंधी, करामाती, चमत्कारी । तिलहन-संज्ञा, पु० दे० (हि. तेल+धान्य) के राजा जयचन्द की रानी।। उन पौधों के बीज जिनसे तेल निकलता है। तिलकुट-संज्ञा, पु० दे० यौ० ( सं० तिल) जैसे तिल, सरसों। शक्कर की चाशनी में पागे कुटे तिल । ति नहा-तेलहा-वि० दे० (हि० तेल) तेल का तितचटा-संज्ञा, पु० यौ० दे० ( हि० तिल पका, तेल में बना, तेलयुक्त, चिकना, तेली। +चाटना ) एक तरह का झींगुर, चिवड़ा । तिलांजली-संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) तिलतिल छना - अ० क्रि० दे० (अनु०) छट मिली पानी की अंजली. मृत या प्रेत को पटाना, विकल या बेचैन रहना। अंजली में पानी भर तिल देना । मुहा०तिलड़ा, तिलरा-वि० दे० यौ० (हि. तिलांजली देना-बिलकुल छोड़ या तीन+लड़) तीन लरों की रस्सी, तीन लड़ों त्याग देना, सम्बंध तोड़ देना । का हार। तिला-संज्ञा, पु. (दे०) सोना, पगड़ी का तिलड़ी-तिलरी-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. तीन | छोर जिसमें सोने के तार बुने रहते हैं, +लड़) ३ लड़ों का हार (गहना ) तीन नपुंसकता मिटाने वाला एक तेल । लड़ों का माला, जिसके बीच में जुगुनी तिलाई-संज्ञा, स्त्री० (फा०) सेनिहला, छोटी कड़ाही। तिलदानी- संज्ञा, स्त्री० दे० यौ० (हि. तिलाक-संज्ञा, पु. ( अ० तलाक ) स्त्री-पुरुष तिल्ला + सं० प्राधान) दरज़ियों के सूई. का सम्बन्ध टूटना, त्याग, तलाक । तागा रखने की थैली। वि०-तिल का दान । तिलाघा-संज्ञा, पु० (दे०) वह कुलाँ जिसमें करने वाला। । तीन पुर चलें, रौंद, गश्त । रहती है। For Private and Personal Use Only Page #850 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तिलिया | वरी तिसरायत तिलिया-संज्ञा, पु० दे० (हि. तिल)| तिलौदन-संज्ञा, पु. यौ० ( सं० तिल+ एक विष, शंखिया, सरपत । __ अोदन ) तिल और चावल मिली खिचड़ी। तिली-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. तिल) सफेद तिलौरी-संज्ञा, स्त्री० दे० यौ० (हि. तिल+ तिल, तिल्ली । तिल्ली-(ग्रा०)। __वरी) तिल मिली बरी या तिल की कचौरी । तिलुवा-संज्ञा, पु० (दे०) तिलों का लड्डू। तिल्ला-संज्ञा, पु० दे० ( अ० तिला ) कलातिलेदानी- संज्ञा, स्त्री० (हि. तिलदानी) वतून के काम का वस्त्र । संज्ञा, स्त्री० एक दरजियों की थैली जिसमें वे सुई तागे। वर्ण वृत्त, तिलका (पि०)। रखते हैं। तिल्लाना- एंज्ञा, पु० दे० (फा० तराना ) तिलेगू---संज्ञा, स्त्री० दे० (हि० तेलगू ) तैलंग | गाने का एक गीत। देश की भाषा, तेलगू। तिल्ली-संज्ञा. स्त्री० दे० (सं० तिलक) प्लीहा, तिलैहा-संज्ञा, पु० (दे०) एक पक्षी, घुध्धू, | पिलही । संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० तिल) सनद पंडुकी, पंडुक । तिल, तिली। तिलोक-संज्ञा, पु० दे० (सं० त्रिलोक) तीनों तिवाड़ी-तिवारी-संज्ञा, पु० दे० (सं० लोक-पृथ्वी, आकाश, पाताल । “ ठाकुर त्रिपाठी ) ब्राह्मणों की एक जाति । तिलोक के कहाइ करिहैं कहा"--ऊ० श० ! तिवारा- संज्ञा, पु० दे० यौ० ( हि० तीन+ द्वार या वार ) तिदरी, तीन द्वार की दालान, तिलोक-नाथ तिलोक-पति - संज्ञा, पु. | तिवारी । तीन बार, तीसरी बार, यौ० दे० (सं० त्रिलोकनाथ-त्रिलोक-पति) तिबारा। तीनों लोंकों के स्वामी, विष्णु, तिलोकी तिवासा-संज्ञा, पु० दे० यौ० (सं० त्रिवासर) नाथ, तिलोकीपति। तीन दिन, तिबासर । तिलोको-संज्ञा, पु० दे० (सं० त्रिलोकी) तिबासा-तिबासी-वि० दे० ( हि० ) तीन तीनों लोक, उपजाति छंद (पिं०)। दिनों का वासी। तिलोचन-संज्ञा, पु० दे० यौ० ( सं० त्रिलोचन ) शिव जी । तिशना, तिसना*-संज्ञा, पु० दे० ( सं० तृष्णा ) प्यास, तृष्णा, चाह । संज्ञा, पु० दे० तिलोत्तमा-संज्ञा, स्त्री० (सं०) एक अप्सरा । (फ़ा० तशनीय) ताना, व्यंग। तिलादक-संज्ञा, पु. यौ० (सं०) तिल और तिष्ठना*-अ० क्रि० दे० (सं० तिष्ठ) ठहरना। पानी जो प्रेत को दिया जाता है। " श्राजु तिष्ठित-वि० (सं० तिष्ठ) ठहरा हुआ। तिलोदक देहुँ पिता को "-राम । तिष्य-संज्ञा, पु० (सं०) पुष्य नक्षत्र, पूस तिलोरी- संज्ञा, स्त्री० (दे०) तेलिया, मैना। महीना, कलियुग, कल्याणकारी। संज्ञा, स्त्री० दे० ( हि० तिल-+बरी) तिल तिवन-वि० दे० (सं० तीक्ष्ण) तेज़, पैना, की बरी या कचौरी। तीखा, तीव्र, प्रचंड, चरपरा, तीछन (दे०)। तिलौचना-स० क्रि० दे० (हि. तेल + | तिसा-सर्व दे० (सं० तस्मिन् ) उस (विलो. औंछना ) थोड़ा तेल लगा किसी वस्तु को जिस) । मुहा०—तिस पर-इतना होने चिकना करना। पर या ऐसी दशा या अवस्था में । तिलौंडा-वि० दे० (हि. तेल ---ौंछा) तिसराय-क्रि० वि० दे० (हि. तीसरा ) तेल के से रंग या स्वाद वाला, चिकना, तीसरी बार, तिबारा। तेलयुक्त, स्नेहयुक्त । "जकित चकित द्वैतकि तिसरायत-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. तीसरा) रहे, तकित तिलौंछे नैन"-बि०। । तीसरा पन, पराया। For Private and Personal Use Only Page #851 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तीखुर तिसरिहा ८४० तिसरिहा– संज्ञा, पु० (दे०) गैर, पराया, कोप, तेहा (ग्रा० ) क्रोध, बिगाड़, झगड़ा। तिहाई भाग लेने वाला। संज्ञा, पु० दे० (सं० तृतीयांश ) तिहाई। तिसरत-संज्ञा, पु० दे० (हि. तीसरा ) तिहि, तेहि-सर्व०७० ( हि० तेहि ) उसको, तीसरा, अलग, तटस्थ, बिचवानी, तिहाई । उसे, उस । “ तिहि अवसर सुनि सिव-धनु का स्वामी। भंगा"-रामा० । तिसाना*---अ. क्रि० दे० (सं० तृपा) तिहूँ तिहूँ।-वि० दे० (हि. तीन ) तीनों। प्यासा होना। "अस सोभा तिहु लोकहुँ नाही'-स्फु० । तिसूत-संज्ञा, पु० (दे०) एक औषधि । तिहैया-संज्ञा, पु० दे० (हि० तिहाई) तिहाई, तिहरा, तेहरा-वि० (हि. तीन + हरा) तीसरा भाग। तीन परत का, तिगुना, तिहराय। ती*-- संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० स्त्री० ) नारी, तिहराना-तेहराना-स० कि० (हि. तेहरा) | स्त्री, तिय। “किय भूखन तिय भृग्वन ती को" दो बार कर चुकने पर फिर तीसरी बार -रामा० अ० क्रि० (३०) थी. हती, इती। करना तिबारा, तीन परत करना। तीन-संज्ञा, स्त्री० (सं० स्त्री+ अन्न) भाजी, तिहगवट-संज्ञा स्त्री० (हि. तेहरा) तिगुनाव, शाक, स्त्री का अन्न । तिगुना करने का भाव या काम । तीकट-संज्ञा, पु० दे० (सं० स्त्री + कटि) तिहरो-वि० दे० स्त्री० ( हि० तेहरा ) तीन नितम्ब. कटि का पिछला भाग। तह की, तीन रस्सियों की, तिगुनी, तीन तीक्षण-तीक्षन-वि० दे० (सं० तीक्ष्ण ) परत की। पैना, तेज़, उग्र, प्रचंड, चरपरा, तीखा, तिहरे-सर्व० (दे०) तिहारे, तुम्हारे । वि०.. तीछन (ग्रा.)। "तीक्षन लगी नयन भरि तिगुने, तीन परत के। श्राये रोवत बाहर दौरे"-- सूर० । तिहवार, तेहवार--संज्ञा, पु. दे० (हि. तीक्ष्या--वि० (सं०) पैना, तीव, उग्र, प्रचंड, त्योहार) त्यौहार,पर्व,उत्सवतिउहार (ग्रा०)। चरपरा, तीखा । संज्ञा, स्त्री० तीक्ष्णता । तिहवारी-संज्ञा, स्त्री० दे० ( हि० त्योहार ) तीक्ष्ण दृष्टि --- वि० यौ० (सं०) सूक्षम दर्शी, त्योहार के दिन सेवकों का इनाम या पार- सूक्ष्म दृष्टि । तोषिक, त्यौहारी (दे०) तेतहारी। तीक्ष्णाधार तीक्ष्णधारा-- संज्ञा, पु० (सं०) तिहाई -- संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० तृतीयांश ) तलवार, नदी । वि०-तेज या पैनी तीसरा भाग या खंड, खेतों की पैदावार, धारा या धार वाला। सिल। तीक्ष्ण बुद्धि-वि• यौ० (सं०) बुद्धिमान । तिहायत, तिहाइत-संज्ञा, पु. द० (हि. जिसकी बुद्धि बहुत तेज़ या पैनी हो, विज्ञ । तीसरा ) तीसरा मनुष्य, तीसरा भाग लेने | तीक्ष्णा -- सज्ञा, स्त्री० (सं०) तारा देवी, जोंक, वाला, उदासीन, मध्यस्थ, निपत, पक्षपात. मिर्च, मालकँगुनी, वच, केवाच । रहित। तीख, तीखा - वि० दे० (सं० तीक्ष्ण ) तिहारा-तिहारे-तिहारी*-सर्व० दे० तीखा, तीक्षण, उग्र, प्रचंड, चोखा, चरपरा । (हि• तुम ) तुम्हारा, तुम्हारे। स्त्री० तीखी। तिहारी*-सर्व० दे० (हि. तुम) तुम्हारी। तीखन-वि० दे० ( सं० तीक्ष्णा ) तीखा, "नगरी तिहारी तजि जै हौं घबरानी सुनि" पैना, तीक्षण । तोखुर--संज्ञा, पु० दे० (सं० तवक्षीर ) एक तिहाव, तिहावा - संज्ञा, पु० दे० (हि० तेह)। पेड़, उसकी जड़ का सत । For Private and Personal Use Only Page #852 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तीन ८४१ तीर्थराज तीन*-वि० दे० (सं० तीक्ष्ण ) पैना, तीयन-संज्ञा, पु० (दे०) एक तरकारी। संक्षा, तीषण । " तीछन लगी नैन भरि आये"। स्त्री० (सं० स्त्री) तीय का बहुवचन । तीछी- संज्ञा, स्त्री० दे० ( सं० तीक्ष्ण, हि० तीरंदाज़-संज्ञा, पु० (फा०) बाण चलाने तीखी ) तीखी, तीचण, पैनी, चोखी, चरपरी। वाला। तीछे-वि० दे० (हि. तीखा) तीखे, पैने, चोखे । तीरंदाजी-संज्ञा, स्त्री० (फ़ा०) बाण-विचा। तीज-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० तृतीया ) प्रति | कमनैती-(ग्रा०)। - पक्ष की तीसरी तिथि। तीर-संज्ञा, पु० दे० (सं०) नदी का तट, तीजा-वि०दे० (हि. तीन) तीसरा, मध्यस्थ, कूल, किनारा (फा०) बाण, बान (दे०) दूसरा, गैर । संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० तृतीया ) समीप, पास । “ चित करहौं कुरवान, एक भादों सुदी तीज, हर-तालिका का त्योहार तीर जब पायहौं"। लो०---लगा तो तीर या पर्व। (स्त्री० तीजी) नहीं तुका-कार्य सिद्ध हुआ तो उपाय ठीक, तीजिया-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० तृतीया ) नहीं व्यर्थ । मुहा०-तीर चलाना या सावन सुदी तीज का व्रत, छोटी हरतालिका फेंकना-युक्ति या उपाय निकालना या या तीज । भिड़ाना, ढंग लगाना । एक तीर से दो तीजै-वि० ( सं० तृतीया हि तीन ) तीजा शिकार--- एक साधन से दो कार्य करना, का त्योहार, तीज, तीसरा, तीसरे । तीजा एक पंथ दो काज। तीजे (दे०)। तीरथ-संज्ञा, पु० दे० ( सं० तीर्थ ) तारने तीत, तीता-वि० दे० (सं० तिक्त) तीता, | वाला, पवित्र स्थान, संन्यासियों की उपाधि । तीखा, कटु, चरपरा। तीतर, तीतुर-संज्ञा, पु० दे० (सं० तितिर ) ।' | तीर-भुक्ति- संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) तिरहुत देश। एक चिड़िया, तीतुल (ग्रा० )। तीर-धर्ती- वि० (सं०) तटवर्ती, किनारे पर तीतरी, तीतरी, तीतुली-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं०तित्तिर) तीतली, तितली, मादा तीतर । रहने वाला, पड़ोसी, समीपी। तीन-तोनि - वि० दे० (सं० त्रीणि) दो और | तोरस्थ-- संज्ञा, पु० (सं०) मरने वाला पुरुष एक, ३ लोक, तीन गुण, व काल । मुहा० | जो नदी-तट पर पहुँचा हो। कौड़ी के तीन-तुच्छ, नगण्य होना। | तीरा--संज्ञा, पु० दे० (हि. तीर ) नदी तीन-पांच करना-घुमाव, फिराव, | का किनारा, बाण, शर। और तकरार हुज्जत की बात करना । तीर्णा- संज्ञा, स्त्री० (सं०) एकवर्ण वृत्त (पिं०) न तीन में न तेहर में किसी भी काम | - सती, तरणिजा। के नहीं, किसी पक्ष में नहीं। तीन-तेरह | तीर्थकर--संज्ञा, पु० (सं०) जैनियों के देवता करना (होना)-बाँट देना, पृथक होना। जो २४ हैं। तीमारदार-वि० (फा०) बीमारों का सेवक । तीर्थ-संज्ञा, पु० (सं०) तारने या पार लगाने तीमारदारी--संज्ञा, स्त्री० (फा०) बीमारों वाला, मुक्तिदाता, पवित्र स्थान । की सेवा, शुश्रूषा । तीर्थ-पति-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) तीर्थराज, तीय-तीया-तिया-संज्ञा, स्रो० (सं० स्रो०)। प्रयाग, तीरथपति (दे०)। खी, औरत, नारी। “तीय बहादुर सों तीर्थ-यात्रा-संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) तीर्थाटन, कह सोवै"-भूष। तीर्थ-भ्रमण । तीयल-संज्ञा, स्त्री० दे०( हि तीन ) स्त्रियों तीर्थराज-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) तीरथराज के तीन कपड़े। (द०) तीर्थ-नाथ, प्रयाग । मा० श० को०-१०६ For Private and Personal Use Only Page #853 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org तीर्थराजी तीर्थराजी - संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) तीर्थरानी, काशी । तीर्थाटन - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) तीर्थ-यात्रा | तोर्थिक - संज्ञा, पु० (सं०) तीर्थ का ब्राह्मण या पंडा, बौद्ध धर्म का विद्वेषी, ब्राह्मण (बौद्ध) तीर्थकर ( जैन ) । तीली - संज्ञा, स्त्रो० दे० (फा० तीर) सींक, धातु का पतला और कड़ा तार । ८४२ तोवर - संज्ञा, पु० (सं०) समुद्र, सागर, शिकारी । तीव्र - वि० (सं०) बहुत ही तेज़, तीच्ण, गरम, क. डुवा, असा, तीखा (दे० ) ऊँचा स्वर । तीव्रता - संज्ञा, स्त्री० (सं०) तीचणता, तेजी, तीखापन, चोखापन । तीस - वि० दे० (सं० त्रिंशत् ) बीस और दश । यौ० - तीसों दिन या तीस दिन -सदा, सब दिन । तीस मार खां - बड़ा बहादुर (त्र्यंग) | संज्ञा, पु० (दे०) दश की तिगुनी संख्या, ३० । तीसरा, तीसर, तिसरा - वि० द० ( हि० तीन ) गैर, दूसरा, बाहिरी, अपर, प्रति दो के पीछे आने वाला, तृतीय । स्त्री० तीसरी । तीसी - संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० अतसी) अलसी, तीस गाहियों का एक मान ( प्रान्ती० ) । तुंग - वि० (सं०) ऊँचा, मुख्य | संज्ञा, पु० (सं०) पुन्नाग पेड़, पहाड़ या श्रृंग, नारियल, कमल- केसर, शिव, एक वर्ण वृत्त (पिं० ) तुंगता - संज्ञा, स्रो० (सं०) ऊँचाई । तुंगनाथ - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) एक तीर्थ । तुंगवाहु – संज्ञा, पु० यौ० (सं०) तलवार का एक हाथ । तुंगभद्र - संज्ञा, पु० (सं०) मस्त या मतवाला हाथी । तुंगभद्रा - संज्ञा, स्त्रो० (सं०) दक्षिणी भारत की एक नदी । तुंगारण्य - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) बेतवा नदी के तट पर झाँसी के पास का एक वन | तुंगार (दे० ) । तुकबन्दी तुंड -संज्ञा, पु० (सं०) मुँह, चोंच, सूँड़, थूथुन ( ग्रा० ) तलवार का अगला खंड, शिव जी । " करता दीखै कीरतन, ऊँचा करिकै लुंड ” – कबी० । तुंडि - संज्ञा, स्त्री० (सं०) मुख, चोंच, नाभि । तुंडी - वि० संज्ञा (सं०तुंडिन् ) मुख, चोंच, थूथुन सूँड़वाला | संज्ञा, पु० (सं०) गणेश जी | संज्ञा, स्त्री० (सं०) नाभि, ढोंढ़ी (ग्रा० ) | तुंद - संज्ञा, पु० (सं०) उदर, पेट, तोंद (दे०) वि० ( फ़ा० ) घोर, तेज़, प्रचंड । तुंदिया - (संज्ञा, स्त्री० (दे०) नाभि, तोंदी (दे०)। तुंदिल - वि० (सं०) तोंदवाला, जिसके बड़ा पेट हो, तोंदीला - (दे०) । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तुंदी - संज्ञा स्त्री० दे० (सं० तुंद) नाभि, तोंदी । तुंदेल - वि० दे० (सं० तुंदिल ) जिसके तोंद बड़ा पेट हो, तँला । बड़ो, तँबड़ी - संज्ञा, स्रो० दे० (हि० तँबा ) तूंमड़ी, तोंबी, तुंबी । तुंबर* – संज्ञा, पु० दे० (सं० तुंबुरु) धनियाँ, गंधर्व, बु 55 तुंबा - संज्ञा, पु० दे० (हि० तूंबा) तूंबा, तोंबा । तुंबी तंवरी - संज्ञा स्त्री० दे० ( हि० तँबा ) "तोंबी, तूंबी । " ते सिर कटु तुंबी सम तूला - रामा० । लो० - कटुक तँबरी सब तीरथ करि आई " । तुंबुरु - संज्ञा, पु० (सं०) एक गंधर्व, धनियाँ । तुम, तुष - सर्व० दे० (सं० तव ) तुम्हारा । तुमना- - प्र० क्रि० दे० (हि० चूना) टपकना, चूना, गिर पड़ना, गर्भ गिरना । तुर - संज्ञा, स्त्री० (दे० ) अरहर । तुई | - सर्व० दे० (सं० त्वम्) तू, तुही, तुम्ही । तुक - संज्ञा, स्त्रो० दे० ( हि० टूक ) गीत की कड़ी, पद्य के चरणान्त के वर्णों का मिलान, वर्ण-मैत्री, अन्त का अनुप्रास, काफ़िया ( फ़ा० ) । वि० तुक्कड़ केवल तुक जोड़ने वाला | मुहा० - - तुक जोड़ना - बुरा काव्य करना । तुकबन्दी -संज्ञा, खो० यौ० ( हि० तुक + For Private and Personal Use Only Page #854 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तुकमा २४३ तुनीर बंदी फ़ा० ) केवल तुक मिलाने या बुरा | तुझ-सर्व० दे० (सं० तुभ्यम् ) सम्बंध और काव्य करने का कार्य, काव्य-गुण-हीन कर्ता कारक को छोड़ शेष कारकों में काव्य । तू का रूप (अनादर-सूचक), तुझ (ग्रा०)। तुकमा-संज्ञा, पु० ( फा० ) धुंडी के फँसाने । तुझे-सर्व० ( हि० तुझ) तू शब्द के कर्म का फंदा, तसमा। और संप्रदान कारक में रूप, तुझको, तेरे तुकांत-संज्ञा, पु० दे० यौ० (हि० तुक + लिये, तोंहि, तोकह (व.)। अंत सं० ) छंद के चरणों के अंतिम वर्णों तुट -वि० दे० ( सं० त्रुट ) बहुत ही थोड़ा, का मिलान, काफिया ( फा०) अन्त का लेश मात्र । अनुप्रास । ( वि. अतुकान्त)। तुहनास-स० कि० दे० ( सं० तुष्ट ) प्रसन्न तुका-संज्ञा, पु० (फ़ा०) धुंडीदार तीर या या संतुष्ट करना । अ० कि० (दे०) संतुष्ट या बान, तुका (दे०)। प्रसन्न होना। तुकार-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. तू+कार सं०) तुड़वाना, तोड़वाना-स० क्रि० दे० (हि. तू कहना (अनादर-सूचक ) बुरा संबोधन। तोड़ना का प्रे० रूप ) तोड़ने का काम दूसरे तुकारना-स० कि० दे० (हि. तुकार ) तू, पुरुष से कराना, तुड़ाना, तोड़ाना। तू कहकर बुलाना या संबोधन करना, तुड़ाई-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि• तुड़ाना) तुड़ाने (अपमानार्थ में )। या तोड़ने का भाव या क्रिया, या मज़दूरी। तुकड़-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि० तुक ) तुकबंदी तुड़ाना, तोड़ाना-स० कि० दे० (हि. करने वाला । वि० --तुकड़ी। तोड़ना ) तोड़ने का काम कराना, पृथक् तुक्कल- संज्ञा, स्त्री० दे० (फा० तुका ) बड़ी करना, सम्बन्ध नरखना, भुनाना (रुपया०)। • पतंग। तुतरा, तुतला)-वि० दे० (हि. तोतला) तुका-संज्ञा, पु० दे० ( फा० तुका ) धुंडीदार तुतला कर बोलने वाला, तोतला (दे०)। तीर या बान । " है कोई तुक्के बाज़ बँचकै तोतर (ग्रा०) । स्त्री. तुतरी, तुतली। तुक्का मारै "-गिर। | तुतराना, तुतलाना-वि० दे० (हि. तुख-संज्ञा, पु०दे० (सं० तुष) छिलका. भूमी। तुतुलाना) तुतला कर बोलना, तोतलाना। तुखार-संज्ञा, पु० (सं०) एक देश का पुराना तुतरौहाँ -वि० दे० (हि. तातला) तुतनाम, इस देश के निवासी, या घोड़े । संज्ञा, लाने वाला, तोतला, तुतला । पु० दे० (सं० तुषार ) पाला, हिम, तुषार । तुतुही-संज्ञा स्त्री० (दे०) टोंटीदार छोटीघंटी। तुरुम-संज्ञा, पु. ( अ० ) बीज, बोजा।। तुत्थ-संज्ञा, पु० (सं०) तूतिया। तुवा-संज्ञा, स्त्री० दे० ( सं० त्वचा ) चमड़ा, | तुदन-संज्ञा, पु. (सं०) पीड़ा देने की क्रिया, खाल, स्वचा । "मरी नागिनी तुचा सम" | व्यथा, पीड़ा। तुच्छ-वि० (सं०) छोटा, नीच, श्रोछा,थोड़ा, तुन-संज्ञा, पु० दे० (सं० तुम्न) एक पेड़, हलका। संज्ञा, पु० (दे०) तुच्छत्व। तून, जिसके फूलों से पीला रंग बनता है। तुच्छता-संज्ञा, स्त्री० (सं०) छोटापन, तनकी-संज्ञा, स्त्री० (दे०) एक तरह की नीचता, श्रोछापन, अल्पता। पतली रोटी। वि० (दे० तुनुक) रंच में रुष्ट तुच्छातितुच्छ-वि० यौ० (सं०) छोटे से होने वाला । यौ०-तनुक मिजाजी। छोटा, अतिनीच, या श्रोछा, बहुत थोड़ा। तुनतुनाना-स० कि० दे० ( अनु० ) महीन तुजुक-संज्ञा, पु. (अ.) अदब, शान, स्वर से सितार आदि बजाना, टुनटुनाना । ." तिनको तुजुक देखि नेक हू न लरजा" तुनीर-संज्ञा, पु० दे० (सं० तूणीर ) तरकश, भाया, तूणीर, तूनीर (दे०) । For Private and Personal Use Only Page #855 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तुपक ५४४ तुराना तुपक-संज्ञा, स्त्री० दे० ( तु. तोप) छोटो | तुरई, तुरइया--संज्ञा, स्त्री. दे० (सं० तूर) तोप या बंदूक । “वीरतुपक चलावैहैं"-द्वि०। एक तरकारी, तोरई (दे०)।। तुपकिया-संज्ञा, स्त्री० दे० (तु० तोप) छोटी तुरक, तुर्क-संज्ञा, पु० दे० ( सं० तुरुष्क ) बंदूक। संज्ञा,पु० (तु तोप) बंदूक चलाने वाला। तुर्किस्तान का निवासी, तुरुक (ग्रा०) । तुफंग-संज्ञा, स्त्री० दे० ( तु. तोप ) हवाई | तुरकटा--संज्ञा, पु० दे० (फा० तुर्क+टा बंदूक । हि० प्रत्य०) मुसलमान (अपमान-सूचक )। तुफान, तूफ़ान-संज्ञा, पु० दे० (अ० तूफान) तुरकान-तुरकाना-संज्ञा, पु० दे० (फा० ज़ोर की आँधी और पानी, तोफान (ग्रा०) तुर्क ) तुरकों के समान, तुरकों जैसा, तुरकों उपद्रव । का देश या बस्ती। (सी. तुरकानी)। "हूँ तुभना-अ० क्रि० दे० (सं० स्तोभन) चकित तो तुरकानी हिंदुवानी हो रहूँगी मैं "या अचम्भित रहना, स्तब्ध रहना । ताज। तुम-सर्व० दे० (सं० त्वम्) तू का बहु वचन | तुकिन-तुरकिनि- संज्ञा, स्त्री० दे० (फा० (आदरार्थं)। तुर्क) तुर्क जाति की खी, तुरकानी। तुमड़ी-तुमरी-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० तुंबिनी)। तुरकी-वि० दे० (फा०) तुर्क देश का, वहाँ तूमड़ी. तोंबी, तुंबी,तोमड़ी,मौहर (बाजा) का घोड़ा, तुर्की की। संज्ञा, स्त्री० (फ़ा०) तुरतुमरा-सर्व० दे० (सं० युष्माकम् ) तुम्हारा । किस्तान की बोली। तुमरू-संज्ञा, पु० दे० (सं० तुवुरु ) धनियाँ, | तुरग-संज्ञा, पु. (सं०) घोड़ा, चित्त । एक गंधर्व । (स्त्री० तुरगी) तुमल, तुमुर-संज्ञा, पु०, वि० दे० (सं० तुरत-अव्य० दे० (सं० तुर ) जल्दी, शीघ्र, तुमुल ) फौज़ की धूम, कोलाहल, शोर, तरंत । झटपट, तुरतै (ग्रा.)। युद्ध की हलचल, कठिन युद्ध, घोर। तुरपन-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. तुरपना) तुमुल-संज्ञा, पु. (सं०) कोलाहल, शोर, एक सिलाई । स० कि० (दे०) तुरुपना। विकट लड़ाई । वि० (सं०) घोर, सुदीर्घ ।। तुरमती- संज्ञा, स्त्री० (दे०) बाज़ सा पक्षी। तुम्ही -सर्व० दे० (सं० त्वम्) तुम, तुमको । तरय-- संज्ञा, पु० दे० (सं० तुरग ) घोड़ा। तुम्हारा, तुम्हार, तुम्हरा-सर्व० (हि. तरशी-तरसी-संज्ञा, स्त्री० (उ० दे०) खट्टातुम ) तुम का संबंध कारक, तुम्हरा, पन, खटाई। तिहारो, (व०)। तोहार, तोर, (अव०)। तरसीला-वि० (दे०) घायल करने वाला, त्वार (ग्रा.)। पैना, तीखा, खट्टा । " फूल छरी सी नरम तुरंग-संज्ञा, पु० (सं०) घोड़ा, चित्त, सात | करम करधनी शब्द हैं तुरसीले"-नारा० । की संख्या। तुरही, तोरही-संज्ञा, स्त्री० दे० ( सं० तूर) तुरंगक-संज्ञा, पु० (सं०) बड़ीतोरई,(शाक)।। तुरंगम-संज्ञा, पु० (सं०) घोड़ा, चित्त, एक तुरुही (दे०) एक बाजा, तूर्य (सं०)। वृत्त (पिं०)। तुरा, तुरी-संज्ञा, स्त्री० (सं० त्वरा) जल्दी, तुरंज-संज्ञा, पु० (फा०) नींबु, चकोतरा या उतावली । संज्ञा, पु. ( सं० तुरग) घोड़ा । बिजौरा नींबू । तुराई*- संज्ञा, स्त्री० दे० ( सं० तूलिका ) तुरंजबीन-संज्ञा, पु. यौ० (फ़ा०) नींबू के गद्दा, शीघ्रता (हि० तुरा)। रस का शरबत । तुराना-अ० कि० दे० (सं० तुर) घबराना। तुरंत-क्रि० वि० दे० (सं० तुर) शीघ्र, झट- उतावली करना, आतुर होना । स० क्रि० पट। तुरंतै, तुरत, तुरतै (प्रा.)। । (दे०) तुड़ाना, तोड़ाना । For Private and Personal Use Only Page #856 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तुवर तुरावती तुरावती-वि० स्त्री० दे० (सं० त्वरावती) तुलसीदास-संज्ञा, पु. (सं० ) रामायण वेगवती, शीघ्रगामिनी। बनाने वाले एक साधु, तुलसी । तुरिया*-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० तुरीय) तुलसीपत्र--संज्ञा, पु. यौ० (सं०) तुलसी की चौथी या ज्ञान की दशा या अवस्था । . पत्ती, तुलसीदल। तुरीय-वि० (सं०) चतुर्थ, चौथा, चौथी | तुला-संज्ञा, स्त्री० (सं०) समानता, मिलान, अवस्था । स्त्री. तुरीया।। । तराज़, मान, एक राशि ( ज्यौ०)तुरूप-संज्ञा, पु. (दे०) ताश के खेल में सब धरिय तुला इक अंग"-रामा० । को जीतने वाला निश्चित रंग! संज्ञा, स्त्री०लाई—संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० तूल) दुलाई। (दे०) तुरुपन । स० क्रि० (दे०) सीना। ... संज्ञा, स्त्री० दे० ( हि० तुलना ) तौलने का तुरुष्क-संज्ञा, पु० (सं०) तुर्क जाति, तुर्कि- | भाव या काम, तौलने की मज़दूरी। तौलाई, स्तान के निवासी, भाषा, घोड़ा। तुर्क-संज्ञा, पु० दे० (सं० तुरुष्क ) तुर्किस्तान तौलवाई (दे०)। का निवासी । वि. तुर्की। तुलादान-संज्ञा, पु. यौ० (सं०) मनुष्य तुर्कमान-संज्ञा, पु० दे० (फा० तुर्क ) तुर्क की तौल के समान किसी पदार्थ का दान । जाति का मनुष्य, तुर्की घोड़ा। तुलाधार-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) तुला तुर्की-वि० (फा० तुर्की ) तुर्किस्तान का। राशि, बनिया, काशी-निवासी एक ज्ञानी संज्ञा, स्त्री० ( फ़ा०) तुर्किस्तान की भाषा, बनिया, माता-पिता का अनन्य सेवक, वहाँ की बनी वस्तु, वहाँ का घोड़ा, अकड़, एक व्याध । गर्व. ऐंठ। तुलाना-तौलाना-अ० क्रि० दे० (हि. तुर्रा-संज्ञा, पु. (अ०) कलँगी । मुहा०- तुलना) पूरा उतरना, पहुँचना, आ पहुँचना, तुर्रा यह कि-उस पर भी, इतना और, मिलाना, जोखाना (ग्रा.)। " नाचहिं सब के पीछे, इतना और भी, चोटी, कोड़ा। राकस आस तुलानी"-पद०। वि० (फ़ा०) अनोखा, अजीब । तुला-परीक्षा-संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं० ) तुर्वसु-संज्ञा, पु० (सं० ) ययाति का पुत्र ।। प्राचीन काल में अभियुक्त को दो बार तुर्श- वि० (फ़ा०) खट्टा, अम्ल । तौलते थे, यदि समान ही रहे तो निर्दोष तुर्शी-संज्ञा, स्त्री० (फ़ा० ) तुरसी (दे०) खटाई. | शा, लातुरसा(५०) खटाइ. माना जाता था। अम्लता। वि० तुर्शीला, तुरसीला (दे०)। तुलायंत्र--संज्ञा, पुन्यौ० सं०) तराजू, तखरा । तुल, तूल*-वि० दे० (सं० तुल्य) समान, तुलित-वि. ( सं० तुल्य ) तुला हुश्रा, बराबर, तुल्य । " कहहि सीय सम तूल" बराबर, समान, तुल्य । वि० तुलनीय । -रामा०। तुली-संज्ञा, स्त्री० (दे०) तूलिका, चित्र बनाने तुलना-अ० क्रि० दे० (सं० तुल) समानता, की कलम । या तुल्यता करना, बराबर करना,तौल होना। तुल पाई, तौलवाई - संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. तुले-स० कि० ( हि• तुलना ) जो तौला जा सके, तौला गया। तौलना) तौलने की मजदूरी, तोलाई, तुलाई | तल्य-वि० (सं० ) बराबर, सदृश, समान । (दे०)। तुलवाना-स० कि० दे० (हि. तौलना) किसी तुल्यता-संज्ञा, स्त्री० (सं०) समता, बराबरी। वस्तु को किली से तौलाना, तौलवाना (हि.) तुल्ययोगिता-संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) एक गाड़ी को धौंगवाना। संज्ञा, स्त्री. तुलवाई।। अलंकार जिसमें बहुत से उपमेयों या उपतुलसी-संज्ञा, स्त्री० (सं०) एक पवित्र पौधा। मानों का एक ही धर्म कहा गया हो (अ.)। तुलसीदल-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) तुलसी तुव-सर्व० दे० (सं० तव ) तुम्हारा । के पौधे की पत्ती। तुपर-संज्ञा, पु. (सं० ) अरहर । For Private and Personal Use Only Page #857 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - ८४६ तूफ़ान-तोफ़ान तुष-संज्ञा, पु० (सं०) छिलका, भूसी । तूख–संज्ञा, पु० दे० (सं० तुष ) खरका, तुस (दे०)। तिनका, भूसा, तिनके का टुकड़ा । तुषानल-संज्ञा, पु. यौ० (सं०) भूसी, फूस, | तूठना-अ० कि० दे० (सं० तुष्ट ) प्रसन्न, या घास की भाग। संतुष्ट, या तृप्त होना। तुषार-संज्ञा, पु. (सं०) पाला, बरफ, तूट्यो-वि० दे० (हि. तूठना ) तृप्त, सन्तुष्ट, हिम, तुसार, तुखार (दे०)।। प्रसन्न । तुष्ट-वि० (सं० ) तृप्त, प्रसन्न । तूण-संज्ञा, पु. (सं०) तरकश, भाथा, तुष्टता-संज्ञा, स्त्री० (सं०) संतोष, प्रसन्नता। तूनीर (दे०)। तुष्टना- अ० क्रि० दे० (सं० तुष्ट) प्रसन्न तूणीर-संज्ञा, पु० (सं०) तरकश, भाथा, तूण। होना, संतुष्ट या तृप्त होना। "जटामुकुट सिर, कटि तूणीरम्"-रामा० । तुष्टि- संज्ञा, स्त्री० (सं० ) तृप्ति, संतोष, | तूत-संज्ञा, पु० ( फ़ा० ) शहतूत । प्रसन्नता। तूतन-संज्ञा, पु० (दे०) कतरन, रेतन, तुस-संज्ञा, पु० दे० (सं० तुष) भूपी, छिलका। सर्व (दे०) तेरी ओर। तुसार-संज्ञा, पु० दे० (सं० तुषार)पाला, हिम। तुसी-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० तुष ) भूसी, तूतिया- संज्ञा, स्त्री० (दे०) नीलाथोथा । ती-संज्ञा, स्त्री० (फा०) छोटा तोता। छिलका। तोती (दे०), एक छोटी चिड़िया। मुहा० तुहार-तोहर,तोहारी-सर्व० दे० (हि. तुम) -किसी की तूती बोलना-अच्छा तुम्हार तुम्हरा, तोर (ग्रा०)। प्रभाव जमना, खूब चलना, अातंक होना। तुहि-तुहीं-सर्व० दे० ( हि तू ) तोही, नक्कारखाने में तूती की आवाज़ (कौन तुझको, तुझे, ताहि। " कहु सठ तुहिं सुनता है) बड़ों के सन्मुख छोटों की न प्रान की बाधा "-रामा० । बात कौन मानता है । एक छोटा बाजा। तुहिन--संज्ञा, पु० (सं० ) तुषार, पाला, हिम । " परसत तुहिन ताम-रस जैसे" तूतू-संज्ञा, पु० (दे०) कुत्ते के बुलाने का शब्द, किसी को अनादर से बुलाना या सम्बो. -रामा०। तुही, तूडी-सर्व० दे० (हि. तू० ) तुम्हीं, धन करना । मुहा- तूतू मैंमें होना तू । संज्ञा, स्त्री० ( अनु०) पिक-शब्द, कोयल (करना)-वाद-विवाद या झगड़ा होना। की कूक । " अंगद तुही बालि कर बालक" तूतें करना-अ० कि० (दे०) अपमानित या -~~ रामा० । झगड़ा करना। तूं-सर्व० दे० (हि. तू० ) तु। “जित तूदा-संज्ञा, पु. (फ़ा०) राशि, ढेर, समूह, देखौं तित तूं"-कबी० । | टीला, सीमा का चिन्ह । तूंची-संज्ञा, पु० दे० (सं० तुम्वक ) तुम्बा, | तून-सज्ञा, पु० , तून-संज्ञा, पु० दे० (सं० तुन्तक ) तुन का कमंडल, सितार का तूंबा।। पेड़. टून वस्त्र । संज्ञा, पु० दे० (सं० तूण ) तूंबी-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि० तू घा) छोटा तुंबा, तूण, भाथा, तूणीर, तरकश । यौ० तू न । कमंडल, मौहर बाजा, गोल लौकी, तंबी। तूनना- स० क्रि० (दे०) धुनना। तू-सर्व० दे० ( सं० त्वम् ) मध्यम पुरुष | तूना-अ० क्रि० दे० (हि चूना) टपकना.चूना। एक बचन (अनादर-सूचक) । यौ० तू- | तूनरि संज्ञा, पु० (दे०) (सं० तूणीर) तरकश, तड़ाक-अनादर सूचक शब्द कहना।। भाया। मुहा०-तू तू मैं मैं करना-बुरे शब्दों | तूफान-तोफ़ान (प्रा.)--- संज्ञा, पु० अ०)पानी में झगड़ा या विवाद करना। । की बाढ़, बड़ी भारी आँधी जिसमें पानी For Private and Personal Use Only Page #858 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तूफानी ५४७ तृण भी बरसे, महावृष्टि, कोई उत्पात, आँधी, शहतूत, मदार, सेमर का घुवा, " सबको प्राफत, झगड़ा, हुल्लड़, झूठा दोष लगाना।। ढंपन होत है जैसे वन को तूल"-वृन्द। वि. अति वेगवान । मुहा०-तूफ़ान । संज्ञा, पु० दे० ( हि. तून ) लाल रंग का लाना ( उठाना )-भारी आपत्ति खड़ी वस्त्र, लाल रंग। वि० दे० (सं० तुल्य ) करना, आन्दोलन करना, फैला देना। बराबर, तुल्य, समान । तूफानी-वि० ( फा० ) उपद्रवी, बखेड़िया, तूलना-स० कि० दे० (हि. तुलना ) धुरी प्रचंड, झूठा कलंक लगाने वाला में तेल देना, तौलना, नापना । तूमड़ी-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. तू वा ) छोटा | तूलनीय-संज्ञा, पु० (सं० तूल) कदम का पेड़। तु बा, तूंबी, मौहर बाजा, तूमरी (दे०)। तूला-संज्ञा, स्त्री० (सं०) कपास । " तूला तूमतड़ाक-- संज्ञा, स्त्री० (दे०) शान-शौकत, सब संकट सहति"-सुख। उसक, शेखी, तड़क-भड़क । | तूलिका-संज्ञा, स्त्री. ( सं०) चित्र या तसतूमना-स० क्रि० दे० (सं० स्तोम) उधेड़ना, वीर बनाने का क़लम । रेशा रेशा करना, धुनना। | तूलिनी-संज्ञा, पु० दे० (सं० तूला ) कपास, तूमार-संज्ञा, पु. (अ.) ढेर. व्यर्थ बातों का सेमर । फैलाव या विस्तार, बात का बतंगड़। तूली-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० तूला) नील मुहा०—तूमार बाँधना-विस्तार बढ़ाना। का पेड़, तसवीर या चित्र बनाने की कलम तूमिया- संज्ञा, पु० दे० (सं० स्तोम ) | या बरौंछी। बेहना, रुई धुनने वाला। तूबर-संज्ञा, पु० दे० ( सं० तोमर ) राजपूतों तूर-संज्ञा, पु० (सं० ) नगाड़ा, तुरही तूरि की जाति । (दे०) । “बजत तूर झाँम चहुँफेरी'-पद। तूष्णीम्-वि० (सं० तूष्णीम् ) चुप, मौन । संज्ञा, पु. (अ०) एक पहाड़। संज्ञा, स्त्री० (सं०) चुप्पी, मौनता। तूरज-संज्ञा, पु० दे० (सं० तूर) तुरही बाजा! तूस--संज्ञा, पु० दे० (सं० तुष) छिलका, "इत तूरज सूरज कौं बजाइ'-सुजान। भूपी। संज्ञा, पु. ( तिब्बती-थोश ) पशम, तूरण-तूग्न-कि० वि० दे० (संपूर्ण) तूर्ण, पशमीना, कम्बल, नमदा। शीघ्र, तुरन्त, जल्दी। " इनहीं के तपतेज तूसदान-संज्ञा, पु० दे० यौ० (पुत्त कारदृश तेज बदिहैं तन तूरण ''-राम। +दान ) तोसदान, कारतूसदान | तूरना-स. क्रि० दे० (हि टूटना) तोड़ना, | तुसना-स० कि० दे० (सं० तुष्ट) तृप्त, संतुष्ट तोरना (दे०)। " पूनिबे काज प्रसूननि __ या प्रसन्न करना । अ० क्रि० (दे०) तृप्त, संतुष्ट तूरति"-दास। या प्रसन्न होना। तूरान-संज्ञा, पु. (फा०) एक देश । वि० तृख -संज्ञा, पु० (दे०) जायफल । तूरानी-तूरान देश का। संज्ञा, पु० तुरान तृखा-संज्ञा, स्त्रो० दे० (सं० तृषा) प्यास । देश-वासी, तत्रोत्पन्न, वहाँ की भाषा। तिरखा (ग्रा० )। "चातक स्टै तृखा अति तुरी-वि० (दे०) तुल्य, समान । संज्ञा, स्त्री० ओही"-रामा। (दे०) तुरही। तृजग-वि० दे० (सं० तिर्यक) पशु, पक्षी। तूर्ण-क्रि० वि० (सं०) शीघ्र, तुरन्त, जल्दी। तृण- संज्ञा, पु० (सं०) कुश, काँसा, सरपत, तूर्य-संज्ञा, पु० (सं०) नगाड़ा, भेरी, दुन्दभी। बाँस, गाँडर, घास, तृन, तिन । " तृण वि० तुरीय, चतुर्थ । धरि भोट कहति वैदेही "- रामा० । तूल-संज्ञा, पु. ( सं०) भाकाश, कपास, । मुहा०—(दांतों में ) तृण गहना या For Private and Personal Use Only Page #859 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तृणधान्य ८४५ तेजमान पकड़ना-गिड़गिड़ाना, हीनता दिखाना। तृषा - संज्ञा, स्त्री० (सं०) लोभ, प्यास, इच्छा। " दसन गहहु तृण कंठ कुठारी'-रामा। तृषावत्-तृषावान्, तृषावन्त--- वि० (सं०) किसी चीज़ पर तृण टूटना-नज़र से प्यासा, अभिलाषी। बचाने का उपाय करना। तृणवत-बहुत | तृषित-वि. (सं०) प्यासा, अभिलाषी। तुच्छ, नाचीज़ । तृण तोड़ना-नज़र से "तृषित वारि-बिनु जो तनु स्यागा"-रामा। बचाना। तृण सा तोरना- लगाव त्यागना | तृष्णा--संज्ञा, स्त्री. (सं०) लोभ, लालच, या छोड़ना । "देह गेह सब तृण सम तोरे" प्यास । "तृष्णा न जीर्णा वयमेव जीर्णा" - रामा०। -भो । तृस्ना, तिसना (दे०)। तृणधान्य-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) तिनी तृस्ना तरल तरंग राग है ग्राह महाबल" धान का चावल, तिन्नी धान (दे०)। भा० भतृ ० (कु० वि०)। तृणमय-वि० (सं०) घास-फूस का बना ते*-- प्रत्य० दे० ( सं० तस-प्रत्य० ) से, हुआ। । द्वारा । " तू तो तजि है नाहिं प्रापही तें तणविन्दु---संज्ञा, पु० यौ० (सं०) व्यास जी, तजि जैहैं ,'–भा० भतृ (कुं० वि०)। एक तीर्थ । । तेंदुप्रा-तेंदुवा-संज्ञा, पु० (दे०) चीता जैसा तृण-शय्या-संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) साथरी, । एक हिंसक जन्तु । कास-कुसों या घास-फूस से बनी चटाई। तेंद-संज्ञा, पु० दे० ( सं० तिंदुक ) एक पेड़ "तण-शय्या महि सोवहिं रामा"-रामा। | जिसकी पक्की लकड़ी आबनूस कही जाती है। तृणारणिन्याय -- संज्ञा, पु० यौ० (सं०) घास ते*-अव्य दे० (सं० तस्---प्रत्य०) से। फूस और अरणी लकड़ी से भाग प्रगट होने सर्व० ० ० (७०) वे।। की तरह स्वच्छंद या भिन्न भिन्न कारणों की तेऊ-सर्व. व. ( हि० वे ) सब के सब, वे व्यवस्था ( न्या० )। भी । “भेष प्रताप पूजियत तेऊ"-रामा० । तृणावर्त्त-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) बवंडर, तेकाला-संज्ञा, पु० (दे०) त्रिशूलाकार एक दैत्य, तिनावर्त (दे०), "तृणावतं मारि के मारि के हथियार, मछली पकड़ने का यंत्र। पछारि छारि कीन्यो जिन"---कुं० वि० ख ना -अ. क्रि० दे० (हि. तेहा) तृणोदक-संज्ञा, पु० यो० (सं०) घास और | क्रोधित या रुष्ट होना, बिगड़ना। पानी, पशुओं का भोजन, चारा-पानी। तेग-संज्ञा, स्त्री० ( अ० ) तलवार, खड्ग । तृतीय-वि० (सं०) तीसरा।। तेगबहादुर-संज्ञा, पु. यो० (फा०) सिक्खों तृतीयांश--संज्ञा, पु० यौ० (सं०) तिहाई, __ के गुरु। तीसरा भाग। तृतीया-संज्ञा, स्त्री० (सं०) तीज, करण | तेगा-संज्ञा, पु० दे० (अ० तेग) छोटीतलवार । | तेज-संज्ञा, पु० (सं० तेजस् ) प्रताप, श्राभा, कारक ( व्या०) । “कर्तृ करणयोस्तृतीया" | लिंगशरीर, एक तत्व। वि० (दे०) पैना, तेज। तृन-तिन-संज्ञा, पु० दे० (सं० तृण ) तजव० ( काल | तेज़- वि० (फा०) पैना, शीघ्रगामी, घास-फूस, तिनका। फुरतीला, मैंहगा, प्रभाव, बुद्धिमान । संज्ञा, तृपति-तृपिता-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० तृप्ति) | स्त्रो० तेजी। तृप्ति, संतोष। वि० दे० (सं० तृप्त) तृप्त, संतुष्ट। | तेजपात तेजपत्ता. तेजपत्र-संज्ञा, पु० दे० तृप्त-वि० (सं०) प्रसन्न, संतोषवान, अघाया। (सं० तेजपत्र ) तमाल पेड़ का पत्ता। तृप्ति-संज्ञा, स्त्री. (सं०) सन्तोष, खुशी, | तेजबल-संज्ञा, पु. ( सं०) एक औषधि । प्रसन्नता, तुष्टि। तेजमान--वि० (सं० तेजोवान ) प्रतापी। For Private and Personal Use Only Page #860 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तेली तेजवन्त तेजवन्त-वि० (सं० ) प्रतापी, तेजवान ।। रूप । स्त्री० तेरी (व्र०)। संज्ञा, पु० (दे०) " तेजवन्त लधु गनिय न रानी"-रामा। तेरह । मुहा०-तेरीसी-तेरे अनुकूल | तेजवान-वि. ( सं० तेजोवान् ) प्रतापी, तेरुस - संज्ञा, पु० दे० (हि. त्योरुस ) तेजस्वी। पिछला या अगिला, तीसरा वर्ष । तेजस्-संज्ञा, पु. ( सं० ) प्रताप, प्रभाव, तेरे-अव्य (हि. ते ) से । सर्व० (हि.) एक तत्व । । तुम्हारे, तिहारे (व.)। तेजसी-वि० दे० (हि. तेजस्वी) प्रतापवान्। तेरा-सर्व० ७० (हि० तेरा) तेरा, तिहारो। तेजस्विता- संज्ञा, स्त्री० ( सं०) प्रतापी होने तेल- संज्ञा, पु० दे० (सं० तैल ) तैल, रोगन, का भाव । विवाह की एक रीति । यौ० तेलफुलेल । तेजस्विनी-संज्ञा, स्त्री० ( सं० ) प्रतापिनी! मुहा०-तेल चढ़ना-वर वधू के तेल तेजस्वी- वि० ( सं० तेजस्विन् ) प्रतापी। लगाया जाना । “तिरिया-तेल, हमीर हठ, तेज़ाब-संज्ञा, पु० ( फा० ) तेज़पानी, एक चहै न दूजी वार। औषधि । वि० तेजाबी। ते गू-सज्ञा, पु० दे० (सं० लंग) तैलंग तेज़ी-संज्ञा, स्त्री० ( फ़ा० ) तेज़ होने का देश की बोलो या भाषा। भाव, तीवता, मँहगी, फुरती। तेगहन --- सज्ञा, पु० (हि. तेल ) सरसों तेजोमंडल-संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) प्रभा- आदि बीज जिनसे तेल निकलता है, तिलमंडल, प्रताप कागोला. देवताओं, सूयादि हन (दे०)। के चारों ओर कांति का गोला। तेलहा- वि० पु० दे० (हि. तेल ) तेल से तेजोमय- वि० ( सं० ) अति प्रकाश, प्रताप सम्बन्ध रखने वाला, तेल-युक्त। और ज्योति वाला। तेजा- संज्ञा, पु. (दे०) तीन दिन-रात तेतना-वि. पु. दे० (हि. तितना) उतना, का व्रत । तितना, तेत्ता (ग्रा०)। सी० तेतनी, तेती। तेलिन-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. तेली ) तेली तेता ---वि० पु० दे० (सं० तावत् ) तितना, की या तेली जाति की स्त्री, एक बर्साती उतना, तेता (व.)।" तेते पाँव पसा- कीड़ा। रिये" - ०। ( बिलो. जेतो), व० तेलिया-वि० (हि. तेल) तेल सा चिकना, व० तेते। चमकीला या तेल के रंग का। संज्ञा, पु. तेतिक -वि० (हि० तेता) उतना, तितने। काला चिकना तथा चमकीला रंग, तेल तित्ते (दे०)। जैसे रंग का घोड़ा, एक बँबूल, सींगिया तेते-सर्व० दे० (हि. वेवे) वेवे, उतने, जितने। विष, तेली। तेतो-वि० दे० (हि० तेता) तितना, तेलिया-कंद-संज्ञा, पु० यौ० (सं० तैल कंद) उतना तित्ता (ग्रा० ) । विलो. जेती। एक कंद जिसके पास की भूमि तेल से तर तेमन- वि० (दे०) श्रोदा, गीला, एक भोजन। सी दीखती है। तेरम-त्यारस-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० त्रयो- | तेलिया कुमैत--संज्ञा, पु. यो० (हि.) दशी ) त्रयोदशी। घोड़े का एक रंग। तेरही-संज्ञा, स्त्री० दे० ( हि० तेरह ) मृतक तेलिया-सुरंग-संज्ञा, पु. यौ० (हि.) के मरने के तेरहवें दिन पर शांति कर्म । घोड़े का एक रंग। तेरा-सर्व० दे० (सं० तब ) तुम्हारा, तेरो, तेली-संज्ञा, पु० दे० (हि. तेल) तेल बनाने तिहारो (व०) । तू का सम्बन्ध कारक में या बेंचने वाला । स्त्री० तेलिन । मुहा०भा० श० को०-१०७ For Private and Personal Use Only Page #861 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तेवन ८५० तैराई तेली का बैल-सदा काम में जुता रहने उसे । “ मगन प्रेम तन सुधि नहिं तेही" वाला । लो. " तेली का काम तमोली | -रामा० । करे, ताकी रोजी मा बट्टा परै । ते*-क्रि० वि० दे० (हि. ते) से तें विभ० तेवन -संज्ञा, पु० दे० ( अंतेवन ) घर के | सो. द्वारा । सर्व० दे० (सं० त्वम्) तू, तव । पास का बाग, नज़रबाग, क्रीडोद्यान। -क्रि० वि० दे० ( सं० तत् ) उतना, उस तेव-संज्ञा, पु० दे० (हि. तेह - क्रोध) रिस । तौल या माप का, उतने ( संख्या० )। भरी चितवन, क्रोध-भरी दृष्टि । स्त्री. त्यौरी, संज्ञा, पु० (अ.) फैसला, निपटारा, निश्चय। तेवर,तेउरी। मुहा०-लेवर चढ़ना- योग-तै-तमाम-समाप्ति, अंत, पूर्ण या दृष्टि या चितवन से क्रोध प्रगट होना, आँखें पूरा करना, पूर्ति । वि. जिसका फैसला या और भौंह चढ़ना । तेवर बदलना या निपटारा हो चुका हो, जो पूर्ण हो चुका हो। बिगड़ना-नाराज़ या बे मुरौवत होना। तैजस-संज्ञा, पु. (स.) प्रकाश-युक्त, वली, तेवराना -- अ. क्रि० (दे०) धूमना, चक्कर परमेश्वर, भोजन को रस और रस को धातु लगाना। बनाने वाली शक्ति ( देह ), राजस गुण तेवरी-न्यौरी-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. तेवर ) की अवस्था में पाया हुश्रा अहंकार । वि. घुड़की, धमकी. तेउरी (ग्रा०) । मुहा०- (सं० ) तेजस से उत्पन्न, तेजस-सम्बन्धी। तेवरी नदाना-धुड़कना, धमकाना, आखें | तैत्तिर--संज्ञा, पु० (सं०) तीतर, गैंडा। दिखाना, भौहैं चढ़ाना। तैत्तिरि-संज्ञा, पु० (सं०) एक ऋषि जो कृष्ण तेवहार-संज्ञा, पु. (हि. त्योहार ) उत्सव यजुर्वेद के प्रचारक थे। दिन, पर्व दिन, तेलहार त्योहार (दे०)। । तैत्तिरीय-संज्ञा, स्त्री० ( सं० ) यजुर्वेद की तेवाना -अ. क्रि० (दे०) सोचना, | एक शाखा, एक उपनिषद । चिन्ता करना। तैत्तिरीयक-वि० (सं० ) यजुर्वेद की एक तेवों-- अव्य० (दे०) त्यों, तैसा, उस प्रकार। शाखा। तेवोंधा-वि० (दे०) चूंधला, त्योधा, रात तैत्तिरीयारण्यक-संज्ञा, पु० यौ० ( सं० ) का अन्धा। एक अरण्यक ग्रंथ । तेह, तेहा*-संज्ञा, पु० दे० ( हि० तेखना) तैनात-वि० दे० (म० तअय्युन ) नियुक्त, रिस, क्रोध, घमंड, ताव, तेजी।। नियत । ( संज्ञा, तैनाती) तेहरा-वि. पु. दे० (हि. तीन+हरा ) | तैयार-वि० (अ.) ठीक, प्रस्तुत, दुरुस्त । तीन परत का कपड़ा आदि, तीन लपेट की महा हाथ तैयार होना-कारीगरी में डोरी आदि, तिगुना, तिहरा (ग्रा.)। खूब अभ्यास होना । तत्पर मुस्तैद, मौजूद, तेहराना-स० कि० दे० (हि. तेहरा ) किसी। मोटा-ताजा, हृष्ट-पुष्ट । संज्ञा, स्त्री० तैयारी । काम को फिर फिर तीन बार करना, तीन | तैयो-क्रि० वि० दे० ( हि० तऊ ) तथापि, परत करना। तोभी। सर्व. (दे०) उतने ही । वि० स० तेहवार-संज्ञा, पु० दे० (हि. त्योहार ) | कि० दे० (हि. ताना) गरम करना, जलाना । पुण्य दिन, उत्सव का दिन, पर्व। तैरना-अ० क्रि० दे० ( सं० तरण ) उतराना. तेहा-संज्ञा, पु० दे० (हि. तेह) रिस, क्रोध, | पैरना । (प्रे० रूप ) तैराना। घमंड, शेखी। वि० तेही। तैराई-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि• तैरना ---आई तेहि-तेही-सर्व० दे० (हि० तिस ) उसको, प्रत्य० ) तैरने का भाव, पैराई ।। For Private and Personal Use Only Page #862 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तैराक ८५१ तोड़, तोड़ल तैराक - वि० (हि. तैरना+प्राक प्रत्य०) (हि. तोंद + ल, ईला, एल, ऐला-प्रत्य०) पैरने या तैरने वाला। बड़े पेट या तोंद वाला, तोंदिल । तैलंग-संज्ञा, पु० दे० ( सं० त्रिकलिंग ) दक्षिण | तोंदी--- संज्ञा, स्त्री० दे० सं० नाभि) नाभि । देश का एक प्रांत जहाँ की भाषा तिलगू है। | तोही- अव्य० (दे०) उसी समय, वक्त में, तैलंगा-संज्ञा, पु०दे० (हि. तैलंग) तैलंग देश- | त्योंही । सर्व० (दे०) तुझे, तोहि। निवासी, अंग्रेजी सेना का सिपाही, तिलंगा। तो -- सर्व० दे० (सं० तव) तेरा तव । ' कहा तैलंगी-संज्ञा, पु० दे० ( हि० तैलंग+ई. | भयो जो बीछुरे, तो मन मो मन साथ" --- प्रत्य० ) तैलंग देश वासी। संज्ञा, स्त्री० । वि० । अव्य० दे० ( सं० तदा) तब, तौ तैलंग देश की बोली या भाषा। (दे०) उसकी ऐसी अवस्था या दशा में । तैल-संज्ञा, पु० (सं०) तेल, चिकनाई, चिकना। तोइ. तोय -संज्ञा, पु० (सं० तोय )पानी, तैलचोरिका-संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) तिल जल । चिहा, तैलया, एक चिड़िया। तोक-संज्ञा, पु० सं०) सन्तान, पुत्र, कन्या। तोकह-सवे० दे० (हि. तुझे) तुमको, तैलव-संज्ञा, पु. (सं०) तेल का भाव गुण । तुझको, तुझे, तोहि । "कहा कहाँ तोकहँ तैलया-संज्ञा, पु० (सं०) एक पक्षी। तैलमाली-संज्ञा, स्त्री० यौ० ( सं०) बत्ती, नंदरानी जात न कछू कह्यो"-सूर० । तोख छ- संज्ञा, पु० दे० ( सं० तोष) संतोष, पलीता। प्रसन्नता, तोष । तैलाक्त-वि० (सं०) तेल-लगी वस्तु । तोटक-संज्ञा, पु० दे० (सं०) १२ वर्णों का तैलाभ्यंग-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) देह में तेल एक छंद, टुटका (दे०)। लगाना। तोटका-- संज्ञा, पु० दे० (हि० टोटका) टोटका, तैलिनी-संज्ञा, स्त्री० ( हि० तेलिन ) तेलिन, टुटका, टोना। तेलिनी। तोड़-संज्ञा, पु० दे० ( हि० तोड़ना ) तोड़ने तैली-संज्ञा, पु० ( हि० तेली ) तेली, तेल का भाव, नदी या उसकी धारा का वेग या सम्बंधी, तेलमय । तीव्र बहाव, दूध या दही का पानी, तोर । तैश- संज्ञा, पु० (अ०) क्रोध, रिस, जोश । तक, लौं पर्यंत । यौ० जोड़-तोड़तैष-संज्ञा, पु. (सं० ) पौष या पूस का दाँव-पेंच, चाल, युक्ति। मुहा०-तोड़ महीना। डालना-नष्ट करना, फोड़ना । तोड़ देना तैषी- संज्ञा, स्त्री० (सं०) पौष मास की पूर्ण- ..-खींचना, फलफूल तोड़ना। मुँह तोड़ मासी। -विरुद्ध या कड़ा उत्तर । तैसा-वि० दे० ( सं० तादृश ) उस तरह का, | तोड़ना-स० कि० ( हि० टूटना ) टुकड़े या वैसा, तइस (ग्रा०), तैसो (ब०)। बल भाग करना, वस्तु के विभागों को उससे व०-तैसे। भिन्न या अलग करना, शरीर का कोई अंग तों -क्रि० वि० दे० ( हि० त्यों ) त्यों, इस | भंग या बेकाम कर देना, नयी भूमि हल से प्रकार। जोतना, सेंध करना, किसी को क्षीण, दुर्बल तोंअर--संज्ञा, पु० दे० (हि० तोमर) राजपूतों या कमजोर करना, किसी संगठन या कारकी एक जाति। बार को मिटा या नष्ट कर देना, प्रतिज्ञा या तोंद-संज्ञा, स्त्री० दे० ( सं० तुंड ) पेट का प्रण या नियम भंग करना, मिटा देना, फूलापन । फोड़ना, तोरना। तोंदल - तोंदीला - तोंदैल- तोंदला-वि० | तोड़, तोड़ल-संज्ञा, पु० दे० ( हि० तोड़ा ) For Private and Personal Use Only Page #863 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - तोड़वाई-तुड़वाई ८५२ तोप्यो तोड़ा, कड़ा, कंकन । “ नौ गिरही तोड़ा जाना-सिटपिटा या घबरा जाना । तोते पहिरावौं'-पद। की तरह आँखें फेरना या बदलनातोड़वाई-तुड़वाई-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि० । बहुत बेमुशैवतीकरना । तोता पालनातोड़ना ) तोड़ने का भाव, सिक्का भुनाना, ! किसी ऐब या अवगुण, अथवा रोग या तोड़ने की मजदूरी या काम, भुनाने का दाम। आपत्ति को जान-बूझ कर ग्रहण करना या तोड़वाना--स० क्रि० ( हि० तुड़वाना, तोड़ने बढ़ाना । का प्रे० रूप ) तुड़वाना । तोता चश्म-संज्ञा, पु० यौ० (फ़ा०) बेमुरौतोड़ा-संज्ञा, पु० दे० (हि० तोड़ना ) एक वत, दुश्शील । संज्ञा, स्त्री० तोता-चश्मी। भूषण, गहना, रुपये रखने की थैली, तोप तोती- संज्ञा, स्त्री० ( हि० तोता ) तोते की की बत्ती, पलीता, महँगा, घटी, हानि, कमी, | मादा उपपत्री, बैठारी स्त्री। नदी-तट. रस्सी का टकडा | HETO-तोडे तोदन-संज्ञा, पु० (सं०) कोड़ा, चाबुक, पीड़ा, उलटना या गिनना-बहुत धन देना। व्यथा, वेदना । यौ०-तोड़ेदार बंदूक-पलीता-द्वारा तोदरी-- संज्ञा, पु. (फ़ा०) ईरान देश का एक औषधि-वृक्ष। छुड़ाने की बंदूक । संज्ञा, पु. (दे०) चकमक पत्थर से भाग निकालने का लोह खंड । तोप-संज्ञा, स्त्री० (तु. ) एक बड़ी बंदूक । तोडाना--स० कि० दे० (हि. तोड़ना ) तुड़ महा० तोप कीलना-तोप के प्याले में लोहे की कील ठोंक कर उसे निकम्मा कर वाना, तुड़ाना। तोड़ी-संज्ञा, स्त्री० (दे०) सरसों, राई आदि देना । तोप की सलामी उतारनातिलहन, दीपक-स्थान (प्राचीन) किसी बड़े आदमी के आने पर या किसी तोण- संज्ञा, पु० दे० ( सं० तूण ) तूण, विजय श्रादि के उत्सव में बिना गोले की तोप छुडाना, तुपक (व.)। भाथा, तरकश, तूणीर । तोपखाना-संज्ञा, पु० यौ० (तु. तोप +तोता-संज्ञा, पु० दे० ( फ़ा० तूदा ) समूह, खाना फ़ा० ) तोपों और उनके सारे सामान __ढेर, टीला । का स्थान, संग्राम-हेतु सजी हुई तोपों का तोतई -- वि० दे० (हि. तोता + ई-प्रत्य०) समूह। तोते के रंग वाला, हरे रंग का । तोपची--- संज्ञा, पु० दे० ( तु. तोप+चीतोतना-स० कि० (दे०) निवार या दरी | प्रत्य० ) गोलंदाज़, तप चलाने वाला। श्रादि बुनना, किसी वस्त्र को गूंथना। | तोपड़ा-- संज्ञा, पु० (दे०) मक्खी. एक पक्षी। तोतराना, तोतलाना - अ० क्रि० दे० हि० दे० कोपन डॉकना तुतलाना) तुतलाना। " तनक मुख की छिपाना, लादना, ढेर करना। तनक बतियाँ माँगते तोतराय-सूबे० । | तोपा-संज्ञा, पु० दे० (हि. तुरपना) एकतोतरि-तातरी-संज्ञा, स्त्री० दे० । हि० | हरी सिलाई। स० क्रि० (हि. तोपना), तुतलाना) छोटे छोटे बच्चों की बोली, तोतली, छिपाया, ढका ढाँपा, राशीभूत । तुतली (दे०)। " ज्यों बालक कह तोतरि तापाना- स० कि० दे० । हि० तोपना )गड़बाता" रामा। वि० स्त्री० तुतली तोतली। । वाना, ढंकाना, छिपवाना । प्रे० रूपतोतला-वि० दे० (हि. तुतलाना ) तुतला तापवाना। कर बोलने वाला, तुतला, तुतरा ग्रा०)। | तोप्यो-स० क्रि० दे० (हि. तोपना) तापा, तोता-संज्ञा, पु. (फा०) सुश्रा, कीर, बंदूक ढका, छिपाया। " तोप्यो व्रज पानि घने का घोड़ा। मुहा०-हाथों के तोते उड़ प्रलय पयोदनि तें"---मन्ना० । For Private and Personal Use Only Page #864 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org तोफा ६५३ तोफा - वि० दे० ( थ० तोहफ़ा ) भेंट, उपहार, नज़र, सौगात । वि० अच्छा, बढ़िया, उत्तम, श्रेष्ट, तोहफ़ा । तोबड़ा - संज्ञा, पु० दे० ( फ़ा० तोवरा ) घोड़ों के दाना खिलाने का थैला, तांबरा | मुहा० - तांबड़ा सा मुँह बनाना - रु हो मुंह फुलाना | मुहा० - तोबड़ा चढ़ानाबोलना बंद करना । तोबा - संज्ञा स्त्री० दे० '० तोबः ) बुरे कर्म के त्यागने का पक्का प्रण, किसी काम पर लानत भेजना, तोबा करना, त्याग देना । मुहा० - तांबातिल्या करना या मचानाअपनी दीनता प्रगट करते हुए रो-चिल्ला कर तोबा करना । तोबा बोलाना - पूरे तौर से हरा देना । तोम-संज्ञा, पु० दे० ( सं० स्तोम ) किसी वस्तु का समूह, तूदा ढेर | तोम ताब तमकत थावै है "तामणी-तामड़िया- तुमडिया, तूपड़ीसंज्ञा स्त्री० दे० ( हि० तूंचा ) तूंबी, तुम्बी छोटा तूंबा या कमंडल, तोंबा । तोमर -- संज्ञा, पु० (सं०) एक हथियार, एक छंद, एक देश और उसका वासी, राजपूतों की एक जाति श्राग । • दाबि तम - सरस० । तोय - संज्ञा, पु० (सं० ) पानी, जल । " बूँद बूँद तें घट भरे, पक्त रीतै तोय” – वृं० । तोयधर - तोयधार -- संज्ञा, पु० (सं०) बादल, मेघ, तायद । तोयधि-नायनिधि - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) समुद्र, सागर । तोयाधिवासिनी - संज्ञा, खो० यौ० (सं०) लक्ष्मी, पाटला पेड़ । तोयाशय - संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) तालाब आदि जल के स्थान । तोरं - संज्ञा, पु० दे० (हि० तोड़ना) तोड़ना क्रिया का भाव, वेगवान धारा या बहाव, जोड़-तोड़ या दाँव-पेंच, प्रतिकार, मारक, वार, झोंका । * सर्व ० ० ० (हि० तेरा ) तेरा, तिहारो, तेरा । स्त्री० तोरी । 1 Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तोषक तोरई - संज्ञा, स्त्री० दे० ( हि० तुरई ) तुरई, एक तरकारी । तोरण, तोरन - संज्ञा, पु० (सं०) मकान या शहर का बाहिरी द्वार या फाटक, बंदनवार । 'ध्वज पताक, तोरण. कलस" - रामा० । तोरना - स० क्रि० दे० ( हि० तोड़ना) तोड़ना । तोरा - सर्व० दे० ( सं० तव ) तेरा, तिहारो ( ब० ) । तत्व प्रेम कर मम श्ररु तोरा " - रामा० । सा० भू० स० क्रि० (दे० तोरना) तोड़ डालना । (4 तोरानां - स० क्रि० दे० ( हि० तुड़ाना ) तुड़ाना, तोड़ाना | तोरावान्। -- वि० दे० (सं० त्वरावत् ) जल्दबाज़, वेगवान, तेज़ । खो० तारावती तोरी - संज्ञा, खो० दे० ( हि० तुरई ) तुरई, एक तरकारी । सर्व० दे० ( हि० तेरी ) तेरी, तिहारी ( च० ) । तौं धरि जीभ कढाव तोरी " - रामा० । सा० भू० स्त्री० (दे० क्रि० तोरना ) | C तोला - संज्ञा, स्त्री० दे० ( हि० तौल ) तौल । तोलन - संज्ञा, पु० (सं०) तौलने का कार्य्य, उठाने का कार्य, तौलनि (दे० ) । तोलना स० क्रि० दे० ( हि० तौलना ) तौलना । प्रे० रूप० तौलाना, तौलवाना 1 तोला - संज्ञा, पु० दे० (सं० तोलक ) बारह माशे । ताश - संज्ञा. पु० (सं०) हिंसा, हिंसक । तोशक- संज्ञा, स्रो० ( तु० ) गद्दा, रुईदार बिछौना, तोसक (दे०) । तं शदान संज्ञा, पु० (का० तोश: दान) मार्ग - भोजन आदि का पात्र, कारतूस रखने की थैली । तोशा-- संज्ञा, पु० (फ़ा०) मार्ग भोजन, पाथेय, तोसा (दे० ) । तोशाखाना - संज्ञा, पु० यौ० (तु० तोशक + फा० खाना ) राजाओं के कपड़ों का स्थान । तोष तोस - संज्ञा, पु० दे० (सं०) तृप्ति, श्रानन्द तुष्टि, संतोष । तोषक - वि० सं०) संतुष्ट या प्रसन्न करने वाला । For Private and Personal Use Only Page #865 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तोषण ८५४ त्यक्ताग्नि ताषण-संज्ञा, पु० (सं.) तृप्ति, सन्तोष। तौरि -संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. ताँवरि ) तोषना-स० क्रि० दे० (सं० तोष) तृप्त या घुमरी, चक्कर, ताँवर। सन्तुष्ट करना। तौर्य- संज्ञा, पु० (सं० ) मृदंग श्रादि बाजा। तोषल—संज्ञा, पु० (सं०) एक दैत्य, मूसल । तौर्यत्रिक - संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) गाना, तोषित-वि० (सं०) तृप्त, तुष्ट । बजाना, नाचना, तीनों ।। तोसल - संज्ञा, पु० दे० (सं० तोषल ) तौल-संज्ञा, पु० दे० (सं० ) जोख, तौल, एक दैत्य, मूसल। । तराजू। तोसागार*1-संज्ञा, पु० यौ० ( फा० तोशा तौलना-स० क्रि० दे० (सं० तोलन) जोखना, खाना ) राजाओं का वस्त्रभवन । ___ साधना, किसी बात का अंदाजा करना, तोहफ़गी--संज्ञा, स्त्री० । फा०) श्रेष्ठता, उत्त- जाँचना, परखना, गाड़ी को ठीक कर ओंगना। मता, अच्छापन । तौलवाना- स० क्रि० दे० (हि० तौलना तोहफ़ा-संज्ञा, पु० (अ०) उपहार, नज़राना, । ___ का प्रे० रूप ) किसी दूसरे पुरुप से तौलाना । सौगात । वि०-अच्छा, उत्तम, बढ़िया। तौला- संज्ञा, पु० दे० (हि० तौलना ) तौलने तोहमत-- संज्ञा, स्त्री० ( अ०) झूठा कलंक, __ वाला, तौलैया, बया।। व्यर्थ दोषारोप। तौलाई- संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. तौल + आई तोहरा-तोहारी-सर्व० दे० (हि. तुम्हारा) | –प्रत्य० ) तौलना क्रिया का भाव, काम तुम्हारा, तोहर (पू०)। या मज़दूरी। तोडिं, तोही-सर्व० दे० (हि. तू , तुझको. तौलाना-- स० कि० दे० (हि० तौलना) किसी तुझे, तेरी। "मृत्यु निकटाई सठ तोंहीं"- दूसरे से तौलने का काम लेना। "मैं सब कीन्ह तोहिं बिनु पूछे'- रामा। तौलिया--- संज्ञा, स्त्री० दे० ( अ० टावेल ) तोसा-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि० ताव+ ऊमस) मोटा अंगौछा। धूप से कठिन प्यास ।। तौली--संज्ञा, स्त्री० (दे०) बटलोई। तौंसना--अ० क्रि० दे० ( हि० तौस ) गरमी तौलैया--- संज्ञा, पु० दे० ( हि० तौला + ऐया से संतप्त होना या झुलस जाना । -प्रत्य०) तौलने वाला, बया। तौंसा-संज्ञा, पु० दे० (हि० ताव- ऊमस) | तौसना-अ० क्रि० दे० (हि. तौस ) गरमी अधिक गरमी या ताप।। से अति घबरा जाना, व्याकुल होना। स० तौ*-क्रि० वि० दे० (हि. तो ) तो। क्रि० (दे०) गरमी पहुँचा कर व्याकुल करना। तौक-संज्ञा, पु. (अ०) हँसुली, सूता, पट्टा। तौहीं-तौहूँ, तऊ, तौह - (व.) अव्य० (दे०) तौन, तउन -- सर्व० दे० (सं० ते) वह, जो तब, तो भी, तथापि। (विलो० जौन)। तोहीन-संज्ञा, स्त्री. पु. (अ०) बेइज्जती, तौनी- संज्ञा, स्त्री० दे० ( हि० तवा का स्त्री० अनादर, अपमान, अप्रतिष्ठा। स्त्री० तौहीनी। अल्पा० ) छोटा तवा। तौर--संज्ञा, पु० (अ०) तरीका, ढङ्ग, चाल तोहूँ-लौह-अव्य० (दे०) तथापि, तिस पर ढाल, चाल चलन, बर्तावा । या०–तौर भी, तोभी। तरीका-चाल-बर्ताव, अवस्था, हालत, | त्यक्त–वि० (सं०) त्यागा या छोड़ा हुआ। दशा । अव्य.-तरह, प्रकार ।। वि० त्यक्तव्य । तोरात-तौरेत--संज्ञा, पु० दे० (इ वा० तौरत) | त्यक्ताग्नि--संज्ञा, पु. यौ० सं०) श्राग का यहूदियों की धर्म-पुस्तक । त्यागी, अग्निहोत्र-रहित ब्राह्मण । For Private and Personal Use Only Page #866 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ८५५ त्यजन त्यजन - संज्ञा, पु० (सं०) त्याग, परित्याग । वि० त्यजनीय | त्याग - पंज्ञा, पु० (सं०) उत्सर्ग, दान, किसी काम या बात के छोड़ने की क्रिया, संबन्ध तोड़ देना, सांसारिक पदार्थों तथा विषयों को छोड़ना । त्यागन - संज्ञा, पु० (सं० त्याग ) स्यजन, त्याग, विराग | त्यागना - स० क्रि० दे० (सं० याग ) छोड़ना, परित्याग करना, तज देना । त्यागपत्र -- संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) किसी वस्तु या विषय के त्याग का लेख, इस्तीफ़ा । त्यागी वि० (सं० त्यागिन् ) विरक्त, सांसारिक बातों और स्वार्थ का छोड़ने वाला । त्याजित -- वि० (सं० यजन) त्यक्त, छोड़ा हुआ । त्याज्य - वि० (सं०) त्यागने योग्य । त्यारा - वि० दे० ( हि० तैयार ) तैयार, घामादा, प्रस्तुत, तयार (दे० ) । त्यू | - क्रि० वि० दे० (हि० त्यों ) उस भाँति, प्रकार, तैसे, तत्काल, त्यौं । (विलो० - ज्यं) त्यों-त्यों - क्रि० वि० दे० ( सं० तत + एवम् ) उसी भाँति या प्रकार. तैसे, तत्काल । त्योंधा - वि० (दे०) रतौंधिया रात का अंधा । त्योनार त्यौनार - सज्ञा, स्त्री० (दे०) निपु यता, दक्षता, चतुरता । त्योनारी- त्यौनारी-संज्ञा, स्त्री० (दे०) निपुयता, प्रवीणता, चतुर स्त्री । त्योर-त्योरी, योग्-त्यौरी - संज्ञा, स्त्री० दे० ( हि० त्रिकुटी ) दृष्टि, निगाह, चितवन । मुहा०—त्योरी चढ़ना या बदलनाक्रोध से श्राखें चढ़ना । त्यारी में बल पड़ना-त्योरी चढ़ाना - क्रोध से श्राँख भौं चढ़ना, तेउरी (ग्रा० ) । त्योरुस - तिउरुस - संज्ञा, पु० दे० ( हि० ति = तीन + बरस ) आगे आने वाला या बीता हुआ तीसरा वर्ष त्यौरूस (दे० ) । त्योहार - त्यौहार - संज्ञा, पु० दे० (सं० तिथि Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir त्रास त्रासा + वार ) पर्व या उत्सव का दिन, आनन्द का दिन । त्योहारी - संज्ञा, त्रो० दे० (हि० त्योहार) त्योहार के दिन नौकरों को दिया गया इनाम | यौनार-संज्ञा, पु० (हि० तेवर ) ढङ्ग, रीति तर्ज़ प्रकार । त्रपा -- संज्ञा, त्रो० (सं०) लज्जा, शर्म, लाज । वि० लज्जित, शर्मिन्दा । वि० त्रपमान | त्रपित - वि० (सं० ) लज्जित, शर्मिन्दा | त्रपिष्ट - वि० (सं० ) श्रति लज्जित । त्रपु - संज्ञा, पु० (सं० ) मीसा, राँगा । त्रपुरी - संज्ञा, स्त्री० (सं०) गुजराती इलायची | त्रय - वि० (सं० ) तीन, तीसरा । त्रयी - संज्ञा, स्त्री० (सं० ) तीन पदार्थों का समूह. तिगड | त्रयोदशो- संज्ञा स्त्री० (सं० ) त्यारस, तेरस (दे० ) । ऋष्टा- पंज्ञा, पु० दे० ( तत्रा ) बढ़ई, विश्वकर्मा | संज्ञा, पु० ( फा० तश्त ) तश्तरी । त्रसन -संज्ञा, पु० (सं०) डर, भय, उद्वेग । त्रमना*-- - प्र० क्रि० दे० (सं० त्रसुन) डरना, भय से काँपना | त्रसरे - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) महीन कण | त्रसना* +--- स० क्रि० दे० ( हि० त्रसना ) धमकाना, डराना, भय दिखाना । त्रसित - वि० (सं० त्रस्त ) डरा हुआ, भयभीत, पीड़ित । त्रस्त - वि० (सं०) डरा हुआ, भयभीत, दुखित । त्राण - संज्ञा, पु० (सं०) रक्षा, बचाव, कवच । वि० ० त्रातक । त्राता त्रातार- संज्ञा, पु० (सं० त्रातृ ) रक्षक, बचाने वाला | राम विमुख श्राता नहि 66 कोई " - रामा० । त्रायमान - संज्ञा, पु० (सं०) बनफ़शे सी एक श्रौषधि । वि० रक्षक । त्रास त्रासा - संज्ञा, पु० (सं०) डर, भय, कष्ट । वि० डरा । "सीतहिं त्रास दिखावही " - रामा० । For Private and Personal Use Only Page #867 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org त्रासक ८५६ त्रिजटा त्रासक - संज्ञा, पु० (सं० ) डर या, भय दिखाने वाला, निवारक । त्रासना*——स० क्रि० दे० (सं० त्रासन ) त्रिकूट - संज्ञा, पु० ( सं० ) तीन चोटियों का त्रिकुटी - संज्ञा, स्रो० (सं० त्रिकूट ) दोनों भौहों का मध्यवर्ती स्थान । भयभीत करना, डराना, त्रास देना । त्रासित - वि० (सं० त्रस्त ) डराया हुआ । त्राह त्राहि - अव्य० (सं०) रक्षा करो, बच्चायो । पहाड़, लंका का पहाड़, योग के छै चक्रों में से प्रथम । “गिरि त्रिकूट ऊपर बस लंका" -- " त्राहि त्राहि अब मोंहि " - रामा० । त्रि - वि० (सं० ) तीन । त्रिकंटक - वि० यौ० (सं०) तीन काँटों वाला। त्रिक - संज्ञा, पु० सं०) तीन का समूह, कमर । त्रिककुद् - संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) कूिट पहाड़, विष्णु । वि० जिसके तीन सींग हों । त्रिकच्छक संज्ञा, पु० (सं० ) रीति के अनु सार धोती पहनना । • त्रिकः -- संज्ञा, पु० (सं०) गो वरू - भौषध | त्रिकटु - त्रिकटुक - संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) सोंठ, मिर्च, पीपल का समूह । त्रिकटुरामठ चूर्णमिदं समम्' – वै० । त्रिकस्म-वि० (सं० ) तीन कर्म पठन, दान, यज्ञ करने वाला, भूमिहार । त्रिकत - -संज्ञा, पु० यौ० (स०) तीन मात्रात्रों का शब्द (पिं०), प्लुत, दोहे का एक भेद । वि० तीन कला वाला ! त्रिकांड - संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) अमर कोष, निरुक्त । वि० तीन कांड वाला । त्रिकाल - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) तीनों समय, भूत, भविष्यत् वर्तमान, प्रातः सायं मध्यान्ह । त्रिकालज्ञ - संज्ञा, पु० (सं० ) तीनों कालों की बातों का ज्ञाता, सर्वज्ञ | त्रिकालदर्शी । त्रिकालदर्शक - वि० यौ० (सं० ) तीनों कालों की बातों का देखने वाला, सर्वज्ञ | त्रिकालदर्शी - संज्ञा, पु० यौ० (सं० त्रिकाल - + दर्शिन् ) त्रिकालज्ञ, सर्वश । त्रिकुट - संज्ञा, पु० (सं० ) सिंघाड़ा | त्रिकुटा - संज्ञा, पु० (सं० ) त्रिकटु, सोंठ, मिर्च, पीपर । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir --रामा० । त्रिकाण -- संज्ञा, पु० यौ० (सं०) तीन कोने का क्षेत्र, त्रिभुज क्षेत्र । त्रिकोणमिति - संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं० ) त्रिभुज के कोनों और भुजाओं के द्वारा उसके अनेक भेदों का वर्णन का गणितशास्त्र । त्रिखा· तिरखान - संज्ञा, स्त्री० दे०सं० (तृषा ) प्यास (पि० ) । चातक रटत त्रिखा श्रति श्रोही ' --रामा० । त्रिगण -- संज्ञा, पु० यौ० (सं०) त्रिवर्ग (धर्म. अर्थ, काम ) | त्रिगर्त - - संज्ञा, पु० (सं० ) जालंधर और कांगड़ा के घास-पास का देश ( प्राचोन ) । त्रिगुण - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) सत्व, रज, तम का समूह । वि० (सं० ) तिगुना । त्रिगुणातीत-संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) तीनों गुणों से परे, ब्रह्म, परमेश्वर । वि० ज्ञानी, जीवन मुक्त, निर्गुण । त्रिगुणात्मक - वि० पु० यौ० (सं०) सत्व, रज, तम इन तीनों गुण से बना, गुणत्रयविशिष्ट संमार, सांसारिक पदार्थ । स्त्री० त्रिगुणात्मिका । त्रिचतुर - वि० यौ० (नं०) तीन या चार । त्रित संज्ञा, पु० (सं० तिर्यक् ) पशु, पक्षी, कीड़े श्रादि । त्रिजगद् - संज्ञा, पु० (सं० त्रिजगत् ) तीनों लोक ( श्राकाश, पाताल भूमि), त्रिभुवन । • त्रिजग देव नर असुर अपर जग जोनि सकल भ्रमि थायो" वि० । त्रिजट - संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) शिव जी । त्रिजटा -संज्ञा, स्त्री० (सं० ) एक राक्षसी जो अशोक बाटिका में सीता जी की रक्षा में रहती थी । "त्रिजटा नाम राक्षसी एका" - रामा० । For Private and Personal Use Only Page #868 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir त्रिपथ - त्रिजामा ८५७ त्रिजामा /-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० त्रियामा) त्रिदिनस्पृश-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) वह तिथि रात, रात्रि। जो तीन दिन पड़े। त्रिज्या-संज्ञा, स्त्री. (स.) व्यासाई, व्यास | त्रिदिव-संज्ञा, पु. यौ० (सं०) स्वर्ग । की आधी रेखा। | त्रिदिववाद-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) दार्शनिक त्रिण -संज्ञा, पु. (सं० तृण) तृण, सिद्धान्त विशेष । फूस, तृन (दे०) तिनका। | त्रिदिवौकस्-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) देवता, त्रिणाचिकेत-संज्ञा, पु० (सं०) यजुर्वेद का | स्वर्गवासी। एक भाग या अध्याय । त्रिदेव-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) ब्रह्मा, शिव, त्रिणता-संज्ञा, स्त्री. (सं०) धनुष, कमान । विष्णु। त्रित-संज्ञा, पु० (सं०) गौतम ऋषि के बड़े त्रिदोष-संज्ञा, पु. यौ० (सं०) बात, पित्त, त्रितय-वि० (सं०) तीन पूरे, त्रिवर्ग-धर्म, कफ का विकार, संनिपात । “त्रिदोषाजगर. ग्रस्तं मोचयेद्यस्तु वैद्यराट् "-वै० । अर्थ, काम। त्रिदोषज-संज्ञा, पु. यौ० (सं०) संनिपात, त्रिदंड-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) सन्यास-चिन्ह, __ या तीनों दोषों से उत्पन्न रोग । बाँस का डंडा। त्रिदोषग -अ० क्रि० दे० (सं० त्रिदोष ) त्रिदंडाधारण-संज्ञा, पु० (सं०) सन्यास लेते तीनों दोष वात, पित्त, कफ ( संनिपात ) समय ( काय, वाक्, मन) इन तीनों के या काम, क्रोध, लोभ के फंदे में पड़ना। दंडों का लेना। त्रिदंडी-संज्ञा, पु. ( सं० ) काय, वाग, मन | त्रिदोषनाशक-संज्ञा, पु. यो० (सं०) संनि पात का नष्ट करने वाला। इन तीनों दंडों का धारण करने वाला, त्रिधा-क्रि० वि० (सं०) तीन प्रकार से । सन्यासी। त्रिदश-संज्ञा, पु. (सं०) देवता, सुर । वि० तीन प्रकार का। "त्रिदश बदन होइहि हित हानी"---स्फु०। त्रिधातु-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) वात, पित्त, "त्रिदशाः विवुधाः सुराः"-श्रम। कफ, सोना, चाँदी, ताँबा । त्रिदशांकुश--संज्ञा, पु० यौ० (सं०) वज्र, विधामा-संज्ञा, पु० (सं० ) विष्णु, शिव, अशनि । ब्रह्मा या अग्नि। त्रिदशाचार्य-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) देवगुरु, त्रिधारा-संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) सेंहुड़, वृहस्पति । ___ गंगा नदी। त्रिदशायुध-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) वज्र, त्रिध्वनि-संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) तीन प्रकार अशनि। का शब्द, मधुर, मन्द, गंभीर । त्रिदशारि-संज्ञा, पु. यौ० (सं०) दैत्य, | विन/--संज्ञा, पु० दे० ( सं० तृण) तृण, दानव, दनुज । फूस, तिनका, तिन (ग्रा.)। त्रिदशालय-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) स्वर्ग, त्रिनयन-त्रिनेत्र-संक्षा, पु. यौ० (सं०) शिव सुमेरु पर्वत । त्रिदशाहार-संक्षा, पु. यौ० जी, त्रिलोचन । (सं०) अमृत । त्रिदशेश्वर-संज्ञा, पु० यौ० त्रिनयना-संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) दुर्गा जी । (सं०) इन्द्र, विष्णु । त्रिदशेश्वरी-संज्ञा, विपताक-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) तीन रेखाओं स्त्री० (सं०) देवी। वाला मस्तक, तीन झंडों वाला। त्रिदश-दीर्घका-संज्ञा, स्त्री. (सं०) मंदा- त्रिपथ-संज्ञा, पु० यौ० (सं.) तीन मार्ग, किनी, गंगा नदी। कर्म,उपासना, ज्ञान, तीनों मार्गों का समूह। भा० श. को०-१०८ For Private and Personal Use Only Page #869 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir त्रिपथगा-त्रिपथगामिनी ८५८ त्रिलोकनाथ त्रिलोकीनाथ त्रिपथगा-त्रिपथगामिनी-संज्ञा, स्त्री० यौ० और गरदन में कुछ टेढ़ापन लिए खड़े होने (सं०) गंगा जी। का ढंग। त्रिपद संज्ञा, पु० यौ० (सं०) तिपाई, जिसके त्रिभंगी - वि० (सं०) त्रिभंग । संज्ञा, पु० (सं०) तीन पाँव हों। श्रीकृष्ण, एक छंद (पिं०)। 'बसत त्रिभंगी त्रिपदा-त्रिपदो-संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) हंस. लाल'- वि०। पदी, तिपाई, गायत्री छंद। त्रिभुत--संज्ञा, पु० यौ० (सं०) सम धरातल त्रिपदिका-संज्ञा, स्त्री० (सं०) तिपाई। जो तीन भुजानों से घिरा हो. त्रिकोण, त्रिपाठी-संज्ञा, पु० (सं० विपाटिन् ) त्रिवेदी, तिकोना । तिवारी (ब्राह्मण )। | त्रिभुजात्मक - वि० यौ० (सं०) त्रिभुज, त्रिपिटक - संज्ञा, पु० (सं०) बौद्धों का धर्म त्रिकोण क्षेत्र । ग्रंथ, (सूत्र, विनय, अभिधर्म) ये तीन हैं। त्रिभुवन-सज्ञा, पु. यौ० (सं०) तीनों लोक, त्रिपिताना-अ० कि० दे० (सं० तृप्ति + (आकाश, पाताल, पृथ्वी)। आना-प्रत्य० ) तृप्त होना, अघाना। स० क्रि० । त्रिमधु-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) ऋग्वेद का (दे०) संतुर या तृप्त करना. तिरपिताना। एक भाग। त्रिपंड- सज्ञा, पु. ( सं० त्रिपुंड । खौर, अर्ध- त्रिमूर्ति- संज्ञा, पु० यौ० (सं०) ब्रह्मा, विष्णु, चंद्राकार, तीन लकीरों का शैव तिलक । | शिव । त्रिपुंसी- संज्ञा, स्त्री० (दे०) इन्द्र, वरुण। त्रिमुहानी-संज्ञा, स्त्री० यौ० (दे०) वह स्थान त्रिपुर-संज्ञा, पु० (सं०) वाणासुर, तारका- | जहाँ से तीन मार्ग तोन भिन्न दिशाओं को सुर के पुत्रों के लिये मय दानव, रचित तीन गये हों। तिगृहानी (दे०) । नगर, एक दैत्य, तीनों लोक । यौ० --- | त्रिय-त्रिया- संज्ञा, स्त्री. (सं० स्त्री) स्त्री, त्रिपुरासुर । औरत, तिरिया (दे०) यौ०-त्रियाचरित्रत्रिपुरदहन, त्रिपुरान्तक, त्रिपुरारि-संज्ञा, नारिचारित-स्त्रियों को लीला जिसे पुरुष पु. यौ० (सं०) शिव जी । सहज ही में नहीं समझ सकते । “ त्रियात्रिपुरा-संज्ञा, स्त्री० (सं०) कामाख्या देवी। चरित्र जानै ना कोय".-- लो० । छल, त्रिपुस - संज्ञा, पु० (दे०) खीरा । कपट, धोखेबाजी। “त्रिया-चरित करि त्रिपौलिया- संज्ञा, पु. (दे०) सिंह-द्वार, | ढारति आँसू"-रामा। राज-महल का प्रथम द्वार, तीन द्वार का | त्रियामा-संज्ञा, स्त्री० (सं०) रात्रि, तीन पहर मकान । वाली। त्रिफला-संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) हर, बहेड़ा, त्रियुग-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) विष्णु, सत्ययुग, आँवला, तीनों मिलकर त्रिफला हैं। द्वापर, त्रेता, तीनों युगों का समुदाय । त्रिवली-त्रिवली-संज्ञा, स्त्री० (सं०) स्त्री के ! त्रियोनि-संज्ञा, पु. यौ० (सं०) लोभ आदि से पेट पर नाभि के ऊपर की तीन सिकुड़नें, उत्पन्न कलह । तीन पलट । त्रिलोक, तिलोक-संज्ञा, पु. यौ० (सं०) त्रिबेणो-त्रिबेनी(दे०)-संज्ञा, स्त्री. (सं० | त्रिलोकी, तीनों लोक, ( पृथ्वी पाताल, त्रिवेणी त्रिवेणी, तिरबेनी (दे०)। " तहाँ | आकाश ) तिलोक के तिलक तीन" तहाँ ताल मैं होति त्रिवेनी"-- पद्मा०।। तुल० । त्रिभग-त्रिभंगा-वि० यौ० (सं०) जिपमें तीन दिलं कनाथ, त्रिलोकीनाथ- संज्ञा, पु० यौ० स्थानों में बल पड़े। संज्ञा, पु. पेट, कमर | (सं०) परमेश्वर, विष्णु, शिव । For Private and Personal Use Only Page #870 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir त्रिलोकपति ८५६ त्रैराशिक त्रिलोकपति- संज्ञा, पु. यौ० (सं०) भगवान, त्रिशंकु-संज्ञा, पु० (सं०) बिजली, जुगनू, विष्णु, शिव । पपीहा. एक पहाड़, एक सूर्य वंशी राजा, त्रिलोकी, तिलोकी-संज्ञा, स्त्री० (सं०) तीनों तीन तारों का समूह । लोकों का समूह, स्वर्ग, पाताल, मृत्यु लोक, त्रिशक्ति-संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) इच्छा, एक छंद (पिं०)। ज्ञान और क्रिया तीनों शक्तियाँ, बुद्धि, त्रिलोकीनाथ–संज्ञा, पु० यौ० (सं०) विष्णु, गायत्री। शिव, ईश्वर । | त्रिशिर--- संज्ञा, पु० (सं० त्रिशिरस ) रावण त्रिलोचन, तिलोचन--संज्ञा, पु० (सं०) शिव । का एक भाई जिसके तीन सिर थे । त्रिसिरा जी जिनके तीन नेत्र हैं। "आये हैं त्रिलो- (दे०) । चन तें लोचन उघारि दै"-सरस। त्रिशूल-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) तीन फल का त्रिलोह-त्रिलोहक-संज्ञा, पु. (सं०) सोना, भाला, तिरसूल (दे०)। चाँदी, ताँबा, तीनों धातु ।। त्रिशूली- संज्ञा, पु० (सं०) शिव जी।। त्रिवर्ग-संज्ञा, पु. यौ० (सं०) अर्थ, धर्म निषित-वि० ( सं० तृषित ) प्यासा, तिरकाम, त्रिवर्ग हैं, त्रिफला (औष०), त्रिकुटा, षित (दे०)। “निषित बारि बिनु जो तनु स्थिति, वृद्धि, क्षय, सत्व, रज, तम, त्यागा"-रामा० । ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य । | त्रिष्टुभ-संज्ञा, पु० (सं०) एक छंद । त्रिवर्षात्मक वि. यौ० (सं०) तीन वर्ष या | त्रिसंगम-संज्ञा, पु० (सं०) त्रिवेणी। साल का, त्रैवार्षिक। त्रिसंध्य-त्रिसंध्या-संज्ञा, पु०, स्त्री० यौ० (सं०) त्रिवार्षिका-संज्ञा, स्त्री. (सं०) तीन वर्ष प्रातः, सायं, मध्यान्ह, तीनों संध्या। की गौ। त्रिस्थली-सज्ञा, स्त्री० (सं०) प्रयाग, गया, त्रिविक्रम-संज्ञा, पु० (सं०) बावनावतार । | काशी। "जबहिं त्रिविक्रम भये खरारो"-रामा०। त्रिस्रोता-संज्ञा, स्त्री० (सं० त्रिस्रोतस्) गंगा। त्रिविध-वि० (सं०) तीन भाँति का। क्रि० । टि-संज्ञा, स्त्री० (सं०) कमी, हीनता, वि० (सं०) तीन भाँति से। कसर, भूल-चूक, कसूर, गलती । त्रुटी। त्रिविष्टप---संज्ञा, पु० (सं०) स्वर्ग, तिब्बत त्रटित-वि० ( सं०) खंडित, भग्न, टूटा हुआ। त्रेता युग--संज्ञा,पु० यौ० (सं०) द्वितीय युग । त्रिवृत्करण-संज्ञा, पु० (सं०) तत्वों के - वि० (सं० त्रय ) तीन । मिलाने और अलगाने की क्रिया या काम । कालिक-सांज्ञा, पु० (सं०) सब कालों त्रिवेणो- संज्ञा, स्त्री० (२०) तीन नदियों का में या सदा होने वाला। संगम, जैसे प्रयाग में. इडा, पिंगला और त्रैगुण्य-सज्ञा, पु० यौ० ( सं० ) तीनों गुणों सुपुग्ना तीनों नाड़ियों के मिलने का स्थान, | का धर्म या स्वभाव।। जिसे त्रिकुटी कहते हैं, (हठयो०)। त्रिवेद-संज्ञा, पु. यौ० (सं०) ऋग, यजुः, त्रैमातुर-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) लचमण जी। साम, तीनों वेद। त्रैमासिक - वि० यौ० ( सं० ) प्रत्येक तीसरे त्रिवेदी-संज्ञा, पु. (सं० त्रिवेदिन ) ब्राह्मणों महीने में होने वाला। की एक जाति, तिरबेदी (दे०)। त्रैराशिक-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) तीन जानी त्रिवेनी, तिरबेनी-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० । राशियों से चौथी बिना जानी राशि के त्रिवेणी ) द्विवेणी। निकालने की रीति (गणि०) तिरासिक(दे०)। देश। For Private and Personal Use Only Page #871 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir त्रैलोक्य ८६० थका-माँदा त्रैलोक्य-संज्ञा, पु० (सं०) तीनों लोक, स्वदंघ्रि-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) आपके चरण । __एक छंद। त्वदीय -- सर्व० (सं० ) तुम्हारा, आपका । त्रैवर्णिक-वि० यौ० (सं०) ब्राह्मण, क्षत्रिय, "कृष्ण त्वदीय पद पंकज पादरेणु" । वैश्य तीनों वर्गों का धर्म । त्वरा- संज्ञा, स्त्री० ( सं० ) बल्दी, शीघ्रता । त्रैवार्षिक-वि० यौ० (सं०) जो प्रति तीसरे स्वरावान... वि. ( सं० त्वरावत्) जल्दी करने वर्ष हो, तीन वर्ष सम्बन्धी कार्य । वाला, जल्दबाज । त्रविक्रम-संज्ञा, पु. ( सं० ) बावन भगवान, त्वरित--वि० ( सं०) शीघ्रता-युक्त, तेज, "विष्णु, त्रिविक्रम । तुरत (दे०) । क्रि० वि० जल्दी, तुरंत । त्रोटक-संज्ञा, पु. ( सं०) ४ जगण का एक त्वरित गति-संज्ञा, पु० यौ० (सं०)शीघ्रगामी, छंद, नाटक का एक भेद (नाट्य)। एक छंद (पि०)। रोटी-संज्ञा, स्त्री० (दे०) चोंच । स्वरितोदित-वि• यो० ( सं०) शीघ्रता या त्रोण-संज्ञा, पु० (सं० तूण ) तूण, भाथा, जल्दी से कहा हुआ वचन । तरकश, तूणीर । स्वष्टा-संज्ञा, पु० (सं० त्वष्ट) विश्वकर्मा, भ्यंबक-संज्ञा, पु. यौ० (सं०) महादेव जी। शिव, प्रजापति, बढ़ई, सूर्य, देवता। त्र्यंबका-संज्ञा, स्त्री० ( सं०) दुर्गा जी। स्वाष्ट्र-संज्ञा, पु. ( सं० ) वृत्रासुर, वज्र । व्यधीश-संज्ञा, पु. ( सं० ) तोनों लोकों के स्वाष्ट्री-संज्ञा, स्त्री० (सं०) चित्रा नक्षत्र, स्वामी, विष्णु, शिव. तीनों कालों के स्वामी, संज्ञा नामक सूर्य-पत्नी । सूर्य्य, अयाधीश। विष-विषा--संज्ञा, स्त्री० ( सं० ) शोभा, ध्याहिक-संज्ञा, पु. ( सं०) प्रति तीसरे दिन प्रभा, कांति । होने वाला, तीसरे दिन का। विषाम्पति-संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) सूर्य, त्वक-संज्ञा, पु० (सं०) खाल, छाल, चमड़ा। रवि, भानु । त्वचा-संज्ञा, स्त्री० (सं०) खाल, छाल, चमड़ा। विषि-संज्ञा, पु० (सं०) तेज, प्रताप, किरण। थ-हिन्दी-संस्कृत की वर्णमाला के त वर्ग थकना-अ० क्रि० दे० (सं० स्था+कृ ) का दूसरा वर्ण । संज्ञा, पु. ( सं०) मंगल, मेहनत करते करते या रास्ता चलते चलते भय, रक्षण, पहाड़, भोजन। हार जाना, शिथिल, या क्लांत होना या ऊब थंडिल-संज्ञा, पु० (सं०) यज्ञ की वेदी, ! जाना, शक्ति-हीन हो जाना, ढीला पड़ना, यज्ञ-स्थान। मोहित होना, ठहर जाना । पू० का. (दे०) थंब, थंभ-संज्ञा, पु० दे० (सं० स्तंभ) खम्भा, थाकि, थकि ।' थके नारि नर प्रेम पियासे” थूनी, टेक । स्त्री० थंबी। -रामा०। थंभन-संज्ञा, पु० दे० (सं० स्तंभन ) स्तंभन, थकान—संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. थकना) शिथिरुकावट, ठहराव । लता, थकावट, थकने का भाव । तकान । यभना-अ० क्रि० दे० (सं० स्तंभन ) रुकना, थकी (दे०)। ठहरना, थमना (दे०)। थकाना-स० कि० दे० (हि. थकना) क्लांत, थंभित*-वि० दे० (सं० स्तंभित ) ठहरा या शिथिल या अशक्त कराना । रुका हुआ, स्थिर, अटल, निश्चल । । थका-मांदा-संज्ञा, वि० देख्यौ०(हि. थकना+ For Private and Personal Use Only Page #872 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - थकावट-थकाहट ८६१ थरकना-थिरकना मांदा ) मेहनत करते करते अशक्त, थपड़ा-थपरा-संज्ञा, पु० दे० (हि. थपकना) श्रमित, श्रांत हुआ। चपत, चपेटा, थप्पड़, थापर (ग्रा० )। थकावट-थकाहट-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. थपड़ी-थपरी- संज्ञा, स्त्री० दे० (हि० थपड़ा)। थकना) थकने का भाव,शिथिलता, ढीलापन। | करतारी, हाथों की ताली, थपेरी (ग्रा०)। थकित-वि० ( हि० थकना ) श्रांत, श्रमित, थपथपी--- संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. थपकी ) हारा, शिथिल,मोहित, ठहरा हुआ "थकित थपकी। स० क्रि० (दे०) थपथपाना । नयन रघुपति-छबि देखी"-रामा० । थपन -- संज्ञा, पु० (सं० स्थापन ) स्थापन । थकी-संज्ञा, स्त्री० (दे०) थकावट । थपना-थापना* --- स० क्रि० दे० (सं० स्थापन) थकैनी-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. थकना) श्रांति, जमाना, बैठाना, ठहराना, स्थापित करना। थकावट, थकी। अ० क्रि० ठहरना, जमना, स्थापित होना। थकौंहाँ-वि० दे० (हि० थकना) थका-माँदा, "मारिकै मार थप्यो जग मैं जाकी प्रथम शिथिल, श्रांत । स्त्री० थकोही। रेख भट माही--विनय० । थक्का-संज्ञा, पु० दे० (सं० स्था+कृ) किसी पा-वि० दे० (हि. थपना)स्थापित, प्रतिष्ठित। वस्तु का जमा हुआ क़तरा । स्त्री० थकी, थपाना-स० क्रि० दे० (हि० थपना) स्थापित थकिया। कराना प्रे० रूप -थपवाना । थगित --- वि० द० ( हि० थकित ) ठहरा या थपेडा-थपेरा--संज्ञा, पु० दे० (अनु० थपथप) रुका हुआ, ढीला, शिथिल, मंद, स्थगित थप्पड़, चपेटा, धौल, थपरा। स्त्री० (दे०) (सं०)। थपेरी, थपेरिया--- ताली। थति -संज्ञा, स्त्री० द० (हि. थाती) धरो थपोडी-थपारी-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. अनु० हर, जमा, थाती (दे०)। थती-वि० (दे०) पक्षी, वशी, नियतात्मा, थप थप ) थपड़ी, ताली, थपेरी।। थप्पड़-थप्पर-संज्ञा, पु. ( अनु० थपथप) थोक, राशि, ढेर। थन-संज्ञा, पु० दे० (सं० स्तन) स्तन, चूँची। थपेड़ा, तमाचा, धौल। थनी- संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० स्तनी) बकरियों के थम-संज्ञा. पु० दे० (सं० स्तंभ) खम्भ, पाया, गलथने । थूनी, थमना । थमला (प्रान्ती०)। थनेला-थनेली-संज्ञा, पु० द० (हि. थन+ थमकारी--वि० दे० (सं० स्तंभन) रोकने वाला। एला-प्रत्य० ) स्त्रियों के स्तनों का फोड़ा, थमड़ा--वि० दे० (हि० थम) बड़े पेट वाला, एक घास, थनैल, थनइल (ग्रा०)। तुन्दिल, तोंदैल। थनैत-संज्ञा, पु० दे० ( हि० थान ) गाँव का थमना-अ० क्रि० दे० (सं० स्तंभन ) ठहरना, मुखिया, ज़मींदार का कारिन्दा । रुकना, धैर्य धरना, ठहर रहना । “जिनके थपक-संज्ञा, पु० दे० (हि. थपकना) ठोंक, जपते पसें थमैं, सात दीप नव खंड" चुमकार। -चाचाहित । थपकना-स० क्रि० दे० ( अनु० थपथप) थर-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० स्तर) परत, तह । किसी के शरीर को हाथ से धीरे धीरे संज्ञा, पु. ( सं० स्थल ) थल, ठोर, स्थान, ठोकना, प्यार करना, चुमकारना, धैर्य देना। जगह, सूखी भूमि, रेगिस्तान, बाघ की थपकी-संज्ञा, स्त्री. (हि. थपकना ) किसी माँद । “जेहि थर आहि भाँति की बरनत के शरीर को हथेली से धीरे धीरे ठोंकना। बात कछूक '"-भू० । " मीठी थपकी पाते थे'-मै० श०। थरकना-थिरकना-अ० क्रि० दे० (अनु० For Private and Personal Use Only Page #873 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir थोगी - थरकौहौं थर थर ) भय या डर से काँपना या थलथल, थुलथुल (ग्रा.)-वि० दे० (सं० थर्राना, नाँचना, मटक कर चलना। स्थून) ढीले माँस का शरीर होना। थरकौहौं-वि० दे० (हि० थरकना) काँपता या थलथलाना---अ० कि० दे० (हिं. थूला) देह डोलता हुश्रा, हिलता हुश्रा, थिर । “ग के मोटा होने से माँप का हिलना या डोलना। थरकौहैं अधखुले, देह, थकौ हैं ढार"---वि०। थ नरह*-वि० दे० यौ० (सं० स्थलरुह) पेड़, थरथर-संज्ञा, स्त्री० दे० ( अनु० ) भय या वृक्ष, भूमि पर जमने या उगने वाले । डर से काँपना, कम्प प्रगट होना, जाड़े से थनबेड़ा - संज्ञा, पु० यौ० द० (हिं०) नाव ज़ोर का कम्पन । " थर थर काँपहि पुर-नर- के लगने का घाट या स्थान । नारी"-रामा । थतिया--संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० स्थली) थरथराना-थर्राना-अ० कि० दे० (अनु० थरिया, छोटी थाली, थारी, टाठी। थरथर ) काँपना, थर्राना, डोलना, हिलना। थली-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० स्थली) ठौर, थरथराहट-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. थरथराना) स्थान, पानी के नीचे की भूमि, बैठक, रेगिकम्प, कँपकपी, थर्राहट। . स्तान । 'दशकंठ की देखि कै केलि-थली" थरथरी-संज्ञा, स्त्री० दे० (अनु० थरथर) कंप, --राम। कँपकपी। थवई - संज्ञा, पु० दे० (सं० स्थपति) घर या थाहर-थरहरी-संज्ञा, स्त्री० ( अनु० ) कंप, मकान बनाने वाला, राज, कारीगर, मेमार। कँपकपी। " दीप-सिखा सी थरहरी, लगें थहना--स० क्रि० दे० (हिं. थाह) थाह बयारि झकोर-मति । लेना, पानी की गहराई जानना, किसी का थरहाई-थराई-संज्ञा, स्त्री० (दे०) निहोरा, श्रान्तरिक उद्देश्य प्रादि ज्ञात करना,थाहना। एहसान। थहरना- अ० कि० दे० ( अनु० थर थर ) थरहराना-अ० कि० (दे०) चिन्ता से काँपना। काँपना, हिलना। "थहरन लागे कलकुण्डल थरिया-थलिया-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० कपोलनि पै"-रला । "चंचल लोचन स्थाली ) थाली, टाठी, थारी। चारु विराजत पास लुरी अल के थहरै" थरिलिया, थरुलिया यरुकुलिया--- संज्ञा, ----दाम०॥ स्त्री० दे० ( सं० स्थाली) छोटी थाली, टाठी। | थहराना-अ० क्रि० दे० (अनु० थर थर) थर्राना-अ.क्रि० दे० (अनु० थरथर) काँपना, काँपना, थर्राना, डोलना, हिलना। डोलना, हिलना, सभीत होना थ हरि---संज्ञा, स्त्री० दे० ( सं० स्थल ) थली, थल-संज्ञा, पु० ( सं० स्थल ) स्थल. स्थान, भूमि । "इहै लालच गाय दस लिय बसति है ठौर, सूखी भुमि । विलो. जल यौ० थल- ब्रजथहरि'-सू० पू० का० कि० (थहराना)। कमल- संज्ञा, पु. यौ० (हि.) गुलाब। थहाना-स० क्रि० द० (हि. थाह) थाह थलकना--अ.क्रि० दे० (सं० स्थूल) हिलना, लेना, पानी की गहराई जानना, किसी के डिगना, मोटेपन से मांस का हिलना। "थल- धन, पौरुष, शक्ति, विद्या, बुद्धि या इच्छा कति भूमि हलकत भूधर"-दास । श्रादि भीतरी गुप्त बातों का पता लगाना। थलचर-संज्ञा, पु. यौ० (सं० स्थलचर ) थांग--संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० स्थान, हि० थान) भूमि पर रहने वाले जीव । "थलचर, जलचर, डाकुओं या चोरों का गुप्त स्थान, सुराग, नभचर नाना"-रामा०। । खोज, पता। थलचारी -- संज्ञा, पु. (सं० स्थलचारिन् ) थांगी-संज्ञा, पु० दे० (हि. थांग ) चोरी का भूमि पर चलने वाले जीव । । माल मोल लेने या पास रखने वाला, For Private and Personal Use Only Page #874 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir याँम थायी चोरों, डाकुओं के स्थान आदि का पता देने किय थानो' सूबे०-"चोर पुलिस थाना वाला, जासूस, चोरों का मुखिया। चितै, चित मों जात सुखाय"-मन्ना। थांभ-संज्ञा, पु. दे० (सं० स्तम्भ) थंभ, थानी-संज्ञा, पु० दे० (सं० स्थानी ) स्थानी, खम्भा, धूनी, स्तम्भ, थमन्ना (प्रान्ती०)। स्थान का स्वामी, अधिपति, मुखिया, थाँभना-क्रि० स० दे० (सं० स्तम्भन ) प्रधान । वि० संपूर्ण । रोकना, सहारा देना, सहायता करना, थानेदार--संज्ञा, पु० दे० (हि० थाना+फा० विलम्ब करना, थामना (दे०) । दार) थाने का अफ़सर, इन्स्पेक्टर । थॉम-संज्ञा, पु० दे० (सं० स्तम्भ) खम्भा, थानैत --- संज्ञा, पु० दे० (हि० थाना+ऐतस्तम्भ, थूनो, टेक। प्रत्य०) थानेदार, ग्राम देवता। थांवला-सज्ञा, पु० दे० (सं० स्थल) थाला, थाप-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० स्थापन) थपकी, धालबाल। थप्पड़, चोट । "लागत थाप मृदङ्ग-मुख-सब्द था-अ० कि० दे० (सं० स्था) रहा, है का रहत भरि पूरि"-केश । प्रतिष्टा, छाप, भूत काल । विभ० (प्रान्ती०) लिये, वास्ते । धाक, मान, सौगन्ध, प्रमाण । थाई, थायी-वि० दे० (सं० स्थायी) स्थायी, थापन-संज्ञा, पु० दे० (सं० स्थापन) स्थापन, अटल, ध्रुव । “उगल्यो गाल दूध की थाई' स्थापित करने या बैठाने का कर्म, रखना, -छत्र० । यो० थाइभाष (का०)। प्रतिष्ठा करना । ' रघुकुल-तिलक सदा तुम थाक-संज्ञा, पु० दे० (सं० स्था) ग्राम की | उथपन थापन"-जान ।। सीमा, समूह, राशि थापना--स० कि० दे० (सं० स्थापन) स्थापित थाकना अ० कि० दे० (हि. थकना) थकना, या प्रतिष्ठित करना, धरना, रखना, बैठना । ठहरना, "रथ समेत रवि थाकेउ".-रामा० । "असुर मारि थापहिं सुरन्ह, राखहिं निज थात* वि० दे० (सं० स्थाता) स्थित, ठहरा श्रुति सेतु".-रामा० । संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० स्थापना) स्थापन, प्रतिष्ठा, घट-स्थापना। थाता-संज्ञा, पु० दे० (सं० स्थाता) त्राता, | थापरा-संज्ञा, पु. (देश०) छोटी नाव, रतक, बचाने वाला । "राम विमुख थाता डोंगी, थप्पड़ ।। नहिं कोई"-रामा० । थापा- संज्ञा, पु० दे० (हि. थाप) हाथ का थाति-थाती--- संज्ञा स्त्री० दे० (हि. थात) छापा, छापा, ढेर, राशि । धरोहर, अमानत, पंजी, धन । "थाती राखि थापित-वि० दे० (सं० स्थापित) स्थापित, न माँगेउ काऊ'-रामा० । प्रतिष्ठित, बैठाया गया। थान-संज्ञा पु० दे० (सं० स्थान) घर, जगह, । थापी-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि० थाप) चूने की ठौर, स्थान, ठिकाना, देवस्थान, घुड़साल, गच या कच्चा घड़ा पीटने की मुँगरी। कपड़े गोटे आदि का पूर्ण खंड, संख्या, थाम- संज्ञा, पु० दे० (सं० स्तम्भ) खम्भा, "बड़ो डील लखि पीलको, सबन तज्यो मस्तूल । बन-थान"-भू०। थामना-- स० क्रि० दे० (सं० स्तंभन) रोकना, थानक-संज्ञा पु० दे० ( हि० थान ) स्थान, । साधना, हाथ में लेना, पकड़ना, सहारा जगह, थाला। या सहायता देना, सँभालना, अपने ऊपर थाना-संवा पु० दे० (सं० स्थान) बैठने, लेना। टिकने आदि का स्थान, अड्डा. पुलिस की थायी*-वि० दे० ( सं० स्थायिन ) टिकाऊ, चौकी, “नन्द नन्द श्री कृष्ण चन्द गोकुल | दृढ़, स्थायी भाव । हुधा। For Private and Personal Use Only Page #875 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir थार, थारा, थाल, थाला थीर-थीरा थार, थारा, थाल, थाला-संज्ञा, पु० दे० थिर-वि० दे० (सं० स्थिर ) स्थिर, अटल, (सं० स्थालो ) बड़ी थाली या टाठी। अचल, स्थायी । · कमला थिर न रहीम "गजमोतिन-जुत सोभिजै, मरकत मणि के | कह।" थार ।" " थारा पर पारा पारावार यों हलत थिरक-संज्ञा, पु० (हि. थिरकना ) नाच में है"-भूष० । थारी-संज्ञा, स्त्री० यौ० चलते हुये पाँवों की चाल, मटकना । (सं० स्थाली) थाली। __ " थिरकि रिझाइबो'–रत्ना० ।। थारा -- सर्व० दे० यौ० (हि. तुम्हारा ) | थिरकना--अ० कि० दे० (सं० स्थिर-+ करण) तुम्हारा । संज्ञा, पु. (दे०) थाला। सर्व० नाच में पावों का उठाना, रखना, अंग मटका थारी (हि. तुम्हारी ) तुम्हारी संज्ञा, स्त्री० । कर नाचना । “पाँखुरी पदुम पै भँवर थिरथाली। कत हैं '"-श्रा० । थाला- संज्ञा, पु० दे० ( सं० स्थल ) थावला, | थिरकी--संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. थिरक ) नाच बालबाल । थाली--संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० स्थाली, थारी | में घूमने की रीति, चमत्कार विशेष । टाठी । मुहा०-थाली का बैगन-कभी | थिरकौंहा-- संज्ञा, पु. द. (हि. थिरकना) इधर कभी उधर हाने वाला। थिरकने वाला। थावर-संज्ञा, पु० दे० (सं० स्थावर) स्थावर, थिग्जीह-संज्ञा, पु० चौ० द० (सं० स्थिर --- पेड़, वृक्ष, अचर । यौ०-थावर-जंगम। । जिह्वा ) मीन, मछली । थाह-संज्ञा, स्त्री. ( सं० स्था) पानो की | शिरता-थिरताई-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० गहराई का अंदाज, कोई पदार्थ कितना और स्थिरता ) अचलता, स्थिरता, शांति । कहाँ तक है इसका पता लगाना, भेद । । शिरथानी-संज्ञा, पु. यौ० दे० (सं० स्थिर "चले थाह सी लेत"--- रामा० । स्थानिन ) स्थिर स्थान वाला । थाहना--स० क्रि० दे० (हि० थाह ) थाह | | थिरना-अ० कि० द. ( सं० स्थिर ) स्वच्छ लेना, पता था अंदाज़ लगाना । थाहरा*-वि० दे० ( हि० थाह ) छिछला, या निर्मल होना, शांत रहना, निथरना, कम गहरा। (प्रान्ती ) थिराना। थाहा-संज्ञा, स्त्री० दे० ( हि० थाह ) उथली थिरा-संज्ञा, स्त्री० द० (सं० स्थिरा) भूमि। नदी। थिराना-स० क्रि० दे० (हि. थिरना) चंचल थाही-संज्ञा, पु० दे० ( हि० थाह ) नदी का पानी को थिर होने देना, मैल श्रादि को उथला स्थान । नीचे बैठा कर पानी को साफ़ करना, निथाथिगरी-थिगली-संज्ञा, स्त्री० द० (हि. रना, स्थिर होना, बैठाना। अ० क्रि० ठहटिकली) पेद, चकती, कपड़े के छेद बंद रना, स्थिर होना । "घर न थिरात रीति करने की टीप।मुहा०-बादल (आकास) नेह की नयी नयी"-देव० । थिरुमें थिगली लगाना-अति कठिन काम | अ० क्रि० ( सं० स्थिर ) स्थिर हो, ठहरे । करना, असंभव बात या उपद्रव, करना। थित-वि० दे० (सं० स्थित ) रखा या ठहरा | थीता थीती-संज्ञा, पु०, स्त्री० दे० (सं० हुश्रा, स्थित, स्थापित ।। स्थित ) चैन, शांति, स्थिरता, धैर्य । "टेकु थिति-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० स्थिति) ठहराव, पियास बाँधु मन थीती"---पद० । ठहरने या रहने का स्थान, अवस्था, रक्षा, थीर-थोरा-वि० दे० ( सं० स्थिर) स्थिर, स्थिति । "जातें जग को होत है, उत्पति थिर, सुखी, प्रसन्न । “निज सुख बिनु मन स्थिति अरु नास"-के० । । होइ कि थीरा"--रामा० । For Private and Personal Use Only Page #876 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir थुकथुकाना थूहा थुकथुकाना-अ० क्रि० दे० (हि० थूकना) धिक्कार, छिः छिः । मुहा०-थूथू करनाबार बार थूकना। धिक्कारना। थुकहाई - संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. थूकना) थूक-संज्ञा, पु० द० ( अनु० थू थू ) मुँह का निंदनीय स्त्री। पानी तथा कफ़, खकार आदि । मुहा०थुकाना -- स० कि० दे० (हि. थूकना का प्रे० थूकों सत्त सानना-बहुत थोड़े सामान रूप) किसी के मुख से वस्तु बाहर गिरवाना से बड़ा काम करने चलना। या उगलवाना, निन्दा कराना, थुड़ी थुड़ी थूकना-अ० क्रि० दे० ( हि० थूक ) मुख से कराना। थक आदि का बाहर फेंकना। मुहा०थुक्का-फजीहत संज्ञा, श्री० द० यौ० ( हि० . किसी पर थूकना--बहुत ही तुच्छ जान थूक + फजीहत अ० ) बेइज्जती, तिरस्कार, कर ध्यान न देना, दोष लगाना, तिरस्कार मैं मैं, तू तू, थुड़ी थुड़ो, धिक्कार, झगड़ा, करना । थूक कर चाटना-कह कर शर्मिन्दा करना। फिर इंकार करना, दी हुई चीज को वापिस थुड़ी-संज्ञा, स्त्री० दे० (अनु० थू थू ) घृणा, ! लेना । स० कि० मुख की चीज़ को गिराना, अपमान,तिरस्कार और अनादर-सूचक शब्द। फेंकना या उगलना । मुहा०-थूक देना मुहा० -- थुड़ी थुड़ी करना (कराना)- (थूकना)-तिरस्कार कर देना, बुरा धिक्कारना या निन्दा करना ( कराना)। कहना, निन्दा करना, धिक्कारना । थुड़ी थुड़ी होना--निंदा होना। थूथड़-थूथड़ा-संज्ञा, पु. (दे०) शूकर आदि थुतकारना-थुथकारना-स० क्रि० (दे०) पशुओं का मुख । अपमानित कर निकालना या हटाना या थूथन-थूथना---संज्ञा, पु० (दे०) लम्बा और भगाना। निकला हुआ मुख । थुथना, थुथुना, थूथुन – संज्ञा, पु. (दे०) थूथुन-थूथुना - संज्ञा, पु० (दे०) शूकर, ऊँट निकला हुया लंबा मुँह । स्त्री० थुथुनी। जैसा लम्बा और निकला हुआ मुख । थुपनी-थुथुनी-संज्ञा, स्त्री० (दे०) सूकर का थून-थूनी-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० स्थूण) खम्भा, स्तंभ, टेक। थुशाना- अ. क्रि० (दे०) भौं या त्यौरी शून-संज्ञा, पु० दे० (सं० थूर्वण) पीटना, चढ़ाना, श्रोठ लटकाना। मार, कूचन। थुनीथूनी--संज्ञा, स्त्री० दे० (हि० थूनी) थूरना-थुरना-स० कि० दे० (सं० थूर्वण) थूनी, खम्भा, टेक। मारना, पीटना, कूटना, चूर्ण करना, हूँस थुरना-स० क्रि० दे० (सं० थूर्वण ) मारना, । ठूस कर भरना। पीटना, कुचलना, चूर्ण करना, हँस हँस थूल-थूना-वि० दे० (सं० स्थूल ) मोटा, कर भरना । " थुरिमद कंटक को दूरि करि भद्दा, मोटा-ताज़ा, भारी । (स्त्री० थूली)। यातें भूरि"-दीन। ' थूवा-संज्ञा, पु० दे० (सं० स्तूप) दूह, सीमाथुरहथा--वि० दे० यौ० (हि. थोड़ा + हाय) सूचक स्तूप, मिट्टी का लोंदा या पिंडा। जिपके हाथ में थोड़ी वस्तु भा सके। थूहड़-थूहर--संज्ञा, पु० दे० (सं० स्थूण ) " बहू थुरहथी जानि"-वि०। जिसके सेंहुड़, एक पेड़ जिसका दूध औषधि के हाथ छोटे हों । स्त्री० दे० थुरहथी। काम आता है। थू-अव्य० दे० (अनु० ) थूकने का शब्द, थूहा-संज्ञा, पु० दे० (सं० स्थूल) दूह, टीला, अपमान, तिरस्कार और घृणा-सूचक शब्द, अटाला । स्त्री० थूही। भा० श० को०-१०॥ For Private and Personal Use Only Page #877 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir थेई-थेई दंगा थेई-थेई-वि० दे० ( अनु० ) थिरक थिरक | थोथ-संज्ञा, स्त्री० (दे०) पेट की मोटाई । कर नाच में मुख से ताल । वि० थोथर (दे०)। थेगरी-थेगली-संज्ञा, स्त्री० दे० ( हि० थोथग - थोथला-वि०(दे०) खोखला, टिकली) पैबंद, थिगरी, थिगली। पोला, खाली, कुंठित, गुठला, निकम्मा। थेबा-संज्ञा, पु० (दे०) नग, नगीना। थोथा-वि० (दे०) पोला, खाली, खोखला, थेथर-वि० (दे०) थका, श्रमित । गुठला, गोठिला, कुंठित, निकम्मा, निस्सार । थेचा-संज्ञा, पु० (दे०) खेत के मचान का स्त्री. बाथी । "थोथो पोथी रह गई। छाजन । थोथी-संज्ञा, स्त्री० (दे०) निस्सार, व्यर्थ, थैथे-अव्य० (दे०) बाजा के अनुसार नाचने , खाली, पोली। में घुघुरू का शब्द। थोप-संज्ञा, पु० (दे०) पालकी के बाँस का थैया- संज्ञा, पु० (दे०) खेत के मचान का मुख, तोप, छाप, मुहर, भूषण । छप्पर । थेोपड़ी-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. थोपना) थैला-संज्ञा, पु० दे० (सं० स्थल ) बड़ा चपत थप्पड़, धौल, थोपरी। पाकट, बड़ा खीसा, रुपयों से भरा तोड़ा। थोपना-स० क्रि० ६० (सं० स्थापन ) स्त्री० अल्पा० थैली, थैलिया, (ग्रा.), छोपना, लेशना, मत्थे मढ़ना, लगाना, "तुरत देहुँ मैं थैली खोली"-रामा०। बचाना। मुहा०-थैली खोलना- थैली से निकाल । थोबड़ा, थोबरा-संज्ञा, पु० (दे०) पशुओं कर रुपया देना। ___ का थूथन, थोभरा (ग्रा०) । स्त्री० थोबरी, थोक-संज्ञा, पु० दे० ( सं० स्तोमक ) राशि, थोभरी। समूह, ढेर, झंड, गाँव का एक भाग। शेव, थोभ-संज्ञा, खी० (दे०) गाड़ी या थोड़-थोर---संज्ञा, पु० (दे०) पके केले का लढ़ी का टेकन । गाभा । वि० कम, न्यून. अल्प। थोर-थोरा-वि० दे० (हिं. थोड़ा, सं० थोड़ा-थोरा-वि० दे० (सं० स्तोक ) कम, | स्तोक ) रंचक, कम, घोड़ा, अल्प, न्यून । अल्प, न्यून, रंच । (स्त्री० थोड़ी, थोरी)। (स्त्री० अलगा थोरी)। यो० थोड़ा-बहुत-किसी कदर, कुछ कुछ। थोरिक--- वि० दे० (स्त्री० थोड़ा) थोड़ा सा। क्रि० वि० तनिक । मुहा०-थोड़ा ही नहीं थौना–संज्ञा, पु० (दे०) गौने के पीछे की -बिलकुल नहीं। बिदाई। थोतग - वि० (दे०)मोंथरा, कुंठित, गोठिला। थ्यावल-संज्ञा, पु० दे० (सं० स्थेयस) धैर्य, थेोती-संज्ञा, स्त्री० (दे०) थूथन, थूथुन। स्थिरता, धीरता, ठहराव । द-संस्कृत और हिन्दी की वर्णमाला के दंगई-वि० दे० (हि. दंगा ) झगड़ालू , तवर्ग का तीसरा अक्षर । संज्ञा, पु. ( सं०) बखेड़िया, उपद्रवी, उग्र, प्रचंड । पर्वत, दान, देने वाला, दानी। संज्ञा, स्त्री० दंगल-संज्ञा, पु० (फा० ) अखाड़ा, कुश्ती औरत । स्त्री. रता, खंडन ।। ___ या मल्लयुद्ध की भूमि, जमघट, जमाव, दंग-वि० ( फ़ा० ) चकित, अचंभित, मोटा गद्दा । विस्मित । संक्षा, पु. घबराहट, भय । दंगा-संज्ञा, पु० दे० (फा० दंगल ) झंझट, For Private and Personal Use Only Page #878 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org दंड ८६७ झगड़ा, उपद्रव, बखेड़ा, हुल्लड़, हलचल, इल्ला । यौ० दंगा-फसाद । दंड - संज्ञा, g० ( सं० ) सोंटा, दंडा, डंडा, छोटी लाठी, लाठी एक व्यायाम, एक प्रणाम, सज्ञा, जुरमाना, डाँड़, समय-विभाग (६० पल = १ दंड) | सुहा० - दंड भरना ( देना ) -- जुरमाना या, डाँड़ देना । दंड भोगना या भुगतना - सज्ञा अपने ऊपर लेना या काटना | दंड सहना - घटा सहना । डेका बाँस । डाँड़ी या तराज़ू चम्मच आदि की डंडी । चार हाथ की लंबाई । घड़ी | दंड यतिन कर भेद नहँ " नर्तक नृत्य समाज - रामा० । दंडक – संज्ञा, पु० (सं०) डंडा, दंड देने घाला, एक छंद-भेद ( पिं० ) एक वन, दंडकारण्य. एक दंड ( ६० दंड १ घड़ी) दंडक मैं कीन्ह्यो काल काल हू कौ मान खंड " – के० राम० । 46 66 दंडकला - संज्ञा स्त्री० (सं०) एक छंद । दंडकारण्य - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) एक वन, दंडकवन । दंड- दास - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) जो जुरमाना म देने से दास हुआ हो । दंडधर, दंडधारी - पंज्ञा, पु० यौ (सं० ) यमराज, संन्यासी । -- दंडन - संज्ञा, पु० (सं०) दंड देने का कार्य्यं । शासन | वि० दंडनीय, दंड्य, दंडित । दंडना - स० क्रि० दे० ( सं० दंडन ) दंड या सज्ञा देना, डाँड लेना । दंडनायक - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) राजा, शासक, सजा देने वाला, सेनापति, यम । दंडनीति- संज्ञा, त्रो० यौ० (सं०) राजनीति, क़ानून, धार विद्याथों में से एक " श्रन्वी क्षिकी, त्रयी, वार्त्ता, दंडनीतिश्च शाश्वती । एता विद्याश्चतस्रस्तु लोकं संस्थिति हेतवाः रघु० टी० । दंडनीय - वि० (सं०) दंड देने या पाने 35 Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir दंतधावन योग्य | "दंडनीय सोइ जो विरुद्ध नीति के करै ” – मन्ना० | दंडपाणि– संज्ञा, पु० यौ० (सं०) यमराज, भैरव, जिसके हाथ में दंड रहे । दंडप्रणाम - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) आदरार्थ नमस्कार, दंडवत्, अभिवादन । दंडवत् - संज्ञा, स्त्री० (सं०) डंडे के समान भूमि पर लेट कर किया गया नमस्कार, साष्टांग प्रणाम, दंडौत (दे० ) । दंडविधि - संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं० ) अपराध सम्बन्धी नियम या व्यवस्था, राजनीति, कानून, दंड विधान, दंड व्यवस्था । दंडायमान - - वि० (सं०) सीधा खड़ा, खड़ा । दंडालय - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) न्यायालय, कचहरी, प्रदालन | दंडान्वय- संज्ञा, पु० यौ० (सं०) पूर्ण और सूम सीधा श्रन्वय । दंडिका - संज्ञा, स्त्री० (सं०) एक वर्ण वृत्ति । छोटा दंडा, दंडी डंडी ( ग्रा० ) । दंडित - वि० पु० (सं० ) दंड प्राप्त, सजायाता, दंड पाया हुआ । | दंडी - संज्ञा, पु० ( सं० दंडिन् ) दंड धारण करने वाला, यमराज. राजा द्वारपाल, संन्यासी, शिव जी, जिनदेव, संस्कृत में काव्यादर्श और दशकुमार रचयिता एक कवि, चरित । दंड्य - वि० (सं० ) दंड पाने के योग्य | दंत - संज्ञा, पु० (सं० ) दाँत, दशन, रद । दंतकथा - संज्ञा, स्त्रो० यौ० (सं० ) पुष्ठ प्रमाण - रहित बात जो सुनी जाती हो, परंपरागत बात | दंतच्छद --संज्ञा, पु० यौ० (सं०) श्रठ, श्रोष्ठ । दंतत - संज्ञा, पु० दे० यौ० (सं० दंतक्षत ) दाँतों से काटने का घाव । कंत दंतछत "6 जानि ” मति० । दंतधावन -- संज्ञा, पु० यौ० (सं०) दातौन, दातून, दतून, दतुइन (ग्रा० ) । For Private and Personal Use Only Page #879 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - दंतबीज ८६८ दंष्ट्राविष दंतबीज-संज्ञा, पु. यौ० (सं०) अनार। दंपास-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. दमकना ) दंतमंजन-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) दाँत माँजने बिजली। का चूर्ण। दंभ-दभान - संज्ञा. पु० (सं०) पाखंड, घमंड। दंतमूलीय-वि० (सं०) जो वर्ण दाँतों की वि. दंभी “ हौं जो कहत लै मिलो जड़ से बोले जायें, जैसे त वर्ग, ल, स। जानकिहि छाँड़ि सबै दंभान”–सूर० । दंतायुध-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) सुवर, सुश्रर। दंभी-वि० दे० ( सं० दंभिन् ) पाखंडी. दंतार-दंतारा-वि० दे० ( हि० दंत ) बड़े आडम्बरी, घमंडी।'' जनु दभिन कर जुरा दाँतों वाला। संज्ञा, पु० दे० हाथी। समाजा"-रामा० ।। दतियाँ-संज्ञा, स्त्री० दे० ( हि० दंत-+इयां- दभोलि-संज्ञा, पु. (सं०) इन्द्र का अस्त्र. प्रत्य०) छोटे छोटे दाँत जो प्रथम जमते हैं। वज्र, अशनि। " लोगइ निहारै भई दुइ दुइ दतियाँ" दवरी--संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० दमन, हि. -दीन। दाँवना ) बैलों से अनाज के सूखे पौधे पिसदंती-संज्ञा, स्त्री० (सं०) एक औषधि ( लघु, । - वाना, रौंदाना, दाँप चलाना (ग्रा.)। वृहदंती) संज्ञा, पु० (सं० दंतिन् ) हाथी । । वारि-दवारि-दवारी--- संज्ञा, स्त्री० दे० (सं• दावाग्नि ) दावाग्नि, वन की श्राग दंतुरिया-दंतुलिया संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० दत+ इया प्रत्य० ) छोटे छोटे दाँत । “फूले देखि पलाश वन समुहें समुझि वारि"--वि०। जो प्रथम जमते हैं । " लटके लटुरियाँ त्यों दमकै दैतुरियाँ हू"-मन्ना। दंश-संज्ञा, पु० (सं०) दाँतों से काटने का घाव, दंतनत, काटना, दाँत, विषैले कीड़ों दंतला--वि० दे० (सं० दंतुर ) बड़े दाँतों का डंक, डाँस (वन-मकवी) “ दंशस्तु वाला । स्त्री० दंतुली। वन मक्षिका"-अम० । “दश निवारणीश्वदंतोश्य-वि. यौ० (सं०) वह वर्ण जो दाँत रघु०" " मसक, देश बीते हिम-त्रासा" और पोष्ठ से बोले जावे-जैसे व। -रामा०। दत्य-वि० (सं०) दाँत से उच्चरित वर्ण दंशक---संज्ञा, पु० (स०) काटने वाला, दाँत जैसे-- तवर्ग, ल "स"। से काटने वाला, छोटा डाँस । दंद-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० दहन ) गरमी. दंशन-संज्ञा, पु० (सं०) काटना, डसना, उष्णता । संज्ञा, पु० दे० (सं० द्वद) उपद्रव, दाँत से काटना, वर्म, कवच । ( वि० लड़ाई, झगड़ा। " को न सहै दुख दंद" दंशित, दंशी)। -गिर० । दशित-वि० (सं०) काटा या डसा हुश्रा, दंदाना-संज्ञा, पु. ( फा० ) दाँतों की पंक्ति ! खंडित, दाँत काटा । वि० दंशनीय । जैसा पदार्थ, जैसे कंधी या भारी। ( वि० देशी-वि० (सं०) काटने या डंसने वाला, दंदानेदार )। । आक्षेप-युक्त बोलने वाला, द्वेषी। संज्ञा, दंदानेदार-- वि० (फा०) दाँतों से ऊँचे नीचे स्त्री. (अल्पा०) छोटा डाँस, डाँसिनी (दे०)। किनारे वाली वस्तु । दंष्ट्र-संज्ञा, पु० (सं०) दाँत । "दंष्ट्रा-मयूखै दंदी-वि० दे० (हि. दंद ) लड़ाका, शकलानि कुर्वति"- रधु० । उपद्रवी, बखेडिया, झगड़ालू । दंष्ट्रा-संज्ञा, स्त्री० (सं०) दाढ़ें, बड़े दाँत । दंपति-दंपती- संज्ञा, पु० (सं०) स्त्री-पुरुष, दंष्ट्राविष- संज्ञा, पु० यौ० (सं०) विषैले दाँत नरनारी, पति-पत्नी का जोड़ा। __ वाले जीव-जंतु । जैसे--साँप । भावाल For Private and Personal Use Only Page #880 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir दंष्ट्रो दखीलकार दंष्ट्रो-वि० (सं०) बड़े और हानिप्रद दाँत- प्रवीण, निपुण | संज्ञा, पु. (सं०) चतुर वाले जीव जंतु, हाथी, शूकर, सर्प, बाघ नायक, प्रदक्षिणा, तंत्र का एक मार्ग । श्रादि। (विलो० --- वाममार्ग )। दम-संज्ञा, पु० दे० ( सं० दंश ) डाँस, डॅसा दक्षिणा- सज्ञा, स्त्री० (सं०) दक्षिण दिशा, (दे०)। "मसक-दंग बीते हिम-त्रासा" दान, पुरस्कार या भेट, चतुर नायका दछिना, -रामा०। दचिना । यौ० दान-दक्षिणा । दइत-संज्ञा, पु० दे० (सं० दैत्य) दैत्य, दानव, दक्षिणापथ-- संज्ञा, पु. यौ० (सं०) बिन्ध्यादैत ( ग्रा०)। चल पहाड़ के दक्षिण का वह भाग जहाँ से दई, दइव, देव-संज्ञा, पु० दे० ( सं० देव ) । दक्षिण भारत को मार्ग जाते हैं। ईश्वर, ब्रह्मा विष्णु, शिव । संज्ञा, पु. ( सं० । दक्षिणायन--वि० यौ० (सं०) भूमध्य रेखा देव) भाग्य, कर्म, दइया ( ग्रा० )। “दई । से दक्षिण की ओर, जैसे दक्षिणायन सूर्य, दई क्यों करत है "- वि० । स० कि० दे० छै महीने का समय जब सूर्य की किरणें ( हि० देना ) दी। "दई दई सुकबूल" दक्षिणीय गोलार्द्ध में सीधी पड़ती हैं। -- वि० । मुहा: ----दई का घाला- दक्षिणावर्त - वि० यौ० (सं०) दक्षिण देश भाग्य का मारा, अभागा । दई दई-हे देव. ! का, दाहिनी ओर को घूमा हुअा। संज्ञा, पु. देव रक्षा करो। प्रारब्ध, अदृष्ट, संयोग से। दाहिनी ओर को घूमा हुथा शंख । दईमारा-वि. यौ० दे० (हि० दई + मारना) । दक्षिणी, दत्तिणीय-संज्ञा, स्त्री० (सं०) प्रभागा, भाग्य-हीन । स्त्री० ईमारी। दक्षिण देश की भाषा । संज्ञा, पु. दक्षिण दक-संज्ञा, पु० (सं०) पानी, जल, उदक। देश वासी। वि. दक्षिण देश सम्बन्धी. दकीका-संज्ञा, पु. ( ग्र०) उपाय, यक्ति, दक्षिणा के योग्य ! बारीक बात । महा0---कोई दकीका दखन, दखिन, वछिन-संज्ञा, पु० दे० (सं० बाकी न रखना-कोई युक्ति या उपाय दक्षिण) दक्टिन दक्षिण दिशा। “देखि शेष न रखना. सब कर चुकना । दखिन दिसि हय हिहिनाही' रामा० । दक्खिन-संज्ञा, पु० दे० (सं० दक्षिणा) एक । दखनी, दखिनी, दछिनी-वि० (सं० दिशा । किवि दक्षिण दिशा की ओर दक्षिणी) दक्षिण-वावी. दक्षिण देश का। दक्षिणीय भारत । " दक्खिन जीति लियो ! दखमा-संज्ञा, पु० (दे०) पारसी लोगों के दल के बल"-भू०। मृतक के रखने का स्थान । दक्खिनी-वि० दे० (सं० दक्षिणीय दकिवन दखल - सज्ञा, पु० (अ०) प्रवेश, अधिकार, हाथ डालना, पहुँच । देश का, दक्खिन का। संज्ञा, पु. दक्खिन दखिनहा, दक्खिनिहा- वि० दे० (हि. देश-वापी दक्षिण-संबंधी। दक्खिन -। हा प्रत्य०) दक्षिण का, दक्षिणी । दत्त, दच्छ (दे०)-वि० (सं०) चतुर, प्रवीण दरवीना - संज्ञा. पु० दे० (सं० दक्षिणा) दक्षिण कुशल, निपुण, दाहिना । संज्ञा, पु० एक से अाने वाली वायु । "प्रीतम बिन सुन री प्रजा-पात, त्रिमुनि, महेश्वर शिव-ससुर । । सखी. दखिना मोहि न सहाय"-मन्ना। दक्षकन्या- संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) सती। दखिल-वि० [अ०) अधिकारी, दखल, दक्षता-संज्ञा, स्त्री० (सं०) चातुय्य, निपु- कबजा वाला। णता, कुशलता, योग्यता। - दखीलकार-- संज्ञा, पु. (अ० दखिल -- फा० दत्तिण-वि० सं०) दाहिना, अनुकूल, एक कार) किसी भूमि को कम से कम बारह वर्ष दिशा, दच्छिन, दक्खिन, दछिन--चतुर, तक अपने आधीन रखने वाला किसान । For Private and Personal Use Only Page #881 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org दगड़ दगड़ - संज्ञा, पु० (दे०) बड़ा ढोल या नगाड़ा (युद्ध में) । ८७० दगड़ाना - स० क्रि० (दे०) डगराना, दौड़ना | दगदगा – संज्ञा, पु० ( प्र०) संदेह, चिन्ता, खटका, डर, भय, एक लालटेन या कंडील | दगदगाना - ० क्रि० दे० (हि० दगना) चमकना, प्रकाशित होना, दमदमाना । क्रि० स० (दे०) चमकाना, दमकाना । दगदगाहर—संज्ञा, स्त्री० दे० हि० दगदगाना) चमक, चमत्कार, प्रकाश । दगदगी – संज्ञा, त्रो० दे० (अ० दगदगा) संदेह, चिन्ता, खटका, डर, भय । दगध-संज्ञा, पु० दे० (सं० दग्ध) जला हुआ, दुग्ध ( सं ० ) । द्गधना - ० क्रि० दे० (दग्ध ) जलना । स० क्रि० (दे० ) जलाना, दुख देना । दगना - अ० क्रि० दे० (सं० दग्ध + ना -- प्रत्य० ) तोप या बंदूक यादि का छूटना चलना, जलना, झुलस जाना दागा जाना, विख्यात होना | स० क्रि० चल्लाना, छुटाना, जलाना, झुलसाना । दगर, दगरा -- संज्ञा, पु० (दे०) विलंब, देरी, रास्ता, राह, पंथ, मार्ग, डगर, डहर (ग्रा० ) | दगल, दगना - संज्ञा, पु० (दे०) मोटे कपड़े का बना या रुई भरा बड़ा अँगरखा, भारी लबादा, श्रोवर या बरान कोट-- "राम जी | के सोहे केसरिया दगला सिय जी के पचरँग चीर” – स्फु० । दगल फसल – संज्ञा, पु० (दे०) धोखा, छल, दुगा, फरेब | foot-co वाला | वि० (हि० दगना + हा प्रत्य०) दागा या जलाया हुआ । दगा -- संज्ञा, त्रो० (०) धोखा, छल, कपट । दगादार - वि० ( फा० ) दगाबाज़, छली कपटी | " एरे दगादार मेरे पातक प्रपार तोंहि" - पद्मा० । | दगाबाज़ - वि० ( फा० ) दगादार छली, कपटी ! दगाबाज़ी - संज्ञा, स्त्री० ( फा० ) धोखा, छल । दगैल वि० दे० ( ० दाग़ + ऐल - प्रत्य० ) दागी, दागवाला, दोष, बुराई या खोट-युक्त। दग्ध - वि० (सं०) जला या जलाया हुआ. दुखी, कष्ट प्राप्त । दगवाना- - स० क्रि० दे० (हि० दागना का प्रे० रूप) किसी दूसरे से तोप, बंदूक आदि चलवाना या छुड़वाना, गर्म वस्तु से देह पर जलवाना ! दगहा - वि० दे० ( हि० दाग ) जिसकी देह में कहीं दाग़ हो, दाग़ वाला। दागी (दे० ) । वि० (हि० दाह मृतक संस्कार + हा प्रत्य ० ) मृतक संस्कार करने वाला, मुर्दा जलाने 1= Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir दग्धा - संज्ञा, स्त्री० (सं०) जली या जलायी हुई, दुखिया, पश्चिम दिशा अशुभ तिथियाँ । दग्धाक्षर -- संज्ञा, पु० (सं०) झ ह, र, भ और प पाँचों व जिनका छंद के आदि में लाना वर्जित है ( पिं० ) । दग्धिका - संज्ञा, स्त्री० (सं०) जला या भूना अन्न या भात | दग्धोदर - वि० यौ० (सं० दग्ध + उदर) भूखा पेट या भूख का मारा, क्षुधार्त्त | संज्ञा, पु० (सं०) खाने की इच्छा । संज्ञा, पु० (दे०) त्याग हिंसा, नाश । दनक दत्रका संज्ञा, खो० दे० ( अनु० ) ठोकर, धक्का, दबाव, झटका, ठेस । दक्कना - अ० क्रि० दे० (अनु०) दब जाना, धक्का या झटका खाना ठोकर लगना । " उचकि चलत कपि दचकनि दचकत मंच ऐसे मचकत भूतल के थल थल - राम० । दवना- अ० क्रि० दे० (अन० ) गिरना, पड़ना । दन्छ - संज्ञा, पु० दे० ( सं० दक्ष ) प्रवीण, चतुर, एक प्रजापति । दच्छकन्या, दन्छ- कुमारी, दच्छ सुतासंज्ञा, त्रो० यौ० दे० (सं० दक्षकन्या- दक्ष कुमारी ) सती जी । दच्चिन-दछिन वि० दे० (सं० दक्षिण) एक दिशा, अनुकूल, सीधा, दाहिना, दखिन । दविन पवन बह धीरे” " विद्या० । For Private and Personal Use Only *** Page #882 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org दच्छिना-दविना दच्किना दकिना - संज्ञा, त्रो० (सं० दक्षिण) दान, भेंट। यौ० - दान दच्छिना । दटना - अ० क्रि० दे० (सं० स्थातृ ) डटना, धीरता से सामना करना, अड़ना, खड़ा रहना, पीछे न हटना, काम में लगना । दड़कना - ० क्रि० दे० ( हि० दरकना ) दरकना, फटना, चिरना । ! ८७१ बड़ेरा-दरेरा -संज्ञा, पु० (दे० ) प्रचंड, झड़ी या वृष्टि, धक्का. रगड़, दरेरा (ग्रा० ) । दड़ो कना - दड़ौकना -- ० क्रि० दे० ( हि० डौंकना) गरजना, दहाड़ना, डाँटना, फटकारना । ददमुंडा - दढमुड़ा - वि० (दे०) दादी रहित, जिसकी दादी मुड़ गई हो । ददियन्त डढ़ियल - वि० दे० (हि० दाढ़ी + इयल - प्रत्य० ) जो दाढ़ी रखे हो, दादी वाला । दतना ० क्रि० (दे०) डटना, सामना करना, किसी काम में लग जाना । दतवन - संज्ञा, खो० ३० (हि० दाँत + वन ) दवन (दे०), दतून, दतुन, दतौन दर्शन (ग्रा० ), दन्तधावनी । "" दतारा - वि० दे० (हि० दाँत + हारा ) दाँतों बाला, तैला (ग्रा० ) । दतिया-दलिया-संज्ञा, त्रो० द० ( हि० दांत का स्त्री अल्पा० ) छोटा दाँत । “घुघुरारी झलकें दतिया --क० रामा० । तुमन, दतुवन, दतून, दतौन-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि० दाँत + भवन - प्रत्य० ) दातौन, वह लकड़ी जिसकी कूची से दाँत साफ़ किये जाते हैं। | दवनाशिनी दत्तात्मा - संज्ञा, पु० यौ० (सं० दत्तात्मन् ) स्वतः किसी का दत्तक पुत्र होने वाला लड़का । दत्तात्रेय - संज्ञा, पु० (सं०) एक प्रसिद्ध ऋषि । दत्तोपनिषद् - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) एक उपनिषद | दत्रिन - संज्ञा, पु० (सं०) दत्तक, गृहीत या दिया हुआ पुत्र | बैठाना | वि० (सं०) दिया हुआ । 1 दत्तक - संज्ञा, पु० (सं०) गोद लिया हुआ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ! ददन - संज्ञा, पु० (सं० दद् + अनट् ) दान देना, देना, त्याग देना । ददग - संज्ञा, पु० दे० ( सं० ददु हि० दाद ) खुजलाने श्रादि से देह पर सूजन, दरोरा, चकत्ता, चकता, चकती, दोरा (ग्रा० ), स्त्री० ददरी | ददी क्षेत्र - संज्ञा, पु० (हि० ददरी + चैत्र सं०) भृगुमुनि का स्थान | ददलाना - स० क्रि० (दे०) डाँटना, फटकारना, साँसना | ददा-दादा -संज्ञा, पु० दे० (सं० ताल ) बाप का बाप, पितामह, श्राज्ञा, बड़ा भाई, गुरु जनों का यादर- सूचक शब्द । स्त्री० ददी, दादी ददियोग-संज्ञा, पु० दे० यौ० ( सं० दादा + आलय) ददिहाला या दादी का मायका । ददियाल - ददिहाल - संज्ञा, पु० दे० यौ० ( हि० दादा + आलय ) दादा का घर या वंश, दादी का वंश या मायका । ददिया समुर – संज्ञा, पु० यौ० ( हि० दादा + ससुर ) स्त्री या पुरुष का दादा, श्रजियाससुर, ससुर का बाप । त्रो० ददिया सासु- ददिया ससुर की स्त्री, अजिया सासु । दे० (सं० ददु पड़ा देह पर दतूना - संज्ञा, पु० (दे०) एक पौधा । दस - संज्ञा, पु० (सं०) दत्तात्रेय, नौ वासुदेवों | ददौड़ा-ददोरा - संज्ञा, पु० में से एक (जैन०), दान, दत्तक । यौ०- हि० दाद) खुजाने आदि से दत्त-विधान - दत्तक पुत्र लेना, गोद लेना, चकता या सूजन । दद्रु - दद्दू - संज्ञा, पु० (सं०) दाद रोग । यौ० दरोग | पुत्र, मुतवन्ना (फ़्रा) । ददुन - संज्ञा, पु० (सं०) चकवड़ पौधा । दत्तचित्त - वि० यौ० (स० ) किसी काम में ददुनाशक - संज्ञा, पु० (सं०) चकवड़ पौधा । पूर्ण रूप से मन लगाना । ददुनाशिनी - संज्ञा, स्त्री० (सं०) तैलनी क्रीड़ा। For Private and Personal Use Only Page #883 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir . ८७२ दफ़्तरी दध-संज्ञा, पु० दे० (सं० दधि) दही, दनुजदलनी- संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) दुर्गा जी समुद्र, वस्त्र। दनुजराय-संज्ञा, पु० यौ० ( सं० दनुजराज ) दधसार-संज्ञा, पु० दे० (सं० दघिसार ) दानवों का राजा हिरण्यकशिपु । मक्खन, नवनीत, माखन । दनुजेन्द्र - संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) रावण । दधि-संज्ञा, पु० (सं०) दही, कपड़ा। संज्ञा, दन्न-संज्ञा, पु० द० ( अनु० ) तोप बन्दूक पु० दे० (सं० उदधि ) समुद्र । श्रादि के छूटने का शब्द । संज्ञा, पु. दन्नाटा । दधिकाँदो-~-संज्ञा, पु० दे० यौ० (सं०) एक क्रि० वि० दन्नाटे से-बेधड़क, जल्दी से । उत्सव. जब हलदो मिला दही लोगों पर दपट-दपेट-संज्ञा, स्त्री० दे० ( हिं० दपटना) डालते हैं। दौड़, झपट, डाँट, धमकी, घुड़की। दधिजात-संज्ञा, पु. यौ० (सं०) मक्खन, दपटना--अ० क्रि० दे० ( अनु०) झपटना, संज्ञा, पु. ( सं० उदधि - जात) चन्द्रमा, दौड़ना, डाँटना, घुड कना, उपटना । दधि-सुत । दपदपाना -- अ. क्रि० (दे०) चमकना, दधिमुख- संज्ञा, पु. यौ० (सं०) लड़का, शाभित होना, दमकना। बालक, राम की सेना का एक वानर । दपु-द प- संज्ञा, पु. दे. (सं० दर्प ) दर्प, दधिबल-संज्ञा, पु० (सं०) सुग्रीव का पुत्र ।। शेखो. अहँकार, दाप (दे०)। दधिरिपु-संज्ञा, पु० यौ० ( स० उदधिरिषु ) दाचासुदपेटना-- स० कि० द० (हि० दपेट) दौड़ना, अगस्त्य मुनि । झपटना, रपेटना (दे०)। दधिलार--सज्ञा, पु० यौ० (सं०) मक्खन ।। दफ़तर- संज्ञा, पु. द. (अ. दफ्तर) संज्ञा, पु० ( स० उदधिसार ) चन्द्रमा। ग्राफिप, (अ०) कचहरी : संज्ञा, पु. दफ़तरी। दधिसुत-संज्ञा, पु० यौ० (सं० उदधिपुत ) दफती --संज्ञा, स्त्री० (प्र० दफ़्तीन ) गाता, चन्द्रमा, मोती, विष, जालंधर दैत्य । सज्ञा, वसली। पु. (स०) मक्खन, नवनीत । दफन-संज्ञा, पु. ( अ० ) मृतक को ज़मीन दधिसुता-संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं० उदधिपुता) में गाइना। लघमी, सीप । दनाना-स० कि० (अ० दफ़न+पाना ) दधिस्नेह - संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) दही मृतक को जमीन में गाड़ना, दबाना । की मलाई। दफ़ा-संज्ञा, स्त्री० (म० दफ़न) वार, बेर, दधिस्वेद- संज्ञा, पु० यौ० (सं०) छाँछ, क्लास (अं०) दरजा, कता, श्रेणी, धारा तक्र, मट्टा, मही (ग्रा०)। दधीच-दधोचि-- संज्ञा, पु० (सं०) एक ऋषि | ( कानून की)। मुहा०-दफा लगाना जिनकी हड्डियों से वन आदि बने थे। -- जुर्म लगाना, अपराध स्थिर करना । वि. दनदनाना-अ० क्रि० दे० ( अनु० ) दनदन (अ०) तिरस्कृत, दूर किया या हटाया हुआ । शब्द करना, खुश करना, गमाना । दफादार-सज्ञा, पु. (अ. दफ़न+फा. दनादन-क्रि० वि० दे० (अनु० ) दन दन । दार ) सेना के एक भाग का सरदार या शब्द के साथ, खुशी से, लगातार । अफसर। दनु-सज्ञा, स्त्री. (सं०) करयप की स्त्री दफीना-संज्ञा, पु० (अ०) गड़ा हुश्रा खजाना, जिसके चालीप पुत्र हुए और सब दानव कहा। काप या धन । दनुज-सज्ञा, पु. ( सं० ) दानव, दैत्य । दफ़्तर-संज्ञा, पु. (फा०) आफिस (अं०) "देव, दनुज धरि मनुज-सरोरा'-रामा० । कचहरी, दादर (मा.)। दनुजद्विष-संज्ञा, पु० यो०(स०) देवता, विष्णु। दफ्तरी-सज्ञा, पु. (फा०) जिल्दसाज़ दनुजार-सज्ञा, पु० यौ० (स०, देवता, विष्णु जिन्दबन्द, दस्तर का सिपाही या चौकीदार। For Private and Personal Use Only Page #884 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ८७३ दबीज दबंग-वि० दे० (हि० दबाव या दवाना) दवधाना-स० कि० (हि० दबना का प्रे० रूप) प्रभावशाली, प्रतापी, दबाववाला, निडर, दबाने का कार्य दूसरे से कराना, दबाना। संज्ञा स्त्री० दबंगी। दवा-संज्ञा, पु० (दे०) दाँव-पेंच, घात स्त्री. दवक-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि० दबकना) दबने । (दे०) औषधि । पा छिपने की क्रिया या भाव, सिकुड़न । । दबाई, दवाई -- संज्ञा, स्त्री० दे० (हि० दवा) दबकगर-संज्ञा, पु० दे० (हि० दबक+गर) औषधि । " पाती कौन रोग की पठावत दवका या तार बनानेवाला, दबकैया। दबाई हैं "रत्ना० । संज्ञा, स्त्री० (हि. दबकना-अ० क्रि० दे० (हि० दवाना) डर से दवाना ) मँडाई, दवाने की क्रिया। छिपना, लुकना, (ग्रा०) डाँटना । स० कि० दवाऊ-वि० दे० (हि० दबाना) दब्बू, दबाने स्थौड़े से पीट कर धातु को बढ़ाना, "दबकि वाला, गाड़ी आदि के अगले भाग में अधिक एबोरे एक वारिधि में बोरे एक"। बोझा होना, (विलो० उलार)। दबका-संज्ञा, पु० दे० (हि० दवकना=तार दवाना-स० क्रि० दे० ( सं० दमन ) सब मादि पीटना) सुनहला तार। थोरों से दबाव डालना, रुई श्रादि दबकाना-स० क्रि० (हि० दबकना) छिपाना, | वस्तुओं पर उन्हें सिमटाने या सिको. झुकाना, दुराना, (ब०) श्रोट में करना। ड़ने को भारी पत्थर रखना या इधर उधर दबकी-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि० दबकना) दाँव- न हट सकने को किसी वस्तु पर किली भोर पेंच, छिपाव, एक मिट्टी का पात्र । से बहुत बल लगाना, पीछे हटाना, पृथ्वी सबकीला-दबकैला-वि० दे० (हि० दबक+ में गाड़ना या दफ़नाना, किसी पर इतनी ईला, ऐला-प्रत्य०) दबा हुआ, परतंत्र। धाक जमाना कि वह कुछ बोल न सके, बल दबकैया-संज्ञा, पु० दे० (हि० दबक + ऐया पूर्वक विवश करना, दूसरे को हरा देना, प्रत्य०) तार बनाने वाला, दबकगर । वि० | किसी बात को उठने और फैलने न देना, शंटने या छिपने वाला। दमन या शान्त करना, किसी दूसरे की वस्तु दुबगर-संज्ञा, पु० (दे०) ढाल या कुप्पे अन्याय से ले लेना, झोंके से चल कर पकड़ बनाने वाला। लेना, किसी को असहाय, विवश और दीन दबदबा-संज्ञा, पु. (अ० दबाव) रोब, दाब ।। कर देना । संज्ञा, दाब, दबाव । स्वना-क्रि० अ० दे० (सं० दमन) बोझे या दवा मारना-स० कि० दे० (हि. दबाना) भार के नीचे थाना या पड़ना, पीछे हटना, कुचल कर मार डालना, पराधीन को दुख विवश होना, तुलना में ठीक न होना, उभड़ देना। सकना, शांत रहना, धीमा पड़ना, सिकु. दवा लेना--स० कि० दे० यौ० (हि० दबाना) बना।मुहा०-(हाथ)दबा होना-खर्च के | अपने श्राधीन या वश करना, छीन लेना, लिये रुपये की कमी होना। दबे हाथ खर्च किसी के धनादि को बलात् अन्याय से करना कम खर्च करना । मुहा०-दबी ले लेना, दबा बैठना। अपान से कहना-ठीक ठीक या स्पष्ट न दबाव-संज्ञा, पु० (हि० दबाना) दबाने का पहना, धीरे धीरे कहना, झपना, संकोच | कार्य या भाव, चाँप, रोब, प्रभाव, धाक, करना। दबे होना-किसी के वश या आतंक, बोझा, भार। बाधीन होना। यौ०-दबे पैर-धीमे दबीज-वि० (फा०) गादा, मोटा, संगीन, क्या चुपचाप चलना। । मोटे दल का, डबीज (दे०)। मा.श.को०-१० For Private and Personal Use Only Page #885 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir दबीला ९७४ दबीला-वि० दे० (हि. दबाना) एक औषधि, । को चढ़ाना। दम घुटना-हवा की कमी से प्रभाव या आतंक वाला, रोबीला। साँस रुकना । दम घोंट कर मरना-गला दबे-पांच-कि० वि० (दे०) हौले हौले, धीरे | दबा कर मरना, बहुत कष्ट होना। दम धीरे, धीमे धीमे, शनैः शनैः, चुपके से। तोड़ना (छोड़ना)-पाखिरी साँस लेना। दबैल-दबैला-वि० दे० (हि. दबाना+ऐल दम फूलना-पेट में दम न समाना, साँस या ऐला-प्रत्य०) दबा हुआ, प्राधीन, परतंत्र, जल्दी जल्दी चलना, हाँफना, दमे के रोग विवश, दब्बू । का दौरा होना । दमभरना-किसी के प्रेम दबोचना-स. क्रि० दे० (हि. दबाना) या स्नेह या मित्रता थादि का पूरा भरोसा किसी को एक बारगी अचानक दवा लेना, रखना, घमंड से बखान करना, मेहनत से धर दबाना, छिपाना। थक जाना, श्रासन मृत्यु होना ।दम मारना दबोरना-क्रि० स० दे० (हि० दवाना) । -विश्राम वा धाराम करना, सुस्ताना, दबाना, अपने सामने ठहरने या बोलने न बोलना या कुछ कहना, स्वास को प्राणायाम देना। से वश में करना, ची चूँ करना। दमलेना दबोस-क्रि० स० (दे०) चकमक पत्थर। -विश्राम या धाराम करना, सुस्ताना। बोसना-स. क्रि० (दे०) चूंट घुट मदिरा दम साधना (रोकना)-साँस की चाल पोना। रोकना, चुप या मौन रहना, नशे के लिये दभ्र-वि० (सं०) थोड़ा, अल्प, कम । साँस के साथ मादक धुआँ खींचना । मुहा० दमकना-अ० कि० दे० (हि. चमकना) -दम मारना या लगाना-चिलम में चमकना । “से प्रभु जनु दामिनी दमंका" | चरस आदि रख कर उसका धुआँ खींचना । -रामा। बाहर को ज़ोर से साँस फेंकना या फूंकना । दम-संज्ञा, पु० (सं०) सज़ा, इन्द्रियों और | एक बार में साँस लेने का समय, पल, जैसे मन को रोकना, कीच, मकान, बुद्ध, विष्णु, । हर दम। क्रि० वि० एकदम से-एक बारगी, दबाव, दमन । संज्ञा, पु० (फ़ा०) साँस, एक अकस्मात, एक बार में ही पूर्ण । मुहा०स्वास-रोग । मुहा०-दम में दम होना दमके दम में-थोड़ी देर में पल या, क्षणभर (दम रहना या होना)-स्वास चलना, में । दम देना-थोड़ा समय शान्त और तैयार जीवित रहना, साहस या शक्ति रहना, होने को देना, "अरे छोटे कैदी तू दे दम "नहिं दूंगा जानकी जब लौं दम में दम मुझे।"-दम पर दम (दम दम पर)है।'-नाक में दम होना, रहना थोडी थोड़ी देर में प्राण, जीव, जान, जी। ( करना )-बड़ी श्राफत या दिक्कत | मुहा०-दम सूखना-मारे डर के साँस ( कठिनाई ) होना ( करना) हैरान या तक न लेना, प्राण सूखना। दम नाक में या परेशान होना या करना । नाक में नाक में दम आना-बहुत दिक या तंग दम रहना-हैरानी या दिक्कत रहना, जीवन या परेशान होना । दम निकलना-मरना, रहना, “ नाक दम रहै जो लौं, नाक दम रहै । मृत्यु होना। दम सुखाना (सूखना)-भयतौ लौं।" नाक में दम आना-कठि- भीत करना, डर से साँस रोकाना, जान नाई से प्राण ऊबना। मुहा०-दम अटकना सुखाना, जान सूखना । जीवनी शक्ति या उखड़ना-साँस रुकना, (विशेषतःमरते अस्तित्व । मुहा०--किसी का दम गनी समय ) दमखींचना (रोकना)-चुपरह मत होना-उसके जीने से कुछ न कुछ जाना। दम मार कर रहजाना–साँस उपर | अच्छे कामों का होना। दम रहना For Private and Personal Use Only Page #886 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir दमक ८७५ दमावति बीवन रहना। किसी बर्तन का मुँह बन्द | दमना-संज्ञा, स्त्री० (सं०) द्रोण पुष्पी लता। करके कोई वस्तु पकाना, छल, धोखा। “दमना माँस उगल जनि चंदा "यौ०-दम-झाँसा-छल, कपट । दम- विद्या० । दौना पौधा । स० क्रि० (दे०) दिलासा या दम-पट्टी-फुसलाना दवाना दूर करना । " जिय माँझ महंपद झूठी प्राशा। मुहा०-दम देना- जो दमिये" - रामा० । बहकाना, धोखा देना । तलवार या चाकू दमनी-संज्ञा,स्रो० (सं०) लजा,संकोच, शर्म । पादि की धार, रक्त, साहस, शक्ति। दमनीय-वि० (सं०) दमन करने, दबाने, दमक-संज्ञा, स्त्री० दे० ( वि. चमक का ___ झुकाने, लचाने, या तोड़ने योग्य । " रच्यो अनु० ) भाभा, काँति, द्युति, चमक, चम- न धनु दमनीय" - रामा०। चमाहट । यो०-चमक-दमक । दमनू-संज्ञा, पु. ( सं० दमन ) दबाने या दमकना-अ० कि० दे० (हि. चमकना का | दमन करने वाला। " ढारै चमर भरत अनु०) चमकना, चमचमाना । " दमकत | रिपदमनू"-रामा०। भावै चार चोखो मुख मंद हास"-सरस । दमबाज़-वि० (फा०) फुसलाने वाला, धोखा दमकल, दमकला-संज्ञा, पु० (हि. दम+ या दम देने वाला । संज्ञा, स्त्री० दपबाज़ी। कल) बड़ा पंप, बड़ी पिचकारी। "दमबाज़ों की दमबाजी से तो नाक में इमखम- संज्ञा, पु. (फा०) जीवनी-शक्ति, दम है।" दता, तलवार की धार और उसकी वक्रता।। दमयन्ती--संज्ञा, स्त्री० (सं०) राना भीम की इमचूल्हा-संज्ञा, पु० यौ० दे० (हि० ) एक | कम्या और राजा नल की पत्नी । “भुवनत्रय लोहे की चादर का गोल चूल्हा। सुभ्रुवामसौ दमयन्ती कमनीयतामिदम्'दमड़ा - संज्ञा, पु० दे० ( सं० दविण ) धन, "दमयन्तीति ततोऽभिधां दधौ"-नैषधः । दौलत, सम्पति। | दमा-संज्ञा, पु० (फा०) स्वास रोग। 'दमा दमड़ी, दमरी-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० द्रविण) रोग दम के संग जाई"-स्फु०। एक पैसे का आठवाँ भाग। दमाद-संज्ञा, पु० दे० (सं०जामातृ) जामाता, दमदमा-संज्ञा, पु० (फा० ) मोरचा, धुस। जवाई (ग्रा० ) लड़की का पति । दमदमाना-प्र० कि० ( दे० ) चमकना, दमादम-क्रि० वि० दे० ( फा० ) लगातार, प्रकाशित होना। चमक से। दमदार-वि० (फ़ा० ) जानदार, दृढ़, | दमानक-संज्ञा, स्त्री० (दे०) बन्दूकों या तोपों साहसी, उदार, मजबूत, चोखा, तीव, पैना। की बाढ़ । दमन-संज्ञा, पु. (सं०) दबाने या रोकने का | दमाना-२० क्रि० दे० (सं० दम ) नवाना, कार्य । संज्ञा, पु० (सं०) दंड, इन्द्रिय निग्रह | लचाना, झुकाना, निहुराना, नम्र करना । ( यौ०) विष्णु, शिव, एक ऋषि जिनकी | दमामा-संज्ञा, पु. (फ़ा०) नगाड़ा, डंका । कृपा से दमयंती हुई थी। "दमनादमनाक | " मढ़े दमामा जात हैं "-वि० । प्रसेदुषस्तनयां तथ्यगिरंस्तपोधनात् "- दमारि -संज्ञा, पु० दे० यौ० (सं० दावानल) नैप० । वि० दमनशील। वन की प्राग, देवारि । " लागी है दमारि दमनक-संज्ञा, पु० (सं०) एक छंद ( पिं०) कैधौं फूले हैं पलास बन”- मन्ना० । एक पौधा, दौना (दे०)। दमावति-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं०) दमयंती, दमनशील-वि० यौ० (सं०) जिसका स्वभाव राजा नल की प्राण प्रिया । " राजा नल दमन करने का हो, दमन करने वाला। कहँ जइस दमावति "-५०। For Private and Personal Use Only Page #887 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org दमी दमी--संज्ञा, वि० (सं०) दमन करने वाला | संज्ञा, वि० दे० ( फा० ) दम लगाने वाला, दमरोगी नैचा 1 दमी यार किसके दम लगाई खिसके " - लो० । "" दमैया | - वि० दे० (हि० दमन + ऐया प्रत्य० ) दमन करने वाला | ८७ दयंत देनt - संज्ञा, पु० दे० (सं० दैत्य) दैत्य, -- दानव, दइत (ग्रा० ) 1 दया - संज्ञा, स्त्री० (सं०) कृपा, करुणा, धर्म की पत्नी । (6 दमदानदया नहिं जानपनी " - रामा० । दयाद्वटि - संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) कृपा कटात्त, कृपा-कोर, दयाढीठ (दे० ) । दयानन्द संज्ञा, पु० (सं०) आर्य समाज के प्रवर्तक एक संन्यासी । दयानत - संज्ञा स्त्री० (०) ईमानदारी, धर्म, सत्य-प्रेम | दयानतदार - वि० ( ० दयानत + दार फ़ा० ) ईमानदार, धर्मात्मा, सच्चा | संज्ञा, स्त्री०दयानतदारी । 911 दयाना - श्र० क्रि० दे० (दया + ना प्रत्य० ) दया या करुणा करना, कृपालु होना । दयानिधान-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) दया का खजाना, प्रति दयालुया कृपालु, कारुणिक | " दया निधान राम सब जाना रामा० । दयानिधि - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) प्रति कृपालु या दयालु, कारुणिक पुरुष, परमेश्वर, दयासागर, दयासिंधु । दयापात्र - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) कृपा, दया, या करुणा के योग्य । दयामय - संज्ञा, पु० (सं०) कृपा, दया, करुणारूप या परिपूर्ण, अति कृपालु, दयालु, कारुणिक, परमेश्वर । दयार - संज्ञा, पु० (०) प्रदेश, सूबा, प्रांत | दाई - वि० यौ० (सं०) दया या कृपा से द्रवीभूत, कृपा या दया पूर्ण, कारुणिक । दयाल, दयालु - वि० सं० दयालु ) अति ( कृपालु, दयावान | Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir दरकना दयालुता -- संज्ञा, स्त्री० (सं०) कृपालुता । दयावंत - वि० (सं०) कृपालु कारुणिक । दयावना - वि० पु० दे० ( हि० दया + भावना ) दुखिया, बेचारा, दीन, कृपा या दया करने योग्य । स्त्री० दयावनी । दयिताधीन - वि० पु० यौ० (सं०) स्त्रैण, स्त्री के वशीभूत या अधीन । दयावान् - वि० (सं०) कृपायुक्त, दयालु, कारुणिक, दयावन्त । (स्त्री० दयावती ) । दयाशील - वि० यौ० (सं०) कृपालु, दयालु । दयासागर - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) कृपा का समुद्र, श्रुति कारुणिक, दयालु, दयासिंधु । दयायुक्त, दयायुत - वि० सं०) दयावान्, दयालु, कृपालु | दयित - संज्ञा, पु० (सं० ) पति, स्वामी, भर्ता । वि०-- प्रिय, स्नेही । दयिता - संज्ञा, खो० (सं०) पत्नी, भार्य्या, प्रिया प्रियतमा | दर - संज्ञा, पु० (सं०) शंख, गढ़ा, दरार, कंदरा, विदारण, भय | संज्ञा, पु० (सं० दल) समूह, झुंड, दल | संज्ञा, पु० ( फा० ) स्थान, द्वार, दरवाजा। मुहा० - दर दर मारामारा फिरना - बुरी दशा में फँस कर घूमना । "ये रहीम दर दर फिरें रही ० " । “कुंद इंदु दर गौर शरीरा " - रामा० । " दीन. बंधु दीनता- दरिद्र दाह-दोष-दुख दारुणदुसह दर-दरप-हरन है।" - वि० संज्ञा, स्रो निर्ख, भाव, प्रमाण, सबूत, ठीक, ठौर प्रतिष्ठा, मान्य, कदर । मुहा० दर उठना- विश्वास या प्रतिष्ठा न रहना । दर न होना - क़दर या विश्वास न होना संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० दारु ) ऊख, गन्ना मदन सहाय दुवौ दर गाजे "- - पद० । दरकच -संज्ञा, खो० यौ० (सं० दर = गढ़ा + हि० कचरना ) कचर जाने या दब जाने से लगी चोट । 16 दरकना - स० क्रि० दे० (सं० दर = फाड़ना दाब पड़ने से फटना या चिढ़ जाना । For Private and Personal Use Only Page #888 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ८७७ दरपर्दा दरका-संज्ञा, पु० दे० (हि. दरकना ) दरार । दरजिन, दर्जिन-संज्ञा, स्त्री० दे० (फा० दराज़, वह चोट जिससे कोई वस्तु फट या दर्जी ) दरजी की स्त्री। दरक जावे, ( प्रान्ती० ) एक रोग । | दरजी, दर्जी-संज्ञा, पु० दे० ( फ़ा० दर्जी ) दरकाना-स. क्रि० दे० (हि० दरकना ) __ कपड़ा सीने वाला। फाड़ना, चीरना, मसकाना। अ० क्रि० फटना, दरण-संज्ञा, पु० (सं०) बंस, विनाश, दरने चिरना, मसकना । "चूरी दरकाई मसकाई या पीसने का कार्य । चारु चोली अरु"-मन्ना । 'जल जरि गयो | दरद - संज्ञा, पु० दे० (फा० दर्द ) व्यथा, पंक सूख्यो भूमि दर की" - गंग। पीड़ा, दया । संज्ञा, पु. कश्मीर और हिन्दूदरकार-वि० (फ़ा०) ज़रूरत, श्रावश्यकता, कुश पहाड़ के बीच का देश (प्राचीन) अपेक्षित, जरूरी। इंगुर, सिंगरफ़। दरकिनार–क्रि० वि० (फ़ा०) भिन्न, अलग, दर-दर-क्रि० वि० यो० (फा० दर ) द्वारएक तरफ या ओर, दूर। द्वार, जगह जगह । वि०-मोटा चूर्ण । दरदरा-वि० दे० (सं० दरण = दलना) दरकूब-क्रि० वि० (फा०) मंज़िल दर मंज़िल। जिसके कण मोटे हों, स्थूल । स्त्री० दरदरी। लगातार या बराबर चलता हुआ । “रावन की मीचु दर कूच चलि आई है "- राम । दरदराना-स० क्रि० दे० (सं० दरण ) स्थूल या मोटे मोटे कणों के रूप में पोसना, चबाना। दरखत*-संज्ञा, पु० दे० (फा० दरख्त) दरदवंत, दरदवंद-वि० दे० ( फ़ा० दर्द + पेड़, वृक्ष। हि० वंत-प्रत्य० ) कृपालु, दयावान, सहानुदरखास्त-संज्ञा, स्त्री० दे० (फा० दरख्वास्त) भूति रखने वाला, पीड़ित, दुखी। निवेदन या प्रार्थना. आवेदन-पत्र । दरद्द-संज्ञा: पु० (फा० दर्द ) पीड़ा, व्यथा, दरख्त-संज्ञा, पु० दे० (फा०) वृक्ष, पेड़।। दुख, दरद, दर्द। दरगह-दरगाह-संज्ञा, स्त्री० (फा०) देहरी, दरन-वि० दे० (हि. दरना) दलने वाला, चौखट, दरबार, कचहरी, मकबरा । “धनी नाश करने वाला । " विप्र-तिय नृग बधिक सहेगा सासनां, जम की दरगह माहि " के दुख दोप दारुन दरन"--वि०। कबी०। दरना-दलना-स० क्रि० दे० (सं० दरण) दरगुज़र-वि० (फ़ा०) भिन्न, अलग, वंचित, दलना, मोटा या स्थूल पीसना, नष्ट करना। क्षमाप्रास। दरप - संज्ञा, पु. (सं० दर्प) अहंकार, दरगुजरना-स० क्रि० दे० (फ़ा० दरगुज़र --- घमण्ड, अभिमान । वि०-दरपी। ना प्रत्य० ) छोड़ना, क्षमा करना। दरपन-दर्पन-संज्ञा, पु० दे० (सं० दर्पण) दरज-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० दर=दरार ) शीशा, प्रायना, मुकुर, पारसी । दरपनी दराज, दरार, छेद, बिल । यौ०-दरज | संज्ञा, स्त्री० ( अल्पा० )। “दुरजन दरपन (दज) करना-लिखना। सम सदा".-०। दरजन, दर्जन-संज्ञा, पु० दे० (अं० डज़न) दरपना-अ० क्रि० दे० (सं० दर्प) क्रोध बारह वस्तुयें। करना, घमंड या अभिमान करना, ताव में दरजा, दजी-संज्ञा, पु० (प्र. दर्जा ) कक्षा, पाना। श्रेणी, कोटि, वर्ग, पद, श्रोहदा, खंड । दरपर्दा-क्रि. वि. यौ० (फ़ा०) पोट य कि० वि० गुना। ... आड़ में, छिपछिपाकर । For Private and Personal Use Only Page #889 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir दरपेश ७८ दरसाना दरपेश-क्रि० वि० (फा०) संमुख, सामने, दरमियानी-वि० (फ़ा०) बीच का, बिचभागे। वानी, मध्यस्थ । संज्ञा, पु. (दे०) दो मनुष्यों दरब-संज्ञा, पु० दे० (सं० द्रव्य) सम्पति, के झगड़े का निपटाने वाला। धन । 'दरब गरब करिये नहीं'-मझा। दररना --स० क्रि० (दे०) धक्का देना, रगड़ना। "कीन्हेसि दरव गरब जेहि होई"-५०। दरराना-अ० कि० (दे०)निर्विन या बेखटके दरबहरा-संज्ञा, पु. (दे०) चावल की चला पाना, वेग से आ पहुँचना । मदिरा या शराब। दरवाज़ा-संज्ञा, पु. (फ़ा०) द्वार, मुहारा, दरबा- संज्ञा, पु० दे० (फा० दर ) काठ मुहार, दुआर (ग्रा०)। का खानेदार संदूक, कबूतरों या मुर्गियों | दरबिदलित-संज्ञा, पु. (दे०) थोड़ा लिखा। के रखने का घर। दरबी-संज्ञा, स्त्री. (सं० दर्वी ) दवी साँप दरबान-संज्ञा, पु. (फ़ा०) द्वारपाल, ज्योदी- का फन । यो०-दरबीकर -- साँप, करदार, संतरी। छुल, पौना। दरबार-संज्ञा, पु० (फा०) राजपमा, कच. दरवेश-संज्ञा, पु. (फा०) साधु, फकीर। हरी। 'गये भूप-दरबार"-रामा० । वि. दरश-संज्ञा, पु. (सं० दर्श) दर्श, दरस, दरबारी । मुहा०-दरबार खुलना देखना। सभा में पब को पाने की आज्ञा मिलना। दरशन-दरसन-सज्ञा, पु दरशन-दरसन-संज्ञा, पु० दे० (सं० दर्शन) दरबार बरखास्त होना (उठना)-सभा अवलोकन, साक्षात्कार, भेट, दर्शन शास्त्र, का कार्य बंद होना । दरबार बंद होना नेत्र, स्वप्न, ज्ञान, धर्म, दर्पण।। सभा में जाने की रोक होना । संज्ञा, पु. दरशना-दरसना--अ० क्रि० स० दे० ( सं० (दे०) महाराज, राजा, दरवाजा, द्वार । दर्शन ) दिखाई देना या पड़ना, देखने में दरबारदारी-संज्ञा, स्त्री० (फ़ा०) किसी के पाना । स० कि० (दे०) देखना, लखना। यहाँ बार बार जाकर बैठना और उसकी दरशनी-संज्ञा, स्त्री० (सं०) दर्शन, शीशा, खुशामद करना। दर्पण। दरबार-बिलासी8 - संज्ञा, पु० यौ० (फ़ा. दरशनी हुँडी-संज्ञा, स्त्री० यौ० दे० (सं० दरबार + विलासी सं० ) दरबान, द्वारपाल । दर्शन + हि० हुँडी ) जिस हुँडो का रुपया उसे दरबारी - संज्ञा, पु० (फा०) सभासद, दर दिखाते ही मिल जावे। बार में बैठने या जाने वाला। वि० (दे०) दरस-दरश-संज्ञा, पु. दे. (सं० दर्श) दरबार का, दरबार के योग्य । दर्शन, भेंट, देखना, शोभा, छवि, दर्शनेच्छा। दग्भ- संज्ञा, पु. ( सं० दर्भ ) कुशा । संज्ञा, | "दरस लागि लोचन ललचाने"- रामा० । पु० (दे०) बंदर। यौ०-दरस-परस ( दर्शस्पर्श)। दरमा-संज्ञा, पु० (दे०) बाँस की चटाई। दरसन-दरशन- संज्ञा, पु० दे० (सं० दर्शन) दरमान-संज्ञा, पु. (फ़ा०) दवा, औषधि । दर्शन, भंट करना, देखना। "इल्म सुरमा है व दोदा दिल का दरमान" दरसना*-अ० कि० दे० (सं० दर्शन) देखने में आना, दिखलाई पड़ना या देना। स० दरमाहा-संज्ञा, पु० (फा०) मासिक वेतन । क्रि० देखना, लखना। दरमियान-दान -संज्ञा, पु. (फा०) बीच, दरसाना-स० कि० दे० (सं० दर्शन) दिखाना, मध्य । क्रि० वि० बीच या मध्य में। दिखलाना, प्रगट या स्पष्ट करना। "अँधरे For Private and Personal Use Only Page #890 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir दरसावना ८७९ दरेती को सब कुछ दरसाई"-सूर० । समझाना। दग्यिाई घोड़ा-संज्ञा, पु० यौ० ( फ़ा० दरि -स० कि० दिखाई पड़ना । याई + घोड़ा हि०) सामुद्रीय घोड़ा (अफ्रीका दरसाधना-स० कि० दे० (सं० दर्शन) दृष्टि- | के पास )। गोचर कराना, दिखलाना, प्रगट या स्पष्ट | दरियाई नारियल-संज्ञा, पु. यौ० (फा० करना, समझाना । *-अ. क्रि० (दे०)। दरियाई + नारियल हि०) एक बड़ा नारियल, दिखलाई पड़ना या देना। जिसका कमंडल बनता है। दरही-संज्ञा, स्त्री० (दे०) एक मछली। दरियादामी-संज्ञा, पु० यौ० (फा०+हि.) दराती-संज्ञा, स्त्री. (दे०) हँसिया, हँसुश्रा, निर्गुण उपासक साधुओं का मत जिसे हँसुवा (ग्रा०)। दरियादात ने चलाया था। दराई-संज्ञा, स्रो० दे० ( हि० दरना ) दरने दरियादिल- वि० यौ० (फ़ा०) उदार, दानी। का काम या मजदूरी। (स्त्री० दरियादिली)। दराज-वि० दे० (फा०) बड़ा भारी, दीर्घ । | दरियाफ़्त-वि० (फ़ा०) ज्ञात, मालूम, कि० वि० (फा०) बहत, अधिक । संज्ञा, स्त्री० जिसका पता लग गया या खोज हो । (हि० दरार ) दरार, दरज । संज्ञा, स्त्री० दरिया बरार-संज्ञा, पु. यो० (फ़ा०) नदी (मं० ड्रामर ) मेज़ का संदूक । की धारा के हट जाने से निकली भूम। दरार-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० दर ) दरज, | न. दरिया बुर्द -संज्ञा, पु० यौ० (फा०) नदी शिगा: । " सजन कुम्भ कुम्हार के, एकै की धारा से कट कर बह गई भूमि। धका दरार"-वृं। दरियाव - सज्ञा, पु० दे० (फ़ा० दरिया) नदी, दरारना-प्र० कि० दे० (हि० दरार+ना समुद्र ।" मोहू पै कीजै दया, कान्ह दया. प्रत्य०) फटना, शिगाफ होना, विदीर्ण होना। दरियाव "-मति। दराग-संज्ञा, पु० दे० ( ६ि० दरना) सूजन दरी-दरि-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं०) गुहा, गुफा, का चकत्ता, दरेरा, धक्का, दरार। खोह, कंदर, पर्वत के मध्य का नोवा स्थान जहाँ कोई नदी गिरे । संज्ञा, स्त्री०. (सं० स्तर) दरिंदा-संज्ञा, पु. (फा०) माँस-भक्षक जंतु, मोटे सूतों का बिस्तर या बिछौना। - फाड़ खाने वाला, वन जंतु । दरीखाना-संज्ञा, पु० यौ० (फा० दर+ दरित- वि० दे० (सं० दलित ) त्रस्त, डरा ख़ाना ) बहुत से द्वार वाला घर, बारादरी। हुमा, दला या कुचला हुआ। दरीचा-सज्ञा, पु० (फा०) छोटाद्वार, खिड़की, दरिद-दरिदर-संज्ञा, पु० दे० (सं० दरिद्र ) ५) झरोखा, खिड़की के समीप बैठने का स्थान । दारिद, दलिद्र, कंगाल, निर्धन, कगाली। स्त्री० दरीची। दरिद्र-वि० (सं०) कंगाल, निर्धन, गरीब । दरीची-संज्ञा, स्त्री० (फ़ा०) छोटी खिड़की, स्रो० दारिद्रा। संज्ञा, स्त्री० दरिद्रता। | छोटा झरोखा । "विज्जु बादर दरीची में।" दरिद्रति-वि• (सं०) दीन, दुखी, कंगाल, दरीबा-संज्ञा, पु० (दे०) पानों की मंडी या निर्धन । बाजार। दरिद्री-वि० (सं०) दीन, दुखी, निर्धन । रेग-संज्ञा, पु. (अ० दरेग) अफ़सोस, दरिया-संज्ञा, पु० (फ़ा०) समुद्र, नदी। कसर, कमी, कोताही। दरियाई-वि.(फा०) समुद्र या नदी सबंधी, दरेती-सज्ञा, स्त्री० दे० (हि. दरना ) दाल समुद्र या नदी के समीप का। सज्ञा, स्त्री० दलने की छोटी चक्की, हँलिया, हेसुवा, (फा० दाराई ) रेशमी वस्त्र, साटन । हँसुभा, दरेतिया (ग्रा०)। For Private and Personal Use Only Page #891 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir दर्श दरेरना ८५० दरेरना-स० कि० दे० ( सं० दरण ) पीसना, दर्दुर-संज्ञा, पु. (सं०) भेक, मेदक, बादल, रगड़ना, रगड़ते हुये धक्का देना। अबरक, अभ्रक, भोडर, दादुर (दे०)। रेरा-संज्ञा, पु० दे० (सं० दरण ) धक्का, दद्रु-संज्ञा, पु. (सं०) पामारोग, दादरोग। रगड़, चोट, पानी के बहाव का धक्का, दर्प- संज्ञा, पु. (सं०) अहंकार, अभिमान, धावा । " देत हैं दरेरे मोहिं खेरे घोलि गर्व, मान, उदंडता, अक्खड़पन, रोब, कै कई "-दीन। अातंक, धाक, दरप (दे०)। " कंदर्प-दर्प दरेस-संज्ञा, स्त्री० दे० ( अं० ड्रेस) फूलदार दलने विरला समर्थाः "- भर्तृ० । “रावण महीन कपड़ा। वि० (दे०) तैयार, दुरुस्त, के दर्प अर्प दीन्हें लोकपाल लोक "ठीक । संज्ञा, पु० (दे०)पोशाक, ड्रस (१०)। मन्ना० । यौ०-दन्धि -- गर्व से अंधा । दरेसी-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. दरेस) मरम्मत, | दर्पक-संज्ञा, पु० (सं०) कामदेव, घमंडी। दुरुस्ती, ठीक-ठाक । दर्पण--संज्ञा, पु० (सं०) मुकुर, पारसी, दरैया-संज्ञा, पु० दे० (हि. दरना + ऐया शीशा, दरपन (दे०) । “दुर्जन दर्पण से प्रत्य० ) दाल आदि का दरने वाला. नाशक, सदा"-वृं० । दर्पणी-दरपनी (दे०)घातक । “दीननाथ दीन-दुख दारिद दरया | संज्ञा, स्त्री० (दे०) छोटा दर्पण, शीशा । हो"-रसाल। दरोग-संज्ञा, पु. (अ०) असत्य, झूठ।। दपणीय-वि० (सं०) सुन्दर, मनोहर, दिखदरोग हलफो-संज्ञा, स्त्री० यौ० (अ०) सत्य नौट, उत्तम, श्रेष्ठ । कहने की सपथ खाकर भी झूठ बोलना।। दी-वि० (सं.) अभिमानी,क्रोधी, आतंकी। दर्ज-संज्ञा, स्त्री० (हि. दरज ) दरार, दराज, | दबे-संज्ञा, पु० दे० (सं० द्रव्य ) सम्पत्ति, छेद । वि० (फ़ा०) कागज पर लिखा हुश्रा । धन, द्रव्य, रुपया-पैसा, सोना-चाँदी । दर्जन-संज्ञा, पु० दे० (अं० डजन ) बारह " अर्ब खर्ब लौं दर्ब है "-तु० । वस्तुओं का समूह । दर्भ - संज्ञा, पु. (सं०) डाभ, कुशा, कुश । दर्जा-संज्ञा, पु० (अ०) कक्षा, कोटि, श्रेणी, । दर्भासन-संज्ञा, पु० यो० (सं०) कुशासन, वर्ग, पद, प्रोहदा, खंड । कि० वि०, गुना।। डाभासन, कुशों का बिछौना। दजिन-दराजन-सज्ञा, स्त्री० दे० (हि० दर्जी) | दर्रा- संज्ञा, पु० (फ़ा०) पर्वतों के मध्य का दजी की स्त्री। संकीण मार्ग, घाटी, दरार। दर्जी-संज्ञा, पु० दे० (फा०) कपड़ा सीने | दर्राना-अ. क्रि० दे० (अनु० दड़ दड़) वाला, कपड़ा सीने वाली एक जाति । धड़धड़ाना, बेखटके या बेधड़क चला जाना, स्त्री० दर्जिन । दराज होना, फटना। दर्द-संज्ञा, पु० (फ़ा०) व्यथा, पीडा, दुख, दर्व- संज्ञा, पु० (सं०) हिंसक, राक्षस, एक करुणा, दया, हाथ से निकल जाने का कष्ट या दुख, दरद (दे०)। यौ०-दर्दशरीक दर्विका-संज्ञा, स्त्री. (सं०) चमचा, करछी, -मित्र । संज्ञा, स्त्री० दर्दशरीकी । मुहा० साँप का फन । : --दर्द खाना ( आना )-कृपा या दया दर्वी-संज्ञा, स्त्री० (सं०) चमचा, करछी, साँप करना। का फन। दर्दमन्द-वि० (फ़ा०) विपत्ति-ग्रस्त, दुखी, दर्वीकर- संज्ञा, पु० (स०) जिस साँप के फन पीड़ित, कृपालु। | हो, काला साँप। दर्दी-वि० दे० (फ़ा०)दुखी, पीड़ित, दयालु। दर्श-संज्ञा, पु० (सं०) देखना, दर्शन, For Private and Personal Use Only Page #892 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ८८१ दर्शक दलना, दरना अमावस, द्वितीया तिथि, एक यज्ञ, दरश, दलकन, दलकनि-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. दरस (दे०) । यौ०-दर्श-स्पर्श। दलक ) श्राघात, चोट, दलकने का भाव, दर्शक-संज्ञा, पु. (सं०) देखने या दर्शन करने उद्विग्नता, कंप। वाला, दिखाने वाला। दलकना-अ० क्रि० दे० (सं० दलन) चिर दर्शन-संज्ञा, पु० (सं०) वह ज्ञान जो देखने या फट जाना, दरार खाना, काँपना, थर्राना, से हो, साक्षात्कार, अवलोकन, भेंट, तत्व- उद्विग्न होना, चौंकना । 'दलकि उठेउ सुनि ज्ञान सम्बन्धी शास्त्र या विद्या जिसमें ब्रह्मा, बचन कठोरू''--रामा० । जीव, प्रकृति का विवेचन है, आँख, स्वप्न, | दलकपाट-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) फूल की ज्ञान, धर्म, शीशा । यौ० दर्शनशास्त्र। हरी पत्ती मिली हुई पंखुरियाँ जिनके भीतर दर्शनप्रतिभू-संज्ञा, पु. यौ० (सं०) प्रति- कली होती है।। निधि, हाज़िर जामिन जो किसी को समय | दलकोश- संज्ञा, पु. यौ० (सं०) कुन्द वृक्ष । पर उपस्थित करने का भार अपने ऊपर ले। दलगंजन-वि• यौ० (सं०) बड़ा वीर या दर्शनीहुंडी-संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं० दर्शनी शूर, दल का विनाशक । +हि० हुडी) वह हुडी जिसे दिखाते ही दलथंभन - वि० दे० यौ० (सं० दलस्तम्भन) रुपया मिल जावे। सेना को युद्ध में अटल रखने या रोकनेवाला दर्शनीय-वि० (सं०) सुन्दर, मनोहर, देखने सेनापति, कमख़ाब बुनने वालों का एक के योग्य। हथियार। दर्शनेच्छा--संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) देखने | दलदल-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० दलब्य) कीच, की इच्छा या आकांक्षा, दरस (दे०) दर्श- कीचड़, पंक, चहला, पाँव धसने योग्य नाभिलाषा। गीली भूमि । मुहा०-दलदल में फंसना दर्शनेन्द्रिय-संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) आँख, (3साना)-विपत्ति या कठिनता में पड़ना, नेत्र, नयन, लोचन । कोई काम शीघ्र पूर्ण या समाप्त न होना, दर्शाना-स० क्रि० दे० (सं० दर्शन) दिख- खटाई में पड़ना। लाना, साक्षात् कराना, प्रकट या स्पट करना, दलदला-वि० दे० (हिं. दलदल ) जहाँ भली भाँति समझाना । दलदल हो, दलदल वाला । स्त्री० दलदलो। दर्शित-वि० (सं०) दिखाया हुआ, प्रका दलदलाना-अ० क्रि० दे० (हि. दलदल ) शित, प्रकटीकृत । काँपना, हिलना, थरथराना, मोटाना । दर्शी-वि० (सं० दर्शिन) देखने या समझने दलदलाहट-संज्ञा, स्त्री० दे० (हिं० दलदल) वाला। दल-संज्ञा, पु० (सं०) अन्न के दाने के दोनों | कंप, दलक, धमक, मोटाई । विभाग, पौधों का पत्ता, पत्र, फूलों की दलदार-वि० (हि० दल+फा० दार ) मोटे पंखड़ी, समूह, सेना, किसी वस्तु की मोटाई । दल, परत या तह वाली वस्तु । "लगे लेन दल-फूल मुदित मन"-रामा० । दलन-संज्ञा, पु. (सं०) नाश, संहार, नष्ट. यो० तुलसीदल। भ्रष्ट, दल कर टुकड़े टुकड़े कर देना। दलक-संज्ञा, स्त्री. (अ० दलक) गुदड़ी। 'दलन मोह-तम सो सुप्रकासू-रामा० । संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. ढुलकना ) धमक, कंप, | वि० दलित, दलनीय।। थरथराहट, कपकपी, टीस, चमक । "तुलसी | दलना, दरना स० क्रि० दे० (सं० दलन) कुलिसहु की कठोरता तेहि दिन दलक दली" किसी पदार्थ को टुकड़े करना, चूर्ण कर -गीता। | डालना, कूचना, रौंदना, दबाना, मसलना, भा० श० को०-१११ For Private and Personal Use Only Page #893 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir दलनि ८८२ दबना नष्ट-भ्रष्ठ या नाश करना, तोड़ना, दाल दलाली-संज्ञा, स्त्री० दे० (अ.) बिचवानी दलना। प्रे० रूप-दलाना। । या दलाल का कार्य या मज़दूरी। दलनि संज्ञा, स्त्री० दे० (हि० दलना) दलने | दलित-वि० (सं०) कुचिला या मसला के कार्य का ढंग, रीति, कायदा।। हुआ, दबाया या रौंदा हुआ, मर्दित, नष्टदलपति-संज्ञा, पु. यौ० (सं०) सेनापति, भ्रष्ट, दली हुई, दाल या अन्न । भगुमा, (ग्रा०) अग्रगण्य, सरदार, मुखिया। दलिया-संज्ञा, पु० दे० (हि० दलना) दला दलबंदी-संज्ञा, स्त्री० यौ० (हि० दल + गया अन्न, दले गेहूँ का भात । बँधना) एकता, मेल । दलिद्र-संज्ञा, पु० दे० (सं० दरिद्र ) दरिद्र, दलबल-संज्ञा, पु. यौ० (सं०) सेना, लाव- कंगाल, दुखी, दलिद्दर (ग्रा०)। संज्ञा, स्त्री० लशकर। दलिद्रता । वि० दलिद्री। दल-बादल-संज्ञा, पु. यौ० (हि. दल+ दली-वि• (हि० दलना) दलित, दली बादल) मेघ-समूह, भारी सेना, बड़ा शामि- | गयी। वि० (हि. दल+ई-प्रत्य०) दल याना या चॅदोवा। (सेना या पक्ष ) वाला । . पीछे तोहि न दलमलाना-स० क्रि० दे० यौ० (हि० दलना दली अली कोउ आदर करि हैं"-दीन । +मलना) रौंद या कुचल डालना, नाश या दलीपसिंह-संज्ञा, पु० दे० (सं० दिलीप नष्ट करना, मसल या मोड़ देना। +सिंह ) पंजाब केसरी महाराजा रणजीत दलवाना-दरवाना-स० कि० दे० (हि. सिंह के पुत्र। दलना का प्रे० रूप) दलने का कार्य दूसरे दलील-संज्ञा, स्त्री० (अ.) राह दिखाना, से करवाना । दलाना, दराना (दे०)। युक्ति, तर्क, विवाद, बहस । दलवाल*-संज्ञा, पु. यौ० दे० (सं० दलेती-संज्ञा, स्त्री० (हि० दलना) दाल दलने दलपाल) सेनापति, दलवाला। की छोटी चक्की, चकरी, दरेती (ग्रा०)। दलवैया-संज्ञा, पु० वि० दे० (हि० दलना) दलेल- संज्ञा, स्त्री० दे० (अ० ड्रिल ) दंड या दाल भादि दलने वाला, नाशक नष्ट-भ्रष्ट सज़ा के बदले ड्रिल या कवायद करना। करने वाला, दलैया, दरैया। मुहा० -- दलेल बोलना- दंड देना। दलहन-संज्ञा, पु० दे० (हि० ढाल+अन्न) दलैया- संज्ञा, पु० दे० (हि० दलना + वैया दाल बनाने के अनाज जैसे, चना, अर - प्रत्य० ) दलने या नाश करने वाला, दरैया। हर भादि । दल्लभ-संज्ञा, पु० (दे०) छल, कपट, दलहरा-संज्ञा, पु० दे० (हि. दालनहार -प्रत्य०) दाल बेचने वाला, दालवाला। दवंगरा-संज्ञा, पुन्यौ० दे० (सं० दव+ अंगार) दलाना-संज्ञा, पु० दे० (हि. दालान ) वर्षा ऋतु के प्रारम्भ में पानी की अच्छी झड़ी। भोसारा, दालान, दल्लान । दघ-संज्ञा, पु० (सं०) वन, जंगल, दावाग्नि, दलाना-स० क्रि० दे० (हि० दलाना ) दाल दावानल, दवारि । " मृगी देखि जनु दव दलवाना या बनवाना, चूर्ण कराना। चहुओरा "-रामा०। दलाल-दल्लाल-संज्ञा, पु. (अ.) माल | दवन-संज्ञा, पु० दे० (सं० दमन ) दमन, मोल लेने या बेचने में मध्यस्थ, कुटना, | नाश। संज्ञा, पु० दे० (सं० दमनक) दौना पौधा। पारसियों और जाटों को एक जाति, दवना-संज्ञा, पु० दे० ( हि० दौना) दौना विचवानी। संज्ञा, स्त्री० दलाली, दल्लाली। (ग्रा० ) पौधा । For Private and Personal Use Only Page #894 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir दवनी ८८३ दशांग दवनी-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० दमन ) देवरी, दशगात्र- संज्ञा, पु० यौ० (सं०) मृतक के मिनाई। __ मरने पर १० दिन तक के कर्म । दरिया -संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० दावाग्नि) दशग्रीव-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) रावण । दवारि, दावाग्नि । दशदिक-दशदिशा-संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) दवा-संज्ञा, स्त्री० (फा०) औषधि, उपचार, __ दश दिशायें । चिकित्सा । * संज्ञा, स्त्री० (सं० दव) दावा-दश दिग्पाल-संज्ञा, पु. यौ० (सं०) वरुण, नल, भाग । यौ०-दाधा-दारू। कुबेर आदि दशों दिशाओं के स्वामी। दधाई-संज्ञा, स्त्री० दे० (फ़ा० दवा) औषधि, दवा । " पाती कौन रोग की पदावत दवाई दशधा-अव्य० (सं०) दश प्रकार । दशन-संज्ञा, पु० (सं०) दाँत, दसन (दे०)। हैं"-रत्ना । दशनाम-दशनामी-संज्ञा, पु. यौ० (सं०) दवाखाना-संज्ञा, पु० यौ० (फ़ा०)औषधालय। | संन्यासियों के दश भेद, गिरि, पुरी भादि । दधाग-दघागि दघागिन - दवाग्नि-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० दवाग्नि ) वन की भाग, दशमलव-संज्ञा, पु० यौ० (सं० दशम + लव =खंड ) वह भिन्न, जिसका हर दश या दवारि, दवागी (दे०)। दश का कोई घात हो, दशमांश-सूचक दवात-संज्ञा, स्त्री० दे० (१० दावात) दावात चिन्ह जैसे २.५ यह अंश-सूचक अंक के मसिपात्र, दुवाइति (ग्रा.) दवायत (दे०)। वाम ओर रहता है (गणि.)। दवानल-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) वनागी, दशमहाविद्या-संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) दावाग्नि, दवारि । दश देवी। दवामी-वि० ( अ०) सदा के हेतु, स्थायी। दशमी-संज्ञा, स्त्री० (सं०) प्रति पक्ष का दवामीबंदोबस्त-संज्ञा, पु. यौ० ( फा०) दशौं दिन, दसमी (दे०)। सार्वकालिक प्रबन्ध, स्थायी प्रबंध । दशमुख-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) रावण, दवारि, दवारी-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० दावाग्नि ) दावानल, वनाग्नि, वनागी। दशानन । “दशमुख सभा दीख कपि जाई" -रामा०। दषिष्ट-वि. ( सं० ) अतिदूर, अति । दशमूल-संज्ञा, पु० (सं०) दश औषधियों दधीयान्-वि० (सं०) दूरतर, अति दूरवर्ती। | की जड़ें (काथ-वैद्य० )। दशकंठ-संज्ञा, पु. यो० (सं०) रावण, दश दशमौल्य -संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) रावण, कंध, दशकंधर, दसकंठ । “ दशकंठ के कंठन को कठुला"--राम । दशमौलि, दशभाल, दसमौलि (दे०)। दशकंठजहा-संज्ञा, पु. यौ० (सं० दशकंठज दशरथ-संज्ञा, पु० (सं० ) रामचन्द्र जी के पिता, अयोध्या के राजा, दसरथ (दे०)। +हा) मेघनाद के मारने वाले, लक्ष्मण जी। दशशीश - संज्ञा, पु० यौ० (सं० दश शीर्ष) दशकंठजित- संज्ञा, पु० (सं०) रामचन्द्र जी। रावण, दससीस (दे०)। "हम कुल-घालक दशकंध-दशकंधर-संज्ञा, पु० यौ० (सं० सत्य तुम, कुल-पालक दशशीश"-रामा०। दश+5= शिर+घर ) दशभाल, रावण । दशहरा-संज्ञा, पु० (सं०) दसहरा (दे०), " कह दसकंध कौन तैं बन्दर " । " मैं | विजया दशमी। "काल दशहरा बीतिहै, धर खुवीर दूत दसकंधर।" मूरुख जिय लाज"-वि०। दशकर्म- संज्ञा, पु० यौ० (सं०) गर्भाधान से | दशांग-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) दश सुगंधित विवाह तक के १० संस्कार (स्मृति०)। पदार्थों से बनी पूजन की धूप । दशगंध । For Private and Personal Use Only Page #895 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org दशांगुल दशांगुल - वि० यौ० (सं०) दश अंगुल की नाप, खरबूजा, हँगरा, हृदय । • तत्तिष्ठति दशांगुलम् ” – यजुर्वेद ० | दशांश - दशमांश - संज्ञा, ५० यौ० (सं० ) दसवाँ भाग या खंड । दशा - संज्ञा, स्त्री० (सं० ) स्थिति, हालत, अवस्था, दसा (दे० ) | दशानन - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) रावण, दसानन (दे० ) । उहाँ दसानन कहत रिसाई " - रामा० । " दशार्ण - संज्ञा, पु० यौ० (सं० दश + ऋण = दुर्ग या किला ) मालवा का पश्चिमी भाग. राजधानी, विदिशा, जहाँ दशार्णा या धसान नदी है । इस देश का राजा या निवासी, दश अक्षरों का एक मन्त्र ( तंत्र० ) । दशार्णा - संज्ञा, स्त्री० (सं० ) धसान नदी ( मालवा ) । ८८४ दशावतार - संज्ञा, पु० यौ० ( सं० ) विष्णु के दश अवतार राम, कृष्ण आदि । दशाविपाक - संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) दुख दसी - संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० दशा) छीर, कपड़े के छोर का सूत, चिन्ह, पता । दसौंखा -- संज्ञा, पु० (दे० ) पंखा झलना । दसौंद्वार - संज्ञा, पु० दे० ० (सं० दशद्वार ) मनुष्य का दश मार्ग वाला शरीर । दस द्वारे का पींजरा, तामैं पंक्षी पौन" - कबीर | विजया दशमी के पीछे का समय । "( दशाह - संज्ञा, पु० (सं० ) बुद्ध, यदु-देश, दसौंधी - संज्ञा, पु० यौ० (सं० + दास ·+ बंदी यदु-देश-वासी । भाट) बंदियों की एक जाति, ब्रह्मभट्ट, भाट । दस्तंदाज़ी - संज्ञा, स्त्री० ( फा० ) हस्तक्षेप । दस्त-संज्ञा, पु० ( फ़ा० ) हाथ, पतला पाखाना, विरेचन । की अंतिम दशा । दशाश्व - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) चंद्रमा, शशि । दशाश्वमेध - संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) दश अश्वमेध यज्ञ, एक यज्ञ । दशास्य - संज्ञा, पु० (सं० ) रावण । दशाह - संज्ञा, पु० (सं० ) मृतक - संस्कार के दश दिन, दश दिन साध्य कर्म । दशाहीन - वि० ० १ (सं०) दुर्भाग्य, दुर्गत, I दुरवस्था, दुरवस्थापन्न । दशीला - वि० (दे०) सुभाग्य, सुखी । दस - वि० दे० (सं०दश) पाँच की दूनी संख्या । दसखत :- संज्ञा, पु० दे० ( फा० दस्तख़त ) दस्तखत, हस्ताक्षर | दसन* - संज्ञा, पु० दे० (सं० दशन ) दाँत | 46 दसन गहौ तिन कंठ कुठारी" - रामा० । दसना - अ० क्रि० दे० (हि० डासना ) बिछना, Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir दस्तरखान फैलना | स० क्रि० बिछाना, फैलाना । संज्ञा, पु० (ग्रा० ) बिस्तर, बिछौना, दसौना (ग्रा० ) । दसमाथ* --- संज्ञा, पु० दे० यौ० ( हि० दस + माथ ) रावण दसभाल । दसमी -- संज्ञा, स्त्री० दे० ( सं० दशम ) प्रति पक्ष की दसवीं तिथि । दसा - संज्ञा, स्रो० दे० ( सं० दशा ) हालत, यवस्था । दसारन - संज्ञा, पु० दे० (सं० दशार्ण ) दशार्णा देश (प्राचीन) । दस्तक -संज्ञा, स्त्री० ( फा० ) थप्पड़ मारना, ताकीद करना, कुंडी खटकाना, कर उसूल करने का श्राज्ञा-पत्र, परवाना (ग्रा० ) दस्तखत | दस्तकार - संज्ञा, पु० ( फ़ा० ) शिल्पकार, कारीगर | दस्तकारी -संज्ञा, स्त्री० ( फा० ) शिल्प, कारीगरी, कलाकौशल 1 दस्तखत - संज्ञा, पु० ( फ़ा० ) हस्ताक्षर । दसखत (दे० ) । दस्तबरदार - वि० ( फ़ा० ) जो किसी चीज़ से अपना अधिकार उठा ले, त्यागी । दस्तयाब - वि० ( फा० ) प्राप्त, मिलनाना, हस्तगत । दस्तरखान - संज्ञा, पु० ( फ़ा० ) भोजन रखने का चादर या बरतन । For Private and Personal Use Only Page #896 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Page #897 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org दहल དཏཊྛཾ हिं० हिलना ) भय से एकाएक काँप उठना । स्तम्भित होना । दहलना - (दे० ) । दहल - संज्ञा, स्त्रो० दे० ( हिं० दहलना ) भय से एकाएक काँप उठना, डरना । दहलना - प्र० क्रि० दे० (सं० दर = डर + हिलना हिं० ) भय से एकाएक काँप उठना, शंकित होना । दहला - संज्ञा, पु० दे० ( फ़ा० दह = दश ) दश बूटियों का ताश या गंजीफ्रे का पत्ता । + संज्ञा, पु० दे० (सं० थल) थाला, थावला । दहलाना - स० क्रि० दे० ( हि० दहलना का प्रे० रूप) दहलवाना, भय से किसी को कँपाना, भयभीत करना । दहलीज़ - संज्ञा, स्त्री० ( फा० ) देहली, देहरी डेहरी (ग्रा० ) । दहशत - संज्ञा, स्त्री० ( फ़ा० ) भय, डर । दहसत (दे० ) । वि० दहशतनाक । दहसतियाना- दहसताना- - अ० क्रि० (दे० ) डर जाना, भयभीत होना । दहा - संज्ञा, पु० दे० फा० दह ) मुहर्रम महीने की पहली से दश तारीख़ तक का मुहर्रम का महीना, समय, ताज़िया दहाई -संज्ञा, स्त्री० दे० ( फ़ा० दह = दस ) एकाई का दस गुना | 1 दहाड़ - संज्ञा, स्त्री० दे० ( अनु० ) गरज, श्रार्त्तनाद व्याघ्रादि नंतुनों की घोर ध्वनि । ऊपर बरसै देव, पीछे सिंह दहाड़ई ' —प्रेम० । 6. दहाड़ना- - अ० क्रि० दे० ( अनु० ) गरजना, घोर ध्वनि करना, चिल्ला चिल्ला कर रोना, ढाड़ना ( ० ) । मुहा० - दहाड़ मारना - दहाड़ मार कर रोना - बड़े ज़ोर से चिल्ला चिल्ला कर रोना (6 1 ढाड मारि बिलखि पुकार सब वै चुकी " Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir दहेला दहिजार - संज्ञा, पु० दे० (हि० दाढ़ी +जार) दादीजार ( गाली ) । दहिना दाहिना - वि० दे० (सं० दक्षिण ) किसी जीवधारी की वह बग़ल जिसके श्रोर के अवयव अधिक बली हो, अपसव्य, दाँया (ग्रा० ) | ( विलेो० - बाँया) दाहिन (ग्रा० ) । स्त्री० दाहिनी । दहिनावर्त्ती - वि० यौ० दे० (सं० दक्षिणव ) दाहिनी ओर को घूमना, दाहिनी र घूमा शंख (दुर्लभ ) 1 दहिने दाहिने - क्रि० वि० दे० (हि० दहिना) दाहिनी ओर को, दाँयें। मुहा० - दहिने ( दक्षिण या दाँये ) होना - प्रसन्न या अनुकूल होना । यौ० -- दहिने - बाएँ (दाँयेंबाँयें ) - इधर-उधर । " दाहिन बामन जानौ " काऊ रामा० । तैं दही- संज्ञा, पु० दे० (सं० दधि ) जमाया हुआ दूध, दहिउ ( प्रा० ) । अ० कि० स्त्री० ( हि० दहना ) जली, दुखी। मुहा० - दही दही करना - किसी वस्तु के मोल लेने को लोगों से कहते फिरना । " भोर ही पै पुकारति दही दही " - द्वि० । द्वार ० क्रि० दे० ( हि० दहना ) जला दिया, जला दी । " मैं नहिं देहौं दही सो सही तै जो रही सो लखी परती हौ "स्फु० । लो० - ले दही और दे दही ( में अन्तर है ) - ग़रज और बेगरज में भेद है। दहुँ – अव्य० दे० (सं० प्रथवा ) किंवा, अथवा, कदाचित् । कृस दड़ - दहेल - संज्ञा, पु० (दे० ) पक्षी विशेष | दहेंड़ी - संज्ञा, स्त्री० दे० ( हि० दही + हंडी ) दही रखने का मिट्टी का पात्र । दहेज - संज्ञा, पु० दे० ( ० जहेज) यौतुक, दायज, विवाह में कन्या- पिता के द्वारा वर को दिया धन । रना० । दहाना -- संज्ञा, पु० ( फ़ा० ) घोड़े की बड़ी दहेला - वि० दे० (हि० दहला + एला- प्रत्य ० ) लगाम, मुहाना, मोरी । जला हुआ, संतप्त, दग्ध, दुखी । वि० स्त्रो० 1 For Private and Personal Use Only Page #898 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir दह्यो ८८७ दाँव (हि० दहलना ) दहेली । गीला,भीगा या । दाँत रखना या लगाना-लेने की बड़ी ठिठुरा हुआ, तर बतर (उ०)। इच्छा या अभिलाषा रखना, बदला लेने का दह्यो-संज्ञा, पु० दे० (सं० दधि, हि० दही) विचार रखना। किसी के तालू में दाँत वधि, दही। स० क्रि० दे० (हि. दहना )। जमना-बुरे दिन आना, शामत याविपत्ति जनाया, संतापित, दहो (ग्रा.)। पाना । दंदाना, दाँता। दाँ-संज्ञा, पु. ( सं० दा+अँच-प्रत्य० ) बार, दांत-वि० (सं०) दमन किया हुश्रा, दबाया बारी, दफ़ा, मर्तया । संज्ञा, पु. ( फा०) हुआ, संयमी, इन्द्रियजित । दाँत का, दाँतजानने वाला, ज्ञाता। जैसे-फारसीदाँ।। सम्बन्धी। दाँक-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० द्राक्ष ) गरज, दाँता-संज्ञा, पु० दे० (हि. दाँत ) दाँत के आकार का कँगृरा, रवा, दंदाना।। दहाड़। दाँकना-अ० कि० दे० (हि. दांक +ना- दाँता किटकिट-- संज्ञा, स्त्री० दे० यौ० (हि. प्रत्य०) दहाड़ना, गरजना । दांत+किटकिट ) ( अनु०) झगड़ा, कहादाँग-संज्ञा, स्त्री० (फा०) छ रत्ती की तौल, | सुनी, गाली-गलौज । दिशा, भोर, तरफ़ । संज्ञा, पु. दे० (हि. दाता कलाकल-सज्ञा, स्त्री० दे० यो० डंका) डंका, नगाड़ा। संज्ञा, पु० दे० (हि. (हि. दाँत + किल किल) झगड़ा कहा-सुनी, हुँगर ) टोला, छोटी पहाड़ी। गाली-गुप्ता । दाँजो-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० उदाहार्य ) | दाँति-संज्ञा, स्त्री० (सं०) इंद्रियदमन, इंद्रिय निग्रह, विनय, नम्रता, आधीनता । समता, बराबरी, तुल्यता, जोड़, तुलना।। दाँती-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० दात्री ) हँसिया, दाँत-संज्ञा, पु० दे० ( सं० दंत ) दशन, दंत, काली भिड़। संज्ञा, स्त्री० ( हि० दाँत ) दंतारदन । 'दाँत नहीं तब दूध दियो अब दाँत भये तो का अन्न न देहैं'-सुन्द० । मुहा० वली, दंत-पंक्ति, दरी, दो पर्वतों के मध्य की सँकरी जगह । -दाँतों उँगुल्लीकाटना-अचंभित होना, दाँना-स० कि० दे० (सं० दमन ) दाँय खेद प्रगट करना। दाँत काटी रोटी चलाना, अनाज माँड़ना। अत्यन्त घनिष्ट मित्रता। दाँत खट्टे करना | दांपत्य-दाम्पत्य-वि० (सं०) पति-पत्नी-बहुत दिक या परेशान करना, तुलना सम्बन्धी । संज्ञा, पु. (सं०) स्त्री-पुरुष का या लड़ाई में हरा देना, नीचा दिखाना।। प्रेम या व्यवहार । दाँत चबाना ( पीसना )-क्रोध से | दांभिक-वि० (सं०) प्राडम्बरी, पाखंडी, ओठ चबाना । दाँतपीसना-क्रोध | धोखेबाज़, अहंकारी। प्रगट करना। दाँत तले अंगुली | दाँय-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. देवरी) पके दबाना -अचम्भित होना, दंग रह नाज के पौधों के टलों को बैलों सेजाना, दुख प्रगट करना । दाँत तोड़ना | वाना । संज्ञा, स्त्री० (ग्रा.) बार, दने । ---हरा देना, हैरान या दिक करना। दाँत दाँया-संज्ञा, पु० दे० (सं० दक्षिण ) दाहिना, पीसना-दाँत बजाना या किटकिटाना। दहिना । स्त्री० (दे०) दाई (विलो० बायाँ)। दाँत बजाना-शीत से दाँतों का बोलना। | दाँव-संज्ञा, पु. (दे०) श्रौसर, मौका, घात, दाँत बैठ जाना- दाँतो बँध जाना, (मृत्यु बारी, बाजी , अनुकूल समय, जुए में के समय) । दाँतों में तिनका दबाना या लगा धन या पाँसे की संख्या। " खेलै लेना-गिड़गिड़ाना, क्षमा माँगना, विनती दाँव विचारि"-वृं० । मुहा०-दाँव या हाहा करना। (किसी वस्तु पर)। चलना-जीतना, विजय होना, मा For Private and Personal Use Only Page #899 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir दाँवनी ८८८ दाखिल-खारिज बढ़ना, युक्ति या उपाय लगना। दाँव । दाउदी-संज्ञा, स्त्री० (फ़ा०) एक फूल, गुलबचाना-युक्ति ( चाल या पेंच-पाक्रमण)। दाउदी। बचाना। दाँव चलाना–स० क्रि० (दे०) दाऊ-संज्ञा, पु० दे० (सं० देव ) बड़ा भाई, घात करना, चोट पहुँचाना । दाँव पकड़ना | बलदेव जी। (मारना, चलाना, लगाना)--स० कि० दाऊदखानी-संज्ञा, पु. (फा० ) उमदा (दे०) कुश्ती में दाँव-पेंच करना । दाँव चावल, सफेद गेहूँ। लगाना-जुए में धन लगाना, युक्ति (पेंच) | दाऊदी-संज्ञा, पु० दे० ( अ. दाऊद ) एक करना । दाँव जीतना (मारना)-जुए तरह का उत्तम गेहूँ। में धन जीतना। दाँव बैठना-स. क्रि० दाक्षाय .. संज्ञा, पु० (सं०) गीध पक्षी, गृध्र, (दे०) औसर खोना, हाथ से मौक़ा चला गृद्ध। जाना, मौका ( उपाय ) ठीक होना। दाक्षायण-वि० (सं०) दक्ष का पुत्र, दक्ष दाँवनी--संज्ञा, स्त्री० (सं० दामिनी ) दामिनी | सम्बन्धी, दक्ष का । संज्ञा, पु० (सं०) सोना, बिजली, सिर का एक गहना । सोने के पदार्थ, मोहर श्रादि, दक्ष की यज्ञ । दाँवरी-संज्ञा, स्त्री० दे० ( सं० दाम ) डोरी, दाक्षायणी-संज्ञा, स्त्री०(सं०) दक्ष की कन्या, रस्सी । सती जी, दन्ती पेड़, जमालगोटे का पेड़ । दा-वि० प्रत्य० (सं०) दाता, दानी, दानकर्ता, दाक्षायणीपति-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) शिव । दान देने वाला, जैसे-धनदा । सज्ञा, पु. दाक्षिण संज्ञा, पु. (सं०) उपाय, कथन, (दे०) सितार की मुखताल । | अधिकार, दक्षिणदेशीय, दक्षिण सम्बन्धी, एक होम । दाइ8-- संज्ञा, पु० (दे०) दाँव, घात, मौका, औसर, अनुकूल समय । संज्ञा, स्त्री० (दे०) दाक्षिणात्य-वि० (सं०) दक्षिणी, दक्षिण सम्बन्धी । संज्ञा, पु. (सं०) दक्षिण भारत, बराबरी, तुल्यता । संज्ञा, पु० दे० (सं० दाय) दक्षिण देश-वासी। दहेज, किसी के देने को धन, दायज, दान दाक्षिण्य-संज्ञा, पु. (सं०) उदारता, प्रसमें दिया धन । न्नता, अनुकूलता, सुशीलता। वि० (सं०) दाई-वि० स्त्री० दे० (हि. दायाँ) दाहिनी। दक्षिणा पाने योग्य, दक्षिण का। संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० दाच प्रत्य०, हि० दाँ दाक्षी-संज्ञा, स्त्री० (सं०) दक्ष प्रजापति की प्रत्य० ) बारी, बार, दमा, दाँय, दारी पुत्री, महर्षि पाणिनि की माता । “शंकरः (ग्रा०)। शांकरी प्रादादाक्षी पुत्राय धीमते"दाई-- संज्ञा, स्त्री० दे० ( सं० धात्री, मि० फा० | सि० को। दायः ) धाय, दाया, बच्चे को रखने या दाक्ष्य-संज्ञा, पु. (सं०) नैपुण्य, निपुणता, बच्चे वाली माँ की सेवा करने वाली, दासी, । दक्षता, चतुरता। दादी, बुढ़िया । मुहा०—दाई से पेट दाख--संज्ञा, स्त्री० दे० ( सं० द्राक्षा ) मुनक्का, किपाना-ज्ञाता से छिपाना । 8 वि० दे० किसमिस । ( सं० दायी ) देने वाला, जैसे सुखदाई। दाखिल-वि. (फा०) पैठा या, घुसा हुआ, दाउँ-दाऊँी--संज्ञा, पु० दे० (हि० दाँव ) | प्रविष्ट, प्रवेश करने वाला । मुहा०मरतबा, बार, दफा, बारी, पारी, मौका, दाखिल करना-भर देना, उपस्थित या औसर, अनुकूल समय, दाँव । ' सूझ जुत्राः | जमा करना । शामिल, मिलित,पहुँचा हुआ। रिहिं पापन दाऊँ "-रामा० । दाखिल-खारिज-संक्षा, पु० यौ० ( फा० ) For Private and Personal Use Only Page #900 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir दाखिल-दफ्तर ८८६ दातव्य एक रजिस्टर जिसमें किसी का नाम लिखा दाजना --अ० क्रि० दे० (हि० दग्ध वा जाये और किसी का काट दिया जाये। दाहन) जलना, डाह या ईर्ष्या करना। दाखिल-दफ़्तर - वि० यौ० (फा०) किसी । दामन --संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० दहन) जलन, काग़ज़ को बिना विचार किये दफ्तर में | दाह । रख छोड़ना। दामना-अ.क्रि० दे० (सं० दाहन) जलना, दाखला-संज्ञा, पु. (फ़ा०) पैठार, प्रवेश, | गर्म होना। नाम दर्ज करने का रजिस्टर । दाटना स० क्रि० (दे०) डपटना. मिडकना, दाग संज्ञा, पु० दे० (सं० दग्ध) दाह, मृतक- डाँटना, फटकारना । संस्कार, जलन, दाह, जलने का चिन्ह । दाड़क- संज्ञा, पु० दे० (सं० दंष्ट्रा ) दाद, मुहा०-दाग देना--मृतक-संस्कार करना, ! दाँत । मुर्दै को जलाना। दाड़स-संज्ञा, पु० (दे०) सर्प विशेष । दाग संज्ञा, पु. ( फा०) जलने श्रादि का | दाडिम - संज्ञा, पु० (सं०) अनार, बीज पूरक । चिन्ह, धब्बा, चितिया. चित्ती । यौ- "धोखे दाडिम के सुआ गयो नारियल सफ़ेद दाग-एक कुष्ट जिससे देश में खान"-गिर। सफ़ेद धब्बे पड़ जाते हैं जिसे फूल भी दाड़ो - संज्ञा, स्त्री० (दे०) अनार, बीजपूरक। कहते हैं. चिन्ह, अंक, कलंक, ऐब दोष, दाढ़-संज्ञा, स्त्री० दे० ( सं० दंष्ट्रा ) मोटे या लांछन । वि. दागी, दगहिल (ग्रा.)। बड़े या पिछले दाँत, डाढ (ग्रा० )। संज्ञा, दागदार - वि० (फा०) जिसमें कोई दाग़ या खी० ( अनु० ) चिल्लाहट, दहाड़, गरज, धब्बा हो दागी। भीषण शब्द। मुहा०-दाद पार कर दागना-स० कि० दे० (हि. दाग ) किसी रोना-ज़ार से चिल्ला कर रोना । वस्तु को जलाना, भस्म या दग्ध करना. | दाढ़ना ----स० कि० दे० ( सं० दहन ) किसी गरम लोहे से किसी के किसी अंग पर चिन्ह वस्तु को आग में जलाना या भस्म करना, बनाने को जलाना, किसी धातु के साँचे डाहना, गरम या उष्ण या दुखी करना। या मुद्रा से जलाना, दवा से जलाना, ताप दाढ़ा--संज्ञा, पु० दे० ( सं० दंष्ट्रा ) पिछले बंदूक श्रादि को बत्ती देकर छुड़ाना। स० बड़े दांत, दाद। वि० (दे०) दग्ध, जला हुआ। क्रि० · फ़ा० दाग़ ) रंग से चिन्ह या धब्बे दाढ़ी-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि० दाढ़) मुख लगाना, लिखना, छापना। के दोनों ओर के बाल, ठोढ़ी चिबुक, दागबेल - संज्ञा, स्त्री० दे० यौ० (फा० दाग़ डाढ़ी (ग्रा.)। +बेल हि० ) सड़क बनाने या नींव खोदने | दाढ़ीजार संज्ञा, पु० दे० यौ० (हि. दाढ़ी को कुदाल आदि से पृथ्वी पर बने चिन्ह । +जलना) जली दाढ़ी वाला, दहिजार, दागी - वि० दे० { फा० दाग) जिस वस्तु दहिसरा (प्रान्ती.) (स्त्रियों की गाली)। पर कोई धब्या चित्ती या दाग़ पड़ा हो या "बार बार कह्यो मैं पुकारि दादीजार सों" सड़ने का निशान हो, लांछित कलंकित, -कवि०॥ दोष युक्त, दंड प्राप्त। दात -संज्ञा, पु० (सं० दात, दातव्य) दाघ-संज्ञा, पु० (सं०) उष्णता गरमी ताप, दानी, उदार, देने वाला, दान देने योग्य । दाह, जलन ! 'दीरय दाब निदाघ-वि० । “दात धनी जाँचै नहीं, संव करै दिन रात" दाजनां -- संज्ञा, स्त्री० दे० ( सं० दहन ) -कबी०। जलन, झुलसन । | दातव्य-वि० (सं०) देने योग्य वस्तु । भा० श० को ... ११२ For Private and Personal Use Only Page #901 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir दाता ६१० दान दाता-संज्ञा, पु. (सं०) देने वाला, दान- फर्याद । “ सुनह हमारी दादि गुसाई" शील, दानी। “ कोउ न काहु कर सुख- -क०। दुख दाता'-रामा० । लोको०-"दाता दादी-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. दादा) बाप से सूम भला जो जल्दी देय जवाब।" की माँ, दादा की स्त्री, पितामही। संज्ञा, पु. दातार-संज्ञा, पु. ( सं० दाता का बहु०) (फा० दाद) फर्यादी या न्याय चाहने वाला । दानी, दाता, देने वाला । " मंगलमय, दादु-8-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० दद्रु) कल्यानमय, अभिमत फल दातार"-रामा। दाद रोग, दिनाई। दाती --संज्ञा, स्त्री० दे० ( सं० दात्री) देने दादुर -संज्ञा, पु. दे. ( सं० ददुर ) भेक, मेढ़क । “ दादुर धुनि चहुँ ओर सुहाई ” । वाली, दात्री। -रामा० । दातुन-दातून-संज्ञा, स्त्रो० दे० (हि. दाँत + दादू-संज्ञा, पु० दे० ( अनु० दादा) उन-प्रत्य०) नीम आदि की पतली टहनी दादा, प्यार का शब्द. बड़ा भाई, धुनियाँ जिससे दाँत साफ करते हैं, दाँत साफ करने जाति का एक पंथ प्रवर्तक साधु, दादू का कार्य, मुखारी, दतुइन, दतून, दतोन । दयाल-" सुन्दर के उर है गुरु दादू । दातृता, दातृत्व-संज्ञा, स्त्री० पु. (सं०) वदा- दादूपंथी-संज्ञा, पु० यौ० (हि. दादू + पंथी) न्यता, दानशीलता, अकृपणता, दानशक्ति । दादू दयाल के मतानुयायी । संज्ञा, पु. दातौन-संज्ञा, स्त्री. ( हि० दाँत+अवनप्रत्य०)मुखारी, दातून, दात्यून, दात्योन । | दाध --संज्ञा, स्त्री० दे० ( सं० दाध ) दाह दात्यूह-संज्ञा, पु० (स.) पपीहा, चातक, जलन, कष्ट, ताप । “यहि न जाय जोवन के मेघ, बादल। दाधा"--पद। दात्र-संज्ञा, पु. ( सं० दात्र) देने वाला, दाधना-१० क्रि० दे० (सं० दग्ध ) दाँती, हँसिया। जलाना, तपाना, भस्म करना । " जैसे दात्री-संज्ञा, स्त्री० (सं०) दान देने या करने । दाध्यो दूध को"-० । वाली। दाधा-वि० पु० दे० (सं० दग्ध ) जला या दाद-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० दद्) चर्म-रोग, एक | जलाया हुा । " प्रेम जो दाधा धनि वह जीव"-पद। प्रकार का कुष्ट । संज्ञा, स्त्री० (फ़ा०) न्याय, दाधिक-वि. (सं०) दधि मिथुन, दधिइंसान,प्रशंसा । मुहा०-दाद चाहना संस्कृत वस्तु. दही, माठा, दही बड़े। किसी अन्याय के रोकने के लिये प्रार्थना दाधी-वि० स्त्री० दे० ( सं० दग्ध ) जली या करना, प्रशंसा चाहना । दाद दना-न्याय जलायी हुई । " मैं तो दाधी बिरह कीरे या इंसान करना, बदाई या प्रशंसा करना। काहे कु औषद देय "-मीरा० । दादनी-संज्ञा, स्त्री. (फा०) जो धन देना दाधीचि-संज्ञा, पु० (सं.) दधीचि के वंश हो, पहले से दिया गया धन, अगता। या गोत्र का। दादरा-संज्ञा, पु० (दे०) एक गाना। | दान-सज्ञा, पु० (सं०) किसी वस्तु से अपना दादा-संज्ञा, पु० दे० (सं० तात ) स्वत्व हटा कर दूसरे का जमा देना 'स्वस्वस्व श्राजा। बाप का बाप, पितामह, बड़ा निबृत्य पर स्वत्वात्पादनम् दानम्"-माध०। भाई, बड़े बड़ों का आदर-सूचक शब्द । श्रद्धा और भक्ति से किसी को धन देना। स्त्री० दादी। खैरात, दान दी गयी वस्तु, कर, महसूल । दादि-* संज्ञा, स्त्री० ( फा० दाद ) न्याय, । चुंगी, हाथी का मद, शत्रु के विरुद्ध कार्य For Private and Personal Use Only Page #902 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir दाब - दानधर्म ८६१ सिद्ध करने की विधि, शुद्धि । “बहै दान मिलना । दाने दाने को मुहताज-बहुत मदनीर -वि०। कंगाल, अति दरिद्र । छोटी गोल वस्तु, जैसे दानधर्म-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) दान करने मोती का दाना, माला की गुरिया, जीविका, का धर्म, दान और धर्म यौ०-दानपुण्य। "जाना जरूर जहाँ दाना बिरझाना है"। दानपति-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) नित्य या वि० (फ़ा. दाना) अक्लमन्द, बुद्धिमान, सदा दान देने वाला, दानी। चतुर । "खाक में मिलता है दाना सब्ज़ होने दानपत्र-संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) वह पत्र के लिए"। जिसके अनुसार किसी को भूमि श्रादि सदा दानाई- संज्ञा, स्त्री० (फ़ा०) बुद्धिमानी, चतु. के लिये दी जाय। राई अक्लमंदी। दानपात्र--संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) दान पाने | दाना चाग-संज्ञा, पु० यौ० (फ़ा०) खानायोग्य। पानी, अन्न-जल । दानलीला-संज्ञा स्त्री० यौ० (सं०) एक दानाध्यत--संज्ञा, पु. यौ० (सं०) दान का पुस्तक, कृष्ण के दान की लीला। प्रबन्धक, राज-कर्मचारी। दानव-संज्ञा,पु० (सं०) कश्यप की स्त्री, दनु दाना-पानी-संज्ञा, पु० यौ० (फ़ा० दाना+ के पुत्र, असुर, दैत्य । स्त्री० दानवी। हि. पानी) अन्न-जल, भोजन-जल, खानादानवज्र-संज्ञा,पु० यौ० (सं०) दान देने में पानी, श्रावदाना (उ०)। मुहा०-दानाबज्र के समान, वैश्य एक घोड़ा। पानी छोड़ना- उपास करना, अन्न-जल दानवारि-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) दैत्यों और | न ग्रहण करना, पालन पोषण का यत्न, दानवों के शत्रु, विष्णु भगवान । यौ० । जीवका. रहने का संयोग। (दान - वारि) दान का जल, हाथी का मद। दानिनी-संज्ञा, स्त्री० (सं०) दान देने वाली। "पानवारि हाथी चढ़े दान-वारि-युत जोय" दानी- वि० (सं० दानिन् ) उदार, दाता, दानशील । संज्ञा, पु० (सं० दानीय) महसूल दानवी-संज्ञा: स्त्री० (सं० दानव या दानव या कर लेने वाला, दान लेने वाला । माति की स्त्री, दैत्यनी राक्षसी। वि० सं० (स्त्री० दानेनी)। दानवीय) दानव का या दानव-सम्बन्धी। दानीय-वि० (सं०) दातव्य, दान के योग्य । "चली दानवी सेन धारे उमंगें"-मन्ना। दानेदार- वि० (फ़ा०) जिस वस्तु में दाने दानवीर-संज्ञा, पु. यो. (सं०) अति दानी, या रवे हों, रवादार । जो दान में हार न माने, बड़ा दानशील। दानो-दानौ! *-संज्ञा, पु० दे० (सं० दानव) 'दान-वीर हरिचन्द सत्य दुस्तर अपार दुख" दैत्य, राक्षस, दानव । -स्फु०। दाप-संज्ञा, पु० दे० (सं० दर्प प्रा० दप्प ) दानवेन्द्र-संज्ञा, पु. यौ० (सं०) राजा बलि। अभिमान, घमंड, शक्ति, बल, उमंग, उत्साह, दानशील-वि० (सं०) दानी, दान देने या श्रातंक, क्रोध, ताप। "भंजेउ चाप दाप बड़ करने वाला। संज्ञा, स्त्री० दानशीलता। बाढ़ा" रामा०। दाना-संज्ञा, पु. (फ़ा. दानः) अनाज का | दापक-संज्ञा, पु० दे० (सं० दर्पक ) दबाने एक बीज, अन्न का चबैना, प्रति दिन घोड़े वाला, घमंडी। को देने का अन्न । यौ० दाना-पानी, श्राब-दापना*--स० क्रि० दे० (हि. दाप) दबाना, दाना । मुहा०~-दाने दाने को तरसना रोकना, मना करना । (फिरना) अन्न का दुख सहना, खाना न ! दाब-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. दाप) दबने या For Private and Personal Use Only Page #903 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org M दाबदार दबाने का भाव, भार, बोझा, धाक, श्रातंक, श्रधिपत्य । दाबदार—वि० (हि० दाब + दार फ़ा०) रोब दार, आतंक रखने या धाक जमाने वाला । दाबना -- स० क्रि० दे० (हि० दबाना ) ऊपर से भार या बोझा डालना, पीछे हटाना, भूमि के तले गाड़ना, दफ़नाना, बल डाल कर विवश करना, हरा देना, कुछ करने न देना, दमन या शांत करना, किसी की किसी वस्तु पर अन्याय से अधिकार जमाना, किसी को असहाय, समर्थ या विवश कर देना । दाब रखना -- स० क्रि० यौ० ' हि० दाब + रखना) छिपाना, लुकाना ढकना, aftart या रोब या आतंक रखना । दाभ - संज्ञा, पु० दे० (सं० दर्भ) कुश, कुशा, LTH (ग्रा० ) । I दाम - संज्ञा, पु० (सं०) रस्सी. रज्जु, साला, हार, लड़ी, राशि संसार | "काम झूलै उर मैं उरोजन पै दाम भूले" - पद्मा० । संज्ञा, पु० ( फा० मिलाओ सं०) जाल, पाश, फंदा, रुपया, पैसा, मोल । वि० दे० (हि० दमरी) एक पैसे का पचवाँ भाग । " बंक बिकारी देत ज्यों, दाम रुपैया होत " - वि० । 'ताहि व्याल सम दाम " - रामा० । महा० दाम-दाम भर देना = कौड़ी-कौड़ी चुका देना, कुछ उधार बाकी न रखना। दाम के दाम पर - भूल्य पर बिना लाभ के मुहा०-- दास खड़ा करना - मूल्य भर ले लेना । दाम चुकाना — मूल्य दे देना, मोल ठहराना, मोल भाव ठीक करना । दाम भरना - डाँड़ या हानि का प्रतिकार भर देना। मुहा० - नाम के दाम चलाना - मौका पाकर मन-माना अंधेर करना । या ०. [० - दान प्रीति ! दामन -- संज्ञा, पु० ( फा० ) अँगरखे श्रादि के नीचे का भाग, पर्वतों के पास की नीची भूमि । " फैलाइये न हाथ ना दामन पसारिये" - जौक । ८६२ दाय दामनगीर- वि० ( फा० ) दामन पकडने - वाला, पीछा न छोड़नेवाला दावादार, "कहँ दिल्ली को दामनगीर शिवाजी” – भू० । दामनी - संज्ञा, स्त्री० (सं० दाम) रस्सी, डोरी । दामरि-दामरी - संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० दाम) डोरी, रस्सी, रज्जु, दमड़ी । दामलिप्त - संज्ञा, पु० (सं०) ताम्रलिप्त देश | दामवती - संज्ञा स्त्री० (सं० ) फूलों की माला या हार | दामा - संज्ञा, खो० (सं० दावा) दावाग्नि, दावानल | दामाँवन- संज्ञा, पु० (सं०) घोड़े की पिछाड़ी, घोड़े के पीछे के पैरों में बाँधने की रस्सी । दामाद संज्ञा, पु० दे० (फ़ा०, सं० जामातृ) जामाता, दमाद वाई 1 दामासाह- संज्ञा, पु० (दे०) जिसका दिवाला निकल गया हो जिसका माल-टाल व्योहरों में बँट गया हो । दामासाही -संज्ञा, खो० (दे०) यथार्थ या उचित भाग के कार्य । दामिनी, दामिनि-संज्ञा, स्रो० (सं० ) बिजली, त्रियों के सिर का एक गहना. बेंदी, टिकुली, दाँवनी (ग्रा० ) । " सेा जनु प्रभु दामिनी दमका " " दामिनि दमक रही घन माहीं" - रामा० । दाभी - संज्ञा, स्त्री० दे० (हि० दाम) महसूल, कर, मालगुजारी वि० बहुमूल्य, क्रीमती ! दामीयात - संज्ञा, पु० (दे०) वह वस्तु जिससे रक्त-विकार हो । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir दामोदर - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) श्री कृष्ण, भगवान, एक जैन तीर्थंकर । दामोदर गुप्त - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) कश्मीरनिवासी एक कवि | दामोदर मिश्र संज्ञा, पु० (सं०) राजा भोज की सभा के एक कवि जिन्होंने "हनुमन्नाटक " का संग्रह किया । संज्ञा स्त्री० (दे०) दाँयँ, बार. देव (ग्रा० ) दायक संज्ञा, पु० दे० हि० दावें, दफ़ा, बार, मरतबा, बारी, पारी, श्रौसर, मौक़ा | संज्ञा, For Private and Personal Use Only Page #904 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - दायक ८६३ दारिका स्त्री० (दे०) बराबरी, तुल्यता। संज्ञा, पु० दायी-संज्ञा, पु० (सं०) दाता, देने वाला। (सं०) किसी के देने का धन, दायजा या | स्त्री० दायिका। दान में दिया धन, मृतक का धन । यौ० दायें-क्रि० वि० दे० (हि. दायाँ दाहिने दाय भाग । संज्ञा, पु० (सं०) वन, वन की ओर । (विलो. बाँये) मुहा०-दाँये लेना आग, आग। (होना)-अनुकूल या प्रसन्न होना। दायक-संज्ञा, पु० सं०) दाता, देनेवाला, दार, दारा-संज्ञा, स्त्री० (सं० । स्त्री, भार्या, (यौ० में)। (स्रो० दायिका)। पत्नी, औरत | संज्ञा, पु० दे० सं० (दारु) दायज-दायजा-संज्ञा, पु० दे० ( सं० दाय ), लकड़ी, दाल, देवदारु, बढ़ई। प्रत्य० (फा०) दहेज, यौतक, ना. दहजा (ग्रा.)। रखनेवाला, जैसे-मालदार । दायभाग-संज्ञा, पु० यौ० सं०) बाप के धन , दारक-संज्ञा, पु. (सं०) लड़का, बच्चा, पुन, का हिस्सा. पुरुषों के धन की व्यवस्था। बेटा । स्त्री० दारिका। दायमुलहन्स-संज्ञा, पु० (अ०) काले पानी दार कर्म-संज्ञा, पु. यौ० (सं०) विवाह, का दंड आजीवन बंदी। ब्याह । “असपिंडातु या मातुः असगोत्रातु दायर - वि० (फ़ा०) चलता फिरता, जारी । या पितुः" । सा प्रशस्ता द्विजातीनाम् दारमुहा०-दायर करना--मुक़दमा चलाने | कर्मणि मैथुने''।-मनु०। के लिये पेश करना। दार चीनी-संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं० दारू+ दायरा-संज्ञा, पु. (अ०) मंडल, कुंडल, चीन-दे० ) जायफल के पेड़ की छाल, गोला घेरा. वृत। दालचीनो। दायाँ, दाँये-- वि० दे० (हि. दाहिना) दाहिना। | दारण, दारन--संज्ञा, पु० दे० (सं०) चीड़(विलो०बाँयाँ) यौ० दाया बाँया । मुहा० फाड़. चीरने फाड़ने का हथियार या कार्य । -दाया-बाँया जानना - भला-बुरा न _ वि. दारित, दारणीय । जानना । "दाहिन बाम न जानौ काऊ"। दारद-संज्ञा, पु० (सं०) पारा, हिंगुल, विष । दाया*-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० दया ) कपा. दारना--सक्रि० दे० (सं० दारणा) चीरना, करुणा । “जायै राम करहु तुम दाया" | फाड़ना, नष्ट करना। रामा। संबा. सी. ( कालाई पाई। | दारपरिग्रह-संज्ञा, पु. यौ० (सं०) ब्याह, दायाद-वि० पु. (सं०) दाय भागी. जिसे विवाह । किसी के धन में भाग मिले । संज्ञा, पु. दार-मदार---संज्ञा. पु. ( फा० ) भरोसा, विश्वास, श्राश्रय, अवलम्ब, प्राधार । (सं०) हिस्सेदार, भागी, जैसे पुत्र, भतीजा, दारय - वि० दे० (स. दारण) चीरे, फाड़े, पोता श्रादि, नाती. कुटुम्ब, परिवार, उत्त नष्ट करे। राधिकारी । (स्त्री० दायादा )। दारा–संज्ञा, स्त्री० (सं०) स्त्री, पत्नी, भार्या, दायादी-वि० स्त्री० (सं०) लड़की, कन्या, | नारी। उत्तराधिकारिणी दारि, दार -संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० दालि) दायाह वि० यौ० (सं० दाय-- अह = योग्य) दालि, दाल । पैतृक धन पाने के योग्य । दारिउ -संज्ञा, पु० दे० (सं० दाडिम ) दायित--वि० (सं०) निश्चित अपराधी या अनार . 'दारिउँ, दाख देखि मन राता'। दोबी। दारिका-संज्ञा, स्त्री० (सं०) लड़की, कन्या, दायित्व-संज्ञा, पु. ( सं० ) ज़िम्मेदारी, पुत्री, बालिका। "यह दारिका परिचारिका जवाबदेही, उत्तरदातृत्व । करि पालिबी करुनामयी'- रामा० । For Private and Personal Use Only Page #905 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir दारिद-दारिद्र दाल दारिद-दारिद्र-संज्ञा, पु. (सं० दारिद्रय) काठ रूप, काठ का । “यथा दारुमयी हस्ती कंगाली, निर्धनता, दरिद्र । यथा दारुमयो मृगा"-मनु । दारिद्रय-संज्ञा, पु० (सं०) कंगाली, निर्ध-दारुयोषित-संज्ञा, स्त्री. यो० (सं० ) कठनता । “प्रणीय दारिद्रय दारिद्रता नल" | पुतली। -- नैष । दारुहरदी-संज्ञा, स्त्री. ( सं० दारु हरिद्रा ) दारिम (दे०) दाडिम-संज्ञा. पु. ( सं० | एक औषध, दारुहलदी। दाडिम) अनार। दारु-हस्तक - संज्ञा, पु. यो० (सं०) काठ दारी-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० दारा) दासी, ___ का हाथी। व्यभिचारिणी स्त्री संज्ञा, पु. व्यभिचारी, दारू-संज्ञा, स्त्री. ( फ़ा० औषधि, दवा, परदारगामी लम्पट, छुद्र रोग, विवाह, पति । शराब, मदिरा, बारूद,। यौ०-दवासंज्ञा, स्त्री० (दे०) गाली (स्त्रियों के लिये) दारु । " और दारु सब की करी, पै सुभाव • यह दारी ऐसो रटै याको सर न सवाद" की नाहिं"-कबी। -गिर० । संज्ञा, स्त्री० (दे०) बार दफ़ा। दारूड़ा, दारूड़ी-संज्ञा, स्त्री० पु. (दे०) दारीजार--संज्ञा, पु. यौ० (हि. दारी+ शराब, मदिरा। जार-सं०) दासी-पति, ( गाली-पुरुष को) दारों, दारो-संज्ञा, पु० दे० ( सं० दाडिम) दासी-पुत्र । अनार दारयों, दारयो (ग्रा०)। " क्यों दारु-संज्ञा, पु. ( सं० ) देवदारु, लकड़ी, धौं दारयो ज्यों हियो, दरकत नाही लाल" -वि०। काठ, कारीगर, बढई। दारोगा-दरोगा-संज्ञा, पु० (फ़ा०) थानेदार, दारुक-संज्ञा, पु० (सं० ) देवदार, श्रीकृष्ण कोतवाल, प्रबंधकर्ता। का सारथी। दाढ्य-संज्ञा, पु० (सं०) दृढ़ता, कठिनता, दारु-कदली-संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) वन-केला। काठिन्य। दारु-गंधा-संज्ञा, स्त्री० यो० (सं०) एक गंध दाघ-संज्ञा, पु० सं०) एक प्रदेश । द्रव्य विशेष। दार्श. . संज्ञा, स्त्री. ( सं० ) एक औषध, दारु-गर्भा-संज्ञा, स्त्री० यौ० सं०) कठपुतली। रसौत, रसवत । दारुचीनी-संज्ञा, स्त्री० (दे०) दालचीनी। | दार्वी-संज्ञा, स्त्री० (सं०) दारुहलदी। दारजोषित-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० दारु- दार्शनिक-वि० (सं०) दर्शन शास्त्रज्ञ, दर्शनयोषित ) कठपुतली। “ उमा दारु जोषित | सम्बन्धी।। की नाई".-रामा०।। दार्टान्त–वि. (सं०) उपमेय, आदर्श, दारुण-दारुन (दे०)- संज्ञा, पु० (सं० दारुण) आदर्शित, दृष्टान्त सम्बन्धी। कठिन, विकट, घोर, प्रचंड, भीषण, डरावना, दान्तिक- वि० (सं०) दृष्टान्त-सम्बन्धी। भयंकर । " कपि देखा दारुन भट श्रावा" दाल-संज्ञा, स्त्री. ( सं० दालि ) दली हुई -रामा० । संज्ञा, पु० चीता वृक्ष, भयानक अरहर आदि के टुकड़े, पकी हुई दाल । रस, विष्णु, शिव, राक्षस, एक नरक । मुहा०-दाल गलना-मतलब निकलना, दारु-निशा-संज्ञा. स्त्री० यौ० (सं०) दारु प्रयोजन सिद्ध होना। यो० दान-दलिया हरदी (दे०) । हलदी, हरिद्रा, दारु हलदी। कंगालों का या रूखा-सूखा भोजन । महा० दारु-फल-संज्ञा, पु. यो० (सं०) चिलगोज़ा। -दाल में कुछ काला होना-संदेह या दरुमय-दारुमयी-वि० (सं० ) काठ संबंधी, | खटके की बात होना, बुरी बात का चिन्ह For Private and Personal Use Only Page #906 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir हथियार। दालचीनी ८९५ दाशरथ-दाशरथि दिखाई देना । यौ० दाल-रोरी-सामान्य दाव-संज्ञा, पु० (सं०)जंगल, वन, दावानल, या सादा भोजन या खाना । जूतियों अग्नि, ताप । " वनश्च वन-वन्हिश्च दव दाव दाल बाँटना-बड़ी भारी लड़ाई या फसाद इतीर्यते "-कोष० । संज्ञा, पु० (दे०) एक होना। दालचीनी-संज्ञा, स्त्री० (हि. दारचीनी) | दावत-संज्ञा, स्त्री. (अ. दप्रवत ) भोज, वारचीनी। ज्योनार, निमंत्रण, न्योता (दे०), भोजन दालमोठ-दालमोट-संज्ञा, स्त्री० या० (हि. को बुलाना । दाल-+- मोठ = एक कुअन्न) घी में तली दावन-संज्ञा, पु० दे० (सं० दमन ) दमन, मसालेदार दाल । - नाश, हँसिया, अनुपान ।। दालान-संज्ञा, पु. (फा०) श्रोसार, बरामदा।। दावना - स० कि० दे० ( सं० दमन ) दावना, दलिद्र-दलिदर-संज्ञा, पु० दे० (सं० दारिद्रय) | माँड़ना । स० क्रि० दे० (हि. दावन) दबाना, दारिद्रय, कंगाल, रंक, कंगाली, दरिद्रता, दमन करना। दरिद्र, दरिद्दर (दे०)। दावनी-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० दामिनी ) दालिम-संज्ञा, पु० दे० (सं० दाडिम) अनार। बेंदी, भूषण, बिजली । दाव-संज्ञा, पु० दे० (सं० एकदा ) एक बार, | दावा-संज्ञा, पु. ( सं० दाव) दावानल, एक दफा, बारी, पारी, अवसर, मौका, अनु. दावाग्नि । संज्ञा, पु. (अ.) अपना हक़ किसी कूल समय, जुए में लगाया धन । मुहा० वस्तु पर प्रगट करना, हक, स्वस्व, स्वरव-प्राप्ति दाँघ करना-घात लगाना या घात में का निवेदन-पत्र, मुक़दमा, नालिश, अभिबैठामा । दांव लगाना-ौसर या मौका मिलना। दाय लगाना-जुए में धन योग, दृढ़ता, दृढ़ता से कहना। लगाना। दाव लेना-बदला लेना, काम दावागीर-संज्ञा, पु० यौ० (अ० दावा + गीर ठीक होने का उपाय या चाल, युक्ति। "कबहुँ फा०) दावा करने वाला, अपना स्वत्व या महारै खेल जो, खेलै दाँव बिचारि ". अधिकार जताने वाला । दावादार । "दुसमन बुं० । मुहा०-दाव पर चढ़ना-इस दावागीर होय ताकहँ फटकारै"-गि० । भाँति पराधीन होना कि दूसरा अपना कार्य | दावाग्नि-संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं.) वन की निकाल ले । पेंच, चाल, छल, कुटिल नीति, आग, दावानल, वागी (दे०)। खेलने की बारी, प्रोसरी। मुहा०-दाव दावात-सज्ञा, स्त्री०(अ०) मसि-पात्र, दवाउत, पर रखना या लगाना-(जुए में) बाजी दवाइत, दवात, दुवाइत (ग्रा०)। बगाना । दाँघ पाना ( पड़ना )-जीति | दावादार-सज्ञा, पु० (अ० दावा+दार-फा०) का पाँसा पड़ जाना । मुहा०-दाव देना दावा करने या स्वत्व प्रगट करने वाला। -खेल में हारने की सज़ा भोगना । जगह, दावानल-सज्ञा, पु. यौ० (सं०) वन की स्थान, ठौर। भाग, दावाग्नि, दवागी (दे०)। दावना-स० क्रि० दे० ( सं० दामिनी ) दाव | दाविनी -सज्ञा, स्त्री० दे० (सं० दामिनी) चलाना, अनाज माँड़ना। बिजली, विद्युत, बेंदी (भूषण)। दावनी-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० दामिनी) दावी-सज्ञा, स्त्री० (दे०) प्रार्थना, नालिश । विन्दी, भूषण, बिजली। दाश-संज्ञा, पु० (सं०) केवट, मल्लाह, मछदावरी-सज्ञा, स्त्री० दे० (सं० दाम ) रज्जु, _वाहा, मछुवा, धीवर । गेरी, रस्सी। दाशरथ-दाशरथि-संज्ञा, पु० (सं० दशरथ For Private and Personal Use Only Page #907 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org दाशार्ह + इञ ) दाशरथी, राजा दशरथ के पुत्र रामचन्द्र आदि । ८६ दाहिनावर्त्त ---- पु० दे० (सं०) चित्रक पेड़, अग्नि । " सीतल सिख दाहक भइ कैसे - रामा० । दाशार्ह सज्ञा, पु० यौ० (सं०) श्रीकृष्ण जी, दाहकता - संज्ञा, स्रो० (सं०) जलाने का विष्णु, भगवान | दास संज्ञा, ५० (सं०) सेवक, नौकर, चाकर, शूद्र, धीवर एक उपाधि, दस्यु, वृत्रासुर । स्त्री० दासी | संज्ञा, पु० दे० ( हि० डान ) बिछौना । दासता दासत्व -- संज्ञा, स्त्री० (सं० पु० ) सेवकाई, सेवा वृत्ति । दासनन्दिनो - ज्ञा स्त्री० यौ० वती, व्यास जी की माता । दासन दसौना - संज्ञा, पु० दे० (हि० डासन) बिछौना, दसना (ग्रा० ) । (सं० ) सत्य दासपन -संज्ञा, पु० दे० (सं० दासता ) सेवा, सेवकाई दासत्व | दासा -- पज्ञा, पु० दे० (दासी = वेही ) श्राँगन के चारों ओर दीवार से मिला हुआ छोटा चबूतरा । दासानुदास - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) सेवकों भाव या गुण, दाहकख । दाश्व – संज्ञा. पु० ( सं० ) दाता, दानशील, दाहकर्म -संज्ञा, पु० यौ० (सं०) मृतक के दानी | जलाने का काम । " दाह - कर्म विधिवत सब कीन्हा - रामा० । " दाह-क्रिया - संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) मृतक के जलाने का कर्म, मृतक संस्कार । पहि बिधि दाह क्रिया सब कीन्ही " रामा० । दाहजनक - वि० यौ० (सं० ) ज्वालाकर, जलन उत्पन्न करने वाले । का सेवक, तुच्छ. दास । दासवृत्ति संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) सेवक की जीविका, नौकरी चाकरी | दासी - संज्ञा, स्त्री० (सं० लौंड़ी, टहलुनी, afrat ।' दीन्हें अमित दाल अरु दासी" - रामा० । दास्तान - संज्ञा स्त्री० ( फ़ा० ) वृत्तांत, किस्सा, हाल, बयान । दास्य - संज्ञा, पु० (सं०) दासत्व, सेवकाई, दासता, भक्ति या उपासना का एक रूप या भाव। कथा, दाह, दाहा. दाहू - संज्ञा, पु० (सं०) जलाने का काम, मुर्दे का जलाना, एक रोग, जलन, शोक, डाह, ईर्ष्या । उर उपजावति दारुन दाहा "- रामा० । (6 दाहक - वि० (सं०) जलाने वाला | संज्ञा, Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir " " दाह देना - स० क्रि० दे० यौ० (सं० दाह + देना हि० ) जलान!, फूँकना, मृतक को जलाना अन्त्येष्टि संस्कार करना । दाहन - सज्ञा, पु० (सं०) जलाने या फूँकने का काम मृतक संस्कार । दाहना - स० क्रि० दे० (सं० दाह ) जलाना, फूँकना, भस्म करना, दुख देना, चिढ़ाना । देखौ गऊ - पुत्र जिन दाहा " तु० । वि० दे० (सं० दक्षिण ) दाहिना । दाहसर - संज्ञा, पु० यौ० (सं०, प्रेतवास, श्मशान, मरघट | दाहहरण- संज्ञा, पु० (सं० ) औषधि विशेष, वीरणमूल, खसखस | संज्ञा, पु० ० (सं० ) ताप नाशन । दाहात्मक -- वि० यौ० (सं०) दाह-स्वरूप या दाहप्रद । 0 दाहिन दाहिना - वि० दे० (सं० दक्षिण ) दहिना, दक्षिण, अपसव्य : ( विलो० बाँयाँ ) । मुहा० - दाहिनी देनादक्षिणावर्त्त परिक्रमा करना । दाहिनी लाना - प्रदक्षिणा या परिक्रमा करना । दाहिना हाथ होना - भाई, मित्र, बड़ा सहायक, अनुकूल, प्रसन्न होना । CC खजु भयो विधि दाहिन मोंही " - रामा० । दाहिनावर्त्त - वि० दे० यौ० (सं० दक्षिणावर्त्त ) प्रदक्षिणा, परिक्रमा, दक्षिण या दाहिने को घूमा हुआ । For Private and Personal Use Only Page #908 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir दाहिने ८६७ दिखाना दाहिने-क्रि० वि० दे० (हि० दाहिना ) | दिशा का स्वामी या पति, २४ मात्राथों दाहिने हाथ की भोर, पक्ष में । " जे बिन | का एक छन्द। दिकपाल, दिगपाल (दे०)। काज दाहिने-बायें "-रामा० । | दिकशूल-दिग्शूल-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) दाही--वि० ( सं० दाहिन् ) भस्म करने या कालवास, (ज्यो०)। जलाने वाला। स्त्री० दाहिनी । " भवतिच | दिक्साधन, दिग्साधन-संज्ञा, पु. यौ० उरदाही....."। (सं०) दिशाओं के ज्ञान की रीति या विधि। दाह्य-वि० (सं०) जलाने या फूंकने योग्य । दिकसुन्दरी-दिगसुन्दरी - संज्ञा, स्त्री० यौ० दिंडी-संज्ञा, पु० (सं०) एक छंद। (सं०) दिक्कन्या. दिगंगना। दिअली-दिवाली-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि० | दिखना--अ० क्रि० दे० ( देखना ) दिखाई दिया का स्त्री० या अल्पा० ) बहुत छोटा देना, देखने में आना, दीखना । दीपक या दिया, दिलिया (ग्रा० )। दिखराना-दिखरावना --स० क्रि० दे० दिया-दीया-संज्ञा, पु० दे० (सं० दीपक ) ( हि० दिखलाना ) दिखाना, किसी को दीपक, दिअना। "मैं कह दीया उसका देखने में लगाना । " दिखरावा मातहिं निज "--रामा० । नाम"-खु०। दिखरावनी*--संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. दिवाना-स० कि० दे० (हि. दिलाना )। ") | दिखलाना ) दिखाने का भाव या कर्म । दिलाना, दिवाना। दिखलवाई-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि० दिखदिउली-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. दिअली) __ लाना ) दिखलाई, दिखलाने की मज़दूरी। सूखे घाव की पपड़ी, छोटा दिया । दिलिया | दिखलवाना-स. क्रि० दे० हि० दिखलाना ( ग्रा० ) मछली के शरीर का छिलका, भुने । का प्रे० रूप ) दिखलाने का काम दूसरे से चनों की दाल । कराना! दिक-संज्ञा, स्त्री० (सं०) दिशा, तरफ, श्रोर। दिखलाई-संज्ञा, स्त्री० (हि० दिखलाना ) दिक-वि० (अ०) कष्ट पाया हुआ, तंग, दिखलाने का भाव या काम या मज़दूरी। हैरान, परेशान, व्याकुल, दुखी। संज्ञा, पु. दिखलाना-स० कि० (हि० देखना का प्रे० (उ०) क्षयी रोग, तपेदिक । रूप ) दिखाना, जताना, दूसरे को देखने में दिकदाह-संज्ञा, पु. यो. (सं० दिग्दाह) लगाना, ज्ञात या अनुभव करना। सूर्य के अस्त होने पर दिशाओं का लाल दिखसाध- संज्ञा, स्त्री० यौ० (हि. देखना और जलता सा दीखना। +साध ) देखने की इच्छा। दिक्क-- वि०, संज्ञा, पु० दे० (अ० दिक ) तंग, दिखहार -संज्ञा, पु० दे० (हि० देखना परेशान, हैरान, दुखी, बीमार । अ० कि. +हार-प्रत्य० ) देखने हारा, देखने वाला, (दे०) दिकियाना। दिखैया, देखनहार। दिक्कत-संज्ञा, स्त्री० (अ.) परेशानी, हैरानी, दिखाई-सज्ञा, स्त्री० दे० (हि० दिखाना--- बीमारी, तंगी। भाई-प्रत्य० ) देखने दिखाने का कार्य । दिककन्या-संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) दिशा- दिखाऊो-वि० दे० ( हि० देखना+पाऊ रूपी कन्या। " दिक्कन्या नामव्यजनपवन- प्रत्य० ) दर्शनीय, देखने योग्य, बनावटी, वीज्यमानोनुकूलै ।" दिखौवा (ग्रा० ) देखाऊ। दिक्करी-संज्ञा, पु० यौ० (सं० दिग्गज) दिखादिखी-संज्ञा, स्त्री० दे० यौ० (हि. दिशाओं के हाथी, दिक्कार। देखादेखी ) देखादेखी, अनुकरण, नक़ल । दिकांता-संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) दिक्कन्या । दिखाना-स. क्रि० दे० ( हि० दिखलाना) दिक्पाल, दिग्पाल-संज्ञा, पु० यौ० (सं०)। दिखलाना, देखाना ( ग्रा० )। भा० श० को-११३ For Private and Personal Use Only Page #909 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir दिग्शूल दिखाव ८१८ दिखाव-संज्ञा, पु० दे० (हि. देखना+ | दिग्दाह -- संज्ञा, पु० यौ० (सं०) सूर्यास्त होने भाव-प्रत्य०) देखने का भाव या कार्या, पर दिशाओं का लाल और जलता हुआ नजारा, दृश्य । सा ज्ञात होना ( अपशकुन, अशुभ)। दिखापटी-वि० दे० (हि. दिखौमा) दिग्देवता-संज्ञा, पु. यौ० (सं०) दिग्पालु, दिखौश्रा, (ग्रा०) बनावटी, दिखाऊ। दिग्पति, दिग्देव । दिखावा-संज्ञा. पु० दे० ( हि० देखना --दिग्ध-वि० (सं०) विषाक्त, विष से बुझा आवा प्रत्य० ) बनावटी, ऊपरी शान । सा० तीर या बाण । भू० स० क्रि० (दे०) दिखाया। दिगपट-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) दिगंबर, नङ्गा । दिखैया /-संज्ञा, पु० दे० (हि. देखना --- दिगपति--संज्ञा, पु० यौ० (सं०) दिगपाल | ऐया- प्रत्य० ) देखने या दिखाने वाला, दिग्पाल-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) दिक्पाल, देखैया (दे०)। दिङ्नाथ, दिक्पति । दिखौश्रा, दिखौधा-वि० दे० (हि. देखना दिगभ्रम-संज्ञा, पु. यौ० (सं०) दिशा भूल +औसा, प्रोवा-~-प्रत्य० ) बनावटी। संज्ञा, जाना । “जाको दिग्भ्रम होई खगेशा "पु० (दे०) देखने वाला। रामा। दिगंत--संज्ञा, पु. यौ० (सं०) दिशा का अंत, आँख का कोना। "दिगंत विश्रांतरथोहि दिग्भ्रमण--संज्ञा, पु० यौ० (सं०) दिग्पर्य्यतरसुतः "-रघु। टन, घूमना। दिगंतर-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) दो दिशाओं दिग्मंडल-दिमंडल-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) के बीच की दिशा । " संचार पूतानि दिगं- | सब दिशाये, दिशा-समूह । तराणि "- (दे०) ()। दिग्गज-दिग्राज- संज्ञा. पु. यौ० (सं०) नेत्रों का अंतर। दिग्पाल, दिक्पति । दिगंतराल-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) आकाश। दिग्वस्त्र-संज्ञा पु. यौ० (सं०) दिगंबर, दिगंबर-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) नङ्गा रहने | नङ्गा, शिव, दिग्बस्न दिगदुकूल । वाला, जैनों का एक भेद । वि० नङ्गा, नग्न । विश्वास-संज्ञा, पु. यौ० (सं०) दिग्वसन, दिगंबरता-संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) नङ्गापन । नङ्गा, शिव। दिगंश-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) क्षितिज, दिशा दिग्विजय-संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) चारों का भाग । दिगंशयंत्र-संज्ञा, पु० यौ० पा० । श्रोर के राजाओं को युद्ध में हरा कर अपना (सं०) ग्रह या नक्षत्रों के दिगंश जानने का । . महत्व बैठाना। एक यंत्र (ख०)। दिग-संज्ञा, स्त्री. (सं०) दिशा, तरफ, भोर।। दिग्विजयी-वि० पु० यौ० (सं० दिग्विजय दिग्गज--संज्ञा, पु. यौ० (स०) दिशाओं के प्राप्त पुरुष, दिग्विजेतास्त्री० दिग्विजयिनी। हाथी । वि० (दे०) बहुत बड़ा या भारी। दिग्विभाग-- संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) तरफ़, दिग्घ -वि० दे० (सं० दोघ) बड़ा, महंत। दिशा, ओर । "उदयति यदि भानुः पश्चिमे दिग्दति-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) दिग्गज, दिग्विभागे"। दिङ्नाग, दिङमतंग। दिग्यापी-वि० चौ. (सं०) जो सब दिग्दर्शक यंत्र-संज्ञा, पु. यौ० (सं०) ध्रव- दिशाओं में फैलाहो, दिग्व्याप्त।"दिव्यापी दर्शकयंत्र, कुतुबनुमा। है सुजस तुम्हारा " - राम० । स्त्री० दिग्दर्शन संज्ञा, पु० यौ० सं०) बानगी, दिग्व्यापिनी। नमूना, इंगितमात्र दिखाना, जानकारी। दिग्शूल---संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) दिक्शूल। For Private and Personal Use Only Page #910 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - - दिङ्नाग ८६१ दिनामान दिङ्नाग-संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) दिग्गज, दिन चढ़ना-सूर्य उदय होना या कालिदास का विरोधी, एक बौद्ध नैयायिक । निकलना । दिन छिपना या ड्रबनादिच्छित-दिछित-दीवित-संज्ञा, पु. शाम या साँझ होना। दिन ढलनाद० (सं० दीक्षित) दीक्षित, ब्रह्मणों की साँझ का समय पास आना। दिन दहाड़े पदवी या जाति। या दिन दिहाड़े-विशेष करके दिन के दिजराज -संज्ञा, पु. यौ० दे० ( . समय । दिन दुना रात चौगुना होना द्विजराज ) ब्राह्मण, चन्द्रमा । या बढ़ना--शीघ्र बहुत बढ़ना, अति दिठवन -- संज्ञा, स्त्री० यौ० दे० (सं० उन्नति पर होना। दिन निकलना-सूर्य देवोत्थान) कार्तिकसुदी एकादशी, देउथान । उदय होना। यौ०---रात-दिन, रातौ दिन दिठा-दिठी-संज्ञा, स्त्री० दे० यौ० (हिं. ----सदा, सर्वदा । दिन जाते देर नहीं देखादेखी ) देखा-देखी, किसी को कुछ करते लगतो-समय शीघ्र बीतता है। " दिवस देख वही करना। जात नहि लागै बारा"-रामा० । मुहा० दिठाना-अ० क्रि० दे० (हिं. दीठ ) बुरी -दिन दिन या दिन पर दिन-प्रतिदीठ या नज़र लगाना। दिन, नित्य-प्रति । मुहा०-दिन काटना, दिठौना-संज्ञा, पु० दे० (हिं. दीठ+ पूरे करना या गिनना-समय बिताना, प्रौना---प्रत्य० ) लड़कों के माथे पर दृष्टि-दोष गुजर-बसर या निर्वाह करना। दिन बिगड़ना बचाने को काजल की विन्दी। -बुरा समय होना। दिन धरना-दिन दिठवंद-संज्ञा, पु. यौ० दे० (सं० दृष्टि-बंध) निश्चित या ठीक करना। दिन चढ़नानज़र बाँधना, दिठबंध ( जादू)। किसी स्त्री का गर्भवती होना, सूर्योदय से दि -वि० दे० (सं० दृढ़) मज़बूत, देर होना । दिन फिरना (सुधरना ) पुख़्ता । संज्ञा, स्त्री० (दे०) दिढ़ाई। --- अच्छा समय आना । दिन भरनादिढ़ाना -स० कि० दे० (हिं. दिढ़-+ बुरा समय काटना । क्रि० वि० (दे०) हमेशा, आना-प्रत्य० ) पक्का या दृढ़ करना। "कहौ सदा, सर्वदा। सबै भल मंत्र दिदाई "-रामा० । संज्ञा, दिनअर ... संज्ञा, पु० दे० (सं० दिनकर ) स्त्री० (दे०) दिढ़ता। सूर्या, दिनकर । दिति-संज्ञा, स्त्री० (सं० ) कश्यप ऋषि की दिन-कंत---संज्ञा, पु० यौ० (सं० दिनकांत) सूर्य, रवि, भानु। स्त्री जिसके पुत्र दैत्य कहाते हैं । दिनकर-संज्ञा, पु० (सं०) सूर्य । यौ०दितिसुत-संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) दैत्य, दिन-कर-कुल-सूर्य-वंश । दानव, दितिपुत्र । दिनचर्या--संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं० ) सारे संज्ञा, पु० दे० (अ. दीदार) दीदार, दिन या दिन भर का काम । दर्शन. भेंट, प्यारा। दिनदानी-संज्ञा, पु० यौ० ( सं० ) प्रतिदिन दिन -- संज्ञा, पु. ( सं० ) सूर्य निकलने से दान देने वाला। डूबने तक का समय ! महा०—दिन को | दिननाथ -संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) सूर्य । तारे दिखाई देना-इतना कष्ट देना कि दिनपति-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) सूर्य, बुद्धि ठीक न रहे। दिन को दिन रात को दिन-मणि-- संज्ञा, पु० यौ० (सं०) सूर्य । रात न जानना या समझना-अपने दिनमान-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) दिन का आराम और सुख का कुछ विचार न करना। प्रमाण, सूर्योदय से सूर्यास्त तक का समय । For Private and Personal Use Only Page #911 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir दिल दिनमार दिनमार-संज्ञा पु० (दे०) डेन्मार्क देश के चाटना -- व्यर्थ बहुत बकना । दिमाग निवासी। खाली करना-मग़जपच्ची करना। दिमाग़ दिनराइ-दिनराई दिनराय-संज्ञा, पु० यौ० चढ़ना या प्रास्मान पर होना-अति दे० (सं० दिनराज ) सूर्य, दिनराज। । अहंकार होना । दिमाग़ हो जाना-धमंड दिनांध-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) उल्लू , घुग्घू । हो जाना। दिमाग ठंढा करना (होना)-- दिनाइ-संज्ञा, पु० (दे०) दाद रोग। क्रोध या घमंड दूर करना ( होना )। दिनाईछ--संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० दिन + हि. दिमागदार--वि० (भ० दिमाग-+दार-फा०) आई ) तत्काल मृत्युकरी विषैली वस्तु। बड़ा बुद्धिमान, या समझदार, अक्लमंद । दिनालोक-संज्ञा, पु. यौ० (सं०) धूप, सूर्य दिमागी-वि० (फा०) ग़रूरी, घमंडी, दिमाग का प्रकाश या किरण । संबंधी, मस्तिष्क का। दिनार-दीनार-संज्ञा, पु. ( फ़ा. दीनार ) दिमातst-- संज्ञा, पु० दे० यौ० (सं० द्विमातृ) स्वर्ण मुद्रा, अशफ़ी। वि० (दे०) पुराना, जिसके दो मातायें हों, द्विमातुर । वि०, संज्ञा, अधिक आयु का। पु० दे० यौ० (सं० द्विमात्रा) दो मात्राओं वाला । दिनियर -संज्ञा, पु० दे० ( सं० दिनकर ) दिमाना-दिवाना-वि० दे० (फ़ा० सूर्य । वि० (दे०) पुराना, बहुत दिन का। दीवाना ) पागल, दीवाना। दिनी - वि० दे० (हि० दिन+ई-प्रत्य०) बहुत दियना-संज्ञा, पु० (सं० दीपक ) दिया, दिनों का पुराना, प्राचीन । दीपक, चिराग़ । दिनेर-दिनैला--संज्ञा, पु० दे० (सं० दिनकर) दियरा--संज्ञा, पु० दे० (हि. दीपा-+ रासूर्य । वि० (हि० दिन+एर, ऐला-प्रत्य०) प्रत्य० ) एक प्रकार का पकवान, दिया, दीपक बहुत दिनों का पुराना। "जानहु मिरग दियारहिं मोहैं "-पद० । दिनेश-संज्ञा, पु. यौ० (सं०) सूर्य, दिनेस। दिया-संज्ञा, पु० दे० ( सं० दीपक ) दीया, "सो कह पच्छिम उगेउ दिनेशा"-रामा०। दीपक, सा० भू० (स० क्रि० देना) प्रदान किया। दिनौंधी-संज्ञा, स्त्री० यौ० दे० (हि० दिन+दियारा-संज्ञा, पु० दे० (फ़ा० दयार = सूबा) अंध+ई-प्रत्य० ) दिन को दिखाई न देने कछार, दरियाबरार, खादर, प्रांत, प्रदेश । __ का रोग। दियासलाई--संज्ञा, स्त्री० दे० यौ० (हि. दिपति ---संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० दीप्ति) दीयासलाई ) दीयासलाई, दीवासलाई, दिया दीप्ति, प्रकाश, कांति, दीपति (व.)। सराई (ग्रा.)। दिपना-अ० क्रि० दे० ( सं० दीप्ति ) चम- दिरद-संज्ञा, पु० दे० (सं० द्विरद ) हाथी। कना, प्रकाशित होना । “दीपक दिपैहै ज्यों | दिरम--संज्ञा, पु० दे० ( अ० दरहम ) रुपया, सनेह सों सुगेह माहिं "-रमाल । दिरहम, एक सिक्का। दिपाना-अ० क्रि० दे० (सं० दीप्ति) चमकना। दिरमाना-- संज्ञा, पु० दे० ( फ़ा० दरमानः ) स. क्रि० दे० (दे० दीपना का प्रे० रूप ) चमकना। दवा करना, चिकित्सा, इलाज । दिबछ-संज्ञा, पु० दे० (सं० दिव्य) देवताओं के दिरमानी-संज्ञा, पु० दे० (फा० दरमान-+ योग्य, बहुत सुन्दर । ई-प्रत्य० ) चिकित्सक, वैद्य । दिमाक-संज्ञा, पु० दे० (अ० दिमाग) दिमाग, दिरिस - संज्ञा, पु० दे० (सं० दृश्य ) गर्व । वि० दिमाकर । तमाशा, दृश्य । दिमाग़-संज्ञा, पु. (अ.) सिर का भेजा, दिल-संज्ञा, पु. (फा०) हृदय, चित्त, जी। मस्तिष्क । मुहा०-दिमाग खाना या । मुहा०दिल उचटना-चित्त का उदासीन For Private and Personal Use Only Page #912 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir WamanaOHANE दिलगीर १०१ होना, ध्यान न लगना । मुहा०-दिलकड़ा दिलजोई संज्ञा, स्त्री० (फ़ा०) संतोष,तसल्ली। करना-साहस करना या हिम्मत बाँधना। "दिलजोई के वचन सुहाये "-छत्र० । दिल का कँवल (कमल) खिलना- दिलदार-वि० (फ़ा०) उदार, रसिक, प्यारा । मन प्रसन्न होना । दिल गिरना- हतोत्साह | संज्ञा, स्त्री० दिलदारी। या अरुचि होना, उदास होना । दिल का दिलवर-वि० (फ़ा०) प्रिय, प्यारा । गवाही देना--मन में निश्चय होना। दिल | दिलरुवा-संज्ञा, पु० (फा०) प्यारा, प्रिय । का बादशाह-बड़ा दानी, अति उदार | "मुशफिक लिखू शफीक लिखू दिलरुबा मनमौजी। दिल लगाना-प्रेम करना, | लिखू"-। ध्यान देना । दिल के फफोले फोड़ना--- | दिलवाना-स० क्रि० दे० (हि. दिलाना का पुराने द्वेष से बकना, बक-झक कर मन | प्रे० रूप ) दिलाने का काम दूसरे से लेना। प्रसन्न करना । दिल जमना-चित या मन | दिलही - संज्ञा, पु० दे० (हि. दिल्ली, अं० लगना : दिल में जमना -(पैठना, बैठना) डेनही) दिल्ली। दृढ़ या निश्चय होना, प्रिय होना, पसंद | दिलाना-स० क्रि० दे० (हि० देना का स० ) श्राना । दिल ठिकाने होना-चित स्थिर किसी को देने के काम में लगा देना। होना । दिल ( मन ) ममोसना- इच्छा | दिलावर--वि० ( फा० ) शूरवीर, बहादुर, पूरी न कर सकना। दिल देना --प्रेम करना। साहसी, उत्साही । संज्ञा, स्त्री० दिलावरी । दिल बुझाना-चित्त का उत्साह या उमंग- दिलासा-संज्ञा, पु. ( फा० दिल + मासा रहित हो जाना । दिल में फ़रक आना- | हि० ) ढारस, धैर्य, आश्वासन, तसल्ली। मन मोटा होना। दिल फिर जाना- । यौ० दमदिलासा-धैर्य,तसल्ली, धोखा । वैमनस्य या विरोध हो जाना । दिल से - दिली-वि० ( फा० दिल + ई-प्रत्य० ) हृदय जी लगा कर, मन से । दिल दुखाना-- या चित्त-सम्बंधी, हार्दिक, बहुत धना। अप्रसन्न या दुखी करना । दिल से दूर | दिलीप-संज्ञा, पु० (सं०) राजा रघु के पिता। करना -- भुला देना : दिल ( कलंजा) दिलीप इति राजेन्दुः "-रघु० । निकाल कर रखना-बड़ा हित करना, | दिलेर - वि० ( फ़ा० ) शूर वीर, हिम्मती, मन की सब बात कहना। दिल हो दिल ___ साहसी । संज्ञा, स्त्री. दिलेरी। में - मन ही मन में, चुप-चाप । दिल्लगी-संज्ञा, स्त्री० यौ० दे० (फ़ा दिल + दिलगीर-वि० (फ़ा०) उदास, दुखी । संज्ञा, | हि० लगना ) ठठोली, हँसी, ठट्ठा, उपहास । स्त्री० दिलगीरी। मुहा०—किसी । बात ) की दिल्लगी दिलचला-वि० यौ० (फा० दिल + चलना | उड़ाना-उपहास करना (मिथ्या समझना) हि० ) साहसी, शूरवीर, बहादुर, शौकीन । दिल्लगी बाज-संज्ञा, पु. (हि. दिल्लगी मनचता (दे०)। __+बाज़-फा० ) ठह' बाज़, ठठोल, हँसी दिलचस्प-वि० यौ० फा०) सुन्दर, मनोहर, उड़ानेवाला, मसखरा । संज्ञा, स्त्री. दिल्लगी मनाकर्षक, जी में चिपक जाने वाला। बाजी। (संज्ञा, स्त्री. दिलचस्पी) दिल्ला-संज्ञा, पु. (दे०) शीशी, किवाड़ों में दिनजमई-संज्ञा, स्त्री० (फा० दिल --जमन लगाने का शीशा । अ०+ ई-प्रत्य० ) भरोसा. तसल्ली । | दिल्ली -संज्ञा, स्त्री० (दे०) भारत की राजदिलजला-वि० यौ० ( फा० दिल ---जलना- धानी, इंद्रप्रस्थ । हि०) दग्धहृदय, कष्ट-प्राप्त, दुखी । | दिव-संज्ञा, स्त्री० (सं०) आकाश, देव-लोक, For Private and Personal Use Only Page #913 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir दिवराज दिव्य PERamaareMRITMANDA स्वर्ग, दिन, वन । " दिवं मरुत्वान् इव उदार । -संज्ञा, स्त्री. ( फा० दीवार ) भीत, भोच्यतेभुवन् ”-रघु०। भीती, दीवाल । दिघराज-संज्ञा, पु. यौ० (सं०) इन्द्र, दिवाला, देवाला-संज्ञा, पु० दे० ( हि. देवराज । दिया+ बालना =जलाना ) ऋण-मुक्ति के दिवरानी-संज्ञा, स्त्री० दे० ( हि. ) स्वामी लिये पूर्ण धन न होने की दशा, टाट उलट के छोटे भाई की पत्नी, देवरानी दिउरानी। दना, टाट उलटना ( व्यो. मुहा० )। (ग्रा.)। लो०- चार दिना के पूड़ी खाये निकल दिघला--- संज्ञा, पु० दे० ( हि० दिया ) दिया, | दिवाला जाय" । मुहा०-दिवाला निक दिया दीपक । "यहि तनका दिवला करौं, बाती लना-दिवाला होना । दिवाला मारना मेलौं जीव" --कबी० । दिवलिया (दे०)। (निकालना) दिवालिया बन जाना । दिवस-संज्ञा, पु. (सं० दिन । 'दिवस रहा दिवालिया, देवालिया--- वि० (हिदिवाला भरि जाम "-रामा० । ___ +इया प्रत्य० ) जिसका दिवाला निकल दिवस-अंध* -संज्ञा, पु० यौ० (सं० दिवाँध) गया हो । ऋणी, कंगाल । दिवसाँध, दिनौंधी रोगी,जिसे दिन में दिखाई दिवाली, दिवारी-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० न दे, दिन का अंधा, घुग्घू या उल्लू पक्षी। दीपावली कार्तिक मास की अमावस्या, दीपदिवसात्यय-संज्ञा, पु० यौ० ( सं० ) दिन मालिका । " श्रावति दिवारी बिलखाइ की समाप्ति, सायंकाल, संध्या, शाम । ब्रजवारी कहैं"-उ० श० । दिवस्पति-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) सूर्य, रवि, दिविज-वि० (सं०) स्वर्गीय, दिव्य, अलौदिवसेश। किक, सुन्दर । दिवांध-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) जो दिनौंधी | दिविरथ--संज्ञा, पु० यौ० (सं०) एक राजा । रोग से पीड़ित हो, जिसे दिन में दिखाई न दिविषद-संज्ञा, पु० ( सं० ) देवता, देव । देता हो.घुग्घू , या उल्लू पक्षी, दिवांध । संज्ञा, दिवेश- संज्ञा, पु. यौ० (सं०) इन्द्र, देवराज, पु० दिनौंधी रोग । संज्ञा, स्त्री० दिवान्धता।दिवैया, देवैय्या-वि० (हि० देना +-वैया --- दिवा-संज्ञा, पु. (सं०) दिन, दिवस, प्रत्य० ) देने वाला, दाता, दानी। मालिनी छंद। दिवोदास-संज्ञा, पु. (सं०) काशी के राजा दिवाकर-संज्ञा, पु. ( सं० ) सूर्य, रवि। जो धन्वंतरि के अवतार माने जाते हैं। “ दीपत दिवाकर को दीपक दिखैयै कहा" " धन्वंतरि दिवोदास काशिराजस्तथा-रत्ना० । श्विनौ "स्फु०। दिवान-संज्ञा, पु. (अ. दीवान ) मंत्री, दिवोल्का-संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं० ) दिन में वजीर, सलाहकार । वि० (दे०) पागल । टूटने वाला तारा, उल्का ।। दिघाना-वि० संज्ञा, पु. ( अ० दीवाना) दिवौकस, दिवौका-संज्ञा, पु. यौ० (सं.) दीवाना-पागल । *t- सक्रि० दे० (हि० देवता, देव । सुपाणः सुमनसस्त्रिदिवेशः दिलाना ) दिलाना । स्त्री० दिवानी। दिवौकसः"-श्रम ।। दिवाभिसारिका-संज्ञा, स्त्री० यौ० ( सं०) दिव्य-वि० (सं० ) स्वर्गीय, स्वर्ग-संबंधी, जो नायिका दिन में प्रेमी के यहाँ नावे ।। श्राकाशीय, अलौकिक, प्रकाशमय, सुन्दर । (विलो-निशाभिसारिका)। संज्ञा, स्त्री० (सं०) दिव्यता । " दिव्य बसनदिवाल देवार, दिवार-वि० दे० (हि. भूषन पहिराये"- रामा० । संज्ञा, पु० (सं०) देना+वाल-प्रत्य० ) देने वाला, दाता, दानी, । यव, जौ, तत्वज्ञानी, एक केतु, श्राकाशीय For Private and Personal Use Only Page #914 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir दिव्यकारा १०३ दिसना, दीसना उत्पात, एक नायक, स्वर्गीय नायक जैसे | दिव्या-संज्ञा, स्त्री० (सं० ) स्वर्गीय नायिका, इन्द्र, न्यायालय की सत्यासत्य परीक्षा या | सुन्दर नायिका। शपथ। दिव्यादिव्य- संज्ञा, पु० यौ० (सं०) देवताओं दिव्यकारा-वि० (सं० ) कोषग्राही, शपथ के से गुण वाला नायक जैसे-नल । कर्ता। दिव्यादिव्या-संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) स्वर्गीय दिव्यकंड --- संज्ञा, पु. ( सं० ) एक छोटा नायिका, स्वर्गीय स्त्रियों के से गुण वाली ताल जो कामरूपी नामक पर्वत के पूर्व की नायिका-जैसे-दमयन्ती। ओर है। दिव्यास्त्र-संज्ञा, पु. यौ० (सं०) देवतों का दिव्यगंध-संज्ञा, पु० यौ० ( सं०) लौंग, हथियार, देव-प्रदत्त अस्त्र, सुन्दर हथियार। लवंग, लउँग (ग्रा०)। दिव्योदक-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) वर्षा का दिव्य गायन--संज्ञा, पु. यौ० (सं०) गन्धर्व, | पानी या जल । अच्छा गाने वाला, देव-गायक । दिश- संज्ञा, स्त्री० (सं०) दिशा, दिक, दिग। दिव्यचक्षु-संज्ञा, पु० यौ० (सं० दिव्य चक्षुस्) | दिशा-संज्ञा, स्त्री० (सं०) तरफ़, ओर, दिक, देवताओं कीसी आँख, सूक्ष्म दृष्टि, ज्ञानदृष्टि, दिग्, १० दिशायें हैं, दश की संख्या । अंधा, चश्मा। दिशाभ्रम-संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) दिशा दिव्य दोहद - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) बिना | की भूल, दिग्भ्रम, ( यौ० सं०) माँगे प्राप्ति । | दिशाशूल-संज्ञा, पु. यौ० (सं०) दिग्शूल, दिव्यदृष्टि-- संज्ञा, स्त्री० (सं०) देवतों की सी| दिक्शूल । दृष्टि, ज्ञान-दष्टि । दिशि-संज्ञा, स्त्री० ( सं० दिशा ) दिशा । दिव्य धर्मी-वि० यौ० (सं० दिव्यधर्मिन् ) दिश्य-वि० (सं० ) दिशा-संबंधी, दिग्भव, धार्मिक, मनोहर, सुन्दर । दिग्जात । दिव्यरत्न--संज्ञा, पु० यौ० (सं०) चिन्तामणि। | दिष्ट-संज्ञा, पु० (सं०) भाग्य, दैव, नियति । दिव्यरथ---संज्ञा, पु० यौ० सं०) देव-विमान।। वि० ( सं० दिश् + क्त-प्रत्य० ) उपदिष्ट, दिव्यरस-संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) पारा, | शिक्षित । अच्छा रस। दिष्टवन्धक--संज्ञा, पु. यौ० (सं०) गिरों दिव्यलता-संज्ञा, खो० यौ०(सं०) दूब, श्रमर- | करने कीरीति जिसमें धनी को व्याज मिलता बेलि, सुन्दर लता। है, सूदी रेहन । दिव्यवस्त्र-संज्ञा, पु० यौ० ( सं० ) स्वर्गीय | दिष्टभुक् दिष्टभुग-वि० यौ० ( सं०) या सुन्दर कपड़े। | भाग्याधीन भोग करने या खाने वाला। दिव्य वाक्य-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) देववाणी, दिष्टि* - संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० दृष्टि) निगाह। संस्कृत भाषा। दिष्ट्या -अव्य० (सं०) हर्ष, अति आनन्द । दिव्य सूरि-- संज्ञा, पु० (सं०) रामानुजानु- | दिसंतर*1-- संज्ञा, पु० दे० यौ० (सं० यायी श्राचार्य । देशान्तर, विदेश, परदेश, दिशाओं की दूरी। दिव्यज्ञान-संज्ञा, पु. यो० (सं०) ब्रह्मज्ञान ।। क्रि० वि० बहुत दूर, परदेश में। दिव्यस्थान-- संज्ञा, पु० यौ० (सं०) स्वर्गीय दिस, दिसि*-संज्ञा, स्त्री० (सं० दिशु ) __ भवन, सुन्दर घर या स्थान । दिशा। दिव्यांगना- संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं० ) देवता दिसना, दीसना* --अ० क्रि० दे० (हि. की पत्नी, अप्सरा, सुन्दर स्त्री। | दिखना ) दिखाई देना। For Private and Personal Use Only Page #915 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org दिसा दिसा - संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० दिशा ) दिशा, तरफ़, मलत्याग, पाखाना । दिसा - दाह* +- संज्ञा, पु० (सं० दिग्दाह) दिग्दाह, दिशाओं की भाग । दिसावर, देसावर - संज्ञा, पु० दे० (सं० देशांतर) परदेश, विदेश | वि० दिसावरी । दिसावरी, देसावरी - वि० दे० ( हि० दिसावर + ई - प्रत्य० ) विदेश से आया, बाहरी, परदेशी माल । दिसि - संज्ञा, खो० दे० (सं० दिशा) दिशा, " जेहि दिसि बैठे नारद फूली"- - रामा० । दिसिटिक) - संज्ञा स्त्री० दे० (सं० दृष्टि ) निगाह, नजर | दिसिदरद संज्ञा, पु० यौ० दे० ( सं० दिग् द्विरद) दिग्गज | दिसिनायक दिग् + नायक ) दिग्पाल | दिसिप-संज्ञा, पु० दे० (सं० दिग्पाल ) दिग्पाल, दिसिराज | संज्ञा, पु० यौ० दे० (सं० ६०४ दिसैया*f-- वि० दे० ( हि० दिसना + ऐयाप्रत्य० ) देखने या दिखाने वाला | दिस्टी* -- संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० दृष्टि) निगाह, दृष्टि, नज़र । दिस्-बंध - संज्ञा, पु० यौ० दे० (सं० - दृष्टि बंध ) दिठबंध, नजरबंद, जादू, इन्द्रजाल । दिस्ता - संज्ञा, पु० (दे० ) दस्ता | दिहन्दा, देहेन्द - वि० ( फ़ा० ) देने वाला, दाता | ( विलो० - नादेहेन्दा ) | दिहरा, देहरा - संज्ञा, पु० दे० (सं० देवालय ) मंदिर, देहली, संज्ञा, स्त्री० (दे०) दिल्ली, देहरी ( द्वा० ) । ' देहसों न देहरा " - देव० । विहाड़ा- संज्ञा, पु० दे० ( हि० दिन +- हाड़ाप्रत्य० ) दुर्गति, कुदशा, बुरी दशा । दिहात, देहात - संज्ञा, स्त्रो० दे० (हि० देहात) देहात, गवई. गाँव । दिहाती - वि० दे० ( हि० देहाती ) देहाती गँवार, ग्रामीण, देहात- सम्बंधी । दीठ-दीठि , दीट - संज्ञा, स्त्री० दे० (हि० दीया ) दीपक रखने की चीज़, दियर ( ग्रा० ) दीवट | दीया - संज्ञा, पु० दे० ( हि० दीया ) दीपक, दिया, दीवा दिया ( ग्रा० ) । दीक्षक - संज्ञा, पु० (सं०) शिक्षक, गुरु, पढ़ाने वाला, दीक्षा या शिक्षा देने वाला । दीक्षण -- सज्ञा, पु० (सं०) पढ़ना या शिक्षा देना ! वि० संज्ञा, पु० (सं०) दीक्षित । दीक्षांत - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) अंतिम शांति की यज्ञ, शिक्षा समाप्ति । यौ० - दीक्षान्त Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भाषण । दीक्षा - संज्ञा, स्त्री० (सं० ) गुरु-मंत्र, शिक्षा, यजन, पूजन, उपदेश 1 दीक्षागुरु- संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) मंत्र का उपदेशक गुरु । दीक्षित - वि० सं०) नियम पूर्वक यज्ञ का अनुष्ठान करने या चाचार्य या गुरु से शिक्षा या दीक्षा लेने या उपदेश या मंत्र ग्रहण करने वाला | संज्ञा, पु० (सं० ) ब्राह्मणों की एक उपाधि या जाति । दीखना - भ० क्रि० दे० ( हि० देखना ) दृष्टि - गोचर होना, दिखाई देना, देखने में थाना । दीघी - संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० दीर्घिक, बावली, ताल, तलैया, तालाब । दीच्छा दीवा* - संज्ञा, स्त्री० दे० ( सं० दीक्षा ) शिक्षा, दीक्षा, उपदेश, सिखावन । दीठ-दीठि - संज्ञा, स्त्री० दे० ( सं० दृष्टि ) दृष्टि, निगाह, किसी सुन्दर वस्तु पर बुरा असर डालने वाली नज़र । " लगी है दीठ काहू की " - स्फु० । मुहा० - दीठ उतारना या झाड़ना -मंत्र से बुरी नजर लगने का प्रभाव मिटाना । दीठ ग्वाजाना बुरी नज़र के सन्मुख पढ़ जाना | दीठ लगना -- नज़र लगना । दीठ जलाना - नज़र का प्रभाव मिटाने को राई - नमक या कपड़ा श्राग में जलाना, For Private and Personal Use Only Page #916 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir दीठबंदी दीपन देल-भाल, निगरानी, परख, दया या प्राशा | दीन-बंधु-संज्ञा, पु. यौ० (सं०) दोनों का की दृष्टि, विचार । सहायक या भाई. परमेश्वर या भगवान । दीठबंदी-संज्ञा, स्त्री० यौ० दे० (हि. दीठवंद) "जोरहीम दीहि लखै. दीनबन्धुसम होय"। नज़रवंदी, जादू। दीनानाथ-सज्ञा, पु० यौ० दे० (सं० दीनदीठिवंत-वि० दे० (सं० दृष्टिवंत) नेन वाला, नाथ ) दोनों का स्वामी या रक्षक । “दीन देखने वाला। बन्धु दीनानाथ मेरी तन हेरिये''-स्फु० । दीदा-संज्ञा, पु० दे० (का. दीदः ) नेत्र, दीनार-सज्ञा, पु० (स.) स्वर्ण-मुद्रा, अशी , आँख । मुहा०-दीदा लगना-जी, मोहर, सोने का एक गहना । मन या चित्त लगना । दीदे का पानो ढल | दीप-दीपक-सज्ञा, पु. (स०) दीपक, दिया, जाना-बेशरम या निर्लज्ज हो जाना। चिराग़, दीवा (ग्रा०), एक छद। सज्ञा, पु. दीदा नवना (लवना)-शर्म खाना, नम्र दे० ( स० द्वीप ) द्वीप टा। "दीप दोप के होना। दादे निकालना --- क्रोध भरी | भूपति नाना"। 'छवि गृहा दीप शिखा आँखों से देखना । दोदे फाड़कर देखना जनु बरई "--रामा० । दिया, दीया -आँखें फाड़ कर देखना अनुचित साहस (ग्रा.)। यौ० कुल-दीपक (दाप)-वंश या हिम्मत दिखाना, ढिठाई करना। का प्रकाशित करने वाला, बड़ा आदमी। दीदार-संज्ञा, पु० (फा० ) दशन, भेंट। "प्रकाशः कुल-दीपकः "-स्फु०। एक दीदी-संज्ञा, स्त्री० दे० हि० पु० दादा) बड़ी अलंकार जिसमें प्रस्तुत और अप्रस्तुत का बहिन । एक ही धर्म कहा जाये, (१० पी० )। दीधिनि-संज्ञा, स्त्री० (सं०) चन्द्र, सूर्य की एक राग (सगी०), कुङ्कुम, केसर वि० (स०) किरण, प्रकाश, अंगुली । “रवि-दीधिति लौं उजेला या प्रकाश करन वाला, पाचन-शक्ति ससि-किरनि, मोहि बचावति वीर"- बढ़ाने वाला उत्तजक, बढ़ाने वाला। स्त्री० मन्ना। दापिका। दीन-वि० (सं०) कंगाल, दरिद्र, बापुरा (ब) | दोपकमाला-संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं.) एक बेचारा, दुखिया, ब्याकुल, उदाप, नम्र, । वर्ण वृत्त, एक अलकार, माता दापक, बिनीत ज्ञा, पु. ( अ.) मत. मार्ग, जिसमें पूर्ववर्ती वस्तुएँ परवर्ती वस्तुओं की पंथ, मजहब । यौ० दीन इलाहो-अझ- | उपकारिणी प्रगट की जाव, दीपक-समूह । बर का असफल मत । दाएकवृत्त-सज्ञा, पु० यौ० (स०) जिप दीवट दीनता, द.नताइ--संज्ञा, स्त्री० दे० (सं०) में कई दीपक रखे जा सक, झाड़। कंगाली, दरिद्रता, निर्धनता, बेचारगी, दपकावृत्ति-सज्ञा, स्त्री० (स०) श्रावृति नम्रता। दीपक--जिनमें एकार्थवाची या भिन्नार्थवाचो दीनन्य-संज्ञा, पु० (सं०) दीनता, ग़रीबी। एक से पद हों। दीनदय लु वि. यौ० (स०) दोनों पर दीपत, दीपरि-संज्ञा, स्त्री० दे० सं० दीप्ति) दया करने वाला। संज्ञा, पु. भगवान, प्रकाश, कांति, प्रभा शोभा, यश. कीर्त्ति । दीनदयाल (दे०)। दीपदान- सज्ञा, पु० यौ० (सं०) दिया देना, दीनदार -वि. (अ. दीन + दार फा० ) प्रारतो करना, दिवाली त्या०)। धार्मिक. मजहबी । संज्ञा, स्त्री. दीनदारी। | दीपध्वज-संज्ञा, पु. यौ० (स०) दिया का, दीन-दुनिया-संज्ञा, स्त्री० यौ० (अ०) लोक- | झंडा कज्जल दीपध्वजा। परलोक, स्वार्थ परमार्थ । दीपन-संज्ञा, पु० (२०) प्रकाशन, चुधा. भा० श० को०-४ For Private and Personal Use Only Page #917 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - दीपना दीर्घकाल वर्द्धन, प्रकाश के लिये दीप जलाना, उत्ते-दीप्ति-संज्ञा, स्त्री. (सं०) प्रकाश, उजाला, जन । वि० श्रावेग उत्पन्न कारक, पाचन प्रभा, कांति, छबि, भाभा, शोभा, रोशनी । शक्ति का बढ़ाने वाला। संज्ञा, पु. (सं०) दीप्तिमान-- वि० (सं० दीप्तिमत्) प्रकाशमान, मन्त्र-संस्कार । वि. दोपनीय, दीपित, __ चमकता हुआ, शोभा या कांति-युक्त । स्त्री. दीप्ति, दीप्य । दीप्तिमती। दीपना* --अ० क्रि० दे० (सं० दीपन) प्रकाश दीप्तोपल-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) सूर्यकांति. करना, प्रकाशित होना, चमकना । स० कि. __ मणि, पातशी शीशा। (दे०) प्रकाशित करना, चमकना। दोप्य---वि० (सं.) जलाने योग्य, प्रकाशनीय। दीपनी-दीपनीया- संज्ञा, स्त्री. (सं०) अज- दीप्यमान्- वि० (सं०) प्रकाशमान्, चमकता वाइन औषधि । वि. उत्तेजिनी, विबर्धनी, । हुश्रा, शोभित । प्रकाशिनो। दीबट-संज्ञा, पु० दे० (हि. दीवट ) दियट । दीपान्वित-वि० यौ० (स०) शोभा यादीबो --संज्ञा, पु० ब० ( हि० देना ) देना, प्रकाश-युक्त। "कन-दीबो सौंप्यौ ससुर"- वि० । दीपमाला-संज्ञा, नी० या० (सं०) दीपक- दीमक-संज्ञा, स्त्री० (फा०) वल्मीक, दिवार समूह। डीमक, दिनार (ग्रा०)। दीपमालिका-दीपमाली- संज्ञा, स्त्री० यौ० | दीयमान-वि० (सं० दीपमत् ) जो दिया (सं०) दीपदान, दीप-समूह, दिवाली । ___ जाता है, दान देने की वस्तु । “दमकत दिव्य दीपमालिका दिखैहै को" | दीया-संज्ञा, पु. दे० ( सं० दीपक ) दिया, -ऊ० श०। दीपक, चिराग। मुहा०-दीया ठंढा करना दीपशिखा-संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) दिया -दीया बुझाना। किसी के घर का दीया या चिराग की लौ या टेम । “कवि-गृह ठंढा होना-किसी के मरने से कुटुम्ब या दीप-शिखा जनु बरई "-रामा०। परिवार का अँधेरा हो जाना, वंश डूबना । दीपावलि-दीपावली-संज्ञा, स्त्री० यौ० दीया बढाना--दीया बुझाना। दीया(सं०) दीपक-समूह, दिवाली, दीपमालिका । बत्ती करना-दीया जलाने का प्रबन्ध दीपिका-संज्ञा, स्त्री० (सं०) छोटा दीपक, वि. करना, दीया जलाना। दीया लेकर हूँढना स्त्री० (सं०) प्रकाश फैलाने वाली, विवेचनी। -~-बड़ी छान-बीन से खोजना। (स्त्री० दीपित-वि० (सं०) प्रज्वलित, प्रकाशित, अल्पा० ) दिवली, दियली, दियाली, छोटा दिया। "मैं कह दीया उसका नाम"-खु०॥ दीपोत्सव-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) दिवाली, दीरघ-वि० दे० ( सं० दीर्घ) दीर्घ, बड़ा। दीपावली। " दीरघ साँस न लेइ दुख-" दीरघ वाघ दीप्त-वि. (सं०) प्रकाशित, प्रज्वलित, निदाघ "-वि०।। चमकीला, जलता हुआ, रोशन । दीर्घ-वि० (सं०) बड़ा, लम्बा । संज्ञा, पु. दीप्ताक्ष-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) बिल्ली, । (सं०) द्विमात्रिक वर्ण, गुरु अक्षर ( विलो०. बिडाल, मार, मोर, मयूर । ह्रस्व, लघु) । दीप्ताग्नि-संज्ञा, पु. (सं०) अगस्त्य मुनि दीर्घकाय-वि० यौ० (सं०) बड़े डील-डौल वि० यौ० (सं०) तीचण जठरानल-युक्त, | वाला, लम्बा-तड़गा। जलती आग। दीर्घ-काल--संज्ञा, पु. यौ० (सं०) चिरकाल, दीप्ताङ्ग-संक्षा, पु० यौ० (सं०) मोर, मयूर।। बहुत समय, दीर्घ समय । उत्तेजित। For Private and Personal Use Only Page #918 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir बड़े हों। दीर्घकेश १०७ दीवा. दीर्घकेश- संज्ञा, पु० यौ० (सं०)लम्बे या बड़े | दीर्घबाहु-वि• यो० (सं०) जिसके हाथ बाल, भालू । दीर्घ-ग्रीव-संज्ञा, पु. यो० (सं०) ऊष्ट्र, ऊँट । दीर्घमूल- संज्ञा, पु. यौ० (सं० ) सरवन, वि० (सं०) लम्बी गर्दन वाला। शालपर्णी (औषधि) जवासा । दीर्घजंघा-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) सारस दीर्घमूलक-संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) विधारा पक्षी, ऊँट, बगुला पक्षी। । (औष०)। दीर्घजिह्वा-संज्ञा, पु. यौ० (सं०) साँप, सर्प। दीर्घरद-संज्ञा, पु. यौ० (सं०) शूकर, बाराह, स्त्री० (सं०) राजा विरोचन की कन्या। | दीर्घदंत । "सुता विरोचन की हती दीरघजिह्वा नाम । दीर्घलोचन-वि० यौ० (सं०) बड़ी बड़ी -राम। दीर्घ जीवित--वि० यौ० (सं०) चिरायु, आँखों या नेत्रों वाला। बहुत दिनों तक जीने वाला। संज्ञा, पु० | | दीर्घलोमा-संज्ञा, पु० यौ० सं०) रीछ, भालू । दीर्घवंश- संज्ञा, पु. यौ० (सं०) नल, दीर्घजीवन । दीर्घ जीवी-वि० यौ० (सं० दीर्घ जीविन् ) तृण, खश । वि०-बड़े वंश वाला। चिरजीवी, बहुत समय या काल या दिनों | दीर्घवक्त्र-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) हाथी। तक जीने वाला । संज्ञा, पु. (सं० दीर्घजीविन) दीर्घवर्ण - संज्ञा, पु० यौ० (सं०)द्विमात्रिकवर्ण। | दीर्घश्रुत - वि० यौ० (सं०) जो दूर तक सुन व्यास, अश्वत्थामा, बलि, हनुमान, विभीषण।। पड़े, दूर तक विख्यात । दीर्घतमा-संज्ञा, पु० (सं०) उतथ्य के पुत्र । जिन्होंने स्त्रियों का दूसरा ब्याह रोक दिया। दीर्घसक्थि -संज्ञा, पु० (सं०) गाड़ी, रथ । दीर्घतरु-संज्ञा, पु. यौ० ( सं० ) ताइ या दीर्घसत्र-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) यज्ञ विशेष। दीर्घसन्धानी-वि० यौ० (सं०)दूरदर्शी.ज्ञानी। खजूर का वृक्ष । दीर्घदंड-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) एरण्ड वृक्ष, | दीर्घसूत्र--वि० यौ० (सं०) प्रत्येक कार्य में रेडी का पेड़ । विलम्ब करने वाला, बालसी, सुस्त । दीर्घ दर्शिता--संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) दूर दीर्घसूत्रता--संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) प्रत्येक दर्शिता । कार्य में देरी करने का स्वभाव । दीर्घदर्शी-वि० यौ० (सं० दूर दर्शिन् ) दूर- दोघसू दीर्घसूत्री-वि० (सं० दीर्घ सूत्रिन् ) बड़ी दर्शी, दूर की सोचने वाला, अग्र सोची, गृध । । देर करने वाला, श्रालसी, सुस्त । दीर्घ दृष्टि-वि० यौ० (सं०) दूरदर्शी, दीर्घ दीर्घस्वर-संज्ञा, पु० यौ० ( सं० ) द्विमात्रिक दर्शी । संज्ञा, पु. (सं०) बहुत ज्ञानी, गृध्र स्वर । वि० संज्ञा, पु० (सं०) ऊँचे स्वर वाला। या गीध पक्षी। दीर्घाकार-वि० यौ० (सं०) बड़े डील-डौल का, दीर्घ नाद- संज्ञा, पु. यौ० (सं०) शंख। । दीर्घकाय, वृहत्काय । दीर्घनिद्रा- संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) मौत, मृत्यु दीर्घाव-संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) लम्बी राह, दीर्घनिःश्वास--संज्ञा, पु. यौ० (सं०) दुख | बड़ा मार्ग। की अधिकता से लम्बी लम्बी साँस । दीर्घायु-वि० यौ० (सं०) चिरजीवी, दीर्घजीवी। दीर्घपत्रक-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) लहसुन, दीधिका-संज्ञा, स्त्री० (सं०) बावली।। लाल पुनर्नवा (औष०)। दीवट-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० दीपस्थ ) दीर्घपुष्पक-संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) मदार, दीपकाधार, चिरागदान, दियट। प्राक। दीवाई-संज्ञा, पु० दे० ( सं० दीपक ) दीया, दीर्घ पृष्ट-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) साँप, सपी दिया, दीपक । For Private and Personal Use Only Page #919 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १०८ - दोवान दुःसंधान दीवान-संज्ञा, पु. (अ० राज-सभा, कचहरी, दुःकंत*-संज्ञा, पु० दे० (सं० दुष्यन्त) मंत्री प्रधान, वजीर, गज़लों का संग्रह। अयोध्या के एक राजा, बुरा स्वामी या पति। दवान श्राम - संज्ञा, पु. यो. (अ.) दुःख दुख-संज्ञा, पु० सं०) कष्ट, क्लेश, सामान्य सभा । आध्यात्मिक, प्राधिभौतिक, आधिदैविक, ये दघानग्गना-संज्ञा, पु० यौ० 'फा०, बैठक, दुःख के तीन भेद हैं। " श्रथ त्रिविधिदुःसभा-भवन । खाऽत्यन्त निवृत्तिरस्यन्त पुरुषार्थः"-सांख्यः। द वानवास - संज्ञा, पु० यौ०(अ. मुख्यपभा। मुहा०-दुःख उटाना ( पाना, भोगना) दीव ना - वि० (फा० ) पागल, सिड़ी कष्ट सहना । दुःख देना या पहुँनाना . दिगना । स्त्री. दीवानी दिवानी। कष्ट पहुँचाना । दुःख बटाना-सहानुभूति दवानापन-संज्ञा, पु. ( फा० दीवाना + पन प्रगट करना या बुरे समय में साथ देना। -प्रत्य०) पागलपन भिडीपन । दुःख भरना-बुरा समय काटना। विपति दीव न। - संज्ञा, स्त्री० (फ़ा०) दीवान का पद, श्रापत्ति, संकट, पीड़ा. व्याधि, दर्द। वह कचहरी जहाँ धन के मामले निपटाये दुःखद, दुःखदाता--वि० (सं० दुःखदातृ ) जावें । 'दीवानी करती दीवानी'-मै० श० । कष्ट या दुःख पहुंचाने वाला, दुग्बद, दुख दीवार- संज्ञा, स्त्री. (फा०) भीत, भीती, दाता (दे०) दीवाल, दिवाल। दुःबदायक-वि० (सं० ) कष्ट या दुःख दीवारगोर - संज्ञा, पु० (फ़ा०) दीपाधार जो पहुँचाने या देने वाला। स्त्री० दुःबदायिका। दीवाल में लगाया जाता है। दीवाल पर दुःखदायी-वि. (सं० दुःखदायिन ) दुःखलगाने का लैम्प । दीवाल-संज्ञा, पु० (फा० दीवार) दीवार, भीत। दायक दुख देने वाला' स्त्री. दुःश्वदायिन । दवाली-सज्ञा, स्त्री० (सं० दीपावली) कार्तिक दुःखप्रद-संज्ञा, पु० यो० सं० दुःख देनेवाला की अमावस, दिवाली, दिवारी। दुःखमय- वि० (सं०) दुःख से भरा हुआ । दीसना-- अ० क्रि० दे० (सं० दृश =देखना) दुःवांत - वि० यौ० (सं०) जिसके अंत में दृष्टि पड़ना. दिखाई देना। दुःख का वर्णन हो । संज्ञा, पु. (सं०) दुःख दह *--वि० दे० ( सं० दीर्घ ) बड़ा, लम्बा । का जहाँ अन्त हो, क्लेश की समाप्ति, दुःख "दीह दीह दिग्गज के केशव कुमार मनौ " का अन्त, दुख की अन्तिम सीमा। -राम। दुःखित- वि० (सं० ) पीडित, क्लेशित । दुंद-संज्ञा, पु० दे० (सं० द्वन्द्र) झगड़ा, दुःविनी - वि० स्त्री० (सं०) दुखिया । उत्पात, युद्ध उपद्रव, जोड़ा, दो । संज्ञा, पु० दुःखी-वि. ( सं० दुःखिन ) क्लेश-युक्त, (सं० दुन्दुभि ) नगाड़ा। दुख प्राप्त, दुग्वी । स्त्री. दुःम्बिनी। दुंदुभि दुंदुभी-संज्ञा, पु० (सं० वरुण, दुःशला-संज्ञा, स्त्री. (सं० ) दुर्योधन की एक राक्षस जिसे बालि ने मारा था। संज्ञा, बहिन जो जयद्रथ को व्याही थी। स्त्री. (सं०) नगाड़ा। "दुदुभि अस्थि-ताल दुःशासन-वि० ( सं० ) जिस पर शापन दिखराये"- रामा०। करना कठिन हो । संज्ञा, पु० (सं०, दुर्योधन दुंदुह संज्ञा, पु० दे० सं० डुडुभ) पनिहा साँप । ___ का छोटा भाई। दंबा --- संज्ञा, पु० दे० (फ़ा० दुम्बालः) बड़ी दुःशोल-वि० (सं०) बुरे स्वभाव वाला। पूँछ का भेंड़ा। दुःशीलता-संज्ञा, स्त्री. (सं०) दुष्टता । दुः-अव्य ० (सं०) नि दा. बुराई, कठिनता दुःसंधान- संज्ञा, पु. (सं०) काव्य का का घोतक, जैसे--दुर्जन, दुर्गम । एक रसांग। For Private and Personal Use Only Page #920 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १०१ दुःसह- वि० (सं०) जो कठिनता से सहा द्वितीया द्वीज, दूज (ग्रा०) । संज्ञा, पु. (सं. जा सके। द्विज) द्वितीया का चन्द्रमा, दूज का चाँद । दुःसाध्य- वि० सं०) जो कठिनता से सिद्ध हो। दुऊ-दोऊ* --- वि० दे० (हि. दोनों ) दोनों। दुःमाहम--संज्ञा, पु० (सं०) बुरा या अनु- दुकड़ा-दुकरा-संज्ञा, पु० दे० (सं० द्विक+ चित साहस, पृष्टता, ढिठाई। डा-प्रत्य० ) एक साथ दो, जोड़ा, युग्म, दुःसाहसो-- वि० (सं०) बुरा या अनुचित छदाम । स्त्री० दुकड़ी, दुकरी। साहस करने वारा। दुकड़-दुकरी-संज्ञा, स्त्री० (दे०) दो दो दुःस्वप्न -संज्ञा, पु० (सं०) बुरा स्वप्न या बाधों से चारपाई की बुनावट, दो बूटियों सपना। वाला ताश, दुकी, दो घोड़े जुती बग्घी, दुःस्वभाव-संज्ञा, पु० (सं०) बुरी आदत या जोड़ी, दो का पाँसा, युग्म ।। टेंव, बदमिजाजी । वि० (सं०) बुरे स्वभाव दुकान-संज्ञा, स्त्री० दे० ( फ्रा० अ० दुकान ) वाला। हह, हटिया, हट्टी । मुहा०-दुकान उठना दु-वि० दे० हि० दो दो का संनिप्त रूप. द्वै। (उठाना)-दुकान बन्द करना या तोड़ना। दुअन—संज्ञा, पु० दे० (सं० दुर्मनस् ) दुष्ट, दुकान बढ़ाना-दुकान बन्द करना। खल, बैरी, दैत्य । वि० (दे०) दोनों, दुहुन दुकान लगाना- दुकान की सब वस्तुयें दुहूँ (ग्रा.)। ठीक ठीक पानी अपनी जगह पर रखना, दुपा-संज्ञा, स्त्री० ( अ०) विनती, प्रार्थना, वस्तुएं फैलाना। याचना । महा०-दुआ माँगना-प्रार्थना, दुकानदार- संज्ञा, पु० (फा०) सौदा बेचने करना, अपीस, आशीर्वाद चाहना। दुआ वाला ढोंगी. दुकन्दार (दे०)। देना-शुभाशीष देना। मुहा०-दुश्रा दुकानदारी-संज्ञा, स्त्री० (फा०) दुकान पर लगना-असीस फलना, आशीष का माल बेचने का काम, ढोंग या पाखण्ड से फलीभूत होना। रुपया कमाने का कार्य । दुकन्दारी (दे०)। दुादस- संज्ञा, पु० दे० यौ० (सं० | दुकाल~ संज्ञा, पु० दे० (सं० दुष्काल ) द्वादश ) बारह । स्त्री० दुादसी-- द्वादशी। अकाल, दुर्भिक्ष, सूखा। दुआब-दुप्राधा-संज्ञा, पु. (फा०) दो नदियों के मध्य का देश, द्वाब, द्वाबा। दुकूल-संज्ञा, पु० (सं०) धोती श्रादि वस्त्र, तौम या रेशमी कपड़ा, महीन वस्त्र, नदी दुपारी-संज्ञा, पु० दे० (सं० द्वार ) द्वार, के दोनों किनारे, माता-पिता के वंश ।। दरवाज़ा। दुधागे-संज्ञा स्त्री० (हि. दुआर ) छोटा दुकेता- वि० दे० (हि. दुक्का + एलाद्वार, छोटा दरवाज़ा। वि० ( यौ० में ) द्वार प्रेत्य० ) जो दो हों, एक न हो। यौ०वाली-जैसे-बारह दुधारी। अकेला-दुकेला-एक या दो पुरुष । क्रि० दुाल- संज्ञा, स्त्री० (फ़ा०) चमड़ा, रकाब, वि. अकेले-दुकेले। तसमा। दुकेले-क्रि० वि० दे० ( हि० दुकेला ) दूसरे दुआली- संज्ञा, स्त्री० (फा० द्वाल-- तसमा) पुरुष को साथ लिये हुए। खराद घुमाने वाला चमड़े का तसमा। दुक्कड़-संज्ञा. पु० दे० (हि. दो+ कॅड़) दुइ-दुई-वि० दे० (हि० दो ) दो। “दुइ सहनायी के साथ बजने वाला एक बाजा के चारि माँगि किन लेहू "-राम। जो तबले सा होता है, नगड़िया. साथ दुइज*-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० द्वितीय) | जुड़ी दो नावें । For Private and Personal Use Only Page #921 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir दुग्धिका ११० दुक्का-वि० दे० (सं० द्विक् ) जोड़ा, एक ) “फिरहिं ते काहे न होहिं दुखारी"साथ दो। स्त्री. दुक्की। यौ०-इक्का- रामा। दुक्कार ( इक्के-दुक्के )- अकेला-दुकेला । दो दुखित-वि० दे० (सं० दुःखित ) क्लेशित, बूटियों का ताश । पीड़ित, शोकित । दुक्की-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि• दुक्का) दो बूटियों दुखिया- वि० दे० ( हि० दुख+इया-प्रत्य०) वाला ताश का पत्ता। दुखी, क्लेशयुक्त, पीड़ित। " इन दुखिया दुखंडा-वि० दे० यौ० (हि. दो+खंड) अँखियान को"--वि०। दो मंजिला, दो खण्डों या भागों का दुखियारा--वि० दे० (हि. दुख+इया+ दुखत* - संज्ञा, पु० दे० (सं० दुष्यन्त) मारा-प्रत्य० ) दुखिया, दुखी, रोगी। (स्त्री० राजा दुष्यन्त। दुखियारी)। दुख-संज्ञा, पु० दे० (सं० दुःख) कष्ट, पीड़ा, । दुखी-वि० दे० (सं० दुःखित, दुःखी ) दुखरंज, शोक । युक्त, शोकाकुल, पीड़ित, बीमार । "परम दुखड़ा-दुखरा-संज्ञा, पु० दे० ( हिन्दुख + दुखी भा पवन-सुत, देखि जानकी दीन ।" ड़ा - प्रत्य०) कष्ट, विपत्ति, कष्ट या शोक दुखीला-वि० दे० (हि. दुख + ईला. का वृत्तांत या कथन । " दुखड़ा कासों कहौं प्रत्य०) दुखपूर्ण, दुखी। मोरी सजनी"- स्फु० । मुहा०-(अपना दुखौहाँ*-वि० दे० (हि० दुख + नौहादुख) दुखड़ा रोना-अपने दुख का प्रत्य० ) दुखद, दुखदायी। स्त्री० दुखौहीं। वृत्तांत कहना। दुगई-संज्ञा, स्त्री० (दे०) बरामदा, चौपार, दुखद-दुखप्रद-वि० (सं० दुःख + द दुख (प्रान्ती.)। देने वाला, दुखदायक। दुगदुगी-संज्ञा, स्त्री० दे० (अनु० धुक-धुक ) दुखदाई-दुखदानि -वि० दे० ( सं० दुःख | धुकधुकी, गले का एक गहना।। दातृ ) दुखदायी दुख देने वाला। दुगड़ा-संज्ञा, पु० दे० (हि. दो+ गाड़ = दुखदुंद-संज्ञा, पु० यौ० दे० (सं० दुःख- गढ़ा ) दुनाली बंदूक दोहरी गोली। द्वंद्व ) दो प्रकार के दुख, दुख और विपत्ति । दुगासरा-संज्ञा, पु. यौ० दे० (सं० दुर्ग+ दुखना-अ० कि० दे० (सं० दुःख ) दर्द । प्राश्रय ) किसी किले या दुर्ग के पास या करना, पीड़ित होना। चारों भोर बसा गाँव।। दुखवना-स० कि० दे० (हि. दुखाना ) | दुगुन-दुगुना, ( दुगना )-वि० दे० यौ० दुखाना। (सं० द्विगुण ) दूना, दोगुना, दुगुणा। दुखहाया-वि० दे० (सं० दुःखित ) दुखित, दगुनाना-स० कि. (दे०) दो परत या तह शोकित । करना, दुगना करना। दुखाना-स० क्रि० दे० (सं० दुःख ) कष्ट | दुग्ग-संज्ञा, पु० दे० (सं० दुर्ग) किला, या पीड़ा देना, दुखी करना, व्यथित करना। कोट । “दक्खिन के सब दुग्ग जित"- भू०। मुहा०—( दिल) जी दुखाना -- मन दुग्ध-वि० (सं०) दुहा हुश्रा। संज्ञा, पु. दुखी करना । पके घाव को छूकर पीड़ा (स.) दूध, दृधू (ग्रा.)। पैदा करना। दुग्धवती-संज्ञा, स्त्री० (सं०) दूध देने वाली दुखारा-दुखारी-वि० दे० (हि० दुख+ गाय। आर-प्रत्य०) दुखारो --दुखी, पीड़ित, | दुग्धिका- संज्ञा, स्त्री० (सं०) दुधिया, दुद्धी शोकाकुल । “सो सुनि रावन भयो दुखारा।" घास । For Private and Personal Use Only Page #922 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir दुग्धिनी ६११ दुतीया दुम्धिनी-संज्ञा, स्त्री. (सं०) कटु या कड़वी | दुजोह -- संज्ञा, पु० दे० यौ० ( सं० द्विजिह्व) तुंबी। दो जीभों वाला साँप, आदि विविध कीड़े। दुग्धी-संज्ञा, स्त्री० (सं०) दुधिया घास, दुद्धी वि० सत्यासत्य कहने वाला। (ग्रा०) । वि. (सं० दुग्धिन् ) दूध वाला, दुजेश-संज्ञा, पु० दे० यौ० (सं० द्विजेश ) जिस वस्तु में दूध हो। द्विजेश, द्विजराज, द्विजपति, द्विजनाथ, द्विज. दुघड़िया-दुधरिया--वि० दे० (हि. दो + स्वामी, चन्द्रमा। घड़ी) द्विघटिका (सं०), दो घड़ी का। दुटूक - वि० दे० यौ० ( हि० दो+टूक ) दुघड़िया मुहूर्त-संज्ञा, पु. यौ० दे० (सं० भिन्न भिन्न, दो खंड, समान दो भाग । द्विघटिका --- मुहूत ) द्विधटिका मुहूर्त । मुहा०-दुटूक बात--संक्षिप्त, स्पष्ट या दुघरी-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. दो + घड़ी ) | खरी बात, सच्ची बात, जिसमें धुमाव और द्विघटिका, दो घड़ी। फेरफार न हो। दुत-अव्य० ( अनु०) अपमान, घृणा, दुचंद-वि० दे० (फ़ा० दोचंद) दूना, दुगुना। | तिरस्कार-सूचक शब्द, चल दूर हो या दूर "चंद सों दुचंद है अमंद मुख-चंद एक " जा, हट। --साल। दुतकार-संज्ञा, स्त्री० दे० (अनु० दुत+कार) दुचित-वि० दे० (हि. दो-चित) अपमान, तिरस्कार, फटकार, धिक्कार।। चिंतित, चिंता-युक्त, जिसका मन एकाग्र दुतकारना-स० कि० दे० (हि. दुतकार ) न हो । किसी को अनादर के साथ दुत दुत कह कर चितई-चिताई -संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. पास से हटाना, अपमान से भगाना, धिक्कादुचित ) दुविधा, चिन्ता. आशंका, फिक। रना, फटकारना । दुचित्ता-वि० दे० यौ० (हि. दो + चित्त) दुतफा | दुतर्फा-वि० दे० यौ० (हि. दो+अ० तरफ) जिसका चित्त एकाग्र न हो, दविधा में दोनो तरफों का, जो दोनों ओर हो । स्त्री० पड़ा, चिन्तित । (स्त्री० दुचित्ती)। दुतर्फी। दुज -संज्ञा, पु० दे० (सं० द्विज ) द्विज, दुतारा-संज्ञा, पु० दे० यौ० (हि० दो + तार) दो तारों का बाजा।। द्विजन्मा, ब्राह्मण, पक्षी, अंडे से उत्पन्न दुति-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० द्युति ) द्युति, जीव, ब्राह्मण, क्षत्री, वैश्य । चमक, दीप्ति, शोभा, छवि, किरण । दुजन्मा --संज्ञा, पु० दे० यो० (सं० द्विजन्मा) दतिमान-वि० दे० (सं० द्युतिमान् ) द्विजन्मा, द्विज, ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, द्यतिमान्, दीप्ति या प्रकाश-युक्त, सुन्दर, अंडन जीव, ब्राह्म । “संस्कारात् द्विजोद्भवः" | किरण-युक्त। - स्फु०। दुतिय-वि० दे० (सं० द्वितीय ) दूसरा । दुजपति-संज्ञा, पु० यौ० दे० (सं० द्विजपति) दुतिया-दुतीया-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० द्विजपति, द्विजराज, चन्द्रमा, द्विजेश। दितीया ) द्वितीया, दूज, दुइज। दुजराज -संज्ञा, पु० दे० यौ० (सं० द्विजराज) दुतिवंत --वि० दे० (हि० दुति + वंत-प्रत्य०) द्विजपति, द्विजराज, चन्द्रमा। " एरे मति- दीप्तिमान्, चमकीला, सुन्दर । मंद चंद आवति ना तोहिं लाज नाम दुज- दुताय -- वि० दे० (सं० द्वितीय ) दूसरा, राज काम करत कसाई को -पमा । द्वितीय । दुजानू-क्रि० वि० दे० (हि. दो+फा० जानू) दुतीया -संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० द्वितीया ) दोनों घुटनों के बल बैठना। द्वितीया, दूज तिथि। For Private and Personal Use Only Page #923 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir दुदल दुनियासाज़ दुदल-संज्ञा, पु. यौ० दे० (सं० द्विदल ) | दुधिया-पत्थर-संज्ञा, पु० दे० यौ० (हि. दाल, करनफूल, वरना पेड़।। दुधिया+ पत्थर ) गौरा पत्थर । दुदलाना-स. क्रि० (हि. दुतकारना ) | दुधिया विष-संज्ञा, पु० दे० यौ० (हि. दुतकारना, तिरस्कार या अपमान करना, दुधिया +-विष ) तेलिया विष, मीठा जहर, धिक्कारना। सिंगिया विष, इसके पेड़ कश्मीर में हैं। दुदामी-संज्ञा, स्त्री० दे० यौ० (हि० दो+ दुधैल-वि० दे० (हि. दूध---ऐल-प्रत्य०) दाम ) मालवा का एक सूती कपड़ा। दुधार, दुधारू। दुदिला-वि० दे० यौ० (हि. दो + फ़ा० दुनवना *-अ. क्रि० दे० (हि. दो+ दिल ) दुचित्ता, चिंतित, व्यग्र, व्याकुल । नवना ) झुककर दोहरा हो जाना । स० क्रि० दुद्धी-सज्ञा, स्त्री० दे० (सं० दुग्धी ) दुधिया मोड़ कर दोहरा करना। घास, दूधी। दुनाली-वि० सी० दे० यौ० (हि. दो+ दुधमुख*- वि० दे० यौ० (हि. दूध+ नाली ) दो नालों वाली, जैसे--दोनाली मुख, सं० दुग्धमुख) दुधमुहाँ, दूध पीता बच्चा। बंदूक । दुधमुहाँ-वि• द० यौ० ( सं० दुग्धमुख ) दुनियाँ- संज्ञा, स्त्री० दे० (अ० दुनिया ) दुग्धमुख, दुधमुख, दूध पीता बच्चा।। __ जगत, संसार, जहान । यो-दीनदुधहाँडा-दुधाँड़ी-संज्ञा, स्त्री० यौ० दे० (सं० दुग्धहंडिका हि• दूध + हाँड़ी) दूध दुनियाँ-लोक-परलोक। मुहा०-- दुनियाँ रखने का मिट्टी का बरतन, दुधहड़ी।। के परदे पर-सारे जहान या संसार में । दुनिया की हवा लगना ( दुनिया दुधार-वि० दे० (सं० दुग्धधारिणी ) बहुत | देखना)-लौकिक बातों का ज्ञान या दृध देने वाली गाय श्रादि, दुधारू (ग्रा०)। अनुभव होना । दुनिया भर का-बहुत संज्ञा, स्त्री० वि० (दे० यो०) दुधारा, जिसमें ज्यादा, सब से अधिक । संसार के लोग, दो धार हो, तलवार आदि। दुधारा-वि० यौ० दे० ( हि० दो+धार ) जनता, जगत का जंजाल या बखेड़ा, प्रपंच। दुनियाई - वि० दे० (अ.दुनिया + ई-प्रत्य०) दो धार वाला प्रस्त्र, तलवार आदि । "लिहें दुधारा दक्खिन वाला चिरवाँ दुइ आँगुर की लौकिक, सांसारिक । संज्ञा, स्त्री० (दे०) जगत, धार"-आल्हा०। संसार । दुधारी-वि० स्त्री० दे० यौ० (हि. दूध+ दुनियादार-संज्ञा, पु. ( फ़ा० ) गृहस्थ, प्रार-प्रत्य) दध देने वाली। वि० स्त्री० । लौकिक झगड़ों में फंसा हुश्रा, प्रपंच या (हि. दो+धार ) जिसमें दो धार हों। ढोंग से कार्य सिद्ध करने वाला, व्यावहारिक (नदी), दो धार की तलवार आदि। बातों में प्रवीण । दुधारू- वि० दे० यौ० (सं० दुग्धधारिणी) | दुनियादारी --संज्ञा, स्त्री. (फ़ा०) दुनिया के बहुत दूध देने वाली गाय । " लात खाय काम-काज, गृहस्थी का जंजाल, स्वार्थपुचकारिये, होय दुधारू धेनु"-वृं। साधन, बनावटी कार्य.लौकिक अवधार। दुधिया-दूधिया-वि० दे० (हि. दूध+ | दुनियाबी वि० ( फ़ा० ) संसार-सम्बन्धी, इया-प्रत्य०) जिसमें दूध मिला हो, दूधयुक्त, लौकिक, व्यावहारिक । दुध के रंग का, सफ़ेद । संज्ञा, स्त्री० दे० दुनियासाज-वि. (फा०) प्रपंच से कार्य (सं० दुग्धिका ) दूधी घास, चरी, खड़िया सिद्ध करने वाला, चापलूस, स्वार्थ-साधक । मिट्टी, एक विष। | संज्ञा, स्त्री० दुनिया साज़ी। For Private and Personal Use Only Page #924 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir दुनी दुरंगी दुनी*-संज्ञा, स्त्री० दे० (अ. दुनिया ) दुबारा-दुबाला-क्रि० वि० दे० (फा० दो जगत, संसार । " द्वार मैं दिसान मैं दुनी | बारा) दूसरी बार, दूसरी दफा, दोहरा । मैं देस-देलन मैं "... पद्मा। | दुबिद-संज्ञा, पु० दे० (द्विविद) एक बंदर, दुपटा*-संज्ञा, पु० द० यौ० (हि. दो | "लंकाया उत्तरे शिखरे द्विविदो नाम वानरः। +पाट) दो पाटों से बना चदरा, दुपट्टा, "कहँ नल, नील,दिविद बलवन्ता" रामा। डुपट्टा (ग्रा.)। स्त्री. अल्पा० दुपटी। दुविध-दुबिधा--संज्ञा, स्त्री० दे० यौ० "धोती फटी सी लटी दुपटी ''.-नरो।। (हि. दुवधा ) सन्देह, संशय, श्रागा-पीछा, दुपट्टा-संज्ञा, पु. द. यौ० (हि. दो + पाट) चिन्ता, खटका, अनिश्चय । दो पाटों से बना चादर। स्त्री. दुपट्टी। | दुभाव-संज्ञा, पु० दे० यौ० (सं० द्विभाव ) मुहा०-दुपट्टा तान कर सोना---बेखटके | दुविधा। हो सोना । कंधे पर डालने का कपड़ा।। दुभाखिया-दुभाखी-संज्ञा, पु० दे० (सं० दुपहर-दोपहर--संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. द्विभाषी) दो भाषाओं का बोलने या जानने दोपहर ) मध्यान्ह, दुपहरी (दे०)। वाला, दुभाषी। " उभय प्रबोधक चतुर दुपहरिया-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. दोपहर ) | दुभाखी '-रामा० । दोपहर, दोपहर का वक्त, फूल का एक पौधा। दुमंजिला-वि० (फा०) दो मंजिल, विश्राम दुपहरी-संज्ञा, स्त्री० दे० (हिं. दोपहर ) या खण्ड का । स्त्री० दुमंजिली । दोपहर, मध्यान्ह । दुम-संज्ञा, स्त्री० (फा०) पूँछ, लांगूल | दुफसली-वि० द. यौ० (हि० दो+ फसल मुहा०-दुम दबा कर भागना-डर कर म.) दोनों फसलों (रबी और ख़रीफ) की कुत्ते की भाँति भागना। दुम हिलानावस्तु, दोनों फसलों के अन्न उत्पन्न होने पूँछ हिला कर खुशी जाहिर करना, ( कुत्ते की भुमि। मुहा०-दुःकसली में पड़ना का काम )। पीछे लगी वस्तु, पीछे लगा -दुविधा में पड़ना । वि० स्त्री० अनिश्चित पुरुष, पिछलगा, किसी कार्य का अंतिम या दुविधा की बात। अंश, उपाधि ( व्यंग )। दुबकना-अ० क्रि० (दे०) छिपना, लुकना । | दुमची-संज्ञा, स्त्री० (फ़ा०) वह तसमा जो दुवधा-दुविधा संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० द्विविधा) घोड़े की पूँछ के तले दबा रहता है। दो बातों में मन का फँस जाना, दोहरी दमदार-वि० (फा०) पूंछ वाला, उपाधिबात, सन्देह, संशय, असमंजस, चिंता।। युक्त (व्यंग)। दुवरा-बरा - वि० दे० (सं० दुर्बल) पतला, दुमाता-वि० दे० यौ० ( सं० दुर्मातृ ) बुरी दुबला । स्त्री० दुवरी, दृबरी-दुबली। माँ, सौतेली माँ। दुबराना -अ.क्रि. द. (हि० दुबरा-+ दुमुहाँ-वि० दे० (हि. दो+मुंह ) दो मुख ना-प्रत्य०) दुबला या पतला होना। या मुँह वाला, कपटी, छली । स्त्रो. दुमुँहो दुबला--वि• द० (सं० दुचेल ) पतला, --दो मुंह का एक सर्प या कीड़ा। दुर्बल । स्त्रो० दुबली। दुरंगा–वि. द० (हि. दो+रंग) दो रंग दुबलाई-दुबराई-संज्ञा, स्त्री० द० (हि. | वाला, दो प्रकार का, दोहरी बात कहने दुबला) दुबलापन, दुबलता। | या चाल चलने वाला। दुबलापन--संज्ञा, पु० (हिदुबला -- पन ) दुरंगी-वि० स्त्री० (हि. दो रंग ) दो रंग कृशता, दुर्बलता। की चाल चलना या बात करना । संज्ञा, भा० श० को For Private and Personal Use Only Page #925 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org दुरंत ६१४ 66 लो० । स्त्री० (दे०) दोनों पक्षों की बात कहना | दुनिया दुरंगी मकारा सराँय " - दुरंत - वि० (सं०) कठिन, दुस्तर, दुर्गम, भयंकर, घोर, प्रचंड, जिसका अंत बुरा हो, " घरे श्रृंखला दुःख हैं | अशुभ, दुष्ट, दुरंतै" - राम० । दुरंधा - वि० दे० यौ० (सं० द्विरंध ) दो छेदों वाला । दुर - प्रव्य० या उप० (सं०) यह बुरे, निषेध आदि का द्योतक है जैसे- दुर्बुद्धि, दुस्थिति । दुर :- भव्य० या उप० (हि० दूर ) अपमान के साथ किसी के हटाने का शब्द, दूर हो, दूर जा। मुहा०—दुर दुर करना - अनादर से हटाना, कुत्ते के समान भगाना | संज्ञा, पु० (फा०) मौक्तिक, मुक्ता, मोती । दुरजन - संज्ञा, पु० दे० (सं० दुर्जन) दुष्ट, खल, शत्रु । संज्ञा, स्त्रो० दुरजनता । "सुख सज्जन के मिलन को, दुरजन मिले जनाय | " -- वृन्द० । दुरजोधन --- संज्ञा, पु० दे० (सं० दुर्योधन ) धृतराष्ट्र का सबसे बड़ा पुत्र । " कुछ जानत जल-थम्भ-बिधि, दुरजोधन लौं लाल" - वि० दुरतिक्रम - वि० (स० ) जिसका प्रति क्रमण या उलंघन न हो सके, जिसका पार करना कठिन हो, अपार । दुरथल - संज्ञा, पु० ( सं० दुरस्थल ) गंदी और बुरी जगह । "दुरथल जैयै भागि वह " - रही० । दुरद - संज्ञा, पु० दे० (सं० द्विरद) हाथी । दुरदाम - वि० दे० (सं० दुर्दम ) जो कष्टसाध्य हो । दुरदाल * - संज्ञा, पु० दे० (सं० द्विरद) हाथी | दुरदिन - संज्ञा, पु० (सं० दुर्दिन ) बुरा समय, बुरा वक्त " दुरदिन परे रहीम कर दुरदुराना - स० क्रि० दे० (हि० दुरदुर) अनादर के साथ हटाना या दूर करना, कुत्ते को भगाना । , 1 Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir दुराज दुरना/- 8- प्र० क्रि० दे० (हि० दूर) छिपना, लुकना । "दौरि दुरे हम संग दोऊ” – मति० ॥ दुरपदी | संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० द्रौपदी ) द्रौपदी । दुरबल - वि० दे० (सं० दुर्बल) कमजोर, निर्बल | दुरबार - वि० दे० (सं० दुर्बार) अटल । दुरभिसंधि - संज्ञा, खो० यौ० (सं० ) बुरे भाव से मेल या एका करना । दुरभेव - संज्ञा, पु० दे० (सं० दुर्भाव या दुर्भेद) बुरा अभिप्राय या भाव, मनोमालिन्य, मन-मोटाव | दुरमुख - वि० दे० (सं० दुर्मुख ) कटुवादी । दुरमुट - संज्ञा, पु० दे० ( सं० दुर+मुख = कुटना ) दुरमुट, जिससे कंकर की सड़क कूटी जाती है । दुरलभ - वि० दे० (सं० दुर्लभ ) अलभ्य, दुष्प्राप्य । .. दुरवस्था - संज्ञा, स्त्री० (सं० ) बुरी अवस्था या दशा, दुख-दरिद्र की दशा, हीनावस्था । दुराउ-दुराव' -संज्ञा, पु० दे० (हि० दूर ) छिपाव, लुकाव, भेद, बिलगाव । तुम सन कौन दुराउ" - - रामा० । दुरवेश – संज्ञा, पु० ( फ़ा० दुरवेश ) फ़क़ीर, साधु, मँगता, दरवेश | दुरागमन - संज्ञा, पु० द० यौ० (सं० द्विरागमन) गौना । दुराग्रह - संज्ञा, पु० (सं०) हठ, बुरी हठ या जिद, अपना पक्ष सिद्ध होने पर भी उसी पर डटे रहना । वि० दुराग्रही । दुराचरण -- संज्ञा, पु० (सं०) बुरा चाल-चलन या व्यवहार । दुराचार - संज्ञा, पु० (सं०) बुरा श्राचरण या चाल-चलन । वि० दुराचारी - स्त्री० दुराचारिणी । दुराज - संज्ञा, पु० दे० (सं० दुर् + राज्य ) बुरा राज्य | संज्ञा, पु० दे० (हि० दो + राज्य दो राजों का राज्य । दुसह दुराज प्रजान को, क्यों न बढ़ें दुख-दंद" -- वि० । CC For Private and Personal Use Only Page #926 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir दुराजी दुर्घटना दुराजी-वि० दे० (सं० द्विराज ) दो | दुरुत्तर-वि० (सं०) दुरतिक्रम, निरुत्तर। राजाओं का। दुरूह-वि० (सं०) गूढ, कठिन । दुरात्मा-वि० (सं० दुरात्मन) दुष्टात्मा, बुरा | दुरेफ-संज्ञा, पु० दे० ( सं० द्विरेफ ) भ्रमर, या खोटा मनुष्य । भौंरा । इत्थं विचिंतयति कोष गते द्विरेफे" । दुरादुरी--संज्ञा, स्त्री० दे० यौ० (हि० दुराना | दूरोदर-संज्ञा, पु. यौ० (सं०) जुआ, जुआ =छिपाना ) छिपाव, लुकाव, गोपन । का खेल । “ दुरोदरच्छद्मजितां समीहते मुहा०-दुरादुरी करके-छिपे-छिपे।। नयेन जेतुं जगतीं सुयोधनः"-किरा० । दुराधर्ष- वि० (सं०) प्रचंड, प्रबल, जिसका दुकुल – संज्ञा, पु० दे० (सं० दुष्कुल) दुष्कुल, दमन कठिन हो, दुर्धर्ष । बुरा वंश या कुटुम्ब । दुराना-अ० क्रि० दे० ( हि० दूर) दूर होना, | दुर्गध-दुर्गधि-- संज्ञा, स्त्री० (सं०) बदबू, बुरी छिपना, लुकना । स० कि० (दे०) दूर करना, महक । छिपाना, लुकाना। दुर्गधा-संज्ञा, स्त्री० (सं०) पलाण्डु, प्याज । दुरालभा-संज्ञा, स्त्री० दे० ( सं० ) जवासा, दुर्ग- वि० (सं०) जहाँ पहुँचना कठिन हो, धमासा, कपास । “दुरालाभा कषायस्य दुर्गम । संज्ञा, पु० (सं०) गढ़, किला, कोट । सकृष्णस्य निषेवणात्'--लो. वै०। दुर्गत-वि० (सं०) दुर्दशा को प्राप्त, विपत्तिदुरालाप-संज्ञा, पु० (सं०) गाली, दुर्वचन । __ ग्रस्त, दरिद्र, कंगाल ।संज्ञा, स्त्री० (सं०)दुर्गति। दुराव- संज्ञा, पु० ( हि० दुराना ) छिपाव, | दुर्गति-संज्ञा, स्त्री० (सं०) दुर्दशा, बुरी छल, भेद-भाव। गति, नर्क। दुराशय- संज्ञा, पु० (सं०) बुरा मतलब, दुष्ट दुर्गपाल दुर्गपालक-संज्ञा, पु. यौ० (सं०) श्राशय, बुरो नियत । वि० खोटा, बुरा। । किलेदार गढ़पाल, दुर्गपति । दुराशा-संज्ञा, स्त्री० (सं०) व्यर्थ की भाशा। दुर्गम-वि० (सं०) दुस्तर, कठिन, विकट, दुरासा (दे०)। संज्ञा, स्त्री० (सं० दुराशा) | दुर्जेय । बुरी आशा। दुर्गरक्षक-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) दुर्गपाल, दुराराध्य-वि० ( सं०) जिसे प्रसन्न करना | किलेदार, गढ़पालक । या पाराधन कठिन हो। दुर्गा- संज्ञा, स्त्री० (सं०) देवी, भवानी। दुरित-संज्ञा, पु० (सं०) पाप, छोटा पाप । दुर्गाध्यक्ष-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) किलेदार, वि० पापी, अघी, पातकी। गढ़पति, दुर्गपति । दुरियाना–स० कि० दे० ( हि० दूर ) दुत- दुर्गामी-वि० (सं०) दुराचारी, कुमार्गी । कारना, दूर हटाना। कुकर्मी । स्त्री० दुर्गामिनी। दुरुक्त-संज्ञा, पु० (सं०) गाली, शाप,दुर्वचन। दुर्गावती-संज्ञा, स्त्री० (सं०) राना साँगा दुरुक्ति-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं०) दुबारा कहना, की पुत्री, महोबे के राजा परिमाल की पुत्री। पुनरुक्ति, द्विरुक्ति। दुर्गुण-संज्ञा, पु० (सं०) ऐब, बुराई, बुरा दुरुखा-वि० (हि. दो + रुख फा०) दो मुख गुण । वि० (सं०) दुर्गुणी। वाला, दोनों बार वाला। दुर्गोत्सव-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) नवरात्रि में दुरुपयोग-- संज्ञा, पु० (सं०) किसी पदार्थ दुर्गा-पूजन का उत्सव, किले में उत्सव । को बुरी रीति से काम में लाना। दुर्घट-वि० (सं०) कष्टसाध्य, कठिन । दुरुस्त-वि० (फ़ा०) ठीक, सत्य, उचित। दुर्घटना--- संज्ञा, स्त्री० (सं०) अशुभ या बुरी दुरुस्ती-संज्ञा, स्त्री० (फ़ा०) सुधार, संशोधन। | बात, विपत्ति । For Private and Personal Use Only Page #927 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir दुर्जन दुर्योधन दुर्जन-संज्ञा, पु० (सं०) बुरा मनुष्य, दुष्ट, शत्रु, दुर्भगा-संज्ञा, स्त्री० (सं०) अभागिनी स्त्री, दुरजन (दे०)। "दुर्जन मिले जनाय" ० । भाग्यहीना, जिसपर स्वामी का प्रेम न हो। दुर्जनता-संज्ञा, स्त्री० (सं०)दुष्टता, खलपना। दुर्भाग्य-संज्ञा, पु० (सं०) बुरी भाग्य, बुरा । दुर्जय-दुर्जेय-वि० (सं०) जिसका जीतना श्रदृष्ट, मंद भाग्य । कठिन हो, अजीत, अजेय। दुर्भाव- संज्ञा, पु० (सं०) बुरा भाव, मनोदुईय-वि० (सं०) जो कठिनता से जाना मालिन्य, मन-मुटाव। जाय, दुर्बोध । दुर्भावना-संज्ञा, खो० (सं०) चिंता, प्राशङ्का, दुर्दम-दुर्दमनीय-वि० (सं०) प्रचंड, प्रबल, खटका, बुरी भावना। जिसका दमन करना कठिन हो। दुर्भिक्ष-संज्ञा, पु. (सं०) अकाल, सूखा, दुर्दम्य-वि० (सं०) प्रचंड, प्रबल, सामर्थ्य, कहत (ग्रा०) अवर्षण । दुर्भिच्छ (दे०)। दमन करने में कठिन । दुर्भेद-वि० (सं०) जिसमें जलदी छेद न हो, दुर्दशा--संज्ञा, स्त्री० (सं०) बुरी हालत या जो शीघ्र पार न हो सके। गति, दुर्गति, दुरवस्था। दुर्भेद्य- वि० (सं०) जिसका भेदना या छेदना दुर्दांत-वि० (सं०) दुरंत, अशान्त, प्रबल, __ अथवा पार करना कठिन हो। भयंकर, प्रचंड। दुर्मति- संज्ञा, स्त्री० (सं०) ख़राब अाल, बुरी दुर्दिन-संज्ञा, पु० (सं०) बुरा दिन,मेघाच्छन्न बुद्धि । वि० बुरी बुद्धि वाला, कम समझ, दिवस, दुःख या कष्ट का समय ।। दुर्बुद्धि, दुष्ट । दुर्दैव- संज्ञा, पु. ( सं०) दुर्भाग्य, दिनों | दर्मद-वि० (सं०) बुरे नशे में मस्त, घमंड का फेर, अभाग्य। में मस्त, उन्मत्त, प्रमादी । दुर्द्धर-वि० (सं०) प्रबल, प्रचड, जो कठि दुर्मना- वि० ( सं० ) उद्विग्न चित्त, अन्यनता से पकड़ा या समझा जा सके। दुर्द्धय-वि० (सं०) उग्र, प्रचंड, प्रबल, दमन मनस्क, चितित, उदास । करने में कठिन । दुर्मल्लिका--संज्ञा, स्त्री० (सं०) चार अंकों दुर्नाम-संज्ञा, पु. ( सं० दुर्नामन्) बुरा नाम, का रूपक (नाट्य०)। बदनामी, गाली, कुवचन, बवासीर. दुर्मिल- संज्ञा, स्त्री० (सं०) एक छंद (पिं०)। सीपी, सीप । वि० (दे०) अलभ्य । " हिय मै न बस्यो दुर्निवार-दुर्निवार्य-वि० ( सं० ) जिसका अस दुर्मिल बालक तौ जग में फल कौन रोकना अवश्यंभावी या निवारण करना जिए"-तु० । कठिन हो। दुर्मुख--संज्ञा, पु० (सं०) राम सेना के एक दुर्नीति-संज्ञा, स्त्री० (सं०) बुरी नीति, बुरी गुप्तचर वानर, बुरे मुख वाला, कटुवादी, रीति, अन्याय, कुचाल । अप्रियभाषी । वि० स्त्रो० दुर्मुखी। दुर्बल- वि० (सं०) कमज़ोर, दुबला-पतला, दुर्मल्य-वि० (सं०) महँगा, बहुमूल्य । निर्बल, अशक्त । “दुर्बल को न सताइये" दुर्मेधा-वि० (सं०) बुरी बुद्धि वाला, अज्ञानी, -कबी० संज्ञा, स्त्री० (सं०) दुर्बलता। कुबुद्धि, दुर्बुद्धि । दुधि-- वि० (सं०) गूढ, कठिन, क्लिष्ट, जो दुर्योग-संज्ञा, पु० (सं०) बुरा योग, कुयोग, शीघ्र न समझा जावे । संज्ञा, स्त्री० दुर्बो- कुसंग। धता । "निसर्ग दुर्बोधिमवोधविक्लवः" दुधिन--- संज्ञा, पु० (सं०) राजा पृतराष्ट्र का -किरा। । सब से बड़ा पुत्र। For Private and Personal Use Only Page #928 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir दुर्योनि दुलरी - योनि-वि० (सं०) नीच जाति में नीच | दुर्विपाक-संज्ञा, पु. (सं०) अभाग्यता, वर्ण से उत्पन्न, पतित या अस्पृश्य जाति । दुर्दैव, बुराफल, अशुभ परिणाम, दुर्घटना ! दुर्रा-संज्ञा, पु० (फ़ा०) चाबुक, कोड़ा। दुर्विषह-वि० (सं०) असम, कठोर, कठिन । दुर्रानी-संज्ञा, पु० (फा०) मुसलमानों की दुर्वृत्त-वि० (सं० दुर्जन) दुरात्मा, उपद्रवी, एक जाति। दुराचारी, दुश्चरित्र, दुष्ट, गुंडा। दुर्लज्य-वि० (सं०) जो फाँदने या लाँघने । दुवेध्यि-संज्ञा, पु० (सं०) कठिनता से समयोग्य न हो, कठिन, दुर्गम । झने या जानने योग्य । वि० (सं०) अबोध, दुर्लक्षण-संज्ञा, पु० (सं०) असगुन, अशकुन, अज्ञानी। | दुर्व्यवस्था-संज्ञा, स्त्री. (सं०) कुप्रबन्ध, कुलक्षण, दुर्गुण । बुरा शासन, दुविधान ।। दुर्लक्ष्य–वि० (सं०) कठिनता से दिखाई दुव्यवहार- संज्ञा, पु० (सं०) बुरा वर्ताव, देने वाला, जो अदृश्य सा हो । दुष्टाचरण, दुष्टाचार । दुर्लभ-वि० (सं०) दुष्प्राप्य, बदिया, अनोखी, दुव्यसन-संज्ञा, पु० (सं०) बुरा स्वभाव या प्रिय, कठिनता से प्राप्त, दुरलभ (दे०)। | टेंव, ख़राब या बुरी आदत। वि. दुर्व्यसनी। 'दुरलभ जननी यहि संसारा"-रामा०। दुर्व्यसनी-वि. ( सं०) बुरा स्वभाव या दुर्लभ्य-संज्ञा, पु. (सं०) अप्राप्य, अति टेव वाला। कष्ट-प्राप्य । दुलकी-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि० दलकना ) दुलाभि-संज्ञा, पु० (सं०) बुरी इच्छा या| घोड़े की एक चाल । अभिलाषा, अप्राप्य वस्तु की कामना। दुलखना-स० क्रि० दे० (हि. दो+लक्षण) दुर्वचन-संज्ञा, पु० (सं०) बुरी बात, गाली, बारम्बार कहना या बतलाना। कुवचन, दुर्वाक्य । दुलड़ा-दुलड़ी-संज्ञा, स्त्री० पु० दे० (हि० दो दुर्घम- संज्ञा, पु० (सं०) कुमार्ग, कुपंथ। लड़) दो लड़ों की माला, दुलरी (ग्रा०)। दुर्घह-वि० (सं०) धारण करने में दुस्तर या | दुलत्ती-- संज्ञा, स्त्री० दे० (हि० दो+लात ) कठिन । “दुर्वह गर्भ-खिन्न-सीता विवासन | दोनों पैरों से मारना या फटकारना। पटुः"-भव०। दुलदुल-संज्ञा, पु० (अ.) एक खच्चरी जो दुर्वाक्य-संज्ञा, पु. (सं०) निंद्य या बुरी मुहम्मद साहिब को मिश्र के शाह ने भेंट बात, गाली, दुर्वचन । की थी। दुर्वाद-संज्ञा, पु. ( सं० ) निन्दा, गाली, दुलना-अ० क्रि० दे० (सं० दोलन) हिलना, प्रसंशा-युक्त निन्दा । " यहि विधि कहत डुलना, झूलना। विविध दुर्वादा"-रामा। दुलभ-वि० दे० ( सं० दुर्लभ ) जो कठिदुर्वार-वि० (सं०) जिसका निवारण न हो | नता से मिले, कठिन, दुष्प्राप्य । सके, अवश्यम्भावी। दुलराना -स० क्रि० दे० (हि. दुलारना) दुर्वासना- संज्ञा, स्त्री० (सं०) बुरी इच्छा या प्यार या दुलार करना, लाड़ करना। अ० अभिलाषा, बुरा मनोरथ । क्रि० (दे०) प्यारे बच्चों के से कर्म करना । दुर्वासा-दुरबासा-(दे०) संज्ञा, पु. ( सं० "अंक उठाक्त श्री दुलरावत निज कह दुर्वासस) अत्रिमुनि के पुत्र जो बड़े क्रोधी थे। धनि जग लेखी "..रघु०।। "दुर्वासा हरि-भक्तहि त्रास्यो”-रामा० । दुलरी-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. दुलड़ी ) दो दुर्विनीत- वि० (सं०) उजड्डु, अशिष्ट, उइंड, लड़ों का माला । वि० दे० दुलरिया- दो उद्धृत, असभ्य । लड़ वाली, प्यारी। For Private and Personal Use Only Page #929 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir दुलहन-दुलहिन दुश्मनी दुलहन-दुलहिन - दुलहिया - दुलही- दुवारा-- संज्ञा, पु० (दे०) द्वार। अव्य० (दे०) संज्ञा, स्त्री० दे० ( हि० दुलहा ) हाल की द्वारा । वि० (दे०) दुवारी (यौ० में )। व्याही हुई वधू, नवविवाहिता स्त्री। "जेठी दुवाल-संज्ञा, स्त्री० फ़ा०) पैकड़ों में लगा पठाई गई दुलही" -- मतिः । “जेहि मंडप हुआ चौड़ा नीता। दुलहिन वैदेही"- रामा० । | दुवाली-संज्ञा, स्त्री० (दे०) रंगे कपड़ों में दुलहा-संज्ञा, पु० दे० (सं० दुर्लभ ) दूलह, चमक लाने वाला घोंटा । संज्ञा, स्त्री० (फ़ा०) दूल्हा (दे०), नवविवाहित पुरुष । “दुलहा चमड़े की पेटी या कमरबंद, द्वाली (दे०)। देखि बरात जुड़ानी"-रामा० । | दुविधा-संज्ञा, स्त्री० (हि. दुबिधा) दुविधा, दुलहेटा-दुलेहटा-संज्ञा, पु० दे० (प्रा० दुरंगी दुविधि लो०--- "दुविधा में दोनों दुल्लह ---हि. बेटा) प्यारा, दुलारा, लाडिला गये माया मिली न राम ।' " उभय सनेहु पुत्र या लड़का। दुविध मति घेरी रामा० । दुलाई-संज्ञा, स्त्री० दे० ( सं० तूल ) थोड़ी दुबे-संज्ञा, पु० दे० ( सं० द्विवेदी ) द्विवेदी, रुई भरी हलकी रजाई। " उतरी न उनके ब्राह्मणों की एक जाति । रुख से दुलाई तमाम रात।" दुवै, दुवोच-वि० दे० ( हि० दुव - दो ) दुलाना-स० क्रि० दे० (हि. डुलाना) दोनों, द्वै। डुलाना, हिलाना, श्रागे-पीछे हटाना। दुशमन-दुसमन--संज्ञा, पु० दे० (फा० दुलार-संज्ञा, पु० दे० (हि. दुलारना) दुश्मन ) बैरी, शत्रु । " दुसमन दावागीर प्यार, प्रेम, लाड़, स्नेह ।। होय"-गिर० । दुलारना-- स० क्रि० दे० (सं० दुर्लालन ) दुशवार-वि० ( फ़ा० ) मुश्किल, कठिन । प्यार या लाड़ करना, प्रेम करना, फुसलाना।। ( संज्ञा, स्त्री० दुशवारी)। दुलारा- वि० दे० (हि. दुलार ) लाडिला, दुशाला-संज्ञा, पु० दे० (सं० द्विशाट, फ़ा० प्यारा । ( स्रो० दुलारी)। " जैहै नाहि दोशाला ) किनारों पर बेलदार पशमीने की द्रुपद-दुलारी की उतारी सारी"-रसाल । चादरों का जोड़ा दुसाला। “सुवाला हैं दुलोही-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. दो+लाहा)। दुशाला हैं विशाला चित्रशाला है " पद्मा० । एक भाँति की तलवार। दुशासन-दुसासन --संज्ञा,पु० (सं० दुःशादुल्लम* - वि० दे० (सं० दुर्लभ ) दुर्लभ । सन) दुर्योधन का छोटा भाई, दुश्शासन । दुध - वि० ( सं० द्वि) दो। " तुलसी गंग “ झटकट सोऊ पट बिकट दुसासन है" दुवै भये ।" - रत्ना० । दुवन-संज्ञा, पु० दे० ( सं० दुर्मनस् ) दुष्ट, दुश्चरित्र-वि० (सं०) बुरे चरित्र वाला, खल, शत्रु, राक्षस । कुचाली । संज्ञा, पु० बुरी चाल, दुराचार, दुवाज- संज्ञा, पु० (दे०) एक प्रकार का घोड़ा। कुकर्म । ( स्त्री० दुश्चरित्रा)। दुवादस -वि० दे० यौ० ( सं० द्वादश) दुश्चरित्रता--संज्ञा, स्त्री. (सं०) कुचाल, बारह । संज्ञा, स्त्री० ( दे०) दुवादसी, कुव्यवहार, दुराचरण, दुराबार । दुवास (ग्रा.)। दुश्चिकित्स्य-वि० (सं०) असाध्य रोग । दुवादसवनी*- वि० दे० यौ० (सं० द्वादश = ! दुश्चेष्टा --- संज्ञा, स्त्री० (सं०) बुरी चेष्टा, सूर्य + वर्ण) सूर्य सा चमकता हुआ, कांति ! कुचेष्टा । ( वि० दुश्चेष्टित, दुश्चेष्ट)। या आभायुक्त, खरा सोना, बारहबानी का। दुश्मन-संज्ञा, पु० (फा०) बैरी, शत्रु । दुधारी- संज्ञा, पु० (सं० द्वार) द्वार, दरवाज़ा। दुश्मनी- संज्ञा, स्त्री० (फा०) शत्रुता, बैर। For Private and Personal Use Only Page #930 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir दुष्कर दुहनी-दोहनी दुष्कर-वि० (सं०) दुःसाध्य, जिसका होना दुसही-वि० दे० ( हि० दुःसह + ई-प्रत्य०) या करना, कठिन हो, दुष्करणोय। संज्ञा, डाही, द्वषी, ईर्ष्यालु । स्रो० (सं०) दुष्करता। दुसाखा-संज्ञा, पु० दे० (हि. दो+शाखा) दुष्कर्म-संज्ञा, पु० (सं० दुष्कर्मन् ) पाप, जिसमें दो डालियाँ हों, द्विशाखा । वि. कुकर्म, बुरा काम । ( वि० दुष्कर्मा | दुसाखी। दुष्कर्मी)। दुसाध-संज्ञा, पु. ( सं० दोषाद ) डुमार, दुष्कर्मा-दुष्कर्मा-वि० (सं० दुष्कर्मन् ) डोम, भंगी, नीच जाति । वि० (दे०) कुकर्मी, पापी, दुराचारी । स्त्री. दुष्कर्मिणी । दुस्साध्य (सं.)। दुष्काल-संज्ञा, पु० (सं०) कुलमय, अकाल, दुसाल- संज्ञा, पु. ( हि० दो-+शल ) आरदुर्भिक्ष, कहत, दुकाल। पार छेद । वि० (दे०) दुसाली-दो दुष्कुलीन- वि० (सं०) नीच या बुरे वंश साल का । या कुल का, नीच जाति । दुसूती-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि० दो+सूत ) दुष्कृत-संज्ञा, पु० (स०) पाप, अपराध, दो तागों के ताना-बाना का मोटा कपड़ा। कुकर्म, दोष । वि० पापी । संज्ञा, स्त्री० (सं०) दुसेजा-संज्ञा. पु० दे० (हि. दो+सेज ) दुष्कृति। पलंग, बड़ी चारपाई या खाट । दुष्कृती-वि० (सं०) पापी, दुराचारी।। दुस्तर--वि० (सं०) जिसे पार करना कठिन दुष्ट-वि० (सं०) दोषी, अपराधी, ऐबी, | हो, विकट, कठिन । संज्ञा, स्त्री. (सं०) दुर्जन, खल, दुराचारी । ( स्त्री० दुष्टा )। दुष्टता-संज्ञा, स्त्री० (सं०) ऐब, दोष, बुराई। दुस्तरता । “ तितीर्घः दुस्तरं मोहादुडुपे नाऽस्मि सागरं "..-रघु० । दुष्टपना-संज्ञा, पु. ( सं० दुष्टता) ऐब, बुराई, बदमाशी, गंडापन, दृष्टई (दे०)। दुस्यज- वि० (सं.) दुख से त्यागने-योग्य, दुष्टाचार-संज्ञा, पु. यौ० (सं०) कुकर्म, जिसका त्याग कठिन हो। ऐब, बुराई, कुचाल । दुस्सह दुसह---वि० दे० (सं० दुःसह ) न दुष्टात्मा-वि० (सं०) बदमाश, कुचाली, ! सहने योग्य, कठिन । “एतिहि बसउर दुसह बुरे स्वभाव या अंतःकरण वाला। दवारों'-रामा० । दुष्प्रवेश-संज्ञा, पु. (सं०) दुर्गम प्रवेश, दुहता-दुहिता--संज्ञा, पु० दे० (सं० दौहित्र) अति कष्ट या श्रम से साध्य प्रवेश । नाती. बेटा का बेटा, दुहिता । स्त्री. दुष्प्राप्य-वि० (सं०) जिसका मिलना कठिन दुहिती, दुहेती। हो, दुर्लभ । दुहत्था - वि० दे० (हि. दो+हाथ ) दोनों दुष्यंत-संज्ञा, पु. (सं०) शकुंतला-पति, | हाथों का किया हुआ, दोनों हाथों का । अयोध्या के एक राजा जिसके पुत्र भरत थे। दुसराना*-स. क्रि० दे० ( हि० दोहराना) स्त्री० दुहत्थी। दुहना-दहना-स० क्रि० दे० (सं० दोहन ) दुसरिहा -वि० दे० (हि. दूसर+हा । दूध निकालना, निचोड़ना। मुहा०-दुह प्रत्य० ) संगी, साथी, तुल्य, समान, प्रति लेना-सार खींच लेना ! बेंचहिं वेद धर्म द्वन्द्वो, पराया । " अपन दुसरिहा जिन | दुहि लेही"--रामा० । “कर बिनु कैसे राखा ना"---पाल्हा० । गाय दूहिहैं हमारी वह "-ऊ० श० । दुसह*---वि० दे० ( सं० दुःसह ) कठिन, जो दुहनी-दोहनी--संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० दोहनी) सहा न जाय, असह्य । दुधहँड़ी, दूध दुहने या रखने का पात्र । दोहराना ! For Private and Personal Use Only Page #931 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir दुहराना-दोहराना १२० दूजा, दूजो दुहराना-दोहराना-स० कि. (दे०) दूना दुहेल-दुहेला-वि० दे० (सं० दुहेल ) कठिन, करना या कराना, दुबारा करना या कराना, दुःसाध्य, संकट, क्लेश, दुखी । स्त्री० दुहेली। दुरुक्ति, दो परत या तह करना, फिर कहना।। "जस बिछोह जल मीन दुहेला"-पद० । दुहाई-दोहाई-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० द्वि+ दुहोतरा - वि० दे० ( सं० दु, द्वि+उत्तर) आह्वाय ) घोषणा, मुनादी, किसी का नाम दो ज्यादा, दो अधिक, दो ऊपर। संज्ञा, पु. ले ले कर शोर मचाना, शपथ, सौगंध-जैसे दे० ( सं० दुहिता ) दौहित्रा, नाती, बेटी का ----रामदुहाई, कसम, रक्षार्थ पुकारना। बेटा । स्त्री० दुहीतरी।। मुहा०-किसी की दुहाई फिरना- दुह्य-वि० (सं०) दुहने के योग्य। ( स्त्री० राजतिलक के पीछे राजा के नाम की घोषणा दुह्या)। होना, प्रताप का डंका पिटना, यश का दुह्यमान--संज्ञा, पु० (सं०) जिसमें दूध दुहा ढोल बजना । दुहाई देना --अपनी रक्षा के | जाय दोहनी, दुधहँड़ी (ग्रा० )। हेतु किसी का नाम लेकर ज़ोर ज़ोर से निजामो टन्ट ) पुकारना । संज्ञा, स्त्री० (हि० दुहना ) भैंस, उत्पात, झगड़ा, उपद्रव, ऊधम, अंधेर । गाय श्रादि पशुओं के दुहने का कार्य या 'वेदन ऍदि करी इन दूँदि''-देव० । "तौ मज़दूरी। काहे को ढूँद उठाव"-छत्र । दुहाग-संज्ञा, पु० दे० (सं० दुर्भाग्य) दुर्भाग्य, दूया, दुआ-संज्ञा, पु० दे० (सं० द्वि०, हि. डापा, वैधव्य । दो) दो का अंक, ताश का दो बुन्दे वाला दुहागिनि-दुहागिनी-संज्ञा, स्त्री० द० (हि. पत्ता । संज्ञा, स्त्री. ( अ० दुआ ) आशीष, दुहागी) राँड़, विधवा, रंडा । विलो० - असीस । (दे०) प्रार्थना। सुहागिनी, सुहागिनि । दुहागिल-वि० (सं० दुर्भागिन् ) हत या दूइज, दूजा-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० द्वितीया) मंद भाग्य, अभागी, कमबख़्त । द्वितीया, दूज। दुहागी-वि० दे० (सं० दुर्भागिन् ) अभागी, दूक -वि० दे० (सं० द्वेक) कुछ, थोड़े, दो अभागा । स्त्री० दुहागिन, दुहागिनी । __ एक चन्द । दुहाना-स० क्रि० (हि० दुहना का प्रे० रूप) दूकान --संज्ञा, पु० दे० (अ० दुकान ) दुकान । दुहने का कार्य किसी दूसरे से कराना, दूखन--संज्ञा, पु० दे० (सं० दूषण) एक राक्षस, दुहवाना। दोष, बुराई, दृषण । “खरदूखन विराध अरु दुहार-संज्ञा, पु० दे० (हि० दुहाना ) दूध बाली"-रामा०। दुहाने वाला। दूखना -स० क्रि० दे० (सं० दूषण + नादुहावनी- संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. दुहाना )। प्रत्य०) दोष या अपराध लगाना, कलंकित दुहाई, दूध दुहने की मजदूरी या कार्य । करना । “परहिं जे दूहिं श्रुति करि तरका" दुहिता-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० दुहित ) पुत्री, -रामा० । अ० कि० दे० (हि० दुखना) बेटी, कन्या, लड़की। “दुहिता भलीन पीड़ा या दर्द करना। दूखति आँखि, सुहात एक "-स्फु० । न नेकहु, आज को नाच तमाच से लागत" दुहिन --संज्ञा, पु० दे० (सं० द्रुहण ) ब्रह्मा, मन्ना। विधाता, विधि । दुखित-वि० दे० (सं० दृषित) दूषित, दोष दुहूँ-अव्य० (दे०) दोनों, उभय । " विनती युक्त, बुरा । वि० (हिं. दूखन) पीड़ित । करौं दुहूँ कर जोरी"--रामा० ।। । दूजा, Tali--- अ० वि० (सं०) दूसरा, अन्य, For Private and Personal Use Only Page #932 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org दूत गैर । त्रो० दुजी । "कहु सठ मों-समान को दूजा " - रामा० । दूत - संज्ञा, पु० (सं०) बसीठ, चर । (स्त्री० दूती ) " दूत पठाये बालि कुमारा" रामा० । दूत के तीन भेद हैं ( १ ) निसृष्टार्थ (२) मितार्थ (३) सन्देश- हारक । दूतकर्म संज्ञा, पु० यौ० (सं०) समाचार या संदेशा पहुँचाना, दूत का कार्य या काम, दूतत्व, दूतता । दूतता - संज्ञा, स्त्री० (सं०) दूतत्व, दूत का कर्म | संज्ञा, पु० (सं०) दूतत्व | संज्ञा, पु० (हि०) दूतपन । बूतर - 8 / - वि० दे० (सं० दुस्तर) दुस्तर, दुर्गम, कठिन । दूतावास - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) दूसरे राजा के दूत का घर, निवास-स्थान, दूतागार, दूत भवन । दूतिका-ती-संज्ञा, स्रो० (सं०) कुटिनी, कुट्टिनी, सारिका, संचारिका, सन्देश वाहिनी, समाचारहारिणी, प्रेमी और प्रेमिका या नायक नायिका को मिलानेवाली, इसके भी उत्तमा, मध्यमा, अधमा तीन भेद हैं। यौ० स्वयं दूतो ( स्वयंदृतिका ) - अपने ही लिये दूत कर्म करने वाली नायिका । दूत्य -- सज्ञा, पु० (सं०) दूत - कर्म, दूत का काम, दौत्य, दूतत्व | दूध - संज्ञा, पु० दे० (सं० दुग्ध) दुग्ध, पय, तीर, स्तन्य । लौ० - दूध का जला मठा फूंक फूंक कर पीता है । " जैसे दाभ्यो दूध को, पीवत छाँछहि फँकि ” – वृ० 1 मुहा०दूध उतरना - स्तनों में दूध भर जाना । दूध का दूध और पानी का पानी करना -ठीक ठीक न्याय करना । "न्याय मैं हंसिनि ज्यों बिलगावहु, दूध को दूध यौ पानी को पानी” – प्र० ना०मि० | दूध की मक्खी की तरह निकालना या निकाल कर फेंक देना- किसी को अपने पास से इकबारगी तुच्छ समझ कर अलग कर निकाल भा० श० को ०११६ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २१ दूनर या भगा देना | दूध के दाँत न टूटना - बचपन बना रहना (होना) । दूध नहाओ पूतों फलो - धन-पुत्र की बढ़ती हो । ( आशी० ) दूध फटना - दूध का सारांश और पानी अलग अलग हो जाना या दूध का बिगड़ जाना । माता के दूध को लजाना - अकरणीय या बुरा काम करना । स्तनों में दूध भर आना - बच्चे के स्नेह या ममता के कारण स्तनों में दूध भर थाना । दूध पिलाई - संज्ञा, त्रो० यौ० दे० (हि० दूध + पिलाना) दूध पिलाने वाली दाई या धाई, धाय, व्याह की एक रीति । 1 दूध-पूत - संज्ञा, पु० यौ० दे० (हि० दूध + पूत) धन- पुत्र "दूध-पूत हम से लेव" लइ -- प्र० ना० मि० । दूधाधारी, दूधाहारी - वि० दे० यौ० (दे०) केवल दूध पीकर रहने या जीने या निर्वाह करने वाला, दुग्धाहारी, दुग्धभोजी (सं० ) पायसहारी पयहारी । दूधा भाती - संज्ञा, स्त्री० यौ० दे० ( हि० दूध + भात) दूध और भात, व्याह के चौथे दिन वर-कन्या का भोजन ( रीति ) । दूधमुख - वि० यौ० दे० (हि० दूध + सं० मुख) दुधमुहाँ, छोटा बच्चा दूध पीता हुआ बच्चा, " सूध दूध-मुख करिय न कोहू'- - रामा० । दूधिया - वि० दे० (हि० दूध + इया - प्रत्य० ) दुग्ध सम्मिलित दूध से बना हुआ, दूध के रंग का | संज्ञा, स्त्री० (दे०) एक पत्थर, एक घास, दुधिया, दूधी (ग्रा० ) । दून- संज्ञा, स्त्री० (हि० दूना) दूने का भाव । मुहा० - दून की लेना या हाँकनाडींग मारना, बहुत बढ़ बढ़ (बढ़-चढ़ ) कर बातें करना | संज्ञा, पु० (दे०) घाटी, तराई । दूनर (* - वि० दे० (सं० द्विनम्र ) जो झुक कर दुगुना हो गया हो । "दूनर कै चूनर निचोर है". --रसा० । For Private and Personal Use Only Page #933 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir दूवा झूमना। दूना ६२२ दूसरा, दूसर, दूसरी दूना-वि० दे० (सं० द्विगुण) दुगुना, दोगुना, । दूरवीक्षण (यंत्र)--संज्ञा, पु० यौ० (सं०) दोचन्द, दुचंद (७०) दून (दे०) दूनो दूरबीन, दूर दर्शक यंत्र । (व.)। दूरस्थ-वि० (सं०) अति दूर रहने वाला। दूनौं -वि० दे० (हि. दो) दोनों। दूरी-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० दूर + ई-प्रत्य०) दूब-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० दूर्वा) एक घास। दूर, दूरत्व, दूरता, अंतर, फ़ासिला । “यहि दूबदू-क्रि० वि० दे० (हि. दो या फ़ा० रूबरू) बिधि प्रभुहि गयो लै दूरी',-रामा० । संमुख, आमने-सामने, समक्ष । | दूर्वा-संज्ञा, स्त्री० (सं०) एक घास, दूब । दूबर-दूबरा, दूबरो -वि० दे० (सं०दुर्बल) दलन-संज्ञा, पु. दे. (सं० दोलन) दोलना, दुबला, पतला, निर्बल । “चन्द दूबरो-कूबरो, दुलना, डोलना, झोंका खाना, झूमना। तऊ नखत तें बाढ़"--.। दूलभ-वि० (दे०) दुर्लभ (सं०)। दूबिया-संज्ञा, स्त्री० (दे०) हरा रंग, दूब के दूलह-दूल्हा-संज्ञा, पु० दे० (सं० दुर्लभ ) से रंगवाला। दुनहा, वर । “दूल्हा राम रूप-गुन-सागर" दूबे-संज्ञा, पु० दे० (सं० द्विवेदी) द्विवेदी, दुबे। -रामा । भर - वि० दे० (सं० दुर्भर) कड़ा, कठिन। दुल्हन - संज्ञा, स्त्री० (दे०) दुलहिन, दुलही। दूमना-अ० क्रि० दे० (सं० द्रुम) हिलना, दूषक-संज्ञा, पु० (स.) निंदक, कलंक या अपराध लगाने वाला। "गुरु-दूषक बात न दूरंदेश- वि० (फा०) अनसोची, दूरदर्शी ।। कोपि गुनी'-रामा। (संज्ञा, स्त्री० दूरदेशी)। दुषण-संज्ञा, पु० (सं.) बुराई, दोष, श्रवदूर-क्रि० वि० (सं०) जो समीप या निकट न । गुण, ऐब लगना, एक राक्षस | दृषन (दे०) हो । लौ०"दूर के बोल सुहावन लागत"। "खरदूषण मो-सम बलवन्ता"-रामा० । मुहा०-दूर करना--अलग या पृथक 'दोष-रहित दूषण-सहित"-- रामा० ।। करना, रहने न देना, नाश करना, मिटाना। दूषना-8-स० कि० दे० (सं० दूषण) दोष दूर भागना या रहना--बहुत बचना, या ऐब लगाना, कलंकित करना, दूखना । समीप न जाना । दूर होना-अलग दूषणीय-वि० (सं०) दोष या कलंक लगाने हो जाना, हट जाना, मिट या नष्ट हो योग्य, दृषलीय (दे०)। जाना । दूर की बात-कठिन बात, महीन दृषाना स० क्रि० दे० (सं० दूषण) कलंक विषय। दूर की कौड़ी उठाना (नाना) या ऐब लगाना, दोषारोपण करना । -अल्प फलप्रद कठिन कार्य करना, नई दूषित-वि० (सं०) दोषी, कलंकी, बुरा । खोज करना। दृष्य-वि० (सं०) दोष लगाने योग, निंददूरता-संज्ञा, स्त्री० (सं०) दूरत्व, दूर काभाव। नीय, तुच्छ । दूरत्व-संज्ञा, पु० (सं०) दूरता, दूरी। दृष्टा-वि० (सं.) निन्दनीय, तुच्छ, दोष दूर-दर्शक-वि० यौ० (सं०) बहुत दूर तक लगाने के योग्य । देखने वाला, अग्रसोची, दूरदर्शी । दूसना-स० कि० दे० (सं० दूषण) दोष या दरदर्शक-यंत्र-संज्ञा, पु० यौ० (सं.) दूरबीन । कलंक लगाना, निन्दा करना । दूरदर्शिता-संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) दूरदेशी। दूसरा, दूसर, दूसरो (७०)-वि० दे० (हि. दूरदर्शी-वि० यौ० (सं०) अग्रसोची, दूरंदेश! दो) द्वितीय, अन्य, अपर, गैर, दुस्तर दूरबीन-संज्ञा, स्त्री० (फा०) दूरदर्शक यंत्र। दुसरा (ग्रा.) स्त्री०-दूसरी । “मेरे तो दूरवर्ती-वि० (सं०) जो बहुत दूर हो। गिरधर गोपाल दुसरो न कोई"--मीरा । For Private and Personal Use Only Page #934 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १२३ दृष्टांत दूहना-स० कि० दे० (हि० दुहना ) दुहना। द्रढ़ाँग-वि• यौ० (सं०) हृष्ट-पुष्ट, पुष्ट " कर बिन कैसे गाय दूहिहै हमारी वह" । । शरीर या अंग का । स्त्री० दृढांगिनी । -उ० श०। दूढ़ाई -संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० दृढ़ता ) दहा-*-संज्ञा, पु० दे० (हि. दोहा) एक दृढ़ता, दृढ़त्व, ठीक। छंद (प्राचीन) दोहा। ढ़ाना-स० कि० दे० (सं० दृढ़+पानादूक-संज्ञा, पु० (सं०) छेद, छिद्र, बिल, नेत्र प्रत्य०) पक्का या दृढ़ करना । अ० क्रि० (दे०) दृष्टि, दूग (दे०)। कड़ा, या पुष्ट होना, पक्का या स्थिर होना। द्वकोप-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) दृष्टिपात, द्रढ़ाति-संज्ञा, स्त्री. ( सं०) धनुष का नजर या निगाह डालना। अग्रभाग, कोटि । दृक्पथ-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) दृष्टि या नेत्रों द्रप्त - वि० (सं० ) अहंकारी, गीला, का मार्ग, निगाह या नज़र की पहुँच । शेखीबाज़, डीगिया (दे०)। दूपात-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) दृष्टिपात, दश-संज्ञा, पु. (सं०) दर्शन, देखना, प्रदर्शक, निगाह गिरना या डालना। दिखाने या देखने वाला । संज्ञा, स्त्री० (सं०) दूक शक्ति-संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) दृष्टि का दृष्टि, आँख, ज्ञान, दो को संख्या । वि० दृश्य। बल, प्रकाश-रूप, चैतन्य, श्रात्मा। दृशद्वती-दृषद्वती संज्ञा, स्त्री० (सं० दृषद्वती) दूगंचल-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) पजक, नेत्रां एक नदी, घाघरा ( प्राचीन )। चल । "मनहु सकुचि निमि तज्यो दृगंचल'' दृश्य-वि० (सं०) दृग्गोचर, दर्शनीय, -रामा० । सुन्दर, ज्ञेय । संज्ञा, पु. (सं०) तमाशा । दुग -संज्ञा, पु० दे० (सं० दृश् ) आँख, यौ० -दृश्य काव्य-नाटक । दृश्यनेत्र। मुहा० दूग डालना या देना- राशि-ज्ञात राशि या संख्या (गणि० )। देखना, सोचना, रक्षा करना । दो की दृश्यमान - वि० (सं०) जो प्रत्यक्ष दिखाई दे, गिनती। सुन्दर, दर्शनीय । दूगमिचाध, दिग-मिचाई --संज्ञा, पु० यौ० दृष्ट-वि० (सं०) ज्ञात, देखा या जाना हुआ, दे० (हि० दृग+मीचना ) आँख-मिचौली, प्रगट, प्रत्यक्ष । संज्ञा, पु. (सं०) दर्शन, भेंट, भाँख-मिहीधनी। साक्षात्कार, प्रत्यक्ष प्रमाण । दुग्गोचर---वि० यौ० (सं० ) जो आँख से एकट-संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) पहेली. देखा जावे, आँखों का विषय, देखने से प्राप्त गूढार्थ कविता । जैसे-" ग्रह, नछत्र, ज्ञान । वि०-दूग्गोरित । जुग जोरि अरध करि सोई बनत अब दूढ़-वि० (सं०) प्रगाढ़, पुष्ट, पुख्ता, कड़ा, | खात".--सूर०। मेस, पक्का, बली, हरपुष्ट, स्थायी, टिकाऊ, दूधमान*-वि० दे० ( सं० दृश्यमान ) प्रगट, अटल, निश्चित, ध्रुव, निडर, ढीठ, कड़े जो संमुख दिखाई दे । हृदय का निठुर। दृष्टवाद-दृष्टिवाद-संज्ञा, पु० (सं०) केवल दृढ़ता-संज्ञा, स्त्री. (सं०) मज़बूती, स्थिरता।। प्रत्यक्ष ही को प्रमाण मानने वाला सिद्धांत संज्ञा, पु. ( सं० ) दृढ़त्व, दूढ़ाई (दे०)। (दर्शन) प्रत्यक्षवाद। दृढ़पद- संज्ञा, पु. (सं०) उपमान, २३ द्रव्य-वि० (सं०) दर्शनीय, देखने योग्य । मात्राओं का एक मात्रिक छंद (पि.)। । दृष्टांत-संज्ञा, पु. (सं०) मिसाल उदाहरण, दृढ़प्रतिज्ञ-वि• यौ० (सं.) अपने प्रण लौकिक और परीक्षक जिसे दोनों एक सा पर अटल रहने वाला। समझे । “लौकिक परीक्षकाणां यस्मिन्नर्थे For Private and Personal Use Only Page #935 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir दूष्टार्थ १२४ -रामा बुद्धि-साम्यम् स दृष्टांतः "-न्याय० । एक | देई-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० देवी ) देवी। अलंकार (१० पी०)। उपमेय और उपमान | सा० भ०, देइ पू० का० ( स० क्रि० दे.) सम्बंधी दो पृथक वाक्यों में धर्म-भिन्नता देगा, देकर। होने पर भी, विम्ब-प्रतिविम्ब भाव से जहाँ | देउर--संज्ञा, पु० दे० (सं० देवर ) देवर, समानता सो दिखाई जाय, शास्त्र, अज्ञात, पति का छोटा भाई। विशेष, गूढ़ बात के बोधार्थ तत्समान ज्ञात | देख-संज्ञा, स्त्री० दे० ( हि० देखना ) देखया प्रसिद्ध बात का कथन । भाल, देखरेख, निगरानी, (स० क्रि० विधि)। दृष्टार्थ-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) जिसके अर्थ | देखन*-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि० देखना ) से प्रत्यक्ष पदार्थ का ज्ञान हो, ज्ञात अर्थ।। देखने का भाव या क्रिया ढंग। " देखन दृष्टि-संज्ञा, स्त्री० (सं०) आँख की ज्योति, बाग़ कंवर दोऊ पाये"--रामा० । देखने की शक्ति, खुली आँख की, ज्योति देखनहारा*- संज्ञा, पु० दे० ( हि० देखना का प्रसार, निगाह, दीठि (दे०)। मुहा०- +हारा-प्रत्य०) देखने वाला । ( स्त्री० (किसी से ) दूष्टि जुड़ना (मिलना) देखनहारी)। "जग पेखन तुम देखनहारे" -देखादेखी या साक्षात्कार होना । किसी से दूष्टि जोड़ना-आँख मिलाना, साक्षा- देखना-स० कि० दे० (सं० दृश ) अवलोकन स्कार करना । दूष्टि मिलाना-साक्षा- करना, नज़र डालना, निगाह फेंकना। त्कार करना। दूष्टि रखना--निगरानी या किसी वस्तु के रूप-रंगादि या सत्ता नेत्रों से चौकसी रखना । ध्यान रखना, पहचान, जानना । मुहा०-देखना-सुनना-ज्ञान कृपादृष्टि, हित का ध्यान, श्राशा, अनुमान, प्राप्त करना, पता या खोज लगाना । उद्देश्य, विचार । मुहा०-दृष्टि से (में)- देखने में-बाहिरी लक्षणों के अनुसार, विचार या रूप से। साधारण रूप या व्यवहार में, रूपरंग में । दूष्टिगत-वि० (सं०) जो दीख रहा हो। | देखते देखते-लाखों के सामने चटपट, दृष्टिगोचर-वि. यौ० (सं०) जिसका ज्ञान तत्काल । देखते रह जाना-चकित हो नेत्र-द्वारा हो, जो देखा जा सके, दूगगोचर । जाना । देखा जायगा-फिर सोचा, दृष्टिपथ-संज्ञा, पु. यो० (सं०) निगाह का | समझा या विचारा जायगा, पीछे जो करते फैलाव, नज़र की पहुँच। बनेगा, किया जावेगा । जाँच या निरीक्षण दृष्टिपात-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) देखना, | करना । खोजना, परखना, निगरानी रखना, ताकना, निगाह डालना, विचारना। विचारना, अनुभव करना, भोगना, पढ़ना, दृष्टिबंध-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) दिठबंध, ठीक करना, ताकना, परीक्षा करना । माया, प्रपंच. जादू । दीठबंदी (दे०) हाथ देखभाल-संज्ञा, स्त्री० दे० यौ० (हि० देखना की सफाई, हस्तलाघव । +भालना) निरीक्षण, निगरानी, जाँचदृष्टिवंत-वि० (सं० दृष्टि + वंत-प्रत्य०) नेत्र पड़ताल विचार । वि. देवा-भाला। या दृष्टि वाला, ज्ञानी । " दृष्टिवंत रघुपति देखराना -स. क्रि० दे० (हि० दिखलाना) पद देखी"-रामा०। दिखलाना, दिखराना। दे-संज्ञा, स्त्री० (सं० देवी ) देवी, बंगालियों | देखरावना -स० क्रि० दे० (हि. दिख की एक जाति । स० क्रि० विधि० (देना)। लाना ) दिखलाना, दिखरावना (ग्रा० )। देवाड़ा-संज्ञा, पु० (दे०) दीमक का बनाया देखरेख-संज्ञा, स्त्री० दे० ( हि० देखना +घर, बाँबी, वल्मीक, दिनाँरा (द०)। सं० प्रेक्षण ) देखभाल, निगरानी, निरीक्षण । For Private and Personal Use Only Page #936 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir देखवैया देवखात देखवैया–वि. ( हि० दिखवाना ) दर्शक, | छोड़ कर दूसरे का करा देना, सौंपना. हवाले देखने वाला, दिखवैय्या, देखैया। । करना, थमाना, रखना, लगाना, डालना, देखा-वि० दे० (हि० दिखान ) दर्शन या | मारना, भोगना, भिड़ना, वंद या पैदा अवलोकन किया, साक्षात्कार किया. विचारा। | करना, निकालना ( अनेक क्रियाओं के साथ देखाऊ, दिखाऊ--- वि० दे० (हि० दिखाना) | स० क्रि० के समान ) जैसे-रख देना । संज्ञा, झूठी तड़क भड़क वाला, बनावटी। दिखा- | पु० (दे०) ऋण, क़र्ज़, उधार का धन । वटी (दे०) देखने में सुंदर किन्तु कामदेमान*--संज्ञा, पु० दे० (फा० दीवान) का नहीं। वज़ीर, मंत्री, दिवान । देखा-देखी-संज्ञा, स्त्री० दे० यौ० ( हि० देमारना-स० क्रि० दे० यौ० ( हि० देना+ दिखाना ) साक्षात्कार । क्रि० वि० किसी को मारना) उठाकर पटकना, पछाड़ना।। देखकर उसका अनुसरण या नकल करना।। देय-वि० (सं०) दातव्य, देने योग्य । देखाना*-स० कि० दे० ( हि० दिखाना ) ( क्रि० ) दे। दिखाना, दिखराना, दिखलाना। देर, देरी-संज्ञा, स्त्री० (फा० ) अतिकाल, देखाव, देखावट, दिखावट-संज्ञा, पु० विलंब । यौ०-देर-सबेर । दे० ( हि० देखना) ठाठ बाट, तड़क भड़क, | देव- संज्ञा, पु० (सं०) देवता, पूज्य ब्राह्मण निगाह की सीमा । राजादि का आदरार्थ शब्द या ऋषि देखावटी–वि० स्त्री० दे० (हि० दिखाना )। संज्ञा, पु. (फ़ा०, राक्षस, दैत्य, दानव । बनाव, ठाट-बाट, तड़क-भड़क, कृत्रिम। | स्त्री० देवी । ( वि. क्रि० ) दो।। देखावना-स० क्रि० दे० ( हि० दिखाना) देवऋण ---संज्ञा, पु. (सं०) देवताओं के लिये दिखाना, दिखराधना (ग्रा० ।। ___ करणीय कार्य, यज्ञादि । देखा-सुनी-- संज्ञा, पु. यौ० दे० (वा०) | देवऋषि, देवर्षि-संज्ञा, पु० यौ० ( सं० ) साक्षात्, दर्शन विचार पूर्वक निश्चय किया नारद, भरद्वाज, अत्रि, मरीचि, पुलस्त्यादि हुआ । “देखे-सुने व्याह बहुत तें "रामा० । देवलोक वासी ऋषि । “अवसर जानि देव. देग, डेग-संज्ञा, पु. (फ़ा० ) एक बरतन, ऋषि पाये"-रामा। बटुवा, चौड़े मुंह और पेट का पात्र । देवकन्या-संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) देवता की देगचा- संज्ञा, पु० दे० ( फा० ) छोटा देग। लड़की, पुत्री। देवकली-संज्ञा, स्त्री० (सं०) (स्रो० अल्पा० देगची)। एक रागिनी, देउकली (दे०)। देदीप्यमान- वि. (सं०) अति कांति या | देवकार्य-संज्ञा, पु. यौ० (सं०) जो कार्य प्रकाश-युक्त, दमकता या चमकता हुआ। या कर्म देवताओं के लिये किया जाय, देन -- संज्ञा, स्त्री० दे० ( हि० देना ) दान, दी यज्ञादि, देवताओं जैसा कार्य, शुभ कर्म । हुई वस्तु, देना का भाव । “ खुदा की देन | देवकाडार - संज्ञा, पु. ( सं०) चनसुर, देवका कुछ पंछिये अहवाल मूसा से"। काष्ट । संज्ञा, पु. (सं०) देवदारु । देनदार-संज्ञा, पु० ( हि० देना+दार फा०) | देवकी-संज्ञा, पु० (सं० ) श्रीकृष्ण-माता। करज़दार, ऋणी, ऋणियां । देवकी-नन्दन-संज्ञा, पु. यौ० (सं० ) देनहार, देनहारा--वि० दे० (हि० देना | श्रीकृष्ण । +हार-प्रत्य० ) देने वाला, देनेहारा | देवकुसुम-संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) लौंग । (दे०)। देवखात-संज्ञा, पु० यौ० ( सं० ) प्राकृतिक देना-स० कि० दे० (सं० दान) अपना स्वस्व । ताल, झील, मानसरोवर । For Private and Personal Use Only Page #937 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org देवगण देवगण - संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) देव- समूह, लग अलग देवतों के समूह | देवगति - संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) स्वर्ग - प्राप्ति, मरण, मरने पर शुभ गति, स्वर्ग - लाभ | देवगायक - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) गंधर्व । देवगिरा - संज्ञा, स्त्रो० यौ० (सं०) देव-वाणी श्राकाश-वाणी । देवगिरि - संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) सुमेरु या हिमालय पर्वत, रैवतक या गिरनार पहाड़, नगर । दौलताबाद ( प्राची० ) । देवगुरु - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) बृहस्पति । देवगृह - संज्ञा, पु० यौ० ( सं० ) देव मंदिर, देवालय, देवस्थान | देवठान, देवथान - संज्ञा, पु० दे० (सं० देवोत्थान ) दिठवन, देउठान कातिक सुदी एकादशी, जब विष्णु सो कर उठते हैं, दिठौन | देव-चिकित्सक - संज्ञा, पु० चौ० (सं० ) देव - धुनि - संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं० ) गंगा, नदी, भागीरथी, आकाशवाणी, देवध्वनि, देव-गिरा । अश्विनी कुमार, सुरवैद्य । देवधूय - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) गुग्गुल । देवनदी -संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) गंगा, सरस्वती, दृषद्वती नदियाँ । मंदार, पारिजात, कल्पवृत्त । देवतर्पण - संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) ब्रह्मा, विष्णु आदि देवतों को जलदान या पानी देना । | देवता - संज्ञा, पु० (सं०) सुर, देव । देवतीर्थ - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) एक तीर्थ । देवतुल्य - वि० ० (सं०) देवता के समान । देवत्व - संज्ञा, पु० (सं०) देवता होने का भाव, धर्म या कर्म । २६ देवतरु- संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) देव- वृक्ष, देवनागरी-संज्ञा, स्त्री० (सं० ) भारत देश की मुख्य लिपि या भाषा जिसे हिंदी भी कहते हैं, ब्राह्मी का विकसित रूप । देवदत्त - वि० यौ० (सं० ) देवता का दिया हुआ, देवता के लिये दिया हुआ | संज्ञा, पु० (सं० ) देवता को दी वस्तु, शरीरस्थ, पाँच पवनों में से जृंभाकारी एक, अर्जुन का शंख - " पंचजन्यं हृषीकेशो देवदत्तं धनंजयः गीता० । "" देवप्रतिमा देवदाली-संज्ञा स्त्री० (सं०) बंदाल, घघर बेल ( प्रान्ती ० ) ।' देवदाली फलरसो नश्यते हंत कामलाम् " - ० । देवदासी - संज्ञा, स्त्री० ० (सं० ) वेश्या, दासी, मंदिरों में रहने वाली नर्तकी, अप्सरा । देवदूत - संज्ञा, पु० ० सं० ) देवतों का दूत, वायु । देव-देव-संज्ञा, पु० ० (सं०) इन्द्र, विष्णु, शिव, ब्रह्मा । देवद्वेश -- संज्ञा, पु०या० (सं० ) देवशत्रु, देवनिन्दक | देवधान्य- संज्ञा, पु० ० (सं० ) देवताओं का अन्न, देवान्न । देवदार देवदारु - संज्ञा, पु० यौ० (सं० देवदारु ) एक तेलदार पेड़, औषधि ।" देवदारु धना विश्वा, वृहती द्वैपाचनम् " वै० । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir देवनाथ - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) इन्द्र, विष्णु शिव, देवपति, देवराज । देवनिन्दक - संज्ञा, पु० यौ० सं०) नास्तिक, पाखंडी । देवनि - संज्ञा, पु० ० (सं०) ईश्वर-प्रेमी, ईश्वर भक्त | देव पति - संज्ञा, पु० ० ( ० ) देवराज, इन्द्र, विष्णु । देवपथ - संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) देवमार्ग, आकाश । देवपूजक - संज्ञा, पु० ० ( सं०) देवतों की पूजा अर्चा या श्राराधना करने वाला | देवपूजा - संज्ञा स्त्री० या ० (सं०) देवतों की पूजा अर्चा, सुर-पूजन, देवार्चन । देवप्रतिमा - संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) देवता की मूर्ति । For Private and Personal Use Only Page #938 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir देव-वधू, देव-बधूटी देवसर देव-बधू, देव-बधटी-संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) । देवरा-संज्ञा, पु० दे० (सं० देवर ) छोटा देवता की स्त्री, सीता । " देववधू जवहीं देवता । स्त्री० देवरी । हरि ल्यायो"-राम । देवगज-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) इन्द्र, विष्णु, देवब्राह्मण - संज्ञा, पु० या० (सं० ) नारद, शिव । देव-पूजित या देव-पूजक ब्राह्मण । देवराज्य-संज्ञा, स्त्री० पु० यौ० (सं०) स्वर्ग, देवभवन-संज्ञा, पु० या० (सं० ) देव मंदिर, देवतों का राज्य ।। स्वर्ग, पीपल पेड़। देवरात -- संज्ञा, पु० (सं०) राजा परीक्षित । देवभाषा-संज्ञा, स्त्री० यो० (सं० ) संस्कृत-देवरानी-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० देवर ) देवर भाषा, देववाणी।। की स्त्री देउरानी ( ग्रा.)। देवभमि--- संज्ञा, स्त्री० यो० (सं०) स्वर्ग देवराय - संज्ञा पु. ( सं० देवराज ) इन्द्र, देवमंदिर-संज्ञा, पु० यो० (सं०) देवालय, विष्णु, शिव । देवभवन, देवस्थान । देवर्षि-संज्ञ', पु० (सं०) नारद मुनि, अत्रि, देवमणि-संज्ञा, स्त्री० या० (सं० ) कौस्तुभ मरीचि, भरद्वाज, पुलस्त्य, भृगुआदि देवऋषि मणि, घोड़े के शरीर की खास भौंरी माने जाते हैं। (शालि०)। देवल-संज्ञा, पु. ( सं०) पुजारी, पंडा । देवमाता-संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) देवतों का धार्मिक, एक चावल, नारद । संज्ञा, पु. माँ, अदिति। (दे०) देवालय। देवमातृक-संज्ञा, पु. यो० (सं०) वृष्टि के यो संपनिदेवारि-नास्तिक, असुर, दानव, दैत्य, राक्षस, जल से पालित देश। धर्मात्मा पुरुष, नारद मुनि, चावल भेद । संज्ञा, पु. (सं० देवालय) देव मंदिर, देवालय देवमाया--संज्ञा, स्त्री०या० (सं.) अविद्या जो जीवों को बंधन में डालती है। " देवल जाऊँ तो मूरति पूजा तीरथ जाँउ तो पानी".-क० । देवमास-संज्ञा, पु० या० (सं० ) मनुष्यों के तीन वर्ष का समय, देवतों का महीना । देवलोक - संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) स्वर्ग । देववधू-देववधूटी -- संज्ञा, स्त्री० (सं०) देवता देषमुनि- संज्ञा, पु. यौ० (सं०) नारद जी। की स्त्री, देवी, अप्सरा। " देववधू नाचहिं देवयज्ञ-संज्ञा, पु. या० (सं०) हवन, यज्ञ। करि गाना" - रामा० । देवयान-संज्ञा, पु. यो० (सं० ) विमान, , देववाणी--संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) देवता की मुक्तिमार्ग, पारमा के ब्रह्मलोक जाने का __ वाणी, संस्कृत भाषा, आकाशवाणी। मार्ग ( उप०)। देववृक्ष-संज्ञा, पु. यौ० (सं०) कल्पवृक्ष, देवयानी-संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं.) शुक्रा- मंदार आदि। चार्य की कन्या, राजा ययाति की स्त्री। aan संजा. पु. (सं.) भीष्म पितामह । देवयोनि- संज्ञा, स्त्री० यो० (सं० ) स्वर्ग देवशुनी-संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) देवलोक वासी यक्ष, अप्सरा आदि । "भूतोऽमी देव- की कुतिया, सरमा । योनय " - अम। देवश्रीणि-संज्ञा, स्त्री० (सं०) देवसभा। देवर-संज्ञा, पु० (सं०) पति का छोटा देवसभा-संज्ञा, स्त्री. (सं०) देवतों का भाई । स्त्री० देवरानी। समाज, राजसभा, सुधा सभा, जिसे मय देवरथ-संज्ञा, पु. यो० (सं० ) देवतों का ने पांडवों के लिये बनाया था, देवसमाज । विमान। दंवसर--संज्ञा, पु० यौ० (सं०) मानसरोवर । For Private and Personal Use Only Page #939 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir देवसेना १२८ देशस्थ देवसेना-संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) देवताओं देवोत्तर-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) देवताओं की फौज, प्रजापति की कन्या, सावित्री- को दिया हुआ धन या सम्पति । सुता, षष्टी। देवोत्थान-संज्ञा, पु० (सं०) विष्णु का शेषदेव स्त्री-संज्ञा, स्त्री० (सं०) देवी। शय्या से उठना, कातिक सुदी एकादशी, देवस्थान-संज्ञा, पु. यौ० (सं०) देवालय । दिठवन, देवथान (ग्रा.)। देवस्व-संज्ञा, पु० (सं०) देवतों का धन ।। दघोद्यान-संज्ञा, पु. यौ० (सं०) देवतों के देवहूति-संज्ञा, स्त्री० (सं०) स्वायंभुव मुनि- बाग जो चार हैं, नंदन, चैत्ररथ, वैभ्राज, कन्या, कर्दम ऋषि की स्त्री, सांख्यकार, | सर्वतोभद्र, देव-वाटिका। कपिलमुनि की माँ। देवोन्माद--संज्ञा, पु० यो० (सं०) एक प्रकार देवांगना-संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) देवतों की | का उन्माद जिसमें मनुष्य पवित्र रहता है स्त्री, अप्सरा, देववधूटी। सुगंधित फूलादि चाहता तथा संस्कृत देवा-वि० (हि० देना) देने वाला, ऋणी। बोलता है, (वैद्य०)। देवानां संज्ञा, पु० दे० (फा० दीवान) दीवान, | देवोपासना-देवापासन - संज्ञा, स्त्री० यौ० मंत्री, दरबार, कचहरी प्रबंधकर्ता। (सं०) देवपूजन, देवाराधन, देवार्चन । देवानांप्रिय-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) देवताओं देश--संज्ञा, पु० (सं०) महाद्वीप का वह भाग को प्रिय, मूर्ख, बकरा। जहाँ एक ही जाति के लोग रहते हों, एक देवापि-संज्ञा, पु. ( सं०) ऋष्टिसेन सुत शासक एवं शासन-विधान वाला कई प्रान्तों शान्तनु राजा के बड़े भाई । और नगरों वाला भूभाग, जनपद राष्ट्र, जैसे देवारी-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० दीपावली) भारत, शरीर का कोई भाग, अंग । "भूषण दीवाली, दिवारी ( ग्रा० )। सकल सुदेश सुहाये''-रामा० । यौ०देवार्पण - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) देवता के देश-काल । स्थान, दिक। हेतु दान । वि० देवार्पित। देशज-वि० (सं०) देश में उत्पन्न । संज्ञा, देवाल-देवारा--वि० दे० (हि० देना) पु. (सं०) किसी प्रदेश के लोगों की बोल चाल से उत्पन शब्द जो संस्कृत या अपदाता, दानी । संज्ञा, स्त्री० (दे०) दीवाल । भ्रंश न हो। देवालय----संज्ञा, पु. यो० ( सं०) स्वर्ग० देशनिकाला-संज्ञा, पु० यौ० (हि०) देश से देव-मंदिर। निकाल देने का दंड। देवी-संज्ञा, स्त्री० (सं०) देवांगना, दुर्गा, पट- | देशभक्त-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) देश-सेवा रानी, सुशीला स्त्री, ब्राह्मण स्त्री की उपाधि । | करने वाला, देश को कष्टों से छुड़ाने वाला। देवापुराण--संज्ञा, पु० यौ० (सं०) एक पुराण | देशभाषा-संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) किसी जिसमें देवी के अवतारों, कार्यों और महिमा | देश की बोली या वाणी। का वर्णन है। देशभिज्ञ-संज्ञा, पु. यौ० (सं०) देश की देवी भागवत-संज्ञा, पु. यौ० (सं०) एक अवस्था का जानने वाला, देश-वृत्तान्त वेत्ता। पुराण जिसमें १२ स्कंध और १८०० श्लोक देशमय-संज्ञा, पु. (सं०) देश-रूप, सारे हैं (जैसे भाग०)। देश में व्याप्त या फैला हुया ! देवेन्द्र-संज्ञा, पु. यो० (सं०) इन्द्र । देशरूप-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) देश के अनु. देवया--वि० दे० (हि० देना+- ऐया-प्रत्य०) सार या योग्य, उचित, देशानुरूप । देने वाला, दिवैग्या । देशस्थ-वि० (सं०) देश में स्थित । For Private and Personal Use Only Page #940 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir AUTHENS W ERS देशांतर देशांतर - संज्ञा, पु. (सं० ) अन्य देश, देहपात-संज्ञा, पु. यौ० (सं०) मौत, मृत्यु । परदेश, विदेश, किसी नियत मध्यान्ह रेखा देहरा-संज्ञा, पु० दे० (हि. देव+घर) देवालय। से पूर्व या पश्चिम की दूरी सूचक कल्पित | संज्ञा, पु. ( हि० देह ) मनुष्य का शरीर । रेखायें (भू.)। देहरी देहली- संज्ञा, स्त्री० (सं० ) डेहरी देशाचार-संज्ञा, पु. यौ० (सं०) देश का (ग्रा.), द्वार की चौखट के नीचे की चौकोर आचार-व्यवहार, देश रस्म रीति भांति । लकड़ी। "ताकी देहरी पै गरि दै'-द्वि०। देशाटन --- संज्ञा, पु० चौ. (सं०) देश-भ्रमण, देहलो-दीपक - संज्ञा, पु. या० (सं०) देहली देशों की भिन्न-भिन्न-यात्रा। पर का दीया जो भीतर बाहर दोनों ओर देशाधिप- संज्ञा, पु० यौ० (सं०) राजाधिराज, प्रकाश करे, एक अलंकार जिसमें कोई शब्द दशाधिपति, महाराजा। दो वाक्यों में चरितार्थ होता है। यौ०देशाधीश-संज्ञा, पु. यौ० (सं०) राजा। देहली-दीपक-न्याय-दो तरफी बात । देशावर-- संज्ञा, पु० (हि. देश + फ़ा० पावर) वंहवंत-वि० (सं०) शरीरधारी, देहधारी, विदेश, वहाँ से पाया माल । सावर शरीरी, तनुधारी । संज्ञा, पु० जीवधारी, (दे०) । संज्ञा, पु० (दे०) परदेश, दूसरा देश । प्राणी व्यक्ति, देही। दंशिक-संज्ञा, पु. (सं०) गुरु श्राचार्य, देहवान् - वि० (सं० देहवत् ) तनुधारी, ब्रह्मज्ञान का उपदेशक गुरु । __ शरीरी, देही। दशी- वि० दे० (सं० देशीय) देशीय सं०), देहांत- संज्ञा, पु. यो० (सं०) मृत्यु, मौत । देश-सम्बन्धी, देश का बना, या उत्पन्न। हात-संज्ञा, पु. (फ़ा०) गाँव, ग्राम । वि० देसी (दे०)। देहाती। देशोन्नति-संज्ञा, स्त्री. यो० (सं० ) देश | देहाती-वि० (फा०) ग्रामीण, गँवार, गाँव की बढ़ती, उन्नति, देशवासियों की सुखादि- का निवासी, गाँव का, असभ्य । वृद्धि । देहात्तरवादी-संज्ञा, पु. यो. (सं०) शरीर दस-संज्ञा, पु० दे० (सं० देश) देश, मुल्क । ही को श्रात्मा या जीव मानने वाला, चारवि० देसी । यौ० देस कोस। वाक, नास्तिक । देसघाल-वि० दे० (हि० देश + वाला) देही-संज्ञा, पु. (सं० देहिन) जीव, पारमा । अपने देश का, स्वदेश का। "देही कर्मानुगोऽवशः "-भाग० । दह- संज्ञा, स्त्री० (सं०) शरीर, तन, बदन ! दैउ दैव/-... संज्ञा, पु० दे० (सं० दैव) भाग्य, ( वि० दही)। मुहा०-देह छूटना- तकदीर, किस्मत दइउ, (ग्रा०)। "दैव दैव मृत्यु या मौत होना । दह छोड़ना-मरना। श्रालसी पुकारा"। देह धरना-जन्म लेना, उत्पन्न या पैदा दैजा-संज्ञा, पु. (हि० दायज ) दायज, होना, शरीर धारण करना। " देह धरे कर दहेज, दइजा, दाइजु (ग्रा०)। यह फल भाई."- राम । जीवन, शरीर दैत-संज्ञा, पु० (दे०) दैत्य (सं०) । का कोई अंग। | दैतेय-संज्ञा, पु. ( सं० दिति ) दैत्य, दानव । देह त्याग-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) मौत,मृत्यु। दैतन्द्र- संज्ञा, पु० (सं०) गंधक, दैत्यों के देह धारण-संज्ञा, पु. यो. (सं०) जन्म दैत्यराज |--"सिंदूर दैतेन्द्र राजा, मनः लेना, जीवन रक्षा, शरीर धारण। शिलानाम्-वै०। देहधारी- संज्ञा, पु. (सं० देह धारिन) जीव- दैत्य -- संज्ञा, गु० (सं०) दानव, दैतेय, दइत धारी,शरीरधारी, देही। स्त्री० दहधारिणी।। (ग्रा.)। भा० श० को०-10 For Private and Personal Use Only Page #941 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org दैत्यगुरु ३३० दैत्यगुरु -- संज्ञा, पु०या० (सं० ) शुक्राचार्य्यं । दैत्याचार्य्य - संज्ञा, पु०या० (सं० ) शुकाचार्य । दैत्यारि - संज्ञा, पु० ० (सं० ) विष्णु | दैत्याधिप-दैत्याधिपति - संज्ञा, पु० (सं० ) दैत्यराज | दैनंदिन - वि० यौ० (सं०) प्रतिदिन का, नित्य का | क्रि० वि० (सं०) प्रतिदिन, दिनोदिन | संज्ञा, पु० एक तरह का प्रलय (पु० ) दैन - वि० दे० ( हि० देना ) देनेवाला | to में जैसे- सुखदैन | संज्ञा, पु० दे० (सं० दैन्य ) कंगाली, निर्धनता, दीनता । दैनिक - वि० (सं०) हर रोज़ का, रोज़ाना, प्रतिदिन का । दैनिकी -- संज्ञा, स्त्री० (सं० ) प्रतिदिन का | दैन्य- संज्ञा, पु० (सं०) कगाली, दीनता, भक्ति या काव्य में श्रात्मदीनता-सूचक भाव, कादरता, कायरता । दैयत | संज्ञा, पु० दे० ( सं० दैत्य ) दैत्य | दैया t - संज्ञा, पु० (सं० देव) भाग्य, ईश्वर | मुहा० - दया दया करके- बड़ी कठिनता से। " कौन दुख दैया दैया सोचि उर धारय मैं " - ग्वा० । अव्य० (दे० ) अचरज, दुःख, भय, तथा शोक-सूचक शब्द ( प्रायः स्त्रियों में प्रयुक्त ) | A दैर्ध्य - संज्ञा, पु० (सं०) दीर्घता, लंबाई, बड़ाई विस्तार | "> दैव - वि० (सं०) देवता का संज्ञा, पु० (सं० ) भाग्य, परमेश्वर, होतव्यता होनहार आलसी पुकारा - रामा० । वि० देवी । मुहा० – दैव बरसना - पानी बरसना । दैव फटना - बहुत जोर से गर्जन- तर्जन के साथ वृष्टि होना । | दैवगति - संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) दैवी घटना भाग्य, परमेश्वर की बात । 'दैवर्गात जानी नाहि परै " - वि० । दैवज्ञ -- संज्ञा, पु० (सं०) ज्योतिषी, गणिक । देवता संबंधी । अष्ट, विधाता, देव देव " Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir दैवी दैवत - वि० (सं०) देवता-सम्बन्धी, देवसमूह | संज्ञा, पु० (सं० ) देवता की मूर्ति श्रादि । किञ्चिरं दैवत भाषितानि "" नैप० । दैवयोग - संज्ञा, पु०या० (सं०) संयोग, दैवात भाग्यवशात् । दैवलांक – संज्ञा, पु० (सं०) भूतभक्त, भूतसेवक । दैववश- दैववशात्- क्रि० वि० (सं०) कस्मात्, दैवयोग से, संयोगवशात् । देववाणी - संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) श्राकाशवाणी, नभगिरा, संस्कृत भाषा । दैववादी - संज्ञा, पु० यौ० वि०, (सं०) भाग्यवादी, भाग्य के भरोसे पर रहने वाला सुस्त. थालसी, निरुद्यमी । संज्ञा, पु० यौ० (सं०) दैववाद | प्राप्त, देवविवाह -संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) श्राठ भाँति के व्याहों में से एक. जिसमें कन्या का पिता वर को कन्या एवं धन देता है । देवागत- वि० यौ० (सं० ) भाग्य से, दैवी, कस्मिक, दैव से दैवात् । देवात् क्रि० वि० (सं०) संयोग से, भाग्य से, दैव-योग से अकस्मात् । दैवाधीन - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) भाग्यवश ईश्वराधीन, हठात्कार | देवानुरागी -- संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) ईश्वर - प्रेमी या भक्त, भाग्य-प्रेमी, भाग्यानुसारी । दैवानुरोधी - वि० ० (सं०) दैव- वशीभूत. भाग्यानुवर्ती, भाग्य भरोसे, भाग्यवादी । देवायत - संज्ञा, पु० (सं०) दैवाधीन, भाग्या नुसार, अकस्मात् हठात् । दैविक - वि० (सं० ) देवकृत, देव-सम्बन्धी, देवों का । " दैहिक दैविक भौतिक तापा" - रामा० । देवी- वि० (सं०) देवकृत, देव-सम्बन्धी, प्राकृतिक, भाग्य या प्रारब्ध के योग से होने वाली बात, वाकस्मिक, सात्विक । For Private and Personal Use Only Page #942 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - दैवीगति दोजखी देवीगति-संज्ञा, स्त्री० (सं०) ईश्वरीय बात, दोखना -स० कि० दे० (हि. दोख+ होतव्यता, होनहार, भावी, भाग्य । । ना - प्रेत्य० ) दोष, अपराध या कलंक दैशिक-वि० (सं०) देश-सम्बन्धी, देश लगाना, ऐब लगाना। में उत्पन्न या प्राप्त। दोबी*---संज्ञा, पु० दे० (सं० दोषी ) अप. दैहिक--वि० (सं० ) देह-संबन्धी. शरीर से राधी, ऐबी, शत्रु. दोष-युक्त, दोषी। उत्पन्न या प्रगट, शारीरिक । “दैहिक, दैविक दोगला--संज्ञा, पु० दे० ( फा० दोगलः ) भौतिक तापा"-- रामा० ।। जारज, भिन्न जातीय माता पिता से उत्पन्न। देहौं- स० कि. ७० (दे० हि० देना) दूंगा, स्त्री० दोगली। "देहौं उतर जो रिपु चढ़ि भावा" ... रामा०। दोगा-संज्ञा, पु० दे० (हि. दुका) एक रजाई दोचना-स० कि० दे० (हि. दोचन) दबाव या लिहाफ, पानी में तर महीन चूना, गले में डालना, दौवना ( ग्रा० )। की रस्सी, गेरवाँ पशु०)। दो-वि० दे० (सं० द्वि० ) गिनती की दूसरी दोगाडा--संज्ञा, पु० (दे०) दोनाली बन्दूक । संख्या । मुहा --दो-एक या दो-चार--- दोगाना--वि० (अ०) दोहरा, द्विगुण, दुगुना, कुछथोड़े. चंद। दो-चार होना-भेंट होना, दो लड़ा। मुलाकात होना। वं दो-चार होना--- | दोगुना-वि० दे० (सं० द्विगुणित ) द्विगुण, सामना होना : दो दिन का ( में )-चंद दुगुना । स० क्रि० (दे०) दुगुनाना, रोज़ का, थोड़े समय का । " दिन द्वैक लौं। दोगुनाना-झुकाना, द्विगुण करना, दोतह औधहु मैं पहुनाई '-तु० । करना । दो-पातशा-वि० (फा०) जो अर्क दो बार दोच----संज्ञा, स्त्री० दे० ( हि० दबोच ) श्रमउतारा गया हो। मञ्जप, दुबिधा. दुःख, कष्ट, दबाव । दोआब-दोश्राबा-संज्ञा, पु. (फा० ) दो दोचन- संज्ञा, स्त्री० दे० (हि० दबोचना) नदियों के मध्य की भूमि, द्वाब, दुआबा दबाव, कष्ट, दुख, असमंजस, दुविधा । दुबाब (दे०)। दोचना-स० कि० दे० (हि. दोच ) दबाव दोइ-दोयो- संज्ञा, पु० वि० दे० (हिं. दो), डालना, बड़ा जोर लगाना या देना। दो, दोनों। दोचर-वि० (दे०) दोसरा, दूसरा । दोउ-दोऊ* -- वि० दे० (सं० द्वि० हि. दो) दोचित्ता-वि० दे० यौ० (हि. दो+वित्त) दोनों । "जियत धरहु तपसी दोउ भाई। धरि उद्विग्न, सन्देह-युक्त, जिस का मन दो बातों बाँधहु नृप बालक दोऊ"-रामा० । या कामों में फंसा या लगा हो, दुचिता । दोक-संज्ञा, पु० (दे०) दो दाँत का बछेड़ा। स्त्री. दीचित्ती । संज्ञा, स्त्री. ( दे०) दोकना-- अ० क्रि० (दे०) गर्जना, दहाड़ना। दोनितई। दोकला-संज्ञा, पु० या० दे० (हि० दो० । दोचित्ती-- संज्ञा, स्त्री० दे० या० (हि० दो+ कल - पेंच) दो कलों वाला ताला या कुलुफ। चित्त ) मनकी उद्विग्नता, दोचित्तापन, उलदोकाहा-- संज्ञा, पु० दे० ( हि० दो+कूबर ) झन, फंसाव । स० कि० (दे०) दोचिताना । दो कूबर वाला ऊँट । दोज -संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० द्वितीया) दुइज। दोख*--- संज्ञा, पु० दे० (सं० दोष ) | दोजख-संज्ञा, पु० (फा०) नर्क, नरक, दोष, बुराई, कलंक, अपराध,दोखू (ग्रा०)। नरककुण्ड । टूटै टूटनहार तरु, वायुहिं दीजै दोख" दोज़खी-वि० (फा०) नरक-सम्बन्धी, -राम। नारकी, पापी। For Private and Personal Use Only Page #943 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir दोजा दोमहला-दुमहला दोजा- संज्ञा, पु० दे० (हि. दो + सं०जाया) दोनिया दानी-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. दोना जिसके दो व्याह हुए हों दुजहा. दुइजहा का स्त्री० अल्पा० ) छोटा दोना, दोनैय्या (ग्रा.)। (ग्रा.) दोजिया-दोजीवा-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. दोनों-वि० दे० (हि. दो+नों-प्रत्य० ) दो+जीव ) द्विजीवा (सं०) दो जीव वाली, उभय, दोऊ । गर्भवती । मुहा० .-दोती से होना- दापलिया--वि०, संज्ञा, स्त्रो० दे० यौ. गर्भवती या गर्भिणी होना। (हि० दा + पल्ला+इया--प्रत्य०) दो पल्ले दोझा, दुजहा दुइजहा (ग्रा.)--संज्ञा, पु. वाली, जैसे दो पलिया टोपी, दुपलिया (ग्रा.)। (दे०) दूसरा वर, दो विवाह करने वाला, दोपल्नी ---वि० (हि. दो+पल्ला -ईदूसरे व्याह का वर। प्रेत्य० ) दो पल्ले वाली, जैसे दोपल्ली, टोपी दोतरफा-वि० यौ० (फ़ा०) दोनों ओर या दुपल्ली (प्रा.)। पक्ष-सम्बन्धी, दोनों तरफ़ का। क्रि० वि० यौ० दोनों तरफ या भोर । दोपहर-संज्ञा, स्त्री० दे० यौ० (हि.) मध्याह्न काल, दुपहरी ग्रा०)। दोतला-दोतल्ता-- वि० दे० यौ० ( हि० दो दोपहरिया-संज्ञा, स्त्री० दे० ( हि० दोपहर) +तल ) दो खंड का, दो मञ्जिला, दो तले दोपहर, मध्यान्ह काल । संज्ञा, पु० (दे०) का (जूता )। दोपहर को फूलने वाला फूल, दुपहरिया दोतारा-संज्ञा, पु० दे० यौ० (हि. दो+ (ग्रा० )। तार ) दो तारों का बाजा। दोपिठा, दोपीठा-वि० ( हि० दा + पीठ ) दोदना-स० क्रि० दे० (हि. दो =दोहराना) । दोरुखा, दोनों ओर तुल्य रूप-रंग वाला। प्रत्यक्ष बात को न मानना इन्कार करना। दोसली- वि० यौ० (हि. दो-|-फसल अ.) दोधक-संज्ञा, पु० (सं०) एक छंद। वह प्रदेश जहाँ दोनों फसलें-खरीफ, रबी दोधारा-वि० दे० यौ० (हि. दो+धार ) होती हों, जो दोनों फसलों में होता हो, दुधारा । संज्ञा, पु. (दे०) एक भाँति का | दोनों पक्षों में सम्मिलित, जो दोहरी बात थूहर । स्त्री. दोधारी। कहता हो। दोधूयमान-वि० (सं०) बारम्बार काँपता दोबर-वि० दे० ( हि० या सं० दुर्वल) दूबर हुश्रा, पुनः पुनः कंपनशील, सदा हिलनेवाला। (ग्रा०) दुबला, पतला, दोतह, दोबार। दोन-संज्ञा, पु० दे० (हि. दो ) दो पर्वतों दोबल-संज्ञा, पु० (दे०) दोष, अपराध । के मध्य की नीची भूमि । संज्ञा, पु० दे० | दोबारा-क्रि० वि० यौ० ( फा०) दुबारा (हि० दो - नद् ) दो नदियों की मध्यवर्ती (दे०), दूसरी दफ़ा या बार। भूमि, दोश्राब, संगम-स्थान, दो वस्तुओं दोबे-संज्ञा, पु० दे० (सं० द्विवेदी) दुबे, का मेल या जोड़। द्विवेदी, दुइबे, दो बार। दोनला-वि० दे० यौ० (हि. दो+नल) द्विभाखिया-संज्ञा, पु. यौ० (हि. दुभाषिया) जिस वस्तु में दो नल हों, दो नाली बन्दूक। दो भाषाओं का वक्ता या ज्ञाता, दुभाषी, दोना-संज्ञा, पु० दे० (सं० द्रोण ) पेड़ के | दुभाषिया (दे०)। पत्तों से बना कटोरा, दोनवा, दोनौवा दो मंजिला-वि० यौ० (फ़ा०) दुखंडा, दो (ग्रा.) । स्त्री० दोनी. दोनिया। खण्डा घर। दोनाली-- संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. दो+नल) दोमहला-दुमहला-वि० दे० यौ० (फ़ा०) दो नलों वाली बन्दुक, दोनली, दुनालो। दो मञ्जिला, दो खण्डा घर । For Private and Personal Use Only Page #944 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir दो मुंहा दोषना दो मुँहा-वि. यो० (हि. दो + मुंह) दो दोला यंत्र--संज्ञा, पु. यौ० (सं०) औषधियों मुख वाला, दोहरी बात कहने या चाल के बनाने का एक यंत्र (वैद्य०)। चलने वाला, कपटी, छली। दोलायमान --- वि० (सं०) डोलता या हिलता दो मुँहा साँप-संज्ञा, पु० यौ० (हि० दा + हुआ । वि. दानित, दोलनीय ।। मुंह ) सापों की एक जाति, जिपकी पूंछ दीपिका-- संज्ञा, स्त्री० (सं०) झूला, हिंडोला। मोटी होने से मुख मी जान पड़ती है, दो शाखा--संज्ञा, पु० दे० यौ० (सं० द्विशाखा) कुटिल, छली, कपटी। दीवारगीर लैम्प जिसमें दो बत्तियाँ जले। दोय-वि०, संज्ञा, पु० दे० ( हि० दो) वि० यौ० (दे०) दो शाखाओं वाला। दो, दोनों। "बरन बिराजत दोय"-तु०। दोष संज्ञा, पु. (सं०) ऐब. अवगुण, बुराई। दोरंगा-दुरंगा-वि• यौ० दे० ( हि० दो । “दोष लखन कर हम पर रोवू"--रामा० । रंग) जिसमें भिन्न भिन्न रंग हों, दो रंग महा-~दोष लगाना-अपराध या कलंक वाला, जो दोनों ओर मिल सके। आरोपित करना । लगाया हुअा अपराध, दोरंगी-दुरंगी--संज्ञा, स्त्री० यौ० दे० (हि. लांछन, कलंक, अभियोग । यो०-दोषा दो+रंग+ ई = प्रेत्य० ) छल, कपट, धोखे । एण-दोष देना या लगाना । जुर्म, कसूर, बाज़ी, दो रंग होने का भाव । यौ० दुरंगी पाप, शरीर के बात, पित्त, कफ तीन दोष, दुनिया, दुरंगी बात। अति व्याप्ति, काव्य में पद दोषादि ५ दोष, दोरक-संज्ञा, पु. (सं०) डोरा, सूत, तार । ( का० ) प्रदोष । संज्ञा, पु० दे० (सं० द्वेष) दोरदंड*-वि० दे० (सं० दोड) बाहु शत्रुता, बैर, द्वैष । वि० दोषकर्ता। दोषक-संज्ञा, पु. ( सं०) दोषी, अपराधी. दंड, भुजदंड हाथ बली, प्रचंड ।। निंदक, ऐबी। दोरसा-वि• यौ० (हि. दो-।- रस ) वह दोषकर -- संज्ञा, पु० (सं०' दूषणावाह, अनिष्टपदार्थ जिसमें दो भिन्न भिन्न प्रकार के रस कारी, निन्दा करने वाला। वि.दोषकारी, या स्वाद हों, दो रस या स्वाद वाला, दो | दोषकारक। भाव या अर्थ वाला । स्त्री० (दे०) दोरसी। दोष-खण्डन-संज्ञा, पु. यो० (सं०) अपवाद यौ०-दोरसे दिन- गर्भावस्था के दिन । | या कलंक छुड़ाना, दोष मिटाना । संज्ञा, पु० (दे०) पीने का एक तरह की दोष-गायक-संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) दोष तम्बाकू। गाने वाला, निन्दक. दोष सूचक या प्रकाशक। दोराहा–संज्ञा, पु. यो. ( हि० दो + राह) दोष-ग्राहक--संज्ञा, पु. यौ० (सं०) दोष वह स्थान जहाँ से दो रास्ते गये हों। ग्रहण करने वाला, निन्दक, खल, छिद्रान्वेषी, दोरुखा-वि० यो० (फ़ा०) जिस पदार्थ के । बुराई खोजने वाला। दोनों ओर बराबर काम किया गया हो, दोषज्ञ- संज्ञा, पु. (सं०) पंडित, चिकित्यक जो दोनों थोर समान हो, जिसके दोनों या वैद्य, दोष-वेत्ता । संज्ञा, स्त्री० (दे०) मोर भिन्न भिन्न रंग हों। दोषज्ञता। दोल-संज्ञा, पु० (सं०) झूला, हिंडोला, डाली। दोषता-संज्ञा, स्त्री० (सं०) दोष का भाव, दोलन-संज्ञा, पु. ( सं०) झूलन, हिलन, दोषत्व । डोलन । अ० क्रि० (दे०) दोलना। दोषन -संज्ञा, पु० दे० (सं० दूषण ) दोला-संज्ञा, स्त्री० (सं०) झूला, हिंडोला, दूषण, अपराध । डाली। | दोषना-स० क्रि० दे० ( दूषण -+ना For Private and Personal Use Only Page #945 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir दोषनाश दोहरा -प्रेत्य० ) ऐब या अपराध लगाना, कलंक दोस्ताना - संज्ञा, पु. (फ़ा०) मित्रता, मित्रता या लांछन देना। का व्यवहार । वि. मित्रता का। दोषनाश-संज्ञा, पु० यो० (सं०) पापमोचन, दोस्ती-संज्ञा, स्त्री० [फा०) स्नेह मित्रता,प्रेम। अपवाद हरण । वि० दोषनाशक । दोह-संज्ञा, पु० दे० (सं० द्रोह) बैर, शत्रुता। दोषभाक-संज्ञा, पु. या० ( सं० ) अपराधी, हगा-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० दुभगा ) ऐबी, निन्दा के योग्य। रखी हुई स्त्री. उपपत्नी, सुरैतिन । दोष-मार्जन-संज्ञा, पु. यौ० (सं०) दोष दूर दाहता, दुहेता- संज्ञा, पु० दे० (सं० दौहित्र) करना, शुद्ध करना। नाती, नवासा : स्त्री० दोहनी, दुदेती। दोषा-संज्ञा, स्त्री० [सं०) रात्रि, निशा, रजनी, दोहत्थड-- संज्ञा, पु० दे० यौ० ( हि० दा-+संध्या, प्रदोष, प्रदोषा। हाथ ) दोनों हाथों से मारा जाने वाला, दोषातन-वि० (सं०) निशाजात, रात्रिभाव।। थप्पड़ श्रादि। दोषादोष-संज्ञा, पु. यो. ( सं० ) भलाई. दोहत्था दुहत्था-क्रि० वि० यौ० दे० (हि. बुराई, गुण-दोष । दो हाथ ) दोनों हाथों के बल या द्वारा, दोषारोपण- संज्ञा, पु० यौ० (सं०) ऐब, दोनों हाथों से । वि० दे० जो दोनों हाथों अपराध, कलंक, लांछन लगाना। के द्वारा हो । स्त्री. दोहत्थी. दुहत्थी। दोषावह- वि० ( सं० ) दोष-उत्पादक, दोहद -- संज्ञा, पु० (२०) गर्भिणी की इच्छा दोषोत्पन्न, दोष का धारण करने वाला। या अभिलाषा, गर्भावस्था, गर्भ-चिन्ह, सुन्दरी दोषिन, दोखिना-संज्ञा, स्त्री० (हि. दोषी) नायिका के छूने से प्रियंगु, पान की पीक अपराधिनी, पापिनी, कलंकिनी। डालने से मौलसिरी, लात मारने से अशोक, दोषी--संज्ञा, पु० (सं० दोषिन ) अपराधी, देखने से तिलक, मीठा गाने से ग्राम, नाचने कलंकी, पापी, अभियुक्त, दोसी (दे०)। से कचनार फालता है यही उनका दोहद दोषैकक-वि० यौ० (सं०) दोषदर्शी, दोष है। '' उपेत्य सा दोहद-दुःख शीलताम" देखने वाला, छिद्रान्वेषक । "सुदक्षिणा दोहदलक्षणं दधौ' । --- रघु० । दोस-संज्ञा, पु० दे० ( सं० दोष ) ऐब, दाहदवती-संज्ञा, स्त्री० (सं०) गर्भवती स्त्री। अपराध, दोष । संज्ञा, पु. (दे०) दोस्त दोहन--संज्ञा, पु० (सं०) दुहना, दोहनी । (फा० ) । संज्ञा, स्त्री० (दे०) दोसतो।। दोहना* -- स० क्रि० दे० (सं० दूषण ) दोष दोसदारी*--संज्ञा, स्त्री० दे० (फा० दोस्त या कलंक तथा अपराध लगाना, तुच्छ ठहराना, द्रोह करना. दुहना। दारी) मित्रता, दोस्ती। दोहनी, दाहिनी-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं०) दुध दोसरा-- संज्ञा, पु. (दे०) दूसरा, साथी। दुहने का पात्र, दूध दुहने का कार्य या कर्म, दोसाद-संज्ञा, पु० (दे०) धानुक, धानुख, धारणे गिरवर, दोहनी, धारत वाँह डुमार, दुसाद, अछूत जाति विशेष । पिराय"--सूर० दोसाला-वि० यौ० ( हि० दो + साल = दोहर- संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. दो+धरी = तह वर्ष ) दो वर्ष का । संज्ञा, पु० (दे०) दुशाला, | दो परत की चादर या दुपट्टा । पशमीना। दोहरना--अ० क्रि० दे० (हि. दोहरा) दोहर दोसूतो-संज्ञा, स्त्री० दे० यौ० (हि. दो+सूत होना, दुबारा होना। स० कि. (दे०) दोहर दो तही, दो सूत का मोटे कपड़े का बिछौना। करना । दोस्त-संज्ञा, पु०(फा०) मित्र, साथी, स्नेही। | दोहरा-वि० पु. दो। (हि. दोन हरा For Private and Personal Use Only Page #946 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org दोहराना "" प्रत्य० ) दो परत या तह वाला, दुगुना, दो लर का । संज्ञा, पु० एक पत्ते में लपेटे हुये पान के दो बीड़े, दोहा छंद । स्त्री० दोहरी । सतसैया को दोहरा, ज्यों नावक को तीर " । दोहराना - -स० क्रि० दे० (हि०दोहरा) दुबारा कहना या करना, पुनरावृत्ति करना, दो हैं या दोहरा करना, दाहरवाना ( ग्रा० ) । दोहराव - संज्ञा, पु० दे० (हि० दोहराना) दोह या हुआ, दोहराने का कार्य, तह करना । दोहला, दुहिला - वि० (दे०) दो बार की व्ययी हुई गौ । ६३५ दोहली - संज्ञा, पु० (दे० ) मदार, आक | दोहा - संज्ञा, पु० हि० दो + हा - प्रत्य० ) १३ और ११ पर विराम वाला २४ मात्राओं का एक छंद (पिं० ) । दोहाई - संज्ञा स्त्री० ६० ( हि० दुहाई ) दुहाई, शपथ, साहय्य या रक्षा हेतु पुकार, प्रभावातक या जय की ध्वनि । 'उत रावन इत राम दोहाई " - रामा० । दोहाक - दोहागी - संज्ञा, पु० दे० (सं० दौभाग्य) भाग्यता, दुर्भाग्य । दोहाग†–वि० पु० दे० (सं० दौर्भाग्य ) अभागा, दुर्भागी । स्त्री० दाहागिनी । दोहित दाहिता | संज्ञा, पु० दे० (सं० दहित ) नाती, बेटी का बेटा, पुत्री का पुत्र । दोही - संज्ञा, पु० दे० ( हि० दो ) एक छंद (पिं० ) | संज्ञा, पु० दे० (सं० दाहिन् ) ग्वाला, अहीर, दूध दुहने वाला | वि० दे० ( सं० द्रोहिन् । बैरी, शत्रु । 1 दोह्य - वि० (सं०) दुहने योग्य | दौं - अव्य० दे० ( सं० प्रथवा ) धौं, या, थथवा, वा | संज्ञा, स्त्रो० द० सं० दव) दावानल, वनागि । 'उभय अम्र दौं दारु कीट ज्यों शीतलताहि चहै" - सूर० । दौंकना - अ० क्रि० दे० (हि० दमकना) दमकना, चमकना । स० क्रि० द० (हि० डौंकना) बड़े जोर से डाँटना या फटकारना । दौडादौड़ दोंगड़ा, दोंगरा - संज्ञा, पु० (दे०) भारी वर्षा जो वर्षाऋतु के प्रारम्भ में होती है । 'पहिल air भरिगे गड्डा -- घाघ । दौंचना* | - स० क्रि० दे० ( हि० दबोचना ) किसी पर दबाव डाल कर या दबा कर लेना, हठ पूर्वक लेना । 1 दौंरी - - संज्ञा, त्रो० दे० ( हि० दाँना या दाँवना) दायँ, देवरी, अनाज माड़ने का कार्य । दौ - संज्ञा, स्त्री० दे० ( सं० दव ) दावानल, वन की अग, ताप, जलन, दव | "मृगी देखि जिमि दौ चहुँ प्रोरा " - रामा० । दौड़ - संज्ञा, स्त्री० ( हि० दौड़ना ) दौड़ने का भाव या कार्य शीघ्र गमन या गति, धावा । मुहा० - दौड़ मारना या लगाना-- बड़े वेग से जाना या चलना । लंबी यात्रा, वेग के साथ चढ़ाई, धावा या आक्रमण, इधरउधर घूमने का कार्य प्रयत्न, उपाय | मुहा०- -मन की दौड़ - चित्त का विचार । पहुँच की सीमा, उद्योग की हद, बुद्धि की पहुँच या गति, विस्तार, पुलिस के सिपाहियों का दल जो चोर श्रादि को घेर लेता है । दौड़धूप - संज्ञा, स्त्री० यौ० (हि० दौड़ + धूप) उद्योग, उपाय, प्रयत्न । - प्र० क्रि० यौ० (हि०) बहुत दौड़धूप करनायन, परिश्रम या उद्योग करना । दौड़ना - अ० क्रि० दे० (सं० धारण) तेजी या शीघ्रता से जल्दी जल्दी चलना। मुहा० चढ़ दौड़ना -- श्राक्रमण या चढ़ाई वरना । दौड़ दौड़ कर आना - बार बार या जल्दी जल्दी थाना, सहसा पिल पड़ना, उद्योग में घूमना, छा जाना । दौड़ा - संज्ञा, पु० ( हि० दौड़ना) घुड़सवार, वटमार, जाँच के लिये स्थान स्थान जाना, दौरा । यौ० दौडाजज । 91 दौड़ाक - संज्ञा, पु० ( हि० दौड़ा + अक प्रत्य० ) दौड़ने वाला, धावक । दौडादौड़ - कि० वि० दे० यौ० (हि० दौड़) Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private and Personal Use Only Page #947 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org दौड़ा-दौड़ी ६३६ बिना कहीं ठहरे, लगातार, श्रविश्रांत, बेतहाशा । स्त्री० दौड़ा-दौड़ी । दौड़ा दौड़ी - संज्ञा, स्त्री० दे० ( हि० दौड़ ) श्रातुरता, शीघ्रता, दौड़-धूप, बहुत से मनुष्यों के साथ चारों ओर दौड़ना । दौडधूपी - संज्ञा स्त्री० यौ० दे० ( हि० ) कोशिश, प्रयत्न, उपाय । दौड़ान दौरान - संज्ञा, स्त्री० दे० ( हि० दौड़ना) दौड़ने का भाव, तेज़ चाल, द्रुत गमन, झोंक, वेग, समय का अंतर । दौड़ाना, दौराना - स० क्रि० दे० (हि० दौड़ना का प्रे० रूप) शीघ्रता से चलाना, बार बार आने-जाने को विवश करना, किसी वस्तु को एक स्थान से दूसरे पर पहुँचाना, पोतना, फैलाना, चलाना परेशान करना । दौड़ाहा - संज्ञा, पु० दे० (हि० दौड़ा+हा प्रत्य०) दौड़ने वाला, सँदेसिया, हरकारा । दौत्य - संज्ञा, पु० दे० (सं०) दूत या हर कारा का कार्य, दूतत्व । दौन - संज्ञा, पु० दे० (सं० दमन ) दबाव, दमन । दौना-- संज्ञा, पु० दे० (सं० दमनक) सुगंधित पौधा | संज्ञा, पु० (हि० दोना) पत्तों से बना कटोरा । स० कि० दे० (सं० दमन ) दमन करना । दौनागिरि - संज्ञा, पु० दे० यौ० (सं० द्रोल गिरि) द्रोण गिरि · नामक पर्वत । " दौना गिरि ita कहूँ कनूका एक" - रत्ना० । दौर, दौड़ - संज्ञा, पु० (०) चक्कर, भ्रमण, फेरा, दिनों का फेर, कालचक्र, उन्नति, उदय या बढ़ती का समय । यौ० -- दौर दौरा - प्रधानता, प्रवलता, प्रताप, आतंक, वारी, दौड़धूप । दौरना* - अ० क्रि० दे० ( हि० दौड़ना ) aiser | ( प्रे० रूप) दौराना, दौरवाना | दौरा - संज्ञा, पु० ( ० दौर ) भ्रमण, चक्कर, फेरा । सा० भू० अ० क्रि० (दे०) दौड़ा । मुहा० - दौरा सिपुर्द करना--- ( मुकदमा ) घुमणि सेशन जज के यहाँ भेजना । समय समय पर होने वाला रोग, प्रावर्तन | संज्ञा, पु० दे० ( सं० द्रोण ) टोकरा, झौवा, भाबा । स्त्री० अल्पा० दौरी । यौ० - दौराजज । दौरात्म्य - संज्ञा, पु० (सं०) दुर्जनता, दुष्टता । दौरानदौरी- संज्ञा, स्त्री० दे० यौ० ( हि० दौड़ना ) दौड़ा-दौड़ी। दौरान - संज्ञा, ५० ० ( फा० ) दौरा, चक्र, बीच में, फेरा, पारी । दौरी – संज्ञा, स्रो० ( हि० दौरा ) टोकरी, डलिया । सा० भू० प्र० क्रि० स्त्री० द० (हि० दौरना, दौड़ना ) | दौर्जन्य-संज्ञा, पु० (सं०) दुष्टता, दुर्जनता । दौर्बल्य - संज्ञा, पु० (सं०) दुर्बलता, कमज़ोरी, "हृदय दौर्वल्यं त्यक्तोतिष्ट परंतप " - गी० । दौर्मनस्य - संज्ञा, पु० (सं०) दुष्टता, दुर्जनता | दौर्य - संज्ञा, पु० ( सं० ) दूरी, अन्तर, फासिला | दौलत - संज्ञा, खो० ( ० ) सम्पति, लक्ष्मी, धन । यौ० धनदौलत | दौलतखाना-संज्ञा, पु० यौ० ( फा० ) घर, निवास-स्थान ( शिष्ट प्रयोग ) । दौलतमंद - वि० ( फा० ) धनवान, धनी । दौवारिक संज्ञा, पु० (सं०) द्वारपाल, दरबान | दौहित्र - संज्ञा, पु० (सं० ) नाती, नशा, लड़की का लड़का । स्त्री० दौहित्री । द्यु - संज्ञा, पु० (सं०) स्वर्ग, आकाश, दिन, fo, सूर्य-लोक । धुति - सज्ञा, स्त्री० (सं० ) प्रकाश, कांति, दीप्ति, चमक, दमक, छवि, शोभा, किरण । द्युतिमंत - वि० (सं०) द्युतिमान, चमकदमक वाला, कांति या दीप्ति वाला । युतिमा - संज्ञा, स्त्री० (सं० ) तेज, कांति, दीप्ति, प्रकाश, आभा । द्युतिमान् - वि० (सं० घुतिमत) श्राभा, कांति या दीप्तिवाला । स्त्री० द्युतिमती । घुमणि - संज्ञा, पु० (सं०) भानु, रवि, सूर्य । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private and Personal Use Only Page #948 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पुमत्सेन द्रुतविलंधित घुमत्सेन -संज्ञा, पु. ( सं०) सावित्री-पति द्रव्य -- संज्ञा, पु० (सं०) पदार्थ, वस्तु, चीज़, सत्यवान के पिता, शाल्व देश के राजा। पृथ्वी आदि । द्रव्य (वैशे०) सामान, सामग्री, धुलोक-संज्ञा, पु. यौ० (सं०) स्वर्ग लोक ।। धन । “द्रव्येषु सर्वे वशाः "-स्फु० । घुसद-वि० ( सं० ) स्वर्गवासी। संज्ञा, पु. गव्यत्व-संज्ञा, पु० (सं०) द्रव्य का भाव । (सं०) देवता, देव, सुर। द्रव्यवान्-द्रव्यमान्-वि• (सं० द्रव्यमत् ) धत-संज्ञा, पु. ( सं०) जुश्रा, जुवाँ । यौ० धनी, धनवान । स्त्री० द्रव्यवती । द्यत-क्रीड़ा। | द्रष्टव्य-वि० (सं०) देखने योग्य, दर्शनीय । द्योतक-वि० (सं०)प्रकाशक, बतलानेवाला। द्रष्टा- वि० (सं०) देखने वाला, दर्शक, पुरुष द्योतन-संज्ञा, पु. (सं०) प्रकाशित करने (साख्य) और भारमा (योग.)। “ तदा या बताने का काम, दिखाने का कार्य । द्रष्टुः स्वरूपेऽवस्थानम् "- योग० । 'दृष्टा वि० यातित, द्यातनीय।। नित्यशुद्ध-बुद्धमुक्तस्वभावत्वात् ' सां० । घोहरा -संज्ञा, पु० दे० (हि. देवधरा) द्राक्षा -संज्ञा, स्त्री० (सं०) अंगूर, दान, किस देवस्थान, देवालय, देहरा (ग्रा०)। मिस । “एलावक पत्रक दाक्षा"-भावः । घोस -संज्ञा, पु० दे० (सं० दिवस ) दिन । द्राघिमा-संज्ञा, पु० (सं० दाघिमन् ) अति "गई हुती पाछिले ठोस की नाँई"-मति। __ दोर्घ या बड़ा, दीर्घता। दुम्म-- संज्ञा, पु० दे० ( सं० मि० फा० दिरम) द्राव-संज्ञा, पु० (सं०) क्षरण, चलन, गमन, दिरम, चाँदी का एक सिक्का। रस । यौ०-शंखदाव । द्रव--संज्ञा, पु० वि० ( सं० ) पतला, तरल, द्रावक-वि० (सं०) गलाने या पिवलाने पानी सा। वाला, चित्त पर अपना प्रभाव डालने वाला। द्रवण-संज्ञा, पु० (सं०) रस, पानी सा पदार्थ, द्रावण-संज्ञा, पु० (सं०) गलाने और पिघ. पतला, तरल । वि० द्रवणीय। लाने की क्रिया का भाव । वि० द्रावणाय। द्रवण-संज्ञा, पु. (सं०) बहाव, गमन, गति, चित्त के कोमल होने की दशा । वि०वित । द्रावड द्राविड-वि० (सं०) द्रविड़ देश का उत्पन्न या निवासी। वहाँ की भाषा। द्रवता, द्रवत्व-संज्ञा, स्त्री० (सं०) द्रव का भाव, तरलता। द्राबड़ी-वि० (सं०) द्रविड़-सम्बन्धी । स्त्री० द्रवना-अ० कि० दे० (सं० दवण ) पिघ- द्राविडो-द्रविड़ भाषा । स्त्री० द्रविड़ा। लना, द्रवीभूत या दयाई होना, पसीजना। मुहा०-द्रावड़ी प्राणायाम-सीधी-सादी द्रविड-संज्ञा, पु० (सं० तिरमिक) एक प्रदेश, बात को पेंचदार बना कर कहना। वहाँ के ब्राह्मण, भारत के प्राचीन वासी। द्रुत-वि० (सं०) शीघ्रगामी, जल्दी जल्दी द्रविण-संज्ञा, पु० (सं०) धन, लक्ष्मी, संपत्ति । चलने वाला, भागा हुश्रा, ताल की एक " स्वमेव विद्या द्रविणं त्वमेव".-1 मात्रा, दून। द्रवित-वि० (सं०) द्रवीभूत, बहता हुआ। द्रुतगामी-वि० (सं० द्रु तगामिन् ) तेज़ द्रवीकरण-संज्ञा, पु. (सं०) गलाना, पिघल चलने वाला, शीघ्रगामी । स्त्री० द्रुतगामिनी। लाना, कठिन को नरम करना। द्रुतपद - संज्ञा, पु. (सं०) एक छद (पिं० )। द्रवीभत - वि० (सं०) पिधिला, गला, नर्म । द्रुतमध्या- संज्ञा, स्त्री० (सं०) एक अर्धसम द्रवौ-द्रवहु-० कि० विधि (दे०) दया या छंद, (पिं० )। कृपा करो। "कस न दीन पै दवौ दया- द्रुतविलंवित-संज्ञा, पु० (सं०) एक छंद । निधि"-विन । "दुत विलंवित माह बभौ भरौ"~-पि। मा० श० को०-११८ For Private and Personal Use Only Page #949 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir दुति ६३८ द्वारका द्रुति-संज्ञा, स्त्री. (सं०) द्रव, गति, शीघ्रता। द्रोही- संज्ञा, पु. (सं० द्रोहिन् ) द्रोह करने द्रपद-संज्ञा, पु० (सं०) पंजाब देश के राजा या बुराई चाहने वाला, बैरी । स्त्री० द्राहिणी। द्रौपदी या कृष्णा के पिता। "सिव-द्रोही मम दास कहावै"-रामा० । द्रुम-संज्ञा, पु. (सं०) पेड़, वृक्ष । द्रौपदी- संज्ञा, स्त्री. (सं०) कृष्णा, राजा दुमालिक- संज्ञा, पु० (सं०) एक राक्षस । द्रुपद की पुत्री, पांडवों की स्त्री। द्रमारि-संज्ञा, पु. यौ० (सं०) वृक्षों का बैरी, द्वंद-संज्ञा, पु. (सं०) दो, जोड़ा, मिथुन, हाथी, करी। वि० (सं०) कुठार. कुल्हाड़ी, युग्म, प्रतिद्वन्दी, मल्ल या इंद्व युद्ध, झगड़ा, आँधी, प्रभंजन । दो विरोधी वस्तुयें, जैसे-सुख दुख, जंजाल, द्रुमाश्रय - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) गिरगट, उलझन, दुःख, कष्ट, संशय, दुंद (दे०)। कृकलास, शरट । संज्ञा, स्त्री० (सं० दुदुभी ) दुंदुभी, नगाड़ा। द्रमिला-दुरमिल-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं०) द्वंदर --वि० दे० (सं० द्वंद्वालु ) झगड़ालूएक छंद, दुर्मिल सवैया (पि०)। बखेड़िया, लड़ाका। द्रुमेश्वर-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) पीपल या | द्वंद्व - संज्ञा, पु० (सं०) जोड़ा, युग्म, दो, दो ताड़ का वृक्ष, चन्द्रमा, निशाकर, द्रुमेश । विरोधी पदार्थों का जोड़ा, गुप्त बात या द्रहिण-संज्ञा, पु. (सं०) ब्रह्मा, विधाता। रहस्य, दो पुरुषों का युद्ध, झगड़ा, एक द्रुह्य-संज्ञा, पु० (सं०) राजा ययाति के पुत्र । समास जिसमें और शब्द का लोप हो द्रोण - - संज्ञा, पु० (सं०) काष्ट-पात्र, पत्तों का (व्या० )। कटोरा, दोना, १६ सेर की तौल, नाव, द्वंद्वयुद्ध -संज्ञा, पु० यौ० (सं०) दो मनुष्यों डोंगा, अरणी लकड़ी, एक प्रकार का रथ, की लड़ाई, कुश्ती, मल्लयुद्ध । काला कौश्रा, द्रोणगिरि, द्रोणाचार्य । द्वय- वि० (सं०) दो, द्वै, दुइ (दे०)। द्रोणकाक-संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) काला द्वादश-वि० (सं०) बारह । कौमा। द्वादशाक्षर-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) १२ वर्णी द्रोणगिरि - संज्ञा, पु. यो० (सं०) एक पर्वत । का छंद, बारह अक्षर का विष्णु का मंत्रद्रोणाचार्य-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) अर्जुन “ओ३म् नमो भगवते वासुदेवाय ।" के धनुर्विद्या के अद्वितीय ज्ञाता गुरु, द्वादशाह-संज्ञा, पु० यौ० (२०) बारह दिनों अश्वत्थामा के पिता। का समूह, मृतक के बारहवें दिन का कर्म द्रोणायन-संज्ञा, पु० (सं०) द्रोणाचार्य के या श्राद्ध, द्वादशान्हिक। पुत्र अश्वत्थामा, द्रोणी। द्वादशी-संज्ञा, स्त्री० (सं०) दुश्रादसी (दे०), द्रोणी-संज्ञा, स्त्री० (सं०) डोंगी, छोटा दोना, तिथि, दुबास ( ग्रा.)। काठ का प्याला, दून या दर्रा, द्रोण की स्त्री द्वादसबानी -वि० यो० दे०( हि० बारहकृपी, १२८ सेर की तौल. द्रोनी (दे०)। ___ बानी ) सूर्य सा प्रभावान, खरा, निर्दोष, दोन* -संज्ञा, पु० दे० (सं० द्रोण ) दोना, सच्चा, पक्का, पूरा, सेना के हेतु । द्रोणाचार्य, द्रोनाचारज (दे०)। द्वापर - संज्ञा, पु. (सं०) तीसरा युग, जो द्रोह-संज्ञा, पु. (सं०) द्वैष, बैर, शत्रुता, ८६४००० वर्ष का होता है। दूसरे का अहित-चिंतन । " करहिं मोह- | द्वार-संज्ञा, पु. (सं०) दरवाजा, मुहारा, वस द्रोह परावा"-रामा० । मुहार, दुवार, दुआर (प्रा.), इन्द्रियों द्रोहिया- वि० (दे०) द्रोही द्वैषी, बैरी, के छेद। विरोधी। द्वारका--संज्ञा, स्त्री० सं०) गुजरात का एक For Private and Personal Use Only Page #950 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org द्वारकाधीश १३६ द्वित्रा चन्द्रमा, कर्पूर, गरुड़, द्विजों का स्वामी । द्विजप्रया - संज्ञा, स्त्री० (सं०) वृक्षों का थाला या भालबाल ! तीर्थ या नगर, द्वारावती, द्वारिका । " द्वारका | द्विजपति--संज्ञा, पु० यौ० (सं०) ब्राह्मण, के नाथ द्वारका के पठवत हौ ।” द्वारकाधीश - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) श्रीकृष्ण द्वारका में श्रीकृष्ण की मूर्ति, द्वारकेश । द्वारकानाथ – संज्ञा, पु० (सं०) श्रीकृष्ण श्रीकृष्ण की मूर्ति ( द्वारका में ) । द्वार पूजा -संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) दरवाज़ा - चार, द्वाराचार, दुवाराचार | द्विजप्रिया -- संज्ञा, त्रो० यौ० (सं०) सोमलता या सोमवल्ली । द्विजबन्धु- संज्ञा, पु० यौ० (सं०) कुत्सित या निंदित ब्राह्मण, ब्राह्मण । द्वारवती, द्वारावती, द्वारिका संज्ञा, स्रो० (सं०) द्वारका नगर ( गुजरात ) | 66 " द्विजराज - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) चन्द्रमा, कर्पूर, ब्राह्मण, गरुड़, द्विजों का राजा । नाम द्विजराज काज करत कसाई द्विजवर्य द्विजवर्य - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) श्रेष्ठ या उत्तम ब्राह्मण, द्विजश्रेष्ठ | द्विजब्रुव - संज्ञा, पु० (सं०) कहने या जाति मात्र का ब्राह्मण, नीच ब्राह्मण । द्विजाति- संज्ञा, पु० यौ० (सं०) ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य अर्थात् जनेऊ पहनने वाले, दाँत । द्विजातीय-- वि० यौ० (सं०) ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तीन वर्ण सम्बन्धी । द्विजालय - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) ब्राह्मण का घर, पक्षियों का घोसला । द्विजिह्न - वि० यौ० (सं०) दो जीभों वाला, दुष्ट, खल, चुगलखोर, सर्प । "द्विजिह्नः पुनः सोऽपि ते कंठभूषा – श० । द्विजेंद्र द्विजेश- संज्ञा, पु० यौ० (सं०) द्विजपति, द्विजराज, ब्राह्मण, चन्द्रमा, गरुड़ | द्विजात्तम-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) श्रेष्ठ ब्राह्मण, गरुड़, द्विजश्रेष्ठ । द्वारसमुद्र - संज्ञा, पु० (सं०) दक्षिण का एक प्राचीन. प्रसिद्ध नगर | द्वारा - संज्ञा, पु० दे० (सं० द्वार) द्वार, दरवाङ्गा । अव्य० दे० ( सं० द्वारात्) जरिये या से I साधन ) द्वारी* - संज्ञा, स्त्री० ( सं० द्वारे + ई - प्रत्य० छोटा द्वार या दरवाज़ा । वि० - द्वारयुक्त । दुधारी (दे० ) । द्वि - वि० (सं०) दो, दु । द्विक द्वैक - वि० (सं०) दो अवयव वाला, दोहरा, दो । "पाये घरी ट्रैक मैं जगाइ लाइ ऊधौ तीर" – ऊ० श० । द्विकर्म, द्विकर्मक- वि० यौ० (सं० ) वह सकर्मक क्रिया जिसमें दो कर्म हों (व्या० ) । द्विकल - संज्ञा, पु० यौ० (सं० द्वि + कला ) दो मात्रा का (पिं० ) । द्विगु-संज्ञा, पु० (सं०) एक समास जिसका पूर्व पद संख्यावाची हो (व्या० ) । द्विगुण - वि० सं०) दूना, दोगुना, दुगुना, दुगुन, दूगुन (ग्रा० ) 1 द्विगुणित - वि० (सं०) दूना, दो गुना । द्विज-संज्ञा, पु० (सं० ) दोबार उत्पन्न । संज्ञा, पु० (सं०) पक्षी, कीड़े, अंडे से उत्पन्न जीव, ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, जो जनेऊ पहनते हैं, चंद्रमा, दाँत । " निपटहि द्विज करि जानेसि मोंहीं ". - रामा० । द्विजन्मा - वि० यौ० (सं० द्विजन्मन् ) नो दोबार उत्पन्न हुआ हो, ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, पक्षी, कीड़े अर्थात् अंडज, दाँत । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir द्विज्या - संज्ञा, त्रो० (सं०) ज्योतिष की एक रेखा । 1 द्वितय - वि० सं०) दो, युग्म । द्वितीय - वि० (सं०) दूसरा स्रो० द्वितीया । द्वितीया - संज्ञा, स्त्री० (सं०) दूज तिथि । द्वितीयांत - वि० यौ० (सं० ) जिम शब्द के अंत में कर्म कारक या द्वितीया विभक्ति का प्रत्यय हो ( व्या० ) । द्वित्रा - संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं० ) दो अथवा तीन, दो तीन । For Private and Personal Use Only Page #951 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir द्वित्व ६४० द्वीप द्वित्व-संज्ञा, पु० (सं० ) दोहराना, दो बार | द्विरुक्त-वि० (सं०) दो बार कहा हुआ। करना, दो का भाव । द्विरुक्ति-संज्ञा, स्त्री० (सं०) दो बार कहना, द्विदल-वि० यौ० (सं० ) वह वस्तु जिसमें काव्य में एक ही अर्थ वाला शब्द जो दो दो दल, पत्ते, या परत हों। संज्ञा, पु० (सं०) । बार श्रावे तो पुनिरुक्ति दोष माना जाता है। वह अनाज जिसमें दो दालें हों, जैसे-चना। 'वीप्सायां द्विरुक्तिः"। द्विदेवत्या-संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) विशाषा द्विरूढ़ा-संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) दो बार नक्षत्र, जिसके दो देवता हैं। व्याही स्त्री। द्विधा-कि० वि० ( सं० ) दो तरह, भाँति, द्विरूढ़ा पति - संज्ञा, पु० यो० (सं०) विधवा प्रकार, विधि से, दो भागों या टुकड़ों में। स्त्री का पति या स्वामी। द्विप-संज्ञा, पु० (सं० द्वि-+पा-+ ड्-प्रत्य०) द्विरूपो-संज्ञा, पु० यौ० (सं० द्विरूपिन ) हाथी, गज, द्विरद्, करी। यौ० द्विपेन्द्र- द्विमूर्ति, दूसरा रूप धरने वाला। गजेन्द्र, ऐरावत । द्विरेफ-संज्ञा, पु० (सं०) भौंरा, भ्रमर । "इत्थं द्विपथ-संज्ञा, पु. यौ० ( सं० ) दो रास्ते.. विचिंतयति कोषगते द्विरेफे"- दो भोर का मार्ग। द्विजन-संज्ञा, पु. यौ० (सं० ) दोबारा द्विपद-वि० यौ० (सं०) जिसके दो पाँव हों, भोजन । मनुष्य, देवता, दैत्य, दानव, राक्षस । द्विवचन- संज्ञा, पु. यो० ( सं० ) जिस पद द्विपदी, द्विपदा-संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) से दो अर्थों का ज्ञान हो। दो पदों का छंद (पिं०) दोपद का गाना। द्विविद-संज्ञा, पु० (सं०)एक वानर । "द्विविद, द्विपाद-वि० यौ० (सं०) मनुष्य, पक्षी आदि मयन्द, नील, नल वीरा"- रामा० । दो पैरों के प्राणी। द्विविध-संज्ञा, पु० या ० (सं०) दो भाँति या द्विपास्य-संज्ञा, पु. (सं०) गज-बदन तरह का । क्रि० वि० दो भाँति या प्रकार से । गजानन, हाथी के से मुख वाले गणेश। द्विविधा* -- संज्ञा, पु० (सं० द्विविध) दुविधा। द्विभाषी-संज्ञा, पु० यौ०, वि०(सं०द्विभाषिन् ) द्विवेदी-संज्ञा, पु. ( सं० द्विवेदिन् ) दुबे। दो भाषाओं का ज्ञाता पुरुष । दुभाषिया द्विशिर-वि० यौ० (सं० द्वि- शिर ) जिस दुभाषी (दे०) । स्त्री० द्विभाषिणी । जीव के दो शिर हों, दो शिर वाला। द्विमुख-संज्ञा, पु० (सं०) दे मुखी या दुमुँहा मुहा०-कौन द्विशिर है-किसके अधिक साँप। या फालतू सिर है, किसे मारने का डर द्विमुखी-वि० स्त्री० (सं० ) दो मुखवाली, नहीं है । “केहि दुइ लिर केहि जम चह वि. पु. (सं०) दो मुखवाला साँप, दुमुंहाँ लीना"- रामा०। साँप द्विस्वभाष- संज्ञा, पु० यौ० (सं०) दुफसली। द्विरद-संज्ञा, पु. यौ० (सं० )दुरद (दे०), ज्योतिष की एक लग्न, हाँ, नाहीं।। हाथी । वि. ( सं० ) दोदाँतों वाला। द्विहायन, द्विहायनी-संज्ञा, स्त्री० पु. यो. द्विरदंतक-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) सिंह, बाघ । (सं० ) दो वर्ष का बालक और बालिका । द्विरसना-संज्ञा, पु० यौ० ( सं० द्वि-+ रसना द्वींद्रिय-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) दो इन्द्रियों =जीभ ) दो जीभों वाला, साँप, विषधर वाला जंतु । जीव । वि० झूठ-सच बोलने वाला, छली। द्वीप-संज्ञा, पु० (सं० टापू, जज़ीरा, बड़े द्विरागमन-संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) गौना, द्वीप-लंबु, लंका, शाल्मलि, कुश, क्रौंच, दोंगा (प्रान्तो०)। शाक, पुष्कर (पु०) दीप (दे०)। For Private and Personal Use Only Page #952 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir द्वीपवती १४१ धंधक द्वीपपती-संज्ञा, स्त्री० (सं०) पृथ्वी, भूमि । द्वैतवादी-वि० (सं० तवादिन् ) द्वतवाद द्वीपधान्- संज्ञा, पु० (सं०) समुद्र, सागर। का मानने वाला । स्त्री. द्वैतवादिनी । द्वीपशत्र-संज्ञा, पु० (सं.) शतावरि औषधि। द्वैध-संज्ञा, पु. (सं०) सन्देह, संशय, द्विप्रकार, द्वीपसंभवा-संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) पिंड ! व्यंग्योक्ति, दो भाग, साझा । यौ० द्वैधीखजूर। ! भाघ । संज्ञा, स्त्री. द्वैधता । द्वीपस्थ - संज्ञा, पु. (सं०) द्वीप-निवासी- वैधी-करण- संज्ञा, पु० यौ० ( सं०) छेदन, द्वीप-वासी। । भेदन, खंड या टुकड़े करना। द्वीपिका-संज्ञा,स्त्री० (सं०) सतावरि (औष०)। वार(आषद्वैधीभाव-संज्ञा, पु. (सं०) विश्लेषण, द्वीपी-संज्ञा, पु० (सं०) बाघ, चीता । वि० अलगाव, पार्थक्य, परस्पर का विरोध । द्वीपका। द्वीप्य-संज्ञा, पु०(सं०) द्वीप में उत्पन्न, महा द्वैपायन- संज्ञा, पु. (सं० ) व्यास जी, एक भारत, भागवत, पुराणादि का लेखक ताल जहाँ अंत में दुर्योधन छिपा था । भगवान व्यास। द्वैमातुर-वि०, संज्ञा, पु० (सं०) दो माताओं द्वेष, द्वेष-संज्ञा, पु. (सं०) विरोध, शत्रुता, __ से उत्पन्न, गणेश जी, जरासंध, भगीरथ राजा। बैर, चिठ, डाह, ईर्षा, जलना, कुढ़न । द्वैमातृक-संज्ञा, पु. (सं.) नदी, ताल और द्वेषी- वि० (सं०) बैरी, शत्र, विरोधी। स्त्री वर्षा के जल-द्वारा जहाँ अन्न उत्पन्न हो उस देश के वासी, दो माताओं का पुत्र, भागीद्वेषिणी। रथ राजा। द्वेष्टा-- वि० (सं०) द्वेषकर्ता, द्वेषी, विरोधी। द्वैरथ-संज्ञा, पु. यौ० (सं०) दो रथ-सवारों द्वेष्य-वि० (सं०) द्वेष करने योग्य, द्वेष का का परस्पर युद्ध। विषय, व्यक्ति या वस्तु । द्वैष- संज्ञा, पु० (सं०) बैर, विरोध, द्वेष । द्वैश-वि. (सं० द्वय ) दो, दोनों। द्वयंगुल-वि० यौ० (सं०) दो अंगुल । बैज*-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० द्विताया) दुइज, द्वचंजलि-वि० यौ० (सं०) दो अंजुरी (दे०)। दूज, वीज, तिथि। द्वयक्षर-संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) दो वर्ण या द्वैत-- संज्ञा, पु. (सं०) दो का भाव, दो, अक्षर । यौ० द्वयक्षरावृत्त । युगुल, युग्म, निज-पर का भेद-भाव, अन्तर, द्वयणुक- संज्ञा, पु० यौ० (सं०) दो परमाणु । भेद, भ्रम, दुविधा, अज्ञान । ( विलो०- द्वयर्थ - वि० (सं०) दो अर्थ या प्रयोजन, दो अद्वैत ) संज्ञा, स्त्री०-द्वैतता। अर्थ वाले शब्द या वाक्य, व्यंगोक्ति, श्लिष्ट, द्वैतज्ञ-द्वैतज्ञा-संज्ञा, पु० (सं० द्वैत++क- द्वयर्थक " एकाक्रिया द्वयर्थकरी प्रसिद्धा" प्रत्य०) द्वैतवादी-माया, ब्रह्मवादी द्वयात्मक-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) दो प्रकार द्वैतज्ञान-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) माया ब्रह्म पा(स) माया ब्रह्म- का, द्विविधि। ज्ञान, जीवेश्वरज्ञान । वि. द्वैतज्ञानी, द्वयाहिक-वि० यौ० (सं० ) दो दो दिन के द्वैतज्ञाता । संज्ञा, स्त्री. द्वैतज्ञता। अन्तर से होने वाला, ज्वरादि ।। द्वैतवाद - संज्ञा, पु० (सं०) माया-ब्रह्म वाद द्वौ-वि० (हि. दो+ऊ) दोनों । वि. (सं० या जीवेश्वर वाद। । दव) दावानल, वनागि। ध-हिन्दी और संस्कृत की वर्णमाला के धंधक-संज्ञा, पु० दे० (हि. धंधा) काम-धंधे तवर्ग का चौथा अक्षर या वर्ण । का बखेड़ा, जंजाल, आडंबर, छल, कपट । For Private and Personal Use Only Page #953 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir धंधकधोरी धकैत धंधकधारी-संज्ञा, पु. यौ० (हि० धंधक+ डर से हृदय धड़कना। जी धक हो धोरी ) सदा-सर्वदा काम में लगा या जुटा जाना-भय से हृदय का दहल जाना.चौंक रहने वाला, आगे रहने वाला । "धनि धर्म उठना। उमंग, चोप, उद्वेग । क्रि० वि० (दे०) ध्वज धंधक धोरी'- रामा० । एकाएक, अचानक, एकबारगी। संज्ञा, स्त्रो. धुंधरक-संज्ञा, पु० दे० ( हि० धंधा) कामः । (दे०) छोटी नँ । धंधे का जंजाल, आडंबर, छल । धकधकाना-अ० क्रि० दे० (अनु० धक) डर धुंधला, धाँधला-संज्ञा, पु० दे० (हि. धंधा) | या उद्वेग श्रादि से दिल का वेग या शीघ्रता झूठा ढोंग, अंधेर, छलछंद, कपट का आडंबर से कँपना, अग्नि दहकना, भभकना, धक धक बहाना। स्त्रो० धाँधली। विधाँधलेबाज। | शब्द करना । क्रि० वि० धकाधक, शीघ्र । धंधलाना-अ० कि० दे० (हि० धुंधला) छल धकधकी-संज्ञा, स्त्री० दे० ( अनु० धक ) छंद करना, ढोंग रचना।। दिल या हृदय कीधड़कन, धकाधकी दुगधंधा-संज्ञा, पु० दे० (सं० धनधान्य ) उद्योग, दुगी (दे०)। मुहा० -- धुकधुकी धड़उद्यम, काम-काज, कारबार । कना-एकाएक या अकस्मात भय या धंधार-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. धूआँ ) लपट, खटका होना, छातो धड़कना । ज्वाला। धकपक-संज्ञा, स्त्री० दे० (अनु०) धकधकी। धंधारी-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. धंधा) गोरख- क्रि० वि० (दे०) डरते या दहलते हुये । धंधा, उलझन । धकपकाना, धुकपुकाना-अ० कि० दे० धंधार-संज्ञा, पु० दे० ( अनु० धायँ धायँ ) (अनु० धक) मन में डरना, दहलना, हिच. होली, आग की ज्वाला । कना, हिचकिचाना। धंसना-संज्ञा, स्त्री. (हि. सना ) पैठने | धकपेल, धकापेल - संज्ञा, स्त्री० दे० यौ० या घुसने का ढङ्ग, घुसने की क्रिया या ढग, (अनु० धक+पेलना) रेलापेल, धक्कमधक्का, चाल, गति । धकापोइस (ग्रा.)। धंसना-अ० क्रि० दे० (सं० दंशन ) घुसना, घका, धक्का-18-- संज्ञा, पु० दे० (सं० धम, बैठना, गड़ना। मुहा०—जी या मन में हि० धमक) टक्कर, रेला, झोंका, चपेट, कसधूमना-दिल या चित्त में प्रभाव उत्पन्न मकस, दुख की चोट या श्रावात, संताप, करना। नीचे की ओर धीरे धीरे जाना विपति हानि । "धका धनी का खाय" या खिसकना, उतरना, बोझ से दब कर -कबी.। नीचे बैठ जाना। *अ० क्रि० दे० (सं० ध्वंसन) धकाना-स० कि० दे० (हि० दहकाना) नष्ट होना। धंसान-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. धंसना) उतार, सुलगाना, दहकाना । यो० धकधकाना। धकारा-संज्ञा, पु. दे. (अनु. धक) दलदल, ढाल। धंसाना -२० क्रि० दे० (हि. धंसना का प्रे० खटका, डर, आशंका, भय । रूप घुसाना, गड़ाना, प्रवेश करना, चुभाना, धकियाना-स. क्रि० दे० ( हि० धक्का ) पैठाना, नीचे की ओर करना। प्रे० रूप- | ढकेलना, धक्का देना, धक्कियान । धमवाना। धकेलना-स० क्रि० दे० ( हि० ढकेलना) धंसाव-संज्ञा, पु० दे० (हि. धंसना। धंसान।। ढकेलना, धक्का देना। धक-संज्ञा, स्त्री० दे० (अनु०) दिल के शीघ्र- धकैत---वि० दे० (हि. धक्का+ऐत-प्रत्य०) गामी होने का भाव या शब्द, ठोकर का धक्का देने या लगाने वाला । धक्कमधकाशब्द । मुहा०-जो धक धक करना- संज्ञा, पु० (हि० धक्का) धकापेल, धक्कामुक्की । For Private and Personal Use Only Page #954 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ६४३ धड़ा, धरा पका-संज्ञा, पु० दे० (सं० धम, हि. धमक ) धइंग, धरंग-वि० दे० यौ० (हि. धड़+ झोंका, टक्कर, रेला, चपेट, कसमकस, शोक अंग ) नंगा, धडगा । यौ० नंग धडंग, पा दुख की चोट या आघात, हानि । नंगा-धडंगा। धक्कमधक्की-संज्ञा, स्त्री० (हि. धक्का) घड़-धर-संज्ञा, पु० दे० ( सं० धर ) हाथ, रेलापेल, ठेला-ठेजी : पु० धक्कमधका । पैर और शिर को छोड़ कर शरीर का शेष धक्कामुक्की-संज्ञा, स्त्री० यौ० दे० (हि. भाग, डालियाँ और जड़ें छोड़ कर पेड़ का धक्का + मुक्का ) मुठभेड़, मारपीट, धक्कों और शेष भाग । संज्ञा, स्त्री. ( अनु० ) किसी चूंसों की मार। चीज़ के ऊँचे से गिरने का शब्द । मुहा०धगड़ा-संज्ञा, पु० दे० (सं० धप = पति ) धड़ से-बेधड़क, झट से । उपपति, मित्र, यार, दोस्त । धड़क, धरक-संज्ञा, स्त्री० दे० (अनु० धड़) धगधगनाst-अ० कि० दे० (अनु०) धड़ दिल के हिलने का शब्द, दिलका हिलना, कना, धकधकाना। आशंका या भय के मारे दिल का काँपना, घगवरी-वि०दे०(हि० धगड़ा = मित्र) स्वामि- फड़कना, डर, खटका । यौ० बेधड़कप्रिया, पति की लाडिली या दुलारी, कुलटा। निडर, बिना संकोच । “ नरक निकाय की धगा, धागा--संज्ञा, पु० दे० (हि० धागा) धरक धरिवो कहा " - ऊ० श० । डोरा, सूत, तागा। धड़कन-संज्ञा, खो० दे० (हि० धड़क) दिल धगोलना-अ० कि० (दे०) लोटना, लोट- का फड़कना, कँपना । धरकन (दे०) । पोट करना, करवट बदलना, छटपटाना। धड़कना - अ० क्रि० दे० (हि. धड़क ) दिल धचका-संज्ञा, पु० दे० ( अनु० ) धक्का, का फड़कना या उछलना या धक-धक करना । झटका, दचका। मुहा०-छाती. जी, दिल धड़कना-डर घज-संज्ञा, स्त्री० दे० ( सं० ध्वज ) बनाव, से दिल का ज़ोर से जल्दी-जल्दी फड़कना, सजाव, सुन्दर रचना । यो०-सजधज - धड़-धड़ शब्द होना। शृङ्गार का साज-सामान, बनाव-चुनाव, . धड़का-सज्ञा, पु. ( अनु० धड़) हृदय की तैयारो, मोहनेवाली चाल, सुन्दर ढंग, बैठने धड़कन, पाशंका, खटका, धोखा। उठने का ढङ्ग, ठवन, नखरा, ठसक, शोभा। घड़काना-स० कि० दे० (हि. धड़क) धजभंग-संज्ञा, पु० दे० यौ० (सं० ध्वजभंग), हृदय में धडकन उत्पन्न करना, जी धक २ एक प्रकार की नपुंसकता। करना, दिल दहलाना, डराना, धड़ २ शब्द घजा-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० ध्वजा) पताका। पैदा करना । प्रे० रूप-धडकवाना। घजीला-वि० दे० (हि. धज + ईला -- धड़धड़ाना - स० कि० दे० ( हि० धड़क ) प्रत्य० ) सुन्दर, तरहदार, सजीला, धजी- धड़ २ शब्द करना, भारी पदार्थ के गिरने दार । स्त्री. धजोलो । मुहा-धजियाँ का सा शब्द। मुहा०-धड़धड़ाता हुआ उड़ाना-स० कि० यौ० दे० (हि.) -धड़ धड़ शब्द और अतिवेग के साथ, अपमानित या अप्रतिष्ठित करना, बदनामी बेखटके, बे संकोच. बेधड़क । या अयश करना, दुर्गति करना। | धड़ल्ला -सज्ञा, पु० दे० ( अनु० धड़ ) धजियाँ करना-स० कि० दे० (हि. बाग०) धड़ाका । मुहा-धड़ल्ले से या धड़ल्ले टुकड़े टुकड़े कर देना। के साथ-बिना किसी रुकावट के, झोंक सें, धजी-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० धटी) कागज़ भय या संकोच-रहित, बेधड़क या बेखटके । या कपड़े की लम्बी पट्टी, लोहे की चादर | घड़ा, धरा-संज्ञा, पु. (सं० धट) वाट, बटया लकड़ी के तहते की पट्टी, धजी (दे०)। । खरा । मुहा०-धड़ाकरना (बाँधना) For Private and Personal Use Only Page #955 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - - धड़ाका धनधाम -कोई वस्तु रख कर किसी वस्तु के तौलने | धधक-संज्ञा, स्त्री० दे० (अनु० ) भाग की के पूर्व दोनों पजड़ों को बराबर करना, कुछ लपट, आँच, लौ, भड़क । करना, दोष या कलंक लगाना। | धधकना--अ० क्रि० दे०(हि. धधक) दहधड़ाका-संज्ञा, पु० दे० ( अनु० धड़ ) धड़२ कना, भड़कना, लपट के साथ जलना । शब्द, धमाका या गड़गड़ाहट का शब्द । धधकाना-स० क्रि० दे० (हि. धधकना) मुहा०-धड़ाक या धड़ाके से-शीघ्रता आग जलाना, प्रज्वलित करना, दहकाना, से, बेखटके, मजे से। सुलगाना । प्रे० रूप धधकवाना। धडाधड़-क्रि० वि० दे० ( अनु० धड़) धधरा --संज्ञा, पु० दे० यौ० (सं० दग्धाक्षर) संलग्न, धड़ धड़ शब्द के साथ, लगातार, कविता के आदि में रगण, मध्य में र, ज, स. बराबर, जल्दी जल्दी, बेधड़क । क, ट, ज्ञ और झ, ह, र, भ. ष बुरे या धड़ाम- संज्ञा, पु० दे० ( अनु० धड़ ) एक दग्धातर माने जाते हैं। बारगी ऊपर से फाँदने-कूदने या गिरने का धधाना-अ० कि० दे० (हि० धधकाना ) शब्द। आग जलाना, सुलगना, धधकाना. दहकना। घड़ो-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० धटिका धटी) पाँच या चार सेर को तौल, पानी खाने आदि धनंजय -संज्ञा, पु० (सं०) अग्नि, चीता पेड़, अर्जुन (पांडव), अर्जुन पेड़, विष्णुसे होठों पर बनी लकीर । यौ०धोकाधड़ी। धत्-प्रव्य० दे० ( अनु० ) अपमान या भगवान, देह में स्थित पाँच वायुप्रों में से एक । “ छूटे अवसान मान सकल धनंजय तिरस्कार से हटाने या दुतकारने का शब्द।। के"-रना। धत-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० रत, हि० लत) धन-संज्ञा, पु. (सं०) लचमो, संपति, सोनाबुरा स्वभाव, कुटेंव, बुरी लत । चाँदी, रुपया-पैसा, पूँजो. मूलधन । धतकारना-स० कि० दे० (अनु० धत् ) धनक-संज्ञा, पु० दे० (सं० धनु ) कमान, दुरदुराना, धिक्कारना, दुतकारना, नालत- धनुष, एक ओढ़नी। मलामत करना, धुतकारना। धनकूटी-संज्ञा, स्त्री० (दे०) एक प्रकार का धता--वि० दे० (अनु० धत् ) चलता, हटा कहड़ा, धान काटने का समय, एक छोटा हुआ, दूर किया गया। मुहा०-धता काड़ा, धनकुट्टो (दे०)। करना या बताना-भगाना, हटाना, धनकुवेर-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) बड़ा धनी, चलता करना, टालना । कुवेर, धनवान । धतींगर-वि० (दे०) कुजाति, अधम, दोगला, धनतेरस-संज्ञा, स्त्री० यौ० दे० (हि० धन + जारज, वर्णसंकर । तेरस ) कातिक बदी तेरस जब रात को धतूर-धतूरा - संज्ञा, द० पु० (अनु० धू+सं० लचमी की पूजा होती है । " होली, गुड़ी, तूर ) तुरही, नरसिंहा बाजा, धुतूग (दे०)। दिवाली, धन तेरस की राति"-हरि० । संज्ञा, पु० दे० (सं० धुस्तूर ) एक पेड़ इसके | धनत्तर-संज्ञा, पु. (सं०) धनवे, धन्वन्तरि, फलों के बीजे विषैले होते हैं । "कनक धतूरे । धनवन, प्रतापी, औषधि ।। सों कहैं"--. । मुह०-धतूरा खाये धनद-वि० (सं०) धन देने वाला, दानी. फिरना -मतवाला सा घूमना। दाता। संज्ञा, पु. (सं०) कुवेर, धनपति । धतूरिया-वि० दे० (हि. धतूरा) छली, स्त्री० धनदा। कपटी, बहुरूपिया। | धनधान्य-संज्ञा, पु. यौ० (सं०) धन और धत्ता-संज्ञा, पु० (दे०) एक छंद (पिं०)। । अनाज, सामग्री और सम्पति । धत्तानंद-संज्ञा, पु० (सं०) एक छन्द (पिं०)। धनधाम-संज्ञा, पु. यौ० (सं०) घर-बार For Private and Personal Use Only Page #956 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir धनिया धनधारी और सम्पति । " जरै धनिक-धन-धाम'' भरा ) धनी, द्रव्यवान । संज्ञा, स्त्री० (सं०) - ०। धनाढ्यता। धनधारी-संज्ञा, पु० (सं०) कुवेर, बड़ा धनी।। धनाधार-संज्ञा, पु. यौ० (सं० धन+ धनन्तर-संज्ञा, पु० दे० (सं० धन्वंतरि ) आधार = स्थान ) धनागार, भाँडार, खज़ान, देववैद्य, धनत्तर (ग्रा०) धन्वंतरि, सामुद्रीय कोष, धन. जैसे बैंक, संदूक, पिटारा, चौदह रत्नों में से एक रत्न, बहुत भारी ! पिटारी । धनाधिकारी-संज्ञा, पु० (सं०) या बड़ा। कोषाध्यक्ष, खजाँची। धनपति-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) कुवेर, बड़ा धनाधिकृत-संज्ञा, पु. यौ० (सं० धन+ धनी, धनवान । अधिकृत = अधिकारी) खजाँची, कोषाध्यक्ष । धनपिशाचिका–संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) धन-धनाधिप-संज्ञा, पु० (सं० धन-+ अधिप = तृष्णा, धनाशा, धन-प्राप्ति की व्यर्थ प्राशा। स्वामी) कुवेर, धनाधिपति, धनेश्वर, 'धनबाहुल्य-संज्ञा, पु. यौ० (सं०) धन की धनाधिकारी। अधिकता, अर्थाधिक्य, धनाधिक्य । धनाधिपति धनाधीश-संज्ञा, पु. यौ० धनमद-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) धनी होने का | (सं० धन+अधिपति, अधीश = स्वामी) घमंड, धनवान होने की उसक। कुवेर, बड़ा धनवान, धनराज, कोषाध्यक्ष । धनलुब्ध-संज्ञा, पु. यौ० (सं०) धन का | धनाध्यक्ष-धनाधीश्वर-संज्ञा, पु. यौ० लालची, लोभी, अर्थ या धन-लिप्सु। ( सं० धन+अध्यक्ष = स्वामी ) कुवेर, धनवंत-वि० (सं० धनवत् ) धनवान् ।। कोषाध्यक्ष, खजाँची, भाँडारी। धनश्री-संज्ञा, त्री० यौ० (सं०) धन की धनार्जन-संज्ञा, पु० यौ० (सं. धन+ कांति या शोभा। अर्जनकमाना ) धन-कमाना, धन का धनवान् - वि० (सं०) धनी, धनवंत । (स्त्री. उपार्जन, धन-लाभ । “द्वितीये नाजितं धनवती)। धनं "-- भतृ श०। धनांध-वि०, संज्ञा, पु. यौ० (सं० धन+अंध) धनार्थी-संज्ञा, पु० यौ० (सं० धन + अर्थी धन-गर्वित, धन के घमंड से अंधा । संज्ञा, -- चाहने वाला ) धन चाहने वाला, लोभी, स्त्री० धनांधता। लालची. कृपण, धन-याचक ।। धनहीन-वि• यौ० (सं०) कंगाल, दरिद्र, धनाशा-संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं० धन+ निर्धन । “न वन्धुमध्ये धन-हीन जीवनम्"। भर्तृ श०। आशा ) धन-प्राप्ति की प्राशा, तृष्ण या धना-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० धनिका, हि. चाह । “ भोजने यत्र संदेहो धनाशा तत्र धनियाँ - जुवती ) युवती, वधू, स्त्रो, एक कीदृशी।"- स्फु० । औषधि, धनिया । संज्ञा, पु. (दे०) एक | धनाश्री-संज्ञा, स्त्री० (सं०) एक रागिनी तेली भक्त । (संगी. ) धनासिरी (दे०)। धनागम-संज्ञा, पु. यौ० (सं० धन+ धनासरो-संज्ञा, स्त्री० (सं०) एक छंद (पिं०)। मागम = आना ) धन की प्राय या प्राप्ति, धनि - संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० धनी) वधु, आमदनी, धन मिलना। युवती स्त्री । वि० (दे०) धन्य । धनिधनागार-संज्ञा, पु० यौ० (सं० धन+पागार धनि भारत-भूमि हमारी"--स्फु० । =स्थान ) खज़ाना, भाण्डार, धन रखने धनिक-वि० (सं०) धनवान, धनी । संज्ञा, का स्थान, कोषागार । पु० (सं०) धनवान, धनपति । धनाढ्य-वि० यौ० (सं० धन+पाय = ( धनिया-संज्ञा, पु० दे० (सं० धन्याक, मा० श. को.-11 For Private and Personal Use Only Page #957 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir धनिष्ठा धन्य धनिका ) एक औषधि । संज्ञा, स्त्री० दे० सम्बंधी और काम होते हैं । "धनुर्यज्ञ सुनि (सं० धनिका ) वधू, युवती, स्त्री। रघुकुल नाथा ।" " धनुष-यज्ञ जेहि कारण धनिष्ठा-संज्ञा, स्त्री० (सं०) एक नक्षत्र । होई।" - रामा० । धनी-वि० (सं० धनिन् ) धनवान, स्वामी, | धनुर्वत-संज्ञा, पु. (सं०) धनुकबाई का रोग। मालिक । " द्वार धनी के परि रहै, धका धनुविद्या-संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) धनु धनी को खाय।"~कबी० । यौ०+धनी चलाने का ज्ञान । धीरी-रक्षक, स्वामी, मालिक । मुहा० धनुर्वेद-संज्ञा, पु. यौ० (सं०) यजुर्वेद का एक उपवेद जिसमें धनुष चलाने आदि की बात का धनी-बात का सच्चा । संज्ञा, रीतें लिखी हैं। पु० (सं०) धनवान मनुष्य, स्वामी, मालिक । मैदान का धनी-शूर, वीर। संज्ञा, स्त्री० धनुष- संज्ञा, पु० (सं०) कमान, धनुक, चाप। धनुषो-- संज्ञा, स्त्री० (सं०) छोटा धनुष, दे० (सं०) वधू, स्त्री, युवती। छोटी कमान, रुई धुनने की धुनकी। धनु-संज्ञा, पु. (सं० धनुस् ) कमान, धनुष । धनुष्टंकार—संज्ञा, पु. यौ० (सं० ) ज्या"कहुँ पट, कहुँ निषंग धनु, तोरा" रामा० । शब्द, धनुष के रोदे का शब्द। धनुषा, धनुषा, धनुहा-संज्ञा, पु० दे० (सं० धन्वन् , धन्वा) धनुष, धनुस, (दे०), धनुस--संज्ञा, पु० (सं०) कमान, एक राशि कमान, रुई धुनने की धुनकी। या लग्न, चार हाथ की माप, धनुस, (दे०) । धनुई-धनुही-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० धनु+ धनुहाई-संज्ञा, स्त्री० दे० ( हि० धनु + ई-प्रत्य०) छोटा धनुष या कमान । हाई-प्रत्य०) धनुष द्वारा युद्ध । "धनुही-सम त्रिपुरारि-धनु..."-रामा० । धनुहियाँ-धनुही-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. धनु + ही--प्रत्य० ) छोटा धनुष । " बहु धनुक, धनुख -- सज्ञा, पु० दे० (सं० धनुस् ) धनुहीं तोरेउँ लरिकाई"-रामा० । धनुष, इन्द्र-धनुष । " भौंह धनुक धनि धानुक, "दूसर सरि न कराय"-पद०। धनू - संज्ञा, पु० (दे०) धनु, धनुष । | धनेश, धनेश्वर-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) धनुकधारी, धनुधारी- संज्ञा, पु० ( सं० कुवेर, बड़ा धनी, धनाधिप । धनुष् + धारी ) कमनैठ, तीरंदाज़, धनुष- धनेस, धनेसा-संज्ञा, पु० यौ० ( सं० धारी, धनुधारी, धनुर्धारी । धनेश ) कुवेर । संज्ञा, पु० दे० (सं० धनस् ) धनुकबाई-संज्ञा, स्त्री० दे० यौ० (हि. एक पक्षी। "पर अवगुन-धन-धनिक धनेसा"। धनुक+बाई) लकवे का सा एक बात रोग। धन्ना-वि० दे० ( सं० धन्य ) बड़ाई या धनुकार-संज्ञा, पु० दे० (सं० धनुष्कार ) प्रशंसा के योग्य, सुकृती, एक राम-भक्त । धनुष या कमान बनाने वाला। धन्नासेठ- संज्ञा, पु० यौ० दे० ( हि० धन्न+ धनुको, धुनुको-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. सेठ ) धनवान, एक भक्त । संज्ञा, स्त्री० (दे०) धनुक) छोटा धनुष, बेहने का धनु, धनुधरी। धन्नासेठी। धनुधारी-संज्ञा, पु० (सं०) कमनैत, धनुष धन्नी-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० (गो.) धन) धारण करने वाला । " देखि कुठार, बान बैलों या गायों की एक जाति, घोड़े की धनुधारी"-रामा० । एक जाति । संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० धरणी) धनुधर,धनुर्धारी-संज्ञा, पु० (सं०) कमनैत, छत में लगाई जाने वाली लकड़ी, शहतीर । धनुष बाँधने वाला। धन्नोटा-संज्ञा, पु० दे० (हि. धन्नी) धनी धनुर्यज्ञ, धनुषयज्ञ-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) के नीचे लगाई जाने वाली लकड़ी, थूनी । वह यज्ञ जिसमें धनुष की पूजा तथा उसके | धन्य-वि० (सं०) श्लाध्य, प्रसंशनीय, सुकर्मी For Private and Personal Use Only Page #958 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भीत होना। धन्यवाद धमारी-धमाली सुकृती। मुहा०-धन्य मानना-उपकार धमाका करना या होना, धम शब्द के साथ मानना, उपकृत होना, सौभाग्य समझना । गिरना, खाजाना, मारना । मुहा०-श्रा धन्यवाद-संज्ञा, पु० (सं०) प्रसंशा, शाबाशी, धमकना-या पहुँचना। दर्द या पीड़ा कृतज्ञता-सूचक शब्द। करना, (सिर ) व्यथित होना। धन्यवादी-वि० (सं०) कृतज्ञ, स्तुति-कर्ता। | धमकाना-सं० क्रि० दे० (हिं. धमक) धन्या–संज्ञा, स्त्री० (सं०) कृतार्था स्त्री, भाग्य- डराना, भय दिखाना, डाँटना, फटकारना, वती, श्रेष्ठ, धान्या धनियाँ, एक नदी। घुड़कना। धन्याक-धान्याक- संज्ञा, पु० (सं०) धनियाँ। | धमकाहट-संज्ञा, स्त्री० (हि. धमकाना) धन्व-संज्ञा, पु. (सं०) धनुष ।। धमकाने का भाव या कार्य, घुड़की, झिड़की। धन्वङ्ग-संज्ञा, पु० (सं०) धन्वन् पेड़ । धमकी-संज्ञा, स्त्री० (हि.) भय या त्रास धन्वदुर्ग-संज्ञा,पु० (सं०) निर्जल या मरुदेश, दिखाने का कार्य, घुड़की, डाँट फटकार, मारवाड़। डाँटडपट! यौ०-धमकी-घुड़की। मुहा० धन्वंतरि-संज्ञा, पु० (सं०) देव-वैद्य, सामुद्रीय | -धमकी में आना-- डराने से भय१४ रत्नों में से एक, राजा विक्रमादित्य की सभा के हैं रत्नों में से एक रत्न । धमधमाना-अ० कि० दे० यौ० (अनु० धम) धन्वघास-संज्ञा, पु० (सं०) जवास, जवासा। धम धम शब्द करना. मारना। धन्धा-संज्ञा, पु० दे० (सं० धन्वत्) धनुष । धमधड-धमधसर-वि० (दे०) मोटा,सबल, धन्वाकार-वि• यौ० (सं०) धनुष के श्राकार, मूर्ख, निर्बुद्धि । का, टेढ़ा, धनुषाकार। धमनी-संज्ञा, स्त्री० (सं०) शरीर के भीतर धन्धी- वि० (सं० धन्विन्) धनुर्धारी, कमनैता की नाड़ियाँ, नस । “धमनी जीवधप-संज्ञा, स्त्री० दे० ( अनु० ) भारी वस्तु साक्षिणी"- शाङ्ग । के नम्र वस्तु पर गिरने का शब्द । संज्ञा, पु० | धमाका-संज्ञा, पु० दे०(अनु०) भारी पदार्थ (दे०) तमाचा, थप्पड़, धौल। के गिरने या बन्दूक या बम फूटने का शब्द, धपना--अ० क्रि० दे० (सं० धावन या | धक्का या श्राघात, हाथी पर लादने की तोप। धाप ) दौड़ना, ज़ोर से चलना, मारना, धमा-चौकड़ी-संज्ञा, स्त्री० यौ० दे० (अनु० पीटना। धम+चौकड़ी-हि० ) ऊधम, उपद्रव, झगड़ा धप्पा-संज्ञा, पु. (दे०) तमाचा, धौल, या फसाद, उछल-कूद, मारपीट, धींगाधींगी। घाटा, हानि, क्षति । यौ० धौलधप्पा। धमाधम-क्रि० वि० (अनु०) कई बार लगा. धन्धा-संज्ञा, पु० (द०) निशान, दाग़, चिन्ह तार धम २ शब्द के साथ या प्राधातों के कलंक Hero-नाम में धब्बालगाना- शब्द के साथ। यश या कीर्ति का नाशक कार्य करना । । | धमार-धमाल-संज्ञा, स्त्री० दे० ( अनु० ) धम-संज्ञा, पु० दे० ( अनु०) किसी भारी उपद्रव, उछलकूद, कलाबाज़ी, साधुओं वस्तु के ऊँचे से नीचे गिरने का शब्द ।। की आग पर कूदने की क्रिया। संज्ञा, पु. धमक-संज्ञा, स्त्री० दे० ( अनु० धम ) भारी होली का एक गीत । " ध्याननि में धमक पदार्थ के गिरने का शब्द, चोट करने का धमार धसिबै लगी',-रत्ना। शब्द, पाँव की श्राहट, आघात से प्रगट कंप, धमारी-धमाली-वि० (दे०) उपद्रवी, बखेचोट, प्राघात, चूसा, धमक्का।। डिया, कलाबाज, होली का एक खेल। धमकना-अ० क्रि० दे० (हि. धमक) “ फल-फूलन सब करहिं धमारी"-पद०। For Private and Personal Use Only Page #959 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir धमोका धरहरना धमोका-संज्ञा, पु. (दे०) एक तरह की धरधराना*-अ० क्रि० दे० (अनु०) धर खंजरी। धर शब्द करना। धम्मिल्ल-संज्ञा, पु० (सं.) बनी हुई, बेनी धरन-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. धरन ) पाटन गुही चोटी। का बोझा सँभालने वाली लकड़ी, टेक, थूनी, धयना-धैना-अ० कि० दे० (हि. धाना) गर्भाशय और उसके सँभालने वाली नस, दौड़ना, धावा मारना। संज्ञा, पु. (दे०) गर्भाशय का आधार, टेक, हठ । संज्ञा, पु. दुष्टता, शरारत । " नयना धयना करत हैं, (दे०) धरना, पकड़ना। सिंज्ञा, स्त्री० दे० उरज उमैठे जात"-वि०। (सं० धरणि ) धरनि, पृथ्वी, भूमि । धरंता--*—वि० दे० (हि. धरना) ग्रहण, धरनहार* --- वि० दे० (हि. धरना- हार करने या पकड़ने वाला। -प्रत्य०) धरने या धारण करने वाला । धर-वि० (सं०) धारण या ग्रहण करने | "मानहु शेष अशेष धर, धरनहार बरबंड"। वाला। संज्ञा, पु. (दे०) पर्वत, कच्छप, -राम० । स्त्री०-धरनहारी। विष्णु, धड़ । संज्ञा, स्त्री० (हि. धरना) धरने | धरना-स० क्रि० दे० (सं० धरण) पकड़ना, का भाव । यो०-धर-पकड़-गिरफ्तारी, लेना, ग्रहण करना, रखना। संज्ञा, पु० (दे० बन्दी करना। अ०) प्राग्रह, रोक, घड़जाना । मुहा०धरका -संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. धड़क)धड़का धर-पकड़ कर-बलात्, ज़बरदस्ती। धरा धरकना-अ. क्रि० दे० (हि. धड़कना ) रह जाना-पड़ा रह जाना, काम न आना। धड़कना, कँपना, डरना। संज्ञा, पु० (दे० श्राधु०) किसी के द्वार पर धरण-धरन--संज्ञा, पु० दे० (सं० धारण ) किसी बात के लिये हठ-पूर्वक बैठना, या धारण, धनी (दे०)। अड़ जाना, और जब तक कार्य पूर्ण न धरणि-धरनि (दे०)-संज्ञा, स्त्री० (सं०) भूमि हो न उठना. आग्रह । मुहा० आधु०)पृथ्वी । “ धरहु धरनि धरि धीर न डोला। धरना देना ।। -रामा। धरम -संज्ञा, पु० दे० (सं० धर्म) स्वभाव, धरणिधर-संज्ञा, पु० (सं०) धनिधर, भूमि | दान-पुण्य, अच्छा काम, धर्म । का धारण करने वाला, पहाड़, शेष, विष्णु। धरवाना-स० क्रि० दे० (हि. धरना का प्रे० धरणी-धरनी-संज्ञा, स्त्री. ( सं० ) भूमि। रूप) धरने का कार्य दूसरे से कराना, धराना। संज्ञा, पु० (दे०) धरनीधर । धरषन-धरसन* - स० कि० दे० (सं० धर्षण) धरणि-सुता-संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) सीता मलना, दबाना, पराजित या दलित करना। जी।" विवश करावै सुधि, धरणि-सुता की धरसना-अ० क्रि० दे० (सं० धर्षण) दबना, जाते हिय हहरत है "-स्फु०।। | डरना । स० क्रि० (दे०) दबाना, अपमानित धरता-धर्ता-संज्ञा, पु० दे० (हि. धरना, करना। सं० धर्तृ ) धरोहर धरने वाला, देनदार, धरसनी-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० धर्षणी ) कर्जदार, ऋणी, धरने वाला। यौ० कर्ता- दर्षणी, धर्षणी। धरता-सब कुछ करने वाला। धरहरा-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. धरना+हर धरती-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० धरित्री) ज़मीन। | -प्रत्य०) धर-पकड़, बीच-बिचाव, रक्षा, धरधर -संज्ञा, पु० दे० (सं० धराधर ) धैर्य, सहाय, अवलंब । “रवि सुरपुर धर पहाड़ । संज्ञा, स्त्री० धड़ धड़। हर करै, नर हरि नाम उदार"-नरों। धरधरा*-संज्ञा, पु० दे० (अनु०) धड़कम। धरहरना*--अ० क्रि० दे० (अनु०) धड़धड़ाना। For Private and Personal Use Only Page #960 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir धरहरा २४६ धर्मचारी घरहरा-संज्ञा, पु० दे० (हि० धर = ऊपर+ धर्ता-संज्ञा, पु. ( सं० धर्तृ ) धरता (दे०) घर ) मीनार धौरहरा (ग्रा०)। धारण करने वाला । यौ०-कर्ताधर्ताघरहरिया -संज्ञा, पु० दे० (हि. धरहरि )। पूर्ण अधिकारी। बीच-बिचाव या रक्षा करने वाला। धर्म-संज्ञा, पु. (सं०) धरम (द०) स्वभाव, धरा-संज्ञा, स्त्री० (सं०) भूमि पृथ्वी, संसार, प्रकृति, गुण, कर्त्तव्य, सुकृत, सुकर्म, सदाएक छंद । “धरा को स्वभाव यहीतुलसी जो, चार, लक्षण, दान-पुण्य, सत्कर्म, लोकफरा सो झरा श्री जरा सो बुताना"। परलोक बनाने वाले कर्म । “यतोऽभ्युदय धराऊ-वि० दे० (हि. धरना-पाऊ-- निश्रेयस सिद्धिः स धर्मः"--वैशेषि० । यौ० प्रत्य० ) जो विशेष अवसरों या उत्सवों को धर्मकर्म । मुहा०-धर्म कमाना-धर्म छोड़ कभी न निकाला जावे, बहुमूल्य, का फल जोड़ना। धर्म बिगाड़ना-धर्म बदिया, पुराना। भ्रष्ट करना । धर्म छोड़ना-ईमान छोड़ देना। धराक -संज्ञा, पु० दे० (हि० धड़ाक ) धर्म लगती कहना-सत्य, ठीक या धड़ाक। उचित बात कहना। धर्म-कर्म का पक्काघरातल-संज्ञा, पु. या० (सं०) ज़मीन का कर्तव्य-कर्म या सत्कर्म करने में दृढ़ । ऊपरी भाग, भूमि, पृथ्वी, क्षेत्रफल, रकबा । धर्म से कहना (बोलना)-सच सच कहना, धरती-संज्ञा, स्त्री० (दे०) पृथ्वी। धराधर-धराधरन-संज्ञा, पु. यो० (सं०) मत, सम्प्रदाय, पंथ, ईमान, कानून, नीति। पहाड़, शेष, विष्णु। धर्म-कर्म--- संज्ञा,पुख्यौ०(सं०) धर्म ग्रन्थानुसार, घराधार-संज्ञा, पु. यौ० (सं०) शेष जी। आवश्यक कर्म, दान, दया, परोपकारादि । | धर्मकाय -- संज्ञा, पु. यो० (सं०) बुद्ध जी। धराधिप, धराधिपति-संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) भुपाल, राजा। धर्मकृत्य-संज्ञा, पु० यौ० ( सं० ) धर्म-कर्म, धराधीश-धराधीश्वर-संज्ञा, पु. यौ० धर्म-कार्य। धर्मकोष --- 'संज्ञा, पु० यो० (सं०) धर्म-संचय । ( सं० ) राजा, भूप, धरेश, धरापति ।। धर्मक्षेत्र- संज्ञा, पु० यौ० (सं०) कुरुक्षेत्र, घराना-स० कि० दे० (हिं० धरना का प्रे० पुण्य क्षेत्र, तीर्थ, धरम-छेत्र । " धर्मक्षेत्रे कुरु. रूप ) पकड़ाना, 9भाना, टेकाना, रखाना, __ क्षेत्रे समवेता युयुत्सवः"- गीता। मुकर्रर करना। पू० का० (दे०) धरि, धराय। | धर्मगति-संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं० ) धर्म का धरापुत्र-धरासुत-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) मार्ग, धर्म-तत्व । मंगल ग्रह, भौम । धरा-पुत्री-धरासुता--- संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) धर्मग्रन्थ--संज्ञा, पु० यौ० (सं०) धर्म-शिक्षक सीता, जानकी। पुस्तकें, श्रुति, स्मृति, पुराण आदिक। धरासुरी-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) ब्राह्मण । धर्मघड़ी-संज्ञा, स्त्री० या. (सं० धर्म + हि० धराहर-संज्ञा, पु० दे० (हि. धरहरा ) धर घड़ी) बड़ी घड़ी जिसे सब कोई देख सके। हरा, मीनार । धर्मचक्र-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) धर्म-समूह, धरित्री-संज्ञा, स्त्री० (सं०) भूमि, पृथ्वी, बुद्ध जी की धर्म-शिक्षा। भूमि, धरतो (दे०)। धर्मचा -संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) धर्माचरण, धरैया -संज्ञा, पु० दे० (हि. धरना ) धर्म-कर्म करना। धरने वाला। धर्मचारी- संज्ञा, पु० यो० (सं० धर्मचारिन् ) धरोहर-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. धरना) प्रमा- धर्म-कर्म या धर्माचरण करने वाला। वि० नत, थाती, न्यास (सं०)। । (सं०) धर्मपरायण । मो० धर्मचारिणी। For Private and Personal Use Only Page #961 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org धर्मचिन्ता 66 धर्मचिन्ता - संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) सत्कर्म, धर्म-कर्म की चिन्ता या विचार । धर्मजीवन - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) धार्मिक या धर्ममय जीवन, धर्मात्मा या धर्मचारी ब्राह्मण । धर्मज्ञ - संज्ञा, पु० (सं०) धर्म का जानने वाला, धर्मज्ञाता, धर्मज्ञानी, धर्मात्मा | संज्ञा, स्त्री० (सं०) धर्मज्ञता । देहि वासांसि धर्मज्ञ नोचेत राजेन्रवीमहे " - भाग० । धर्मज्ञान - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) धर्मबोध, परलोक विचार, कर्तव्य - ज्ञान । वि० धर्मज्ञानी । धर्मतः:- भव्य० (सं०) धर्म का विचार या ध्यान रखते हुये, सत्य सत्य, धर्म से । धर्मतत्व - संज्ञा, पु०या० (सं०) धर्म की यथार्थता, धर्म-रहस्य, धर्म का मूल या सारांश । धर्मद्रोही - वि० ० (सं०) धर्मघाती, पापी धर्मी, धर्म का विरोधी । 15 ६५० धर्मशाला-धरमसाला | धर्मपत्नी - संज्ञा, स्रो० यौ० (सं०) विवाहिता स्त्री, पत्तो । धर्मपुत्र - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) राजा युधि - ष्ठिर, नर-नारायण, दत्तकपुत्र । ( सह० धर्मपिता, धर्ममाता ) । धर्मबुद्धि - संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) धर्माधर्म का विवेक, विचार, ज्ञान, भले-बुरे का ज्ञान । धर्मभीरु - वि० (सं०) धर्मभयधारी, जो धर्माचरण से डरे, धर्मात्मा । धर्मभ्राता धर्मबंधु- संज्ञा, पु० ये ० (सं०) सहपाठी । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir धर्म-परायण - वि० संज्ञा, पु० ये ० (सं०) धर्मात्मा | संज्ञा, स्त्री० धर्मपरायणता । धर्ममूर्ति – संज्ञा, पु० यौ० (सं०) धर्मावतार, धर्मस्वरूप | धर्मयुग - संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) सत्युग । युद्ध, " धर्मधक्का - संज्ञा, पु० ० ( सं० धर्म + हि० धर्मयुद्ध - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) नियमानुसार धक्का ) धर्म करने से जो हानि हो । निश्चित नीत के अनुसार युद्ध । धर्मधुरंधर - वि० यौ० (सं०) धार्मिक नेता, धर्मरक्षक - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) राजा, धर्मात्मा, धर्माचार्य, धर्म में अग्रगामी | श्राचार्य | संज्ञा, स्त्री० (सं०) धर्मरक्षा | "धर्मधुरंधर सुनि गुरु- बानी " - रामा० । धर्मरक्षित संज्ञा, पु० (सं०) योग, मत का धर्मधुरीण-धरमधुरीन - (दे०) संज्ञा, पु० एक उपदेशक, जो शोक के समय में यवन" धरमधुरीन धर्मदेशों को गया था । वि० धर्म से रक्षित | संज्ञा स्त्री० धर्मधर्मराइ धर्मराय - संज्ञा, पु० यौ० दे० (सं० धर्मराज) धर्मराज, युधिष्ठिर, धर्मात्मा राजा । धर्मराज - संज्ञा, पु० (सं०) राजा युधिष्ठिर, धर्मात्मा राजा, यम धर्मलुप्तोपमा- संज्ञा स्त्री० यौ० (सं० धर्मलुप्त + उपमा ) उपमा अलंकार का एक भेद जिसमें उपमेयोपमान का धर्म प्रगट नहीं रहता ( श्र०पी० ) । या ० (सं०) धर्म- पालक | गति जानी - रामा० । धुरीता । धर्म्मध्वज - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) लोगों को धोखा देने धौर छलने के लिये धर्म का आडंबर करने वाला, पाखंडी, छली, राजा जनक । धिक धर्मध्वज धकधारी " रामा० । वि० -धर्म ही की ध्वजा वाला । धर्मध्वजी – संज्ञा, पु० यौ० (स० धर्मध्वजिन्) पाखंडी, भाडंबरी । स्त्री० धर्मध्वजिनी । धर्मनिष्ठ - वि० यौ० (सं०) धर्मपरायण, धर्म-प्रेमी, धर्मारमा, धार्मिक । धर्मनिष्ठा - संज्ञा स्त्री० या० (सं०) धर्म में धर्मव्याध - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) जनकपुरप्रेम, भक्ति, श्रद्धा और प्रवृत्ति । निवासी एक बहेलिया जिसने एक वेद पाठी ब्राह्मण को धर्म-तत्व समझाया था । धर्मशाला-धरमसाला (दे० ) - (संज्ञा, स्त्री० यौ० धर्मयाजक - संज्ञा, पु०या० (सं०) पुरोहित, पौराणिक | धर्मवीर - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) जो धर्म-कर्म करने में साहसी हो । For Private and Personal Use Only Page #962 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir धर्मशास्त्र धवरा, धौरा (सं०) वह घर जो परदेशी यात्रियों के ठहरने धर्मार्थ-क्रि० वि० यो० (सं०) धर्म या पुण्य के हेतु बनवाया गया हो। या परोपकार के हेतु जो कुछ किया नावे । धर्मशास्त्र-संज्ञा, पु. यौ० (सं०) धर्म के | संज्ञा, पु. यौ० (सं०) धर्म और अर्थ । तत्व की विवेचना का ग्रंथ । धर्मावतार--संज्ञा, पु० यौ० (सं०) साक्षात धर्मशास्त्री-संज्ञा, पु. यो० (सं०) धर्मशास्त्र | धर्मस्वरूप, धर्मात्मा, न्यायाधीश, राजा का ज्ञाता तथा धर्मशास्त्रानुसार व्यवस्था युधिष्ठिर। देने वाला, धर्मशास्त्रज्ञ । धर्मासन-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) न्यायाधीश धर्मशील --वि० (सं०) धर्मप्रकृति, धर्मभक्त, की गद्दी या कुरसो। धर्मात्मा । संज्ञा, स्त्री. धर्मशीलता। "सुनु । धर्मिणी-संज्ञा, स्त्री० (सं०) पनि। वि० (सं०) सठ धर्मसीलता तोरी "-रामा० । धर्म करने वाली । धर्मसंहिता-संज्ञा,स्त्री० या० (सं०) स्मृति ग्रंथ, धर्मिष्टः-वि. (सं०) धर्मात्मा, सजन, कर्तव्याकर्तव्य या रीति-नीति-सूचक ग्रंथ । धार्मिक धर्म-कर्म करने वाला। धर्मी- वि० सं० धर्मिन् ) धर्मात्मा, धार्मिक, धर्मसभा-संज्ञा, स्त्री० यो० (सं०) न्यायासभा, न्यायालय, अदालत, कचहरी। धर्म का मानने वाला । स्त्री. धर्मिणी। धर्म-संकट - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) दो समान धपिदेशक-संज्ञा, पु. यो. (सं०, धर्म शिक्षक, धपिष्टा । संज्ञा, पु. यौ० कर्तव्यों में एक का निश्चय न कर सकना, धर्मापदेश। दुविधा, असमंजस । धर्ष-संज्ञा, पु. (सं. धर्षण ) अपमान, धर्मसारी-संज्ञा, स्त्री० दे० यौ० (सं. अनादर, थाक्रमण, धावा, दवोचना, दबाने धर्मशाला ) धर्मशाला, यात्री-मन्दिर। या दमन करने की क्रिया। " रिपु-बल धर्मसूत्र-संज्ञा, पु. (सं०) महर्षि जैमिन धर्षि, हर्षि हिय" - रामा० । प्रणीत एक धर्म-ग्रन्थ । धषक-संज्ञा, पु० सं०) धर्षण करने वाला। धर्माशु-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) सूर्य, भानु । धषण- संज्ञा, पु० (सं०) अपमान, अनादर, धर्माचार्य -- संज्ञा, पु० यौ० (सं०) धर्मशिक्षक आक्रमण, धावा, चढ़ाई दबोचना । वि०या उपदेशक, गुरु। धर्षणीय, धर्षित। धर्मात्मा - वि० यौ० (सं० धर्मात्मन् ) धार्मिक, धषणा-- संज्ञा, स्त्री० (सं०) अपमान, अनाधर्मशील, धर्मनिष्ठ । दर, अवज्ञा, सतीत्व-हरण । धर्माधिकरण-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) न्याय धर्षित-वि० (सं०) अपमानित, पराजित । भवन, न्यायालय, कचहरी।। धर्षा—वि० (सं० धर्षिन् ) दबोचने, आक्रधर्माधिकारी-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) न्याया मण करने, हराने वाला, अनादर करने या धीश, न्यायाध्यक्ष । नीचा दिखाने वाला । स्त्री. धर्षिणी । धर्माध्यत-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) न्याया धव-सज्ञा, पु. (सं.) धवा (दे०), एक धीश, दानाध्यक्ष, धर्माधिकारी। जंगली पेड़, पति, स्वामी । धर्मानुसरण-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) धर्म धवनी संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. धांकना) का पालन । धैांकनी, धमनी। -वि० (सं० धवल ) धर्मानुसार-संज्ञा, पु० (सं०) धर्म की रीति उज्वल, सफ़ेद । संज्ञा, स्त्री. (सं० धमनी) से । वि०-धर्मानुसारी-धार्मिक । नाड़ी, धमनी। धर्मारण्य-संज्ञा, पु. यौ० (सं०) तपोवन, धवरा, धारा-- वि० दे० (सं. धवल ) ऋषि-माश्रम । सफेद, उज्वल । स्त्री. धवरी, धारी। For Private and Personal Use Only Page #963 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - धवल धाइ-धाई धवल-वि० (सं०) उज्वल, स्वेत, निर्मल, । धसमसाना -अ० कि० दे० (हि. धंसना) सुन्दर धौल (दे०) । संज्ञा, स्त्री. धवलता। धसना, नीचे बैठना या घुस जाना। "ौ "धवल धाम ऊपर नभ चंबत"-रामा० । धरती तर में धसमसी"-पद० । धवलगिरि, धवलागिर-संज्ञा, पु. यौ० | धसान-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. सान ) (सं० धवल+गिरि) धौलागिर, हिमालय, घलान, ढाल । संज्ञा. स्त्री० दे० (सं० दशाण) पहाड़ की एक चोटो। एक छोटी नदी (बुंदे०)। धवलता-संज्ञा, स्त्री. (सं० ) उज्वलता। धाँगड़-धाँगर - संज्ञा, पु० (दे०) भूमि खोदने धवलना-स० क्रि० दे० (सं० धवल) उजला का उद्यम करने वाली एक जाति, एक या प्रकाशित करना या चमकाना, स्वच्छ अनार्य जाति । और सुन्दर करना। धाँधना-स० क्रि० (दे०) किसी जीवधारी धवला-वि० स्त्री० (सं०) उजली, साफ, को किसी कोठरी या पिंजरे में बंद करना, सफ़ेद । संज्ञा, स्त्री० सफ़ेद गाय । बेंड़ना, ज़्यादा खा जाना। धवलाई*-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० धवल | धाँधल, धाँधला-संज्ञा, पु० (अनु०) उपद्रव, +पाई-प्रत्य० ) सफाई, उज्वलता, सफ़ेदी । ___ उधम, झगड़ा, झंझट, फरेब, नटखटी, धवन्ताख्य-संज्ञा, पु० (दे०) पियाज, प्याक । अंधेर, उतावली। धवली-संज्ञा, स्त्री० (सं०) उजली गाय ।। धाँधलपन, धाँधलापना—संज्ञा, स्त्री० दे. धवलीकृत-क्रि० वि० (सं.) उज्वल किया (हि. धांधल-पन–प्रत्य०) दगा या धोखेहुधा, धवलीमत, शुक्लीकृत । बाजी, बदमाशी, अंधेर, अन्याय, उपद्रव, धवा-संज्ञा, पु० (दे०) कहारों की एक जाति।। नटखटी, अत्याचार । धवाना-स० क्रि० दे० (हि. धाना का प्रे० रूप) धांधलीबाजो-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि० धाँधला) दौड़ाना, भगाना, जल्दी जल्दी चलाना। | अत्याचार, अधाधुन्धी, अंधेर । वि० दे० " जात तुरंग धवाये"- रघुराज। धाँधलेबाज़ । धस-संज्ञा,पु० दे० (हि. धंसना = पैठना) पानी धाँधली-संज्ञा, स्त्री० (हि. धाँधल + ई प्रत्य० ) उपद्रव, अंधेर, अत्याचार, अन्याय, इत्यादि में पैठना या घुसना, डुबकी, गोता। स्वेच्छाचार, धोखा। धसक-संज्ञा, स्त्री० दे० (अनु०) सूखी खाँसी, | घाँय-धाय-संज्ञा, स्त्री. (अनु०) तोप ठसक । संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. धसकना ) बन्दूक के छूटने या जलने का शब्दाभास, धसकने का भाव या कार्य, डाह, द्वेष, ईर्ष्या। धड़ाका। धसकना-अ.क्रि० दे० (हि. धंसना) नीचे धाँस-संज्ञा, स्त्री० ( अनु० ) किसी पदार्थ की ओर किसी वस्तु का बैठ जाना, ईर्ष्या की अति तीषण गंध, जैसे लाल मिर्च की। या डाह करना, डरना। "उठा धसकि जिउ धाँसना-अ० क्रि० (अनु० ) पशुओं का भौ सिर धुना"-- पद। खाँसना। धसना-अ० क्रि० दे० (सं० ध्वंसन ) मिटना, । धा-वि० (सं०)किसी पदार्थ का धारण करने ध्वस्त या नष्ट होना। --अ० कि० दे० या उठाने वाला। प्रत्य० (सं० दे०) भाँति, (हि. धसना ) घुसना, किसी वस्तु का नीचे विधि, चतुर्धामुक्ति, चहुँधा (ब्र०)। संज्ञा बैठ या घुल जाना। पु० (सं० धैवत) धैवत स्वरा । (संगी०)। धसनि-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. फँसनि ) धाइ-धाई- संज्ञा, स्त्री० दे० ( धात्री) धात्री, धसनि, नीचे पैठने की क्रिया । उपमाता, दूध पिलाने वाली दाई । पू० का० For Private and Personal Use Only Page #964 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - - घाउ १५३ धाना प्र० क्रि० (दे० ७०) दौड़ कर, झपट कर। धातु-माक्षिक-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) सोना"सुमिरत सारद आवति धाई"-रामा०। माखी, स्वर्णमाक्षिक। धाउ-संज्ञा, पु. ( सं० धाव ) एक तरह का | धातु-बर्द्धक-वि० यौ० ( सं० ) वीर्य को नाच । अ० क्रि० विधि (दे० धाना ) दौड़। बढ़ाने वाली वस्तु । धाऊ-संज्ञा, पु० दे० (सं० धावन ) धावन, धातुषाद-संज्ञा, पु. यौ० (सं०) रसायन हरकारा, दूत, चर। बनाने का कार्य, धातु के साफ करने का धाक-संज्ञा, स्त्री० ( अनु० ) आतंक, शान, कार्य, कीमियागरी। रोबदाब, दबदबा । मुहा०-धाक बंधना धातुवादी-संज्ञा, पु० यौ०(सं०) धातु-विद्या(बाँधना)-पातंक, या रोब छा जाना, | __ वेत्ता, धातु-द्रव्य-परीक्षक । (धाक जमाना या जमना)। धातु-साधिन्---वि० यौ० (सं०) धातु-द्वारा धाकना-अ० कि० दे० (हि. धाक) आतंक प्रस्तुत, धातु से बनी। छाना, धाक बाँधना। धात्री-संज्ञा, स्रो० (सं०) माता, माँ, धाय, धाकर-संज्ञा, पु० (दे०) नीच जाति, वर्ण दाई. आँबला, पृथ्वी, गंगा, गाय । “धात्रीसंकर, दोगला। धाखा-संज्ञा, पु० (दे०) पलाश, छिउल, फलं सदा पथ्यम्'-वैषा। ढाख, ढाक। | धात्री-विद्या--संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) बालक धागा--संज्ञा, पु० दे० (हि. तागा) या बच्चा के जनाने और पालन-पोषण करने तागा, डोरा, सूत । " कच्चे धागे में बँधे । की विद्या, धात्री-विज्ञान, धात्री-कला। आएँगे सरकार यहाँ"। धात्वर्थ-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) धातु का अर्थ, धाड़ा-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. डाढ़ ) डाढ़, “उपसर्गेण धात्वा वलादन्यत्र नीयते । दाद, दहाड़, ढाड़ । संज्ञा, स्त्री० दे० ( हि० धात्वितर-वि० यौ० (सं० धातु+इतर ) धार ) गरोह, जत्था, डाकुओं का मुण्ड या बिना धातु का, धातु-रहित । आक्रमण (धावा)। धाधि-संज्ञा, स्त्री० दे०(हि० धधकना) लपट, धात-संज्ञा, स्त्री० दे० ( सं० धातु ) धातु। घातकी-संज्ञा, स्त्री० (सं०) धव का फूल। ज्वाला। "चानन देह चौगुन हो धाधि" - धाता-संज्ञा, पु० दे० (सं० धातृ ) ब्रह्मा, विद्या। विष्णु, शिव, एक वायु, शेष, सूर्य, विधि, धान-संज्ञा, पु० दे० ( सं० धान्य ) शालि, विधाता । वि० (सं०) पालने या धारण करने अन्न, व्रीहि, चावल का पिता। वाला, रक्षक, पालक । धानक-संज्ञा, पु० दे० (सं० धानुष्क) धनुधातु-संज्ञा, स्त्री. (सं०) किसी वस्तु का द्धारी, धनुष चलाने वाला, कमनैत, धुनिया, धारक पदार्थ, जैसे शरीर-धारक वात, पित्त, बेहना, एक पहाड़ी जाति । धानुक (दे०) । कफ आदि, गेरू, मैनसिल आदि, सोना, धानकी-संज्ञा, पु० दे० (हि० धानुक) धनुषचाँदी आदि, भू आदि मूल शब्द (व्या०)। धारी, कमनैत । धातु-क्षय - संज्ञा, पु. यौ० (सं०) प्रमेहरोग, । धानपान-वि• यौ० दे० (हि० धान+पान) क्षयी रोग, धातुक्षीणा, धातुक्षयता। पतला दुबला, दुर्वल, कोमल ।। धातुपुष्ट- वि० यौ० (सं.) वीर्य को गाढ़ा धानमाली--संज्ञा, पु. (सं०) बैरी के बाणों और अधिक करनेवाली औषधि । के रोकने की एक क्रिया। धातु-मर्म - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) धातु का धाना -अ० कि० दे० (सं० धावन) दौड़ना, साफ करना। भागना, प्रयत्न करना . धाधना (दे०)। भा० श० को०-१२० For Private and Personal Use Only Page #965 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir धारि धान। ঘনায় १५४ धानाचूर्ण-संज्ञा, पु. (सं०) सत्तू, मुंजे जव धाय -- संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० धात्री ) धात्री, और चने का प्राटा। दाई, धायी, दूध पिलाने वाली स्त्री। संज्ञा, धानी-- संज्ञा, स्त्री० (सं०) जगह, स्थान, ठौर, । पु० दे० ( सं० धातकी ) धध का वृक्ष । अ० संज्ञा, स्त्री० (हि. धान + ई-प्रत्य० ) धानों । क्रि० पू० का (दे० धाना ) धाइ, दौड़ कर । की पत्ती सा हलका हरा रंग । वि० हलके घायना, धावना*---अ० कि० दे० (हि. हरे रंग वाला। संज्ञा, स्त्री० (दे०) भूना गेहूँ, । धाना) दौड़ना, भागना । जव । संज्ञा, स्त्री०४ दे० (सं० धान्य ) धार-संज्ञा, पु. ( सं०) अखंड प्रवाह, वेग़ से पानी बरसना वर्षा का जल, क़ज़, प्रदेश, धानुक-संज्ञा, पु० दे० (स. धानुष्क) हथियार की पैनी बग़ल, बाढ़ । “बोरौं सबै धनुषधारी, धुनिया, एक पहाड़ी जाति ।। रघुवंश कुठार की धार में "-राम । धान्य-संज्ञा, पु० (सं०) चार तिल भर की मुहा०-धार चढ़ाना-किसी देवता पर तौल, धनियाँ (औष०) धान, अन्न, अनाज, दूध चढ़ाना । धार देना-दूध देना । धार एक पुराना हथियार। निकालना-दूध दुहना, अस्त्र को पैना धाप-संज्ञा, पु० (हि० टप्पा ) कोश भर या बनाना । धार मारना - पेशाब करना। श्राधे कोश की नाप । संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. धार उलटना--अस्त्र की धार का कुंठित धापना ) संतोष, तृप्ति । होना । धार बाँधना-किसी हथियार धापना-अ० क्रि० दे० (सं० तर्पण, संतुष्ट की धार को किसी प्रकार निकम्मा कर या तृप्त होना, अघाना, जी भर जाना । स० देना। सेना, दिशा। संज्ञा, स्त्री. (दे०) क्रि० (दे०) संतुष्ट या तृप्त करना । अ० कि. मालवे की प्राचीन राजधानी, धारानगरी। दे० (सं० धावन ) भागना, दौड़ना। धारक-- वि० (सं०) धारण करने या रोकने धाबा-संज्ञा, पु० (दे०) अटारी, बाला खाना, वाला, ऋणी, कर्जदार। रसोई घर, ढाबा (प्रान्ती०)। धारणा संज्ञा, पु० (सं०) थामना, अपने ऊपर धाभाई-संज्ञा, पु० दे० यौ० (हि० धा = धरना, पहनना, सेवन करना, मान लेना, धाय+भाई ) दूध-भाई। अंगीकार करना, खाना, पीना। धाम--संज्ञा, पु० दे० (सं० धामन् ) स्थान, धारणा-संज्ञा, स्त्री०(सं०) बुद्धि, ज्ञान, विचार मंदिर, घर, शरीर, लगाम, शोभा, प्रभाव, अक्ल, समझ, स्मृति, योग का एक अग । तीर्थ, जन्म, विष्णु, ज्योति, ब्रह्म, स्वर्ग। धारणीय-वि० (सं०) धारण करने योग्य । "पतत्यधोधाम विसारि सर्वतः"- माघ । धारना --स० कि० दे० (सं० धारण ) धारण बिनु धनस्याम धाम धाम व्रज मंडल मैं " करना, उधार लेना । स० कि० (दे०)ढारना । ---ऊ. श० । धारा-संज्ञा, स्त्री० (सं०) घोड़े की चाल, घामक-धूमक~संज्ञा, स्त्री० दे० ( हि० धूम पानी का बहाव, प्रवाह,झरना, सोता, हथिधाम ) धूमधाम । यार की बाढ़ या धार, अधिक वर्षा, समूह, धामिन--संज्ञा, पु० दे० (हि. धाना = ! मुंड, एक प्राचीन नगर (दक्षिण ) या शहर, दौड़ना ) एक बहुत तेज दौड़ने वाला। रेखा, मालवा की पुरानी राजधानी, कानून । साँप । धाराधर--संज्ञा, पु. (सं०) बादल, मेघ । धाय-संज्ञा, स्त्री० दे० ( अनु० ) तोप या धारावाही-वि० (सं०) धारा सा स्वच्छंद, बंदूक के छूटने या आग के जलने का बिना रोक-टोक के चलने वाला। शब्दाभास। | धारि*-संज्ञा, स्त्री० (सं० धारा) अखंड For Private and Personal Use Only Page #966 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir धारित ঘিালা प्रवाह । स० क्रि० पू० का० ( हि० धारना ) | धावा-संज्ञा, पु० दे० (सं० धावन ) चदाई, धारण करके । संज्ञा, स्त्री० (दे०) समूह, झंड। आक्रमण, हमला, दौड़ । मुहा०-धावा धारित-वि० (सं०) धारण किया या पकड़ा मारना (करना)--शीघ्र शीघ्र चलना या हुआ। जाना, आक्रमण करना। धारिणी-संज्ञा, स्त्री० (सं०) धरणी. पृथ्वी। धाह*-संज्ञा स्त्री० दे० (अनु० ) ज़ोर से वि० स्त्री० (सं०) धारण करने या धरने वाली चिल्ला कर रोना-पीटना. धाड़, चीख । धारी-वि० ( सं० धारिन् ) धारण करने | धाही*--- संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० धात्री ) वाला।स्त्री० धारिणी । संज्ञा, पु० (सं०) एक धाय, धायी, उपमाता। छंद (पिं०) । संज्ञा, स्त्री० (सं० धारा) सेना, धिंग-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० दृढांग, हि. धींगासमूह, समुदाय, रेखा । वि० (दे०)धारीदार। । धींगी) धींगा-धींगी, उपद्रव, उधम, शरारत। धागदार-वि० (हि. धारी+दार फा०) धिंगरा-संज्ञा, पु० (दे०) गुंडा। धारियों या लकीरों वाला। धिंगा-संज्ञा, पु० दे० (सं० दृढ़ांग) निर्लज्ज, धारोष्ण --संज्ञा, पु. यौ० (सं०) थनों से | बदमाश, अन्यायी। निकला हुआ कुछ गर्म दूध । धिंगाई-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० दृढ़ांगी) निलधार्तगष्ट-- संज्ञा, पु. यौ० (सं०) राजा पृत- जता, शरारत, धिंगता । राष्ट्र के पुत्र दुर्योधनादि, कलहंस, एक प्रकार | धिंगाना- स० कि० दे० (हि. धिंग) उपद्रव, का साँप । उधम या शरारत करना। धार्मिक-वि० (सं०) धर्मात्मा, धर्म-सम्बंधी। धिया-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० धिय) लड़की, धार्मिकता-संज्ञा, स्त्री० (सं.) धर्मशीलता। पुत्री, कन्या। धार्य- वि० (सं० ) धारण करने के योग्य । धिान* --संज्ञा, पु० दे० (सं० ध्यान) धाव-संज्ञा, पु० (दे०) दौड़, एक पेड़। ध्यान, विचार। धावक-संज्ञा, पु. (सं० ) धावन, हरकारा, धियाना--स० क्रि० दे० (हि. ध्यावना) संस्कृत के एक विख्यात कवि।। __ ध्यान कराना, विचारना । धाधन-संज्ञा, पु० (सं०) दौड़ना, दूत. हर- धिक्, धिक-प्रव्य० (सं० ) अनादर, तिरकारा, धोना, साफ़ करना, जिससे कोई वस्तु स्कार और निन्दा-सूचक शब्द, फटकार, धो कर साफ़ की जावे । " धावन तहाँ घृणा, छी छी । “धिक् धिक ऐसी कुरुराज पठावहु देहि लाख दस रोका" - ५०। । रजपूती पै"-अ० व०। धावना -अ. क्रि० दे० (सं० धावन ) धिकना-अ० क्रि० दे० (सं० दग्ध ) तप्त भागना, दौड़ना, जन्दी, जोर से चलना। या गर्म होना।। धानि-- संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० धावन ) धिकाना-स० क्रि० दे० (सं० दग्ध या हि. धावना क्रिया का भाव, भगदर, धावा, चदाई। दहकना ) तपाना या गर्म करना। धावनी-- संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. धावन) दूती, धिकार-संज्ञा, स्त्री० (सं०) अपमान, तिरपरिचारिका। स्कार और घृणा-सूचक शब्द । " उस बुद्धि धावमान-वि० (सं० धावन) द्रुत या शीघ्र- को धिक्कार है"। गामी, दौड़ता या भागता हुश्रा। धिक्कारना-स० कि० दे० ( सं० धिक् ) धिक् धावरी*-- संज्ञा, स्त्री० दे० (धवल ) सफेद धिक् कह कर किसी पुरुष का अनादर, गाय, धौरी (दे०) धवरीगाय । वि० (दे०) । तिरस्कार या निन्दा करना, डाँटना. फटबलवान, पापी। कारना, घृणा प्रगट करना, धिकारना (दे०)। For Private and Personal Use Only Page #967 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org fधकारी, धिक्कारित धिकारी, धिक्कारित - वि० (सं० धिक्कार ) निन्दित, गर्हित, शापित | घिग्छ - अव्य० ( सं० ) धिक्, धिक्कार । धिय* - संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० दुहिता) बेटी, पुत्री । धिरकार-धिरकाला - संज्ञा, स्त्रो० दे० (सं० धिक्कार ) धिक्कार, लानत, छी छी । धिरखना*- - स० क्रि० दे० ( सं० धर्षण ) भयभीत करना, डराना, धमकाना, फटकारना । धिराना* +-स० क्रि० दे० ( हि० धिरवना ) भयभीत करना, डराना, धमकाना । प्र०क्रि० दे० (सं० धीर ) मंद पड़ना, धीमा होना, धीरज धरना । धींग -संज्ञा, पु० दे० (सं० डिगर ) हृष्ट-पुष्ट, हट्टा-कट्टा, दांग पुरुष । वि० (दे०) बलवान, पापी । धींगर - संज्ञा, पु० दे० (सं० डिंगर ) मोटा वाजा, मुसंड, हृष्ट-पुष्ट, मूर्ख, बदमाश, fire | ato atगरी । धींगा - संज्ञा, पु० दे० (सं० डिंगर - मूर्ख, शठ ) उपद्रवी, बखेड़िया, पाजी । धींगा-धींगी -संज्ञा, स्त्रो० यौ० दे० ( हि० धींग) अन्याय, अंधेर, ज़बरदस्ती, बदमाशी, उपद्रव, उत्पात | धींगामस्ती, धींगा - मुश्ती - संज्ञा, त्रो० दे० (हि० धींगा-धींगी ) धींगा-धींगी, बदमाशी, अंधेर, उपद्रव । धींगड़ - धींगड़ा - वि० दे० ( सं० डिंगर ) दुष्ट, पाजी, मोटा-ताज़ा, वर्णसंकर । स्त्री० धींगड़ी | धींद्रिय - संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) ज्ञानेन्द्रियाँ, मन, जीभ, आँख, कान, नाक, त्वचा । धीवर - संज्ञा, पु० (सं० धीवर ) धीवर, धीमर, मल्लाह, मछुवा । धी - संज्ञा, खो० (सं०) ज्ञान, बुद्धि | संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० दुहितृ ) बेटी, कन्या । धीजना - स० क्रि० दे० (सं० धृ, धार्य्य, धैर्य्यं) ग्रहण, अंगीकार, स्वीकार करना, धैर्य ५६ धीरिय 14 धरना, प्रसन्न या सन्तुष्ट होना । सुन्दर कहत ताहि धीजिये स कौन भाँति" । धीमधीमा+ - वि० दे० (सं० मध्यम ) धीरे धीरे चलने वाला, मंदगामी । धीमा कम तेज़ । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir धीमर - संज्ञा, पु० दे० (सं० धीवर) मछवाहा, केवट, मल्लाह, धीवर । श्रीमान् -संज्ञा, पु० (सं० धीमत् ) बुद्धिमान पुरुष, होशियार, वृहस्पति । स्त्री० धीमती । धीय धीया - संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० घी या दुहितृ ) बुद्धि, ज्ञान, कन्या । धीर - वि० (सं०) धैर्यवान, शान्त, गम्भीर, सुन्दर, धीमा, धीरा (दे० ) । * संज्ञा, पु० दे० (सं० धैर्य ) धैर्य्य, सन्तोष | संज्ञा, स्त्री० (सं०) धीरता । धीरी - संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० धीर) श्राँख की पुतली | धीरक - धीरज /* संज्ञा, पु० दे० (सं० धैर्य्य) धैर्य, मन या चित्त की स्थिरता । 6. धीरन धरिय तौ पाइय पारू " - रामा० । धीरता -- संज्ञा, स्त्रो० (सं०) धैर्य, संतोष, स्थिरता, चित्त की दृढ़ता । धीरललित--संज्ञा, पु० यौ० (सं०) बना-ठना, हर्षित-हृदय नायक | धीरशांत - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) जो नायक शील, दयादि गुण युक्त और पुण्यवान हो । धीरा - संज्ञा, खो० (सं०) धैर्यवती, संतोषवती, एक नायिका । वि० (सं० धीर) मंद, धीमन् संज्ञा, पु० दे० ( सं० धैर्य ) धैर्य, धीरज | "कोप जनावै व्यंग तें, तजै न पति सनमान | ताको धीरा नायिका, कहैं सदा "" गुणवान - पद्म० । धीराधीरा – संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं० ) एक नायिका । "करे अनादर व्यङ्ग सों, प्रगटे कोप पसार " । धीरा धीरा नायिका, मानो सुख की सार - पद्मा० । धीरिय-संज्ञा, स्त्रो० दे० (सं० धी ) कन्या, दुहिता, पुत्री, बेटी, लड़की । 33 For Private and Personal Use Only Page #968 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir धुआँधार धीरे-क्रि० वि० दे० (हि. धीर ) मन्द गतिधु धराना--अ० क्रि० दे० (हि. धधलाना) या गमन, चुपके चुपके से। धुंधला दिखाई देना। धीरे धीरे-प्रव्य. ( हि० धीर ) मन्द मन्द, धुधला-वि० दे० ( हि धुंध+ला ) कुछ शनैः शनैः, कोमलता या चुपके से । कुछ अँधेरा सा,अस्पष्ट । धीरोदात्त-संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) अहंकार धुंधलाई -- संज्ञा, स्त्री०(हि० धुंधला) धुंधला। या अभिमान से रहित, क्षमाशील, दयालु, धु-संज्ञा, पु० (सं०) मधु दैत्य का एक पुत्र धीर, वीर, बलवान नायक । धु धुकार- संज्ञा, पु. (हि. धंध+ कार ) धीरोद्धत-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) अति चंचल, | अंधेरा, धुंकार, नगाड़े की आवाज़ । प्रचंड और श्रात्मश्लाघी नायक । संज्ञा, पु० धुंधुमार- संज्ञा, पु. ( सं० ) राजा त्रिशंकु यौ० (सं०) धैर्य, धीर और उदंड। का पुत्र, कुवलयाश्व, जिसने धुन्धु दैत्य को धीवर-संज्ञा, पु. ( सं०) मल्लाह, केवट, | मारा था। मछवाहा। धुंधुरि-धुंधुरी*-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि० धुआँ–संज्ञा, पु० दे० । सं० धूम) धूम, चिता का धूम । " धुआँ देखि खरदूषन केरा" धुन्ध ) अँधेरा, धूलिकण से होने वाला -रामा०। अंधकार। धुंभारा-संज्ञा, पु. (दे०) धुनाँ निकलने | धु धुरित-वि० (हि. धुंधुर) धूमिल, अस्पष्ट, का छेद। । धुंधली दृष्टि वाला। छुई-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं०धूम ) धुनी। धुधुवाना*--अ० क्रि० दे० (सं० धम्र धैंकार - संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० ध्वनि+कार) हि० धुआं) धुंधुग्राना, धुआँ देना, धुआँ दे बड़े जोर का शब्द, गरज, गड़गड़ाहट। कर जलना । "प्रगट धुआँ नहिं देखिये, उर अंतर धुंधुवाय "-गिर। धुंगार-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० धूम्र + आधार) धुंधेरी-संज्ञा, स्त्री० दे० ( हि० धुंध ) धुलिछौंक, बघार, तड़का (प्रान्ती०)। कणों और धुआँ के कारण अँधेरा।। धंगारना-स० क्रि० दे० (हि. धुगार ) | छौंकना, बधारना, तड़का देना। धुंधला- वि० (दे०) छली, हठी, दुराग्रही, धुंजा-वि० दे० (हि० धुंध) (धी, धुंधली, धूर्त, ठग, धुंधला। मन्द दृष्टि। धुअ-धुव*-संज्ञा, पु० दे० (सं० ध्रुव) धुद-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० धूम्र धुंध) धुंधी, | ध्रुवतारा, ध्रुव । वि० (६०) अटल, स्थिर । धुंधली, धुन्ध, एक नेत्र रोग, धुंध । धुआँ-संज्ञा, पु० दे० (सं० धूम्र ) धूआँ, धुंध-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० धूम्र+अंध) | धूम । (मुंह) धुआँ होना-लज्जा, भय धुन्धी, धुंधली, धुंद, नेत्र-रोग। से मुँह का रंग स्याह या मैला पड़ना। धुंधका-संज्ञा, पु० (दे०) धुआँ निकलने मुहा०-धुएँ का धौरहरा (पड़ना)का छेद, धुंधका (प्रा०)। -थोड़ी देर में नष्ट होने वाली वस्तु । धुंधकार - संज्ञा, पु० दे० (हि. धकार ) धुएँ के बादल उड़ना-बड़ी भारी गप धु कार, गरज, अंधेरा। हाँकना । धुआँ निकालना या काढ़नाधुंधमार-संज्ञा, पु० दे० (सं० धुंधुमार ) एक | बढ़ बढ़ कर बातें मारना । भारी समूह। राजा (पु.)। धुआँकश- संज्ञा, पु० यौ० (हि. धुओं+ धुंधर-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि० धुंध) अँधेरा, | फा० कश ) अग्निबोट, स्टीमर, रोशनदान । वायु में छाई धूल। संज्ञा, स्त्री० (दे०) धुंधुरी। धुआँधार-वि० दे० यौ० (हि० धुओं+धार) For Private and Personal Use Only Page #969 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir धुनना धुश्राना १५८ धुएँ से भरा, काला, प्रचंड, घोर । क्रि० वि० । धुकना*- अ. क्रि० दे० (हि. झुकना ) (दे०) बहुत ज्यादा या बड़े जोर का। __ झुकना, लचना, लचकना, नवना, टूट पड़ना। धुआँना-अ० क्रि० दे० (हि. धुमाँ+ना धुकारना-स० क्रि० (हि. धुकाना) लचाना, -प्रत्य० ) अधिक धुएँ से किसी वस्तु का झुकाना, नवाना, गिराना, पटकना, ढकेलना, स्वाद, रंग या गंध का बिगड़ जाना। पछाड़ना। धुायँध-धुआँध वि० दे० (हि०धुमाँ + धुज-धुजा-धुजी -संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० गंध) धुएँ के तुल्य महकने वाला। संज्ञा, बजा) पताका, झंडा। स्त्री० (दे०) अजीर्णता या अनपच से पाने धुजिनी -संज्ञा, स्त्री० दे० ( सं० ध्वजा) वाली डकार । चमू. सेना, अनीकिनी, अनी।। धुआँस-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि० धुवाँस) धुडंगा, धुरंगा - वि० दे० (हि. धूर+ उरद की धोई हुई दाल या श्राटा। अंगी ) जिसके शरीर पर वस्त्र न हो, केवल धुक-संज्ञा, पु० (दे०) काला बतून बटने धूलही लिपटी हो । यौ०-नंगा-धडंगा। की सलाई। धुतकार-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. दुतकार ) धुक्कड़-पुक्कड़, धुकुर-पुकुर- संज्ञा, पु० दे० दुतकार, फटकार,अनादर से हटाने का शब्द । (अनु०) भयादि से होने वाली घबराहट, श्रागापीछा, मन की अस्थिरता, स्त्री. धुक धुतकारना - स० कि० दे० (हि० दुतकारना) पुकी (दे०)। दुतकारना, ललकारना । धुकड़ी-संज्ञा, स्त्री० (दे०) तोड़ा, थैली, धुताई - संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० धूर्तता) रुपये रखने की थैली, बसनी। छल, धूर्तता. पाखंड, कपट, धूर्तताई (दे०)। धुकधुकी-संज्ञा, स्त्री० दे० अनु० धुकधुक से) धुधुकार-संज्ञा, स्त्री० दे० (धुधु से अनु०) छाती और पेट के मध्य का गदा, कलेजे की गरज, घोर शब्द, दहाड़। धड़कन, कंप, भय, डर, एक गहना।। धुधुकारी-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि० धुधुकार ) "सुरगन सभय धुकधुकी धरकी"-रामा०। गरज, घोर शब्द, दहाड़ । “बाल धुधुकारी दै धुकना -अ० कि० दे० (हि. भुकना) दैतारी दै दै गारी देत"-कवि० । मुकना, लचना, नवना, गिर या टूट पड़ना, । धुन-(स०) स्त्रा० दे० ( हि० धुनना ) किसा झपटना। " तुलसी जिन्हें धाये धुके धरनी काम में लगे रहने का स्वभाव. प्रवृत्ति, लगन । धर, धौरे धकानि सों मेरु हले हैं"-कवि० । यौ० - धुन का पक्का (प्ररा)-जो कार्य धुकनी-संज्ञा, स्त्री० (हि. धौंकनी) धौंकनी, को पूर्ण किये बिना न छोड़े । मन की इच्छा धूनी। या उमंग, मौज, सोच-विचार ।मुहा० --धुन धुकानां --संज्ञा, स्त्री० दे० ( हि० धमकाना ) बाँधना (लगाना)--रटन लगाना । संज्ञा, गरजन, दहाड़ना, घोर शब्द, गड़गड़ाहट। स्त्री० ( सं० ध्वनि ) ध्वनि, धुनि, गाने का धुकाना*-स० क्रि० दे० (हि. धुकना) ढंग या तर्ज । "धुनकी पूरी है काम की पक्की"। नवाना, झुकाना, लचाना, गिराना, पटकना, धुनकना-स० क्रि० दे० (हि. धुनना) ढकेलना, पछाड़ना । स० कि० दे० (सं० धूम | रुई धुनना। प्रे० रूप-धुनकाना, धुन +करण ) धूनी देना। धुकार-धुकारी-संज्ञा, स्त्री. दे. (धु से धुनको-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० धनुष ) धनुहीं अनु० ) नगाड़ा बजाने का शब्द । " होत धुनने का धन्वाकार यन्त्र । धुकार दुंदुभिन की अरु बजत संख सहनाई" धुनना-क्रि० स० दे० (हि. धुनकी ) रुई | बेहनना, मारना, पीटना, बारम्बार कहना, कवाना। For Private and Personal Use Only Page #970 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org धुनवाना, घुमाना कोई कार्य लगातार करना । " पुनि पुनि कालनेमि शिर धुना" रामा० । धुनवाना, घुनाना - स० क्रि० दे० ( हि० तना का प्रे० रूप) रुई धुनने का कार्य दूसरे से करवाना | धुनि# - संज्ञा, स्त्री० दे० ( सं० ध्वनि ) शब्द, आवाज, गाने का ढङ्ग | धुनियाँ - संज्ञा, पु० दे० (हि० धुनना ) रुई धुनने वाला, बेहना, धुना (दे० ) | धुनिहाव - संज्ञा, पु० (दे०) शरीर या हड्डी की पीड़ा, हड़ फूटन, धुनि लगाना । धुन+ -- संज्ञा, स्त्री० (सं० ध्वनि) नदी, सरिता, " बहु गुन तो मैं हैं धुनी, अति पवित्र तव नीर ।" - दीन० । धुनीनाथ - संज्ञा, पु० यौ० दे०पं० ध्वनीनाथ) समुद्र, सागर । धुपना - - अ० कि० दे० ( हि० धुलना ) धुलाना, धोया जाना । धुपाना - स० क्रि० दे० ( सं० धूप ) धूप दिलाना, धूप के धुएँ से सुवासित करना । धुपेली - संज्ञा, स्त्री० ३० (सं० धूप ) अन्हौरी, गरमी के दिनों में शरीर पर निकले हुये छोटे छोटे दाने । वि० ( दे० ) धूप के रंग की, पीत । धुचला -- संज्ञा, पु० (दे०) लहँगा, घाँघरा । घुमला घुमारा-धुमिला - घुमैला - वि० (सं० धूम + ऐला प्रत्य० ) धुएँ के रंग का, मटमैला, धूमिल, धूमिला । घुमलाई -संज्ञा, स्त्री० दे० ( हि० धूमिल + आई - प्रत्य० ) धुएँ के सी मलिनता । धुरंधर - वि० (सं०) किसी वस्तु की धुरी का धारण करने या बोझा उठाने वाला, प्रधान, श्रेष्ठ, उत्तम । धुर- संज्ञा, पु० (सं० धुर ) रथ, गाड़ी, बग्घी शादि की धुरी जिस में पहिये लगाये जाते हैं, धुरा, धुरी, अक्ष, भार, बोका, आरम्भ, विस्वांसी, ठीक, मुख्य, जैसे- धुर पूर्व । अव्य० (सं० धुर ) सर्वांग ठीक, सीधे, सटीक, ५३ धुरेंडी एकदम या एक बारगी दूर । मुहा०धुरसिर से - बिलकुल शुरु से । वि० दे० (सं० ध्रुव ) दृढ़, स्थिर, अटल | धुरसे घुरतक-श्रादि से अंत तक, इस सिरे से उस सिरे तक । यौ० - धुराधुर सीधे, बराबर, जैसे- वे धुरापुर चले गये । धुरकर - जेठ में दिया गया पेशगी लगान । दे० यौ० धुरवः - लगातार । धुरजटी* -- संज्ञा, पु० दे० (सं० धूर्जटी ) शिवजी, महादेव जी, जिनके शरीर में धूलि जड़ी या लगी है, धूरजी । घुरना - स० क्रि० ( सं० धूर्वण ) मारना, कूटना, पीटना, बजाना, किसी पदार्थ पर कोई चूर्ण छिड़कना, माड़े हुये अन्न को फिर से माड़ना । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir धुरपद - संज्ञा, पु० दे० (सं० ध्रुपद ) एक गाना, ध्रुपद -ध्रुवपद (संगी० ) । धुरवा - संज्ञा, पु० (दे०) मेत्र, बादल । " धुंधुमारे धुरवा चहुँ पासा - स्फु० । धुरव्य - संज्ञा, पु० (दे०) मेघ, बादल । धुरसा - संज्ञा, पु० (हि० धुस्सा ) एक ऊनी " वस्त्र, धुस्ला । धुरा - संज्ञा, पु० दे० (सं० धुर) घुर । (संज्ञा, स्त्री, अल्पा० ) धुरी धुरी, अक्ष । धुरियाना) - स० क्रि० दे० (हि० धूर) किसी वस्तु पर धूल या मिट्टी डालना, किसी बुराई या ऐब को युक्ति से छिपाना । प्र० क्रि० (दे०) किसी पदार्थ का धूलि से ढँक या छिप जाना, बुराई या ऐब का दबाया जाना । धुरिया मलार - संज्ञा, पु० यौ० (दे०) एक राग, मलार (संगी०) । धुरी - संज्ञा, स्त्री० दे० ( सं० धुर हि० धुरा ) , छोटा धुरा । धुरीण, धुरोन (दे० ) -- वि० (सं० ) किसी पदार्थ का धुरा या बोझा धारण करने या सँभालने वाला, मुख्य, श्रेष्ठ, प्रधान, धुरंधर । " धर्म- धुरीण धर्म -गति जानी धुरेंडी धुलेंडो- घुरेहंडी-संज्ञा, स्त्री० दे० --- - रामा० । For Private and Personal Use Only ܙܕ Page #971 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir धुरेटना धूप (हि० धूलि उड़ाना ) चैत बदी प्रतिपदा को | धंध-धधर-धुंधुर-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. मनाया जाने वाला हिन्दुओं का त्योहार, धुध) धुंध, अँधेरा, धुंधला । "तीनि ताप मदनोत्सव, होली, धुरेटी,धरेहटी (प्रांती०)। सीतल करति सघन तरुन की धूध"धुरेटना -स० क्रि० दे० (हि० धुर + एटना- नागरी । प्रत्य० ) धूलि से लपेटना, धूलि लगाना। धू* -- वि० दे० (सं० ध्रुव) अचल, अटल, धुर्य - वि० (सं०) धुरंधर, धुरीण, बोझा उठाने स्थिर । या धारण करने वाला भारवाही । संज्ञा, पु० धूओं-संज्ञा, पु. ( सं० धूम) धूम । (सं०) ऋषभ नामी औषधि, वृषभ, बैल, | धूआँधार-संज्ञा, पु० (दे०) बहुत, धुनाँ । प्रधान, श्रेष्ठ, मुख्य, मुखिया, अगुआ। वि. बे शुमार, अपार, वे सँभाल । " तस्याभवानपरधुर्य पदावलंबी, · रघु०। । धूई --संज्ञा, स्त्री० दे० ( हि० धूनी) धूनी। धुर्रा- संज्ञा, पु० दे० (हि. धूर) कण, अणु, धूर्जटी*:-संज्ञा, पु० दे० (सं० धूर्जटि) शिव परमाणु, भुत्रा । मुहा०-धुरे उड़ाना धूजटी (ग्रा०), धृरजटी (दे०)। (उड़ना)-किसी पदार्थ के बहुत छोटे छोटे | धूत - वि० (सं०) हिलता या काँपता हुमा, भाग कर डालना, छिन्न भिन्न या नष्ट-भ्रष्ट थरथराता हुआ, धमकाया या फटकारा या कर डालना, बहुत पीटना या मारना। डाँटा गया, त्यक्त, छोड़ा हुआ । tw-वि. धुलना-अ० क्रि० ( हि. धोना का अ० रूप ) | दे० ( सं० धूत ) छली, ठग, धूर्त । संज्ञा, धोया या साफ़ किया जाना। स्त्री० धूतता। धुलवाना-स. क्रि० दे० (हि. धुलाना) धूतना*-स० क्रि० दे० (सं० धूत ) ठगना, धुलाना, धोने का कार्य दूसरे से कराना। धोखा देना, छलना। धुलाई--संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. धोना ) धोने धूत पाया-संज्ञा, स्त्री० (सं०) काशी की एक नदी। का भाव या कार्य, धोने की मजदूरी । वि. धूती-संज्ञा, स्त्री० (दे०) एक पक्षी। धुला, धुली। यौ०-धुला-धुलाया। धूधू-संज्ञा, पु० दे० (अनु०) अग्नि के जोर धुलाना-स० क्रि० दे० (सं० धवल ) धोने से जलने या दहकने का शब्द । का कार्य दूसरे से कराना, धुलवाना । धूनना* -- स० क्रि० दे० (हि. धूनी) धूनी धुव* --संज्ञा, पु० दे० (सं० ध्रुव) ध्रुवतारा, देना । स० कि० (दे०) धुनना। वि० दे० अटल, स्थिर, दृढ़, ध्रव । धूना-संज्ञा, पु० दे० (हि. धूनी ) एक पेड़, धुवाँ–संज्ञा, पु० दे० (हि. धुआँ) धुआँ । अ० आग में जलाने का एक सुगंधित पदार्थ क्रि० (दे०) धुवांना-धुएं से काला होना। कोलतार (दे०)। धुवाँस-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि० धूर+माष | धूनी-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि० ) धूप, धुई। वा० धूमसी) धुआँस (दे०) उरद का पाटा। मुहा०-धूनी देना-सुगंधित धुआँ उठाना धुवाना-स० क्रि० दे० (हि० धुलाना ) या लगाना। साधुओं के तापने की अँगीठी। धुलाना, धोवाना। मुहा०-धूनी रमाना-साधुनों सा आग धुस्स-संज्ञा, पु० दे० (सं० ध्वंस) गट्टी आदि सुलगा कर बैठना । धूनी जगाना या का ऊँचा ढेर या टीला, बाँध । लगाना-अँगीठी जलाना, विरक्त होना । धुस्सा -संज्ञा, पु० दे० (सं० द्विदश ) ऊनी "लाए ध्यान धूनी त्यौ उमंग मैं उमैठो वस्त्र ( ओढ़ने का)। है"- रसाल। धुंध-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. धुंध ) धुंध, धूप-संज्ञा, पु० (सं०) सुगंधियुक्त धुआँ, कई अँधेरा। । पदार्थों से बना हवन का पदार्थ, सूर्य का For Private and Personal Use Only Page #972 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir धूपघड़ी धूटि प्रकाश और ताप, घाम । मुहा०-धूप धूम-धड़का (धड़ाका)-संज्ञा, पु. दे. खाना ( लेना)--धूप में बैठना या खड़ा यौ० (हि. धूमधाम) धूम-धाम, ठाट-बाट, होना। धूप चढ़ना या निकलना-दिन भारी तैयारी, समारोह, प्रायोजन । चढ़ना । धूप दिखाना-धूप में रखना, धूमधाम--संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. धूम+धामधूप लगने देना । धूप में बाल या चड़ा अनु०) गट-बाट, समारोह, भारी तैयारी। सफ़ेद करना-अनुभव प्राप्त किये बिना धूमपान--संज्ञा, पु० यौ० (सं०) गाँजा, तमाकू बहुत काल व्यर्थ बिता देना।। आदि का धुआँ लेना, किसी औषधि का धूपघड़ी-- संज्ञा, स्त्री० यौ० दे० (हि. धूप -- धुआँ लेना, धूम्रपान । घड़ी ) धूप-द्वारा समय-सूचक यंत्र। धूमपोत संज्ञा, पु. यौ० (सं०) अग्नि-बोट, धूपछाँह-संज्ञा, स्त्री. यौ० दे० (हि० धूप - स्टीमर, वाष्प-शक्ति-संचालित नौका । छाँह ) एक ही जगह बारी बारी से दो रंग धूमर*- वि० दे० (सं० धूमल ) मलीन, दिखलाई देने वाला लाल-हरा कपड़ा। मलिन, धुएँ के रंग का। धूपदान- संज्ञा, पु० दे० यौ० (सं० धूप- धूमल, धूमला-धूमिला-वि० दे०(सं० धूमल) प्राधान ) धूप जलाने की डिबिया या पात्र, मलीन, मैला, मटमैला, धुएँ के रंग का । अगियारी । सी. धृपदानी। धूमावती--संज्ञा, स्त्री० (सं०) एक देवी। धूपना*-अ० क्रि० दे० ( सं० धूपन ) धूप धूमिल, धूमिला*- वि०, दे० (सं० धूमल) देना, सुगंधित पदार्थ जलाना । क्रि० वि० दे० मैला, धुएँ के रंग का। (दे०)सुगंधित वस्तु जला कर धुआँ पहुँचाना, | धून-वि० (सं०) धुएँ के रंग का । संज्ञा, पु. सुगंधित धुएँ में बसाना या सुगंधित करना, (सं०) लाल-काला मिला हुआ रंग, शिलास. क्रि० दे० ( स० धूपन == श्रांत होना) जीत (औष०) एक दैत्य, शिव, भेंड़ा। दौड़ना, हैरान होना, जैसे-दौड़ना-धूपना ।। धूम्रवर्ण-वि० यौ० (सं०) धुएँ के रंग का । धूपबत्ती--- संज्ञा, स्त्री० यौ० दे० ( हि. धूप धूर-धूरि*1-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. धूल ) + बत्ती ) सुगंधित पदार्थ लगी सींक या धूलि, धूल । " धूसर धूर भरे तनु पाए" --रामा० । बत्ती जिसके जलाने से सुगंधित धुआँ धूरजटी 48 - संज्ञा, पु० दे० । सं० धूर्जटि) फैलता है, अगरबत्ती। शिव जी, धूर्नटी। धूम-संज्ञा, पु० (सं०) धुश्राँ, अनपच डकार, धरत*--वि० दे० (सं० धूत ) धूर्त, ठग, धूम केतु, उल्कापात । संज्ञा, स्त्री० (धूम = | छली, कपटी, चालाक । धुआँ ) जन-समूह के शोर-गुल मचने का धूरधान --- संज्ञा, पु० यौ० दे० (हि. धूर+ ढंग, रेल-पेल, हलचल, उपद्रव, धाँदोलन, धान) धूलि की राशि, गर्द का ढेर या टीला, उत्पात, ऊधम । मुहा०-धूम डालना । विनाश, ध्वंस, बंदूक । स्त्री०-धूरधानी । ( मचाना)-उपद्रव या ऊधम करना । धूरा- संज्ञा, पु० दे० (हि. धूर) धूलि, धूल, ठाट-बाट, कोलाहल, भारी आयोजन, चूर्ण, बुकनी। मुहा०--धूरा करना या प्रसिद्धि, ख्याति । देना-शरीर में कोई रोग होने पर सोंठ धूमकधैया, धम्मकधैया-संज्ञा, स्त्री० दे० श्रादि का चूर्ण मलना। ( हि० धूम ) उछल-कूद, उत्पात. ऊधम, धूरि*- संज्ञा, स्त्री० दे० ( सं० धूलि ) धूल, हल्ला-गुल्ला। धूलि, धृली। धूमकेतु-संज्ञा, पु० (सं०) आग, अग्नि, केतु- धूर्जटि-संज्ञा, पु० (सं०) शिव, धूर्जटी। ग्रह. पुच्छलतारा, शिवजी। ! "गुन धूर्जटी वन पंचवटी"--राम। भा० श. को०-२१ For Private and Personal Use Only Page #973 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ਬਾ धूर्त - वि० (सं०) छली, ठग, चालबाज़ । संज्ञा, पु० (सं०) काव्य में शठनायक का एक भेद, विट् लवण, लोहे का मैल, धतूरा। धूर्तता - संज्ञा, स्रो० (सं०) ठगी, चालाकी, धूर्तताई (दे० ) । धूल - संज्ञा, स्रो० दे० (सं० धूलि ) मिट्टी, रेत यादि का बारीक चूर्ण, गर्द, रज, धूलि । मुहा० - कहीं धूल उड़ना - बर्बादी होना, तबाही थाना, सन्नाटा या उजाड़ होना । किसी की धूल उड़ना ( उड़ाना) - भूलों और बुराइयों का सविस्तर वर्णन होना ( करना) निंदा या उपहास होना ( करना ) | धूल की रस्सी बटना - अनहोनी बात के पीछे पड़ना, धूर्तता से कार्य सिद्ध करना । धूल चाटना - अति विनम्र विनती करना । (आँखों में ) धून डालना ( भोंकना ) देखते देखते धोखा देना, चुग लेना, अंधेर करना । किसी बात पर धूल डालना - दबा देना, फैलने न देना, ध्यान न देना । दर दर की धूल फाँकना ( छानना ) -मारा मारा फिरना । धूल में मिलना (मिलाना) - नष्ट या चौपट होना ( करना ) । पैर ( जूतों ) की धूल - थति तुच्छ वस्तु, नाचीज़ | सिर पर धूल डालना - सिर धुनना, पछिताना, धूल सी तुच्छ बस्तु । मुहा० - धूल समझना - अति तुच्छ जानना, किसी गिनती में न लाना । धूला - संज्ञा, पु० (दे० ) भाग, टुकड़ा । धूलि - संज्ञा, खो० (सं०) गर्द, धूली, धूल । यौ० धूली-लव | "धुली - लवः शैलताम्" । धूवाँ - संज्ञा, पु० दे० (सं० धूम ) धुनाँ । धूसना - स० क्रि० (दे० ) अनादर करना, कोसना, गाली देना । ६६२ धूसर, धूसरा, धूसला - वि० दे० (सं० धूसर ) मटमैला, खाकी, मटियारा, कुछ कुछ पांडु वर्ण । " धूसर धूरि भरे तन श्राये" - रामा० । धूल भरा ( लगा ) | यौ० - धूल धूसर - धूल से भरा । " धूल धूसर भी करी पाता धेनु सदा सम्मान है" - रा० च० उ० । वैश्यों एक जाति, दूसर, भार्गव । यौ० धम-धूसर --मोटा-ताजा । लो०- ऋण की फिकिर न धन की चोट, ई धमधूसर काहे मोट" । धूसरित - वि० (सं०) धूल से भरा । धूहा - संज्ञा, पु० (दे०) धोखा, एक खेल Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir का मध्य स्थान | धृक-धृगां- - अव्य० दे० ( सं० धिक् धिग् ) अनादर या अपमान सूचक शब्द, धिक । धृत - वि० सं०) धरा या धारण किया हुआ, स्थिर किया हुआ । "धृत सायक- चाप निषंग वरम्" - रामा० । धृतराष्ट्र - संज्ञा, पु० (सं०) एक जन्मांध राजा जो दुर्योधन के पिता और युधिष्ठिर के बड़े चाचा थे । अच्छे राजा से शासित देश, हद राज्य का राजा । वि० - अंधा ( व्यंग० ) । धृति - संज्ञा, स्त्री० (सं०) धारण, ठहराव, धैर्य, धर्म की स्त्री, एक छंद (पिं० ) । धृतिः क्षमा दयास्तेय शौचमिन्द्रियनिग्रहः " मनु० । धृतिमान- संज्ञा, पु० (सं०) स्थिर चित्त, taraja, धीर-गंभीर । त्रो० धृतिमती । धृष्ट - वि० (सं० ) निर्लज्ज, ढीठ, उद्धत, एक नायक विशेष | "करे ऐब निरसंक जो, st a far के मान | लाज धेरै मन में नहीं, नायक धृष्ट निदान " -- रस० । स्रो० धृश । धृष्टकेतु-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) शिशु पाल का पुत्र जो पांडवों की ओर से महाभारत में लड़ा था । न धृष्णु - वि० (सं०) प्रगल्भ, निर्लज्ज | धृष्टता - संज्ञा, स्रो० (सं०) ढिठाई । धृष्टद्युम्न - संज्ञा, पु० (सं०) पंजाब देश के राजा द्रुपद का पुत्र । धृष्य - वि० (सं०) घिसने योग्य, घर्षणीय । धंगामुटि, धींगामस्ती -- पंज्ञा, स्त्री० (दे० ) मुक्कामुक्की, घुस्साघुस्सी, घुस्समघुस्सा । क्रि० वि० - जबरदस्ती | धेन- संज्ञा, त्रो० दे० ( सं० धेनु ) गाय | धेनु – संज्ञा, त्रो० (सं०) हाल की न्यायी For Private and Personal Use Only Page #974 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir धोना धेनुक गाय । "लात खाय पुचकारिये, होय दुधारू धोका, धोखा-संज्ञा, पु० दे० (सं० धूकता) धेनु"- वृन्द। छल, भुलावा, चालाकी, धूर्तता, भूल, धेनुक-संज्ञा, पु० (सं०) एक दैत्य जिसे बल- | भ्रान्ति, ध्वाखा (ग्रा०)। यौ० धोखाधड़ी। देव जी ने मारा था। यौ० धेनुकासुर । । सुहा०--धोखा खाना-ठगा जाना, भ्रम धेनुमती-संज्ञा, स्त्री० (सं०) गोमती नदी।। में पड़ना। धोखा देना- छलना, भ्रम में धेय-वि० (सं०) धार्य, धारण करने के डालना । मुहा०--धोखे की टट्टी-शिकायोग्य, पालन-पोषण करने योग्य । “तुम | रियों का पर्दा, भ्रम में डालने वाला दिखाऊ, धेय गेय अजेय हो"-मैं० श० गु०। । सारहीन । धोखा खड़ा करना या धेर-संज्ञा, पु० (दे०) अनार्य या नीच रजना-धोखे या भ्रम में डालने के लिये जाति। श्राडंबर या झूठी नकल रचना | अज्ञानता, धेलचा, धेला-संज्ञा, पु० दे० (हि. मुर्खता। धोखे में या धोखे से-भूल अधेला ) आधा पैसा । स्त्री० धेलही पु. से, ग़ल्ती से । हानि, जोखों। मुहा०अधेला ( ग्रा०)। धोखा उठाना-भ्रम में पड़ कर हानि घेली-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. अधेला ) या कष्ट उठाना । संशय । मुहा०-धोखा अठन्नी । अधेली (ग्रा०) यौ० धेली-रुपया। पड़ना-सोच-समझ से उलटा होना । धैताल--वि० दे० ( अनु० धै+ ताल हि० ) भूल, चूक, प्रमाद। मुहा० - धोखा लगना चंचल, उद्धत, चपल ।। (लगाना)--कमी, त्रुटि या भूल होना धैना-संज्ञा, स्त्री० दे० ( हि० धरना-धंधा) (करना)। खेत में दिखावटी पुतला, खटखटा, स्वभाव, प्रकृति, नटखटी, काम-धंधा। धोखार (ग्रा.), बेसन का एक पकवान । "कह गिरधर कविराय यही फूहर के धैना" धोखेबाज़---वि. (हिं. धाखा । फा०-बाज ) -गिर० । धूर्त, छली, ठग, कपटी। संज्ञा, स्त्री. धैर्य-संज्ञा, पु० (सं०) धीरज, सब, कुसमय धोखेबाज़ी। में भी मन की स्थिरता, अनातुरता, अनुद्वेग। घोटा-संज्ञा,पु० दे० (हि. ढोटा) लड़का, पुत्र । धैवत-संज्ञा, पु० (सं०) एक स्वर (संगो०)। " देखत छोट खोट नृप-धोटा"-रामा० । धोंकना--स० क्रि० दे० (हिं०) श्राग जलाने | धोती-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० अधोवस्त्र ) एक के लिये धौंकनी से हवा देना। अ० क्रि० वस्त्र । " धोती फटी सी लटी दुपटी"--- (दे०) काँपना । "सब सिद्धि कॅपी सुरनायक | नरो। मुहा०-धोती ढीली करना धोंके"--नरो। (होना)- डर जाना, भयभीत होना, डर धोंधा-संज्ञा, पु० दे० (सं० दुढि = गणेश ) कर भागना । संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० धौत्ती ) लोंदा, भद्दा या बेडौल पिंड। मुहा०- योग की एक क्रिया, धौति-क्रिया। मिट्टी का धोंधा- मूर्ख, अनारी, सुस्त, धोना-स० कि० दे० (सं० धावन ) पखारन, निकम्मा। साफ या शुद्ध करना । मुहा०-किसी धोई-संज्ञा, स्त्री० (हि. धोना ) छिलका वस्तु से हाथ धोना-गँवा या खो देना, निकाली मूंग या उरद की दाल | *संज्ञा, पु. हाथ धो कर पीछे पड़ना-सब छोड़ ( हि० धबई ) राजगीर, थवई, (प्रान्ती०)।। कर लग जाना, मिटाना, नष्ट या दूर करना, क्रि० वि० स्त्री० (दे० क्रि० धोना ) धुली हुई। हटाना। नुहा...-धो बहाना न रहने धोकड़-वि० (दे०) मुस्टंड, हृष्टपुष्ट, हट्टा- देना। धो जाना-इज्जत बिगड़ना, कट्टा, बली, धनी, धाकड़ (ग्रा.)। प्रतिष्ठा था मर्यादा का नष्ट होना। For Private and Personal Use Only Page #975 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir धोप धौंसना धोपाळ-संज्ञा, स्त्री० (दे०) खड्ग, तलवार। देने वाला शब्द । "प्रति किधौं रुधिर प्रताप कि० वि० (दे०) झूठ, मिथ्या, धुप, धुप्प पावक प्रबल सुर पुर को चली"-समा० । (दे०) धप्पल । यौ० किधौं, कैधौं (व.)। धोब-संज्ञा, पु० दे० (हि. धोवना) धोये धौंक-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. धौकना) धौकनी जाने का काम, धुलावट । की भाग में लगने वाली वायु का झोंका, धोबिन--संज्ञा, स्त्री० (हि. धाबी) धोबी की लु, ताप, गरमी की लपट। स्त्री,पानी की एक चिड़िया, धाबइनि (ग्रा०)। | धौंकना-स० कि० दे० (सं० धम = धोकना) धोबी-संज्ञा, पु० (हि. धोवना) रजक, कपड़े | धौकनी को दबा कर आग जलाने को वायु धोने वाला। स्त्री. धोबिन । मुहा०- का झोंका पहुँचाना, भार डालना, सहना, धोबी का कुत्ता ( न घर कान घाट व्यायाम करना। का)- व्यर्थ इधर-उधर घूमने वाला, धौंकनी-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. धौंकना) निकम्मा । “धोबी कैसो कूकुर न घर ! भाथी, (खाल श्रादि की) जिससे वायु देकर को न घाट को"-तु० । धोबी का गीत | श्राग जलाई जाती है। - सिर-पैर की, बड़ी लम्बी बात। धौंका-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. धाकना) धोम-संज्ञा, पु० दे० (सं० धूम्र) धुओं, धूम। लू, लपट, धौकने वाला। धोर--संज्ञा, पु० दे० (सं० धन = किनारा) | धौकिया--संज्ञा, पु. ( हि० धौंकना) धौंकने निकट, पास, किनारा । क्रि० वि० (दे०) धोरे | या भाथी चलाने वाला, टूटे-फूटे बरतनों -निकट, पास। की मरम्मत करने वाला। धोरी-संज्ञा, पु. दे. ( सं० धौरेव ) वोझा, धौंको-संज्ञा, स्त्री० दे० ( हि० धौंकना ) भार या धुरा का उठाने या धारण करने धौंकनी, भाथी। वाला। वि० प्रधान, मुखिया, श्रेष्ठ पुरुष, धौंकैया-संज्ञा, पु० (हि०धोंकना) धौंकने वाला। सरदार अगुवा (ग्रा.)। धौंज-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. धौजना) दौड़धोवती-संज्ञा, स्त्री० ( सं० अधेोबस्त्र) धोती। धूप, घबराहट, चित्त की उद्विग्नता। म० कि० द० (हि. धेावना )। "टटकी धोई। धोजन--संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. धौजना) धोवती, चटकीली मुख जोति " -- वि०।। दौडधूप, घबराहट, चित्त की उद्विग्नता। धोवन-घावन, धोउना (ग्रा०)--- संज्ञा, पु. धौंजना --स० कि० दे० (सं० ध्वंजन) दौड़ना दे० (हि. धोना) धोने का भाव, धोने की धूपना, कोशिश करना । स० क्रि० (दे०) क्रिया, किसी पदार्थ के धोने से बचा पानी। पैरों से रौंदना। धोवना -स० क्रि० दे० (हि. धोना ) धौंताल-वि० दे० (हि. धुन+ताल ) जिसे धोना, पखारना, साफ करना। किसी बात की धुनि लग जाय, चुस्त, धोषा* - संज्ञा, पु० दे० (हि. धाना) धोवन, फुर्तीला, साहसी, दृढ़, हट्टा-कट्टा, हेकड़ पानी, अर्क। (प्रान्ती०), चतुर, धनी, दुर्जन । धोवाना -स० कि० दे० (हि. धोना का | धौंताली--संज्ञा, स्त्री० (हि. धौंताल) धनप्रे० रूप) धुलाना, धुलवाना। अ० कि० | बल, दुर्जन, सूमीपना। (दे०) धुलना, धोया जाना। धौंस--संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० दंश ) धुड़की, धौं *-अध्य० (हि० देव, दहुँ ) न जाने, धमकी डाँट-डपट, धाक, अधिकार, आतंक, ज्ञात या मलूम नहीं, राम जाने, अथवा, झाँसा-पट्टी, धोखा, भुलावा, छल । या तो, भला, जोकि, विधि वाक्यों में जोर | धौंसना-स० कि० दे० (सं० ध्वसन) दबाना, For Private and Personal Use Only Page #976 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ध्यान धौंसपट्टी दमन करना, घुड़की या धमकी देना, डराना, पीटना। धौलमारना (देना, लगाना) मारना-पीटना। -स. क्रि० (हि.) थप्पड़ मारना। धौंसपट्टी-संज्ञा, स्त्री० यौ० दे० (हि. धौस धौल लगना-स. क्रि० दे० यौ० (हि.) +पट्टी) झाँसा-पट्टी, दमदिलासा, भुलावा । हानि या घटी सहना था उठाना, मनोरथधौंसा-संज्ञा, पु० ( धौंसना ) नगाड़ा, डंका भंग या हताश होना। यौ-धौलधक्का सामर्थ्य । “ प्रगट युद्ध के धौंसा बाजे' (धप्पा) मार-पीट, पाघात, चपेट ।। - छत्र। धौलधप्पड़- संज्ञा, पु० दे० यौ० (हि.) धौंमिया -संज्ञा, पु० दे० (हि० धौंसना) धौंस धक्का-मुक्का, मार-पीट, उपद्रव, उत्पात । से कार्य सिद्ध करने वाला, झाँसा-पट्टी देने | धौलहर*-संज्ञा, पु० दे० (हि. धाराहर) या नगारा बजाने वाला। धौ-धव-संज्ञा, पु० दे० (सं० ध्व) एक जंगली | धौला-- वि० दे० (सं० धवल ) श्वेत, पेड़, स्वामी, पति, मालिक । जैसे-सधवा ।। उजला, सफेद । स्त्री० धौली।। धौत- वि० (सं०) धोया हुआ. साफ़, स्नान- धौलाई - संज्ञा, स्त्री० दे० (हि० धौल + युक्त । संज्ञा, पु० (दे०) रूपा, चाँदी। विलो. आई - प्रत्य० ) उज्वलता, सफेदी । कलधौत-सोना। धौलागिरि- संज्ञा, पु० यौ० दे० (हि.) धौति-संज्ञा, स्त्री० (सं०) शुद्ध, साफ़, शरीर- धवलगिरि, हिमालय की एक चोटी। शुद्धि को योग-किया, प्राँतें साफ़ करने की ध्यात-वि० (सं०) चिंतित, विचारित, ध्यान विधि, धौती (दे०)। किया हुआ। धौमक- संज्ञा, पु. (सं०) एक देश । ध्यातव्य - वि० (सं०) ध्यान करने या देने धौम्य-- संज्ञा, पु० (सं०) पांडवों के पुरोहित, योग्य, अति उपयोगी या प्रिय ।। एक तारा । ध्याता वि० (सं० ध्यातृ) ध्यान या विचार धौर--संज्ञा, पु. (दे०) जंगली कबूतर।। करने वाला । स्त्री० ध्यात्री । धौराहरw-संज्ञा, पु० दे० ( हि० धौराहर) | ध्यान-संज्ञा, पु. (सं०) सोच-विचार, चिंता, धरहरा, मीनार, बुर्ज, धौरहरा। अनुसन्धान, ज्ञान, लौ, मानसिक, प्रत्यक्ष, धौरा-वि० दे० ( सं० धवल) उज्वल, श्वेत. योग का एक अंग । "कास कास देखे धौ का वृक्ष, एक पंडुक । स्त्री० धोरी। होत जारत प्रकाश बैठि तारापति तारापति धौराहर- संज्ञा, पु० दे० (हि० धुर = ऊपर ध्यान न धरत हैं"। मुहा०-ध्यान में +घर) ऊँची अटारी, धरहरा, बुर्ज, मीनार । डूबना लीन या मन होना-सब भुला धौरिया--संज्ञा, पु० दे० (सं० धौरेय) बैल। कर एक ही बात में मन लगा देना। ध्यान धौरी-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. धौरा ) कपिला करना-मन में लाना, विचारना, स्मरण या सफेद रंग की गाय, एक पक्षी। करना, भजना। किसी के ध्यान में लगना धौरे--कि० वि० दे० (हि. धोरे ) धीरे, -किसी का ख्याल या विचार मन में ला समीप । कर मग्न होना। मनन, चिंतन, भावना, धौल-संज्ञा, स्त्री० दे० (अनु०) थप्पड़, धप्पा, विचार। मुहा०-ध्यान धाना-विचार हानि, घटी। वि० (सं० धवल ) उजला, | प्रगट होना, स्मरण पाना। ध्यान जमना श्वेत । मुहा० --धौल-धूर्त-गहरा, धूर्त। । -विचार (मन) ठहर जाना । ध्यान बँधना धरहरा । संज्ञा, स्त्री० (दे०) धौलता। -सदा विचार, बना रहना, मन लगना । घोल जड़ना-२० क्रि० (हि.) मुक्का मारना, । ध्यान रखना-विचार या स्मरण बनाये For Private and Personal Use Only Page #977 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir H ध्यानना ध्वंसक रखना, न भूलना। ध्यान में आना-- | ध्यान-योग्य-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) विचारने अनुमान या कल्पना में भी न पा सकना। के योग्य, समाधि-योग, ध्येय ।। ध्यान लगना (लगाना) बराबर लगातार | ध्याना*- स० कि० दे० (सं० ध्यान ) स्मरण ख्याल या विचार बना रहना ( रखना)। या सुमिरन करना। मन, चित्त। मुहा०-ध्यान में न लाना ध्यानी--वि० ( सं० ध्यानिन ) स्मरण करने ----चिंता, परवाह या बिचार न करना। चेत, वाला, समाधि करने वाला, सुधि में मग्न ख़याल । मुहा०- ध्यान जमना-मन होने वाला, ध्यान-युक्त। या चित्त का एकाग्र होना। ध्यान जाना- ध्यानीय---वि० (सं०) स्मरणीय, ध्यान करने मन का किसी ओर आकृष्ट हो जाना। के योग्य । ध्यान दिलाना-चेताना, सुझाना, जताना, | ध्यापक-संज्ञा, पु० (सं०) चिंतक, विचारक, ख्याल या स्मरण दिलाना । ध्यान देना -- | ध्यान करने वाला, ध्याता। सोचना, विचारना, गौर करना, मन लगानाः ध्यावना-स० क्रि० (दे०) ध्यान करना या ध्यान पर चढ़ना, धंसना, बसना. पैठना, लगाना, भजन करना । "इन्द्र रहैं ध्यावत बैठना-मन में बस जाना, दिल में घर मनावत मुनिन्द्र रहैं " -- रत्ना। कर लेना, जी से न टलना। ध्यान बँटना ध्येय-वि० सं०) ध्यान या स्मरण करने -- चित्त का एकाग्र या स्थिर न रहना, के योग्य, जिसका ध्यान किया जावे। " मैं विचार का इधर-उधर होना । ध्यान बँधना ध्यानीतू ध्येय है, तू स्वामी मैं दास"-मन्ना। (बाँधना)-किसी ओर चित्त का एकाग्र या ध्रपद--संज्ञा, पु० दे० (सं० ध्रुवपद) एक प्रकार स्थिर होना ( करना )। ध्यान लगना का गीत या गाना, धरपद (दे०)। (लगाना)-चित्त एकाग्र होना (करना) । ध्रव-वि० सं०) अचल, स्थिर, नित्य, निश्चित, पमझ, बुद्धि, ज्ञान, धारणा, स्मरण । मुहा० । पक्का. ठीक, दृढ़ । संज्ञा, पु० श्राकाश, कील, -ध्यान पाना-याद या स्मरण होना। पहाड़, खंभा, बरगद ध्रुपद, विष्णु, ध्रुवध्यान में आना-अनुमान कर सकना. तारा, राजा उत्तानपाद के भगवद्भक्त पुत्र । समझना। ध्यान दिलाना (कराना) -- | ध्रुवता-- संज्ञा, स्त्री० : सं०) अटलता, दृढ़ता, याद या स्मरण कराना। ध्यान करना- | स्थिरता, निश्चय ।। स्मरण करना, सोचना, मन में देखना। ध्रवतारा-संज्ञा, पु० यौ० (सं० ध्रुव + तारक) ध्यान पर चढ़ना-- याद या स्मरण होना। वह तारा जो पृथ्वी की अक्ष के सिरे की या पाना। ध्यान रखना - स्मरण या | सीध में उत्तर की ओर दिखलाई पड़ता है। यादरखना। ध्यान से उतरना----भूल जाना. ध्रव-दर्शक--संज्ञा, पु० यौ० (सं०) कुतुबनुमा, भुला देना । ध्यान छूटना (टूटना उख- कंपास (अं० दिग्दर्शक यंत्र । इना, उचटना ) चित्त या मन का इधर- ध्रध-दर्शन- संज्ञा, पु० यौ० (सं०) विवाह की उधर हो जाना । ध्यान धरना-परमेश्वर एक रीति जिसमें वर-कन्या को ध्रुव दिखकी याद में चित्त एकाग्र करना। लाया जाता है। ध्यानना ----स० क्रि० दे० (सं० ध्यान) ध्यान ध्रुवलोक-संज्ञा, पु. यौ० (सं०) ध्रुव का या विचार करना। स्थान । ध्यान-योग - संज्ञा, पु. यौ० (सं०) वह योग ध्वंस-संज्ञा, पु. (सं०) नाश, विनाश ।। जिसमें सब कर्मों में केवल ध्यान ही प्रधान ध्वंसक-वि. ( सं० ) नाश या नष्ट करने या मुख्य अंग माना जावे। । वाला। For Private and Personal Use Only Page #978 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ध्वंसत घंसत-संज्ञा, पु० ( सं० ) नाश करने का | नाद, काव्य का एक अलंकार, “ आशय, कार्या, नाश होने का भाव, विनाश, क्षय। मतलब, गूदाशय । " ध्वनि प्रवरेव कवित सित, ध्वंसनीय ध्वस्त । बहुजाती"-रामा०। ध्वंसी--- वि० सं० ध्वंसिन् ) विनाशक, नष्ट- ध्वनित-वि० ( सं०) शब्दित, व्यंजित, भ्रष्ट या नाश करने वाला । स्त्री० ध्वंसिनी। वादित, गूढाशय का होना । ध्वज-पंज्ञा, पु. ( सं०) पताका, झंडा, वन्य-संज्ञा, पु० (सं०) व्यंग्यार्थ । निशान । वन्यात्मक-- वि० यौ० (सं०) ध्वनिमय, ध्वध्वजभंग-संक्षा, पु० यौ० (सं०) नपुंसकता | निस्वरूप, व्यंग-प्रधान ( काव्य० )। का एक भेद। 'चन्यार्थ--संज्ञा, पु. यौ० ( सं० ध्वयार्थ ) ध्वजा-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० ध्वज ) झंडा. ध्वनि या व्यंजना से प्रगट अर्थ । पताका, निशान, एक छंद ( पि.)। ध्वस्त-वि० ( सं० ) गिरा-पड़ा, व्युत, टूटाध्वजिनी--संज्ञा, स्त्री० (सं०) सेना, फौज। फूटा, भग्न, नष्ट-भ्रष्ट, पराजित । श्वती-वि० (सं. ध्वजिन्) पताका या झंडावांत संज्ञा, पु० (सं० ) अँधेरा, अंधकार । वाला, निशान या झंडेदार, स्त्री० धजिनी। “ध्वान्तापहं तापहम्"---रामा० । ध्वनि-संज्ञा, स्त्री० (सं०) शब्द, धुनि, (दे०) वांतवर · संज्ञा, पु० (सं०) राक्षस, निशाचर। न--हिंदी-संस्कृत की वर्णमाला के तवर्ग का नंगा-बुच्चा-नंगा-चा-वि० दे० यौ० (हि. पाँचवा अक्षर या वर्ण, इसका उच्चारण : नंगा+बूचा - खाली) महा दरिद्र, या कंगाल, स्थान नासिका है। जिसके पास कुछ भी न हो, निपट नङ्गा । न -संज्ञा, पु. ( सं० ) उपमा, सोना, रन । नंगालुच्चा--वि० दे० यौ० (हि० नंगा-+ बुद्ध, बंध। (भव्य द०) नहीं, मत. निषेध लुचा) दुष्ट पुरुष, बदमाश, नीच प्रकृति का । वाचक शब्द। नग---संज्ञा, पु० (हि० नंगा) नंगापन, नग्नता नंगियाना - स० क्रि० ( हि० नंगा+इयानाछिपा या गुप्त अंग। यो नंगनाव- प्रत्य० ) नंगा करना, सब छीन लेना, शरीर पर निर्लज्जता का काम ! वनादि कुछ भी न रहने देना, धोती या नंग-धड़ग--वि० यौ० दे० ( हि० नंगा+ पैजामा छीन लेना, लँगोट या लंगोटी उतरा धडंग धड़ --अंग) वस्त्र रहित, दिगंवर, निरा लेना, निर्लज्जता या नीचता या असभ्यता या बिलकुल नंगा। नंगाधडंगा (दे०)। करना। नंगमुनगा --- वि० यौ० (हि० नंगा+नंगा) नंगा-संज्ञा, स्त्री० (हि० नंगा ) विवस्त्रा स्त्री नंगधडंग, विवस्त्र, निरा नंगा। लो०"नगमुनग चघाल सो'--"खूब पटती हैं या दिगंवरा स्त्री, वस्त्र-हीना, निर्लज्जा, दुष्टा। जो मिल जाते हैं दीवाने दो"। नंगेसिर-वि० यौ० (हि.) सिर खोले, नंगा-वि० दे० (सं० नग्न) वस्त्रहीन, दिगंवर। विवस्त्र, सिर । मुहा०-नंगे नाचनायौ०-अलिफ़ नंगा या नंगा मादरज़ाद । निर्लज्जता का काम करना । यौ०नंगेपेर । -बिलकुल नंगा, नंग-धड़ग, निर्लज्ज, पांजी, नंद-संज्ञा, पु. (सं०) हर्ष, प्रसन्नता, आनंद, लुच्चा, खुला । संज्ञा, स्त्री० (दे०) नंगई। परमेश्वर, एक निधि, पुत्र, लड़का, श्रीकृष्ण नंगा-झोली (झोरी)- संज्ञा दे० यौ० (हि० के पालक, एक गोप, बुद्ध के सौतेले भाई नंगा-+झोरना) कपड़ों की जाँच यातलाशी। मगध का एक राजवंश (इति०)। For Private and Personal Use Only Page #979 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir नंदे नंदक नंदक-संज्ञा, पु० (सं० ) श्री कृष्ण जी की नंदलाल-संज्ञा, पु० यौ० (सं० नंद+ हि० तलवार । "प्रत्यर्थमुद्देज यता परेषां नानापि लाल = पुत्र ) नंद के पुत्र श्रीकृष्ण जी । तस्यैव स नंदकोऽभूत् "--माय० । वि० नँदवा--संज्ञा, पु० (दे०) मिट्टी का एक पात्र। आनंददायक, कुल या वंश का पालक, नंदा-संज्ञा, स्त्री० (सं०) दुर्गा, गौरी, देवी, संतोष-प्रद। एक तरह की कामधेनु, बालग्रह, संपति, नंदकिशोर--संज्ञा, पु० यौ० (सं०) श्रीकृष्ण | ननँद, प्रसन्नता । वि० (सं०) आनंद देने जी। "बिना भक्ति में नहीं तुलसी वाली, शुभदा। नंदकिशोर"। नंदि-संज्ञा, पु० (सं०) प्रानन्द, श्रानन्दमय. नंदकी-संज्ञा, स्त्री० सं०) विष्णु भगवान । परमेश्वर शिव का बैल नंदी नोंदिया (दे०)। नंदकुमार-संज्ञा, पु. 2. (सं०) श्री कृष्ण यौ० नंदीश्वर ।। एक बंगाली ब्राह्मण, जो लार्ड क्लाइब के नंदिकेश्वर-संज्ञा पु० यौ० ( सं० ) शिव जी मंशी थे, जिन्हें लार्ड वारिनहेस्टिंगज़ ने फाँसी का बैल, नंदी, एक पुराण । दिला दी थी ( इति.)। नंदिघोष--संज्ञा, पु० यौ० (सं०) अर्जुन का नंदगाँव-संज्ञा, पु० यौ० (सं० नंदग्राम ) | स्थ, वंदिजनों की घोषणा । वृन्दावन के पास एक गाँव है जहाँ नंद जी। नंदित-- वि० (सं०) सुखी, प्रसन्न, आनंदित, रहते थे। नंदग्राम---संज्ञा, पु० यौ० (सं०) नंदगाँव, | 8- वि० (हि. नादना ) बाजता हुआ। नंदिग्राम जो अयोध्या के पास है जहाँ भरत नंदिन* --संज्ञा. स्रो० (सं० नंद =बेटा) बेटी। जी ने तप किया था। नंदिनो-संज्ञा, स्त्री० (सं०) लड़की, बेटी, रेणुक नामक औषधि, उमा, गंगा ननँद. नंद-नंदन-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) श्रीकृष्ण । | नंद-नंदिनी-संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं० ) योग दुर्गा, एक छंद, (पिं०) कलहंस, सिंहनाद, माया, देवी। वशिष्ठ की कामधेनु, पत्नी। " वसिष्ट-धेनुश्च नंदन --- संज्ञा, पु० (सं०) इन्द्र की पुष्प-वाटिका यदृच्छयागता, श्रुतप्रभावा ददृशेऽथनंदिनी' देवोपवन, एक विष, शिव, विष्णु, लड़का, पुत्र, एक हथियार, बादल, एक छंद नादवद्धन-सज्ञा, पु० या० (स०) शिव जी, (पिं.)। वि० प्रसन्न या हर्षित करने वाला, पुत्र, लड़का, बेटा, मित्र, प्राचीन विमान । श्रानंद-दायक । .. पुरीमवस्कन्द लुनीहि वि० ( सं० ) अानन्द बढ़ाने वाला। नंदनं "--माघ । नंदी-संज्ञा, पु. ( सं० नंदिन् ) धव, वरगद, नंदन वन-संज्ञा, पु० यो० (सं.) इन्द्र की शिव-गण, बैल, साँड़, विष्णु । वि० (सं०) पुष्प-वाटिका। पाननंदयुक्त, प्रसन्न । नंदना--स. क्रि० अ० दे० (सं० नंद ) प्रसन्न नंदीगण-संज्ञा, पु० यौ० (हि. नंदी+ गण) होना या करना । संज्ञा, स्त्री. ( सं० नंद = / शिव के द्वारपाल, शिव का बैल, साँड़ । बेटा ) बेटी, पुत्री, कन्या । " भीमनरेन्द्र नंदीमुख- संज्ञा, पु० यौ० दे० (सं० नांदीनंदना"-नैष०। मुख जात-कर्म, श्राद्ध विशेष । नंदनी-संज्ञा, स्त्री० (सं० नंदिनी ) कन्या, नंदीश्वर--संज्ञा, पु० यौ० ( सं०) शिवजी लड़की. पुत्री। का एक गण। नंदरानी-संज्ञा, स्त्री० यौ० ( सं० नंद -हि. | नंदेऊ -संज्ञा, पु० दे० (हि. नंदोई ) रानी)नंद की पत्नी, यशोदा । । नंदोई, स्वामी का बहनोई, ननँद का पति। For Private and Personal Use Only Page #980 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - नंदोई नकना नंदोई-संज्ञा, पु० दे० (हि. ननद -+-ओई- नककटा-वि० दे० यौ० (हि. नाक-- प्रत्य० ) स्वामी का बहनोई, ननद का काटना ) कटी नाक वाला । वि. जिसकी बदस्वामी। नामी, या दुर्दशा हुई हो, निर्लज्ज । स्त्री. नंबर-वि० अं० ) संख्या, गिनती । संज्ञा, नककटी। पु. (म०) गिनती, गणना, अंक, ३६ इंच नकघिसनी-संज्ञा, स्त्री० दे० यौ० (हि. का गज । लंबर । । नाक+घिसना) अत्यन्त दीनता, दुर्दशा, परेनंबरदार- संज्ञा, पु० (अ० नंबर + दार फ़ा०) शानी, पृथ्वी पर अपनी नाक रगड़ने का कार्य । गाँव के पट्टीदारों का मुखिया, ज़मींदार, नकचढ़ा-संज्ञा, पु० दे० यौ० (हि. नाक+ लंबरदार (दे०)। स्रो० नंबरदारिन । चढ़ाना) क्रोधी, चिड़चिड़ा। स्त्री. नकचढ़ी। संज्ञा, स्त्री० नंबरदारी। नकचिकनी संज्ञा, स्त्री. दे. यौ० सं० नंबरवार—कि० वि० (अ. नंबर + फ़ा. छिक्कनी) एक घास जिसके फूल सूंघने से वार ) क्रमशः, सिलसिलेवार । छींके आने लगती हैं। नंबरी-वि० ( अ० नंबर + ई-प्रत्य० ) जिस | नकटा-संज्ञा, पु० दे० ( हि० नाक + कटना) वस्तु पर नंबर लगा हो, विख्यात, प्रसिद्ध, जिसकी नाक कट गई हो, स्त्रियों का (दे० व्यंग्य ) सब से बड़ा दुष्ट । व्याह के समय का एक गीत । वि. जिसकी नंबरीगज़-संज्ञा पु० यौ० ( हि० ) ३६ इंच | नाक कटी हो, निर्लज्ज । स्त्री. नकटी। का गज़ जो वस्त्र नापने में काम आता है। नकड़ा-संज्ञा, पु. ( देश० ) नाक का एक नबरो सेर · संज्ञा, पु० यौ० (हि.) ८० रोग, लकड़ा । स्त्री० नकड़ी, नकरीरुपये भर का लोहे का सेर । लकड़ी। नेस-वि० दे० ( सं० नाश ) नाश, नष्ट । | नकतोडा-संज्ञा, पु० दे० यौ० (हिं. नाक+ नई, नयी-वि० दे० ( सं० नव ) नीतिज्ञ । तोड़ = गति ) घमंड से नाक-भौं चढ़ाकर वि० स्त्री० (सं० नव) नया का स्त्रीलिंग रूप। नखरे करना या कोई बात कहना। of-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० नदी) नदी, दरिया। नकद-संज्ञा, पु. ( अ०) रुपया, पैसा । नउँजी-संज्ञा, स्रो० दे० ( हिं० लीची) | लो०-नौ नकद न तेरह उधार । वि. जीची फल । तैयार, वह धन जो तत्काल काम दे सके, नउa-वि० दे० ( सं० नव ) नव, नया, | खास, नगद (दे०) । ( विलो०-उधार) नूतन, नवीन । वि० (हिं. ना, सं. नव ) " क्या खूब सौदा नक़द है इस हाथ दे उस एक कम दस, नव-६, नौ। हाथ ले"। नउश्रा, नउवा-संज्ञा, पु० दे० ( सं० नकदी, नगदी-संज्ञा, स्त्री० दे० (अ० नकद) नापित ) नौवा, नाई, नाऊ । स्त्री०-नउनी, नकद, नगद । यौ० नकदा-नकदी। नउनिया। नकनकाना-- स० क्रि० दे० (हि. नाक ) नउका*-संज्ञ, स्त्री० दे० (सं० नौका) नाक से बोलना, नकनाना (ग्रा.)। नौका, नाव। वि० नकना, नकनहा। नउत, नौत -वि० दे० (हि. नवना ) | नकना -स० कि० दे० (हि. नाकना) नीचे की ओर झुका हुश्रा, नत (सं.)।। लाँधना, फाँदना, उलंघन करना । अ० कि० नउलझ - वि० दे० (सं० नवल) नया, नवीन। दे० । हि. नकियाना ) नाकों दम होना, नयोढ़*--संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० नबोढ़ा)। परेशान या हैरान होना। स० क्रि० (दे०) नबोदा, युवा या नवीन नायिका । नाकों दम करना, नाक से बोलना। मा. श० को.--१२२ For Private and Personal Use Only Page #981 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir नकन्याना नकेल नकन्याना-अ० क्रि० (दे०) नाकों दम होना, -एक नाक से गर्मी के कारण रक्त बहना। हैरान होना। "अब तो हम नकन्याय गये- मुहा०-नकसीर भी न फूटना-थोड़ी न"-प्रता। भी हानि या कष्ट न होना। नकफूल-संज्ञा, पु० यौ० दे० (हि. नाक+ | नकाना*-अ० क्रि० दे० (हि. नकियाना) फूल ) नाक में पहनने का एक गहना, कील हैरान होना, नाकों दम पाना या होना। या लोग। स० कि० दे० ( हि० नकियाना ) नाकों दम नकब-संज्ञा, स्त्री. (अ.) सेंध, दीवाल में या बहुत हैरान करना, नाक से बोलना। चोरों का बनाया छेद। नकाब-संज्ञा, स्त्री० पु० (अं०) परदा, घू घुट, नकबानी-संज्ञा, स्त्री० दे० यौ० हि० ) | मुख छिपाने का वस्त्र । यौ० नकाब पोश= नाक + बानी) नाकों दम, हैरानी, परेशानी, मुख पर पर्दा डाले हुए। नाक से बोलना, नाक का शब्द।। नकार-संज्ञा, पु० (सं०) न, अक्षर या वर्ण, नकबेसर-सज्ञा, स्त्री० यौ० दे० (हि. नाक न, ना, नहीं, इनकार, अस्वीकार । +बेसर) नथ नामक नाक का गहना, बेसर। नकारना-अं० क्रि० दे० (हि० नकार --ना नकमोती--संज्ञा, पु० दे० यौ० ( हि. प्रत्य०) नमानना, अस्वीकार या इन्कार नाक+ मोती) लटकन, नाक में पहिनने का करना, नाहीं करना । मोती, बुलाक। नकारा-वि० दे० ( फा० नाकारः ) व्यर्थ, नकल-संज्ञा स्त्री० (अ० : अनुकरण, नकल बेकाम, निकम्मा, खराब । स्त्री० नकारी। (दे०) अनुकृति, एक लेख के अनुसार दूसरा नकाशना-नकासना-स० क्रि० दे० लिखना, प्रतिलिपि, पूर्ण रूप से अनुकरण, | (अं०-नक्काशी ) पत्थर, लड़की या धातु स्वाँग, अनोखा और हँसी के योग्य आदि पर खोद खोद कर बेल-बूटे या फूल रूप बनाना, हँसी का छोटा-मोटा किस्सा, आदि बनाना । चुटकुला । वि०-नकलनी, नकलो। नकाशी-नकासी-संज्ञा, स्त्री० दे० ( अ० नकलनवीस-संज्ञा,पु. यो० ( अं० नकल+ | नक्काशी ) किसी चीज़ पर बेल-बूटे आदि खोद फ़ा. नवीस ) दूसरे के लेखों की प्रति- __ कर बनाना, नक्काशी। लिपि करने वाला, मुंशी । संज्ञा, स्त्री०- नकियाना-अ० दे० कि० (हि. नाक --- नकलनवीसी। पाना--प्रत्य० ) नाकों दम होना, बहुत ही नकलची--संज्ञा, पु० (दे०) बहुरूपिया, नकल हैरान या दुखी होना। करने वाला । वि० नकाल। नकीब-संज्ञा, पु०, (अ.) भाट, चारण, नकली-वि. (अ०) जो नकल करके बनाया बंदीजन, कड़खैत । गया हो, बनावटी, भूठा, कृत्रिम, खोटा। नकुया संज्ञा, पु० (हि. नाक ) नाक, नेकुषा नकश -- संज्ञा, पु० दे० ( अं० नक्शा ) नक्शा, (ग्रा.) । मुहा०-- नकुअन जीप (दम) चित्र, ताश का एक खेल ।। पाना (करना)- बहुत हैरान हो उब नकशा-संज्ञा, पु० (अं० नक्श) जो बनाया | उठना ( हैरान कर उबाना )। या लिखा गया हो, नक्श, किया या खोदा | नकुल-संज्ञा पु० (सं०) नेवला जंतु, सहदेव गया हो, चित्र । यौ० नकशाकशी। का बड़ा माई, पांडु-पुत्र । स्त्री०-नकुली। नकसीर-संज्ञा, स्त्री० यौ० दे० (हि. नाक + नकेल -संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. नाक + एलसं० सीर = पाती) नाक से बिना चोट लगे प्रत्य०) मुहरा, ऊँट के नाक की रस्सी । रक्त या खून बहना । यौ०-नकसीर फूटना। मुहा०-किसी की नकेल हाथ में होना For Private and Personal Use Only Page #982 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मका ९७१ नख -किसी पर सब तरह का अधिकार होना। नक्ल-संज्ञा स्त्रो० दे०.(अं० नफल) अनुकरण, नकेल न मानना--प्राज्ञा या शासन न | नकल, अभिनय । मानना, मनमानी उइंडता करना। नकश-वि० ( अं० ) जो चित्रित या अंकित नक्का-संज्ञा, पु० दे० (हि. नाक ) नाका. ! किया गया हो, लिखा या बनाया हुआ। सुई का वह छेद जिसमें डोरा रहता है। मुहा०- मन में नक्श करना या कराना नक्कारखाना संज्ञा, पु. ( फा० ) नौवत । --अपने या दूसरे के मन में कोई बात भलीखाना, वह स्थान या ठौर जहाँ नगाड़ा भाँति बैठाना । नकश होना-प्रगट होना। बजता हो । मुहा०-नक्कारखाने में तूती | संज्ञा, पु. (अ.) चित्र, तसबीर, किसी वस्तु की श्रावाज़ ( कौन सुनता है )--बड़ों पर खोद या लिख कर बनाये गये बेल-बूटे, के संमुख छोटों की कौन मानता है। मोहर, छाप । मुहा०-नकश. बैठाना - नक्कारची-रांझा, पु० (फ़ा०) नगाड़ों का | अधिकार या हक जमाना या स्थिर करना, बजाने वाला। तावीज़, टोना-टोटका, जादू । नक्कारा--संज्ञा, पु० (फा०) नगाड़ा, डंका। नक्शा -संज्ञा, पु० ( अ०) चित्र, प्रतिमूर्ति, नकाल-संज्ञा, पु० (अ०) नकल या अनुकरण तसवीर, शकल, ढाँचा, प्राकृति, स्वरूप, करने वाला, भौड़। तर्ज, दशा, उप्पा, देशों के चित्र । नक्काश-संज्ञा, पु० (अ.) नक्काशी करने नकशानवीस-संज्ञा पु० यौ० (प्र. नकशा +नवीस फ़ा० ) नकशा बनाने या खींचने वाला। नक्काशी-- संज्ञा, स्त्री० (अं० ) पत्थर, काष्ठ वाला संज्ञा, स्त्री० नकशानवीसी । और धातु धादि पर खोद खोद कर बेल नकशी-वि० (अ. नक्श+ई---प्रत्य० ) बूटे श्रादि बनाने का कार्य या विद्या, खोद नक्काशीदार, बेल बूटेदार वस्तु । कर किसी पदार्थ पर बनाये गये बेल-बूटे । नक्षत्र-संज्ञा पु० (सं०) २७ तारे, जो चंद्र मार्ग में स्थित हैं, मघा, पुष्प, पुनर्वसु वि० नक्काशीदार । श्लेषादि, नछत्तर । यो० नक्षत्र-मंडल । नक्की-संज्ञा स्त्री० दे० (हि. नाक) नाक-स्वर नक्षत्रनाथ--संज्ञा, पु० यो० (सं०) चन्द्रमा, से सानुनासिक बोलना, निश्चय, स्थिर, दृढ़ । | नक्षत्रेश, नक्षत्रपति । नाक (दे०) । नक्षत्र-पथ-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) नक्षत्रों के नक्कीमूठ---संज्ञा, पु. यौ० (दे०) एक प्रकार चलने का मार्ग। के जुये का खेल। नक्षत्र-राज---संज्ञा, पु. यौ० (सं०) चन्द्रमा। नक-वि० दे० (हि. नाक) बड़ी नाक वाला, नक्षत्र-लोक---संज्ञा, पु. यौ० (सं०) जिस अपने को माननीय या प्रतिष्ठित जानने लोक में नक्षत्र हैं। वाला, सब से भिन्न और उलटे कार्य करने नक्षत्रवृष्टि--संज्ञा,स्री० यौ०(सं०) उल्कापात. वाला, आत्माभिमानी, बदनाम, अपयशी। । तारा टूटना। नक्त-संज्ञा पु० (सं०)संध्या का समय, रात्रि नक्षत्री-संज्ञा, पु० (सं० नक्षत्रिन्) चन्द्रमा । एक वृत ( पिं०) शिव । “नक्तं भीस्यं त्वमेव | वि० ( सं० नक्षत्र + ई प्रत्य० ) भाग्यवली । तदिमम् राधे गृहं प्रापय"-गीतः। नख-संज्ञा, पु० (सं०) नाखून, नहँ ( ग्रा० ) नक्र--संज्ञा पु० (सं०) नाक या नाका नामक ___एक औषधि, टुकड़ा, भाग, खंड । यौ० पानी का जंतु, मगर, घड़ियाल, नाक, | नख-शिव-नख से शिख तक। संज्ञा, नासिका। स्त्री० दे० (फा. नख ) पलंग की डोरी। For Private and Personal Use Only Page #983 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - नखक्षत ९७२ नगनिका नखक्षत-नखन इत-संज्ञा, पु० यौ० दे०( सं० नखियाना*-प्र. क्रि० दे० (सं० नख+ नखक्षत ) शरीर का वह चिन्ह या दाग जो इयाना-प्रत्य० ) किसी के शरीर में नाखून नाखून गड़ जाने से बना हो नखछोलिया। गड़ाना। नखत-नखतर -संज्ञा, पु. दे० ( सं० नखी-संज्ञा, पु० (सं० नखिन् ) व्याघ्र, शेर, नक्षत्र ) २७ तारे, जो चन्द्र-मार्ग में है। चीता । संज्ञा, स्त्री. (सं०) नख नामक "वेद, नखत, ग्रह जोरि घरध करि"-सूर० ।। नखतराज-नखतराय- संज्ञा, पु० दे० यौ० नखोटना- स० क्रि० दे० ( सं० नख+ (सं० नक्षत्रराज) चन्द्रमा । मोटना-प्रत्य० ) नाखून से नोचना या खरो. नखतेस--संज्ञा, पु० (सं० नक्षत्रेश) चन्द्रमा। चना, खरोटना, निकोटना (दे०)। " लसत सरस सिंधुर बदन, भालथली नग-संज्ञा, पु० (सं०) पहाड़, पेड़, सात की नखतेस"- रतन । संख्या, साँप, सूर्य, । संज्ञा, पु. ( फ़ा. नखना-अ० क्रि० दे० (हि. नाखना) फाँदा नगीना, सं० नग) नगीना, संख्या। या डाँका जाना, उल्लंघन होना। नगचाई - संज्ञा, स्त्री० (दे०) समीप, निकट, नखरा-संज्ञा, पु० ( फ़ा०) नाज, चोचला, प्रवाई, समीपागमन । चुलबुलपन, चंचलता, दुलारापन । नगचाना-अ० क्रि० (दे०) निकट या समीप नखरातिल्ला--संज्ञा, पु० यौ० ( फा० नखरा आना, नकचाना (ग्रा०) +तिल्ला हि० अनु० ) नाज़, नखरा, | नगचाहट-संज्ञा, स्त्री. (दे०) सामीप्य, चोचला, चंचलता। निकटता, पास पहुँचना। नखरेखा-संज्ञा, स्त्री० दे० यौ० (सं०) नगज-संज्ञा, पु० (सं० ) हाथी । वि० (सं०) नखक्षत, नाखून का घाव, नखों पर रेखा। जो पहाड़ से उत्पन्न हो। "नगजा नगजा नखरे बाज-वि० ( फा० ) अति नखरा या | दयिता दयिता"--भट्टी । नाज करने वाला । संज्ञा, स्त्री० नखरेबाजी। नगजा-संज्ञा, स्त्री० (सं०) पार्वती जी। नखरोट-संज्ञा, पु. यौ० दे० (सं० नखरेखा) | नगण-संज्ञा, पु. ( सं० ) ३ लघुवणे का नखक्षत। एक शुभ गण (m)-पि० । नखबिन्दु-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) मेंहदी या | नगण्य-वि० (सं०) तुच्छ, गया-बीता। महावर का स्त्रियों के नाखूनों पर बना चिन्ह । नगदंती-संज्ञा, स्त्री. (सं०) विभीषण की नखशिख-संज्ञा, पु. यौ० (सं०, हि० | पत्नी। नखसिख ) नाखून से लेकर चोटी तक के | नगद-संज्ञा, पु० दे० (अ० नकद ) रुपया. सारे अंग । यौ० नख-शिख-वर्णन- पैसा, नकद । सींग वर्णन । मुहा० नखशिख ते-सिर नगदौना-संज्ञा, पु. (सं०) (सं० नागदमन) से पैर तक । “हँ सत देखि नख-सिख रिस- | नागदमन, एक औषधि या जड़ी। व्यापी"-रामा। नगधर--संज्ञा, पु० (सं०) श्री कृष्ण चन्द्र । नखांक-संज्ञा, पु० यौ० दे० (सं०) नाखून गड़ नगधरन® संज्ञा, पु० दे० (सं० नगधर ) जाने का दाग या चिन्ह, नखनामीगंधद्रव्य । श्री कृष्ण, गिरधर, गिरधारी, नगधारी । नखायुध-संज्ञा, पु० यौ० ( सं० ) बाघ, नगनंदिनी-संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) पार्वती। व्याघ्र, शेर, चीता, नृसिंह। नगन -वि० दे० (सं० नग्न ) नंगा, नखास-संज्ञा, पु० (अ० नखख़ास ) पशुओं दिगंबर । संज्ञा, पु. ५० व० (हि. नग)। या घोड़ों का बाज़ार। । नगनिका-संज्ञा, स्त्री० (दे०) क्रीड़ा-वृत्त । For Private and Personal Use Only Page #984 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org मगनी नचनी बेटी, नंगी स्त्री । नगपति - संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) हिमालय या सुमेरु पहाड़, शिव जी, चन्द्रमा । नगभिन्नक - संज्ञा, पु० (सं० ) पाषाणभेद, नगनी – संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० नग्न ) लड़की, नगारि - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) इन्द्र जी । नगाधिप, नगाधिपति, नगाधिराजसंज्ञा, पु० यौ० (सं०) हिमालय, सुमेरु । "हिमालयो नाम नगाधिराजः " - कु० । नगी - संज्ञा, स्त्री० (सं० नग + ई-प्रत्य० मणि, नगीना, पार्वती, पहाड़ी स्त्री । नगीचां - क्रि० वि० दे० ( फा० नज़दीक ) निकट, पास नजदीक, समीप वि० (दे० ) नगीची । ) ३७३ एक औषधि, परवानभेद (दे०) । नगर - संज्ञा, पु० (सं०) शहर - वह बस्ती जो कसबे से बड़ी हो, जहाँ अधिक लोग रहते हों । नगर कीर्तन - संज्ञा, पु० यौ० ( सं० ) जो गाना-बजाना नगर की गलियों में घूम फिर कर हो । नगर-नारि, नगर-नारी-संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं० नगर-नारी) वेश्या । नगर-नारिका यार भूलि परतीति न कीजै " - गिर० । नगर-नायिका - संज्ञा, स्त्रो० यौ० (सं०) वेश्या, रंडी । 64 नगरपाल - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) कोतवाल, नगर- रक्षक, नगर-पालक । नगरवर्ती - वि० (सं० नगरवर्तिन् ) नगर में स्थित, नगर वासी । नगरवासी - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) नागरिक, शहर का रहने वाला, नगर-निवासी । नगरद्दा - संज्ञा, पु० (दे०) नगर निवासी । नगरहार - संज्ञा, पु० (सं०) जलालाबाद के समीप का एक पुराना शहर । नगराई + - संज्ञा स्त्री० दे० (हि० नगर + श्राई- ई - प्रत्य० ) शहरातीपन, नागरिकता, चतुरता । नगरी - - संज्ञा, स्त्री० (सं०) शहर, नगर । नगरपाँत संज्ञा, पु० यौ० (सं०) नगर का द्वार या पार्श्व, नगर का निकास, नगर के समीप । नगस्वरूपिणी --- संज्ञा, स्त्री० (सं०) प्रमाणिका या प्रमाणी छंद । जरा लगौ प्रमाणिका " - पिं० । .. नगाड़ा – संज्ञा, पु० दे० ( फ़ा० नगारा ) नगारा, धौसा, डंका | Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir नगीना - संज्ञा, पु० ( फा० ) मणि, नग । ' सिय सोने की अँगूठी राम नीलम नगीना हैं" । नगीनासाज़- संज्ञा, पु० ( फ़ा० ) नग बनाने या किसी वस्तु में जड़ने वाला, जड़िया । नगेन्द्र. नगेश -- संज्ञा, पु० यौ० (सं०) हिमालय, सुमेरु नगपति, नगराज । नगे मरि | संज्ञा, पु० दे० (सं० नागकेसर ) नागकेशर, नागकेसर, (श्रौष ० ) ।' Gi नग्न - संज्ञा, पु० (सं०) नगन (दे० ) नङ्गा, वस्त्र-रहित, श्रावरण-रहित, खुला, दिगम्बर । कहा निचोरै नग्न जन, न्हान सरोवर कीन" - बृं० । नग्नता -- संज्ञा, स्त्री० (सं०) नंगे होने का भाव, नङ्गई, नङ्गापन । नत्र - संज्ञा, पु० दे० (सं० नगर ) शहर, नगर । नघना, नाँघना - स० क्रि० दे० (सं० लंघन ) फाँदना, लाँघना. नाकना, डाँकना (ग्रा० ) । नघाना -- स० क्रि० दे० (सं० लंघन) फँदाना, घाना, प्रे० रूप-नघवाना | नचना* | - ग्र० क्रि० दे० ( हि० नाचना ) नाचना वि० नाचने वाला, लगातार इधरउधर घूमने वाला । प्रे० रूप-नचवाना । नचनिक- संज्ञा स्त्री० दे० ( हि० नाचना ) नाच, नृत्य । नवनियाँ | संज्ञा, पु० दे० ( हि० नाचना + इया - प्रत्य० ) नाचने या नृत्य करने वाला । नचनी - वि० स्रो० दे० ( हि० नाचना ) नाचने या नृत्य करने वाली, लगातार इधरउधर घूमने या रहने वाली । 1 For Private and Personal Use Only Page #985 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir নবান ६७४ नज़रि नत्रवाना-स० क्रि० दे० (हि. नाचना का पसन्द पा जाना, अच्छा लगना, प्रिय होना। प्रे० रूप ) नाच या नृत्य कराना, नचाना । नज़र पड़ना--दिखलाई देना या पड़ना। नचवैया--संज्ञा, पु० दे० (हि. नाचना + नजर बाँधना--मंत्र के बल से और का वैया --प्रत्य० ) नाचने वाला, नर्तक, नृत्य- और दिखाना, दृष्टिबंध करना । कृपा दृष्टि या कर्ता, नचैया। दया की निगाह से देखना, निगरानी, देखनचहि-अ० कि. ब्र. (हि. नाचना) भाल, ध्यान, ख्याल, पहचान, परख, दृष्टि नाचता है. नृत्य करता है। का बुरा प्रभाव महा०--नजर उतारना नवाना-स० क्रि० दे० (हि. नाचना ) नाच | -बुरी दृष्टि के प्रभाव को मिटा देना। या नृत्य कराना, दिक या हैरान करना । नजर लगाना ( लगना )--बुरी दृष्टि का "सबहिं नचावत राम गोसाई"-रामा० । प्रभाव डालना या पड़ना। संज्ञा, स्त्री० (अ०) मुहा०-नाच नचाना-चलने फिरने या उपहार, भेंट । और किसी कार्य विशेष के लिये विवश नज़रना* --अ० क्रि० दे० ( अ० नज़र + ना करके दिक या तंग करना, व्यर्थ इधर-उधर -प्रत्य० ) देखना, नज़र लगाना । घुमाना । "छछिया भर छाँछ पै नाच नचा" नजरबंद-वि० यौ० (अ० नज़र+बंद-फा०) -रस । मुहा०-आँखें (नैन) नचाना वह बन्दी जो कड़ी निगरानी में रक्खा जावे -चपलता से आँखें इधर-उधर घुमाना। कि कहीं जा न सके । संज्ञा, पु० इन्द्रजाल व्यर्थ इधर-उधर दौड़ाना। का खेल जिसे लोग दिठबंध समझते हैं। नचिकेता-संज्ञा, पु. दे० (सं० नचकेतस् ) | नज़रबंदी-संज्ञा, स्त्री० (अ० नज़र + बंदी एक ऋषि-पुत्र जिसने काल से ब्रह्मज्ञान फ़ा० ) कड़ी निगरानी. नजरबन्द होने की सीखा था। दशा, जादूगरी, बाज़ीगरी। नचौहाँ*-वि० दे० ( हि० नाचना-+-ौहाँ नज़र बाग़-संज्ञा, पु० यौ० (१०) मकान के -प्रत्य०) सदा नाचने और इधर-उधर चारों ओर या सन्मुख की पुष्पवाटिका या फिरने वाला। फुलवाड़ी। नछत्र-संज्ञा, पु० दे० (सं० नक्षत्र ) नक्षत्र, भाग्य । "प्रेमिन के नभ मैं नछत्र हैं न नज़रहाया, नज़रहा- वि० दे० ( अ० नज़र + हाया-प्रत्य०) नज़र लगाने वाला। तारे हैं"---रसाल । मुहा०-नछत्र बली (प्रबल) होना-भाग्यवान होना ! नत्र स्त्रो० नज़रहाई, नजरही। की बात है-भाग्य का खेल है। बुरा नजरानना -स० क्रि० दे० (अ० नज़र + नछत्र-मन्द भाग्य, बुरा समय । हि० प्रत्य० --भानना ) भेंट या उपहार के नछत्री -वि०दे०(सं० नक्षत्र+ई.. प्रत्य०) ढंग पर देना, नज़र लगाना । भाग्यवान, भाग्यशाली, नक्षत्र वली। नजराना-- अ० क्रि० दे० ( अ. नज़र + हिं० नजदीक-वि० (फा०) समीप, निकट, पास, पाना-प्रत्य०) नज़र लग जाना, नजरिकरीब । (संज्ञा, वि० नजदीकी) समीपी। । याना । स० क्रि० (दे०) नज़र लगाना । नजम-संज्ञा, स्त्री० (अ. नज्म ) कान्य, संज्ञा, पु. (अ.) भेंट, उपहार । मुहा०--- नजर गुजारना-उपहार देना, आधीनता नजर-संज्ञा, स्त्री. (अ.) दृष्टि, निगाह। स्वीकार करना । मुहा०-नज़र आना- देख पड़ना, दिख- नज़रि, नजरिया*---संज्ञा, स्त्री० दे० ( अ. लाई देना या पड़ना । नज़र पर चढ़ना- नज़र ) दृष्टि, निगाह । कविता। For Private and Personal Use Only Page #986 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org नजरियाना ६७५ नजरियाना - अ० क्रि० (दे०) बुरी दृष्टि लगना, नज़र लगाना । मजला - संज्ञा, पु० (०) जुकाम, सरदी, श्लेष्मा (सं० ) । नज़ाकत - संज्ञा, स्त्री० ( फ़ा० ) कोमलता, सुकुमारता । "सब नज़ाकत एक तरफ फ़ज़ी नज़ाकत देखिये । " नजात - संज्ञा, स्त्री० ( ० ) मोत, मुक्ति, रिहाई, छुटकारा, छुट्टी। मुहा० (काम से) नजात पाना -- (किसी से ) छुट्टी पाना । नज़ारा - संज्ञा, पु० ( प्र०) दृष्टि, दृश्य, प्यारे को प्रेम की दृष्टि से देखना । "मारा दिलदार 'जादू का नज़ारा मारा" - स्फुट० । नजिकाना, नजकाना (ग्रा० ) *+ - स०क्रि० दे० (हि० नजीक, नजदीक + आना - प्रत्य० ) समीप, निकट या पास पहुँचना, नचकाना । नजीक / - क्रि० वि० दे० ( फा० नज़दीक ) समीप, निकट, नगीच (प्रा० ) । नज़ीर - संज्ञा, त्रो० ( ० ) दृष्टांत, मिसाल | उदाहरण, • नजूम - संज्ञा, पु० (प्र०) ज्योतिष विद्या । नजूमी -संज्ञा, पु० ( ० ) ज्योतिषी । नजूल - संज्ञा, पु० (अ० ) क़स्बे या शहर की वह भूमि जो सरकार के अधिकार में हो । नट - संज्ञा, पु० (सं०) नाटक करने या खेल दिखाने वाला, नाव्य-कला- निपुण, नाचने चाला, कसरती । " इत उत तें चित दुहुन के, नट लौं आवत जात" – वि० । एक राजा । नटई |-- संज्ञा, स्त्री० (दे०) गरदन, गला, घाँटी, टेटुवा, गटई (ग्रा० ) । नटखट - वि० दे० (हि० नट + खट अनु० ) उत्पाती, उपद्रवी, उधमी, चंचल । नटखटी- संज्ञा, स्त्री० (हि० नटखट) उपद्रव, ऊधम, बदमाशी । नटता- संज्ञा, स्त्री० (सं०) नटत्व, नट का भाव । मटना - ० क्रि० दे० ( सं० नट् ) नटत्व या नाट्य करना, नाचना, (ब्र०) कह कर बदल Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir नठना, नठाना जाना, इन्कार करना, मुकुरना ( ब्र० ) । स० क्रि० दे० (सं० नष्ट) नष्ट करना । अ० क्रि० (दे०) नष्ट होना । " सौंह करै भौंहनि हँसे, - (सं०) सम्पूर्ण शिव । देन कहै, नटि जाय” – वि० । नटनारायण – संज्ञा, पु० यौ० जाति का एक राग (संगी०), कृष्णा, नटनागर --- संज्ञा, पु० यौ० (सं०) श्री कृष्ण । ननि * -- संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० नर्तन) नाच, नृत्य | संज्ञा, स्त्री० ० ( हि० नटना) इन्कार या अस्वीकार करना | नटनी - संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० नट + नी - प्रत्य०) नट की या नट जाति की स्त्री । नरमायासंज्ञा, स्त्री० (सं०) छल - विद्या, इन्द्रजाल । नटवना - स० क्रि० दे० ( सं० नट ) नाव्य या अभिनय करना । 'एक ग्वालि नटवति बहु लीला " - सूर० । नटवर - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) नाट्य कला में निपुण श्री कृष्णा । वि० बहुत चतुर, चालाक । नटसार संज्ञा स्त्री० दे० यौ० ( सं० नाट्यशाला ) नटसाला, नटसारा (दे० ) नाट्यशाला, वह स्थान जहाँ नाट्य हो । नटसारी -- संज्ञा, स्त्री० (दे०) नटबाजी | "जेहि नटवै नटसारी साजी " -कबी० । छोटी नाट्यशाला । नटसाल - संज्ञा स्त्री० (दे०) फाँस या काँटे का वह भाग जो टूट कर शरीर के भीतर रह जाता है, तीर की गाँसी, कसक । नटिन, नटिनो -संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० नट ) नट की या नट जाति की स्त्री, नटनिया । नटी - संज्ञा, स्त्री० (सं०) नट जाति या नट की स्त्री, नाचने या नाटक करने वाली । नटुआ नटुवा | संज्ञा, पु० दे० (सं० नट ) नट, नटई, चंचल बालक । " करत ढिठाई माई नन्द जू को नटुवा " - स्फुट० । नटेश्वर - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) शिवजी, नट नागर, नटराज, नटराज राज, नटराय । नठना, नठाना - अ० क्रि० दे० (सं० नष्ट) नष्ट होना । स० क्रि० (दे०) नष्ट करना । For Private and Personal Use Only Page #987 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ९७६ नठिया नदीमातृक नठिया-वि० (दे०) नष्ट, बुरा ( स्त्रियों की | नथनी, नथिया, नथुनी - संज्ञा, स्त्री० दे० गाली)। (हि. नथ ) नथ, नथ-बेसर । नढ़ना--स० क्रि० दे० (हि. नाथना ) नथी- संज्ञा, स्त्री० (दे०) छेदी, फँसी, नाथी । गूंथना, पिरोना, बाँधना, कसना । नथुपा-संज्ञा, पु. (दे०) नाथने वाला, नतपाल–संज्ञा, पु० यो० (सं०) प्रणतपाल, छिदुआ, जिसकी नाक छिदी हो, नत्थू । शरणागतपाल, "प्रीति रीति समुझाइवी । नथुई-संज्ञा, पु० (दे०) छिदुई। नतपाल कृपालुहिं परमिति पराधीन की' नथुना-संज्ञा, पु० (दे०) नाक के छेद । स्रो. --बिन० । नथुनी-नथ। नतर-नतरुळ-क्रि० वि० दे० (हि.न नद- संज्ञा, पु० (सं०) बड़ी नदी या जिसका तो) नहीं तो, नातरु, अन्यथा। "नतरु बाँझ नाम पुल्लिग वाची हो। भलि बादि बियानी"- रामा० । नतांगी-संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) जवान स्त्री, | नदन-संज्ञा, पु० (सं०) नाद या शब्द करना। युवती। नदना-नादना --अ० कि० दे. (सं. नतांश-संज्ञा, पु. (सं०) ग्रहों की स्थिति | नदन = शब्द करना ) पशुओं का शब्द जानने का वृत। करना, राँभना, बँबाना। नति-संज्ञा, स्त्री. (सं०) झुकाव, प्रणाम, | नदराज संज्ञा, पु० यौ० (सं०) समुद्र, विनय, नम्रता। नदपति, नदीश, नदराय (दे०)। नतिनो-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. नाती कानदान-वि० दे० (फा० नादान ) बेस्त्री० रूप ) बेटी की बेटी, पुत्री की पुत्री। समझ, नादान । संज्ञा, खो० नादानी। नतीजा-- संज्ञा, पु० (फ़ा०) फल, परिणाम । नदार-वि० (दे०) बुरा, निंद्य । नत-क्रि० वि० यौ० दे० ( हि० न---तो) नदारद-वि० (फा०) अप्रस्तुत, लुप्त, गुप्त, नतरु, नहीं तो, ना तो, अन्यथा। " नतु | गायब, खारिज । मारे जैहैं सब राजा"-रामा। नदिया- संज्ञा, स्त्री० (सं० नदी) छोटी नतैता-संज्ञा, पु० दे० (हि. नाता- ऐत नदी । "इक नदिया इक नार कहावत"--- प्रत्य. ) नातेदार, रिश्तेदार, सम्बन्धी। नत्था-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. नाथना) बेसर, नथ, बड़ी नथुनी। नदी-संज्ञा, स्त्री० (सं०) दरिया, पानी की नत्थी-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि० नाथना) कागज वह दैवीधारा जो किसी पहाड़ या झील से या कपड़े के कई टुकड़ों को एक ही तार या निकल कर पानी के किसी भाग में गिरे। यौ०-नदी-नाला । मुहा०-नदी-नाव डोरे में बाँधना, मिसल । नथ-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. नाथना ) बेसर, संयोग-ऐसा मिलाप जो कभी दैवयोग से हो । यो नदी-नद नथुनी (ग्रा० )। नथना-नथुना-संज्ञा, पु० दे० (सं० नस्त ) | नदीगर्भ- संज्ञा, पु० यौ० (सं०) वह ताल नाक का अग्रभाग, नाक के छेद , महाo--- या दहार जहाँ से नदी की धारा बहती हो। नथना फुलाना-क्रोध करना । अ० कि. नदीज-संज्ञा, पु० (सं०) भीष्म पितामह । दे० (हि. नाथना का अ० रूप ) किसी के | “नदीज लंकेश वनारि केतुः "। . साथ नत्थी होना, एक सूत्र में बँधना, छिदना, नदीमातृक-वि० यौ० (सं०) वह देश जहाँ छेदा जाना। } नदी के जल से खेती-बारी होती हो। For Private and Personal Use Only Page #988 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org नदीश TGS नब्ज़ नदोश - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) समुद्र, महा- | नन्हियाना -- स० क्रि० (दे०) नन्हा या महीन भारत पु० | "बाँध्यो जलनिधि, तोय-निधि, करना, बारीक बनाना । उदधि, पयोधि, नदीश " रामा० । नदेश - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) समुद्र नदों का स्वामी, सागर । नदोला - संज्ञा, पु० (दे०) मिट्टी की बड़ी नाँद जिसमें पशुओं को खिलाया जाता है । नद्दना* - अ० क्रि० दे० ( सं० नदन) शब्द करना, नाँदना, नदना । नही* -- संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० नदी) नदी । नद्र - वि० (सं०) बँधा हुआ, बद्ध । नधना - अ० क्रि० दे० (सं० नद्व + ना प्रत्य० ) जुतना, जुड़ना, बँधना, जुटना, काम में लगना । ननकारना - अ० क्रि० दे० ( हि० न - करना) नाहीं करना, नामंजूर या अस्वीकार करना, नकारना । ननका -- संज्ञा, पु० (३०) छोटा बच्चा । ननँद-ननद-ननँदी - संज्ञा, स्त्रो० दे० (सं० ननंद) स्वामी की बहिन, नंद, ननंदा । ननदोई - संज्ञा, पु० ६० ( हि० ननद + ईप्रत्य० ) ननद का पति, स्वामी का बहनोई, नंदोई (ग्रा० ) | ननसार - ननसाल - संज्ञा, श्री० द० यौ० ( हि० नाना - शाला - सं०) नाना का घर या गाँव, नेनाउर, ननियाउर ननित्र्याउर ( ग्रा० ) । " भरतहि पठ दीन्ह ननिउरे " Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir नन्हैया)--- वि० दे० ( हि० नन्हा ) छोटा । नपाई - संज्ञा, स्त्रो० दे० ( हि० नाप + ई प्रत्य०) नापने का काम, भाव और मज़दूरी । नपाक - नापाक* -- वि० दे० ( फा० नापाक ) छूत, अपवित्र, अपावन । नपुंसक - संज्ञा, पु० (सं०) हिजड़ा, नामर्द, क्लीव, पंढ (सं० ) । नपुंसकता - संज्ञा स्त्री० (सं०) हिजड़ापन, नामर्दी, क्लीवता, क्लीवत्व | संज्ञा, पु० नपुंसकत्व । नपुत्री- वि० दे० (हि० निपुत्री ) निपूता, नपूता (ग्रा० ), निःसंतान, बेश्रलाद संतान या पुत्रहीन । नशा संज्ञा, पु० (सं० स ) पोता बेटे का बेटा, नाती (दे० ) । स्त्री० नप्ती (सं० ) नातिनि, नतिनी । नफ़र - संज्ञा, पु० ( फ़ा० ) सेवक, दास, नौकर, व्यक्ति मज़दूर, पुरुष । नफरत -- संज्ञा, खी० (अ०) घृणा, धिन । नफरी - संज्ञा, खो० ( फा० ) एक मजदूर का एक दिन का काम या मज़दूरो, मजदूरी का दिन | - नफ़ा - संज्ञा, पु० (अ० ) लाभ फ़ायदा | नफासत - संज्ञा स्त्री० ( ० ) उम्दापन, वाई, सफाई | नफरी - संज्ञा, स्त्री० ( फा० ) तुरही, धुतूरा । नफ़ीस - वि० (०) उमदा, साफ, बढ़िया । नबी- संज्ञा, पु० (अ० ) भगवान का दूत, रसूल, पैग़बर, देव-दूत | - रामा० । I ननियाससुर --- संज्ञा पु० दे० यौ० ( हि० नान + ससुर ) पति या स्त्री का नाना जो एक दूसरे के ससुर हैं । त्रो० ननियासास । ननिहाल - -संज्ञा, पु० दे० ( हि० नाना + चालय ) नाना का घर, ननसार । नन्हा - वि० दे० (सं० न्यंच या न्यून) छोटा । स्त्री० नन्ही । मुहा० - नन्हा कातना - बहुत सूधर्माशि में कुछ करना । नन्हाई - संज्ञा स्त्री० दे० ( हि० नन्हा + ई- नब्ज़ - संज्ञा स्त्री० ( अ० ) नाड़ी, नारी । नबेड़ा सज्ञा, पु० दे० ( हि० नबेड़ना ) न्याय, निपटारा, फैसला, निबेरा ( ० ) । प्रत्य० ) छोटाई, अप्रतिष्टा, हेठी । .6 जुम्बिशे नब्ज़ से औ लौन से कारूरी भा० श० क ० - १२३ नबेड़ना - स० क्रि० दे० (सं० निवारण ) निपटाना, तै करना, चुकाना, समाप्त करना । निबेरना (दे०), निवारना । For Private and Personal Use Only Page #989 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir नमनि की "-जौक । मुहा०-नज स्टोलना- पालित-पोषित होना या दिया हुआ खाना । भीतरी भेद या इरादा जानना । नब्ज । नमक-मिर्च मिलाना या लगानाचलना-नाड़ी चलना । न ज छूटना- किसी बात को बढ़ा-चढ़ा कर कहना । नमक नाड़ी बंद हाना। फूट फूट कर निकलना कृतन्नता का नभ-सज्ञा, पु० (सं० नभस् ) श्राकाश, व्योम, दंड या सजा मिलना, नमकहरामी का दंड शून्य, गंगन, सावन या भादों माल, निकट, । मिलना । (जले या कटे पर ) नमक शिव, मेव, जल वर्षा । छिडकना (लगाना)-दुखिया को और नभगामी-सज्ञा, पु. (सं० नभोगामिन् ) अधिक दुख देना । दुख पर दुख या बुराई चन्द्रमा, पती, देवता, सूर्य, तारागण. पर बुराई करना । लुनाई या सुन्दरता जो बादल, विमान । मनोहर और प्रिय हो, लावण्य, लुनाई(दे०)। नभगेश-सज्ञा, पु० यौ० (सं०) गरुड़, चंद्रमा। नभवर-नभचारी-सज्ञा, पु. (सं० नभश्वर) नमकवार - वि० (फ़ा०) नमक खाने वाला, आकाशचारी, देवता, विमान, बादल, तारा पाला जाने वाला, नौकर, सेवक, दास । गण, सूर्य, चन्द्रमा। नमकसार-संज्ञा, पु० (फा०) नमक निकलने नभधुज* --संज्ञा, पु० दे० यौ० (सं० नभ- या बनने की जगह या स्थान । ध्वज) बादल । नमकहराम-संज्ञा, पु०, वि० यौ० (फा. नभभाषित-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) श्राकाश- नमक + हराम अ.) कृतन, जिसका धन भाषित-एक प्रकार का नाटकीय कथन । खावे उभी का बिगाड़ करे। संज्ञा, पु०, वि. नभश्चर-संज्ञा, पु० (सं०) चन्द्रमा, पही, नमकहरामी । “भरि भरि पेट विषय को बादल, सूर्य, तारागण, विमान, देवता । धावत ऐपो नमकहरामी "—सूर० । वि. श्राकाश में चलने वाला। नमकहलाल-~-संज्ञा, पु० यौ०, वि०, ( फ़ा० नभस्थल-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) पासमान, (स०) श्रासमान, नमक-+ हलाल अ०) जो पुरुष अपने अन्नप्राकाश | स्त्री० नभस्थली। । दाता का कार्य तन-मन-धन से करे, कृतज्ञ, नभस्थित-वि० यौ० (सं०) श्राकाश में स्थित। स्वामिभक्त । संज्ञा, स्त्री० नमकहनाली । नभस्थिर। नमकीन-वि० (फा०) नमक पड़ा पदार्थ, नभस्य - संज्ञा, पु० (सं०) भादों का महीना। नभस्वान-संज्ञा, पु० यो० (सं०) पवन, वायु । नमक के स्वाद वाला पदार्थ, सुन्दर, स्वरूपनभोगति-संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) आकाश वान । संज्ञा, पु० (फा०) जिस पदार्थ में गमन । संज्ञा, पु० (सं०) आकाशचारी, देवता, नमक पड़ा हो। विमानादि। नमदा - संज्ञा, पु. (फ़ा०) जमाया हुअा उनी नभाधम--संज्ञा, पु० यौ० (सं०) मेघ, बादल ।। वन । मुहा०-नमदा कसना-रोब या नम-वि० (फा०) आई, गीला, भीगा । सज्ञा, | भातंक जमाना। स्त्री० नमी । सज्ञा, पु० (सं० नमस्) प्रणाम, नमन-संज्ञा, पु. (सं०) नमस्कार, प्रणाम, स्वर्ग, अन्न, वज्र, यज्ञ । झुकाव, नम्रीभाव । वि० नमनीय, नमित। नमक-संज्ञा, पु. (फ़ा०) नोन, नून (ग्रा०), नमना -- अ० कि० दे० (सं० नमन ) लवण, लोन निमक (दे०)। मुहा०-नमक नमस्कार या प्रणाम करना, मुकना,नम्र होना। अदा करना (चुकाना)-अपने स्वामी या नमनि-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० नमन) नम्रता, रक्षक या पालक के उपकारों का बदला देना। झुकाव, प्रणाम, नवनि (दे०) । “ नमनि किसी का नमक खाना-किसी के द्वारा नीच की अति दुखदाई"-रामा० । For Private and Personal Use Only Page #990 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org नमनीय ६७६ नमनीय - वि० (सं०) झुकने या नम्र होने योग्य, माननीय, आदरणीय, पूजनीय । नमस्कार - संज्ञा, पु० (सं०) प्रणाम, अभिवादन, नमस्ते । " नमस्ते -- (सं०) श्राप को नमस्कार है। मैं तुमको नम्र होता या झुकता हूँ । नमस्ते भगवन् भूयो देहि मे मोत्तमव्ययम् " | नमाज़ - संज्ञा, स्त्री० ( फ़ा० मि० सं० नमन ) मुसलमानों की ईश्वर प्रार्थना या संध्या । मुहा० - नमाज़ पढ़ना ( अदा करना) । नमाज़ी - संज्ञा, पु० ( फ़ा० ) नमाज़ पढ़ने वाला, ईश्वर - बन्दना या प्रार्थना करने वाला । नमाना स० क्रि० दे० ( सं० नमन ) किसी वस्तु को झुकाना, लचाना, लचकाना, नवाना, किसी को दबाकर अपने अधीन करना । • नमाम: - स०क्रि० (सं०) हम प्रणाम करते हैं । नमित- वि० सं०) झुका हुआ, नीचा । "बैठि नमित मुख मोर्चात सीता" रामा०| नमिस - संज्ञा, स्त्री० [फा० नमिश्क ) बनाया हुआ दूध का फेन ! नमी - संज्ञा, स्त्रो० (फ़ा०) श्रार्द्रता, गीलापन, भीगा । नमन्त्रि - संज्ञा, पु० (सं०) एक ऋषि, शुंभ, निशुंभ का छोटा भाई, एक दैत्य । नमूना - संज्ञा, पु० ( फ़ा० ) बानगी, ठाठ, ढाँचा, खाका । " है नमूना बानगी अटकल वयास " - खालि० । नम्र - वि० (सं०) झुका हुआ, विनीत, नम्रता वाला । नम्रता - संज्ञा, स्त्री० (सं०) नम्र होने का भाव, विनय । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir नयाम (दे०), आँख, नेत्र, चतु, ले जाना । " गिरा अनयन नयन बिनु बानी - रामा० । " नयन गोचर -- वि० यौ० (सं०) संमुख, समक्ष, 66 आँख प्रत्यक्ष । सो नयनगोचर जाहि श्रुति नित नेति कहि कहि ध्यावहीं "-- रामा० । नयनपत्र - संज्ञा, पु० (सं०) नेत्र- पटल, की पलक, लोचनपट | नयनपुरि- नयनपुतरी - नैनप्रतरी-संज्ञा, पु० दे० यौ० ( सं० नयन + हि० पुतरी, सं० पुत्रिका, पुत्तली, पुत्री ) आँख की पुतली । नयना - ० क्रि० दे० (सं० नमन ) झुकना, नम्र होना, नमना | संज्ञा, पु० दे० (सं० नयन) नैना, नेत्र, आँख | नयनागर - वि० (सं०) नीति में निपुण या " बोले वचन राम नयनागर " - कुशल । रामा० । नयनी - संज्ञा, स्त्री० (सं० नयनीत ) मक्खन, नैनू, एक पतला महीन वस्त्र | वि० स्त्रो० (सं०) नेत्रवाली जैसे - मृगनयनी । • नयनू -- संज्ञा, पु० दे० (सं० नवनीत ) नेनू (ग्रा० ), मक्खन, नैनू, नेत्र । नयर - संज्ञा, पु० दे० ( सं० नगर ) नगर, शहर । नयशील - वि० (सं०) निपुण | संज्ञा, स्रो० नीति में कुशल या नयशीलता । नया Y - वि० दे० (सं० नव नवीन, हाल का बना नूनन । लो० - नये के नौदाम पुराने के छः । महा० - नया करना - फसिल पर पहले पहल अन्न खाना । नया पुराना होना - परिचित हो जाना, श्रये पर्याप्त समय होना । नया पुराना करना - पुराने को हटा कर उसके बदले नवीन करना ! नया संसार रचन- - नई बात करना, रकारी कार्य करना । For Private and Personal Use Only नय - संज्ञा, पु० (सं०) नीति, नम्रता, क़ानून, न्याय | संज्ञा, स्त्री० (सं० नद ) नदी । नयकारी संज्ञा, पु० दे०, वि० (सं० नृत्यकारी प्रधान, नचवैया, नचैया, नचनियाँ, नीतिकारक | नयन - संज्ञा, पु० (सं०) नैन, नयना, नैना नयाम - पंज्ञा, पु० ( फा० ) तलवार का स्थान । > नयापन - सज्ञा, पु० ( हि नया + पन प्रत्य० नवीनता, नूतनस्त्र । Page #991 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १८० नर-नाहर - नर-संज्ञा, पु० (सं०) शिव, विष्णु, अर्जुन, नरकेसरी-नरकेशरी-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) पुरुष, शंकु, लंब, सेवक, एक प्रकार का नरसिंह, नृसिंह, नर-नाहर, नरहरि । दोहा, छप्पय पिं०), नारायण के भाई। नरकेहरि-नरकेहरी-संज्ञा, पु. यो० (सं० 'नर नारायण की तुम दोउ" "नर के हाथ नरकेसरी ) नरसिंह. नृसिंह, नर-केसरी, नरमृत्यु निज बाँची"--रामा० । पती आदि नाहर । 'प्रगटे नरकेहरि खंभ महाँ'-तु.। में पुरुष ( विलो.--मादा ) । संज्ञा, पु. ' नरगिस-संज्ञा, स्त्री. ( फा०) एक पौदा. (हि. नल) पानी का नल । जिसके फूल से आँख की उपमा दीजाती है। नरकंत*-संज्ञा, पु० दे० यौ० (सं० नरकांत) । नरतात-संज्ञा, पु० यो० (स०) राजा. नरपति। राजा। नरत्व--संज्ञा, पु० (सं०) नर होने का भाव, नरक-संज्ञा, पु० (सं०) नर्क, दुःखद, अपवित्र पुरुषत्व, मनुष्यता! नरद-संज्ञा, स्त्री. द. ( फा० नर्द) चौपर या गंदा स्थान । मुहा०--नरक धोना __ की गोट, नदे। संज्ञा. स्त्री० (सं० नद्दन = नाद) (उठाना)-मल-मूत्रादि धोना (फेकना)। नरकाधिकारी- वि० यौ० (सं०) नरक-योग्य, नाद, शब्द, ध्वनि । “फूटे ते नर्द उड़ जाति बाजी चौपर की" नरक जाने वाला । " सो नृप अवस नरक नरदन-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० नदन) धुनि या अधिकारी"-रामा । नाद करना, गरजना, नाँदना । नरकगामी-वि० (सं०) नरक जाने वाला। नरदहाना- संज्ञा, पु. (द०) पनाला, नाबनरक चतुर्दशी-संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं.) दान नाली, मैले पानी की मोरी, नरदवा, कातिक बदी चौदस या छोटी दिवाली, नरदहा (ग्रा.)। नरका-चौदस (दे०)। नरदा, नरदवा-- संज्ञा, पु. (दे०) पनाला, नरकचूर- संज्ञा, पु० दे० ( सं० नृकचूर ) एक नाबदान, मैले पानी की मोरी, नरदहा औषधि। (ग्रा.)। "जैसे घर को नरदवा भलो-बुरो नरकट-संज्ञा, पु० दे० (सं० नल ) नरकुल । बहि जाय"-तु०। नरकासुर-संज्ञा, पु. यौ० (सं०) एक दैत्य, नरदारा-संज्ञा, पु. यौ० ( सं०) नपुंसक. जिसे विष्णु ने मारा था। क्लीव, हिजड़, कायर, डरपोक । नरकांतक - संज्ञा, पु. या० (सं०) विष्णु, नरदेव-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) राजा, ब्राह्मण । श्री कृष्ण, नरकारि। नरनाथ--संज्ञा, पु० यौ० (सं०) राजा। नरकामय-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) नरक का नरनारायण-संज्ञा, पु० यौ० (सं.) विष्णु रोग, प्रेत, पिशाच, कुष्ट रोग।। के अवतार दो धर्म-पुत्र। "नर-नारायण की नरकी--संज्ञा, पु० दे० (सं० नरकिन )। तुम दोऊ,"-रामा। नारकी, नरक-योग्य, नरक-निवासी, पापी, नरनारि, नरनारी-संज्ञा, स्त्री. यौ० (सं०) मनुष्य की। " नरकी नर-काव्य करै नर अर्जुन की स्त्री, द्रौपदी। संज्ञा, यौ० (सं०) की'- स्फु० । स्त्री-पुरुष, शिव । नरककुंड-संज्ञा, पु. (सं०) कप्ट देने वाला नरनाह, नरनाहू - संज्ञा, पु० यौ० (सं० कुंड, कुकर्म का फल भोगने का केंद्र, नरनाथ ) राजा, "कद्द मुनि सुन नरनाह नाबदान, नरदा (दे०)। प्रवीना-रामा० । नरकुल-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) मनुष्य जाति, नर-नाहर--सं० पु. यौ० दे० ( सं० नर-+ मनुष्य का वंश, (दे०) तृण विशेष, नरकट । नाहर हि० ) नर-सिंह, नृसिंह । For Private and Personal Use Only Page #992 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir नरपति १८१ नर्तक नरपति-संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) राजा, नरहरि--संज्ञा, पु० यौ० (सं०) नृसिंह, नरसिंह। __ " नरपति धीर-धाम-धुर-धारी" - रामा०। नरहरी- संज्ञा, पु. यौ० (सं०) एक छंद। नरपाल-नरपालक-संज्ञा, पु. यौ० ( सं० संज्ञा, पु० (सं० नृहरि ) नरसिंह, नृसिंह । नृपाल ) राजा, नर-कांत। नगंतक--संज्ञा, पु० यौ० (सं०) रावण का नर-पिशाच-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) जो लड़का जिसे अंगद ने मारा था नारान्तक। मनुष्य पिशाचों के से कार्य करे। नराच-नाराच-संज्ञा, पु. ( सं० नाराच ) नरवदा-नरमदा-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० वाण, तीर, एक छंद (ज, र. ज, र, ज, नर्मदा) एक नदी । ' नरबद गंडक नदिन के, गुरु-पिं०)। छोटे पाहन जोय'----के० वि०। नाराविका-संज्ञा, स्त्री० (सं०) एक छंद । नरभक्षी-नरभक्षक---संज्ञा, पु० यौ० (सं० नराज-वि० दे० (फा० नाराज़ ) ना खुश, नरभक्षिन ) राक्षस, नरमांसाशी।। | अप्रसन्न। संज्ञा, स्त्री० (दे०) नराजी-नाखुशी। नरम-वि० दे० (फा०) नम्र, कोमल, नराजना* -क्रि० स० दे० ( फ़ा. नाराज) मुलायम । संज्ञा, स्त्री. नरमी। यो०-- नाराज़ या अप्रसन्न करना। नरम-गरम । मुहा०-नरम पड़ना नराट*--संज्ञा, पु० दे० यौ० (सं० नरराट्) (होना )-धीमा पड़ना। राजा, नरेश, नृपति। नरमा-संज्ञा, स्त्री. ( हि० नरम ) मनवा, नगधिप, नराधिपति-संज्ञा, पु० यौ. कपास, देव या राम कपास, ऐमर का भुवा, (सं०) राजा, नराधीश। कान की लौ, एक तरह का रंगदार वस्त्र। नरिद --संज्ञा, पु० दे० यो० (सं० नरेन्द्र) नरमाई*-संज्ञा, स्त्री० दे० ( फा० नर्म)। राजा। "कबी कब्ब चन्दं सु माधौ नरिन्दम्।। कोमलता, नम्रता, मुलायमियत । नरिया-संज्ञा, स्त्री० (हि. नाली ) गोल खपरा, नाली मोरी। नरमी-संज्ञा, स्त्री० (दे०) नर्मी, नम्रता कोमलता। नरी-संज्ञा, स्त्री० (फ़ा०, पकाया या सिझाया नरमेध–संज्ञा, पु० यौ० (सं०) बलिविश्वदेव, हुश्रा नरम चमड़ा. जुलाहों की नार, एक कुत्ते, कौवे, चींटी आदि को खिलाना, घाप । संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० नलिका) अतिथि-सत्कार करना। नाली, नली । संज्ञा, स्त्री. (सं० नर ) स्त्री, औरत । संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० नाड़ी) नारि । नरलोक-संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) संसार । नाड़ी, नाड़िका। नरवाई--संज्ञा, स्त्री० (दे०) नरई (हि.)। नरेंद्र-संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) राजा, नरेश, नरसल-संज्ञा, पु० दे० (हि. नरकट) । नृप, नरेद (दे०) । साँप-विच्छू के विष का नरकट, नरकुल, एक प्रकार की घास। वैद्य, एक छंद (पि०)। नरसिंघ-संज्ञा, पु० दे० यो० (सं० नृसिंह ) नरेश- संज्ञा, पु० यौ० ( सं० ) राजा, नरेंद्र, नृसिंह, नरसिंह, नरहरि। नृपाल, नरेश्वर । नरसिंघा-नरसिंगा - संज्ञा, पु० यौ० दे०(हि. नरोत्तम--संज्ञा, पु. यौ० (सं०) परमेश्वर, नर बड़ा + सिंघा, सिंगा ) सींग का बाजा, नर-भर श्रेष्ठ वर । तुरही सा एक ताँबे का बाजा। नर्क - संज्ञा. पु० दे० (सं० नरक) नरक । नरसिंह-संज्ञा, पु० दे० यौ० सं० नृसिंह ) नत्तक-संज्ञा, पु० (सं०) नाचने या नृत्य नरहरि, नृसिंह, विष्णु का अवतार । यौ०- करने वाला, नट, नरकट, चारण, भाट, नरसिंह पुराण । । शिव, एक संकर जाति । (स्त्री० नर्तकी)। For Private and Personal Use Only Page #993 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir नत्तंकी नवनि "दण्ड यतिन कर भेद तहँ, नर्तक-नृत्य- नली-- संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. नल का स्त्री. समाज'-रामा०। . अल्पा० ) छोटा या पतला नल छोटा चोंगा, नर्तकी-संज्ञा, स्त्री० (सं० ) नाचने वाली, घुटने के नीचे का भाग, पैर की पिंडुली, नटी। बन्दूक की नाल । नर्तन-संज्ञा, पु० (सं०) नाच, नृत्य । नलुबा--- संज्ञा, पु० दे० ( हि० नल = गला ) नर्तना8 -- अ० क्रि० दे० (सं० नत्तन) नाचना। छोटा नल या चोंगा । नर्द संज्ञा, स्त्री० ( फ़ा० ) चौपड़ की गोट, नव-वि० (सं०) नूतन, नवीन, नया, नौ "फूटे ते नर्द उठि जात बाजी चौपर की"। की सख्या, ६ । नर्दन-संज्ञा, स्त्री. (सं० ) भयंकर शब्द, नवक-संज्ञा, पु. ( सं० ) नौ वस्तुओं का नाँदना (दे०)। वि० नर्दित । समूह । नर्म - संज्ञा, पु० (सं० नर्मन् ) दिल्लगी, हँसी, नघकुमारी संज्ञा, स्त्री. यौ० (सं०) नवरात्रि परिहाल, हँसी-ठट्ठा, रूपक (नाटक) का एक में पूजनीय नौ कुमारी कन्यायें । भेद (नाट्य) । वि० (हि.) नरम । नवग्रह-संज्ञा, पु. यौ० (सं०) चन्द्रमा, सूर्य, नर्मद--संज्ञा, पु० (.) भाँड़, मसखरा । मंगल, बुध, बृहस्पति, शुक्र, शनि, राहु, नर्मदा-संज्ञा, स्त्री० (सं०) एक नदी, नर्वदा। केतु, नौ ग्रह हैं। नर्मदेश्वर--संज्ञा, पु. यौ० ( स० ) नर्वदा नवकावरि, न्यौडावर -संज्ञा, स्त्री० दे० नदी से प्राप्त शिव लिंग या मूर्ति । (हि. निछावर) उतार, उतारा, बारा फेरा, नमद्यति · संज्ञा, स्त्री० (सं०) नाटक का एक उत्सर्ग, कोई वस्तु किसी के ऊपर उतार कर अंग (नाट्य ० ) । किसी को देना। नम-लचिव-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) विदूपक, नवतनां - --- वि० यौ० द० ( सं० नवीन ) दिल्लगीबाज़। नूतन, नया, नवोन. हाल का। नल --संज्ञा, पु० (सं०) नरकट, कमल, निषध नवदुर्गा---संज्ञा, स्त्री० यो० (सं०) नौ देवी, देश के राजा वीरसेन के पुत्र । “नलः स | शैलपुत्री, ब्रह्मचारिणी, चन्द्रघंटा कूष्माण्डा, भूजानिरभूद् गुणाद्भुतः"-- नैष राम- स्कन्दमाता, कात्यायिनी. कालरात्री, महादल का एक बन्दर । यौ० नल-नील । संज्ञा, । गौरी, सिद्धिदा। पु० (सं० नाल) लोहे का पोला गोल लम्बा नवधाभक्ति- संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं० ) नौ खंड, पनाला, नाली, बंबा, पाइप (अं)। तरह की भक्ति श्रवण, कीर्तन, स्मरण, पादनलकूबर-संज्ञा, पु० यो० (सं०) कुवेर के पुः । सेवन अर्चन, वंदन, सख्य, दास्य, श्रात्मनलसेतु-संज्ञा, पु० यौ० (सं नल-निर्मित निवेदन, नौधा भगति--(दे०)। " नौधा वह पुल जिप से राम सेना लंका गई थी। भगति कहौं तोहि पाहीं"- रामा० । नला-संज्ञा, पु० दे० ( हि० नल ) पेशाब नवन - संज्ञा, पु० दे० (सं० नमन) नमस्कार, उतरने की नली, नल ।। प्रणाम, झुकना, नम्र होना। नलिका--संज्ञा, स्त्री० (सं०) नली, चोंगा, नवना-...अ० क्रि० दे० ( सं० नमन ) नम्र एक गंध-द्रव्य, एक पुराना हथियार, नाल, होना. झुकना, लचना, प्रणाम करना। तरकश, तूणीर, भाथा । "जिमिन नवै पुनि उकठिकुराह'-रामा। नलिनी-संज्ञा, स्त्री० (सं०) कमलनी, कमल, नवनि -संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. नवना ) अधिक कमल उत्पन्न होने वाला देश, नदी, दीनता, नम्रता, मुकने का भाव । "नवनि एक छंद (पिं०)। नीच की है दुखदाई"-रामा० । For Private and Personal Use Only Page #994 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir नवनीत, नौनीत १८३ नवाजना नवनीत, नोनीत (दे०) - संज्ञा, पु. (सं०) प्रतिपदा (परिवा) से नवमी तक की नौरातेंमक्खन नैनू । "साहत कर नवनीत लिये" जिनमें दुर्गा देवी के नव रूपों की पूजा --सूर०। होती है। नवपदो संज्ञा, खी० यौ० (सं०) नौ चरण नवल-वि० (सं०) नया, नवीन, नूतन, वाला एक छंद (पि०)। सुन्दर, युवा, स्वच्छ, उज्वल । “सोह नवल नवम-वि० (सं०) नवाँ । स्त्री० नवमी, तन सुन्दर सारो"-- रामा० । नौमी (दे०)। नवल ननंगा-संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) एक नवमल्लिका–संज्ञा, स्त्री०। सं० ) चमेली, प्रकार की मुग्धा नायिका, नव यौवना।। निवाड़ी, मालती। नवलकिशोर-संज्ञा, पु. यौ० (सं०) श्री नघमालिका-सज्ञा, स्त्री० (सं०) नवमालिनी कृष्ण । “इन नयननि भरि देखि हौं, सुन्दर छन्द (पि०)। नवलकिशोर"-- स्फु०।। नवमी-सज्ञा, स्त्री० (सं०) नौमी तिथि। नवल वधु-संज्ञा, स्त्री० यो० (सं० ) एक नवयज्ञ--संज्ञा, पु० यौ० (सं०) वह यज्ञ जो मुग्धा नायिका । नवीन यज्ञ के निमित्त किया जाता है। नवला-संज्ञा, स्त्री० (सं०) जवान स्त्री, युवती। नवयवक-संज्ञा, पु० यौ० (सं.) तरुण, नशिक्षित-संज्ञा, पु. यौ० (सं०) नौपढ़ा, नौजवान । स्त्री. नवयुवती। नौ सिखिया, अाधुनिक शिक्षा प्राप्त । नवयुवा --संज्ञा, पु० यौ० ( सं० नवयुवक ) नवसत -- संज्ञा, पु० यौ० (सं० नव । सत = तरुण, नौजवान । सप्त) सोलह शृंगार । वि० (दे०) सोलह । नवयौवना--संज्ञा, त्री० यौ० (सं०) नौजवान | नवसप्त-- संज्ञा, पु० यौ० (सं०) सोलह शृङ्गार, स्त्री, मुग्धानायिका।। सोलह । " सजि नव सप्त सकल हुति नारंग-वि० यो० (सं० नव+रंग हि०) दामिनी''-- रामा० । सुन्दर, नये ढंग का नवेला. नया रंग। नतसर--- संज्ञा, पु० यौ० (हि. नौ+ मृक-सं०) नवरंगी-वि० यो० (हि. नवरंग ई- नौ लरों या लड़ों का हार या माला। प्रत्य० ) हँसमुख, खुश मिजाज़. नये रंग वि० यो० दे० ( सं० नव + वत्सर ) नौयुवा, वाला, प्रति दिन नवीन श्रानन्द करनेवाला। नौ जवान । नघरत्न--संज्ञा, पु० यौ० (सं०) नौ जवाहिर, नवससि --संज्ञा, पु. यौ० दे० (सं० नव जैसे-हीरा, मोती, मानिक, पन्ना, गोमेद- शशि ) नूतन चन्द्रमा, नया चाँद, द्वितीया मूंगा, पद्मराग, नीलम, लहसुनिया । विक्र. का चन्द्रमा। मादित्य की सभा के नवरत्न-कालिदाप, नवाई --संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. नवना ) नम्र धन्वतरि, क्षपणक, अमरसिंह. शंकु, बैताल- होने का भाव । 18 वि० (दे०) नया, नूतन, भट्ट, वररुचि, घटसर्पर,वाराह मिहर, नवरत्नों | नबीन । का हार या माला। नवागत-वि० यौ० (सं०) नवीन प्रागत, नघरस-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) काव्य के नव- नया आया हुआ। रस । “शृङ्गार हास्य करुणा, रौद्र, वीर भया- नवाज, शिवाज, नेवाज-वि० दे० (फा०) नकः। वीभत्स्याद्भुत विज्ञेय शान्तश्च दया या कृपा करने वाला। नवमो रसः'-सा द०। नवाजना*- स० क्रि० दे० ( फा० नवाज ) नवरात्र · संज्ञा, पु. यौ० (सं०) नौरात दया या अनुग्रह दिखलाना, कृपा या दया (दे०) नवदुर्गा, नौदुर्गा, क्वार और चैत-सुदी करना, निवाजना, नेवाजना (दे०) । For Private and Personal Use Only Page #995 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir नवाडा १८४ नषत - नवाड़ा-संज्ञा, पु. (दे०) एक तरह की नाव। नशा-संज्ञा पु० (फा० वा प्र०) मादक दशा। नवाढिया- वि० (दे०) नया, अनुभव-हीन । मुहा०-नशा किर्राकरा हो जानानवाना-स० क्रि० दे० (सं० नवन) झुकाना, नशे का मज़ा मिट जाना। प्राखों में नशा लचाना, प्रणाम करना। छाना-मस्ती चढ़ना। नशा जमनानवान्न-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) फ़सिल का अच्छा नशा होना । नशा हिरन होनानूतन अन, नया अनाज । किसी आपत्ति से नशा बिलकुल उतर जाना। नवाब -- संज्ञा, पु० दे० (अ० नवाब ) बाद- मादक वस्तु । यौo-नशापानी--मादक शाह का स्थानापन, सूबेदार, मुसलमानों वस्तु और उसका सारा सामान, नशे की की पदवी। वि. बड़ी शान शौकत और सामग्री । धन-विद्या अदि का घमंड, मद, अमीरी ठाट-बाट में रहने वाला। गर्व । मुहा०-नशा उतारना (उतरना) नघावी -- संज्ञा, पु० स्त्री० दे० ( हि० नवाब + | -अहंकार मिटाना (मिटना)। ई-प्रत्य० ) नवाब का कार्य पद या दशा, नशाखोर-संज्ञा, पु० ( फ़ा० ) नशा सेवी, राजत्व काल, नवाबों का सा शासन, बहुत नशेबाज, नसेड़ी (ग्रा०)। अमीरी, अंधेर (व्यंग्य,। नशाना -२० क्रि० दे० (सं० नाश ) नवासा-संज्ञा, पु. (फा०) लड़की का नसाना (दे०) नष्ट करना, बिगाड़ना। लड़का, दौहित्र । स्त्री० नवासी। नशावना-स. क्रि० द० (हि. नसाना नवाह---संज्ञा, पु. ( सं०) किसी पवित्र का प्रे० रूप ) नाश करना। पुस्तक का पाठ जो नौ दिनों में पूरा हो, नशीन-वि० (फा० ) बैठने वाला। नवान्हिक। नशोनी-संज्ञा, स्त्री० ( फा० ) बैठने की क्रिया नवीन-वि० (सं० ) नया, नूतन, अपूर्व, या भाव, बैठक। जैसे - तख्त-नशीनी । अनोखा । स्त्री० नवीना नौ जवान । | नशीला-- वि० ( फ़ा० नाश :-ईला---प्रत्य०) नवीनता-संज्ञा, स्त्री. ( सं० ) नयापन, ! मादक, नशोत्पादक । स्त्रो० (दे०) नशीली। नूतनता, नव्यता । मुहा०-नशीली आँखें--मदमस्त पाखें, नवीस-संज्ञा, पु० ( फ़ा० ) लेखक, लिखने वे श्राखें जिनमें मस्ती हो। वाला, जैसे-नकलनवीस । नवीसी-संज्ञा, स्रो० (फा० ) लिखाई, नशेबाज़-संज्ञा, पु० (फा० ) मद्य या मादक लिखने की क्रिया या भाव । वस्तु सेवी, नसेड़ी (ग्रा०)। नवेद-संज्ञा, पु० दे० (सं० दिवेदन ) निमं- नशोहरी-वि० दे० ( सं० नाश ---योहर त्रण, न्योता, बुलौना, निमंत्रण-पत्र । -प्रत्य० ) नाशक । नवेला- वि० दे० ( सं० नवल ) नया, | नश्तर-संज्ञा, स्त्री० पु. ( फा०) नस्तर नूतन, नवीन, जवान, तरुण । स्त्री० नवेली। (दे०) छोटा और तेज चाकू या छुरी, जिससे नघोढ़ा-संज्ञा, स्त्री० (सं०) हाल की व्याही फोड़े श्रादि चीरे जाते हैं । मुहा०नववधू, नौजवान, नवयौवना, समान लज्जा | नश्तर लगाना-चीड़ना, टीका लगाना। और शील वाली नायिका। नश्वर---वि० (सं०) नष्ट होने वाला, नाश नव्य-वि० (सं०) नूतन, नवीन, नया। होने योग्य । संज्ञा, स्त्री० (सं०) नवरता । संज्ञा, स्त्री० (सं०) नव्यता । नष-संज्ञा, पु० दे० ( हि० नख) नाखून । नशना--अ० क्रि० दे० (सं० नाश ) नष्ट नषत-संज्ञा, पु० दे० (सं० नक्षत्र ) नक्षत्र, या नाश होना, नसना (दे०) । नछत्र, नखत (ग्रा०)। For Private and Personal Use Only Page #996 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १८५ नहरुमा नष्ट-वि० (सं०) जो नाश हो गया हो, जो नसावना ---अ० कि० दे० (सं० नाश) दिखाई न दे, नीच, व्यर्थ, प्रस्तारादि की बिगाड़ना, खराब या नष्ट करना। एक क्रिया (पि.)। यो०-नष्ट-प्राय- नसीनी, नसेनी-नसैनी-संज्ञा, स्त्री० दे. लगभग नष्ट । (सं० निः श्रेणी) सीढ़ी। नष्टता-संज्ञा, स्त्री० (सं०) नष्ट होने का भाव नसीब, नसीबा-संज्ञा, पु. (म.) भाग्य, दुराचारिता, व्यर्थता। प्रारब्ध, तकदीर, किस्मत । मुहा०नष्टबुद्धि-वि० यौ० (सं०) मूर्ख, मूद। नसीब होना-मिलना, प्राप्त होना । नष्टभ्रष्ट--वि• यौ० (सं०) जो बिलकुल नसीब जागना ( फूटना)-भाग्य उदय नाश, खराब या बरबाद हो गया हो। (मंद) होना। संज्ञा, पु. (दे०) अभाग्य, नष्टा-संज्ञा, स्त्री० (सं०) वेश्या, रंडी, कुलटा दुर्भाग्य। व्यभिचारिणी। नसीबवर-वि० ( अ० ) भाग्यवान । नसंक-वि० दे० (सं० निःशंक ) निडर, नसीहत-संज्ञा, स्त्री० (अ०) सीख, शिक्षा। निर्भय, बेधड़क, निमंक (दे०)। नसूर, नासूर-संज्ञा, पु० (दे०) पुराना घाव, नस- संज्ञा, स्त्री० दे० ( सं० स्नायु) नाड़ी. नस पर का घाव । रंग । मुहा०-सूखी नसों का रक्त- नसूढ़िया-वि० (दे०) अमंगलकारी, बुरा, प्राण-प्रिय (प्रि० प्र०)। मुहा०-नस मनहूस । चढ़ना या नस पर नस चढ़ना-रग में नस्ता-संज्ञा, स्त्री० (दे०) नाक का छेद, बरद होना । नस २ में-सारे शरीर में। नथुना। नस २ फड़क उठना = अति प्रसन्न होना। नस्य-संज्ञा, पु० (सं०) सुंघनी, नास । (सूखी) नसों में रक्त दोड़ना-जोश नस्वर*-वि० दे० (सं० नश्वर) नाशवान। या नया जीवन आना। न है, नहाँ--संज्ञा, पु० दे० (सं० नख ) नसतरंग-संज्ञा, पु० यौ० (हि० नस । तरंग) नाखून । यौ०-नहँ-विष । जैसा एक बाजा। नहछू, नहँछुर--- संज्ञा, पु० दे० (सं० नखक्षौर) नसतालोक-संज्ञा, पु० (अ.) स्वच्छ और व्याह में वर के नाखून काटने की एक रीति सुन्दर लिपि या लेख । या रस्म, नाखुर (ग्रा०)। नसना -अ० क्रि० दे० (सं० नशन ) नाश नहन-संज्ञा, पु० (दे०) पुर खींचने की मोटी या नष्ट होना, खराब वा बरबाद होना। रस्सी, नार (ग्रा०) । संज्ञा, पु० (दे० दहना) बिगड़ जाना । क्रि० वि० दे० (हि. नटना) नाँधना, जोतना। भागना । प्रे० रूप----सवाना। नहना-स० कि० दे० (हि० नाधना ) नसल, नस्ल--संज्ञा, स्त्री० (अ.) जाति. जोतना, नाधना, काम में लगाना । वंश, कुल, धौलाद । नहर--संज्ञा, स्त्रो० (फा० ) वह कृत्रिम जल मसपार-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. नास+वार धारा जो किसी नदी या झील से खेतों की -प्रत्य०) नास, सुंघनी, पिसी तमाकू ।। सिंचाई के लिये निकाली गई हो। नसाना क्रि० प्र० दे०(सं० नाश) नष्ट, नहरन, नहरनी-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० नख+ खराब या बरबाद हो जाना, बिगड़ जाना। हरणी) नाखून काटने का हथियार, नहन्नी ७० क्रि० (दे०) नष्ट करना, बिगाड़ना, (ग्रा०), 'नहरन हू टूटो रहै"..-कुं० वि० । नठाना (ग्रा.)। "अबलौं नसानी बना नहरुमा--संज्ञा, पु० (दे०) एक रोग जिसमें बसैहौं'-सूर०। घाव से सूत जैसे कीड़े निकलते हैं। मा. २००-२४ For Private and Personal Use Only Page #997 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir नहलाई, नहवाई नहलाई, नहवाई-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. नाँगा-वि० दे० (सं० नग्न) नंगा. नग्न । नहलाना ) नहलाने का भाव या क्रिया या संज्ञा, पु० (हि० नंगा) नंगे रहने वाले नागा, मजदूरी, हनधाई, अन्हवाई (ग्रा.)। साधु, दिगंबर।। नहलाना-स० कि० (हि.) स्नान कराना, नाँघना -स० क्रि० दे० (सं० लंघन)लाँघना, नहुषाना, हनवाना, अन्हेघाना (प्रा.)। कूद कर इधर से उधर जाना। "जो नहसुन-स० कि० दे० ( नखसुत) नाखून | नांधै सत जोजन सागर "-रामा० । का चिन्ह या नख-रेखा। नाँठना - अ० क्रि० दे० (सं० नष्ट ) नष्ट नहान-संज्ञा, पु० दे० (सं० स्नान ) नहाने होना, बिगड़ना। की क्रिया या पर्व, अन्हान, न्हान, हनान नाँद-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० नंदक) हौदा, मिट्टी असनान (ग्रा०) स्नान । का एक बड़ा बरतन, पशुओं के चारा-पानी नहाना-अ.क्रि० दे० (सं० स्नान ) स्नान देने का पात्र । करना, जल से शरीर धोना,या साफ करना। | नाँदना*-अ. क्रि० दे० (सं० नाद) गर्जना, मुहा०-दूधों नहाना, पूतों फलना- शब्द करना, छींकना, ललकारना । अ० क्रि० धन-कुटुंब से परिपूर्ण या भरा-पूरा होना। दे० ( सं० नंदन ) प्रसन्न होना, दीपक का तर हो जाना, अन्हाना, हनाना। स० प्रे. बुझने के पूर्व भभकना। रूप-नहवाना। नांदिया-संज्ञा, पु० (दे०) शिव जी का नहार-वि० दे० (फा० मि०, सं० निराहार ) नाँदी बैल । बासी मुह, विना आहार किया। नाँदी-संज्ञा, स्त्री. (सं०) समृद्धि, बढ़ती, नहारी-संज्ञा, स्त्री० दे० (फा० नहार) उदय, अभ्युदय, मंगलाचरण । ( नाट्य०) जलपान । "नंदति देवता यस्मात्तस्मामांदीति कीर्तिता"। नहिंछ-प्रव्य० दे० (हि० नहीं) नहीं। "नहि संज्ञा, पु० (सं०) नांदी, शिव-गण, बैल । नहि नहीत्येववदते"। यौ०-नांदीपाठ । नहीं, नाही-भव्य० दे० (सं० नहि) निषेध नाँदीमुख-संज्ञा, पु० (सं०) बालक के जन्म या अस्वीकार-सूचक अव्यय, न, मत, ना। समय का श्राद्ध, जातकर्म । यौ० नांदी" नाही कहे पर वारे हैं प्रान, तौ वारिहैं। मुख श्राद्ध । का फिर हाँ कहने पर"-वल। महा0 नाँदीमुखी-संज्ञा, स्त्री० (सं०) एक वर्ण वृत्त नहीं तो-जब कि ऐसा न हो, अन्यथा। (पि.) नहीं सही (न सही)-यदि ऐसा न हो नाँयँछ-संज्ञा, पु० दे० ( सं० नाम ) नाम । तो कुछ हानि नहीं है। अव्य० (ग्रा०) न । अन्य० (दे०) नहीं, नहुष-संज्ञा, पु० (सं०) एक राजा, एक नाग, समान । विष्णु । “गालव, नहुष नरेस"-रामा। नाँच–संज्ञा, पु० दे० (सं० नाम ) नाम । नहसत-संज्ञा, स्त्री० दे० (१०) अशुभ लक्षण, "प्रात लेय जो नाँव हमारा"-रामा । उदासीनता, अशकुन, मनहूसी । " नहूसत ना-अव्य० (सं०) नहीं, नहि,मत। "साँकरी चपोरास्त मँडला रही है "-हाली। गली मैं प्यारो हांकरी न ना करी"। नाईक-प्रव्य० (दे०) समान, सदृश, तरह ।। नाइ-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० नौ) नाव, नैय्या, "जो तुम अवतेउ मुनि की नाई"-रामा० नौका । पू० का० दे० (हि० नवाना) नाय, नाँउँ, नाँऊँ-संज्ञा, पु० दे० (सं० नाम)। नवाकर, फैलाकर । “अस कहि माइ सबन नाम । नाँघ (दे०)। यौ०-नाँव-गाँव । । कहँ माथा"-रामा० । For Private and Personal Use Only Page #998 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir नाका नाइक-संज्ञा, पु० दे० (सं० नायक) नायक, चढ़ना (चढ़ाना)-रोष या क्रोध पाना स्वामी । स्त्री० (दे०) नाइका-नायिका। (करना ), स्योरी चढ़ना । नाक लम्बी नाइत्तफाको संज्ञा, स्त्री. (फा० ) फूट, होना (करना)-बड़ी शान या प्रतिष्ठा विरोध, मतभेद। होना । नाकों चने चबवाना (चबाना) नाइन-संज्ञा, स्त्री० (हि. नाई) नाई या नाई। बहुत ही तंग या हैरान करना ( होना )। जाति की स्त्री, नायनि, नाउनि (ग्रा.)। । नाक-भौं चढ़ाना या सिकोड़ना-क्रोध नाइब --संज्ञा, पु० दे० (म० नायव) नायब । या अप्रसन्नता प्रगट करना, धिनाना,चिढ़ना, नाई-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० न्याय ) तरह, ना पसंद करना । नाक में दम करना समान, तुल्य । " उमा दारु योषित की या लाना ( होना, रहना)-बहुत तंग नाई"-रामा०। या हैरान करना ( होना) बहुत सताना । नाई-संज्ञा, पु० दे० (सं० नापित ) नाऊ " नाक दम रहै जौ लौ नाक दम रहै तो नउघा, नौवा (ग्रा०) बाल बनाने वाला। लौ" ।नाक रगड़ना ( रगड़ाना)नाउँ*-संज्ञा, पु० दे० (सं० नाम ) नाम, बहुत बिनती करना ( कराना ) या गिड़ नाँव (ग्रा०)। गिड़ाना, मिन्नत करना । नाकों दम पाना नाउ*-संज्ञा, स्त्री० (सं० नौ) नाव, नौका। (होना)-बहुत तंग या परेशान होना। नाउन, नाना -संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. नाक सिकोड़ना-घिनाना, अरुचि नाऊ ) नाइन, नउनिया (ग्रा.)। प्रगट करना । दिमाग़ का मल जो नाक नाउम्मेद-वि० (फ़ा०) निराश ' संज्ञा, स्त्री० से निकलता है, रेंट, नेटा (ग्रा० प्रान्ती०)। (फा०) नाउमेदी। यौ०-नाक सिनकना (छिनकना)नाऊो-संज्ञा, पु० दे० (सं० नापित) नाई। नाक कामल सान करना। शोभा या प्रतिष्ठा नाकद-वि० दे० (फा० ना+वंदः) बिना ___ की चीज़, मान, प्रतिष्ठा । मुहा०-नाक निकाला हुआ बैल या घोड़ा धादि. रख लेना-प्रतिष्टा या इज्जत रख लेना। अशिक्षित, बिना सिखाया, बिना काढ़ा, संज्ञा, पु० दे० (सं० नक) मगर, घड़ियाल | अल्हड़। "नाक-उरग-झष व्याकुल मरता"।-संज्ञा, नाक-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० नक ) नासिका, पु. (सं०) स्वर्ग, वैकुंठ, आकाश, हथियार नासा, "लछिमन तेहि छिन तामह, नाक- की एक चोट। कान बिन कीन्ह"- रामा० । “ नाक-कान नाकडा-संज्ञा, पु० दे० (हि. नाक+डाबिनु गई विकराला"-रामा० । मर्यादा, प्रत्य० ) नाक पक जाने का एक रोग, प्रतिष्ठा । यो०-नाक घिसनी-बिनती, नाका (दे०)। गिड़गिड़ाहट । नाक रगड़ना-बड़ी नाकदर-वि० (फा० ना+अ. द्र) प्रतिष्ठा विनय के साथ आग्रह या प्रयत्न करना, या इज्जत-रहित । संज्ञा, स्त्री० नाकदरी। दीनतादिखाना. आधीन होना । महा- नाकना*--स. क्रि० दे० (सं० लंघन) नाक कटना–प्रतिष्ठा या इज्जत मिटना। फाँदना, उलंघन करना, लाँधना, बढ़ जाना, नाक रहना (जाना)-प्रतिष्ठा या मर्यादा हरा देना, डोकना (ग्रा०)। रहना ( जाना )। नाक-कान काटना- नाकबुद्धि-वि. यौ० (हि. नाक+बुद्धिकठिन सज़ा या दंड देना । किसी की सं०) कमसमझ, मंदमति । नाक का बाल-निष्ठ मित्र या बड़ा नाका-सज्ञा, पु० दे० ( हि ताकना ) रास्ते मंत्री, सलाही, सदा का साथी । नाक का पाखीर, मार्ग का छोर, घुसने का द्वार, For Private and Personal Use Only Page #999 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir नाकाबंदी, नाकेबंदी १८८ नागपाश प्रवेशद्वार, मुहाना, मार्ग का प्रारम्भ-स्थान । नागरि, नागारि--संज्ञा, पु० यौ० (सं०) मुहा०-नाका छकना या बाँधना- नाग-शत्रु, गारुड़, सिंह । “जिमि ससि चहै आने-जाने का रास्ता बंद करना या रोकना, नाग-परि-भागू - रामा०। कर या महसूल उगाहने की चौकी, थाने | नागकन्या-संज्ञा, स्त्री० यौ० ( सं०) नाग की चौकी, सुई का छेद। ___ जाति की बेटी जो अति सुन्दरी होती है। नाकाबंदी, नाकेबंदी-संज्ञा, स्त्री० यौ० नागकेशर, नागकेसर, नागकेसरी-संज्ञा, (हि. नाका-+बंदी फ़ा.) किसी मार्ग से पु० दे० (सं० नाग केशर ) एक पौधा जिसके आने-जाने की रोक या रुकावट, प्रवेश-मार्ग फूल औषधि के काम आते हैं, नागचंपा, बंद करना। " एला नागकेसर कपूर समभाग करिनाकिन-संज्ञा, स्त्री. (दे०) वह स्त्री जो कं० वि०। नाक के स्वर बोले, नकस्वरी, नकनकही नागगर्भ-संज्ञा, पु. यौ० ( सं० ) सिंदूर। (ग्रा०)। नाग चम्पेय-संज्ञा, पु. (सं० ) नागकेसर । नाकिस-वि. (अ.) खराब, बुरा। । नागज-संज्ञा, पु. (सं०) सेंदुर, रंग।। नाकुली-संज्ञा, स्त्री० दे० ( सं० नकुल ) सर्प नागभाग* --संज्ञा, पु० यौ० (हि. नागविष-नाशक एक जड़ी। __ माग) अफीम। माकेदार-संज्ञा, पु. दे. (हि. नाका+ नागदंत-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) हाथी दांत, फा० दार ) नाके या फाटक के सिपाही, कर खूटी। या महसूल लेने वाला अफसर । वि० जिसमें जसमे नागदंतक-संज्ञा, पु० यौ० { सं० ) घर में छेद हो। लगे खुटे, ताखा, पाला। नाक्षत्र-वि० (सं० ) नक्षत्र-संबंधी। नाखना-स. क्रि० दे० ( सं० नष्ट ) नाश नागदंती-संज्ञा, स्त्री. ( सं० ) विशल्या, करना, बिगाड़ना, ख़राब करना, फेंकना, इंद्र बारुणी। गिराना । स० क्रि० दे० (हि. ताकना) नागदमन-संज्ञा, पु. यौ० (सं०) नागउलंघन करना। " हाथ चाप वाण ले गये। दौन ( द० पौधा)। गिरीस नाखिकै-रामा० । नाग दमनी-संज्ञा, स्त्री० (सं०) छोटा नागनाखना, नाखुना-संज्ञा, पु. ( फा० ) एक दौना। नेत्र रोग विशेष । नागदौन-संज्ञा, पु० दे० (सं० नागदमन) एक नाखुश-वि० (फा० ) नाराज़, अप्रसन्न ।। छोटा पहाड़ी पौधा जिसके पास साँप नहीं संज्ञा, स्त्री. नाखुशो।। आता, नाग दौना। नाखून-संज्ञा, पु० दे० (फा० नाखुन ) नख, ! नागनग-संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) गजमोती, नहँ। वि० नाखूनी-बहुत पतली रेखादार। (दे०) गज-मुक्ता।। नाग--संज्ञा, पु० (सं०) साँप, सर्प । नाग पंचमी - संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) सावन स्त्रो०-नागिन । मुहा०-नाग खिलाना शुक्ला पंचमी, गुडिया (ग्रा.)। (पालना )-ऐसा कार्य जिसमें मरने नागपत--संज्ञा, पु. यौ० (सं०) सर्पराज, का भय हो ( शत्रु पालना)। पाताल के वासुकी, हाथी राज, ऐरावात, नागेन्द्र । देवता, एक देश, पर्वत, हाथी, राँगा, सोसा, नागपाश-संज्ञा, पु. यौ० (सं०) एक अस्त्र नागकेसर, पान, एक वायु, बादल, पाठ विशेष जिससे बैरियों को बाँध लेते थे की संख्या, बुरा मनुष्य, एक जाति । (प्राचीन)। For Private and Personal Use Only Page #1000 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भाग-फनी १८१ नागौरी बाग-फनी-संज्ञा, स्त्री० यौ० (हि. नाग+ स्त्री, चतुर, प्रवीण स्त्री, देवनागरी लिपि या फन ) एक औषधि, कान का एक गहना।। भाषा, हिन्दी। वागफाँस-संज्ञा, पु० दे० यौ० ( सं० नाग+ नागलोक-संज्ञा, पु. यौ० (सं०) पाताल । पाश) नाग-पाश । '' नाग-फाँस बाँधेसि लै नाग-वंश-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) शक जाति गयऊ"-रामा०। की एक शाखा जिसका राज्य भारत में कई नाग-बला -- संज्ञा, स्त्री० (सं० ) गँगेरन जगह था।। (औष०)। नागवल्ली, नागवल्लरी- संज्ञा, स्त्री० यौ० नाग-बेल-संज्ञा, स्त्री० दे० यौ० (सं० नग (सं० ) पान, नागरबेल, नागबेल । बल्लो) पान, पान की बेल । नागधार - वि० ( फा० ) असह्य, अप्रिया। नागभाषी-संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं० ) पाताल नागा--संज्ञा, पु० दे० (सं० नग्न ) नंगा। की बोली, प्राकृतिभाषा। संज्ञा, पु. (अ. नाग ) अासाम की भाग-माता-संज्ञा, स्त्री. ( सं० ) नागों की पहाड़ी के जंगली मनुष्य, उनकी पहाड़ी। माँ-कद जो कश्यप की स्त्री है ! 'नागमाता संज्ञा, पु० दे० ( सं० नागः ) अन्तर, बीच, निषूदिता"-वा. रामा। गैरहाज़िरी । “ पढिबे मैं कबहूँ नहीं, नागा नागर-वि० (सं० ) शहर या नगर-वासी। करिये चूक"-. । संज्ञा, पु. (सं०) नगर-वासी चतुर मनुष्य, नागाहा-संज्ञा, स्त्री० (सं०) नागदौना, मरुमा सभ्य, निपुण, शिष्ट, देवर, गुजराती ब्राह्मणों (प्रान्ती० ) नागदमन । की एक नाति । स्त्री. नागरी। नागारि-संज्ञा, पु. यौ० (सं० ) गरुड़, नागरता-संज्ञा, स्त्री० ( सं० ) शहरातीपन, नकुल, न्याला, मार । " नागारि-बाहन सभ्यता, चतुरता । "हँसै सबै कर ताल दे, सुधाब्धि-निवास शौरे"-शं० । नागरता के नाउँ'---वि० । नागार्जुन-संज्ञा, पु. ( सं० ) एक प्राचीन नागर-घेल-संज्ञा, स्त्री० यौ० द० (सं० नाग बौद्ध महात्मा। नागाशन-संज्ञा, पु. यौ० (सं०) गरुड़, मोर, बल्ली) पान,नागर बेली। सिंह। नागर-मुस्ता -संज्ञा, स्त्री. (सं०) नागर । नागिन-नागिनि-नागिनी-संज्ञा, स्त्री. (हि. मोथा। नाग) साँपिनी, साँपिन, नाग की स्त्री, नागर-मोथा-संज्ञा, पु० दे० (सं० नागर मनुष्य प्रादि के पीठ की लम्बी लोमपंक्ति मुख्ता ) एक जड़ी (औष०)। (अशुभ)। नागराज-संज्ञा, पु. यौ० ( सं०) शेष नाग, नागेन्द्र-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) बड़ा साँप, शेष ऐरावत, नागेश, एक छंद (पि.)। | नाग, वासुकी, ऐरावत, नागेश, नागेश्वर । नागरिक-वि० (सं०) नगर का, नगर- नागेसर-संज्ञा, पु० दे० ( सं० नागकेशर ) वासी, शहराती, सभ्य, चतुर। नागकेशर, नागेश्वर, शेष । नागरिकता-संज्ञा, स्त्री. (सं०) चतुरों नागोद-संज्ञा, पु. (द०) छाती का कवच । के द्वारा संग्रह होने की दशा, चतुरता, नागौर-संज्ञा, पु० दे० (हि. नव+नगर ) शहरातीपन। एक शहर । नागरिपु-संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) नकुल, ! नागौरी-वि० दे० (हि. नागौर ) नागौर न्योला, मोर, गरुड़, सिंह, नागारि। का बैल । वि० स्त्री० (दे०) नागौर-सम्बन्धी नागरी-संज्ञा, स्त्री० (सं०) नगर-निवासिनी गाय या असगंध । जय चतर। For Private and Personal Use Only Page #1001 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ६६० नाधना नाट्य मंदिर नाघना - प्र० क्रि० दे० (सं० लंघन ) लाँघना, नाज़िम - वि० (अ०) प्रबन्ध या बन्दोबस्त फ़ाँदना, डाँकना । करनेवाला | संज्ञा, पु० (०) सूबेदार । नाज़िर - संज्ञा, पु० ( प्र०) देख-भाल करने वाला, निरीक्षक, मीर मुंशी, खाजा, का दलाल । रंडियों नाच - संज्ञा, पु० दे० (सं० नाट्य ) नृत्य, ० - नाच काछना - नाचने नाट्य । मुहा०को तैयार होना । ( कठपुतली का) नाच नाचना (तारों पर) - किसी के श्राधीन हो उसके इशारे पर कार्य करना । नात्र दिखाना - उछलना, कूदना, हाथ पाँव हिलाना, अनोखा श्राचरण करना । नाच नचाना - मन माना कार्य कराना, तंग या हैरान करना । नंगा नाच नाचनानिर्लज्जता का कार्य करना। खेल, कर्म । नात्र कूद - संज्ञा, स्त्री० यौ० (हि० नाच + कूद) खेल कूद, नाच- तमाशा, प्रयत्न, धायोजन, डींग, क्रोध से उछलना । नाचघर - संज्ञा, पु० यौ० (हि०) नृत्यशाला । नाचना - प्र० क्रि० दे० ( हि० नाच ) नृत्य करना, थिरकना, घूमना, चक्कर लगाना । मुहा० - सिर पर नाचना-ग्रसना, घेरना, निकट या पास थाना । आँख के सामने नाचना - प्रत्यक्ष के समान दिल में जान पड़ना । दौड़ना-धूपना, हैरान होना, काँपना, थर्राना, क्रोध से उछल-कूद मचाना, बिगड़ना | नाच महल - संज्ञा, पु० यौ० दे० ( हि० नाच + अ० महल) नाच घर, नृत्यशाला । नाचरंग - संज्ञा, पु० यौ० ( हि० ) जलसा, प्रमोद-प्रमोद | नाचार - वि० (फ़ा० ) लाचार, मजबूर, असमर्थ, विवश, निरुपाय | संज्ञा, स्त्री० नाचारी । नाचीज़ - वि० ( फा० ) पोच, तुच्छ । नाज) - संज्ञा, पु० दे० (हि० अनाज) अनाज, अन्न । यौ० - नाजमंडी । 1 नाज़ -संज्ञा, पु० (फ़ा० ) नखरा, चोचला । मुहा० - नाज़ उठाना -नखरा या चोचला सहना, गर्व, घमंड | नाजनी - संज्ञा, स्त्रो० (फ़ा० ) सुन्दरी स्त्री । नाजायज़ - वि० ( ० ) अयोग्य, अनुचित । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir -- नाजुक - वि० (का० ) सुकुमार, कोमल, नरम, पतला, सूक्ष्म, कमजोर । यौ० नाजुक मिज़ाज -जो थोड़ी सी भी तकलीफ़ न सह सके, जोखों का कार्य । For Private and Personal Use Only - नाट - संज्ञा, पु० (सं०) नाच, नृत्य, नक़ल, स्वाँग, एक देश, उस देश का निवासी । नाटक - संज्ञा, पु० (सं०) लीला या अभिनय करने वाला, नट, रंगशाला में घटनाओं का प्रदर्शन, वह पुस्तक जिसमें स्वाँग के द्वारा चरित्र दिखाया गया हो, दृश्यकाव्य, रूपक । यौ० - नाटककार । नाटकशाला - संज्ञा स्त्री० यौ० (सं०) नाटक होने का ठौर या स्थान, नाट्यशाला । नाटकावतार - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) एक नाटक के बीच में दूसरे का आविर्भाव । नाटकिया नाटकी - वि० दे० ( दि० नाटक ) नाटक का अभिनय करने वाला । नाटकीय - वि० (सं०) नाटक -सम्बन्धी । नाटना - प्र० क्रि० दे० (सं० नाट्य - बहाना) प्रतिज्ञा तोड़ देना, वादा पूरा न करना । स० क्रि० (दे०) नामंजूर या अस्वीकार करना । नाटा - वि० दे० (सं० नत = नीचा) छोटे डील-डौल का, बावन, बौना । त्रो० नाटी । नाटिका - संज्ञा, स्त्री० (सं०) दृश्य काव्य जिस में ४ ही अंक होते हैं (नाट्य०) नाही । नाट्य – संज्ञा, पु० (सं०) नटों का कार्य, नाच-गान और बाजा, अभिनय, स्वाँग । नाट्यकला - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) अभिनयकला । यौ० - नाट्य- कौशल । नाट्यकार - संज्ञा, पु० (सं०) नाटक करने वाला, नट । नाट्यमंदिर - संज्ञा, पु० यौ० नाट्यशाला, रंगशाला, प्रेक्षागृह । ( सं० ) Page #1002 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir नाट्यरासक नदिन नाट्यरासक-संज्ञा, पु. (सं०) वह रूपक वह स्थान जहाँ से नाड़ियाँ या रगें सब या दृश्य काव्य जिसमें एक ही अंक हो। अंगों-प्रत्यङ्गों को जाती हैं। नाट्यशाला-संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) वह नाड़ो मंडल--संज्ञा, पु. या० (सं०) विषुवत् स्थान जहाँ पर नाटक का खेल या अभिनय रेखा, देह का नाड़ी समूह । किया जावे। नाडी-वलय--संज्ञा, पु. यो ० (सं०) समय नाट्यशास्त्र-संज्ञा, पु. यो० (सं०) नाच. जानने का एक यंत्र। गाना और अभिनय की विद्या की पुस्तक, नाता-संज्ञा, पु० दे० (सं० जाति) सम्बन्धी, भरत मुनि-प्रणीत एक प्राचीन ग्रंथ । नाते या रिश्तेदार, सम्बन्ध, रिश्ता । नाट्यालंकार --- संज्ञा, पु. (सं०) नाटक में नातो (ब्र०) । यो० (ग्रा०) नातगोत । रोचकता या सौंदर्य बढ़ाने वाला विधान। नातर-नातरु*-अव्य० दे० या ० (हि. ना+ नाट्योक्ति-संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) नाटकों तर, तरु) नहीं तो, और नहीं तो, अन्यथा, में विशेष विशेष पुरुषों के लिये संबोधन, "नातरु नेह राम सों साँचो"-वि०।। जैसे-(पति के लिए)-भार्य-पुत्र। नातवाँ-वि० (फा०) निर्बल, कमज़ोर, होन । नाठ - संज्ञा, पु० दे० (सं० नष्ट ) ध्वंस, नाता-संज्ञा, पु० (सं० जाति) जाति-सम्बन्ध, लगाव, सम्बन्ध, रिश्ता। नाश, अभाव। | नाताकत-वि० (फा० न+ताकृत-प्र.) पाठना* -- स० क्रि० दे० (सं० नष्ट) नाश, निर्बल, हीन, क्षीण। संज्ञा, स्त्री० नाताकती। नष्ट या ध्वस्त करना, नठाना (ग्रा०)। नाती-संज्ञा, पु० दे० (सं० नप्त ) लड़के या माठा-संज्ञा, पु० दे० ( सं० नष्ट ) जिसके | लड़की का लड़का। स्त्री० नतिनी, नातिन । गरिस या दायभागी न हो, अकेला, अस- नाते-क्रि० वि० दे० (हि. नाता ) सम्बन्ध से, हेतु, वास्ते, लिये। नाठिया, नठिया-वि० (दे०) नष्टी, (२०) नातेदार-वि० दे० (हि. नाता+दार फ़ा०) नष्ट, बुरा. नठेल (ग्रा.)। सगा, सम्बन्धी, रिश्तेदार । ( संज्ञा, स्त्री० नाड़-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० नाल ) गरदन, । प्रीवा। नाथ-संज्ञा, पु० (सं०) स्वामी, मालिक, नाड़ा-संज्ञा, पु० दे० (सं० नाड़ी) इजारबंद, प्रभु, पति । सज्ञा, स्त्री० दे० (हि. नाथना ) नीवी, देवताओं को चढ़ाने का रंगीन गंडे- नाथने का भाव या क्रिया, पशुओं की नकेल दार तागा। . या नाक की डोरी। नाड़ी-संज्ञा, स्त्री० (सं०) नली, धमनी, रग, नाथना-स० कि० दे० (हि. नाथ्य) पशुओं "नाही धत्ते मरुत्-कोपे जलौकासर्पयोर्ग- की नाक छेद कर उसमें रस्सी डालना, नत्थी तिम्"-भाव० । मुहा०-नाड़ी चलना करना, लड़ी जोड़ना। - हाय की नाड़ी का हिलना, डोलना। नाथद्वारा-संज्ञा, पु. यौ० (सं० नाथद्वार) जयनाड़ी छूट जाना-नाड़ी का न चलना।। पुर राज्य में वल्लभ-संप्रदाय का एक स्थान । नाड़ी देखना-नाड़ी से रोगी की दशा | नाद-संज्ञा, पु. (सं०) धावाज़, शब्द, का विचार करना । घाव या नासूर का छेद, संगोत, वणेचारण-स्थान, अर्ध चन्द्र । बंदूक की नली, समय का मान जो छै क्षण यो०-नादविद्या--संगीत-शास्त्र । का होता है। नादन-संज्ञा, पु० दे० (सं० नदन) शब्द या नाडी-चक्र-संज्ञा, पु. यौ० (सं०) शरीर का वनि करना, गरजना। For Private and Personal Use Only Page #1003 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - नादना नानामत नादना-स० क्रि० दे० ( सं० नदन ) बाजा नानक-पंथी - संज्ञा, पु. यौ० ( हि. नानक बजाना । अ० क्रि० (दे०) बजना, गरजना, +पंथ ) सिक्ख । चिल्लाना, शब्द करना। अ० क्रि० (सं० नानाशाही--वि० (हि.) गुरु नानक नन्दन ) लहलहाना, लहकना, प्रफुल्लित संबंधी, नानक शाह का चेला या शिष्य या होना, प्रारम्भ करना। अनुयायी, लिक्ख, सिख (दे०)। नादविंदु-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) विन्दु-सहित नानकार-संज्ञा, पु० (फा०) माफ़ी ज़मीन, अर्ध चन्द्र, योगियों के ध्यान करने का तत्व: । बिना कर की भूमि । नादलो-संज्ञा, स्त्री० ( अ०) संगयश की नानकीन-संज्ञा, पु० दे० ( चीनी-नानकिङ्) चौकोर टिकिया जो यंत्र के तुल्य बाँधी एक तरह का सूती कपड़ा। जाती है। नानखताई - संज्ञा, स्त्रो० (फा०) टिकिया सी नादान-वि० ( फा०) मूर्ख, मूढ़, अज्ञान, एक सोंधी ख़स्ता मिठाई। अजान, श्रनारी, बेसमझ । संज्ञा, स्त्री. नानबाई - संज्ञा, पु. ( फ़ा० नानबा, नानबफ) नादानी। रोटियाँ बना बना कर बेचने वाला। नादार-वि० फा० (संज्ञा, स्त्री० नादारी) नानसरा-संज्ञा, पु० (दे०) ननिया ससुर, कंगाल, दरिद्र, निर्धन, बुरा, नदार (ग्रा०) पति या स्त्री का नाना ननसार (दे०)। नादित-वि० (सं०) ध्वनित. क्वणित, नाना-वि० ( सं० ) अनेक प्रकार के, बहुत, निनादित-संजात शब्द, शब्दयुक्त। । अनेक । संज्ञा, पु० (दे०) माता का बाप या नादिम–वि. (अ०) शरमिंदा, लज्जित । पिता, मातामह । स्त्री० नानी । स० क्रि० नादिया-संज्ञा, पु. (सं० नंदी) नंदी, शिव (सं० नमन ) झुकाना, लचाना, नीचा गण, वह बैल जिसे साथ लेकर लोग भीख करना, फेंकना, घुसाना । संज्ञा, पु. (अ.) माँगते हैं। पुदीना । यौ-अर्क नाना-लिरकानादिर-वि० ( फ़ा० ) अनोखा, अद्भुत, सहित पुदीने का अर्क। अजीब । नानाकार--संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) अनेक नादिरशाहो---संज्ञा,स्त्री० (फा०) बड़ा अन्याय, रूप के, विविधि भाँति के। अंधेर, अत्याचार वि० बड़ा कठोर या उग्र। नानाकारण-संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) भांति नादिहंद-वि० (फा०) न देने वाला जिससे भाँति के कारण, अनेक प्रकार के हेतु। धन उसूल न हो सके । नादेहन्द (दे०)। नानाजातीय-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) अनेक नादी-वि० (सं० नादिन ) स्त्री० नादिनी प्रकार या तरह के। ध्वनि या शब्द करने वाला. बजने वाला। नानात्मा—संज्ञा, पु० यौ० (सं०) श्रात्मभेद । नाधना-स. क्रि० दे० ( सं० नद्ध ) जोतना, पृथक पृथक या भिन्न भिन्न श्रात्मा । जोड़ना, संबंध करना, गूंथना या गंधना. नानाध्वनि-संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) अनेक प्रारंभ करना या ठानना। । प्रकार के शब्द, अनेक भाँति की ध्वनियाँ । नाधा-पंज्ञा, पु० (दे०) पानी निकलने का नामाप्रकार-संज्ञा, पु. यौ० (सं०) अनेक मार्ग, बैलों के जुये में बाँधने की रस्सी। ___ भाँति, विविधि भाँति बहुविधि ।। नान--संज्ञा, स्त्री० (फ़ा०) रोटी, चपाती, वि. नानाभाँति-संज्ञा, पु० यौ० ( सं० ) अनेक (दे०) बारीक, महीन, छोटा। प्रकार, तरह तरह, रंग रंग के। नानक-संज्ञा, पु. (दे०) लिक्ख संप्रदाय के नानामत-संज्ञा, पु० (सं०) भिन्न भिन्न मत । भादि गुरु । बहुविधि सिद्धान्त । For Private and Personal Use Only Page #1004 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir नानारूप नाम नानारूप-संज्ञा, पु० (सं०) अनेक भाँति या नापाक-वि० (फ़ा०) अपवित्र, मैला-कुचैला, प्रकार । " सुन्दर खग रव नाना रूपा"- | अशुद्ध । संज्ञा, स्त्री० नापाकी । रामा०। नापित-संज्ञा, पु० (सं०) नाऊ, नाई, हज्जाम। नानार्थ-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) अनेक अर्थ । नाफ़ा-संज्ञा, पु. (फ़ा०) कस्तूरी की थैली । नाना-विधि-वि० यौ० (सं०) अनेक प्रकार नाबदान-संज्ञा, पु० ( फा० ना+भाव+ या उपाय । “नाना बिधि तहँ भई लड़ाई" दान) नरदा नरदवा, पनाला, पनारा(दे०)। रामा०। नाबालिग़-वि० (अ.+फा०) जो जवान नानाशास्त्रज्ञ-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) विविध न हुआ हो, न्यून, युवा । संज्ञा, स्त्री. नाबाविद्या-विशारद, षट् शास्त्री। लिगी। नानिहाल-संज्ञा, पु० दे० यौ० (हि. नानी नाबूद-वि० (फा०) नष्ट-भ्रष्ट, ध्वस्त । +पाल = घर ) नाना या नानी का घर नाभ-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० नाभि ) नाभि, या स्थान, नेनाउर, ननिहाल, ननियाउर | नाभी, तोंदी, ढोंढी, शिव जी, एक राजा, नानी-संज्ञा, स्त्री० (दे०) माता की माता, अस्त्री का एक संहार । "पद्मनाभं सुरेशम् " -- रामा० । मातामही। मुहा०-नानी याद आना नाभादास-संज्ञा, पु० (दे०) भक्तमाल-लेखक या मर जाना-श्राफ़त सी आ जाना, दुख सा पड़ जाना। एक वैष्णव साधु । नानुकर-संज्ञा, पु० दे० (हि. ना+करना) नाभाग-संज्ञा, पु० (सं० ) एक सूर्यवंशीय नाही या इन्कार करना । राजा। नान्हा-वि० दे० ( सं० न्यून ) नन्हा, लघु, नाभि-संज्ञा, स्त्री० (सं०) गाड़ी के पहिये के छोटा, महीन, पतला, नीच, तुच्छ । मुहा० बीच का खंड, चक्र-मध्य, नाभी, तोंदी, -नान्ह ( नन्हा ) कातना-बहुत ही कस्तूरी । संज्ञा, पु० प्रधान राजा, व्यक्ति या महीन बारीक या हलका कायें करना, पदार्थ, गोत्र, क्षत्रिय । महा कठिन या दुष्कर कार्य करना । नामंज़र-वि० (फ़ा०) अस्वीकार, जो माना नान्हक-संज्ञा, पु० ( दे० नानक) नानक । | न गया हो । संज्ञा, स्त्री० नामंजूरी। नान्हरिया *--वि० दे० (हि. नान्ह ) नाम-संज्ञा, पु० (सं० नामन्) संज्ञा, भारव्या, छोटा। किसी पदार्थ का बोधक शब्द, नाँव (प्रा.)। नान्हा -वि० दे० (हि० नन्हा ) नन्हा, वि० नामी । मुहा०-नाम उछालनाछोटा। बदनामी या निन्दा कराना । नाम उठ नाप-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० मापन ) माप, जाना-चिन्ह मिट जाना। किसी बात तौल, परिमाण । का नाम करना-कोई कार्य नाम मात्र नाप-जोख-नापतौल-संज्ञा, स्री० यौ० को करना, पूर्ण रूप से न करना । किसी (हि०) नापना+जोखना=तील ) मात्रा या परिमाण, जो तौल-नाप कर ठहराई जावे । का नाम करना (होना)-किसी की नापना-स० क्रि० दे० (सं० मापन) मापना । ख्याति या प्रशंसा करना (होना)। नाम का मुहा०-सिर नापना-सिर काटना । -नाम-धारी, कहने भर को | नाम के रास्ता नापना-चलते बनना । किसी लिये या नाम को-थोड़ा सा, कहने भर पदार्थ का परिमाण जानना। को, यथार्थ । नाम चढ़ना (चढ़ाना)नापसंद-वि० (फा०) अप्रिय, जो अच्छा न नामावली में नाम लिख (लिखा) जाना। लगे, अरोचक। नाम चलना-नाम की याद बनी रहना। भा० श. को०-१२५ For Private and Personal Use Only Page #1005 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir नाम नाम-धाम नाम भी न रहना-कोई भीचिह्ननरहना। किसी नाम से-किसी शब्द के द्वारा नाम जपना-बारम्बार नाम लेना, सहारे विख्यात होकर । किसी के नाम सेरहना। नाम-धरना-दोष लगाना, निंदा या चर्चा से, किसी से संबंध बता कर, यह बदनामी करना,ऐब बताना । नाम धराना कहना कि वह कार्य किसी की ओर से है, -नाम-करण कराना, बदनामी कराना, किसी को हकदार या स्वामी बना कर, किसी निन्दा कराना । नाम न लेना-बचना, के भोग या उपयोग के लिये। नाम से दूर रहना, चर्चा भी न करना । नाम निकल कॉपना-नाम सुनते ही डर जाना या जाना-किसी बात के लिये विख्यात या भय मानना । नाम होना-दोष या बदनाम हो जाना । किसी के नाम पर- कलंक लगना, नाम प्रसिद्ध होना । किसी के हेतु या निमित्त । किसी के ख्याति, प्रसिद्धि, यश, कीर्ति । मुहा०नाम पड़ना-किसी के नाम के आगे नाम कमाना या करना-ख्याति या लिखा जाना, ज़िम्मेदार रखा जाना । प्रसिद्धि प्राप्त करना, विख्यात या मशहूर किसी के नाम पर मरना या मिटना- होना । नाम को मर मिटना-सुकीर्ति किसी के प्रेम में लीन होना या खपना। या सुयश के हेतु निज को तबाह करना । नाम पर मरना-ख्याति या मर्यादा के नाम जगाना ( जगना)-निमल यश लिए मरना । किसी के नाम पर बैठना- फैलाना (रहना)। नाम डुबाना (डूबना) किसी के भरोसे पर संतोष कर बैठ रहना। --सुयश और सुकीर्ति नष्ट करना (होना)। किसी का नाम बद करना-कलंक | नाम पर धब्बालगाना-बदनामी करना, लगाना, बदनामी करना। नाम बाकी | यश में कलंक लगाना । नाम निकालना रहना-सदा यश रहना, केवल नाम ही --विख्यात होना, नेकनाम होना । नाम रह जाना, और कुछ भी नहीं। नाम पाना-प्रसिद्ध होना, कीर्ति पाना । नाम बिकना-नाम प्रसिद्ध या विख्यात होने रह जाना—यश या कीर्ति की चर्चा रह से मान-सम्मान होना । नाम मिटना | जाना। (मिटाना)-नाम या यश का मिट जाना, नामक-वि० (सं०) नाम वाला, नाम से सर्वथा विनष्ट, लुप्त या प्रभाव हो जाना। विख्यात या प्रसिद्ध । नाम मात्र-नाम भर को, थोड़ा, अल्प | नामकरण, नामकर्म-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) कोई नाम रखना-नाम निश्चित करना, बच्चे का नाम रखने का १६ संस्कारों में से नाम-करण करना । नाम लगाना-किसी एक । “नाम-करन कर अवसर जानी-मा०। दोष या अपराध के संबंध में नाम लेना, नामकीर्तन-संज्ञा, पु. यौ० (सं०) नवधा दोष मदना, अपराध लगाना। किसी भक्ति का एक भेद, भगवान का नाम लेना। के नाम लिखना--किसी के नाम के आगे नामजद-वि० (फ़ा०) विख्यात, प्रसिद्ध, लिखना या टाँकना, किसी के जिम्मे लिखना। किसी का नाम किसी काम के लिये चुन किसी का नाम लेकर-नाम के प्रभाव या निश्चित कर लेना। से, नाम को याद करके । नाम लेना- नामदेव--संज्ञा, पु. ( सं०) मरहठी के एक नाम कहना, या जपना, गुण गाना, चर्चा | बिख्यात विष्णु-भक्त कवि । करना । नाम या निशान (नामो-निशां) नामधराई-संज्ञा, स्त्री० यौ० (हि० नाम+ -खोज, चिन्ह, पता । “ बाकी मगर है | धराना ) निंदा, अयश, अपकीर्ति । भब भी नामों-निशां हमारा"-इक० । नाम-धाम--संक्षा, पु. यौ० (हि. नाम+ For Private and Personal Use Only Page #1006 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir नामधारी नार घाम ) नाम और स्थान । यौ० नाम-ग्राम | नाम्ना-वि० ( सं० ) नाम वाला। (स्त्री० -पता, ठिकाना। नाम्नी)। नामधारी-वि० यौ० (सं०) नामक, नाम नायँ, नाव--संज्ञा, पु० दे० (हि. नाम ) वाला, नामी। नाम । अव्य० (दे०) नहीं। नामधेय-संज्ञा, पु. (सं०) नाम, संज्ञा । नाय-पू० का० स० कि० (दे० नाना ) फैला वि० नाम वाला, नाम का। “चौरैः कर, नवा कर. नाइ (ब)। प्रभोवलिभिरिन्द्रिय नामधेयैः --शं० । नायक-संज्ञा, पु० (सं०) नेता, अगुना, नामनिशान (नामोनिशाँ)--संज्ञा, पु. यौ० स्वामी, सरदार, अधिपति, वह पुरुष जिसके (फ़ा०) नाम और पता। चरित्र पर नाटक बना हो, संगीत में कलानाम-बोला--संज्ञा, पु० यौ० (हि. नाम+ वन्त, एक छन्द (पिं०)। “देखत रघुनायक बोलना ) ईश्वर का नाम लेने वाला, भक्त । जन-सुखदायक संमुख होइ कर जोरि रही" नामर्द-वि० (फ़ा०) क्लीव, नपुंसक, हिजड़ा, -रामा०। "तरुन सुघर सुन्दर सकल कामकायर, डरपोक । संज्ञा, स्त्री. नामदीं। कलानि प्रवीन । नायक सो 'मतिराम' कह, नामलेवा--संज्ञा, पु. यौ० दे० ( हि नाम | कवित-गीत-रस-लीन" । स्त्री० नायिका। +लेना ) नाम लेने या याद करने वाला, | नायन,नाइन--संज्ञा, स्रो० (हि. नाई) नाइनि, वारिस, उत्तराधिकारी। नाई की स्त्री, नाउनि, नउनिया (प्रा०) । नामवर-वि० (फा०) जिसका नाम बहुत नायब-संज्ञा, पु. (१०) सहायक, मुनीम । विख्यात या प्रसिद्ध हो, प्रसिद्ध, विख्यात, संज्ञा, स्त्री० नायबी, नयाबत (पु.)। नामी। संज्ञा, स्त्री. नामवरी। नायाब- वि० (फ़ा०) दुर्लभ, अत्युत्तम, श्रेष्ठ । नामशेष-वि• यौ० (सं०) जिसका केवल | नायिका--संज्ञा, स्त्री० (सं०) अत्यन्त सुन्दरी नाम ही शेष हो, ध्वस्त, नष्ट, मृत । रूप-गुण-युक्त स्त्री, वह प्रधान स्त्री जिसका नामांकित-वि० यौ० (सं०) जिस पदार्थ पर चरित्र नाटक में हो। "उपजतजाहि विलोकि किसी का नाम लिखा, छपा या खोदा हो। कै, चित्त बीच रस-भाव । ताहि बखानत नामाकल-वि० यौ० (फा० ना+अ० माकूल) | नायिका, जो प्रवीन कविराव"-मतिः । अयोग्य, अनुचित, प्रयुक्त । नायिकी-संज्ञा, स्त्री० (सं०) नायक की स्त्री, नामा-वि० दे० (सं० नामन् ) नामधारी, | दूती, कुटिनी, नायक का भाव या काम । नामक । संज्ञा, पु० (प्रान्ती०) रुपये आदि | नारंग-संज्ञा, पु. (सं०) नारंगी। का भांज। नारंगी-संज्ञा, स्त्री० दे० ( सं० नागरंग, अ. नामावली-संज्ञा, स्त्री० (सं०) नामों की पंक्ति, नारंज ) नारंगी का पेड़ या फल, नारंगी के पत्र या सूची, रामनामी वस्त्र । छिलके सा पीला-लाल मिला रंग। नामित-वि० (सं०) नवाया, लचाया हुआ। नार-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० नाल) गरदन, नामी-वि० (हि. नाम+ई-प्रत्य० अथवा ग्रीवा । मुहा०-नार नघाना या नीचा सं० नामन् ) नामवाला, नामधारी, विख्यात, करना-सिर या गर्दन झुकाना, नीची दृष्टि प्रसिद्ध । करना, जुलाहों की ढरकी, नाल । सिंज्ञा, नामुनासिष-वि० (फा०) अयोग्य, अनुचित । पु. आँवलनाल, नाला, बहुत मोटा रस्सा, नामुमकिन-वि० (फा०+१०) असम्भव । इजारबन्द, जुवा जोड़ने की रस्सी। १ संज्ञा, नामूसी-संज्ञा, स्त्री० (अ० नामूस = इज्जत) | स्त्री० दे० (सं० नारी) स्त्री, एक छन्द (पिं०) अप्रतिष्ठा, बेइज्जती, बदनामी। झुण्ड, (पराभों का)। For Private and Personal Use Only Page #1007 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org नारक ६६ नालकी नारक - वि० (सं० नरक) नरक सम्बन्धी, वहाँ के जीव । " नारकी - वि० (सं० नारकिन) नरक में जाने या रहने के योग्य, पापी । पाव नारकी हरिपद जैसे " - रामा० । नारद - संज्ञा, पु० (सं०) एक देवर्षि जो ब्रह्मा के पुत्र भगवद् भक्त और कलह - प्रिय थे। वि० झगड़ा कराने वाला पुरुष । वि० नारदी । नारद-पुराण – संज्ञा, पु० यौ० (सं०) तीर्थ व्रत-माहालय-पूर्ण एक पुराण । ( औष० ) । " कुरुराज ने नारायणी तब सेन धातुर है लई " - - मैथ० । नारायणीय - वि० (सं०) नारायण - सम्बन्धी | नारायन, नरायन - संज्ञा, पु० दे० (सं० नारा(a) नारायण । नाराशंस - वि० (सं०) किसी की प्रशंसा की पुस्तक, स्तुति सम्बन्धी, प्रशस्ति, पितरों के सोम-पान देने का चमचा, पितर । नाराशंसी - संज्ञा, त्रो० (सं०) वह पुस्तक जिसमें मनुष्यों की प्रसंशा हो । नारि-संज्ञा, स्त्री० (सं० नारी) औरत, नारी, स्त्री, नाड़ी। B नारदीय - वि० (सं०) नारद - सम्बन्धी । नारना -- स० क्रि० दे० (सं० ज्ञान ) थाह लेना, पता लगाना । "ये मन हीं मन मोकों नारति” – सूबे० । नार-बेवारां– संज्ञा, पु० यौ० ( हि० नार + विवार = फैलाव सं० ) जन्मे हुये बच्चे की नाल, नारा-पेटी । नारसिंह - संज्ञा, पु० दे० यौ० (सं०) नृसिंह, नरसिंह, नरहरि, एक तंत्र, एक उप पुराण । वि० (सं०) नृसिंह- सम्बन्धी । नारा - संज्ञा, पु० दे० (सं० नाल ) नीवी, इज़ारबन्द कमरबन्द, कुसुंभ-सूत्र, हल के जुयें की रस्सी, नाला । नाराच - संज्ञा, पु० (सं०) वाण, शर, तीर, बुरा दिन, दुर्दिन, जब बादल छाया हो और उपद्रव होते हों, एक वर्ण वृत्त-ज, र, ज, र, ज गुरु वर्ण का महामालिनी, तारका, एक छन्द (पिं० ) । नाराज़ - वि० ( फा० ) ख़फ़ा, नाखुश, अप्र सन्न, रुष्ट | संज्ञा, त्रो० नाराज़गी, नाराजी । नारायण – संज्ञा, पु० (सं०) परमेश्वर, विष्णु, पूषमास, (अ) अक्षर, एक उपनिषद, एक वाण । नर-नारायण की तुम दोऊ 39 66 रामा० । नारायणी - संज्ञा, स्त्री० (सं०) दुर्गा देवी, गंगा जी, लक्ष्मी जी, श्री कृष्ण जी की सेना जो दुर्योधन को दी गयी थी, शतावर Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir नारिकेल - संज्ञा, पु० (सं०) नारियल । नारियल - संज्ञा, पु० दे० (सं० नारि केल ) नारियल का पेड़ या फल, उसका हुक्का । नारी - संज्ञा, स्त्री० (सं०) स्त्री, धौरत, एक वृत्त । | संज्ञा, त्रो० (दे०) नाड़ी, नाली, एक पक्षी, जुएँ की रस्सी । नारू -- संज्ञा, पु० (दे०) जुवाँ, जूँ, ढील, नहरुथा रोग । नालंद - संज्ञा, पु० (सं०) बौद्धों का पुराना विश्वविद्यालय या क्षेत्र, जो पटने से ६० मील पर दक्षिण की घोर था । नाल - संज्ञा, खो० (सं० ) कमल, कमलनी यदि फूलों की पोली दंडी, पौधों का डंठल, नली, नल, बन्दूक की नली, सुनारों की फुंकनी, जुलाहों की नली, छूछा | संज्ञा, पु० धवल, नारा, लिंग, हरताल, पानी बहने की जगह | संज्ञा, पु० (०) घोड़े यादि के पावों और जूतों में लगाने की लोहे की नाल, व्यायामार्थं पत्थर का गोल चक्कर, वह रुपया जो जुधारी अड्डा रखने के लिये देते हैं। नालकटाई -संज्ञा, खो० यौ० दे० ( हि० ) तत्काल जन्में बच्चे के नाल काटने का कार्य या मज़दूरी । नालकी - संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० नाल = पालकी, शिविका, डोली For Private and Personal Use Only = टंड) Page #1008 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir नालबंद नासना नालबंद-संज्ञा, पु. यौ० (प्र. नाल+ खेल, नावनवरिया । " जनु नावरि खेलहि बन्द फ़ा० ) घोड़ों या बैलों के पैरों या जूतों । सरिमाहीं "-रामा० । "बहै करिया बिन में नाल बाँधने या जड़ने वाला। संज्ञा, नाउर".-गिर। स्त्री०-नालबंदी। नाधिक-संज्ञा, पु. (सं०) केवट, मल्लाह । नाला-संज्ञा, पु० दे० (सं० नाल ) जल- | नाश-संज्ञा, पु० (सं०) किसी वस्तु का लोप प्रवाह-मार्ग, बरसाती पानी के नदी आदि या लय हो जाना. मिट या नष्ट हो जाना। में बहकर जाने की बड़ी नाली, छोटी नदी, दिखाई न देना, ध्वंस, बर्बाद, नास (दे०) । नारा, नरवा, (ग्रा०) । ( स्त्री. अल्पा० नाशक-वि० (सं०) नष्ट, नाश, या ध्वंस नाली)। करने वाला, मारने या वध करने वाला, नालायक-वि० (फा० ना+ लायक प्र०) | मिटाने या दूर करने वाला, नाश कारक । अयोग्य, निकम्मा । संज्ञा, स्त्री. नालायकी। | नाशकारी नाशकरी-वि० पु०, स्त्री० (सं. नालिक-संज्ञा, पु० (दे०) अग्न्यास्त्र, बंदूक, | नाश । कारिन् ) नाश करने वाला, नाशक । तोपा नाशन-संज्ञा, पु. (सं०) हनन, मारण, ध्वंस नालिका-संज्ञा, स्त्री० (सं०) छोटा डंठल या करण। नाल, नली, नाली, नलिका, एक गंध नाशना*-स० क्रि० दे० (हि. नासना) द्रव्य । नासना, नष्ट करना । नालिश-संज्ञा, स्त्री० (फा०) फर्याद, निवेदन। नाशनीय- वि० (सं०) नष्ट करने योग्य । नालिसिंदुक-संज्ञा, पु० (दे०) सँभालू । नाशपाती-संज्ञा, स्त्री० (तु.) एक प्रसिद्ध नाली-संज्ञा, स्त्री० (हि. नाला) पानी बहने । फल । “ नासपाती खाती ते बनासपाती का पतला सा मार्ग, मोरी, ढरका, नली।। खाती हैं--भू०।। संज्ञा, स्त्री० (सं०) नाड़ी. धमनी, करेमू की नाशवान--वि० (सं०) अनित्य, नश्वर । भाजी, घड़ी, कमल, छोटा नाला नाशाद-वि० (फ़ा०) अप्रसन्न । नालीक-संज्ञा, पु० (सं०) कमल | " याति नाशित-संज्ञा, पु० (सं०) ध्वंसित, हत, नालीक-जन्मः "-भो० प० । उच्छेदित । ना*-संज्ञा, पु० दे० (हि० नाम ) नाम। नाशितव्य-वि० (सं०) नाश या नष्ट करने नाव-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० नौका ) नौका. योग्य । नइया, नैय्या (ग्रा०) " माँगत नाव करारे | नाशी- वि० (सं० नाशिन् ) नाशक, नाशहै गढ़े" - कवि० । कारी, नश्वर । स्त्री० नाशिनी। नायक - संज्ञा. पु. ( फा० ) एक छोटा तीर, नाश्ता - संज्ञा, पु. (फ़ा०) जल-पान । बाण, किरात । " सतसैया के दोहरा, ज्यों नास-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० नासा ) सुधनी, नावक के तीर"। शहद की मक्खी का नाश । मुहा०-नास लेना-संघना। डंक । संज्ञा, पु० दे० (सं० नाविक) मल्लाह, नासदान-संज्ञा, पु० यौ० (हि. नास-+ केवट । “ऐ नावक पतवार छोड़ दे"। फ़ा० दान, सं० अाधान ) सुँघनी रखने नावना-स० कि० दे० (सं० नामन) नवाना, की डिबिया। लचाना, झुकाना, डालना या फेंकना, | नासना - स० कि० दे० (सं० नाशन) नाश गिराना, घुसाना, प्रविष्ट करना, उड़ेलना। या नष्ट करना, मार डालना । “संसृत, नावर-नावरि -संज्ञा स्त्री० दे० (हि. सन्निपात दारुण दुख बिन हरि-कृपा न नाव ) नाव, नौका, नाउर (ग्रा०) नाव का । नासै"-विनय० । For Private and Personal Use Only Page #1009 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - नासत्य १६८ निंदन नासत्य-संज्ञा, पु. (सं०) अश्विनी कुमार। नास्तिकवाद-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) परमे. नासमझ---वि० यौ० (हि. ) मंद या अल्प- __ श्वर, परलोक और वेद-प्रमाण न मानने का बुद्धि या निर्बुद्धि । संज्ञा, नासमझी। । सिद्धान्त । वि० नास्तिकवादी। नासा - संज्ञा, स्त्री. (सं०) नाक, नासिका, नास्य-वि० (सं०) नासासंबंधी, नाक का । नथुना । " असुभ रूप श्रुत नासाहीना" | संज्ञा, पु. ( सं०) नाक में पैदा होने वाला, -नामा० । वि० नस्य। बैल की नाक में लगाने की रस्सी, नाथ । नासापाक-संज्ञा. पु० यौ० (सं०) नाक का | नाह* --संज्ञा, पु० दे० ( सं० नाथ ) स्वामी, एक रोग। पति, प्रभु, अधिपति, मालिक । "कह मुनि नासापुट-संज्ञा. पु. यौ० (सं० ) नथुना। सुनु नर-नाह प्रवीना"-रामा०। नासाभेदन -- संज्ञा, पु. यौ० ( सं० ) नक- नाहक-क्रि० वि० ( फा० ना+अ. हक ) छिकनी घास, नाक छेदने वाला, नाक छेदना। व्यर्थ, वृथा, निष्पप्रयोजन । नासा वामावर्त ---संज्ञा, पु. यौ० (सं०) | नाह-नूह-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. नाही) नथबेसर, नथुनी, नथ । नहीं, नाही, अस्वीकार, इनकार, नाहींनहीं। नासामल-संज्ञा, पु. यौ० (सं०) नाक का नाहर-संज्ञा, पु० दे० ( सं० नाहरि ) व्याघ्र, मैल। बाघ, सिंह, शेर । संज्ञा, पु० (दे०) टेसू का नासायानि-संज्ञा, पु. यौ० (सं०) नपुंसक।। फूल । " नाह गरजि नाहर-गरज, बोल नासिक-संज्ञा, पु. (सं० नासिक्य ) महा. सुनायो टेरि"-वि०।। राष्ट्र देश में एक तीर्थ है। नाहरू-संज्ञा, पु० (दे०) नहरुवा रोग, नाहर, नासिका--- संज्ञा, स्त्री० ( सं०) नाक, नासा, | सिंह, बाघ, बाज ( काश्मीर ) चमड़े का "मुख नासिका श्रवण की बाटा''-रामा०। टुकड़ा, मोंट खींचने का रस्सा । 'मारसि नासी -वि० दे० (सं० नाशिन ) नासक गाय नाहरू लागी"--रामा० । बाज नाहरू (दे०) नाशक, नाश करने वाला । स्त्री. कहत है, काशमीर शुभदेश । दोहा । नासिनी। नाहल-संज्ञा, पु० (दे०) म्लेच्छों की एक नासीर-संज्ञा, पु० (सं०) अग्रसर, अग्र- जाति । गामी, सेनापति के आगे चलने वाली नाहि नाहि-प्रव्य (दे०) नाही, नहीं, सेना। संज्ञा, स्त्री० (दे०) नस । नाहिन । नासूर-संज्ञा, पु० (अ०) नस का पुराना नाहिनैछ-प्रव्य० दे० (हि. नाही) नहीं है । घाव, नाडी-व्रण (सं०)। नाहीं-अव्य० दे० (हि. नहीं) नहीं। नास्ति-अ० क्रि० यौ० (सं०) नहीं है, अविद्य- नाहुषि-संज्ञा, पु. (सं०) राजा नहुष का मानता, अभाव। “सत्ये नास्ति भयं क्वचित" | पुत्र, ययाति । - स्फु० । नित-नितं-कि० वि० दे० ( सं० नित्य ) नास्तिक--संज्ञा, पु० (सं०) वेदों का प्रमाण, | नित्त, नित्य, सदा, सर्वदा।। परमेश्वर तथा परलोक को न मानने वाला, निंद*-वि० दे० (सं० निंद्य ) निन्दनीय, अनीश्वरवादी, वेद-निन्दक, शरीर-धात्मवादी, निन्दा-योग्य । “नहि अनेक सुत निंद" पाखंडी, बौद्ध । नास्तिकता-संज्ञा, स्त्री० (सं०) नास्तिक्य। निंदक-संज्ञा, पु० (सं०) निंदा करने वाला। परमेश्वर, परलोक और वेद को न मानने का | निंदन-संज्ञा, पु. ( सं० ) निद्य, निंदा करने ज्ञान । | का कार्य । वि० निंदनीय, निंदित । For Private and Personal Use Only Page #1010 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir निंदना निभाउ, नियांव निंदना-स० कि० दे० (सं० निंदन) निंदा निःश्रेयस-वि० (सं० ) कल्याण, मुक्ति, करना, बुराई या बदनामी करना। मोक्ष, भक्ति, विज्ञान । " यतोऽभ्युदय निंदनीय-वि० (सं० ) बुरा, गो, निन्दा निःश्रेयस सिद्धिः स धर्मः"-वै०६०। करने के योग्य। निःश्वास-संज्ञा, पु० (सं०) नाक से निंदरना-स० कि० दे० (हि० निंदना) निंदा निकलने वाली या निकाली वायु, साँस । करना, निंदना। "निश्वास नैसर्गिक सुरभि यों" ---मै०श० । निंदरिया - संज्ञा, स्त्रो० दे० ( दे. निद्रा) निःसंकोच-क्रि० वि० (सं०) बेखटके, नींद, निंदिया (ग्रा.)। बेधड़क, बिना संकोच । निंदा-संज्ञा, स्रो० (सं०) किसी की बुराई निःसंग--वि० (सं०) निर्लिप्त, स्थार्थ-बिना, करना, अपवाद, बदनामी। "नहँ कहुँ निंदा बेलगाव । सुनहि पराई"-रामा० । (दे०) नींद। निःसंतान- वि० (सं०) लावल्द, संताननिंदासा-वि० दे० (हि. नदि+आसा- रहित, निपता, निपुत्री, निःसंतति । प्रत्य०) उनींदा, नींद से व्यथित, जिसे नींद | निःसंदेह--वि० (सं०) बेशक, संदेह-रहित । भारही हो। निःसंशय-वि० ( सं०) निःसंदेह, बेशक । निदास्तुति-संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) स्तुति निःसत्व-वि० (सं०) सार या तत्व-रहित । के बहाने निंदा व्याजस्तुति, हजोमली(फा०)। निःसरण--संज्ञा, पु. ( सं० ) रास्ता, मार्ग, निदित--वि० (सं०) बुरा, क्षित, खोटा, जिस निकास, निर्वाण, मरण, मुक्ति। की लोग निदा करें। निःसीम-वि० (सं०) अपार, अनंत, असीम । निदिया -संज्ञा, स्त्री० दे० (हि० नींद) नींद। निःसृत--वि० (सं०) निकला हुआ, वहि त । निद्य–वि. (सं०) निंदनीय, निंदा करने निःस्पृह-वि० (सं०) आकांक्षा, अभिलाषा योग्य, खोटा, दूषित, बुरा। या इच्छा-रहित, निर्लिप्त, निलोभ । निब-निंबा-संज्ञा, स्त्री० (सं०) नीम का पेड़, । निःस्वार्थ--वि० (सं०) बेमतलब, परोपकार, नींबी (ग्रा०) । "जो मुख नींब चबाय"- स्वार्थ-रहित । वृ०। नि--अव्य० (सं० ) एक उपसर्ग है जिसके निंबार्क-संज्ञा, पु० (सं०) निबादित्य, कारण इन अ की विशेषता होती है । प्राचार्य। समूह या संघ, अधोभाव, अत्यन्त, प्रादेश, निंबू-संज्ञा, पु. (सं०) नींबू, निबुआ नित्य, कौशल, बंधन, अंतर्भाव, समीप, (ग्रा.) निबू। दर्शन । संज्ञा, पु० (सं०) निषाध स्वर का संकेत । निः-अव्य० (स० निस) एक उपसर्ग-बिना, निरनिय -अन्य० दे० (सं० निकट) नहीं, जैसे कारण से निष्कारण, चय से नेरे निअरे (ग्रा०) पास, निकट, समीप । निश्चय। वि० (दे०) समान, तुल्य, बराबर । निःशंक, निश्शंक-वि० यौ० (सं०) निडर, निअराना - नियराना-स० कि० दे० निर्भय, बेधड़क, प्रशंक। (हि. निमर) पास, समीप या निकट जाना निःशब्द--वि० (सं० ) शब्द-रहित, शान्त ।। या पाना । अ० कि० (दे०) निकट आना या निःशेष-वि० (सं० ) संपूर्ण, समस्त, सब, पास होना या पहुँचना । "बरसहि जलद सर्व, बिना कुछ शेष के। भूमि निराए"-रामा० । निःश्रेणी-- संज्ञा, स्त्री. (सं०) नसेनी (दे०) निपाउ, नियाव -संज्ञा, पु० दे० (सं० सीकी, सिड्ढी, सिढिया (मा.)। न्याय ) न्याय, न्याव (दे०)। For Private and Personal Use Only Page #1011 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir निकाय निधान १००० निपान-संज्ञा, पु० दे० (सं० निदान) । उदय होना । मुहा० - निकल जाना अंत, अखोर । अव्य० (दे०) अंत में। आगे बढ़ जाना या चला जाना, नष्ट हो निआमत-संज्ञा, स्त्री. (अ.) अलभ्य, | जाना घंट या भाग जाना,अलग या पार हो अमूल्य; बहु मूल्य या बढ़िया वस्तु । “तंदुरु- जाना । स्त्री का निकल जाना-किसी स्ती हजार न्यामत है"-लो। पुरुष के साथ अपना घर-वर छोड़ निकंटक—वि० (दे० सं० निष्कंटक ) कर चली जाना। पार होना। निकल निष्कंटक, शत्रु-रहित निर्वाध । चलना-अति करना, इतराना, अपनी निकंदन-संज्ञा, पु. यौ० (सं० नि+कंदन सामर्थ्य से अधिक कार्य करना, भाग =नाश बध ) नाश, विनाश, वध । " कंस- चलना । किसी नदी आदि से पार निकन्दन देवकिनंदन"--- स्फु० । होना, उतरना, नाना, उदय होना, दिखाई निकट-वि. ( सं०) समीप, पास का ।। पड़ना, निश्चित, प्रारम्भ या सिद्ध होना, क्रि० वि० (सं०) समीप, पास, लिये, वास्ते । फैलाव होना, छूटना, मुक्त होना, आविष्कृत मुहा०—किसी के निकट किसी के होना, देह के ऊपरी भाग में उत्पन्न होना, विचार, समझ या लेखे में । बचा जाना, कह कर न करना, नटना निकटता-संज्ञा, स्त्री. (सं० ) नज़दीकी, ( प्रांती० ) खपना, बिकना, व्यतीत होना, समीपता, नैकट्य (सं.)। । घोड़े बैल आदि को सिखाना। निकटवर्ती-वि० ( सं० निकट+वर्तिन् ) निकलवाना-स० कि० दे० (हि. निकालना समीप, निकट या पास वाला । स्त्री का प्रे० रूप) निकालने का कार्य दूसरे से निकटपत्तिनी। कराना। निकटस्थ-वि० (सं०) समीप या पास का। निकसना-अ.क्रि.० दे० (हि० निकलना) निकम्मा-वि० दे० (सं० निष्कर्म) बे काम, | निकलना । (प्रे० रूप-निकसाना, नि ब्यर्थ,बेमसरफ, निष्प्रयोजन । स्त्री निकम्मी। __ कसवाना) निकासना । निकर-संज्ञा, पु. ( सं०) समूह, राशि, निकाई*-संज्ञा, पु. दे० (सं० निकाय ) निधि । “निश्चर-निकर-पतंग'---रामा० । समूह । संज्ञा, स्त्री० (हि० नीक ) भलाई, निकरना-अ० कि० (हि. निकलना) सुन्दरता, खेत से घास आदि काट कर साफ़ निकलना (t० रूप०) निकराना, निकर- करना, निकवाई (ग्रा०)। वाना, निकारना। निकाज-वि० दे० (हि. निकाज) निकर्मा-वि० दे० (निष्कर्म ) पानसी, निकम्मा, बेकाम | निकम्मा। निकाना- स० कि० (दे०) खेत से घास आदि निकलंक-वि० दे० (सं० निष्कलंक) निर्दोष। | छील कर साफ करना, निकावना (ग्रा०) । "जिमि निकलंक मयंक लखि, गनै लोग | " हेरि अंतराय लौं निकाय हरयौ तल तें" उतपात" -वृ। -सरस । प्रे० रूप निकवाना। निकलंकी-संज्ञा, पु० (सं० निष्कलंक) निकास-विदे निकाम-वि० दे० (हि० नि+ काम) खराब, विष्णु का अवतार, कल्कि अवतार । वि. बुरा, निकम्मा, व्यर्थ । क्रि० वि० (दे०) (दे०) कलंक-हीन । व्यर्थ, इच्छा या कामना-रहित, परिपूर्ण । निकल-संज्ञा, स्त्री० (अं०) एक धातु । "निपट निकाम बिन राम बिसराम कहाँ" निकलना-अ० कि० (हि. निकालना) कहीं से बाहर आना, प्रगट या निर्गत होना, निकाय-संज्ञा, पु. (सं०) समूह, राशि, -पद्मा। For Private and Personal Use Only Page #1012 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir निकारना निकौनी मुण्ड, निकाया (दे०)। " लव निमेष | निकाह पढ़ना ( पढ़ाना) ब्याह करना महँ भवन निकाया'-रामा०। (कराना)। निकारना* --स० क्रि० दे० (हि. निकालना) | निकियाना--स० कि० (दे०) नोच-नाच कर निकालना। टुकड़े टुकड़े या धज्जी-धज्जी अलग करना । निकालना--स० कि० दे० (सं० निष्कासन ) निकिट-वि० दे० (सं० निकृष्ट) नीच भीतर से बाहर लाना, मिलित को अलग | तुच्छ, अधम । करना, पार करना, ले जाना, निश्चित या निकंज-संज्ञा, पु० (सं०) ताभवन, लताप्रारम्भ करना, खोलना, चलाना, अलग | गृह, घनी लताओं से आच्छादित स्थान । करना, घटाना, छुड़ाना, बरखास्त करना, "गतोऽपि दूरे यमुना-निकुंजे"- स्फु० । हटाना, बेंचना, सिद्ध करना, जारी | निकुंभ - संज्ञा, पु० (सं०) कुम्भकरण का या आविष्कृत करना, ऋण निश्चित या पुत्र, रावण का मंत्री, कुम्भ का भाई, एक बरामद करना, पशुओं को सवारी आदि शिवगण, एक विश्वेदेव । “कुभोदरं नाम ले चलने की रीति सिखाना, सुई से बेल-बूटे | निकुम्भ-तुल्यम्"--रघु० । “निकुम्भ कुम्भ धादि कपड़े पर बनाना। धावहीं'-स्फु०। निकाला-संज्ञा, पु० दे० ( हि निकालना ) निकभिला-संज्ञा, स्त्री० (सं०) मेघनाद का निकालने का कार्य, किसी स्थान से निकाले | यज्ञ-स्थान, राक्षसों का देवालय । जाने की सज़ा, निकालन (यो --देश | निकुत्र-संज्ञा, पु० (दे०) बड़हल । निकाला)। निटी - संज्ञा, स्त्री० (सं०) छोटी इलायची। निकास-संज्ञा, पु० दे० (हि. निकासना ) निकृति --संज्ञा, स्त्री० (सं०) अधर्म, पाप, निकासने की क्रिया का भाव, द्वार, दरवाजा, कुकर्म, बुरा काम । मैदान, उद्गम, कुटुम्ब का मूल, रक्षा का | निक]- वि० (सं०) नीच, तुच्छ, अधम । यत्न छुटकारे का उपाय, निर्वाह की रीति, निकृष्टता-संज्ञा, स्त्री. (सं० ) नीचता, सिलसिला, प्राप्ति की रीत, निकासी, लाभ । निकासी-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. निकास ) । तुच्छता, बुराई। निकालने का भाव या कार्य, रवानगी, निकेत-संज्ञा, पु० (सं०) भवन, मंदिर, घर, प्रस्थान, कूच, मालगुजारी देने पर ज़मींदार स्थान, निकेता, निकेतू (दे०)। को लाभ, मुनाफा, माल की रवानगी, बिक्री, निकेतन-संज्ञा, पु. (सं० मन्दिर, भवन, चुङ्गी, वर या बारात का ब्याह के लिये घर घर, मकान, स्थान, जगह । से प्रस्थान (रीति)। निकोना, निकोलना-स० क्रि० (दे०) निकासना-स० कि० दे० (हि. निकालना) छीलना, उपर का छिलका हटाना । निकालना। | निकोरना-स० क्रि० (दे०) चुटकी काटना, निकासू -वि० (दे०) निकाला हुआ, वहि | नोचना। कृत, निष्कासित । संज्ञा, पु० (दे०) द्वार, निके:सना-स० क्रि० वि० (दे०) खिसियाना, निकास। दाँत दिखाना, अपमान करना । निकास्ता-संज्ञा, पु० (दे०) थूनी, टेक, निकोनी-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. निकाना) स्तंभ, खम्भा, थाम (प्रान्ती.)। निकाने का कार्य या मजदूरी, निकाई, निकाह-संज्ञा, पु० (अ.) मुसलमानों के निकवाई । “कहत की बात लजौनी । ब्याह या विवाह की रीति । मुहा०- सब से बुरी निकौनी-~-लो। मा. श. को०-१२६ For Private and Personal Use Only Page #1013 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir निक्ती १००२ निखोट-निखोटि निक्ती- संज्ञा, स्त्री० (दे०) लोहे के पलरों का निखरवाना-स० कि० दे० (हि. निखरना छोटा तराजू , काँटा । का प्रे० रूप ) धुलवाना, स्वच्छ या साफ़ निक्वण-संज्ञा, पु० (सं० ) वीणा बाजा कराना, निखराना। संज्ञा, स्त्री० (दे०)। का शब्द, सितार या तार का शब्द। निखराई, निखरवाई। निक्षिप्त-वि० (सं.) त्यक्त, अर्पित, न्यस्त, निखरी-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. निखरना) स्थापित, धरोहर, बंधक रखा हुआ, छोड़ा पक्की रसोई पूरी आदि। विलो. सखरी । या फेंका हुभा। सा० भ० स्त्री० (दे०) स्वच्छ हुई, शुद्ध । निक्षेप-संज्ञा, पु. ( सं० ) त्याग, समर्पण, वि. स्त्री० (दे०) स्वच्छ, धुली। समर्पित, धरोहर, अमानत, थाती, फेकने | निखर्ब-संज्ञा,पु० (सं०) दश खर्व की संख्या। या डालने की क्रिया का भाव,चलाने, छोड़ने निखवख-वि० (सं० न्यच = सारा, सघ) या पोछने की क्रिया का भाव । “सुपात्र- निश्शेष, सम्पूर्ण, सब का सब, सारा।। निक्षेप निराकुलात्मना"-माघ । निखात--संज्ञा, पु० (सं० ) परिखा, खाँई, निक्षेपक, निक्षेपकारी-वि० (सं०) स्थापक, गढ़ा, खत्ती। स्थापन कर्ता, त्याग करने वाला, समर्पण निखाद - संज्ञा, पु० दे० (सं० निषाद) केवट, कर्ता, धरोहर या थाती या गिरों रखने मल्लाह, सात स्वरों में से एक स्वर । "कहत वाला, चलाने, फेंकने डालने, छोड़ने या निखाद सुनौ रघुराई "--गीता० । पोछने वाला। निक्षेपण-संज्ञा, पु० (सं०) छोड़ना, त्यागना, | निखार-संज्ञा, पु० दे० (हि. निखरना ) स्वच्छता, सफाई, निर्मलता, शृंगार । फेंकना, चलाना, डालना, समर्पण । वि० | | निखारना-- स० कि० दे० (हि. निखरना) निक्षिप्त, निक्षेप्य । वि. निक्षेपणीय । निखंग---- संज्ञा, पु० दे० (सं० निषंग)। परिमार्जित करना, स्वच्छ या साफ़ करना तरकश, तूणीर, भाया। “काट निखंग, कर पवित्र या निर्मल करना । धनु-सर सोहा ''-रामा० । निखालिसा-वि० दे० ( हि० नि+ निखंड--वि. यौ (सं० निस् + खंड ) मध्य, खालिस अ०) मेल-रहित, बिलकुल स्वच्छ, बीच, माझों माँझ, बीचों बीच, ठीक ठीक, विशुद्ध । सटीक । निखिल-वि० (सं०) सब का सब, संपूर्ण, निखट्टर-वि० (दे०) निर्दय, निर्दयी, कठोर- समग्र । " नीर-धीरे गृहीत्वा निखिल खग. हृदयी। पती-भो० प्र० । निखट्ट-वि० दे० (हि० उप० नि=नहीं+ | निखुटना निखूटना--अ० क्रि० (दे०) घट खटना = कमाना ) कुछ कमाई न करने | जाना, समाप्त होना । "बाती सूखी तेल वाला, सुस्त, आलसी, निकम्मा, इधर-उधर | निखटा"--- कबी०। व्यर्थ घूमने वाला। संज्ञा, पु. (हि.) निखेध-संज्ञा, पु० दे० (सं० निषेध) रोक, निखट्टपन। . मनाही, इन्कार । " विधि निखेधमय कलिनिखनन-संज्ञा, पु० (सं०) खोदना, खनना, मल-इरनी"- रामा० । वि० (दे०) निखिद्ध गोड़ना । स० क्रि० (दे०) निखनना। निषिद्ध (सं०)। निखरना-अ० क्रि० दे० (सं० नितरण ) निधना*-स. क्रि० दे० (सं० निषेध ) छुटना, साफ, स्वच्छ, या निर्मल होना, रंगत रोकना, मना करना। का खुलता होना। निखाट-निखोटि-वि० दे० ( हि० उप० नि For Private and Personal Use Only Page #1014 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir खोड़ना १००३ निगृहीत + खोट) निर्दोष, विशुद्ध, स्वच्छ, सान, निगरानी-संज्ञा, स्त्री. (फ़ा०) देख-भाल, क्रि० वि० (दे०) संकोच-रहित, बेधड़क। देख-रेख, निरीक्षण, चौकसी। निखोड़ना-स० कि० (दे०) निकोलना, निगरु, निगुरा-वि० दे० (सं० नि+गुरु) छीलना। हलका जो भारी या वजनी न हो, बिना निखोरना-स० कि० (दे०) नख से नोचना।। गुरु वाला, निगोड़ा ( ग्रा०)।। निगंदना-स० कि० (फ़ा० निगंदः = घखिया) निगलना--स० क्रि० दे० (सं० निगरण ) रजाई आदि रुई-भरे कपड़ों में तागा लील जाना, दूसरे का धन प्रादि मार लेना या बैठना। प्रे० रूप निगलाना, निगलडालना। वाना। निगंध* - वि० दे० (सं० निर्गध) गंध-रहित । निगह-संज्ञा, स्त्री० ( फा० निगाह ) निगाह, निगड़-संज्ञा, स्त्री० (सं०) हाथी की जंजीर, नज़र, दृष्टि संज्ञा, पु० निगहवां । बेड़ी। “ निगृह्य निगडैः गृहे "-भाग० । निगहबान-संज्ञा, पु. (फ़ा०) निरीक्षक, निगड़ित-वि० ( सं० ) कैद, बँधा हुआ, ( स० ) क़द, बधा हुआ, रक्षक । संज्ञा, स्त्री० (फा०) निगहबानी। वर, बेड़ी पहिनाया हुआ। निगहबानी- संज्ञा, स्त्री. ( फा०) रक्षा, निगद-संज्ञा, पु. ( सं० ) भाषण, कथन, हिफाजत । एक औषधि। निगालिका--संज्ञा, स्त्री० ( स० ) नग-स्वनिगदना-स० क्रि० (दे०) कहना । संज्ञा, पु. रूपिणी छंद (पिं०)। निगइन । वि. लिगदनीय। | निगाली-संज्ञा, स्त्री० दे० ( हि. निगाल) निगदित-संज्ञा, पु. (सं०) भाषित, कथित, हुक्के की नली, जिसे मुँह में लगाकर धुआँ उक्त, वर्णित, उल्लेख किया या कहा हुश्रा, खींचते हैं। " इति निगदितमायें नेत्र-रोगातुराणाम्" निगाह-संज्ञा, स्त्री० (फा०) नज़र, दृष्टि, -लो। चितवन, कृपादृष्टि, मेहरबानी, ध्यान, निगम --संज्ञा, पु. (सं०) वेद, निश्चय, मार्ग, | पहिचान। मुहा०—निगाह करना रखना। बाज़ार, मेला, व्यापार | “निगम-कल्प निगिभ-वि० (सं० निगुह्य) बहुत प्यारा, तरोर्गलितं फलं"-भाग० । जिसका अधिक लालच हो। निगमन--संज्ञा, पु० (सं० ) फल, नतीजा। निगुण-निगुन-वि० दे० (सं० निर्गुण) तीनों "प्रतिज्ञायाः पुनः कथनं निगमनम्"- न्या. गुणों से परे, गुण-रहित, मूर्ख । प्रतिज्ञा को फिर कहना फल है। निगुनी*-- वि० दे० (हि० उप० नि+गुनी) निगमागम-संज्ञा, पु. यौ० (सं०) वेदशास्त्र। गुण-रहित, जिसमें कोई गुण न हो। निगुरा- वि० दे० (हि० उप० नि -गुरु) " नाना पुराण निगमागम संमतं यत् ''-- जिसने गुरु से शिक्षा न ली हो, अदीक्षित, रामा०। अपढ़, मुख । स्त्री०-निगुरी । "जो निगर-- वि०, संज्ञा, पु० दे० (सं० निकर ) निगुरा सुमिरन करै, दिन में सौ सौ बार" समूह, झुण्ड । -कबी०। निगरना-प्स० कि० (दे०) निगलना । संज्ञा, निगढ-वि० (सं० ) प्रति गुप्त या छिपा । स्त्री० (ग्रा० ) निगरी-सत्तू की पिडी।। रहस्यमय । "निगूढ तत्वं नया वेत्ति विहां" निगरां-वि० (फ़ा०) रक्षक। "खुदा कैसर | -कि० । संज्ञा, स्त्री० निगूढ़ता। का निगरां हो" | निगृहीत-वि० (सं०) पकड़ा या धरा हुआ, For Private and Personal Use Only Page #1015 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir निगोड़ा - - १०.४ निचोल आक्रांत, प्राक्रमित, दुखित, पीड़ित । निघ्न- वि० दे० (सं.) वशीभूत, प्राधीन । " अभ्यास-निगृहीतेन"--रघु०। शिष्ट, प्रायत्त । " तथापि नि नृप ताव निगोड़ा--वि० दे० (हि. निगुरा ) असहाय, कीनैः"-किरा० । अनाथ, प्रभागा, दुष्ट, दुराचारी, दुष्कर्मी, निचय-संज्ञा, पु० (सं०) समूह, संचय, नीच । स्त्री. निगोडी। " चाप निगोड़ो निश्चय । अबै जरि जाव. चढ़ा तो कहा न चदौ तो निचल*-वि० दे० ( सं० निश्चल ) अचल, स्थिर, अटल। निग्रह-संज्ञा, पु० (सं०) रोंक, दमन, अव- | निचला-वि० दे० (हि. नीचे--ला-प्रत्य० ) रोध, बंधन, फटकार, सीमा, दंड । नीचे वाला, नीचे का। स्त्री० निचली। निग्रहना*-स० क्रि० दे० (सं० निग्रह ) । वि० दे० (सं० निश्चल) शांत, अटल, स्थिर, रोकना, पकड़ना, फटकारना, दंड देना। अचल । निग्रहस्थान-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) जब वादी निचाई---संज्ञा, स्त्री० ( हि. नीच ) नीचापन, उलटी-पुलटी या बेसमझी की बातें कहने नीचता, कमीनापन, दुष्टता। " नीच लगे तो विवाद रोक दिया जाता है क्योंकि निचाई नहि तजै"-० । यह पराजय है, इसी को निग्रह-स्थान निचान -- संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. नीचा ) कहते हैं, ये २२ हैं ( न्या०)। नीचापन, ढाल, दुलान । निग्रही-वि. ( सं० निग्रहिन् ) रोकने, दबाने निचिंत-निचीत-वि० दे० (सं० निश्चित ) या दंड देने वाला। सुचित बे खटके, निश्चित । “जाको घर है निघंटु-संज्ञा, पु० (सं०) वेद के शब्दों का गैल मों, सो क्यों सोव निचीत"-- कबी०। कोश. शब्द-संग्रह मात्र। निचुड़ना, निचुरना--अ० क्रि० दे० (सं० निघटत-अ० क्रि० (दे०) कम या न्यून होते नि+व्यवन ) चुना, टपकना, गरना, दबाव ही. घटते ही। डालने पर रस निकल जाना। निघटना*-अ० क्रि० दे० (हि० घटना ) निचै--संज्ञा, पु० दे० (सं० निचय ) समूह, घटना, चुकना, समाप्त हो या निबट जाना। राशि। 'घद गौ तेल निगट गई बाती'- कबी० । निचोड़-निचोर-- संज्ञा, पु. दे. (हि. निघता-क्रि० वि० दे० (हि. निघटना) घटा, निचोडना) सारांश, सार, रस, सत. खुलासा, कम हुा । स्त्री० निघटी। निघटाना-स० कि० दे० (हि. निघटना) घट निचोड़ना--स० कि० दे० ( हि० निचुड़ना) वाना, कम कराना । प्रे० रूप निघटावना, किसी गीली या रस या पानी-भरी वस्तु को निघटवाना। निघरघट--वि० दे० यौ० ( दि० नि=नहीं दवा या ऐंठ कर रस या पानी गिराना, किसी का पदार्थ का मूल तत्व या सारभाग निकाल ठिकाना कहीं भी न हो, निर्लज्ज । मुहा० लेना. सब हर लेना, निचोरना (दे०)। निघरघट देना-निर्लज्जता से झूठी सफाई निचोना*-स० कि० दे० (हि. निचोड़ना) देना। निचोड़ना, "कहा निचोवै नग्न जन"-०॥ निघरघटा- वि० दे० (हि. निघरघट ) निवारना*-- सं० कि० दे० (हि. निचोड़ना) जिसके घर-द्वार न हो । स्त्री निघरवटी। निचोड़ना। निघरा-वि० दे० (हि.) जिसके घर-बार निचोल-संज्ञा, पु० (दे०) औरतों की चादर या प्रोदनी। निष्कर्ष । For Private and Personal Use Only Page #1016 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir निचोषना १००५ निठौर निचोषना*-स० कि० दे० (हि. निचोड़ना) निजाम--संज्ञा, पु० (अ०) प्रबंध, बंदोबस्त, निचोड़ना। इन्तज़ाम करने वाला, सूबेदार, हैदराबाद निचौहाँ-- वि०दे० (हि० नीचा - ौहाँ-प्रत्य०) के नबाबों की पदवी । नीचे की तरफ झुका हुश्रा, नमित । स्त्री० नि -वि० दे० (हि. निज) अपना, निचौहीं । "सौहे करि नयन निचौहैं करि | निजका । लेति है"- रसला निजार*--वि० दे० (हि. नि+जोर फा०) निचौहें-- क्रि० वि० दे० (हि. निचौहाँ) | कमजोर, निर्बल। नीचे की ओर। निझरना--अ० क्रि० दे० (हि. नि+झरना) निछक्का-वि० दे० (सं० निस-|-चक्र = मंडली) भली भाँति झड़ जाना, सार-रहित या एकांत, निर्जनस्थान, निराला । रीता या खाली हो जाना अपने को निर्दोष निछत्र-- वि० दे० (सं० निश्छत्र ) बिना छत्र, सिद्ध करना, सफाई देना। निझरि गये छत्र हीन. राज-चिन्ह-रहित । वि० दे० (सं० सब मेह"- सूबे०। निः क्षत्र ) क्षत्रिय-रहित या हीन । निटिलाक्ष-संज्ञा, पु० (सं.) शिवजी। निनियाँ-कि० वि० दे० (हि. निछान ) | निझोल--वि० (दे०) झोल-रहित, सुडौल । निछान, शुद्ध, खालिस, बे मेल । निटोल--- संज्ञा, पु० दे० (हि० उप नि+टोल) निकलवि० दे० (सं० निरकल ) छल- | टोला-मुहल्ला, बस्ती, पुरा । रहित, निश्छल । संज्ञा, स्त्री० निकलता। निष्*ि- क्रि० वि० दे० (हि. नीठि ) नीठि निछान ----वि० दे० (हि० उप० नि+छानना) (व०) अरुचि, अनिच्छा । " बहि बहि हाथ बेमेल, शुद्ध । क्रि० वि० (दे०) बिलकुल, चक्र श्रोर उहि जात नीठि'--रना । एकदाम । निठल्ला--वि० दे० ( हि० उप० नि नहीं -1 निछावर- संज्ञा, स्त्री० दे० ( सं० न्यासावर्त, । टहल = काम काज ) बेकार, बेकाम, काममि० अ० निसार) उतारा, उतार, वाराफेरा, धंश या उद्यम-रहित, बैठाठाला। उत्सर्ग । मुहा० --किसी का किसी पर | निटल्लू-वि० दे० (हि० निठल्ला) निठल्ला, निछावर होना---किसी के लिये मर बेकार, बैठा-ठाला। जाना, वह वस्तु जो निछावर की जाय, निठाल, निठाला-संज्ञा, पु. द० (हि. इनाम, नेग ( विवाहादि में )। नि+ टहल = कार्य ) एकान्त, खाली वक्त । निकोह-निछोहो- वि० दे० (हि. उप० । फुरसत का समय, जिस समय कोई काम नि- छोह ) प्रेम-रहित, निर्दय, निर्मोही।। या प्रामदनी न हो। मुहा०—निठालेनिज-वि० (सं०) अपना, आपना, स्वकीय। एकांत में या फुरसत में। वि० (दे०) निजी--अपना । मुहा०-- निठुर- वि० दे० (सं० निष्ठुर ) निर्दय, निजका - ख़ास अपना । निजी---ख़ास, कर, निर्मोही । " जननी निठुर बिमरि प्रधान. मुख्य, यथार्थ, ठीक । अव्य. जनि जाई"--रामा० । दे० निश्चय, ठीक-ठीक । नुहा०—निज निठुरई, निठुराई* ---संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. करके (निजकै गुरु )- अवश्य, ज़रूर. निठुरता ) निर्दयता, क्रूरता, कठोरता। विशेष करके, मुख्यतः। निठुरता--संज्ञा, स्त्री० दे० ( सं० निष्ठुरता ) निकाना-अ.क्रि० दे०(फा० नजदीक) रता, निर्दयता, कठोरता। समीप, पास, निकट श्राना या पहुँचना। निठौर--संज्ञा, पु० दे० (हि. नि-+ ठौर ) नचकाना (ग्रा०)। । बुरा-स्थान, बुरी जगह या दशा, बुरा दाँव । For Private and Personal Use Only Page #1017 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org निडर १००६ नित्यामन्द निडर - वि० दे० ( हि० उप० नि + डर ) | नित्यक्रिया संज्ञा, स्त्रो० यौ० (सं०) नित्यकर्म | "नित्य-क्रिया करि गुरु पहँ श्राये" - रामा० । निर्भय, निश्शंक, साहसी, ढीठ । निडरपन निडरपना- संज्ञा, पु० (हि० निडर - पन -- प्रत्य० ) निर्भीकता, निर्भयता । नि * -- क्रि० वि० दे० (सं० निकट) निकट, समीप, पास । निरयगति - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) वायु, पवन । नित्यता - संज्ञा, त्रो० (सं०) नित्य होने का भाव, अनश्वरता, सदा, विद्यमानता, नित्यत्व | नित्यत्व - संज्ञा, पु० (सं० ) नित्यता । नित्यदान संज्ञा, पु० ० (सं०) प्रतिदिन का कर्त्तव्य या दान | नित्य नियम -संज्ञा, पु० यौ० (सं०) प्रतिदिन का नियमित कर्त्तव्य या कार्य्य, प्रतिदिन की रीति, अचल । नित्य नैमित्तिक कर्म -संज्ञा, पु०या० (सं०) सन्ध्योपासन, श्रग्निहोत्रादि कर्म, ग्रहण - स्नान आदि पुण्य या शुभ कर्म । नित्यप्रति - अव्य० यौ० (सं०, प्रति दिन, सदा, नियम से । नित्य - प्रलय - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) चार प्रकार के प्रलयों में से एक, जीवों के प्रति दिन का मरण । नित्यमुक्त - वि० चिरमुक्त, क्रियावान्, कर्मनिष्ठ । ० (सं०) जीवन-मुक्त, :- अव्य० (सं०) सदा सर्वदा, प्रतिशुक, पिक करते हैं, नित्यः शब्द 16 नित्य यौवन - वि० यौ० (सं०) स्थिर यौवन, सदा जवान या युवा रहने वाला । नित्ययौवना - वि० स्त्री० यौ० (सं०) स्थिर या चिरयौवना, सदा युवा या जवान रहने वाली, द्रौपदी, कुन्ती, तारा आदि । नित्यशःदिन । प्यारे ।" नित्यसम - संज्ञा, पु० (सं० ) निर्विकार, अप्रशस्त उत्तर, प्रयुक्त, खण्डन ( न्या० ) । नित्यानित्यविवेक - संज्ञा, पु० ० (सं०) free or after या नश्वर और अनश्वर वस्तु का विचार । नित्यानन्द संज्ञा, पु० यौ० (सं०) सदा का धानन्द निस में हो, परमेश्वर, एक साधु (बंगाल) । निढाल - निढाला - वि० दे० ( हि० नि + ढाल = गिरा हुआ ) अशक्त, शिथिल थका, सुस्त, freeurs | निढिल - वि० दे० ( हि० नि + ढीला ) कड़ा, कसा हुआ | संज्ञा, स्त्री० निढिलता । नितंन - क्रि० वि० दे० (सं० नितांत ) नितांत, बहुत । नितंब - संज्ञा, पु० (सं०) कमर के पीछे का उभड़ा भाग, चूतड़ । नितंबिनी -संज्ञा, त्रो० (सं०) सुन्दर नितंब वाली स्त्री, सुन्दरी । "नितंबिनीनां भृशमादूधे धृति" - किरा० । नित - श्रव्य० (सं०) नित्य, प्रति दिन, नित्त, नितै (ब्र०) । यौ० - नित-नित, नित-प्रति - । = प्रति दिन, हर रोज नया रहने वाला | सदा नितराम् - - अव्य० (सं०) सदा, सर्वदा I नितल - संज्ञा, पु० (सं०) सात पातालों में से एक (पु० ) । नितांत - वि० (सं०) बहुत, अधिक, एकदम, सर्वथा, बिलकुल, सदैव । नितनया - सदा सर्वदा, हमेशा । निति - अव्य० दे० (सं० नित ) सदा, सर्वदा, प्रतिदिन । नित्य - वि० (सं० ) जो सदा रहे, शाश्वत, अविनाशी । अव्य० प्रतिदिन, सदा । मुहा०-निध्य, निचाहना - नित्य कर्म करना । " नित्य निबाहि गुरुहि। सिर नाये" - रामा० । नित्यकर्म – संज्ञा, पु० यौ० (सं०) प्रतिदिन का कार्य, नित्य क्रिया, पूजन-पाठादि । नित्यकृत्य – संज्ञा, पु० यौ० (सं०) नित्य कर्म । - Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private and Personal Use Only Page #1018 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विभ २००७ निधन निथंभ -संज्ञा, पु० दे० (सं० नि+स्तंभ) निदलन-संज्ञा, पु० दे० (सं० निर्दलन) खम्भा। निर्दलन, दलना, नाश करवा । निथरना-प्र० कि० दे० (हि. नि+थिर+ | निदहना*-स० क्रि० दे० (सं० निदहन ) ना-प्रत्य० ) पानी आदि द्रव पदार्थों का जलाना। स्थिर होना. जिससे उसमें घुली वस्तु नीचे | निदाघ-संज्ञा, पु० (सं०) ग्रीष्मऋतु, गरमी, बैठ जावे और द्रव वस्तु साफ हो जावे। द्रव वस्तु साफ हो जावे। धाम, धूप । “जगत तपोवन सो कियो निथरा-वि० दे० (हि. निथरना ) स्वच्छ, निर्मल, साफ, उज्वल पानी आदि। निदान-संज्ञा, पु० (सं०) श्रादि या मूल निथार-संज्ञा, पु० दे० (हि. निथारना ) कारण, रोग का निर्णय या लक्षण, अंत, साफ पानी, पानी में नीचे बैठी वस्तु ।। नाश । अव्य० (सं०) अन्त में, आखिरकार, निथारना-स० क्रि० दे० (हि. निथरना) "कलो भूप जनि करसि निदानू"--रामा । पानी धादि द्रव पदार्थ को ऐसा स्थिर करना | वि०निकृष्ट, नीच । नो निदारुण-वि० (सं०) कड़ा, कठोर, भयंकर, को साफ करना, थिराना (ग्रा.)। दुःसह, निर्दय । निर्दई-वि० दे० (सं० निर्दय) दया-रहित, निर्दय । निदाह-संज्ञा, पु० (सं०)निदाघ, गरमी, ग्रीष्म। निदग्धिका- संज्ञा, स्त्री. (सं०) श्वेत, छोटी निदिध्यासन-संज्ञा, पु. (सं०) बारम्बार ध्यान या स्मरण, परमार्थ-चितन । चटाई। निदरना*-स० कि० दे० (सं० निरादर ) निदेश-संज्ञा, पु० (सं०) आज्ञा, शासन, हुक्म, कथन, अनुमति, नियोग, अनुशासन, तिरस्कार, अपमान या अनादर करना, __ "कीन्हेसि मोर निदेश निगेटू"-प्र० । त्यागना, मात करना, बढ़ कर निकलना । निदेस--संज्ञा, पु. ( सं० निदेश ) आज्ञा, पू० का० क्रि०-निदरि। निदरहि-स० क्रि० दे० (हि० निदरना) | शासन, अनुमति, नियोग, कथन । अनादर या अपमान करें, न माने, प्रतिष्ठा निदोष -वि० (सं० निर्दोष) निषि, शुद्ध, न करें । “जो हम निदरहिं विप्र वदि, सत्य | निर्मल । निद्धि-संज्ञा, स्त्री० (सं० निधि, निधि हैं। सनो भृगुनाथ"-रामा० ।। निदरि-स. क्रि० पूर्व. का. (हि. निदरना) | निद्र- संज्ञा, पु० (सं०) एक हथियार। अनादर या अपमान कर के, निन्दा कर के । निद्रा- संज्ञा, स्त्री० (सं०) नींद, स्वान, सुप्ति, "निदरि पवन हय चहत उड़ाना।"-रामा० __ "प्रभाव प्रत्ययालंबनावृत्तिनिद्रा"- योग। निदर्शन- संज्ञा, पु० (सं०) उदाहरण, दृष्टांत । निद्रायमान--वि० (सं०) जो सो रहा हो। निदर्शन-पत्र-संज्ञा, पु. यो० (सं०) दृष्टांत- निद्रालु-वि० (सं०) सोने वाला, निद्राशील । पत्र, उदाहरण-पत्र । निद्रित-वि० (सं०) सोया हुआ। निदर्शन-मुद्रा-संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) मान निधड़क निधरक-वि० क्रि० दे० (हि. नि या प्रतिष्ठा-सूचक मुद्रा। = नहीं + धड़क) बेखटके, निश्चिन्त । वि. निदर्शना- संज्ञा, स्त्री० (सं०) एक अलंकार (दे०) उत्साही, साहसी, उद्योगी। जिसमें एक बात दूसरो की पुष्टि करती है, निधन-संज्ञा, पु० (सं०) मरन, मरण, नाश, "सरश वाक्य युग अर्थ को करिये एक अरोप। वंश, कुल, वंश का स्वामी, विष्णु । वि. भूषण ताहि निदर्शना कहत बुद्धि के प्रोप।। (दे०) कंगाल, निर्धन, दरिद्र । For Private and Personal Use Only Page #1019 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir NA निधनी १००८ निपीड़ना निधनी-वि० दे० (हि. नि | धनी) निर्धन, निपजना-अ० कि० दे० (सं० निष्पत्तते) कंगाल ।"देखत ही देखत कितके निवनी के | उगना, उपजना, बढ़ना, पकना । धन -अ०व०। निपजी* -- संज्ञा, स्त्री० दे० ( हि० निपजना ) निधान - संज्ञा, पु० (सं०) श्राश्रय, श्राधार, लाम, उपज । निधि, लयस्थान, कोष ! निपत्र-वि० दे० (सं० निष्पत्र) टूंठ, पत्रहीन । निधि-संज्ञा, स्त्री. (सं०) खजाना, कोष निपट- अन्य० दे० (हि. नि+पट) केवल, नौ निधियाँ, समुद्र, स्थान, घर, विष्णु सिफ़', निरा एकमात्र, बिलकुल । "निपट शिव, नौ की संख्या। निरंकुस अबुध असंकू'-रामा० . निधिनाय, निधिपति-संज्ञा, पु० यौ० निपटना अ. क्रि० दे० (सं० निवर्तन) (सं०) निधियों के स्वामी. कुबेर । फुरत या छुट्टी पाना, निवृत्त या समाप्त निनरा--- वि० दे० ( सं० निः + निकट प्रा० । होना, निर्णित या तै होना : निनिअड़ ) अलग, जुदा, न्यारा, दूर ! निपटाना-स० क्रि० दे० (सं० निवर्तन) निनाद-संज्ञा, पु० (सं०) आवाज़, शब्द।। चुकाना, निर्णित करना ! एंज्ञा, पु० निप निनादी-वि० (सं० निनादिन् ) शब्द करने टाग,निपटाघ । वाला : स्त्री०निनादिनो । वि. निनादितः निपटेग-संज्ञा, पु० दे० ( हि० निपटाना) निनान* -- संज्ञा, पु० दे० ( सं० निदान ) । निर्णय, फैसला, समाप्ति, छुट्टी, निपटारा। लक्षण, अन्त । क्रि० वि० (दे०) आखिर में, निपतन - संज्ञा, पु० (सं०) गिरना, अधःपतन अन्त में । वि० (दे०) हद दरजे का, बिल गिराव । (वि. --निपति', निपतनीय)। कुल, एकदम बुरा, नीच । निपाटना-- स० कि० (दे०) काट देना समाप्त निनार-वि० (दे०) बिलकुल न्यारा, करना । अकेला, निकला (ग्रा० प्रान्ती.) निपात-संज्ञा, पु. (सं०) गिराव, पतन, निनारा-- वि० (सं० निः -- निकट) जुदा, | नाश, मृत्यु, बिना नियम के बना शब्द । भिन्न, अलग, दर । स्त्री. निनारी ननद वि० दे० ( हि० नि- पता ) विना पत्तों का। निनारी सास माइके सिधारी',-स्फ। निपातन-संज्ञा, पु० (सं०) मारने या गिराने निनावा--संज्ञा, पु० दे० ( हि० नन्हा ) मुँह का काम, नाश, नीचे गिराना। वि० -- के भीतर निकलने वाले छोटे छोटे दाने । निपातनीय, निपातित । निनाना-स० कि० दे० (हि. नवना = निपातना-स० कि० (दे०) नष्ट करना, काट झुकना) झुकाना, लचाना, नवाना। गिराना, मार डालना । 'सहि निपाते निनानब, निन्यानबे- वि० दे० (सं० नवन राम'-रामा० । वति) नब्बे और नौ। संज्ञा, पु. (दे०) नब्बे निपाती-- वि० दे० सं० निपातिन ) गिराने, और नौ की संख्या मुहा० - निन्नानवे के | फेंकने य मारने वाला । वि. निपातित। फेर में आना (पड़ना) -- धन जोड़ने की संज्ञा, पु० (सं०, शिव जी। वि० दे० (हि. फिक्र या धुनि में पड़ना, चक्कर में पड़ना । नि+पाती) बिना पने का। निनाना* -- स० क्रि० दे० (सं० नवन) निपीड़क-वि० (सं०) पेरने वाला। लचाना, झुकाना, नवाना। निपीड़न- संज्ञा, पु० (सं०) दुख या कष्ट निन्यारा*--वि० दे० ( हि. निनारा ) जुदा, देना, पेरना, दबाना, मलना। वि.निपीपृथक, भिन्न, दूर। डित। वि.निपीडनीय । निपंग* --- वि० दे० (सं० नि :- पंगु ) अपा- निपीड़ना --स० कि० द. ( सं० निपीड़ा) हिज, लँगड़ा लूला, अपंग (दे.) । दवाना, मलना, पेरना कट या दुख देना। For Private and Personal Use Only Page #1020 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir निपुण १००६ निबाह निपुण-वि० (सं०) चतुर, दक्ष, कुशल, निबकौरी-संज्ञा,स्त्री० दे० (हि.+नीम+ प्रवीण, निपुन (दे०)। "नीति-निपुण नप कौड़ी) नीम का फल, निबौरी, नीम का की जस करनी "-रामा०। बीज, निमकौरी (ग्रा०)। निपुणता--संज्ञा, स्त्री० (सं०) चतुरता, कुश- निबटना--अ० कि० दे० (सं० निर्वतन ) लता, दक्षता। फुरसत या छुट्टी पाना, निवृत या पूर्ण होना, निपुणाई* --संज्ञा, स्त्री० (सं० निपुणता ) तै होना, चुकना। संज्ञा, पु. निबटेरा, चतुरता, कुशलता, निपुनाई (दे०)। निबटाव । निपुत्री-वि० (हि. नि+पुत्री ) जिसके पुत्र निबटाना - स० कि० दे० (हि. निबटना) न हो, निःसन्ताना। चुकाना, तै करना, पूर्ण करना । निपुन -वि० दे० (सं० निपुण ) चतुर. निबटाव--संज्ञा, पु० दे० (हि. निवटना) कुशल, निपुण । संज्ञा, स्त्री० निपुनता। निबटेरा, निबटाने का भाव । निपुनई -- संज्ञा, स्त्री० दे० ( सं० निपुणता ) | निबटेरा--संज्ञा, पु० दे० (हि. निवटना ) चतुरता, निपुनता (दे०) निपुणता। "करत निबटने का भाव या काम, फैसला, निश्चय, निपुनई गुननि बिन"-रही। छुट्टी, पूर्ण। निपूत-निप्रता*-- वि० दे० ( ह. नि+- | निबड़ना*. अ. क्रि० दे० (हि. निबटना ) पूत) पुत्रहीन, निःसन्तान । खी० निपुत।।। निबटना, पूरा या तै करना, फैसला करना । निपाड़ना-निपारना-अ. क्रि० (दे०) दाँत निबद्ध वि० (सं०) बँधा, रुका, गुथा हुश्रा, दिखाना, निकोसना, निर्लज्जता की एक निरुद्ध ग्रथित, बैठाया या जकड़ा हुआ। मुद्रा । मुहा०-खीस (दांत) निपोरना। निबर - वि० दे० (सं० निर्बल ) निवल निफन-वि० दे० (सं० निष्फन ) पूरा, (दे०) निर्बल, दुर्बल, निपस (ग्रा०)। पूर्ण । क्रि० वि० (दे०) भली भाँति, पूर्ण | निवरना-अ० क्रि० दे० (सं० निवृत) अलग रूप से। या मुक्त होना, छूटना, फुरसत पाना, पूर्ण निफरना-अ० कि० दे० (हि. निफारना ) या निर्णय होना, सुलझना, दूर होना। आर-पार हो जाना । अ०क्रि० दे० (सं० नि निबल - वि० दे० (सं० निबल) निर्बल, +स्फुट) खुलना, निकलना, स्वच्छ या उद- दुर्बल, कमज़ोर । “निबल जानि कीजै घाटित होना। नहीं' ~ । निफल:---वि० दे० (सं० निष्फल ) व्यर्थ, निबह-संज्ञा, पु० (दे०) समूह, मुड, जमाव । निरर्थक, निष्फल । संज्ञा, स्त्री० (दे०) निक- निबहना-प्र० कि० दे० (हि. निषाहना) लता, निष्फलता। छुट्टी, पार या फुरसत पाना, सपरना निफ़ाक-संज्ञा, पु० दे० (अ०) विरोध, बैर, (प्रान्ती.) पालन या निर्वाह होना । "सखा फूट, अनबन, बिगाड़। संज्ञा, स्त्री. निफाको। धर्म निबहै केहि भाँती"-रामा० । निफोट-वि० दे० (नि+ स्फुट ) स्पष्ट, निबहुर-संज्ञा, पु. दे. (हि. नि+बहुरना) साफ साफ। वह स्थान जहाँ से कोई न लौटे, यमलोक । निबंध-संज्ञा, पु. (सं०। बन्धन, प्रबन्ध, “सो दिल्ली प्रस निबहर देसू"-१०। लेख, गीत । "भाषा निबन्ध मति मंजुल- निबहुरा-संज्ञा, स्त्री० (सं०४० नि+बहुरना) मातनोति"-रामा०। जो जाकर न लौटे (गाली)। निबन्धन-संज्ञा, पु० (सं०) बन्धन, नियम, निबाह-संज्ञा, पु० दे० (सं० निबाह ) निवा व्यवस्था, कारण । वि० निबद्ध, निबंधनीया हने का भाव, गुज़ारा, परम्परा या सम्बन्ध भा० श. को०-१२७ For Private and Personal Use Only Page #1021 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - निबाहना १०१० निमक की रक्षा, पालन, छुटकारे या बचाव की निभ-संज्ञा, पु० (सं०) कांति, प्रभा, प्रकाश, राह, निबाहू (ग्रा०)। वि० (सं०) समान, बराबर, तुल्य, सम । निबाहना-स० क्रि० दे० (सं० निर्वाहन) निर्वाह "हिम-कुन्द-शशि प्रभशंख निभं'- भो०प्र०। या गुजारा करना, चलाये जाना, पालन निभना-अ. क्रि० दे० (हि. निवहना ) करना, सपराना। "पाजु बैर सब लेहुँ निर्वाह या गुजारा होना, भुगतना, पटना, निबाही'-रामा०। बनना। निबाहू-वि० दे० (हि. निबाहना ) टिकाऊ, निभग्म-वि० दे० ( सं० निर्धम ) शंका, निपटारू, निर्बाह । "उघरे अन्त न होय भ्रम या सन्देह-रहित। क्रि० वि० (दे०) निबाहू"-रामा० । निस्सन्देह, बेधड़क, बेखटके । निबिड़-वि० (सं० निविड़) घना, गहरा, घोर, : निभरोस, निभरोसी - वि० दे० (हि. "कबहुँ दिवस महँ निबिड़ तमः।- रामा। नि= नहीं+भरोसा) हताश, निराश निरा. निबुआ-संज्ञा, पु० दे० (हि. नीबू) श्रय, पासरा या भरोसा-रहित । निभागा-वि० दे० (हि. नि+भाग्य ) नीबू , निब्बू (प्रा.)। अभागा, मन्दभागी। निबुकना-अ० क्रि० दे० ( सं० निर्मुक्त ) निभाना-स० कि० दे० (हि. निवाहना) बन्धन से छूटना, छुटकारा पाना, चुपचाप बे निर्वाह या गुज़ारा करना, चलाये जाना. जाने छूट जाना । "निबुकि गयो तेहि मृतक | भुगताना। प्रतीती"-रामा। निभाव--संज्ञा, पु० दे० (हि. निवाह ) निबेडना-निबेरना-स. क्रि० द० (सं० निबाह निर्वाह । निवृत) छुड़ाना, उन्मुक्त या उद्धार करना, । निश्रुत-वि० (सं०) अटल, स्थिर, निश्चल, चुनना, सुलझाना, निर्णय या फैपला गुप्त, नम्र, शांत, धीर, एकांत-पूर्ण । नमो करना, निबटाना, हटाना, दूर या निवारित निभ्रांत *-वि० दे० (सं० निर्धात ) भ्रम, करना। "जै जै कृष्ण टेरत निबेरत सुभट- सन्देह, शंका आदि से रहित, निस्सन्देह, भीरि"-०व०। निभ्रांत । निवेडा-निबेरा-संज्ञा, पु० दे० (हि० निबे- निमन्त्रण - संज्ञा, पु. (सं०) बुलावा, पाहान. इना) मुक्ति, छुटकारा, रिहाई, चुनाव, निब- न्योता, दावत निउता ( ग्रा० )। वि. टेरा, निर्णय । “संसय सकल सँकोच निमंत्रित । निबेरी"-रामा० । पू० का. निबेड़ि- निमन्त्रण-पत्र-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) न्योता निबेरि। के लिए पत्र। निबेरू-वि० दे० (हि. निबेरना) निपटने. निमन्त्रना-स० कि० दे० (सं० निमंत्रणा) निर्णय या फैसला करने वाला। न्योता देना, न्योतना (दे०)। निबेहना --स० कि० दे० ( हि० निबेरना) निमन्त्रित-वि० (सं०) जिसे न्योता दिया छुटाना, उद्धार या उन्मुक्त करना, निर्णय गया हो, पाहूत । करना। निम-संज्ञा, पु० (सं०) शलाका, सूची. कतनिबौरी-निबौली ( हि निनाराद० ( सं० रनो । (दे०) न्यून, थोड़ा, कम। निम्ब+ वर्तुल ) नीम का फल, निमकोग, निमका--संज्ञा, पु० दे० (फा० नमक) नमक. निबकौरी (ग्रा०)। "कोयल अम्बहिं लेति लवण, लोन, नून, लोन (दे०)। वि० है, काक निबौरी-हेत" ~०। निमकीन । For Private and Personal Use Only Page #1022 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir नियन्ता मिकी निमकी-संज्ञा, स्त्रो० दे० ( फा० नमक ) निमिख, निमिष-संज्ञा, पु० दे० (सं० निमेष) प्रचार, नीबू, गेहूँ के मैदे की नमकीन टिकिया। निमेष पलकों का खुलना और बन्द होना, निमकौड़ी-निमकौरी-संज्ञा, पु० दे० (हि. पलक मारने का समय । “सोउ मुनि देउँ निवारी) नीम का फल. निबौरी। निमिप इक माहीं --रामा । निमग्न - वि० (सं०) मग्न, तन्मय, डूबा निमित्त--संज्ञा, पु. (सं०) कारण, हेतु, हुा । स्त्री० निमग्ना। उद्देश्य, साधन । निमजन-संज्ञा, पु० (सं०) डुबकी लगा कर निमित्तक - वि० (सं०) किसी हेतु या उद्देश्य किया जाने वाला स्नान, अवगाहना। वि० से होने वाला, उत्पन्न, जनित । निमज्जनीय, निमजित । निमित्तकारण- संज्ञा, पु० यौ० (२०) जिस निमजना*-अ. क्रि० (सं० निमज्जन ) के द्वारा कोई पदार्थ बनाया जावे, एक दुबकी या गोता लगाना, अवगाहन या कारण (न्या०)। स्नान करना, नहाना। निमिराज* --संज्ञा, पु० यौ० (सं०) राजा निमजित-वि० (सं०) मग्न, डूबा हुआ. डूबा हुआ. जनक । स्नात, नहाया हुआ। निमिष-संज्ञा, पु० दे० (सं० निमेष) निमेष । निमटना-अ०कि. द. (हि. निबटना) . निमीलन-संज्ञा, पु० (सं०) आँख मीचना निबटना, निपटना। __ या मूंदना, पलकें लगाना। निमता* -- वि० दे० ( हि नि+माता) जो उन्मत्त न हो, बिना माता का। निमीलित-वि० (सं०) पलकों से मुंदे या निमन--वि० द० (हि. निमनाना )सुन्दर, बन्द, बन्द पलकें। , निमूद --- वि० दे० (हि० मुंदना ) बन्द, मुँदा मनोरम, दर्शनीय, दृढ़, पोढ़ा, कड़ा, ठोस । निमनाई-- संज्ञा, स्त्री० दे० ( हि० निमनाना) । । हुया, निमीलित। अच्छापन, सुन्दरता, दृढ़ता, मनोहरता। निमूना- संज्ञा, पु० (दे०) (फा० नमूना ) निमोना। निमनाना-स० कि. (दे०) सुन्दर या निमेख- संज्ञा, पु० दे० (सं० निमेष ) मनोरम बनाना, सुधारना, पोढ़ा या दृढ़ निमेष, पल । “लव निमेख में भुवन निकाया" करना। -रामा० । निमय-संज्ञा, पु० (सं० नि + मय) विनिमय, निमेट-वि० दे० (हि. नि+ मिटाना ) न परिवर्तन, बदला। मिटने वाला। निमात्ता-वि० दे० (सं० निमय) सावधान, | निमेष-संज्ञा, पु० (सं०) पलकों का मुंदना सचेत, अप्रमत्त । और खुलना, पल, क्षण, निमिष । निमान*-संज्ञा, पु० दे० (सं० निम्न) गड्ढा, निमोना-संज्ञा, पु० दे० (सं० नवाना) नीचा स्थान, ताल, ढाल । चने या मटर के हरे दानों से बना सालन । निमन्ना-वि० दे० (सं० निम्न) नीचा, ढलवाँ, निम्न-वि० (सं०) नीचे, तले, नीचा । यौ० नम्र, विनीत, कोमल, दब्बू । निम्नांकित--नीचे लिखा। निमि-संज्ञा, पु. (सं०) इच्वाकु का एक पुत्र ; निनगा-संज्ञा, स्त्री० (सं०) नदी। जिससे निमि वंश चला, निमेप, पलकों का नियन्ता-संज्ञा, पु० (सं० नियंत ) नियम या बन्द होना, खुलना । "मनहु सकुचि निमि : व्यवस्था बाँधने वाला, नियम पर चलाने तज्यो दिगंचल"-रामा०। वाला, शासक । स्त्री० नियंत्री। For Private and Personal Use Only Page #1023 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir नियंत्रण २०१२ नियोग नियंत्रण-संज्ञा, पु० (सं०) नियम में बाँधना सहिं जलद भूमि नियराये" "रीकमूक पर्वत या तदनुकूल चलाना । वि० नियन्त्रणीय।। नियराई"-रामा । नियंत्रित-वि० (सं० ) नियत से बँधा नियराना- अ० क्रि० दे० (हि. नियर+ हुआ, नियमवद्ध, प्रतिवद्ध । आना ) पास या समीप पहुँचना या पाना । नियत-वि० (सं.) नियम के द्वारा स्थिर या नियाईॐ --वि० दे० (सं० न्याय ) न्यायी न्यायशास्त्रज्ञ । बँधा हुआ, मुकरर, नियोजित, तैनात, स्थापित, निश्चित, ठीक । संज्ञा, स्त्री० [फा०) नियान - संज्ञा, पु. दे० (सं० निदान) फल, परिणाम | अव्य० (दे०) श्राखिरकार, अंत नीयत, इरादा। में निदान। नियताप्ति-संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०, अन्य नियामक-संज्ञा, पु. (सं०) नियम या उपायों को छोड़ एक ही उपाय से फल व्यवस्था करने वाला, मारने वाला । स्त्री० की प्राप्ति का निश्चय (नाट०)। नियामिका । संज्ञा, स्त्री० नियामिकता। नियतात्मा-वि० यौ० (सं०) वशी, यमी, नियामत, न्यामत-संज्ञा, स्त्री० दे० (अ. यती, जितेन्द्रिय । नेअमत ) दुर्लभ या अलभ्य पदार्थ, स्वादिष्ट नियताहार, नियताहारी-वि० यौ० (सं०) या उत्तम भोजन, धन, लक्षमी । “लो परिमित भोजन, मितभुक, अल्पाहारी। " तन्दुरुस्तो हजार न्यामत है"। नियति-संज्ञा, स्त्री. (सं०) नियत होने का नियाय, नियाव--संज्ञा, पु० द० (सं० न्याय) भाव, स्थिरता, बन्धेज, भाग्य या भाग्यफल, न्याय, उचित व्यवहार, इन्सान, न्याय अवश्यंभावी बात। (ग्रा०)। नियतेन्द्रिय-वि० यौ० (सं०) जितेन्द्रिय, नियार-संज्ञा, पु० दे० (हि० न्यारा) सोनारों, संयत शरीर, प्रशांत चित्त । जौहरियों या सराफों की दुकान का कूड़ा । नियम-संज्ञा, पु. (सं०) दस्तूर, परम्परा, नियारा-वि० दे० ( सं० निर्निकट ) दूर, व्यवस्था, कानून-कायदा, शर्त. प्रतिज्ञा, योग अलग, जुदा, न्यारा (दे०)। नियारिया-संज्ञा, पु० दे० (हि० नियारा ) का एक अंग। नियमन-संज्ञा, पु. (सं.) कायदा बाँधना, न्यारिया, सुनार आदि की दुकान के कूड़े शासन । वि. नियमित, नियम्य । से सोना-चाँदी आदि का निकालने वाला। नियमबद्ध-वि० यौ० (सं०) कायदे का वि० (दे०) चतुर, चालाक । पावन्द, नियमों से बँधा हुआ। नियारे-क्रि० वि० द० (हि. नियारा) न्यारे, अलग, जुदा, पृथक । नियमशाली-वि. (सं.) नियमयुत, | नियुक्त-वि० (सं०) तैनात, मुकर्रर, नियो. नियमानुसार, कार्यकर्ता। जित, लगाया या तत्पर किया हुश्रा, प्रेरित नियमसेवा-संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) नियम स्थिर । “यथा नियुक्तोऽस्मि तथा करोमि " पालन । वि०-नियमसेवी। -गी । नियमित-वि० (सं.) क्रमवद्ध, नियम या नियक्ति-संज्ञा, स्त्री० (सं०) तैनाती, मुकर्ररी। कायदे के अनुसार, नियमवद्ध । नियुत-संज्ञा, पु० (सं०) दस लाख की संख्या। नियरी-अव्य० दे० (सं० निकट अं० नियर) नियुद्ध-संज्ञा, पु० (सं०) कुश्ती, मल्लयुद्ध। समीप, पास । क्रि० वि० (दे०) नियरे, नेरे । नियोक्ता--संज्ञा, पु० ( सं० नियोक्त ) नियोग नियराई।-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. नियर+ करने वाला नियोजित-कर्ता ।। आई-प्रत्य०) सामीप्य, निकटता । "बर- नियोग-संज्ञा, पु. (सं०) नियोजित करने For Private and Personal Use Only Page #1024 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - नियोजक १०१३ निरतना का काम, प्रेरणा, मुकर्ररी, तैनाती, द्वितीय निरकेवला-वि० (सं० निस् + केवल) स्वच्छ, पति-करण । नियोगी-वि० (सं०) नियुक्त, खालिस, बेमेल । श्राज्ञा-प्राप्त। निरतदेश--संज्ञा, पु० यौ० ( सं० ) भूमध्य नियोजक -- संज्ञा, पु० (सं०) तैनात या मुकर्रर या विषुवत रेखा के निकटवर्ती देश (भू०)। करने वाला, काम में लगाने वाला। | निरत्तन* --- संज्ञा, पु. यौ० ( सं० निरीक्षण ) नियोजन-संज्ञा, पु० (सं०)मुकर्रर या तैनात, निगरानी, देखरेख, देखभाल, दर्शन, जाँच । करना, किसी को किसी काम में लगाना। निरत्तर-वि० (सं०) अक्षर-शून्य , निरच्छर वि० नियोजित, नियोजनीय, नियोज्य, (दे०) मूर्ख, अपढ़। यौ० निरक्षर भट्टानियुक्त। चाय-अपह, मूर्ख। नियोजित--वि० (सं.) नियुक्त, संयोजित, निरक्षरेखा-संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) निरक्षतैनात । वृत्त, क्रांति-वृत्त, नाड़ी-मंडल । निरंकार* - संज्ञा, पु० दे० (सं० निराकार ) निरक्षि-वि० (सं०) नेत्र-विहीन, अंधा। निराकार, ईश्वर, आकाश। निरखना*---स० कि० दे० (सं० निरीक्षण ) निरंकुश-वि० (सं०) जिसे किसी का भी अवलोकन करना, देखना, ताकना। प्रे० डर न हो, स्वतंत्र, स्वच्छंद, निडर । " निरं- रूप (दे०) निरखाना, निरखवाना। कुशाःकवयः, । " निपट निरंकुश, अवुध, निरग* --- संज्ञा, पु० दे० ( सं० नृग ) एक प्रशंकू"-रामा० । संज्ञा, स्त्री० निरंकुशता। दानी राना, नृग। निरंग-वि० (सं०) जिसके शरीर या अंग न । निरगुन --वि० दे० (सं० निर्गण) निर्गण, हो, केवल । संज्ञा, पु० (सं०) रूपकालंकार तीनों गुण से परे, भगवान । का एक भेद (विलो०-सांग)। वि० (हि. निरच-वि० दे० ( सं० निश्चित ) निश्चित. उप० नि-नहीं। रंग ) बदरंग, बे रंग, खाली, छुट्टी या फुरसत वाला, निहचू विवर्ण, उदास । (ग्रा०)। निरंजन-वि० (सं० ) कज्जल या अंजन- निरच्छ* ---वि० दे० ( सं० निरक्षि ) अंधा। रहित, दोष-रहित,शुद्ध, निर्दोष,माया-रहित। | निरजर-वि० दे० ( सं० निर्जर ) जो कभी संज्ञा, पु० (सं०) परमात्मा। पुराना या जीर्ण न हो, देवता। निरंतर-वि० (सं०) घना, मिलित, स्थायी, | निरजोस-संज्ञा, पु० दे० (सं० नियास ) अविच्छिन्न, अविचल । क्रि० वि० (सं०) निर्णय, निचोड़, सारांश ।। सदा, लगातार, नितांत । निरजोसी-वि० दे० (हि. निरजोस) निर्णय निरंतराभ्यास-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) लगा- करने या निचोड़ या सारांश निकालने तार अभ्यास, स्वाध्याय । वाला। निरंतराल-वि० (सं०) अविच्छेद, निरव- निरझर*--संज्ञा, पु० दे० (सं० निर्भर ) काश। सोता, चशमा, झरना निर्भर । स्त्री. (दे०) निरंध-वि० (सं०) अत्यंत अंधा, महामूर्ख, . निरभरी, निर्भरी। अति अंधकार, बहुत अँधेरा। निरत-वि० (सं० ) तत्पर, लीन, लगा निरंभ-वि० ( सं० निरंभम् ) निर्जल, पानी- हुधा । **---संज्ञा, पु० दे० (सं० नृत्य) रहित। नाच, नृत्य । निरंश-वि० (सं०) अंश-हीन, जिसका हिस्सा निरतना--अ० क्रि० दे० (सं० नर्तन ) या भाग न हो, बिना अक्षांश का, निरक्षांश ।। नाचना, नृत्य करना। For Private and Personal Use Only Page #1025 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir निरति १०१४ निरमोल निरति--संज्ञा, स्त्री० (सं०) अप्रीति, अप्रेम. निरवंश, निरवंशी--- वि० दे० (सं० निर्वश) अस्नेह । संतान-रहित, वंश या कुटुंब-हीन । निरतिशय-वि० सं०) सर्वोत्तम या उत्कष्ट निरबल*—वि० दे० ( सं० निर्बल ) निर्बल, सर्व श्रेष्ठ, सब से अच्छा या बढ़िया। कमजोर, निबल । " निरबल को न सतानिरधातु-वि० दे० (सं० नर्धातु ) बल इये"-कवी०। या शक्ति-हीन । निरवहना*-अ. क्रि० द० (हि० निभना) का निभना, निबहना। निरधार*---संज्ञा, पु० दे० ( सं० निर्धार ) . निरबद*--संज्ञा, पु० द० (सं० निर्वेद ) निर्णय, निश्चय, ठीक, सिद्धांत । जो वैराग्य, ताप, ज्ञान । कहिये सो कीजिये, पहले करि निरधार" ०।। निरबेरा--संज्ञा, पु० दे० ( हि० निबेरा ) निरधारना- स० कि० दे० (सं० निर्धारण ) ") निबेरा। मन में निश्चय या स्थिर करना, समझना, निरभिमान-वि० (सं०) गर्व - हीन, बहुतों में से एक को चुन लेना। अहंकार-रहित, अभिमान-शून्य । निरनुनासिक-वि० यो० (सं०) थननु- निरभियोग-वि० (सं०) अभियोग-नहित । नासिक, नाक की सहायता से उच्चरित निरभिलाष-वि० (सं०) इच्छा, आकांक्षा, वर्ण । जैसे-न, म, ङ, अ, ण, श्रादि ! या अभिलापा से रहित, निरभिलाषी। निरन्न-वि० (सं०) निराहार, अन्न या संज्ञा, स्त्री० निरभिलाषा। भोजन-रहित, भूखा। निरभ्र--वि० (सं०) मेघ या बादल के बिना। निरन्ना-वि० दे० ( सं० निरन्न ) अन्न-रहित, निरमना -२० कि. द० ( सं० निर्माण ) निराहार । बनाना, निर्माण करना। निरपत्य - वि० सं०) निस्संतान, पुत्र, निरमम--वि० (दे०) निर्मम ( सं० ) ममता । रहित। कन्या-रहित । निरपना-वि० दे० ( सं० निर-+ हि० निरमर-निरमल-वि० दे० (सं० निर्मल) निर्मल, स्वच्छ, उज्वल। अपना ) दूसरे का, पराया, अन्य, जो अपना निरमाता-संज्ञा, पु. (दे०) निर्माता (सं०) । न हो। निरमान - संज्ञा, पु० दे० (सं० निर्मागा) निरपराध-वि० (सं०) निदेष, अपराध बनाना, निर्माण करना। रहित । क्रि० वि० (हि.) कोई कसूर बिना । निरमाना*-स० कि० दे० (सं० निर्माण ) किये। रचना, बनाना, तैयार करना। निरपराधी*-वि० (सं०) निदेष, अपराध-निरमायल --संज्ञा, पु० दे० (सं० निर्माल्य) रहित। किसी देवता पर चढ़ी वस्तु, निर्माल्य। निरपाय-संज्ञा, पु. (सं० निर + अपाय ) निरमित-वि० (दे०) निर्मित ( सं०) दे. रक्षा, निर्विघ्न । 'ब्रहमांडनिकाया निरमित माया"-रामा निरपेक्ष-वि० ( सं० निर् + अपेक्ष ) स्वतंत्र, निरमूलना-स० क्रि० दे० (सं० निर्मूलन) बे परवाह, लापरवाह, अनपेक्ष, उदासीन, जड़ से नाश या निर्मूल करना । संज्ञा, पु. चाह या भरोसा-रहित, अलग, तटस्थ ।। (दे०) निरमूलन । संज्ञा, स्रो० निरपेक्षा, निरपेक्षी- वि० निरमाल-वि० दे० (सं० निमूल्य ) अमोल, निरपेक्ष्य, निरपेक्षणीय, निरपेक्षित। अमूल्य, अनमोल, उत्तम । For Private and Personal Use Only Page #1026 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir निराखर पवार निरमोहिल निरमोहिल-वि० (दे०) निर्मोही । “ या निरस-वि० (सं०) रस या स्वाद-बिना, निरमोहिल रूप की रासि"-ठाकु० । विरस, फीका, बदमज़ा। (विलो०सरस)। निरमोही*-वि० दे० (सं० निर्माही) निमें ही, निरसन --- संज्ञा, पु० (सं०) हटाना, फेंकगा, निर्दय, निर्दयी, मोह-रहित, ज्ञानी । "बे दूर या रद करना, खारिज करना, निकालना, निरमोही ऐसे, सुधिर् न लेत" --- स्फु० ।। वध, नाश । वि० निरसनीय, निरस्य । निरय-संज्ञा, पु० (सं०) नरक, दोज़ख़ । निरस्त -- वि० (सं०) त्यक्त, त्यागा या छोड़ा निरयण --संज्ञा, पु. (सं० ) अयन-रहित हुश्रा, प्रत्याख्यात, निराकृत, निवारित, हटाया गणना बिना, बे घर का। हुआ। "निरस्तनारी समया दुराधयः' -किरा० निरगल--वि० (सं०) अवाध, अप्रतिबंधक, निरस्त्र-वि० (सं०) अस्त्र-रहित, खाली हाथ । बेरोक-टोक, अर्गल या जंजीर-रहित । यौ० संज्ञा, पु० (सं०) निरस्त्रीकरण । निरर्थक-वि० (सं० ) अर्थ-रहित, बेमानी, निरहंकार - वि० (सं०) घमंड या अभिमानएक निग्रह स्थान (न्या० ) व्यर्थ, निष्फल, रहित। निष्प्रयोजन । संज्ञा, स्त्री० निरर्थकता। निरहेतु *---वि० दे० (सं० निर्हेतु ) निर्हेतु, निरवच्छिन्न- वि० (सं०) लगातार, क्रमशः, कारण रहित, व्यर्थ । क्रमवद्ध। निरा-वि० दे० ( सं० निराश्रय ) खालिस, निरवद्य-वि० ( सं० ) दोष-रहित, स्वच्छ, शुद्ध, बे मेल, केवल, निपट, बिलकुल, एक शुद्ध, निपि । संज्ञा, स्त्री० निरवद्यता। दम, एक बारगी, बहुत, सब का सब । स्त्री० निरवधि-वि० (सं०) सीमा-रहित, असीम। तिरी। निरवयव-वि० (सं०) अवयव - रहित, निराई-संज्ञा, स्त्री० दे० ( हि० निराश ) निराकार, निरंग। निराने का कार्य या मजदूरी, निरवाई। निरवलंब-वि० (सं०) अवलंब या श्राधार निराकरणा-संज्ञा, पु. ( सं० ) फैसला, हीन, बिना सहारे, निराश्रय, निरालंब। निपटारा, सन्देह मिटाना, छाँटना, अलग निरवाना---स० क्रि० दे० (हि. ) निराई करना. निवारण, परिहार, खंडन । वि. कराना। संज्ञा, स्त्री० निरवा (दे०) निराने , निराकरणीय, निराकृत । का काम या दाम । निराकांक्षी--वि० (सं०) संतुष्ट, शांत, निस्पृह, निरवाई, निरवार--संज्ञा, पु. द० ( हि० परमेश्वर, आकाश | संज्ञा, स्त्री० निराकार । निरवारना ) छुटकारा, बचाव, निस्तार, निप- निराकार-- वि० (सं०) आकार-रहित, परमेटारा, सुलझाव, निधारणा, निराने का काम श्वर, आकाश, ब्रह्म । संज्ञा, स्त्री. निराया दाम। कारता। निरवारना-स० क्रि० दे० (सं० निवारण) निराकुल-- वि० (सं०) सावधान, जो घबराया छुड़ाना, मुक्त करना, सुलझाना, निर्णय या श्राकुल न हो, बहुत व्याकुल या घबराया करना, तै या अलग करना। " बड़े वार हुया । " सुपात्र निक्षेप निराकुलात्मन"श्रीवंत सीस के प्रेम-सहित लै लै निरवारे।। माघ । संज्ञा, स्रो० निराकुलता । निरवाह*-संज्ञा, पु० दे० (सं० निर्वाह) निराकृत--वि० (सं०) अपमानित, अस्वीकृत, निर्वाह, गुजारा। हटाया हुआ। निरशन -संज्ञा, पु० (सं०) उपवास, लंघन, निराकृति--वि० (सं०) आकार-हीन । भोजन न करना, अनशन । निराखर -वि० दे० ( सं० निरक्षर) निरसंक*-वि० दे० (सं० निःशंक) निःशंक, बिना अक्षर का, अक्षर-रहित, अपढ़, मूर्ख, निःसन्देह, निर्भय, बे धड़क । चुप, मौन । For Private and Personal Use Only Page #1027 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir निराचार निरीश्वरवाद निराचार-वि० सं०) श्राचार-रहित, अना- निराला-संज्ञा, पु. दे० (सं० निरालय) चार, प्राचार-भ्रष्ट । वि. निराचारी । संज्ञा, एकांत घर या स्थान निर्जन, एकांत । (स्त्री० स्त्री० निराचारिता। निराली) वि० (दे०) विलक्षण, सब से निराट ... वि० दे० (हि. निराल' ) एक मात्र, अलग या भिन्न, अजीब, अनोखा, अद्भुत, निरा, निपट, बिलकुल, सब का सब। अनूठा, उत्तम, अपूर्व । निरातक- वि० (सं० ) निःशंक, निर्भय, निरावना-स० कि० दे० ( सं० निराना ) बेधाक, आतंक-राहत । निराना । संज्ञा, स्त्री० निरवाई। निरादर --- संज्ञा, पु० (सं०) अपमान बेइज्जती। निरावलंब-- वि० ( सं० ) बिना सहारे का, निराधार वि० सं०) बेसहारे, जो प्रमाणों निराश्रय । के द्वारा पुष्ट न हो सके, मिथ्या, अयुक्त । निराश-निरास(दे०)---वि० (सं० निराश) निगनंद---वि० (सं०) आनंद-रहित, दुखी। नाउम्मेद पाशा-हीन । संज्ञा, पु. ( सं०) निराना--स० क्रि० दे० ( सं० निराकरण ) नैराश्य, निराशा । निकाना, खेत से घासादि खोद कर हटाना, निराशा संज्ञा, स्त्री० (सं०) निरासा (दे०) निरावना (दे०)। प्रे०रूप-निरवाना। नाउम्मेद, हताश। "कृषी निरावहिं चतुर किसाना"-रामा० । निगशी-वि० (सं० निराशा ) हताश, संज्ञा, स्त्री. निराई, निरवाई। विरक्त, उदासीन, नाउम्मेद, निगमी (दे०)। निरापद-वि० (सं० ) निर्विन, अनापद, निराश्रय - वि० (सं०) श्राश्रय - विहीन, बे सुरक्षित, विपत्ति-रहित, निरापत्ति। सहारे, असहाय । विनिराश्रित । निरापन, निगपुन - वि० दे० (सं० निः | निराहार-वि० (सं०) भोजन-रहित, आहार+हि. अपना ) पराया, जो अपना या रहित । निजी न हो। निरिद्रिय-वि० (सं०) इन्द्रिय-रहित, बिना निरामय- वि० ( सं०) निरोग, तंदुरुस्त, इन्द्रिय का। स्वस्थ, स्वास्थ्य युक्त। सर्वे संतु निरामयाः" निरिच्छना-~स० क्रि० दे० (सं० निरीक्षण ) देखना। निरिच्छा--वि० (सं०) इच्छा-रहित । निरामिष---वि० (सं० ) जो माँस न खाता निरीक्षक - संज्ञा, पु० (सं०) देखने वाला, हो, मांस-रहित, निरामख (दे०) । “होइ निरामिष कबहुँ कि कागा ''-रामा० ।। देख रेख करने वाला । निरीच्छक (दे०)। निरायुध-वि० सं०) बिना अस्त्र के, खाली | निरीक्षण – संज्ञा, पु० (सं०) देखरेख, निग रानी, चितवन, देखना, निरीच्छन (दे०) । हाथ, निरन। वि० निरीक्षित, निरीक्ष्य, निरीक्षणीय, निगर-निरारा-वि० दे० (हि. निराला) निरीच्छन । जुदा. अलग, पृथक, निराला। निरीक्षा-संज्ञा, स्त्री. (सं.) देखना, निरालंब-वि० (सं०) सहारा, या अवलंब से निरीच्छा (दे०)। रहित , निराधार, निराश्रय । निरीश्वरवाद-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) यह निरालय-वि० (सं०) मकान या धर-रहित, सिद्धान्त कि परमेश्वर कोई वस्तु नहीं है, निर्जन, एकांत, निराला। ईश्वर की सत्ता के न मानने का सिद्धान्त । निरालस्य-वि० (सं०) चुस्त, फुर्तीला, निरीश्वरवादी-संज्ञा, पु. (सं०) परमेश्वर तत्पर, पालस-रहित, निरालस (दे०)। का न मानने वाला, नास्तिक । For Private and Personal Use Only Page #1028 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir निरीह १०१७ निरेखना निरीह-वि० (सं०) चेष्टा-रहित, प्रयत्न या निरुपयुक्त-वि० (सं०) अनुपयुक्त, अनुचित। इच्छा-रहित, उदासी, विरक्त, शांतिप्रिय । निरुपयोो - वि० (सं० ) उपयोग रहित, संज्ञा, स्त्री. निरोहता। ___ व्यर्थ, निरर्थक । संज्ञा, पु. (सं० )निरुपयोग। निरुपारा-संज्ञा, पु० दे० (सं० निवारण ) निरुपाधि-वि० (सं० ) उपाधि-रहित, निवारण, निर्वार, अलग या भिन्न करना, | निर्बोध, माया-रहित। संज्ञा, पु० (सं०) ब्रह्म। सुलझाव । निरुपाय-वि० (सं० ) उपाय रहित, जो निरुक्त-वि० (सं०) निश्चय या ठीक रूप कुछ उपाय न कर सके, जिसका कोई उपाय से कहा हुआ, नियुक्त ठहराया हुआ । संज्ञा, न हो सके। पु. वेद के छै अंगों में से चौथा अंग, जिसमें निरुवरना -- अ० क्रि० दे० (सं० निवारण) यास्क मुनि-कृत वैदिक शब्दों की व्याख्या है। कठिनता आदि का न होना, सुलझना । निरुक्ति-संज्ञा, स्त्री. (सं०) शब्दों या | निरुवार-संज्ञा, पु० दे० (सं० निवारण) वाक्यों की व्युत्पत्ति-बोधक व्याख्या, एक अलंकार जिसमें किसी संज्ञा शब्द के साभिप्राय मोचन, छुटकारा, रक्षा, निबटाना, फैसला, निर्णय। अर्थान्तर से भाव में सयुक्ति पुष्टि की जावे ( अ०पी० )। निरुवारना* --- स० कि० दे० (हि० निरुवार) निरुज-वि० (सं० नीरुज ) रोग-रहित, । मुक्त करना, छुड़ाना, सुलझाना, निर्णय, तन्दुरुस्त, निरोग। फैसला या ते करना, निबटाना । निरुत्तर-वि० (सं०) लाजवाब, उत्तर-हीन, निरूढ़-वि० (सं०) उत्पन्न, प्रसिद्ध, विख्यात, जो उत्तर न दे सके, जिसका उत्तर न हो सके। प्रसिद्ध, कुंभारा । निरुत्सुक-वि० ( सं० ) उत्सुकता रहित, निरूढ़ लक्षणा–संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) एक निरुद्रंग, पाकुंठित । लक्षणाभेद, जिसमें शब्द का ग्रहण किया निरुत्साह-वि० (सं०) उत्साह-हीन । वि० हुअा अर्थ रूढ़ हो गया हो (काव्य)। निरुत्साही। निरूढ़ा-संज्ञा, स्त्री० (सं०) निरूढ़ लक्षणा । निरुद्ध-वि० ( सं०) बँधा या रुका हुआ, | | निरूप-वि० ( हि० निः+ रूप ) रूप-रहित, घिरा हुआ। निराकार, कुरूप। निरुद्यत-वि० (सं०) जो तत्पर न हो। | निरूपक-वि० (सं.) निरूपण करने वाला। निरुद्यम-वि० (सं०) उद्यम या रोजगार से रहित, उद्योग-हीन, बेकार। संज्ञा, निरूपण-संज्ञा, पु. (सं०) दर्शन, विचार, निर्णय, प्रकाश, बखान, निरूपन (दे०) । निरुधमता । वि. निरुद्यमी। निरुद्यमी-संज्ञा, पु० (सं० निरुद्यमिन् ) "ब्रह्म-निरूपण करहिं सब "-रामा० । निकम्मा, बेकार, उद्यम-रहित, निरुद्योगी। निरूपना-अ० क्रि० दे० (सं० निरूपण ) निरुद्योग-वि० (सं०) उद्योग रहित, बेकार, | निश्चित, निर्णय करना, ठहराना, विचानिरुद्यम । वि० निरुद्योगी। रना, कहना। निरुपद्रव-वि० सं०) उपद्रव-रहित, शांत । निरूपित-वि० (सं०) जिसका निर्णय या निरुपद्रवी-वि० (सं० निरुपद्रविन् ) शांत, | निरूपण हो चुका हो। वि. निरूपणीय। जो उपद्रव न करे। निरेखना*---स० क्रि० दे० ( हि० निरखना ) निरुपम-वि० (सं० ) उपमा-रहित बे- निरखना, देखना, अवलोकन करना। "रथ मिसाल, बेजोड़, अद्वैत अनुपम । सों निरखत जात जटाई" - स्फु० । भा० श. को०-१२८ For Private and Personal Use Only Page #1029 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir निरेट निर्णता निरेट-वि० (दे०) पोदा, ठोस, दृढ़। | निर्गुणी--वि० (सं० निर्गुण) मूर्ख, निरगुनी, निरै*-संज्ञा, पु० दे० (सं० निरय ) नरक। निर्गनी (दे०)। क्रि० वि० (दे०) बिलकुल ही, निरा, निपट । निर्घट-संज्ञा, पु. (सं०) शब्दकोष, निघंट। निरोग-निरोगी-संज्ञा, पु० (सं० नीरोग ) | निघृण-वि० (सं०) घिन रहित, नीच, निर्दय, स्वस्थ, तन्दुरुस्त, रोग-रहित । साहिता निन्दित, घृणा या जुगुप्सा-हीन । वि. निरोध--संज्ञा, पु. (सं०) अवरोध, रोक, | निघृणी। बंधन, घेरा, नाश । “ योगश्च चित्त-वृत्ति निर्घोष-संज्ञा, पु० (सं०) शब्द, श्रावाज़ । निरोधः"-योग। | वि० (सं०) शब्द-रहित । वि. निर्घोषित । निरोधक-वि० (सं०) रोकने वाला। निईल*-वि० दे० (सं० निश्छल ) छलनिरोधन -संज्ञा, पु. (सं०) अवरोध, रोक, | रहित, निष्कपट, निहल (व०)। बंधन । वि० निरोधनीय, निरोधित। निर्जन-वि० (सं०) निरजन (दे०), सुनसान, निरौनी-संज्ञा, स्त्री० (दे०) निराने की क्रिया एकान्त, मनुष्य रहित, विजन । या मजूरी। निर्जल - वि० (सं०) जल-रहित, बिना पानी, निर्ख-संज्ञा, पु. ( फा० ) दर, भाव। संज्ञा, | निरजल (दे०) निरंबु । पु० (फा०) निर्खनामा-भाव सूचक पत्र । निर्जला एकादशी (व्रत)-संज्ञा, स्त्री० यौ० निगंध-वि० (सं०) गंध-रहित । संज्ञा, स्त्री. __ (सं०) जेष्ठ शुक्ल एकादशी जब निर्जल व्रत निर्गधता । "निगंधारिव किंशुकाः'। । किया जाता है (पु०)। निर्गत वि० (सं०) निकला या बाहर आया या निर्जित-वि० (सं०) पराजित, परास्त, हारा dिali जित पगस्त. हुश्रा । " नख-निर्गता, सुरबंदिता त्रैलोक्यपावन सुरसरी "-रामा० । स्त्री० निर्गता। हुआ, वशीभूत । निर्गत्य-अ० क्रि० पू० का. (सं० निर्गत) | निर्जीव-वि० (सं०) बेजान, जीवन या जीव रहित, जड़, मरा हुआ, उत्साह या शक्तिनिकल कर। निर्गम-संज्ञा, पु० (सं०) निकास, उद्गम । | हीन, अचैतन्य । संज्ञा, पु० (सं०) निर्गमन-निकलना। निर्भर-संज्ञा, पु. ( सं० ) सोता, झरना, निर्गमना-अ० क्रि० दे० (सं० निर्गमन) निक चश्मा । स्त्री. निझरी। लना, बाहर पाना या जाना। निरिणी- संज्ञा, स्त्री० (सं०) नदी । निर्गुडी-निर्गुडिका-संज्ञा, स्त्री. (सं०) | निर्णय-संज्ञा, पु० (सं०) उचितानुचित का संभालू , सिंधवार (औष०)। निश्चय, दो पक्षों में से एक को ठीक ठहनिर्गुण-संज्ञा, पु. (सं०) निर्गन, तीनों राना, निश्चय, फैसला, निबटारा, निरनय गुणों से परे, निरगुन (दे०), परमेश्वर। (दे०) “साँच झूठ निर्णय करै, नीति. वि० (सं०) जिसमें कोई गुण न हो, बुरा। निपुन जो होय "-०।। संज्ञा, स्त्री० निर्गणता, निर्गणत्व (पु.) निर्णयोपमा-संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) उपमेय "गुणाः गुणज्ञेषु गुणाः भवंति, ते निर्गुणं और उपमान के गुण दोष की विवेचना प्राप्य भवंति दोषाः"। करने वाला, एक अर्थालंकार (का०)। निर्गणिया-वि० (सं० निर्गुण ---इया-प्रत्य०) नित--वि० (सं०) निर्णय किया हुआ, निर्गुण ब्रह्म का उपासक, गुण-रहित । | निर्णय सिद्ध । निगुनिया (दे०)। " निर्गुणिया के साथ | निर्णता-संज्ञा, पु. ( सं० ) निर्णय करने गुणी गुण प्रापन खोवत "---गिर। वाला, निश्चय कर्ता । For Private and Personal Use Only Page #1030 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir नित निभींत निर्त*-संज्ञा, पु० दे० (सं० नृत्य ) नाच, निर्धारना-स० क्रि० दे० (सं० निर्धारण ) नृत्य। ठहराना, निश्चित या निर्धारित करना । निर्तक -संज्ञा, पु० दे० (सं० नत्तक ) | निरधारना (दे०)। नाचने या नृत्य करने वाला। स्त्री निर्तकी। निर्धारित-वि० (सं०) ठहराया या निश्चित निर्तना-अ. क्रि० दे० (सं० नृत्य) नाचना। किया हमा, निरधारित (दे०)। निर्दई*-वि० दे० (सं० निर्दय) दया रहित। निबंध-संज्ञा, पु. (सं०) रुकाव, रुकावट, निर्दय-- वि० (सं०) दया रहित, निठुर, बेरहम। अड़चन, अाग्रह, हठ, ज़िद। " निबंध निर्दयता- संज्ञा, स्त्री० (सं०) निठुरता, बेरहमी । तस तद् ज्ञात्वा"-भाग। निर्दयी*-वि० दे० (सं० निर्दय ) निठुर, निर्बल-वि० (सं०) दुर्बल, बल-रहित, दया-हीन, अकरुण । निरबल (दे०) । "निर्बल पक्ष परिग्रहः'निर्दहन-संज्ञा, पु० (सं०) जलाना। माव० । “निरबल को न सताइये"-कबी०। निर्दहना - स० कि० दे० (सं० दहन ) जलाना। निर्बलता-संज्ञा, स्त्री. (सं०) कमजोरी, निर्दिष्ट-वि० (सं० ) ठहराया, बतलाया या कमताकती। “अबला जियति लाल निरनियत किया हुआ। बलता बल सों"। निर्दूषण-वि० (सं०) निर्दोष, दोष-रहित । निर्बहना-अ. क्रि० दे० (सं० निर्बहन ) निर्देश-संज्ञा, पु० (सं०) श्राज्ञा, आदेश, दूर या पार होना, अलग होना, निभना, प्रस्ताव, कथन, निरूपण, निर्णय, उल्लेख, पालन होना, निबहना (दे०)। वर्णन, नाम । निर्बाचन-संज्ञा, पु० दे० (सं० निर्वाचन ) निर्दोष-वि० (सं०) दोष-रहित, निरपराध, चुनाव, छंटाव, निश्चय, निर्णय । वि. निर्वाचित, निर्वाचनीय । बे कसूर, बे ऐब, निरर्दोष (दे०)। "ज्यों । निरदोष मयंक लखि, गिनै लोग उतपात" निर्वासन-संज्ञा, पु. ( सं० निर्वासन ) -०। देश-निकाला, नगर-निकाला, दूर करना । निर्दोषता-संज्ञा, स्त्री० (सं०) निरपराधता। वि० निर्वासित, निर्वासनीय। निर्देोषी- वि० (सं० निर्देाषिन ) दोप-रहित, निर्बुद्धि- वि० (सं०) बे समझ, मूर्ख, अज्ञान निरपराध, बेकसूर, बे ऐब, निरदोषी (दे०)। निर्बझ-वि० दे० (हि० बूझना ) अबूझ, निद-निद्वंद - (दे०) वि० (सं० ) स्वतंत्र, नासमझ, मूर्ख, अज्ञान । स्वच्छंद, मान-अपमान, राग-द्वप, दुख या निधि-वि० (सं०) अज्ञान, अजान, अबोध। सख ग्रादि से परे. अकेला.विरोधकता | निर्भय-वि० (सं.) निडर, बेधड़क, अशंक । निर्धन-वि० (सं०) कंगाल, धन-रहित, निर्भयता-संज्ञा, स्त्री० (सं०) बेख़ौफ़ी, बे निरधन (दे०)। "निर्धन के धन गिरधारी" धड़की, बेडरपन, निडरपन । मीरा। निर्भर-वि० (सं०) परिपूर्ण, खूब भरा, युक्त, निर्धनता-संज्ञा, स्त्री० (सं०) कंगाली, गरीबी, अवलंवित, आश्रित, मुनहसर । “निर्भर निरधनता (दे०)। प्रेम-मगन हनुमाना"-रामा । निर्धार, निर्धारण-संज्ञा, पु० (सं०) निश्चित | निर्भीक-वि० (सं०) निडर, बेधड़क, बेडर । करना ठहराना, निर्णय, निश्चय, छाँटना, निर्भीकता--संज्ञा, स्त्री० (सं०) निडरता, अलग करना, निरधार, निरधारन (दे०)। निर्भयता। " पहिले करि निरधार"-वृं० । निर्भीत--वि० (दे०) निडर, अशंक । For Private and Personal Use Only Page #1031 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir निर्धम १०२० नियोगक्षेम निभ्रम-वि० (सं०) शङ्का, संदेह या | निर्मान-वि० (हि. निः+मान ) अपार, भ्रम से रहित, निभ्रांत । असीम, बेहद । संज्ञा, पु. (सं० निर्माण ) निर्धामक-निभ्रमात्मक-क्रि० वि० (सं०) बनाव, सृजन, रचना। बेधड़क, बे खटके, निर्भय, भ्रम-रहित । निर्मायल*-संज्ञा, पु० दे० (सं० निर्माल्य) निभ्रांत-वि० (सं०) संदेह, शङ्का या भ्रम | किसी देवता पर चढ़ी हुई वस्तु । से रहित, जिसमें कोई संदेह न हो। निर्माल्य-संज्ञा, पु. (सं०) देवता पर चढ़ी निर्मना -स. क्रि० दे० (सं० निर्माण ) हुई वस्तु । निरमना, बनना। निर्मित- वि० (सं० ) निरमित (दे०)। निर्मम-वि० (सं०) मोह या ममता से रचित, सृजित, बनाया हुश्रा। " ब्रह्मांड रहित, निर्मोही, जिसे कोई इच्छा यावासना निकाया, निर्मित माया"- रामा० । न हो, त्यागी। निर्मूल- वि० (सं०) बे जड़, बे बुनियाद, निर्मर्याद-वि. (सं०) अनादर-कारिणी, नाश, नष्ट । वि० निमूलित। मान्यता-हीन, अपमानकारी। | निर्मूलन-संज्ञा, पु० (सं०) निर्मूल होना या निर्मल-- वि० (सं०) स्वच्छ, निर्दोष, शुद्ध, करना, बिनाश, नष्ट । वि. निमूलीय । पवित्र, निष्कलंक, निरमल (दे०)। निर्माक-संज्ञा, पु० (सं०) सर्प की केंचुली, “सरिता-सर निर्मल जल सोहा"-रामा। देह की त्वचा, आकाश । संज्ञा, स्त्री० निर्मलता। निलि*-वि० (सं० निः--हि. मोल ) निर्मलता-संज्ञा, स्त्री. ( सं०) स्वच्छता, अनमोल, अमूल्य, अधिक बदिया। शुद्धता, निष्कलंक। निर्माह-वि० (सं० ) मोह-ममता-रहित, निर्मला- संज्ञा, पु. (सं० निर्मल ) नानक | कठोर, निर्दय, कड़ा, निरमोह (दे०)। पंथी, एक प्रकार के साधु । वि० खो० शुद्धा। निर्मोहिनी-वि० स्त्री० (हि० निहि -- निर्मली-संज्ञा, स्त्री. (सं. निर्मल ) रीठा इनी - प्रत्य० ) ममता मोह-रहित, निर्दय । का पेड़ या फल जिससे पानी साफ हो निर्मोही-- वि० (सं० निर्माह ) मोह-ममताजाता है । वि० (सं० यो०) निर्मलीकृत रहित, निर्दय, कठोर, निठुर, निरमोही (दे०)। निर्मलीभत, स्वच्छ किया हुआ। निर्यात-संज्ञा, पु. ( सं०) रफ्तनी माल, निर्मलोपल-संज्ञा, पु. यौ० (सं०) स्फटिक, । विदेश भेजा गया माल । संगमरमर। निर्यातन-संज्ञा, पु. (सं०) प्रतिहिंसा, बैरनिर्माण- संज्ञा, पु० (सं०) रचना, बनावट, शोधन, बदला चुकाना, प्रतीकार, माल सृष्टि-करण, गठन, निरमान (दे०)। विदेश भेजना। 'निर्माण-दक्षस्य-समीहतेषु नैष । निर्यास-संज्ञा, पु. (सं०) पेड़ों का गोंद निर्माता-संज्ञा, पु. (सं०) सृजने या बनाने या रस, सत, सार । वाला, रचयिता । "जग निर्माता जाहि रचि, निर्यक्ति-संज्ञा, स्त्री. (सं०) युक्ति-रहित, कला कृतारथ कीन"--मन्ना। अनुपयुक्त, अनुचित । वि० (सं०) नियुक्त । निर्मात्रिक-वि० (सं०) मात्रा-रहित, बिना निर्यक्तिक - वि० ( सं० ) युक्ति-रहित, मनमात्रा के, अमात्रिक। गढ़त, अनुचित, अनुपयुक्त । निर्माना*-स० क्रि० दे० (सं० निर्माण) निर्योगक्षेम-वि० यौ० (सं० ) निश्चित, निरमाना (दे०), रचना, सृजना, बनाना।। चिंता-शून्य, बे खटके । For Private and Personal Use Only Page #1032 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - निर्लज्ज निविषी निर्लज्ज-वि० (सं०) लज्जा-रहित, बे शरम, | निर्वापरण- संज्ञा, पु. ( सं०) त्याग, दान, निरलज्ज, निलज (दे०)। प्राणनाश, वध, बुझाना, नाश । निर्लज्जता--संज्ञा, स्त्री. (सं० ) बेशर्मी, | निर्वायु-वि० (स.) वायु-रहित । बेहयाई। निर्वास - संज्ञा, पु. ( सं०) निकाल देना, निलिप्त-वि० (सं०) जो लिप्त या प्रासक्त न । बाहर कर देना, दूरी करण । हो, साफ़, शुद्ध, निर्दोष । संज्ञा, स्त्री० निर्धासक-संज्ञा, पु० (सं० ) निकालने या निलिप्तता। बाहर करने वाला, देश निकाला देने वाला। निर्लेप-वि० ( सं०) लेप या दोष-शून्य, निर्वासन-संज्ञा, पु. (सं.) वध करना, निर्दोष, निष्कलंक, सात, शुद्ध । मार डालना, देश आदि से निकाल देना, देश निकाला । वि० निर्वासनीय । निर्लेपन-संज्ञा, पु. ( सं०) दोष शून्यता। | निर्वासित- वि० (सं० ) दूरीकृत, निकाला वि० निर्लेपनीय, निलेपित। निलेश-वि० (सं०) लेश-रहित, निर्दोष, गया, बहिष्कृत । निर्वास्थ-वि० (सं०) निकालने योग्य, देशनिष्कलंक, साफ शुद्ध । निकाले के योग्य, अपराधी। निलेभि - वि० (सं०)लालच-रहित, लोभ-हीना | निमि-- वि० (सं०) लोम या रोम-रहित । | निर्वाह- संज्ञा, पु. (सं०) गुज़र,निबाह (दे०)। निर्वश-वि० (सं०) कुल-रहित, कुटुम्ब या निर्वाहना*-अ० कि० दे० (सं० निर्वाह -1 परिवार-हीन, जिसका वंश नष्ट हो गया हो । हि. ना प्रत्य० ) गुज़र या निर्वाह करना । निरबंस, (दे०) । संज्ञा, स्त्री० निर्वशता । निर्विकल्प-वि० (सं०) विकल्प या भेदवि० निर्वशी। रहित, परिवर्तन-हीन, निश्चल, स्थिर, नित्य । निर्वहण-संज्ञा, पु० (सं०) निर्वाह, निबाह निर्विकल्पसमाधि - संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) गुज़र, गुज़ारा, समाप्ति । वि० निर्घहगीय । समाधि का एक भेद जिसमें ज्ञान, ज्ञाता, निर्वहना* ---अ० कि० दे० (सं० निर्वहन ) और ज्ञेय का भेद मिट जाता है, परमात्मा निभना, चलना, गुज़र करना, निवहना।। का साक्षात्कार । निर्वाचक-संज्ञा, पु. ( सं०) चुनने वाला, निर्विकार-वि० (सं०) विकार-रहित. परिजो चुने या निर्वाचन करे। वर्त्तन-हीन, शुद्ध, साफ, निषि, स्वच्छ । निर्वाचन-- संज्ञा, पु. ( सं०) बहतों में से वि० निर्विकारी-निर्विकार वाला। निर्विघ्न - वि० (सं०) बाधा-रहित । क्रि० वि० निर्वाचित--वि० (सं०) चुना या छाँटा हा। (सं०) विघ्न के बिना । संज्ञा, स्त्री० निर्विघ्नता। निर्वाण - वि० (सं०) बभा हा लोप निर्विवाद - वि० (सं०) विवाद-रहित, झगड़ाबुझी हुई भाग या बाती, अस्तंगत, शांत, हीन, बिना हुज्जत । मृत। संज्ञा, पु० (सं०) ठंढा हो जाना, अस्त, निर्विवेक-वि० (सं०) विचार-रहित, बुद्धि मुक्ति, निरबान (दे०)। " पद न चहौं ___ या ज्ञान से शून्य । वि. निविवेकी। निरबान"-रामा०। निर्विशंक-वि० (सं०) निडर, साहसी, निर्भय। निर्वात-वि. (सं० ) वायु या पवन-रहित निविशेष-संज्ञा, पु. ( सं० ) परमेश्वर, पर. स्थान, निर्वायु। मात्मा, जिससे विशेष या अधिक कोई न हो। निधि-वि० (सं०) वाधा या विघ्न-रहित, निर्विष-वि० (सं०) विष-मुक्त, विष के बिना कंटक या शत्रु-रहित, सुगम, सरल, अवाध। निर्विषी-- संज्ञा, स्त्री० (सं०) एक घास जिसकी एक For Private and Personal Use Only Page #1033 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - - - म माती) निधींज १०२२ निवारक जड़ अनेक विष-दोषों के मिटाने में काम निलीन वि० (सं०) गुप्त, प्रच्छन्न, तिरोहित, पाती है, जदवार (प्रान्ती०)। __ गूढ, बहुत ही छिपा हुआ। निधीज-वि० (सं.) बीज-रहित, बिना बीज | निवर-वि० (सं०) निर्णय-कर्ता, निवारण के, कारण रहित । दे० (सं० निर्वीर्य) कर्ता, बचानेवाला। नपुंसक, अशक्त। निधरा-वंज्ञा, स्त्री. (सं०) कुमारी कन्या, निर्वीर-वि० (सं०) वीर विहीन, बिना वीर अविवाहिता। के । संज्ञा, स्त्री निर्वीरता । “निर्वीर- | निवर्तन-संज्ञा, पु. (सं०) रोकना, लौटना, मुर्वीतलम्'-ह. ना। वापिस या फिर पाना । नि/र्य-वि० (सं०) वीर्य-रहित, पौरुष या निवसन - संज्ञा, पु० (सं० निस् + वसन) गाँव, बल रहित, कमजोर, निस्तेज। घर, वस्त्र, कपड़ा। निर्वृति-संज्ञा, स्त्री० (सं०) सिद्धि, निष्पत्ति, निवसना-अ. क्रि० (सं० निवसन) निवास करना, रहना, टिकना। वृत्ति-रहित । संज्ञा, स्त्री० (सं०) निर्वृत्तिक । निर्वेद-संज्ञा, पु. ( सं०) अपनी अवज्ञा, निवह संज्ञा, पु० (सं०) समूह, यूथ, झुण्ड, अपना अपमान, श्रात्मावहेलना, एक संचारी सात वायु में से एक । निवाई - वि० दे० (सं० नव) नूतन, नवीन, भाव (काव्य०)। नया, विलक्षण, अनोखा । निर्वैर-वि० (सं०) बैर-रहित, अजातशत्रु । निघाज़- वि० (फा०) कृपा, दया, मेहरबान, निळलीक-वि० (सं०) निष्कपट । दयालु, निवाजू, नेवाज (दे०) “गयी बहोर निर्व्याज- वि० (सं० ) छल-रहित, बाधा गरीब निवाजू", "बनहुँ गरीब निवाज" । हीन, निष्कपट, बिना बहाने के। निवाजना-२० क्रि० दे० (फा० निवाज़ निर्व्याधि- वि० (सं०) व्याधि-रहित, अरोग, कृपा, दया या अनुग्रह करना, मेहरवानी निरोग। करना, नेवाजना (दे०)। निहरण-वि० (सं०) शव-वहिष्करण, मृतक | निवाजिश-संज्ञा, स्त्री० (फा०) कृपा, अनुग्रह। या श्ररथी या मुर्दा निकालना। निवाडा-- संज्ञा, पु० (दे०) छोटी नाव, नाव निर्हेत-वि० (सं०) कारण रहित,निष्प्रयोजन। | का एक खेल जिसमें नाव को बार बार निर्हेतुक-वि० (सं०) निष्प्रयोजन, अकारण, | चक्कर देते हैं, नाव-नवरिया, नावा (ग्रा०) निष्कारण । निवात-संज्ञा, पु. (सं०) वह स्थान जहाँ नित्न-संज्ञा, पु० (सं०) विभीषण का मन्त्री, वायु न पा सके, वायु-रहित । अव्य० (अं०) शून्य, कुछ नहीं। निवात-कवच-संज्ञा, पु. यौ० (सं०) प्रह्लाद निलज्ज-वि० दे० (सं० निर्लज ) निर्लज, बे का पुत्र, एक दैत्य जिसके नाम से उसके शरम, निलाज (दे०)। वंशज भी प्रसिद्ध हुये, जिन्हें अर्जुन ने नाश निलजता --- संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० निलज्जता) किया था। निर्लज्जता, बेशरमी। निवार--संज्ञा, पु० दे० (फा० नवार) निवाड़ा, निलजी -वि. स्त्री० दे० (हि. निर्लज) नेवार, मोटे सूत की पट्टी जिससे पलँग निर्लज्ज, बेशरम स्त्री। बुनते हैं, निवौड़ (दे०) । संज्ञा, पु० (सं० निलय-संज्ञा, पु. (सं०) स्थान, घर, मकान । सोवार) एक प्रकार के धान, तिनीधान ।। निलहा-वि० (हि. नील) नीलवाला, नील- निवारक-वि० (सं०) हटाने या दूर करने सम्बन्धी, नील का व्यापारी। । वाला, रोधक, रोकने या मिटाने वाला । For Private and Personal Use Only Page #1034 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir निवारण निशा -- १०२३ निवारण -- संज्ञा, पु० (सं०) निवारन (दे०)। देववलि, भोग । मुहा०-निवेद लगाना निवृत्ति, छुटकारा, रोक, निरोध । “करिय -देवार्पित करना। जतन जेहि होय निवारन"-रामा० । वि. निवेदक-संज्ञा, पु० (सं०) निवेदन या प्रार्थना निवारणीय। | करने वाला, प्रार्थी। निवारना*- स० क्रि० दे० (सं० निवारण) निवेदन-संज्ञा, पु० (सं०) समर्पण, प्रार्थना, रोकना, हटाना, दूर करना, मिटाना, मना विनय, विनती। वि० निवेदनीय। या निषेध करना । "सैनहि रघुपति लखन | निवेदना*-स० कि० दे० (हि. निवेदन) निवारे"- रामा० । प्रार्थना या विनती करना, खाने की वस्तु निवारा-संज्ञा, पु. (दे०) निवाड़ा, जल- आगे रखना, अर्पित करना, नैवेद्य चढ़ाना । क्रीड़ा, नाव फेरना। निवेदित- वि० (सं०) निवेदन या अर्पित निधारि-पू० का० स० कि० दे० (हि. __ किया हुआ। "तुमहिं निवेदित भोजन करहीं" निवारना ) बचा कर, रोक कर, मना करके, -- रामा। बरज कर। निवेरना-स० क्रि० दे० (हि० निबटाना) निवारित-वि. (सं०) हटका, बचाया, निबटाना, चुकाना, बेबाक या पूर्ण करना, रोका, मना किया हुआ । हटाना, "जै जै कृष्ण टेरत निबेरत सुभट भीर'-अ० व०। निवारी-निवाड़ो-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० नेवाली या नमाली ) एक लता और उसके | निवेरा:-वि० (हि० निवेरना) छंटा या चुना हुश्रा, नया, अनोखा। फूल । "निवाड़ी की अजब साकी मीठी निवेश--संज्ञा, पु० (सं०) पड़ाव, डेरा खेमा, है बू"-सौदा०। प्रवेश, घर, निवास। निघाला-संज्ञा, पु. (फा०) कौर, ग्रास ।। निशंक-वि० (सं० निःशंक) निडर, निर्भय, निवास-संज्ञा, पु० (सं०) घर, मकान, स्थान, बेधड़क, अशंक, संदेह-रहित, निसंक (दे०)। रहाइस । “ऊँच निवास नीच करतूती' निश्शंक संज्ञा, स्त्री० निशंकता । रामा। निशंग-संज्ञा, पु० दे० (सं० निषंग) तरकस, निवासस्थान-संज्ञा, पु. यो० (सं.) घर, भाथा, तूणीर, तूनीर, (दे०) निखंग (दे०)। मकान, जगह, ठौर, रहने की जगह । निश-संज्ञा, स्त्री० (सं०) निशा, रात, रात्रि । निवासी-वि० संज्ञा, पु. (सं० निवासिन् ) निशचर-निश्चर- संज्ञा, पु. (सं०) राक्षस, वासी, रहने या बसने वाला। स्त्री निवा | निसचर (दे०)। "पावा निसचर-कटक सिनी । “जेहि चाहत बैकंठ-निवासी"-स्फु०। भयंकर"- रामा० । स्त्री. निशचरी । निविड़-वि० (सं०) घना, गहिरा । "कबहूँ "नाम लंकिनी एक निशचरी"-रामा । दिवस मँह निबिड़ तम"--रामा० । निशमन-संज्ञा, पु० (सं०) देखना-सुनना । निविष्ट-वि० (सं०) तस्पर, लगा हुश्रा, निशान्त-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) रात्रि का एकाग्र, घुसा या बैठा हुया, बाँधा हुआ। अंत, निशावसान, प्रातःकाल, तड़का, सबेरा, निधीत-संज्ञा, पु. (सं०) गले से लटका भोर, प्रभात । हुआ, जनेऊ, चादर। निशान्ध–वि० यौ० (सं०) जिसे रात्रि को निवृत्ति-संज्ञा, स्त्री० (सं०) छुटकारा, मुक्ति, दिखलाई न दे, उल्लू । मोक्ष निर्वाण । निशा-संज्ञा, स्त्री. (सं०) राति, रात्रि, निवेद, नैवेद -संज्ञा, पु० दे० (सं० नैवेद्य) | रजनी, हरदो, निसा (दे०) । For Private and Personal Use Only Page #1035 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir निशं निशाकर १०२४ निशाकर-संज्ञा, पु० (सं०) चन्द्रमा, मुरगा, निशानची-संज्ञा, पु. (फ़ा० निशान निसाकर (दे०)। " लिखत निशाकर ची-प्रत्य० ) ध्वजाधारी, झंडाबरदार । लिखिगा राहू"-रामा० । निशानदेही-संज्ञा, स्त्री. (फा०) असामी निशाखातिर-संज्ञा, स्त्री० यौ० (अ० खातिरे | को सम्मन आदि दिलाना । + फ़ा० निशाँ -खातिरनिशाँ ) तसल्ली, निशाना-- संज्ञा, पु० (फा०) लघय । मुहा० निश्चिन्त, दिलजमई, निसाखातिर (दे०)। --निशाना बाँधना - वार करते समय निशागम--संज्ञा, पु. यो० (सं०) रात्रि का अस्त्र-शस्त्र को ऐसा साधना कि ठीक लक्ष्य श्राना, साँझ, संध्या, सायंकाल । पर लगे । निशाना मारना या लगानानिशाचर--संज्ञा पु० (सं०) राक्षस, स्यार, लचय को ठोक ताक कर मारना, जिम उल्लू, भूत, चोर, रात में चलने वाला, __ व्यक्ति के हेतु व्यंग कहा जावे। (निशां चरतीति) सूर्य । निशानाथ–संज्ञा, पु. यौ० (सं०) चन्द्रमा । निशाचरी-संज्ञा, स्त्री. (सं०) राक्षसी, . निशानी-संज्ञा, स्त्री० (फा०) यादगार, स्मृति कुलटा, अभिसारिका नायिका । "दुस्सहेन चिन्ह, पहचान, निशान, चिन्हारी । हृदये निशाचरी"- रघु०। निशापति- संज्ञा, पु० (सं०) चन्द्रमा । निशाचारी-वि. पु. ( सं० निशाचारिन् ) निशार्माण- संज्ञा, पु० यौ० (सं.) चन्द्रमा। रात्रि में चलने वाला। स्त्री निशावारिणी। निशामुख-संज्ञा, पु. यौ० (सं०) संध्या का निशाट-निशाटन --संज्ञा, पु० यौ० (सं०) समय, गोधूली बेला। राक्षस, चोर, उल्लू । निशास्त--संज्ञा, पु. (फ़ा०) गेहूँ का गूदा निशाटी-निशाटिनी-संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) | वा सत, माड़ो, कलफ़ । यौ० (सं०) निशाराक्षसी, अभिसारिका। वसान =प्रभात । निशात-वि० (स०) शानदिया हुआ, पैनाया | निशि-संज्ञा, स्त्री० (सं०) रात्रि, रात । हुश्रा। निशिकर-संज्ञा, पु० (सं०) चन्द्रमा । निशाधीश-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) चन्द्रमा, निशिवर-संज्ञा, पु० (सं०) राक्षस, उल्लू । निशापति, निशाधिपति ।। निशिचर-राज:---- संज्ञा, पु० यौ० (सं०) निशान - संज्ञा, पु. (फ़ा०) लक्षण, चिन्ह, विभीषण, निशिचरेश।। दाग़, धब्बा, पता, रण का बाजा। "हने निशित-वि० (सं०) पैना, तीखा। निसाना'-रामा० । यौ०-नाम-निशान | निशिनाथ-संज्ञा, पु० (सं०) चन्द्रमा । -लक्षण या चिन्ह, थोड़ा सा बचा हुश्रा, निशिपाल-संज्ञा, पु० (सं०) चन्द्रमा, नामो-निशाँ न रहना-कुछ भी शेष न | निशिपालक, एक छन्द (पिं०)। रहना। "बाकी मगर है फिर भी नामोनिशां निशिवासर:-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) दिनहमारा"-इक० । मुहा०—निशान देना रात, रातो दिन, सदा। "निशि वासर ताकहँ (करना,लगाना)-किसी की पहिचान या | भलो, मानै राम-इतात".-- तु.। पता करना, चिन्ह लगाना । ध्वजा, पताका, | निशीथ- संज्ञा, पु० (सं०) थई रात्रि, श्राधी झंडा । मुहा०--निशान गाड़ना (खड़ा रात। "निशीथे तम उद्भूते जायमाने जना. करना)-झंडा गाड़ना । मुहा०-किसी | र्दने'-भाग० । बात का निशान उठाना या खड़ा निशीथिनी--संज्ञा, स्त्री० (सं०) रात, रात्रि । करना-मुखिया या अगुश्रा बन कर लोगों | निशंभ -संज्ञा, पु. ( सं०) हिंसा, मारण, को अपना अनुचर बनाना। | वध, एक दैत्य। For Private and Personal Use Only Page #1036 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir निशंभ-मर्दिनी निपेधित निशंभ-मर्दिनी-संज्ञा, स्त्री. यौ० (सं.) निश्शंक-वि० (सं.) निर्भय, निडर, संदेह दुर्गा जी, देवी जी। या शङ्का से रहित । निश्चय - संज्ञा, पु० (सं०) विश्वास, संशय, निश्शब्द-वि० (सं०) सन्नाटा, शब्द-हीन । संदेह और भ्रम से रहित ज्ञान, दृढ़ या पक्का संज्ञा, स्त्री० (सं०) निश्शन्दता। संकल्प या विचार, निहचै (ग्रा. ७.)। निश्शेष-वि० (सं०) शेष-रहित, सब, संपूर्ण। एक अर्थालंकार ( का.)। निषंग-संज्ञा, पु. (सं०) तरकश, भाषा, निश्वयात्मक-वि० यौ० (सं० ) ठीक ठीक, तूण, तूणीर । वि.निषंगी।" कटि निषंग संदेह-रहित, निश्चित । कर बाण शरासन"-रामा० । निश्चल-वि० (सं०) घटल, अचल, स्थिर। निषंण- वि० (सं.) उपविष्ट, बैठा हुआ। निश्चलता-संज्ञा, स्त्री. (सं.) दृढ़ता, निषध-संज्ञा, पु० (सं०) एक देश, पर्वत, स्थिरता, अचलता। निषध देश का राजा, निषाध स्वर (सं० गी०।। निश्चला--वि० स्त्री० (सं०) स्थिरा, अचला, निषाद-संज्ञा, पु. (सं०) एक अनार्य भूमि, पृथ्वी। जाति, केवट । “कहत निषाद सुनौ रघुराई"। निश्चिंत-वि० (सं० ) बेफिक्र, बेखटके, निषादी- संज्ञा, पु० (सं० निषादिन् ) महाचिंता-रहित, चिंताहीनता। वत, हाथीवाल, हाथीवान । निश्चितईछ। -- संज्ञा, स्त्री० द० (सं०निधितता)। निषिद्ध--वि० (सं०) जिसके हेतु रोक या निश्चिन्तता, बे फिक्री। मनाही हो, दूषित, बुरा। निश्चितता-संज्ञा, स्त्री. (सं.) बेफिक्री. निषिद्धाचरण---वि० यौ० (सं.) अधर्म या बे खटकी, चिंताहीनता। कुकर्म करना, शास्त्र-विरुद्ध कार्य । निश्चित-वि० (सं.) निश्चय-युक्त, निर्णीत, निषूदन- संज्ञा, पु० (सं०) नाश करने वाला। तै किया हुश्रा, पक्का, दृढ़। " बल-निघूदनमर्थपतिञ्च तम् "-रघु० । निश्चेष्ट- वि० (सं० ) चेष्टा रहित, अचेत, वि०-निषदनीय, निषदित । 'निषेक-संज्ञा, पु. (सं०) एक संस्कार का निश्चल, स्थिर। निश्चै --संज्ञा, पु० दे० (सं० निश्चय ) · नाम, गर्भाधान संस्कार। यक़ीन, निश्चय, विश्वास, प्रतीति । निषेचन--संज्ञा, पु. (सं०) सींचना । वि. निश्छल-वि० ( सं०) कपट या छल रहित, | निषेवनीय, निषेचित । सीधा । संज्ञा, स्त्री.निश्छलता। निषेध-संज्ञा, पु. (सं०) रुकावट, मनाही, निश्छिद्र-वि० (सं०) छिद्र या दोष-रहित । वाधा, वर्जन, न करने की आज्ञा । "बिधि निश्रेणी-संज्ञा, स्त्री० (सं०) नसेनी (दे०) निषेधमय कलिमल हरणी"-रामा० । सीढ़ी, मुक्ति । निषेधक-संज्ञा, पु. (सं०) रोकने या मना निश्रेयस- संज्ञा, पु. (सं० निः श्रेयस) करने वाला। मुक्ति, मोह, दुख का पूर्ण नाश, कल्याण । निषेधाक्षेप--संज्ञा, पु. यौ० (सं०) आक्षेपा"यतोऽभ्युदय-निश्रेयस-सिद्धि स धर्मः "। लङ्कार का एक भेद ( का० )। निश्वास- संज्ञा, पु. (सं०) पेट से बाहर निषेधाभास--संज्ञा, पु० (सं.) एक अलं. नाक या मुख के द्वारा आने वाली वायु। कार, श्राक्षेप का एक भेद । " निश्वास नैसर्गिक सुरभि यौं फैल उनकी निषेधित-वि. (सं०) निषिद्ध, रोका या यी रही"- मै० श. गु०। । मना किया गया, बुरा, दूषित । भा० श. को०-१२६ For Private and Personal Use Only Page #1037 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir MORE निष्कंटक १०२६ निष्प्रत्यूह निष्कंटक- वि० (सं०) वाधा, धापत्ति, निष्ठा-संज्ञा, सी० (सं०) निश्चय, विश्वास, झंझट-रहित, निर्विघ्न, शत्र-रहित । __ श्रद्धा, भक्ति, पूज्य बुद्धि, ज्ञान की अंतिम निष्क-संज्ञा, पु० (सं०) सोने का एक सिक्का, दशा, निर्वाह, नाश ।। प्राचीन चार मासे की तौल ( वैद्य० ). निष्ठावान-- वि० (सं. निष्टावत् ) जिसमें टंक, सुवर्ण । श्रद्धा-भक्ति हो। निष्कपट-वि० (सं०) छल-रहित, निश्छल, | निष्ठीवन-संज्ञा, पु. (सं०) थूक । सीधा। निष्ठुर-- वि. पु. (सं०) मिर्दय, कड़ा, कठिन, निष्कपटता --- संज्ञा, स्त्री० (सं०) छल-विही कर । स्त्री० निष्ठुरा । नता, निश्छलता, सीधापन, सिधाई। निष्ठुरता---संज्ञा, स्त्री० (सं०) निर्दयता, कठोनिष्कर-वि० (सं०) बिनाकर, बिना महसूल। रता, क्रूरता, कड़ाई। निष्कर्म-वि० (सं० निष्कर्मन् ) वह पुरुष निष्ठयत-वि० (सं.) निकला हुश्रा "वह्नि जो कर्म करने में लिप्त न हो, श्रकर्मा। निष्टयूत मैशम्"-रघु० । निष्कर्ष-संज्ञा, पु० (सं०) निश्चय, निप्पत्ति, निष्णात- वि० (सं०) प्रवीण, चतुर, विज्ञ, व्यवस्था, तात्पर्य, सत्य, प्रत्यक्ष, सिद्धान्त, . पंडित, निपुण, पूरा ज्ञानी, पारंगत । तत्व, सार, निचोड़। वि० नहाया हुआ। निष्कलंक-वि० (सं०) बेऐब, निषि। निपंट-वि० (सं०) कंप-रहित, स्थिर. दृढ़ । निष्काम-वि० (सं०) कामना-हीन, अनभिः संज्ञा, पु. (सं०) निष्पंदन-- कंपन । वि. लाषा, बिना इच्छा या श्रापक्ति-रहित कर्म । | निप्पंदित, निष्पंदनीय। संज्ञा, स्त्री० निष्कामता। निष्पक्ष -- वि० (सं०) पक्षपात-रहित, तटस्थ । निष्कारण-वि० ( सं० ) हेतु या कारण | संज्ञा, स्त्री० निष्पक्षता । बिना, व्यर्थ, निष्प्रयोजन । निष्पत्ति--संज्ञा, स्त्रो० (सं०) सिद्धि, परिपाक, निष्काशन-संज्ञा, पु. (सं०) निकालना, समाप्ति, विचार, मीमांसा, निश्चय, निर्धारण | बाहर करना। वि० निष्काशनीय, निष्पन्न-वि० (सं०) समाप्त, पूर्ण, सिद्ध । निष्काशित । निष्परिग्रह- संज्ञा, पु० (सं०) वैरागी, निष्क्रमण-संज्ञा, पु. (सं०) बाहर निकलना, सन्यासी, योगी, तपस्वी, त्यागी। एक संस्कार । वि. निष्क्रमणीय । वि. निष्पादन-संज्ञा, पु० (सं०) साधन, निष्पत्ति, निष्क्रांत। सिद्धि, संपादन, सिद्धान्त का समाधान निष्क्रय-संज्ञा, पु० (सं०) वेतन, तनख्वाह, | करना, प्रतिज्ञा या प्रण का पूर्ण करना । विनमय, बदला। वि० निष्पादनीय, निष्पादित । निष्क्रांत-वि० (सं०) निर्गत, प्रस्थित, निष्पाप--संज्ञा, पु० (सं०)पाप-रहित, निर्दोष, निःसृत, बाहर निकला हुआ। निरपराध । निष्क्रिय-वि० (सं०) व्यापार-रहित, निश्चेष्टा निष्पीडन-संज्ञा, पु० (सं०) पेरना, मडोरना, यौ०-निष्क्रिय प्रतिरोध-- सत्याग्रह। - निचोड़ना । वि. निष्पीडनीय, निष्पीडित। निष्क्रियता-संज्ञा, स्त्री. (सं०) निष्क्रिय निष्प्रतिभ-वि० (सं० ) हतबुद्धि, निधि, होने का भाव या अवस्था । मूर्ख, अज्ञान, अज्ञ। निष्ठ-वि० (सं०) तत्पर, लगा हुआ, स्थित, निष्प्रत्यूह--वि० (सं०) निर्विघ्न, निर्वाधा, भक्ति, श्रद्धा। निरापद, तर्क रहिता संज्ञा, स्त्री० निष्प्रत्युहता। For Private and Personal Use Only Page #1038 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir निसा - SP निष्प्रम १०२७ निष्प्रभ-वि० (सं०) कांति या दीप्ति से रहित, निसद्योस-क्रि० वि० दे० यौ० (सं० प्रभा-रहित, अस्वच्छ, हतमनोरथ । निशि+दिवस ) सदा, सर्वदा, रातोंदिन, निष्प्रयोजन-वि० (सं०) निष्कारण, हेतु- नित्य । “कौन सुनै शिवलाल की बात रहित, बे मतलब, व्यर्थ । संज्ञा, स्त्री० निष्प्र- रहै निसद्योस इन्हीं को अखारो" -- शिव० । योजनता । वि. निष्प्रयोजनीय। निसनेहा - संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० निः स्नेहा) निष्प्रेही-वि० (सं० निस्पृह ) लोभ या स्नेह या प्रेम-रहित स्त्री । पु० निसनेहो। लालच-रहित, निस्पृह ।। | निसबत-संज्ञा, स्त्री० (अ०) सम्बन्ध, ताल्लुक, निष्फल-वि० (सं०) निरर्थक, बे मतलब, लगाव, मंगनी, विवाह, तुलना, मुकाबिला। व्यर्थ, बे फ़ायदा, निष्प्रयोजन, निफल (दे०)। निसयाना*-वि० दे० (हि० नि-+-सयाना) निसंक-निस्संक (दे०)---वि० दे० (सं० बेहोश या बे हवास, अचेत।। निश्शंक ) निडर, निर्भय । वि० (सं०) अशक्त, निसरना-अ० कि० दे० (हि. निकलना) पुरुषार्थ-हीन । निकलना, बाहर जाना या पाना । "निसरी मिसंकट-वि० (सं०) संकट-रहित, विपत्ति- रुधिर धार तहँ भारी"--रामा० । प्रे० रूप मुक्त, अनायास । --निसारना, निसराना, निसरवाना। निसँठ-वि० दे० (हि० नि - सँठ :-- पूंजो) निसर्ग-संज्ञा, पु० (सं०) स्वभाव, प्रकृति, कंगाल, ग़रीब । संज्ञा, स्त्री० (दे०) निसँठई। दान, सृष्टि, प्राकृति, रूप । "निसर्ग संस्कार निसंधाई-संज्ञा, स्त्री० (दे०) संधि या छिद्र- विनीत इत्यसौ-रघु० । “निसर्ग दुर्बोथमरहित, ठोस, दृढ़, पोढ़ा। वोध विक्लवः "--कि.। निसंस-वि० दे० (सं० नृशंस ) दुष्ट, निसवादला--वि० दे० (सं० निः स्वाद) कर। संज्ञा, स्त्री० (दे०) निसंसई, निसंसता। बे मज़ा, स्वाद-रहित, निसवादिल (दे०)। वि० (हि. नि-|-सांस ) मृतक या मुर्दा निसबासर, निसिबासर* ---संज्ञा, पु० यौ० के समान । । दे० (सं० निशिवासर) रात-दिन । क्रि० वि० निसंसना*-अ० क्रि० दे० (सं० निः श्वास) सदा, सर्वदा, नित्य, रातोदिन । "निसवासर बड़े जोर से हाँकना, निःश्वास लेना। निस-निसि8-संज्ञा, सी० दे० (सं० निशा) ताकहँ भलो, मानै राम इतात "-तु०। रात्रि । " निसि-तम-धन खद्योत विराजा" निसस - वि० दे० (सं० निःश्वास) अचेत, --रामा०। बे होश, स्वास-रहित, निसाँस । निसक-वि० दे० (सं० निः शक्त ) निसत्त, निसाँका-वि० दे० (सं० निःशंक) निःशंक, निर्बल, कमजोर। निडर, निर्भय । निसकर, निसाक -संज्ञा, पु० (सं० निसाँस-निसाँसा*-संज्ञा, पु० दे० ( सं० निशाकर ) चंद्रमा । निःश्वास ) लंबी या ठंढी साँस । वि० (दे०) निसत-वि० दे० (सं० निः सत्य ) झूठ, नेदम, मृतप्राय । असत्य, असाँच। निसाँसी-वि० दे० (सं० नि-+ श्वासिन् ) निसतरना-अ० कि० (सं० ) छुटकारा दुखी, व्यस्त, उद्विग्न । या निस्तार पाना। निसा--संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० निशा ) रात, निसतारना- स० कि० दे० (सं० निस्तार ) रात्रि । संज्ञा, स्त्री० दे० (फ़ा० निशाँ) संतोष, मुक्त या निस्तार करना, गुज़र करना, और्य । मुहा-निसाभर-जोर भर के, निर्वाह करना। पूर्णतया। For Private and Personal Use Only Page #1039 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir निसाकर १०२८ निस्तब्ध निसाकर-संज्ञा, पु. (दे०) निशाकर, निसियर-निसिअर--संज्ञा, पु० दे० (सं० चंद्रमा। निशिकर ) चंद्रमा, निशाकर । निसाचर-संज्ञा, पु० (दे०) राक्षस । निसीठा-निसीठी--वि० दे० (सं० निः +निसान-संज्ञा, पु० दे० (फा० निशान ) हि सोठी ) नीरस, तत्व-हीन, निस्सार । नगाड़ा, धौंसा, झंडा, चिन्ह । स्त्री०. निसीथ-संज्ञा, पु० दे० (सं० निशीथ ) मध्य निसानी-चिन्हारी (दे०)। या अर्धरात्रि, आधीरात । निसानन*-संज्ञा, पु० दे० (सं० निशानन) निसुला--संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० निशा) प्रदोष-काल, संध्या समय, रात्रि का मुख, । राति । "निसु न अनल मिलु राजकुमारी" चंद्रमा। -रामा० । निसाफ -संज्ञा, पु० दे० ( अ० इन्साफ़) निसुका-वि० द० (सं० निस्त्रक) कंगाल। न्याय । निसूदन--संज्ञा, पु० द० (सं०) नाश करना, निसार--संज्ञा, पु. ( अ०) निछावर, सदका मार डालना । वि० -निसूदनीय, 8-(दे०) सार - रहित, तत्व - हीन । निसूदित । निस्सार (सं०) । संज्ञा, स्त्री. निसारता। निसृष्ट- वि० (सं०) त्यागा या छोड़ा हुश्रा, निसारना-स. क्रि० दे० (हि. निका- बिचवानी, मध्यस्थ, प्रेरित, दत्त । लना ) निकालना, निकासना (ग्रा.) निसृष्टार्थ-संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) दोनों प्रे० रूप (दे०) निसरवाना। पक्षों के अभिप्राय का ज्ञाता दूत, श्रेष्ठ दूत निसास-संज्ञा, पु० दे० ( सं० निःश्वास ) ( नाट्य० क०) लंबी या ठंढी सांस । वि० दे० (हि० नि+निसेनी निसनी-संज्ञा, स्त्री० दे० ( सं० सांस) स्वाँस-रहित, बेदम । निश्रेणी ) सीढ़ी, नसेनी (प्रा.)। निसासी--वि० दे० (सं० निःश्वास) साँस- ! निसेष8 - वि० द० ( सं० निःशप ) सब का रहित, बे दम, मृत प्राय । सब, निश्शेष । निसि-संज्ञा, स्त्री० दे० ( सं० निशि ) रात, निसेस-संज्ञा, पु० दे० यौ० ( सं० निशेश ) एक वर्ण वृत्त (पि.)। चन्द्रमा, निशेश, निशानाथ । निसिकर--संज्ञा, पु० दे० ( सं० निसिकर ) निसोग -वि० दे० (सं० निःशोक) शोक. चंद्रमा, निसिनाथ निसिपति (दे०)। रहित, प्रसन्न । निसिचर - संज्ञा, पु० दे० ( सं० निशाचर ) निसाच-*वि० दे० (सं० निःशोक ) शोक राक्षस, निसचर । स्त्री. निसिचरी, रहित, प्रसन्न । निसाचरी (दे०)। निसांत-वि० दे० (सं० संयुक्त) शुद्ध, ख़ालिसा निसिचारी -संज्ञा, पु० दे० (सं० निशा- निसीथ-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० निस्ता) चारिन् ) राक्षस । ___एक रेचक औषधि ( वैद्य०)। निसित-वि० दे० (सं० निशित ) पैना, निसाधु-संज्ञा, स्त्री० दे० ( हि० सोध या तीण। सुधि ) खबर, समाचार, संदेसा । निसिदिन --- क्रि० वि० दे० यौ० (सं० निस्केवल-वि० दे० (सं० निष्केवल ) शुद्ध, निशिदिन ) रात-दिन । " निसिदिन बरसत बेमेल, खालिस, निर्मल । नैन हमारे "-सूर० । निस्तत्ववि० (सं०) निस्सार, तत्व-हीन । निसिनिसि-संज्ञा, स्त्री० दे० यौ० (सं० निस्तब्ध-वि० (सं० ) निश्चेष्ट, जड़, निशि निशि) प्राधीराति. अर्द्धरात्रि, निशीथा। निश्शब्द । For Private and Personal Use Only Page #1040 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir निस्तब्धता १०२१ निहफल निस्तब्धता - संज्ञा, स्त्री. ( सं०) जड़ता, निस्सारण-संज्ञा, पु. ( सं० ) निकलने का सन्नाटा, चुपचाप। रास्ता या मार्ग, निकलने का भय या निस्तरण-संज्ञा, पु. ( सं० ) पार या मुक्त क्रिया । वि०-निस्सरणीय। होना, तरना । वि.--निस्तरणीय। निस्सार - वि० ( सं० ) सार या तस्व-रहित, निस्तरना* - अ. क्रि० दे० (सं० निस्तार) व्यर्थ । संज्ञा. पु. (सं०) निस्सारण । छूटना, मुक्त होना, निर्वाह होना, तरना। । निस्सारित-वि० (सं०) निकाला हुआ। निस्तार-संज्ञा, पु. ( सं०) छुटकारा, मोक्ष निस्सीम-वि० (सं०) अपार, असीम, बेहद । मुक्ति, उद्धार, निर्वाह । निस्सृत-संज्ञा, पु० (सं०) तलवार के हाथों निस्तारण-संज्ञा, पु. (सं० ) निस्तार या में से एक हाथ । पार करना, छुड़ाना, मुक्त करना। निस्स्वार्थ-वि० दे० (सं०) बे मतलब, निस्तारना*--संज्ञा, पु० दे० ( सं० निस्ता. स्वार्थ-रहित-जिसमें अपना कुछ मतलब रण ) निस्तार या पार करना, छुड़ाना, न हो। वि०-निस्स्वार्थी। मुक्त करना। निहंग, निहंगा-वि० दे० (सं० निःसंग) निस्तारना*-स० कि० दे० ( सं० निस्तार, नंगा, अकेला, एक, एकाकी, बेशरम । -|-ना प्रत्य०) उद्धार या मुक्त करना, छुड़ाना। निहंग लाइला--वि० दे० यौ० (हि.) निस्तारा*-संज्ञा, पु० दे० (सं० निस्तार) माता-पिता के प्रति दुलार से ला परवाह गुजारा, निर्वाह, छुटकारा, मुक्ति । और स्वच्छंद हुआ व्यक्ति। निस्तीर्ण-वि० (सं० ) मुक्त, उद्धार, पार.. निहता- वि० (सं० निहंत) मार डालने या छूटा हुआ। प्राण लेने वाला नाशकर्ता । स्त्री० निहंत्री। निस्तेज-वि० (सं० निस्तेजस् ) प्रताप या निहकाम-- वि० दे० (सं० निष्काम ) तेज-रहित, प्रभा-हीन, मलिन, उदास । निष्काम, इच्छा, कामना या मनोरथ से निस्तोक- संज्ञा, पु० (दे०) निर्णय, फैसला, रहित । निबटेरा। निहचय --संज्ञा, पु० दे० ( सं० निश्चय ) निस्तुप---वि० (सं०) निर्लज, बेशरम । अवश्य, निस्संदेह, बेशक, ठीक, निश्चय । निस्तिश-वि० (सं०) तलवार, असि, खड्ग । निहचल --वि० दे० (सं० निश्चल) स्थिर, निस्पृह-वि० (सं०) संज्ञा, निस्पृहा । निस्पृ. अटल, ध्रुव, अचल, निश्चल । हता। निलोभ, लालच-रहित, कामना- निहत --वि० (सं०) मार डाला गया, नष्ट, रहित । __ मृत, फेंका हुआ। निस्क-वि० (अ०) श्राधा, अर्द्ध । यौ०- निहस्थ, निहत्था-वि० दे० (हि. नि+ निस्कानिस्फ श्राधो श्राध (दे०)। हाथ ) शस्त्र-हीन, खाली हाथ, निर्धन, निस्वत-संज्ञा, पु० (फा०) अनुपात, संबंध कंगाल, निहथा (ग्रा०)। निहनना -स० क्रि० दे० (सं० निहनन ) निस्संकोच - वि० (सं०) संकोच-रहित __ मार डालना, मारना । संज्ञा, पु० (सं०) लजा-रहित, बेधड़क। निहनन । निस्संतान-वि० (सं०) संतान-रहित, निहपाप-वि० दे० (सं० निष्पाप ) पापसंतति-हीन । रहित, अपराध-रहित, निर्दोष, शुद्ध । निस्संदेह-क्रि० वि० (सं०) जरूर, अवश्य, निहफल * --वि० दे० ( सं० निष्फल ) बे. वि० (सं०) जिसमें संदेह या शक न हो। । सूद, बे मतलब, निष्प्रयोजन, व्यर्थ, नाहन। For Private and Personal Use Only Page #1041 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir निहाई १०३० नाक-नाक निहाई-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० निघात, मि. निहोरे"-रामा० । "राम काज अस मोर फ़ा० निहाली ) सुनारों और लोहारों का एक निहोरा"-रामा० । औज़ार जिस पर रख कर किसी धातु को निन्हव--संज्ञा, पु० (सं०) अपलाप, अपन्हव, हथौड़े से पीटते हैं। " चोरी करैं निहाई गोपन, छिपाना, अविश्वास, न मानना । की त्यौं, करें सुई कर दान"--स्फ०। निन्हाद-संज्ञा, पु० (सं०) शब्द, ध्वनि, नाद, निहाउiw-संज्ञा, पु० दे० (हि. निहाई ) निनाद । निहाई। नींद - संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० निद्रा ) स्वप्न, निहानी-संज्ञा, स्त्री० (दे०) स्त्री का रजो- निद्रा, निदी, निदिया (ग्रा०) सोने की दर्शन । दशा या अवस्था । "नींद भूक जमुहाई, ये निहायत-वि० (अ.) बहुत, अत्यंत । तीनों दरिद्र के भाई"-धाध० । उँघाई, निहार, नीहार-संज्ञा, पु. ( सं० ) कुहरा, झपकी। मुहा०—नींद उचटना-नींद पाला, श्रोस, बरफ, हिम। न माना, नींद न लगना । नींद खुलना निहारना-स० कि० दे० (सं० निभीलन या टूटना -- जाग पड़ना, नींद चली जाना । देखना) देखना, ताकना, ध्यान-पूर्वक नींद पड़ना-नींद भाना या लगना । देखना । "अस कहि भृगुपति अनत निहारे' नींद भर सोना-मन माना सोना, जी -रामा०। भर कर सोना। नींद लेना- सोना । निहाल-वि० ( फा०) प्रसन्न, संतुष्ट, पूर्ण | नींद संचरना-नींद आना। नींद मनोरथ या पूर्ण काम । संज्ञा, सो० (दे०) हराम होना-सोने का त्याग होना, छूट निहाली। जाना । नींद हिराना-नींद न आना। निहाली- संज्ञा, स्त्री० (फ़ा०) तोशक, गहा, नींदड़ी-नीदरी*-संज्ञा, स्त्री० द० (हि. निहाई । “तिस पर यह शरारत निहाली नींद ) निद्रा, नींद, स्वप्न, सोने की दशा । तले उसकी" --सौदा० । प्रसन्नता संतोष। निंदरिया (ग्रा०) "मेरे लाल को श्राउ निहित--वि० (सं०) स्थापित, रखा हुआ। निदरिया काहे न पानि सुवावै"- सूर० । निहुरना-अ० क्रि० दे० (हि० नि + होडन) नींबी- संज्ञा, स्त्री० (सं.) कटि पर सामने नवना, झुकना, लचकना। साड़ी का वन्धन (स्त्रियों) । यौ० नींबीनिहुराना-स. क्रि० दे० (हि. निहुरना बन्धन । संज्ञा, स्त्री० (दे०) नीम । का प्रे० रूप ) नवाना, लचाना, झुकाना। नव-संज्ञा, स्त्री० (दे०) बुनियाद । निहोरना---स. क्रि० दे० (सं० मनोहार ) नीक-जीका-नीको (ब०) --वि• द० (सं० विनय या प्रार्थना करना, मनाना, कृतज्ञ निक्त = स्वच्छ) भला, अच्छा, सुन्दर, होना, मनौती करना ! " सखा निहोरहुँ चोखा । स्त्री० नीकी । “सबहिं सुहाय मोहिं तोहि "-रामा० । सुठि नीका".-- रामा० । संज्ञा, स्त्री० (दे०) निहोरा--संज्ञा, पु० दे० (सं० मनोहार ) | निकाई । संज्ञा, पु० (दे०) भलाई, अच्छाई, बिनती, प्रार्थना, उपकार मानना, कृतज्ञता। सुन्दरता, उत्तमता अच्छापन। 'फीकी पै भरोसा, आसरा । क्रि० वि० दे० निहोरे- नीकी लगै, कहिये समय विचार"। बदौलत, द्वारा, कारण या हेतु से, वास्ते, । नीकि-त्रीके (७०) क्रि० वि० द० (हि. नीक) निमित्त, के लिये । स्त्री० निहोरी। 'कोई भली भाँति, अच्छी तरह। 'नीके निरखि सखी हरि जी करति निहोरा ललिता आदि नयन भर शोभा। "यद्यपि यह समुझत हैं। सब ठाढ़ी"-- सूर० । "धरहुँ देह नहिं पान नीके"-रामा० । For Private and Personal Use Only Page #1042 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir नीगने १०३१ नीति-विद्या नीगने- वि० (दे०) असंख्य, अगणित । सिर झुकाना, संमुख न देखना । नीचाई"मृगराज ज्यों बनराज में गजराज मारत संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० नीचता) नीचता, छुटाई, नीगने"-राम। नीचपना। नीच-वि० (सं०) किपी बात में कम, छोटा, नीचाशय-वि० यौ०(सं०) तुच्छ,पोछा, क्षुद्र। तुच्छ, निकृष्ट, हेठा, क्षुद्र, अधम, बुरा। नोच-क्रि० वि० दे० (हि. नीचा ) नीचे (विलो. उच, ऊच)। "कछु कहि नीच न की ओर, एक पेड़ तले। वि० (दे०) नीच । छेड़िये"- वृ० । " ऊँच निवास नीच नीचे-क्रि० वि० दे० ( हि० नीचा ) नीचे करतूती''-रामा० । यौ०-नींच-ऊंच, की भोर, तले। ॐना-नीचा-बुरा-भला, गुण-अवगुण, नीजन*-संज्ञा, पु० दे० (सं० निर्जन) निर्जन बुराई-भलाई, हानि-लाभ, सुख-दुख, ऊँचे- __ स्थान, जहाँ कोई न हो। नीचे । मुहा०-ऊँचे नीचे पैर पड़ना । नीजू-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० निज) पानी (रखना)-- बुरा-भला करना। भरने की डोर, लेजुरी (ग्रा.)। नीचगा-संज्ञा, स्त्री. (सं०) निमग्ना, नदी, नीझरः - संज्ञा, पु० दे० (सं० निर्भर) सोता, निग्नगामिनी। | झरना, निर्भर । नीचगामी-वि० ( सं० नीच गामिन् ) नोचे नीझरना-निझरना-अ० क्रि० (दे०) समाप्त की ओर जाने वाला, तुच्छ, धोछा । स्त्री० होना, चुक जाना । नीच-गामिनी। नीठ-कि० वि० दे० (सं० अनिष्टि) अरुचि, नीचट- वि० (दे०), निचाट (ग्रा.) भनिच्छा ज्यों त्यों करके, कठिनता से, एकांत, निर्जन, दृढ़, पक्का, पूरा, बिलकुल। किसी न किसी भाँति या प्रकार । "वहि वहि नीचता--संज्ञा, स्त्री० (सं०) अधमता, क्षुद्रता, हाथ चक्र पोर उहि जात नीठि''-- रखा। निचाई (दे०) कमीनापन | "नीच न छाँड़े । नीठो:- वि० दे० ( सं० अनिष्ट ) अप्रिय, नीचता"-वृ। 'नीच निचाई नहिं अनिष्ट । तजै"-वृ । नीड़-संज्ञा, पु० (सं०) चिड़ियों का घोंसला, नीवा-नीचो-वि० दे० (सं० नीच) जो गह- 'निज नीड़ द्रुम पीड़िनः खगान्'-नैष । राई पर हो, गहरा, निम्न । स्त्री० नीची। जो | नीत-वि० (सं०) पहुँचाया या लाया हुश्रा, ऊँचा न हो, धीमा, मध्यम, बुरा, अोछा, प्राप्त, स्थापित । क्षुद्र । "ज्यों ज्यों नीचा कै चलै"- वि० । नीति- संज्ञा, स्त्री. (सं०) सदाचार, श्रेष्ठ यौ०-नीचा-ऊँचा-बुरा-भला, बुराई । व्यवहार, अच्छी चाल, कानून, राज-विद्या, भलाई, गुण अवगुण, हानि लाभ, संपद- युक्ति, उपाय, हिकमत, तदवीर । "नीतिविपद, दुख सुख । मुहा०-गीचा खाना । नयनागर गुनागर गुविंद सुनौ"-मना । --अपमानित होना,हारना, झपना, लज्जित | नीतिज्ञ-- वि० (सं०) नीति का ज्ञानी या होना। नीचा दिखाना-- अपमानित करना, जानकार, नीत में निपुण या कुशल, चतुर । हराना, शेखी झाड़ना, लज्जित करना संज्ञा, स्त्री नीतिज्ञता।। नीचा देखना-- अपमानित होना, तुच्छ । नीतिमान्-वि० (सं० नीतिमत् ) नीतिबनना। आँख (नाक) नीची होना वान् , नीति-परायण, सदाचारी। स्त्री. (करना)--लज्जित होना (करना) । सिर नीतिमती। नीचा होना (करना)लज्जित होना। नीति विद्या-- संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) नीति नीची दृष्टि (निगाह ) करना-अपना ! शास्त्र । For Private and Personal Use Only Page #1043 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - - नोत-शास्त्र १०३२ नीरज नीति-शास्त्र-संज्ञा, पु. यौ० (सं०) नीति- कल्प, दृद न रहना । नीयत बदलना विद्या, कानून । (खाम होना)-विचार या संकल्प का नींदना -स० कि० दे० (सं० निदन) निंदा | और से और हो जाना, बेईमानी या बुराई करना। की ओर झुकना । नीयत बाँधना- संकल्प नीधन, नीधना -वि० दे० (सं० निर्धन) या इरादा करना। नीयत भरना-जी भर दरिद्र, कंगाल, निर्धन, निर्धनी। संज्ञा, स्त्री० जाना, इच्छा पूर्ण होना। नीयत में फ़र्क नीधनता, निधनता, निधनई। आना-बेईमानी या बुराई की ओर नीबो* --संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० नीवि ) कमर- झुकना । नीयत लगी रहना-जी बन्द, इज़ारबन्द, नारा, धोती, साड़ी। यौ० ललचाता रहना, इस्का बनी रहना। नीबी, बंधन । संज्ञा, स्त्री० (दे०) नीम । नीर-संज्ञा, पु० (सं०) पानी, जल, नीर, नीबू-संज्ञा, पु० दे० (सं० निंबूक अ० लेम) अंबु, तोय, वारि, देवता पर चढ़ाया जल । एक खट्टा या मीठा फल, कागजी, बिजौरा, मुहास-नीर ढलना-मरते समय आँखों अँबीरी, चकोतरा, चार भाँति के खट्टे नीबू, | से आँसू बहना। आँख का नीर ढल निबू , निंबुषा (ग्रा०)। मुहा०-नीबू- जाना-निर्लज्ज या बेशरम हो जाना, निचोड़-बड़ा भारी, कंजूस। फफोले के भीतर का रस या चेप । नीम-संज्ञा, पु० दे० (सं. निंब) एक पेड़, नीरज-संज्ञा, पु. (सं.) जलभव वस्तु, जिसके फल को निंबौरी, निमौरी कहते । कमल, मुक्ता, मोती। "नीरज नयन भावते हैं नीच, नींबी (दे०) । "जाने ऊख जी के"- रामा० । मिठास सो, जो मुख नीम चबाय"-- ० । नीरथ-- वि० ( देश० ) निरर्थक, निष्फल, व्यर्थ, वृथा। वि० (फा० । मि० सं० नीम ) अई, प्राधा। नीरद-संज्ञा, पु. (स०) बादल, मेघ । वि. नीमनां वि० दे० (सं० निमल ) भला, चगा, (सं० निः+रद ) अदन्त, वे दाँत का। नीरोग, तन्दुरुस्त, ठीक, बढ़िया। नीरधि-संज्ञा, पु० (सं०) समुद्र, सागर । नीमरजा-वि० यौ० (फा०) आधा राजी, नीरनिधि-संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) समुद्र, अर्द्ध प्रसन्न या स्वीकृति । लौ०--"खामोशी सागर | "बाँधेउ जलनिधि, नीरनिधि, नीमरज़ा" (फा०)-मौनम् स्वीकृति लक्षणम् उदधि, पयोधि नदीश'-रामा० । (सं.)। नोरमय-वि० (सं० ) जलमय, जज-रूप, नीमर-वि० दे० (सं० निर्वल) कमजोर, जल में डूबा । निर्बल, निमस (ग्रा० )। नीरस-वि० (सं०) निरस (दे०) सूखा, नीमा-संज्ञा, पु० (फ़ा०) जामे के तले का रस-हीन, स्वाद रहित, फीका, अरोचक, कपड़ा। अरुचिर । संज्ञा, स्त्री. नीरसता। नीमावत-संज्ञा, पु० दे० (हि. निंव ) एक नीरॉजन-नीराजन-संज्ञा, पु. (सं०) दीपपंथ। दान, आरती उतारना, विसर्जन, हथियारों नीमास्तीन-संज्ञा, स्त्री० यौ० (फा० नीम के साफ करने का कार्य । भास्तीन) आधी बाँहों की कुरती। नीराजना-संज्ञा, स्त्री० (सं०) भारती, दीपनीयत, नियत-संज्ञा, स्त्री० (अ०) हार्दिक दर्शन, हथियार साफ़ करना । "नीराजना लक्ष्य, आशय, उद्देश्य, संकल्प, इच्छा। जनयताँन् निज बन्धुवर्गा"-नैप० ।। मुहा०-नीयत डिगना (डोलना ) या नीरुज-वि० (सं०) स्वस्थ, तन्दुरुस्त, रोगबद होना, बिगड़ना-उचित विचार या रहित, निरोग। For Private and Personal Use Only Page #1044 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org नीरे, नियरे, नेरे १०३३ नीलाई नीरे, नियरे, नेरे# -- क्रि० वि० दे० (सं० | नील-बड़ी, नील-बरी-संज्ञा, स्त्री० यौ० निकट ) पास, निकट, समीप । (दे०) नील रंग का टुकड़ा या खंड | नीलम -संज्ञा, पु० (फ़ा०मि० सं० नीलमणि ) इन्द्रनीलमणि, नीलमणि, नीलकांतमणि । “सिय सोने की अँगूठी राम नीलम नगीना हैं" द्विज ० । नीलमणि - संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) नीलकांतिमणि, इन्दुनीलमणि, नीलम 1 नीलमाधव - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) विष्णु, जगन्नाथ । नीरोग, निरोग - वि० (सं०) चंगा, स्वस्थ, तन्दुरुस्त, आरोग्य | | नीरोगी - वि० (सं० नीरोगिन् ) भला चंगा, रोग रहित, स्वस्थ, तन्दुरुस्त, निरोगी । नील- वि० (सं०) नीले रंग का | संज्ञा, पु० ( सं०) नीला रंग, एक पौधा जिससे रंग बनता था। मुहा० - नील का टीका लगना - कलंक लगना, बदनामी होना । नील की सलाई फिरवा देना-अंधा कर देना, थाँखे फोड़वा डालना | चोट का काला दाग, कलंक, राम-दल का एक बंदर, निधियों में से एक, नीलम ( रत्न), सौ अरब की संख्या, एक छंद (पिं० ) । नीलकंठ - वि० यौ० (सं० ) जिसका गला नीला हो | संज्ञा, पु० - शिवजी, मोर, चाष या गौरापक्षी, यात्रा में वाम ओर इसका बैठ कर चारा लेना शुभ है । " नीलकंठ कीरा भषै” –– स्फु० । नीलक- संज्ञा, पु० (सं०) नीले रंग का मृग, बीजगणित का प्रमाण । नीलकमल - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) कृष्ण कमल, नीलोत्पल । नीलकांत - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) एक पक्षी, विष्णु, नीलमणि | नीलकांत - संज्ञा, त्रो० यौ० (सं० ) नीले और बड़े फूलों वाली विष्णुकांता लता । नील गवय-नील गव - संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) नील गाय, रोझ (ग्रा० ) । नीलग्रीव - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) महादेवजी, मोर, चाप पक्षी । नीलचक्र -- संज्ञा, पु० यौ० (सं०) जगन्नाथ जी के मन्दिर के ऊपरी शिखर का चक्र, एक दंडक वृत्त ( पिं० ) । "नील चक्र पर ध्वजा बिराजै माथे सो हीरा "कबी० । नीलता - संज्ञा, स्त्री० (सं० ) नीलापन, नीलिमा, निलाई (दे०) । भा० श० को० - १३० Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir नीलमोर - संज्ञा, पु० यौ० ( हि० ) कुररी पक्षी । नीललोहित - वि० यौ० (सं० ) बैंगनी रंग, लाल और नीला मिला रंग | संज्ञा, पु०शिव जी, विष्णु, नीलकंठ | नीलवर्ण - वि० यौ० (सं०) श्यामरंग, श्रासमानी रंग । " नीलवर्ण सारी बनी " दानली० । नीलस्वरूप - नीलस्वरूपक संज्ञा, पु० यौ० (सं०) एक वर्ण वृत्त ( पिं० ) । नीलांजन - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) नीला या श्याम सुरमा, नीलाथोथा, तूतिया । नीलांबर - संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) नीले रंग का रेशमी वस्त्र, नीला वस्त्र । वि० - नीले वस्त्र पहनने वाला, बलदेव जी ।" नीलांबर थोड़े बलरामा " - प्रेम० । नीलाम्बरा - संज्ञा स्त्री० यौ० (सं० ) लक्ष्मी जी । नीलांबुज - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) नील कमल । ' नीलांबुजं श्यामल कोमलांगं', - तु० । नीला - वि० दे० ( सं० नील ) नील के रंग का, श्याम या श्रासमानी रंग का । मुहा॰ नीला-पीला होना- बिगड़ना, क्रोधित होना । चेहरा नीला पड़ जाना -मुँह का रंग श्याम हो जाना जिससे चित्त की उद्विग्नता या लज्जा प्रगट हो, जीवन-लक्षण नष्ट हो जाना । नीलाई - संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० नील) श्यामता नीलापन, नीलता । For Private and Personal Use Only Page #1045 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तुषार। नीलाथोथा १०३४ नुकाना नीलाथोथा-संज्ञा, पु० दे० (सं० नील तुल्य) | नीवा--संज्ञा, पु० (दे०) मंदता। तूतिया, ताँबे का क्षार ।। नीधार - संज्ञा, पु. ( सं०) पसही धान । नीलाम-संज्ञा, पु० दे० (पुत्त लीलाम) " नीवार पाकादिकहंगरीयः "-रघु०। बोली बुलाकर माल बेंचना । लिल्जाम नीवी, निवि- संज्ञा, स्त्री० ( सं० ) कटिबंध, फुफुदी, नारा, साड़ी या धोती, लहँगा। नीलात-संज्ञा, पु. (सं०) प्रियावासा, पिया- नीशार-संज्ञा, पु. (सं०) तंबू । वाँसा (औष०)। नीसक-वि. ( दे० ) निर्बल, कमज़ोर । नीलावती-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० नीलवती) । नीशानी-संज्ञा, स्त्री० (दे०) एक छंद (पिं०) चावल का एक भेद । उपमान । नीलिका-संज्ञा, स्त्री. (सं०) नीलवरी,नीमारना-स० कि. (दे०) निकालना, काली निर्गुण्डी, नील सँभालू का पेड़, नेत्र- निकासना बाहर करना, निसारना। रोग, मुख पर का एक रोग। नीहार-संज्ञा, पु. (सं०) कुहरा, पाला, नीलिमा-~संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० नीलिमन ) | श्यामता, स्याही, नीलापन ।। | नीहारिका संज्ञा, स्त्री. (सं० ) कुहरा, नीलीघोड़ी-संज्ञा, स्त्री० यौ० (हि.) लिल्जी घोड़ी (दे०)-डफालियों की कुहासा (दे०) नीहारिका-बाद का सिद्धान्त भीख माँगने वाली कागज की घोड़ी। ( न्याय०)। नीलोत्पल-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) नील नुकता-संज्ञा, पु० दे० (अ० नुकतः) बिंदी, कमल । " नीलोत्पल-दल श्यामम् " बिंदु । संज्ञा, पु. (अ.) चुटकुला, फबती, मल्लि। ऐव। नीलोपल-संज्ञा, पुल्यौ० (सं०) नीलमणि, | नुकता-चीनी - संज्ञा, स्त्री० (फ़ा०) दोष या नीलम। ऐब निकालने का काम । नीलोफर-संज्ञा, पु० दे० (सं० नीलोत्पल ) नुकती-संज्ञा, स्त्री० दे० (फा० नखुही) बेसन नील कवल । की बारीक बुंदियाँ, एक तरह की मिठाई । नीव-जीव--संज्ञा, स्त्री०सं० दे० (सं० नेमि प्रा. नुकरा-संज्ञा, पु. (अ.) चाँदी, घोड़ों का नेह ) किसी मकान या इमारत की बुनियाद | सुफ़ेद रंग । वि. सफेद रंग का। सुनद रग। या जड़ । मुहा०-नीव देना-गढ़ा खोद नुकना-अ० क्रि० (दे०) छिपना, लुकना। कर दीवार की जड़ जमाना । किसी बात नुकसान- संज्ञा, पु. (अ.) घाटा, घटी, की नोधैं देना- हेतु. कारण या श्राधार हानि, ह्रास, क्षति, छीज । मुहा०-नुकतैयार या खड़ा करना, जड़ जमाना, प्रारंभ सान उठाना - घटी या हानि सहना । करना । मुहा०-नीव जमाना डालना, नुकसान पहुँचाना (करना)- हानि या देना, (जमना पड़ना) दीवाल की पहुँचाना । नुकसान भरना (देना)-घटी बुनियाद या जड़ जमाना। किसी बात या हानि पूरी करना। दोष विकार, अवगुण । की नींव जमाना या डालना- किसी को नुकसान करना-दोष उपउस बात की बुनियाद दृढ़, स्थिर या जाना, तंदुरुस्ती या स्वास्थ्य के विरुद्ध प्रभाव जाना, तंदुरुस्त स्थापित करना । किसी चीज या बात की करना । वि० नुकसानदेह-हानिकारक । नीव पडना-उसका प्रारंभ या सूत्र-पात | नुकाना-स० क्रि० अ० ( दे० ) छिपाना । होना, बुनियाद पड़ना। जड़, मुल, आधार प्रे० रूप-नुकवाना। For Private and Personal Use Only Page #1046 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org १०३५ नुका नुका - संज्ञा, पु० ( दे० ) कज्जल, एक छंद (fão) नुकीला - वि० (हि० नोक + ईला - प्रत्य० ) नोकदार, जिल वस्तु में नोक हो । स्रो० नुकीली । नुक्कड़ - संज्ञा, पु० ( हि० नोक का अल्पा० ) are या निकला हुआ कोना, पतला सिरा । नुक्स - संज्ञा, पु० (अ० ) ऐब, बुराई, दोष, ग़लती, त्रुटि, कमी । नुखट्टा- संज्ञा, पु० (दे०) नख का खसोट | नुचना - अ० क्रि० दे० (सं० लुंचन ) नोचा जाना, उखड़ना । स० क्रि० - नुचाना । नुचवाना - स० क्रि० दे० ( हि० नोचना का प्रे० ० रूप ) नोचने का कार्य किसी दूसरे से कराना, नोचवाना | नुति - संज्ञा, त्रो० (सं० ) स्तुति, स्तोत्र, खुशामद | नुत्का - संज्ञा, पु० (०) वीर्य, शुक्र । नुत्काहराम वि० यौ० ( ० ) वर्ण संकर ( गाली ) । नुनखरा- नुनखारा - वि० दे० यौ० (हि० नून + खारा) नमकीन, नमक से खारे स्वाद का । नुनना - स० क्रि० दे० (सं० लवन, लून) सुनना, खेत का श्रनाज काटना | नुनाई + * - संज्ञा, त्रो० दे० ( हि० नून ) लुनाई, सुन्दरता, सलोनापन, नमकीनपन | नुनियाँ - संज्ञा, पु० (दे०) नमक, शोरा बनाने वाली एक नीच जाति, नोनियाँ (प्रा० ) । नुनेरा - संज्ञा, पु० दे० ( हि० नून + एरा प्रत्य० ) नमक बनाने वाला लोनियाँ, नोनियाँ । नुमाइश - संज्ञा, स्त्री० ( फा० ) प्रदर्शन, दिखावट, प्रदर्शनी, तड़क-भड़क, सजावट । नुमाइशी - वि० ( फा० ) दिखाऊ, दिखौवा ( ग्रा० ) दिखावटी । नुसखा - संज्ञा, पु० ( ० ) लिखा कागज, दवाइयों का रुक्का । नूत - वि० दे० सं० नूतन ) नवीन, नया, अनोखा, ताज़ा, अनूठा । नूतन-नून (दे० ) - वि० नया, अनोखा, ताज्ञा । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir नूतनता - संज्ञा, स्त्री० (सं०) नयापन, नवीनता । नूधा - संज्ञा, पु० (दे०) एक प्रकार की तमाकू। नूनं - - श्रव्य ० (सं० ) निश्चयार्थक शब्द | नूनंत्वयायास्यति” – भो० प्र० । 64 नृत्यकी (सं०) नवीन, नून - संज्ञा, पु० (दे०) घाल घाल की जाति की एक लता । +-संज्ञा, पु० दे० (सं० लवण) नमक, नोन ( ग्रा० ) । मुहा० - नून - तेल -गृहस्थी का सामान । वि० दे० (सं० न्यून ) न्यून, कम नूनताई* - संज्ञा, खो० दे० (सं० न्यूनता ) न्यूनता कमी । नूपुर - संज्ञा, पु० (सं०) पायजेब, पैंजनी, घुंघुरू | " कंकन- किंकिन-नूपुर-धुनि सुनि 99 - रामा० । 1 नूर - संज्ञा, पु० (अ० ) रोशनी, प्रकाश, ज्योति । मुहा० - नूर का तड़का - प्रातःकाल । " रात बीती नूर का तड़का हुआ "| नूर बरसना - अधिक कांति होना । शोभा, श्री, कांति । यौ० - नूरजहाँ - शाहजहाँ बादशाह की बेगम । नूरा - वि० दे० (अ० नूर) तेजस्वी, प्रतापी । नूह – संज्ञा, पु० (०) एक पैग़म्बर (मुस० ), जिनके समय में बहुत बड़ा तूफ़ान आया था । न - संज्ञा, पु० (सं०) मनुष्य, नर, आदमी । नुकपाल - नृकपालिक— संज्ञा, स्त्रो० यौ० (सं०) मनुष्य की खोपड़ी । नृकेसरी - संज्ञा, पु० दे० यौ० (सं० नृकेशरिन ) नृसिंह, नरसिंह, श्रेष्ठ पुरुष, नरकेसरी । नृतक - संज्ञा, पु० दे० (सं० नर्तक) नाचने वाला । For Private and Personal Use Only 1- अ० क्रि० (सं० नृत्य ) नाचना । नृत्तना नृत्य -संज्ञा, पु० (सं०) नाच, नत्तन । नृत्य की संज्ञा स्त्री० दे० (सं० नर्तकी) नाचने वाली, नर्तकी । - Page #1047 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - - नृत्यशाला १०३६ नेजाल नृत्यशाला-संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) नाच-घर। | चलन ) सदाचारी, सुकर्मी, अच्छे चालनदेव, नृदेवता-संज्ञा, पु. यौ० (सं.)। व्यवहार का । संज्ञा, स्त्री० नेकचलनी। राजा, ब्राह्मण। नेकनाम-वि. यौ० ( फा० ) अच्छे नाम नृप-संज्ञा, पु० (सं०) राजा, नरपति। वाला यशस्वी । संज्ञा, स्त्री० नेकनामी। नृपति, नपाल—संज्ञा, पु. (सं०) राजा, नेकनियत-वि. यौ० (फा० नेक+नीयत नरेश, नरपति, नृपालक । अ०) उत्तम या अच्छे विचार वाला, अच्छे नमेध-संज्ञा, पु. यौ० (सं०) नरमेध यज्ञ। । संकल्प का । संज्ञा, स्त्री० नेकनियती।। नृवराह-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) विष्णु का नेकी संज्ञा, स्त्री० (फ़ा०) भलाई, भलमंसी, बाराह अवतार । "उसने की नेकी तो लोग उसको बदी कहने नृशंस-वि० (सं०) निर्दय, दुष्ट, ऋर, अत्या- लगे"-ग़ालि० । (विलो०-बदी), चारी, उदंड । यो०-नेकी-बदी। नृशंसता-संज्ञा, स्रो० (सं०) निर्दयता, | नेक्ता-संज्ञा, पु० (सं०) पोषक, पालक । क्रूरता, निर्भीकता, उइंडता। नेग-संज्ञा, पु० दे० (सं० नैयमिक ) व्याह नृसिंह-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) नरसिंह, सिंह आदि में कर्मचारियों या सम्बन्धियों को रूपी भगवान, मनुष्यों में सिंह सा बीर। दिया गया धन, दस्तूरी । वि. नेगी। नहरि-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) नृसिंह नर. नेगवार-संज्ञा, पु० (हि.) शुभकार्य में सिंह, नरहरि, नरकेहरि । धन पाने का अवसर । ने-प्रत्य० दे० (सं० प्रत्य० ट = एण) नेगजोग- संज्ञा, पु. यौ० (हि. नेग 4- योग सकर्मक क्रिया के भूतकाल के कत्तों की --- संयोग ) शुभकार्य में धन पाने का विभक्ति या चिन्ह । अवसर । वि० यो० नेगी-जोगी। नेगटी *- संज्ञा, पु. (हि.) नेग की नेइँ-नेई-संज्ञा, स्त्री० (दे०) नींव, बुनियाद । रीति का पालन करने वाला। "दीन्हेसि अचल विपति के नेई"-रामा। नेगी-संज्ञा, पु. दे. ( हि० नेग ) नेग पाने नेउछावरि-संज्ञा, स्त्री० (दे०) निछावरि, वाला । “लछिमन होहु धरम के नेगी"न्यौछावर। रामा० नेउतना-स० क्रि० दे० (सं० निमंत्रण) नेगी-जोगी- संज्ञा, पु. यौ० (हि ) नेग न्यौता देना, निमंत्रित करना । संज्ञा, पु० पाने वाला। (दे०) ने उता, न्यौता । स्त्री ने उतनी। नेकावर-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. ) निछानेउतहारि-नेउतहारी-संज्ञा, पु० दे० (हि.) वर, न्यौछावर । निमंत्रित लोग, न्यौतिहारी (ग्रा०)। नेजक --संज्ञा, पु. (सं०) रजक, धोबी, नेउला, नेउरा, नेउर-संज्ञा, पु० दे० (सं० परिष्कारक, शुद्ध करने या कपड़े धोने वाला। नकुल) नेवला । वि० (प्रांती०) बुरा, नेवर । नेजन-संज्ञा, पु० (सं०) परिकरण, शोधन । नेक-वि० (फ़ा०) अच्छा, भला, सज्जन । नेजा -संज्ञा, पु. (फा०) भाला, साँग, at-वि० दे० (हि. न+एक) तनिक, बरछा, निशान । थोड़ा, नैकु (व.)। कि० वि० (व.) नेजाबरदार-संज्ञा, पु. (फा०) भाला, बरछा तनिक थोड़ा । “नैक कही बैननि अनेक या निशान या झंडा लेकर चलने वाला। कही नैननि सों"-रत्ना० । नेजाल -संज्ञा, पु० दे० (फा० नेजा) नेकचलन-वि० दे० यौ० (फ़ा० नेक---हि. बरछा, भाला। For Private and Personal Use Only Page #1048 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - नेटा १०३७ नेमि नेटा-संज्ञा, पु० (दे०) नाक का मल, रेंट नेत्रच्छद-संज्ञा, पु. (सं०) आँखें बन्द गूजी (ग्रा०)। करने वाला चमड़ा, पलक । नेठना*-अ० क्रि० दे० (सं० नष्ट ) नाश नेत्रजल-संज्ञा. पु. यौ० (सं०) आँख का करना, नाठना, ध्वस्त या नष्ट करना । पानी, आँसू । नेठमी-वि० (दे०) स्थिर, अटल, एक स्थान नेत्र-पटल - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) पलक । पर स्थित । नेत्रबाला-संज्ञा, पु० (सं०) सुगंधवाला । नेडे-क्रि० वि० दे० (सं० निकट ) समीप, नेत्रमंडल-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) आँख का निकट, पास, नेरे। गोला या घेरा। नेत-संज्ञा, पु० दे० (सं० नियति ) निर्धा नेत्रनीत-संज्ञा, पु० (दे०) बंदी, कैदी, अपरण, ठहराव, निश्चय, संकल्प, प्रबन्ध, राधी। व्यवस्था । संज्ञा, पु० दे० (सं० नेत्र) मथानी नेत्रम्राघ- संज्ञा, पु० यौ० (सं०) अाँख से की रस्सी । संज्ञा, स्त्री० (दे०) एक तरह की पानी का बहना (रोग)। चादर । संज्ञा, पु० (दे०) एक भूषण । संज्ञा, नेत्रांबु संज्ञा, पु० यौ० (सं०) आँखों का स्त्री० दे० ( अ० नीयत) हार्दिक इच्छा या पानी, आँसू । विचार, श्राशय, उद्देश्य, संकल्प । “ पुनि नेत्री-वि० (सं०) नेत्रवाली। गज मत्त चढ़ावा, नेत बिछाई खाट '' नेनुआ-नेनुषा- संज्ञा, पु० (दे०) वियातोरई नाम की तरकारी। पद० । मुहा०-नेत बैठना-डौल लगाना, ठीक होना। नेपचून- संज्ञा, पु. (.) एक ग्रह । नेतक -- संज्ञा, पु० (दे०) नरकुल, नरकट, नेपथ्य-संज्ञा, पु० सं०) वेशभूषा, नाट्यगृह चूनरी। का वह भाग जहाँ स्वरूप साजे जाते हैं। नेता-संज्ञा, पु. ( सं० नेतृ ) अगुया, सर सजावट, शृङ्गार गृह (नाट्य०)। दार, नायक, स्वामी, मालिक, निर्वाहक । नेपाल-नेपाल-संज्ञा, पु० दे० (सं० नेपाल) खो० नेत्री । संज्ञा, पु० दे० (सं० नेत्र) हिमालय का एक पहाड़ी प्रदेश । मथानी की रस्सी। नेपाती-नैपाली-वि० दे० (हि० नेपाल) नेति-क्रि० वि० (सं०न + इति) इतना ही नेपाल सम्बन्धी नैपाल निवासी, वहाँ की नहीं अर्थात् अंत नहीं है. अनन्त है। भाषा "नेति नेति कहि गावहिं वेदा"-रामा० । नेपुर-संज्ञा, पु० दे० (सं० नीपुर ) पायजेब, नेती--संज्ञा, स्त्री. ( हि० नेता ) मथानी की घुघुरू। रस्सी । नेफा --संज्ञा, पु० (फ़ा०) लहँगा या पायजामे नेती-धोती-संज्ञा, स्रो० दे० यौ० (सं० नेत्र में नारा या इजारबंद के रहने का स्थान । +हि० नेता+सं० धौति ) कपड़े की एक नेब-संज्ञा, पु० दे० (फा० नायब) सहायक, पतली धजी को गले से पेट में डाल कर मददगार, मंत्री, नायब । आँतों की शुद्धि करने की एक क्रिया नेम-संज्ञा, पु० दे० (सं० नियम) नियम, ( हठयोग)। कायदा, दस्तूर, रीति, श्राचार । यौ०नेत्र-संज्ञा, पु० (सं०) नयन, आँख एक नेम-धरम--पूजा-पाठ, उपवास, व्रत । तरह का कपड़ा, मथानी की रस्सी, पेड़ की नेमि-संज्ञा, स्त्री० (सं०) चक्र की परिधि, जड़, रथ, दो की संख्या का सूचक शब्द। पहिये का घेरा, कुएँ की जगत, प्रांत, भाग। नेत्र-कनीनिका-पंज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) | संज्ञा, पु. एक तीर्थकर, वज्र । " यानेमिआँख की पुतली। मग्नैः "-माघ । For Private and Personal Use Only Page #1049 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir नेमी १०३८ नेमी- वि० दे० (सं० नियम ) नियम-व्रत वि० कृपा करने वाला, दयालु। “वानर सेना का पालन करने वाला, पूजा-पाठ, व्रत आदि सकल नेवाजी"-रामा० । का करने वाला। नेवारना--स. क्रि० दे० (हि. निवारना) नेराना स० क्रि० दे० (हि. निराना) निवारना, दुर या अलग करना, हटाना । निराना । अ० क्रि० दे० (हि. नेरे = समीप) नेवारी, नेवाडी-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० समीप पहुँचना, निकट जाना, नियराना। नेपाली) नेवाड़ी के पेड़ या फूल, वन. नेरुघा- संज्ञा, पु० (दे०) पयाल, नोली, । मल्लिका (सं०)। डाँड़ी। नेसुक, नैसुक -वि० दे० (हि. नेकु ) ने -क्रि० वि० दे० (हि. नियर ) नियरे, थोड़ा, तनिक, रंच । क्रि० वि० (३०) तनिक समीप, निकट, पास । “जासु मृत्यु प्राई सा, जरा सा, थोड़ा सा । "वै तौ नेह चाहती अति नेरे -रामा०। न नैसुक 'रसाल' कहै" - नेप*-संज्ञा, पु० दे० (अ० नायब ) नायब, नेस्त-वि० (फा०) नहीं है, जो न हो। मन्त्री, सहायक । संज्ञा, स्त्री० - नींव, निहोरे नास्ति (सं०)। यौ०-नेस्त-जावूद - में, के लिए । “भारत बंदि-गृह सेइहैं, नष्ट-भ्रष्ट । राम-लखन के नेव'-रामा०। नेस्तो-संज्ञा, स्त्री. ( फा०) अनस्तित्व, न नेवग*-संज्ञा, पु० (दे०) नेग, रीति, दस्तूर।। होना नाश । (विलो०-हस्ती)। नेवज-संज्ञा, पु. दे० (सं० नैवेद्य ) नैवेद्य, नाटो भोग। प्रीति, प्रेम, चिकनाई, लेल या घी । “नातो नेवतना-स० कि० दे० (सं० निमंत्रण ) नेह राम सों साँचो'-विन० । “नेहन्यौतना, ने उतना (ग्रा०) नेवता भेजना, चीकने चित्त"-वि० । क्रि० वि० यौ० (सं०) निमंत्रित करना, भोजन करने को बुलाना । न इह, नहीं। नेवता-संज्ञा, पु० दे० (हि० न्योता) ने उता, नेही - वि० दे० (हि० नेह --ई-प्रत्य०) न्यौता (ग्रा०), निमंत्रण । प्रेमी, स्नेही, मित्र। नेवतिहारी, न्यौतिहारी, ने उनिहारी नै-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० नय) नीति, नय । वि० (दे०) निमंत्रित लोग। संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० नदी) नदी । संज्ञा, स्त्री० नेवर-संज्ञा, पु० दे० (सं० नूपुर) नूपुर, पाय (फ़ा०) बाँस की नली, हुक्के की निगाली, जेब, नेवला वि० (प्रान्ती०) बुरा, ख़राब । नेवरना-अ. क्रि० दे० (सं० निवारण) बाँसुरी । अ० क्रि० (दे०) झुकना। "गुमान निवारण, भिन्न, अलग या दूर करना। ताको नै गयो'--1 नेवल, नेवला-संज्ञा, पु० दे० (स० नकुल) नैऋत - वि० संज्ञा, पु० दे० (सं० नैऋत्य) एक जन्तु, जो साँप का शत्रु है. नेउर, । दक्षिण-पश्चिम के बीच की दिशा, राक्षस । नेउरा (ग्रा०) न्यौला । नैक-नैकु-वि. द. (हि. नेक, नेकु ) नेवाज-वि० दे० (फा० निवाज़ ) नेवाजू रंच, थोड़ा, तनिक। (ग्रा.) कृपा या दया करने वाला। "गई. नै कट्य - संज्ञा, पु० (सं०) समीपता, निकटता। बहोरि गरीव-नेवाजू"--रामा० । नैगम-वि० (सं०) निगम या वेद संबंधी। नेवाजिस-संज्ञा, स्त्री० दे० (फ़ा० निवाजिश) संज्ञा, पु० उपनिषद्-भाग, नीति ।। कृपा, दया। निवाजी- स० क्रि० दे० । नैचा–संज्ञा, पु० (फ़ा०) हुक्के की लकड़ी। (फा० निवाज ) शरण में ली, कृपा की। नैज-वि० (सं०) निजी, प्रात्मीय, प्रात्म For Private and Personal Use Only Page #1050 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir नैतिक १०३६ नोका-झोंकी सम्बन्धी। नै जाना--प्र० कि० दे० (सं० नम्र) | नैऋति--संज्ञा, स्त्री० (सं०) पश्चिम और झुक या लच जाना। दक्षिण के बीच की दिशा । नैतिक-वि० (सं०) नीति-सम्बन्धी। नर्मल्य-संज्ञा, पु. (सं०) निर्मलता, नैन-नैना -- संज्ञा, पु० दे० (सं० नयन ) स्वच्छता, विमलता। नयन, नेत्र, आँख । 'नैना देत बताय सब | नैवेद्य-संज्ञा, पु० (सं०) देवभोग, देववलि । हिय को हेत अहेत"-वृ । संज्ञा, पु० दे० | नैषध-वि० (सं.) निषद-देश का, निषध(सं० नवनीत) नेनू (दे०) मक्खन। । देश-सम्बन्धी । संज्ञा, पु. (सं०) राजा नल, नैनसुख-संज्ञा, पु. यो. (हि.) एक सफेद श्री हर्ष रचित एक महा-काव्य । और चिकना सूती कपड़ा। लो०--प्राख के | नैष्टिक-वि० सं०) श्रद्धा-भक्ति युक्त । स्त्री० अंधे नाम नैन सुख । नैष्ठिकी। “वासुदेव कन्यायां ते यज्जाता नैनू-संज्ञा, पु. (हि.) एक बूटीदार महीन नैष्ठिकी रतिः''--भग । कपड़ा। । संज्ञा, पु. ० (सं० नवनीत ) नैसर्गिक-वि० (सं०) प्राकृतिक, स्वाभाविक, मक्खन, नन्। संज्ञा, स्त्री० (सं०) निसर्ग । संज्ञा, स्त्री० (सं०) नेपाल-वि० (सं०) नेपाल-निवासी, नेपाल- नैसर्गिकता । वि. नैसर्गिकी। सम्बन्धी। संज्ञा, पु. द० (नीपाल) एक नसा-वि० दे० (सं० अनिष्ट) खराब, बुरा, हिमालय का प्रदेश । | अनैसा (ग्रा.)। नेपाली-वि० (हि. नैपाल) नेपाल देश का नहर-संज्ञा, पु० दे० (सं० ज्ञाति = पिता+ निवासी या वहाँ उत्पन्न । संज्ञा, स्त्री० नेपाल हि. घर) मायका, पीहर, स्त्री के पिता का की भाषा। घर। नैपुण्य - संज्ञा, पु० (सं०) निपुणता, चतुराई, नोश्रा-नोवा- संज्ञा, पु० (दे०) रस्सी का वह दक्षता, निपुनाई (दे०)। टुकड़ा जिस से दूध दुहते समय गाय के नैमित्तिक-वि० (सं.) किसी कारण या पीछे के पैर बाँध देते हैं। संज्ञा, स्त्री० (दे०) प्रयोजन से होने वाला कार्य । नोइ, नाई। नैमिष-- संज्ञा, पु० (सं०) एक तीर्थ ।। नोक-संज्ञा, स्त्री. (फ़ा०) किसी चीज़ का नैमिषारण्य - संज्ञा, पु० यौ० (सं.) नैमिष निकला हुश्रा कोना या अग्र भाग। वि० तीर्थ के पास का एक वन ।। नोकदार, नोकीला । स्त्री. नोकीली। नैया-at-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० नो) नोकचोक-संज्ञा, स्त्री. (दे०) संकेत या निइय्या (ग्रा०) नाव, नौका । "नैया मेरी इशारे से बातें करना, लाग-डाँट । तनक सी, बोझी पाथर-भार"-गिर। | नोक-झोंक- संज्ञा, स्त्री० यौ० ( फा० नोक-+ नैयायिक - वि० (सं०) न्याय-वेत्ता, न्याय का | हि. झोंक ) सजावट, ठाट-बाट, आतङ्क, दर्प, पढ़ने या जानने वाला। "कर्तेति नैया- । व्यंग, ताना, छेड़ छाड़, विवाद।। व्यंग, ताना, यिकाः"-ह. ना। नोकना-स० क्रि० (दे०) ललचाना, धाकृष्ट नेर —संज्ञा, पु० दे० (सं० नगर) नगर, शहर।। होना । नैराश्य-संज्ञा, पु. (50) निराशता, ना- नोकदार-वि० (फा०) जिसमें नोक हो, उम्मेदी। "नैराश्यं परमं सुखं"- स्फु०। दिल में चुभने वाला, शानदार । नैऋत- वि० (सं०) नैर्ऋति सम्बन्धी । नोका-झोंकी-- संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. नोकसंज्ञा, पु. एक राक्षस, दक्षिण-पश्चिम के झोंक ) छेड़-छाड़, व्यंग, बनाव शृंगार, ठाटकोण का स्वामी। बाट, घमंड, श्रातङ्क, विवाद । For Private and Personal Use Only Page #1051 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir नोखा १०४० नौतन - - नोखा-वि० दे० (हि. अनोखा) अनोखा, नोवना-स० कि० दे० (सं० नद्ध ) दूध अजीब, नवीन । स्त्री० (दे०) नोखी। दुहते समय गाय के पैर बाँधना। नोच-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि० नोचना) चुटकी, नोहर-वि० दे० (सं. मनोहर या नापलभ्य) बकोट, काटना, छीनना, लूट । यौ०--नाव- सुन्दर, मनहरण, अलभ्य, दुर्लभ, अनोखा । . नाच, नोच-खोंच। नौ-वि० दे० (सं० नव ) एक कम दस की नोच-खसोट- संज्ञा, स्त्री० दे० यौ० (हि.) | संख्या, १ ग्रह । लो०-नये के नौदाम छीना-झपटी, ज़बरदस्ती छीन लेना, लुट । पुराने के छः । "जैसे घटत न क नौ, स्त्री० नोचा-खसोटी। नौ के लिखत पहार'-- तु०। मुहा० -- नोचना-स० क्रि० (सं० लंचन ) झटके से नौ-दो ग्यारह होना-देखते देखते भाग खींचना, उखेड़ना, नखों से फाड़ना, निको- जाना, एक दो तीन होना-चल देना। टना, दुखी करके लेना, चुटकी या बकोट लो०-नौ दिन चलै अढ़ाई कोसकाटना। बड़ी कठिनता से देर में थोड़ा कार्य होना। नोट-संज्ञा, पु. (अं०) लिखा परचा, सरकारी नौकर-संज्ञा, पु. (फ़ा०) सेवक, चाकर, हुण्डी, संक्षिप्त लेख । यौ० नोटवुक। टहलुवा, वैतनिक कर्मचारी। स्त्री० नौकनोटिस-संज्ञा, पु. (अं) विज्ञापन, सूचना- रानी । संज्ञा, स्त्री० नौकरी । यौ० नौकरपत्र । चाकर। नोदन- संज्ञा, पु. (सं०) प्रेरणा, भौगी, पैना।। नौकरशाही-संज्ञा, पु० यौ० (फ़ा०) राजनोन-संज्ञा, पु० दे० ( फा० नमक) लोन, प्रबन्ध, राज-कर्मचारी के हाथ में रहने वाला नमक, नून (ग्रा.)। वि० नोनहा-नमकीन ।। राज्य-प्रबन्ध । नानचा-- संज्ञा, पु. (दे०) अधिक नमकदार, नौकरानी-संज्ञा, स्त्री० (फ़ा०) दासी, मजश्राम की सूखी खटाई। वि० (दे०) नीन- दुरिनी, टहलुई। खर, नोनहर (ग्रा०) नमकीन । नौकरी-संज्ञा, स्त्री० ( फ़ा० नोकर ---ईनोना-संज्ञा, पु० दे० (सं० लवण ) लोनी प्रत्य०) सेवा, टहल, खिदमत । यौ० नौकरी मिट्टी, शरीफ़ा। वि० (स्त्री० नोनी) नमक चाकरी। मिला, खारा, सलोना, सुन्दर । वि० नोनो नौकर-पेशा, नौकर-पेशा-संज्ञा, पु० यौ० (प्रान्ती०) चोखा। स० क्रि० (दे०) नोवना। (फा०) नौकरी-द्वारा जीवन निर्वाह करने नोना चमारी-संज्ञा, स्त्री० (दे०) विख्यात वाला व्यक्ति । जादूगरनी, जिसकी मंत्रों में दुहाई दी नौका-- संज्ञा, स्त्री० (सं०) नाव, तरी, तरणी। जाती है। नौछावर-संज्ञा, स्त्री० दे० ( हि० निछावर) नोनिया--संज्ञा, पु० दे० (हि० नोना) लोनिया, निछावर, उतारा, त्याग, न्यौछावर (दे०)। एक नमक-शोरा बनाने वाली जाति । नौज-अव्य० दे० (सं० नवद्य, प्रा० नवज्ज) नोनी संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० लवण) लोनी भगवान न करे, ऐसान हो, न हो, न सही। मिट्टी, एक पौधा, अमलोना । वि. स्त्री. नौजधान-वि० यौ० (फा०) नवयुवक, नया (प्रान्ती०) सलोनी, चोखी । जवान । संज्ञा, स्त्री० नौजवानी। नोनो-वि० दे० (हि० नोना) चोखा, नौजा-संज्ञा, पु० दे० ( फा० लौज ) चिलसुन्दर, अच्छा, सलोना। गोजा, बादाम । नोर-जोल-वि० दे० (सं० नवल ) नया, नौतन -वि० दे० (सं० नूतन ) नूतन, नवीन, नूतन। । नया, नवीन । For Private and Personal Use Only Page #1052 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org नौतम नौतम - वि० दे० यौ० (सं० नवतम ) बिलकुल नया, ताज़ा, अति नवीन, हाली । नौता - वि० दे० (सं० नव ) नया, नवीन, नूतन | संज्ञा, पु० (दे०) न्यौता, निमंत्रण | नौधा - वि० दे० (सं० नवधा ) नवधा, नव प्रकार की, नौ तरह की । " नौधा भगति कहौं तोहि पाहीं नौ-नगा – संज्ञा, पु० दे० यौ० ( हि० नौ + नग) हाथ के नौ भूषणों का समूह, वि० नौ नगों का गहना । त्रो० नौनगी । " रामा० । ܙܝ नौना - - अ० क्रि० दे० ( हि० नवना ) लचना, झुकना, नम्र होना । नौबढ़—वि० दे० ( हि० नौ + बढ़ना ) हाल ही में कंगाल से धनी हुआ व्यक्ति, हाल का बढ़ा हुआ । 81 मधुरी - भा० नौबत - संज्ञा, स्त्री० ( फा० ) हर्षवाद्य, सहनाई, व्याह यादि के नगाड़े, बधाई । नौबत बजत कहूँ नारी - नर गावत हरि० । मुहा० - नौबत झड़ना - नौबत बजना, अवसर, मौका | किसी बात की नौबत न आना -- अवसर या मौक़ा न मिलना | नौबत बजना -- श्रानंदोत्सव होना, प्रताप आदि की घोषणा होना । यौ० नौबतिया नगाड़ा | नौबत खाना - संज्ञा, पु० 1 ( फा० ) नक्कार खाना, द्वार के ऊपर का स्थान जहाँ सहनाई बजाते हैं । १०४१ नौबती - संज्ञा, पु० ( फ़ा० नौबत + ईप्रत्य० ) नक्कारची या सहनाई वाला, नौबत बजाने वाला, पहरेदार, कोतल घोड़ा, बड़ा तम्बू | नौमासा - संज्ञा, पु० दे० यौ० (सं० नवमास गर्भगत बच्चे का नवें महीने का संस्कार, ) पुंसवन | नौमि - स० क्रि० (सं० ) मैं नमस्कार करता हूँ ।" नौमीड्यतेऽवपुषे तडिदम्वराय "-- भाग० ।" नौमि जनक - सुतावरम्" - रामा० । नौमी - संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० नवमी) नवमी, भा० श० को ०. 0- . १३१ न्यग्रोध नाउमी ( ग्रा० ) । " नौमी तिथि मधुमास पुनीता " - रामा० । नौरंगा -- संज्ञा, पु० दे० ( फ़ा० औरंग ) औरंगजेब बादशाह । सारंग है सिवराज 66 वली, जिन नौरंग में रँग एक नराख् - भु० । यौ० दे० – नया या रंग । नौरंगी। -- संज्ञा, स्त्री० दे० ( हि० नारंगी ) नारंगी संतरा । वि० यौ० – नये या रंग वाला । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private and Personal Use Only د. नौरतन - संज्ञा, पु० दे० यौ० (सं० नवरत्न ) हीरा, नीलम, पन्ना, पुखराज, चुन्नी आदि नौ रत्नों का समूह, नौनगाभूषण | संज्ञा, स्त्री० एक प्रकार की चटनी, नौरतनी । नौरोज़ – संज्ञा, पु० दे० (का० ) वर्ष का प्रथम दिन, पारसियों का उत्सव दिन । यौ० नौ दिन । नौल - वि० दे० (सं० नवल ) नवीन | " शिव सरजा की जगत में, राजति कीरति नौल " - भू० । - नौलखा - वि० दे० यौ० (हि० नौ + लाख) नौलाख रुपये के मूल्य का एक हार, बहु मूल्य जड़ाऊ हार | -मन्ना० । नौशा - संज्ञा, पु० ( फ़ा० ) वर, दूल्हा, दुलहा | नौसत - संज्ञा, पु० यौ० दे० (हि० नौ + सात) सोलह श्रृंगार, श्रृंगार । " नौसत साजे सजी सेज पै विराजै मनौ ' नौसादर - संज्ञा, पु० दे० ( फ़ा० नौशादर ) एक तीण औषधि (चार) । नौसिखिया - नौसिखुवा -- वि० दे० (सं० नवशिक्षित ) नया सीखा हुआ, अनुभवरहित, ना तजर्बेकार । नौसेना – संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) जल-सेना, जहाज़ी लड़ाई की फ़ौज । नौहड़-संज्ञा, पु० दे० यौ० (सं०नव = नया + हाँड़ी हि० ) मिट्टी की नयी हाँड़ी । न्यक्कार - संज्ञा, पु० (सं०) तिरस्कार, निन्दा, अनादर, घृणा । न्यग्रोध - संज्ञा, पु० (सं०) वट, वरगद, शमी वृक्ष, शिव, विष्णु । Page #1053 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - न्यस्त १०४२ न्हाना न्यस्त-वि० (सं०) धरोहर, अमानत, त्यक्त, स्त्रो० न्यारी। " न्यारो न होत बफारो छोड़ा हुशा। ज्यों धृमसों',-देव। न्याउ-न्याव--संज्ञा, पु० दे० (सं० न्याय ) न्यारिया-संज्ञा, पु० दे० (हि. न्यारा) न्याय, नियाव (ग्रा०)। " यह बात सब सुनारों के कूड़े से सोने-चाँदी का अलग कोउ कहै, राजा करै सो न्याउ"-०। करने वाला। न्यात-संज्ञा, पु० (ग्रा०) डौल, मौका, घात। न्यारे-न्यारी-कि० वि० दे० (हि. न्यारा ) न्याति-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० ज्ञाति) जाति। अलग, भिन्न, दूर। न्याय-संज्ञा, पु. (सं०) प्रमाणों के द्वारा न्याव-संज्ञा, पु० दे० (सं० न्याय ) न्याय, अर्थ का सिद्ध करना, इन्साफ, उचित तर्क, ठीक या उचित बात । निपटारा, व्यवहार । " इत देखी तो आगे न्यास --- संज्ञा, पु. ( सं०) धरोहर, थाती, मधुकर मत्त न्याय सतरात "- भ्र० । त्याग, रखना । (वि. न्यस्त)। सम्बन्ध, लौकिक कहावत, जैसे-तक्र-कौडि न्यून- वि० सं०) अल्प, कम, थोड़ा, घट कर। न्यन्याय, वलीवर्दन्याय । “प्रमाणैरर्थ-प्रति न्यूनता-संज्ञा, स्त्री० (सं० ) कमी, अल्पता, पादनम-न्यायः "। तर्क-शास्त्र का गौतम ऋषि-प्रणीत एक महान ग्रंथ । । न्योछावर-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. निछावर) न्यायकर्ता-संज्ञा, पु. यौ० (सं०) न्याय, निछावर, उतार । इन्साफ या निबटारा करने वाला शासक, न्योजी-संज्ञा, स्त्री० (दे०) लीची फल, न्याय-शास्त्र के बनाने वाले गोतम ऋषि । चिलगोजा। वि० न्यायकारी, न्यायकारक। न्योतना-न्यौतना--स० कि० दे० (हि० न्योता न्यायतः-- क्रि० वि० (सं०) न्याय-द्वारा, न्याय +ना--प्रत्य०) किसी उत्सव में सम्मिलित से, ठीक ठीक, ईमान-धर्म से। होने के लिये किसी को बुलाना, निमंत्रण न्यायपरता-संज्ञा, स्त्री० (सं०) न्याय-पराय देना, निमंत्रित करना । प्रे० रूप न्यौताना, णता, न्यायशीलता,न्यायी होने का भाव । न्योतवाना। न्यायवान-संज्ञा, पु० (सं० न्यायवत्) न्यायो, न्योतहारी-यनैतिहारी-संज्ञा, पु० दे० (हि. न्याय रखने वाला । स्त्री. न्यायवती। । न्योता) न्योते में सम्मिलित या निमंत्रित पुरुष। न्यायाधीश-संज्ञा, पु. यौ० ( सं०) न्याय | | न्योता-न्यौता-संज्ञा, पु० दे० (सं० निमंत्रण) करने वाला, न्याय-कर्ता, मुकदमों का निमंत्रण, बुलावा, दावत, न्यउता, नेउत फैसला करने वाला शासक या अधिकारी। निउता (ग्रा.)। न्यायालय-संज्ञा, पु. यौ० (सं०) अदालत, कचहरी न्यायभवन ।। | न्योला-न्यौला--संज्ञा, पु० दे० (सं० नकुल ) न्यायी-मंज्ञा, पु. (सं० न्यायिन् ) नीति या, नेवला, नेउरा (ग्रा.), नकुल । न्याय पर चलाने या चलने वाला। वि. न्योली-न्यौली-संज्ञा, स्त्री. (सं० नली ) (सं०) न्याय करने वाला। हठ योगी के पेट के नलों को पानी से शुद्ध न्याय्य -वि. ( सं० ) न्यायानुसार, ठीक करने की एक क्रिया (हठयोग)। ठीक, उचित । न्हान-संज्ञा, पु० (दे०)स्नान (सं०) अन्हान। न्यारा-वि० दे० ( सं० निर्निकट) दूर, पृथक, न्हाना*-अ० क्रि० दे० (सं० स्नान ) न्यारो (व०), भिन्न, निराला, अनोखा। नहाना, अन्हाना । For Private and Personal Use Only Page #1054 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १०४३ पंगुल-पंगुला प-संस्कृत और हिन्दी की वर्णमाला पंखापाश-संज्ञा, पु० दे० (हि. पंखा-+ के पवर्ग का पहला अक्षर, इसका उच्चारण पोश फा० ) पंखा टाँकने का वस्त्र, पंखे का स्थान प्रोष्ठ है-"उपूपध्मानीयानामोष्टौ"। गिलाफ़ । पंक-- संज्ञा, पु० (सं०) कींच, कीचड़, लेश। पँखियाँ-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. पंख) छोटे "पंक न रेनु साह अस धरनी "-रामा० ।! छोटे पंख, भूसी के बारीक या सूक्ष्म टुकड़े, पंकन - संज्ञा, पु. (सं०) कमल, जलज । यौ० छोटे पर । " वेग ही बूड़ि गयीं पखियाँ पंकज-श्री-कमल-कांति । अखियाँ मधु की मखियाँ भई मोरी"पंकजराग-संज्ञा, पु० (सं.) पद्मरागमणि । देव०। पंकजटिका-संज्ञा, स्त्री० (सं०) एक वृत्त | पंखी-संज्ञा, पु० दे० (सं० पक्षी) पक्षी, (पि.)। पखेरू, चिड़िया, पाँखी, पतिंगा। संज्ञा, पंकजात-संज्ञा, पु० (सं०) कमल । स्त्री० दे० (हि. पंखा) छोटा पंखा, पँखिया। पंकजासन-संज्ञा, पु. यौ० ( सं० ) ब्रह्मा- पंखुड़ा-संज्ञा, पु० दे० (सं० पक्ष ) पखोर, कमलासन । पखौरा, हाथ और कंधे का जोड़। पकरह-संज्ञा, पु० (सं०) कमल, पंकज । पंखुड़ी-पँखुरी*-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. पंकिल-वि० (सं.) कीचड़-युक्त । पंख) पंखड़ी, पाँखुड़ी, पखुरी, फूल की पत्ती, पंक्ति-संज्ञा, स्त्री. (सं०) पाँति, कतार, | पुष्प-दल " पंखुरी गडै गुलाब की, परिहै श्रेणी, सतर, एक वृत्त (पिं०) दश। गात खरौंट - वि० " " पुषपान की पंखुरी पंगति (दे०)। यो०- पंक्ति-भेद। पायन मैं "-रघु०। पंक्तिपावन--संज्ञा, पु० यौ० (सं०) दान लेने पखेरू-संज्ञा, पु० दे० (सं० पक्षी ) पक्षी, और यज्ञ में बुलाने के योग्य ब्राह्मण । पखेरू, चिड़िया, पंछी। पंक्तिवद्ध-वि० यौ० (सं०) कतार में बँधा पंग - वि० दे० ( सं० पंगु ) लँगड़ा, पँगुना, या रखा हुश्रा, श्रेणीवद्ध । पंगुवा । संज्ञा, पु० (दे०) एक तरह का नमक, पंख- संज्ञा, पु० दे० (सं० पक्ष) पर, डैना। "भई गिरा गति-पंग"--सूर० । मुहा०-(चींटी के) पंख जमना पंगत-पंगति-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० पंक्ति) (उगना)-मरने या हानि उठाने का मौका पाँति, पंक्ति, कतार, सभा, समाज । मिलना या समय पाना। पंख लगना- पंगा-वि० दे० (सं० पंगु) पंगु, पगुथा, पक्षी के वेग के समान वेग वाला होना। पंगुवा, लँगड़ा । स्त्री० पंगी। पंखड़ी-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० पक्ष्य) पँखुरी, पंगु-वि० (सं०) पाँव का लँगड़ा, पंगुया, पंखुड़ी, पाँखुरि (व.) फूल के पत्ते, पुष्प- पंगुवा, लँगड़ा । “पंगु चढहिं गिरवर गहन" दल। -रामा० । संज्ञा, पु० (सं०) शनैश्चर ग्रह, पंखा-संज्ञा, पु० दे० (हि. पंख) बेना, . बात रोग का भेद। संज्ञा, स्त्री० पंगुता । बिनना । स्त्री० अल्पा० पंखी-छोटा पंखा पंगुति-संज्ञा, स्रो० यौ० (सं०) वर्णिक पाँखी, पतिंगा। छंदों का एक अवगुण या दोष ( पिं०)। पंखा-कुली-संज्ञा, पु० दे० यौ० (हि. | पंगुल-पंगुला-वि० दे० (सं० पंगु) पँगुश्रा, पंखा+कुली-म०) पंखा खींचने वाला गुवा, लँगड़ा। “पाँयन ते पंगुला हुआ, नौकर । | सतगुरु मारा बान"--कबी० । For Private and Personal Use Only Page #1055 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - - - पंच १०४४ पंचता पंच-वि० (सं०) पाँच । संज्ञा, पु. पाँच की पंचकोश-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) शरीर बनाने संख्या का अंक, लोक, जनता, समाज, सभा । वाले पाँच कोश-अन्नमय, प्राणमय, मनोझगड़ा निबटाने वाले मुखिया, समुदाय । | मय, विज्ञानमय, आनन्दमय कोश । " पंच कहैं शिव सती विवाही'-रामा०। पंचकोस-संज्ञा, पु० दे० यौ० ( सं० पंचपंचायत का सदस्य, पंचायत । यौ०-पंच- क्रोश ) पाँच कोस की लंबाई-चौड़ाई के नामा-पंचों का निर्णय । मुहा० - मध्य में स्थित पवित्र भूमि, काशी। स्त्री० पंच की भीख-सब की दया या कृपा, | पंचकोसी। सब की असीस । पंचकी दुहाई-अन्याय पंचकोसी-संज्ञा, स्त्री० दे० यौ० (हि. पंच मिटाने या सहायता करने की पुकार । पंच कोस ) काशी की परिक्रमा । परमेश्वर-समुदाय-कथन परमेश्वर वाक्य | पंचकोशा-संज्ञा, पु. यौ० (सं०) पंचकोस, सामान्य है। पंचायत, न्याय सभा। लो०- काशी जी। "पंचै मिलिक कीजै काज । हारे-जीते। पंचगंगा--संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं.) गंगा, होयन लाज"। मुहा०-किसी को पंच यमुना, सरस्वती, किरणा, और धूतपापा मानना या बदना-झगड़ा के निपटारे | नामक पाँच नदियों का समुदाय, पंचनद । के हेतु किसी को नियत करना । जज के | पंचगन्य-- संज्ञा, पु. यौ० (सं०) गाय के असेसर लोग। दूध, घी, दही, गोबर, मूत्र पाँचो पदार्थों पंचक-संज्ञा, पु. (सं०) पाँच का समुदाय । का समूह । यौ० पंचगव्यघृत। या समूह, धनिष्ठा से ५ नक्षत्र, पाँचक पंचगौड़-संज्ञा, पु. यौ० (सं०) सारस्वत, (दे०) इनमें शुभ कार्य का निषेध है, कान्यकुब्ज, गौड़, मैथिली, उत्कल नामक पंचायत । “ मघपंचक लै गयो साँवरो तातें पाँच ब्राह्मणों का समुदाय । जिय घबरात "-सूर० । पंचचामर---संज्ञा, पु० यौ० (सं०)ज, र, ज, पंच-कन्या-संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) अहल्या, र, गु गु युक्त एक छंद ( पिं० ) चामर या तारा, कुंती, द्रौपदी, मंदोदरी, जो विवाह होने पर भी कन्या रहीं। नाराच छंद, गिरिराज । पंचकल्याण-संज्ञा, पु. (सं०) ऐसा घोड़ा | पंचजन-- संज्ञा, पु० यौ० (सं०) गंधर्व, देव, जिसके चारों पैर सफ़ेद हों और माथे पर | पितर, राक्षस और असुर या ब्राह्मण, क्षत्रिय, सफ़ेद तिलक हो, शेष शरीर का रंग लाल वैश्य, शूद्र, निषाद का वृंद, मनुष्य समुया काला कोई हो। “ तुर्की, ताजी और दाय, पाँच प्राणों का समूह । कुमैता, घोड़ा अरबी पंच-कल्यान ... पंचजन्य-संज्ञा, पु० (सं.) श्रीकृष्ण का शंख श्राव्हा० । "पंचजन्यं हृषीकेशो"--गीता । पंचकवल-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) भोजन के | पंचतत्व--संज्ञा, पु० यौ० (सं०) श्राकाश, पहले पाँच ग्रास जो कुत्ते, कौए, रोगी, तेज, वायु, जल, पृथ्वी का समुदाय, पंचभूत। पतित और कोढ़ी के हेतु निकाले जाते हैं, “पंच-रचित यह अधम शरीरा"-रामा० । अग्रासन, अग्राशन, आत्म-नैवेद्य के पाँच | पंचतन्मात्र-संज्ञा, पु. यो० (सं०) शब्द, ग्रास, पंचकौर (दे०)। "पंचकवल करि रूप, स्पर्श, रस, गंध का समूह । जेवन लागै"-रामा०। | पंचतपा-संज्ञा, पु० दे० यौ० (सं० पंचतपस) पंचकोण-वि० यौ० (सं०) पाँच कोनों का पंचाग्नि तापने वाला। क्षेत्र, पँचकोन (दे०)। पंचता--संज्ञा, स्त्री० (सं०) मृत्यु, विनाश । For Private and Personal Use Only Page #1056 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org पंचतित २०४५ पंचत्व (सं०) । मुहा०-- पंचत्व को प्राप्त होना - मर जाना । पंचतिक्त संज्ञा, पु० यौ० (सं०) चिरायता, गुरिच, भटकटैया, सोंठ, कूट नामक श्रौषधियों का समूह | " पंचतिक्त कषायस्य मधुना सह निषेवणात्"- भाव० । पंचतोलिया - संज्ञा, पु० दे० यौ० हि० पाँच + तोला ) एक तरह का महीन या बारीक कपड़ा | पंचत्व -- संज्ञा, पु० (सं० ) मृत्यु, मरण । देहे पंचत्वमापन्ने देही कम्र्मानुगोऽवशः " 16 --भाग० । पंचदेव - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) शिव, गणेश, विष्णु, सूर्य, देवी, इन पाँच देवताओं का समूह, पंचदेवता । पंचद्रविड़ - संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) द्रविड़, अंध, महाराष्ट्र, करणाट और गुर्जर नामक पाँच ब्राह्मणों का समुदाय । पंचनद -- संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) झेलम, चनाव, व्यास, रावी, सतलज नामक पांच नदियों का समुदाय, पंजाब देश | "पंचनद जिस देश में हैं सो है पंचाल ” - मन्ना० । पंचगंगा तीर्थ, काशी । पंत्रनाथ - संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) जगन्नाथ, बद्रीनाथ, द्वारिकानाथ श्रीनाथ, रंगनाथ का समूह | पंचनाथ दरशन - बिना, जीवन दिया गँवाय" - मन्ना० । 4: पंचपल्लव - संज्ञा, पु० (सं०) श्रम, जामुन, कैथा, बेल और नींबू, वृत्तों के पत्ते । पंचपात्र - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) एक बर्तन -- ( पूजा ) श्राद्ध । पंचपीरिया -संज्ञा, पु० दे० ( हि०पंच + Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पंच महायज्ञ --- संज्ञा, पु० यौ० (सं०) ब्रह्मयज्ञ (संध्या), देव-यज्ञ, ( श्रमिहोत्र या हवन ) पितृयज्ञ ( श्राद्ध), भूत-यज्ञ ( वलि वैश्व देव ) नृयज्ञ ( अतिथि- पूजन ) । पंचमहाव्रत-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह, दान न लेना, अहिंसा, अस्तेय, ( चोरी का त्याग ), सूनृता, सत्यभाषण, यही पंचयज्ञ भी कहे जाते हैं । वि० पंच महाव्रती । पंचनामा - संज्ञा, पु० दे० यौ० (हि० पंच --- नामा फा० ) वह पत्र जिस पर पंचों का निर्णय लिखा हो । पंचपति – संज्ञा, ५० यौ० (सं०) पांच पति पंचमी - संज्ञा, स्त्री० (सं० ) पंचमी तिथि, पांडव, पंचभर्ता । द्रौपदी, अपादान कारक (व्या० ) । पंचमुख, पंचमुखी - वि० यौ० (सं० पंचमुखिन ) पाँच मुख वाला, शिवजी, सिंह, पंचानन | पंचमूल - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) पाँच जड़ों के मेल से बनी औषधि | पंचमूल PEARANCES 66 , फ़ा० पीर ) पांच पीरों की पूजा करने वाला ( मुसल० ) । पंचप्राण - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) प्राण, अपान उदान, समान, व्यान, नामक पाँच पवनों का समुदाय । पंचप्राण बिन सूना मंदिर देखत ही भय धावे "स्फु० । पंचभर्त्तारी - संज्ञा स्त्री० यौ० (सं०) द्रौपदी । पंचभूत - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) पंचतत्व, श्राकाश, तेज, वायु, जल, पृथ्वी नामक ५ तत्वों का समूह, पंचमहाभूत । पंचम - वि० पु० (सं० ) पाँचवा, निपुण, सुन्दर | संज्ञा, पु० (सं०) गान विद्या का पाँचवाँ स्वर, कोयल का स्वर, एक राग ( संगी० ) । त्रो० पंचमी | पंचमकार - संज्ञा, पु० यौ० मुद्रा, मद्य, मांस, मैथुन, समुदाय ( वाम० ) । वाममार्गी । पंचमहापातक-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) ब्रह्महत्या, चोरी, सुरापान, गुरु पत्नी-मैथुन और इनके करने वाले व्यक्ति का संग | वि० पंचपातकी । वि० For Private and Personal Use Only (सं०) मछली, इन पाँचों का पंचमकारी - Page #1057 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org पँचमेल पंचमेल - वि० यौ० (हिं०) जिसमें पाँच या कई प्रकार की चीजें मिली हों । पंचरंग(सं०)-पंचरंगा-त्रि० दे० यौ० (हि० पाँच -+- रंग ) पाँच या अनेक रंगों का स्त्री० पंचरंगी | १०४६ पंचरत्न - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) सोना, हीरा, मोती, लाल, नीलम इनका समूह । पंचराशिक -संज्ञा, पु० यौ० (सं०) चार ज्ञात राशियों से पाँचवीं अज्ञात राशि के निकालने की क्रिया या रीति ( गणि० ) । पंचलड़ा - पंचल - वि० दे० यौ० ( हि० पाँच + लड़ ) पाँच लड़ों का, पाँचलड़ों वाला, हार आदि । स्त्री० पॅचलरी, पॅचलड़ी। पंचलवण -- संज्ञा, पु० यौ० (सं०) संधा, सोंचर, विट, सामुद्र, काँच नामक पाँच प्रकार के नमक | पॅचलोन (दे० ) । वि० पंचलोना | "" पंचवटी - - संज्ञा स्त्री० (सं०) गोदावरी तट के दंडकारण्य में एक स्थान । "गुनधुरटी बन पंचवटी " - राम० । पंचवाँसा -संज्ञा, पु० दे० ( हि० पाँच + मास ) गर्भधारण के पाँचवें महीने का एक संस्कार । पंचायतन पंचशिख – संज्ञा, पु० यौ० (सं०) नरसिंघा बाजा, कपिल के पुत्र | पंचसूना - संज्ञा, खो० यौ० (सं०) पाँच प्रकार की हिंसाएँ जो गृहस्थों से गृहकार्य करने में होती हैं--पीसना, कूटना, श्राग जलाना, झाडू लगाना, पानी का घड़ा रखना । ------ पंचांग | संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) पाँच अंग या पाँच अंगों की वस्तु, औषधि के पंचाङ्ग फल, फूल, पत्ती, छाल, जड़ ( वैद्य ० ) । तिथि-पत्र जिसमें तिथि, वार, नक्षत्र, योग, करण हों (ज्यो०) पत्रा, प्रणाम की एक रीति- माथा, दोनों हाथ और दोनों घुटने पृथ्वी पर रख आँखे देवता की ओर कर मुख से प्रणाम शब्द बोलना । पंचाक्षर - वि० ० (सं०) जिसमें पाँच अक्षर हों | संज्ञा, पु० एक वृत्त ( पिं० ) । नमः शिवाय वह शिव मंत्र | पत्राग्नि-संज्ञा, त्रो० यौ० (सं०) पचन, गाईपत्य, आहवनीय, श्रावस्थ्य, धन्याहार्य पाँच प्रकार की योग, चारो ओर अग्नि और ऊपर सूर्य तप में तापने का एक तप । वि० [पंचाग्नि तापने या पूजने वाला, पंचाग्निविद्यावेत्ता, पंचागिन (दे० ) । पंचानन - वि० यौ० (सं० ) जिसके पाँच मुख हों | संज्ञा, पु० शिवजी, बाघ, सिंह । 66 " पंचवाण - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) कामदेव के पाँच वाण, मोहन, उन्मादन, तापन, शोषण, द्रोपण, काम के आम्र, अशोक, कमल, नीलोत्पल, नवमल्लिका के पुष्प बाण, कामदेव | " प्रयाणे पंच वाणस्य शंखमापूरयन्निव सा० द० । पंचवान -- संज्ञा, पु० (दे०) राजपूतों की पंचामृत- संज्ञा, पु० यौ० (सं०) दूध, दही, एक जाति । घी, शक्कर और शहद या मधु मिला पदार्थ जो देवताओं के स्नान के हेतु बनाया जाता है । ताल, पंचशब्द - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) सितार, झाँझ, नगाड़ा, तुरही का मिलित शब्द, सूत्र, वार्त्तिक, भाष्य, कोष, महा काव्य (वैय्याव० ) । पंचशर-संज्ञा, पु० ० (सं०) कामदेव के पाँच वाण, कामदेव, पंचसायक । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पंचहज़ारी - संज्ञा, ५० दे० यौ० ( फ़ा० पंजहजारी) पाँच हजार सैनिकों का नायक (मुस० ) । पंचायत - पंचाइत - संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० पंचायतन ) पंचों की सभा, बैठक, कमेटी (०) बहुत से लोगों की बातचीत । पंचायतन-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) देवताओं For Private and Personal Use Only Page #1058 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पंचायती १०४७ पंडुक की पंच मूर्तियों का समुदाय, जैसे राम-पंजाब- संज्ञा, पु० यौ० ( फा० ) १ नदियों पंचायतन । का एक देश । पंचायती-वि० दे० (हि. पंचायत) पंचा- पंजाबी-वि० ( फ़ा० ) पंजाब का। संज्ञा, यत का, पंचायत-सम्बन्धी, पंचायत का स्त्री. पंजाब की भाषा (बोली)। संज्ञा, पु० किया हया, साझे का, सब लोगों का। पंजाब का रहने वाला। स्त्री० पंजाबिन । पंचाल--संज्ञा, पु. (सं०) पांचाल, पंजाब पजारा- संज्ञा, पु० दे० (सं० पंजिकार ) देश, पंजाब देश-वासी, पंजाब का राजा, धुनियाँ। शिव जी, एक छंद (पिं०) । स्त्री० पंचाली। पंजिका-संज्ञा, स्त्री० (सं०) पंचाङ्ग। पंचालिका--संज्ञा, स्त्री. (सं.) पुतली, पंजीरी-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. पाँच जीरा ) गुड़िया, रंडी, नाचने वाली, नटी । " नवति चीनी-मेवा मिला धी में भुना हुआ पाटा। मंच पंचालिका, कर संकलित अपार" पंजेरी-संज्ञा, पु० दे० (हि. पांजना ) बर्तन -राम । जोड़ने वाला। पंचाली-संज्ञा, स्त्री० (सं०) पांचाली, पुतली, पंडल-वि० दे० (सं० पांडुर ) पीला, पाँडु द्रौपदी, एक गीत, पीपर (औष०)। । वर्ण का। पंचीकरण-संज्ञा, पु. यौ० (सं०) पाँचों पड़वा-पड़वा --संज्ञा, पु. (दे०) भैंस का भूतों या तत्वों का विभाग। _बच्चा, पड़ा (ग्रा०)। पंछा-संज्ञा, पु० दे० (हि० पानी +छाला ) पंडा-संज्ञा, पु० दे० (सं० पंडित ) किसी जीवधारियों और वृक्षों से जो पानी टपकता है, मंदिर या तीर्थ का पुजारी, पुजारी। स्त्री० फफोले का पानी, रंग। (प्रांती०) अंगौछा। पंडाइन । पंछी-संज्ञा, पु० दे० ( सं० पक्षी) पक्षी, | पंडाल- संज्ञा, पु० (दे०) सभा की बैठक के चिड़िया। "दस द्वारे का पींजरा, तामैं | हेतु बनाया हुआ मंडप । पंछी पौन"--कवी। पंडित - वि० (सं०) विद्वान, ज्ञानी, चतुर । पंजर-संज्ञा, पु० (सं०) पिंजरा, ठट्टर, कंकाल, स्त्री० पंडिता, पंडिताइन, पंडितानी। हडियों का समूह या ढाँचा, देह, तन, संज्ञा, पु. ब्राह्मण । शरीर । यौ० अस्थि -पंजर।। पंडिताई -संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० पंडित+ पंजहजारी-संज्ञा, पु० ( फा०) ५ हजार पाई-प्रत्य० ) विद्वता, पांडित्य । सैनिकों का सरदार (मुसल०)। पंडिताऊ-वि० दे० (हि. पंडित ) पंडितों पंजा-संज्ञा, पु० दे० (फ़ा० मि० सं० पंचक) के ढंग का सा, पंडितों का सा। हाथ या पैर की पाँचों अँगुलियों का समूह, पंडितानी-संज्ञा, खी० दे० (हि. पंडित ) गाही, पाँच पदार्थों का समूह, चंगुल, पंडिताइन, पंडित की स्त्री विद्वान स्त्री, शिकंजा । मुहा०-पंजे झाड़ कर पीछे। ब्राह्मणी ।। एड़ना या चिमटना-हाथ धोकर पीछे पंडु-वि० ( सं० ) श्वेत, पांडुरोग, पीलापड़ना, जी-जान से तत्पर होना या लगना। पीला मटमैला । संज्ञा, पु० (३०) पांडु राजा। पंजे में (आना पड़ना )---पकड़ में, "पंडु की पतोहू भरी स्वजन-सभा के बीच" मुट्ठी में, आधीन, अधिकार में। जूते का -रत्ना०। अग्रभाग, पाँच बूटियों वाला ताश का पंडुक-संज्ञा, पु० दे० (सं० पांडु) पडुकी, पत्ता । मुहा०-छक्का-पंजा-दाँव-पेंच, पेड़की ( प्रान्ती० ), कबूतर की जाति का चालाकी, छल-प्रपंच । । एक पक्षी, पिंडुकी, फास्ता । स्त्री०पंडकी। For Private and Personal Use Only Page #1059 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - पंडुर १०४८ पंसासार पंडुर-संज्ञा, पु० (दे०) पनिहा साँप, डेडहा, | " बुरो पेट-पंपाल है, बुरो युद्ध सों भागनो" वि० दे० (सं० पांडुर ) पांडु वर्ण का। -गंग०। पतीजना-स० क्रि० दे० (सं० पिंजन ) रुई, पंपासर-संज्ञा, पु. यो० (सं०) एक ताल, श्रोटना, पीजना। ( दक्षिण भारत)। पँतीजी-संज्ञा, 'स्त्री० दे० (सं० पिंजक ) रुई पँवर -- संज्ञा, पु० (दे०) ड्योदी, द्वार, सामान धुनने की धुनकी। सामग्री। पँवरना-अ० कि० दे० (सं० प्लवन) तैरना। पंथ-संज्ञा, पु० दे० (सं० पथ) पथ, रास्ता, पैरना, थाह लेना, पता लगाना।। मार्ग, राह, बाट, श्राचार, पद्धति, रीति, - पँवरि-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० पुर -- घर ) चाल । “खोजत पंथ मिलै नहिं धूरी"--. ड्योदी, द्वार । " अातुर जाय पँवरि भयो रामा० । मुहा०-पंथ गहना-चलना, ठादो, कह्यो पँवरिया जाय"- सूबे० ।। राह पकड़ना, आचरण ग्रहण करना। पंथ परिया-पँवरिया- संज्ञा, पु० दे० (हि. दिखाना-राह बताना, शिक्षा देना | पंथ पँवरी =पौर ) दरवान, द्वार-पाल, व्योढ़ीदार देखना निहारना या जाहना-अवसर या द्वार पर गा गा कर माँगने वाला भिखारी। प्रतीक्षा करना, बाट जोहना (७०)। पंथ "को पँवरिया हाथ जोरि प्रभु विश्वामें (पर) पाँव देना-प्राचार ग्रहण करना | मित्र पधारे"। या चलना। पंथ पर लगना (होना पँवरी, पाँवरी-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. पँवरि) आना) राह पर आना, या होना, ठीक ड्योढ़ी, द्वार, दरवाज़ा । संज्ञा, स्त्री० दे० चाल पकड़ना । किसी के (को) पंथ (हि. पाव ) पाँवड़ी, खड़ाऊँ। “ पाँव न लगना (लगाना ) किसी का (का) वरी भ भर जरई"-पद। अनुचर या अनुयायी होना, बनाना-ठीक पँवाड़ा-पँवारा-संज्ञा, पु० दे० (सं० प्रवाद) रास्ते पर लाना। पीछे लगना. बारम्बार विस्तार-युक्त कथा, व्यर्थ विस्तार से कही तंग करना। पंथ सेना- राह देखना, अव हुई बात, एक गीत। “वीर पँवारा वीरै गावे सर करना, वासरा देखना । धर्म-मार्ग, मत, औ रणसूर सुनै चित लाय"-शाल्हा० । धर्म, संप्रदाय । जैसे-कबीर-पंथ। कीर्ति कथा ।" श्रजहूँ जग गावत जासु पंथान--संज्ञा, पु. (सं० पंथ) मार्ग, रास्ता। पँवारी"-कविः । पंथकी - संज्ञा, पु. दे० (सं० पथिक ) पँवार-संज्ञा, पु० दे० (हि. परमार) क्षत्रियों बटोही, राही, पथिक । __ की एक जाति । पंथिक -संज्ञा, पु० दे० (सं० पथिक) बटोही, पँवारना-स० कि० दे० (सं० प्रवारण) राही, पथिक (सं.)। फेंकना, दूर करना, हटाना । "रज हुइ जाहिं पंथी-संज्ञा, पु० दे० (सं० पथिन ) बटोही, | पखान पँवारे । “ कछु अंगद प्रभु-पास राही, पथिक, किसी मत का अनुयायी, पँवारे "- रामा० । जैसे-दादू पंथी। पंधारी-- संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० प्रचाल) मूंगा। पंद-संज्ञा, स्रो० (फ़ा० ) सिखावन, उपदेश, पंसारी-संज्ञा, पु० दे० (सं० परायशाली) शिक्षा सीख । किराना, मेवा और औषधि बेंचने वाला पंपा-संज्ञा, स्त्री० (सं०) दक्षिण देश की एक बनिया। नदी, एक ताल, एक नगरी। पंसासार-संज्ञा, पु० दे० (सं० पाशक + पंपाल-वि० (दे०) बड़ा पापी, पापी। । सारिगोटी) पाँसों का खेल, चौपड़ । For Private and Personal Use Only Page #1060 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir H- RAPE पँसुरी-पँसुली १०४६ पका " जहाँ बैठि रावन खेलत है सुख सों पंसा- थमाना, पकराना (दे०) किसी पुरुष के सार "-स्फु० । हाथ में कोई वस्तु देना, पकड़ने का काम पँसुरी-सुली-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० पार्श्व) | कराना, गहाना (७०)। पसली, पसुली, पारसुरी (७०)।... पकना-अ० कि० दे० (सं० पक्क) गल जाना, " पाँसुरी उमहि कबौं बाँसुरी बजावे हैं" सीझना, मवाद से भर जाना, गोट का अपने ज० श०। घर आ जाना, पक्का होना । मुहा०-बाल पंसेरी-संज्ञा, स्त्री० दे० ( हि० पाँच -- सेर ) पकना-बाल सफेद होना । दिल पकना पांच सेर की तौल का बाट, पसेरी (ग्रा०)। --तंग आना, ऊब उठना, आग या सूर्य पइता-संज्ञा, पु० (दे०) एक छंद (पि.) की गरमी से गलना, सिद्ध या तैयार होना, पाईता। सीझना । मुहा०-कलेजा पकना-जी पइँती--संज्ञा, पु० दे० ( सं० पवित्री ) पैंती, जलना या कुढ़ना। कुश की मुद्रिका । स्त्री० 'प्रान्ती० ) दाल । पकरना*- स० कि० दे० (हि. पकड़ना) पइसना--अ० क्रि० दे० (हि. पैठना) पैठना, पकड़ना, थामना, रोकना । प्रे० रूप घुसना, प्रवेश करना, प्रविशना।। पकराना। पइसार, पैसा -संज्ञा, पु० दे० (हि. पइ-। पकवान-संज्ञा, पु० दे० (सं० पक्वान्न ) घी सना ) प्रवेश, पैठार । "अतिलघु रूप धरौं | में तला हुआ अन्न का पदार्थ, जैसे पूड़ी। निसि, नगर करउँ पैसार"-रामा०।। पकवाना-- स० क्रि० दे० (हि. पकाना का पउँर-पउँरी- संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. पौरि) प्रे० रूप ) पकाने का कार्य दूसरे से करड्योढ़ी, द्वार, पौरि, पौरी। पउनार-संज्ञा, स्त्री० दे० ( सं० पद्मनाल ) वाना । संज्ञा, स्वी० (दे०) पकवाई-पक । वाने का भाव या मजदूरी। पद्मनाल, कमलदंडी, कज-नाल । पउनी-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. पौनी ) नेगी, पका-- वि० दे० (सं० पक्क ) पक्का, गला, नेग पाने वाले, नाई, बारी, धोबी आदि । सफेद ( बाल )। " चलीं पउनि सब गोहने, फूल-डार लेइ पकाइ-सज्ञा, स्ना० पकाई-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि० पकाना) पकाने हाथ "... पद। की मजदूरी, क्रिया या भाव। पकड-संज्ञा, स्त्री० दे० ( सं० प्रकृष्ट ) ग्रहण, पकाना--स० कि० दे० (हि• पकाना ) धरन, रोक । यौ० पकड़-धकड़। गरमी देकर किसी फल या धातु को गलाना, पकड़-धकड, पकर-धकर-संज्ञा, स्त्री० दे० भाग से किसी वस्तु को सिझाना, सिद्ध (हि. पकड़ना-1-धरना ) भागते हुए पुरुषों __ करना, राँधना, तैयार करना, पक्का करना के पकड़ने का कार्य, गिरिफ्तारी, कैद। फोड़े को दवा से मवाद-युक्त करना पटना. पकरना-सकि० दे०सं० प्रकट) (गलाना), पकावना (ग्रा०)। थाँभना, धरना, ग्रहण करना, वशीभूत, कैद पकाधन-- संज्ञा, पु० दे० (हि० पकवान ) या गिरफ्तार करना, ठहराना, रोक रखना, पकवान । रोकना, टोकना। पकौड़ा-संज्ञा, पु० दे० (हि. पका-बरी पकड़वाना--स० कि० दे० (हि. पकड़ना | ___ =बड़ी ) बेसन या पीठी की घी में तली का प्रे० रूप) पकड़ने का कार्य दूसरे से या फुलाई हुई बरी । स्त्री. अल्पा० पकोड़ी। कराना। पका-वि० दे० (सं० पक्क) पाक (दे०) पका पकड़ाना-स० क्रि० दे० (हि० पकड़ना) यागला हुआ, सिद्ध किया हुश्रा, आग पर भा० श० को०-१३२ For Private and Personal Use Only Page #1061 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पक्खर १०५० पखरी पकाया हुघा, पुष्ट, तैयार, दुरुस्त, पुराना, पंख, पाख, पखवारा (मास के दो विभाग) सफेद (बाल,पान) कंकड़ कुटा मार्ग, दक्ष, घर । यो०-पक्षान्तर-दूसरा पक्ष, कृष्ण अभ्यस्त, अनुभवी, ठीक, सही, दृढ़ टिकाऊ, पक्ष ( वदी) शुक्ल पक्ष ( सुदी)। इंट, पत्थर, चूने से दृढ़, पूरा । स्त्री० पक्की। पक्षपात-संज्ञा, पु. यौ० (सं०) तरफ़दारी। मुहा०-पक्का भोजन (खाना ) पक्की | पक्षपाती-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) तरफदार । रसोई-घी में बना भोजन, पदार्थ । पक्का पक्षाघात-संज्ञा, पु. यौ० (सं०) बात रोग पानी-ौटाया हुआ स्वास्थ्यकर पानी। जिसमें शरीर के किसी ओर का आधा भाग निश्चित,तय, प्रामाणिक, चोखा । मुहा०.. क्रिया-रहित हो जाता है, फालिज, लकवा। पक्का कागज--इस्टांप पेपर (अं० ) पक्की बात-ठीक और पुष्ट (सत्य, शुद्ध या प्रमा पक्षिणी-संज्ञा, स्त्री० (सं०) चिड़िया, पूर्णणिक) बात । यौ०-पक्का खाता (पक्की मासी। बही) सही हिसाब किताब, पक्की-रोकड | पक्षिराज- संज्ञा, पु० यौ० (सं०) गरुड़, एक (विलो०-कच्चा स्त्रो० कच्ची)। भाँति का धन । पक्खर* --संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. पाखर ) पतिशावक-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) पक्षी का पाखर, पाखरी (ग्रा० )। बच्चा। पक्क-वि० (सं०) पक्का, पका हुश्रा, गलित, पक्षी- संज्ञा, पु. ( सं० पक्षिण ) तरफ़दार, दृढ़, मजबूत । " दुमालयं पक्क फलांबु चिड़िया, पत वाला, पक्षवान । सेवनम्"। पक्षीय-वि० (सं०) पक्षवाला, समूह या दल पक्वता-संज्ञा, स्त्री० (सं०) पक्कापन । का हिमायती, तरफ़दार । पक्वान्न-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) पका हुआ | पक्ष्म-संज्ञा, पु. (सं०) आँख की बरौनी । अनाज, घी आदि से पकाया या भूना अन्न । पखंड-संज्ञा, पु० दे० (सं० पाखंड ) ढोंग, पक्काशय-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) पेट की वह | छल, कपट, वेदनिन्दा, पाखंड (सं०) । थैली जहाँ भोजन पकता है, मेदा। पखंडी-संज्ञा, पु० दे० (हि. पाखंडी) पक्ष-संज्ञा, पु० (सं०) पार्श्व, ओर, तरफ़, एक पाखंडी, ढोंगी, वेद-निन्दक, छली, कपटी । पहलू या बग़ल, दो भिन्न भिन्न बातों में से पख-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० पक्ष ) व्यर्थ बढ़ाई एक, किसी की बात के विरुद्ध अपनी बात हुई बात, वाधक नियम, अडंगा, झगड़ाको ठीक बताना, पंख, बाजू । ( विलो० बखेड़ा, शर्त, बाधा, तुर्रा, दोष, त्रुटि, ऊपर विपक्ष ) मुहा०-पक्षगिरना-ग्रहीत से बढ़ाई हुई शर्त । मुहा०—पख लगाना। बात का प्रमाणों से सिद्ध न होना, दो पखड़ी-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० पक्ष्म) पंखड़ी, में से एक के अनुकूल । मुहा०-किसी पंखुड़ी, पखड़ी (ग्रा.), पाँखुरी, पखुरी, फूल का पक्ष करना -- पक्षपात या तरत के पत्ते, पुष्प-दल । दारी करना । किसी का पक्ष लेनाझगड़े में किसी की ओर हो जाना, सहायक पखराना-स० कि० दे० (हि० पखारना का बनना, पक्षपात या तरफदारी करना, लगाव, प्रे० रूप) धुलवाना, छंटवाना, साफ़ कराना । संबंध, कारण, निमित्त, साध्य की प्रतिज्ञा, "पद पंकज पखराय कै, कह केसव सुख सेना, सहायक, साथी, विवाद या झगड़ा | पाय"-राम। करने वालों के भिन्न भिन्न समूह, वाण के पखरी-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि० पाखर) पाखर, For Private and Personal Use Only Page #1062 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पखरत १०५१ पगदासी पाखरी। संज्ञा, स्त्री० दे० ( सं० पक्ष्म ) | के पत्ते, पुष्प-दल । “ पखुरी गड़े गुलाब पंखड़ी, फूल की पत्ती, पुष्प-दल । की, परि है गात खरौंट"-वि०। पखरैत---संज्ञा, पु० दे० (हि. पाखर + ऐत | पखुवा-संज्ञा, पु० दे० (सं० पक्ष ) पार्श्व, -प्रत्य० ) लोहे की पाखर वाला, घोड़ा बग़ल, पखौवा, पखौरा (ग्रा०)। या हाथी आदि। पखेरू-संज्ञा, पु० दे० ( सं० पक्षालु ) पक्षी, पखवाड़ा-खवारा-संज्ञा, पु० दे० (सं० | चिड़िया, पंछी। पक्ष-+ वार ) पन्द्रह दिनों का समय । “पर- | पखौश्रा-पखौवा संज्ञा, पु० दे० (सं० पक्ष) खेउ मोहिं एक पखवारा"-रामा० । । पंख, पखना, डैना, पक्ष । 'क्रीट, मुकुट सिर पखराना- स० क्रि० दे० (हि० पखारना) छाँड़ि पखौवा, मोरन को क्यों धारयो" धुलाना, साफ कराना। प्रे० रूप पखरवाना। | -हरि० । पखान-संज्ञा, पु० दे० (सं० पाषाण) | पखौटा--संज्ञा, पु० दे० (सं० पक्ष) पंख, पत्थर। “रज होइ जाइ पखान पँवारे" पखना, पर, पक्ष । -रामा। | पखौरा-संज्ञा, पु० (दे०) हाथ का धड़ से पखाना- संज्ञा, पु० दे० (सं० उपाख्यान ) जोड़, बग़ल । कहावत, उपाख्यान, मसल, कहनूत, कह- पग-संज्ञा, पु. ( सं० पदक ) पाँव, पैर, डग, तूत, कथा। संज्ञा, पु० दे० (फ़ा० पाखाना) फाल, पैग (व.)। पाखाना, रही। पगडंडी-संज्ञा, सो० दे० यौ० (हि. पग+ पखारना-स० क्रि० दे० (सं० प्रक्षालन ) डंडी ) लोगों के पैदल चलने से बनी मैदान धोना, शुद्ध या साफ करना । "विप्र सुदामा या वन में छोटी राह । के चरन, श्राप पखारत स्याम "- स्फु० ।। पगड़ी-संज्ञा, स्त्रो० दे० (सं० पटक) पगिया, पखाल-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० पय = पानी पाग (०), चीरा, साफ़ा, उष्णीय, पगरी +हि. खाल ) बैल के चमड़े की मशक, (दे०)। पु. पगड़ा। मुहा०--किसी से धौकनी, मुख धोने का बर्तन । “त्रिय पगड़ी अटकना--समानता या बराबरी चरित्र मदमत्त न उठि पखाल मुख धोवत" होना, मुकाबला होना । पगड़ी उछालना दुर्दशा या बे इज्जती करना, उपहास करना । पखावज-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० पक्ष + वघ ) पगड़ी उतारना-मान या प्रतिष्ठा का भंग मृदङ्ग। " बाजत खाल पखावज बीना” | करना, ठगना लूटना। किसी को पगड़ी -रामा। बाँधना-वरासत मिलना, उत्तराधिकार पखावजी-संज्ञा, पु० दे० (हि. पखावज =ई) | प्राप्त होना, उच्च पद, प्रतिष्ठा या सन्मान मृदङ्ग या पखावज का बजाने वाला। मिलना । किसी के साथ पगड़ी बदलना पखिया-वि० दे० (सं० पक्ष ) झाड़ालू, --मैत्री या बंधुता जोड़ना। पैरों पर बखेड़िया। पगड़ी रखना--प्राधीन हो विनय करना, पखी-पखीरी*--- संज्ञा, पु० दे० (सं० पक्षी)। सम्मान देना। पती, पखेरू, पंछी, (ग्रा०) पच्छी (दे०) पगतरी-संज्ञा, स्त्री० दे० यौ० (हि. पग चिड़िया। | +तल ) जूता. पनही (ग्रा०) खड़ाऊँ । परखुड़ी-पखुरी--संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० पदम ) | पगदासी-संज्ञा, स्त्री० दे० यौ० (हि० पग पंखड़ी, पाँखुरि, पाँखुरी (प्रा.), फूल | +दासी) जूता, पनही, खड़ाऊँ, चरनदासी। For Private and Personal Use Only Page #1063 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पगना १०५२ पचरंग पगना-अ. क्रि० दे० (सं० पाक ) किसी | जुगाली करना, पचाना, दुबारा चबाना, वस्तु का किसी वस्तु से पूर्ण मेल होना, (ग्रा० व्यंग्य) धीरे धीरे बात करना । मिलना, लीन होना, किसी वस्तु में निहित पघा-संज्ञा, पु० दे० (सं० प्रगट ) पगहा, होना, प्रभावित होना। पगही, बैल आदि के बाँधने की मोटी रस्सी। पगनियाँ-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० पग) जूता। पचकना-अ० कि० दे० (हि० पिचकना) पगरा -संज्ञा, पु० दे० (हि. पग+रा- किसी उभरे या उठे हुए तल का दब जाना, प्रत्य०) कदम, पग, डग, बड़ी पगड़ी, पिचकना। स०, प्रे० रूप-पचकना, पगड़ा । संज्ञा, पु० दे० (फा० पगाह) चलने | पचकवाना। का समय, प्रभात, तड़का, सबेरा। पचकल्यान-संज्ञा, पु० दे० (सं० पंचकल्याण) पगला-वि. पु. (दे०) पागल, विक्षिप्त, वह घोड़ा जिसके चारों पाँव और माथा बैलाना, सिड़ी। स्त्री० पगली।। सफेद हो, शेष शरीर का और रंग हो। पगलाना-अ० क्रि० (दे०) पागल होना, " तुरकी ताजी और कुमैता घोड़ा सब्जा पागल करना। पचकल्यान"-श्राव्हा० । पगहा-संज्ञा, पु० दे० ( सं० ग्रह ) गिरवाँ, पचखा-संज्ञा, पु० दे० (सं० पंचक) पुंचक । पया । स्त्री. पगही। लो०--आगे नाथ | पचगुना-वि० दे० यौ० ( सं० पंचगुण ) न पीछे पगहा-अनाथ, असहाय । पाँच गुना। पगा-संज्ञा, पु० दे० (हि० पाग ) पाग, | पचड़ा-पचरा- संज्ञा, पु० दे० (हि. पांच पगिया । " शीश पगा न झगा तन में" =प्रपंच + ड़ा-- प्रत्य० ) झंझट, प्रपंच, -नरो । वि० (हि. पगना ) लीन, पगा। बखेड़ा, एक गीत। हुश्रा, अनुरक्त । पचतोरिया-पचतोलिया - संज्ञा, पु० (दे०) पगाना-स० कि० (सं० पाक ) अनुरक्त | एक तरह का महीन बारीक कपड़ा। या मान करना, मिलाना, ऊपर से चीनी पवन-संज्ञा, पु. (१०) पाक, पकाने या श्रादि चढ़ाना। प्रे० रूप (दे०) पगवाना। पचाने की क्रिया का भाव, अग्नि, श्राग। संज्ञा, स्त्री० (दे०) पगाई, पगवाई-पगाने, पचना-अ० क्रि० द० (सं० पचन ) हज़म पगवाने की क्रिया या मज़दूरी। होना, पर धन अपने हाथ ऐसा श्रावे कि पगार-संज्ञा, पु० दे० (सं० प्रकार ) घेरा, वापिस न हो सके, शरीर गलाने वाला चहार-दीवारी। संज्ञा, पु० दे० ( हि० पग+ परिश्रम, बहुत तंग या हैरान होना । " चलै गारना) पाँवों से कुचली हुई मिट्टी, कीचड़ कि जल बिनु नाव, कोटि जतन पचि पचि या गारा, पावों से पार करने योग्य नदी मरिय"-रामा० । मुहा०—बाई पचना या पानी, पायाब । वि० (ग्रा०) ढेर, समूह । ( व्यंग्य )-गर्व दूर होना । मुहा०पगाह-संज्ञा, स्त्री० (फा०) चलने का वक्त, | पचमरना-बहुत अधिक परिश्रम करना, भोर, सबेरा, तड़का। हैरान या तंग होना, खपना । स० कि. पगियाना-पगियाना*-सक्रि० दे० (हि. । (दे०) पचाना। प्रे० रूप -- पचवान । पगाना) पागना, पगाना, अनुरक्त या पचपन-संज्ञा, पु० (दे०) पंचपंचाशत (सं०) मग्न करना। पचास और पाँच की संख्या ५५ । पगिया -संज्ञा, स्त्री० दे० ( हि० पगड़ी) पचमेल-वि० दे० ( हि० पंचमेल ) पंचमेल, पाग, पगड़ी। पाँच पदार्थों के मेल से बना पदार्थ । पगुराना-अ. क्रि० दे० (हि. पागुर ) | पचरंग-संज्ञा, पु० दे० (हि. पाँच+रंग) For Private and Personal Use Only Page #1064 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पचरंगा पच्चीकारी पाँचरंग, चौक पूरने का सामान, अबीर, पचीस-वि० दे० (सं० पंचविंशत्) पच्चीस। बुक्का, हलदी, मेंहदी की पत्ती, सुरवारी संज्ञा, पु० (दे०) पच्चीस की संख्या, २५ । के बीज । यौ० पचीसा सौ-एक सौ पचीस, १२॥ पचरंगा--वि० दे० ( हि. पाँच रंग ) पाँच | पचीसी-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. पचीस) रंगों से रँगा कपड़ा या कोई और पदार्थ । एक ही प्रकार की २५ चीज़ों का समूह, संज्ञा, पु० नव ग्रहों की पूजा का चौक। किसी की उम्र के प्रथम के २५ वर्ष, चौपड़ स्त्री० पचरंगी। जैसा एक खेल। पचलड़ी-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. पाँच+ पचूका-संज्ञा, पु० (दे०) पिचकारी, दमकला। लड़ी ) वह हार जिसमें पाँच लड़ी हों।। पचेतिरसा - संज्ञा, पु० दे० यौ० ( सं० पंचोपु० पचलड़ा। त्तरशत् ) एक सौ पाँच का अंक या संख्या, पचलोना-संज्ञा, पु० दे० (हि० पांच+ लोन लवण ) वह चूर्ण जिसमें ५ प्रकार के पचोतरा-संज्ञा, पु० यौ० (दे०) पाँच रुपये नमक पड़े हों। "चूरण मेरा है पचलोना” | सैकड़ा। पचौनी- संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. पचना) पचहरा-वि० दे० ( हि० पाँच+हरा पाकाशय, प्रामाशय, अन्न पचने की जगह, प्रत्य०) पचौहरा (ग्रा.), पाँच तहों या मेदा, श्रोझ, जोक। परतों वाला (वस्त्रादि), पाँच वार किया पचौर-पचौली-संज्ञा, पु० दे० (हि. पंच) हुआ, पचौहर (ग्रा०) पचौबर । 'चौबर गाँव का सरदार, मुखिया, पंच। "चले पचौर पचौबर कै चूनरि निचोरै है"--। विदा है ज्यों हीं"-छत्र। पचहत्तर-संज्ञा, पु० (दे०) सत्तर और पाँच | पचौबर - वि० दे० (हि० पाँच+ सं० आवर्त) पाँच परत या तह किया हुआ, पँचपरता, की संख्या, ७५। पचहरा, पचौहर (ग्रा०)।। पचाना-स० कि० दे० ( हि० पचना) पकाना पच्चड़-पञ्चर-संज्ञा, पु० दे० (सं० पचित जीण करना, गलाना, हज़म करना, नष्ट या पच्ची ) काठ या लकड़ी के जोड़ को करना, परधन अपनाना, लीन करना, खपाना। कसने के हेतु लगाया गया लकड़ी या काठ पचानबे-संज्ञा, पु० (दे०) नब्बे और पाँच का पेवंद, ठेक, पचड़ा। की संख्या, पंचानवे, पञ्चानवे, ६५।। पञ्चानवे-संज्ञा, पु० (दे०) पंचानवे, नब्बे पचारना-स० क्रि० दे० (सं० प्रचारण ) और पाँच ६५। डाँटना, ललकारना, प्रचारना। "लागेसि पच्ची-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० पचित ) खुदाई अधम पचारन मोही"-रामा०। जड़ाई, जड़ाव, एक वस्तु खोद कर उसमें पचास--वि० दे० (सं० पंचाशत् प्रा. पंजासा) दूसरी यों जड़ना कि दोनों का तल चालीस और दस। संज्ञा, पु० एक संख्या, ५०। समान रहे । मुहा०—किसी का पच्ची हो पचासा-संज्ञा, पु० दे० (हि. पचास ) जाना - लीन हो जाना, पूर्ण रूप से, एक ही तरह की पचास चीजों का समुदाय । | मिल जाना । दिमाग (मग़ज) पच्ची करना पचासी-संज्ञा, पु० (दे०) पंचासीति, अस्सी | - व्यर्थ की बात पर बहुत विचार करते रहना। और पाँच, ८५ की संख्या । पच्चीकारी--संज्ञा, स्त्री० दे० (हि० पच्ची+ पचित-वि० (सं०) पचा हुआ, पच्ची किया फ़ा० कारी ) पच्ची करने की क्रिया का भाव या जड़ा हुआ। या कार्य, जड़ाई, खुदाई। For Private and Personal Use Only Page #1065 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पच्चीस १०५४ पछारना पच्चीस-संज्ञा पु० (दे०) बीप और पाँच मुरि पछरा खाता'-हरि० । कि० वि०, वि० की संख्या, २५, पचीस (दे०)। (दे०) पिछड़ा हुअा, पीछे। पच्छ -संज्ञा, पु० दे० (सं० पक्ष ) पत, | पछलगा-पछलागा-संज्ञा, पु० दे० यौ० ओर, तरफ, पार्श्व, दो या अधिक में से (सं० अनुग) अनुयायी, अनुगामी, अनुचर, एक, पंख। यौ० पच्छपात, वि० पच्छपातो। दास । “हौं पंडितन केर पछलगा"-प० । पच्छम-पच्छिम-संज्ञा, पु. दे. ( सं० पछलत्त-संज्ञा, पु. यौ० (दे०) पीछे के पश्चिम ) पश्चिम दिशा। पैरों की मार या चोट । वि० पछलत्ता पच्छघात-पच्छाधात-संज्ञा, पु. दे. यौ० (ग्रा० ) । स्त्री० पहलत्ती। (सं० पक्षाघात ) एक श्रद्धांग-नाशक बात पछलना-अ० क्रि० दे० (हि. पिचलना) रोग, फालिज़, लकवा। पिछलना, पीछे रहना, पिछड़ना। पच्छिनी-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० पक्षिणी) पड़वा-वि० दे० (सं० पश्चिम ) पश्चिम चिड़िया, पच्छी की स्त्री। दिशा का, पश्चिम ओर का। संज्ञा, पु० (दे०) पच्छी -संज्ञा, पु० दे० (सं० पक्षी) पंछी। पश्चिमीय वायु। (ग्रा०) पक्षी, चिड़िया, पखेरू, पंखी। पछाँह- संज्ञा, पु० दे० (सं० पश्चिम) पश्चिम पछड़ना-अ० कि० दे० (हि. पीछा ) गिर दिशा का देश । वि. पहा-पश्चिम पड़ना, पछाड़ा जाना, पीछे रह जाना या देश का वासी, पछाँहो । हटना, पिछड़ना। पछाहिया-पछाँही--वि० दे० (हि० पछाँह + पछताना*--अ० क्रि० दे० ( हि० पछताव ) इया-प्रत्य० ) पश्चिम दिशा का, पश्चिमी अनुचित कार्य करने पर दुखी होना, पश्चा- देश का वासी, पहिया (दे०)। त्ताप करना। पछाड़-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि० पीछा) मूञ्छित पछतानि*-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि० पछतावा) या अचेत होकर गिरना, पछार (ग्रा०) । पश्चाताप, दुख । " गंगा के कछार में पछार छार करिहौ" पछतावना-अ.क्रि० दे० (हि० पछताना) -पद्मा० । मुहा०-पछाड़ खानापश्चाताप या शोक करना, दुखी होना।। खड़े होने पर अचेत हो कर गिर पड़ना। पछतावा-पछताया—संज्ञा, पु० दे० (सं० पछाड़ खा कर रोना-रोते रोते गिरना, पश्चाताप ) दुख, शोक, पश्चाताप । 'सिय अचेत होना। कर सोच, जनक-पछतावा"--रामा०। पछाड़ना-स० क्रि० दे० (हि. पछाड़ ) पछना-अ० कि० दे० (हि. पाछना) पछ गिरा या पटक देना, गिराना, पटकना। जाना । संज्ञा, पु. वस्तु पाछने का यंत्र, स० क्रि० दे० (सं० प्रक्षालन ) कपड़े साफ सद छूरा, चाकू। करने को उसे जोर से पटकना, पछारना । पचनी-संज्ञा, स्रो० दे० (हि. पछना ) कत पछानना-स० कि० दे० (हि. पहचानना) रनी, छूरी, छोटा चाकू। पहचानना, चीन्हना, पिछानना (३०)। पछमन-क्रि० वि० दे० (सं० पश्चात ) पीछे, पछाना-- अ० क्रि० (७०) पछियाना, गिछि(विलो० श्रागे जाना)। " धरि न सकत याना, पीछे पीछे जाना ।" कहै 'रतनाकर' पग पछमनो, सर सम्मुख उर लाग"-सूर०। । “ पछाये पच्छिराज हू की"। पग-संज्ञा, पु० दे० (हि० पछाड़) पछाड़। पछारना-स० क्रि० दे० (हि. पछाड़ना) " कछु न उपाय चलत अति व्याकुल मुरि पछाड़ना, गिराना, पटकना, कपड़े को For Private and Personal Use Only Page #1066 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पछारि १०५५ पटकना साफ करने के लिये जोर से पटकना, फीचना | पछ्यावरि - संज्ञा, स्त्री० (दे०) दूध, दही (ग्रा.) छाँटना। और शक्कर से बनी सिकरन, महा और पछावरि*-संज्ञा, स्त्री० (दे०) दूध, दही, | गुड़ से बना पदार्थ । और चीनी मिला पदार्थ मह, गुड़ की मूरन। पजरना* ---अ० कि० दे० (सं० प्रज्वलन ) " देखत हैहय राज को मास पछावरि कौरन जलना । खाय लियो रे"-राम। पजारना*-स० कि० दे० (हि० पजरन ) पछाही- वि० दे० (हि० पछांह) पश्चिम का, जलाना। पछाह का, पछैहां (ग्रा.)। पजावा-संज्ञा, पु० दे० ( फ़ा० पजावः ) ईटें पछियाना-पछियाना-स० क्रि० दे० (हि० । पकाने का भट्टा। पीछे + आना ) पीछे चलना, पीछा करना। पजोखा-संज्ञा, पु. (दे०) मातमपुरसी पछिताना-अ० कि० दे० (सं० पश्चाताप) (फा०)। पश्चाताप करना, अफ़सोस करना ।। एज- संज्ञा, पु० दे० (सं० पद्य) शूद, नीच । पछितानि- संज्ञा, स्त्री० दे० (हि० पछिताना) पज्झटिका-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० पद्धटिका) पश्चाताप, अफसोस । १६ मात्राओं का एक छंद, पद्धटिका (पिं०)। पछिताव-पछितावा-संज्ञा, पु० दे० (हि. पटवर* -- संज्ञा, पु० दे० यौ० (सं० पाटम्बर) पछतावा ) पछतावा, पश्चाताप, अफसोस । कौषेय या रेशमी वस्त्र । "पैठे जात सिमिटि पछियाव-वि० दे० (हि० पच्छिम ) पश्चिमीय वायु, पछवा हवा । भवानी के पटंबर मैं "-रत्ना०। पछुवाँ-वि० दे० (हि. पच्छिम ) पश्चिम | पट- संज्ञा, पु. (सं०) कपड़ा, वस्त्र, पर्दा, की वायु, पच्छिम की पवन । चिक, चित्रपट, कपास, छप्पर, पलक । संज्ञा, पछेला-पछेलवा - संज्ञा, पु० दे० (हि. पु. (सं० पट्ट) किवाड़, केवार (प्रा.)। पीछे + एला, (एलवा-प्रत्य० ) एक गहना, किसी वस्तु के गिरने का शब्द । मुहा०जो हाथ में पहना जाता है। पट उघरना या खुलना-दर्शन-हेतु पछली-पछेलिया--संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. मंदिर का द्वार खुलना । सिंहासन, पल्ला, पीछे + एली, एलिया-प्रत्य० ) स्त्रियों के हाथ चौरस भूमि, औंधा (विलो०-चित्त)। मुहा० में पहनने का एक गहना। "प्रागे अगेलिया पट पड़ना-धीमा पड़ना, न चलना । पीछे पछेलिया पट्टा परे पनारिनदार"- क्रि० वि० (चट का अनु०) तुरंत । "धरती, भान्हा० । सरग जाँत-पट दोऊ"-पद० । यो०पछेवड़ा-संज्ञा, पु० दे० (हि. पिछौरा ) झटपट, चटपट, लटपट, सरपट । पिछोरा, चादर । "मन-मंदिर में पैस करि पटइन-पटइनि-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि० पटवा) तानि पछेवड़ा सोइ "-कबीर० ।। पटवा की या पटवा जाति की स्त्री। पछोड़ना-पछोरना--स० क्रि० दे० (सं० पटकन, पटकनि-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. प्रक्षालन ) सूप से साफ करना, फटकना। पटकना ) पछाड़, चपत, तमाचा, छड़ी, पछौंत, पछौंतास-क्रि० वि० दे० (हि. पीछे । पटक। +औंत ) पिठौंत, पीछे की ओर। पटकना-स० क्रि० दे० (सं० पतन+करण) पौडे-क्रि० वि० (७०) पीछे की ओर झोंका देकर नीचे गिराना, उठाकर जोर से " सौहै होत लोचन पछौहैं करि लेति हैं" नीचे गिराना, दे मारना । स० क्रि० (प्रे. -रसाल। रूप ) पटकाना, पटकवाना । मुहा० For Private and Personal Use Only Page #1067 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १०५६ पटकनिया पटरी किसी ( के सिर ) पर पटकना-बिना | पटपट- संज्ञा, स्त्री. ( अनु० पट ) हलके मन काम कराना, कोई वस्तु बे मन सौंपना। पदार्थ के गिरने के शब्द का अनुकरण । कि० अ० कि० (दे०) सूजन बैठना या पचकना, वि० लगातार पट पट शब्द करता हुश्रा । भावाज के साथ फटना । " पटकत बाँस, पटपटाना-अ० कि० दे० (हि० पटकना ) काँस, कुस ताल " -सूर० । यौ०- भूख आदि से दुख पाना, किसी वस्तु से पटक-पटका-कुश्ती।। पट पट शब्द निकलना, पानी बरसना, शब्द, पटकनिया-पटकनी-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. जलना, भुनना । क्रि० वि० (दे०) पट से पटकना) पटकने का भाव, ज़मीन पर गिर पट शब्द उत्पन्न करना, शोक या खेद करना। कर पछाड़ खाने या लोटने की दशा या पटपर-वि० दे० (हि. पट-+ अनु० पर) भाव। चौरस, हमवार, बराबर, समतल । पटका-संज्ञा, पु० (दे०) (सं० पट्टक) कमर. | पटबंधक-संज्ञा, पु० दे० (हि. पटना। सं० पेच, कमर-बंद, पटुका (व.) एक वस्त्र । बंधक ) दखली रेहन, दखली गिरवी, जिस पटकाना-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि० पटकनी) में लाभ या व्याज निकालने के पीछे मूल पटकने का भाव, पृथ्वी पर पछाड़ खाकर धन में शेष रुपया मिनहा दिया जाता है । लोटने की दशा, पचकाना। पटवास-संज्ञा, पु० (सं०) कपड़े के सुगंपटतर*-संज्ञा, पु० दे० (सं० पट्ट- तल ) धित करने की गंध-द्रव्य या वस्तु। “निजरजः उपमा, समता, तुल्यता, समानता, मिसाल पटवासमिवाकिरत् " धृतपटोऽयम वारि(फ़ा०) " पटतर-जोग न राजकुमारी"- मुचां दिशाम्--माव० । जल, थल, फल, रामा० ।। वि० चौरस, बराबर, समतल । फूल भूरि अंवर पटवास धृरि० के० । पटतरना-प्र. क्रि० दे० ( हि० पटतर) पटवीजना-संज्ञा, पु० सं० ( हि० जुगुन् ) उपमा देना, समान करना । "केहि पटतरिय जुगनू । विदेह कुमारी"-रामा० । पटमंजरी- संज्ञा, स्त्री. (सं०) एक रागिनी पटतारना-स० क्रि० दे० (हि. पटा+ (संगी० ) तारना ) मारने को अस्त्र सुधार कर लेना पटमंडप ( मंडप)- संज्ञा, पु. यौ० (सं०) या निकालना, सँभालना । स० क्रि० (हि. खेमा, डेरा, तंबू, एट-भवन । पटतर ) सम या बराबर करना, पड़तालना। पटरा--संज्ञा, पु० दे० ( सं० पटल ) तस्तापटधारी-वि० पु० (सं०) वस्त्रधारी, कपड़े पल्ला । स्त्री० अल्पा०-पटरी।मुहा०--पटरा पहने हुये। होना-- नष्ट या उजाड़ होना। पटरा कर पटना-स. क्रि० दे० ( हि० पट = भूमि के | देना- मार काट कर बिछा या फैला देना, घराबर ) किसी गढ़े का भरना, समतल चौपट कर देना । धोबी का पाट, पाटा । होना, भर जाना, परिपूर्ण होना, छत | पटरानी - संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० पट्टरानी ) बनाना, सींचा जाना, मन मिलना, निभना, | पाट-महिषी, खास रानी। तै हो जाना, ऋण चुक जाना । " खूब | पटरो-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि० पटरा ) लंबा पटती है जो मिल जाते हैं दीवाने दो"- पतला काठ का तख्ता, १ फुट के नाप संज्ञा, पु. एक शहर, पाटलीपुत्र (प्राचीन)। की इंच के निशानों वाली लकड़ी। मुहा० पटनी-संज्ञा, स्त्री० दे० ( हि० पटना ) वह -पटरी जमाना या बैठाना-दिल या भूमि जो सार्वकालिक ( इस्तमरारी) प्रबंध, मन मिलना, मेल होना या आपस में पटना । (बंदोबस्त) पर मिली हो। लिखने की तख़्ती, पटिया, सड़क के दोनों For Private and Personal Use Only Page #1068 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पटल १०५७ पटिया-पटिया किनारे जहाँ से पैदल चलने वाले चलते । पु. (दे०) पटाबाज़-पटा चलाने वाला। हैं । बागों की रविश, एक तरह की चूड़ी। मुहा -~पटा-फेर-ब्याह में वर-कन्या के पटल-संज्ञा, पु० (सं०) श्रावरण, छप्पर, आसन बदलने की रीति, उलट पीटा छानी, छत, पर्दा, तह, परत, पहल, पाव, ( ग्रा० ) पटा बाँधना-पटरानी बनाना । आँख के पर्दे, पटरा, तख़्ता, पुस्तक के अंश पटा चलाना-लकड़ी की तलवार के या अध्याय, परिच्छेद, टीका, तिलक, अंवार. कौशल दिखाना। सज्ञा, पु. * (सं० पट्ट) ढेर, समूह । अधिकार-पत्र, सनद, सार्टीफिकेट ( अ०)। पटलता-संज्ञा, सी० (सं०) पटल का धर्म संज्ञा, पु० दे० (हि० पटना ) सौदा, क्रयया भाव, अधिकता। विक्रय, लेनदेन, चौड़ी लकीर, धारी, पटवा-संज्ञा, पु. दे. ( सं० पाट+वाह) खेतों का पट्टा । पटहार, पाट, पटसन, पटुवा ( ग्रा० ) स्त्री० पटाई - संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. पटाना ) पटइन, पटवी। पाटने या पटाने की क्रिया, मज़दूरी । पटवाना-स० क्रि० दे० ( हि० पटना का प्रे० । पटाक-संज्ञा, पु० दे० (अनु०) किसी छोटे रूप) पटना या पाटने का कार्य दूसरे से पदार्थ के ऊँचे से गिरने का शब्द । कराना। | पटाका--संज्ञा, पु० दे० (हि. पटु का अनु०) पटवारगरी--संज्ञा, स्त्री० दे० ( हि० पटवारी पट या पटाक शब्द, एक प्रातिशबाजी जो +गरी फ़ा० ) पटवारी का पद या कार्य । पटाक शब्द करती है, तमाचा, चपत, संज्ञा, स्त्री० पटवारगीरी। थप्पड़, पटाखा (उ०)। पटवारी-संज्ञा, पु० दे० ( सं० पट्ट- वार - पटाना - स० क्रि० दे० (हि० पट - समतल ) हि.) एक सरकारी कर्मचारी जो किसानों पाटने का कार्य कराना, पिटवा कर छत को और ज़मींदारों का हिसाब रखता है । संज्ञा, सम कराना, ऋण चुकाना, मोल तै करना, स्त्री० (सं० पट- वारी-प्रत्य०) दासी जो शांत या चुप होना. लेन-देन का चुकता अमीरों को कपड़े पहनाती है । वि० स्रो०- होना, दूर या अच्छा होना (रोगादि०)। वस्त्र वाली। पटापट--क्रि० वि० दे० (अनु. अट ) पटवास-संज्ञा, पु. (सं०) कपड़ों को सुगं- | बारम्बार, लगातार पट पट शब्द के साथ। धित करने का गंध-द्रव्य, तंबू, डेरा, शिविर, पटापटी--संज्ञा, स्त्री० दे० (अनु०) अनेक लहँगा, वाँघरा। रंगों के बेल-बूटेदार वस्तु, लेन-देन का पटसन-संज्ञा, पु० दे० (सं० पाट + हि० चुकता हो जाना। सन ) एक प्रकार का सन, जूट, पटुआ, । पटार-संज्ञा, स्त्री० (दे०) पिटारा. पेटारा, पाट (ग्रा० )। पेटी, पिटारी। पटह-संज्ञा, पु. (सं०) नगाड़ा, दुदभी, . पटाव-संज्ञा, पु० दे० ( हि० पाटना ) पाटने "बाजे पटह पखावज बीना"-रामा० । की क्रिया का भाव या कार्य, छत की पटहार-संज्ञा, पु० दे० (हि० पटवा) पटवा। पटान, द्वार के ऊपर का तत्ता। स्रो० पटहारिन । पटिया-पटिया--संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० पटा-संज्ञा, पु० दे० ( सं० पट ) किर्च जैसा पट्टिका ) पत्थर का टुकड़ा जो पतला और एक लोहे का अस्त्र जिससे तलवार के हाथ आयताकार हो, पलंग की पट्टी, पाटी, सिर सीखे जाते हैं । संज्ञा, पु० (सं० पट्ट ) पाटा, के सँवारे हुए बाल, लिखने की तख़्ती या पीड़ा, पटरा, पट्टा । यौ० पटाबाजी । संज्ञा, । पट्टी, पाटा, पीढ़ा। "वै मार सिर पटिया भा० श० को०-१३३ For Private and Personal Use Only Page #1069 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org पटी पारे, कंथा काहि उदाऊँ " -- सूर० । यौ० मुहा०-- पटिया पारना- - बाल सवारना पटी - - संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० पट ) कपड़े का कम चौड़ा लंबा टुकड़ा, पटुका, कभरबंद, परदा । पटोर - संज्ञा, पु० (सं०) एक चंदन । " सीर समीर उसीर गुलाब के नीर पटीर हूँ ते सरसाती " - दास० । पपीहा, कत्था, वटवृक्ष, कामदेव | २०५८ पटीलना- - अ० क्रि० दे० ( हि० पटाना ) किसी को उलटी-सीधी बातों से समझाना, परास्त करना, बना था उड़ा लेना, कमाना, ठगना, पूरा या समाप्त करना, बलात् हटाना। मुहा० - किसी के मत्थे (सिर) पटीलना- किसी के ऊपर छोड़ना । पटु - वि० (सं०) दत्त, कुशल, प्रवीण, चतुर, निपुण, चालाक, कठोर हृदय, स्वस्थ, तीखा, तीच्ण, प्रचंड, उग्र । सं० पु० (दे०) परवल, नमक-करेला ( प्रान्ती० ) | संज्ञा, स्त्री० (सं०) पटुता, पटुत्व पटुमा पटुवा - संज्ञा, पु० दे० (सं० पाट ) पटसन ( प्रान्ती०) जूट, लटियासन, करेमू । पटुका पटुका - संज्ञा, पु० दे० (सं० पट्टिका ) कमर बंद, कमर पेंच ! पटुता - संज्ञा, स्त्री० (सं०) निपुणता, चतु राई, प्रवीणता, दक्षता | संज्ञा, पु० पटुत्व | पटुत्व - संज्ञा, पु० (सं०) निपुणता, चतुराई । पटुली - संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० पट्ट ) चौकी, पीढ़ी, झूले का पटला, तख़्ती । पटूस - संज्ञा, पु० (दे०) पुरुषार्थ, पटुता, चतुरता । पुरुषत्व पटेबाज़ - संज्ञा, पु० दे० ( हि० पटा + बाज़ फा० ) पटा खेलने वाला, पटे से लड़ने वाला, धूर्त्त, व्यभिचारी पटैत । संज्ञा, स्त्री० पटेबाज़ी | पटेर -- संज्ञा, पु० दे० (सं० पटेरक) गोंद पटेर । पटेल- पटेल -- संज्ञा, पु० दे० ( हि० पट्टा Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private and Personal Use Only पट्टिका PEREKONO + ऐल - प्रत्य० ) नम्बरदार, जमींदार, पट्टा देने वाला, गाँव का मुखिया, चौधरी, एक उपाधि (महारा० ) । पटेला - संज्ञा, पु० दे० ( हि० पाटना ) मध्य भाग्य में पटी नाव, हेंगा, सिलपटिया, पटेला प्रा० ) तख़्ता । त्रो० प्रल्पा० पटेली। पटेत - संज्ञा, पु० दे० (हि० पटेबाज़ ) पटेबाज़ | पटेला - संज्ञा, पु० दे० (हि० पटरा ) किवाड़, बंद करने की चौकोर लंबी लकड़ी, व्योंड़ा, तख़्ता । पटोर -- संज्ञा, पु० दे० (सं० पटोल ) परवर, पटोल, रेशमी कपड़ा, पटोल । पटोरी-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० पाट + थोरी - प्रत्य० ) रेशमी धोती या साड़ी । पटोल- संज्ञा, पु० (सं०) परवल, रेशमी कपड़ा. " बासा पटोल त्रिफला " - बै० जी० । पटोलिका - संज्ञा, स्त्री० (सं०) सफेद फूल की तुरई । पटोहिया - संज्ञा, पु० (दे०) उल्लू पत्ती | पटौनी - संज्ञा, स्त्री० (दे०) पटी नाव । पट्ट - संज्ञा, पु० (सं०) पाटा, पीढ़ा, पट्टी, तख़्ती, ताम्रपत्र, शिला, पटिया, पट्टा, ढाल, पगड़ी, दुपट्टा, नगर, चौराहा, राज-सिंहासन, रेशम, पटसन । वि० (सं० ) प्रधान, मुख्य | वि० ( अनु० ) पट । मुद्दा० - पट्ट होना (आँखे ) - नेत्र ज्योति जाना, आँख फूटना। पट्ट पड़ना - चौपट होना । पट्टदेवी - - संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) पटरानी । पट्टन -- संज्ञा, पु० (सं०) शहर, नगर। "मोती लादन पिय गये, धुर पट्टन, गुजरात " - गिर० । पट्टमहिषी - संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) पटरानी । पट्टा - संज्ञा, पु० दे० ( सं० पट्ट ) भूमिका, अधिकार-पत्र जो जमीदार किसान या सामी को देता है । सह० - कवूलियत । कुत्तों के गले की बद्धी, पीढ़ा, जुल्फें, चपरास, कमर बंद, एक तलवार । पट्टिका - संज्ञा, स्त्री० कपड़े की छोटी पट्टी, (सं०) छोटी तख़्ती, पत्थर की पटिया । Page #1070 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पट्टी १०५१ पठमान पट्टी-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० पट्टिका) तख्ती, | पठवना-स० क्रि० दे० (सं० प्रस्थान ) पाटी, सबक, पाठ, शिक्षा, उपदेश, बहकावा, भेजना, पठापना (दे०)। भुलावा, पलंग की पाटी, सन का कपड़ा, पठधाना- स० कि० दे० (हि. पठाना का कपड़े की कनारी या कोर, एक मिठाई, प्रे० रूप ) भेजवाना, पठाना। वि० पठटाँगों में लपटने का कपड़ा, कतार, पाँति, | चैया, पठेया। पंक्ति, सिर के बालों की पटिया, भाग, पठान-संज्ञा, पु० दे० (पश्तो० पुख्ताना ) हिस्सा, पत्ती, नेग । मुहा०-- पट्टी पढ़ना मुसलमानों की एक जाति, अफगान, काबुली। ----भुलावा देना, वहकाना । यो० दम-पट्टी, पठाना-स० क्रि० दे० (सं० प्रस्थान) झांसा पट्टी। भेजना, पठावना । पट्टीदार-संज्ञा, पु० दे० (हि. पट्टी+ पठानी-संज्ञा, स्त्री० दे० ( हि० पठान ) फा० दार ) अधिकारी, हिस्सेदार, दायभागी पठानिन (दे०) पठान की स्त्री, पठान की पट्टीदारी- संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. पट्टीदार ) भाषा, शूरता, क्रूरता, पठानों के गुण, बहुत से भाग या हिस्से होना, पट्टीदार पठानपन । वि० पठानों का।। होने का भाव । महा०--पट्टीदारी करना- पठानीलोध-संज्ञा, पु० दे० यौ० (सं० बराबरी करना । साझे का धन, भाई-चारा। पट्टिका लोध्र) एक जंगली पेड़ जिसकी पटू--संज्ञा, पु० दे० (हि० पट्टी या सं० | लकड़ी और फूल औषधि के काम आते हैं। पटु) पट्टी की शकल का एक ऊनी कपड़ा, पठार-संज्ञा, पु० (दे०) पर्वतीय मैदान, घासतोता, सुग्गा, सुश्रा, पटुया (ग्रा०)। वाली पहाड़ी भूमि (भू०)। मुहा०-पढ़े पढ़ाये पट्ट-स्वतः अनुभवी पठावना-संज्ञा, पु० दे० (हि० पठाना ) और चालाक । पट्ट सा पढ़ाना -.खूब । दूत, पठौना। सिखाना। पठावनि, पठावनी, पठौनी--संज्ञा, स्त्री० पट्टमान-वि० दे० (सं० पठ्यमान)पढ़ने-योग्य। दे० (हि० पठाना) किसी को कुछ पहुँचाने पट्टा-संज्ञा, पु० दे० (सं० पुष्ट, प्रा० पुट) को भेजना, भेजी वस्तु या मज़दूरी, कन्या तरुण, जवान, पाठा (प्रा.), पहलवान, के घर से वर के यहाँ भेजी वस्तु (रीति)। कुश्तीबाज, लड़ाका, मोटी नसें, पटा । स्त्री "ख्वैहौं ना पठावनी कहै हौं ना हँसाइ कै" पट्टी, पठिया । मोटा पत्ता, जैसे घीकार का । पहा । मुहा०-पट्टा चढ़ना--एक नस पठित-वि० (सं०) पढ़ा हुआ ग्रंथ, पढ़ाका तन कर दूसरी पर चढ़ जाना, चौड़ा लिस्त्रा पुरुष, शिक्षित । गोटा, कमर और जाँघ का जोड़। पठिया-संज्ञा, स्त्री० दे० ( हि० पाठ ---इया पट्टी-संज्ञा, स्त्री० दे. (हि. पठ्ठा) पठिया -प्रत्य० ) जवान, युवा और तगड़ी स्त्री। (ग्रा०) तरुण, युवती, सृष्टा । पट्टी (दे०)। पठन-संज्ञा, पु० (सं०) पढ़ना । यौ० पठन-पठौना-स. क्रि० दे० (हि० पठाना) पाठन-पढ़ना-पढ़ाना। भेजना, पठाना। पठनीय -वि० (सं०) पढ़ने के योग्य । वि० पठौनी/-... संज्ञा, खो० दे० (हि. पठाना) पठित। पठावनी, पठउनी (ग्रा०)। पठनेटा-संज्ञा, पु० दे० (हि. पठान-+ एटा | पठमान-वि० (सं०) पढ़े जाने के योग्य, =बेटा-प्रत्य०) पठान का लड़का (भूष०)। सुपाठ्य । For Private and Personal Use Only Page #1071 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org पड़ती पड़ती पड़ती- पड़ती--संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० पटच्छदि) दीवालों को बरसात से रक्षित रखने वाला छोटा छप्पर, कमरे आदि के बीच की पाटन, टांड़, परकृती (ग्रा० ) । पड़त पड़ता - संज्ञा, पु० स्त्री० दे० ( हि० पड़ना ) किसी वस्तु का क्रय- मोल, लागत । मुहा०-- पड़ता खाना या पड़ना-लागत और चाहा हुआ लाभ मिल जाना, पड़ते से लागत से व्यय और लाभ दोनों मिलजाने पर । पड़ता फैलना या बैठाना -- कुल व्यय और लाभ मिलाकर किसी वस्तु का भाव निश्चित करना । दर, भाव, लगान की दर, सामान्य दर, औसत, मध्यराशि | १०६० पड़ताल - परताल, परतार--संज्ञा, स्त्री० दे० ( सं० परितोलन ) पड़तालना क्रिया का भाव, छानबीन जाँच, अनुसंधान, निरीक्षण, वीक्षण, खेतों की जाँच । यौ० जाँच 6 i । पड़ताल । पातक अपार परतार पार पावैगी " - रत्ना० । •--- पड़तालना -- स० क्रि० दे० ( हि० पड़ताल + ना - प्रत्य० ) पड़ताल करना, देख-भाल या जाँच करना परतारना (ग्रा० ) । पड़ती -- संज्ञा, त्रो० दे० ( हि० पड़ना ) वह भूमि खंड जहाँ कुछ दिनों से खेती न की जाती हो, परती ( ग्रा० ) । मुहा०पड़ती उठना-पड़ती का जोता-बोया जाना या उसमें खेती होना पड़ती कोड़ना - बिना जोते- बोये या बिना खेती के छोड़ना जिससे उपज-शक्ति अधिक हो जावे । पड़ती पड़ना - ठीक समय पर भूमि को जोत-वो न सकने से उसे छोड़ रखना । पड़ना - ० क्रि० दे० ( सं० पतन ) गिरना, लेटना, ऊँचे से नीचे आना, पतित होना, दुख में फँस जाना, बीमार होना, परना ( ग्रा० ) । मुहा० - किसी पर पड़ना - पड़ोस थात या विपत्ति पड़ना, कठिनाई या संकट आ जाना, बिछाया या फैलाया जाना, पहुँचाया जाना या पहुँचना, प्रविष्ट या दाखिल होना, दखल देना या हस्ताक्षेप करना, टिकना या ठहरना । मुहा॰—पड़ा होना ( रहना) - एक ही ठौर ठहरा रहना या बना रहना, रखा रहना, शेष रहना, विश्रामार्थ लेटना, साना या याराम करना । म्हा० ( पड़ा) पड़े रहना - कुछ कार्य किये बिना लेटे रहना, बेकाम रहना, रोगी या बीमार होना, चारपाई पर पड़े रहना, प्राप्त होना, मिलना पड़ता खाना, राह में मिलना, उत्पन्न होना, टहरना, इच्छा या धुन होना। मुहा० क्या पड़ी है क्या प्रयोजन है । पड़पड़ाना- - य० क्रि० दे० (अनु० ) पड़ पड़ का शब्द होना, चरपराना, तड़पना । पड़पोता - संज्ञा, पु० दे० (सं० प्रपौत्र ) पुत्र का पोता, पोते का लड़का । स्त्री० पड़पोती, प्रपौत्री । योंहीं - पड़दादा, पड़बाबा, पड़दादी । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पड़वा - संज्ञा, त्रो० दे० (सं० प्रतिपदा, प्रा० पाव) हर एक पाख का पहिला दिन | परीवा । भैंस का बच्चा, डाँगर ( ग्रा० ) । पड़ाक -- संज्ञा, पु० दे० (अनु० ) पटाक | पड़ाना - स० क्रि० दे० (हि० पड़ना का रूप ० ) गिराना, झुकाना, रोग से शय्या-मग्न होना । पड़ाव संज्ञा, पु० दे० ( हि० पड़ना + - श्राव - प्रत्य० ) यात्रियों के ठहरने या टिकने की जगह । पड़िया - संज्ञा, त्रो० दे० ( हि० पँडवा, पड़वा ) भैंस का मादा बच्चा । पुं० विलो० पड़वा । पड़िया --- संज्ञा, पु० दे० ( हि० पड़वा ) पड़वा, परीवा (ग्रा० ) । पड़ांस संज्ञा, पु० दे० (सं० प्रतिबास, प्रतिवेश ) किसी पुरुष के घर के निकट के घर, For Private and Personal Use Only Page #1072 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मसन पड़ोसी-परोसी पतंचिका परोस (ग्रा.) "आपति परे, परोस बसि" पणव-संज्ञा, पु० (सं०) छोटा नगाड़ा, ढोल, वृं०। यौ०-पास-पड़ोस-निकट के | एक छंद (पिं०)। "पणवानक गोमुखाः" घर । मुहा०-पड़ोस करना--समीप -भाग० । बसना। पणित-वि० (सं०) बेचा गया हुआ, पड़ोसी-परोसी-संज्ञा, पु० दे० (हि. विक्रीत, शर्त या स्तुति किया हुश्रा, स्तुत । पड़ोस-+ई-प्रत्य० ) पड़ोस में या अपने पणाशी-वि. (सं०) नाशक, विनाशक, घर के समीप के घर में रहने वाला, प्रति प्रनाशी । " हौं जबहीं जब पूजन जात वासी । स्त्री० परोसिन, पड़ोसिन "प्यारी पिता-पद पावन पाप-पणाशी".. राम । पदमाकर परोसिन हमारी तुम"। पण्य-वि० (सं०) क्रय-विक्रय योग्य, ख़रीदने पढ़त--संज्ञा, स्त्री० दे० (हि० पढ़ना + अन्त या बेंचने लायक, स्तुति या प्रशंसा के योग्य। -प्रत्य०) क्रिया का भाव, सदा पढ़ना, मंत्र। संज्ञा, पु० माल, सौदा, व्यापार, बाज़ार, पढ़ता--वि० दे० (हि० पढ़ना) पढ़ने वाला। दुकान, व्यवहार की वस्तु । पढ़ना-स० कि० दे० (सं० पठन ) बाँचना पण्यभूमि-संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) गोदाम, उच्चारण करना, याद होने के लिये बारम्बार कोठी, गोला, सौदा या माल जमा करने कहना, रटना, तोते का शब्द बोलना, मंत्र का स्थान, पराय-स्थान । या विद्या पढ़ना, अध्ययन करना, शिक्षा परायवीथी--सज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) हाट, पाना या लेना । यौ० --पढ़ना-लिखना बाजार, दूकान, चौक, बाज़ार-गली । -शिक्षा पाना । यो० पढ़ना पढ़ाना । पण्यशाला-संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) दुकान, पढ़ा लिखा- शिक्षित । बाज़ार, हाट, वेश्या, वरांगना । पढ़वाना-स० कि० दे० ( हि० पढ़ना का पतंग-संज्ञा, पु० (सं०) पक्षी, सूर्य, पतिंगा, प्रे० रूप.) किसी से किसी को शिक्षा टीड़ी, पाँखी, गुड्डी, चंग, उड़ने वाले कीड़े। दिलाना या पढ़ने में लगवाना, सिखवाना, जड़धन, नाव, गेंद । संज्ञा, पु० दे० (सं० बँचवाना। पवह ) एक पेड़ जिसकी लकड़ी से बढ़िया पढ़ाई--- संज्ञा, स्त्री० द. ( हि० पढ़ना । पाई लाल रंग बनता है। " सुनहु भानुकुल. -प्रत्य०)विद्याभ्यास, पढ़ने का भाव, कमल-पतंगा'- रामा० । अध्ययन, पठन । संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. पतंगज-संज्ञा, पु० (सं०) यम, कर्ण, सुग्रीव । पठाना-आई ) अध्ययन, पाठन, पदौनी, स्त्री० पतंगजा-यमुना। अध्ययन-शैली। पतंगबाज-संज्ञा, पु० दे० (हि. पतंग-+ पढ़ाना--स० क्रि० द० (हि० पढ़ना ) अध्या. पन करना, शिक्षा देना, तोते को मनुष्य फा० बाज़ ) पतंग उड़ाने की लत वाला। पतंगबाजी - संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. पतंग भाषा सिखाना, समझाना । पढ़िन-पढिना--संज्ञा, पु० दे० (सं० पाठीन ) वाज) पतंग उड़ाने की कला या हुनर, काम । एक बड़ी मछली, पहिना ( ग्रा० )। पतंगसुत-- संज्ञा, पु. यौ० (सं०) अश्विनीपण-संज्ञा, पु. (सं०) प्रतिज्ञा, शर्त, होड़, कुमार, यम, कर्ण, सुग्रीव ।। व्यवहार, लेनदेन का व्यापार, वेतन, मूल्य, पतंगा-संज्ञा, पु० दे० (सं० पतंग ) एक व्यवसाय, स्तुति, प्रशंसा, ताँबे का प्राचीन कीड़ा, चिनगारी, पतिंगा (दे०)। सिक्का प्रन (दे०)। "अहः तात पणस्तव पतंचिका- संज्ञा, स्त्री० (सं०) धनुष की ताँत दारुणः"-हनु०। __ या डोरी, प्रत्यंचा। For Private and Personal Use Only Page #1073 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org पतंजलि पतंजलि -संज्ञा, पु० (सं०) योगदर्शन और पाणिनि - कृत अष्टाध्यायी के महाभाष्य के रचयिता एक महर्षि पतळ -- संज्ञा, पु० दे० ( सं० पति ) पति, स्वामी, मालिक | संज्ञा, खो० दे० (सं० प्रतिष्ठा ) लज्जा, कानि, प्रतिष्ठा, मर्यादा | यौ० -- पतपानी --- लज्जा, आबरू मुहा० - पत उतारना या लेना- अपमान करना । पत रखना- इज्जत बचाना। पतझड़ पतझर -- संज्ञा, स्त्रो० दे० यौ० ( हि० पत - पत्ता + झड़ना) वह ऋतु जिसमें पेड़ों की पत्तियाँ झड़ जाती हैं। शिशिर ऋतु, अवनति का समय ! १०६२ पतझाड़- पतकारां - संज्ञा, स्त्री० दे० यौ० ( हि० पतझड़ ) पत्ते गिरना, पतझड़, पतभर, शिशिर ऋतु जब वृत्तों के पत्ते झड़ जाते हैं। " होत पतकार भार तरुनि समूहनि कौ" - ऊ० श० । पततप्रकर्ष – संज्ञा, पु० यौ० (सं०) दश प्रकार का रस दोष ( काव्य ) | पतन - संज्ञा, पु० (सं० ) गिरना, डूबना, अवनति, अधोगति, तबाही, नाश, मृत्यु, पाप, जाति- बहिष्कार, उड़ान । पतनशील - वि० (सं०) गिरने के स्वभाव वाला, गिरने वाला, पतनोन्मुख । पतनीय -- वि० (सं०) गिरने - योग्य । पतनोन्मुख - वि० यौ० (सं०) जो गिरने की घोर लगा ( प्रवृत्त) हो, जिसका विनाश, अधोगति या अवनति निकट आ रही हो । पत-पानी -संज्ञा, पु० दे० यौ० (हि०) मानमर्यादा, प्रतिष्ठा, लज्जा । पतरां - वि० दे० (सं० पत्र ) पतला, दुर्बल, कृश, पत्ता, पत्तल । पतरा-पतला - वि० दे० (सं० पात्रट) दुबला, कृश, भीना, महीन, बारीक, अधिक द्रव या तरल, असमर्थ, पातर पातरो, पतरों, ( ब० ) । स्त्री० पतरी, पतली । मुहा० Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पताई DESPREY WEST NE पतला पड़ना -- बुरी दशा में फँस जाना, पतला हाल - कष्ट और दुख की दशा, बुरा हाल | पतरी - पातरि - वि० दुबली | संज्ञा, स्त्री० थाली सा पात्र । 66 दे० ( हि० पतली ) (दे०) पत्तों से बना जूठी पातरि खात हैं " - प्र० रा० । पतलाई - पतराई -संज्ञा स्त्री० दे० ( हि० पतला ) दुबलाई, कृशता । पतलापन - संज्ञा, पु० ( हि०) दुबला होने का भाव, दुर्बलता, दुबलाई, कृशता, बारीकी! पतलाना - पतराना -- स० क्रि० दे० ( हि० पताका ) पतला करना । पतलून - संज्ञा, पु० दे० (अ० पेंटलून) अंग्रेज़ी पायजामा । पतलो - संज्ञा, पु० दे० (हि० पतला ) सरपत, साँकड़ा । वि० (दे०) पतला, पतरो । For Private and Personal Use Only पतरां - क्रि० वि० दे० यौ० ( सं० पंक्ति ) पंगति के क्रम से, पंक्ति के अनुसार, पाँति वार, बराबर बराबर । पतवार -पतवारी - संज्ञा, स्त्रो० दे० (सं० पात्रपाल ) नाव के पीछे रहने वाला डाँड़ जिससे नाव घुमाई जाती है, करिया, कन्हर, (दे० ) कर्ण (सं० ) । पता -- संज्ञा, पु० ( फा० ) ठिकाना, खोज, पत्र पर लिखा नाम, ठिकाना, परिचय । यौ० - पता ठिकाना- किसी चीज़ का परिचय या उसका ठीक ठीक स्थान, अनुसंधान, टोह, सुराग, खोज, ज्ञान, जैसे- - मुहा०क्या पता - न मालूम। यौ० - पता निशान - नाम निशान, भेद, रहस्य, गूढ़ तत्व या मर्म, ख़बर । मुहा०-पते की या पते की बात - रहस्य या भेदसूचक, मर्म या खोलने वाली बात, ठीक, सत्य या उपयुक्त बात । पताई - संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० पत्र ) पतियों का ढेर, सूखी गिरी पत्तियाँ । Page #1074 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पताका २०६३ पतिवती पताका-संज्ञा, स्त्री० (सं०) झंडा, फरहरा । | पतिवार-पतियार--संज्ञा, पु० दे० (हि. मुहा०—किसी स्थान में (पर) पताका पतिमाना, पतियाना) साख, एतवार, विश्वास। उड़ाना-अधिकार या राज्य होना, सर्व । पतित-वि० सं० ) गिरा हुआ, आचारप्रधान या श्रेष्ठ माना जाना । किसी वस्तु विचार या धर्म से गिरा हुआ, पापी,, जाति की पताका उड़ाना-ख्याति या धूम | या समाज से च्युत, नीच, अधम । स्रो० होना। पताका बाँधना (खड़ा करना)- पतिता। आतंक जमा देना, विजयी होना । पताका | पतित-उधारन* -- वि० दे० यौ० (सं० पतित उड़ाना-अधिकार करना, विजयी होना । +हि० उधारना ) अधमों और नीचों का पताका गिरना-पराजय या हार होना। उद्धार करने या तारने वाला। संज्ञा, पु. विजय की पताका--जीत का झंडा, (हि.) परमेश्वर । पिंगल में छंद-प्रस्तार सम्बन्धी गणित की पतितता--संज्ञा, स्त्री. (सं० ) नीचता, एक क्रिया। अधमता। पताका-स्थान-संज्ञा, पु. यौ० (सं०) झंडा पतित-पावन-वि० यौ० (सं०) नीचों या की जगह, नाटकीय एक संधि ।। अधमों का पवित्र करने वाला । संज्ञा, पु. पताकिनी--संज्ञा, स्त्री० (सं०) सेना, नौज। परमेश्वर । " हरि हम पतित पावन सुने" पतार*1-संज्ञा, पु० दे० (सं० पाताल ) -विनय० । स्त्री० पतित पावनी। पाताल, जंगल, घना वन । लो०-अहिर | पतित्व-संज्ञा, पु० (सं०) प्रभुत्व, स्वामित्व पतारे केवट घाट"। पति होने का भाव । पताल-पत्ताल संज्ञा, पु० दे० (सं० पाताल) पति देवता-पति देवा-संज्ञा, स्त्री. यौ० पाताल । वि० पताली ( सं० पातालीय) (सं०) पतिव्रता । " पतिदेवता सुतियन यौ० सरगपताली-ऐंचाताना। महँ, मातु प्रथम तव रेख "--रामा । पताल-आँवला--संज्ञा, पु० दे० यौ० (सं० । पतिनी* --संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० पनी) पाताल मामलको ) एक औषधि का तुप। स्त्री, पत्नी, नारी। जेहि रज मुनि-पतिनी पताल-कुम्हडा-- संज्ञा, पु० दे० यौ० (सं० । तरी"-रही । “पतिनी पति लै पितु पाताल-कुष्मांड ) एक वन-वृक्ष जिसकी गाठों ऊपर सोई । पति प्रीता (प्रिया )से शकरकंद या कंद होती है। वि० यौ० (सं०) पति-प्रेम वाली। पतिगा-संज्ञा, पु० दे० (सं० पतंग ) पतंग पतिभक्ता-वि. यौ० (सं०) पतिव्रता । पतींगा। " पति-भक्ता न या नारी, ब्यवसायी न यः पतिवरा-वि० स्त्री० यौ० (सं०) स्वयंवरा स्त्री। मी। पुमान्"। पति--संज्ञा, पु० (सं०) स्वामी, अधिपति, पतियारा-संज्ञा, पु० दे० (हि० पतियाना) मालिक, दूल्हा, शिव, परमेश्वर, प्रतिष्ठा, विश्वास, यकीन, एतबार। यौ० (हि.) पति मर्यादा, इज्जत । "पंच पतिहू के पति हूँ __ का मित्र । की पति जायगी"-रत्ना० । स्त्री. विलो. पतिराखन-पतिराखनहार-वि० यौ० पत्नी। (हि०) लज्जा का रक्षक। पतिआना-पतियाना---स० कि० दे० (सं० पतिलोक-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) स्वामी के प्रत्यय + आना-प्रत्य०) पत्याना (७०), रहने का स्वर्ग या वैकुण्ठ ।। भरोसा या विश्वास करना, एतबार करना। पतिवतो-वि० स्त्री. ( सं० ) सधवा, " कहौं सुभाव नाथ पतियाहू"-रामा। सौभाग्यवती। For Private and Personal Use Only Page #1075 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org पतिव्रत पतिव्रत-संज्ञा, पु० (सं० ) स्त्री की अपने स्वामी में अनन्य भक्ति और प्रीति, पातिव्रत्य पतिबरत (दे० ) । पतिव्रता - वि० (सं० ) सती, साध्वी, पतिभक्ता, पतिबरता । जग पतिव्रता चारि विधि हई " - रामा० । 60 पतीजन - पतीजना* ग्र० क्रि० दे० (हि० प्रतीत + ना प्रत्य० ) पतियाना, विश्वास करना । " 'तिन्हें न पतीजै री जे कृतही न माने ". पतीरी - संज्ञा, स्त्रो० (दे० ) एक प्रकार की चटाई। - सूत्रे० । २०६४ पतील | - वि० दे० ( हि० पतला ) पतला, महीन, बारीक । = पतीली - संज्ञा, स्त्री० दे० ( सं० पातिली = i) एक तरह की पतली बटलोई। पतुकी - संज्ञा, खो० (दे०) हाँड़ी । स्त्री० पतुली - संज्ञा, स्त्री० (दे०) एक गहना जो पहुँचे में पहना जाता है 1 पतुरिया, पातुर, पातुरी - संज्ञा, दे० (सं० पातिली ) रंडी, वेश्या ! पतुही -- संज्ञा, स्त्री० (दे०) छोटे मटर की छीमी पतोखा - संज्ञा, पु० दे० ( हिं० पत्ता ) दोना, पत्ते का बर्तन | संज्ञा, पु० (दे०) एक तरह का बगुला । स्त्री० पा० पनोखी । पतोखी-पतौखी-संज्ञा, स्त्री० दे० ( हि० पतोखा ) छोटा दोना, दुनियाँ, छोटा छाता. बारीक कटी सुपाड़ी | पतोह - पतोहू | वधू) लड़के या बेटे की पत्नी, संज्ञा, स्त्री० दे० ( सं० पुत्र पुत्र-वधू । 46 - रामा० । होहिं राम-सिय पुत्र- पतोहू " पतौआ-पतौवा :-- संज्ञा, पु० दे० ( सं० पत्र ) पत्ता, पर्ण । पतन - संज्ञा, पु० (सं०) शहर, नगर । पत्तर – संज्ञा, पु० दे० (सं० पत्र ) किसी धातु की पतली चादर | पत्तल - संज्ञा, स्त्री० दे० ( सं० पत्र ) पतरी । मुहा० - एक पत्तल के खाने वाले पत्थर KHRAGA VARGLASS HRONING आपस में रोटी-बेटी का सम्बन्ध रखने वाले । किसी के पत्तल में खाना- किसी से खानेपीने का सम्बन्ध करना या रखना। जिस पत्तल में बाना उसी में छेद करनाजिससे लाभ हो उसी को हानि पहुँचाना, कृतघ्नता करना | पत्तल में रखी हुई भोजन की चीजें, एक व्यक्ति का पूर्ण भोजन । पत्ता - संज्ञा, पु० दे० (सं० पत्र ) पर्ण, पलाश, पात, पतीचा (ग्रा० ) । स्रो० पत्ती । मुहा०-- पत्ता खड़कना कुछ श्राशङ्का, खटका या संदेह होना । लो० – पत्ता खटका बंदा सटका ।" पत्ता न हिलना -हवा का न चलना, बिलकुल बन्द होना, किसी भी व्यक्ति का कुछ न करना ( होना) । कानों का एक गहना । पत्ति - संज्ञा, पु० (सं० ) पैदल सिपाही, पदाति, प्यादा, शूरवीर, बहादुर, सेना का सबसे छोटा खंड | पत्तिक-संज्ञा, पु० ( सं०) सेना का एक खण्ड, जिसमें घोड़े, हाथी, रथ, पैदल प्रत्येक दश दश हों, ऐसी सेना का नायक । पत्ती-संज्ञा, स्त्री० दे० ( हि० पत्ता + ईप्रत्य० ) छोटा पत्ता, हिस्सा, भाग, साझे का श्रंश, पट्टी, राजपूतों की एक जाति । पत्तीदार - संज्ञा, पु० (हि० पत्ती + फ़ा० दार ) हिस्सेदार, साझी | 55 पत्थ* संज्ञा, पु० दे० (सं० पथ्य ) रोगनाशक पदार्थ, स्वास्थ्यकारी पदार्थ, पथ्य | पत्थर - संज्ञा, पु० दे० ( सं० प्रस्तर ) जमी हुई प्रतिकड़ी मिट्टी पाथर, क्रि० पथराना । " मेरा यारो है पत्थर का कलेजा ' - भा० ह० । वि० पथरीली । मुहा० - पत्थर का कलेजा (दिल या हृदय ) -- जिसमें दया, कोमलता या करुणा न हो । पत्थर की छाती - पक्का या दृढ़ हृदय, पक्का स्वभाव | पत्थर की लकीर - श्रमिट, स्थायी पत्थर चटाना -घिस कर धार निकालना या तेज़ करना । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private and Personal Use Only Page #1076 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पत्थर-कला-पथर-कला पथ-दर्शक-पथ-प्रदर्शक पत्थर तले हाथ आना या दवना- पत्रकार-संज्ञा, पु० (सं०) पत्र लिखने वाला, ऐसे संकट में फँस जाना जिससे छूटने का समाचार-पत्र का सम्पादक । यत्न न दिखाई दे, बुरी तरह से फंसना। पत्रकृच्छ-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) पत्तों का पत्थर तले से हाथ निकालना-संकट कादा पी कर रखा जाने वाला एक व्रत (पु.)। या विपत्ति से छुटकारा पाना । पत्थर पर । पत्रपुष्प-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) फूल-पत्ते, दूब जमना (जमाना )-अनहोनी या ___ छोटा उपहार, छोटा सत्कार । " पत्रं पुष्पं असम्भव बात होना (करना)। पत्थर | फलं तोयं"---गी। पसीजना या पिघलना-निर्दय के मन पत्रभंग-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) सुन्दरता के में दया, कठोर में नम्रता और कंजूस में | हेतु स्त्रियों के मस्तक, कपोलादि पर रची दान की इच्छा होना। पत्थर से सिर | गई रेखायें । फोड़ना या मारना--असंभव के लिये | पत्रवाहक-संज्ञा, पुल्यौ० (सं०) पत्र ले जाने उपाय करना । मील का पत्थर, भोला, वाला हरकारा, चिट्ठीरसा! संज्ञा, पु. यौ० इन्द्रोपल । मुहा०-पत्थर-पडना--नष्ट, ! (सं०) पत्र-वाहन, स्त्री० पत्र-वाहिका। होना, चौपट होना। पत्थर-पानी-आँधी- पत्र-व्यवहार- संज्ञा, पु. यौ० (सं०) लिखापानी और भोलों का आना । रत्न, कुछ नहीं, पढ़ी, खत-किताबत (फा०)। बिलकुल, ख़ाक । पत्रा- संज्ञा, पु. (सं० पत्र ) जंत्री, तिथिपत्र, पत्थरकला-पथरकला-संज्ञा, पु. दे. पत्रा, पृष्ठ, पत्तरा, (दे०)। यौ० पोथी( हि० पत्थर + कल ) चकमक पत्थर नगी पत्रा। " पत्रा ही तिथि पाइये "-वि० । बन्दूक (प्राचीन)। पत्रावली-संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) पत्र-भंग, पत्थर चटा-संज्ञा, पु० दे० (हि. पत्थर-+- पत्रों की पंक्ति या समूह। चाटना ) पथरचटा--एक घास, मछली, पत्रिका-संज्ञा, स्त्री० (सं०) चिट्ठी, छोटा साँप, कंजुस । लेख, छोटा समाचार-पत्र, सामयिक पत्र या पत्थर फूल--संज्ञा, पु० यौ० (हि०) छरोला। पुस्तक । पत्थर फोड़-संज्ञा, पु. यौ० ( हि० ) एक पत्रित-वि० (सं०) जिसमें पत्ते निकल रहे वनस्पति, पथरफोर (ग्रा.)। हो । स्त्री० पत्रिता । पत्नी-संज्ञा, स्त्री. (सं०) विवाहिता स्त्री, पत्री-संज्ञा, स्रो० (सं०) चिट्ठी, खत, छोटा भार्या, बहू, सहधर्मिणी। लेख, पत्रिका । यौ० चिट्ठी-पत्री। वि० पत्नीव्रत- संज्ञा, पु. यौ० (सं०) एक ही (सं० पत्रिन् ) पत्तेदार । संज्ञा, पु. वाण, व्याही स्त्री से प्रेम का नियम । पक्षी, पेड़। पत्य-संज्ञा, पु० (सं०) पति होने का भाव । पथ-संज्ञा, पु. (सं०) रास्ता, राह, मार्ग, पत्याना* ---स० कि० दे० (हि० पतियाना) __ व्यवहारादि की रीति । संज्ञा, पु० दे० (सं० पतियाना, पतियाना। पथ्य ) रोग-नाशक पदार्थ, पथ्य ।। एत्यारा-संज्ञा, पु० दे० (हि. पतियारा) पथगामी-- संज्ञा, पु. (सं० पथगामिन् ) पतियारा, पति का मित्र । बटोही, पथिक, मुसाफ़िर ।। पत्यारी*-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० पंक्ति) पंक्ति। | पथ-दर्शक-पथ-प्रदर्शक-संज्ञा, पु० यौ० पत्र-संज्ञा, पु. (सं०) पत्ता, पत्ती, पर्ण, (सं०) रास्ता दिखलाने वाला, मार्ग बताने लिखा कागज, चिट्ठी, अख्खबार, एक पन्ना, वाला, नेता। संज्ञा, पु० यौ० (सं०) पथपत्रा, चद्दर, पंखा । स्त्री० अल्पा० पत्रिका। दर्शन, पथ-प्रदर्शन । भा० श० को०-१३४ For Private and Personal Use Only Page #1077 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - पथना पदम-पदुम पथना-प्र० क्रि० (दे०) पाथना, कंडे बनाना। चरण), वस्तु, शव, देश, चौथा भाग, चौथाई, स० क्रि० (प्रे० रूप) पथाना, पथवाना। उपाधि, मोक्ष,अधिकार-स्थान, भजन, गीत, पथरकला-संज्ञा, पु० यौ० दे० (हि. पत्थर दान की वस्तुयें, विभक्तियुक्त शब्द (व्या०)। या पथरी+कल ) वह बन्दूक जो चकमक पदक-- संज्ञा, पु० (सं०) किसी देवता के पदपत्थर-द्वारा भाग पैदा करके छोडीजाती थी। चिन्ह, तमग़ा (फा०)। पथरचटा-संज्ञा, पु० दे० ( हि० पत्थर+ पदक्रम-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) पग, डग । चाटना) पाषाण या पाखानभेद नामी दवा। पदग-- संज्ञा, पु. (सं०) पैदल, पियादा, पैदल पथराना-पथरियाना-अ० क्रि० दे० ( हि.. चलने वाला। पत्थर + आना-प्रत्य०) पत्थर के समान पदचतुरई-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) विषम कड़ा होना, नीरस, कठोर या कड़ाहो जाना, वृत्तों का एक भेद (पिं०)। स्तब्ध हो जाना, निर्जीव हो जाना। पदचर---संज्ञा, पु. (सं०) पैदल, पियादा, पथरी-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. पत्थर-+-ई- प्यादा, पदाति। प्रत्य० ) कटोरानुमा पत्थर का बरतन, मूत्रा- पदच्छेद - संज्ञा, पु. (सं०) व्याकरणानुसार शय का एक रोग, चकमक पत्थर, सिल्ली, किसी वाक्य के पदों को अलग अलग करना। कुरंड पत्थर जिससे सान बनती है, पत्थर पदच्युत-वि• यौ० (सं०) पद या अधिकार की ।डी। से भ्रष्ट या हटाया हुआ। पथरीला-वि. पु. दे० (हि. पत्थर+ पदज-संज्ञा, पु० (सं०) पाँव की अँगुलियाँ। ईला-प्रत्य० ) पत्थर-युक्त, पत्थर-मिलित । पदतल-संज्ञा, पु. यौ० (सं०) पैर का तलवा। स्त्री० पथरीली। पदत्राण-- संज्ञा, पु. यौ० (सं०) जूता, जूती। पथरौटी-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. पत्थर- पददलित-वि० यौ० (सं०) पाँवों से रौंदा मौटी-प्रत्य०) पत्थर की 1 डी, पथरी। हुधा, अपमानित, दबा कर निर्बल किया गया। पथिक-संज्ञा, पु० ( सं० ) बटोही, राही, पदना - संज्ञा, पु० दे० ( सं० पर्दन ) अधिक यात्री, मार्ग चलने वाला। पादने वाला, डरपोंक। अ. क्रि० (दे०) पथिबाहक-संज्ञा, पु. यौ० ( सं०) कहार, श्रमित होना, तंग होना । मज़दूर। पदनी--संज्ञा, स्त्री० दे० ( हि० पदना ) दुरापथी-संज्ञा, पु० (सं० पथिन्) बटोही, यात्री। चारिणी, व्यभिचारिणी। पथु*--संज्ञा, पु० दे० (सं० पथ ) रास्ता, | पदन्यास--संज्ञा, पु. यौ० (सं० ) चलना, राह, मार्ग। चलन, पदों का व्यवस्थित करना, पदपथैया-वि० दे० (हि. पाथना) पाथने वाला, विन्यास ( काव्य । पथवैया । पदयटी-संज्ञा, स्त्री० (दे०) एक प्रकार कानाच। पथ्य---संज्ञा, पु. ( सं० ) रोगी के अनुकूल पदपत्र-वि० यौ० (सं०) पुहकरमूल भोजन, उपयुक्त आहार । “पथ्यमिच्छतः" (औष०), कमल का पत्र, अधिकार-पत्र । - रघु०। मुहा०-पथ्य से रहना- पदयीठ-संज्ञा, पु. यौ० (सं०) खड़ाऊँ, संयम से रहना। हित, कल्यान, मंगल, सत्य । __ जूता, पाद-पीठ--पैर रखने की चौकी। पथ्या --संज्ञा, स्त्री०(सं०) हर, हरड़, हड़, एक पदम-पदुम -- संज्ञा, पु० दे० (सं० पद्य० ) छंद (पि०)। कमल । “बन्दी गुरु-पद-पदुम-परागा' पद-संज्ञा, पु० (सं०) रोज़गार, उद्यम, रक्षा, -रामा० । संज्ञा, पु० दे० ( पद्मकाष्ठ ) बचाव, दर्जा, पाँव, चरण देह, छंद का एक पद्माख, पद्माक | For Private and Personal Use Only Page #1078 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पदमक २०६७ पद्मद पदमक-संज्ञा, पु० (दे०) पद्माक (सं०) | का अर्थ, तात्पर्य या प्रयोजन, नौ या सात पदमाख औषधि । पदार्थ ५ तत्व, काल, दिक्, श्रारमा, मन, पदमैत्री-संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) अनुप्रास, "पृथ्व्यप् तेजो वाय्वाकाश कालदिगारममनां( काव्य )। सिनवैच-(वैशे०), वस्तु, चीज़, चारि पदयोजना-संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) कविता पदार्थ, अर्थ, धर्म, काम, मोक्ष। के हेतु पदों को जोड़ना, पद-व्यवस्था। पदाथेवाद-संज्ञा, पु. यौ० (सं०) वह मत परिपु- संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) काँटा। जिसमें प्रात्मा को छोड़ कर केवल भौतिक पदवी- संज्ञा, स्त्री. (सं.) उपाधि, अल्ल, पदार्थो ही को सृष्टि-कर्ता माना है। मार्ग, रास्ता। ‘पदवीलहत श्रतोल"-वृ० प्रकृतिवाद, तत्ववाद, वि० पदार्थवादी। पदवृत्त--संज्ञा, पु. यौ० (सं०) मिलित या पदार्थ-विज्ञान--संज्ञा, पु. यौ० (सं० ) युक्त शब्द । विज्ञान शास्त्र, चीज़ों की विद्या, तत्व-विद्या। पद-विग्रह-- संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं० ) समा- पदार्थविद्या-संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) विज्ञानसिक पदों का पृथकरण (च्या०)। शास्त्र. तत्वज्ञान । पद-व्याख्या-संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं० ) पदों पदार्पण-संज्ञा, पु. यौ० (सं०) किसी जगह शब्दों) का व्याकरणानुकूल परिचय। जाना या पाना। पद-सेवा- संज्ञा, खी० यौ० सं०) पैर दाबना। पदावली--संज्ञा, स्त्री. (सं०) वाक्य-श्रेणी, पदस्थ-वि० (सं०) पदारूढ़, पदपर वर्त्तमान, भजन-संग्रह, पदों की पंक्ति, पद-माला। पदस्थित। पदासन-वि० यौ० (सं०) पादपीठ, पीढ़ा, पदांक-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) पाँव का चिन्ह काष्टासन, पैर रखने की चौकी। पद-लांछन । पदिक- संज्ञा, पु० (सं०) पैदल फौज । पदानुसरण (करना)----संज्ञा, पु० यौ० (सं०) *-संज्ञा, पु० दे० (सं० पदक ) जुगुनू पीछे पीछे चलना, अनुयायी बनना, अनु- नामक गहना, हार की चौकी, हीरा । करण करना। यो०-पदिकहार-रत्नहार, मणिमाला। पदाघात-संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) पाँव से | पदी* --संज्ञा, पु० दे० ( सं० पद ) पियादामारना। पैदल । वि० (सं०) पदवाली,जैसे षटपदी । पदाति-पदातिक-संज्ञा, पु० (सं०) प्यादा, पद्धटिका-संज्ञा, स्त्री० (सं०) १६ मात्राओं पियादा, पयादा, पैदल. दास, सेवक । यौ० का एक छन्द, पज्झटिका, पद्धरि (पिं०)। पदाति-सैन्य-पैदली-सेना। पद्धति-संज्ञा, स्त्री० (सं०) मार्ग, परिपाटी, पदाधिकारी-संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) रीति, रस्म, कर्मकाण्ड की पुस्तक, विधि, उहदेदार। विधान, प्रणाली। पदाना-स० क्रि० दे० (हि. पादना का | पद्धरी-संज्ञा, स्त्री० (सं०) १६ मात्राओं का प्रे० रूप) बहुत तंग या दिक करना, दौड़ाना। एक छन्द, पद्धटिका (पिं० )। पदाम्भोज-संज्ञा, पु. यौ० (सं०) पदाम्बुज पद्म-संज्ञा, पु० (सं०) कमल, जलज, पङ्कज, चरण-कमल। विष्णु का एक अस्त्र, एक निधि, देह पर के पदारबिंद-संज्ञा, पु. यौ० (सं० ) चरण- सफेद दाग़, पद्माख पेड़, एक नरक, एक कमल । “राम-पदारविन्द अनुरागी" पुराण, एक छन्द (पिं०) एक संख्या । ---रामा० । पद्मकंद--संज्ञा, पु. (सं०) कमल की जड़, पदार्थ---संज्ञा, पु० (सं०) पदारथ (दे०) पद भसीडा, भिस्सा. मुरार । For Private and Personal Use Only Page #1079 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - - पद्माकाष्ट पनकपड़ा पद्मकाष्ठ-संज्ञा, पु. (सं०) पद्माख । पद्माख, पद्माक-संज्ञा, पु० दे० (सं० पद्मक) पद्मगर्भ-संज्ञा, पु. (सं०) ब्रह्मा। एक औषधि । पद्मजन्मा-संज्ञा, पु. (सं०) ब्रह्मा, | पद्मालय-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) ब्रह्मा, पद्म नालीकजन्मा। का स्थान। पद्मतंतु-संज्ञा, पु. ( सं०) कमल दंडी, पद्मालया-संज्ञा, स्त्री० (सं०) लघमी जी। मृणालें । पद्मावती-संज्ञा, स्त्री० (सं०) लघमी। "पद्मापद्मक ---संज्ञा, पु० (सं०) पदमाक (औष०), वती-चरण चारण-चक्रवर्ती 'गीत गो० । "लोहितचन्दन, पद्मक, धान्या"-वै० जी। चित्तौड़ की रानी, पटना, पन्ना, उज्जयिनी पद्मनाभ-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) विष्णु भग- (प्राचीन नगरों के नाम)। वान । 'पद्मनाभं सुरेशम्" । पद्मासन-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) योग की पद्मनेत्र--संज्ञा, पु. यौ० (सं०) विष्णु । एक बैठक, ब्रह्मा, शिव । पद्मपत्र-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) पोहकरमूल, | पद्मिनी--संज्ञा, स्त्री० (सं०) कमलिनी, छोटा कमल-दल । कमल, चित्तौड़ की रानी, लक्ष्मी, उत्तम पद्मपलाश-लोचन-संज्ञा, पु. यौ० (सं०) | स्त्री । यौ०-पद्मिनी-वल्लभ---सूर्थ, श्री कृष्ण, विष्णु । कमल-युक्त झील या सरोवर । पद्मपाणि-संज्ञा, पु. यौ० (सं०) ब्रह्मा, बुद्ध | पद्य-वि० (सं०) जिसका सम्बन्ध पैरों से हो, की एक मूर्ति, सूर्य ।। जिसमें कविता के पद हों। संज्ञा, स्त्री० पद्म-बंध-संज्ञा, पु. यौ० (सं०) एक प्रकार पद्यवत्ता । संज्ञा, पु. (सं०) कविता, काव्य, का चित्र काव्य । छन्दमयी कविता। (विलो. गद्य, गद्यपद्मयोनि-संज्ञा, पु. यौ० (सं०) ब्रह्मा जी। काव्य) । पद्मराग-संज्ञा, पु. (सं०) माणिक, लाल । पद्यात्मक-वि० (सं०) जो छन्दोबद्ध हो । "पद्मराग के फूल"-रामा। पधारना-अ. क्रि० दे० (हि. पधारना) पद्मरेखा-संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) हाथ की श्रागमन, धाना। एक रेखा (सामु०)। पधराना-स० क्रि० दे० (सं० प्रधारण) श्रादर पद्मलांछन-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) सूर्य, से ले जाना, भली-भाँति बैठाना, स्थापित राजा, कुबेर, प्रजापति। करना । ( प्रे० रूप ) पधरावना । पधरावनी-संज्ञा, स्त्री० दे० ( हि० पधरना) पद्मलोचन-वि० यौ० (सं०) कमल-नेत्र । किसी देवता की मूर्ति की स्थापना, किसी पास्नुषा-संज्ञा, स्त्री. (सं०) लक्ष्मी, को श्रादर के साथ बैठाने का कार्य । दुर्गा, गंगा। पन-संज्ञा, पु० दे० (सं० पण ) प्रतिज्ञा, पद्मबीज--- संज्ञा, पु० यौ० (सं०) कमलगट्टा । प्रण, संकल्प, विचार । संज्ञा, पु० दे० (सं० पद्मव्यूह-संज्ञा, पु. यो० (सं०) सेना के पर्वन् = विशेष दशा ) जीवन के चार भागों में लड़ाई में खड़ा करने का एक ढंग । से प्रत्येक । "बीति गये पन ऐसे ही है"पद्मा-संज्ञा, स्त्री० (सं०) लघमी, भादों शुदी | नरो । प्रत्य० (हि.) भाववाचक संज्ञा के एकादशी। बनाने का प्रत्यय, जैसे पागल से पागलपन । पद्माकर-संज्ञा, पु० (सं०) बड़ा ताल या पनकपड़ा-संज्ञा, पु० दे० यौ० ( हि० पानी झील जहाँ कमल हों, हिन्दी का एक प्रसिद्ध +कपड़ा ) पानी से तर वह कपड़ा जो चोट कवि। । पर बहुधा बाँधा जाता है। For Private and Personal Use Only Page #1080 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पनकाल २०६३ पनहा पनकाल-संज्ञा, पु० दे० (हि० पानो+ | पनघ-संज्ञा, पु० दे० (सं० प्रणव ) प्रणव, काल ) अति वर्षा के कारण पड़ा हुआ ओ३म् शब्द । दुर्भिक्ष, अकाल । पनवाड़ी-संज्ञा, पु० दे० (हि० पान+बाड़ी) पनगोटी-संज्ञा, स्त्री० (दे०) बनी बसन्त, पान का बाग, पान की बारी, पानों का चेचक का एक भेद। खेत, तमोली, पान बेचने वाला। पनघट--संज्ञा, पु० दे० यौ० (हि० पानी+ पनवार-पनवारा--- संज्ञा, पु० दे० (हि. पान घाट) वह घाट जहाँ से लोग पीने के लिये -वार-प्रत्य० ) पत्तल, पतरी। पानी भरते हों। पनशल्ला-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. पानी+ पनच-संज्ञा, स्त्री० (सं० प्रतंचिका) प्रत्यंचा, शाला ) पौसला, पियाऊ, प्याऊ, पयधनुष की ताँत या डोरी।। शाला (सं०)। पनचक्की-संज्ञा, स्त्री० दे० यौ० (हि० पानी पनस-संज्ञा, पु. (सं०) कटहल | +चकी ) पानी के बल से चलने वाली पनसा-वि० दे० (हि. पानी+सा = समान) चक्की । “नहर पर चल रही थी पनचक्की"। पानी का सा, पानी जैसा स्वाद, फीका । पनछुटा-वि० ( दे० यौ० पानी+छूटना ) | पनसाखा-संज्ञा, पु० दे० (हि. पाँच+ जिससे पानी छूटता या निकलता हो। शाखा ) एक मशाल जिसमें पाँच या तीन पनडब्बा -संज्ञा, पु. यौ० दे० हि० पान+। फलीते साथ जलते हैं। मुहा०--पनसाखा डब्बा) पान रखने का डब्बा । बढ़ाना (हटाना)--मंझट या झगड़ा पनडुब्बा-संज्ञा, पु० दे० यौ० (हि. पानी मिटाना, वादविवाद बन्द करना, झगड़ा +डूबना ) दुबकिहारा, पानी में डुबकी टालना या हटाना, दूर होना। लगाने वाला, एक नाव (अाधु०) गोताखोर, | पनसारी-संज्ञा, पु० दे० (सं० पण्यशाली) पानी में डुबकी लगा मछलियाँ पकड़ने | किराना, मेवा, औषध बेचने वाला दुकानदार। वाला पक्षी। पनसाल-संज्ञा, स्त्री० दे० यौ० (हि. पानी पनडुब्बी-- संज्ञा, स्त्री० दे० ( हि० पनडुब्बा ) ___+ शाला ) पौसर, पंसरा, पियाऊ, प्याऊ । एक पक्षी, एक नाव जो पानी में डूबी हुई । संज्ञा, स्त्री० (दे०) पानी की गहराई जाचने चलती है सबमेरीन (५०)। का उपकरण । पनपना-अ० क्रि० दे० (सं० पर्णय = हरा | पनसुइया-पनसोई-संज्ञा, स्त्री० दे० यौ० होना ) पानी पाने से हरा-भरा हो नाना, (हि. पानी-+-सूई ) एक तरह की छोटी तन्दुरुस्त हो जाना, अच्छी दशा में माना। नाव, डोंगी। पनपनाहट-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. पनपनाना) | पनसेरी-संजा. स्त्री. द. यौ० (हिपाँच-1. सनसनाहट, ज़ोर से हवा चलने का शब्द । सेर) पंसेरी, पाँच सेर का बाट, पसेरी पनबट्टा-संज्ञा, पु० दे० (हि. पान + बट्टा (ग्रा.)। = डिब्बा ) पानदान, पान रखने का डिब्बा, | पनहरा—संज्ञा, पु० दे० (हि. पानी- हारा पनडब्बा। -~~-प्रत्य० ) पनभरा, कहार । पनबसना-संज्ञा, पु. यौ० दे० (हि. पान TET--संज्ञा. प० दे० (सं० परिण किती -|-बसन ) पान रखने का कपड़ा। वस्तु की चौड़ाई गूदाशय, गूढ़ तात्पर्य, भेद, पनभरा-संज्ञा, पु० दे० यौ० ( हि० पानी+ मर्म । संज्ञा, पु० दे० ( सं० पण ) चोरी का भरना ) पानी भरने वाला, पनिहारा, कहार। पता लगाने वाला। For Private and Personal Use Only Page #1081 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पनहाना १०७० पन्न जूता। पनहाना-अ. क्रि० (दे०) दूध उतरने के पनियासोता-वि० दे० यौ० (हि. पानी+ लिये गाय-भैंस का स्तन सुहराना ।। सोत ) पानी का सोता, बहुत गहरा, पानी पल्हाना, पलुहाना (ग्रा.)। के सोते वाला गहरा ताल आदि। पनहारा--संज्ञा, पु० दे० (हि. पानी+हारा पनिहा-वि० दे० (हि० पानी+हा (प्रत्य॰)) प्रत्य०) पानी भरने वाला, कहार, पनभरा। पानी का निवासी, पानी-मिला, पानी-संबंधी, स्त्री० पनहारिनि, पनिहारिन, पनिहारी। जैसे-पलिहा साँप ! संज्ञा, पु० जासूस, पनहियाभद्र--संज्ञा, पु० दे० यौ० (हि० पनही | भेदी, भेदिया। +भद्र = मुण्डन सं० ) इतने जूते सिर पर पनी *--वि०, संक्षा, पु० दे० (सं० ( पण) मारना कि सिर के सब बाल गिर जावें। प्रतिज्ञा या प्रण करने वाला, पन्नी। पनहीं-- संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० उपानह ) पनीर-संज्ञा पु० (फा० ) पानी निचोड़ा दही, फाड़ कर जमाया दूध । पना-संज्ञा, पु० दे० (सं० प्रपान क या पानीय) पनीरी-संज्ञा, स्त्री. ( दे०) फूलों-पत्तोंश्राम या अमली के गूदे का शर्वत, प्रपा वाले पौधे जो अन्यत्र लगाने के लिये उगाये नक (सं०)। गये हों, फूलों-पत्तों के बेड़ या बेहन, वह पनाती--संज्ञा, पु० दे० ( सं० पनप्तृ) पोता वगरी जिसमें पनीरी उगाई गयी हो, बेड़ या या नाती का लड़का, पन्ती (ग्रा.)। स्त्री० बेहन की क्यारी: वि. पनीर वाली। पनातिन । पनीला--वि० दे० ( हि० पानी+इला = पनारा-पनाला-संज्ञा, पु० दे० (हि. पर प्रेत्य० ) पानी युक्त, पानी मिला। स्त्री० नाला ) परनाला । स्त्री० पनारी-पनाली। पनासना-स० क्रि० दे० (सं० पानाशन ) पनीली। पालना-पोषणा, परवरिश करना । पनीहा-संज्ञा, पु० दे० (हि. पानी हा पनाह-संक्षा, स्त्री. (फ़ा०) रक्षा, बचाव, प्रत्य० ) पानी के संयोग से बनी हुई वस्तु, त्राण । यौ०-शहर-पनाह ---रक्षार्थ नगर जलजंतु, जल में उत्पन्न होने वाला, जलकी चारदिवारी। मुहा०--किसी से संबंधी। पनाह माँगना-बचने की बिनती करना । पनुप्रा-पनुवाँ ।-वि० दे० ( हि० पानी ) शरण, भाड़, रक्षा का ठौर । पनाह | नीरस, फीका। मिलना (पाना)-शरण या रक्षा का पनेरी-पनेरी-संज्ञा, पु० दे० ( हि० पान ) स्थान मिलना। पान वाला, तमोली, बरई । पनिच --संज्ञा, पु० दे० (हि० पनच ) पनेरिन, पनैरिन-संज्ञा, स्त्री० (हि. पनेरी, प्रत्यञ्चा, धनुष की तांत ।। पनेरी ) तमोलिन, पान बेचने वाली । पनियाँ, पनिहा--वि० दे० ( हि० पनिहा) पनेला--संज्ञा, पु० दे० ( हि० पनीला :- एक पानी में रहने वाला, पानी-मिला, पानी प्रकार का सन ) एक तरह का चिकना चमसंबंधी, यौ० पनिहा सांप । संज्ञा, पु० । कीला और अति गाढा वस्त्र या कपड़ा, (द०) भेदिया, जासूस, पानी। वेलहरा। पनियाना-स० क्रि० (दे०) सींचना, पानी पनौटी-रांझा, स्त्री० दे० ( हि० पान + प्रोटी) देना, पानी भरना। पानदान, पान रखने का डिब्बा । पनियाला-संज्ञा, पु० (दे०) पनियार एक पन्न-वि० ( सं० ) गिरा या पड़ा हुआ, गत, नष्ट । For Private and Personal Use Only Page #1082 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org पपड़ा, पपरा - संज्ञा, पु० दे० (सं० पपेट) लकड़ी का सूखा छिलका, रोटी का छिलका । स्त्री० अल्पा० । पपरी, पपडी । पपड़ियाँ - संज्ञा, स्त्रो० दे० ( हि० पपड़ी) छोटा पपड़ा, पपड़िया कत्था | संज्ञा, पु० दे० (हि० पपड़ी - कत्था ) - सफेद पपड़ीदार कत्था । पपड़ियाना - अ० क्रि० दे० ( हि० पपड़ी + माना ) किसी पदार्थ के ऊपरी परत का सूख कर सिकुड़ जाना, पपड़ी पड़ जाना । पपड़ी - पपरी -- संज्ञा, स्रो० दे० ( हि० पपड़ा का पा० ) किसी पदार्थ के ऊपरी परत का Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पन्नग १०७१ NOT MANAG VETERA सूखकर जगह जगह से फटा भाग एक पकवान, पपरिया (दे०) । पन्नगेश, पन्नगाधीश । पन्नग - संज्ञा, पु० (सं०) साँप, सर्प, पद्माख औषधि । (स्त्री० पन्नगी ) पन्नगपति-- संज्ञा, पु० यौ० (सं०) शेष नाग । पपड़ीला, पपरीला - वि० दे० ( हि० पपड़ा + ईला प्रत्य० ) अधिक पपड़े वाला । पपनी -- संज्ञा, त्रो० (दे०) बरौनी, बरोनी 1 पपी - संज्ञा, पु० (सं० ) सूर्य, भानु, रबि । पपीता - संज्ञा, पु० (दे०) अंड - खरबूज़ा | स्त्री० पपीती । Si ' पन्नगारि यह नीति अनूपा 99 6: पन्नगारि - संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) गरुड़, - ( रामा० ) । पन्नगाशन -- संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) गरुड़, 'सुनहु पन्नगाशन यह रीती -रामा० । पन्नगी - संज्ञा, खो० (सं०) साँपिनी, सर्पिणी, नागिनी । "हली जाति पन्नगी हरीरे परबत पै - " लहि० । पपीहा, पपिहा, पपीहरा - संज्ञा, पु० (दे० ) चातक पक्षी । " पीहा पीहा रटत पपीहा मधुवन में -- ॐ० श० । "" पपैया - संज्ञा, पु० (दे०) एक खिलौना, थंडखरबूजा, पपीहा, एक पक्षी । 16 पन्ना - संज्ञा, पु० दे० (सं० पर्ण ) मरकत मणि, हरित मणि, वर, पृष्ठ, एक नगर जहाँ हीरों की खान है, पन्ना मांहि पन्ना की सुचौकी पै उपन्ना श्रदि, पन्ना गेय गीता को सो मन्ना उलटा है" । पना पपोदा- संज्ञा, पु० दे० (सं० प्र + पट पलक, चल, पलक । पन्नी - संज्ञा, स्त्री० दे० ( हि० पन्ना: = पत्रा ) कागज़ के समान राँगा या चाँदी आदि के पत्तर, सोने यादि के पानी से रँगा काग़ज़ | संज्ञा स्त्री० दे० (हि० पना) एक खाने योग्य वस्तु | संज्ञा, स्त्री० (दे०) वारूद की एक तौल | पन्नीसाज-संज्ञा, पु० दे० ( हि० पन्नी + फ़ा० साज़ ) पन्नी का काम करने वाला | संज्ञा, स्त्री० - पन्नीसाज़ी | पन्हाना +- अ० क्रि० दे० ( हि० पहनना ) पहनाना, पिन्हाना, पल्हाना | पयनिधि पपोरना -- स० क्रि० (दे०) भुजा ऐंठना और अभिमान सहित उनका पुष्ट उभाड़ देखना । पवनी - संज्ञा स्त्री० (दे०) त्यौहार, पर्वणी ( सं० ) । पनि - संज्ञा, पु० (दे०) पवि या वज्र । पवरना - अ० क्रि० (दे० ) निर्वाह, होना, काम चलना | संज्ञा, स्त्री० (दे०) पर्व या त्योहार का दिन | पव्यय - संज्ञा, पु० दे० (सं० पर्बत) पहाड़ | कुंजर उप्पय सिंह, सिंह उप्पै पन्वय, — रासो० । 66 ,, पमार - संज्ञा, पु० दे० ( हि० परमार ) पवार (ग्रा० ) क्षत्रियों की एक जाति । पय- संज्ञा, पु० दे० (सं० पयस् ) दूध, पानी । बढ़े गरल बहु भुजग को, यथा किये पय पान " - वृ० । For Private and Personal Use Only to पयद* - संज्ञा, पु० दे० ( सं० पयोद ) स्तन, थन, बादल । श्रवत पयद, लोचन जल छाये, ". पयधि - संज्ञा, पु० दे० (सं० पयोधि ) समुद्र | पर्यानिधि - संज्ञा, पु० दे० यौ० (स० ---शमा० । Page #1083 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पयस्विनी १०७२ परकाना पयोनिधि) सागर । "वाँध्यो पनिधि, तोय- परंदा- संज्ञा, पु. द० ( फा० परिंदा ) पक्षी निधि, उदधि, पयोधि नदीश-रामा० । । चिड़िया, परिंदा। पयस्विनी- संज्ञा, स्त्री. (सं०) दूध देने परंपरा--संज्ञा, स्त्री. (सं.) क्रम से एक वाली गाय, एक नदी। के पीछे दूसरा, पूर्वापर क्रम, अनुक्रम, पयस्वी-वि० (सं० पयस्विन् ) जल-वाला, वंश-परंपरा, प्रणाली, संतति, औलाद, दृधवाला, दूध-युक्त । ( स्त्री० पयस्विनी । परिपाटी, प्राचीन रीति। पयहारी-संज्ञा, पु० दे० यौ० (सं० पयस् + परंपरागत-वि० यौ० ( सं० ) जो सदा से आहारी) केवल दूध पीकर रहने वाला, होता श्राया हो, सनातन। तपस्वी, साधु, पयसाहारी। पयान-पयाना-संज्ञा, पु० दे० (सं० पयाण ) पर-वि० (सं०) दूसरा, अन्य, पराया, यात्रा. गमन, जाना । "प्रान न करत पयान दूसरे का, जुदा, अलग, भिन्न, अतिरिक्त, श्रभागे".-रामा०। पीछे का दूर, तटस्थ, श्रेष्ठ, तत्पर, लीन । पयार-पयाल-संज्ञा, पु. दे. (सं० पलाल) पत्य० दे० (सं० उपरि ) भाषा में अधि. धान आदि के छ छे और सूखे डंठल, पुवाल करण का चिन्ह, जैसे-कोठे पर। अव्य. (दे०)। " सहना छिपा पयार-रत को कहि (सं० परम् ) पीछे, पश्चात्, परंतु, किंतु, वैरी होय "-कबीर । मुहा०-पयाल लेकिन, मगर, तो भी । संज्ञा, पु. (फा०) गाहना या झाड़ना-व्यर्थ परिश्रम या चिड़ियों का पंख. पखना, डैना, पक्ष । सेवा करना । पयाल तापना-निस्सार | मुहा०-पर कट जाना-निर्बल या शक्तिकार्य करना। हीन या असमर्थ हो जाना। पर जमनापयोज-संज्ञा, पु. ( सं०) कमल । पंख निकलना, शरारत सूझना । कहीं जाते पयोद-संज्ञा, पु. (सं०) बादल, मेघ । हुए पर जलना-साहस या हिम्मत न "उनयो देखि पयोद" वृ०।। होना, गति या पहुँच न होना । पर नपयोधर- संज्ञा, पु० (सं०) स्तन, थन, मारना-पाँव न रखना, न पाना । बादल, नागरमोथा, कसेरू, तालाब, गाय | परई- संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० पार = कटोरा) का श्रायन, पहाड़। दोहा का ११ वाँ और दिया से बड़ा मिट्टी का एक पका बरतन । छप्पय का २७ वाँ भेद ( पिं० ) “ लगी | परकटा*---वि• यौ० दे० (फा० पर+काटना पयोधर जोंक-बृ. । हि०) जिसके पंख या पखने कट गये हों। पयोधि-संज्ञा, पु० (सं०) समुद्र ।। परकना * +-अ० कि० दे० (हि० परचना) पयोनिधि-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) समुद्र। परचना, हिलना, चसका लगाना, अभ्यास या "जो छवि सुधा-पयोनिधि होई"-रामा०। व पड़ना । स० कि. (प्रे० रूप) परकाना । पयोव्रत -संज्ञा, पु. यौ० (सं०) दूध या जल के श्राहार पर व्रत करना, या ऐसा व्रत परकसना* --- अ. क्रि० दे० (हि० परकासना) करने वाला। प्रगट या प्रकाशित होना, जगमगाना। पयोराशि-संज्ञा, पु. यौ० (सं०) समुद्र ।। परकाज, परकारज-संज्ञा, पु० दे० ( स० परंच-अव्य० (सं०) लेकिन, परन्तु, तो भी। परकायं) दूसरे का काम परोपकार । परंतप-( वि. यौ० (सं० ) वैरियों को परकाजी-वि० दे० (हि० पर+ काज+ दुख देने वाला, इन्द्रियजित । ई. प्रत्य० ) परोपकारी, परस्वार्थी । परन्तु-अव्य० (सं० परं +-तु) मगर, लेकिन परकाना 8-स० क्रि० दे० (हि० परकना किंतु, पर, तोभी। । अभ्यास डलवाना, चस्का लगाना, परचाना। For Private and Personal Use Only Page #1084 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir परकार १०७३ परगास परकार-संज्ञा, पु० ( फा०) वृत्त खींचने | परखना-स. क्रि० दे० (सं० परीक्षण) का यंत्र।। संज्ञा, पु० दे० (सं० प्रकार) तरह, परीक्षा ( जाँच या अनुसंधान या खोज) प्रकार, भाँति । करना, देखभाल करना, पहचानना । स० परकारमा-स० कि० दे० ( हि० परकार ) क्रि० हि० (दे० परेखना) आरा देखना, परकार के द्वारा वृत्त खींचना, चारों तरफ प्रतीक्षा या इन्तज़ारी करना । घुमाना। परखवाना-स० कि० हि० (परखना का प्रे. परकाल-संज्ञा, पु० दे० ( फा० परकार ) | रूप) ऊंचवाना, अनुसंधान करवाना, प्रतीक्षा परकार, प्रकार । कराना। परकाला-संज्ञा, पु० दे० (सं० प्राकार या | परखवैया--संज्ञा, पु० दे० (हि. परख+ प्रकोष्ट) जीना, सीढ़ी, चौखट । संज्ञा, पु० दे० | वैया - प्रत्य०) परखने, जाँच या अनुसंधान (फ़ा० परगला) खंड, भाग, काँच का टुकड़ा, करने वाला, इन्तज़ारी करने वाला। आग की चिनगारी । मुहा०--आफ़त का | परखाई.--- संज्ञा, स्त्री० दे० (हि० परखाना) परकाला= ग़जच ढहाने वाला, श्राफ़त | परखने का काम या मजदूरी, इन्तज़ारी । उठाने वाला, भयानक या प्रचंड मनुष्य। परखाना-स. कि० दे० (हि० परखना) परकास-संज्ञा, पु० दे० (सं० प्रकाश ) | अँचाना, परीक्षा कराना, इन्तज़ारी कराना। प्रकाश, उजेला। परखो - संज्ञा, स्त्री० (दे०) सूजे के तुल्य एक परकासना -स० क्रि० दे० (सं० प्रकाशन) लोहे का यंत्र, जिससे बोरे से अन्न निकाल उजेला करना, प्रगट करना। कर परखा जाता है। परकिति-परिकीति-परकीती ---संज्ञा, परखैया-संज्ञा, पु. (हि० परखना +-ऐया स्त्री० दे० (सं० प्रकृति) प्रकृति, स्वभाव, टेव, प्रत्य०) परखने या जाँच करने वाला, खोजी श्रादत । "हम बालक अज्ञान अहैं प्रभु, | इन्तज़ार करने वाला। अति चंचल परकीती"---प्र० ना० मि०। पग-संज्ञा, पु० दे० (सं० पदक) पग, डग । परकीय-वि० (सं०) दूसरे का, पराया। परगट-वि० दे० (सं० प्रकट) प्रगट, स्पष्ट, परकीया--- संज्ञा, स्त्री० (सं०) दूसरे की स्त्री, परघट (ग्रा०)। पति को छोड़ पर पुरुष से प्रेम करने वाली परगटना*-अ. क्रि० दे० (सं० प्रकट) नायिका । (विलो०-स्वकीया ) " पर- प्रगट होना, खुलना। क्रि० स० (दे०) जाहिर कीया पर नारि ।' मतिः। या प्रगट करना। परकीरति-परकीति-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० परगन-परगना-संज्ञा, पु० दे० (हि. परकीर्ति) दूसरे का यश, नेकनामी, बड़ाई। परगना) परगना, तहसील का वह भाग " तुलसी निज कीरति चहैं, पर-कीरति को जिसमें बहुत से गाँव हों, (सं० प्रगण )। खोय"-तुल०। परगसना*-अ० कि० दे० (सं० प्रकाशन) परकोटा-स्त्री० पु० दे० (सं० परिकोट ) प्रगट या प्रकाशित होना । स० क्रि० (दे०) किसी गढ़ या किले के चारों ओर का रक्षक, परगासना। घेरा, बाँध, चह, धुस।। परगाछा--संज्ञा, पु० दे० (हि. पर+गाछ = परख-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० परीक्षा) परीक्षा, | पेड़) दुसरे पेड़ों पर उगने वाले पौधे, (गरम जाँच, भलीभांति देख-भाल, पहिचान, अनु- देशों में)। संधान, खोज, पारिख (ग्रा.)। वि. परगास -संज्ञा, पु० दे० (सं० प्रकाश) पारखी। । प्रकाश, उजेला, रोशनी। भा० श० को०-१३५ For Private and Personal Use Only Page #1085 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir परघट १०७४ परजा परघट -वि० दे० (सं० प्रकट) प्रकट, | परछन-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० परि+अर्चन) जाहिर, पैदा। "जाहिर परघट तादीर- द्वार पर आये वर की आरती "परछन करत पाक "-खालिक । सुदित मन रानी".--रामा० । परधनी-परघरी-संज्ञा, स्त्री० (दे०) सोना- परछना-क्रि० स० दे० (हि० परकन) किसी चाँदी आदि के ढालने का साँचा या परधी। | देवता या वर की भारती या पूजन करना । परगहनी-(ग्रा०) संज्ञा, पु० यौ० (दे०) | परछाई-परछाहीं-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० दूसरे का घर, परघर, पर-स्त्री, परगृहणी प्रतिच्छाया)छाँही, शाह, छाया साया, प्रति(सं०), परघरनी (दे०) विम्ब । “जल विलोकि तिनकी परछाही'-- परचंड*-वि० दे० सं० प्रचंड अधिक तेज़ रामा० । मुहा०-परछाई से डरना या या तीब्र, प्रखर भयंकर, कठोर असह्य, भागना--पास तक जाने से डरना, बहुत बड़ाभारी। ही डरना । परचइ-परचै-संज्ञा, पु० दे० (सं० परिचय) परछालना*-स० कि० दे० ( सं० प्रक्षलन ) परिचय, जानकारी, पहिचान, परचौ(ग्रा०)। धोना । परचत -संज्ञा, स्त्री० दे० (संज्ञा, परिचित) परछिद्र-संज्ञा, पु. यौ० (सं०) परदोष, जान पहिचान जानकारी, परिचय, परचित।। दूसरे का ऐब | "जो सहि दुख परछिद्र परचना-प्र. क्रि० दे० (सं० परिचयन) हिलना, मिलना, चसका लगना। परछी-- संज्ञा, स्त्री० (दे०) दूध या दही की परचा–संज्ञा, पु. (फा० ) काग़ज़ का मटकी।। टुकड़ा, चिट, पुरजा, चिट्ठी, परीक्षा का प्रश्न- परजंक-संज्ञा, पु० दे० (सं० पर्यक) पलंग, पत्र । संज्ञा, पु० (सं० परिचय) परिचय, प्रजंक (दे०)। परीक्षा, प्रमाण । परज-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० पराजिका) एक परचाना स० कि० दे० (हि. परचना) । रागिनी ( संगी० )। परचावना, चसका लगाना, टेंव डालना, परजकर -- संज्ञा, पु० (दे०) वह महसूल जो हिलाना-मिलाना । स० क्रि० दे० (सं० प्रज्च- भूमि में बसने से ज़मींदार को दिया जावे । लन) जलाना, सुलगाना। परजन*---संज्ञा, पु० दे० (सं० परिजन) परचार* --संज्ञा, पु० दे० सं० प्रचार) कुटुम्बी, वंश के लोग नौकर, सेवक । "परप्रचार, रिवाज़, चलन । जन, पुरजन, मित्र, उदासी"--- स्फु० । परचारना*-क्रि० स० दे० (सं० प्रचारण) | परजरना* -- अ० कि० दे० (सं० प्रज्वलन) प्रचारना, ललकारना ।। सुलगना, जलना, रुट होना, डाह करना, परचून-संज्ञा, पु. द. (सं० पर-+- चूर्ण) , कुढ़ना। भाटा दाल आदि की सामग्री। परजन्य* --- संज्ञा, पु० दे० (सं० पर्जन्य) मेघ, परचूनी-संज्ञा, पु० दे० (हि० परचून) खाने । बादल, जलद वारिद । “परकारज देह को की सामग्री बेचने वाला बनिया, मोदी। धारे फिरौ परजन्य जथारथ है दरसौ"-घना० परचौ-संज्ञा, पु० दे० (सं० परिचय) परीक्षा, परजघट-संज्ञा, पु० (दे०) कर, शुल्क, भाड़ा जाँच, परिचय । राज-भूमि का महसूल । परछती-परछत्ती-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० परजा--संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० प्रजा) प्रजा, परि-+छत ) कोठरी में थोड़ी दूर तक की रिपाया, रैयत, अासामी, किसान, सेवक, पटनई, फूस का छोटा छप्पर । नौकर, दास । For Private and Personal Use Only Page #1086 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - परजात २०७४ परदा परजात–वि० (सं०) दूसरे से उत्पन्न, दूसरे लागत । मुहा० --पड़ता पड़ना (खाना) का पला, दूसरी जाति का।। --पूरा मूल्य प्राजाना।। परजाता-संज्ञा, पु० दे० (सं० पारिजात) | परताप* -- संज्ञा, पु० दे० (सं० प्रताप) प्रताप, पारिजात वृक्ष, हर-सिंगार, पारजात। तेज, इकबाल । वि० परतापी । परजाय%-संज्ञा, पु० दे० (सं० पर्याय) परताल-परतार-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि० पड़समान या तुल्य अर्थ वाले शब्द, एक अलं- ताल) पड़ताल, जाँच । "पातक अपार परकार, परम्परा प्रकार यौ० । दे० (सं० पर+ तार पार पावैगी"- रत्ना० । जाय) पर स्त्री, परजोय, परजाया। परतिचा* --- संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० प्रत्तंचिका) परजारना-स० क्रि० दे० (हि. परजरना) धनुष की डोरी, प्रत्यंचा। जलाना । परती-पड़ती--संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. परना == परजौट--संज्ञा, पु० दे० (हि० परजा---ग्रौट पड़ना) वह भूमि जो बिना जोती-बोई -प्रत्य०) मकान बनाने के हेतु वार्षिक पड़ी हो। भाड़े पर भूमि के लेने-देने का नियम। परतोत-परतीति*-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० एरज्वलना-२० क्रि० दे० (सं० प्रज्वलन)। प्रतीति) प्रतीति. विश्वास, भरोसा । "भूलि प्रज्वलित करना, जलाना । अ० कि. (दे०) । परतीति न कीजै"--गिर। प्रज्वलित होना । " देखन ही तें परज्वलै, | परतेजना::-- सं० कि० दे० (सं० परित्यजन) परसि करै पैमाल'---कवी० । छोड़ना, परित्याग करना। परणना*---क्रि० स० दे० (सं० परिणयन) परत्र - वि० (सं०) अन्यत्र, स्वर्ग, परकाल या परलोक । विवाह करना, व्याहना ! परत्व-संज्ञा, पु० (सं०) प्रथम या पूर्व होने परतंचा-परतिचा --- संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० का भाव, श्रागे होने का भाव।। प्रतंचिका) धनुप की डोरी, प्रत्यंचा। परथन, परेथन-संज्ञा, पु० दे० (हि० पलेशन) परतंत्र-वि० (सं०) पराधीन, परवश । पलेथन गीले आटे से रोटी बनाने में लगाने परतंत्रता-संज्ञा, स्त्री० (स०) पराधीनता। का सूखा आटा, व्यर्थ का व्यय या खर्च, परतः-अ० (सं० परतस्) अन्य या दूसरे से, परोथन । पीछे, भागे। परदच्छिना*-संज्ञा, स्त्री०दे० (संप्रदक्षिणा) परत-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० पत्र) तह, स्तर, प्रदक्षिणा, परिक्रमा। छिलका, पुट । परदनी-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि० परदा, धोती परतच्छ-परनछ---- वि० दे० (सं० प्रत्यक्ष) 'टका परदनी देतु" कवी। प्रत्यक्ष, संमुख, प्रगट, घाँखों के आगे। "हम परतिग्या-परतिज्ञा-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० परतच्छ मैं प्रमान अनुमानै नाहि"-ऊ. श० । । प्रतिज्ञा) प्रण, पण, प्रतिज्ञा। परतल-संज्ञा, पु० दे० (सं० पट+ तल) डेरा परदा-संज्ञा, पु. ( फा० ) पट, चिक, यवडंडा, टट्टू या घोड़े पर लादने का गोन या निका, पर्दा । मुहा०-परदा उठाना या बोरा, खुरजी (ग्रा०)। खोलना-गुप्त भेद या छिपी बात प्रगट परतला--संज्ञा, पु० दे० (सं० परितन) चप- करना । परदा डालना-छिपाना । रास, चपरास लगाने की पट्टी। परदा रखना-लज्जा रखना, इज्जत परता-पड़ता--संज्ञा, पु. दे० (हि० पड़ता) बचाना । परदा फाश करना-भेद या किसी वस्तु का मूल्य, खरचे का दाम, लज्जा की बात प्रगट करना। आँख पर For Private and Personal Use Only Page #1087 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - परदादा १०७६ परनि परदा पड़ना-देख न पड़ना। ढंका । परद्वष्टा-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) परहिंसक, परदा-छिपा दोष या कलंक, बनी मर्यादा परानिष्टकारी, दूसरे की हानि करने वाला । या प्रतिष्ठा , व्यवधान, श्रोट, आड़, छिपाव परदाह ---- संज्ञा, पु. यौ० ( सं० ) परानिष्ट, यौ०-परदा-प्रथा-स्त्रियों के अंदर रहने दूसरे का अशुभ, पर-पीड़न । "न शक्नोमि और मुख ढाँके रखने का रिवाज : मुहा०- बर्तु परद्रोह लेशम् -शं०। परदा रखना-परदे की ओट में रहना, परद्रोही-वि० यौ० (सं० परद्रोहिन् ) पराछिपाव या दुराव रखना, परदे के भीतर निष्टकारी, पराशुभकारी, परपीड़क । रहना, लज्जा रखना । परदा होना-परदा । परधन-संज्ञा, पु. यौ० ( सं०) अन्य या होने का नियम या दुराव होना । परदे में दूसरे का धन या द्रव्य । लो०-"परधन रहना-छिपा रहना।। बाँधै मूरख-नाथ" -- स्फु० । परदादा-संज्ञा, पु० दे० (सं० प्र-+-हि. परधान*-वि० दे० (सं० प्रधान ) मुख्य, दादा ) दादा का पिता, प्रपितामह । स्त्री० श्रेष्ठ, मंत्री । संज्ञा, पु० दे० (सं० परिधान) परदादी। आच्छादन, परिधान, वस्त्र, कपड़ा। संज्ञा, परदा-नशीन-वि० यौ० (फा० ) परदे में पु. यो० दे० (सं०) पर-धान्य का स्थान । रहने वाली अंतः पुर वासिनी। संज्ञा, स्त्री० परधाम-संज्ञा, पु. यौ० (सं०) वैकंठ, स्वर्ग, (फा०) परदा-नशीनी। परमात्मा, अन्य का धाम, परमधाम । परदार-परदारा-संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं० ) परन-संज्ञा, पु० दे० (सं० प्रण) प्रतिज्ञा, परतिया दूसरे की स्त्री, पराई औरत । वि० । ग्रण, टेक, हठ संज्ञा, स्त्री० दे० हि० पड़ना) यौ० परदार-लंपट-पर-स्त्री गामी । स्वभाव, वान, टेव, पादत । *संज्ञा, पु० दे० " माता सम परदार अरु, माटी सम पर (सं० पर्ण ) पर्न (दे०) पान, पत्ता, पत्ती। दाम।" संज्ञा, स्त्री० परदार-लंपटता। जैसे-परनकुटी। परदाराभिगमन- संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) व्यभिचार । वि. यौ० (सं०) परदाराभि परनगृह-संज्ञा, पु० दे० यौ० (सं०) पर्णगृह, पत्तों का झोंपड़ा, प्रणशाला (सं० ) परनगामी-परतियगामी। परदुःख-संज्ञा, पु. यौ० ( सं० ) अन्य की साला, परनकुटी, पर्णकुटीर (दे०)। पीड़ा या क्लेश, परदुख । परला,पड़ना*-० क्रि० दे० (हि० पड़ना) परदुम्भ*-- संज्ञा, पु० दे० (संप्रद्युम्न) प्रद्युम्न, गिरना, पड़ना, सो रहना, लेटना। श्री कृष्ण जी के पुत्र। परनाना - संज्ञा, पु० दे० (सं० पर+हि. परदेश, परदेस- संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) नाना ) नाना का पिता। स्त्री० एरनानी । विदेश, अन्य देश, भिन्न देश । परनाम-संज्ञा, पु० दे० यौ० (सं० परनामन) परदेशी, परदेसी-वि० (सं० ) दूसरे देश अन्य या दूसरे का नाम, दूसरा नाम । संज्ञा, का, विदेशी, अन्य देशवासी। पु० दे० (सं० प्रणाम ) प्रणाम, नमस्कार । परदोस*-संज्ञा, पु० दे० सं० प्रदोष ) परनाला-संज्ञा, पु० दे० (सं० प्रणाली) शाम का वक्त, संध्या समय, त्रयोदशी का नाबदान, मोरी, पनाल, नरदवा, नर्दहा । शिव-व्रत, बड़ा भारी दोष या अपराध । ( स्त्री. अल्पा० परनाली)। संज्ञा, पु० दे० यौ० (सं० परदोष ) अन्य या परनाह-~-संज्ञा, पु० दे० यौ० (सं० पर+ दूसरे की बुराई । यौ० " जे परदोस लखें। नाथ ) परपति, पर-नाथ । सहसाखी"-रामा । | परनि*- संज्ञा, स्त्री० दे० (हि० पड़ना) For Private and Personal Use Only Page #1088 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Ramp u URIORDARNIMAMuslmnAERO परनौत १०७७ परबीन स्वभाव, प्रकृति, टेव, बान, पढ़ने की क्रिया परपूठा*-वि० दे० यौ० (सं० परिपुष्ट ) वि० (दे०) एरनी प्रणी (सं० )। पक्का । वि० दे० (सं० परपुष्ट ) अन्य द्वारा परनौत*-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि० पर नवना) पोषित : संज्ञा, पु० (दे०) कोकिल, कोयल । प्रणाम, नमस्कार। परपूर-वि० दे० ( सं० परिपूर्ण ) परिपूर्ण, परपंच ---- सज्ञा, पु० दे० (सं० प्रपंच ) । भूरा-पूरा, परिपूरन (दे०)। प्रपंच, झगड़ा-बखेड़ा, चालबाज़ी। " मोहिं | परपैठ --- संज्ञा, पु० (दे०) मुख्य हुण्डी की न बहु परपंच सुहाही"-रामा०। वि. तीसरी प्रति, पहली हुंडी, दूसरी पर पैठ, परपंची प्रपंची (सं०) स्त्री० परपंचिनि। तीसरी प्रति पर पैठ कहाती है। परपंचक-वि० दे० (सं० प्रच) झगड़ालू | परपोता, पड़पोता- संज्ञा, पु० दे० ( सं० बखेड़िया, धूर्त, मायावी, चालबाज़ प्रपौत्र ) पोते का पुत्र, पुत्र का पोता। परपट-संज्ञा, पु० दे० (सं०) पपंट औषधि, | रफुल*-वि० दे० (सं० प्रफुल्ल) प्रफुल्ल, पित्तपापरा : “छिन्नोद्भवा पर्पट वारिवाहः" । विकसित, फूला हुआ, प्रसन्न ।। -वैद्य० । संज्ञा, पु० दे० ( हि० पर पट | परबध-- एंडा, पु० दे० (सं० प्रबंध) प्रबंध, सं० --- चादर ) चौरस मैदान, समतल भूमि, व्यवस्था, थायोजन, संबद्ध वाक्य रचना । दूसरे का वस्त्र । प्रकृष्ट बंधन। परपटी--- संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० पर्पटी ) परब - संज्ञा, पु० दे. (सं० पर्व ) पुण्यसौराष्ट्र या गुजरात या काठियावाड़ की काल, उत्सव, त्यौहार, पर्व, अंश, भाग, मिट्टी, गोपी-चंदन, पावड़ी, पपड़ी, स्वर्ण- ग्रहण, परबी (ग्रा०)। पर्पटी औषधि (वै०)। परबत-- संज्ञा, पु० दे० ( सं० पर्वत ) पर्वत, पर पति- संज्ञा, पु. ( सं० पर-| पति ) पर पहाड़ । वि० बतिया। का पति । " मध्यम परपति देखहि कैसे" परवल--- वि० दे० ( सं० प्रबल ) प्रबल, बल----रामा० । वान, उग्र, एक तरकारी, परवर । परपराना-अ० क्रि० (दे०) तीक्ष्ण लगना, | परबस-वि० दे० यौ० (सं० परवश) परतंत्र, जलना, चुनचुनाना, किसी वस्तु के टूटने | पराधीन | " परबस परे परोस बसि".-- का अनुकरण-शब्द। परपराह-संज्ञा, बुं० । संज्ञा, स्त्री० (दे०) परबसी। स्त्री० (हि० परपराना) तीक्ष्णता, चरपराहट । रबसताई --- संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० पर परपाजा-परबाजा-- संज्ञा, पु० दे० (सं० वश्यता ) परतंत्रता, पराधीनता, परबसी परार्य ) श्राजा या दादा का पिता ।। (दे०) एरबसता। परणार -- संज्ञा, पु० यौ० (सं०) दूसरी ओर | परवा--संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० प्रतिपदा ) प्रतिका तट या किनारा। पदा, परिवा, परीवा (दे०)। परपीड़क-- संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) अन्य । परबाल---- संज्ञा, पु० दे० (हि० पर-दूसरा+ या दूसरे को कष्ट या दुख देने वाला, बैरी बाल == रोयाँ ) आँख की पलकों के भीतरी को दंड देने वाला, परंतप । बाल *-संज्ञा, पु० दे० (सं० प्रवाल) प्रवाल, परपुरुष-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) अन्य पुरुष, मूंगा। दूसरी स्त्री का पति । परबीन*-वि० दे० (सं० प्रवीण ) प्रवीण परपुष्ट · संज्ञा, पु० यौ० ( सं०) कोकिल, | चतुर । " केते पर बीन धन-हीन फिरें मारे परभृत । वि० (सं० ) अन्य द्वारा पोषित, मारे, गुणन-विहीन पावै सुख मन मान्यो परपोषित । है"-मन्ना। For Private and Personal Use Only Page #1089 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir परबेस १०७८ परमाणुवाद परबेम* ----संज्ञा, पु० दे० (सं० प्रवेश ) परमगति--संज्ञा, पु० यौ० ( सं०) मुक्ति, पैठ. गति, विषय-ज्ञान ! यो०-दूसरे का मोक्ष, उत्तमगति । 'हरि-पद-विमुख परम वेश या रूप। गति चाहा "... रामा० । परबोध- संज्ञा, पु. दे. (सं० प्रबोध) प्रबोध, परमतत्व - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) परमात्मा, शिक्षा, समझौता, यथार्थ ज्ञान, ढाढ़स, ब्रह्म मूलतत्व । 'जोगिन परमतत्वमय, दिलासा, चितावनी, जगाना । " प्रभु पर भासा--रामा० । बोध कीन्ह विधि नाना''- रामा० पर-धर्म - संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) अन्य पर शाधना*---स० क्रि० दे० सं० प्रबोधन ) धर्म। ' परधर्मो भयावह '--गी० । समझाना, सान्त्वना या शिक्षा देना, ज्ञानोप- परमधाम · संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) स्वर्ग, देश करना, जगाना, सचेत करना। पिता- वैकुंठ । “परमधाम सम धाम नहि. राम मातु गुरुजन परबोधत "..- सूबे। नाम सम नाम "---स्फु. । नुहा०-- परब्रह्म --- संज्ञा, पु. ( सं. ) परमात्मा, परमधाम शना (ला )...मर जाना। भगवान, निर्गुण, परमेश्वर, पारब्रह्मा (दे०) परमपद-संज्ञा, पु. ( सं० ) मुक्ति मोर, परभा--संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० प्रभा ) प्रभा, 'भये परमपद के अधिकारी'.---रामा० । दीप्ति, प्रकाश, कांति, शोभा, उजेला। परमपिता---संज्ञा, पु० यौ० सं०) परमात्मा। परभाइ, परभाउ --संज्ञा, पु. दे. (सं० परापुरुष-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) परमात्मा, प्रभाव ) प्रभाव, शक्ति, महिमा, परमाव, परमेश्वर, ब्रह्म, विष्णु पुरुषोत्तम । परमफल-- संज्ञा, पु० यौ० (सं०) मोक्ष । परमाय। परभात संज्ञा, पु० दे० ( स० प्रभात ) परमभट्टारक. ... संज्ञा, पु० (सं० ) एकप्रभात, सबेरा, तड़का। "बातहू न जानी छन् राजाओं की एक पदवी । (स्त्री० परमा ज्यौं तरैया परभात की-- स्फु०। परभाती-- संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० प्रभाती ) | परमत--संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) दूसरे का सबेरे गाने का एक राग या गीत, प्रभाती। __मत गा लिद्धान्त शन्ध वाम्मति ! परभाष- संज्ञा, पु० दे० सं० प्रभाव ) परमल -- संज्ञा, पु० दे० (सं० परिमल ) प्रभाव, शक्ति, महिमा, महात्म, पराउ, ज्वार या गेहूँ का उबाल कर भूना दाना । परभाय । .' कछु परभाव देखावहु प्रापन परमलाभ - संज्ञा, पु. यो. (सं०) मोक्ष, जोग जुगुति जो होई - स्फु.। अतिशय या अत्यन्त या उत्कृष्ट लाभ । परभाग्यापजीवी--वि० यौ० ( सं० ) परा परम लाभ सब कहँ, मम हानी।"-रामा० श्रित, दूसरे के द्वारा जीवन बिताने वाला : परमहंग-संज्ञा, पु. यौ० (सं०) सन्यासी, योगी, अवधूत, सन्यासियों की ज्ञानावस्था, परसुक्त-वि. पु. यो० (सं.) अन्य से परमात्मा । संज्ञा, स्त्री० परमहंसता। भोगा हुअा। स्त्री० एभुक्ता-दूसरे की परा --संज्ञा, स्त्री० (सं०) शोभा, सुन्दरता, भोगी हुई। सौंदर्य । "होत पंच ते पदुम है, पावन परभृत-संज्ञा, पु० स्त्री० यौ० (सं०) कोकिल, परमागेह" .... दीन। कोयल, कोइली। 'परभूत अपना तू. पररागा- संज्ञा, पु० सं०) किमी पदार्थ का गान है जो सुनाती स्फु० । ऐका छोटे से छोटे अंश जिसके फिर विभाग परम--वि. ( सं० ) अत्यंत, उत्कृष्ट, प्रधान न हो सकें. बहुत ही छोटा अणु । श्रेष्ठ, अग्रगण्य, मुख्य, केवल । | परमाणुवाद- संज्ञा, पु० यौ० (सं०) सृष्टि For Private and Personal Use Only Page #1090 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir परमात्मा १०७६ परघर को प्रमाणुवों से रचित मानने का सिद्धान्त परमुख*-वि० दे० (सं० पराङ्मुख) विमुख, (न्या०, वैशे०)। प्रतिकूलाचारी विरुद्ध । परमात्मा--संज्ञा, पु० यौ० (सं० परमात्मन् ) परमेश-परमेश्वर- संज्ञा, पु. यो. (सं.) परमेश्वर, ब्रह्म । भगवान. परमात्मा, ब्रह्म, विष्णु, शिव, परमानंद--संज्ञा, पु. यौ ० सं०) परमानन्द, परमेनुर (दे.) ब्रह्म के अनुभव का सुग्व समाधि का सख.. | परमेश्वरी-झा, स्त्री० (सं०) दुर्गा. देवी, श्रानन्द स्वरूप ब्रह्म । 'परमानन्द मगन मुनि | परमेसुरी (१०) 'परापराणाम् परमा, राऊ'--रामा० । त्वमेव परमेश्वरि दुर्गा । परमान* ----संज्ञा, पु० दे० (सं० प्रमाण) प्रमाण । | परमेष्टी- संज्ञा, पु० (सं० परमेष्टिन् ) ब्रह्मा, सबूत, सत्य या यथार्थ बात, सीमा, हद।। विष्णु शिव । “परमेष्टी पितामह'-अमर० । परमाना ... स० कि० दे० (सं० प्रमाm) | परमेसर-परमेनुर* ---संज्ञा, पु० दे० (सं० ठीक समझना या स्वीकार करना, मानना । परमेश्वर) परमेश्वर । प्रमाण अंगीकार करना विश्वास करना, परमाद*-----का, पु० दे० सं० प्रमोद) प्रमोद, प्रमाण से पुट या दृढ़ करना। हर्ष, प्रसन्नता । परमाद- संज्ञा, पु० (दे०) प्रमाद (सं.) : परमान्न --- संज्ञा, पु० यौ० (सं०) उत्कृष्ट या | परमधिना---स० कि० दे० सं० प्रवोधन) श्रेष्ठ अन्न, जैसे-खीर पूड़ी आदि। प्रवोधना, जगाना ज्ञानोपदेशे या शिक्षा परमायु-- संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं० परमायुस् । देना दिलासा या धैर्य देना, समझाना । जीवन-काल की सीमा या हद, मनुष्य की "बात बनाई जग ठगा मन परमोधा परमायु भारत में १२ वर्ष है। नाहिं'--कवी. परमार... संज्ञा, पु० द० सं० प्रमार, प्रमर)। परयक* --- संज्ञा, पु० द० (२० पय्यक पल्यंक) क्षत्रियों की एक जाति, चार। पलंग बड़ी चारपाई शय्या, परजक (दे०)। परमारथ * --- संज्ञा, पु. द० यौ० (सं० पर परनउ-परलव-परलै-गरलय --संज्ञा, पु. मार्थ) मोक्ष, मुक्ति, सबसे उत्कृष्ट पदार्थ, दे० (सं० प्रलय) सृष्टि का प्रलय या नाश । यथार्थ तत्व : 'स्वारथ, परमारथ सकल, 'पल में परलै होइगी".-कवी० । सुलभ एक ही ओर''--- तुल० । परला-वि० दे० (सं० पर = उधर -+लापरमाथ-संज्ञा, पु० (सं०) सबसे श्रेष्ठ वस्तु, प्रत्य०) उधर का उस ओर का । मुहा०--- मोक्ष, मुक्ति। "स्वारथ-रत परमार्थ विरोधी' परले दरजे या सिरेका-हद दरजे का, ---रामा०। अत्यन्त, बहुत ज्यादा । (स्त्री० एरली)। परमार्थ-परमारथवादी ... संज्ञा, पु० यो. परलोक-सज्ञा, पु० यौ० (सं०) स्वर्ग, (सं० परमार्थ वादिन् ) ज्ञानी, ब्रह्मज्ञानी, वैकुण्ठ, दूसरा लोक या जन्म, दूसरा शरीर। तत्वज्ञ, वेदांती। "जे मुनीस परमारथ वादी' यौ..-परलोकवासी- मरा हुआ । मुहा० ---रामा०1 ----परलोक मिधारना ( जाला )-मर परमार्थी-वि० (सं० परमार्थिन्) यथार्थ तत्व जाना. अन्य शरीर धारण, पुनर्जन्म ! का खोजी, तत्वजिज्ञासु, मुमुक्षु । परलाक-गमन--संज्ञा, पु. यौ० (सं०)मृत्यु । परमिनि-संज्ञा, स्त्री० (सं.) चरम या अन्त परवर* ---- संज्ञा, पु० दे० (सं० पटोल) परवला सीमा, मर्यादा, सीमित । संज्ञा, स्त्री. वि. (फ़ा०) पालने वाला-जैसे, ग़रीब. परमितता। । परवर । संज्ञा, स्त्री० (फा०) परवरी । For Private and Personal Use Only Page #1091 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir परवरदिगार १०८० परस-पखान परवरदिगार - संज्ञा, पु० यौ० (फ़ा०) पर- परवीन* ----वि० दे० (सं० प्रवीण) निपुण, मेश्वर । चतुर दक्ष, कुशल । संज्ञा, स्त्री० (दे०) परवरिश - परवस्ती (दे०).-संज्ञा, स्त्री० परवीनता। (फ़ा०) परवरी, पालन-पोषण, सहायता।। परवेख-संज्ञा, पु० दे० (सं० परिवेश) परवन--संज्ञा, पु० दे० स० पटोल) एकलता चन्द्रमा या सूर्य के चारों ओर हलके या उसका फल जिकी तरकारी बनती है। बादल का घेरा या मंडल ।। परवश-परवश्यवि० यौ० (सं०) परतंत्र, परवंश-परवेस?--संज्ञा, पु० दे० (सं० पराधीन । प्रवेश) प्रवेश, पैठना, घुपना। परवश्यता ... संज्ञा, स्त्री. (सं.) परतंत्रता परश -- संज्ञा, पु० (सं.) पारस पत्थर । संज्ञा, पराधीनता. परवशता। पु० दे० (सं० स्पर्श) परम, स्पर्श, छूना । परवा --- संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० प्रतिपदा) परशु-संज्ञा, पु० (सं०) कुठार, तवर, भलुवा परिवा परीवा, पड़वा, एकम : संज्ञा, स्त्री० । (अ०) फरसा । 'परशु श्रछत देखौं जियत, (फ़ा०) चिन्ता, आशंका, ध्यान, परवाह । वैरी भूप-किशोर"--रामा० । परवाई* --- संज्ञा, स्त्री० दे० (फ़ा० परवा) पर- एरशुराम ... संज्ञा, पु. यौ० (सं०) जमदग्नि, वाह, परवाही। ऋषि के पुत्र परसुराम । परवाना--संज्ञा, पु० दे० (सं० प्रमाण) | परश्व-अध्य० (सं.) परसों. पाने वाला प्रमाण, परमान, (दे०) सबूत, यथार्थ या तीसरा दिन । सत्य बात, सीमा, हद । वि० (सं०) परतंत्र, परमंग*... संज्ञा, पु० दे० (सं० प्रसंग) प्रसंग पराधीन। सम्बन्ध, लगाव, विषय का लगाव, अर्थ की परवानगी--संज्ञा, स्त्री० (फ़ा०) श्राज्ञ', हुक्म । संगति, पुरुष-स्त्री का संयोग. बात. विषय, अनुमति, मंजूरी अवसर, कारण, प्रस्ताव, प्रकरण, विस्तार । परवानना* ... स० क्रि० दे० (सं० प्रमाण) परमसा*-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० प्रशंसा) ठीक समझना, मान लेना । प्रशंसा, बड़ाई स्तुति ।। परवाना--संज्ञा, पु० (फा०) श्राज्ञापत्र, परल--- संज्ञा, पु० दे० (सं० स्पर्श) स्पर्श, पतंग, पाँखी, पतिंगा। "मग को बाग में | छूना । यौ० दरस-परस । संज्ञा, पु० दे० आने न दीजै । कि नाहक खून परवाने का (स० परस) पारस पत्थर । होगा"-स्फु० । परसन*--- संज्ञा, पु० दे० (सं० स्पर्शन) छूना परवाल*--संज्ञा, पु० दे० (सं० प्रवाल) छूने का कार्य या भाव । यौ० दरसनप्रवाल, मूंगा । परसन । परवाय--संज्ञा, पु. (सं० वाह) ढक्कन, परसना* --.स. क्रि० दे० (सं० स्पर्शन) स्पर्श आच्छादन । करना, छूना, छुलाना । स० कि० दे० (सं० परवाह... संज्ञा, स्त्री० (फा०) चिन्ता, ध्यान, परिवेषण) परोसना । "परस्त पद पावन पासरा । संज्ञा, स्त्री. परवाही-संज्ञा, पु० लोक नसावन, प्रगट भई तप-पुञ्ज सही" दे० (सं० प्रवाह) पानी का स्रोता, बहाव, -रामा० धारा, काम जारी रहना, चलता हुआ क्रम, । परसन्न - वि० दे० (सं० पसन) प्रसन्न, खुश । सिलसिला। परस-पखान-- संज्ञा, पु० दे० यौ० (सं० स्पर्शपरवी-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० पर्व) पर्वकाल, | पाषाण) लोहे को सोना करने वाला पारस उत्सव-समय, स्यौहार का दिन । पत्थर। For Private and Personal Use Only Page #1092 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - परसा २०८१ पराक्रमी परसा-संज्ञा, पु० दे० (हि० परसना) पत्तल, परस्मैपद-संज्ञा, पु० (सं०) क्रिया का एक एक पुरुष का भोजन । भेद (सं० ब्या०)। परसाद*-संज्ञा, पु० दे० (सं० परसाद) | परहरना* ---१० कि० दे० (सं० परिहरण) प्रसाद, प्रसन्नता, कृपा, दया. देवता का दिया | छोड़ना. त्यागना । "अस विचारि परहरहु या उस पर चढ़ाया हुश्रा, पदार्थ, भोजन। न भोरे"-रामा० । परसाना* - स० क्रि० दे० (हि० परसना) परहार-संज्ञा, पु० दे० (सं० प्रहार ) छुलाना, भोजन बँटवाना । "दल पर फन प्रहार चोट । संज्ञा, पु० दे० ( सं० परिहार) परसावति"-सूर० । त्याग, उपाय, परिहार। परमाल-पारसाल -- अव्य० दे० यौ० (सं० परहित - संज्ञा, पु. यौ० ( सं०) परोपकार, पर+साल-फा०) पिछले वर्ष, श्रागामी वर्ष । दूसरों की भलाई । “ परहित सरिस धर्म परसिद्ध*- वि० दे० (सं० प्रसिद्ध) प्रसिद्ध | नहिं भाई'-रामा०। विख्यात । परहेज-संज्ञा, पु० ( फा० ) उन वस्तुओं से परसिया-संज्ञा, पु० (दे०) हँसिया, दाँती। बना जो स्वास्थ्य को हानिकारी हों। परसु – संज्ञा, पु० दे० (सं० परशु) कुठार, दोषों, दुर्गणों या बुराइयों से बचना,संयम । फरसा, परशु । परहेज़गार-संज्ञा, पु. ( फा० ) संयमपरसूत*- वि० संज्ञा, पु० दे० (सं० प्रसूत) कर्त्ता, संयमी। संजात, उत्पन्न, पैदा, उत्पादक । संज्ञा, पु. परहेलना-सं० कि० दे० ( सं० प्रहेलना ) (दे०) एक रोग जो प्रसव के पीछे हो जाया तिस्कार, अनादर, अपमान करना । करता है (वै०)। परहोंक-संज्ञा, पु० (दे०) बोहनी । परसूती-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० प्रसूती वह | परांठा--- संज्ञा, पु० दे० ( हि० पलटना ) स्त्री जिसके हाल में पुत्र उत्पन्न हुआ हो या परोठा, परौठा, परेठा, पराठा, तवा पर घीजिसके प्रसूत रोग हुना हो। द्वारा सेंकी परतदार पूरी।। परसेद*-संज्ञा, पु० दे० (सं० प्रस्वेद ) परा-संज्ञा, स्त्री० (सं० ) दो विद्याओं में प्रस्वेद, पसीना। से एक, ब्रह्म विद्या, उपनिषद-विद्या । संज्ञा, परसों - अ० दे० (सं० परश्वः) बीते दिन के पु० (दे०) पाँति, पंक्ति, कतार ( फा०)। पहले का दिन, आगामी दिन के बाद का पराइ-पराई-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० पर ) दिन। अन्य या दूसरे की । अ० कि० (दे०) भागना, परसोतम*-संज्ञा, पु० दे० यौ० (सं० " देखि न सकहिं पराइ विभूती"-रामा० । पुरुषोत्तम) पुरुषोत्तम, विष्णु, श्रेष्ठ पुरुष ।। पराक--संज्ञा, पु. ( सं० ) वृत्तविशेष (पिं०) परमही-वि० दे० (सं० स्पर्श) छूने या प्रायश्चितविशेष, तलवार या खड्ग, बुद्र स्पर्श करने वाला। रोग-जन्तु, भेद। परस्पर-कि० वि० (सं०) आपस में, एक पराकाष्टा-संज्ञा, स्त्री० (सं० ) सीमांत, दूसरे के साथ, परसपर (दे०)। चरमसीमा, अंत। परस्परोपमा-संज्ञा, स्त्री० (सं.) एक अलं- पराकम-संज्ञा, पु. ( सं० ) शक्ति, वल, कार, जिसमें उपमेय और उपमान परस्पर पौरुष. उद्योग पुरुषार्थ । (वि० पराक्रमी)! उपमान और उपमेय हों, उपमेयोपमा पराक्रमी- वि० (सं० पराक्रमिन् ) बलिष्ट, (अ० पी०)। शक्तिशाली, पुरुषार्थी, वीर । भा० श० को.--१३६ For Private and Personal Use Only Page #1093 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org १०८२ पराग "6 पराग - संज्ञा, पु० (सं०) रज, फूल की धूलि, पुष्प रज, उपराग । स्फुट पराग परागत पंकजम् ", " नहिं पराग नहि मधुर मधु " — वि० । परागकेसर - संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) फूलों के वे बारीक बारीक सूत जिनकी नोकों पर पराग होता है । परागति - संज्ञा, स्त्री० (सं० ) गायत्री | परागना ० क्रि० दे० (सं० उपराग) अनुरक्त या मोहित होना । पराङ्मुख - वि० यौ० (सं० ) विमुख, विरुद्ध, उदासीन, जो ध्यान न दे । पराजय - संज्ञा, स्त्री० (सं० ) हार पराभव वि०- पराजित - हारा हुआ । पराजिका संज्ञा स्त्री० (सं० ) परज नाम की एक रागिनी (संगी० ) । पराजिता - संज्ञा, स्त्री० (सं० ) एक लता, विष्णुकांता | वि० स्त्री० (सं०) हारी हुई। पराजेता - वि० (सं० ) पराजय करने वाला, विजयी | पराठा - संज्ञा, पु० (दे० ) तवापर सेंकी हुई कम घी से बनी परतदार पूड़ी य रोटी | परेठा, परौठा (दे०) । परात - संज्ञा, स्त्री० दे० ( सं० पात्र ) बड़ा प्याला, कोपर (प्रान्ती० ) " पानी परात को हाथ छुयो नहि नैननि के जलसों पग धोये " - नरो० । परातिक्ता - संज्ञा, स्त्री० (सं०) एक श्रौषधि, लाल रंग का पुनर्नवा | पराती - संज्ञा, स्त्री० (दे०) परात, थाल, संज्ञा, पु० (दे० ) प्रातः काल गाने के योग्य भजन, प्रभाती । परात्पर - वि० यौ० (सं० ) सर्व श्रेष्ठ, सबसे बढ़िया | संज्ञा, पु० (सं०) परमात्मा, विष्णु । परात्मा - संज्ञा, पु० (सं० ) परमात्मा । परादन - संज्ञा, पु० ( फा० ) फारस देश | का घोड़ा । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पराया, पराय पराधीन- वि० (सं० ) परतंत्र, पर-वश, "पराधीन सुख सपनेहुँ नाहीं" - स्फुट० । पराधीनता - संज्ञा स्त्री० (सं० ) परतंत्रता, पर वश्यता । " पराधीनता दुख महा, सुख जग में स्वाधीन " - वृन्द० | परान-संज्ञा, पु० दे० (सं० प्राण) प्राण, जीव, जान पराना – प्र० क्रि० दे० (सं० पलायन ) भागना | संज्ञा, पु० (दे०) प्राण | परानी - संज्ञा, पु० दे० ( सं० प्राणी ) प्राणी, जीवधारी । अ० क्रि० स० भू० स्त्री० (दे०) भाग गई । परान्न - संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) पराया अनाज, दूसरे का भोजन ! " परानं दुर्लभं लोके " - स्फु० । पराभव परापर - संज्ञा, पु० (सं०) फालसा । पराभव - संज्ञा, पु० (सं० ) हार, पराजय, विनाश, अपमान, तिरस्कार | " सो तेहि सभा पराभव पावा" - रामा० | भव भव विभव कारणि- -रामा० । पराभिक्ष- संज्ञा, पु० (सं० ) वानप्रस्थ जो थोड़ी सी भिक्षा से ही निर्वाह करते हैं । पराभूत - वि० (सं०) पराजित, हारा हुआ, नष्ट, ध्वस्त, अपमानित । स्त्री० पराभूता । परामर्श - संज्ञा, पु० (सं० ) खींचना एक दना, विचार, विवेचन, युक्ति, सलाह । परामर्ष -संज्ञा, पु० (सं० ) - सहना, तितिक्षा, सलाह, निवृत्ति । परामोद - संज्ञा, पु० (सं०) फुसलावा, झाँसा, बहकावा ! परामृष्ट - वि० (सं० ) पकड़ कर खींचा हुआ पीड़िता, विचारा हुआ, निर्णीत । परायण - वि० ( सं०) गया हुआ, गत, तत्पर, प्रवृत्त, लगा हुथा, (दे० ) परायन । परायत्त - वि० (सं० ) परतंत्र, पराधीन, परवश । पराया, पराय - वि० पु० दे० (सं० पर ) अन्य या दूसरे का, बिराना (दे० ) ( स्त्री० पराई ) | For Private and Personal Use Only Page #1094 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir परि - - Tama परायु १०८३ परायु-संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) ब्रह्मा । परावर्तित-वि० (सं० ) पीछे फेरा या परार-वि० दे० ( सं० पर ) पराया, अन्य पलटा हुआ, उलटाया। या दूसरे का । संज्ञा, पु० (दे०)- पयाल, परावसु-वि० (सं० ) असुरों का पुरोहित, "धान को खेत परार तें जानो" -सुन्द। एक गंधव, विश्वामित्र का एक पुत्र । परारध*-संज्ञा, पु० दे० (सं० पराद्ध) पराधह-संज्ञा, पु० ( सं० ) एक वायु-भेद । एक शंख की संख्या, ब्रह्मा की श्रायु का | परावा, पराव-संज्ञा, पु० दे० (सं० पर ) श्राधा समय। अन्य या दूसरे का, पराव, पराया (दे०)। परारि-वि० (सं० ) बीता या धागे आने " करें मोह-वश द्रोह परावा"--रामा । वाला वर्ष । परावृत्त--वि० (सं०) फेरा, लौटा या बदला परास-संज्ञा, पु. (सं०) करेला, एक हुआ, उलटा हुआ। तरकारी। परावृत्ति-वि० (सं०) पलटाव, मुक़दमे परारब्ध-परालब्ध-संज्ञा, पु० दे० (सं० का पुनर्विचार, पुनरावृति। प्रारब्ध ) भाग्य, दैव, अदृष्ट । परावेदी-संज्ञा, स्त्री० (सं०) भटकटैया, परार्थ-वि० यौ० (सं० ) परोपकार दूसरे कटई, कटेरी, कंटकारी (सं०)।। का कार्य, जो दूसरे के अर्थ हो, पर पराशर-संज्ञा, पु० (सं०) वशिष्ठ और शक्ति के पुत्र (पुरा०) एक स्मृतिकार, व्यास के निमित्तक । पिता। पराद्ध - संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) एक शंख पराश्रय-वि० यौ० (सं०) परतंत्र, पराधीनता, की संख्या, ब्रह्मा की अर्ध आयु। परवशता, दूसरे का सहारा। वि०पराश्रित । परार्द्धि- संज्ञा, पु० (सं० ) विष्णु, ऋद्धि- परास*-संज्ञा, पु० दे० ( सं० पलाश ) वान। एक पेड़ और उसके पत्ते, टेसू, छिउल । पराद्धर्य-वि० (सं) श्रेष्ठ, प्रधान, सवोत्कृष्ट । | परासी-संज्ञा, स्त्री० (दे०) एक रागिनी, पराल-संज्ञा, पु. (दे०) (सं० पलाल ) (संगी०)। घास, तृण पलाल (दे०)। परासु-वि० (सं०) प्राण-हीन, गतप्राण, मृतक, गत-जीवन । परावत-संज्ञा, पु० (सं० ) फालसा।। परास्त-वि० (सं०) हारा हुआ, पराजित, परावन--- संज्ञा, पु० दे० (हि० पराना) विजित, पराभूत, ध्वस्त । भगदड़, भागना । अ० कि० (दे०) परावना। पराह-संज्ञा, पु० (सं०) भगदड़, भागाभाग, संज्ञा, पु. (सं० पर्व) पर्व।। देश-त्याग, भगाइ।अ० कि० (दे०)पराहना । परावना-संज्ञा, पु० दे० (सं० पर्व ) पुण्य परान्ह-वि० (सं० ) अपरान्ह, दोपहर के काल, पर्व । “ पूरे पूर व पुन्य तें, परयो पीछे का वक्त, तीसरा पहर, दिन का दूसरा पराक्न बाज"- मतिः । भाग। परावर-वि० (सं० ) सर्वश्रेष्ठ, सर्वोत्तम, परि-उप० (सं) सर्वतोभाव, वर्जन, व्याधि पास या दूर का, इधर-उधर का । शेष, इस प्रकार श्राख्यान भाग, वीप्सा, परावर्त- संज्ञा, पु० (सं) लौटना, पलटाव, आलिंगन, लक्षण, दोषाख्यान, दोष कथन अदल-बदल, लेन-देन । निरसन, पूजा, व्यापकता, विस्मृत, भूषण, परावर्तन-संज्ञा, पु० (सं.) लौटना, पल- उपरमा शोक, संतोष, भाषण, चारों ओर, टना, पीछे फिरना। (वि० परावर्तित अच्छी तरह, पूर्णता, अतिशय, पूर्णता, परावर्तनीय)। नियम-क्रमादि अर्थ-सूचक है। For Private and Personal Use Only Page #1095 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir परिक १०८४ परिगृह्या परिक-संज्ञा, स्त्री० (सं० ) खोटी चाँदी। परिक्षा, परिच्छा-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० परिकर-संज्ञा, पु० (सं० ) कटि-बंधन, परीक्षा) परीक्षा इम्तहान, जाँच, देखभाल । कमरबंद, पलंग, चारपाई, परिवार, समारंभ, परिक्षित, परीछित-संज्ञा, पु० दे० (सं० समूह, वृन्द, सहकारी, विवेक । “मृग- परीक्षित) राजा परीक्षित । वि० (दे०) विलोकि कटि परिकर बाँधा” -रामा०। परीक्षा लिया हुआ। साभिप्राय विशेषणों वाला एक अर्थालंकार परिक्षिप्त-वि० (सं०) खाँई श्रादि से घिरा (म०पी०)। हुधा। परिकरमा*--संज्ञा, पु० दे० (सं० परिक्रमा परिक्षांद्रा-वि० (सं०) निर्धन, कंगाल । परिक्रमा, प्रदक्षिणा। " अर्धापन बैठार | परिखन वि० दे० ( हि० परिखना ) रक्षक, बहुरि परिकरमा दीन्ही"-नन्द० भ्र० गी। चौकसी या रखवाली करने वाला। परिकरांकुर-संज्ञा, पु. (सं० ) एक परिखना-स० कि० दे० ( हि० परखना ) अर्थालंकार, जिसमें साभिप्राय विशेष्य पाता | । परखना, परीक्षा या जाँच करना, बुराहै (अ० पी०)। भला पहिचानना, प्रतीक्षा करना। " तब परिकर्म--संज्ञा, पु० (सं०) कुंकुम आदि के | लगि मोहिं परिखियो भाई"-- रामा० । द्वारा अंग-संस्कार, स्नान करना, उबटन परिखा- संज्ञा, स्त्री. (सं०) खाँई, खंदक । लगाना। "लंका कोट समुद परिखा है। परिकर्मा-संज्ञा, पु. (सं०) सेवक, दास, परिखाना--स० क्रि० दे० ( हि० परखना) रहलुआ, किकर। ऊँचाना, परखाना, परीक्षा या प्रतीक्षा परिकल्पन-संज्ञा, पु० (सं०) प्रवंचन, दगा- कराना। बाज़ी, धोखाधड़ी छल । परिख्यात--वि० (सं०) विख्यात, प्रसिद्ध । परिकल्पना --- संज्ञा, स्त्री. (सं०) उपाय, परिगणन--संज्ञा, पु० (सं०) गिनना, गणना चिन्ता, चेष्टा, उद्योग, कर्म, क्रिया। करना । वि. परिगणित, परिगणनीय, पारकीर्ण-वि० (सं०) व्याप्त, विस्तृत, सम- परिगण्य । पित। परिगणित-वि० (सं०) ठीक ठीक गिना परकीर्तन-संज्ञा, पु० (सं०) प्रस्ताव, स्तुति, हुश्रा। बड़ाई, प्रतिष्ठा या प्रशंसा करण । | परिगत-वि० (सं०) प्राप्त, लब्ध, विदित, परिकूट--संज्ञा, पु० (सं०) शहर के फाटक ज्ञात, विस्मृत, गत, वेष्टित । की खाँई। परिगह-संज्ञा, पु० दे० ( सं० परिग्रह ) परिक्रम- संज्ञा, पु० (सं०) टहलना, फेरी कुटुंबी, आश्रित जन, संगी-साथी। देना, घूमना। परिगहना-स० कि० ( हि० परिगह ) ग्रहण परिक्रमण-संज्ञा, पु० (सं०) टहलना या अंगीकार करना। " लटे लटपटेन को घूमना, परिक्रमा करना। वि० परिक्रमणीय! कौन परिगहैगो" -विन० । परिक्रमा-संज्ञा, स्त्री० (सं०) प्रदक्षिणा, परिगठित-वि० (सं०) ढका या छिपा किसी के चारों ओर घूमना, फेरी या चक्कर हुआ। देना, किसी देव-मंदिर प्रादि के चारों ओर पारगृहीत-वि० (सं०) मंजूर, स्वीकृत, घूमने का मार्ग. पारकरमा (दे०)। मिला हुआ. शामिल। परिक्षत--- वि० (सं०) नष्ट, भ्रष्ट । परिगृह्या--वि० स्त्री० (सं०) विवाहिता स्त्री परिक्षध-संज्ञा, पु० (सं०) छींक। धर्म-पत्नी। For Private and Personal Use Only Page #1096 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir maramaANP परिचय। परिग्रह १०८५ परिजटन परिग्रह-संज्ञा, पु. (सं०) स्वीकार, प्रतिग्रह, परिचारिका-संज्ञा, स्त्री० (सं०) सेवकिनी, दान लेना, भार्या, पत्नी, विवाह, परिवार । दासी । 'ये दारिका परिचारिका करि पालबी ग्रहण । वि० पारग्रह्य ( सं० )। “येषु दीर्घ | करुनामयी "--रामा । तपस परिग्रहः" --रघु० । धनादि संग्रह। परिचालक-संज्ञा, पु० (सं०) चलाने वाला। परिग्रहण - संज्ञा, पु० (सं०) पूर्ण रूप से परिचालन -सज्ञा, पु. (सं०) चलाना, लेना ग्रहण करना, कपड़े पहनना । वि०-- हिलाना, गति देना. कार्य-क्रम का जारी परिहाय। रखना, चलने की प्रेरणा करना । वि. परिध- सज्ञा, पु० (सं०) लोहे की लाठी, परिचालित, परिचालनाय। स० क्रि० अर्गला घोड़ा. तीर, भाला, बरछी, गदा, (दे०) परिचालना : मगर घर फाटक बाधा प्रतिबंधा परिचालित-वि० (सं०) चलाया या हिलाया परिघोष - संज्ञा, पु. (सं०) शब्द विशेष, हुआ, कार्य-क्रम जारी किया हुश्रा : परिचित-वि० सं०) ज्ञात, जाना-समझा, मेघध्वान, कटु शद। जाना-बूझा, परिचय-प्राप्त, अभिज्ञ । परिचय-संज्ञा, पु० (सं०) ज्ञान, जान-पह परिचिति -- संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० परिचय ) चान, जानकारा, अभिज्ञता, लक्षण, प्रमाण. जानकारी, अभिज्ञता लतण. प्रमाण । किसी पुरुष के नाम, ग्राम, गुण आदि की परिचय -- वि० (सं०, परिचय के योग्य । विशेष जानकारी । परित्रो, परचौ-- संज्ञा, पु० दे० (सं० परिचय) परिचयक---वि० (सं०) ज्ञापक, बोधक, परिचय या जान-पहिचान कराने वाला। परिच्छद - संज्ञा, पु. (सं०) पाच्छादन, परिचर-संज्ञा, पु० (सं०) सेवक, टहलू(दे०)। कपड़ा, ढकने का वन पट-परिधान, सामान, हलवा (ग्रा०) रोगी का सेवक, सहायक। परिवार राज-सेवक, राजचिन्ह ।। परिचरजा-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० परिचच्या) परिच्छन्न-वि० सं०) छिपा या ढका हुआ, सेवा, रोगी की सेवा-शुश्रूषा । वस्त्रयुक्त, स्वच्छ किया हुआ। परिचरी- संज्ञा, स्त्री. (सं०) दासी, टहलुई। परिच्छिन्न-वि० (सं०) सीमा या मर्यादापरिचर्या- सज्ञा, स्त्री० (सं०) टहल, सेवा, युक्त, परिमित, विभक्त । रोगी की सेवा-शुश्रूषा । परिच्छेद--संक्षा, पु० (सं०) टुकड़े या खंड परिचयक-संज्ञा, पु. (सं०) जान-पहचान करना, विभाजन, पुस्तक का कोई स्वतंत्र या परिचय कराने वाला, सूचक, सूचित भाग, अध्याय, प्रकरण । करने वाला। परिछन-संज्ञा, पु० दे० (हि० परछन ) परिचार--संज्ञा, पु० (सं०) टहल, सेवा, सैर परछन (दे०), विवाह में द्वाराचार पर वर या टहलने की जगह । की भारती श्रादि की रस्म । परिचाक-संज्ञा, पु० (सं०) भृत्य, सेवक, परिछाही-संज्ञा, स्त्री० दे० ( हि० परछाई) नौकर-चाकर, रोगी की सेवा करने वाला। परिकॉई (दे०), प्रतिबिम्ब । "जल विलोकि परिचारगा-- संज्ञा, पु० (सं०) सुश्रूषा या तिनकी परछाही" - रामा० । सेवा करना, साथ या संग करना या रहना। परिजंक*-संज्ञा, पु० दे० (सं० पर्य्यक) पलंग, परिचारना*-२० क्रि० दे० (सं० परिचारण) पर्यक, प्रजंक, एजक, परजंक (दे०) । सेवा या सुश्रूषा करना। । परिजटन-संज्ञा, पु० दे० (सं० पर्यटन ) परिचारिक--संज्ञा, पु. (सं०) दास, सेवक।। पर्यटन, घूमना-फिरना, टहलना, यात्रा करना । For Private and Personal Use Only Page #1097 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir परिजन १०८६ परितोष परिजन-संज्ञा, पु० (सं०) परिवार, कुटुम्ब, परिणायक संज्ञा, पु० (सं०) स्वामी, पति, नातेदार, स्वजन, सेवक । " बड़े भये परि- पाँसा खेलने वाला। जन सुखदाई "-- रामा० । परिणायकरत्न - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) बौद्ध परिज्ञा-संज्ञा, स्त्री० (सं०) ज्ञान. बुद्धि । चक्रवर्तियों के सप्तधन-कोषों में से एक । परिज्ञात-वि० (सं०) ज्ञात, समझा-बूझा। परिणाह- संज्ञा, पु० (सं०) विस्तार, विशापरिज्ञान --- संज्ञा, पु० (सं०) पूरा ज्ञान । लता, चौड़ाई आकार प्राकृति, दीर्घस्वाँस। परिणत -वि० (सं०) परिणाम प्राप्त, पक्क, परिणात-वि० (सं०) विवाहित, जिसका पका या झुका हुश्रा, रूपांतरित. बदला | विवाह हो चुका हो, पूर्ण समाप्त,। हुश्रा, पचा हुआ। परिणीता-संज्ञा, स्त्री० (सं०) पाणिगृहाता, परिणति-संज्ञा, स्त्री० (सं०) फल, रूपांतर विवाहिता, व्याही हुई स्त्री, ऊढ़ा (नायि०)। होना या बदलना, प्रौढ़ता, पुष्टि, परिपाक, परिणेता-संज्ञा, पु० (सं०) भर्ता, पति । पचा हुश्रा, अंत । “परिणतिर वधार्यः यत्नतः परिणेय-वि० पु. (सं०) व्याहने योग्य, पंडितेन"-1 वि० स्त्री० परिणेया। परिणय-संज्ञा, पु० (सं०) विवाह, व्याह । परितः-अ० (सं०) सर्वतः, चारों ओर, चारों परिणयन--संज्ञा, पु० (सं०) व्याहना, विवाह ओर से। करना, विवाहना। परितच्छ. परतच्छ* -संज्ञा, पु० दे० (सं. प्रत्यक्ष) प्रत्यक्ष, संमुख, सामने, प्रगट, परिणाम-संज्ञा, पु० (सं०) रूपांतर प्राप्ति, प्रतच्छ (दे०)। बदलना, रूप परिवर्तन, अवस्थांतर-प्राप्ति । परिताप-संज्ञा, पु० (सं०) मनस्ताप, संताप विकृति, विकार, स्थिति-भेद (योग०) विकास, क्लेश, शोक, दुख, पश्चात्ताप पाँच ताव । वृद्धि, परिपुष्टि बीतना, फल, नतीजा, एक " अति परिताप सीय मनमाहीं।" वि. अर्थालंकार , जिसमें उपमान उपमेय का परितापित। कार्य ( उससे एक रूप होकर ) या कोई परितापन-संज्ञा, पु० (हि०) संताप देना। कार्य करता है (अ० पी०)। वि० परितापनीय । परिणामदर्शी-वि० यौ० (सं० परिणाम परितापी-वि० ( स० परितापिन् ) व्यथित, दर्शिन् ) दूरदर्शी, सूचमदर्शी, फल को विचार दुखित, पीड़ा देने या सताने वाला, जिसको कर काम करने वाला। वि० परिणाम परिताप हो । वि० (सं० प्रतापिन् ) प्रतापी दर्शक । संज्ञा, यौ० परिणामदर्शन। परतापी (दे०)। परिणामष्टि--संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) किसी परितुष्ट-वि० संज्ञा, (सं० परितुष्टि) अत्यंत. कार्य के फल के जान जाने की शक्ति संतुष्ट, प्रसन्न, श्रानन्दित, हृष्ठ । परिणामवाद -- संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) | परितुष्टि-संज्ञा, स्त्री० (सं०) सम्यक संतोष, संसार की उत्पत्ति और नाश आदि का | तृप्ति, श्राह्लाद, हर्ष, प्रानन्द । नित्य परिणाम के रूप में मानना (सांख्य०) परितृप्त-संज्ञा, पु० (स०) सम्यक् तृप्त । वि० परिणामवादी। परितृप्ति-संज्ञा, स्त्री० (सं०) तृप्ति, अधाई, परिणामी-वि० ( सं० परिणामिन् ) जो सन्तोष, हर्ष, पूर्णता, संतुष्टि। लगातार बराबर बदलता रहे। स्त्री० परिणा- | परितोष संज्ञा, पु० (सं०) तृप्ति, प्रसन्नता, मिना। संतोष । " करु परितोष मोर संग्रामा ।" परिणय-संज्ञा, पु० (सं०) व्याह, विवाह । । रामा० । वि० परिताषित, परितोषो। For Private and Personal Use Only Page #1098 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - परितोषक १०८७ परिपूरक परितोषक-संज्ञा, पु० (सं०) तृप्ति या संतोष परिनय% - संज्ञा, पु० दे० (सं० परिणय) करने वाला, प्रसन्न करने वाला। विवाह. व्याह, पाणि-ग्रहण ।। परितोषण-संज्ञा, पु० (सं०) परितुष्टि, सं. परिनिर्वाण-संज्ञा, पु० (सं०) पूर्ण मोक्ष, तोष । वि० परितोषणीय। मुक्ति, छुटकारा । परितोस*-संज्ञा, अ० दे० (सं० परितोष) | परिनिष्ठित- वि० (सं०) परिज्ञात, ज्ञानी, परितोष, संतोष, तृप्ति । प्रतिष्ठित, सम्मानित । परित्यक्त-वि० (सं०) त्यागा हुआ, छोड़ा | परिन्यास- संज्ञा, पु० (सं०) काव्य में वह हुश्रा, दूर किया या फेंका हुआ । स्त्री०परि- स्थल जहाँ कोई विशेष अर्थ पूर्ण हों, नाटक त्यक्ता। में मूल घटना का संकेत से सूचना करना परित्याग-संज्ञा, पु. (सं.) त्यागना. (नाट्य०)। छोड़ना, निकाल या अलग कर देना । वि० परिपंच-संज्ञा, पु० दे० (सं० प्रपंच) प्रपंच, परित्यागी। बखेड़ा, झंझट, चालबाजी, परपंच (दे०)। परित्याज्य- वि० (सं०) त्यागने-योग्य, | परिपक्व-वि० (सं० पूर्ण तया पका या छोड़ने के योग्य, अलग या दूर करने योग्य । पचा हुश्रा । संज्ञा, स्त्री० परिपक्वता- पूर्ण परित्राण-संज्ञा, पु० (सं०) रक्षा, बचाव । रूप से फूला हुआ, प्रौढ़, अनुभवी, कुशल, "परित्राणाय साधूनाम् "-गीता० । | प्रवीण । “परिपक्व कपित्थ सुगंधि-रसम्"परित्रात-वि० (सं०) रक्षित, पालित। भो० पु.। परित्राता-वि० (सं०) रक्षक, पालक ।। परिपंथी-संज्ञा, पु० (सं० परिपंथिन् ) शत्रु, परिदान--संज्ञा, पु. (सं०) परिवर्तन, विनि रिपु, विपक्षी चोर, ठग, लुटेरा। मय, बदला, लेन-देन । परिपाक-संज्ञा, पु० (सं०) पकना, पकाया परिदेवक-वि० (सं०) विलाप-कर्ता, दुख जाना, प्रौढ़ता, पूर्णता, अनुभव, निपुणता, देने वाला, दुखदायी, जुपारी ।। कुशलता, चतुरता, जानकारी बहुदर्शिता । परिदेषन-संज्ञा, पु० (सं०) पश्चाताप, परिपाटी-संज्ञा, स्त्री० (सं० ) रीति, पद्धति, पछतावा. विलाप, जुधा का खेल । "तत्र ढंग, शैली, सिलसिला, क्रम, प्रथा । "प्रगटी काः परिदेवना"--गीता०। स्त्री०परिदेवना। धनु-बिघटन परिपाटी".-- रामा० । परिध--संज्ञा, पु० दे० (सं० परिधि) परिधि । परिपार- संज्ञा, पु० (सं० पालि ) सीमा, परिधन-संज्ञा, पु० दे० (सं० परिधान) मर्यादा । परिधान, धोती, कपड़ा, अधोवस्त्र परिपालन-संज्ञा, पु० (सं०) रक्षा, बचाव, परिधान-संज्ञा, पु. (सं०) वस्त्र धारण बचाना । वि० परिपाल्य, परिपालनीय । करना. कपड़ा पहनना, वस्त्र, धोती, कपड़ा | परिपालक-संज्ञा, पु० (सं०) रक्षा-कर्ता, "परिधान वल्कलं ".-भत्त । पालन करने वाला। परिधि-संज्ञा, स्त्री. (सं०) घेरा, मंडल, परिपालित-वि० (सं०) रक्षित, पाला हुआ। कुण्डल, गोला, कपड़ा, वस्त्र परिवेश । परिपिष्टक- संज्ञा, पु० (सं०) सीपा, धातु । परिधेय-वि० (सं०) पहनने के योग्य । संज्ञा, परिपुष्ट- वि० (सं०) जो भली भाँति पालापु० (सं०) वस्त्र, कपड़ा। पोषा गया हो, पोढ़, प्रौढ़ (दे०)। परिध्वंस-संज्ञा, पु. (सं०) अपचय, नाश, परिपूत -- वि० (सं०) पवित्र, शुद्ध । तति, हानि, एक वर्ण संकर जाति । परिपूरक-वि० (सं०) पूरा करने वाला For Private and Personal Use Only Page #1099 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir परिपूरन १०८८ परिमेय परिपुरन- वि० दे० (सं० परिपूर्ण ) परिपूर्ण, परिभ्रमण--संज्ञा, पु. ( सं० ) घूमना, पूर्णतृप्त, अधाया हुआ, भरा हुआ, समाप्त | टहलना, घूमना फिरना, चक्कर लगाना, किया हुआ। पर्यटन। परिपूरित-वि० (सं० ) भली भाँति या परिभ्रष्ट-वि० (सं०) पतित, विनष्ट, गिरा पूरा भरा हुआ, प्रपूर्ण । । हुआ, च्युत। परिपूर्ण-वि० (सं०) (वि. परिपूरित) परिमंडल- संज्ञा, पु. ( सं० ) गोला घेरा। पूर्ण रूप से तृप्त, भली भाँति अधाया या परिमल-संज्ञा, पु. ( सं०) सुगंधि, सुवास, भरा हुआ, सब। संभोग, मैथुन, उबटना, मलना। वि. परिपोषक-वि. (सं०) पोषण-कर्ता, परिमलित। पालने वाला, भरण-पोषण करने वाला। परिमाता-संज्ञा, पु. ( सं०) माप, तौल, परिणाषण-संज्ञा, पु० (सं०) पालना और वि० परिमेय, वि० परिमित । सेना, पालन, पोषण करना। वि० परि-परिमान-संज्ञा, पु. दे० ( सं० परिमाण ) पोषणोय। माप, तौल परिमाण । परिपोषित- वि० (सं० ) पालित, सेवित, परिमार्जक-संज्ञा, पु. (सं०) परिष्कारक, पाला-पोषा हुआ, परिपुष्ट । | परिशोधक, मांजने या धोने वाला परिलव- संज्ञा, पु. (सं०) पैरना, तैरना, परिमार्जन-संज्ञा, पु. ( सं० ) परिष्करण, बाढ़, अत्याचार, नाव । परिशोधन, माँजना या धोना वि. परिमापरिप्लुत-वि० (सं०) डूबा हुआ, भीगा। जनीय. परिमार्जित, परिमृष्ट । परिव्राजक --- संज्ञा, पु० दे० (सं.) संन्यासी, परिमार्जित वि० (सं०) शुद्ध या साफ़ अवधूत, सदा घूमने वाला। किया या माँजा-धोया हुआ, परिष्कृत ।। परिभव-परिभाव-- संज्ञा, पु० ( सं० ) अप- परिमित-संज्ञा, स्त्री. (सं०) सीमा-बद्ध, मान, तिरस्कार, अनादर, पराजय, हार, निश्चित संख्या में, उचित माप में, कम, पराभव, अवज्ञा हेयबुद्धि । थोड़ा, अल्प, संकीर्ण सीमित । परिभाषना-संज्ञा, स्त्री० (सं०) चिंता, सोच, पारी मितव्यय-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) निय. ऐसा वाक्य जो उत्सुकता या कुतूहल सूचित मित या समझा बूझा, ठीक ठीक खर्च, करे ( साहि.)। किफायतशारी, कम खर्च, मापः, तोला परिभाषण-संज्ञा, पु० (सं०) निन्दा-सहित हुआ, ठीक ठीक । संज्ञा, स्त्री० परिमित कथन, बुरा व्याख्यान या भाषण । व्ययता। परिभाषा-संज्ञा, स्त्री० । सं० ) परिष्कृत | परिमितव्ययो- संज्ञा, पु. यौ० (सं०) कम भाषा, प्रज्ञप्ति सांकेतिक नियम. स्पष्ट गुण- खर्च करने वाला, समझ-बूझ कर खर्च करने कथन (सं० ) यश-रहित कथन, लक्षण, वाला. किफायतशार। परिचय । परिमिति ---संज्ञा, स्री. (सं०) तौल, माप, परिभाषित - वि० (सं.) भली भाँति कहा सीमा, मर्यादा परिमाण । हुआ, जिसकी परिभाषा की गयी हो। परिमेय-वि० सं०) जो तोला या मापा परिभू-संज्ञा, पु० (सं०) परमेश्वर, भगवान । जा सके, तोलने या मापने के योग्य, थोड़ा, परिभूत-वि० (सं० परि--भू-क्त) पराजित, कम । " माभूदाश्रमपीडेति परिमेय पुरः अपमानित, हराया हुआ। सरौ"-रघु० । For Private and Personal Use Only Page #1100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir परिमोक्ष १०८६ परिवृत्त परिमोत्त-संज्ञा, पु. (सं०) पूर्ण मुक्ति या फेरा, घुमाव, अदल-बदल. रूपान्तर. हेर-फेर । मोक्ष, निर्वाण परित्याग । वि० प रवतनीय परिवर्तित, परिवर्ती । परिमोक्षगा + सज्ञा, पु० (सं०) मोक्ष या मुक्त परिवर्तित-वि० (सं०) रूपांतरित, बदला करना या होना परित्याग करना, छोड़ना।। । हुआ, बदले में प्राप्त । परियक-पजैक*- सज्ञा, पु. दे. (सं० परिवर्ती-वि० (सं० परिवर्तिन ) बारम्बार पर्यक ) पयंक, पलँग, बड़ी चारपाई, बदलने वाला परिवर्तनशील, जो बराबर प्रजक, परजक (द०)। घूमें। “ परवर्तिनि संसारे मृतः कोवा न परियन* -- संज्ञा पु० दे० (सं० पर्यंत ) | जायते"-चाण । स्त्री० परिवर्तिनी। पर्यन्त तक, लौं, परजंत, प्रजंत (दे०)। परिवर्द्धक-सज्ञा, पु. (सं०) परिवृद्धक, पारया-संज्ञा, पु० दे० (तामिल-परैयान ) अति बढ़ाने या तरक्की करने वाला। एक नीच जाति दक्षिण भा०) सा० भू० अ० परिवर्द्धन-संज्ञा, पु० (सं०) परिवृद्धि, तरक्की, क्रि० (दे०) पड़ा । "मुख में परिया रेत" बढ़ती प्रवर्धन । वि० परिवर्द्धित, परि पर्धनीय। कवी। परिरंभ-रिरंभगा-संज्ञा, पु. (सं.) परिवद्धित-वि० (सं०) उन्नति या वृद्धि आलिंगन गले या, छाती से लगा कर किया या बढ़ाया हुश्रा, प्रवर्धित ।। मिलना । वि० परिरंभ्य, परिरंभी। वि. परिवह-संज्ञा, पु. (सं०) एक पवन, अग्नि परिरभणीय। की जीभ । परिधा-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं प्रति' दा) प्रतिपरिरंभक-संज्ञा, पु० (सं०) आलिंगन करने पदा, पड़िवा परेवा, परीवा (ग्रा)। या मिलने वाला परिरंभना-स. क्रि० दे० (सं० परिरंभ+ परिबाद- संज्ञा, पु. (सं०) अपवाद, निन्दा। परिवादनी-परिवादिनि-संज्ञा, स्त्री० (स.) ना = प्रत्य०) आलिंगन करना, गले या वीणा बाजा । “कलतया वचपः परिवादिनी छाती से लगाना। स्वरजिता रजिता वशमाययुः "-माघ । परिलंबन- सज्ञा, पु० (सं०) भाचक्र का । पग्विादी वि० (सं०) निन्दक, निन्दा करने २७ अंश पर एक कल्पित वृत्त रेखा। वाला। परिलेख-सज्ञा, पु० (स०) चित्र का ढाँचा, परिवार--संज्ञा, पु० (सं०) श्रावरण, कोष, खाका, चित्र तसवीर चित्र खींचने की वंश, कुटुम्ब, कुल । “सुत, वित, नारि 1 ची या कलम उल्लेख, वर्णन । बन्धु परिवारा ''-रामा० । पारलखन-सज्ञा, पु० सं० किती के चारों पारवाम-सज्ञा, पु. (सं०) घर, मकान, ओर रेखायें खींचना, ख़ाका, चित्र वर्णन । सुगन्धि, ठहरना । परिलेखना-स० कि० दे० (स० परिलेख+ | पग्विाह-सज्ञा, पु० (सं०) जल-धारा का ना=प्रत्य०) मानना, जानना, समझना। तीव्र बहाव, बाढ़, प्रवाह । परिधत-सज्ञा, पु. (स०) चक्कर, फेरा, पग्वृित-वि० (स०) वेष्टित, प्रावृत, ढका, घुमाव, विनिमय, बदला।। | छिपाया या घिरा हुआ। परिवर्तक-सज्ञा, पु० (सं०) घूमने-फिरने परिवात-संज्ञा, स्रो० (सं०) वेष्टन, ढकने, या चकर खाने वाला घुमाने या चक्कर देने घेरने या छिपाने वाला पदार्थ । वाला, उलटने-पलटने या बदलने वाला। परिवृत्त-वि० (सं०) वेष्टित, घेरा हुमा, परिवर्तन-संज्ञा, पु० (सं०) श्रावर्तन, चक्कर, उलटा-पलटा हुआ । मा. श० को -१३, For Private and Personal Use Only Page #1101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १०६० परिवृत्ति परिसंख्या परिवृत्ति--संज्ञा, स्त्री. (सं०) वेष्टन, घेरा, । परिशेष-वि० (सं०) बाकी, बचा हुआ। घुमाव, चक्कर, समाप्ति, बदला, अर्थान्तर, संज्ञा, पु० (सं०) अवशेष, परिशिष्ट, अन्त । बिना शब्द परिवर्तन (व्या०)। संज्ञा, पु० परिशोध - संज्ञा, पु० सं०) पूरी सफाई, पूर्ण एक अलंकार जिसमें लेन-देन या विनिमय शुद्धि, चुकता, बेबाकी । का कथन हो (१० पी०)। परिशोधक-संज्ञा, पु. (सं०) चुकता या परिवृद्धि-संज्ञा, स्त्री. (सं० ) परिवर्द्धन । बेबाक करने वाला, सफ़ाई या शुद्धि करने परिवेद-संज्ञा, पु. ( सं० ) पूर्ण ज्ञान। | वाला । वि० परिशोधित । परिवेदन--संज्ञा, पु. (सं०) पूर्णज्ञान, विच- परिशोधन- संज्ञा, पु० सं०) पूर्णरूप से शुद्ध रण-लाभ, बहस दुख, बड़े भाई से पहले या साफ़ करना, चुकता या बेबाकी करना । छोटे का ब्याह होना। | वि० परिशुद्ध, परिशोधनीय, परिपरिवेश-संज्ञा, पु. (सं०) घेरा, वेष्टन। | शोधित। परिवेष-परिवेषण-संज्ञा, पु० (सं०) परिश्रम--संज्ञा, पु० (सं०) मेहनत, प्रायास, भोजन परोपना, परसना (ग्रा० ) वेष्टन, श्रम, केश, उद्यम, थकावट, श्रांति । घेरा, सूर्यादि के चारों ओर का बादल का परिश्रमी- वि० ( सं० परिश्रमिन् ) मेहनती उद्यमी, श्रम करने वाला। मंडल, कोट, परकोटा, शहर-पनाह । वि०--- परिश्रय-संज्ञा, पु० (सं० ) रक्षा या पाश्रय परिवेषणीय, परिवेशव्य, परिवष्या का स्थान, परिषद, सभा । परिवेधन-संज्ञा, पु. (सं०) प्रावरण, पाच्छा. परिश्रांत-वि० (सं०) थका या हारा हुआ। दन, घेरा । वि० परिवेष्टित, परिवेष्टनीय। परिशत-विक प्रसिद्ध विख्यात । परिवज्या-संज्ञा, स्त्री० (सं०) भ्रमण, तप- | परिषत्-परिषद् - संज्ञा, स्त्री० (सं०) सभा, स्या, भिखारी सा, गुजर करना या जीवन- समाज, किसी विषय पर व्यवस्था देने वाली निर्वाह । विद्वत्सभा। परिव्राज-परिव्राजक--संज्ञा, पु. ( सं०) परिषद-संज्ञा, पु० (२०) सभासद, सदस्य, दरवारी। संन्यासी, परमहंस, यती। परिकार - संज्ञा, पु० (सं०) सफ़ाई, शुद्धि, परिवा , परिवाड्-संज्ञा, पु० (सं०) परि संस्कार, निमलता, स्वच्छता, भूषण, गहना वाज, संन्यासी, साधु । शृंगार, सजावट। परिशिष्ट-वि० (सं०) अवशेष, बानी । संज्ञा, परिष्क्रिया-संज्ञा, स्त्री० (सं०)शोधन, मार्जन, पु० (सं०) किसी कारण ग्रंथ में प्रथम न धोना, सजाना, मांजना सँवारना। दिया जा सका किन्तु अंत में दिया उपयोगी, परिष्कृत-वि० (सं०) शुद्ध या स्वच्छ किया आवश्यक या महत्वपूर्ण बातों का अंश । हुआ, धोया-माँजा हुश्रा, सजाया या परिशीलन-संज्ञा, पु० (सं०) किसी विषय सँवारा हुआ, परिमार्जित । को भली भांति सोचते-विचारते ध्यान लगा परिष्यंग-संज्ञा, पु० (२०) आलिंगन, रमण | कर पढ़ना, स्पर्श करना। " ललित लवंग परिसंख्या- संज्ञा, स्त्री० (सं०) गिनती, बता परिशीलन कोमल मलय समीरे"- गणना, एक अलंकार जिसमें प्रस्तुत या गीतः। वि० परिशीलित, परिशीलनीय। अप्रस्तुत बात उसके समान अन्य बात के परिशुद्ध-वि० (सं०) परिष्कृत, परिशोधित, व्यंग्य या वाच्य से रोकने के लिये कही पवित्र, शुद्ध, साफ-सुथरा। जाय। इसके दो भेद हैं-१-सप्रश्न २परिशुष्क-वि० (सं० ) बहुत सूखा। अप्रश्न ( १० पी०)। For Private and Personal Use Only Page #1102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir परिसर परीक्षित परिसर-संज्ञा, पु० (दे०) निकास, कगर। | खंडन, तिरस्कार, उपेक्षा, अनुचित कार्य का परिसर्प-संज्ञा, पु० (सं०) परिक्रमण, घूमना । प्रायश्चित ( सा० द०)। संज्ञा, पु० (सं०) फिरना, टहलना, खोजना । संज्ञा, पु० राजपूतों का एक वंश । परिसर्पण-किसी पात्र का किसी की परिहारना- स० क्रि० (दे०) प्रहार करना, खोज में मार्गगत चिन्हों से भटकना | मारना। "अभिमनु धाइ खङ्ग परिहारे''-सब०। (सा० द०) ११ कुष्टों में से एक (सुश्र०)। परिहारी-संज्ञा, पु. ( सं० परिहारिन् ) परिस्तान-संज्ञा, पु० (फा० ) परियों का त्याग, निवारण, दोष या कलंक को छिपाने देश, सुन्दर स्त्रियों के जमाव का स्थान। या मिटाने वाला। संज्ञा, स्त्री० ( प्रान्ती) परिस्फुट-वि० सं०) जाहिर, प्रगट प्रका- हल की एक लकड़ी। शित, खिला हुमा, फूला हुमा। संज्ञा, पु. परिहार्य-वि० (सं०) परिहार-योग्य, बचाव, परिस्फुटन । या त्याग के योग्य, निवारण करने योग्य । परिस्यंद-संज्ञा, पु० (सं०) झरना, रसना। परिहास-संज्ञा, पु. (सं०) उपहास. दिल्लगी परिहँस, परिहम*--संज्ञा, पु० दे० (सं० कुतूहल, कौतुक । " रिस-परिहास कि सांचहु परहास ) हंसी, परिहास, दिल्लगी, ईया, साँचा"-रामा० । डाह । संज्ञा, पु० (दे०) खेद, दुख, रंज। परिहास्य-संज्ञा, पु. (सं०) हँसने या हास्य परिहन-वि० सं०) मरा, मृत। के योग्य, उपहास्य, हँसी का पात्र । परिहरि-स० क्रि० पू० का० (हि० . परि-परिहित-वि० (सं०) वेष्टित, आच्छादित, हरना) त्याग या छोड़कर । “ गुरुसमीप परिधान किया या पहना हुआ । गवने सकुचि, परिहरि वानी वाम-रामा०।" | परी- संज्ञा, स्त्री० (फा०) तेल निकालने की परिहरण-संज्ञा, पु० (सं०) छीन लेना, परि- करछी, अप्सरा, देवांगना, स्वर्ग-बधूटी, स्याग, छोड़ना, तजना, दोष-निवारण, निरा- परमसुन्दरी, काफ पहाड़ की कल्पित संदर करण । वि० परिहार्य्य, परिहर्तव्य, परदार स्त्री (फा०)। परिहत। परीच्छित-वि० (सं०) अन्य या दूसरे का परिहरना -स० क्रि० (सं० परिहरण ) इष्ट या ईप्सित. चाहा हुश्रा । परीक्षिततजना, छोड़ना, त्यागना । “ जनक-सुता संज्ञा, स्त्री० (दे०) परीक्षित राजा । वि०परिहरेउ अकेली"- रामा०। जाँचा हुआ। परिहंस-संज्ञा, पु० दे० (सं० परिहास) परीक्षक-संज्ञा, पु० (सं०) परीक्षा या परिहँस, परिहास । इम्तिहान लेने वाला, जाँच-पड़ताल करने परिहा-संज्ञा, पु० (दे०) पारी से पाने | वाला। संज्ञा, स्त्री० परीक्षिका । वाला ज्वर, एक प्रकार का छन्द (पि०)। परीक्षण-संज्ञा, पु. (सं०) जाँच-पड़ताल परिहाना*-स० क्रि० दे० (सं० प्रहार) करना, इम्तहान लेना, निरीक्षण । वि. प्रहार करना, मारना । संज्ञा, पु० (सं०) हँसी परीक्षणीय। दिल्लगी, मजाक, खेल, क्रीड़ा। परीक्षा - संज्ञा, स्त्री० (सं०) इम्तिहान. जाँचपरिहार--संज्ञा, पु० (सं०) (वि. परिहारक) पड़ताल, निरीक्षण, समीक्षा, गुण-दोष, बुराई, ऐब, दोष, अनिष्ट आदि के दूर करने सत्यासत्य, योग्यतादि का निर्णय, परिच्छा का उपाय या युक्ति, उपचार, औषधि, (दे०)। इलान, परित्याग, त्यागने का काम, पशुओं परीक्षित-वि. (सं०) जिसकी जाँच या के चरने की पड़ती भूमि, विजय-धन, छूट, परीक्षा की गयी हो ! संज्ञा, पु० (सं०) अर्जुन For Private and Personal Use Only Page #1103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir परिदाह १०१२ परोजन के पोते अभिमन्यु-सुत तक्षक के काटने से परुषोक्ति संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) कठोर या इनकी मृत्यु हुई इनके समय में कलियुग | कड़े वाक्य, नीरवचन, गाली-गलौज । का प्रवेश हुश्रा था। परे-श्रव्य० (सं० पर) उधर, श्रागे उस परीदाह-संज्ञा, पु० दे० (सं० परिदाह) परि- ओर, अलग. बाहर, ऊपर बढ़कर. पीछे । दाह, जलना। परेई-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि० परेवा) कबूतरी, परीक्ष्य-वि० सं०)जाँच या परीक्षा के योग्य । पंडुकी , फाखता (फ़ा०) । “पट पाँखे भख परीखना -स. क्रि० दे० (हि० परखना) काँकरे सदा प'ई संग"-वि.। परखना, जाँचना। परेखना स० क्रि० दे० (सं० प्रेक्षण) परपरीछत-परीछित*-संज्ञा, पु० दे० (सं० खना जाँचना, राह या वापरा देखना। परीक्षित) परीक्षित, जाँची हुई, अनुभावित, परेखा*-- संज्ञा, पु. दे. ( सं० परीक्षा) राजा परीक्षित। परीना प्रतीति. विश्वास, पश्चाताप, खेद । परीछा-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० परीक्षा इम्त- 'सुत्रा परेखा का करै " -स्फु० । हान जाँच. परीक्षा । परिच्छा (दे०)। परेग-संज्ञा, स्त्री० दे० ( अ०-पेग ) छोटा परीकित*-क्रि० वि० दे० (सं० परीक्षित) काँटा। जाँची या परीक्षा की हुई अवश्यमेव । रेत-संज्ञा, पु० दे० (सं० प्रेत) प्रेत भूत । पर्गज़ाद-वि० (फा०) अत्यन्त सुन्दर। परेता - संज्ञा, पु० दे० ( सं० परितः ) सूत परी*-संक्षा, पु० दे० (सं० प्रेत प्रेत. लपेटने की चरबी ( जुलाहा० )। भूत रेत (दे०)। परेताना-स० कि० दे० सं० परितः) चरखी परीताप-संज्ञा, पु० दे० (सं० परिताप ) | में डोर लपेटना. सूत की फॅटी बनाना। परिताप. दुख, शोक। परेरा-संज्ञा, पु० दे० (सं०पर = दर, ऊंचा+ परीषह-संज्ञा, पु० (सं०) जैन धर्मानुसार, एर-प्रत्य० पासमान, आकाश । २२ प्रकार के त्याग, सहन । गरेवा- संज्ञा, पु० दे० (सं० पारावत) कबूतर, परुख* वि० दे० (सं० परूष) परुष. कटु। पेंडुको, फाखता, (फ़ा. हरकारा, चिट्ठी "परुन बचन सुनि कादि असि" रामा० रमाँ । स्त्री० परेई । " सुखी परेवा जगत में, परुखाई*-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. परुख + तूही एक विहङ्ग'- वि० । भाई-प्रत्य०) कठोरता, परुषता, परुखई | परेश- संज्ञा, पु० यौ० (सं०) परमेश्वर । (दे०)। परेशान-वि० फा०) व्याकुल उद्विग्न व्यग्र। परुष-वि० (सं०) (स्त्री० परुषा) कड़ा कठोर; / संज्ञा, स्त्री. रेशानी-उद्विग्नता, घबराहट । निर्दय, निठुर, बुरी लगने वाली बात। रेह-संज्ञा, पु. (दे०) कढ़ी जूस रमा। परुषता-संज्ञा, स्त्री० (सं०) कड़ाई. कठोरता, | परों-गरौं*1-क्रि० वि० दे० (हि० परसों) निर्दयता, कर्कशता । संज्ञा, पु. गरुषत्व । । परसों। यौ० कल-परसों, परसों-नरसों। परुषा-संज्ञा, स्त्री. (सं०) टवर्ग. संयुक्त, परोक्ष-संज्ञा, पु० (स०) प्रभाव गैरहाज़िरी। वर्ण तथा र, श, ष, क्त. दीर्घ समास वाली | वि० (सं०) जो देखा न गया हो गुप्त, छिपा। पद-योजना या वृत्ति (काव्य०), रावी नदी । यौ० परीक्ष-भूत-विगत भूतकाल (व्या०) परुषाक्षर-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) टवर्ग के "परोने कार्य हतारम्-प्रत्यक्ष प्रियवादिनम् " कठोर या संयुक्त अक्षर व्यंग या निष्ठुर वचन, पोजन-संज्ञा, पु० दे० (सं० प्रयोजन) तानाज़नी, कुवचन, कटूक्ति। प्रयोजन, मतलब, आवश्यकता। For Private and Personal Use Only Page #1104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - परोपकार २०१३ पर्णकुर्च परोपकार-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) उपकार. पर्चा-संज्ञा स्त्री० (दे०) पुरजा, परख, जाँच, दूपरों की भलाई या हित का कार्य । परीक्षा, अनुभव, चिन्हान, परिचय, परचौ परोपकारी-संज्ञा, पु. यौ० (सं० परोप- (दे०)। संज्ञा पु. (फ़ा०) टुकड़ा, परीक्षा कारिन्) दूयरों का हित या भलाई करने । का प्रश्न या उत्तर-पत्र । वाला. उपकारी स्त्री० परोपकारिणी। | पर्चाना-स० क्रि० (दे०) मिलाना, भेंट या परोपदेश-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) दूसरों को परिचय कराना, हिलाना। शिना देना, हित की बात कहना "परोप- पर्चन- संज्ञा पु० (दे०) यौ० (सं० परचूर्ण) देशेपांडित्य सर्वेषाम् सुरं नृणाम्"। चावल, पाटा,दाल और मसाला आदि भोजन परोपदेशक - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) दूसरों की सामग्री या सामान, परचून-(प्रा०)। को शिक्षा देने वाला, दूसरों से हित की पर्चनिया-संज्ञा, पु. (दे०) श्राटा, दाल बात कहने वाला। श्रादि बेचने वाला मोदी। परोना स० क्रि० दे० (हि० पिरोना, पिरोना | पर्चुनी-संज्ञा, स्त्री० (दे०) पाटा दाल आदि पोहना। का व्यापार. मोदी का काम । परोग्गा स० कि. (दे०) जादू या मंत्र पचनी-संज्ञा, स्त्री० (दे०) छोटा छप्पर, पढ़ कर फूंकना। छोटी छानी, परछती (ग्रा०)। परोरा-संज्ञा, पु० (दे०) परवल । पळ- संज्ञा, पु० (दे०) तकुत्रा. तेकुवा (ग्रा०) परोल- सज्ञा, पु० दे० (अ० पराल) सानका सूजा. जला हुमा धान. मिट्टी का धड़ा। का संकेत शब्द जिसके कहने से आने-जाने पाई-संज्ञा स्त्री० (दे०) (सं० प्रतिछाया) में रुकावट नहीं होती। प्रति-विंब, बाया, परछाहीं।। परोप-संज्ञा, पु० दे० (सं० प्रतिवास) पडोमा पर्जक पजंक-संज्ञा, पु० दे० (सं० पर्यक) यौ० म.गराम । “ परबस परे परोस पलंग बड़ी चारपाई, प्रजंक (दे०) । बमि. परे मामिला जान "-वृ। पर्ज-संज्ञा, स्त्री०(दे०) एक रागिनी (संगीत)। परामना-स० कि० दे० (हि० परसना) पर्जनी संज्ञा, स्त्री० (सं०) दारुहलदी। परसना भोजन देना, परसना। पर्जन्य-संज्ञा, पु० (सं० ) इंद्र, विष्णु, परासा-सज्ञा, पु० दे० (हि० परोसना) एक मेघ, बादल, परजन्य (दे०)। " परजन्य व्यक्ति के भोजन का पूरा स मान, पत्तल । जथारत है दरपौ'-घना।। परमा (ग्रा०)। पर्ण- संज्ञा, पु० (सं०) वट-पत्र, पत्ता, पत्ती, परोमी-पड़ोसी-संज्ञा, पु० दे० (सं० प्रति | पात (ग्रा.), पन (दे०) पाना।। वासी) पड़ोस में रहने वला। स्त्री० परोसिन । "प्यारे पदमाकर परोसिन | पर्णक पूर- संज्ञा, पु० दे० यौ० सं० पर्णकपूर) पान-कर, कपूर-पान । हमारी तुम।” परासया-संज्ञा, पु० दे० (हि. परसना) पर्ण कार-संज्ञा, पु० (सं०) बरई. तमोली। परसने या परोसने वाला, परमैया (ग्रा०)। पर्णकुटी-संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) पर्णशाला, परोहर-संज्ञा, पु० दे० (सं० परोहण) पत्तों का झोपड़ा या झोपड़ी, पर्न कुटी। सवारी गाड़ी श्रादि यान वाहन । " रघुबर पर्णकुटी तहँ छाई।"-रामा। परोहा-- संज्ञा, पु० (दे०) चरस, पुरः परश्वः कुर्च-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) व्रत विशेष (सं०) पानी भरने का चमड़े का थैला। जिसमें ढाक, गूलर, कमल और बेल के पकटी-संज्ञा स्त्री० (दे०)पाकर नामक वृक्ष। पत्तों का काढ़ा ३ दिन तक पिया जाता है। For Private and Personal Use Only Page #1105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - पर्णकृच्छ्र १०६४ पर्यनुयोग पर्णकन्छ- पंक्षा, पु० यौ० (सं०) व्रत विशेष | पर्णिक-संज्ञा, पु० (सं०) पत्ते बेंचने वाला, जिसमें ५ दिन तक क्रम से, ढाक, गूलर | बारी। कमल, बेल और कुश के पत्तों का काढ़ा पर्णिका-संज्ञा, स्त्री. (सं०) शालपर्णी, पिया जाता है। मान कंद, अग्नि मथने की श्ररणी। पर्णखंड-संज्ञा, पु० (सं०) वनस्पति, जिस | पर्णिनी-संज्ञा, स्त्री. (सं०) मषवन । संज्ञा, पेड़ में फूल बिना फल होते हों। पु. (सं०) सुगंध वाला। पर्याचोरक-संज्ञा, पु. (सं०) गंधद्रव्य विशेष। पर्णी-संज्ञा, पु० (सं० पर्णिन् ) पेड़, वृक्ष एक पर्णनर-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) ढाक के पत्तों | औषधि । संज्ञा, स्त्री० (सं०) अष्परा-भेद । का बना पुतला जो मृतक के बदले जलाया | पर्त-संज्ञा, पु० दे० (हि० परत) परत, तह । जाता है। पर्दनो-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि० पर्दा ) धोती। पर्णभोजन-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) वह जीव पर्दा-संज्ञा, पु० दे० (हि० परदा ) परदा, जो केवल पत्ते खाकर रहे. बकरी, छेरी, यमनिका सित्तार के बंद, कान का परदा । पर्णभोजी। यौ०-पर्दानशीन-पर्दे में रहने वाली स्त्री। पर्णमणि-संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) हरित मुहा०—पर्दाफाश करना-गुप्त या गोप मणि, पन्ना, एक प्रकार का अस्त्र । नीय बात का प्रगट करना । पर्णमाचल-संज्ञा, पु. (सं.) कमरख वृक्ष । | पर्पट-संज्ञा, पु० (सं०) पित्तपापड़ा, पापड़ । पर्णमृग-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) पत्तों में घूमने "छिनोदवा पर्पट वारिवाहः"- लोलं० । वाला जीव, गिलहरी, बंदर आदि। | पर्पटी -- संज्ञा, स्त्री० (सं०) गुजरात की मिट्टी, पर्णय-संज्ञा, पु. (सं०) एक दैत्य जो इन्द्र | गोपी चंदन पा | गोपी चंदन पानडी, पपड़ी, स्वर्ण पर्पटी, द्वारा मारा गया था (पु.)। रस-पर्पटी नाम की औषधि (वै० । पर्णराह- संज्ञा, पु० (सं०) बसंत ऋतु । पर्पटीरस-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) एक प्रकार पर्णलता-संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) पान की का रस (वैद्य०) । बेल । पयेक - संज्ञा, पु० (सं०) पलंग, बड़ी चारपर्णवल्कल-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) एक ऋषि। | पाई, प्रयंक पर्जक (दे०)। पर्णघल्ली-एंडा, स्त्री० यौ० (सं०) पलासी पर्यक-बंधन-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) एक नाम की लता। प्रकार का योग का प्रायन । पर्णशवर-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) देश-विशेष। पर्यंत-अव्य० (सं.) तक, लौं : पणशाला-संज्ञा, स्त्री० यो० (सं०) पत्तों की पर्यंतदेश-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) किसी देश झोपड़ी, पर्णकुटीर। के अंत का देश, सीमांत देश । पर्णशालाग्र-संज्ञा, पु० (सं.) भादश्व वर्ष | का एक पहाड़ (पु.)। पर्यंतभूमि-संज्ञा, स्त्री० (सं०) नदी, नगर या पर्णसि-संज्ञा, पु० (सं०) कमल, पानी में पर्वत आदि के समीप की भूमि, परिसर भूमि । बना हुआ घर, सागर, समुद्र । पर्यटन-संज्ञा, पु. (सं०) भ्रमण, यात्रा, पर्णक-संज्ञा, पु० (सं०) एक ऋषि जिनसे घूमना-फिरना । वि० पर्यटनीय । पार्णिक गोत्र चला (पु०)। पर्यनुयोग-संज्ञा, पु० (सं०) जिज्ञासा, किसी पर्णास-संज्ञा, पु० (सं०) तुलसी । अज्ञात विषय के ज्ञात करने के हेतु प्रश्न । For Private and Personal Use Only Page #1106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पर्यवसान १०६५ पलंका पर्यवसान-संज्ञा, पु० (सं०) घरम, अंत, | पर्वतज-संज्ञा. पु० (सं०) पहाड़ से उत्पन्न । समाप्ति, शेष, परिमाण, मिलना अर्थ पचतनंदिनी- संज्ञा, स्त्री० या ० (स०, पार्वती। पाय निश्चित करना। वि०पर्य्यवसित। “सुत मैं न जायो राम-सम, यह कह्यो पर्यस्तापन्हुति-संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) एक पर्वतनंदिनी"--राम चं० । अर्थालंकार जिसमें वर्ण्य वस्तु का गुण छिपा- पर्वतराज--- संज्ञा, पु. यौ० (सं०) हिमालय कर उसी का दूपरी पर प्रारोपण हो या सुमेरु पहाड़। (५० पी०)। पर्वतारि - संज्ञा, पु० यौ० (सं.' इन्द्र । "वज्र पर्याप्त-वि० (सं० ) यथेष्ट, पूरा, काफ़ी __ को अखर्व गर्व गंज्यो जेहि पर्वतारि भागे हैं (फा०) श्रावश्यकतानुसार. प्राप्त. समथे।। सुपर्व सर्व लै लै संग अंगना"-रामः । पर्याय - संज्ञा, पु० (सं०) तुल्यार्थवाची शब्द, ॥ शब्द, पवतास्त्र-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) प्राचीन काल समान अर्थ वाले शब्द, एकार्थी शब्द. एक । का एक अस्त्र जिसके फेंकने से शत्र-सेना अर्थालंकार जिसमें एक वस्तु का अनेक में पर पत्थर पड़ने लगते थे या वह सेना पहाड़ों और अनेक वस्तुओं का एक में आश्रित होना से घिर जाती थी। कहा जाये-(भ० पी० ) । पाला, क्रम, पतिया-संज्ञा, पु० दे० (सं० पर्वत+इयाश्रानुपूर्वी, परिवर्तन, प्रकार, अवसर, प्रत्य.) लौकी, कद्दू । वि० (दे०) पहाड़ी। निमाण, भोसरी (दे०) बारी। पर्वती-वि० दे० (सं० पर्वतीय) पर्वतीय, पर्याय वाचक (वाची)-संज्ञा, पु. (सं०) पहाड़ी, पहाड़ पर रहने या होने वाला, एकार्थ बोधक। पर्यायशयन-संज्ञा, पु. यो० (सं०) पहरेदारों पहाड़-संबंधी । “गंठ पर्वती नकुला घोड़ा त्यों दरयायी पार के घोड़".-पाल्हा० । का बारी बारी से सोना। पर्यायोक्ति--संज्ञा, स्त्री० यौ० सं०) एक पर्वतीय-वि० (स०) पहाड़ पर रहने या होने अर्थालंकार जिसमें घुमा-फिरा कर बात कही वाले, पहाड़-संबंधी, पहाड़ी। जाये या किसी रोचक व्याज से कार्य-सिद्धि पर्वतेश्वर-संज्ञा, पु. यौ० (सं.) हिमालय, सूचित कीजिये ( अ० पी०)। शिव जी। पोलाचना-संज्ञा, स्त्रीयो० (सं०) समीक्षा, | पूरी जाँच-पड़ताल, विचार-पूर्वक देखना, पटोल (सं०), परवर (दे०) एक तरकारी। गुण-दोष ज्ञात करना। परिश-संज्ञा, स्त्री० ( फा० ) परवरिश, पर्युत्सुक-संज्ञा, पु० यौ० (सं०, उद्विग्नचित्ता पालना, पोषना, पालन-पोषण । पर्युपासक - संज्ञा, पु० (सं.) दास, सेवक ।। पर्व-संधि-संज्ञा, स्त्री० या० (सं.) प्रतिपदा पर्युपासन-पर्युपासना संज्ञा, स्त्री० यौ० और पूर्णिमा या अमावस्य के बीच का समय, (सं०) सेवा, दासता। सूर्य या चंद्र ग्रहण का समय । पर्व - संज्ञा, पु० (सं० पर्वत्र) पुण्य या धर्मः | पर्वाह- संज्ञा, स्त्री० दे० (फा० परवाह परवाह । काल, उत्सव-दिन, त्यौहार, टुकड़ा, भाग, भाग पविणी-ज्ञा, स्त्री. (सं०) पर्व-सबधी, अध्याय । पर्व की। पर्वकाल-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) पुण्य या | पहेज, परहेज-संज्ञा, पु० (फा०) अपथ्य या धर्म-काल । बुराई का त्याग, अलग या दूर रहना, पर्वणी- संज्ञा, स्रो० (सं०) पूर्णमासी, पूर्णिमा छोड़ना, बचना, त्यागना । पर्वत-संज्ञा, पु० (सं०) पहाड़, एक प्रकार के | पलंका-संज्ञा, स्त्री० दे० ( हि० पर- लंका ) संन्यासी । वि० पर्वतीय ।। । बहुत दूर का स्थान या जगह । For Private and Personal Use Only Page #1107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org १०३६ पलंग पलंग - संज्ञा, पु० दे० (सं० पल्यंक) पर्यक, बड़ी चारपाई । (त्रो० अल्पा० पलंगड़ी) पलंगा (दे० ) । पलंगपोश - संज्ञा, पु० यौ० । हि० पलंग + पोश फा० ) पलंग पर डालने की चादर । पलंगिया - संज्ञा, स्त्री० दे० ( हि० पलंग + इया प्रत्य०) खटिया, छोटा पलंग, चारपाई । पल-संज्ञा, पु० ( सं० ) घड़ी का ६० वाँ भाग, चार कर्ष की तौल, माँस, धान का पयाल, धोखेबाज़ो, तराजू । सज्ञा, पु० (सं० पलक) पलक । मुहा० - पल मारते या पलक मारने में अति शीघ्र, आँख झपते. तुरंत, क्षण में । मुहा०10-पल के पल में - क्षण भर में, अत्यंत थोड़े काल में । पत्नई - संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० पल्लव ) पेड़ की कोमल डाली या टहनी । " पत्तक संज्ञा, स्त्री० ( सं० पल + क ) आँख के ऊपर का चमड़ा, पपोटा । 'राखेहु पलक नैन की नाँई " - रामा० । मुहा०पलक झपते ( मारते, लगते ) - बहुत थोड़े काल में, बात कहते बात की बात में । " पलक मारन काम हो जाय ' - अ० सिं० । किसी के रास्ते सारा में या किसी के लिये पलक बिछानाश्रति प्रेम से स्वागत करना । पलकभांजना-पलक हिलाना । पलकमारना - आँखों से संकेत या इशारा करना, पलक झपकाना या गिराना । पलक लगना (लगाना ) - श्राँखे बंद होना या सुंदना, पलक झपकना, झपकी लगना, नींद श्राना । पलक से पलक न लगना - नींद न आना, टकटकी बँधी रहना । पलक दूर करना - सामने से हटाना । पलक दूर नहिं कीजिये ' - गिर० । 66 पलकदरिया - वि० दे० यौ० - + दरिया फ़ा० ) अति उदार, पलक नेवाज़ा - वि० ० ( हि० पलक बड़ा दानी । यौ० ( हि० Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पलना पलक + नेवज़ ) पलकदरिया, अति उदार, श्रति दानी | पलका - संज्ञा, पु० दे० (सं० पल्यंक ) पलंग, बड़ी चारपाई । स्त्री० पलक' । पलक्या सज्ञा, पु० (दे०) पालक का शाक या तरकारी । पलचर - संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) एक प्रकार के उप देवता । पलवन -- सज्ञा स्त्री० दे० ( अ० बटालियन या लेटून) अंग्रेजी सेना का एक दल जिसमें २०० के लगभग सिपाही होते हैं, समुदाय, पल्टन दे० । पलटना- अ० क्रि० दे० ( सं० प्रलोउन ) उलट जाना, परिवर्तन होना. बदलना, काया पलट हो जाना, घूमना-फिरना लौटना, वापस होना । स० क्रि० बदला करना, उलटना । पलटा संज्ञा, पु० दे० ( हि० पलटना ) परिवर्तन, परिवर्तित, बदला, प्रतीकार प्रतिफल मुहा". ---पलटा खाना स्थिति या दशा का फिरना या उलटना । पलटा लेना - बदला लेना लौटा लेना, बैर चुकाना । पलटाना -- स० क्रि० दे० ( हि० पलटना ) उलटाना, फेरना, लौटाना, बदल लेना, बदलना परिवर्तन करना । दे० ( हि० पलटा ) एवज में, बदले में । पलटाव- सज्ञा, पु० दे० ( हि० पलटाना ) लौटाव फिराव अदल-बदल | पलटों - क्रि० वि० प्रतिफल के रूप में पलड़ा - संज्ञा, पु० तराजू का पल्ला, तुलापट । पलथा - संज्ञा, पु० दे० ( स० पर्य्यस्त > लोट-पोट । मुहा०-- पलथा मारनालोटना-पोटना | दे० (सं० पलट ) पली - सज्ञा, स्त्री० द० (सं० पर्य्यस्त ) स्वस्तिकासन, एक श्रासन ( यो० ) । पलना - [अ० क्रि० (सं० पालन ) पाला-पोसा For Private and Personal Use Only Page #1108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पलनाना १०१७ पलीद जाना, हृष्ट-पुष्ट होना, तैयार होना। *- रखकर कसना, चढ़ाई की तैयारी करना, बुरा संज्ञा, पु. (दे०) पालना। भला कहना। पलनाना *-स० कि० दे० (हि. पलान | पलाना*-० कि० दे० (सं० पलायन ) ज़ीन +ना प्रत्य०) घोड़े पर ज़ीन कसाना । भागना, भाग जाना। स० कि० (दे०) भगाना पलल-संज्ञा, पु. (सं०) श्रामिष, मांस, पलायन कराना। पशुओं के खाने की खली। पलायक-संज्ञा, पु० (५०) भगोड़ा, भागने पलवा*-संज्ञा, पु० दे० (सं० पल्लव ) वाला। अंजुली, चुल्लू , तराजू का पलड़ा, डलिया। पलायन-संज्ञा, पु० (२०) भगना, भाग पलधाना-स० कि० दे० (हि. पालना का | जाना। प्रे० रूप) किसी से किसी का पालन करना । पलायमान-वि० (सं०) भागता हुथा । पलधार-संज्ञा, पु० (दे०) बढी नाव।। पलायित वि० (सं० ) भागा हुथा। पलवारा-संज्ञा, पु० (दे०) बड़ी नाव। पलाल-संज्ञा, पु० (सं०) पयाल, पुवाल, पलवारी-संज्ञा, पु० (दे०) केवट, "पलाल-जालैः पिहितः स्वयंहि प्रकाशमल्लाह । मासादयतीक्षु डिग्भः'' नैषधः । पलवैया-संज्ञा, पु० दे० (हि. पालना + पलाश - संज्ञा, पु० (सं०) पलास, टेसू , वैया प्रत्य० ) पालक, पोषक, पालन पोषण ढाक, छिउल, पत्ता, राक्षस, कचूर, मगधदेश करने वाला। वि० (सं०) मांसाहारी, निर्दय । पलस्तर-संज्ञा, पु० दे० (अ. प्लास्टर ) पलाशी-वि० (सं० पलाशिन ) मांसाहारी, दीवार पर मिट्टी के गारे या चूने का लेश या पत्ते-युक्त, पत्रयुक्त । संज्ञा, पु० (सं०) राक्षस । पलास-संज्ञा, पु० दे० (सं० पलाश ) टेसू, लेप। मुहा०-पलस्तर ढीला होना, बिगड़ना या बिगड़ जाना-नसे ढीली ढाक, छिउल, एक मांसाहारी पक्षी । "ज्यों पलास-सँग पान के"-०।। होना, बहुत परेशान होना। पलित वि. (सं० ) बूदा, बुड्ढा, वृद्ध, पलहना*-अ० कि० दे० (सं० पल्लव) पका हुश्रा, सफेद बाल ताप, गरमी । पत्ते निकलना, पल्लवित होना, लहलहाना। (स्त्री० पलिता)। पलहा*-संज्ञा, पु० दे० (सं० पल्लव) पली-संज्ञा स्त्री० दे० (सं० पलिघ) बड़े कोमल पत्ते, कोंपल । बरतनों से घी आदि द्रव पदार्थ के निकालने पलांडु-संज्ञा, पु० (सं०) प्याज | का हथियार या उपकरण, परी। मुहा०-. पला--संज्ञा, पु० दे० (सं० पल) निमिष । पली २ या परी २ जोड़ना-थोड़ा करके संज्ञा, पु० दे० (सं० पलट) तराजू का संचय करना। पलड़ा, पल्ला, अंचल, किनारा, पार्श्व, पलोत-संज्ञा, पु० (दे०) भूत या प्रेत, भूतपाला हुआ, डलवा (प्रान्ती)। | योनि, प्रेत योनि । वि० मैला-कुचैला। पलाद-संज्ञा, पु. (सं०) एक राक्षस । पलीता-संज्ञा, पु० दे० (फा० फलीतः) लपेटे पलान-संज्ञा, पु० दे० ( सं० पल्याण मि. हुए कपड़े की बत्ती जिसे पंसाखों में लगाते फ़ा. पालान) जीन, चारजामा । स्त्री० है, तोप या बंदूक की रंजक, जलाने वाली पलानी। बत्ती। वि० बहुत कुछ, आग बबूला। पलानना-२० क्रि० दे० ( हि० पलान+ (स्त्री. अल्पा० पलीती)। ना+प्रत्य० ) घोड़े पर जीन या पलान | पलीद-वि० (फा० ) अशुद्ध, अपवित्र, भा० श. को०-१३८ For Private and Personal Use Only Page #1109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पलुवा-पलुवा १०१८ पपई गंदा, दुष्ट, नीच । संज्ञा, पु० दे० (हि. | पल्लवी-संज्ञा, पु. ( सं० पल्लविन् ) पेड़, पलीत ) भूत-प्रेत । मुहा०-मिट्टी पलीत | वृक्ष, जिसमें पत्ते हों। या पलीद करना-बरबाद करना। पल्ला -क्रि० वि० दे० (सं० परवापार ) दूर। पलुवा-पलुवा-संज्ञा, पु० दे० (हि. संज्ञा, पु० (सं०) दूरी । संज्ञा, पु० (दे०) वस्त्र पलना ) पालतू, पालित, पाला हुआ। का छोर, आँचर, दामन । यौ०-पासपलुहना -स० क्रि० दे० ( सं० पल्लव ) | पल्ले । मुहा०- पल्ले होना-पास होना। हराभरा या पल्लवित होना। पल्ला छूटना-पीछा छूटना, छुटकारा पलुहाना -स० क्रि० दे० ( हि० पलुहना ) | मिलना । पल्ला पसारना-किसी से कुछ पल्लवित या हराभरा करना, गाय-भैंस का | माँगना । पल्ले पड़ना-प्राप्त होना, दूध के लिये प्रायन सहलाना। मिलना । पलना पकड़ना-धाश्रय लेना। पलेड़ना*-स० क्रि० दे० (सं० प्रेरण) किसी के पल्ले बांधना-ज़िम्मे किया धक्का देना या ढकेलना। जाना । पल्ले बँधना-गले पड़ना,आश्रित पलेथन, पलोथन- संज्ञा, पु० दे० (सं० होना। तरफ़, पास, अधिकार में । संज्ञा, परिस्तरण ) सूखा पाटा जो रोटी बनाते वक्त | पु. (सं० पटल ) दुपल्ली टोपी का रोटी में लगाया जाता है, परोथन, परेथन | आधा हिस्सा, पटल, किवाड़, पहल, तीन परथन (ग्रा.)। पलेथन निकलना- मन का बोझा । संज्ञा, पु. (सं० पल ) बहुत मार पड़ना या खाना, तंग या परेशान तराजू का पलड़ा। मुहा०-पल्ला झुकना होना, अनावश्यक व्यय, होने के पीछे और या भारी होना-पक्ष वलिष्ठ या बली खर्च। होना, (विलो०)-पलता हलका होना पलोटना-स० क्रि० दे० (सं० पलोठन) (पड़ना) । संज्ञा, पु० (सं० फल ) कैंची का एक पाँव दबाना, पलटना । अ० कि० दे० ( हि० भाग । वि० (दे०)-परला, अव्वल, प्रथम । पलटाना) कष्ट से लोटना पोटना, तडफड़ना। मुहा०—(पल्ले परले ) दरजे का। " पाँय पलोटत भाय"-रामा० । | पल्ती -संज्ञा स्त्री० (सं०) छोटा गाँव, खेड़ा, पलोचना-स० क्रि० दे० (सं० प्रलोठन) पैर | पुरवा, कुटी, जाजम, सतरंजी, छिपकली। दबाना, पाँव मलना, सेवा करना। "निपपति यदि पल्ली वाम भागे नराणाम्।" पलोसना*-स० क्रि० दे० ( हि० परसना) पल्ला -संज्ञा, पु० दे० (हि० पल्ला) दामन, धोना, मीठी बातें कर ढंग पर लाना छोर, अांचल, पट्टा, चौड़ी गोट । परसना। पल्लो*-वि० दे० (सं० प्रलय) प्रलय, पास। पल्लव-संज्ञा, पु० (सं०) नये निकले पत्ते, | पल्लेदार-संज्ञा, पु० दे० (हि० पल्ला+ फा० कोंपल, कल्ला, हाथका कंकण या कड़ा, वल. दार) अनाज ढोने या तौलने वाला, बया । विस्तार, एक देश, (पलव) दक्षिण का एक पल्लेदारी-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. पल्लेदार राजवंश । पल्लवास्त्र-- संज्ञा, पु. यो०(सं०) +ई-प्रत्य० ) पल्लेदार का कार्य या कामदेव । मज़दूरी। पल्लवना*-अ० क्रि० दे० ( सं० पल्लव+ | पल्तौ-संज्ञा, पु० दे० (सं० पल्लव) पल्लव, ना-प्रत्य०) नये पत्ते निकलना, पनपना। संज्ञा, पु०-अनाज की गोन, पल्ला । पल्लवित-वि० (सं०) जिसमें नये पत्ते हों, पवंगा-संज्ञा, पु० (दे०) एक छंद (पि०)। हरा-भरा, लंबा-चौड़ा, जिसके रोंगटे खड़े पव--संज्ञा, पु. (सं०) गोबर, वायु । हों, किशलय-वाला, पनपा हुचा । । पपई-संज्ञा, स्त्री० (दे०) पसी विशेष । For Private and Personal Use Only Page #1110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org पवन १०६६ पवित्र पघन - संज्ञा, पु० ( सं० ) वायु, हवा, पौन | पवनाशी - संज्ञा, पु० यौ० (सं० पवनाशिन् ) ( ० ) । मुहा० - पवन का भूसा होना सर्प, साँप। पवनास्त्र - संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) एक स्त्र जिससे वेग से वायु चलने लगे । पवनी - संज्ञा, स्त्रो० दे० ( हि० पाना ) नीच प्रजा, नाई, वारी आदि जो गाँव वालों से कुछ पाया करते हैं । - कुछ न रहना, सब उड़ जाना । कुम्हार का थावा, जल, साँस, प्राणवायु | संज्ञा, पु० (दे०) पावन, पवित्र । पवन अस्त्र - संज्ञा, पु० यौ० (सं० पवनात्र ) एक अस्त्र जिसके चलाने से बड़े जोर की वायु चलने लगती थी, पवनात्र । पवन कुमार - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) हनुमान् । भीमसेन, पवन पुत्र पवनात्मज, पघनसुत । " बंदौ पवन कुमार " - रामा० । पवनचक्की - संज्ञा, त्रो० दे० यौ० ( सं० पवन + हि० चक्की) हवा चक्की | पवनचक संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) बबंडर | पवन तनय - संज्ञा, पु० (सं० ) हनुमान, भीमसेन । पवनात्मज । 6: पवन तनय ऋतुलित बल धामा -रामा० । पवन पति - संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) वायु के अधिष्ठाता, या देवता । पवन- परीक्षा - संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं० ) आषाढ़ पूर्णिमा को वायु की दिशा को देख भविष्य कहना | 33 पवनपुत्र - संज्ञा, पु० य० (सं० ) हनुमान, भीमसेन, पौन-पूत (दे० ) । पवन-बाण- संज्ञा, पु० यौ० (सं०) वह बाण जिसके छोड़ते ही बड़े वेग से वायु चलने लगे, पवन शर पवनसखा - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) श्राग । पवन-सुत, पवन सुवन पवननन्द संज्ञा, पु० यौ० (सं०) हनुमान, भीमसेन । " जात पवनसुत देवन देखा "- - रामा० । पवनायन - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) झरोखा खिड़की, गवात, वातायन । पवनाल - संज्ञा, पु० (दे०) पुनेरा नामक धान । पवनावर्ती - संज्ञा स्त्री० (सं० ) महर्षि कश्यप की एक स्त्री । पवनाश-पवनाशन- संज्ञा, पु० यौ० (सं०) नाग, साँप, सर्प । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पवमान - संज्ञा, पु० (सं० ) चन्द्रमा, वायु । पवर-परी - संज्ञा, स्त्री० दे० (हि० पॅंवरि ) परि, घर का द्वार, दरवाजा | पवरिया - संज्ञा, पु० दे० (हि० पँवर) पौरिया | पवर्ग - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) संस्कृत या हिंदी भाषा की वर्णमाला का पाँचवाँ वर्ग । पवार - संज्ञा, पु० दे० (सं० परमार ) क्षत्रियों की एक जाति, परमार । (( A पवारना, पवारना - स० क्रि० दे० (सं० प्रवारण ) फेंकना, गिराना । रज होह जाहि पखान पवारे " - रामा० । पवाई - संज्ञा, स्त्री० दे० ( हि० पाँव ) एक जूता, चक्की का एक पार्ट, पाने का भाव । पवाड़ा – संज्ञा, पु० दे० (सं० प्रवाद) पँवाड़ा, लंबा चौड़ा या विस्तृत इतिहास, कथा । यौ० - प्राला पँवारा । पवाज - संज्ञा, पु० (दे०) गँवार, ग्रामीण | पधानri - स० क्रि० दे० (हि० पान = भोजन करना ) जिमाना, खिलाना, भोजन कराना, रोटी बनवाना, पोवाना ( ग्रा० ) । पवि-संज्ञा, पु० (सं०) इन्द्र का अस्त्र, वज्र, बिजली, गाज, वाक्य । छूटै पवि पर्वत पहँ जैसे " पविताई - संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० पवित्रता ) पवित्रता । " 'रामा० । पवित्तर - वि० दे० ( सं० पवित्र ) पवित्र । " गोबर लगे पवित्तर होय १ - प्र० ना० । पवित्र - वि० (सं०) साफ़, शुद्ध, निर्मल, निर्दोष | संज्ञा, पु० (सं०) वर्षा, ताँबा, कुशा पानी, दूध, जनेऊ, घी, शहद, शिव, विष्णु । For Private and Personal Use Only Page #1111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ११०० पवित्रता पश्यतोहर पवित्रता-संज्ञा, स्त्री० (सं०) सनाई, निर्म - पश्चात्-अव्य० (सं० ) पीछे, अनन्तर, लता, निर्दोषता, शुद्धता । बाद, फिर । यौ० तत्पश्चात् । पवित्रा-संज्ञा, स्त्री० (सं.) हलदी, पिपरी, पश्चात्ताप-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) अनुशोक, तुलसी, रेशमी माला। पछतावा, अनुताप । पवित्रात्मा-वि० चौ० (सं० प्रवित्रात्मन् ) | पश्चात्तापरी-संज्ञा, पु. (सं० पश्चात्तापिन् ) शुद्धांतः करण, शुद्धारमा वाला। अनुशोक या पछितावा करने वाला। पषित्रित-वि० (सं०) शुद्ध, निर्दोष, साफ पश्चाद्वत्ती- वि० (सं० पश्चाद्वत्ति न ) पीछे किया हुआ, पविीकृत। रहने या चलने वाला। पवित्री-संज्ञा, स्त्री० (सं० पवित्र) अनामिका पश्चाई-वे. (सं०) पीछे का प्राधा, शेषार्द्ध । में पहनने की कुशा की अंगूठी या मुद्रिका पश्चानुताप-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) पछतावा। (कर्मकांड) पैती (प्रा.)। | पश्चिम-- ज्ञा, पु० (सं०) प्रतीची, पच्छिम पविपात-संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) वज्रपात, (दे०) स्त्री----पश्चिमा। " उदयति यदि वज्र पड़ना, बिजली गिरना। भानुः पश्चिमे दिग्विभागे"-स्फु०। पशम-संज्ञा, स्त्री० दे० ( फा० पश्म ) नरम पश्चिम वाहिनी--वि• यौ० (सं०) वह और मुलाइम बदिया ऊन, उपस्थ, इन्द्री के नदी जो पश्चिम दिशा को बहती हो। समीप के बाल, अत्यन्त तुच्छ वस्तु । " माघे पश्चिम वाहिनी "...स्फु० । पशमी-वि० (दे०) पशम का बना वस्त्र, पश्चिमाचल-संज्ञा, पु. यौ० (सं०) अस्ताप्रशमीना । चल, सूर्यास्त का एक कल्पित पर्वत । मीना--संज्ञा, पु. (फा०) शम का बनाशिमी-वि० (सं०) पश्चिम संबंधी, पच्छिम या कपडा. पथानी वस्त्र दुशाला आदि। का, पश्चिमीय।। पश- संज्ञा, पु० (सं० ) चौपाया. चार पैर के पश्चिमोत्तर--संज्ञा, पु. यौ० (सं०) वायव्य जीव-जंतु, प्राणी, देवता । “महा महीप भये या वायुकोण, उत्तर और पश्चिम के बीच पशु पाई"-रामा०। का कोना। पशुता-संज्ञा, स्त्री. (सं० ) पशुत्व, पशु पश्तो संज्ञा, स्त्री० (दे०) अफगानों की एक पना, मूर्खता, जड़ता, औद्धत्य । भाषा। पशुतुल्य-वि० (सं० ) पशु के समान मूर्ख, | पश्म-संज्ञा, स्त्री० (फा०) नरम और बढ़िया अज्ञान, अबोध । उन जिसके शाल-दुशाले बनते हैं। उपस्थ पशुत्व-संज्ञा, पु० (सं० ) पशुता, मूर्खता।। पशुधर्म-संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) पशुओं इन्द्री के समीप बाल, पशम, पसम (दे०)। का सा पाचार, पशुओं के से निंद्य कर्म । । पश्मीना-संज्ञा, पु० (फा० ) पशमीना, पशुपतास्त्र-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) शिव जी | शाल-दुशाले आदि वस्त्र । का त्रिशूल, पाशुपत । | पश्यंती-संज्ञा, स्त्री० (सं०) नाद की द्वितीय पशुपति-संज्ञा, पु० (सं०) शिवजी, अग्नि, अवस्था जिसमें मूलाधार से हृदय में आता ओषधि । पशुपाल, पशुपालक-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) पश्यतोहर-संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) देखते पशुओं का पालक यारतक, अहीर, गड़रिया, देखते चुराने वाला, सुनार । " देखत ही चरवाह । सुवरन हरि परि लेवे को पश्यतोहर मनोहर पशुराज-संज्ञा, पु. (सं० ) सिंह, व्याघ्र ।। ये लोचन तिहारे हैं"-दास । For Private and Personal Use Only Page #1112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ११०१ पश्वाचार पसारी पश्वाचार-संज्ञा, पु० यौ० (सं०, वैदिकाचार, | अँजुली, भद्धांजली ! -संज्ञा, पु. दे० वैदिकरीति से संकल्प युक्त देवी की पूजा (सं० प्रसार) फैलाव, विस्तार । (तांत्रिक) । वि० पश्वाचारी। पसरना-अ० कि० दे० (सं० प्रसरण) पष, पषा*-संज्ञा, पु० दे० ( सं० पक्ष) फैलना, बढ़ना, विस्तृत होना, पैर फैला पंख, पत्रना, डैना, ओर पाख, पखा | कर लेटना प्रे० रुप- सरावना । स० रूप(दे०)। पसराना, पसारना। पषा-संज्ञा, पु० दे० ( सं० पक्ष) दाढ़ी, पमरहट्टा--संज्ञा, पु० दे० ( हि० पसारी+ मूछ। हाट ) बाज़ार का वह भाग जहाँ पसारियों पषाण-पपान-संज्ञा, पु० दे० (स. पाषाण) की दुकाने हों, पसरट्टा (ग्रा०)। पाषाण, पत्थर, पाथर ( दे.)। पसराना-स० क्रि० दे० (सं० प्रसारण ) पषारना, पपालना, पखारना*-स. किसी को पसराने में लगाना, फैलाना । कि० दे० (सं० प्रक्षालन ) धोना, साफ, पसरौंहा*--वि० दे० (हि. पसरना+ स्वच्छ या निर्मल करना, पछाड़ना। भौहा-प्रत्य०) फैलने या पसरने वाला । पसंधा-संज्ञा, पु० दे० (फा० पासंग) पसली-संज्ञा, स्त्री. दे. (सं० पशुका) पासँग, तराजू के पल्लों को बराबर करने, छाती की हड्डी, पांसुरी (व.) पसुरी, के लिये रखा गया वाट । वि०- बहुतही पसुली ( ग्रा० )। मुहा०-पसली कम या थोड़ा । मुहा०--पसंघा भी न फड़कना या फड़क उठना-मन में जोश होना-कुछ भी न होना । अत्यन्त तुम ा उत्साह पाना। हड्डी-पसली तोबाना पसंती* - संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० पश्यंती) -बहुत मारना-पीटना । पसली चल पश्यंती, नाद की एक अवस्था । बच्चों की सर्दी से "स्वासनला। पसंद-वि० (फा० ) जो भावे या अच्छा | पसा-संज्ञा, पु० (दे०) अंजली, अँजुली। लगे, रुचि-अनुकूल, मनचाहा । संज्ञा, स्त्री. पसाई, पप्तई-संज्ञा, स्त्री० (दे०) वन-धान । अभिरुचि । संज्ञा, स्त्री० पसंदगो। वि० पसाउ-पसावां* - संज्ञा, पु० दे० (सं० पसंदीदा। प्रसाद ) प्रसन्नता, कृपा, प्रसाद । " सपनेहु पस-अव्य० (फा०) इसकारण या इसलिये । साँचहुँ मोहिं पर, जो हर-गौरि पसाउ"। पसनी - संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० प्राशन ) पसाना-स० कि० दे० (सं० प्रस्रावण ) पके अन्नप्राशन, लड़के को पहले पहल अन्न चावलों में से माँड़ निकालना, पसेव खिलाना। गिराना। *-अ० कि० दे० (सं० प्रसन्न) पसम-संज्ञा, पु० दे० (फा० पश्म ) पशम, ! प्रसन्न होना। पश्म | "ग्वाल कवि कहैं देखो नारी कोख पसार-संज्ञा, पु० दे० (सं० प्रप्तार ) प्रसार, सम जानें धर्म को पसम जानैं पातक शरीर | विस्तार, फैलाव, प्रस्तार । के"-वाल। पसारना-स० क्रि० दे० (सं० प्रसारण ) पसमीना-संज्ञा, पु० दे० ( फा० पश्मीना) | विस्तारित करना, फैलाना । “जोजन भर पश्मीना । “ फेर पसमीनन के चौहरे | तेहि बदन पसारा"-रामा० । गलीचन पै सेज मखमली सौर सेऊ सरदी | पसारी-संज्ञा, पु० दे० (सं० प्रसार ) सी जाय"-ग्वाल। विस्तार, फैलाव । स० कि० (सं० प्रसारण ) पसर-संज्ञा, पु० दे० (सं० प्रसर ) बाधी। फैलाना, विस्तारना । For Private and Personal Use Only Page #1113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पसारी ११०२ पहपटहाई पसारी-संज्ञा, पु० दे० (हि. पंसारी) | पह*-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि० पो) पासला, पंसारी, किराने और औषधों का दुकानदार। प्रकाश की किरण। पसाव-पसावन-संज्ञा, पु० दे० (हि.पहचानवाना-स० क्रि० दे० (हि० पहचानना पसाना ) चाँवलो का माँड़, पीच, पानी। का प्रे० रूप ) किसी से पहचानने का कार्य पसहनि-संज्ञा, स्त्री० (दे०) अंगराग।। काना। पसित-वि० (दे०) बँधा हुआ, (सं०) पहचान-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० प्रत्याभिज्ञान) पाशित । लक्षण, निशानी, परिचय, चिन्ह, चीन्हा, पसीजना-अ.क्रि० दे० (सं० प्र+स्विद) चिन्हारी, भेद समझने की शक्ति । स्वेद या पसीना निकलना, पानी रसना, | पहचानना-- स० क्रि० दे० ( हि० पहवान) करुणा या दया से द्रवीभूत होना। चीन्हना, गुण विशेषतादि से परिचित होना, " नैननि के मग जल बहै, हियो पसीज अभिज्ञान, भेद, समझना। पसीज"-वि०। पहटना-प्र. क्रि० दे० (सं० प्रखेट) पसीना-संज्ञा, पु० दे० (सं० प्रस्वेदन ) | खदेड़ना, पीछा करना, धार पैनी करना । स्वेद, प्रस्वेद, श्रमवारि, गर्मी से निकला पहटा-संज्ञा, पु. (दे०) खेत चौरस करने हुमा देह का जल। का लकड़ी का तख़्ता, हेंगा ( प्रान्ती० )। पसुरा-पसुली-*T सज्ञा, स्त्रा० द० (हि० स० कि० (दे०) पहटाना। पसली ) पसली, छातो की हड्डी, पाँसुरी। पहन-संज्ञा. प. दे० (सं० पाषाण ) पसज-संज्ञा, स्त्री० (दे०) सीधी सिलाई । पाहन, पत्थर, पाषाण पसजना-स० क्रि० (दे०) सोधी सिलाई पहनना, पहिनना-स० क्रि० दे." (सं. परिधान ) शरीर पर धारण करना, परिधान पसेउ-पसेऊ, पसेव-+-संज्ञा, पु० दे० करना (प्रे० रूप ) पहनवाना, स० क्रि० (हि० पसेव) पसीना, स्वेद, प्रस्वेद, श्रमवारि। पहनाना। "पोंछि पसेऊ बयारि करौं”-कवि० । पसेरी-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. पांच + सेर ... पहनाई-संज्ञा, स्त्री० दे० ( हि० पहनाना ) ई०-प्रत्य० ) पंसेरी, पांचसेर का बाट। | पहनाने की क्रिया या मज़दूरी। पसोपेश-संज्ञा, पु० (फा० ) श्रागा-पीछा, पहनाना-स. क्रि० दे० ( हि० पहनना ) सोचविचार, हनि लाभ, ऊँच-नीच दुविधा। किसी को वस्त्र-भूषणादि धारण कराना। पस्त-वि० (फा०) हारा, थका, दबा हुआ। पहनाव-पहनाधा- संज्ञा, पु० दे० ( हि० पस्तहिम्मत-वि. यो० (फा०) कादर, पहनना ) मुख्य वस्त्र, पोशाक, परिच्छद, कायर, डरपोक, भीरु । संज्ञा, स्त्री० पस्त कपडे पहनने की रीति या चाल । हिम्मती। पहपट -- संज्ञा, पु० (दे०) स्त्रियों के गाने का पस्ती बाबूल-संज्ञा, पु० दे० (दे० पस्सी एक गीत, हल्ला-गुल्ला, शोर, कोलाहल, हि० बबूल ) एक पहाड़ी बबुल । घोष, बदनामी का शोर, छल । पह–अव्य० दे० (सं० पार्श्व ) समीप, पहपटबाज़-संज्ञा, पु० दे० (हि० पहपट+ निकट, पास से । " खर-दूखन पहँ गई बिल- वाज़ फ़ा०) शरारती झगड़ालू , ठग, धोखेखाता"-रामा०। बाज़ । संज्ञा, स्त्री० पहपटबाजी।। पहँसुल-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० प्रत झुका पहाटहाई।-संज्ञा, स्त्री० दे० ( हि० हुमा+शूल) तरकारी काटने का हँसिया।। पहपट+हाई-प्रत्य०) झगड़ा कराने वाली। For Private and Personal Use Only Page #1114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पहाड़ा पहर-संक्षा, पु० दे० (सं० प्रहर ) तीन | पहलवी-संज्ञा, पु० दे० (फा० वा सं० घंटे का वक्त, ज़माना, युग। पह्नवी) एक प्रकार की फारसी भाषा। पहरना, पहिरना-स० क्रि० दे० (हि. | पहला, पहिला-वि० दे० (सं० प्रथम ) पहनना ) पहनना, धारण करना। प्रथम का, श्रादि का। औवल । संज्ञा, पु. पहरा-संज्ञा, पु० दे० ( हि० पहर ) चौकी, | (दे०) पुरानी रुई की तह (रजाई आदि की)। निगरानी, रक्षा। यौ० पहरा-चौकी । | (स्त्री० पहली)। मुहा०-पहरा बदलना रक्षक बदलना । पहलू-संज्ञा, पु० (फा०) बग़ल, पार्व, पहरा बैठना, बैठाना - रक्षक बैठाना, पांजर, (दे०) तरफ, करवट, किसी विषय रखवाली करना। पहरा देना-रखवाली के भिन्न भिन्न अंग (गुण दोषादि के भाव के) करना । तैनाती, नियुक्ति, रक्षकदल, गारद, पक्ष पहल । वि. पहलूदार । "तुम रहो चौकीदार का फेरा या आवाज़, हवालात, पहलू में मेरे"। हिरासत । मुहा०-पहरे में देना या रखना-जेल भेजना । पहरे में होना पहले, पहिले--अव्य० (हि. पहला) हिरासत में या नजरबन्द होना । संज्ञा, पु. __ प्रारंभ या आदि में सर्वप्रथम, पूर्व, (स्थिति) दे० ( हि० पाँव-+-रा,--पौरा ) आने-जाने | आगे, बीते या पूर्व समय में । का शुभाशुभ प्रभाव । (दे०) समय, युग। पहले-पहल, पहिले-पहिल-अव्य० दे० ( हि० पहल ) सर्व प्रथम । पहराना, पहिराना-स० क्रि० दे० (हि. पहनना) किसी को पहनाना, धारण कराना। | पहलौठा, पहिलोठा-वि० दे० (हि० पहला +ोठा-प्रत्य०) प्रथम वार का उपजा पहरावनी--संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. पहरावना) लड़का । स्त्री० पहलौठी। “जो पहलौठी बड़े आदमी के दिये हुए वस्त्र, खिलअत । बिटिया होय"-घाघ। पहरी-संज्ञा, पु० दे० (सं० प्रहरी) पहरा देने वाला, चौकीदार, रक्षक, पहरेदार। पहाड़, पहार---संज्ञा, पु० दे० (सं० पाषाण) पर्वत गिरि, पहार, पहारू (दे०) स्त्री० पहरुया, पहरुवा-संज्ञा, पु० दे० (हि. अल्पा० पहाड़ी । मुहा०—पहाड़ उठाना पहरू ) पहरू, पहरा देने वाला, रक्षक, --भारी कार्य अपने जिम्मे लेना । चौकीदार, पाहरु (व०)। पहाड़ टूट पड़ना या टूटना-अचानक पहरू, पाहरू-संज्ञा, पु० दे० (हि० पहरा+ बड़ीभारी आपत्ति प्राना, महा संकट आजाना। ऊ-प्रत्य०) रक्षक, पहरा देने वाला। सिर पर पहाड़ गिरना-बड़ी विपत्ति पहल-संज्ञा, पु० दे० (फ़ा. पहलू, मि० सं० सहसा पाना। " सिर पर गिरे पहाड़ तो पहल) ठोस चीज़ के समतल, पहलू, बग़ल, फरियाद क्या करे'। पहाड़ हिलानाकिनारा पुरानी जमी हुई रुई, या ऊन । बड़ा कठिन कार्य करना । पहाड़ से टक्कर तह. परत । संज्ञा, पु० दे० (हि. पहला) लेना-अधिक बली या ज़बरदस्त से प्रारम्भ, शुरू, छेड़। यौ० पहले-पहल । भिड़ जाना। बहुत बड़ा ढेर या ऊँची पहनदार--वि० दे० ( हि० पहल + फा० | राशि, दुष्कर कार्य प्रति भारी वस्तु । वि० दार ) जिसमें पहल हों, पहलूदार । पहाड़ी-पर्वतीय । पहलवान-संज्ञा, पु. (फा० ) कुश्ती लड़ने ! पहाड़ा-संज्ञा, पु० (दे०) गुणन-फल-तालिका, या मल्ल युद्ध करने वाला, मल्ल, बली या संकलन की हुई अंकों की सूची, किसी अंक डील-डौल वाला। संज्ञा, स्त्री० पहलवानी। के गुणनफलों की अनुक्रमणिका, पहारा, For Private and Personal Use Only Page #1115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पहाडिया ११०४ पहुँची पहार (ग्रा०)। "नौ के लिखत पहार"-तु०। पहीत*-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि० पहती) पहाड़िया-संज्ञा, स्त्री० (दे०) छोटा पहाड़, दाल। पहाड़ी। वि० पर्वतीय, पर्वत-वासी। पहुँच--संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० प्रभूत) पैठ, पहाडी-संज्ञा, स्त्री. (हि. पहाड़ + ई- प्रवेश, गुजर, रसाई, पहुँचने की सूचना, प्रत्य०) छोटा पहाड़, राग या गान । वि० रसीद, फैलाव, विस्तार, पकड़, दौड़, (दे०) पर्वतीय । परिचय, दखल, समझने की शक्ति या पहारू, पाहरू-संज्ञा, पु० दे० (हि० पहरा) सामर्थ्य,जानकारी, अभिज्ञता की मर्यादा या चौकीदार, पहरेवाला । 'नाम पहारू दिवस- शक्ति । "अपनी पहुँच विचारि कै"-। निसि, ध्यान तुम्हार कपाट"-रामा०। पहुँचना-अ० कि० दे० ( सं० प्रभूत ) एक पहिचान-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० प्रत्यभिज्ञान) | जगह से चल कर दूसरी जगह प्राप्त लक्षण, निशानी, परिचय । यौ० जान होना। स० रूप पहुँचाना, प्रे० रूप पहिचान । पहुँचवाना। मुहा०—पहुँचा हुआपहिचानना-स० कि० दे० (हि. पहचानना) परमेश्वर के समीप पहुँचा हुआ, सिद्ध, चीन्हना, परिचित होना। वि० पहिचानने पता रखने वाला, जानकार, निपुण, उस्ताद । वाला । वि० (दे०) पहिचानी। प्रविष्ट होना, घुसना या पैठना, ताड़ना, पहित-पहिती*-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० समझना, मिलना, अनुभूत होना, समान पहित) पकी हुई दाल । या तुल्य होना, फैलना, एक दशा से दूसरी पहिनना-स० कि० दे० (हि. पहनना) में जाना भेजी या श्राई हुई वस्तु का पहनना । स० क्रि० पहिनाना, प्रे० रूप, मिलना। मुहा०-पहुँचने वालापहिनवाना । संज्ञा, पु. (दे०) पहिनावा पहिनाव। रहस्य या भेद का जानने वाला, जानकार। पहियाँ*t-अव्य० दे० (हि. पहूँ ) पास, | पहुँचा-संज्ञा, पु० दे० (सं० प्रकोप्ट) मणि समीप, निकट, पर, से। बन्ध, कलाई, हाथ की कुहनी से नीचे का पहिया-संज्ञा, पु० दे० (सं० परिधि ) धुरी | भाग । अ० क्रि० सा० भूत० गया, प्राप्त पर घूमने वाला चक्र, चक्कर, चक्का, चाका, हुआ । “ वहाँ पहुँचा कि फरिश्तों का भी चाक (द०)। मकदूर न था"। पहिरना-स० कि० दे० ( हि० पहनना ) पहुँचाना ७० क्रि०दे० हि• पहुँचना का स० पहनना,। स० क्रि० पहिराना, प्रे० रूप रूप) एक जगह से दूसरी जगह किसी को पहिरवाना। प्रस्तुत या प्राप्त कराना, ले जाना, किसी के पहिरापनी-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि० पहनावा) । साथ जाना, भेजना, किसी विशेष दशा में पहनावा । संज्ञा, पु० (दे०) पहिराव।। उपस्थित करना, प्रविष्ठ कराना, लाकर या पहिला-वि० दे० (हि. पहला) पहला, ले जाकर कुछ देना, अनुभूत कराना, तुल्य प्रथम, प्रथम व्यायी या प्रसूता गाय या बनाना। भैंस । ( स्त्री. पहिली) | पहुँची- संज्ञा, स्त्री. ( हि० पहुंचा ) कलाई पहिले-श्रव्य० दे० ( हि० पहले ) पहले। का एक गहना, युद्ध में पहिनने का एक पहिलौठा-वि० पु० दे० (हि. पहलाठा ) दस्ताना । स० क्रि० सा. भूत-गयी, प्राप्त पहलौठा, प्रथमवार का जन्मा पुत्र । स्त्री० हुई । " हमारे हाथ की पहुँची तुम्हारे हाथ पहिलौठी। पहुँची हो"-स्फुट० । For Private and Personal Use Only Page #1116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org पहुढ़ना पहुढ़ना- -- अ० क्रि० (दे०) पौढ़ना, लेटना, स० क्रि० पहुढाना प्रे० रूप पहुढ़वाना ! पहुना | संज्ञा, पु० दे० ( हि० पाहुना ) पाहुना, महिमान, मेहमान, पाहुन । अतिथि " पाहुन निसिदिन चार रहत सब ही के दौलत " - गिर० । पहुनई पहुनाई - संज्ञा, त्रो० दे० ( हि० पहुना + ई - प्रत्य० ) अतिथि सत्कार, महमानदारी, अतिथि होकर जाना या श्राना । " विविध भाँति होवै पहुँनाई । " रामा० पहुप | संज्ञा, पु० दे० ( सं० पुष्प ) पुष्प | पहुमी - संज्ञा, स्त्री० दे० ( सं० भूमि) भूमि । पहुला - संज्ञा, पु० दे० (सं० प्रफुल्ल ) कुमुदिनी । ܕܕ ११०५ TAWY LUN पहेली – संज्ञा, स्त्री० दे० ( सं० प्रहेलिका ) " htवल, गूढ़ प्रश्न या बात, फेर फार की बात, समस्या, किसी विषय या वस्तु का सांकेतिक वर्णन | कहत पहेली वीरबल, सुनिये अकबर शाह पु० पला । मुहा० - पहेली चुकाना – फेर फार या घुमा-फिरा कर अपने स्वार्थ की बात कहना । पह्नव - संज्ञा, पु० (सं०) एक प्राचीन जाति, जिसका निवास स्थान फारिस या ईरान था । पह्नवी-संज्ञा, स्त्री० ( फा० वा सं० पहलव ) फारसी भाषा का प्राचीन रूप । पाँ-पाँइ - पाँउ-पय-संज्ञा, पु० दे० (सं० पाद) पाँव, पैर, पद | "पाँ लागौं करतार " ! पाँइता - संज्ञा, पु० दे० ( हि० पाँयता ) पाँवता, पाँव की थोर, पैंता, पैताना ( प्रा० ) पांयता। पाँई बाग - संज्ञा, पु० यौ० ( फा० ) राज महल के चारों ओर स्त्रियों की पुष्प वाटिका, या फुलवाडी । पाँक- संज्ञा, पु० दे० (सं० पंक) पंक, कौंच, कीचड़, काँदो (ग्रा० ) | पाँख | - संज्ञा, पु० दे० (सं० पक्ष ) पक्ष, भा० श० को ० - १३8 पाँचर 66 पंख पर पट पाँखे भख काँकरे, सदा 19 परेई संग - वि० ( ग्रा० पानी बरसने के पूर्व वायु का शब्द विशेष । मुहा०(ग्रा० ) पाँख बोलना - वर्षा के पूर्व वायु में शब्द विशेष होना । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir -मन्ना० । पाँखड़ी - संज्ञा, स्त्री० दे० ( हि० पंखड़ी ) पँखड़ी पँखुरी, पाँखुरी, पाँखड़ी । “पाँखड़ी गुलाब केरी काँकड़ी समान गर्दै " "पुसपानि की पाँखुरी पाँपनि मैं" - रघु० । पाँखी -संज्ञा स्त्री० दे० (सं० पक्षी ) पतिंगा, पक्षी, चिड़िया । पाँखुरी | संज्ञा, स्त्री० दे० ( हि० पंखड़ी ) पँखड़ी, पुष्प पत्र, फूल की पत्ती या पत्ता । पाँग - संज्ञा, पु० (दे०) कछार, खादर । पाँगा - पाँगानोन- संज्ञा, पु० दे० (सं० पंक ) सामुद्रीय या समुद्री नमक ! पाँगुर -- वि० दे० (सं० पंगु ) लँगड़ा, पंगुश्रा । संज्ञा, पु० (दे०) लँगड़ा मनुष्य | "पाँगुर को हाथ-पाँव, धरे को श्राँख है" - विन० । पाँच - वि० दे० (सं० पंच ) चार और एक की संख्या, या अंक ( ५ ) लोग, पंच । "तुम परि पाँच मोर हित जानी" - रामा० । पाँचहि मार न सौ सके " - वृ० । मुहा० - पांचों अँगुलियाँ घी में होना - सब प्रकार का धाराम या लाभ होना, अच्छी बन पड़ना । पाँचों सवारों में नाम लिखना -- श्रेष्ठों में अपने को भी गिनना । पांडव, जाति के मुखिया, जन-समूह | पाँचक संज्ञा, पु० दे० (सं० पंचक ) धनिष्टा से लेकर पाँच नक्षत्र | पाँचजन्य - संज्ञा, पु० (सं० अग्नि कृष्ण, या विष्णु का शख । पाँचजन्यं हृषीकेशो देवदत्तं धनंजयः "... गीता० । 6. पांचभौतिक, पञ्चभौतक- संज्ञा, पु० यौ० (सं०) पाँचों तत्वों या भूतों से बना शरीर । पाँचर - संज्ञा, स्त्री० (दे०) पच्चड़, लकड़ी का टुकड़ा । For Private and Personal Use Only Page #1117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org पाँचाल पांचाल - संज्ञा, पु० (सं०) पंचाल या पंजाब | पाँचालिका पाञ्चाली - संज्ञा, स्त्री० (सं० ) द्रौपदी, पाँच-संज्ञा स्त्री० ( हि० पंचमी ) किसी पक्ष की पंचमी तिथि गुड़िया, नटी, रंडी, ५ या ६ दीर्घ समासयुक्त कांति गुण-पूर्ण पदावलीमय वाक्यविन्यास की प्रणाली या रीत (साहित्य) । पाँच -संज्ञा, स्त्रो० दे० ( हि० पंचमी ) किसी पक्ष की पंचमी तिथि । पाँजना -- स० क्रि० दे० (सं० पगाद्ध) झालना, टाँके लगाना, धातु के टुकड़े टाँकों से जोड़ना । ११०६ पाँजर - संज्ञा, पु० दे० (सं० पंजर ) बगल और कटि के बीच पसलियों वाला भाग, हड्डियों का पिंजरा या ढाँचा । क्रि० वि० (ग्रा० ) पास, समीप | संज्ञा, पु० ( प्रान्ती० ) 1 पसली, पार्श्व (सं० ) बगल | पाँती - संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० पदाति) नदी का ऐसा घट जाना कि उसे हिल कर पार किया जा सके । पाँझ --- वि० दे० (सं० पदाति ) पाँजी । पांडव - संज्ञा, पु० (सं० ) पांडु पुत्र, पांडु - तनय, पांडु-सुत, पाँडु के पुत्र कुन्ती और माद्री से उत्पन्न युधिष्ठिर, भीम, अर्जुन, नकुल और सहदेव, पांडु कुमार । वितस्ता (झेलम) के तट का देश ( प्राचीन ) । पांडव नगर - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) दिल्ली । पांडित्य - संज्ञा, पु० (सं०) विद्वत्ता, पंडिताई । पाँडु - संज्ञा, पु० (सं० ) लाल मिला पीला रंग. स्वेत रंग, रक्त विकार अन्य एक रोग जिसमें शरीर पीला पड़ जाता है. पांडव वंश के एक आदि राजा युधिष्ठिरादि पाँच पांडवों के पिता, श्वेत हाथी परमल । यौ० पांडु फली - परमल या पारली । पांडुता-संज्ञा, स्त्री० ( सं० ) पीलापन, पाँडुख, सफ़ेदी । पांडुर - वि० (सं० ) ( अप० पांडर ) पीला, पाँव सफेद | संज्ञा, पु० (स०) धौ वृक्ष, बगुला कबूतर, खड़िया कामलारोग | श्वेतकुष्ट ( वैद्य ० ) । पांडुलिपि – संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) मसौदा, पाँडुलेख, कच्चालेख | पांडुलेख - संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) पांडु - लिपि मसौदा लेखादि का परिवर्तनशील Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रथम रूप । पाँडे - संज्ञा, पु० दे० (सं० पंडित ) ब्राह्मणों की एक शाखा, पंडित, विद्वान । पाँडेय - संज्ञा, पु० दे० ( सं० पंडित ) पाँडे, ब्राह्मणों की एक शाखा, पंडित, विद्वान् । पाँतर -- संज्ञा, पु० (दे० ) उजाड़, निर्जन । पाँत, पाँति, पाँती, संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० पंक्ति) पंक्ति, पंगति, कतार, एक साथ भोजन करने वाले जाति के लोग । पाँथ - वि० (सं०) बटोही, पथिक, यात्री, विरही, वियोगी । पाँथ - निवास - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) धर्मशाला. सराय, चट्टी, पाँथशाला । पौधशाला - संज्ञा, खो० यौ० (सं०) पाँथ - निवास, सरॉय, धर्मशाल, चट्टी । पाँश - संज्ञा, पु० दे० ( फा० पापोश) जूता, पनहीं । पाँय संज्ञा, पु० दे० पैर, चरण, । " पाँय छाँहीं "... - रामा० । पाँयचा- संज्ञा, पु० ( फ़ा० ) क़दमचा, पाखाने में शौच के लिये बैठने का स्थान, पायजामे की मोहरी । (सं० पाद) पाँव, पखारि बैठि तरु For Private and Personal Use Only पाँयता - संज्ञा, पु० दे० ( ( हि० पाँय + तल ) पैंता, पैंताना, खाट पर लेटने में जिस ओर पाँव रहते हैं । नीच, पापी मूर्ख | गाँव - संज्ञा, पु० दे० (सं० पाद) गोड़ (प्रान्ती०) पैर, चरण, पद, पाँय । मुहा०-- पाँच उखड़ना - ( जाना ) हार जाना, हिम्मत छोड़ कर भागना । पाँव उठाना - शीघ्रता या वेग से चलना | पाँच उतरना ( उखड़ना) - पाँव का उखड़ या टूट जाना या फूलना । पाँव Page #1118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गाँव ११०७ पांव काँपना-(डगमगाना -डरना, भय | पर पांव रवना-अनुकरण करना, दूसरे की भीत होना । पाँव (किसी का) उखाड़ना चाल पर चलना, शीघ्रता करना। पाँव -किसी को किसी स्थान पर ठहरने या | पखारना-पैर धोना । "पाँव पखारि बैठि जमने न देना। किसी के गले में पांच | तरुछाँहीं" । पाँव पाँव चलना-पैदल डालना-तर्क द्वारा उली की बातों से चलना । पाँव पोटना - घबराना, अधीर उसे दोषी ठहराना । पाँव घिसना ( घिम होना, व्यर्थ परिश्रम या निष्फल उद्योग करना। जाना ) बहुत चलना, चलते चलते पाँव पना (परना )-पैरों पर गिर कर था जाना। पांच चल जाना- प्रणाम करना. दीनता से प्रार्थना करना, डगमगाना, अस्थिर होना। पाँव (न) पाँव पर गिरना, पाँव पूजनाजमना-दृढ़ता पूर्वक (न) स्थिर होना भक्ति करना. पृथक या अलग रहना, व्याह में या ठहरना, विचलित हो न हटना । कन्या-पक्षवालों का वर-कन्या के पैर पूजना । पांव जमीन पर न ठहरना ( रग्बना )- पाँव पसारना-- पैर फैलाना, मरना, अत्यंत प्रसन्न होना, मारे हर्ष के फूल भाडंबर या ठाठ-बाट बढ़ाना, अति करना, जाना। अभिमान करना । पाँच डालना पाँव (पैर) फूक फूक कर रखना(पैर रखना)-किसी कार्य को प्रारंभ | सावधान रहना, सावधानी से चलना, विचार करना वा करने को उद्यत होना । पाँव पूर्वक कार्य करना । पाँव फैला कर सोना डिगना-फिसलना रपटना या किसी ----निश्चित या बेधड़क या निर्भय रहना। कार्य से निराश होना । पाँव तले से मिट्टी पाँव फेलाना--अधिकार बढ़ाना,प्रवेश या (जमीन ) निकल ( खिसक ) जाना---- पैठ या प्रसार करना, मचलना, ज़िद करना, श्राश्चर्य या भय की बात से ) स्तब्ध या सन्न पाकर अधिक के लिये लोभ से हाथ फैलाना। रह जाना, होश उड़ जाना । पाँव तले पाव बढ़ाना--वेग से चलना, अतिक्रमण मलना (पद-दलित करना)-दुख या पीड़ा करना, आगे (अधिक ) बढना, पैर धागे देना, पीड़ित करना, कुचलना । पाँव तोड़ना- रखना । पाँध मर जाना-श्रांत होना, थक किसी के कार्य में विघ्न या बाधा डालना. जाना। पाव भर जाना-श्रांत या थक हाँनि पहुँचाना, बड़ी दौड़-धूप या कोशिश जाना, थकावट से पैरों का भारी होना। करना, इधर उधर हैरान हो दौड़ना । पाँव भारी होना-गर्भ रहना। पाँव भारी श्रालय में बैठा रहना, अधिक चलना । पड़ना-जोर से पैर पड़ना, थक जाना। पाँव पाँव तोड़ कर बैठना ( बैठ- रगड़ना-निष्फल या व्यर्थ काम करना, जाना ) हार कर बैठना, अचल या स्थिर व्यर्थ उद्योग करना, शोक वा दुख प्रगट करना। होना। पाँव धो धो कर पीना- पांव ( पद ) रोपना-प्रण या प्रतिज्ञा अधिक श्रादर या सत्कार करना, अत्यंत करना । "सभा माँझ प्रन करि पद रोपा"श्रद्धा-भक्ति करना. विनय करना । किसी के रामा०, "वहुरि पग रोपि को"-रत्ना० ! पाँव धरना ( पकड़ना) दीनता से पैर -पांव लगना-ठहरना, प्रणाम करना । छूकर विनय करना, प्रणाम करना । पाँव पाँध से पाँध बाँधना ( बाँध रखना)निकालना-मर्यादा छोड़ना, कुल की | सदा किसी के पीछे लगा रहना, कभी भी नहीं रीति को डाँक जाना । पाँव पकड़ना- छोड़ना, रक्षा या चौकसी करना। ) पाँव शरण में थाना, दीनता से विनती करना। भिड़ाना-बराबरी करना । पाँव सानापैर छूना, विनय कर जाने से रोकना। पाँव पाँव शून्य होना, झुनझुनी उठना । दवे For Private and Personal Use Only Page #1119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir DIRE पांवड़, पांघड़ा ११०८ पाक पाँव (पैर ) श्राना-धीरे धीरे धाना। पांसुरी -संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. पसलो) (किसी के ) पांव न होना-स्थिर न रहने पसली। “पाँसुरी उमाहि कबौं बाँसुरी का साहस या बल न होना, दृढ़ता न होना, बनावें हैं "-ऊ० श०। चल न सकना । धरतो (जमीन) पर पाँव | पाही-81-क्रि० वि० दे० (हि. पंत) (पैन धरना ) रखना--अति अभिमान | समीप, निकट, पास, से (करण-विभक्ति)। करना। " मुखि-छवि कहि न जाय मोहिं पार्टी ।" पांवड़, पांवड़ा-संज्ञा, पु० (दे०) पाँवरा | पाइ8- संज्ञा, पु० दे० ( सं० पायिक ) पाँव, (७० ) बड़ों की राह में बिछाने का वस्त्रा, पाद पू० का० स० क्रि० (हि० पाना) पाकर । पायन्दाज़, गाँवर (ग्र०) । स्त्री० पाँवड़ी। पाइक -संज्ञा, पु० दे० (सं० पाद) पाँवर * -वि० दे० ( सं० पामर ) नीच, धावन, दूत, दास, सेवक । पामर, पापी, दुष्ट, मूर्ख, पोच, तुच्छ । पाइतरी -संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० पादपांघरी, पावडी-संज्ञा, स्त्री० दे० ( हि० पाँव स्थली) पायताना, पॉयता। +री प्रत्य० ) पाँव, जूता, खड़ाऊँ, सीढ़ी सोपान । संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. पोग) | पाइल* -- संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. पायल ) पौरी, ड्योढ़ी, दालान, बैठक। पायल, पाजेब, छागल (प्रान्ती० )। पाँशु-संज्ञा, पु. (सं०) रज, धूलि, दोष, | पाई-संज्ञा, स्त्री० दे० ( सं० पाद = चरण ) बालु, खाद पाँस (दे०)। "तस्याः खुरन्यास किसी वस्तु का चौथाई भाग, दीर्घ आकार पवित्र पाँशुम'-रघु०। की मात्रा, पूर्ण विराम का चिन्ह, एक पांशुका-संज्ञा, स्त्री. (सं०) धूलि, रज, ताँबे का सिक्का जो एक पैसे में ३ मिलता हैं धुन एक कीड़ा (गेहूँ या धान का) एकाई रजस्वला। का चौथाई सूचक संख्या के प्रागे लगाने पाँशुल्त-वि. पु. (सं०) दापी, मलिन, | लंपट, व्यभिचारी। (स्त्री० पशुला) की छोटी खड़ी लकीर, मंडल में नाचने पांशुला--संज्ञा, स्त्री० (सं०) दोपिणी, मलिना, की क्रिया । सा० भू० स० क्रि० स्त्री० पाया । व्यभिचारिणी । " अपांशुलानाँ धुरि कीर्ति- पाँउ -संज्ञा, पु० दे० ( स० पाद ) नीया"-रघु०। पाँव, पैर। " श्राज संसार तो पाँउ मेरे पांस-संज्ञा, स्त्री० दे० ( सं० पाँशु) खेत को परै'-राम चं। उपजाऊ करने की सड़ी-गली चीजों की पाक -- संज्ञा, पु० (सं०) पकाने की क्रिया या खाद, सड़ने से उठा खमीर।। भाव, पकवान, रसाई,औषधियों का चाशनी पांसना-स० क्रि० दे० ( हि० पास+ने | में पाग, पाचन-क्रिया, श्राद्ध के पिंडों की प्रत्य०) खेत में खाद देना, "खेत पाँसना, खीर । " आप गयी जहँ पाक बनावा" खूब जोत कर पानी देना तीन'- स्फुट० ।। -रामा० । वि० (फा०) शुद्ध, पवित्र, निर्मल, प्रे० रूप-साना, पंसवाना। निदोष, समाप्त । यो०-पाक-साफ़ । मुहा० पांसा--संज्ञा, पु० द० ( सं० पाशक ) चौपड़ ---झगड़ा पाक करना-किसी कठिन खेलने के हाथी दाँत या हड्डी के चौकोर कार्य को कर डालना, बखेड़ा मिटाना, टुकड़े । 'ज्यों चौपड़ के खेल में, पाँसा | मार डालना । साफ । यौ०-पाकदामन पड़े सो दाँव"-वृन्द० । मुहा०-पाँसा -निर्दोष, निष्कलंक । वि० दे० (सं० पर) उलटना-किसी उपाय या उद्योग का -परिपक्क । पाककर्ता-वि० यौ० (सं०) उलटा फल होना। रसोई बनाने वाला, रसोइया । For Private and Personal Use Only Page #1120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पाकक्षार ११०६ पागना O - पाकक्षार-संज्ञा, पु० (सं०) जवाखार। पाकागार-संज्ञा, पु. यौ० (सं०) रसोई-घर । पाकगृह-संज्ञा, पु० यो० (सं०) रसोई-घर । । पाकूका-संज्ञा, पु० (दे०) पाककर्ता । पाकठ-वि० दे० (हि. पकना) पका पाकूया-संज्ञा, पु० (दे०) सजी खार । हुआ, अनुभवी, तजरबेकार, मज़बूत, दृढ़। पाक्य - वि० (सं०) पचने या पकने योग्य । पाकड़-सज्ञा, पु० दे० ( हि० पाकर) पाकर पाक्षिक-वि० (सं०) पक्ष या पखवारासंबंधी, पेड़। पक्षवाही, दो मात्राओं का एक छंद (पिं०)। पाकदामन-वि० यौ० (फा०) निर्दोष । पाखंड-संज्ञा, पु० दे० ( सं० पाषड ) ढोंग, संज्ञा, स्त्री० पास दामनी सती, पतिव्रता। ढकोसला. आडंबर, धोखा, छल, नीचता, पाकना-अ. क्रि० दे० (हि० पकना ) | दिखावा, वेद विरुद्ध आचार. वि० खंडी, पकना, पक जाना, परिपक होना। पाखंडी (ग्रा० ) । “जिमि पाखंड-विवाद पाकपत्र-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) रसोई के | तें गुप्त होंहि सदग्रंथ "--रामा । मुहा० बरतन, थाली, हाँडी आदि। -पखंड फैलाना-किसी के ठगने का पाकपटो - संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) चूल्हा, ढोंग फैलाना, मकर रचना । पाखंड रचना भट्टी, आँवा । -दिखावा या धोखे की बात बनाना । पाकयज्ञ-संज्ञा, पु. यौ० (सं०) गृह-प्रतिष्ठा । पाखंड करना-ढोंग करना। के समय खीर का हवन पंच महायज्ञों में | पाग्ब-पाग्वा -- संज्ञा, पु० दे० (सं० पक्ष ) से ब्रह्मयज्ञ को छोड़कर शेष ४ यज्ञ, वलि, एक पक्ष या १५ दिन, पखवारा ( ग्रा० ), वैश्व-देव, श्राद्ध, अतिथि-भोजन । वि० | त्रिकोणाकार बड़ेर रखने की चौड़ाई की पाकयाक्षिक। दीवार, पर, पंख, पखना। पाकर-पाकरी-संज्ञा, पु० दे० (सं० पर्कटी) पाखर-पाखरी-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० पक्षर) पकरिया. पलखन नामक पेड़ । " पाकर बैलगाड़ी में अनाज आदि भरने को टाट जंतु रसाल, तमाला"--रामा०। की एक बड़ी गोन, हाथी की लोहे की पाकरिपु-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) इन्द्र ।। झूल । संज्ञा० पु. ( दे० ) पाकर वृक्ष । पाखा-संज्ञा-पु० दे० (संपक्ष) छोर, कोना, पाख । पाकशाला-संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) रसोई. पाखान -संज्ञा, पु० दे० (सं० पाषाण ) घर, पाकालय, पाकगृह । पाषाण. पत्थर पखान (ग्रा.)। " तुलली पाकशासन-संज्ञा, पु० (सं०) इन्द्र, पाक राम-प्रताप तें, सिंधु तरे पाखान"-रामा० । नामक दैत्य के मारने वाले, (दे०) पाक पाखाना-- संज्ञा, पु० (फ़ा०) पुरीष, टट्टी, मैला, सासन । 'बैठे पाकसासन लौं सासन कियो गृह मल-त्याग-स्थान। करें"-रसाल। पाग--संज्ञा, स्त्री० दे० ( हि० पग ) पगड़ी, पाक संडसी– संज्ञा, स्त्री० (दे०) गरम बट- | पगिया । संज्ञा, पु० दे० पाक (सं०), चाशनी लोई उठाने का हथियार, संगसी। में पगी औषधि के लड्डू, शीरे में पके फल, पाकस्थली-सज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) पक्वा- | मिठाई का शीरा। शय, रसोईवर । पु. पाकस्थल । पागना-स. क्रि० दे० (सं० पाक) पाका-वि० दे० ( सं० पक्व ) पका हुआ, मीठी चीनी में सानना या लपेटना । अ० पक्का। संज्ञा० पु० (दे०) फोड़ा, व्रण। क्रि०(वृ०) अति अनुरक्त होना "राम-सनेहपाकारि-पाकारी - सज्ञा, पु० यौ० (सं० वा सुधा जनु पागे "-रामा० । क्रि० दे०, पाक दैत्य के शत्रु, इन्द्र। प्रे० रूप-पगाना, पगवाना )। . For Private and Personal Use Only Page #1121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org १११० पागल पागल - वि० (दे०) सिड़ी, बावला, विक्षिप्त, मूर्ख जिसका दिमाग या होश- हवास ठीक न हो स्त्री० पगली | संज्ञा, पु० पागलपन - उन्माद, मूर्खता, चित्तविभ्रम, इच्छा और बुद्धि का विकारक रोग । पागलखाना - संज्ञा, पु० दे० ( हि० पागल + ख़ान: - फ़ा० ) पागलों का औषधालय | पागा - संज्ञा, पु० (दे०) घोड़ों का समूह | वि० दे० ( हि० पागना ) पागा हुआ । पागुरी - संज्ञा, पु० दे० सं० रोमंथन ) जुगाली, खाए हुये को फिर से चबाना । पागुराना, पगुगना- अ० क्रि० दे० ( हि० पागुर ) जुगाली या रोमंथ करना, बातचीत करना । पाचक - वि० (सं०) पकाने या पचाने वाला संज्ञा पु० (सं०) पाचन शक्ति वर्धक औषधि, रसोइया, पाँच पित्तों में से एक पाचन- अग्नि । पाचन - संज्ञा, पु० (सं०) पकाना, पचाना, खट्टारस, अग्नि, भोजन का शरीर की धातुयों में परिवर्तन, जठराग्निवर्धक औषधि, प्रायश्चित्त । वि० पाचक । स्त्री० रात्रिका | संज्ञा, स्त्री० गचकता, पाचकत्व | वि०पचाने वाला । पाचन शक्ति संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) वह शक्ति जो भोजन पचाती है, हाज़िमा । पाचना* – स० क्रि० दे० (सं० पाचन ) भली-भाँति पकाना | वि० पाचित । पाचनीय - वि० (सं०) पकाने या पचाने के योग्य, पाच्य । पान्काहां - संज्ञा, पु० दे० ( फ़ा० पादशाह ) बादशाह, बाच्द्राह ( ग्रा० ) । पाच्य - वि० (सं०) पाचनीय, पकाने या पचाने योग्य | पात्र - संज्ञा, स्त्री० दे० ( हि० पाछना ) पोस्ता की बड़ी से क्रीम निकालने के हेतु नहनी से लगाया हुआ चीरा या किसी पेड़ में रस निकालने के हेतु लगाया हुआ पाटन चाकू का चीरा + संज्ञा, पु० दे० (सं० पश्चात् ) पीछा, पिछला भाग । क्रि० वि० (दे०) पीछे. पाछे । पालना -- स० क्रि० दे० (हि० पाछा) चीरना, चीरा लगाना । पाकुल- पालि - वि० दे० ( हि० पिछला ) पिछला, पीछे का, पीछे वाला । पान * - संज्ञा, पु० दे० (हि० पीछा ) पीछा । पाकी, पाळू, पाछ* --- क्रि० वि० (हि० पीछे ) पीछे, पश्चात् । • वाज - संज्ञा, पु० दे० (सं० पाजस्य ) पाँजर | पाजामा - संज्ञा, पु० (फ़ा० ) पैरों से कमर तक ढांकने का पाँवों में पहननेका सिला कपड़ा, इसके भेद हैं पेशावरी, नैपाली, सुथना, चूड़ीदार, अरबी, कलीदार, इजार, तमान यादि पतलून | Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पाजी -संज्ञा, पु० दे० (सं० पदाति रक्षक, पैदल सिपाही, पयादा, प्यादा, चौकीदार । वि० दे० (सं० पाय्य ) दुष्ट, लुच्चा, गुंडा । संज्ञा, पु० - पाजीपन । " पाज़ेब - संज्ञा स्त्री० (फ़ा० ) नूपुर, छागल | पाटंबर, पावर -संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) रेशमी कपड़ा, पटंबर (दे० ) । पाट कीट हाय, तातें पाटंबर रुचिर " रामा० । पाट - संज्ञा, पु० (सं० प्रह) रेशम, राजगद्दी, सिंहासन, पीदा, चक्की का एक पिल, कपड़ा वालों की पटियाँ फैलाव, नख, रेशम का कीड़ा एक प्रकार का सन, पीढ़ा। यौ०राज-पाट, पाटाम्बर - दे० पटंबर | "( जुगुल पाट घन-घटा बीच मनु उदय कियो नवसूर " - सूर० । नदी की चौड़ाई, चौड़ाई ( वस्त्रादि), भरना । पाटकृमि - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) रेशम का कीड़ा । पाटच्चर - संज्ञा, पु० (सं०) चोर, तस्कर । पाटन - - संज्ञा, स्त्री० दे० हि० पाटना। पटाव, छत, पटनई (दे० ) । साँप के विष उतारने For Private and Personal Use Only Page #1122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ११११ पाठ्य किसी .6 पाठ - संज्ञा, पु० (सं०) संथा. सबक़, पुस्तक को बिना अर्थ के मूलमात्र पढ़ना धर्म-ग्रंथ का नियमानुसार पठन पढ़ा या पढ़ाया गया, पढ़ाई, श्रध्याय, परिच्छेद । मुहा० - पाठ ( कुपाठ ) पढ़ाना - स्वार्थहेतु बहकाना | कीन्हेसि कठिन पदाइ कु.पाहू'- रामा० । उलटा पाठ पढ़ानाबहका देना. कुछ का कुछ समझा देना | शब्द या वाक्य-योजना । वि० - पाठ्य । पाठक - संज्ञा, पु० (सं०) पढ़ने वाला बाँचने वाला. पाठ करने या पढ़ाने वाला, अध्यापक. धर्मोपदेशक, ब्राह्मणों की एक पदवी या जाति । पाठदोष -- संज्ञा, पु० यौ० (सं०) पढ़ने का ऐब या निंदनीय ढंग | पाठन - संज्ञा, पु० (सं०) पदाना, अध्यापन । यौ० - पठन-पाठन | वि० पाठनीय । पाठना - स० क्रि० दे० ( हि० पढ़ाना ) पढ़ाना | पाठ-भेद - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) पाठांतर । पाठशाला - संज्ञा, खो० यौ० (सं०) चटशाला, विद्यालय, मदस, स्कूल | पाटसन - संज्ञा, पु० दे० ( हि० पटसन ) पाठांतर - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) पाठ-भेद, दूसरा पाठ, एक ग्रंथ की दो प्रतियों में शब्द, वाक्य या क्रम में अन्तर । पाटना का एक मंत्र, घर के ऊपर की अटारी या छत । पाटना - स० क्रि० दे० ( हि० पाट) गढ़े को भर देना, छत बनाना, तृप्त करना, चुकाना (ऋण) सींचना | पाटमहिषी-संज्ञा, स्रो० यौ० (सं०) पटरानी । CC जनक पाटमहिषी जग जाना - रामा० । पाटरानी -- संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं० पाटराज्ञी ) पटरानी । पाटल - संज्ञा, पु० (सं०) पाढर का वृक्ष । पाटला- संज्ञा, स्त्री० (सं०) पावर का पेड़, लाल लोध, दुर्गा । "स पाटलायाम् गवितस्थवांसम् " ३६० । संज्ञा पु ं० (दे०) एक प्रकार का सोना । पाटलिपुत्र- पाटलीपुत्र - संज्ञा, पु० (सं०) मगध या बिहार की राजधानी, पटना नगर । पाटली - संज्ञा, स्त्री० (सं०) पांडुफली पाडर, पटना की एक देवी | पाटव - संज्ञा, पु० (सं०) चतुराई, कुशलता, पटुता, दृढ़ता, विज्ञता, नैपुण्य, आरोग्यता । पाटवी - वि० ( हि० पट ) पटरानी का पुत्र, रेशमी या कौषेय कपड़ा । पटसन, एक प्रकार का सन । पाटा-संज्ञा, पु० ( हि० पाट ) पीढ़ा, पट्टा । पाटिका - संज्ञा, स्त्री० (सं०) पौधा विशेष, छाल, छिलका, एक दिन की मज़दूरी । पाटिया - संज्ञा, पु० (दे० ) पटिया, ठुस्सी, गले का एक सोने का बना गहना । पाटी - संज्ञा, स्त्री० (सं०) रीति परिपाटी, अनुक्रम. जोड़, बाकी, गुणा श्रादि का क्रम, पंक्ति, श्रेणी, बालों की पटिया। मुहा०पाटी पढ़ना-पाठ पढ़ना शिक्षा पाना । पाटी पारना - माँग के दोनों ओर बालों की पटिया बनाना, चारपाई की लम्बी पट्टी | चट्टान, खपरैल की नाली का श्रर्धभाग । पाटीर - संज्ञा, पु० (सं०) चंदन | Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पाठा - संज्ञा, खो० (सं०) पाढ नामक लता । संज्ञा, पु० दे० (सं० पुष्ट ) जवान, हृष्ट-पुष्ट, मोटा ताजा, पट्ठा, भैंसा, बैल यादि । स्त्री० पाठी, पठिया । पाठालय - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) पाठशाला | पाठित - वि० (सं०) पढ़ाया हुआ । पाठी - संज्ञा, पु० (सं० पाठिन ) पाठक, पाठ करने या पढ़ने वाला, चीता या चितावर | पाठीन - संज्ञा, पु० (सं०) मछली का भेद । पढ़िना (दे० ) । "मीन पीन पाठीन पुराने " -रामा० । पाठ्य - वि० (सं०) पदने योग्य, पाठनीय । For Private and Personal Use Only Page #1123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org १११२ पड़ पाड़ - संज्ञा, पु० दे० ( हि० पाट ) किनारा, ( धोती आदि कपड़े का ) मचान, बाँध, चह, तिकठी ( फाँसी की ) कुएँ की जाली । पाड़इ – संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० पाटल ) पाटल नामक पेड़ । पाड़ना- - स० क्रि० (दे०) गिराना, पछाड़ना, पटकना, पारना, लिटाना । पाड़ा - संज्ञा, पु० दे० (सं० पट्टन ) पड़ा ( प्रान्ती० ) भैंस का बच्चा, मुहल्ला । पाढ़ - संज्ञा, पु० दे० (सं० पाटा) पाटा, रखवाली वाला मचान । पाढ़त - संना, खो० दे० ( हि० पढ़ना ) जो पढ़ा जाय, जादू-मंत्र, पढ़ना किया का भाव । पाढ़र-पाढ़ल-- संज्ञा, पु० दे०( सं० पाटल ) पाडर नाम का पेड़ । पाढ़ा - संज्ञा. पु० ( दे० ) चित्रमृग | संज्ञा, स्त्री० एक औषधि लता, पाठा (दे० ) । पाढ़ी - संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० पाठा) पाढ़ नामक औषध विशेष । पाण - संज्ञा, स्त्री० (दे०) पीना, पत्ता, तांबूल, कपड़े की माँड़ी, पान | पाणि, पाणी - संज्ञा, पु० (सं०) हाथ, कर, पानि (दे० ) । "जोरि पाणि श्रस्तुति करति" । पाणिग्रहण – संज्ञा, पु० यौ० (सं०) विवाह की एक रीति जब वर कन्या का हाथ पकड़ता है, व्याह, विवाह | पाणिग्राहक संज्ञा, पु० यौ० (सं०) पति । पाणिघ- संज्ञा, पु० (सं०) हाथों का बाजा, मृदंग, ढोल आदि । पाणिज - संज्ञा, पु० (सं०) अँगुली नाखून | पाणिनि - संज्ञा, पु० (सं०) व्याकरण-ग्रंथ अष्टाध्यायी के रचयिता पक प्रसिद्ध मुनि जो ईसा से ३ या ४ सौ वर्ष पूर्व हुए थे । पाणिनीय - वि० (सं० ) पाणिनि मुनि का कहा या निर्माण किया हुथा । पाणिनीय दर्शन - संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पातल पाणिनि मुनि का व्याकरण शास्त्र ( श्रष्टाध्यायी ) । पाणिवाद संज्ञा, पु० यौ० (सं०) कर औौर चरण, हाथ-पैर । पाणिपीड़न - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) विवाह, व्याह. पाणिग्रहण, क्रोधादि से हाथ मलना । पातंजल - वि० (सं० ) पतंजलि कृत । संज्ञा, पु० पतंजलि कृत योग-दर्शन और महाभाष्य ( व्याकरण का उत्कृष्ट ग्रंथ) | पातंजल दर्शन - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) योग दर्शन या योग शास्त्र । पातंजल भाव्य-संज्ञा, पु० यौ० ( सं० ) महाभाष्य नामक व्याकरण का प्रख्यात ग्रथ । पातंजत्नसूत्र संज्ञा, पु० यौ० ( सं० ) योगसूत्र या योग-शास्त्र । पात संज्ञा, पु० (सं०) पतन, गिरना, पड़ना, नक्षत्रों की मृत्यु, नाश, कक्षाओं के नीचे जाने का क्रांति-वृत्त को काट ऊपर या संज्ञा, पु० दे० " ज्यों केला के स्थान (खगोल) राहु | ( सं० पत्र ) पत्र, पत्ता । पात पर, पात पात पर पात - कान में पहनने के स्वर्ण के पत्ते (आभूषण) । पातक- संज्ञा, पु० (सं० ) पाप, धर्म, कुकर्म । वि० पातकी । For Private and Personal Use Only ܕܙ पातघावरा - वि० यौ० (दे०) श्रति डरपोक । पातन --- संज्ञा, पु० (सं०) पत्तों (त्र ० ), गिराने वाला । स० क्रि० गिराने की क्रिया । पातर, पातुर, पातुरी - संज्ञा, स्त्री० दे० ( सं० पत्र पतरी, पत्तल | संज्ञा, स्त्री० (सं० पातली ) वेश्या, पतुरिया, रंडी । -वि० दे० (सं० पात्रट : = पतला ) पतला, दुबला, क्षीण, सूक्ष्म, बारीक । पातर पातरी - संज्ञा स्त्री० दे० सं० पत्र ) पत्तल, पतरी (दे० ) । " जूठी पातरि खात हैं " - ४० राय० । वि० स्त्री० (दे०) दुबली, पतली, क्षीण, कृश । पातल - संज्ञा, स्त्री० दे० (हि० पातर ) पत्तल | Page #1124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पातव्य १११३ पाथेय एंज्ञा, स्त्री० दे० (सं० पातली ) रंडी, पतुरिया पातिशाह -संज्ञा, पु० दे० ( फ़ा. बादशाह ) *-वि० द० सं० पात्र - पतला) पतला। बादशाह । पातव्य-वि० ( सं० ) रक्षा करने या पीने के | पातु-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० पातली ) योग्य। वेश्या, रंडी, पतुरिया, पातुरी (दे०)। पातराज-संज्ञा, पु० दे० (सं०) सर्प विशेष। पात्र-संज्ञा, पु. ( सं० ) बरतन, भाजन, पातशाह-संज्ञा, पु० दे० ( फ़ा० पादशाह ) किसी विषय का अधिकारी, उपयुक्त, योग्य, बादशाह, राजा। नाटक के नायक, नायिका आदि, नट, पाता*-संज्ञा, पु० दे०(हि० पत्ता ) पता। अभिनेता, पत्र, पत्ता। पाताखता-संज्ञा, पु० दे० ( हि० पात --- पात्रता-संज्ञा, स्त्री० (सं०) योग्यता, क्षमता, आखत ) पत्र और अक्षत, तुच्छ भेंट। संज्ञा, पु० पात्रत्व । पाताबा-संज्ञा, पु. (फ़ा०) पाँवों में पहनने पात्रदुष्टरस--संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) एक का मोज़ा। प्रकार का रस-दोष जिसमें कवि अपने पातार, पाताल-संज्ञा, पु० (सं०) पताल समझे या जाने हुए विषय के विरुद्ध कह (दे०) पृथ्वी के नीचे ७ लोकों में से एक जाता है। लोक, अधोलोक, नाग लोक, गुफा. विवर पात्री--- संज्ञा, स्त्री० (सं० ) छोटा बरतन, या बिल, मात्रिक छंदों की संख्या, कला बरतन वाला। गुरु लघु आदि का सूचक चक (पिं०) बड़वा- पात्रीय-वि० (सं०) पात्र का, पात्र संबंधी। नल । वि० पातालोय (दे०) पाताली। पाथ-संज्ञा, पु० (सं० पाथस् ) पानी, जल, पाताल-केतु ... संज्ञा, पु. यौ० (सं०), पाताल अग्नि, सूर्य, अन्न, वायु, श्राकाश । यौ० वासी एक दैत्य विशेष ! पाथनाथ -सागर । संज्ञा, पु० दे० (सं० पथ) पाता त-खंड-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) पाताल । | राह, रास्ता, मार्ग, सागर। "पाथ नाथ पाताल-गरुड़-पाताल-गरुड़ी-संज्ञा, पु० नन्दिनी सों"--तु० । यौ० (सं० ) छिरैटा, छिरिहटा । पायना - स० कि० दे० (सं० प्रथन ) बनाना, पाताल-तंबी-संज्ञा, स्रो० यौ० (सं०) एक गढ़ना, सुडौल करना, ईटें या खपरे बनाना, लता विशेष । थोपना, कंडे बनाना, मारना पीटना, ठोंकना पातालनिलय-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) एक पीट या दबा कर बड़ी टिकिया बनाना। दैत्य, सर्प, जिसका घर पाताल में हो। पानिधि-संज्ञा, पु० दे० यौ० (सं० पाथोपातालनपति-संज्ञा, पु. यौ० (सं०) सीता निधि ) समुद्र, सागर, पाथनाथ । धातु, पाताल का राजा, धातु । | पाथर*- संज्ञा, पु० दे० (सं० प्रस्थर) पत्थर, पातालयंत्र-संज्ञा, पु. यौ० ( सं०) कड़ी "पाथर डारै कींच में, उरि बिगारै अंग"। औषधों के गलाने या तेल निकालने का यंत्र। -- ० । पाति-पाती*-संज्ञा, खो० दे० ( सं० पत्र, पाथा संज्ञा, पु० दे० (सं० पाथस् ) जल, पत्री ) पत्ती, पत्ता, दल, पत्र, चिठ्ठी, । "रावन पानी अन्न, आकाश | स० क्रि० सा० भू. कर दीजो यह पाती"--रामा० । (हिं०) पाथना । पातित्य-संज्ञा, पु. ( सं० ) पतित होने का पाथि-संज्ञा, पु. ( सं० पाथस् ) समुद्र, भाव. पाप, दुराचार, अधःपतन। आँख, घाव की पपड़ी, पितरों का जल । पातिव्रत-पातिव्रत्य-संज्ञा, पु. (सं०) पति- पाथेय-संज्ञा, पु. (सं०) राह या मार्ग का व्रता होने का भाव। भोजन, राह-खर्च, संबल । भा० श. को०-१४० For Private and Personal Use Only Page #1125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पाध पाथोज १११४ पाथोज-संज्ञा, पु० (सं० ) कमल । • भूपाल-मौलि-मणि-मंडित पाद-पीठ" पाथोद-संज्ञा, पु० (सं० ) मेघ, बादल। -भो० प्र० पाथोधर-संज्ञा, पु. (सं०) मेघ, बादल। पादपुरण-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) छंद पाथोधि- संज्ञा, पु. (सं०) समुद्र । " जेहिं के किसी चरण के पूरा करने के हेतु रखा पाथोधि बँधायो हेला"- रामा० । गया शब्द, किसी पद का पूरक वर्ण या शब्द। पाथोनिधि-संज्ञा, पु० (सं०) समुद्र। पादप्रक्षालन-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) पाँव पाद-संज्ञा, पु० (सं०) पाँव, चरण, पैर, छंद धोना। का चौथाई भाग, चरण, पद, बड़े पहाड़ के पादप्रणाम - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) पाँव पास का लघु पर्वत, वृक्ष-मूल, तल, गमन ।। छू कर प्रणाम, साष्टांग दंडवत । संज्ञा, पु० दे० (सं० पर्द) अधोवायु पाद प्रहार- संज्ञा, पु. यौ० (सं०) लात अपानवायु, गुदा-मार्ग की वायु। मारना, ठोकर मारना, पदाघात । पाद-कंटक-संज्ञा, पु० यो० (स.) बिछुना। पादरत-पादरक्षक-संज्ञा, पु. यौ० (सं०) पादक-वि० (१०) चलने वाला, चौथाई।। जूता, पनही, खड़ाऊँ, पावड़ी, पोला (ग्रा०)। पादकीलिका-संज्ञा, स्त्री० (स०) पाज़ेब ।। पादरी--संज्ञा, पु० दे० (पुत्त पैड़े) ईसाई पादकृच्छ -संज्ञा, पु० यौ० (सं०) व्रत विशेष । धर्म का पुरोहित । पादखंड-सज्ञा, पु० यौ० (सं०) वन, जंगल । पादबंदन- संज्ञा, पु० यौ० (सं०) पाँव पादग्रान्थ-संज्ञा, स्त्री० (सं०) ऍड़ी। | पड़ कर प्रणाम । पाद-डिर-संज्ञा, पु० (सं०) श्लीपद रोग, पादशाह-- संज्ञा, पु० ( फ़ा० ) बादशाह । पीलपाँव रोग (वैद्य०)। पादहीन-वि० यौ० (सं०) बिना चरण का । पादाकुलक-- संज्ञा, पु० (सं०) चौपाई छंद। पादग्रहण-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) पाँव छूना। पादाक्रांता-वि० यौ० (सं०) पददलित, पादचत्वर-संज्ञा, पु० (सं०) बकरा, बालू का पाँव से रौंदा या कुचिला हुआ, पामाल | टीला, भोला, पीपल का पेड़ । वि. निन्दक, पादाति-पादातिक--संज्ञा, पु० (सं०) पैदल, चुगुलखोर। सिपाही, प्यादा, पयादा (दे०)। पादचारी-संज्ञा, पु० (सं० ) पैदल चलने पादारघ*-संज्ञा, पु० दे० यौ० (सं० पाद्यार्थ) वाला। पाँव धोने के लिए जल। पाटीका-संज्ञा, स्त्री. (सं०) वह टीका या | पादार्पण-पदार्पण-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) टिप्पणी जो किसी ग्रंथ के नीचे लिखी प्रवेश करना, पाँव देना या रखना। "पादागयी हो, फुटनोट (अं०)। पणानुग्रह पूतपृष्ठम् "-रघु०।। पादतल-संज्ञा, पु० यौ० ( सं०) पाँव का पादी--संज्ञा, पु० (सं० पादिन) पाँववाले तलवा। जल-जन्तु, जैसे मगर। पादत्र-गादत्राण-संज्ञा, पु. यो० (सं०) पादीय-वि० (सं०) पदवाला, मर्यादा वाला। जूता, खड़ाऊँ, पावड़ी, पौला। पादुका-संज्ञा, स्त्री० (सं०) खड़ाऊँ, पावड़ी। पादना-अ० क्रि० दे० ( सं० पर्दन ) अधो । “जे चरननि की पादुका, भरत रहे लव वायु छोड़ना, वायु सरना ।। लाय "-रामा० । पादप-संज्ञा, पु० (सं०) पेड़, वृक्ष, बैठने का पादोदक-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) चरणामृत, पीदा। पाँव का धोवन । पादपीठ-संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) पीढ़ा, पाटा। पाद्य-संज्ञा, पु० (सं०) पाँव धोने का जल । For Private and Personal Use Only Page #1126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पाद्यक पानी पाद्यक-संज्ञा, पु० (सं०) पाद्य देने का पानात्यय-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) अति मद्यएक भेद विशेष । पान से उत्पन्न एक रोग (वै०)। पाद्यार्घ-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) पाँव धोने का पानासक्त -- वि० यौ० (सं०) मद्यप्रिय । जल, पूजा की सामग्री। | पानाहार-संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) अन्न-जल, पाधा-संज्ञा, पु० दे० (सं० उपाध्याय) | खाना-पीना। श्राचार्य, पंडित, उपाध्याय, पुरोहित । पानि-पानी--संज्ञा, पु० दे० ( सं० पाणि ) पान--संज्ञा, पु. ( सं०) पीना, खाना. सेवन हाथ । संज्ञा, पु० दे० (सं० पानीय) पानी। करना, जैसे-यौ० मद्यपान- शराब पीना । “जोरि पानि प्रस्तुति करत"-रामा० । यौ० खानपान । पेय द्रव्य, पीने की वस्तु, पानिग्रहन - संज्ञा, पु० दे० यौ० (सं० पानी, मद्य, कटोरा, प्याला। संज्ञा, पु. पाणि ग्रहण ) विवाह, व्याह । (सं० प्राण ) प्राण, शन (दे०)। संज्ञा, पानिप-संज्ञा, पु० दे० ( हि० पानी+पपु. ( सं० पर्ण ) पत्र, ताँबूल । संज्ञा, पु० प्रत्य०) कांति, द्युति, चमक, श्रोप, श्राब । दे० ( सं० पाणि ) पानि, हाथ । मुहा०- " सकल जगत पानिप रह्यो बूंदी में पान देना -- बीड़ा देना। पान लगाना- ठहराय"--ललित। कत्था-सुपारी आदि से पान बनाना । यौ० | पानिय-संज्ञा, पु० दे० ( सं० पानीय ) पानी पान-पत्ता--लगा या बना पान, तुच्छ “प्यासी तजौं तनु-रूप-सुधा बिनु पानिय पूजा या भेंट । यौ० पानफूल--सामान्य पीको पपीहै पिधाओ"--हरि० । उपहार या भेंट, अत्यन्त मृदु वस्तु। पानी-संज्ञा, पु. ( सं० पानीय ) आक्सीजन पान बनाना -- बीड़ा तैयार करना , और हाईड्रोजन गैसों से बना एक द्रव पदार्थ पान लगाना । पान लेना--- बीड़ा लेना, (विज्ञा०), जल. अंबु, तोय। मुहा०-पानी तास के रंगों का एक भेद । का बतासा या बुलबुला-- नश्वर, क्षणपानगोष्ठो-संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं० ) मद्य- भङ्गर वस्तु । पानी का फेन या फफोलापान की.मंडली या सभा। "पानी कैसो फेन और जल को फफोला है" पानड़ी-संज्ञा, स्त्री. (हि. पान+डो- -पद्वा०। पानी की तरह बहाना - अंधा प्रत्य० ) एक सुगंधित पत्ती। धंध खर्च करना, बिना सोचे-समझे व्यय पानदान-संज्ञा, पु० (हि० पान - फा० करना । पानी के मोल-बहुत कम मूल्य दान-प्रत्य० ) पान का डिब्बा, एनडब्बा । पर, बहुत ही सस्ता । पानी टूटना-कुएँपानरा-पनारा--संज्ञा, पु० दे० (हि० पनारा) ताल में पानी का बहुत ही कम हो जाना। नाबदान, नरदवा, नर्दा (ग्रा.)। पानी देना-सींचना, पितरों के नाम पर पाना--स० क्रि० दे० (सं० प्रापण ) प्रात पानी डालना, तर्पण करना । पानी पढ़ना करना, वापस मिलना, भोगना, समर्थ या --मंत्र पढ़कर पानी फूंकना। पानी परोरना बराबर होना, भोजन करना, खाना, (साधु) -पानी पढ़ना या फूंकना। पानी पानो पावना, अधिकार में करना, पता या भेद होना-शरम के मारे कट जाना, लज्जित पाना, सुन या जान लेना, अनुभव या होना । पानी फूकना--मंत्र पढ़कर पानी साक्षात् करना, समझना, देखना, जानना, में फूंक मारना । किसी पर पानी फेरना मिलना । वि० भातव्य - पावना। या फेर दना डालना, गिगना) मटियापानागार-संज्ञा, पु. यो० (सं०) शराब- मेट या चौपट कर देना । किसी के सामने खाना, मधुशाला, हौली (ग्रा०) । पानी भरना-अधीनता स्वीकार करना, For Private and Personal Use Only Page #1127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पाप पानी फीका पड़ना। पानी-भरी खाल-अतिक्षण- जाना। पानी पड़ना-मेह बरसना । भंगुर या अनित्य शरीर । पानी में आग पानी पीकर कोसना-सदा बुरा मनाना, लगाना-जहाँ सम्भव न हो वहाँ झगड़ा अशुभ चाहना । पानी भरना (भराना)करा देना । पानी में फेंकना या बहाना अधीन होना (करना)। (किसी जगह ) -बरबाद या नष्ट करना। सूखे पानी में पानी भरना-पानी रुकना, अधीनता डूबना-भ्रम में पड़ना, धोखा खाना । स्वीकार करना, तुच्छ, होना । (आँखों का) मुहँ में पानी भर आना या छूटना- पानो मरना-लज्जा न रहना । पानी स्वाद लेने की इच्छा होना, अति लालच पतला करना-दुख देना, पीड़ा पहुँचाना, होना । रस, अर्क, जूस, छबि, कांति, जौहर, | दुखी करना । पानी सा पतला-अति श्राब, इज्ज़त-प्राबरू, शर्म, पानी सी द्रव तुच्छ, सूचम या साधारण । वस्तु, जल-रूप में सार अंश, मान, प्रतिष्टा। पानीदार-वि० (हि. पानी+दार फा०महा०-पानीउतारना --इज्जत उतारना. प्रत्य०) इज्जतदार, माननीय, साहसी, धार, अपमानित करना। पानी जाना - लज्जा बाद या चमकवाला : “पानीदार पारथया प्रतिष्ठा नष्ट होना या न रहना, इज्जत सपूत की कृपानी-गत, पानीदार धार मैं जाना। (खिका) पानी जाना-लज्जा विलीन बड़वागी है -श्र० ३० । न रहना। मरदानगी, हिम्मत, वर्ष, पानी देवा-वि• यौ० (हि० पानी + देवा = ( जैसे-पाँच पानी का बैल ), मुलम्मा, देने वाला ) पिंडदान या तर्पण करने वाला, वंशगत विशेषता या कुलीनता (पशुओं की)। वंशज । पानीरखना-मान-मर्यादा रखना । "रहि- पानीफल-संज्ञा, पु० यौ० (हि. पानी+ मन पानी राखिये, बिन पानी सब सून । पानी सं० फल ) सिंघाड़ा। गये न उबरे, मोती, मानुस, चून' महा0 पानीय-संज्ञा, पु. (सं०) पानी, जल । वि. पानी करना या कर देना--किसी का पीने के योग्य, रक्षा-योग्य । क्रोध मिटाना, चित्त शीतल करना, नष्ट या | पानूस -- संज्ञा, पु० दे० (फा० फानूस ) शिथिल करना । पानी निकालना-अति फानुस । श्रमित या दलित करना जलवायु, श्राबहवा, पानौरा-संज्ञा, पु० दे० (हि० पान + बरा) पानी सी फीकी निःस्वाद वस्तु, बेर, इंद पान के पत्ते की पकौड़ी। युद्ध । महा-पानी लगना- जल-वायु पानप---वि• (सं०) बटोही, राही, यात्री। का उपयुक्त न होना, उससे स्वास्थ्य बिगड़ना।। पाप-संज्ञा, पु० (सं०) बुरा काम, कुकर्म, " लागै अति पहार कर पानी"-रामा० । पातक, अघ, पापी (विलो०-पुण्य, धर्म )। संज्ञा, पु० दे० (सं०पाणि) हाथ । बोले भरत | मुहा०—पाप उदय होना-बुरे प्रारब्ध या जोरि जुग पानी"-रामा० । संज्ञा, पु० संचित कुकर्मों या पापों का फल मिलना, पाप ( हि० ) कांति, धार, बाढ़ ( अनादि की) | कटना, पाप का नाश होना । पाप कटनामुहा०-पानी रखना (खड़ में)-- पाप का नाश होना, बखेड़ा या अनिच्छित बाढ़ या धार रखना । ( आँखों से ) पानी काम का दूर होना। पाप काटना-पाप श्राना ( गिरना )- आँखों से आँसू । मिटाना, पाप का बुरा फल भोगना । पाप गिरना । (आँखों में ) पानो पाना कमाना या बटोरना---पाप कर्म करना । (बहना, गिरना)- आँसू बहते रहना। पाप लगना--दोष या पाप होना, कलंक मुहा०-पानी न माँगना-तुरन्त मर । लगना । अपराध, पाप-बुद्धि, अनिष्ट, बुराई, For Private and Personal Use Only Page #1128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org पाप-कर्म हित जुर्म, हत्या, वध, संकट | मुहा०पाप कटना - जंजाल छूटना, झगड़ा मिटना । पाप मोल लेना --- जान बूझ कर झगड़े में फँसना । पाप पड़ना - कठिन हो जाना, दोष होना । यो०- पापग्रह - मंगल, शनि, राहु केतु सूर्य चुरे ग्रहर (ज्य० ) 1 प-कर्म - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) पाप का कर्म, कर्म, शुभ कार्य । पाय पापकर्मा - वि० यौ० ( सं० पाप कर्मन् ) पापाचारी, पापी, कुकर्मी । १११७ पावगण - संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) ठगण का भेद (पिं० ) । पापन - वि० (सं०) पापनाशक, पापसूदन । पापचारी, पशचारी - वि० (सं० पापचारिन् ) पापी, पाप करने वाला । स्त्री० पापचारिणी । पापड़-पापर संज्ञा, पु० दे० (सं० पर्पट) उर्द या मूँग की धोई दाल के आटे की मसालेदार पतली रोटियाँ | मुहा०-पापड़ बेलना - बड़ा परिश्रम करना, दुख या कठिनता से समय बिताना। बहुत से पापड़ बेलना --- धनेक प्रकार के काम कर चुकना । पापड़ा - संज्ञा, पु० दे० (सं० पर्पट) एक पेड़, पित्तपापड़ा । पापदृष्टि - वि० यौ० (सं० ) बुरी पाप- पूर्ण दृष्टि हानि या श्रनिष्टप्रद दृष्टि । पाप नाशन - संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) पाप का विनाश करने वाला, शिव, विष्णु, पापनाशक, पापनाशी, प्रायश्चित्त । पापयोनि-संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं० ) पाप से मिलने वाली कीड़े या पशु-पक्षी की योनि । पायरोग - संज्ञा, पु० यौ० (सं० ( पापाचरणजन्य रोग जैसे यक्ष्मा, कुष्ट उन्माता. ग्रन्थत पीनप, छोटी माता, वसंत रोग । पापलोक - संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) नरक । | मूकता यादि, पायंदाज पापहर - वि० पु० ( सं० ) पापनाशक । पापाचार - संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) पाप का श्राचरण, दुराचार | वि० पापाचारी । स्त्री० पापाचारिणी । पापात्मा - वि० यौ० ( सं० पापात्मन् ) दुष्टात्मा, पाप में अनुरक्त, पापी । "पापात्मा पाप-संभवः स्फु० । " सं०) बहुत बड़ा पापी । सं० पापिन् ) "6 वाला, अधी, नृशंस, निर्दय, परपीड़क राम तोर पापी" रामा० । (स्त्री०) पापिनी पापोश - संज्ञा, पु० यौ० ( फा० ) जूता । पावंद - वि० ( फा० ) पराधीन, वद्ध, क़ैद, प्रतिज्ञा-पालन में विवश | संज्ञा, स्त्री० पाबंदी | पाबंदी - संज्ञा, स्त्री० ( फा० ) पावंद होने का भाव, क़ैद । पारिष्ट - वि० पाणी - वि० Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पाप करने पातकी, क्रूर, भ्राता बड़ पानड़ा - संज्ञा, पु० दे० ( हि० पाँवड़ा ) वा. बड़ों के रास्ते में विछाने का वस्त्र, यंदाज़ (फा० ) | पामर - वि० (सं० ) कमीना, नीच, मूर्ख, । माँ - रामा० । दुष्ट, पापी, खल, " नर पामर केहि लेखे "" पामरी - संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० प्राबार ) दुपट्टा | ( हि० पाँचड़ी ) खड़ाऊँ । पासाल. पायमाल - वि० ( फ़ा० पा + माल = रौदना ) पददलित, चौपट, खराब बरबाद, तबाह | संज्ञा, खो० पामाली । For Private and Personal Use Only I पाय, पाँइ, पाय - संज्ञा, पु० दे० ( हि० पाँव ) पाँव, पैर । " श्राज संसार तो पायँ मोरे परै " राम० । पायँ जेहरि * पायज़ेब ) पायजेब, पाजेब (दे० ) | --- संज्ञा स्त्री० दे० ( फा० पायँता- पंज्ञा, पु० दे० ( हि० पाँय + सं० स्थान ) पैंताना, (विलो०-सिरहना, उसीस, स्त्री० पायँती । पायंदाज - संज्ञा, पु० ( फा० ) पाँय पोछने Page #1129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir " . पायक १११८ पारग का कपड़ा । " निरमल राखै चाँदनी, जैसे से उस किनारे तक । यौ० वार-पार । पायंदाज”–। महा-पर उतरना (उतारना)--किसी पायक-संज्ञा, पु० दे० (सं० पादातिक, पा- कार्य से छुट्टी मिलना, सफलता या सिद्धि यिक) दूत, दास, सेवक, धावन, प्यादा । प्राप्त करना, ठिकाने लगना, ( लगा देना) पायताबा-संज्ञा, पु. (फा०) पैर का मार डालना, पूरा करना, मुक्त होना, निकल मोज़ा, जुर्राब। जाना । पार करना---पूर्ण करना, बिताना, पायदार-वि० (फा० ) टिकाऊ, दृढ़, मज़- तय करना, सह या झेल जाना, नदी आदि बूत । संज्ञा, स्त्री० पायदारी। तैर कर दूसरे तट पहुँचना, निबाहना। पापरा--- संज्ञा, पु० (हि. पाय+रा ) पार लगना-नदी के एक तट पैकड़ा, रकाब। से दूसरे पर पहुँचाना, निवाहना, पायल--संज्ञा, स्त्री० (हि. पाय+ल+) निर्वाह होना। पार पाना-सफलता प्रत्य० ) पाज़ेब, नूपुर, तेज चलने वाली | या मुक्तिपाना, जीतना । " धीरज धरिय तौ हथिनी, उलटा उत्पन्न होने वाला लड़का।। पाइय पाह" ---रामा० । किसी से पार पायस--संज्ञा, स्त्री० (सं०) खीर, सलई का | लगना-पूरा होना, हो सकना, निर्वाह गोंद, सरल-निर्यास । होना, सफल या पूर्ण (सिद्ध ) होना। पायसा *-संज्ञा, पु० दे० (सं० पार्श्व ) | पार लगाना-मुक्तया उद्धार करना, निर्वाह पड़ोस, परोस (दे०)। करना, दुःख या कष्ट से निकालना, पार पाया-संज्ञा, पु० दे० (सं० पाद ) पावा, उतारना, पूरा करना । पार होना-किसी मचवा (प्रान्ती०) गोड़ा, पद खंभा, श्रोहदा, कार्य को पूरा करना, मुक्त होना, किसी सीढ़ी, सहारा, अाधार । स० भू० स० क्रि० वस्तु के बीचसे होकर दूसरी भोर पहुँचना । (हि. पाना) पागया । मुहा०. पाया मुहा०- पार पाना- समाप्ति या मजबूत होना (करना) --आधार या पूरा होने तक पहुँचना । किसी सहारा, दृढ़ होना (करना) । (किसी का) से पार पाना--जीतना, हरा देना विरुद्ध सफलता प्राप्त करना । ओर, छोर, मजबूत पाया पकड़ना-दृढ़ सहारा लेना। मुहा०—पाया दूढ़ करना (होना ) अंत,सीमा. दूसरा पार्व, दो तटों में कोई आधार या स्थिति को सुदृढ़ करना (होना)। (एक की अपेक्षा दूसरा)। अन्य-श्रागे, आधार । पाया पकड़ना-सहारा या परे, दूर अलग। सहायक पाना या बनाना । पारई -संज्ञा, स्त्री० दे० (हि० परई) परई । पायी-वि० (सं० पाइयेन ) पीने वाला। पारख - संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. पारिख ) पारंगत-वि. (सं०) पूरा ज्ञाता या पारिख, परख, पारखी। पंडित, पार गया हुआ, मर्मज्ञ पारगामी। पारखद*- संज्ञा, पु० दे० (सं० पार्षद ) पारंपर्य-संज्ञा, पु० (सं०) परंपरा का क्रम, सेवक, मंत्री, साथ रहने वाला, अंग-रक्षक । वंशपरंपरा, कुल की सदा की रीति। पारखी---संज्ञा, पु० दे० ( हि. पारख -- ई. पार-संज्ञा, पु० (सं०) नदी आदि के दूसरी ---प्रत्य० ) परीक्षक, परखैया, परखने वाला। ओर का तट या किनारा । . जो तुम अवसि! "बचन पारखी होहु तुम पहलेाप नभाखा" पार गा चहहू "-रामा०। यो०- पारग--वि० पु० (सं.) कार्य पूर्ण करने आर-पार-दोनों किनारे, इस किनारे | वाला, पार जाने वाला, पूर्ण ज्ञाता, समर्थ । For Private and Personal Use Only Page #1130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पारचा १११६ पारस्कर पारचा-संज्ञा,पु० (फा०) खंड, भाग, टुकड़ा, -- स० क्रि० दे० ( हि० पालना ) पालना, अंश, परचा कपड़े या कागज का टुकड़ा, पोषना। एक तरह का रेशमी वस्त्र, पहनावा पारमार्थिक-वि० (सं०) परमार्थ या पारजात *-संज्ञा, पु० दे० (सं० पारिजात) मुक्ति-साधक, परमार्थ संबंधी, वास्तविक, एक देव-वृक्ष । ठीक ठीक । पारण-संज्ञा, पु. ( सं० ) व्रत के दूसरे दिन पार लौकिक-वि० यौ० (सं० ) मुक्तिका प्रथम भोजन तथा तत्संबन्धी कृत्य, साधक, परलोक में अच्छा फल देने वाला, पूर्ण, समाप्ति, बादल. पारन (दे०) स्त्री स्वर्ग लोक सम्बंधी। विलो. लौकिक। पारणा । पावश्य-संज्ञा, पु. ( सं० ) पर वशता, । पारतंत्र्य-संज्ञा, पु. (सं०) परतंत्रता। पारशव--संज्ञा, पु. ( सं० ) अन्य स्त्री से पारत्रिक-वि० ( सं० ) पारलौकिक, मुक्ति- उत्पन्न, एक वर्ण-संकर जाति, लोहा, एक संबंधी। देश जहाँ मोती निकलते थे. पारसव(दे०) । हारथ- संज्ञा, पु० दे० (सं० पार्थ ) पार्थ, पारपद *---सज्ञा, पु० दे० (सं० पार्षद) अर्जुन । “पारथ से ठाढे पुरुषारथ को छाँड़े। पार्षद, सेवक, दास, मंत्री, साथी। ठिग-"। पारस-संज्ञा, पु. दे० (सं० स्पर्श) एक कल्पित पारथिव-संज्ञा, पु० दे० (सं० पार्थिव ) स्पर्श मणि जिसके छू जाने से लोहा सोना हो पार्थिव, पृथ्वी-संबंधी। जाता है, " पारप परसि कुधातु सुहाई" पारद- संज्ञा, पु० ( सं० रस, पारा. फारस -रामा० । अत्यन्त उपयोगी या लाभदायक की एक पुरानी जाति। नंक न आव मयंक- वस्तु । वि० --- पारस के समान, स्वच्छोत्तम, मुखी परजंक पै पारद की पुतरी सी" नीरोग । *संज्ञा, पु० दे० (सं० पाव) निकट, पारदरिक-संज्ञा, पु. ( सं० ) परस्त्रीरत । पास । संज्ञा पु० (हि परसना ) परोसा पारदर्शक -- वि० ( सं० ) वह वस्तु जिसमें हुआ भोजन, मिठाई आदि का पत्तल । उस के दूसरी ओर के पदार्थ दिखलाई दें, . संज्ञा. पु० दे० (सं० पारस्य ) प्राचीन जैसे कांच या शीशा। काम्बोज और वाह्नीक के पश्चिम का देश, पारदर्शी-वि० सं० पारदर्शिन् ) दूरदर्शी | फारसा अग्रसोची, चतुर, बुद्धिमान ज्ञानी। पारसनाथ-- संज्ञा, पु० दे० ( सं० पार्श्वनाथ) पारधी-संज्ञा, पु० दे० ( सं० पारिधान ) जैनियों के एक तीर्थकर । व्याध, शिकारी, बहेलिया, वधिक, हत्यारा। पारसव* --- संज्ञा, पु० दे० (सं० पारशव) " धनुष बान लै चला पारधी"..-कबी०।। पराई स्त्री में जन्मा पुत्र, पारशव । पारन-संज्ञा, पु० दे० (सं० पारण ) पारण। पारसी- वि० दे० (फा० फारस ) पारस पारना-स० क्रि० दे० (हि. पड़ना)। देश संबंधी, पारस का। संज्ञा, पु०-बंबई गिराना, लेटाना, पहाड़ना, रखना । यौ० और गुजरात के वे निवासी जिनके पूर्वज --पिडा पारना-श्राद्ध या पिंडदान हजारों वर्ष पूर्व मुसलमान होने के भय से करना, उत्पात या बखेड़ा मचाना, अंतर्गत फारस त्याग कर आये थे, पारसी लोग। करना, पहनाना, बुरी बात घटित करना, पारसीक-संज्ञा, पु० (सं०) फारस देश का, जमा या ढालकर तैय्यार करना, जमाना,- फारसवासी, फारस का घोड़ा। जैसे काजल पारना । * अ० क्रि० दे० पारस्कर--संज्ञा, पु. (सं०) एक प्राचीन (हि. पार लगना ) समर्थ होना । *+ देश, गृह्यसूत्रकार एक मुनि । For Private and Personal Use Only Page #1131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पारस्परिक ११२० पार्घट पारस्परिक-वि० (सं०) श्रापस का, से प्राप्त नन्दन वन का एक देवतरु, पारिपरस्पर, एक दूसरे का। भद्र, हरचंदन, हरसिंगार, कचनार, कोविदार। पारस्य -- संज्ञा, पु० (सं०) पारस या फारस! | पारिणाम- संज्ञा, पु० (सं०) संबंध, पारा-संज्ञा, पु. द० (सं० पारद ) बंधन, घर या गृहस्थी का उपकरण । चाँदी से सफेद, चमकदार एक द्रव धातु पारितथ्या--संज्ञा, स्त्री० (सं०) सधवा स्त्रियों जो साधारण शीत-ताप में द्रव ही के धारण करने योग्य वस्तु, बेदी, टिकुली। रहती है, मुक्ति, प्राधान्य, प्रतिलोय, पारितोषिक-संज्ञा, पु० (सं०) परितुष्टि भृशार्थ, विक्रम, अंहकार, अनादर, शब्द या प्रसन्नता से दिया धन, इनाम, पुरस्कार। का श्रादि स्वरूप । वि० -सब से बड़ा, सब पारिन्द्र-परीन्द्र-वि० (सं०) सिंह, शेर। से ऊपर । मुहा० ---पारा पिलाना-अति । पारिपंथिक संज्ञा, पु. (सं०) चोर, डाकू । भारी करना । संज्ञा, पु० दे० (सं० पारि = | पारिपात्र--संज्ञा. १० (सं०) विन्ध्याचल के प्याला) परई, पार, तट । "तुमहि अछत को | सात पर्वतों में से एक। बरनै पारा --रामा० । संज्ञा, पु० दे० पारिपार्श्व-संज्ञा, पु० (सं०) अनुचर, दास, (फा० पारः ) टुकड़ा, केवल पत्थरों से बनी | पारिषद् । छोटी दीवाल। पारिपाश्चिक-संज्ञा, पु. (सं०) सेवक, पारायण-संज्ञा, पु० (सं०) समय नियत दाप, पारिषद्, सूत्रधार ( स्थापक ) का करके किसी धर्म-पुस्तक का श्राद्योपांत पाठ सहायक, (अनुचर) नट ( नाट्य० )। समाप्ति, पूरा करना, पुराण-पाठ । पारिभद्र-- संज्ञा, पु. (सं०) देवदारु, देववृक्ष, पारायणिक--वि० संज्ञा, पु० (सं०) पारायण साखु . निंब, फरहद। कत्ता, पाठक, छात्र। पारिभाव्य--संज्ञा, पु. ( सं०) प्रतिभू, पारावत-संज्ञा, पु० (सं०) कबूतर, पंडुकी, | ज़मानत ।। कपोत, बन्दर, पर्वत । “कूजत कहुँ कल हंस पारिभाषिक --वि० । सं०) सांकेति कार्थ, कहूँ मन्नत पारावत''-भा० हरिः। जिसका अर्थ केवल परिभाषा-द्वारा हो सके । पारावार-संज्ञा, पु० (सं.) दोनों ओर के पारिमाण्डल्य संज्ञा, पु० (सं० परमाणु । तट, सीमा, समुद्र, वार-पार, धार-पार । पारिरक्षक-संज्ञा, पु. (सं०) तपस्वी, साधु । पाराशर- संज्ञा, पु० (सं०) पराशर के पुत्र | पारिश--संज्ञा, पु० (दे०) परात । या वंशज, व्यास जी । वि० पराशर-संबंधी। पारिशील-संज्ञा, पु० (सं०) एक प्रकार का पाराशर्य्य -संज्ञा, पु० (सं०) पराशर के पुत्र मालपुत्रा ( भोजन )। या वंशज, व्यास जी। "पाराशर्य वच पारिषद-संज्ञा, पु० सं०) सभ्य, सभासद, सरोजममलम् "-गी० माहा० । अनुचर, दास, साथी गण । पारि-संज्ञा, स्त्री० दे० ( हि० पार ) सीमा, पारी-संज्ञा, स्त्री० दे० ( हि० वार, वारी) भोर, दिशा, देश, तट। __ वारी, श्रोसरी (प्रान्ती.), अवसर-क्रम । पारिख*-संज्ञा, पु० दे० ( सं० परीक्षक ) पारीण-वि० (सं०) पारगामी, पार जाने परख, परखनेवाला परीक्षक, परखैया, वाला। जाँचना, परखना । ' पारिख पाये खोलिये, पारुष्य-संज्ञा, पु. (सं०) कठोरता कड़ापन, कुंजी बचन रसाल"-कबी०। इन्द्र का वन, परुषता। पारिजात--संज्ञा, पु० (सं० ) सिंधु-मंथन पार्घट- संज्ञा, पु० (दे०) भस्म, राख । For Private and Personal Use Only Page #1132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ११२१ पालना पार्थ-संज्ञा, पु० (सं०) पृथ्वीपति. (पृथा-पुत्र) पाल-संज्ञा, पु० (सं०) पालक, पालने वाला, अर्जुन, अर्जुन पेड़, युधिष्ठिर, भीम ! चितावरी का पेड़, बंगाल का एक राजवंश । पार्थक्य-संज्ञा, पु. (सं०) अलग होना, संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. पालना) फलों के पृथकता, जुदाई, अलगाव, वियोग, भिन्नता, | पकाने की रीति । संज्ञा, पु० दे० (सं० पट, अन्तर। पाट) नाव के मस्तूल में तानने का कपड़ा, पार्थवी-संज्ञा, पु० (सं०) भारीपन, स्थूलता, शामियाना, चंदोवा, पोहार ( पालकी, बड़ाई, मोटाई । वि०-पृथु संबंधी। गाढी के ढाकने का)। संज्ञा, स्त्री० दे० पार्थिव - वि० (सं०) पृथिवी संबंधी, पृथ्वी ( सं० पालि ) मेंड़, बाँध, कगारा, से उत्पन्न, मिट्टी का बना, राजसी। संज्ञा, ऊँवा किनारा। पु० (सं०) मिट्टी का शिवलिंग। पालक-संज्ञा, पु. (सं०) पालने वाला, पार्थिवी-संज्ञा, स्त्री० (सं०) पृथ्वी से उत्पन्न, | साईस, दत्तक या गोद लिया लड़का । सीता जी. पार्वती जी। संज्ञा, पु० (सं०) एक शाक विशेष। संज्ञा, पापर--संज्ञा, पु० (दे०) काल, यमराज । पु० दे० (हि० पलंग) पलँग । पार्षण-संज्ञा, पु० (सं०) पर्व-संबंधी कार्य, पालकी--संज्ञा, स्त्री० दे० ( सं० पल्यंक ) किसी पर्व पर किया गया श्राद्ध । डोली, म्याना, जिसे आदमी कन्धे पर ले पार्षत-वि० (सं०) पर्वत-संबंधी, पर्वत पर | जाते हैं। संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० पालंक ) होने वाला । स्त्री० पावती। पालक का शाक। पार्वती- संज्ञा, स्त्री० (सं०) हिमालय की कन्या, गौरी, दुर्गा, गिरजा, गोपी-चंदन । पालकीगाड़ी-संज्ञा, स्त्री० यौ० (हि.) पालकी सी छत वाली गाड़ी। पार्वतीय-संज्ञा, पु० (सं०) पहाड़ी, पहाड़ का, पहाड़ संबंधी, पहाड़ से उत्पन्न । पालट - संज्ञा, पु० दे० ( सं० पालन ) गोद पार्वतेय-वि० (सं०) पहाड़ पर होने वाला। लिया या दत्तक पुत्र। पार्श्व-संज्ञा, पु. (सं०) बग़ल, अगल-बगल, पालतू-वि० दे० (सं० पालन ) पाला या निकट, समीप. पास, समीपता, निकटता । | पोषा हुधा, (पशु आदि)। यौ० ---पाश्ववर्ती -- संगी, साथी। पार्श्व- पालथी-संज्ञा, स्त्री० दे० ( हि० पलथी) शूल-दाहिनी या बाँई पसली का दर्द । । सिद्धासन नाम का आसन, पलथी, पार्थी, पार्श्वग-संज्ञा, पु० (सं०) सहचर, साथी। पार्थिव । मुहा०-पालथी मारनापार्श्वनाथ-संज्ञा, पु. (सं०) जैनियों के दोनों पैरों को एक दूसरे पर रख कर बैठना । तेईसवें तीर्थकर जो काशी के इक्ष्वाकुवशीय पालन - संज्ञा, पु. (सं०) भरण-पोषण, राजा अश्वसेन के पुत्र थे। निर्वाह, अनुकूलाचरण से बात की रक्षा, पाववर्ती-संज्ञा, पु. (सं० पार्श्ववर्तिन् ) भंग न करना या न टालना । वि० - पालनिकटस्थ, समीपवर्ती, साथी। स्त्री० पार्श्व- नीय, नलित, पाल्य । वर्तिनी। पालना--स० क्रि० दे० ( सं० पालन ) परपार्श्वस्थ-वि० (सं०) निकटस्थ, समीपवर्ती। वरिश फा०). भरण पोषण, पशु-पक्षी को संज्ञा, पु० अभिनय के नटों में से एक जिलाना, टालना या भंग न करना । संज्ञा, ( नाट्य०)। पु० दे० (सं० पल्यंक ) हिंडोला, झूला, पार्षद-संज्ञा, पु० (सं०) पारिषद् , सेवक, गहवारा पिंगूग (प्रान्ती)।" जसोदा मंत्री, पास रहने वाला। | हरि पालने झुलावै सर० । भा० श० को०-१४१ For Private and Personal Use Only Page #1133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पालव ११२२ पालवा-संज्ञा, पु० दे० (सं० पल्लव) पत्ता, (टाँग) अड़ाना-- व्यर्थ मिलना : कोमल पत्ता, पल्लव । व्यर्थ बोलना, या दखल देन । पांव पाला-संज्ञा, पु० दे० (सं० प्रालेय ) पृथ्वी के उखड़ जाना-ठहरने का वल या ठंढे होने से उसपर जभी हवा की भान, साहस न रहना युद्ध से भागना । पाँव न तुषार, हिम, वर्फ । मुहा०--पाला मार उठना--चलने में असमर्थ होना । पाँध जाना-हिम या शीत से नष्ट हो जाना उठाना (न उठाना)-कदम बढ़ाना, पाला पड़ना--अति शीत से वायु की शीघ्रता से चलना, प्रयाण करना। पाँच भाफ का जम कर तुषार हो जाना। संज्ञा, घिसना---पैर थक जाना । पाँव जमना पु० दे० (हि० पल्ला) वास्ता, व्यवहार, (जमाना)--दृढ़ रहना (होना) अपने बल पर संयोग । " परे प्राजु रावन के पाले ...- खड़े होना । पाँव तले की जमीन या मिट्टी रामा० । संज्ञा, पु० (दे०) खेल में पक्षों की निकल जाना--होश उड़ जाना, भयादिसे सीमा । मुहा०-किसी से पाला पड़ना बड़े ज़ोर से भागना । "जाती है उनके पाँव -वास्ता या काम पड़ना, संयोग या सम्बन्ध | तले की ज़मीं निकल”—सौदा० । पाँव होना । किसी के पाले पड़ना-वश में ताड़ना-पैर थकाना, बड़ी दौड़-धूप करना, श्राना, पकड़या काबू में आना। संज्ञा, पु. हैरान होना, अति प्रयत्न करना । पाँव दे० (सं० पट्ट, हि० पाड़ा ) मुख्य या प्रधान ताड़ कर बैटना- अचल या स्थिर स्थान, सदर मुकाम, सीमा सूचक मिट्टी की हो जाना. चलना त्याग देना, हार बैठना । मेंड. धुस, अखाड़ा, अन्न रखने का कच्ची मिट्टी किसी के पाँव धरना ( पकड़ना) का बड़ा बरतन । पालागन--संज्ञा, दे० -पैर छूकर प्रणाम करना, दीनता से यौ० (हि० पाय लागन ) नमस्कार, प्रणाम, विनय करना, हा हा खाना । बुरे पथ पर पैर छूना। पाँच धरना ( रखना)-बुरे बुरे काम पालि-संज्ञा, स्त्री. (सं०) कान की लौ, । करने लगना । पांव पकड़ना-बिनती कर पंक्ति, पाँति, कोना, सीमा, मेंड, भीटा, बाँध के जाने से रोकना, पैर छूना, अति दीनता कगार, गोद, किनारा, चिन्ह, परिधि । से प्रार्थना करना । पाँव पखारना-पैर पालिका-संज्ञा, स्त्री० (सं०) पालने वाली। धोना। 'पाँव पखारि बैठि तरु छाहीं".--- पालित-वि० (सं०) रक्षित, पाला हुआ। रामा० । पाँव पड़ना--पैरों गिरना, दीनता पालिनी-वि० स्त्री० (सं०) पालने वाली। । से विनय करना, प्रवेश करना, जाना। पाली-वि० (सं० पालिन्) रक्षित, रक्षा करने | पाँव पर गिरना (सिर रखना या वाला, पालन-पोषने वाला। स्त्री० पात्तिनो।। देना)-पाँव पड़ना पाँव (टाँग ) पसासंज्ञा, स्त्री० दे० (सं० पालि = पंक्ति) रना (कैलाना)-पैर फैलाना, पाराम से ब्रह्मादि देशों में संस्कृत सी पठित-पाठित सोना, आडंबर बढ़ाना, ठाट-बाट करना, मर एक प्राचीन बिहारी भाषा जिसमें बुद्धमत के जाना। पाँव पाँव (पैरों) चलना-पैदल ग्रंथ लिखे हैं । स्त्री० पली हुई, रक्षित ।। या पैरों से चलना। पाँव पूजना-अति पालू-वि० दे० ( हि० पालना ) पालतु ।। आदर-सत्कार करना, पैर पूजना (व्याह में वरपाल्य-वि० (सं०) पालने योग्य, पालनीय। कन्या के) । फक फैक कर पाँव रखनापाव संज्ञा, पु० दे० (सं० पाद ) पैर. सतर्कता से बहुत बचा कर कार्य करना, पाय, चलने का अंग । मुहा०- बहुतही सावधानी या होशियारी से चलना। (किसी काम या बात में ) पाव । पाँव फलाना-ज्यादा पाने को हाथ For Private and Personal Use Only Page #1134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पावडा ११२३ पाशुपत-दर्शन फैलाना या मुंह बाना, पा कर और माँगना, | पावदान ( पायदान )-संज्ञा, पु० (हि.) मचलना। पाव बढ़ाना-पावं आगे रखना, गाड़ी-इक्के में पैर रख कर चढ़ने का पटरा, तेज़ी से चलना, ज्यादा बढ़ना । पाच भाग पैर रखने का स्थान (वस्तु) । (हलका) पड़ना-जोर से (धीरे ) | पावन -~-वि० (सं०) पवित्र करने वाला, पुनीत, चलना । पाचँ भर जाना-पैर थक जाना। पवित्र, शुद्ध ! स्त्री० पावनी। संज्ञा, पु० पाय भारो होना-गर्भ या हमल होना।। अग्नि, जल, विष्णु, रुवात, गोबर, व्यास पाय (पद, पग) रोपना-प्रतिज्ञा या प्रण मुनि, प्रायश्चित । करना । "बहुरि पग रोपि कह्यो"--रत्ना० । पावनता-संज्ञा स्त्री० (सं०) पवित्रता। पालगना--प्रणाम करना. विनय करना। | पावना*---स० क्रि० दे० (सं० प्रापण) पाना, पा से पाच बाँध कर रखना-सदा | समझना, भोजन करना। संज्ञा, पु. लहना अपने निकट रखना चौकपी या रहा रखना। (ब) पाने का एक हक, जो पाना हो । पाव सो जाना—पैर झन्ना जाना, शून्य | पावसा-संज्ञा, स्रो० दे० ( सं० प्रवष ) वर्षाहो जाना । पाव (पैर) होना (हो जाना), काल, बरसात । "तुलसी पावस प्राइगै"। चलने या काम करने में समर्थ होना । पाव | पावा-संज्ञा, पु० दे० (सं० पाद ) पावं, न होना-ठहरने का बल या साहस न पैर, गोड, चारपाई या पलँग का पाया। सा. होना । घरता (जमीन) पर पाय (पैर) भू० स० क्रि० (हि. पाना) पाया। न रखना--प्रति अभिमान करना, अति | पाश-संज्ञा, पु० (सं०) डोरी, फाँसी, रस्सी, या ज़्यादती करना। पशु-पक्षी श्रादि के फंसाने का जाल, बंधन, पावंडा-संज्ञा, पु० दे० (हि. पावं +डा | फंसाने वाली वस्तु । प्रत्यः किसी के पादरार्थ बिछाया गया | पाशक-संज्ञा, पु० (सं०) चौपड़ के पाँसे । मार्ग-विस्तर, पायंदाज़। पाशकेरली-- संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं० ) वह पाडी (पावरी) म्हा, स्त्री० ( हि० पाएँ । ज्योतिष-विद्या जिसमें पासा फेंक कर +ही–प्रत्य०) जूता, पादत्राण, खड़ाऊँ। विचार किया जाता है, रमल (ज्यो०)। पार*-- वि० दे० ( सं० पामर ) दुष्ट, | पाशभृत--संज्ञा, पु० (सं०) वरुण, पाशी। नीच । " ते नर पार पाप-मय, देह धरे "पाशभृतः समस्य"-रघु०। मनुजाद"-रामा० । संज्ञा, पु० (हि. पाशव-वि० (सं० ) पशुओं का, पशु जैसा, पाड़ा) पावडा । संज्ञा, सी० (हि०) शवड़ी। पशु-संबंधी । वि०-पाशविक । पाव-संज्ञा, पु० दे० (सं० पाद ) चतुर्थाश, पाशा-संज्ञा, पु. (तु० फा० पादशाह) तुर्की चौथाई, एक सेर का चौथाई भाग, सरदारों की उपाधि । संज्ञा, पु० (दे०) चौपड़, ४ छटाँक, पौवा (ग्रा०)। जुआ, कर्ण-भूषण विशेष । पावक- संज्ञा, पु. ( सं०) अग्नि, आग, पाशित-संज्ञा, पु० (सं० ) पाशयुक्त, बँधा। सदाचार, ताप, अग्नि-मन्थ ( अगेथू ) वृत्त, पाशी-संज्ञा, पु. ( सं० पाशिन् ) वरुण । सूर्य, वरुण ! वि० शुद्ध या पवित्र करने | पाशुपत-वि० (सं०) शिव का, शिव संबंधी, वाला । " तुम पावक महँ करहु निवासू” त्रिशूल । मंज्ञा, पु० शिव या पशुपति का -रामा० उपासक, पशुपति का कहा तंत्र-मंत्र-शास्त्र, पावकुलक--संज्ञा, पु० यौ० ( सं० पादा- अथर्ववेद का एक उपनिषद् । कुल क ) एक तरह की चौपाइयों का समूह। | पाशुपत-दर्शन-संज्ञा, पु. ( सं० ) एक For Private and Personal Use Only Page #1135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पाशुपतास्त्र ११२४ पाहि-पाही दर्शन साप्रदायिक शास्त्र, ( स० द० सं० ) | पानी, पसन-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० नकुलीश पाशुपति दर्शन । प्राशन ) अन्न-प्राशन, लड़के को सर्व प्रथम पाशुपतास्त्र-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) शिव जी अन्न देने का संस्कार । का त्रिशूल। पासमान*--संज्ञा, पु. (हि० ) पास रहने पाश्चात्य-वि० ( सं० ) पिछला, पीछे का, वाला. सेवक या दास, पार्श्ववर्ती । पश्चिम दिशा का. पश्चिम में उत्पन्न या पासवर्ती-वि० दे० (सं० पार्श्ववर्तिन् । निवासी । ( विलो०-मान्य ) पास रहने वाला, पासमान, दास । पाषंड-संज्ञा, पु० सं०) ढोंग. पाखंड (दे०) पासा, पाँसा संज्ञा, पु० दे० ( सं० पाशक दिखावा. वेद-विरुद्ध मत या आचरण । फ़ा० पासा) चौपड़ या चौसर खेलने के पाषंडी-वि० (सं० पाषंडिन् ) वेद-विरुद्ध हाथी-दाँत या हड्डी के चार या ६ पहलमत या श्राचार करने वाला धर्यादि का झूठ वाले बिंदीदार पाँसे, पाँसों का खेल, आडवरी, ढोंगी, धूर्त, छली, ठग । स्त्री० । चौपड़. गुल्ली। लो० - " पासा परै सो पाषंडिनी। दाँव" । महा०-- किसी का) पाँमा पाषर-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. पाखर) पाखर।। पड़ना-भाग्य खुलना या अनुकूल पाषाण-संज्ञा, पु० (सं० ) पत्थर, प्रस्तर, होना. कार्य ( उपाय ) लगना सफल पखान (द०) वि०-कठोर, क्रूर । होना । पासा पलटना-भाग्य फूटना, पाषाण-भेद-संज्ञा, पु. (सं०) पाखान-भेद युक्ति या उपाय का विरुद्ध फल देना। (दे०) पथरचटा (औष०)। पासंग, पासँग-संज्ञा, पु० ( फा०) पसंघा | पासी-संज्ञा, पु० दे० ( सं० पाशिन् ) जाल, फंदा या फाँसी लगा कर हरिण, पक्षी आदि (दे०), तराजू के पल्लों को बराबर करने के लिये भार । मुहा०-किसी का पासंग का पकड़ने वाला, एक नीच जाति,बहेलिया। संज्ञा, स्त्री० दे० ( सं० पाश, हि. पास + ई० भी न होना-बहुत कम होना। पासंग बराबर-स्वल्प, तुच्छ । (तराजू में) | -प्रत्य०) फाँस, फंदा फाँसी घोड़े की पासंग होना-डंडी का बराबर न होना। पिछाड़ी की रस्सी। पास-संज्ञा, (दे०) पु. ( सं० पार्श्व ) ओर, | पासुरी, पाँसुरी * -- संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० तरफ, बग़ल, समीपता, निकटता. अधिकार, | पार्श्व) पसली । “पासुरी उमाहि कबौं पल्ला, रक्षा ( के, से, में, विभक्तियों के | बाँसुरी बजावै हैं '--ऊ० श० । साथ) यौ० पास-पल्ले। पास वाले | पाहँ, पह* ---- अव्य० दे० ( सं० पार्श्व ) पास, समीपी मित्र । अव्य० - समीप, निकट ।। निकट. समीप । विभ० ( अव० ) अधिकरणयौ० पास-पास-चारों ओर. समीप, लग और कर्म की विभक्ति पर,पै, प्रति. से(व्या०)। भग, अगल-बग़ल । महा--(किसी के) पाहन--संज्ञा, पु० दे० (सं० पापाण ) पत्थर । पास बैठना-- संगति में रहना। पास न | "पाहन तें वन-बाहन काठ को-कवि० । फटकना-निकट न जाना । अधिकार, रक्षा पाहरू*--- संश, पु. दे० (हि० पहरा) पहरेया कब्ज़े पल्ले, में, समीप जा या सम्बोधित दार, पहरा देने वाला । “नाम पाहरू कर, किसी से या के प्रति । *संज्ञा, पु० | दिवस निसि",-रामा० । दिवस निसि", दे० (सं० पाश) पाश, फाँसी, रस्सी ।* संज्ञा, पाहि-पाहीं*-अव्य० दे० (सं० पार्श्व) पु० दे० (सं० पाशक ) पाँसा। वि० (अं०) समीप, निकट, पास, किसी के प्रति, किसी परीक्षा में उत्तीर्ण । __ से। " सो मन रहत सदा तोहिं पाहीं'। For Private and Personal Use Only Page #1136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पाहि विडिया पाहि - स० कि० (सं०) बचानो, रक्षा करो। ण्डि-संज्ञा, पु० (सं०) ठोस, गोला, गोल " पाहि पाहि अब मोहिं "- रामा०। । टुकड़ा, राशि ढेर, नक्षत्र, तारे. ग्रहादि, पाहुँचा--संज्ञा, स्त्री० (दे०) पहुँच (हि.)। शरीर आहार, श्राद्ध में पितरों के लिये खीर पाहुना, पाहुन- संज्ञा, पु० दे० ( सं० प्रघूर्ण) का गोला भोजन । महा०-- पिंड अतिथि, दामाद अभ्यागत,। स्त्री० । छोड़ना--साथ न लगा रहना. संबन्ध न पाहुनी। “पाहुन निसि दिन चारि रखना, तंग न करना। रहति सबही के दौलत" --गिर० । संज्ञा, | पिंडखजूर--संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० पिंड स्रो० (द०) पहुनाई, पहुनई। खजूर ) मीठा खजूर । पाहुनी-संज्ञा, स्त्री० दे० ( हि० पाहुना ) पिंडज-संज्ञा, पु० (सं०) देह से उत्पन्न मनुष्य खी अभ्यागत या अतिथि, पाहुनाई, आदि जीव जो देह-सहित पैदा होते हैं। पहुनाई, मेहमानदारी, आतिथ्य। पिंडदान · संज्ञा, पु. यौ० (सं०) श्राद्ध । पाहुरी-संज्ञा, पु० दे० ( सं० प्रभृत ) नज़र | पिडरी-पिडुरी, पिंडली-संज्ञा, स्त्री० दे० या नज़राना, (फा०) सौगात, भेंट,। (हि. पिंडली ) टाँग का पिछला भाग। पिंग-वि० (सं०) पीला, पीत-श्वेत, श्वेत- पिंडरोग - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) नरक रोग, रक्त, तामड़ा, सुधनी के रंग का, भूरा, पिंगल। | कोढ़, देह में बसा रोग। सिंगल-वि० (सं.) पीत, पीला, | पिंडरोगी-संज्ञा, पु० (सं०) पिंड रोग वाला। भूरालाल या, पीत तामड़ा, सुँघनी | पिंडली-पिडुली-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० के रंग का। संज्ञा, पु. एक मुनि जो छंदः पिंड) टाँग का ऊपरी मांसल पिछला भाग । शास्त्र के प्रथम श्राचार्य थे, छंदः शास्त्र, पिंडवाही--संज्ञा, स्त्री० (दे०) एक कपड़ा। एक संवत्सर ( ज्यो०), बन्दर, एक निधि, पिंडा-संज्ञा, पु० दे० । सं० पिंड ) ठोस उल्लू पदी, अग्नि, पीतल। गोला, सूत का गोला, श्राद्ध में पितरों के . पिंगला-संज्ञा, स्त्री० (सं०) मेरुदंड के बाम लिये तिल, मधु खीर का गोला, शरीर, मोर एक नाड़ी ( हठ योग ), लक्ष्मी का | देह । स्त्री० अल्पा० पिंडी । मुहा०नाम, शीशम का पेड़, गोरोचन, राजनीति, | पिंडा-पानी देना-पिंडा पारना, श्राद्धदक्षिण के दिग्गज की स्त्री, एक वेश्या, | तर्पण करना । एक रानी। | पिंडारी- संज्ञा, पु. (दे०) दक्षिण की एक पिंजड़ा-पीजड़ा, पिंजरा-पीजरा- संज्ञा, | कृषक हिन्दू जाति, जो फिर मुसलमान हो पु० दे० (सं० पञ्जर ) तोता आदि पक्षियों लूटमार करती थी ( इति०)। के पालने का घर, देह । " दस द्वारे का पिंडालू-संज्ञा, पु. स्त्री० यौ० । सं० पिंड पीजरा"-कबी। + अालू एक तरह का शकरकंद. पिंडिया, पितर-वि० (सं०) पीला, पीत वर्ण का. एक तरह का शफ़तालू या रतालू । भूरा लाल । संज्ञा, पु० दे० ( सं० पंजर ) | चिंडिका-संज्ञा, स्त्री० (सं०) पिंडी, छोटा पिंजड़ा. पिंजरा. हड्डियों का ठट्टर, पाँजर. पिंडा वेदी पिंडली, देव-मति की पिंडी। पंजर, भूरे लाल रंग का घोड़ा, सोना पिडिया-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० पिडिका ) सत्तू पिंजरापोल-संज्ञा, पु० यौ० (हि. पिंजरा+ आदि की लंबी गोलाकार लडुइया, गुड़ की पोल-फाटक ) गोशाला, पशुशाला।। लम्बी सी भेली, लपेटे हुये सूत या रस्सी पिंजल-वि० (सं०) व्याकुल । संज्ञा, पु० | आदि का लम्बा गोला. लच्छा, मुट्ठी, सरयू(सं०) हरतान, कुश-पत्र । । पारीण ब्राह्मणों का एक भेद । For Private and Personal Use Only Page #1137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पिछला पिंडी पिंडी-संज्ञा, स्त्री० (सं०) छोटा पिंडा, छोटा पिचकारी-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. पिचकना) गोला, वलि-वेदी, सूत, रस्सी आदि का पानी श्रादि के ज़ोर से फेंकने का यंत्र । छोटा गोला, सत्तू की गोली, पिंड खजूर, | पिचका, पिचक्का-संज्ञा, पु० दे० (हि. घीया कद्दु। पिचकना) पिचकारी, पिचक्का । स्त्री० पिंडुरी, पिंडली*--संज्ञा, स्त्री० दे० (हि० | अल्पा० विचको, पिचक्की । पिंडली ) टाँग का ऊपरी पिछला हिस्सा। पिचु-संज्ञा, पु० (सं०) कपास । पित्र.शिय-वि० संज्ञा, पु० दे० (सं० प्रिय ) पिचुमंद-संज्ञा, पु० (सं०) नीम का पेड़ । प्यारा, प्रिय. पति, पिया (दे०) __ " लोहित चन्दन पद्मक धान्या छिन्नरहा पिअर-वि० दे० (सं० पीत ) पीला। । पिचुमन्द कषाय' लोलंव० । शिअग्या --संज्ञा, पु० दे० ( सं० प्रिय ) प्रिय। पिच्छ-संज्ञा, पु० (सं०) लांगूल, पूँछ, चूड़ा, पिअराई*--संज्ञा, दे स्त्री० (सं० पोत) पीला- मयूर-पुच्छ या चाटी। पन, पीलाई। पिच्छल-संज्ञा, पु० (सं.) शीशम, मोचरस, पिपरी--संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. पोली) अाकाशवेल । वि. चिकना, रपटने वाला। पीली धोती जो वर-कन्या को व्याह में वि. पिछला, चूडायुक्त, कफकारी। पहनाई या गंगा जी को चढाई जाती है, पिछड़ना-अ० क्रि० दे० (हि. पिछोड़ी--- पेरी (ग्रा० । वि० स्त्री० पीली। ना--प्रत्य० ) पीछे रह जाना, पिछड़ जाना, पियाज-संज्ञा, पु० दे० (फ़ा० प्याज) प्याज । साथ बरावर न रहना। सं० रूप-पिछाड़ना पियाना-स. क्रि० दे० (सं० पान पिलाना। पिछड़ेना, प्रे० रूप-पिछड़वाना। पिपार-संज्ञा, पु० दे० ( सं० प्रिय ) प्यार। पिछलगा-वि० संज्ञा, पु० दे० यौ० (हि. पिनारा-वि० दे० (सं० प्रिय) प्यारा । पीछे + लगना) अनुचर, अनुगामी, अनुवर्ती, " मैं वैरी सुग्रीव पिपारा" -~-रामा० । । श्राश्रित, आधीन, नौकर, दास, पोछे चलने स्त्री० पियारी। या रहने वाला, पछलगा (ग्रा० पिछलगू. पिनास-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० पियासा) पिछलग्गू। प्यास, तृषा: वि. निपासा, स्त्री० पिश्रामी। पिछत्तगी-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. पिछलगा) पिउ-संज्ञा, पु० दे० ( सं० प्रिय ) स्वामी अनुयायी होना, अनुगमन करना, पीछे पति, पीव, पीउ (ग्रा०)। ' पिउ जो लगना, पछलगी (ग्रा०)। गयो फिर कीन्ह न फेरा"-पद। पिछलयाई -संज्ञा, स्त्री० दे० (हि० पिछला) पिक-संज्ञा, पु. (सं०) कोयल । यौ० भूतिन, चुडैल पिशाचिनी। पिकाती। पिछला-वि० दे० ( हि० पीछा ) पाछिल पिघग्ना-पिघलना-अ० क्रि० दे० (सं० (ग्रा.) पीछे की ओर का, अंत या पीछे का प्रगलन ) गरमी से किसी वस्तु का गल कर वाद या पश्चात् का (विलो. पहला) अन्त पानी सा हो जाना गलना, टिघलना, की ओर का।(विलो अगला) स्त्री०पिछली। द्रव रूप होना. मन में दया पाना पसीजना। मुहा०---पिकना पहर-अंत का पहर, स० रूप-पिघलाना, प्रे० रूप-विधनवाना। दोपहर या आधी रात के पीछे का समय । पिचकना-अ० क्रि० दे० (सं० पिच्च--दबना) " पिछले पहर भूप नित जागा"-रामा० । फूले हुये पदार्थ का दब जाना । स० रूप, पिछलीरात-आधी राति के बाद का पिचकाना, ग्रे० रूप पिचकवाना । वि० वक्त । विगत, पुराना, गत बातों में से पिच्चित पिच्ची। अन्त की। For Private and Personal Use Only Page #1138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org पिछवाई ११२७ पित पिछवाई संज्ञा, त्रो० दे० ( हि० पीछा ) पिट्ट संज्ञा, पु० दे० ( हि० पिठ + ऊ - पीछे की तरफ काटने वाला परदा । पिछवाड़ा - संज्ञा, पु० दे० हि० पीछा + वाड़ा) घर के पीछे का भाग या स्थान पिछवारा ( ० ) । पिछाड़ी - संज्ञा, स्त्री० दे० ( हि० पोछा ) पीछे का भाग या खंड, पिछला हिस्सा, घोड़े के पिछले पैर बाँधने की रस्सी । पिछानना *[* - स० कि० दे० हि० पहचानना) पहचानना । " जाति ना पिछानी श्रौ न काहू को पिछानति है "पिछूत-पिछ- धव्य दे० ( हि० पीछे) पश्चात्, पीछे, पीछे की ओर, पछोत (दे० ) । पीछे का भाग । सं० पु० (दे० ) fugarst | - रत्ना० । पिकेल पहेल - वि० दे० ( हि० पोछा ) पिछवाड़ा | संज्ञा० पु० (दे०) एक भूषण पछली (ग्रा० ) स्त्री० । पिछौं हैं, पत्रों हैं - क्रि० वि० दे० ( हि० पाछा) पीछे पीछे की ओर, पीछे से । पिछौरा- संज्ञा, पु० दे० (सं० पक्षपट ) . चादर, दुपट्टा स्रो० पिछौरी | पिटंत - संज्ञा, स्त्री० दे० (हि० पीटना + अंतप्रत्य० ) पीटने की क्रिया का भाव । पिटक - संज्ञा, पु० (सं०) पिटारा, पिटारी, फुंसी, फोड़ा, ग्रंथ - विभाग । त्रो० पिटका । पिटना - ग्र० क्रि० ( हि०) मारा जाना, मार खाना, ठोंका जाना, बजना | संज्ञा, पु० चूना पीटने की थापी । स० रूप-पिटाना प्रे० रूप पिटवाना | पिटाई - संज्ञा, स्त्री० ( हि० पीटना ) पीटने . का काम या भाव या मजदूरी, मार, श्राघात, चोट, प्रहार | पिटारा - संज्ञा, पु० दे० (सं० पिटक) पेटारा (दे०), बाँस श्रादि का एक ढक्कनदार पात्र । ( स्त्री० अल्या० पिटारी ) । पिट्ट – वि० दे० ( हि० पिटना ) मार खाने का अभ्यासी, अति प्रिय । a - Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रत्य० ) अनुयायी, अनुगामी, सहायक, साथी खिलाड़ी का कल्पित संगी जिसके स्थान पर वह स्वतः खेले । पिठर - संज्ञा, पु० (दे०) मोथा, मथानी, थाली, घर, अग्नि । दे० (स्रो०) पिठवन विथवन- संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० पृष्ठ पर्णी ) पृष्ठपर्णी, (श्रौष०) पिथौनी (ग्रा० ) । पिठी- गिट्टी - संज्ञा, स्त्रो० (दे०) उरद की भीगी धोई और पिसी दाल, पीठो (ग्रा० ) । पिठौरी - संज्ञा, स्रो० दे० (हि० पिठी + औरी - प्रत्य० । पिठी या पीठी की बरी या पकौड़ी, मिथौरी | पिडक ( ण्ड़िका ) सं० पु० फोड़ा, फुन्सी पिरकी (ग्रा० ) । पितंबर - सज्ञा, पु० दे० यौ० ( सं० पीतांबर ) पीला वस्त्र, पीली रेशमी धोती, श्रीकृष्ण । पित्तपापड़ा-पितपापरा - सज्ञा, पु० दे० (सं० पपेट) पित्तपापरा, एक औषधि । पितर - संज्ञा, ५० दे० (सं० पितृ ) मृत पूर्वज, मरे पुरखा । यौ० पितर- पच्छ । पितरायँधा - संज्ञा, त्रो० दे० ( हि० पीतल + गंध) पीतल का कसाव, पितराईंध (ग्रा० ) । पितरिहा - वि० दे० (हि० पीतल ) पीतल का । पितरौला - संज्ञा, पु० दे० ( हि० पीतल ) पितृ पूजन का बरतन | पितलाना- पितराना -- अ० क्रि० दे० ( हि० पीतल ) पीतल की कसावट या पितरायँध । पिता - संज्ञा, पु० (सं० पितृ का कर्ता ) जनक, बाप, पितु (दे० ) । पितामह - संज्ञा, पु० (सं०) पिता का पिता, दादा, शिव, भीष्म, ब्रह्मा । स्त्री० पितामही । पितुसंज्ञा, पु० दे० (सं० पितृ ) बाप | "ते पितु मातु कहौ सखि कैसे " पितृ - संज्ञा, ५० (सं०) पिता, मरे पुरखा, प्रेतत्वमुक्त पूर्वज, एक प्रकार के उपदेवता ( सब जीवों के श्रादि पूर्वज ) । 1 " - रामा० । For Private and Personal Use Only Page #1139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पितृऋण ११२८ पिनपिन पितृऋण-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) पितरों | पित्त-प्रकृति-वि० यौ० (सं०) वह व्यक्ति, (पितादि ) के प्रति ऋण, जो पुत्र उत्पन्न जिस के शरीर में कफ-बात से पित्त अधिक हो। करने से पटता है। | पित्तप्रकोपी-वि० यौ० (सं० पित्तप्रकोपिन् ) पितकर्म-संज्ञा, पु. यौ० ( सं० पितृ कर्मन् ) पित्त बढ़ाने वाले पदार्थ । श्राद्ध, तर्पण आदि पितरों के अर्थ कर्म । पित्तल-वि० दे० ( सं० पित्त ) पित्तकारी। पितृकुल-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) बाप का वंश। संज्ञा, पु० (दे०) भोजपत्र, हरताल, पीतल | पितृगृह-संज्ञा, पु. यौ० (सं०) बाप का पित्ता-संज्ञा, पु० दे० (सं० पित्त) पित्ताशय, घर, नैहर, (स्त्रियों का) मायका (दे०)। जिगर में पित्त की थैली । मुहा०-पित्तापितृतर्पण-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) तर्पण, उबलना या खौलना-अति क्रोध प्राना, पितरों को जलदान या पानी देना मिजाज उभड़ उठना । पित्ता निकापितृ ीर्थ-संज्ञा, पु० यौ० (स०) गया तीर्थ, | लना-अधिक श्रम करना । मित्ता तर्जनी और अंगुष्ट के मध्य का भाग। पानी करना-अधिक श्रम से या जान पितृत्व- संज्ञा, पु० (सं०) पिता या पितरों लड़ा कर कार्य करना । पित्तामरना का भाव । --- क्रोध न रहना । पित्ता मारना-क्रोध पितृपक्ष-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) क्वारमास का दवाना । अरोचक या कठिन काम से न कृष्ण पक्ष, पिता के सम्बन्धी, पितृ-कुल, उबना, साहस, हौसिला। पितर-पच्छ । (दे०)। पित्ताशय-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) जिगर में पितृपद- संज्ञा, पु० यौ० (सं०) पितरों का लोक। पीछे और नीचे वाली पित्त रहने की थैली । पितृमेधि-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) वैदिक काल पित्ती-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० पित्त-+ई) में श्राद्ध से भिन्न अंत्येष्टि कर्म का एक भेद । | एक रोग जिसमें खुजलाने वाले ददोरे देह पितृयज्ञ-संज्ञा, पु० यौ० सं०) श्राद्ध, तर्पण। पर निकल आते हैं, गर्मी से लाल छोटे दाने, पितृयाण-संज्ञा, पु० यौ०(सं०) मरने के पीछे | अँधोरी। ti-संज्ञा. पु. | अँधोरी। --संज्ञा, पु० (ग्रा०) पितृव्य जीव का चन्द्रमा के प्राप्त होने का रास्ता । (सं०) चचा, काका, पीती (प्रा.)। वि. पितृलोक--संज्ञा, पु० यौ० ( सं०) पितरों (दे०) पित्त प्रकृति वाला। का लोक, पितृपद, पितरों का स्थान । पिच्य–वि० (सं०) पितृ सम्बन्धी। पितृव्य-संज्ञा, पु० (सं०) चाचा, चचा। पिदड़ी-संज्ञा, स्त्री० दे० (अनु०) पिद्दी, पित्त-संज्ञा, पु० (सं०) यकृत में बना | बहुत छोटी चिड़िया, नगण्य या तुच्छ वस्तु । शरीर-पोषक एक पीत द्रव धातु, पित, पित्ता। पिद्दा (पिद्दी)—संज्ञा, पु. ( स्त्री०) दे. मुहा०-पित्त (पित्ता) उबलना या | (अनु० ) पिदड़ा या पिदड़ी, चिड़िया। खौलना-मन में जोश श्राना । पित्त लो०--"क्या पिद्दी और क्या पिद्दी गरम होना-शीघ्र क्रोध आना। का शोरबा।" पित्तन्न-वि० (सं०) पित्त-नाशक । विधान-संज्ञा, पु. (सं०) गिलाफ़, पर्दा, पित्तज्वर-संज्ञा, पु० यौ० ( सं०) पैत्तिक । ढक्कन, आवरण किवाड़, तलवार का म्यान। ज्वर, पित्त-प्रकोप से उत्पन्न ज्वर। पिनकना-अ० क्रि० दे० (हि० पीनक) पित्तनी-संज्ञा, स्त्री० (सं० ) शालपर्णी, (अफ़ीम से) पीनक लेना, ऊँघना, नींद के सरिवन (दे०) (औष०)। मारे धागे को झुकना। पित्तपापड़ा-पित्तपापरा-संज्ञा, पु० दे० पिपिना-संज्ञा, स्त्री० दे० (अनु०) (सं० पर्पट ) पितपापरा (औष०)। बच्चों का रोना । वि० पिनपिनहा । For Private and Personal Use Only Page #1140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पिनपिनाना ११२६ पियूख पिनपिनाना-अ० क्रि० दे० (हि. पिन पिन)। स्वामी, पति, प्यारे । “जानकी न ल्याये रोगी या कमजोर बच्चे का रोना। पिय ल्याये ज्वान जानकी"। पिनाक-संज्ञा, पु० (सं०) शिव-धनु पियर-पियरा-वि० दे० ( सं० पीत ) पीले अजगव, त्रिशूल । रंग का, पीला, पियरो (व) स्त्री० "छूतहि टूट पिनाक पुराना"-रामा०।। पियरी। पिनाकी-संज्ञा, पु. ( सं० पिनाकिन् ) पियराई-संज्ञा, खो० दे० (हि. पियर) शिव जी। पीलापन । पिन्ना-संज्ञा, पु० (दे०) पीना (ग्रा०) तिल पियराना* ~अ० स्त्री० दे० (हि० पियरा) की खली। वि० बहुत रोने वाला। पीला पड़ना या होना। पिनो-संज्ञा, स्त्री० (हि. पिन्ना) पीसे चावल पियरी-वि० स्त्री० (दे०) पीली । संज्ञा, स्त्री० के लडडू । वि० स्त्री० बहुत रोने वाली। (हि० पियर ) पीली धोती (ब्याह की)। पिन्हाना-स० क्रि० दे० (हि. पहनाना) पियल्ला*-वि० दे० (हि० पीला) पीला। पहनाना। संज्ञा, पु. ( हि० पीता) दूध पीता बच्चा, पिपरामूल या पिपरामूर-संज्ञा, पु० दे० पिल्ला । (सं० पिप्पलीमूल ) एक औषधि (वै०)। पियाना-स० क्रि० दे० (हि. पिलाना) पिपासा-संज्ञा, स्त्री० (सं०) प्यास, तृषा, पिलाना। लोभ । “जातें लगै न छुधा, पिपासा।" पियार-संज्ञा, पु० दे० (सं० पियाल) चिरौंजी पिपासित-वि० (सं०) तृषित, प्यासा । का पेड़ पियाल । संज्ञा, पु० दे० (सं० प्रिया) पिपासु-वि० (सं०) पिपासू (दे०), प्यार । वि० (हि० प्यारा) पियाग। प्यासा, तृषित, लोभी। " होते प्रलयंकर __ " रामहि केवल प्रेम पियारा".-रामा० । पिपासू कालकूट के'--अनूप । पियारा-वि० दे० (हि. पियारा ) प्यारा । पिपील, पिपीलक-संज्ञा, पु० (सं०) स्त्री० पियारी ।। चोटा, चींटी । " जिमि पिपील चह सागर पियारी-वि० दे० स्त्री० (सं० प्रिया) प्यारी, थाहा"-रामा । " पिपीलिका नृत्यति दुलारी। “सासु, ससुर, गुरु-जनहि पियारी"। पह्नि-मध्ये " स्त्री० पिपीलिका। पियाल-संज्ञा, पु० (सं०) चिरौंजी का पेड़ । पिपीलिका-भक्षक या भक्षी-संज्ञा, पु० पियाला-संज्ञा, पु० दे० (हि प्याला ) यौ० (सं०) चोटियाँ खाने वाला एक जंतु प्याला । "पियाला पिया ला अंगरी मुझे"। (अफ्रीका)। पियासा-संज्ञा, पु० दे० (सं० पिपासित या पिपीलिका-मातृक-दोष-संज्ञा, पु० यौ० पिपासु) प्यासा, तृषित । "पाली सो पिया सा (२०) बालकों की एक बीमारी (वैद्य०)। है पियासा प्रेम रस का"। पिप्पल-संज्ञा, पु० (सं०) अश्वत्थ, पीपल पियासी-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि० पियासा) पेड़ । प्यासी । “दरस-पियासी दुखिया सी पिप्पली-संज्ञा, स्त्री० (सं०) पिपरी, पीपल, ब्रजवासी बाल"-मना। पीपर (दे०)। पियासाल- संज्ञा, पु० दे० (सं० पीतसाल, पिप्पलीमूल-संज्ञा, पु. ( सं०) पिपरा- प्रियसालक ) बहेड़े का सा एक वृक्ष । मूर। "पिप्पली, पिप्पलीमूल, विभीतक | पियूख*-संज्ञा, पु० दे० (सं० पीयूष) पियूष, महौषधेः "-लोलं। पीयूख (दे०) अमृत । " ऊख मैं महूख मैं पिय-पिया --संज्ञा, पु० दे० (सं० प्रिय ) | पियूख मैं न पाई जाय "-रा० भट्ट० । भा० श० को.-१४२ For Private and Personal Use Only Page #1141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पिरकी ११३० पिशुन-वचन पिरकी-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० पिड़क) | पिलाना-स० कि० (हि० पीना ) पान फुन्सी, फुड़िया। | कराना, धुसेड़ना, पीने को देना, ढीला या पिरथी -संज्ञा, स्त्री० (दे०) पृथ्वी (सं.)।। पतला करना। पिराई*--संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. पियराई ) पिलुवा-संज्ञा, पु० (दे०) एक कीड़ा। पियराई, पीलापन, पीड़ा। पिल्ला-संज्ञा, पु० (दे०) कुत्ते का बच्चा । स्त्री० पिराक-संज्ञा, पु० दे० (सं० पिष्टक ) गोझा, पिल्ली। गोझिया, एक पकवान । (खो०) अल्पा०पिल्लू-- संज्ञा, पु० दे० (सं० पीलू = कीड़ा) सड़े पिरकियां। घाव या फलादि का एक लंबा, सफ़ेद कीड़ा। पिराना*-अ० क्रि० दे० (सं० पीड़न ) | पिव, पोष-संज्ञा, पु० दे० (सं० प्रिय ) दुखना, दर्द करना, पीड़ित होना। पिउ, पीउ (ग्रा० ) स्वामी, पति, प्यारा । पिरारा-संज्ञा, पु० दे० (पिडारा) पिंडारा। बाहर पिव पिव करत हौ, घट-भीतर है पिरीतम*--संज्ञा, पु० दे० (सं० प्रियतम ) पीवा" स० क्रि० (सं०) पीना, पीयो । प्यारा, स्वामी, पति, प्रीतम (दे०)। 'पिव हे नृपराज रुजापहरम्"-भो० प्र० । परीत-परीता*-वि० दे० (सं० प्रीत) प्रीत, पिधाना-स० क्रि० दे० (हि० पिलाना) प्यारा, प्रिय । “हा रघुनन्दन प्रान-पिरीते"। पिलाना। पिरोजा-संज्ञा, पु० दे० (फा० फीरोज़ा) फीरोजा, एक हरा नग, एक गाढ़ा द्रव पदार्थ, पिशंग-संज्ञा, पु. ( सं०) पिंगल या पीत गंध-फिरोजा। " मोती मानिक, कुलिस, वर्ण, पीला रंग । वि०-पिंगल वर्ण वाला। पिरोजा"-रामा० । "पिशंग मौंजीयुजमर्जनच्छबिम्-माघ०।" पिरोना-स० क्रि० दे० (सं० प्रोत) गूंधना, | पिशाच- संज्ञा, पु. ( सं०) भूत, बैताल, पोहना (दे०) छेद में तागा डालना। । देव-योनि विशेष, पिसाच (दे०) वि. पिलई-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० प्लीहा ) पिलही, पैशाचिक । स्त्री० पिशाची, पिशाचिनि बरबट, तापतिल्ली, पिल्ला का स्त्री०। । पिशाचिनी। “कहु भूत, प्रेत, पिशाच, पिलक-संज्ञा, पु० (दे०) एक पीत पती। डाँकिनि योगिनी सँग नाचहीं" । वि०पिलकना-अ० कि० (दे०) गिराना, ढकेलना। पिशाची-पिशाच-सम्बंधी, भूत का वशकारी। पिलखन-संज्ञा, पु. (दे०) पाकर पेड़। पिशाचप्रस्त-संज्ञा, पु. यौ० (सं०) उन्मत्त, पिलचना-अ० क्रि० (दे०) लिपटना। वातुल, सिड़ी, पागल, प्रेत-बाधा-युक्त । पिलड़ी-संज्ञा, स्त्री० (दे०) गोली, पिण्डी। पिशाचघ्न-वि० (20) पिशाच-नाशक । पिलना-अ० क्रि० दे० (सं० पिल = प्रेरण) | पिशाचक-संज्ञा, पु० (सं०) भूत, पिशाच । एक बारगी घुस या टूट पड़ना, झुक या ढल | पिशाचकी--संज्ञा, पु० (सं०) कुवेर । पड़ना, भिड़ या लिपट नाना, रस या तेल के | पिशित-संज्ञा, पु० (सं०) आमिष, मांस । लिये दबाया जाना, प्रवृत्त होना। पिशिताशन-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) राक्षस, पिलपिला-वि० दे० ( अनु० ) नरम और मांसाहारी, मांस खाने वाला। गीला । संज्ञा, स्त्री० पिलपिलाहट । पिशुन-संज्ञा, पु. ( सं०) दुष्ट, छली। पिलपिलाना-स० क्रि० दे० (हि० पिलपिला) | पिसुन (दे०) " पिसुन छल्यौ नर सुजन किसी गीली वस्तु को ढीला या नरम करना, सों'–० । धोखेबाज, कर, निंदक । पिलवाना-सं० कि० (दे०) पिलाना (हि.) | पिशुन-वचन-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) दुर्वाक्य, का प्रे० रूप, स० क्रि० (हि. पेलना) पेर वाना। गाली । यौ० पिशुन-वाक्य । For Private and Personal Use Only Page #1142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पीछा पिशुनता ११३१ पिशुनता-संज्ञा, स्त्री० (सं०) दुष्टता, करता। पीजना-स० कि० दे० (सं० पिंजन ) रुई पिशुना-संज्ञा, स्त्री० (सं०) चुगली। | धुनना। प्रे० रूप-पिंजवाना। पिष्ट-वि० (सं०) पिसा हुआ। पींजरा, पीजड़ा*-संज्ञा, पु० दे० (सं० पिष्टक-संज्ञा, पु० (सं०) पिष्ट, पीठी, कचौरी, पंजर) पिंजड़ा। "दस द्वारे को पीजरा" कवी। पुत्रा, रोट । पीडा-संज्ञा, पु० दे० (सं० पिंड) देह, शरीर, पिट-पेषण-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) पिसे को पिंड, पेड़ का तना, पेड़ी (ग्रा०) गीली या फिर पीसना, व्यर्थ बात को दुहराना सूखी वस्तु का ठोस गोला, पीड़ा (ग्रा०) चर्वितचर्वण । लड्डु,, पिंड खजूर । पिसनहारी-संज्ञा, पु० स्त्री० दे० (हि०पीसना । पी*-संज्ञा, पु० दे० (सं० प्रिय ) प्रिय, पति । +हारी-प्रत्य० ) श्राटा पीसने वाली। संज्ञा, पु. ( अनु० ) पपीहा की बोली। पिसना-अ० कि० दे० (हि. पीसना) पिस "पी हा! पी हा! रटत पपीहा मधुवन में'कर पाटा हो जाना, कुचल या दब जाना, ऊ. श०। बड़ा कष्ट, हानि या दुख उठाना, बहुत थक पीक-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० पिच) थूक मिला जाना । स० क्रि०-पिसाना, प्रे० रूप --- पान-तम्बाकू का रस । “पान लाल पीक पिसवाना। लाल पीक हू की लीक लाल"। पिसाई-संज्ञा, स्त्री० दे० ( हि० पीसना ) पीकदान-संज्ञा, पु० यौ० (हि० पीक+दानपीसने का भाव, कार्य या मूल्य, श्रम । | फ़ा०) उगालदान, पीक थूकने का बरतन । पिसाच-संज्ञा, पु० (दे०) पिशाच ( सं०)। पीकना-अ० क्रि० दे० (सं० पिक) पिहकना, पिसान-संहा, पु० दे० ( सं० पिष्टान्न ) पोसा कोयल, पपीहा का बोलना । हुमा अनाज, आटा, चूर्ण, चून (दे०)। पोका-संज्ञा, पु० (दे०) नया कोमल पत्ता, पिसुन -संज्ञा, पु० (दे०) पिशुन (सं०)। पल्लव, कोंपल | पिसौनी-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि० पीसना )। पीच-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० पिच्च ) माँड़, पीसने का कार्य, कठिन श्रम का काम। पिस्तई-वि० दे० ( फा० पिस्तः । पिस्ते के पीछा-संज्ञा, पु० दे० (सं० पश्चात् ) पीठ रंग का, हरा-पीला मिला रंग। की ओर का भाग, पश्चात् भाग, (विलो. पिस्ता-संज्ञा, पु० दे० (फ़ा० पिस्तः) पिस्ता आगा)। मुहा०-पीछा दिखानाका वृक्ष, एक हरा मेवा । पीठ दिखाना, भागना । पीछा देना (दे०) पिस्तौल-संज्ञा, पु० दे० (अ० पिस्टल) -साथ देकर हटना, किनारा करना । छोटी दूक, तमंचा। किसी घटना के पश्चात् का समय, पीछे पिस्सू-पिसू-संज्ञा, पु० दे० ( फा० पश्शः) चलते हुए साथ रहना । मुहा०-पीछा कुटकी, छोटा उड़ने और काटने वाला कीड़ा। पकड़ना-अनुसरण करना, पीछे या पिहकना-अ० कि० दे० (अनु०) कोकिला सहारे में चलना । पीछा करना (पकपादि चिड़ियों की बोली, कूकना। डना)-तंग करना, गले पड़ना, मारने या पिहित-वि० (सं०) छिपा हुआ । संज्ञा, पकड़ने को पीछे चलना, खदेड़ना । पीछा पु. (सं०) एक अर्थालंकार जिसमें किसी होना-मर जाना । पीछा छुड़ानाके मन का भाव जान क्रिया से अपने जान छुड़ाना, अप्रिय सम्बन्ध हटाना। पीछा भाष की सूचना हो । “पलाल जाले छूटना-पिंड छूटना, जान छूटना। पीछा पिहिताः "-नैष । छोड़ना-परेशान या ग न करना, लपसी, पीक । For Private and Personal Use Only Page #1143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ११३२ पीछु, पाछु पीठ अप्रिय कार्य से सम्बन्ध न रहना, फंसे हुए | चिपटा करना । मुहा०-(सिर) छाती कार्य को त्यागना। पीटना-दुख या शोक में हाथों से छाती पीछू, पाछू*1-क्रि० वि० दे० (हि० पीछा) ठोंकना, शोक करना, बुरी-भली भाँति पीछे। कर डालना, किसी तरह ले लेना, फटकार पीछे-भव्य० दे० (हि० पीछा ) पश्चात, लेना । संज्ञा, पु०-मारने का शोक या दुख, पीठ की तरफ़ (विलो०-आगे, सामने)। आपत्ति । संज्ञा, स्त्री० पिटाई। पाछे (ग्रा.)। पीछे कुछ दूर पर । मुहा०-~| पीठ-संज्ञा, पु० (सं०) चौकी, पीडा, पाटा, (किसी के ) पीछे चलना-नक़ल या "पलँग, पीठ तजि गोद हिंडोरा"-रामा०। अनुसरण या अनुकरण करना, अनुयायी अधिष्ठान, सिंहासन, वेदी, प्रदेश, मूर्ति का होना । किसी के पोछे छोड़ना श्राधार-पिंड, विष्णु-चक्र से कट कर दक्ष या भेजना-किसी का पीछा करने के हेतु सुता सती के अङ्ग या भूषण का स्थान किसी को भेजना। धन पीछे डालना- (पुरा० ), वृत्त के अंश का पूरक, प्रान्त । जोड़ना, संचय करना। किसी काम के 'भूपाल मौलि-मणि-मंडित-पाद पीठ' । संज्ञा, पीछे पड़ना-किसी कार्य के पूर्ण होने के स्त्री० दे० ( सं० पृष्ठ ) पेट के पीछे की ओर हेतु लगातार उद्योग या श्रम करना । किसी का भाग, पृष्ठ, पुश्त, पशु-पक्षी के ऊपर का व्यक्ति के पोछे पड़ना-उसे परेशान भाग । मुहा०-पीठ चारपाई से लग या तंग करना, घेरना, बुराई करते रहना। जाना-अति दुर्बल या कमजोर हो जाना । किसी काम को प्रेरणा करना या बारबार पीठ लहना (पाना)-जीतना । "जिनको कहना । पीछे लगना ( लगाना)-पीछे * "लहहिं न रिपु रन पीठी'-रामा० । पीछे जाना, पीछा करना ( भेजना ) अप्रिय पीठका-पीठ पर का, पीछे का। पीठ वस्तु का साथ हो जाना। अपने पीछे ठोंकना-शाबाशी देना, प्रशंसा करना, लगाना (लेना)-साथ करना, ( लेना)। प्रोत्साहित करना, हिम्मत बँधाना। पीठ श्राश्रय देना, हानिकारी वस्तु से संबंध करना।। दिखाना-लड़ाई या तुलना से भाग जाना, किसी और के पीछे लगाना-अप्रिय | पीछा दिखाना। पीठ दिखा कर जानावस्तु या ब्यक्ति से संबंध करा देना, जिम्मे ममता मोह या प्रेम-स्नेह त्याग कर जाना। मढ़ देना, भेद लेने या ताक रखने को साथ पीठ दिखा जाना-हार मान लेना, करा देना । मुहा०-पीछे छूटना, पड़ना विमुख हो भाग जाना। पीठ देना-विदा या होना-पिछड़ा या न्यून होना, पिछड़ या रुखसत होना, चल देना, भाग जाना जाना, समान व्यक्ति से किसी बात में | मुंह मोड़ना, विमुख होना, लेटना, आराम घट कर हो जाना। किसी को पीछे करना। पीठ पर या पीठ पर काछोड़ना--किसी बात में बढ़ कर या जन्म-क्रम में पीछे का (अनुज )। पीठ अधिक हो जाना, बढ़ जाना, किसी को पीछे | मींजना या पीठ पर हाथ फेरना भेजना । मर जाने पर, पश्चात्, अंत में, न | ( रखना)-पीठ ठोंकना, शाबाशी देना, होने पर, उपरान्त, हेतु, बदौलत, अनन्तर प्रशंसा करना, प्रोत्साहन देना। पीठ पर निमित्त, अभाव या अविद्यमानता में, वास्ते, होना-सहायक होना। पीठ पीछेलिये, पीठ-पीछे । परोक्ष में, अनुपस्थिति में। लो-पीठ पीटना-स० क्रि० दे० (सं० पीडन ) मारना, पीछे राजा को भी लोग गाली देते हैं।' ठोंकना, श्राघात करना, चोट दे चौड़ा या | पीठ फेरना-चला जाना, अनिच्छा For Private and Personal Use Only Page #1144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पीठना ११३३ पोतमणि दिखाना, भाग जाना, पीठ दिखाना, विदा पीडुरी*-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. पिंडली) या विमुख होना अनिच्छा दिखाना। पिंडली, पिंडुली, पिंडुरी (ग्रा.)। (घोड़े बैलादि को पीठ ) लगना- पीड्यमान-वि० (सं०) पीड़ा या दुख-युक्त। पीठ पर घाव हो जाना, पीठ का पक पीढा-संज्ञा, पु० दे० (सं० पीठक) पाटा, जाना। चारपाई से पीठ लगाना पीठक, (सं०) पीठ। छोटी कम चौड़ी चौकी । पड़ना, लेटना, सोना। किसी वस्तु का पीढ़ी-संझा, स्रो० सं० (हि० पीढ़ा, सं० ऊपरी या, पृष्ठ भाग। पीठिक ) कुल-परंपरा, किसी व्यक्ति से बाप. पीठना-स०क्रि०दे० (हि०पीसना) पीसना। दादे या बेटे-पोते आदि के क्रम से प्रथम, पीठमर्द-संज्ञा, पु. (सं०) ४ साखाओं में से द्वितीयादि स्थान, पुश्त, वंश-क्रम, संततिनायक का वह सखा जो कुपित नायिका को समूह, संतान, किसी समय किसी वर्ग के प्रसन्न कर सके, वह नायक जो रूठी हुई व्यक्तियों का समूह । संज्ञा, स्त्री० (अल्प०) नायिका को मना सके ( नाट्य०)। पीठ स्थान-- संज्ञा, पु० यौ० (सं०) पीठ, पृष्ठ । छोटा पीढ़ा (हि०)। पीठा-संज्ञा, पु० दे० (सं०) पीड़ा, पाटा, पीत-वि० (दे०) पीला, पीले रंग का, सिंहासन । " जवेन पीठादुदतिष्टदच्युतः' | कपिल, भूरा । स्त्री० पीता । " नील-पीत -माघ० । संज्ञा, पु० दे० ( सं०पिष्टक ) जलजात सरीरा''-रामा० । वि० (सं० एक पकवान । पान) पिया हुआ। संज्ञा, पु० (सं०) भूरा पीठि -संज्ञा, स्त्री० दे० ( हि०पीठ ) पीठ । | या, पीला रंग । पुखराज, मूंगा, हरताल, पीठिका-संज्ञा, स्त्री० (सं०) पीढ़ा, अंश, कुसुम, हरि चन्दन ! भाग, अध्याय । पीतकंद संज्ञा, पु० यौ० (सं०) गाजर । पीतक-संज्ञा, पु० (सं०) केसर, हरताल, पीठिया ठोक -वि० यौ० (दे०) मिला, | हल्दी, पीतल, अगर, शहद, पीला चंदन । सटा या जुड़ा हुआ। वि० पीला, पीले रंग का। पीठी-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० पिष्टक ) उर्द की धोई और पीसी हुई दाल, पिट्ठी, पीठ, | पीतकदली-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) पीला पीठि (ग्रा.)। केला, सोनकेला, चंपक । पीतकरवीर-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) पीला पीड़-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० प्रापोड़) सिर में कनौर । बालों पर बाँधाने का एक गहना, पीड़ा, दर्द । पीड़क-- संज्ञा, पु० (सं०) दुख या पीड़ा | पोत चन्दन- संज्ञा, पु० यौ० (सं०) हरि देने वाला, सताने वाला, दुखदायक। चन्दन, पीले रंग का चन्दन (दविड़ देश) । पीड़न-संज्ञा, पु. (सं०) दबाना, पेरना, पीतता-संज्ञा, स्त्री० (सं०) पीलापन, जर्दी । दुख या कष्ट देना, उच्छेद अत्याचार करना, पीतधातु*--संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) गोपी. दबोचना, नाश । (वि० पीड़क, पीड़नीय, चंदन, रामरज, सुवर्ण। पीड़ित)। पीतपुष्प-संज्ञा, पु० यो० (सं०) चंपा, कटपीडा-संज्ञा, स्त्री० (सं०) दुख, कष्ट, व्यथा, सरैया, पीला कनैर, तोरई, धिया । दर्द, व्याधि, वेदना, पीरा (ग्रा०)। पीतम-वि० दे० (सं० प्रियतम ) प्रीतम पीड़ित - वि० (सं०) क्लोशित, दुखित, रोगी, (दे०), अति प्यारा या स्नेही, पति । दबाया या नष्ट किया हुआ। पीतमणि-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) पुखराज । For Private and Personal Use Only Page #1145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org पीतरत १० (सं०) पुखराज | पीतरत्न - संज्ञा, पु० यौ० पीतरस - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) हलदी । पीतल - संज्ञा, पु० दे० ( सं० पित्तल ) ताँबे रजस्ते से बनी एक मिश्रित उपधातु, पीतर ( प्रा० ) । पीतला - वि० दे० ( सं० पित्तल ) पीतल पीप - संज्ञा, स्रो० दे० (सं० पूय ) मवाद, का बना, पीतल - निर्मित । फोड़े या घाव का सफेद लसीला विकार, पीब ( प्रा० ) । ११३४ | पीतवास-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) श्रीकृष्ण । पीतशाल - संज्ञा, पु० (सं० ) विजयसार । पीतसार - संज्ञा, पु० (सं० ) हरि - चंदन, पीला या सफेद चंदन, गोमेदमणि, शिलाजीत । पीतांबर - संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) पीला वख, रेशमी धोती, श्रीकृष्ण, विष्णु । "पीतांबरं सांद्र पयोद सौभगं - भा० द० । पीन - वि० (सं० ) पुष्ट, दृढ़, स्थूल, संपन्न, पीनी, पीवर | संज्ञा, स्त्री० (सं०) पीनता । प्रगट पयोधर पीन - रामा० । 66 99 पीनक- संज्ञा, स्त्री० दे० ( हि० पिनकना ) क्रीम के नशे में आगे को झुक झुक पड़ना, ऊँघना, पिनक । वि० पिनकी । पीनता - संज्ञा, स्त्री० (सं०) मोटाई, दृढ़ता। पीनना - ० क्रि० (दे०) झुक झुक पड़ना, झूमना, ऊँचना, पिनकना (दे० ) | पीनस - संज्ञा, त्रो० (सं० ) प्राण-शक्तिनाशक, नाक का रोग । " पीनस बारे ने तज्यो, शोरा जानि कपूर " - नीति० । संज्ञा, स्त्री० दे० ( फा० फीनस ) पालकी । पीनसा- संज्ञा, त्रो० (दे०) ककड़ी । पीनसी - वि० (सं० पीनसिन ) पीनस रोगी, मोटी या स्थूल सी । पीयूषवर्ष खींचना | पीना, धूमपान | संज्ञा, पु० ( प्रान्ती० ) तिल की खली । मुहा० ( दे० ) - पीना करना ( बनाना ) - पीना- - स० क्रि० दे० (सं० पान ) पान करना, घुटुक जाना, गले से द्रववस्तु का घूँट घूँट कर नीचले जाना, सोखना, उत्तेजना, किसी बात या (क्रोधादि) मनोविकार को दबा लेना, प्रगट या अनुभव न करना, सह जाना, उपेक्षा करना, मारना, शराब पीना या हुक्का चुरुट श्रादि का धुँआ अन्दर Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir . खूब मारना । पीनी - संज्ञा, स्त्री० (दे० ) पोस्त, तिसी । पीपर - संज्ञा, पु० दे० ( सं० पिप्पल ) पीपल । " अमिली बर सों ह्र रही, पीपर तरे न जाउँ ”. - स्फु० । पीपरपन - संज्ञा, ५० दे० यौ० (सं० पिप्पलपर्ण) पीपल का पत्ता, एक कर्ण - भूषण । पोपरि-संज्ञा, पु० दे० (सं० पिप्पली ) छोटा पाकर, पिप्पली, पीपल । पीपल - संज्ञा, पु० दे० (सं० पिप्पल ) वट जैसा पीपर का पेड़ जो पवित्र है (हिन्दु) । यौ० चलदल | संज्ञा, स्त्रो० दे० (सं० पिप्पली) एक औषधि | " पीपल रत्ती तून "" तज - स्फु० । पीपरामूर - पीपलामूल- संज्ञा, पु० दे० (सं० पिप्पलीमूल ) एक औषधि, पिपरी की जड़, पिपरामूर (दे० ) । पीपा - संज्ञा, पु० (दे० ) तेल या शराब आदि रखने का लोहे या काष्ट का बड़ा ढोल - जैसा गोल पात्र | पी - संज्ञा, स्त्री० दे० ( सं० पूय ) मवाद | पीय - संज्ञा, पु० दे० (सं० प्रिय ) प्रिय, स्वामी, पति, प्यारा, पिय । पीयूख - संज्ञा, पु० दे० (सं० पीयूष) अमृत, "पीयूखतें मीठेपके, सुन्दर रसाल रसाल हैं" - भूष० । पीयूष -संज्ञा, पु० (सं०) अमृत, दूध, ७ दिन की व्यायी गाय का दूध । पीयूषभानु - संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) चन्द्रमा । पीयूषवर्ष - संज्ञा, पु० (सं०) चन्द्रमा, कपूर, श्रानन्द-वर्धक, एक मात्रिक छंद ( पिं० ) । वि० पीयूषवर्षी । For Private and Personal Use Only Page #1146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org पीर पीर - संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० पीड़ा ) पीड़ा, " सो का दर्द, सहानुभूति, पीरा (दे०), जानै पीर पराई " – लो० । वि० ( फ़ा० ) बूढ़ा, महात्मा, बड़ा सिद्ध । (संज्ञा, खो०पीरी ) । 1 ११३५ पीराt - संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० पीड़ा ) पीड़ा, दर्द | वि० दे० (सं० पीत) पीला । " गयो बिखाद मिटी सब पीरा " - रामा० । । मुख पीलसाज - संज्ञा, पु० दे० ( फा० फतीलसोज़ ) चिरागदान, दीवट, दीयट (दे० ) | पीला - वि० दे० (सं० पीत) हल्दी सा, पीले रंग का, निस्तेज, कांति-हीन, सोने या केसरिया रंग का, हल्दी या सोने का सा रंग स्त्री० पोली संज्ञा, पु० । मुहा० - पीला पड़ना या होना – रोग या भय से पीला पड़ जाना, देह में रक्ताभाव होना । पीलापन-संज्ञा, पु० (हि०) पीला होने का भाव, पीतता, पियराई (दे० ) ! पीलिया - संज्ञा, पु० दे० ( हि० पीला ) कमल या कमलक रोग (वै० ) । पीलु - संज्ञा, पु० (सं० ) पीलू वृक्ष, फूल, फलवान पेड़, हाथी, हड्डी का टुकड़ा परिमाणु | पँवार 14 पीघ-संज्ञा, पु० दे० (सं० प्रिय ) प्यारा, पीउ (ग्रा० ), स्वामी, पति बाहर पिउ fur करत हौ, घट भीतर हैं पीव " - स्फु० । पोषना - स० क्रि० दे० (हि० पीना) पीना । "सूखी रूखी खाय कै ठंढा पानी पीव " —कबी० to 1 पीलू - संज्ञा, पु० दे० (सं० पीलू ) काँटेदार, एक पेड़ (०) सड़े फल यादि के सफेद पतले कीड़े | संज्ञा, पु० (दे०) एक राग (संगी० ) । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पीवर - वि० (सं०) स्थूल, मोटा, हद, भारी । स्त्री० पोवरा | संज्ञा, स्त्री० पीवरता । पीरी - संज्ञा, खो० ( फा०) बुढ़ापा, वृद्धापन, गुरुवाई, शासन, टेका, इजारा । पील - संज्ञा, पु० ( फ़ा० ) गज, हाथी, शतरंज पीवरी - संज्ञा, स्रो० (सं०) सरिवन सतावर, का एक मोहरा, फील या ऊँट । ( श्रौष० ) गाय, तरुणी । पोलपाल - संज्ञा, पु० दे० ( फा० फीलवान ) |पीसना - स० कि० दे० (सं० पेषण ) अनाज, फीलवान, हथवाल | पीलपाँव - संज्ञा, पु० दे० ( फ़ा० पीलया ) श्लीपद रोग (वै०) फीलपा ( फ़ा० ) । पीलवान - संज्ञा, पु० दे० ( फा० फोलवान ) फीलवान, हथवाल | अन्य वस्तु का घाटा बनाना, चूर्ण करना, जल में रगड़ कर महीन करना, कुचल कर धूल सा करना। मुहा० - किसी मनुष्य को पीसना - उसे बड़ी हानि पहुँचाना, चौपट या नष्टप्राय कर देना । छति श्रम करना, जान लड़ाना | संज्ञा, पु० पीसी जाने वाली चीज़, एक व्यक्ति के पीसने योग्य अनाज या वस्तु । स० रूप-- पिसाना, प्रे० रूप-- पिसवाना । 66 aa विशाल पीवर अधिकाई " - रामा० । " दिने गच्छत्सु नितान्त पीवरम्” – रघु० । पीहर – संज्ञा, पु० दे० (सं० पितृगृह ) स्त्रियों के माँ-बाप का घर, मैका, मायका, प्रियवर । पीहु- पीहू - संज्ञा, पु० (दे०) एक कीड़ा, पिस्सू । पुंख - संज्ञा, पु० (सं०) बाण का अंतिम या पिछला भाग जिसमें पर लगे रहते हैं । "सक्तांगुली सायक- पुंख एव रघु० । पुंग - संज्ञा, पु० (सं०) राशि, समूह, श्रेणी । पुंगल - संज्ञा, पु० (सं०) श्रात्मा । पुंगव - संज्ञा, पु० (सं०) बैल, वर्द, वरद । वि०श्रेष्ठ, उत्तम, बढ़कर । " पुंगीफल - पंगीफल - संज्ञा, पु० दे० (सं० पुंगीफल ) सुपारी । पुंकार, पुकार | पूँछ ) मोर, मयूर | वि० लम्बी पूँछ बाला । संज्ञा, पु० दे० ( हि० . For Private and Personal Use Only Page #1147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पुंठाला पुचारा-पुचाड़ा पँछाला--संज्ञा, पु० दे० (हि. पुछल्ला ) | पुआल-संज्ञा, पु० दे० (हि० पयाल) पयाल, बड़ी या लग्बी पूँछ, पीछे लगा रहने वाला, पयार (दे०)। चापलूस, पाश्रित, पिछलगा, पुछल्ला। पुकार-संज्ञा, स्त्री० ( हि० पुकारना ) हाँक, पंज-संज्ञा, पु. (सं०) ढेर, राशि, समूह । दुहाई, टेर (व०), प्रतिकार, रक्षा या "बालितनय बल-पंज"-रामा। वि० साहाय्यार्थ चिल्लाहट, नालिश, गोहार, यौ० (सं०) पंजीकृत, पंजीभूत । फरियाद, बहुत माँग, नाम लेकर बुलाना । पुंजी*-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० पुंज, हि० पूँजी) पुकारना- स० क्रि० दे० (सं० प्रकुश) टेरना, मूलधन, पूँजी (दे०)। नामले बुलाना, साहाय्या या रक्षार्थ चिल्लाना, पुंड-संज्ञा, पु० (सं०) तिलक, टीका, त्रिपुंड। हाँक या धुन लगाना, नामोच्चार करना या पुंडरी-संज्ञा, पु० (सं० पुंडरिन् ) स्थल, रटना, घोषित करना, गोहराना (प्रा.) कमल, गुलाब । चिल्लाकर कहना या माँगना, नालिश या पंडरीक-संज्ञा, पु० (सं०) श्वेत कमल, रेशम | फरियाद करना। का कीड़ा, कमल,बाण, बाघ, तिलक, श्वेत, पुक्कस-संज्ञा, पु०. (सं०) नीच, डोम, हाथी, श्वेत कुष्ट, अग्निकोण का दिग्गज, चाँडाल, अधम । स्त्री० पुक्कसी। धाग, आकाश, (अनेकार्थ)। | पुख, पुकखांश-संज्ञा, पु० दे० (सं० पुष्य) पुंडरीकाक्ष-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) विष्णु । पुष्प, पुष्य नक्षत्र ( ज्यो०)। वि०-कमल से नेत्र वाला । “स पुंडरीकाक्ष पुखर*- संज्ञा, पु० दे० (सं० पुष्कर ) तालाब, तडाग-पोखर ( ग्र०) स्त्री० इतिस्फुटोऽभवत् "- माघ०। पोखरी। पुंड- संज्ञा, पु० (सं०) पौंड़ा, गन्ना, तिलक, पुखराज, पोखराज-संज्ञा, पु० दे० (सं० श्वेत कमल, भारत का एक प्रदेश (प्राचीन)। पुष्पराग ) पीत मणि, पीले रंग का एक रन, हिन्दी का प्रथम ज्ञात कवि (मि० वं० वि०)। पुष्पराज । पुंड्रवद्धन-संज्ञा, पु० यो० (सं०) पुंडू देश की पुख्य-संज्ञा, पु० (दे०) पुष्य नक्षत्र(सं०)। राजधानी (प्राचीन)। पुगना-अ० क्रि० दे० (हि० पुजना) पुजना, पंलिंग-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) पुरुष चिन्ह, | पूजना, पूरा करना ( प्रान्ती. )। स० रूपलिंग, पुरुषवाची शब्द (व्या०)। पुगाना, प्रे० रूप- पुगवाना । पुंशक्ति-संज्ञा, स्त्री० (सं०) पुरुषार्थ, पुरुषत्व, | पुचकार-संज्ञा, स्त्री० दे० ( हि० पुचकारना) पौरुष, वीर्य । पुचकारी, प्यार, चुमकार । पंश्चली-वि० स्त्री० (सं०) छिनाल, कुलटा, | पुचकारना–स० कि० दे० (अनु० पुच = व्यभिचारिणी । “वेश्या पुंश्चली तथा''-1 से-+ (हि०) कार+ना-प्रत्य० ) चुमकारना, पुंस -संज्ञा, पु० (सं०) मर्द, पुरुष, नर। चूमने के से शब्द से प्यार प्रगट करना। पुंसवन-संज्ञा, पु. (सं०) द्विजों के १६ / पुचकारी-संज्ञा, स्त्री. ( हि० पुचकारना) संस्कारों में से गर्भाधान से तृतीय मास का | चूमने का सा शब्द, चुमकार, प्यार प्रगट एक संस्कार, वैष्णवों का एक वृत. दूध। । करना, स्नेह या प्रेम दिखाना।। पंसत्व-संज्ञा, पु० (सं०) पुरुषत्व, पुरुष की | पुचारा-पुचाड़ा-संज्ञा, पु. (अनु० प्रत्य०) मैथुन-शक्ति, वीर्य, शुक्र, पुंसकता, पुंसता । | गीले वस्त्र से पोंछना, पोता, पोतने का पुया-संज्ञा, पु० दे० ( सं० पूप ) मोटी और गीला वन, पानी में घोली पोतने या लेप मीठी पूड़ी या टिकिया। । की वस्तु, पतला लेप करने का कार्य, For Private and Personal Use Only Page #1148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पुच्छ ११३७ पुठपाल हलका लेप, छुटी हुई तोप, बंदूक आदि पुजैया -संज्ञा, पु. ( हि० पूजना ) पूजक, की गर्म नली के ठंढा करने को गीला वस्त्र पुजारी। सज्ञा, पु. ( हि० पूजना =भरना ) फेरने का कार्य, प्रोत्साहक या प्रसन्नकारक | भरने या पूरा करने वाला। संज्ञा, स्त्री० (दे०) वाक्य, चापलूसी, बढ़ावा, झूठी बड़ाई। पूजा, पुजारिनि । पुच्छ-संज्ञा, स्त्री. (सं०) पूँछ, दुम, पिछला | पुट-संज्ञा, पु० (अनु०) मिलावट, बोर देना, भाग । संज्ञा, पु.--केतु ( ज्यो०)। दुबोना, कम मेल, भावना, हलका छिड़काव, पुच्छल-वि० दे० ( हि० पुच्छ ) पूंछ वाला, छींटा, बोर । संज्ञा, पु० (सं०) आच्छादन दुमवार । यौ०-पुच्छलतारा-केतु । आच्छादक, दोना, ढक्कन, कटोरा. मुँहबन्द पुच्छल्ला-संज्ञा, पु० दे० (हि० पूछ+ ला- बरतन (वै०),औषधि बनाने का संपुट, या प्रत्य० ) बड़ी लम्बी पूंछ, पूँछ सी पीछे | दो बराबर पात्रों के मुँह मिलाकर जोड़ने से जुड़ी वस्तु, पाश्रित, पिछलगा, खुशामदी, बना खूब बन्द घेरा, घोड़े की टाप, अंतःपट, चापलूस, अनावश्यक साथ लगी वस्तु या अंतरोटा. दो नगण, मगण, रगण से बना पीछे लगा व्यक्ति । एक वर्ण वृत्त (पि०)। पुछारा--संज्ञा, पु० दे० (हि. पूछना ) पुटकी-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० पुटक ) गठरी, पूछने या सत्कार करने वाला, (दे०) मोर। | पोटली,पोटरी (ग्रा.)। संज्ञा, स्त्री० दे० पुछया-वि० (दे०) पूछने वाला। ( हि०पटपटाना - मरना) दैवी विपत्ति या पुजना-अ० कि० (हि०) पूजा जाना अराध. आपत्ति, अचानक मृत्यु । संज्ञा, स्त्री० (हि. बीय या, सम्मानित होना, सरकार पाना । पुट = हलका मेल ) मिलावट पालन (तर(स० रूप पुजाना प्रे० रूप पुजवाना)। कारी के रस को गाढ़ा करने को डाला गया पुजवना- स० क्रि० दे० (हि० पूजना)| बेसन आदि पदार्थ )। सफल या पूरा करना, भर देना, भरना, पुरपाक संज्ञा, पु० यौ० (सं०) पत्ते के दोनों पुजाना। या दो सम पात्रों में रख कर औषधि पकाने पुजवाना-स० क्रि० (हि.पुजना का प्रे० रूप) की विधि, मुँह-बंद बरतन को गढ़े में रखकर पूजा में प्रवृत करना, पूजा कराना,सेवा सम्मान | औषधि पकाने की रीति ( वै०)। करवाना, अपनी पूजा या सेवा कराना । पुटी- संज्ञा, स्त्री० दे० ( सं० पुट ) छोटा संज्ञा, स्त्री० पुजवाई। कटोरा या दोना, पुड़िया, लँगोटी, कुछ पुजाई-संज्ञा, स्त्रो० (हि० पूजना ) पूजने वस्तु रखने का रिक्त स्थान । का भाव या कार्य या पुरस्कार। पुटीन-संज्ञा, पु० दे० (अ० पुटो ) एक पुजाना-स० क्रि० दे० ( हि० पूजना ) धन | मसाला जो किवाड़ों में शीशे लगाने में वसूल कराना, भेंट चढ़वाना, सेवा-सम्मान | ___ या लकड़ी के जोड़ भरने में काम देता है । करना, पूजा में नियुक्त या प्रवृत्त करना, पुट्ठा-संज्ञा, पु० दे० (सं० पुष्ट, पृष्ठ ) चूतड़ अपनी पूजादि कराना । स० कि० (हि. का ऊपरी भाग, जो कुछ कड़ा हो, घोड़ों या पूजना-पूरा होना ) भर देना, पूरा या सफल | चौपायों के चूतड़, किताब की जिल्द के करना। पीछे का भाग। पुजापा-संज्ञा, पु० दे० (सं० पूजा+पात्र ) | पुठवार -क्रि० वि० दे० (हि० पुट्टा ) पीछे, देवादि की पूजा का सामान या सामग्रो।। पार्श्व या बग़ल में । पुजारी-पुजेरी-संज्ञा, पु० दे० (सं० पूजा+ | पुठवाल-संज्ञा, पु० दे० (हि. पुठा+वालाकारी) देव-मूर्ति की पूजा करने वाला, पूजक। । प्रत्य०) सहायक, पृष्ठ-रक्षक । मा.श. को-१४३ For Private and Personal Use Only Page #1149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पुड़ा ११३८ पुत्तरी-पुत्तली पुडा--संज्ञा, पु० दे० (सं० पुट ) बंडल या | पुण्याई-पुन्याई-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि० पुण्य, बड़ी पुड़िया । स्त्री० अल्पा० पुड़िया। पुन्य-+ आई ---प्रत्य० ) सुकृत कर्म, पुण्य पुडिया-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० पुटिका) का प्रभाव या फल । किसी वस्तु के ऊपर संपुटाकार लपेटा पुण्यात्मा-वि० यौ० (सं० पुण्यात्मन्) दानी, काग़ज़. पुड़िया में रक्खी दवा की एक मात्रा, | सुकर्मी, धर्मात्मा, पुण्यशील । घर, स्थान, श्राधार, भंडार, खान । यौ० -- पराया-ना. प. यौ० सं.) पराय-जनक अाफ़त की पुड़िया-~-शैतान। शुभ दिन, अच्छा दिन । पुण्य-वि० (सं०) शुभ, अच्छा, पुनीत । | पुण्याहवाचन--संज्ञा, पु० यौ० (सं०) देव संज्ञा, पु० धर्म-कर्म, सुफलप्रद पावन काम, कर्मो के अनुष्ठान में स्वस्ति-वाचन के प्रथम शुभ कार्य का संचय । मंगलार्थ तीनि बार 'पुण्याह' कहना। पुण्यकर्म --संज्ञा, पु० यौ० (सं०) धर्म, पवित्र, पुतरा, पुतला-संज्ञा, पु० दे० (सं० पुत्रक) या शुभ कार्य । काष्ट, तृण, मिट्टी, वस्त्र श्रादि से क्रीड़ापुण्यकाल-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) शुभ या कौतुकार्थ बनी हुई मनुष्य की मूर्ति, पवित्र समय, दान-धर्म करने का समय । गुड्डा, । स्त्री० पुतरी, पुतली । मुहा०पुण्यकृत वि० (सं०) पुण्यकर्ता, धार्मिक, किसी का पुतला बाँधना--निन्दा या सुकृती, सुकर्मी। बदनामी करते फिरना। पुण्यक्षेत्र-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) तीर्थ, वह पतरी, पुतली-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० पुत्रिका, स्थान जहाँ जाने से पुण्य हो। | पुत्तली ) काष्ट, धातु, तृण, वस्त्र आदि से पुण्यगंध-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) चंपा का | कौतुकार्थ बनी स्त्री की मूर्ति, छोटा पुतला, फूल । "पुण्यगंधवहः शुचिः"- भा० द० । गुड़िया, आँख का काला भाग, प्रतरि, पुण्यजन-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) यक्ष, राक्षस, प्रतंगे (ग्रा०) । 'अंत लूटि जैहौ ज्यौं पूतरी सज्जन मनुष्य। बरात की” । मुहा०-पुतली फिर पुण्यजनेश्वर-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) कुवेर। | जाना--- आँखें उलट जाना, नेत्रस्तब्ध पुण्यपत्तन-संज्ञा, पु० (सं०) पूना नगर । हो जाना, ( मृत्यु- चिन्ह ) । आँख की पुण्यभूमि-संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) बारा- पुतली बनाना (चख-पूतरी करना)वर्त, भरतखंड, तीर्थस्थान । अति प्रिय बनाना ( करना) । " करौं पुण्यवान्-वि० ( सं० पुण्यवत् ) पुण्यशील, तोहि चख-पूतरि पाली "--रामा । धर्मात्मा, पुण्यकर्म करने वाला, दानी। कपड़ा बुनने की मशीन । यौ०-पुतली. स्त्री० पुण्यवती। घर-कपड़ा बुनने का कार्यालय, कल्लपुण्यशील-संज्ञा, पु० (सं०) दानी, उदार, कारखाना । धर्मात्मा, सुकर्मी। पुताई-पोताई-संज्ञा, स्त्री० ( हि० पोत्तना+ पुण्यश्लोक-वि० यौ० (सं०) पवित्र पाच- आई---प्रत्य० ) पोतना क्रिया का भाव, रण या चरित्रवाला, यशस्वी, ( स्त्री० पुण्यः | पोतने का कार्य या मज़दूरी । श्लोका ) । " पुण्यश्लोक शिखामणिः " | पुत्त -संज्ञा, पु० दे० (सं० पुत्र ) लड़का, - स्फु० । विष्णु युधिष्टिर राजानल। बेटा, पूत, ( दे०)। पुतवा, पुतुवा, पुत्त, पुण्यस्थान-संज्ञा, पु. यौ० (सं०) तीर्थ- (ग्रा.)। स्थान, पुण्यस्थल। । पुत्तरी-पुत्तली*-- संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० For Private and Personal Use Only Page #1150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org पुतलिका - पुत्तरिका पुत्री) कन्या, लड़की, बेटी, पुतली । " क्रीड कला- पुत्तली" - प्रि० प्र० । पुतलिका पुतरिका -संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० पुत्रिका ), गुड़िया, पुतली, पुत्री । पुत्र - संज्ञा, पु० (सं०) लड़का, बेटा, पूत (दे०) पुतौना (ग्रा० ) । ११३९ पुनर्नवा | पुनःपुनः - भव्य ० यौ० (सं०) फिर फिर, बारबार, मुहुर्मुहुः । "जायन्ते च पुनः पुनः", स्फु० | पुनि-पुनि (दे० ) । पु० यौ० (सं०) पुनः संस्कार - संज्ञा, दोबारा संस्कार । पुन – संज्ञा, पु० दे० ( सं० पुण्य ) पुन्य दान, धर्म-पुन्न, पुण्य । • पुनरपि - क्रि० वि० (सं०) फिर भी, दुबारा भी । पुनरपि जननं पुनरपि मरणं" चर० । पुनरबसु संज्ञा, पु० दे० (सं० पुनर्वसु ) पुनर्वसु नामक नक्षत्र ( ज्यो० ) । पुनरागमन - पुनरागम-- संज्ञा, पु० यौ० (सं०) फिर जन्म, दोबारा जन्म. फिर श्राना । भस्मीभूतस्य देहस्य पुनरागमनं कुतः " | पुनरावृत्ति - संज्ञा, स्त्री० यौ० घूमना, फिर से थाना, दुहराना, पढ़ना, किये काम को फिर करना, पुनरावृत्त ) | (" (सं०) फिर से फिर से पुत्रजीव, पुत्रजीवी संज्ञा, पु० (सं०) इंगुदी सा एक सुन्दर बड़ा पेड़ जिसकी छाल और बीज दवा में पड़ते हैं । 19 - रामा० । पुत्रवती - संज्ञा, स्त्री० (सं०) लड़केवाली, लड़कौरी, (दे०) जिसके लड़का हो, पूती (दे०) । ' पुत्रवती युवती जग सोई " - रामा० । पुत्रवधू -संज्ञा, त्रो० यौ० (सं०) लड़के की बी, पतोहू, बहू, । " मैं पुनि पुत्र वधू प्रिय पाई ' पुत्रवान पंज्ञा, पु० (सं० पुत्रवत् ) लड़केपाला, जिसके लड़का हो । स्रो० पुत्रवती । पुत्रार्थी - वि० यौ० (स०) संतान- कांक्षी, संतानेच्छु, पुत्राभिलाषी पुत्राकांक्षी | पुत्रिका - संज्ञा, त्रो० (सं०) लड़की, बेटी, गुड़िया, आँख की पुतली, मूर्ति, स्त्री का चित्र | त्रिणी – वि० स्त्री० (सं०) लड़के वाली, सम्तान-युक्ता, पुत्रवती मणी-संज्ञा, स्त्री० (सं०) लड़की, बेटी, सुता, धनुजा, कन्यका । प्रवेट- संज्ञा, त्रो० यौ० (सं०) पुत्र प्राप्ति के लिये एक विशेष यज्ञ । प्रवीना-संज्ञा, पु० दे० ( फा० पोदीनः ) एक पौदा जो सुगंधित पत्तियों वाला, पाचक और रुचिकारक होता है। पोदीना । प्रदुगल- पुनल - संज्ञा, पु० (सं०) रूप. रस और स्पर्श गुणवाली वस्तु, शरीर (जैन० ), चैम्य पदार्थ, परमाणु ( बौद्ध ) आत्मा । :- श्रव्य ( सं० पुनर् ) फिर, पीछे, पश्चात् ( द्र० प्र०) उपरान्त, दोबारा, अनन्तर । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ( वि० पुनरुक्तवदाभास-संज्ञा, पु० (सं० ) एक शब्दालंकार जिसमें शब्द के अर्थ की पुनरुक्ति का केवल प्रभात हा प्रतीत हो । पुनरुक्तप्रकाश-संज्ञा, पु० (सं०) रोचकता के लिये शब्द का पुनर्प्रयोग (दास) । पुनरुक्ति संज्ञा, स्री० यौ० (सं०) एक बार कहे शब्द या वाक्य को फिर कहना, कथित - कथन, एक ही अर्थ में व्यर्थ शब्द के पुनः प्रयोगका काव्य-दोष | ( वि० पुनरुक्त) । पुनरुत्थान- संज्ञा, पु० यौ० (सं०) फिर से उठना, दूसरी बार उठना, फिर उन्नति करना, पुनरुन्नति । For Private and Personal Use Only पुनर्जन्म -संज्ञा, पु० यौ० (सं०) मर कर एक देह छोड़ दूसरी धारण करना, फिर उत्पन्न होना, पुनरुत्पत्ति । " पुनर्जन्म न विद्यते " । पुनर्नव - वि० (सं०) जो फिर से नया हो गया हो, गदहन्ना - ( औौष ० ) । पुनर्ना - संज्ञा, त्रो० (सं०) जो फिर से नया हो गया हो, गदापुन्ना, गदहपूरना ( श्रौष ० ) Page #1151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पुनर्भव - ११४० जो श्वेत, रक्त और नील रंग के फूलों के । दाँत वाली । पुं० पुपला-पोपला । विचार से तीन प्रकार का होता है। पुमान्-संज्ञा, पु० यौ० ( सं० ) पुरुष. नर । पुनर्भव-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) नख, नाखून, | पुरंजय - संज्ञा, पु० (सं०) एक सूर्य-वंशी बाल, पुनर्जन्म, पुनरुत्पत्ति, पुनर्विवाह, फिर राजा जो पीछे से ककुस्थ कहलाये, जिससे से पैदा होना, अंडज। वि०---पुनर्भन । स्त्री. सूर्यवंशी काकुस्थ कहलाते हैं, पुर राक्षस के पुनर्भधा। विजेता, इंद्र। पुनर्भ-संज्ञा, स्त्री० (सं०) दो बार की व्याही | पुरंजर- संज्ञा, पु. (सं०) बय, स्कंध, कंधा, स्त्री, विरूदा स्त्री, पुनर्विवाहिता, दूसरे | से व्याही गई विधवा स्त्री। पुरंदर--संज्ञा, पु० (२०) पुर नामक दैत्य के पुनर्वसु-संज्ञा, पु० (सं०) २७ नक्षत्रों में से | नाशक, इन्द्र, विष्णु, शिव । “पुरंदरश्रीः ७ वाँ नक्षत्र, विष्णु, कात्यायन मुनि, शिव, पुरमुत्पताक'-रघु। पुरंध्री--संज्ञा, स्त्रो० (सं० ) पति, पुत्रादि से एक लोक। सुखी स्त्री, नारी, सुगृहणी। पुनर्विवाह-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) दुबारा पुरः-अव्य० (सं० पुरस् ) प्रथम, पहले, आगे। ब्याह । वि० पुनर्विवाहित । “पुरः प्रवालैरिव पूरितार्धया"-माघ० । पुनवाना-स० कि० (दे०) अनादर या अप पुरःसर, पुरस्पर-वि० (सं०) प्रागे चलने मान करना, अप्रतिष्ठा करना। वाला, अग्रगामी, अनुश्रा, सहित, साथी। पनि*-क्रि० वि० दे० (सं० पुनः) फिर से, पुर-- संज्ञा, पु० ( सं० ) शहर, नगर, (खो. पुनः, दुबारा, फिर “पुनि पाउब यहि पुरी) अटारी, घर, कोठा, भुवन, लोक, विरियाँ काली"-रामा०। यौ० पुनि पुनि । राशि. शरीर, किला । वि० (अ.) भरा हुआ, पुनी*---संज्ञा, पु० दे० (सं० पुण्य) पुण्यात्मा, पूर्ण, पूरा । संज्ञा, पु. ( दे०) चरता, चरस दानी। संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० पूर्ण) पूनोतिथि, चमड़े का डोल। “कृपा करिय पुर धारिय पूर्णमासी, पूर्णिमा ! क्रि० वि० दे० (सं० पुनः) । पाऊँ'-रामा०। फिर, दुबारा, पुनि, पुनः । पुरइन*-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० पुटकिनी) पुनीत-वि० (सं०) शुद्ध, पवित्र, पावन । | कमल का पत्ता, कमल, नलिनी, पुरैनि पुन्न, पुन्य-संज्ञा, पु० दे० (सं० पुण्य) पुण्य, (ग्रा० )। धर्म । यौ० दान-पुन्न। पुरइया-संज्ञा, पु० (दे०) तकुमा । “भुन पुन्ना-२० क्रि० (दे०) गाली देना, अनादर | भुन बोल पुरइया".-~-कबीर०।। या अपमान करना। पुरग्बा, पुरिखा-संज्ञा, पु० दे० (सं० पुरुष) पुन्नाग-संज्ञा, पु० (सं०) एक प्रकार का चंपा, | पहले के पुरुष या लोग, बाप दादा, परदादा जायफल, सफ़ेद कमल, | " पुन्नाग कहुँ कहुँ श्रादि, घर का बड़ा, बूढ़ा । “तव पुरखा नाग केसर, संतरा, नंभीर हैं' -भूष। इच्छवाकु आदि सब नभ मैं ठाढ़े"---हरि० । पुनार-संज्ञा, पु० (दे०) चकवड़ का पेड़। (स्त्री० पुरखिन)। वि० (दे०) बुजुर्ग, पुन्य - संज्ञा, पु० दे० (सं० पुण्य) धर्म- अनुभवी। मुहा०--पुरखे तर जानाकार्य, शुभ कर्म, दान, धर्म । वि० (दे०)। परलोक में पूर्वजों को उत्तम गति मिलना, शुभ, पवित्र, अच्छा। बड़ा पुण्य या फल होना। पुपत्नी-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. पोपची) बाँस | पुरनक-संज्ञा, स्त्री० दे० ( हि० पुचकार ) की पोली पतली नली । वि० स्त्री०-बिना पुचकार, चुमकार, उत्तेजना, उत्साह-दान, For Private and Personal Use Only Page #1152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 4. पुरजन ११४१ पुरस्कृत समर्थन, तरफदारी, प्रेरणा, पक्षपात । | पुरबिया-पुरबिमा-वि० दे० ( हि० पूरब ) पुरजन - संज्ञा, पु० यो० (सं०) नगर-वामी। पूर्व देश का निवासी या उत्पन्न, पूर्व का, 'पुरजन, परिजन, जाति-जन" - रामा०। । पूर्वीय ( सं० ) । ( स्त्री० पुरवनी)। पुरजा, पुर्जा-संज्ञा, पु. (फ़ा०) भाग, खंड, | पूरबी, पूरवी-वि० (दे०) पूर्वीय (सं.)। टुकड़ा, पर्चा, काग़ज़ का टुकड़ा. अंश, अंग, पुरवट --संज्ञा, पु० दे० ( सं० पूर ) चरसा, धज्जी, कतरन, रुक्का, यंत्र या कल का अव- चरस, मोट, सिंचाई के लिये कुएँ से पानी यव, कत्तल । मुहा०-पुरजे पुरजे करना खींचने का चमड़े का बड़ा डोल । या उड़ाना----टुकड़े टुकड़े या खंड खंड पुरखना * -२० क्रि० दे० (हि. पूरना) करना । मुहा०-चलता-पुरजा- चालाक भरना, पुजाना, पूरना, पूरा करना। मुहा०मनुष्य । यो०-कल-पुरजा। साथ पुरवना-साथ देना । अ० कि० पूरा पुरट-संज्ञा, पु० (सं०) पुरण, सोना, सुवर्ण। या पर्याप्त होना, काम भर को होना, पूर्ण या "पुष्ट-कोट कर परम प्रकाशा"--रामा० । यथेष्ट होना। पुरत:- अव्य० (सं०) संमुख, सामने, आगे,, पुरवा--संज्ञा, पु० दे० (सं० पुर ) खेड़ा, "नीरस तरिहि विलसति पुरतः" -। पुरा, छोटा गाँव, पूर्वा या पूर्वाषाढ़ नक्षत्र पुरत्राण-संज्ञा, पु. यौ० ( सं० ) परकोटा (ज्यो०)। संज्ञा, पु० दे० (सं० पुटक) प्राकार, शहर पनाह. नगर-कोट । मिट्टी का सकोरा या कुल्हड़ । संज्ञा, पु० दे० पुरना-स. क्रि० (दे०) भर जाना, बंदहोना, | (सं० पूर्व । वात) पूर्व दिशा से चलने वाली पूरा या पूर्ण होना। स० कि० पुराला, वायु, पुरवाई, पुरवैया ( ग्र०) “उठति प्रे० रूप पुरधाना। उसाँस सोझकोर पुरवा की है"-ऊ. श० । पुरनियाँ-संज्ञा, पु०, वि० दे० ( सं० पुराण ) "जो पुरवा पुरवाई पावै'-घाघ । प्राचीन, पुराना, बूढ़ा, वृद्ध एक नगर, पुरधाई-पुरवैया-पुरवइया - संज्ञा, स्त्री० दे० पुनिया ( बंगाल )। (सं० पूर्व + वायु ) पूर्व दिशा से चलने पुराल, पुरपालक-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) | वाली हवा । नगर-रक्षक, कोतवाल, जीव । पुरश्चरण --संज्ञा, पु० (सं०) किसी कार्य की पुरबला, पुरखुला। वि० दे० (सं० | सिद्धि के लिये अनुष्ठान, नियम पूर्वक कार्यपूर्व + ला-प्रत्य) पूर्व या प्रथम का, पहले | सिद्धि के लिये स्तोत्र या मंत्रादिका पाठ या जन्म का, प्रथम. पहले या पूर्व का । ( स्रो० जप करना, पूजा या प्रयोग करना (तन्त्र)। पुरवली, पुरखुली) "कौन पुरवुले पु.षा-संज्ञा, पु० दे० ( सं० पुरुष ) पुरखा । पाप ते, बन पठये जग-तात".- गिर० ।। पुरमा- संज्ञा, पु० दे० ( सं० पुरुष ) साढ़े पुरबहु-पुरवहु--स० क्रि० (दे०) पुरवना, | चार या पाँच हाथ की एक नाप । पूर्ण या पुरा करो, भरदो, पुजा दो । “पुर- | पुरस्कार - संज्ञा, पु. (सं०) पारितोषिक, वहु सकल मनोरथ मोरे '-रामा० । इनाम, श्रादर. सत्कार या प्रतिष्ठा-पूर्वक पुरबा, पुरघा-संज्ञा, पु. (दे०) पुरवा, करई, दान, उपहार, पूजा, अच्छे कार्य का बदला, चुकट्टा, पूरब की हवा, पुरवाई, पूर्वा नक्षत्र। धन्यवाद, आगे करना, प्राधान्य, स्वीकार । पुग्बासी-संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) नगर (वि० पुरस्कृत, पुरस्करणीय)। निवासी, पुरजन । " यह सुधि सब पुर- पुरस्कृत --- वि० (सं०) पूजित. भारत, सम्माबासिन पाई "-रामा० । | नित, स्वीकृत, जिसे पुरस्कार, पारितोषिक, For Private and Personal Use Only Page #1153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पुरीतत् पुरस्तात् या इनाम मिला हो, आगे किया हुश्रा। पुगतल-संज्ञा, पु. ( सं० ) रसातल । "पुरस्कृता वर्मनि पार्थिवेन "- रघु०। पुरान-वि० दे० (सं० पुराण ) पुराना, पुरस्तात्-अव्य० (सं०) पूर्व दिशा, अतीत संज्ञा, पु० (दे०) पुराण । काल, प्रथम पहले, आगे, पूर्व, पूर्व में। | पुराना - वि० दे० (सं० पुराण ) अतीत " पुरस्तात् अपवादानन्तरान् विधीन् वाधन्ते प्राचीन. बहुत दिनों या काल का, पुरातन नोत्तरान् ”-कौ० । जीर्ण, परिपक्व, बहुत दिनों तक के, अनुभव. पुरहूत --- संज्ञा, पु० दे० (सं० पुरुहूत ) वाला पुराण। "छुवतै टूट पिनाक पुराना"--. इन्द्र, पुरुहूत । "पुरहूत पुहुमी में प्रगट | रामा० । स्त्री० पुरानी। यौ०-पुरानप्रभाव है ''- ललि। खुगेट-वृद्ध, बड़ा भालाक, अनुभवी । पुरा-अव्य. (सं० ) पुराना, प्राचीन या पुराना-घाघ-बड़ा अनुभवी या चालाक, पुराने समय में । वि० पुराना, प्राचीन । संज्ञा, पुराना-चावल जिसका चलन न हो,बहुत पु० दे० ( स० पुर ) गाँव, मुहल्ला । स्त्री० अगले समय का । स० क्रि० दे० (हि० पूरना का पूर्व दिशा, बस्ती, " पुरा प्रष्टवानुपायोनि प्रे० रूप) पुजवाना, अनुसरण करना, भराना, विडोजा."- स्फु० । पुरा ( करना) कराना, पालन या अनुसरण पुराकल्प-संज्ञा, पु. यौ० (सं०) पूर्व या कराना ( करना ) । " जो सखि कह्यो होइ पहला कल्प. प्राचीन काल, एक भाँति का कछु तेरो अपनी साध पुराऊँ "--सूर० । अर्थ-वाद जिसमें पुराने इतिहास के श्राधार पुरारि-संज्ञा, पु० यौ० ( सं० ) पुर राक्षस पर कार्य करने का विधान किया जाता है। के शत्रु, महादेव जी, शिव जी। " साइ पुराकृत-वि० ( सं०) पूर्व जन्म या समय पुरारि को दंड कठोरा --रामा० । में किया हुआ | " यह संघट तब होय जब, पुराल *- संज्ञा, पु० दे० ( सं० पलाल ) पुन्य पुराकृत भूरि "-रामा० । पयाल, पयार, पुपाल । पुराण-पुरान (दे०)-~-वि० (सं० ) पुराना, पुगवृत्त-संज्ञा, पु. यौ० (सं० ) इतिहास, प्राचीन, पुरातन । संज्ञा, पु० (सं०) इतिहास, प्राचीन या पुराना वृत्तांत या हाल । 'पुराजन-परम्परागत देवदान यादि के वृत्तान्त, हिन्दुओं के १८ धर्म-सम्बन्धी पाख्यान-ग्रंथ. वृत्त तब संभु सुनावा"--- रामा० । जिनमें सृष्टि की उत्पत्ति प्राचीन ऋषि-मुनियों | | परि-संज्ञा, स्त्री० (सं०) पुरी, नगरी, शरीर, तथा प्रलयादि के वृत्तान्त हैं. १८ की संख्या, नदी संज्ञा, पु० (सं० ) राजा, संन्यासियों शिव । “वेदपुरान करहिं सबनिंदा' --रामा। का एक भेद। “ नाना पुराण निगमागम संमतं यद्"। पुरिखा-पुरिषा*-संज्ञा, पु० दे० (सं० पुरुष) पुरातत्व-संज्ञा, पु० (सं०) प्राचीन समय पूर्वपुरुष पूर्वज, पहले के लोग, बाप-दादा संबंधी विद्या, प्रन शास्त्र । यो पुरातत्या- आदि, पुरखा (दे०), स्त्री० पुरिखिन, न्वेषण-प्राचीन खोज। पुरिषिन । पुरातत्ववेत्ता-संज्ञा, पु० (सं०) प्रत्न शास्त्र का पुरी-संज्ञा, स्त्री० (सं० ) जगन्नाथ पुरी, ज्ञाता, प्राचीन काल संबंधी विद्या का ज्ञाता। छोटा शहर या नगर, नगरी,पुरुषोत्तम-धाम। पुरातन-वि० (सं० ) पुराना, प्राचीन, | "मम धामदा पुरी सुख रासी"--रामा० । पुराण । संज्ञा, पु० (सं०) विष्णु, परमेश्वर, । (दे०) पूड़ी। पुराण पुरुष । " पुरुष पुरातन की प्रिया, पुरीतत्----संज्ञा, पु० (सं०) शाँत नाड़ी, वह क्यों न चंचला होय"-रही। । नाड़ी, जहाँ सोते समय मन स्थिर रहता है। For Private and Personal Use Only Page #1154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पुरीष-पुरीषा ११४३ पुरैन-पुरैनि पुरीष-पुरीषा-संज्ञा, पु. (सं० ) मल, | पुरुषपुर-संज्ञा, पु० (सं०) प्राचीन गंगाधार मैला, विष्टा, गू । “जो पुरीष सम स्यागि की राजधानी, पेशावर नगर (वर्त०) । भजै जग सोई पुरुष कहावै ''-ध्रुव०।। पुरुषमेध--संज्ञा, पु० यौ० (सं०) नरवलि पुरु-संज्ञा, पु. ( सं० ) अमर या देव-लोक, वाला यज्ञ मनुष्य-यज्ञ ( वैदि०) मृतक दैत्य, देह, शरीर, पराग, एक राजा जो मनुष्य की दाह-किया, दाह-कर्म । ययाति का पुत्र था, ( पुरा० ) पंजाब का पुरुष ह-संज्ञा, पु० यौ० ( सं०) श्रेष्ठ राजा जो सिकंदर से लड़ा था ( इति०)। या उत्तम या उद्योगी पुरुष । “ उद्योगिनं पुरुकुत्स-संज्ञा, पु० (सं०) मान्धाता-पुत्र । पुरुष सिंहमुपैति लक्ष्मी'-" पुरुषसिंह जो पुरुख 81 --- संज्ञा, पु० (दे०) पुरुष (सं०)। | उद्यमी लक्ष्मी ताकी चेरि"। पुरुखा-पुरुखे * 1-संज्ञा, पु० दे० ( सं० पुरुषसूक्त संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) 'सहस्र पुरुष) पूर्वज, पूर्व पुरुष. बाप-दादा आदि। शीर्षा' से प्रारंभ होने वाला ऋग्वेद का एक पुरुजित- संज्ञा, पु. ( सं० ) एक राजा जो प्रसिद्ध सूक्त । अर्जुन का मामा था, विष्णु । पुरुषाद-पुरुषादक-संज्ञा, पु. (सं.) पुरुदस्म- संज्ञा, पु. ( सं० ) विष्णु । नरभक्षी, राक्षस । "पुरुषादाऽनवृतः-भा०। पुरुबा--संज्ञा, पु. द० (सं० पूर्वा) पूर्व | पुरुषाधम-वि०, संज्ञा, पु० यौ० (सं.) दिशा, पूर्व दिशा की वायु । संज्ञा, स्रो० दे० निकृष्ट, नीच, पामर मनुष्य, नराधम । (सं० पूर्वा) एक नक्षत्र पूर्वाषाद, पूर्वा । पुरुषानुक्रम ---संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) पुरखों की परम्परा जो क्रम से चली आई हो। पुरुभोजा-- संज्ञा, पु० (सं० ) भेंड़, भेंड़ा। पुरुषायितबध- संज्ञा, पु. (सं० ) विपपुरुराज-- संज्ञा, पु० (सं०) पुरूरवा ।। रीति रति (कायशा०)। पुरुष-संज्ञा, पु० (सं० ) नर, आदमी पुरुषारथ *---संज्ञा, पु० दे० (सं० पुरुषार्थ) मनुष्य, प्रात्मा, जीव, ब्रह्म, विष्णु, सूर्य. । पौरुष, उद्यम, मनुष्य का उद्योग या लक्ष्य, शिव, सर्वनाम और क्रिया के रूप का वह सामर्थ्य, पराक्रम । “पारथ से छाँड़े पुरुषारय भेद जिससे वक्ता, संबोध्य, या अन्य व्यक्ति को ठाढ़े ढिग''- स्फु०। का बोध हो, पुरुष ३ हैं १-उत्तम ( कहने पुरुषार्थ-- संज्ञा, पु० यौ० (सं०) मनुष्य का वाला) २-संवोध्य-जिससे कहा जाय, लक्ष्य या उद्योग का विषय, पराक्रम, उद्यम, ३-अन्य-जिसके विषय में कहा जाय पौरुष, सामथ्य, शक्ति । “त्रिविधि दुःखमत्यंत (व्या०), मनुष्य का शरीर, पूर्वज, स्वामी, निवत्तित्यत पुरुषार्थः" ।। पति, प्रकृति-भिन्न एक चैतन्य, अपरिणामी, | TM | पुरुषार्थी-वि० (सं० पुरुषार्थिन् ) उद्योगी, _वि. प्रसंग और अकर्ता पदार्थ (सांख्य)। परिश्रमी, बलवान, पुरुषार्थ करने वाला। पुरुषकार-वि० (सं०) पुरुष का कर्म, | पुरुषोत्तम- संज्ञा, पु० यौ० (सं०) उत्तम या चेष्टा, पौरुष, शौर्य । श्रेष्ठ पुरुष, विष्णु, श्रीकृष्ण, नारायण, पुरुष-कुंजर-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) पुरुष- | जगन्नाथ ( उड़ीसा ), मल (अधिक) मास । पुंगव, पुरुष-श्रेष्ठ। पुरुहूत--- संज्ञा, पु० (सं०) सुरेश, इन्द्र जी। पुरुषत्व संज्ञा, पु० (सं० ) पंसत्व, मनुष्य- पुरूरवा-संज्ञा, पु० (सं०) राजा इला के पुत्र पन, मरदानगी, पौरुष, बल। (ऋग्वेद) उर्वशी इनकी स्त्री थी, विश्वदेव । पुरुषत्वहीन-वि० यौ० (सं० ) पुंसत्व- पुरैन-पुनि--सज्ञा, स्त्री० दे० (सं० पुटकिनी) रहित, नपुंसक, हिजड़ा। | कमल का पत्ता। For Private and Personal Use Only Page #1155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पुरोचन ११४४ पुलिस पुरोनन-संज्ञा, पु० (सं०) दुर्योधन का मित्र पुलकालि पुलकावलि-संज्ञा, स्त्री० (सं०) और सेवक । । पुलकावली, प्रेमादि से रोमांचित होना । पुरोडाश-संज्ञा, पु. (सं०) हवि, होम- पुलकित-वि० (सं०) रोमांचित, गद्गद् । सामग्री, यज्ञभाग, सोमरस, खीर, पुरोडास | "पुलकित तनु मुख प्राव न वचना"-रामा०। (दे०), यज्ञाहति के लिये कपाल में पकाई पुलटा-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. पलट) यवादि के चूर्ण को टिकिया। "पुरोडास पलट जाना । यौ०-उलट-पुलट । चह रासभ खावा "--रामा०। | पुटिस-संज्ञा, स्त्री० दे० (अं० पोल्टिस ) प्राधा-संज्ञा, पु० (सं० पुरोधस ) पुरोहित । पकाने के लिये फोड़े पर चढ़ाया दवा का पुरोवी -वि० (सं० पुरोवर्तिन्) अग्रगामी।। गादा लेप । गहत-संज्ञा, पु० (सं०) यज्ञादि गृह-धर्म पुलपुला-वि० दे० ( अनु० ) जो दबाने या संस्कार कराने वाला, याजक, उपरोहित, से फंसे । पिपिला । कर्मकांडी. प्रोहित (दे०)। स्री० पुरोहि- पुलपुलाना-स० क्रि० दे० (हि. अनु०) तानी । “अग्निमीड्ड पुरोहितम् "-ऋ०। नर्म चीज़ को दबाना। वि० पुलपुला। पुरोहिताई-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० पुरोहित+ पुलपुलाहट-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि० पुलआई-हि. प्रत्य० ) पुरोहित का कर्म। पुलाना ) दवावट, दबनि । पुर्जा-संज्ञा, पु० दे० { फ़ा० पुरज़ा ) पुरजा । पुलस्य - संज्ञा, पु० (सं०) प्रजापतियों और पुर्तगाल-संज्ञा, पु० ( अं० पोर्ट गाल ) महा सप्तर्षियों में से एक ऋषि, रावण के दादा, द्वीप यूरुप के दक्षिण पश्चिम में एक प्रदेश। ब्रह्मा के मानस-पुत्र, शिव। "उत्तम कुल पुलस्त्य के नाती"- रामा० । पुत्तगालो- वि० ( हि० पुर्तगाल ) पुर्तगाल का निवासी या संबंधी, पाचगीज़ (अं०) । पुलह-संज्ञा, पु० (सं०) ब्रह्मा के मानस पुत्र और प्रजापति, सप्तर्षि में से एक ऋषि, शिव । पुर्तगीज-वि० ( अं० पोर्ट गीज़ ) पुर्तगाली।। पुलहना*--अ. क्रि० दे० (सं० पल्लव) पु-िसंज्ञा, पु० दे० (सं० पुरुषमात्र) पुरुष की लंबाई भर, ४ हाथ की नाप । । पलुहना, पल्लवित या हरा-भरा होना । पुल- संज्ञा, पु० (फ़ा०) सेतु, नदी आदि के पुलाक-संज्ञा, पु० (सं०) अकरा नामक आर-पार जाने का मार्ग। मुहा०—किसी अन्न, भात, माँद, पुलाव, पीच । बात का पुल बांधना-झड़ी लगाना, पुलाव-संज्ञा, पु० (सं० पुलाक, मि० फा० बहुत अधिकता कर देना । पुल टूटना- पुलाव ) मांस और चावल की खिचड़ी, अधिकता होना, जमघट लगना। माँसोदन । पुलक-- संज्ञा, पु. (सं०) प्रेम, हर्षादि के पुलिद-संज्ञा, पु० (सं०) एक प्राचीन असभ्य उद्वेग से उत्पन्न रोमाँच, देह-श्रावेश, याकूत, | जाति, इस जाति का देश ( भारत )। एक रत्न ।' पुलक कंप तनु नयन सनीरा" पुलिदा- संज्ञा, पु० दे० (हि. पला) -रामा०। काग़ज़ों, कपड़ों का मोटा बंडल, गड्डी। पुलकना-अ. क्रि० दे० ( सं० पुलक+ना | पुलिन-संज्ञा, पु० (सं०) पोनी से निकली हि०-प्रत्य० । पुलकित या गद्गद् होना, भूमि, किनारा, तट, चर। “ कलत्रभारैः हर्षावेश से प्रफुल्लित होना। पुलिन नितम्विभिः "-- किरातः । पुलकाई-सज्ञा, स्त्री० दे० (हि. पुलकना) पुलिस-सज्ञा, स्त्री. (अ.) प्रजा-रक्षक पुलकना का भाव, गद्गद् होना। सिपाही या अफसर । For Private and Personal Use Only Page #1156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - पुलिहोरा ११४५ पुष्पराग पुलिहोरा-संज्ञा, पु० (दे०) एक पकवान । पुष्कल-संज्ञा, पु० (सं०) भरत जी का पुत्र पुलोम-संज्ञा, पु० (सं०) एक दैत्य, इन्द्राणी अन्न मापने का मान । प्राचीन ), चार ग्रास का पिता । की भिक्षा, शिव । वि०-अधिक, परिपूर्ण, पुलोमजा--- संज्ञा, स्त्री० (सं०) शची. इन्द्राणी। श्रेष्ठ, पुनीत, उपस्थित प्रचुर, बहुत । " पुलोमजा वल्लभ-सूनुपत्नी "... लोलंव०। पुष्ट-वि० (स०) मोटा-ताजा तैयार, पालापुलोमही-संज्ञा, स्त्री० (सं०) अफ्रीम। पोषा हुआ. बलवान, मोटा-ताज़ा करने पुलोमा-संज्ञा, स्त्री० (सं०) भृगुमुनि की स्त्री। वाला, बल बढ़ाने वाला, पक्का, दृढ़ । पुवा -संज्ञा, पु० दे० सं० पूप) मीठी पूड़ी। पुष्टई-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० पुष्ट + ई-हिं.. पुवार, पुषाल-संज्ञा, पु० दे० (सं० पलाल) | प्रत्य० ) बल, वीर्य या पौरुष बढ़ाने वाली पयाल, पलाल, पयार। वस्तु या औषधि. पौष्टिक वस्तु ।। पुश्त-संज्ञा, स्त्री० (फा०) पीठ, पृष्ठ, पीछा, पुटता-संज्ञा स्त्री० (सं०) दृढ़ता मज़बूती । पीढ़ी, शाखा, वंश-क्रम में पिता, पितामह | पुष्टि-संज्ञा, स्त्री. (सं०) बढ़ती. बलिष्टता पुत्र, पौत्रादि का क्रम से स्थान । यौ०--पुश्त | दृढ़ता, पोषण, संतति-वृद्धि, बात-समर्थन । दर पुश्त-कई पीढ़ियों तक. पीढ़ी दर- पुष्टिकर, पुष्टिकारक-वि० सं० बलपीढ़ी। पुश्त-हा-पश्त-- वंश परम्परा में । वीर्य यापौरुष की उत्पादक वस्तु या श्रौषधि । पुश्तक-संज्ञा, स्रो० ( फ़ा० पुश्त ) दो लत्ती, | पुष्टिकारी, स्त्री० पुष्टिकारिणी। घोड़े श्रादि का पिछले पैरों से मारना। | पुष्टिमार्ग-संज्ञा, पु० (सं०) वैष्णव-भक्ति मार्ग पुश्तनामा-संज्ञा, पु० (फा०) पीढ़ी पत्र, ईश्वर की कृपा ( बल्लभाचार्य-मत )। वंशावली कुरसी-नामा। पुष्प- संज्ञा, पु० (सं०) पौधों का फूल मांस पुश्ता-संज्ञा, पु० (फा० पुश्तः ) पुट्ठा, पुस्तक (वाम) ऋतु वाली स्त्री का रज, नेत्र की जिल्द का पिछला चमड़ा, दृढ़ता या रोग या फूली । पुहुप (दे०)। पानी की रोक के लिये दीवार से लगा मिट्टी पुष्पक-संज्ञा, पु. (सं०) फूल, आंख की या इट का लालू टीला बाँध, मेड़। फूली, कुबेर का विमान जिसे रावण ने छीना पुश्ती संज्ञा, स्त्री. (फा०) सहारा, थाम, फिर रावण से राम ने छीन कर कुबेर को टेक, पृष्ठ-रक्षा, बडा तकिया, पत. सहायता। दे दिया। पुश्तैनी--वि० ( फा० पुश्त ) कई पीढ़ियों से पुष्प-चाप- संज्ञा, पु० यौ० (सं०) कामदेव चला पाने वाला, पुराना, पुश्त हा-पुश्त | पुष्पदंत संज्ञा, पु. यो० (सं०) वायु-कोण का का, आगे पीढ़ियों तक जाने वाला। दिग्गज, शिव-सेवक एक गंधर्व । पुष्कर- संज्ञा, पु० (सं०) पानो, तालाब, पुष्पधन्वा-संज्ञा, पु० यौ० (सं० पुष्पधन्वन् ) कमल, हाथी की संड का अग्र भाग, वाण, कामदेव, मदन, मनोज मनोभव । श्राकाश, युद्ध, साँप, भाग, पोहकरमूल | पुष्पध्वज-सज्ञा, पु० सं०, कामदेव । (औष०), चम्मच की कटोरी, सूर्य, सारस पुष्पपुर-संज्ञा, पु० (सं०) पटना (प्राची०) चिड़िया, एक दिग्गज, शंकर, विष्णु बुद्ध, पूष्पमित्र-संज्ञा, पु० (सं०) पुष्यमित्र राजा । ७ द्वीपों में से एक (१०), अजमेर के पास पुष्परज-संज्ञा, पु० यौ० (सं० पुष्परजस् ) एक तीर्थ-स्थान · यौ० पुष्कर-क्षेत्र। फूल की धूल पराग। . पुष्करणी संज्ञा, स्त्री० (सं०) छोटा तालाब। पप्पराग-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) पुग्वराज पुष्करमूल-संज्ञा, पु. (सं०) पोहकर मणि। "हरित मणिन के मंजु फल पुष्पराग मूल (औष०)। के फूल"--रामा। भा० श० को.--१४४ For Private and Personal Use Only Page #1157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - पुगरेणु पृग पुष्परेणु-संज्ञा, पु. यौ० (सं०) पराग! पुष्कर ) तालाब. जलाशय । “पुहुकर पुण्डपुष्पवती-वि० स्त्री० (सं०) ली हुई फूल- रीक पूरन मनु खंजन कलि पगे"-सूर० । युक्त. रजोवती, रजस्वला पहप-पुहुए -संज्ञा, पु० दे० ( सं० पुष्प ) पुष्पवाटिका-संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) फुल- फूल । " सुनिये विटप प्रभु पुहुप तिहारे वादी। “पुष्पवाटिका, बाग वन''- रामा०। हम"--श्रमीश० । पुरावाण- संज्ञा, पु० यौ० (सं०) कामदेव । पुहमी-पहुमी*---संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० भूमि) पुष्पवृष्टि-संज्ञा, स्त्री० यौ० सं०! फूलों की भूमि, पृथ्वी । वर्षा। "अवाङ्मुखस्योपरि पुष्पवृष्ठि '- रघु०। पुहुपराग-संज्ञा, पु० दे० (सं० पुष्पराग ) पुष्पशर-संज्ञा, पु० यौ० (स०) कामदेव । | पुष्पराग, पुखराज। पुष्पसार-संज्ञा, पु. (सं०) फूलों का मूल- पुहुपरेनु*-संज्ञा, पु० दे० यौ० (सं० तस्व, इतर । पुष्परेणु ) पराग। पुष्पांजलि-संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) फूल- पहबी---संज्ञा, स्त्री० (दे०) पृथ्वी (सं.)। भरी अंजुली, देवार्पित सुमनाञ्जलि। पँग न-पूँगीफल्त-संज्ञा, पु० दे० (सं० पुष्पिका-संज्ञा, स्त्री. (सं०) अध्याय के पूगीफल ) सुपारी, पूगीफल, प्रगफन । अन्तिम, समाप्ति-सूचक वाक्य जो इतिश्री पूँगी संज्ञा, स्त्री० (दे०) एक बाँसुरी, पेंगी। से प्रारम्भ होते हैं। -संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० पुच्छ । पुच्छ, पुष्पित-वि० (सं० विकम्पित, फूला हुआ। दुम (उ०), लांगूल, अंतिम भाग, पिछलग्गू, पुष्पिताग्रा-संज्ञा, स्त्री० सं०) एक अर्धसम | पुछल्ला उपाधि ( व्यंग्य ) ।। छंद (पि.)। पूँछतांछ पूलपाछ-संज्ञा, स्त्री० (दे०) प्रकपुष्पेषु-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) कामदेव। ना, जाँच पड़ताल, तहकीकात, दफ़्त । पुष्पोद्यान-संज्ञा, पु. यौ० (स०) फुलवाड़ी | पूँकना-पूछना-स० कि० दे० (सं० पुच्छण) पुष्य- संज्ञा, पु. (सं०) पोषण, पुष्टि. सार प्रश्न करना, दर्याप्त करना, जिज्ञासा करना, वस्तु, वाण की आकृति वाला ८ वाँ नक्षत्र | पोंछना, साफ़ करना। (ज्यो० ) तिष्य, पुस ( पौष मास । पूँजी--संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० पुब्ज ) धन, पुष्यमित्र-संज्ञा, पु० (सं०) मौर्यों के बाद संपति. जमा-जथा (दे०), व्यापार में लगा शुङ्गाज-वंश का स्थापक एक राजा (मगध)। धन, किसी विषय में योग्यता, समूह । पुसाना-अ० कि० दे० (हि० पोसना ) | पंजीदार--संज्ञा, पु० दे० ( हि• पूँजी+ पूरा पड़ना, शोभा देना, उचित जान पड़ना, दार-फा०) धनवान. रुपये वाला. महाजन । अच्छा लगना, बन पड़ना। प्रतीत-सज्ञा, पु० दे० यौ० (हि० पूँजी+ पुस्त*1-संज्ञा, स्त्री० (दे०) पुन (फ़ा०)। पति-- सं०) धनवान, रुपये वाला. महाजन, पुस्तक-सज्ञा, स्त्री० (सं०) किताब, पोथी। __ पूंजी रखने या लगाने वाला, पूंजीदार । स्रो० अल्पा-पुस्तिका। पूंट-- संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० पृष्ठ ) पीठ, पृष्ठ । पुस्तकाकार-वि• यो० (सं०) किताबनुमा प्रथा-पुत्रा--संज्ञा, पु० दे० (सं० पूप) (फा०) पोथी के रूप या बनावट का। मीठी पूड़ी, मालपुमा, अपप (सं.)। पुरु कालय-संज्ञा, पु० यौ० ( सं० ) कुतुब- प्रखन --- संज्ञा, पु० दे० (सं० पोषण) पोषण, खाना, (फ़ा०) लाईबेरी अं०) किताबों के पालन, पूषण (सं०) सूर्य । रखने का घर, पुस्तकों का संग्रहालय। । पूग-संज्ञा, पु० (सं०) सुपारी (वृत्त या फल) पुहकर-पुहुकर* - संज्ञा, पु० दे० (सं० समूह, राशि, ढेर, कम्पनी अं०) संघ, छंद । For Private and Personal Use Only Page #1158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रगना ११४७ पूतरी-पूतली पूगना-अ० क्रि० दे० ( हि० पूजना ) पूजना, । पूजित-वि० ( सं० ) अर्चित, पाराधित, पूर्ण या पूरा होना, मिलना, पास जाना पूजा किया हुआ । स्त्री० पूजिता । प्रगी-सज्ञा, स्त्री० द० सं० पूगफल, सुपारी | पूज्य–वि० (स.) पूजनीय । स्त्री० पूज्या। पूछ-संज्ञा, स्त्री० (हि. पूछना ) खोज, | पूज्यपाद-वि० यो० (सं०) अत्यन्त मान्य तलाश, जिज्ञामा, पादर, चाह, आवश्यकता या पूज्य. जिलके पैर पूजने योग्य हों, पिता पूछताछ -- संज्ञा, स्त्री० दे० (हि० पूछना ) गुरु आदि। जिज्ञापा, तलाश, खोज, तहकोकात, जाँच | पूठ-पूठा - सज्ञा, पु० (दे०) पृष्ठ (सं०) प्रकना-स० क्रि० दे० (स० पृच्छणा) टोकना, पुट्ठा, गाता, जिल्द । प्रश्न या जिज्ञासा करना, खोज-खबर लेना. पूाठ । सज्ञा, स्त्री० (दे०, पृष्ठ (सं०) शीठ । दरियाप्त करना. श्रादर या सत्कार करना, | पूड़ा-सज्ञा, पू० ( दे० ) (सं० पूप ) पूभा, ध्यान देना, गुण या मूल्य जानना । मुहा० | पुत्रा मालपुआ। -- बात न पूछना-अादर-सत्कार न | पूड:-सज्ञा, स्त्री० दे० (स. पूलिका ) पूरी। करना तुच्छ जान ध्यान न देना । यौ० संज्ञा, पूणा-पूना-सज्ञा, स्त्री० (दे०) रुई की स्त्री० (दे०) प्रकपाक-पूछताछ । पहल, पान (ग्रा.)। परी--संज्ञा, स्त्री० दे० ( हि० पूछ ) पूँछ । पूत-वि० (स०) शुद्ध पावन, शुचि । सज्ञा, पूराताका-पूछापाछी-सज्ञा, स्त्री० (दे०) | पु० (सं०) शंख, सत्य, श्वेत कुश, पूछताछ, पूछपाछ । तिल का पेड़, पलास । सज्ञा, पु० दे० (स. पूजक-सज्ञा, पु० (सं० ) पूजा करनेवाला | पुत्र ) पुत्र, लड़का, बेटा । " दृष्टि पूर्त पुजारी। निसेत्यादम्”- मनु। पूतन- संज्ञा, पु० (सं०) अर्चन, वन्दन, सत्कार पूतना सज्ञा, खो० (स०) एक राक्षसो जिसे श्राराधना सम्मान देव-सेवा । (वि० पूजक, | कंस ने बाल कृष्ण को मारने के लिये भेजा पूजनाय, पूज्य, पूजितव्य ।। था कृष्ण का इने विष-लिप्त स्तन पिलाये पूजना-२० क्रि० दे० (सं० पूजन ) देव देवी और कृष्ण ने दूध पीते पीते इसके प्राण की प्रसन्नतार्थ अनुष्ठान करना आराधना या खोंच लिये, बालरोग या ग्रह । " पूतना अर्चन करना, सम्मान या श्रादर करना, बाल धातिनी " भ० द०, “ यः पूतना रिशवत या घूस देना ( व्यंग्य ) । अ० क्रि० मारण-लब्ध-कीर्तिः"-। दे० ( पूर्यते) पूर्ण या पूरा होना, भरना. पूतनारि-पूतनारा-संज्ञा, पु० यौ० (सं.) चुकता होना, बीतना पटना, समाप्त हाना। श्री कृष्ण जी पूतना के शत्रु या बैरी । यौ० "पूर्जाह मन-कामना तिहारी"-रामा० | सज्ञा, स्त्री. ( हि० ) शुद्ध स्त्री। पूजनाय-वि० स०) अर्चना या पूजन योग्य, | पूतनासूदन--- सज्ञा, पु० यौ० (सं०) पूतना वदनीय, आदरणीय, सत्कार योग्य, पूज्य ।। के मारने वाले कृष्ण। पूजमान-वि० (दे०) पूज्य (सं.)। पूतरा-सज्ञा, पु० दे० (सं० पुत्रक ) पूजा-संज्ञा, स्त्री० (सं०) अर्चन, आराधन, पुत्र पुतला स्त्री० पूतरी । “ कागज कैसो देवी देवता के प्रति भक्तिमय समर्पण का पूतरा, सहजहि में धुलि जाय".--रही। भाव प्रगट करने का कार्य, अर्चा, श्रादर | पूतरो-पूतली-- सज्ञा, स्त्री० दे० (सं० पुत्रिका) सरकार, सम्मान, धर्माथ देवादि पर फल- पुतली, पुत्तरा, पुतरी । “ सूर पाजलौं फूलादि चढ़ाना या रखना, घूस, रिशवत, सुनी न देखी पात पृतरा पाइत'"-सूर० । अकोर, दंड, ताड़न, प्रसन्नतार्थ कुछ देना। "अत लूटि जैहो ज्यों पूत गत की।" For Private and Personal Use Only Page #1159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ema पूति ११४८ प्रति-संज्ञा, स्त्री० (सं०) दुर्गधि, पवित्रता। वि० (दे० ) पूर्ण (सं० ), वि० (सं.) प्रतिकणक-संज्ञा, पु. (सं.) कान का पूरा करने वाला, पुरक । वि० पूरणीय। रोग, कान पकना ( वै०)। पूरन-* वि० दे० ( सं० पूर्ण ) पूर्ण, पूरा । प्रतिगंधि-सज्ञा, पु० यौ० (सं०) दुर्गधि। पूरनपरब * संज्ञा, पु० दे० यौ० पूती- संज्ञा, स्त्री० (सं० पोत = गहा ) गाँठ (सं० पूर्ण + पर्वन् ) पूर्णमासी, अमावस्या रूपी जड़, लहसुन, प्याज । आदि, परा पर्व त्यौहार।। प्रताकृत-वि. यो. (सं०) पवित्रीकृत, पुरनपुरी-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० पूर्ण + शोधित, रक्षित। पूलिका पूरी हि० ) मीठी कचौरी। पून-सज्ञा, पु० दे० (सं० पुगय ) पुण्य, । पूरनमामी - संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० पूर्णदान । " जेहिकर चून तेहीकर पून"- मासी) पूर्णमासी, पूनो। घाघ । सज्ञा, पु० दे० (सं० पूर्ग. ) पूर्ण। पूरना ।-स० कि० दे० (सं० पूरण) पूनघ, पूनी-सज्ञा, स्त्री० दे० (सं० पूर्णिमा) पूर्ति या पूरा करना, कमी या त्रुटि को पूर्ण करना पूणिमा, पूर्णमासी पूनिउँ (प्रा.)। ढाँकना, ( इच्छा ) सफल या सिद्ध करना, "नित प्रति पूनो ही रहति" वि०। शुभावसरों पर भाटे या अबीर से चौक पूनी-पोनी-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० पिंजका) बनाना, देव पूजन के लिये वर्गादि बनाना. धुनी हुई रूई की मोटी बत्ती जिससे चरखे फैलाना या बटना, जैसे डोरा पूरना, बजाना, पर सूत काता जाता है। कना, जैले शंख पूरना। क्रि० अ० दे० पूना, पूनो । *- संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० (सं• पूर्ण ) भर जाना, परा हो जाना, गढ़े पूर्णिमा ) पूर्णिमा, पूर्णमासी, पूनव ।। आदि को भरना। पूप-संज्ञा, पु० (सं.) पुत्रा । यो० दंड-पूप पूरब-संज्ञा, पु० दे० (सं० पूर्व ) प्राची पूर्व, एक न्याय (तर्क०)। सूर्योदय की पूर्व दिशा। विलो. पूय-संज्ञा, पु० (सं० ) पीब, मवाद।। पच्छिम 1-1 वि० क्रि० वि०- पहले पुर-वि० दे० (सं० पूर्ण ) पूर्ण, किसी का, अगला, पुराना, पहले, भागे। 'तिनकहँ मैं परब वर दीन्हा"- रामा० । पकवान के भीतर भरने को मसाला या पूरबल, पुर्गबले * -- संज्ञा, पु० दे० अन्य पदार्थ, जैसे गोमिया में। वि० (सं.) (सं० पूर्व+ल-हि. प्रत्य० ) प्राचीन काल, जलसमूह, जल का प्रवाह, प्रवर्धन, जलधारा, " महादधेः पूर इवेन्दु दर्शनात् "- रघु० । पुराना समय, पूर्व या पहला जन्म । " कौन पुरबिले पाप तें"-गिर० पूरक-वि० (सं०) पूरा करने वाला । संज्ञा, पूरबला- वि० पु० दे० ( सं० पूर्व + लापु० (स.) प्राणायाम की प्रथम विधि जिसमें प्रत्य० ) पुराने समय का, पूर्व जन्म का, श्वास को भीतर की ओर बल-पूर्वक प्राचीन, पुराना । स्त्री० परवली। खींचते हैं (विलो. रेवक) : गुणक अंक पूरबी-वि० दे० (सं० पूर्वीय ) पूर्व दिशा (गणि० ) स्वास छोड़ना, बिजौरा नीबू , या पूर्व का. पूर्व दिशा या पूर्व संबंधी। संज्ञा, मृत्यु तिथि से दस दिन तक मृत व्यक्ति के पु० दे० ( सं० पूर्वीय ) पूर्व देश का एक लिये दिये जाने वाले १० पिंडे ( हिन्दू ।। | चावल, या तमाखू , विहार का एक राग पुरण- संज्ञा, पु० (सं०) (विलो० झरण) दादरा ( संगी० )। पूरा या समाप्त करना, भरना, अंकों का गुणा पुरा- वि० पु० दे० ( सं० पूर्ण ) भरा. परिकरना, पूरक या दशाह पिंड, वृष्टि, सागर। पूर्ण, समग्र, पूर्ण, भरपूर काफी, यथेष्ट, For Private and Personal Use Only Page #1160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पूरित पूर्तविभाग समूचा, संपन्न । (स्त्री० ... परी)। प्रणता-संक्षा, स्त्री० (सं०) पूर्ण होने का मुहा०—किमी बात का पूरा-जिपके भाव, पूरा होना । पूर्णव पास कोई वस्तु यथेष्ट या बहुत हो, दृढ़ मज- पूर्णत्र संज्ञा, पु० यौ० (सं०) किसी वस्तु बुन । मुह० किमी का प्रग पड़ना- से पूर्णतया भरा हुआ बर्तन हवन-सामग्री काम पूर्ण हो जाना और सामान न घटना, से भरा बर्तन ।। पूर्णकृत या पूर्णतया संप.दित, संपूर्ण । पूर्ण-प्रज्ञ--वि० यौ० (सं०) पूरा ज्ञानी। मुहा. - कोई काम पूग उतरना- सज्ञा, पु० पूर्णप्रज्ञ' -दर्शन के निर्माता यथेष्ट या यथायोग्य रूप में होना, भली | मध्वाचार्य । भाँति होना · बात का पूरा उतारना--- पूर्ण प्रशदर्शन--- संज्ञा, पु० यौ० (सं.) सत्य या ठीक होना । दिन पूरे करना-- वेदान्त दर्शन के सूत्रों के अाधार पर बना किसी भाँति कालक्षेप करना, वक्त बिताना, | हुआ एक दर्शन शास्त्र विशेष । समय बिताना काल काटना, पूरे दिनों से पूर्णभूत- सज्ञा, पु० यौ० (सं.) वह भुत होना । स्त्री का ) धासन्न प्रसवा होना. गर्भ काल जिसे बीते बहुत समय हो चुका के समय का पूरा होना। दिन पूरे होना- | हो ( व्या० )। अंतकाल का समय आना। "पुरा माहिब पूर्णमामा सज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) पूर्णिमा, सेइये, सब बिधि पूरा होय ',-कवीर० । चांद्र मा पका अंतिम दिन जब चन्द्रमा गांठ का पूरा-धनी। " लो०-आँख सब कलाओं से युक्त हाता है पूरनका अन्धा गाँठ का पूरा।" मासी. पूनो पुन्नवासी (दे०)। पूरित-वि० (सं०) भरा हुमा, पूरा, पूर्ण, पूर्ण विराम--सज्ञा, पु० यौ० (सं०) वाक्य गुणा किया हुया, संपन्न, तृप्त ।। के पूर्ण होने का चिन्ह (लिपि )। पूरा-ज्ञा, स्त्री० दे० ( सं० पूलिका । पूर्णातिथि-सज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) पंचमी, खौलते घी में पकी रोटी, पूड़ी, ढोज श्रादि दशमी, पूर्णिमा, अमावस्या तिथियां (ज्यो०)। के मुंह का गोल चमड़ा घार का छोटा प्रणायु - सज्ञा, स्त्री० यौ० (सं० पूर्णायुस ) पूरा । वि० स्त्री० (दे०) पूर्ण। पु० पूरा। पूरी श्रायु सौ वर्ष की आयु । वि०-सौ प्रण वि० (सं०) भरा हुआ पूरा, इच्छा- वर्ष पर्यंत जीने वाला। रहित पूण काम, तृप्त. यथेच्छ. भरपूर पर्याप्त, पूर्णावतार - सज्ञा, पु. यौ० (सं०) ईश्वर अडित, समस्त सिद्ध, समाप्त, सफल, या देवता क षोड्श. कला-युक्त पूरा अवतार। पूरण, पूरन (दे०) : यौ० -- पूर्ण काम - पूर्णाहुति-सज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) होम में जिसकी इच्छा पूर्ण हो गई हो. पूर्ण मनोरथ। अंतिम पाहुति, किसी काम का अंतिम कृत्य । पूणकाम-वि• यौ० (स०) जिसके सब पूणिमा -- सज्ञा, स्त्री० ( स० ) पूर्णमासी। मनोरथ पूरे होगये हों, कोई इच्छा शेष न पूणेोपमा-सज्ञा, स्त्री० यौ० ( स०) उपमा हो निष्काम कामना-रहित । अलंकार का एक भेद जि में उपमान उपपूर्ण कुंभ-सज्ञा, पु० चौ. (सं०) जल भरा । मेय, वाचक. और धर्म -गरों अंग प्रगट हों। घड़ा, मंगल-घट, पूरा कलम । पूर्त- संज्ञा, पु० ( सं० ) कुआँ बावली, देवपूर्णचंद्र- सज्ञा, पु० यो० (सं०) पूर्णिमा का मन्दिर, बाग, महक, धर्मशाला आदि का बनपूरा चन्द्रमा । "पूर्ण चन्द्र निभानना"---|वाना पालन। वि० पूरित. आच्छादित । पूर्णतः पूर्ण नया-क्रि० वि० (सं०) पूरी पूर्तविभाग---सज्ञा, पु० ( सं० ) सड़क आदि तरह से , पूरी तौर पर , पूर्ण रूप से। . के बनवाने का विभाग। For Private and Personal Use Only Page #1161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रति १९५० पूर्ववृत्त प्रति-संज्ञा स्त्री० [सं०) पूरापन, पूर्णता, पूर्व पुरुष - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) पिता, भरण, गुणन पूरण, कार्य का पूर्ण करना. पितामह, प्रपितामह आदि , प्रथम के समाप्ति कूपादि का उत्सग, कमी के पूरा लोग, पूवज, पुरखा। करने की क्रिया। पूर्व-काल्गुनी, प्रर्धाफलगानी-संज्ञा, स्त्री. पूध-संज्ञा पु० सं०) पूरब (दे०) प्राची दिशा, | (सं०) २७ नक्षत्रों में से ११ वाँ नक्षत्र । सूर्योदय की दिशा, (विलो०-पश्चिम) | पूर्व भाद्रपर-सज्ञा, पु० सं०) २७ नक्षत्रों वि० सं०) अगला या प्रथम का, प्रागे का, में से २५ वा नक्षत्र ज्या) पिछला पराना । क्रि० वि० पहले, प्रथम । पूर्व मीमांसा-सज्ञा, स्त्री. (सं०) महर्षि वि० यो. पूववर्ती वि० (सं०) पूर्वीय । जैमिनि कृत एक दर्शन (शास्त्र ) जिसमें कर्मपूर्वक-क्रि० वि० स० ) सहित, युक्त काण्ड का वर्णन है विलो० उत्तरमीमांसा)। पूवकाल-- सज्ञा, पु० यौ० सं०, प्राचीन | पृष-याप--- सज्ञा, पु० यौ० ( सं० ) प्रथम काल वि० पूर्वकालीन । या पहला पहर। पूर्व मालिकवि० यौ० (सं०, पूर्वकाल- पूर्व लिखित --- वि० यौ० सं०, पूर्व लिखित, सम्बन्धी, पूर्व काल का उत्पन्न, पहले प्रथम का लिखा हुश्रा, पूर्व-कथित पूर्वक्त । समय का। प्रवरंग-संज्ञा, पु० सं०) नाटकारम्भ से पूर्व पवकालिक-क्रिया-संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०)| विघ्न-शान्ति के लिये की गई स्तुनि या अपर्ण क्रिया का वह रूप जिसे मुख्य | वन्दना, दशकों को सजग करने के लिये गान। क्रिया से पूर्ववर्ती काल ज्ञात हो. इसका " पूर्व रंग प्रसगाय नाटकीयस्य वस्तुन. " चिन्ह के, कर, या कर के है (ब्र. भा०, पूर्व ग-सज्ञा, पु० यो० (सं०) सयोग से में धातु को इकारान्त करने से) कभी- पूर्व नायक-नायिका की विशेष प्रेमावस्था, कभीधातु ही इसका काय करता है (च्या० । प्रथम प्रम, प्रथमानुराग, पहला अनुराग, पूर्वज-सज्ञा, पु० (सं० ) पूर्व पुरुष, जो पूवानुराग ( काव्य.) प्रथम जन्मा हो . जैसे, बड़ा भाई, पिता, पूर्व-रूप-संज्ञा, पु. यौ० ( सं०) श्रागमदादा, परदादा आदि, पुरग्बा (दे०)। सूचक चिन्ह या लक्षण, श्राधार, किसी प्रवजन्म-सज्ञा, पु० यौ० ( सं० पूर्व जन्मन् ) | वस्तु का पूर्व प्राकार या रूप, उपस्थित पहले या पीछे का जन्म, जन्मान्तर । "पूर्व | होने से पूर्व प्रगट होने वाला वस्तु-लक्षण, जन्म-कृतं कर्म यद्दवमिति कथ्यते''-हितो । एक प्रथालकार जो किसी वस्तु क रूपान्तर पूर्व दिन-सज्ञा, पु० यौ० (स०) पहले का के बाद उसका प्राथमिक रूप सूचित करे । दिन, बीता दिन। पूर्ववत्-क्रि० वि० (सं०) प्रथम के तुल्य, पूर्व दश-सज्ञा, पु० यौ० (सं०) प्राची दिशा पहले की तरह, यथापू । सज्ञा, पु०-वह का देश । अनुमान जो कारण के देखने से कार्य के पूर्व पक्ष-संज्ञा, पु. यौ० (सं०) शङ्का, प्रश्न, विषय में उससे प्रथम ही किया जाय। विवाद का प्रथम पक्ष (न्या०) मुद्दई का दावा, | प्रवर्ती-वि० ( स० पूर्व वर्तिन ) प्रथम कृष्ण पक्ष ( अँधेरा पाख)। का, जो प्रथम रह चुका हो. पूर्व सम्बन्धी। प्रवपक्षी-सज्ञा, पु० यौ० ( सं० पूर्व पक्षिन ) पूवायु- सज्ञा, पु० यौ० सं०) पुरवा हवा, विवाद में प्रथम अपना पक्ष रखने वाला. प्रश्न पुरवैया. पुरवाई, पूर्वीय वायु ( सं० )। कर्ता, मुदई, दावादार। विलो. परपक्ष । | पूर्ववृत्त-सज्ञा, पु० यौ० (स०) इतिहास, वि० पूर्वपक्षीय, पूर्वपक्षा। पहिले का हाल । For Private and Personal Use Only Page #1162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पूर्ण ११५१ पृथिवी पूर्वा-- संज्ञा, स्त्री० (सं०) पूर्व दिशा, एक घास श्रादि का बंधा हुआ मुट्ठा । स्त्री. नक्षत्र । वि० पूर्वज पूर्व पुरुष । अल्पा---पूली। पूर्वानुरग्ग- संज्ञा, पु० यौ० (सं० किसी के पुष - संज्ञा, पु० दे० ( सं० पौष ) पूस या गुण-श्रवण चित्र दर्शन या रूप देखने से । पौष माप। उत्पन्न प्रेम पर्वराग प्रेम की प्रथम जागृति, पृषण-संज्ञा, पु. (सं०) सूर्य पशुओं का पूर्वानुक्ति। पालन पोषण करने वाला एक देवता वेद) पूर्वापर-कि. वि. यौ० (सं.) आगे- १२ आदित्यों में से एक। पीछे। वि० आगे-पीछे का पिछला-अगला । पृषा--संज्ञा, पु० (सं०) सूर्य, पोषक, पूषण । पूर्वापरय--सज्ञा, पु० यौ० (सं०) पूर्व पर " स्वाधीनः पूषा विश्ववेदाः "... यजुर्वेद । का भाव, प्रागा-पीवा। पस-संज्ञा. पु० दे० ( सं० पौष ) अगहन के पूर्वाफालानी .... संज्ञा, स्त्री० यौ० सं०) २७ बाद का चांद्र माम, पौष ।। नक्षत्रों में से ११ वाँ नक्षत्र। पृक्का-संज्ञा, स्त्री० (सं०) असबरंग । पृक्ष-संज्ञा, पु० (सं०१ अन्न, अनाज । पूर्वाभाद्रपद --संज्ञा, पु० यौ० (सं०) २७ | नक्षत्रों में से २५ वा नक्षत्र पृच्छक- वि० (सं० ) प्रश्न-कर्ता, पूछनेपूर्वाभिमख -- संज्ञा, पु० यो० (सं० ) पूर्व वाला, जिज्ञासु। दिशा की ओर मुख । वि० पूर्वाभिपुखी। पृच्छा - संज्ञा, स्त्री० (सं०) जिज्ञासा प्रश्न, पूर्व पक्ष । पूर्वाभ्याम-- संज्ञा, पु. यो० (सं०) प्रथम पृतना संज्ञा, स्त्री० (सं०। युद्ध, सेना, या पहले का अभ्याप. पहले की बान। फौज का एक भाग जिम में २४३ हाथी, पूर्वाद्ध-सज्ञा, पु० यौ० (सं०) प्रारम्भ या इतने ही रथ, ७२६ घोड़े और १२१५ पैदल प्रादि प्रथम या पहले) का श्राध, भाग । सैनिक रहते हैं। ( विलो०-१रार्ध उत्तरार्ध)। पृथक- वि० (सं०) विलग, जुदा, भिन्न, पूर्धावधि-वि० यौ० (स०, पूर्वकालावधि, | पृथक् । ( संज्ञा, स्त्री० पृथक्तों ) चिरकाल पर्यन्त पृथक्करण--- संज्ञा, पु० यौ० सं०) भिन्न २ पूर्वावस्था-सज्ञा, स्त्री० यौ० (सं० ) प्रथम | या अलग २ करने का कार्य । या पहले की अवस्थ या दशा। पृथकक्षेत्र-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) भिन्न वर्ण पूर्वाषाढ़ा-संज्ञा, स्त्री. (सं०) २७ नक्षत्रों | की स्त्री से उत्पन्न पुत्र । में से २० वाँ नक्षत्र । पृथगामा- सज्ञा, स्त्री यौ० (सं०) वैराग्य, पव-संध्या - संज्ञा, स्त्री० यौ० सं०) प्रभात। विवेक, विराग पूर्वार--- संज्ञा, पु० यौ० (सं०) सबेरे से दो पृथगजन-संज्ञा, पु. यौ० सं०) साधारण पहर तक का समय ( विलो०-पराह्न)। या अन्य लोग, मुर्ख, नीच पापो, प्राकृत । पूर्वी वि० दे० (सं० पूर्वीय ) पूरब का, पृथििध-- अल्प. यौ० (सं०) नाना प्रकार, पूर्व दिशा संबंधी । संक्षा, पु० (दे०) पूर्व देश अनेक प्रकार. विविध, बहुरूप । का चावल, या नम्बाकू एक दादरा पृथवी.निधी पृथ्वी- सज्ञा, स्त्री. ( सं० ) (विहारी भाषा का गीत )। भूमि, मेदनी वसुधा अनि वसुन्धरा। प्रवेक्ति वि० यौ० (सं०) प्रथम कथित, पृथा-सज्ञा, स्त्रो० (सं०) कुंतिभोज की कन्या पहले का कहा हुआ. मजकूर (फ्रा)। कंती । सज्ञा, पु. ( अपत्य० सं० ) पाथ। पूला, परा-सज्ञा, पु० दे० ( सं० पूलक) पृथिवी-सज्ञा, स्रो० सं०) भूमि, धरती। For Private and Personal Use Only Page #1163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कुवड़ा। पृथिवीश ११७२ पृथिवी-संज्ञा, पु० (सं०) राजा। पृषदश्व-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) पृषत् अश्व, पृथु-वि० (सं०) विस्तृत. महान, गैडा. पवन वायु, एक राजा (पुरा०) विशाल, असंख्य. चतुर । संज्ञा, पु० (सं०) पृषादर--वि० पु. यौ० (सं० पृषत् + उदर) विष्णु, अग्नि, शिव, राजा वेणु का पुत्र पृष्ट-वि० (सं०) पूछा हुआ. प्रश्न किया । एक विश्वेदेव । वि. अधिक यशी। पृष्ठ - संज्ञा, पु० (सं०) पीठ (दे०) किसी पृथक-संज्ञा, पु० (सं०) चिउड़ा। पदार्थ का ऊपरी तल, पीछे का अंग या भाग, पृथुता-संज्ञा, स्त्री० (सं०) चौड़ाई, विस्तार । किताब के पन्ने ( पन्ने ) के एक ओर का पृथुमा-संज्ञा, पु. ( सं० पृथु - रोमन ) तल, सफा, पन्ना, पत्रा। मछली बड़े रोवों वाला। वि० (स०) मोटा, पृष्ठ थि-सज्ञा, पु. चौ० (सं०) कुब्ज, बड़ा. अति विस्तृत । पृथुशिधा--संज्ञा, पु० सं०) लौना वृक्ष । पृष्ठता संज्ञा, स्त्री० (सं०) पीठ की ओर। पृथदक-संज्ञा, पु० (सं०, एक तीर्थ । पृष्ठपोषक-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) सहायता प्रथदर-संज्ञा, पु. ( सं०), भेड़, भेड़ा। या मदद करने व ला, सहायक, पीठ ठोकने वि० यौ० (सं०) बड़े पेट वाला। वाला । संज्ञा, पु० (सं०) पष्ठ पोषण । पृथ्वी-संज्ञा, स्त्री० (सं०) इला. श्रवनि, धरा, | पृष्ठ-भाग-संज्ञा, पु० यौ० सं०' पीठ, पुश्त, सौर जगत में हमारा ग्रह धरती. भूमि, पीछे का खंड या भाग पिछला हिस्सा। गंध गुण प्रधान (रूप रम, गंध, स्पर्श गुण- पृष्ठ-वंश-संज्ञा, पु. यौ० (सं०) पीठ या यक्त पाँच तत्वों में से अंतमि तत्व, भूमि रीढ़ की हड़ी, रीढ़ मेरु-दंड । का मिट्टी-पत्थर वाल ऊपरी ठोस भाग, | पृष्ठ ब्रण-संज्ञा, पु. यौ० (सं०) पीठ का मिट्टी, १७ वर्णों का एक वृत्त (पिं०) मोडाया पाव मुहा०-देखो - जमीन"। पुष्ठास्थि- संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) पीठ की पृथ्वीका- संज्ञा, स्त्री. (सं०) बड़ी इला हड्डी, मेरुदंड, रीढ़ यची, स्याह जीरा, कलौंजी। पेंग, पंग-संज्ञा स्त्री० दे० ( पेटेंग ) झूलते पृथ्वीतल संज्ञा, पु० यौ० (सं०) धरानल, समय झूले का इधर-उधर जाना, पोंग (दे०)। भूमि का ऊपरी तल जमीन की सतह, महा.-पेग मारना-झूले को ज़ोर से संसार, भूमंडल. भूतल । चलाना। पृथ्वानाश-संज्ञा, पु. यौ० (सं.) राजा। पृथ्वीपति संज्ञा, पु० यौ० (सं०) राजा ।। पैंग-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. पटंग ) फूले पृथ्वीणल, पृथ्वीगतक-संज्ञा, पु० यौ० का हिलना, एक पक्षी। (सं० राजा। ऐठ पैंठ-सज्ञा. स्त्री० (दे०) हाट, बाजार, पृथ्वीराज-संज्ञा, पु० यौ० (स०) भारत का मंडी। " लेना हो सो लेय ले, उठी जाति अंतिम वीर राजपूत राजा (१२ वीं शताब्दी)। है पेंठ"-कबी० । प्रश्न सज्ञा. सी० (सं०) सुपत राजा की पेंडकी-संज्ञा, स्त्री० दे० ( ( सं. पंडुक ) रानी. चितकबरी गाय , किरण, पिथवन | पंडुक चिड़िया, काख़्ता (फा० ) पंडुकी या पिठवन (औष०)। सुनारों की फुकनी । लक्षा, स्त्री० (प्रान्ती.) पृषत्-संज्ञा, पु० (सं०) विन्दु. कण, श्वेत । गुझिया । लो. बाप न मारी पेंडुकी विन्दु-युक्त मग, एक राजा (पुरा०)। बेटा तीरंदाज। पृषत्क-संज्ञा, पु० (सं०) वाण तीर शर। । पैदा-संज्ञा, • पुदे० (सं० पिंड ) तला, For Private and Personal Use Only Page #1164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ११५३ तल, नीचे का भाग जिस पर कोई वस्तु (स्त्री० पेचिका), जूं, उल्लू पक्षी, बादल, ठहरे । स्त्री. अल्पा० -दी। पतंग। पेई -संज्ञा, स्त्री० (दे०) पिटारी, पेटी। पेचकश-पेंचकश-संज्ञा, पु० यौ० (फा०) पेउसरी, पेउसी-संज्ञा, स्त्री० द० (सं० | कीलों के जड़ने या उखाड़ने का यन्त्र, पीयूष) इंदर (प्रान्तो० ) एक तरह का पक- (बढ़ई, लोहार), शीशी या बोतल के काक वान, पेवत (ग्रा० ) व्यायी गाय-भैंस निकालने का घुमावदार यन्त्र । के दूध की पनीर। | पेच-ताब- संज्ञा, पु० (फ़ा) मन के भीतर पेखक * --संज्ञा, पु० ० (सं० प्रेक्षक ) ही रहने वाला क्रोध । दर्शक, देखने वाला, स्वांग बनाने वाला, पेचदार-वि० (फ़ा०) पंचोला, जिसमें पेंच क्रीड़ा या खेल-तमाशा करने वाला। या कल हो। पेखना *-स० कि० दे० (सं० प्रेक्षण) पेचवान- संज्ञा, पु. ( फ़ा० ) बड़ा हुक्का, देखना, स्वाँग बनाना, क्रीड़ा या खेल- या उसकी बड़ी लम्बी लचीली सटक। तमाशा करना । 'जग पेखन तुम देखन- पेचा-संज्ञा, पु० दे० (सं० पेचक ) उल्लू हारे”-रामा०। स० कि० पेखाना, पक्षी । स्त्री० पेची।। प्रे० रूप पेखवाना। पेचिश-संज्ञा, स्त्री० (फा०) प्रामापेखनिया-संज्ञा, पु० दे० ( हि० पेखना ) तीसार, मरोड़, आँव के दस्तों की बीमारी स्वांग करने वाला, बहुरूपिया, दर्शक। या पीड़ा। पेखवैया-संज्ञा, पु० दे० (हि० पेखना - वैया | ... पेचीदा-वि० (फा०) पेंचदार, कठिन, चक्करदार, जटिल, टेढ़ा-मेढ़ा। संज्ञा, स्त्री. -प्रत्य०) देखने वाला, देखवैया, प्रेक्षक । पेचीदगी। पेखित-वि० दे० (सं० प्रेषित) भेजा हुआ। पेचीला-वि० (फ़ा०) पेंचदार, पेंचीदा। पेखिय- क्रि० दे० ( हि० पेखना ) देखिये। पेज-संज्ञा, स्त्री० दे० ( सं० पेटा ) रबड़ी पेच-पेंच-संज्ञा, पु० (फा०) चक्कर, घुमाव, बसौंधी प्रान्ती०) । संज्ञा, पु० (अं०) पृष्ट, झंझट, बखेड़ा, उलझन, झगड़ा, चालाकी, सका। धूर्तता, पगड़ी की लपेट, कल, मशीन, पेट-संज्ञा, पु. (सं० पेट थैला) उदर, यन्त्र, मशीन का पुरज़ा, श्राधी दूर तक | जठर, देह में भोजन पचने का थैला। 'रहिलकीर या चक्करदार काँटा या कील, | मन कहते पेट सों, क्यों न हुआ तू पीठ" स्क्रू (अं०) उड़ती हुई पतंगों की डोरियों की -रहीम । मुहा०-पेट पाना - पेट परस्पर की उलझन, कुश्ती में दूसरे के पहाड़ने चलना, अतीसार होना। पेट काटनाकी युक्ति, तदवीर, तरकीब, टोपी या पगड़ी बचत के लिए कम खाना । पेट का धंधा के आगे लगाने का सिरपंच (श्राभूषण), -जीविका का उपाय या काम । पेट का गोशपेंच ( कर्णभूषण ) । यौ० दांव-पंच ।। (में ) पानी ना पचना--रह न सकना, मुहा० --पेंच घुमाना-किसी के विचार गुप्त बात प्रगट कर देना। पेट का हलका बदलने की युक्ति करना। पंच की बात- | -पोछे स्वभाव या क्षुद्र प्रकृति का। गूढ़ या मर्म की बात । वि० पंचदार, पेट का पानी न हिलना-बेकार बैठा पेंचोदा, पंचीला। रहना, हिलना-डुलना नहीं। पेट का पेचक- संज्ञा, खी० (फा०) बटे तागे की काला (मेला)-धोखा देने वाला, कपटी, लच्छी या गुच्छी, गोली । संज्ञा, पु० (सं०)। नीच हृदय वाला । पेट की आग-मुख । भा० श. को०-१४५ For Private and Personal Use Only Page #1165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org पेट 1 पेट को बात - छिपा भेद, भेद की बात, मर्म, सच्चा रहस्य इरादा । पेट को दुख देना ( दुग्बाना ) -- पेट भर न खाना । पेट की आग-भूख । पेट की आग बुझाना - भोजन करना, खाना। पेट खलानाबहुत दीनता दिखाना, भूखे होने का संकेत करना । पेट गड़बड़ाना - पेट में पीड़ा या दर्द होना | पेट गिरना ( गिराना ) - गर्भपात या गुप्त भेद होना ( करना) । पेट खोलना पेट की बात बताना | पेट चलना -- प्रतीसार होना, दस्त आना, रोजी चलना, निर्वाह होना पेट जलना - बहुत भूख लगना । पेट दिखाना - दीनता प्रगट करना । पेट दुखना - पेट में दर्द होना । पेट देना - मन का भेद खोलना, मार्मिक बात बताना । पेट पालना- किसी प्रकार निर्वाह करना, दिन काटना। पेट का पीठ से लगना, (पेट-पोठ एक होना) - दुर्बल या पतला होना, भूखा होना । पेट पोंछना - सबसे अन्तिम संतान होना । पेट पोंसू - पेटू. खाऊ । पेट फूलना - गर्भवती होना ( स्त्री के लिए), बहुत उत्सुकता या हँसी के कारण पेट में हवा भर जाना, अफ़रा या पेट में वायु का प्रकोप हो जाना | पेट ( बढ़ना) बढ़ाना ( पेट बढ़ा होना ) -- प्रति लालच या लोभ ( होना ) करना । पेट बांधना - कम खाना । पेटभरना - श्रधा जाना, तृप्त होना, रूखा-सूखा भोजन करना, आवश्यकता न होना, अधिक बेस्वाद खाना | पेट मारना या मार कर मर जाना - श्रात्मघात करना । पेट मारना -- श्रात्मघात करना, किसी की जीविका नष्ट करना । पेट में दाढ़ी होना-लड़कपन ही में बहुत चतुर होना । पेट में डालना ( के हवाले करना) (पेट को भेट या अर्पण करना) -खा जाना । रु काँची ही पेट को भेंट करी है " । पेट में पानी होना- 16 १९५४ पेटक भोजन का ठीक पाचन न होना। पेट में पाँव होना - बहुत कपटी या छली होना, चालाक या चालबाज़ होना (कोई वस्तु ) पेट में होना - गुप्त रूप में या छिपे तौर पर होना । पेट से पांच निकालनाबहुत इतराना, बुरे पंथ में लगना । पेट में पैठना - बड़े मित्र बनना, भेद लेना । पेट में रखना - खा लेना, किसी बात को गुप्त ( अपने ही अन्दर ) रखना | पेट से न निकालना -- -- न कहना । पेट में लेना -- सहना, झेलना | पेट में हाय समाना - शोक या भय से अति प्रभावित होना । पेट लग जाना - भूखों मरना । पेट लग रहना -- भूखे रहना । पेट लेना ( जानना ) --- भेद लेना ( जानना ) | पेट से सीखना स्वभावतः सीख नाना । पेट हड़बड़ाना - पेट-रोग होना । संज्ञा, पु० (दे०) गर्भ, हमल । लां०- "दाई से पेट छिपाना"- ज्यों दाई सो पेट " । पेट गिरना ( गिराना ) - गर्भपात होना या कराना ( करना ) । मुहा० - पेट रहना - गर्भ या हमल रहना । वि०-पेटवाली - गर्भवती । मुहा० - पेट से होना ( पेट होना ) गर्भवती होना । भोजन के रहने और पचने की थैली, पचौनी, श्रोभरी ( प्रान्ती०) अंतःकरण, मन । मुहा० - पेट में क्या है - मन में क्या है। पेट देखनामन देखना। मुहा० - पेट गुड़गुड़ाना-वायु-दोष से पेट में शब्द होना । मुहा०पेट में घुसना - गुप्त भेद जानने को मेल बढ़ाना | पेट में बैठना या पैठना- गुप्त भेद जान लेना । पेट में होना -- मन में या ज्ञान में होना । पोली चीज़ के बीच का भाग, समाई, गुंजाइश, जीविका, भोजन । मुहा० - पेट के लिये (कारण) रोजी या जीविका के अर्थ या हेतु । " Q- 1 पेटक- संज्ञा, पु० (सं०) मंजूषा, पिटारा, समूह, राशि ! Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private and Personal Use Only ― --- Page #1166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - - - पेटका, पेटकया पेश पेटका, पेटकैया–क्रि० वि० दे० ( हि० | पेड़- संज्ञा, पु० दे० (हि. पेट ) उपस्थ, पेट-+- का, कैया---प्रत्य० ) पेट के बल। गर्भाशय, नाभि और लिंग के बीच का स्थान । पेटा-संज्ञा, पु० दे० ( हि० पेट ) बीच या पेन्हाना-पिन्हाना-स. क्रि० दे० (हि. मध्य का भाग, व्योरा, पूर्ण विवरण, सीमा, पहनाना ) पहिनाना । अ० कि० दे० (सं० घेरा, वृत्त, भेद, मर्म । मुहा०- पेटा न | पयः खवन ) गाय आदि के थनों में दुहते मिलना ( पाना)-भेद न जान पाना । समय दूध उतरना, पल्हाना (ग्रा०)। बड़े पेट का होना-बड़े घेरे का या पेम -संज्ञा, पु० दे० (सं० प्रेम ) प्रेम । सामर्थ्य का होना, धनी होना। पेमी-वि० दे० (सं० प्रेमिन ) प्रेमी। पेटागि-संज्ञा, स्त्री० दे० यौ० (सं० पेट + पेय-वि. (सं०) पीने के योग्य । संज्ञा, पु. अग्नि ) भूख, जठराग्नि । (सं०) पीने की चीज़, दूध, पानी आदि । पेटारा-संज्ञा, पु० दे० (हि० पिटारा) | पेरना-ल. क्रि० दे० (सं० पीडन ) किसी पिटारा. पेटार (ग्रा०)। वस्तु को ऐसा दबाना कि उसका रस निकल पेटार्थी, पेटार्थ (दे०) वि० (सं० पेट + श्राये, कष्ट या दुख देना, सताना, किसी भर्थिन् ) जो व्यक्ति केवल पेट भरने को ही | कार्य में बड़ी देरी करना । स० क्रि० दे० सब कुछ जानता हो, पेटू, भुक्खड़,। ( सं० प्रेरणा ) प्रेरणा करना, लगाना, पेटिका-- संज्ञा, स्त्री० (सं०)पेटी, संदूक.पिटारी। पठाना, भेजना, चलाना । पेराना-द्वि० क०, पेटिया--संज्ञा, पु० दे० ( हि० पेट +- इया पेरवाना-प्रे० रूप । प्रत्य० ) प्रतिदिन का भोजन या भोजन की सामग्री। पेरू-संज्ञा, पु० (दे०) विलायती मुरगी। पेलना-स० क्रि० दे० ( सं० पीडन ) धक्का पेटी-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० पेटिका ) छोटी देना. ठेलना, ठूसना, धसाना, हटाना, संदूक, पिटारी, कमरबन्द, कमरकस, चपरास, छाती और पेड़ का मध्यवर्ती भाग, ठासना घुसेडना, प्रविष्ट करना. तेल निकालना, दबाना, त्यागना, अवज्ञा करना. तोंद, नाइयों की छुरा आदि रखने की टाल देना, फेंकना, बल प्रयोग करना, किसबत । मुहा०- पेटी पड़ना-ताद पेरना (ग्रा.)। "आयो तात वचन मम निकलना। पेली"-रामा० । स० क्रि० दे० (सं० प्रेरण) पेट्र-वि० दे० (हि० पेट ) अधिक खाने आगे बढ़ाना। द्वि० क्रि०-पेलाना, वाला, बड़ा भुक्खड़, पेटार्थी । पेटौखा- संज्ञा, पु० दे० (हि० पेट ) पेट प्रे० रूप-पेलवाना। रोग, अतीसार, प्रामातिसार, उद्वेग।। पेला -संज्ञा, पु० दे० ( हि० पेलना ) पेठा-संज्ञा, पु० (दे०) सफेद कुम्हड़ा उससे झगड़ा, अपराध, धावा, आक्रमण, चदाई । बनी मिठाई। पेलने का भाव । स्त्री० पेली। पेड़-संज्ञा, पु० दे० (सं० पिंड ) वृक्ष, तरु।। पंध-संज्ञा, पु० (दे०) प्रेम। पेड़ा-संज्ञा, पु० दे० (सं० पिंड ) खोवा की | | पेवस-पेधमरी, पेघसी- संज्ञा, स्त्री० दे० कड़ी गोल चिपटी मिठाई, आटे की लोई।। (सं० पीयूष ) हाल की व्यायी गाय । पेड़ी-संज्ञा, स्रो० दे० ( सं० पिंड ) पेड़ का भैंस का कुछ पीला गाढ़ा दूध । धड़ या तना, कांड, पान का पुराना पौधा. पेश-क्रि० वि० (फा० ) धागे, सामने । या उसका पान, प्रति वृक्ष पर लगाया हुआ | मुहा०-पेश आना-व्यवहार या बर्ताव कर या महसूल, मनुष्य का धड़। करना, सामने आना, घटित होना । पेश For Private and Personal Use Only Page #1167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पेशकार करना-आगे या सामने रखना, दिखाना, । पेशावर-संज्ञा, पु. ( फा०) व्यवसायी, भेंट करना। पेश जाना या चलना- व्यौपारी, रोजगारी, एक शहर (पंजाब)। वश या बल चलना। पेशी- संज्ञा, स्रो० (फा०) सामने होने की पेशकार-संज्ञा, पु. ( फा०) पेस्कार क्रिया, मुकदमें की सुनवाई । संज्ञा, स्त्री० (दे०) एक कर्मचारी जो हाकिम के सामने (सं०) तलवार का म्यान, वज्र, गर्भाशय, काग़ज रखे। संज्ञा, स्त्री० पेशकारी-पेश- बच्चेदानी, शरीर की मांस की गिलटियाँ, कार का काम। या गाँठे। पेशखेमा-संज्ञा, पु. (फ़ा०) फौज़ का आगे | पेश्तर-क्रि० वि० ( फा० ) प्रथम, पहले । भेजा जाने वाला सामान, अग्रसेना, हरावल पेषण-संज्ञा, पु० (सं०) पीसना । वि० (प्रान्ती०), घटनादि का पर्व लक्षण ! पेषक, पेषित, पेषणीय । पेशगी-संज्ञा, स्त्री० (फ़ा०) अगाऊ, अगौड़ी, पेषना-क्रि० स० दे० (सं० पेषण ) पेखना। प्रथम (आगे), दिया धन, पेसगी (दे०)। पेस* --- क्रि० वि० (दे०) (फा०) पेश, श्रागे । पेशतर-क्रि० वि० ( फ़ा० ) प्रथम, पूर्व। पेहँटा- संज्ञा, पु० (दे०) कचरी नामकलता पेशबंदी-संज्ञा, स्त्री. (फा० ) प्रथम या और उसके फल, सेंधिया. ( प्रान्ती.) पूर्व से किया हुश्रा प्रबन्ध या बचाव की | पंजनी, पैजनियाँ - संज्ञा, स्त्री० (हि० पायं-- युक्ति, भूमिका । अनु० झन-झन) पायजेब, पैर का बजनेवाला पेशराज-संज्ञा, पु० (फा० पेश+राज = घर गहना। 'चूनरि बैजनी पैंजनी पायन"--द्वि०। बनानेवाला हि०) इंट-पत्थर ढोनेवाला मजदूर। पैंठ - संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० परायस्थान ) हाट, पेशवा-संज्ञा, पु० (फा०) पेवा (दे०) सर दुकान, बाजार, बाजार का दिन। "लेना हो दार, नेता, अगुवा, प्रधान मन्त्री की उपाधि सो लेय ले, उठी जात है पैंठ"--कबी। (महाराष्ट्र राज्य में )। पैठौर-संज्ञा, पु० दे० ( हि० पैंठ-+ठौर) पेशवाई-संज्ञा, स्त्री० (फा०) किसी बड़े दूकान, वाज़ार या दुकान का स्थान । आदमी का आगे बढ़ कर स्वागत करना, । पैड-पंडा-संज्ञा, पु० दे० (हि० पाय+ पेसवाई (दे०) अगवानी। संज्ञा, स्त्री० ड-प्रत्य०)मार्ग, पंथ, रास्ता, डग, कदम । (हि. पेशवा+ई-प्रत्य०) पेशवा का मुहा०-पैंड़े परना-पीछे पड़ना, बारम्बार कार्य या पद, पेशवा की शासन-प्रणाली। तंग करना । घुड़साल, प्रणाली। पेशवाज़-संज्ञा, स्त्री० (फ़ा०) नाचते समय पैंत -संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० पणकृत) पहिनने की वेश्याओं की पोशाक या घाँघरा। दाँव, बाजी। पेशा-संज्ञा, पु० ( फा०) उद्यम, रोज़गार, पैंती-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० पवित्र ) ब्यवसाय, जीविकोपाय। श्राद्धादि के समय अँगुलियों में पहिनने पेशानी-संज्ञा, स्त्री० (फ़ा०) माथा, ललाट, । के कुश के छल्ले, पवित्री, पँइती (ग्रा०), मस्तक, भाग्य। दाल, (प्रान्ती. ) पॅहिती। पेशाब-संज्ञा, पु. (फा०) पेसाब (दे०) पै-*-श्रव्य० दे० (सं० पर ) पर, परंतु, मूत्र, मूत (दे०) । मुहा०-पेशाब करना। लेकिन, अवश्य, निश्चय, पीछे, बाद । "जो -मूतना, हेय या तुच्छ समझना । पेशाब पै कृपा जरै मुनि गाता"-- रामा० । यौ.. से चिराग जलना-बड़ा प्रतापी होना। जोपै- यदि, अगर । ( विलो०-तो-तो पेशाबखाना-संज्ञा, पु० (फा०) मूत्रालय, फिर -करण और अधिकरण, की विभक्ति मूतने की जगह। (ब्र० भा०) पर, से । “मोपै निज भोर For Private and Personal Use Only Page #1168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पैकरमा १९५७ पैरवी सों न जात कछु कही है"-दास । से । वि० पैदली । संज्ञा, पु. (दे०) पैदल उस दशा या अवस्था में । (हि० पह) पास, सिपाही । पदाति (सं०) पद-चरण, शतरंज निकट, प्रति, श्रोर । प्रत्य० दे० (सं० उपरि) में एक छोटा मुहरा। ऊपर, पर, से, द्वारा । संज्ञा, स्त्री० दे० पैदा-वि० फा०) प्रसूत, उत्पन्न, प्रगट, (सं० आपत्ति ) ऐब, दोष । संज्ञा, पु० दे० प्राप्त, कमाया हुआ, उपार्जित, प्रभूत । (सं० पय) दूध, पानी। * संज्ञा, स्त्री० (दे०) आय, लाभ, श्रामदनी । पैकरमा* -संज्ञा, स्रो० (दे०) परिक्रमा पैदाइश-संज्ञा, स्त्री० [फा०) जन्म, उत्पत्ति । (सं०) परिकरमा (ब)। पैदाइशी-वि० (फा०; जन्म का, प्राकृतिक । पैकार--संज्ञा, पु. (फा०) छोटा व्यापारी, पैदावार--संज्ञा, स्त्री० (फा०) खेत से अन्नादि फेरी लगा कर फुटकर सौदा बेंचने वाला। की उपज, फसल । पैखाना-संज्ञा, पु० दे० (फा० पाखाना), पैना-वि० दे० (सं० पेगा ) तेज़, बारीक पाखाना, टही, मैला, मल त्याग का स्थान । नोक या धार वाला। संज्ञा, पु० (दे०) पैग़म्बर- संज्ञा, पु. (फ़ा०) परमेश्वर का औगी (प्रान्ती०), बैल हाँकने की लोहे की दूत या संदेशवाहक । जैसे-मुहम्मद, ईसा। नोकदार छोटी छड़ी। स्त्री० पैनी । पैज* -- संज्ञा, स्त्री० दे० ( सं० प्रतिज्ञा ) प्रण, पैमाइश-संज्ञा, स्त्री० (फा०) माप, नाप, पण, (व०) हठ,प्रतिज्ञा, टेक, अहद, होड़। माप की क्रिया या विधि । पैजामा-संज्ञा, पु० (दे०) पायजामा (फ़ा०)। पैमाना-संज्ञा, पु० ( फा० ) मानदंड, नापने पैजार - संज्ञा, स्त्री० ( फा०) जूता, जोड़ा, का यंत्र या साधन, शराब का गिलास । जूती। यौ०-जूती-पैजार (होना)--जूते पैमाल-वि० दे० ( फ़ा० पामाल ) की मार-पीट होना, जूता चलना, लड़ाई- पामाल, नष्ट। झगड़ा होना। पैंयाँ-संज्ञा, स्त्री० दे० (पाँय ) पैर, पाँव । पैठ-संज्ञा, स्त्री० दे० ( सं० प्रविष्ट ) प्रवेश, यौ० क्रि० वि० पैयाँ-पैयाँ-- पैर-पैर । गति, पहुँच, दखल, पैठने का भाव । पैया-संज्ञा, पु० दे० ( सं० पाय्य = निकृष्ट ) पैठना-अ० क्रि० दे० (हि० पैठ । ना बिना सत का अनाज का दाना, खोखला, प्रत्य० ) प्रविष्ट होना, प्रवेश करना, घुसना। खुक्ख, दीन-हीन, निर्धन ।। स० रूप-पैठाना, प्रे० रूप-पैठवाना। पैर-संज्ञा, पु० दे० ( सं० पाद ) जीवों के पैठार* -संज्ञा, पु० दे० ( हि० पैठ+ पार | चलने का अङ्ग, पाँव, धूलि पर पड़ा पद--प्रत्य०) प्रवेश, पैठ, फाटक, पहुँच, गति। चिन्ह । मुहावरों के लिए देखो “पाँव"। स्त्री० पैठारी-पहुँच, गति । पैड़ी-संज्ञा, स्त्री० दे० ( हि० पैर ) सीढ़ी। पैरगाड़ी-संज्ञा, स्त्री० ( हि०) साईकिल, - ट्राइसिकिल, बाईसिकिल, (अ.) बैठ कर पैर पैतरा - संज्ञा, पु० दे० ( सं० पदांतर ) कुश्ती | से दबाने पर चलने वाली हलकी गाड़ी। या युद्ध में खड्ग चलाने में पाँव रखने की। रीति या मुद्रा, वार करने का ढंग। परना-ग्र० क्रि० दे० ( सं० प्लावन ) तैरना । पैताना-संज्ञा,पु० दे० (सं० पादस्थान)पायँता। स० कि० - पैराना, प्रे० रूप-पैरवाना। पैतृक-वि० (सं०) पितृ-सम्बन्धी, पूर्वजों या | " लरिकाई को पैरबो, पागे होत सहाय"। पुरखों की, पुश्तैनी। | पैरवी-संज्ञा, स्त्री० (फा०) अनुगमन, पैदर-पैदल-वि० दे० (सं० पादतल ) पीछे पीछे चलना, पक्ष लेना, प्रयत्न, दौड़धूप, पाँव से चलने वाला क्रि० वि० पैरों पैरों | श्राज्ञा-पालना, पक्ष-समर्थन । For Private and Personal Use Only Page #1169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पैरवीकार ११५८ पोछन पैरवीकार--संज्ञा, पु० (फ़ा०) पैरवी करने । प्राकृतिक भाषा.पिशाची, पिसाची (दे०) वाला, पैरोकार (दे०)। पिशाच का उपासक । स्त्री. पिशाचिनी। पैरा-संज्ञा, पु० दे० (हि० पैर) पड़े हुये पैशुन्य-संज्ञा, पु० (सं०) पिशुनता, छल, चरण, पौरा, ऊँचाई पर चढ़ने को लकड़ी दुष्टता धोखेबाज़ी, चुगुलखोरी, पर-निन्दा । के बल्लों से बना मार्ग। पैसना - अ० क्रि० दे० (सं० प्रविश) पैराई-संज्ञा, स्त्री० (हि. पैरना) पैरना या घुसना, प्रवेश करना, पैठना । नि, कि० -- . तैरने का भाव या क्रिया, तैराई। पैसाना, प्रे० रूप-सवाना। माना in पैराक-संज्ञा, पु. ( हि० पैरना ) तैराक। पैसरा--संज्ञा, पु० दे० सं० परिश्रम ) झंझट, पैराव-संज्ञा, पु. ( हि० पेरना ) पैर कर पार व्यापार. प्रयत्न, बखेड़ा। करने योग्य गहरा पानी। पैसा-संज्ञा, पु० दे० ( सं० पाद या पणाश) पैरेखना -स. क्रि० दे० (सं० प्रक्षण ) ताँबे का एक चलता सिक्का जो एक पाने का परखना, जाँचना, श्रौलरे करना, आसरा चौथाई होता है धन. द्रव्य रोकड़ । "जब देखना, बाट जोहना, परेखना। लगि पैसा गाँठ में तब लग यार हज़ार"पैरोकार-सं० पु० दे० ( फा० पैरवीकार ) गिर० । वि० पैसेवाला---धनी। मुहा०पैरवी करने वाला, अनुगामी। पैले*-संज्ञा, पु० दे० (सं० पातिली) पैसा उड़ाना-- बहुत खर्च करना, अधिक अनाज नापने का काष्ट-पात्र. मापपात्र, दूध व्यय करना ठगना चुराना । पैसा खाना विश्वासघात करके खा लेना या दवा श्रादि ढकने का पात्र। स्त्री० अल्पा०-पैली। बैठना । पैसे का मुंह देखना-रुपये का पैद-संज्ञा, पु. ( फा०) वस्त्र के छेद बंद विचार कर ख़र्च न करना। पैसा डुबोनाकरने का टुकड़ा, चकती, थिगरी या थिगली, धन गँवाना या नष्ट करना, घाटा उठाना। जोड़, फल बढाने या स्वाद बदलने को एक पैसा बना-धन मारा जाना या नाश पेड़ की टहनी को काटकर दूसरे में जोड़ना, होना, घाटा होना पैसा लगाना-धन कलम बाँधना, पेवंद। लगाना, व्यय या खर्च करना । पैसे से पैबंदी-वि० ( फा० ) पैवंद द्वारा उत्पादित दरबार बाँधना--रिशवत या घूस देकर (फलादि)। मनमाना काम कराना । पैसे को फूस या पैवस्त-पेवस्त-वि० दे० ( फा० पैवस्तः ) धूल समझना-अंधाधुध व्यय करना। समाया या पैठा हुश्रा, सोखाया, घुसा पैसार-संज्ञा, पु. (हि. पैसना) प्रवेश, हुश्रा, भीतर प्रविष्ठ हो फैला हुआ। । पैठार. । 'अति लघुरूप धरौं निसि नगर पैशाच-वि० (सं०) पिशाच संबंधी. पिशाच करौं पैसार'-- रामा० । 'स्त्री० पैसारी)। देश का, पिशाच का। पहारी -वि० दे० यौ० (सं० पयस + आहारी) पैशाच-विवाह-संज्ञा, पु. यौ० (सं०) आठ केवल दूध ही पीकर रहने वाला। प्रकार के विवाहों में से एक जो सोती कन्या पोंका-संज्ञा, पु० (दे० ) पौधों पर उड़ने को उठा ले जाकर या मदमत्त स्त्री को बहका वाला पतिंगा पोका, बोंका (प्रान्ती.)। या फुसला कर किया जावे। पोंगा-संज्ञा, पु० दे० ( सं० पुटक ) धातु या पैशाचिक-वि० (सं० ) राक्षसी. घोर, बाँस की नली, चोंगा, पाँव की नली। वि० भयंकर और घृणित या वीभत्स, पिशाचों का। पोला, मूर्ख । स्त्री० अल्पा-पोंगी। पैशाची-संज्ञा, स्त्री० (सं० ) एक तरह की | पोंछन-संज्ञा, पु० दे० ( हि० पोंछना ) वस्तु For Private and Personal Use Only Page #1170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पातना पोंछना का शेषांश जो पोंछ कर निकाला जावे, | पोट-संज्ञा, स्त्री० (सं०) पोटली, गठरी, झाड़न, शुद्ध करण । अटाला, ढेर, बकुचा (प्रान्ती०) पोंछना-स० कि० दे० (सं० प्रोंकन) झाड़ना, | पोटना*-स० कि० दे० (हि० पुट) बटोरना, शुद्ध या साफ करना, किसी पानादि में समेटना, इकठा करना, फुसलाना । स० कि० लगी वस्तु को पोंछ कर हटाना । द्वि०कि.- पोटना, प्रे० रूप० -पोटवाना। पौछाना. पं० रूप --पांछवाना । संज्ञा, पु. पोटरी-पोटली - संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० पोंछने का वस्त्र । संज्ञा, स्त्री०-~-पोंछनी। पोटलिका ) छोटी गठरी, छोटा बकुचा, पोश्रा- संज्ञा, पु० दे० ( सं० पुत्रक ) साँप (अल्पा०)। पोटरिया (ग्रा०) (अं०) का बच्चा, दूध पीनेवाला छोटा बचा। पोइट्री--कविता। पोइया-पोई-संज्ञा, स्त्री० दे० (फा० पोयः) पोटा-संज्ञा, पु० दे० (सं० पुट =थैली) घोड़े की दो दो पैर फेंक कर सरपट दौड़। पेट की थैली, पित्ता, साहस, समाई, सामर्थ्य, पोइस- अव्य० दे० ( फा० पोइश ) भागो, औकात, उँगली का छोर, आँख की हटो, बचो, देखो । संज्ञा, स्त्री० सरपट दौड़ | पलक । संज्ञा, पु० दे० (सं० पोत ) चिड़िया ( हि० पोइया फ़ा. पोयः )। लो.---"जोई का बच्चा । (स्रो० अल्पा०) पोटी-उदराशय । बनाइस रामनौमी घोही का धक्का पोढ़ा- वि० दे० ( सं० पौढ़ ) कड़ा, दृढ़, पोइस” । पुष्ट, कठोर । स्त्री. पोढ़ी। पोई-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० पोदकी ) एक पोढ़ाई- संज्ञा, खी० (दे०) प्रौढ़ता (सं०) बरसाती लता जिसकी पत्तियों से भाजी पुष्टता, दृढ़ता, पोढ़ापन । और पकौड़ियाँ बनती हैं। स० क्रि० दे० पोढ़ाना-अ० कि० दे० ( हि० पोढ़ा ) पुष्ट (दे० पोना ) रोटी बनाया। या हद होना, कठोर या कड़ा होना, पक्का पोख-संज्ञा, पु० दे० ( सं० पोपण ) पोषक होना । स० कि० (दे०) पुष्ट या पक्का करना । के ऊपर प्रेम, हेलमेल, मिलाप । पोखना*- स० क्रि० दे० (सं० पोषण) पोत-संज्ञा, पु० (सं०) किसी जीव का छोटा पालना या रक्षा करना, शरण में रखना, बच्चा, कपड़े की बुनावट, नौका, जहाज, बढ़ाना, पोषना । प्र० रूप-पाखवाना, छोटा पौधा, बे झिल्ली का गर्भ-पिंड । संज्ञा, स० क्रि०-पाखाना। स्त्री० दे० (सं० प्रोता) माला प्रादि की छोटी गुरिया या मनका, कांच की गुरिया। संज्ञा, पोखरा-संज्ञा, पु० दे० ( स० पुष्कर ) पु० दे० (सं० प्रवृत्ति प्रवृत्ति, ढंग, दाँव, ताल, तालाब । स्रो० अल्प० पोखरी। | वारी । संज्ञा, पु० दे० (फ़ा० फ्रोता) भूमिकर, पोगंड-पौगंड-सज्ञा, पु० (सं०) पाँच से जमीन का लगान । दश वर्ष तक की वाल्यावस्था, किसी छोटे, बड़े या अधिक अंग वाला। | पोतक-संज्ञा, पु. (सं०) बहुत छोटा बच्चा । पोच-पांचू-वि० (फा०) तुच्छ, निकृष्ट, जुद्र, पोतदार-पोद्दार--संज्ञा, पु० दे० (हि० पोतहीन, नाचीज़, क्षीण | "डर न मोहिं जग / घर ) खजानची, तहसीलदार, रुपया परखने कहा कि पोचू"-रामा० । नीच, बुरा । वाला । संज्ञा, स्त्री० पोतदारी, पोतहारी। (स्त्री० पाची)। सो मतिमंद तासु मति | पोतना-स० कि० दे० (सं० पोतन = पवित्र) पोची"-रामा०। किसी वस्तु पर किसी वस्तु की गीली तह पोची-पोचाई-संज्ञा, स्त्री० (दे०) पोचता, जमाना, चूना, मिट्टी आदि से लीपना। नीचता, हेठी, बाई । ति पांच । ज्ञा. पु. दे. ( का 'मोत्ता) पोता । "पंज्ञा, For Private and Personal Use Only Page #1171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पातला १९६० पासना पु. पोतने का कपड़ा. पोता । स० कि०. वर्ती भाग, पीठ, रीद। "तऊ पोर-पोर पोताना, प्रे० रूप-पोतवाना। पोलाहै"-पद्मा० । पोतला- संज्ञा, पु० दे० (हि० पोतना) पोल-संज्ञा, पु० दे० (हि. पोला) खाली जगह, पराठा, घी में सेंकी रोटी। शून्य स्थान, खोखलापन, निस्सारता । संज्ञा, पोता-संज्ञा, पु० दे० ( सं० पौत्र ) पुत्र का स्त्री० पोलाई। "लो०-ढोल के भीतर पत्र बेटे का बेटा, पोत्र । ( स्त्री० पाती)। पोल"। मुहा-पोल खुलना (खोलना)संज्ञा, पु० दे० ( फ़ा० फोता ) पोत भूमिकर, भंडा फूटना, (फोड़ना), गुप्त दोष या बुराई जमीन का लगाना, अंडकोष । संज्ञा, पु० प्रगट होजाना ( करना )। सज्ञा, पु० दे० (दे०) पोटा संज्ञा, पु० दे० (हि० पोतना ) : (सं० प्रतोली) सहन, द्वार, फाटक, आँगन । पोतने का कपड़ा पोतने की घुली मिट्टी वि० (दे०) पोला-खोखला। आदि, पात्ता ( ग्रा० )। पोला-वि० दे० (सं० पोल = फुलका ) पोती-संज्ञा, स्वी० दे० सं० पोत्री ) पुत्र की खोखला, सार या तस्व हीन, जो ठोस न हो, पुत्री संज्ञा, स्त्री० (हि० ) पोत, पोतने पुलपुला, खुकख । न्त्री० पाली । संज्ञा, पु. की मिट्टी। पोलापन, स्त्री० पीलाई। "पोर पोर मै पोथा-संज्ञा, पु० दे० (सं० पुस्तक ) बड़ी पोलाई परी'-रसाल । पुस्तक, ग्रन्थ, कागजों की गड्डी: ( स्त्री० पोलिया-संज्ञा, पु० (दे०) पोरिया, दरबान । अल्पा० पोथी)। 'पोथा पढ़ि-पढ़ि जग पोशाक संज्ञा, स्त्री० (फ़ा०, पहनने के वस्त्र, मुभा"-कवी। पहनावा, वस्त्र, परिधान । पोदना-संज्ञा, पु० अनु० फुदकना ) एक पोशीदा-वि० ( फा०) छिपा हुआ, गुप्त । बहुत छोटा पक्षी, नाटा मनुष्य । पोष---संज्ञा, पु. ( सं० ) पोषण, उन्नति, पोना- स० कि० द० (हि० 'पूर्वा - ना- वृद्धि, पुष्टि, तुष्टि, धना संतोष । प्रत्य० ) गीले पाटे की लोई को हाथ से पोषक-वि० (सं०) वर्द्धक पालक सहायक, बढ़ाकर रोटी बनाना, रोटी पकाना। स० संरक्षक, बढ़ाने वाला। कि०-पोषना, प्रे० रूप--पाचाना । स० क्रि०ाषण-संज्ञा, प. (सं०) वर्द्धन. पालन. दे० (सं० प्रोत) पिरोना, गंधना या गॅथना। सहायता, पुष्टि, । ( वि० पोषित, पोष्य पोपनी-संज्ञा, स्त्री० (दे०) एक बाजा। पुष्ट, पापणीय)। पोपला---वि० दे० ( हि० पुलपुला ) सिकुड़ा पोषना-स. क्रि० दे० (सं० पोषण ) और तुचका हुश्रा, दाँत-रहित मुख, जिसके पोसना पालना (ग्रा०)। स० कि० (पोषाना, दाँत न हों । स्वी० पापली। प्रे० रूप-पोषवाना)। पोपलाना--अ० कि० दे० ( हि० पोपला) पोष्य-वि० सं०) पालने या पोषने के योग्य। पोपला होना । 'बिना दाँत के मुँह पोप- पोष्यपुत्र-संज्ञा, पु० (सं०) दतक या पालक लान"--.प्र. ना० । पुत्र, पुत्र सा पाला लड़का । पोमचा--- संज्ञा, पु. ( दे०) रेंगा वस्त्र । पोस-संज्ञा, पु० दे० ( सं० पोषगण ) पोषक पाया-संज्ञा, पु० दे० (सं० पोत ) पेड़ का के प्रति प्रेम या हेल मेल । कोमल छोटा पौधा, बचा, सर्प का बच्चा। पांसन- संज्ञा, पु० दे० ( सं० पोषणा)पोपन पार-संज्ञा, पु० दे० (सं० पर्व ) उँगुली का (दे०) रक्षा, पालन, वृद्धि । वह भाग जो दो गाठों के मध्य में है। पीसना-क्रि० स० दे० (सं० पोषण) पालना बाँस या ईख श्रादि की दो गाँठों का मध्य- या रक्षा करना, अपनी शरण या देख रेख For Private and Personal Use Only Page #1172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पास्त पौनी में रखना, पोषना (दे०)। स० क्रि०- सबेरा होना । 'रचक पौ फाटन लागी"पासाना, प्रे० रूप---पोसवाना। रना० । संज्ञा, पु० दे० ( सं० पाद ) दाँव, पोस्त -- संज्ञा, पु० (फा०) बकला, छिलका, पाँसे की एक चाल । मुहा० -पौ बारह चमड़ा, छाल, अफीम का पौधा या ढोंढा, होना-बन पाना, जीत का दाँव लगाना, पोस्ता। लाभ होना, लाभ का समय मिलना । पोस्ता--संज्ञा, पु० दे० ( फा० पोस्ता ) एक | पौधा-पोषा-- संज्ञा, पु० दे० (सं० पाद ) पौधा, जिससे अफीम निकलती है। एक सेर का चौथाई, पाव भर, एक पाव पोस्ती-संज्ञा, पु. ( फा० ) पोस्ते की डोंडी का पात्र, घंटे का चौथा भाग । पीस कर पीने वाला नशेबाज़, श्रालसी, सुस्त । पौढ़ना-अ० कि० दे० (सं० प्लवन) झूलना, पोस्तीन-संज्ञा, पु० (फ़ा०) समूर अादि । हिलना । अ० कि० दे० (सं० प्रलोठन ?) पशुओं के गरम और नरम रोयेंवाली खाल | लेटना, सोना, पड़ना । स० कि० पौढ़ाना, के वस्त्र, चमड़े का नीचे रोंये वाला वस्त्र । । प्रे० रूप-पोढ़वाना । पौत्तलिक संज्ञा, पु० (सं० ) मूर्तिपूजक । पोहना-सं० क्रि० दे० सं० प्रीत ) जड़ना, पौर-संज्ञा, पु. (सं०) पुत्र का पुत्र, पोता । लगाना, गथना, गूंधना, पीसना, छेदना, (स्त्री० पौत्री)। घिसना, घुसेड़ना, घुसाना, पोतना, पिरोना ! | पौद, पौध--संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० पोत) पाना ( ग्रा०) घुसने या छेदने वाला। छोटा पौधा, वह पौधा जो दूसरे ठौर पर सी० पाहनी । स० कि०-पोहाना, प्रे० लग सके । संज्ञा. स्त्री० (दे०) पाँवड़ा । रूप-एहवाना। मुहा०-पौद लगाना। पाहमी संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० भूमि) पुहुमी, पौंदर-पौंडर--संज्ञा, स्त्री० दे० (हि० पाँव+ डालना ) पगडंडी, ( रास्ता ) पद-चिन्ह । पौंचा-घौंचा--- संज्ञा, पु० दे० (सं० पोड़क) पौधा-पौदा- संज्ञा, पु० दे० (सं० पोत ) साढे पाँच का पहाड़ा, प्योंचा (ग्रा०)।। तुप, नया पेड़, छोटा पेड़। पौड़ा- संज्ञा, पु० दे० (सं० पौडक ) एक पौधि- संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० पोत ) पौद । तरह का मोटा गन्ना ( ईख)। पौन-संज्ञा, पु० दे० (सं० पवन ) वायु, शौंड- संज्ञा, पु. ( सं० ) पौंडा (दे०) हवा, प्राण, जीव, भूत, प्रेत । संज्ञा, पु० भोटा गन्ना एक पतित जाति, जरासंध का । दगण का एक भेद (मात्रिक) । वि० दे० (सं० सम्बन्धी, पंड देश का राजा जिसे कृष्ण ने पाद+ऊन ) चौथाई कम, अर्थात् तीन मारा था, भीमसेन का शंख, पौंड़ । "पौंड्रक | चौथाई या पौना । “ बिना डुलाये ना दध्मौ महाशंख भीमकर्मा वृकोदरः"---गी। मिलै, ज्यों पंखा को पौन"-० । पौंदना-स. क्रि० (दे०) पौढ़ना, लेटना।। क्रि० (दे०) पौढ़ना, लेटना। पौना- संज्ञा, पु० दे० (सं० पाद-+ ऊन ) पौरना-अ० कि.० दे० (सं० प्लवन ) तैरना। पौना का पहाड़ा । संज्ञा, पु० दे० (हिं. पौरि-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० प्रतोली) पौरि, पोना ) लोहे या काठ की बड़ी करछी। पौरी (दे०) द्वार, दरवाज़ा। स० कि० (दे०) रोटी बनाना, पोना। पो-- संज्ञा, खो० दे० ( सं० प्रपा, प्रा० पवा ) । पौनार-गौनारि-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० पौसला, पौसाला, प्याऊ। संज्ञा, स्त्री० दे० पद्मनाल ) कमल की दंडी, कमलनाल । {सं० पाद ) ज्योति, किरण, प्रकाश रेखा। पौनी-संज्ञा, स्त्री० दे० ( ही. पावना ) नाई, मुहा०-पौ फटना-प्रभात प्रकाश दीखना, चारी आदि, विवाह प्रादि उत्सवों में इन्हें भा० श० को.---१४६ For Private and Personal Use Only Page #1173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org पौने ११६२ प्याज हि० पौना) छोटा पौना । पौने - वि० ( हि० पौन ) किसी पदार्थ का तीन चौथाई । पौमान -- संज्ञा, पु० दे० (सं० पवमान ) वायु, जलाशय, पवमान । पौर - वि० (सं० ) पुर या नगर का । संज्ञा, पु० (दे०) पौरि द्वार | दिया गया इनाम, पौती | संज्ञा, स्त्रो० | पौरेय - संज्ञा, पु० (सं० ) नगर - सम्बन्धी, नगर का समीपी देश, गाँव आदि । पौरोगव -संज्ञा, पु० ( सं० २) पाकशाला - ध्यक्ष, बाबरचीख़ाने का दरोगा । पौरोहित्य- संज्ञा, ० (सं०) पुरोहित का कार्य, पुरोहिताई, पुरोहिती | पौर्णमास-संज्ञा, पु० (सं०) पूर्णमासी को किया जाने वाला एक यज्ञ । पौर्णमासी - संज्ञा, स्त्री० (सं० ) पूर्णमासी, पूर्णिमा, पुरणमासी, पूरनमासी (दे० ) । पौर्वाहिक - वि० यौ० (सं०) रेपहर तक का कार्य या क्रिया, पूर्वाह्न सम्बन्धी । पौलस्य - संज्ञा, पु० (सं०) पुलस्त्य ऋषि का वंशज, कुवेर, रावण यादि, चन्द्र । त्रो०पौलस्यो । पौला संज्ञा, पु० ( हिं० पाव - ला--- प्रत्य० ) एक तरह की खड़ाऊँ । स्रो० श्रल्पा० पौली, पौलिया । " पौला पहिरि निरावै”पौलिया - संज्ञा, पु० दे० ( हिं० पौरिया ) पौरिया, द्वारपाल | संज्ञा, स्त्री० दे० ( हिं० पौला) छोटी खड़ाऊँ । - घाघ । पौर- पौरि-पौनी-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० प्रतोली ) द्वार, ड्योढ़ी | संज्ञा, स्त्री० (हि० पैर ) सीढ़ी, पैड़ी | संज्ञा, 'स्त्री० ( हि० पाँवरि ) खड़ाऊँ, पाँवरी । पौरव - संज्ञा, पु० (सं० ) पुरुवंशी, पुरु की संतान, उत्तर-पूर्व का देश ( महा० ) । पौरस्त्य - वि० (सं० ) प्रथम, यादि, पूर्वीय, पूर्व दिशा सम्बन्धी । 1 पौरा - संज्ञा, पु० दे० ( हि० पैर ) यया हुआ कदम, पड़ा हुआ पाँव, पैरा पौराणिक - वि० (सं० ) ( स्त्री०) पुराणपाठी, पुराणवेत्ता, पुराण सम्बन्धी, पुराने समय का । त्रो० पौराणिकी | संज्ञा, पु० (सं०) १८ मात्राों के छंद ( पिं० ) । पौरिया - संज्ञा, पु० दे० ( हि० पौर) द्वार --- पाल, दरबान, प्रतीहारी । " द्वार २ छरी लीने वीर पौरिया हैं खड़े " - सुदामा० । “ बेटा, बनिता पौरिया, यज्ञ करावन हार' - गिर० । पौरुष -- संज्ञा, पु० (सं०) पुरुषत्व, पुरुषार्थं । पुरुष का कर्म, साहस, पराक्रम, उद्यम, उद्योग, परिश्रम, यत्र । वि० पुरुष सम्बन्धी । " • दैवं निहत्य कुरु पौरुषमात्मशक्त्या ।" पौषेय - वि० (सं०) पुरुष सम्बन्धी, श्रध्यारिमक, पुरुष का निर्मित या बनाया हुआ, पुरुष-समूह | 'पौरुषेयवृता इव माघ०२ । पौरुष्य - संज्ञा, पु० (सं०) पुरुषत्व, साहस । पौरुहूत - संज्ञा, पु० (सं० ) इन्द्र का अस्त्र, वज्र । पौरू - संज्ञा, स्त्री० (दे०) एक प्रकार की मिट्टी ' या भूमि । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पौली- संज्ञा, खो० दे० (सं० प्रतोली) ड्योदी, पौरी | संज्ञा, स्त्री० दे० ( हिं० पौला ) छोटी खड़ाऊँ, टाँग, घुटने और पैर का मध्यभाग । पौलामी - संज्ञा, स्त्री० (सं० ) इन्द्राणी, भृगुपली, पुलोम की कन्या । पौष - सज्ञा, ५० (सं०) पुष्य नक्षत्र की पूर्णिमा वाला मास, पूस महीना । स्त्री० पौषी । पौष्टिक – वि० (सं०)बल-वीर्यवर्द्धक, पुष्टिकारी । पौसरा- नौसला -संज्ञा, पु० दे० ( सं० पयःशाला ) प्यासे श्रादमियों को पानी पिलाने का स्थान, प्याऊ, जलशाला । पौहारी - संज्ञा, पु० दे० (सं० पयस् + आहार ) दुग्धाहारी, केवल दूध पीकर रहने वाला । प्याऊ - संज्ञा, पु० दे० (सं० प्रया) पौसला, पौसरा, जलशाला, पियाऊ ( प्रा० ) । प्याज - संज्ञा, पु० ( फ़ा० ) पियाज (दे० ) For Private and Personal Use Only Page #1174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org प्याजी गोल गाँठ वाला एक तीब्र बुरी गन्ध वाला कन्द । प्याजी - वि० ( फ़ा० ) हलका गुलाबी रङ्ग, पियाजी (दे० ) । प्यादा - संज्ञा, पु० ( फ़ा० ) पैदल, दूत, सेवक, पियादा (दे० ) । " रहिमन सीधी चाल तें, प्यादा होत वज़ीर" । ११६३ याना -- स० क्रि० दे० (हि० पिलाना ) पिलाना, वियाना, पियावना (दे०) । प्यार - संज्ञा, पु० दे० ( स० प्रीति ) स्नेह प्रेम, चाह, पियार ( ग्रा० ) । प्यारा - वि० दे० (सं० प्रिय) प्रेम-पात्र, प्रिय, स्नेही, भला जान पड़ने वाला, पियारा । स्त्री०प्यारी पियारी । (दे०) प्याला - संज्ञा, पु० ( फा० छोटा कटोरा, बेला, पियाला (दे०), तोप बन्दूक आदि में रञ्जक और बत्ती लगाने का स्थान | स्त्री० पा० प्याली, पियाली (दे० ) । प्यावना - 1 सु० क्रि० दे० ( हि० पिलाना ) पिलाना, पियावना, वियाना (ग्रा० ) । प्यास-संज्ञा, स्रो० दे० (सं० पिपासा ) तृषा, तृष्णा, पियास ( ग्रा० ) वि० पु० वि० त्रो० प्यासी । प्यासा, प्यासा -- वि० दे० (सं० पिपासित ) पियासा (दे० ) तृषित, प्यास- युक्त । स्त्री० प्यासी । प्यो- संज्ञा, पु० दे० ( हि० पिय ) स्वामी, पति । "यो जो गयो फिरि कीन्ह न फेरा"। प्योसर - प्योसरी - संज्ञा, पु० दे० ( सं० पीयूष ) नई व्यायी भैंस या गाय का दूध, उससे बनी मिठाई | 'यांसार—†संज्ञा, पु० दे० ( सं० पितृशाला ) स्त्री के पिता का घर, मायका, पीहर । प्योर - संज्ञा, पु० दे० (सं० प्रिय ) प्रियतम, पति, स्वामी । प्रकोप - संज्ञा, पु० (सं०) कंप, कँपकँपी । वि० प्रकम्पिता - काँपता हुआ | संज्ञा, पु० (सं० ) प्रकम्पन, वि० प्रकंपनीय | प्रकाश प्रकट - वि० (सं०) व्यक्त, स्पष्ट, उत्पन्न, प्रत्यक्षीभूत, विदित, प्रगट (दे० ) प्रकटन -संज्ञा, पु० (सं०) उत्पन्न होना, प्रगटना, व्यक्त होना । वि० प्रकटनीय । प्रकटित - वि० (सं०) प्रगट, स्पष्ट किया हुआ । प्रकर - संज्ञा, पु० (सं०) फैले हुये कुसुम आदि, समूह, दल | Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रकरण - संज्ञा, पु० (सं० ) प्रसङ्ग, विषय वृत्तान्त प्रस्ताव, अभिनय करने की रीति, रूपक का भेद ( नाव्य०), ग्रन्थ- सन्धि, ग्रन्थविच्छेद, निरूपणीय विषय की समाप्ति, एकार्य वाचक सूत्रों का समूह ( व्या० ) कांड, सर्ग, अध्याय, ग्रन्थ का छोटा भाग । प्रकरी - संज्ञा, स्त्रो० (सं०) एक तरह का गाना, नाटक में प्रयोजन-सिद्धि के पाँच भेदों में से एक, नाटक खेलने की वेदी (नाट्य ० ) कुछ काल तक चल कर रुक जाने वाली कथा वस्तु | प्रकर्ष - संज्ञा, पु० (सं० ) उत्तमता, उत्कर्ष, बहुतायत, अधिकता, वदाव, वाहुल्य | संज्ञा, स्त्री० प्रकर्षता - उत्कृष्टता | प्रकला - संज्ञा, स्त्री० (सं०) समय का साठवाँ भाग (ज्यो०)। प्रकाण्ड - वि० (सं०) बहुत विस्तृत या बड़ा । प्रकाम वि० (सं० ) यथेष्ट, यति, मनमाना । "प्रकाम विस्तार फलं हरिण्या " - रघु० । प्रकार—संज्ञा, पु० (सं०) भाँति, तरह, किस्म, भेद । परकार (दे० ) | संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० प्राकार) घेरा, परकोटा, शहर - पनाह ( फ्रा० ) । प्रकारान्तर - वि० यौ० (सं० ) अन्य विधि या भाँति, धन्य रीति, दूसरी तरह । प्रकाश - संज्ञा, पु० (सं० ) परकास (दे०) उजेला, दीप्ति, रोशनी, थालोक, प्रकास (दे०), कांति, ज्योति, अभिव्यक्ति, विकास, श्रामा, प्रसिद्धि, ग्रन्थ का भाग, अध्याय, घाम, रुफुटन, प्रकट या गोचर होना । वि० प्राकाश्य । वि० प्रकाशित | संज्ञा, पु० प्रकाशक । - For Private and Personal Use Only Page #1175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org प्रकाशक प्रकाशक -संज्ञा, पु० ( सं० ) प्रकट, प्रकाश, या प्रसिद्ध करने वाला, प्रकाश करने वाला । प्रकाशधृष्ठ - संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) प्रकट रूप से ढिठाई करने वाला नायक ! प्रकाशन - संज्ञा, पु० (सं०) प्रगट या व्यक्त करना, प्रकाशित करना, फैलाना, विष्णु । वि० 1 प्रकाशनीय । १९६४ प्रक्रमभंग 66 प्रकृत - वि० (सं०) यथार्थ, सच्चा, विकाररहित | संज्ञा, स्रो० प्रकृतता । पु० प्रकृतत्व | संज्ञा, पु० (सं०) श्लेष अलंकार का एक भेद । प्रकृतार्थ - वि० यौ० (सं०) उचित या ठीक ठीक अर्थ, यथार्थ, उपयुक्त, मूल भाव । प्रकृति - संज्ञा, खो० ( सं०, स्वभाव, मिजाज, माया, मूल गुण, प्रधान प्रवृत्ति | प्रकृति मिले मन मिलत हैं "वृं० । प्रकृति भाव- संज्ञा, १० यौ० (सं०) स्वभाव, विकार-रहित दो पदों की सन्धि का नियम | प्रकृति शास्त्र - संज्ञा, ५० यौ० (सं०) वह शास्त्र जिसमें प्राकृतिक या स्वाभाविक बातों या पदार्थों का वर्णन हो जैसे- भूगर्भ शास्त्र । प्रकृतिसिद्ध - वि० यौ० (सं०) स्वाभाविक, नैसर्गिक, प्राकृतिक । प्रकृति- सिद्धमिदं हि महात्मनाम् " भर्तृ प्रकृतिस्थ - वि० ( रहने वाला, प्राकृतिक | " ० ) स्वाभाविक दशा में प्रकृष्ट- संज्ञा, पु० (सं०) उत्तम, श्रेष्ठ, प्रशस्त, उत्कृष्ट, मुख्य, प्रधान । प्रकृता - संज्ञा, खो० (सं०) श्रेष्ठता, उत्तमता । प्रकोट - संज्ञा, पु० (सं०) परिखा, परिकोटा । (सं० ) सोभ, अधिक क्रोध, बीमारी की ज्यादती, देह में बात, पित्त, कफ का रोगकारी विकार, चंचलता । प्रकोछ - संज्ञा, पु० सं०) फाटक के पास की कोठरी, कोठा, बड़ा श्राँगन, हाथ की कलाई । " ततः प्रकोष्टे हरि-चंदनांकिते - रघु० । प्रकोपण -- संज्ञा, स्त्री० (सं०) एक अप्सरा | प्रक्रम संज्ञा, पु० सं०) उपक्रम, क्रम खिलसिला, अनुष्टान, श्रारम्भ, उद्योग, अवसर । प्रक्रमण -- संज्ञा, पु० (सं० ) भली भाँति, श्रागे घूमना, पार करना, आरम्भ करना, बढ़ना । वि० प्रक्रमणीय | < प्रक्रमभंग - संज्ञा, पु० (सं०) काव्य में यथेष्ट क्रम के न होने का एक दोष, व्यतिक्रम, सिलसिला का नष्ट होना | संज्ञा, त्रो०प्रक्रमभंगता | Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चप अवसर प्रकाशमान - वि० (सं०) विख्यात, शोभायमान, प्रसिद्ध चमकीला, थालोकित, कता हुआ, रोशन । प्रकाशवियोग – संज्ञा, पु० यौ० (सं०) केशव दास के मतानुसार वह विछोह जो पर प्रकट हो जावे । प्रकाश-संयोग - संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) सब पर प्रकट हो जाने वाला मिलाप ( केश० ) । प्रकाशित - वि० (सं० ) प्रकाश युक्त, चमकता हुआ, प्रकट, प्रसिद्ध व्यक्त । प्रकाशी- संज्ञा, पु० (सं०) चमकता हुआ । वि० प्रकाशित करने वाला, प्रकाशक । प्रकाश्य - वि० (सं० ) प्रकट या प्रकाश करने योग्य । क्रि० वि० प्रकट या स्पष्ट रूप से, स्वगत का विलोम (नाट्य ० ) । प्रकास -संज्ञा, पु० (दे०) प्रकाश (सं० ) प्रकोप - संज्ञा, पु० परकाश परकास (दे०) । प्रकासना - स० क्रि० दे० (सं० प्रकाश ) प्रकाशित या उजेला करना, व्यक्त या प्रकट करना, परकासना (दे०) । प्रकीर्ण - वि० (सं० ) विस्तृत, मिश्रित, ग्रंथ- विच्छेद | प्रकीर्णक- संज्ञा, पु० (सं०) फैलाने वाला प्रकरण, श्रध्याय, मिलित, स्फुट या फुटकर | प्रकीर्तन - संज्ञा, पु० (सं०) प्रस्तावन, वर्णन, कथन । वि० प्रकीर्तनीय | प्रकीर्तित - वि० सं०) कथित, भाषित, उक्त, वर्णित, निरूपित | प्रकुपित - वि० (सं०) कोध-युक्त, प्रकुप्त, कुपित | प्रकुप्त - वि० (सं० ) प्रकोप-युक्त, उग्र, विकार को प्राप्त । For Private and Personal Use Only ० । Page #1176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रकान्त प्रघसू प्रकान्त-वि० (सं०) प्रारब्ध, प्रारंभ या प्रगल्भ-वि० (सं०) प्रवीण, चतुर, प्रतिभाशुरू किया हुअा, अनुचित । शाली. साहसी, उत्साही, हाज़िरजवाब, प्रक्रिया-संज्ञा, स्त्री० (सं०) युक्ति, प्रकरण, दैव- उद्धत, निर्भय, उदंड, दम्भी, ढीठ । 'इतिकर्म, क्रिया, देव-चेश, रीति विधि, प्रणाली। प्रगल्भं पुरुषाधिराजों'-रघु० : (संज्ञा, स्त्री. "प्रक्रियां नाति विस्तराम्" ~~ सार० प्रगल्भता )। प्रक्लिन- वि० सं०) संतुष्ट, तृप्त, पसीना से प्रगल्भवचना--संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) वह डूबा हुआ या लदफद, स्वेदमय । मध्या नायिका जो बातों द्वारा अपना क्रोध प्रक्लेद -- संज्ञा, पु. ( सं० ) नमी, तरी। और दुख प्रगट करे । प्रगल्भा । प्रक्ष*--वि० दे० (सं० प्रछक) पूछने वाला। प्रगसना -अ० क्रि० दे० ( हि० प्रगटना ) प्रत्तय-संज्ञा, पु. ( सं०) क्षय, विनाश, प्रगटना, जाहिर करना, परगसना (दे०)। खराबी, वरवादी। स० क्रि०-प्रगालना, प्रे० रूप-अगसवाना । प्रताल-संज्ञा, पु० (सं०) प्रायश्चित प्रगाढ़-वि० (सं०) दृढ़, अधिक कठोर, कड़ा, प्रक्षालन--संज्ञा, पु. (सं०) धोना, पखारना, गहरा या गाढ़ा। संज्ञा, स्त्री० प्रगाढ़ता । शुद्ध या साफ करना । वि. प्रक्षालनीय, प्रगुण - वि० (सं०) सरल, ऋजु, सीधा, प्रक्षालित। यौ० पाद-प्रक्षालन । उदार । संज्ञा, पु० उत्तम स्वभाव । प्रत्तिन-संज्ञा, पु० (सं०) फेंका हुआ। प्रगृहीत–वि० (सं०) भलीभांति ग्रहण पीछे से मिलाया या बढ़ाया हआ। किया हुआ, संधि-नियम के बिना उच्चरित । प्रतिप्त-वि० (सं०) क्षेपक, बाद को मिलाया प्रगृह्य- वि० (सं०) ग्रहण करने के योग्य, या बढ़ाया हुआ, फंका हुआ। संधि के नियम के बिना उच्चारण-योग्य । "ईदूदे द्विवचन प्रगृह्यम्"--- श्रष्टा० । इत्तेप-प्रक्षेपण -- संज्ञा, पु. ( सं०) फेंकना, छोड़ना,त्यागना,डालना,बिखराना, मिलाना, प्रग्रह, ग्राह संझा, पु० (सं०) तराजू की डोरी, पशु बाँधने की रस्सी, लगाम, पगहा बढ़ाना। वि० प्रक्षेपणीय। (प्रान्ती), बदी। संज्ञा, पु० (सं०) रस्सी, प्रखर-- वि० (सं०) निशित, खरा, तीक्ष्ण, | डोरी, बंधन, धारण, ग्रहण करने या पकड़ने तीखा, उग्र, पैना, तीव, प्रचंड, घोड़े की का भाव या ढंग। जीन या चारजामा । संज्ञा, स्त्री० प्रखरता। प्रघट, परघट* - वि० (दे०) प्रकट (सं.)। प्रवरांशु-वि० यौ० (सं०) तीपण या तीव प्रघटक--संज्ञा, पु० (सं०) सिद्धांत । किरण वाला । संज्ञा, पु० (सं०) सूर्य। प्रघटना, परघटना*---अ० क्रि० (दे०) प्रख्यात- वि० (सं०) मशहूर, प्रसिद्ध, प्रगटना। विख्यात, यशस्वी, कीत्तिमान । प्रघटाना - अ० कि० दे० (सं० प्रकटना ) प्रख्यालि- संज्ञा, स्त्री० (सं०) प्रसिद्धि, ख्याति। प्रगटना, जाहिर होना, पैदा या उत्पन्न होना। प्रगट-वि० दे० (सं० प्रकट ) प्रकट, व्यक्त, | प्रघटावना स० कि० प्रघटाना, प्रे० रूपविदित, प्रसिद्ध, स्पष्ट, प्रत्यक्ष, उत्पन्न । प्रघटवाना । वि० प्रघट, प्रघट्टक। प्रगटना-अ० क्रि० दे० (सं० प्रकटन ) | प्रघट्टक*-वि० दे० (सं० प्रकट ) प्रकाश व्यक्त या प्रकट होना, उत्पन्न या पैदा या प्रकट करने वाला, खोलने वाला। होना, प्रसिद्ध या विख्यात होना, प्रत्यक्ष प्रघट्टन-संज्ञा, पु० (सं०) प्रगटना, घर्षण । या विदित होना। स० क्रि०-प्रगटाना, प्रघसू- संज्ञा, पु० (सं०) रावण का एक सेना. प्रे० रूप-प्रगटवाना। पति । For Private and Personal Use Only Page #1177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रघासा प्रजातंत्र प्रघासा- संज्ञा, पु० (सं०) द्वार के बाहर की प्रचोदन-संज्ञा, पु० (सं०) प्रेरणा, श्राज्ञा, बरामदा या दालान, चौपार ( ग्रा० )। उत्तेजना, नियम । संज्ञा, पु० प्रचोदक प्रचंड-वि० (सं०) उग्र, भयानक, प्रखर, वि० प्रचोदित, प्रचादनीय । भयंकर, तेज, तीव, कठिन, तीक्ष्ण, असह्य, प्रच्छक-वि० (सं०) प्रश्न कर्ता, पूछनेवाला। भारी, बड़ा। वि० स्त्री प्रचंडी। संज्ञा, स्त्री० प्रच्छद-संज्ञा, पु० (सं०) उत्तरीय वस्त्र, प्रचंडता । मुहा०-प्रचंड पड़ना-तीव | चादर, पिछौरी (प्रान्ती० )। क्रोध करना, कुपित होना, लड़ना। प्रच्छन्न-- वि० (सं०) ढका या छिपा हुआ, प्रचंडता-संज्ञा, स्त्री० (सं०) उग्रता, प्रखरता, आच्छादित, गुप्त, लपेटा हुआ। तीषणता, असह्यता, तीव्रता, भयंकरता। प्रच्छर्दिका-संज्ञा, स्त्री० (सं०) वमन, उलटी, प्रचंडत्व-संज्ञा, पु. (सं०) उग्रता, प्रखरता। उद्गार, के। प्रचंडमूर्ति या रूप-संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) प्रच्छादन--संज्ञा, पु. (सं०) ढाँकना, गुप्त भयंकर श्राकार, प्रचंडाकार, प्रतापी, उग्र करना, छिपाना, उत्तरीय वस्त्र विशेष । स्वभाव या रूप, प्रचंडाकृति ।। ___ संज्ञा, पु० प्रच्छादक, वि० प्रच्छा देत, प्रचंडा--संज्ञा, स्त्री० (सं०) दुर्गादेवी, चंडी। प्रच्छादनीय । प्रचरना -अ० क्रि० दे० (सं० प्रचार ) प्रजंक-संज्ञा, पु० (दे०) पयंक । “राजत चलना, फैलना, प्रचारित होना । प्रजंक पर भीतर महल के'- पद्मा० । प्रचलन-संज्ञा, पु० (सं०) प्रचार । प्रजंत*-अव्य दे० (सं० पर्यंत ) तक । प्रचलित-वि० (सं०) जारी, चाल, चलतू, प्रजनन-संज्ञा, पु० (सं०) सन्तानोत्पादन, चलने वाला, व्यवहृत । दाई का काम, धात्री-कर्म ( सुश्र० ) जन्म । प्रचार -- संज्ञा, पु० (सं०) चलना, उपयोग, प्रारना*-अ० क्रि० द० (सं० उप० प्र० + रिवाज । (वि० प्रचारक, प्रचारित)। जरना -- हिं० ) खूब जलना । प्रचारण-संज्ञा, पु. (सं०) चलाना, जारी प्रजव-संज्ञा, पु०(सं०) अतिवेग वि० प्रजवी। करना ' वि० (सं०) प्रचारणीय। प्रजरणा -- संज्ञा, पु. (सं०) अतिशय जलना। प्रचारना -स० क्रि० दे० ( सं० प्रचारण ) संज्ञा, पु०-प्रजरक-वि० प्रजरित, अजरफैलाना, जारी करना, प्रचार करना, चलाना, | गीय। घोषित करना, ललकारना । भीषम भयानक प्रजा--संज्ञा, स्त्री० (सं०) सन्तान, किसी राजा प्रचारयौ रन-भूमि आनि"-रना०, "लागेसि के राज्य का जन-समूह, रैयत, रिवाया। अधम प्रचारन मोही"--रामा० । प्रजाकाम-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) पुत्र प्राप्ति प्रचुर-वि० ( सं०) बहुत, अधिक । संज्ञा, की इच्छा वाला, प्रजाकानी । पु. प्राचुर्य, प्रचुरता, प्रचरत्व । प्रजाकार- संज्ञा, पु० (सं०) प्रजा उत्पन्न करने प्रचुरता-संज्ञा, स्त्री० (सं०) अधिकता, बहु- वाला, ब्रह्मा, प्रजापति, प्रजाकारक । तायत, ज्यादती, बाहुल्य । प्रजागरण --- संज्ञा, पु० (सं०) अतिशय जागप्रचुरत्व- संज्ञा, पु० (सं०) श्राधिक्य । यथेष्टता। रण, बहुत जागना, अति चिन्ता । वि० प्रचुर पुरुष-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) चोर। प्रजागरित। प्रचेता- संज्ञा, पु० (सं० प्रचेतस् ) वरुण, पृथु प्रजागरा-संज्ञा, स्त्री० (सं०) एक अप्सरा । का परपोता प्राचीन वर्हि के दस लड़के । प्रजातंत्र-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) वह शासनप्रचेल-संज्ञा, पु० (सं०) पीला चंदन। प्रणाली जिसमें प्रजा का चुना हुश्रा शासक प्रचेलक-संज्ञा, पु० (सं०) घोड़ा। शासन करता हो, प्रजाधिकार । For Private and Personal Use Only Page #1178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रजाधिकारी राज्य प्रणव प्रजाधिकारी राज्य-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) । प्रज्ञामय-संज्ञा, पु० (सं०) विद्वान, पंडित, प्रजातंत्र राज्य, जहाँ प्रजा का चुना हुआ प्रज्ञावान, प्रज्ञावन्त । ब्यक्ति शासन करता हो। | प्रज्वलन-संज्ञा, पु० (स०) बहुत ही जलना । प्रजापति-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) सृष्टिकर्ता, वि० प्रज्वलनीय, प्रज्वलित । विरंचि, दशादि, मनु, सूर्य ,राजा। मेघ, अग्नि, | प्रज्वलित--वि० (सं०) जलता या धधकता पिता, घर का मुखिया । हुआ, प्रकाशित, स्पष्ट । प्रजारना-सं० क्रि० दे० ( सं० प्रजारण) प्रज्वलिया-संज्ञा, पु० दे० (सं० प्रज्झटिका) भली भाँति जलाना। "नगर फेरि पुनि पूंछ पद्धरी, पद्धटिका । प्रजारी"--रामा०। प्रडीन--- संज्ञा, पु० (सं०) पक्षी की उड़ान, प्रजावती--संज्ञा, स्त्री. (सं०) जेठे भाई की प्रथम उड़ान, उड़ना। स्त्री, पुत्रवती स्त्री। प्रण - संज्ञा, पु० दे० (सं०) प्रतिज्ञा, प्रजापान - संज्ञा, पु० (सं० प्रजावत् ) लड़के पण (दे०), हठ, दृढ़ निश्चय । “कह नृप वाला। जाय कहौ प्रण मोरा"-रामा० । प्रजासत्ता-संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) प्रजातंत्र। प्रणख-संज्ञा, पु० (सं०) नख का अग्र भाग । प्रजासन--संज्ञा, पु० दे० (सं० प्रजासन ) प्रणत-वि. (म०) दीन, नम्र, झुका हुआ, प्रजा का भोजन, साधारण पाहार। कृत प्रणाम, नम्रीभून, नत (दे०)। प्रजित-संज्ञा, पु० (सं०) विजय करने वाला। प्रणतपाल-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) शरणाप्रजाहित--संज्ञा, पु. यौ० (हि०) प्रजा की। गत-रक्षक, भक्तों, दासों. या दीनों का पालन भलाई, प्रजा का उपकार, प्रजा का शुभ ।। करने वाल, । "प्राणतपाल रघुवंश-मणि, प्रजुलित *-वि० ( दे० ) ( प्रज्वलित) त्राहि त्राहि अब मोहि"-रामा० । (सं०) । " प्राची दिशितें प्रजुलित आवति प्रणति-संज्ञा, स्त्री० (सं०) प्रणाम, नमस्कार, अग्नि उठी जनु" - नागरी।। नम्रता, दंडवत, विनय, बंदगी । प्रजेश-प्रजेश्वर--संज्ञा, पु. यौ० (सं०) प्रणमन संज्ञा, पु. (सं०) प्रणाम करना, राजा, नृप। नन होना, मुकना। प्रजाग-संज्ञा, पु० दे० (सं० प्रयोग) प्रयोग। प्रणम्य - वि० (सं०) प्रणाम करने योग्य | प्रज्झटिका-संज्ञा, स्त्री० (०) १६ मात्राथों | स० क्रि० पू० का० (सं०) प्रणाम कर के । का एक छन्द (पिं० ) पद्धटिका, पद्धरी। "प्रणम्य परमात्मानम् "-सारस्वत । प्रज्ञ- संज्ञा, पु० (सं०) ज्ञानी. विद्वान, पण्डित । प्रणय-संज्ञा, पु० (सं०) प्रेम-प्रार्थना, स्नेह, प्रज्ञता-संज्ञा, स्त्री० (स०) विद्वता, पांडित्य । विनय, प्रेम, मोक्ष, विश्वास । प्रज्ञप्ति-संज्ञा, स्रो० (सं०) निवेदन, संकेत, प्रणयन- संज्ञा, पु० (सं०) बनाना, रचना, विज्ञापन, सूचना। निर्माण करना। " दशाश्चतस्रा प्रणयन्नु प्रज्ञा-संज्ञा, स्त्री० (सं०) ज्ञान, बुद्धि, समझ, पाधिभिः "-नेप० । सरस्वती। प्रणयिनी-संज्ञा, स्त्री० (सं०) प्रेमिका, प्यारी, प्रज्ञाचतु-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) धृतराष्ट्र । प्रिया, प्रियतमा, स्त्री, पत्नी। अन्धा। वि० यौ० (सं०) बुद्धिमान, ज्ञानी, । प्रणयी-संज्ञा, पु० (सं० प्रणयिन) प्रेमी, स्नेही, ज्ञान-दृष्टि से देखने वाला। प्रेम करने वाला, पति । स्त्री० प्रणयिनी। प्रज्ञापारमिता--संज्ञा, स्त्री० (सं०) गुणों की प्रणव- संज्ञा, पु० ( सं० ) ओ३म्, प्रोंकार, पराकाष्टा ( बौद्ध०)। । ब्रह्म, ईश्वर। "तस्य वाचकः प्रणवः"-योग। For Private and Personal Use Only Page #1179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रणवना १९६८ प्रतिकारक प्रण घना--स० क्रि० दे० (सं० प्रणमन) प्रतंचा -संज्ञा, स्त्री० दे० (हि० प्रत्यंचा) नमस्कार या प्रणाम करना, नम्रीभूत होना। धनुष की डोरी या रोदा, ताँत । " पुनि प्रणवौं पृथुराज समाना"-- रामा०। प्रतच्छ--वि० दे० ( सं० प्रत्यक्ष ) प्रणाम-संज्ञा, पु. ( सं० ) नमस्कार, प्रणि- | प्रत्यक्ष, सम्मुख, सामने, परतन्छ (दे०)। पात, प्रनाम, परनाम (दे०)। " करौं । प्रतनु- वि० (सं० ) हीण, दुर्बल, बारीक, प्रनाम जोरि जुग पानी"-रामा। __ महीन, पतला, बहुत छोटा। प्रणामी-वि० (सं०) नमस्कारी, देवताओं प्रतपन-संज्ञा, पु. ( सं० ) तप्त करना, के प्रणामार्थ दक्षिणा। | उत्ताप, गर्मी। प्रणायक-संज्ञा, पु० (सं०) नेता, मुखिया। | प्रतप्त-वि० (सं०) उष्ण, गर्ग, तपा हुआ। प्रणाल--संज्ञा, पु० (सं०) पनाला, मोरी, नाली। प्रादेन संज्ञा, पु० (सं०) दिवोदास का पुत्र प्रणाली-संज्ञा, स्त्री० ( सं०) जल के दो काशी का राजा, विष्णु, एक ऋषि । भागों का संयोजक, पनाली, मोरी, जल- | प्रतल-संज्ञा, पु० (सं०) सातवाँ पाताल । मार्ग, नाली, रीति, विधि, परम्परा, चाल, प्रतान – संज्ञा, पु० सं०) विस्तार, कुटिल तंतु । पृथा, तरीका, ढंग। __'लता प्रतानोग्रथितैः सकेशैः'-रघु० । प्रणाशी, प्रणाश--संज्ञा, पु. ( सं०) ध्वंस, प्रताप-संज्ञा, पु० (२०) ताप, तेज, पौरुष नाश, उत्पात । बल, प्रभाव, ऐश्वर्य पराक्रम, गर्मी वीरता। प्रणाशन--संज्ञा, पु. (सं०) नाश करने का प्रतापसिंह ---संज्ञा, पु० (स०) चित्तौड़ के भाव या किया, संज्ञा, पु० प्रणाशक महाराणा उदयसिंह के पुत्र जिन्होंने धर्म रक्षा के हेतु अपार दुःख सहे (इति)। विनाशक । वि० प्रणाशनीय । प्रतापी-वि० (सं० प्रतापिन् ) तेजवान, प्रणिधान--संज्ञा, पु० (सं०) समाधि, रखा प्रभावी, ऐश्वर्यवान, सताने वाला। जाना, अत्यंत भक्ति, श्रद्धा या प्रेम, ध्यान, या मन की एकाग्रता, प्रयत्न । " ईश्वर प्रणि प्रतारक-संज्ञा, पु० (सं०) धूत्त, छली, ठग, चालाक, वंचक । धानाद्वा"... योग। प्रतारण--- संज्ञा, पु. (सं०) धूर्तता, छल, प्रणिधि--संज्ञा, पु० (सं०) दूत, चर, प्रार्थना! । ठगी, चालाकी, वंचकता । स्त्री० प्रतारणा । प्रणिपात-संज्ञा, पु. ( सं० ) प्रणाम । प्रतारित-- वि० (सं०) ठगा या छला हुआ। "अभूच्च नम्र प्रणिपात शिक्षया"-रधु० ।। | प्रतिचा-संज्ञा, खो० दे० ( सं० पतंचिका ) प्रणिहित-वि० (सं०) रक्षित, स्थापित, धनुष की डोरी, रोदा, तांत, ज्या, चिल्ला । समाहित, मनोयोग कृत। प्रति-- अव्य. (सं०) भोर, सामने, एक प्रणी-वि० (सं० प्रगिन ) अटल प्रण या उपसर्ग जो शब्दों के पहले लगाने से दृढ़ प्रतिज्ञा वाला। अर्थ देता है । विपरीत---(प्रतिकूल ) प्रणीत-संज्ञा, पु० (सं०) निर्मित, रचित, हर एक (प्रत्येक ), सामने (प्रत्यक्ष ) बनाया हुआ, संशोधित, भेजा या लाया हुआ। बदले में ( प्रत्युपकार ) मुकाबिला में प्रणेता-संज्ञा, पु. ( सं० प्रणेत् ) निर्माण (प्रतिवादी) समान (प्रतिनिधि) । सम्मुख, कता, रचयिता, बनाने वाला । स्त्री० प्रणेत्री। ओर, हेतु । संज्ञा, स्त्री० (सं०) नकल । प्रणय-वि० (सं०) वशवर्ती, प्राधीन, प्रतिकार--संज्ञा, पु० (सं०) बदला, जवाब । लौकिक, संस्कारयुक्त। प्रतिकारक-संज्ञा. पु. (सं०) बदला चुकाने प्रणोदित-वि० यौ० (सं०) प्रेरित । वाला। For Private and Personal Use Only Page #1180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org प्रतिकित १९६६ प्रतिध्वनि HAREDPRES PRISE SURINA प्रतिकितव - संज्ञा, पु० (सं०) जुधारी का प्रतिच्छाया -- संज्ञा, स्त्री० (सं०) प्रतिविंव, जोड़ीदार | परछाई, चित्र, प्रतिमूर्ति | प्रनिलाइ प्रतिक-संज्ञा, स्त्री० दे० ( सं० प्रतिच्छाया) प्रतिच्छाया प्रतिविंव, परछाई । प्रतिज्ञांतर - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) तर्क में एक निग्रह - स्थान, पराजय ( न्याय ० ) । प्रतिज्ञा -- संज्ञा, स्रो० (सं०) पण, प्रण, हठ, दृढ़ निश्चय, शपथ, सौंगंद, अभियोग, दावा, यह बात जिसे सिद्ध करना हो ( न्याय० ) । परतिज्ञा, परतिग्या, प्रतिग्या (दे० ) । प्रतिज्ञात - संज्ञा, पु० (सं० ) प्रतिज्ञा या वादा किया हुआ, स्वीकृत, अंगीकृत । प्रतिज्ञान - संज्ञा, पु० (सं०) प्रण, स्वीकार, प्रतिज्ञा, हठ आग्रह | प्रतिज्ञापत्र - संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) स्वीकार - पत्र, इकरारनामा ( फा० ), शर्त या प्रतिज्ञा ( निश्चय ) सूचक पत्र । प्रतिज्ञाहानि--- संज्ञा, खो० यौ० (सं०) एक प्रकार की पराजय या निग्रह स्थान (न्याय ० ) । प्रनिदर्शक - सज्ञा, पु० यौ० (सं० ) दर्शन के पीछे दर्शन, पुनः पुनः दर्शन । प्रतिदान संज्ञा, पु० (सं० ) दान के बदले का दान, विनिमय, बदला, धरोहर या अमानत का लौटाना, परिवर्तन | प्रतिदिन - संज्ञा, पु० (सं०) प्रत्यह, अहरहः, दिन दिन, प्रत्येक दिन । प्रतिदेय - वि० या फेर देने योग्य | प्रतिद्वंद्र - संज्ञा, पु० (सं० ) बराबर वालों का परस्पर झगड़ा या मुकाबिला । प्रतिद्वंद्वी - स्त्रो० पु० ( सं० प्रतिद्वद्विन् ) बराबर का लड़ने वाला, बैरी, शत्रु | संज्ञा, स्त्री० प्रतिद्वता । सं०) पुनर्दातव्य, लौटाने I प्रतिकूप - संज्ञा, पु० (सं०) खाई, परिखा । प्रतिकूल - वि० (सं०) विपरीत, विरुद्ध, उलटा | संज्ञा, सी० प्रका प्रतिकृत- संज्ञा, खो० (सं०) प्रतिमूर्ति. प्रतिमा, प्रितिबिंब, प्रतिच्छाया, चित्र, प्रति कार, बदला । प्रतिक्रिया - संज्ञा, खो० (सं०) बदला, प्रतिकार, प्रयत्न, उपाय, एक क्रिया के फलस्वरूप दूसरी क्रिया । प्रतिक्षण- संज्ञा, पु० (सं० ) प्रत्येक क्षण | प्रतिगृहीता- पंज्ञा, खो० (सं०) विवाहिता, पाणिगृहीता, धर्म-पत्नी | प्रतिग्या --- राज्ञा, खो० (३०) प्रतिज्ञा (सं०) | प्रतिग्रह - संज्ञा, पु० (सं०) स्वीकार, ग्रहण, पकड़ना, दान, विधिवद्दान, ग्रह विशेष अधिकार में लेना, पाणिग्रहण, उपराग । प्रतिग्रहण- संज्ञा, पु० (सं० ) आदान, स्वीकार, ग्रहण, दान लेना, बदला लेना. वस्तु से वस्तु बदलना | वि० प्रतिग्रहीय | प्रतिग्रहीत संज्ञा, पु० (सं०) बदलाया, दान लेने वाला, ग्रहण किया हुथा । प्रतिघात - संज्ञा, ५० (सं०) चोट या धावात के बदले में चोट या बात करना रुकावट, वाधा, टक्कर । यौ० घात-प्रतिघन । प्रतिघाती - संज्ञा, पु० ( सं० प्रतिघातिन् ) शत्रु, बैरी । खो० प्रतिवादिनी । प्रतिचिकीर्षा - संज्ञा, स्त्री० (सं०) प्रतिकार करने या बदला चुकाने की इच्छा प्रतिचिकीर्षु - वि० (सं० ) प्रतिकार करने या बदला चुकाने की इच्छा वाला । प्रतिनि-- संज्ञा, पु० (सं०) चिंतित का पुनः चिंतन, बारम्बार ध्यान | संज्ञा, पु० प्रतिचितक, वि० प्रतिनितनीय । प्रतिच्छा -- संज्ञा, स्रो० दे० (सं० प्रतीक्षा) प्रतीता, वाट देखना । 1 भा० श० को १०-१४७ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रतिध्वनि - संज्ञा, स्त्री० (सं० ) गूँज, प्रति शब्द एक बार सुनाई देकर फिर उत्पत्तिस्थान पर ठकरा कर सुनाई देने वाला शब्द, दूसरे के भावों का दोहराया जाना । For Private and Personal Use Only Page #1181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रतिना ११७० प्रतिमा प्रतिना-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० पृतना ) " जो प्रतिपाले सोइ नरेसू"--रामा० । पृतना, सेना, नौज । | प्रतिपाल्य-वि० (सं० पोषणीय, पालनीय, प्रतिनायक-संज्ञा, पु० (सं० ) नायक का | रमणीय, गोपनीय, पोप्य । प्रतिद्वन्द्वी नायक (नाट्य०, काव्य)। प्रतिपुरुष-संज्ञा, पु० (सं०) प्रतिनिधि । यौ० प्रतिनिधि-संज्ञा, पु० (सं० ) प्रतिमूर्ति, प्रत्येक पुरुष या मनुष्य । प्रतिमा, दूसरे की ओर से काम करने पर प्रतिमाघ-संज्ञा, पु० (सं०) निषेध का पुनः नियुक्त व्यक्ति, स्थानापन्न । संज्ञा, पु० विधान, एक बार रोक कर फिर अाज्ञादान । प्रतिनिधित्व | प्रतिफन - संज्ञा, पु० (सं०) छाया प्रतिविब, प्रतिनिर्यातन-संज्ञा,पु० (सं०) अपकार के । परिणाम, फल - वि० प्रतिकलित। बदले अपकार। प्रतिबंध -- संज्ञा, पु० (सं०) अटकाव, रुकावट, प्रतिनिधर्तन-संज्ञा, पु. (सं.) लौटाना। रोक, विघ्न-बाधा, मनाही । “ कंध पै परी प्रतिपक्ष-संज्ञा, पु० (सं०) दूसरा पड़, शत्रु तो काटि बन्ध प्रतिवन्ध सबै--- रस्ना। का पक्ष । संज्ञा, स्त्री० प्रतिपाता। | प्रतिबंधक ... संज्ञा, पु० (सं०) मना करने प्रतिपक्षी-संज्ञा, पु. (सं० प्रतिपक्षिन् ) या रोकने वाला, विघ्न-बाधा डालने वाला। विरोधी, विपही, शत्रु, दूसरे पक्ष वाला। प्रतिबिंब- संज्ञा, पु. ( सं० ) प्रतिच्छाया, प्रतिपत्ति- संज्ञा, स्त्री. (सं०) सुख्याति, परछाँही प्रतिमूर्ति, प्रतिमा, दर्पण, चित्र । सम्मान, प्राप्ति, सम्भ्रम, गौरव, प्रगल्भता. वि० प्रतिवित । 'प्रतिविवित जग होय" पदप्राप्ति, प्रवोध, दान, प्रतिष्टा, यश, ज्ञान, --वि.। अनुमान, प्रतिपादन, स्वीकृति, निरूपण। प्रतिबिधाद-संज्ञा. पु० यौ० ( सं० ) जीव प्रतिपदा-संज्ञा, स्त्री० (सं०) परिवा. प्रतिपद के वस्तुतः ब्रह्म के प्रतिबिंब होने का किसी पक्ष की प्रथम तिथि ! सिद्धान्त (वेदा०)। वि० प्रतिक्विवादी। प्रतिपन्न-वि० (सं०) ज्ञात, अवगत, प्राप्त, प्रतिभट--- संज्ञा, पु. ( सं० । समान वीर स्वीकृत, निश्चित, प्रमाणित, सिद्ध, शरणा या शूर, प्रत्येक वीर, बराबर का योद्धा । गत, माननीय, भरापूरा। प्रतिभा-संज्ञा, स्त्री० सं० बुद्धि, ज्ञान, प्रतिपादक- संज्ञा, पु० (सं०) प्रतिपादन या __ अात्म शक्ति, प्रत्युत्पन्नमति, प्रगल्भता, दीप्ति, सिद्ध करने वाला, प्रकाशक, बोधक, ज्ञापक । विशेप असाधारण, मानसिक शक्ति, श्रसा. प्रतिपादन- संज्ञा, पु० (सं०) सम्पादन, धारण ज्ञान या बुद्धि-बल। प्रतिपत्ति, बोधन, ज्ञापन, सप्रमाण कथन, प्रतिभावान् प्रतिभाशाली-वि० (सं० ) प्रमाण, भलीभाँति समझना। वि० प्रति- प्रतिभावाला, जिसमें प्रतिभा हो। पादनीय, प्रतिपादित, प्रतिपाध। प्रतिभाग-संज्ञा, पु. ( सं० ) प्रत्येक ग्रंश, प्रतिपार*1-संज्ञा, पु०(दे०) प्रतिपाल(सं.)। राज्य के हिस्से । प्रतिपाल-प्रतिपालक-संज्ञा, पु. ( सं०) प्रतिभू-संज्ञा, पु० (सं०) जामिनदार, मनौ राज पोषक, रक्षक, पालन-पोषण करने वाला। तिया, ज़मानत में पड़ने वाला। प्रतिपालन- संज्ञा, पु० (सं०) पालन-पोषण, प्रतिम-अव्य० ( सं० ) सदृश, तुल्य । रक्षण, निर्वाह ! वि. अनिपालनीय, प्रतिमा-संज्ञा, स्त्री. ( सं०) प्रतिमूर्ति, प्रतिपालित, प्रतिपाल्य । पत्थर आदि की देव-मूर्ति, अनुकृति, प्रतिपालना*--स० कि० सं० प्रतिपालन ) | प्रतिकृत, प्रतिच्छाया, प्रतिरूप, चित्र, प्रतिबचाना, पालना-पोसना या रक्षा करना। | विब, एक अलङ्कार जिसमें किसी व्यक्ति For Private and Personal Use Only Page #1182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रातमान १२७१ प्रतिश्रव या वस्तु के अभाव पर तत्पश्य अन्य वस्तु प्रतिलोम विवाह-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) उच्च या व्यक्ति की स्थापन और वर्णन हो। वर्ण की कन्या का नीच वर्ण के वर से विवाह । प्रतिमान--संज्ञा, पु० (२०) प्रतिक्वि. प्रति- प्रविस्तूपमा--संज्ञा, स्त्री. (सं० ) एक छाया, समानता, नुल्यता, उदाहरण, अर्थालंकार जिसमें पृथक वाक्यों में उपमेय दृष्टांत, हाथी के मस्तक का एक भाग । और उपमान के साधारण धर्म का कथन हो । प्रतिमार्ग---संज्ञा, पु० सं०) प्रत्येक मार्ग। प्रतिवचन-- संज्ञा, पु० (सं०) उत्तर, प्रत्युत्तर । प्रतिमास-संज्ञा, पु० (०) हर महीने। प्रतिवर्तन--संज्ञा, पु० (सं०) लौर थाना। प्रतिमुख --- संज्ञा, पु० (सं०) नाटक की पाँच | प्रतिवर्ष-- संज्ञा, 'गु० (सं० ) प्रत्येक वर्ष । संधियों में से एक अंगसंधि (नाट्य०)। प्रतिवाक्य- संज्ञा, पु० (सं०) उत्तर प्रत्युत्तर । प्रतिमूर्ति-संज्ञा, स्त्री० (२०) प्रतिमा, अनुकृति। प्रतिवाद - संज्ञा, पु० (सं०) खंडन, विरोध, प्रतिमोक्षण-- संज्ञा, पु. (सं०) मुक्ति प्राप्ति । विवाद, वह बात जो किसी मत या विपक्षी प्रतियत्न-संज्ञा, पु० (सं० ) लिप्सा, वाँछा, को भूठा सिद्ध करने के लिये कही जाय । बंद या निग्रह करने का उपाय, गुणांतर प्रनिघादी--संज्ञा, पु. (सं० प्रति वादिन ) का ग्रहण, संस्कार, संशोधन, प्रति ह। खंडन या प्रतिवाद करने वाला, उत्तर दाता, प्रतियोग-संज्ञा, गु० ( सं०) विरोध, बैर, प्रतिपक्षी, वादी का विरोधी। शता, विरुद्ध संयोग। प्रतिवाधक-संज्ञा, पु० (सं०) निवारक,प्रतिप्रतियोगिता.... (संज्ञा, स्रो० (सं०) चढ़ा-ऊपरी, बंधक, वाधक या विघ्नकारी। प्रतिद्वंद्विता. विरोध, शता। प्रतिवास- संज्ञा, पु० (सं०) पड़ोस, निकटप्रतियोगी--- संज्ञा, पु. (सं०) शत्रु, वैरी, निवाल, समीप-वाय । विरोधी, सहायक, हिस्सेदार । प्रतिवासर-शा, पु० ( सं० ) प्रति दिन । प्रतियोद्धा-संज्ञा, पु. (सं०) बराबर का प्रतिवासी-संज्ञा, पु. ( सं० प्रति वासिन् ) योद्धा, शत्रु । परोसी (ग्रा.) पड़ोसी, पड़ोस का वासी। प्रतिरथ- संज्ञा, पु० (सं०) समान लड़ने वाला। प्रतिविधान-संज्ञा, पु० (स०) प्रतिक्रिया, प्रतिरात्रि--संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) प्रत्येक रात्रि। प्रतीकार, निवारण, उपाय । प्रतिरूप- संज्ञा, पु. ( सं० ) मर्ति, प्रतिमा, प्रतिविम्ब-संज्ञा, पु. (सं०) प्रतिच्छाया, प्रतिनिधि, चित्र । वि० समान, तुल्य, बराबर। परछाँही, प्रतिमा, प्रतिकृति, प्रतिमूर्ति । संज्ञा, स्त्री० प्रतिरूपता। प्रतिरोध-संक्षा, पु० (सं०) विरोध, रोक, | (वि० प्रतिविम्बित)। रुकावट, बाधा, विन। वि० प्रतिरोधक। प्रतिवेश -- संज्ञा, पु. ( सं०) घर के सामने प्रतिरोधक-प्रतिरोधी-संज्ञा, पु० (सं०) | चोर, तस्कर, ठग, डाकू, अपहारक। "उदीर्ण | प्रतिवेशी-- संज्ञा, पु०(सं० प्रतिवेशिन्) पड़ोसी। राग प्रतिरोधकं"-माघ । प्रतिशब्द -- संज्ञा, पु. (सं० ) प्रतिध्वनि । प्रतिलिपि-संज्ञा, स्त्री० (सं.) लेख की नकल। "गुहानिवद्धा प्रतिशब्द दीर्घम्" - रघु० । प्रतिलोम-वि० (सं०) नीचे से ऊपर जाना, प्रतिशोध-संज्ञा, पु० (सं०) बदला, पलटा । विपरीत, प्रतिकूल, उलटा, विरुद्ध, विलोम।। वि० प्रतिशोधक, प्रतिशोधो। ( विलो० अनुलोम )। यौ० प्रतिलोमानु- प्रतश्याय-- पु० संज्ञा, (सं०) श्लेष्मा, जुकाम। लीम-उल्टा-सीधा, ऐसी रचना जिसे उलटा- प्रतिश्रव- संज्ञा, पु० (सं०) अंगीकार, स्वीकार, सीधा दोनों ओर से पढ़ सकें (चित्र काव्य)। प्रतिज्ञा, निश्चित कथन । For Private and Personal Use Only Page #1183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir HODooreeMe प्रतिश्रुत १९७२ प्रतीप प्रतिश्रुत-वि. ( सं० ) प्रतिज्ञा या स्वीकृत प्रतिहारी-संज्ञा, पु. ( सं० प्रतिहारिन् ) किया हुआ। ड्योढ़ीवान, द्वारपाल । स्रो० प्रतिहारिणी। प्रतिषिद्ध - वि० (सं०) जिसके लिथे रोक- प्रतिहिंसा- संज्ञा, स्त्री० (सं०) बदला लेना, टोक या मनाही की गयी हो। वैर चुकाना, प्रतिशोध । वि० प्रतिहिम्क । प्रतिषेध-संज्ञा, पु. (सं०) निषेध, रोकटोक, प्रतीकः- संज्ञा, पु० (सं.) चिन्ह, पता, मुख, मनाही, खंडन, एक अर्थालंकार, जिसमें किसी | रूप, आकृति, प्रतिरूप, स्थानापस, प्रतिमा, प्रसिद्ध अन्तर या निषेध का ऐसा उल्लेख हो | व्याख्या में किसी श्लोकादि का उद्धत एक कि उससे कोई विशेष अर्थ प्रगट हो। "हरि । अंश या चरण। विप्रतिषेधं तम् पाचचक्षे विचक्षणः'- प्रतीकार-संज्ञा, पु० (सं०) प्रतिकार, बदला, माघ । वि० प्रतिषिद्ध, प्रतिषेधक । निवारण, चिकित्सा । प्रतिष्क-संज्ञा, पु० (सं०) दूत । प्रतीकाश-संज्ञा, पु० (सं०) तुल्य, समान, प्रतिष्ठा-संज्ञा, स्त्री० (सं०) स्थापना, ( देव- सदृश, तुलना, उपमा । प्रतिमादि का) गौरव, मान-मर्यादा. कीर्ति, प्रतीकोपासना-संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) सत्कार, श्रादर, व्रत का द्यायन, एक छंद. किसी विशेष वस्तु में ईश्वर की भावना से चार वर्णों का वृत्त (पि.)। उसे पूजना मूर्ति-पूजा प्रतिष्ठान--संज्ञा, पु० (सं०) बैठाना, रखना, प्रतीक्षक- संज्ञा, पु० (सं०) राह देखने वाला। स्थापित या प्रतिष्ठित करना, एक नगर। प्रतीक्षा-संज्ञा, स्त्री० (सं०) किसी कार्य के प्रतिष्ठानपुर-संज्ञा, पु. (सं.) एक प्राचीन होने या किसी के भाने की राह या बाट नगर जो गंगा-यमुना के संगम पर आज देखना, प्रत्याशा, धौलारे करना, ठहरे रहना, कल के झूसी के पास था, गोदावरी-तट पर आसरा । वि० प्रतक्षमागा । एक नगर (प्राचीन)। प्रतीची-संज्ञा, स्त्री० (सं०) पश्चिम दिशा, प्रतिष्ठा-पत्र--संज्ञा, पु० यौ० सं०) सम्मान (विलो. प्राची)। पत्र, सनद, सार्टीफिकेट (अं.)। प्रतीचीन- वि० (सं.) पश्चिम दिशा में प्रतिष्ठित- वि० (सं०) श्रादर-सत्कार प्राप्त, उत्पन्न या स्थित, हाल का, अर्वाचीन । स्थापित किया हुआ, सम्मानित। (विलो. प्राचीन)। प्रतिसीरा-संज्ञा, स्त्री० (दे०) परदा। प्रतीच्य- वि० (सं०) पश्चिमी। ( विलो. प्रतिस्पर्धा-संज्ञा, स्त्री० (सं०) लाग-डोट, । प्राच्य )। चढ़ा-ऊपरी, दूसरे से किसी कार्य में प्रागे प्रतीत-वि० (सं०) विदित, ज्ञात, प्रसिद्ध, बढ़ने का यन या इच्छा । श्रानन्द, प्रपन्न । प्रतिस्पर्धी-संज्ञा, पु. (सं० प्रतिस्पर्द्धिन् ) प्रतीति- संज्ञा, स्त्री० (सं०) विश्वास, ज्ञान, बराबरी या मुकाबला करने वाला। प्रसन्नता । “मोहि अतिसय प्रतीति जिय प्रतिहत- वि० (सं०) निराश प्रतिरुद्ध, निरा- केरी।"-रामा० । कृत, । 'प्रतिहत भये देखि सब राजा'- प्रतीप---संज्ञा, पु० (सं०) महाराज शान्तनु के रामा। पिता, एक अर्थालङ्कार, जिसमें उपमान को प्रतिहार--संज्ञा, पु० (सं०) ड्योढ़ी, द्वार, ही उपमेय बनाते या उपमेय से उपमान दरवाज़ा, द्वारपाल, ड्योढ़ीवान, नक़ीब, को तिरस्कृत सा दिखाने हैं-अ० पी०। चोबदार, छड़िया, समाचारादि देने वाला | वि० प्रतिकूल, विपरीत, आशा से विरुद्ध । राजकर्मचारी ( प्राचीन )। | "प्रतीपभूपैरिव किं ततो भिया'–नेप० । For Private and Personal Use Only Page #1184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org -- प्रतीयमान प्रतीयमान- वि० (सं०) प्रतीत या ज्ञात होता हुआ. जान पड़ता हुआ i प्रतीहार - संज्ञा, पु० (सं०) प्रतिहार, ड्योढ़ी । प्रतीहारी - संज्ञा, पु० (सं०) द्वारपाल, नकीब, ड्योदीवान चोबदार, छड़िया. प्रतिहारी । प्रतुद पंज्ञा, पु० (सं०) चोंच से तोड़ कर खाने वाले पक्षी । प्रतोद संज्ञा, पु० (सं०) चातुक, पैना, समगान विशेष । ११७३ प्रतोली - संज्ञा, खो० (सं०) किल्ले या दुर्ग का हार, रास्ता, गली, चौड़ी सड़क राज मार्ग : प्रत - वि० (सं०) प्राचीन, पुरातन प्रततत्व - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) पुरातत्व | प्रत्यंचा-संवा, स्त्री० दे० (सं० प्रतचिका ) धनुष की डोरी या ताँत, चिल्ला (प्रान्ती० ) । प्रत्यक्ष - वि० (सं० ) इन्द्रियों और उनके श्रथ से होने वाला, निश्चयात्मक ज्ञान, खों के आगे या सामने, इन्द्रियों से ज्ञात, प्रतच्छ, परत (दे० ) | संज्ञा, पु० चार प्रमाणों में से एक प्रमाण (न्या० ) । संज्ञा, स्रो० प्रत्यक्षता । प्रत्यक्षदर्शी - संज्ञा, पु० यौ० (सं० प्रत्यक्ष दर्शिन् ) प्रत्यक्ष रूप में अपनी आँखों से देखने वाला, साक्षी गवाह | प्रत्यक्षवादी - संज्ञा, पु० यौ० ( सं० प्रत्यक्षवादिन् ) अन्य प्रमाणों दोन मान कर केवल प्रत्यक्ष प्रमाण ही को मानने वाला व्यक्ति | संज्ञा, पु० यौ० प्रत्यक्षवाद । (स्त्री० प्रत्यक्षवादिनी ) । प्रत्यय - वि० (सं०) नूतन नवीन, शुद्ध, भिनव, बोधित । प्रत्यनीक--- संज्ञा, पु० (सं०) बैरी, विरोधी, प्रतिपक्षी, एक र्थालङ्कार जिसमें किसी केन्धी या पत्रवाले के प्रति हित या हित के करने का कथन हो- (अ० पी० )। प्रत्यकार संज्ञा, ५० (सं०) श्रपकार के बदले अपकार । ( विलो० प्रत्युपकार ) । प्रत्यादेश प्रत्यभिज्ञा-संज्ञा स्त्री० (सं०) स्मृति की सहायता से उत्पन्न ज्ञान । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रज्ञा संज्ञा, पु० (सं०) एक दर्शन जिसमें सहेश्वर ही परमेश्वर माने गये हैं, महेश्वराय । प्रत्यभिवान संज्ञा, पु० (सं०) स्मृति- द्वारा शेने वाला ज्ञान | वि० प्रत्यभित । शायभियांत संज्ञा, ५० (सं०) पत्यपराध, अपराध पर अपराध, अपराधी होकर फिर अपराध करना ! प्रत्यभिलाष -- संज्ञा, पु० (सं०) श्रभिलाप पर अभिताप, पुनरभिलाषा ! प्रत्यभिवादन्यभिवादन - संज्ञा, ३० (सं० ) प्रणाम के करने पर दिया गया आशीर्वाद । प्रत्यय संज्ञा, पु० (सं०) निश्चय, विश्वास, विचार, ज्ञान, शपथ, अधीन, हेतु, श्राचार, for, बुद्धि, प्रमाण, व्याख्या, प्रसिद्धि, प्रख्याति, लत्तण, श्रावश्यकता, चिन्ह, निर्णय, सम्मति, छन्दों के भेद और उनकी संख्या जानने की रीतियाँ ( पिं० ), वे वर्ण या व समूह जो किसी धातु या अन्य शब्द के अन्त में उसके अर्थ में कुछ विशेपता लाने को लगाये जाते हैं (व्या० ) । प्रत्यर्थी - संज्ञा, पु० (सं० प्रति + अर्थिन ) वैरी, शत्रु प्रतिवादी । प्रत्यर्पण -- वि० सं०) पुनर्दान, लौटाना । प्रत्यवाय-- संज्ञा, पु० (सं०) पाप, दोष, अपराध, अनिष्ट, विघ्न, व्याघात । प्रत्यह-- अव्य० (सं०) प्रतिदिन । प्रत्याख्यान - संज्ञा, पु० (सं० ) निरसन, निराकरण, खण्डन, अस्वीकार । प्रत्यागत -- वि० (सं०) जाकर लौटा हुथा । प्रत्यागमन संज्ञा, पु० (सं०) थाकर फिर थाना वापर लौट घाना, दोबारा थाना । प्रत्यादेश पंजा, पु० (सं० ) निरसन निराकरण खण्डन, देवता की श्राज्ञा, उपदेश, देववाणी, परामर्श । - For Private and Personal Use Only Page #1185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रत्यालीढ़ ११७४ प्रदाता प्रत्यालढ़ --- संज्ञा, पु० (सं०) धनुष चलाने प्रथमतः-क्रि० वि० (सं०) पहले से, सब से में बैठने का एक ढङ्ग। पहले, प्रथम वार : "प्रथमतः पठनं कठिनं प्रत्यावर्तन संज्ञा, पु. (सं०) लौट श्राना। महा। प्रत्याशा-- संज्ञा, स्त्री० (सं०) अभिलापा, प्रथमा--संज्ञा, स्त्री० (सं०) मदिरा, तान्त्रिक) श्राशा, विश्वास, भरोला, प्रती! प्रथम या कर्त्ताकारक (व्या० । प्रत्याशी--वि० (सं० प्रत्याशिन् । अभिलाषी. प्रथमीक्षा , खो० (दे०) पश्वी , (सं०)। आकाँक्षी, भरोसे वाला: प्रथा --संज्ञा, खी० (सं०) चलन, व्यवहार, प्रत्यासन्न--वि० (२०) निटी समी चान्द, रीति नियम, प्रणाती, रिवाज । पस्थ, समीप रहने वाला । "प्रपा पनेऽपि. प्रथित-वि० सं०) विदित, प्रसिद्ध । मरणेऽपि" -स्फुट। प्रथी--संज्ञा, स्त्री० (दे०) पिरथी, पृथ्वी प्रत्याहार -- संज्ञा, पु० (सं.) इन्द्रिय निग्रह, (सं०।। इन्द्रियों को उनके विषयों से हटाकर चित्त प्रथ-संज्ञा, पु० दे० (सं० पृथु) पृथु, विष्णु । का अनुसरण करना ( अष्टांग योग , व्याक- वि... बड़ा, मोटा, पीन, स्थूल । रण में अन्नरों का संक्षेप रूप। प्रद--वि० (सं.) दाता, दानी उदार, देने प्रत्युत --- अव्य० (सं०) बहक, न (ग्रा.) बाला, ( यो० में - सुखप्रद)। वरन, बल्कि, इसके विपरीत । प्रदच्छिन. (प्रदच्छिना)-- संज्ञा, पु० (स्त्री०) प्रत्युत्तर --संज्ञा, पु० (सं०) उत्तर पाने पर दे० (सं० प्रदक्षिणा, प्रदक्षिणा) परि. दिया हुआ उत्तर, उत्तर वा उतर। यौ० क्रमा, किसी के चारों ओर घूमना । उत्तर-प्रत्युत्तर। प्रदक्षिण,प्रदक्षिणा- संज्ञा. पु० (स्त्री०) (सं०) प्रत्युत्पन्न--वि० (सं०) जो पिर से या ठीक किसी देवता ( देव-मूर्ति ) या महापुरुष के समय पर उत्पन्न हो, प्रस्तुत । कोर प्रत्यु- चारों ओर घूमना, परिक्रमा, परिक्रमण । स्पन्नमति = तत्परज्ञानी. तत्पर बुद्धिवाला, प्रदश---वि० (सं०, दिया हुआ। तत्कालिक बुद्धि, तुरन्त उपयुक्त वात या प्रदर--संज्ञा, पु० (सं०) त्रियों का प्रमेह रोग काम सोचने वाला। जिसमें गर्भाशय से श्वेत पा लाल लसीला प्रत्युपकार-संज्ञा, पु. (सं०, उपकार के सा पानी गिरता है ( वैद्य० । बदले में किया गया उपकार । विम-प्रदर्शक संज्ञा, . (सं० ) दिखलाने या कारी, प्रत्युपकारक। देखने वाला, दर्शक। प्रत्यूष - संज्ञा, पु० (सं०) सवेरा, तहा। प्रदर्शन संज्ञा, पु. ( सं० ) दिग्वलाने का प्रत्यूह-संज्ञा, पु० (सं०) विन्न वाधा, पापद, कार्य । वि. प्रदर्शनीष । अटकाव, रुकावट । प्रदर्शनी-संज्ञा, स्त्रो० (सं० ) वह स्थान प्रत्येक-दि० (सं०) बहुतों में से हर एक, जहाँ लोगों को दिखलाने के हेतु भाँति अलग-अलग, पृथक-पृथक । भाँति की वस्तुयें रक्खी जावें, नुमाइश । प्रथम-वि० (सं०) पहला. अध्यल, पूर्व तीर्थराज की पावन यात्रा प्रदर्शनी-दर्शन सर्व श्रेष्ठ, सर्वोत्तम । कि० वि० (सं०) श्रागे, के साथ ' . मैथि० । पहिले । संज्ञा, पु० यौ० (सं०) प्रधान पुरुष- प्रदर्शित - वि० ( सं० ) जो दिखलाया गया परमेश्वर, व्याकरण के पुरुषवाची सर्वनाम हो, दिखलाया हुया । में उत्तम पुरुष । प्रदल -- संज्ञा, पु. ( सं० ) चाण, तीर, शर। प्रथमज-संज्ञा, पु० सं०) जेठा, बड़ा। प्रदाता- वि० (सं० प्रदातृ) देने वाला, दानी । For Private and Personal Use Only Page #1186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रदान ११७५ प्रपंच प्रदान-संज्ञा, पु० (सं०) दान विवाह, देना चारू संज्ञा, पु०, प्रद्योतक (सं० ). वि० भेंट। प्रतित. प्रद्योतनीय । प्रायक-संज्ञा, पु. (सं०) देने वाला दानी, प्रधान--वि० सं०) मुख्य । संज्ञा, पु. दाता । स्त्री०-प्रदायिका। (सं०) बरदार, मुखिया मंत्री, सचिव प्रदायी- संज्ञा, पु० (सं० प्रदायिन् ) प्रदायक, सभापति, माया, प्रकृति, परधान (दे०)। देनेवाला दाता, दानी । मी०-प्रदायिनो। संज्ञा, पु. प्राधान्य। प्रदाह .... पंज्ञा, पु. (सं० शारीरिक जलन । प्रधानता---संज्ञा, खी० (सं०) प्रधान का प्रदिशा-संज्ञा, स्त्री० (२०) विदिशा कोन भाव, प्रधान का कार्य, धर्म या पद। प्रदाप- संज्ञा, पु० (०) प्रकाश दीपक दिया। प्रधानी.... संज्ञा, खी० दे० । हि० प्रधान-- प्रदीपक-संज्ञा, पु० सं०) प्रकाशक, दीपक । ई-रत्य० ) प्रधान का कार्य या पद ! दिया स्त्री०-प्रदीपिका । प्राधि- शा, पु. (सं.) पहिये की धुरी। प्रदीपति-संज्ञा, स्त्री० दे० ( सं० प्रदीप्ति) प्रधी-वि० (सं० उत्कृष्ट या श्रेष्ठ बुद्धि युक्त । प्रकाश. उजेला. कांति, चमक ज्योति, श्राभा। प्रश्वंस--- झा, पु. ( सं० ) नाश, विनाश, प्रदीपन- संज्ञा, पु० । सं० ) प्रकाश या नष्टभ्रष्ट : चौ-प्रध्यांसाभाव। वि. पु. उजाला ( उज्वल ) करना, चमकाना। अध्वंसक या प्रध्वंसी, स्त्री. प्रसिका प्रदीप्त- वि० (सं० ) प्रकाशवान. रोशन या प्रतिको । वि-प्राध्वंसनीय । जगमगाता हुया चमकीला : प्र*-- शा. पु. (दे०) प्रण, (सं० । प्रदीप्ति--संज्ञा, सो० (सं०) प्रकाश उजेला प्रति*-- संज्ञा, स्त्री० (दे०) प्रति(सं०) । चमक, श्राभा. कांति प्रतिभा प्रभा। प्रनमना, नवनी - स० क्रि० दे० (सं० प्रदुमन *---संज्ञा, पु. दे. ( सं. प्रद्युम्न) प्रणमन ) प्राणभना. प्रणाम करना द०)। प्रद्यन्न, श्री कृष्ण के ज्येष्ठ पुत्र । प्राम -झा, पु० दे० (सं० प्रणाम ) प्रदेय-वि० (सं.) दान देने योग्य । “कि प्रणाम, नमस्कार. परनाम। वस्तु विद्वन् गुरुवे प्रदेय' ... रघु। प्रनामा--संज्ञा, पु. दे० सं० प्रणामी - प्रदेश -- संज्ञा, पु० सं० ) अपनी पृथक प्रणामिन ) प्रणाम, करने वाला (दे०) । रीति-रस्म, भाषा तथा शासन-विधि वाला संज्ञा स्त्री० दे० (सं० प्रणाम -1 ई.- प्रत्य० ) देश-भाग, सूबा. प्रांत, स्थान, अवयव, अंग: गुरु, विनादि बड़ों को प्रणाम करते समय दी प्रदेशनी-प्रदेशिनी- संज्ञा, स्त्री. (सं० )| गई दक्षिणा । तर्जनी नामक अँगुली । प्रनास-संज्ञा, पु० (दे०) प्रणाश (सं०) । प्रदोष-संज्ञा, पु. ( सं०) सूर्यास्त या प्रनासी-वि. द० (सं० प्रणाशी : प्रगाशिन्) सायंकाल, संध्या, त्रयोदशी का व्रत जिसमें नाशवान, नश्वर. अनित्य | " पिता-पढ़ संध्या को शिव-पूजन कर खाते हैं, बड़ा पावन पाप-प्रनानी" --रामः । अपराध या दोष । स्त्री प्रदाया-रात्रि प्रनिपात*--सं० पु० दे० (संप्रणिपात्त ) प्रद्युम्न- संज्ञा, पु० (0) कामदेव, श्री प्रणाम, नमस्कार। कृष्ण के ज्येष्ठ पुत्र, प्रदुमन (दे०)। प्रपंच- संज्ञा पु० (सं० ) ढोंग आडंबर, प्रद्योत -- संज्ञा, '. (सं.) रश्मि. किरण, भव-जाल, झमेला, झगड़ा. जंजाल. विस्तार दीप्ति, कांति, ग्राभा, प्रभा। संसार सृष्टि, छल, एरपंच (दे०) । यौ०प्रद्यातन--संज्ञा, पु० (सं० ) सूर्य, दीप्ति, । छल-प्रपंच : “चि प्रपंच भूपहिं अपनाई" साली । For Private and Personal Use Only Page #1187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org प्रपंची ११७६ प्रभंजनजाया " मोंहि न बहु परपंच सुहाहीं"- रामा० ! प्रपंची - वि० सं० प्रपंचिन् । ढोंगी श्राडं( चरी कपटी । प्रपंच करने वाला, छली, परपंची (६०) | प्रबंध - संज्ञा, पु० ( सं० ) निबंध, कमवद्ध लेख या काव्य, उपाय आायोजन, बंदोबस्त, योजना, मजमून व्यवस्था बंधान । वि० प्रबं । यौ० प्रबंधकर्ता । प्रपत्ति - संज्ञा स्त्री० (सं० ) अनन्य भक्ति प्रबंधकल्पना - संज्ञा स्त्री० यौ० (सं० ) या शरणागत होने की भावना | सत्यासत्य कथा तथ्या तथ्य कल्पित निबंध । प्रवर - संज्ञा, क्रि० ( सं० ) श्रतिश्रेष्ठ | प्रबल - वि० सं०) महान्, अति वली, प्रचंड, उम्र घोर । त्रो० धवला | संज्ञा, पु० प्राबल्य संज्ञा, स्त्री० प्रबलता । प्रचाल - संज्ञा, पु० (सं० ) विद्रुम, मूँगा । प्रबुद्ध - वि० (सं०) पंडित, ज्ञानी खिला हुया. जगा हुआ सचेत | संज्ञा, श्री० प्रबुद्धता । प्रबाध - संज्ञा, पु० (सं०) परबोध (दे० ) जागना पूरा बोध या ज्ञान, समझाना, चेतावनी, तरली सान्वना । (वि० प्रोधक. प्रबाधित ) । C 7 प्रबोधन संज्ञा, पु० (सं० ) जागना, जगाना जताना समझाना, सांत्वना, ज्ञानदेना, ज्ञानार्थबोध घेताना, चेत, सावधान करना वि० प्रति प्रबोधना* - ६ -- स० क्रि० दे० (सं० प्रबोधन ) नींद जगाना या उठाना, सचेत करना, जनाना, सिखाना, समझाना-बुझाना, सान्त्वना देना, पाठ पढ़ाना, परबोधना (दे०)। "लगे प्रबोधन जानकिहि" -- रामा० । प्रवाधिता - संज्ञा स्त्री० (सं०) एक वर्ण-वृत्ति मंजुभाषिणी (पिं० ) प्रियंवदा सुनंदिनी | प्रबोधिनी - पंज्ञा स्त्री० (सं० ) कार्तिक, शुक्ला, देवोत्थान एकादशी | वि० सं०-प्रवोध देने वाली । प्रभंजन - झा, पु० (सं० ) प्रवल वायु, थाँधी, नाश, तोड़फोड, नष्ट-भ्रष्ट । वि० प्रपन्न - वि० (सं० ) शरणागत. आश्रित, प्राप्त प्रजान् पाहतो प्रभो - ० द० । प्रपा - संज्ञा जी० (सं०) पौसरा पौपला, प्याऊ । प्रपाठक - पंज्ञा पु० (सं०) वेदादिना श्रौत थों के अध्यायों का एक भाग । प्रशत – संज्ञा, पु० ( सं० ) पर्वतों का पार्श्व या किनारा, ऊंचे से गिरती जब वार, दरी, भरना, जहला नीचे गिरना : प्रपितामह - संज्ञा पु० (सं० ) परदादा, परमेश्वर, परब्रह्म । ( श्री० प्रपितामही ) प्रपीड़न-संज्ञा पु० (सं० ) प्रत्यंत कष्ट देना | संज्ञा, पु० प्रपीक वि प्रपीड़नीय ) ! 1 प्रपुंज - संज्ञा पु० (सं० ) समूह मुंड । प्रपुत्र - संज्ञा, पु० (सं० पुत्र का पुत्र, पोता । प्रपुना -- संज्ञा पु० (दे० ) पुना (सं० ) एक औषधि, पुनर्नवा | प्रपोत्र - संज्ञा १० (सं० ) परपोता, पुत्र का पोता, पोते का लड़का । (सी० प्रत्र) प्रफुड़ना, प्रफुलना - ० क्रि० दे० (सं० प्रफुल्ल ) फूलना, खिलना प्रपत्र होना । प्रफुला - संज्ञा स्त्री० दे० ( २० प्रफुल्ल ) कमलिनी कुमुदनी, कुई, कमल । प्रफुलित - वि० दे० (सं० प्रफुल्ल ) फूला या खिला हुआ, कुसुमित, विकसित, प्रसन्न । प्रफुल्ल - वि० सं०) खिला विकसित, या फूला हुआ आनंदित, प्रसन्न उपयुक्त | संज्ञा, स्त्री०-- प्रफुल्लता । प्रफुलित - वि० (सं० ) विकसित खिला या फूला हुआ, प्रफुलित (द०) । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मंजनीय, प्रमंजक । प्रभंजनजाया-- संज्ञा, सी०वि० (सं०) वायुपत्नी | संज्ञा, पु० ६० (सं० प्रभंजन ) हनुमान् भीमसेन, प्रभंजनजात । "कोल्हेड fare प्रभंजनजाया " - रामा० । For Private and Personal Use Only Page #1188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org प्रभंजनसुत ११७७ प्रमा प्रभंजनसुत - संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) हनु- प्रभु - संज्ञा, पु० (सं० ) स्वामी, नायक, अधिपति परमेश्वर, प्रभू, परभू (दे० ) । प्रभुता संज्ञा, स्रो० (सं० ) महत्व, वैभव, साहिबी, शासनाधिकार, हुकूमत, ऐश्वर्य्यं । "प्रभुता पाय काहि मद नाहीं "-- रामा० । प्रभुवाई - संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० प्रभुता ) महत्व, वैभव, ऐश्वर्य, साहिबी । "मैं जानी तुम्हारि प्रभुताई" - रामा० । प्रमुख - संज्ञा, पु० (सं० ) प्रभुता, प्रभुताई । प्रभू - संज्ञा, पु० दे० (सं० प्रभु ) प्रभु । प्रभूत-- वि० सं०) उत्पन्न, उद्भभूत, प्रचुर, बहुत, उन्नत | संज्ञा, पु० पंचभूत, पंच तत्व । प्रभूति - संज्ञा, स्त्री० (सं०) प्रभाव, उत्पत्ति, उन्नति, प्रचुरता, बहुलता । मान् जी, भीमसेन, प्रभंजनात्मज । प्रभद्र - संज्ञा, पु० (सं० ) नीम का पेड़ | प्रभवक - संज्ञा, ५० (सं० ) एक वर्णं वृत्त । ( पिं० ) सो० प्रहिका । प्रभव - एंझा, पु० (सं०) एक संवत्सर (ज्यो०) उत्पत्ति का हेतु जन्मस्थान, सृष्टि, उत्पत्ति, जन्म, पराक्रम, श्राकर | " सूर्य प्रसवो वंश : " - रघु० | प्रभा -- संज्ञा, सी० ( सं० ) कांति, श्राभा प्रकाश, प्रतिमा, सूर्य की एक स्त्री, कुबेर की पुरी, एक गोपी एकादशावर वृत्त (पिं० ) मंदाकिनी । प्रभाउछ - संज्ञा, पु० दे० (सं० प्रभाव ) प्रभाव, पराव, परसाउ प्रभाऊ (दे०) प्रभाकर -- संज्ञा, पु० ( सं० ) सूर्य, चंद्रमा, अनि सागर, विभाकर ! प्रभाकीय संज्ञा, पु० यौ० (सं०) जुगुनू । प्रभात -- संज्ञा, पु० ( ० ) राधेरा, तड़का, परभात (दे० ) । वि० प्रभातकी । प्रभाती - संज्ञा, स्त्री० (सं० प्रभात ) सवेरे या तड़के गाने का एक गीत, परभाती (दे० ) । प्रभाव - संज्ञा, पु० (सं० ) शक्ति, बल, अर, सामर्थ्य, यथेष्ट कार्य करने कराने का अधिकार, दबाव, उद्भव, माहात्म्य, महिमा, महत्ता, परभाव (दे० ) : ' मोर प्रभाव विदित नहि तोरे " - रामा० । वि० - प्रभावी, प्रभावित । प्रभावती - संज्ञा, खो० (सं०) सूर्य की एक स्त्री, १३ वर्णों का एक छंद रुचिरा ( पिं० ) एक दैत्यकन्या वि० [स्त्री० प्रभा या प्रभाववाली । प्रभास -- संज्ञा, पु० (सं० ) कांति, प्रकाश, ज्योति, दीधि, सोम नामक एक प्राचीन तीर्थ प्रभासना* - अ० क्रि० दे० (सं० प्रभासन ) afen या प्रकाशित होना दिखाई या समझ पड़ना | संज्ञा, पु० प्रभासन । भा० श० को० १४८ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir -- प्रभृति- :- अव्य० (सं० ) इत्यादि, आदि । प्रभेद - संज्ञा, पु० (सं० ) अलगाव, भिन्नता, अंतर, भेद गुप्त बात । 2 प्रमेव संज्ञा, पु० दे० (सं० प्रभेद ) प्रभेद । प्रमन्त - वि० (सं०) पागल, नशे में चूर, मतवाला, मस्त बदहोश । संज्ञा स्त्री० प्रमत्तता । प्रमथ - संज्ञा, पु० (सं०) मथन या पीड़ित करने वाला, शिव के गण या सेवक । " भृंगी फूंकि प्रमथ गन टेरे " रामा० । प्रमथन - संज्ञा, पु० (सं०) वध या नाश करना, दुखी करना, मथना, प्रमंथन | वि०प्रमथनीय । प्रमथगण - संज्ञा, ५० यौ० (सं०) शिव जी के सेवक । ' प्रमथनाथ- प्रमथ- पति प्रमथाधिप-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) शिव जी, प्रमथेश । प्रमद - संज्ञा, पु० (सं०) हर्ष, प्रसन्नता, मस्ती, मतवालापन, प्रमत्तता । वि० मस्त, मतवाला । प्रमदा - संज्ञा, स्री० (सं०) युवती स्त्री० मस्त । प्रमदा प्रमदा महता महता " मट्टी० । प्रमर्दन - संज्ञा, पु० (सं०) भली भाँति मलना, रौंदना, कुचलना । वि० - प्रति मर्दन कर्त्ता । प्रमा - संज्ञा, स्त्री० (सं०) यथार्थ बोध, शुद्ध ज्ञान (न्याय), माप, नाप ! " For Private and Personal Use Only Page #1189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रमाण, प्रमान ११७८ प्रमेय प्रमाण, प्रमान ( दे०)--संज्ञा, पु. (सं०) प्रमाथी-संज्ञा,पु. (सं० प्रमाथिन् ) पीड़नकिसी बात को सिद्ध करने वाली बात, कर्ता, मारने या मथने वाला देह और सबूत, एक अलंकार जिसमें पाठ प्रमाणों इन्द्रियों को दुख पहुँचाने वाला। में से किसी का चमत्कृत कथन हो, सत्यता | प्रमाद .... संज्ञा, पु. ( सं० ) भ्रम, भूल, धोखा, का साधन, सम्मान, निश्चय का हेतु, प्रतीति, बेहोशी, असावधानी, समाधि के साधनों मानने योग्य बातें, माननीय बात या वस्तु, को ठीक न जान उनकी भावना न करना मान, मयोंदा, प्रमाणिक बात, इयत्ता, सीमा, (योग) । राजन! प्रमादेन निजेन लंकाम्"वि० यौ० प्रमाण-पुष्ट । वि०---ठीक, सत्य, ! भट्टी । सिद्ध, बड़ाई आदि में समान, चरितार्थ, प्रमादिक--वि० (सं०) श्रमात्मक भूलचूक, प्रमाणित । यौ० प्रमाण-पत्र । अव्य--तक, करने वाला, श्रमीभूत । सी०-प्रमादिका। पर्यंत । "सत जोजन प्रमान लै धाऊँ''--- | प्रमादी- वि० सं० प्रमादिन् ) प्रमाद-युक्त, रामा०। भूल करने वाला असावधान, नशेबाज । स्रो०प्रमाण कोटि-~- संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) उन | प्रमादिनी । बातों या पदार्थो का घेरा जो प्रमाण हों। प्रमान-संज्ञा, पु० दे० (सं० प्रवाण) प्रमाण । प्रमाणना--स० क्रि० दे० (सं० प्रमाण + ना- प्रमाना * --- स० क्रि० दे० (सं० प्रमाण+ प्रत्य०), प्रमानना (दे०) प्रमाण मानना, ना--प्रत्य०) प्रमाण मानना, साबित या ठीक समझना। निश्चित करना, स्थिर करना । “सरस बखानै प्रमाण-पत्र--संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) किसी हम वचन प्रमानै अाज' अ० व०। बात के प्रमाण का लेख-पत्र, मनद, सार्टी प्रमानी-वि० दे० सं० प्रामाणिक) मानने फिकेट (अं०)। या प्रमाण के योग्य माननीय । प्रमाणिक--वि० दे० (सं० प्रामाणिक ) मानगे । प्रमित-वि० (सं०) ज्ञात विदित, निश्चित, योग्य, प्रमाणों-द्वारा सिद्ध, सत्य, ठीक। थोड़ा, परिमित । प्रमाणिका-संज्ञा, स्त्री. (सं० ) नगस्वरू- प्रपितातग-संज्ञा, स्त्रो० सं०) द्वादशाक्षरा पिणी या एक वर्णवृत्त । 'जरा लगौ प्रमा- एक वर्णिक वृत्त (पि०)। णिका"-(पिं०)। प्रनिति --- संज्ञा, स्त्री० (सं०) सत्यबोध या ज्ञान । प्रमाणित-वि० (सं०) साबित, निश्चित, । प्रमोला- संज्ञा, स्त्री० ( स०) शिथिलता, ठीक, प्रमाणों से सिद्ध, प्रमाणपुष। ग्लानि, तंद्रा, थकावट । प्रमाता-संज्ञा, पु० (सं० प्रमात ) प्रमाणों प्रमुख--वि० (सं०) प्रधान, श्रेष्ठ, प्रथम, प्रतिद्वारा सिद्ध करने वाला, साबित करने वाला, टित, अगुना, माननीय अत्र्य० ---इत्यादि । प्रमा का ज्ञानी, ज्ञानकर्ता, श्रात्मा या चेतन प्रदिन---वि० ( सं० ) प्रसन्न , हर्षित । जीव, साक्षी, दृष्टा, प्रमायुक्त । संज्ञा, स्त्री० प्रमुदितवदना--संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) (सं०) पिता की माता, दादी। एक द्वादशाक्षर छंद, मंदाकिनी (पि.)। प्रमातामह - संज्ञा, पु. (सं०) मातामह या वि० स्त्री. प्रसन्न मुखी। नाना के पिता, परनाना । (स्रो०-प्रदाता- प्रमेय-वि० (सं०) प्रमाण का विषय या साध्य, प्रतिपादन करने योग्य, जो प्रमाण · प्रमाथ-संज्ञा, पु० (सं०) प्रमथन, बलपूर्वक | द्वारा सिद्धि हो सके, निर्धारणीय, जिसका हरण, विलोड़न, निकालना। क्रि० स० (दे०)। मान कहा जा सके। संज्ञा, पु०-प्रमाणप्रमाथना। द्वारा बोधनीय । मही)! For Private and Personal Use Only Page #1190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रमेह १९७६ DDOS प प्रलपित प्रमेह-संज्ञा, पु. (सं०) एक रोग जिसमें पद्धति, यज्ञादि के अनुष्ठान की बोध-विधि । मूत्र-द्वारा शरीर का तीण धातु या शुक्र अभिनय, दृष्टांत, विधि, निदर्शन । निकलता है। प्रयोगातिशय--संज्ञा, पु० यौ० (सं०) प्रमोद -- संज्ञा, पु० (0) आनन्द, हर्ष। प्रस्तावना का एक भेद ( नाट्य ० )। "प्रमोद नृत्यैः सह वारयोषिताम्"-रघु। प्रयोगी, प्रयोजक --संज्ञा, पु. ( सं० ) अनु. लाशासिलियों में टान या प्रयोग-कर्ता, प्रदर्शक, प्रेरक । से एक सिद्धि (सांख्य० )। प्रयान--संज्ञा, पु. ( सं० ) अभिप्राय, अर्थ, प्रयंक* -..संज्ञा, पु० दे० (सं० पयं क) प्रजंह हेतु, उद्देश्य कार्य, प्राशय, व्यवहार तात्पर्य, उपयोग कारण । वि० प्रयोजनीय, परजक (दे०) पलँग शय्या। प्रयोजक, प्रयोजित । "रतोहागम लध्वसं. प्रयंत*-अव्य० (दे०) तक, पर्यत (सं०)। देहाः प्रयोजनम् "..म० भा० प्रयत्न- संज्ञा, पु. (सं०) उद्देश्य-पूर्ति के लिये प्रयोजनवती लक्षणा --संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) क्रिया, उपाय, चेष्टा, प्रयास, परिश्रम, वर्णो प्रयोजन द्वारा वाच्यार्थ से पृथक अर्थ सूचक चारण क्रिया ( व्या०), क्रिया (प्राणियों की), जीवों का व्यापार ( न्याय )। लक्षणा ( काव्य०)। प्रयत्नवान-वि० ( सं० प्रयत्नवत् ) उपाय प्रयेाजनीय - वि० (सं०) कार्य या मतलब का, आवश्यकीय, उपयोगी। करने वाला । स्त्री०--प्रयत्नवती। प्रयोज्य-वि० (सं०) कार्य में लाने या प्रयाग, दे० पराम- संज्ञा, पु० (सं०) गंगा प्रयोग करने के योग्य । जमुना के संगम पर एक तीर्थ, इलाहाबाद । प्ररोचना-संज्ञा, स्त्री० (सं०) रुचि या चाह प्रयागधाल-संज्ञा, पु० (सं० प्रयाग + वाला उत्पन्न करना, बढ़ाना, उत्तेजना, नट, या .- हि० प्रत्य०) प्रयाग का पंडा। सूत्रधारादि का प्रस्तावना के बीच में नाटकप्रयागा --संज्ञा, पु० (सं०) यात्रा, प्रस्थान, कार या नाटक का प्रशंसात्मक परिचय गमन, युद्ध-यात्रा, हमला, चढ़ाई। यौ० देना ( नाट्य )। महाप्रयाण-महाप्रस्थान, मोह, मृत्यु । प्ररोहण-संज्ञा, पु० (सं०) चढ़ाव, जमना, प्रयान-संज्ञा, पु० दे० (सं० प्रयाण) प्रयाण ? उगना, श्रारोहण । वि० --प्ररोहक, प्ररोप्रयास-संज्ञा, पु० (सं.) उद्योग, उपाय, हित, प्ररोहणीय । प्रयत्न, श्रम । “बिन प्रयास सागर तरहि | प्रलंब--- वि० (सं०) लटकता या टॅगा हुश्रा, नाथ भालु-कपि धार "-रामा०। लंबा, निकला था टिका हुआ। "प्रलंब बाहु प्रयुक्त-संज्ञा, पु. (सं० ) सम्मिलित, संयो- विक्रमम्'- रामा० । संज्ञा, पु. (सं०) एक जित, कार्य में प्रचलित, व्यवहृत् । दैत्य । प्रयुत-संज्ञा, पु० (सं०) दश लाख की संख्या प्रलंबन--संज्ञा पु० (सं०) सहारा, अवलंबन । प्रयोक्ता संज्ञा, पु० (सं० प्रयोक्त ) व्यवहार वि० प्रलंबनीय, प्रलंबित, प्रलंबी। या प्रयोग करने वाला, ऋणदाता। प्रलंबी - वि० सं० प्रलंबिन् ) लटकने या प्रयोग-वि० (सं०) किसी पदार्थ को सहारा लेने वाला । स्त्री० प्रलंबिनी। किसी कार्य में लाना व्यवहार, साधन, प्रापित-वि० (सं०) कथित, उक्त, व्यर्थ या आयोजन, बरता जाना, क्रिया का विधान, मिथ्या भाषित, अंडबंड या ऊटपटांग कहा मारण, मोहनादि १२ तांत्रिक उपचार, हुआ । For Private and Personal Use Only Page #1191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रलयंकर ११८० प्रवाही प्रलयंकर-वि० (सं०) प्रलय या नाशकारी, प्रघर - वि० (सं०) बड़ा, श्रेष्ठ, मुख्य । संज्ञा, विनाशक । स्त्री० प्रलयंकरी। पु०-संतति, गोत्र में विशेष प्रवर्तक, श्रेष्ठ मुनि। प्रलय-संज्ञा, पु० (सं०) नाश, लय, मिट प्रवरललिता · संज्ञा, सो० (सं०) एक वर्णिक जाना, संसार के सब पदार्थों का प्रकृति वृत्त, (पि०) में मिल जाना, विश्व का तिरोभाव, प्रवर्त-संज्ञा, पु० (०) कार्यारंभ. एक प्रकार मूर्छा, अचेत, एक साविक भाव, किसी वस्तु के बादल, ठानना, करना । वि० प्रचलित। या व्यक्ति के ध्यान में लय होने से पूर्व प्रवर्तक-संज्ञा, पु० (२०) संचालक, चलाने स्मृति का लोप (साहि०)। और प्रारंभ करनेवाला, प्रवृत्त या जारी प्रलयकत्ती-संज्ञा, पु० यौ० ( सं० प्रलयकत') करनेवाला, निकालने या ईजाद करनेप्रलय या नाश करने वाला। वाला, उभाड़नेवाला, उत्तेजक, प्रस्ता. प्रलयकारी-संज्ञा, पु. ( सं० प्रलयकारिन् ) वना का वह रूप जिसमें सूत्रधार वर्तमान प्रलय करने वाला, प्रलयकारक। काल का कथन करता तथा तत्सम्बन्ध लिये प्रलाप-संज्ञा, पु. (सं०) बकना, कहना, हुए पात्र प्रविष्ट होता है (नाध्य०)। पागल सा व्यर्थ बकवाद या बड़-बड़। वि० प्रवर्तन -- संज्ञा, पु. (सं०) कार्य का प्रारम्भ प्रलापी, प्रलापक, प्रत्लपित।। । करना या चलाना, प्रचार या जारी करना, प्रलेप-संज्ञा, पु० (सं०) लेप, लेश, पुल्टिस। ठानना । वि० प्रवर्तित, प्रवननीय, प्रवर्त्य । प्रलेपन--संज्ञा, पु. ( सं०) पोतने या लेप | प्रवर्षण · संज्ञा, पु० (सं०) वर्षा, एक पहाड़, करने या लेशने का कार्य । वि० प्रलेषक, ( किष्किन्धा )।"राम प्रवर्पण गिरि पर प्रलेप्य, प्रलेपनीय। छाये"- रामा० । प्रलोभ-प्रलोभन-संज्ञा, पु. (सं०) लालच प्रबह--संज्ञा, पु. (सं०) बड़ा भारी बहाव, या लोभ दिखाना । वि. प्रलोभनीय, वायु के सात भेदों में से एक ! प्रलोभक। प्रवाद-संज्ञा, पु० (सं०) बातचीत, जनरव, प्रवंचना--- संज्ञा, स्त्री० (सं०) धूर्तता, ठगी, जनश्रति, अपवाद । यौलीकप्रवाद । छल । वि०प्रवंचनीय,प्रवंचक, प्रपंचित ! "लोकप्रवादः सत्त्योऽयंबाल्मी । प्रवक्ता-संज्ञा, पु. ( सं० प्रवक्त ) भली-भाँति प्रवान* --संज्ञा, पु. (दे०) प्रमाण (सं०)। कहने या बोलने वाला, वेदादि का उपदेशक । प्रवाल- संज्ञा, पु० (सं० ) विद्रुम, दूंगा। प्रवचन-संज्ञा, पु. (सं०) भली भाँति "पुरः प्रवालैरिव पूरितार्थया"-~-माघ । ( श्रोता को ) समझा कर कहना, वेदांग प्रघास-संज्ञा, पु० (सं०) विदेश में रहना, व्याख्या । वि. प्रवचनीय । परदेश, स्वदेश छोड़ अन्य देश में निवास । प्रवण-संज्ञा, पु० (सं०) क्रमशः नीची होती प्रवासी- वि० (सं० प्रवासिन ) परदेशी, हुई भूमि, चौराहा, ढाल, उतार, पेट । वि० --- विदेशी, दूसरे देश में रहने वाला। नत, ढालुवाँ, झुका या बालू, नन्न, विनीत, } प्रवाह-संज्ञा, पु० (सं०) जल-कोत, पानी का उदार, रत, प्रवृत्त । बहाव, धारा, चलता हुआ कार्य-क्रम, प्रवत्स्यत्पतिका-संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) वह शिलशिला, लगातार जारी रहना। नायिका जिसका स्वामी विदेश जा रहा हो। प्रधाहत- वि० सं०) बहता हुआ। प्रवत्स्यत्प्रेयसी, प्रवत्स्यद्भत का--संज्ञा, प्रवाही- वि० (सं० प्रवाहिन् ) बहने या स्त्री० यौ० (सं०) प्रवत्स्यत्पतिका । बहाने वाला । स्त्री० प्रवाहिनी। For Private and Personal Use Only Page #1192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org प्रविष्ट प्रविष्ट -- वि० (सं०) घुमा हुया । " गङ्गा-गर्भप्रविष्ट सूर्य - सुत शोभाशाली" - मै० श० । प्रविमना- अ० क्रि० दे० (सं० प्रविश ) पैठना, अंदर जाना | घुसना, प्रवीणा -- वि० (सं०) पटु, चतुर, दत्त, निपुण, होशियार, कुशल, प्रत्रोत परवीन (दे०) | "विधि की जड़ता का कहौं, भूले परे प्रवीण" -- नीति० । संज्ञा, स्त्री० - प्रवीणता । प्रवीन - वि० दे० (सं० प्रवीण ) प्रवीण | प्रवीर - वि० (सं०) शूर, वीर, बहादुर, योद्धा । प्रवृत्त वि० (सं०) उद्यत, तत्पर, तैयार । प्रवृत्ति संज्ञा स्त्री० (सं०) मन की लगन, बहाव, चित्त का लगाव, रुचि, सांसारिक विषयों का ग्रहण, प्रवर्तन, कार्य चलाना, एक यत्र (न्या० ) प्रवाह | ( विलो० - निवृत्ति) । प्रवृद्ध - वि० (सं०) प्रौद, पक्का, मजबूत, बदा हुश्रा | संज्ञा, पु० खड्ग के ३२ हाथों में एक । प्रवेश - संज्ञा, ५० (सं०) घुसना, भीतर जाना, पैठना, पहुँच, गति, रसाई, जानकारी । प्रवेशिका - संज्ञा, खो० (सं०) वह चिन्ह या पत्र जिसके द्वारा कहीं जा सकें, दाखिला । वि० [स्त्री० प्रवेश करने वाली । पु० प्रवेशक । प्रवृज्या - संज्ञा, खो० (सं०) संन्यास | प्रशंस-- संज्ञा, त्रो० (दे०) प्रशंसा (सं० ) । वि० (सं० प्रशंस्य) प्रशंसा के योग्य । प्रशंसक - वि० सं०) स्तुति या प्रशंसा करने ११८१ वाला, चापलूस, ख़ुशामदी । प्रशंसन- संज्ञा, पु० (सं०) सराहना, गुणगान या कीर्तन स्तुति करना | वि०प्रशंसनीय, प्रशंसित. प्रशंस्य । प्रशंसना - स० कि० दे० ( सं० प्रशंसन ) सराहना, गुणगाना, स्तुति करना, प्रसंसना परसंसना (दे० ) । प्रशंसनीय - वि० (सं०) श्रेष्ठ, सराहने योग्य | प्रशंसा - संज्ञा स्त्री० (सं०) स्तुति, गुण-गान, बड़ाई. तारीफ़ (फा० ) | ( वि० प्रशंसित) | प्रशंसोपमा- संज्ञा, खो० यौ० (सं० ) एक लंकार जिसमें उपमेय की प्रति प्रशंसा से Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रष्टा GENER उपमान की सराहना सूचित की जाय । विलो०- विदोएमा | प्रशंस्य- वि० (०) प्रशंसनीय | प्रशमन --- संज्ञा, पु० (सं०) शांति, विनाश, ध्वंस, बध, नारण, शमन प्रशस्त - वि० (१०) प्रशंसनीय, श्रेष्ठ, उत्तम, होनहार, सुन्दर, प्रशंसा-पाव | प्रणस्तपाद-रज्ञा, पु० यौ० (सं०) वैशेषिक, पर पदार्थ धर्म-संग्रह ग्रन्थ के लेखक एक आचार्य ( प्राचीन ) | For Private and Personal Use Only प्रशस्ति - संज्ञा, स्त्री० (सं०) स्तुति, बड़ाई, प्रशंसा, ताम्रपत्र या पत्थर आदि पर खुदे लेख या राजाज्ञा के लेख पुस्तक के श्रादि या अन्त में पुस्तक के रचयिता, विषय कालादि-सूचक पक्तियाँ ( प्राचीन ) : यौ०प्रशस्ति-पाट - कीर्ति कीर्तन या यशोगान । प्रशांत - वि० (सं०) स्थिर, शान्त, निश्चल | संज्ञा, पु० एशिया और अमेरिका के बीच का महासागर भूगो० ) | संज्ञा, खो० प्रशांति । प्रशाखा -- संज्ञा. बी० (सं०) पतली डाली या टहनी, प्रतिशाखा, शाखा की शाखा । प्रश्न- पंज्ञा, पु० (सं० ) पूछने की बात, विचारणीय बात, निवाला, पूछताछ, सवाल, एक उपनिषद् | यौ० ५.शव-प्रश्न | प्रश्नोत्तर - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) सवालजवाब, सम्बाद, एक अलंकार जिसमें अनेक प्रश्नों का एक उत्तर हो ( प्र० पी० ) । वि० [स्त्री० प्रश्नोत्तरी- प्रश्नोत्तर वाली । प्रथम संज्ञा, पु० (सं०) सहारा, आधार, आश्रय स्थान, भावरा, भरोसा । प्रभाव-संज्ञा, पु० (सं०) मुत्र, पेशाब । प्रश्वास- संज्ञा, उ० (सं०) नाक से बाहर निकलने वाला बयु | प्रनित-- वि० (सं०) प्रणामी, विनीत, प्रेमी । प्रलय - वि० (सं०) शिथित, अशक्त । - वि० (सं०) पूछने के योग्य | प्रजा - संज्ञा, पु० (सं०) प्रश्नकत्ती, प्रच्छुक । Page #1193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रष्ठ ११८२ प्रसिद्धता प्रष्ठ-वि० (सं०) अग्रगामी, श्रेष्ठ, प्रधान, प्रसाद पाना-(मिलना) भोजन करना, मुख्य, श्रगुश्रा । संज्ञा, पु. प्रष्ठा-श्रेष्ठ, पीठ। बुराई का बुरा फल पाना (व्यंग्य)। शुद्ध, प्रसंग-- संज्ञा, पु. (२०) संगति, सम्बंध, शिष्ठ, स्पष्ट तथा स्वच्छ भाषा का एक विषय का लगाव, अर्थ का मेल, पुरुष-स्त्री का गुण ( काव्य० ), शब्दालंकार-संबन्धी एक संयोग, विषय, बात,प्रकरण, प्रस्ताव, अवसर, वृत्ति, कोमला वृत्ति। कारण उपयुक्त संयोग, मौका, हेतु विस्तार प्रसादना* --स० क्रि० दे० ( सं० प्रसादन ) विषयानुक्रम । जेहि प्रसंग दूषन लगै,, प्रसन्न या राज़ी या खुश करना । तजिये ताको साथ "--नीति। प्रसादनीय* --- वि० (सं०' प्रसन्न, राजी प्रसंसना* -- स० क्रि० दे० (सं० प्रशंसन ) या खुश करने योग्य । प्रशंसना। " कहौं स्वभाव न, कुलहि प्रलादी--संज्ञा, सी० दे० ( सं० प्रसाद + प्रसंसी"-रामा० ई - हिं० प्रत्य०) नैवेद्य देवता पर चढी प्रसन्न-वि० (सं०) हर्षित, संतुष्ट, आनंदित, वस्तु, जो बड़े या पूज्य लोग प्रसन्न हो अनुकूल, प्रफुल्ल परसना (दे०) । " भये छोटों को दें, परसादी (दे०)। प्रसन्न देखि दोउ भाई"- - रामा। -वि. (फा० पसंद ! मनोनीत, परसंद (दे०)।। प्रसाधन-संज्ञा, पु. ( सं० ) निष्पादन, प्रसन्नचित्त-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) संतुष्ट संपादन, वेश रचना वि० -प्रसाधनीय । या हर्षित मन, दयालु, खुशदिल (फ़ा०) । प्रसाधनी-संज्ञा, स्त्री० (सं०) कधी ( बाल यौ० प्रसन्नवदन। सुधारने की) ककई (प्रा.)। प्रसन्नता--संज्ञा, स्त्री० (सं०) आनंद, संतोष प्रसाधिका-संज्ञा, स्त्री० (सं०) देश-कारिणी, हर्ष, खुशी, कृपा, प्रफुल्लता। वेश-रचने वाली, श्रृंगार करने वाली, नाईन । प्रसन्नमुख-वि० यौ० (सं०) हँसमुख । | प्रसार - संज्ञा, पु० (सं०) पसार (दे०) फैलाव, प्रसभित*-वि० (सं०) प्रसन्न । विस्तार, गमन, निकाप, निर्गम, संचार। प्रसरण-संज्ञा, पु. ( सं० ) फैलाना, व्याप्ति. | प्रसारण- संज्ञा, पु० (सं०) फैलाना, प्रस्तारण, आगे बढना, फैलाव, विस्तार, खिसकना, विस्तारित करना । वि.---प्रसारित, सरकना । वि. प्रसरणीय, प्रसारित प्रसारणीय, प्रसाय्य ।। प्रसल- संज्ञा, पु० सं०) हेमंत ऋतु | प्रसारिणी-संज्ञा, स्वी० ( सं०) लाजवंती. प्रसव-संज्ञा, पु. (सं०) प्रसूति, जनन, । लता, लजालु, गंधप्रसारिणी। बच्चा पैदा करना, जन्म, जनना, संतान, | प्रसारित--वि० (सं० ) फैलाया हुश्रा। उत्पत्ति । यौ० --प्रसव-पीडा प्रसचिनी-वि० स्त्री. (सं० ) प्रसव करने प्रसारी--वि० (सं० प्रसारिन्) फैलाने वाला किराना और औषधियों की दुकान करने या जनने वाली! प्रसाद-- संज्ञा, पु. ( सं० ) परसाद (दे०) वाला, पंसारी, पलारी (दे०) । अनुग्रह, दया, कृपा, प्रसन्नता। " प्रसादस्तु | प्रसित-संज्ञा, स्त्री० (सं०) पीब, मवाद । प्रसन्नता"-नैवेद्य, जो वस्तु देवता या बड़े प्रसिति--संज्ञा, स्त्री० (सं० ) रस्त्री, रश्मि, लोग प्रसन्न होकर छोटों (भक्तों, दामों) को ज्वाला, लपट । दें, देवता, गुरुजनादि को देकर बची वस्तु, प्रसिद्ध-वि० (सं०) विख्यात, अलंकृत, भोजन, देवता पर चढी वस्तु। प्रभुप्रसाद प्रतिष्ठित, भूषित, परसिद्ध (दे०)। मैं जाब सुखाई "- रामा० । मुहा०- प्रसिद्धता--संज्ञा, स्त्री० ( सं० ) ख्याति । For Private and Personal Use Only Page #1194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra प्रसिद्धि प्रसिद्धि - संज्ञा, (सं०) ख्याति भूषा, प्रचार, अलंकृत, शृंगार, प्रसिद्धी (दे० ) । प्रसीद - स० क्रि० (सं० ) प्रपन्न हो कृपा या दया करो। " प्रसीद परमेश्वर " www.kobatirth.org 1 १९८३ प्रस्फुट प्रस्तार संज्ञा, पु० (सं०) वृद्धि, फैलाव, परतों में से प्रथम जो, छन्दों की भेद संख्या और रूप सूचित करता है (पिं० ) | प्रस्ताव -- संज्ञा, पु० (सं० ) अवसर की बात, प्रसङ्ग, प्रकरण. कथानुष्ठान, चर्चा, सभा में उपस्थित मन्तव्य या विचार, भूमिका, विषय-परिचय, प्राक्कथन ( श्राधु० ) । वि० प्रस्तावक, प्रस्ताविक । प्रस्तावना -- संज्ञा, त्री० (सं० ) थारम्भ, भूमिका, प्राक्कथन, उपोद्घात, उठाया हुआ प्रसंग | अभिनय से पूर्व विषय - परिचायक, प्रसंग कथन ( नाटय० ) | प्रस्ताविक - वि० (सं०) यथा समय, समयानुसार । प्रस्तावित - वि० (सं०) जिसके हेतु प्रस्ताव किया गया हो । प्रसुप्त - वि० (सं० ) सोया हुआ । प्रसुति संज्ञा, खो० (सं० ) नींद, निद्रा | प्रसू-संज्ञा, खो० (सं० ) जनने या उत्पन्न करने वाली, प्रसुता, प्रसवा । प्रसुत - वि० सं०) उत्पन्न, पैदा, संजात, उत्पादक । स्त्री० प्रसूता | संज्ञा, पु० (सं० ) प्रसव के बाद होने वाला स्त्रियों का एक रोग परसूत (दे० ) । प्रसूता - संज्ञा, स्त्री० (सं० ) बच्चा उत्पन्न करने वाली स्त्री, जच्चा । प्रसुतिप्रसूती -संज्ञा, स्त्री० (सं० ) कारण, उत्पत्ति, उद्भव, जन्म, प्रसव, दक्ष की स्त्री, कारण, प्रकृति ! " मंजुल मंगल मोद. प्रसूती ". - रामा० । प्रसूतिका - संज्ञा, सी० (सं० ) प्रसूता । यौ० - प्रसूतिकागृह - जहाँ प्रसूता जनन करे और रहे, मोर ( प्रान्ती० ) । प्रसून संज्ञा, पु० (सं०) फल, सुमन, फल | प्रवृत्ति - संज्ञा, स्त्री० (सं० ) विस्तार, संतान, तत्पर, लंपट | वि० प्रवृत । प्रसेक - संज्ञा, पु० (सं०) सींचना, छिड़काव निचोड़, प्रमेह रोग जिरियान | सुश्रु० ) । प्रसेद - संज्ञा, पु० दे० (सं० प्रस्वेद) पसीना । प्रसेव -- संज्ञा, पु० (सं०) बीन की तूंबी । प्रस्कन्दन -- संज्ञा, पु० (सं०) फलाँग, झपट, शिव, विरेचन, अतीसार : प्रस्कन - वि० (सं०) पतित, गिरा हुआ । प्रस्खलन - संज्ञा, पु० (सं०) स्खलना, पतन, गिरना, पत्तों का बिछौना । प्रस्तर -- संज्ञा, पु० (सं०) पत्थर, बिछौना प्रस्तार । यौ० प्रस्तरमय - पथरीला | प्रस्तरण – संज्ञा, पु० (सं०) बिछौना, बिछावन प्रस्तार, फैलाव | Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रस्तुत - वि० (सं०) कथित, उक्त, उपस्थित, सम्मुख छाया हुआ, तैयार, उद्यत, प्रशंसित, वस्तु, उपमेय ( काव्य ० ) । प्रस्तुतालंकार - संज्ञा, पु० ( सं० ) एक अंकार जिसमें एक प्रस्तुत पर कही हुई बात का अभिप्राय दूसरे प्रस्तुत पर घटित किया जाय ( काव्य ) | प्रस्थ - संज्ञा, पु० (सं०) पर्वत पर की समतल भूमि, एक वाट या मान ( प्राचीन ) । प्रस्थान - संज्ञा पु० ( सं० ) यात्रा, गमन, यात्रा - मुहूर्त पर यात्रा की दिशा में कहीं रखाया गया यात्री का वस्त्रादि । प्रस्थानी - वि० (सं० प्रस्थानिन्) जानेवाला | प्रस्थापक - वि० (सं०) भेजने वाला, स्थापना करने वाला वि० - प्रस्थापनीय । प्रस्थापन - संज्ञा, पु० (सं०) भेजना, प्रस्थान कराना, स्थापन, प्रेरणा | वि० प्रस्थापित | प्रस्थित - वि० (सं० ) ठहराया या टिका हुआ, गत, जो गया हो, हद। प्रस्तुषा - संज्ञा, त्रो० (सं०) पोते की स्त्री । प्रस्फुट - वि० (सं० ) खिला हुआ, विकसित । For Private and Personal Use Only Page #1195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रस्फुटित प्राकार प्रस्फुटित--वि० (सं०) विकसित, प्रफुल्लित, प्रहारना* --- स० क्रि० दे० (सं० प्रहार ) प्रकाशित, प्रस्फुरित । संज्ञा, मु. प्रस्टन- मारना, प्राघात करना, मारने को फेंकना । विकास । वि० प्रस्फुटनी। ।प्रहारित* -- वि० ( सं० प्रहार ) प्रताड़ित, प्रस्फुरमा -संज्ञा, पु. ( स०) विकसना, जिसपर श्राघात या 'चोट की जाय। निकलना, प्रकाशित होना, पृ.लना । वि०-प्रारो- वि० (सं० प्रहारिन्) मारने, आघात प्रस्कुरणीय, प्ररित। या प्रहार करने वाला, छोड़ने या चलाने प्रमोट मोहन-संज्ञा, पु० सं०) स्फोट, वाला. बिनाशक खी. हामि । एक वारसी बड़े जोर से "टना, या खुलना। प्रहित--वि० (स०) क्षिप्त, प्रोषित, प्रेरित । प्रत्रवाः संज्ञा, पु० (सं०) निर, सोता, ! " रणेषु तस्य प्रहिता प्रवेतमा ---माघ०। झरना. प्रपात, जल का गिरना या टपक कर प्रहमा -- वि० (सं०) परित्यक्त, छोड़ा हुआ । बहना वि०-प्रस्त्रवणाय, पवित। प्रहुत-संज्ञा, पु. (सं०) पलिवैश्वदेव, भूतप्रसव - संज्ञा, पु० (सं०) मूत्र, भूत, पेशाब ।। प्रस्ताव- संज्ञा, पु० (सं०) झरना, पेशाव प्रहर --- वि० (सं० ) संतुष्ट, प्रसन्न, हर्षित, प्रस्वेद--- संज्ञा, पु० (सं०) पलीना पसव (दे०)। यौ० प्रहृष्टमना--- संतुष्ट चित्त । प्रहर-संज्ञा, पु० : सं०) दर (दे०) दिन पोलका-संज्ञा, स्त्री० । सं० ) पहेली, रात के ८ सम भागों में से एक बुझौवल, एक थलंकार ( काव्य.)। प्रहरपना, प्रहरला --अ० के० दे० (सं० प्रहाद - संज्ञा, पु. ( स० ) प्रहलाद (दे०)। प्रर्षण) प्रसन्न, हपित या आनंदित होना। अनन्द, प्रमोद, हिरण्यकशिपु का पुत्र, एक प्रहरमा कालका--संज्ञा, स्त्री. (सं० ) १४ भक्त दैत्य। प्रह - वि० (सं०) नम्र विनीत, आसक्ता । वर्णो का एक वर्ण वृत्त (पि० । प्रवीका--संज्ञा, स्त्री० (सं०) पहेली। प्रहरी--वि० (सं० प्रहरिन् । हस, पहरा प्रांगणा, प्रांगन--(दे०) संज्ञा, पु० (सं०), (दे०) चौकीदार, पहरेदार डियाजी, पहर | आँगन, सहन, घर के बीच का खुला भाग । पहर पर घंटा बजाने वाला प्रांजर-वि० (सं० ) सीधा, सरल, सञ्चा, प्रहर्ष - संज्ञा, पु० (सं० श्रानंद. प्रसन्नता। समान । प्रहर्षण--- संज्ञा, पु० (सं०) आनंद, एक प्रांत-संज्ञा, पु. (सं०) अंत, छोर, किनारा, अर्थालंकार जिसमें अकस्मात बिना यत्न सीमा, दिशा, सूबा, ज़िला, प्रदेश, श्रोर, के सभीष्ट फल की प्राहि का वर्णन हो. एक सिरा खंड। वि० प्रांतिक । पर्वत, प्रहरमान (दे०)वि०.-महषित, प्रांतर-संज्ञा, पु. ( सं० ) अंतर. बिना छाया प्रहपण। ६ । “ राम ग्रहण गिरि पर का मर्ग, या बन, दो प्रदेशों के मध्य की छाये"-रामा० । खाली जगह । प्रहर्षणी- संज्ञा स्त्री०(सं०) एक वर्ण वृत्त पिं०) प्रांतीय, प्रांतिक- वि० (सं० ) किसी एक प्रहसन--संज्ञा, पु. ( सं० ) परिहास, प्रांत संबंधी । संज्ञा, स्त्री-प्रान्तीयता, हँसी-दिल्लगी चहल, नाटक या रूपक के | प्रांतिकता। १० भेदों में वह भेद जोहान्यमय और प्राकाम्य-संज्ञा, पु० (सं०) भाँति की हास्यरस-प्रधान हो (नाटय ) । सिद्धियों में से एक। प्रहार- संचा, पु० (सं० ) चोट, श्रावात | प्राकार-संज्ञा, पु० (सं०) कोट, परकोटा, भार, वार। | शहर-पनाह, नगर-रक्षक, प्राचीर । For Private and Personal Use Only Page #1196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org प्राकृत संज्ञा, प्राकृत - वि० ( सं० ) स्वाभाविक, नैसर्गिक, प्रकृति संबन्धी या जन्य, भौतिक स्त्री० - किसी समय किसी प्रांत में प्रचलित बोलचाल की भाषा, भारत की एक प्राचीन श्रार्य भाषा, वह प्राचीन बोली जिससे सब चार्य - भाषायें निकली हैं । प्राकृतिक - वि० (सं० ) प्रकृति का, प्रकृतिजन्य, प्रकृति-संबंधी, स्वाभाविक, नैसर्गिक, सहज, कुदरती । १९८५ प्राण प्राचुर्य -- संज्ञा, पु० (सं०) बहुतायत, वाहुल्य, अधिकता, प्रचुरता । प्राचेतस् - संज्ञा, पु० (सं०) प्राचीन, वहि के पुत्र प्रचेतागण, वाल्मीकि मुनि, विष्णु, दक्ष, वरुण का पुत्र, प्रचेत के वंशज । प्राच्य - वि० (सं०) पूर्वका, पूर्व देश या दिशा में उत्पन्न, पूर्वीय, पुराना । ( विलो०पाश्चात्य ) । प्राच्य वृत्ति-संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) वैताली वृत्ति का भेद ( साहि० ) । प्राजाक- संज्ञा, पु० (सं०) सारथी, रथ लाने वाला | प्राजापत्य वि० (सं०) प्रजापति-संबंधी, प्रजापति का प्रजापति से उत्पन्न एक यज्ञ, ८ प्रकार के विवाहों में से एक जिसमें कन्यापिता वर-कन्या से ग्रार्हस्थ- धर्म - पालन का संकल्प कराता है । प्राकृतिक भूगोल- संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) भूगोल का वह भाग जिसमें पृथ्वी की बनावट, वर्तमान स्थिति तथा स्वाभाविक दशा का वर्णन हो । प्राक् - वि० ( सं० ) प्रथम का अगला | संज्ञा, पु० पूर्व, पूरव । “प्राक पादयोः पतति खादति पृष्ठ- मांसम् -" भर्तृ० । प्राखर्य - संज्ञा, पु० (सं० ) प्रखरता । प्रागभाव - संज्ञा, पु० (सं० ) किसी विशेष | समय के पूर्व न होना, किसो वस्तु की उत्पत्ति के पहले का प्रभाव, जिसका यादि तो हो पर अन्त न हो । प्रागल्भ्य- संज्ञा, पु० (सं० ) प्रगल्भता, साहस, प्रबलता, चातुर्य, धृष्टता । प्राग्ज्योतिष – संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) कामरूप देश ( महाभाग ) । प्राग्ज्योतिष पुर-संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) गोहाटी ( वर्तमान ) प्राग्ज्योतिष देश की राजधानी । प्राघूर्णिक - संज्ञा, पु० (सं० ) पाहुन, श्र तिथि, अभ्यागत । ०१४६ प्राङ्मुख - वि० (सं० ) पूर्वाभिमुख, पूर्व दिशा की थोर मुख वाला । प्राची -- संज्ञा, स्रो० (सं० ) पूर्व दिशा । प्राचीन - वि० (सं०) पुराना, पुरातन, पहले का, वृद्ध, पूर्व का | संज्ञा, पु० दे० प्राचीर । प्राचीनता संज्ञा, स्त्री० (सं०) पुरानापन | प्राचीर - संज्ञा, पु० (सं०) परकोटा, शहर पनाह । भा० श० को ० Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 6 "" प्राज्ञ - वि० (सं०) बुद्धिमान, चतुर, विद्वान, पंडित | ( स्रो० प्राशी ) ! अधीस्व भो महाप्राज्ञ - स्फु० 1 प्राड्विवाक -- संज्ञा, पु० (सं०) न्यायाधीश, न्याय कर्त्ता वकील । प्राण - संज्ञा, पु० (सं०) वायु, पवन, १० दीर्घ मात्रात्रों का उच्चारण-काल, श्वास, शरीर में जीव धारण करने वाला वायु, बल, शक्ति, जान, जीव, परान् प्रान (दे० ) । "बीच सुरपुर प्राण पठायेहु" - रामा० । यौ० प्राण पखेरू | मुहा० - प्राण उड़जाना हक्काका हो जाना, बहुत घबरा या डर जाना, यौ० प्राण-प्रण प्रय ठानना, प्राण देने को उद्यत होना | मुहा० - प्राण का गले तक थाना - मर णासन्न होना । प्राण या प्राणों का मुँह को आना या चले जाना - मरणासन्न होना यन्त कष्ट या दुख होना प्राण जाना, ( छूटना, निकलना ) - जीवन का अंत होना, मरना, प्राण का चलना चाहना, मरने के निकट होना । प्राण डालना ( फूंकना ) - For Private and Personal Use Only Page #1197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्राण-अधार ११८६ प्राणप्रेयपि जान डालना. जीवन प्रदान करना । प्राण प्राणधन- वि० यौ० (सं०) परमप्रिय, स्वामी त्यागना, (तजना, छोड़ना) मरना। प्राण | जीवन धन, पति । देना-मरना, अत्यन्त आतुर हो घबराना। प्राणधारी-वि० (सं० प्राणधारिन् ) जीवकिसी पर या किसी के ऊपर प्राणदेना धारी, जीवित, चेतन, साँस लेता हुआ -किमी पर प्रति अप्रसन्न होकर मरना, प्राण युक्त । संज्ञा, पु.--प्राणी. नीव । प्राणों से भी अधिक किसी को प्यार करना या प्राणनाथ---संज्ञा, पु. यौ० (सं०) प्रियतम, चाहना। प्राण निकलना (जान निकलना) | परम प्रिय, प्यारा, पति, एक संप्रदाय-प्रवर्तक मरना, मर जाना, बहुत घबरा या डर जाना। क्षत्रिय प्राचार्य ( औरंगजेब-काल )। प्राणपयान (प्रयाण) होना--प्राण निक- (स्त्री० प्राणनाथा) । 'प्राणनाथ तुम बिनु लना 'प्राण प्रयाण समये कफ बात पितैः”। जग माहीं'-रामा प्राण (प्राणों) पर बोतना--जीवन का प्राणनाथी--संज्ञा, स्रो० (सं०) स्वामी, प्राणसंकट में पड़ना. मर जाना । प्राण रखना--- नाथ का चलाया हुश्रा संप्रदाय, इस संप्रदाय जिलाना, जीवन रक्षा करना जीना, जीवन का व्यक्ति। छोड़ना, जान बचाना, जीवन देना। प्राणनाश संज्ञा, पु० चौ० (सं०) मृत्यु, हत्या, "राम कह्यो तनु राखहु प्राना"-रामा०। निधन, जीवनात्यय, प्राणांत, मरण । प्राण रहना-न मरना, जीरन ( जान) प्राणप्रण-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) प्राण-त्याग, शेष रहना । प्राण लेना या हरना--मार ___जीवन पर्यंत प्रतिज्ञा, अत्यन्त प्रायास, डालना । प्राण हारना-मर जाना, साहस करूँगा या मरूँगा का प्रण ।। टूटना। यौ० प्राणों का प्यासा या गाहक- प्राणपति-संज्ञा, पु. ( सं० ) प्रियतम. पति, अति कष्ट देने वाला । परम प्रिय, विष्णु, प्यारा । "सुनहु प्राण पति भावत जीका" ब्रह्मा, अग्नि, शिव । । -रामा०। प्राण-अधार*- संज्ञा, पु० यौ० (सं०) प्राणप्यारा-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) प्रियतम, अत्यन्त प्यारा, पति, स्वामी, प्राणाधार परम प्रिय, प्राणों सा प्रिय पति । (स्त्री. (सं०) प्राणप्रिय। प्राणप्यारी)।" प्रिय सुत वह मेरा, प्राण प्राणघात-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) वध, हत्या, प्यारा कहाँ है ,-प्रि० प्र० । मार डालना। प्राण-प्रतिष्ठा-संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) मंत्रों प्राण-जीवन-- संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) परम के द्वारा नयी मूर्ति में प्राणों का संस्थापन, प्रिय, प्राणाधार, पति। । प्रतिमा में देवत्व करण । प्राणत्याग - संज्ञा, पु. यौ० (सं०) मर जाना। प्राणप्रद वि० (सं०) जीवन-दाता, प्राणप्राणदंड संज्ञा, पु. यौ० (सं०) मार डालने | प्रदाता, स्वास्थ्य-वर्धक । (स्त्री० प्राणप्रदा)। की सज़ा. फाँसी। प्राण-प्रिय-वि० यौ० (सं० ) प्रियतम, प्राणद-वि० (सं०) जीवन देने वाला, प्राण- जीवन तुल्य प्रिय, पति । " राम प्राण प्रिय रक्षा करने वाला। जीवन जीके "- रामा०। प्राणदाता-संज्ञा, पु० यौ० (सं० प्राणदातृ) प्राणामय --वि० ( सं० ) जिसमें प्राण हो। जीवन देने वाला, जीवरक्षक। प्राण-प्रीता-वि. स्त्री. (सं०) प्राणों सी प्राणदान-संज्ञा, पु. यौ० ( सं०) जीव प्रिय, प्रियतमा, प्यारी। बचाना, जीवन-दान, प्राण रक्षा करना, जान प्राणप्रेषि--वि० स्त्री० यौ० (सं०) प्रिया, स्त्री, छोड़ना, मारे जाने या मरने से बचाना। प्यारी । “ग्राणप्रेयपि मा पिवन्तु पुरूषाः"। For Private and Personal Use Only Page #1198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्राणमय कोष (कोश) १९८७ प्रादुर्भूत प्राणमय कोष ( कोश )-संज्ञा, पु. यौ० । प्रातःकर्म - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) स्नान (सं०) पाँच कोशों में से दूसरा जो पाँच संध्यादि प्रभात के काम । "प्रात-कर्म प्राणों से बना है और जिसमें पाचों कर्मेन्द्रियाँ | करि रघुकुल-नाथा"-रामा । भी सम्मिलित हैं ( वेदांत )। प्रातःकाल-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) निशान्त प्राण-घल्लभ---संज्ञा, पु० यौ० (सं०) परम | में सूर्योदय से पूर्व का समय इसके ३भागहैं, प्रिय, पति । स्त्री. प्राण-वल्लभा, प्रिया। सबेरे, तड़के । प्रातकाल (दे०) वि०प्रातः प्राणवायु --संज्ञा, पु० यौ० (सं०) प्राणपधन, कालीन) “प्रात काल उठि के रघुनाथा" प्राण । -रामा० प्राण-शरीर-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) मनोमय प्रातः कृत्य -- संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) स्नानसूचम शरीर। संध्यादि, प्रातः कर्म। प्राणसम-वि• यौ० (सं०) प्राण-तुल्य । प्रातः क्रिया--संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) स्नान (स्त्री० प्राणासमा )। संध्यादि, प्रतिक्रिया (द०)। " प्रातक्रिया प्राणान्त-संज्ञा, पु. यौ० ( सं०) मरण, । करि गुरु पह श्राये"-रामा० । मृत्यु · यौ० प्राणान्त पीड़ा (कट)। प्रातः संध्या --- संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) सबेरे प्राणान्तक--- संज्ञा, पु. यौ० (सं०) जीव या की संध्या, सबेरे के समय, ब्रह्मध्यान ।। प्राण लेने वाला, घातक, यमदूत । प्रातः स्मरण- संज्ञा, पु. यौ० (सं०) सवेरे प्राणाधार-प्राणाधिक-वि० यौ० (सं०) भगवान की याद करना। परमप्रिय, प्यारा । संज्ञा, पु. स्वामी, पति । प्रातः स्मरणीय-वि• यौ० (सं०) सबेरे स्त्री० प्राणाधार, प्राणाधिका। याद करने के योग्य, पूज्य, श्रेष्ठ ।(स्रो० प्रातः प्राणायाम-संज्ञा, पु. ( सं० ) प्राणों का स्मरणया)। वश में करना या रोकना, श्वासप्रश्वास की प्रातराश-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) प्रातःकालीन गति का क्रमशः दमन, अष्टांग योग का भोजन, जल-पान, कलेवा । " सराघवैः किं चौथा अंग (योग)। वत बानरैस्तैयैः प्रातराशो, पिप्रन कस्य प्राणि धुत संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) वह चिन्नः "-भट्टी। बाज़ी जो तीतर मेढे श्रादि जीवों की लड़ाई प्रातनाथ- संज्ञा, पु. यौ० (सं० प्रातः+ पर लगाई जावे। नाथ) सूर्य । प्राणी-वि० (सं० प्राणिन्) नोवधारी । संज्ञा, प्रालिकूल्य--संज्ञा, पु० (सं०) वैपरीत्य, विपपु० जीव, जंतु, मनुष्य । -संज्ञा, स्त्री० क्षता, शत्रुता। पु० पुरुष या स्त्री। प्रातिपदिक-संज्ञा, पु० (सं०) अग्नि, धातु, प्राणेश, प्राणेश्वर-संज्ञा, पु० यौ० ( सं०) । प्रत्यय, और प्रत्यप्रान्त को छोड़ कर अर्थपति, जीवनेश, परमप्रिय, प्रणाधीश। वान शब्द, जैसे--राम । " अर्थवद् धातुर (स्त्री० प्राणेश्वरी)। प्रत्ययः प्रातिपदिकम् "--अष्टा० । प्रात-अव्य० दे० (सं० प्रातः) तड़के, सवेरे. भोर प्राथमिक-वि० (सं०) प्रारंभिक, आदि या (ग्रा०)। लज्ञा. पु० प्रभात, प्रात काल, सबेरे। पहले या पूर्व का। "प्रात काल चलिहौं प्रभुपाही"---रामा । प्रादुर्भाव --- संज्ञा, पु० (सं०) प्रकट होना, प्रातः-संज्ञा, पु. (सं० प्रातर् ) प्रभात, उत्पत्ति, आविर्भाव। सबेरे । यौ० प्रात:काल । " प्रातः काले प्रादुर्भत - वि० (सं०) उत्पन्न, प्रकटित, पठेन्नित्यम् "- स्फु०। । थाविर्भूत, जिसका प्रादुर्भाव हुथा हो । For Private and Personal Use Only Page #1199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - प्रादुर्भतमनोभवा ११८८ प्रार्थना प्रादुर्भतमनोभवा-संज्ञा, स्री० यौ० (सं.)। साध्य की प्राध्यवस्था में उनके अवशिष्ठ चार प्रकार की मध्या नायिकानों में से बताने की आपत्ति ( न्याय )। एक ( केश० )। ग्राप्य-वि० सं०) पाने या प्राप्त करने प्रादेश-संज्ञा, पु० (सं०) तर्जनी सहित योग्य प्राप्तव्य, मिलने के योग्य, गम्य । विस्तृत अंगुष्ट, वितस्ति, वाती बालिश्त । प्रायल्य-संज्ञा, पु० (सं० ) प्रबलता। प्रादेशिक-वि. ( सं० ) प्रदेश का, प्रदेश प्रामाणिक- वि० (सं०) सत्य जो प्रमाणों संबंधी, प्रांतिक । संज्ञा, पु० (सं०) सरदार, द्वारा सिद्ध हो, मानने योग्य प्रमाण-पुष्ट, सामंत। माननीय, टीक। प्राधा-संज्ञा, स्त्री० (सं० ) गंधों और प्रामाण्य -- संज्ञा, पु. ( सं०) प्रमाणता, अप्सराओं की माता, कश्यप की पत्नी। मानमर्यादा । " तद् बचनादानियस्य प्रामाप्राधान्य- संज्ञा, पु० (सं०) मुख्यता, प्रधा. ण्यम् "-वै० द०। नता, श्रेष्ठता।" प्रचुर विकार प्राधान्यादिषु प्राय -- संज्ञा, पु. ( सं० ) समान, लगभग, बराबर, तुल्य, जैसे प्रायद्वीप, मृतप्राय । मयट् --सरस्वती। प्रायः-वि० ( सं० ) लगभग, बहुत करके, प्रान-संज्ञा, पु० (दे०) प्राण ( सं० ) स्वाँस, . बहुधा, अकरमर, विशेष करके, लगभग । जीव ! परान (दे०)। " प्रायः समापन विपत्तिकाले" -हितो । प्रापण-संज्ञा, पु. ( सं० ) मिलना, प्राप्ति, प्रायद्वीप- संज्ञा, पु. ६० (सं० प्रयोद्वीप ) प्रेरण । वि. प्रापक, प्राप्य, पात, प्राप वह भू भाग जो तीन थोर जल से घिरा हो। णीय । (भूगो.)। प्रापति -संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० प्राप्ति ) प्राय:-क्रि० वि० (सं०) बहुधा, प्रायः । प्राप्ति, उपलब्धि, मिलना, पहुँचना, एक "वर विहँग़ सुनाते, प्रायशः शब्द प्यारे'। सिद्धि, लाभ, पाय । प्रायश्चित्त--सज्ञा, पु० ( सं० ) पाप मिटाने प्रापना*-स० क्रि० दे० (२० प्रपण) के लिये शास्त्रानुकूल कर्म या कृत्य । मिलना, प्राप्त होना। प्रायश्चिान्तक-वि० (सं०) प्रायश्चित्त प्राप्त-वि० (सं०) जो मिला हो पाया हुआ, के योग्य, प्रायश्चित-सबंधी। समुपस्थित। प्रायश्चित्ता-वि० ( सं० प्रायश्चित्तिन् ) प्राप्तकाल-संज्ञा, पु. यौ० (सं० ) उचित प्रायश्चित्त करने वाला या उसके योग्य । या उपयुक्त समय, मरने योग्य समय । वि० प्रारंभ-संज्ञा, पु. (सं०) श्रादि, श्रारंभ । जिसका समय श्रागया हो । “प्राप्तकाज प्रारंभिक-वि० (सं० ) प्राथमिक, आदि स्यका रक्षा"। का, धादिम, प्रारंभ का। प्राप्तव्य-वि० (सं० ) पाने या प्राप्त करने प्रारब्ध-वि. ( सं० ) प्रारंभ या शुरू किया योग्य, प्राप्य । हुश्रा । संज्ञा, पु० तीन प्रकार के कमों में प्राप्ति-संज्ञा, स्त्री० ( सं० ) पहुँच, मिलना, एक, वह कर्म जिसका फल-भोग हो चला उपलब्धि नाटक का सुखप्रद उपसंहार हो भाग्य, पूर्वकृत कर्म । वि० प्रारब्धाअणिमादि सिद्धियों में से एक सिद्धि। भाग्यवान । जिसमें सब इच्छायें पूरी हो जायें, · योग) प्रार्थना-संज्ञा, स्त्री० (सं०) निवेदन, बिनती, प्राय, लाभ। माँगना, बिना, याचना । वि० प्रार्थनीय, प्राप्तिसम-संज्ञा, पु. ( सं० ) हेतु और स० कि. विनय करना। For Private and Personal Use Only Page #1200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रार्थना-पत्र ११८६ प्रेत प्रार्थना पत्र-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) निवेदन । प्रियवादी-संज्ञा, पु. ( सं० प्रियवादिन् ) या विनय-पत्र, अर्जी, सवाल, दस्ति (फा०)। प्रियभाषी, प्यारा बोलने वाला । ( स्त्री. प्रार्थना-समाज-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) ब्रह्म प्रियवादिनी)। समाज सा एक नया संप्रदाय । प्रिया--संज्ञा, बी० (सं०) प्रेमिका, प्यारी, प्रार्थित-वि० (सं०) माँगा, जाँचा। स्त्री, नारी, पत्नी, एक वृत्त, मृगी, १६ प्रार्थनीय --वि० (सं०) प्रार्थना करने योग्य । मात्राओं का एक छंद पि०)। प्रार्थी-वि० (सं० प्रार्थिन् ) निवेदन या प्रार्थना प्रीत-वि० (सं०) प्रीति युक्त । *संज्ञा, पु. करने वाला । (स्त्री० प्रार्थिनी)। (दे०) प्रीति, प्रेम, प्यार, मैत्री। प्रालेय-संज्ञा, पु० (सं०) तुषार, हिम, बर्फ।। प्रीतम-सज्ञा, पु० दे० (सं० प्रियतम ) प्रति प्रावृट-संज्ञा, पु० (सं०) बरतात, वर्षाऋतु । । । प्रिय, स्वामी, पति ।। प्राशन-संज्ञा, पु० (सं० ) भोजन, खाना, प्रीति--संज्ञा, स्रो० (सं० ) प्रेम, तृप्ति, स्नेह, चखना । ( यौ० अन्न-प्राशन )। मैत्री, हर्ष । "कबहूँ प्रीति न जोरिये"-वृ०। प्राशी-- वि० (सं० प्राशिन् ) भोजन करने या प्रोतिकर-प्रातिकारक - प्रीतिकारी-वि. खाने वाला। (स्त्री० प्राशिनी) (सं०) प्रेम-जनक, प्रेमोत्पादक, प्रसन्नता प्रासंगिक-वि० (सं०) प्रसंग से प्राप्त, प्रसंग करने वाला । स्त्री० प्रीतिकारिणी । संबंधी, प्रसंग का। प्रातिपात्र-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) प्रेम करने प्रासाद-संज्ञा, पु. (सं०) राज-सदन, विशाल योग्य । प्रीति-भाजन, प्रेमी। भवन, महल । प्रीतिभोज-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) प्रिय मित्रों प्रियंगु-संज्ञा, स्त्री० (सं०) कँगुनी या कैंगनी और बंधुओं का सप्रेम सम्मिलन और भोजन । अनाज, मालकँगुनी (औष०)। प्रीत्यर्थ---अव्य० यौ० (सं०) प्रेम के हेतु, प्रियंवद-वि० (सं०) प्रियभाषी, प्रिय वचन। प्रपन्नतार्थ, स्नेह के कारण, प्रीति के लिये। कहने वाला । ( स्त्री० प्रियंवदा)। प्रम-संज्ञा, पु० ( सं०) समुद्र की गहराई प्रिय-संज्ञा, पु० (सं०) पति, स्वामी। वि० नापने का शीशे श्रादि का लटू जैसा यन्त्र । प्यारा, सुन्दर, मनोरम । ( स्त्री प्रिया)। प्रेषण- संज्ञा, पु० (सं०) भली भाँति झूलना "प्रिय परिवार सुहृद समुदाई"-रामा । या हिलना, रूपक के १८ भेदों में से एक । प्रियतम-वि० (सं० ) परम प्रिय, बहत | प्रेक्षक-रांझा, पु० (सं०) दर्शक, देखनेवाला। प्यारा । संज्ञा, पु.--पति, स्वामी। ( स्त्री० प्रेक्षण-संज्ञा, पु० (सं०) नेत्र, आँख, देखना। प्रियतमा)। वि०प्रेक्षणीय. प्रैक्षित, प्रेक्ष्य । प्रियदर्शन- वि० यौ० (सं०) सुन्दर, मनोहर, प्रेक्षा--संज्ञा, स्त्री. (सं०) नाच-तमाशा जो देखने में प्यारा लगे ।(स्त्री प्रियदर्शना)। देखना, दृष्टि, बुद्धि, ज्ञान, प्रज्ञा । प्रियदर्शी-वि० यौ० (सं० प्रियदर्शिन्) सब को प्रेक्षागार-प्रेक्षागृह-संज्ञा, पु. यौ० (सं०) प्यारा देखने वाला, सब से प्रेम करनेवाला। राज-मंत्रणागृह, रंगशाला, नाट्यशाला । प्रियभाषी-वि• यौ० (सं० प्रियभाषिन् ) "देत रंगशालादि, मुनि, प्रेक्षागृह यह नाम" मधुर और प्यारे वचन बोलने वाला । (स्त्री० -रसाल। प्रियभाषिणी)। " प्रियभाषिणी लिख प्रेत-संज्ञा, पु. ( सं० ) मृतक, मरा मनुष्य, दीन्हेॐ तोही '--रामा० । एक देवयोनि मरणोपरान्त प्राप्त कल्पित प्रियपर-वि० (सं०) बहुत प्यारा, अति प्रिय।। शरीर (पुरा०) नरक-निवासी। For Private and Personal Use Only Page #1201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प - का प्रेत-कर्म ११६० प्रेषण प्रेत-कर्म-संज्ञा, पु० यौ० ( सं० प्रेत कर्मन् ) प्रेमवारि-संज्ञा, पु० यौ० ( सं०) प्रेमाश्रु, प्रेत कार्य : (हिन्दू)। । प्रेमान्छु, आँसू, नेह-नीर, स्नेह-सलिल । प्रेतकार्य-संज्ञा, पु० यौ० सं०) प्रेत कर्म। प्रेमा--संज्ञा, पु. ( सं० प्रेमन ) स्नेह, इन्द्र, प्रेतगेह-प्रेतगृह - संज्ञा, पु. ( सं० ) प्रेतगृह, वायु, उपजाति वृत्त का 1 वाँभेद। मरघट, श्मशान। प्रेमाक्षेप-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) आक्षेपाप्रेतत्व-संज्ञा, पु. ( सं०) प्रेतता, प्रेत का लंकार का वह भेद जिसमें प्रेम के वर्णन में भाव या धर्म। बाधा सी सूचित हो ( केश० )। प्रेतदाह -- संज्ञा, पु. यौ० ( सं० ) मृतक के प्रेमालाप-संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) स्नेहजलाने श्रादि का कार्य । संलापन, प्रेम वार्ता। प्रेतदेह-संज्ञा, पु० यौ० (सं०, मृतात्मा का | प्रेमालिंगन -संज्ञा, पु० यौ० (सं०) स्नेह से मरण से सपिंडी के समय तक का करिपत । गले लगाकर मिलना। शरीर। प्रेमाश्र ----संज्ञा, पु० यौ० (सं०) स्नेह के प्रेतनी-संज्ञा, स्त्री. ( सं० प्रेत+नी- कारण निकले आँस् । प्रत्य०) भूतिनी, चुडैल, पिशाचिनी। प्रेमास्पद -- वि० यो० (सं०) स्नेहभाजन, प्रेतयज्ञ- संज्ञा, पु. यौ० (सं० ) प्रेत योनि प्रणयपात्र, प्रणयो, स्नेही। प्रेमिक-संज्ञा, पु. (सं०) प्रेमी, स्नेही । स्त्री० को प्राप्त कराने वाला यज्ञ : प्रेमिका। प्रेतलोक-संज्ञा, पु. यौ० (सं०) यमलोक।। प्रेता-संज्ञा, पु. (सं०) पिशाची, भूतिनी, प्रेमी-संज्ञा, पु० (सं० प्रेमिन्) स्नेही, मित्र । कात्यायिनी देवी। प्रेय, प्रेयस- - संज्ञा, पु. (सं०) एक अलंकार, जिसमें एक भाव दूसरे भाव या स्थायी का प्रेत-विधि ( गति )-संज्ञा, स्त्री० यौ०। अंग हो, (काव्य०) प्यारा। (सं०) मृत का दाहादि संस्कार । प्रेयसी-संक्षा, स्त्री० (सं०) प्रमिका, प्यारी । प्रेतराज-संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) यमराज । प्रेरक-संज्ञा, पु० (सं०) प्ररणा करने वाला। प्रेताशिनी-संज्ञा, स्त्री० [सं०) देवी, भगवती। प्रेरण---संज्ञा, पु० (सं०) आज्ञा देना, भेजना। प्रताशोच-संज्ञा, पु० यौ० (सं.) किसी के प्रेरणा-संज्ञा, स्त्री० (सं० ) जोर या दबाव मरने पर लगी अशुद्धता, शूदक (हिन्दु )। उत्तेजना, कार्य में प्रवृत्त करना। प्रेती-संज्ञा, पु. ( सं० प्रत+ ई-प्रत्य०) प्रेरणार्थ क्रिया-संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) प्रेत-पूजक, प्रेतोपासक । क्रिया का वह रूप जो यह सूचित करे कि प्रेतोन्माद-संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) एक | कर्ता किसी की प्रेरणा से कार्य करता है प्रकार का उन्माद, भूतोन्माद । कभी कभी क्रिया में एक साधारण और प्रेम-संज्ञा, पु. (सं० )रूप, गुण या काम- | दुसरा प्रेरक दो कर्ता होते हैं, जैसे राम ने वासना जनित, अनुरक्ति, स्नेह, प्रीति, अनु- मोहन से पत्र लिखवाया है। राग, प्यार, एक अलंकार ( केशव ) । प्रयिता--- संज्ञा, पु० (सं०) प्रेरणा करने या प्रेमगर्विता--संज्ञा, स्त्री० यौ० सं० ) पति कार्य में लगाने वाला, भेजने वाला। से प्रेम रखने वाली नायिका का धमंड।। प्रेरित-वि० (सं०) प्रपित, भेजा हुआ । प्रेमपात्र-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) स्नेह करने | प्रेषक-संज्ञा, पु० (सं०) भेजने वाला। योग्य, स्नेह-भाजन, जिससे प्रेम किया जाय। प्रेपण-संज्ञा, पु० (सं०) भेजना, प्रेरणा प्रेमभक्ति-- संज्ञा, स्त्री० यौ० (स.) स्नेह, श्रद्धा करना । वि० प्रेषित, प्रेषणीय । For Private and Personal Use Only Page #1202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रेषित लोष प्रेषित-वि० (सं०) प्रेरित, भेजा हुआ। प्रौढ़ा-संज्ञा, स्त्री. (सं०) प्रायः ३० से १० प्रेष्ट-वि० (सं० ) प्रिय, प्रेषणीय । वर्ष तक की आयु वाली काम कलादि में प्रेष्य-वि० (सं०) प्रेरणीय, प्रेषणीय, भेजने चतुर नायिका ( काव्य० )। योग्य, दास, सेवक भृत्य । प्रौढ़ अधीग-संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) पतिप्रेष-संज्ञा, पु. ( सं० ) कष्ट, दुख, मर्दन, वियोग से अधीर प्रौदा नायिका (काव्य)। उन्माद, भेजना। प्रौढधीग--संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) व्यंग्य प्रैष्य-संज्ञा, पु. ( सं० ) दास, सेवक। से निज क्रोध प्रगट करने वाली प्रिय-वियोग प्रोक्त-वि० (सं०) कथित, वदित, कहा हुआ। में धीर रहने वाली प्रौदा नायिका (काव्य)। प्रोक्षण-संज्ञा, पु. (सं०) पानी छिड़कना, प्रोढ़ा धीराधीग-संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं.) पानी का छींटा, पोंछना। प्रिय प्रियोग से धीर अधीर, प्रौढा नायिका प्रोत-वि० (सं० ) छिपा, पोहा या पोत्रा, (काव्य० )। मिलित पु०-कपड़ा। यौ० श्रोत-प्रोत- प्रोदौक्ति-सज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) एक परस्पर मिला, उलझन । अलंकार जिसमें किसी के उत्कर्ष का अहेतु प्रोत्साह-- संज्ञा, पु० (सं० ) अत्यंत उत्साह | ही हेतु रूप में कहा जाय। या उमंग। लत-संज्ञा, पु० (सं०) पिलखा (दे०) पाकर प्रोत्साहन-संज्ञा, पु० (सं० ) अत्यन्त पेड़, पीपल, सात कल्पित द्वीपों में से उत्साह बढ़ाना, साहसदेना। वि० प्रोत्साह- एक ( पुरा० )। नीय, प्रोत्साहित । प्लवंग-संज्ञा, पु. (सं०) वानर, बंदर, मृग, प्रोत्साहित-वि० (सं० ) जिसका उत्साह | हिरन, पाकर वृक्ष । या साहस बढ़ाया गया हो। प्लवंगम-संज्ञा, पु० (सं०) एक मात्रिक छंद, प्रोषित-वि० (सं० ) विदेश जाने वाला, (पिं०) बंदर । विदेशी, प्रवासी। प्लवन - संज्ञा, पु० (सं०) तैरना, उछलना, प्रोषित नायक (पति)-संज्ञा, पु० (सं०) कूदना । वि० प्लवनीय । विरही या वियोगी नायक जो विदेश में प्लावन-संज्ञा, पु० (सं०) बाद, तैरना, खूब विकल हो। धोना। प्रोषतिपतिका ( नायिका )--संज्ञा, प्लाषित-वि० ( सं० ) पानी में डूबा हुआ, स्त्री० यौ० (सं० ) पति के विदश में होने जल-मग्न । से दुखी नायिका, प्रवास्यत्प्रेयसी। प्लीहा -- संज्ञा, स्त्री० (सं० ) तिल्ली। प्रोषितभतृका-संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) प्रोषित पतिका। प्लुत-संज्ञा, पु. ( सं०) वक्रगति, उछाल, ३ मात्रा वाला स्वर का एक भेद । " अश्व प्रोषितभार्य- संज्ञा, पु० यौ० (सं०) वह । व्यक्ति जो निज स्त्री के विदेश में होने से । प्लुत वासव-गर्जनञ्च"- ( व्या० )। दुखी हो। प्लति- संज्ञा, स्त्री. ( सं० ) कूदना, फाँदना, प्रौढ़ -वि० (सं.) समाप्तप्राय युवावस्था उछलना । वाला, जवान, युवा, पक्का, दृढ़, गूढ, गंभीर, । प्लट---वि० ( सं० ) जला हुश्रा, दग्ध । चतुर । ( स्त्री० प्रौढ़ा )। | प्लोत--संज्ञा, स्त्री० (सं०) मुंह से गिरा पित्त । प्रौढ़ता-संज्ञा, स्त्री० (सं०) प्रौढत्व, जवानी प्लोष-- संज्ञा, पु० ( सं० ) दाह, जलन । - - - For Private and Personal Use Only Page #1203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir फगुश्रा, फगुषा . फ-हिंदी-संस्कृत की व माला में पवर्ग | फंसना-स० कि० दे० ( हि० फांस ) का दूसरा वर्ण, २२वाँ अक्षर, इसका उलझना, अटकना, फदे या बंधन में पड़ना, उपचारण-स्थान श्रोष्ठ है 18 धोखे में पड़ना । मुहा०-बुरा फैसनाफ-संज्ञा, पु० (सं०) कटु और रूखा वाक्य, विपत्ति में पड़ना । चंगुल में फँसनाफुफकार, व्यर्थ की बात ।। कब्जे में आना। क-संज्ञा, स्त्री० दे० ( सं० फक्किका ) फाँक, फँसाना, सावना (दे०)-स० क्रि० (हि. फाँकी, चीरी हुई वस्तु का एक भाग या टुकड़ा। फँसना ) फंदे में लाना, बझाना, वशीभूत फंका*-- संज्ञा, पु. दे० (हि० फांकना) किसी या बश में करना, अटकाना । प्रे० रूप-सवस्तु का उतना भाग जो एक बार में फाँका वाना । संज्ञा, पु० (दे०) साव । धोखे में जाये, टुकड़ा, भाग, अंश । स्त्री० की।। या उलझन में डालना। फंकाना-स० क्रि० (द० ) किसी को , फसिहारा--वि० हि० फाँस--- हारा - प्रत्य०) फाँकने में लगाना। फंकी-संज्ञा, स्त्री० दे० ( हि० फंका ) उतनी फँसाने वाला । स्त्री० फँसिहारिन । औषधि जो एक बार में फाँकी जा सके, फक-वि० दे० (सं० स्फटिक) साफ़, सफेद, फॉकने की औषधि । - संज्ञा, स्त्री० दे० स्वच्छ, बदरंग । मुहा०-रंग (चेहरा) फक (हि. फाँक ) छोटी फाँक । हा जाना या पड़ना-घबरा जाना, चेहरे फंग*-संज्ञा, पु. दे० ( सं० वंध ) फंदा । पर उदासी छा जाना, मुख फीका पड़ना। बंधन, राग, प्रेम, अनुराग, स्नेह ।। फकड़ी-संज्ञा, स्त्री. ( हि. फक्कड़+ईफंद-संज्ञा, पु. दे. ( सं० बंध, हि० फंदा) प्रत्य० ) दुर्गति, दुर्दशा, खराबी। बंधन, फंदा, फाँस, जाल, कपट, धोखा, फकत -- वि० (अ.) पर्याप्त, सिर्फ़, केवल, मर्म, दुःख, नथ की गूंज, रहस्य, कष्ट । बस, अलम्, इति । फँदना*-अ० कि० दे० (सं० बंधन, हि० फकीर-संज्ञा, पु० ( अ०) निधन, भिक्षुक, फंदा ) फँसना, फंदे में पड़ना। स० क्रि० साधु, भिखारी त्यागी, योगी । संज्ञा, स्त्री. (हि. फाँदना) फाँदना, उलाँधना। फकीरी, वि० स्त्री० फकोरिन फकीरनी। फंदचार-वि० दे० ( हि० फंदा ) जाल या फ़कीरी-संज्ञा, स्त्री. ( हि० फ़कीर+ईफंदा लगाने वाला। प्रत्य०) साधुता, निर्धनता, कंगाली, भित्तुफंदा-संज्ञा, पु० (सं० पाश, अंध) फँसाने कता । वि० फ़कीर की। "झूठी झार फूकहू को तागे या रस्सी का पाश, फाँस, जाल, फकीरी परीजाति है"- रत्ना। फाँद, बंधन, दुख । मुहा०-फंदा- फक्कड़- वि० (दे०) निर्धन और मस्त, लगाना-फंसाने को जाल लगाना. धोखा, लापरवाह । संज्ञा, स्त्री० फकड़ी, फक्कड़ता। देना। फंदे में पड़ना (श्राना-धोखे में | फक्किका संज्ञा, स्त्री० (सं०) कूट या गूढ पड़ना, वश में होना। प्रश्न, अयोग्य व्यवहार, छल, धोखेबाजी । फँदाना-स० क्रि० दे० ( हि० फंदना ) | "कठिन दीक्षित-निर्मित फक्किका'- स्फुट । जाल में फँसाना, फंदे में लाना प्रे० रूप फरवर---संज्ञा, पु० दे० (फा० फन ) गवं, फंदावना, फंदवाना । स० क्रि० ( सं० | गौरव। स्पंदन ) कुदाना, लघवाना। फग*--संज्ञा, पु० दे० ( हि० फंग ) फंदा। फँफाना-अ० क्रि० दे० (अनु०) हकलाना, फगुआ, फगुवा-संज्ञा, पु० दे० (हि० फागुन) बोलने में जीभ काँपना। __ होली, होली का उत्सव, फागुन में श्रामोद For Private and Personal Use Only Page #1204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org फगुनाहट प्रमोद, फाग, फाग खेलने पर दिया गया उपहार, होली के अश्लील गीत । महा०फगुआ खेलना या मनाना - होली के उत्सव में दूसरों पर रंग-गुलाल डालना । फगुनाहट - संज्ञा, स्त्री० दे० ( हि० फागुन + हट --- प्रत्य० ) फागुन की तेज़ हवा, फागुन- सम्बन्धी १९६३ फगुहरा, फगुहारा - संज्ञा, पु० दे० ( हि० फगुआ + हारा - प्रत्य०) फाग खेलने वाला । स्त्री० फगुहारी, फगुहारिन । फ. जर – संज्ञा, खो० ( ० ) सबेरा, तड़का फजिर (दे० ) । फज़ल - संज्ञा, पु० दे० ( अ० फ़जूल ) कृपा, दया, धनुग्रह | फजीलत - संज्ञा, स्त्री० ( ० ) श्रेष्ठता, उत्कृष्टता मुहा०--जीलत की पगड़ी - श्रेष्ठता या विद्वत्ता सूचक चिन्ह या पदक | फज़ीहत- संज्ञा, स्त्री० ( ० ) फजीहत, (दे०) दुर्गति, दुर्दशा, बेइज्जती | संज्ञा, स्त्री० (दे०) फजिहतताई - - "अब कविताई कहा फजिहतताई है" । फजूल - वि० ( ० ) व्यर्थ, बाकीवचा, काम, बहुत, निरर्थक | फजूल खर्च - वि० यौ० ( फा० ) बहुत ख़र्च करने वाला, अपव्ययी | संज्ञा, खी० फ़ज़ूलखर्ची । फट - संज्ञा, स्त्री० ( अनु० ) हलकी या पतली वस्तु के गिरने का शब्द, एक अस्त्र, मंत्र (तंत्र) 'जैसे- ऊं हुं फट स्वाहा " । क्रि० वि० ( हि०) फट से झट से । फटक – संज्ञा, पु० दे० (सं० स्फटिक ) बिल्लौर, संगमरमर, फटिक (दे० ) | क्रि० वि० (अनु० ) झट, तत्क्षण | फटकन - संज्ञा, स्त्री० दे० (हि० फटकना ) अनाज के फटकने पर निकला भुसा या कूड़ा । फटकना - स० क्रि० दे० (अनु० फट ) पट कन', झटकना, फटफटाना, फेंकना, चलाना, मारना, हिलाकर सूप से अन्न साफ़ करना, फटना रुई धुनना। मुहा० - फटकना -पछोरनासूप से साफ करना, जाँचना या परखना । अ० क्रि० दे० (अनु०) जाना, पहुँचना, अलग होना, हाथ पाँव हिलाना या पटकना, श्रम करना, तड़फड़ाना । स० रूप-फटकाना, प्रे० रूप-- फटकवाना | Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir फटका - संज्ञा, पु० दे० ( अनु० ) रुई धुनने की धुनकी, रस- गुण रहित कविता, तुकबंदी | संज्ञा, पु० (दे०) फाटक | फटकाना स० क्रि० दे० ( हि० फटकना ) फटकने का कार्य्यं दूसरे से कराना, फेंकाना, अलग कराना, पत्रोरवाना | फटकार - संज्ञा, त्रो० दे० (हि० फटकारना) झिड़की दुतकार, डाँट, उलटी, कै । फटकारना - स० क्रि० दे० ( अनु० ) चादर आदि को झटका देकर उसमें लगे पदार्थ को गिराना, झाड़ना, लाभ उठाना, वस्त्रादि को पटक पटक कर भली भाँति धोना, टके से दूर फेंकना, किसी को डाँटना या झिड़कना, कड़ी या खरी बात कह कर चुप कराना, प्राप्त करना, लेना, ( अनादि से ) मारना, चलाना, छितराना यौ० डाँटनाफटकारना । फटना - अ० क्रि० दे० (हि० फाड़ना) किसी पोले पदार्थ का ऐसा दरक जाना कि उसके भीतर की वस्तु बाहर याजायें या दिखाई देने लगे, फाट्ना (दे० ) । मुहा०छाती फटना - दुसह दुख पड़ना, लज्जा थाना । (किसी से) मन, दिल या वित्त का फटजाना ( फटना) - मन हट जाना, संबन्ध की रुचि न रहना, बिरक्ति होना, किसी बिकार से दूध आदि के पानी और सारभाग का पृथक हो जाना, छिन्न भिन्न, विलग या पृथक हो जाना, कटकर छिन्नभिन्न, हो अलग होना, अति कष्ट या पीड़ा होना, दीवाल आदि का टूट-फूट जाना ( पड़ना ) किसी बात या वस्तु का प्रति अधिक होना, सहसा टूट पड़ना। मुहा० For Private and Personal Use Only Page #1205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - फटफटाना ११६४ फतीलसोज फट पड़ना (फाट परना)-अचानक के लिये तैयार होना । " फेरि फरकै सो न श्रा जाना। कीजै"- गिर। फटफटाना-स० क्रि० दे० ( अनु० ) फड फड़नवास-संज्ञा, पु० दे० (फा० फ़र्दनवीस) फड़ाना, व्यर्थ यत्न या बकबाद करना, हाथ- मरहटों के राज्य काल में एक राज-पद । पैर पटकना या मारना, परिश्रम करना, फड़फड़ाना-स० कि० अ० दे० ( अनु०) इधर-उधर टकर खाना । अ० क्रि०-फट फट फटफटाना, फड़ फड़ शब्द करना । शब्द होना। फड़वाज--संज्ञा, पु० दे० ( हि० फड़-फा०. फटा-संज्ञा, पु. (हि० फटना) छेद. छिद्र। वाज) वह व्यक्ति जो अपने घर में लोगों को जुवा खिलाता हो, जुआरी। स्त्री० पटी। मुहा०-(भिसी के ) फटे में पाँव देना-दूसरे की विपत्ति अपने M ण---संज्ञा, पु० (सं०) फन (दे०) साँप सिर पर लेना, यौ० । मुहः --- फटे हाल का निर, रस्सी का फंदा। (फटीहालत)-दुर्दशा, गरीबी। धर--संज्ञा, पु. यौ० (सं०) साँप, नाग। फागण - संज्ञा, पु० दे० (सं० फणी) फनिक फटिक-संज्ञा, पु० दे० (सं० स्फटिक ) (दे०) साँप, नाग । “मणि बिन फणिक जिये एफटिक, संगमरमर, बिल्लौर । अति दीना"-रामा। फट्टा-संज्ञा, पु० दे० ( हि० फटना ) बाँस । फणिपति--संज्ञा, पु० यौ० (सं०) शेषनाग, को चीड़ कर बनाया गया लहा, कपड़े का | वासुकी. बड़ा साँप । “ मणि-बिहीन रह टुकड़ा । स्त्री० फट्टी फणिपति जैसे- रामा० । फड - संज्ञा, पु० दे० (सं० पण ) जुए का शिका -संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) साँप की दाँव जिस पर बाजी लगाई जाती है, जुा । मणि । का अड्डा, बनिये का बैठ कर माल बैंचने, राणींद्र-संज्ञा, पु० (सं०) वासुकी शेषनाग, या लेने का स्थान, दल.पन । संज्ञा, पु० दे० बड़ाभारी सर्प, फनीन्द, फनिंद (दे०)। (सं० पटल या फल ) तोप चढ़ाने या रखने कण। --संज्ञा, पु. ( सं० फणिन् ) नो की गाड़ी, चरख । मुहा०-फाई पाना-- (दे०) साँप, नाग, नागफनी नामक वृक्ष । जीतना, बाजी मारना। फणाश-संज्ञा, पु. यो० (सं० ) शेष नाग, फड़क, फड़कन-संज्ञा, स्त्री० दे० (अनु०) । वासुकी, हनोस (दे०)। " ईस लागे कसन फरकना (दे०) फड़कने का भाव पा क्रिया।। फनीस कटि-तट मैं "... रखा। फड़कना--अ० क्रि० दे० (अनु०) फरकना फतवा-संज्ञा, पु. (अ.) अपने धर्म-शास्त्रा(दे०) उछलना, फड़फड़ाना, ऊपर-नीचे । नुकूल किसी कार्य के उचित या अनुचित होने या इधर-उधर बारम्बार हिलना । स० क्रि० की मोलबियों की दी हुई व्यवस्था (मुस०)। फड़काना, प्रे० रूप फडकघाना । फ़तह-संज्ञा, स्त्री० (अ०) जीत, जय, सफमुहा०-फड़क उठना या जाना-प्रसन्न, | लता, कृतार्थता, ते (दे०)। हर्षित या मुग्ध होना, किसी अंग का अचानक फतिंगा-संज्ञा, पु० दे० ( सं० पतंत ) एक हिलना (शकुन, अशकुन)। "फरकहिं सुभग उड़ने वाला कीड़ा, पतिंगा, पतंग । स्त्री० अंग सुनु भ्राता "..- रामा० । मुहा०-- फतिंगी। बोटी-बोटी ( रग-रग ) फड़कना-फतीलसोज-संज्ञा, पु. ( फा०) एक या बहुत ही चंचलता होना किसी कार्य पर कई दिये (ऊपर नीचे) रखने की पीतल की उद्यत होना, लड़ाई, विरोध, या बदला लेने | दीवट, चौमुखी, चिरागदान ।। For Private and Personal Use Only Page #1206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org फतीला ११६५ फतीचा-संज्ञा, पु० दे० (फ़ा० फलीतः ) बत्ती, फनीस पलीता, फलीता । फतूर -- संज्ञा, पु० ( ० ) खुराक़ात, दोष, विकार, विघ्न वाधा, उपद्रव, क्षति | फतूरिया - वि० दे० ( ० फतूर + इया प्रत्य० ) उपद्रवी, बखेड़िया, झगड़ालू । फतूद - संज्ञा, खो० (श्र० फतह का बहु वचन ) जीत, विजय, लड़ाई या लूट में मिला --- धन । फतूही - - संज्ञा, स्त्री० ( ० ) चंडी (दे०) बिना बाहों की कुरती, फतुही (दे०) सदरी, ( प्रान्ती० ) जीत या लूट का माल । फते * - संज्ञा, स्त्री० (दे० ) तप (अ० ) | फतेह - संज्ञा, स्त्री० दे० ( ० फ़तह ) विजय | फदकना - अ० क्रि० दे० (अनु० ) फदफद शब्द करना, फुदकना । फन - संज्ञा, पु० दे० (सं० फण ) छत्राकार फैला साँप का सिर, फण । हुआ फ़न – संज्ञा, पु० ( ० ) हुनर, गुण, विद्या, मक्र, छलने का ढंग, कला-कौशल ! फनकना -- अ० क्रि० दे० ( अनु० ) सनसन शब्द करते वायु में चलना या हिलना । फनकार - संज्ञा स्त्री० ( अनु० ) फुफकार, साँपादि के फूँकने या बैलादि के साँस लेने से फन शब्द, फुंकर, फुलकार, फुत्कार (सं०) । फनगा' - संज्ञा, पु० दे० ( सं० पतंग ) फलिंगा, पतिंगा । फनफनाना ० क्रि० दे० ( अनु० ) फन फन शब्द करते हुए वेग से चलना, क्रोध से दौड़ना | फ़ना - संज्ञा, स्रो० (प्र०) नाश, लय, खराबी | फनिंग - फर्निद – संज्ञा, पु० दे० यौ० (सं० फणींद्र ) फर्नीद, साँप । फनि - संज्ञा, पु० दे० (सं० फणी ) साँप | फनिग - संज्ञा, पु० दे० (सं० पतंग) पतिंगा | फनिराज - संज्ञा, पु० दे० यौ० (सं० फणिराज ) फनिपति, शेष । फनी - संज्ञा, पु० दे० (सं० फणी ) साँप | फर संज्ञा, पु० दे० यौ० (सं० फणीश) शेषनाग, सर्पराज | "ईस लागे कसन फनीस कटि-तट मैं " - रत्ना० । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir फनूस - संज्ञा, पु० दे० ( अ० फ़ानूस ) फानूस । यौ० झाड़-फानूस । फन्नी -- संज्ञा, त्रो० दे० (सं० फा ) पच्चर, किसी ढीली वस्तु के कसने को ठोंका गया काठ का टुकड़ा | दे० ( हि० कुत्रती ) बंधन, नीवी, लकड़ी यादि पर बरसात में सफ़ेद काई सी जमी चीज़, भुकड़ी । फफूँदी - संज्ञा, स्त्री० धोती या साड़ी का फफोला- संज्ञा, पु० दे० (सं० प्रस्फोट ) पानी भरा ऊपरी चमड़े का उभार, छाला, भलका । "फोड़ता है जला फफोला ताक' - जौक । मुहा०-दिल के फफोले फोड़ना -- दिल का क्रोध प्रगट करना । फक्ती - संज्ञा, स्त्री० ( हि० फबना ) समयानुकूल बात किसी पर घटती हुई हँसी की चुभती बात, व्यंग्य, चुटकी । “सुनि फबती सी उत्तरेस की प्रतापी कर्न अ० ० । मुहा०— फबती उड़ानाहँसी उड़ाना । फबती कहना - चुभती हुई हँसी की बात कहना | :" फबन - संक्षा, खो० ( हि० फबना ) सुन्दरता, छवि, शो, छटा, फबनि ( ० ) । फवना - ० क्रि० दे० (सं० प्रभवन ) घटित या शोभा देना, छजना, सोहना, चरितार्थं होना, सुन्दर या भला लगना । स० क्रि० फबाना । कवि -संज्ञा, स्त्री० दे० ( हि० फबना ) फबन, शोभा, सुन्दरता, रुचिरता । फबीला - वि० दे० ( हि० फबि + ईला( प्रत्य० ) सुन्दर, शोभायमान । स्रो० फीलो । फरी - संज्ञा, पु० दे० (सं० फल ) फल, aa की नोक, धार । " बिन फर बान राम For Private and Personal Use Only Page #1207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ११६६ फरश, फरस तेहि मारा" -रामा० । संज्ञा, पु० (दे०) जाज़िम । वि० अनुपम, बेजोड़, अनोखा । सामना, बिछौना। फरना -अ० क्रि० दे० (सं० फल ) फरक-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि० फरकना) फड़क, फलना। " सब तरु फरे राम हित लागी" फड़कने का भाव । पु० (दे०) फर्क (फा०) -रामा० । फरक-संज्ञा, पु० दे० ( अ० फ़र्क ) अंतर, फरफंद-संज्ञा, पु० यौ० (हि० अनु० फर+ दूरी, अन्यता, भिन्नता, दुराव, अलगाव, | फंदा-जाल ) कपट,छल, दाँव पेंच, प्रपंच, भेद, कमी, फरक (दे०) । मुहा०-- फरक माया, चोचला, नखरा, मक्कर । वि० फरफरक होना-हटो, बचो, भागो, दूर हो । 'कंदी। का शब्द होना, अलग अलग होना। फर फर--संज्ञा, पु. ( अनु०) उड़ने या फरकन-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि फरकना ) फड़कने का शब्द । “फर फर फर फर उड़ा फड़कने या फरकने का भाव, फड़क, बछेडा ज्यों पिंजरा ते उड़ि जाय बाज़" फरक फरतिक (प्रे०)। फरफराना-स० क्रि० दे० (अ.) फड़फरकना -अ.क्रि० दे० ( सं० स्फुरण ) फड़ाना, फट-फटाना, फर फर शब्द करपृथक या विरुद्ध होना, फड़कना, कूदना, उछलना, हिलना, उमड़ना, उड़ना, आप ही जलना । संज्ञा, स्त्री० फरफराहट।। फरकुंदा- संज्ञा, पु० दे० (सं० पतंग ) बाहर होना । स० क्रि०-फरकाना, प्रे० रुपफरकवाना । “फेरि फरकै सो न की जै" पतिंगा, फतिंगा। -गिर० । फरमा-संज्ञा, पु० दे० (२० फ़म) कालबूत, फरका-संज्ञा, पु० दे० ( सं० फलक ) बड़ेर । जूते का साँचा या ढाँचा । संज्ञा, पु० दे० के एक ओर का छप्पर, जो अलग बना कर ( अं० फार्म ) प्रेस में एकबार में छपने का चढाया जाता है, द्वार का टट्टर, पल्ला। कागज़ का एक तख़्ता। फरकाना-स० क्रि० दे० (हि. फरकना) फरमाइश-संज्ञा, स्त्री० [फा०) श्राज्ञा, किसी हिलाना, फड़फड़ाना, अलग या पृथक करना वस्तु के तैयार करने या लाने की धाज्ञा । फरचा-वि० दे० (सं० स्पृश्य ) पवित्र, फरमाइशी-वि० ( फ़ा०) विशेष रूप से . शुद्ध, साफ-सुथरा । धाज्ञा देकर बनवाई या मंगाई गई वस्तु । फरजंद-संज्ञा. प. ( फा० ) लडका बेटा फरमान-संज्ञा, पु. (फा० ) राजाज्ञा-पत्र, पुत्र । “घर कब से बदतर है जो फरजंद । अनुशासन पत्र । यौ० फरमानशाही। नहीं है ".--अनीस। फ़रमाना-स० कि० दे० (फ़ा०) भाज्ञा देना, फरजी-संज्ञा, पु. (फ़ा०) शतरंज, में वज़ीर इजाजत देना, कहना । " मैं जो कहता हूँ का मोहरा । वि० बनावटी, कल्पित, नकली, कि मरता हूँ तो फरमाते हैं "-अक० ! फरजी (दे०)। फरराना, फर्राना-अ० कि० दे० ( हि० फरजी-बंद-संज्ञा, पु० यौ० (फ़ा०) शतरंज के फहराना ) फहरना, फहराना, उड़ना खेल में एक योग। फरवी संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० स्फुरण) लाई, फरद-संज्ञा, स्त्री० दे० (अ० फ़र्द) स्मरणार्थ मुरमुरा, भुना चावल । एक काग़ज़ पर लिखी वस्तुओं की सूची या फरलाँग फलांग- संज्ञा, पु. ( अं०) २२० लेखा, बहुतों में से एक वस्तु, एक से कपड़ों गज या मील । के जोड़े में से एक, रजाई या दुलाई का एक फरश, फरस-संज्ञा, पु० दे० ( अ० फर्श) पल्ला, दो पदों की कविता, बिछौना, बिछौना, धरातल, पक्कीगच, समतल भूमि | For Private and Personal Use Only Page #1208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - फ़रशबंद १९९७ फ़रोश फरशबंद-संज्ञा, पु० दे० ( अ० फर्श+ सामने न सिला हुआ एक प्रकार का घा बंद-फा०) फ़रश। या लहंगा, सारी।" चीर नयी फरिया लै फरशी-संज्ञा, स्त्री० (फा० ) धातु का बड़ा अपने हाथ बनाई"--सूबे । हुक्का, गुड़गुड़ी। फ़रियाद-संज्ञा, स्त्री० (फ़ा०) न्याय-रक्षार्थ, फरस, फरसा-संज्ञा, पु० दे० (सं० परशु) पुकार, नालिश, प्रार्थना, शोर, शिकायत, पैनी और चौड़ी धार की कुल्हाड़ी, कुठार, गुहार (३०) । “ गुलसितां से ताकफस इक फावड़ा । संज्ञा, पु. (दे०) फर्श । शोर है फरियाद का"-- स्फुट । फरहद-संज्ञा, पु० दे० ( सं० पारिभद्र ) एक | फ़रियादी-वि. ( फा० ) फरियाद या शोर पेड़ जिसकी छाल और फूलों से रंग बनता | करने वाला, प्रार्थी। | फरियाना-स० कि० दे० (सं० फली करण ) फरहर-वि० (दे०) वृष्टि के बाद धूप और साफ या शुद्ध करना, तै करना, निपटाना । हवा से भूमि का कुछ सूख जाना, थकी कम अ० कि० (दे०) छंट कर अलग होना, साफ होना, उत्तेजना पाना। या शुद्ध होना, लिपटना, समझ पड़ना । फरहरना-प्र० क्रि० ( ० फर फर ) | फ़रिश्ता-संज्ञा, पु. ( फ़ा० ) भगवान का फहराना, फरफराना। फरहरत केतु ध्वजा- सेवक जो पैगम्बरों के पास भगवान का पताका"-हरि० काशी । आदेश लाता है ( मुस० ), देवता, देव-दूत, फरहरा-संज्ञा, पु० दे० ( हि० फरहरना) | ईशाज्ञाकारी। पताका, झंडा । स्त्री. फरहरी । वि० (दे०) फरी-- संज्ञा, स्त्री० दे० ( सं० फल ) कुशी, फरहर, फरहार, फलाहार । फाल, गाड़ी का हरिसा, फड़, गदके की फरहार--संज्ञा, पु० (दे०) फलाहार (सं.)। चोट रोकने की चमड़े की छोटी ढाल । फगक ----संज्ञा, पु० दे० (फा० फ़राख ) फरीक-संज्ञा, पु. ( अ० ) विरोधी, विपक्षी, मैदान । वि. विस्तृत, लंबा, चौड़ा। दो पक्षों में से किसी पक्ष का कोई व्यक्ति । फराख-वि० (फा०) लंबा-चौड़ा, फरॉक । । यौ० फ़रीक सानी-प्रति वादी, विपक्षी संज्ञा, स्त्री० ( फा०) फराखी-चौड़ाई (कानून)। सम्पन्नता, विस्तार। फरही-संज्ञा, स्त्री० दे० ( हि० फावड़ा) फराकर फरागत-वि० द० (फ़ा० फाराख) मथानी, छोटा फावड़ा। पु. हा । संज्ञा, मैदान जो लंबा चौड़ा और समतल हो, स्त्री० दे० (संस्कुरगा) फरवी, लाई, मुरमु । विस्तृत फरागत (दे०)। संज्ञा, पु० दे० फरेंदा --संज्ञा, 'पु० दे० (सं० फलेंद्र ) बढ़िया (अ० फरागत) मुक्ति. छुट्टी, निवृत्ति, फुरसत, जामुन । स्त्री० फारेंदी। निश्चितता, मल-त्याग यौ० दिसा फरागत। फरेब ---संज्ञा, पु. (फ़ा०) कपट, छल, धोखा। फ़रामोश-वि० ( फा० विस्मृत, भूला यौ०-जाल-फरेन । हुआ। संज्ञा, स्त्री० फरामोशी । यौ० एह- फरेबी-संज्ञा, पु० (फा०) कपटी, धोखेबाज, सान फरामोश। छली, ढोंगी, मकार। फरार-वि० ( अ०) भागा हुआ। फरेरी--संज्ञा, श्री० दे० (हि० फल +रीफरासीस, हरामांसी --- वि० दे० (हि. प्रत्य० ) बन फला, बन की मेवा। फरासीस) फ्रांस का रहने वाला. फ्रांस का, फरोख्त -- संज्ञा, स्त्री० (फा० बेचना, विक्री। एक लाल छींट, फांस देश । फ़रोश--वि० [फा०) बेचने वाला, जैसेफरिया-संज्ञा, स्त्री० दे० ( हि० फरना ) | मेवा-फरोश । For Private and Personal Use Only Page #1209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १११८ - फ़र्क-संज्ञा, पु० (१०) अन्तर, दूरी, भेद, भाग, धार, हल की फाल, ढाल, मतलब अन्यता, अलगाव, कमी, फरक (दे०)। पूरा होना, प्रवृत्ति और दोष से उत्पन्न अर्थ फ़र्ज-संज्ञा, पु. ( अ०) कर्त्तव्य-कर्म, धर्म, | (न्याय०)। "पावहुगे फल प्रापन कीन्हा" कल्पना. मान लेना । “ करें फ़ज़ माँ बाप | -रामा० । " निज कृत कर्म भोग फल का क्या अदा''-स्फुट० ।। भ्राता "-रामा० । गणित में किसी क्रिया फ़र्जी-वि० ( फा० ) फरजी (दे०) माना का परिणाम, त्रैराशिक की तृतीय राशि की या ठहराया हुआ, कल्पित नाम मात्र का, प्रथम निप्पत्ति का दूसरा पद, ग्रहों के योग सत्ताहीन । संज्ञा, पु० (दे०) शातरंज में वज़ीर का सुखद या दुखद परिणाम (फ० ज्यो०)। नाम का मोहरा। फलक-संज्ञा, पु० (सं०) पट्टी, पटल, पृष्ठ, फ़र्द - संज्ञा, पु० ( फा० ) लेग्वा या सूची का चादर, वरक पत्र, हथेली, फल, तलता। काग़ज़, विवरण या सूची पत्र, शाल या कलक--संज्ञा, पु० (अ०) स्वर्ग, आसमान । रजाई आदि का ऊपरी पल्ला, चादर, फरद फतकना-अ० कि० दे० (अनु०) उमगना, छलकना, फरकना ! (दे०) स्त्री० फी। फल-कर-संज्ञा, पु० यौ० (हिं. फल ---कर) फर्राटा-संज्ञा, पु० (अनु० ) वेग, तेज़ी, वृक्षों के फलों पर लगा हुआ महसूल । शीघ्रता, तिप्रता, खर्राटा। फलका-संज्ञा, पु० दे० (सं० स्फोटक) छाला, फर्राश-संज्ञा, पु० (अ०) बिछौना, बिछाने फफोला, झलका। या डेरा लगाने वाला नौकर ! | फत्तजनक-संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) फलद। फर्राशी-वि० ( फ़ा० ) फर्श या फर्राश के फन्ततः- अव्य (सं०) परिणाम या फलस्वरूप, कार्य से संबंध रखने वाला । संज्ञा, स्त्री०- इस हेतु, इस कारण, इस लिये। फर्राश का काम, पद या मजदूरी । यौ०- फलइ-फलप्रद-वि० सं०) फल देने वाला। फरीशी पंखा-वह पंखा जिससे बिछौना | फलदाता-संज्ञा, पु० यौ० सं० फलदातृ ) पर भी हवा की जा सके । करगी (फर्शी) फल देने वाला, फलप्रद, फलदायक । सलाम-बहुत झुक कर सलाम ! फलदान-~-संज्ञा, पु० यौ० ( सं० ) तिलक, फ़र्श-संज्ञा, पु० (अ.) बिलौना, चाँदनी। विवाह की एक हीति, वरेच्छा, घर क्षग। फ़र्शी -- संज्ञा, स्त्री० (अ०) एक तरह का बड़ा फलदार-वि० (हि. फल । दार रखने वाला) हुक्का । वि०-फर्श का, फर्श-संबंधी। फ़ा० प्रत्य० ) फलों वाला, फल युक्त वृक्ष । फलंक*-संज्ञा, पु० दे० (सं० फलंघन) फलना-अ० क्रि० दे० (सं० फलन ) फल कूदना, फाँदना, लाँघना। संज्ञा, पु० (अ० लगाना, सफल होना, फल-युक्त होना, फल फलक ) आकाश । “ कूदि गयो कपि एक देना, लाभदायक होना। (स० कि० फलाना, फलंका लंका के दरवाजा ''-रघु०। प्रे० रूप० फलवाना )। मुहा० यौ०फल-संज्ञा, पु. (सं०) ऋतु विशेष में फूलों कलनाफूलना-सब भाँति सुखी और के बाद उत्पन्न गूदेदार पेंड़ों का बीज-कोश संन्नप होना । मनमा फलना--इच्छा पूर्ण लाभ, कार्य का परिणाम या नतीजा, या सुफल होना। शरीर में पीड़ा युक्त छोटे शुभाशुभ कर्मों का सुखद या दुखद परिणाम, २ दाने निकल आना, पूर्ण होना । कर्म-विपाक, शुभ कर्मों के चार परिणाम-फलबुझौवत्त-संज्ञा, पु. यो० (दे० ) एक अर्थ, धर्म, काम, मोक्ष ( सांख्य ) प्रतीकार, प्रकार का खेल । बदला, चाकू, भाला, वाणादि का पैना अग्र- फलमूल-संक्षा, पु० यौ० (सं०) फल और For Private and Personal Use Only Page #1210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir फलयोग फलोदय जड़। "असन कंद, फल-मूल"-रामा०। फलाफल-संज्ञा, पु. यौ० (सं०) लाभालाभ, फलयोग-संज्ञा, पु० (सं०) नाटक में नायक | हिताहित । के उद्देश्य की सिद्धि या प्रयत्न के फल की फलालीन,फलालेन, फलालैन-संज्ञा, पु. प्राप्ति का स्थान। दे० ( अ. 'प्लैनेल ) एक ऊनी कपड़ा । फल लक्षणा-संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) एक फलार्थी-संज्ञा, पु० यो० ( सं० फलार्थिन् ) लक्षणा ( काव्य० ) फलकामी, फल की चाह रखने वाला। फलवान्-वि० (सं० फलवत् ) फलयुक्त, फलाशन-फत्ताशी-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) सफल, सार्थक, फतवंत। फलाहारी, फल खाने वाला। फलहरो--- संज्ञा, स्त्री० ( सं० फल --हरी-- | फलास-- संज्ञा, पु. ( दे० ) डग, फलाँग । हि० प्रत्य० ) बनफल, बनमेवा । वि० (दे०) | फताहार-ज्ञा, पु० यौ० (सं०) केवल बिना अन्न की मिठाई. फरहरा (दे०)। फल ही खाना, फल-भोजन, बिना अन्न का भोजन, फराहार, फरहार फलहार (दे०)। फलहार-संज्ञा, पु० दे० यौ० (सं० फलाहार) केवल फल खा कर रहना और अन्नादि न | फलाहारी-संज्ञा, पु० यौ० (सं० फलहारिन) खाना, बिना अन्न का भोजन, फरहार केवल फल खाकर रहने वाला । स्त्री० फला हारिणी । वि० ( हिं० फलाहार+ई --- (दे०)। फलहारी- वि० दे० यौ० (सं० फलाहारिन्) प्रत्य० ) केवल फलों से बना पदार्थ, फलाकेवल फल खा कर रहने वाला, फलाहारी। हार-संबंधी फलहारी, फरहारी, फलहरी, फरहरी (दे०)। (वि. हि० फलहार --ई-प्रत्य० ) केवल फलित-वि. (सं०) फला हुआ, पूर्ण, संपन्न फलों से बना हुआ. बिना अन्न का भोजन ।। फल या परिणाम को प्राप्त । यौ० -- फलित फरहरी, फलहरी (द०)। ज्योतिष-ज्योतिष का वह भाग जिसमें फला-वि० (फ़ा०) अमुक, फलाना (दे०) ग्रहों की चाल से अच्छे या बुरे फल का फलान (ग्रा०)। विचार किया जाता है। फलाँग-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० प्रलंघन ) फलितार्थ-संज्ञा, पु. यौ० (सं०) सिद्ध अर्थ, कुदान चौकड़ी, उछाल, फलांग या उछाल सिद्धांत, तात्पर्य्यार्थं । वि०-पूर्ण मनोरथ । की दूरी। फली-संज्ञा, खो० (हिं. फल+ ई---प्रत्य०) फलांगना-अ. क्रि० दे० (हि. फलाँग-- __ छेमी, छोटे छोटे लंबे बीजदार फल, फलियाँ । ना-प्रत्य० ) कूदना, फाँदना, उछलना, फलीता--संज्ञा, पु. दे. (अ. फतोला) एक स्थान से उछलकर दूसरे पर जाना। वत्ती, पलीता (दे०)। फलांश-संज्ञा, पु. यौ० (सं०) निष्कर्श, फलीभूत- वि० यौ० (सं०) फलदायक, फल सारांश, तात्पर्य । या परिणाम को प्राप्त, जिस का कुछ परिफत्तागम-संज्ञा, पु. यौ० ( सं० ) शरदस्तु, णाम या फल हो। फल लगने की ऋतु. नाटकीय कथा में नायक पलूवा-संज्ञा, पु० (दे०) गठीला, झालर। के उद्देश्य की जहाँ सिद्धि हो ( नाव्य०)। फलंदा-संज्ञा, पु० दे० (सं० फलेंद्र ) बढ़िया फलादेश-संज्ञा, पु. यौ० (सं० ) जन्म नामुन, फरेंदा ( प्रान्ती० )। पत्रानुसार ग्रहों का फल कहना ( ज्यो०)। फलोत्तमा– संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) दाख, फ़ताना-संज्ञा, पु० दे ( अ० फलाँ+ना द्राक्षा, मुनक्का । प्रत्य०) फलाना, फलान (दे०), अमुक, फलोदय-संज्ञा, पु० यौ० (स०) मनोरथ की कोई । ( स्रो०-फलानी)। सिद्धि, लाभ, प्राप्ति, श्रानन्द । For Private and Personal Use Only Page #1211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org در हुआ । ० रूप- मवाना । फसना - क्रि० प्र० (दे०) उलझना, बझना, रुकना, फँसना | स० रूप - फसाना, प्रे० फसफसा - वि० (दे०) पिलपिला, निर्बल | फ़सल - संज्ञा, स्त्री० दे० ( ० फ़सल ) ऋतु, मौसिम, समय, काल, अनाज, खेत, की उपज, फसिल (दे० ) । फसली - वि० दे० (अ० फ़स्ली) ऋतु-संबंधी । संज्ञा, पु० अकबर का चलाया एक सन् जो उत्तरी भारत में कृषि कार्य में चलता है । फ़साद - संज्ञा, पु० ( ० ) बलवा, बिगाड़, बिकार, विद्रोह, बखेड़ा, उपद्रव | ( वि०फसादी) | यौ० -झगड़ा-फसाद । "कि बू फ़साद की आती है बंद पानी में " -- स्फुट० । फ़सादी - वि० ( फा० ) झगड़ालू, उपद्रवी । फस्द - संज्ञा स्त्री० ( अ० ) शरीर की नस में I नश्तर या छेद लगा कर दूषित लोहू निकालने का कार्य । मुहा० -फ़द खुलवाना या लेना -- शरीर का बुरा लोहू निकलवाना, होश या अक्ल की औषधि करना । फहम - संज्ञा, स्रो० (४०) समझ, ज्ञान, बुद्धि । यौ० ग्राम फहम सब के समझने योग्य | फ़हम से मालूम हक़ होता नहीं हरगिज़ कभी " 1 फल्गु 1 फल्गु - वि० (सं०) क्षुद्र, तुच्छ, छोटा, निस्सार संज्ञा, त्री० - फलगूनही । फल्का, फलका - संज्ञा, पु० (दे० ) छाला, फफोला, झलका । | फव्वारा - संज्ञा, पु० (दे०) फुहारा, फौवारा । फसकड़, फसकड़ा - संज्ञा, पु० ( दे० ) पलथी लगाया पैर फैला कर बैठना । फलकना - अ० क्रि० ( दे० ) फटना, फिसलना, धँसना, फूटना । स० रूप-उसकाना, प्रे० रूप --- फसकवाना । फसठी, फसड़ी - संज्ञा, स्त्री० (दे० ) फाँसी फंदा, फँसरी । फसड्डी - वि० (दे० ) निकृष्ट, हेय, पिछड़ा दुर्दशा में रहना । १२०० फाँस फहरना - अ० क्रि० दे० (सं० प्रसरण) वायु में इधर-उधर उड़ना ! स० रूप- फहराना प्रे० रूप- हरवाना | 1 फहरान, फहरनि, फहरानि - संज्ञा, त्रो० दे० ( हिं० फहराना) फहराने का भाव या क्रिया फ़हन - वि० दे० ( अ० फुहश ) अश्लील, भहा, फूहड़, पाच फोश (दे० ) । फाँक- संज्ञा, खो० दे० (सं० फलक ) टुकड़ा, खंड | खीरा की सी फाँक "— - रही० । फाँकना - स० कि० दे० ( हि० फंकी ) भुरभुरी वस्तु को दूर से मुँह में डालना, फाँक काटना | मुहा० - धूल फाँकना 4: Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir फाँग, फाँगी-संज्ञा, स्त्री० (दे०) एक साग | फाँडा' - संज्ञा, पु० दे० ( सं० फॉड-पेट ) धोती आदि का कमर में बंधा भाग, फेंटा । फाँद - संज्ञा, खी० दे० (हि० फाँदना) उछाल, कुदान, कंदान । यौ० कूद फाँद | संज्ञा, पु० स्त्री० (दे०) फंदा ( हिं० ) पाश | फांदना - अ० क्रि० दे० ( सं० फणन ) कूदना, उछलना, लाँघना | स० क्रि० कूद कर 1 लाँघना | स० क्रि० दे० फँसाना | स० रूप फँदवाना | M For Private and Personal Use Only (हि० फंदा) फंदे में दाना प्रे० रूप फांदी - संज्ञा, स्त्री० (दे०) गन्नों का बोझा । फाँपना- (- ग्र० क्रि० (दे०) सूजना, फूलना । फॉरड़, फॉफर - संज्ञा, पु० (दे०) अवकाश, तर, छेद, मुँह, छिद्र । फॉफी - संज्ञा, स्त्रो० दे० (सं० पर्पटी ) अति बारीक जाला, फूली, माड़ा, झिल्ली । फॉस -- संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० पाश ) फंदा, बंधन, पशु-पक्षी के फँसाने का फंदा, तीली, पाँच । रज्ञा, स्त्री० दे० (सं० पनस ) बाँस आदि का महीन या बारीक टुकड़ा जो शरीर में घुस जाता है, कमाची । फाँसना- - स० क्रि० दे० (सं० पाश ) जाल आदि में फँसाना, धोखा देकर अधिकार में करना । Page #1212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir फांसी १२०१ फाल फाँसी-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० पाश ) पाश, से निकला कपड़े श्रादि का टुकड़ा । फंदा, रस्सी का वह फंदा जो गले में पड़कर फाड़ना, फारना--- स० कि० दे० (सं० स्फाटन) मार डालता है, अति दुखद बात, या विदीर्ण करना, चीरना, टुकड़े टुकड़े करना, विपत्ति । मुहा०-फांसी चढ़ना-फाँसी- धज्जियाँ उड़ाना, संधि या जोड़ खोलना, द्वारा-प्राण दंड पाना, अपराधी को फंदे द्रव वस्तु के पानी और सार भाग का अलग द्वाग मार डालने का दंड । फांसी देना- अलग करना । स० रू. फड़ाना, फड़ावना रस्सी का फंदा गले में डाल कर मार डालना। प्रे० रूप फड़वाना। फाँसी पड़ना-मारा जाना, प्राण-दंड फातिहा-संज्ञा, पु० ( अ.) मृतक पुरुषों पाना । फाँसी लगाना-फंदे से गला के नाम पर दिया जाने वाला दान, प्रार्थना घोट कर मार डालना। (मुसल० ।। फाका-संज्ञा, पु. ( अ० फाकः ) उपवास । फानूस-सजापु० का० ) एक बड़ा लाल फ़ाकामस्त, फ़ाऊमस्त--वि० यौ० (फ़ा०) टेन बत्तियाँ जलाने को छड़ में लगे शीशे जो भोजनादि का दुख सह कर भी निश्चित के गिलास, कंदील । यो० झाड़फानूस । रहे । संज्ञा, स्त्री० फ़ामस्तो।। फाफर-संज्ञा, पु० (दे०) कूटू । फाखता-जा. प. ( अ टक पनी | फाब-संज्ञा. स्त्रो० दे० (हि० फबन ) शोभा. धवरखा (प्रान्ती.)। - छवि, सुन्दरता । फाग-संज्ञा, पु० दे० (हि० फागुन ) फागुन फाबना --अ० क्रि० दे० ( हि० फबना) या होली का उत्सव, जब रंग, अबीर चलता शोभा या छबि देना, सुन्दर लगना। है, हाली के गीत। फ़ायदा-संज्ञा, पु० ( अ० ) नफा, लाभ, फागुन-संज्ञा, पु० दे० (सं० फाल्गुण ) माघ सफल, प्रभावता, अच्छा असर, उद्देश-सिद्धि, के बाद एक हिन्दी महीना । क्रि० वि० फगुन प्राप्ति, अच्छा फल या परिणाम। हटे-फागुन के समीप । संज्ञा, पु० फागुन फायदामंद. फायदेमंद-वि० (फा०) लाभदायक, लाभपूर्ण, गुणकारी। हटा। फाजिल-वि० (अ.) जरूरत से ज़्यादा, फार*-संज्ञा, पु० दे० (हि० फाल) फाल । फारखती-संज्ञा, स्त्री० दे० यौ० (अ० फारिग आवश्यकता से अधिक, विद्वान । यौ० आलिम +ख़ती) बेवाकी, चुकती,ऋण की अदायगी फजिल । के साबूत का लेख । फाट-संज्ञा, पु० (दे०) भाग, हिस्सा, चौड़ाई। फारना8/--स० क्रि० दे० (सं० स्फाटन ) फाटक संज्ञा, पु० दे० (सं० कपाट) तोरण, फाड़ना। बहुत बड़ा द्वार या दरवाजा, काँजीहौस, फारस, फारिस-संज्ञा, पु० दे० (सं० पारस्य) मवेशीखाना। संज्ञा, पु० दे० (हि० फटकना) भारत से पश्चिम में मुसलमानों का एक अन्न फटकने से बची भूसी, फटकना पछो देश, ईरान, परशिया (अ.)। रना, फटकन। फ़ारसी-संज्ञा, वी० (फा०) ईरानी या फाटका --संज्ञा, पु० (दे०) वस्तु के भाव के फारस की भाषा। अनुमान पर एक प्रकार का जुत्रा ! यौ० फारा-संज्ञा, पु० दे० ( सं० फाल ) फाल, सट्टा-फाटका ( व्याप०) फाँक, कतरा, कटी फाँक, (दे०) फाल । फाटना-अ० क्रि० दे० ( हि० फटना ) फट फाल--संज्ञा, स्त्री० (सं०) हल के नीचे लगी जाना, फटना, टूट पड़ना। लोहे की नुकीली छड़ या कुसी, फार (ग्रा.)। फाड़न-संज्ञा, पु० दे० (हि. फाड़ना) फाड़ने । संज्ञा, स्त्री दे० ( सं० फलक) कटी सुपारी भा० श. को-१५१ For Private and Personal Use Only Page #1213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir फालतू १२०२ फिदधी या छालिया, काटा हुश्रा टुकड़ा, कतरा। कसना-व्यंग्य वाक्य कहना, ताना मारना। संज्ञा, पु० दे० ( सं० प्लव ) फलाँग, डग।। | फिकरना-फेकरना-५० कि० (दे०) स्यार मुहा०-फाल वाँधना-उछल कर का रोदन सा शब्द करना। लाँघना, एक कदम की दूरी, डग ( हिं० ), फिकारना-० कि० (दे०) सिर उघारना पैंड (प्रान्ती०)। या नगा करना। फ़ालतू-वि० (हि. फाल ---टुकड़ा+तू- फिकिर--संज्ञा, स्त्री० दे० (अ० फिक) चिंता, प्रत्य० ) जरूरत से ज़्यादा, आवश्यकता से उपाय, कल्पना। अधिक, व्यर्थ. निकम्मा, अतिरिक्त। फिकैत-संज्ञा, पु० दे० (हिं० फेंकना) गदका, फ़ालसई-वि० (फा० फालसा ) फालसा के रंग का, ललाई लिये हलका ऊदा रंग। फ़िक-संज्ञा, सी. (अ.)चिंता, खटका, फ़ालमा-संज्ञा, पु. (फा० सं० परूषक) मटर सोच, विचार, यत्न, उपाय । “ फिक्र रोजी जैसे बैंगनी रंग के खटमीठे फलों का पड़। है तोरोजी का है रज्जाक कुफैल "-जौक । फ़ालिज-संज्ञा, पु. (अ.) पक्षाघात रोग फिक्रमंद-वि० ( अ० फिक+फा० --मंद ) जिसमें आधा अंग शून्य ( जड़ ) हो चितित सोच-विचार या खटके में पड़ा हुआ। जाता है। फिचकुर-संज्ञा, पु० दे० (सं० पिछ = लार) फालूदा-संज्ञा, पु० (फा०) गेहूँ के सत से बनी एक प्रकार की ठंढाई (मुसल०)। मूर्या में मुंह से निकला फेन । फाल्गुन-संज्ञा, पु० (सं०) फागुन (दे०)। फिट-अव्य (अनु०) छी २, धिक्, थुड़ी। माध के बाद का चांद्र महीना, अर्जुन का वि०-(अं० ) ठीक, मूर्छ। फिटकार-- संज्ञा, स्त्री० (हिं०) लानत, डाँट, एक नाम। फाल्गुनी-संज्ञा, स्त्री० (सं०) पूर्वा या उत्तरा शाप, धिक्कार, कोसना, फटकार । फाल्गुनी नाम के नक्षत्र ( ज्यो०)। वि० फिटकिरी-फटकरी--संज्ञा, स्त्री० दे० ( सं० फाल्गुन-सम्बन्धी। स्फटिक ) मिश्री या स्फाटिक सी एक श्वेत फावड़ा, फापरा-संज्ञा, पु० दे० (सं० फाल) खानिज वस्तु। मिट्टी खोदने का हथियार। फरुहा (दे०)। फिटन - संज्ञा, स्त्री० (अं०) चार पहिये वाली खुली गाड़ी। करसी (प्रान्ती०) । स्त्री. अल्पा.फावड़ी, फावरी ( दे०-फरुही) फिट्टा-वि० दे० ( हिं० फिट) अपमानित, फ़ाश-वि० (फा०) खुला, प्रगट । ___ डाँट-फटकार खाया हुश्रा, श्रीहत । फ़ासला-फ़ासिला-संज्ञा, पु. (अ०) अंतर, फ़ितना-संज्ञा, पु० (अ.) फसाद, झगड़ा, दूरी। दंगा, एक प्रकार का इन। फाहा-संज्ञा, पु० दे० (सं० फाल ) तेल, घी | फितरत-संज्ञा, पु. ( अ०) बखेड़ा, यत्न । या और किसी द्रव वस्तु से तर रुई, फाया, यौ०-हिकमत-फितरत । फीहा (ग्रा०)। फ़ितूर- संज्ञा, पु० दे० ( अ० फुतूर ) उपद्रव, फ़ाहिशा-वि० सी० (अ०) पुंश्चली, छिनाल झगड़ा, बखेड़ा, ख़राबी, विकार । वि.स्त्री, कुलटा । फितूरी, फितूरिया। फ़िकरा-संज्ञा, पु. ( अ०) वाक्य, व्यंग्य, फिदवी-वि० (अ० फिदाई से फ़ा०) श्राज्ञा ताना, झाँसापट्टी। वि०-फ़िकरेबाज, संज्ञा, । कारी, स्वामि-भक्त । संज्ञा, पु० दास । स्त्री०स्त्रो०-फ़िकरेबाजी । मुहा०—फिकरा । फिदविया । For Private and Personal Use Only Page #1214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir फिनिया १२०३ फिसलन फिनिया-संज्ञा, स्त्री० (दे० ) कान का एक मुहा०—किसी ओर फिरना-प्रवृत्त गहना। होना। भाग्य फिरना-दुर्भाग्य या सौभाग्य फिनैल-संज्ञा, पु. ( अं० फिनायल ) एक पाना । दिल या जी फिरना-चित्त उचट तीव गंध वाला द्रव पदार्थ जिससे कीड़े मर जाना । दिन फिरना-सौभाग्य के अच्छे जाते हैं। दिन पाना, लौटना, विपरीत होना, लड़ने फ़िरंग-संज्ञा, पु० दे० ( अं० फ्राँक ) यूरुप को तैयार हो जाना, उलटा होना मुहा० ---- महाद्वीप का एक देश, फिरंगिस्तान, गोरों सिर-दिमाग़ फिरना-बुद्धि नष्ट या भ्रष्ट का देश । यौ०-फिरंगरोग-गरमी, श्रात होना। आँखें फिरना-मूर्छित होना, मर शक और मूत्रकृच्छ्र या सूजाक का रोग। जाना । झुकना, टेढ़ा होना, घोषित होना । फिरंगी-वि० दे० (अं० फ्रांक ) फिरंग देश का वासी, या वहाँ उत्पन्न, गोरा । संज्ञा, चढ़ाया या पोता जाना, बात पर दृढ न स्त्री०-विलायत की बनी तलवार । रहना, इधर उधर घूमना या चलना। फ़िराक-संज्ञा, पु० (अ०) विछोह, वियोग, फिरंट-वि० दे० (हिं. फिरना, अं०-फ्राट ) | अलगाव, खोज, चिंता, सोच । खिलाफ, विरुद्ध, फिरा हुआ, सन्मुख, लड़ने फिराना-२० क्रि० ( हि० फिरना ) इधर को तैयार । फिर-क्रि० वि० (हि. फिरना) पुनः, दोबारा, या उधर घुमाना, ऐंठना, मरोड़ना, बार बार पुनर्वार, बहुरि, फेरि (व०) फ़िरि (दे०)। | चक्कर या फेरे देना, पलटाना, टहलाना, यौo-फिर फिर-बार बार,लौट लौट कर, | उलटाना, लौटाना फेराना (दे०)। कई बार । अनन्तर, दूसरे समय, पीछे, उपरांत, फिरार, फरार-संज्ञा, पु० (अ०) भागजाना, उस दशा में, तब, इसके अतिरिक्त, इसके | भागना । वि०फिरारी, फरारी। फिरिरी --- क्रि० वि० दे० ( हि. फिरना ) सिवाय, आगे चलकर महा.-फिर क्या फेर, फेरि (दे०) फिर, धागे, पीछे, पुनः, है-तब क्या पूछना है, तब तो कोई अड़चन ही नहीं है। दोबारा । पू० का. क्रि० (७०) फिर या फ़िरका-संज्ञा, पु. (अ.) जाति, संप्रदाय, लौट कर। पंथ, मार्ग, जत्था, समूह । फ़िरियाद*-संज्ञा, स्त्री० दे० (अ० फ़रियाद) फिरकी-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. फिरना) फ़रियाद, पुकार, गुहार । वि. फिरियादी। लड़कों का एक बीच की कील पर घूमने वाला फिल्ली -संज्ञा, स्त्री० (दे०) पिंडली। गोल खिलौना, चकई, फिरहरी, चरखे के | फिस-वि० (१०) कुछ नहीं। मुहा०तकले में लगाने का चमड़े का गोल टुकड़ा। टॉय टॉय फिस-धूमधाम तो बहुत टॉय टाय "खिरकी खिरकी पै फिरै फिरकी सी"... | थी पर फल कुछ भी ना हुथा। मतिः । (मामला ) फिस होना ( करना )फिरता-संज्ञा, पु० दे० (हि. फिरना) किसी कार्य या बात का व्यर्थ होना (करना)। वापसी, अस्वीकार । वि० वापस लौटाया | फिसड़ी, फसड़ी- वि० दे० ( अनु० फिस ) हुधा । (स्त्री० फिरती)। जो काम में सबसे पीछे हो, जो कुछ भी न फिरना-प्र० कि० (हि० फेरना का अ.) कर सके। घूमना, टहलना, भ्रमण करना, विचरना, फिसलन-संज्ञा, स्त्री. ( हि० फिसलना) सैर करना चक्कर लगाना, ऐंठ जाना, लौटना, । झुकना, प्रवृत होना, रपट, रपटन, गीलेपन पलटना, विरोधी हो जाना, मरोड़ना, मुड़ना। और चिकनाहट से पैर का स्थिर न होना। स० रूप फिराना, प्रे० रूप फिरवाना।। संज्ञा, पु. फिसलाहट । For Private and Personal Use Only Page #1215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir फिसलना १२०४ फुटल-फुट्टैल फिसलना-अ० क्रि० दे० (सं० प्रसरण) नली जिससे फूंककर भाग जलाते हैं, मुकना, रपटना। धौंकनी, भाथी। फिहरिस्त, फेहरिश्त - संज्ञा, स्त्री० (फा०) फैकरना-अ० कि० दे० (सं० फुकार) सूची-पत्र, खाता। फूरकार या फुकार छोड़ना। फीचना-स० क्रि० (दे०) कपड़े धोना । स० फंकार-संज्ञा, पु० दे० (सं० फूत्कार मुंह रूप फिवाना प्रे० रूप फिनवाना। से हवा छोड़ने का शब्द, फुफकार, फूंक। फ़ी-अध्य० (१०) प्रत्येक, हर एक । संज्ञा, | फंदना-संज्ञा, पु० दे० (हि० फूल +-फंद) स्त्री० (अ.) परिश्रम, फल, मजदूरी फीस झब्बा, फुलरा, फूल जैसी सूत की गाँठे । फैदिया-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. फुदना) फीका-वि० दे० ( सं० अपक्व ) नीरस, झम्बिया, फुलरी। सीठा, स्वाद-रहित, मलिन, कांति-हीन, फंदी-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि० फंदा ) गाँठ, उदास, मैला, निष्फल, व्यर्थ, प्रभाव-हीन, फंदा । संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. विंदी ) वेदी, धूमल । स्त्री०-फीकी। टीका, बिंदी। फ़ीता-संज्ञा, पु० (फा० ) कोर, किनारी, फँसी-संज्ञा, स्त्रो० दे० (सं० पनलिका) पतली धज्जी जिससे कुछ लपेटते या बाँधते छोटी फुड़िया । यौ०-फोड़ा-फँसी। हैं, फीता (दे०)। फुचड़ा, फुचरा-संज्ञा, पु० (दे०) बुने कपड़े फ़ीरनी-संज्ञा, स्त्री० (फा० फिरनी) एक से बाहर निकला हुश्रा सूत का रेशा। तरह की खीर। फुट-वि० दे० (सं० स्फुट) अकेला, एकाकी, फ़ीरोजा-संज्ञा. पु. (फा० ) नील मणि, अलग, भिन्न, पृथक । संज्ञा, पु० (मं० फुट) नीलापन लिये हरे रंग का एक पत्थर या ३६ जौ या १२ इंच की लम्बाई की माप । नग, फिरोजा (दे०)। फ़ीगेजी-वि० ( फा० ) हरापन लिये। फुटकर-फुटकल-वि० दे० (सं० स्फुट - कर प्रत्य०) भिन्न २, अलग २, पृथक २, नीले रंग का. फिरोजी (दे०)। थोड़ा २, विषम, अकेला। कई प्रकार या फ़ील-संज्ञा, पु. (फा०) हाथी. शतरंज मेल का । (विलो०-थोक)। का एक मोहरा, फीला । फुटका-संज्ञा, पु० दे० (सं० स्फोट) फफोला, फीलखाना-संज्ञा, पु. (फा० ) हथियार, ज्वार प्रादि का भूनने से फूला और बिखरा हस्तिशाला, हाथी बांधने का स्थान । फ़ोलपा, फीलपाँव (दे०)- सज्ञा, पु. यौ० दाना, लावा। (फा०) खम्भा, एक रोग जिसमें पैर सूज फुटकी-संज्ञा, स्त्री० दे० ( सं० फुटक ) दूध आदि जमी हुई द्रव वस्तु के छोटे बुलबुले, कर भारी हो जाते हैं। फीलवान-संज्ञा, पु० (फा) हथवाल, पीब, खून आदि के छींटे। हाथीवान । फुटेहरा- संज्ञा, पु० दे० (हि० फूटना + फीली-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० पिंड) पिंडली। हरा-प्रत्य० ) चने या मटर का भूनने से फैकना, फुकना--अ० क्रि० दे० (हिफूकना) बिखरा और फूला हुआ दाना । जलना, भस्म होना, नष्ट या बरबाद होना। फुट - वि० (दे०) फुट (अं०) फुट ( हिं० )। स० रूप-फुकाना. प्र. रूप-फूकवाना। फुटल-फु?ल-वि० दे० (सं० स्फुट ) झंड, संज्ञा, पु. ( हि० फुकनी ), मूत्राशय। या जोड़ से अलग या भिन्न । वि० ( हि.. फॅकनी-संज्ञा, स्रो० दे० (हि० फूकना) वह फूटना ) श्रभागा, फूटी भाग्य वाला। For Private and Personal Use Only Page #1216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir meansw फुड़िया १२०५ फुलझड़ी, फुलझरी फुड़िया-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० स्फोट) छोटा पूरा उतरना, प्रभाव उत्पन्न करना या फोड़ा फुसी। दिखाना, निकलना । स० रूप-फुराना, प्रे. फुकार-संज्ञा, पु० दे० (सं० फूत्कार) दुस्कार, रूप-फुरवाना)। तिरस्कार फुसकार । फुरफुराना -स० कि० दे० (अनु. फुरफुर ) फुदकना-अ० कि० ( अनु०) उछल उछल उड़ना. पंखों का शब्द करना, वायु. में लहकर कूदना, उमंगित होना। राना, फरफराना । अ० क्रि०-किसी हलफुदकी-संज्ञा, स्त्री० दे० ( फुदकना ) एक की वस्तु का फुर फुर शब्द कर हिलना। बहुत छोटी चिड़िया। फुरफुरी-संज्ञा, स्त्री० दे० ( अनु० ) फुरफुर फुनँग-फुनगी-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० पुलक) / शब्द होने या पंख फड़फड़ाने का भाव । अंकुर, पौधों या पेड़ों की डालियों का फरमान--संज्ञा, पु० (दे०) फरमान (फा०) अग्रिम खंड। राजाज्ञा। फुप्फुस-संज्ञा, पु. (सं०) फेफड़ा। फुरमाना-प० क्रि० दे० (फा० फरमाना) फर्कंदी-संज्ञा, स्त्री० दे० (हिं फूल-+ फंद) श्राज्ञा देना, कहना, स्फुरित या प्रकट करना। नीवी, स्त्रियों की धोती की गाँठ या घाँघरे । “सो सब तुरत देहु फुरमाय"-पाल्हा० । (लहगे) का नारा, इजारबंद, कमरबंद। फुरसत ... सज्ञा, स्त्री० (१०) अवकाश, अवफुफकना-अ० (दे०) फुफकारना । ( स० सर, निवृत्ति, छुट्टी, पाराम, रोग मुक्ति । रूप-फुसकाना )। फुरहरना-- अ० क्रि० दे० (सं० स्फुरण) निकफुफकार-संज्ञा, पु. (अनु०) फुकार, फुप- लना स्फुरित, या उद्भुत होना। कार, साँप के मुख से निकली वायु का शब्द। फरहरी-सज्ञा, स्त्री. ( अनु०) कँपकँपी, फुफकारना-अ० कि० दे० (फुफकार) साँप । फड़कना, पती के उड़ने से परों का श-द, का मुख से वायु निकालना, फुसकारना, हवा में वस्त्रादि के उड़ने का शब्द फरफराहट, फूरकार छोड़ना। रोमांच युक्त कंप, सींक के छोर पर इतर में फुझी-फुफू*-संज्ञा, सी० दे० ( अनु०)। डूबी रुई का फ्राहा, फुरेरी। बाप की बहन, बुथा । फूका, फूफू, पु०- फुरेरी संज्ञा, खो० दे० (हि. फुरफुराना) फूफा। सींक के सिरे पर इतर में डूबी हलकी लिपटी फुफेरा- वि० दे० (हिं. फूफा+रा-प्रत्य०) | रुई. फुरहरी, रोमांच-युक्त कंप । मुहा० फूफा का पुत्र, फूफा से उत्पन्न । स्त्री० फुफेरी। फुरेरी लेना - फड़कना, भय या शीत फुर, फुरु-वि० दे० (फुरना) सच, सत्य । आदि से रोमांचित होना या काँपना, संज्ञा, स्त्री० (अनु०) पक्षी के उड़ने में पंखों का थरथराना, हिलना, थरथराना । शब्द "तौ फुर होइ जो कहाँ सब"-रामा। फुलका-संज्ञा, पु० दे० (हि० फूलना ) फुरती-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० स्फूर्ति ) तेज़ी, झलका, छाला, फफोला, पतली और जल्दी, शीघ्रता। छोटी रोटी, चपाती । स्त्री. अल्पा.फुरतीला-वि० दे० (हिं. फुरती+ईला- फुलको।। प्रत्य०) तेज, फुरतीवाला । स्त्री-फुर- फुलचुही -- संज्ञा, स्त्री० दे० ( हि० फूल + तोली। चूसना ) एक काली चिड़या। फुरना*-अ० क्रि० दे० ( सं० स्फुरण) फुलझड़ी, फुलझरी-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. प्रगट या उद्भूत होना, उच्चरित या प्रकाशित | फूल + झड़ना ) एक तरह की पातशबाजी, होना, फड़कना, चमक जाना, सत्य ठहरना, उपद्रव या फसाद पैदा कराने वाली बात । For Private and Personal Use Only Page #1217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir फुलरा १२०६ फुहारा फुलरा-संज्ञा, पु० दे० (हि० फूल +रा प्रत्य०) | फुलौरी-संश, स्री० दे० (हि० फूल+वरी) फंदना, सूत या ऊन का फूल जैसा गुच्छा। बेसन या चने के महीन पादे की पकौरी। फुलवर-संज्ञा, पु० दे० ( हि० फूल-+-वार) फुल्ल-वि० (सं०) विकसित, खिला या बूटीदार एक रेशमी वस्त्र । फूला हुआ। फुलवाई-संज्ञा, स्रो० दे० (सं० पुष्पवाटिका) | फुल्लदाम संज्ञा, स्त्री. (सं० फुल्लदामन्) उद्यान, पुष्पवाटिका, काग़ज के पुष्प-वृक्ष जो | १६ वर्णों की एक वृत्ति ( पि० )। बरात में निकाले जाते हैं फुलधारी। " करत | | फुल्ली -संज्ञा, स्त्री० दे० ( हि० फूल ) आँख प्रकास फिरति फुलवाई"--रामा० । । फुलवार-वि० दे० (हि० फूल ---वारा) प्रसन्न, का जाला, फूली, नाक का एक गहना. प्रफुल । पुल्ली । फुलवाडी-फूलवारी-फुलवारी-संज्ञा, स्त्री. फुल-संज्ञा, स्त्री० ( अनु० ) धीमा शब्द । दे० ( सं० पुष्पवाटिका ) बाग, पुष्पवाटिका, फुसकारना*-अ० क्रि० ( अनु० ) फूरकार बगीचा, उद्यान, फुलवाई । बरात में काग़ज | छोड़ना, फूक मारना, फुफकारना । के फूल, वृत्त । फुसफुस-संज्ञा, पु० (दे०) फुस्फुस, फेफड़ा। फुलहथा-संज्ञा, पु० (दे०) लाठी की मार । | फुसफुसा-वि० दे० ( हि० फूस, अनु० फुस ) फुलहारा-संज्ञा, पु० दे० ( हि० फूल + हारा | निर्बल, मंदा, जो दबने से टूट या चूर -प्रत्य० ) माली, फूलवाला । खो० फुल- हो जाय । फुसफुस (दे०) फुसफुसहा हारी, फुलहारिन । फुलाना-स. क्रि० (हि० फूलना ) वायु । (ग्रा.) आदि भर कर किसी पदार्थ का विस्तार फुसफुसाना-स० कि० (अनु०) बहुत बढ़ाना। मुहा०-(गाल) मुँह फुलाना- ही धीमे स्वर से बोलना। रूठना, मान करना । पुलकित या हर्षित कर फुसफुसाहट-संज्ञा, स्त्री० (हि० फुसफुसाना) देना, गर्व पैदा करना, विकसित या कुसमित | धीमे स्वर से बोलने का भाव । करना, पुष्पयुक्त करना। अ० कि. (दे०) फुसलाऊ-वि० दे० ( हि० फुसलाना) फूलाना। प्रे० रूप०-फुलावना,फुलवाना। फुसलाने या बहकाने वाला। फुलायल*-संज्ञा, पु० दे० (हि. फुलेल ) फसलाना-स. क्रि० दे० (हि० फिसलाना) फुलेल, सुगंधित तेल। चकमा देना, बहकाना, झाँसा देना, अनुफुलाव-संज्ञा, पु. दे० (हि० फूलना ) फूलने कूल बनाने को मीठी मीठी बात करना । की क्रिया का भाव, सूजन, उभार । फुसलावा-- संज्ञा, पु० दे० ( हि० फुसलाना) फुलासरा--संज्ञा, पु० (दे०) लल्लो-चप्पो, झाँसा, चकमा, बहकावा, भुलावा । चाटुकारी। फुलिंग-फुलिंगा*---संज्ञा, पु० दे० (सं० फुसाहिंदा-वि० (दे०) घिनौना, घृणास्पद, स्फुलिंग ) भाग की चिनगारी। दुर्गधी। फुलिया -- संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० स्फोट ) फुस्का-वि० (दे०) दुर्बल, निर्बल, ढीला । फुडिया । संज्ञा, स्त्री० दे० ( हि० फूल ) छोटा संज्ञा, पु० (दे०) छाला, फफोला। फूल, नाक की लौंग. फूल जैसे सिरे वालीकील । फुहार-संज्ञा, स्त्री० दे० ( सं० फूत्कार ) सूचम फुलेल-संज्ञा, पु० दे० (हि० फूल--तेल) सुगं- जल-कण, जल के बारीक छींटे, छोटी धित तेल, फुलायल । यौ०–तेलफलेल छोटी बूंदों की झड़ी, झीसी (प्रान्ती०)। फलेहरा-संज्ञा, पु० दे० (हि० फूल - हार) | फुहारा-संज्ञा, पु० ( हि० फुहार ) पानी के रेशम या सूत के बंदनवार । | बारीक छींटे, एक जल यंत्र जिससे दबाव के For Private and Personal Use Only Page #1218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - - - फुही, फुहीर १२०७ फूत्कार कारण, पानी के सूचम कणा या धार वेग से | फूया, फुधा--संज्ञा, स्त्री० दे० (हि० फूफी) ऊपर निकलते हैं, फवारा। बुधा, फूफी। फुही, फुहीर-संज्ञा, स्त्री० (दे०) फुहार (हि.) फूट-संज्ञा, स्त्री० (हि० फूटना) फूटना 1- संज्ञा, स्त्री. ( अनु० ) साँप की फुस- क्रिया का भाव, विरोध, बिगाड़, भिन्नता, कार। | अलगाव, मत-भेद, एक बड़ी मोटी, पकी फॅक-संज्ञा, स्त्री० ( अनु० फँ फँ) संकुचित ककड़ी। मुँह से वेग के साथ छोड़ी वायु, साँस । | फूटना-क्रि० अ० दे० ( सं० फुटन ) किसी मुहा०-- फूक निकल जाना-प्राण या कड़ी वस्तु के आघात से किसी खरी, नरम जान निकल जाना । मंत्र पढ़ कर मुँह से वस्तु का टूट जाना, फट जाना, करकना, छोड़ी हुई हवा । यौ०-झाड़-क-मंत्र दरकना, मुंह से शब्द निकलना, नष्ट होना, तंत्र का उपचार। बिगड़ जाना, पोली या नर्म चीज़ से भरी फंकना--स० क्रि० दे० ( हि० फूंका ) वस्तु का फटना, कली का खिलना, अंकुर या नये पत्ते शाखादि का, निकलना, संकुचित मुँह से बड़े वेग से वायु छोड़ना । प्रस्फुटित होना, विखरना । मुहा०---फूट द्वि० स० रूप०-फुकाना, प्रे० रूप ( फूट-फूट) कर रोना-विलाप करके फैकवाना । मुहा०-फंक फॅक रोना। फूट मिलना-किसी स्वजन से कर पैर रखना या चलना-कोई काम विरोध कर विलग हो उसके शत्रु से ना बड़ी सतर्कता या सावधानी से करना । मिलना।" फूट मिलिगो बिभीषन है"। मंत्रादि पढ़ कर किसी पर फूक डालना, फूट पड़ना (होना)-विरोध होना शंख, बाँसुरी आदि को फूक कर बजाना, या बढ़ना, विगाड़ या विलगाव होना। फूंक कर आग जलाना. भस्म करना, अप फूट रहना ( जाना)-विरोध से अलग व्यय या व्यर्थ खर्च करना, उड़ाना, गुरु-मंत्र हो जाना, विगाड़ या विरोध रहना, देना । मुहा०-कान कना-गुरु (विरोध से बिलग हो जाना )। फूट मन्त्र या दीक्षा देना। यौ०-फंकना होना-बिगाड़ या विरोध होना, विलगाव तापना-व्यर्थ खर्च कर देना। होना । फूट डालना-बिगाड़ या बैर फका-संज्ञा, पु. (हि. फूक ) जलन पैदा पैदा करा देना । एक पक्ष छोड़ दूसरे में हो करने वाली दवा भर कर स्तन में लगा बाँस जाना, देह पर दाने या घाव निकल पाना, की नली से फूंक कर गाय आदि का सब सवेग फोड़ कर बाहर आना, व्याप्त होना, दूध निकालने की विधि, फूका मारने की व्यक्त या प्रगट होना । मुहा०-भेद नली, फफोला, किसी वस्तु में मुंह की फूटना-गुप्त बात का प्रगट हो जाना, फूक भर देना। फूटी आखों न भाना (सुहाना )फंकारना-प्र. क्रि० (दे०) फनफनाना, | रंच भी न सुहाना, बुरा लगना। फूटी फुफकारना, फुसकारना, क्रोध का निश्वास । पाखों न देख सकना-बुरा मानना, फूद-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. फुदना )। कुढ़ना, जलना । बाँध श्रादि का टूट जाना, फुदना, झब्बा। जोड़ों में पीड़ा होना। लो०-फूटी सहें कँदाह-संज्ञा, पु० दे० (हि० फुदना) पर प्रांजी न सहें-थोड़ी न सह कर बड़ी फुदना, झब्बा, फंदा। यौ०-फूदफुदारा हानि या पीड़ा सहना।। -फुदने वाला, फुकुंदी। स्त्री० फु दी। फूत्कार--संज्ञा, पु. ( सं० ) फुफकार, For Private and Personal Use Only Page #1219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १२०८ फुसकार, फूक, मुख से निकली आयु का फालना-प्रसन्न या हर्षित होना, उल्लास शब्द । फुफकार (दे०)। में रहना । शरीर के किसी अंग का सूजना, फूफा-संज्ञा, पु. ( अनु०) पिता का | मोटा या स्थूल होना, इतराना, धमंड बहनोई, बुना या फूफी का पति । करना, प्रसन्न होना । मुहा० --- फूता फूमी-संज्ञा, स्त्री० ( अनु० ) पिता की फूला फिरना-हर्ष में घूमना। फूले बहिन, भुश्रा, बुश्रा, फूत्रा, फफू । (अंग) न समाना--बहुत प्रसन्न होना । फूल-संज्ञा, पु० दे० (सं० पुष्प ) पुष्प, । मुँह फुत्नाना-मान करना, रूठना । सुमन, कुसुम, पौधों की फलोत्पादक शक्ति फूलमती--संज्ञा, स्त्री० (हि० फूल + मती वाली ग्रंथि या गोठ । मुहा०-(मुख प्रत्य० ) एक देवी । से ) फूल मड़ना-मधुर या प्रिय वचन फूनी--- संज्ञा, स्त्री० (हि० फूल) जाला, सफ़ेद बोलना । फूल सा-अति सुकुमार या | माँदा, आँख की पुतली पर पड़ा छोटा दाग । कोमल, सुन्दर, हलका। फूल्ल संघ कर फस-संज्ञा, पु० दे० ( सं० तुष ) छप्पर में रहना-बहुत कम खाना, (व्यंग्य) । पान, लगाई जाने वाली लंबी दृढ़ घास, गाडर, फूल सा-बहुत ही सुकुमार. पुष्पाकार तिन (दे०) सूखा तृण, खर । यौ० घासबेल-बूटे, कसीदे, नक्काशी, पुष्पसाभूषण, जैसे फूस, फूम-फाम। -शीश-फूल, करण-फूल, हथफूल, हिदू) फूहड़-फूहर-वि० दे० (सं० पर गोवर+ कुष्ठ-जनित शरीर के सफेद या लाल दाग, घट- गढ़ना ) निर्वद्धि, बे शऊर, बे ढंगा, स्त्रियों का रज, जलने के पीछे मृतक की भद्दा । जैस लो.. "पेंडन मैं थूहर, तस बची हड्डी, ताँबा और राँगे से बनी एक तिरियन में है फूहर"- घाघ । धातु, पोतल श्रादि की गोल फूल सी गाँठ । | फूही-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० फूत्कार) फुहार । संज्ञा, स्त्री० (हि. फूलना ) फूलना का भाव, फंकना-स० कि० दे० (सं० प्रेषण) एक श्रानन्द, प्रसन्नता, हर्ष उत्साह उमंग। स्थान से उठाकर बल-पूर्वक दूसरे स्थान फूलगोभी-संज्ञा, स्त्री० यौ० (दे०) गोभी में डालना या गिराना, भूल से इधर-उधर ( फूलदार ) गाँठ गोभी, बँधे पत्तों के पिंड- छोड़ना, गिराना, अनादर से छोड़ना, वाली गोभी। अपव्यय करना। द्वि० रूप-फेंकाना, प्रे० फूलदान-संज्ञा, पु० यौ० (हि० फूल+दान- रूप फेंकवान। फा० ) पीतल या काँच आदि का गिलास-फरना-अ० क्रि० (अनु० फे फें करना) नुमापात्र जिसमें गुलदस्ता रखा जाता है। बड़े ज़ोर से चिल्ला कर रोना । जैसे-स्यार | फूलदार-वि० ( हि० फूल + दार फा०) | फेकारना--स० क्रि० (दे०) बाल खोले नंगे वह पदार्थ जिस पर फूल पत्ते बने हों, . सिर रहना। फूलवाला। फेंट- संज्ञा, पु० दे० (हि० पेट-पेटी ) फेरा, फूलना-क्रि० अ० ( हि० फूल + ना- घुमाव, कटि-मंडल, कमर का घेरा, कमर (प्रत्य॰ ) पुष्पित या कुसमित होना, में लपेट कर बाँधा गया धोती या वस्त्र का सुमन युक्त होना, खिलना. विकास को छोर। पटुका (७०) लपेट, कमरबंद, प्राप्त होना, कली का संपुट खुलना, कुछ फंटा (दे०), परिकर । मुहा०-ट भर जाने से किसी वस्तु का फैलकर बढ़ना।। धरना या पकड़ना-कमरबंद को मुहा०-फूनना • फलना धनी और ऐसा पकड़ना कि भग न सके । फेंट सुखी होना, उन्नति करना । फूलना। (परिकर ) कसना या बांधना- कमर For Private and Personal Use Only Page #1220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १२०१ फैटना फेरा बाँध कर तैयार होना । संज्ञा, स्त्री० (हि. अंतर, भेद, उलझन । मुहा०-फेर में फंटना ) फेंटना का भाव । पड़ना (आना)-भ्रम, धोखा, संदेह, फेटना-स० कि० दे० (सं० पिट) गाढ़े संशय, असमंजस या झंझट में पड़ना द्रव पदार्थ को अँगुलियों और हथेली से (श्राना ) । षट्चक्र, षड़यंत्र । फेर पड़ना रगड़ना, ताशों को उलट पलट कर मिलाना। (होना) भूल या अंतर पड़ना । मुहा-- फेंटा-संज्ञा, पु० दे० हि० फेंट) फेंट, पटुका, निन्यानबे का फेर-रुपया जोड़ने या कमरबंद, छोटी पगड़ी। बढ़ाने का चसका, ११ से १०० रुपये पूरे फेकरना-कि० अ० (दे०) खुलना, नंगा | करने की चिंता । फेर (लगाना) बाँधना होना। कि० अ.-फेंकरना-स्थार की -- लेन-देन या आदान-प्रदान का क्रम भाँति ज़ोर से चिल्ला चिल्ला कर रोना।। लगाना, युक्ति, ढंग, उपाय, एवज़, बदला । फेण-संज्ञा, पु० दे० (सं०) फेन-नन्हें नन्हें यौ०-उलट-फेर --उलटा-पलटा चालबुलबुलों का गठा समूह, फेना, झाग । फेर आना-जाना, छल, धोखा। जाल (वि०–फेनिल)। फेर- छल-कपट । हेर-फेर-लेन-देन, फेनी-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० फेनिका ) सूत । व्यवसाय, श्रादान-प्रदान। घाटा, हानि, भूत के लच्छे जैसी एक मिठाई, सूनफेनी। । प्रेत का प्रभाव, दिशा, ओर :- अव्य. फेफड़ा-संज्ञा, पु. दे० (सं० फुप्फुस + | (दे०) फिर, पुनः, दोबारा । " फेर न है डा-प्रत्य० ) फुप्फुस, प्राणियों की छाती है कपट सों, जो कीजै व्यापार "-वृ। के भीतर साँस लेने का अवयव । फेरना-स० कि० दे० (सं० प्रेरणा) मरोड़ना, फेफड़ी, फेफरी--संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. घुमाना, लौटाना, वापिस करना या लेना, पपड़ी ) पपड़ी, होठों के चमड़े की पपड़ी। लौटा लेना देना ), चक्कर देना, ऐंठना, फेर-संज्ञा, पु० दे० ( हि० फेरना ) फिरने मोड़ना, पोतना, पीछे चलाना, इधर-उधर या घूमने की क्रिया, दशा, या भाव, चक्कर, अपर स्पर्श करना, तह चढ़ाना। मुहा०घुमाव, रदबदल, परिवर्तन । “सब सों पानी फेरना--नष्ट-भ्रट करना । घोषित लघु है माँगिबों यामें फेर न सार"-वृ.। या प्रचारित करना, घोड़े आदि पशुओं प्रेत-बाधा, धोखा, जाल, छल, संदेह, । को चलना सिखाना, उलट-पलट या इधर. भ्रम, मोड़, झुकाव, झंझट, चालबाज़ी, ! उधर करना, बदलना, परिवर्तन करना । बखेडा । मुहा०-फेर खाना-सीधी राह मुहा०-आँखे फेरना ( फेर लेना )न जाकर टेदी राह से अधिक चलना, चक्कर मर जाना । मुँह फेरना-विमुख होना खाना, भटकना । फेर देना- लौटा या वापिस कर देना। फेर-फार-पेंच, घुमाव- फेरघट-संज्ञा, स्त्री० दे० ( हि० फेरना , फिराव, जटिलता, अदल-बदल, अंतर, घुमाव-फिराव, चक्कर, पेंच, बहाना, फेरबहाना, चक्कर, इधर-उधर, छल-कपट । फार, टाल-मटूल । मुहा०-कों या ( समय ) दिनों का फेरा--संज्ञा, पु. ( हि० फेरना ) परिक्रमण, फेर-- दशान्तर, विपत्ति का समय, अच्छी कील पर चारों ओर घूमना, चक्कर. मोड़ एक से बुरी दशा होना। " रहिमन चुप है बार की लपेट बारम्बार आना-जाना. घूमते बैठिये, देखि दिनन को फेर।" कुफेर फिरते श्रा जाना या पहुँचना, फिर लौट कर श्राना, मंडल, आवर्त, घेरा व्याह में भाँवर । बुरी दशा । सुफेर- अच्छी दशा "बोलब हरि जो गये फिरि कीन्ह न फेरा ।" बचन बिचार जुत, समझि कुफेर-सुफेर ।" -पद्मा० । भा० श० को०-१५२ उपेक्षा For Private and Personal Use Only Page #1221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir फेरि १२१० फ़ोता फेरि*-अव्य० दे० (हि. फिर ) फिर, पुनः / करना, लेखा या हिसाब लगाना, दूर तक स० क्रि० पूर्व० (७०) घुमाकर । “फेरि पृथक पृथक कर देना, बढ़ती करना । मिलन की श्रास'- स्फुट । " कह्यो विमति | फैलाव-संज्ञा, पु० ( हि० फैलाना ) विस्तार, या टेरि, चहूँ ओर कर फेरिकै ।"-रामा० । प्रसार, प्रचार, बढ़ती। फेरी-संज्ञा, स्त्री० दे० ( हि० फेरना ) फेरा, फैसला --संज्ञा, पु. (अ०) निपटारा. मुकदमें परिक्रमा, लौट कर आना, चक्कर. साधु या । में निर्णय, अदालत का अंतिम निर्णय । भिखारी का भिक्षार्थ, गाँव या बस्ती में बरा-पोंक--संज्ञा, पु० दे० (सं० पंख ) वाण के बर घूमना या आना-जाना । मुहा०- पीछे की नोक जहाँ पर लगे रहते हैं। फेरी करना या लगाना-सौदा बेचना ‘धनुष बान लै चला पारधी, बान में फोंफ (घूम घूम कर ), फिर फिर पाना-जाना। नहीं है"-कबी। फेरीवाला-संज्ञा, पु० (हि.) घूम-फिर फोंदा* - संज्ञा, पु० दे० ( हि० फुदना ) कर सौदा बेंचने वाला व्यापारी । फुदना, झब्बा, फंदा (दे०) । फ़ेल, फेल (दे०)-संज्ञा, पु० (अ.) काम, फोक-संज्ञा, पु० दे० ( हि० फोकला ) तुष, किया, कार्य, कर्म । क्रि० अ० ( अं०) गिर किसी वस्तु का सार निकल जाने पर बचा जाना, चूकना, असफल या अनुत्तीर्ण होना। हुधा भाग या अंश, भूमी, बकला, सीठी, नीरस या फीकी वस्तु । फेहरिस्त-संज्ञा, स्त्री० दे० (अ० फ़िहरिस्त) । | फोकट-वि० ( हि० फोक ) निःसार, मूल्य विषय-सूची, तालिका। रहित, निर्मूल्य, व्यर्थ । मुहा०-फोकट फैल* - संज्ञा, पु० दे० ( अ० फेल ) कार्य, 4 में-मुफ्त में, योंही । फोकट का माल । खेल, नखरा, क्रीडा, कौतुक । फोकला -संज्ञा, पु० दे० (सं० वल्कल ) फैलना-क्रि० प्र० दे० (सं० प्रसृत) पसरना, छिलका, बकला, बोकला, (ग्रा०) बक्कल । वृद्धि या बढ़ती होना, विस्तृत होना, बदना, फोट-गा, पु० दे० ( सं० स्फोट ) फोड़ा, छितराना, बिखरना, अति बड़ा या लंबा ___ फुसी। चौड़ा होना, प्रचार पाना, प्रसिद्ध होना, फोडना-स. क्रि० दे० (सं० स्फोटन ) खरी मोटा या स्थूल होना, प्राग्रह या हठ चीज़ को चूर चूर करना, विदीर्ण करना, करना, भाग का ठीक ठीक पूर्ण रूप से भग्न करना, तोड़ना, अंकुर, डाली या लग जाना, प्रचुरता या अधिकता से टहनी निकलना, श्राघात या दबाव से मिलना, किसी ओर तनकर बदना। स. भेदना, दूसरे पक्ष से अपने पक्ष में मिलाना रूप -फैलाना, प्रे० रूप-फैलवाना। या कर लेना, भेद-भाव पैदा करना, फूट फ़ैलसूफ-वि० दे० ( यू० फिलसफ ) अप- डाल कर अलग अलग करना, भेद या रहस्य व्ययी, फ़जूल खर्च (फा०)। का सहसा खोलना, देह में विकार से फोड़े फ़ैलसूफी-संज्ञा, स्त्री० । हि० फैलसूफ) या घाव हो जाना। अपव्यय, फ़जूल ख़र्ची ( फ़ा० )। फोड़ा-संज्ञा, पु० दे० (सं० स्फोटक ) बड़ी फैलाना-स. क्रि० (हि. फैलना ) पसारना, फुसी, शोथ, स्फोट, व्रण, फुही दोष-संचय बखेरना, छितराना, विस्तृत करना, बढ़ाना, से उत्पन्न पीब के रूप में सड़े रक्त की सूजन । भर या छा देना, व्यापक, प्रसिद्ध या प्रचलित स्त्री. अल्पा०–फोड़िया, फुड़िया (दे०) । करना, दूर तक पहुँचाना, सब ओर प्रगट फ़ोता-संज्ञा, पु० ( फ़ा० ) भूमिकर, जमीन करना, गुणा-भाग की शुद्धता की परीक्षा का लगान, पोत, थैला, कोष, अंडकोष । For Private and Personal Use Only Page #1222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org फोतेदार फोतेदार - संज्ञा, पु० ( फा० ) कोषाध्यक्ष, ख़जानची पोतदार (दे० ) | संज्ञा, स्त्री० फोतेदारी-पोतदारी | फौभारा, फ़ौवारा, फव्वारा संज्ञा, पु० ( हि० फुहारा ) फुहारा । फोरना* | - स० क्रि० दे० ( हि० फोड़ना ) फ़ौज़ी - वि० ( फा० ) सेना-संबंधी, सैनिक । फोड़ना, तोड़ना । फ़ौत - वि० ( ० ) मरा हुआ, मृत, मृतक, गत | संज्ञा, स्त्री० -- फ़ौतो । फ़ौरन - क्रि० वि० (अ० ) तत्काल, तुरंत, फ़ौज -संज्ञा, खो० ( ० ) सेना, जत्था, झुंड, लश्कर । वि० फौजी । फ़ौजदार -- संज्ञा, पु० ( फ़ा० ) सेनानायक, १२११ सेनापति | फ़ौजदारी - संज्ञा, स्त्री० ( फा० ) मारपीट, लड़ाई, वह कचहरी जहाँ मार-पीट के व - हिन्दी और संस्कृत की वर्णमाला का २३वाँ तथा पवर्ग का तीसरा अक्षर, इसका उच्चारण-स्थान श्रोष्ठ है | संज्ञा, पु० (सं०) सुगंधि, वरुण, पानी, सागर । बंक - वि० (सं० वक्र, बँक ) तिरछा, टेढ़ा, पराक्रमी, विक्रमी, पुरुषार्थी, दुर्गम, घगम । बंका (दे० ) । संज्ञा स्त्री० - बंकता | संज्ञा, पु० ( ० बैंक ) लेन-देन करने वाली एक संस्था | बंकट - वि० दे० (सं० बंक ) टेढ़ा, तिरछा । " बंकट भौंह चपल प्रति लोचन बेसरि रस मुकताहल छायो " सूर० । बंकराज -- संज्ञा, पु० यौ० (सं० बंकराज ) एक तरह का साँप । बंका) - वि० दे० (सं० बँक ) वक्र, तिरछा, टेढ़ा, पराक्रमी, बाँका, तिरश्चीन । " तिनतें afar as aति बंका "- रामा० ! बंकाई - संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० वक्रता ) बंकुरता (दे० ) टेढ़ाई, बंगई (दे० ) बंकुरता - संज्ञा, स्त्री० (दे०) वक्रता (सं० ) । बंग - संज्ञा, पु० (सं०) एक पौष्टिक श्रौषधि, ( रसायन ), बंग देश, बंगाल । " साधत | Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir बंचक्र झगड़े ( मुक़दमें ) निपटाये जाते और अपराधी को दंड ( शारीरिक ) दिया जाता है । झटपट, शीघ्र, चटपट । फ़ौलाद - संज्ञा, पु० दे० कड़ा, अच्छा और साफ वि०- फौलादी । फ्रांसीसी - वि० (फ्रांस) फ़्राँस निवासी, फ़्राँस का, फरासीसी (दे०) । बैरागी जड़ बंग वक्र, बंक । 39 ( फ़ा० पोलाद ) लोहा, खेड़ी । - सूर० । वि० (दे० ) बंगला - वि० द० ( हि० बंगाल ) बंगाल देश का, बंगाल सम्बन्धी | संज्ञा, स्त्रो०बंगाल देश की भाषा | संज्ञा, पु० - चारों ओर बरामदों वाला एक मंजिला घर जो खुले ठौर पर हो, छोटा हवादार अटारी पर का कमरा, बँगाले का पान । For Private and Personal Use Only बँगली - संज्ञा, स्त्री० ( हि० बंगला ) हाथ का एक गहना, छनियाँ, छोटा बँगला, बँगलिया (दे० ) । बंगा - वि० दे० (सं० वक्र ) वक्र, उद्दंड, मूर्ख | 'राम मनुज कसरे सठ बंगा " - 61 रामा० । बंगाल, बंगाला - संज्ञा, पु० दे० (हि० बंगाल) बंग या बंगाल देश, बंगालिका नाम की एक रागिनी ( संगी० ) । प्रस्य ० बंगाली - संज्ञा, पु० दे० ( हि० बंगाल + ई०) बंगाल का वासी | संज्ञा, स्त्री० दे० ( हि० वंग) बंगाल की भाषा ! बंचक संज्ञा, पु० दे० (सं० वंचक ) ठग, Page #1223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org बंचकता - बंचकताई १२१२ बंदर वाला । पाखंडी, छली, धूर्त | संज्ञा, स्त्री० बंचकता । | बँटावन - वि० दे० ( हि० बाँटना) बाँटने - " बंचक भगत कहाय राम के "- - रामा० । बंचकता - बंचकताई* +- संज्ञा, त्रो० दे० ( सं० बंचकता ) धूर्त्तता, ठगी, छल । बंचनता - संज्ञा, स्रो० ( सं० पंचकता ) ठगी, धूर्तता, छल । बंडा - संज्ञा, पु० दे० ( हि० बँटा ) एक तरह की रुई । वि० ( प्रान्ती ० ) अकेला । बंडी - संज्ञा, स्रो० दे० ( हि० बाँडा कटा ) आधी बाँही की कुरती, फतुही, बगलबंदी । बँड़ेरी, बडेरी - संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० वर दंड ) खपरैल में मँगरे पर लगने वाली लकड़ी | " ओरी का पानी बँडेरी धावै " बंचना - संज्ञा, स्त्री० दे० ( सं० बंचना ) छल, ठगी, धूर्त्तता, पाखंड । * - स० क्रि० दे० ( सं० वंचन ) छलना, ठगना । बँचाना, बेंचवाना- - स० क्रि० दे० ( हि० बाँचना ) पढ़ाना, पढ़वाना | बंछना - स० क्रि० दे० [सं० वांछा ) चाहना, इच्छा या अभिलाषा करना । बंछित, बांकित - वि० दे० (सं० वाँकित ) चाहा हुआ, इच्छित, श्रभिलषित । बंज - संज्ञा, पु० ( हि० वनिज ) वनिज, खेती करै न बंजै " बाणिज्य, व्यापार । जाय " --- घाघ० । बंजुल - संज्ञा, पु० (सं०) स्तवक, गुच्छा ! बंजर - संज्ञा, पु० दे० (सं० वन + ऊजड़ ) ऊसर, ऊसर भूमि । बंजारा - संज्ञा, पु० दे० ( हि० वनजारा ) बनजारा, व्यापारी । स्त्री० बंजारिन । 'जब लाद चलैगा बंजारा । 66 बंका - वि० संज्ञा स्त्री० (दे०) बंध्या (सं०), बाँझ बँटना - अ० क्रि० दे० ( सं० वितरन ) हिस्सा या विभाग होना, कई पुरुषों को भिन्न २ भाग दिया जाना । स० रूप० बँटाना, प्रे० रूप० -- बटवाना | बँटवारा, बटवारा -- संज्ञा, पु० दे० ( हि० ना) विभाग, तकसीम बाँटने की क्रिया । यौ० - अमीन बंटवारा। बंटा - संज्ञा, पु० दे० ( सं० वटक ) गोलाकार | छोटा डब्बा । ( स्त्री० अल्पा०-१ - बंटी ) । यौ० - चंटा-बंटा | बँटाई, बटाई - संज्ञा, स्त्री० दे० (हि० बांटना) बाँटने का भाव या क्रिया, लगान के रूप में खेत की पैदावार का कुछ भाग लिया जाना ! Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - घाघ० । बंद - संज्ञा, पु० ( फ़ा० मि० सं० बंध ) बाँधने की वस्तु, बाँध, पुश्ता, मेंड़, तनी, बंधन, देह के अंगों के जोड़, क़ैद । वि० ( फा० ) जो खुला न हो, ढँका, स्थगित या रुका हुआ, क़ैद में किवाड़, ढकने या ताले से ऐसा अवरुद्ध मुख या मार्ग, कि बाहरभीतर आना-जाना न हो सके, अवरुद्व । बंदगी - संज्ञा, स्त्री० (फा० ) ईश्वर की बंदना, सेवा, प्रणाम, सलाम । " बंदगी होती है इस सिन की क़बूल | बंदगोभी - संज्ञा, स्त्री० यौ० (दे०) पातगोभी, करमकल्ला | बंदन संज्ञा, पु० (सं० वंदन) स्तुति, प्रणाम । संज्ञा, पु० (सं० वंदनी - गोरोचन ) रोचन, सेंदुर, ईंगुर, रोली । बंदनता -- संज्ञा, स्त्री० (सं० बंदनता ) बंदनीयता, बंदना या घादर के लिये योग्यता । बंदनवार - संज्ञा, पु० दे० (सं० बंदनमाला ) तारण, द्वार पर बाँधने की पत्तों और फूलों की झालर ( मंगल- सूचनार्थ ) | बंदना -- संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० वंदना स्तुति, प्रणाम । स० क्रि० (दे०) प्रणाम करना । बंदनी - वि० दे० (सं० वंदनीय ) स्तुति या प्रणाम करने योग्य, वंदनीय | बंदनी माल - संज्ञा स्त्री० दे० यौ० (सं० वंदन(माल) गले से पैर तक लटकती हुई माला । बंदर - संज्ञा, पु० दे० (सं० वानर ) कपि, मर्कट, वानर, मनुष्य से मिलता हुआ एक For Private and Personal Use Only ,י Page #1224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir बंदरगाह बँधना चौपाया । मुहा०-बँदर घुड़की या बंदर बंदीहोर* -- संज्ञा, पु० यौ० (फा० बंदी+ भबकी-केवल डराने या धमकाने के लिये हि० छोर ) बंधन ( कैद ) से छुड़ाने वाला। डाँट-डपट या धमकी । “कह दसकंठ कौन | बंदीजन-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) चारण । तें बंदर"- रामा० । संज्ञा, पु० (दे०)- “तब बंदीजन जनक बुलाये''-- रामा० । बंदरगाह । बंदीवान *--संज्ञा, पु० (सं० बंदिन ) कैदी। बंदरगाह---संज्ञा, पु. (फा०) समुद्र के | बंदक - संज्ञा, स्त्री० (अ०) बारूद से गोली किनारे पर जहाजों के ठहरने का स्थान। । फेंकने वाला लोहे की नली जैसा एक अस्त्र । बंदधान- संज्ञा, पु० (सं० बंदी + वान ) बंदकची-संज्ञा, पु. (फा०) बंदक चलाने बंदीगृह का रक्षक, कैदखाने का अफ़सर, | वाला, सिपाही।। जेलर ( अं०)। बँदेरा* --संज्ञा, पु. ( सं० वंदी ) बंदी, कैदी, बंदसाला-संज्ञा, पु० दे० ( सं० वंदीशाला) दास । स्त्री० बरी। जेल, वंदीगृह, कारागार। बंदोबस्त-संज्ञा, पु. ( फा० ) इन्तजाम, बंदा- संज्ञा, पु० (फ़ा०) दास, नौकर । संज्ञा, प्रबंध, खेती की भूमि को नाप कर लगान पु० दे० (सं० बंदी) कैदो, बंदी। “बंदा नियत करने का कार्य, इस प्रबंध का एक मौज न पावही, चूक चाकरी माहि " सरकारी विभाग। कवी । बंदोल- संज्ञा, पु० (दे०) दासी-पुत्र । बंदारु-वि० ( सं० वंदारु ) बंदनीय, सम्मान बंध-संज्ञा, पु. (सं०) योग की मुद्रा या प्रासन ( योग० ) रति के श्रासन (कोक०), नीय, पूजनीय । बंदाल-सज्ञा, पु० (दे०) देवदाली, एक गिरह, लगानबंद, गाँठ, बंधन, कैद, बाँध, गद्य या पद्य में निबंध रचना, शरीर, किसी प्रकार की घास। बंदि-संज्ञा, स्त्री० ( सं० वंदिन ) कैद, वंदी विशेष प्राकृति या चिन्न के रूप में छंद के वों की व्यवस्था (चित्र का० ) फँसाव, जन । पू० का. (व. अ.) वंदना करके। लगाव। 'बंदि बैठि सिरनाइ"-रामा० । बंधक -- संज्ञा, पु० (सं०) रेहन, ऋण के बंदिया-संज्ञा, स्त्री० (हि. वंदनी) मस्तक बदले में ऋणी के यहाँ रखी गई वस्तु, पर बाँधने का एक गहना, बेंदी, बेदिया, गिरवी, थाती, रति या योग का प्रासन, दासी, टहलुई. बाँदी। बंध (सं.)। बंदिश-संज्ञा, स्त्री० ( फा० ) प्रबंध, बाँधने | बंधन-संज्ञा, पु० (सं०) रस्पी, बाँधने की की क्रिया, योजना, रचना, षड्यंत्र । क्रिया या वस्तु, कारागार, शरीर के जोड़, महा --- बदिश बांधना-आयोजन वध. प्रतिबंध स्वतंत्रता का बाधक । बँधना-अ० कि० दे० (सं० बंधन ) बाँधा बंदी- संज्ञा, पु० (सं० व दिन्) चारण राजाओं जाना, बद्ध होना, कैद में जाना, का यशोगान करने वाली एक जाति, भाट । प्रतिज्ञा या वचन से बद्ध होना, क्रम का यौ० --बंदीजन । संज्ञा, स्त्री० (हि० वंदनी) स्थिर होना, ठीक या सही होना, प्रेम-पाश एक सिर-भूषण, बंदी, बदिया (दे०)। में बँधना, मुग्ध होना, अटकना, फँसना, संज्ञा, पु० (फ़ा०) कैदी। प्रतिबंध में रहना । स० रूप-बँधाना, बंदीखाना, बंदीगृह-संज्ञा, पु० यौ० (फा०) बँधाधना, प्रे० रूप--बँधवाना । संज्ञा, पु. जेलखाना, कारागार बंदीघर (हि.)। । (सं० बंधन ) बाँधने की वस्तु या साधन । करना। For Private and Personal Use Only Page #1225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org बंधनि १२१४ बंधन -संज्ञा, खो० (दे०) बंधन (सं०) बाँधने उलझाने या फँसाने की चीज या साधन | बंधान, बँधान - संज्ञा, पु० दे० ( हि० बँधना) पानी के रोकने का धुरुप या बाँध । व्यवहार या लेन-देन की निश्चित परिपाटी, इस परिपाटी से दिया-लिया धन, ताल का भीटा, बंदिश, आयोजन। मुहा० - बंधान बांधना -- विधान बनाना । ताल स्वर का सम (संगो०) बंधान निश्चित कार्यक्रम | बंधी - संज्ञा, पु० दे० (सं० बंधिन) बँधा हुआ। खी० (हि० बँधना ) बंधेज | बंधु - संज्ञा, पु० (स० ) भ्राता, भाई, सहायक, मित्र, दोधक छद, एक वर्णवृत्त ( पिं० ) । बंधूक फूल | संज्ञा, स्त्री० बंधुता, बंधुत्व यौ० - बंधु-बांधव । बँधुआ, बँधुवा - संज्ञा, पु० दे० ( हि० बँधना ) बंदी, क़ैदी । बंधुक - संज्ञा, पु० (सं०) दुपहरिया का फूल : बंधुता - संज्ञा, स्त्री० (सं०) बंधुत्व, भाईचारा, मित्रता, बंधु का भाव । बंधुत्व संज्ञा, पु० (सं०) बंधुता, बंधु का भाव । बंधुर - संज्ञा, पु० (सं०) मुकुट, दुपहरिया का फूल, हंस, बगुला, बहिरा मनुष्य । वि० (सं०) सुन्दर | बंधूक – संज्ञा, ५० दे० ( सं० बंधुक ) बंधु दुपहरिया का फूल, बंधुक, दोधक छंद (पिं० )! बंधेज -संज्ञा, पु० दे० ( हि० बँधना + एज - प्रत्य० ) प्रतिबंध, नियम, रुकावट, नियत रूप और समय से लेने-देने का पदार्थ या धन, बाँधने की युक्ति या क्रिया । बंध्या - वि० [स्त्री० (सं०) बाँझ, बांझिनी (दे०) संतान न पैदा करने वाली स्त्री । बंध्यायन - संज्ञा, पु० दे० (सं० बंध्य + यन - - हि० प्रत्य० ) बाँझपन, बंध्यारोग (वैद्य० ) । बंध्यापुत्र - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) बाँझ का लड़का, अनहोनी वस्तु, वंध्यापुत्र सी असंभव बात । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir बउर बंपुलिस- संज्ञा, स्त्रो० यौ० दे० ( अनु० वं + प्लेस - ० ) म्यूनिसिपैलिटी का सार्वजनिक पाखाना, दही । बंब - संज्ञा, पु० ( अनु० ) युद्ध के श्रारम्भ से पूर्व वीरों का उत्साह बढ़ाने वाली घोर ध्वनि, हल्ला, रण नाद, डंका, दुन्दुभी, नागाड़ा। मुहा० - बंच बजाना - रण या लड़ाई के लिये तैयार होना । बंबा - संज्ञा, पु० दे० ( अ० मंत्रा ) पंप, सोता, जल का यंत्र, जल- कल, बच्चों को डाराने का कल्पित नाम । बाना - क्रि० प्र० दे० ( धनु० ) राँभना, गाय आदि का बाँ बाँ बोलना । बंबू - संज्ञा, पु० ( मलाया०० – बैंबू = बांस ) चंडू पीने की बाँस की पतली छोटी नली, (०) बाँस । बंस - संज्ञा, पु० दे० कुल, बाँस । " बंन (सं० वंश ) वंश, सुभाव उतर तेहि " दीन्हा - रामा० ! बंसकार - संज्ञा, पु० द० (सं० वंश ) बाँसुरी | बंसलोचन - संज्ञा, पु० दे० (सं० वंश लोचन ) बंस कपूर, सफेद और नीले रंग का बाँसका सार भाग ( शौप० ) । बंसी -संज्ञा, त्रो० दे० (सं० वंशी ) बाँस की नली से बना एक मुँह का बाजा, बाँसुरी, मुरली, मछली फँसाने का यंत्र, विष्णु, राम, कृष्णादि के पद-तल का एक रेखा-चिन्ह ( सामु० ) | बंमीवर - संज्ञा, पु० दे० यौ० (सं० वंशीधर ) श्रीकृष्ण । For Private and Personal Use Only बहगी, बँहिगी-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० वह ) बोझ ढोने को एक बाँस की लंबी खपाच के सिरों पर लटके हुए छींके । पु० बहिगा । बइठना # - क्रि० प्र० (दे०) बैठना ( हि० ) । बउर - संज्ञा, पु० दे० ( हि० बोर या मौर) बौर, --- मौर 1 Page #1226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir बउरा, पाउर बकसुश्रा बउरा, बाउरा वि० दे० (हि. बावला) अकस्साब = कसाई ) चिकवा, बकरे को बावला, पागल, सिड़ी, गूंगा। " तेहि मार कर मांस बेचने वाला, बकरकसाई। किमि यह बाउरा बर दीन्हा"-रामा० । बकरना-१० क्रि० दे० (हि. बना) बक-संज्ञा, पु० दे० (सं० बक ) बगुला, अपना अपराध श्राप ही कहना, आप ही बगला, अगस्त्य का फूल या वृक्ष, कुवेर, श्राप बकना, बड़बड़ाना, बकुरना, बकासुर । " भये पुराने बक तऊ, सावर बस्कुरना ( ग्रा०)। स० रूप-बकराना, निपट कुचाल"-नीति० । वि० बगले सा प्रे० रूप-बकरवाना। सफ़ेद । यौ०-कध्यान । "बैठे सबै बक- बकरा-संज्ञा, पु० दे० (सं० वकीर ) छोटे ध्यान लगाये ।" संज्ञा, स्रो० ( हि• बकना) झुके सींग, लम्बे बालों, छोटी पूंछ और फटे बकवाद, प्रलाप । “ छाँड़ि सबै जक तोहिं । खुरों वाला एक पशु, बुकरा. बाकरा (दे०)। लगी बक"- नरो। स्त्री० बकरी । " बकरा पाती खात है बकतर-संज्ञा, पु० (फ़ा०) बखतर (दे०) ताकी कादी खाल" - कवी ! सनाह, कवच, युद्ध में देह-रतार्थ पहिनने बकलस-संज्ञा, पु० दे० ( अं० धकल्स ) का लोह-वन, जिरह-बक्तर।। बकसुश्रा, किसी बंधन के दो सिरों को बकता--वि० दे० (सं० वक्ता ) कहने । मिलाकर कसने की अँकुसी ( विला० )। वाला। "बिन बानी बकता बड़ जोगी" बकला-संज्ञा, पु० दे० ( सं० वल्कल ) पेड़ -रामा० । की छाल, फल का छिलका, बोकला, बकध्यान-संज्ञा, पु० यौ० दे० (सं० वकध्यान) । बक्कल (ग्रा० )। बनावटी साधुपन, पाखंड, दुष्ट उद्देश्य के बकबाद-संज्ञा, स्त्री० (हि०) व्यर्थ की बक बक साथ दिखावटी साधु-चेष्टा । " यहाँ प्राय या बात, बकवाय (दे०)। वि० बकवादी। बकध्यान लगावा" -रामा० । वि०- बकबादी-वि० (हि० वकवाद ) बक्की । बकध्यानो। "बकवादी बालक बधजोगू"-रामा० । बकना-स० क्रि० दे० (सं० बचन ) बड़ बकवास-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि० वकवाद ) बड़ाना, व्यर्थ प्रलाप करना, व्यर्थ बेढंगी बकवाय (दे०). बकवाद, बकबक । बातें कहना, डाँटना, कोध से दपटना । द्वि० स० रूप-बकाना, प्रे० रूप-यकवाना। | बकस-संज्ञा. पु० दे० (अं० बाक्स) बाकस (दे०), संदूक, डिब्बा, खाना । बकवक-संज्ञा, स्त्री० यौ० (हि. बकना ) बकसना*- स० कि० दे० (फा० बख्स + बकने का भाव या क्रिया। ना-हि० ) प्रसन्नता या कृपा-पूर्वक देना, बकवाद - संज्ञा, पु० यौ० ( हि० बक+वाद. क्षमा करना : स० रूप-बकसाना, प्रे० रूपसं०) व्यर्थ बकना । वि. बकवादो, बकसपाना । " तिन्हैं बकसीस बकसी हौं बक्की-व्यर्थ बकने वाला। " बकवादी मैं बिहँसि कै"--कालि० । बालक बध जोगू"-रामा०। | बकसी-संज्ञा, पु० दे० (फ़ा० बख्शी) मुंशी। बकमौन-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) दुष्ट उद्देश्य बकसीस* -- संज्ञा, स्त्री० दे० (फ़ा० बख़शिश) की सिद्धि के लिये बगुले के समान दिखा- पारितोषिक, इनाम, दान। 'ताको वाहन वटी साधु-भाव से चुप रहना । वि० चुपचाप भेजिये, यही बड़ी बकलीस".- स्फु० । अपना उद्देश्य साधने वाला। बकसुआ- संज्ञा, पु० दे० ( हि० वकलस ) बकरकसाब-संज्ञा, पु० यौ० (हि० बकरा बकलस । For Private and Personal Use Only Page #1227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir माना बकाउर १२१६ बखसीस बकाउर-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० बकावली) यणी ) साल भर से अधिक की व्यायी एक पौधा जिसके फूल अति सुगंधित दूध देने वाली गाय या भैंस ! ( विलो.होते हैं। लवाई)। बकाना-स० कि० (दे०) बकना का प्रे० बकैयाँ, बकइयाँ-संज्ञा, पु० दे० (सं० वक-+ रूप, रटाना, बकवाद कराना । ऐया-प्रत्य०) बच्चों का घुटनों के बल चलना। बकायन, बकाइन-संज्ञा, स्रो० दे० (हि.. "चलत बकैयाँ नंद-अजिर मैं कान्ह दुलारे" बड़का + नीम । नीम जैसा एक पेड़ । -मन्ना बकाया-- संज्ञा, पु० (१०) बचत, बचा हुआ, बकोट-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० प्रकोष्ट या शेष, बाकी। अभिकोष्ट ) बकोटने की क्रिया या भाव । बकार-संज्ञा, पु० (सं०) ब वर्ण। (फा०) बकोटना--- स० क्रि० दे० (हि. वकोट) कार्यार्थ । जैसे-बकार-सरकार । खरोंचना, नाखूनों से नोचना, निकोटना, बकारी-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० व, कार या पंजा मारना, खरगोटना। वाक्य ) मनुष्य के मुंह से निकलने वाला बकौरी* -- संज्ञा, स्त्री० दे० ( सं० बकावली ) बकाउर, गुलबकावली।। बकापर-संज्ञा, पु. (सं.) बकाउर, (दे०) बकम-संज्ञा, पु० दे० (अ० बकम ) एक बकावली (सं.)। कटीला छोटा पेड़ जिससे लाल रंग निकलता बकापली-संज्ञा, स्त्री. (सं०) गुलबकावली, है. पतंग । एक पौधा जिसका फूल श्वेत और सुगंधित बक्कल-संज्ञा, पु० दे० (सं० वल्कल) बकला, होता है। यौ०-बक-पंक्ति । छाल, छिलका। बकासुर-- संज्ञा, पु० दे० यौ० (सं० बकासुर) बकाल-- संज्ञा, पु० ( प्र०) बनियाँ । बक रूपी एक दैत्य जिसे कृष्ण ने मारा बकी-वि० दे० ( हि० बकना ) बहुत बकनेथा (भाग०)। वाला, बड़बड़िया, बकवादी। बकुचना* – अ० क्रि० दे० (सं० विकंचन) बक्खर-संज्ञा, पु० (दे०) हल के जोड़ का सिकुड़ना, सिमटना, संकुचित होना। खेत जोतने का एक यंत्र चीनी का शीरा । बकुचा, बकचा- संज्ञा, पु० दे० (हि. बक्स-संज्ञा, पु० दे० ( अं० बाक्स ) संदूक । वकुचना ) छोटी गठरी, बचका । स्त्री०- बक्षोज-संज्ञा, पु० (सं०) उरोज, उरज, बकत्री, बचकी, बकुची (दे०)। स्तन । बकुची-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० वाकुची ) एक बखत-संज्ञा, पु० (दे०) वक्त (फा०)। औषधि का पौधा । संज्ञा, स्त्री० (हि० वकुचा) | बखतर, बख्तर-संज्ञा, पु० दे० ( फ़ा. छोटी गठरी, बकची (ग्रा०)। बक्तर ) कवच, सनाह. बक्तर (दे०)। बकचौहाँ !- वि० दे० (हि. बकुचा- औहाँ बखर- संज्ञा, पु० (दे०) बक्खर, बखार, -प्रत्य०) बकुचे की तरह । स्त्री० बकुचौहीं। बाखर। बकुल्ल-संज्ञा, पु. (सं०) मौलसिरी । बखरा-संज्ञा, पु० दे० (फा० बखरः) हिस्सा, " सेोऽयम् सुगंधिमकुलो बकुलो विभाति" भाग, बाँट, बाखर । -लोलं.। बखरी - संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. बखार ) बकुला-संज्ञा, पु० दे० (हि० बगला) घर, मकान, बखारी (ग्रा०)। बक (सं०), एक जल-पक्षी। बखसीस संज्ञा, स्त्री० दे० (फ़ा० बख़शीश) बकेन-बकेना--संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० वष्क- पारितोषिक, इनाम, बकमीस, दान । For Private and Personal Use Only Page #1228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org बखान बखान - संज्ञा, पु० दे० (सं० व्याख्यान ) कीर्तन, कथन, वर्णन, प्रशंसा, स्तुति, बड़ाई, प्रशंसा | दिनदस चादर पाय के, करले थापु बखान " वि० । 66 १२१७ बखानना - स० क्रि० दे० ( हि० बखान + ना - प्रत्य० ) प्रशंसा या स्तुति करना, सराहना, वर्णन करना, कहना, निंदा करना, गाली देना ( व्यंग्य ) | - बखारा -संज्ञा, पु० दे० (सं० प्राकार ) न भरने का कोठा । ( स्त्री० भल्पा० बखारी ) । बखिया संज्ञा, पु० ( फ़ा० ) एक तरह की महीन सिलाई । बखियाना1- स० क्रि० दे० ( फ़ा० बखिया + ना - हि० प्रत्य० ) बखिया की सिलाई करना । बखीरा - संज्ञा, त्रो० दे० ( हि० खीर का अनु० ) मीठे रस में पका चावल, मीठा-भात । बखील - वि० ( ० ) सूम, कंजूस, कृपण | संज्ञा, स्त्री० बखोली - कंजूसी । " बख़ीलर बुद जाहिदा बहरोबर " - सादी० । बखूबी - क्रि० वि० ( फा० ) भली भाँति, अच्छी तरह पूर्णतया । | बखेड़ा---संज्ञा, पु० दे० ( हि० बखेरना ) व्यर्थ विस्तार, धाडंबर, मंझट, झगड़ा, टंटा, उलझन, विवाद, कठिनाई । बखेड़िया - वि० दे० ( हि० वखेड़ा + इया - प्रत्य० ) झगड़ालू, प्रसादी । बखेरना - स० क्रि० दे० (सं० बिखारना (दे०), छितराना, बिथराना (ग्रा० ) । विकरण ) फैलाना, बखारना ! - स० क्रि० दे० ( हि० वक्कुर ) छेड़ना, टोकना, बोलना । बख्त - संज्ञा, पु० ( फा० ) भाग्य, तक़दीर | यौ० - बदबख्त, नेकबख्त, कमबख्त | बखत (दे०) वक्त (का० ) । भा० श० क ० – १५३ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir बगर बख्तर संज्ञा, पु० ( फा० ) कवच, सनाह, बकतर बक्तर । बख्शना - स० क्रि० दे० ( फा० बख़्श + ना - हि० प्रश्य ० ) दान या क्षमा करना, दे डालना, त्यागना । द्वि० रूप- बख़्शाना प्रे० रूप- बख्शवाना | बख्शिश - संज्ञा, स्त्री० ( फा० ) उदारता, कृपा, क्षमा, दान | " बख्शिश तेरी ग्राम है घर घर " - हाली० । ब - संज्ञा, पु० दे० ( सं० वक ) बगुला | बगई | - संज्ञा, स्त्री० (दे०) कुत्तों की मक्खी । कुकुरमाछी (ग्रा० ), एक प्रकार की घास । बट-चटुर - क्रि० वि० दे० ( हि० बाग + छुटना या टूटना ) सरपट, बड़े वेग से, बेलगाम भागना । बगदना ! - क्रि० प्र० दे० ( हि० बिगड़ना ) लुढ़क जाना, बिगड़ जाना, ठीक मार्ग से हट जाना, ख़राब हो जाना, बिखरना, गिरना, भटकना, भ्रम में पड़ना । स० रूपबगदाना, प्रे० रूप-बगदवाना | बगदहा* +- वि० दे० ( हि० बगदना + हा - प्रत्य० ) बिगड़ैल, चौंकने या बिगड़ने वाला । त्रो० बगदही । बगना - क्रि० प्र० दे० (सं० बक) घूमना, भ्रमण करना, फिरना । साथ साथ, बाग बगनी - संज्ञा, स्त्री० (दे०) बगईं घास | बगमेल - संज्ञा, पु० दे० ( हि० बाग + मेल ) बाग से बाग मिला कर चलना, बराबर बराबर चलना बराबरी, तुलना । " हरषि परसपर मिलन हित, कछुक चले बगमेल " - रामा० । क्रि० वि०मिलाये हुये चलना । बगर - संज्ञा, पु० दे० ( सं० प्रघय ) प्रासाद. महल, घर, आँगन, सहन, , गोशाला, बगार, कोठरी | संज्ञा, स्त्री० ( फा० बग़ल ) बग़ल, घाटो ।' जो पै पशुपति सो तो नंद की बगर में - स्फुट० । बगर बगर माँहि बगर रही है छवि " - रसाल० । "" 46 For Private and Personal Use Only Page #1229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir बगरना १२१८ बगुला बगरना -अ० क्रि० स० दे० (सं० विकरण) | बगली-वि० दे० (हि० बगल+ई.–प्रत्य०) बिखरना, फैलना, छिटकना, छितराना। बगल संबंधो, बगल का, बगल की ओर स. रूप-बगराना प्रे० रूप-बगरवाना। से । मुहा०-बगली घुसा-वह चोट जो बगरी -संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. बखरी) श्रोट में छिपकर या धोखे से की जाये । घर, मकान, बखरी, कुत्ते की मक्खी, (दे०) दरजियों के सुई तागादि रखने की थैली, दले हुये धान । तिलादानी । संज्ञा, स्त्री० कुरते आदि में कंधे बगरूरा*-संज्ञा, पु० दे० ( हि० बगूला ) के नीचे का भाग, बगल । वायु का चक्कर, बगूता ( उ०)। | बगलौहाँ-वि० (हि० बगल + औहां प्रत्य०) बग़ल-पंज्ञा, स्त्री० (फा० ) काँख, छाती तिरछा, बगल की ओर झुका हुआ। स्त्री० के दोनों ओर वाहु-मूल के नीचे के गढ़े, बगलौहीं। पार्श्व, भोर । मुहा० - बग़ल में दबाना बगसना *-स० क्रि० दे० (हि० बख्शना) या धरना-अधिकार परना, ले लेना। बकसना, बख्शना, दान या पारितोषिक बग़लें बजाना-अति हर्ष प्रगट करना, | देना। अति प्रसन्नता मनाना। इधर-उधर या | बगहा-संज्ञा, पु. (दे०) बाग़, (फ़ा०), व्याघ्र किनारे का हिस्सा । मुहा०-बगलें | (सं०) बाघ । झाँकना-भागने का उपाय करना। बगहंस-संज्ञा, पु० (दे०) एक हंस विशेष । बगल गर्म करना-किसी की बगल में बगा, बागा*-- संज्ञा, पु० दे० (हि० बागा) प्रेम से मिलकर बैठना। पास या समीप का जामा । “बागो बनो जरपोस को तामैं " स्थान, कुर्ते आदि में बग़ल या कंधे के नीचे -देव० । * संज्ञा, पु० दे० (सं० वक) जोड़ का कपड़ा। बगला। बगलगंध-संज्ञा, पु० यौ० ( फा० बग़ल + बगाना*-स० क्रि० दे० (हि. बगना का गंध हि० ) बग़ल से अति दुर्गधियुक्त पसीना द्वि० रूप ) घुमाना, फिराना, सैर कराना, निकलने का रोग, बगल का फोड़ा, कँखवार। टहलाना । अ० कि० (दे०) भागना, वेग से बग़लबंदी-संज्ञा, स्त्री० (फ़ा०) एक तरह की जाना । कुरती या मिरजई। बगार-- संज्ञा, पु. (दे०) वह स्थान जहाँ गायें बगला-संज्ञा, पु० दे० (सं० बक-+ला-प्रत्य०) बाँधी या चराई जाती हैं, बगर, घाटी। लंबी चोंच, टाँगे और गला वाला एक श्वेत बगारना-स० क्रि० दे० (सं० वितरण ) पक्षी, बगुला, बक । स्त्री० बगली। (हि० बगरना का स० रूप) छिटकाना, फैलाना, मुहा०-बगला भगत-पाखंडी, ढोंगी, बिखेरना, बगराना, बगरावना (ग्रा.)। धर्मध्वजी. धोखेबाज, छली, कपटी । लो०- बगावत-संज्ञा, स्त्री. (अ.) बाग़ी होने का "बगला मारे पखना हाथ'-व्यर्थ भाव, राजद्रोह, बलवा, विद्रोह । परिश्रम करना, गरीब का मारना निष्फल है। बगिया*-संज्ञा, स्त्री. ( फा० बाग+ इयाबगलामुखी-संज्ञा, स्त्री० यौ० (दे०) एक हि०प्रत्य०) छोटा बाग़ या उपवन, बाटिका। देवी ( तंत्र.)। बगीचा- संज्ञा, पु० दे० (फा० बागवा ) बगलियाना-अ० क्रि० दे० ( हि० बगल + | छोटा उपवन या बाग, बागीचा । स्त्री. इयाना-प्रत्य० ) बग़ल से जाना. हटकर अल्पा०-बगीची, बागोची। चलना, एक अोर हटना । स० क्रि० -- अलग बगुर-संज्ञा, पु० (दे०) नाल, फाँसी। करना, बगल में करना या लेना (दबाना)। बगुला-संज्ञा, पु० दे० (हि०) बगला । For Private and Personal Use Only Page #1230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir बगूरा, बगूला १२१६ बचन " बगुला झपटे बाज़ पै बाज़ रहै सिर नाय" बघेल, बघेला-संज्ञा, पु० (द०) राजपूतों --गिर। की एक जाति. डाँवरू, (प्रान्ती०) बाघ का बगूरा, बगूला-संज्ञा, पु० दे० (हि० बाउ + बच्चा । यौ० - बघेलखंड-बघेल क्षत्रियों गोला) किसी एक जगह भंवर सी चक्कर खाती का प्रदेश, रीवा के चारों ओर का प्रान्त । हवा, बातचक्र, बवंडर। " उहा सहरा में | बच*-संज्ञा, पु० दे० (सं० बचः ) बचन, बगूला तो यों बोला मजनू ।" वाक्य । " मन बच काप मैं हमारै रहिबो बगेरी---संज्ञा, स्त्री० (दे०) टिटिहिरी, भरुही, | करै -सरस० । संज्ञा, स्त्री०-एक पौधा बधेरी (प्रान्ती०), एक मटमैले रंग का जिसके पत्ते और जड़ सौषधि के काम आती पक्षी। है। " बचाभया सुंठिशतावरी समा"बगैर-प्रव्य० (अ०) बिना। लोल० । यौ० दुधबच। बगी, बग्घी- संज्ञा, स्त्री० दे० (अं० बोगी ) बचका-संज्ञा, पु. (दे०) एक पकवान, चार पहियों की छायादार घोडागाड़ी। गठरी, पुटकी । लो०-" चोरन बचका बधंबर, बाघंबर-संज्ञा, पु० दे० यौ० (सं० लीन, बिगारिन छुट्टी पाई।" स्त्री० बचकी। व्याघ्रांवर) शेर या बाघ का चमड़ा। "बरुनी बचकाना--वि० दे० (हि० बच्चा+कानाबघबर मैं"- देव० । वि० -बघबरी। प्रत्य० ) बच्चों के योग्य, बच्चों का सा। बघछाला- संज्ञा, पु० दे० यौ० (सं० व्याघ्र + स्त्री० बचकानी । स० क्रि० (दे०) बचके काल ) बाघ की खाल बघबर, बाधंवर। में बाँधना, बचकियाना (ग्रा.)। बघनहाँ-संज्ञा, पु० दे० यौ० (सं० व्याघ्र + बचन-बचती-संज्ञा, स्त्री० (हि० वचना) नख ) शेर के पंजे सा चिपटे टेढ़े काँटेदार बचने का भाव, शेष, बाकी, बचाव, लाभ, अस्त्र, शेर-पंजा, बच्चों के गले का गहना रक्षा, रिहाई।। जिसमें बाघ के नख सोने या चाँदी में कुछ बचन*-संज्ञा, पु० दे० (सं० वचन) वाणी, कुछ मढ़े रहते हैं, बघनख, बघनखा। बात, वाक् । “विप्रबचन नहिं कहेउ विचारी' स्त्री. अल्पा० बधनहीं । “गले बीच -रामा । मुहा०-बचन देना (लेना) बधनहाँ सुहाये"-रामा० । --वादा या प्रतिज्ञा करना ( कराना )। बघनहियाँ*-संज्ञा, स्त्री० यौ० दे० (सं० बचन निभाना-कही हुई बात का प्रति. व्याघनख ) बधनहाँ, बधनख । पालना या पूरा करना । बचन-बंद करना बघना*-संज्ञा, पु० दे० (सं० व्याघनख ) - प्रतिज्ञा करना । बचन-बंध (पद्ध) बधनहाँ। होना-प्रतिज्ञा में बँध जाना। बचन बघरूरा-- संज्ञा, पु० दे० ( हि० वायु + मानना-प्राज्ञा पालन करना । " तो तुम गोला ) बवंडर, वायुचक्र, बगरूरा । बचन मानि घर रहहू"-रामा० । बचन बघार-संज्ञा, पु० दे० (हि. बघारना) गर्म घी लेना- आज्ञा लेना, प्रतिज्ञा कराना । में पड़ा मसाला, छौंक, तड़का। मुहा०-बचन डालना--माँगना । बचन बघारना-स० क्रि० दे० (सं० अवधारण) टालना (पेलना)-वादा या प्राज्ञा न तड़का देना, छौंकना, अपनी योग्यता से मानना । " श्रायेहु तात बधन मम पेली" अधिक बोलना, दागना । मुहा०-शेखी -रामा०। बचन तोड़ना या छोड़नाबघारना-शान दिखाना। प्रतिज्ञा भंग करना, वादा पूरा न करना। बघी-संज्ञा, स्त्री० (दे०) डांस, मधुमक्खी यौ० बवन-पद्ध-प्रतिज्ञा से बँधा हुआ। पशुओं की मक्खी। | बचन दत्त-वादा किया हुश्रा, मैंगतेर, For Private and Personal Use Only Page #1231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir बचना १२२० बजनी सगाई किया हुआ । बचन बाँधना- बन्छस -संज्ञा, पु० दे० ( सं० वक्षस् ) प्रतिज्ञा कराना। बचन हारना--प्रतिज्ञा- छाती, वक्षस्थल । बद्ध होना । बचनों पर रहना-वादे पर | बच्छा - संज्ञा, पु० दे० (सं० वत्स) गाय का रहना, प्रतिज्ञा का ध्यान रख उसे पूरा करना। बच्चा, बछड़ा, बछवा (ग्रा० । स्त्री० बछिया। बचना-प्र० क्रि० दे० (सं० वंचन = न पाना) बच्छासुर- संज्ञा, पु० दे० यौ० ( सं० प्रभावित न होना, रक्षित रहना, विपत्ति, वत्सासुर ) एक दैत्य । दुख या झगड़े से अलग रहना, छूट या रह ब*-- संज्ञा, पु० दे० ( सं० वत्स ) बछवा, जाना, बुरी बात से दूर रहना, खर्च न होना, बछड़ा, बच्छा, बाछा (ग्रा० )। स्त्रीशेष या बाक़ी रहना, छिपाना, चुराना । बाकी। स. क्रि० ( सं० वचन ) कहना । स० रूप बछड़ा-संज्ञा, पु० दे० (हि० वच्छ-+ड़ाबचाना, बचावना, प्रे० रूप-बवाना। -प्रत्य० ) गाय का बच्चा । स्त्री० बछड़ी, बलिया। मुहा०-बन (बचा) कर चलनासँभल कर सतर्कता से व्यवहार या काम बहनाग-बच्छनाग-संज्ञा, पु० दे० यौ. (सं० वत्सनाभ ) सींगिया, तेलिया, मीठा, करना। बचपन-संज्ञा, पु० दे० (हि० बच्च+पन स्थावर विष, एक नेपाली विष वृक्ष की जड़। "बच्छनाग नीको लगै'- कुं० वि० ला० । प्रत्य०) लड़कपन, छोटापन, अबोधता।। बचवैया*- संज्ञा, पु० दे० (हि० बचाना+ बछरा-संज्ञा, पु० दे० (सं० वत्स) बछड़ा। वैया-प्रत्य० ) बचैया, रक्षक, बचाने वाला। बछरू, बछेरू -- संज्ञा, पु० दे० (सं० वत्स) बछड़ा, लयेह (ग्रा.)। बचा -संज्ञा, पु० दे० (फा० बच्चा, सं० बचत *-- वि० (द०) वसल (सं०)। संज्ञा, वत्स ) लड़का, बालक, अपमान सूचक स्त्री० --बचलता, वत्सलता । शब्द । स्त्री० बच्ची। बचाव-संज्ञा, पु० दे० (हि० बचाना ) त्राण, बघा-संज्ञा, पु० दे० (सं० वत्स ) बछड़ा। स्त्री० बछिया। रक्षा, हिफाजत । बछेड़ा - संज्ञा, पु० दे० (सं० वत्स ) घोड़े बच्चा-संज्ञा, पु० (फा०) किसी जोव का का बच्चा । स्रो० बछेड़ी। छोटा छौना, लड़का, बालक। स्त्री० बच्ची। बजंत्री- संज्ञा, पु० दे० (हि. बाजा ) बजमुहा०-बच्चों सा बोलना-तुतलाना । नियाँ, बाजा बजाने वाला। बच्चों का खेल-सरल कार्य । वि. बजड़ा- संज्ञा, पु० दे० (सं० बज्रा) घर अज्ञान, अनजान । मुहा०-बच्चा बनना जैसी नौका, बजरा, बाजरा (अन्न) । (होना)-अजान या अबोध बनना बजना-अ० क्रि० दे० ( हि० बाजा) किसी (होना )। बाजे या वस्तु से चोट लगने पर शब्द प्रगट बच्चादान--संज्ञा, पु. (फ़ा० ) गर्भाशय । होना, बोलना, हथियारों का चलना, हठ स्त्री० बच्चादानी। या भाग्रह करना, विख्यात होना, लड़ाई बच्छ-संज्ञा, पु० दे० (सं० वत्स) बेटा, बच्चा, | होना। स० रूप-बजाना, बजावना, प्रे० गाय का बछड़ा। "बच्छ पियाय बाँधि | रूप-बजघाना। तब राजा"-ला. सी. रा०। “बहुरि बजनियां, बजनिहाँ-संज्ञा, पु०, स्रो० दे० लाल कहि बच्छ कहि "-रामा०। (हि० बजना ) बाजा बजाने वाला। बच्छल*-वि० दे० (सं० वत्सल ) वरसल, बजनी-वि० दे० ( हि० बजना ) जो बजता क्ष्यालु, कृपालु, बछुल (ग्रा०)। या बनाता हो। For Private and Personal Use Only Page #1232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir बजबजाना १२२१ बटन बजबजाना-प्र० कि० (दे०) सड़ने से झाग | बजाज, बजाज-संज्ञा, पु० दे० (अ० बज्जाज़) उठना। कपड़े की दूकान करने वाला, घस्त्रबजमारा*-वि० दे० यौ० ( हि० वज्र + | व्यापारी । स्त्री० बजाजिन । मारा ) वन से मारा हुआ, जिस पर वन बजाजा-संज्ञा, पु० (फा०) वह बाज़ार जहाँ गिरा हो । स्त्री० बजमारी। " हौंही बज- बजाज़ों की दूकाने हों। मारी मारो मारी फिरियो करौं”-रसाल। बजाज़ी- संज्ञा, स्त्री० (फ़ा०) बजाज़ का बजरंग, बजरंगो* --- वि० दे० यौ० (सं० कार्य, पेशा या दूकान । वज्रांग ) वज्र सा कठोर शरीर वाला हनु-बजाना-स० कि० दे० ( हि० बाजा ) बाजे मान जी। " महावीर विक्रम बजरंगी" श्रादि पर चोट पहुँचा या हवा का दबाव -हनु । डाल कर शब्द करना, मारमा, श्राघात बजरंगबली-संज्ञा, पु० दे० यौ० (सं० करना, पूरा करना । प्रे० रूप-बजवाना । वज्रांग + वली ) हनुमान जी, महावीर जी ! संज्ञा, स्त्री० -बजवाई। मुहा०-ठोंकना बजर*-संज्ञा, पु० दे० (सं० वज्र ) वज्र, बजाना। बज्जुर (ग्रा० )। बजाय-भव्य ० (फ़ा०) बदले, एवज़, स्थान बजरबट्ट-संज्ञा, पु० दे० (सं० वज्र+बट्टा या जगह पर । पू० क्रि० (हि० बजाना) बजाकर। हि.) एक पेड़ का बीज जिसे दृष्टि-दोष से जा*--संज्ञा, पु० दे० (फा० बाज़ार ) बचाने के लिये बच्चों को पहिनाते हैं। हाट. बाज़ार, बजारू (दे०)। " जाय न बजरा-संज्ञा, पु० दे० (सं० वज्रा ) वजड़ा, बरनि बिचित्र बजारू'' ... रामा० । वि.बड़ी पटी हुई कमरे की नाव । संज्ञा, पु० दे० बजाइ (दे०), बाजारु (हि.) बाज़ार का । (हि. बाजरा ) बाजारा (अन्न)। बजूबा - सज्ञा, पु० (दे०) काली हाँड़ी जो बजरागि, बजरागा* -- संज्ञा, स्त्री० द० यौ० खेतों में लगाई जाती है, विजूखा (प्रांती०)। (सं० बज्राग्नि ) बिजली, विद्युत । बजरी - संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० वज्र) ककड़ी, । बजर, बाजुर - संज्ञा, पु० दे० (सं० वज्र) वज्र । छोटे छोटे कंकड़, छोटा बाजरा, किले आदि बझना, बझावना-अ० कि० दे० (सं० पर छोटा दिखावटी कँगूरा, भोला। वद्ध ) बँधना, हठ करना, उलझना, फँसना, बजवैया - वि० दे० ( हि० बजवाना) बजाने. भिड़ना । स० रूप-बझाना, प्रे० रूपवाला, जो बजाता हो, बजैया (दे०)।। बझवाना। बजा-वि० (फा०) ठीक, उचित, सही। बझाव--संज्ञा, पु० दे० ( हि० बझाना ) उल( विलो० -बेजा )। स० रु० जा। यौ० ___झाव, फँसाव । संज्ञा, स्त्री० बझावट । जा बजा-जहाँ-तहाँ, इधर-उधर । जा बट-संज्ञा, पु० दे० ( सं० वट ) बरगद का बेजा-उचितानुचित । मुहा०-बजा | पेड़, बड़ा या बरा ( भोजन ) बाट, ( बटलाना-कर लाना, पालन या पूर्ण ___ खरा) रस्सी की ऐंठन, बटाई, गोला, लोढ़ा, करना। बजाकर--डंका पीट कर, खुल्लम- __बट्टा । “बट-छाया बेदिका सुहाई''--रामा०। खुल्ला । ठोंक-बजाकर-भली-भाँति बरई-संज्ञा, स्त्री० दे० ( सं० वर्त्तक ) बटेर जाँच कर। पक्षी। बजाक-संज्ञा, पु० (दे०) सर्प विशेष। बटखरा-संज्ञा, पु० दे० (सं० वटक ) पत्थर बजागि-संज्ञा, स्त्री० दे० यौ० (सं० वज्र+ का बाट जिससे वस्तुयें तौली जाती हैं। अग्नि ) वज्र की अग्नि, बिजली, बलागी। | बटन-संज्ञा, स्त्री० दे० ( हि० वटना ) ऐठन, For Private and Personal Use Only Page #1233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir बटना १२२२ बटोरना बटने क्रिया का भाव या काम। संज्ञा, पु. “राजिवलोचन राम चले तजि बाप को (अं०) कपड़े की धुंडी, बोताम। राज बटाऊ की नाई'- कवि० । मुहा०बटना-स. क्रि० दे० (सं० वट = घटना ) बटाऊ होना-चल देना। वितरित होना, टना, कई तागों या तारों बटाका* --वि० दे० (हि. बड़ा+क) को मिलाकर ऐंठना जिससे सब मिलकर बड़ा, ऊँचा, उत्तुंग। एक हो जावें। द्वि० रूप-घटाना. प्रे० रूप- बटाना-स० क्रि० दे० (हि० बटना) पिसाना, बटवाना । अ० क्रि० (दे०) सिल पर लोदा बँटवाना (हि० बाँटना) । अ० क्रि० दे० (पू. से पीसना। संज्ञा, पु० दे० (सं० उद्वतन हि० पटाना ) बंद होना, जारी न रहना । प्रा. उव्वटन ) चिरौंजी या सरसों आदि का बटिया-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि० बटा = गोला) देह पर लगाने का उबटन या लेप, बाँटने छोटा गोला या बट्टा, लोदिया। संज्ञा, स्त्री० या पीसने का लोढ़ा। दे० (हि. वाट = मार्ग ) छोटा मार्ग या बटपरा, बटपा *-संज्ञा, पु० दे० (हि. पंथ, पगदंडी । “वाके संग न लागिये, घाले बटमार ) बटमार, रास्ते में मार कर सामान बटिया काँच"-कबी। छीन लेने वाला। बटी-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० वटी) गोली, बटमार-संज्ञा, पु० दे० (हि० बट+मार ) एक पकान, बड़ी। *-संज्ञा, स्त्री० दे० डाकू, ठग, लुटेरा। (सं० वाटी ) बाटिका, उपवन । वि० (हि. बटमारी-संज्ञा, स्त्री० दे० ( हि० बटमार ) बढ़ना ) ऐंठी हुई। डकैता, धूर्तता, ठगी। बटुआ, बटुवा-संज्ञा, पु. (दे०) ( सं० बटला-चटुआ-बटुवा- सज्ञा, पु० दे० ( स० वर्तल ), बड़ी बटलोई, कई खानेदार गोल वर्तुल ) देगचा, देग, हंडा, दाल-चावल थैला । स्त्री. अल्पा०-बटुई, बटुइया (दे०)। पकाने का चौड़े मुंह वाला बरतन । स्त्री० संज्ञा, पु० दे० (हि० वटना ) पीसा हुआ। बटली, बटलाई, बटलोही, बटुई (ग्रा.)। बटुरना-प० कि० दे० (सं० वत्तल+नाबटवार-संज्ञा, पु० दे० (हि० बाटवाला) प्रत्य० । सिमटना, सिकुड़ना, एकत्रित या पहरे वाला, राह का कर लेने वाला। इकट्ठा होना, झाड से साफ़ होना, बटुरिबटवारा-संज्ञा, पु० दे० ( हि० बाटना) याना (ग्रा०) । स० रूप-चटुराना, प्रे० रूपभाग, हिस्सा, विभाजन। बटुरवाना। बटा*-संज्ञा, पु० दे० ( सं० घटक ) गोला, बटेर-- संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० वर्तक ) लवा गेंद, ढेला, रोड़ा, ढोंका, पथिक, बटोही, पही। "किसी को बटेंरें लड़ाने की लत है" यात्री । स्त्री. अल्पा० बटिया। वि० (हि. -हाली । घटना) ऐंठा या पिसा हुआ । संज्ञा, पु० (हि०) बटरबाज-संज्ञा, पु० (हि. बटेर--- बाज़ भिन्न का हर, जैसे-तीन बटा चार (३)। फा०) बटेर लड़ाने या पालने वाला । संज्ञा, बटाई.-संज्ञा, स्त्री० दे० ( हि घटना, बांटना ।। स्त्री० बटेरबाजी। बटने या बाँटने का कार्य या मज़दूरी बटोर-संज्ञा, पु० दे० ( हि० बटोरना ) जम(दे०), श्राधा साझा (कृषि या बछवा, घट, जमाव, भीड़, वस्तुओं का समूह । आदि चराने में)। "करम करोर पंचतत्वनि बटोर"-पद्मा। बटाऊ--संज्ञा, पु० दे० (हि० वाट+ पाऊ) बटोरना- स० क्रि० दे० (हि० षटुरना ) पथिक, बटोही, मुसाफिर । वि० (ग्रा.) बिखरी चीज़ों को समेटना, चुन कर इकट्ठा हिस्सा बँटाने वाला (हि. बँटाना ) । करना, मिलाना, जुटाना, एकत्र करना, For Private and Personal Use Only Page #1234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir बटोही १२२३ बड़ा झाड से कूड़ा साफ करना। प्रे० रूप- बड़बेरी-संज्ञा, स्त्री० दे० यौ० (हि० बड़ी+ बटोराना, बटोरवाना। बेरी ) झड़बेरी । संज्ञा, स्त्री० यौ० (हि० बड़ी बटोही-संज्ञा, पु० दे० (हि. बाट+वाह- +बेर ) बड़ी विलंब । प्रत्य०) पथिक, राही, यात्री, बटाऊ। बड़बोल; बड़बोला- वि० दे० यो० ( हि० बट्ट संज्ञा, पु० दे० (हि० बटा) बटा, गंद, बड़ा+बोल ) सीटने वाला, बढ़बढ़ कर बातें गोला। करने वाला। बट्टा-संज्ञा, पु० दे० (सं० वात, प्रा. वाढ= बडभाग-बडभागी-वि० दे० यौ० (हि. बनियाई ) किसी वस्तु या सिक्के के असली | बड़ा भाग्य ) भाग्यवान, तकदीरवर । मूल्य में कमी, दस्तूरी, दलाली । मुहा०- "भाज धन्य बड़भाग हमारा।" "बड़भागी बट्टा लगना (लगाना)-दोष या कलंक | अंगद हनुमाना"-रामा । (धब्बा) लगना । घाटा, हानि, टोटा, क्षति । बड़रा* - वि० दे० (हि० बड़ा) विशाल, संज्ञा, पु० दे० ( सं० बटक ) लोढ़ा, गोल बड़ा । स्त्री० बड़री । “ज्यों बड़री अँखियाँ पत्थर, जमी हुई गोली वस्तु, छोटा गोल निरखि"-रही। डिब्बा । स्त्री० अल्पा० --बट्टी, बटिया। बड़वाग्नि--संज्ञा, पु० यौ० (सं०) समुद्र के बट्टाखाता-संज्ञा, पु० (हि०) डूबे हुये धन | अन्दर की प्राग, बड़वानल, बाड़वाग्नि, का लेखा या बही । मुहा०-बट्टेखाते | बड़वागी (दे०) । “पानीदार धार मैं में जाना ( पड़ना, लिखना)-रकम विलीन बड़वागी है"- अ० २० । का डूब या मारा जाना, घटी होना। बड़वानल-संज्ञा, पु. यौ० (सं०) बड़वाग्नि। बट्टाढाल-वि. यौ० (हि० बट्टा+टालना ) बड़धार-वि० दे० ( हि० बड़ा ) बड़ा। समतल और चिकना। बड़वारी-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. बड़वार) बट्टी-संज्ञा, स्त्री० ( हि० बटा ) छोटी गोल महत्व या महत्ता, गौरव, बड़प्पन, गुरुता, लोदिया, टिकिया। जैसे---साबुन की बट्टी। बड़ाई, स्तुति । “भनत परस्पर वचन सकल बट-ना. प० (दे०) बजर-बट्ट । संज्ञा, पु. ऋषि नृप विदेह-बड़वारी"- रघः । दे० (सं० बर्वट) लोबि, बोडा (प्रांती.)। बड़हनी-संज्ञा, पु० दे० (हि० बड़ा+धान) बड़-संज्ञा, स्त्री० दे० ( अनु० बड़बड़ ) बक- एक तरह का धान । वाद । संज्ञा, पु. दे० (सं० वट ) बरगद बड़हर, बड़हल - संज्ञा, पु० दे० (हि. बडावृक्ष । वि० (दे०) बड़ा। "कै श्रापन बड़ फल ) शरीफे जैसे बड़े और बेडौल खटमिठे काज"-रामा० । फल वाला एक वृक्ष विशेष । बड़प्पन- संज्ञा, पु. दे० ( हि घड़ा + पन) बड़हार - संज्ञा. पु० दे० यौ० (सं० वर+ महस्व. बड़ाई, श्रेष्ठता, गुरुता। आहार ) विवाह के पीछे वरात की ज्योनार बड़बड़-संज्ञा, स्त्री० (अनु०) प्रलाप, बकवाद। बढ़ार (या०)। बडण्डाना, बरबराना-अ० कि० दे० बड़हेता-संज्ञा, पु० (दे०) जंगली या बनैना (अनु. बड़बड़ । रुष्ट हो कर कुछ बकना, सुधर । व्यर्थ बकबक या बकवाद करना, कुछ बुरा बड़ा- वि० दे० (सं० वर्द्धन) विशाल, लगने पर मुँह में ही कुछ कहना, बुड़- खूब लंबा और चौड़ा, विस्तृत, वृहत्, दीर्घ, बुड़ाना । महान, भारी, अधिक, बुजुर्ग, वृद्ध, गुरु, बड़बड़िया-संज्ञा, पु० दे० (हि० धड़बड़ + श्रेष्ठ, प्रायु, धन, प्रतिष्ठा या योग्यता में इया-प्रत्य०) गप्पी, बकी। अधिक, परिमाण, मान, माप, विस्तारादि में For Private and Personal Use Only Page #1235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir बड़ाई १२२४ बढ़नी ज़्यादा । स्त्री० बड़ी । मुहा०-बड़ाघर- स्त्री० बडेरो । संज्ञा, पु० दे० ( सं० बड़मि ) कारागार, जेलखाना। संज्ञा, पु० (सं० बटक) छप्पर में बीन की मोटी बड़ी लकड़ी। स्त्री० उर्द की पिसी दाल की छोटी तेल या घी अल्पा०-बड़ेरो । “भये एक ते एक में भुनी और दही या मठे में भीगी टिकिया, बड़ेरे"-रामा०। बरा (दे०) । स्त्री० अल्पा०-बड़ी या बड़ौना * --संज्ञा, पु० दे० ( हि० घड़ापन ) बरी (दे०)। बड़ाई, प्रशंसा। बड़ाई-संज्ञा, स्त्री० (हि. बड़ा+ई-प्रत्य०) बढ़ई-संज्ञा, पु० दे० (सं० वर्द्ध कि, प्रा. बड़े होने का भाव, गौरव या गुरुता. बड़प्पन, बढइ ) काठ का कारीगर । स्त्री० बढ़इनि। श्रेष्ठता, महत्व, महिमा, प्रशंसा, परिमाण, संज्ञा, स्त्री० बढ़ईगीरी-बदई का काम या विस्तार, आयु, मर्यादादि की अधिकता। पेशा। "ताइका सँघारी तिय न विचारी कौन बढ़ती- संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. बढ़ना + तीबड़ाई ताहि हने" - राम ० । मुहा०- प्रत्य०) मात्रा, गिनती या तौल में अधिकता, बड़ाई देना-श्रादर-सम्मान करना । बड़ाई ज़्यादती. सुख-सम्पति आदि की वृद्धि, करना - सराहना । बड़ाई मारना उन्नति, बढ़वारी । विलो०-घटती। (हांकना)-शेखी बघारना। बढ़ना- अ० क्रि० दे० ( सं० वर्द्धन ) उन्नति बड़ा दिन-संज्ञा, पु. यौ० (हि.) २५ करना, अधिक होना, ज्यादा होना वृद्धि दिसम्बर का दिन, जो इसाइयों का त्योहार को प्राप्त होना, नाप तौल, विस्तार, गिनती, है, क्रिसमस (अं०)। परिमाण आदि में अधिक होना। स० रूपबड़ापा-संज्ञा, पु० (दे०) महत्व, बड़ाई, बढ़ाना, प्रे० रूप-चढ़वाना । मुह - बड़प्पन, गुरुता। बढ़कर चलना-धमंड करना, इतराना । बड़ी- वि० सी० (हि० बड़ा ) विशाल, दुकान बंद होना, दिया का बुझना, विद्या. महत्, महान । “साखा-मृग की बडि मनु | बुद्धि, सुख-संपत्ति, मान-मर्यादा या अधिसाई"- रामा० । संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. कारादि में अधिक होना, आगे जाना या बड़ा, बरा ) पेठा आदि मिली मूंग की धुली चलना, अग्रसर या पागे होना, किसी से पिसी मसालेदार दाल की सूखी गोलियाँ, किसी बात में अधिक होना, लाभ होना, या टिकिया, बरी, कुम्हडोरी। दुकान आदि को समेटा जाकर बंद होना। बड़ीमाता-संज्ञा, स्त्री० यौ० (हि.) शीतला बढ़ाना-स० क्रि० (हि. बढ़ना ) गिनती, चेचक कई माताओं में से बड़ी। " तौ नाप तौल विस्तार परिमाण श्रादि में जनि जाहु जानि बडिमाता'-- रामा० । अधिक करना फैलाना, लंबा करना, आगे बड़ खा-सज्ञा, पु. (द०) एक प्रकार पी चलाना, उत्तजित करना, अधिक व्यापक, प्रबल या तीन करना. उसत करना, दीपक बड़मियाँ-संज्ञा, पु० (दे०) बूढ़ा, वृद्ध, मूर्ख, बुझाना दूकान बद करना, सस्ता बेचना, निर्बुद्धि (व्यंग। दाम अधिक करना अ० कि० (द०) समाप्त बड़ेरर-संज्ञा, पु० (दे०) चक्रवात, बवंडर. होना चुना। प्रे० रूप बढ़वाना, द्वि० एक स्थान पर ठहर कर चक्कर देने वाली रूप-बढ़ावना (व. भा० )। वि० बढैया, वायु का झोंका। यौ०-प्राधा-बडेर। बढ़वैया । बड़ेरा *-वि० दे० ( हि० बड़ा+एरा- बढ़नी-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० वर्द्धनी) प्रत्य० ) महान् , वृहत् , प्रधान, मुख्य। भाद, बुहारी (प्रान्ती०)। For Private and Personal Use Only Page #1236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org १२२५ बढ़ाव बढ़ाव - संज्ञा, पु० दे० ( हि० बढ़ाना + श्राप्रत्य० ) वृद्धि, बढ़ना क्रिया का भाव । स्त्री० बढ़वारी - बढ़ने की भाव, वृद्धि । बढ़ावा - संज्ञा, पु० दे० ( हि० बढ़ाव ) मन को उमगाना, उत्तेजना, प्रोत्साहन, साहस या हिम्मत उत्पन्न करने वाली बात । मुहा०- बढ़ावा देना - प्रोत्साहन या साहस देना । बढ़िया - वि० दे० ( हि० बढ़ना) अच्छा. चोखा, उत्तम, बहुमूल्य | विलो० घटिया । बढ़या) - वि० दे० ( हि० बढ़ाना, बढ़ना + ऐया प्रत्य० ) बढ़ने या बढ़ाने वाला, बढ़वैया (दे०) || संज्ञा, पु० (दे०) बदई । बढ़ोतरी - संज्ञा, स्त्री० दे० यौ० (हि० बाढ़ + उत्तर ) उन्नति, बढ़ती क्रमशः वृद्धि, बढ़वारी । बकि - संज्ञा, पु० (सं०) बनिक (दे०), सौदागर, विक्रेता, बनियाँ, व्यापारी, व्यवसायी । " बैठे बणिक वस्तु लै नाना' ,, रामा० । वणिज - संज्ञा, पु० (सं०) बनिज (दे० ), सौदागरी, व्यापार व्यापारी । " साहिब मेरा बानियाँ, बणिज करे व्यापार" - कवी० । वणियाँ - संज्ञा, पु० दे० (सं० वणिक) बनियाँ | बत- संज्ञा, पु० ( ग्र०) बात, करार, एक जल जीव, बतख, एक कीड़ा । बतकहा – संज्ञा, पु० (दे०) बातूनी, गप्पी | बतकही- संज्ञा, स्त्री० यौ० दे० (हि० बात + कहना ) बातचीत, वार्त्तालाप, वाद-विवाद | " करत बतकही अनुज सन - रामा० । बतख - संज्ञा, स्त्री० ( ० बत) हंस की जाति का एक जल-पक्षी | बतलाना बताना - स० क्रि० दे० ( हि० बात + ना - प्रत्य० ) बतलाघना, बतावना (दे० ), कहना, जताना, समझाना भाव बताबा, ठीक करना, मार-पीट कर ठीक करना, बात करना, बतियाना ( प्रान्ती ० ) | वि० (दे०) बतैया, बतवैया । बतवाना - स० क्रि० (दे०) बात करने में लगाना, कहवाना, उत्तर दिलाना । बताना - स० क्रि० दे० ( हि० बात + ना -- प्रत्य० ) बतलाना, जताना, समझाना, प्रदर्शित या निर्देश करना नाचगान में हाथ आदि से भाव प्रगट करना, दिखाना, ठीक करना ( मार पीट कर - व्यग्य ) । प्रे० रूपबवाना, (दे०) बताघना | बतचल - वि० दे० यौ० ( हि० बात चलाना) बतास | - संज्ञा, ५० दे० ( सं० वातसह ) बकवादी । वायु, पवन, बात रोग, गठिया, बतास । संज्ञा स्त्री० यौ० दे० ( हि० बात + मास ) बातचीत करने की लालसा । "बैहरि बतास है चबाव उमगाने मैं ". -ज० श० । बतबढ़ाव - संज्ञा, पु० दे० यौ० (हि० बात + बढ़ाना ) झगड़ा बढ़ाना, बातों बातों में व्यर्थ ही विरसता बढ़ाना । भा० श० को ० – १२४ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir बतास बर्तावना - संज्ञा, पु० (दे० ) हि० बातूनी ( हि० ) | बतरस - संज्ञा, पु० यौ० ( हि० बात + रस ) बातें करने का श्रानंद, बातचीत का स्वाद या मज्ञा । " बतरस लालच लाल की " — वि० । बतरानri - क्रि० प्र० दे० ( हि० बात + आना - प्रत्य० ) बातें या बातचीत करना । "हम जानी अब बात तुम्हारी सूधे नहिं बतरात '' - सुत्रे० । स० क्रि० बतरावना (दे०) बतलाना । " से बतराय देउ ऊधो हमें तुमहूँ तो श्रति निपट सयाने " - भ्र० गी० । बतरौहाँ - वि० दे० ( हि० बात ) बातचीत का अभिलाषी या इच्छुक, वार्तालाप में प्रवृत्त । स्रो० बतरौहीं । बतहा - वि० (दे०) बात- रोगी, वायु-दोष कारक । For Private and Personal Use Only Page #1237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir बातचीत । बतासा-बताशा बदतर बतासा-बताशा-संज्ञा, पु० दे० (हि. प्रकाश । “धर दो बत्ती तुम तोपन पर इन बतास =हवा ) चीनी की चाशनी से बनी पाजिन को दे उड़ाय'-आल्हा। सलाई एक मिठाई, एक प्रकार की बातशबाजी, जैसी लम्बी पतली वस्तु, घास-फूस का बुबुद् बुलबुला, वायु, पवन, बतास। मुठा या पूला, घाव साफ़ करने की कपड़े "कछु दिन भोजन वारि-बतासा"--रामा। की धजी, ( पाचक और पौष्टिक )। बतिया--संज्ञा, स्त्री० दे० ( सं० वर्तिका प्रा० बत्तीसी-संज्ञा, स्रो० दे० (हि. बत्तीस) वत्तिमा-बत्ती) नवजात, कोमल, छोटा | बत्तीस का समूह, मनुष्य के नीचे ऊपर के कच्चा फल, बात । “यहाँ कुम्हड़-बतिया सब दाँत, बतीसी (ग्रा०)। "भुवन-पुराण कोउ नाहीं'-- रामा० । माँहि जो बिध बताई गयीं बनिकै बतीसी बतियाना-अ० कि० दे० (हि० बात) मुख भवन बसायो है:'-- मन्ना। वार्तालाप या बातचीत करना। बत्सा-संज्ञा, पु० दे० (सं० वत्स ) एक बतियार-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. बात ) प्रकार का चावल, बङ्वा । वि० स्त्री० बछवे वाली गाय । बतीसी-संज्ञा, स्त्री० दे० ( हि० बत्तीस ) बथुपा-बथुवा-संज्ञा, पु० दे० (सं० वास्तुक) बत्तीसों दाँत । " चमकि उठ तस बनी एक छोटा पौधा जिसके पत्तों की भाजी बतीसी"-पद० । “बतोसी मोती सी, बनती है, स्त्री० बथुई।। चमक बिजली सी अधर में'---सरस। बद-संज्ञा, स्त्री० दे० ( सं० वर्म = गिलटी) बतू, बत्त --संज्ञा, पु० (दे०) कलाबत्त । पेड़ और जाँघा के जोड़ में फोड़े के रूप में बतूनी-वि० दे० ( हि० बात ) बक्की या| एक रोग, बावी, गोहिया ( प्रान्ती० )। वाचाल, बातूनी, बहुत बात करने वाला। वि० (फा०) ख़राब, बुरा, निकृष्ट, दुष्ट, बतोली-- संज्ञा, स्त्री० (दे०) भाँड़पन, गप्पी नीच । 'नेकी का बदला नेक है बद से बदी भाँड़ों का काम, मँड़ौती । वि० बताले की बात ले"-स्फुट० । संज्ञा, स्त्री० दे० बाज़ । संज्ञा, स्त्री० बतोलेबाजी। (सं० वत) बदला, पलटा । मुहा०बतौर-क्रि० वि० (अ.) सदृश, समान, बद में-बदले में। बद-धमलो--सज्ञा, स्त्री० यो० (फा० वद + तरह पर, तरीके पर, रीति से। अ० अमल ) अशांति, हलचल, बुरा बंदोबतौरी-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. वर्तार ) बस्त, कुप्रबंध। वायु-दोष से उत्पन्न सूजन, बरतोर । " उर बदकार-वि० यौ० ( फा० ) व्यभिचारी, पर कुच नीके लगैं, अनत बतौरी पाहि" | कुकर्मी । संज्ञा, स्त्री० बदकारी। -रही। बदकिस्मत-वि० यौ० ( फ़ा. बद --अ. बत्तिस-बत्तीस-वि० दे० (सं० द्वात्रिंशत्, । किस्मत ) अभागी, मंद भाग्य । संज्ञा, स्त्री० प्रा. बत्तीसा) गिनती में तीस से दो अधिक . बदकिस्मती। संज्ञा, पु. तीस और दो की संख्या और | बदचलन--वि० यौ० ( फ़ा०) लंपट, व्यभिअंक ( ३२ ) । संज्ञा, पु. ( हि० ) दाँत चारी, कुमार्गी । संज्ञा, स्त्री० बदचलनी । (लक्ष्यार्थ)। बदजात-वि० यौ० (फा० पद+जात-प्र०) बत्ती-सज्ञा, स्त्री० दे० (सं० वर्ति प्रा० नीच, तुच्छ, खोता। संज्ञा, स्त्री० बदजाती। वर्ति ) बाती, दीप में तेल से जलने वाला | बदतर- वि० (फा०) किसी की अपेक्षा रई या सूत का बटा टुकड़ा । (ग्रा०) बुरा, बहुत बुरा, बत्तर (दे०)। संज्ञा, स्त्री० दीपक, स्लेट की पेंसिल, मोमबत्ती, पलीता, बदतरी। For Private and Personal Use Only Page #1238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir S - बददुश्रा १२२७ बदलना बददुश्रा-संज्ञा, स्त्री० यौ० (फा० बद+ म०+ई०-प्रत्य० ) दुष्टता, दुष्कर्म, दुआ-अ०) शाप, साप, सराप (दे०)। व्यभिचार, पाजीपन, बदमासी (दे०)। बदन-संज्ञा, पु० ( फा० ) देह, गात | संज्ञा, बदमिज़ाज-वि० यौ० (फा० ) बुरे स्वभाव पु० दे० ( सं० बदन ) मुख । | वाला । संज्ञा, स्त्री०-बदमिज़ाजी । बदनसीब-वि० यौ० ( फा० बद+नसीब- बदरंग-वि० यौ० ( फ़ा० ) विवर्ण, भद्दे या अ.) प्रभागा, मंद-भाग्य । संज्ञा, स्त्री० बुरे रंग का, निसका रंग बिगड़ गया हो। बदनसीबी। बदर-संज्ञा, पु० (सं०) बेर का वृक्ष या बदना-स० क्रि० दे० (सं० वद = कहना) फल । स्त्री० बदरी, यो० बदरी-फल । वादा ( प्रतिज्ञा ) करना, कहना, धचन "विश्व बदर जिमि तुम्हरे हाथा"-रामा० । देना, बखान या वर्णन करना, नियत या बदरा -संज्ञा, पु० दे० ( हि० ) बादल, मेघ, स्वीकार करना, ठहराना, निश्चित करना, बादर । " बदरा ही बड़ी बदरा ही करें।" मान लेना। " मंदिर परध अवधि हरि बदराह-वि० यौ० ( फा० ) दुष्ट, कुमार्गी । बदिगे"। महा०-बदा होना--भाग्य में संज्ञा, स्त्री०- बदराही-~-दुष्टता, बुराई । -(लिखा ) होना। बदकर करना- बदरि-संज्ञा, पु० (सं०) बेर का पौधा या जान-बूझ कर, ललकार कर, हठ पूर्वक बाजी फल, बदरी (दे०) । " धात्री फलं सदा या शर्त लगाना, कुछ समझना, बड़ा या पथ्यं कुपथ्यं बदरीफलं "। महत्व पूर्ण मानना । " जब हिरदै ते बदरिकाश्रम-संज्ञा, पु० यौ० (सं०)हिमालय जाइहौ, मर्द बदौंगो तोहिं '-सूर०। पर बद्रीनाथ का तीर्थ विशेष, जहाँ नरमुहा०—किसी को कुछ (ल) बदना। नारायण तथा व्यास का पाश्रम है। बदनाम-वि० यौ० (फा० ) निंदित, कलं. बदरियाज-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि० बादल ) कित । लो०-'बद अच्छा बदनाम बुरा"। बदली, छोटा बादल । " हम नाम के तालिब हैं हमें नेक से क्या | बदरी-संज्ञा, 'पु० (सं०) बेर का वृक्ष या फल काम । बदनाम जो होवेंगे तो क्या नाम बदर । संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. बादल ) न होगा।" बदली, बादल का टुकड़ा। बदनामी-संज्ञा, स्त्री० ( फा०) लोक-निंदा, बदरीनाथ-संज्ञा, पु. यौ० (सं०) बदूरी अपयश, अकीति । नारायण, बद्रीनाथ (दे०)। बदनीयत-वि० यौ० (फा० बदनीयत- बदरी-नारायणा-संज्ञा, पु. (सं०) बद्रीअ०) जिसकी इच्छा बुरी हो, धोखेबाज । नारायन (दे०) बदरी नाथ । संज्ञा, स्त्री० बदनीयती। | बदरोबी-संज्ञा, स्त्री० यो० (फा०) अप्रतिष्ठा । बदबू-संज्ञा, पु. यौ० ( फा० ) बदबोय बदरौहाँ-वि० दे० (फा. बद+रौंहा(प्रा०) दुगंध, बुरी महक । वि० बदबूदार- चाल ) बदचलन, कुमार्गी । -संज्ञा, पु. बदबोयदार ( दे०-बेनी कवि )। दे० (हि. पादर---प्रौहां--प्रत्य० ) बदली बदमाश-वि० ( फा० बद+प्र. मनाश- का आभास या सूचक । जीविका ) बद्मास (दे०) दुष्ट, दुवृत्त, बदल-संज्ञा, पु. (प्र०) परिवर्तन, एवज पाजी, दुराचारी, लुच्चा, कुकी , दुष्कर्मोप- (अ.) हेर-फेर, प्रतिकार, पलटा । जीवी, बुरे काम से जीविका पैदा करने वाला। बदलना-कि० अ० ( स० बदल+ ना.बदमाशी-संज्ञा, स्त्रो० ( फा० बद + ममश प्रत्य० ) प्रतीकार करना, एक के स्थान पर For Private and Personal Use Only Page #1239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir बदला १२२८ बधना दूसरा नियत करना, विनिमय करना, परि-बदाम-संज्ञा, पु० दे० (फ़ा० बादाम) बादाम। वर्तित होना, एक जगह से दूसरी जगह " सोहत नर नग त्रिबिधि ज्यों, बेर, बदाम, नियुक्त होना । स० रूप-बदलाना, प्रे० रूप- अंगूर"-बूं। बदल गाना । मुहा०-बात बदलना बदिछ।-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० वर्त ) बदला, -कही बात के पीछे और कहना, (उससे पलटा । अव्य० (दे०) बदले में, हेतु, वान्ते । विरुद्ध बात )। स० क्रि० वास्तविक रूप बदी-संज्ञा, स्त्री० (दे०) अँधेरा पाख, कृष्ण से भिन्न करना, रूपान्तरित करना, एक पक्ष । संज्ञा, स्त्री. (फ़ा०) अहित, बुराई। वस्तु की पति दूसरी से करना। यौ० विलो०-- नेको-बदी । “नेकी का बदला-संज्ञा, पु. ( हि० बदलना ) लेने बदला नेक है बद कर बदी की बात ले।" देने का व्यवहार, विनिमय, एवज पलटा, बदौलत-क्रि० वि० (फ़ा०) द्वारा, प्रताप या प्रतीकार किसी व्यवहार के उत्तर में वैसा सहारे से कारण या कृपा से । ही व्यवहार, एक वस्तु की क्षति या स्थान की | बद्दर-बद्दला-संज्ञा, पु० दे० (हि. बादल) पूर्ति के लिये दूसरी वस्तु महा-बदला बादल. मेघ । देना ( लेना )-- बुराई के बदले बुराई बद्ध- वि० (सं०) बंधा हुआ. कैद, भव-जाल करना । नतीजा परिणाम में फँसा, सीमित, निर्धारित, जिसके लिये बदलो--संज्ञा, स्त्री० (हि. बादल ) बदरी रोक या सीमा ठहरायी गई हो, मुक्ति(दे०) हलका या छोटा बादल, घन का रहित । संज्ञा, स्त्री० बद्धता । “जीव बद्ध है फैलाव संज्ञा, स्त्री. ( हि० बदलना । एक ब्रह्म मुक्त है अंतर याही जानो'"-मन्ना । स्थान से दूसरे स्थान पर नियुक्ति तबादिला बद्धकोष्ट --- संज्ञा, पु० यौ० (सं०) दस्त साफ तबदीली. एक वस्तु के स्थान पर दूसरी न होना, मलबद्ध या कब्ज़ (रोग)। रखना । "नज़र बदली जो देखी उस सनम | बद्ध-परिकर-वि० (सं०) तैयार, कटिबद्ध, को"--स्फु० । प्रस्तुत, कमर बाँधे ( कसे ) हुये। " बद्ध बदलौवल-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि० बदलना) | परिकर हैं सभी परलोक जाने के लिये" हेर-फेर, अदल-बदल, बदलने का काम ।। बदस्तूर-क्रि० वि० (फा० जैसा का तैसा, बद्ध पद्मासन-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) पद्मानियम या कायदे के अनुकूल, ज्यों का त्यों, सन लगाकर, हाथों को एक दूसरे पर पीठजैसा था वैसा ही। पीछे चढ़ा दाहिने हाथ से दाहिने पैर के बदहज़मी-संज्ञा, स्त्री० यौ० (फ़ा०) अजीर्ण, | और बाँये से बाँये के अंगूठे पकड़ कर बैठना अपच (रोग)। ( हठयोग)। बदहवास-वि० यौ० (फा० ) उद्विग्न, बद्धांजलि-संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) प्रणामार्थ अचेत, व्याकुल, विकल, बेहोश।। दोनों हाथ जोड़ना। बदा - वि० दे० । हि० घदना ) भाग्य में | बद्धी-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० वद्ध ) बाँधने लिखा, विधि-विधान । या कसने का तसमा, डोरी, रस्सी, गले का पदान संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. मदना)। चार लड़ों का एक गहना। बदना क्रिया का भाव । बध- संज्ञा, पु० (सं०) हत्या, हनन, मारना । बदाबदी-संज्ञा, स्त्री० (हि. बदना) दो | बधना-स० क्रि० दे० (सं० बध+ना-प्रत्य०) पक्षों की परस्पर प्रतिज्ञा, लाग-डाँट, हठ, । वध या हत्या करना, मार डालना । प्रे० रूपशर्त या बाजी, भाग्य-विचार। बधाना, बधवाना । संज्ञा, पु. ( सं० For Private and Personal Use Only Page #1240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org बधस्थान वद्धन ) मिट्टी या धातु का टोंटीदार लोटा । बधस्थान - संज्ञा, पु० (सं०) जीवों के मारे जाने की जगह । बधाई - संज्ञा, खो० दे० (सं० वद्धन ) बढ़ती, मंगलाचार शुभ समय पर गाना-बजाना उत्सव, शुभावसर पर आनंद या प्रपन्नता सूचक बचन । ' श्राजु नंद घर बजत बधाई री " सूर० । 66 १०- उच्छम बत्राव । बधाया वधावा - संज्ञा, पु० दे० ( हि० बधाई ) बधाव, बधाई संबंधियों या मित्रों के यहाँ से मंगलोरसव पर आई भेंट या वस्तु | यौ० - बधिक संज्ञा, पु० दे० (सं० बधक ) हत्यारा, व्याधा, बहेलिया जल्लाद | "बधिक बध्यो मृग बान तें लोहू दियो बताय -तु० । बधिया - संज्ञा, पु० दे० (सं० वध ) चाखता, खस्सी, अंडकोष हीन पंढ बैल यादि पशु । बधियाना - अ० क्रि० दे० (हि० वध, बधिया) , बधना, बधिया करना । " बधिर - संज्ञा, पु० (सं०) बहरा, श्रवण-शक्तिहीन | संज्ञा, स्त्री० - धिरता । गुरु सिख ग्रंध बधिर कर लेखा" - रामा० | बधू संज्ञा स्त्री० (सं० वधू) पतोहू, भार्या, स्त्री, बहू (दे० ) । | 91 वधूटी - संज्ञा, पु० दे० (सं० बधूटी ) पतोहू, सुहागिन स्त्री, नवीन बहू, स्त्री । " करहिं बघू मंगल गाना रामा० । यौ० देववधूटी--अप्सरा, स्वर्ग-वधूटी | बधूरा संज्ञा, पु० दे० ( हि० बहुधूर ) एक बवंडर, बगूला. वायु-चक्र | बध्य - वि० (सं०) बध के योग्य । बन - संज्ञा, पु० दे० (सं० वन ) कानन, जंगल, पानी, बाग, कपास का पौधा, . बड़भागी बन श्रवध प्रभागी "रामा० । पाहन तें बन वाहन काठ को कोमल है जल खाय रहा है ” – कवि० । " सब को ढंकन होत है जैसे बन को सूत" - नीति | समूह C ور १२२६ बनजी बनकंडा - संज्ञा, पु० दे० यौ० (सं० बनस्कंदन ) जंगली उपले । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir बनक* - संज्ञा, स्त्री० दे० ( हि० बनना ) भेष, सजावट, बाना, सजधज, बानक । बन कर - संज्ञा, पु० दे० यौ० (सं० वनकर ) जंगली उपज का महसूल । बनखंड - संज्ञा, पु० दे० ( सं० वनखंड ) जंगली प्रदेश । बनखंडी - पंज्ञा, स्त्रो० यौ० ( हि० + खंड ) छोटा बन बन का कोई भाग | संज्ञा, पु० बनवासी, वन में रहने वाला । नत्र बनेर संज्ञा, पु० दे० (सं० वनेचर) बन का पशु, जंगली 'युधिष्ठिरं बन में रहने वाला जीव या आदमी, वन- मानुस | 46 द्वैप वने वनेचरः " - किरात० । बनवारी - वि० यौ० (सं० वनचारिन्) बन में घूमने या रहने वाला, बानर । स्त्री० वनचारिणी । बनज संज्ञा, पु० दे० ( सं० वनज ) जल से उत्पन्न पदार्थ, कमल, मोती, बन में होने वाली वस्तु । ' जय रघुवंश बनज बनभानू " रामा० | संज्ञा, पु० (दे०) वाणिज्य (सं०) व्यापार बनिज (दे०) बनजर -- संज्ञा, पु० (दे० ) पड़ती या ऊसर भूमि बंजर ( ग्रा० ) । " बनजात – संज्ञा, पु० दे० यौ० (सं० वनजात्त) कमल, जल या वन में उत्पन्न । बनजारा, बंगरा - संज्ञा, पु० दे० ( हि० For + हारा) बैलों पर माल ले जाने या लेने वाला व्यापारी, इंडिया (प्रांती० ) । "सब ठाठ पड़ा रह जावेगा जब लाद चलेगा -- स्फु० । स्त्री० बनजारिन । बनजारो संज्ञा, स्त्री० ( हि० बनजारा ) बन - जारा की स्त्री, बनजारा की वस्तु । बनजी - संज्ञा, पु० दे० ( सं० वाणिज्य ) व्यापार, व्यापारी । " कोउ खेती कोउ बनी लागै कोउ श्रास हथियार की "सुन्दर० । बनजारा For Private and Personal Use Only Page #1241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org बनज्योत्स्ना बनज्योत्स्ना - संज्ञा, स्त्री० यौ० सं० बनजोत्स्ना) माधवी लता, बनजोति (दे० ) । 1 बनत - संज्ञा, त्रो० दे० ( हि० बनना + ताप्रत्य० ) बनावट रचना, मेल, सामंजस, अनुकूलता तैयार या सिद्ध होना, एक बेल, बताई (दे० ) बनतराई - संज्ञा, स्त्री० दे० ( हि० बनतारा ) एक पौधा । बनताई | संज्ञा, स्त्री० दे० ( हि० बन + ताई - प्रत्य० ) बन की भयानकता या सघनता, बनावट, बनत | बनतुलसी-संज्ञा स्त्री० दे० (सं० चनतुलसी) बबई नामक पौधा, बर्बरी । १२३० बनद - संज्ञा, पु० दे० (सं० वनद) बादल, मेघ । बनदाम - संज्ञा, स्त्री० दे० यौ० (सं० वनदाम) बनमाला, बनमाल । बनदेव - संज्ञा, पु० दे० यौ० (सं० वनदेव ) वन का धिष्ठाता देवता स्त्री० वनदेवी । " बनदेवी बनदेव उदारा' "रामा० । बनधातु - संज्ञा, खो० दे० यौ० (सं० वनधातु) गेरू आदि रंगीन मिट्टी । बनना - अ० क्रि० दे० ( सं० वर्णन ) रचा जाना, प्रस्तुत या तैयार होना, किसी का जान सा प्रगट करना होना ) ( व्यंग्य ) । स० [रूप बनाना, प्रे० रूप-- बनवाना, मुहा० - बन उनके सजधज कर श्रृंगार करके । बना रहना - जीता या उपस्थित रहना, उपयोग होना, रूपान्तरित होना, बदल जाना, भाव या सम्बन्ध में अन्तर हो जाना, विशेष पद यादि प्राप्त करना, उन्नति को पहुँचना, प्राप्त या सम्भव होना, वसूल या दुरुस्त होना, पटना, निभना, मित्रभाव होना, सुयोग ( अवसर ) मिलना, स्वादिष्ट या सुन्दर होना, उन्नति करना, स्वरूप धारण करना. मूर्ख ठहरना अपने को अधिक योग्य या गंभीर सिद्ध करना, दुरुस्त होना, Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir arfara बना हुआ चालाक और कुछ करे । बन कर घच्छी तरह सजना | भूप, बन बन २ मंडप निभाना | सुहा व्यक्ति जो कुछ कहे - भली-भाँति, " प्रात भये सब गये "-- रामा० । बननि* +- संज्ञा, स्त्री० ( हि० बनना ) बनावट, बनाव, सिंगार | वननिधि - संज्ञा, पु० दे० यौ० (सं० वननिधि) समुद्र, जल राशि, वनधि | बननी - संज्ञा, त्रो० दे० ( हि० बनीनी ) बनीनी, बनिया की स्त्री चानिन । वनपट - संज्ञा, पु० दे० यौ० (सं० वनपट ) वृक्षों की छाल के वस्त्र, सूती कपड़ा । बन पड़ना (जाना: - स० क्रि० यौ० (हि०) सुधरना, सुश्रवसर मिलना, हो सकना, निभना, सद्गति प्राप्त होना निवहना, यथेष्ठ कार्य होना । " मीरा की बनपड़ी राम गुन गाये ते " - मीरा० । “ बन पड़े तो नेकी करना । " वनपाती* - संज्ञा, स्रो० दे० यौ० ( स० वनस्पति) वनस्पति, जंगल के पेड़ । बनफल - संज्ञा, पु० यौ० (दे०) जंगली फल । बनफ़शा -संज्ञा, पु० ( फ़ा० ) एक वनस्पति जिसकी जड़ फूल और पत्तियाँ औषधि के काम में आती हैं। बनबास – संज्ञा, पु० दे० यौ० (सं० वनबास ) बन में रहना । तथा न मम्लौ वनवास 66 For Private and Personal Use Only दुःखतः " - वा० रा० । बनवासी - संज्ञा, पु० दे० यौ० सं० वनवासिन् ) वन में रहने वाला, जंगलो । " चौदह बरस राम बनवासी " रामा० । वनवाहन - संज्ञा, पु० दे० यौ० (सं० वनवाहन) नाव । पाहन तें बन बाहन काठ को कोमल है जल खाय रहा है ” – कवि० । वनवाहक - संज्ञा, पु० यो० (सं०) कहार, मेघ, बादल । बनबिलाव - संज्ञा, पु० यौ० (हि०) जंगली बिल्ली, ऊदबिलाव (दे०) । Page #1242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir बनमानुस १२३१ बनात बनमानुस-संज्ञा, पु० दे० यौ० (सं० वन- | बनवना*-स० क्रि० दे० यौ० (हि. मानुष ) जंगली श्रादमी, गोरिल्ला श्रादि बनाना ) बनाना, बनावना (दे०)। बनैले मनुष्य-जैसे जंतु। बनबसन*-संज्ञा, पु० दे० यौ० (सं० बनमान्ना-संज्ञा, स्त्री० दे० ( सं० वनमाला) | बनवसन) पेड़ों की छाल का वस्त्र, सूती पारिजात, मंदार, कमल, कंद और तुलसी कपड़ा। के फूल-पत्तों से बनी माला, फूल पत्तों से बनवाई--संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. बनवाना) बनी माला, बनमाल (दे०)। " भूषन बन- बनवाने का कार्य, बनवाने की मजदूरी। माला नैन बिसाला सोभा-सिंधु खरारी" बनवारी--संज्ञा, पु० दे० (सं० बनमाली) कृष्ण। -रामा०। "अब बनवारी बनवारी बात त्यागिये'बनमाती-संज्ञा, पु० दे० यौ० (सं० वन- मन्ना० । दे० यौ० (हि. बनवारी) बागमालिन् ) बनमाला पहनने वाला. नारायण, वाटिका, वन का. जल । वि० बनवाली। श्रीकृष्ण, विष्णु मेघ, बादल. घने बन या बनवैया-सज्ञा, पु० दे० (हि० बनाना+वैयाबादल का प्रदेश । " एहो बनमाली तुम कौन प्रत्य० ) निर्माता, रचयिता, बनाने वाला। बनमाली तुम कौन बनमाली माल उर में बनमी, बंसी-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० वंशी) सुछाके हौ' ---पद्मा० । यौ०-उपवन बाँसुरी, बंशी, मुरली, मछली फँसाने का का माली। काँटा । बनर-संज्ञा, पु० (दे०) एक हथियार । बनस्थली-संज्ञा, स्त्री० दे० यौ० (सं० बनरखा-संज्ञा, पु० दे० ( सं० वन रक्षक, बनस्थली पु. बनस्थल ) बन-खंड, जंगल हि. बन+रखना) जंगल की रखवाली करने का कोई हिस्सा या प्रदेश । "बनस्थली बीच वाला, बन-रक्षक, बहेलियों की एक जाति । विराजती रही".-प्रि० प्र०। बनरपकड़-संज्ञा, पु० यौ० (दे०) दुराग्रह, बना, बन्ना--संज्ञा, पु० दे० (हि० बनना) निदित हठ । वर, दुलहा, दूल्हा । स्त्री० बनी । संज्ञा, पु. बनरा*-संज्ञा पु० दे० (सं० वानर ) बंदर, (दे०) दंडकला छद (पि०)। वानर, बँदरा (दे०) । "सिन्धु तस्यो उनको बनाइ-बनाय-कि० वि० दे० (हि० बनाकर बनरा"- रामचं० । संज्ञा, पु. दे० (हि. भली-भाँति ) नितांत, अत्यंत, विलकुल, वनना ) दूल्हा, दुलहा बर, विवाह के समय अच्छी तरहा, भली-भाँति । "जो ना चमकति बिजुली बहिगा रहै बनाय"-स्फु० ॥ पू० क. का एक गीत । स्त्री. बनरी। क्रि० (७. भा० ) बनाकर (हि.)। बनराज-बनराय--संज्ञा, पु० दे० यौ० बनाउरिक्षा--संज्ञा, स्त्री० दे० ( सं० घाणा( सं० वनराज ) सिह बाघ, शेर, बहुत बड़ा पेड़ । “देख्या बनराज, बनराज ही की छाया वली ) तीरों की माला या पंक्ति, बाणों की अवली या वर्षा। परयो "- मन्ना०। बनाग्नि-संज्ञा, स्त्री० दे० यौ० (सं० वनाग्नि) बनराजी-संज्ञा, स्त्री० यौ० (दे०) बनोपवनों | दावानल, जंगल की आग, बनागि (दे०)। की पंक्ति या वन का समूह, बनराज (सं.)। नागी-मज्ञा, स्रो० यौ० ( दे० ) बनाग्नि बनरी-संज्ञा, स्रो० दे० (दे० बनरा) बानरी, | (सं.)। " वर्षा बिना नास भई बनागी" बंदरिया, नववध, दुलहिन । -- कु० वि० ल. बनरुह-संज्ञा, पु० दे० (सं० बनरुह ) जंगली बनात- सज्ञा, स्त्री० दे० (हि० वाना) एक पेड़, कमल। बदिया ऊनी कपड़ा। For Private and Personal Use Only Page #1243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org बनाना बनाना - स० क्रि० ( हि० बनना) निर्माण या तैयार करना, रचना, भावान्तर या सम्बन्धान्तर रखने वाला करना, रूपान्तरित कर उपयोग के योग्य करना, एक वस्तु को बदल कर दूसरा करना | मुहा०-- बना कर — भली-भाँति, अच्छी तरह । कोई बड़ा पद या शक्ति आदि देना उन्नति दशा में पहुँचाना, उपार्जित प्राप्त या उसूल करना, मरम्मत करना मूर्ख ठहराना, उपहास योग्य करना दोष दूर कर ठीक करना, ठीक रूप या दशा में लाना । १२३२ बनाफर - संज्ञा, पु० दे० (सं० बन्यफल ) क्षत्रियों की एक जाति । 'माहिल बोला तब उदया तें यह सुनि लेहु बनाफर राय " -- था० खं० । 46 55 बनायुज - संज्ञा, पु० दे० (सं० वनायुज: बनायु =फारिस + ज उत्पन्न ) फारिस या ईरान देश में उत्पन्न होने वाला घोड़ा, अरबी घोड़ा । 'पारसीका वनायुजाः हलायुध० । बनाबत-बनाबनतळ) -संज्ञा, पु० दे० (हि० बनना + बनना ) विवाह से पूर्व वर-कन्या की जन्मपत्रियों का मिलान, बनता बनना ( ग्रा० ) । बनाम - अव्य० ( फ़ा० ) किसी के प्रति या नाम पर, नाम से। " बनामे जहाँदार जाँ आफरी" -सादी । बनाय - क्रि० वि० दे० ( हि० बनाकर ) निपट, बिलकुल, भली प्रकार । पू० का ० क्रि० ( ० भा० ) बनाकर । बनार संज्ञा, पु० (दे०) वर्तमान बनारस की उत्तर सीमा पर एक प्राचीन राज्य । बनाव- सज्ञा, पु० दे० ( हि० बनना + भावप्रत्य० ) रचना, श्रृंगार, बनावट, सजावट, ढंग, युक्ति । बनावट - संज्ञा, स्त्री० ( हि० बनाना + वटप्रत्य० ) गढ़न, घाडबर, ऊपरो दिखाव, बनने (बनाने का भाव । बनिस्बत बनावटी - वि० दे० ( हि० बनावट + ईप्रत्य० ) कृत्रिम, नकली, बनाया हुआ, दिखा वटी, झूठ 1 बनाषनहारा- संज्ञा, पु० दे० ( हि० बनावना + द्वारा प्रत्य ० ) निर्माता, रचयिता, बनानेवाला. बिगड़े को बनाने वाला | 'बिगरी कौन बनावनहार "1 - श्राल्हा० । बनावरि - संज्ञा, स्त्री० दे० ( सं० बाणावलि ) तीरों की पंक्ति या माला या श्रवली, बानाचली (दे० ) । बनासपती - बनासगती - संज्ञा, खो० दे० (सं० वनस्पति ) जड़ी-बूटी, फल-फूल, सागपात कंदमूल । 'नासपाती खातीं ते बनासपाती खाती हैं' भू० । "" बनि वि० दे० ( हि० बनाना ) सब, समस्त, बिलकुल पू० का ० ( ० ) बन कर | बनिज - संज्ञा, पु० दे० सं० वाणिज्य) सौदागरी. व्यापार, रोजगार सौदा, व्यापार का माल । " और बनिज में नाहीं लाहा होय मूर में हानि "कबी० । बनिजना -- स० कि० दे० (सं० वाणिज्य) वाणिज्य या व्यापार करना, बेचना, खरीदना, अपने वश कर लेना । बनजारिन - वनजारी - संज्ञा, त्रो० दे० ( हि० बनजारा ) बनजारे की स्त्री । बति - संज्ञा, स्त्री० दे० ( हि० बनना ) साज-बाज, बानक, वेष, ठाठबाठ । बनिता - संज्ञा, स्त्री० दे० ( सं० वनिता, पत्नी, भार्या, स्त्री, धौरत । " सनि बन साज समाज सब, बनिता बंधु समेत ' - रामा० । बानयां - सज्ञा, पु० दे० ( सं० वणिक ) वैश्य, वणिक, व्यापारी, सौदागर, मोदी | त्रो० बानिनि, बनियाइन, बनीनी । " बनियाँ अपने बाप को ठगत न लावै बार" - गिर० । बानयाइन - सज्ञा, स्त्री० दे० (सं० बेनियन ) एक प्रकार की बुनावट की चुस्त बंडी या कुरती, गजी ( प्रान्ती० ) । बनिस्बत - अव्य० ( फा० ) अपेक्षा, मुकाबले में । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private and Personal Use Only Page #1244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १२३३ बनिहार धबूर, बबूल, बंबूर निहार-संज्ञा, पु० दे० (हि. वनी+ बपतिस्मा- संज्ञा, पु० दे० ( अं० बैप्टिज्म) हार प्रत्य०) कृषि के कार्यार्थ नियुक्त सेवक । । किसी को ईसाई बनाने का संस्कार (ई.)। बनी-संज्ञा, स्त्री० दे० ( हि० घन ) वन का बपना*1--स. क्रि० दे० (सं० वपन ) बीज एक खंड, वनस्थली, बाग, वाटिका । संज्ञा, श्रादि बोना । संज्ञा, पु० (दे०) वपन, बीज स्रो० ( हि० घना ) दुलहिन, नववधू, स्त्री, बोने का कार्य । नायिका । संज्ञा, पु० दे० ( सं० वणिक् ) | बपु*-संज्ञा, पु० दे० (सं० वपुस् ) देह, रूप, बनिया । संज्ञा, स्त्री० (ग्रा०) कृषि के शरीर, तनु, अवतार । मज़दूरों का मजदूरी में दिया गया अन्न। बपुख-पुष* ---संज्ञा, पु० दे० ( सं० वपुस् ) बनीनी-संज्ञा, स्त्री० ( हि० बनियाँ-ईनी- देह, शरीर।। प्रत्य० ) वैश्य जाति या बनियाँ की स्त्री, | बपुरा, बापुग-वि० दे० (सं० वराक ) बानिनि (ग्रा.)। दुखिया, बेचारा । व्र० भा० बापुरी। बनीर* -संज्ञा, पु० दे० (सं० वानीर ) बेंत । “कहा सुदामा वापुरो-रही । "हम को बनेठी-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि० बन+सं. - बपुरा सुनिये मुनिराई"-रामचं० । यष्टि ) पटेबाज़ों की लाठी, जिसके सिरों | बपौती-संज्ञा, पु० दे० ( हि० बाप-+ौती पर लट्ठ लगे रहते हैं। --प्रत्य०) बाप का धन, पैतृक सम्पत्ति । बनैला-वि० दे० (हि. वन + ऐला-प्रत्य०) “मोरि बपौती बहुबो लैकै कैसे राज करै वन्य, वन-संबंधी, जंगली। स्त्री०-बनैली। परिमाल"-पाल्हा। बनोबास*-संज्ञा, पु० दे० यौ० (सं० बप्पा-संज्ञा, पु० दे० ( हि० बाप ) बापा वनवास ) बनवास । (ग्रा.) बाप, पिता, जनक, बापू (दे०)। बनौटिया-संज्ञा, स्त्री० दे० ( हि० बनावट) बफारा-संज्ञा, पु० दे० (हि. भाफ+ कपासी रंग, कपास के रंग के समान।। आरा--प्रत्य० ) औषधि मिले पानी की बनौठी--वि० दे० ( हि० धन + प्रौठी भाफ से शरीर के किसी रोगी अंग को प्रत्य० ) कपास के फूल जैसे रंग वाला, | सेंकना । "न्यारो न होत बफारो ज्यों धूम कपासी रंग। सों"-देव०। बनोरी-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० वन =पानी बबकना-क्रि० अ० (अनु०) उत्तेजित +ोला ) छोटा ओला, पत्थर । होकर बोलना, उछलना, बमकना (दे०) बनौधा-वि० दे० (हि० बनाना+ौवा " बबकि उठि फूलि बसुदेव रैया"--सूर० । प्रत्य० ) बनावटी, झूठा, दिखावटी। बन्हि - संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० वह्नि) अग्नि, बबर-संज्ञा, पु. (फा०) बवर देश का आग । " पिपीलिक नृत्यति वह्नि मध्ये ।” | सिंह, बड़ा शेर, बब्बर (दे०)। अपंश---संज्ञा, पु० दे० ( सं० वप्रांश ) बपौती, | | बबा–संज्ञा, पु० दे० (हि. पाषा ) बाबा, बाप का धन। दादा, पिता । "चेरी हैं न काहू हम ब्रह्म के बप*-संज्ञा, पु० दे० (सं० वप्र) पिता, | बबा की ऊधो"-ज० श० । बाप, बापा, बप्पा (दे०)। बबुना-चबुवा-संज्ञा, पु० दे० ( हि० बाबू ) बपमार-वि० दे० (हि. बाप+ मारना) जमीदार, रईस, लड़के या दामाद के लिये अपने बाप का मार डालने वाला, सब के प्यार का शब्द । स्त्री० बबुाइन, बबुवानी, साथ धोखा करने वाला । "अंगद क्यों न | बबुई । हनै बपमारै"-रामचं० । | बबूर,बबूल,बंबूर-संज्ञा, पु० दे० (सं०वब्वूर) भा० श. को०-१५५ For Private and Personal Use Only Page #1245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - बबूला १२३४ बयारी काँटेदार पेड़ । “बोवे बीज बबूल के, दाख । अपना दोष न मान कर रुष्ठ हो हठ करना । कहाँ ते खाय"-लो। अ० क्रि० (दे०) बम्हनियाना। बबूला-संज्ञा, पु० दे० (हि. बाउ--गोला)/ बयन-बैन* संज्ञा, पु० दे० (सं० वचन ) बगूला, बवंडर, वायु-चक्र, (दे०) बुलबुला। बात, वाणी, बचन, भयन (दे०)। बबेसिया-संज्ञा, पु० (दे०) गप्पी. प्रलापी, बयना स० कि० दे० (सं० वपन ) बीज गपोड़िया, बवासीर के रोग वाला। बोना । स० क्रि० दे. (सं० वचन ) कहना, बबेमी-संज्ञा, स्त्री० (दे०) अर्श रोग, बवा- बखान करना । संज्ञा, पु० दे० (हि. वैना) सीर रोग। बैन वचन, बैना, इष्ट मित्रों या बंधुनों के बब्बी-संज्ञा, स्त्री० (दे०) चूमा, चूमी, यहाँ उत्सवों पर भेंट या व्यवहार-रूप में चुम्बन, मच्छी। कुछ खाने-पीने की वस्तुएँ भेजना, बायना बभूत-सज्ञा, स्त्री० दे० ( सं० विभूति ) धन, लक्ष्मी, ऐश्वर्य प्रताप, भस्म, भभूत (ग्रा० ।। (दे०)। बम-संज्ञा, पु० दे० ( अंक बाँब ) विस्फोटक बरनी*-वि० दे० ( हि० घयन ) बोलने वाली । “ कहिं गान कल कोकिल बयनी" वस्तुओं से भरा लोहे का गोला । संज्ञा, पु० --रामा० । (अनु० ) शिवोपासकों का बम बम बम बयस--संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० वयस् ) उम्र, शब्द । यो०-बमशंकर, बमभोला। मुहा०-बम बातना या बम बाल अवस्था, वय, बैस (दे०)। | बयस-सिरामनि -संज्ञा, पु० दे० (सं० जाना---कुछ न रह जाना, धन-ऐश्वर्य का वयसशिरोमणि) यौवन, जवानी, युवावस्था । मिट जाना । संज्ञा, पु. ( कनाड़ी बंब = बया-संज्ञा, पु० दे० (सं० वयन - बुनना) बांस ) बग्घी, एक्के आदि के धागे घोड़े रंग-रूप में गौरैया का सा एक पक्षी, इसका जोतने के लिये निकला एक या दो बाँस घोंसला बड़ी चतुरता तथा कौशल से सुन्दर या ल? । मुहा०-बम बजना- लड़ाई बना होता है। संज्ञा, पु० दे० ( अ० बायः में लाठी या अस्त्र चलना । लो० " कबौं न =बेचने वाला) अनाज धादि तौलने वाला। कायर रन चढ़े, कबौं न बाजी बम्"। बमकना-क्रि० अ० दे० ( अनु० ) बहुत बयान-संज्ञा, पु. ( फ़ा. ) हाल, वर्णन, बखान, वृत्तांत, विवरण, पाठ,अध्याय, बयाँ। शेखी या डींग हाँकना, क्रोध में जोर से बोलना। बयाना-संज्ञा, पु. (अ. बै+पाना फ़ा० बमना -स० क्रि० दे० (सं० वमन ) मुंह -- प्रत्य० । किसी बातचीत को पक्का करने से खाये पदार्थों का उगलना, उलटी या के लिये प्रथम से दिया गया कुछ धन, कै करना । सज्ञा, स्त्री० (दे०) बमन । मूल्य या पुरस्कार का निश्चय सूचक अग्निबम-पुलिस-सज्ञा, पु० दे० ( हि० बंपुलिस) मांश, पेशगी। स० क्रि० (दे०) बकना, जन साधारण के लिये म्यूनिसिपैलिटी-द्वारा कहना । " विवस बयाल हो"-रला। निर्मित पाखाना। बयार-बयार*-संज्ञा, सी० (दे०) ( सं० बमुजिब-क्रि० वि० (फा०) अनुसार, वायु ) वायु, पवन, हवा । मुहा०-जैसी मुताबिक, मुश्राफ़िक्त, अनुकूल । बयार बहना-जैसी परिस्थित हो, जैसा बम्हनी-बम्हनौती-संज्ञा, स्त्री० दे० ( सं० स्थान और समय हो। “जैसी बहै बयार, ब्राह्मण ) छिपकली जैसा एक पतला लाल | पीठ तब तैसी दीजै "-गिर०। कीड़ा, नेत्र रोग, आँख की पलक पर फंसी, बयारी-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० वायु) वायु । बिलनी (दे०), (ग्रा.) ब्राह्मण सा दुराग्रह, | "घोर घाम हिम वारि बयारी"-रामा० । For Private and Personal Use Only Page #1246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir बढ़ जाना या बयाला बरजोर संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० विहार ) व्यालू । बरकाज-संज्ञा, पु० दे० यौ० ( सं० वर+ बियारो (ग्रा.)। | कार्य ) व्याह, विवाह. श्रेष्ठ कार्य । बयाला-संज्ञा, पु० दे० (सं० वाह्य + बरकाना--सं० कि० दे० (सं० वारण, वारक) माला ) झरोखा, दिवाल में बाहर झाँकने | निवारण करना, बचाना, बहलाना । की मँझरी, पाला अरवा ( ग्रा०) ताक, | बरख-81-संज्ञा, पु० दे० (सं० वर्ष) किलों में तो लगाने के स्थान । बरस, बरिस (ग्रा० )। बर--संज्ञा, पु० दे० (सं० वर ) दूल्हा, बरखना-क्रि० अ० दे० (सं० वर्षण ) दुलहा, आशीर्वाद-रूपी वचन, बरदान । | बरसना । स० रूप-बरखाना। वि० श्रेष्ठ, उत्तम, अच्छा । मुहा०-वर बरखा-*-संज्ञा,स्त्री० दे० (सं० वर्षा) वर्षा । पड़ना-श्रेष्ठ होना। संज्ञा, पु० दे० (सं० "बरखा बिगत सरद ऋतु श्राई' रामा० । वल ) शक्ति, बल । संज्ञा, पु० दे० (सं० बरखास-वि० दे० ( फा० बरखास्त ) वट ) वट, बरगद का पेड़ । संज्ञा, पु० ( हि० | विपर्जित ख़ारिज नौकरी से छुड़ाया हुआ, बल सिकुड़ना) लकीर, रेखा । मुहा०--- मौकूफ। घर खींचना-- अति दृढ़ता सूचित करना, | बरखास्त-वि० ( फ़ा० ) विसर्जन करना, हठ करना । अव्य० (फा० ) ऊपर । मुहा० मौक, नौकरी से छुड़ाया गया । संज्ञा, -बर आना या पाना--बढ़ कर निक स्त्री०- बरखास्तगी। लना, तु | बरखिलाफ़-क्रि० वि० यौ० (फा० वर+ ठहरना । वि०-बढ़ा चढ़ा, पूर्ण, श्रेष्ठ, खिलाफ-अ० ) विरुद्ध प्रतिकूल, उलटा। पूरा । ॐ अव्य. दे. (सं० वरं ) बल्कि, बरगद ---संज्ञा, पु० दे० (सं० वट) धनी और वरन् बरूक, धरू (दे०)। ठंढी छायादार पीपल की जाति का चौड़े बरई-संज्ञा, पु. (हि. बाड़=घयारी) मोटे पत्तों वाला एक पेड़, वट, बड़ (हि.)। तमोली। स्त्री० बरइनि । स० क्रि० (दे०) बरगदाही--वि० संज्ञा, स्त्री० (दे०) वह बरे, बरण करे। अमावस्या जिसमें स्त्रियाँ वट-पूजन करती हैं। बरकंदाज-संज्ञा, पु. यौ० ( अ०+फा०) | बरगा-संज्ञा, पु० (दे०) कड़ा तख्ता।। तोड़ेदार, बंदूक या बड़ी लाठी रखने वाला बरछा संज्ञा, पु० दे० ( सं० व्रश्चन = काटने सिपाही। वाला ) भाला ( अस्त्र ) । स्त्री० बरछी । बरकत-संज्ञा, स्त्री. (अ.) बहुतायत, बरछत-संज्ञा, पु० दे० (हि० बरछा- ऐतबाहुल्य, यथेष्ठ से, अधिकता लास, प्रत्य० । भाला-बर्दार, बरछा चलाने वाला। ज़्यादती, अधिकता, बढ़ती, प्रसाद, कृपा, बरतन* --संज्ञा, पु० दे० ( सं० वर्जन ) धन-दौलत, समाप्ति, एक की संख्या। रोकना, वर्जन निषेध या मना करना । स. घरकनी-वि० (प्र० बरकत + ई - प्रत्य० ) क्रि० (दे०) बरतना बर्जना। "मैं बरजी बरकत वाला, बरकत-संबंधी, बरकत का। | कै बार तू" वि०। बरकनारे-क्रि० अ० दे० (सं० वारण ) रजन छ--संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० वर्जन , बुरे कर्मों से हटना. बचना, दूर रहना. | रोक, मनाही निषेध, रुकावट । निवारण होना। स० रूप-बरकाना.प्रे० रूप- | बरजबान वि० [फा० कंठस्थ. मुखाग्र. बरकवाना। महजवानी (दे०) क्रि० वि० (दे०) वरबरकरार--वि० यो० (फ़ा० बर + फरार अ०) | जवानी।। स्थिर, अटल, दृढ़, कायम, उपस्थित । बरजोर-वि० दे० (हि० वल+ज़ोर-फा०) For Private and Personal Use Only Page #1247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir बरज़ोरी १२३६ बरना बलवान, प्रबल. ज़बरदस्त, अत्याचारी । से उत्पन्न हो, फोड़ा, फुड़िया, फुसी । “जनु क्रि० वि० (दे०) ज़बरदस्ती, बलपूर्वक । छुइ गयो पाक बरतोरु"-रामा० । बरज़ोरी*-संज्ञा, स्त्री. (फ़ा०) ज़बरदस्ती, बरतौनी--संज्ञा, स्त्री० दे० (हि० बरताना ) बल प्रयोग । क्रि० वि० (दे०) ज़बरदस्ती से, व्याह में कन्या के पिता या भाई का वर बलपूर्वक । यौ०-(वर जो = रोका+री- के बंधु-बांधवों तथा बरातियों में प्रेमोपहारअरो ) रोका, मना किया । यौ० (बर + जोरी) स्वरूप धनादि के वितरण की रीति । अच्छी जोड़ी, वर युग्म | "अति बरजो री | बरद-बरदा--संज्ञा, पु. दे. ( सं० घर्द ) तऊ अति वर जोरी करी, कैसी बर जोरी बैल, बरधा (ग्रा०)। "बर बौराह बरद मीडि रोरी कह्यो होरी है"- रसाल। असवारा"-रामा० । “ज्यों बरदा बनजार बरणना-स० क्रि० दे० (सं० वर्णन ) के फिरत घनेरे देश"---तु० । वि० पु. (स्त्री०) बरनना (दे०) कहना, बखानना। यौ० दे० (सं० बरद, स्त्री० वरदा ) बरदान बरत-संज्ञा, पु० दे० (सं० व्रत ) व्रत, देने वाला देवता या देवी। उपवास । संज्ञा, स्त्री० दे० (हि० बरना= बरदाना--- स० कि० दे० ( वर्द) गाय और बटना) रस्सी। “दीठ बरत बाँधी दिगनि, बैल का संयोग कराना, जोड़ा खिलाना। चदि श्रावत न डरात" कि० वि० (दे० क्रि० अ० ---जोड़ा खाना, संयोग करना । बरना) जलता हुआ। प्रे० रूप-वरदवाना। बरतन-संज्ञा, पु० दे० (सं० वर्तन ) खाने । बरदार-वि० ( फ़ा० ) धारण करने या पीने के पदार्थ रखने की धातु या मिट्टी से माननेवाला, लेने या पालनेवाला, बहन बनी वस्तुएँ, पात्र, भाँडा, मँड़वा (दे०) करने या ढोनेवाला-जैसे-झंडा बरदार । बर्तन, भाँड़ (सं०) बासन (दे०)। बरदाश्त-संज्ञा, स्त्री० ( फा० ) सहन करने बरतना-कि० अ० दे० ( सं० बर्तन ) प्रयोग का भाव या सहन-शक्ति, बरदास (दे०)। में लाना, बरताव या व्यवहार करना। बरदिया-बरधिया-संज्ञा, पु० दे० (हि. स० क्रि०-व्यवहार या कार्य में लाना, बरद-+इया-प्रत्य.) बैलों का चरवाहा । इस्तेमाल या उपयोग करना। बरधा--संज्ञा, पु० दे० (सं० बर्द) वैल, बरतरफ़-वि० यौ० (फा० वर+तरफ़-अ०) तरफ बली-बर्द, बरदा (दे०)। एक ओर, अलग, किनारे, मौकूफ़, बरखास्त, । बरधाना-स. क्रि० प्र० दे० (हि.) नौकरी से अलग। बरदाना। बरताना-स० कि० दे० ( सं० बर्तन= | बरन*--संज्ञा, पु० दे० (सं० वर्ण ) वर्ण, वितरण) बाँटना, वितरण करना। अक्षर, जाति, रंग । अव्य० (दे०)। बल्कि, बरताव, बर्ताव-संज्ञा, पु० दे० (हि० बर्तन । बरुक । वरन् (सं.)। "तुलसी रघुवर नाम या वितरण ) व्यवहार, बरतने का ढंग के, वरन विराजत दोय"। बर्ताव (दे०) बाँटने का भाव । बरनन -संज्ञा, पु. दे. (सं० वर्णन ) बरती-वि० दे० ( सं० वतिन् हि० व्रती) वर्णन, बखान, वृत्तांत बनन (दे०)। व्रत या उपवास करनेवाला, उपासा । संज्ञा, बरनना -स० कि० दे० (सं० वर्णन) स्त्रो० दे० (सं० वी, वस्ति ) बत्ती। बखान या वर्णन करना, बयान करना। बरतोर, बरतोरु-संज्ञा, पु० दे० यौ० (हि० बरना- स० कि० दे० ( सं० वरण ) व्याहना, बाल +तोड़ना) जो फोड़ा-फुसी बाल टूटने | विवाह करना, चुनना, नियुक्त करना, दान For Private and Personal Use Only Page #1248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org बरनी देना । - क्रि० प्र० (दे०) जलना | "लछिमन कहा तोहि सो बरई " - रामा० । बरनी - संज्ञा स्त्री० दे० वि० ( सं० वरणिन् ) वरण किया हुआ, बरोनी । बरपा -- वि० ( फा० ) खड़ा, उठा, मचा हुआ । बरफ़ - संज्ञा स्त्री० दे० ( फ़ा० बर्फ) बर्फ, हिम, तुषार, पाला । बरफ़ी - संज्ञा, ५० दे० ( फ़ा० बर्फ) खोये और चीन से बनी एक मिठाई । १२३७ बरवंड, बरिबंड - वि० दे० (सं० बलवंत ) उद्धत, प्रतापी, प्रचंड, अति बलवान, प्रखर, उद्दंड, बरबंडा* (दे० ) । " श्रति बरबंड प्रचंड हिंड थाखेटक खिल्ले " - - पृ० रा० । बरबट - क्रि० वि० दे० (सं० बल + वट) ज़बरदस्ती बलपूर्वक बिवस, बरवम | " नैनमीन ये नागरनि, बरबट बाँधत श्राय " -- मति० । संज्ञा, पु० (दे०) पिलही, तिल्ली, बाउट (ग्रा० ) | यौ० (हि० वर + वट) अच्छा वट वृक्ष । बरबरी - संज्ञा, स्त्री० ( अनु० ) बकबक झकझक | संज्ञा, पु० – शेर बबर, सिंह, बर्बर, जंगली या असभ्य मनुष्य । बरबस - क्रि० वि० दे० ( सं० बल + वश ) जबरदस्ती, हठात् बलपूर्वक, arr 66 । बर बस लिये उठाइ " - रामा० । बरबाद --- वि० (फ़ा० ) चौपट, नष्ट नाश, ख़राब, तबाह | संज्ञा, स्रो० बरबादी । बरबादी - संज्ञा, स्त्री० (फ़ा०) खराबी, तबाही, नाश। " सादी कहा भई बरबादी भई घर की - " बेनी । बरभमिया - वि० दे० (सं० वरभास) बहुरूपिया, स्वाँगी, वरभासी । बरम – संज्ञा, पु० दे० (सं० वर्म) देह त्राण, कवच, सनाह, जिरह - वक्तर । बरमा - संज्ञा, पु० (दे०) लकड़ी आदि में छेद करने का एक लोहे का बाज़ार । (०) ब्रह्म देश । स्त्री० अल्पा० बरमी । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir बरसना बरमी - संज्ञा, पु० दे० (हि० बरमा + ईप्रत्य०) बरमा देशवासी | संज्ञा, स्त्री० (दे० ) बरमादेश की भाषा, छोटा बरमा हथियार । वि०- ० - बरमा देश का, बरमा संबंधी । रम्हा - संज्ञा, पु० दे० (स० ब्रह्मा ) ब्रह्मा, बरमा या ब्रह्मा देश । बरम्हाना1- स० क्रि० दे० (सं० ब्रह्म ) ब्राह्मण का श्राशीर्वाद देना । बरम्हाव - संज्ञा, पु० दे० (सं० ब्रह्म + श्राव - प्रत्य० ) ब्राह्मण की अशीष, ब्राह्मणख | बरराना, वर्गना - स० क्रि० (दे०) बयाना ( ग्रा० ) प्रलाप या बकवाद करना, स्वझ में " बकना, ऐंठ या ऐंठ जाना । "ब्रह्मब्रह्म कब हूँ Ref बरात हो ऊ० श० । बरबट - संज्ञा स्त्री० (दे०) तिल्ली रोग, बावट (ATO) I बरवा बरवै - संज्ञा, पु० (दे०) १६ मात्राओं का एक छंद ( पिं० ), कुरंग, ध्रुव, मछली फँसाने का काँटा, एक रागिनी । संगी० ) । बरपना** - --- ० कि० दे० (सं० वर्षण ) बरसना | स० रूप- बरषाना, बरषावना प्रे० ० रूप-बरपवाना । रामा० । वरषा, वरिषा - संज्ञा, खो० दे० (सं० वर्षा) बरसा (दे०) वृष्टि, बरसात, बर्षाकाल । "बरषा बिगत सरद ऋतु श्राईबरषासन | संज्ञा, पु० दे० यौ० (सं० वर्षाशन) एक वर्ष के हेतु खाने का सामान । बरस, बरिस - संज्ञा, पु० दे० (सं० वर्ष ) १२ मासों का वृंद, वर्ष, साल, वरप (दे० ) । जियहु जगत-पति बरिस करोरी" -- रामा० । बरसगाँठ - संज्ञा, स्त्री० दे० यौ० (सं० वर्ष ग्रंथि) सालगिरह, जन्म-गाँठ जन्म-दिन । बरसना - स० क्रि० दे० (सं० वर्षण ) मेह पड़ना, पानी गिरना, पानी के समान गिरना स० [रूप बरसाना, स० रूप, बरसवाना प्रे० रूप बरसावना - " बरमहिं जलद भूमि नियराये - रामा० । अधिक मात्रा में सब चोर से थाना, झलकना, प्रगट होना । For Private and Personal Use Only د. --- Page #1249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir बरसाइत १२३८ बराबर मुहा०-बरस पड़ना-प्रति क्रुद्ध होकर बरहीमख*-संज्ञा, पु. दे. यौ० (सं० डाँट-फटकार बताना । भूमा अलग करने को वर्हिमुख ) अग्निमुख, देवता । अन्न को वायु में उड़ाना, ओसाया जाना। बरहौं-संज्ञा, पु० दे० (हि० बारह + औंबरसाइता-संज्ञा, स्री० दे० ( सं० वट+ प्रत्य० ) बारहवें दिन का सूतिका-स्नान, सावित्री) बरगदाही (ग्रा० ) जेठ बदो बरही (दे०)। श्रमावास्या जब वट की पूजा होती है। कैसी बराड, बरह्मांड-संज्ञा, पु० दे० (सं. बरसाइत में भई बर साइतरी-मन्ना। ब्रह्मांड ) ब्रह्मांड, सारा संसार, खोपड़ी। बरसान--- संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० वर्षा ) वर्षा बरह्मावना-स० क्रि० दे० (सं० ब्रह्म। काल, वर्षा ऋतु । 'बरसात गयी बर साथ न भाव ना) आशीर्वाद या असीस देना । सोई"-स्फु०। बरा-संज्ञा, पु. दे० ( सं० वटी ) उड़द की बरसाती-वि० दे० (सं० वर्षा ) बरसात पिसी दाल से बना एक पक्वान्न, बड़ा। संज्ञा, सम्बन्धी. बरपात का, एक प्रकार का कपड़ा पु० (दे०) टाड़, बहुँटा, बाँह का एक भूषण, जिससे वर्षा में शरीर नहीं भीगता।। बरगद, वट वृक्ष । बराई-संज्ञा, स्त्री० दे० ( हि० बड़ाई ) बड़ाई, बरसाना-स० क्रि० ( हि० बरसना का प्रे० प्राधिक्य, श्रेष्ठता। रूप०) वृष्टि या वर्षा करना. वृष्टि-जल सा अधिक गिरना, अधिक मात्रा या संख्या में बराक-संज्ञा, पु. दे० ( सं० वराक ) शिव, युद्ध । विa-बेचारा, नीच, बापुरा, शोचसब ओर से मिलना, डाली देना पोसाना । नीय, अधम । “महावीर बाँकुरे बराकी बरसी-संज्ञा, स्त्री० (हि० परस-+ ई० -- प्रत्य०) बाहुपीर क्यों न. लंकिनी ज्यों लात-घात मृतक का वार्षिक श्राद्ध। ही मरोरि मारिये"-कवि० । बरसौड़ी-संज्ञा, स्त्री० दे० ( हि० बरस+ बराट, बगटक-- संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० प्रौड़ी-प्रत्य०) वार्षिक कर या भाड़ा। वराटिका ) कौड़ी। बरसौहा-वि० दे० (हि० बरसना +ौहाँ.-- बरात-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० वरयात्रा) प्रत्य० ) बरसने वाला । यौ० (वर+ौंह) जनेत, । प्रान्ती० ) वर के साथ कन्या के प्रिय-संमुख । " जाति बरसौहाँ बरलौहाँ यहाँ जाने वाले लोगों का समूह । " लागी लखि बारिद मैं"-मन्ना। जुरन बरात"-रामा०। बरहा-संज्ञा, पु० दे० (हि० बहा ) खेतों में | बहा ) खती में बराली-संज्ञा, पु० दे० (हि० वरात - ईसिंचाई के लिये छोटी नाली। संज्ञा, पु. प्रत्य० ) वर के साथी । विलो०-घराती। (दे०) मोटा रस्सा । संज्ञा, पु० द० (सं० " बने बराती बरनि न जाही"... रामा० । वर्हि ) मयूर मोर, मयूर-शिखा । स्त्री० बराना-अ० क्रि० दे० ( सं० वारण) प्रसग अल्पा.--बरही। पर भी बात न कहना, बचाना, रक्षा करना। बरही-संज्ञा, पु० दे० (सं० वर्हि ) मोर, स० क्रि० दे० ( सं० वरण ) बेराना (ग्रा०)। मयूर, मुर्गा, साही जंतु। संज्ञा, स्त्री० (दे०) छाँटना, चुनना, वाँ फना (दे०)। -स० मोटी रस्सी जलाने की लकड़ियों का बोझ. क्रि० बालना. जलाना जलवाना। बरावना प्रसूता के १२वें दिन का स्नानादि कृत्य, । प्रे० रूप---बरघाना। बरहों (ग्रा०)। बराबर-वि० (फा० गुण मुल्य, मात्रादि बरहीड----संज्ञा, पु० दे० यौ० (सं० में समान, तुल्य, समान, समतल भूमि । वहिंपीड़) मोरमुकुट । मुहा०-बराबर करना--समान या पूरा For Private and Personal Use Only Page #1250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir बराबरी १२३६ करना, समाप्त करना। मुहा० ले-दं कर बरिला-संज्ञा, पु० दे० (हि. बड़ा, घरा) बराबर करना-क्रि० वि० लगातार, सदा, बड़ा या पकौड़ी जैसा एक पकवान । निरंतर, एक साथ, एक ही पंक्ति में। | बरी-संज्ञा, स्त्रो० दे० ( सं० वटी) मूंग या बराबरी-संज्ञा, स्त्री० ( हि० बराबर + ई- | उरद की पिपी दाल की सुखाई हुई छोटी प्रत्य०) तुल्यता, समानता, सादृश्य, सामना, छोटी बटिकायें । वि० (फ़ा०) छूटा हुआ, विरोध, मुकाबिला : " बराबरी कैसे करूँ मुक्त । * वि० (दे०) बली।। पूरी परती नाहिं '-स्फु० । यौ०-बड़ा | बरीसा--संज्ञा, पु० दे० ( सं० वर्ष ) वर्ष, और बरी। साल । “ जीवहु कोटि बरीस"-रामा० । बरामद-वि० (फ़ा०) बाहर श्राया हुआ, परीसना-अ. क्रि० दे० (हि० बरसना) खोई या चोरी गई वस्तु का कहीं से निका- बरसना । लना । संज्ञा, स्त्री० (दे०) निकासी, आमदनी, व –अव्य० दे० (सं० वर = श्रेष्ठ, भला) गंगबरार, दियारा (प्रान्ती)। चाहे, भलेही । संज्ञा, पु० (सं० वर ) वर । बरामदा संज्ञा, पु०(फ़ा०) दालान, ओसारा, “बरु मराल मानस तजै, चंद सीत रबि घर का छाया हुआ बाहर का भाग, छज्जा, घाम"-तुल०। बारजा। बरुग्रा-नरुघा-संज्ञा, पु० दे० ( सं० वटुक) बराय- अव्य० (फ़ा०) हेतु, वास्ते, लिये। ब्रह्मचारी, वट, उपनयन, विप्र-कुमार जनेऊ । जैसे-बगय मेहरबानी। बरुक-प्रव्य० दे० (हि० वरु) चाहे. भलेही। बरायन-संज्ञा, पु० दे० ( सं० वर--- मायन- बरुनी-संज्ञा, स्त्री० दे० ( स० वरण लोमिका) प्रत्य. ) लोहे का छल्ला जो व्याह में वर बरोनी (ग्रा.), पलकों के बाल | "बरुनी पहनता है। बघंबर मैं जोगिनि है बैठी है वियोगिनि बगव-संज्ञा, पु० दे० (हि० बराना--प्राव- की अँखियाँ "-देव०। प्रत्य०) दुराव, बचाव, रक्षा, परहेज़, बराना बरूथी-संक्षा, स्त्री० दे० (सं० वरूथ ) सई, का भाव । स० कि० (दे०) बरावना। गोमती के मध्य की एक छोटी नदी, छोटी बरास-संज्ञा, पु० दे० ( सं० पोतास ) भीम- सेना। सेनी कपूर । बरेंडा--संज्ञा, पु० दे० ( सं० वरंडक ) छप्पर बराह-संज्ञा, पु० दे० ( सं० वराह ) शूकर। या खपरैल के मध्य की मोटी लम्बी शहतीर क्रि० वि० ( फ़ा० ) द्वारा, तौर पर। या ऊपर का मध्य भाग । स्त्री० बरेंडी। बराहरास्त-क्रि० वि० (फा०) ठीक रास्ते बरे*-क्रि० वि० दे० (सं० वल ) बल. पूर्वक या ज़ोर पर, जबरदस्ती, ऊँचे स्वर से। बरिया*-वि० दे० ( सं० वलिन् ) बली। श्रव्य० दे० (सं० वर्त्त ) बदले में, वास्ते, बरियाइ-क्रि० वि० दे० (सं० बलात्) हेतु, लिये। ज़रबदस्ती, बलपूर्वक, हठात् । “दोन्ह राज बरखी-बरेषी--संज्ञा, स्त्री० दे० (हि० बाँह मोकहँ बरियाई"--रामा० । संज्ञा, स्त्री० | -+ रखना ) स्त्रियों का भुज-भूषण । संज्ञा, (दे०) बलवान का भाव । स्त्री० दे० (हि० बरदेखी ) वर देखना, व्याह बरियारा- संज्ञा, पु० दे० ( सं० वली ) बड़े | की ठहरौनी, बर्षी । “व्याह न बरेखीजातिबड़े वीर या बलवान, एक औषधि, खिरंटी, पाँति ना चहत हौं”--गीता० । बनमेथी, बीजबंद । स्त्री० बरियारी! | बरेज--संज्ञा, पु० (दे०) पानवाड़ी, पान का "हारे सकल वीर बरियारा"-रामा। खेत । For Private and Personal Use Only Page #1251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org बरेठा बरेठा - संज्ञा, पु० (दे०) धोबी, रजक । स्त्री० बरेठिन | बरेरा -- संज्ञा, त्रो० (दे० ) पान का खेत, बिरनी, हाड़ा । बरै - संज्ञा, पु० (दे०) बरई तमोली । बरैन – संज्ञा, स्त्री० (दे०) बरइनि, तमोलिन । बरोक - संज्ञा, पु० दे० ( हि० बर + रोक ) बरेच्छा, फलदान, व्याह पक्का करने को कन्या-पक्ष द्वारा वर पक्ष को दिया गया द्रव्य । * संज्ञा, पु० दे० ( सं० बलौक ) सेना । क्रि० वि० दे० ( सं० बलौकः ) जवरदस्ती | बरोठा, बरौठा --- संज्ञा, पु० दे० (सं० द्वार + कोष्ट, हि० बार + कोठा ) पौरी, बैठक, ड्योदी, दीवानखाना, द्वार के निकट की दालान । मुहा० - बरोठे का चार -द्वारपूजा, द्वाराचार (सं० ) । बरोरु* – वि० दे० यौ० (सं० बरोरु) अच्छी जाँघों वाला या वाली । १२४० बरोह - संज्ञा, स्त्री० दे० ( सं० वट + रोह - उगना ) बरगद की जटा, वट-शाखाओं से नीचे लटकी जड़ों जैसी शाखायें जो पृथ्वी पर जम कर जड़ें हो जाती हैं । बरोठा - संज्ञा, पु० दे० (हि० बरोठा, बरेठा ) बरोठा, बरेठा, धोबी 1 बरौनी-संज्ञा, स्त्री० दे० यौ० (सं० वरलोभिका) बरोनी, पलकों के बाल, बरुनी । बरौरी - संज्ञा, त्रो० दे० ( हि० बड़ी, बरी ) बरी या बड़ा नाम का पकवान । बर्क – संज्ञा, स्त्री० (अ०) विद्युत्, बिजली । वि०-चालाक, तेज । बर्ज - वि० दे० (सं० व ) श्रेष्ठ । बर्जना- - स० क्रि० दे० (हि० वरजना) रोकना । वर्णन, बर्नन - संज्ञा, पु० दे० (स० वरून ) बयान, कथन, वर्णन, बरनन । स० क्रि० (दे०) बर्णना । बर्तन - संज्ञा, पु० (दे०) बरतन ( हि० ) । बर्त्तना - स० क्रि० दे० (हि० वरतना) व्यवहार करना, बरतना । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir बल बर्न -संज्ञा, पु० (दे० ) वर्ण (सं०) अत्तर, रंग, जाति बरन । " तुलसी रघुबर नाम के बर्न बिराजत दोय " रामा० । बर्फ़ - संज्ञा, खो० ( फा० ) शीत से नम कर गिरने वाली वायु में की पानी की भाफ, हिम, बरफ, अति ठंढक से जम कर ठोस और पारदर्शक हुआ पानी, कृत्रिम उपायों या मशीन से जमाया जल, दूध या फलों का रस | वि० बर्फीला, त्रो० बर्फीली । बर्फ़िस्तान - संज्ञा, पु० ( फ़ा० ) हिम-स्थल, हिम का देश | बर्फ़ी - संज्ञा, स्त्री० दे० ( फा० वर्फ ) बरफ़ी नाम की मिठाई । बर्बर - संज्ञा, पु० (सं०) वर्णाश्रम - रहित, असभ्य मनुष्य, अस्त्रों की झनकार घुंघराले बाल । वि० - जंगली. उद्दंड, असभ्य | संज्ञा, to बर्बरता, बर्बरी । बबरी - संज्ञा, स्त्री० (सं०) पीला चंदन, वन -तुलसी, ईंगुर । बरक़ - वि० ( प्र०) तेज़ जगमगाता हुआ, चमकीला, तीव्र, चतुर, सफेद | बराना - अ० क्रि० दे० (अनु० वर वर ) व्यर्थ बकना या बोलना, नींद या अचेत होने पर बकना, बड़बड़ाना, बरराना, ऐंठ जाना । बरै, बर्र - संज्ञा, पु० ( सं० बरवट ) ततैया, भिड़, बरैया (ग्रा० ) । " बरै बालक एक सुभाऊ - रामा० । बलद, बुलंद - दे० वि० ( फा० ) ऊँचा । संज्ञा, स्त्री० बलंदो, बुलंदी | बलंद - अकबाल - वि० यौ० ( फा० + अ० ) उच्च भाग्य, भाग्यवान, तक़दीर वाला । बल - संज्ञा, पु० (सं०) शक्ति, जोर, ताकत, सामर्थ्य, बूता, बिर्ता (दे०) भरोसा, आश्रय, सेना, पार्श्व, सँभार, सहारा | संज्ञा, ५० दे० (सं० वलि) मरोड़, ऐंठन, लपेट, मोड़, लहरदार, घुमाव, फेरा शिकन | मुद्दा० - वल्ल खाना - टेढ़ा होना, घाटा या हानि सहना, कुकना, लचकना, चूकना । टेढ़ापन, लचक, For Private and Personal Use Only Page #1252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org बलकट झुकाव, कसर, कमी । बल पड़ना - अन्तर रहना, भेद होना, भूल-चूक होना, सिकुड़न पड़ना । बन्नकट:- वि० (दे०) अगाऊ, पेशगी । बलकना - अ० क्रि० दे० अनु० ) खौलना, उबलना, जोश में थाना. उमँगना, उत्तजित हो उभड़ना । स० रूप- बल काना, प्रे० रूप बलकवाना | बलकारक. बलकारी -- वि० (सं०) पुष्टकारक बल-जनक, बल-वर्द्धक, बलकर । १२४१ बलक-सज्ञा, पु० दे० (सं० वल्कल ) छाल के कपड़े । 'भूमि सयन बलकल 4 'रामा० । कफ, श्लेष्मा । बसन, असन कद- फल मूलबलगम -- संज्ञा, पु० ( प्र०) वि० त्रो० बलग़भी । बलद - संज्ञा, पु० दे० ( सं० वर्द ) बरद (दे०) बैल | वि० बल देने वाला । बलदाऊ, चलदेव - संज्ञा, पु० (दे०) बलराम | बना - अ० क्रि० दे० ( सं० वर्हण ) बरना (दे०) जलना, दहकना । स० रूप- चालना, प्रे० रूप- बलवाना। बलबलाना - अ० क्रि० दे० (अनु० ) ऊँट का बोलना, व्यर्थ बकना, जोश में सगर्व बड़ी बड़ी बातें करना | बलबलाह, बलवती संज्ञा स्त्री० दे० ( हि० बलबलाना ) ऊँट की बोली, व्यर्थ की anas, मिथ्या गर्व या जोश | बलबीर - सज्ञा, पु० ( हि० बल बलराम + वीर = भाई) बलदेव जी के भाई श्रीकृष्ण । "बताओ बलवीर जू के धाम इत कौन हैं ” – नरो० । बलभद्र सज्ञा, पु० (सं०) बलराम जी । बन्भी संज्ञा स्त्री० दे० ( सं० वलभि ) घर में सब से ऊपर वाला कोठा, चौवारा प्रान्ती० ) । बलम बलमा* - संज्ञा पु० दे० (सं० वल्लभ) पति, स्वामी, नायक बालम (दे० ) । बलमीकि संज्ञा, पु० (सं०) बॉबी । भा० श० को ० -१५६ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir बलात्कार बलय - संज्ञा, पु० दे० (सं० वलय) कंकण | बलराम - संज्ञा, पु० (सं०) बलदेव जी बलवंड - वि० दे० ( सं० वलवतः ) बल्ल - वान् प्रतापी, चरखंड (दे०) । बलवंत - वि० (सं० बलवतः ) बली । बलवा संज्ञा, पु० [फा०, विद्रोह, बग़ावत, हुल्लड़, विप्लव, दगा, बलवा (दे०) बलवाई - सज्ञा, प्रत्य० ) विद्रोही, उपद्रवी विप्लवी । बलवान - वि० (सं० बलवत् ) सामर्थ्यवान्, बली स्त्री० बलवती । पु० ( फ़ा० बलवा + ई वार - वि० (५०) बलवान् । बलशाली - वि० (सं०) बली, बलवान् : बलशील --- वि० (सं०) बलवान. शक्तिशाली । बलहा - संज्ञा, खो० (दे०) बोझा, लम्बी और पतली लकड़ियाँ | बलहीन - वि० यौ० (सं०) कमजोर, निर्बल, -रहित । बला - संज्ञा, खो० (सं०) बरियारी नामक पौधा ( औषधि ), पृथ्वी, लक्ष्मी, भूखप्यास, एक प्रकार की विद्या यौ० - बला ति । "बलातिबलाम् चैव पठतस्तातराघव " - वा० रा० । संज्ञा, त्रो० (प्र०) विपत्ति कष्ट, दुःख, वाफत, बलाय (दे०), बुराई व्याधि भूत-प्रेत की बाधा। मुहा० -- बला का अत्यंत, घोर बलाइ बनाय - सज्ञा, स्त्रो० दे० ( ० बला) बला थाफ़त, विपत्ति । बलाक - संज्ञा, पु० (सं०) बक बगुला, बगला । स्त्री० श्लाका । बन्दाका - सज्ञा, स्त्री० (सं०) बगली, बगलों की पंक्ति । वि० स्रो० बलाकिनी । बलाय - संज्ञा, ५० यौ० (सं०) सेनापति, सेना का अगला भाग वि० - बलवान, बली । बलाढ्य - वि० यौ० (सं०) बलवान | बलात् - क्रि० वि० (सं०) हठात् हठ या बल - पूर्वक, ज़बरदस्ती : बलात्कार -- संज्ञा, पु० (सं०) ज़बरदस्ती 3 For Private and Personal Use Only Page #1253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir बलाध्यक्ष १२४२ बलैया किसी स्त्री के साथ हठात् कुछ करना, इच्छा बलि वैश्वदेव-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) गृहस्थ के विरुद्ध संभोग करना। के पंच महायज्ञों में से एक, जिसमें भोजन बलाध्यत-संज्ञा, पु० (सं.) सेनापति। से एक एक ग्रास पृथक रखता है। बलाह-संज्ञा, पु० दे० (सं० वोल्लाह ) बुलाह | बलिष्ठ -- वि० (सं०) अधिक बली। घोड़ा । बलिरंग-संज्ञा, पु० (सं०) अंकुश, चाबुक, बलाहक-संज्ञा, पु. (स.) बादल, मेघ, वानरों का समूह । एक नाग, एक दैत्य, एक तरह का बगला, | बलिहारना-स० क्रि० दे० (हि०) निछावर एक पर्वत ( शाल्मली द्वीप )। " नाहक कर देना । हमारो प्रान-गाहक भयो है यह चातक तू बलिहारी--संज्ञा, खी० दे० ( हि० बलिश्रापने बलाहक बरजि ले"--रमाल हारना ) निछावर, प्रेम, भक्ति, श्रद्धादि बलि--- सज्ञा, पु. (स०) राजकर कर लगान, । के कारण अपने तई त्याग,अात्मोत्सर्ग । भेंट, उपहार, पूजा का सामान, भूतयज्ञ, 'कहहु तात जननो बलिहारी"--- रामा० । चढ़ावा, भोग, देवता के नैवेद्य का पदार्थ मुहा०- बलिहारी जाना (बलिजाना) किसी देवता पर चढ़ाने को काटा गया निछावर होना, बलैया लेना । बलिहारी पशु । " भइ बड़ि वार जाय बलि मैया” | लेना--प्रेम दिखाना, बलैया लेना। - रामा० । मुहा०-बलि बढ़ना (चढ़ाना) बली-वि० ( सं० वलिन् ) बलवान । -मारा जाना ! बलि चढ़ाना-देवता बलीमुख - संज्ञा, पु० यौ० सं० वलिमुख) को भेंट चढ़ाना या पशु वध करना। बलि बंदर । " चली बलीमुख सेन पराई"जाना--बलिहारी जाना, निछावरि होना। रामा०। मुहा०-बाल बलि-जाऊँ-मैं तुम पर बलायान्-वि० (सं०) बलवान । निछावर हूँ। प्रह्लाद का पौत्र एक दैत्य-राज । बलुवा, बलुमा-वि० दे० (हि० बालू ) संज्ञा, स्त्री. (सं० बला) छोटी बहन, सखो। बालू मिला, रेतीला । स्त्री० बलुई। "कहनोई करी बलि मेरो इतो". रसाल। बलूच-संज्ञा, पु. (दे०) बलुचिस्तान के बलित-वि० (सं० बलि) बलिदान किया। मुमलमानों की एक जाति ।। या मरा हुश्रा, हत। बलूचिस्तान-संज्ञा, पु० (दे०) बलूचों का धलिदान-सज्ञा, पु. यौ० । सं० ) देवार्थ एक देश जो भारत के पश्चिम में है। नैवेद्य आदि चढ़ाना, भेंट देना, देवतार्थ बलूची-संज्ञा, पु. (द०) बलूचिस्तान का बकरे आदि पशु का वध, उत्पर्ग निवाली। बलिगशु-सज्ञा, पु० यौ० (स.) देवार्थ | बलून - सज्ञा, पु. ( अ०) माजूफल की बलिदान करने ( किया गया ) का पशु।। __ जाति का एक वृक्ष। बलि पुष्ट-सज्ञा, पु० यौ० ( सं० ) काग, बलूरना--स० कि० (दे०) खुरचना, नाचना। कौना। बलूला--- सज्ञा, पु० (दे०) बुलबुला बुदबुदा। बलिदान-संज्ञा, पु. यौ० (सं०) बलदान। बलैया--सज्ञा, स्त्री. दे. (अ. बला + हि० वलया- वि० दे० ( सं० बल ) बलवान् । चलाय) बला, बलाय। 'बलैया लेहों".--- क. लिरमा-संज्ञा, स्त्री० (सं०) गंधक। रामा० . मुहा. ( किमी की । बलैया भलिवर्द --संज्ञा, पु. (सं०) साँड, बैल। लेना--( किसी का ) रोग, दोष या दुख बलिवेदी-संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) वलि के | अपने ऊपर लेना, मगल या कल्याण चाहते लिये एक निश्चित स्थान या चबूतरा । हुए प्यार करना, प्रारमोत्सर्ग करना । For Private and Personal Use Only Page #1254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir बल्कि १२४३ बसनी बल्कि-प्रव्य. ( फ़ा० ) परंतु. अन्यथा, बचना--स० अ० क्रि० दे० (सं० वपन) बोना इसके विरुद्ध प्रत्युत, और अच्छा है। बिखराना, छितराना कै करना ( सं० वमन) बल्लभ संज्ञा, पु. ( सं०) प्रिय, पति, | | संज्ञा, पु.-वामन, नाटा, बोना (दे०)। स्वामी। बवरना अ० कि. (दे०) बौरना। बल्लभी-संज्ञा, स्त्री. (सं०) प्रिया, प्यारी | बघाभीय -- संज्ञा, स्त्रो० ( अ० । अर्श या गोपी। 'सुरति सँदेप सुनाथ मेटो वल्ल. गुदेन्द्रिय में मस्से होने का रोग ( वै०)। भिन को दाहु"--सूर० । बसंती--वि० दे० ( हि० बसंत ) वसंत ऋतु बल्लम-... संज्ञा, पु. दे० (सं० वल, हि० संबंधी बसत का, पीले रंग का। बल्ला ) छड़, बरछा. सोटा, बल्ला डंडा बमंदर-वैसंघर--संज्ञा, पु० दे० ( सं० राजा के चोबदारों की सोने या चाँदी वैश्वानर ) श्राग। लो० मोरे घर से भागी की छड़ी. भाला। लाये नाँव धरेन बैसंदर" बल्लमटेर-सज्ञा, पु० दे० (अं० वालंटियर) बाप- वि० ( फा०) बहुत, काफ़ी पूर्ण, स्वेच्छा से सेना में भरतो होने वाला पर्याप्त, पूरा । अगल-अलम् (स०) पर्याप्त, स्वयं-सेवक। केवल, काफी । संज्ञा, पु० दे० (सं० वश ) बलनम-बर्दार--संज्ञा, पु० यौ० ( हि० वल्लम | __ आधीन, वश, अधिकार, सामर्थ्य, शक्ति, +-वर्दार फा० ) राजा को सवारी या बरात | बल. जोर। में आगे बल्लम लेकर चलने वाला। | बरती-वस्तो-संज्ञा, स्त्री. ( दे० ) गाँव, बल्लरी-संज्ञा, स्त्री. (सं.) एक प्रकार की आबादी । यौ० गाँव-बस्ती। लता, लता, वल्ली। बसन-संज्ञा, पु० (सं०) कपड़ा, वस्त्र । "रहा बल्ला-संज्ञा, पु. ( सं० वल ) बाँस या न नगर बसन-घृत-तेला”-रामा । और किसी पेड़ का लंबा खंड, नाव खेने का बमना-क्रि० प्र० ( सं० क्सन ) रहना, बाँस, ( डाँड़ ) गेंद खेलने का काठ का निवास करना, श्राबाद होना, डेरा करना, बैट ! अं० ) । स्त्री० अल्पा० बल्ली। ठहरना, टिकना । स० रूप-बसाना, प्रे० रूपबल्ली-संज्ञा, स्त्रो० (सं०) लता। " वृतती बसवाना । महा.-घर बसनातुलतावल्ली-अमर० (दे०) बाँस की लग्बी, । गृहस्थी का बनना सकुटुंब सुखी रहना, छत में लगाने की गोल मोटी लफड़ी। स्त्री-पुत्र समेत होना । घर में बसनावडन-अ० क्रि० दे० ( सं० व्यावर्नन) सुख से गृहस्थी करना । टिकना । महा0-... व्यर्थ फिरना, इधर-उधर घूमना, बौंडना, (हृदय) मन (नैनों आँखों ) में बसना बौंडियाना (ग्रा०) लता का बढ़कर -ध्यान या स्मृति में बना रहना, बैठना, फैलना। पैठना । "बसो मेरे नयनन में नदलाल"। बवंडर-संज्ञा, पु० दे० यौ० (सं० वायुमंडल) अ० क्रि० दे० हि. वासना ) बासा जाना, चक्रवात, बगूला चक्र सी घूमती आँधी, सुगंधि या महक से भर जाना । संज्ञा, पु० पेंचीदा बात । " उधौ तुम बात को बवंडर दे. ( सं० वसन) किसी वस्तु पर लपेटने का बनावो कहा"-रना। वस्त्र, बेठन, वेष्टन । जैसे पन-बसना । बबघुरा*-संज्ञा, पु० दे० (हि० बवंडर ) | चसनि*:--संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. बसना ) चक्रवात, बगूला, बवडर। निवास, बाप, रहनि । बधन - सज्ञा, पु० दे० ( सं० वमन) बसनी-संज्ञा, स्रो० दे० (सं० बसन ) रुपये वमन, कै, उलटी। __ भर कर कमर में लपेटने की पतली थैली। For Private and Personal Use Only Page #1255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir बसवार १२४४ बस्ती, बसती बसवार-संज्ञा, पु० दे० (हि० घास, बघार, वश में या अधीन करने वाला " बसी छौंक। ___ करन इक मंत्र है, परिहरु वचन कठोर " बसवास--संज्ञा, पु० दे० यौ० ( हि० बसना । । -तुल० +वास ) निवास-योग्य परिस्थिति, रहना, बनोठ संज्ञा, पु० दे० (सं० अवसृष्ट संदेया निवास, स्थिति, ठिकाना, ठहरने या टिकने ले जाने वाला दूत धावन । “ तौ बसीठ की सुविधा। पठवा केहि काजा'--रामा० ।। बसवैया-वि० (दे०) बसाने या बसने बमीठी-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि० बसोठ ) वाला। दूत-कर्म, दूतता, दूतत्व । बसर-संज्ञा, पु० (फा०) निर्वाह । यौ० बमीना ----संज्ञा, पु० दे० ( हि० बसना) गुजर-बसर। रहन, रहाइम (दे०)। बसराना-- स० क्रि० (दे०) समाप्त या पूरा प्रसूना-संज्ञा, पु० दे० ( सं० बासि + ला --- करना। प्रत्य० ) लकडी छीलने या गढ़ने का एक बसह-संज्ञा, पु० दे० (सं० वृषभ ) बैल .. लोहे का औज़ार । स्त्री० अल्पा० बसूना। "भरि भरि बसह अपार कहारा"-रामा०।। बसेरा--वि० दे० (हि. बसना बनने या बसा-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० बसा ) चरबी, रहने वाला संज्ञा, पु० - ठहरने या टिकने मेद: संज्ञा, स्त्री० (दे०) बरै, भिड़ । का स्थान, पक्षियों के रात बिताने या रहने बसाना--स० क्रि० दे० (हि. बसना) बसने, । का घोंसला, रहने या टिकने का कार्य या ठहरने या टिकने को स्थान देना, श्राबाद भाव “ना घर तेरा ना घर मेरा जंगल करना । मुहा०-घर बसाना--गृहस्थी बीच बसेरा है - कबीर० । महारजमाना, सकुटुंब सुख से रहने का ठिकाना बमेरा करना-बपना डेरा या निवास ( प्रबंध ) करना, व्याह करना, स्त्री-सहित __ करना, रहना. ठहरना, घर बनाना बसेरा होना । स० कि० दे० ( स० वेशन ) रखना, लेना-रात बिताने को रहना, निवास बैठाना । *अ० कि०—रहना. बसना, करना. टिकना । बसेना दना-पाश्रम ठहरना. दुर्गध देना, गंध-युक्त करना, सुवा- देना सित होना। अ० क्रि० ( हि० वश ) वश बसेरी-वि० दे० (हि० घसेरा ) निवासी, चलना, जोर चलना । " विवि सों कछु न रहने या बसने वाला। बसाय"-रामा० । अ० कि० दे० ( हि० बसैया -वि० दे० (हि. घसना । बसने वास ) महकना, सुवास देना। वाला, बसवेया। बसिौरा-बस्यौरा-रंज्ञा, पु० दे० ( हि० बसोबास--संज्ञा, पु० दे० यौ० ( हि० बास बासी ) बासी भोजन, बसौड़ा (ग्रा.) + आवास ) रहने का स्थान । बासी भोजन खाने की कुछ तिथियाँ बमौंधी-- संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. वास+ (स्त्रियों की)। श्रौधी ) सुधित लच्छेदार रबड़ी। बसीकत-घसीगत-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि.बस्ता- सज्ञा, पु. ( फा०) काग़ज़-पत्र या बसना ) बस्ती, आबादी, रहन, बसने का पुस्तकादि बाँधने का चौकोर कपड़ा, बेठन : भाव या कार्य। | " भागे मुसद्दी तब बंगला ते बस्ता कलम. बसीकर-वि० दे० ( सं० वशीकर ) प्राधीन दान लै हाथ "-श्राल्हा० । या वश में करने वाला। बस्ती, बमती-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० वसति) बसीकरन*--संज्ञा, पु० दे० (सं० वशीकरण) , गाँव, आबादी, निवास, जनपद । " औरों For Private and Personal Use Only Page #1256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Rame बस्तु, बस्तू १२४५ बहरी की तू बस्ती रखे तेरा भी है बस्ता पुरा"। अधिक या यस्ता मिलना, गर्भ गिरना, नष्ट घर बना कर रहने का कार्य या भाव। । होना, डूब जाना ( रुपया श्रादि ) खींच बस्तु-बम्तू- संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० वस्तु ) या लाद कर ले चलना चलना, निर्वाह पदार्थ द्रव्य, चीज । करना, धारण या बहन करना, उठना बस्माना—कि० अ० दे० ( हि० वास ) मारा मारा फिरना, पानी की धार के साथ दुर्गधि देना बनाना चलना, धार या बंद के रूप में निकल बहग'-बँहिंगी-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० चलना. सवित होना स० रूप वहाना । विहगिका ) बोझ ले जाने को तराजू जैसी मुहा०----बहनी गंगा में हाथ धोनाचीज़, काँवर, काँवरि । संज्ञा, पु०-हिंगा । जिपसे लोग लाभ उठा रहे हों उससे लाभ बहाना-क्रि० अ० दे० ( हि० बहना ) सही उठाना। रास्ते से भूल कर अन्य ओर जाना, बहनाण ज्ञा, पु. (हि० बहिन + आपा भटकना, भूलना, चुकना भुलावे में -प्रत्य० ) बहिन का संबंध या नाता। श्रा जाना धोखा खाना, बहलना ( बच्चों | बहान, बानी-संज्ञा, स्त्री. (दे०) प्रवाह, का ) किसी कार्य या बात में पड़ कर बहना अनुजा बहिन, बहिनी। शान्त हो जाना मद या रस में चूर होना, बहना* --- संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० वह्नि) आपे में न रहना, ठीक लघय से धन्यथा, आग, अग्नि जाना । मुहा०-बहकी बहकी बातें बहनु* संज्ञा, पु० दे० (सं० वहन, वाहन, करना-उन्मादी की सी बातें करना, सवारी। चढ़ी-बढ़ी या भुलावे की बातें करना। बहनेती-संज्ञा, स्त्री० दे० ( सं० वहिन ) स० रूप-नद काना, प्रे० रूप-नहकवाना । बहिन से संबंध वाली। बहकाना-स० कि० (हि. बहकना ) सही बहनोई --- संज्ञा, पु० दे० ( सं० भगिनी-पति) स्थान, लक्ष्य या मार्ग से दूसरी ओर ले बहिन का पति, जीजा (प्रान्ती.)। जाना या कर देना, भुलवाना बहलाना, बहरा-बहिग--वि० दे० ( सं० वधिर ) जिसे भरमाना. फुपलाना. बातों से शांत करना। कम या कुछ न सुनाई दे । स्त्री० बहिरी, बहकाव-हकावट --संज्ञा, स्त्री० (हि. बहरी । संज्ञा, पु. बहरापना। बहकोना ) बहकाने का भाव । बहतोल*-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. बहता बहराना-महाना--स० क्रि० दे० (हि. बह+ल-प्रत्य० । पानी बहाने की छोटी राना या बहलाना) दुःख, चिंतादि के भुलवाने नाली, बरहा। वाली मनोरंजक बातें कहना, फुपलाना. बहन-बहान-संज्ञा, स्त्री० दे० ( सं० भग्नी ) भुलाना बहकाना। "कछु बहराइ लगे बहिन । संज्ञा, स्त्री. ( हि० बहना ) बहना कछुक सराहनि से"-रना । क्रिया का भाव । बहरियाना स० क्रि० दे० (हि० बाहर+ बहना-क्रि० अ० दे० ( सं० वहन ) प्रवाहित इयाना प्रत्य०) निकालना. जुदा या विलग होना, पानी श्रादि द्रव वस्तुओं का किसी | __ करना, बाहर करना । कि० अ० (दे०)ओर जाना. हटना. दुर होना, कुमार्गी या जुदा या अलग होना, निकलना। आवारा होना. फिसल जाना, बिगड़ना, बहरी-संज्ञा, स्त्री० ( अ० ) सामुद्रीय बाज वायु का चलना, स्थान या लक्ष्य से सरक जैश एक शिकारी पक्षी। वि. स्त्री० (दे०) जाना, अड़ाना ( पशुओं का ) बुरा होना, | बधिर । For Private and Personal Use Only Page #1257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org बहल, बहली बहन, बहली - संज्ञा, स्रो० दे० (सं० वहन) रथ जैसी छोटी हलकी बैलगाड़ी । खड़खड़िया ( प्रान्ती० ) । बहलना- क्रि० प्र० दे० ( हि० बहलाना ) मनोरंजन होना, प्रसन्न होना, चिन्ता या दुख दूर हो मन का अन्य ओर लगना । बहनाना - स० क्रि० दे० ( फा० बहाल ) मन प्रसन्न करना, मनोरंजन करना, बद्दकाना, भुलावा देना, फुसलाना, चिंता या दुख भुलवा कर चित्त का अन्य ओर या बातों में लगाना । बहलाव - संज्ञा, पु० दे० ( हि० बहलाना ) प्रसन्नता, , मनेारंजन, बहलाने का भाव । बहल्ला - संज्ञा, पु० दे० ( हि० बहलना ) व्यानंद – प्रसन्नता । महस - संज्ञा, स्त्री० ( ० ) वाद-विवाद, तर्क, दलील, झगड़ा, बदाबदी, होड़, खंडनमंडन की युक्ति, हुज्जत वि० बसी । बहसना - ० क्रि० (दे०) बहस या विवाद करना, बदाबदी या होड़ लगाना । बहादुर - वि० ( फ़ा० ) पराक्रमी, शूरवीर उत्साही साहसी । वि० पु० बहादुराना, संज्ञा स्त्री० बहादुरी । बहाना - स० क्रि० दे० ( हि० बहाना) प्रवाह ( धार ) में छोड़ना, लुढकाना, ढालना, फेंकना, प्रवाहित करना. हवा चलाना, गँवाना, धन खोना, व्यर्थ व्यय करना, धार या बूंद के रूप में बराबर छोड़ना, सस्ता बेचना, डालना द्रव वस्तु का नीचे की ओर चलाना या छोड़ना | संज्ञा, पु० दे० ( फ़ा० ) मतलब निकालने या किसी बात | से बचने के लिये झूठ बात कहना, मिस व्याज, हीला, कहने या सुनने का एक हेतु या कारण, स्वार्थ सिद्धि के लिये मिथ्या बात । बदार - संज्ञा, स्त्री० ( फ़ा० ) वसंत ऋतु. यौवन का विकास आनंद प्रफुल्लता मौज, जवानी का रंग, रौनक़ मज़ा, कौतुक, तमाशा ! " बाग़ो बहार प्रतिशे नमरूद १२४६ बहीर को किया " - जौक । यौ० फ़सले बहार । बहाल - वि० ( फा० ) प्रथम के समान स्थित, जैसे का तैसा, प्रसन्न, स्वस्थ, मुक्त | बहाली - संज्ञा, स्रो० ( फ़ा० ) फिर से नियुक्ति फिर उसी पद पर होना | संज्ञा, स्त्री० (हि० बहलाना) व्याज मिस, बहाना । बहाव - संज्ञा, पु० ( हि० बहना ) बहने का Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भाव, प्रवाह, धारा, बहता पानी । बहि - अव्य० (सं० वहिस् ) बाहर | बहिक्रम* संज्ञा, पु० दे० (सं० वयः क्रम ) उम्र, अवस्था । बहित्र - संज्ञा, पु० दे० ( सं० वहित्र ) नाव | बहिन - संज्ञा, स्रो० दे० (सं० भगिनी ) भगिनी, बहिनी | बहियाँ -संज्ञा, खो० दे० (सं० बाहु ) हाथ, बाहु भुजा, बाँह | "करु बहियाँ बल आपनी छाँड़ि बिरानी घास "... - कबीर । बहिरंग - वि० (सं०) बाहिरी, बाहर वाला । ( विलो० - अंतरंग ) । बहरतं*:- अव्य० दे० (सं० वहिः ) बाहर | बहिर्गत - वि० यौ० (सं०) बाहर छाया या निकला हुआ, बहिरागत । बहिर्भमि --- संज्ञा, स्रो० यौ० (सं०) बस्ती या आवादी से बाहर वाली ज़मीन । बहिर्मुख - वि० यौ० (सं०) विरुद्ध, प्रतिकूल, विमुख | बहिलापिका-संज्ञा, स्रो० (सं०) एक प्रकार की पहेली जिसका उत्तर बाहरी शब्दों से प्राप्त होता है ( काव्य ) | ( विलो० अन्तलपिका ) | 1 वहिष्कार - संज्ञा पु० ( सं० ) निकालना, हटाना, बाहर करना । ( वि० बहिष्कृत ) । बही - संज्ञा स्त्री० दे० ( सं० वद्ध हि० बँधी ) हिसाब-किताब लिखने की किताब । बहीर-संज्ञा स्त्री० दे० ( हि० भीड़ ) जनसमूह सेना की सामग्री, तथा उसके साथ के सेवक, सईम, दुकानदार आदि । * * - अव्य० (सं० बहिल ) बाहर | For Private and Personal Use Only Page #1258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १२४७ बहुरूपिया बहु - वि० (सं०) अनेक, अधिक, ज़्यादा, जानकार, बहुज्ञ, बहुत देखनेवाला, बहुबहुत । "बहु धनुहीं तोरेउँ लरिकाई"- सोची। रामा० । संज्ञा, स्त्री० दे० ( सं० बधू ) बहू, बहुधा-कि० वि० (सं०) प्रायः, बहुत करके, बधू, पतोहू, स्त्री। अक्सर, अनेक प्रकार से। बहुगुना-संज्ञा, पु० दे० यौ० ( सं० बहुगुण) बहुनैन-ज्ञा, पु० दे० यौ० ( सं० बहुनयन ) चौड़े मुँह का एक गहरा बरतन, तसला, इन्द्र, सहयात, सहसाखी। तबला (ग्रा०) वि० कई गुना । बहुबाहु. ज्ञा, पु. यो० (सं०) रावण, सहस्रबहुश-वि० (सं०) बड़ा जानकार । संज्ञा, बाहु । "नाहीं तो श्रम होइह बहुवाहू'स्त्री० बहुज्ञता। रामा० । “बहुबाहु जुत जोई ". राम । बहुटनी-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि० पहुँटा) छोटा बहुमत-सज्ञा, पु. यौ० (सं.) बहुत से बहुँटा, बहुँटी (ग्रा.)। लोगों की भिन्न भिन्न सम्मति, बहुत से बहुन-वि० दे० (सं० बहुतर ) अनेक, एक । लोगों की मिल कर एक राय। या दो से अधिक, ज़्यादा यथेष्ठ, काफ़ी, बहुमूत्र--पक्षा, पु. यौ० (सं०) बहुत मूत्र बस, बहु (दे०) । “बहुत बुझाय तुम्हें का ___ होने का एक रोग। कहऊँ'-रामा० । मुहा०-बहुत अच्छा- बहुमूल्य-वि० यौ० (सं०) दामी, कीमती, स्वीकार सूचक वाक्य । बहुत करके- बढ़िया, बड़े दाम का। अधिकतर प्रायः, बहुधा । वहुत-कुछ-कम | बहुरंगा--वि० यौ० (हि. बहुरंग) कई रंगों नहीं। बहुत खूब-बहुत अच्छा, बाह का, चित्र विचित्र, मनमौजी, बहुरूपिया। क्या कहना है । क्रि० वि० अधिक तौल में, बहुरंगी-वि० यौ० ( हि० बहुरंगा-+ ईज़्यादा। प्रत्य० ) अनेक करतब करनेवाला, अनेक बहुनका*-वि० दे० (हि. बहुत-क) । रंगवाला, कौतुकी, बहुरूपिया। बहुत से, बहुतेरे। बहुरना -कि० अ० दे० (सं० प्रघूर्णन ) बहुता-संज्ञा, स्त्री० (सं०) अधिकता । वि.- लौटना, फिरना, वापिस पाना । “गा जुग अधिक, बहुत । बीति न बहुरा कोई"-प० । स० रूप बहुबहुताई-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० बहुता) राना प्रे० रूप बहुरवाना। बहुतायत, बाहुल्य, बहुलता। बहुर-बहुरि -क्रि० वि० दे० (हि० बहुरना) बहुतात-बहुतायत-सज्ञा, स्त्री० दे० (सं० फिर, फिरि, पोछे. उरांत, पुनः । पू० का० बहुता ) ज्यादती, अधिकता। कि० (दे०) लौटकर । "बहुर लाल कहि बच्छ बहुतिथि-वि० यौ० (सं०) बहुत दिनों, कहि."--रामा० । "आगे चले वहरि बहुत समय, बहुतबार ! रघुराई"-...-रामा०। बहुतेग-वि० दे० ( हि० बहुत + एरा-- बहुरा-चौथ-सज्ञा, स्त्री० यौ० (दे०) एक प्रत्य०) अधिक, बहुत सा । कि० वि० (दे०) चौथ का त्योहार जब बहुरी चबाई जाती है। अनेक प्रकार से, बहुत (स्त्री० बहुतेरी)। बहुरिया----सज्ञा, स्त्री० दे० (सं० बधूटी) बहुतेरे- वि० दे० (हि. बहुतेरा) अनेक, बहू, बधू , दुलहिन, नयीबधू । बहुत से (बहुतेरा का ब० व०)। बहुरी-सज्ञा, स्त्री० दे० (हि. भौरना = बहुव--संज्ञा, पु० (सं०) अधिकता। भुनना) भूना हुग्रा खड़ा अनाज, चबैना, बहुदर्शिता-संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) बहुज्ञता। चर्बण। बहुदर्शी--संज्ञा, पु० (सं० बहुदर्शिन्) अनुभवी, । बहुरूपिया-संज्ञा, पु० दे० यौ० (हि० बहु + For Private and Personal Use Only Page #1259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir बहुल १२४९ बाँकिया रूप , स्वाँगी तमाशिया. जो अनेक रूप पशु-पतियों के पकड़ने या मारने का व्ययधरकर दिग्वाता है, जीव, बहुरूपी। साय करने वाला। बहुल-वि० (स.) अधिक, बहुत । बहोर, बहोरिछ-संज्ञा, पु० (हि० बहुरना) बहुलता- संज्ञा, स्त्री० (सं०) बाहुल्य, अधि वापसी, फेरा । क्रि० वि० वारि - फिर । कता, बहुतायत । " कह कर जोरि बहारी" | "फिरति बहोरि बहुला--सज्ञा, स्त्री० दे० (सं० बहुला ) बहोरि"- रामा० । इलायची। बहोरना-- स० क्रि० दे० ( हि० बहुरना ) बहुबचन-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) शब्द का फेरना, लौटाना, वापिस करना। वह रूप 'जससे एक से अधिक वस्तु का बहोरि बहोगां*--अव्य० दे० (हि० बहोर) ज्ञान हो ( व्या० )। फिर, पुनः, पश्चात् को। “पालिष दीन्ह बहारि बहोरी"-रामा० ।। बहुव्रीह-सज्ञा, पु० (स०) ६ प्रकार की वह्मनेटा-संज्ञा, पु० दे० (सं० ब्राह्मण ) समासों में से वह समाल जिसके दो या ब्राह्मण का पुत्र, ( तिरस्कार-सूचक है )। अधिक पदों से बने समस्त पद से अन्य पदार्थ का बोध हो और जो किसी पद का बाँ-संज्ञा, पु० (अनु०) बैल या गाय के बोलने का शब्द । । संज्ञा, पु० दे० (हि० वेर) वार, विशेषण सा हो-(व्या०)। वेर, दफ़ा । "मैं तोसौं कै बाँ कह्यो"-वि० । बहुश्रुत--वि• यौ० (सं०) अनेक विषयों का बांक-संज्ञा, स्त्री० दे० ( सं० बैंक ) बाँह का ज्ञाता, जिसने बहुत सुना हो। एक भूषण, पैरों का चाँदी का एक गहना, बहुसंख्यक-- वि० यौ० (सं०) जो गिनती में एक प्रकार का चाकू , धनुष, हाथ की एक बहुत अधिक हो. अगणित, बहुसंख्यात । चौड़ी चूड़ी। संज्ञा, पु० (दे०) वक्रता टेढ़ाई। बहुँदा--संज्ञा, पु० दे० ( सं० बाहुस्थ ) बाँह वि० (सं० वंक) टेढ़ा. तिरछा, बांका (दे०)। का एक गहना, बहुँटा । स्त्री. अल्पा..--बांकडी- संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० बंक -- डीबहूँटी, बहुँदी। प्रत्य० ) बादले और कलाबत्तू का सोनहला बहू-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० वधू) पतोहू, या रूपहला फीता। पुत्रवधू, पत्नी, दुलहिन । बाँकडोरी-संज्ञा, स्त्री० दे० यौ० (हि० बांक) बहूपमा-संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) एक अर्था- | एक प्रकार का हथियार । लंकार जिसमें एक ही धर्म से एक ही उप | बाँकना- स० कि० दे० (सं० बंक ) टेदा मेय के अनेक उपमान कहे गये हों | करना । —अ० क्रि० (दे०) टेढ़ा होना। (अ० पी०)। बांकपन, बाँकपना. बाँकापन-संज्ञा, पु. बहेड़ा-बहेग--- संज्ञा, पु० दे० (सं० विभीतक, दे० (हि. बाँका । पन--प्रत्य० ) तिरछापन प्रा० बडय) एक पेड़ जिसके फल औषधि या टेढ़ापन, छैलापन : के काम में आते हैं। बाँकड़ा-बाँकरा बाँकुग--- वि० दे० (सं० वंक, हि० बाँका ) बहादुर शूरवीर। बहेतू-वि० दे० (हि. बहना ) मारा मारा बांकडी-संज्ञा, स्त्री० (दे०) एक प्रकार का फिरने वाला, कुमार्गी। गोटा। बहेरी*-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. बहराना ) बांका-वि० दे० ( सं० वंक ) तिरछा, टेढ़ा, मिस, बहाना, होला। अच्छा, चोखा, वीर, छैला, बना-ठना, मुंदर। बहेलिया-संज्ञा, पु० दे० ( सं० वध+ हेला) | बाँकिया-संज्ञा, पु० दे० ( सं० वंक =टेढ़ा ) किरात, व्याधा, हिंसक, शिकारी, चिड़ीमार, | नरसिंहा बाजा। For Private and Personal Use Only Page #1260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org १२४६ बांकुड़ावांकुर बांकुरा " बाँकुड़ा-वांकुर बाँकुरा - वि० दे० (हि० बाँका) पैना, टेदा, बाँका बहादुर, चतुर । पवनतनय प्रति वीर बाँकुरा " - रामा० । बाँकुड़ी - संज्ञा, खो० दे० (सं० वंक) फीता । बाँग - संज्ञा, स्त्री० ( फा० ) नमाज़ का समय सूचनार्थ मुल्ला का मसजिद में अल्लाह यादि ऊँचा शब्द, थज्ञान, पुकार, आवाज, प्रातः समय मुर्गे का शब्द | बाँगड - संज्ञा, पु० (दे०) हरियाना, करनाल, रोहतक और हिसार का प्रांत, हिसार ( प्रान्ती० ) । बोगड - संज्ञा, स्त्री० दे० (दि० बाँगढ़ ) बाँगड़ प्रान्त की बोली, जाट्रभाषा. हरियानी ( प्रान्ती० ) 64 बांगुर-बागुर संज्ञा, ५० (दे०) पशु-पक्षी के फँसाने का फंदा जाल बागुर विषम तुराय, मनहुँ भाग मृग भाग बस " - रामा० । तुलसिदास यह बिपति बाँगुरो तुमहिं तो बनै निबेरे " विन० । 16 बनाएं- - स० क्रि० दे० (सं० वाचन) पढ़ना, पाठ करना | स० क्रि० (दे०) बचना, छुड़ाना, बचाना। स० रूप- बँचाना, प्रे० रूप-बँच वाना । बाँकना चालना - पंज्ञा, त्रो० दे० (सं० वाँ ) इच्छाकामना मनोरथ । -- स० क्रि० (दे०) चाहना, इच्छा करना, छाँटना, चुनना, बीनना । बाँका * - संज्ञा स्त्री० दे० (सं० वाँका) कामना, इच्छा, अभिलाषा । बाँकित - वि० दे० (सं० वाँछित ) इच्छित, अभिलषित । बाँकी - संज्ञा, पु० दे० (सं० वाँछिन् ) चाहने वाला, इच्छा या अभिलाषा करने वाला, श्राकांक्षी । C बाँजर - संज्ञा, पु० दे० ( हि० बंजर ) बंजर, ऊसर । बांझ - संज्ञा, त्रो० दे० ( सं० वंध्या ) बंध्या । बाँझपन बाँझपना - संज्ञा, पु० दे० (सं० भा० श० को० - १३७ बाँधना चंध्या + पन, पना - हि० प्रत्य० ) बंध्यात्व, बंध्या का भाव । 46 बांट - संज्ञा, स्त्री० दे० ( हि० बाँटना ) भाग, खंड, हिस्सा, अंश, बाँटने का भाव । मुहा०-- बाँट पड़ना -- हिस्से में थाना । 'जिनके बाँट परी तरवारि " - श्राल्हा० । बाँटना - १० क्रि० दे० (सं० वितरण ) हिस्सा या विभाग करना या लगाना, हिस्सा देना, वितरण करना, वरताना (ग्रा० ) । बोटा - संज्ञा, पु० दे० ( हि० बाँटना ) भाग, हिस्सा | A बाँड़ा - वि० (दे०) पूँछ -हीन पशु, अकेला, बंडा (ग्रा० ) । स्त्री० बाँड़ी । बाड़ी - संज्ञा स्त्री० (दे०) छड़ी, लाठी, दंडा । वि० [स्त्री० -- पूँछ -हीन, अकेली । बांदा -- संज्ञा, पु० दे० ( फ़ा० बंदा ) सेवक, दास, नौकर, बंदा । त्रो० बांदी | बाँदर - संज्ञा, पु० दे० (सं० वानर ) बंदर, वानर । स्त्री० बाँदरी, बंदरिया | बाँदा - संज्ञा, पु० दे० (सं० बंदाक ) एक प्रकार की वनस्पति जो दूसरे पेड़ों पर उगती और बढ़ती है, बंदाल (ग्रा० ) । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir बादी - संज्ञा, स्त्री० दे० ( फ़ा० बंदा ) दासी, चेरी, लौंडी ! बाँदू - संज्ञा, पु० दे० (सं० वंदी ) कैदी, बंधुवा | बाँध - संज्ञा, पु० दे० ( हि० बाँधना ) नदी तालादि के जल रोकने का मिट्टी, पत्थर आदि से बना घुस्स, बंद, बंध । बांधना -- स० क्रि० दे० (सं० वंधन) घर वादि बनाना, पानी रोकने को बाँध बनाना, जकड़ना, कसना, कुछ जकड़ने या कसने को रस्सी वखादि से घेर या लपेट कर गाँठ लगाना, रोकना, योजना या उपक्रम करना, व्यवस्था, विधान या क्रम ठीक करना, कोई अस्त्र-शस्त्र साथ रखना, नियत या स्थिर करना, पकड़ कर बंद या कैद करना, मन में धरना, नियम, प्रतिज्ञा, शपथ या अधिकार For Private and Personal Use Only Page #1261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir बांधनीपौर १२५० बाईस, बाइस से मर्यादित रखना, मंत्र-तंत्र के द्वारा गति बोला-संज्ञा, पु० दे० (सं० वस - रीड़ ) या शक्ति रोकना, प्रेम-पाश में जकड़ना। नाक के दोनों नथनों के बीच की हड़ी, पीठ बांधनीपौर* --संज्ञा, स्त्री. द. यौ० (हि. को हड्डी, रीढ़। बांधना--पौरि) पशुओं के बाँधने की जगह। बाँसी-संज्ञा, स्त्री० (पु०) दे० ( हि० बाँस ) बांधनू-संज्ञा, पु० दे० ( हि० बाँधना ) उप- एक नरम बाँस, एक धान या चावल । क्रम, मंसूबा, विचार, मनगढंत बात, ख्याली बाँसुरी-संज्ञा, स्त्री० दे० ( सं० वंश+स्वर) पुलाव, भूठा दोष, कलंक, रंगरेज का कपड़ा वशी. बाँस से बना और मुँह से बजाने का लहरियादार रँगाई के पहले वस्त्र में गाँरें। एक बाजा, बसुरी, बाँसुरिया, बसुरिया । लगाना, इस प्रकार रँगी चुनरी, किसी बात बांह-बांही--संज्ञा, सी० दे० (सं० वाहु) को संभव जान तत्सम्बन्ध में पहिले से ही हाथ, भुजा, बाहु, बंहिया (प्रा.)। "बाँह विचार बनाना। छुड़ाये जात हो, जानि आँधरों मोहि"बांधव-संज्ञा, पु. (सं०) बंधु, भाई, नातेदार, सूर० । मुहा०-बाँह गहना या पकड़ना मित्र । यौ०-बंधु-बांधव । -~-सहारा देना, मदद करना, अपनाना, बाँबी-संज्ञा, स्त्री० दे० ( सं० वल्मीक ) साँप ब्याह करना । बाँह दना-सहायता या का बिल, बैबीठा (ग्रा.), साँप का बिल, सहारा देना। यौल-बाँह-बाल-सहायता दीमकों का बनाया मिट्टी का भीटा। देने या रक्षा करने का वचन । बल, सहायक, बाँभन-संज्ञा, पु. दे० (सं० ब्राह्मण) ब्राह्मण, रक्षक, शक्ति । मुहा० -बाँह टूरना--- विप्र, बाम्हन (ग्रा० )। भाई. रक्षक या सहायक न रह जाना, दो बाँधना -स० क्रि० (दे०) रखना। संज्ञा, श्रादमियों के मिल कर करने की एक कसरत, पु० (दे०) बौना, वामन । भरोसा, सहारा, शरण, धास्तीन, कुरते, बांस--संज्ञा, पु० दे० (सं० वंश ) कई पोले कांडों और गाँठों वाला तृण जाति का एक कोट आदि का वह मोहरीदार भाग जिसमें बाँह डालते हैं। महा. बह गहे की प्रकार की वनस्पति पेड़। मुहा० --बॉस पर लाज-रक्षा करने के प्रण को अनेक कष्ट चढ़ना ( चढ़ाना )-बदनाम होना, ! भोगते हुये भी न छोड़ना । “एक बिभीषन (करना)बाँस पर चढ़ाना--बदनाम बाँह गहे की।" करना, बहुत बड़ा देना, अति धादर देकर धीठ या घमंडी कर देना ! बाँसों उछातना बा-संज्ञा, पु० दे० ( सं० वा -- जल ) पानी। ----बहुत अधिक प्रसन्न होना । सवा तीन संज्ञा, पु० (फा० बार ) मरतबा, बार, दका। गन की नाप, लाठी, नाव खेने की लग्गी, बाई-बाय-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० वायु ) वात, रीढ़ । मुहा०--कुवों में बांस छोड़ना रोग । “नाई के बाई भई, राई दई लगाय" खूब ढंढना। -कुं० वि० ला० । मुहा०-बाई की बाँसपूर - संज्ञा, पु० दे० (हि० घाँसपूरना) झोंक--- श्रावेश, वायु का प्रकोप । बाई एक बारीक वस्त्र। नढ़ाना-----वायु का कुपित होना, घमंड से बांसफोड़ा-संज्ञा, पु० यौ० (दे०) एक जाति व्यर्थ बकना करना। बाई पवना-वायु विशेष दोष का शान्त होना, घमंड टूटना । संज्ञा, बांसली-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि० बाँस-+ली- स्त्रो० दे० (हि. बाबा. बाबी ) स्त्रियों के लिये प्रत्य० ) वंशी, मुरली, बाँसुरी, हिमयानी यादर का शब्द, यह कहीं कहीं रंडियों के (प्रान्ती०) । रुपये-पैसे रख कमर में कसने नाम के पीछे बोला जाता है। की जालीदार लम्बी थैली, बसनी। बाईस, बाइस--संज्ञा, पु०दे० (सं० द्वाविंशति) For Private and Personal Use Only Page #1262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org बाईसी, बाइसी बीस और दो की संख्या या तत्सूचक, अंक । वि० जो बीम और दो हो । बाईसी, बाइसी-संज्ञा, त्रो० दे० (हि० बाईस + ई - प्रत्य० ) बाइन पदार्थों का समूह । बाउ-बाऊ - संज्ञा, पु० ६० (सं० वायु) वायु, हवा, बाव, चारा ( प्रा० ) । बाजरी - वि० ६० (सं० वातुल) पागल, बावला, सिडी, सीधा-सादा, मूर्ख, बारा, बौरा (ग्रा० ) गूंगा । " तेहि जड़ बर वाउर कस कीन्हा " रामा० वाएँ-- क्रि० वि० दे० (सं० वाम ) बायें या बाँई र वाम बाहु की थोर । वाचा - वि० दे० (सं० वाक् + हि० चलना ) बक्की, वाचाल, बातूनी । बाकना*बकना । :- ० क्रि० दे० (सं० वाकू ) बाकलां -संज्ञा, पु० दे० (सं० वल्कल ) बकला. कल ! बाकला - संज्ञा, ५० ( ० ) एक बड़ी मटर, एक तरकारी, बकला । १२५१ बाकस -- संज्ञा, पु० (दे०) अडूसा, वासा, रुसा, संदूक, पेटारी, बुरा और फीका स्वाद । वाक, वाका* संज्ञा स्त्री० दे० (सं० वाकू) वाणी, गिरा । बाकी - वि० ( ० ) शेष, बचत, अवशिष्ट । संज्ञा, स्त्री० - दो संख्याथों के घटाने पर बच्ची संख्या दो मानों के अंतर निकालने की क्रिया या विधि ( गणि० ) अव्य० - - परंतु, लेकिन, मगर, किंतु | संज्ञा, स्त्री० (दे०) एक धान | बाखर- बारिक---संज्ञा, स्त्री० दे० ( हि० बखरी ) आँगन, चौक, बखरी ( ग्रा० ) घर । " एकै बाखरि के विरह लागे वास विहान " वि० । "1 बाग़- संज्ञा, पु० (०) बाग (दे०) उपवन, वाटिका । " भूप बाग़ वर देखेउ जाई रामा० | संज्ञा, स्त्री० दे० ( फा० बाग) लगाम, वगा (सं० ) । मुहा० - बाग मोड़ना Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir बाचा ( मरोड़ना) - किसी घोर प्रवृत्त होना या करना, घूमना, चेचक के दानों का मुरझाना । बागडोर - संज्ञा, स्त्री० यौ० (हि०) लगाम में बँधी डोरो, लगाम | बागना -- अ० क्रि० दे० (सं० बक = चलना ) चलना, टहलना, घूमना फिरना । t श्र० क्रि० दे० (सं० वाक) बोलना | बागवान पंज्ञा, पु० ( फ़ा० ) माली । बागवानी -संज्ञा, स्त्री० ( फ़ा० ) माली का कार्य्यं । बागर - संज्ञा, पु० (दे०) नदी का वह ऊँचा, किनारा जहाँ बाद का भी जल कभी नहीं पहुँचता, बांगर (दे०) । (विलो०- खादर) बाँगल - संज्ञा, पु० दे० (सं० बक) बगला as, बगुला, बकुत्ता ( ग्रा० ) । बागा - संज्ञा, पु० दे० (का० बाग) एक प्रकार का अँगरखा, जामा, ख़िलत । बागा बना जरपोस को तामे " - देव० । बागी-- संज्ञा, पु० ( प्र०) राजद्रोही, विद्रोही, बलवाई | संज्ञा, पु० बग़ावत । 66 बागुर - संज्ञा, पु० (दे०) जाल, फंदा | " बागुर विषम तुराय, मनहुँ भाग मृग भाग 35 बस -रामा० । बागुरा - वि० (दे० ) अधिक बोलने वाला, बक्की, बकवादी । बागेसरी - संज्ञा, स्रो० दे० यौ० (सं० बागीश्वरी ) सरस्वती, एक रागिनी ( संगी० ) । बाघंबर, बधंबर - संज्ञा, पु० दे० (सं० व्याघांवर ) शेर या बाघ की खाल एक कंवल । बाघ -- सज्ञा, पु० दे० (सं० व्याघ्र) एक हिंसक जंतु, शेर स्रो० बाघिनी (सं०- व्याघ्रणी) । बाघी - संज्ञा, त्रो० (दे०) गरमी के रोगी के पेड़ और जाँघ के जोड़ की गिलटी | a बाचना! - अ० क्रि० दे० (हि० वचना) बचना | स० क्रि० (दे०) बचाना, रक्षित रखना । "बालक बोलि बहुत 'मैं बाचा" - रामा० । वाचा -- संज्ञा, खो० दे० (सं० वाचा ) वाणी, वचन, वाक्य, वाक् शक्ति, प्रण । " For Private and Personal Use Only Page #1263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir वाचाबंध १२५२ बाजु बाचाबंध-वि० दे० यौ० (सं० वाचावद्ध ) । जाब्ते के साथ, नियमानुसार । वि०-जो प्रणवद्ध, प्रतिज्ञावद्ध, प्रण करने वाला। । नियमानुकूल हो। बाछ, बाँछ-संज्ञा, स्त्री० (दे०) चुनाव, निर्वा-बाजार-संज्ञा, पु० (फा०) जहाँ अनेक प्रकार घन, छाँट । स० कि० (दे०) बाँना- के पदार्थ बिकते हों, बजार-बाजार (दे०), चुनना। हाट पैठ । “बाजार रुचिर न बनै बरनत वस्तु बाछा-संज्ञा, पु० दे० (सं० वत्स, प्रा० वच्छ) बिन गथ पाइये"---रामा० । मुहा०---- गायका बछड़ा, लड़का, बच्छा। (स्त्री० बाजार करना बाजार में चीजें लेना। बाछी)। बाजार गर्म होना-रौनक अधिक होना, बाज-संज्ञा, पु० दे० (अ. बाज़ ) एक गाहकों और माल का अधिक होना, खूब शिकरी पक्षी । " बाज झपट जिमि कार्य चलना । बाजार तेज (मंदा) लवा लुकाने "---रामा० । प्रत्य० (फा०) | हानावस्तुओं का मूल्य बढ़ (घट जाना। जो शब्दों में लग कर रखने, करने, खेलने के । काम जोरों पर होना। बाजार उतरना, शौकीन का अर्थ देती है। जैसे नशेबाज़, गिरना या मंदा हाना--दाम घटना, दगाबाज । वि० (फा० ) रहित, वंचित । वस्तुओं की माँग कम होना, कम काम मुहा०--बाज़ पाना-पास न जाना, त्या- चलना, किसी नियत समय पर दूकाने लगने गना, छोड़ना, दूर होना । बाज़ करना- का स्थान । रोकना । बाज़ रखना-मना करना । वि. बाजारी-वि० ( फ़ा० ) बाजार का, बाजार(अ० बअज विशिष्ठ, कोई कोई, कुछ थोड़े संबंधी, साधारण, अशिष्ट । से। क्रि० वि०-वगैरह, बिना । संज्ञा, पु. बाजारू. बजारू --- वि० दे० ( फ़ा० बाज़ारी ) (सं० बाजिन् ) घोड़ा, बाजी। संज्ञा, पु. बाजारी. मामूली, अशिष्ट । संज्ञा, पु० (दे०) दे० (सं० वाद्य ) बाजा, बाजे का शब्द।। बाजार। बाज़दावा--संज्ञा, पु० यौ० ( फा० ) अपने दावे, अधिकार या स्वत्व का त्याग देना। वाजि-बाजी*-संज्ञा, पु० दे० (सं० वाजिन्) बाजन*-संज्ञा, पु० दे० (हि. बाजा) घोड़ा, पक्षी, बाण, असा या रूसा। वि०-- बाजा । “पुर गहगहे बाजने बाजे"-रामा० । चलने वाला । " बाजि भेष जनु काम बाजना- क्रि० दे० ( हि० वजना ) बाजे बनावा ''-रामा० । “बाज़ीवार बाजी का शब्द करना, बजना (दे०), झगड़ना, पर बाज़ी लग जाति हौ"-मन्ना० । लड़ना, पुकारा जाना, प्रसिद्ध होना, लगना, बाजी-संज्ञा, स्त्री० (फा०) हार-जीत पर कुछ चोट पहुँचना। लेन-देन की शर्त या, दान, दाँच या शर्त के बाजरा, बजरा-संज्ञा, पु० दे० (सं० बर्जरी) साथ आदि से अंत तक पूरा खेल । संज्ञा, पु. एक प्रकार का अन्न । लो० --"बन तपै तो दे० (सं० वाजिन् ) घोड़ा । मुहा०~ बाजी बजरा होय"। मारना (ले लेनः )--दाँव या बाज़ी बाजा-संज्ञा, पु० दे० (सं० वाद्य ) बाद्य, जीतना। बाजी ले जाना-जीत जाना, राग-रागिनी, स्वर-ताल के लिये बजाने की बढ़ जाना, बाज़ी लगाना। संज्ञा, पु० दे० मशीन या यंत्र । यौ०-वाजा-गाजा, (सं० वाजिन् ) घोड़ा। (बाजे गाजे)-बजते हुए बाजों का बाजीगर-संज्ञा, पु. (फा०) जादुगर । संज्ञा, समूह । बाजे गाजे से-धूम-धाम से। स्त्री० बाजीगरी । ( स्त्री० बाजीगरनी। बाज़ाब्ता-क्रि० वि० (फा० ) कानून या बाजु-अव्य० दे० (सं० वर्जन, मि० फा० For Private and Personal Use Only Page #1264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra 1. www.kobatirth.org बाज वाज़ ) बिना मिवा, अतिरिक्त, वग़ैर | संज्ञा, पु० (दे०) बाजू. बाँह । बाज़ -संज्ञा, पु० दे० ( फा० बाज़ ) बाहु, भुजा, बाँह, एक गहना बाजूबंद सेना का एक पक्ष, सदा सहायक चिड़िये के पंख । बाजूबंद - संज्ञा, पु० यौ० ( फ़ा० ) बाँह पर बाँधने का (भुजबंद), गहना, विजायठ. बाजू बाजूवरी! संज्ञा, पु० (३०) बाजूबंद । बाझ - वि० दे० ' हि० बाफना रहित, पेंच | भिस्त न मेरे चाहिये. बाझ पियारे तुझ कबी० ! बानी -- संज्ञा, स्त्री० दे० हि० बझना ) फँसने का भाव, फँसावट, उलझन, बखेड़ा, पेंच । 66 ट बाफना - अ० कि० दे० (हि० बझना) फँसना १२५३ --- उलझना, झगड़ना । बाट- संज्ञा, पु० दे० (सं० वाट) राह, रास्ता, मार्ग । 6 श्रवन, नामिक, मुख की बाटा - रामा० । मुहा० बाद करना मार्ग बनाना | बाट मोहना या रखना -- इन्तजारी करना, प्रतीक्षा करना । बाट काटन "3 बाट - राह तै करना । वाट पड़ना-पीछे पड़ना, तंग करना, डाका पड़ना, घाटा बट्टा ) होना । परै मोरी नाव उड़ाई बाट पारना डाका मारना | संज्ञा, पु० दे० ( सं० वटक ) तौलने का भार बटखरा माप बहा, घाटा, कमी, सिल पर पीसने का पत्थर । चाटना - स० क्रि० दे० ( हि० बाट ) शिल पर लोढ़े से पीसना, पिसान करना । स० क्रि० (दे०) बटना. उबटना -बाँटना । वाटिका -- संज्ञा, खो० (सं०) फुलवारी, वह गद्य जिसमें गुच्छ और कुसुम गद्य सम्मिलित हों । सुमन वाटिका वागवन, विपुल विहंग, निवास " रामा० । वाटी - संज्ञा, स्त्री० दे० ( सं० वटी ) पिंड, गोली, वाटिका, उपल्लों या अंगारों पर "" Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir बाणासुर की एक प्रकार की रोटी, अँगाकड़ी, अंकुरी (दे०) लिट्टी प्रान्ती ० ) । सज्ञा, स्त्री० दे० (सं० बल मि० हि० बटुआ ) कम गहरा और चौड़ा कटोरा, बंटी । वाडव - संज्ञा, पु० (सं०) बड़वानल, बड़वाग्नि वि० बड़वा सम्बन्धी | बाडवानल --- अंज्ञा, पु० यौ० (दे०) बड़वानल (सं०) बड़वाग्नि, बड़बागी । बाड़ा - संज्ञा, पु० दे० ( सं० बाट ) अहाता, पशुशाला मन चोर से घिरा बड़ा मैदान, तोता प्रान्ती") | बाड़ी -संज्ञा, सो० दे० (सं० बारी ) वाटिका मुहा बाढ़, बादि संज्ञा, स्रो० (हि० बढ़ना) वृद्धि, बढ़ाव बढ़ती, ज्यादती, अधिकता, अति वर्षादि से नदी में पानी की अधिकता, सैलाब, जलप्लावन, व्यापार का लाभ, तोपों, बंदूकों का लगातार छूटना। मुहा० - बाढ़ दुगना -तोपादि का लगातार छूटना । संज्ञा, स्त्री० ० (सं० वाट ) ( हि० वारी ) तलवार आदि हथियारों की धार, सान, उत्साह, उत्तेजना। मुहा० - बाढ़ (पर) रखना- उत्तेजित या उत्साहित करना, धार तेज़ करना । बाढ़ना ० क्रि० दे० ( हि० बढ़ना ) बढ़ना बागा - संज्ञा, पु० (सं०) सायक, शर, तीर, शर का अग्र भाग गाय का थन, निशाना, लक्ष्य, अग्नि, पाँच की संख्या. एक बाणासुर दैत्य कादंबरीकार एक कवि, संस्कृत सा० ) " ब्राण न बात तुम्हें कहि श्रावति " - राम० । बाणगंगा - संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) एक नदी । बाणभट्ट संज्ञा, पु० यौ० (सं०) संस्कृत के गद्य काव्य कादम्बरी के निर्माण कर्ता । बाणलिंग संज्ञा, पु० (सं०) नर्मदा नदी से प्राप्त शिव-लिंग ! बाणासुर - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) राजा बलि के सौ पुत्रों में से सर्व ज्येष्ठ, जिसके हज़ार For Private and Personal Use Only Page #1265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir बाणिज्य १२५४ बात हाथ थे। " रावण बाणासुर दोऊ, अति बात पर जाना-बात पर ध्यान देना, विक्रम विख्यात "-रामः । कहने का भरोग करना । बात तक न बागिज्य-संज्ञा, पु० (सं०) गौदागरी व्यापार, पहना ---कुछ भी ध्यान न देना, रंच भी रोजगार, वणिज, बनिज (दे०)। आदर न करना। बात पूछना-खोज-खबर बाणी, बानी--संज्ञा, स्त्री० दे० । सं० वाणी) लेना, श्रादर करना बात बढ़ना - विवाद सरस्वती, भाषा, गिरा, जिला. बोली, वाग। या झगडा हो जाना, किसी विवाद, प्रसंग "वानी जगरानी की उदारता बखानी या घटना का विकट रूप होना : बात जाय"-रामच० । बढ़ाना--बिवाद या झगड़ा करना । बात बात-संज्ञा, स्त्री० दे० ( सं० वार्ता ) वाणी, नाना---बहाना करना, झूठ बोलना, वचन, सार्थक शब्द या वाक्य, कथन । धोखे की बात करना । वातं बनाना -- "तात सों बात कहौं समुझाय के' झूठमूठ बातें करना, बहाना या खुशामद मुहा०-बातों में अाना (पड़ना)- करना । बाता में उड़ाना बातों या हँसी बहकाने या भुलावे में पड़ना । (पुगी )। में ट लना, टाल-मटूल करना । चातों में बात उखाड़ना-(पुरानी) चर्चा छेडना, लगाना- बातों में फँमा रखना । चर्चा, भूली बातों की स्मृति दिलाना, प्रसंग प्रसंग, वर्णन | मुहां-बात उठाना--- उठाना बुरी बातें छेड़ना । जान उठाना चर्चा या प्रसंग चलाना या छेड़ना । बात ( सहना )-~कड़ी बातें सहना बात चलाना या छेड़ना--चर्चा होना. प्रसंग मानना । (बात) कहते बात की बात में- माना । बार लगना-किसी कथन का तुरंत । जात काटना-किपी की बातों के । संकल्प मा दृढ़ होना, बात का प्रभाव पड़ना, बीच में बोलना, बातों का खंडन करना । बात का बुरा लगना । वातागका - बातें गढ़ना--- प्रसन्नकारी चिकनी-चुपड़ी बात चलाना । बात का (के लिये) अच्छी बातें करना, झूठी बातें करना। सरना-अपनी बात रखने का प्रयत्न करना, बात की बात में-तुरंत. झटपट । बात वचनों से अपना महत्व प्रगट करना । ' मरत पर जमना-अपने कथन से न बदलना । कह बात को'-नंद० गत पर मरनाबात ही बात में-बातचीत करने में। अपने कथन या संकल्प की चरितार्थता का " बातहि बात कर्ष बढ़ि गयऊ"--रामा० । पूर्ण प्रयत्न करना. तदर्थ सर्वस्व त्यागना । बात रहना-जो कहा है उसका सही बात पडना-चर्चा छेड़ना । वात प्रवना, होना, वही होना । वात पर श्राना। बात को जड़ पूछना -किसी विषय पर (अडना)-प्राग्रह या हठ करना । बात व्यर्थ कार्य कारण सम्बन्धी प्रश्न करना, (खाली) जाना--प्रार्थना या बिनतो का व्यर्थ खोज करना अफवाह, किम्बदंती, मंजूर न होना, निष्फल जाना । बात से प्रवाद । मुहा-बार उड़ना (उड़ाना)टलना-अपने कथन से हट जाना । बात चर्चा फैलना (निंदा करना) किसी प्रसंग का टलमा-कहना व्यर्थ होना । बार समाप्त होना । दात कहना----सब श्रोर टालना-सुनी अनसुनी करना, किसी बात ख़बर फैलाना, बुरा भला कहना । व्यवस्था, को छोड़ दूपरी छेड़ना। चानना- माजरा, हाल महा.--बात का बतंगड तनिक भी प्रादर या परवाह न करना।। करना (बढ़ाना )-छोटे से कार्य को किसी की बात कहना-सारे प्रसंग व्यर्थ बहुत सा बढ़ा देना । बात पर बात को छोड़ किसी एक ही बात को ले लेना। कहना-उत्तर-प्रत्युत्तर देना । बात का For Private and Personal Use Only Page #1266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir बात बात बबंडर बनाना-व्यर्थ बात को विस्तार बात सोना-प्रतीति या सम्मान गँवाना। देना, बातों की उलझन बढ़ानः । बात न वत न रहना--साख या विश्वास न प्रछना-दशा पर कुछ विचार न करना, रहना । (किसी की) बात जाना-प्रतिष्ठा ध्यान न देना, प्रादर न करना। बात या विश्वास जाना। वात खोना-साख बढ़ना (बढ़ाना)--किसी बात का भयंकर बिगाड़ना. वचन का निष्फल कराना। बात रूप में (विस्तृत) प्रगट होना (करना), बनन! ---- कार्य सिद्ध होना, विश्वास रहना, झगड़ा होना। बात बनना-काम पूर्ण प्रतिष्ठा पाना । चिता, परवाह, प्रतिष्ठा, रूप से बनना या ठीक हो जाना यथेष्ट रूप इजत । "मुहा०-काई बात नहीं--- से सफलता होना. अच्छ। परिस्थिति या कुछ चिंता या परव ह नहीं। बात जाना-- स्थिति होना, मतलब पूरा होना । बात इजत जाना । बात बनाना (सँघारना --- बनाना या सँवारना-कार्य बनाना या | कार्य सिद्ध करना । बान बनना-अभीष्ठ सिद्ध करना । रात बात पर या (भात | प्राप्त होना, काम बनना, इज्जत मिलना, बात में ) --हर एक कार्य में । बात बोल बाला होना, अच्छी दशा होना, त्रिगड़ना-विफलता होना. कुछ बुराई श्रादेश. गुण योग्यतादि का कथन, उपदेश । होना कार्य नष्ट होना । वर्तालाप, गपशप, रहस्य प्रशंसा की बात, उक्ति, तात्पर्य, घटित होनेवाली दशा वाग्विलास संदेवा, गूदार्थ, चमत्कृत या वैचित्र पूर्ण वचन । प्राप्त संयाग, परिस्थिति । महा-नाता मुहा० .. बात माना- गूढार्थ जान जाना। बातों में--पाधारण बात में, बातें करते प्रश्न. समस्या इच्छा. ढंग, विशेषता, समय : "बातों बातों में बिगड़ जाता था अभिप्राय, कथन का सार मर्म कर्म व्यवहार, वह। बार ठहरना की हमा-विवाह श्रा चरण, लगाव, कार्य, सम्बन्ध, गुण, या सम्बन्ध स्थिर होना. कुछ तय करने चिता. परवाह. प्रवृत्ति पदार्थ, लक्षण, को उसकी चर्चा होना। बाता में श्राला स्वभाव, मामला, घटना, विषय, उपाय, या जाना - कथन से धोखा खाना, व्यवहार कर्तव्य, मूल्य । सज्ञा, पु० (दे०) बात । से ठग जाना । धोखा या भुलावा देने या कि० वि० (हि०) क्या बात है (अच्छी फँसाने को कहे हुए शब्द या किये हुये बार है)। यौ०-लम्बी चोड़ी बातेंव्यवहार, बहाना, प्रतिज्ञा, मिस, झूठ या झूठी शान या गर्व की बातें । बड़ी बातबनावटी कथन, प्रतिज्ञा, वादा, बहाना, कठिन कार्य, सराहनीय, महान या श्रादर्श वचन, हठ । मुहा०-बान का धनी या काम, प्रशंसा, महिमा, महत्ता । छोटी पक्का या पूरा- दृढ़ प्रतिज्ञ, प्रणपालक । बाल - तुच्छ या नीच कार्य, निंदित या यौ० की-(विलो. कच्ची बात) बात- अनुचित कथन, अपमान-जनक श्राचारठीक निश्चित या सत्य बात । मुहा०-वात व्यवहार । साधारण बात -सरल या पकी करना-सम्बन्ध व्यवहारादि स्थिर मामूली काम ! गुहा कोई बात करना, दृढ़ निश्चय करना, तय करना प्रतिज्ञा नहीं कोई चिंता या परवाह नहीं, कोई (संकल्प) पुष्ट करना । (अग्नी ) बात कठिन काय नहीं। बात पड़ने पर- प्रसंग ना-वचन या प्रतिज्ञा पूर्ण करना। या अवसर थाने पर। बहत बडी बात अपना हा बात रखना-अपना ही हठ कहना-लज्जा या अपमान-जनक वाक्य रखना । बान हारना-घचन देना मामला, कहना, गूढ़ या गंभीर भावपूर्ण विचारणीय हाल, प्रतीति, विश्वास, लाख । मुहा०- वाक्य कहना । पते मार्के की बात For Private and Personal Use Only Page #1267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir बातचीत १२५६ बादहवाई गूढ़ (रहस्य) या मर्म-वाक्य, उपयुक्त या ठीक बादना --स० क्रि० दे० सं० बाद + नाकथन, विचारणीय या स्मरणीय वचन। प्रत्य०) वेदना, तर्क-वितर्क या वकवाद हलकी या शोड़ बान-छोटी बात, साधा- करना तकरार करना. शर्त लगाना, अलग रण या स्वल्प कार्य । विलो० भारी बात)। करना, ललकारना, हुजत करना। फबती बात-व्यंग्य या ताने का कथन, ! बादघान--संज्ञा, पु० (फा०) पाल । खटकनेवाला वचन । साते कहना--क्रोध बादर, बदरा*-संज्ञा,पु० दे० (सं० वारिद) से बकना, बुरा-भला कहना । संज्ञा, पु. बद्दल (ग्रा० बादल, मेघ । स्त्री०-वादरी (दे०) वायु, देह के ३ गुणों (वायु, पित्त, (बदरी)। वि० (दे०) प्रपन्न. हर्षित, कफ में से एक ) यौ० वात रोग-वायु- आनन्दित । " कादर करत मोहिं बादर नये रोग। ज़हरबात - वायु-विकार जन्य एक रोग (वैद्य०) । ला०--" बातै हाथी पाइये, बादरायगा --संज्ञा, पु. (सं०) वेदव्यास । बातै हाथी पाँव"। महा---यात वनी बादरिया -- संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. घदली) होना साख, प्रतिष्ठा या मर्यादा का स्थिर | बदली, बदरी, बदग्यिा ग्रा० ।। रहना, अच्छी दशा होना।। बादल-संज्ञा, पु० दे० (सं० वारिद ) मेघ, बातचीत-संज्ञा, स्त्री० यौ० ( हि० बात-1- बादर ...थाकाश में शीत से धनी होकर चिंतन ) वर्त्तालाप, परस्पर कथोपकथन । छा जाने तथा गर्मी से बूंदों के रूप में बाति, बाता संज्ञा, स्त्री० दे० ( हि० वत्ती ) गिरनेवाली पृथ्वी के सागरों की भाफ । वत्ती, दिया की बत्ती. वर्ती सं०) । “दीप मुहा० ---बादल उठना या चढ़नाबाति नहि टारन कहहूँ"--रामा० । यौ० बादलों का किसी ओर से घिर आना। बानी-मिनाई-ब्याह में दीपक की दो बादल गरजना-बादलों का टकरा के बत्तियों को मिलाने की रस्म । बाती रना शब्द करना । बादल घिरना-मेघों का (बत्तो लगाना)-- विस्फोटक पदार्थो में | चारों ओर से भली भाँति छा जाना। बत्ती से अग्नि-संचार करना । — भरी भराई बादल करना-पाकाश साफ हो जाना। सुरंग माँहि दोन्ही जनु बातो'. रत्ना० .बादला- संज्ञा, पु० दे० ( हि० पतला) सोने, बातुल वि० दे० ( सं० बातुल ) सनकी, चाँदी का चिपटा तार, कामदानी का तार, सिड़ी, पागल । एक रेशमी कपड़ा । 'आँखें मल करके जो बानियाँ-नातूना-वि० दे० ( हि० बात --- देख तोहै इक बादला पोश"--सौदा० । ऊनी-प्रत्य०) बकवादी, बही, गप्पी, वाचाल, वाचाट । बादशाह-संज्ञा, पु. ( फ़ा०) पादशाह बाथ-सज्ञा, पु० (दे०) गोद, अंक, गोदी (फ़ा०) बड़ा राजा, स्वतंत्र शासक, मनमानी बाद-संज्ञा, पु० दे० (सं० वाद) तर्क, विवाद, करनेवाला, शतरंज का एक मुहरा, ताश बहस, झगड़ा, शर्त, बाज़ी, पृथक विलग । का एक पत्ता। मुहा० -- बाद मेनना-बाज़ी लगाना। बादशाहत-- संज्ञा, स्त्री० (फा० ) राज्य, भव्य. (अ०) पश्चात, पीछे, अनंतर । शासन, हुकूमत । अव्य. द० (सं० बाद। निष्प्रयोजन, व्यर्थ, बादशाही-संज्ञा, स्त्री० (फा०) राज्य. वृथा । वि०-अलग किया गया, छोड़ा हुकूमत, शासन, स्वतंत्रता, मनमाना, हया, दस्तूरी कमीशन. सिवाय अतिरिक्त। व्यवहाराचार । वि०-बादशाह सम्बन्धी। संज्ञा, पु० (फ़ा०) वायु, बात, हवा, पवन ।। बादहवाई-क्रि० वि० यौ० ( फा० बाद + यो०-बाद-सबा --प्रभात-वायु । हवा--- अ०) फ़ज़ल, व्यर्थ, निरर्थक, यों ही। For Private and Personal Use Only Page #1268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir बादाम १२५७ बाना बादाम-संज्ञा, पु. (फा०) बड़े कड़े छिलके अड़चन, दुख या कष्ट, संकट । “निमि हरि और मींगीवाला एक मेवा, उसका वृक्ष । सरन न एकउ बाधा "-रामा० । बदाम (दे०)। “सोहत नर,नग त्रिविधि ज्यों, । बाधित - वि० (सं०) विघ्न या बाधा-युक्त, बेर, बदाम, अँगूर" ..." मोरचा मखमल | रोका हुश्रा, जिसके साधन में विघ्न या में देखा श्रादमी बादाम में"। रुकावट पड़ी हो, असंगत, तर्क-विरुद्ध, बादामी-वि० ( फा० बादाम-1-ई-प्रत्य०) | ग्रसित, गृहीत । बादाम के छिलके के रंग या श्राकार का, वाध्य-वि० (सं०) रोकने या दबाने के योग्य, कुछ लालिमा लिये पीतवर्ण का । संज्ञा, पु. जो रोका या दबाया जाने वाला हो, विवश --एक तरह की छोटी डिब्बी, एक पदी होने वाला, पाचनीय । किल-किला, बादाम के रंग का घोड़ा। बान-संज्ञा, पु० दे० ( सं० वाण ) तीर, शर, बादि-ग्रव्य० दे० (सं० वादि ) फ़जूल, बाण, एक तरह की अग्नि-क्रीड़ा या पातशनाहक, व्यर्थ । “ नतरु बाँझ भलि बादि बाजी, ऊँची लहर, । संज्ञा, स्त्री० (हि० बनना) बियानी"-रामा० । वेश-विन्यास, बनावट, शृंगार, सज-धज, बादिनि-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० वादिनि )- स्वभाव, टव ( ग्रा०) । “करधरि चक्र चरन बोलनेवाली, झगड़ालू । की धावनि नहिं बिसरति वह बान-सूर० । बादी - वि० (फ़ा०) वायु-सम्बन्धी, बात- संज्ञा, पु० दे० ( सं० वर्ण) काँति, श्राभा। विकार सम्बन्धी, वायु रोग का पैदा करने संज्ञा, पु० दे० (सं० बाण ) बान, हथियार । वाला। संज्ञा, स्त्री०-बात-रोग, वायु-विकार। संज्ञा, पु० (दे०) गोला। बादुर--संज्ञा, पु. ( दे०) चमगीदड़ । ' ते बानइता- वि० दे० (हि० वान --- इत-प्रत्य०) विधना बादुर रचे, रहे अधरमुख भूलि" बान चलाने वाला, तीरंदाज़ योद्धा, -कबी०। सिपाही, बहादुर, बानत । बाध-संज्ञा, पु. (सं०) अड़चन, रुकावट, बानक-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि० बनाना) भेस, बाधा, पीड़ा, मुश्किल, कठिनाई, अर्थ की __ सजधज, वेश, बननि । " यहि बानक मो संगति न होना, व्याघात, वह पक्ष जो मन बसहु, सदा बिहारी लाल"। साध्य-रहित सा ज्ञात हो ( न्याय०)। बानगी-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि० बयाना) संज्ञा, पु० दे० ( सं० वद्ध ) मूंज की रस्सी। नमूना । " है नमूना, बानगी, अटकल "बाध वाधकताभियात् '-भ० गी। कयास "-खा० बा० । बाधक-संज्ञा, पु० (सं०) विघ्न-कारक, विघ्न बानर-संज्ञा, पु० दे० (सं० वानर ) बंदर । डालने या बाधा पैदा करने वाला,दुखदायी। वि०-वानरी, स्त्री० बानरी । “ सपने बाधकता-संज्ञा, स्त्री० (सं०) विघ्न, बाधा, बानर लंका जारी"- रामा० । रुकावट, अड़चन । बामरेन्द्र-संज्ञा, पु० दे० यौ० (सं० वानरेन्द्र) बाधन-संज्ञा, पु. (सं०) विघ्न, वाधा या सुग्रीव, बानरेश । " बानरेंद्र तब कह कर रुकावट डालना, दुख या कष्ट देना । ( वि० | जोरी"-स्फु०। बाधित, वाध्य, बाधनीय)। बाना-संज्ञा, पु० दे० (हि० बनाना) पोशाक, बाधना-स० कि० दे० (सं० वाधन) रोकना, पहनावा, भेष, रूप, चाल, स्वभाव, रीति, विघ्न या बाधा डालना, दुख देना । " तिन | बाण । 'बाना बड़ा दयाल को, छाप तिलक को कबहूँ नहिं बाधक बाधत"- स्फु०। श्री माल " " देखि कुठार सरासन बाना" बाधा-संक्षा, स्त्री० (सं०) रुकावट, विन, रोक, -रामा० । संज्ञा, पु० दे० (सं० वाण ) भा. श० को०-१२८ For Private and Personal Use Only Page #1269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir बाबा वानावारी भाला या तलवार जैसा सीधा, एक दुधारा बानूसा-नानूसी--संज्ञा, पु० (दे०) एक हथियार । संज्ञा, पु० दे० (सं० वयन = बुनना) वस्त्र विशेष । बुनमा, बुनाई, बुनावट, कपड़े में ताने के बानत-संज्ञा, पु. ६० ( हि० वाना+ऐत --- पाड़े तागे, भरनी (ग्रा.), पतंग उड़ाने प्रत्य० ) बाना फेरने या बाण चलाने वाला, की डोरी। स० कि० दे० (सं० व्यापन ) सैनिक, तीरंदाज़ । संज्ञा, पु० दे० (हि. फैलने और किसी सिकुड़ने वाले छेद को बाना ) बाना धारण करने वाला। फैलाना। बाप -- संज्ञा, पु० दे० ( सं० बाप =बीज बोने बानावारी*--संज्ञा, स्त्री० दे० (हि० वान + वाला ) पिता. जनक, बापा, बप्पा, बापू आवरी-फा० प्रत्य.) तीरंदाजी, बाण चलाने (दे०) । मुहा०-याप-दादा - पूर्व पुरुष । की विद्या, कमनैती। माँ, बार (बाप-माँ)-रक्षक, पालक, बानि --- संज्ञा, स्त्री० दे० ( हि. बनना या पोषक, माई-बाप, (दे०)। बनाना , सजधज, बनावट, स्वभाव, टेंव। बापिका चापी*--- संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० “ बिसराई वह बानि"-- वि० । संज्ञा, स्त्री० वापिका ) बावली। दे० (सं० वर्ण ) आभा, कांति !*~संज्ञा, बापुरा-बापुरो-वि० दे० (सं० बर्वर = स्त्री० दे० (सं० बाणी ) बोली, वाणी, बात, तुच्छ ) अकिंचन, नगण्य, तुच्छ, बेचारा, गिरा, वचन, सरस्वती। यौ० धाली-बानो। दीन । स्त्री० बापुरी। 'का बापुरो पिनाक बानिक-संज्ञा, स्त्री० दे० सं० वर्णक या पुराना "-रामा ! हि. बनना ) बनाव, सिंगार, वेश, सजधज, बापू-संज्ञा, पु. ६० (हि. बाप ) बाप, भेस, बानक । " बानिक वेश अवध बनरे पिता, बाबू, बापू, बापू, चापा (दे०)। को”-रघु०। " देखे बानिक श्राजु को बाका-- संज्ञा, स्त्री० दे० ( हि. भाफ़ ) भाफ, बारौं कोटि-अनंग"-- ललित। वाम (सं.)। बानिन-संज्ञा, स्त्री० दे० ( हि० बनियाँ) वाता-संज्ञा, पु. ( फ़ा० ) बूटीदार एक बनियाँ की स्त्री, पनीनी (प्रा.)। रेशमी वस्त्र । "खादो, धातर, बानता, लोहबानियाँ-बनिया-संज्ञा, पु. दे० (सं० वणिक तवा समसेर'-नीति । व्यापारी, दूकानदार, मोदी। 'बैरी, बँधुग्रा, बाय-संज्ञा, पु. ( अ०) अध्याय, परिच्छेद । बानियाँ, "ज्वारी, चोर, लबार"-गिर। बाबत-संज्ञा, स्त्री० (अ.) विषय में, मध्ये, बानी-संज्ञा, स्त्री० दे० ( सं० वाणी ) गिरा, | संबंध में । वाणी, वचन, सरस्वती, प्रतिज्ञा, साधु-बाबर-संज्ञा, पु० (तु० ) बबर, बड़ा शेर, शिक्षा, जैसे-कबीर की बानी, मनौती, एक अकबर बादशाह का दादा, बब्बर (ग्रा०) । अस्त्र, बान, गोला संज्ञा, गु० दे० (सं० वि०-बाबरी- बाबर-सम्बंधी, बाबर की। वणिक) बनियाँ । संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० वर्ण ) बाबा-संज्ञा, पु. (तु. ) पिता का पिता, चमक, कांति । संज्ञा, पु. ( अ०) प्रवर्तक, पितामह, दादा, बबा (७०) पिता, जड़जमाने वाला, चलाने वाला । संज्ञा, स्त्री० श्रेष्ट मनुष्य, बूढ़ा, साधुओं के लिये श्रादर(दे०) वाणिज्य । “बानी जगरानी की उदा. सूचक शब्द, सम्बोधन का साधारण शब्द, रता बाखानी जाय"-राम। " राम | जैसे--अरे बाबा । संज्ञा, पु० दे० ( अ. मनुज बोलत अस बानी".-- रामा०। । बबी ) बच्चा, लड़का । " चेरी हैं न काहू बानूबा-संज्ञा, पु० (दे०) जल-पक्षी। हम ब्रह्म के बबा की ऊधौ "-उ० श० । For Private and Personal Use Only Page #1270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir बाबी १२५६ बार बाबी*-संज्ञा, स्त्री० (हि. बाबा ) संन्या- (अ० वयाना ) अगाऊ, बयाना । " थाजु सिनी, साधु स्त्री, छोटी बच्ची, दादी। भले घर बायन दोन्हा"-रामा० । बाबुल-संज्ञा, पु० दे० ( हि० वाबू ) बाबू। मुहा०-चायन देना-छेड़छाड़ करना । बाबू-संज्ञा, पु० दे० ( हि० बाबा ) राज- वायत्र-- संज्ञा, पु० दे० (सं० वायव्य) वायव्य वंशीय या रईस क्षत्रियों का प्रतिष्ठा-सूचक कोण । क्रि० वि० (दे०) अलग, दूर, अन्य, शब्द । यौ० राजा-बान-श्रादर सूचक शब्द, दूपरा । स० कि० (दे०) बनियाना। भला मानुप, पिता का संबोधन शब्द, चायबिडंग --संज्ञा, पु० दे० (सं० विडंग) दप्तर का क्लर्क ( मुन्शी) या हाकिम, एक पेड़ जिसके काली मिर्च से कुछ छोटे बवुया (दे०) । स्त्री. बबुआइन । फल औषधि के काम आते हैं। " धूम बाबूना-संज्ञा, पु. ( फा०) एक छोटा पौधा बायबिडंग को करि वायु-शूल मिटाइये"जिसके फूलों से तेल बनता है। वै० भुष. बाभन-संज्ञा, पु० दे० (सं० ब्राह्मण ) ब्रह्मण बायबी-वि० दे० ( सं० वायवीय ) बाहरी, भूमिहार, बाँभन, बाम्हन (दे०)। अपरिचित, अजनबी, नवागंतुक । वि० (दे०) वाम-वि. द. ( सं० वाम ) दाहिने के वायव्यीय, वायव्य कोण का। विरुद्ध, विरुद्ध, प्रतिकूल । संज्ञा, स्त्री० बायव्य -- संज्ञा. पु० (सं०) वायु-कोण, पश्चिम बामता : संज्ञा, पु० (फा०) कोठा, अटारी। और उत्तर के मध्य का कोण । वि० (सं०) संज्ञा, स्त्री० दे० ( हि० बामा ) स्त्री। "भयो वायु सम्बन्धी बाम बिधि, फिरेउ सुभाऊ'' - रामा। बायाँ बाँवा-वि० दे० ( सं० वाम ) दाहिने " स्थामा बाम सुतर पर देखी " | " बाम का विरोधी, वाम किसी प्राणी की देह का ह ह्र बामता करै है, तौ अनोखी कहा, वह पार्श्व जो पूर्व भिमुख होने पर उत्तर नाम निज बाम चरितारय दिखावै है" की ओर हो । ( लो० बाई । मुहा०-रसाल । बायाँ देना-- बचा कर निकल जाना, बाय-बाव-वि० दे० (सं० वाम ) बायाँ, जानबूझ कर छोड़ देना। उलटा, विरुद्ध, बाम, चूका हुआ, लघर या दाँव पर न प्रतिकूल । यो दाहिना-बायाँ । संज्ञा, पु. बैठा हुा । मुहा०—याय देना-छोड़ दे० (सं० वामीय ) बायें हाथ से बजने देना, बचा जाना, कुछ ध्यान न देना, तरह, वाला तबला।। देना, फेरा लगाना, चक्कर देना। बायें-क्रि० वि० दे० (हि० बायाँ ) वाम बाय*-संज्ञा, स्त्री० दे० ( सं० वायु) वायु, थोर, विपरीत, विरुद्ध, प्रतिकूल । यौ० बाई, बात रोग । " नाग, जलौका, बाय" दाहिने-वायें। जे बिन काज दाहिने-बाँयें" -~-वैद्यक० । संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० वापी) -रामा० । मुहा०-बायें (वाम) बावली, वापिका, बेहर (प्रान्ती०)। होना-प्रतिकृल या विरुद्ध होना, अप्रसन्न बायक-संज्ञा, पु० दे० ( सं० वाचक) दूत, होना। धावन, कहने, पढ़ने या बाँचने वाला, बायो-स० क्रि० (दे०) फैलाया, पसारा । बताने वाला। बारंवार-कि० वि० दे० ( सं० वारंवार ) बायन-बायना*----संज्ञा, पु० दे० ( सं० पुनः पुनः, बार-बार, लगातार, निरंतर । वायन ) उत्सवादि पर बंधुवों या मित्रों के बारंबार सुता उर लाई''-- रामा० । यहाँ भेजी गई मिठाई आदि, भेंट, उपहार, बार-संज्ञा, पु० दे० ( सं० वार ) ठिकाना, बइना, बैना (ग्रा० )। संज्ञा, पु० दे० श्राश्रय, द्वार, दरवाज़ा, दरबार । संज्ञा, स्त्री० For Private and Personal Use Only Page #1271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir बारगह-बारगाह १२६० बारहमासा दे० (सं०) मरतबा, दफा, विलंब, देरी। ते किम् मम हा प्रयासानंधा यथा वार बेर, समय । “जात न लागी वार"-रामा। वधू-विलासान्"-वै० जी० । महा०-बार बार --- फिर फिर । वार बार-बरदार -- संज्ञा, पु. यौ० (फा०) बोझा लगाना-विलंब करना, देरी लगाना। ढोने वाला। किनारा, धार, बार बरदारी-संज्ञा, स्त्री० ( फ़ा० ) सामान किसी स्थान के चारो ओर का घेरा, धार, | ढोने का काम या मज़दूरी। बाढ़ : संज्ञा, पु० (दे०) बाल । संज्ञा, पु. बारमुखी-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० वार मुख्या) दे० ( सं० वाल ) लड़का, स्त्री यौ० बाल रंडी, पतुरिया. वेश्या। "वारमुखी कल बच्चा । संज्ञा, पु० दे० (फा० मि० सं० भार) मंगल गावहि "--रामा० । बोझ, भार । वि० (दे०) बाला, बाल। बारह-वि० दे० (सं० द्वादश) बारा (ग्रा०) बारगह-बारगाह-संज्ञा, स्त्री० दे० (फा० बारगाह ) ड्योढ़ी, द्वार, तंबू, डेरा, खेमा । दो अधिक दश, द्वादश, आभूपण । वि० बारहवाँ । मुहा०-बारह बाट करना बारजा-संज्ञा, पु० दे० ( हि० बार द्वार) या घालना-नष्ट-भ्रष्ट या छिन्न-भिन्न या द्वार पर का कोठा, अटारी, द्वार के ऊपर इधर-उधर कर देना, तितर-बितर करना । बढ़ाया हुआ पाट कर बना बरामदा, बारह बाट जाना या होना-तितिर. कमरे के धागे छोटा दालान । बितर होना, फुट-कैल होना, नष्ट-भ्रष्ट बारतिय, बारतिया - संज्ञा, स्त्री० दे० होना। संज्ञा, पु०- बारह की संख्या या (सं० वारस्त्री ) वेश्या, रंडी, पतुरिया, अंक ( १२ )। वारवधू। बारह-बड़ी-संज्ञा, स्त्री० दे० यौ० (सं० बारदाना-संज्ञा, पु. ( फा० ) व्यापार के द्वादशाक्षरी) व्यंजनों में से प्रत्येक के वे पदार्थों के रखने के पात्र, सेना के खाने- बारह रूप जो स्वरों की मात्राओं के योग पीने की सामग्री, रसद, राशन (अ.)। से बनते हैं। बारन*--संज्ञा, पु० दे० (सं० वारण) बारहदरी-संज्ञा, स्त्री० ( हि० बारह-+दरी. मनाही, रोक, निषेध, वाधा, कवच, हाथी। फा० ) वह खुला हुश्रा कमरा जिसमें तीन "बारन बाजि सरस्थै"-राम। तीन द्वार चारों ओर हों। बारना-अ० क्रि० दे० (सं० वारण ) रोकना, बारहवान-संज्ञा, पु० दे० (सं० द्वादशवर्ण) निषेध या मना करना, निवारण करना।। बहुत ही बढ़िया एक तरह का सोना।। स० क्रि० दे० (हि० वरना) जलाना, बालना। बारहवाना-वि० दे० (सं० द्वादश वर्ण ) स० क्रि० दे० (सं० वारन) निछावर करना। सूर्य के समान चमकने वाला, बहुत ही "धारौं भीम भुजन पै करण करण पर- बढ़िया सोना, खरा, चोखा, सच्चा, निदोष, भुष। पक्का, पूर्ण । बारनारी-संज्ञा, स्त्री० दे० यौ० (सं० वार- बारहवानी-वि० दे० (सं० द्वादशवर्ण ) नारी ) वेश्या, रंडी, पतुरिया । " साह न सूर्य सा चमकने वाला, चोखा, खरा, सच्चा बसन बिना बरनारी"। | सोना, निषि, पक्का । संज्ञा, स्त्री०-सूर्य बारबधू, बारबधूटी-संज्ञा, स्त्री० दे० यौ० की सी दमक । (सं० वारवधू ) वेश्या, रंडी । “ बारवधू बारहमासा- संज्ञा, पु. यौ० दे० (हि.) नाचहि करि गाना"-रामा० । 'ज्ञास्यन्ति। वह विरह-गीत या पद्य जिसमें प्रत्येक महीने For Private and Personal Use Only Page #1272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir बारहमासी १२६१ बारूद की प्राकृतिक दशा का वर्णन वियोगी- बारिगर*-संज्ञा, पु० दे० ( हि० बारी+ द्वारा हो। गर ) सिकलीगर, हथियारों में धार रखने बारहमासी - वि० ( हि.) बारहो महीने वाला। होने वाला. सदा-बहार, सदा फल, सब बारिधर-सज्ञा. पु० दे० यौ० (सं० वारिधर) ऋतुओं में फलने-फूलने वाला। मेघ, बारिद, वारिध, बादल, एक वर्ण वृत्त बारहवाँ-बारहाँ-वि० (हि. ) ग्यारहवें (पिं० )। के बाद वाला। | बारिश- संज्ञा, स्त्री. (फा०) बरसात, वर्षा बारहसिंघा-बारहसिंगा-संज्ञा, पु० दे० ऋतु. वर्षा वृष्टि।। यौ० ! हि० बारह + सींग ) एक प्रकार का बारी- संज्ञा, स्त्री० दे० ( सं० अवार ) तट, हिरण, जिसके कई सींग होते हैं। किनारा हाशिया, खेत, बाग श्रादि के चारों बारहा-क्रि० वि० ( फा० ) कई वार, कई पोर की मेंड. घेरा, बाढ़, बरतन के मुँह का मरतबा, बारम्बार, बहुग, बहुतेरा । 'बारहा घेरा, श्रौंठ धार ! संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० वाटी) दिल से कहा पर एक भी माना नहीं' क्यारी. बाटिका, फुलवारी, घर, मकान, झरोखा, खिड़की, बंदरगाह । संज्ञा, पु. एक बारहीं.--संज्ञा, स्त्री० दे० ( हि० बारह जन्म जाति जो दोना-पत्तल बनाती है। संज्ञा, से बारहवे दिन का पुत्र-जन्मोत्सव, बरही, स्त्री० ( हि० बार ) बेर, पारी, (ग्रा० )। बरहौं ( ग्रा.)। क्रमानुगत अवर. मौका । मुहा०--बारी बारा-वि० दे० ( सं० वाल ) बालक, छोटा बारी से -- काल या स्थान के क्रम से एक बच्चा । संज्ञा, पु० दे०-लड़का, बालक । के बाद एक । बारी बाँधना (लगाना)संज्ञा, पु० (दे०) बारह । कि० वि० (दे०) बेर, क्रमानुसार श्रागे पीछे प्रत्येक का पृथक पृथक विलंब । “ अति सुकुमार तनय मम बारे' समय नियत कर देना। वि० (दे०) कम उम्र -रामा०। 'सो मैं करत न लाउब बारा" की । संज्ञा. स्त्री० (हि. बार = छोटा ) -रामा०। कन्या, लड़की, बच्ची, नवयौवना। संज्ञा, बारात-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० वरयात्रा) स्त्री० (दे०) कान की बाली। वर या दूल्हे के साथ उसके बंधु-बांधवों या बारीक-वि• (फ़ा०) महीन, पतला, सूक्ष्म, मित्रों का जुलूस, वर-यात्रा, बरात (दे०)। जो कठिनता से सोचा समझा जावे, जिसके वि०-बागती, बराती। बनावट में कला पटुता तथा दृष्टि सूचमता प्रगट हो । संज्ञा, स्त्री० बारीकी। बारान, बारां-संज्ञा, पु० (फ़ा०) मेह, बादल, बारीकी-संज्ञा, स्त्री० ( फ़ा०) महीनता, बरसात । सूधमता, दुर्बलता, खूबी. गुण, विशेषता। बारानी-वि० (फ़ा०) बरसाती ! संज्ञा, स्त्री. बारुनी-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० वारुगो) वह पृथ्वी जहाँ बरसात के पानी से ही मदिरा, दारू (दे०)। खेती हो, बरसात में पानी से बचाने वाला बारू-संज्ञा. पु० दे० ( सं० बालुका ) बालू । कपड़ा। बारूद-संज्ञा, खो० दे० तु० बाख्त ) तोप बाराह-संज्ञा, पु० दे० ( सं० बराह ) शूकर।। या बंदूक छुड़ाने का मसाला या बुकनी, बाराहीवेर-संज्ञा, पु० दे० यौ० (सं० वराह + एक तरह का धान, दारू (प्रान्ती० )। बदर ) औषधि विशेष, नेत्रवाला। मुहा० --गोली-बारूद-लड़ाई का बारि - संज्ञा, पु० (दे०) पानी, वारि (सं०)। ! सामान । For Private and Personal Use Only Page #1273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org बारे बारे - क्रि० वि० (फ़ा० ) निदान, अंत या श्राख़िर को | संज्ञा, पु० बालक, लड़के, बच्चे | "भैया कहहु कुसल दोउ बारे "-- १२६२ ,, बालक -- रामा० । रामा० । बारे में - श्रव्य० दे० ( फा० वारा + में हि०) बालखोरा - संज्ञा, पु० (दे०) सिर के बाल विषय या सम्बन्ध में, प्रसंग में । झड़ने का रोग, गंजरोग | बारोठा - संज्ञा, पु० दे० (सं० द्वार ) बरोठा, बालगोविंद - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) बालव्याह में वर के द्वार पर थाने के समय की एक रस्म । 16 बाल -- संज्ञा, पु० (सं०) बालक लड़का, बच्चा, मूर्ख, नासमझ । स्रो० बाला । यौ०बाल-बच्चे, बाल-गोपाल | संज्ञा, त्रो० बाला, नवयौवना स्त्री । वि० जो छोटा हो, पूरा न बढ़ा हो, थोड़ी देर का हुआ या प्रगटा । संज्ञा, पु० (सं०) लोम, केश । बाल बिलोकि बहुत मैं बाँचा " - रामा। मुहा०बाल बाँका ( देहा) न होना- कुछ भी हानिया कष्ट न होना । बाल न बाँकनाबाल बाँका न होना। नहाते बाल न खिसना - हानि या कष्ट कुछ भी न होना । ( किसी काम में) बाल एकाना - बहुत दिनों का अनुभव प्राप्त ( काम करते करते ) बूढ़ा हो जाना। बाल बाल बचना - विपत्ति या हानि पहुँचने में थोड़ी ही कसर रहना, साफ या बिलकुल बच जाना | संज्ञा, स्त्री० (दे०) बाली, कुछ अनाजों के डंठलों के धागे का खंड जिसमें दाने रहते हैं । करना | बालक - संज्ञा, पु० (सं०) शिशु, बच्चा, पुत्र, लड़का, अज्ञान, नादान, केश, बाल, हाथीघोड़े का बच्चा । " कौशिक सुनहु मंद यह बालकता - संज्ञा, स्त्री० (सं०) लड़कपन | बालकताई -संज्ञा, स्त्रो० दे० (सं० बालकता + ई० - ० प्रत्य, वाल्यावस्था, नादानी । बालकपन - संज्ञा, पु० ( सं० बालक + पनप्रत्य० ) लड़कपन, नादानी | Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir बालम बालकृष्ण - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) बालक कृष्ण, लड़कपन के कृष्ण, बाल-गोपाल | बालखिल्य - संज्ञा, पु० (सं०) अँगूठे के बराबर के ऋषियों का समूह ( पुरा० ) । कृष्ण । बालग्रह - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) बालकों के मारक नौ ग्रह (वै०, ज्यो० ) । बालवड, बालवर - संज्ञा, स्त्री० (दे०) जटामासी औषधि | बालटी - संज्ञा, स्त्री० दे० ( ० बकेट ) एक हलका डोल । बालतंत्र - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) कौमारभृत्य, दायागिरी, संतान -पालन विधि | बालतोड़, बलतोड़ - संज्ञा, पु० द० यौ० ( हि० बाल + तोड़ना) बाल टूटने से हुआ फोड़ा, बरतोर (प्रा० ) । वालधि, बालधी-संज्ञा, पु० (सं०) पूँछ, दुम | " बालधि घुमात्रे भरावे याग चारों श्रर' - कवि० । बालना, वारना - स० क्रि० दे० (सं० ज्वलन ) जलाना । प्रे० रूप-बलवाना। बालपन बालापन - संज्ञा, पु० (सं० बाल + पन- प्रत्य० ) लड़कपन, शिशुपन । बाल-बच्चे - संज्ञा, पु० यौ० (सं० बाल --- बच्चा हि०) लड़के बाले थौलाद । बाल-विधवा -- संज्ञा, स्त्री० (सं०) छोटी अवस्था की रंडा स्त्री | संज्ञा, पु० (सं० ) बाल- वैधव्य | बालबोध - संज्ञा, खो० यौ० (सं०) शिशु-ज्ञान, देवनागरी लिपि । बालभोग - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) प्रातःकाल का नैवेद्य जो देवताओं या बालराम चौर कृष्ण की मूर्तियों के श्रागे रक्खा जाता है । बालम - संज्ञा, पु० दे० (मं० वल्लभ ) प्रिय For Private and Personal Use Only Page #1274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir बालमखीरा १२६३ बालूसाही तम, प्रेमी, स्वामी, पति । " बालम बिदेश | बालाखाना-संज्ञा, पु. यौ० (फा०) मकान तुम जात हो तो जाउ किंतु " - पद्मा०।। या कोठे के ऊपर का कमरा या बैठका । बालमखीरा संज्ञा, पु. (हि०) एक तरह बालापन--संज्ञा, पु. ( हि०) बालापन । का बड़ा खीरा । बालावर--संज्ञा, पु० (फ़ा०) एक अँगरखा । बालमीकि-संज्ञा, पु० दे० ( सं० वाल्मीकि) बालाक - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) प्रातःकाल आदि काव्य रामायण के कर्ता एक मुनि। या कन्पाराशि का सूर्य, बालरवि । बालमुकंद-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) शिशु- बालि-संज्ञा, पु. (सं०) सुग्रीव का भाई कृष्ण । " रोवत है अति बालमुकंदा"- और अंगद का पिता, किष्किंधा का राजा । वृज वि० । "नाथ बालि अरु मैं दोउ भाई"-रामा० बाललीला--संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) बच्चों बालिका--संज्ञा, स्त्री० (सं०) कन्या, पुत्री, का चरित या खेल। छोटी लड़की। बालवत्स-संज्ञा, पु. (सं०) कबूतर, छोटा बालिग-संज्ञा, पु. (अ.) प्राप्तवयस्क, बछवा, लड़कों पर दयालु । | जवान. युवा । ( विलो०- नाबालिग)। बालविधु-संज्ञा, पु. यौ० (सं०) शुक पक्ष चालिश-संज्ञा, स्त्री. फा०, तकिया। वि० की द्वितीया को चंद्रमा । " भाले बालविधु (२०) अज्ञान, मूर्ख, अबोध, बालिस (दे०)। र्गलेचगरलं यस्योरमिव्यालराट"..-रामा०। बालिश्त -- संज्ञा, पु० (फा०) बित्ता, बीता। बालसुख-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) लड़कपन बालिस-वि० दे० ( सं० बलिश ) मूर्ख । का सुख, बालकों का आनंद । बाली--संज्ञा, स्रो० दे० (सं० बालिका ) बालसूर्य-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) प्रातःकाल कान का एक गहना, बारी (दे०)। संज्ञा, का सूर्य, बालरवि। स्त्री० दे० ( हि. वाल ) जौ, गेहूँ श्रादि की बाला-संज्ञा, स्त्री० (सं०) युवती, १२ या १३ वर्ष से १६ या १७ वर्ष तक की बाल । यौ०-सुट्टा चाली। संज्ञा, पु० दे० जवान स्त्री, स्त्री, पत्री, औरत, दो वर्ष की (सं० वालि ) बालि नामक वानर । 'बाली रिपुबल सहइ न पारा'-रामा० । कन्या, पुत्री, १० महाविद्याओं में से एक महाविद्या, एक वर्णिक छंद ( पिं० ), हाथ बालुका--- संज्ञा, स्त्री० (सं०) वालू. रेत । का कड़ा, वलय । वि० (फा०) जो ऊपर बालू, बारू-संज्ञा, पु० दे० (सं० वालुका ) हो, ऊँचा । " सुबाला हैं दुशाला हैं पहाड़ों से बह पाकर नदियों के तटों पर विशाला चित्रशाला हैं '--पमा० । मुहा० जमा हुआ पत्थरों का बारीक चूर्ण, रेणुका, बोल बाला रहना-मान-सम्मान सदा बालुका, रेत । 'अम्बर उम्बर साँझ के अधिक होना । संज्ञा, पु. ( हि० बाल ) जो ज्यों बारू की भीत"-वृं० । मुहा०लड़कों के समान हो, सरल, निष्कपट, बालू को भोत शीघ्र नष्ट होने वाला श्रज्ञान । यो०-चाला-भोला-भोला पदार्थ, अस्थायी वस्तु या कार्य। भाला, बहुत ही सीधा सादा । वि० (फा०) बालूदानी-संज्ञा, स्त्री० दे० यौ० (हि. ऊपर का, ऊपरी, आय से अतिरिक्त । बूलू + दानी-फा०) झंझरीदार डिबिया जिसमें बालाई-संज्ञा, स्त्री० (फा० वाला--- ई०-प्रत्य०) बालू रखते हैं और स्याही सुखाने का कार्य गर्म दूध का ऊपरी सारांश, सादी, मलाई। लेते हैं। वि० ( फ़ा० ) ऊपरी, ऊपर का, वेतन के बालूसाही-संज्ञा, स्त्री० दे० यौ० (हि. अलावा। बालू + शाही-फा० ) एक मिठाई । For Private and Personal Use Only Page #1275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir बाल्य बासा बाल्य-संज्ञा, पु० (सं०) बचपन, लड़कपन, ओर का, बायाँ, विरुद्ध, प्रतिकूल, वाम। संज्ञा, बालक होने की अवस्था। वि० (सं०) बालक पु० (दे०) बायाँ तबला । का या लड़कपन का। | बाशिंदा-संज्ञा, पु. (फा०) रहने वाला, बाल्यावस्था-संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) लड़क- निवासी। (ब. २०-वाशिदगान ।) पन, १६ या १७ वर्ष तक की अवस्था, बाप्प-संज्ञा, पु० दे० (सं० वाष्प ) भात, बाल्यकाल। भाप, अश्रु, आँसू, लोहा, बाक (ग्रा०)। यौ०बाव-संज्ञा, पु० दे० (सं० वायु) वायु, बाप्पकण-प्रभु-कण ( विंदु०)। पवन, अपानवायु, हवा, पाद बाउ (ग्रा०) बास--- संज्ञा, पु० दे० ( सं० वास ) निवास, बावड़ी---संज्ञा, स्त्री० दे० (हि० बावलो)। स्थान, रहने की जगह, गंध, महक, एक छंद बावली। (पिं० ), कपड़ा वस्त्र, रहने का भाव । बावन-संज्ञा, पु० दे० (सं० वामन ) छोटे संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० वासना ) इच्छा । संज्ञा, शरीर का मनुष्य, बौना, बामन का अवतार। पु० दे० ( सं० वसन ) कपड़ा, छोटा वस्त्र । संज्ञा, पु० दे० (सं० द्विपंचाशत ) पवास और संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० वाशिः ) अग्नि, पाग, दो की संख्या, ५२ । वि. पचास और एक हथियार, पैने चाकू छुरी श्रादि छोटे दो। "हरि बाढ़े आकाश लौं, बावन छुटा अस्त्र जो तोपों के द्वारा फेंके जाते हैं। न नाम "-रही । मुह---वाचन "वरु भल बाम नरक कर ताता"- रामा० । तोले पावरत्तो--बिलकुल ठीक, सही या बासकसजा संज्ञा, स्त्री० (सं०) वह नायिका दुरुस्त । बावनवोर--बड़ा शूर-वीर या जो स्वामी या प्रियतम के श्राने पर केलि. बहादुर, बड़ा चालाक । लो०--- 'एक बेर सामग्री उपस्थित करे या सजावे । डहकावै, सो बावनवीर कहावै '- घा० । बासन-संज्ञा, पु० (सं०) वरतन-भाँडा, वस्त्र, बावर, बावरा*/- वि० दे० (हि. बावला) कपड़ा । यौ० भंडवा-बासन । “बदलत पागल, सिड़ी, बावला, बौरा, पाउर (ग्रा० ।। वाहन, बासन सबै"- राम चं० । "लेहि न संज्ञा, पु. (फा०) विश्वास । “बावरो बासन वपन चुराई".-रामा० । रावरो नाह भवानी"-विन० : बासना-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० वासना) बावरची-संज्ञा, पु० (फा० ) रसोइया इच्छा, अभिलाषा, मनोरथ । स० क्रि० (दे०) (मुसल०)। सुगंधित या सुवासित करना, महकाना, वास बावरची-ख़ाना-संज्ञा, पु० यौ० (फ़ा.) देना । संज्ञा, स्त्री० (सं०वास) गंध, महक, बू । भोजनालय, रसोईघर (मुसल०)। बासमती- संज्ञा, पु. ( हि० वास = महक + बावला-वि० पु. दे० ( सं० वातुल, प्रा. मती-प्रत्य०) एक सुगंधित धान या चावल । बाउल ) सिड़ी, पागल, मूर्ख, बौरा (ग्रा०)। बासर-संज्ञा, पु० दे० ( सं० वासर ) दिन, स्त्री० बाउली। सवेरा, प्रातःकाल, सवेरे का राग । यौ०बावलापन- संज्ञा, पु. ( हि० ) सिडीपन, | निसि बासर । "भूख न बासर नींद न झक, पागलपन । जामिनि" --- रामा० । बावली-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० चाव+ लीप्रत्य० ) चौड़े मुँह का सीढ़ीदार कुनाँ, बाससी--संज्ञा, पु० दे० (सं० वासस् ) वापिका, वापी। कपड़ा, वस्त्र । बावाँ, बाँव*- वि० दे० (सं० वाम ) बाई | बासा- संज्ञा, पु० दे० (सं० वास ) वह सव--स For Private and Personal Use Only Page #1276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir बासिग १२६५ बाहुमल स्थान जहाँ पक्की रसोई बिकती हो। संज्ञा, बाहर- क्रि० वि० दे० ( सं० बाह्य ) किसी पु० निवास, वास, कई दिन का रक्खा | निश्चित सीमा से अलग हट कर निकला पदार्थ। हुआ। वि०-बाहिरी । मुहा०-बाहर बासिग-संज्ञा, पु० दे० (सं० वासुकी) आना या होना-संमुख प्राना, वासुकी नाग। अलग होना, प्रगट होना। बाहर करनाबासी-संज्ञा, पु० (सं० वासिन् ) निवासी, . हटाना, दूर करना । बाहर बाहर-अलग रहने वाला । वि० दे० (सं० वास = गंध ) या दूर से, बिना किसी को जनाये, दूसरे देर का रक्खा भोजन का पदार्थ, जिसमें | स्थान या नगर में, संबन्ध । अधिकार महक आने लगे, बहुत दिनों का बना या प्रभाव से, अलग, सिवा, बिना, पदार्थ, सूखा या कुम्हलाया हुआ। "ये दोउ । बगैर । मुहा०-बाहर का-पराया, बंधु संभु उर-वासी"- रामा० । मुहा०- बेगाना। बासी कढ़ी में उबाल आना-बुढ़ापे । बाहरजामी*-संज्ञा, पु० दे० (सं०में जवानी की तरंग उठना, किसी बात का | वाह्ययामी) परमेश्वर का सगुण रूप, समय बीत जाने पर उसकी बासना होना। राम, कृष्ण आदि। बासौंधी--संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. घसौंधी) | बाहरी–वि० ( हिं० बाहर + ई-प्रत्य० ) लच्छेदार रबड़ी। बाहर वाला, बाहर का, पराया, ऊपरी, बाह-संज्ञा, स्त्री० (दे०) जोत धारण करना, | सम्बन्ध से अलग, अपरिचित, जो बाहर ले जाना। "जैसे करनि किसान बापुरो से देखने भर को हो, बाहिरी (दे०)।। नौ नौ बाहैं देत"-भ्र. गो.। बाहाँजोरी–क्रि० वि० दे० यौ० (हिं. बाहक-संज्ञा, पु. दे० (सं० वाहक) बाँह जोड़ना ) हाथ से हाथ मिला कर । वहन करने या ले जाने वाला, सवार, बाहिज-संज्ञा, पु० दे० ( सं० वाह्य ) देखने कहार, पालकी ले चलने वाला कहार। "फेरत __ में, ऊपर से। बाहक मैन लखि, नैन हरिन इक साथ" | बाही-संज्ञा, स्त्री० (दे०) वाहु ( सं० ) बाँह -रतन। (दे०) । “दै गर-बाही जु नाहीं करी'। बाहकी - संज्ञा, स्त्री. (सं० वाहक+ई | बाहु-संज्ञा, स्त्री० (सं०) हाथ, भुजा, बाहू प्रत्य० ) कहारिन, पालकी ले चलने (दे०)। " नाहिं तो अस होई बहुबाहू " वाली स्त्री। -रामा०। बाहन-संज्ञा, पु० दे० (सं० वाहन ) सवारी बाहुक-संज्ञा, पु० (सं० ) राजा नल का "आप को बाहन बैल बली बनिताहु को नाम ( अयोध्या-नरेश के सारथी रूप में ) बाहन सिंहहिं पेखिकै"। नकुल। बाहना-स० क्रि० दे० (सं० वहन) लादना, बाहुत्राण-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) हाथों के ढोना, चढ़ा कर ले चलना, हाँकना, पकड़ना, रक्षार्थ दस्ताना ( सैनिक )। चलाना, फेंकना, धारण करना, प्रवाहित बाहुबल-संज्ञा, पु. यौ० (सं०) हाथों का होना, खेत जोतना, लेना। बल, शक्ति, पराक्रम । वि. बाहुवली।। बाहनी, बाहिनी-संज्ञा, स्त्री० दे० ( सं० बाहुपाश-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) हाथों को वाहिनी ) फ़ौज, सेना, कटक, नदी, सवारी। मिला कर बनाया गया फंदा । बाहम-क्रि० वि० (फा० ) आपस में, बाहुमल-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) हाथ और परस्पर। कंधे का जोड़, हाथ की जड़ । भा० श० को०-१५६ For Private and Personal Use Only Page #1277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org बाहुयुद्ध बाहुयुद्ध - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) कुश्ती, मल्लयुद्ध । १२६६ बाहुल्य - संज्ञा, पु० (सं०) अधिकता, ज्यादती, बहुतायत, बहुलता । बाहुहज़ार - संज्ञा, पु० दे० यौ० (सं० सहस्रबाहु ) राजा सहस्रवाहु | बाह्य - वि० ० (सं०) बाहरी, बाहर का, बहिरंग | संज्ञा, पु० (सं०) सवारी, यान, भार- वाहिक पशु । बाह्लीक - संज्ञा, पु० (सं० ) काम्बोज के उत्तरीय प्रदेश, बलख़ का प्राचीन नाम । बिंग† – संज्ञा, पु० दे० ( सं० व्यंग) व्यंग । बिंजन | संज्ञा, पु० दे० (सं० व्यंजन ) व्यंजन, भोज्य पदार्थ | बिंद - संज्ञा, पु० दे० (सं० बिंदु ) वीर्य या पानी की बूँद, भुजों का मध्य स्थान, बिंदी, मस्तक पर का गोल तिलक । बिंदा -संज्ञा, त्रो० दे० (सं० वृंदा ) एक गोपी का नाम तुलसी | संज्ञा, पु० दे० (सं० बिंदु ) मस्तक का बड़ा और गोल टीका, बेंदा, बुंदा (दे०) । बिंदी - संज्ञा, त्रो० दे० (सं० बिंदु ) बिंदु, शून्य, सिफर, मस्तक का गोल छोटा टीका, बैदी, बिदुली, टिकुली । बिंदुका - संज्ञा, पु० दे० (सं० बिंदु ) बिंदी | बिंदुली - संज्ञा स्त्री० दे० (सं० विंदु ) टिकुली, बिंदी । बिंधा - संज्ञा, पु० दे० (सं० विंध्य ) विंध्याचल पहाड़ | "बिंध के बासी उदासी तपोव्रतधारी" कवि० । बिंधना - अ० क्रि० दे० (सं० वेधन ) बींधा या छेदा जाना, फँसना । बिंब -संज्ञा, पु० दे० (सं० बिम्ब ) छाया, भाभास, प्रतिबिंब, प्रतिमूर्ति, कुन्दरू फल, चन्द्र या सूर्य का मंडल, कमंडल, एक छन्द (पिं० ) | संज्ञा, पु० (दे०) बाँबी । बिकर बिंबा - संज्ञा, पु० (सं० ) कुन्दरू, प्रतिबिंब | यौ० किंवा फल | "बिंबोष्टी चारु नेत्री " सुविपुल जघना - हनु० । विवसार - संज्ञा, पु० (सं० ) पटना- नरेश श्रजातशत्रु के पिता जो गौतम बुद्ध के समकालीन थे ( इति० ) । बि* - वि० दे० (सं० द्वि ) दो, द्वि । विमाता - वि० दे० ( सं० विवाहिता ) विवाहिता, व्याही हुई, विवाह संबन्धी, Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir व्याह का । विद्याध - संज्ञा, पु० (दे०) व्याध, बहेलिया, व्याधि | विद्याधि - विश्राधु-संज्ञा स्त्री० पु० दे० ( सं० व्याधि, व्याध ) कष्ट, दुख, पीड़ा । बिभाज - संज्ञा, पु० (दे०) व्याज ( हि० ) सूद, बहाना | वि० विजू । विमाना- स० क्रि० दे० ( हिं० व्याह ) बच्चा जनना या देना (पशु के लिये) व्याना । (दे०) । " नतरु बाँझ भलि बादि बिश्रानी" । बिक- बिग-संज्ञा, पु० दे० (सं० वृक ) दिया । "भालु, बाघ बिक केहरि नागा "। बिकचना- -- अ० क्रि० (दे०) फूलना, खिलना । विकर - वि० दे० (सं० विकट ) भयंकर, डरावना, कठिन । "बिकट भेष मुख पंच पुरारी" - रामा० । संज्ञा, स्त्री० - बिकटता । बिना - प्र० क्रि० दे० (सं० विक्रय ) बेचा जाना, विक्रय होना । ( स० रूप - बिकाना प्रे० रूप-विकवाना ) । मुहा० - किसी के हाथ बिकना - किसी का दास या सेवक होना । 66 चितेरिन हाथ बिकानी " - रत्ना० । विना मूल्य बिकना - बिना किसी प्रतिकार के दास हो जाना । बिकरम |-- वि० संज्ञा, पु० दे० (सं० विक्रम) बल, पराक्रम, पौरुष, वीरता, राजा विक्रमादित्य, बिकरमाजीत (दे० ) । विकरार - वि० दे० ( फ़ा० बेकरार ) व्याकुल । वि० दे० (सं० विकराल ) भयंकर For Private and Personal Use Only Page #1278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir बिकल बिगरना डरावना । " नाक कान बिन भइ विकरारा" वि. विकास्य, विकासनीय, बिकासित -रामा० । स० क्रि० (दे०) बिकासना । विकला-वि० दे० (सं० विकल) बेचैन, बिक्की-संज्ञा, पु. ( देश०) खेल के साथी, अचेत, व्याकुच, घबराया हुभा । संज्ञा, खेल के एक पन वाले आपस में बिक्की कहे स्त्री० बिकलता। "बिकल होसि जब जाते हैं। कपि के मारे"-रामा। | बिक्री-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० विकय) विक्रय, बिकलाई।-सं० स्त्री० दे० ( सं० विकलता) बेचने से मिला धन, बेचने की क्रिया या व्याकुलता, बेचैनी, घबराहट । “सुनि भाव, बिकिरी (दे०)। मम बचन तजौ बिकलाई"-रामा। बिखा-संज्ञा, पु० दे० (सं० विष ) विष, बिकलाना-अ.क्रि० दे० ( सं० विकल) ज़हर । वि० बिखैला। "बिख-रस भरा बेचैन या व्याकुल होना, घबराना। कनक-घट जैसे"-रामा० ।। विकसना-अ. क्रि० दे० (सं० विकसन ) बिखम-वि० दे० (सं० विषम ) जो सम या फूलना, खिलना, प्रसन्न होना । स० रूप सरल म हो, ताक, भीषण, विकट, अति विकसाना, प्र. रूप-विकसवाना। कठिन, अति तीव। “बिखम गरल जेहि बिकसित-वि० दे० ( सं० विकसन ) फूला पान किय"-रामा० । संज्ञा, स्त्री० (दे०) बिखमता। या खिला हुश्रा। बिकाऊ-वि० दे० (हि० बिकना+आऊ. बिखरना, बिखेरना-अ० कि० दे० (सं० विक्रीर्ण ) छितराना, तितर बितर हो जाना, प्रत्य० ! जो बिकने के हेतु हो, बिकने वाला। फैल जाना । स० रूप बिखराना या बिखबिकार*---संज्ञा, पु० दे० (सं० विकार) | राना, विखेरना, प्रे० रूप-बिखरवाना। बिगाह, अवगुण, बुराई, खराबी, हानि।। "सकल प्रकार बिकार बिहाई"- रामा० । बिगड़ना- अ० क्रि० दे० (सं० विकृत ) संज्ञा, पु०, वि० (दे०) विकराल, विकट, किसी वस्तु के रूप, गुणादि में विकार हो भीषण । संज्ञा, स्त्री० (दे०) विकारता। जाना, बुरी दशा को प्राप्त होना, ख़राष बिकारी/-वि० दे० ( सं० विकार ) बदला होना, किसी दोष से किसी वस्तु का बन कर हुश्रा, रूपान्तरित, परिवर्तित रूप वाला, ठीक न उतरना, बिकार होना, कुमार्गी, हानिकारक, बुरा । सज्ञा, स्त्री० (सं० विकृति नष्ट या भ्रष्ट होना, नीति के पथ से च्युत श्रवंक ) एक टेढ़ी पाई जिसे रुपये आदि के होना, अप्रसन्न या नाराज़ होना, विद्रोह लिखने में संख्या के मान या मूल्यादि के करना, विरोध या वैमनस्य होना, स्वामी सूचनार्थ पागे लगा देते हैं -जैसे-), । या रक्षक के अधिकार से बाहर हो जाना, "बंक बिकारी देत ही दाम रुपैया होत"। व्यर्थ व्यय होना । बिकाश-संज्ञा, पु० दे० (सं० विकाश) बिगड़ेदिल-संज्ञा, पु० यौ० (हि.) बिगड़ना | +दिल-फा०) झगड़ाल, बखेडिया, कुमार्गी, उजेला, प्रकाश, एक अलंकार जिसमें किसी क्रोधी। वस्तु का बिना निज का आधार छोड़े बहुत बिगदेल-वि० दे० (हि० बिगड़ना+ऐल विकसित होना कहा गया हो ( काव्य०) या हा काव्य -प्रत्य० ) हठी, जिद्दी, क्रोधी, झगड़ालू, बिकास-संज्ञा, पु० दे० (सं० विकास ) | कुमार्गी । प्रस्फुटन, खिलना, फूलना, प्रसार, फैलाव, । बिगर, बिगिरी-क्रि० वि० (दे०) बगर वृद्धि, उन्नत होना । यौ० विकासवाद- (फ़ा०) बिना। एक पश्चिमीय वृद्धि सिद्धान्त, आनन्द, हर्ष । बिगरना-प्र० क्रि० (दे०) बिगड़ना । For Private and Personal Use Only Page #1279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir बिगराइल १२६८ बिच बिगराइला--वि० (दे०) बिगडैल (हि०)। बिगुलर -संज्ञा, पु० (अं०) बिगुल बजाने बिगसना-अ० कि० दे० ( हि० बिकसना) वाला। विकसना, फूलना । स० प्रे० रूष-बिग-बिगूचन-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० विकंचन या साना, बिगसावना। विवेचन ) मनुष्य के किंकर्त्तव्य विमूढ़ होने बिगहा-संज्ञा, पु० (दे०) बीघा (हि०)। । की दशा, अड़चन, कठिनता, असमंजस बिगाड़-संज्ञा, पु० दे० ( घिगड़ना ) दोष, । हैरानी, दिक्कत, परेशानी, द्विविधा। ख़राबी, वैमनस्य, झगड़ा, मनोमालिन्य। बिगूचना-अ० कि० दे० (सं० विकंचन ) बिगाडना-स. क्रि० दे० ( सं० विकार) असमंजस या अड़चन में पड़ना, पकड़ा या किसी चीज़ में दोष या विकार पैदा कर उसे । दबाया जाना, द्विविधा में आना । स० कि० ठीक न होने देना, बुरी दशा या अवस्था में | दे० (सं० विकुचन ) छोप लेना, धर दबाना, लाना, कुमार्गी करना, बुरा स्वभाव डालना, दबोचना। स्त्री का सतीत्व भ्रष्ट करना, बहकाना, खराब | बिगोई-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. विगोना ) करना, किसी वस्तु के वास्तविक रूप, गुणादि भ्रम, भुलावा, छिपाव, दुराव, तंग या दिक को नष्ट करना, व्यर्थ व्यय करना । करना, नष्ट किया । " राज करत यहि दैव बिगोई"-रामा०। बिगाना-वि० दे० ( फ़ा० बेगाना) पराया, बिगोना-स० क्रि० दे० (सं० विगोपन ) गैर, दूसरा । यौ० अपना-बिगाना। बिगार-संज्ञा, पु० (दे०) बिगाड़ (हि.)। बिगाडना या नष्ट-भ्रष्ट करना, दुराना, बिगारिख-संज्ञा, स्त्री० (दे०) बेगार (हि.) छिपाना, दिक या तंग करना, बहकाना या भ्रम में डालना, बिताना, सोना। बिना मूल्य बलात्कार्य लेना। बिग्गाहा- संज्ञा, पु० दे० (सं० विगाथा ) बिगारी-संज्ञा, स्त्री० (दे०) बेगारी (हि०)। भार्या छंद का एक भेद, उद्गीति (पिं.)। बिगास-संज्ञा, पु० (दे०) विकास (सं०)। बिग्रह-संज्ञा, पु० दे० (सं० विग्रह ) विभाग बिगासना-स० क्रि० दे० (हि० विकास ) करना, यौगिक या सामासिक पदों को विकसित या विकासित करना। अलग अलग करना, कलह, झगड़ा, लड़ाई, बिगिर*-क्रि० वि० (दे०) बगैर (फा०) युद्ध, विरोधियों के पक्ष में फूट या झगड़ा बिना, बिगुर (ग्रा०)। कराना, शरीर, देह । वि०-बिग्रही। बिगुन -वि० दे० (सं० बिगुण ) गुण- बिघटना-स० कि० दे० (सं० विघटन ) रहित, निर्गुणी, मूर्ख । बेगुन (दे०)। बिगाड़ना या विनाश करना, तोड़ना, नष्ट बिगुर-वि० दे० ( हि वि-गुरु ) जिसके करना । “बिरची धनु-बिघटन परिपाटी"गुरु न हो, निगुरा । क्रि० वि० (ग्रा.) बिना, रामा० । बगैर। बिधन-संज्ञा, पु. दे. (सं० विघ्न) उपद्रव बिगुरचिन* संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० विकुंचन विघ्न, बाधा, रोक-टोक, उत्पात, मनाही, छेड़या विवेचन ) अड़चन, कठिनता, दिकत, छाड़ । “बिघन बिदारन, बिरद बर"। असमंजस, द्विविधा। बिधनहरन*-वि० दे० यौ० (सं० बिगुरदा-संज्ञा, पु० (दे०) एक पुराना विनहरण) विघ्न-बाधा को मिटानेवाला, बिधनहथियार। विदारन । संज्ञा, पु० (दे०) गणेशजी। बिगुल*-संज्ञा, पु. (अं०) अंग्रेजी सैनिकों | बिच-क्रि० वि० दे० ( सं० विच = अलग की एक प्रकार की तुरही। | करना) किसी वस्तु का मध्यभाग, मध्य, For Private and Personal Use Only Page #1280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org बिचकना श्रधो- श्राध, (?) बीच। यौ० विच-बिच । " बिच-बिच गुच्छा कुसुम - कली के " - १२६६ रामा० । बिचकना - ० क्रि० (अनु० ) भड़कना, चौकना, चिदना, सतर्क होना, भड़कना, मुँह बनाना या टेदा करना । ( स० रूपबिचकाना, प्रे० रूप- चिचकवाना) । बिचकन्ना - वि० दे० ( हि० बिचकना ) बिचकनेवाला, सावधान, सतर्क । बिचच्छन - वि० दे० (सं० विचक्षण ) पंडित, चतुर, निपुण, प्रवीण, विद्वान, बुद्धिमान | संज्ञा, स्त्रो० विचच्छनता । बिचरना - अ० क्रि० दे० (सं० विचरण ) भ्रमण करना, चलना-फिरना, घूमना, यात्रा या सफ़र करना । "कौन हेतु बन बिचरहु स्वामी ". - रामा० । बिचलना - अ० क्रि० दे० (सं० विचलन ) इधर-उधर हटना, हिम्मत हारना, डिगना, हिलना, कह कर इन्कार करना, मुकरना, बिचलित होना, तितर-बितर होना, भगना । "निज दल विचल सुना जब काना" - रामा०: स० रूप-बिचलाना, प्रे० रूप–विचल - वाना । बिचला - वि० दे० ( हि० बीच + ला प्रत्य० ) बीच का, मध्यवाला । स्त्री० विचली । बिचलित - वि० (दे०) इटा हुधा, घबराया, विकल, व्याकुल । ० बित्रवान, बिचवानी - संज्ञा, पु० दे० (हि बीच + वान ) मध्यस्थ, मध्यवर्ती, बीचबचाव करने वाला, मिलाने वाला । बिहुत - संज्ञा, पु० दे० ( हि० बीच ) अंतर, संदेह, दुविधा, भेद । बिचार – संज्ञा, पु० (दे०) विचार, भाव, सोच, ध्यान, इरादा । विचारना - प्र० क्रि० दे० (सं० विचार + ना - प्रत्य० ) सोचना, समझना, गौर करना, पूछना | " देखु बिचारि त्यागि मदमोहा " Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir बिछलन ------ - रामा० । स० रूप-बिचराना, प्रे० रूपबिचरवाना | वि० विचारनीय | विचारमान - वि० ( हि० विचार ) विचारने योग्य, विचार करने वाला | विचारवान - वि० (दे०) विचारवान, बुद्धिमान, असेोची, दूरदर्शी । बिचारा - वि० दे० ( फा० बेचारा ) दुखिया, विवश, बापुरा । विचारित - वि० दे० ( सं० विचारित) सोचा या निश्चय किया हुआ । विचारी - संज्ञा, पु० सं० विचारिन् ) विचार करने वाला | वि० स्त्री० (हि० बेचारा ) दुखिया । ' ज्यों दसनन महँ जीभ बिचारी " - रामा० । विचाल - संज्ञा, पु० दे० (सं० विचाल ) थलग करना, अंतर । विचाली - संज्ञा, स्त्री० (दे० ) पुत्राल, सूखी घास, चटाई । विचेत For Private and Personal Use Only - वि० दे० (सं० विचेतस् ) श्रचेत, मूच्छित बेहोश । बिचौनिया-बिच्चोनिया - संज्ञा, पु० स्त्री० विच्छित्ति-संज्ञा, स्त्री० (सं०) शृंगार रस के ( हि० बीच ) मध्यस्थ, बिचवाई, बिचवानी । ११ दावों में से एक जिसमें कुछ श्रृंगार ही से पुरुष के वश में करने का वर्णन हो, aatक्ति वैचिव्य, चमत्कार ( काव्य ) । बिच्छी, बिच्छू - संज्ञा, पु० दे० (सं० वृश्चिक) एक विषैले डंक वाला छोटा कीड़ा, एक विषैली घास, बीकी, बीछू (ग्रा० ) ! विच्छेप- संज्ञा, पु० दे० (सं० विक्षेप ) फेंकना, चित्त की चंचलता, बिघ्न, बाधा, रोक । चिकना - अ० कि० दे० (सं० विस्तरण ) बिछाया जाना, फैलना, पसरना । स० रूपविवाना, बिछावना, प्रे० रूप-बिछवाना । विकलता - संज्ञा स्त्री० दे० (सं० विचलता ) रपट, फिसलना, बिलन (ग्रा० ) । बिकलन - संज्ञा, स्त्री० ( दे० ) फिसलन, fasts (ग्रा० ) । Page #1281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org बिछलना विकलना - ० क्रि० दे० (सं० बिचल ) रपटना, फिपलना, डगमगाना बिकुलना (दे० ) । स० रूप-विकलाना, प्रे० रूप- बिछलवाना | बिछलावा - वि० दे० ( हि० बिछलना ) फिसलाहट, रपट, बिलौहा (ग्रा० ) । विकलाहट - संज्ञा स्त्री० दे० (हि० बिकलना ) रपट, फिसलाहट, फिसलन, बिकुलाहट । बिछावन | संज्ञा, पु० दे० ( हि० बिछौना ) बिछौना, बिस्तर । स० क्रि० (दे०) बिछावना- बिछाना । बिछिया, विकु -संज्ञा, पु० दे० ( हि० बिच्छी ) एक करधनी, पैर की अँगुलियों का गहना या छल्ला, एक हथियार, बहुप्रा Mata, (०) च्छू । विछिप्त, विछिप्त - वि० (दे० ) वित्तिप्तौ (सं० ) | संज्ञा, स्त्री० (दे०) विलिति । बिछुड़न, विकुरनi - संज्ञा, स्त्री० दे० (हि० बिछुड़ना, बिना ) वियोग, बिछोह | "यह बिरन वह मिलन कहौ कैसे बनि आवत " - गिर० बिकुड़ना, विकुरना - य० क्रि० दे० (सं० विच्छेद ) बिछोह या वियोग होना, जुदाई होना, प्रेमियों का अलग होना । " बिछुरत एक प्रान हरि लेहीं " रामा० । विक्रुरता - संज्ञा, पु० दे० ( हि० बिकुरना ० | + अंता - प्रत्य० ) वियोगी, बिछुड़ने वाला । विना - संज्ञा, पु० दे० ( हि० बिछुड़ना) १२७० वियोगी, बिछोही, बिछड़ा हुआ । बिछोड़ा -- संज्ञा, पु० दे० ( हि० बिछुड़ना ) विरह, वियोग, बिछोह । fast, faste, बिछोहा - संज्ञा, पु० दे० ( हि० बिछुड़ना ) वियोग, बिछोह, बिरह । वि० - बिछोही । " मित्र - बिछोहा कठिन है स न करौ करतार ' - गिर० । बिछौना - संज्ञा, पु० ( हि० बिछाना ) बिस्तर, बिछाने का वस्त्र, बिछावन (दे० ) । बिजन - संज्ञा, पु० दे० (सं० व्यजन ) पंखा, बेना, बिनवाँ, बिजना (ग्रा० ) । विजायट, बिजायठ 1 वि० दे० (सं० विजन ) जन-रहित, निर्जन, एकांत, अकेला । "बिजन दुलातीं वै तौ बिजन दुलाती हैं" -- भू० । स० क्रि० ( फा० बिज़न ) मारो, मार, मारिये । मुहा० - विज़न बोलना - मारने की श्राज्ञा देना, धावा मारना । चिजना - संज्ञा, पु० दे० (सं० व्यजन ) बेना पंखा । त्रो० पा० बिजनी, बिजनियाँ | विजय, विजे-संज्ञा, खो० दे० ( सं० विजय ) 66 जीत, जय । सं० पु० विष्णु-सेवक या पार्षद | विजयसार - संज्ञा, पु० दे० (सं० विजयसार) एक बहुत बड़ा जंगली वृक्ष । विजया संज्ञा स्त्री० दे० (सं० विजया ) भंग, कारसुदी दशमी । या विजया के सकल गुण, कहि नहिं सकत अनंत" -स्फुट । बिजली-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० विद्युत ) बिजुली (ग्रा० ) चपला, दामिनी, वातावरण की विजली से उत्पन्न एक बादल से दूसरे में जाने वाली प्रकाश-रेखा, विद्यत् वस्तुत्रों में श्राकर्षण और अपकर्षण करनेवाली एकशक्ति, जिसमें कभी कभी ताप और प्रकाश भी हो । मुहा०-- विजली गिरना या पड़नागाज गिरना, वज्रपात होना या पड़ना, आकाश से भूमि की ओर बिजली का वेग से धाना और मार्ग की वस्तुओं को जलाना | बिजली कड़कना - बिजली चमकने पर बादलों की रगड़ से बड़े जोर का शब्द या गरज होना । श्राम की गुठली की गिरी, गले और कान का गहना । वि० - प्रति चंचल या तेज़, बहुत चमकने वाला । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir बिजाती - वि० दे० (सं० विजातीय ) दूसरी जाति का अन्य जातीय, दूसरी प्रकार का, जाति से च्युत ( वहिष्कृत ), प्रजाती । विजान | संज्ञा, पु० दे० (हि० वि + ज्ञान ) थज्ञान, अनजान, श्रजान, बेसमझ, विज्ञान | विजायट, विजायठ - संज्ञा, पु० (सं० विजय ) भुज-बंद, कंकन, बाजूबंद, अंगद । " सोभा न त बिजाट बाहु मै - भ० अनु० । For Private and Personal Use Only Page #1282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - बिजार १२७१ बिडर। बिजार-संज्ञा, पु० (दे०) बैल, वृषभ, साँड । बिट-संज्ञा, पु० दे० (सं० विट) वैश्य, धनी, वि० (दे०) बीजवाला । वि० (दे०) बीमार, खल, नीच, नायक का कला-निपुण सखा बेजार (ग्रा०) संज्ञा, स्त्री० (ग्रा०) बिजारी- (काव्य, नाट्य०) । "नट, भट, विट, गायक बेजारी-बीमारी। नहीं, भूपति हू हैं नहिं । " भ० भा० । बिजारा-संज्ञा, पु० (दे०) बीजवाला, बीज- बिटना--अ० कि० (दे०) बिथरना, छिटकना, युक्त विजार (दे०)। छिटकजाना । स० रूप-बिटाना प्रे० रूप. बिजुरी, बीजुरी*-संज्ञा, स्त्री० (दे०) (सं० बिटवाना। विद्युत्) बिजली, दामिनी, विद्युत् । बिटप, विटपी-संज्ञा, पु० दे० (सं० विटप) बिजूका, बिजूखा- संज्ञा, पु० दे० पशु- पेड़, वृक्ष । " लागे बिटप मनोहर नाना"-- पक्षियों को डराने को खेतों में लकड़ी पर रामा० । रखी हुई काली हाँड़ी। बिटरना-अ० क्रि० दे० (सं० विलोड़न ) बिजे-संज्ञा, स्त्री० (दे०) विजय (सं०) जीत । गंदा होना, घुघोरा जाना । ( स० रूप बिजोग-*-- संज्ञा, पु० (दे०) वियोग बिटारना, ग्रे० रूप-बिटरवाना)। (सं०) बिछोह : वि. बिजोगी (दे०)। बिटिया, बिटिनियाँ-संज्ञा, स्त्री० दे० बिजोना-स० कि० (दे०) भली भाँति देखना। (हि० बेटी ) बेटी, पुत्री, लड़की, बिटीवा, "प्रिय ठाढ़े भे मरम लखि, तिय उत रही बिटेनी (ग्रा०)। बिजोय"। बिटौरा, भिटौरा-संज्ञा, पु० (दे०) उपलों बिजोरा-वि० दे० (सं० वि-ज़ोर फा० = ! या कंडों का ढेर, चींटों का भीटा। वल) निर्बल, अशक्त। बिट्ठल-संज्ञा, पु० दे० ( सं० विष्णु ) विष्णु, बिजोहा--संज्ञा, पु० (दे०) विमोह, विज्जूहा, भगवान, पंढरपुर की विष्णु-मूर्ति (बम्बई), एक वर्णिक छंद (पि०)। वल्लभाचार्य के शिष्य विट्ठलनाथ । बिजौरा- संज्ञा, पु० दे० (सं० बीजपूरक ) बिडंब-संज्ञा, पु० दे० (सं० विडंब) पाडंबर, एक प्रकार का बड़ा तीव्र नींबू । ढोंग । “विडंबयंत सित वाससस्तनुम् "बिजु* - संज्ञा, पु० दे० (सं० विद्युत् ) माघ० । बिजली । "बिज्जु कैसी उजियारी"-रत्ना० । बिडंबना* -- अ० क्रि० दे० (सं० विडंबन ) बिजुपात* --संज्ञा, पु० दे० यौ० (सं० विद्युत्थात ) वज्रपात, बिजली गिरना । स्वरूप बनाना, नकल उतारना । संज्ञा, स्त्री० बिज्जूल*-संज्ञा, पु० दे० (सं० विजुल ) उपहास, निंदा, हँसी । "केशव कोदंड बिसदंड ऐसे खंडे अब, मेरे भुजदंडन की छाल, खाल, स्वचा, छिलका, चमड़ा । संज्ञा, स्रो० दे० ( सं० विद्युत् ) बिजली।। बड़ी है विडंबना' । “केहि कर लोभ विज्जू, बीनू-संज्ञा, पु० (दे०) बिल्ली-सा बिडंबना, कीन्ह न यहि संसार"--रामा । एक जंगली जतु । बिड-संज्ञा, पु० दे० (सं० विट् ) वैश्य, बिज्जूहा-संज्ञा, पु० (दे०) बिजोहा, बिमोहा नीच, धनी। एक वर्णिक, छंद (पि०)। बिड़कन--संज्ञा, पु० (दे०) बटेर, लवा। बिझकना, बिझुकना*-अ० कि० दे० (हि. “बिड़कन घनघूरे, भति के बाज जीव"झोंका) भड़कना, बिचकना, डरना, तनना, | राम। वक्र होना । स० रूप-विभकाना, विझुकाना बिड़र- वि० दे० ( हि० बिडरना ) तितरप्रे रूप-बिझकवाना। | बितर, अलग अलग, दूर दूर, छितराया ना For Private and Personal Use Only Page #1283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - बिड़रना १२७२ बिदकना हुआ । वि० ( हि विविना + डर ) ढीठ, काटना । "काव्य शास्त्र के माद में, पंडित निडर, निर्भीक, पृष्ठ । बितवत काल-" भ० नीति अनु० । बिड़रना-अ० क्रि० दे० (सं० विट ) इधर | बिताना-स० कि० दे० (सं० व्यतीत) उधर होना, बिचकना (पशुओं का) तितर- व्यतीत करना, काटना, गुज़ारना ( फ़ा० )। बितर या नष्ट होना । स० रूप-बिड़राना प्रे० रूप-बितवाना। प्रे० रूप-बिडरवाना। | बितीतना-अ० कि० दे० (सं० व्यतीत ) बिड़वना*- स० कि० दे० (सं० विट ) व्यतीत होना, बीतना, गुजरना । स० क्रि० तोड़ना। बिताना, गुज़ारना ।-" कैधौ साँझ ही बिडारना-स. क्रि० (हि० विड़रना) डराकर | बितीते पै"- पद्मा। भगाना, बिचकाना, तितर-बितर या नष्ट बितु*-संज्ञा, पु० दे० (सं० वित्त ) बित, करना । "जैसे छेरिन में बिग पैठे जैसे | धन, दौलत, सामर्थ्य । नहरु बिड़ारै गाय -श्राल्हा। | बित्त-संज्ञा, पु० दे० (सं० वित्त ) धन, बिड़ाल-संज्ञा, पु० (सं०) बिलार, बिल्ली, सामर्थ्य, औकात, हैसियत । चोरी कबौं न दुर्गा से मारा गया बिड़ालाक्ष दैत्य, दोहे का कीजिये, जदपि मिलै बहु वित्त-०। बीसवाँ रूप (पि०)। वित्ता- संज्ञा, पु० (दे०) पूर्णतया फैले हुए बिड़ौजा-संज्ञा, पु० (सं०) इन्द्र । " बिडौजा | पंजे में अँगूठे के सिरे से कनिष्टिका के सिरे पाक शासन।"-श्रमर । तक की दूरी, चौथाई गज, बालिश्त (फ़ा०) बिढ़तो*-संज्ञा, पु० दे० ( हि० बढ़ना) बीता, बिलस्ता (प्रान्ती०)। कमाई, लाभ। बिथकना-अ.क्रि० दे० (हि. थकना ) बिढ़वना*-स० कि० दे० ( हि० बढ़ाना ) । हैरान या परेशान होना, थकना, मोहित या कमाना, जोड़ना, संचय करना, पैदा करना। चकित होना । वि० (हि.)-बिथकित ।। बिढ़ाना*-स० क्रि० दे० ( हि० बढ़ाना ) बिथरना, बिथुरना--अ० कि० दे० (सं० कमाना या पैदा करना, जोड़ना,संचय करना। बिस्तृत) बिखरना, छितराना, खिल जाना, अलग अलग होना, फैल जाना। स० रूपबित-*-संज्ञा, पु० दे० (सं० वित्त ) बिथराना, प्रे० रूप-विथरवाना। शक्ति, द्रव्य, धन, दौलत, श्राकार, सामर्थ्य । विथा-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० व्यथा ) "सुत, बित, नारि बंधु, परिवारा"--रामा०। व्यथा, पीड़ा, कष्ट, दुख । “विरह बिथा जल बितताना- अ० क्रि० दे० ( हि० बिलखना ) परस बिन, बसियत मो हिय लाल-वि० । व्याकुल या संतप्त होना, बिलखना । स० | बिथारना-स० क्रि० दे० ( हि० विथरना ) क्रि० -सताना, दिक या दुखी करना। फैलाना, बिखेरना, छितराना, छिटकाना। बितना-संज्ञा, पु० दे० (हि. वित्ता) | प्र रूप-बिथरवाना। चौथाई गज या एक बित्ता लंबा, बीता | बिथित*-वि० दे० ( सं० व्यथित ) व्यथित, बालिश्त । वि० (दे०) बितनिया-बौना। | दुखित, पीड़ित । अ० क्रि० (दे०) बीतना, समाप्त होना। बिथोरना*-स० क्रि० दे० ( हि० विथराना ) बितरना8 स० क्रि० दे० (सं० वितरण) | फाड़ना, पृथक करना, बिथराना, छितराना । बाँटना, बरताना (ग्रा०)। "बारन बिथोरि थोरि थोरि जे निहारे नैन"। बितवना, बितावना-स० क्रि० दे० बिदकना-अ० क्रि० दे० (सं० विदारण ) (सं० व्यतीत) विताना, व्यतीत करना, घायल होना, फटना, चिरना, भड़कना, For Private and Personal Use Only Page #1284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir बिदर १२७३ बिधानी चिरना, भड़कना, विचकना । स० रूप -- बिदूधना*---अ० क्रि० दे० ( सं० विदूषण ) बिदकाना, प्रे० रूप -बिदकवाना। कलंक, दोष या ऐब लगाना, बिगाड़ना। बिदर--संज्ञा, पु० दे० (सं० विदर्भ ) बरार " इनहि न संत बिदूषहिं काऊ"-रामा। या विदर्भ देश, बीदर, ताँबे और जस्ते से | बिदेश-संज्ञा, पु० दे० (सं० विदेश ) परदेश, बनी एक उपधातु । अन्य देश, बिदेस । " पूत बिदेश न सोच बिदरन*-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० विदीर्ण) तुम्हारे"---रामा० । दरार, दरज, छेद । अ० क्रि० (दे०) बिदरना- बिदोख -संज्ञा, पु० दे० (सं० विद्वष ) फटना ! वि० - चीरने या फाड़नेवाला। बैर, शत्रुता, वैमनस्य । बिदरी-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० विदर्भ ) बिदर, विदोरना--स० क्रि० (दे०) चिढ़ाना. बिराना। बिदर की धातु का बना चाँदी-सोने के तारों | बिद्दत-संज्ञा, स्त्री० दे० (१० बिदअत ) की नक्काशीदार सामान । बुराई, दोप, खराबी, आपत्ति, अत्याचार, बिदा-संज्ञा, स्त्री० दे० (अ० विदाअ ) गवन ___ कष्ट, दुदशा। (दे०) गमन, रुख़सत, गौना, प्रस्थान, बिधंसनाक-स० क्रि० दे० (सं० विध्वंसन) प्रयाण, द्विरागमन, जाने की आज्ञा । मुहा० नष्ट या विध्वंस करना। बिदा मांगना-प्रस्थान की आज्ञा लेना। बिध, विधि- संज्ञा, स्त्री०, पु० दे० (सं० बिदा देना -- जाने की आज्ञा देना । । विधि ) तरह, प्रकार, भाँति, ब्रह्मा । संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० विधा - लाभ) पाय-व्यय का बिदा करना ( कराना ) बहू-बेटी को लेखा, जमा-खर्च का हिसाब । मुहा०भेजना, (लिवा लाना)। विध मिलाना—यह देखना कि जमा-खर्च बिदाई संज्ञा, स्त्री० ( हि० विदा ) बिदा ठीक लिखा है या नहीं। होने की क्रिया का भाव, बिदा होने का विधना, बिधिना-संज्ञा, पु० दे० (सं० हुक्म, वह धन जो विदा होते समय दिया । विधि ) ब्रह्मा, विधाता, स्रष्टा, विरंचि । जावे । यौ०-बिधिनाक्षरी-भाग्य-लेख, बुरा विदारना-स० क्रि० दे० (सं० विदारण ) लेख (व्यं०) । अ० क्रि० (दे०) बिंधना, फाड़ना, चीरना, नष्ट या विदीर्ण करना। छिदना। “बानन साथ बिधे सब बानर" बिदारीकंद- संज्ञा, पु० दे० यौ० (सं० विदारी -राम० । संज्ञा, स्त्री-बिधाई-बेधने की कंद ) एक लाल कंद या जड़ ( औषधि० ), | क्रिया। बिलाईकंद (दे०)। विधवा - संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० विधवा ) बिदाहना- स० कि० दे० (सं० बिदहन )| पति-हीना, रंडा, बिना स्वामी की। बोये जमे खेत को दूर दूर जोतना। | विधासना*--स० क्रि० दे० (सं० विध्वंसन) बिदुराना*-अ० कि० दे० (सं० विदुर = | नष्ट या विध्वंस करना। चतुर ) धीरे धीरे हँसना, मसकराना, । बिधाई* संज्ञा, पु० दे० (सं० विधायक) मुसक्याना। विधायक, विधान करने वाला। विधाना-२० क्रि० दे० (हि. विधना ) बिदुरानि, बिदुरानी*-संज्ञा, स्त्री० दे० | बिधावना (दे०) छेदवाना। प्रे० रूप(हि. विदुराना ) मुसक्यान, मुसकुराहट । | बिधवाना । "सुन्दर क्यों पहिले न सँभारत बिदुषन-संज्ञा, पु० बहु० दे० ( सं० विदुष) जो गुड़ खाय सुकान बिधावे।" पंडित या विद्वान लोग। "विदुषन प्रभु-बिधानी*- संज्ञा, पु. (सं० विधान ) बिराटमय दीसा"-रामा० । । विधान करने वाला, रचने या बनाने वाला। भा० श० को०-१६० For Private and Personal Use Only Page #1285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir बिधावट बिपत, विपति, विपद बिधावट-संज्ञा, पु. ( सं० विधाना) छेद, -राम० । मुहा०--बिना आये तरना साल, रंध्र, विधने का भाव, बिंधाई। समय से प्रथम मर जाना। बिना रोये बिधि-संज्ञा, स्त्री०, पु. दे. (सं० विधि ) लड़का दूध नहीं पाता-बिना प्रयत्न कुछ रीति, कायदा, व्यवस्था, नियम, ब्रह्मा । भी नहीं मिलता। मुहा०-विना भय "विधि-निषेधमय कलि-मल हरनी"-रामा। प्रीति नहीं-पराक्रम दिखाये बिना प्रभाव बिधिना-संज्ञा, पु० दे० (सं० विधिना )। नहीं जमता । लो०--बिना माँगे तो दूध ब्रह्मा, बिधाता, विरंचि । बराबर, माँगे दे तो पानी बराबर -माँगना बुरा है। बिधुर-वि० (सं० विधुर) व्याकुल, भयभीत, "बिनाई - संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. विनना) बिनअसमर्थ, दुखित, रंडा । नी० बिधुरा।। वाई, बिनने या चुनने की क्रिया, भाव या बिन, बिनु*--अव्य० दे० (हि. बिना) मज़दूरी, बुनना क्रिया का भाव या मजदूरी बिना । "राम नाम बिन गिरा न सोहा" बिनाती, बिन्ती -- संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० -~रामा०। विनती ) विनय, नम्रता । बिनई*-संज्ञा, पु० दे० (सं० विनयी) | विनानी-वि० दे० (सं० विज्ञानी ) अज्ञानी, विनयी, नम्र, नीतिज्ञ । "सा बिनई बिजई विज्ञानी, अनजान, अनारी। संज्ञा, स्त्री० दे० गुन-सागर "-रामा०। | (सं० विज्ञान ) विशेष ज्ञान या विचार, बिनउ, बिनव* - संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० सांसारिक पदार्थों का यथार्थ ज्ञान, गौर । विनय ) विनय । बिनावट-संज्ञा, स्त्री० (दे०) बुनाका (हि.)! बिनति, बिनती, बिन्ती- संज्ञा, स्त्री० दे० बिनासना-स० कि० दे० ( स० विनष्ट ) (सं० विनय ) विनय, निवेदन, प्रार्थना।। नाश या बरबाद करना, नष्ट भ्रष्ट या संहार "बिनती बहुत करउँ का स्वामी"- रामा। करना । बिनन-संज्ञा, पु० दे० (हि० बिनना ) कूड़ा- बिनि, बिनु*-अव्य० दे० (हि० बिना) कर्कट चुनना, बीनने का भाव, बीनन (दे०) बिना, बगैर, सिवाय । बिनना, बीनना-- स० क्रि० दे० (सं० वीक्षण) | बिनूठा-वि० (दे०) शुद्ध, पवित्र, अनोखा, चुनना, छाँटना, अलग करना, वस्त्रादि बुनना। अनूठा (हि.)। बिनवना-अ० क्रि० दे० (सं० विनय ) विनै*-संज्ञा, स्त्री० (दे०) नम्रता, विनय प्रार्थना या विनय करना, मिन्नत करना। (सं०) बिनय, बिनती। "पुनि बिनवौं पृथुराज समाना"- रामा। बिनौना-स० कि० दे० ( सं० विनय ) विनय बिनवाई--संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. बिनावना) या बिनती करना, अर्चना, पूजना, ध्यान बिनने का काम. बिनने की मजदूरी, बिनाई। करना, छाँटना। बिनसना*-अ० क्रि० दे० ( सं० विनाश) चिनौला-संज्ञा, पु० (दे०) बिनौर (दे०)। नाश होना, बरबाद या ख़राब होना, नष्ट- कपास का बीज, कुकटी (प्रान्ती०)। भ्रष्ट होना, मिट जाना। स० रूप-विनसाना, बिपच्छ* --संज्ञा, पु० दे० (सं० विपक्ष) प्रे० रूप-बिनसवाना। स० कि. (दे०) नष्ट बैरी, विरोधी, शत्रु। वि०-प्रतिकूल, विरुद्ध, करना । "बिनसत बार न लागई, श्रोछे नर विमुख, नाराज ।। की प्रीति"-० नीतिः। बिपच्छी* - संज्ञा, पु० दे० (सं० विपक्षिन्) बिना--प्रव्य० दे० सं० विना) रहित, छोड़ विरोधी पत्त का, शत्रु । कर, बगैर । "राम विना संपति, प्रभुताई" बिपत, बिपति, बिपद - संज्ञा, स्त्री० दे० For Private and Personal Use Only Page #1286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir बिपता, बिपदा १२७५ बिभिनाना (सं० विपत्ति ) आपत्ति, क्लेश, श्राफत, विवश या लाचार होकर । "बिबस बिलोकत कष्ट, दुख। "बिपति मोरि को प्रभुहि । लिखे से चित्रपट मैं "-ररना । सुनावा"-रामा०। बिबहार* --संज्ञा, पु० (दे०) बर्ताव, कार्य, बिपता, बिपदा-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० विपत्ति) व्यापार, व्यवहार (सं०), ब्यौहार। "भाँति विपत्ति, भात, आपत्ति, क्लेश, कष्ट, दुख । अनेक कीन्ह बिबहारा"-रामा। "जापै विपता परति है सो प्रावत यहि देश' बिबाई-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० विपादिका ) -रही। पैर का एक रोग जिपमें तलवों की खाल बिपर, विप्र -संज्ञा, पु० (दे०) ब्राह्मण, । फट जाती है, बिमाई, बेवाई। "देखि विप्र (सं०) । संज्ञा, स्त्री. विप्रता। बिहाल बिबाइन सों"-नरो । लो०बिपरना-स० कि० (दे०) आक्रमण, धावा " जेहि के पाँव न जाय बिवाई, सो का या चढ़ाई करना। जानै पीर पराई।" बिपरीत-वि० दे० सं० विपरीत) प्रति बिबाक*-वि० दे० (फा० बेबाक ) चुकता किया या चुकाया हुआ, उद्धार, उरिन कूल, विरुद्ध, उलटा । "मो कहँ सकल भयो (सं० उरण ) बेबाक। बिपरीता"- रामा० । विबाकी-संज्ञा, स्त्री० दे० (फा० बेबाको ) बिपाक-संज्ञा, पु० दे० (सं० विपाक) पकना, | हिसाब चुकता, निश्शेष, बेबाकी । “सहित फल, नतीजा, दुर्गति । सेन सुत कीन्ह बिबाकी"-रामा० । बिपादिका-संज्ञा, सी० दे० (सं० विपादिका) बिवाह-संज्ञा, पु० दे० (सं० विवाह ) ब्याह । पैरों के फट जाने का रोग, बिमाई, बिवाई। बिवाहना-स० क्रि० दे० (सं० विवाह) व्याह बिफर, बिल*/--संज्ञा, पु० दे० (सं० करना, व्याहना, बिग्राहना, बिवाहना विफल ) निष्फल, फल-रहित, व्यर्थ । | (ग्रा.)। बिफरना-अ० कि० दे० ( सं० विप्लवन ) बिवि--वि० दे० (सं० द्वि ) दो। " तीन ललकर ल्यायी हौं इत तीन बिबि देखो विद्रोही या बाग़ी होना, बिगड़ उठना, श्राय"-स्फु० । नाराज़ होना, ढीठ होना। | बिभचार, बिभिचार-संज्ञा, पु० दे० (सं. बिपकै, बीकै-संज्ञा, पु० दे० 'स० वृहस्पति) ' 'स० वृहस्पति) । व्यभिचार ) दुष्कर्म, दुराचार, बदचलनी। वृहस्पति या गुरुवार । विभचारी, विभिचारी*- वि० दे० (सं० बिबछना --अ.क्रि० दे० (सं० विपक्ष ) व्यभिचारिन् ) कुकर्मी, दुराचारी, बदचलन । विरोधी या विरुद्ध होना, उलझना, फँसना ।। स्त्री० बिभिचारिनी। “व्यसनी धन तुम. बिबर-संज्ञा, पु० (दे०) गुफ़ा, छिद्र, गड्ढा, गति बिभिचारी" . रामा० । बिवर (सं.)। "पैठे बिबर बिलंब न कीन्हा" | बिभाना-अ० क्रि० दे० (सं० विभा ) शोभा -रामा० । पाना, चमकना, देख पड़ना। "भूतल की बिबरन* - वि० दे० ( स० विवर्ण ) बदरंग, . बेणी सी त्रिवेणी शुभ शोभित हैं, एक कहैं जिसका रंग बिगड़ गया हो, कांति-हीन, सुरपुर मारग बिभात है "-राम । गतश्री । संज्ञा, पु० (दे०) व्याख्या, विवेचन, विभावरी- संज्ञा, स्त्री० (दे०) तारों वाली भाष्य, टीका, वृत्तांत, हाल, विवरण (सं०)। रात, विभावरी (सं०)। “ज्यों ज्यों बढ़त विवस -वि० (दे०) लाचार. मजबूर, विभावरी त्यों त्यों बढ़त अनंत"-वि०। पराधीन, परतंत्र, विवश (सं०), बेबस । बिभिनाना-स० क्रि० दे० (सं० विभिन्न ) संज्ञा, स्त्री. विवसता । कि० वि० (दे०) अलग या पृथक करना, भिन्न करना । For Private and Personal Use Only Page #1287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir बिभु १२७६ बिरतंत बिभु-संज्ञा, पु. (दे०) स्वामी, परमेश्वर, बियाना-स० कि० दे० (हि० व्याना ) विभु (सं.)। वि० सर्व व्यापक, महान। जनना, बच्चा पैदा करना । बिभौ-संज्ञा, पु० (दे०) ऐश्वर्य, संपत्ति, बियापना*-स० कि० (दे०) व्यापना (हि०) वैभव, विभव (सं.)। व्याप्त होना। बिमन*-वि० दे० (सं० विमनस् ) उदास, बियाबान-संज्ञा, पु० (फा०) जंगल, उजाड़ सुस्त, दुखी, उन्मन । कि० वि०-बिना मन स्थान, मरुस्थल । के, अनमना होकर । संज्ञा, स्त्री० बिमनता। बियारी, बियाल*-संज्ञा, स्त्री० (दे०) बिमाता-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० विमाता)! व्यालू (हि.), रात का भोजन, विश्रारी सौतेली माँ। (ग्रा०)। बिमान-संज्ञा, पु० दे० (सं० विमान) श्राका- बियाल-संज्ञा, पु० (दे०) साँप, शेर, विशाल । शीय सवारी, वायु-यान, रथ आदि सवारी, बियाह*-संज्ञा, पु० (दे०) विवाह (सं०), अनादर, मान या अभिमान रहित । बिधाह, व्याह । वि०-बियाहा, स्त्री० बिमानी-वि० दे० (सं० विमानिन् ) २) बियाही। आदर या सत्कार रहित, मान-रहित, निरभि- बियाहता-वि० सी० दे० ( सं० विवाहता) मानी। “बिमानी कृत राजहंस"-राम० जिसके साथ विवाह हुथा हो । बिमोहना-स० क्रि० दे० (सं० विमोहन ) वियोग-संज्ञा, पु. दे० (सं० वियोग ) लुभाना, मोहना, मोहित करना। अ० क्रि० | बिछोह । वि० बियोगी, स्त्री०-बियोगिनी। (दे०) मोहित होना, लुभाना। " को सोवै । "तो प्रभु कठिन बियोग-दुख"- रामा० । को जागै अस हौं गयेउँ बिमोह"-- पद्मा०। विरंग-वि० (हि०) कई रंग का, बेरंग का । विय -वि० दे० (सं० द्वि) दो, युग्म, विरकत-वि० दे० (सं० विरक्त) विरक्त, दूसरा । —संज्ञा, पु० दे० (सं० बीज ) योगी, सन्यासी । “बैरागी बिरकत भला, बीज, बिया (ग्रा.), बीजा। गेही चित्त उदार"—कबी०। बियत-संज्ञा, पु० दे० (सं० वियत्) आकाश, नभ, व्योम, गगन । बिरख, बिरिख-संज्ञा, पु० (दे०) वृष (सं०)। बिया-संज्ञा, पु० दे० (सं० बीज) बीज, बिरखभ-संज्ञा, पु० (दे०) बैल, वृषभ (सं०)। बीजा (दे०)। "बोवै बिया बबूर का, प्राम बिरचना-स० क्रि० दे० (सं० विरचन) कहाँ तें होय"-०। बनाना । अ० क्रि० (दे०) मन उचटना। बियाज-संज्ञा, पु० दे० (सं० व्याज) बहाना, बिरचुन, बेरचुन-संज्ञा, पु० दे० यौ० सं० सूद, मिस, ब्याज। | वदरचूर्ण ) बेर का चूर्ण ।। बियाधा*-संज्ञा, पु० दे० (सं० व्याधा) | बिरछ, बिरछा-संज्ञा, पु. (दे०) वृत्त व्याधा, बहेलिया, शिकारी, बियाध। (सं०), पेड़, बिरिछ (ग्रा.)। बियाधि, बियाध, बियाधा--संज्ञा, स्रो० बिरछिकछ- संज्ञा, पु० (दे०) वृश्चिक दे० (सं०व्याधि) व्याधि, रोग, कष्ट. बियाधी (सं०), बिच्छू, बीछी, बीछू, वृश्चिक राशि । (ग्रा.)। "ज्यों बिन बौखधि बहै बियाधि" बिरझना--अ० क्रि० दे० (सं० विरुद्ध ) –पाल्हा०। __ झगड़ना। बिरझाना-- मचलना, आग्रह बियाना-संज्ञा, पु० दे० (हि० व्यान) करना, बिरुझाना, बिरुझाना (ग्रा०)। व्यान, व्याना, उत्पन्न करना । “न तरु | बिरतंत -संज्ञा, पु० (दे०) वृत्तांत (सं०)। बाँझ भलि बादि बियानी"-रामा। हाल, वर्णन, बिरतांत । For Private and Personal Use Only Page #1288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir D ESIRNactsang - सूच० । बिरत बिरी, बीरी बिरत-वि० (दे०)विरत, (सं०) वत, बैरागी, पीड़ित होना । "राधाविरह देखि बिरहानी" विरक्त । संज्ञा, स्त्री० (दे०) विरति, विरति -सूबे० । (सं.)। बिरहनी--संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० विरहिनी) बिरताना-स० कि० दे० ( सं० वितरण ) वियोगिनी, विछोहिनी, बिरहिनि (७०)। बाँटना, वरताना (ग्रा०)। बिरहिया-वि० दे० सं० विरहिन् ) वियोगी। बिरथा-वि० (दे०) व्यर्थ (सं०), वृथा। वि० स्त्री० ---रियोगिनी। बिरदा-संज्ञा, पु० (दे०) विरद (सं०), यश।। विरही--संता, पु० दे० (सं० विरहिन् ) " बाँधे बिरद बीर रनगाढ़े"--रामा० ।। वियोगी, विछोही। | बिराग--संक्षा, पु० दे० (सं० विराग) विरक्ति, बिरदैत-संज्ञा, पु० दे० (हि. विरद -- ऐत उदासीनता वि० विरागी। प्रत्य० ) अति विख्यात शूरवीर योद्धा। बिरागना-अ.क्रि० दे० (सं० विराग) विरक्त वि०--प्रसिद्ध, विख्यात, बिरुदैत (व्र०)। होना । " लखि गति ज्ञान बिराग बिरागी" बिरध-वि० दे० (सं० वृद्ध ) वृद्ध, बूढ़ा । संज्ञा, पु०-बिरधायन । " विरध भयेउँ बिराजना--अ० क्रि० दे० (सं० विराजन ) अब कहहिं रिछेसा"- रामा० । बैठना. शोभित होना। बिरमना, बिलमना- अ० कि० दे० (सं० बिरादर-संज्ञा, पु. (फ़ा०) भाई, भ्राता, विलंबन ) सुस्ताना. विश्राम या पाराम बंधु बांधव । यौ० -भाई-बिरादर।। करना, मोहित हो फँस रहना, ठहरना, | | बिरादरी .. संज्ञा, स्त्री. (फ़ा०) भाई-चारा, रुकना ! स० रूप -विरमाना, बिरमावना, एक जाति के लोग, जाति । प्रे० रूप --विरमवाना । —माधव बिरमि विरान, बिराना-वि० दे० (फ़ा० वेगाना) बिदेस रहे "-सूर० । दूसरा, गैर, पराया, अन्य, अपर । बिरल, बिरला-वि० दे० (सं० विरल ) बिराना, शिरावना-स० क्रि० (दे०)चिढ़ाना, अलग, जुदा, कोई एक, इका-दुक्का ।। मुँह बनाना । "बिरला राम भगत कोउ होई"-रामा। बिराम-ज्ञा, पु० दे० (सं० विराम) विश्राम, बिरव, बिरवा, बेरखा--संज्ञा, पु० दे० (सं० देरी, वाक्य की समाप्ति-सूचक चिन्ह ।। वृक्ष ) पेड़, वृक्ष, चने का फला हुअा पौधा,बिरिख- संज्ञा, पु० (दे०) वृष (सं०), होरहा, बंट ( प्रान्ती० )। "रोपै बिरवा | बैल, दूसरी राशि (ज्यो०)। संज्ञा, पु० दे० श्राक को, श्राम कहाँ ते खाय".-०। (सं० वृक्ष) वृक्ष, पेड़। बिरसता-संज्ञा, स्त्री० दे० ( सं० विरसता ) | बिरि ----संज्ञा, पु० (दे०) वृत्त (सं.)। झगड़ा, मनमुटाव, नीरसता । वि० बिरस- बिरिध - वि० दे० ( सं० वृद्ध ) बूढ़ा, बुड्ढा । रस रहित, नीरस । "जानेसि बिरिध जटाऊ एहा'' -रामा० । बिरसना --अ० कि० (दे०) रहना, ठहरना, विरिया--संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० वेला) समय, टिकना, विरस या उदास होना। वक्त, मौका बेरा। संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० वार) बिरह, बिरहा-संज्ञा, पु० दे० ( सं० विरह) बार, एफ।। "पुनि पाउब इहि बिरियाँ वियोग, विछोह, जुदाई, अहीरों का एक काली"--रामा० । राग या गीत । “बिरह बिथा जल परस बिरी, बीरी*--संज्ञा, स्त्री० दे० (हि० बीड़ी) बिन, बसियत मो हिय लाल''--वि०।। पान का बीड़ा, पत्ते में लिपटी तमाखू या बिरहाना-स० क्रि० दे० ( सं०विरह ) विरह, बीड़ी। "खरे अरे प्रिय के प्रिया, लगी बिरी For Private and Personal Use Only Page #1289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir बिरुझना १२७८ बिलबिलाना मुँह देने "-बि० । “खाये पान-बीरी सी सब का सब, पूरा पूरा, सारा, सब, निपट, बिलोचन बिराज भाज'- पद्मा। निरा, श्रादि से अन्त तक। बिरुभना-अ० क्रि० दे० (सं० विरुद्ध ) बिलखना-अ० क्रि० दे० (सं० विकल ) झगड़ना, मचलना । "लागी भूख चंद मैं फूट फूट कर ज़ोर से रोना, विलाप करना, खैहौं देह देह रिस करि विरुझावत' सूत्रे। दुखी होना, संकुचित होना, बिलगना। स० रूप-विरुझाना, प्रे० रूप-बिरुकवाना । स० रूप-बिलखाना, विलखावना। बिरुद-संज्ञा, पु० दे० ( सं० विरद ) प्रशंसा. बिलग--वि. (हि० बि- लगना-प्रत्य०) यश-कीर्तन । “बिरुद, बड़ाई पाय गुननि | पृथक, अलग | संज्ञा, पु. ( हि०) पार्थक्य, बिनु बड़े न हूजै"--मन्ना० । द्वेष, बुरा भाव, दुख, रंज । मुहा०बिरुदैत-वि० दे० (हि. बिरद । ऐत-प्रत्य०) बिलग मानना---बुरा या माख मानना । विख्यात, प्रसिद्ध । संज्ञा, पु० दे० (हि. "तजिहाँ जो हरखि तौ बिलग न मानै विरदैत ) प्रतिज्ञावाला, नामी वीर । कहूँ"..-श्रमी० । "विरुझ बिरुदत जे खेत परे, न टरे हठि बिलगाना-अ० क्रि० दे० (हि.) पृथक या बैर बढ़ावन के" ---कविता । अलग होना, दूर होना । स० क्रि० (दे०) विरुधाई-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० वृद्धता ) पृथक या अलग करना, दूर करना, चुनना, बुढ़ापा, बुढ़ाई, बिरधापन । छाँटना । “सो बिलगाय बिहाय समाजा" बिरूप - वि० दे० (सं० विरूप ) कुरूप, -रामा। बदला रूप, बिलकुल भिन्न । संज्ञा, स्त्री० बिलच्छन-वि० (दे०) अनोखा, अपूर्व, बिरूपता। अद्भुत, विलक्षण (सं.)। बिरोग- संज्ञा, पु० दे० (सं० वियोग) बिलहना-अ० कि० दे० (सं० लक्ष ) बियोग, बिछोह, बिरह । ताड़ना, लक्ष करना। बिरोगिनी-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० वियोगिनी) | बिलटी, बिल्टी-संज्ञा, स्त्री० दे० (अं० बिलेट) विरहिनी, वियोगिनी। रेल से माल भेजने की रसोद । बिरोजा-संज्ञा, पु० (दे०) चीड़ के पेड़ का बिलनी-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. विल) काली गोंद, गंधाबिरोजा। पतली भौंरी जो दीवारों पर बाँबी बनाती बिरोधना-अ० क्रि० दे० (सं० विरोध) है। संज्ञा, स्त्री० (दे०) आँख की पलक पर बैर या विरोध करना, द्वेष करना । " नवहि छोटी फुन्सी, गुहाँजनी (प्रान्ती)। बिरोधे नहिं कल्याना"-रामा०। बिलपना* - अ० क्रि० दे० ( सं० बिलाप ) बिलंद-वि० दे० (फ़ा० बुलंद ) ऊँचा, बड़ा, रोना, चिल्लाना, रोना-पीटना, विलाप बिफलीभूत ( व्यंग्य )। करना । स० रूप-बिलपाना, प्रे० रूप - बिलंबना-अ० कि० दे० (सं० विलंब) बिलपवाना ! “यहि बिधि बिलपत भा देर करना, रुकना, ठहरना, विलाना। भिनसारा"~ रामा० । बिल-संज्ञा, पु० दे० (सं० विल ) बन के बिलफल-क्रि० वि० (अ.) इस वक्त, इस जंतुओं का खोद कर बनाया हुअा गढ़े सा समय । रहने का स्थान, माँद, बिबर, छेद, गुफ़ा, बिलबिलाना-~अ० क्रि० दे० (अनु०) छोटे हिसाब का लेखा (अं०)। छोटे कीड़ों का इधर उधर रेंगना, व्याकुल बिलकुल-क्रि० वि० (अ०) सम्पूर्ण, समस्त, ! होकर बकना, रोना, चिल्लाना, घबराना! For Private and Personal Use Only Page #1290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir बिलम, बेलम १२७६ बिलोलना बिलम, बेलम --संज्ञा, पु. दे० (सं० बिलार-संज्ञा, पु० दे० (सं० विडाल ) विलंब ) देरी, विलंब, देर, बेर। बिल्ली । स्त्री० बिलारी। बिलमना-अ० क्रि० दे० (सं० विलंब ) | बिलारी-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० विडाल ) | बिल्ली। देर या विलंब करना, ठहर जाना, रुक रहना, विरमना । स० रूप बिलमाना, प्रे० रूप बिलारीकंद-संज्ञा, पु० (दे०) बिदारीकंद बिलमावना । "बालम बिलमि बिदेश (सं०) बिलाईकंद। बिलावल-- संज्ञा, स्त्री० (दे०) एक रागिनी (संगी०)। बिल्ललाना-अ० कि० दे० (सं० वि- लाप) बिलासना-स० कि० दे० (सं० विलसन) बिलखना, रोना, चिल्लाना, रोना-पीटना। बिलसना, भोगना, उपभोग करना, बरतना। "बिललात परे एक कटे गात"-सुजा। बिलासिनी-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० विलासनि) बिलवाना - स० क्रि० दे० (सं० विलय ) भोग करनेवाली। खोना, हेरवा देना, छिपाना, छिपवाना, नष्ट | बिलासी-वि० (सं० विलासिन् ) भोगी ! या बरबाद करना या कराना, लुप्त करना। बिलैया-संक्षा, स्त्री० दे० ( सं० विडाल ) बिलसना - अ० कि० दे० ( सं० विलसन ) बिल्ली । “टि जाय गैया के बिलैया चाटि शोभित होना, अच्छा लगना । स० क्रि० । चाटि जाय"-या. (दे०) बरतना, भोगना, उपभोग करना। बिलोकना*----स० कि० दे० (सं० बिलोकन) स० रूप-बिलसाना, प्रे० रूप-बिलसवाना। देखना, परीक्षा या जाँच करना । 'राम "नित्त कमावै कष्ट करि, बिलसै औरहि । बिलोके लोग सब, चित्र लिखे से देखि"कोय"- । रामा० । बिलहरा-संज्ञा, पु. दे० ( हि बेल ) पान | बिलोकनिः -- संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० विलोकन) रखने का बाँस की पतली तालियों का | कटाक्ष, दृष्टिपात, चितवनि । “बंक संपुटाकार छोटा डब्बा, बेलहरा। बिलोकनि वानि"-वि० । " उग्र विलोकनि बिला-अव्य० (१०) बिना, बगैर । प्रभुहि बिलोका"-रामा०। बिलाई-संज्ञा, स्त्री० दे० ( हि० बिल्ली) | बिलोचन--संज्ञा, पु० दे० (सं० विलोचन ) बिल्ली, बिलारी, कुयें का काँटा, किवाड़ , नेत्र, आँख । “बरवश रोंकि बिलोचन वारी"--रामा। की सिटकिनी, कद्दू कस । बिलोड़ना*-स० कि० दे० (सं० विलोड़न) बिलाईकंद-संज्ञा, पु० (दे०) बिदारीकंद दही मथना, अस्त-व्यस्त करना । संज्ञा, पु० (सं०) एक जड़ (औष०) । | विलोडन वि०-विलोडनीय,बिलोडित। बिलाना-अ० क्रि० दे० (सं० बिलयन ) | बिलोन-वि० दे० (सं० वि-- लवण ) नाश या नष्ट होना, लोप या अदृश्य होना, लवण-बिना, नीरस, निस्स्वाद. विरस, कुरूप । मिट जाना । स० रूप-बिलावना, प्रे० | बिलोना-स० कि० दे० (सं० विलोड़ना) रूप-बिलवाना । “रावन से बली तेऊ बुल्ला | दूध या दही मथना, बिगाड़ना, गिराना, से बिलायगे”–बेनी। ढालना, अस्त-व्यस्त करना। बिलापना-अ० क्रि० दे० (सं० विलाप) बिलोरना*--स० कि० दे० (सं० विलोड़ना) रोना, विलपना-विलाप करना। विलोड़ना, मथना, छिन्न-भिन्न करना । बिलायत, बिलाइत-संज्ञा, स्त्री० दे० (अ. बिलोलना-स० क्रि० दे० ( सं० विलोलन ) बिलायत) अन्य देश । वि०-बिलायती। हिलना, डोलना । वि०-बिलोल-चंचल । For Private and Personal Use Only Page #1291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ROS बिलोचना १२८० बिसराना बिलोधना*-स० कि० दे० (सं० विलोडन) बिस, विष-संज्ञा, पु० दे० (सं० विष ) बिलोना, मथना, । "तुलसी मदोवै रोय जहर, गरल "बिषरस भरा कनक-घट जैसे" रोय के बिलावै आँसु'--कविः । - रामा० । विलमुक्ता-वि० (अ०) जो घट बढ़ न सके। बिसनपरा, विसखोपड़ा-संज्ञा, पु० दे० संज्ञा, पु०-सार्वकालिक कर या लगान। (सं० विषखपर ) एक विषैला गोह की बिल्ला-संज्ञा, पु. दे० सं० विडाल ) जाति का जंतु, एक जंगली बूटी। विलार, मार्जार, नर बिल्ली। स्त्री०- बिसतरना, विसतारना*-अ० कि० दे० बिल्ली । संज्ञा, पु० (सं० पटल, हि० पल्ला, । (सं० विस्तरण ) फैलना, फैलाना, बदना वल्ला ) एक प्रकार की चपरास, बैज, बदाना, विस्तार करना । (अं०)। विसद-वि० दे० (सं० विशद ) स्वच्छ, बिल्ली-- संज्ञा, स्त्री० दे० ( सं० विडाल हि० साफ़, सफ़ेद बड़ा. विस्तृत । "सब मंचन बिलार ) सिंहादि की जाति का एक छोटा । तें मंच इक, सुन्दर बिसद बिसाल"-रामा० । माँसाहारी जंतु , बिलारी, सिटकिनी, विसन*----संज्ञा, पु. दे० (सं० व्यसन ) कदुकश । बिलैया (दे०)। शौक, स्वभाव, टेंव, व्यसन, लत । “बिसन बिल्लौर - संज्ञा, पु० दे० (सं० वैदूर्य्य मि. / नींद अरु कलह में, मूरख रहत बिहाल'"-. फा० बिल्रलू ) स्फटिक, एक प्रकार का साफ नीतिः । सफेद पारदर्शक पत्थर, अति स्वच्छ शीशा । विसनी-वि० दे० ( सं० व्यसन ) शौकीन, बिल्लौरी वि० (हि० बिल्लौर) बिल्लौर का। लती, जिसे कोई व्यसन हो। बिवरा-संज्ञा, पु० (दे०) व्यौरा, वृत्तांत । । बिसमड, विममयो- संज्ञा, पु० दे० (सं० बिवराना-स० क्रि० दे० ( हि० विवरना का विस्मय ) दुग्य, विषाद, संदेह, श्राश्चर्य । स० रूप ) बाल सुलझाना, सुलझवाना। "हरख समय विषमय करसि, कारन मोहि बिवाई, वाई-- संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० सुनाव"-रामा० । विपादिका) पद-रोग विशेष । " देखि बिहाल बिसमरना*--स० कि० दे० (सं० विस्मरण) बिवाइनि सों"--नरो।। भूल जाना। विषया-संज्ञा, स्त्री. (सं० विषय ) विषय- बिसमिल-वि० दे० (फा० विस्मिल) घायल । भोगों की इच्छा । “जो बिषया संतन तजी, बिसमिलना-क्रि० वाक्य (अ० विस्मिल्लाः) मुद ताहि लपटात"-रहीम०। श्रीगणेश करना, प्रारम्भ करता हूँ भगवान बिषान, बिखान - संज्ञा, पु० दे० (सं० के नाम से । मुहा० -बिसमिल्ला करना विषाण) सींग। -शुरू करना। बिसंच*-संज्ञा, पु० दे० (सं० विसंचय ) विसयक*- संज्ञा, पु० दे. (सं० विषय ) भेय, संचय का नाश, बे परवाही, बाधा, सूबा, प्रदेश, रियासत । वि० (दे०) विषयक, कार्य-हानि । सम्बन्धी। बिसंभर-संज्ञा, पु० दे० ( सं० विश्वंभर ) विसरना-स० क्रि० द० (सं० विस्मरण ) परमेश्वर, भगवान । *1-वि० दे० (हि. भूलना. भूल जाना। स० रूप-बिसराना, विसंभार) बेसँभार, संभार-रहित, असावधान, . बिसरावना, प्रे० रूप-विसरवाना। बिसरि अचेत, बेख़बर, अव्यवस्थित । गयो सम भोर सुभाऊ"-रामा० । बिसंभार-वि० दे० हि०) बेहोश, अचेत, विसराना-२० क्रि० दे० (सं० विस्मरण ) प्रासावधान । | भूलना, भुलाना। For Private and Personal Use Only Page #1292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir बिसरात १२८१ बिसाहनी बिसरातां*-संज्ञा, पु० दे० ( सं० वेशरः) बिसाती-संज्ञा, पु. (१०) तरकी, चूडी, खच्चर। सुई, तागा, खिलौने धादि का बेचने वाला। बिसराना-स० क्रि० दे० (सं० विस्मरण) बिसाना-अ० कि० दे० ( सं० वश) वश भूलना, भुलाना, विसरावना। __ या बल चलना, काबू चलना, बसाना बिसराम* ---संज्ञा, पु० दे० ( सं० विश्राम ) (दे०)। "तासों कहा बसाय ।" 1-अ० कि० विश्राम, पाराम | "निपट निकाम बिन राम | दे० (हि. विष+ना-प्रत्य०) विष का विसराम कहाँ'-पमा । प्रभाव करना, विसताना (ग्रा०)। बिसरावना * - स० कि० (दे०) बिसराना बिसारद--संज्ञा, पु० दे० (सं० विशारद ) (हि०) भुलाना, भूलना। । पूर्ण ज्ञाता, विद्वान, दक्ष, कुशल । बिसवास -संज्ञा, पु० दे० (२० विश्वास)बिसारना-स० कि० दे० (सं० विस्मरण ) प्रतीति, भरोसा । " स्वास बस डोलत सो । ध्यान न रखना, भुलाना, बिसराना, याको बिसवास कहा"-पद्मा। बिसरावना (दे०)। 'सुधि रावरी बिसारे बिसवासी-वि० दे० (सं० विश्वासिन् ) | देत"-रत्ना० । जिसका विश्वास हो, विश्वास करने वाला विसारा*-वि० दे० (सं० विषालु ) विषैला, स्त्री० बिसवासिनी। वि० (दे०) ( विलो०- | विष-भरा, विषाक्त । स्त्री० बिसारी । सा. अबिसवासी)। अविश्वासी,विश्वासघाती । भू०, स० क्रि० दे० (हि. बिसारना) भुलाया, बिसबिसाना-अ.क्रि० (दे०) सड़ना, बज भुला दिया । “पुनि प्रभु मोहिं बिसारेऊ '' बजाना। --रामा० । बिससना* -- स० कि० दे० (सं० विश्वसन) बिसास-संज्ञा, पु० दे० (सं० विश्वास ) एतबार, प्रतीति या विश्वास करना । स० विश्वास, प्रतोति, भरोला, एतबार । “ताहि क्रि० दे० (सं० विशसन) घात करना, काटना, बिलासे होत दुख, बरनत गिरधर दाल ।" मारना, वध करना। बिसासिन, विसासिनि-संज्ञा, स्त्री० दे० बिसहना, बेसहना*-स० कि० (दे०) (सं० अविश्वासिनी ) जिस स्त्री का भरोसा मोल लेना, बिलाहना, खरीदना, जान-बूझ | या प्रतीति न हो। कर अपने साथ लगाना। बिसहर* -- संज्ञा, पु० दे० (सं० विषधर ) बिसासी*--वि० दे० (सं० अविश्वासी) साँप, विष वाला। संज्ञा, पु० दे० (सं० जिस पुरुष का भरोला या विश्वास न हो विपहर ) विष-नाशक । सके। स्त्री. विसासिनि, बिसासिनी। बिसाँयँध, बिसाँइध-वि० दे० (सं० वसा "बोरिगो बिसासी आज लाज ही की = चरबी+गंध ) जिसमें सड़ी मछली की नैया को "---पमा० । “कबहूँ वा बिसासी सी दुर्गध हो । संज्ञा, स्त्री० (दे०) सड़े माँस सुजान के आँगन"-घना० । की सी दुर्गधि । बिसाहना, बेसाहना-स० क्रि० दे० (हि०) बिसाख, बिसाखा-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० मोल लेना, ख़रीदना, जान-बूझ कर अपने विशाखा) एक नक्षत्र । पीछे लगाना । संज्ञा, पु० (दे०) सौदा, मोल बिसात-संज्ञा, स्त्री० (अ.) वित्त, सामर्थ्य, ली हुई वस्तु खरीद, मोल लेने की क्रिया। समाई, औकात, स्थिति, हैसियत, जमा- "आनेउ मोल बिलाहि कि मोही'-रामा। पूंजी, चौपड़ या, शतरंज के खेल का ख़ाने-बिसाहनी-संज्ञा, स्त्री० (हि.) सौदा, माल दार वस्त्र । । की वस्तु । भा० श० को०-१६१ For Private and Personal Use Only Page #1293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir बिसाहा १२८२ बिहरना बिसाहा-संज्ञा, पु० दे० (हि. विसाहना) बिस्तुइया, बिसतोया-संज्ञा, स्त्री० दे० मोल ली वस्तु, सौदा-पाती, बिसाहनी। (हि. विष+ तूना =पकना) गृह-गोधा, बिसिख* -- संज्ञा, पु० दे० (सं० विशिख ) | छिपकली।। बाण, शर, तीर । " बिसिख-निकर निसिचर । | बिस्वा-संज्ञा, पु० दे० (हि. बीसवा ) मुख भरेऊ"-रामा० । यौ०-बिसिखा- एक बीघे का बीसवाँ भाग, कान्यकुब्जों सन-धनुष । की जाति मर्यादा-सूचक एक शब्द, बिसा बिसियर*-वि० (दे०) विषधर (सं.), (ग्रा०) । मुहा०-बीस विस्वा-ठीक विषैला, बिसहा। ठीक, निश्चय, निस्संदेह, बीसौ बिसे (ग्रा. बिसूरना-प्र. क्रि० दे० ( सं० विसूरण = व.)। संज्ञा, स्त्री० (दे०) वेश्या (सं०) । शोक ) मन में दुख मानना, शोक या खेद "बिस्वा, बंदर, श्रगिन, जल, कूटी, कटक, करना, स्मरण करना । संज्ञा, स्त्री०-सोच, कलार।" चिन्ता । "जानि कठिन सिव-चाप बिसूरति” | विस्वास-संज्ञा, पु. (दे०) (सं० विश्वास ) -रामा। प्रतीति, एतबार, भरोसा, पिसास (प्रा.)। बिसेखना*-अ० कि० दे० (सं० विशेष) वि. विस्वासी। विशेष रूप से व्योरेवार बयान करना, बिहंग, विहंगम-संज्ञा, पु. (दे०) (सं० निश्चय या निर्णय करना, विशेष रूप से विहंग) पक्षी, चिड़िया। "पंख-हीन जिमि जान पड़ना। दुखी बिहंगा".-रामा। बिसेन-संज्ञा, पु० (दे०) क्षत्रियों की एक विहंडना-स० क्रि० दे० (सं० विघटन, जाति । प्रा० विहंडन ) तोड़ना, नष्ट करना, टुकड़े बिसेस*--वि० दे० (सं० विशेष ) अधिक, टुकड़े करना, मार डालना। ज्यादा, बढ़कर, भेद, अंतर, दोष (ग्रा.)। बिहंसना- अ० कि० दे० (सं० विहसन ) "अश्व लिये जुग दाम दिये नहिं एको मुसकुराना, हँसना। विवेक बिसेस लखाई " -जिया। विहसाना-स० क्रि० (हि. विहँसना ) बिसेसर-संज्ञा, पु० दे० यौ० (सं० हर्षित या प्रफुल्लित करना, हँसाना । विश्वेश्वर ) जगदीश्वर, महादेव जी। विहसौहा-- वि० दे० (हि. विहसना) हँसता बिस्तर-संज्ञा, पु. (फा० सं० विस्तर ) बिछौना, विछावन, विस्तार, बढ़ाव, बिसतर बिहग* संज्ञा, पु. (दे०) (सं० विहग) पक्षी । “संसय बिहग उड़ावनहारी"-- बिस्तरना*-अ० कि० दे० (सं० विस्तरण), रामा। फैलना, चारों ओर बढ़ना । संज्ञा, पु. (दे०) बिहतरी-संज्ञा, स्त्री. ( फ़ा० ) भलाई, विस्तरन । स० कि० दे० बढ़ाना, फैलाना, अच्छाई, कल्याण, बेहतरी। बढ़ाकर कहना। | बिहद, बिहद*- वि० दे० (फा० बेहद ) बिस्तार-संज्ञा, पु० (दे०) (सं० विस्तार) असीम, अपार, अधिक, बेहद (दे०)। फैलाव, बदाव । वि. विस्तारित । बिहबल*-वि० दे० (सं० विह्वल) व्याकुल, बिस्तारना-स० क्रि० दे० ( सं० विस्तरण ) बेचैन, विकल । फैलाना, विस्तार करना। संज्ञा, पु. बिस्ता- बिहरना-अ० क्रि० दे० (सं० विहरण ) रन । “कूप भेक जाने कहा, सागर को भ्रमण या यात्रा करना, घूमना, फिरना, विस्तार"-नीति । सैर करना। संज्ञा, पु. (दे०) बिहरन । For Private and Personal Use Only Page #1294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir बीच विहराना १२८३ * R० कि० दे० (सं० विघटन ) रिदीर्ण बीडा-संज्ञा, पु० दे० (हि. बोंडी+आहोना, फटना, फूटना, टूटना । "नव रसाल- प्रत्य० ) टहनियों या पतली लकड़ियों का बन बिहरनसीला।" "बल बिलोकि बिह- पूला या लंबा नाल जो कुआँ खोदते समय रति नहिं छाती"-रामा० । कुएं में भगाड़ न गिरने को लगाया जाता है, बिहराना*-अ० कि० दे० ( सं० विहरण) घास का बट कर बनाई हुई गेंडुरी, बाँस फटना। आदि का बोझ। बिहाग-संज्ञा, पु० (दे०) एक राग (संगी०)। बींधना*-अ० कि० दे० (सं० विद्ध) बिहान- संज्ञा, पु० दे० (सं० विभात) सवेरा, फँसना । स० कि० (दे०) फँसाना, छेदना, कल, अग्रिम दिन, भोर, प्रातःकाल, भिहान बेधना, विद्ध करना, बिंधना। (ग्रा.)। लो०--" जहाँ न कुक्कुट-सब्द बी- संज्ञा, स्त्रो० दे० (फा० बीबी ) बीबी, का, तहाँ न होत बिहान।" स्त्री, पत्नी, कुलवधू, (प्रान्ती०) बहिन, बिहाना - स० कि० दे० (सं० वि + हा = लड़की । “पूछा जो उनसे बी कहो परदा त्याग ) त्यागना, छोड़ना । पू० का० रूप कहाँ गया"-अक०। विहाय, बिहाइ। “भजिय राम सब काम बीका--वि० दे० (सं० वक्र ) टेदा, बाँका। बिहाई"-रामा० । अ० क्रि० (दे०) बीतना, संज्ञा, स्त्री० (दे०) बीकाई । “बार न बाँका ध्यतीत होना, गुजरना । “निमिप बिहात करि सकै"---कबी०। कल्प सम तेही"- रामा०। बिहार-संज्ञा, पु० दे० (सं० विहार ) श्रानंद, । बीख/*-- संज्ञा, पु० दे० (सं० बीखा ) डग, सैर, क्रीड़ा, केलि । क़दम । ( फ़ा० बीख ) जड़ । बिहारना-अ० कि० दे० (सं० विहरण ) बीगी-संज्ञा, पु० दे० (सं० वृक) भेड़िया, बिहार, केलि या खेल करना, क्रीड़ा करना । बिगवा (ग्रा०) । स्त्री० बिगिन । बिहाल-वि० दे० (फा० बेहाल ) बेचैन, बीगना--स० क्रि० दे० (सं० विकीरण ) व्याकुल, विकल । यौ०-हाल-चिहाल छितराना, बिखेरना, गिराना, छाँटना, (हाल-बेहाल )। "देखि बिहाल बिवाइन फेंकना, फैलाना। सों"-नरो। बीघा-संज्ञा, पु० दे० (सं० विग्रह ) खेत बिहि -- संज्ञा, पु० दे० (सं० विधि ) ब्रह्मा। की २० बिस्वे की नाप का एक परिमाण बिहिश्त-संज्ञा, पु० (फ़ा०) वैकुंठ, स्वर्ग। (३०२५ वर्ग गज़ )। बिही-संज्ञा, स्त्री० (फ़ा०) अमरूद, बीही, बीचो-संज्ञा, पु० दे० (सं० विच =अलग अमरूद से फलों वाला एक वृक्ष । अव्य० करना ) किसी पदार्थ का मध्य भाग, मध्य, (ग्रा० प्रान्तो०) बिही के पेड़ के फलों के भेद, अन्तर, बिलगाव । मुहा०-बीच दाने, गाय के हाँकने का शब्द।। करना-झगड़ा निपटाना या मिटाना, बिहीदाना-संज्ञा, पु० यौ० (फ़ा०) औषधि। लड़ने वालों को अलग अलग करना, झगड़ा बिहीन, बिहीना, बिहन--वि० दे० ( सं० तय करना। यौ०-बीच-बचाव-झगड़े विहीन) बिना, रहित, बगैर । " थल-बिहीन | का निपटारा । बीच खेत-खुले मैदान, तरु कबहुँ कि जामा "-रामा० । सब के संमुख । अवश्यमेव, थोड़े थोड़े अंतर बिहोरना-अ० कि० दे० ( हि० विहरना) पर । बीच बीच में- थोड़ी थोड़ी देर में। अलग होना, बिछुड़ना, लौटाना, फेरना, बीच में पड़ना-झगड़ा तय करने को बहोरना (ग्रा.)। मध्यस्थ होना या पंच बनना, प्रतिभू होना, For Private and Personal Use Only Page #1295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org बीचु 16 ज़िम्मेदार बनना | बीच पड़ना- अंतर थाना । 'परै न प्रकृतिहि बीच "-. तु० | बीच पारना या डालना -- पार्थक्य या अलगाव करना, भेद डालना, परिवर्तन करना | बीच रखना - भेद या दुराव रखना, गैर समझना । बीच में कूदना - - वृथा हस्तक्षेप करना, व्यर्थ टॉग ना । ( ईश्वर आदि को ) बीच में रख के कहना -- ( ईश्वरादि की ) शपथ या क़सम खाना । अवकाश, अवसर, बीच का, अन्तर, मौक़ा । "बीच पाय तिन काज सँवारय ।" क्रि० वि० (दे०) अंदर, भीतर, में | संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० बोचि ) लहर, तरंग | " बारि, बीचि जिमि गावैं बेदा" १२८४ बीना फेहरिश्त माल के दर मूल्यादि ब्योरे की सूची गड़े धन की सूची, कबीर की रचना के तीन संग्रहों में से एक । बीजगणित - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) वह गणित विद्या जिसमें श्रज्ञात राशियों के वर्णों को संख्या सूचक मान कर उनके द्वारा नियत नियमों से निकालते हैं । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir बीजत्व -- संज्ञा, पु० (सं०) बीज का भाव । बीजदर्शक - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) नाटक के afras की व्यवस्था करने वाला । बीजन, बीजना* -- संज्ञा, पु० दे० ( सं० व्यजन) पंखा, बेना, बिनवाँ, बिजना (ग्रा० ) । बीजपूर, बीजपूरक-संज्ञा, पु० (सं०) चकोतरा, बिजौरा नींबू । रामा० । बी - संज्ञा, पु० दे० ( हि० बीच ) भेद, अंतर, दूरी, श्रवपर, मौक़ा । बीजबंद - संज्ञा, पु० यौ० ( हि० बीज + Safar) बरियारी के बीज, खिरैटी के बीज, वा (प्रान्ती० ) । बीचोंबीच - क्रि० वि० यौ० ( हि० वीच ) बीजमंत्र - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) किसी देवता ठीक मध्य में, बिलकुल बीच में । बीना के प्रसन्न करने की शक्ति वाला मूलमंत्र, गुर, तत्व, सारांश | " स० क्रि० दे० (सं० बिचयन ) चुनना, छाँटना, बिनना, बाँटना (ग्रा० ) । बीडी* +- संज्ञा स्त्री० दे० (सं० वृश्चिक ) बिच्छू, बिच्छी ( मा० ) । " ग्रह-गृहीत पुनि बात-बस, तापै बीछी मार : - रामा० । " छुवत चढ़ी जनु सब तन बीछी " - रामा० | बी* t - संज्ञा, पु० दे० (सं० वृश्चिक) बिच्छू, बिच्छी, बीaat | बीजरी, बीजु, बीजुरी - संज्ञा, त्रो० दे० (सं० विद्युत् ) बिजली, दामिनी । बीजा - वि० दे० ( सं० द्वितीय ) दूसरा । संज्ञा, पु० दे० (सं० बीज ) बिया, दाना, बीया, बीज । + बीजाक्षर -संज्ञा, पु० यौ० (सं०) बीज मंत्र का प्रथम वर्ण । बीजी-- संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० बीज + ई - प्रत्य० ) मींगी, गिरी, गुठली । बीज - संज्ञा, पु० (सं०) फूल वाले पेड़ों का गर्भड जिससे पेड़ निकलता है, दाना, बिया (ग्रा० ), तुम ( फ़ा० ) मूल, जड़, प्रकृति, प्रमुख कारण, हेतु, कारण, वीर्य, शुक्र, अव्यक्त संकेत वर्ण या शब्द, अव्यक्त संख्या- सूचक चिन्ह | जैसे- बीजगणित | किसी देवता के प्रसन्न करने की शक्ति वाली अव्यक्त ध्वनि या शब्द ( तंत्र० ) । यौ० - बीजमंत्र | संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० विद्युत् ) बिजली, दामिनी । बीजक - संज्ञा, पु० (सं०) सूची, तालिका, बीजू - वि० दे० (सं० बीज + ऊ हि० - प्रत्य० ) जो बीज से उत्पन्न हो, पेड़ आदि । विलो ० कलमी ) | संज्ञा, पु० (दे०) विज्जु (हि०) बिजली | T बी, बीमा - वि० दे० (सं० विजन ) निर्जन, एकांत, शून्य । ' दंडकारन बीझ बन जहाँ " बीना - अ० क्रि० दे० (सं० विद्व ) फँसना, लिप्त होना । पद्मा० । For Private and Personal Use Only Page #1296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org बीट बीट - संज्ञा, स्त्रो० दे० (सं० विट) चिड़ियों का मल या मैला, विष्ठा । बीड - संज्ञा, स्त्री० दे० ( हि० घोड़ा ) ऊपरनीचे रखे हुये रुपये जो गुल्ली के समान दीखते हैं । १२६५ बीड़ा संज्ञा, पु० दे० (सं० वीटक ) पान की गिलौरी, लगा या मसाला सहित लपेटा पान, वीरा (दे० ) । मुहा० - बीड़ा उठाना ( लेना) - किसी कार्य के करने का संकल्प करना या भार लेना, उद्यत या तैयार होना। बीड़ा डालना - किसी कार्य के करने के हेतु लोगों से कहना । बीड़ी - संज्ञा, स्त्री० दे० ( हि० बीड़ा ) बीड़ा, ster बीड़ा. गड्डी, त्रियों के दाँतों में लगाने की मिस्पी, पत्ते में लिपटी तमाखू जिसे लोग सिगरेट या चुरु के समान सुलगा कर पीते हैं । बीणा - संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० वीणा ) सितार सा एक बाजा, बीना (दे० ) । बीतना - अ० क्रि० दे० (सं० व्यतीत ) समय व्यतीत या बिगत होना, गुज़रना, घटना, दूर होना, पड़ना, संघटित होना, चला जाना । बोता- संज्ञा, पु० दे० ( फा० बलिश्त ) एक गज का चौथाई भाग, बालिश्त, वित्ता, विलस्ता (ग्रा० ) । बंधु सँग, किया सिंधु वि० व्यतीत हुआ, गुजरा। aur कल्प सम बीता " - बीथि, वीथी - संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० वीथी ) सड़क, गली, मार्ग, रास्ता । " बीथी सब असवारन भरीं १- रामः । बीति - वि० दे० (सं० व्यथित) पीड़ित, दुखी, व्यथित । - रामा० । " बीना - प्र०क्रि० दे० (सं० विद्ध) फँसना । ० क्रि० (दे०) बींधना छेदना, बेधना । 6 'मनहु कमल संपुट महँ बीधे, उड़ि न सकत चंचल थलि वारे " - सूर० । " 'वन बन खोजत फिरे बीता को " -- भ्र० " सो । छन वीर SONG बीन - संज्ञा, खो० दे० (सं० वीणा ) बीणा, बीना (दे०), सितार की तरह का एक बाजा । बाजत बीन, मृदंग, झांझ, डफ मंजीरा, सहनाई - स्फु० | 16 "" बीनना- - स० क्रि० दे० (सं० विनयन ) चुनना, उठाना, छाँटना, छोटी चीजें लग करना । स० क्रि० (दे०) बींधना । स० क्रि० (दे०) बुनना : बो- संज्ञा, पु० वृहस्पति, त्रि दे० (सं० बृहस्पति ) गुरुवार, (वा० ) । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir बीवी - संज्ञा स्त्री० (फ़ा० ) कुलीन स्त्री या कुलवधू, पत्नी, बहू, कन्या, बहिन । बीभत्स - वि० (सं०) घृणित, पापी, दुष्ट | संज्ञा, पु० (सं०) काव्य के नौ रसों में से जवाँ रस जिसमें मांस, मज्जादि घृणित वस्तुओं का वर्णन हो ( काव्य ० ) । बीभत्साद्भुत विज्ञेय, शांतश्व नवमेो रसः । " बीमा - संज्ञा, पु० दे० ( फ़ा० बीम = भय ) आर्थिक हानि की ज़िम्मेदारी जो कुछ नियत धन लेकर बदले में की जाये, वह पारसल या पत्रादि जिसकी यों जिम्मेदारी ली गई हो । बीमार - वि० ( फा० ) रोगी, जिसे कोई रोग हो । बीमारी - संज्ञा, खो० ( फा० ) व्याधि, रोग, मर्ज़, बखेड़ा, बुरा स्वभाव, संकट (व्यंग्य० ) । वीय, बीया - वि० दे० (सं० बीज) बिया (दे०) बीज. दाना | बीया* - वि० दे० (सं० द्वितीय | संज्ञा, पु० दे० बीज, बिया, बोजा ! For Private and Personal Use Only द्वितीय ) दूसरा, (सं० बीज ) दाना, " वीर - वि० दे० (सं० वीर ) बहादुर, शूर | संज्ञा, स्त्री० बीरता । बीर वृती तुम धीर थछोभा " - रामा० । संज्ञा, पु० दे० ( सं० वीर ) भ्राता भाई । " बीते अवधि जाउँ जौं, जियत न पाऊँ वीर "- रामा० । संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० वीर) सखी, सहेली, संगिनी । "फिरति कहाँ है बीर बावरी भई सी, तोही Page #1297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir बीरउ १२८६ बुकचा कौतुक दिखाऊँ चलि परे कंज द्वारी के"--. नाप साठ संवत्सरों का एक तिहाई भाग हठी । " ऐरी मेरी बीर जैसे तैसे इन (ज्यो०)। " बीसी विस्वनाथ की सनीचरी आँखिन सों, कढि गो अबीर पै अहीर तौ। है मीन की" - कविः ।। कलै नहीं" - पद्मा० । कलाई और कान का बीह*- वि० दे० (सं० विंशति ) बीस। एक गहना, तरना, बीरी, चरागाह ।। । “साँचहुँ मैं लबार भुजबीहा"-रामा । बीरउ*-संज्ञा, पु० दे० ( हि० बिरखा ) बीहड़-वि० दे० (सं० विकट ) ऊँचा-नीचा पेड़। जंगल, उबड़-खाबड़, विकट, विषम । बीरज *-संज्ञा, पु० दे० ( सं० वीथ्य ) बल, बुंद--संज्ञा, पु० दे० ( सं० बिंदु ) बँद, तरा। पुसत्व, पराक्रम, बीज, बिया। ___ "बुद-प्रघात सहैं गिरि कैसे"-रामा० । बीरता-संज्ञा, स्त्री० दे० ( सं० वीरता ) बहा- बुदका-सा । बँदकी-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० विदु+कोदुरी, शूरता । "कीरति विजय बीरता भारी, प्रत्य०) छोटी गोल बिंदी, छोटा गोल धब्बा -रामा०। | या दाग़ । वि० बँदकीदार । बीर-बहटी-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० वीर बधूटी) । बंदा-संज्ञा, पु० दे० (सं० विदु ) बुलाक । जैसा कान का एक गहना, लोलक इन्द्रवधू, एक लाल बरसाती छोटा कीड़ा। (प्रान्ती०) मस्तक पर की टिकुली। बीरन-संज्ञा, पु० दे० (सं० वीर ) भाई, बँदिया-संज्ञा, स्त्रो० दे० ( हि० बँदी ) छोटी राजा बीरबल, वीर। बंदे, एक मिष्ठान्न । बीरा*-संज्ञा, पु० दे० (सं० बीड़ा ) देव- बोटार-वि० दे० ( हि० बूंदी + दार फ़ा.. प्रसाद के रूप में दिया गया फल-फूल, पान | प्रत्य० ) जिस पर छोटी छोटी बिंदिया हों। का बीडा। वि० (दे०) बीर । बुंदेलखंड-संज्ञा, १० यौ० ( हि० बंदेला+ बीरासन-संज्ञा, पु० दे० यौ० (सं० वीरासन) खंड) बाँदा, जालौन, झांसी का प्रदेश, जहाँ बीरों की बैठने का ढंग या श्रासन । 'जागन पहले बंदेलों का राज्य था। लगे बैठि बीरासन”-रामा० । बीरी*-- संज्ञा, स्त्री० दे० ( हि० बीड़ा ) पान बुंदेलखंडी- वि० दे० (हि० बुदेलखंड + ई०-प्रत्य०) बुंदेलखंड का, बंदेलखंड संबंधी। का बीड़ा, कान का एक गहना, तरना। संज्ञा, पु०-बुंदेलखण्ड का निवासी । संज्ञा, (प्रान्ती०)। "खाये पान-बीरी सी"-पद्मा स्त्री०-बंदेलखण्ड की बोली या भाषा। बीरो, बीरौ-संज्ञा, पु० दे० ( हि० पिरवा) बंदेला-संज्ञा, पु० दे० ( हि० बँद + एलापेड़, वृक्ष, बिरवा, रूख (ग्रा०)। प्रत्य०) क्षत्रियों की गहरवार जाति की बीस-वि० दे० (सं० विंशति ) जो गिनती एक शाखा, बंदेलखण्ड का निवासी। में उन्नीस से एक अधिक हो। संज्ञा, पु. बंदोरी, बंदौरी --संज्ञा, स्त्री० दे० ( हि० (दे०) बीस का अङ्क या संख्या, २. बूद-+मोरी-प्रत्य०) बूंदी या बुदिया नाम महा०-बील विस्वे (बीसौ बिसे)- की एक मिठाई। निश्चय, ठीक, संभवतः । श्रेष्ठ, उत्तम, अच्छा । वा. बुवा-संज्ञा, स्त्री० (दे०) बाप या बीसा-संज्ञा, पु० (दे०) बीप नाखून वाला पिता की बहिन, फूफी, बड़ी बहिन । कुत्ता, बिसहा (ग्रा.), वैश्यों की एक बुक-संज्ञा, स्त्री० दे० ( अं० बकरम ) कला जाति । | किया हुआ एक बारीक कपड़ा। बीसी-संज्ञा, स्त्री० दे० ( हि० बीस ) बीस बुकचा- संज्ञा, पु० दे० (तु. चुकचः) गठरी, पदार्थों का समूह, कोड़ी, अन्न नापने की मुटरी, गहा, मोट। स्त्री. अल्पा०-बुकची। For Private and Personal Use Only Page #1298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir बुकुची १२८७ बुत्ता बुकुची-संज्ञा, स्त्री. (हि. बकुचा + ई०- बुझना का प्रे० रूप ) संतोष देना, समझाना। प्रत्य० ) छोटी गठरी या मुटरी, सुई-तागा स० रूप-बुझावना, प्रे० रूप-बुझवाना। रखने की दज़ियों की थैली। बुझौवल-सज्ञा, स्त्री० दे० (हि. बुझाना) बुकनी-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. बूझना + पहेली, दृष्टकूट । ई०-प्रत्य० ) बारीक चूर्ण, बुकुनू (प्रा.)। बुट* -- संज्ञा, स्त्री० दे० ( हि० बूटी ) बूटी। बुकुना-संज्ञा, पु० दे० (हि० बूकना) बुकनी, बुटना*1-अ० कि० (दे०) भागना। चूर्ण, बुकुनू (ग्रा.)। बुड़ना-अ. क्रि० दे० (हि. बूडना) बुक्का-सज्ञा, पु० दे० (हि. बूकना = पीसना) डूबना, बूड़ना । स० रूप-बुड़ाना, प्रे० रूपअभ्रक का चूर्ण । बुड़वाना। बुक्की-संज्ञा, (द०) कंधे पर डालने का कपड़ा। बुड़बुड़ाना-ग्र० कि० (अनु०) मन ही मन बुख़ार-संज्ञा, पु. (अ.) भाफ, ज्वर, ताप, कुढ़ना, बड़बड़ाना ।। शोक, क्रोध, दुःखादि का आवेग, छाते के ! बुडभस-संज्ञा, पु० (ग्रा०) बुदाई की मुर्खता। ऊपर का कपड़ा। बुड्ढा -वि० दे० ( सं० वृद्ध ) वृद्ध, बूढ़ा। बुजदिल-वि० ( फा० ) डरपोक, कायर, स्त्री० बुड्ढी। भीरु । संज्ञा, स्त्री-बुजदिली। बुढ़वा -वि० दे० (सं० वृद्ध ) वृद्ध, बुड्ढा । बुजना-सज्ञा, पु० (दे०) स्त्रियों की प्रशुद्धता बुढ़ाई- संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० वृद्धता) बुढ़ापा। के समय का एक कपड़ा। बुढ़ाना-अ० कि० दे० (हि० बूढ़ा+ना-प्रत्य०) बुजहरा, उभारा-संज्ञा, पु० (दे०) पानी बूढ़ा या वृद्ध होना, वृद्धावस्था को प्राप्त होना । गर्म करने का एक बरतन । बुढ़ापा-संज्ञा, पु० ( हि० बूढ़ा-+ पा-प्रत्य०) बुजर्ग- वि० (फा०) बड़ा, बृदा। संज्ञा, पु. वृद्धावस्था, बुढ़ाई. वृद्धता। बाप-दादा, पुरुषा, पूर्वज, बुजुरुग (दे०)। । बुढ़ौती- सज्ञा, स्त्री० दे० (हि. बुड़ापा) बुझना-अ० कि० (दे०) प्राग की लपट बुढ़ापा, वृद्धता, वृद्धत्व । शान्ति होना. पानी से गर्म पदार्थ का ठंढा बुत -- संज्ञा, पु० (फ़ा० मि० सं० बुद्ध) पुतला, होना, गर्म चीज़ पर पानी का छौंका जाना, प्रतिमा, मूर्ति, प्रियतम । वि.-मूर्ति के उत्साहादि मन के वेग का धीमा होना। समान निर्दय और मौन । अव्य० (प्रा.) स. रूप-बुझाना, प्रे० रूप-बुझवाना। | अच्छा, भला । बुझाई-रज्ञा, स्त्री० ( हि० बुझाना ) बुझाने | बुतना-अ० कि० दे० (हि० बुझना) बुझना। की क्रिया का भाव । “रावरे दुहाई तो स० रूप-बुताना, प्रे० रूप-बुतवाना। बुझाई ना बुझेगी फेरि, नेह भरी नाय का की बुतपरस्त-संज्ञा, पु० यौ० फा०; मूत्तिपूजक । देह दिया-बाती सी"--पद०। __ "हिन्दू हैं बुतपरस्त मुसल्माँ खुदापरस्त" बुझाना-स० क्रि० (हि०) अग्नि या जलती - स्फु० । वस्तु को शान्त या ठंढा करना, तपी हुई बुताना-अ० क्रि० (दे०) बुझना। स० क्रि० वस्तु को पानी से ठंढा करना, आवेग बुझाना । “जो जरा सो बरा और बरा सो रोकना । मुहा० ---जहर से वुझाना--किमी बुताना"-तु। हथियार की नोक या धार को गरम करके बुत्ता-संज्ञा, पु० (दे०) छल धोखा, झाँसाविष जल से बुझाना ताकि उसमें भी विष पट्टी, बहाना, हीला । यौ०-बाला-युत्ता। छा जावे, उत्साहादि मनोवेग को शान्त मुहा०--बुत्ता बताना ( देना)-धोखा करना, पानी से छौंकना। स० कि० ( हि• ! देना । वि०-बुत्तेबाज़ । For Private and Personal Use Only Page #1299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir बुराई बुदबुद १२८८ बुदबुद-संज्ञा, पु. (सं०) बुलबुला, बुल्ला। बुनना- स० क्रि० दे० (सं० वयन ) बिनना, बुद्ध-वि० (सं०) जागा हुआ, जागरित, जुलाहों के सूतों से कपड़ा बनाने की क्रिया, विद्वान, पंडित, ज्ञानी, सचेत । संज्ञा, पु०- वस्त्र बनाना । द्वि० रूप-चुनाना, प्रे० रूपशाक्य वंशीय राजा शुद्धोदन और रानी बुनवाना, चुनावना। माया के कुमार गौतम जो बुद्धमत के प्रवर्तक बुनाई -- संज्ञा, स्त्री० ( हि० बुनना + ई-प्रत्य० ) एक महात्मा हुए, (१५० पू० ई०)। बुनावट, बुनन, बुनने की मजदूरी या क्रिया। इनका जन्म कपिलवस्तु के लुबिनी नगर बुनावट --संज्ञा, स्त्री० (हि. बुनना+प्रावट में ( नेपाल तराई ) हुआ था (इति०)। प्रत्य० ) बुनाई बुनन, बुनने का भाव, बुद्धि-संज्ञा, स्त्री० (सं०) विवेक शक्ति, ज्ञान, बुनने में सूतों के मिलाने का ढंग । समझ. उपजाति वृत्त का १४ वाँ भेद, एक बुनियाद-संज्ञा, स्त्री. (फा०) नींव, जड़, छंद. लक्ष्मी, छप्पय का ४२ वाँ भेद (प.)। मूल, वास्तविकता। बद्धिपर-वि० (सं०) समझ से बाहर या बुकना ---अ० क्रि० दे० (अनु० ) चिल्ला दुर, जहाँ बुद्धि न पहुंचे। चिल्ला कर रोना, ढाड़ मारना, सुलग सुलग बुद्धिमत्ता-संज्ञा, स्त्री० (सं०) समझदारी, कर बलना। होशियारी, अक्लमन्दी। बुधुकारी-संज्ञा, स्त्री० दे० ( अनु० बुबुक-+ बुद्धिमान-वि० (सं०) बहुत होशियार या पारी-प्रत्य० ) ज़ोर से चिल्लाना, फूट फूट समझदार, बड़ा अक्लमन्द ।। । कर या ढाड़ मार कर रोना। "बाल बुबुबुद्धिमानी-संज्ञा, स्त्री. (सं०) बुद्धिमत्ता. कारी दै दै तारी दैदे गारी देत'- कविः । होशियारी अक्लमंदी, समझदारी। बुभुक्षा---संज्ञा, स्त्री. (सं०) भूख, क्षुधा। बद्धिवंत- वि० (सं०) बुद्धिमान, समझदार, बुभुतित--वि० (सं०) चुधित, भूखा । "बुभुबुद्धिवान् (दे०)। शितः किन्न करोति पापम्।” बुद्धिहीन-वि० यौ० (सं०) मूर्ख. अज्ञानी, बुयाम-संज्ञा, पु० (अं०) चीनी मिट्टी का बेसमझ, निर्बुद्धि । बना एक पात्र, गोल, ऊँचा जार । बुध-संज्ञा, पु० (सं०) चंद्र सुत, सूर्य के सब बुरकना--स० क्रि० ६० (अनु०) किसी वस्तु से अधिक समीप रहने वाला एक ग्रह, पर चूर्ण आदि छिड़कना, भुरभुराना : द्वि० (ज्यो०), देवता, पंडित, विद्वान, ज्ञानी । रूप-बुरकाना, प्रे० रूप-चुरकवाना । नौग्रहों में से चौथा । बुरका--संज्ञा, पु० (अ०) मुपलमान स्त्रियों बुधजामी-संज्ञा, पु. (सं० बुध + जन्म का एक कपड़ा जो सिर से पैर तक सारे हि.) बुध के पिता चंद्रमा । शरीर को ठाँक लेता है। बुधवान्, बुद्धवान् - वि० (सं०) बुद्धि- रा--वि० दे० (सं० विरूप ) ख़राब, निकृष्ट, मान, ज्ञानी, समझदार ! मंदा, अधन । मुहा०-बुरा माननाबुधवार-संज्ञा, पु. (सं०) मंगलवार और द्वेष रखना, जलना, नाराज होना । यो०गुरुवार के बीच का एक दिन, रविवारादि बुरा-भला, नेकोनादी-हानि-लाभ, खोटासात दिनों में से चौथा दिन । खरा, गाली गलौज । अच्छा-बुरा-लानत धि -संज्ञा, स्त्री० दे० ( सं. वुद्धि) बुद्धि मलामत, गाली-गलौज। अकल, समझ । यौ० ---सुविधि । “निज बुराई संज्ञा, स्त्री० (हि.बुरा+ ई-प्रत्य०) बुधि-बल भरोस मोंहि नाही"- रामा०। दोष, नोटापन, श्रनभल, ख़राबी, ऐव, For Private and Personal Use Only Page #1300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir बुरादा १२८६ बूझन गुण, निंदा, नीचता, शिकायत । "होय । बुहारना-२० क्रि० दे० ( सं० बहुकर-+नाबुराई से बुरो, यह कीन्हें निर्धार" -नीति०। प्रत्य० ) झाड़ना, झाडू लगाना। बुरादा-- संज्ञा, पु० (फ़ा०) लकड़ी चीरने से वुहारी-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. बुहारना+ निकला चूर्ण, कुनाई (ग्रा०)। ई-प्रत्य०) सोहनी (प्रान्ती०), बढ़नी, झाडू। बुर्ज- संज्ञा, पु० (अ०) मीनार का ऊपरी भाग. बँद-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० विंदु ) विंदु, गरगज (ग्रा०) गुंबद, किले श्रादि की दीवाल जलादि का थोड़ा गोला सा अंश, क़तरा, पर उठा हुआ गोल या पहलदार खण्ड टोप (प्रान्ती । “बूंद अघात सहैं गिरि जिसमें नीचे बैठक हो । स्त्री. अल्पा० बुर्जी।। कैसे"--रामा० । मुहा०-बंदे गिरना बुर्द-संज्ञा, सो. (फ़ा०) ऊपरी लाभ या | या पड़ना .- धीमी धीमी वर्षा होना । एक आमदनी, होड़, बाजी, शतरंज के खेल में प्रकार का वन, वीर्य । सब मुहरों के मर जाने पर केवल बादशाह बदा-बांदी--संज्ञा, स्त्री० यौ० दे० (हि. बँद के रह जाने की दशा । मुहा०- +घाँद अनु० ) थोड़ी या हल की वृष्टि । (मामला ) बुर्द होना-काम बिगड़ना। बंदी--संज्ञा, स्त्री. ( हि० बूंद + ई०-प्रत्य०) बुलंद- वि० दे० ( फ़ा. वलंद ) बहुत ऊँचा, । एक प्रकार का मिष्टान्न, बंदिया (दे०)। अति उत्तुंग, भारो । संज्ञा, स्त्री० बुलंदो। वर्षा के पानी की बूँद एक शहर। बुलबुल संज्ञा, स्त्री० (अ० फ़ा०) एक छोटी --संज्ञा, स्त्री. (फा०) गंध, बास, महक, काली गाने वाली चिड़िया । "कहो बुलबुल दुगंधि । “हर गुल में तेरी बू है।" से ले जाये चमन से पाशियाँ अपना" था, बूवा--संज्ञा, स्त्री० (दे०) फूफी, बाप की बहिन, बड़ी बहन । संज्ञा, पु० दे० (हि. बुलबुला-संज्ञा, पु० दे० (सं० बुबुद्ध) पानी बकोटा ) बकोटा, चंगुल ।। का बुल्ला, बुदबुदा, जल का फफोला । बूकना-स० वि० (दे०) किसी वस्तु को अ० कि० (दे०) बुलबुलाना। बारीक पीपना, चूर्ण बनाना, गढ़ गढ़ कर बुलाक-संज्ञा, पु०, स्त्री० (तु.) नाक में बातें बनाना । जैसे-झारसी (पकी) पहनने का एक लंबा सा सुराहीदार गहना । बूकना शान दिखाने को उर्दू बोलना। बुलाकी-संश, पु. (तु. वुलाक ) घोड़े की बूचड़-संज्ञा, पु० दे० ( अंक बुचर ) कसाई। एक जाति। बूचड़खाना -- संज्ञा, पु० (हि. बूचड़+ बुलाना, बुलावना (ग्रा०)- स० क्रि० (हि०) न्योता देना, पुकारना, टेरना, बोलने में खाना फ़ा० ) कसाईबाड़ा। प्रवृत्त करना, पास थाने को कहना।प्रे० रूप बूचा---वि० दे० ( सं० वुस = विभाग करना) -बुलवाना। जिसका कान कटा हो, कनकटा, कुरूपकारी बुलावा-संज्ञा, पु० (हि. बुलाना --- आव अंग का कटना । मो० बूची। यौ० --नंगाप्रत्य० ) न्योता, निमंत्रण, वुलोवा (ग्रा०)। बूचा। बुलाह --संज्ञा, पु० दे० (सं० वोल्लाह) पीली बूजना-२० क्रि० (दे०) धोखा देना। पूंछ और गरदन का घोड़ा। झ-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० बुद्धि) ज्ञान, बुल्ला -संज्ञा, पु० दे० (हि. बुलबुला) बुद्धि, समझ, अगल, पहेली। यौ०-समझबुलबुला। बूझ, जानझ। वि० बुझैया । "न बुहनी, बोहनी-संक्षा, स्त्री० (दे०) पहली करती समझबूझ की रहवरी"-हाली। विक्री । | बूझन* -- संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. बूझ) भा० श० को०-१६२ For Private and Personal Use Only Page #1301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra " www.kobatirth.org -- बूझना ज्ञान, बुद्धि, समझ, अक़्ल, पहेली । वि० बुकवार, बुझत्रैया । बूझना - स० क्रि० दे० ( हि० बूझ = बुद्धि ) समझना, जानना, पूछना, ताड़ना । स० रूप बुझाना, बुझवाना । 'जहुँ न बूझ अबूझ - रामा० । " } 0 बूट - संज्ञा, पु० दे० (सं० विटप, हि० वूटा ) चने का हरा पौधा या दाना, वृत्त, पौधा । संज्ञा, पु० (०) जूता । बूटनिj - संज्ञा स्त्री० दे० ( हि० बहूटी) बीरबहूटी नामक एक बरसाती कीड़ा । बूटा - संज्ञा, पु० दे० (सं० विटप पौधा, छोटा वृक्ष, वस्त्रों या दीवाल यादि पर बनाने के फलों- फूलों, बेलों और वृक्षों के चिन्ह | यौ० - बेल-बूटा | त्रो० अल्पा०- -बूटी । बूटी - संज्ञा, स्त्री० (हि० बूटा) जड़ो, वनस्पति, वनौषधि, भाँग, भंग, वस्त्रादि पर छोटा बूटा, खेलने के ताश की बूँदे या टिपकियाँ । यौ० - जड़ा-यूटी, भाँग-लूटी। बूड़ना । - स० क्रि० दे० (स० बुड़ = डूबना ) निमग्न होना, डूबना, लोन या विलीन होना । बूड़ा-पंज्ञा, पु० दे० ( हि० इवना ) श्रति वृष्टि आदि से पानी की बाद, सैलाब । बूढ़, बूढ़ा - वि० दे० ( ० वृद्ध ) बुड्ढा, वृद्ध, डुक्रा, डोकरा । सज्ञा, पु० (प्रान्ती०) लाल रंग बीरबहूटी | | बूढ़ी - संज्ञा, त्रो० दे० (सं० वृद्वा ) वृद्धा, बुदिया, डुकरिया, वुड्डी (६०) | बूता - संज्ञा, पु० दे० (सं०दित ) बल, सामर्थ्य, पौरुष, शक्ति, ब्रूत (ग्रा० ) । | बूरना* - अ० क्रि० दे० ( हि० वूड़ना ) बैंक-त-संज्ञा, पु० दे० (सं० वेतस् ) एक डूबना । लता । "फूलै फलै न बत, यदपि सुधा बरसहि १२६० बंदा वृषध्वज---संज्ञा, पु० दे० (सं० वृषकेतु, वृपध्वज) शिवजी, महादेव जी, वृषकेतु । बृहती --- संज्ञा, त्री० (सं०) भटकटैया, कटैया, माँ, बरहंडा ( प्रान्ती० ), विश्वावसु गंधर्व की वीणा, उपवना, उत्तरीय वस्त्र, ६ वर्णों का एक वर्ण वृत (पिं० ) । ' देवदारु धना शुठी बृहत द्वय पाचनम् " - लोलं० । बृहत् वृहद् - वि० (सं०) विशाल, बहुत ही बड़ा, बलिष्ठ, हद ऊँचा : स्वरादि ) । वृहदारण्यक - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) शतपथ ब्राह्मण का एक उपनिषद् | वृहद्रथ - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) इन्द्र राजा शतधन्वा के पुत्र और जरासंध के पिता का नाम (महा० ) । वृहन्नल - संज्ञा, पु० (सं० ) अर्जुन का एक नाम, जब वे श्रज्ञातवास में विराट के यहाँ स्त्री-प में रह उत्तरा को नाच-गान सिखाते थे (महा० ) । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गृहमला - संज्ञा, स्त्री० (सं० ) अर्जुन । बृहस्पति - सज्ञा, पु० (सं०) देवताओं के गुरुदेव जो अंगिरा के पुत्र और भरद्वाज के पिता हैं (वैदिक) देवगुरु, सौर मण्डल का ५ वाँ ग्रह (ज्यो०) महाविद्वान | बंग - संज्ञा, ५० दे० ( सं० भेक ) मेंढक | बंड, बैठ संज्ञा, स्त्री० (दे०) हथियारों में लगा वाठ आदि का दस्ता, मूठ । बड़ा -संज्ञा, स्त्री० दे० ( हि० बेड़ा ) चाँड़, टेक बड़ा - वि० दे० (६ि० थाड़ा) घाड़ा, तिरछा, टँदा, क्लिष्ट, कठिन | "3 बूरा - संज्ञा, पु० दे० ( हि० भूरा ) शक्कर, जलद' ' - रामा० । मुहा०त की भूरे रंग की कच्ची चीनी, साफ़ चीनी, चूर्ण । तरह काँपना- भय से थर थर काँपना, बृच्छ* +- संज्ञा, पु० (दे०) वृत्त (स० ) पेड़, बहुत डरना । तन ति-भार पड़ने पर fafta (प्रा० ) । शुक जाना और फिर सीधा खड़ा हो जाना। वृष, वृषभ - संज्ञा, पु० दे० ( सं० वृष ) बैल, बंदा -- सज्ञा, ५० दे० (सं० बिंदु ) टीका, दूसरी राशि ( ज्यो० ) वृषकेतु । बंदी, सिर का एक गहना, टिकली, बिन्दी | For Private and Personal Use Only Page #1302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir बेंदी बेगवन्त बंदी-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० बिंदु, हि० बेकली-संज्ञा, स्त्री० ( हि. बेकल+ई०विंदी) बिंदी, टिकली, विन्दु. दावनी प्रत्य. ) व्याकुलता, बेचैनी, घबराहट । (प्रान्ती०) शून्य,मुन्ना (दे०) बंदिया (ग्रा०। बेकसूर-वि० (फ़ा० बे--कुसूर-अ०) मिरपबंवड़ा-संज्ञा, पु० दे० ( हि० बेडा पाड़ा)। राध, निदेषि बंद किवाड़ों के पीछे लगाने की लकड़ी, बेकहा-वि० : हि०) जो कहना न माने । गज, अरगल, (प्रान्ती), व्योंडा (दे०)। बेकाबू -- वि० ( फा० + काबू-अ०) वश बे-अव्य० ( फा० बे, मि० सं० वि) बिना, से बाहर, विवश, मज़बूर, लाचार, जो बगैर, जैने - बेजान। ( विलो०-बा): अधिकार या वश में न हों। अव्यः (हि. हे ) छोटों का संबोधन । बेकाम-वि० (हि०) निकम्मा, जिसे कोई बेअंत-क्रि० वि० दे० (हि० वे-1-अंत काम न हो, निठगला, व्यर्थ, जो काम में न सं० ) अनंत, असीम। आ सके, निरर्थक, बेकार, निकाम (दे०)। अकल-वि० दे० ( फा० ये--अल-अ.) बेकायदा-वि० (फा० बे+कायदा-अ.) निर्बुद्धि, मूर्ख, बेकल । संज्ञा, स्त्री० ---| नियम के विरुद्ध । विलो०-बाकायदा । बेअमाली, अली। कार-वि० (फ़ा०) व्यर्थ, निकम्मा, जिसके बेअदव-वि० (फा० वे -अदब अ०) जो | कोई काम न हो, निठल्ला, निरर्थक, बेकाम, बड़ों का श्रादर-सत्कार न करे ( विलो-बा- निकास । संज्ञा, स्त्री० बेकारी। अदब । संज्ञा, खो-अदबी। बेकारयो */----संज्ञा, पु० दे० (हि. विकारी) वेगाव--वि० ( फा० वे--प्राब अ० ) जिसमें संबोधन या बुलाने का शब्द । जैसे-रे, हे. अरे श्रादि। चमक न हो, तुच्छ । बेआबरू - वि० (फ़ा०) बेइजत । बेकसूर --- वि० ( फा० बे+कुसूर-अ.) निर पराध, निदोप। बेइज्जत-वि० ( फा० वे-+ इज्जत अ०) देख* ---- सज्ञा, पु० दे० ( सं० वेष) भेस, अप्रतिष्ठित, अपमानित । संज्ञा, स्त्री० -- (दे०) वेष, स्वरूप, नकल, स्वाँग। बेइज्जती । ( विलो०- बाइज्जत)। बेखटके-क्रि० वि० दे० { हि० बे+ खटका ) बेइति संज्ञा, पु० (दे०) मेला (हि०) बेरा। बेधड़क, निश्चित निर्भय, निस्संकोच । बेईमान-वि० (फा०) अधर्मी, अनाचारी, खबर-वि० [फा०) बेसुध, बेहोश, अनछली, धोखा देने वाला, अन्यायी। संज्ञा, । जान । संज्ञा, सो०-बेखबरी। स्त्री० बईमानी ( विलो०-बाईनान)। वेग--संज्ञा, पु. दे. ( सं० वेग ) गति की उज्र-वि० ( फ़ा० बे; उज्र-अ.) श्राज्ञा तीव्रता, तेज़ी, शीघ्रता, प्रवाह, धारा । पालन में आपत्ति न करने वाला, बउजुर | गम-संज्ञा, स्त्री० ( तु. वेग का स्त्रो०) (दे०)। रानी. महारानी, राजपत्नी, महिषी! बेकदर-वि० [फा० बेइज्जत, अप्रतिष्ठित । गरज-वि० (फ़ा० बेगरज़ अ०)बेमतलब, संज्ञा, स्त्री० कदरी। बेपरवाह बेगरज, बेगरजू (दे०) । संज्ञा, बेकरार-वि० (फ़ा०) विकल, बेचैन, व्याकुल, स्त्री० अंगरजी । "करत बेगरजी प्रीति, यार अधीर, बेचैन । संज्ञा, स्त्री. बेकरारी । वि. हम बिरला देखा" --गिर० । बिना करार या वादा के । “भनभनाई वह बेगवती- संज्ञा, स्त्री० (सं०) जो बड़े वेग से बहुत हो बेकरार,"-- हाली। चले, एक वद्ध वृत्त (पिं०)। वि० पु. बेकल*-वि० दे० (सं० विकल ) व्याकुल, | वेगवान । बेचैन, विह्वल, विकल । संज्ञा, स्त्री-जैकली।। बेगवन्त--वि० (सं०) शीघ्रगामी, वेगवान । For Private and Personal Use Only Page #1303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir बेड़ा . . बेगाना १२६२ बेगाना-वि० (फा०) दूसरा, अन्य, पराया। बेजाब्ता- वि० (फा. बे+ जाब्ता-अ.) संज्ञा, स्त्री०-बेगानगी। राजनीति के विरुद्ध, अन्याय, कानून के बेगार-संज्ञा, स्त्री० ( फा० ) बलात, बिना खिलाफ़, नियम के विरुद्ध । मज़दूरी दिया गया काम, बेसन का काम । बैजू-संज्ञा, पु० (दे० ) नेवला, नकुल । मुहा०-बेगार टालना (करना)-बजोड-वि० (फ़ावे+जोड़ हि० ) खंडकोई कार्य मन लगाये बिना करना। बेगार रहित. जिसमें कहीं नोड़ न हो, अद्वितीय, भुगतना ( भुगताना) ज़बरदस्ती दिया अनुपम, बेमिसाल । गया काम करना। लो०. बैठे से बेगार | वट से बगार बेझना-स० कि० दे० (सं० वेधन ) बेधना, भली।" छेदना, सीगों से दीवार आदि में छेद करना, बेगारी--संज्ञा, पु० (फा०) बेगार करने । लड़ना। वाला पुरुष । क्रि० वि० (दे०) बिना गाली के। बेझर, झरा--संज्ञा, पु० (दे०) गेहूँ, चना लो.."बेगारी निकरै नहीं बेगारीको काम।" और जव मिला अन्न | बेगि*-क्रि० वि० दे० ( सं० वेग ) तुरन्त, झा--संज्ञा, पु. ( सं० बेध ) लचय, तत्काल, शीघ्र, जल्दी, झटपट, “बेगि करहु निशाना। किन आँखिन थोटा"-रामा० । बेटकी--*---संज्ञा, स्त्रो० (दे०) लड़की, बेगुनाह-वि० ( फा० ) निरपराध, निर्दोप, बिटिया, बटा (हि.)। बेकसूर । वि० बेगुनाही। बेटला-* -संज्ञा, पु० (दे०) लड़का, पुत्र। बेचना---स० कि० दे० (सं० विन्य ) विक्रय | बेटवा--संज्ञा, पु० दे० (हि. बेटा ) बेटा, करना, फरोख्त करना, मूल्य ले कर देना । लड़का, पुत्र, बटौना (ग्रा.)। स० क्रि० वेचाना, प्रे० रूप चवाना। बेटा-संज्ञा, पु० दे० (सं० बटु = बालक) मुहा०-च खाना-गँवा देना,खो देना। लड़का. पुत्र, तनय, सुत । स्त्री. बेटी। बेचारा--वि० (फा०) उपाय-रहित, उद्यम बेटी--- संज्ञा, स्त्री. हि बेटा) लड़की, पुत्री। हीन,दुखिया, गरीब, दीन, असहाय, वपुरा, बेठन--संज्ञा, पु० दे० ( सं० बेष्टन ) बँधना, बापुरो । स्त्री० बेचारी। बाँधने या लपेटने का वस्त्र । बेचू वि० (दे०) बेचने वाला। बेठिकाने - वि० ( फा० वे---ठिकाना-हि०) बेचैन-वि० ( फा० ) विकल, व्याकुल, बेपते, स्थानच्युत, व्यर्थ, ऊलजलुल, निरर्थक, बेकल । संज्ञा, स्त्री०, बेचैनी। बेमौत, बेठौर । बेजड-वि० (फा० बे-जड़-हिं० ) मूल- बेठीक-वि० (दे०) अनुचित, अयोग्य । रहित, बेबुनियाद, बे असल ! बड-संज्ञा, पु० दे० ( हि० बाड़) पेड़ की बेजबान-वि० ( फा० ) मूऊ. गुगा, सरल. रक्षा के लिये उसके चारों ओर लगाई गई सीधा, दीन, असहाय, जो कुछ कह न सके । काँटेदार वस्तु, मेड़, आड़, बाड़ (प्रान्ती०)। बेजा-वि० ( फा० ) अनुचित, बेमौका, बेडना. बंडना---स० कि० दे० ( सं० वेष्ठन ) अयोग्य, नामुनासिब, बुरा। विलो-बजा पेड़ या खेत के चारों ओर रक्षार्थ काँटेदार जा । यौ० जा बेजा। वस्तु लगाना, पशु को घेर कर हाँकना, बेजान-वि० (फा०) निर्जीव, मृतक, मुरदा, किसी घर में बन्द करना, बेढ़ना, धाँधना । जिसमें दम न हो, मुरझाया या कुम्हलाया बड़ा --- पु० संज्ञा, दे० ( सं० बेष्ठ ) नदी श्रादि हुश्रा, निर्बल, निरुत्साह क्रि० वि० (दे०) पार करने को बाँसों या लकड़ियों का ढाँचा, बिना जान में। लट्ठों से बना चारों ओर का घेरा, कुछ For Private and Personal Use Only Page #1304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir बेड़िन, बेड़िनी १२६३ बेताल लोगों का समूह । बेड़ा कौन लगावै पार" बेतकल्लुफ़-वि० (फ़ा० बे+तकल्लुफ-अ०) श्राला । मुहा० --बेडा पार करना या जो दिखावटी या बनावटी बात न करे या लगाना-किसी को विपत्ति से निकालना कहे, साफ या ठीक ठीक, मन की बात या छुड़ाना, सहायता करना । बेड़ा बाँधना कहने वाला । संज्ञा, स्त्री० बैतकल्लुफ़ी। -भाँड़ श्रादि का तमाशे के लिये एक क्रि० वि०--बेखटके, निस्संकोच, बेधड़क, गिरोह बनाना। कई जहाज़ों या नावों आदि कृत्रिमता-रहित । का समूह । वि० दे० (हि० पाड़ा, का अन०) बेतना--अ० कि० दे० ( सं० वेतन ) ज्ञात बेड़ा (दे०) श्राड़ा, तिरछा, कठिन, विकट। या मालूम होना, जान पड़ना । बेड़िन, बैडिनी--संज्ञा, स्त्री० (दे०) नट जाति बेतमीज-वि० (फा० बे -- तमीज़-अ०) बेहूदा, की नाचने-गाने वाली स्त्री। मूर्ख, शाज्ञानी, उजड्ड, वेशऊर, बदतमीज़ । बेड़िया- संज्ञा, पु० (दे०) नकों की एक जाति। संज्ञा, स्त्री-बतमीज़ी। बेड़ी-संज्ञा, स्त्री० दे० ( सं० वलय ) लोहे बेतरह-क्रि० वि० ( फ़ा० बे-+-तरह अ०) के कड़े या जंजीर जो कैदियों के पैरों में असाधारण या अनुचित रीति से, अयोग्य पहनाये जाते हैं जिससे वे भाग न सकें, रूप या प्रकार से, बुरी तरह । वि०-बहुत निगड़, बाँस की एक प्रकार की पानी उली- ज्यादा, अत्यंत अधिक। चने की टोकरी। "कर्म पाप श्री पुन्य लोह, बेतरतीब-वि० कि० वि० (फा० बे+तरतीब सोने की बेड़ी"-१०। फा० ) क्रम-विरुद्ध , जो सिलसिलेवार न हो, बेडौल-वि० (हि० मि० फा० बेडौल रूप) अव्यवस्थित । संज्ञा, स्त्री०-बेतरतीबी। भदा, बेढंग, कुरूप । बेतरीका-वि०, क्रि० वि० (फा० बे+ बेढंग, बेढंगा-वि० दे० (फ़ा. वे-- ढंग तरीका-अ.) नियम-विरुद्ध. अनुचित रीति। हिना -प्रत्य० ) बेतरतीब बुरे ढंग का, बेतहाशा- क्रि० वि० (फ़ा० बेतहाशा-अ०) भद्दा, कुरूप, भोंड़ा, क्रम रहित । स्त्री० बड़े वेग से. बी तेजी से, ति घबरा कर, बेढंगी। संज्ञा, पु० ढंगापन । बिना समझे-बूके बिना सोचे-बिचारे । बेढ़-संज्ञा, पु० (दे०) विनाश, खराबी। बंतादाद-वि० फा० अगणित, बहुत । बेढ़ई, बढ़ई - संज्ञा, स्त्री० दे० ( हि बेदना ) ") बताब- वि० (फ़ा०) व्याकुल. विकल दुर्बल, दाल की पीठी भरी रोटी, कचौड़ी। अशक्त, कमज़ोर, शिथिल, बेदम । सज्ञा, बेदना- स० कि० दे० ( सं० वेष्टन ) किसी स्त्री० बेताबी। काँटेदार पदार्थ या तार आदि से रक्षार्थ पेड़ बेतार वि० ( फा० बे-तार हि०) बिना बाग या खेत श्रादि को सँधना, घेरना, तार का. तार-रहित । यौ०-बेतार का पशुओं को घेर कर हांकना । स० रूप तार- केवन्त बिजली की शक्ति से, बिना बेढ़ाना, प्रे० रूप-अढ़वाना। बेढब-वि० दे० (हि. फ़ा० मि०) भद्दा, तार के समाचार भेजने का यंत्र और बेतार से भेजा गया समाचार ।। बेढंगा बुरे ढंग या ढब वाला। क्रि० वि०बेतरह बुरी तरह से। बेताल-संज्ञा, पु० दे० ( सं० वेताल ) द्वार• वेढ़ा-संज्ञा, पु० दे० (हि. वेड़ना -- घेरना ) | पाल, एक भूतयोनि पुरा०), शिव के एक हाथ का एक तरह का कड़ा, घर के चारों गणाधिप, भूनों के अधिकार को प्राप्त मृतक, श्रोर का हाता, बाड़ा, घेरा। छप्पय छद का छठा भेद पिं०)। वि० (दे०) बेणीफल - संज्ञा, पु. यौ० (सं० वेणी ताल या लय-रहित ( संगी० ) । संज्ञा, पु. फूल हि०) सीसफूल, पुष्पाकार शिरोभूषण ! दे० ( सं० वैतालिक ) भाट, बंदीजन । For Private and Personal Use Only Page #1305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir बेतुका १२६४ बेपरवा, बेपरवाह बेतुका-वि० (फा० बे+तुका-हि० ) बेमेल, ! वस्तु से छेदना, भेदना । स० वेधाना, बेढंगा, बेढब, सामंजस्य-विहीन, असंगत, प्रे० रूप-बंधवाना । “सिरस सुमन किमि अनुपयुक्त । स्त्री० बेतुकी। बेधिय हीरा"--- रामा। बेतुका छंद-संज्ञा, पु. यौ० (हि. बेतुका | बेधर्म, बेधरम-- वि० दे० ( सं० विधर्म ) +छंद सं० ) अमिताक्षर या तुमान्त-रहित, धर्माच्युत, अधर्मी, बेईमान, स्वधर्म-कर्म से अतुकान्त या बिना तुक का छंद। गिरा हुआ । संज्ञा, स्त्री. वधर्मी। बेद-संज्ञा, पु० (दे०) वेद।। बेधिया- संज्ञा, पु० दे० (हि. वेधना ) बेदखल-वि० (फा०) अधिकार-रहित, अंकुश।। अधिकार च्युत, जिसका कब्जा या दखल | बेधीर*-वि० दे० ( फ़ा० वे- धीर-हि.) न हो, स्वत्व-हीन । अधीर । बेदखली-संज्ञा, स्त्री० (फ़ा०) भूमि या संपत्ति बेन बेन --- संज्ञा, पु० दे० (सं० वेणु) वंशी, से कब्जा हटाया जाना, अनधिकार । मुरली बाँसुरी, बाँस, बीन बाजा, सँपेरों बेदम-वि० (फा०) प्राण रहित, मृतक, की महुवर या तृमड़ी। अधमरा, जर्जर, शिथिल, अशक्त, बोदा। बेनसीब- वि० ( फ़ा. वे । नसीब-अ.) बेदमजन-संज्ञा, पु० (फ़ा०) एक पेड़ जिसकी अभागा, भाग्यहीन, बदकिस्मत । संज्ञा, छाल और फल औषधि के काम आते हैं। स्त्री. बनसीवी। बेदमुश्क-संज्ञा, पु० (फ़ा०) कोमल सुगंधित बैना, बनवा -- संज्ञा, पु० दे० ( सं० वेणु ) फूलों का एक पेड़। बाँस का पंग्वा, बाँस. उशीर, खस । “ बेना बेदर्द-वि० (फा०, निर्दय, निष्ठुर, निरदई, कबहुँ न भेदिया, जुग जुग रहिया पास" कर या कठोर हृदय, जो किसी का दर्द या - कवी । व्यथा न समझे, बेदरदी (ग्रा०) । संज्ञा, निमन, बेनमूना* --- वि० दे० (फा० वे + स्त्री० बेदर्दी। नमूना ) अप्रतिम, अनुपम, अद्वितीय, बेबेदसिरा--संज्ञा, पु. (सं०) एक मुनि । मिपाल । बेदाग-वि० (फ़ा०) साफ़, स्वच्छ, शुद्ध, नी- संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० वेणी ) स्त्रियों निषि, निरपराध, निष्कलंक, दाग या धब्बा- की चोटी. गंगा, सरस्वती और यमुना का रहित । वि. वेदागी। संगम, त्रिवेणी, किवाड़ के पल्ले में लगी बेदाना-संज्ञा, पु० दे० (हि. बिहीदाना) लकड़ी जिसके कारण दूसरा पल्ला नहीं बढ़िया काबुली अनार, बिहीदाना के बीज, खुलता। दारु हलदी, चित्रा (औष०) । वि० ( फा० बेनु-संज्ञा, पु० दे० (सं० वेणु ) वंशी, बाँस, बे+दाना = चतुर : मूर्ख, नादान, बेलमझ। बाँसुरी, मुस्ली। “बेनु हरित मनिमय सब बेध-संज्ञा, पु० दे० ( सं० वेध ) छेद, छिद्र, कीन्हें '-रामा० । नक्षत्र युक्त एक योग । ज्यो०)। बैपथु-वि० (दे०) विपथु (सं०) कंपित । बेधड़क क्रि० वि० दे० ( फा० - धड़क- बैपरद-वि० दे० फा० + परदा ) नग्न, हि. ) संकोच-रहित, बेखटके, निडर, निर्भय, अनावृत, नंगा, पोट-हित, जिपके परदा निडर या बेखौफ होकर, श्रागा-पीछा किये न हो। मुहा" --बदरद करना-नंगा बिना । वि.-निडर, बेखौफ़ निर्भय जिसे करना, बेपर्द। संज्ञा, खो०-उपदगी। संकोच या स्वटका न हो, निद्र, निर्भीक। बेपरवा, बेपरवाह वि० दे० ( फ़ा. बे+ बेधना-स० क्रि० दे० (सं० बेधन ) नोकदार परवाह ) बेफिक्र, जिसे परवाह न हो, मन For Private and Personal Use Only Page #1306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir बेल बेपाइ मौजी, निश्चित, उदार, लापरवाह । संज्ञा, बेरी । संज्ञा, स्त्री-अबेर (दे०) बार, मरस्त्री बेपरवाही । "मनुवा बेपरवाह" कबी० तबा. दफा, देरी, बिलंब, बेरी । “कुबेर बेर बेपाइwt-वि० दे० ( फा० बे-+ उपाय-सं०) कै कही न यक्ष भीर मंडिरे"-रामः । किंकर्तव्य विमूढ, भौचक, उपाय-रहित, “कहु रहीम कैसे निभै, बेर केर को संग।" हक्का-बक्का । यौ०-बेर बेर--फिर फिर। (विलो०-अबेर)। बेपीर-वि० ( फ़ा० बे- पीर हि०= पीडा ) बेरजरी-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. बेर + झड़ी) निठुर, पर-पीड़ा न समझनेवाला, निर्दयी, झड़बेरी । निर्दय, बेरहम, कठोर, क्रूर । "तो मनकी बेरहम- वि० (फ़ा) दया या कृपा-रहित, जानत नहीं, अरे मीत बेपीर"-श० अनु। निर्दय, निष्ठुर । संज्ञा, खी० बेरहमी।। बेदी-वि० दे० (हि. वे - पंदा ) पेंदा- बैरा--सज्ञा, पु०, स्त्री० दे० (सं० बेला ) रहित । मुहा०- दी का लोटा-जो समय. वक्त मौका, सबेरा ।। किसी के तनिक बहकाने से अपना विचार बरियाँ-ज्ञा, स्त्री० दे० हि बेर ) वक्त, बदल दे, कितीबात पर दृढ़ न रहने वाला! बेरा, समय । "पुनि श्राउब यहि बेरियाँ बेफ़ायदा-वि०, क्रि० वि० (फ़ा०) नाहक, काली''- रामा०।। बेमतलब व्यर्थ निरया। | बरो-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० बदरी) बेर का बेफिक-वि० (फ़ा०) बेपरवाह, निश्चित । पेड़. बेड़ो । क्रि० वि० (दे०) वार बेर । संज्ञा, स्त्री० बफ्रिकी। बेरुवा--वि० ( फा० ) बेमुरवत. बेशील, बेबस-वि० दे० (सं० विवश ) लाचार, नाराज़, विमुख । संज्ञा, स्त्री-बेरुखी, परवश, मजबूर, पराधीन । संज्ञा, स्त्री- बरुखाई। बेबसी। बेलंदा--वि० दे० ( फा० बलंद ) ऊँचा, बेबाक- वि० (फ़ा०) चुकाया या चुपता विफल, मनोरथ, हताश । किया हुआ, नि.शेष किया हुआ। सज्ञा, बेलंब, विलंब - संज्ञा, पु० दे० (हि. स्त्री० बेबाकी। विलव ) विलंब देरी बेलम (ग्रा.)। बेव्याहा-वि० द० ( फा० वे + व्याहा-हि.) बेल-संज्ञा, पु० दे० ( सं० विल्व ) गोल कड़े कुँवारा, कंधारा, अविवाहित । स्त्री. बे- बड़े फल वाला एक कँटीला पेड़ और उसके व्याही। फल, श्रीफल । सज्ञा, स्त्री० दे० (सं० वल्ली) बेभाव-क्रि० वि० (फा० वे-+ भाव-हि० ) फैलने और लहारे से ऊपर उठ कर फैलने वाले बेहद, बिना भाव के। कोमल पौधे, लता बल्ली. लतर। "सब बेमाता ---सज्ञा, स्त्री० दे० (सं० विमातृ )। ही जानत बदति है, वृक्ष बराबर बेल"-. विमाता, सौतेली माता, माता-हित । ० । मुहा० - बल मढ़े चढ़ना-किसी बेमालूम -- क्रि० वि० फा०) अज्ञात, बिना। काम को अत तक ठीक ठीक पूरा करना या जाना समझा । वि. जो ज्ञात न होता हो। उतरना । वंश, संतति, फीते, वस्त्र या दोवाल बेमुरव्वत- वि० [फा०) जिसमें मुरव्वत न श्रादि पर कढ़े या बने हुये फूल-पत्ते श्रादि, हो, तोताचश्म : सज्ञा, स्त्री. मुरवतो। नाव का डाँड । सज्ञा, पु० द० (फ़ा० बेलचा) बेमोका-वि० (फा०) जो ठीक समय पर न एक तरह का कुदाली, सड़क आदि की हो । संज्ञा, पु०-अवापर का न होना। निधारित सीमा सूचक लकीर । यौ०बैर-संज्ञा, पु० दे० (स० बदरी) एक कटीला | डाक-बल । *- संज्ञा, पु० (दे०) बेले मीठे फल वाला पेड़, बेरी का फल । स्त्री०- | का फूल ! यो बेलपत्र । For Private and Personal Use Only Page #1307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir बेलचा बेशक बेलचा-संज्ञा, पु० (फ़ा०, कुदाली, कुदाल। बेलू -- संज्ञा, पु० (दे०) लुढ़कन, लुढ़काव । बेलदार-संज्ञा, पु० (फ़ा०) फावड़ा चलाने बेलौ--वि० (दे०) बेलव (हि.) उदासीन, वाला मज़दूर, मज़दूरों का मुग्विया। निराश, बिना लव या प्रेम के । बेलन --संज्ञा, पु० दे० ( सं० वेलन ) दंडाकार बेलौस-वि० (फ़ा०, बेमुरव्वत, सच्चा, स्पष्टगोल भारी पदार्थ जिसे लुढ़काकर कंकड़ और वक्ता, निष्पक्ष, खरा । पत्थर कूटते या समतल करने हैं, बेलने का बेवक फ़-वि० (फ़ा०) नासमझ मूर्ख, यंत्र (रोटी), कोल्हू की जाठ, धुनियाँ का निबुद्धि । संज्ञा, स्त्रो० बेवकुफ़ी। रुई धुनकने का हस्था, बेलना (दे०), रोलर बेवकन-कि० वि० (फा०) कुसमय, असमय, (अं०)। नावक्त, बेबरखत (दे०)। बेलना संज्ञा, पु० दे० ( सं० वेलन ) रोटी बवपार. व्यौपार*1--सज्ञा, पु. (दे०) पूड़ी आदि बेलने का काठ का गोल लम्बा व्यापार (सं०) उद्यम व्यापार (दे०)। यंत्र । स० कि० (दे०) रोटी पूरी श्रादि को बेवफ़ा-वि० (फ़ा० ये-+-वफ़ा अ०) दुःशील, चकले पर बेलन से बढ़ा कर गोल और बेमुरव्वत, जो मंत्री न निबाहे। सज्ञा, स्त्री० पतला करना, चोपट या नष्ट करना । मुहा० बवफ़ाई। -पाप · बेलना-कार्य बिगाड़ना। विनो- बेवरा, योरा* संज्ञा, पु० (दे०) व्योरा दार्थ पानी के छींटे उड़ाना। (हि. विवरण। बेलपत्र-सज्ञा, पु० दे० यौ० (सं० बिल्वपत्र) बेवरेवार-वि० दे० (हि. वेवरा+वारशिव-मूर्ति पर चढ़ाने की बेल की पती। प्रत्य० ) विवरण के साथ, तफसीलगर । बेलबूटा-संज्ञा, पु० (दे०) फूल-पत्तीदार बेल | बेवसाय, ब्यौसाया-संज्ञा, पु. (दे०) के चित्र, चित्रकारी या सुई का काम। व्यवसाय (सं०) पेशा, उद्यम । वि०बेलसना* --अ० क्रि० दे० ( स० विलास -- | बेवसायी। ना-प्रत्य० ) उपभोग करना. सुख लूटना, बवहर, व्योहर --- संज्ञा, पु० दे० ( सं० व्यवआनंद लेना बिलसना (दे०)। हारिक लेन-देन करने वाला, महाजन, बेलहरा*- सज्ञा, पु० दे० ( हि बेल = पान धनी, व्यौहार। +हरा प्रत्य० ) लगे हुए पानों की लंबी चवहरना, व्याहरना87--अ० कि० दे० छोटी सी पिटाली। स्त्री० अल्पा० बेलहरी । (सं० व्यवहार) बरतना, व्यवहार या बरताव करना। बेला-संज्ञा, पु० दे० (सं० मल्लिका) चमेली | बेवहरिया, ब्यौहरिया* --संज्ञा, पु० दे० श्रादि की जाति का एक श्वेत सुगधित फूलों (सं० व्यवहार -+ इया-प्रय०) महाजन, धनी, का पौधा सज्ञा, पु० (सं०) लहर (प्रान्ती०), व्यवहर या लेन-देन करने वाला। “थब कटोरा, समुद्रतट, समय, तेल भरने की श्रानिय बेवहरिया बोली''--रामा० । चमड़े की छोटी कुल्हिया। बेवहार, ब्यौहार- संज्ञा, पु० दे० (सं० बेलाग --वि० दे० ( फा० बे+लाग हि० = | व्यवहार ) लेन-देन, ऋण, बर्ताव । लगावट ) सब प्रकार से अलग, खरा, साफ़। बेवा-संज्ञा, स्त्री० (फ़ा) राँड़, बिधवा । बेलि-संज्ञा, स्त्री० (दे०) लता। “अमर बेवान, विधान -संज्ञा, पु० दे० (सं० बेलि जिमि बहु बिधि पाली"--रामा० ।। विमान ) वायुयान, हवाईजहाज़, मृतक बेली-संज्ञा, पु० दे० (सं० बल ) संगी। अस्थी। साथी । संज्ञा, स्त्री० (दे०) बेल, लता । क्रि० बेशक-क्रि० वि० (फा. बेशक-अ०) वि० ( हि. बेलना ) बेली हुई। । निस्संदेह, ज़रूर, अवश्य, बेसक (दे०) । For Private and Personal Use Only Page #1308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir बेशकीमत १२९७ बेहना बेशकीमत-वि० (फा०) अमूल्य । संज्ञा, बेसारा- वि० दे० (हि. बैठाना ) स्त्री०, वि० बेशकीमती। बैठानेवाला, जमाने या रखनेवाला । बेशरम-वि० दे० ( फा० बेशर्म ) निर्लज्ज, बेसाहना-स० क्रि० (दे०) मोल लेना, निलजा, बेहया, बेसरम (दे०), लिहाड़ा खरीदना, जान-बूझ कर अपने पीछे झगड़ा (प्रान्ती०) । संज्ञा, स्त्री० बेशरमी। लगाना । "आनेहु मोल बेसाहि कि बेशी-संज्ञा, स्त्री० (फा०) ज्यादती, अधि । मोही"- रामा। कता । यौ०-कमी-बेशी। बेसाहनी-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. बेसाहना) बेशुमार-वि० (फा०) बेसुम्मार (दे०) माल मोल लेने का कार्य । असंख्य, अगणित। बेसाहा-संज्ञा, पु० दे० (हि. बेसाहना) बेश्म-संज्ञा, पु० दे० (सं० वेश्म ) घर, सौदा, सामग्री, सामान, मोल ली वस्तु । मकान, गृह, मंदिर। बेसुध-वि० (हि०) बेख़बर, बेहोश, अचेत, बेसंदर, बैसंघर -संज्ञा, पु० दे० (सं० बेसुधि (दे०)। संज्ञा, स्त्री० बेसुधी। वैश्वानर ) अग्नि, भाग। | बेसुर-बेसुरा--वि० (हि. बे+स्वर-सं०) बेसँभर, बेसँभार* --वि० दे० (फ़ा० + नियत स्वर से हीन या अलग, बेताल, (संगी०), स्वर-रहित, बे मौका । स्त्री०संभाल-हि० ) अचेत, बेहोश, जो निज को | सँभाल न सके, जो सँभाला न जा सके। बेसुरी। बेस्वा-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० वेश्या) वेश्या, बेस-अव्य० (दे०) अच्छा । संज्ञा, पु० (दे०) रंडी। " बेस्वा केरो पूत ज्यों, कहे कौन को वेष, भेष । बाप"-कबी०। बेसन-संज्ञा, पु० (दे०) चने की दाल का बेहंगम-- वि० दे० (सं० विहंगम ) पक्षी, भाटा, रेहन (प्रान्ती०)। बेसनी संज्ञा, स्त्रो० दे० (हि० वेसन) बेसन __ भद्दा, भोंड़ा, बेढंगा, विकट, बेढब । की बनी या भरी हुई रोटी या पूड़ी, बेहँसना* --अ० कि० दे० ( हि० हँसना ) बेसनोटी (ग्रा०)। (सं०-विहसन ) बड़े जोर से हँसना, ठट्ठा बेसनौटी-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. बेसन) मार कर हँसना बिहँसना (दे०) । " हँसा बेसन की बनी रोटी या पूड़ी। बहुरि महा अभिमानी"-रामा०।। बेसबरा-वि० दे० (फा० बे+ सब-अ.) बेह -संज्ञा, पु० दे० (सं० बेध) छिद्र, छेद। असंतोषी, अधीर। बेहड़--वि० संज्ञा, पु० दे० (सं० विकट) बेसर-संज्ञा, पु. (दे०) खच्चर, घोड़ा, नाक ऊँचा-नीचा वनखंड, विकट, बीहड़ (दे०)। की नथ या नथुनी। बेहतर बेहतरीन-वि० (फ़ा०) किसी से बेसरा--वि० दे० ( फा. बे+सरा-घर) बढ़कर, बहुत अच्छा, बहुत ही अच्छा। गृह-हीन श्राश्रय-हीन, बेघर का । संज्ञा, अव्य० स्वीकार-सूचक शब्द, अच्छा। पु० (दे०) एक पक्षी। बेहतरी- संज्ञा, स्त्री० (फ़ा०) अच्छापन, बेसवा- संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० वेश्या) वेश्या, भलाई। पतुरिया, रंडी, बेसुवा (ग्रा०)। बेहद- वि० (फ़ा०) असीम, अनंत, अपार बेसास--संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० वेश्या ) | अपरिमित अधिक, बहुत । वेश्या, पतुरिया रंडी । संज्ञा, पु० दे० ( सं० बेहना-संज्ञा, पु० (दे०) जुलाहों की एक भेष ) भेष, रूप, वेष। जाति, धुनिया, धुना। भा० श० को०-१६३ For Private and Personal Use Only Page #1309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir बेहया १२१८ वैठना बेहया-वि० (फा०) बेशरम, निर्लज्ज। बैंडा* - वि० दे० (हि० बेड़ा) श्राड़ा, बड़ा। "न निकली जान अब तक, बेहया हूँ"- वै--संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० वय) कंबी जुलाहा) भा० १० । संज्ञा, स्त्री०-बेहयाई । "......नय बै चढ़ती बार- वि० । बेहर-वि० (दे०) स्थावर, अचर, पृथक, . बैकला- वि० दे० ( सं० विकल) उन्मत्त, भिन्न, अलग। पागल । संज्ञा, स्त्री० बैकली। बेहरा-वि० (दे०) अलग, भिन्न, पृथक, बैकलाना-अ० क्रि० (दे०) पागल होना, रसोइया (अंग्रे०)। उन्मत्त सा बकना। बेहराना-अ० क्रि० (दे०) फटना। बैकंठ--- संज्ञा, पु० दे० ( सं० वैकुंठ ) विष्णु, बेहरी-संज्ञा, स्त्री० (दे०) चंदे का धन, स्वर्ग, विष्णु-लोक । “बैकुठ कृष्ण मधु-सूदन जमींदारी का एक खंड । पुष्कराक्ष'-शंक। बेहला, बेला-संज्ञा, पु० दे० (अं० वायोलिन) वैखानस-संज्ञा, पु० दे० ( सं० वैखानस ) सारंगी जैसा एक अंग्रेजी बाजा। एक प्रकार के वनवासी तपस्वी। बेहाल-वि० (फा० बे+हाल अ०) बेचैन, | वैजंती-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० वैजयंती ) व्याकुल, विकल । संज्ञा, स्त्री. बहाली।। लम्बे गुच्छेदार फूलों का एक पोधा, विष्णु बेहिसाब-क्रि० वि० दे० (फ़ा० बे+हिसाब की माला, विजय-माला। अ०) असंख्य, धनंत, अगणित, बहुत बैजनाथ-सज्ञा, पु. द. (सं० वैद्यनाथ ) ज़्यादा, बेकायदा। शिवजी, महादेवजी। बैजयंती-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० वैजयंती) बेहुनर, बेहुनरा-वि० (फा०) अज्ञान, मूर्ख, विष्णु की माला, विजयमाल । निर्गुणी, बेहुन्नर (ग्रा०)। बैठक- सज्ञा, स्त्री० (हि. बैठना ) बैठने-उठने बेहूदा-वि० (फा०) ढीठ, शिष्टता या सभ्यता का व्यायाम, बैठने का स्थान, अथाई, हीन, अशिष्ट, असभ्य। संज्ञा, खो० बेहूदगी चौपाल, श्रासन, पीढ़ा, चौकी, मूर्ति या बेहूदापन-बेहूदापना-संज्ञा, पु. ( फा० खम्भे के नीचे की चौकी, श्राधार, साथ बेहूदा-पन-हि० प्रत्य०) असभ्यता, अशिष्टता, बैठना-उठना, सदस्यों का एकत्रित होना, बेहूदगी। अधिवेशन, जमाड़ा, मेल, संग, बैठने बेहून -क्रि० वि० दे० (सं० विहीन ) का ढग या क्रिया, बैठाई। बिना, बगर। बैठका-संज्ञा, पु० दे० ( हि० बैठक ) लोगों बेहैफ़-वि० (फ़ा०) निश्चिन्त, बेखटके, के बैठने का कमरा, बैठक । प्रसन्नता से, बेधड़क, बेफिक्र । बैठको-सज्ञा, स्त्री० दे० (हि. बैठक+ई.. बेहोश-वि. (फ़ा०) अचेत, असावधान, | प्रत्य० ) उठने-बैठने का व्यायाम, बैठक, मूर्छित, बेसुध । संज्ञा, स्त्री०--बेहोशी। श्रासन, काष्ठ या धातु आदि की दीवट, बेहोशी-संज्ञा, स्त्री० (फा०) मूर्छा, | श्राधार । अचेतनता। बैठन-संज्ञा, स्त्री. ( हि० बैठना ) आसन, बैंगन-संज्ञा, पु० दे० (सं० बंगगा ) भाँटा। बैठक, बैठने की क्रिया का भाव, दशा या ढंग। बैंगनी, बैजनी-वि० ( हि० बैगन-+-ई- बैठना--अ० कि० दे० ( सं० वेशन ) ठहरना, प्रत्य० ) लाल और नीला मिला रंग, बैंगन | स्थित होना, श्रासन लगाना या जमाना, के रंग का रंग। संज्ञा, स्त्री०- एक प्रकार! आसीन होना, चिड़ियों का अंडे सेना । स० की नमकीन पक्कान। रूप-ठाना, प्रे० रूप-वेठवाना। मुहा० For Private and Personal Use Only Page #1310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir बैठाना - बेन, बैना बैठे बैठाये (बिठाये)-एकाएक, अचानक, ! तथा निरर्थक से प्रतीत होने वाले शब्दों व्यर्थ में, अकस्मात, व्यर्थ, निरर्थक, अकारण । को सार्थक सा बना देना। राँधना या पकने बैठे बैठे-बेकार, व्यर्थ में, बेमतलब, को आग पर रखना । अकारण, अकस्मात्. अचानक. निष्प्रयोजन । बैठारना, बैलालना -स० क्रि० दे० (हि. बैठते-उठते - सदा. हरदम : किसी समय | वैशना) बैठाना, बिठालना। या स्थान पर ठीक जमना, कैंड़े पर आना, बैढ़ना ---स० कि० दे० ( हि० बाड़ा, बेढ़ा) अभीष्ट कार्य या बात होना, प्रभाव पड़ना, बेंड़ना, बंद करना। उपयुक्त या ठीक होना, किसी उठाये हुए बैत-संज्ञा, श्री० (१०) पद्य, छंद, श्लोक । कार्य को छोड़ देना, नीचे धंस जाना। यौ० वैतबाजी-अंताक्षरी पद्य पाठ । महा०-नाक बैठना-- कंठ-स्वर में | वैतरनी-सज्ञा, स्त्री० दे० (सं० वैतरणी) अनुनासिकता पाना । अभ्यस्त होना, पानी यमलोक की नदी। आदि में घुली वस्तु का तल पर जम जाना, | वैतरा, बैतला-संज्ञा, पु० (दे०) एक प्रकार डूबना, दबना, पैठना, पचक या धंस जाना, की सोंठ। बिगड़ना, कारबार टूट जाना पड़ता पड़ना, बैताल-एंज्ञा, पु० दे० (सं० बेताल) द्वारपाल, मूल्य या खर्च होना, निशाने पर लगना, शिवजी के गणाधिप, एक भूत-योनि । जमीन में पौधे का गाड़कर लगाया जाना, बैतालिक-सं० पु० दे० ( सं० वैतालिक) किसी स्त्री का किसी पुरुष की पत्नी __ स्तुति-पाठक। बन जाना, घर में पड़ना । मुहा०-मन, वैद - ज्ञा, पु० दे० (सं० वैद्य) वैद्य, हकीम, चित्त या दिल में बैठना-पसंद आना, | डाक्टर । स्त्री० बैदिनी। संज्ञा, स्त्री० --बैदीप्रभाव पड़ना, याद हो जाना । गला वैद्य का कार्य या पेशा । लो०-बैद करै बैठना-स्वर बिगड़ना । बे रोज़गार या बैदकी चंगा करै खुदाय, जाव बैद घर आपने बेकार रहना। बात न बूझ कोय-कबी०।। बैठाना-२० क्रि० (हि. बैठना) अासनासीन | वैदक -- संज्ञा, पु० दे० ( सं० वैद्यक) आयुर्वेद, या उपविष्ठ करना, स्थित होने को कहना, । चिकित्सा शास्त्र, वैद्यक । नियुक्त या स्थापित करना, हाथ को किसी | बैदकी, वैदगी, बैदी-संज्ञा, स्त्री० (हि. कार्य को बार बार कर अभ्यस्त करना | माँजना ठिकाना, ठीक तरह जमा देना, | वैद । वैद्यविद्या, वैद्य का व्यवसाय, वैद का डुबाना, पचकाना या घुसाना, निशान या | ना कार्य या काम।। लक्ष्य पर जमाना, कारबार को बिगाड़ना | बैदाई, बैदई, वैदी-संज्ञा, स्त्री० (हि. बैद ) या चलता न रहने देना जलादि में घुली वस्तु वैद्या का कार्य । “बैद करै बैदाई भाई को तल पर जमाना, पौधे श्रादि को पृथ्वी चंगा करै खुदाय"-कबी०।। पर गाहना. या लगाना, किसी स्त्री को पत्नी | वैदेही-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० वैदेही । बनाकर घर में रखना, किसी उलझन या| सीताजी, जानकीजी, विदेह-पुत्री। " वैदेही पेचीदा बात को सुलझा कर ठीक करना, । मुख पटतर दोन्हें"-रामा। उपयुक्त या ठोक करना। जैसे-हियाव | बैन, बैना--संज्ञा, पु० दे० (सं० वचन) बैठाना । मुहा० - ठीक बैठाना-अभीष्ठ । बात, बचन, बयन (दे०)। " सुनि केवट के कार्य या बात करना, प्रबंध या व्यवस्था बैन" - रामा० । मुहा०-बैन झरना (उचित) करना। अर्थ बैठाना-असंगत | (कढ़ना)-मुख से बात निकलना। For Private and Personal Use Only Page #1311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ard १३०० बैनतेय - संज्ञा, पु० दे० (सं० वैनतेय ) वैरखी - संज्ञा, स्त्री० (दे० ) हाथ का एक 46 बैनतेय वलि विनता का पुत्र गरुड़ । निमि चह कागू " - रामा० । बैना - संज्ञा, पु० दे० (सं० वयन) विवाहादि उत्सवों पर मित्रों भादि के घर भेजी जाने वाली मिठाई आदि वस्तु, बायना, बायन (दे० ) । *स० क्रि० दे० (सं० वयन) बोना । | Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir बैयर -- संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० वधूवर) स्त्री । वैयां - संज्ञा, पु० दे० (सं० वाय ) वैसर, बै, या एक पक्षी । बैयाना - संज्ञा, पु० ( फ़ा० ) मोल लेने वाली वस्तु का भाव तय होने पर कुछ धन पेशगी देना, बयाना । बैयाला - संज्ञा, पु० दे० (सं० वायु + शाला ) झरोखा, बयाला । बैरंग - वि० दे० ( अ० बिअरिंग ) जिसका महसूल पेशगी न दिया गया हो । बैर-संज्ञा, पु० दे० (सं० वैर ) वैमनस्य, विरोध, शत्रुता, द्वैष ss 1 लायक ही सों कीजिये, व्याह, बैर रु प्रीति ।" मुहा०बैर काढ़ना या निकालना (भँजाना ) - शत्रुता का बदला लेना । वैर ठाननादुश्मनी करना, शत्रुता या विरोध करना । बैर मानना - वैमनस्य का भाव रखना । वैर पड़ना - शत्रु होकर दुख देना । बैर बिसाहना या मोल लेना- किसी से शत्रुता पैदा करना | बैर लेना- बदला लेना, कसर निकालना । - संज्ञा, पु० (सं० बदरी) बेरी का फल, बहर ग्रा० ) । बैरख - संज्ञा, पु० दे० ( तु० वैरक) सेना का भंडा, ध्वजा, पताका | बैसाखी CA गहना । बैराग - संज्ञा, पु० दे० (सं० वैराग्य ) देखीसुनी वस्तुों में प्रेम न होना, त्याग, वैराग्य, विराग । वि० - बैरागी । बैरागी - संज्ञा, पु० दे० (सं० बिरागी ) वैष्णव मत के साधुओं का एक भेद, त्यागी, सन्यासी । स्त्री० बैरागिनी, वैरागिन 1 " बैरागी रागी बागी सब जासों श्रति भय मानत" - स्फु० । -संज्ञा, पु० दे० (सं० वचन) वचन, बात | बैपार - संज्ञा, पु० दे० (सं० व्यापार) रोजगार, उद्यम, व्यवसाय, व्यापार (ग्रा० ) । वैपारी - संज्ञा, पु० दे० (सं० व्यापारी ) रोज़गारी, व्यवसायी, व्यौरी । बैमात्र - संज्ञा, पु० दे० ( सं० वैमात्र ) वैरी-संज्ञा, पु० दे० ( सं० वैरिन ) शत्रु, सौतेला भाई । बैराना - १० क्रि० दे० (सं० वायु ) वायुप्रकोप से बिगड़ना दुश्मन विरोधी । त्रो० वैरिणी वैरिनी (दे० ) " उतर देत छाड़ौं जियत, बैरी राजकिसोर - रामा० । ?? बैल - संज्ञा, पु० दे० (सं० बलद ) वृषभ, एक पशु जाति, बरद, बरदा, बरघा (ग्रा० ) खो० गाय | "" वैसुंदर, वैसंघर* -- संज्ञा, पु० दे० (सं० वैश्वानर ) अग्नि श्राग । लो०- मोरे घर सेयागी लाये नाँव धरेन बैसुंदर । ' वैस - संज्ञा, स्त्रो० दे० (सं० वयस् ) उम्र, श्रायु अवस्था, जवानी | संज्ञा, पु० (दे० ) क्षत्रियों की एक जाति । बैसना - स० क्रि० दे० (सं० वेशन ) बैठना, बसना । बैसर - संज्ञा, त्रो० दे० ( हि० पय) जुलाहों की कपड़ा बुनने में बाना सुधारने की कंघी, बय (प्रा० ) । For Private and Personal Use Only बैसवारा बैसवाड़ा - संज्ञा, पु० दे० ( हि० बैस + वारा प्रत्य० ) अवध का पश्चिमी प्रान्त । वि० - वैसवारी, बेसाड़ी । बैसाख- संज्ञा, पु० दे० ( सं० वैशाख चैत्र ) के बाद का महीना | वैसाखी - संज्ञा, स्त्री० दे० ( सं० विशाख ) वह दो शाखा की लाठी जिसे लँगड़े लोग Page #1312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org बैसाना बग़ल में लगाकर टेकते चलते हैं । वि०(दे०) बैसाख का । बैसाना* [* - स० क्रि० दे० (हि० बैसना) बैठाना । स० रूप- बैसारना, प्रे० रूप- - बैसरवाना बैसवा | बैसिक / - संज्ञा, पु० दे० (सं० वैशिक ) १३०१ वैश्या प्रेमी नायक ( काव्य ० ) । बैहरt - वि० दे० (सं० वैर - भयानक ) -- बोझा संज्ञा, पु० दे० ( हि० बोझ ) भार, वजन, गट्ठा पोटरी गठरी । भयानक, भयंकर, क्रोधालु । * - संज्ञा, स्त्री० (दे०) वायु (सं०) वैहरिया | बोलाई बुधाई - ज्ञा स्त्री० दे० (हि० बोना) बोने की मजदूरी, बोने का कार्य्यं । बोआना – स० क्रि० (दे०) खेत में छिड़कवाना, बुधाना, बोवाना (ग्रा० ) । बोधारा - संज्ञा, पु० (दे०) खेत बोने का समय, सुकाल ! बीज बोक संज्ञा, पु० दे० (हि० वकरा ) बकरा | बोज - संज्ञा, पु० (दे० ) घोड़ों का एक भेद । बोजा - संज्ञा, स्त्री० दे० (फा० बोजः) चावल की मदिरा | बोझ - संज्ञा, पु० दे० ( सं० भार ) गुरुत्व, भार, भारीपन, बोझा, गठरी, कठिन कार्य या बात, किसी कार्य में होनेवाला श्रम, व्यय या कष्ट, गट्ठा, एक श्रादमी या पशु के लादने योग्य भार, वह जिसका सम्बन्ध निबाहना कठिन हो । बोधगम्य - वि० (सं०) समझ में श्राने योग्य | बोभना - स० क्रि० दे० ( हि० बोझ ) बोझ | बोधन- संज्ञा, पु० (स०) सूचित करना, लादना । जगाना | वि०-योधनीय, बोध्य, बोधित। बोझल, बोझिल - वि० दे० ( हि० बोझ ) बोधना* - स० क्रि० दे० (सं० बोधन ) भारी वजनी गुरु, गरू (दे० ) । समझाना, बोध या ज्ञान देना । द्वि० क० रूप बोधाना, प्रे० रूप बोधवाना । बोधितरु, बोधिदुम-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) गया का वह पीपल का वृक्ष जिसके नीचे बुद्ध को संबोधि (बुद्ध) ज्ञान प्राप्त हुआ था । बोधिसत्व -- संज्ञा, पु० यौ० (सं०) बुद्धव प्राप्त करने का अधिकारी । बोट - संज्ञा, खो० (दे०) छोटी नाव, डोंगी, संस्थाओं में प्रतिनिधि भेजने की सम्मति । वोट (अं० ) । बोना बोड़ा - संज्ञा, पु० (दे०) अजगर | संज्ञा, पु० (दे०) लोबिया । बोड़ी-संज्ञा, त्रो० (दे०) दमड़ी, कौड़ी, बहुत थोड़ा धन | संज्ञा, स्रो० (दे०) बौंड़ी, लता । बोत - संज्ञा, पु० (दे०) घोड़ों की एक जाति । बोतल - संज्ञा, स्त्री० दे० ( ० बाटल) काँच की बड़ी लम्बी गहरी शीशी । बोटी - संज्ञा, स्रो० ( हि० बोटा ) माँस का छोटा सा टुकड़ा। मुहा० - बोटी-बोटी करना ( काटना) -- शरीर को काट कर टुकड़े टुकड़े कर देना । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir बोताम - संज्ञा, पु० दे० ( श्रं० बटन ) बटन, गोदाम, गुदाम बुनाम ( ग्रा० ) । बोलू - संज्ञा, पु० (दे०) बकरा. छाग । बोदली - संज्ञा, स्त्री० (दे०) भोदली । बोदा - वि० दे० (सं० प्रबोध ) गावदी, भोला, मूर्ख, सुस्त, महर, फुसफुसा | संज्ञा, go - बोदापन | त्रो० बोदी | घोद्र - वि० (सं०) व्युत्पन्न, बुद्धिमान, समझदार, चतुर, ज्ञानी 1 बोध - सज्ञा, पु० (सं०) ज्ञान, समझ, जानकारी, संतोष, धीरज, धैर्य । बोधक-- संज्ञा, पु० (सं०) समझाने या ज्ञान कराने वाला, जताने वाला, संकेत या क्रिया द्वारा एक दूसरे को मनोगत भाव जताने वाला शृंगार रस का एक हाव ( काव्य० ) । बोना - स० क्रि० दे० (सं० वयन) छितराना, बिखराना, खेत या भुरभुरी भूमि में जमने For Private and Personal Use Only Page #1313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - - बोबा १३०२ बोली को बीजा डालना। लो०--"जो बोना | बोल-चाल-संज्ञा, स्त्री० यौ० (हि०) सम्भासो काटना, कहै यहै सब कोय ।" षण, कथोपकथन, बात चीत, चलती भाषा, बोबा-संज्ञा, पु० (दे०) स्तन, थन, साज. व्यवहार की बोली, छेड़-छाड़, हेलमेल, सामान, गट्ठर, अंगड़-खंगड़, गठरी। मो०- पारस्परिक सद्भाव । यौ०-बोली-बानी। बोबी। मुहा०-बोल-चाल न होना-परस्पर बोया-संज्ञा, स्त्री० दे० (फा० बू) गंध, सद्भाव न होना, वैमनस्य होना । । बास, महक । जैसे बदबोय, खुसबोय।। बोलता-संज्ञा, पु० दे० (हि. बोलना) बोर-संज्ञा, पु० दे० ( हि० बोरना ) डुबाने | ज्ञान कराने और बोलने वाला तस्व, पारमा, की क्रिया, दुबाव, सिर का एक गहना। जीव प्राण, जीवन-तत्व, जान। बोरना-स० क्रि० दे० (हि० चूड़ना) जलादि | बोलती-संज्ञा, स्त्री० (दे०) बोलने की शक्ति, में निमन कर देना, डुबाना, बदनाम या वाणी, वाकशक्ति। कलंलित करना. मिलाना या योग देना, बोलनहारा -- सज्ञा, पु. (हि. बोलन । हाराधुले रंग में डुबोकर रंगना। प्रत्य.) आत्मा, जीव, बोलने वाला। बोरसी-संज्ञा, स्त्री० (दे०) गोरसी (हि०) बोलना-अ० कि० दे. ( सं० ० ) शब्दोअँगीठी। वि०-गोरस सम्बन्धी। च्चारण करना. बात चीत करना, किपी बोरा-संज्ञा, पु० दे० (सं० पुर == दोना, पात्र) वस्तु का शब्द निकालना या करना । यौ० टाट का बना अनाज श्रादि भरने का थैला । --बोलना-चालना-बात-चीत करना। संज्ञा, पु० (दे०) डुबाने की क्रिया, दुबाव । मुहा०-बोल जाना--मर जाना अशिष्ट), बोरिया-संज्ञा, पु. (फ़ा. चटाई बिस्तर । चुक या फट जाना, बेकाम हो जाना, "अपने अपने बोरिया पर जो गदा था शेर उपयोग या व्यवहार के योग्य न रहना. कुछ था"-- मीर० । यौ० -- बोरिया-बसना, कहना बदना, ठहराना, रोक टोक या छेड़बोरिया-बंधना. बोरिया-बस्तर, बोरिया- छाड़ करना । * बुलाना, टेरना (७०), बचका। मुहा०-बोरिया-बधना उठाना पुकारना, पास पाने को कहना । प्रे० रूप -कूच की तैयारी करना, प्रस्थान करना। बोलवाना, बोलावना। संज्ञा, स्त्रीबोरी-संज्ञा, स्त्री० ( हि० बोरा ) छोटा बोरा, बोलनि व्र०)। मुहा०-बोलि पठाना टाट की थैली। - वुला भेजना. निमंत्रित करना। “ राजा बोरो-संज्ञा, पु. ( हि० बोरना) एक प्रकार जनक ने यज्ञ रची है दशरथ बोलि पठाये का मोटा धान, इन्द्र-धनुष । हैं जी"--स्फु० । बोल-संज्ञा, पु० (हि. बोलना ) शब्द, बोलसरी- संज्ञा, पु. (दे०) मौलसिरी । वाक्य. वाणी, कथन, वचन व्यंग, ताना, | संज्ञा, पु. (?) एक प्रकार का घोड़ा। फबती या लगती हुई बात, बाजों का गठा बोलाचाली-संज्ञा, सो० दे० ( हि० बोलशब्द, प्रतिज्ञा, प्रण। मुहा०-बोल-बाला चाल बात-चीत, बोल-चाल, बोला-बाली रहना या होना-बात का बढ़ कर रहना या माना जाना, साख. धाक या मान-बोली संज्ञा, स्त्री० ( हि० बोलना) मुख से मर्यादा बनी रहना गीत का खंड. अंतरा | निकला शब्द. वाणी. वचन, बात, अर्थवान (संगी०) । बड़े बोल बोलना--अभिमान | शब्द या वाक्य. भाषा नाल म में दाम की बात करना। लो०-"दूर के बोल कहना, हंपी, दिल्लगी, ठठोली, किसी सुहावन लागत।" प्रान्त-वासियों के विचार प्रगट करने का For Private and Personal Use Only Page #1314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १३०३ बोल्लाह बौरायन व्यवहारिक शब्द-समुदाय या भाषा । मुहा० । बोली ठठोली. कटाक्ष, अधिक देते जाना, --बोलो छाडना, (बोलना या मारना) वर्षा की बूंदों सा किसी वस्तु का अधिक -व्यंग या उपहास के शब्द कहना। संख्या या मात्रा में श्रा पड़ना। बोल्लाह-संज्ञा, पु० (दे०) घोड़ों की एक | बौड़हा, बौरहा-वि० दे० (हि. चावला) जाति। बावला. पागल, सिड़ी, बौराह (ग्रा०)। बोधना-स० क्रि० दे० (हि. बोना) बोना, "बर बौराह बरद असवारा"---रामा । छीटना प्रे० रूप-बोवाना। बौद्ध-वि० (सं०) वह मत जिसे बुद्ध ने बोह-संज्ञा, स्त्री० दे० ( हि० बोर ) गोता, चलाया है । संज्ञा, पु० बुद्ध का अनुयायी। दुबकी, डुब्यो, बड्डी (ग्रा.)। बौद्धधर्म-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) गौतम बुद्ध बोहनी-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० बोधन = का चलाया धर्म या मत, इम मत की दो जगाना ) प्रथम या पहली बिक्री। बड़ी शाखायें हैं, (१) हनीयान (२) बोहित-संज्ञा, पु० दे० ( सं० वोहित्य ) महायान। जहाज, बड़ी नाव । ' सभु-चाप बड़ बोहित चौना- सज्ञा. पु० दे० (सं० वामन ) अति पाई "-रामा। नाटे या छोटे कद या डील-डौल का मनुष्य । बौंड़, बौंडा- संज्ञा, स्त्री०, पु० दे० (सं० स्त्री० बौनो । “अति ऊँचे पर लाग फल, वोराट = टहनी ) पेड़ की टहनी, लता। बौना चाहै लेन "-कुं० वि० ला। बौड़ना - अ० क्रि० ( हि० बौड़ ) लता की बौरी-ज्ञा, पु० दे० ( सं० मुकुन ) प्राम भाँति बदना, टहनी फेंकना, छैलना। की मंजरी, श्राम के फूलों का गुच्छा मौर । बौंडर-सज्ञा, पु० दे० (हि. बवंडर) | बोरना-अ० कि० (हि. बौर+ना-प्रत्य०) चक्करदार हवा, बवंडर। श्राम के वृक्ष में बौर निकलना, मौरना, बौंडियाना-अ० कि० (दे०) चक्कर खाना, बौराना (दे०)। बौरहा - वि० दे० (बावला हि०) बौराह, बौंडी-संज्ञा, स्त्री० (हि. बौड़ ) कच्चे फल, पागल, सिड़ी। ढंदी. ढोंड़, फली, छेमी, छदाम, दमड़ी, ! बौरा-बउरा--वि० दे० (सं० बातुल) पागल, ढोंढी बौंडी (दे०)। पं०-बोंडा। लिड़ी, बावला । "तेहि बिधि कस बौरा वर बोधाना-अ० कि० दे० (हि. बाउ- दीन्हा"- रामा०। माना-प्रत्य०) स्वप्न की दशा का प्रलाप, बौराई*-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. बौरा+ईसंनिपाती या पागल की भाँति अंड बंड प्रत्य० ) पागलपन । अ० कि० (दे०) पागल बकना, बर्राना। हो जाता है । '' जस थोरे धन खल बौराई" बौखल-वि० दे० (हि. बाउ) पागल, रामा०। सिड़ी। बौराना---० कि० दे० (हि. बौरा+ बौखलाना-प्र० क्रि० दे० (हि० बाउ+ ना-प्रत्य० ) पागल वा सिड़ी हो जाना, स्खलन-सं० ) पगलाना, सनक जाना। सनक जाना, बावला होना, विवेक से रहित बोहाड, बौछार सज्ञा, स्त्री० दे० (सं० हो जाना। स० कि० (दे०) किसी को ऐसा वायु + क्षरण ) पानी की नन्हीं नन्हीं बूंदे कर देना कि उसे भले बुरे का ज्ञान न रहे, जो वायु वेग से कहीं गिरती हैं, झास श्राम में बौर भाना, बोरना। (प्रान्ती०) झड़ी, बाता का तार, ताना, बोरायन-सज्ञा, पु. ( हि०) पागलपन । घूमना। For Private and Personal Use Only Page #1315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir बौराह-बौराहा १३०४ ब्योंचना बौराह-बौराहा*- वि० दे० ( हि० धौरा ) व्यौहार (दे०) व्यवहार, रुपये का लेन-देन, सिड़ी, पागल । संज्ञा, पु० चौराहापन । सुख-दुख में सम्मिलित होने का मेल संबंध । बौरी -संज्ञा, स्त्री. ( हि० बोरा ) पगली, व्यवहारी-संज्ञा, पु. ( सं० व्यवहारिन् ) बावली । “हौं बौरी खोजन गयी, रही किनारे __ काम करनेवाला, लेन देन करने वाला, बैठ"-कबी०। व्यापारी, मेली, सम्बन्धी। बौलसिरी-संज्ञा, स्त्री० (दे०) मौलसिरी। ब्याज--संज्ञा, पु० दे० (सं० व्याज) सूद, बौहर-संज्ञा, स्त्री० दे० । सं० वधू ) वधु, व्याज, लाभ, वृद्धि, वियाज (ग्रा.)। बहू, दुलहिन, बहुरिया (ग्रा०)। ब्याना-स० क्रि० । हि० बियाना) बियाना, बौहा-वि० (दे०) पथरीला, कँकरीला । संज्ञा, जनना, पैदा या उत्पन्न करना। स्त्री० दे० (सं० बधू ) बधू, पतोहू। ब्यापना -अ० क्रि० दे० (सं० व्यापन) बौहाई--संज्ञा, स्त्री० (दे०) रोगिणी स्त्री, फैलना, किसी वस्तु या स्थान में पूर्णतया उपदेश, शिक्षा, सीख । घेरना, श्रोत-प्रोत होना. ग्रसना, प्रभाव व्यंग-ज्ञा, पु० दे० (सं० व्यंग ) ताना, करना । “नगर व्याप गई बात सुतीछी" चुटकी, गूढ़ अर्थ । यौ०-व्यंगार्थ । -रामा०। व्यंजन-संज्ञा, पु० (दे०) व्यंजन, अक्षर, व्यारी-संज्ञा, स्त्री० दे० ( सं० विहार ) रात वर्ण, भोजन । का भोजन, बियारी, व्यालू । व्यजन-व्यजना -- संज्ञा, पु० दे० (सं० यजन) । ब्याल-संज्ञा, पु० दे० (सं० व्याल ) साँप । बिजना, पंखा, बेना, बिनवाँ । व्याली सज्ञा, स्त्री० दे० (सं० व्याल ) व्यतीतना* - स० क्रि० दे० ( सं० व्यतीत-+ साँपिनी । वि० (सं० व्यालिन् ) साँप ना-प्रत्य०) गुजर या बीत जाना, वितीतना । पकड़नेवाला, सँपेरा।। व्यालू संज्ञा, पु. दे. ( सं० विहार ) रात व्यथा-संज्ञा, स्त्री. ( सं० व्यथा ) पीड़ा, का भोजन व्यारी. बियारी। दर्द बिथा (दे०)। व्याह सज्ञा, पु. दे. ( सं० विवाह ) स्त्री. व्यलीक-वि० दे० (सं० व्यलीक ) अप्रिय पुरुष में पत्नी पति सम्बन्ध स्थापित करने की विलक्षण | सज्ञा, पु. (दे०)-डाँट फटकार, रीति विवाह. परिणय. दारपरिग्रह । अपराध, दुख, अनुचत, अयोग्य । ब्याहता-वि० दे० ( स० विवाहित् । जिसके व्यवसाय-संज्ञा, पु० दे० ( सं० व्यवसाय) साथ व्याह हुया हो, व्याहा, व्याही।। ब्यौसाय (दे०) व्यापार, रोज़गार । व्याहना-स० कि० दे० ( सं० विवाह ) (वि. व्यवस्था--संज्ञा, स्त्री० दे० ( सं० व्यवस्था ) व्याहता) विवाह होना या करना । प्रबंध, स्थिति, स्थिरता, इन्तज़ाम, विवस्था । ब्याहा-वि० दे० ( सं० विवाहित ) जिसका व्याह हो चुका हो । स्त्री०-व्याही। व्यवहर-संज्ञा, पु. दे. ( सं० व्यवहार ) व्याहुला - वि० दे० हि० व्याह) विवाह का। ब्यौहार (दे०) मृण. उधार देनेवाला. धनी । व्योंगा संज्ञा, पु० (दे०) चमड़ा छीलने का व्यवहरिया-संज्ञा, पु० दे० { हि० ब्यवहर ) एक हथियार ।। ब्योहरिया, व्यवहर, महाजन, धनी। 'अव व्योंचना-अ. क्रि० दे० (सं० विकुंचन ) आनिय व्यवहरिया बोली”. रामा०। झोके से मुड़ने या टेढ़े होने से नसों का व्यवहार-संज्ञा, पु० दे० (सं० व्यवहार ) स्थानों से हट जाना, विलौंचना, मुरकना। For Private and Personal Use Only Page #1316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १३०५ ब्योंत ब्रह्मचारी ब्योंत-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० व्यवस्था) ब्रज-संज्ञा, पु० दे० (सं० व्रज) गोकुल मामला, माजरा, व्यवस्था, ढंग, युक्ति, गाँव, मथुरा और वृंदावन के चारों ओर का तदबीर, साधन-रीति, उपाय, कार्य पूरा देश, चलना, जाना, गमन । " सूरदास या उतारने का हिसाब किताब, तैयारी, बायो- ब्रज यों बसि कै"- सूर० ।। जन, संयोग, साधन या सामान की सीमा, | ब्रजना*--अ० क्रि० दे० (सं० वजन) चलना। नौबत, प्रबंध, उपक्रम, समाई, अवसर, ब्रजेश- संज्ञा, पु० यौ० (सं०) श्रीकृष्ण । तराश, पोशाक के लिये कपड़े की नाप- ब्रह्मड--सज्ञा, पु० दे० (सं० ब्रह्मांड) संसार । जोख से काट-छाँट, ब्यउँत (ग्रा०)। मुहा० ब्रह्म-संज्ञा, पु० दे० ( सं० ब्रह्मन् ) सत्, -ज्यौंत बाँधना-तैयारी करना। लो०- चित् और श्रानन्द-स्वरूप एक मात्र अखिल घूरन के लत्ता बिनै कन्या तन का ब्यौंत बाँधै।" कारण रूप, नित्य सत्ता, परमेश्वर, चैतन्य, ब्योंतना, ब्यौंतना-- क्रि० दे० (हि. भगवान, ज्ञान की परमावधि-रूप, नारायण, ब्योंत ) पोशाक के लिये कपड़े की काट-छाँट परमात्मा, आत्मा, ब्राह्मण । “सत्यं ज्ञानया नाप-जोख करना, ब्यउँतना । द्वि. रूप मनन्तं ब्रह्म', यः ज्ञानस्य परमावधिः "। ब्योंताना, प्रे० रूप-ब्योंतवाना । “दरजी | __ "ब्रह्मज्ञान बिनु नारि नर, कहैं न दूजी अरजी सुनै न, कुरता मेरो ब्यौते।" बात'-रामा० । ब्राह्मण (सामासिक पदों ब्योपार, ब्यौपार--संज्ञा, पु० दे० ( सं० में) ब्रह्मा, (समास में), ब्रह्मराक्षस, वेद, एक व्यापार ) व्यापार, रोजगार, उद्यम । और चार की संख्या। ब्योमासुर-संज्ञा, पु० (सं०) एक दैत्य ।। ब्रह्मकंड-संज्ञा, पु. यो० (सं०) ब्रह्मसर ब्योरन-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. व्योरना) नामी तीर्थ । बाल संवारने का ढंग। ब्योरना, ब्यौरना--स० कि० दे० (सं० ब्रह्मगाँठ-संज्ञा, स्त्री० दे० यौ० (सं० ब्रह्मग्रंथि) विवरण ) गुथे वालों को सुलझाना । जनेऊ या यज्ञोपवीत की गांठ विशेष । ब्रह्मग्रंथि- संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) जनेऊ या ब्योरा, ब्यौरा-संज्ञा, पु. ( हि० व्योरना) वफसील, विवरण, किसी बात या घटना उपवीत की गाँठ विशेष । की एक एक बात का कथन । यो० ब्रह्मघाती-संज्ञा, पु० यौ० ( सं० ब्रह्म+घात ब्योरेवार-विस्तार के साथ। +क्तिन्) ब्राह्मण का मारनेवाला, ब्रह्महत्याब्योहर, ब्यौहर-संज्ञा, पु० दे० (सं० कारी। व्यवहार ) धनी, महाजन, ऋणदाता, ऋण ब्रह्मघोष-संज्ञा, पु. यौ० (सं०) वेदध्वनि । देना-लेना। ब्रह्मचर्य- संज्ञा, पु. (सं०) चार पाश्रमों व्योहरिया, ब्यौहरिया-संज्ञा, पु० दे० में से पहला आश्रम जिसमें मनुष्य का (सं० व्यवहार । धनी, महाजन, ऋणदाता, सदाचारमय माधारण जीवन रख कर मुख्य ब्यौहार । “अब श्रानिय ब्योहरिया | कार्य वेद पढ़ना है, एक प्रकार का यम बोली'-रामा । (योग०) । यौ०-ब्रह्मचर्याश्रम । ब्योहार, च्यौहार-संज्ञा, पु. दे. (सं० ब्रह्मचारिणी-संज्ञा, स्त्री० (सं०) सरस्वती, व्यवहार ) लेन-देन, व्यापार, बर्ताव, कारय, ध्याय। दुर्गा, पार्वती ब्रह्मचर्य व्रत रखनेवाली स्त्री। बंद-संज्ञा, पु० दे० (सं० बंद ) समूह, ब्रह्मचारी-संज्ञा, पु. ( सं० ब्रह्मचारिन् ) मँड । " मनु अडोल वारिधिमें बिंबित राका | प्रथमाश्रमी, ब्रह्मचर्य व्रत रखनेवाला। स्त्री०उड़गण बंद"। ब्रह्मचारिणी। भा० श. को०-१६५ For Private and Personal Use Only Page #1317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १३०६ - - - ब्रह्मज्ञ ब्रह्मरूपक ब्रह्मज्ञ ... वि० (सं०) ब्रह्मज्ञानी, वेदज्ञ, | ब्रह्मनिष्ठ-वि. यौ० (सं०) ब्राह्मणों का आत्मतत्वज्ञ, वेद विद् , वेदज्ञ । भक्त, ब्रह्मज्ञानी, ब्रह्मज्ञान-संपन्न । संज्ञा, ब्रह्मज्ञान-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) अद्वैतवाद, स्रो० (सं०) ब्रह्मनिष्ठा । ब्रह्म सम्बन्धी ज्ञान, पारमार्थिक अवत सत्ता ब्रह्मपद -- संज्ञा, पु० यौ० (सं०) मुक्ति, मोक्ष, के सिद्धान्त का बोध । "ब्रह्मज्ञान बिनु | ब्राह्मणत्व, ब्रह्मत्व । नारि नर, कहैं न दूजी बात".--रामा० ।। ब्रह्मपुत्र--संज्ञा, पु० यौ० (सं०) ब्रह्मा का ब्रह्मज्ञानी-वि० यौ० (सं० ब्रह्मजानिन् ) लड़का, वशिष्ठ, नारद, मरीचि, मनु, श्रद्वैतवादी, पारमार्थिक अद्वैत सत्ता रूप, सनकादिक, मानसरोवर से निकल बंगाल ब्रह्म सम्बन्धी ज्ञान रखनेवाला। की खाड़ी में गिरनेवाली ब्रह्मपुत्रा नदी। ब्रह्मण्य-वि० (स.) ब्राह्मणों का सेवक या ब्रह्मपुराण-संज्ञा, पु. यौ० (सं०) आदि प्रेमी, ब्राह्मण सरकारी, ब्रह्मा या ब्रह्म सम्बन्धी। पुराण. अठारह पुराणों में से एक पुराण । "प्रभु ब्रह्मण्य देव मैं जाना "---रामा० । ब्रह्मपुरी-संज्ञा, स्त्री० (सं०) ब्रह्मा का नगर । ब्रह्मतीर्थ-संज्ञा, पु० (सं०) ब्रह्म पर नामी ब्रह्मपाश - संज्ञा, पु. यौ० (सं०) ब्रह्म फाँस तीर्थ, पुष्करमूल, पोहकरमूल । (दे०) एक अस्त्र. ब्रह्मास्त्र। ब्रह्मत्व-संज्ञा, पु० (सं०) ब्रह्म का भाव, ब्रह्मभट्ट- संज्ञा, पु० (सं०) वेदज्ञानी, ब्रह्मविद् ब्राह्मणत्व । एक तरह का ब्राह्मण । ब्रह्मदंड- संज्ञा, पु. यौ० (सं०) बटु या ब्रह्मभूति-- संज्ञा, स्त्री. (सं०) ब्राह्मण का तेज, ब्रह्मचारी का दंडा, ब्रह्मा का दिया दंड, ब्राह्मण का धर्म, ऐश्वर्य पदाधिकार। ब्राह्मण का दंड । ब्रह्मभोज-संज्ञा, पु. यौ० (सं०) ब्राह्मण - ब्रह्मदिन- संज्ञा, पु० यौ० (सं०) ब्रह्मा का दिन भोजन, बरमभोज (दे०)।। जो एक हाज़ार या १०० चतुर्युगी का माना ब्रह्मभोजन- संज्ञा, पु० यौ० (सं०) ब्राह्मणों जाता है। को खिलाना। ब्रह्मदेव-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) ब्रह्मा, चंद्रमा, | ब्रह्ममुहूर्त- संदा, पु० यौ० (सं०) प्रातःकाल, शिव, बरमदेव (दे०)। प्रभात, प्रात, सवेरे, उषाकाल, ब्रह्मवेला। ब्रह्मदोष-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) ब्राह्मण के ब्रह्मयज्ञ-संज्ञा, पु. यौ० (सं०) यथाविधि मार डालने का पाप या दोष । वि. वेद पढ़ना, वेदाध्ययन, वेदाभ्यास | ब्रह्मदोषी । " ब्राह्मदोष सम पातक नाही" ब्रह्मरंध्र-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) मस्तक के -रामा। मध्य भाग का एक गुप्त छिद्र, जिससे प्राणों ब्रह्मद्रोह-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) विप्रद्रोह । (जीव) के निकलने से ब्रह्मलोक की प्राप्ति ब्रह्मद्रोही-वि• यौ० (सं० ब्रह्मद्रोहिन् ) | होती है (योग०)। ब्राह्मणों से शत्ता या द्रह करनेवाला। ब्रह्मराक्षस-संज्ञा. पु० यौ० (सं०) ब्राह्मण"ब्रह्मद्रोही न तिष्ठति ।" भूत। ब्रह्मद्वार-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) ब्रह्मरंध्र। ब्रह्मरात्रि-- संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) ब्रह्मा की ब्रह्मद्वेष-संज्ञा, पु. यौ० (सं०) ब्राह्मणों से | एक रानि जो उनके दिन के समान ही होती वैर । वि. ब्रह्मद्वेषी। है, सौ (एक) कल्प ! ब्रह्म-ध्यान-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) ब्रह्म का । ब्रह्मरूपक संज्ञा, पु० (सं०) चित्र या ध्यान या विचार । वि० ब्रह्मध्यानी। चंचल छंद, १६ वर्गों का वृत्त (पि०)। For Private and Personal Use Only Page #1318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ब्रह्मरूप ब्रह्मरूप - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) ब्रह्मा या ब्राह्मण के रूप का । ब्रह्मरेख, ब्रह्मलेख -- संज्ञा, खो० दे० यौ० ( सं० ब्रह्मलेख ) जीव के गर्भ में थाते ही ब्रह्मा का लिखा विधान, भाग्य का लिखा, विधि-विधान, ब्रह्माक्षर । ब्रह्म-रेख, ब्रह्म- लेख -संज्ञा, पु० यौ० (सं०) किसी जीव के गर्भ में आते ही ब्रह्मा का लिखा भाग्य विधान या लेख ( पु० ) । ब्रह्म- रोप - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) विप्र-क्रोध । ब्रह्मर्षि - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) ब्राह्मण ऋषि । ब्रह्मलोक - संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) ब्रह्मा रहने का लोक, मुक्ति या मोक्ष का एक भेद । ब्रह्मवाद - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) वेदपाठ, वेद का पठन-पाठन, वेदाभ्यास, श्रद्वैत या वेदान्तवाद | १३०७ ब्रह्मवादी - वि० (सं० ब्रह्म + वादिन् ) वेदांती, अद्वैतवादी, केवल ब्रह्म की ही सत्ता मानने वाला । स्त्री० ब्रह्मवादिनी । ब्रह्मविद - वि० (सं० ) ब्रह्म का जानने या समझने वाला, वेदार्थजाता, वेदान्ती । ब्रह्मविद्या - संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) ब्रह्म के ज्ञान की विद्या, उपनिषद् शास्त्र, वेदान्त, अध्यात्मज्ञान । ब्रह्मवैवर्त्त - संज्ञा, पु० (सं०) ब्रह्म के कारण ज्ञात होने वाला संसार, श्रीकृष्ण, ब्रह्म सकाश से उत्पन्न प्रतीति कृष्ण भक्ति सम्बन्धी एक पुराण । ब्रह्मश्रव - संज्ञा, पु० (सं०) वेद । ब्रह्मसमाज - संज्ञा, पु० (सं० ) ब्राह्मसमाज । वि० ब्रह्मसमाजी | ब्रह्मसूत्र - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) यज्ञोपवीत, जनेऊ, व्यास भगवान् कृत शारीरिक सूत्र या वेदान्त | ब्रह्महत्या - संज्ञा, खो० यौ० (सं०) ब्राह्मण का वध ब्राह्मण का मारना, ब्राह्मण के वध का महा पाप - (मनु० ) । ब्राह्ममुहूर्त्त 64 ब्रह्मांड - रुज्ञा, पु० (सं०) अनंत लोक वाला, समस्त विश्व, सारा संसार, चौदहों भुवनों का समूह. खोपड़ी, कपाल, भरभंड ( प्रा० ) । कंदुक इव ब्रह्मांड उठाऊँ " - रामा० । ब्रह्मा - संज्ञा, पु० (सं०) विधाता, विधि, पितामह ब्रह्म या ईश्वर के ३ रूपों में से सृष्टि रचनेवाला विरंचि रूप, यज्ञ का एक ऋत्विक, वरम्हा (दे० ) । भारत के पूर्व में Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir एक प्रान्त | 14 ब्रह्माणी - संज्ञा, स्त्री० (सं०) ब्रह्मा की शक्ति, या स्त्री. सरस्वती देवी । " श्रगनित उमा रमा ब्रह्माणी - रामा० । ब्रह्मानंद - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) ब्रह्म या परमात्मा के रूप- ज्ञान या अनुभव से उत्पन्न हर्ष या आनंद | ब्रह्मानंद मगन सब लोगू " - रामा० । ब्रह्मावर्त्त - संज्ञा, पु० (सं०) सरस्वती और शरद्वती नदियों के मध्य का प्रदेश । ब्रह्मास्त्र - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) मंत्र विशेष से संचालित एक अस्त्र, ब्रह्मवाण । व्रात* - संज्ञा, पु० दे० ( सं० व्रात्य ) संस्काररहित जिसका जनेऊ न हुआ हो, पतित, श्रना । ब्राह्म - वि० (सं० ) ब्रह्म या परमात्मा संबंधी । संज्ञा, पु० (सं०) विवाह का एक भेद (मनु० ) 1 ब्राह्मण - संज्ञा, पु० (सं०) चार वर्णों में से सर्वश्रेष्ठ एक वर्ण या जाति जिसके प्रमुख कर्म यज्ञ करना कराना, वेद का पठन-पाठन, ज्ञान और उपदेश देना है, ब्राह्मण जाति का मनुष्य, मंत्र भाग को छोड़कर शेष वेद, विष्णु, शिव । स्त्री० ब्राह्मणी । ब्राह्मणत्व - संज्ञा, पु० (सं०) ब्राह्मणपन, ब्राह्मण का भाव, धर्म या अधिकार, ब्राह्मणता । ब्राह्मणभोजन - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) ब्राह्मणों को जिमाना या खिलाना, ब्राह्मणों को भोजन कराना, बरमभोज (दे० ) । ब्राह्रण्य - संज्ञा, पु० (सं०) ब्राह्मणत्व | ब्राह्ममुहूर्त्त - संज्ञा, पु० (सं०) सूर्योदय से दो घड़ी पूर्व का समय, ऊषा, प्रभात ! For Private and Personal Use Only Page #1319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भजाना ब्राह्मसमाज १३०८ ब्राह्मसमाज-संज्ञा, पु० (सं०) केवल ब्रह्म के । - स्मरण-शक्ति-वर्धक एक बूटी, शिव की प्रष्ट मानने वाले लोगों का संप्रदाय, ब्रह्मोपासक | मातृकाओं में से एक, ब्रह्मा-संबंधी। पंथ । ब्रीड़ना*-- अ. क्रि० दे० (सं० वीडन) ब्राह्मी-संज्ञा, स्रो० (सं०) दुर्गा, भारत की लजाना, लज्जित होना। | ब्रीड-बीड़ा-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० व्रीडा ) पुरानी लिपि जिससे नागरी, बँगला आदि लज्जा, शरम । “समुझत चरित होति श्रआधुनिक लिपियाँ विकसित हुई हैं, बुद्धि और मोहिं ब्रीड़ा"-रामा० । भ-संस्कृत और हिंदी की वर्णमाला के खोदा गया गढ़ा। संज्ञा, पु० दे० (हि. पवर्ग का चौथा वर्ण। भांग ) कूड़ा-करकट, घास-फूस । संज्ञा, पु. (सं०) राशि, ग्रह, नक्षत्र, भंगिमा-संज्ञा, स्त्री० (०) वक्रता, झुकाव । भ्रांति, भ्रम, शुक्राचार्य, पहाड़, भ्रमर। (दे०)| "भ्रूभंगिमा पंडिता'"-प्रि० प्र० । भगण (पिं०)। भंगी- संज्ञा, पु. (सं० भंगिन् ) भंगशील, भंकार*--संज्ञा, पु. (अनु०) विकट या | नष्ट होने वाला, भंग करने या तोड़ने वाला, घोर शब्द । भंगकारी। स्त्रो०-भंगिनी । संज्ञा, पु. भंग-संज्ञा, पु. (सं०) भेद, लहर, हार, (सं० भकि ) एक अस्पृश्य नीच जाति, टुकड़ा, खंड, वसा, टेढ़ाई, डर, भय, विध्वंस, दुमार, डाम । स्त्री० भंगिन । वि० (हि. नाश, अड़चन, बाधा, झुकने या टूटने का भांग ) भाँग पीनेवाला, भँगेड़ी। भाव । संज्ञा, स्त्री० भंगता । संज्ञा, पु० दे० भंगुर-वि० (सं०) टूटने या भंग होने वाला, (सं० भंगा) भाँग । “गंग-भंग दोउ नाशवान, नश्वर, टेढ़ा, वक्र । संज्ञा, स्त्री बहिनि हैं, बसती शिव के अंग"-देव०। भंगुरता । यौ०-क्षण-भंगुर ।। भंगड़-भंगड़ी-वि० दे० (हि. भांग+ | भँगेड़ी- वि० दे० (हि. भंगड़ ) भाँग पीने. अड़-प्रत्य०) बहुत भाँग खाने वाला । वाला-भंगड़। भगोड़ी (ग्रा०)। | भंजक-वि० (सं०) तोड़नेवाला। स्त्री. भंगना-प्र. क्रि० दे० (हि. भंग ) दबना, भंजिका। टूटना, हार मानना, तोड़ना, दबाना । भंजन-संज्ञा, पु. (सं०) तोड़ना, विध्वंस, स० कि० (दे०) झुकाना, तोड़ना। विनाश | वि०-तोड़नेवाला, भंजक • वि. भंगरा-संज्ञा, पु० दे० (हि. भांग+रा= | भंजनीय। का ) भाँग के रेशों से बना वस्त्र । संज्ञा, भंजना, भँजना-अ० क्रि० दे० (सं० भंजन) पु० दे० ( सं० शृंगराज ) भंगराज, भंगेरी, | टूटना, तोड़ना, भुनाना, बड़े सिक्के का छोटे भँगरैया (ग्रा०)। सिक्कों में बदलना, भुनाना, भुजाना भंगराज-संज्ञा, पु० दे० (सं० भृगराज ) | (ग्रा०) । अ० कि० दे० ( हि० भांजना ) वटा एक काला पक्षी, भंगरा। या ऐंठा जाना, काग़ज़ के तख्तों का मोड़ा भँगरैया -संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० शृंगराज) जाना, भाँजा जाना । “बिनु भंजे भव भंगरा, पौधा (औष०)। धनुष विशाला"-रामा० । भंगार-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० भंग ) भँजाना -स० क्रि० दे० (सं० भजन) तोड़ना। बरसाती पानी का गड्ढा, कुआँ खोदते समय "भंजेउ राम शंभु धनु भारी"-रामा । For Private and Personal Use Only Page #1320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भंधन भंटा १३०१ स. क्रि० दे० (हि. भैजना ) तुड़वाना, यौ०-भंडा-फोड़ । मुहा०-भंडा बड़े सिक्के का छोटे सिक्कों में बदलवाना, । फूटना (फोड़ना)- भेद खुलना (खोलना)। भुनाना । स० क्रि० दे० (हि० भाँजना) भंडाना - स० कि० दे० ( हि० भाँड़ ) उपद्रव भंजवाना, बयना, ऐंठाना। मचाना, भाँडों सा उछल-कूद मचाना या भंटा-संज्ञा, पु० दे० ( सं० ताक ) बैंगन नाचना-गाना, विनष्ट करना, तोड़ना. भाँटा, भटा (ग्रा०)। फोड़ना, मँडैती करना। भंड-वि० (सं.) गंदी या फूहड़ बातें कहने भंडार-संज्ञा, पु० दे० (सं० भाँडागार ) वाला, पाखंडी, धूर्त, भाँड । संज्ञा, स्त्री० / समूह, कोष, खजाना, कोठार, बखारी, भैंडता, भंडपन । संज्ञा, पु० -एक जाति पाकशाला, भंडारा (दे०), उदर, पेट, के लोग जो सभाओं में गाते नाचते और भन्न भरने का स्थान । नकलें करते हैं। भंडारा-संज्ञा, पु० दे० (सं० भाँडागार ) भँड़ताला-संज्ञा, पु० दे० यौ० (हि०) कोष, खजाना, मुंड, भंडार, समूह, पाक. तालियाँ बजाते हुए भाँड़ों का गान, शाला साधुओं का भोज, पेट, उदर । भँडतिल्ला, भंडचाँचर (प्रान्ती०)। | भंडारी - संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. भंडार-+ ई. भँडतिल्ला-संज्ञा, पु० दे० ( हि० भंड़ताल ) प्रत्य०) खजाना, कोष, छोटी कोठरी । भंड़ताल । सज्ञा, पु. (हि. भडार -ई० प्रत्य० ) भंडना-स० क्रि० दे० ( सं० भंडन ) तोड़ना, खज़ानची कोषाध्यक्ष, रसोइया, भंडारे का भंग करना, बिगाड़ना, नष्ट-भ्रष्ट करना, हानि मालिक, तोशाग्वाने का दारोगा ! लो०पहुँचाना। "दाता देय भंडारी का पेट पिराय।" भँडफोड़ा-संज्ञा, पु० दे० यौ० ( हि० भाँडा | फोड़ना ) मिट्टी के बरतनों का फोड़ना या भँडिया-संज्ञा, स्त्री० (दे०) मिट्टी का छोटा चौड़े मुख का बरतन। गिराना. तोड़ना, मिट्टी के बरतनों का टूटना- | फूटना, छिपी बात का खोलना, रहस्योद्घाटन, . भँडेहर-संज्ञा, पु० (दे०) भंडियों का समूह । भंडाफोड़ । स्त्री०, वि. भंडकोरी। भँडैती-संज्ञा, खो० (ग्रा०) भाँडों सा भडभाँड, भड़भाड़-सज्ञा, पु० दे० (सं० आचार-व्यवहार, नकल । भांडीर ) एक कटीला क्षुप जिसकी जड़ और | भँडौा , भड़वा-संज्ञा, पु० दे० (हि. पत्तियाँ औषधि के काम आती हैं। भांड ) भाँड़ों के गाने का गीत या नकल, मँडरिया--संज्ञा, पु० दे० ( हि० भड्डरि ) निम्न श्रेणी की बुरी कविता जो हास्य-प्रधान एक जाति के लोग, भड्डर, भड्डरी। हो, असभ्य गीत । वि०-मक्कार, धूर्त, पाखंडी। संज्ञा, स्त्री० दे० भँभाना-अ० क्रि० दे० (हि. (भाना ) (हि. भंडारा । इया प्रत्य०) दीवाल पर | रंभाना, भाँय भाँय करना। पल्लेदार ताख या पाला। भैंभीरी-संज्ञा. स्त्री० (अनु०) लाल रंग का भँडसार, भँडसाला-संज्ञा, स्त्री० दे० यौ० एक बरसाती कीड़ा, जुलाहा। "उड भंभीरी (हि० भाँड़+शाला) वह स्थान जहाँ कि सावन आ गया अब ''--मीर० । अनाज भरा जाता है । खत्ती, खौं (ग्रा० भंभेरि*-संज्ञा, स्त्री० दे० ( हि० भँभरना ) बखारी, गोदाम । डर, भय । भंडा -संज्ञा, पु० दे० ( सं० भंड ) पात्र, 8वन *-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० भ्रमण ) बरतन, भाँडा, भंडारा, रहस्य या भेद। घूमना, फिरना, भ्रमण करना। For Private and Personal Use Only Page #1321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org भँवना भँवना - अ० क्रि० दे० ( सं० भ्रमण ) फिरना. घूमना, भ्रमण करना, चक्कर लगाना । वि० मँत्रैया । भँवफेर - संज्ञा, पु० यौ० (दे०) चक्कर, घुमाव, भ्रम, उलझन । भवफेर - जग-जंजाल | भँवर - संज्ञा, पु० दे० (सं० भ्रमर ) भौरा, जल-गतं, या श्रावर्त, पानी का चक्कर | भौंर (ग्रा० ) । भँवरकली - संज्ञा, स्त्री० दे० (हि०) पशुओं के छूने का यंत्र, सहज हो में सब ओर घूमने वाली कील में जड़ी हुई कड़ी । भँवरजाल - संज्ञा, पु० दे० (सं० भ्रमजाल ) भ्रमजाल, साँसारिक झगड़े-बखेड़े, भव १३१० जाल ( प्रा० ), भवजाल । भँवरभीख — संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० भ्रमर भिक्षा) वह भीख जो भरें के समान घूम-फिर कर थोड़ी थोड़ी यों माँगी जावे कि देने वाले को हानि न हो । भँवरी - संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० भ्रमरी) भ्रमरी, भौंरी (प्रा० ) ऐंठना, मोड़ना फेरी, गश्त, फेरा पानी का चक्कर एक केन्द्र पर घूमे हुए बालों या रोधों का स्थान विवाह में - प्रदक्षिणा, भाँवरि (दे० ) । ज्ञा, स्रो० दे० ( हि० भँवरना या भँवना ) घूम-फिर या चक्कर लगाकर सौदा बेचना, फेरी । भँवाना#* - स० क्रि० दे० (हि०) घुमाना, फिराना, चक्कर देना, भ्रम में मरोड़ना, ऐंठना । डालना, भंगार - संज्ञा, पु० (दे०) बड़ा छेद भँवारा - वि० दे० ( हि० भँवना + आराप्रत्य० ) घूमने या भ्रमण करनेवाला, फिरने वाला, भ्रमणशील । भँसना - अ० क्रि० दे० ( हि० वहना ) पानी में फेंका या डाला जाना । भइया, भैय्या - संज्ञा, पु० दे० (सं० भ्राता) भाई, बराबर वालों का आदर-सूचक । भई- अ० क्रि० (०) हुई, भै ( ० ) । भक्तिसूत्र भक - संज्ञा, स्त्रो० (अनु०) एकाएक या रह रहकर श्राग के जल उठने का शब्द | भकाऊँ - संज्ञा, पु० (अनु० ) हौवा | भकुत्र्या, भकुवा - वि० दे० (सं० भेक ) मूद, मूर्ख । " घाव कहै ई तीनौ भकुथा सिर बोझा श्रौ गावै । " भकुत्र्याना - अ० क्रि० दे० ( हि० घबरा जाना, चकपका जाना । ( ब० ) घबरा देना, चरुपका देना, मूर्ख बनाना । भभरे से भकुवाने से " भकुत्रा ) स० क्रि० 66 Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ---W ऊ० श० । भकोसना- - स० क्रि० दे० (सं० भक्षण ) जल्दी जल्दी या बुरी तरह से खाना, निगलना । लो० " जो न किया सो ना हुआ भकोसो मेरे भाई ।" (6 भक्त, भगत (दे० ) – वि० (सं०) भागों में बँटा हुआ, विभक्त, अलग या भिन्न किया या बाँट कर दिया हुआ, प्रदत्त | संज्ञा, पु० अनुयायी, सेवक, दास भक्ति करनेवाला | रघुबर-भक्त जासु सुत नाहीं" - रामा० । भक्तना - संज्ञा, स्त्रो० (सं०) श्रद्धा, भक्ति । भक्तवत्सल वि० यौ० (सं०) भक्तों पर दयालु विष्णु | संज्ञा, स्त्री० भक्त-वत्सलता, भक्त बता, भक्त बसलता " भक्तवसलता दिय हुलमानी' भक्ताई - संज्ञा स्त्री० दे० ( हि० भक्त ) 1 (दे० ) । - रामा० । For Private and Personal Use Only - भक्ति | भक्ति - संज्ञा, स्त्री० (सं०) बाँटना, भिन्न भागों में बाँटना, विभाग, भाग, अवयव, अंग, विभाग करने वाली रेखा, सेवा, शुश्रूषा श्रद्धा, पूजा, भगवान के प्रति प्रेम या अनुरक्ति, भक्ति नौ प्रकार की है : - श्रवण, कीर्त्तन, स्मरण, पादसेवन, अर्चन, वंदन, दास्य, सख्य, श्रात्मनिवेदन | भगति (दे० ) । एक छंद (पिं० ) | राम-भक्ति बिनु धनप्रभुताई - रामा० । 66 "" भक्तिसूत्र - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) शांडिल्य - मुनि कृत वैष्णव संप्रदाय का एक सूत्र ग्रंथ । Page #1322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मक्ष भगिनी भक्ष - संज्ञा, पु. (सं०) खाना, चबाना, खाने भगतिया-संज्ञा, पु० दे० (सं० भक्ति हि. का पदार्थ । भगति ) राजपूताने की एक गाने-बजाने का भक्षक-वि० (सं०) वादक खाने या चबाने- पेशा करने वाली जाति, इनकी स्त्रियाँ वाला (बुरे अर्थ में)। (कन्यायें) वेश्या वृत्ति करती हैं, एक नीच भक्षण-सज्ञा, पु० (सं०) भजन करना, दाँत । ब्राह्मण स्त्री० भगतिन । से काटकर चबाना या खाना, भोजन। भगती-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० भक्ति) भक्ति। वि० भक्ष्य, भक्षित, भक्षणीय । भगदर-संज्ञा, स्त्री० (हि० भागना) भागना, भक्षना*-२० कि० दे० (सं० भक्षण) खाना। भागने की क्रिया का भाव । भक्षी - वि० (सं० भक्षिन् ) भक्षक, खाने- भगन*- वि० दे० ( सं० भग्न ) टूटना । पाला । स्त्री. भक्षिणो। संज्ञा, पु० (दे०) भगण (पिं०)। भव्य-वि० (स०) खाने योग्य । विलो०- भगना-अ० क्रि० दे० (हि० भागना ) अभक्ष्य । सज्ञा, पु.---खाद्य. श्राहार, अन्न : भागना सज्ञा, पु० (दे०) भानजा। वि०भख*--सज्ञा, पु० दे० ( स० भक्ष ) श्राहार, भगैय्या स० रूप-भगाना,प्रे० रूप-भगवाना। खाना, भोजन । " अजया भख अनुवारत | भगर, भगल* -- सज्ञा, पु. (दे०) ढोंग, नाही"-सूर० । छल, कपट, फरेब, मक, जादू । वि०भखना --स. क्रि० दे० (सं० भक्षण ) भगरी। खाना। प्र० रूप भखाना, भखवाना। भगरी, भगली-वि० संज्ञा, पु० (हि. भगंदर-संज्ञा, पु. (सं०) गुदा का फोड़ा भगल+ई -- प्रत्य० ) ढोंगी, छली, (रोग)। वि०-भगंदरी। बाजीगर । भग-संज्ञा, पु० (सं०) योनि, १२ श्रादिस्यों भगवंत -संज्ञा, पु० (सं०) भगवंत, में से एक आदित्य सूर्य, प्रताप, सौभाग्य, ऐश्वर्यवान, परमात्मा, भगवान । " तिनहिं ऐश्वर्य, धन, गुदा। को मारै बिन भगवंता"- रामा० । भगण-संज्ञा, पु. (सं०) ३६० अंशों वाला भगवती-संज्ञा, सो० (सं०) देवी, सरस्वती, ग्रहों का पूरा चकर, (खगो०) एक गण गौरी, दुर्गा, पार्वती। जिसमें आदि का वर्ण गुरु और अन्त के भगवत् -- संज्ञा, पु. (सं०) परमात्मा, परमेश्वर, दो वर्ण लघु होते हैं, जैसे- रावव (su) (पिं०) । “भादि गुरुः --।" भगवान, ईश्वर । भगत--वि० दे० ( सं० भक्त ) निरामिष या भगवदगीता-संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) महा भारत के भीष्म पर्व का एक प्रसिद्ध प्रकरण, शाकाहारी साधु, उपासक, सेवक, श्रोझा। संज्ञा, पु० (दे०) वैष्णव साधु, भगत का जिसमें कृष्णार्जुन के कर्म-योग सम्बन्धी स्वांग, भूत-प्रेत दूर करने वाला । स्त्री० प्रश्नोत्तर हैं। भगतिन। भगवान्-भगवान-वि० (सं० भगवत् ) भगतबछल* वि० दे० यौ० (सं० भक्त- ऐश्वर्यवाला, प्रतापी, पूज्य । संज्ञा, पु०वत्सल ) भक्तवत्सल, भक्त पर दयालु, विष्णु । | परमात्मा, परमेश्वर, विष्णु, पूज्य और संज्ञा, स्त्री० (दे०) भगतबछलता । "भगत- आदरणीय पुरुष । बछलता हिय हुलसानी''-रामा०। भगाना स० कि० (हि. भगना ) दौड़ाना, भगति, भगती --संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० दूर करना, हटाना । अ० क्रि० भागना । भक्ति ) भक्ति, भक्ती, श्रद्धा, प्रेम, अनुराग भगिनी-संज्ञा, स्त्री० (सं.) बहन । For Private and Personal Use Only Page #1323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - भगीरथ भटकैया भगीरथ-संज्ञा, पु० (सं०) अयोध्या नरेश | संज्ञा, पु. ( हि० भजना ) भगना । “दूर दिलीप के पुत्र, जो घोर तपस्या कर गंगा | __ भजन जाते को".-वि० । जी को पृथ्वी पर लाये थे (पु०) यौ० भजना-स० क्रि० दे० (सं० भजन ) सेवा भगीरथ-प्रयत्न- कठिन प्रयत्न । करना. देवादि का नाम रटना, जपना, स्मरण भगोड़ा-वि० दे० ( हि. भगाना---प्रोड़ा- __ करना, पाश्रय लेना । अ० क्रि० दे० (सं० प्रत्य०) भगाने वाला, कायर, भागता हुथा। भजन पा० वजन ) भागना, प्राप्त होना, भगैया (दे०)। पहुँचना भग जाना । " भजन कह्यो त सों भगोल-संज्ञा, पु. (सं०) खगोल । भज्यो"- वि०। भगौती -संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० भगवती) भजनानंद-संज्ञा, पु. यौ० (सं०) भजन भगवती, देवी। करने का हर्ष । भगौहाँ-वि० दे० ( हि० भागना+ौहाँ भजनानंदी-संज्ञा, पु० यौ० सं० भजनानंद + प्रत्य०) भागने को तैयार, कायर वि० दे० | ई-प्रत्य.) भजन गाकर प्रसन्न रहने वाला। (हि. भगवा ) गेरुआ, भगवा । भजनी--संज्ञा, पु. (हि. भजन + ई-प्रत्य०) भागुल*-वि० दे० ( हि० भागना ) युद्ध भजन गाने वाला। से भागा हुभा, भगोड़ा, भग्गू । “भग्गुल भजाना-अ० कि० दे० (हि. भजना = श्राइ गये तब ही"-रामा०।। दौड़ना) भागना, दौड़ना, भजन करने में भग्गू-वि० दे० ( हि० भागना-+ऊ-प्रत्य०) लगाना। भजावना, प्रे० रूप भजवाना। जो विपत्ति देख भागता हो, भीरु, कायर । स० क्रि०-भगाना, दूर करना, दौड़ाना । भग्न-वि० (सं०) टूटा हुआ, पराजित ।। भजियाउरी-संज्ञा, स्त्री० दे० यौ० (हि. भग्नावशेष-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) खंडहर, भाजी- चाउर ) चावल, दही और भाजी से टूटे-फूटे घर या उजड़ी बस्ती का हिस्सा टूटे एक साथ बनाया हुआ भोजन, उझिया फूटे पदार्थ के बचे टुकड़े। भचक-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. भचकना ) (प्रान्ती०)। लंगड़ापन । भट-संज्ञा, पु० (सं०) योद्धा, सैनिक, भचकना-० क्रि० दे० (हि. भौचक) सिपाही, वीर । वि० दे० शून्य, संज्ञा-रहित । श्राश्चर्ययुक्त, भौचक या चकित होना । भटकटाई, भटकटैया-संज्ञा, स्त्री० दे० अ० कि० (अनु०) लँगड़ाते हुए चलना, टेढ़ा | ( हि० कटाई ) काँटेदार एक छोटा तुप या पैर पड़ना। पौधा, कटेरी। भचक्र-संज्ञा, पु. (सं०) राशियों या ग्रहों । भटकना-- अ० कि० दे० (सं० भ्रम ) मार्ग की गति का मार्ग या चक्र, नक्षत्र-समूह, भूलकर इधर उधर मारे मारे फिरना, भ्रम ग्रह-कक्षा (खगो०)। में पड़ना. व्यर्थ इधर-उधर घूमना । स० रूपभच्छ*-संज्ञा, पु० दे० (सं० भक्ष्य भचय ।। भटकाना, प्रे० रूप-भटकवाना। भच्छना, भछना*-स० कि० दे० (सं० भटका-क्रि० वि० ( हि. भटकना ) भूला । भक्षण ) भखना, खाना (बुरे अर्थ में)। । यो० भूला-भटका। भजन--संज्ञा, पु० (सं०) सेवन, किसी देवता भटकाना--स० कि० (हि. भटकना ) भ्रम या पूज्य का नाम बार बार लेना, स्मरण, __ में डालना, ग़लत रास्ता बताना । जप, देव-स्तुति. या देव गुण गान । " राम- | भटकैया संज्ञा, पु० दे० (हि. भटकना भजन बिनु सुनहु खगेसा"-रामा० ।। --ऐया-प्रत्य०) भटकने या भटकाने वाला। For Private and Personal Use Only Page #1324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org भटकह भटकना + भटकौहft - वि० दे० ( हि० मौद प्रत्य० ) भटकने वाला । भटनास- संज्ञा, स्त्री० (दे०) एक लता जिसकी फलियों के दानों की दाल बनती है। भटभेड़ा, भटभेरा|-- संज्ञा, पु० दे० ( हि० भट + भिड़ना ) मुठभेड़ दो की भिड़ंत, surator भेंट, मुकाविला, भिड़ंत, ठोकर, टक्कर, धक्का | निनिदिन निरख जुगुल माधुरी रसिकनि तें भटभेरा " - दास० । भटा - संज्ञा. पु० दे० (सं० तक ) बैंगन, भाँटा । 6. 'भटा काहु को पित करें।" भटियारा - संज्ञा, पु० (दे०) एक जाति, खाना बेचने वाला मुसलमान रसोइया । खो० भटियारी, भटियारिन । 4. भड़भँजा, भरभँजा भड़ंत - संज्ञा, पु० (दे०) भाँडों का सा काम, देती । भड़क - संज्ञा, स्त्री० (अनु०) दिखाऊ, चमकीला या चटकीलापन, ऊपरी चमक-दमक, सहमने या भड़काने का भाव । भड़कदार - वि० ( हि० भड़के + दार फ़ा० ) भड़कीला, चमकीला, रोबदार, चटकीला । भड़कना- - अ० क्रि० दे० (अनु० भड़क + नाप्रत्य० ) शीघ्रता या तेज़ी से जल उठना, भभकना, भिम्ना, चौंकना भयभीत होकर पीछे हटना, रुष्ट होना (पशुओं का ) | स० [रूप भड़काना प्रे० रूप-भड़कवाना । भड़काना - स० क्रि० ( हि० भड़कना ) उभारना, धमकाना, उत्तेजित वरना, जलाना, चौंकाना, डराना, (पशुओं को) शंकित करना, क्रुद्ध करना । या भटू - संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० वधू ) हे सखी, आली, खियों का सूचक संबोधन । ब्रजमंडल में रसखान जू कौन भटू जो लटू भड़की - संज्ञा, खो० (६० भड़कना) घुड़की, नहिं कीनी । " भभकी, डरपाव । (6 १३१३ भट्ठी - संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० भ्राष्ट्र, प्रा० भट्ट्ठ) ईटों श्रादि से बना बड़ा चूल्हा, देशी शराब बनाने का स्थान | Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir एकास्पद विद्या संबंधी उपाधि । भट्ठा - संज्ञा, पु० दे० (सं० भ्राष्ट्र ) इंटों आदि से बनी बड़ी भट्टी खपरों या ईंटों के पकाने का पजावा, भाटी ( ब० ) । भट्ट – संज्ञा, पु० दे० (सं० भट ) ब्राह्मणों की एक उपाधि, योद्धा सूर भाट । भट्टाचार्य - संज्ञा, पु० (सं०) बंगालियों का भड़कैल, भड़कैला - वि० ( हि० भड़क + ऐल, ऐला प्रत्य० ) भड़कने और मिकिनेवाला, अपरचित, जंगली । भड़भड़- संज्ञा, स्त्री० (अनु० ) आघात से हुआ भड़-भड़ शब्द, भीड़, भ-भड़ ( प्रा० ) व्यर्थ की ज़्यादा बातचीत, भरभर (दे० ) । भड़भड़ाना - स० क्रि० ( अनु० ) भड़ भड़ शब्द करना, व्यर्थ में मारे मारे फिरना, भटभटाना (दे० ) । भड़भड़िया - वि० दे० ( हि० भड़भड़ + इया - प्रत्य०) व्यर्थ बहुत बातें करने वाला, बक्की, जल्दी मचाने वाला | भड़भाँड़-- संज्ञा, पु० दे० (सं० भाँडरि ) मोय (वा० ) सत्यानासी । भड़भू जा-भरभंजा -- संज्ञा, पु० ( हि० भाड़ + भेजना ) एक जाति जो भाड़ के द्वारा अन्न भूनती है, भुंजवा (ग्रा० ) । भठियारपन - संज्ञा, पु० ( हि० भटियारा + पन - प्रत्य० ) भठियारे का कर्म, भठियारों सा लड़ना और गलियाँ बकना । भठियारा - संज्ञा, पु० (हि० भट्ठी + इयाराप्रत्य० ) सराँय का प्रबंधकर्त्ता या रक्षक, मुसलमानों का खाना बनाने और बेचने वाला । स्त्री० भठियारी, भठियारिन । भड़ंबा - संज्ञा, पु० दे० (सं० विडंबा ) ढोंग, डंबर HTTO STO STO-185 | भड़कीला - वि० ( हि० भड़क + ईलाप्रत्य० ) भड़कदार | For Private and Personal Use Only Page #1325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भड़ार, भंडार भद्रा भड़ार,भंडार-संज्ञा, पु० दे० (हि. भंडार ) भदभदाहट-संज्ञा, स्त्री० ( हि० भदभदाना ) कोष, कोठार। भद भद शब्द। भडिहा-संज्ञा, पु० (दे०) चटोरा, चोर। भदाक-संज्ञा, पु. ( अनु० ) धड़ाक, पड़ाक, भडिहाई*1-कि० वि० दे० (हि. भ हि या भदाक शब्द के साथ गिरना। छिपछिपा या दब कर, चोरों सा कार्य भदावर- संज्ञा, पु० दे० ( सं० भदुवर ) करना, चोरी करना। " इतउत चितै चला ग्वालियर राज्य का एक प्रान्त । भडिहाई "-रामा०। भदेश, भदेस-वि० दे० (हि. भद्दा) भद्दा, भड़ी-सज्ञा, स्त्री० दे० ( हि० भड़काना) कुरूप, भोंडा, बुरा।। झूठा बढ़ावा। भदेसल-भदेसिला-वि० दे० ( हि० भद्दा ) भडा -भड़वा --- संज्ञा, पु० दे० ( हि० भाँड़) कुरूप, भोंडा. भद्दा, बुरा । वेश्याओं का दलाल, सफरदाई, पछुआ भदोह-भदौहाँ-वि० दे० ( हि० भादों) (प्रान्ती. ) भडुवा (ग्रा०)। भादों के महीने में होने वाला। भड़र-संज्ञा, पु० दे० ( सं० भद्र ) ब्राह्मणों भदोरिया-वि० दे० ( हि० भदावर ) भदावर में नीच श्रेणी की एक जाति, भंडर। प्रांत का, भदावर संबंधी । संज्ञा, पु० (दे०) भणना -अ० कि० दे० (सं० भणन) क्षत्रियों की एक जाति । कहना, भनना (दे०)। भद्दा--संज्ञा, पु. ( अनु० भद ) कुरूप, भोंड़ा, भणित वि. (सं०) कहा हुआ, रचित - बुरा। ( स्त्री० भद्दी)। भनित (दे०)। "भाषा-भणित मारि मति भद्दर - वि० (दे०) भद्र, पूर्णतया, पूरे, बहुत। भोरी”-रामा० । भद्दापन-संज्ञा, J. (हि. भद्दा+पनभतारा- संज्ञा, पु० दे० ( सं० भर्तार ) पति, प्रत्य० ) भद्दे होने का भाव। स्वामी । “परदा कहा भतार सों, जिन देखी भद्र-वि. ( सं०) श्रेष्ठ, सभ्य, शरीफ (फ़ा०) सब देह ".-कबी०। कल्याणकारी, साधु, शिष्ठ, शिक्षित । सज्ञा, भतीजा-संज्ञा, पु० दे० (सं० भ्रातृज) स्त्री० भद्रता। संज्ञा, पु० (स.) महादेव, उत्तर भाई का पुत्र या लड़का। स्त्री० भतीजी। का दिग्गज, सोना सुमेरु पर्वत खंजन । सज्ञा, भत्ता--संज्ञा, पु० दे० ( भरणा ) किसी कर्म- पु. ( स० भद्राकरणा) मूछ, दाढ़ी, सिर आदि चारी को बाहर यात्रा के समय दिया गया का मुण्डन । " भद्र करावा सब परिवारा" प्रति दिन का व्यय । -स्फुट। भथुरनाभथोरना- स० क्रि० (दे०) कुचलना। भद्रक-संज्ञा, पु० (सं०) एक पुराना देश, भथेलना-स० क्रि० (दे०) कुचलना। एक वर्णिक छंद (पि०)। वि० कल्याणकारी । भदई-संज्ञा, श्री. ( हि० भादों ) भादों में भद्रकाली-संज्ञा, स्त्री० (सं०) भगवती, दुर्गा तैयार होने वाली पल, भादों की अमावस देवी, कात्यायिनी देवी। या पूनो । वि०-भादों की। भद्रता--संज्ञा, स्त्री० (सं०) शिष्टता, सभ्यता, भदभद्द-संज्ञा, पु. ( अनु० ) किसी वस्तु भलमन सी, शराफ़त (फा०)। जैसे फल प्रादि के गिरने का शब्द, पैर का भद्रा- संज्ञा, स्त्री० (सं०) केकय-राज की कन्या शब्द, हंपी या उपहास । जो श्री कृष्ण की पत्नी थी, आकाश-गंगा, भदभदाना-२० क्रि० दे० ( हि० भद)। दुर्गा. गाय सुभद्रा, उपजाति वृत्त का १० भद भद शब्द करना । यौ० क्रि० वि०- वाँ रूप ( पिं०), पृथ्वी, एक प्रारम्भ योग भद भद। (फ० नो ) वाधा ( व्यं० )। For Private and Personal Use Only Page #1326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १३१५ भयान भद्राक्ष-संज्ञा, पु० (सं०) बनावटी या कृत्रिम भभकी- संज्ञा, स्त्री० (हि. भभक ) घुड़की, धमकी, भबकी (दे०)। यौ०-गीदड़ भभकी। भद्रिका-संज्ञा, स्त्री० (सं०) एक वर्णिक छंद भन्भड़-भम्भड़-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. (पि.) भीड़) भीड़-भाड़, अव्यस्थित जन-समुदाय, भद्री-वि० ( सं० भदिन् ) सौभाग्यशाली। भरभर (दे०)। भनई-स० कि० ( हि० भनना ) कहता है। भभरना-भभगना -अ.क्रि० दे० (सं० "सुकवि भरत मन की गति भनई"-रामा० ।। भय ) डरना, भयभीत होना, घबरा जाना, भनक-संज्ञा, स्त्री० दे० ( सं० भणन ) ध्वनि, । भ्रम में पड़ जाना, सूजना। धामा प्रावाज, उड़ती खबर । “परी भनक । भमूका-सज्ञा, पु० ० ( ह. भभक ) ज्वाला, मम कान"-सरस। लपट । भनकना*-स० कि० दे० (सं० भणन ) भभूत-भभूति -- संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० विभूति) धन, ऐश्वर्य, संपति, लचमी, सपदा, राख, कहना। भनना-१० क्रि० दे० (सं० भणन) कहना। भस्म, बभूत (दे०)। भभोरना-स० क्रि० दे० (हि.) फाड़खाना। भनभनाना-अ० कि० ( अनु० ) गुंजारना, ! भयंकर -- वि० (स०) जिसे देखने से डर लगे, भुनभुनाना, भन भन शब्द करना, मक्खियों) क्रोध से बड़बड़ाना। " भनभनाई वह बहुत भीपण, भयानक, डरावना । " रूप भयंकर प्रगटत भई"-रामा०। हो बेकरार"-हाली भयंकरता--संज्ञा, स्त्री. (सं०) भीषणता। भनभनाहट-संज्ञा, स्त्री० (हि० भनभनाना भय-संज्ञा, पु० (सं०) घोर विपत्ति या शंका, +पाहट-प्रत्य) गुंजार, भनभनाने का भीषण वस्तु के देखने से उत्पन्न एक मनोविकार डर। मुहा०-भय खानाभनाना-६० क्रि० (दे०) भुनाना, बड़े सिक्के के बदले छोटे सिक्के लेना, भुनाना, भजाना। डरना, भय दिखाना-डराना। *अ० कि० हुआ, भै ( ब्र.) भया। भयप्रद-वि० (स.) भयद, भयानक, भीषण, भन्ना-संज्ञा, पु० (दे०) भाँज, बड़े सिक्के भय कारक, भयकारी। के बदले छोटे सिक्के, नामा (प्रान्ती०)। भयभीत-वि० यो० (सं०) डरा हुश्रा सभीत। भन्नाना-अ.क्रि० ( अनु० ) भनभनाना, भयवाद - संज्ञा, पु० दे० (हि. भाई+पादकुपित या क्रोधित होना. बड़बड़ाना, पीड़ा, प्रत्य०) एक ही गोत्र या वंश के लोग, भाईबार करना (सिर श्रादि)। संज्ञा, पु. स्त्री. बंध, बंधु-बांधव। भयहारी--वि० (सं० भयहागिन् ) डर छुड़ाने भनित - वि० दे० (सं० भणित ) कहा या दूर करने वाला । 'वानि तुम्हारि प्रणतहुधा । "भाषा भनित मोरि मति भोरी'--. भयहारी"--रामा० । रामा०। | भया - वि० दे० (हि. हुआ ) हुश्रा, भबका-भपका-संज्ञा, पु० दे० (हि. भाप) भयो, भो ( ब्र०)। अ उतारने का यंत्र, भभका (दे०)। भयातर-वि० यौ०(सं०) भयविह्वल, भयभीत भमकना-अ० क्रि० दे० ( अनु० ) उबलना, डरा हुआ, डरपोंक। भड़कना, गरमी पाकर ऊपर उमड़ना, जोर भयान*-- वि० दे० (सं० भयानक ) से बलना। स० रूप भभकाना। डरावना, भीषगा। (३०) भन्नाहट। For Private and Personal Use Only Page #1327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org भयानक भयानक - वि० (सं०) भीषण, डरावना | संज्ञा, पु० भीषण दृश्य का वर्णन वाला एक रस, छठा रप ( काव्य० ) ! संज्ञा, त्रो०भयानकता । भयाना ० क्रि० दे० (सं० भय ) डरना, भयभीत होना । स० कि० डराना, भयभीत करना । भयापह - संज्ञा, पु० (सं०) भय नाशक । भयावन-भयावना - वि० (सं० भय) भयानक, डरावना, भयकारी | १३१६ भयावह - वि० (सं०) डरावना भयंकर | भयाहू - संज्ञा, स्त्री० (दे० ) छोटे भाई की स्त्री । भरत - संज्ञा, स्रो० दे० ( सं० भ्रांति ) संदेह, शक, भरने का भाव, भरती । भर - वि० दे० ( हि० भरना ) तौल में सब, कुल, पूरा । - क्रि० वि० दे० ( हि० भार ) द्वारा, बल से | संज्ञा, पु० दे० (सं० भार ) मोटाई, बोझ, पुष्टि, भार | संज्ञा, पु० दे० (सं० भरत ) एक नीच अस्पृश्य जाति । भरक- संज्ञा, स्त्री० (दे०) भड़क भरकना - क्रि० प्र० दे० ( हि० भड़कना ) भड़कना । स० रूप भरकाना, प्रे० रूप भरकवाना । " 55 भरण - संज्ञा, पु० (सं०) भग्न (दे०) पालन, पोषण | वि० भरणीय । विश्व भरण पोषण कर जोई ' रामा० । भरणी - संज्ञा, स्त्री० (सं०) तीन तारों से बना त्रिकोणाकार, २७ नक्षत्रों में से दूसरा नक्षत्र भरनी (दे० ) । एक कोड़ा जो साँप को फाड़ डालता है । वि० (दे०) भरणपोषण करने वाला । भरत - संज्ञा, पु० (सं०) कैकेयी से उत्पन्न दशरथ के लड़के रामचन्द्र के छोटे भाई, इनकी स्त्री माँडवी थीं, जड़ भरत, राजा दुष्यंत के शकुन्तला से उत्पन्न पुत्र जिनसे इस देश का नाम भारत हुआ, एक संगीता चार्य, उत्तर भारत का एक प्राचीन देश (वाल्मी० रामा० ), नाटक में अभिनय करने Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भरना वाला नट, नाट्य शास्त्र के रचयिता तथा आचार्य एक मुनि | संज्ञा, पु० दे० ( सं० भरद्वाज ) लवा या बटेर को एक जाति | संज्ञा, पु० (दे०) काँसा या कसकुट धातु ठठेरा । भरतखंड -संज्ञा, पु० यौ० (सं०) राजा भरत कृत पृथ्वी के खंडों में से एक, भारतवर्ष, श्रावर्त, हिन्दुस्थान । भरतपुत्र - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) भरत जी का लड़का । भरता-- संज्ञा, पु० (दे० ) एक सालन जो बैंगन या घालू को याग में भून कर बनाया जाता है, चोखा (प्रान्ती० ) | संज्ञा, पु० दे० ( सं० भर्ता ) पति स्वामी । "अमित दानि भरता बैदेही "-रामा० । भरताग्रज - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) रामचंद्र | भरतार संज्ञा, पु० दे० ( सं० भर्ता ) पत स्वामी, भर्तार, भतार ( ग्रा० ) । भरती संज्ञा स्त्री० ( हि० भरना ) भरने का भाव, भरा जाना प्रविष्ट होने का भाव । मुहा०-- भरती करना- किसी के बीच में रखना, बैठाना । भरती का- बहुत ही तुच्छ या रद्दी । भर -- संज्ञा, पु० दे० (सं० भरत ) भरत " भली कही भरव्य तें उठाय धाग अंग तें " -- राम० भरथरी-संज्ञा, पु० दे० (सं० भर्तृहरि ) एक राजा । भरदूल - संज्ञा, पु० दे० (सं० भरद्वाज ) लवा, बटेर, टिटिहरी । भरद्वाज - संज्ञा, पु० (सं०) राजा दिवोदास के पुरोहित एक ऋषि जो गोत्र प्रवर्तक और सप्त ऋषियों तथा वैदिक मंत्रकारों में गिने जाते हैं. इनके वंशज । भरना - स० क्रि० दे० (सं० भरणा, स० रूप भराना, प्रे० रूप - भरवाना) पूर्ण करना, उडेलना, उलटना, रिक्त स्थान को पूर्ति के लिये 'कुछ डालना, तोपादि में गोली बारुद For Private and Personal Use Only Page #1328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मरनि १३१७ भरांति आदि डालना, रिक्त पद की पूर्ति के लिये | होना, घबराना, भरभर शब्द करना, गिर नियुक्त करना चुकाना, देना, क्षति पूर्न या पड़ना, भडभड़ाना । ऋण-परिशोध करना । महा०-किसी। भरभेंट, भरभंटा -संज्ञा, पु. यौ० दे० का घर भरना - बहुत सा धन देना । (हि० भर । भेंटना ) मुठभेड़, सामना, किसी के कान भरना-चुग़ली करना । मुकाबिला । छिप कर बुराई या निंदा करना । मांग भरम --- संज्ञा, पु० दे० ( सं० भ्रम ) संदेह, भरना-विवाह में वर का कन्या की मांग समान धोखा, संशय. रहस्य, भेद । मुहा०-भरम में सिंदूर लगाना । को भरना-नव वधू । न देना--भेद न बताना। भरम गवानाको श्राशीष के साथ नारियल श्रादि देना भेद खोलना। "पापन भरम गँवाइ के, (रीति)। निबाहना, निर्वाह करना, सहना, बाँट न लैहै कोय"-रहीम०।। झेलना, पोतना, लगाना. काटना, उपना । भरमनाwi-अ० क्रि० दे० ( सं० भ्रमण ) म० क्रि० खाली बरतन का किसी पदार्थ से घूमना फिरना, मारा मारा फिरना, भटकना, पूर्ण होना डाला जाना. मन में क्रोध होना भ्रम या धोखे में पड़ना, बहकना, चकराना। अप्रपन्न या असंतुष्ट रहना, घाव में अंगर संज्ञा, स्त्री० द० ( सं० भ्रम ) भूल, भ्रम, पाना या उसका पुरना, किसी अंग का ! धोखा, भ्रांति । स० रूप भरमाना, प्रे० रूपअधिक श्रम से पीड़ा करना, शरीर का हृष्ट भरसघाना। पुष्ट होना, खाली न रहना, ऋण परिशोध भरमाना-स० क्रि० (दे०) भटकाना, व्यर्थ, होना, तोपादि में गाली-बारूद होना । संज्ञा, इधर-उधर घुमाना, भ्रम में डालना, हैरान पु. (दे०) रिश्वत, घुम, भरने का भाव।। करना, बहकाना । अ० क्रि० (दे०) चकित या हैरान होना। भरनि--संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० भरण) : भरमार-सज्ञा, स्त्री० दे० (हि. भरना - मार पोशाक, पहनावा । = अधिकता) बहुतायत, अधिकता। भरनी-संज्ञा, स्त्री० (हि. भरना ) करघा भरमीला-वि० द० ( सं० भ्रम ) संशयी, की ढरकी, नार (प्रान्ती.)। संज्ञा, स्त्री० दे० संदेही, भ्रमवाला। (सं० भर गो) अश्विनी श्रादि २७ नक्षत्रों में भरराना, भराना -- अ० कि० दे० (अनु०) से दूसरा नक्षत्र। भहराना (दे०) अरराना, टूट पड़ना, भरर भरपाई-क्रि० वि० यौ० (हि० भरना - पाना) शब्द से गिरना। भली भाँति अच्छी तरह, पूर्ण रूप से, पूरा भरसक-क्रि० वि० यौ० (हि. भर =: परा+ पूरा पा जाना, चुकता होना। स० किसक - पल ) यथाशक्ति, बलभर, जहाँ तक यो० (दे०) भरपाना-अभीष्ट से विरुद्ध हो सके। पस्तु मिलना (व्यंग्य, पूरा पूरा पाना। भरसन, भरसना -संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० भरपूर वि० यौ० दे० (हि. भरना- पूरा ) भर्त्सना) डाँट फटकार, ताड़ना। पूरा पूरा या सब प्रकार से भरा हुआ, भरसाई .. संज्ञा, पु० दे० (हि० भाड़) भाड़ । परिपूर्ण, पूरी तरह । कि० वि०-भली भाँति, । भरहरा--संज्ञा, पु० (दे०) भरभर शब्द के पूर्ण रूप से। साथ गिरना । मुहा०-भरहरा खाकर । भरहरना, भरहराना-अ० कि० दे० हि० भरभर-संज्ञा, पु. (दे०) जन-समूह का। भरहराना) भर भराना, टूट पड़ना।। शोर अव्यवस्था, भीड़। भराँति-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० भ्रांति) भरभराना-म० क्रि० दे० (अनु०) रोमांच भ्रांति, भ्रम । For Private and Personal Use Only Page #1329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भराई १३१८ भवंग, भवंगा भराई-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. भरना ) भरने भर्मन, भर्मना*-संज्ञा, पु. स्त्री. दे. का कार्य या भाव या मज़दूरी । । (सं० भ्रमण, भ्रम ) भ्रमण, धूमना-फिरना, भराव-संज्ञा, पु० (हि. भरना-पाव-प्रत्य०) भ्रम, सदेह । अ० कि. (दे०) भटकना, भरने का कर्म या भाव, भरत ।। घूमना, भरमना । स० रूप-भर्माना। भरित-वि० (सं०) भरा हुआ। । भर्राना-अ० कि० दे० ( अनु० भर से ) भरी भरी-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि० भर ) एक भरी शब्द होना, भरभर शब्द से गिरना । रुपये के बराबर की या दस माशे भर की भर्सन*---संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० भर्त्सना ) तौल। डाँड-फटकार, ताइन, निन्दा, शिकायत । भरु*-संज्ञा, पु. ( सं० भार ) भार, बोझ। भल-वि० (हि. भला ) अच्छा, भला । भरुवा भरवा-संज्ञा, पु० दे० (हि. “बुरहु करै भल पाय सुसंगू'- रामा० । मँड आ) भड़श्रा, भड़वा, सफरदाई. पछ्या भलपति-सज्ञा, पु० दे० यौ० (हि. भाला+ वि० (दे. हि. भरना ) भरा हुआ। पति सं० ) भाला बाँधने वाला, नेज़ेबरदार । भरुपाना-अ.क्रि० दे० (सं० भार ) भारी वि. यौ०- भला-पति ।। होना, भरुहाना (दे०)। भलमनसत, भलमनसाहत, भलमनसीभरुहाना-अ. कि. दे. ( हि० भारी+ संज्ञा, स्त्री० दे० ( हि० भला+ मनुष्य ) होना ) अहंकार या घमंड करना । स० क्रि० । सजनता, भलमानसी। वि० भलामानुस । दे० ( सं० भ्रम ) धोखा देना, बहकाना, मला-वि० दे० (सं० भद्र) उत्तम, श्रेष्ठ. अच्छा, बढ़ावा देना, उत्तेजित करना। बढ़िया । यौ० . भला बुरा-सीधी उलटी भरैया-वि० दे० (सं० भरण ) पालक, बात अनुचित बात, डाँट-फटकार, अच्छा या रक्षक। वि० दे० (हि. भरना-- ऐयः ---- बुरा । सज्ञा, पु० -- कल्याण, कुशल, भलाई, प्रत्य० ) भरने वाला। लाभ, अच्छाई। यौ० --भला बुरा-लाभ. भरोस, भरोला-संज्ञा, पु० दे० (२० वर+ हानि . अव्य--अस्तु, अच्छा, ख़र, वाक्यापाशा) आसरा, सहारा, अवलंब, प्राशा, रंभ या वाक्य के मध्य में नहीं-सूचक शब्द । विश्वास । मुहा०-भले ही-ऐगाहोता रहे या हुआ भर्ग- संज्ञा, पु. (सं०) शंकर, महादेव या करे, इससे कोई हानि नहीं अच्छा ही है। शिवजी । " भर्गः जो शुद्ध विज्ञानयुत्" | भलाई-संज्ञा, स्त्री० (हि. भला+ ई-प्रत्य०) । नेकी, उपकार. भलापन, कुशलता, अच्छाई । कु० वि० ला। "कहहु कहै को कीन्ह भलाई"- रामा० । भर्त्ता-संज्ञा, पु. ( सं० भर्त, ) स्वामी, पति, भले-क्रि० वि० (हि. भला ) अच्छी तरह, विष्णु, अधिपति, भरता (द०)। भली भाँति, पूर्ण रूप से। वि.-अच्छे । भार-संज्ञा, पु० (सं० भत्तु ) स्वामी, पति। अव्य. .. वाह, .खूब । ' भले नाथ कहि भर्ख हरि--संज्ञा, पु० (सं०) उज्जयिनी-नृप सीस नवाई " -- रामा० । श्री विक्रमादित्य के भाई एक प्रख्यात कवि भलेरा*-संज्ञा, पु० दे० (हि. भला) और वैग्याकरणी राजा। अच्छा । भर्सना-संज्ञा, स्त्री० (सं०) डॉट-फटकार, भल्ल-संज्ञा, पु० (सं०) भला। ताड़ना, निंदा, शिकायत। भल्लूक-संज्ञा, पु० (सं०) रीछ । भर्म -संज्ञा, पु. दे. ( सं० श्रम ) भ्रम, अपंग, भवंगा*-संज्ञा, पु० दे० (सं० भुजंग) संदेह, भरम। साँप। For Private and Personal Use Only Page #1330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - मषंगम भविष्यद्वक्ता भषंगम-ज्ञा, पु० दे० सं० भुजंगम) साँप। भवमोचन वि० यौ० (सं.) जन्म मरण भवंत-वि० (सं० भवत्) भवत् का बहुवचन, प्रादि रसार-बंधन से छुड़ाने वाले, भगवान । भाप लोग। "देखेउँ भरि लोचन प्रभु भवमोचन इहइ भवर - संज्ञा, पु. दे. ( सं०. भ्रमर ) भोर ।। लाभ शंकर जाना"-रामा० । भयरो-संज्ञा, स्त्रो० (दे०) भ्रमरी, व्याह में भव-वारिधि--संज्ञा, पु० यो० (सं.) संसारअग्नि प्रदक्षिणा, भौंरो। सागर, भवोदधि । “भववारिधि वोहित सरिस".-रामा० । भव संज्ञा, पु० (सं०) जन्म, उत्पत्ति, संसार, | भवविलास-संज्ञा, पु. यौ० (२०) अज्ञानमेघ, कुशल, शिव, कामदेव, सत्ता, जन्ममरण का दुख, भौ (दे०)। वि०-शुभ, जन्य संसारी सुख, मोह-माया, प्रपंच । उत्पन्न । " भव भव विभव पराभव कारिनि', भवसंम्व वि० यौ० (सं.) साँसारिक । "भवसभव नाना दुख दारन'"- रामा० । -रामा० संज्ञा, पु० (स० भय) भय, डर । भवदीय-सर्व० (सं०) तुम्हारा, अापका । भघाँ-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि० भवना) भवासना, भवन-संज्ञा, पु. (सं०) महल, घर, मकान, चक्कर, फेरी । यौ० - वाफेरी। मंदिर छपर का एक भेद (पि.)। भवाँना- स० कि० दे० (सं० भ्रमण ) फिराना, घुमाना। " भवन भरत, रिपु-सूदन नाही"--रामा०।। भवादश - वि० (सं०) श्रापके तुल्य । संज्ञा, पु० दे० ( स० भुवन ) संसार जगत् । भवा-भवानी-संज्ञा, स्त्री. (सं०) पार्वतीजी। भवना, भवना*--अ. क्रि० दे० (सं० 'राम नाम जपि सुनहु भवानी"- रामा०। भ्रमण ) झुम्ना, मुड़ना. चक्कर लगाना चाणव-संज्ञा, पु. यो० (सं०) ससारघूमना, फिरना : स० रूप-भधाना। सागर, भवसागर । भवनी-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० भवन) घरनी, भवान - सर्व० (सं०) श्राप । वि०-भवदीय। भवितव्य - संज्ञा, स्त्री० (सं०) होनहार । भवबंधन - संज्ञा, पु. यौ० (सं०) संपार का भवितव्यता-संज्ञा, पु. (सं०) होनहार, झंझट, जन्म-मरण का दुख. साँसारिक कष्ट । भावी, होतव्यता, भाग्य, हानी । “तुलसी "भव बंधन काहि मुनि ज्ञानी"- रामा० नृपति भवितव्यता बस काम-कौतुक लेखई" भवभंजन-संज्ञा, पु. यौ० (सं०) परमेश्वर। -रामा०।। भवभजन जनरंजन हे प्रभु भंजन पाप . भविष्णु--संज्ञा, पु० (सं०) भावी, होनहार, समूह "- मन्ना। होतव्यता। भवभय, भौ-भै (दे०)- संज्ञा, पु. यौ० भविष्य-वि० (सं० भविष्यत् ) भागे आने (सं०) जग में जन्म-मरण का डर। वाला समय, वर्तमान काल से आगे का भवभामिनी-सज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०)पार्वती काल, भावी। भवभूति-संज्ञा, पु. (सं.) संस्कृत के एक भविष्यगुप्ता, भविन्य-सुरति-संगोपनाप्रमुख कवि । संज्ञा, स्त्रो० यौ० (सं०) संसार संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) एक गुप्ता नायिका जो की विभूति । भागे रति करने वाली हो और प्रथम ही से भवभूप, भवभूपति*-संज्ञा, पु. यौ० उसे छिपाये (साहि० ।। (स.) संसार के राजा, जगत्पति। भविष्यत् संक्षा, पु० (सं०) भावी, भविष्य । भवभूष, भवभूषण -- ज्ञा, पु० यौ० (सं०) भविष्यद्वक्ता- संज्ञा, पु. यौ० (सं.) मागे संसार के गहना, शिवजी का गहना, साँप, होने वाली बात का कहने वाला, ज्योतिषी, भस्म दैवज्ञ, भविष्यद्वाणी करने वाला। For Private and Personal Use Only Page #1331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १३२० भविष्यवाणी भाज भविष्यद्वाणी—संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) प्रथम भसंड-संज्ञा, पु० दे० (सं० भुशुंड) हाथी । हो से कही गई, भागे होने वाली बात। भKडी, भुशंडी-संज्ञा, पु० (दे०) काकभुसुंड भवीला*-वि० दे० (हि. भाव + ईला गणेश। प्रत्य०) भाव पूर्ण या युक्त, तिरछा, बाँका । भसुर-संज्ञा, पु० दे० (हि० ससुर का अनु०) भवेश-संज्ञा, पु. यौ० (सं०) महादेवजी। जेठ, पति का बड़ा भाई। भवैया - संज्ञा, पु. (दे०) कत्थक, नचैया। भत्रा--संज्ञा, स्त्री० (सं०) धौंकनी। भवोदधि- संज्ञा, पु. यौ० (सं०) संसार | भस्म-संज्ञा, पु० (सं० भस्मन् राख, खाक । सागर, भवसागर । वि.--जो जल कर राख हो गया हो, भव्य-वि० (सं०) देखने में सुन्दर या भारी, भस्मसात, भस्मीभत। मंगल और शुभ-सूचक, भविष्य में होने भस्मक-संज्ञा, पु० (सं.) एक रोग जिपमें वाला, सत्य, मनारम । भोजन तरकाल पच जाता है । " रूप असन भव्यता-संज्ञा, स्त्री० (सं०) भव्य का भाव ।। अँखियन को भस्मक शेग"-वर० । भष*-संज्ञा, पु० दे० ( सं० भक्ष्य ) भोजन, भस्मता- संज्ञा, स्त्री० (सं०) भस्म होने का खाना। 'प्रजया-भप अनुहारत नाही' धर्म या भाव। -सूर०। | भस्मसात-वि० (सं०) जलकर भस्म होना। भषना-स० क्रि० दे० (सं० भक्षण) खाना | भस्मासुर - संज्ञा, पु. यौ० (सं.) एक दैत्य (बुरे अर्थ में ), भखना (ग्रा.)। (पुरा०)। भस-सज्ञा, पु० (दे०) भस्म, राख, किसी भम्मीभूत-वि० (सं.) जो जल कर राख पदार्थ की असह्य गध। हो गया हो। " भस्मी भूतस्य देहस्य पुनरा. भसकना- अ० क्रि० (दे०) गिरना, पड़ना, | गमनं कुतः " ना। फाँकना, बुरे रूप से अधिक खाना । भहराना-अ० कि० ( अनु० ) बड़े शब्द के भसना- अ. क्रि० दे० (०) जल पर साथ एका एक गिर पड़ना टूट पडना । तैरना, जल में डूबना। भाँउ-भाउ-सज्ञा, पु. दे. ( सं० भाव ) भसभसा-वि० (दे०) पोला. थलथला । भाय, ( ब्र०) भाव, अभिप्राय, मतलब। भाउर-भाँवरि-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. भसम--संज्ञा, पु० दे० (सं० भस्म ) भस्म, भाँवर) अग्नि-परिक्रमा, भाँवर, भोरी। राख, विभूति । (व्याह.)। " तुलली भाँवरि के परे, ताल भसमा-संज्ञा, पु० दे० (फा० दस्मा का सिरावत मौर"। अनु.) एक तरह का ख़िजाब । भाग- संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० भृग) एक भसर-क्रि० वि० (दे०) भस शब्द से गिरना मादक पत्तियों वाली बूटी, विजा, भंग। या बैठना। वि. भैगेड़ी । "भाँग-भषन तो सरल है।" भसाना-संज्ञा, पु० दे० (बँ भसाना) काली मुहा० - भौगखा जाना या पी जाना= श्रादि की मूर्ति को नदी में प्रवाहित करना, पागलपने या नशे की सी बातें करना । बहा देना। माँग छानना-भंग को पीस कर पीना । भसाना-स० कि० दे० (२०) किसी वस्तु घर में भूजो भाँग न होना-बहुत को पानी में डालना या तैराना। कंगाल होना। भसीडा-संज्ञा, स्त्री० (दे०) कमल की जड़, भाँज संज्ञा, स्त्री० (हि. भांजना ) घुमाने या कमल की नाल, मुरार (प्रान्ती.)। भाँजने का भाव, मरोड़, नोट प्रादि के बदले For Private and Personal Use Only Page #1332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भोजना भाई-चारा में दिया गण धन, भुनाव । "लेत देत भाँज भाँत भाँति-भाँती-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० देत ऐसे निवहत हैं "-बेनी०। भेद) प्रकार, तरह, किस्म. रीति । भांजना-१० कि० दे० (सं० भंजन ) तह | भाँपना-स० कि० (दे०) पहचानना, ताड़ना, करना, मरोड़ना, मोड़ना, खड्ग, लाठी, देखना, अनुमान करना, समझना । मुग्दर आदि घुमाना। प्रे० रूप मॅजाना, | भाँय-मा-संज्ञा. प० दे० । अ भाँय-भाँय-संज्ञा, पु० दे० ( अनु० ) अत्यंत भँजवाना। एकांत स्थान या सन्नाटे में होने वाला शब्द, भांजी-संज्ञा, स्त्री० दे० ( हि भांजन = , निर्जनता। "सपति में काय-काय, बिपति में मोड़ना) किसी के हानि पहुँचाने की बात, भाँय-भाय "-देव० । चुगुली । मुहा०-भाँजी मारना-किसी को भारी-संज्ञा, स्त्री० (दे०) भाँवर (हि.) हानि पहुँचाने की बात कहना, विघ्न डालना। भोरी भाँवरी को भाँटा-संज्ञा, पु० दे० (सं० पंताक ) बैंगन, भावना--स. क्रि० दे० (सं० भ्रमण ) भटा (व.)। " भाँटा एकै पित करे, करै एक : __ खरादना, कुनना, भली भाँति सुन्दरता से को बाय"-नीति । __ बनाना, रचना, दही आदि बिलोड़ना। भाँड़-संज्ञा, पु० दे० (सं० भंड) दिल्लगी भाँवर-भाँवरी-- संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० भ्रमण) बाज़, नक्काल, विदूषक, मपखरा. सभाओं परिक्रमा करना, अग्नि की वह परिकमा जो में नाचने-गाने और हास्यपूर्ण नकलें करने वर और कन्या विवाह के अंत में करते हैं का पेशेवर, नंगा, निर्लज्ज, बरबाद ! संज्ञा, रीति) मौरी, भावरि (दे०)। "तुलपी पु० (सं० भांड) बरतन, भाँडा, उत्पात. भंडा- भोवर के परे ताल सिरावत मौर" संज्ञा, पु० फोड़, रहस्योद्घाटन । संज्ञा, स्त्रो० भेड़ती। भंवर. भोर, भमर, भौरा, भौंरो। भाँडना* --- अ० क्रि० दे० ( सं० भंड ) व्यर्थ भा-संज्ञा, स्त्री० ( सं० ) प्राभा, कांति, चमक इधर उधर घूमना, मारे मारे फिरना । स० दीप्ति शोभा,किरण, बिजलो छटा, रिम। कि किसी को बदनाम करते फिरना. *-अव्य० दे० यदि इच्छा हो, भला, बिगाड़ना, नष्ट भ्रष्ट करना। चाहे, या अच्छा । * --सा. भू० अ० क्रि० भाँड, भाँडा-संज्ञा, पु० दे० (सं० भांड) (ब्र० ) भया, भयो, हुआ। पात्र, बरतन, भँडवा (ग्रा० ) । मुहा०- भाइ*-सज्ञा, पु० द० (सं० भाव ) प्रीति, भाँड़े में जी देना-किसी पर दिल लगा प्रेम, स्वभाव, विचार, भाव । सज्ञा, स्त्री० (हि. होना । भाँड़े भरना-धन इकट्ठा होना, भौति ) भाँति, तरह, रंग-ढग, प्रकार, चालकिसी को खूब देना, पछिताना । भाँडा भर ढाल, संज्ञा, पु० (दे०) भइकरा (ग्रा०) देना-खूब धन देना, बहुत दान देना। भाई, भाय। भांडागार-संज्ञा, पु. यौ० (सं०) खजाना भाइव*-संज्ञा, पु० दे० (हि. भाई) भायप, कोष, ( कोश ) भंडार । । भाइप (दे०) भाई चारा ।। भांडागारिक-संज्ञा, पु. यौ० (सं०)भंडारी, भाई-संज्ञा, पु० दे० ( सं० भ्रातृ ) बंधु, भ्राता, कोषाध्यक्ष, खजानची। भैया (प्रा.) सहोदर, एक पीढ़ा के दो भांडार-संज्ञा, पु० (सं०) ख़ज़ाना, कोष, व्यक्ति बराबर वालों का सम्बोधन शब्द । उपयोगी वस्तुओं का संग्रहालय, भंडार भाई-चारा-संज्ञा, पु० दे० (हि० भाई+ (दे०) एक सी अनेक बातें या गुण जिसमें चारा--प्रत्य० ) कुटुंब, वंश, मैत्री-सबंध, हो। संज्ञा, पु० (सं०) भाँडारी-भंडारी।। घरेलू सबंध या व्यवहार । भा. श. को०-१६६ For Private and Personal Use Only Page #1333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १३२२ - भाईदूज भाग्य भाईदूज-संज्ञा, स्त्री० दे० यौ० (हि० भाई + एकदम एक साथ भागना । वि०-भागने दूज ) कार्तिक शुक्ल की यमद्वितीया, भैया- वाला, भगोड़ा (दे०)। दूज, भइयादुइज ( ग्रा०)। भागत्याग--संज्ञा, पु. यौ० (सं०) भाग भाईबंद-संज्ञा, पु० यौ० ( हि • भाई-बधु) । छोड़ना, जहदजहल्लक्षणा । कुटुम्ब या वंश के लोग, बंधु बांधव, मित्र | भागना--अ० कि० दे० (सं० भाज) दौड़कर लोग । संज्ञा, स्त्री० भाईबंदी। चलना चला जाना, पलायन करना, हट भाई-विरादर-संज्ञा, स्त्री. यौ० (हि.) जाना, पीछा छुड़ाना, किसी काम या बात कुटुम्ब और जाति के लोग । संज्ञा, स्त्री० से बचना या हटना । मुहा०-सिर पर भाईबिरादरी। पैर रखकर भागना-बड़े वेग से भागना। भाउ, भाऊ-संज्ञा, पु० दे० (सं० भाव ) भागधेय-- संज्ञा, पु. (सं०) भाग्य, राजा का स्वभाव, भाव, स्नेह, विचार, प्रेम, भावना, कर । “तद् भागधेय परम पशूनाम् " अवस्था या दशा, अभिप्राय प्रयोजन, महिमा, -भत। सत्ता, स्नेह, वृत्ति, स्वरूप, महत्व, चित्त भागनेय --- संज्ञा, पु० (सं०) भानजा, भैने, वृत्ति । संज्ञा, पु. (दे०) भव (सं०) जन्म, भानेज (ग्रा०)। उत्पत्ति । "जाकर रहा जहाँ जस भाऊ'- भागल-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) लब्धि । भागवंता-वि० दे० (सं० भाग्यवान् ) रामा०। भाएँ*1-क्रि० वि० दे० (सं० भाव ) समझ भाग्यवान् , विस्मती, तकदीरी, भाग्यशाली। में, बुद्धि के अनुसार। "ज्योतिष झूठ हमारे भागवत-सज्ञा, पु० (सं०) व्यास कृत १८ भाएँ'-रामा०। पुराणों में से एक पुराण जिसमें श्रीकृष्ण लीला १२ स्कंधों, ३१२ अध्यायों और भाकर-संज्ञा, पु. (सं.) भास्कर. सूर्य । १८००० श्लोकों में वर्णित है इसे वेदान्त भाकसी-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० भखी) भट्ठी। भाख*-संज्ञा, पु० दे० (सं० भाषण ) का तिलक मानते हैं, देवी भागवत पुराण, भाषण, बातचीत। परमेश्वर का दाप, १३ मात्राओं का एक छंद । वि.--भागवत संबंधी। भाखना-स० क्रि० दे० ( सं० भाषण ) भागिनेय- संज्ञा, पु० (सं०) भानजा, बहिन कहना, कथन करना । 'पहिले पापु न का लड़का, भैने (ग्रा०) । स्त्री० भागिनेयी। भाख"-वृं। भागी-संज्ञा, पु. (सं० भागिन् । अधिकारी, भाखा-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० भाषा ) हकदार, हिस्सेदार, भाग्यवान् (यौगिक में) बोली, बातचीत । " भाखा भनित मोरि जैसे-बड़भागी । “अहो धन्य लछिमन मति भोरी"-रामा० । बड़भागी"-रामा। भाग- संज्ञा, पु. (सं०) खंड, अंश, हिस्सा, भागीरथ- संज्ञा, पु० दे० (सं० भगीरथ ) पार्श्व ओर । संज्ञा, स्त्री. (सं० भाग्य ) भगीरथ राजा। किस्मत, नसीब, तकदीर, माथा, भाल, भागीरथी-- संज्ञा, स्त्री० (सं०) गंगा नदी। सौभाग्य का कल्पित स्थान, सबेरा, प्रभात, भाग्य -- संज्ञा, पु. (स०) मनुष्य के कार्यों किसी राशि को कई अंशों या हिस्सों में को पूर्व ही से निश्चित करने वाला अवश्यंबाँटने की क्रिया (गणि०, बाँटना। भावी दैवी विधान. न पीव, तकदीर, किस्मत, भागड़- सज्ञा, स्त्री० दे० (दि. भागना) विधि लेख, भाग (दे०)। वि.-हिस्सा करने भगदड़, बहुत से लोगों का घबरा कर योग्य । मुहा०-भाग्य खुलना-सुख For Private and Personal Use Only Page #1334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org भाग्यवंत, भाग्यवान 1 मिलना । भाग्य जागना - धनी या सुखी होना । यौ० - भाग्यग्राही - हिस्सेदार | यौ० भाग्य भरोसा - धीरता, भाग्याधीन । भाग्य-स्थान- कुंडली में १०वाँ घर या खाना (ज्यो०)। O. १३२३ भाग्यवंत, भाग्यवान - वि० (सं० भाग्यवत् ) धनी, भाग्यशाली । भाग्यहीन - वि० यौ० (सं०) कंगाल, अभागा । भाग्याधीन -- वि० यौ० (सं०) दैवी - विधान के अधीन । माचक संज्ञा, पु० (सं०) क्रांतिवृत्त । भाजक - वि० (सं०) विभाग करने या बाँटने वाला, किसी राशि में भाग देने का अंक (गणि०), विभाजक | भाजन - संज्ञा, पु० (सं० ) पात्र, योग्य, आधार, बरतन । 'भूरि भाग्य भाजन भयसि " - रामा० । 46 भाजना - अ० क्रि० (दे०) भागना, भगना । माजा - संज्ञा, स्त्री० (सं०) तरकारी, साग, माँड़ पीच । भाज्य - (सं०) वह पदार्थ जो बाँटा जावे, जिस श्रंक में भाजक से भाग दिया जाय (गणि० ) । वि०- विभाग करने योग्य | भानमती भाड़ झोंकना (चूल्हा बुकाना) - तुच्छ या योग्य कार्य करना | भाड़ में झोंकना ( डालना) नष्ट करना, जाने देना, फेंकना । भाड़ा - संज्ञा, पु० दे० ( सं० भाट ) किराया | भारा (दे० ) । मुहा० - भाड़े का टट्टूअस्थायी, क्षणिक, निकम्मा । भाग - संज्ञा, पु० (सं०) हास्य रस- पूर्ण दृश्यकाव्य या एक एकांकी रूपक ( नाट्य० ) बहाना, मिस, व्याज । भात - संज्ञा, पु० दे० ( सं० भक्त ) पानी में उबाला या पकाया, चावल, विवाह की एक रीति जिसमें कन्या वाला समधी को भात खिलाता है | संज्ञा, पु० (सं० ) प्रकाश, प्रभात, सबेरा । भाट -संज्ञा, पु० दे० (सं० भट्ट) चारण, राजाओं का यशोगान करने वाले, बंदी सूत, tata ब्राह्मणों की एक जाति, चाटुकार। स्त्री० भारिन । " चले भाट हिय वर्ष न थोरा"रामा० । संज्ञा स्त्री० (दे०) भद्वैती, भटाँय । भाटा - संज्ञा, पु० (दे० ) समुद्र के पानी के चढ़ाव का उतार पानी का उतार होना । विनो० - ज्वार ! | भाट्यौ | संज्ञा, पु० दे० ( हि० भाट ) भटई (दे०) कीर्ति - कीर्त्तन, भाट का कार्य्यं । भाठी - संज्ञा, स्त्री० दे० ( हि० भट्ठी ) भट्टी । करि मन-मंदिर में भावना की माठी घरो "" -रसाल । भाड़ - संज्ञा, पु० दे० (सं० भ्रष्ट ) भड़भूतों की अनाज भूनने की भट्ठी । मुहा० 16 Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir > भाति - संज्ञा, स्त्री० (सं०) कांति, श्राभा शोभा । भाथा - संज्ञा, पु० दे० (सं० भस्त्रा, पा० भस्था) तूणीर, तरकश, बड़ी भाथी या धौंकनी । भाथी-संज्ञा, स्त्री० दे० ( सं० भस्त्री० ) भट्टी की आग सुलगाने की धौंकनी । भादों - संज्ञा, पु० दे० ( सं० भाद्र प्रा० भद्दो ) भाद्रपद, सावन के बाद धौर कार के प्रथम का एक महीना, भादौं (दे०) । भाद्र-भाद्रपद - संज्ञा, पु० (सं० ) भादों । भाद्रपदा - संज्ञा, स्त्रो० (सं०) एक नक्षत्रसमूह इसके दो भाग हैं - १ -पूर्व भाद्रपद, २- उत्तर भाद्रपद | भान - संज्ञा, पु० (सं०) चमक, रोशनी, प्रकाश, कांति, दीप्ति, श्राभास, ज्ञान, प्रतीति । भानजा -- संज्ञा, पु० दे० ( सं० भगिनी + जः ) भाग्नेय, बहिन का पुत्र, मैंने, भानैज ( ग्रा० ) । स्त्री० भानजी । भानना । - स० क्रि० दे० ( सं० भंजन ) काटना, तोड़ना, भंग या नष्ट करना, दूर करना, मिटाना । स० क्रि० ( हि० भान ) समझना । सब की शक्ति शंभुधनु भानी " 66 - रामा० । भानमती - संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० भानुमती ) जादूगरनी । यौ० मुहा० - भानमती का For Private and Personal Use Only Page #1335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मानवी १३२४ भार पिटारा-विचित्र और मनोरंजक वस्तुओं भारा- -वि० दे० (हि० भा+भरना) की राशि. विचित्र कुतूहलकारी और मनो- लाल । रंजक बातों का समूह । भाभी - संज्ञा, स्त्री० दे० ( हि० भाई ) भौजाई, भानवा-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० भानवीया) भउजी (ग्रा.), एक बुरी देवी (ग्रा० गाली)। भानुजा, यमुना, जमुना नदी। संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० भावो) होतव्यता। भाना*-अ० कि० दे० ( सं० भान =ज्ञान) __ " भाभी-बस सीता मन डोला"-रामा० । ज्ञात या मालूम होना, जान पडना, अच्छा मुहा०-भाभी पाना-बुरी दशा या या भला लगना. पसद पाना, शोभा देना। रोग होना, (ग्रा० गाली)। स० क्रि० दे० (सं० भा - प्रकाश ) चमकाना भाम-संज्ञा, पु. ( सं० ) एक वर्णिक छंद, भानु-संज्ञा, पु. (सं०) राजा, सूर्य, विष्णु, . (पिं०) । सज्ञा, स्त्री० दे० (सं० भामा) स्त्री। किरण, रश्मि । “जगत्यपर्याप्त सहस्र भामा - संज्ञा, स्त्री० ( सं०) स्त्री. वामा। भानुना "-मात्र। भानिनि, भामिनी-- संज्ञा, स्त्री. (सं०) भानुज-संज्ञा, पु० (सं०) यम, शनिश्चर, स्त्री, पत्नी । " भामिनि मन मानहु जनि कर्ण. मनु । स्त्री० भनुजा । ऊना"--रामा० । “ज्यों पुरुष बिनु भामिनी, भानुजा-संज्ञा, स्त्री० (सं० ) यमुना। ज्यों चन्द्र बिनु है यामिनी'-मन्ना० । भानुननय-संज्ञा, पु० यौ० ( सं० ) यम, भामिनी-विलास-सज्ञा, पु० यौ० ( सं०) शनि, मनु, कर्ण। पंडितराज जगन्नाथ-कृत एक काव्य ग्रंथ । भानुतनया-संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) यमुना। भाया-संज्ञा, पु० दे० ( हि० भाई ) भाई। भानुतनूजा-भानुतनुजा-सज्ञा, स्त्री० यौ० --संज्ञा, पु० दे० (सं० भाव ) विगर, (सं० भानुतनुजा ) यमुना । भाव, मन की वृत्ति, परिमाण, भाव, दर. ढंग, भानुमत्-वि० (सं०) प्रकाशमान् । संज्ञा, भांति, प्रेम, विचार, लेखे । " ज्योतिष मूठ पु. सूर्य। हमारे भाये"-रामा। भानुमती-संज्ञा, स्त्री. (सं० ) राजा भोज भायप-संज्ञा, पु. (दे०) भाइप, भाईचारा । की कन्या जो इन्द्रजाल की बड़ी ज्ञाता थी। भाया -मा. भू० स० क्रि० (हि. भाना) भानुसुत-- संज्ञा, पु० यौ० ( सं०) यम, मनु, | अच्छा लगा, पसंद आया । वि० (दे०) प्यारा, कर्ण, शनिश्चर, भानुतनय।। प्रिय, भावता। भानुसुता-संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) यमुना। भारंगी -- संज्ञा, स्त्री. (सं० ) एक जंगली भाप-भाफ-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० बाष्प पौधा जो औषधि के काम आता है. असबरग, पा. वप्प ) जल के अति सूक्ष्म कण जो बँभनेटी (प्रान्ती०)। " भारंगी गुडीची उसके खौलने पर ऊपर उठते दीखते हैं, ताप घनदारु सिंही"-लो। पाने पर धनीभूत या द्रवीभूत वस्तुओं की भार-संज्ञा, पु० (सं०) बीस पंसेरी की माप, दशा ( भौ० शा० ) वाष्प, ताप के कारण बोझा, बहँगी का बोझ, रक्षा सँभाल, उत्तरभौतिक पदार्थों की सूचमावस्था । दायित्व, किसी कार्य के करने का जिम्मा । भापना-भाँपना-स. क्रि० (दे०) अटकल " शेषहिं इतोन भार है, जितो कृतघ्नी भार" लगाना, कूतना, भीतरी भेद का अनुमान । -नीति । मुहा०--भार उठाना-उत्तर. करना, भाप से बफारा देना। दायित्व अपने सिर लेना । भार उतारना भाभर-संज्ञा, पु० दे० (सं० वप्र) पहाड़ों (उतरना)-कार्य पूर्ण करना ( होना ), की तराई का वन । कर्तव्य या ऋण उतारना । किसी के सिर For Private and Personal Use Only Page #1336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भारत भाव्यतिक्रम से भार उतारना-सहाय करना, सहारा, ! भारद्वाज-संज्ञा, पु. ( सं० ) भरद्वाज के आधार, प्राश्रय. २००० पल या २० तुला ___ वंशज, द्रोणाचार्य, भरदल पती, श्रौत और की तौल । मुहा०-अपना (अपने सिर - गृह्य-सूत्र के रचयिता एक ऋषि, भरद्वाज का) भार दूसरे के सिर या माथे गोत्र के लोग। (डालना)-अपना कार्य, ऋण या उत्तरदायित्व भारना*-स. कि. द. (सं० भार ) दूपरे पर छोडना । * · संज्ञा, पु० (दे०) बोझ लादना, दबाना, भार डालना। भाइ । " रहिमन उतरे पार, भार झोंकि भारवाहक-वि० (सं० ) बोझ ढोने वाला। सब भार मैं "-रही। भारवाही-वि० (दे०) बोझ ढोने वाला। भारत-संज्ञा, पु. ( सं० ) महाभारत का भारवि भारवी-(दे०) संज्ञा, पु. ( सं० ) मूल प्राय जिसमें चौबीस हजार श्लोक हैं। किरातार्जुनीय काव्य के रचयिता एक संस्कृत भारतवर्ष हिन्दुस्तान, पार्यावर्त, भरतवशो, के कवि । " तावद भा भारवे ति यावन्मा. घोर युद्ध, लंबी कथा । “तं तितीक्षस्व घस्य नोदयः "। भारत-भ. गी०। संज्ञा, पु. ( सं०) भारा-वि० दे० (सं० भार) बोझा, भार । युधिष्ठिर, अर्जुनादि । संज्ञा, पु० भाड़ा, किराया। भारतखंड-भरतखंड-संज्ञा, पु. यौ० (सं०) भाराक्रांत-वि० यौ० (सं०) बोझ से भारतवर्ष । पीड़ित। भारतवर्ष-संज्ञा, पु० (सं० ) उत्तर में भाराक्रांता-संज्ञा, स्त्री० यौ० ( सं० ) एक हिमाजय पर्वत से दक्षिण में कन्याकुमारी वर्णिक छंद (पिं०)। तथा पूर्व में ब्रह्मपुत्र नदी से पश्चिम में भागवलंबकत्व-संज्ञा, पु. यौ० ( सं०) सिंध नदी तक का देश, आर्यावर्त ,हिन्दु- पदार्थों के परमाणुओं का पारस्परिक आकर्षण। स्तान, भरतखड। भारी-वि० ( सं० भार ) गुरु, जिसमें बोझा भारतवर्षीय-भारतवासी--संज्ञा, पु० (सं०) हो, बोझिल, कठिन, बड़ा, कराल, विशाल, भारतवर्ष का निवासी, भारतीय, भारतवर्ष । "नाथ एक श्रावा कपि भारी"-रामा० । में होने वाला, भारतवर्षी (दे०)। मुहा०-भारी भरकम देखने में बड़ा भारती-संज्ञा, स्त्री. ( सं० ) वचन. गिरा, और भारी गंभीर, अत्यंत, बहुत सूजा या पाणी, सरस्वती, वीभत्स और रौद्र रस के फूला हुश्रा, शान्त, प्रवल, असह्य । वर्णन की एक वृत्ति, (काव्य०) ब्राह्मी, संन्या- भारीपन --- संज्ञा, पु० (हि०) गुरुत्व, बोझिल । सियों के १० भेदों में से एक भेद । वि०- भार्गव-संज्ञा, पु. ( सं० ) भृगुवंशीय व्यक्ति, भारत की, भारत का, भारतवासी, भारतीय। शुक्राचार्य, परशुराम, मार्कडेय, एक उप"सुनि भारती ठादि पछिताती"-रामा०। पुराण, जमदग्नि, वैश्य जाति का एक भेद । भारताय-वि. ( सं० ) भारत संबंध।। वि० भृगुसंबंधी, भृगु का। एंज्ञा, पु. भारत-वासी, भारत का रहने भार्गवेश-संज्ञा, पु० यौ० (सं० भार्गव वाला या निवासी, हिन्दुस्तानी, भारती ईश) परशुराम । “ भार्गवेश देखिये" -रामा०। भारथा-संज्ञा, पु० दे० (सं० भारत ) भाा -संज्ञा, स्त्री. (सं० ) परनी, स्त्री। भारत ग्रन्थ, घोर युद्ध, संग्राम, भरतवंशीय।। तस्मै सम्याः सभार्यायाः "- रघु० । भारथी-संज्ञा, पु० दे० (सं० भारत ) | भा-तिक्रम-संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) सैनिक, सिपाही। । स्त्री स्याग, स्त्रीनाश, परस्त्री-गमन । For Private and Personal Use Only Page #1337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भाल १३२६ भावना भाल-संज्ञा, पु. (सं०) मस्तक, माथा, अनुसार अंगों का चलाना, ईश्वरादि के ललाट, कपाल । “ विधि कर लिखा भाल- प्रति भक्ति या श्रद्धा. नायिका के मन में निज बाँची"-रामा० । संज्ञा, पु० दे० नायक के दर्शनादि से उत्पन्न विकार, गान के (हि. भाला) बरछा, भाला, वाण की विषयानुसार शरीर या अंगों का विशेष रूप गाँसी या फल । संज्ञा, पु० दे० (सं० भल्लुक) से संचालन । मुहा०-भाव देना भालू, रीछ । (दिखाना)-मुखाकृति या अंग-संचालन भालचन्द्र--संज्ञा, पु. यौ० (सं० ) शिवजी, या इंगन से मन की दशा प्रगट करना । महादेवजी, गणेश। नखरा, चोचला नाज, श्रदा।। भालना-स० क्रि० (दे०) भलो भाँति देखना, भावइ, भावेश-प्रव्य० दे० (हि. भाना) खोजना, ढूँढना । यौ०-देखना-पालना। जी चाहे, अच्छा लगे । " भावइ तुम्हें करौ भाललोचन -- संज्ञा, पु० यौ० (सं०) शिवजी। तुम सोई " -रामा० ।। भाला-संज्ञा, पु० दे० (सं० भल्ल ) बरछा । भावक -- क्रि० वि० दे० (सं० भाव ) भालाबरदार--संज्ञा, पु० यौ० (हि० भाला+ थोड़ा सा, रंचक, किंचित, तनिक । वि. बरदार-फा०) बरछैत, बरछा बाँधने या | (सं०) भावपूर्ण, भाव से भरा । संज्ञा, पु. चलाने वाला । संज्ञा, स्त्री०-भालाबरदारी। (सं०) भावना करने वाला, भक्त, प्रेमी, भाव भालिका-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. भाला) युक्त, अनुरागी । बरछी, शूल, काँटा, सांग। भावति - संज्ञा, स्त्री. यौ० (सं०) इच्छा, भाली-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि० भाला ) भाला विचार, ख्याल. इरादा। की नोक या गाँसी, काँटा। भावगम्य-वि० यौ० (सं०) श्रद्धा, भक्ति, प्रेम भालु-संज्ञा, पु० दे० (सं० भल्लु क ) रीछ। या भाव से जानने योग्य भाव-पूर्ण । "नर कपि, भालु प्रहार हमारा"-रामा। भावग्राह्य-वि० यौ० (सं.) श्रद्धा, भक्ति और भालुक-संज्ञा, पु० (सं०) रीछ भालू । प्रेम भाव से ग्रहण करने के योग्य । भालुनाथ- संज्ञा, पु. यो० (सं०) जाम्बुवंत । भावज-संज्ञा, स्त्री० दे० ( सं० भ्रातृजाया ) भालू - संज्ञा, पु० दे० (सं० भल्लुक ) रोछ। भौजी, भौजाई, भाभी, भाई की स्त्री । भाता-संज्ञा, पु० दे० (हि. भाना) भउजी (ग्रा.)। वि० (सं०) भाव से उत्पन्न । प्रिय, प्रीतम, प्रियतम, प्रेमपात्र, प्यारा | भावता--वि० (हि. भावना ) प्रिय, जो संज्ञा, पु० दे० ( सं० भावी ) होनहार। भला या अच्छा लगे । " नीरज नयन भावते भाव-संज्ञा, पु० (सं०) सत्ता, मन की इच्छा जी के" - रामा० । संज्ञा, पु. (दे०) प्रेम या प्रवृत्ति, विचार. उद्देश्य, अभिप्राय, पात्र, प्रियतम, प्यारा, भावता । स्त्रो० भावती तात्पर्य, मुख की चेष्टा या मुद्रा, जन्म, (७०)। श्रात्मा, पदार्थ, प्रेम, चित्त, प्रकृति, कल्पना, भावताव--संज्ञा, पु० यौ० (हि०) दर, निर्व, ढंग, स्वभाव, प्रकार, अवस्था, दशा किसी वस्तु का मूल्य । विश्वास, भावना, श्रादर, विक्री का हिसाब, भावन-वि० दे० ( हि० भावना ) प्रिय, दर, प्रतिष्ठा, सम्मान, भरोसा, प्राकृति । अच्छा या प्यारा लगने वाला, जो भला अस्तित्व (विलो०-अभाव) । मुहा०- लगे। यौ०-मन-भावन। भाव उतरना या गिरना-किसी वस्तु भावना-संज्ञा, स्त्री. (सं०) स्मृति और का मूल्य घट जाना। भाव चढ़ना (बढ़ना) __ अनुभव से उत्पन्न चित्त का एक संस्कार -मूल्य बढ़ जाना । श्रद्धा, भक्ति, गीत के मनसा विचार, कल्पना, ध्यान, ख्याल, For Private and Personal Use Only Page #1338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org भावनि विचार, इच्छा, चाह । "यादृशी भावना यस्यसिद्धिर्भवति तादृशी " - वाल्मी० । पुट देना, किसी चूर्णादि को किसी द्रव रस में तर कर घोटना, जिससे द्रव रस का गुण उसमें या जावे ( वैद्य ० ) । &० क्रि० (दे० ) - अच्छा लगना, पसंद आना । वि० दे० (हि० भावना) प्यारा, प्रिय । भावनिक - संज्ञा, स्त्री० ( हि० भाना ) जो मन में श्रावे, इच्छानुकूल बात । भावनी - वि० (सं०) भवितव्यता, होनहारी । " नहि चलति नराणाम् भावनी कर्म रेखा " १३२७ - स्फुट० । -- भावनीय - वि० (सं०) भावना करने योग्य | भावभक्ति - संज्ञा, खो० यौ० (सं०) श्रद्धा, प्रेम और भक्ति-भाव, सम्मान, सत्कार, आदर। भावली - संज्ञा, त्रो० (दे० ) किसान और ज़मीदार के बीच पैदावार की बँटाई । भाववाचक संज्ञा, पु० यौ० (सं०) वह संज्ञा जिससे किसी पदार्थ का गुण, दशा, स्वभावादि जाना जावे या किसी व्यापार का बोध हो ( व्या० ), जैसे-नीचता । भाववाच्य संज्ञा, पु० सं०) वह वाक्य जिसमें भाव प्रधान हो और कर्त्ता तृतीयांत हो, अथवा क्रिया का वह रूप जो सूचित करे कि वाक्य का उद्देश्य कोई भाव मात्र है ( व्या० ), जैसे--- मुझ पे पहा नहीं जाता । भावसंधि-संज्ञा, स्रो० यौ० (सं०) एक अलंकार जहाँ दो विरुद्ध भावों का मेल प्रगट हो ( काव्य० ) । भावशबलता - संज्ञा, स्रो० (सं०) एक अलंकार जिसमें कई एक भाव एक साथ प्रगट किये जाते हैं ( काव्य ० ) । भाषा - स० क्रि० दे० ( हि० भाना ) अच्छा लगे, मन माने । " करहु जाय जा कहँ जोइ भावा " - रामा० । भावाभास - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) भाव का आभास मात्र प्रगट करने वाला एक अलंकार ( काव्य ० ) | भाषा भावार्थ - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) तात्पर्य, अभिप्राय, मतलब, किसी पद्य या वाक्य का मूल भाव सूचक अर्थ । भावालंकार -- संज्ञा, पु० यौ० (सं०) एक Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir लंकार ( काव्य ) | भाविक - वि० (सं०) मर्मज्ञ, भेद जानने वाला | संज्ञा, पु० (सं०) भूत और भविष्य को भी वर्तमान सा सूचित करने वाला एक लंकार ( काव्य ० ) | भावित - वि० (सं०) चिन्तित विचारित, सोचा- विचारा हुआ। भावी - संज्ञा, स्त्री० (सं० भाविन् ) आगे आने वाला समय, भविष्यत् काल, भवितव्यता, होनहार, भाग्य, श्रवश्यंभावी बात । " भावी भूत वर्त्तमान जगत बखानत राम० । " भावी बस प्रतोति जिय "" 99 आई भावुक - वि० (सं०) सोचने या भावना करने वाला, जिस पर भावों का प्रभाव शीघ्र पड़े, अच्छी अच्छी बातें सोचने वाला । 'मुहर हो रसिकाभवि भावुकाः संज्ञा, स्त्री० - भावुकता । 66 66 भावी - अव्य० (हि० भाना) चाहे । सा० भू० स० क्रि० (दे०) अच्छा लगे । भावै तुम्हे करौ तुम सोई ?..... रामा० । भाषण - संज्ञा, पु० (सं०) कथन, व्याख्यान, वक्तृता । वि०- भाषणीय | भाषना* +- - अ० क्रि० दे० (सं० भाषण ) कहना, बोलना । अ० क्रि० दे० (सं० भक्षण) भखना, खाना भोजन करना । भाषांतर - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) उत्था, अनुवाद, एक भाषा से दूसरी में करना । भाषा - संज्ञा, स्त्री० (सं०) कहीं किसी समाज में प्रचलित बातचीत का ढंग, वाणी, बोली, वाक्य, जवान ( फा० ) आजकल की हिंदी, मन के भावों को प्रगट करने वाला शब्दों और वाक्यों का समूह । - रामा० । For Private and Personal Use Only " - श्रा० । Page #1339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भाषाबद्ध भिगाना भाषाबद्ध-वि• यौ० (सं०) साधारण देश भास्करानंद-संज्ञा, पु० (सं०) एक प्रसिद्ध की बोली या वाणी में बना हुआ । “भापा- सिद्ध कान्यकुब्ज सन्यावी या महात्मा। बद्ध करब मैं सोई"-रामा० । भास्वर-सज्ञा, पु. (सं०) दिन, सूर्य । भाषासम, भाषासमक-संज्ञा, पु. (सं०) वि.-प्रकाशमान, चमकदार। एक शब्दालंकार जिसमें कई भाषाओं में भिंगना-स० कि० दे० ( हि० भिगोना) समान रूप से बोले जाने वाले शब्दों की भिगोना, भीगना । प० रूप-मिगाना । योजना हो (काव्य०)। प्रे० रूप-भिंगवाना। भाषित-वि० (सं०) कथित. वर्णित, कहा| भिजाना-स० कि० दे० (हि. भिगोना ) हुश्रा। भिगोना, मिजाना (ग्रा०) । प्रे० रूपभाषी-संज्ञा, पु० (सं० भाषिन् ) कहने या भिजवाना। बोलने वाला। "मिथ्याभाषो साँचहू. भिांडपाल, भिदिपाल-संज्ञा, पु. (दे०) कहै न मानै कोय"-नीति। एक अस्त्र विशेष, गोफना छोटा डंडा, भाष्य- संज्ञा, पु० (सं०) किसी गूह या गहन 'गहि कर भिदिपाल वर साँगी" - रामा०। विषय या सूत्रों की वृहत् टीका या व्याख्या। भिंडी--संज्ञा, स्त्री. ( सं० भिडा ) एक तरह “विस्तृत व्याख्या भाष्यभूता भवन्तु में" की फलो जिसकी तरकारी होती है। -माघ। भिक्षा-संज्ञा, स्त्री० (सं०) याना, माँगना, भाष्यकार-संज्ञा, पु. (सं०) सूत्रों की दीनता से उदर पूर्त के लिये माँगने का व्याख्या करने वाला, भाष्य रचने वाला । काम, याचना, भीख, माँगने से मिला "भाष्यकारं पतंजलिम् --शिक्षा• पा० अन्न या पदार्थ, भिच्छा, भीख (दे०)। भास-संज्ञा, पु० (सं०) प्रकाश, मयूख, कांति, भिक्षापात्र--सज्ञा, पु. यौ० (सं०) भीख दीति, चमक, किरण. इच्छा। माँगने का बरतन । भासना-प्र० कि० दे० (सं० भास) क्षिार्थी-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) भीख चाहने चमकना, प्रकाशित होना, प्रतीत या मालूम वाला, याचक । या ज्ञात होना, दिवाई देना, फँपना, लिप्त भितु-भिनुक-संज्ञा, पु. (सं०) भिखारी, होना । *-- अ.क्रि० दे० ( सं० भाषण) बौद्ध सन्याली । स्त्री० भिक्षुणी। भाषना, कहना। भिखमंगा-सज्ञा, पु. द० ( हि०) भिचुक, भासमान-वि० (सं०) दिखाई या जान भिखारी, याचक । पड़ता हुआ, भासता हुआ । | भिखारिणा-भिखारिनी (दे०)-संडा, स्त्री० भासांत-संज्ञा, पु. (सं०) सूर्य, चन्द्रमा, दे० ( स० भिक्षुणी) भिखमंगिन । परी विशेष । वि. मनोहर, सुहावना. भिखारी-सज्ञा, पु० दे० ( सं० भिक्षुक ) रमणीय । भिक्षुक, भिखमगा । स्त्री० भिखारिन, भासित-वि० (सं०) प्रकाशित, चमकीला। भिखारिणो, भिखारिनी। भासुर-वि० (सं०) प्रकाशमान दीप्तिमान । भिखिया-सज्ञा, स्त्री० दे० (सं० भिक्षा ) भास्कर-सज्ञा, पु. (सं०) सूर्य, सोना, भिक्षा, भीख " दर्शन भिखिया के लिये" सुवर्ण, अग्नि, शिव, वीर, पथर पर चित्र - रतन० । संज्ञा, पु० (द०) भिखियारी । और बेल बूटे बनाना। भिगाना-स० कि० द० (हि० भिगाना) भास्कराचाय्य-सज्ञा, पु० (सं०) एक प्रसिद्ध भिगोना, भिजाना, भिगावना (ग्रा.)। ज्योतिषी या गणितज्ञ । प्रे० रूप-भिगवाना। For Private and Personal Use Only Page #1340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भिगोना १३२६ भिलावां-भेलवाँ भिगोना-स० कि० दे० (सं० अभ्यंज) भिताना*--स. क्रि० दे० (सं० भीति ) भिगाना, पानी से तर करना, भिगोवना, डरना, डराना। भिजोना (ग्रा.)। भित्ति-संज्ञा, स्त्री. (सं०) भीत, भीति भिचना- प्र. क्रि० (व.) बंद होना, भीती (दे०) दीवार, दीवाल, भीति, डर, मिचाना, खिंवना। भय, वह वस्तु जिस पर चित्र बनाया जावे । भिच्छा-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० भिक्षा) भिथारना-स० कि० (दे०) भथोरना, भीख माँगना, माँगा हुआ अन्न श्रादि। ___ भथेलना, कुचलना । अ० रूप मिथुरना । भिच्छु-भिच्छुक-संज्ञा, पु० दे० ( सं० भिक्षु- भिद- संज्ञा, पु० (सं० भिद् ) अंतर, भेद, भिक्षुक ) भिखारी भिखियारी। भेदन । भिजवना, भिजोवना*-स० कि० दे० मिदना-प्र० कि० दे० (सं० भिद् ) घुस (हि. भिजोना) भिगोने में दूसरे को लगाना, | जाना, प्रविष्ट या पैवस्त होना, छेदा जाना, भिगोना, भिजोना। घायल होना । स० रूप-निदाना, प्रे० रूपभिजवाना, भेजवाना-स० क्रि० दे० ( हि० भिदवाना । "भिदत नहीं जल ज्यों भेजना का प्रे० रूप ) किसी के यहाँ भेजने | उपदेश"-~के० । में लगाना पठाना, पठवाना। | मिदिर-संज्ञा, पु० दे० (सं०) वज्र, भिदर। भिजाना-२० कि० दे० ( हि० भिगोना ) भिदुर- संज्ञा, पु. ( सं०) वज्र, भिदिर । भिगोना । स० क्रि० (हि. भिजवाना) भिनकना अ० कि० दे० (अनु०) भिन भिन भेजाना, भेजने में लगाना, पठाना, शब्द करना, मक्खियों का शब्द, घृणा होना। पठवाना, पठावना। भिनभिनाना-अ० कि. ( अनु० ) भिन मिजोना*-स० क्रि० दे० (हि. भिगोना) भिन शब्द करना, भनभनाना। 'मिगोना, भिजोवना ( ग्रा० )। भिनसार-भिनुसार-संज्ञा, पु० दे०(सं० भिक्ष- वि० ( सं०) जानकार, ज्ञाता : विनिशा ) सवेरा, प्रातःकाल । " यहि विधिसंक्षा, स्त्री. विज्ञता। जलपत भा भिनसारा"-रामा० । भिटनी-संज्ञा, स्त्री० (दे०) स्तन का अग्र | भिनहीं-क्रि० वि० (दे०) सवेरे, प्रातःकाल । माग,फूल के नीचे का भाग। वि. छोटा, लघु। भिन्न वि० (सं० ) अन्य, पृथक, अलग, भिड़-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. बरे) वर्ग, जुदा, अपर, दूपरा, इतर । संज्ञा, पु० इकाई ततैया, बरैया। से कम संख्या (गणि.)। भिडंत-संज्ञा, पु० (दे०) भिड़ने का भाव, । भिन्नता-संज्ञा, स्त्री० (सं०) अलगाव, भेद, लड़ाई, मल्ल । __ अंतर, विलगता, पृथकता। भिडना-अ० कि० दे० (अनु० भड़) लड़ना, भियना*-अ० क्रि० दे० (सं० भीत) उकराना, टकर खाना, बहस करना, झगड़ना। डरना । स० कि० भियाना।। स. रूप-भिडाना, प्रे० रूप-भिडवाना। भिरना*-स० कि० दे० (हि. भिड़ना) भितरियाना-स० कि० दे० (हि. भीतर ) भिड़ना। भीतर करना या होना। भिरिंग ---संज्ञा, पु० दे० (सं० भृग) भौंरा। भितल्ला-संज्ञा, पु० दे० (हि. भीतर+तल) भिलनी - संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. भील ) पोहरे वस्त्र का भीतरी प्रस्तर या पल्ला । वि. भीलिनी, भोलिन, भिल्लिनी। मीतर या अन्दर का । स्त्री०-भितल्ली। भिलाँवाँ-भेलवा-संज्ञा, पु० दे० (सं० . . . . . For Private and Personal Use Only Page #1341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भिलौंजा-भिलौंजी १३३० भीति भल्लातक ) एक जंगली पेड़ जिसका फल भीटा-संज्ञा, पु० (दे०) ऊँची या टीलेदार औषधि के काम प्राता है। भूमि, वह बनाई भूमि जहाँ पान होते हैं, भिलौंजा-भिलौंजी--संज्ञा, स्त्री० (दे०) तालाब के चारों ओर की ऊँची भूमि । भिलावे का बीज। भीड़-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि० भिड़ना) भिल्ला --संज्ञा, पु० दे० (हि० भोल) भील । मनुष्यों का जमाव या जमघट, जन-समुदाय । भिश्त*-संज्ञा, पु० दे० ( फा० विहिश्त ) यौ० भीड़-भाड़, भीड़-भड़का। महा०वैकुंठ, स्वर्ग, विहिश्त, जन्नत । भीड़ छटना-भीड़ के लोगों का इधरभिश्ती-संज्ञा,पु० (दे०) सक्का, मशक से पानी उधर चला जाना, भीड़ न रह जाना । ढोने वाला। भीड़ लगना-जन-समूह इक्ट्ठा होना । भिषक-भिषज- संज्ञा, पु० (सं०) वैद्य, डाक्टर, | आपत्ति, विपत्ति, संकट, भीर। हकीम। "शुद्धाधिकारी भिपगीदशः स्यात्" भीरन*-संज्ञा, स्त्री० दे० ( हि० भीड़ना ) --वै० जी०। मलने, भरने या लगाने का काम । भींगना-अ. क्रि० दे० ( सं० अभ्यंज ) तर भीड़ना---० कि० दे० ( हि० भिड़ाना ) या गीला होना, श्राद्र होना । स० भिंगाना मिलाना, मलना, लगाना। प्रे० रूप भिंगवाना। भींचना-- स० कि० दे० (हि. खींचना ): भीड़-भड़का संज्ञा, पु० दे० यौ० (हि. खींचना, मीचना, कसना । भीड़भाड़ ) भीड़-भाड़, जमघट. जमाव । भीजना*-अ० क्रि० दे० (हि. भीगना ) भीड़ भाड़-संज्ञा, स्त्री० दे० यौ० (हि. भीड़ + भाड़ अनु० ) मनु यों का जमघट या गीला, तर या प्राई होना, भीगना, गद्गद् जमाव, जन-समुदाय । या पुलकित होना, नहाना, समा जाना, मेल पैदा करना, भीजना। भीडा-वि० (हि० भिड़ना) तंग, संकुचित । भी-संज्ञा, स्त्री. (सं०) डर, भय । अव्य. भीत-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० भित्ति ) दीवाल, (हि.) अवश्य, तक, लों, अधिक । गच, छत, चटाई । मुहा०-भीत में भीउँ-संज्ञा, पु० दे० ( सं० भीम ) भीम। दौड़ना-अपनी शक्ति या सामर्थ्य से भीख-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० भिक्षा) भिक्षा। बाहर या असंभव कार्य करना । भीत के भीखन* वि० दे० (सं० भीषण ) भयंकर, चिना चित्र बनाना-निराधार या बे डरावना, भयानक । सिर-पैर की बात करना, विभाग करने वाला भीखम -संज्ञा, पु० दे० (सं० भीष्म ) परदा । वि० (सं०) डरा हुश्रा । स्त्री० भीता । भीष्म पितामह । वि. (दे०) भीषण, भीतर-क्रि० वि० दे० (सं० अभ्रंतर) भयानक | "भीखम भयानक प्रचार्यो अंदर । संज्ञा, पु. हृदय, दिल, अंतःकरण, रन भूमि पानि"-रत्ना० । रनिवास, स्त्री-भवन । यौ० भीतर-बाहर, भीखी-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० भिक्षा) मुहा०-भीतर-बाहर करना (देखना) यज्ञोपवीत संस्कार में वटु को मातादि के -सब काम करना, चौकसी रखना। द्वारा दी गई भिक्षा। भीतरी-वि० (हि. भीत+ ई०-प्रत्य०) भीगना-प्र. क्रि० दे० (सं० अभ्यंज ) गुप्त, अंदर का, भीतर वाला, मन का । पानी धादि से तर या भाद्र होना। भीति—संज्ञा, स्त्री० (सं०) भय, डर। लो०भीजन-अ० कि० दे० (हि० भीगना) संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० भिति) दीवाल । जैसी भीगना, तर या आर्द्र होना । देखै गाँव की रीति, वैसी उठावै अपनी For Private and Personal Use Only Page #1342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भीती १३३१ भीसम भीति । " भीत ना रहीं तौ कहा छाते रहि ! भीड़, कष्ट, दुख, विपत्ति, प्राफत । "रहि. जायेंगी"-ऊ. श०। मन सोई मीत है, भीर परे ठहराय।" भीती-संज्ञा, स्त्री० दे. (सं० भित्ति) * वि० दे० ( ० भीरु ) भयभीत, डरा दीवाल, भित्ती (दे०)। संज्ञा, स्त्री० दे० हुश्रा, कायर, डरपोक ।। (सं० भीति ) डर, भय । भीरना--अ० क्रि० दे० (सं० भीरु) डरना। भीन*-- संज्ञा, पु० (हि. विहान ) सबेरा। भीरु-वि० (सं०) कायर, डरपोक, भीरू वि० (३०) भीगा हुआ । जैसे -रस-भीन।। (दे०)।। भीनना-अ० कि० दे० (हि. भीगना ) भीरुता-संज्ञा, स्त्री. (सं०) कायरता, बुजसमा जाना, भर जाना, घुप जाना, प्रविष्ट दिली (फा०) डर, भय । होना, भीगना । "यह बात कही जल सों भीताई*--संज्ञा, स्त्री० (दे०) भीरुता (सं.)। गन भोनो"-राम भीरे -क्रि० वि० दे० (हि. भिड़ना) नेरे, पास, समीप। भीनी-वि० (दे०) तर गीला, सनी हुई, भील--संज्ञा, पु० दे० (सं० भिल्ल ) एक मंद, मधुर। जैसे - भीनी भीनी सुगंधि । जंगली जाति । स्त्री० भीलनी। भीम-संज्ञा, पु. (सं०) विष्णु, शिव की भीष*-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० भिक्षा) भीख । भाठ मूर्तियों में से एक मूर्ति, भयानक रस भीषज, भिसज -संज्ञा, पु० दे० (सं० (काश्य, भामसन पाडवा में से एक, भेषज ) वैद्य । जो वायु के द्वारा कुंती से उत्पन्न हुए थे और भीषण-वि. (सं०) भयंकर, भयानक, बड़े वीर तथा बलवान थे।) मुहा०-भीम डरावना, दुष्ट या उग्र, घोर । संज्ञा, पु. के हाथी-भीमसेन ने एक बार सात हाथी (म०) भयानक रस (काव्य०)। माकाश में फेके थे जो आज भी वहाँ भीषणता-संज्ञा, स्त्री० (सं०) भयंकरता। घूमते हैं वि०-भयानक डरावना, बहुत भीषन* -वि. (दे०) (सं० भीषण) भयंकर । बड़ा । संज्ञा, स्त्री०-भीमता। भीषम* --संज्ञा, पु० दे० (सं० भीष्म) भीष्म । भीमकाय-वि० यौ० सं०) बड़े शरीर वाला। भीष्म-संज्ञा, पु० (सं०) भयानक रस भीमता--संज्ञा, स्त्री० (सं०) भयानकता। (काव्य०) शिव, राक्षस, गगा-गर्भ से उत्पन्न भीमराज-संज्ञा, पु० दे० (सं० भृगराज) राजा, शांतनु के पुत्र, गांगेय, देववत । वि.. एक काले रंग का पक्षी। भयंकर, भीषण । भीमसेन - संज्ञा, पु० (सं०) युधिष्ठिर के छोटे ! भीष्मक-संज्ञा, पु. (सं०) रुक्मिणी के पिता और अर्जुन के बड़े भाई भीम। विदर्भ-नरेश। भीमसेनी एकादशी--संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) भीष्म पंचक- संज्ञा, पु० यौ० (सं०) कार्तिक ज्येष्ठ और माघ के शुक्ल पक्ष की एकादशी। शुक्ल एकादशी से पूर्णमासी तक के पाँच भीमसेनी कपूर-संज्ञा, पु. यौ० ( सं० दिन जिनको लोग व्रत रखते हैं। भीमसेनोय कर्पूर ) एक प्रकार का उत्तम भीष्मपितामह-संज्ञा, पु. यौ० (सं.) कपूर, बरास (प्रान्ती०)। राजा शांतनु के पुत्र और कौरव-पांडव के भीम्राथली - संज्ञा, पु० (दे०) घोड़े की एक पितामह या बाबा, देवव्रत, गांगेय ।। जाति । भीसम-संज्ञा, पु० दे० (पं० भीष्म ) भीर, भीरि-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि० भीड़)। भीष्म, भीखम (दे०)। For Private and Personal Use Only Page #1343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भुंइ, भुंइया भुजंगप्रयात भुंइ, भैइया - संज्ञा, स्त्री० दे० ( सं० भूमि ) | पुनः भाग कर्ता, अति अनुभवी, भोगे हुए भूमि, पृथ्वी, अवनि । का भोग करने वाला। भँडफोर-संज्ञा, पु. यौ० (दि. भइ + फोरना) भूक्ति-संज्ञा, स्त्री. (सं०) श्राहार, खाद्य, गरजुश्रा (प्रान्ती०) एक बरसाती भी। । भोजन, लोकिक सुख, कब्ज़ा। भैइहग, भैइधारा-संज्ञा, पु. यौ० दे० भूखमरा-वि० दे० यौ० (हि० भूख + मरना) (हि. भइ+घर ) भूमि खोद कर नीचे जो भूखों मर रहा हो, पेटू, भुक्खड़, बनाया गया स्थान या घर, तर-घर, मरभुखा। तहख़ाना (फ्रा०)। भुखाना-अ० क्रि० दे० ( हि० भूख ) भूग्वा भँजना-अ० क्रि० दे० (हि. भुनना ) होना. भूग्व से दुखी होना । “भोर ही भुनना, मुलसना। भुखात ढहैं '--1 भभंग भुअंगम*-संज्ञा, पु० दे० (सं० भुखालू-वि० दे० (हि० भूखा) भूखा । भुजंग भुजगम ) साँप, सर्प । भुगत -संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० भुक्ति) भुअन -संज्ञा, पु० दे० (सं० भुवन ) भुवन, आहार, खाद्य, भोजन, लौकिक सुख । लोक। भुगतना-स० क्रि० दे० (सं० भुक्ति ) भुधार, भुपाल* - संज्ञा, पु० दे० (सं० भोगना, सहना, झेलना । अ० क्रि० (दे०) भूपाल ) भूपाल, राजा, भुपालू (दे०) । बं तना, पूरा होना, निबटना, चुकना । "भरत भुपाल होहिं यह साँची"-- स० रूप-भुगताना, प्रे० रूप भुगतवाना। रामा० । भुगतान-संज्ञा, पु० दे० (हि. भुगतना ) भुइ*- संज्ञा, स्त्री० द० ( स० भूमि ) भूमि फैसला, निबटारा, देन, दाम चुकाना, "भुइँ नापत प्रभु बाढेऊ, सोभा कही न माना । जाय"-रामा०। भुगताना-स० क्रि० दे० ( हि० भुगतना का भुइँआँवला-संज्ञा, पु० दे० (स० भूम्यामलक) स. रूप) पूरा करना, बिताना, संपादन एक प्रकार की घास जो औषधि के काम करना, चुकाना, चुकता करना, बेबाक में पाती है। करना, लगाना, झेलाना, भोग कराना, भुइँडोल - संज्ञा, पु० दे० यौ० (सं० भूकंप ) दुख देना । प्रे० रूप-भुगतवाना । भूडोल, भूकंप। भईपाल-संज्ञा, स्त्री० दे० यौ० (सं० भुगुति-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० भुक्ति ) भूमिपाल ) राजा, भूपाल । भोजन, आहार, खाद्य । भुइँहार-संज्ञा, पु० दे० (सं० भूमिहार ) भुग्गा-वि० (दे०) भोला, सीधा, भोंदू । एक प्रकार के क्षत्रियोचित निम्न श्रेण। के भुग्न-वि० (स.) कुटिल, वक्र, टेढ़ा, ब्राह्मण । तिरछा । भुक* - संज्ञा, पु० दे० ( सं० भुज् ) भोजन, भुच्च, भुच्चड़-वि० दे० (हि. भूत+चढ़ना) बेसमझ, मूर्ख, अपढ़। आहार, खाद्य, अग्नि । भुक्खड-वि० दे० (हि. भूख +अड-प्रत्य०) भुजंग, भुजंगम - संज्ञा, पु० (सं०) साँप । भूखा, पेटू कंगाल, दरिद्र, बहुत खाने वाला। भुजंगपाश-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) नागपाश भुक्त-वि. (सं०) भक्षित, खादित, खा | नामक एक प्राचीन अस्त्र । चुका, भोगा गया । यौ०-भुक्तभोगी- भुजंगप्रयात-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) ४ यगण For Private and Personal Use Only Page #1344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भुजंगविजूंभित १३३३ भुठौर का एक पर्णिक छंद । “चतुभिर्यकारैः । भुजबाथ-संज्ञा, पु० यौ० (हि. भुज भुजंग प्रयानम् "-(पिं०)। बांधना ) अकवार । ' दृग मोचत मृगभुजंगविजभित-संज्ञा, पु. (सं०) एक लोचनी, भर्यो उलटि भुजबाथ ''- वि० । वर्णिक छंद (पिं०)। भुजबोहा-संज्ञा, पु० यौ० दे० (सं० भुज+ भुजंगसंगता-संज्ञा, स्त्रो० (सं०) एक छंद विंशति) बीस हाथों वाला रावण । “साँचहु (पि.)। मैं लबार भुजबीहा"-रामा० । भुजंगा-संज्ञा, पु० दे० (हि. भुजंग ) एक भुजमूल-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) पक्खा, काला पक्षी, भुजैटा (ग्रा० )। संज्ञा, पु० मोढ़ा, काँख । “कर कुचहार छुवत (दे०)-साँप भुजमूलौ"--सूर० । कखरी ग्रा०) खवा भुजंगिनी--संज्ञा, स्त्री. (सं०) साँपिनी, (प्रान्ती०)। गोपाल नाम का एक छंद (पिं०)। भुजवा--- संज्ञा, पु० (दे०) भड़भूजा, अजवा। भुजंगी-संज्ञा, स्त्री० (सं०) साँपिनि, मजा --संज्ञा, स्त्री. (सं०) हाथ, बाह, बाँह । नागिनी, एक वर्णिक छंद, (पि.)। मुहा०-भुजा (भुज ) उठाना या भुज-संज्ञा, पु. (सं०) हाथ, बाहु, बाँह । टेकना-प्रतिज्ञा करना । “प्रण विदेह "भुज-बल भूमि भूप-बिनु कीन्ही"- कर कहहिं हम, भुजा उठाय विशाल।"रामा० । मुहा०-भुज में भरना (भुज "भुज उठाइ प्रन कीन"-रामा० । भर भंटना)-मिलना, आलिगन करना। भजाली- संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. भुजा+ हाथी की सूद, डाल', शाखा, किनारा, पालो-प्रत्य० ) एक तरह की टेढ़ी बड़ी त्रिभुज या अन्य किसी क्षेत्र के किनारे की छूरी, खुखरी, छोटी बरछी, कुकरी रेखा या प्राधार ( ज्यामि० ), समकोण : (प्रान्ती०)। का पूरक कोण, दो की संख्या का बोधक भुजिया -संज्ञा, तु० दे० (हि. भूजना = संकेत शब्द। भूनना ) उबले हुये धान का चावल, सूखी भुजग-संज्ञा, पु. (सं०) साँप । “शान्ता , भूनी हुई तरकारी। कारम् भुजगशयनम् पद्मनेत्रम् शुभांगम् " | भुजी-संज्ञा, स्त्री० (दे०) टुकड़ा । “बरु तन -स्फुट। भुजगनिसृता-संज्ञा, स्त्री० (सं०) एक वर्णिक भुजी भुजी उड़ि जाय"-पाल्हा०। छंद । पिं०)। भुर्जी-सज्ञा, पु० (दे०) भुजवा । भुजगशिशुभृता-संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) भुजल-संज्ञा, पु० दे० (सं० भुजंग ) भुजंगा एक वर्णिक वृत्ति, भुजग-शिशुसुता (पिं०)। भुजदंड-संज्ञा, पु. यौ० (सं०) बाहदंड, भुजोना, भुजैना-संज्ञा, पु० दे० ( हि. हाथ । “दोउ भुजदंड तमकि महि भूजना ) भूना अन्न, भूजा, भूनने या भुनाने मारे"--रामा०। ___ की मजदूरी, भुजधा। भुजपाश-संज्ञा, पु. यौ० (सं०) गले में | भुट्टा-संज्ञा, पु० दे० ( सं० भृष्ट प्रा० भुट्टी) हाथ डालना, गलवाही, गरबाही (व०)। बाजरा, मक्का और ज्वार की हरी बाल | भुजप्रतिभुज-संज्ञा, पु. यौ० (सं०) सरल घौद (प्रान्ती.) गुच्छा । स्रो. अल्पा० क्षेत्र की संमुख भुनायें (ज्यामि०)। भुट्टी। भुजबंद, भुजबंध-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) भुठौर-संज्ञा, पु० दे० ( हि० भूड़+ठौर ) बाजूबंद (भूषण)। । घोड़े की एक जाति । For Private and Personal Use Only Page #1345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भुतना १३३४ भुलावा भुतना- संज्ञा, पु० दे० (सं० भूत ) छोटा निकलना (होना)-चूर चूर होना, भूत । स्त्री० भुतनी। इतना मारा जाना कि हड्डो पसली चूर चूर भुतहा-वि० दे० (हि. भूत+हा-प्रत्य० ) हो जावें । विनष्ट होना। भूत का, भूत के समान, फूहड़, जिसमें भूत भुरता, भरता- संज्ञा, पु० दे० (हि. भुरकना या भुरभुरा ) दब दबाकर विकृत या भुन-संज्ञा, पु. (अनु०) भुनगे या मक्खी चूर चूर हो जाना, भरता नाम का बैंगन श्रादि का शब्द, अध्यक्त गंजार। श्रादि का सालन, चोखा । (ग्रा०) (किसी भुनगा-संज्ञा, पु० (अनु०) एक छोटा उड़ने । को) भुरता बनाना (करना)-बहुत वाला कीड़ा, पतिंगा। स्त्री० भुनगी। मारना। भुनना-अ० क्रि० (हि. भूनना ) भूना भुरभुर, भुरभुरा- वि० (अनु०) वह वस्तु जाना, क्रोध से जलना । स० रूप-भुनाना जिसके कण थोड़ी ही चोट से अलग अलग प्रे० रूप-भुनवाना । अ० क्रि० दे० (हि. हो जावें, बलुा । स्त्री० भुरभुरी। भुनाना) तपाया या भुनाया जाना. भुंजना। भुरभुराना-स० कि० (दे०) भुरभुरा करना, भुनभुनाना-अ० क्रि० दे० (अनु.) भुन __ चूर्ण करना, भुरकना । भुन शब्द करना, बड़बड़ाना, मन में कुछ भरवना*। स० कि० दे० (सं० भ्रमण) कर अस्पष्ट स्वर से कुछ बकना । संज्ञा, स्त्री० फुपलाना, भ्रम में डालना, बहकाना, भुनभुनाहट। भुलवाना बहकवाना, भ्रम में डालना। भुनवाई - संज्ञा, स्त्री० (दे०) भुनवाने की । भुरवाना - स० कि० (दे०) भुलवाना, (दे०) बहकाना, भ्रम में डलवाना। मजदूरी। भुराई -संज्ञा, स्त्री० द० (हि. भोला ) भुनाई-संज्ञा, स्त्री० ( हि० भुनाना ) भूनने भोलापन । संज्ञा, पु० (हि. भूरा) भूगपन । की क्रिया या मजदूरी। भुराना -२० क्रि० दे० (हि. भुलाना ) भुनाना - स० क्रि० दे० ( हि० भूनना का प्रे० बहकाना, भूलना, भुलाना भुलवाना, रूप) कोई वस्तु किसी से भुनवाना, भुजाना। भुरवाना, भुरावना। "ौचकि भुराये स० क्रि० ( सं० भजन ) बड़े सिक्के को छोटे भूलि भौचक से रहिगे '-१०व० । सिक्कों में बदलना, तुड़ाना। भुलक्कड़--वि० दे० (हि. भूलना ) बहुत भुबि* - संज्ञा, स्त्री० दे० ( सं० भू ) भूमि, ! भूलने वाला, भुलैया (ग्रा० ), जिसका पृथ्वी, महि, अवनि । स्वभाव भूलने का हो। भुमिया-संज्ञा, पु० दे० (सं० भूमि) भलसना-स० क्रि० दे० ( हि. भुलभुला) जमींदार। गरम राख या वस्तु से झुलसना: प्र0 रूपभुरकना-अ. क्रि० दे० (सं० भुरण ) भुलसाना, भुलसवाना। सूखकर भुरभुरा हो जाना, भूलना । स० क्रि० भलाना-स० क्रि० (हि. भुलना ) भूल (दे०) भुरभुराना, बुरकना । स० रूप- जाना. विस्मरण करना या कराना, भ्रम में भुरकाना, छिड़कना । प्रे० रूप-भुरक- डालाना । अ० क्रि० (दे०) भटकना, वाना । चलचित पारे की भसम भुरकाइ । विस्मरण होना, भूलना, भ्रम में पड़ना, राह कै"-ऊ श०। भूलना, भरमना । प्र० रूप - भुलवाना। भुरकस, भुरकुस-संज्ञा, पु० दे० (हि. भुलावा- संज्ञा, पु० दे० (हि. भूलना) भुरकना) चूर्ण, चूर चूर । मुहा०-भुरकुस ! धोखा, छल, बहकाव । For Private and Personal Use Only Page #1346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मुबंग, भुषंगम भू-खंड भुवंग, भुवंगम- संज्ञा, पु० दे० (सं० पृथ्वी में | " भुविपदं विपदंतकरं सताम्" भुजंग, भुजंगम ) साँप । -माघ । भुषः-संज्ञा, पु० (सं०) “ऊं भूभुवःस्वः .. भुशंडी-संज्ञा, पु० (सं० ) काकभुशुंडी। ...वेद । अंतरिक्ष लोक, सूर्य और भूमि के "सुनत भुशुंडी अति सुख पावा"अंतर्गत। रामा० । सज्ञा, स्त्री० (सं०) एक प्राचीन भुष-संक्षा, पु० (सं०) आग, अग्नि । संज्ञा, अस्त्र। स्त्री. (सं०) भूमि, पृथ्वी । संज्ञा, स्त्री० दे० भुस -- संज्ञा, पु० दे० (सं० तुष) भूसा । (सं० भ्रू । भ्र, भौं, भौंह । मुहा० -- भुस में डालना (मिलाना, भुवन - संज्ञा, पु० (सं०) संपार, जगत्, जल, तरे जाना )- व्यथ नष्ट करना । लोग, जन, लोक, जो चौदह है सात तो भुसी*--संज्ञा, स्त्री० (हि. भूसा ) भूपी। पृथ्वी से ऊपर और सात पृथ्वी के तले हैं। भुसेरा, भुसौरा-संज्ञा, पु. ( हि. भूसा ) लोक जो तीन हैं, श्राफाश, पाताल, पृथ्वी। वह घर जहाँ भूपा भरा जाता है, तुषशाला "त्रिभुवन तीन काल जग माहीं"- रामा । (सं०) भूसाघर।। "भुवन चारि दश भरयो उछाहू"-रामा० भूकना- अ० कि० दे० (अनु०) { { या चौदह भुवन या लोक, पृथ्वी से ऊपर भौं भों शब्द करना (कुत्तों सा) कुत्तों का के सात भुवन हैं-भू, भुवः, स्वः, मह, बोलना, व्यर्थ बकना । अमः, तपः, सत्य, पृथ्वी से नी वे के सात भू ख - संज्ञा स्त्री० (दे०) भूख, वुभुक्षा। भुवन हैं:-अतल, वितल. सुतल, तलातल वि० -भूखा। (गंभस्तिमत्), महातल, स्पातल, पाताल, भूचाल - संज्ञा, पु. ( सं० भूवाल ) भूकंप, चौदह की सख्या का सूचक संकेत शब्द भूडोल । सारी सृष्टि। । भू जना --स० क्रि० दे० (हि. भूनना) भुषनकोश- संज्ञा, पु० यौ० (सं०) ब्रह्मांड, : तपाना, भूनना, सताना, दुख देना, संपार, भूमंडल, पृथ्वो। ___ जलाना। स० कि० दे० (सं० भोग) भोगना। भुवनपति, भुवनाधिपति-संज्ञा, पु. यौ० स० रूप- जाना, प्रे० रूप-भुजवाना। (सं०) ईश्वर. भूपति, राजा । "जियहु भूजा - सज्ञा, पु० दे० ( हि० भूनना ) भूना भुवनपति कोटि बरीसा"-रामा। हुआ चबेना, भड़ जा। भुवनेश, भुवनेश्वर-संज्ञा, पु. यौ० (सं०) मँडोल-संज्ञा, पु० दे० (हि०) भूकंप । भुवनपति, ईश्वर, अखिलेश । भू-संज्ञा, स्त्री० (सं०) भूमि, पृथ्वी । संज्ञा, भुवपाल*-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) भूपाल, स्त्री० दे० ( सं० 5 ) भौंह. 5 । राजा, भुवपालक । | भूत्रा-संज्ञा, पु. (दे०) सेमर श्रादि भुवर्लोक-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) अंतरिक्ष, की रूई । 'बिनु सत जस सेमर का भूप्रा" जोक। -पद्मा। भुषा-संज्ञा, पु० दे० (हि० घूया) घृश्रा, रुई। भूई, भुई- संज्ञा, स्त्री० दे० (हि० घूमा) भुवार, भुवाल*-संज्ञा, पु० दे० यौ० रूई के तुल्य नरम छोटा टुकड़ा। ( सं० भूपाल ) राजा, भुपाल, भुवालू भूकंप-संज्ञा, पु. यौ० (सं०) भूचाल, (ग्रा०) । " भरत भुवाल होहिं यह भूडोल। साँची"-रामा० । भू खंड-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) पृथ्वी का भुषि-संज्ञा, स्त्रो० ( सं० भू ) भूमि, पृथ्वी, टुकड़ा, पृथ्वी । For Private and Personal Use Only Page #1347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भूख भूतभर्ता भूख-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० बुभुक्षा ) क्षुधा, भूटान का निवासी भूटान का घोड़ा । संज्ञा, खाने की इच्छा, बुभुक्षा, कामना, इच्छा, स्त्री० - भूटान की भाषा। आवश्यकता (व्यापारी)। भूटिया बादाम -संज्ञा, पु. यौ० (हि. भूखन*-संज्ञा, पु० दे० (सं० भूषण ) भूटान + बादाम-फ़ा० ) एक पहाड़ी पेड़ गहना, भूषण, जेवर, अलंकार, भषन (दे०)। जिपका फल खाया जाता है, कपासी भूखना -स० क्रि० दे० (सं० भूषण ) (प्रान्ती.)। सजना, अलंकृत करना। भूडोल-संज्ञा, पु. यौ० (हि.) भूकंप, भूखा-वि. पु. दे० ( हि० भूख ) बुभुक्षित, भूचाल । क्षुधित. जिसे भूख लगी हो, दरिद, इच्छुक । भू-संज्ञा, पु. (सं०) पाँच वे मूल तत्व या नी. भूची : संज्ञा, स्त्री० (दे०)- क्षुधा खाने | पदार्थ जिनसे सब सृष्टि बनी है, पाँच तत्व, की इच्छा । ' सुनहु मातु मोहिं अतिशय पाँच महाभूत, द्रव्य, जीवधारी, चराचर, भूवा"-रामा०1 जड़ या चेतन पदार्थ या प्राणी । मुहा०भूगर्भ-संज्ञा, पु. यौ० (सं०) विष्णु, पृथ्वी भू-दया जड़ चेतन या चराचर पर होने का भीतरी भाग, एक विद्या, पृथ्वी विद्या वाली कृपा। जीव, प्राणी, बीता हुश्रा समय, या विज्ञान । सत्य रुद्रानुचर प्रमथगण, या एक प्रकार के पिशाच ( पुरा० ) एक देव-योनि । भूगर्भशास्त्र-संज्ञा, पु. यौ० (सं०) पृथ्वी "भूतोऽयी देवयोनयः"-अमर० । मृतक, विद्या, पृथ्वी-विज्ञान जिससे पृथ्वी के उपरी पिशाच, प्रेत, शव. शैतान, जिन, मृत देह, और भीतरी भाग की बनावट या रूपादि मृत प्राणी की पारमा । मुहा०-भूत का ज्ञान होता है। चढ़ना या सवार होना बहुत ही हठ भूगोल-संज्ञा, पु. यौ० (सं०) पृथ्वी का या आग्रह होना, अधिक क्रोध हाना। क्रिया गोला, वह शास्त्र जिसके द्वारा पृथ्वी के के व्यापार की समाप्ति-सूचक क्रिया का रूप धरातल, प्राकृतिक भागों और उनकी (व्या०), बीता हुआ समय । भून की दशाओं श्रादि का ज्ञान होता है, वह पुस्तक मिठाई या पकवान-वह वस्तु जो भ्रम जिसमें पृथ्वी के स्वाभाविक भागों आदि से दिखाई दे, वस्तुतः कुछ भी न हो, का वर्णन हो। आसानी से मिला धन जो शीघ्र नष्ट हो भूचर-संज्ञा, पु. यौ० (सं०) भूमि पर। जावे । वि.---बिगत या बीता हुआ, गत चलने वाले जीवधारी, एक सिद्धि (तंत्र०) काल, मिला हुआ, युक्त, समान, तुल्य, शिवजी । जो हो गया हो। भूचरी- संज्ञा, स्त्री० (सं०) योग में समाधि भूतत्व- संज्ञा, पु० यौ० (सं०) भूत होना, की एक मुद्रा (योग०)। भूत का धर्म या स्वभाव । यौ०--पृथ्वी तत्व । भूचाल-सज्ञा, पु० यौ० (सं०) भूकंप, भूतत्वविद्या- संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) भूगर्भ भूडोल। विद्या, भूगर्भशास्त्र, प्रेत-विद्या ।। भूटान-संज्ञा, पु. (दे०) भारत से उत्तर | भूतनाथ-सज्ञा, पु. यौ० (सं०) शिवजी । तथा नेपाल से पूर्व में हिमालय का एक भूनपति-संज्ञा, पु. (सं०) शिवजी । प्रदेश । भूनपूर्व-वि० यौ० (सं०) वर्तमान से पूर्व भूरानी-वि० (हि. भूटान+ई-प्रत्य.) का, बीते हुये समय का। भूटान का, भूटान सम्बन्धी। संज्ञा, पु०- भूतभर्ती-सज्ञा, पु० यौ० (सं०, शिवजी। For Private and Personal Use Only Page #1348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भूतभावन १३३७ __ भूमि भूतभावन-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) शिवजी, भून*-संज्ञा, पु. दे. (सं० भ्रूण ) गर्भ। विष्णु । " भगवान भूत भावनः"-- भाग०। भूनना-२० क्रि० दे० ( सं० भर्जन ) कोई भूभाषा-संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) प्राचीन वस्तु, पकाना, गरम बालू डाल, आग पर पैशाची भाषा, प्रेतों की बोलो, प्राचीन रख या गर्म घी आदि में डालकर कुछ भाषा। वस्तु पकाना, तलना, अति कष्ट देना, भूनयज्ञ-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) पंचयज्ञों में | मूंजना । द्वि० रूप-भुनाना, प्रे० रूपसे एक, भूत वलि, वलिवैश्व । भुनवाना। भूतराज---संज्ञा, पु. यौ० (सं०) शिवजी। भुनाई - संज्ञा, स्त्री. ( हि. भूनना ) भनने भूनत-- संज्ञा, पु० यौ० सं०) पृथ्वी का ऊपरी का भाव या मज़दूरी, भैजवाई, भैजाई । तल, धरातल, संसार, दुनिया, पाताल। भुनाना-द्वि० कि० (हि० भूनना) भुजाना, भूत-वाधा-संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) भूतों प्राग पर रखवा, गर्म बालू डलवा या गर्म के आक्रमण से उत्पन्न वाधा। घी-तेल आदि में छोड़वा कर पकवाना, बड़े भूतांकुश-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) कश्यप सिक्के को छोटे सिक्कों में बदलवाना, तोड़ाना। ऋषि, गावजुदान (औष०)। संज्ञा, स्त्री० भुनवाई। भूतात्मा-संज्ञा, पु० यौ० (सं० भूतात्मन्) भूप-भूपति--संज्ञा, पु० (सं०) राजा । “सुनह शरीर, जीव या जीवात्मा, परमेश्वर, शिवजी। भरत, भूपति बड़ भागी"-रामा ।। भूति-संज्ञा, स्त्री० (०) राज्यश्री, ऐश्वर्य, भूपाल-संज्ञा, पु० (सं०) राजा, एक नगर, वैभव, धन, संपत्ति, राख, भस्म, वृद्धि, एक ताल । लो०-" तालतो भूपाल ताल उत्पत्ति, अणिमादि पाठ सिद्धियाँ, और हैं तलैयाँ"। अधिकता । " गति मति कीरति भूति भूपाली-संज्ञा, स्त्री० (सं०) एक रागिनी बड़ाई"-रामा० । (संगी०)। भूतिनि-भूतिनी-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० भूत) भूभल-संज्ञा, स्त्री० (सं० भू+ भुर्ज या अनु०) प्रेतिनी, शाकिनी, डाकिनी, पिशाचिनी। गर्म रेत, गर्म धूलि या राख । ततूरी भृत-योनि को प्राप्त स्त्री। वि० दुष्ट स्त्री। (ग्रान्ती०) भूभुर (ग्रा०)। " पाँव पखारि हौं भूतृण --संज्ञा, पु० (सं०) रूसा, रूस । भूभुल डाहे"- कवि० । भूनेश---संज्ञा, पु० यौ० (सं०) शिवजी 'कृपा भूभुरि, भूभुरी-संज्ञा, पु० दे० (सं० भूभल) करें भूतेश'। गर्म धूलि या रेत भुलभुल (ग्रा०)। भूतेश्वर--संज्ञा, पु० यौ० (सं०) महादेवजी, भूभुज, भूभृत-संज्ञा, पु. (सं०) राना। 'भूयास भूतेश्वर पाश्ववर्ती रघु० । भूमंडल--संज्ञा, पु० यौ० (सं०) पृथ्वी का भूतोन्माद-संज्ञा, पु. यौ० (सं.) भूत या गोला। प्रेत के कारण होने वाला उन्माद (वैद्य०)। भूमि-संज्ञा, स्त्री० (सं०) भू , पृथ्वी, महि, भू-दान-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) भूमि का धरा, अवनि, जमीन, श्राधार, क्षेत्र, दान । स्थान, प्रान्त. देश, प्रदेश, जड़ या बुनिभूदेव-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) ब्राह्मण । याद, योगी का क्रम से प्राप्त होने वाली भूधर-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) पर्वत, पहाड़। दशायें । योग०)। मुहा०-भूमि होना "सिंधु तीर एक सुन्दर भूधर"--रामा० ।। ( पर आना )-पृथ्वी पर गिर पड़ना । भूधराकार-वि० यौ० (सं०) पर्वताकार ' और निदद्ध नामक चित्त की पाँच अवस्था "माय भूधराकार शरीरा"-रामा । (वेदा०)। भा० श० को०-१६८ For Private and Personal Use Only Page #1349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भूमिका १३३८ भूलना - मंगल। भूमिका-संज्ञा, स्त्री० (सं०) भेस बदलना, ' भूरज--संज्ञा, पु० दे० (सं० भूर्ज) भोज. रचना मुख, दीवाचा (अ.) किसी पुस्तक पत्र । सज्ञा, पु. यो० ( सं० भू+रज ) धूलि, के प्रारम्भ में ग्रन्थ सम्बन्धी प्रावश्यक और मिट्टी, गर्द । ज्ञातव्य बातों की सूचना, प्राक्कथन, वक्तव्य, भूरजपत्र-संज्ञा, पु. यौ० दे० (सं० भूर्जपत्र) मुखबंध रचना। संज्ञा, मो० (सं०) भूमि, भोजपत्र । क्षिप्त, गूढ, विक्षिप्त, एका। भूरपूर, भूरिपूरि -वि० कि०. वि० दे० भूमिज-वि० (सं०) पृथ्वी से उत्पन्न, यो० (हि. भरपूर ) भरपूर, सब प्रकार से पूर्ण, अधिक और पूर्ण । भृमिजा-संज्ञा, स्त्री. (सं०) सीताजी, भूरसी, भूइसी दक्षिणा--- संज्ञा, स्त्री० द. भूमिसुता, भभितनया। यो. द. (सं० भूयसी- दक्षिणा) वह भूमिनाग-सज्ञा, पु. चौ. (सं०) केचुवा दक्षिणा जो धर्मकृत्य या व्याहादि उत्सवों नाम का एक बरसाती साकार पतला छोटा पर बिना संकल्प ब्राह्मणों को दी जाती है। कीड़ा । " भूमि-नाग किमि धरह कि भूरा-संज्ञा, पु० दे० ( सं० बभ्र ) खाकी रंग, धरनी” रामा० । मिट्टी का सा रंग, कच्ची चोनी, वृरा। भूमिपुत्र-संज्ञा, पु. यौ० (सं०) कुज, मंगल। वि०-मटमैले या खाकी रंग का। संज्ञा, भूमिपति-संज्ञा, पु० यौ० (२०) राजा। पु० (दे०) भूरापन। भूमिया--संज्ञा, पु० दे० . भूमि +-इया- भूगि, भूरी-संज्ञा. पु. (सं०) विष्णु, ब्रह्मा, प्रत्य. ) जमींदार, ग्राम देवता शिव, साना, सुवर्ण, इन्द्र । वि० --बहुत. भूमिरुह - संज्ञा, पु. (सं०) पेड़, वृक्ष । अधिक बड़ा । "भूरि भागभाजन भइम. भभिसुत-संज्ञा, पु. यो. (०) भभितनय मोहि समेत बलि जाउँ'-गमा० । मंगल, भौम, कुज। भूरितेज-संज्ञा, पु. यो० (सं० भरितेजस् ) भूमिसुता-संज्ञा, स्त्री. (सं०) भमि श्राग, अग्नि, सोना, सूर्य । तनया, सीताजी, अवनिना। " भूमिसता भूरिद-संज्ञा, पु० (सं०) बहुत देने वाला। जिनकी पतिनी किमि राम महीपति होहिं खा भारदा । गुसाई'- स्फुट० । भूरिश्रवा-वि० (सं० भूरिश्रवस ) कीर्तिमान. भूमिहार -संज्ञा, पु. (सं.) क्षत्रियोचित बड़ा यशी। संज्ञा, पु. सोमदत्त का पुत्र नीच ब्राह्मणों की एक जाति । एक राजा। भूम्ह-संज्ञा, पु. (सं०) पेड़, वृक्ष । भूमीन्द्र, भूमीश -- संज्ञा. पु० यौ० (सं०) (त) | भूर्जपत्र-संज्ञा, पु० (सं०) भोजपन्न । राजा, भूमीश्वर। ' भूल-संज्ञा, स्रो० (हि. भूलना) भूलने का भूय, भूयः- अव्य० (सं० भूरस्) फिर, पुनः।। भाव, चूक, ग़लती, कसूर, अशुद्धि, अपभूयोभूयः- अव्य० यौ० (सं० भूयोभूयस ) राध दोष, त्रुटि । यौ०-भूल चूक । बार बार, फिर फिर, पुनः पुनः। भूलक*-संज्ञा, पु० (हि. भुल+क-प्रत्य०) भूर, भूरि-वि० दे० ( १० भूरि ) अधिक, भूलने-चूकने या ग़लती करने वाला, जिससे बहुत । “भूरि भाग्य-भाजन भरत"- कोई भूल-चूक हुई हो। रामा० । संज्ञा, पु० दे० हि भुरभुरा) बालू, भूतना-स० कि० दे० (सं० विह्वल ) सुधि रेत । *संज्ञा, स्त्री० (द. भेंट, उपहार, या याद न रखना, विसार देना, विस्मरण दान । मुहा०-भूर बॅटन। करना, चुकना, ग़लती करना, खो देना। अ० For Private and Personal Use Only Page #1350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भूलनी, भुलनी भृगुकच्छ क्रि०-स्मरण न रहना, विस्मरण होना, भूसन --संज्ञा, पु० दे० (सं० भूषण ) ग़लती होना, चूकना, लुभाना, खो जाना, भूषण, गहना । " भूपन सकल सुदेश इतराना, मुग्ध होना। द्वि० रूप भुलाना, सुहाये"--- रामा० । प्रे० रूप भुलवाना। भूसा-संज्ञा, '१० दे० ( सं० तुष) गेहूँ, जव भूलनी, भुलनी-संज्ञा, स्त्री० (दे०) मार्ग आदि के सठलों के नन्हें नन्हें टुकड़े। यौ.. भुला देने वाली एक घास । घास-भूमा भूलभुलैयाँ- संज्ञा, स्त्री० यौ० ( हि० भूल + भूमी-सज्ञा, बी० (हि. भूसा ) अन्न के भुलाना - ऐया-प्रत्य. ) घुमाव या चक्करदार दाने का परी छिलका, महीन या इमारत जिपमें जाकर लोग ऐसे भूल जाते बारीक भूगा यो०-चूनीभूसी। हैं कि उनका बाहर निकलना कठिन हो भूलुत-संक्षा, पु० यौ० (सं०) कुज, भौम, जाता है, चकावू , बड़े धुमाव-फिराव की मंगलग्रह, भू-तनय । बात या घटना। भूसुता-संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) भू-तनया भूलोक-संज्ञा, पु० चौ० (सं०) पृथ्वीलोक, सीताजी, कुजा, अवनिजा। संसार, दुनिया। भूसुर-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) ब्राह्मण, भूवा--संज्ञा, पु० दे० ( हि० घूया ) सेमर : महिसुर । " भूसुर लिये हकारि, दीन्ह की रूई, कपास की रूई । वि०-सफेद, । दक्षिणा विधि विधि"-रामा० । संज्ञा, उज्वल, उजला। पु०-भूसुरत्व। भूशायो-वि० यौ० (सं० भूशायिन् ) भंग-संज्ञा, पु. (सं०) भौंरा, एक कीड़ा, धराशायी, जमीन पर सोने वाला, भूमि बिजली । पर गिरा हुश्रा मृतक, मुरदा । भृगराज-हा, पु० (सं०) भँगरैया भंगरा, भूषण--संज्ञा, पु० (०, विभूषण, गहना, । वनस्पति, घरिस (ग्रा०) एक काला पक्षी, माभूषण, जेवर, अलंकार, वह वस्तु जिससे किसी की शोभा बढ़ जाये। "किय भूपण भीमराज । । भृगराज की देय भावना औषधि बनै सुहाई"-कुं० वि० ला० । विय भूपण तिय को"-रामा० । सज्ञा, पु० (स०) हिन्दी के एक प्रसिद्ध महाकवि श्रृंगी - संज्ञा. १० (सं.) शिवजी का एक जो शिवाजी के यहाँ धे। दाम या पारिषद। " भृगी फेरि सकल गण भूषन* -- प्रज्ञा, पु० द० (सं० भूषण ) टेरे"-रामा० । संज्ञा, स्त्री. (सं०) भौंरी, भूषण, गहना, अलंकार । " लेहि न भूषन बिलनी कीड़ा । " भृगी सम सज्जन जग बसन चुराई." -- रामा। गाये"-एट' । भूषना-स० क्रि० द० (सं० भषण ) भृकुटि, भृकुटी, भृगुटी-(दे०) संज्ञा, स्त्रो. सजाना, अलंकृत या विभूपित करना। (सं० भृकुटी ) भौंह । “भृकुटी बिकट भूषा-सज्ञा, स्रो० (सं० भषण ) जेवर । मनोहर नासा "-रामा० । " बिकट, गहना, सनाने की क्रिया । यौ०-वेश- भृकुटि कच बूँघर वारे"- रामा० । भूषा। । भृगु-संज्ञा, पु. (स.) एक विख्यात मुनि भूषित- वि० (सं०) विभूपित, अलंकृत, जिन्होंने विष्णु की छाती में लात मारी थी, संवारा या सजाया हुआ, श्राभूपित, गहना शुक्राचार्य, परशुराम, शिव, शुक्रवार । पहिने हुए । “सब भूषण भूषित वर । भृगुकच्छ- पंक्षः, पु० (सं०) एक तीर्थ, भड़ौच नारी"-रामा० । । नगर ( वर्तमाम )। For Private and Personal Use Only Page #1351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भृगुनाथ १३४० भेदकातिशयोक्ति भृगुनाथ-संज्ञा, पु. यौ० (0) भृगुपति, भंवना-स० कि० दे० (हि. भिगाना) परशुरामजी । “जो हम निर्हि विप्र वदि, भिगोना । सत्य सुनहु भृगुनाथ"-- रामा० । भेउ, भेव*-संज्ञा, पु० दे० ( सं० भेद) भृगुनायक-संज्ञा, पु० यौ० (सं.) परशुराम। भेद, रहस्य । भृगुपति-संज्ञा, पु० यौ० पं.) परशुराम । भेक-संज्ञा, पु० (सं०) मेंढक । “ कबहूँ भेक "भृगुपति परशु दिखावहु मोहीं'--रामा । न जानहीं. अमल कमल की बास।" भृगुमुख्य -- संज्ञा, पु. यौ० (सं.) भृगुवर, भैय--संज्ञा, पु० दे० ( सं० वेप ) रूप, वेष । परशुराम, भृगुथे। भेखज* -- संज्ञा, पु. द० ( मं० भंपन) भृगुरेखा, भृगुलता--- संज्ञः, स्वी० यौ० "ग्रह, भेखज, जल, पवन, पट. पाय सुयोग (सं०) भृगुमुनि के पद प्रहार का विष्णु कुयोग'"--रामा० । भगवान की छाती पर चिह | "हिये भेजना---स० कि० दे. (सं० वजन ) किसी विराजति भृगुलता, त्यों बैजंती माल--- व्यक्ति या वस्तु को कहीं से कहीं ग्वाना करना. पठाना, पठवाना । द्वि० रूप-भेजाना भृगुसंहिता-संज्ञा, पु. यो० (सं०) भृगुमुनि प्रे० रूप भेजवाना। कृत एक प्रसिद्ध ज्योतिष-ग्रंथ । भेजा--संज्ञा, पु. (दे०) मगज़, दिमाग, भृत--संज्ञा, पु० (सं०) दास, संवक । वि० . मस्तिष्क, खोपड़ी के भीतर का गृदा सा. (सं०) पूरित, भरा हुआ. पालापोषा हुआ, भ, अ० क्रि० ( हि० भेजना ) पटाया। ( यौगिक में ) जैसे---पररात। भंड भेडी---संज्ञा, सी० द० (सं० भष) भृति-संज्ञा, स्त्री. (सं.) चाकरी, नौकरी, गाडर बकरी जाति का एक छोटा चौपाया । मज़दूरी. तनख्वाह, वेतन, दाम, भरना, मुहा० --- भेड़िया धसान --- फल को मूल्य, पालना, पोषना।। बिना सोचे-समझे दूसरे का अनुकरण या भृत्य-संज्ञा, पु० (सं०) नौका । स्त्री० भृत्या। अनुसरण करना। भृश -- क्रि० वि० (सं०) अधिक, बहुत ।। भंगा-वि० (दे०) टेढ़ी या तिरछी आँख भेडहा-- संज्ञा, पु० (१०) भेड़िया । वाला, ऐंचाताना. ढेरा (ग्रा.)! 'भेडा-ज्ञा, पु. (हि. भंड़ ) भेड़ का नर, भंट-- संज्ञा, स्त्रो० (हि. नंटना ) मिलाप, मेढ़ा, मेष । स्त्री० भेड़ी । वि० (दे०) भंगा। मेल, मिलन, मुलाकात, दर्शन, उपहार, भेड़िया --- संज्ञा, पु० ६० ( हि० भेड़ ) कुत्ता नज़र या नज़राना । " तामां कबहु भई होइ जैसा म्यार जाति का एक मांसाहारी बनैला भेटा।" कीन्ह प्रणाम भेट धरि भागे"- जंतु, भेड़हा, जनाउर, जड़ाउर (ग्रा० । रामा०। भेद-संज्ञा, पु० (सं०) छेदने या भेदने की भेंटना -स० कि० (हि. भेट ) भिलना, क्रिया, शत्रु-पक्ष के लोगों को फोड़कर अपनी थालिंगन करना, मुलाकात करना, गले थोर मिलाना या उनमें फूट करा देना, लगाना । स० रूप-भेंटाना. भिंटाना, प्रे० विभेद, रहस्य, मर्म, तात्पर्य, अंतर, प्रकार । द्वि० रुप भेटवाना । “भेटेउ लखन ललकि 'भेद हमार लेन मठ श्रावा'"-रामा० । लघुभाई"-रामा। भेदक-वि० (सं०) भेदने या छेदने वाला में:--सज्ञा, स्त्री० (दे०) भेटी । * संज्ञा, स्त्री. रेचक, दस्तावर (वैट)। (दे०) बाधा। मुहा०-मंड मारना- भेदकातिशयोक्ति--संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) किसी कार्य की सिद्धि में बाधा डालना। एक अर्थालंकार, जिसमें और औरै शब्दों के For Private and Personal Use Only Page #1352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भेदड़ी भैक्ष द्वारा किसी वस्तु का अति उरकर्ष दिखाया। श्रादि की गोल पिंडी, या बट्टी, सिर के जाय (प्र० पी०)। पीछे का उभरा भाग। भेदडी-- संज्ञा, स्त्री० (दे०) खड़ी, बौधी । । भेव* --ज्ञा, पु. द. ( सं० भेद ) भेद, भेदन - संज्ञा, पु. (सं०) बेधना, छेदना, मर्म की बात. रहस्य, पारी, वारी । " तेउ न भेदना, नीति । वि० सदनीय, भेद्य। जानें भेव तम्हार"-रामा० । भेदना-स० कि. द० (सं० भेदन ) बेधना, भेवना-- -स० क्रि० दे० (हि. भिगोना ) छेदना। "काठ कठिन भेद भ्रमर, कमल न भिगोना भना। भेदे सोय"। भेष --- . पु० दे० ( सं० वेष ) वेष, भेस, भेदभाव- सज्ञा, ५० यो० (स०) फ़रत, अंतर। रूप। पौ० ---भेष-भूपा । मुहा०-भेष भेदिया--- सज्ञा, पु. दे० : सं० भेद -। इया - रखना (बनाना)-दूसरे के रूपादि की प्रत्य० ) गुप्तचर, जासूस, गुप्त बातें या रहस्य नक़ल करना। जानने वाला। भेषज-संज्ञः, पु० (सं०) औषधि । “ग्रह, भेदी ... संज्ञा, पु० वि० (सं० भदिन) भेदिया। भेषज, जल, पवन, पट, पाय सुयोग, ला. -घर का भेदी लंका दाह । कुयोग'-- रामा० । वि० दे० भेदन करने वाला । जैसे- भेषना* --140 क्रि० दे० (हि. भेष ) मर्मभेदी। पहिनना, मंद, स्वाँग या रूप बनाना। भेदीसार--संज्ञा, पु० (सं०) बदैगों का छेद भेस संज्ञा, पु. दे. ( सं० भेष) बाहिरी करने का औजार, बरमा । रूप-रंग-पहनावा श्रादि, वेष. रूप, बनावटी भेद्र--संज्ञा, पु० ( ० द) मंदा, भेद या रूप वस्त्रादि । मर्म जानने वाला। भेसज* - -- 4ज्ञा, पु. ( सं० भषन ) औषधि । भेद्य---वि० (सं.) जो छेदा या भेदा जावे, भेसना स० कि० दे० (सं० वेश, हि. भंदनीय। भंस ) वेरा धरना, वेष बनाना या रखना, भेन, भन---संज्ञा, बी० दे० (हि. बहिन ) - वस्त्रादि पहिनना। । भैस. भैंसी - संज्ञा, स्त्री० दे० ( सं० महिष ) बहिन। भेना --स० कि. द. (हि. भवना) गाय जैसा एक काला और बड़ा दूध भिगोना, भवना ग्रा०)। देने वाला चौपाया (मादा), एक प्रकार की मछली । लो०--भैंस के धागे बीन बाजै, भेग*-संज्ञा, पु० (दे०) बेड़ा, भेड़ा। भैंस खड़ी पाराय । वि... बहुत मोटी स्त्री। भेरी- संज्ञा, स्त्री० (सं०) बड़ा नगाड़ा, ढोल, भैंसा, मैं इगा--संज्ञा, पु. ( सं० महिष ) दुन्दुभी, ढक्का। भैंस का नर महिष । वि.----बहुत मोटा भेरीकार-संज्ञा, पु. ( सं० मेरी + कार ---- और सस्त (व्यंग्य)। स्त्री. भैम, भसी। प्रत्य०) भेरी बजाने वाला । स्त्री० भाीकारी, भैंसासर-मज्ञा, पु० दे० यौ० (सं० महिषासुर) भेरीकारिन । , एक देत्य (पुरा०)। भेला। - संज्ञा, पु. दे० ( हि. भेंट ) भेंट, भै* -- संज्ञा, '१० दे० ( सं० भय ) भय, डर । मुठभेड़, भिडन्त । संज्ञा, पु० (दे०)--, यौ०-भात । अ० कि० (व.) दुई। भिलावाँ (औष०) । संज्ञा, पु० (दे०) पिंड भैत-संज्ञा, '९० (सं०) भीख, भिक्षा, भीख या बड़ा गोला। माँगने की क्रिया या भाव । “भोक्त भेली/संज्ञा, स्रो० (हि. भेला) गुड़ भैक्षमपीह लोके "-भ० गी। For Private and Personal Use Only Page #1353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org " मैतचर्या, भैक्षवृत्ति भोकार भैतव, भैतवृत्ति - संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) भिक्षा माँगने का काम | भैचक, भैचक - वि० ० दे० ( हि० भय + चक्र = चकित) चकित अचंभित, _कपकाया हुआ, भौचक ० ) । भैजन, मैजनक - वि० दे० ( पं० भयजनक ) भयप्रद, भयकारी । भैरवी - संज्ञा, स्त्री० (सं०) दुर्गा, चामुंडा । "भाय्यां रक्षतु भैरवी' - दु० स० । भैरवीचक्र - संज्ञा, पु० (सं०) वाम मार्गियों की मंडली | " प्राप्ते भैरवीचक्रे सर्वे वर्ण द्विजातियः " -- स्फु० | भैरवयातना - संज्ञा स्त्री० (सं०) मरते समय भैरव द्वारा दिया गया कष्ट । भैद, मैदा - वि० दे० ( सं यद, भयश ) मैगें- संज्ञा, पु० (३०) भैरव (सं०) शिव या • १३४२ भयप्रद भयकारक | भैना, मैनो-- संज्ञा, त्रो० (दि० बहिन ) बहिन | भैने -- संज्ञा, पु० (दे०) बहिन का लड़का, भाँजा, भानैज । भैमी - संज्ञा, त्रो० (सं०) राजा नल की स्त्री, और विदर्भ के राजा भीम की सुता, दमयंती | भैयंस- संज्ञा, पु० यौ० ० (सं० शा ३० भाई + अंश) पैत्रिक संपत्ति में भाई का अंश या भाग, मैयांस भैया - संज्ञा, पु० दे० ( सं० बाट ) भ्राता, भाई. बराबर वाले या छोटों का संबोधन । भैयाचार - संज्ञा, पु० यौ० द० (हि० भैया + श्राचार) जिनके साथ भाई जैन व्यवहार हो, बंधु बांधव, जाति जन, भाई बंधु । भैय्याचारी, भैयाचारी रक्षा. सी० दे० ( हि० भाईचारा ) भाई-चारा भैयादूज - संज्ञा, स्त्री० दे० यो० (सं० भ्रातृ द्वितीया ) कार्तिक शुक्ल द्वितीय भाई-दुइज, जब बहिन भाई के तिलक करती है, यमद्वितीया । भैरव - वि० (सं०) भयप्रद, भयानक, भयंकर, डरावना भयावने या घोर शब्द वाला । संज्ञा, पु० (सं०) महादेवजी, शिवजी के गण जो उन्हीं के धवतार माने जाते हैं, भयानक रस ( काव्य ), ६ रागों में से एक मुख्य राग. भयानक शब्द | भैरवनाथ - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) शिव, शिव के एक प्रमुखगण | "सौंहो भैरवनाथ are मैं वाक मिलायो १७ - हरि० । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir शिव के एक मुख्य गण । भैपज - संज्ञा, पु० (सं०) श्रौषधि दवा । भैहा* - संज्ञा, पु० ० ( हि० भय + हाप्रत्य० ) डरा हुआा भयभीत, जिस पर भूतादि का प्रवेश हो । भोंकना स० क्रि० (अनु०) नुकीली चीज़ शरीर में घुमाना या धँसाना घुसेड़ना | स० रूप- भोकाना, ० रूप- भोकवाना । भोंड़ा - वि० दे० (हि० भद्दा या भों में अनु० ) कुरूप, भद्दा, बदसूरत । त्रो० भांड़ी। भोंडापन -संज्ञा पु (हि०) भद्दापना, बेहूदगी । भोवरा -- वि० (दे०) गोठिल कुंटित, बिना धार का जो पैना न हो । { भांडू - ( हि० बुद्ध ) मूर्ख बेवकूफ़ । भोपू - वि० संज्ञा, पु० (अनु० ) मुँह से फ्रैंक कर बजाने का एक बाजा । भोंसला, मांसले – संज्ञा, पु० दे० ( सं० भूशिला ) महाराष्ट्रों या मरहठा राजायों की . उपाधि, महाराज शिवाजी थोर रघुनाथराव इसी कुल के थे । भोट - अ० क्रि० दे० ( हि० भया = हुमा ) हुआ, भया, संबोधन । भाई -- सज्ञा, स्त्री० (०) कहार. धीमर, पालकी ढोने वाला | भोकस - वि० दे० (हि० भूख) भुक्खड़ | सज्ञा, पु० (दे० ) एक प्रकार के राम । भोकार --- संज्ञा, स्त्री० ६० ( अनु० भो भो ) ज़ोर ज़ोर से रोना । For Private and Personal Use Only Page #1354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भोजू भोक्तव्य भोक्तव्य-वि० (सं०) भोगने या खाने योग्य भोज-संज्ञा, पु. ( सं० भोजन ) जेवनार, भोक्ता-वि० ( सं० भोक्त ) भोजन या भोग दावत, खाने की वस्तु । संज्ञा, पु. (सं०) करने वाला, भोगने वाला । सज्ञा. पु. भोज का या भोजपुर प्रांत, अनेक मनुष्यों भोक्तत्व। का एक साथ खाना-पीना, कान्यकुब्ज के भोक्त-वि० (सं०) खाने वाला | संज्ञा, पु० : राजा, रामभ : देव के पुत्र, परमार वंशीय विष्णु, स्वामी, मालिक। विद्वान संस्कृत कवि तथा मालवा के भोग-संज्ञा, पु० (स.) सुख-दुख का अनुभव एक राजा । वि. भोज्य। करना, दुख या कट, सुख, विलाप, विषय. भोजक---संज्ञा. पु. (सं०) भोगी, विलासी, संभोग, देह. धन, भतण. पालन, भोजन भोग करने वाला करना. भाग्य, प्रारब्ध, भोगा जाने वाला भोजदेव-ज्ञा पु० यौ० (सं०) प्रसिद्ध पाप या पुण्य का फल, थर्थ, फल, देवमूर्ति कान्य-कुब्ज नरेश । श्रादि के सामने रखे हुपे खाद्य पदार्थ, नैवेद्य, : भोजन - संहा, पु० (सं०) खाना, खाने की सर्प का फन, ग्रहों का राशियों में रहने का वस्तु । " भोजन करत बुलावत राजा"समय। रामा०। भोगना-अ० क्रि० दे० (सं० भोग) दुख-सुख भोजमखाना* --संज्ञा, पु. यौ० (सं० या भले बुरे कर्मा का अनुभव करना, भोजन --- खान फा० ) भोजनालय, पाकभुगतना. सहना । स० रूप ....भागाना । शाला, रसोईया । यौ० कि० (हि०) खाना । प्रे० रूप ---भोगवाना। भोजनशाला- संज्ञा, स्त्रो० यौ० (सं०) रसोईभोगवंधक ---संज्ञा, पु० यौ० (गं० भोग्य :- घर । बंधक हि० ) दावली रेहन, रेहन की हुई भोजनालय --- ५ ज्ञा. पु० यौ० (सं०) रसोईभूमि आदि के भोगने का अधिकार देने घर ! धाला रेहन । भोजपत्र-संज्ञा, पु० दे० (सं० भूर्जपत्र) भोगली -- संज्ञा, स्त्री० (दे०) नाक में पहिनने एक पेड़ और इसकी छाल जो प्राचीन काल की लौंग, कान का गाना. तरकी. लोंग या में काग़ज़ का काम देती थी। कर्णफूल के अटकाने की पतली पोली कील । भोगवना --अ० क्रि० दे० ( सं० भोग) भोजपुरी- संज्ञा स्त्री. (हि. भोजपुरई प्रत्य० ) भोजपुर की भाषा । संज्ञा, स्त्री० यौ० भोगना! (सं०) राजा भोज की नगरी । संज्ञा, पु०भोगविलास-संज्ञा, पु. यौ० (सं०) सुख. चैन, प्रामोद-प्रमोद, विषय-भोग। भोजपुर का रहनेवाला । वि०- भोजपुर भोगी-संज्ञा, पु० (सं. भागिन् ) भोगने संबंधी, भोजपुर का। वाला । वि. ... विषयासक्त, सुखी, इन्द्रियों । भोजराज- ज्ञा पु० यौ० (सं०) राजा का सुख चाहने वाला. विलासी, विषयी, भोज । " भोजराज तव कीति-कौमुदो - भो० प्र०। भुगतने वाला. आनंद करने वाला । संज्ञा पु० (सं०) मर्प। भोजविद्या-सं, स्त्री० यौ० (सं०) इन्द्रभोग्य-वि० (स०) भोगने योग्य, कार्य में जाल. भानुमती का खेल, बाजीगरी। लाने योग्य । भोजी-संज्ञा, पु० (सं० भोजन) खाने वाला। भोग्यमान-वि० (सं.) जो भोगने को हो, भाजू* --संज्ञा पु. दे. (सं० भोजन) जो अभी तक भोगा न गया हो। भोजन, भाज। For Private and Personal Use Only Page #1355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org भोज्य भोज्य-संज्ञा, पु० (सं०) खाने की वस्तु, खाद्य पदार्थ वि० - खाने के योग्य | भोर - संज्ञा, पु० (सं० भोटम ) भूटान देश. एक तरह का बड़ा पत्थर । भोटिया - संज्ञा, पु० दे० (हि० भोट + इयाप्रत्य० ) भूटान का रहनेवाला, भूरानी । संज्ञा, स्री० - भूटान की बोली या भाषा, वि० भृटान सम्बन्धी, भूटान का भुटानी भोटिया बादाम - संज्ञा, ५० दे० यौ० ( हि० भाटिया + बादाम स० ) थालूबुखारा, मूँगफली । १३४४ थाना । यौ ० भोरानाथ - संज्ञा, पु० भोलानाथ ( हि० ) शिव । भोरु - संज्ञा, पु० दे० ( हि० मोर ) सवेरा, भोर । भौंरा भोला - वि० दे० ( हि० भूलना ) सरल, सीधा-सादा, मूर्ख, हे समझ | "C भोलानाथ - सज्ञा, पु० यौ० ( हि० भोला -+नाथ - - ० ) शिवजी, महादेवजी । भोलानाथ थापने किये मैं पछिताबें हैं। -रपा० । भोलापन - संज्ञा, पु० (हि०) सिधाई, सादगी, सरलता, मूर्खता, बेसमझी, नादानी । भोलाभाला - वि० ौ० दे० ( हि० भोला + (दे०) Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 2 भोडर, भोडल - संज्ञा, पु० (दे० ) अभ्रक, अबरक, बुक्का, अभ्रक का चूर्ण | भांना*- अ० क्रि० ( हि० भानना) भीगना भीनना, संचरित होना, लीन या लिप्त होना, आसक्त होना । भोपा संज्ञा, पु० दे० ( अन् भों) भोंपू, एक तरह की तुरही, मूर्ख । भोर—संज्ञा, पु० दे० (सं० निम्नवरी) सबेरा तड़का, प्रातःकाल । "सगर रात जो सायकै जागत है बड़ भोर- नीतियां -संज्ञा, ५० दे० (सं० भ्रम ) भ्रम, धोखा । वि० स्तंभित, चकित । -- वे० दे० ( हि० भोला ) सीधा, सरल, भोला भोरा - संज्ञा, पु० ( हि० मोर ) सबेरा, तड़का, प्रातः काल । - वि० सीधा, भोला । स्त्री० - भोरो । सफल सभा की मति भइ भोरी " छोड़त केतकी, तीखे कंटक जान भोराई†——संज्ञा, त्री० दे० ( हि० भोला ) भौंरा - संज्ञा, पु० दे० (सं० भ्रमर) भोलापन, सिधाई । भोराना* - स० क्रि० दे० ( हि० भोर + आना - प्रत्य० ) बहकाना, अभ में डालना, भुलावा देना । अ० क्रि० (दे०) धोखे में - रामा० । 10 माला न ० ) सरल चित्त का, सीधा-सादा । भौं - संज्ञा, खो० द० (सं० भू) भौंह, भृकुटी । भौंकना- अ० क्रि० ( अनु० मों भौं से) भी भी शब्द करना, कुत्ते का बोलना, भुकना, व्यर्थ बहुत बकवाद करना । मौचाला -- संज्ञा, पु० दे० (सं० भूचाल ) भूडोल, भूकंप । भौंड़ा - वि० (दे०) भोड़ा, कुरूप, भद्दा । मौतवा-संज्ञा, पु० दे० ( हि० श्रमना घूमना ) एक काले रंग का बरसाती कीड़ा जो पानी के ऊपर ही घूमा करता है । बाहु के नीचे गिलटी निकलने का एक रोग, तेली का बैल | = और संज्ञा, पु० द० (सं० भ्रमर ) भौंरा, श्रावर्त पानी के धार का चक्कर, सुरकी घोड़ा. नाँद ! ' जानि चहुँ दिशि प्रति भोरे उ केवट है मतवार " गिर० । ● और न "" For Private and Personal Use Only वृ० । एक काला मोटा ढांग पतिंगा, भ्रमर, लि, भँवर, सारंग, बड़ी मधुमक्खी, डंगर ( प्रान्ती० ) डोरी से नचाने का एक खिलौना, काली या लाल भिड़, मूले में रम्ती बाँधने की लकड़ी । "भौंरा ये दिन कठिन हैं. दुख-सुख सही शरीर " - नीति । खो० - भौंरंरी | संज्ञा, पु० दे० ( सं० भ्रमणा ) घर के नीचे का भाग तरवर, तहखाना, बत्ती, खौं खत्ता, या अन्न रखने का कुएँ सा गहरा गढ़ा । Page #1356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir PRE भौंराना-भौरियाना भ्रम भौंराना-भौरियाना--क्रि० स० दे० ( सं० । भौतिक विद्या--संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) भ्रमणा ) घुमाना, प्रदक्षिण ( परिक्रमा) भूतों के बुलाने या हटाने की विद्या, सांसा. कराना, व्याह की भाँवर दिलाना, व्याहना। रिक पदार्थों के ज्ञान का शास्त्र, भौतिक कि० अ० दे० घूमना, फिरना। पदार्थ-विज्ञान। भौरी-संज्ञा, स्री. द. (सं० भ्रमगा ) भौरे भौतिकसृष्टि-ज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) साँसाकी स्त्री, भाँवर, व्याह में वर-कन्या की रिक उपज, जैसे ८ प्रकार की देवयोनि, पाँच अग्नि-परिक्रमा, पानी का चक्कर, आवर्त प्रकार की तिर्यग योनि और मनुष्य योनि, पशुओं के शरीर में बालों का घुमाय, जो इन सब का नरम ह या समष्टि । स्थान-विचार से गुण-दोप-सूचक है, वाटी मीन*---संज्ञा. पु. दे० (सं० भवन ) घर, रोटी, अंगा कड़ी, अंकारी। | मकान । “मीन तेरे आई री"। "प्रीतम के भौंह-संज्ञा, स्त्री० दे० ( सं० भ्रू) भी, भृकुटी, गौन ते सहात है न भौन"-- स्फु० । आँख के ऊपर की हड्डी पर के बाल। माना*.अ. क्रि० दे० (सं० भ्रमणा) मुहा०-भौंह चढ़ाना, नरेरना या तानना धूमना, भवना (ग्रा.)। ----कुपित या कुद्ध होना, रुष्ट होना, त्योरी भीम -- वि० (२०) भूमि का, भुमि-संबंधी, चदाना, बिगड़ना। मोह जोहना-खुशामद भूमि से उत्पन्न, भू-विकार । संज्ञा, पु० कुज, करना। भौ*-संज्ञा, पु० द० ( मं० भव ) जगत्, मंगल । भौम्पमाधिः-भा० द० । “ परै मूर्ति में भौम पत्नी विनासै"- स्फुट । संसार । संज्ञा, पु० दे० सं० भय) डर, भय । मौगिया--संज्ञा, पु० दे० ( हि० भोग ! भौमवार-----संढा, पु. यौ० (सं०) मंगलवार। इया-प्रत्य० ) संसार के सुख भोगने वाला। मीरिक-- संज्ञ, ५ . (सं०) ज़मीदार । वि. भौगोलिक --- वि० (सं.) भुगोल-संबंधी। भूमि-संबंधी, भूमिका। भौचक --वि० दे० यौ० (हि. भय : चकित) भौर --- संज्ञा, ४० दे० ( सं० भ्रमर ) भौंरा, घोड़ों का एक भेद, भंवर, फूस की भाग । अचंभित, चकराया या चकपकाया हुश्रा, हकका बक्का, स्तंभित । भौलिया--- संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० बहुला) भौज-मोजाई ...-संज्ञा, स्त्री. द० । सं० भ्रातृ, एक छायादार ना! जाया ) भाभी, भावज भाजी, भाई की स्त्री, भौसा, मउसा--संज्ञा, पु० (दे०) भीड़भाड़, भ्रातृ-वधु। जनसमूह, गड़बड़, शोरगुल, गड़बड़ी। भौजाल प्रज्ञा, पु० द. यो. (सं० भवजाल) भ्रंश-संज्ञा, पु. ( सं० ) नीचे गिरना, ध्वंस, झमेला, झंझट, भवजाल, माँसारिक बंधन, नाश, पतन, भागना । वि० नष्ट-भ्रष्ट । जन्म मरण का झगड़ा। वि. भौजानी। भ्रकुटि---- संज्ञा, स्त्री. ( सं०) भृकुटी, भौंह । भौज्य-संज्ञा, पु० (सं० ) प्रजा के पालन । "भ्रकुटि-विलापन चावत ताहो"-- रामा० । का विचार छोड़ कर जो राज्य केवल सुख | भ्रम -संज्ञा, पु. ( सं० ) उलटा-पलटा भोग के लिये किया जावे। समझना, मियाज्ञान, भ्रांति, धोखा, संदेह, भौतिक -- वि० (सं० ) पंच भूत-संबंधी संशय । “ तेहि भ्रम ते नहिं मारेउँ सोऊ" पाँच महाभूतों से बना हुआ, पार्थिव, ----- रामा० । मस्तिष्क-विकार जिससे चक्कर भूत योनि का, सांपारिक, शारीरिक, भाते हैं (रोग), मूछा, भ्रमण । “पैत्तिके ऐहिक दुख । " दैहिक दैविक भौतिक भ्रमरेव च "-:मा० नि । संज्ञा, पु० दे० तापा"- रामा (सं० सम्भ्रम प्रतिष्ठा, सम्मान । भा० श० को०-१६६ For Private and Personal Use Only Page #1357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भ्रमण भ्वहरना भ्रमण -संज्ञा, पु. (सं०) घूमना-फिरना, भ्रांति या भ्रम वाला, व्याकुल, बेकल, फेरी, विचरण, यात्रा, आना-जाना, चक्कर। घुमाया हुअा, उन्मत्त. भुला हुआ । वि० भ्रमणीय। भ्रांतापति--संज्ञा, हो. यौ० (सं० ) एक भ्रमना-अ० कि० दे० (सं० भ्रमण ) घूमना, ० ( स० भ्रमण ) धूमना, अर्थालंकार जिसमें भ्रांति के मिटाने के हेतु फिरना। प्रे० रूप भ्रमवाना, स० रूप सत्य वस्तु का वर्णन हो । अ० पी० )। भ्रमाना। अ० क्रि० ( सं भ्राम ) धोखा भ्रांति--संज्ञा, स्त्री० (५०) धोखा, भ्रम, संदेह, खाना, भूलना, भूल जाना, भटकना, भरमना भ्रमण, उन्माद, पागलपन, चक्कर, भँवरी, (दे०) भूल करना। घुमेर, मोह, भूल-चूक, प्रमाद, एक अर्थाभ्रममूलक-वि• यौ० (०) जो भ्रम से लंकार जिसमें दो वस्तुओं के साम्य के कारण उत्पन्न हुआ हो, भ्रमात्मक । एक को भ्रम से दूसगी वस्तु के समझने का भ्रमर-संज्ञा, पु. ( सं० । भौंरा. भँवर । कथन हो। (अ० पी० ), भ्रांतिमान् । " गुंजत भ्रमर-पज मधु-माने ----रामा० । यौ०-भ्रमर गुफा-हृदय के भीतर का भ्राजना*--अ० कि० द० (सं० भ्राजन) शोभा एक स्थान (योग०)। उद्धव का एक नाम । पाना, सुशोभित होना। यौ०-भ्रमरगीत-वह गीत-काव्य जिसमें भ्राजमान* ---वि० (सं०) शोभायमान, गोपियों ने उद्धव को उलाहना दिया है। सुशोभित। दोहा का एक भेद, छप्पय का ६३ वाँ भेद | भ्रात, भ्राता* ----संज्ञा, पु० (सं० भ्रातृ) भाई। (पि० ) दो पद रोला और एक दोहे से भ्रातृत्व--संज्ञा, पु. (सं०) भाईपन, । मिला छंद जिसके साथ अंत में १० मात्राओं भ्रातृद्वितीया-संज्ञा, स्त्री० यौ० ( सं० ) की एक टेक सी रहती है। यमद्वितीया, कार्तिक शुक्ल द्वितीया, भाईभ्रमर-विलासिता-रज्ञा, प्रो. ( सं०, एक दूज, भयाद्वीज, भइयादुइज (दे०) । छंद ( पि०)। भ्रातृपुत्र--संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) भतीजा, भ्रमरावनी-संज्ञा स्त्री० यो सं० ) भौंरों भ्रातृज। का समूह या पंक्ति, मनहरण छंद, नलिनी भ्रातृभाव- - संज्ञा, पु० यो० (सं० ) भाई(पि.)। चारा, भ्रातृ-स्नेह, भ्रातृत्व, भाईपन । भ्रमवात-संज्ञा, पु० यौ० ( ०.) सदा घमने भ्रामक-वि० (सं० ) भ्रम में डालने वाला, वाला, आकाश का वायु-मंडल ।। चकराने, बहकाने या घुमाने वाला। भ्रमात्मक-वि० यौ० ( सं.. ) संदेह का मूल भ्रामर-संज्ञा, पु० (सं०) शहद, मधु, दोहा कारण, संदिग्ध. संदेह-जनक, जिससे या का द्वितीय प्रकार । वि०-भ्रमर-संबन्धी । जिसके संबन्ध में भ्रम होता हो, भ्रर-जनक। भ्र-संज्ञा, स्त्री. (सं.) भौं, भौंह । भ्रमी--वि० ( सं० भ्रमिण ) जिसे भ्रम हुआ ण-सशा, पु० ( स० ) गम का बच्चा । हो, भौचक, चकित । भ्रूणहत्या-संज्ञा, स्त्री० यो० ( सं० ) गर्भ के भ्रष्ट..... वि० ( सं० ) पतित, खराब, कुमार्गी, बच्चे को मार डालना। बहुत ही बिगड़ा हुश्रा, दूपित, बुरा। भ्रूभंग---संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) भौहें टेढ़ी भ्रष्टा-संज्ञा, स्त्री. (सं०) छिनाल, कुलटा। करना, त्योरी चढ़ाना, क्रोध करना । संज्ञा, भ्रष्टाचार-वि० यौ० (सं० ) बुरा व्यवहार । स्त्री-भ्रभंगिमा । भ्रांत-संज्ञा, पु० (सं०) नलवार के ३२ वहरना* --अ० कि० दे० (हि. भय + हाथों में से एक हाथ । नि० (स०) विकल, हरना-प्रत्य०) भयभीत होना, डरना । For Private and Personal Use Only Page #1358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra 지 www.kobatirth.org १३४७ म - संस्कृत और हिंदी की वर्णमाला के पवर्ग का पाँचवाँ वर्ण या अक्षर इसका उच्चारणस्थान थोष्ठ और नासिका है। जमङणनानाम् नासिकाच' पा०| संज्ञा, पु० (सं० मधुसूदन, चन्द्रमा, यम, शिव, ब्रह्मा, विष्णु, ." कृष्ण । -रामा० । मँगता - संज्ञा, पु० दे० ( दि० माँगना + ता - प्रत्य० ) याचक, भिखारी, franङ्गा, भिक्षुक | "सब जाति कुजाति भये मँगता " ( हि० माँगना + ई किसी से इस वादे मंगन - संज्ञा, ५० दे० (हि० माँगन) भिखारी, fear, मंगा । " मंगन लहहिं न जिनके नाहीं " - रामा० । मँगनी - संज्ञा, खो० दे० - प्रत्य० ) वह वस्तु जो पर माँग ली जावे कि कुछ दिन पीछे उसे लौटा दी जावेगी, इस प्रकार माँगने का भाव, व्याह पक्का होने की एक रीति । मंगल - संज्ञा, पु० (सं० ) इच्छा या मनोरथ का पूर्ण होना, अभीष्ट सिद्धि, कुशल, कल्याण भलाई, सूर्य से १४. १५,००,००० मील और पृथ्वी से पहिले पड़ने वाला सौर तूर जगत का एक ग्रह, भौम, शुभ कार्य, विवाहादि । काज विचारा' - रामा० कुज, मंगलवार " जग- मंगल भल म मंग- पंज्ञा, स्त्रो० दे० हि० मांग ) स्त्रियों के | मंगला- संज्ञा, श्री० (सं० ) पार्वती जी । *. सिर की माँग, याचना | "श्रायुध सघन सिव-मंगला समेत सर्व, पर्वत उठाय गति कीन्ही है कमल को राम० । मंगलाचरण -- ज्ञा, पु० यौ० (सं० ) वे श्लोक या वेद मंत्र जो मंगलकामना से प्रत्येक शुभ कार्य के प्रारंभ में पढ़े जाते है, मंगल पाठ : काव्य के प्रारम्भ में देवस्तुति यादि के छद इसके ३ रूप हैं-१याशीर्वादात्मक देव नमस्कार या स्तवनात्मक, ३- वस्तु निर्देशात्मक - "याशी मस्क्रिया वस्तुनिर्देशोवा पे तन्मुखम् मंगलामुखी - वा, खी० यौ० (सं० ) वेश्या, पतुरिया, रंडी । मंगली - वि० (सं० 1 मंगल कलश (घट) - रुज्ञा, पु० यौ० (सं०) व्याह यादि के समय देव- पूजा के निमित्त स्थापित किया गया जल-पूर्ण घड़ा । “ मंगल कलश विचित्र सँवारे " रामा० मंगल कामना - संज्ञा, स्रो० यौ० (सं० ) कल्याण की इच्छा | मंगलवार - संज्ञा, पु० यौ (सं० ) सोम के बाद और बुधवार से पूर्व का दिन, भौमवार । ( Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मंगलसूत्र - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) देव प्रसाद के रूप में बाँधा गया तागा, रक्षा-बंधन | मंगल स्नान संज्ञा, पु० यौ० (सं०) कल्याण की इच्छा से होने वाला स्नान, मंगल मंच मंचक "" असमान (दे०) | राम कीन मंगलश्रस्नाना" - - रामा० । う मंगल + ई - प्रत्य० ) वह पुरुष या स्त्री जिसके जन्म-पत्र में केन्द्र, चौथे, काठ और बारहवें स्थान में मंगल ग्रह पड़ा हो, यह श्रशुभ योग है, (ज्यो० ) । मँगवाना - स० क्रि० ( हि० मांगना ) माँगना का प्रेरणार्थक रुप | मंगाना स० किंव करता, माँगने का प्रे० रूप । मंगेतरा - वि० ३० ( हि० मंगनी + एतरप्रत्य० ) वह व्यक्ति जिसकी मँगनी किसी कन्या के साथ हो चुकी हो । मंगोल -- संज्ञा, १० ( मंगोलिया देश से ) तातार, चीन, जापानादि एशिया के पूर्वीय देशों की एक जाति, मंगोजिया के निवासी । मंत्र-मंत्रक -संज्ञा, पु० (सं०) खाट, खटिया, मचिया, पोढ़ा, ऊँचा मंडप, कुरसी । "सब मंचन तें मंच इक, सुन्दर विशद For Private and Personal Use Only हि० माँगना ) मँगनी Page #1359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir | माँड़ । मंजन १३४८ मँडरना विशाल"-रामा० । यौ० रंगमंच-नाटकादि मंजर - वि० (अ०) स्वीकृत, स्वीकार । संज्ञा, के खेलने का ऊँचा स्थान । स्त्री० मंजरी। मंजन-संज्ञा, पु० ( सं० मज्जा ) दाँत उजले मंजरी-संज्ञा, खं० ( अ० मंजूर । ई-- करने या माँजने का चूर्ण, स्नान, मजन । प्रत्य० ) स्वीकृति, मानने का भाव । "मंजन करि सर सखिन समेता"-रामा०। मंजूषा----संज्ञा, स्त्री० (सं०, पिटारी, संदूक, मॅजना-अ. क्रि० दे० ( हि० मांजना) पिंजड़ा डिब्बा । माँजा जाना, अभ्यास या मश्क होना, संभा-- वि० दे० (सं० मध्य ) बीचों सफ होना, निखरना । प्रे० रूप मँजाना, बीच का । संज्ञा, पु. द० ( सं० मंच ) बाट, मजवाना। पलंग : संज्ञा, पु० हे. (माझा) पेड़ी, बीव मंजरी-संज्ञा, स्त्री० (सं० ) फूलों की बाल, का भाग, पतंग की डोरी का कलप । बेल, लता, कोंपल, नया कल्ला, श्राम की मार, मभारा-क्रि० वि० दे० (सं० मध्य) बौर। बीच में। मंजार, मँजार-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० मझियारी-वि० दे० (सं० मध्य) बीच का। मार्जार ) बिल्ली, सिंह न चहा हनि सक, मंड-- संज्ञा, पु. (सं०) भात का पानी, मारै तोहि मँजार"--नीति.।। मंजिष्ठ, मंजिष्ठा-संज्ञा, स्त्री० (सं०) मजीठ, मंडन---संज्ञा, पु० सं०) सँवारना, सजाना, मैंजीठ । “मदारोध्र विल्वाब्द मंजीष्ट, शोभा देना, शोभिन होना, प्रमाणों के द्वारा वाला"-लो। अपने पन की पुष्टि करना । (वि.संडनीय, मंज़िल-संज्ञा, स्त्री० (अ०) सरॉय, पड़ाव, र) (विलो० -- बंडन)। "खंडन मंडन घर का खंड, यात्रा में ठहरने पा उतरने का की बातें सब करते सिखी लिखाई" -- स्थान । “वही मंज़िल है जहाँ ठहरै हयाते । मिश्र बंधु । एक प्रसिद्ध बौद्ध विद्वान, गुज़राँ"-जौक । मंडन मिश्र, जिन्हें शास्त्रार्थ में श्रीशंकराचार्य मंजौर-संज्ञा, पु० (सं०) मंजीरा (दे०) ने पराजित कर बौद्ध धर्म को हराया था। घुघुरू, पायजेब, नूपुर, एक बजा । " बाजत मंडना*... स० कि. ( सं० मंडन ) सजाना, ताल मृदंग झाँझ डफ मंजीरा सहनाई" भपित करना, युक्ति से अपने पक्ष को पुष्ट करना, भरना। "जिन रघुकुल मंडेउ हर-धनु मंजु-वि० (सं०) सुन्दर, मनोहर, साफ । खंडेउ पीय स्वयंवर माँझ वरी"-राम । संज्ञा, स्रो०-मंजुता । “ मंजु विलोचन स० क्रि० द० ( सं० मर्दन ) दलित या नष्ट मोचति वारी"---रामा० ।। करना। मंजुघोष-संज्ञा, पु. यौ० (सं०) एक बौद्ध मंडप -- संज्ञा, पु० (०) टिकने का स्थान, श्राचार्य, मंजुश्री, सुन्दर शब्द ।। विश्राम-स्थान, बारहदरी, यजस्थल, देवमंजुल-वि० (सं०) सुन्दा, मनहरण, मंदिर, शामियाना, दोवा, उत्सवादि मनोहर । “मंजुल मंगल-मल वाम अंग के लिये बाँय श्रादि से बनाया गया स्थान । फरकन लगे"--- रामा० । संज्ञा, स्रो०-- "जेहि मंडप दुलहिन वैदेही". रामा० । मंजुलता। मंडर--संज्ञा, पु० दे० (सं० मंडल) गोला। मंजुशी-संज्ञा, पु. (सं०) मंजुघोष । संज्ञा, मंडरना-अ. क्रि० दे० (सं० मंडल) चारों स्त्री० यौ० (सं०) मनोहर कान्ति । ___ओर घूमना, मसराना, चारों घोर से घेर For Private and Personal Use Only Page #1360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - - मँडराना १३४६ मंत्रित्व लेना, मंडल बाँधकर छाजाना, किसी मंडूक-संज्ञा, पु० (सं०) मेठक, एक ऋषि, वस्तु के चारों ओर चक्कर लगाकर उड़ना, दोहा छंद का ५ वाँ प्रकार । यौ०-कपप्रासपास घूमना परिक्रमा करना मंडक-संकीर्ण बुद्धि वाला। "मैं कहूँ मँडराना-अ. वि. द. (सं० मंडल ) मंडूक कह झिल्ली झनकार " -- हरि० ।। किसी पदार्थ के चारों ओर घूमते हुये उड़ना, मंडूर - सांझा, पु० (सं०) सिंघान । प्रान्ती०) परिक्रमा करना, किसी वस्तु या व्यक्ति के लोहे का कीट. गलाये हुये लोहे का मैल | भासपास ही घूम-फिर कर रहना। यौ० - संडर रम ( कोटी ) लौह-कीट से मंडल-संज्ञा, पु. (०) परिधि, वृत, गोला, बना एक रस | " नासत है मंडरास, जैसे क्षितिज, सूर्य-चंद्रमा के चारों ओर गोल । तन को सोथ-वि० वै०।। बादल का घेरा, परिवेष । "रविमंडल देवत मंत*-ज्ञा, पु० दे० ( सं० मंत्र ) सलाह । लघु लागा' - रामा० । समूह, ऋग्वेद, यौ० ---तं मंत---प्रयत्न, उद्योग, मंत्र। का खंड, वारह राज्यों का समूह, समाज, मंतव्य - संज्ञा, पु० (सं०) मत. विचार, मानने ब्रहों के घूमने की कना। योग्य। मंडलाकार-वि० यौ० (सं०) गोल । मंत्र-संज्ञा, पु० (सं०) रहस्यात्मक, गोपनीय मँडलाना--प्र० कि० दे० ( हि० मंडराना) या छिपी बात, सलाह, राय, परामर्श, मँडराना, चारों ओर घूमते हुये उड़ना, वेद की ऋचा, वेदों के गायत्री आदि मँडराना । “नहम्त चपोराप मंडला रही देवाधिसाधन-वाक्य जिनसे यज्ञादि का है'- हाली। विधान हो, वेद-मंत्रों का संग्रह भाग संहिता, मंडली--संज्ञा, स्त्री० (सं०) सभा. समाज, । वे शब्द या वाक्य जिनके जप से देवता समूह । संज्ञा, पु. ( सं० मंडलिन्। वट का प्रसन्न हो अभीष्ट फल देते हैं ( तंत्र.), पेड़, बरगद. बिल्ली सूर्य । " खल-मडली मंतर, तर (दे०)। "ताको जोग नाहि बसहु दिन-राती"--समा० । जोग-मंतर तिहारे मैं ".--ऊ. श० । यौ० मंडलोक-संज्ञा, पु० दे० ( सं० मांडलीक ) मंत्र-यंत्र या यंत्रमंत्र-जादू-टोना। बारह राजाओं के मंडल का अधिपति मंत्रकार-संज्ञा, पु० (सं०) मंत्र रचने वाला मंडलेश्वर--संज्ञा. पु. यौ० (सं०) मांडलीक, ऋषि । मंडलीक, मंडलेश। मंत्रणा -- संज्ञा, स्त्री. (सं०) राय, सलाह, मँड़वा--संज्ञा, पु० दे० ( सं० मंडप ) मंडप । परामर्श, मशविरा, मंतव्य, कई व्यक्तियों के मँडारा -- संज्ञा, पु. द. (सं० मंडल ) द्वारा निर्णित मत या विचार। डलिया, झाबा, टोकरा । मंत्रविद्या--- संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) तंत्र-विद्या, मंडित-- वि० (सं०) सजाया हुश्रा, शोभित, मंत्र-शास्त्र भोज-विद्या, तंत्र । भरा या छाया हुआ, आभूषित, युक्ति से मंत्रसंहिता-संज्ञा. स्त्री० यौ० (सं०) वेदों का प्रतिपादित । "श्री कमला-कुच कुंकुम वह भाग "जेसमें मंत्रों का संग्रह है। मंडित पंडित देव प्रदेव निहारयो, .- मंत्रित-वि० सं०) अभिमंत्रित, मंत्र-द्वारा राम। संस्कृत। मंडी- संज्ञा, सी० दे० ( सं० मंडप ) बड़ी मंत्रिता-ज्ञा, स्त्री० (सं०) मंत्रित्व, मंत्री का बाज़ार । कार्य या पद। मँडुआ-संज्ञा, प. (दे०) एक प्रकार का मंत्रित्व-ज्ञा, पु० (सं०) मंत्रिता, मंत्रीपन, तुच्छ बनान। मंत्री का पद या कार्य । For Private and Personal Use Only Page #1361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मंत्री - १३५० मंसा-मनसा मंत्री--संज्ञा, पु. ( सं० मंत्रिन् ) सलाह या मंदाकिनी-संज्ञा, स्रो० (सं० ) स्वर्गगंगा, परामर्श देने वाला, राज्य कर्मों में राय | __ अाकाश-गंगा,चित्रकूट के पास की पयस्विनी देने वाला,सचिव, अमात्य : जामवंत "मंत्री नदी. १२ वर्णों का एक वृत्त ( पि०)। अति बूढ़ा ।" रामा० " मंदाकिनी नदी घम नामा” रामा० । मंथ-संज्ञा, पु. (सं०) बिलोना, मथना, मंदाकांता-संज्ञा, श्री. (सं०) १७ वर्णों का हिलाना, ध्वस्त करना, मलना, मारना, एक वर्णिक छंद (वि०) १० और ८ वर्णो पर बिलोड़ना, मथानी। यति के साथ एक नगण, दो भगण, दो मंथन-संज्ञा, पु० (सं०) मथना, बिलोना, तगण और दो गुरु से १८ वर्षों का छंद । अति खोजना, तत्वान्वेषण पता लगाना, मंदाग्नि---संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं० ) भोजन मथानी । (वि० संथनीय, मंथिन)। । न पचने का रोग, अपच, बदहज़मी। मंथर-संज्ञा, पु० (सं०) मथानी, मंथ ज्वर । मंदार ----संज्ञा, पु० (सं०) स्वर्ग का एक देववि० -- महर, सुस्त, मंद, जड़, मूर्ख, भारी, क्ष, मदार, (दे०) प्राक, मंदराचल, "बैकुंठ, नीच । यौ० मंथर ग्रह-शाने । हाथी । “स्फुररपुंदोदार मंदार दाम --- मंथरा--संज्ञा, स्त्री० (सं०) कैकेयी की दासी -~-लो। जिसके बहकाने से कैकेयी ने राम-बनवास, कराया था। "नाम मंथरा मंद-मति, चेरि मंदारमाला- संज्ञा, स्त्री. (सं०) २२ वर्गों का एक वर्णिक छंद ( पि०), कैकयी केरि".-रामा०।। मंथान--संज्ञा, पु० (सं०) एक वर्णिक छंद मंदिर-मंदिल-संज्ञ', पु. (सं०) मकान, ___घर, देवालय । “मदिर मंदिर प्रतिकर सोधा" (पि०) मथना। मंद-वि० (सं०) सुस्त, धीमा. शिथिल, ___ - रामा० । भालपी, मूर्ख, दुष्ट. कुबुद्धि । 'मंद मंदी - संज्ञा, स्त्री. ( हि० मंद ) किसी वस्तु महीपन कर अभिमान' र मा० । संज्ञा, का भाव गिर जाना या उतरना, सस्ती स्त्री०-मंदता। (विलो०-महँगी)। मंदभाग्य-वि० यौ० (सं०) अभाग्य, दुर्भाग्य मंदोदरी- संज्ञा, स्त्री. (सं०) मय दानव की मंदर-संज्ञा, पु० (सं०) एक पर्वत जिससे कन्या और रावन की पटरानी, भँदादरि, देवताओं ने समुद्र मथा था (पुरा०), स्वर्ग, मंदाव, मंदोबरि (ग्रा.)। मंदार, दर्पण, एक वर्णिक छंद (पिं०)। मंद्र--संज्ञा, पु० (सं०) स्वरों के ३ भेदों में से वि०-धीमा, मंद, सुस्त । " बाल मराल एक गहरी ध्वनि (संगी०)। वि० सुन्दर, कि मंदर लेही '--रामा०। मनोरम, प्रसन्न, धीमा, गंभीर, (शब्दादि )। मंदरगिरि-संज्ञा, पु० यौ० (सं.) मंदराचल। मंसब---संज्ञा, पु. ( अ०) स्थान, पद, पदवी, मँदरा--वि० दे० ( सं० मंदर ) नाटा, बावन, . काम, अधिकार, कर्तव्य ।। ठिनगिना । मंसबदार-संज्ञा, पु. (अ.) मुगलों के मंदरा---संज्ञा, पु० दे० (सं० मंडल ) एक राज्य में एक पद । संज्ञा, स्त्री० मंदबदारी। बाजा। मंदराचल- संज्ञा, पु० यौ० (सं०) मंदर मंशा-संज्ञा, स्त्री. (अ. भि० सं० मनस) पर्वत अभिरुचि, इच्छा, चाह, श्राशय, मतलब, मंदा - वि० दे० ( सं० मंद ) सुस्त, धीम, अभिप्राय, प्रयोजन, मंसूबा ।। थालपी, कम दाम का, साता, निकृष्ट, मंसा-मनमा--संज्ञा, 'नो० दे० ( अ० मंशा ) बुरा, माँदा, थका, शिथिल । स्त्री० मंदी। अभिरुचि, इच्छा, मतलब, प्राशय । For Private and Personal Use Only Page #1362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मंसूख १३५१ मकोय " मनमतंग गैयर हनै. मंसा भई सचान" मकर, छल, फरेब, धोखा, कपट, नखरा । -कबी०। " एक बार तहँ मकर नहाये "-रामा० । मंसूख-वि० ( अ० ) रद, काटा या खारिज मकरतार-ज्ञा, पु० दे० ( हि० मक्लैश ) किया हुआ। संज्ञा, स्त्री-मंसूवी । बादले का तार । मंसूवा-संज्ञा, पु. ( अ०) मनसूया (दे०) मकरध्वज-संज्ञा, पु. यौ० (सं०) मदन, उपाय. ढंग. इरादा, विचार, ग्रायोजन। कामदेव, रससिंदूर, चन्द्रोदय रस, हनुमान मंसूर - संज्ञा, पु. ( अ.) एक मूफी साधु ।। जी के स्वेद-विंदु-पान से एक मछली से मई-सर्व द० ( हि० में ) मैं। उत्पन्न पुत्र। मइमंत--वि० द० ( सं. मदमत्त ) मदोन्मत्त, मकर-संक्रांत-संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) वह मतवाला, घमंडी, अहंकारी, अभिमानी समय जब सूर्य मकर राशि में प्रविष्ठ मई-प्रत्य० (दे०) मयी (सं०) वाली । संज्ञा, होता है ! स्त्री० दे० ( अ० में ) अप्रैल के बाद और मकरा-संज्ञा पु० दे० ( सं० वरक ) मडुवा जून के पूर्व का महीना। नामी एक तुन्छ अन्न । संज्ञा, पु. (हि. मकई-मकाई।--संज्ञा, स्री० (दे०) मक्का मकड़ा ) एक कीड़ा. बड़ी मकड़ी। नामक अन्न। मकराकृत --- वि० यौ० (सं०) मकर या मकड़ा-मकरा -- संज्ञा, ३० दे० (सं० मर्कटक) मछली के आकार का। " मकराकृत गोपाल बड़ी मकड़ी, नर मकड़ी. ( स्त्री० मकड़ी)। के, कुण्डल सोहत कान"--वि० । मकड़ी-संज्ञा, स्त्री० दे० ( सं० मर्कटक ) मकरी--संज्ञा स्त्री० (सं०) मगर की मादा, मकरी (१०) पाठ आँखों और पाठ पैरों (दे०) मकड़ी। वाला एक कीड़ा, मकड़ी, छोटा मकड़ा। मकान -- संज्ञा पु० (अ.) घर, गृह, वासमकतव--- संज्ञा, पु. ( अ०) पाठशाला, बच्चों स्थान | संज्ञा, स्त्री०-मकानियत। के पढ़ने का स्थान, मदरसा। " तिफ़ले मकंद,मकुंदा--संज्ञा, पु० दे० ( सं० मुकुंद) मकतब है अरसतू मेरे भागे"-जौक। मुकंदा (दे०) मुकंद, मुकंद, कृष्ण । मकदूर--संज्ञा, पु. ( अ०) शक्ति, सामर्थ्य, "श्रारि करी ननिवाल मकुन्द"-वृजवि० । वश, समाई, कावू, गुंजाइश । “ मकदूर मकु --- अव्य दे० (सं० म) बल्कि, चाहे, क्या हमैं कब तेरे वसकों की रकम का"-जोक। जाने, शायद, कदाचित् । गगन मगन मकु मकबरा--संज्ञा, पु. ( अ०) क़ब्रस्तान, मेघहि मिलई"---रामा० । मज़ार, रोज़ा, वह घर या स्थान जहाँ लाश म.ना--संज्ञा, पु० दे० सं० मनाक = हाथी) गड़ी हो । “ माबरों में जा के हम यह बिना दाँतों का हाथी, बिना मूछ का देखते हैं रोज़ रोज़" -सोज । मनुष्य । मकरंद-संज्ञा, पु. ( सं० ) फूलों का रस, मकुनी-मकून --संज्ञा, स्त्री० (दे०) बेसन पराग, फूल का केसर, राम, माधवी, मन्जरी, । की कचौरी, बेसनी रोटी, बेसनौटी। एक वर्णिक वृत्त (पि० । मकोई मकोय-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. मकर--संज्ञा, पु० (सं०) एक जलजंतु, मगर, मकोय ) जंगली मकोय, मकोइया (ग्रा०)। मेषादि १२ राशियों में से दसवीं राशि, मकोड़ा-संज्ञा, पु. ( हि० कीड़ा का अनु०) एक लग्न (ज्यो०) एक सेना-व्यूह, मछली, छोटा कीड़ा । यौ० कोड़ा-मकोड़ा। माघ का महीना, छप्पय का ३६वाँ भेद (पि०) मकोय - संज्ञा, स्त्री० दे० ( सं० काक माता ) मक (दे०) मकर-संक्राति । संज्ञा, पु० (फ़ा०) | लाल और काले दो तरह के छोटे मीठे फलों For Private and Personal Use Only Page #1363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मकोरना मगज का एक छोटा पौधा, उसका फल, झड़ीदार मख-संज्ञा, पु. (सं०) यज्ञ | " कौशिक जंगली पेड़ और उसका फल, "सभरी। मुनि-मख के रखवारे "-- रामा० । मकोरना8-स. क्रि० दे० ( हि० मरोड़ना) मखतून-संज्ञा, पु० द. (सं० महर्घतूल ) मरोड़ना, खुरीचना। काला रेशम । मका-- संज्ञा, पु. ( अ ) अरब देश का एक भखतूली-वि. द. (हि. मखतूल +ई प्रसिद्ध नगर ( मुसलमानों का तीर्थ )। -प्रत्य० ) काले रेशम का या उससे बना संज्ञा, पु० (दे०) मकाई थन, ज्वार।। हया। मक्कार --- वि० ( अ०) धूर्त, कपटी, छली, मग्बन*--संज्ञा, पु. द. ( सं० मंथल ) फरेबी, चालाक बहाने बाज़, ढोंगी। सज्ञा, मक्खन, माखन । स्त्री० मकाली। । मखनिया--- संज्ञा, पु० दे० ( हि० मक्खन मक्खन-संज्ञा, पु० दे० ( सं० मंथन ) नेन. । इया-प्रत्य० ) मन्खन बनाने या बेचने माखन (दे०) नवनीत, दूध के दही या मठे : वाला । वि० -मक्खन निकाला हुआ दूध । के मथने से प्राप्त सार भाग जिसे गरम मखमल-संज्ञा, स्त्री० (अ०) एक बढ़िया नरम करने से घी बनता है। " मातु मैं मक्खन रेशमी वस्त्र । वि० मखमली । मिसरी लैहों "-सूर० । मुहा०-कलेजे मखशाला - संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) यज्ञपर मखन मला जाना-शत्र की क्षति शाला यज्ञभवन । “देखन चले धनुष-मखसे प्रसन्नता होना। शाला 'रामा मक्खी ---संज्ञा, स्त्री० दे० ( १० मक्षिका ) मखाना--संज्ञा, पुर. दे० (हि. मक्खन ) मनिका, मानी, एक छोटा कीड़ा जो सर्वत्र कमल के भुने बीज, ताल मवाना (श्रौष । उड़ता मिलता है, मारखो, माछो (ग्रा.)। म मखी* - संज्ञा, सोर द. (सं० मक्षिका ) मुहा०----जीती सखी निगलना - मक्षिका, मवावी । माखी (दे०), वि० (सं०) समझ बूझकर ऐसा अनुचित या बुरा कार्य । यज्ञ-सम्बंधी। करना जिससे पीछे हानि हो। ( दूध की। भग्बोना-- संज्ञा, स्रो० (दे०) एक तरह का मक्खी की तरह निकाल याक देना- वर । किसी को किसी काम से एक दम या बिलकुल मखौल म बोला-संज्ञा, पु० (दे०) हमी. जुदा कर देना। दूध की मस्त्री होना -... टट्ठा, दिल्लगी मज़ाक ; मुहा०-मखोल व्यर्थ तथा दूर करने योग्य होना । " भामिनि उड़ाना-हंसी या उपहास करना। भयउ दूध की माखी'.---रामा० । मक्खी मग- संज्ञा, पु० दे० (सं० मार्ग) राह, मारना या उड़ाना-बेकार बैठा रहना, रास्ता, पथ । ' मोहि मग चलत न होइहि निकम्मा रहना । मधु मक्षिका, मुमाखो हारी"- राम० । संज्ञा. पु. (सं०) एक ( प्रान्ती० ) मधु-माखौ (दे०)। शाकद्वीपी ब्राह्मण, मगह या मगध देश । मक्खीचूस ~संज्ञा, पु० यौ० ( हि० ) बड़ा- मगज--संज्ञा, पु० दे० ( अ० मग्ज ) दिमाग़, भारी कंजूस, अत्यंत कृपण । लो.-"दाता मस्तिष्क, गूदा, भेजा, गिरी. मांगी। मुहा० रहे ते मर गये रह गये मक्खीचम"! ---गज़ खाना या चाटना-बक बक मतिका-संज्ञा, स्त्री० (सं०) मक्खी। लो. कर परेशान या तंग करना । मगज वाली (सं०) मक्षिका स्थाने मक्षिका--ज्यों का करना या पच्ची करना या पचानात्यों नकल करना। सिर खपाना, बहुत दिमाग़ लगाना ! For Private and Personal Use Only Page #1364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra मगज़पच्ची मगज़पच्ची - संज्ञा, स्त्री० यौ० ( हि० मगज़ + पचाना) किसी कान में दिमाग़ या मस्तिष्क बहुत खपाना, सिर खपाना, मगज मारना । मगज़ी - संज्ञा, स्त्री० (३०) वस्त्र के छोर पर लगी हुई गोट | मग संज्ञा, पु० (सं०) आठ वर्णिक गणों में से एक शुभ गए जिसमें तीनों वर्ण गुरु होते हैं, (जैसे - राजाकी sss ) इसका देवता भूमि है | मगन (दे० ) ( पि० ) 1 मगद-मगदल संज्ञा, पु० दे० ( सं० मुद्ग ) मूँग या उरद के थाटे का लड्डू | मगदा - वि० सं०मग + दा -- प्रत्य० ) राह या रास्ता दिखाने वाला, मार्ग-प्रदर्शक, मार्ग-दर्शक, पथ प्रदर्शक | www.kobatirth.org मगदूर* - संज्ञा, पु० दे० ( ० मक़दूर ) मक़दूर, सामर्थ्य, समाई, वश । मगध - संज्ञा, पु० (सं०) दक्षिणीय बिहार प्रान्त का पुराना नाम, कीकट, बंदीजन । मगधदेश में जरा संघ है महाबली जग " १३५३ ० संज्ञा, माग जानै" - कु० वि०ला० । वि० संज्ञा स्त्री० मागधी । मगन - वि० दे० (सं० मग्न ) डूबा या समाया हुआ, लीन, प्रसन्न, निमन । 'लगन लगाये तुम मगन बने रहो। " मगना श्र० कि० दे० ( सं० मग्न ) डूबना, लीन या तन्मय होना । वि० (दे० ) मग्ना (सं०) । मचलाहट । मा० श० को ० मगर - संज्ञा, पु० दे० ( सं० मकर ) घड़ियाल नाम का एक जल-जंतु, मछली | संज्ञा, पु० ( स० मग ) ब्रह्मा का अराकान प्रदेश जहाँ मग जाति के लोग रहते हैं । अव्य० परन्तु, पर, लेकिन, किन्तु । यौ० – मगर मस्त | मगरमन्त्र -- संज्ञा, ५० दे० यौ० (सं० मकर मरस्य ) वड़ियाल या मगर, बड़ी मछली । मगरा - वि० (दे० ) ढीठ, पृष्ठ निर्लज्ज, भिमानी, घमंडी | मगराई - संज्ञा, त्रो० (६०) ढिठाई, घटता, - १७० Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मघवा ढिठाई, मगरापन - संज्ञा, पु० (दे०) धृष्टता, मचलाई, अहंकार, घमण्ड | मगरी-मगुरी - संज्ञा स्त्री० दे० (सं० मकरी) मगर की मादा, मछली विशेष । मग़रूर - वि० ( ० ) अभिमानी, अहंकारी, घमण्डी, मगरूर (दे० ) । मुहा०-- मग़रूर का सरीवा - घमण्डी की बे इज्जती । 6. मगरूर देख देख के चल दिल में याद - स्कु० । " रख ·-- मगरूरी - पज्ञा, स्रो० ( अ० मग़रूर + ई०. प्रत्य० ) श्रभिमान, हंकार, घमण्ड, मगरूरी (३०) । "करे कोई लाख मग़रूरी उसी घर सब को जाना है "- - स्फु० । मगरेल मगरेला - संज्ञा, पु० (दे०) एक बीज विशेष, छप्पर का ऊपरी सिरा । भगसिर संज्ञा, पु० दे० ( सं० मार्गशीर्ष ) For Private and Personal Use Only गहन का महीना | संज्ञा, त्रो० दे० ( सं० मृगशिरा ) मृगशिरा नक्षत्र | मगह-मगहय मगहर संज्ञा, पु० दे० ( सं० मगध ) मगध देश | 16 नाय मरे मगहर की पाटी -कबी० । मगहपति - - संज्ञा. पु० दे० ( सं० मगधपति ) मगध देश का राजा, जरासंघ । मगही - वि० दे० (सं० मगह + ईप्रत्य० ) मगध देश का, मगध देश संबंधी, मगध देश में उत्पन्न, मबई ( ग्रा० ) । मग हैया - संज्ञा, पु० (दे०) मगध देश का वासी, मगध देश का । मगु-मग्गी - संज्ञा, पु० दे० (सं० मार्ग ) राह, पंथ, मार्ग, रास्ता, मग (दे० ) । "मोहिं मग चलत न होइहि हारी - रामा० । मग्ज संज्ञा, पु० ( ० ) दिमाग़, मस्तिष्क, भेजा, गूदा, मोंगी, गिरी । मग्न - वि० (सं० ) निमज्जित, डूबा हुआ, लिप्त, लीन तन्मय, हर्षित, प्रसन्न, खुश, नशे में मस्त, निमग्न, मगन (दे० ) । संज्ञा, खो० मता । मघन -- संज्ञा, पु० ( दे० ) सुगंध, महक । मघवा - संज्ञा, पु० (सं० मघवन् ) इन्द्र, Page #1365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मघवाप्रस्थ मच्छी देवराज । " इन्द्रो महत्वान्मघवा बिड़ौजा श्राना, जी का मिचलाना, के या वमन पाकशासनः "---इति अमर।। मालूम होना । स.. क्रि० (दे०) मचलना, मघवाप्रस्थ--संज्ञा, पु. (सं०) इन्द्रप्रस्थ, मचलने में लगाना । अ० कि० मचलना। दिल्ली, देहली। मचली. किचलो संज्ञा, श्री० दे० ( हि. मघा--रंज्ञा, स्त्रो० (सं० ) १७ नक्षत्रों में मचलना ) के, वमन, प्रोकाई, भितली. से ५ तारों वाला दवाँ नत्र (ज्यो०)। (प्रान्ती० )। " तोपें छूटे पस सेना में जैसे मवानखत मचान--संज्ञा, पु. १० ( सं० मंच ) शिकार घहराय"-पाल्हा० ___ खेलने या खेत की रखवाली के लिये बैठने मघोनी-संज्ञा, श्री. (सं० मघान् ) को बाँस श्रादि से बना ऊँचा स्थान, माचा, इन्द्राणी, शची. पुलोमजा। पु०-मबोना। मैंरा, मंच, उच्चापन ।। मघोना--संज्ञा, पु० दे० ( सं० मेघवर्ण) मच्चामच--अव्य० (दे०) लदालद। नीले रंग का वस्त्र। मचिया--संज्ञा, स्त्री० (हि. मंच+इया मचक-संज्ञा, स्त्री० (हि० मचकना) दबाव । । ---प्रत्य० ) पलँगड़ी, छोटो चारपाई. छोटी मचकना-स० कि० दे० ( अनु० मच मच ) कुरसी । " न्हाय धोय मचिया चदि बैठी किसी वस्तु को दवा कर मच मच शब्द ल दिहिन फटकार "-- स्फु०। निकालना । अ० क्रि० ऐसा दबाना जिपमें मच मचिदाई-मचिलाई.'---संज्ञा, स्त्री० दे० मच शब्द हो, झटका दे कर हिलाना। (हि. मचलना ) मचलाहट, मचलापन, स० रूप-मचकाना। श्रोकाई, मचलने का भाव। " कह करें मचना-० क्रि० ( अनु शोर-गुल मचलाई लेत नहि देति जो माता"-- स्फु० । चाले कार्य का प्रारंभ काना, फैल या मवैया--वि० दे० (हि. मचाना - ऐसाछा जाना। अ० क्रि० दे० (हि. मचकना) प्रत्य० ) मचाने वाला। मचकना । स० मचाना प्रे० मन्त्रवाना। मोना-स० कि० दे० ( हि० निचोड़ना ) मचमवाना---ग्र० कि० ( अनु० ) मच मच निचोदना, ऐंठना, गारना । शब्द करना. हिलना-डोलना, काँपना । मच्छ----संज्ञा, पु. दे. (सं० मत्प. प्रा० मच्छ ) संज्ञा, स्रो०-मचमचाहट । बड़ी मदली, दोहे का ५६ वाँ भेद (पि०) । मचलना-अ० क्रि० (अनु० श्राग्रह या हठ यो० कच्छ-मच्छ।। करना, ज़िद बाँधना, अड़ जाना । स० । मच्छगंधा-संज्ञा, स्त्री० दे० यौ० (सं० मचलाना प्रे० मचलवाना। (संज्ञा, स्त्री० ! मत्स्य ग्धा ) सत्यवती। मचली)। माड़ मच्छर-संज्ञा, पु० दे० (सं० मरक) मचला-मचली-वि० (हि० मचलना मि० एक छोटा बरसाती पतिंगा, जिपकी मादा पं० मचला ) मचलने वाला, ज़िदी, हठी काट कर डंक से खून चूसती है। बोलने के समय में जो जान कर चुप रहे। मच्छरता*----संज्ञा, खो० दे० (सं० मत्सरता) "हरि मचले लोटत हैं शाँगना ''---सूर० । द्वेप, ईर्पा, डाह मत्सर । " पंडित मच्छरता मचलाहा-वि० दे० (हि० मचला) हठीला, भरे, भूप भरे अभिमान "-दीन । घमडी, ढीठ। मच्छी---संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० मत्स्य) मछली। मचवा-संज्ञा, पु० (दे०) खाट का पाया। संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० मक्षिका ) मक्षिका, मचलाना---अ० क्रि० (अनु. ) श्रोकाई मक्खी, मादी। For Private and Personal Use Only Page #1366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मच्छोदरी मच्छोदरी*--संज्ञा, स्रो० दे० यौ० ( सं० मज़मन-संज्ञा, पु. (म०) प्रबंध निबंध, मत्स्योदरी ) राजा शांतनु की स्त्री सत्यवती, लेख, कथनीय या वर्णनीय विषय । व्यास जी की माता। मजल मेंजला-संज्ञा, स्त्री० दे० (५० मछरंगा-संज्ञा, पु० (दे०) राम चिड़िया, मंज़िल ) सरांय, पड़ाव । एक जल-पक्षी। मजलिस-ज्ञा, स्त्री. (अ.) समाज, मछली मछरी-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० मत्स्य) सभा, नाच-ग का स्थान. महफ़िल, जलसा। एक प्रसिद्ध जल जीव, मीन, मीन जैसी वि० मजलि पी। वस्तु। "प्रेम तो ऐसो कीजिये. जैसे मवरी मज़हब-संज्ञ, पु० (अ.) धार्मिक संप्रदाय, भीर "-स्फु० । मत, पंथ । वि० मजहबी। मछुआ-मछवा-मछुवाहा--संज्ञा, पु. द० मजा ---संज्ञा, पु. ( फा०) स्वाद, लज्जत, (हि. मकली। उमा-प्रत्य०) मछली - श्रानंद, सुख. हंपी. मजा (दे०)। वि. मारने या बेचने वाला, केवट, मल्लाह, : मजेदार । मुहा० --- मज़ा (चखना) मछवाहा (दे०)। चश्वाना----किये का दंड ( पाना ) देना । मजदूर-संज्ञा, पु० ( फा० ) मोटिया, कुली - मजा आ जाना--दिल्लगी का सामान बोझ ढोने या छोटे-मोटे काम करने वाला, होना, आनंद पाना । कारखाने थादि में मादूरी करने वाला, मजाक-संज्ञा, पु. (अ०) परिहास, हँसी, उप. मजूर (दे०)। स्रो० मजदग्नी, मजदरिन । । हास, ठट्ठा, दिल्लगी, मजाक (दे०)। मजदूरी-संज्ञा. सी० ( फा० ) मजदूर का । मजार-संज्ञा, पु. (अ.) समाधि, कब । काम-काज या पेशा, छोटे-मोटे काम करने । ___ "श्रा के वह हँस के यों मेरी मजार पर या बोझा यादि ढोने का इनाम या पुरस्कार, बोले" - दोन। उजरता, श्रम के बदले में मिला धन, मजार-मजारी · संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० परिश्रमिक, मजदूरी, मजरी (दे०)। माजार ) बिल्ली । “ मारति ताहि मजार" मजना*-अ० क्रि० दे० ( सं० मज्जन ) ---नीतिः । डूबना, निमज्जित होना, अनुरक्त होना । मजाल---संज्ञा, स्त्री० (अ०) शक्ति, बल, रगड़ कर साफ होना या चमकना, अभ्यस्त । सामर्थ्य । होना । मॅजना। मजन-संज्ञा, पु० ( अ०) पागल, बावला, मजिला --संज्ञ', स्त्री० दे० (अ० मंजिल ) सिडी, प्रेमी. पासक्त, 'अरब देश के एक पड़ाव, सराय, माइजल (दे०)। सरदार का पुत्र कैय जो लैला नाम की कन्या मजीठ--संज्ञा, त्री० दे० (सं० मंजिष्टा) पर पासक्त हो पागल हो गया था. एक एक लता, जिपली जड़ आदि से लाल रंग एक लता, जिसका ज पेड़, वेदमजनू । निकलता है। "फीको परैन बरु घटै ज्यों मजबूत-वि० ( अ ) पुट, सुदृढ़, पक्का ! मनीठ को रंग".--- स्फु०।। बलवान, सवल । संज्ञा, स्रो० मजवती। मजीठी-संज्ञा, ए. (हि. मजीठ-1-ईमजबूर--वि० (म.) लाचार, विवश। प्रय० ) लाल, मजीठ के रंग का । मजबूरो-संज्ञा, स्रो० (अ० मजबूर + ई-- मजीर-मजीरा--संज्ञा, पु० दे० (सं० मंजीर) प्रत्य० ) लाचारी, बेबशी, असमर्थता। बजाने के हेतु काँसे की छोटी कटोरियों की मजमा-संज्ञा, पु. ( अ० ) लोगों का जमाव, जोड़ी, मँजीरा (१०) । जमघट, भीड़भाद, जन-समूह । | मजूर * -~~संज्ञा, पु० दे० (सं० मयूर ) मोर, For Private and Personal Use Only Page #1367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मजेज मटरी संज्ञा, पु० (दे०) मज़दूर (फ़ा०)। संज्ञा, स्त्री० मटक-संज्ञा, स्त्री० ( सं० मट = चलना + क (दे०) मजुरी, (फा० मजदूरी )। ---प्रत्य०) चाल, गति, मटकने का भाव मजेज*-वि० दे० (फ़ा० मिाज) मिज़ाज़, यौ० चटक-मटक । अहंकार, घमंड। मटकना-अ० कि० द० (सं० मट-- चलना) मजेदार --वि० (फा०) स्वादिष्ट, श्रानंदप्रद । अंग हिलाते या मटकाते चलना, नखरे के मज्ज-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० मज्जा ) हड्डी साथ अंग चलाना या चलाने चलना, के भीतर का एक शारीरिक धातु या गृदा, हिलना, फिरना, विचलित होना, हटना। मज्जा । स. रूप-भटकाना, प्रे० रूप-मटकवाना)। मज्जन-संज्ञा, पु० (सं०) नहाना, स्नान । ___" मटकत श्रावै मंजु मोर को मकुट माथें " "मज्जन करि सर सखिन समेना'-रामा० । -~~~-रना। मज्जना-अ० कि० दे० ( सं० मज्जन ) स्नान मटकनि--- संज्ञा, स्त्री० दे० (हि० मटकना) करना, नहाना, गोता लगाना, डूबना।। नाचना, नृत्य, नखरा, मटक । मझ-मझ*-क्रि० वि० दे० (सं० मध्य ) मटका----संज्ञा, पु. द. (हि० मिट्टी-- का बीच, माँझ। ----प्रत्य० मिट्टी का बड़ाघड़ा, माट,मट । मझधार-संज्ञा, स्त्री० दे० यो० ( हि० मझ मटकी-मटकी-संहा, स्त्री० दे० (हि. --- मध्य ---धार = धारा ) नदी की बीच मटका) छोटा मटका । "दुधौ खायो दहियो धारा, किसी कार्य का मध्य या बीचोबीच । खायो मटकी डारी फोर''सूर० । संज्ञा, मझला-मझिला- वि० दे० ( सं० मध्य ) स्त्री० द० (हि० मटकाना ) मटकने या मटकाने बीच का । स्त्री० मझिली, फली। का भाव, मटक। मझाना-मभावना*--स० कि० दे० (सं० मटकीला---वि. ( हि० मटकना - ईलामध्य) प्रविष्ट करना, बीच में सना, धुसना। प्रत्य० ) मटकने या नखरे से अंग चलाने अ० कि० पैठना, प्रविष्ट होना। वाला। मझार*-कि० वि० दे० ( सं० मध्य) मटकाअल-मटकौवल-- संज्ञा, स्त्री० दे० बीच में, मॅभारा (दे०) ।। (हि. मटकना ) मटक, मटकने का भाव । मझियाना--अ० कि० दे० ( हि माझी ) | मटमैला-वि० यौ० दे० (हि० मिट्टी + मेला) नाव खेना, मल्लाही करना। अ० कि० दे० मिट्टी के रङ्ग का, धुलि या खाकी । स्रो० (सं० मध्य ---इयाना-प्रत्य. ) बीच में से मटमैली। होकर निकलना, मझाना । मटर--संज्ञा, पु० दे० ( सं० मधुर ) एक मोट मझियार-मझियारा*- वि० दे० ( सं० अन्न, इसकी लम्बी लम्बी छीमियों या मध्य ) बीच का। फलियों के भीतर गोल दाने होते हैं। मझोला-वि० दे० ( सं० मध्य ) मझला, मटरगश्त- संज्ञा, पु० यौ० दे० (हि० महर बीच या मध्य का, मध्यम डीलडौल का। -- मंद-1 फा० ... गश्त ) सैरसपाटा, टहलना, मझोली- संज्ञा, स्त्री० दे० ( हि० मझोला ) घूमना । संज्ञा, स्त्री० मटरगश्ती। एक तरह की बैलगाड़ी। टि. स्त्री. मध्यम मटरा- संज्ञा, पु० (हि० मटर ) बड़ा मटर, श्राकार की। एक रेशमी कपड़ा। मट-माटा-संज्ञा, पु० दे० ( हि० मटका ) मटी--- संज्ञा, स्री. (हि. मटरा ) छोटा मटका, घड़ा। मटरा । For Private and Personal Use Only Page #1368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - - - मटियाना मडैया मटियाना-स० कि० दे० ( हि० मिट्टी+ मट्टी- संज्ञा, स्त्री. (दे०) एक पकवान, पाना-प्रत्य०) मिट्टी लगा कर माँजना, मठरी, माठ (दे०)। मिट्टी से ढंकना। मठ--संज्ञा, पु० (सं०) साधुयों के रहने का मटियारा-संज्ञा, पु० (दे०) वह खेत जिसमें स्थान, पर, मकान, मन्दिर, बासस्थान । मिट्टी अधिक हो. मटियार (दे०)। | मठधारी --- संज्ञा, पु० (सं० मठधारिन् ) मटियाव - संज्ञा, पु० (दे०) उपेक्षा, उदा- मठाधीश. महन्त । सीनता, थानाकानी करना। ठरी---- संज्ञा, स्त्री० (दे०) मट्ठी, एक पकवान । मटियाममान-वि० यौ० दे० (हि.) मठा--रज्ञा, पु० (सं० मंथित) मट्ठा, माठा। गयाबीता, नष्टप्राय, बहुत बिगड़ा हुआ। मठाधीश--संज्ञा, पु. यौ० (सं०) मठधारी मटियामेट-- वि० यौ० दे० (हि.) नष्टप्राय, मठराज, महन्त । सत्यानाश, बरबाद, खराब, भ्रष्ट । मठिया---- संज्ञा, स्त्री० दे० (हि० मठ - इया मटियाला-मटियारा--- वि० दे० (हि. ---प्रत्य.) छोटा मठ या कुटी। संज्ञा, स्त्री० मटमैला ) मटमैला । संज्ञा, पु. (दे०) मिट्टी (दे०) फूल धातु की बनी चूड़ियाँ । भरा खेत। मठी-पढ़ी-संज्ञा, स्रो० (हि. मठ---ई. मटीला-वि० दे० ( हि० मिट्टी ) मिट्टी से । - प्रत्य. ) छोटा मठ, मठ का स्वामी या सना, मटमैला। मटुका-संज्ञा, पु० दे० (हि. भटका) मटका, महंत, गठधारी, मठाधीश। राठोर -- संज्ञा, स्त्री० दे० ( सं० मंथन) दही माट। मटुकिया-मटुकी। -- संज्ञा, स्त्री० द० (हि. मथने या महा रखने की मटकी। मटकी) मटकी । मड़ई।- संज्ञा, स्त्री० दे० ( सं० मंडप ) छोटा मट्टी-मिट्टी -- संज्ञा, स्त्री० द० ( सं० मृत्तिका )। मंडप, झोपड़ा, कुटिया, पर्णशाला । संज्ञा, मृत्तिका, मिट्टी, मृतशरीर । महा--प्रटी पु० (प्रान्ती.) प्रादमी। करना-नाश करना, बिगाड़ना, खराब सड़क- संज्ञा, स्त्री० (अनु०) भीतरी रहस्य, या बरबाद करना । मट्टी खाना- गुप्तभेद । धूल फाँकना, मान खाना, पीड़ा देना। मड़वा- संज्ञा, पु० दे० (सं० मंडप) मंडप । मट्टी डालना --- तोपना, छिपाना, मूंदना, मड़हा-महा--संज्ञा, पु. (प्रान्ती ) भीतरी झगड़ा मिटाना, दोष छिपाना । मट्टोदना | दालान चा कोठा। -~मुर्दा गाड़ना या दफ़नाना । भट्टी पर भड़ाई- संज्ञा, पु० (दे०) छोटा सा कच्चा लड़ना-भूमि के लिये झगड़ना, व्यर्थ की ताल या गया, पोखरा। छोटी सी बात पर लड़ना। सही में मड़ियाना-स० क्रि० दे० (हि. माड़ी) मिलना ( मिलाना )---नष्ट होना __ माड़ी लगाना, चिपकाना। (करना) खराब या बरबाद होना (इरना) | मडुअा-मडवा-संज्ञा, पु० (दे०) बाजरे की मिट्टी खराव करना । मट्टी होना- किस्म क एक अन्न । बेकार या सत्यानाश होना। मडैया- संज्ञा, पु. स्त्री० दे० (सं० मंडप ) मग-वि० (दे० प्रालसी, सुस्त । झोपड़ी, पर्णशाला, कुटिया, कुटी। " यहाँ मटा-संज्ञा, पु० ६० (सं० मंथन ) मक्खन- हती मोरी छोटी मडैया कंचन महल खडो" रहित मथा हुआ दही, मठा, माठा मा०) -स्फुट" । "सरग-मडैया सब काहू की कोऊ मही, छाँछ, तक्र श्राज मरे, कोउ काल-पाल्हा० । For Private and Personal Use Only Page #1369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मड़ीड-मरोड़-मडोड़ा १३५८ मतलब मडोड-मरोड-मडोडा-संज्ञा, पु. (दे०) मणिबंध-संज्ञा, पु. पौ० (सं०) कलाई, मरोड़ा (दे०) ऐंठ, पेट का दर्द या शूल। गट्टा, नव वर्णो का एक छंद (पि०)। मडोड़ना-मरोड़ना-अ० क्रि०(दे०) ऐंठना, मणि-मंडप-संज्ञा,पु० यौ० (सं०) रत्नमय गृह। बल देना। मणिमंदिर--संज्ञा, पु. यौ० (सं.) रनमय मढ़-वि० दे० ( हि. मट्टर ) धरना देने या गृह । अड़ कर बैठने वाला, दुराग्रही। मणिमय-वि० (सं०) मणियों से बना, मणि मढ़ाई-मदवाई-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि.। जटित । मढ़ना) मदने या मढ़ाने का भाव, कार्य या मणिमाल-मणिमाला--संज्ञा, स्त्री० यौ० मजदूरी। (सं०) १२ वर्णा का एक वृत्त (पि० ), मढ़ाना-स० क्रि० दे० ( सं० मंडन ) चारों मणियों का हार या माला। ओर से लपेट लेना, थारोपित करना, मणिहार --संज्ञा, पु० यौ० (सं०) मणिमाला। श्रावेष्टित करना, डोल श्रादि बाजे के मुँह मणियाना- संज्ञा, पु० (स०) कुबेर का दास । पर चमड़ा चढ़ाना, किसी के गले लगाना, मणी-संज्ञा, पु० ( सं० मणिन् ) साँप, सर्प, या पड़ना, किसी के मत्थे थोपना । मुहा० संज्ञा, स्त्री० दे० ( सं० मणि)---मणि, रत्न । -मत्थे मढ़ना । स० रूप मढ़ाना,प्रे० रूप मतंग-संज्ञा, पु० (सं०) हाथो, शवरी के गुरु मढ़वाना । ---प्र. क्रि० (दे०) मचाना, एक ऋषि, बादल । स्त्री० मतंगिनी । श्रारंभ होना, मढ़ावना, मढ़ाना। मतंगी-संज्ञा, पु. ( सं० मतंगिन् ) हाथी मढ़ी, मदिया-संज्ञा, स्त्री० दे० (२० मध्य का सवार । छोटा मठ झोपड़ा, कुटी, छोटा घर । मत-संज्ञा, पु० (सं०) सम्मति, राय, निश्चित मणि-संज्ञा, स्त्री० (सं०) जवाहिर अमूल्य, सिद्धांत । मुहा० ---म नउपाना---सम्मति रत्न, श्रेष्ठ मनुष्य, मनि (दे०) । "मणि बिनु | स्थिर करना ! पंथ, धर्म, संप्रदाय, राय, फनिक रहै अति दोना"--रामा। प्राशय, भाव, विचार । कि० वि० ( सं० मा ) मणिकर्णिका- संज्ञा, स्त्री० यौ. (सं.)। नहीं, न । काशी में एक तीर्थ का नाम । । मतमतांतर-संज्ञा, पु. यौ० (सं०) अनेक मणिकार--संज्ञा, पु० (सं०) मणियुक्त | मत, मत-भेद। श्राभूषणादि बनाने वाला, जौहरी, जड़िया, मतना-० कि० दे० (सं० मति+नान्याय-ग्रंथ चिंतामणि का कर्ता। प्रत्य. ) सम्मति निश्चित करना । अ० क्रि० मणिगुण-- संज्ञा, पु. यो० (०) एक द० ( सं० मत ) मस्त होना। वर्णिक छंद, शशिकला, शरभ ( पि०)। मतविरोधी-संज्ञा, पु. यौ० ( सं० धर्म मणिगुणनिकर-संज्ञा, पु० (सं०) द्रवती विरोधिन् ) अधर्मी, विधर्मी, धर्म छंद, मणिगुण छन्द का एक भेद ( पि०)। विरोधी। संज्ञा, पु० चौ. मत-विरोध, मणिग्रीव--संज्ञा, पु० (सं०) कुबेर का पुत्र। मत-भेद, मत-पार्थक्य । मणिजटित--वि० (सं०) मणियों से जड़ा मतरिया- संज्ञा, स्त्री० दे० ( सं० मातृ) हुया, मणि-मंडित। माता, मह तरिया (दे.)। वि० दे० (सं० मणिधर--संज्ञा, पु० (सं०) साँप । मत्र) मन्त्री, सलाहकार, मन्त्रित । मणिपुर-मणिपूर-मणिपूरक -संज्ञा, पु० मतलब --- संज्ञा, पु. ( अ ) अभिप्राय, अर्थ, (स.) नाभि के समीप का एक चक्र' प्राशय, तात्पर्य्य, स्वार्थ, मन्तव्य, विचार, (हठ्यो०)। : उद्देश्य, संबंध, लगाव, वास्ता। For Private and Personal Use Only Page #1370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - WAS ATAR मतलबी मत्सरता मतलबी-वि० ( अ० मतलव ) स्वार्थी । ! मतिहीन--वि० (सं०) निर्गुद्धि, बुद्धिहीन, । मतली-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि० मतलाना ) " मेरो मन मतिहीन गोसाई"-वि० । मिचली, उबकाई,पोकाना। मतीस--संज्ञा, पु० (दे०) एक बाजा । मतवार मतवारा: ---वि० ६० ( हि० मत- मतेई* --- संज्ञा, स्त्री० दे० ( सं० विमातृ ) वाला ) मतवाला, नशे में चूर । विमाता, दूसरी माता । " कर्म मन वानिहु मतवाला-वि० पु० दे० (सं० मत --वाला न जानी कि मोई है "..-.क. रामा० । ---प्रत्य ) मदमत, नशे अादि से उन्मत, मलणा--क्षा, पु० (सं०) खटमल । पागल. धनादि के गर्व से चूर । स्रो० मत्त-वि० (स०) मतवाला, मस्त, पागल, मतवानी । संज्ञा, 'पु. वह बड़ा पत्था जो ___ उन्मत्त, शन्न । संज्ञा, खी० मन्तता । शत्रुओं पर किले प्रादि से लुढ़काया जाता ___ *-- संज्ञ, स्त्री० दे० ( सं० मात्रा ) मात्रा। है, एक तरह का खिलौना : वि०-मतवाला। मत्तकामिनी---संज्ञा, स्त्री. ( सं०) अच्छी मता-संज्ञा, पु० दे० (सं० मत ) मत, _स्त्री, सुभाई। सलाह, सम्पति, राय, धर्म। संज्ञा, स्त्री० दे० । मत्तगयंद --- संज्ञा, पु० (सं०) सवैया छंद का (सं० मति ) बुद्धि, राय, सम्मति । एक भेद, मालती, इंदव (पि०)। मताधिकार --संज्ञा, पु० यौ० (सं०) सम्मति मत्त ता*- संज्ञा, स्त्री० (सं०) पागलपन, या वोट देने का अधिकार । मताना-य० कि०६० (हि० मत) मस्त मतवालापन । होना, बेसुध होना--" मतंग लौं मताये मत्तताई *--- संज्ञा, खी० (दे०) मत्तता(सं०)। | मत्तमयूर -- संज्ञा, पु. ( सं० ) १५ वर्णों मतानुयायी-संज्ञा, पु० यौ० ( सं० ) मता- का एक वृत्त । पि० )। वलंबी। मत्तमातंगलीला कर--संज्ञा, पु. ( सं० ) मतारी। --संज्ञा, . द० (सं० मातृ) एक प्रकार का दंडक छंद (पिं० )। महतारी, माता, माँ । यौ० दे० (सं०) मत मत्तसमक-- संज्ञा, पु. (सं०) एक प्रकार या धर्म का शत्रु । की चौपाई छंद ( पिं० । मतावलंबी-ज्ञा, पु. यौ० (सं० मता- मसा-. संज्ञा. स्त्री० (सं० ) १२ वर्णो' का वलंबिन् ) किसी धर्म. मत या संप्रदाय का वृत्त (पिं०) मदिरा। भाववाचक, प्रत्यः सहारे वाला, मतानुयायी। जैसे-बुद्धिमत्ता । *-संज्ञा, स्त्री० ( सं० मति-ज्ञा, स्त्री. (सं०) समझ, बुद्धि, मात्रा) मात्रा, जैसे-अमत्ता छंद । सलाह, सम्मति, राय। *1--कि० वि० (दे०) मत्ता क्रीडा--संज्ञा, स्त्री० (सं०) २३ वर्णी मत, मती (७०), भव्य० दे० (सं० मत् ) का एक छंद या वृत्त (पिं०)। सदृश, समान। मत्या- संा, पु० दे० (सं० मस्तक) मस्तक, मतिमंत प्रतिवंत-वि० (सं० मतिमत् ) माथा (दे०)। बुद्धिमान। मत्य-संज्ञा, पु० दे० (सं० मत्स्य ) मछलो। मतिमान-मतिवान---वि० (सं०) समझदार, धुद्धिमान । मत्सर -- संज्ञा, पु. (सं०) क्रोध, जलन, मतिमाह-वि० दे० (सं० मतिमान् ) डाह, ईर्षा मतिमान । मत्सरता--संज्ञा, स्त्री० (सं०) डाह, जलन । मती-संज्ञा, स्त्री० दे० ( सं० मति ) बुद्धि. "पंडित मतरता भरे, भूप भरे अभिमान'' समझ । क्रि० वि० (दे०) मति, मत, नहीं।। -~-दीन । For Private and Personal Use Only Page #1371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मत्सरी मदद मत्सरी-संज्ञा, पु. ( सं० मत्सरिन् ) डाही, मथित - वि० (सं० ) मंथित, मथा या मरूर-पूर्ण । विलोड़ा हुथा। मत्स्य---संज्ञा, पु० (सं०) मीन, मछली, मथुरा--संज्ञा, खो० द. (सं० मधुपुर ) ७ राजा विराट का देश, छप्पय का २३वाँ भेद, । प्रसिद्ध प्राचीन पुरियों में से एक पुरी जो विष्णु के दशावतारों में से प्रथम ।। व्रज में यमुना-तट पर है। मत्स्यगंधा-संज्ञा, स्त्री० यौ० (०) सत्यवती, मथराधिए-मथाधिपति-- संज्ञा, पु. यौ० व्यास-माता। । सं० ) मथुरा-नरेशा, कंस, कृष्ण । मत्स्यपुराण--संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) १८ मरिया---वि० (हि० मथुरा । इया---प्रत्य०) पुराणों में से एक । मथुरा का, मथुरा-निवासी, मथुरा-संबंधी । मत्स्यवित्ता--- संज्ञा. स्त्री. (सं० ) कुटनी, मथुरा-संज्ञा, पु. गौ० ( सं . ) श्रीकृष्ण, औषधि विशेष । कंस। मत्स्याह--संज्ञा, पु० यौ० (६०) मछली मोरा-संज्ञा, पु० दे० ( हि० मथना ) बढ़ई का अंडा। का एक भद्दा रंदा। मत्स्यावतार-संज्ञा, पु. यौ० (सं०) विष्णु मयां--- संज्ञा, पु. ६० ( हि० माथ, सं० के १० अवतारों में से प्रथम अवतार ।। मस्तक) मस्तक, माथा, मत्था । मत्स्येंद्रनाथ- संज्ञा, पु० यो० ( सं० । हठयोगी गोरखनाथ के गुरु, मछंदरनाथ मदंध*---वि० दे० यौ० (सं० मदांध ) मदोन्मत्त, मदमत्त । संज्ञा, स्त्री-पदंचना। (दे०)। मथन-संज्ञा, पु० (सं०) विलोग, विलोड़ना, मद --- संज्ञा, पु. (सं० ) नशा, मतवालापन, मंथन, एक प्रस्न । वि०विनाशक, मारनेवाला मद्य, उन्मत्तता, कस्तुरी, वीर्य, मतवाले, वि० मथनीय, मथित। हाथी के गंडस्थल से निकला हुमा गंध युक्त मथना-स० क्रि० (सं० मथन ) विलोना, रस या द्रवपदार्थ, गर्व, घमंड, श्रानंद, हर्ष, हाथी का दान । वि० मस्त, मतवाला । यो. बिलोड़ना, द्रव पदार्थ को काष्ठादि से चलाना या हिलाना, नष्ट या ध्वंस करना, चला कर वि० मदमाता, मदमस्त, मदमत । संज्ञा, मिलाना, घूम फिर कर पता लगाना, बड़ी स्त्री० (अ.) विभाग, खाता, सीगा, छानबीन करना, कोई काम अधिक बार सरिश्ता, मद। करना । "रिपु-मद मथि-प्रभु-पुषश सुनाये'' मद्रक ... एंज्ञा, स्त्री० पु० (सं० मद ) अफीम -रामा० । संज्ञा, पु० मथानी, रई। के सत से बनी एक मादक या नशे की वस्तु, मथनियाँ- संज्ञा, स्त्री० दे० (हि० मथना) जिसे चिलम से पीते हैं। वि० ---मदकी। दही मथने का बरतन, मटकी, मथानी। मदकची--वि० (हि. पदक - ची प्रत्य०) मथनी--- संज्ञा, स्त्री० ( हि० नथना ) दही मदक पीनेवाला, मकवान। मथने की मटकी, या काठ की मथानी। मदकट - संज्ञा, पु० (दे०) खाँड़, चीनी, मथवाह* --संज्ञा, पु० दे० (हि० माथा --- शक्कर। वाह --- प्रत्य० ) महावत । मदकल-मदगल - वि० दे० ( सं० ) मस्त, मथानी-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि० मथना) रई, मतवाला; मत्त । संता, स्त्री. मदकली। दही मथने का काठ का एक दंडा, मंथन-दंड, मदद --- संज्ञा, खो० (प्र०) पहायता, सहारा, मथनी (दे०)। मुहा०-सथानी पड़ना किसी काम पर लगे मजदूर और राज श्रादि। या बहना-... खलबली मचना । “नवीजीभेजो मदद खुदा की, "--- कहा। For Private and Personal Use Only Page #1372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मददगार मदाँध मददगार-वि० ! फ़ा० ) महायक, पहायता । मड़न-मनोहर-~- संज्ञा, पु. यौ० (सं०) करने वाला। श्रीकृष्णचंद्र, मनहर. दंडक छंद का एक भेद मदन--संज्ञा, पु. १०) काम-कीड़ा, (पि०) । वि० यौ० (सं०) कामदेव से सुन्दर, कामदेव, कंदर्प, मैनफल, भ्रमर, सारिका, इननोरम । “मदन-मनोहर-मूरति मैना, प्रेम, रूपमाल छंद (पिं० ) छप्पय 1. जोही"--रामा का एक भेद ( पिं० ) । " मदन-ताप भरेण मदन-मलितका-संज्ञा, स्त्री० (सं०) मल्लिका विदीर्य नो" - नेप० : यो० ( मद+न) नाम का एक छंद (पि०)। मद-होन । यो प्रदन पी --काम-व्यथा, मदनमस्त---संज्ञा, पु० यौ० (हि. मदन + मस्त) मदनम्बर-कामज्वर ।। चंपा की जाति का एक फूल । वि० यौ० मदनकदन -- ज्ञा, यौ० (सं.) (हि.) काम-दर्प से प्रमत्त । महादेवजी, शिवजी : “ अब यह सब कहि सदनमहोत्सव --संज्ञा, पु. यौ० (सं०) चैत्र देयगो, मदन-कदन-कोदंड"-राम शुक्ल द्वादशी । चतुर्दशी तक होनेवाला एक मदनगोपान--संज्ञा, . यौ० (सं.) प्राचीन उत्सव । श्रीकृष्णजी । "रार करहु जनि मदन- मदनमित्र--संज्ञा, पु० यौ० (सं०) चंद्रमा । गोपाला' बज. वि० मदनमोदक---संज्ञा, पु० (सं०) मदनोद्दीपक मदनचतुर्दशी-संज्ञा, सो० यौ० (सं०) चैत्र । पौष्टिक औषधियों के लड्डु, सवैया छंद का शुक्ल चतुर्दशी। एक भेद (पि०) सुन्दरी छंद (केशव०) । मदनजल-- सज्ञा, 'पु० यौ० (सं०) मद नीर, कमावेश से लिंग निकला साव, वीर्य मदनमोहन--संज्ञा, पु० यौ० (सं०) श्री कृष्ण । मदन-रस। मदन-ताए ---- पंज्ञा, पु. यौ० (सं०) काम मदनललिता---संज्ञा, स्त्री० (सं०) एक वणिक वृत्त (पि.)। मदन-दार---संज्ञा, पु० यौ० (सं०) कंदर्प दर्प । मदनपाटक--- संज्ञा, पु. पो. (सं.) कोयल (सं०) भग, योनि । मदनल -संज्ञा, पु. य० (सं०) मैनफल मदनहरा-संज्ञा, स्त्री. (सं०) ४० मात्राओं (ोष०)। का एक छंद (वि०)। मदनबंधु--संज्ञा, पु. यो. (सं०) बकुल, | मदनोत्सव-ज्ञा, पु. यौ० (सं०) मदनमौलसिरी। महोत्सव। मदनबाण, भदनवान --- संज्ञा, पु. यौ० ममत, मदमरल--- वि० यौ० (सं०) नशे से (सं० मदनवागा ) कामदेव के वाण, एक मत्त, मतवाला । संज्ञा, स्त्री-मदमत्तता । प्रकार के बेले का फल । " मदन-बाण डर | मदर* ----संज्ञा, पु० दे० (सं० मंडल ) ग्यारी " भा० गीतगो०।। मँडराना। संज्ञः, स्त्री० (अं०) माता। मदनमंदिर--संज्ञा, पु. यौ० (सं०) स्मर- मदरसा--- संज्ञा, पु. (अ.) पाठशाला, मंदिर, भग, योनि। विद्यालय । मदन मनोरमा- संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) मदलेखा---संज्ञा, स्त्री. (सं०) एक वर्णिक सवैया का एक भेद केशव०) । वि. यौ० वृत्ति (काव्य) । (सं०) काम की मनोरमा या प्यारी, रति, मदांध-वि० गौ० (सं०) नशे में चूर, दुर्मिल सवैया (पि०)। । मदोन्मत्त, गर्व से अंधा, महाअभिमानी। भा. श० को.---१७१ ज्वर। न-संज्ञा, For Private and Personal Use Only Page #1373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मदाइन १३:२ मधुपर्क मदाइन-संज्ञा, स्त्रो० (दे०) शराब, मद की। मद्यप, मद्यपी-वि० (सं०) मदिरा पीने देवी। वाला, शराबी। मदानि*---वि० (दे०) कल्याणकारी। मद्र--संज्ञा, पु० (पं०) रावी और झेलम मदार-संज्ञा, पु० दे० ( सं० गंदार ) आक। नदी के बीच का देश, उत्तर-कुरु देश मदारी-संज्ञा, पु० द. अ. मदार ) । (प्राचीन)। कलंदर, बाजीगर, तमाशिया, मदारिया, मध मधि--- सज्ञा, पु. द. ( सं० मध्य ) एक मुसलमान जो बंदरादि नचाने या बीचों बीच, मध्य : अध्य. .... में । विचित्र खेल-तमाशे दिखाते हैं। मधिम* --वि. द. (सं० मध्यम ) मध्यम । मदालसा-संज्ञा, स्त्री० (सं.) विश्वावसु । मधु-सज्ञा, पु० (सं.) शहद, पानी, मदिरा, गंधर्व की पुत्री जिसे पातालकेतु दानव । मकरद, वसंत ऋतु. चैत महीना, विगु से पाताल ले गया था (पुरा०) । मारा गया एक दैत्य, एक यदुवंशी, श्री कृष्ण, मदिया---संज्ञा, स्त्री० दे० ( फ़ा० मादा ) अमृत, शिवजी, मुलहटी, दो लघु वणों स्त्रीलिंग जीवधारी,मादा (विलो. नर । । का एक छंद (पि०) । " मधु वसंत मधुचैत मदियाना-अ. क्रि० दे० (हि. मद) है मधु मदिरा मकरंद, मधुपै मधु,हरि, नशे में होना, सुस्त पड़ना। मधुसुधा मधु,माधव, गोविंद"-भा० अने० । मदिरा--संज्ञा, स्त्री० (सं०) मद्य, शराब, मधुकर--संज्ञा, पु. (सं०) भ्रमर, भौरा, सुरा, दारू, वारुणी, २२ वर्गों का एक एक प्रकार का चावज, मधुमाखी। "मधुकरैवर्णिक छंद, मालिनी (पि०) उमा, दिवा।। रिवनादकरैरिव'- माघ । मदीय-वि० (सं०) मेरा । सो. मदाया। मधुकरी-संज्ञा, सी० ( सं० मधुकर ) भौंरी, मदीता--वि० दे० (हि० मद । इला-प्रत्य०) वह भिवा जिसमें थोड़ा सा पका अन्न नशीला, मादक, नशेदार, मदोत्पादक। लिया जावे, मधुकरी, बाटी । “माँगि मदुकल-संज्ञा, पु० (दे०) दोहे का एक भेद। मधुकरी खाँहि ''---रही। मदोन्मत्त -वि. यौ० (सं०) मदांध, नशे में माकेटम--संज्ञा, पु० यौ० (सं०) मधु और चूर, मद या गर्व से प्रमत्त । सज्ञा, स्त्री० कैटभ नामक दो दैत्य भाई. जिन्हें विष्णु ने मदोन्मत्तता। मारा था (पुरा०)। मदोवे*--संज्ञा, स्त्री० दे० ( सं० मंदोदरी) मधुकोप-संज्ञा, पु. यौ० (सं.) फूलों में रावण की रानी, मन्दोदरी, मदाबार, रस का स्थान, शहद का छत्ता। मँदोदरि (दे०)। " ठाढी हूं मदोवै रोय मधुचक्र--संज्ञा, पुरु यौ० (सं०) शहद की रोय कै भिगोवै गात "कवि०। मक्खी का छत्ता। मद्धिम -वि० दे० (सं० मध्यम) मध्यम, | मधुच्छद--संज्ञा, सो० (सं०) मोर की शिखा. औसत दर्जे का, कम न ज़्यादा, मन्दा, _मोर शिखा बूटी। अपेक्षाकृत, कम अच्छा । मुहा०-चंद्रमा | मधुजा--संज्ञा, स्त्री. (सं०) भूमि, पृथ्वी । (अन्यग्रह)का मद्धिम होना----चंद्र श्रन्यग्रह मधुर----संज्ञा, पु. (सं०) मधुलिह, भौंरा, का प्रभाव अच्छा न होना (ज्यो०)। भ्रमर, उद्धव । स्त्री. मधुपी। मद्धे--प्रव्य० दे० ( सं० मध्ये ) बीच में, में, मघाति-- संज्ञा, पु. यौ० (सं०) श्रीकृष्ण । विषय में, संबंध में, बाबत । मधुपक-संज्ञा, पु. (सं०) दही, घी, शहद, मद्य--संज्ञा, पु० (सं०) सुरा, मदिरा, दारु चीनी और जल का मिला हुआ पदार्थ जो वारुणी, शराब ! यौo-महा-मांस। | नैवेद्य में काम आता है। For Private and Personal Use Only Page #1374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मधुपर्श मध्यता Maraca a ri मधुपर्श-संज्ञा, पु. (सं०) पका और रसभरा, मधुरता-संज्ञा, स्त्री० (सं०) मिठाई, मधुराई, फल । मिठास, मृदुता, सुन्दरता । मधुपुर, मधुपुरी --- संज्ञ', स्त्री० यौ० (सं०) मधुरा--संज्ञा, स्त्री० पु. (सं०) मदरास प्रांत मथुरा नगरी । "बजे वपन किमकरोन्मधु- का एक प्राचीन नगर, मदुरा, मडुरा, मडूरा, पुयां च केशवः ".-- भा. द. । मदूरा, मथुरापुरी। मधुप्रय--प्रज्ञा, पु० (सं०) मौहा। मधुराज-संज्ञ, पु० यौ० (सं०) भौरा, भ्रमर । मधुप्रमेह-ज्ञा, पु० (सं०) मधुमेह, मधुरान -- संज्ञा, पु० यौ० (सं०) मिठाई, गाढे और अधिक मूत्र का एक रोग (वैद्य०)।। मिष्टान्न । मधुबन, मधुवन--संज्ञा, पु० यौ० (सं०) मधुराना* -अ० क्रि० दे० (हि. मधुर+ व्रज का एक वन, सुग्रीव का बाग, ‘मधुवन | अाना---प्रत्य० मीठा या सुन्दर होना। तुम कस रहत हो" सूर० । “मधुवन के फल | मधरिमा---पंडा, स्त्री० (सं० मधुरिमन् ) सक को खाई 'रामा० । मिठाप, सुन्दरता। मधुभार--संज्ञा, पु० (सं०) एक मात्रिक छंद रधुरिपु-हाझा. पु० यौ० (सं०) विष्णु, कृष्ण । (पिं०)। माधुरी--संज्ञा. स्त्री० (सं० माधुर्य ) मधुमक्खी --संज्ञा, स्री० दे० यौ० (सं० सुन्दरता, सौंदर्ग: । मधुरी नौबत बजत मधुमक्षिका) मधुमानी (दे०), मधुमनिका, कहूँ नारी-नर गावत'-- हरि० । माखी, फलों का रस चूस कर शहद इकट्ठा करने वाली मक्खी। मधुवन-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) गोकुल के मधुमक्षिका-ज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) मधु समीप का यमुना तट पर एक वन, सुग्रीव का वन (किष्किंधा)। मक्खी, मधुमाळी (ग्रा०)। मधुमती-पक्षा, स्वी० (६०) एक वर्णिक मधुवामन-संक्षा, पु० (सं०) भौरा, भ्रमर । वृत्त । (दो नगण और एक गुरु वर्ण से मधुवन--संज्ञा, पु० यौ० (सं०) भौंरा. भ्रमर । बनी) (पि.) | मधुशर्करा : संज्ञा, पु. यो० (सं०) शहद मधुमाखी. मधुमाको...|ज्ञा, स्त्री० दे० यौ० । की बनी हुई चीनी।। ( सं० मधुमक्षिका ) मधुमक्षिका, मधुमक्खी मधुमख, मधुसखा -- संज्ञा, पु० यौ० (सं०) मदमाखी (ग्रा०)। मधुमित्र, कामदेव । मधुमालती-- संज्ञा, स्त्री. (सं०) मालती | मधुसूदन-संज्ञा पु० यौ० (सं०) मधु-रिपु, लता। श्रीकृष्ण । मधुमेह-संज्ञा, पु० (सं०) अति अधिक और मधुसेवी--संज्ञा, पु० यौ० (सं०) भ्रमर । गाढ़े मूत्र होने का एक प्रमेह रोग (वै०।। महंता-- संज्ञा, j० यौ० (सं०) विष्णु, कृष्ण । मधुयप्रि--संज्ञा, स्त्री० (सं०) मुलहटी. मुलैठी, मवृक-संज्ञा, पु. (सं०) दाख, मौहा। मौरेठी। अकरी-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० मधुकरी) मधुर-वि० (सं०) मीठा, सुनने में सुखद, __ मधुकरी, बाटी। सुन्दर, मनोरंजक, हलका : "मधुर वचन तें मध्य---संज्ञा, पु० (सं०) बीच का हिस्सा, जात मिटि, उत्तम जन अभिमान"... नीति।। बीचोंबीच, कटि, अंतर, भेद, १७ वर्ष से संज्ञा, स्त्री० मधुरता। ७० वर्ष तक कीयवस्था (सुश्रु०) "मध्य प्रदेश मधुरई मधुराई* --- संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० केशरी सुगज गति भाई है" रामः । मधुरता ) मधुरता, मिठाई, मधुरिमा। मध्यता-संज्ञा, सी० (सं०) मध्य का भाव । For Private and Personal Use Only Page #1375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मध्यतायिनी मन मध्यतायिनी- संज्ञा, स्त्री० (सं०) एक “जहाँ बराबर बरनत लाज मनोज, मध्या उपनिपद् । तहहिं बखानत सुकवि समोज"-रही । मध्यदिवस--संज्ञा, पु० यौ० सं०) दोपहर । तीन वर्णो का एक छंद या वृत्त (पिं०) । मध्य दिवस जिमि ससि सोईई' रामा० । मध्यान्ह, मध्याह--संज्ञा, पु० (सं० मध्याह्न) मध्यदेश-संज्ञा, पु० यौ० (सं.) मध्य भारत, ठीक दोपहर मध्यदिव। सी० पी०, कटि, कमर । "मध्यदेश केसरी मध्ये ... कि. वि. द. (सं० मद्ध) मद्धे, सुगज गति भाई है" । राम० । हिमालय विषय या सम्बंध में। से दक्षिण, विंध्याचल से उत्तर, कुरुक्षेत्र से मध्वारि---संज्ञा, पु० यौ० सं० मधु-अरि ) पूर्व और प्रयाग से पश्चिम का भारत । विष्णु, कृष्ण । मध्यग-वि. (सं०) बीचोबीच का, न मधाचार्य-संज्ञा, 'पु० यौ० सं०) वैष्णव मत बहुत बड़ा न छोटा, औसत दर्जे का, वीच के एक विख्यात प्राचार्य और मात्र का संज्ञा, पु० -- संगीत के स्वरों में से संप्रदाय के प्रवर्तक (१२वीं शताब्दी)। चौथा स्वर, नायिका के क्रोध दिखाने पर मनःशिल-संज्ञा, पु. (सं०) मैनपिल । धनुराग प्रकट न करने वाला उपपति सिंदूर दैतेन्द्र मनः शिलानाम् "- वैद्य० । (काव्य०)। | मन-संज्ञा, पु० (सं० मनस् ) विचार या मध्यमपद लोपी-संज्ञा, पु. यौ० (सं०) ___ मनन-शक्ति, जीवों की विचार, इच्छा, लुप्तपद समास, वह समाज जिसमें दो वेदना, संकल्पादि करने वाली शक्ति, अन्तःपदों के बीच संबंध-सूचक पद का लोप करण के चार भागों में से संकल्प-विकल्प हो जाता है (व्या०)। के होने का भाग, अन्तःकरण चित्त, मध्यम पुरुष--- संज्ञा, पु. यौ० (सं०) वह पुरुष दिल, इगदा, विचार इच्छा ! संज्ञा, पु० दे० जिससे बातचीत की जावे (व्या०)। ( सं० मगिा ) मणि, रन । मुहा०--किसी मध्यभाग--संज्ञा, पु. (सं०) बीच का सेगन पटकनाया उत्नझना,लगना--. हिस्सा। प्रेमानुराग या प्रीति-स्नेह होना । एन आना मध्यमा-संज्ञा, स्त्री. (सं०) बीच की अंगुली, (भाना)-प्रेम होना, परन्द आना, रुचना, वह खंडित-नायिका जो अपने पति के प्रेम इरादा होना । इन (दिल) दृटना-- या अपराध पर उसका मान या अपमान हताश होना. साइम न रहना । सन करे (काव्य०)। गिरना-----उत्साह या हौसला न रहना, मध्यलोक-संज्ञा, पु० (सं०) मर्त्य लोक, उन्माता या उदासीनता थाना । मन पृथ्वी, भूलोक। चलना - इच्छा होना । मन चुराना.... मध्यवर्ती-वि० (सं०) बीच में रहनेवाला, मोहित या मुग्ध करना, वशीभूत करना । बीच का, बिचवानी (ग्रा० मध्यस्थ । मन बढ़ना-उत्साह या साइस बढ़ना । मध्यस्थ----संज्ञा, पु० सं०) तटस्थ, बीच में मन करना-इरादा या इच्छा करना। रहकर विवाद निपटाने वाला, बीच में रहने ! (किसी का) मन बूझना-मन की थाह वाला । संज्ञा, स्त्री० (सं०) मध्यस्थता। लेना, हृदय की बात जानना । मन (दिल) मध्यस्थल-संज्ञा, पु. (सं०) कमर, बीच हरा होना-चित्त प्रसन्न होना । मन का स्थान । मुरझाना-चित्त का उदास होना, मध्या--संज्ञा, स्त्री० (सं०) वह नायिका हतोत्साह या हताश होना। मन के लड़ जिसमें लजा और काम सम रूप में हों। (मन मोदक) खाना-कल्पित या झूठी For Private and Personal Use Only Page #1376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मन मनः merouTOELHIROEenesTMarry TRADE पाशा पर प्रपन्न होना । मन-मोदक से संतोष हो जाना, इच्छा पूर्ण हो जाना । भख मिटाना (बुझाना)-व्यर्थ की कल्पित मन में रहना-गुरु रहना, बाहर प्रगट न बात (आशा) से प्रपन्न होना। “मन-मोदक कहुँ होना. सदा याद रहना, अति प्रिय होना । भूव वुझाई "रामा । मन चलना (का मन भाना--पसंद श्राना, भला या अच्छा चलायमान होन) (चलाना)-इच्छा लगाना, रचना ! मन मानना-संतोष या होना (करना), प्रवृत्ति होना (करना) । तपल्ली होना, निश्चय या प्रतीत होना. (किसी का) मन टटोलना-दिल का अच्छा लगना, पसंद आना. प्रेम, स्नेह पता लगाना. मन का थाह लेना । मन या अनुराग होना । “ मन माना कछु तुमहि डोलना--मन का चंचल हाना, लालच । निहारी" -रामा० । मन में रखनाया लोभ उत्पन्न होना । सन देना - जो गुप्त रखना छिपा रखना, स्मरण या याद लगाना, ध्यान देना. दिल देना, प्रेम करना, रखना । मन पाना-मन का भेद जानना, इरादा या भेद प्रगट करना। मन (दिन) स्वीकारता का भाव देखना । मन में देखना --- हृदय का भाव देखना । (किमो लाना .. सोचना, विचारना । मन में न पर) मन धाना----मन लगाना, ध्यान । ताना-बुरा न मानना । मन मिलना--- देना। मन में धमना-मन में प्रवेश स्वभाव या प्रकृति मिलना । " प्रकृति मिले करना, दिल में चुभना, चित्त में पैठना । ' मन मिलत हैं" --वृंद० । मन मारना---- मन तोड़ना या हारना-हिम्मत या : खिन्न या उदास होना, इच्छा को दबाना । माहस छोड़ना । पान शालना (किमी. मन मला करना --असंतुष्ट होना, अप्रसन्ना का)---किसी की इच्छा पूरी करना, होना । " परपत मन भैला करै' ----कवी । तदनुकूल करना : “ब तो हमारा मन मन मोटा हाना-उदासीन या विराग राखते बनेगी तोहि रत्ना मन फेरना होना । मन मोटाव-होना (करना)---- (फिरना,-मन हटाना (हट जाना)। मन में वैमनस्य या विलगाव होना (रखना) । सन बसाना बमना-स्मृति में रखना रहना सन मोड़ना - विचार या प्रवृत्ति को दूसरी में पैठना-दिल की बात खोजना, अति प्रेम । ओर लगाना : (किसी का) मन रखनाकरना. दिल में रखना, दिल पर प्रभावित इच्छा पूर्ण करना । मन लगना-जी या होना, सदा याद रहना । सन बढ़ाना बढ़ना- । तबियत लगना, रुचना, ध्यान लगना, साहम दिलाना, होना) उत्साह बहाना बढ़ना। मनोविनोद होना । मन लाना--मन मनमें बमना (रहना)-यच्छा लगना, पसंद लगाना, प्रेम करना । मन से उतरना--- श्राना, रचना, याद रहना, सदैव स्मृति में मन में श्रादरभाव का न रहना, विस्मृति रहना। मन बहलाना या बहलना-दुखी या होना, मन का भाव बुरा होना । मन ही उदासमन को किसी कार्य में लगाकर प्रसन्न मन (मन मन)- चुपचाप, दिल में ही, करना, मनोरंजन या मनोविनोद करना होना) । "मन ही मन मनाय अकुलानी" -- रामा० । मन भरना -विश्वास या निरचय होना, इच्छा, विचार । लोभन मन भाये, संतोष होना, इच्छानुकूल प्राप्त करना (देना) । मडिया इला"। मुहा०--मन मानामन में घर करन... दिल पर अधिकार अपने मन के अनुसार, यथेच्छ, यथेष्ट । करना, हृदय में बन जाना। "मेरे मन में सज्ञा, पु० सं० मगि ) मणि, रन । घर किये लेती हैं ये") --मन भरजाना - मनई--संज्ञा, पु० दे० (सं० मानव ) प्रघा जाना, तृप्ति हो जाना, निश्चय या | मनुष्य । For Private and Personal Use Only Page #1377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मनकना मनमोदक मनकना-- अ० कि० दे० (अनु.) हिलना, मनन संज्ञा, पु. (स.) सोचना, चिंतन. डोलना। ___ भली भाँति पढ़ना, गूदाध्ययन । मनकरा* --वि० दे० (हि० मणि -- कर ) मननशीन -वि० (सं.) विचारवान । संज्ञा, चमकदार। स्त्री० मननशीलता। मनका ---- संज्ञा, पु० दे० (सं० मणिका ) मननाना अ० कि.६० (अनु०) गुजारना । माला की गुरिया या दाना । संक्षा, पु० ( सं० । मनवांछित-वि० दे० यौ० सं० मनोवांछित) मन्यका ) गले के पीछे की हड्डी जो रीढ़ से | मनचाहा, इच्छानुकूल, अभीट,चितचाहा । मिली रहती है। “ मन का मन का फेर'' - .. मनभाया --- वि० यौ० दे० ( हि० मनभाना ) कबी०। मुहा०-धनका दलना या मनोनुकूल, जो पसंद थावे, अभीष्ट स्त्री० ढलकना-मरने के समय गरदन टेढ़ी हो मनमायी। जाना। मनभावना-वि. यो. । हि. मनभाना) मनकामना, मनोकामना ज्ञा, स्त्री० ___ जो अच्छा लगे, प्रिय, प्यारा । स्त्री. मनयौ० (सं० मनः । कामना ) इच्छा : " पूजै | भावती । " देहुँ तोहि मनभावत आली" मन कामना तुम्हारी" ---रामा० । - रामा० मनकला--वि० खी० अ०) 'वर, जंगम, मनभावन-वि• यो० ६० ( हि० मनभाना ) अस्थावर (विलो० स्थावर, गैर अनकला) मन का अच्छा लगन वाला, प्रिय, प्रमी । यो० --जायदाद मनाला . वर संपत्ति। स्त्री. मनभावनी । गैरमनकला-स्थिर संपत्ति, स्थायी (विलो०)। मनपत* ---वि० दे० (सं० मदमत्त ) मनगढ़----- वि० यौ० दे० (हि. नगढ़ना) मतवाला, मदोन्मत्त, अहंकारी, घमंडी। कपोल-कल्पित, वास्तविक पता होन । मनति - वि० यौ० (हि. मन- मति) सज्ञा, स्त्री-निरी या कोरी कल्पना। स्वेच्छाचारी, अपने मन का काम करने मनचला-वि० यौ० दे० ( हि० मनचलना ) वाला,स्वतंत्र निडर, धीर, साहसी, रसिक । स्त्री. मनमथ--संज्ञा, पु. द० (सं० मन्मथ) कामदेव, मदन, मनोज । मनचली। मनचाहा - वि० यौ० दे० (हे. मन - मनमानना-- वि० यो० (हि० मन | मानना) मनमाना । चाहना इच्छित, चाहा हुआ, वितचाहा। मनमाना - वि० यौ० (हि. मन मानना) स्त्री० मनचाही। यथेच्छ, दिल पसंद, जो मन को भावे । सी. मनचिता, मनचीता--वि० यौ० दे० मनमानी । मुहा० ---- नमाना घर (हि० मन । चेतना) चितचीता चितचेता जाना जो मन श्रावै करना, स्वेच्छाचार । मन चाहा, मन-सोचा । स्त्री. र.नचेती। मनमुखी-वि० यौ० ( हि० मन । मुख्य ) मनचार ---वि० (हि०) दिल चुरानेवाला स्वेच्छाचारी, स्वेच्छानुगामी। चित्तचोर । 'तीरथ गये तो तीन जन चित नमुटाव, मनमोटाव- संज्ञा, पु० यौ. चंचल मन चोर” कबी०। हि० मन- मोटाव ) वैमनस्य, मन में भेद मनजात-संज्ञा, पु. (सं०) कामदेव, पड़ना, विरोध भाव। मनसिज मनोज । “मननत किरात नभोदक-संज्ञा, पु० यौ० ( हि० मन । निपात किये"-- रामा मोदक ) मन का लाइ , प्रसन्नतार्थ कल्पित मनत, .नता-संज्ञा, पु० (दे०) मनौती। और असम्भव बात। मन-मोदक नहिं भूख मानता, मान्ता (प्रा०)। बुताई".--रामा० । For Private and Personal Use Only Page #1378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org मनमोहन मनमोहन वि० यौ० ( हिं० मन + मोहन ) मन को मोहने वाला, प्रिय, चित्ताकर्षक, प्यारा । स्त्री० मनमोहनी | सज्ञा, पु० - श्रीकृष्ण जी एक मात्रिक छंद (पिं० ) मनमौजी - वि० ० ( हि० मन + मौज + ई - प्रत्य० ) इच्छानुसार या मन की मौज से कार्य करने वाला | १३६७ मनरंज - वि० दे० (सं० मना रंजक ) मन को प्रसन्न करने वाला । मनरंजक - वि० दे० (सं० मनोरंजक ) मन को प्रसन्न करने वाला | मनरंजन -- वि० यौ० दे० ( सं० मनोरंजक ) चित्त को प्रपन्न करने वाला, मनोविनोद | मनरोचन - वि० सौ० (हि० मन । रोचन ) मनभावन, सुन्दर, रोचक, रुचिर । मनल, मनलाडू - संज्ञा, ५० दे० यौ० ( हि० मनमोदक ) मन मोदक | मनशा, मंशा - संत्रा, खो० (०) इरादा, इच्छा. तात्पर्य, मतलब, विचार मनसा मंसा (दे० ) | मनसना* - स० कि० दे० ( हि० मानस ) इरादा या इच्छा करना हद विचार या निश्चय करना, हाथ में पानी ले संकल्पमंत्र के साथ कुछ दान करना । मनसत्र - संज्ञा, पु० ( ० ) पद, थोहदा, स्थान. अधिकार, कार्य, काम । का जिसके रुतबा हो फीलोनिशाँ तलक - सौदा ! मनसब ܕ. मनसबदार - संज्ञा, पु० ( फ़ा० ) श्रहदेदार पदाधिकारी | संज्ञा, स्त्री० मनसबदारी | मनसा मंसा - संज्ञा, खो० (सं०) एक देवी का नाम | संज्ञा, स्त्री० दे० ( अ० मनशा ) मनोरथ, अभिलाषा इच्छा. कामना, अभिप्राय, इरादा, संकल्प, विचार, तात्पर्य, बुद्धि मन । वि० (सं०) मन से उत्पन्न, मन का संज्ञा, पु० (सं०) क्रि० वि० (सं०) मन से, मन के द्वारा इरादा, इच्छा 'जो व्रज में आनंद तो सो मुनि शक्ति मानसन गहै। Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मनहर सूर० । " मनसावाचा कर्मणा, जो मेरे मन राम :- रामा० । मनसा भयो किसान- तु० । मनसाकर - वि० ( हि० मनसा + कर ) मनोरथ पूरा करने वाला | मनसान 1- अ० क्रि० दे० ( हि० मनसा ) उमंग या तरंग में थाना । स० क्रि० दे० ( हि० मनसना का प्रे० रूप) मनसवाना | मनसायनां वि० द० ( हि० मानुस ) मनोविनोद का मनोरम स्थान या जगह, गुलज़ार | ". मनसिज - संज्ञा ५० (सं०) कामदेव | • खेलत मनसिज-मीन जुग 15 रामा० । मनसुख - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) मन को प्रसन्न करने वाला मन का सुख । मनसुख - वि० (०) परिव्यक्त, श्रप्रमाणिक, त्यागा हुआ, प्रतिवर्तित | संज्ञा, त्रो०मनसुखी । मनसूबा - - संज्ञा, पु० (०) विचार, ढंग, युक्ति, इरादा | मुहा०-- मनसूबा बाँधना --- युक्ति सोचना, इच्छा करना । मनस्क - संज्ञा, पु० (स० ) छोटा मन, मन का अत्पार्थक रूप | जैसे - अन्यमनस्क । मनस्ताप संज्ञा, पु० यौ० (सं०) मन का दुख, मन पीड़ा, पछतावा, यांतरिक दुख, पश्चात्ताप | :" मनस्विता - संज्ञा स्त्री० (सं०) स्वेच्छानुकूलता, बुद्धिमत्ता, शूरता । मनस्वी - वि० (सं० मनस्विन् ) बहादुर, बुद्धिमान त्रो० मनस्विनी । " श्रभिमानतो मनस्विनः प्रियमुच्चैः पदमारुरुत्ततः किरात० । " मनस्वी कार्यार्थी न गणयति दुखं न च सुखम् " भर्तृ । मनहंस - ज्ञा ० ( हि०) मानसहं, १५ वर्णों का एक वर्णिक वृत्त (पिं० ) । संज्ञा, यौ० (सं०) हंस रूपी मन या मन रूपी पु० हंस | मनहर - वि० दे० (सं० मनोहर ) मनोहर । संज्ञा, पु० -- घनाक्षरी छंद (पिं० ) । For Private and Personal Use Only Page #1379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir PREETEGMAYABIR o mamaARDEESIRames मनहरण, मनहरन १३८ मनुष, मनुस मनहरणा, मनहरन - संज्ञा, पु. (हि०) मन दर्शनीय, सुन्दर । " वरनौ कहा देम के हरने का भाव, १५ वर्णो का एक मनियारा'- पद्मा० । वर्णिक छंद भ्रमरावली (पिं०)। वि० - | मनिहार- संज्ञा, पु० दे० (सं० मणिकार ) मनोहर, सुन्दर । चुरिहारा, चूड़ी बेचने वाला । सी. मनहार, मनहारि-वि० दे० (सं० मनोहारी)। मनिहारिन । संज्ञा, पु० यौ० (दे०) मणियों मनोहारी, सुन्दर, मनहारी । स्त्री० ---- का हार । " मनिहार कहा मनिहार को मनहारिनी। जाने "--कु० वि० जा०।। मनहुँ, मनौ--अव्य० दे० ( हि० मानों ) मानहारिन, मनिहारी-- संज्ञा, सी० दे० मानौ यथा । "नूतन किसलय मनहुँ ( हि० मनिहारिन ) शरिहारिन । कृशानू"---रामा० । मनो -- संज्ञा, स्त्री० दे० (हि० मान) घमंड। मनहूस---वि० [अ०) अशुभ, बुरा, अशकुन, अप्रियदर्शन । सज्ञा, स्त्री० सनहसी, संज्ञा, स्त्री० दे० ( सं. मणि) मणि, रत्न, बल. वीर्य । संज्ञा, पु.० (अं०) धन । मनहसियत । मना, मने-वि० (१०) वर्जित, वारण मनीषा-संज्ञा, स्त्री० (सं.) बुद्धि, ज्ञान, किया, या रोका हश्रा, निषेध. अनुचित । मति, समझ । मनाक, मनाग---वि० दे० ( सं० मनाक्- मनीषि, मनीपी-वि० (सं० मनीषिन् ) मनावा ) थोड़ा, किंचित्, रंच, चक। ज्ञानी, पंडित. मेधावी. बुद्धिमान विचारमनाना-स० क्रि० ( हि० मानना ) अंगीकार चतुर । " मरम मनीषी जानत अहहूँ".-- करना, स्वीकार कराना, रूठे को प्रसन्न रामा० । कविमनीपी परिभूः स्वयंभूः " --- करना, देवता से मनोरथ सिद्धि की प्रार्थना वेद । करना, स्तवन करना । “ मनहीं मन मनाय मन----सज्ञा, 'पु० (सं.) ब्रह्मा के चौदह लड़के नकुलानी"-- रामा० । जो मनुष्यों के मूल पुरुष माने गये हैं, । मनार्य-वि० दे० (सं० मनोऽर्थ) विचारार्थ ।। स्वायंभू स्वारोचिष, उत्तम, तामस, रैवत, मनावना ---- संज्ञा, पु. ( हि० ननाना ) रुष्ट चाक्षुष, वैवस्वत, पाणि, दक्ष पाणि, के प्रसन्न करने का भाव या कार्य . ब्रह्म नावर्णि, धर्माणि, रुद्रपाणि, मनाही-- संज्ञा, स्त्री० ( हि० मना ) न करने देवमाणि, इन्द्रयावणि, चौदह की संख्या. का हुक्म या श्राज्ञा, निषेध, लोक, वारण, मन या अंतःकरण, विष्णु, वैवस्वतमनु । अवरोध । मनू (दे०) "मनुष्य वाचा मनुवंशकेतुम्" मानि--संज्ञा, स्त्री० (दे०) मणि (सं०) रन । -रघु० । * अव्य० दे० (हि. मानना) मनिधर* -- संज्ञा, पु० दे० (सं० मणिधर ) मानो, मानहु ,मनों। साँप, सर्प, नाग। मनिमाला---संज्ञा, पु० यौ० (दे०) मणि मनुआँ ----सज्ञा, पृ० दे० (हि. मन ) माला। मन, चित्त । “मेरा रा मनुाँ बंदे कैसे मनिया----संज्ञा, स्त्री० दे० ( सं०) माणिक्य ) एकै होयरी" कवी० । संज्ञा, पु० द० (हि. मनका. गुरिया, माला का दाना, माला, मानव ) मनुष्य । कंठी । “गुहि गुहि देते नंद जमोदा तनिक मनुज, मानुज--- संज्ञा, पु० (सं०) श्रादमी, काँच की मनिया''-भु० ।। मनुष्य । संज्ञा, स्त्री०--मनुजाई । “नेता राम मनियार*--वि० दे० (हि. मणि मनुज अवतारा" नामा० । भार---प्रत्य०) चमकीला, उज्वल, सुहावना, मनुष, मनुस - संज्ञा, पु० दे० ( सं० मनुष्य) For Private and Personal Use Only Page #1380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org मनुष्य श्रादमी, मनुष्य, मनुज (दे०), भानुस (दे०) पति | संज्ञा, हो० (६०) मनुमाई । मनुष्य - संज्ञा, ५० (रु० ) श्रादमी मनुज : मनुष्यता-संज्ञा, सी० (०) आदमीपन, , २३६६ मनोरमा मनाजव - वि० यौ० (सं०) अत्यंत वेगवान, मन के वेग के समान वेग वाला । " मनोजवं मारुततुल्यवेगं " स्फुट० | संज्ञा, पु० -- विष्णु, पवन सुत हनुमानूजी । मनोज्ञ - वि. (सं०) सुन्दर, मनोहर | संज्ञा, स्रो० मनोजना मनोदेवता- संज्ञा, पु० यौ० (सं०) विचार, विवेक । दया, करुणा, शील, शिष्टता. तमीज़ मनुष्यत्वा मनुष्यत्व - संज्ञा, पु० (स०) मनुष्यता, आदमीपन, शिष्टता, शील, तभीज़, पुरुषत्व । मनुष्यलोक - संज्ञा, ५० यौ० (सं०) मानव लोक, मर्त्यलोक, भूलाक ! मनुस, मानुस - संज्ञा ५० (दे०) मनुष्य, पति । सज्ञा, खो० मनुसई । मनुसाई+ --संज्ञा स्त्री० दे० (हि० मनुस आई - प्रत्य० ) पराक्रम, पुरुषार्थ पौरुष, मनुष्यता, शूरता, वीरता । " देखेहु कालि मोर मनुसाई "रामा० मनुस्मृति - संज्ञा, स्रो० यौ० (सं०) मनु कृत, मानव-धर्म-शास्त्र | मनुहार, मनुहारि-ज्ञा स्त्री० ६० यौ० ( हि० मन - हरना ) मनौया, मनावनि, खुशामद, प्रार्थना, विनती, आदर-सत्कार करना, मान छुड़ाने या ट को मनाकर प्रसन्न करने के लिये विनय । " करि अनुहार सुधा-धार उपराजैइम खा० । मनुहारना ० कि० दे० ( हि० जान ! हरना ) मनाना, विनय विनय या प्रार्थना करना, थार या सरकार करना । मनूव - संज्ञा, ५० (६०) मन, विचार, रुई मनो, मनो-अव्य० ८० ( हि० मानना ) मानो । " तुमहू कान्ह मन भये "वि० । मनोकामना - संज्ञा, सी० यौ० (हि० मन + कामना) मन कामना, अभिलाषा, इच्छा । मनोगत- वि० (सं०) दिली, जो मन में हो। संज्ञा, पु० - कामदेव, मदन | मनोगत - राज्ञा, खी० यौ० (सं०) भन की गति, चित्तवृत्ति, इच्छा | मनोज - संज्ञा, पु० (सं०) कामदेव, मदन, मनसिज । " कोटि मनोज लजावन हारे " - रामा० । भा० श० को ०. ०-१७२ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मनोनिग्रह - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) मन को वश में रखना या स्थिर करना, मनोगुमि (योग० ) । मनोनीत - वि० सं०) पसंद, मन के कि मन के अनुकूल, चुना हुआ । गर्वोभव, मनोभूत-संज्ञा, ५० (सं०) कामदेव, गंग, मनमथ, मदन, चंद्रमा । . मनोभूत कोटि प्रमासश्शरीरम् - रामा० । मनोमय कोटा -संज्ञा, पु० यौ० (सं०) पाँच कोसों में से तृतीय कोश जिसके अंतर्भूत मन, अहंकार और कर्मेंद्रियां मानी गई हैं (वेदा० ) | मनग1-- स्त्रा, पु० यौ० (सं०) मन को बोर से रोक कर एकाम करना, मन की वृत्तियों को रोककर एक वस्तु में लगाना । वि०--मनोगी। मनोरंजक - वि० यौ० (सं०) मन को प्रसन्न करने वाला | मनोरंजन -ज्ञा, पु० यौ० (स० ) दिलबहलाव, मनोविनोद | वि० मनोरंजक, वि० मनोरंजनाय । मनोरथ-- संध, पु० यौ० अभिलापा, कानना । मनोरथेन --- रघु० । मनोरम - वि० (सं०) सुन्दर, मनोज्ञ, मनोहर | सी० मनोरमा | संज्ञा, पु०सखी छंद का एक भेद (पिं० ) | संज्ञा, स्त्री०मनोरमता । मनोरमा - संधा, खो० (सं०) सात सरस्वतियों में से चौथी सरस्वती, एक छंद (पिं० ) एक For Private and Personal Use Only (सं० ) इच्छा, " स्वानेव पून Page #1381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir i ommanduERAMANA Dummercur मनोरा १३७० ममली वर्णिक छंद जो भार्या का ५७ वाँ भेद है मनाहरता-संज्ञा, स्त्री० (सं०) सुन्दरता। (चंद्रा) १० वर्णों का एक वर्णिक छंद मनोहरनाई- संज्ञा, स्त्री० (दे०) मनोहरता (पिं०) १४ वर्णों का एक वर्णिक छंद (केशव) (सं.)। दोधक छंद (केश०) १० वणों का एक मनाहगा-संज्ञा, सी० द० (सं० मनोहरता) वर्णिक वृत्त (सूद०) स्त्री, गोरोचन, कौमुदी __ मनोहरता. सुन्दरता । की टीका (व्या०) । न को मुदी भाति मनाहारा--वि० (सं० मनोहारिन ) मन को मनोरमाम् विना'-स्फुट। हरनेवाला, मनोहर ! खोमनाहारिणी । मनोरा--संज्ञा, पु० दे० (सं. मनोहर) मनोनिया-संज्ञा, पु. द० ( हि० मनौती) दीवाल पर गोबर के चित्र, गोबर की मूर्तियाँ मनौती मानने वाला, प्रतिभू, जामिनदार । (दिवाली के बाद बनती और पूजी जाती हैं) नीती -सज्ञा, स्त्र द० ( हि० मानना ) झिझिया स्त्री० । यौ० ---मनोरा झमक-- मनत, मानता, देव पूजा, जामिनी। एक तरह का गीत । । मन्नत-संज्ञा, स्त्री० (हि० मानता ) मानता, मनोराज-संज्ञा, पु० दे० ( सं० मनोराज्य ) मनोती, अभीष्ट-पूर्ति पर किसी देवता की मन की कल्पना, मानसिक कल्पना। पूजा का संकल्प । मुहा०--मन्नन उतारना मनोलोल्य--संज्ञा, पु. (सं०) मन की वा चढ़ाना-- पूजा मानने की प्रतिज्ञा पूरी चंचलता, लहर, तरंग, मानसिक भाव ।। करना । मन्नत मानना--यह प्रतिज्ञा मनोवाँछा--संज्ञा, स्त्री० यौ० (०) इच्छा, करना कि इस कार्य के हो जाने पर इस अभिलाषा, मनोकामना। देवता की यह पूजा की जावेगी। मनोवांछित-वि० यौ० (सं.) चित चाहा, मन्वंतर --- संज्ञा, पु. यो० (सं० मनु-+-अंतर) ईप्सित, अभीष्ट, मनमाँगा, इच्छित, ७१ चतुर्युगी के बीत या व्यतीत होने का भभिलषित। समय, ब्रह्मा के १ दिन का १४ वाँ भाग। मनोविकार- संज्ञा, पु० यौ० (२०) मन के सम-सवं० (सं०) मेरा', मेरी, मेरे, अहम का भाव, विचार या विकार-जैसे, काम. क्रोध, पटी के एक वचन का रूप । " तस्व प्रेम लोभ, दया, मोह. ईर्षा आदि । कर मम अरु तारा"..--रामा० मनोविज्ञान--संज्ञा, पु. यौ० (सं०) वह ममता--संज्ञा, स्त्री० (सं०) मेरापना, शास्त्र जिसमें मन की वृत्तियों को विवेचना अपनापन, ममत्व, प्रेम, मोह, लोभ, हो । संज्ञा, पु०, वि० (सं०) मनी बैज्ञानिक । वात्सल्य, छोह, माता का पुत्र पर प्रेम । मनोवृत्ति-संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) मनो. ममत्व- संज्ञा, पु. (सं०) ममता, मोह, विकार। अपनापन, मेरापन। मनोवेग-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) मनोविकार । मनोव्यापार--संज्ञा, पु० यौ० (सं०) विचार । | ममास, ममान --संज्ञा, पु० दे० (सं० मनोसर --- संज्ञा, पु० यौ० (सं० मन ) मातुल - वास ) मवास, शरण, शरण की मनोविकार। जगह, मामा का घर। मनोहत - वि० (सं०) व्यग्र, अस्थिर। ममियाउर, ममियौरा -- संज्ञा, पु० दे० मनोहर-वि० यौ० (सं०) सुन्दर, मनहरण, (सं० मातुल - गृह) मामा का घर, ममाना । मन को प्राकृष्ट और वश में करने वाला । ममीरा--संज्ञा, पु. ( अ० मामीरान ) एक संज्ञा, स्त्री. मनोहरता। संज्ञा, '[.-छप्पय | पौधे की जड़ जो नेत्र रोग की परमौषधि है। छंद का एक भेद (पिं०)। ममली-वि० दे० (म०) मामूली, साधारण । For Private and Personal Use Only Page #1382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मयंक मरघट मयंक-संज्ञा, पु० दे० ( सं० मृगांक ) शशि, मयारी संज्ञा, स्त्री० (दे०) छप्पर के सिरे चंद्रमा । " अंक न भाव मयंक मुखी परजंक पर लगाने की मोटी लकड़ी, हिंडोले के पै पारद की पुतरी सी'। लटकाने को धरन या बड़ी लकड़ी। मयंद-संज्ञा, पु. दे. (सं० मृगेंद्र ) सिंह, मयूख---संजा, पु. (सं०) किरण, दीप्ति, शेर, बाघ, व्याघ्र । प्रभा, अप्ति, ज्वाला. कांति, प्रकाश । मय-संज्ञा, पु. (सं०) एक देश, एक दानव "रवि मयूख प्रयू व समान हैं "--मै० श. जो बढ़ा कारीगर या शिल्पी था (पुरा०)। गु० । संज्ञा, पु. यौ० (सं०) मयुखमाली। महाद्वीप अमेरिका के मक्यिको देश के । मयर-संज्ञ', पु. (सं०) मोर । स्त्री० मयूरी। प्राचीन निवामी। प्रत्य० (सं०) एक प्रत्यय पयरगति--संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) २४ वर्णो जो तद् रूप, विकार अधिकता के अर्थ में की एक छंद या वृत्ति (पिं०) । संज्ञा, स्त्री० शब्दों के अंत में लाई जाती है । मो०-मयी यौ० (सं०) मोर की चाल । संज्ञा, स्त्री. अत्र्य. --मै । प्रत्य० (फ़ा०) । मगरमारिगी-संज्ञा, स्त्री. (सं०) १३ साथ । संज्ञा, स्त्री० (८) शराव वर्णों का एक छन्द (पिं०) । मयकश-वि० (फा० शराबीन संज्ञा, स्रो० मरंद*---संज्ञा, पु० दे० (सं० मकरंद) i . (फा०) मयकगी। ! मकरंद, पराग। मयखाना-संज्ञा, पु० यो (फा०) शराब मरक-- संज्ञ, स्त्री० दे० (हि. मरकनाखाना, नरालय, मधुशाला। दबाना) दबाकर संकेत करना, संकेत, मड़क मयखोर - वि० ०। शराबो । संज्ञा, . (प्रान्ती०)। स्त्री० मयाकोरी। मयगल संज्ञा, पु० द० (सं० मदकन ) मरकर--सना, पु. (दे०) मकट (सं० ) मतवाला या प्रमत्त हाथी. मइगन । बानर, बन्दः । मयन-संज्ञा, पु. दे० (सं० मदन ) मैन, सरकन संज्ञा, पु. (सं०) पन्ना, रत्न । काम । "करदु कृपा मरदन मयन' रामा० । . मरकना --० क्रि० (अनु०) किसी दबाव मयना--संज्ञा, स्त्रो० (१०) सारिका, भेना। में पड़कर टूटना. मुड़कना, मुरुकना (दे०)। मयमंत, मयमत्त-- वि० दे० ( सं० मदमत) मरकहा-- वि० (दे०) मारने शला । “सूनी मस्त, मतवाला। सार भलो कि मरकहा बैल"-लोको । मयसुता-संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) सयान्मजा मरकाना- पु० कि० दे० ( हि० मरकना) मन्दोदरी या मयतनया । संज्ञा, पु० तोड़ना, चूर करना, फोड़ना, मुड़काना । मयसुत। मर खपना--प्र. क्रि० यौ० (दे०) मर मयस्सर-वि० (अ.) प्राप्त. उपलब्ध, सुलभ । " वां मयस्सर नहीं वह श्रोदनेको" मिटना, नाश हो जाना, अति परिश्रम करना । | मरगज्ञा*-- वि० दे० यौ० ( हि० मलना+ हाली। मया-संज्ञा, स्रो० द. ( सं० माया) गोंजना ) मसला या गीजा हुआ, मलादला, माया, प्रपंच, प्रकृति, प्रधान, प्रेम, दया, विदित । " देखि मर गज चीर"-वि० । ममता, मोह, छोह, प्यार । सर्व० ( सं० मरगल-संज्ञा, पु० (दे०) मसाला भरा तला महम् का तृतीया में रूप) मेरे द्वारा। हुआ बैंगन । मयार-वि० ( सं० माया ) दयालु, कपालु। मरघट-संज्ञा, पु. यौ० दे० (सं०) मृतकों के संज्ञा, स्त्री० (दे०) छप्पर के ऊपर की लकड़ी, जलाने का घाट या स्थान, श्मशान, मरघटा मयारी (द०)। | (दे०), चिटका (प्रान्ती० )। For Private and Personal Use Only Page #1383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मरज, मरज १३७२ मरना PAVALORDamaneeMANSKRIM e ane मरज, मरज-संज्ञा, पु० दे० ( अ. मर्ज़) मरदन* --संज्ञा, पु. ० (सं० मर्दन ) रोग, बीमारी, बुरी आदत या लत, कुटेव, मलना, मालिश करना, कुचलना, रौंदना, बुरा स्वभाव । वि०, संज्ञा, पुर. -मरीज। नाश करना, मरद क' व० २.! " मरज़ बढ़ता गया ज्यों ज्यों दवा की '...- मरदना स० क्रि० दे० (सं० मर्दन ) स्फु० । मलना नष्ट करना, मपलना, मोड़ना. धना मरजाद, मरजादा .... संज्ञा, स्त्री० (सं० कुचलना। मर्थ्यादा ) सीमा, हद, प्रतिष्ठा, महत्ता, सरनिया - एंज्ञा, '१० दे० ( हि० मर्दना ) महत्व, नियम, परिपाटी, प्रणाली, प्रार, देह में लेल मलने वाला दास । रीति । "राखी मरजाद पाप-पुन्य की बरदानगी, गनिमी----संज्ञा, स्त्री. (फा०) सुराखी गनै--रना। शूरता. वीरता, बहादुरी, पाहम, शोर्य : मरजिया--वि० यौ० दे० (हि० मरना + मरना ...वि. (10) पुरुषों का मा, जीना ) जो मरने से बचा हो, सरकर जीने पुरुष-संबंधी, वीरोचित । मंशा, पु. (दे०) वाला, मरणासन, जो मरने के निकट हो, मर्द। वि० स्त्री०---रदानी मरने पर तैय्यार, अधमरा ! संसा, पु० (दे०)। भरती---वि० (अ.) गर्द सम्बन्धी, मर्दानगी समुद्र में पैठकर मोती निकालने वाला (चौ. में. जैसे-जवांमी )। गोताखोर, डुबकिहा, पनडुब्बा, जिवकिया। मरद - वि० अ०) नीच. तिरष्कृत । (प्रान्तो०)। संज्ञा, स्त्री० (दे०) मरजी। गरला-.क्रि.० दे. ( सं० मागा) जीवों मरजी--- संज्ञा, स्त्री० (१०) गरजी (दे०) के देहों से जीवात्मा का निकल जाना, प्रसन्नता. इदा. चाह. स्वीकृति. आज्ञा । मृत्यु त प्राप्त होगा. भोवन शाक का नष्ट "जाट जुलाहे जुरे दरजी सरजी में मिले होला । “ऐसा हो ना मुबा, कि फेरि न चिक और चमारो'' ----शिवल ल। गरना होय'-- कबी० । यो० मरना-पत्रपना, मरजीवा--- संज्ञा, पु. द. ( हि० भरना भटरना-मिटना । मुहा०- यो सरता. जीना ) मरजिया। जीना ----शुभाशुभ अवसर, शादी-ग़मी, मरण--संज्ञा, पु. (सं०) मरन (दे०) मृत्यु, । मुख-दुग्य, अत्यधिक कष्ट उठाना । मुहा०. मौत । "मरणशय्याया प्रतिपेदिरे"..--: किमी पर परमा... शासक्त या लुब्ध माघ०। होना । बात पर मरना---जीवन देकर भी मरणासन्न-~-वि० यौ० (२०) मरने के निकट ! बात रखना । बात को मरना-व्यर्थ या मरत* ---संज्ञा, पु० दे० (सं० मृत्यु ) मृत्यु । निस्सार बातों से शान दिखाने की इच्छा "जियत, मरत, झुकि कि परत' वि० करना । 'मरत कह दात को"मरता । लो०--"मरता क्या न करता।" नंद० । मर मिटना-परिश्रम करते करते मरतबा-संज्ञा, पु० (अ.) पदवी, पद, दर्जा, नष्ट हो जाना ! " इसी तमना में मर मिटे कता, बार, दफा । " वह मरतबा है और हम ।' मारा जाना-व्याकुल होना, ही फहमीद के परे" ---मीर। प्रत्याकुल होना, शातुर और कातर होना। मरद*-- संज्ञा, पु० दे० ( फ़ाः मर्द ) मर्द, कुम्हलाना, मुरझाना, सूग्वना, लजित पुरुष, बहादुर, साहसी। होना, संकोच करना, किनी काम का न मरदई:--संज्ञा, स्त्री० दे० ( हि० मरद । रह जाना, नष्ट होना । मुहा०--पानी ई--प्रत्य० ) साहस, वीरता, बहादुरी, भारता-कलंक लाना, बे शरम या निर्लज मनुष्यत्व। हो जाना, दीवाल की नींव में पानी धंसना, For Private and Personal Use Only Page #1384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मरनी १३७३ मरियम किसी से हारना, दबना, पछताना, वेग का महाराष्ट्र देश का निवासी, महाराष्ट्र । स्त्री० शान्त होना। मरहठिन । मरनी--संज्ञा, स्त्री० (हि. मरना ) मृत्यु, मरहठी-वि० दे० ( हि० मरहठा ) मरहठामौत, हैरानी, कष्ट, किसी के मरने पर उसके | संबंधी, मरहठों का । संज्ञा, स्त्री० (दे०) सम्बन्धियों का सदुःख कृत्य । मरहठों की बोली या भाषा, मराठी मर-पचना-अ० कि० (दे०) अति परिश्रम (प्रान्ती०)। करना, बहुत ही दुख सहना । मरहम---संडवा, पु० (अ०) पीड़ित स्थानों या मर-भुकम्वा-वि० दे० यौ० (हि० मरना । घावों पर लगाने की औषधियों का लेप । भूखा ) दरिद्र, कंगाल, भुक्खड़ । " मरहम तो गये मरहम के लिये मरहम मरभुखा, मग्भूवा-वि० (दे०) बिना | न मिला माहम न मिला। खाया, खाऊ, पेटू, दरिद्र । मरम-संज्ञा, पु० दे० (सं० मर्म ) मर्म, मरहला-राज्ञा, पु० (अ०) पड़ाव, ठिकान, भेद । “ मरम हमार लेन सठ श्रावा"-- मंजिल, रातिब । मुहा०-मरहला रामा० ! वि० मरमी तय करना - झगड़ा निपटाना, कठिन कार्य को पूर्ण करना। मरमर--संज्ञा, पु० (सं०) संगमरमर, एक प्रकार का सफ़ेद पत्थर । संज्ञा, पु. (दे०) मरहम-वि० (अ०) मृत, स्वर्गवासी। पानी के बहने का मरमर शब्द। | मरातिब- पंज्ञा, पु. (अ.) उत्तरोत्तर पाने वाली अवस्थायें, दरजा, पद, घर के खंड, मरमराना--.अ. क्रि० दे० (अनु०) मर मर ध्वजा, पताका, झंडा। शब्द करना, दबाव से लकड़ी श्रादि का मरमर शब्द करना। मराना--स: क्रि० (हि० मारना का प्र० रूप) मरम्मत-- संज्ञा, श्री. (अ०) जीर्णोद्वार, मारने की प्रेरणा करना, मरवाना । दुरुस्ती, किसी वस्तु के टूटे-फूटे भागों की मरायल*--वि० दे० ( हि० मारना+ दुरुस्ती, बिगड़ी वस्तु का सुधार। आयल-प्रत्य०) मार खाने वाला, पीटा मरवाना-स० क्रि० ( हि० मारना प्रे० रूप) हुश्रा, सत्वहीन, निर्बल, निःसत्व । संज्ञा, किसी को किसी दूसरे के पीटने को प्रेरित पु० (दे०) शटा, क्षति, हानि ।। करना। मराल-संज्ञा, पु० (सं०) हंस, बतख, घोड़ा, मरसा--संज्ञा, पु० दे० (सं० मारिष ) एक हाथी । सो० मराली । “बरु मराल प्रकार का साग। मानस तजै, चंद सीत रबि घाम"-तु. मरसिया - संज्ञा, पु. (अ.) किसी की “जियइ कि लवन पयोधि मराली"मृत्यु के सम्बन्ध में शोक-काव्य, करुण- रामा० । क्रंदन । | मरिंद, मनिंद*- संज्ञा, पु० दे० (सं० मरहट --संज्ञा, पु० दे० (हि० मरघट ) मलिंद ) भौरा, मरंद (दे०) । संज्ञा, पु. मरघट, श्मशान, मसान। -संज्ञा, स्त्रो० (सं० मकरंद ) मकरंद । (दे०) मोठ। मरिच, मरीची-संज्ञा, पु० (सं०) मिरिच, मरहटा-संज्ञा, पु० दे० (सं० महाराष्ट्र) मिर्च । “ रस-द्विजीर द्विनिशा मरीची"मरहठा, १६ मात्राओं का एक छन्द (पिं०) लो। मरहट्टा (दे०)। मरियम-संज्ञा, स्त्री० (अ०) ईसा की माता, मरहठा- एंज्ञा, पु० दे० (सं० महाराष्ट्र) कुमारी। For Private and Personal Use Only Page #1385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मरियल मरोड़ना मरियल- वि० दे० ( हि० मरना ) मरगुल मरुतात्मज-संज्ञा, पु. यौ० (सं०) मारुति, (ग्रा०) दुबला, कमज़ोर । हनुमान जी। मरी -संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० मारी) एक ममथल-संज्ञा, पु० दे० (सं० मरुस्थल ) संक्रामक रोग, महामारी, प्लेग (अं०)। रेगिस्तान, मदेश । मरीचि-संज्ञा, पु० (सं०) ब्रह्मा के मानसिक मद्धोप-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) सजल, इरापुत्र ऋषि जो एक प्रजापति और सप्तर्षियों भरा और उपजाऊ स्थान जो मरुस्थल में में हैं (पुरा०) एक मारुत्, भृगु के पुत्र और हो, शादुलभूमि, आसिस ( अं० )। कश्यप के पिता । संज्ञा, स्त्री० सं०) किरण. मरुधर-संज्ञा, पु. (म०) मारवाड़ देश, कांति. मिर्च, मृगतृष्णा । बलुवा प्रदेश । मरीचिका-संज्ञा, स्त्री० (सं०) मृग-तृष्णा, ममभूमि-- संज्ञा, स्त्री. यो. (सं०) रेतीला सिरोह (प्रान्ती०) किरण, मिर्च । और निर्जल देश, रेगिस्तान, बलुवा देश । मरीचिमाली-- संज्ञा,पु० (सं० मरीचिमालिन्) मारना - ग्र० कि. दे० ( हि० मरोड़ना ) सूर्य, चंद्रमा। ऐंठना. मरोड़ा जाना। मरीची-संज्ञा, पु. ( सं० मरी चेन ) सूर्य, मरुस्थत - संज्ञा, पु. यौ० (सं०) निर्जल चंद्रमा, किरण, कांति । प्रदेश, रेगिस्तान, रेतीला देश । मरीज़ -- वि० (अ०) बीमार, रोगी। मरू* ---वि० दे० ( हि० मरना ) कठिन, मरीना, मलीना-संज्ञा. पु० दे० ( स्पनी. दुरूह, मुश्किल । “ चले मरूकै अति गरू, मेरिनो ) एक पतला नरम ऊनी वस्त्र । रंच हरू करि देहु".-रमाल । मुहा०मरु-संज्ञा, पु० (सं०) रेगिस्तान, रेतीला मा करिक या मस्करि --बहुत कठिनता मैदान, निर्जल स्थान, मारवाड़ के समीप से, ज्यों त्यों कर के, बड़ी कठिनाई या का देश । यौ० मरुस्थल, मर-भूमि। कष्ट से। मम्मा , मरुवा--संज्ञा, पु० दे० (सं० मख) मारा-मारोरा-संज्ञा, पु० दे० (हि० रोड) बबरी (ग्रा०) वन-तुलसी की जाति का मरोड़, दर्द । वि. मोड़ा हुआ। एक पौधा । संज्ञा, पु. ( सं० मेरु ) बढेर, मरोड---संज्ञा, पु० . हि० मरोडना ) मरोर बल्ली, हिंडोला लटकाने की बल्ली या (दे०) मरोड़ने का भाव या किया। संज्ञा, स्रो० लकड़ी। (दे०) पेट में ऐठन यो पीडा । मुहा० - मरुत्-मरुद - संज्ञा, पु० (सं०)वायु, उनचास भरोड़ खाना-चक्कर खाना ! मन में मरुत् हैं । हवा, प्राण, रुद्र और वृश्नि के मरोड़ करना-कपट या छल करना। पुत्र ( वेद० ) कश्यप और दिति के पुत्र मरोड़ की बात - पंचीदा या धुमाव (पुरा० ) एक देव-गण । फिराव की बात । घुनाव, बल, एंठन क्षोभ, मरुत्वान*-संज्ञा, पु० दे० (सं० महत्त्वान) व्यथा, दुख । मुहा० --मरोड़ खाना--- इन्द्र, मघवा। उलझन में पड़ना. पेट में ऐंठन और पीड़ा मरुत्सखा-संज्ञा, पु० यौ० (सं.) मरुन्मित्र, होना। घमंड क्रोध । मुहा०-सरोड़ अग्नि, तेज । "मरुप्रयुक्ताश्च महसखाभम्" गहना---क्रोध करना। -रघु०। मरोड़ना-स० क्रि० दे० (हि० मोड़ना) मरुत्वान-संज्ञा, पु. ( सं० महत्त्वत् ) इन्द्र, ऐंठना, घुमाना, बल डालना, उमेठना, धर्म के पुत्र एक देवगण, हनुमान । " बभौ मरोरना (दे०) । मुहा०-अंगमरोडना मरुत्त्वान विकृतः समुद्रः "-भट्टी। -अंगड़ाई लेना । भौंह या आँख आदि For Private and Personal Use Only Page #1386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मर्मभेदक करना। मरोड़फनी १३७५ मरोड़ना-इशारा करना, कनखी मारना, मर्दन-संज्ञा, पु० (सं०) मलना, कुचलना, नारु भौंह चढ़ाना, भौंह सिकोड़ना, उमेठ नष्ट करना वि० मर्दनीय । कर तोड़ डालना, ऐठ कर नष्ट करना या । मर्दना* -60 कि० दे० (सं० मर्दन) मलना, मार डालना, मसलना, पीड़ा या दुख देना, मालिश करना, नष्ट करना, मरदना (दे०) मलना । मुहा०- हाथ मरोड़ना- रौंदना। कछ मारेसि कछु मर्देसि कछुक पछताना, कलाई या हाथ ऐठना। मिलायति धूरि -रामा । मरोडकली-सज्ञा, सी. द० यौ० ( हि०) मर्दानगी--पज्ञा, स्त्री. ( फा०) वीरता, मुरा को लकड़ी, एक फली । अवतरना साहस, बहादुरी। (प्रान्ती। | मदित--- वि० (सं०) मसला या मला मरोड़ा-संज्ञा, पु. ( हि० मरोड़ना ) ऐठन, हुआ, कुचला या रौंदा हुआ। मरोरा (दे०) उमेठ, मरोड़, बल, पेट की मर्दुभ-संज्ञा, पु० ( फ़ा० ) मनुष्य । ऐंठन सी पीड़ा। मर्दुमशुमारी-संज्ञा, स्त्री० यौ० (फा.) मरोड़ी-संज्ञा, स्त्रो० (हिं० मरोड़ना) ऐंठना। देश की मनुष्य-गणना, जनसंख्या । मुहा०-मरोड़ी करना -- खींचातानी मदुमी-संज्ञा, स्त्री० (फा०) मरदानगी, । पौरुष। वि. ( स्रो० मुदिनी) नाशक, मकट-संज्ञा, पु० (सं०) बानर, बंदर, दोहा संहारकर्ता । का एक भेद, छ यय का ८ वा भेद पि०)। मद्दन-संज्ञा, पु. ( सं०) रौंदना, कुचलना, "मर्कट-भालु चहूँ दिशि धावहिं" .. रामा०। मलना, शरीर में तेल आदि लगाना या मर्कटी-संज्ञा, स्नो० (०) बानरी, बंदरी, मसलना, चंप, नाश, कुस्ती में एक मल्ल मकड़ी, छंद, ६ प्रत्ययों में से अतिम इमसे का दूसरे के गले आदि में घस्सा मारना, मात्रा, कला, गुरु, लघु और वर्ण-संख्या घोटना पीपना, रगड़ना । ( वि० मर्दित, ज्ञात होती है (पि०), एक वनौषधि (वैद्य) मर्दनीय )। " उच्चटा मर्कटी गोरै चूर्णिते '' - लो। जो मर्दनीय-वि. ( सं० ) मलने या न करने म - के योग्य । मर्कत-संज्ञा, पु० दे० (सं० मरकत) पन्ना। ___ मदल-सज्ञा, पु. ( स० ) मृदंग सा एक मर्ज - संज्ञा, पु० ( अ०) रोग बीमारी, बुरी : बाजा (बंगाल)। बात, या लत। मदित-वि० सं० ) जो मला या कुचला मर्तबान-ज्ञा, पु० दे० ( हि• अमृतबान ) गया हो। अमृतवान, खटाई, घी आदि रखने का एक मर्म-संज्ञा, पु. ( सं० मर्म ) भेद, तस्व, प्रकार का रोग़नो बरतन। रहस्य, सधि स्थान, प्राणियों के शरीर के मर्त्य - संज्ञा, पु. (सं०) मनुष्य, शरीर, वे स्थान जहाँ चोट लगने से अधिक पीड़ा भू-लोक । वि०-मरने वाला। " विचार लो । होती है, मरम (दे०) । वि० मार्मिक । कि मर्त्य हो न मृत्यु से डरो कभी"-मैं श०गु०। " मर्म तुम्हार सकल मैं जाना—रामा०। मर्त्यलोक -- संज्ञा, पु. पो. (स०) भूलोक, मर्मज्ञ --- वि० (२०) भेद जानने वाला, तत्वज्ञ, पृथ्वी। । रहस्य जानने वाला । संज्ञा, स्त्री० मर्मज्ञता। मर्द-संज्ञा, पु० (फ़ा०) मरद (दे०) मनुष्य, मर्मभेदक-वि• यौ ( सं० ) मर्म-भेदी, हृदय साहसी पुरुष, पुरुषार्थी, वीरपुरुष, भर्ता, नर, पर चोट करने वाला, प्रांतरिक कष्ट पहुँचाने पति, पुरुष । वाला। For Private and Personal Use Only Page #1387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मर्मभेदी ૨૩૭ मलमलाना मर्मभेदी-संज्ञा, पु. यौ० ( सं० मर्मभेदिन ) मलकिन-मालकिन - संज्ञा, स्त्री० (हि. मर्म-भेदक, दिली दुख देनेवाला । मालिक ) मालिक की स्त्री। मर्मर--संज्ञा, पु० दे० ( यू० परमर ) संग- मलखंभ--संज्ञा, पु. द० यौ० (सं० मरमर । संज्ञा, पु० (सं०) तुषानल । " स्मर. मल्लस्थंभ ) मलखम (दे०), पहलवानों की हुताशन मर्मर चूर्णताम् "-माघ कसरत का खंभ। मर्मबचन -संज्ञा, पु. यौ० ( हि० ) ऐसी मलखम-संज्ञा, पु० दे० यौ० (सं० मल्लबात जिसके सुनने से प्रांतरिक कष्ट हो, दुख स्थंभ ) पहलवानों की कसरत का खंभ, दाई बात, रहस्य या भेद की बात, गूढ़ मालखंभा, उसका व्यायाम । कथन । " मर्म-वचन सीता जब बोली" | मलखाना -वि० दे० यो० (हि.) मल ---रामा। खानेवाला । संज्ञा, पु. यो. (सं० मल्ल :मर्मवाक्य-संज्ञा, पु० यौ० (२०) रहस्य की सेन ) पश्चिमीय संयुक्त प्रान्त के वे राजपूत बात, भेद की बात, गूढ कथन, गंभीरवाणी। जो मुसलमान से अब फिर हिन्दू बन मर्मविद-वि० (सं०) मर्मज्ञ, भेद जानने गये हैं। मलगजा* -- वि० यौ० दे० ( हि. मलना -- वाला। मांतक-वि• यौ० (सं०) मर्म-भेदक, गीजना ) मजादला, पा गीजा हुया, मरगजा। संज्ञा, पु. बेसन में लपेटे बैगन के घी या दिल में चुभने वाला, हृदयस्पर्शी, मर्मस्पर्शी। तेल में भूने टुकड़े। मर्मी-- वि० (हि० मर्म ) मर्मज्ञ, तत्वज्ञ, मलगिरी-संज्ञा, पु० दे० (सं० मलयगिरि ) मर्मवाला। हलका कत्थई रंग।. मर्याद-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० मर्यादा ) मलद्वार-संज्ञा, पु० यौ० ( सं० ) शरीर की मर्यादा, रीति, प्रथा, बराहार (विवाह ) मल निकालने वाली इन्द्रिय, गुदा। सीमा, मरजाद (दे०) । " उदधि रहै मलना-स० कि० (सं० मलन ) ज़ोर से मर्याद में "- वृ०। घिसना, हाथ से रगड़ना, ऐंठना, मर्दन मर्यादा-संज्ञा, स्त्री० (सं० ) हद, सीमा, करना, मांजना, मालिश करना, मसलना, किनारा, कण, कूल, नियम, प्रतिज्ञा, हाथ या अन्य वस्तु स दबाते हुए घिसना । प्रतिष्ठा, धर्म, सदाचार, सम्मान, मरजादा यौ०--दलना-माना पीसना, चूर्ण करना, (दे०)। घिसना, मसलना, नष्ट करना । मुहा०मलंग-संज्ञा, पु० ( फ़ा० ) एक मुसलमान, हाथ मलना--पछताना, क्रोध दिखाना । साधु । वि० मलंगा--नंगा, नग्न । .. मैं रोता रह गया बस मलते हाथ " मलंगी-संज्ञा, पु० (दे०) एक जाति जो -हरि०। नमक बनाती है, नुनियाँ, लुनियाँ। मलवा ... संज्ञा, पु० दे० (सं० मल) कूड़ा। मल-संज्ञा, पु० (सं० ) मैल, मैला, कीट, कर्कट, खर कतवार, गिरे हए घर का सामान, विष्टा, पुरीष, देह का विकार, दृषण, ऐब, ईट, चूना आदि । पाप । यौ० मल-मूत्र । “ कलि-मल-ग्रसे मलमल - संज्ञा, सं० दे० (सं० मलमल्लक) धर्मा सब"-रामा। एक पतला सफ़ेद सूती कपड़ा। मलकना-अ० कि० (दे०) मटकना, नखरे मलमलाना-स० कि० द० ( हि० मलना) से मटक मटक कर चलना। बार बार खोलना मदना, बार बार मिलना, मलका-मलिका-संज्ञा, स्त्री० दे० (अ. भेंटना, आलिंगन करना, पछताना, पुनः मलिकः ) महारानी, बेगम, 'पटरानी। । पुनः स्पर्श करना । For Private and Personal Use Only Page #1388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मलमास मलिन राज E RENTapaiTRAMDARDon मलमास - संज्ञा, पु. ( सं०) संक्रांति हीन नाई . ज्ञा, स्रो० (द०) रस, तत्व, दूध की अमान्त मास. अधिक मास, पुरुषोत्तम या ' माढ़ी. गर्म दूध का ऊपरी सार भाग । अधिमास, लौंद का महीना। संज्ञा, स्त्री. ( हि० मलना ) मलने की क्रिया, मलमेंट---संज्ञा, पु० (दे०) उजाड़, सत्यानाश. भाव का मज़दूरी। विध्वंस, विनट । मलान -वि०६० ( सं० म्लान । मलीन, मलय-ज्ञा, पु० (१०) मलाबार देश, मैसूर . उदास.जीदा ! निन्दा मुनि के खलन से दक्षिण और ट्रावनकोर से पूर्व का पश्चिमी की धार न झोहि मलाना'-- ० । घाट का भाग, वहाँ के निवा पी. नंदनवन. नि ... डा. स्त्री० दे० सं० म्लानि ) सफ़ेद, चंदन, चंदन-वन. एक पहाड़, छप्पन उदासीनता, उदासी, मलीनता का एक भेद (पि.)। " कोमल मलगसमीरे "..गी. गो। अनामत - संज्ञा, स्त्री० (अ.) फटकार, मलयगिरि-संज्ञा, ३. यौ० (सं०) दक्षिण का दुत कार लानत. निकृष्ट भाग, गंदगी ! एक पहाड़ जहाँ चंदन होता है. भलयाचल । मो०-लानत नामस फटकार, निन्दा । का चंदन, प्राणाम देश, मलयागिरि मार हता, पु० दे० (सं० मल्लार ) धष ( देयो। ऋतु में गाया जाने वाला एक राग : मलयज--संज्ञा, पु. (सं०) चंदन, मलग- मुहा--- लार गाना...- अति प्रसन्न हो गिरि में उत्पन्न । कुछ कहना या गाना । मलार कीमना मलयाचन --संज्ञा, '९० यौ० ( सं० ) मलय मौज उड़ाने या विनोद की बात सूझना । पर्वत। मलात--ज्ञा, पु० अ० में, दुख, मलयानित ---पंज्ञा, पु. यो. ( सं० ) मलय उदासी. खद, खिन्नता ! पहाद की सुगंधित वायु, सुगंधित वायु, मला . . .- मज्ञा, पु. ६० (अ. नल्लाह ) पसंत-पवन । मल्लाह. केवट, ! संज्ञा, खो. मनाहा मलयालो-वि० २० (ता. मलयालम् ) अलाहा- केवट का पेशा। मलाबार-संबंधी, मलाबार का । ज्ञा, स्त्री० मलिट-संहा, कुछ द० (सं० मिलिद) भारा। दे०-मलाबार की बोली या भाषा. , मलिक---संज्ञा, पु. (अ.) सालिक, राजा, मलायन । अधिपति, 'अधिराजा । सी० मलिका। मलयुग -संज्ञा, पु० चौ० ( सं० ) कलियुग ।। मलराना-स० कि० दे०) मल्हराना, प्यार मलित महिनच्---सज्ञा, पु. ६० (सं० करना । " कोऊ दुलरावे, मलरावें, हलरावे म्लेछ) ग्लेच्छ. मांसाहरो, नीच दरिद्र । कोऊ, चुटकी बजावे कोऊ देत करतार है " विलिनी-- गदा, घृणित, नीच, ---- रामरमा। दरिद्री। मलरुचि-वि० यौ० (सं०) पापी, बुरी रुचि मलिन--वि० (सं०) मतीन, मैला. गंदला. मटमैला. दूषित, उदास, धूमिल, पापी मलवाना-स० क्रि० दे० (हि. मलना का धीमा फीका. उदास. म्लान, बदरंग: वी. प्रे० रूप ) मलने का काम दूसरे से कराना। मलिना जतिनो । सज्ञा. स्त्री० मलिनता, मलाना । संज्ञा, स्त्री. (दे०) मलवाई लिनाई (दे०) । “पूछेउ मातु मलिन मन मलहम-संज्ञा, पु० दे० ( अ० मरहम ) देखी "----रामा० । संज्ञा, पु० मैले कपड़े मरहम, फोंड़ों श्रादि का लेप (औष०)। : पहनने वाले एक साधु लोग, अघोरी मा. श० को. १७३ For Private and Personal Use Only Page #1389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मलिनता १३७८ मल्हाना, मल्हारना BR U ARISMI S ARTAMANNILOPMEDIOMETREATMARELHARE मलिनता-संज्ञा, स्त्री० (सं०) मलीनता कुशल थी, इसीसे पहलवान को मल्ल मैलापन, उदासी। मलिना-वि. स्त्री. कहते हैं, पहलवान, कुरतीगीर, विराट के (सं० ) दुखित, दूषित। निकट का एक प्राचीन देश । मलिनाई* ~ संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० मलिनता) मल्लक---- संज्ञा, पु० ( स० ) दीपक, नारियल मलिनता, उदासी, मैलापन, मलिनई (दे०)। का पात्र, पहलवान । मलिनाना-अ० कि० दे० ( सं० मलिन ) मलमभूमि--संज्ञा, सु. यौ०( सं० ) अखाड़ा, मैला-कुचैला होना, मैलाना (दे०)। कुश्ती लड़ने का स्थान । मलिनी-संज्ञा, स्त्री. द. (सं० मलिनता) मल्लयुद्ध---संज्ञा, पु० (सं०) कुश्ती, ऋतुमती या रजस्वला स्त्री। बाहुयुद्ध, केवल हाथों से बिना शस्त्रास्त्र के मलिम्लुच--- संज्ञा, स्त्री. (दे०) मलमास, किया जाने वाला इन्ह युद्ध । अग्नि, चोर, वायु। मलनविद्या---संज्ञा, स्त्री० यो० ( स० ) कुश्ती मलिया--संज्ञा, खी० ( ० मल्लिका) की विद्या. मलत-विज्ञान । तंग मुंह वाला मिट्टी का पात्र या घेरा, मल तशाला---संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) चक्कर । माला का अल्पा० बी० बच्चों की अखाडा. मल्लभामा माला। मल्तार-संज्ञा, पु. (सं०) मलार राग मलियामेट--संज्ञा, पु० दे० (हि०) सत्यानाश, । (संगी०, मछली मारने और नाव चला कर तहस-नहस, मटियामेट । निर्वाह करने वाली एक नीच जाति, मल्लाह । मलीदा--संज्ञा, पु. ( फा० मालीदः ) चूरमा, रमा, मल्लारी---संज्ञा, सं० (सं०) एक रागिनी। एक बहुत मृदु ऊनी कपड़ा। मतीन-वि० दे० सं० मलिन ) मैला, गंदा, मल्लाह----संज्ञा, पु० (अ०) केवट, धीवर, नाव चलाने और मछली मारने वाली एक नीच उदास, खिन्न, दुखी, अस्वस्थ, अस्वच्छ । जाति, माँझर संज्ञा, सी० (दे०) सल्लाही। मलीनता-संज्ञा, स्त्री० दे० ( सं० मलिनता) ' मल्लिक संज्ञा, पु० (सं०) हंस श्वेत हंस : मलिनता, मलिनाई, उदापी। मलूक -- संज्ञा, पु० (सं० } एक कीड़ा, माल - मल्लिका----संज्ञा, सी. (सं० ) मोतिया, एक पदी, अमलूक ( प्रान्ती. ) । वि. एक बेला फूल, ८ वर्णों का एक वर्णिक छंद (दे०) सुन्दर मनोहर । संज्ञा, पु. यो. एक: (पि० सुमुखी वृत्ति सुमुखी छन्द (पिं०)। प्रसिद्ध नीच जाति के साधु, मलूकदास मल्लिनाथ --संज्ञा, पु. ( सं० ) जैनमत में मलेच्छ--संज्ञा, पु० दे० सं० म्लेच्छ) उन्नीयवे तीर्थकर, संस्कृत के एक प्रसिद्ध म्लेच्छ, मांसाहारी, मलिच्छ (दे०)। टीकाकार पंडित। मलैया--संज्ञा, स्त्री० (दे०) हाँगी, हंडी। मल्ली--संज्ञा, स्त्रो० (सं० ) मल्लिका, सुन्दरी मलोला-संज्ञा, पु. म. (प्र. मलूल या : छंद या वृत्ति का दूसरा नाम ! बलबला) मनसंबंधी दुख, रंज, दुख, । ' मल्लू-मल्ह---संज्ञा, पु० द० (सं० मल्ल ) मानसिक या हादिक खेद या भिन्नता । नुहा मल्लूर ---संज्ञा, पु. ( सं०) बेला का पेड़, मलोला या मलाल श्राना--दुख या विल्वा । पछितावा होना । मलोले खाना-मन की मल्हराना --- स० कि. द० (सं० मल्ह) दुलार व्यथा सहना । अरमान, हार्दिक वेदना, व्यथा, दिखाते हुए लेटना, चुमकारना, प्यार करना। या व्याकुलता उत्पन्न करने वाली इच्छा। मल्हाना-मल्हारना -स० कि० दे० ( सं० मल्ल-संज्ञा, पु० (सं०) दीप-शिखा । मल्ह----गोस्तन ) पक्षकारना. चुमकारना, एक पुरानी ज्ञाति जो द्वन्द्व-युद्ध में बड़ी प्यार करना ! । बन्दर। For Private and Personal Use Only Page #1390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मपक्किल १३७६ मसकली मवकिल-संज्ञा, पु० दे० ( अ० मुवकिल ) मोटी बत्ती जो डंडे में लगी रहती है। मुकदमें में अपने लिये वकील करने वाला । मुहा०-शाल लेकर ( जला कर ) मघाजा - संज्ञा, पु० ( ० ) बदले या परि ढ़ ना - बहुत खोज करना, खूब हूँदना । वर्तन में दिया धन युआवजा । मशालची संज्ञा. पु. ( फा०) मशाल मवाजिब -संज्ञा, पु० ( ० ) नियत समय दिखाने वाला । नीशालचिन । पर मिलने वाली वस्तु, जैसे तनखाह । मश्क---संज्ञ, पु० : ० । अभ्याल । मवाद --संज्ञा, पु. ( प्र०) पीव । मष---संज्ञा, j० दे० ( सं० मख ) यज्ञ । मवास--संज्ञा, पु० ( सं० ) वाण या रक्षा मषि-मापी---संज्ञा, बी० (सं० मसि) स्याही। का स्थान, शरण, आश्रय, गढ़, दुर्ग, किले 'लिखिय पुरान मजु मपि सोई-रामा० । के प्राकार पर के वृत्त । मुहा०--मचाल -वि. ( सं० ) संस्कार-शून्य, उदासीन, करना - रहना, निवास करना । “निडर मौन, चुप, भूला हुया। "मष्ट करहु अनुचित तहाँई मधु करत मव सो है "-.-सरम। भल नाहीं' -रामा० । मुहा०---मट मवामी-संज्ञा, स्त्री. (सं० ) शरण, रक्षा, करना, पारना या मारना- कुछ न छोटा किला : “कठिन मवासी है मङ्बे की" बोलना, चुप रहना।। -पाल्हा०। मस -- संज्ञा, स्त्री० (सं० मसि ) स्याही । मवेशी-संज्ञा, पु० दे० (अ० गवाशो) समि । संज्ञः, स्त्री० (सं० श्मश्र) मूछ निकलने ढोर, पशु, चौपाये। के पूर्व होंठों पर की रोमावली, मसि । मवेशी खाना -- ज्ञा, पु० यो० फा० ) वह महा०-मस भीजता-मोछों का निकघर जिसमें पशु रखे जाते हैं। लना शुरू होना! मशक -- झा, पु० (सं०) मसक (दे०) समक-संज्ञा, पु० दे० ( ० मशक ) मसा. मच्छड़, ममा नामक एक चर्म-रोग : मच्छड़ । “मसक समान रूप कपि धरी " "मशक, दंश बीने हिम-त्रापा"..-रामा० ! ___ ... रामा० । संज्ञा. स्त्री. ( अनु० ) मपको संज्ञा, स्त्री० ( फा०) पानी होने का चमड़े . | चमई की क्रिया, पानी भरने का चमड़े का थैला । का बड़ा थैला। मकत... संज्ञा. स्रो० द. (अ० मशकत) मशकत-संज्ञा, खो. ( अ०) परिश्रम, परिश्रम, मेहनत, मसकत (दे०)। मेहनत, वह श्रम जो जेल में कैदियों से मसकना-- ५० कि० दे० ( अनु० ) कपड़े कराते हैं । यौ० मेहनत-मशक्कत को दबाना कि वह फट जाय, बल पूर्वक मशगूल-- वि० ( अ ) कार्य-लीन, काम मलना या बना । प्र० कि. खिंव या में लगा हुया। दबाव पड़ने से फट जाना, मन का चिंतित मशरू-मशरुया--पज्ञा, पु. द. ( ग्र० , होना। मशरूम ) एक धारीदार कपड़ा। मशविरा - संज्ञा, पु. ( अ०) राय, मंत्रणा मसका ज्ञा, पु० दे० ( फा० मसखरा) परामर्श, सलाह। दिल्लगीवाज़ा, रगड़ से धातुओं पर चमक मशहरी- संज्ञा, स्त्री. (दे०) मच्छड़ों से लाने वाला साजरा।। बचने के लिये बनाया हुआ कपड़ा, मस. ममकला-संज्ञा, पु. (अ.) सिकली हरी, ममेरी। करने का एक यंत्र, सकल या सिकली करने मशहर - वि० (अ.) प्रसिद्ध, विख्यात । की किया। संज्ञा, स्रो०-मशहरता। मसकली-- संज्ञा, स्त्री० (अ० मसकला) छोटी मशाल- संज्ञा, स्त्री० (अ.) एक बहुत सैकल, सान। For Private and Personal Use Only Page #1391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मसका mamaarseeneranaamanarmanaamaaranam १३८० मसान a manmasomamaeemaamaANOHA . memorammeerumer मखक:---संज्ञा, पु. ( फा० ) ताज़ा घी, . मसल-संज्ञा, स्त्री० (५०) लोकोक्ति, मक्खन. नवनीत, नैन् । “ दूर दही और कहावत, कहनावति । महा मायका''-~-इस्मा० ! दही का तोर या समलन -वि. (अ.) उदाहरणार्थ, जैसे. पानी, चूने की बरी का चूर्ण जो पानी यथा : छिड़कने से बने। मला --स. कि० द० (हि. मलना ) शासकीन--वि० दे० { अमियकीन ) हाथ से रगड़ना. बल पूर्वक दवाना, मलना, कंगाल, बेचारा, सज्जन, सुशील, भोलाभाला पाटा गधना। दरिद, दीन। .. कारमार के ना बयाजद बहन-- संज्ञा, स्त्री. (अ०) भलाई की कार लाज ...--मादी। बात, ऐसी गुप्त युक्ति जो महज में जानी समानरा---प्रज्ञा, पु० अ०हयो', उट्रेबाज़. न जावे । “दरोग मलहत 'श्रामेन वेह हँसी-मजाक करो बाला, दिल्लगीबाज । अज़ब रास्ती फ़तना अंगेज"..-सादी० । मसाजरा---ज्ञा, पु. ( अ० मसखरा । क्रि० वि०-समलहनन--जान-वृझ कर. पन-~~-प्रत्य० ) हपी ठटोली, ठट्टेबाजी, युक्ति से। दिल्लगी, ठट्ठा। मम्मला-- संज्ञा, पु. (अ.) लोकोक्ति कहावत. मसाबरी ---संज्ञा, स्त्री० (फ़ा० मसखरा । ई .. विचारणीय. समस्या. मामला। प्रत्य०) इसी, दिल्लगी, मजाक। : मनवानी- संज्ञा, पु० दे० यौ० (सं० मसबवा, मसखावा-संज्ञा, पुर. दे० यौ० मासवासी ) एक माग से अधिक किसी (हि. मांस खाना ) मांपाहारी, माँस स्थान पर न रहने वाला माधु । ज्ञा, स्त्री. खाने वाला। वेश्या, रंडी गणिका मपजिद---- संज्ञा, स्त्री० इ० अ० मस्जिद) समविदा--संज्ञा, पु० (अ० : ममोदा (दे०), एकत्रित होकर मुसलमानों के नाना में पढ़ने उपाय, युक्ति, तरकीब, वह लेख जो या ईश्वर की प्रार्थना करने का मंदिर पहले साधारण रीति से लिखा जावे फिर विचारानुसार उसमें कमीवेशी की जावे । मसनद--- संज्ञा, स्त्री० अ०) बड़ा या गाव- मनहर्ग, मेहरी--- ज्ञा, स्री. द. (सं. तकिया. अमीरों के बैठने की हो । यो मशहरी ) वह जालीदार वस्त्र जो मच्छड़ों से भमनन-किया। बचने के लिये पलँग के ऊपर और चारों मानवी --- संज्ञा, (अ०) एक छंद. कथा काव्य। शोर लगाया जाता है, मसहरी लगाने का ममना।----स० कि० दे० (हि. भरलना ) पलंग, सनरी (दे०)। मालना, मचलना। महार* . सज्ञा. पु. ६० (सं० मांसाहारिन) समंद--वि० ( द. मस । मदना : माँसाहारी, ममहारी (दे०)। बंद होना-हि० ) ठेलमठेल, रेलपेल, धकम- ना, मामा---संज्ञा, पृ.० द० (सं० माँसकील) धक्का, कशमकश ! देह पर माँस का उभर हुआ काले रंग का मसालाना-..अ० कि.० (दे०) दाँत पीपना, छोटा दाना, वबासी रोग के माँस का भीतर ही भीतर जलते रहना । । दाना । संज्ञा, पु० द० (सं० मशक) मच्छड़। मयारा . ज्ञा, पु० दे० (अ८ मशाल) । ममा ---संज्ञा, पु. ३० (सं० श्मशान ) मशालचो, मशाल । श्मशान, मरघट, चिटका (ग्रा०) । यौ० माग्नक ... सज्ञा, पु० (अ.) काम ना व्यवहार लिया गलान प्रेत हुधा तेली, पिशाच । में पाना. उपयोग, प्रयोग । महा-समान जगाना-तंत्र शास्त्र की For Private and Personal Use Only Page #1392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १३८१ मसाना मसूस, मसूसनि रीति से मरघट में बैठकर मृतक या प्रेत की ममियाना-प्र० कि० (दे०) पूरा हो जाना सिद्धि करना । भूत-प्रेत, युद्ध-भूमि । या भली भाँति भर जाना, मस भीजना। मसाना-संज्ञा, पु० (अ.) मूत्राशय, पेट में मसियारा--- संज्ञा, पु० दे० [फा० मशालची) पेशाब की थैली। मशालची। ९ि० (दे०) कलंकी, स्याही लगा। मसानिया -- संज्ञा, पु. (दे०) डुमार, डोम, समिबिंदु ... संज्ञा, पु० यो० (सं०) स्याही का श्मशानवासी। बंद दृष्टि-दोष से बचाने को बच्चों के मत्थे मसानी--संज्ञा, स्त्री० दे. ( सं० श्मशानी) पर काजल का टीका, दिठौना। मरघट की पिशाचिनी, 'डाकिनी आदि। ममी-ज्ञा, सी० दे० (सं० मसि ) स्याही, मसाला संज्ञा, 'पु. ६० ( अ० मसालह) रोशनाई। वह सामग्री जिससे कोई वस्तु बनाई जावे, समीत. मम्मीद-संज्ञा. स्नो० दे० ( अ० औषधियों या रसायनिक पदार्थी हा मसजिद ) मसजिद, मुसलमानों के नमाज समूह या योग, माधन. श्रातिशबाजी, तेल पढ़ने का स्थान, पतित, महजित (दे०)। आदि, लौंग, जीरा, मिर्च, हल्दा, धनिया ममीना-संज्ञा, सी० (दे०) अलसी, तिसी । भादि मसाले मसीह, मसीहा - संज्ञा, पु. (अ०) (वि० मसालेदार-वि० ६० । अ० मसलह । दार मसीहो) ईसाई मत के धर्म गुरु, हज़रत फ़ा०) जिस पदार्थ में किसी प्रकार का ईसा । 'इलाले दर्द-दिल तुमसे मसीहा हो मसाला या औषधियों का समूह मिलाया नहीं सकता'' - स्फु० । गया हो। मसू*1-- संज्ञा, स्त्री० दे० (हि० मरू) मसाहत - पन्ना, धी. (अ० माप. नाप, . मुश्किल, कठिनाई । यौ० (दे०) मरममापैमाइश । कठिनता से । सुहा०--मसू करके --अति कठिनता से। ममि -- संज्ञा, खो० (सं.) लिखने की स्याही, : रोशनाई, काजल, कारिख । तिनके मुंह ममूहा, मसूदा --संज्ञा, पु. ६० (सं० श्म) मसि लागि है"-- तु० । दाँतों को साधने वाला मांस। मसर-- संज्ञा, पु. (सं०) मसुरी (दे०) । एक ममिदानी-संज्ञा, मी० ( सं० मसि । दानी द्विदल चिपटा धनाज जिसकी दाल बनाई फ़ा० ) दावात, मसि-पात्र । जाती है। मसिपात्र--संज्ञा, पु० यौ० (सं०) दावात । ममरा---संज्ञा, सी० (सं.) मसूर की दाल या मसिविंद-संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) स्याही बरी। को बंद। समृरिका---संज्ञा, स्त्री० (स०) वेचक का एक मसिवंदा, अमिबंद-संज्ञा, पु. २० ( सं० ": भेद, शीतला, माता, छोटी माता या देवी । मसिविन्दु ) मसि-विदु, स्याही का बूंद, । मलूरिया -- संज्ञा. स्त्री० (दे०) शीतला, काजल का बंदा जो लड़कों के माथे में । वेवक, माता, देवी। नज़र न लगने के लिय लगाया जाता है, दिठौना। भसर्ग----संज्ञा. सी० (सं.) माता, चेचक, ममिमुख-- वि० यौ० (स० जिसके मुख में शीतला। स्याही लगी हो, कुकी. दुराचारी कलंकी। मसूम, ममृमनि... संक्षा, स्वी० दे० (हि. मसियर, मरियार --ज्ञा, नी. द. ममूसना ) भीतरी दुःख, दिल मसूसने का (अ०मशमल) मशाल। वि० (दे०) स्याही लगा। भाव, अन्तर्व्यथा, मसूरिन । For Private and Personal Use Only Page #1393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मसूसना १३८२ महकना MUSINwaRSaranmarwarnederatureranamamarera T a mananeIRLIMITEDDREarmer s MAASANOTH मसूसना-अ० क्रि० दे० ( फ़ा० ) अफसोस : मम्ती-संज्ञा, स्त्री० (फा०) मस्त होने की या मनोवेग को रोकना, ज़ब्त करना, कुढ़ना, क्रिया या भाव, मतवालापन, मत्तता, मद. मन में दुख करना, ऐंठना, निचोड़ना, मस्त होने पर कुछ पशुत्रों के मस्तक, कान, मरोड़ना । मुहा० . मन मसोमना- धाग्य प्रादि से त्रवित हुआ साव, कुछ इच्छा या मनोवृत्ति को बलत् रोकना ! विशेष वृक्षों या पथरों का स्राव।। मरहमा--वि० (सं०) मृदु, चिकना और मातन --संज्ञा, पु. (पुर्त०) बड़ी नाव के मुलायम, नरम, कोमल । संज्ञा, स्त्री० (सं०) बीच का खड़ा शहतीर जिपमें पाल लगाया मसूणता। जाता है "हैं जहाज़ पाते का मस्तूल मसेवरा-संज्ञा, पु० (हि, मांस ) माँस पाशकार".---कुंज० । से बने हुए खाने के पदार्थ। याचार - संज्ञा, पु. (सं०) मसिपात्र. मसामना---० क्रि० द० । हि० ममृसना) दावात ।। मसूसना। मला---सज्ञा, पु० दे० ( हि० मसा ) मसा। मसौदा---संज्ञा, पु० (१० मसविदा) मह - अव्य० दे० (६० मध्य ) में । प्रथम बार का लिखा साधारण लेख जिसमें “मन मह तर्क करन कपि लागे"-- फिर से काट-छाँट हो सके मसविदा, उपाय। रामा । मुहा०---मसौदा गाँउन! था बाँधना महँई *-- वि० दे० ( सं० महा ) बड़ा भारी, (बनाना)-~काम करने का उपाय या महान् । अव्य० महँ. में । युक्ति सोचनः । मसौदा करना-सलाह माँगा--वि० द० । सं० महर्घ ) मूल्य बढ़ करना, युक्ति सोचना। जाना, जिसका नाधारण या उचित से मसोदेवाज----संज्ञा, पु. (प्र. मसविदा अधिक मूल्य हो। वाज-फा० प्रत्य० ) चालाक, धूर्त, अधिक महगई. 'हगाई। -- संज्ञा, स्त्री. द० (हि. युक्ति खोजने वाला। महँगी) महँगी, महार्यता । मस्करा --- संज्ञा, पु० दे० ( अ० मसखरा) महगी---संज्ञा, स्त्री. द. हि० महँगा-1-ई.. मसखरा । संज्ञा, स्त्री० (दे०) मस्करी। प्रत्य० ) महँगापन, महँगा होने का भाव मस्त--वि० ( फा० मि० सं० मत्त ) प्रमत्त, या उसकी दशा, महार्घता, अकाल, दुर्भिक्ष । मतवाला. नशे में चूर मदोन्मत्त, सदा प्रसन्न महत- संज्ञा, पु० दे० (सं० महत = बड़ा ) चित्त या निश्चित रहने वाला, मद-भरा, मग्न, साधु-समूह या मठ का अधिष्ठाता वि० प्रसन्न, श्रानंदित यौवन मदपूर्ण । : प्रधान, मुखिया, श्रेष्ठ । मस्तक- संज्ञा, पु० (सं०) किमाथा, मत्था: महंती--संज्ञा, स्त्री० दे० ( हि० महंत -1 ई०. मस्तगी-संज्ञा, स्त्री. ( अ० मस्तकी ) एक प्रत्य० । महंत का भाव या पद। गोंद जैसी औरधि यौ० पीपालगी। मह-- अव्य० दे० सं० मध्य ) में । वि. मस्ताना-वि० ( फ़ा० मस्तानः ) मस्तों की (सं० महत् ) महत, बहुत, महा, अति, भाँति, मस्तों का सा । अ० कि० दे० ( फा० बड़ा, श्रेष्ट । मत) मस्त या मतवाला होना । स० क्रि० : महक- संज्ञा, स्रो० दे० ( हि० गमक ) गंध, मस्त करना। ___ बास । वि०-महकदार । मस्तिष्क-संज्ञा, पु० (०) मग़ज़. दिमाग़, महकना - अ० कि० दे० ( हि० महक नाभेजा, मस्तक का गूदा, बुद्धि के रहने का प्रत्य० ) गंध या बास देना । प्रे० रूपस्थान । महकाना। For Private and Personal Use Only Page #1394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org १३८३ महकमा, मुहकमा महकमा, मुहकमा - संज्ञा, पु० (अ०) भाग. सरिश्ता, सीग़ा. कार्य विभाग | महकान, महकनि संज्ञा, त्रो० ६० ( हि० महक ) गंध, बास । महकाना स० वि० दे० : हि० महक ) सुधाना, बासना, बास देना, बयाना । महकीला - वि० दे० (हि० महक सुगंधित, सुवामित महज़ - वि० ( ० ) केवल, मात्र, सिर्फ, शुद्ध, खालिस । आत्मावाला महाशय, महात्मा । महत् - वि० (सं०) बड़ा, बृहत् महान्. सर्वश्रेष्ठ | संज्ञा, पु० (सं०) महत्तख, प्रकृति | महनi - संज्ञा, ५० दे० (सं० मथन ) मथन, नष्ट | का प्रथम विकार, बह्म, परमेश्वर । महत - संज्ञा, पु० दे० ( सं० महत्व ) बड़ाई, गुरुता, श्रेष्टता, उत्तमता, महत्व । महना छ :- संज्ञा, पु० मथना, नष्ट करना । महता, महतों—पंज्ञा, ५० दे० (सं० महत्) गाँव का मुखिया, महतों, मुंशी, *संज्ञा स्त्री० ६० (स० महता अभिमान । मुहर्रिर । बड़ाई, महताब - सज्ञा, स्त्री० फा०) चाँदनी, चंद्रिका, महताबी या एक प्रकार की पतिशबाजी | संज्ञा, ५० ( फा० ) चाँद, चन्द्रमा, माहेताच | 4 महती - संज्ञा, स्रो० (सं० ) नारदमुनि की वीणा, महिमा, महत्व, बड़ाई । वि० स्त्री०बड़ी भारी । “अवेक्षमाणं महतीं मुहुर्मुहुः "3 - माघ० । महतु संज्ञा, पु० ० ( [सं०] महत्व ) महत्व | महत्तत्व-संज्ञा, पु० (सं०) प्रकृति का प्रथमा महमा कृति या विकृति या विकार जिससे श्रहँकार उत्पन्न होता है. जीवात्मा, बुद्धितस्व । महत्तम - वि० (सं०) सबसे बड़ा | महत्तर --- वि० (सं०) दो पदार्थों में से एक श्रेष्ठ | महत्ता - संधा, श्री० (सं०) महत का भाव, श्रष्टता, गुरुता, उत्तमता, महानता । महत्व - संदा, पु० (सं०) महत् का भाव, गुरुता, बड़ाई, श्रेष्ठता, उत्तमता । महदात्मा-वि० यौ० (सं० ) महान् Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir | मद-मस्त, प्रमत्त, मतवाला । | महताबी - संज्ञा, खो० (का० ) एक तरह की आतिशबाजी, बाग आदि में चौकोर या गोल ऊँचा चबूतरा । वि० सफ़ेद ! महतारी -संज्ञा, खो० दे० (सं० महतरा या माता) माता, माँ, अम्मा, सतारी (दे० ) । महतिया संज्ञा, पु० (दे० ) चौधरी, मुखिया, महपद - पंज्ञा, ५० दे० ( अ० मुहम्मद ) मुहम्मद । महतों। दे० ( सं० मथना ) यौ० -- महनामथना कलह, झगड़ा । महनीय - वि० (सं०) महान् । महनु संत्रा, ६० ६० (सं० मथन ) मथन, विनाशक । महतिज्ञा, स्त्री० (०) मजलिस, जलसा, समाज, सभा, नाच-गान का स्थान । वि-- महफिली। महसूत्र - संज्ञा, पु० (०) प्रिय, प्रेम-पात्र, प्यारा, प्रियतम । खो० महवा । महमंत - वि० यौ० दे० (सं० महा + मत्त ) For Private and Personal Use Only महमह - क्रि० वि० दे० ( हि० महकना ) सौरभ, सुगंधि या सुवास के साथ | संज्ञा, स्रो० महमहा--"ज्यों सुकृति कीर्ति गुणी जनों की फैलती हैं महमही "- मैथ० । महमहा - वि० (हि० महमह ) सुगंधित, सौरभीला । स्त्री० --- महमही । महमहाना - य० क्रि० दे० ( हि० महमद, महकना ) सुगंधि देना, गमकना ! महां - उज्ञा, श्री० द० (सं० महिमा ) महिमा बधाई, महत्व | Page #1395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir महमेज महाकल्प महमेज-संज्ञा, स्त्री० (फ़ा०) जूते में लगी महरेट: --संज्ञा, स्त्री० ६० (हि. महरेटा - लोहे की वह कीलदार नाल जिससे सवार ई-प्रत्य० ) श्रीराधिकाजी।। घोड़े को एड़ लगाकर बढ़ाते हैं। महाक-संज्ञा, पु८ यौ० (सं०) १४ लोको महम्मद संज्ञा, पुं० दे० (अ०) मुहम्मद। में से ऊपर का चौथा लोक (पुरा०) । महर --संज्ञा, पु० दे० सं० महान) जमींदारों महषि - संज्ञा, पु. यो० (स.) श्रेष्ठ और थादि के लिये एक आदर-प्रदर्शक शब्द बड़ा पि, ऋषीश्वर (बज.) एक पती, सरदार, नायक, कहार। महल महत... संज्ञा, पु. (अ०) प्रामाद, बहुत बड़ा स्त्री. महरि, महरा : नाद महर घर __ और सुन्दर कमरा, मकान या गृह, राजबजत बधाई री' --सूर० । वि० (हि० महक) भवन, अंतःपुर, रनिवास, अवापर, मौ । सुगंधित । मुहानाहर नहर होना ।। __ महलन', मुहला-संज्ञा, १० (प्र.) मुहाल, महरम - सज्ञा, पु. (अ.) सलमानां में शहर का एक विभाग या बंड जिनमें कन्या का ऐसा निकट का सम्बन्धी जिसके । वहुत मे घर हों, टोला, पुरा । साथ उसका ध्याह न हो सके. जैसे, बाप.. __ महमिल - संज्ञा, पु. ( ग्र० मुहारिमल नाना, चाचा, मामा श्रादि. भेद जानने __ महसूल लेने या उगाहने वाला। वाला , संज्ञा सो महसून --संज्ञा, पु. (ग्र०) कर, लगान. कटोरी । संज्ञा, पु० (दे०) मलहम । भाड़ा, किराया मालगुजारी कार्य-विशेष महरा--संज्ञा, पु० दे० ( सं० महत् ) नायक, के लिए किसी राजा या अधिकारी के द्वारा लिया गया धन । सरदार, कहार । स्त्रो० महरा महराई -- संज्ञा, स्त्री० दे० ( हि० महर 1 महाँ* ---अध्य० दे० । दि० महँ ) में, महूँ । आई.-- प्रत्य० ) श्रेष्ठता. बड़ाई, प्रधानता। महा--- वि० (सं.) ड़ा, थत्यंत. भारी. महराज---संज्ञा, १० द० ( ० महाराज ) अति अधिक श्रेष्ठ, बहुत, बहुत बड़ा भारी, महाराज । '' तुम महराज, हमहूँ तो सर्वोत्तम, सबसे अधिक । संज्ञा, पु० द. कविराज हैं ''- स्फु०। ( हि० महना ) छाँछ, मट्ठा, महः । महराना ---संज्ञा, पु. द. हे महर - महारंभ. महाअरंभ-वि० यौ० ० सं० आना - प्रत्य० ) महरों के रहने का स्थान ।। यहा । प्रारंभ ) बहुत शोर, बड़ा भरभर. वि०, संज्ञा, पु. यो० (हि.महाराणा बड़ी धूमधाम ।। महाराज (राज.)। • महाइ। --संज्ञा, स्त्री. द. हि० महना । महराना- संज्ञा, स्त्री० (दे०) महारानी। आइ--प्रत्य० ) मथने का कार्य या महाव--संज्ञा, स्त्री. द. (प्र. महराव ) मज़दूरी। मेहराब। महाउत* - संज्ञा, 'पु. ६० (हि. महावन ) महरि संज्ञा, खी० दे० (हि. महर । व्रज सहावत, हथवाल । में प्रतिष्ठित घर की स्त्रियों के लिये सम्मान- महाउन्नत, महानत ... संज्ञा, पु० यो० ॥२०॥ सूचक शब्द, मालकिन, घा-वाली. एक कदम का वृक्ष । पक्षी दहिगल (प्रान्ती.)। महाउर-- संज्ञा, पु. द० (हि. महावर ) महरी संज्ञा, खी० (दे०) कहा रन । महावा, यावक । महरूम-वि० (अ.) वंचित, जिसे न मिले। महाकंद-सझा, पु. यो. (सं.) लहसुन । महरेटा-संज्ञा, पु० दे० (हि० महर- महाकल्प-संज्ञा, पु० यो० (सं०) ब्रह्मा की एटा --प्रत्य०) श्रीकृष्णजी। पूणायु का समय, ब्रह्मकल्प। For Private and Personal Use Only Page #1396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir महाकाल १३८५ महानंद महाकाल-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) महादेव, महातम और देव का गावे"-सूर० । जी । “करालं महाकाल कालं कृपालुं"- संज्ञा, पु. यौ० (सं०) घना अंधेरा। रामा०। महातमा-संक्षा, पु. यो. (दे०) महात्मा महाकाली - संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) दुर्गा (सं.)। जो की एक मूर्ति। महातल-संज्ञा, पु. यौ० (सं०) १४ भुवनों महाकाव्य-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) वह में से पृथ्वी से नीचे के सात लोकों में से प्रबंध काव्य जिसमें सब रसों, ऋतुओं, श्वाँ लोक। प्राकृतिक दृश्यों, सामाजिक कृत्यों आदि का महातीर्थ-संज्ञा, पु. यौ० (सं०) उत्तम या भिन्न भिन्न सगी में वर्णन हो-जैसे रघुवंश। श्रेष्ट तीर्थ, पुण्य क्षेत्र, पुण्यस्थान, तीर्थराज। "सर्गवंधो महाकाव्यो... ..सा. द०। महातेजा-वि० दे० यौ० (सं० महातेजस् ) महाकुम्भी-संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) कम प्रतापी, तेजस्वी। महात्मा-संज्ञा, पु. यौ० (सं० महात्मन् ) महाकुष्ट -- संज्ञा, पु० यौः (सं०) महाकोढ़. उच्चारमा या उच्चाशय वाला, महाशय, गलित कुष्ठ । महानुभाव, बहुत बड़ा साधु या सन्यासी. महाखर्ब-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) सौ खर्ब की महातमा (दे०) । संख्या या अंक (गणि। महादंडधारी--संज्ञा, पु. यौ० (सं०) महाखाल-संज्ञा, पु. यौ० (सं०) महाखात, यमराज। बड़ी खाड़ी। महादान-संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) स्वर्गप्रद महागौरी- सज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) दुर्गाजी! बड़े बड़े दान, ग्रहणादि में नीचों को दिया महापौर-- संज्ञा, पु० यो० (सं०) बहुत गया दान । वि• महादानी, महादाता । भयानक या डरावना, कारासिंही औषधि । : महादेव-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) देवाधिदेव, महावृ-संज्ञा, पु. यौ० (सं०) जामुन का शिवजी, शंकरजी। बड़ा पेड़ या फल महादेवी-संज्ञा, स्त्री० यौ० सं०) दुर्गा जी, महाजन-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) श्रेष्ठ पुरुष, प्रधान राज महिपी, पटरानी। मज्जन या माधु, धनी, रूपये का लेन देन : महाद्वीप-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) वह भूखंड करने वाला, बनिया, भला मानुष, कोठीवाल जिसमें बहुत से देश हों। " सकल महाद्वीपन "महाजनो येन गतो स पंथः ।" " सुनत में भारी तुम एशिया बतायो"---बि० कुं० । महाजन सकल बुलाये"..- रामा० । वि. महाद्वीपीय। महाजनो-संज्ञा, स्त्री० । सं० महाजन-ई- महाधन-वि० यौ० (सं०) बड़ा भारी प्रत्य० ) रुपये-पैसे के लेने-देने का काम धनी, महाधनी (दे०) बड़े मूल्य का। या व्यवसाय, कोठीवाली, महाजनों के 'अंधस्यमे हृतविवेक महाधनस्य"-शंकः । बही-खाता लिखने की एक लिपि, मुड़िया महान्-वि० (सं०) उन्नत, विशाल, विशद, (दे०)। बहाभारी । संज्ञा, स्त्री० (दे०) महानता। महाजल-संज्ञा, पु. यौ० (सं०) समुद्र। महानंद-वि० चौ. (सं०) मगधदेश का महातत्व-संज्ञा, पु० यौ० दे० (सं० महत्तत्व) नन्दवंशीय एक परमप्रतापी राजा जिसके महत्तत्व । ___ डर से सिकंदर पंजाब ही से लौट गया था, महातम -संज्ञा, पु० दे० (सं० माहात्म्य) (इति० ) । संचा, पु० यौ० (सं०) बहुत माहात्म्य, बड़ाई। " कमल-नयन को छोड़ । सुख, ब्रह्मानन्द, पारमानन्द । मा० श. को.---१७४ For Private and Personal Use Only Page #1397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir महानाटक महाबोधि महानाटक-संज्ञा, पु. यौ० (सं०) दश महापातकिन ) महा पाप करने वाला, जैसेअंकों वाला नाटक जिसमें नाटक के संपूर्ण ब्रह्महत्यारा । लक्षण हों ( नाव्य०)। | महापात्र--संज्ञा, पु० यौ० (सं०) श्रेष्ठ बाहाण, महानाभ-संज्ञा, पु. यौ० (सं० ) एक मंत्र (प्राचीन ) मृतक कर्म में दान लेने योग्य जिससे शत्रु के सब हथियार व्यर्थ हो जाते ब्राह्मण, महाब्राह्मण, कट्टहा (ग्रा.)। हैं ( तंत्र.)। सहापुरुष-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) श्रेष्ठ पुरुष, महानाम-यौ० वि०, संज्ञा, पु. (सं०) महानुभाव, धूर्त, चालाक (व्यंग्य) महात्मा यश, अपयश, यशस्वी, निदिति । नारायण । महानिद्रा-संज्ञा, स्त्री० यौ० । सं०) मरण, महाप्रभु-संज्ञा, पु० यौ० ( सं० ) वैष्णव मृत्यु । संप्रदाय के श्रेष्ठ पुरुषों की एक पदवी, जैसे महानिधान--संज्ञा, पु० यौ० ( सं० ) शोधा चैतन्य महाप्रभु, वल्लभ महाप्रभु । संज्ञा, पारा जिसे बावन तोले पाव रत्ती कहते हैं, स्री. महाप्रभुता-बड़ा ऐश्वर्य । बुभुक्षित धातु-भेदी पारा, मरण, मृत्यु। प्रहाप्रलय-संज्ञा, पु. यो. (सं०) सबसे महानिर्वाण-संज्ञा, पु० यौ० ( सं० ) परम- बड़ा प्रलय जब प्रकृति और पुरुष या अनन्त मोक्ष, परिनिर्वाण जिसके अधिकारी केवल जल के अतिरिक्त सब का विनाश हो बुद्ध और बहन माने जाते हैं. (बौद्ध, जैन) जाता है । महामुक्ति या मोक्ष। महाप्रसाद-संज्ञा, पु. ( सं० ) नारायण महानिशा--संज्ञा, स्त्री० यौ० ( सं० ) प्रलय या देवातानों का प्रसाद, जगन्नाथ जी पर की रात्रि, काल रात्रि । चढ़ा हुआ भात, मांस ( व्यंग)। महानुभाव-संज्ञा, पु. ( सं०) महाशय, महाप्रस्थान-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) शरीर. त्याग की इच्छा से हिमालय की ओर जाना, महापुरुष, महात्मा, माननीय या प्रादरणीय मरण, मृत्यु, शरीर त्याग, देहान्त । पुरुष । " महानुभाव महान अनुग्रह हम महापागा-संज्ञा, पु. यो. (सं० ) अधिक प्रेरित प्राण-वायु के द्वारा उच्चरित होने वाले महानुभावता-संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) वर्ण, हिन्दी वर्णमाला में प्रत्येक वर्ग के दूसरे श्रेष्ठता। " कहो कहाँ न रावरी महानु और चौथे वर्ण, शेष पहले और तीसरे भावता रही"-सरस । अल्पप्राण हैं। महापथ-संज्ञा, पु० यौ० (०) राजमार्ग, शा, पु० पा. (म० ) राजमाग, महाप्रयागा---संज्ञा, पु. यौ) (सं० ) महासड़क, पक्की सड़क, मृत्यु । प्रस्थान । महापद्म-संज्ञा, पु. ( सं० ) नौ निधियों में महाबल-- वि० यौ० (सं०) अत्यंत बली से एक निधि, (यौ०) स्वेत कमल, सौ पद्म या पराक्रमी । " जयत्यतिबली रागः की संख्या (गणि.)। लघमणश्च महाबलः "---वाल्मी । महापद्मक-संज्ञा, पु. ( सं०) एक साँप, महावली-वि० चौ. (सं० महाबलिन् ) एक निधि । अत्यंतवली। महापातक, महापाप----संज्ञा, पु० यौ० (सं०) महाबाहु-वि० यौ० ( सं०) पाजानु लंबी बड़ामारीपाप, जैसे--गुरु-पत्नी गमन,ब्रह्महत्या, भुजाओं वाला, प्राजानुबाहु, बलवान । चोरी, मद्यपान तथा इन पापियों का संग। महाबोधि--संज्ञा, पु. यौ० (सं०) बुद्ध महापातकी-वि• संज्ञा, १० यौ० (सं० भगवान । पै कीन्ही"- ना। For Private and Personal Use Only Page #1398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir महाब्राह्मण १३८७ महारथ महाब्राह्मण-संज्ञा, पु. यो० (सं० ) महामात्य-संझा, पु. यौ० (सं० ) प्रधान महापान, कट्टहा। मंत्री, मुख्यामात्य । महाभाग-संज्ञा, पु. यो. (सं०) बड़ा महामाया--संक्षा, स्त्री० यौ० (सं० ) प्रकृति, हिस्सा। वि० -- परम भाग्यशाली, महानु- गंगाजी, दुर्गाजी, थार्या छन्द का १३ वाँ भाव। भेद (पिं०)। महाभागवत--संज्ञा, पु० यौ० ( सं० ) परम महामारी-संक्षा, स्त्री० (सं०)वबा (प्रान्ती०) वैष्णव, भागवत पुराण. छब्बीस मात्राओं मरी (दे०) हैला, प्लेग, ताजन, एक भीषण का छंद ( पिं० )। संक्रामक रोग जिसमें बहुत से लोग एक महाभारत-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) श्री साथ मरते हैं। व्यासकृत १८ पर्वी का एक प्राचीन परम महामालिनी---संज्ञा, स्त्री. (सं०) लघुप्रख्यात ऐतिहासिक महाकाव्य ग्रंथ जिसमें दीर्घ के कम से १६ वर्गों का नाराच छंद । कौरवों और पांडवों के युद्ध का वर्णन है। (पिं०) या जगण और अंत्य गुरू का कौरव-पांडव-युद्ध, कोई बड़ा ग्रंथ, कोई बड़ा एक छंद। __ महामृत्युंजय---संज्ञा, पु० यौ० (सं०) महामहाभाष्य-संज्ञा, पु. पो. (सं० ) श्री. देवजी, शिव या महाकाल के प्रसन्नतार्थ पाणिन के सूत्रों पर श्री. पतंजलि का भाष्य एक मंत्र।। (व्याक० )। - महामेदा--संज्ञा, स्त्री० (सं०) एक कंद । महाभूत - संज्ञा, पु. यो८ (सं०) पृथ्वी, जल, महामोदकारी-संज्ञा, पु० (सं०) क्रीड़ाअग्नि, वायु और आकाश ये पाँचों तत्व या चक्र, एक वणिक वृत्त (पि०)। पंच महाभूत। । महाय*-वि० दे० (सं० महा) बहुत, महामंत्र--संज्ञा, पु० यो० ( सं० ) बड़ा और महान् । “तम जानहु मुनिवर परम, रूप प्रभावशाली मंत्र, बड़ा मंत्र, अच्छी सलाह । अनूप महाय".- रामा० । या मंत्रणा। "महामंत्र जोइ जपत महेसू" महायज्ञ-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) नित्य किये ----रामा० : जाने वाले पं महायज्ञ या कर्म, ब्रह्मयज्ञ, महामंत्री-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) प्रधान देवयज्ञ, पितृयज्ञ, भूतयज्ञ, नृयज्ञ (धर्मशा०)। मंत्र', सुख्यामात्य । महायात्रा--ज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) मरण, महामति ---वि० यौ० (२०) बड़ा बुद्धिमान् । मृत्यु, परलोक यात्रा।. हामहिम--वि. यौ० (सं० महा -- महिमा)महायान-संज्ञा, पु० (सं०) बौद्धों के तीन महान् महिमा वाला, महापुरुष । संप्रदायों में से एक। महामहोपाध्याय--संज्ञा, पु० यौ० (सं०) महायुग-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) चतुर्यगी, गुरुत्रों का गुरु, भारत में एक उपाधि जो चतुर्युग-समूह, सत्य, त्रेता, द्वापर और संस्कृत के विद्वानों को सरकार देती है कलियुग इन चारों युगों का योग । ( वर्तमान)। महायौगिक--संज्ञा, पु० यौ० (सं०) २६ महामांस-संज्ञा, पु० यौ ० ( सं० ) गो-मांस मात्राओं के छंद (पिं०)। नर मांस । महारंभ-वि) यौ० (सं०) बहुत ही बड़ा, महामाई-(दे०) स्त्री० चौ० दे० (सं० महा - महान् प्रारम्भ वाला । माई-दि०) दुर्गा देवी, कालीजी, महामाता। महारथ-पंक्षा, पु० यौ० (सं०) बहुत बड़ा For Private and Personal Use Only Page #1399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - Assam महारथी १३८८ महाविद्या रथो, योद्धा। “सर्व एव महारथाः "- महारोग-संज्ञा, पु. यौ० (सं०) बहुत बड़ा भ० गी०। रोग, क्षय, यमा, दमा श्रादि (वैद्य.)। महारथी--संज्ञा, पु. यौ० (सं०) महारथ । वि० --महारोगी। महागज-सज्ञा, पु. यौ० (सं०) बहुत बड़ा महारौरव-संज्ञा, पु० यौ० (सं.) एक बड़े राजा, सम्राट, राजाधिराज, ब्राह्मण, गुरु नरक का नाम । धादि के लिये संबोधन शब्द । स्त्री०- महाघ-वि० यौ० (सं० महा-अर्घ ) बहु. महारानी, महाराज्ञी। मूल्य, महर्घ (दे०), बड़े मूल्य का, कीमती. महाराजाधिराज-एंज्ञा, पु. यौ० (सं.)। मैंहगा । संज्ञा, स्त्री. --- महार्घता । बहुत बड़ा चक्रवर्ती राजा, सम्राट । महाल- संज्ञा, पु० (१० महल का बहु०) महाराणा-पंज्ञा, पु० यौ० (सं० महा + टोला, पाड़ा, मुहल्ला, पट्टी, हिस्सा, भाग, राणा-हि.) उदयपुर, मेवाड़ और चित्तौड़ मुहाल, वह भू-भाग जिसमें कई गाँव या के राजपूत राजाओं की उपाधि । स्त्री० - जमींदार हों । बन्दो०)। महाराणो। महालक्ष्मी-संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) लक्ष्मी महारात्रि-संज्ञा, स्त्री० (सं०) महारात जी की एक मूर्ति, एक वर्णिक छंद (पिं०)। (दे०), महाप्रलय की रात्रि, सब ब्रह्मा का महालय-ज्ञा, पु. यो० (मं०) पितृपत, लय होकर दूसरा महाकल्प होता है (पुरा०, महाप्रलय । ज्यो०)। महालया--संज्ञा, स्त्री. (मं०) पितृ-विपर्जनी महारानी-संज्ञा, स्त्री० देः यौ० (सं० अमावस्या ( पाश्विन कृष्णा ) । महाराज्ञी ) सब से बड़ी रानी, महाराज्ञी, महावट-सज्ञा, स्त्री. द. यो. ह. माहै - महाराणी, महाराज की स्त्री। माघ । वट ) माव-ए की वपा, जाई की महारावण - संज्ञा, पु. यो० (सं०) बड़ा वी या झड़ी। संज्ञा, पु. (यौ०)अक्षयवट। रावण जिसके एक हजार तो मुख और दो महावत-संज्ञा, पु० दे० (सं० महामात्र ) हज़ार हाथ थे (पुरा.)। हथवाल, फीलवान, हाथी हाँकने वाला, महाराव-संज्ञा, पु० दे० (८० महाराज ) हाथीवान। बड़ा रईस या राजा। महावतारी--संज्ञा, पु. यो. (सं० महाव. महारावल-संज्ञा, पु. यौ० (सं० महा+ 1 तारिन ) २५ मात्राों के छंदों की संज्ञा रावल हि० ) जैसलमेर और डूंगरपुर श्रादि के राजाओं की उपाधि । महाराष्ट्र-ज्ञा, पु. यौ० (सं.) दक्षिणीय महावर - संज्ञा, पु. । सं० महावर्ण ) यावक, भारत का एक प्रदेश, वहाँ के निवासी, सौभाग्यवती स्त्रियों के पैर रंगने का लाल सा बहुत बड़ा राष्ट्र या राज्य, दक्षिणीय ब्राह्मणों रंग, लात्तारस । संज्ञा, पु. यौ० (मं०) महा की एक उपाधि या जाति। । बरदान । महाराष्ट्री-संज्ञा, स्त्री. (सं०) मराठी या महावरी-संज्ञा, पु. (हि. महावर) महावर मरहठी भाषा या बोली, महाराष्ट्र की एक की गोली या टिकिया, लाल रंग। प्रकार की प्राकृतिक भाषा (प्राचीन)। महावारणी-संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) गंगामहाराष्ट्रीय-वि० सं०) महाराष्ट्र-संबंधी। स्नान का एक योग। महारुद्र-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) महादेव या महाविद्या-संज्ञा, मो. यौ० (सं०) दश शिवजी। । देवियाँ, तारा, काली, भुवनेश्वरी. पोदशी, For Private and Personal Use Only Page #1400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir महावीर महिसुर, महीसुर भैरवी, छिन्नमस्ता. बगलामुखी, धूमावती, माहात्म्य, गौरव, महत्व, प्रताप, बड़ाई, मातंगी, कमलारिमका, दुर्गादेवी (तंत्र)। महत्ता। "महिमा अगम अपार''- स्फु०। महावीर-संज्ञा, पु० (सं०) हनुमान जो। पाठ सिद्वियों में से एक ५वी सिद्धि जिल्लसे " महावीर विक्रम बजरंगी"-हनु० । सिद्ध योगी अपने को बहुत बड़ा बना गौतम बुद्ध, जैनियों के चौबीसवें जिन या सकता है। तीर्थकर । वि०-बहुत ही बड़ा बहादुर। महिमान--संज्ञा, पु० दे० ( फा० मेहमान ) महाव्याहृति--संज्ञा, स्त्री. (सं०) भूः, भुवः, मेहमान, पाहुना। स्त्री० --महिमा । यौ०स्वः, ये ऊपर के तीन लोक, परमेश्वर के पृथ्वी की माप। गौणिक नाम। महिन्न--संज्ञा, पु. ( सं०) शिवस्तोत्र । महाशंख--संज्ञा, पु० यौ० (सं०) सौ शंख की “महिन पारते ......" संख्या (गणि.)। महियाँ *-अध्य० दे० ( सं० मध्य ) में । महाशक्ति--संज्ञा, पु. यौ० (सं०) शिवजी, "प्रगटे भूतल महियाँ"-सूर० । महादेव जी। स्त्रो०-दुर्गादेवी। महियाउरा--संज्ञा, पु० दे० यौ० (हि. महाशय-संज्ञा, पु० (सं०) उच्च श्राशय मही + चाउर ) मह में पके चावल, खट्टी वाला पुरुष, महात्मा. सज्जन, महानुभाव, महापुरुष महिरावण-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) रावणमहाश्वेता-संज्ञा, बी० यौ० (०) सरस्वती, कुमार, राक्षस । कादम्बरी ग्रंथ में एक नायिका महिला-संज्ञा, स्त्री. (सं०) सज्जन स्त्री, महासाहम- संज्ञा, पु. यो० सं०) निधड़क, नेक औरत'। निर्भय, निी । महिष-संज्ञा, पु. (सं०) भैंसा । स्त्री० -- महिं *--अव्य० दे० ( हि० महँ ) में, महँ। महिषी । " कहुँ महिष मानुष धेनु खर महि-संज्ञा, स्त्री० (०) भूमि, पृथ्वी, माही अजया नेशाचर भक्षहीं "--रामा० । (दे०)। " उलटौं महि जहँ लग तव राजू" शास्त्रानुकूल अभिषिक्त राजा, एक दैत्य जिसे -रामा । दुर्गा जी ने मारा था। महिका-संज्ञा, स्त्री (सं०) कर्ज, ऋण। महिप-प्रदिनी-संज्ञा. स्त्री० यौ० (सं०) महिख* -- संज्ञा, पु. द० (सं० महिष ) मैंसा । " महिख खाय करि मदिरा पाना" दुर्गाजी। -रामा । यो० ---महिखामुर। महिषासुर--संज्ञा, पु० यौ० (सं०) रंभ दैत्यात्मज मैंसे के आकार का एक दैत्य जिसे महिजा-संज्ञा, स्नो० (सं०) सीता। दुर्गाजी ने मारा था । महिजात-संज्ञा, पु० (सं०) भौम । महिदेव-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) महिसर. महिषी----संज्ञा, स्त्री० (सं०) भैंस, रानी या भूसुर । वाहाण । “जो अनुकूल होहिं पटरानी, मैरिधी । “जनक-पाट-महिपी महिदेवा'-रामा। जग जाना''--रामा० । महितल-संज्ञा, पु० यौ० (सं.) भूतल । महिषेश--संज्ञा, पु. यौ० (सं०) यमराज, महिपाल -संज्ञा, पु. (सं०) राजा, माहि-: महिषासुर ! पति, महीश। “बोले बंदी बचन वर महिसुर, महीलर-संज्ञा, पु. यौ० (सं.) सुबहु सकल महिपाल"-रामा०। महिदेव, ब्राह्मण । “सुर महिसुर हरिजन महिमा-संज्ञा, स्रो० (सं० महिमन् ) प्रभाव, अरु गायी-रामा० । For Private and Personal Use Only Page #1401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मही १३६० महेश - SE मही-संज्ञा, स्त्री० (सं०) मिट्टी, पृथ्वी, भुमि, महुअर, महुवर--संज्ञा, पु० दे० (सं० ज़मीन, स्थान, देश, नदी, एक की संख्या, मधुकर) एक प्रकार का बाजा, तूंबी, तोमड़ी, एक छंद जिसमें एक लघु और एक गुरु होता है। मौहर (दे०), इन्द्रजाल का खेल जो (पिं०)। संज्ञा, पु० दे० ( सं० मंत्रित ) महा. महुवर बजा कर किया जाता है। माठा, छाँछ । " दही मही बिलगाय" मया, महुवा--संज्ञा, पु० दे० (सं० मधूक. -रही। प्रा० महुया ) एक बड़ा वृत, इस वृक्ष के महीतल-संज्ञा, पु. यौ० (०) संसार, फुल जिनपे शराब भी बनती है। "महुश्रा जगत, भूतल । ' भूपति कौन नहीतल में" नित उठि दाख सों, करत बतकही जाय" --स्फुट० । -गिर। महीधर- संज्ञा, पु० (सं०) पात, पहाड़, महा --संज्ञा, पु० दे० ( हि० महोच्छव, शेषजी, एक वर्णिक छंद (पि८). एक वेद- सं० महोत्सव । महोत्सव, बड़ा उत्सव । भाष्यकार विद्वान । "तुरत महीधर एक महरि --संज्ञा, पु० दे० (सं० मधुकर ) उपारा"-- रामा। __ मौहर या महुअर बाजा, तूबी। महीन-वि० दे० (सं० महा । झीन-पतला, महख * ---संज्ञा, पु० दे० (सं० मधुक ) हि०) झीना, बारीक, पतला, धीमा. कोमल, महुआ, मुलेठी, जेठीमद । “उख मैं महूख मंद ( स्वर या शब्द )। "मारी महीन में पियग्व मैं न पाई जाय ".-.-भट्ट । पीन हीन कटि शोभा देति"--- मन्ना.! महारत* ---- संज्ञा, पु० दे० (सं० मुहत ) महीना--संज्ञा, पु० दे० ( सं० मास ) पंद्रह मुहर्त. सायत । "लगन, महरत, जोग बल, पंद्रह दिनों के दो पत्तों का समय, माय, तुलसी गनत न काहि ..--- तुल। माह, मासिक-वेतन, स्त्रियों का माहवारी मा .. संज्ञा, पु. यौ० (सं.) विष्णु, इन्द्र, रजोदर्शन, मासिक-धर्म । सातकुल पर्वतों में से भारत का एक पहाड़। महीप-संज्ञा, पु० (सं०) राजा अपभय। " महेंद्र: किंकरिष्यति' -भा. द. । सकल महीप डराने"-- रामा० । यौ०-महन्द्राचल । महीपति-पंक्षा, पु० यौ० (०) राना। महंतामणीसंज्ञा, श्री. यौ० (सं०) बड़ा "भूमि-सुता जिनकी पतिनी किमि राम इंद्रायणः । महीपति होहिं गोसाई" -- स्फुट । महर। - ज्ञा, पु० दे० ( हि० मही) मढे महीपाल - संज्ञा, पु० (सं०) राजा । "अलम् में पके चावल । संज्ञा, पु. (दे०) झगड़ा, महीपाल तवश्रमेण "- रघु० । बखेड़ा, लड़ाई । स्त्री-गहरी! महीभुज-- संज्ञा, पु० (सं०) राजा । "कृत महेरा--- संज्ञा, पु० दे० ( हि० महेर ) मटे प्रणामस्य महीं महीभुजो'"--हिरा में पके चावल । महीभृत-संज्ञा, पु. (सं.) पहाड़, राजा। महेरी-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि० महेरा ) महीसह ~ संज्ञा, पु. (सं०) पेड़, वृक्ष ।। नमक-मिर्च से खाने की उबाली ज्यार, “महीरुहाणाम् फल-पुष्य-मूलैः "-स्फु०। महेर, महेरा, मट्ठे में पके चावल । वि. महीश- संक्षा, पु० (सं०) राजा, महीश्वर। दे० ( हि महेर ) श्रीचन डालने वाला। महीनुर-संज्ञा, पु. यो० (सं.) महिसुर, महेला -.संज्ञा, पु० (दे०) पानी में पकाया ब्राह्मण । "बंदौं प्रथम महीसुर चरना"- मोथी यादि अन्न, घोड़े का भोजन । रामा० । महेश – संज्ञा, पु. यो. (सं०) महादेवजी, मह-अव्य० दे० ( हि० महँ ) में। ईश्वर, महेश्वर । For Private and Personal Use Only Page #1402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ENDRA mar महेशान मांगलिक महेशान- संज्ञा, पु० चौ० (सं०) महादेवजी। सोंठ । "रोध्रमहौषधि मोचरसानाम् " -- "नमस्कृत्य महेशानम्"--सि० चं। लो० । वि....--उत्तम या श्रेष्ठ औषधि । महेशी, महेशानी--- संज्ञा, स्त्री(सं०) मह्यो-संज्ञा. पु. (दे०) महा, मठा, तक्र, पार्वतीजी। मही माठा । महेश्वर --संज्ञा, पु. यौ० (सं०) महादेव, माँ- संज्ञा, सी० दे० ( सं० मातृ ) माता, शिवजी, प्रहरीदे। अम्बा, अम्मा यौ०-- मांजाया सगा भाई। महेष्वास ---संज्ञा, 'पुर (सं.) महा धनुषधारी। अव्य० (रा. मध्य ) में, भव्य० (सं०) "अत्र शूराः महे वायाः " - भा० गी० ।। माखना* ---अ० कि. द. (सं० भक्षण ) महेस, महंगर -- संज्ञा, पु० दे० यौ० (सं० अप्रसन्न या रुट होना, क्रोध करना, बुरा महेश ) महादेवजी। महैला-संज्ञा, सी० सं०) बड़ी लाइची, मानना । संज्ञा, पु० - माख । मुहा० माख मानना । " माखे लखन कुटिल भई डोंडा लाइची। भौं हैं " रामा० । “माखि मानि बैठो महोत्त - संज्ञा, पु. (सं०) बैल, साँड़ ।। ऐठि लडिलो हमारो ताको''---रखा। " महोहतां वरमतरः स्पृशन्निव - रघु० । माँसी पज्ञा, स्त्री० दे० (सं० मक्षिका) महोखा, महोरखर --संज्ञा, पु. द. (सं० मकवी, मक्षिका । मधूक ) तेज़ दौड़ने किन्तु न उड़ने वाला माँग--संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. मांगना) एक पक्षी । स्त्री० -- महादरी। माँगने की क्रिया या भाव, चाह. खींच, महोगनी--संज्ञा, पु० (अं) एक पंड अधिक खपत या विक्री से किसी वस्तु की जिसकी लकड़ी टिकाऊ दृढ़ और सुन्दर श्रावश्यकता । संज्ञा, स्त्री. द. ( सं० मार्ग) होती है। सिर के बालों की मध्यवर्तिनी रेखा जो महोच्छव, महाछा --- सज्ञा, पु. द. यो. बालों को दे भागों में बाँटती है, सीमंत । (सं० महोत्सव ) महोत्सव, महोदय (दे०) "बिन सोस हे माँग सँवारति श्रावै ".... बड़ा उत्सव । " जीव जंतु भोजन कहि, स्फुः० : मुह - -होल से सुखी महा महोच्छव होय "-नीति । रहना या बहाना--स्त्रियों का सौभाग्यवती महात्पल -- संज्ञा, पु. यो. (सं०) पा, और संतानवजी रहना । माँज-पट्टी करनाकमल । " मुखारविदानि महोत्पलानि "-- बालों में कंघी करना । मांग भरी रहना-- स्त्री का सधा या सौभाग्यवती रहना। महोत्सव--संज्ञा, पु. यो० (२०) बड़ा । माँगीका-संज्ञा, पु० दे० यो० (हि.) उत्सव, जलना। गाँग पर का एक गहना। महोदधि-संज्ञा, पु. गौ० (सं०) समुद्र ।। मांगन, मान - * -ज्ञा, पु० दे० (हि. महोदय--प्रज्ञा, यु. यौ० (सं.) श्राधिपत्य. माँगना ) माँगना क्रिया का भाव, भिखारी, स्वर्ग, महाराय, स्वामी, कान्यकुब्ज देश । भिक्षुक । " मगन लहहि न जिनके नाही" स्त्री महोदया। वि० संज्ञा, पु० यौ०.-बड़ा -रामा० । भाग्य या उदय। मांगना- स० कि० दे० (सं० मार्गण = महोला-संज्ञा, पु० द० ( अं० मुहेल ) याचना ) याचना, इच्छा-पूर्ति के लिये बहाना, हीका हवाला, चकमा, धोखा। कहना, चाहना करना । स० रूप --मंगाना महोसा-संज्ञा, 'पु० (दे०) लहसन, तिल । प्रे० रूप--- मगवाना। महौषधि-संज्ञा, पु० यौ० (२०) अतीस, मांगलिक-नि० (सं० ) कल्याण या For Private and Personal Use Only Page #1403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मांगल्य १३६२ मांडूक्य मंगलकारी, मांगलीक । संज्ञा, पु०-नाटक में माँर-संज्ञा, पु० दे० । सं० महक ) मटका, मंगलपाठ पढ़नेवाला पात्र । बड़ा घड़ा, कंडा, थटारी, अट्टालिका । माँगल्य-वि० (सं०) कल्याणकारी, शुभ। माँठ--संज्ञा, पु० दे० ( सं० महक ) चीनी में संज्ञा, पु०-मंगल का भाव । पगा पकान्न, मटका, बड़ा घड़ा, कड़ा माँचना, मचना*---अ० कि० दे० ( हि० (प्रान्ती०)। मचना ) प्रारंभ या शुरू होना, जारी या मॉड-ज्ञा, पु० दे० (सं० मंड) उबाले प्रसिद्ध होना, सचना (हि०)। हुये चावलों का लसदार पानी, पीच । मांचा|---संज्ञा, पु० दे० ( सं० मच ) पलंग, मॉइना* --स० क्रि० द० (सं० मंडन) खाट, मचान पीढी, मंझा प्रान्ती०)। सी. मलना, गूंधना, मानना, पोतना. सजाना. मल्पा० पाँची, मॅचिया-छोटी खाट । बाल से अन्न के दाने निकालना, मचाना. माँचा --- संज्ञा, पु० दे० ( सं० मत्स ) मछली, प्रारम्भ करना, पोतना, बनाना । संज्ञा. श्री. मांस। (दे०) मडाई। मांजना--.स. क्रि० दे० (० मंजन ) मोरनी-संज्ञा, सी० द. (सं० मंडन ) किसी देहादि या पदार्थ को रगड़कर साफ गोट, मगजी. किनारी। करना, माँझा देना। शीशे का चूर्ण और आर मांड्या --संज्ञा, पु० द० (सं० मंडप ) सरेस धादि से डोर (पतंग) को दृढ़ करना। अतिथिशाला, विवाह का मंडप, मांडव. स० रूप-मॅजाना, प्रे० रूप-मॅजवाना। मॅडवा (दे०)। अ० कि०- अभ्यास करना । मांडलिक--संज्ञा, पु. (मं०) बड़े राजा को मांजर -संज्ञा, स्त्री. १. (सं० पंजर ) कर देने वाला, छोटा राजा, मांडलीक, ठठरी, पंजर। मंडल या प्रान्त का शामक । माँजा-संज्ञा, पु० (दे०) पहली वर्षा के पानी मांडव--संज्ञा, पु० दे० (सं० मंडप) का फेन जो मछलियों के लिये हानिकारक विवाहादि कामंडप, मॅडवा, मांडव (दे०)। होता है । " माँजा मनहु मीन कहँ मांडवी-संज्ञा, स्त्री० ( सं० मागडवी ) राजा व्यापा"-रामा० । ___ जनक के भाई कुशध्वल की कन्या जो भरत माझ*-अव्य० दे० ( सं० गध्य ) में । जी को व्याही गई थी (वाल्मी.)। मध्य, भीतर, माँहि, मझ (दे.)। * माउन्य-संज्ञा, पु० (सं० मागडव्य ) एक संज्ञा, पु० (दे०) अंतर, भेद, फरक । ऋषि जिन्होंने यमराज को शूद होने का माँझा-सज्ञा, पु० दे० (सं० मध्य ) नदी शाप दिया था (पुरा०)। के मध्य का टापू या द्वीप, पगड़ी में बाँधने माँड़ा-संज्ञा, पु० दे० ( सं० मंड ) एक नेत्र का गहना, वर या कन्या के पीले वन, पेड़ । रोग जिसमें पुतली के ऊपर महीन झिल्ली की पेड़ी या तना। संज्ञा, पु० (दे०) पतंग सी छा जाती है : संज्ञा, पु० दे० (सं० मंडप) की डोरी या नख पर लगाने का काम। संज्ञा, पु० (दे०) मंझा। मंडप, मँडा । संज्ञा, पु. द. (हि. माँझिल*-क्रि० वि० दे० (सं० मध्य) माइन - गृधना ) मैदे की बहुत ही पतली बीच का, बिचला। रोटी या पूड़ी, लुचुई, उलटा, पराठा।। माँझी- संज्ञा, पु० दे० ( सं० मध्य ) नाव मांडी--- संज्ञा, स्रो० दे० ( सं० मंड) भात खेने या चलाने वाला, मशाह, केवट, या पके चावलों का पसावन, पीच, माँड़. झगड़ा निबटाने वाला, मामता तय करने कपड़े धादि का कला । घाला, मध्यस्थ। - मांडूक्य---संज्ञा, पु० (दे०) एक उपनिषत् । For Private and Personal Use Only Page #1404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org माँडौ माँड़ौच -- संज्ञा, पु० दे० (सं० मंडप ) मंडप, मँड़वा, माँडव । १३६३ माँदा - संज्ञा, पु० दे० (सं० मंडप ) मंडप, मढ़ा, कोठरी । माँत - वि० दे० (सं० मत) मतवाला, महत, उन्मत्त | वि० दे० ( हि० मात-मंद ) माता (दे० ) उदास, हतप्रभ श्रीहत | माँतना - प्र० क्रि० दे० (सं० मत +नाहि० प्रत्य० ) पागल या उन्मत्त होना । माँता - वि० दे० ( सं० मत्त ) मतवाला | मांत्रिक-संज्ञा, पु० (०) तंत्र-मंत्र करने या जानने वाला | माँ - वि० दे० (सं० मंद ) माँदा, उदास, श्रीहत, मुकाबले में बुरा या हलका, पराजित, मात, हारा हुया | संज्ञा, खो० (दे०) हिंसक जंतुओं के रहने का बिल, गुफा, खोद माँदगी - संज्ञा, स्त्री० ( फा० ) बीमारी, रोग । माँदर - संज्ञा, पु० दे० ( हि० मर्दल ) मृदंग, मर्दल | चुर, } माँदा - वि० ( फा० माँद: ) सुस्त, थका, श्रमित, शिथिल, बचा हुआ, शेष, रोगी, atara | ० कामदा माँध -- संज्ञा, ५० (सं०) मंदता, मंद होने का भाव । मांत्राता संज्ञा, ५० (सं० मांधातृ) मान्धाता. एक सूर्य वंशीय राजा । " मांधाता च महीपतिः " सपनाम भो० प्र० । अ० क्रि० दे० ( हि० मांतना ) नशे में मस्त या चूर होना, उन्मत्त होना । स० क्रि० (दे०) नापना, मापना । माँय - अव्य० दे० ( सं० मध्य ) में, मध्य, बीच, माँहि माँह । " माँस, मास-संज्ञा, पु० (सं०) देह का चर्बी और रेशेदार नर्म लाल पदार्थ, गोश्त, मास । मांसपेशी -- संज्ञा, खो० यौ० (सं०) शरीर के भीतर का माँस-पिंड । मांसभक्षी - संज्ञा, पु० यो० (सं०) माँसाहारी। मामल - वि० (सं०) माँसपूर्ण, माँस से भग भा० श० को ०-१७५ माख हुम्रा, मोटा-ताज़ा, हृष्ट-पुष्ट । संज्ञा, स्त्रो० मांसलता | संज्ञा, पु० -- गौडी रीति का एक गुण (का० ) । माँसाहारी - संज्ञा, पु० यौ० (सं० माँसाहारिन) माँस-भक्षी, माँस खाने वाला । त्रो० मांसाहारिणी । माँसु- संज्ञा, पु० दे० (सं० मांस ) मांस, माह, महीना, मास । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir माँ, माँझ अव्य० दे० (सं० मध्य ) में, मध्य, बीच, मँहियाँ, माँहिं | माँहाळा1- अध्य० दे० ( सं० मध्य ) में, बीच, मांहि मध्य । -- माँहि, माँही-- अव्य० दे० ( सं० मध्य ) में, मध्य, बीच | " तेहि छिन माँहि राम धनु तोरा -रामा० । कहु खगेस को जग माहीं - रामा० । 46 "" मा-संज्ञा, स्त्री० (सं०) श्री, लक्ष्मी, प्रकाश, दीप्ति, माता । अव्य० (सं०) - निषेध, मत, यथा- मा कुरु ! अव्य० (दे० ) में | माइँ, माई-पंज्ञा, दे० (सं० मातृ ) मातृ-पूजनार्थ बनाया गया छोटा पुत्रा । मुहा०-- माइन में थापना -- पितरों के तुल्य सम्मान करना | संज्ञा, स्त्रो० (अनु० ) लड़की, कन्या | संज्ञा, खो० मातुलानी ) मामा की खी । माइ, माई संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० मा ) माता, माँ । यौ० -- भाई का लालउदार चित्त पुरुष, शूरवीर, बली, साहसी । बूदी स्त्री का संबोधन । For Private and Personal Use Only दे० ( ( सं० माइका, मायका -संज्ञा, पु० (दे०) स्त्री या कन्या के पिता का घर, पीहर ( प्रान्ती० ) । माउल्लहम - संज्ञा, पु० (प्र०) माँस का पौष्टिक | माकूल - वि० (अ०) वाजिब, ठीक, उचित, योग्य, अच्छा, मुनासिब, जो विवाद में प्रतिपक्षी की बात मान ले । माख - संज्ञा पु० दे० (सं० भक्ष ) पश्चाताप, नाराजी, अप्रसन्नता, दोष छिपाना, क्रोध, अभिमान, रुष्टता, अपना Page #1405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir माखन १३१४ माड़ना बुरा । मुहा०-माख मानना-बुरा या माचा-संज्ञा, पु. द० (सं० मंच ) बड़ी बिलग मानना । " माख मानि बैठो एठि खाट, पलंग, मचान कुरसी बड़ी मचिया । लाड़िलो हमारो ताको" .. रखा। माची-- संज्ञा, खी० द० ( सं० मंच ) छोटा माखन-संज्ञा, पु० दे० (सं० मंथन) पलँग या खाट, खटिया, छोटा माचा, नवनीत, नैनू, कच्चा धी, मक्खन । यौ०- मचिथा, कुरसी। माखनचोर--श्रीकृष्णजी। माजी --संज्ञा, पु० दे. ( सं० मत्म ) मच्छ, माखना*-० क्रि० (हि. माख) बुरा । मछली। मानना, पछताना, नाराज़ या अप्रसन्न माछा--संज्ञा, पु० दे० ( हि० मकड़ ) होना, शोध करना। "माखे तपन कुटिल मच्छड़, मला । संज्ञा, पु० दे० ( मं० मल्स ) भई भौहैं"-रामा० ! " श्रद जनि कोऊ मछली, मच्छ। माखै भटमानी"-राभा०। जादी ---संज्ञा, स्त्री० दे० ( सं० मक्षिका ) माखी-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० मक्षिका ) मनिका, मक्खी, मावी (दे०) । मक्षिका. मक्खी, सोनामरावी. भाछी (ग्रा.)। माजरा--संज्ञा, पु० (ग्र०) मामला, हाल, वृत्तांत, घटना. वारदात । "भामिनि भइ उ दूध की माखी''---रामा० । मान--संज्ञा, स्त्री० अ०) मातम (दे०) मागध--संज्ञा, पु० (सं०) विरुदावली कहने मीठा अवलेह (ोष०) वाली एक प्राचीन जति, भाट, जरासंध ! माइकल-संज्ञा, स्नो यौ० ( फा० मान -:“मागध, सूत, बंदि गुण-गायक " रामा० । फल हि. ) माजू काडी का गोंद या एक वि-(सं०) मगध देश का। फल जो श्रौषधि 'पौर रंगाई के काम मागधी-संज्ञा, स्त्री० (सं०) मगध देश की पाता है। प्राचीन बोली या प्राकृत भाषा, इसका माझी--संज्ञा, पु० (दे०) माँझी, मल्लाइ । एक भेद अर्थ मागधी थी। मार-संज्ञा, पु० दे० (हि. मटका ) बड़ा माव--संज्ञा, पु० (सं०) पूष के बाद और मटका या घड़ा, रंगरेजों के रंग रखने का फाल्गुन से पूर्व का एक चांद्र महीना, बरतन, मार (प्रान्ती०)। संस्कृत के एक विख्पात कवि, इनका रचा मामा, मटा---संज्ञा, गु. (दे०) लाल रंग का हुधा संस्कृत-काव्य-ग्रंथ, वृहत् अयी महा- एक चींटा। काव्यों में से प्रथम है। संज्ञा, पु. द. माटी*-- संज्ञा, खो० द. ( हि० मिट्टी) (सं० माध्य ) कुंद का फूल ।। मी, मिट्टी, मृतिका, शत्र, लाश, भूलि, माधी-संज्ञा, स्त्री० (सं० माघ-1-1-प्रत्य०) रज, शरीर, पृथ्वी-तरम । लहा- माटी माव की पूर्णमासी या अमावस्या । वि.-- होना-नष्ट होना, निस्मार और तुच्छ होना । माव का, जैसे--माधी मिर्च । वि०-- मार--संज्ञा, पु. द. ( हि० मीटा) एक माघीय । तरह की मिठाई, मठरो (दे०)। माच -संज्ञा, पु० दे० (सं० मंच) माइना -अ० कि० द० (सं० मंडन) मचान, पलंग, कुरसी, बड़ी मचिया । माना, करना, ठानना । सं० कि० दे० माचना*-स० कि० दे० (हि. मचना) ( सं० मंडन ) मंडित या भूपित करना, श्रारंभ होना, छिड़ना, होना। पहनना, धारण करना, पूजना, पादर माचल*-वि० दे० (हि० मचलना) करना । स० कि० दे० (सं० मदन) मसलना. मचलने वाला, हठी, मनचला, जिद्दी। मलना, धूमना, फिरना. माडना । For Private and Personal Use Only Page #1406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir माढा, मढ़ा मात्रा माढा, मढ़ा*1- संसा, पु० दे० (सं० मातम--संज्ञा, पु० (अ०) किसी के मरने पर मंडप) अटारी पर का बंगला या चौबारा। रोना-पीटना. रंज, शोक, अफ़सोस, दुख, माढी*-संज्ञा, स्त्रो दे० (सं० मंडप) कंदन । मदी, कोठरी, छोटा मठ। मातमपुर्मी - संज्ञा, स्त्री० (फ़ा०) मृत के माणवक-- संज्ञा, पु० सं०) वटु, विद्यार्थी, । सम्बन्धियों को सांत्वना या धैर्य देना । सोलह वर्ष का युवा, नोच या निदित मातमी--वि० (फा० शोक-सूचक । व्यक्ति। मानलि-संसा, पु० (सं०) इन्द्र का सारथी । माणिक, मानिक-संज्ञा. पु. द. ( सं० मातलिसन----संज्ञा, पु. यौ० (सं०) इन्द्र । मागिाक्य ) लाल रंग का एक रत्न, चुन्नी । माहत-वि. (अ.) किसी की अधीनता पद्मराग, लाल । विसबसे बढ़कर में काम करने वाला। संज्ञा, स्त्री० मातहती। सर्व-श्रेष्ठ, अति प्रादरणीय । "मोती पाना--संज्ञा, स्त्री. ( सं० मातृ ) जननी, माणिक, कुलिश, पिरोजा" - रामा। जन्मदात्री, पूज्या या बड़ी स्त्री, गौ, पृथ्वी, माणिक्य-संज्ञा, पु. (सं०) एक लाल रत्न, लघमी, शीतला, चेचक । वि० ( सं० मत्त) लाल, चुनी, पारा । वि० ---सर्व-श्रेष्ठ, प्रमत्त, मतवाला । स्त्री० माती। पादरणीय। मातामह---संज्ञा, पु. (सं०) नाना, माता मातंग---संज्ञा, पु० (सं.) चांडाल, श्वपच, का बाप या पिता : स्त्री० मातामही। हाथी, शवरी के गुरु एक ऋषि, अश्वत्थ, मातु* --- संज्ञ, स्त्री० दे० ( सं० मातृ ) माँ, पीपल । माता, जननो, स्त्री। " पूछेउ मातु मलिन मातंगी-- संज्ञा, स्त्री० (मं०) दश महा विद्याओं मन देखी"-रामा० ।। में से हवीं महा विद्या या देवी (तंत्र०)। मानुल --- संज्ञा, पु० (सं०) मामा, माता का मात-संज्ञा, खो० दे० सं० मातृ ) मात, भाई, धतूरा । स्त्री०-मातुला, मातुलानी। माता। संज्ञा, खी. (०) हार, पराजय, | मातुली- संक्षा, स्त्री० (सं०) मामी, माई, शतरंज में शाह के मोहरे का चारों ओर मामा की स्त्रो, भाँग, मातुलानी।। से घिर कर चल न सकने की दशा । वि० मातृ -- संज्ञा, स्त्री० (सं०) माता, साँ, अम्बा। (अ०) पराजित । *वि० दे० (सं० मत ) मातृक--वि० (सं०) माता-संबंधी, माता का। माता, मतवाला, उन्मत्त । मातृका--संक्षा, सी० (सं०) धाय, दाई, मातदिल-वि० दे० (अ० मोअतदिल ) । धायी, जननी, माता. ब्राह्मी, माहेश्वरी. जो न तो बहुत ठंढा हो हो और न अति | कौमारी, वैद्यावी, बाराही, इन्द्राणी और गर्म ही हो। चामुंडा सात देवियाँ (तांत्रि०)। मातना--प्र. क्रि० दे० (सं० मत ) मातृपूजा---ज्ञा, स्त्री० दे० यौ० (सं० मातृमतवाला या मस्त होग, नशे से उन्मत पूजन ) पितरों को पुत्रों से पूजने की एक होना । “जो अँचवत माते नृप तेई "- रीति (व्याह.), मातृका पूजन । मा० । मातृभाषा-ज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) माता मातबर--- वि० दे० (प्र. मोअतबिर ) की गोद से हो सीखी हुई बोली, मादरी विश्वासी, विश्वासनीय, एतवारी (उ०) जबान (फा०). मदरटंग (अं०)। विश्वस्त । मात्र- अव्य० (सं०) केवल, सिर्फ, भर। मातबरी- संज्ञा, स्त्री. (अ०) विश्वास, मात्रा-संज्ञा, स्त्री. (सं०) मिकदार (फा०), विश्वासनीयता, ऐतबारी। परिमाण, एक बार में खाने योग्य औषधि, For Private and Personal Use Only Page #1407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मात्रासमक माधुरिया कल, एक हस्वस्वर के बोलने का समय, माथे-क्रि० वि० दे० ( हि० माथा ) मस्तक कला, मत्ता, स्वरों के वह सूचम रूप जो या सिर पर, भरोसे, सहारे या प्रापरे पर ! व्यंजनों से मिलते समय हो जाता है और “सो बनु हमरे माथे कादा".--रामा० : उनके आगे-पीछे या ऊपर-नीचे लगते हैं। मादक-वि० (सं०) नशेदार, नशीला । मात्रासमक-संज्ञा. पु. (सं.) एक मालिक मादकना --संज्ञा, सी० (सं०) मादकपन. छंद या वृत्ति (पिं०)। नशीलापन, मादक का भाव । "कनक कनक मात्रिक-वि० सं०) वह छंद जिसमें मात्रामों तें सौगुनी, मादकता अधिकाय"-नीति । की संख्या का नियम हो, मात्रा-संबंधी छंद। मादर-संज्ञा, स्त्री० (फा० माता, मो,मदर मात्सर्य-संज्ञा, पु० (सं०) डाह, ई, जलन। (अं०)। वि०-मादरी--माता संबंधी। माथ, माथा --संज्ञा, पु. दे० (स० मस्तक) मादरजाद-वि० (फा०) पैदायशी, जन्म मस्तक, भाल, ललाट, किसी वस्तु का का, सहोदर भाई, दिगंबर, नितांत नंगा ऊपरी या अगला भाग, मत्था । मुहा०--- मादरिया*--संज्ञा, स्त्री० दे० ( फा० मादर) माथा ठनकना-किसी दुर्घटना या इष्टार्थ | माता, माँ, अम्मा । “मादरिया घर बेटा के विपरीत होने के पहले ही से उसकी आई " .... कबीर। आशंका होना। माथे चढ़ाना (धरना). मादा-संज्ञा, स्त्री० (प्रा०) स्त्री जाति का शिरोधार्य या सादर स्वीकार करना। सारे जीवधारी । ( विलो. ---नर )। (सिर) पर चढ़ाना-मुँह लगाना, ढीठ माहा--संज्ञा, पु. (अ.) मुलतत्व पीव, करना, बहुत मानना । माथे पर बल मवाद, योग्यता, लियाकत । पड़ना-मुखप्नु द्रा से असंतोष, दुःख, माद्री - संज्ञा, स्त्री. (सं०) राजा पांडु की क्रोधादि का प्रगट होना। किसी के स्त्री तथा नकुल और सहदेव की माता। भाथे या मत्ये पीटना, पटकना माधव--संज्ञा, पु० (सं.) नारायण, श्रीकृष्ण, (छोड़ना )-बलात् किसी के जिम्मे | विष्णु, बैसाख महीना', वसंत ऋतु, मुक्तहरा कुछ काम छोड़ना या करना। माथे छंद (पि.), माधो (दे०)। पड़ना-बलात् जिम्में हो जाना। माथे माधवाचार्य - संज्ञा, पु० यौ० (०) संस्कृत मानना-सादर स्वीकार करना । माथे । के एक निद्वान वैष्णव श्राचार्य । ( मत्थे ) होना ( लेना )-ज़िम्मे होना । ( लेना )। सिर-माथे होना (लेना)--- माधवी--संज्ञा, स्त्री० (सं०) सुगंधित पुप्पों शिरोधार्य होना ( करना ) । (किसी के) । की एक लता । " मधुरया मधुबोधित माथे ( कोई काम ) करना-किसी के माधवी".-- माघ । एक प्रकार का सवैया भरोसे करना । “सो जनु हमरे माथे कादा" | छंद (पिं०), दुर्गा, एक शराब, तुलसी, -रामा० । यौ० -माथापच्ची करना माधव की स्त्री। श्रति अधिक समझाना या बकना, सिर माधुराई* ----संज्ञा, स्त्री० दे० ( सं० माधुरी) खपाना। किसी पदार्थ का ऊपर" या अगला मधुरई, मधुरता, सुन्दरता, मिठास । खंड । मुहा०-माथी लेना---समान “आनि चढ़ी कछु माथुरई सी"- पद्मा० । बनाना, बराबर करना। माधुरता --- संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० मधुरता) माथुर-संज्ञा, पु. (सं०) मथुरावासी, चौबे, मधुरता, सुन्दरता, मिठास। ब्राह्मणों तथा कायस्थों की एक जाति । माधुरिया*-संज्ञा, को० दे० (सं० माधुरी) प्रो०-माथुरानी। वि०-मथुरिया। माधुरी, सुन्दर । For Private and Personal Use Only Page #1408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir माधुरी १३९७ मानवी माधुरी-संज्ञा, स्त्री० (सं०) मधुरता, मिठास, मानकच-संज्ञा, पु० (दे०)मानकंद (हि.)। मधुराई, सुन्दरता, शराब, मद्य । मानक्रीड़ा--संज्ञा. स्त्री० (सं०) एक छंदमाधुर्य-संज्ञा, पु० (सं०) माधुरी, मिठाम, भेद (पिं० सूदन०)। सुन्दरता, शोभा, मधुरता, पांचाली रीति ! मानगृह--ज्ञा, पु० यौ० (सं०) कोप-भवन । के काव्य का मनोमोहक एक गुण (काव्य.)। मानचित्र - संज्ञा, पु. यो० (सं०) नकशा। माधैयाक्ष-संज्ञा, पु० दे० (सं० माधव ) मानता --संजा, स्त्री० दे० (हि० मनत) मन्नत। माधव । मानदंड---ज्ञा, पु० यौ० (सं०) पैमाना, माधो, माधौ -- संज्ञा, पु० दे० (सं० माधब) । नापने का दंड, राज-चिन्ह । " स्थितः श्रीराम, श्रीकृष्ण, विष्णु । “माधो श्रब के प्रथिव्यामिव मानदंडः ''--कु० सं० । गये कब ऐहो"- सुर० । मानना-अ. क्रि० (सं० मानन ) स्वीकार माध्यंदिनी-संज्ञा, स्त्री. (सं०) शुक्ल यजुः या अंगीकार करना, कल्पना या फर्ज़ करना, चैद की एक शाखा । समझना, ठीक रास्ते पर पाना, ध्यान में माध्यम---वि० (सं०) बीच का, मध्य का, लाना । स० कि० --- स्वीकृत या मंजूर बीच वाला । संज्ञा, [o-कार्य सिद्धि का करना, पारंगत जानना, थादर-सत्कार या साधन या उपाय । प्रतिष्टा करना, पूज्य जानना, धार्मिक भाव माध्यमिक-संज्ञा, पु. (सं०) बौद्धों का एक से श्रद्धा और विश्वास करना, मनता या भेद, मध्य देश । वि-मध्य का। मन्नत मानना, देवतार्थ भेंट करने का माध्याकर्पण--- संज्ञा, पु० यौ० (सं०) सदा संकल्प करना । सब पदार्थों को अपनी ओर खींचने वाला, माननीय - वे० (२०) सम्मान या सरकार पृथ्वी के केन्द्र का श्राकर्षण । है वरने योग्य, पूज्य । स्त्री०-माननीया ।। माघ-संज्ञा, पु० सं०) मध्वाचार्य का मानपरेखा--संज्ञा, पु० (दे०) श्राशा, भरोसा। प्रचलित किया हुया चार प्रमुख वैष्णव- मानमंदिर--संज्ञा, पु. यो० (सं०) कोपसंप्रदायों में से एक । भवन, ग्रहों के देखने या वेध करने श्रादि माध्वी-संज्ञा, स्त्री० (०) मदिरा, शराब। की सामग्री या तरसम्बन्धी यंत्रों का स्थान, मान-संज्ञा, पु० (सं०) माप, तौल, भार, वेधशाला। नाप श्रादि, मिकदर परिमाण, पैमाना, मानपनौती -संज्ञा, स्त्री० यौ० ( हि०) मनौती, नापने या तौलने का साधन, थभिमान, मन्नत, रूठने और मनाने की क्रिया । गर्व, शेखो, रूठना, सम्मान, प्रतिष्ठा, मानारोग्*--संज्ञा, स्त्री० (दे०) मनसरकार । मुहा०-मान मथना-घमंड मोटाव, बिगाइ, वैमनस्य, मनोमालिन्य । मिटाना । मान रखना-प्रतिष्टा करना। मानमोचन--संज्ञा, पु. यौ० (सं०) रूठे को यौ-मान महत-श्रादर, सत्कार । मनाना, मान छोड़ना। अपने प्रिय का दोष देखकर पैदा होने वाला मानव-संज्ञा, पु० (सं०) श्रादमी, मनुज, एक मनोविकार ( साहि० ) । मुहा०- मनुष्य, चौदह मात्राओं के छंद (पिं०) । मान मनाना-रूठे हुये को मनाना। संज्ञा, स्त्री०-मानवता। मान मोरना--मान छोड़ देना । शक्ति, : मानवशास्त्र - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) मनुस्मृति, सामथ्र्य, बल। मनुकृत धर्म शास्त्र । मानकंद- संज्ञा, पु० दे० (सं० माणक ) मानवी-संज्ञ, पु. (सं०) स्त्री, नारी। वि. एक मीठा कंद, सालिय मिस्री। । दे० (सं० मानवीय ) मानव-संबंधी। For Private and Personal Use Only Page #1409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir -- - arwesaa m aan मान-सम्मान १३९८ मानुषी "कृतारि षडबर्ग जयेन मानवीमगम्यरूपां माना---- संज्ञा, पु० दे० (इ० ) एक तरह पदवीं अपित्सुना ''-किरा० । का दस्तावर मोठा निर्यास । *--स० क्रि० मान-सम्मान संज्ञा, पु. यो सं०) आदर- दे० (सं० मान) नापना, जाँचना, तौलना । सत्कार, प्रतिष्ठा। अ० कि० (दे०)-समाना, अमाना ! स० कि. मानस-संज्ञा, पु० (सं०) चिन, हृदय, मन, । मान लिया। "हमने माना कि पढ़ाना है कामदेव, मानसरोवर, संकल्पविकल्प, दूत, बहुत अच्छा काम "-स्फुट । मनुष्य । वि०-विचार, मनेभिाव, मन से मानिंद - वि० (फा०) सदृश, तुल्य, समान, उत्पन्न । क्रि० वि० -मन के द्वारा । “बसहु बराबर ! रामसिय मानस मोरे"-विनय० । “बरु मानिक- संज्ञा, पुरु द० (पं० माणिक्य ) मराल मानस तजै"-तु० । माणिक, लाल रंग का एक रन, पद्मराग । मानसपुत्र-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) जो पुत्र “मानिक मरकत कलिय पिरोजा"-रामा०। इच्छा मात्र से उत्पन्न हो (प्रा.)। मानिकचंडी -- संज्ञ, स्वी० (हि०) मानिकचंद मानसर-मानसरोवर-संज्ञा, पु० दे० यौ० एक छोटी और स्वादिष्ट सुपारी । ( सं० मानस् । सरोवर ) एक बड़ी झील जो | मानिकरत--संज्ञा, स्त्री० (दि.) गहने माफ हिमालय के उत्तर में है। । करने का मानिक का रेत या चरा। मानसशास्त्र-संज्ञा, पु० यौ० सं०) मनोविज्ञान। मानित-वि० (सं० प्रतिष्ठित, सम्मानित । मानस हंस-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) मान- मानिनी- वि० स्त्री० (मं०) मानवती. गर्यसरोवर के हंस, मानहंस, एक वृत्त (पिं०) । वती, रुटा, नापक का दोष देन उस पर 'जय महेश-मन मानस-हंसा".--रामा० । रूठी हुई नायिका माहि.) " मानिनी न मानसिंह--संज्ञा, पु० (सं०) 'अम्बर के राजा मानै लान पापुहि पग धारिये".--.स्पूर० । और सम्राट अकबर के सेनापति जिन्होंने 'मानिनी साननिगसे". मात्र । पठानों से बंगाल जीतकर ग्रहबर के श्राधीन मानी-- वि० (सं० मानिन ) अभिमानो, किया और काबुल में भी विजय प्राप्त की घमंडी, संमानित, मानने वाला ( यौगिक थी ( इति०)। में ) जैसे -- भटमानी. पंडितमानो। संज्ञा, मानसिक-वि० (सं०) मन-संबंधी, मनका। पु० - जो नायक नायिका से अपमानित मन की कल्पना से उत्पन्न । होकर रूठ गया हा। स्त्री.मानिना। मानसी-संज्ञा, स्त्री. (सं०) वह पूजा जो संज्ञा, स्त्री. (ग्र०) अर्थ, तात्पर्य मतलब । मन ही मन की जाय, मन संबंधी, एक विद्या मानुख, मानुप*----संज्ञा, पु० दे० (सं० देवी । वि० - मन का, मन से प्रगट। मनुष्य ) मनुष्य । “कहूँ महिख मानुख मानहंस, मनहंस --प्रज्ञा, '. (सं०, एक धेनु खर अजया निपाचर भच्छहीं " रामा। छंद (पिं०)। मानुपिक-वि० (रां०) मनुष्य-सम्बन्धो, मानहानि--संज्ञा, स्त्री० यौ० सं०) अपमान, मनुष्य का, मनुष्य के योग्य ।। अनादर, अप्रतिष्ठा, बेइज्जती, हतक-इज्जत। मानुपी-वि० ( सं० ) मनुष्य का । मानहुँ, मन हुँ*----अव्य० दे० ( हि० माना ) मानुपीय (सं०) मनुष्य-संबंधी । सोaमाना, गोया, जैसे, ज्यों । स० कि. (दे०) मानुपी । संज्ञा, पु० (सं०) मनुष्य, मनुज, मानता हूँ। "मानहुँ लोन जरे पर देई” आदमी, मानुस, मानुस्ख, मनम, मन्नुप -रामा । (ग्रा.)। For Private and Personal Use Only Page #1410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मानुस १३६१ माया - मानुस-संज्ञा, पु० दे० (सं० मानुप) मनुष्य ।। मुमामिला) काम, व्यापार, धधा, उद्यम, "मानुप तन गुन-जान निधाना"-रामा०। वापस का व्यवहार, व्यवहार, व्यापार या माने-संज्ञा, पु० दे० (अ० मानो) तात्पर्य, विवाद की बात । " परबस परे परोस बसि, अर्थ, मतलब। परे मामला जान"-तुका झगड़ा, मुकदमा, मानो, मानी-ग्रन्ट'० दे० (हि. मानना )। विवाद। मनी, जैपे, गोया, मानहुँ, मनु । " मानो मामा---संज्ञा, पु० ( अनु० ) माता का भाई, अरुण तिमिर मय रामी ---रामा। मातुल (सं०) । स्त्री०-मामी। संज्ञा, स्त्री० मान्य-वि० (सं०) माननीय, मानने-योग्य, (फा० ) माता, माँ, रोटी बनाने वाली पूजप, पूजनीय । स्त्री० मान्या । नौकरानी (मुप०)। मामी-झा, स्त्री० दे० (सं० मातुलानी ) माप-संज्ञा, स्त्री० (हि.० मापना) नाप, मान । माई, मालानी । (हि. मामा -- ई-प्रत्य० ) मापक-संज्ञा, पु० (सं०) माप, मान, पैमाना, संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० मा = निषेधार्थक ) जिससे कुछ नापा या मापा जाय, मापने. अपने दोष पर ध्यान न देना, इनकार करना। वाला। मुहा० - मामी पीना-इन्कार करना, मापना-स० कि० द. (सं० मापन) नापना, मुकर जाना। किसी वस्तु के घनत्व या परिमाणादि का मामल---संशा, पु० (अ.) रीति, रिवाज़ । किपी निश्चित मान से परिमारण करना, मालली--वि० (अ०) नियत, नियमित, पैमाइश करना । अ० क्रि० द० ( से० मत्त ) साधारण, सामान्य । (विलो०-गैरमामली)। मतवाला होना। माय* संज्ञा, स्त्रो० दे० (सं० मात्र) माँ, माफ़-वि० (अ०। क्षमा किया गया, मित, माता, जननो, महतारी, माई, आदरणीय मुग्राफ़ । सज्ञा, स्त्री-माका। वृद्धा स्त्री का सम्बोधन । संज्ञा, स्त्री० (दे०) माफकत...संज्ञा, स्त्री० अ०) मैत्री, अनुकूलता, लघमी, संपति, अविद्या, छल, कपट, प्रकृति, मेल, माफिरत (दे०)। माया । अच० दे० (सं० मध्य ) में, माँहिं। माफ़िका-वि० द० । अ० मुग्राफ़िक ) अनु मायक-संज्ञा, पु० (सं०) मायाबी। सार, अनुकूल, योग्य। मायका, माइका-संज्ञा, पु० दे० (सं० मातृ) माफ़ी-सज्ञा, सो० (२०) जमा, बिना कर मैका (दे०), नैहर, मइका (दे०), पीहर की पृथ्वी, विना लगान की भूमि । यो0 ( प्रान्ती० ) । स्त्री के माता-पिता का घर माफ़ीदार-वह व्यक्ति जिसके लिये सरकार ने भूमि-कर छोड़ दिया हो। मायन*-ज्ञा, पु० द० (सं० मातृ कामाम*- सज्ञा, पु० द. (सं० मान्) ममता, आनयन ) व्याह के एक दिन प्रथम का मातृ ममत्व, अहंकार, शक्ति । अधिकार, सर्व० का पूजन का दिन या उस दिन का कार्य, (सं०)-मुझे, मुझको । “ब्राहिमाम् पुण्डरी- पितृ-निमंत्रण। कान"-पुष्ट । मायनी--संक्षा, स्त्री० दे० (सं०) मायाविनी, मामता-संज्ञा, स्त्री० दे० ( सं० ममता ) ठगिनी, कपरिनी। श्रात्मीयता, अपनापन, प्रेम, स्नेह, मुहब्बत। मायल-वि० (फ़ा०) प्रवृत्त, रुजू (फा०) मामलत-माम नति-संज्ञा, स्री. द. झुका हुआ, मिला हुधा, मिश्रित ( रंग (अ० मुमामिलत) व्यवहार की बात, मामला, आदि)। झगदा, विवाद, विषय माया-संज्ञा, स्त्री. (सं०) धन, लक्ष्मी, मामला-मामिला-संहा, पु० दे० ( ०। संपति, अविद्या, भ्रम, धोका, प्रकृति, ईश्वर For Private and Personal Use Only Page #1411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मायादेवी १४०० मारजन के प्राज्ञानु पार कार्य करने वाली उसो की मार-संज्ञा, पु. (सं०) कामदेव, धतूरा, कल्पित शक्ति, जादू . इन्द्रजाल, छल, सृष्टि विष । संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. मरना) निशाना, का मुख्य कारण, प्रपंच, एक वर्णिक छंद, चोट, श्राघात, मार-पीट । अव्य० दे० ( हि० इन्द्रवना छंद का एक भेद (पि.), मय मारना ) बहुत, अत्यंत । *-संज्ञा, स्त्री० दे० दानव की कन्या जो सूर्पनखा, त्रिशिरा और (हि० माला ) माला। खरदूषण श्रादि की माता थी। किसी देवता | मारकंडेय - संज्ञा, पु० दे० ( सं० मार्कंडेय ) की शक्ति , लीला या प्रेरणा प्रादि, दुर्गा, मृकंड के पुत्र एक अमर ऋषि, इनका एक बुद्ध की माता ! - संज्ञा, स्त्री. ( हि० माता, । पुराण । सं० मातृ ) माता, माँ । *-संज्ञा, स्त्री० दे० | मारक - वि० (स०) मार डालने या नाश ( सं० ममता ) मया (दे०), ममत्व, दया, करने वाला, संहारक, किसी के प्रभाव थादि कृपा प्रात्मीयता का भाव । का मिटाने वाला। मायादेवी- संज्ञा, स्त्री० दे० (सं०) माया. मारका---संज्ञा, पु. १० (अ० मार्क) निशान, बुद्ध की माता। चित, विशेषता सूचक चिह्न । संज्ञा, पु. मायाकृत - संज्ञा, पु० (सं०) संसार, इन्द्र- (अ०) लड़ाई संग्राम, युद्ध, बड़ी और महत्व जाल। वि० माया से निर्मित । पूर्ण बात या घटना। मायापति-संज्ञा, पु. (सं०) परमात्मा, ब्रह्म। मार-काट-संज्ञा, स्त्री० यौ० (हि० मारना + मायावाद--संज्ञा, पु० यौ० (सं०) अद्वैतवाद, काटना ) संप्राम, युद्ध, लड़ाई, जंग, मारनेब्रह्म के सिवा अन्य सब पदार्थों के अनित्य काटने का भाव या कार्य । और नश्वर मानने का सिद्धान्त । मारकीन- संज्ञा, पु० दे० ( अं० नैनकिन् ) मायावादी-संज्ञा, पु. ( सं० मायावादिन् ) एक तरह का कोरा मोटा कपड़ा, लट्ठा । वह व्यक्ति जो ब्रह्म के अतिरिक्त सब सृष्टि मारकट-मारकुटाई-- संज्ञा, स्त्री० दे० यौ० को माया या प्रपंच-भ्रम या थऽत्य समझता (हि० मारना | कूटना ) मारना कृटना, हो, ब्रह्मवादी, अद्वतवादी। धुनाई-पिटाई। मायाविनो-संज्ञा, स्त्री. (सं.) छल-कपट मारकेश---संज्ञा, पु० यौ० (सं.) मार डालने करने वाली, प्रचिनी, ठगिनी। वाला ग्रह, लग्न से दूसरे और सातवें घर का मायावी--- संज्ञा, पु० (सं० मायाविन् ) फरेबी, स्वामी ( ज्यो०)। धोखेबाज, छली, प्रपंची, कपटी, एक दानव मार खाना-- अ० कि० दे० ( हि० मारना । जो मय का पुत्र था, परमात्मा , जादूगर । खाना) पिटना, मारा-कूटा जाना । स्त्री०-मायाविनी । 'भवन्ति माविषु ये न मारग -संज्ञा, पु० दे० ( सं० मार्ग ) राह, मायिनः "---कि० । रास्ता, पंथ, धर्म, मत | "मारग से जा मायास्त्र--संज्ञा, पु० यौ० (सं०) एक अस्त्र कहें जोइ भावा"--रामा० । मुहा०जिसका चलाना रामचन्द्र जी ने विश्वामित्र मारग मारना-रात में लूट लेना । से सीखा था । मारग लगना--राह पकड़ना, रास्ता मायिक-वि० (सं०) मायावी, छली, बना- लेना। वटी, जाली. माया से बना हुप्रा । मारगन-संज्ञा, पु० दे० (सं० मागण) तीर, मायी-संज्ञा, पु० (सं० मायिन् ) मायावी। बाण, शर, भिखमंगा, भिखारी, भिक्षुक । मायुस-वि० (अ०) निराश, हताश । संज्ञा, मारजन-संज्ञा, पुर. दे० (सं० मार्जन ) स्नो०-मायूसी। परिष्कार, सफ़ाई, नहाना। For Private and Personal Use Only Page #1412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मारजिन मारुतसुत मारजिन-संज्ञा, पु. द. ( मं० मार्जिन) मार हटाना (भगाना)-स० कि० यौ. हाशिया। (हि० मारना। हटाना) मारना, जीतना, मारजार-संज्ञा, स्त्री. द. (सं० मार्जार ) मारकर हटा देना. मारना और हटाना। बिल्ली, बिलारी। मारपीट - संज्ञा स्त्री० यौ० (हि० मारना - मारण-संज्ञा, पु० (सं०) हत्या करना, मार पीटना ) मारामारी, लड़ाई. झगड़ा। डालना, किसी के मारने के लिये एक कल्पित मारपंच---सज्ञा. पु. ३० ( हि० मारना । तांत्रिक प्रयोग । वि० मारणीय । पेच) चालाही, चालबाजी, वृर्तता, ठगी। मारतंड-संज्ञा, पु. ० ( सं० मार्तह) मारफर--(दे०) अन्य दे० (१०) मात, सूर्य, मृतंडा के पुत्र। जरिये से, द्वारा। मारना-स० कि० दे० ( सं० मारण ) हनन मारवाड़--- संज्ञा, पु० दे० (हि० मेवाई) करना, प्राण लेना, वध या हत्या करना, मेवाड़ का राज्य या देश ( राजपूताना। पीटना, चोट या श्राघात पहुँचाना, सताना, मारवाडी--संज्ञा पुं० (हि० मारवाड़) भार. दुख देना, मल्ल-युद्ध में विपक्षी को पछाड़ वाड़ का निवासी एक वैश्य जाति । स्त्री० देना, बंद कर देना, हथियार चलाना या मारवाडिन । संज्ञा, स्त्री० मारवाड़ की भाषा फेंकना क्षार करना (पारा श्रादि)। मुहा० . या बोली । वि० (हि० मारन) मारवाड़ देश -गोली मारना- किसी पर बंदूक का। छोड़ना या चलाना, छोड़ देना या जाने मारा- वि० दे. ( हि० मारना ) मारा हुआ, देना । शारीरिक श्रावंग या मन के विकार निहत ! मुद्दा-मारा था मारा मारा को रोकना, विनष्ट कर देना. श्राखेट करना, फिरना--- जुरी दशा में इधर-उधर घूमना । छिपा रखना, संचालित करना, चलाना। मारात्मक-1, पु. यो. (सं०) जिनका मुहा०--- पढ़कर मारना--- मं: पह- मूल तस्व काम हो, हिंसक । कर कोई वस्तु किसी पर फेंकना। मन माग पड़ना -... कि हि० मारना - मारना-चित्त की वृत्तियों को रोकना, पड़ना )---मारा जाना, बड़ी हानि पड़ना। इच्छा-निरोध । टोना. जादू या मंत्र मारना, मागसार-बारी पाउ-क्रि. वि. द. (हि. मंत्र या जादू चलाना, धातु श्रादि को मारना ) बहुत जल्दी. अति शीघ्रता से । जला कर भस्म बनाना. सरलता से बहुत मारिच * --- संज्ञा, पु० दे० (सं० भारीच ) सा धन प्राप्त करना. जीतना, विजय पाना, मारीच । संज्ञा, पु० (दे०) मार्च ( अं.) बुरी तरह से रख लेना, प्रभाव या बल चलना, फर्वरी के बाद का मास। कर देना। मारी-ज्ञा, सी. द. (हि० मारना) मार पड़ना --२० कि० यौ० ( हि० मारना महामारी, प्लेग। +पड़ना ) मार खाना, पिटना। मारीच-रांझा, ६० (स०) एक राक्षम जिसने मार-मारना-प० कि० दे० यौ० ( हि० सोने का मृग बन कर श्रीराम को छला मारना ) प्राघात या प्रात्महत्या करना था। मार लाना-स० कि० यौ० ( हि० मारना - मारुत-संज्ञा, पु. (सं०) हवा, वायु, पवन । लाना) लूट लाना। ___ "कबहुँ प्रबल बज मारुत"--रामा० ।। मार लेना--स० कि० दे० यौ० (हि० मारना मारुति- संज्ञा. पु० सं० ) हनुमान जी. +लेना ) मारना, जीतना, लूट या छीन भीमसेन । (दे०) माली। लेना, दवा लेना, मार बैटना । मारुतसुत-संज्ञा, पु० यौ० (सं.) भा० श० को०-१७६ For Private and Personal Use Only Page #1413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मारुतात्मल मालकोश marnamasomascreesmoanamansamacamerameen -wa0ecememourna मारुतात्मज, वायुपुत्र, हनुमान जी । मार्जनी--- संज्ञा, स्त्री० (सं० ) झाड़, बढ़नी। " मारुतसुत मैं कपि हनुमाना"-रामा। सारि--संज्ञा, पु. (सं.) बिल्ली, बिलाव । मारुतात्मज-संज्ञा, पु. यौ० (सं०) मारुत- स्त्री. राजगिरी।। तनय, वायुपुत्र, हनुमान। मार्जित---वि. ( सं० ) शुद्ध या साफ किया मारू - संज्ञा, पु. ( हि० मारता ) युद्ध में हुआ। बजाने और गाने का एक राग, जुझाऊ, मातंद --- झा, पु० (सं०) मृतंडा के पुन बड़ा डंका या धौंसा । संज्ञा, पु० द० (सं० सूर्य देव । मरुभूमि ) मरु देश या रेगिस्तान का मार्दव.. संज्ञा, पु० (१०) कोमलता, मधुरता, निवासी " मारू पाय मतो सम ताहि मृदुता, अहंकार का त्याग, दूसरे को दुःखी पयोधि "- वि०। ( हि० मारना ) मारने देख दुखी होना, सरलता। वाला, कटीला, हृदय-बेधक। माफ़ - अव्य० (१०) जरिये से या द्वारा। मारे-वि० दे० (हि० मारला ) हेतु से, मामिल - वि० (सं० ) जिसका प्रभाव मर्म कारगा से। पर पड़े, मर्म-संबंधी, विशेष प्रभावशाली। माकंडेय-संज्ञा, पु. (सं० मृकंडा ऋषि मामिला--संज्ञा, सौ. (सं०) मार्मिक होने के पुत्र जो अपने तपोबल से अमर हैं। का भाव, पूर्ण अभिज्ञात।। मार्का-संज्ञा, पु० द. ( हि० मारका ) मारका, चिह्न। माल- ---संज्ञा, पु. ६० (सं० मल्ल) पहलवान मार्ग संज्ञा, पु. ( सं०) प्राग (दे०) पंथ. मल्लयुद्ध करने या कुश्ती लड़ने वाला। राह, रास्ता, मार्गशीर्ष या श्रगहन का - ज्ञा, स्त्री. १० (सं० माला ) हार, महीना, मृगशिरा नक्षत्र । माला. चरने में कुये को घुमाने वाली मार्ग-सज्ञा, पु. (सं०) याण, शर, डोरी, पति, पक्ति । . उर तुलसी की अन्वेषण, खोज । “विकाशमीयुर्जगताश माल -तु० । संज्ञा, पु. (अ.) धन, मार्गणाः "-किरात । विजागणाय.. संपत्ति, अच्छा स्वादिष्ट भोजन, या पदार्थ । वि० मार्गी। सुहा--पाल चारना या मारनामार्गन*-संज्ञा, पु० दे० (२० मार्गमा ) दूसरे की सपत्ति हर पना, दूसरे का धनादि वाण, खोज। दया बैठना । मामत्री, अन्नबाब, सामान । मार्गशीर्ष-संज्ञा, पु० (सं०) अगहन मास। यो०-मालटाल-धन-संपत्ति । यौ० माल"मासानाम् मार्गशीर्षोऽहम् ---भ.गी। सवाच, मालमना। पूंजी, मोल लेने मार्गी- संज्ञा, पु. (सं० मार्गन् ) यात्री, या बेचने का पदार्थ । कर या महसूल का बटोही, पांथ, पथिक । वि० --किसी वक्री धन, फसल की पैदावार, कीमती वस्तु, ग्रह का फिर अपने मार्ग पर या जाना। गणित में वर्ग का धान या अक, वह पदार्थ मार्च-संज्ञा, पु. (अ.) चलना, फर्वरी जिसस कोई वस्तु बनी हो । के बाद का महीना। मालगुनी-- संज्ञा, स्त्री० (हि. ) एक लता मार्जन-संज्ञा, पु० (सं०) नारजन (दे०) जिसके बीजों से तेल निकाला जाता है। सफ़ाई, नहाना, धोना, मांजना, अभ्याए मालकोश---संज्ञा, पु. ( सं० ) संपूर्ण जाति करना। का एक राग, कौशिक राग (संगी०) किसी मार्जना-संज्ञा, स्त्री० (सं०) पफ़ाई, तमा। किसी ने के रागों के अंतर्गत इसे भी वि० मार्जनीय। __ माना है ( हनुमत् ।। For Private and Personal Use Only Page #1414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - anampaDEogawraMERASHIRPOSMARomemewordNERMANPO REEMPRODA मालखाना माली मालखाना- संज्ञा, पु. यौ० (फा०) मालघर, मातादीपक-संझा, पु० यौ० (सं० ) एक भांडागार, माल असबाब रखने का स्थान। अलंकार जिपमें पहले कही वस्तु को पीछे मालगाडी- संज्ञा, खो. यो० (दि.० केबल कही वस्तु के उत्कर्ष का कारण कहा माल ही लादने की रेलगाड़ी। जाता है । १० पी०): मालगुजार --संज्ञा, पु० यौ० (फा. माल- शायर -- ज्ञा. पु. ( सं०) १७ वर्णो गुज़ारी देने वाला, नाबरदार। एक गिक छंद (पिं० )। मालगुजागे-संज्ञा, श्री० (फा०) भूमि का । मालामाल-विक यौ० (फा०) मालामाल जो ज़मींदार परकार को देना है, लगान। (दे०) बहुत धनी या संपन्न । मालगोदाम--संज्ञा, .. यौ० (हि.. रेल मालाएक-झा. पु० यौ० (सं०) रूपकाके स्टेशन का वह स्थान जहाँ थाने-जाने लंकार का एक भेद ।। वाला माल रखा जाता है. भालगाव मालिक---- संसा, पु० (अ.) स्वामी, अधिपति, ईश्वर, पति । स्वी० मालिका।। मालती पंज्ञा, सो० सं० ) बड़े वजों पर मालिका--ज्ञा, सी० ( सं० ) माला, हार, फैलने वाली एक सघन लता, ६ वा को मालिन, श्रवानी, पंक्ति। एक वर्ण-वृत्ति, १२ वणों का वर्गिक छंद मालिकाना---ज्ञा, पु. ( फा० ) स्वामित्व, (पिं०), मत्तगयंद पदया । योत्स्ना, स्वामी का स्वत्व या अधिकार, मिलकियत । चंद्रिका, रात्रि, सस कि० वि० (दे०। स्वामी के समान, मालकाना। मालदार-वि० ( फ़ा धनी. धनवान। लकी संहा, स्त्री० दे० ( फ़ा० मालिक ) मालद्वीप ज्ञा. [ यो मलय. मालिक होने का भाव, मालिक का स्वत्व । द्वीप ) मूंगे के लिये प्रति भारत परिचमालिनी-संहा, स्त्री. ( सं० ) चंपानगरी, की भोर का एक ही मालिन, गौरीजी. रकद की ७ माताओं में म नपुग्रा-मालपुवा संहा, १०० यौ० से एक माता, एक वर्णिक छंद (पि०) । (सं० पूप) पूरी जैप्पा एक माला पकार " ननमयय यु नेयं, मालिनी भोगि लोके", मालव--- संज्ञा, पु. 10) मानचा देश. सदिरा छंद पिं.)। भैरव राग ( संगी० ) माल थाना तिन्य-संजा, पु० (सं० ) मलिनता, वि० मालब देश सबंधी, मानवा का : मैलापन यौर मनोमालिन्य । मालवा-ज्ञा, पु० द० ( पं० सालना मल्लिमान--- संहा. स्त्री० ( अ ) मोल, मूल्य, ल यात एक देश ! संपत्ति कीमती चीज़, जायदाद । मालवीय-वि० (१०) पाली (दे०) निमान ----राज्ञा. ३० दे० (सं० माल्यवान्) मालवा ा मालव देश का रहने वाला रावण का नाना. एक राक्षस । “ मालिवान संज्ञा, पु० (दे०) मालया को १ मा प्रति जटर निशाचर''.--रामा। जाति । सारिश- सज्ञा, स्रो० (फा०) मलाई, मर्दन, माला--संज्ञा, खी० सं० पौति, पंक्ति मलने का भाव या काम । मालिस (दे०)। अवली, झंड, समूह, पलों आदि का हार, पाली--- पंक्षा, पु. ( सं० मालिन् ) फूलगजरा । " माला परत जुग गया । माला बेचने वाला बागवान, पेड़-पौधे -~-कवी । मुहा०-४ाला फरन..- लगाने या सींचो वाला, ऐसे लोगों की एक जपना, भजना । दूर, उपजाति छंद का एक छोटी जाति । (स्त्रो० मालिन, मालन, भेद (वि.)। मालिनी)। वे० ( सं० मालिन् ) माला For Private and Personal Use Only Page #1415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org मालीदा पहने या धारण करने वाला. मालाधारी, समूह वाला, जैसे - मरीचि माली । (स्त्री० मालिनी ) | संज्ञा, पु० (सं०) लंका का एक निशाचर, माल्यवान् और सुमाली का भाई, राजीवगण छंद (पिं० ) । वि० ( फा० ) धन संबंधी, आर्थिक | १४०४ माहना देह माघ -संज्ञा, पु० ( ० ) उरद, माशा, पर काले रंग का मसा । * संज्ञा, स्त्री० दे० ( हि० माख ) क्रोध । मापपर्णी -संज्ञा, स्त्रो० (सं०) वन-उरद | मापवरी - संज्ञा, स्रो० (दे०) उरद की बरी | साथी-संज्ञा, पु० (सं०) उददों का खेत | मास - संज्ञा, पु० ( सं ) वर्ष का बारहवाँ भाग. दो पक्षों या प्रायः ३० दिन का समय, महीना | संज्ञा, पु० दे० (सं० मांस) माँस, गोश्त ! मालीदासंज्ञा, पु० (फा० ) चूरना. मलीदा. एक ऊनी नरम और गरम वख: श्र० ) ज्ञात, जाना हुथा । मालूम -- वि० मालोपमा-संज्ञा, खो० यौ० (सं०) उपमा लंका का एक भेद जिसमें एक उपमेय के fra faन धर्म वाले अनेक उपमान होते हैं ( ० पी० ) ! माल्य-संज्ञा, पु० (सं० ) माला. फूल | मायचंय- संज्ञा, पु० दे० ( सं० माल्यवान् ) माल्यवान्, सुकेश का पुत्र एक । वि० माला युक्त | माल्यवान संज्ञा, पु० ( ० ) एक पर्वत (पुरा०), सुकेशात्मज एक राक्षस, जो रावण का नाना था। वि० पुपयुक्त। माता. पु० ० ( फा० महावत ) हथवाल, महावत, फ़ीलवान | मावली - संज्ञा, पु० (दे०) दजिरा भारत देश की एक पहानी वीर जाति । मानस- -संज्ञा स्त्री० दे० (सं० श्रावस्या ) अमावस | " श्रमिक भेगेल करें. सिलि वि० मावस रवि-संद माया पंक्षा, पु० दे० (सं० पंड ) पीच. गौड़, निष्कर्ष, सत्त खोवा, प्रकृति । माशा-संज्ञा, पु० दे० सं०] माष । आठ रती की तौल का एक मासा (दे० ) । बाद या मान, 1 माशी -संज्ञा, पु० दे० ( हि० गाय कालिमा लिये हरा रंग सा रंग कालिमा लिये हरे रंग का । माशुक -संज्ञा, पु० ( अ० ) प्यारा प्रियतम ! माशुका - संज्ञा स्त्री० ( अ० ) प्रिया, प्यारी. प्रियतमा | उरद वि० Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्र० मासना मिलना । स० क्रि० मिलाना | मामांत --- संज्ञा, पु० अंत, धमावस्या, स्रिवते कन्या - ज्यो० ० । "" क्रि० दे० (सं० मिश्रण ) ० ( सं० ) महीने का पंक्रांति । " मापां मामा -संज्ञा, पु० द० ( सं० साव ) माशा । मासिक - वि० (सं० ) माहवारी, मास संबंधी महीने में एक बार होने वाला मास का । पासी-संज्ञा, मो० दे० (सं०] मातृष्वसा ) मौसी माँ की बहिन | माधुरी- पंज्ञा. खो० उ० (दे०) दादी, शत्रु, बैरी । सासूस - वि० ( अ० ) निरपराध छोटा बच्चा । For Private and Personal Use Only चाहक - श्रम ३० (सं० मध्य) माँहि में. बीच | संज्ञा, ५० दे० (सं० मघ) मात्र का महीना । संज्ञा, पु० दे० (सं० माप ) उरद, माप | संज्ञा, ५० ( [फा० ) मास, महीना, चाँद । माहत* -संज्ञा, सो दे० (सं० महता ) महत्व | भारताव -संज्ञा, पु० (का० ) चंद्रमा ! माहतात्री - संज्ञा, स्त्री ( फ़ा० ) महताबी, एक तरह का वस्त्र, एक थातिशबाजी । निं० चाँद जैसा उज्ज्वल | माहना* - अ० क्रि० दे० ( हि० उमाहना ) उमाहना । Page #1416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org माहली 1 माहली - संज्ञा, पु० दे० ( हि० महल ) महली खोजा, सेवक, दाम. अंतःपुर का नौकर | माहवार - क्रि० वि० ( फा० ) प्रतिमास । वि० प्रतिमास का नासिक माहवारी - वि० ( फा० ) प्रतिमास का । माहाँ:- - अव्य० दे० ( हि० महँ ) में | माहात्म्य - संज्ञा, पु० (सं०) महत्व, गौरव, बड़ाई, महत्ता | नाहिं* - भव्य० दे० (सं० मध्य ) में, बीच, भीतर, श्रन्दर, अधिकरण का चिन्ह, में. पर, पै. माँहि मह (दे० ) । माहिर - वि० ( ० ) जानकार, निपुण । माहियत संज्ञा स्त्री० ( प्र० ) हाजत. महिमा १४०५ दशा । माहिला* +- संज्ञा, ४० दे० (सल्लाह) माँकी, केवट ! माहिष - वि० (सं०) मैम संबंधी । 'आहिपञ्च शरचन्द्र चंद्रिका धवलं दधि भो० -- रामा० । महेंद्र पंज्ञा, ५० (सं०) एकत्र (प्राची०) ऐन्द्रा । माहेश्वर- वि० ( गं० ) महेश्वर से थाया हुआ । (. मिज़ाज श्वराणि सूत्राणि "कौमु० । संज्ञा पु० एक यज्ञ, एक उपपुराण, पाणिन के यादि वाले चौदह सूत्र जिनमें स्वरों और व्यंजनों का प्रत्याहारार्थ संग्रह है, शैव संप्रदाय का एक भेद. एक अत्र (प्राची०), पाशुपत । साहेश्वरी -संज्ञा खो० (सं०) दुर्गा देवी, एक माक की एक जाति मिंगनी -श, स्त्री० (दे०) वकरी आदि की बंदी । का मिठाई - संता. खोट मीने यामी क्रियाया मजदूरी, देशी पका और मकदार करने विवाह पंजा, सी० ( समय विद्यादी मिकदार - रक्षा महेश्वर-संबंधी. इति माहे परिमाया । चिकना Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ० कि० दे० ( हि० मिळता ) प्र० । बार बार छाँखें खुलना और बन्द होना । प्ररूप सिकाना, प्रे०रूप मिचाना। माहिष्मती संज्ञा स्त्री० (सं०) दक्षिण देश निकान्न विकास स० क्रि० (दे०) का एक प्राचीन नगर । गलाना, वंधाना, आँख निचोदना सोचना ! माहिष्य - संज्ञा, पु० (सं०) वर्षा-संकर क्षत्रिय से उत्पन्न वेश्या - पुत्र | माहीं * - भव्य० ६० (दि० मांहि) में. सध्य बीच माँहि । जिनके कछु विचार मन माँहीं ' - रामा० । : माही -संज्ञा, सी० ( फा० ) सरली | माही मराविव-संज्ञा, पु० यौ० ( फा० ) राजाओं के आगे हाrयों पर चलने वाले मछलियों या ग्रहों के चिन्ह जाले ७ झंडे | माहुर- संज्ञा, ५० द० (सं० मधुर ) विष. जहर । मनहु जरे पर मार देई "सिजराव - पंज्ञा, सी० ( ० ) नाखना, ९ दि० (हि० मीड़ना ) भाव, मोड़ने की छपाई की छींट को की किया । ० ) अवधि, नियत नियत समय का ( अ ) मात्रा, स्रो० मिलना-म० दे० ( हि० मींचना का श्रे० रूप ) बंद होना | मितराना स० कि० (दे०) धीरे धीरे खाना. अनि या अरुचि से खाना । सिवताना - अ० क्रि० दे० (हि० मत बाना) मतली थाना उपांतीच्या होना, उबकाना. के होने को होना | मित्रा मूठ असला । - वि० दे० ( ० मिथ्या ) मिथ्या, For Private and Personal Use Only डंका (प्रान्ती०), सितार बजाने की अँगूठी जो बहुधा तार की होती है। मिजाज - संज्ञा, पु० ( ० ) स्वभाव, प्रवृत्ति. प्रकृति, तासीर किसी वस्तु का सदा रहने वाला मूल गुण, शरीर या गन की दशा, दिल, Page #1417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मितंग मिज़ाजदर तबीयत । मुहा०-लिजाल भराव होना (करना)---दुर्दशा होना (करना) । यौ०-मन में दुम्व. अग्नसन्नतादि होगा, बीमारी मिट्टी-खराबी--- दुर्दशा, विनाश. बरबादी। या अस्वस्थता होना। सिजावाना- राव, भस्म, शरीर, देह, वदन । सुहाकिसी के स्वभाव से परिचित होना, अनुकूल त्रिी समीद करता-बरबार करना, या प्रसन्न देखना । मजालना - यह दुर्दशा करना, स्वराबो करना । मुरदा, पूछना वि शाप स्वस्थ तो है शरी: तो अच्छा ला, शव, मृतक, शारीरिक गठन, चंदन है। घगर, अभिमान, शेखी। मुहा० ... का सार जो इतर में दिया जाता है . मिजाज न मिलना--मंड के मारे किसी मिश्री काल-संज्ञा, पु. यौ० (हि से बात करना । यो जाली मिट्टी तेल ) तेल जैसा एक तरल खानिज करना--मारना । वर्गस्य ।। पदार्थ जोथ्वी से निकलता और जलाने मिजाजदर ....वि. म. गिज्ञानदार के काम पाता है। फ़ा० ) यांडी, अभिमानी, मिरा -- ज्ञा, घो० दे० ( हि० मीठा ) चूमा, मिजाज शरीफ-~-वाश्य. (अ भाप बन । कुशलक्षेम से तो हैं, आप रहे तो हैं ! -Mज्ञा, ५० दे० । हि० मीठा - ऊ .... मिजाजी वि० दे० ( ० मिजाज -ई- प्रत्य० ) मीठा बोलने वाला, तोता, मृदु. प्रत्य. ) मंडी। मापरभाषी । वि०-गौन था चुप रहने टिना---० कि० किमी वाला, अनबोला. प्रियभाषी प्यारी बातें रेखा या चिन्ह आदि कान रह जाना. कहने वाला। विनष्ट या बरबाद हो जाना. खराब हो मित्र.वि. ( हि मीठा ) मीरा का संक्षिप्त जाना । २० रूप मियाना, मिटाना, प्रे० रूप गोगिय में जैसे पिठनोल। रूप लिटायमा, दिवाना बोला---ज्ञा, पु० यौ० दे० ( दि. मिटिया-संज्ञा, सी० (दे०; या, गरी। भी बोलना ) मार या प्रियभापी, मिट्टी -- संज्ञा, सी० दे० ( सं० मृतिका । पृथ्वी सापटी जो उपर से मोटी गीली बातें करने के धरातन का चूर्ण-जैा पदार्थ, वा.. __ वाला हो। धूलि, जमोन, भूमि को नई कहान. राव भिटी, सी--मंझा, सी० (३.८) मटरी. भूति भस्म, देहे, शरीर, मनीदे) सकीन परवान विशेष । बुहा --- मिट्टी करना-.ट मा बराबरलाना--संज्ञा, पु० यो० दे० । हि. करना लोक मॉल -..बहुत सरता भी - जन : नोन ) कान नमक वाला। ग्री डालना--- दोष छिपाना, किसी शिलाई--- संज्ञा, मो०६० ( हि० मीट! पाई बात को जाने देना। मिली देता- --प्रल्यमान्न, मापुरी मिठास मीठी काब से तीत तीन मुट्टी मिट्टी कोड़ना, वस्तु, अच्छा पदार्थ । कब में साइना (सुबल. ) कि .मिलास----झा, स्त्री. हि० मीठा । यार------ मिना मिलाना नष्ट गा चौपट त्य) मार्य, मीठापन, मिठाई । होना. परना ) मरना, ( मारना), मिट्टी विहिया - रा, स्त्री० (१०) चुंबन, चूमा करना (होना ..... नष्ट करना (होना)। मिट्टी। यो-रिटी का पहला----मनुष्य का नितंग-fiell, पु० दे० सं० मितंगम् । शरीर । मुहा०--मिट्टी मरान होना हाथी। For Private and Personal Use Only Page #1418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मित - - MIMNSDOMANOJanmeramonomwwwmoromansurtance मिथ्या मित-वि० (सं०)-परिमित, सीमावद्ध, एक राज-वंश जिम्मका राज्य पांचाल और मर्यादित, सीमा, हर, कम, थोड़ा । अंबर था (प्राचीन), पार्यो के एक पुराने " विरराम महीयांसः प्रकृत्या मित- देवता । "परी मित्र शूल सम चारी" भाषिण: "--माघ । रामा० मिताक्षरा-संज्ञा, स्त्री० (सं०) --एक स्मृति मित्रना-~-ज्ञा, सी० (०) मिताई, दोस्ती, ग्रन्थ, याज्ञवल्क्य स्मृति की टीका। मित्रत्व । मितप्रद--वि० यौ० (सं०) सीमाबद देने मित्रत्व ..... पु. (i) मिताई. दोस्ती, वाला, हिसाब से देने वाला ।'' सुख मित मित्रता । प्रद सुनु राजकुमारी ...- रामा० । मित्रताही--वि० (२०) दुष्ट, खल, मित्र का मितभाषी-संज्ञा, पु० यौ० ( सं० मित दोही। भाषिन् ) थोड़ा या कम या मर्यादित बोलने मित्रलान---, ० (सं०) दोस्त का वाला । "प्रत्यामित भापिणः" --मात्र! मिलना, मैत्री का लाभ । मितव्यय -- संज्ञा, गु० यौ० (सं०) कम या मित्रवण-संज्ञा. ० (सं०) दोस्त लोग. थोड़ा या मर्यादित खर्च करना, किफायत- सुहृद्गण । शारी करना। मित्रा --- 1, नी० द० सं० मित्रता मितव्ययता - ज्ञा, सो यौ० (सं०) मित्रता, मित्ररूप दोल्ली, मिताई। किफायतशारी, कमावची! मित्र-संश, सी० (१०) शत्रुघ्न की माता, मितव्ययी - सज्ञा, पु० यौ० (सं० मितव्ययिन्) सुमित्रा, मित्र की सी। कम या थोड़ा व्यय करने वाला, नियमित मित्रालाय...-संज्ञ, पु. यो० (सं.) ऐसा पद रूप से खर्च करने वाला, किफायतशार. जो छंद जैया बात हो। कमख़र्च । मिनाया ----६ज्ञा, गौ० (स.) मित्र मिताई* --संज्ञा, सो०६० ( मित्रता और वरुण देवता वैदिक ।। मित्रता, मित्रर। दोस्ती। “ मम जन कहि विम: ---अ०० ( २० मिथस । आपस में. तोहि रही मिताई "---रामा० । परस्पर, अन्योन्।।। मिताक्षरा--- संज्ञा, सी० यौ००) मिथिला-ज्ञा. स्त्री. (सं०) तिरहुत का याज्ञवल्क्य-स्मृति की विज्ञानेश्वरी टीका। पुराना नाम : " जिन मिथिला तेहि समय मितार्थ-- संज्ञा, पु० यौ० स०) थोड़ी बातों निहारी ----राना । से अपना कार्य सिद्ध करने वाला दूत, मिथलापति---ज्ञा, पु० यौ० (स०) राजा सूचमार्थ। जनक: "हे मिथिलापति वेग दिखाउ. मिति-संज्ञा, मी० (मं.) सीमा, मर्यादा, शरापन शंकर का किन तोरो"--- दत्त । हद, परिमाण, मान, कान की अवधि । मिथिलेश संज्ञ', पु. यौ० (सं० मिथिला मिती-- संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० मिति ) महीने ईस ) राजा जनक, मिथिलाधिपति, की तिथि या तारीख. दिन, दिवस । मिथिलेश्वर । " मिलहिं नाथ मिथिलेशमुहा०--मिती पुगना या पूजना -- हुंडी कुमारी"- रामा० । का नियत समय पूरा हो जाना। मिथुन- संज्ञा, १० (सं०) युग्म, सी-पुरुष का मित्र--संज्ञा, पु. (सं०) सग्वा, साथी, जोड़ा, दंपति, समागत, संयोग, मेधादि सहायक, संगी, दोस्त, शुभचिंतक, १२ १२ राशियों में से ती वरी राशि (ज्यो०)। आदित्यों में से एक, मरुद्गण में प्रथम वायु, मिथ्या --- वि० (सं०) मृषा, झूठ, असत्य For Private and Personal Use Only Page #1419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मिथ्याचार १४०५ मिच अनृत । “ कालै करमै ईश्वरै मिथ्या ( फ़ा. मोमिायाई ) बनावटी या नकली दोष लगाय"-रामा०।। शिलाजीत । मिथ्याचार - वि० यौ० (२० मिथ्या-- मिमियाना-अ० क्रि० ( मनु० मिन मिन ) माचार ) असत्य या झूठा व्यवहार, दांभिका- बकरी या भेड़ी की बोली। चार। मिमियाहट-संज्ञा, सी० (दे०) बकरी या मिथ्याचारी-वि० यौ० (सं.) दांभिक, भेडी का शब्द । असत्य या झूठा व्यवहार करने वाला। मियाँ-संज्ञा, पु. (फ़ा०) मालिक, स्वामी, मिथ्यात्व-संज्ञा, पु० (सं०) माया, प्रपंच, पति, महाशय, मुसलमान, बूदा।। मिथ्या होने का भाव, असत्यता मियाँमिट्ट - संज्ञा, पु. यौ० (हि०) प्रियवादी, मिथ्याधि--संज्ञा, स्त्री. यौ० (२०) कर्म मीठी बोली बोलने वाला, मधुरभाषी, फलापवादकज्ञान, नास्तिकता, असत्यदर्शन । तोता, मूर्ख । मुहा०-अपने मुँह मियाँ मिथ्याध्यवसिति--संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) मिट बनना-अपने ही मुंह से अपनी एक अर्थालंकार जिसमें मिथ्या या असंभव प्रशंसा करना। बात का निश्चय करके दूसरी बात का मियान-संज्ञा, स्त्री० (फा०) तलवार का कथन किया जाता है (अ० पी०)। म्यान । '' कढत मियान गर्त सों सुदामिनी मिथ्याभाषी-संज्ञा, पु० सं० मिथ्याभापिन्) लौ कौंधि'-अ.व.। भूठ या असत्य बोलने वाला। "मिथ्याभाषी मियाना--वि० (फा०) मझोले श्राकार का। सांचहू, कहै न मानै कोय"-नीति। संज्ञा पु. (दे०) एक तरह की पालकी, मिथ्याभियोग-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) असत्य म्याना (दे०)। या झूठा दोषारोपण, मिथ्याशद, झूठी मिरग, मिरिग-संज्ञा, पु. दे. ( सं० मृग) मिरगा (दे०) हरिन । " ताकी मिथ्यायोग-संज्ञा, पु० यौ० (२०) ऋतु या सुघराई कहूँ पाई है न मिरगो।" प्रकृति आदि के प्रतिकूल कार्य । वि. मिरगी-संज्ञा, स्त्री. दे. (सं० मृगी) मिथ्यायोगी। मूर्छा सम्बन्धी एक मानसिक रोग, अपस्मार मिथ्यावादी-संज्ञा, पु० यौ० (सं० मिथ्या । या मृगी रोग, हरिनी। वादिन् ) भूठ बोलने वाला, असत्यवक्ता, मिरच, मिरचा-संज्ञा, पु० दे० (सं० मरिच) झूठा । स्त्री० मिथ्यावादिनी। लाल मिर्च । मिथ्याहार-संज्ञा, पु. यौ० (F० मिथ्या+ माहार ) अपथ्याहार, अनुचित या प्रकृति मिरचवान- संज्ञा, पु. (दे०) बरात को के विरुद्ध भोजन करना । “मिथ्याहार जनवास देकर मिर्च (ठंडाई) और शरबत विहाराभ्यां दोषाह्यामाशयाश्रया:"-मा. देने की रीति, (व्याह)। नि० । वि. मिथ्याहारी। मिरजई, मिरजाई-संज्ञा, स्त्री० दे० (फा० मिनती-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० विनति) मिरजा ) कमर तक का तनीदार अंगा। विनती, प्रार्थना, निवेदन । | मिरजा--संज्ञा, पु. (फ़ा०) मीर या अमीर मिनहा-वि० (अ०) मुजरा किया हुआ, का लड़का, अमीर-जादा, कुँवर, राजकुमार, जो काट या घटा लिया गया हो। मुगलों की एक उपाधि । मिन्नत-संज्ञा, स्रो० (अ०) निवेदन, प्रार्थना, मिर्च- सज्ञा, स्त्री. द. (सं० मरिच ) कटु विनती। फलों या फलियों का एक वर्ग जिसके मिमियाई, मोमियाई।--संज्ञा, स्त्री० दे० मुख्य दो प्रकार हैं--(१) मिरचा (दे०) लड़ाई। For Private and Personal Use Only Page #1420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मिलक मिल्कियत बाल मिर्च (२) गोल या काली मिर्च, समान होना । मिलान-मिलना-तुलना इनका उपयोग भोजन के मसाले में होता है। में बराबर उतरना। मिलका-संज्ञा, स्त्री० दे० ( अ० मिल्क) मिलाना-स० कि० ( हि० मिलना का स० बापदाद, जमीदारी, मिलकियत, जागीर।। रूप ) सम्मिलित या मिश्रित करना, जोड़ना, मिलकियत--संज्ञा, स्त्री० (दे०) जायदाद, । एक करना, चिपकाना, सटाना, भंट या अमीन । परिचय करना, तुलना या मुकाबला कराना, मिलकी -संज्ञा, स्त्री० (दे०) ज़मींदार, अपना साथी या भेदिया करना, सधि अमीर, धनवान | कराना, बजाने से बाजों का स्वर ठीक मिलन, मिलनि-संज्ञा, पु० (सं०) मिलाप, करना, अपने पूर्व पक्ष में लाना, ठीक होने की भेट, मिलावट । “ बिछुरन मीन की भी परीक्षा करना. मिलावना (दे०) । प्र० मिनि पतंग की। रूप-मिलवाना । सशा, स्त्री०मलाई, मिलनसार-वि० (हि० मिलनसार फा०) मिलवाई। सुशील, सब से मेल रखने और सद्व्यवहार जिलाए---संज्ञा, ० (हि. मिलना ---माप-~करने वाला । सं० मिलनसारी। प्रत्य० ) मिलना का भाव या कार्य, मित्रता, मिलना-~-संज्ञा, पु० (दे०) भेंट, मुलाकात, भेट, मुलाक़ात । मिलाप । स० कि० दे० (सं० मिलन ) मिलापी--वि० (हि. मिलाप) मिलनसारी. दो या अधिक पदार्थो का योग होना, मेली. सज्जन, मित्र । सम्मिलित या मिश्रित होना, संयुक्त होना, मिलाप----संज्ञा, पु० (दे०) मिलौनी, मेल, समूह के अंतर्गत होना। योग-भिला- बनाव, मित्रता। हुला-मिश्रित । सटना, चिपकना, जुना, मिलावट--संज्ञा स्त्री० ( हि० मिलाना + एक हो जाना, पूर्णतया या अधिकांश में : भावट ---प्रत्य० ) मिलाने का भाव, बढ़िया बराबर होना, एक सा होना, भेट होना, में घटिया वस्तु मिश्रित करना, खोंट, मेल । बालिगन करना, भंटना, गले लगाना या मिलास-- संज्ञा, स्त्री. (दे०) मिलने की करना, मुलाकात या भेंट होना, लाभ या । इच्छा। मा होना, मेल-मिलाप होना, प्राप्त मिलिक -पं.हा, स्त्री० दे० ( अ० मिल्क ) होना । यो० मिलना-जुलना---बहुत मिल्कियत, जागीर, जमींदारी। कुछ समानता स्वना, परस्पर मेल-मिलाप सिलित--वि० सं०) मिला हुआ, सम्मिलित, करना । यौ.--मिलना, मिलाना । मिश्रित, युक्त। ० रूप-मिलाना, प्रे० रूप-मिलवाना। मिले-जुले रहना-वा० (दे०) भेल-मिलाप मिलनी-संज्ञा, स्त्री० दे० ( हि० मिलना +, या एकी भाव से रहना, प्रेम-पूर्वक रहना, ई-प्रत्य० ) व्याह की वह रीति जिसमें ऐक्यभाव से रहना। कन्या की ओर वाले वर की ओर वालों से मिलैया-वि० (दे०) मिलाने या मिलने म मिलते और भेंट देते हैं। वाला। मिलाई-संज्ञा, स्त्री. ( हि० मिला-1-ई-- मिलोना-स० कि० द० ( हि• मिलाना ) प्रत्य०) मिलने का भाव, भेट, मिलावट। मिलाना, गौ का दूध दुहना । संज्ञा, पु. नान-संज्ञा, पु० यौ० ( हि० मिलाना ) (दे०) मिलना, भेट, मिलाप । मिखाने का भाव, मुकाबला, तुलना, ठीक मिल्कियत-संज्ञा, स्त्री. (अ.) जमींदारी, होने की जाँच । मुहा०-मिलान खाना-- मानी, जागीर, धन, संपत्ति, जायदाद । प. को०-१७७ For Private and Personal Use Only Page #1421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मिल्लत १४१० मित्र मिल्लत-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. मिलन-त- मिसर-संज्ञा, पु० दे० (सं० मिथ) मिश्र प्रत्य०) मेल-जोल, मिलाप, मिलनसारी, देश, मिसिर (दे०) घनिष्ठता । संक्षा, स्त्री. (अ.) मत, धर्म, मिसरा-- संज्ञा, पु० दे० (अ. मिसर अ) संप्रदाय, पंथ । उर्दू-फारसी या भरवी के छंद का एक मिश्र-वि० (सं०) मिला या मिलाया हुश्रा, चरण । संयुक्त, मिश्रित, उत्तम, श्रेष्ठ, एक ही जाति मिसरी, मिसिर संज्ञा, स्त्री० दे० । सं० की भिन्न भिन्न नाम वाली संबंधित संख्यायें मिश्री ) मिश्र देश का निवासी, मिश्र की (गणि.)। संज्ञा, पु. (सं) कान्यकुब्ज, भाषा, एक प्रकार की साफ जमाई हुई सरयूपारी तथा सारस्वतादि बाह्मणों के एक दानेदार चीनी, मिश्री, मीसिरी, मिसिरी वर्ग की उपाधि, मिस्र देश (अफ्रीका। (दे०) । “बांय फांस श्री मीसिरी, एकै भाव मिश्रकशी-संज्ञा, स्त्री० (सं०) एक अप्सरा! बिकाय" ! मिश्रण-संज्ञा, पु. (सं०) मिलावट, मेल, मिसल---संज्ञा, स्त्री० दे० ( अ० मिसिल ) दो या अधिक वस्तुओं को एक करना, कागजों का समूह, मुकदमे के काग़ज़ों का जोदना, मिलाना, एकीभाव, जोड़ या योग मुट्ठा । सज्ञा, सं० द० ( अ० मिसल ) लगाने की क्रिया, जोड़ (गणे.)। वि०-1 लमान, तुल्य, रणजातामह के बाद स्वतन्त्र मिश्रणीय । हो गये सिक्खों के समूह । मिश्रित-वि० (सं०) एक ही में मिला हुआ मिसाल---संज्ञा, स्त्री० (अ०) नज़ीर, उपमा, मिष-संज्ञा, पु. (१०) व्याज, बहाना, उदाहरण, कहावत, नमूना । मिस, ढीला, छल, ईया, कपट डाह। पिरिसर -संज्ञा, पु० (दे०) मिश्र (बासाण), मिष्ट---वि० (सं०) मधुर, मीठा मिश्र देश। मित्रभाषी- संज्ञा, पु० यौ० (सं० मिष्टभाषिन्) मिसिल- वि० दे० ( अ० मिस्ल ) समान, मिष्टवादी, मीठा, प्रिय था मधुर बोलने तुल्य, नज़ीर । संज्ञा, स्रो० किसो विषय या वाला, मधुरभाषी। मुकदमे के कागजों का समूह ।। मिष्ठान्न-संज्ञा, पु. यौ० (सं०) मिठाई, मिस्तर - संज्ञा, पु. ( हि० मिस्तरी) काठ मीठा पकवान । का एक औज़ार जिससे राज लोग छत मिस, मिसि, मिसु-संज्ञा, पु० दे० (सं० पीटा करते हैं, पिटना, लकीर खीचने का मिष ) व्याज, बहाना. हीला-हवाला, पाखंड, तागेदार दप्ती का टुकड़ा ! संज्ञा, पु०--- छल, नकल। मेहतर । वि० दे० अं०) मिस्टर, महाशय । मिसकीन-वि० दे० (अ० मिस्कीन) दीन, दुखिया, ग़रीब, निर्धन, बेचारा, बापुरा । मिस्तरी, मिस्तिरी- संज्ञा, पु० दे० ( अं० संज्ञा, मिसकीनी। मास्टर ) हाथ का चतुर कारीगर, दस्तकार , मिसकीनता*----संज्ञा, स्त्री० दे० ( ० मिस्त्री (दे०)। मिसकीन--ता -- सं० प्रत्य) निर्धनता, मिस्तरीखाना--संज्ञा, पु० यौ० (हि. दीनता। मिस्तरी- खाना फा० ) बढ़ई, लोहारों के मिसना*---अ० कि० दे. ( सं० मिश्रण) काम करने का घर। मिलना, मिश्रित होना । अ० कि० दे० मिन - संज्ञा, पु. ( अ० = नगर ) अफ्रीका (हि० मीसना का अ० रूप) मला, मसला महाद्वीप के उत्तर-पूर्व में लाल सागर के या मांजा जाना, मीसा जाना, पिसना। तट पर एक देश । For Private and Personal Use Only Page #1422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मित्री १४११ मीठा मिस्री-संज्ञा, स्त्री० (अ० मिस्त्र ) मिग्य देश ' मीच, मी---संज्ञा, स्त्री० दे० ( सं० मृत्यु ) का निवासी या संबंधी, मिस्र देश का, मृत्यु, मौत । "धर्म करिय, प्रभु जस कहिय मिस्र देश की भाषा. मिसिरी, मिश्री, साफ जानि सीम पै मींच"। करके जमाई हुई दानेदार चीनी । चना-- स० कि० अ० (दे०) मूंदना मिस्ल-वि० (अ०) तुल्य, बरामर, समान। (आँख . ढकना. मिचना, मरना, बंद होना। मिस्सा-संज्ञा, पु० दे० ( हि० मिसना ) मीजना- स. क्रि० दे० (हि. मोड़ना ) कई दालों के मेल से बना श्राटा या मसलना मलना, मर्दन करना, दबाना । पिसान । स्त्री० वि०-लिस्मी-कई अन्नों के मीजा-संज्ञा, पु० (प्रान्ती०) चने के बेसन मिले श्राटे की रोटी। से बना एक सालन: मिस्सी-संज्ञा, स्त्री० दे० ( फा० मिसो = तावे । सीत--संज्ञा, पु० (दे०) मसूर, कलाई का) दाँतों का एक काजा मंजन जो बहुधा विशेष । सौभाग्यवती स्त्रियाँ लगाती हैं। मीड़ -- संज्ञा, रसी० दे० (सं० मोडम् )मिहदी-संज्ञा, स्त्री. (दे०) संहदी, एक संगीत में दो गवरों के मध्य का संधिभाग, वृक्ष विशेष जिपकी पत्ती से स्त्रियाँ हाथ-पाँव या दो स्वरों का ऐमा मिलान जिसमें दोनों रंगती है। स्पष्ट रहें (संगी)। मिहना--संज्ञा, पु. (हे.) ताना, बोली- मोहना।- स० क्रि० दे० ( हि० मांडना) उठोनी । मुहा० --पिहना मारना -- मल ना. मसलना, हाथों से दबाना । ताना मारना, ठठोली करना! शीश्राद-संज्ञा स्त्री० (अ० अवधि, म्याद, मिहनत, मेहनत--संज्ञा, स्रो० अ०) परिश्रम, विश्राद (दे०) । मशक्कत । वि० -मिहनती, मेहनती। मीयादी- वि० (अ० मीमाद -+ ई-प्रत्य०) मिहरा-संज्ञा, पु० (दे०) हिजड़ा, जनखा, नियत अवधि वाला, मियादी, म्यादी नपुंसक, मेहरा। मिहरारू संज्ञा, स्त्री० (दे०) महराक (गा०) पीनना--स० कि० दे० (सं० मिप= ची नारी। झपकना) पाखें मूंदना या बंद करना । मिहरी-संज्ञा, स्त्री. (१०) स्री, नारी, स० रूप ---मिचाना प्रे० रूप मिचवाना। कहारिन, महरी। भीच, मीनु ---- संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० महाना-- अ० कि० (दे०) सीड़ना, गीला मृत्यु ) मौत । "तिथ मिसु मीचु सीस होना, भीगना। पै नाची".-रामा०। मिहानी-संज्ञा, स्त्री० (दे.) मथानी। मीजान-पंज्ञा, स्त्री० (अ०) योग, जोड़ मिहिका-संज्ञा, पु. (सं०) नीहार, कुहरा। (गणि.). तरा । मुहा०-मीजान देना मिहिर--संज्ञा, पु० (सं०) सूर्य चन्द्रमा. (लगाना) -- जोड़ना । बादल, मदार, या पाक का पौधा, खत्रियों । मीठा-वि० दे० ( सं० मिष्ट ) मधुर, मधु की एक जाति, मेहरा, मेहरोत्रा।। __ या चीनी मा स्वाद वाला । " मीठा मीठा मिहिरकुल, मेहरूलगुल - संज्ञा, पु. (फा० । कुछ नहीं मीठा जाकी चाह"-- नीति । महूगुल का सं० रूप ) शाकल देश के इण स्वादिष्ट, मज़ेदार, रुचिर, मध्यम, मंद, वंशीय राजा नरमान (तोरमाण) का पुत्र । हलका, धीमा, सुस्त, साधारण, मामूली, मांगी --संज्ञा, स्त्री० दे० ( सं० मुद्ग = दाल ) ! नपुंसक, नामर्द. सीधा, रोचक, प्रिय, पीन के भीतर का गूदा, गिरी। रुचिकर । नोनीली ! संज्ञा, पु० --मिठाई, For Private and Personal Use Only Page #1423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir wanNSam maNEENDARIBRARTBPOrama मीठा जहर या विष मीर गड़ श्रादि । महाका होना-लाभ उधर करना ! जान-मेष होना-- गड़बड़ या पानंद मिलना । इदा: गो-ह होना । मीन-मष निकालना-दोष का भीमा-मधुर भाषी शिन्तु कपटी। निकालना । “काम विधि बाम की कला मोटा सहर बनिष----संजा. पु० यो० (दे०) में मीन-मेख कहा '...अ. श० । बनानाग, वल्पनागगोंगिय। जीनकेतन-संज्ञा, पु. यौ० सं०) कामदेव । मीठातेल-संज्ञा, पु० यौ० । हि० तिलों पीनकेत-- संज्ञा. ५० यौ० सं०) कामदेव। का तेल। मीना- संज्ञा, पु०६० (सं० मीन ) मछली। मीठा लीव--संज्ञा, पु० यौ० (हि.) चकोतरा " जन-संकोच विअन्त भये मीना" रामा। या भीरी नीतू । संज्ञा. पु. (दे०) गजपताने की एक वीर मीठापानी-संज्ञा, पु. यौ० (हि० ) नील जाति । संज्ञा, पु. फार ) नीले रंग का एक का सत मिला जत, लेमने इ सुस्वादुजल बहमुल्य रन, चाँदी-मोने पर का रंग-विरंगा (विलो-वारी पानी। काम. शराब रखने का पात्र, सुराही या मीठाभात, मीठाचावल-- ज्ञा, पु. यौ० कंटर । “हँसी के साथ रोना है मिसाले (हि.) गुड़ या चीनी के शरत में पकाया । कुलकुले मीना"-. जौक । .. हुआ चावल । हीनाकारी--- संज्ञा. खो० (फा०) चाँदी-सोने मीटिया---संज्ञा, स्त्री० (दे०) चुंबन, पिली पर रंगीन काम । (दे०) चूमा, चूमी. उंबा, मच्छी। मीना बाजार - संज्ञा. पु. (फा०) देहली में गीटी--संज्ञा, यो० ( हि मोठा का स्त्री अकबर बादशाह का लगवाया हुआ विशेष foreी, (दे०) मिठिया, गा, मच्छी । हाट या मंडी। वि० .. मधुर. मिए । 'मीठ! वात लगति दीदार--संज्ञा, हो. द. ( ० मनार ) श्रति प्यारी'कहा। गोलाकार अति ऊँची इमारत, स्तंभ, लाट, पोटरी- संज्ञा, स्त्री. हि दिखने में तो कंगरा। थरा या मितभाषी मिन्नन्तु वास्तव में मी .... संज्ञा, 'पु० (सं०) मीमांसा शास्त्र शत्र, विश्वासपाती,अधर भाषी लपटी व्यक्ति का जाना. किती विषय की विवेचना या मीणा ---संज्ञा. पु० (सं.) जंगकी मनुष्यों की मीमांसा करने वाला एक जाति । भीमा --- संज्ञा, सी० (सं०) अनुमान और सीत.... संज्ञा, पु. ३० (सं० मित्र ) मित्र. तादि के द्वारा यह स्थिर करना कि यह दोस्त. खा, साथी, मंगो ! " मीत न बात मान्य है या नहीं. छः दर्शनों में से नीति गलीत यह"-वि. उत्तर मीमांसा और पूर्व मीमांसा नामक मीनन ---- वि० दे० (सं० मि:: ) सनामी, एक दो शास्त्र, जैमिनात पूर्व मीमांमा नामक नाम वाला. सम्बा, सनेही । ज्ञा, पु० - दर्शन शास्त्र, निर्णय । गीत का बहु० २० । मामित--वि० (सं०) निीत, विचारित. मीना --- संज्ञा, पु० दे० (सं.) मित्र ) मीत, सिद्धान्तित । मित्र । ' रघुबर मनके यांचे मीता" म्फुट। सीशल्य-वि० (सा०) विचार या मीमांसा मीन----संज्ञा. पु० (सं०) मकरतो, मेषादि १२ करने योग्य ! राशियों में से अंतिम राशि । 'मुखी मीन पीर--- - एंज्ञा, पु. फा. (भ० ममीर ) नेता, जह नीर अगाधा"--रामा । पहा---- प्रधान, सरदार, राजा. धर्म का प्राचार्य, जीन-मेप करना- किन्तु परन्तु या इधर- सैयदों की उपाधि (मुस०), जीतने वाला, For Private and Personal Use Only Page #1424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १४१३ मुंडिया ANSWER देवी। मीरफ़र्श सब से प्रथम प्रतियोगता करने वाला ! (हि. मॅड+चीरना) एक तरह के मुसल"फरजी मीर न कै सके, टेढ़े की तालीर' मान भिखारी, जो अपने शरीर के किसी -रही भाग, सिर श्रादि को घायल करके लोगों मीरफर्श-संज्ञा, पु. (फा०) फर्श की चाँदनी को दिखाते और धन लेते हैं, लेने देने के कोनों पर रखे जाने वाले पत्थर । में अति हठ करने वाला। मीर मजलिस--संज्ञा, पु० यौ० अ०) सभा- मंडन-संज्ञा, पु० (मं०) १६ संस्कारों में से, पति, राजा, सरदार। गिर के बालों को उस्तरे से मॅड़ने की क्रिया, मीरास-पंज्ञा, स्त्री० [अ०) बपौती, नारका द्विजातियों के बालक के प्रथम सिर मुंड़ने (प्रान्ती०)। का एक संस्कार (हिंदू०)। मीरासी-संज्ञा, पु० ( अ० मीरास ) मुगल डना-अ० क्रि० दे० (सं० मुंडन ) मुंडा मान लोग जो गाने बजाने या मगखरेपन जाना, सिर के बालों का बनाया जाना, का काम करते हैं। स्त्रीभारासिन। लुटना. छला या ठगा जाना, घूमना।। मीन-संज्ञा. पु० द० ( अं० माइल ) प्राधे मंडमाला--- ज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) खोपड़ियों कोस की दूरी, पाठ फलींग या ११६० गज या कटे हुए पिरों का हार जो शिवजी या की दूरी । “किये राहेफना कोई न फर्मक कालीदेवी के गले का गहना है । है न मील"-जौक : संज्ञा. पु० दे० ( अं० मंडमालिनी--संज्ञा, स्त्री. यौ० (सं०) काली मिल ) कार्यालय। मीलन--संज्ञा, पु० (सं.) संकुचित या बंद मंडमाली-ज्ञा, पु. यौ० सं० मुंडमालिन् ) करना, मींचना । वि०मिलनीय, पीलित। शिव जी।। मीलित-तिक (सं०) पम्मीलित, पिकोड़ा मंडा-संज्ञा, १० ( स० मुंडी) जिसके सिर में या बंद किया हुया । "उपान्तसम्मीलित- बाल न हों या मुड़े हुये हों, जो किसी लोचना नृपः"---रघु० । संज्ञा. पु.---एक साधु या योगी का शिष्य हो गया हो, अलंकार जहाँ एक होने से उपमेय और बिना सीगों का सींगदार पशु, मात्रा और उपमान में श्रभेद या भेद का न जान पड़ना ऊपर की लकीर से रहित एक महाजनी कहा जावे (श्र० पी०)। लिपि, गुडिया (दे०)। एक प्रकार का जूता । मगरा-संज्ञा. पु० दे० (सं० मुद्गर ) काठ संज्ञा, पु० (दे.) एक असभ्य जाति जो छोटाका हथौड़ा-जैमा श्रौजार । स्रो०-गरी। नागपुर के पास-पास पाई जाती है। स्रो०संज्ञा. पु० दे० (हि. मोगरा ) नमकीन मंडी। बंदिया! अंडाई ---ज्ञा, स्त्री० दे० ( हि. मॅडन पाईमंगोरा--- संज्ञा, पु० द० ( हि० मंगबरा) प्रत्य० ) मड़ने या मड़ाने की क्रिया या मॅग के बरे, बड़े। मँगौरी- संज्ञा, सी० दे। यौ० ( हि० मॅग- संडासासंज्ञा, पु० दे० (हि. मुंड = सिर बरी ) मग की बनी हुई बरी +प्रासा-प्रत्य. ) सिर का साना । मुंड-- संज्ञा, पु० (सं०) अॅड. सिर. यसुरेश अडिया--- संज्ञ', पु० दे० (हि० मँड़ना ---इयाशंभ का सेनापति, एक दैत्य जिसे दुर्गा प्रत्य. ) साधु या सन्यासी का चेला, साधु जी ने मारा था. पेड़ का मॅर, राहु ग्रह, कटा लन्यासी ! संज्ञा, स्त्री० (दे०) महाजनी लिपि, सिर, एक उपनिषद वि० संडा-मड़ा हुथा। गुड़ या सिर । लो--मन मन भान, Kडचिरा, गडचिरया संज्ञा, पु० यौ० दे० मड़िया ढुला। मजदुरी। For Private and Personal Use Only Page #1425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मह मुंडी १४१४ मंडी-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि० मूडना-- ई-प्रत्य०) सा) लेकर रह जाना--कुछ कर न सिर के बाल मड़ी स्त्री राँड़, विधवा (गाली)। साना, हताश या लजित होना। मह संज्ञा, स्त्री० (सं०) गोरखमुंडी ‘एक औषधि- याना-मुख में छाले पड़ना और फूल मूल) निरगुडी (दे०), मूंड या सिर। जामा मह उतर जाना --- 'उदार या " जटिलो मंडी लुंचित केशः "-शं०। दुखी होना, लजित होना। मह (चेहरे) मँडेर, मँडेरी-संज्ञा, स्त्री० दे० ( हि० मँड ) का रंग बदल जाना-लजा, भयादि का दीवाल का सब से ऊपरी भाग जो छत के । मन पर पूरा प्रभाव पड़ना घबरा जाना। उपर रहता है। सह करना-सामना करना, मिलाना, मुडेरा--संज्ञा, पु० दे० ( हि० मँड़ : सिर !.. समता या बराबरी करना, साथ देना. फोडा एरा-प्रत्य ० ) छत के ऊपर उठा हुश्रा दीवार चीरना या ( फूटना ). श्राक्रमण या धावा का सब से ऊपरी भाग। करना, टूट पहना, देखना, जाना। मह मँदना-अ० कि० दे० (सं० मुद्रगा ) ढक. खिल जाना प्रसन्नता से चेहरे पर विकास जाना, लुप्त होना, बंद हो जाना, छिपना, श्रा जाना । मह समाव करना जीभ से बिल या छेद का बंद होना। संज्ञा, पु० । बुरी बातें निकालना । मह ववना ---- (दे०) ढक्कन । प्रे० रूप-मदवाना। बेधड़क बातें करना । मुंह (जीस) चलना मुंदरा--संज्ञा, पु० दे० (हि. मॅटरी) योगियों । (चलाना)--खाया जाना, व्यर्थ बकना या के कान का कंडल, करणाभूषण । दुर्बचन कहना । मह चिढ़ाना (चिराना) मुंदरी, मुंदरिया-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० । पूरी पूरी नकल करना । मह बना-नाम मुद्रा ) छल्ला, मुद्रिका, अँगूठी। के लिये कहना, हृदय से न कह कर ऊपर मंशी--संज्ञा, पु. (अ०) लेख या निबंधादि से ही कहना । मह चलना - खाना, लिखने वाला, लेखक, मुहर्रिर, मुंसी(दे०)। कुरिसत बोलना । मह पर जाना-कहना, स्त्री०-मंशियाइन । चर्चा या वर्णन करना । मह-पेट चलना-- मंसरिम-संज्ञा, पु. (अ.) प्रबंधकर्ता, विसूचि का या हैजा होना । मह काड कर दफ्तर का एक प्रधान कर्मचारी जो मिस्लें। कहना-स्पष्ट या निलं जता से कहना । संह ठीक ठिकाने पर रखता है। पीला (स्थाह) एडना---लज्जा, अयादि से मसिफ़-संज्ञा, पु० (अ०) दीवानी अदालत चेहरे का रंग बदल जाना। मह बाँध कर का न्यायाधीश, इन्पाफ़ करने वाला। बैठना----चुपचाप रहना । मह बाकर मसिफ़ी-संज्ञा, स्त्री. ( अ० मसिफ़--ई- रह जाना-प्राश्चर्य से चक्ति रह जाना। प्रत्य०) न्याय या इन्साफ करने का कार्य, "चतुरानन बाइ रह्यो मह चारौ"--केश मुंसिफ का पद या कार्य, मुंसिफ की ह भरना--रिशवत या वस देना ! मह कचहरी। मीठा करना-मिठाई खिलाना, कुछ देकर मह-संज्ञा, पु० दे० (सं० मुख ) मुख का प्रपा करना । मह बनाना ---असंतोष बिल. मुख-बिवर, मुख, किपी प्राणी के रुटतादि से मह का विकृत करना. चिढ़ाना, बोलने और खाने-पीने का ग यो चिड़ाने को मह का द"-मेढ़ा करना | मह मुहा० ---सह दर मुह ....एक दूसरे के मेंबन या लहानगना-चाट या चसका सामने । मुहा० - मुँह अँधेरे ...प्रातः, पड़ना । मह बंद रखना...कुछ न बोलना, सायं काल का समय जब अंधेरे के कारण मौन रहना। मह में जान न होनामुख न दिखलाई देता हो : मुंह ( अपना कहने की शक्ति या सामर्थ्य न होना । (किसी For Private and Personal Use Only Page #1426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - का) मुँह बंद कर देना ---उसे बोलने न किसी का मुंह तकना-कुछ पाने के ऐना, निरुत्तर कर देना । मह में पानी भर । लालच से मह देखना, विवश या चकित माना-लोभाना, ललचाना । मैंह में होकर देखना, सिहाना प्राशा रख सहायता लगाम न होना-मनमानी बातें कहना। या सहारे का आसरा रखना। मह ताकनामुंह लटकना---उदाप या लज्जित होना।। ललचाना, चकित होना, आशा या भरोसा मुंह सीना (मह में ताला लगाना )- रखना, निकरमा होकर चुप बैठे रहना, पाशा सुपचाप रहना, कुछ न कहना या बोलना। रखना । मह देखत था ताकत रह जाना के मुंह का होना-- बहुत सीधा होना । । -अाशा लगाये रहना और फिर हताश मुंह सूखना -- बहुत प्यास लगना, गले । होना, विवश या चकित होकर रह जाना । या बीभ में काँटे पड़ना या रोग के मारे । मह न दिखाना--संमुख या सामने न गया सूखना। मह में ताला पड़ना, आना। मह दिखाने योग्य न रहनालगाना (डालना) -बलात् कुछ बोलने अति लज्जित होना। मह देखकर बात पदेना । मह मे दूध टपकना (चूना)- कहना (करना - खुशामद करना । बहुत अजान बालक होना । मुंह लटकाना मह देखी करना-लिहाज या मुरव्वत से (फुलाना-असंतुष्ट या रुष्ट हो मह का पक्षपात या अयोग्य (अन्याय ) करना । विकृत करना, गाल-मह कुलाना , किसी का मुंह देखना ( ताकना )मुंह उठाना--विरोध करना सामने लड़ाई सामना करना, चकित होकर देखना, सम्मुख को तैयार होना, सामना करना । मुह से जाना, आशा लगाना, लिहाज या मुरव्वत निकलना-कुछ कह बैठना । ह से करना । मह धा रखना-निराश या निकालना---कहना मह मे काल झड़ना नाउम्मेद हो जाना । मुंह पर-सामने, (गिरना )- अति मधुर और प्रियवचन संमुख, प्रत्यन । मह में (पर) न लानाबोलना । मह का मोठा-- मधुर और प्रिय न कहना, चर्वा न करना । मह पर या मह बोलने किन्तु अन्दर कपट रखने वाला। मे बरसना-चेहरे या प्राकृति से प्रगट मस्या, भाँख, ना 6. वान और गाल वाला, होना । गाल-अँह फुलना या फुला कर सिर का भाग, चेहरा । मुहा० -- अपना बेटना-चेहरे या प्राकृति से क्रोधित या मुंह काला करना--पाप या व्यभिचार असंतुष्ट, अप्रसन्न प्रगट होना। मह की करना, जुरा काम करना, अपना बदनामी श्रोर ताकना-प्राशा लगाना. श्रासरा करना । मुंह काला होना-कल कित देखना या करना। मुंह फेंकना-मह झुलहोना । दूसरे का महा काला करना- साना या जलाना, मह में भाग लगाना, वाहत्यागना, बदनाम या कलंकित करना, उपेक्षा कर्म करना (गाली)। मह धोकर आनासे हटाना, बदनाम करना। मुंह की खाना निराश होना । किसी के भह लगना-अनादर होना. दुर्द-शा कराना, मह तोड़ हुज्जत, प्रश्नोत्तर या वाद विवाद करना, बवाब सुनना, हार जाना । मुह न देखना उद्दड बनना, बढ़ बढ़ कर बातें करना । -प्रति घृणा से त्याग देना, भेट न होना। मुंह लगाना सिर चढ़ाना उद्दड या पृष्ट मुह के बल गिरना-धोखा या ठोकर बनाना । मुह सूखना-लज्जा या भय से साना, हानि उठाना । मह छिपाना चेहरे की कांति, तेज या प्रताप चला जाना। (घुराना)-शरम के मारे सामने न श्राना, प्यास से गला सूखना। किसी वस्तु का ऊपरी किसी काम से दूर भागना, उसे न करना। छेद छिद्र, बिवर, लिहाज़, मुरव्वत । मुंह For Private and Personal Use Only Page #1427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १४१६ मुँहानाही पर खेलना-चेहरे पर प्रतिविवित या -अधिक चाहना, अधिक लोभ दिखाना। प्रगट होकर उपस्थित रहना। "मुख पर मह बनाना-त्यारी चढ़ाना, अप्रसन्नता, जिसके हैं मंजुता खेलती सी--प्रि० प्र०। अरुचि या घृणा दिखाने को मह को विकृत मुहा०-मुँह देखे का-जो दिल से न करना। हो, जो दिखाने भर को हो । मुंह पर महअखरी*---वि. द. यौ० (सं० मुखजाना-लिहाज या ध्यान करना । मह अक्षर ) शाब्दिक, ज़बानी, जिह्वान । मुलाहजे का--परिचित, जान-पहचान हकाला-पंज्ञा, पु. यौ० (हि०) बदनामी, का। मुह रखना---लिहाज करना, ध्यान अनादर, अप्रतिष्ठा। रखना । योग्यता, साहस, शांत, सामर्थ्य । मुहछुट -वि० (हिं. मुह ।- छूटना ) महफट । मुहा०-मुँह पड़ना- साहस होना, ऊपर मुंहज़ार-वि० (दि. मुह - ज़ोर फा० ) का किनारा या सतह । मुहा०-मुह तक बकवादी, वाचाल, बाचाट, धृष्ट, उदंड । श्राना या भरना-पूर्ण रूप से भर जाना, संज्ञा, स्त्री०-भुहजोरी।। लबालब भर जाना । मुंह का फहर- मुहतोड़-वि० यो हि०) लाजवाब करने कुस्मितभाषी, गाली बकने वाला। मुंह के को ठीक विपरीत उत्तर। कोवे उड़ जाना-उदास, चिचित या मुंहदिखाई- संज्ञा, स्त्री० यो० द० (हि० मुह व्याकुल होना । (किसी काम से ) मुंह दिखाना ) मुंह देखने को रीति, वह धन मोड़ना-इन्कार करना. नट जाना, किसी . जो बहू का मह देखने पर दिया जाता है काम से दूर हटना । मुह चढ़ाना- क्रोध (व्याह)। करना, प्रेम या स्नेह करना, सामने होना। महदेख:----वि० ३० यो हि० मह। देखना) मह चलना-काट खाना, चुगुली करना.. जो मह देखकर बर्ताव करे । स्त्री महादेखी। अनुचित या कुत्सित या व्यर्थ बात बाना महनाल -सज्ञा, स्त्री० ६० यौ० (हि०) धमा या कहना, बहुत व्यर्थ बकना । महचारी- खींचने की हुक्के के नैचे या सटक के छोर लजा, भय से छिपकर, मह छिपाना । मह पर लगी हुई नली। चुराना-मह छिपाना, सामने न पाना मुहट -- वि० यो० द. हि० मह । काटना) मुंह ठठाना--मह पर मारना, लजित या कड़वी बात कहने वाला, महछुट । निरुत्तर करना, मह बंद करना । मुंह मह वात्मा-वि० दे० यौ० (हि. मुह ।डालना-खाना, माँगना. “केपी विषय बालना ) जो सत्यतः न हो, केवल मुख से में भाग लेना । मुंह गिना लेना-- उदास, कहा जावे । असंतुष्ट या हताश होना । मुह तो दल- मुहमराई-संज्ञा, स्त्री. यो. द. (हि. योग्यता या शक्ति देख ! मह शुशाना- मुंह - भरना - आई---प्रत्य०) रिश्वत, स, मह बनाना । मुंह फेरना (फर लेना)-- मुँह भरने की क्रिया। उपेक्षा करना, घृणा करना, त्यागना । मह मुंहमांगा -- क्रि० वि० यो. (हि. मह+ मोडना, मह करना--- अप्रपन्न होना। माँगना) यथेच्छा, याचना-अनुकूल, मनचाहा, मुंह पर गी होना ---सामने जोध करना। कथनानुसार । मुह पर लाना-कहना । : ( चहरे ) मुँहाचाही--संज्ञा, स्त्री० यौ० (हि० मुंह - पर हवाई उड़ना-मुँह की रंगत उड़ चाहना) डींग मारना, बढ़ बढ़ कर बातें जाना, निष्प्रभ होना । मुँह पसारना---- करना । “मैंहाचही सेनापति कीन्ही अधिक माँगना, या चाहना । मुंह फैलाना सकटासुर मन गवं बदायो '-वि०। For Private and Personal Use Only Page #1428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir RUDHAGRAM DOODonor मुंहामुंह मुकरी मुंहामुंह-क्रि० वि० यो० ( हि० पूर्ण, मुकतालि-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं०) मुक्तावली भरपूर, लबालब, महतक। मोतियों की लड़ी। मुँहासा-संज्ञा, पु० (हि० मह -|- प्रासामुकताहल-संज्ञ, पु० (दे०) मुक्ता, मोती। -प्रत्य ) यौवनारंभ में मुंह पर निकलने-मकलेरा, मुकतो, मुकतेरो-कि० वि० वाली फुसियाँ या दाने! (5.) बहुत, प्रधिक। मुअतबर-वि० (अ.) विश्वस्त, विश्वास-म विश्वस्त, विश्वास- - मुकदमा-संज्ञा, पु. (अ.) अभियोग, पात्र, ऐतबारी, भरोसे का। नालिश, दावा, दो पक्षों में किसी अपराध मुअत्तर-वि० ( अ०) सुगंधित, महकदार, धन, स्वात्वाधिकारादि के संबंध का मामला सुवासित। जो विचारार्थ न्यायालय में जाये । मुअत्तल-वि० ( अ०) कुछ दिन के लिये मुकदमे गाज---संक्षा, पु. (अ. मुकदमा-+ काम से अलग किया गया। संज्ञा, नीर वाज---फा ) बहुत मुकदमें लड़ने वाला। मुअत्तली। संज्ञा, स्त्री-मुकदबाजी। मुअम्मा-संज्ञा, पु० ( अ०) पहेली भेद। अकद-वि० ( अ०) श्रावश्यक, पुराना, मुअल्लिम-संज्ञा, पु० ( अ ) शिक्षक। सुखिया। मुश्रा - संज्ञा, पु० दे० (सं० मृत ) मृत सुकदर--संज्ञा, पु. (अ.) भाग्य । मुर्दा, मरा हुश्रा । स्त्री. मुः। मुनाफ़- वि० ( अ.) क्षमा किया हुश्रा। " रिजक इन्सा को मुकदर के सिवा मिलता नहीं"-कु० । संज्ञा, स्त्री० मुग्रामी-- नम। अकना-संज्ञा, ४० दे० (हि० मकुना ) मुत्राकिक-वि० (अ.) अनुकूल, उपयुक्त, बेदाँत का हाथी, बिना सुच्छ का श्रादमी। मुताबिक, अविरुद्ध । संज्ञा, नी० आशि कृत। मकुना (दे०) । *---० क्रि० दे० ( सं० मुआयना--संक्षा, पु. (अ.) मुभाइना : मुक्त ) छूटना, मुह होना, समाप्त होना, (दे०) निरीक्षण, देख-भाल, जाँच-पड़ताल, ! चुकना। वि० मुायिन। मुकाका-वि० (फा० ) काफियादार या मुभावजा--संज्ञा, पु. (१०) मावजा तुकान्त युक्त, एक सतुकांत गद्य । (दे०) बदला, पलटा, किसी कार्य या मुकरना--- अ. कि० दे० ( स० मा = नहीं + हानि के बदले में दिया गया धन । हि० करना) कुछ कहकर उससे बदल जाना, मुकट (दे०) मुकुट --संज्ञा, पु. (सं० मुकुट)। नटना। मकुट (दे०) ताज, टोपी। " मोर मुकुट मुकरनी--संज्ञा, 'बी० दे० (हि. मुकरी) कटि काछिनी ...- तु.। कथित बात का निषेध कर फिर उसी में मुकटा-संज्ञा, पु० (दे०) रेशमी धोती। कुछ अन्य अभिप्राय प्रगटने वाली कविता या मुकत- वि० दे० ( सं० मुक्त ) मुक्त, बंधन- बात, जैसे --- "अठये, दसय मो घर भावै, विहीन । भॉति भांति की बात सुनावै । देस देस के मुकतई-मुकति--संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० मुक्ति) जोरे तार, कहु सखि सज्जन, नहिं, अखबार"। मुक्ति, मोक्ष, मुकती, मुक्ती (द०)। करी--- संज्ञा, सी० दे० ( हि० मुकरना + ई. मुकता-संज्ञा, पु० दे० (सं० मुक्ता) मोती। प्रत्य०) कथित बात से बदल कर अन्य वि० (हि. प्रत्य० ---- मुकता .. समाध अभिप्राय को सूचित करने वाली कविता, होना) यथेष्ट, अधिक, बहुत । स्त्री मुकती नुकरनी, कह-मुकरी । "सीटी देकै मोहिं "मुक्ती साँठिगाँठि जो करै"-पद्मा। बुलावै, रुपया देहुँ तो पास बिठावे, लै भागे भा० श. को.--१७८ For Private and Personal Use Only Page #1429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मुकर्रर १४१८ मुक्ता श्रो खेलै खेल, कहु सखी साजन नहिं सखी मुकुल- संज्ञा, पु० (सं०) कली, श्रात्मा, देह, रेल"। एक छंद (पि०)। मुकर्रर-वि० (अ.) दोबारा, फिर से। नलित-वि० सं०) कली-युक्त कलियामुकर्रर-वि० (अ.) नियत, नियुक्त, या हुआ, कुछ कुछ फूली या खिली (कली) तैनात, निश्चित । संज्ञा, स्त्री मुकर्ररी। कुछ बंद कुछ खुले ( नेत्र ) : “ सुरभिस्वयंमुकाता-संज्ञा, पु० (दे०) इजारा, साका। बर मनु कियो, मुफलित शाख रवाल " मुकाबला-संज्ञा, पु० (३०) मुठभेड़, __ -- रामा. श्रामनासामना, समानता, तुलना, विरोध, मका---संज्ञा, पु० दे० (सं० मुष्टिका ) बंधीलड़ाई-झगड़ा, मिलान, विरोध, मुकाबिला। मुट्ठी जो मारी जाय या मारने को उठाई मुकाबिल-क्रि० वि० (प.) सामने, जावे, घुसा ! श्री. अल्पा.---मुझी । सम्मुख । संज्ञा, पु० प्रतिद्वंदी, शत्रु, बैरी, मुकी - संज्ञा, स्त्री० (हि० मुका) हलका सा दुश्मन, विरोधी। या मुका, किसी को पाराम पहुँचाने के मुकाम-संज्ञा, पु. ( भ. ) टिकने का हेतु उनके शरीर को हल के घूसों से पीटना, स्थान, पड़ाव, स्थान, ठहरने, या रहने की मुक्के मारने का युद्ध । जगह. विराम, घर, अवसर । " किसी ने न सकेमाजी --संज्ञा, स्त्री. ( हि० मुका+बजता सुना खाँ मुशान"--सौद।। बाजी ) बूंसों या मुक्कों का युद्ध या मुहा० ---मुकाम देना--- मृत व्यक्ति के लड़ाई, घमे बाजी। घर में उसके वंश वालों का जा कर दुःख मुक्त - वि० (सं.) बंधन-रहित, छूटा हुआ, प्रगट करना। स्वतंय, जिसे मुक्ति मिल गयी हो, फेंका मकियाना-स० क्रि० दे० ( हि० मुको+- हया । इयाना --प्रत्य.) यूँ से या नुविभ्याँ लगाना रक्तकंट---वि. यौ० (सं०) चिल्ला कर या मारना। मकहस-वि० (अ०, पवित्र, जैसे- कुरान । बोलने वाला, जिसे कहने में सोच-विचार न हो, पूर्ण सर । . मुकद्दस । मुकम्मल-वि० (१०) पूर्ण, पूरा पूरा, मुक्तक -- संज्ञा, पु. (सं०) मोती, एक अस्त्र सब का सब। जो फेंक कर मार जाता था, स्फुट कविता, म _ना प विण भगवान उद्भट । यौ० मुक्ताक काव्य -- वह काव्य कृष्ण, मुकुन्दा (दे०)। जिसमें कोई कथा या प्रबंध न चले मुकुत, मुकता- सज्ञा, यु० दे० (सं० मुक्ता) (विलो० प्रवन्धकाव्य)। मोती, मुगुताहल। मुक्तता--- संज्ञा, स्रो० (सं०) मुक्ति, मोक्ष । मुकुताहला-संज्ञा, पु. द. ( सं० मुक्ता+ मुहल्यापार-संज्ञः, पु० यौ० (सं०) विरागी, हल) मोती। " चुनहिं रतन मुकुताहल कर्मत्यागी, व्यापार से विरक्त । हीरा"---पद्मा। मत्ता हस्त- - वि० पौ. (सं०) वह दानी जो मुकुर-संज्ञा, पु. (सं०) आईना, शीशा, खुले हाथों दान करे, खुले हाथ। संज्ञा, स्त्री० दर्पण, कली, मौलसिरी राव सुभाय मुकुर मुक्तहसाला। कर लीन्हा''-रामा। मुक्का--संज्ञा, स्त्री. (सं०) मोती, मुकता मुकुट-संज्ञा, पु. (९०) गजात्रों का एक (दे०)। " बिच विच मुक्ता दाम लगाये" प्रसिद्ध शिरोभूषण, मकुट, मुकट (दे०)। -रामा० । For Private and Personal Use Only Page #1430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Y:35amORLDREARSWATEHPTOBEResometTTRAINRITESOMETANNECarrantowniden मुक्ताफल मुख्तलिफ़ मुक्ताफल-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) मोती। ई--फा० प्रत्य० ) ख़बर देना, ख़बर देने " मुक्ताफलाकुल विशाल कुचस्थलोनाम्" का काम, मुखबिर का कार्य । - लो। मुखम्मस--संज्ञा, पु. ( फा० ) एक प्रकार मुक्ति-संज्ञा, स्त्री० (सं० मुच् । तिन ) की गद्य शैली । मोन्न, मुक्ती, मुकति, मकनी (दे०) मुखप्रक्षालन----संज्ञा. पु. यो० (सं०) मुख रिहाई, स्वातंत्र्य । "ते ज्ञानान्नमुक्तिः "। को दान से साफ़ करना, मंजन करना, मुक्तिका-संज्ञा, स्त्रो० (सं०) एक उपनिषद् । कुल्ला करना। मुख-संज्ञा, पु० (सं०) बदन, श्रानन, चेहरा, सुदर-वि० (सं०) बकवादी, कटुवादी, जो मुँह, घर का द्वार, किपो वस्तु का अगला बहुत धौर अप्रिय बोलता हो। संज्ञा, स्त्री० या उपरी खुला भाग श्रादि, श्रारंभ. दुखाता । “गिरा मुखर तनु अरध किसी वस्तु से पूर्व की वस्तु, नाटक में भवानी"--रामा । एक संधि (नाट्य०)। वि० मुख्य, प्रधान । मुत्रशुद्वि-रज्ञा, खो० यौ० (दे०) मुंह मुखचपला-संज्ञा, स्त्री० (१०) प्रार्या छंद साफ़ करना, भोजन श्रादि के पीछे पान का एक भेद ( पि० )। श्रादि खा कर' मुख को शुद्ध करना । मुखड़ा-संज्ञा, पु० दे० ( सं० मुख ; डा- मुलस्थविर (सं०) मुखान, कंठस्थ । . हि. प्रत्य० ) अानन, मुख, मुहै। " हमैं अध्याय-वि० सं०) कंठस्थ, बरज़बान । मुखड़ा तो दिखला जाय प्यारे "- हरिः। मुखागर-वि ० (दे०) मुखाग्र(सं०) ज़बानी। मुखतार--संज्ञा, पु. (अ.) प्रतिनिधि, __ " कहेउ मुखागर मूढ़ सन"..- रामा० । कानूनी सलाहकार या कार्य करने वाला मुलातिव-नि. (अ.) बातें करने वाला, अधिकारी, मुख्तार । 'बह मालिके मुख- । मध्यमपुरुष । तार है इस तबलो अल मका"-~~अनीस : । तुलापेक्षा--- ज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) दूसरे का मुख ताकना, पराश्रित रहना । मुखतारनामा-संज्ञा, पु० (अ० मुखतार । सुनापेक्षी-ज्ञा, पु० यौ० (सं० मुखापेक्षिन) नामा--फा०) प्रतिनिधि पत्र, किसी की पराश्रित, पराधीन, दूसरे का मुख ताकने ओर से अदालती कार्यवाही करने का वाला, अन्योपजीवी। अधिकार-सूचक पत्र। मुखाभा--संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) मुख की मुखतारी-संज्ञा, स्त्री. (अ. मुखतार - श्री या कांति, यदनालोक। ई०-प्रत्य० ) मुखतार का काम या पेशा, भवालिफ-वि० (अ०) विरोधी, शत्रु, प्रतिनिधित्व । बैरी, दुश्मन, प्रतिद्वन्दी, विरुद्ध । संज्ञा, स्त्री० मुखपत्र-संज्ञा, पु. यौ० (सं.) किमी खालिकल। संस्थादि का प्रतिनिधि पर, उपकी रीति- वावलोकन-संज्ञा, पु० (सं०) मुख-दर्शन, मीति का प्रचारक पत्र । मुख देखना। मुखफा-वि. (अ.) संक्षित। मुलिया-संज्ञा, पु० दे० ( सं० मुख्य + इया. मुखबंध-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) प्रस्तावना. हि. प्रत्य०) धान, नेता, सरदार, अगुआ। भूमिका, दीवाचा। "मुखिया मुख सो चाहिये खान-पान को मुखबिर--संज्ञा, पु. (अ.) ख़बर देने एक" -- तुल। वाला, जासूम, गोइंदा। सुन लिफ़-वि० (अ०) भिन्न भिन्न, विविध, मुखबिरी-संज्ञा, स्त्री. (म. मुखबिर + अलग अलग, पृथक पृथक् । For Private and Personal Use Only Page #1431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org मुख़्तसर १४२० मुख़्तसर - वि० ( ० ) संचिप्त, अल्प, थोदा, मुजि सूक्ष्म । मुख्य - वि० (सं० ) प्रधान, सब से बड़ा, ख़ास, अगुवा | संज्ञा, स्त्री० - मुख्यता । क्रि० वि० (सं०) मुख्यतः, मुख्यतया । मुगदर - संज्ञा, पु० दे० (सं० मुगदर) व्यायाम करने की लकड़ी की गादुम सुँगरी का जोड़ा, एक प्राचीन श्रन मुगदर, गदा, सूल, थसि धारी" - रामा० । 16 मुग़ल - संज्ञा, पु० ( फा० ) मंगोल का निवासी, तातार के तुर्कों की एक श्रेष्ट जाति, मुसलमानों की चार जातियों में से एक जाति । स्त्री० - मुगलानी । मुगलई, मुगलाई --- वि० दे० (फा० मुग़ल -+ईया आई - प्रत्य० ) मुगलों के तुल्य मुगलों कासा | संज्ञा, त्रो० (दे०) मुगलपन | मुगवन - संज्ञा, पु० दे० (सं० वनमुद्ग ) वनमूँग, मोठ । मुग्गलता - संज्ञा, पु० (०) धोखा, दल | मुग्धम - वि० (दे०) भ्रमित या स्पष्ट बात । मुग्ध - वि० (सं०) सूद, मूर्ख, प्रज्ञान, भ्रम में पड़ा, मोहित, सुन्दर, आपत | संज्ञा, स्त्री०-मुग्धा | संज्ञा, स्त्री० - मुग्धता | मुग्धा - संज्ञा, स्री० (सं०) नवयौवना नायिका, काम - चेष्टा-रहित युवा स्त्री (सा० ) । मुचक - संज्ञा, पु० (सं०) लाह, लाख, लाक्षा । मुचकुंद - संज्ञा, पु० दे० ( सं० मुचुकुंद ) एक बड़ा पेड़, एक प्रबल राजा बिन्होंने देवासुरयुद्ध में इन्द्र की सहायता की थी ( पुरा ० ) । मुचलका -संज्ञा, पु० ( तु० ) अनुचित कर्म न करने या न्यायालय में नियत समय पर उपस्थित होने का प्रतिज्ञा पत्र | --- मुच्चा - संज्ञा, (दे०) मांस का टुकड़ा । मुकुंदर - संज्ञा, पु० दे० ( हि० मूक ) बड़ी बड़ी मूछों वाला, मूर्ख, कुरूप वि०कंदरी। मुज़क्कर - वि० (०) पुल्लिंग । ( विलो०मुन्नस ) । मुट्ठा दिल - संज्ञा, पु० (अ०) जुमला, योग, सब : क्रि० वि० --- कुलमिलाकर ! मुज़रा-संज्ञा, पु० ( ० ) मिनहा, घटाया हुआ. अभिवादन, वेश्या का बैठ कर गाना, किसी बड़े या घी के सम्मुख रकम से काटी हुई रकम | "रात तुटायो सभा मुजरा । " मुजरिम - संज्ञा, १० ( ० ) श्रभियुक्त, अभियोगी, अपराधी । 1 Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मुजावर - संज्ञा, पु० (अ०) रौजा या कब का रत्र और वहाँ का चदा पैसा लेने वाला ( मुसल० ) । मुजानि वि० (प्र०) बाधक । मुजिर - वि० (०) हानिकर | तुम सव. ( हि" मैं ) मैं का वह रूप जो और संबंधकारक के अतिरिक्त शेष कारकों में विभक्ति थाने के प्रथम होता है । मुझे सर्व (हि. मैं ) मैं का वह रूप जो कर्म और संप्रदान कारक में होता है । मुटकना बि० दे० ( हि० मोटा ! कनाप्रत्य० ) आकार में छोटा सुन्दर, मोट । मटका, सुकटा संज्ञा, पु० दे० (हि० मोटा ) एक रेशमी व या धोती ! मुळाई, मोटाई - संज्ञा स्त्री० दे० (हिं० मोटा ई-प्रा० ) पुष्टि, स्थूलता, मोटापन, कई कार शेखी । टाना, मोटानाथ० कि० दे० ( हि० मोटा - याना प्रत्य० ) मोटा या श्रहंकारी होना मोटा टापा--संज्ञा, पु० (दे०) मोटे होने का भाव । ! सुटावा - वि० दे० (हि० मोट + श्रासा - प्रत्य० ) वह पुरुष जो धन कमाकर बेपरवाह या घमण्डी हो गया हो । मुटिया--- संज्ञा, पु० दे० ( हि० मोट गठरी + इया प्रत्य०) बोका ढोने वाला, मजदूर। मुट्टा- संज्ञा, पु० दे० ( हि० मूठ ) घास के डंठल यादि का मुट्ठी भर पूला, चंगुल भर For Private and Personal Use Only Page #1432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मुताबिक वस्तु, पुलिदा, यंत्र या हथियार का बेंट, क्रि० (हि. मुड़ना का प्रे० रूप ) झुकवाना, दस्ता, हत्था (दे०) । स्त्री०-मुट्ठी। घुमवाना। मुट्ठी-संज्ञा, स्त्री० दे. ( सं० मुष्टिका, प्रा०. मुड़वारी ---संज्ञा, स्त्री० दे० ( हि० + मूड़ मुटिया ) बंधी हथेली, मुड़ी अँगुलियों को वारी-प्रत्य०) सिरहना, मड़ेर, अटारी की हथेली में दबाने से हाथ की बँधी मुद्रा, दीवार का सिरा । उतनी वस्तु जो हथेली की इस मुद्रा में | मुड़हरा - संज्ञा, पु० दे० (हि. मूह + हरसमा सके, मठी (दे०)। मुहा०--मट्टी प्रत्य० ) चादर या साड़ी का वह भाग जो में-अधिकार में, काबू या बब्जे में । मुट्टी स्त्रियों के पिर पर रहता है, सिर का एक गरम करना---धन या रुपया देना, किसी गहना। की थकी मिटाने को हाथों से अंगों को मुडिया-संज्ञा, पु० दे० (हि० मुड़ना-1पकड़ कर दबाने की हिया, चंपी (प्रान्ती०)। इया-प्रत्य० । सिर मुड़ा व्यक्ति, साधु । संज्ञा, यौ० मुहा०-मुट्ठी भर- बहुत थोड़े। स्त्री० (दे०) महाजनी लिपि।। मुठभेड, मुठभेड़ी-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. मुड़ेर-ज्ञा, पु० (दे०) मुड़वारी । मूठ ।- भिड़ना ) टक्कर, युद्ध, भिड़त, भेंट, मुतअल्लिक--वि० (अ०) संबंधी संबंध रखने सामना। वाला, सम्मिलित, संबद्ध । क्रि० वि०-संबंध मुठिका*-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० मुष्टिक) या विषय में । घुसा, मुक्का, मुट्ठी। "मुठिका एक ताहि मतका-संज्ञा, पु० दे० (हि. मॅड+ टेक ) कपि हनी" रामा। खंभा, लाट, मीनार, छज्जे पर पटाव के मुठिया - संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० मुष्टिका ) किनारे की नीची दीवाल । यंत्रों या इथियारों का दस्ता, बेंट, हत्था। मतान्नी- वि० (फा०) धूत, नीच, छली। संज्ञा, बी०-मुट्टी मुट्ठी भर अन्न भिखारियों के मुतफ़रिक-- वि० (अ०) भिन्न भिन्न, अलग देने की क्रिया। श्रलग, स्फुटिक। मुठियाना-स० क्रि० दे० (हि. मुट्ठी ) मुट्ठी मलवन्ना-ज्ञा, पु. (अ०) दत्तक या गोद में लेना। लिया लइया या पुत्र। मुठी* --- संज्ञा, पु० दे० (हि० मुट्ठी ) मुट्ठी। मतलक-कि० वि० (अ०) रचक भी, तनिक मुडकना---अ० क्रि० दे० (हि. मुरकना ) भी, रत्ती भर भी, केवल । मुड़ना, मुरकना । स० क्रि० रूप-मड़काना। मुतवजह-वि० (अ०) प्रवृत्त, जिसने ध्यान मुडना-अ० कि० दे० ( सं० मुरण ) सीधी दिया हो। वस्तु का जाना, दाँये या बायें धूम मतदफा--वि. (अ.) मृत, स्वर्गवासी। जाना, अस्त्र की नोक या धार का भुकना,मुतवल्ली · संज्ञा, पु० (अ०) वली, नावालिग़ लौटना, पलटना, वाल बनना, ठगा जाना। और उसकी संपत्ति का कानूनी रक्षक । अ० क्रिमना, स० रूप-पुड़ाना, प्रे०रूप-मुतराद्दी--संज्ञा, पु. (अ०) मुंशी, लेखक, मुड़वाना। पेशकार, दीवान, मुनीम, प्रबंधकर्ता, पुसद्दी मुडला--वि० दे० (सं० मुंड ) मुंडा, (दे०)। जिसके सिर में बाल न हों, बिना छत के। मतसिरी-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. मोती स्त्री० मुड़ती। +श्री-सं० ) मोतियों की कंठी।। मुड़वाना--स० क्रि० (हि. मँडना का प्रे० मुताबिक-कि० वि० (अ०) अनुसार । वि०. रूप ) बाल बनवाना, धोखा दिलाना । स० अनुकूल, मुध्धानिक । For Private and Personal Use Only Page #1433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ९४२२ मुताना मुताना-- स० क्रि० दे० (सं० सूत्र ) मूतने में प्रवृत्त करना, मुतावना (दे० ) । प्रे० रूपमुतवाना । मुतालबा - संज्ञा, पु० ( ० ) जितना धन पाना उचित हो, शेष रुपया, मता नवा (दे० ) । मुतास - संज्ञा, स्त्री० दे० (हि० मूतना ) मृतने की इच्छा । वि० (दे०) मुनासा | मुताह--- संज्ञा, पु० दे० ( अ० मुला ) एक प्रकार का अस्थायी व्याह (मुसल० ) । सुतिलाइ संज्ञा, १० दे० यौ० ( हि० मोती + लड्डु ) मोतीचूर का लड्डू.. मुतीय - वि० ( फा० ) प्रसन्न या अनुरक्त । मुतेहरा संज्ञा, पु० दे० ( हि० मोती + हार ) कलाई का एक गहना । मुद- -संज्ञा, पु० (सं०) श्रानंद, हर्ष, मोद | "बहि लगनि मुद्र-मंगलकारी " - रामा० । मुदगर - संज्ञा, पु० दे० ( हि० मुगदर ) मुगदर | | 1 मुदर्रिस - संज्ञा, पु० ( ० ) अध्यापक संज्ञा, स्त्री० सुदरिसी । मुदा - श्रव्य० दे० ( ० मुद्दामा - अमि प्राय ) ता यह है कि, लेकिन. परंतु, मगर | संज्ञा, खो० (सं०) श्रानंद, हर्ष | मुदाम - क्रि० वि० ( फा० ) लगातार, सदैव. सदा, निरंतर, ठीक ठीक " बजा ही किया "सौदा | कोसे रेहलत मुद्दाम मुदामी - वि० ( फा० ) जो सदा होता रहा करे | मुद्रायंत्र SARE CHE has मुदगल संज्ञा, पु० (०) एक उपनिषद | मुद्रा - संज्ञा, पु० (०) तात्पर्य, उद्देश्य : जुदाई - संज्ञा, पु० ( प्र०) बादी, दावादार, कि विरोधी, शत्रु बैरी । खो० मुद्दइया ! लेकर क्या करें ख़त मुद्दई से मुद्दा समझें " . 4: १५ मुदित - वि० (सं०) प्रसन्न, खुश मुदित महीपति मंदिर थाये रामा० । मुदिता - संज्ञा, खो० (सं०) परकीया के अंतर्गत एक नायिका | वि० स्त्री० (सं०) हर्षित | मुदिर - संज्ञा, पु० (सं०) मेव, वन, बादल | मुदी - संज्ञा, स्त्री० (सं०) जुन्हाई चाँदनी । मुग- संज्ञा, पु० (सं०) मूँग, श्रम | संज्ञा, स्त्री० (सं०) मुद्दाली भूँग की दाल (प्राचीन) । मुद्गर - संज्ञा, पु० (सं०) एक अत्र, मुगदर, मुदगर (दे० ) । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जौक | सुदन संज्ञा, स्त्री० (अ० ) अवधि अरसा. मिश्रा, बहुत दिन । विती । मुदायह मुद्दालेह - संज्ञा, पु० (प्र०) जिस पर दावा किया जाये प्रतिवादी । मुद्र- वि० दे० (सं० मुग्ध ) मुग्ध, मूर्ख | मुना -संज्ञा स्त्री० (दे०) खिमिक जाने वाली रस्पी की गाँठ | मुद्रक - संज्ञा, पु० (सं०) छापने वाला ! मुद्रा - संज्ञा, पु० (सं०) छपाई, छापना | वि०-मुद्रणोय यौद्रणयंत्र अपने की कल, मुद्रणकला । मुद्रांकित - वि० यौ० (सं० ) मोहर किया हुआ, शरीर पर तप्त लोहे से दागकर छपे विष्णु के श्रायुध-चिह्न वैष्णव ) । मुदा पर लिखा । मुद्रा संज्ञा, स्त्री० (सं० मोहर, छाप ल्ला, मुद्रिका, रुपया, अशरफ़ी श्रादि का, गोरख पंथियों का कर्णाभूषण, बैठने, खड़े होने, लेटने आदि का कोई ढंग, हाथ, मुख नेवादि की स्थिति विशेष सुख की आकृति या चेष्टा, हठ योग में विशेष प्रकार के अंगविन्यास, ये पाँच मुद्रायें हैं:- खेचरी, भूचरी, चाचरी, गोवरी और उन्मनी, एक अलंकार जिसमें प्रकृत या प्रस्तुत अर्थ के अतिरिक्त कुछ और भी भिवा संज्ञादि शब्द हों ( च० पी०, वैएवों के शरीरों पर दंगे हुए विष्णु के श्रायुधचिह्न | मुद्राच्व-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) एक शास्त्र जिसके आधार पर पुराने सिक्कों की सहायता से ऐतिहासिक बात ज्ञात की जाती हैं । मुद्रायंत्र - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) छापने या मुद्रण करने का यंत्र, छापे की कल. मुद्रणयंत्र | For Private and Personal Use Only Page #1434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org मुद्राविज्ञान मुद्राविज्ञान- संज्ञा, पु० (सं० ) एक शास्त्र जिसके अनुसार पुराने सिक्कों की सहायता से ऐतिहासिक बातें ज्ञात की जाती हैं । मुद्राशास्त्र - संज्ञा. पु० (सं०) मुद्रा विज्ञान | मुद्रिक - संज्ञा, स्रो० दे० (सं० मुद्रिका) अँगूठी, मदरी । मुद्रिका - संज्ञा, स्त्री० [सं०] अँगूठी, मं । "तब देखी मुद्रिका मनोहर " रामा० । पवित्री, पैंती (दे०) । पितृ कार्य में कुश की art अनामिका में पहनने की अँगूठी, मुद्रा, सिका, रुपया । | मुद्रित - वि० (सं०) छप: हुथा, अँकित या मुद्रण किया हुआ बंद, मुँदा या ढका हुआ | मुधा- क्रि० वि० (सं) वृथा, व्यर्थ । दि०पर्थ का, निरर्थक, निष्प्रयोजन, रूठ, मिथ्या, अत | संज्ञा, पु० श्रापत्य, मिध्या । मुनक्का - पंज्ञा, ५० ( अ० मि० सं० मृद्रीश ) द्वाज्ञा, दाख, एक तरह की बड़ी किमिसमुको सूखा बड़ा अँगूर | मुनादी -- संज्ञा, स्त्री० (०) ढिढोरा, डुग्गी, वह घोषणा जो बोल यादि बजाकर सारे नगर में की जाती है ९४२३ मुनाफा -संज्ञा, पु० (०) लाभ, कायदा, नफ़ा । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मुबारकबाद मुनीब ) सहायक, मददगार, सेठ साहूकारों के हिसाब किताब का लेखक या मुहर्रिर । मुनींद्र - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) मुनिंद (दे० ) मुनिवर, श्रेष्ठ सुनि | मुनोश, मुनीश्वर -संज्ञा, पु० यौ० (सं०) श्रेष्ठमुनि पुनिराज सुनिनाथ, बुद्धदेव, विष्णु या नारायण मुनीस, पुनीसुर (दे० ) । ग्रहो सुनीश महाभट मानी - रामा० । 1 मुनीसा पंज्ञा, पु० (दे०) पुनीश (दे० ) । मुन्ना, पुत्र झा, पु० (दे० ) प्रिय, प्यारा, छोटों के लिये प्रेम-सूचक शब्द | स्रो०- मुन्नी । मुफ़लिस - वि० (२०) बंगाल, निर्धन, दरिद्र, गरीब संज्ञा स्त्री० - मुफलिसी मुफ़स्सल- वि० (०) सविवरण, व्योरेवार, सविस्तार, विस्तृत | संज्ञा, पु० किसी केंद्रस्थ नगर के चारों ओर के ग्रामादि स्थान | वि० (प्र०) लाभप्रद, लाभकारी, फायदेमंद सुफ्त - वि० (०) बिना मूल्य या दाम का, सेव का फल (दे० ) । " मुफ्त में किसको मिला है बदरका गालिब | विनुफ्ती । यौ० - मुफ्तखोर – जो दूसरों के धन का बिना कुछ किये भोग करे ( खाये) | संज्ञा, खो०- मुक्तखोरी। मुहा० - मुफ्त में बेदाम, बिना मूल्य, नाहक, व्यर्थ, बिना मुनारा | संज्ञा, ५० दे० (अ० मीनार ) मीनार ... मुनासिव - वि० ( ० ) वाजिब, उचित, योग्य, उपयुक्त, समीचीन । मतलब । 7 मुफ्ती संधा. पु० ( प्र०) मुसलमान धर्मशाखी वि० ( ० मुक्त ई-प्रत्य० ) बिना दाम या मूल्य का संत का । मुबतिला वि० (०) फँसा हुआ । < 1 "" रामाः । केवल । मुनि - संज्ञा, पु० (सं०) तपस्वी, त्यागी, सात की संख्या, धर्म्म, ब्रह्म, सत्यासस्य यादि का पूर्ण विचार करने वाला पुरुष ! जो तुम भवते मुनि की ना मुनिराय, सुनिराया - संज्ञा, ५० यो० (दे० ) | मुलग - वि० (०) रुपये की सख्या के मुनिराज (स० ) ! पूर्व आने वाला एक विशेषण शब्द, मुनियाँ - संज्ञा, स्रो० (दे०) लाल नामक पक्षी मुबारक - वे० (अ०) मंगलप्रद, शुभ, बरकी मादा । कत वाला, नेक। मुहा० - मुबारक होना - अच्छा होना शुभ हो, फलना : मुबारकबाद संज्ञा, पु० यौ० ( ० मुबारक + बाद फा० ) बधाई, धन्यबाद, किसी शुभ मुनिंद प्रज्ञा, पु० यौ० (दे० ) नान्ड (सं०) "गावत सुनिंद गुनगन छनदा रहें "- रता० । मुनीब, सुनोम (दे० ) संज्ञा, पु० ( अ० For Private and Personal Use Only Page #1435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मुबारकी मुरना कार्य पर यह कहना कि मुबारक हो। मुरचंग-संज्ञा, पु० दे० (हि. महचंग) मह एंज्ञा, स्त्री०-मुबारकबादी। से बजाने का एक बाजा, मुंहचंग (दे०)। मुबारकी- संज्ञा, स्त्री० (प्र. मुबारक+ ई-मुरक्षना, मुरहाना* --- अ० कि० दे० (सं० प्रत्य०) मुबारकबाद, धन्यबाद, बधाई। मूच्र्छन् ) अचेत या बेहोश होना, शिथिल मुबाहिसा-संज्ञा, पु० (अ.) बहस, विवाद। होना। सुमकिन-वि० (अ०) संभव । मुरहा, सूरछा--संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० मूछा) ममानियत--संज्ञा, स्त्री. (अ.) मनाही, मूर्छा, बेहोशी। "सुग्रीवहु की मुरछा बीती" निषेत्र । -रामा० । मुमानो--- संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० मातुलानी ) मुरठावंत-वि० दे० (सं० मूळ+वंतमामी, मातुलानी, माई। प्रत्य० ) मूछित, अचेत । मुमुक्षु-वि० (सं०) मोक्ष पाने की इच्छा पुरछिन, मूरचित-- वि० दे० (सं० मूच्छित) वाला, मुक्ति की कामना वाला। मूच्छित, बेहोश। "भूरछित गिरा धनि पै मुमूर्षा-संज्ञा, स्त्री० (सं०) मरने की इच्छा आई".-रामा० । या कामना। सुरज--संज्ञा, पु. (स.) पखावज मृदंग मुमूर्ष-वि० (सं०) मरणायन, मृत्यु का (बाजा)। इच्छुक । मुरझना -- अ० क्रि० (दे०) मूर्छित होना, मुरंडा---संज्ञा, पु० (दे०) गुडधानी (दे०) कुम्हलाना। भूने गर्म गेहूँ के गुड़ मिले लाडडू । वि० मुरझाना--अ० कि० दे० ( सं० मूर्छन । (दे०) शुष्क, सूखा हुआ। फूल-पत्ती का कुम्हलाना, उदार या सुस्त पुर-संक्षा, पु० (सं०) बेठन, वेष्टन, एक दैत्य होना, सूखना। जो विष्णु भगवान के द्वारा माना गया था। अरदर~ज्ञा, पु० (सं.) श्रीकृष्ण जी। अव्य०-- फिर, पुनि, पुनः, दोबारा। शुरदा-ज्ञा, पु० दे० (फा० मि० सं० मृतक) मुरई-संज्ञा, खो० (दे०) मूली, एक जड़ । मृतक, मरा हुआ, मुदा (दे०) । वि० - मुरक-संज्ञा, स्त्री० (हि० मुरकन ) सुरकने मृत, मरा हुश्रा, वेदन, मुरझाया हुआ। का भाव या क्रिया। "मुरदा बदस्त जिंदा जो चाहिये सेो कीजै' मुरकना--अ० कि० दे० ( हि० मुड़ना) -स्फुट। मुड़ना, लचक कर झुकना, घूमना, फिरना, | मुरदार-वि० (फा०) मरा हुआ, बेजान, लौटना, (किसी अंग का ) मोच खाना, अशक्त, बेदम, मत, पवित्र, हीन । एकना, हिचकना, विनष्ट या चौपट होना। मुरदासंख - संज्ञा, पु० द० (फ़ा० मुरदारसंग) स० रूप-भुरकाना,प्रे० रूप.पुर कदाना। एक औषधि जो सिंदूर और सीसे को फैक मुरखाई, सुरखई----संझा, स्त्री० दे० (सं० कर बनाई जाती है । मूर्खता ) मूर्खता, बेसमझी। | मुरदासन% ~संज्ञा, पु० दे० (हि० मुरदासंख) गुरगा-संज्ञा, पु० दे० ( फा० ) कई मुरदासंख। रंग का एक पक्षी जिसके सिर पर कलंगी मुरधर- संज्ञा, पु० दे० (सं० मरुधर ) मारहोती है (नर ), कुक्कुट, अरुणशिखा। वाड़ । स्त्री०-मुरगी। मुरना* --अ० कि० दे० (हि. मुड़ना ) मुरगावी-संज्ञा, स्त्रो० (फा०) जल-कुक्कुट, मुड़ना, धूमना, फिरना, लौटना ! “ मरै न जल-पक्षी। मुरै टरै नहि टारे"-नामा० । For Private and Personal Use Only Page #1436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org मुरपरैना १४२५ मुरारे मुरपरैना ! - संज्ञा, ५० दे० यौ० ( हि० मूड़ | मुरहा - संज्ञा पु० (सं०) मुर राक्षस के मारने = सिर + पारना = रखना) फेरी लगाकर माल बेचने वालों का नुकचा | मुरब्बा - संज्ञा, पु० दे० ( ० मुख्बः ) फलों या मेवों का अचार जो मिश्री या चीनी भादि की चाशनी में रखा जाता है । मुरब्बी - संज्ञा, पु० (०) मालिक, स्वामी, पालन करने वाला | वाले श्रीकृष्ण जी । -- वि० दे० ( सं० मूल नक्षत्र + हा प्रत्य० ) मूल नक्षत्र में उत्पन्न लड़का, उपवी, नटखट, बदमाश, अनाथ । to रही। मुरहार संज्ञा, पु० (दे०) स्त्रियों के सिर का सुरमुराना - प्र० क्रि० दे० (अनु० मुरमुर से ) चूर चूर या चुरसुर होना, मुरमुर शब्द कर चबाना | मुररिपु- संज्ञा, पु० यौ० (सं०) मुरारि. श्री. कृष्ण । चक्र लिये मुररिपुको लखिकै भीषम प्रति हर्षाये " - वि० क० । 16 | मुररिया | संज्ञा, स्त्री० ६० (हि० मरोड़ना) ऐंठन, बल, बढी हुई बसी । मुरला, मुरला--संज्ञा, उ० (दे० ) पोपला, मोर पक्षी, मयूर पुकार (ग्रा० ) । मुरलिका - संज्ञा, स्त्री० (सं०) बाँसुरी, बंशी, मुरली । मुरलिया -- संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० मुरली ) बाँसुरी । मुरली - संज्ञा, स्त्री० (सं०) वंशी, बाँसुरी । मुरलीधर - संज्ञा, पु० (सं०) श्रीकृष्ण जी । " गिरधर मुरलीधर हैं, कछु दुख मानत नाहि " - रही० । मुरलीमनोहर- संज्ञा, पु० यौ० (सं०) श्रीकृष्ण जी, वंशीधर । मुरा, मोरवा संज्ञा, ५० (दे०) पाँव की ऐसी के ऊपर का चारों ओर का भाग । + - संज्ञा, ५० दे० ( सं० मयूर, हि० मोर ) मोर, मयूर ! मुरखी* - संज्ञा, स्त्री० दे० ( सं० मौर्वी ) प्रत्यंचा, धनुष की ताँत या डोरी, चिल्ला । मुरशिद - संज्ञा, पु० ( ० ) गुरु पथ-प्रदर्शक, पूज्य, माननीय, उस्ताद, कामिल । मुरसुत - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) बलासुर एक दै (पुरा० ) | मा० श० को ० - १७६ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गहना । मुरहारि, मुरहारी - संज्ञा, पु० (सं०) श्रीकृष्ण जी, सुगारि । मुरा- संज्ञा, खो० (सं०) मुरामाँसी, एकांगी, एक गंध द्रव्य, राजा चन्द्रगुप्त की माता एक नाइन, इसी से मौर्य वंश चला ( कथा० ) । मुराई -संज्ञा, खी० (दे०) एक जाति विशेष, काछी । सुराड़ा संज्ञा पु० (दे०) जलती लकड़ी । 'हम घर जारा थापना, लिये मुराड़ा हाथ" —कबी० । 6 मुराद - संज्ञा, स्त्री० ( ० ) कामना, श्रभि - लापा, घाशा, मनोरथ । मुहा०- मुराद पाना (पूरी होना) - मनोरथ पूर्ण होना । मुराद माँगना ( चाहना ) – मनोरथ पूर्ण होने की प्रार्थना करना, आशय, अभिप्राय, मतलब | मुराचार - वि० (दे०) कुंठित, गोठिल । मुराना - स०क्रि० ( अनु० मुर मुर से ) बाना, दाँतों से पीसकर बारीक करना, चुभलाना, चत्राना । * * -- क्रि० वि० (दे० ) मोड़ना, मुड़ाना | मुरार-संज्ञा, पु० दे० (सं० मृणाल ) कमलनाल, कमल दंडी । * संज्ञा, पु० दे० (सं० मुरारि ) मुरारि, श्रीकृष्ण जी । भुरारि, मुरारी (दे० ) - संज्ञा, पु० यौ० (सं० मुरारि ) श्रीकृष्ण जी, डगण का तीसरा भेद ( 151 ) ( पिं० ) । मुगरे - संज्ञा, पु० (सं०) हे मुरारि, हे कृष्ण (संबोधन) । " हे कृष्ण हे यादव हे मुरारे" स्फुट० । For Private and Personal Use Only Page #1437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मुरासा मुलमची मुरासा-संज्ञा, पु० दे० (हि. मुरना) मरोड़फली, पेट में ऐंठन और बार बार दस्त कर्ण-फूल, बड़ा साना, मुड़सा। होना, मोड़। मुरीद-संज्ञा, पु. (अ.) चेला, शिष्य, । पुरी-संज्ञा, स्त्री० द० ( हि० मरोड़ना ) दो अनुयायी, शागिर्द, अनुगामी। होरों की ऐंठन, कपड़े की एंठन, कपड़े की मुरु-संज्ञा, पु० दे० ( सं० मुर ) मुर दैत्य ! | बटी बत्ती, कमर पर धोती की ऐंठन, गाँठ मुहा , मुख्वा -- संज्ञा, पु० (दे०) एड़ी के | गिरह, टेंट (ग्रा०)। ऊपर पैर के चारों भोर का भाग। संज्ञा, पु० मुरीदार- वि० (दि० मुरी-|- दार-फ़ा०-प्रत्य०) दे० (सं० मयूर ) मोर ! । ऐटनदार, जिसमें मुरीं पड़ी हो । मुरुकना-अ० क्रि० (दे०) . वंगा, मोच ! मुर्शिद --- संज्ञा, पु० (अ०) गुरु, मार्ग-दर्शक, खाना, टेढ़ा होना, टूटना ! स० रूप - मुरु- बड़ा ज्ञानी, चतुर, श्रेष्ठ, उस्ताद । काना, सुरकवाना। मुलक, मुलुक-संज्ञा, पु. (दे०) मुक्क, मुरुख, मूहखछ--वि० दे० ( सं० मूर्ख ) देश प्रदेश । मूर्ख, नासमझ, बेवकूफ़, मूरख। मुलक.ना ---ग्र० कि० दे० ( सं० पुलकित) मुरुधना*----अ० कि० दे० (हि. मुरझाना ) झाल में ना, पुलकित होना, आँखों में हँसी मुरझाना, मूर्छित या उदास होना, सूखना, जान पड़ना, झाँकना । स० रूप-गुलकाना । कुम्हलाना, भूच्छित होना । “परी मुछि मुलकित-वि० दे० (सं० पुलकित) मुस्कुराता धरनी सुकुमारी"- वि० । हुआ। मुरुमना अ० कि० दे० (हि० मुरझाना) | मलकी--वि० दे० (अ० मुल्क ) देशी, देशमुरझाना, कुम्हलाना, सूखना, उदान होना! संबंधी, शासन-संबंधी । “मुहायागर्चे सब मुरेटा, मुरैठा----संज्ञा, पु० दे० (हि. मड-1 सामान मुल्की और माली था।" एठा-ऐठा-प्रत्य० ) पगड़ी, साफा, मुड़ासा । मुलजिम-वि० अ०) अभियुक्त, जिस पर मुरेरना-स० क्रि० (हि०) ऐठना, घुमाना, कोई अभियोग हो, अपराधी। मसलना, मरोरना (दे०)। मलबी-वि० दे० (अ० मुल्तवी ) स्थगित, मुरोग्रत, मुरोवत-संज्ञा, श्री. द. (अ. वह कार्य जिसका समय टाल दिया गया मुरब्बत ) संकोच, शील, लिहाज, रियात, हो । भलमंसी। मुलतानो-वि० ( हि मुलतान = शहर । ई. मुर्ग--संज्ञा, पु० (फ़ा०) मुग, मुसा, कुक्कट।। प्रत्य०, मुलतान-संबंधी, मुलतान का । संज्ञा, मुर्गकेश-संज्ञा, पु० यो० (फा० मुग कश स्त्री० एक रागिनी, एक बहुत नरम और सं० = चोटी) मरसे की किस्म का एक पौधा, चिकनी मिट्टी। जटाधारी। मुर्चा- संज्ञा, पु० दे० (फ़ा० भोरचः ) भुरचा, | मुरूना-संज्ञा, पृ० दे० ( अ० मौलाना) मोरचा। मोलवी, मौलवी, विद्वान । “बसै मन मुल. मुदनी-- संज्ञा, पु. (फा० मुदन = मरना ) ना तन-मह जित माँ -कवी० । संज्ञा, पु. मुख पर मृत्यु के चिह्न, मृतक के साथ अंत्येष्टि दे० ( अ० मुल्ला ) मुल्ला । क्रिया के हेतु जाना। मुलवी-संज्ञा, पु. (दे०) मोत्तवी। मुर्दावली-संज्ञा, स्त्री० [फा०) मुर्दनी, । वि०- मुलमन्ची--संज्ञा, पु० (अ० मुलम्मा + चीमृतक या मुर्दे का। प्रत्य० ) मुलम्माराज, मुलम्मा या गिलट मुर्रा-संज्ञा, पु० दे० ( हि० मरोड़ या मुड़ना)} करने वाला। For Private and Personal Use Only Page #1438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मुलम्मा मुश्तबहा मुलम्मा-संज्ञा, पु. (अ.) गिलट, कलई, मल्क-संज्ञा, पु० (अ०) मुलुक (दे०) देश, किसी वस्तु पर चढ़ाई हुई सगेने या चाँदी प्रांत, प्रदेश । वि०-मुल्की । की तह, दिखावटी चमक-दमक, झूठी या मल्ला--- संज्ञा, १० (अ.) मौलवी, मोलवी । मकली सोने की चीज़, पीतल । यो- "मुल्लाई अरर कीजै तो है मुल्ला की यह मुलम्मासाज़ - मुलम्मा चढ़ाने वाला, क़द्र"-- सौदा । संज्ञा, स्त्री-मल्लाई। मुलमची, ऊपरी तड़क-भड़क वाला। वि० मवकिल-संक्षा, पु. (अ.) अपने लिये -मुलम्माबाज़ -छली, धोखा देने वाला, वकील करने वाला। मूा। मुवना*-अ० क्रि० दे० (सं० मृत) मरना, मुलहा -वि० (सं० मूलनक्षत्र +हा-प्रत्य०) मुअना : स० रूप-मुवाना। मूलनक्षत्र का जन्मा, उपद्रवी, उत्पाती, मुशली-- संज्ञा, पु० (सं०) मूशलधारी बलमुरहा (दे०)। देवजी, मूसली औषधि । मुलीं। ----संज्ञा, पु० दे० (प्र. मुल्ला) मोलवी, मुश्क-संज्ञा, पु० ( फा० अ० मिश्क) गंध, मौलवी। कस्तूरी, मृगमद संज्ञा, स्त्री० (दे०) भुजा, मुलाकात--संज्ञा, स्त्री० अ०, भेंट, मिलना बाहु, बाँह । ' मुश्क से बाल सी कातर मिलन, मेल-मिलाप, मुलकात (प्रा.)। हुये'- स्फु० । मुहा० ---मुश्के कसना मुलाक़ाती - संज्ञा, पु० द० अ० मुलाकात । या बाँधना---किसी अपराधी की दोनों ई-प्रत्य०) मेली, मिलापी, मित्र, जान-पहचान भुजायें पीठ की ओर करके बाँध देना। वाला, परचित । मुश्कदाना--ज्ञा, पु० यौ० (फ़ा०) एक मुलाज़िम--संज्ञा, पु० (३०) सेवक, दास, लता के बीज, जो कस्तूरी के समान नौकर । संज्ञा, स्त्री-मुलाजिमत-नौकरी । सुगंधित होते हैं। मुलायम-त्रि० अ०, मृदुल सुकुमार जो | गुश्कनाफा ---- संज्ञा, पु० यौ० (फ़ा०) कस्तूरी कड़ा या कठोर न हो, नम्र, नरम, नाजुक, की नाभी, जि के भीतर कस्तूरी रहती है । धीमा, मंद, कोमल । ( विलो०-सख्त )। मशकविलाई -- संझा, पु० दे० । फा० मुश्क यो-मुलायम चारा-नरम हाजा, जो +विलाई ---हि० == विल्ली ) गंध-बिलाव, सहज में दूसरे की बातों में पा जाय, जो एक जंगली बिलार जिसके अंडकोशों का सहज में मिले । पसीना सुगंधित होता है। मलायमियत--संज्ञा, स्त्री० दे० 'अ०मुलायसत मुश्किल- वि० (१०) कठिन, कड़ा. दुष्कर । मुलायम होने का भाव, नम्रता, नरमी, संज्ञा, स्त्री० देकत, कठिनता, विपत्ति, नज़ाकत, कोमलता। मुसीबत, श्राफत । लो.-" मुश्किले नेस्त मलायमी--संज्ञा, स्त्री० दे० (अ. मुलायमत) कि अासा न शबद"--सादी। नम्रता, नरमी, नजाकत, मृदुता। रकीवि. (फा०) यस्तूरी के रंग या मलाहजा--संज्ञा, पु० (म०) देख-भाल, जाँच- गंध का, काला. श्याम, जिसमें सरी पड़ी पड़ताल, निरीक्षण, संकोच, रियायत, हो। संज्ञा, पु...-काले रंग का घोड़ा। मुरव्वत, मुलाहिजा (दे.)। वि०-मुला-मुश्त---संज्ञा, पु. (फ़ा०) मुट्ठी। हजेदार। मुश्ताक-ति० अ०) इच्छुक, चाहनेवाला । मुलेटी, मुलेही- संज्ञा, स्रो० दे० (सं० यौ० - एक मुश्त-- एक साथ, एक दम मूलयष्टी या मधुयष्टी, जेठीमद, मौरेठी (दे०), (रुपये के लेन-देन में)। मुलहटी, मुलट्ठी, घघची लता की जड़ । मुश्तबहा--वि० (अ०) संदेह-युक्त, संदिग्ध । For Private and Personal Use Only Page #1439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मुषना मुसल्लम मुषना-अ० क्रि० (दे०) मूसना, चुराना, मुसज्जा-संज्ञा, स्त्री० (फ़ा०) एक प्रकार का चोरी जाना, ठगना, छीनना। अलंकृत गद्य । मुषर संज्ञा, स्त्री० दे० (रा. मुखर ) मुमटी-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० मूषिका ) गंजार, गुंजन, गूंजने का शब्द । “ नूपुर चुहिया, मुसाटिया। मुपुर मधुर कवि बरनी"- रामा। मुसना--ग्र० कि० दे० (सं० मूषण ) मूसा मुष्टि-संज्ञा, स्त्री० (सं०) मुट्ठी सा, मुक्का, या चुराया जाना, उगा या छला जाना। दुर्भिक्ष, अकाल, मल्ल, मुष्टिक, चोरी। मुमन्ना-संज्ञा, पु. (अ.) रसीद देने वाले के मुष्टिक--संज्ञा, पु० (सं०) करत का एक मल्ल पास रहने वाली पीद की प्रतिलिपि, नकल, जिसे बलदेव जी ने मारा था, चूसा, मुक्का, किसी लेख की दूसरी प्रति । मुट्ठी, चार अंगुल की नाप । “मुष्टिक एक मुसन्निा -संज्ञा, पु० (अ०) ग्रंथ-लेखक । ताहि कपि हनी"- रामा० मुसयर --संज्ञा, पु. (अ.) धीपार का मटिका-संज्ञा, स्त्री. (सं०) घूमा, मुक्का, जमाया हुमा रस (औषधि)। मुही, मूठी। यौ०-अधिका-प्रहार। मुसाफी- वि० [फा०) खून साफ़ करने युद्ध संज्ञा, पु० यौ० (सं०) सेबाज़ी, वाला, सूफ़ो मत सम्बंधी। मुक्काबाज़ी, चूसों की लड़ाई। मुसाद, सुमधः ।- वि० (दे०) ध्वस्त. मुष्टियोग-संज्ञा, पु. यौ० (२०) हठयोग की नष्ट, बरबाद । संज्ञा, पु०-विनाश, ध्वंस कुछ क्रियायें जो रोग-नाशक बलबर्धक बरबादी। और शरीर-रतकमानी जाती है, सरल उपाय। मुसम्मान-वि० सी० (अ० मुसम्मा का मुसकनि, मुसकानि* ---ज्ञा, स्त्री० दे० । स्त्री० रूप) नामवाली, नामधारिणी, नाम्नी। (हि. मुखकाना ) मुसकुराहट, मुसकान । संज्ञा, स्त्री०-स्त्री, प्रऔरत । अली री वा मुख की मुसकान बिसारी न मुसम्मी-- वि० पु. (अ०) नामवाला । जैहै न जैहै न जैहै। मसर-ज्ञा, पु. ( हि० मूसल ) पेड़ की सबसे मोटी जड़। मुसकनिया- संज्ञा, स्त्रो० दे० (हि. मुमरी, मुमरिया' संज्ञा, स्रो० (दे०) मुसकान ) मुसकान। चुहिया, मुसरी, बाहों के मांसल भाग। मुसकराना, मुसकुराना--अ० कि० दे० मुसलधार कि० वि० दे० (हि० मूसलधार) ( सं० स्मय - कृ ) मंद या मृदु हाल, थोड़ा मूसलधार, मूसलाधार । हँसना, मुसकाना (दे०)। मुसनमान-संज्ञा, पु० (फा०) महम्मद मुसकराहट, मुसकुराहट- संज्ञा, स्त्री० दे० । साहिब के मत के लोग, महम्मदी । स्त्री० ( हि० मुसकराना- आहट-त्य०) मंदहास, सलमानिन-मुसलमानिनी । मुसकराने की क्रिया का भाव, स्मित । लसलमानी--वि० (फा०) मुसलमान संबंधी. मुसकान, मुसक्यान-संज्ञा, स्रो० (हि. मुसलमान का । संज्ञा, स्त्री०-सुन्नत, बालक मुखकाना ) मुसकराहट। की लिंगेंद्रिय का कुछ ऊपरी चमड़ा काटने सुसकाना-अ० क्रि० (हि.) मुखकुराना, मंद की रस्म, ईमानदारी । ' कहते हैं कि मंद हंसना । " दोउन के दोउन पै मुरि खामोश मुसलमानी कहाँ है"- सौदा० । मुसकाइबो"-रस ! मुसल्लम-वि० (०) समूचा, सब का सब, मुसजर, मुसजर-संक्षा, पु० दे० ( अ. | पूर्ण, अखंड । हांज्ञा, पु.-मुसलमान, मुशजर ) एक तरह का छपा वस्त्र । For Private and Personal Use Only Page #1440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मुसल्ला १४२६ मुहर्रमी मुसल्ला-संज्ञा, पु. ( अ० ) नमाज पढ़ने मुस्ता-संज्ञा, स्त्री. (सं०) नागरमोथ की दरी । संज्ञा, पु० --मुसलमान, मुसहा । (औप.)। मुम्ताभयानाम् जलम्"-लो. (ग्रा०)। मुस्तैद - वि० दे० (अ० मुस्तअद) तत्पर, मुसखिर -- संज्ञा, पु० अ०) चित्रकार । तैयार, कटिनाद्ध, सन्नद्ध, तेज, चालाक । मुसहर--संज्ञा, पु. दे. हि० मूस --चूहा | मुस्तैदी-संक्षा, स्त्री० दे० ( अ० मुस्तअद :हर-प्रत्य०) एक जंगली जाति जो जड़ी-बूटी ई - प्रत्य० । तत्परता, सन्नद्धता, फुरती, बेचती हैं। तेजी। मुसहल, मुसहिल-वि० (अ०) दस्तावर, ममतौफी-संज्ञा, पु. (म.) आय-व्ययरेचक । “सहल था मुमहिल वले यह सरन्त निरीक्षक, हि पाब की जाँच करने वाला। मुश्किल आ पड़ी"। मुहकम-- वि० (अ.) दृढ़, मजबूत. पक्का । मुसाफ़िर--संज्ञा, पु० (अ०) पथिक, यात्री। मुहकमा--- क्षा, पु० (अ.) सीग़ा, सरिश्ता, मुसाफ़िर खाना-संवा, पु० यौ० ( अ० । विभाग। मुसाफ़िर -। खाना फ़ा० ) यात्रियों के ठहरने मुहताज - वि० (अ०) कंगाल, दरिद्र, ग़रीब, का स्थान, सराय, होटत अं०', धर्मशाला । आकांही, चाइने वाला। मुसाफ़िरत--संज्ञा, सी० [अ०) मुसाफिर हव्यत--संज्ञा, स्त्री. (भ०) प्रेम, स्नेह, होने की दशा, प्रवास, परदेश, यात्री । चाह, प्रीति, प्यार, मित्रता, लगन, इश्क, मुसाफ़िरी- संज्ञा, सी० (ग्र०) मुसाफिर लो। " मुहब्बत भी नहीं खाली है कातिल होने की दशा, प्रवास, यात्रा। की अदावत पे"--जौक । मुसाहब, मुसाहिब- पंज्ञा, पु० (अ०) राजा मुहम्मद-संज्ञा, पु० (अ० मुसलमानी मत या धनी का सहवामी, पार्वती निकटस्थ, के चलाने वाले घरब के एक धर्माचार्य । साथी । “कॅगला जहान के मुसाहिब के महम्मदी--रज्ञा, पु० (अ०) मुसलमान । बंगला में-"। मुहर-संज्ञा, स्त्री० दे० ( फ़ा. मोहर ) मुसाहबी- संज्ञा, स्त्री० (अ० मुसाहब : ई- अशरफी, मोहर, ठप्पा, छाप । प्रत्य० ) मुसाहब का पद या कार्य । महरा-संज्ञा, पु० दे० ( हि० मुंह- रामुसीबत -- संज्ञा, स्त्री० अ०) आपत्ति, संकट, प्रत्य०) मोहरा, पागा, सामना, श्रागे या कष्ट, विपत्ति । सामने का भाग । “गरुधर मोहरा है मुस्क्यान-संज्ञा, स्त्री० दे० ( हि.. चौड़ा का मंत्री जौन पिथौरा क्यार' - मुसकराहट ) मुसकुराहट, मंद हँसी । अल्हा० । मुहा० -अहरा लेना--मुकाबिला मुस्टंड, मुस्टंडा - वि० दे० । सं० पुष्ट ) या सामना करना ! शतरंज की गोट घोड़े हृष्ट-पुष्ट, मोटा-ताज़ा, गुंडा, बदमाश, के मुँह का एक साज, मुख, प्राकृति, मुचंड, मुचंडा (दे०)। निशाना, विलका द्वार । मुस्तकिल - वि० (अ. दृढ़ स्थिर, अटल, महरी, मोहरी---- संज्ञा, स्रो० ( हि. मोहरा) मज़बूत, कायम, पक्का । छोटा मोहरा, बंदूक का मुँह । मुस्तगीम- संज्ञा, पु० (अ.) इस्तग़ाया या मुहर्र--संज्ञा, पु० (श्र०) अरबी वर्ष का अभियोग लाने या मुकदमा चलानेवाला। प्रथम मान, इमाम हुसेन के शहीद होने मुस्तशना-वि० (अ.) अपवाद-स्वरूप, का महीना । अलग किया हुआ, मुस्तसना (दे०)। मुहर्रमी-- वि० (८० मुहर्रम + ई-प्रत्य० ) For Private and Personal Use Only Page #1441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मुहरिर १४३० मँज मुहर्रम का, मुहर्रम-सम्बन्धी, शोक सूचक मुहिं मोहिं * - सर्व० दे० (हि. मुझे) या व्यंजक, मनहूस । । मुझे मुझको, मेरे हेतु। मुहरिर - संज्ञा, पु० (अ.) मुंशी, लेखक। महिन--संज्ञा, स्त्री० (१०) बड़ा या कठिन मुहर्रिरी संज्ञा, स्त्री. (अ.) मुहर्रिर का कार्य, युद्ध संग्रान, लड़ाई, पाक्रमण, काम लिखने का कार्य । चढ़ाई। मुहल्ला-संज्ञा, पु. (म०) मुहाज, थेला। महः-- अव्य. (सं०) बार बार । यौ० महसिल--वि० दे० ( अ० मुहासिल ) मुहुर्मुहुः। उगाहने वाला, तहसील-वसूल करने वाला । महर्त-संज्ञा, पु. (सं०) गत-दिन का ३० मुहाँसा - संज्ञा, पु. (दे०) मुंह पर के वाँ भाग, दो घड़ी का समय, साइत, अच्छे छोटे छोटे जवानी-सूचक फोड़े महासा ।। काम करने का पत्रे से विचार कर निकाला मुहाफिज -- वि० (म०) संरक्षक, रखवाला, हुआ नियत समय ( फ० ज्यो. , महूरत, हिफाज़त करने वाला ! " मुहाफ़िज़ है | मुहरत (दे०)।" लगन मुहूरत जोग बल" खुदा जानो सफर को "-रकु०। - तु०। मुहार-संज्ञा, पु० (दे०) द्वार, दरवाजा, मैंग - संज्ञा, स्त्री० पु० दे० सं० झुग्द ) एक मोहार (दे०)। भनाज जिसकी दाल बनती है, मुगदाली। महाल-वि. (प्र०) असंभव, दुस्साध्य, मंगफली - संज्ञा, नी० (हि.) एक बेल दुष्कर, कठिन । संज्ञा, पु. (अ. महाल ) | जिसकी खेती हती है इसके फल खाये महाल, मुहल्ला, टोला। जाते हैं, चिनिया बादाम । मुहाला- संज्ञा, पु० दे० हि० मुंह पाला- मूंगा--संज्ञा, पु० दे० ( हि० मूग ) प्रवाल, प्रत्य० ) पीतल की वह चूड़ी जो शोभार्थ विद्म, समुद के कृमियों की लाल ठठरी हाथी के दाँतों के भागे पहनाई जाती है। जिसे रन मानते हैं, एक वृत्त । मुहावरा--संज्ञा, पु. (०) बोलचाल, पूँगिया--वि० दे० (हि. मूंग + इया - रोजमर्रा, अभ्यास, ऐमा प्रयोग या वाक्य प्रत्य० ) हरा रंग, मंग के रङ्ग का मूंगे के जो लक्षणा या व्यंजना से सिद्ध हो और एक से रङ्ग का। संज्ञा, पु. एक प्रकार का हरा ही भाषा में प्रयुक्त होकर प्रगट (वाच्यार्थ रङ्ग । या अभिधार्थ ) अर्थ से भिन्न या विलक्षण मूंछ - संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० श्मश्र ) पुरुषों अर्थ दे जैसे --नौ दो ग्यरह हो गया = भग के ऊपरी श्रोठों के बाल, मुच्छ, माक, गया। मोटा (दे०) । मुहा० --मूछ उखाड़ना-- मुहासिब--संज्ञा, पु. (अ.) गणितज्ञ, घमंड मिटाना । मूंछों पर ताव देनाहिसाबी, जाँच करने या हिसाब लेने वाला, घमंड से मूछ मरोड़ना मनीची कोतवाल । होना-- घमंड टूटना, अनादर या अप्रतिष्ठा मुहासिवा- संज्ञा, पु० (अ.) लेखा, हिसाब, होना। पूँ छ-ताँछ, जाँच-पड़ताल । ही---संज्ञा, स्रो० (दे०) एक तरह की मुहासिरा-संज्ञा, पु० (अ०) चारों ओर से बेसन की कदी।। किले या शत्रु को घेरना घेरा: मज-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० मंज ) विना मुहासिल-संज्ञा, पु० (अ०) श्रामदनी, ! टहनयों के पतली-लंबी पत्तियों वाला आय, मुनाना, लाभ । एक तरह का तृण । For Private and Personal Use Only Page #1442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - १४३१ मूत्रकृच्छ मुंजी-संज्ञा, स्त्री. (दे०) मौंजी (सं०) मूजी- संज्ञा, पु. (अ.) कष्ट पहुँचाने वाला, मुंज का जनेऊ । | खल, दुष्ट, कंजूष । "माले मूज़ी से मुंडा-संज्ञा, पु० दे० (सं० मुंड) सिर, तनफफुर श्रादमी को चाहिये"-- ज़ौक । शीरा । मुहा०-मूड़ मारना-बहुत मूठ, मूठि-- संज्ञा, स्रो० दे० (सं० मुष्टि) हैरान या परेशान होना, अति प्रयत्न या मूठी (दे०) मुट्ठी, मुष्टि, हत्या, किसी श्रम करना। मुंडमुड़ाना- संन्यासी होना। हथियार या प्रौज़ार का दस्ता, मुठिया, मूंड मुंडाय भये सन्यापी" बॅट, कब्जा, मुट्ठी में सामने वाली वस्तु, मुंडन-संज्ञा, पु० दे० (सं० मुडन ) मुंडन, एक तरह का जूत्रा, टे ना, जादू । "बीर चूड़ा-करण संस्कार । मूठ मारी कै अबीर मूठ मारी है ".. रसाल) मूड़ना-स० क्रि० (सं० मुंडन ) सिर के मुहा०-मूट चलाना या मारना - जादू सब बाल बनाना, हजामत करना, हर लेना, करना । मुठ लगना-टोने या जादू का धोखा देना, बाल उड़ा लेना, ठगना, प्रभाव होना। छलना, चेला बनाना (साधू) । " मूंडन मूठना*---अ० क्रि० दे० (सं० मष्ट ) विनष्ट को मूड पाप हु को मूंद लेते हैं-द्वि० । होना। मुंडा-संज्ञा, पु० (दे०) तादाद, संख्या, ! मुठी* --संज्ञा, स्त्री० दे० ( हि० मुट्टी ) मुष्ठि, किता। मुट्ठो, मुट्ठी भर अन्नादि। मूंडी-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० मुड) सिर, मुह- संज्ञा, पु० दे० (सं० मुड ) मूंड, सिर । बिना सींग का मादा, पशु । लो०-"मूडी मूडना -- स० क्रि० (हि.) मूंडना संज्ञा, पु. बछिया सदा कलोर" (दे०) मूंडन । मंदना-स० कि० दे० ( सं० मुद्रण ) ढाँकना, मढ-वि० (सं०) मूर्ख, विमूढ । स्तब्ध, मंद आच्छादित वरना, बंद करना द्वार या मुँह बद करना द्वार या मुह बुद्धि, टगमारा। " ज्ञानी मूढ़ न कोय " प्रादि को किसी वस्तु से बंद कर रोकना। -रामा० । संज्ञा, स्त्री-मूढ़ता । स० रूप मैंदाना, प्रे» रूप सुंधाना । मूढगर्भ - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) गर्भस्रावादि, मूक-वि० (सं०) गूंगा, अवाक, विवश गर्भ का बिगड़ना। मौन, लाचार । संज्ञा, स्त्री०-मूकना। मूढ़ता-संज्ञा, स्त्री. (सं०) मूर्खता, बेवकूफी। "मूकं करोति वाचालम् "- स्फु० । “मूक मूढ़ात्मा-वि• यौ० (सं०) मूर्ख, अज्ञान, होय बाचाल"- रामा। जहात्मा। मुकता-संज्ञा, स्त्री. (सं०) गूंगापन, मूत--संज्ञा, पु० दे० (सं० मूत्र) मूत्र, पेशाब, मौनता। मूकना*-स० कि० दे० (सं० मुक्त) मुत्ती (दे०)। मूत के हम भी मून के तुम छोड़ना, तजना, त्यागना, दूर करना, __ भी मूत का सकल पसारा है"..- कबी० । बंधन से मुक्त करना। महा-मूत का दिया जलना---बड़ा मूका-ि--ज्ञा, पु० दे० (सं० मूपा - गवाक्ष) ऐश्वर्य या प्रताप होना। मोखा, झरोखा । संज्ञा, पु० मुक्का, घूसा। मूतना-अ० कि० दाह०, पशाब मृतना-अ० कि० दे० (हि०, पेशाब करना। मुखना* - स० कि० दे० (सं० मूषण )। मुहा० - मूतना बंद करना बहुत मूसना, चोरी करना। हैरान करना मूचना*-२० क्रि० दे० (हि. मोचना) मूत्र--संज्ञा, पु० (सं०) पेशाब, मूत । मोचना, छोड़ना। मूत्रकृच्छ-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) कष्ट से For Private and Personal Use Only Page #1443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मूत्राघात १४३२ मर्तिमान रुक रुक कर पेशाब होने का एक रोग (दे०)। " भूरुख को पोथी दयी, बाँचन को गुनगाथ".--वृ०। मूत्राघात—संज्ञा, पु० यौ० (२०) मूत्र के एक मूर्ख- वि० (सं०) मूढ़, अज्ञ, बेसमझ । जाने वाला रोग, पेशाब का बंद होना। "किं कारणं भोज भवामि मूर्खः"-भोज०। मूत्राशय---संज्ञा, पु० यौ० (सं.) नाभि-तले, मूता - संज्ञा, स्त्री० (सं०) बेसमझी, मूढ़ता। मत्र संचित रहने का स्थन, साना, सूर्खत्व संज्ञा, पु. (सं.) मूर्खता, मूढ़ता। फुकना (प्रान्ती०)। मूर्खिनी-संज्ञा, स्त्री. (सं० मूर्ख) मूढा स्त्री। मूना-प्र० कि० दे० (सं० मृत) मुवना, | मूर्छन--संज्ञा, पु० (सं.) अचेत या मूर्थित मरना । धरना । संज्ञा-हीन होना, एक मरनमूर --संज्ञा, पु० दे० ( सं० मूल ) मूल, । वाण बेहोश करने का प्रयोग या मंत्र, पाराजड़, मूलधन, मूलनक्षत्र, जड़ी, मूरि (दे०)। शोधन में तृतीय संस्कार (वैद्य०) । "साँचे हीरा पाइथे, इँटे मूरौ हानि"- मूछना- संज्ञा, स्त्री. (सं०) एक ग्राम से कबी। दूसरे तक जाने में स्वरों का उतार-चढ़ाव मुरख -वि० दे० (सं० मूर्ख ) बेसमझ, (संगी०) . अ० क्रि० (दे०) अचेत होना या अज्ञानी, मूर्व । संज्ञा, सी० मूरखता। करना। "मूरख हिये न चेत"--तु। मू -- संज्ञा, स्त्री० (सं०) बेहोशी, अचेत मृरखताई* ---संज्ञा, खी० दे० (सं० मूर्खना) होना, संज्ञा-हीनता, निश्चेश्ता. मुर्दा, मूर्खता, बे समझी, अज्ञानता। मुरबा, मुरडा (दे०) । "मूर्छा गयी मृरचा-संज्ञा, पु० दे० (फा० मोरचा ) । पवनसुत जागा"-- रामा। जंग, लोहे का मैल, मोरया। संज्ञा, पु. मूर्छिन, मूनिधन - वि० (सं०) बेहोश, बेसुध, दे० ( फा० मोर चाल वह बाई जहाँ युद्ध अचेत, निश्चेष्ट, मरा हुआ ( पारा आदि में सेना पड़ी रहती है। संज्ञा, पु० दे० । धातु ), भूरछित, मुरछिन (दे०) । (फा० मोरचः ) चींटी। मृत-- वि. (सं०) प्राकार-युक्त, साकार, ठोस । ( विलो.--अमूर्त ।) मूरछना*---संज्ञा, स्त्री० दे० ( सं० मून्छ ना ) मूत्ति--संज्ञा, स्त्री. (सं०) गात, शरीर, एक ग्राम से दूसरे तक जाने में स्वरों का । सूरति, देह, श्राकृति, चित्र, प्रतिमा, विग्रह, उतार-चढ़ाव (संगी०) । संज्ञा, स्रो० ( सं० मूर्छा) मूर्छिन होना। मरति (दे०)। "मूर्ति थापि करि विधिवत पूजा"-- रामा। मूरदा -संज्ञा, स्त्री० दे० । सं० मूर्छा ) मूर्तिकार --- संज्ञा, पु० (सं०) मूर्ति या प्रतिमा मूळ, बेहोशो, मुरधा (दे०)। बनाने वाला, चित्र बनाने वाला। मृरत, मूरति -संज्ञा, सी० दे० (सं० मुत्तिपूजक - संज्ञा, यु. यौ० (सं०) प्रतिमा मूर्ति ) प्रतिमा, शरीर, प्राकृति । ' मूरति या मृत्ति में ईश्वर का देवता की भावना मधुर मनोहर जोही"-- रामा। कर उसकी पूजा करने वाला। मरतिवंत *-----वि० दे० ( सं० मर्ति - वन्- मन्तिपूजा- संज्ञा, सी० यौ० (सं०) प्रतिमा. प्रत्य० ) मूरतवान, देहधारी, मूतमान् ।। पूजा. प्रतिमा में देव भावना कर उसकी मुरध-संज्ञा, पु० दे० (सं० मूर्द्धा ) शिर।। पूजा करना। मूरि, मूरी*-संज्ञा, स्त्री० दे० ( सं० मूल ) मूर्तिमान--वि० (सं०) प्रत्यक्ष, शरीरधारी, जड़, मूल, बुटी, जड़ी। सदेह जो रूप धरे हो, साकार, साक्षात् । मूरुख -वि० दे० (सं० मूर्ख) मूर्ख, मरख ! खी०-मतिमती । For Private and Personal Use Only Page #1444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org १४३३ मूर्द्ध - संज्ञा, पु० (सं० मूर्द्धन् ) सिर, मूँड़ । मूर्द्धकर्णी संज्ञा, स्त्री० (सं०) छाया के निमित्त सिर पर रखी वस्तु । मूर्द्धकपारी - संज्ञा, खी० (सं०) सिर पर छाया के निमित्त रखा हुआ वस्त्रादि । मूर्द्धज - संज्ञा, पु० (सं०) सिर के बाल, केरा । " रूक्षता मूर्द्धजानाम् " - स्फुट० । मूर्द्धन्य - वि० सं०) मूर्द्धा से संबंध रखने बाला, ललाट में स्थित | मूर्द्धन्यवर्ण - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) मृर्धा से उच्चरित होने वाले वर्ण, जैसे--ऋ, ऋ, ट, ठ, ड, ढ, ण, और " ?...-.. मूडी - संज्ञा, पु० (सं० मूहून् ) सिर, मुख के भीतर तालु के पश्चात् का भाग । 'ऋटुरषानाम्मूर्द्धा सि० कौ० । मूर्द्धाभिषेक संज्ञा, पु० यौ० (सं०) सिर पर अभिषेक या जल सिंचन । वि० - मूर्द्धाभि पिक । मूर्षा - संज्ञा, स्त्री० (सं०) मुरहार, मरोड़फली (चौष ० ) । मूल -- संज्ञा, पु० (सं०) वृक्षों की जड़, कंद, खाने योग्य जड़, (जैसे--शकरकंद), अदरख, प्रारम्भ का भाग, प्रारंभ, उत्पत्तिहेतु, आदि कारण, यथार्थ धन, पूँजी, बुनियाद नींव, ग्रंथकार का लेख या वास्तविक वाक्यादि जिस पर टीका टिप्पणी हो, १६वाँ नक्षत्र ( ज्यो० ) । वि० - प्रधान, मुख्य । मूलक - संज्ञा, पु० (स० ) मूली, मूल, जड़, मूलरूप | वि० – पिता, जनक, उत्पन्न करने वाला । "सकौं मेरु मूलक इव तोरी" - रामा० मूलद्रव्य -- संज्ञा, पु० यौ० (सं०) मुख्य या प्रधान पदार्थ या मूल सामग्री जिससे फिर और पदार्थ बने । मूत पदार्थ, मूलत्व | मूलधन - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) वह धन जो ऋण या उधार दिया जाये या किसी व्यापार लगाया जावे, पूँजी मूलपुरुष - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) वंश चलाने वाला थादि पुरुष | मा० श० को ० - १८० Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मूसर, मूसल मूलस्थली संज्ञा स्त्री० यौ० (सं०) पेड़ का थाला, श्रालबाल । मूलस्थल- मूलस्थान---संज्ञा, पु० यौ० (सं०) प्राचीन पुरुषों या बाप-दादों का स्थान, मुखप घर, प्राचीन मुलतान नगर । मूलस्थिति - संज्ञा, खो० यौ० (सं०) श्रादिम या प्रारम्भिक दशा | मूलाधार -- संज्ञा, पु० (सं०) मनुष्य - शरीर के भीतर के वै चक्रों में से एक चक्र, ( हठ योग० ) । मूलिका - संश, स्रो० (सं०) मूली, जड़ी । मूली, मूरी- संज्ञा, स्त्रो० दे० (सं० मूलक ) atri, मीठी और तीच्ण जड़ का पौधा, मूरी नामी जड़, जो कच्ची-पक्की खाई जाती है । मुहा०-- (किसी को) मूली- गाजर समझना बहुत ही तुच्छ समझना । मूलिका, जड़ी-बूटी । मूल्य - संज्ञा, (६० (सं०) क़ीमत, दाम, मोल (दे०), बदले का धन, महत्व । मूल्यवन्त, मूल्यवान् - वि० (सं०) क़ीमती, बहुमूल्य, अधिक या बड़े दामों का, वेशक़ीमत | सूप मूषक - पंज्ञा, पु० (सं०) चूहा, मूस, मूसा (दे० ) । " मूषक बाहन है सुत एक- " भूषण - संज्ञा, पु० (सं०) हरण, चोरी करना, मूना | वि० - मूपणीय, मूषित । मषा - संज्ञा, ६० (सं० मूपक ) चूहा, मूस | मूषिक संज्ञा, पु० द० ( सं० मूषक ) चूहा, पूसा खो० - भूपिका । 6 मूस मूसा मूसक संज्ञा, पु० दे० (सं० मूष, मूपक ) चूहा । 'मूपा कहत बिलार सों सुनरी जूठ जुटेल ” – गिर० । मूसदानी - संज्ञा, स्त्री० यौ० (हि० मूस + दानफा० ) चूहे फँसाने का पिंजड़ा । मूसना - स० के० दे० (सं० भूषण ) चुरा लेना, हर लेना । मूसर, मूसल - संज्ञा, पु० दे० (सं० मुशल ) For Private and Personal Use Only Page #1445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मूसलधार, मूसलाधार मृगांक धानादि कूटने का काठ का हथियार, बलराम मृगनयनी-संज्ञा, खो० (सं०) मृगनैनी, मग. का एक अस्त्र । वि० ( दे० व्यंग ) मूर्ख । लोचनी । मूसलधार-मुसलाधार-क्रि० वि० (हि०) मृगनाथ—संज्ञा, पु० यौ० (सं०) सिंह, बाघ । मूसल जैसी मोटी धार से (वर्षा), मृगनाभि-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) कस्तूरी। मुसराधार (दे०)। मृगनैनी - संज्ञा, स्त्री० दे० ( सं० मृगनयनी ) मूसला-संज्ञा, पु० दे० (हि० मूसल) शाखा- मृगनयनी, मगदृशी। “दे मगनैनी कि दे रहित सीधी और मोटी जड़, मुसरा (दे०)। मृगछाला"- स्फुट । ( विलो०-भाखरा।) मृगपति-संज्ञा, पु. (सं०) सिंह, मृगराज । मूसली-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० मुशली) एक मृगभद्र-संज्ञा, पु० (सं०) एक जाति का पौधा जिसकी जड़ औषधि के काम आती है। हाथी। मूसा-संज्ञा, पु० (इबरानी) .खुदा का नूर मृगमद-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) कस्तूरी, देखने वाले, यहूदियों के धर्म-गुरु या मृगम्मद (दे०) । " मृगमद बिंद घारु चटक पैग़म्बर, चूहा, मूस। दुचंद भयो"-रना। मूसाकानी-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० मूषाकर्णी, मृगमरीचिका - संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) एक लता जो औषधि के काम आती है। मृगतृष्णा । मृग-संज्ञा, पु. (सं०) पशु, जंगली पशु. मृगभित्र--संज्ञा, पु० यौ० (सं०) मृगसखा, हिरन, हाथियों की एक जाति, अगहन या चंद्रमा, मृगमीत (दे०)। मार्गशीर्ष मास, मकर राशे, मृगशिरा मृगमद-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) कस्तूरी। नक्षत्र ( ज्यो०), कस्तूरी की नाभि, चार मुगया--संज्ञा, पु० (सं०) आखेट, शिकार । प्रकार के पुरुषों में से एक (काम०) पिरिग, "मृगया न विगीयते नृपैरपि धर्मागममर्म मिरगा (दे०)। सी० --मृगी । “रामहि पारगैः । नैष । " वन मृगया नित खेलन देखि चला मृग भाजी"--रामा जाही'.- रामा०। मृगचर्म--संज्ञा, पु. यो. (१०) हिरन का मृगराज-संज्ञा, पु. यौ० (सं०) सिंह। चमड़ा, अजिन, मृग-छाला। "ठवनि जुवा मृगराज लजाये''-रामा० । मृगहाला-संज्ञा, स्त्री० द० यो० ( सं० मृगशाला ) भृगचर्म ( इसे पवित्र मानते हैं )। मृगरोचन----संज्ञा, पु० यौ० (सं०) कस्तूरी । "चारु जनेउ-माल, मृगछाला --रामा० । मृगलांछन ... संज्ञा, पु. यौ० (सं०) चंद्रमा । मृगजल-संज्ञा, पु. यौ० सं०) मृगतृष्णा " अंकाधिरोपित मृगश्चंद्रमा मृगलांछनः" --माघ। की लहरें । " मृगजल निवि मरहु कत. धाई"-रामा०। मृगलोचना, भृगलोचनी-वि० स्त्री० (सं०) भृगतृपा-मृगतृष्णा-संज्ञा, सी० यौ० सं०) मृगनयनी, हरिण के से नेत्रों वाली स्त्री। मृगजल, मृगमरीचिका, तेज़ धूप के कारण ___'मृगलोचनि तुम भीरु सुभाये"-रामा। प्रायः उसर मैदानों में जल को लहरों की मृगवारि-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) मृगतृष्णा प्रतीति या भ्राँति। का जल, मृगनीर । मृगदाव- संज्ञा, पु० यौ० (सं० मृग -- दाव - मृगशिरा, मृगशीर्ष-संज्ञा, पु० (सं०) २७ वन)काशी के समीप सारनाथ का पुराना नाम। नक्षत्रों में से श्वाँ नक्षत्र (ज्यो०)। मृगधर-संज्ञा, पु० (सं०) चंद्रमा। मृगांक-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) चन्द्रमा, मृगन-संज्ञा, पु० (सं०) खोज, तलाश । एक रस (वैद्य०)। For Private and Personal Use Only Page #1446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - देगाती मृषात्व मृगाक्षी- वि० स्त्री० यौ० (सं०) हरिण के से है, एक औषधि जो अनेक रोगों में चलती मेत्रों वाली। है संजीवनी ( वै० )। मृगाशन-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) सिंह, बाघ। मृताशौच-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) वह छूत मृगिन, मृगिनी* --संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० जो किसी संबंधी के मरने से लगती है। मृगी) हरिणी। मृत्तिका-संज्ञा, स्त्री० (सं०) मिट्टी, माटी, मृगी-संज्ञा, स्त्री० (२०) हरिणी, हिरनी, धूलि । करयप ऋषि की १० कन्यायों में से एक मृत्यंजय- संज्ञा, पु० (सं०) मृत्यु को जीतने बिससे मृग उत्पन्न हुए (पुरा० ), कस्तुरी, वाला, शिव जी। प्रिय नामक वर्ण वृत्त । पि०), अपस्मार रोग, मृत्यु--संज्ञा, स्त्री० (सं०) मरण, मौत, जीवात्मा मिरगी (दे०) । " मृगी देखि जनु दव चहुँ का देह-त्याग, यम । मोरा"-रामा० । मृत्युलोक-संज्ञा, पु. यौ० (सं०) यमलोक, मतेंद्र, मृगेश-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) सिंह। मर्त्यलोक, संसार । अन्य-वि० (सं०) अन्वेषणीय, अनुसंधान मृशा-वि० वि० दे० (सं० वृथा, मृषा) करने योग्य, दर्शन। व्यर्थ, था, नाहक, झूठ । मृजा-संज्ञा, स्री० (सं०) मार्जन, शुद्ध करण। मृदंग---संज्ञा, पु० (सं०) ढोलक-जै पा पखावज मृडा, मृडानी--संज्ञा, स्त्री० (सं०) दुर्गा जी बाजा।" बाजत ताल, मृदंग, झाँझ, डफ, मृणाल, मृगाली-संज्ञा, स्त्री० (सं०) कमल- मंजीरा, सहनाई"--कुं० वि० ला०। पाल, कमल का डंठल, भपीड़ा। “मदर्थ मृदव---संज्ञा, पु. (सं०) गुणों के साथ दोषों संदेश मृणालमंथरः"--नैष । की विरुद्ध ताबा विषमता दिखाना (नाव्य०)। मृणालिका- संज्ञा, स्रो० (सं०) कमलडंडी, मृदु - वि० (सं०) दयालु, नरम, कोमल, कमल नाल। मुलायम, सुकुमार, नाजुक, मंद, सुनने में मृणालिनी-संज्ञा, स्त्री० (सं०) कमलिनी, जो कर्कश या अप्रिय न हो। स्रो०-मृद्वी। यह स्थान जहाँ कमल हों। " बार बार मदु मुरति जोही" --रामा। मृत- वि० (सं०) मुर्दा, मरा हुआ। मृदुता---संज्ञा, स्त्री० (सं०) कोमलता, नम्रता, मृतकंबल-संज्ञा, पु० चौ० (सं०) कफ़न । सुकुमारता, मदता, मिठाई। मृतक-संज्ञा, पु० (सं.) शव, मरा हुआ मृदुल---वि० सं०) सुकुमार, नरम, कोमल, बीव. मुर्दा, निर्जीव । । कृपालु । संज्ञा स्त्री. मृदुलता। "मृदुल मृतककर्म-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) अंत्येष्टि मनोहर सुन्दर गाता''- रामा० । किया, प्रेत-कर्म । " पूरण वेद-विधान तें । मृनाल* - संज्ञा, पु० दे० ( सं० मृगाल ) मृतक-कर्म सब कीन्ह ".---रामा० । कमलनाल। " तो शिव-धनु मृनाल की मृतकधूम--संज्ञा, पु. यौ० (सं०) राख, नाई -रामा० । भस्म, शवदाह का धूम। मृन्मय---वि० सं०) मिट्टी से बना हुआ। मृतजीवनी- संज्ञा, सो• यौ० (सं०) एक सपा-अव्य० (सं०) व्यर्थ, झूठ । वि०विद्या जिसके द्वारा मुर्दा जिला दिया जाता असत्य, झूठ, व्यर्थ । " मृषा होहु मम साप कृपाला।" " मषा मरहु जनि गाल बजाई' मृतसंजीवनी-संज्ञा, सो० यौ० (सं.) एक ---रामा० ही जिसके खाने से मुर्दा जीवित हो जाता मृषात्व--संज्ञा. पु० (सं०) मिथ्यात्व । For Private and Personal Use Only Page #1447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org मृषाभाषी मृषाभाषी - वि० यौ० ( सं० मिषा भाषिन् ) झूठा, लबार असत्यवादी । मृट - वि० (सं०) शोधित, शुद्ध । सृष्टि - संज्ञा, स्त्री० (सं०) शोधन । में - अव्य० दे० (सं० मध्य ) अवस्थान या धार- सूचक शब्द अधिकरण का चिह्न जो भीतर या चारों श्रोर का अर्थ देता है ( व्या० ), मैं ( ० ) । मँगनी - संज्ञा, स्त्रो० दे० ( हि० मींगी ) भेड़, बकरियों आदि पशुओं की छोटी गोली जैसी विष्टा, लेंडी । मेंड़ संज्ञा, स्त्री० (दे०) बाँध, शाड़, घेरा । मेंडकी - संज्ञा, स्त्री० (दे०) मेढकी । पु० मेंडक | मेकल - संज्ञा, पु० (सं० ) विंध्याचल का अमरकंटक वाला खंड | १४३६ मेघ - संज्ञा, पु० (सं० ) श्राकाश में वृष्टिकारक घनीभूत वाप्प, बादल छः रागों में से एक राग ( संगी० ) । मेघडंबर - संज्ञा, पु० [सं० दल बादल, बादलों की गर्जन, बड़ा शामियाना । मेघनाद - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) मेघ गर्जन, बरुण, रावण का जेष्ठ पुत्र इन्द्रजीत, Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मोर, मयूर गयो प्रकाश रामा० । मेवपति - संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) मेघनाथ, Here, nar इन्द्र | मेघपुष्प - संज्ञा, पु० (सं०) इन्द्र का बोड़ा, श्रीकृष्ण के रथ का एक घोड़ा । मेघमाला - संज्ञा, श्री० यौ० (सं०) बादलों की घटा, कादंबिनी, मेघमाल, मेघावलि । मेत्रराज - संज्ञा, पु० यौ० ( सं० ) इन्द्र | मैत्रचरण- मेघवर्ण - संज्ञा, पु० यौ० ( सं० ) मेघके से श्याम रंग का, घनश्याम, श्रीकृष्ण जी ! विश्वाधारं गंगन सदृशं मेघवर्णं शुभांगम् " - स्फु० 66 मेघवर्त्त - संज्ञा, पु० (सं०) प्रलय के बादलों में से एक, प्रनयाद । hari - संज्ञा स्त्री० दे० ( हि० मेघ + वाई - प्रत्य० ) बादलों की घटा । मेघविस्फूर्जिता - पंज्ञा, स्त्री० (सं० ) एक वर्णिक छंद (पिं० ) । मेख - संज्ञा, पु० दे० ( सं० मे) भेंड़ी, प्रथम राशि | संज्ञा, स्त्रो० (फ़ा० मेख ) खूँटी, खँटा, कीला, कील, काँटा । 66 मेखल -- संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० मेखला ) मेघा)- पंज्ञा, पु० दे० (सं० मेघ) बादल, मेंढक । मेखला । मेघागम - संज्ञा, पु० (सं०) वर्षा ऋतु, वर्षामेखला - संज्ञा, स्रो० (सं०) किंकणी, करधनी, काल, बरपात जलदागम । मेघागमे कटिसूत्र, तगड़ी, किसी वस्तु के मध्य भाग किं कुरुते मयूरा" - स्फु० । को चारों ओर से घेरने वाली वस्तु डंडे मेघादन- मेघाच्छादित - वि० यौ० आदि के सिरे पर लोहे का गोलबंद, पहाड़ (सं०) मेघों से ढक या छाया हुधा । का मध्य खण्ड, गले में डालने का वस्त्र मेघाव -- संज्ञा, पु० (सं० ) मेघ-मार्ग, घन( साधु ) अलफी, कफनी । पथ, प्रकाश, अंतरित | मेखली - संज्ञा, स्रो० दे० ( सं० मेखला ) मेघावरि- मेघावलि - मेघावली -संज्ञा, खो० एक पहनावा जिससे पेट और पीठ ढकी दे० (सं० मेत्रावलि ) बादलों की घटा. रहती है और हाथ खुले रहते हैं, कटिबंध, Harai (दे०) | करधनी । मेज़ "मेघनाद माया विरचि रथ चदि "" मेचक संज्ञा, पु० ( सं० ) श्याम या काळाचर्ण । For Private and Personal Use Only मेचकता - संज्ञा, स्रो० (सं० ) कालापन | मेचकताई - संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० मेचकता । कालापन, मेचकता. श्यामता । प्रभु सहिँ कताई" - रामा० । मेज- संज्ञा, स्त्री० ( का० ) पढ़ने-लिखने की लंबी, चौड़ी और ऊँची चौकी, टेवुल (अं० ) । " Page #1448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १४३७ मेय टा मेज़पोश मेजपोश---संज्ञा, पु० चौ० ( फा० ) मेज पर मेथौरी-संक्षा, स्त्री० दे० (हि. मेथी + वरी) बिछाने का वस्त्र । । मेथी के साग की बरी, मिथौरी (दे०)। मेज़बान-संज्ञा, पु० ( फा० ) प्रातिथ्यकार, मेद-- संज्ञा, पु. ( सं० मेदस्, मेद ) बसा, मेहमानदार । संज्ञा, को.-मेजबानी। चरबी, ची, या मोटेपन की अधिकता, मेजा-संज्ञा, पु० दे० ( सं० मंडूक ) मंडूक, कस्तूरी। मेढक । मेदा-संज्ञा, स्त्री. (सं० ) एक औषधि । मेट--संज्ञा, पु० ( अ ) मजदूरों का सरदार संज्ञा, पु० (१०) उदर, पाकाशय ।। या अफ़सर, टंडेल, जमादार, मेट (दे०)। भेदिनी- संझा, स्त्री. ( सं०) बसुधा, धरती, मेटक* -संज्ञा, पु० दे० (हि० मेटना ) पृथ्वी अवनि, भूमि, वसुमती।। बिनाशक, मिटाने वाला। मेव--संज्ञा, पु. ( सं० ) यज्ञ । यौ० अश्वमेटनहार-मेटनहारा*/- संज्ञा, पु० दे० मेध। ( हि० मेटना + हारा --प्रत्य० ) मिटाने या | मेघा .. संज्ञा, स्त्री. ( सं०) स्मरण रखने मिटने वाला, दूर करने वाला, मटया । की शक्ति, धारणाशक्ति, बुद्धि, ज्ञान, सोलह (ग्रा० ) । “ विधि-कर लिखा को मेटन- मालाओं में से एक, छप्पय छंद का एक हारा "-रामा। । भेद (पि.। मेटना ----स० कि० दे० (हि० मिटाना) मेधातिथि--एज्ञा, पु. ( सं०) मनुस्मृति मिटाना, बिगाड़ना। के प्रसिद्ध टीकाकार। मेटिया-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. मटकी) मेधावनी-दशा, स्त्री० (सं०) बुद्धिमती, मटकी, माट। एक लता। मेड़-संज्ञा, पु० दे० ( सं० मिति ) छोटा मेधावी-वि. ( सं० मेधाविन् ) तीव धारणा बाँध, घेरा, दो खेतों की सीमा या हद, शक्ति वाला, ज्ञानी, चतुर, बुद्धिमान, विद्वान, मर्यादा। पंडित । स्त्री० मेवाविनो। मेड़रा-संज्ञा, पु० दे० (सं० मंडल ) मेध्य - वि० (२०) पवित्र, पुनीत । गोला, मण्डल । स्त्री० अल्पा० --मेडरी। मेनका संज्ञा, स्रो० ( सं०) स्वर्ग की एक मेडिया-संज्ञा, स्त्री० दे० सं० गंडप) मढ़ी अप्सरा, पार्वती की माता, मेना। मेढक --संज्ञा, पु. (दे०) मेंडक, महक (सं.)। मेना-~-संज्ञा, स्त्री० दे० ( सं० मेनका ) पार्वती दादुर, स्त्री० मेढकी। की माता । २० क्रि० दे० (हि. मायना) मेढ़ा-संज्ञा, पु० दे० ( सं० मेढ = भैम के पकवान में मोयन डालना। " उवाच मेना तुल्य ) भेड़-बकरे की जाति का घने बालों परिरम्यवनशः ''-कुमा० । वाला एक सींगदार छोटा चौपाया, भेड़ा, मेस-लंज्ञा, स्त्री० दे० ( अ. मैडम ) यरुप मेष । | या अमेरिका प्रादि की स्त्री, बीबी, ताश का मेदासिंगी-संज्ञा, खो० दे० ( सं० मेडगी) एक पत्ता, रानी। एक झाड़ीदार लता जिसकी जड़ औषधि मेमना-संज्ञा, पु. ( अनु० में में ) भेड़ का के काम आती है। बच्चा, घोड़े की एक जाति । मेढ़ी-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० वेणी ) तीन मेमार-संज्ञा, पु० ( ० ) राज, थवई, लड़ियों में गुंधी हुई चोटी। (प्रान्ती० ) इमारत बनाने वाला। मेथी-संज्ञा, स्त्री. ( सं० ) एक औषधि । मेय-वि० (सं०) जो नापा जा सके, थोड़ा। (मसाला) । परिमेय पुरः सरौ"-रघु० । For Private and Personal Use Only Page #1449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मेयना मेवासी मेयना--स० कि० दे० (हि. मोयना) डालना, रखना, मिलाना, पहनाना । अ० पकवान में मोयन डालना। क्रि० (दे०) एकत्रित या इकट्ठा होना । मेर* --संज्ञा, पु० दे० ( सं० मेत ) मिलाप, मेला-संज्ञा, पु० (सं० मेलक ) देव दर्शन, संयोग, समागम, एकता, मैत्री, संगति, उपवादि के लिये मनुष्यों का जमाव, भीड़, साथ निभना, प्रकार, समता, बराबरी, ढंग जमघट। स० भू० स० क्रि० (दे०) मेलना, जोड़, मिलावट, मेल। डाला। मेरवना-स० कि० दे० (सं० मेलन ) मेलाठेला-वा० ( हि० ) भीड़भाड़, जमाव, जमघट । मिलाना, संयोग या मिश्रित कराना। | मेलाना--- स० कि० दे० (हि. मिलाना) मेरा- सर्व० (हि. मैं । रा--प्रत्य० ) मैं का संबंधकारक में रूप, मदीय, मम । मिलाना, एकी भाव करना, फेंकाना । मेली--संज्ञा, पु. (हि. मेल + ई प्रत्य०) खो० मेरी । संज्ञा, पु० दे० ला, जमाव, साथी, संगी. मित्र, दोस्त, मुलाकाती। भीड़। यौ०-- हेली-मेली, मेली-मुलाकाती। मेराउ-मेरावा--संज्ञा, पु० दे०। हि. मेर = वि० (दे०) शीघ्र हिल-मिल जाने वाला। मेल ) मेल, समागम, भेंट, मिलाप । संज्ञा, सा० भ० स्त्री० स० कि०-डाली। " मेली स्त्री० (दे०) अभिमान । " गहन छूट दिन कंठ सुमन की माला "-रामा० । भरकर ससि सो भयो मिराउ"-पद्मा। iii_० कि. (दे०) बेचैन या विकल मेरी-संज्ञा, स्त्री० (हि. मेरा) दीया । __ होना, छटपटाना, थानाकानी करके समय मेरु-संज्ञा, पु. (सं०) हेमाद्रि, सुमेरु, बिताना, मेल्हराना (दे०)। जो सोने का है (पुरा०) जयमाला के बीच ! मेव - संज्ञा, पु. (दे०) राजपूताने की एक की गुरिया । एक प्रकार की गगना जिससे लुटेरी जाति, मेवाती, मेवा । ज्ञात हो कि कितने कितने लघु-गुरु के कितने मेवा-एंज्ञा, पु. ( फा. ) बादाम, छोहारे, छन्द हो सकते हैं (पिं० ।। " सात दीप किस्मिस श्रादि सूखे फल, उत्तम खाद्य वस्तु, नौ खंड हैं, मंदर मेरु पहार"--नीति ! यो०-सेवा-मिष्टान ।। मेरुदंड-संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) शरीर की मेवाटी - संज्ञा, स्त्री० दे० ( फ़ा० मेवा + बाटी रीढ़, पृथ्वी के दोनों ध्रुवों की मध्यगत एक हि० ) मेवा-भरा एक पकवान । सीधी कल्पित रेखा भू०)। | मेवाड़-संज्ञा, पु. (दे०) राजपूताने का एक मेरे.-सर्व० (हि. मेरा ) मेरा का बहु बचन, | प्रदेश जिसकी राजधानी चित्तौड़ थी। मेवात-संज्ञा, पु० (सं०) राजपूताने और सिंध (विभक्ति-युक्त संबन्धवान के साथ आता है।) ' के मध्य का प्रदेश (प्राचीन )। मेल-- संज्ञा, पु. ( सं०) मैत्री, मिलाप, मेवाती--संज्ञा, पु. (मं० मेवात-ई-प्रत्य०) समागम, संयोग, एकता, मित्रता, संगति, मेवात-निवासी भेवात में उत्पन्न , मेवात. दोस्ती, उपयुक्तता। यौ० मेल-जोल, मेल- संबंधी। मिलाप । मुहा०-मेल खाना, बैठना या मेवाफ़रोश-संज्ञा, पु० यौ० ( फा० ) मेवा मिलना-साथ निभना, संगति का उपयुक्त | बेचने वाला । संज्ञा, स्त्रो०-मेवाकरोगी। होना, दो पदार्थों का जोड़ ठीक बैठना। | मेवासा -संज्ञा, पु० दे० ( हि० मवासा) जोड़, टक्कर, प्रकार, समता, चाल, ढंग, कोट, गढ़, किला, रक्षा स्थान, घर । मिलावट, मिश्रण। मेवासी--संज्ञा, पु. ( हि० मेवाला ) घर का मेलना*-२० क्रि० दे० ( हि०) फेंकना स्वामी गद-निवासी, प्रबल और सुरक्षित । For Private and Personal Use Only Page #1450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org मेष मैथुन १४३६ मेष- संज्ञा, पु० (सं०) भेंड़, प्रथम राशि । | मेहरबानी - संज्ञा, स्त्री० [फा० ) कृपा, दया । मेहरा - संज्ञा, पु० (दे०) स्त्री सी चेटा वाला, जनखा, नपुंसक, खत्रियों की एक जाति, मेहरोत्रा । * मुहा० - मीन - मेत्र करना - धागा-पीछा करना, किंतु परन्तु करना । मीनमेघ निकालना थालोचना कर दोष निकालना । वृषण-संज्ञा, पु० (सं० ) इन्द्र | मेष संक्रांति - संज्ञा, त्रो० यौ० (सं०) सूर्य के मेष राशि में आने का योग या वर्षकाल ( ज्यो० ) । मेंहदी - संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० मेन्धी ) एक काड़ी जिसकी पत्ती से स्त्रियाँ हाथ-पाँव रंगती हैं। " बाँटन वाले के लगे, ज्यों मेहंदी को रंग" - रहो० | पु० मेंहदा बड़ी पत्तियों की मेहँदी । मेह - संज्ञा, पु० (सं०) मूत्र, प्रसव, प्रमेह रोग | संज्ञा, पु० दे० (सं० मेघ) मेघ, बादल. वर्षा, मेंह | संज्ञा, पु० (फ़ा०) वर्षा, बारिश, मड़ी, वृष्टि, बादल ! मेहतर - संज्ञा, पु० ( फ़ा० ) मुसलमान भंगी. हलाल खोर ! स्त्री० मेहतरानी । मेहनत - संज्ञा स्त्री० (अ० ) परिश्रम, प्रयास | यौ० - मेहनत-मशक्कत, मेहनत-मजूरी। मेहनताना- संज्ञा, ५० ( अं० + फा० ) पारिश्रमिक, किसी परिश्रम का फल या मज़दूरी मेहनती - वि० (अ०मेहनत + ई - प्रत्य० ) परि. श्रमी, उद्यमी । । मेहमान - संज्ञा, पु० ( फा० ) पाहुना, पाहुन, श्रतिथि। मेहमानदारी - पंज्ञा, स्त्री० (फ़ा०) श्रातिथ्य, अतिथि सत्कार, पहुनाई, पहुनई । मेहमानी संज्ञा, स्त्री० ( फ़ा० ) पहुनाई, प्रातिथ्य, अतिथि सत्कार । मुहा०- मेहमानी करना ( व्यंग्य ) - दुर्दशा करना, खूब गत बनाना, मारना, पीटना, सजा देना । मेहर, मेहरी- संज्ञा, स्त्रो० ( फा०) दया, कृपा संज्ञा, स्त्री० ( प्रा० ) - मेहरी, स्त्री, पत्नी, जोरू मेहरिया, मेहरारि, मेहरारू (प्रा० ) कहारिन । मेहरबान - वि० (का० ) दयालु, कृपालु । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मेहरार, मेहरारू - संज्ञा, खो० (ग्रा० ) स्त्री, पत्नी | मेहराब संज्ञा, खो० ( ० ) द्वार का श्रर्द्ध गोलाकार ऊपरी भाग वि० - मेहराबदार | मेहरी - संज्ञा, खो० (हि० मेहरा) स्त्री, जोरू, पत्नी, श्रौरत / " मेहरी बेहरी देहरी छूटी, वर्गे है प्रेम बढ़ाया" - कुंज० । मैं सर्व दे० (सं० अहं) उत्तम पुरुष सर्वनाम के कत्तीकारक में एक वचन का रूप ( व्या० ), खुद स्वयं, धाप, (श्रव्य ० ) ( ० ) । मै- अव्य० दे० हि० ( मय) मय । मैका - संज्ञा, पु० दे० ( हि० मायका) माँ घर या गाँव स्त्रियों का ), मका, माइक, मायका ग्रा० ) 1 मैगल - --संज्ञा, पु० दे० (सं० मदगल ) मस्त हाथी वि० - मस्त, मतवाला । मैजल - ज्ञा स्त्री० दे० ( ० मंजिल ) यात्रा, पड़ाव, मंजिल, सराय, खंड । मैत्रायणि --- रुज्ञा, पु० (सं०) एक उपनिषद् । मैत्रावरुणि - सज्ञा, पु० (सं० ) मित्र और वरुण के पुत्र अगस्त्य | मैत्री - संज्ञा, खो० (सं०) मित्रता, दोस्ती । मैत्रेय - संज्ञा, पु० (सं०) एक ऋषि, ( भाग०), सूर्य आगे होने वाले एक बुद्ध (बौद्ध० ) । मैत्रेयी - संज्ञा, स्त्री० (सं०) याज्ञवल्क्य की स्त्री, ग्रहल्या । मैथिल - वि० (सं० ) मिथिला देश का, मिथिला संबंधी ! " मागत्रं मैथिलं विना " - का० वं० । संज्ञा, पु० मिथिला निवासी । मैथिली - संज्ञा स्त्री० (सं०) सीता, जानकी । "त्रिभुवन जय लक्ष्मी मैथिली तस्य दारा" । ह० ना० । संज्ञा स्त्री० - मिथिला प्रान्त की भाषा | वि० मिथिला-संबंधी । मैथुन - संज्ञा, ५० (सं०) संभोग, रति-क्रीड़ा, For Private and Personal Use Only Page #1451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मैदा १४४० मोंछ, मोंका पुरुष का स्त्री के साथ समागम, भोग, स्त्री- मैमा-संज्ञा, स्त्री० (दे०) विमाता, सौतेली प्रसंग, विषय, संभोग। माता, मइय्या (मा.) माता। मैदा-संज्ञा, पु. (फा०) बहुत महीन श्राटा। मैया-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० मातृका! माँ,माता. मैदान--संज्ञा, पु. ( फ़ा० ) लम्बा-चौड़ा महतारी, सइय्या (ग्रा०) । " कहै कन्हैया सपाट या समतल भूमि, क्रीडा स्थल । “यहि ! सुनो नपोदा मैया धीरज धारौ” - लाल। विधि गये गम मैदाना"-- रामचं० । मुहा० मेरा-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० मृदर प्रा० मिअर -.-मैदान में प्राला (उतरना)-सामने क्षणिक) साँप के विष की लहर । थाना । मैदान साफ़ होना (करना)- मैरा-संज्ञा, पु. ( ग्रा०, प्रान्ती. ) खेत में कोई बाधा न होना ( बाधा हटाना), मचान । शत्रुओं को रण में मार डालना या भगाना! भैल-संज्ञा, पु० दे० ( सं० मालिन ) मल. मैदान मारना - बाज़ी जीनना, रण या गंदगी, गर्द गुबार । महा०-हाथ-पैर का युद्ध क्षेत्र । मुहा०—मैदान करना - __ मैल-तुच्छ वस्तु विकार, दोष । मुहा० संग्राम करना, लड़ना। मेदान मारना -(किसी के प्रति ) मैल रखना (मन ( पाना)-युद्ध में, विजय प्राप्त करना । में ) शत्रुता या द्वेष रखना । मैदान लेना -- रण-क्षेत्र में शत्रु का सामना मैलखोरा-वि० यौ० (हि० मैल --- ख़ोर-फा ) करना, जीतना। जिस पर मैल शीघ्र न जमे तथा जान न पड़े। मैन-संज्ञा, पु० दे० (सं० मदन ) कामदेव, मैला - वि० दे० (सं० मलिन, प्रा. मइल ) मदन, मोम, मयन (दे०)। गंदा, मलिन, अस्वच्छ, गंदा. दूषित, सवि. मैनका-संज्ञा, स्त्री० (दे०) मेनका, अप्परा। कार, दुगंध-युक्त। संज्ञा, पु०-गलीज, कूड़ा. मैन फल-सज्ञा, पु० दे० यो० (सं० मदनफल) कर्कट, मल, विष्ठा । मुहा०-मन मैला एक वृक्ष और उसका फल ( श्रौषधि )। करना-उदासीन होना । “ परसत मन मैनसिल--- संज्ञा, स्त्री० दे० (स० मनः शिलः) । मैला करै” -रही। पत्थर जैसी एक औषधि ।। | मैला-कुचैला--वि० यौ० (हि० मैला+ मैना-संज्ञा, स्त्री० दे० ( सं० मदना ) श्याम ! | कुचैला = गंश वस्त्र-सं० ) मैले कपड़े वाला, __बहुत ही मैला या गंदा । रंग का एक पक्षी जो सिखाने से मनुष्य की | मैलापन-संज्ञा, पु० (हि० मैला --- पन-प्रत्य०) बोली बोलता है, सारिका । संज्ञा, स्त्री० दे० मलिनता, गदापन । ( सं० मैना, मैनका ) पार्वती की माता। मैहर-मइहर -- संज्ञा, पु० (दे०) घी में मिला "हिसगिरि संग बनी जनु मैना'- रामा० । महा। मेनका अप्सरा । संज्ञा, पु० (दे०) राजपूताने मों* --- अव्य० दे० (हि० में, मैं । सर्व दे० की मीना नामक एक जाति । (सं० मम ) मेरा । “कहा भयो जो वीछुरे, मैनाक- संज्ञा, पु. (सं०) एक पहाड़ जो मों मन तो मन साथ '-- वि० । विभ० हिमालय का पुत्र कहाता है । (पुरा०) हिमा- (ब्र०) में (अधिवारण)। लय की एक चोटी । “तुरत उठे मैनाक तब" मोगरा-संज्ञा, पु० दे० (हि. मोगर) मोगरा. - रामः। फूल, मुंगरा (प्रान्ती० )। मैनावली-संज्ञा, स्त्री. (०) एक वणिक, मोगरी-मगरी-संज्ञा, स्त्री० (प्रान्ती०) कूटने छंद, (पिं० )। । को लकड़ी का एक बेलन ।। मैमंत*-वि० दे० ( सं० म्दमत ) मदमत्त, मांद, मांडा--संज्ञा, स्त्री० दे० (हि० मूंछ) मतवाला, मदोन्मत्त, अभिमानी। । मूंछ, मुच्छ, म्बाछा (ग्रा.)। For Private and Personal Use Only Page #1452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मोटा MANORA MR मोढ़ा १४४१ मोंढा-संज्ञा, पु० दे० । सं० भूर्दा) बाँस पु० दे० (सं० मेोचन ) बाल उखाड़ने की आदि का बना, एक ऊँचा गोल थान, कंधा। चिमटी। मो*-सर्व० अ० ब (स० मम) मेरा, मैं का मोचरस- संज्ञा, पु. ( सं० ) सेमल का वह रूप जो कर्ता को छोड़ अन्य कारकों गोंद । " इन्द्रज मेधमदा कुलम-श्री रोध्रमकी विभक्तियों के लगने से होता है। हौषधि मो वर पाना "..- लो० रा०। "मो कहँ कहा कहब रघुनाथा".-रामा । होची -- संज्ञा, पु० दे० ( सं० मोचन ) जूता *प्रव्य ० (ब्र०) अधिकर -विभक्ति, मे। बनाने वाली एक जाति । वि० सं० मोचिन्) मोकना*-वि० स० द. (सं० मुरत ) छुड़ाने या दूर करने वाला । स्त्री० छोड़ना, त्यागना, कंगा, परित्याग करना, मानिन । तजना। मोच्छ -संझा, पु० दे० (सं० मोक्ष) मोकल-वि. द. (सं० मुक्त ) बंधन- मोक्ष, मुक्ति । रहित, छूटा हुश्रा, स्वच्छन्द, मुक्त । भोक-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. मूक) मोंक, मोकला -वि० दे० (हि. मोकल) अधिक मोठा, स्वाच्या (ग्रा०), मूछ, छ, मुच्छ । चौड़ा, बहुत स्वच्छन्द । *--संज्ञा, पु० दे० (सं० मेक्षि) मोक्ष । मोक्ष-पंज्ञा, पु० (सं०) जीवात्मा का जन्म- मोजा---संज्ञा, पु० (फ़ा०) पायताबा, जुर्राब, मरण के बंधन से मुक्त होना (शास्त्र) पिंडली के नीचे का भाग, वहीं पहिनने का मुक्ति, छुटकारा, मृत्यु, माय (द०)। सूत से बुना कपड़ा। मोक्षद-मोक्षपद-संझा, पु. (सं० ) शंक्ष- लोट--संज्ञा, स्त्री० ६० (दि. माटरी) मोटरी, दाता, मुक्ति देने वाला, मौतदायी। गठरी। संज्ञा, पु. (दे०) चरस, पुर, खेत मोख*---संज्ञा, पु० दे० (सं० गोक्ष) श्रादि सींचने को कुएँ से पानी भरने का मोक्ष, मुक्ति । चमड़े का थैला । *-वि० द० । हि. मोखा-संज्ञा, पु० दे० (सं० मुख) रोखा मोटा ) स्थूल, मोटा, कम मूल्य का, छोटी खिड़की, ताम्खा, छाला। साधारण, मोमवार (ग्रा.)। मोगरा-मांगग-संज्ञा, ० दे० सं० गुद्गर) भोटनक-- संज्ञा, पु० (सं०) त, ज, जगण एक प्रकार का बड़ा बेला ( पुष्प)! और लघु गुरु का एक वणिक वृत्त या १६ मोगल-गंज्ञा, पु. ६० (तु० मुग़ल) मुग़ल । मात्राओं का एक छन्द (दि.)। स्त्री० मोगलानी। मोटी -संज्ञा, स्त्री० दे० ( तैलंग० मूटा = मोघ- वि० ( सं० ) निष्फल, चूकने वाला। गठरी) गठरी, मुटरी (ग्रा०)। (विलो. अमोघ)। मोटा- वि० दे. (सं० मुष्ट ) चरबी श्रादि मोच-संज्ञा, स्त्री० दे० । सं० मुच) शरीर से ली देहवाला, स्थल काय, दलदार, पीन, की किसो नस का अपने स्थान से टल पीवर, गाढा । ( विलं० दुबला, पतला), माना । मुहा---गार खाना (पैर) साधारण से अधिक घरे या मान वाला। भादि की नम का टल जाना। स्त्री० माटी । हा०-~-मोटा असामीमोचन-संज्ञा, पु. (सं०) मुक्त करना, श्रमीर, धनी । मोटा अन्न--कदना, जैसेछोड़ना, हटाना, रहित करना, ले लेना, चना, जुआर, बाजरा श्रादि। मोटा भाग्य == दूर करना। सौभाग्य, खुशकिस्मती। दरदरा ( विलो. मोचना- स० कि० दे० सं० माचन) फेकना, महीन) खराब, घटिया । यो०-मोटी बुद्धि छोड़ना, बहाना, छुड़ाना, गिराना, । संज्ञा, - मन्द बुद्धि ! मोटा खाना-साधारण या भा० श. को.--१८१ For Private and Personal Use Only Page #1453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir E NERatnanaameen मोटाई होतीझरा, मोतीझिरा रूखा-सूखा भोजन । मुहा०-मोटी बात समेट कर परत करना, मुरझाना (चेचक)। मामूली या साधारण बात। मोटे तौर पर, मुहा०-- शीतला का बाग मोड़नामोटे हिसाब ( विचार ) से-स्थूल रूप चेचक के दानों का कुम्हलाना । मुहा०या दृष्टि से, मोटी दृष्टि से, अटकल या मुंह मोड़ना-विमुख होना, अप्रसन्न अन्दाज़ से भारी या कठिन । मुहा०- होना । अस्त्रादि की धार को कुंठित या मोटा दिखाई देना-कम दिखाई देना। गोटिल करना। धमंडी, अभिमानी। यौ० छोटा-मोटा - मोतबर-वि० ( अ ) विश्वासपात्र, साधारण । विश्वसनीय, मातबर (दे०)। संज्ञा, स्त्री० मोटाई-संज्ञा, स्त्री० (हि. मोटा--ई- मोतबरी। प्रत्य०) स्थूलता, मोटापन, पीवरता, पीनता, मोतियदाम-संज्ञा, पु. ३० (सं० मौक्तिक. शरारत, दुष्टता, पाजीपन, बदमाशी, मुटाई ___ दाम) चार जगण का एक वर्णिक वृत्त(पिं० ।। (दे०) । मुहा०—मोटाई चढ़ना-धमंडी मोतिया-संज्ञा, पु. (हि. मेाती। इया या बदमाश होना। -प्रत्य० ) एक प्रकार का बेला, एक तरह मोटाना-मुटाना-अ० क्रि० (हि. मोटा+ का सलमा, गुलाबी और पीला मिला, या माना-प्रत्य०) स्थूलकाय या मोटा हो हलका गुलाबी रंग, छोटा गोल दाना । जाना, अभिमानो या घमंडी होना, धनी मोतियाबिंद-संज्ञ', पु. द. यौ० (सं० होना। स० क्रि०-मोटा या स्थूल करना। मौक्तिकविंदु ) एक नेत्र रोग जिसमें मैल का मोटापा-संज्ञा, पु. (हि. माटा+पापा-- एक छोटा बिंदु सा आँख के तिल को ढक प्रत्य०) मोटाई, स्थलता,पीवरता, पाजीपन लेता है, माड़ा, फूली ( प्रान्ती. )। शरारत, दुष्टता। मोती----संज्ञा, पु० दे० ( सं० मौक्तिक प्रा. मोटिया--संज्ञा, पु० दे० (हि० मेटा + इया मोतिम) समुद्र की सीप से निकलने वाला -प्रत्य.) गाढ़ा, खद्दर, खादी, गज़ी, एक मूल्यवान रत्न । महा.-----माती को मोटा और खुरखुरा कपड़ा । संज्ञा, पु० दे० सी प्राय (पानी) उतारना---'अप्रतिष्ठा (हि. मोट=ोमा ) बोझा ढोने वाला, मुटिया (दे०) कुली। वि०-तुम्छ, मोटियार या तिरस्कार होना । मोती कृट कर (ग्रा०)। भरना--प्रकाशित या प्रकारामान होना। मोट्टायित-संज्ञा, पु. (सं.) एक हाव मोती गरजना-- मोती चटकना या कड़क जिसमें नायिका अपने प्रेम को कटु भाषणादि जाना । मोती पिरोना-माला |धना, से छिपाने को चेष्टा करती हुई भी छिपा मधुरता के साथ बोलना या लिखना। नहीं सकती (काव्य.)। मोती रोलना-बिना परिश्रत सरलता मोठ, मोट- संज्ञा, स्त्री० दे० सं० मुकुष्ट) से बहुत सा धन प्राप्त कर लेना । यौ० मूंग जैसा एक मोटा अन्न, मोथी, बनमूंग । (मानस के ) ख के मोती- थाँसू । यौ० दालमोठ। मोतियों से मुंह नरना--बहुत सा धन मोठस-वि० (दे०) चुप, मौन', मूक । देना । संज्ञा, सी० मोती पड़े हुए कान के मोड़-संज्ञा, पु. (हि० मुड़ना) मार्ग में बाले । घूम जाने का स्थान, घुमाव, मुड़ने का मोतीचर - संज्ञा, पु. यो० (हि. माती -- भाव। चूर ) छोटी बुदिया का लड्डू।। मोड़ना-स० क्रि० (हि. मुड़ना ) घुमाना, मोतीझरा-मोतीभिरा-संज्ञा, पु० (दे०) फेरना, लौटाना, तह करना, फैली वस्तु को छोटी शीतला का रोग, मंथरज्वर जिसमें For Private and Personal Use Only Page #1454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मोतीझला, मोतीझिना मोरचा छाती पर मोती जैसे जल-भरे छोटे दाने | मोन--संज्ञा, पु० (दे०) पिटारा, डब्बा, निकलते हैं। झावा। स्त्री. मोनिया। " अमृत रतन मोतीझला-मोतीभिला--संज्ञा, पु० (दे०) मोन दुइ मूंदे"- पद्मा। छोटी शीतला का रोग, मंथरज्वर । मोना*-स० क्रि० दे० (हि. मोयना ) मोतीबेल-संज्ञा, स्त्री० दे० यौ० ( दि. भिगोना, मोवना । सं० पु० दे० (सं० मोणा) मोतिया --वेल ) मोतिया बेला ( पुष्प )। झाबा, पिटारा, डब्बा। मोतीभात-संज्ञा, पु. ( हि० ) एक तरह मोम-संज्ञा, पु.. (फ़ा०) शहद की मक्खियों का भात । के छत्ते का चिकना और नरम मसाला । मोतीसिरी-संज्ञा, खोल दे० यौ० (सं० वि० (दे०) मृदु, दयालु । मौक्तिक-श्री ) मोतियों की माला या कंठी।। मोमजामा---संज्ञा, पु० यौ० ( फा० माम+ मोथरा-वि० (दे०) कंडित, गोठिल, घोड़े गाल, बार जामा) मोम-लागा कपड़ा, तिरपाल । का एक रोग, हड्डी का रेग। मोमबत्ती-संज्ञा, स्त्री० यौ० (फा० माम+ मोथा-संज्ञा, पु० दे० ( ० मुस्तक ) नागर बत्ती - हि.) नोम या वैसे ही किसी अन्य मोथा, एक पौधे की जड़। “मोथा जायफल वस्तु की बत्ती जो प्रकाश के हेतु जलाई वंसलोचन मिलाइये"--.कु० वि० ला । जाती है। मोथी-संज्ञा, स्त्री० (दे०) मूग जैसा एक अन्न। मोमियाई- संज्ञा, स्त्री० (फा० ) नकली मोद-संज्ञा, पु. (सं० ) हर्प, प्रसन्नता, शिलाजीत । "मोमियाई खिलाई गई हरदी" मानन्द, एक वर्णिक वृन (पिं०) सुगंधि, --मीर। महक । वि. मादी। मामी--वि० (का०) मोम का बना, मोम मोदक-संज्ञा, पु. (सं.) औपचादि का लई, मिठाई. चार नगण वाला एक वर्णिक वृत्त (पिं०)। संज्ञा, पु. (सं० ) हर्ष। । मोयन- संज्ञा, पु० दे० (हि. मैन=मोम) __माइते समय घाटे में घी मिलाना जिसमें यो०-मन-मादक-गन के लड्डू ) झूठे सुख की कल्पना । 'मन-मोदक नहिं उससे बनी वस्तु मुलायम हो जावे, मोवना। भूख बुताई"--रामा० । वि० ( ० ) मोरंग-संज्ञा, ६० (दे०) नैपाल का पूर्वीय प्रसन्न करने वाला। भाग। मोदकी-संज्ञा, स्त्री० [सं० ) एक तरह की गदा। मार -- संज्ञा, पु० दे० (सं० मयूर) मयूर नामक मोदना* ---अ० कि० दे० (सं० मोदन) प्रसन्न एक सुन्दर सतरंगा बड़ा पक्षी। स्त्री० मोरनी था खुश होना, सुगंधि फेलाना। स० क्रि० __ "बोलहिँ वचन मधुर जिमि मोरा"(दे०) हर्पित, प्रसन्न करन रामा० । *सर्व दे० (हि. मेरा) मेरा । " मोर मोदी-संज्ञा, पु० दे० (सं८ मेदिक) परचूनिया, मनोरथ जानहु नीके" -रामा० । पाटा-दाल धादि बेचने वाला बनिया। मोरचंदा--संज्ञा, पु० दे० यौ० (सं० मयूर मोदीखाना-~संज्ञा, पु० ० ( हि० मादी+ चंद्रिका) मोर-चंद्रिका, मोर पंख की चन्द्राखाना---फा०) अन्नादि का घर, भंडार, कार बूटी। जहां मोदी की दूकान हो। मोरचंद्रिका-ज्ञा, स्त्री० दे० यौ० (सं० मयूर मोधुक-संज्ञा, पु० दे० ( सं० मादक = चंद्रिका ) मोर पंख की चन्द्राकार बूटी। एक जाति ) मछुवा, धीवर, मछ्वाहा। मोर-चंदक (दे०)। मोधू-वि० दे० (सं० मुग्ध ) मूर्ख, भोंदू मोरचा-संज्ञा, 'पु. (फा०) लोहे का नंग, बेसमझ, बुद्ध । । नमी और वायु कृत रसायनिक विकार से वाला। For Private and Personal Use Only Page #1455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org CHOREONL १४४४ मोरल 0 147423 20 उत्पन्न लोहे पर पड़ी पीले या लाल रंग | मोरपंखी-संज्ञा, स्रो० (हि०) मोर पंख सीवनी और रेंगे सिरे वाली एक प्रकार की नाव एक वनस्पति | संज्ञा, पु० ( दि०) मोर पंख सा चमकीला नीला रंग । वि० (दे०) मोरपंख के रंग का --- मोरमुकुट संज्ञा, पु० यौ० (हि०) मोर पंखों से बना मुकुट | "मोर-सुकुट, कटि काहनी कर मुरली उर माल". वि० । या की बुकनी की तह, दर्पण का मैल | संज्ञा, पु० (फ़ा० मोर चाल) परिखा, किले के चारों श्रर की खाईं, वह खाई जहाँ युद्ध के समय सेना रहती तथा नगर और गढ़ की रक्षा करती है, मोर्चा (दे० ) । बुहार मोरचा बंदी करना -- ऊँची खाई में या गढ के चारों थोर सेवा को लड़ने के लिये रखना | मोरचा भारता जीतना -- शत्रु के मोरचे पर अधिकार जमा लेना । मोरना गाँवना (लगना बनाना ) -- मोरचा बंदी करना | मोरवा लेना - लड़ना, युद्ध करना, सामना करना । मोरछल - संज्ञा, पु० दे० यौ० (हिं० मोर + a) देवताओं या राजाश्रों के सिर पर लाने का मोर पंख का देवर | मोरऊली – संज्ञा, पु० दे० (दि० मौलसिरी) मौलसिरी का पेड़ | संज्ञा, पु० दे० ( हि० मरिकल + ई - प्रत्य० य० ) मोरकुल चलाने या हिलाने वाला । मोरवाह -संज्ञा स्त्री० (३०) मोरल | मोरजुटना - संज्ञा, पु० यौ० दे० ( हि० Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मोर + जुटना ) एक गहना । मोरन --- संज्ञा स्त्री० दे० हि० मोहना ) मोड़ने का भाव | संज्ञा, सी० दे० (सं० मोरट) विलोडित दूध, दही और मिठाई, केरादि मिश्रित पदार्थ, श्रीखंड, शिखरन मूरन (ग्रा० ) । मोरना* -- स० कि० दे० ( हि० मोड़ना ) मोड़ना, घुमाना । स० क्रि० के० (हि० गोरन) दही को मथ कर मक्खन निकालना । मोरनी -- संज्ञा स्त्री० दे० ( हि० मोर + नी - प्रत्य० ) मोर की स्त्री या मादा मोर के श्राकार का नथ का टिकड़ा | मोरपंख - संज्ञा, पु० यौ० ( हि०) मोर का पर या पखना, मोरपड, मयूरपत (सं०) । मोर पंखां-- संज्ञा, पु० दे० यौ० (हि० मोर 4-पंख) मोर का पर, मोर पंख की लूँगी। | सोवना मोरवा - संज्ञा, ३० द० (३० मोर) मोर, मयूर | "चातक, कोकिल, कीर शोर मोरवा बन करहीं" - कुं० वि० । मार्गशखा संज्ञा, सी० दे० यौ० (सं० मयूर : शिखा ) मोर की छोटी, एक श्रौषधि, मोर सिखा (दे०) । " मोरशिला को काथ साथ ताके फिर खा" कु० चि० ला० । द्वारा बि० ६० ( दि० गेरा ) मेरा | " जानत प्रिया एक मन मोरा " - रामा० । मोराना - रा० कि० दे० (हि० मोड़ना का प्रे० रूप) चारों ओर घुमाना या फिराना । मोरी - संज्ञा, मो० ० (हि० मोहरी) पनाला, नावदान, मैले श्रौरगदे पानी की नाली । -- संज्ञा, सी० दे० (हि० मोर) मोर की मादा । *- - वि० स्रो० ( हि० मेरी ) मेरी । " जो कोड सर किसोरी -- रामा० । मोरे - सर्व दे० (६ि० मेरे) मोर का बहुवचन | मोल- संज्ञा, पु० दे० (सं० सूल्य ) दाम, कीमत, मूल्य । यौ० गोल-मोल पेंचीदा, गूद या स्पष्ट बात । या०-माल-चाल ( मोलतोल) करना- किसी वस्तु का मूल्य बदा घटा कर तै करना और तोलना । मोलना -- संज्ञा, ५० दे० ( ऋ० मौलाना ) मौलवी । भोलाना* -स० क्रि० दे० (हि० माल) सोल तै करना या पूछना | प्रे० स० रूप-दिलवाना। 95 For Private and Personal Use Only मोबना - संज्ञा, पु० (दे०) मौलाना । स० [क्रि० दे० (हि मोना) मोना । Page #1456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मोष मोहरा मोष-संज्ञा, पु. द. ( स० मोक्ष ) मोक्ष, मोहनमाला ---संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) मूंगे मुक्ति । " मोहूँ दी मोष, ज्यों भनेक । धौर सोने के दानों की माला । मोहनअधमन दयो"-वि० माला सोफ, गंज, कंठा, मान कंठ निराजे" मोषण ---संज्ञा, पु० (सं०) लूटना, हरना, चोरी -कु० वि० । करना, बध करना, माता, सामना (दे०)। माहना---- अ० कि० दे० (सं० महिन) रीझना, मोह-संज्ञा, पु० (०) देह और जगत की। मोहित या भासत होना, मूर्छित होना । वस्तुओं को अपना और सत्य जानने की स० कि..... अपने ऊपर अनुरक्त करना, दुखद बुद्धि या भावना, भ्रांति, भ्रम, मध या भोहित करना, लुभा लेना, धोखा अज्ञान, प्रेम, प्यार, आसक्ति, ३३ संचारी देना था श्रम में डालना ! संज्ञा, पु० दे० भावों में से एक ( काव्य० ) भय, दुख, (सं० मोहर) श्री कृष्ण ! “सोहना तिहारी विकलता, मूळ । “मोह सकल ग्राधिन । माधुरी मुराकानी- सूर०।। कर मूला।" "जो न मोह घस रूप निहारी'बाहनास्त्र - संज्ञा, पु० यौ० (सं.) शत्रु को -रामा० । मूच्छित करने वाला बाग या अस्। मोहक-वि० सं०) मोहोत्पादक, मोह उत्पा मोहिनी - संज्ञा स्त्री. (सं० ) विपण का करने वाला, लुभाने वाला, मनोहर, वह सी रूप जिसे उन्होंने अकृत बाँटते मोहकारी, मोहकारक। " मोइन मुरली समय (सिंधु-मंथन के बाद ) दैत्यों के धुनि मोह करै सारखी है सब अजवाला "--- मोहित करने को धारण किया था, दशीमना। करण मंत्र, एक वर्णिक छंद,"देखि मोहिनीमोहज-वि० (सं०) मोह से उत्पन्न, माहजनित, माहजन्य । रूप दैत्य गण भये तुरत बश"-स्फु० । मुहा० मोहठा-- संज्ञा, पु० (म०) १० वी का एक ---मोहनीपानना (जाना-माया या वृत्त (पिं० ), बाला। जादू से वशीभूत करना । " जिन निज रूप मोहड़ा, महडा--संज्ञा, गु० दे० (हि० मुह -- मोहिनी हारी'- रामा० । मोहन पाना डा-प्रत्य०) किसी वस्तु का खुला भाग -लुभा जाना. भोहित होना, पिय लगना, या मुंह, अगला या ऊपरी भाग, सोहरा : माया! वि० श्री.--भोहित करने वाली, अति सुन्दरी । यौ० महिनी-मरति । मोहताज-वि० दे० (अ० मुहताज़) मुहताज, माहर --संज्ञा. सी० (फा०) चिन्ह, 'अदर, कंगाल, चाहने वाला। नामादि को दबा कर छापने का ठप्पा. मोहन-- संज्ञा, पु० (सं० जिसे देख कर चित्त कागज़ श्रादि पर लगी मुद्रा या लाप, मुग्ध हो जावे, श्री कृारा, एक वर्णिक वृत्त अशरफ़ी। (पिं०) किसी को मूर्छित या वशीभूत करने मोहरा--संज्ञा, पु० दे० 'हि. गुह + रा-श्य०) का एक तांत्रिक प्रयोग, शत्र के अचेत करने । किमी पान का मस्त्र या सुला हिस्सा, किसी का एक अस्त्र, मदन के ५ बाणों में से एक। वि० (स०) खी. मोहन) मोह पैदा करने ! वस्तु का प्रागला या ऊपरी भाग, सेना की अग्रिम पंक्ति, सेना के धावे का मुख । वाला। " मोहन-जुख मन-सोहन जोहन जोग"-साल। (स्त्री० सोहरी । नुहा० सोहरा लेनामोहनभोग-संज्ञा, १० यौ० (हि.) एक सामना करना, भिड़ जाना, युद्ध या प्रतितरह का हलुवा, श्राम ।। इंदिता करना । कोई द्वार का छेद जिससे मोहन-मंत्र--संज्ञा, पु० यौ० (सं०) मोहने । कोई पदार्थ बाहर निकले, चोली आदि या वशीभूत करने का मंत्र, वशीकर मंत्र की गोट ! संज्ञा, पु. (फा० मोहरः) शतरंज For Private and Personal Use Only Page #1457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मोहरात्रि मौजी को गोट, चीजें ढालने का सांचा, रेशमी मोंडा-मोड़ा-संज्ञा, पु० दे० (सं० कपड़े के घोटने का घोटा, जदर-मोहरा, माणवक ) छोरा, बालक, लड़का । खो.. सिंगिया विष । मोडी, मोड़ी। मोहरात्रि--- संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) अर्ध- मौका-संज्ञा, पु. (अ०, वारदात की जगह, प्रलय की रात्रि जब ब्रह्मा के पचाल वर्ष घटना स्थल, स्थान, देश, अवगर, समय, बीतते हैं, मोह-निशा, मोहरल (दे०)। यौ०-मौला मौका।। मोहरी-एंज्ञा, स्त्री. (हि० मे हरा) किसी भीक --- वि० (अ.) बंद या अलग किया पात्र सादि का छोटा मह, पैजाने में पायचों हुआ, रोका हुश्रा, नौकरी ये छुटाया या का अंतिम भाग, मोरी, नाली! अलग किया हया. रद किया गया. बरखास्त. मोहरि ---- संज्ञा, पु. (अ.) सुहरिर, मुंशी, अवलंबित, निर्भर संज्ञा, खो-साकफी । लेखक, क्लार्क (अं० ) । संसा, स्त्री- मानि-वि० सं० मुक्ता ) मोती का, मोहरिरी। मोती-संबन्धी। मोहलत--संज्ञा, स्त्री० (अ०) अनाकाश, छुट्टी, मोनिकादाम--- संज्ञा, '१० (सं०) एक वणिक पुरसत, अवधि । छद जिसमें बारह वर्ण होते हैं (पि०)। मोहार, महारा-संज्ञा, पु० दे० (हि. मोतिकमाला-संज्ञा, स्त्री. गो. (सं० ) गुह । आर प्रत्य०) द्वार, दरवाजा, महड़ा एक वणिक रुंद जिसे ग्यारह वर्ण होने पान्तो०)। हैं ! यौ० (सं०) मोतिषों की माला। मोहि, मोहो- सब ना. अब (सं० मा) मौरख-ज्ञा, पु० (दे०) एक ममाला। मुझे, मुझको। " मोहिं न कछु बाँधे पर मौखरी--- संज्ञा, पु० सं०) एक पुराना राजलाला "- रामा। वंश (इति)। मोहित--- वि० (सं०) भ्रमित मोहा हुआ, मौखिक -- वि० (सं०) माव-संबंधी, जबानी, मुग्ध, यासक्त ! ' मोहित भे तब दैत्यगगा, जिह्वाय, मख का।। देखि मोहिनी रूप"... कु. वि० । यौ.मोज---संज्ञा, खी० (अ.) नरंग, लहर, (व्र मो- हित ) मेरे लिये, पेरा भला। जोश, मन की उमंग था उछंग । महामोहिनी-- वि० स्त्री० (सं०) सोहने वाली, किसी की मौज पाना -.मरजो या अत्यन्त सुन्दरी। संज्ञा, स्त्री० (सं०) विष्णु इच्छा जानना। विभव, युन, प्रभूति, श्रानंद, का एक स्त्री-रूप, माया, टोना, जादू, १५ मज़ा, सुख, विभूति । मुहा० --मौज वणे का एक वर्णिक वृत्त (पिं०। एक श्रद्ध- उड़ाना (करना)-- आनंद उठाना, चैन सम छंद (पिं०)। " जिन निजरूप मोहिनी करना । मौज में पाना-धुन या जोश डारी". रामा०। (उमंग) में पाना, मज पाना । सोज में माही- वि० दे० (सं० मे हिन्) माहने वाला, होना-श्रानंद या उसंग में होना। मोहित करने वाला। वि० (हि० मोह + ई. मौजा- संज्ञा, पु० (अ.) ग्राम, गाँव, मौजा प्रत्य० ) मोह, म या स्नेह करने वाला, (दे०)। लोभी, लालची, मूर्ख ! लौजी- वि० दे० (हि.. मौज -+ ई --- प्रत्य०) मोहोपमा--संज्ञा, स्त्री. यो० (सं०) उपमा का मनमानी करने वाला जोश या उमंग में एक भेद, (केशव०) भ्रांति अलंकार (अन्य) रहने वाला, सदा प्रसन्न या हर्पित रहने मोंगी-संज्ञा, सी० दे० (सं० मौन) चुप, वाला, श्रानंदी, उमंगी, लहरी. धुनी। मोन, मूक। यौ०-मन-मौजी। For Private and Personal Use Only Page #1458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मौजूद मौसिम, मौसम मौजूद-वि० (अ) हाज़िर, उपस्थित, प्रस्तुत, मुख्य । सी. अल्पा० मौरी । “तुलसी विद्यमान, तैयार । संज्ञा, स्त्री०-मौजूदगी।। भाँवरि के परे, ताल सिरावत मौर।' यौ० मोजूदगी-संज्ञा, सी. (फा०) उपस्थिति, -शिर-मौर --प्रधान, शिरोमणि, सर्व हाजिरी, विद्यमानता। श्रेष्ट । संक्षा, पु० दे० (सं० मुकुल ) मंजरी, मौजदा-- वि० (अ.) वर्तमान काल का बौर : संज्ञा, पु० दे० (सं० मौलि --- सिर) सिर, प्रस्तुत, विद्यमान, उपस्थित । गरदन । मौड़ा-संज्ञा, पु. ६० (स० माणवक.) लड़का, मौरना, मोराना--स० कि० (हि.) वृक्षों बालक । (सी० मोड़ा)। में मंडारी श्राना, बौर लगना, बोरना।। मौत-संज्ञा, स्त्री० (३०) मृत्यु. मरण, मीच मारमिरी - संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० भोलि (ग्रा०) । मुहा- मौत का सिर पर श्री) सुगंधित पुष्पों का एक पेड़, बकुल वृक्षा, खेलना-मरना पास होना, मापत्ति का मौलसिरी (दे०)। समीप होना । मरने का समय, काल, बड़ा मौलसी-. (अ०) बाप-दादा के समय से कष्ट, विपत्ति । मुहा०-सिर पर मात चला पाया हुश्रा, पैतृक । का नाचना (खेलना) मृत्यु निकट होना । मौर्य रहा, पु० (सं०) रात्रिय सम्राट मोताद--संज्ञा, सी० (अ०, मात्रा, मोमाज चन्द्रगुप्त और अशोक का राज-वंश (इति०)। मोषी-- संज्ञा, सो० (सं०) धनुष की ताँति मौन संज्ञा, पु० (सं०) चुपी, मूलता, या डोरी “धनुः पौऽयं मौर्वी मधुकर चुप रहना । वि. चुप, शान्त, मूक ।। मुहा० - मान ग्रहण या चार मयी, चंचल दृशाम् -मो। ० (अ) अरबी और करना-चुपचाप रहना, न बोलना, मालवा-- संज्ञा, मोन गहना (प्र.)। रहे सबै गडि फारसी का पंडित, मांलयो (दे०), मुसलमौन'- वि० । मीन खोलना---बोलना मानी धर्म का प्राचार्य, मुल्ला। प्रारंभ करना। मौन ताना-- बोलने में मौलसिरी--संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० मौलिश्री) लगना । मौन साधना (लगाना)-चुप मधुर और मीनी सुगधि के छोटे पुपों का एक बड़ा पेड़, बकुल। हो जाना , लो० (सं०)-'' मौनं स्वीकृतिलक्षणम् " मौन रहना या साधना-चुप मोलाना-~ज्ञा, पु० (१०) मुसलमानों का धर्म-गुरु । होना, न बोलना। मौन संभारना"- मौलि-- संज्ञ, पु. (सं०) चोटी, सिर, जूड़ा, मौन साधना, चुप होना । मुनियों का मत्था, मस्तक, किरीट, सिरा, जटा जूट, मूक व्रत, मुनिव्रत । वि० (सं० मोनी) सरदार, प्रधान व्यक्ति। चुप, जो न बोले । संज्ञा, स्रो० मौनता। मौलिक-वि० (स.) नवीन, मूल-संबंधी, *1--संज्ञा, पु. द० (सं० मोगा) पात्र, जड़ का, जई की वस्तु। संज्ञा, पु०---कुलीनबरतन, डब्बा, मान (दे०)। भिन्न, अकुलीन । सज्ञा, स्त्री०-मौलिकता। मौनता-ज्ञा, पु० चौ० (सं०) चुप रहने मांस -ति० दे० (अ० मयस्सर ) प्राप्त का व्रत । वि०-सौन्वती। होना, मयस्सर । मोनी-वि० (सं० मोनिन् ) चुप रहने मौसा--संज्ञा, पु० (हि. मौसी ) माता की वाला. मुनि ! यो मौनी अमावस। बहिन या मौसी का स्वामी या पति । मौर- वि० द० (सं० मुकुट ) ताइ-पत्र, मोलिया, फका । स्त्री मौसी। या कागज प्रादि से बना एक मुकुट या मौसिम, मौसम-संज्ञा, पु० (अ.) उचित शिरोभूषण (विवाह में) प्रधान, शिरोमणि, समय ऋतु । वि० मौसिमी। For Private and Personal Use Only Page #1459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मौसिया यंत्री मोसिधा--ज्ञा, पु० (दे०) मौसा। स्यों-संज्ञा, स्त्री० (अनु०) बिल्ली की बोली। मौसी-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० मादृष्सा) म्योडी-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० निर्गडी) भाता की बहिन, मामी : वि. भोसरा छोटे पीले फूलों की मंजरी वाला एक (प्रान्ती)। सदा बहार झाड़, ए पेड़, निगुडी, सँभालू । मौसेरा-वि० दे० (हिमोस । रा-प्रत्य०) जितमा वि० (सं०) मृतकल्प, अयसन्नमृत, मौसी के नाते से संबद्ध, मौलो के म्बन्ध मृतप्राय । का । ली. माने। लान - वि० (सं०) मलिन, मैला, कुम्हलाया भ्यान, न्याऊँ-संज्ञा, स्त्री० (१०) विक्षी की हुया, उदास, दुर्बल । सं० सी० स्लानना । बोली ! यौ० म्याऊं का ठौर ----शुस्य तथा नाना ---संज्ञा, सी. (२०) मैलापन, भय का स्थान, फटिन ग्थत ! हा ... उदासी, मलिनता, मलीनता । म्याँव म्याँध कना-- टर पर धीरे धीरे नाच --- वि० यौ० (सं०) उदास, बोजना, साधीनता स्वीकार र नम्रता सं उदासीन, दुखी, मतानवदन । बोलना। मिल:--संज्ञा, पु. (१०) अस्पट वाक्य, म्यान--संज्ञा, पु० दे० (० मियान) वचन । कटार और तलवार श्रादि के फल रखने का संज्ञा, पु० (५०) वणश्रिम से रहित खाना, श्रममय कोश, देह : हार जातियाँ । संज्ञा, मोपलेन्टाना। वि०.ग्यान में दो तलवार न रहना। नोच, पापी। ग्याना---स० कि० ० ( हि० स्यात) हा - सर्व० दे० ( हि० मुझ ) मुझे। म्यान में रखना . *संज्ञा, पु० (१०) सियाना, म्हारा, म्हारो --- सर्व० दे० (हि० हमारा) पालकी। हमारा । सी. म्हारी। व-संस्कृत और हिंदी की वर्णमाला में मंत्रमंत्र.संज्ञा, पु० गौ० (सं०) जादू टोना, अंतस्थ वर्ण का प्रथम वर्ण, इसका जन-मंत्र, जंतर-मंतर (दे०)। उच्चारण स्थान तालु है:--" इचुपशानाम् संविधा-- संज्ञा, स्त्री. यौ० (सं०) कलों के तालु" । संज्ञा, पु० (सं.) योग, यश, बनाने या चलाने की विद्या, यंत्र विज्ञान । संयम, सवारी, पिाल में याण का संनित यशारदा-एंज्ञा, स्त्री. यो० (सं०) वेधशाला, वह स्थान जहाँ भनेक तरह की कलें हों, यंत्र --संज्ञा, पु. (सं.) तंत्रशास्त्रानुसार यंत्रागार । विशेष प्रकार से बने कोष्टकादि जन जनर, मंत्रालय-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) छापाखाना, (दे०) हथियार, शौजार, कार, बंदूक, बाजा, कलों का स्थान या घर । ताला, कुफुस्त, किसी विशेषकाय के लिये यंत्रित - वि० (सं०) ताले में बंद, यंत्र या उपयुक्त उपारण। कन्न के द्वार रोका गा बंद। यंत्रण-संज्ञा, पु. (२०) बाँधना, रता यत्रिका-संज्ञा स्त्री० (सं०) ताला । 'लोचन करना, नियमानुसार रखना "नयंत्रण। निज पद-यंत्रिका, पाण जाहि केहि वाट" यंत्रणा --संज्ञा, स्त्री० (सं०) दुःख, कष्ट, कुश, ... रामा० । बेदना, दर्द, पीड़ा। नी--संज्ञा, पु० दे० ( सं० विन् ) यंत्रमंत्र For Private and Personal Use Only Page #1460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir यक १४४६ यजुर्वेदी करनेवाला, तांत्रिक, तंत्रशास्त्र का ज्ञाता, यक्षिणी-संज्ञा, स्त्री० (सं० यक्षिणी ) कुबेर बाजा बजाने वाला। की स्त्री, यक्ष की स्त्री या पत्नी, जच्छिनी यक-वि० (सं.) एक, इक (दे०)। यकंग-वि० क्रि० वि० दे० (सं० एकांग) | यती-संज्ञा, स्त्री. ( सं० यक्षिणी ) यक्षिणी, एकान्त, एकांग । यक्ष की स्त्री । संज्ञा, पु० (सं० यक्ष + ईयक-अंगी-वि० दे० सं० एकाँगी) एकांगी, । प्रत्य. ) यक्ष की साधना करने वाला। यकंगी, इकंगी (दे०) । यक्षेश, यत्तेवर-संज्ञा, पु० यौ० (सं.) यकटक--क्रि० वि० दे० (हि०, लगातार.. कुबेर । निर्निमेष दृष्टि से । “यटक रहे निहारि यशोध-संज्ञा, पु० यो० (सं०) यतों का घर जोग सब प्रेम-सहित दोउ भाई -मन्ना० । या स्थान। यक्ष्मा -संज्ञा, पु० ( सं० यधमन ) एक रोग, यकता-वि० (फ़ा०) अपने गुणादि में । क्षयीरोग, तपेदिक। यो० राज-यमा ।।। अकेला, अद्वितीय, बेमिनाल, अकेला । यवनी-संज्ञा, स्त्री० (फ़ा०, जल में पकाये कंज्ञा, स्त्री--यकनाई-अकेलापन । “एक हुये माँस का रस, शोरबा। से जब दो हुए ना लुत्फ़ यकताई नहीं"-।। | यगण --संज्ञा, पु० (सं०) एक लघु और दो यक-वयक, यकारगी--क्रि० वि० (फा०) गुरु वणों का (Iss) एक गण (पि.) एकाएक, सहया, अकस्मात्, अचानक । संक्षिप्त रूप प' । " यगण आदि लघु यकसाँ-वि० [फा०) एक प्रकार के, बराबर, होय"- कुं० वि० ला० । समान, तुन्य। यच्छ -संज्ञ, पु० दे० ( सं० यक्ष) एक यकायक - क्रि० वि० मा अचानएक प्रकार के देवता, जन्छ (दे०)। बारगी, सहमा, एकाएक । यजत्र-संज्ञा, पु० (सं०) अग्निहोत्री। यकीन-संज्ञा, पु० (०, एतबार, भरोपा, यजन----संज्ञा, पु. (सं०) यज्ञ करना । विश्वास, प्रतीति । __ “यजनं याजन' तथा"--मनु० । “बहु यकृत-संज्ञा, पु० (सं०) पेट में दाहिनी ओर यजन काराके, पूज के देवतों को"-प्रि. भोजन पचाने वाली एक थैली, जिगर, काल प्र०। खंड, वर्म-जिगर, यकृत बढ़ने का रोग। यजमान - संज्ञा, पु० (सं०) यज्ञ करने वाला, यत-संज्ञा, पु० (सं.) देवताओं का एक ब्राह्मणों को दान देने वाला, जजमान भेद जो कुरेर के अधीन है, और निधियों (दे०) । संज्ञा, सो. यजमानी, जजमंती। की रक्षा करते हैं, जच्छ (दे०)। यजमानी-संज्ञ, स्त्री० (सं० यजमान+ ई-- यक्षकर्दम- संज्ञा, पु० (सं०) एक तरह का प्रत्य.) यजमान के प्रति पुरोहित का धर्मअंगराग या लेप । “ स्वच्छ यक्षकर्दम कर्म, पुरोहिताई, यजमान का धर्म या हियदेवन दै अति ही मिलाखे 'के०६०।। भाव, जजमंती (दे०) । यत्तनाथ-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) कुबेर, यक्ष- यजु-संज्ञा, पु० सं० यजुर्वेद ) यजुर्वेद । नायक यजुर्वेद-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) चार वेदों में यत्तपति-संज्ञा, पु० यौ० (स०) कुबेर . से एक वेद जिसमें यज्ञों का वर्णन है, यक्षपुर--- संज्ञा, पु० यौ० (५०) अलकापुरी जजुर्वेद (दे०)।। यक्षराज-संज्ञा, पु० यौ० सं०) कुबेर । यजुर्वेदी--संज्ञा, पु. (सं० ययुर्वेदिन ) यजुयक्षाधिप, यक्षाधिपति--संज्ञा, पु० यौ० वेद का ज्ञाता या यजुर्वदानुसार कर्म करने (२०) कुबेर । । वाला । वि०-ययुर्वेदीय-यजुर्वेद संबंधी । मा० श० को.--१८२ For Private and Personal Use Only Page #1461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir यज्ञ १४५० | অখামনি यज्ञ-संज्ञा, पु. (सं०) मख, याग, अार्यो के यति या विराम के उपयुक्त स्थान पर न हवन-पूजनादि का वैदिक कृत्य, जग्य (दे०)।। पड़ने का दोष (पि० )। यज्ञकर्ता-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) यज्ञ करने यती-संज्ञा, स्त्री० पु. ( सं० यति ) संन्यासी. वाला। त्यागी, विरागी। यज्ञकुंड-संज्ञा, पु. यौ० (सं.) हवन का यतीम-संज्ञा, पु० (१०) अनाथ, माता. गड्ढा या वेदी। पिता-रहित । “ यतीमे किना करदा कुरा यज्ञपति-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) विष्णु दुरुस्त '.-सादी। भगवान, यज्ञकर्ता, यजमान : यत्किचित्-क्रि० वि० यौ० (सं.) थोड़ा, यज्ञपत्नी-संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) यज्ञ की जो कुछ, रंच, तनिक । स्त्री, दक्षिणा यत्न-संज्ञा, पु० (सं०) उपाय, उद्योग, पज्ञपशु-संज्ञा, पु. यौ० (सं०) यज्ञ में बलि प्रयत्न, तदबीर, रक्षा, रूपादि २४ गुणों में से एक गुण ( न्याय०), यतन, जतन दान करने का पशु, बलिपशु । यज्ञपात्र--संज्ञा, पु. यो० (स०) यज्ञ में काम यत्नवान् ---वि० ( सं० यत्नवत् ) उपाय या श्राने वाले बरतन । यत्न करने वाला। यज्ञपुरुष-संज्ञा, पु. यो० (सं०) विष्णु भग यत्र---क्रि० वि० (सं०) जहाँ, जिस स्थान पर । वान, यजमान । (विलो. तत्र)। यो०-यत्र-तत्र। यज्ञभूमि-संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं० यज्ञस्थल, यत्रतत्र-कि० वि० यौ० (सं०) जहाँ-तहाँ। यज्ञक्षेत्र, यज्ञ करने का स्थान । यथा--अव्य० (सं०) जैपा. जैसे, जिस प्रकार, यज्ञमंडप -- संज्ञा, पु. यौ० (सं.) यज्ञ के जया (दे०)। ( विलो. तथा )। लो०लिये बनाया हुआ मंडप, यज्ञशाला । "यथा राजा तथा प्रजा।" यज्ञशाला- संज्ञा, स्त्री० यो० (सं.) यज्ञमंडप, यथाकथंचित्--अव्य, यौ० (सं०) जिस यज्ञस्थल, यज्ञालय। किसी प्रकार से, बड़े कष्ट या परिश्रम से । यज्ञसूत्र-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) यज्ञोपवीत, यथाकाल--संज्ञा, पु० यौ० (स.) समयाजनेऊ (दे०)। नुसार, उपयुक्त समय, यथा समयः । यज्ञस्थल-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) यज्ञस्थान, यथाक्रम-क्रि० वि० यौ० (सं०) क्रमशः, यज्ञ-मंडप । स्त्री० यज्ञस्थली । क्रमानुसार । " यथा क्रमम् पुंसवनादिका यझेश-यज्ञेश्वर-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) विष्णु क्रिया--रघु०। भगवान । यथातथ-अव्य० (सं.) ज्यों-त्यों, जैसे-तैसे, यज्ञोपवीत- संज्ञा, पु. यौ० (सं०) यज्ञसूत्र. जैसा हो वैसा ही। जनेऊ। "त यज्ञ-उपवीत सुहाई"-रामा० । यथातथ्य-प्रव्य . य. ( सं० ) ज्यों का यत्-अप. (सं०) यदि, जो, जैसा । त्यों, जैसा हो, वैसा ही, जैसा चाहिये वैला। यति-ज्ञा, पु० (सं०)योगी, त्यागी, सन्यासी. "यथातथ्य आतिथ्य करि, विनय कीन्ह ब्रह्मचारी, छप्पय का ६६ वाँ भेद (पि०)। करजोरि"--कविः । संज्ञ', स्त्री० ( सं० यती) छंदों के चरणों में ( स० यता ) छदा के चरणों में | यापूर्व-- अव्य. यो. ( सं० ) जैसा पहले विराम या विश्राम, विरति । " दंडयतिनकर था वैसा ही, ज्यों का त्यों । “यथा पूर्वमभेद"--रामा० । कल्पयत्"--श्रति। यतिधर्म-संज्ञा, पु. यौ० (सं०) संन्यास । यथामति-अव्यः यौ० (सं०) बुद्धि के अनु. यतिभंगा-संज्ञा, पु० यौ० (०) छंद में | सार। "राम-चरित्र यथामति गाऊँ'-रामा । For Private and Personal Use Only Page #1462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir -- यथायोग्य यद्यपि यथायोग्य-पव्य० यौ० (सं० ) समीचीन, यथेष्ट-- वि० यौ० (सं०) जितना चाहिये उपयुक्त, यथोचित् , उचित, जैसा चाहिये उतना, मन-चाहा, पूर्ण, पूरा, पर्याप्त । वैसा, जथायोग्य । " यथा योन्य सब सन यथोक्त-अव्य० यौ० (सं०) जैसा कहा गया प्रभु मिलेऊ'-रामा० ।। । हो। "प्रतार्य थोक्तवत पारणान्ने"-रघु० । यथारथ -अन्य० दे० (सं० यथार्थ) उचित, यथोचित-वि० यौ० (सं० ) ठीक ठीक, जैसा चाहिये वैसा, जथारथ (दे०)। " गुरु उचित, उपयुक्त. समीचीन । करि बो सिद्धांत यह, होया यथारथ बोध" यदपि -- अव्य० दे० ( सं० यद्यपि ) यद्यपि । “ यदपि कही गुरु बारहि बारा"---रामा० यथारुचि-अव्य. यौ० (सं०) इच्छानुसार। यदा-अव्य (सं०) जिस समय जब, जहाँ । " कहहु सुखेन यथारुचि जेही"--रामा० । "यदा यदाहि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत" यथार्थ-अन्य यौ० (सं०) वस्तुतः, उचित, - भ.गी। उपयुक्त, वास्तविक, जैसा चाहिये वैसा, यदाकदा--अव्य. यौ० (सं०) कभी कभी। ठीक ठीक । वि० (सं.) सत्य, वास्तविक, ठीक, यदातदा--अव्य० यौ० (सं०) जब तब । उचित । “करि यथार्थ सब कर सनमाना" यादि-अन्य० (सं०) अगर, जो। -रामा। यदिचेत- भव्य० यौ० (सं०) यद्यपि, अगरचे। यथार्थता-संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) सचाई, यदीय-वि० (सं०) जिसका।। सत्यता, वास्तविकता, तथ्यता। यदु---संज्ञा, पु० (सं०) ययाति राजा के बड़े यथालाभ- वि० यौ० (स०) जो कुछ मिले पत्र जो देवयानी के गर्भ से उत्पन्न हुए उभी पर निर्भर थे ( पुरा जदः (दे०)। यथावत-प्रत्य० (स०) यथाचित, ज्या का यनुकुल-..रक्षा, पु० यौ० (सं०) यदुवंश, स्यों, जैसा था वैसा ही, भली-भाँति, जैसा ज ल (दे०) । चाहिये वैसा । यदुनंदन - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) श्रीकृष्ण जी, यथाविधि-वि० यौ० (सं०) विधि के अनु जदुनंदन (दे०)। “ जबते बिछुरि गये सार, विधिपूर्वक । “ यथाविधि हुताग्नीनाम् यदुनंदन नहिं कोउ श्रावत जात"---सूर० । यदुनाथ---पंज्ञा, पु. यौ० (सं०) श्रीकृष्ण जी। यथाशक्ति - श्रव्य. यौ० (सं० ) भरपक, यदपति-ज्ञा, पु. यौ० (सं०) श्रीकृष्ण जी। जितना हो सके, सामर्थ्य के अनुसार, यदराई-यदुराय-संज्ञा, पु० दे० यौ० (सं० शत्तयानुसार। यथाशास्त्र-वि० यौ० (सं०) शास्त्रानुसार ।। .. यदुराज) श्रीकृष्ण जी। “अब तो कान्ह भये । यदुराई ब्रज की सुधि बिसराई "-कुं० वि०। यथासंभव-भव्य० यौ० (सं०) जहाँ तक यदुराज-यदुराय--संज्ञा, पु. यौ० (सं०) श्री हो सके, संभवतः । कृष्ण जी। "अाज यदुराज लाज जाति है यथासाध्य-अव्य० यो० (सं० ) जहाँ तक समाज माहि-मना। साध्य हो, यथाशक्ति । यदुवंश-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) यदुकुल । यथास्थित- वि० यौ० (सं०) निश्चित, यदुकुटुम्ब, जदुवंस (दे०)। वि०-यदुवंशीय। सस्य, यथार्थ, स्थिति के अनुसार । यदुवंशमणि---संज्ञा, पु० यौ० (सं०) यदुवंशयथेच्छ-अन्य० यौ० (सं०) इच्छानुसार, भूषण, श्रीकृष्ण जी। मनमाना। यदुवंशी-संज्ञा, पु. (सं० यदुवंशिन् ) यादव, यथेच्छाचार-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) मनमानी, यदुकुल में उत्पन्न, यदुकुल का। स्वेच्छाचार, जो जी में आवे वही करना। यद्यपि-अव्य. यौ० (सं० यदि-अपि ) संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) यथेच्छाचारिता । अगरचे, हरचंद, यदपि, जदपि (दे०)। For Private and Personal Use Only Page #1463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org यदूच्छया यच्छया - क्रि० वि० यौ० (सं०) अकस्मात् मनमाने तौर पर, देवसंयोग से । “च्या शिश्रियदाश्रयः श्रियः " - माघ० । यदूच्छा - संज्ञा स्त्री० (सं० ) आकस्मिकसंयोग, स्वेच्छाचार | यद्वातद्वा - संज्ञा पु० यौ० (सं०) ऐसा वैसा, जो सो, भलाबुरा अनिश्चित, अनियमित, जैसा तैसा । १४५२ निग्रह मन को " कथं " यम- संज्ञा, पु० (सं०) मृत्यु और नर्क के देवता ( श्रार्य ) काल मृत्यु, यमराज जम (दे० ) । जुड़वाँ लड़के, धर्मराज, योग के अष्टांगों में से एक अंग, इंद्रियों और मन का ( योग० ) दो की संख्या, धर्म में स्थिर रखने के कर्मों का साधन । त्वमेतौ धृतिसंयमौयमौ ० किरात० । यमक - संज्ञा, पु० (सं०) एक अनुप्रास या शब्दालंकार जिसमें भिन्नार्थ के साथ यथाक्रम वर्णावृत्ति या शब्दावृत्ति हो ( श्र० पी० ), एक वृत्त (पिं० ) । यमकातर - संज्ञा, पु० यौ० (सं० यम + कातरहि०) यम की तलवार या खाँदा, जमका - तर | " कुलहा कातर श्री यमकातर कटि में नागफाँस हू बाँधि " स्५० । यमघंट - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) कुछ विशेष दिनों में कुछ विशेष नक्षत्रों के पड़ने का एक कुयोग ( ज्यो० ), दिवाली का दूसरा दिन । यमज - संज्ञा, पु० (सं०) धर्मराज, एक साथ के उत्पन्न दो लड़के जुड़वाँ, प्रश्विनीकुमार । यमदग्नि - संज्ञा, पु० दे० ( स० जमदग्नि ) जमदग्नि ऋषि, परशुराम के पिता । यमद्वितीया - संज्ञा, स्त्रो० यौ० (सं०) कार्तिक शुक्ल द्वितीया, जमदुतिया भाई दुइज (दे० ) । यमधार - संज्ञा, पु० (सं०) दुधारा तलवार । यमन - संज्ञा, पु० (सं०) यमन, बंधन, रोक । यमनाथ - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) यमराज, धर्मराज | यवद्वीप यमनाह- -संज्ञा, पु० दे० (सं० यमराज ) यमराज, धर्मराज | Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir यमपुर- संज्ञा, पु० (सं०) यमलोक यमपुरी । "नारि पाव यमपुर दुख नाना" - रामा० । यमपुरी - संज्ञा, स्त्री० [सं० ) यमलोक । यमपुत्र यमपन (दे० ) -- संज्ञा, पु० यौ० (सं०) धर्मराज युधिष्ठिर, यमसुन, यमात्मज । यम यातना - संज्ञा, खो० यौ० (सं०) यमलोक या नरक की पीड़ा, मृत्यु के समय का कष्ट, जग-जातना (दे० ) । " यमयातना सरिस संगारू -रामा० । यमराज - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) धर्मराज, ११ काल, जमराज । यमल - संज्ञा, पु० (सं०) यमज, जोड़ा, युग्म, जुड़वाँ बच्चे | यमलार्जन - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) कुबेर के पुत्र नलकूबर, और मणिग्रीव जो नारद के शाप से वृक्ष हो गये थे, श्रीकृष्ण ने इनका उद्धार किया ( भाग ) ! यमलोक-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) यस का लोक, यमपुरी । यमालय - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) यमपुरी । यमी - संज्ञा, स्रो० (सं०) यम की बहिन, जो यमुना नदी हुई ( पुरा० ) । यमुना -- संज्ञा स्त्री० (सं०) जमुना, जमना (दे० ) यम की बहिन, उत्तर भारत की एक बड़ी नदी, दुर्गा । For Private and Personal Use Only पुत्र, ययाति -- संज्ञा, पु० (स०) राजा नहुष ये शुक्राचार्य की कन्या देवयानी से व्याहे थे, ( पुरा० ) । मनहु स्वर्ग तं खस्यो 46 राम० । ययाती " यव - संज्ञा, पु० (सं०) जौ नामक एक अनाज, एक या बारह सरसों की तौल, एक इंच का तिहाई भाग, अँगुली की पोर पर जवा जैसी रेखा ( शुभ-सासु० ) । यद्वीप - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) जावा द्वीप, ( भूगो० ) । Page #1464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १४५३ यवन याकत यवन-संज्ञा, पु० (सं., यूनानी. मुसलमान, यशोधरा-संज्ञा, स्त्री० (सं०) गौतम बुद्ध की कालयवन दैत्य, यूनान देश का निवासी। स्त्री, और राहुल की माता। स्त्री० यवनी। यशोमति-- संज्ञा, स्त्री० दे० ( सं० यशोदा ) यवनानी- वि० सं० यवन - पानीप् प्रत्य०) जसोमति (दे०)। यवन देश सबंधी, यवनों की लिपि । “यव- धि-यष्किा -संज्ञा, स्त्री० (सं०) लाठी, छड़ी, नाल्लिप्याम्" -- अष्टाः । मुलेठी, डाती, लकड़ी। यवनाल----संज्ञा, स्त्री० (सं०) जुआर नामक यह-सर्व० दे० (सं० इदम्) श्रोता और वक्ता धन्न। को छोड़ निकट के अन्य सब के लिये प्रयुक्त यवनिका- संज्ञा, खो. (सं०) परदा, चिक, होने वाला शब्द (व्या. हि०) या (ग्र०), नाटक के रंग मंच पर एक परदा (नाट्य)। संकेत वाच निकटवी, सर्वनाम | यवमती - संज्ञा, स्त्री० (सं० ) एक वर्णिक यहाँ--कि० वे० दे० (सं० इह) इस ठौर या छंद (पिं० )। स्थान पर, हप संसार में, इस जगह में । यवशा-संज्ञा, स्त्री० (सं०) अजवाइन । इहाँ (७०, अव । मुहा०--यहाँ का यवस-- संज्ञा, पु० (सं०) नृण, घाम । यहीं-ठीक इसी स्थान पर । यवाग---संज्ञा, पु० (सं.) यवों के दलिये का यहि- सर्व० वि० दे० (हि. यह) विभक्ति से माँड, या मत. यवों के श्राटे का हलुवा ।। पूर्व यह का रूप (प्रा. हि० ) इहि (व. यवास-संज्ञा, पु० दे० (सं० यवासक जवास, अव० ) " पहि ते अधिक धर्म नहि दूजा" जवासा. एक कटीला पौधा । -रामा० । यविष्ट-वि० (सं०) अतिलघु, पूर्ण युवा। यही- अव्य. वि. ( हि० यह + हो-प्रत्य.) यवीयम-- वि० (सं० ) छोटा. युवा । यह ही, निचय रूप से यह, यहि (दे०)। यवीयान- वि० (सं०) लघु, छोटा, युवा। इहै, यहै - ( व्र०, अब )। यश-संज्ञा, पु० (सं० यस् ) सुख्याति, कीर्ति यहीं-- अव्य (हि०, इसी स्थान पर, निश्चय प्रशंसा, बड़ाई, नेकनामी, जन्न (दे०)। रूप से यहाँ पर. इहें (व०, अव०)। मुहा०-यश गाना कीर्तन करना-- यहाद -- संज्ञा, पु. ( बानी ) वह स्थान जहाँ प्रशंसा करना, एहसान मानना । राश ___ महात्मा ईमा जन्मे थे। कहना-बड़ाई करना । शमानना ---- यहूदी-संज्ञा, पु. (यहद + ई प्रत्य०) यहूद कृतज्ञ इना। देश-वासी, यहूद देश की भाषा और यशव-यशम- संज्ञा, १० (अ.) एक हरा लिपि । पत्थर जिम्मकी नादली बनाई जाती है। यहै, यहौ---पर्व (सं०) यह भी, यहो। यशस्वी-यणी-यशशील - वि० ( सं या--कि० वि० दे० हि. यहाँ) यहाँ । "याँ यशस्विन् यश + ई-प्रत्य ० ) कीर्तिमान, यश- अाज जैसा ऐवेगा वैदावहां कल पायेगा।" वाला : स्त्री. यशस्विनी। या–अव्य० । फा०) या, अथवा । वि०, सर्व. यशुमति- संज्ञा, स्त्रो० (सं०) यशोदा, यशो- (दे०) विभक्ति लगने से पूर्व यह का संक्षिप्त मति (दे०), जमाति (दे०)। रूप (०)। यशोदा- संज्ञा, स्त्री० दे० (सं०) जमादा यक, याका-- वि० दे० ( हि० एक ) एक । (दे०), नंद की स्त्री, जसुदा (दे०) इक ( अव० )। यशोधन-वि० यौ० ( सं० ) यश रूपो धन याकत - संज्ञा, पु. (अ०) एक लाल रत्न, वाला । "यशोधनो धेनुमृपेर्मुमोच"- रधु०।। लाल, चुन्नी । For Private and Personal Use Only Page #1465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org याग याग - संज्ञा, पु० (सं० ) यज्ञ | याचक संज्ञा, पु० (सं०) भिक्षुक भिखारी, माँगने वाला | संज्ञा, पु० - यान्चन । वि० याचनीय | याचक सकल अयाचक 66 १४५४ कीन्हें" - रामा० । $6 " याचना - स० क्रि० दे० (सं० यवन) माँगना, पाने के लिये निवेदन करना, जाचना (दे० ) | संज्ञा, स्त्री० ( दे० ) माँगने की क्रिया । मैं याचना नृप तोहीं - रामा० । वि० याचित, याच्या । याजक -- संज्ञा, पु० (सं०) यज्ञ करने वाला । याजन - संज्ञा, पु० (सं० ) यज्ञ की क्रिया । अध्यापनाध्ययनं चैव यजनं याजनं तथा" --- म० स्मृ० । वि० - याजनीय | याज्ञवल्क्य -संज्ञा, पु० (सं० ) वैशंपायन के शिष्य एक विख्यात ऋषि स्मृतिकार वाजसनेय, योगीश्वर याज्ञवल्क्य और उनके वंशज एक स्मृतिकार, जाम्यबलिक (३०) | याज्ञिक -- संज्ञा, पु० ( सं० ) यज्ञ करने या कराने वाला । " यातना -- संज्ञा, स्त्री० (सं०) कष्ट, पीड़ा. वेदना, दुःख, जातना (दे०) | " यम यातना सरिस संसारू " - रामा० । याता -- संज्ञा, त्रो० (सं० यातृ) पति के भाई की पत्नी जेठानी या देवरानी । 4: याता मातेति सतेते स्वत्रादयाः उदाहृताः"कौ० व्या० । यातायात - संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) आमा जाना, आवागमन, गमनागमन. आमदरफ़्त (का० ) । " यातायाते संसारे मृत्तः को वा न जायते " - नीति | यातुधान-संज्ञा, पु० (सं०) राजप जातु धान (दे०) यातुधन अंगद बल देखी " - रामा० । यात्रा - संज्ञा, खो० (सं०) एक जगह से दूसरी जगह जाने का कार्य, प्रस्थान, सफर, तीर्थाटन, प्रयाण । यात्रावाल -- संज्ञा, पु० ( सं० यत्रा + वाल Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir याम BOOOW-OF हि० - प्रत्य० ) यात्रियों को देव दर्शन कराने वाला पंडा । यात्रिक - वि० (सं०) यात्रा करने वाला । यात्री - संज्ञा, पु० ( नं० यात्रा ) यात्रा करने वाला, पथिक, बटोही, मुसाफिर, तीर्थ जाने वाला । याथार्थिक वि० ( ० ) वास्तविक, सत्य, ठीक, तथ्य | याथार्थ्य -संज्ञा, पु० (सं० ) सत्यता, यथार्थता | -- याद - संज्ञा, स्रो० ( फा० ) स्मृति, सुरति, स्मरण शक्ति, सुधि । 1 यादगार - संज्ञा, स्त्री० [फा०] स्मृति चिन्ह | संज्ञा, स्रो० - यादगारी -स्मरण । याददाश्त संज्ञा, सो० ( [फा० ) स्मृति, स्मृति के लिये लिखी बात, स्मरण शक्ति । यादव - संज्ञा, पु० (सं०) यादों, जादौयदु के कुटुंबी, या वंशज जादव (दे० ) । स्त्री० यादवी । याक - वि० (सं०) जैसा । यादशी - वि० स्त्री० (सं०) जैसी । " यादृशी भावना यस्य सिद्धिर्भवति तादृशी " - वारमी० । यान - संज्ञा पु० (सं०) रथ, गाड़ी, सवारी, वाहन, विमान, श्राकाशयान, हवाई जहाज़, शत्रु पर चढ़ाई करना । सीतहिं थान चढ़ाय बहोरी " रामा० । यानी याने श्रव्य० (०) श्रर्थात्, तात्पर्य, 68 For Private and Personal Use Only मतलब । यापन - संज्ञा, पु० (सं०) चलाना, बिताना, निबटाना, व्यतीत करना । वि० यापित, याप्य यापनीय । यौ० काल यापन | यात्र - संज्ञा, पु० ( फा० ) छोटा घोड़ा, टट्टू । याबुक - संज्ञा, पु० (सं०) महावर, लाल रंग । याम - संज्ञा, पु० (सं० ) समय, काल, एक पहर, जाम (दे० ), तीन घंटे का समय, एक तरह के देवगण | " दिवस रहा भरि "" याम - रामा० । संज्ञा, खो० (सं० यामि) रात, यामिनी । Page #1466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra यामना यामना - संज्ञा, पु० (दे० ) अंजन, सुरमा । यामल - संज्ञा, पु० (०) यमज, जुड़वाँ, एक तंत्र ग्रंथ । यामि - संज्ञा स्त्री० (सं०) धर्म - पत्नी । यामिक - संज्ञा, पु० (सं० ) पहरुथा यामिका - संज्ञा, खी० (सं०) रात | यामिनि यामिनी संज्ञा स्त्री० (सं०) रात, रात्रि, जामिनि, जामिनी (द०) । "चंद बिनु यामिनी त्यों कंत बिनु कामिनी है ' - स्फुट० । www.kobatirth.org याम्य - वि० (स० ) यम का, यम- संबन्धी, दक्षिण का । याम्योत्तर दिगंश संज्ञा, पु० यौ० (सं०) लंबांश, दिगंश दक्षिणोत्तर दिग्विभाग ( भू०, ख० ) । याम्योत्तर रेखा - संज्ञा स्त्री० यौ० (सं०) सुमेरु कुमेरु से होती हुई भूगोल के चारों ओर की कल्पित रेखा (भू० ) ! यार - संज्ञा, पु० ( फ़ा० ) मित्र, प्रिय दोस्त, उपपति, जार । यार वही दिलदार वही जो करार करें श्रौ करार न चूके - स्फु० । यौ० यार-दोस्त | १४५५ - स्फु० / " L& याराना - संज्ञा, ५० (का० ) मैत्री मित्रता, दोस्ती | वि० मित्र या मित्रता का सा । यारी - संज्ञा, स्त्री० (फा० ) मित्रता, दोस्ती, मैत्री, प्रेम, स्नेह | को न हरि-यारी करे ऐसी हरियारी मैं " - जि० । यावज्जीवन - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) जीवनभर, जन्मभर । " यावज्जीवन दास रहूँगा आप का --कुं० वि० । 37 - यावद् यावत् प्रव्य० (सं०) जब लग जब तक, जौलों (०), जितने । 66 यावनी - वि० (सं०) यवन-संबंधी । वदेत् यावनीम् भाषाम् कंठे प्राणगतैरपि यासु -- स० "यासु राज प्रिय प्रजा दुबारी न " ( सं० ) जासु, जिसके, :" 'रामा० । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir युग SAVALIERE यास्क - संज्ञा, पु० (सं०) वैदिक निरुक्तकार एक प्रख्यात ऋषि । याहि-याही ** - सर्व ० (दे० ) इसे इसको, इसी । " याही डर गिरिजा गजानन को गाइ रही --पद्मा० । "" युंजान - संज्ञा पु० (सं० ) श्रभ्यास करने वाला योगी गुंजान: योगमुत्तमम् " -गीता० । युक्त - वि० (सं० ) मिला या जुड़ा हुआ, संमिलित नियुक्त, संयुक्त, उचित, उपयुक्त, ज़ुक्त (दे०) युक्ताहार बिहाराभ्याम् " 46 - मा० नि० । For Private and Personal Use Only युक्ता - संज्ञा, स्त्री० (सं० ) एक वर्णिक छंद जिसमें दो नग और एक मगण होता है (पिं० ) । युक्ति - संज्ञा, सो० (सं० ) कौशल, वाल, उपाय, चातुरी, तदवीर, ढंग, प्रथा, न्याय, रीति, नीति, मिलन, तर्क, उचित, विचार, ऊहा योग । जुगुति जुक्ति (दे० ) । " युक्ति विभीषण कत बताई ". - रामा० स्वमर्म, गोपनार्थ किसी को युक्ति या क्रिया के द्वारा वंचित करने की सूचना देने वाला एक थलंकार (काव्य०), स्वभावोक्ति (केश० ) । युक्तियुक्त - वि० (सं०) युक्ति-संगत, तर्कपुष्ट, वाजिब, ठीक, चातुरी पूर्ण । युगंधर - सज्ञा, पु० ( सं० ) हरिस. एक पहाड़ गाड़ी का वम । युग -- संज्ञा, पु० (सं०) युग्म, जोड़ा, मिथुन, जुश्रा, जुआर ( प्रान्ती ० ), पाँसे के खेल में दो गोटों का एक ही घर में साथ था जाना, बारह वर्ष का समय, काल, समय, काल का एक दीर्घ परिमाण (पुरा० ) युग चार हैं : सत्य, त्रेता, द्वापर, कलि, चार की संख्या । जुग (दे०) । यौ० युगयुगांतर । ग्रह नत्र युग जोरि अरधकरि सोई बनत अब खात सुर" । सुहा" - युग युगबहुत दिनों तक । यौ० - युगधर्म कूबर. 46 " समायानुसार व्यवहार | Page #1467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir युगति, युगुति युवा युगति-युगुति-संज्ञा, स्त्री० दे० ( सं० युधिष्ठिर-संज्ञा, पु० (सं०) धर्मराज पाँच युक्ति ) युक्ति, तदबीर, जुगुति (दे०)। पांडवों में सब से बड़े और धर्मात्मा । उपाय, तर्क, ढंग । “ योगः युगति की “दान में करण और धर्म में युधिष्ठिर अग्नि मैं "-स्फु०। लौं"-स्फु०। युगपत - अव्य. (सं०) साथ साथ, एक युगु-संज्ञा, पु० (सं०) घोड़ा. अश्व : बारगी। " अथ रिरि सुरम्म युगपनिरौ". युयुत ---संज्ञा, पु. (सं०) योद्धा सिपाही. -माघ० । “युगपद् ज्ञानानुत्पतिर्मनसो धृतराष्ट्र का दूसरा नाम ( महा० ) लिंगम "-न्या. शा. युयुत्मा संज्ञा, स्त्रो. ( सं०) युद्ध करने युगम---संज्ञा, पु० दे० ( सं० युग्म ) दो या लड़ने की इच्छा, विरोध, बैर. शाता । जोड़ा, जुग्म (दे०)। युयुत --- वि० (स०) युद्ध करने या लड़ने युगल --- संज्ञा, पु० (सं०) युग्म, जोड़ा, को इच्छा रखने वाला, जो युद्ध चाहता हो युगुल, जुगुल (दे०) । विहँसत युगल " समवेतायुयुत्सवः ''-भ० गी० । किशोर"- सूर० । युयुधान--संज्ञा, पु० सं० ) इन्द्र, क्षत्रिय, युगांत - संज्ञा, पु० (सं० ) युग का अंत. योद्धा । " युयुधानी विराटश्च द्रुप,श्च खीर, युग का प्रलय : महारथ "-- भ० गो। युगांतर-संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) दूसरा युवक - संज्ञा, पु० (स.) जवान, युवा, सोलह समय या युग और ज़माना, दूसरा युग। से पैंतीस वर्ष तक की आयु का मनुष्य । मुहा०-युगांतर उपस्थित करना-- युवति-युक्ती-संज्ञा, स्त्री० (सं०) मुग्धा, पुरानी रीति मिटाकर नयी चलाना। तरुणी, नबोढ़ा, जवान स्त्री, 'तुवती (दे०)। युगाद्या- संज्ञा, स्त्रो० (सं०) युगारंभ की। " नोझितु युवति नाननिरासे ...- काद्य. तिथि या तारीख, युगारम्भ-समय । " युवती भवन झरो बन लागी''-रामा० युग्म--- संज्ञा, पु० (सं०) दो जोड़ा, युग, युवनाश्व - संज्ञा, पु. (सं० ) सूर्यवंशीय जुग्म (दे०) द्वंड, मिथुनराशि ( ज्यो०)। राजा प्रसेनजित् का पुन ( पुरा० )। युजान -- संज्ञा, पु. ( स०) सारथी गाड़ी- युवराई ----संज्ञा, पु. द० ( सं० युराज ) वान। राजा का सब से बड़ा लड़का जिसे आगे युज्यमान-वि० (सं०) मिलने योग्य, युक्त राज्य मिले । संज्ञा, सी० युराज की पदवी : होने के उपलक्त । युवराज- संज्ञा, पु० (सं०) राजा का सब से युज्जान--संज्ञा, पु. ( सं०) सूत, सारथी, जेठा पुत्र जिसे धारे राज्य मिले, जुवराज विज्ञ, ध्यान-द्वारा सर्वज्ञाता यांगी। (दे०); स्त्री० युवराज्ञी । मुदिन सुमंगल युत-वि० (सं० ) युक्त, सहित, मिलित । तब हि जब राम हेहिं युवराज-रामा ! जुत (दे०)। ; युवराजी-सज्ञा, स्त्री० दे० ( सं० युवराज :युति-संज्ञा, स्त्री० ( सं० ) मिताप, योग। ई-प्रत्य० ) युवराज का पद, युवराज्य, युद्ध -- संज्ञा, पु. (सं०) सग्राम, रण, लड़ाई, युवराज का कर्म जुद्ध (दे०)। " राम-रावणयोयुद्धम् ” युवराज्ञी-- संज्ञा, मो. ( सं० ) युवराज की -भट्टी। पत्नी युधाजित-संज्ञा, पु० (सं० ) भरत के ! युवा-वि० सं० युरन् ) जवान, सिपाही मामा । । युवक । जुवा (दे०)। स्त्री० युवती । युधान --संज्ञा, पु० (सं०) जात्रय जाति । “युवा युगव्यायत बाहुरंसलाः - रघु० : For Private and Personal Use Only Page #1468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir युष्मद् योगनिद्रा युष्मद्-सर्व० (सं०) तू, तुम । “ समस्य। इतना, इत्तो (ग्रा.)। " येतो बड़ी माने यम्मदस्मद् "-कौ० व्या० । समुद्र है जगत पियासो जाय"-रही। य-अव्य० दे० ( हि० यों) यों। येहू*--भव्य दे० (हि० यह + हू ) येऊ युक-संज्ञा, पु० (सं०) जू, मत्कुण, (व.) ये या यह भी। " लोक-वेद सब खटमल। कर मत येहू"--रामा० । युत-संज्ञा, पु० दे० (सं० यूति) मेल, मिला- यो-यों-अव्य० दे० (सं० एवमेव ) ऐसे, घट। __इस भाँति, इस प्रकार से, इस तरह पर । यूथ-संहा, पु० (सं० ) झंड, समूह, वृंद। योंही --- अव्य० (हि. यों+ही) ऐसे ही, सेना, दल, जथ (दे०)। यूथ यूथ मिलि- बिना किसी विशेष प्रयोजन के, इसी प्रकार कुं० वि० । यौ०-यथेश-सेनापति । या तरह से, व्यर्थ ही, बिना काम । यूथप-यूथपति --- संज्ञा, पु० (सं०) सेनापति। योग-संज्ञा, पु. ( सं०) मिलना, मेल, "पदम अठारह यूथप बंदर "-रामा० । संयोग, उपाय, शुभ समय, ध्यान, प्रेम, युथिका-संज्ञा, स्त्री० (सं०) जुही का फूल। संगति, स्नेह, धोखा, छल, प्रयोग, यूनान-संज्ञा, पु० दे० (ग्रीक-प्रायोनिया)। औषधि, धन, लाभ, नियम, साम, दाम, साहित्य और सभ्यता के लिये प्रसिद्ध महाद्वीप दंड और भेद नामक चारों उपाय, यूरुप का एक प्राचीन प्रदेश । " यूनान | संबंध, सम्पत्ति और धन कमाना और का सिकन्दर फारिस का शाहदारा'- बढ़ाना, वैराग्य, ध्यान और तप, दो कु. वि.। या कई राशियों या संख्याओं या अंकों का पनानी-वि० (यूनान---ई--प्रत्य.) यूनान जोड़ (गणि), एक छंद (पिं०)। ताइघात, का, यूनान-संबंधी यूनान-वासी । संज्ञा, स्त्री० सुभीता, कुछ विशेष अवसर (फ० ज्यो०), यूनान की भाषा, यूनान की चिकित्सा- मुक्ति का उपाय, चित्त की वृत्तियों का प्रणाली, हकीमी। रोकना । "योगश्च चित्तवृत्ति निरोधः" यूप-संज्ञा, पु. ( सं० ) यज्ञस्तंभ, बलि- - (पतं.)। मन को एकाग्र कर ब्रह्म में पशु के बाँधने का खंभा । . कनक यूप योग द्वारा लीन होने का विधायक एक दर्शन समुच्छ्य शोभिनः ''-रघु.) शास्त्र । यूपा-संज्ञा, पु० दे० (सं० चूत ) जुआ, योगक्षेम--संज्ञा, पु. (सं०) नवीन वस्तु की प्र-कर्म। प्राप्ति और प्राप्त की रक्षा, जीवन निर्वाह, यूष-संज्ञा, पु. ( सं० ) जूस (दे०), पथ्थ । कुशल क्षेम, कुशल-मंगल, राज्य का सुप्रबंध । यूह-संज्ञा, पु० दे० (सं० यूथ ) झुड, “नियोग ऐम प्रात्मवान् " . भ० गी०। समूह, समुदाय, वृंद। । योगज-संज्ञा, पु० (सं०) अलौकिक संनिकर्ष । ये-सर्व० दे० ( हि० यह का आदर-सूचक । वि०-योग संबंधी। था, बहु. १०) यह सब, । “ केशव ये योगतत्व-- संज्ञा, पु० यौ० (सं.) एक उपनिषद् । मिथिलापति हैं"--राम । योगत्व-संज्ञा, पु० (सं०) योग का भाव । येई -सर्व० दे० (हि. यह+ ई-प्रत्य०) | योगदर्शन-संज्ञा, पु० यौ० (स०) षट् दर्शनों यही, येही। में से एक जिसके कर्ता पतजलि ऋषि हैं । येऊो-सर्व० दे. (हि० ये-ऊ-प्रत्य०) योगनिद्रा-संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) युगान्त पह भी। में विष्णु की नींद, जिसे दुर्गा मानते हैं येतो-एतो*-वि० दे० (हि० एतो ) ( पुरा०)। मा० श. को०-१३ For Private and Personal Use Only Page #1469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir दुर्गा। योगपट्ट योजन योगपट्ट-संज्ञा, पु. यौ० (सं०) ध्यान के | योगिनी-संज्ञा, स्त्री० (सं०) रण-पिशाचिनी, समय में पहनने का कपड़ा, योगपट । तपस्विनी, योगाभ्यायिनी, योगिनी या पाठ योगफल-संज्ञा, पु. यौ० (१०) दो या विशेष देवियाँ हैं:-शैलपुत्री, चंद्रघटा, स्कंदअधिक संख्याओं के जोड़ने से प्राप्त संख्या माता, कालरात्रि, चंडिका, कुष्मांडी, (गणि०), योग करने का परिणाम । कात्यायनी, महागौरी, योगमाया, देवी। योगबल-संज्ञा, पु. यौ० (सं.) तपोबल, ज्योतिष में एक प्रकार का विचार । योगी को योग-साधन से प्राप्त शक्ति विशेष, योगिराज, योगींद्र--संज्ञा, पु. यौ० (सं०) योगसिद्धि (योग)। बहुत बड़ा योगी, शिव, योगीश । योगभ्रष्ट-वि० यौ० (सं०) योग से गिरा योगी-संज्ञा, पु. ( सं० यागिन ) योग के हुआ । “धनिनाम् योगिनाम् गेहे योग द्वारा सिद्धि-प्राप्त व्यक्ति, आत्मज्ञानी, योग भ्रष्टोऽपि जायते'...-भ० गी। की क्रियायों का अभ्यासी, शिव, महादेव, योगमाया-संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) देवी, | जोगी (दे०)। यौ०-योगी-यती। भगवती, विष्णु की शक्ति, महामाया, योगीनाथ- संज्ञा, पु.. यौ० (सं०) महादेव प्रकृति, यशोदा की कन्या जिसे कंस ने जी। मारा था (भाग०)। | योगीश, योगीश्वर--संज्ञा, पु. यौ० (सं०) योगरूढ़ि- संज्ञा, स्त्री० (सं०) ऐसी संज्ञा नो | बड़ा योगी, सिद्ध, तपस्वी, याज्ञवल्क। देखने में तो यौगिक संज्ञा सी हो किन्तु योगीश्वरी-संज्ञा, सी० यौ० (सं०) देवी, अपना सामान्य शाब्दिक अर्थ छोड़कर विशेष सांकेतिक अर्थ दे (व्या०)। | योगेंद्र-- संज्ञा, पु० यौ० (सं०) श्रेष्ठ या बड़ा योगवाशिष्ठ-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) वशिष्ट- योगी। कृत एक वेदांत ग्रंथ । | योगेश्वर-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) बड़ा भारी योगशास्त्र-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) महर्षि योगी, महात्मा, कृष्णा. शिव। “यत्रयोगेश्वरः पतंजलिकृत योगदर्शन, जिसमें योग साधन कृष्णः तत्रवैविजयो यम्'-- महाभा० । और चित्तवृत्ति-निरोध का विधान है। योगेश्वरी-- संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) देवी, योगसूत्र-संज्ञा, पु. यौ० (सं०) महर्षि पतं- दुर्गा । जलिकृत योग-संबंधी सूत्रों का संग्रह ग्रंथ । योग्य--वि० (सं०) उपयुक्त, लायक, अधियोगांजन-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) सिद्धांजन। कारी, ठीक, विद्वान, क़ाबिल, उचित, पात्र, योगात्मा-संज्ञा, पु. यौ० (सं० योगात्मन् ) श्रेष्ठ, उपायी, उचित, माननीय, युक्ति योगी। लगाने वाला, सम्मानित, श्रादरणीय ।। योगाभ्यास-संज्ञा, पु. यौ० (सं०) योग योग्यता-संज्ञा, स्त्री० (सं०) लियाक़त, शास्त्रानुसार योग के अष्टांगों का अनुष्ठान क्षमता, काबलियत, पात्रता, श्रेष्ठता, गुण, या साधन । औकात, सम्मान, प्रतिष्ठा, सामर्थ्य, बड़ाई, योगाभ्यासी-संज्ञा, पु० यौ० (सं० यागा- उपयुक्तता। भ्यासिन् ) योग की क्रियाओं को बारम्बार योजक- वि० (सं० मिलाने या जोड़ने करने वाला, योगी। वाला। योगारूढ़-संज्ञा, पु० यौ० (सं.) योगी। योजन-संज्ञा, पु. (सं०) जोजन (दे०), योगासन-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) योग करने परमात्मा, योग, संयोग, मिलान, दो या के हेतु बैठने की रीतियाँ या संग । चार या आठ कोस की दूरी, (मत-भेद)। For Private and Personal Use Only Page #1470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir योजनगंधा १४५६ रंक वि०-योजनीय, योज्य, योजित । यौगंधर-संज्ञा, पु. (सं०) शत्रु के अस्त्रों “योजन भरि तेहिं बदन पसारा"-रामा० का निष्फल करने वाला एक अस्त्र। योजनगंधा- संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) सत्य- योगिक-संज्ञा, पु. (सं०) मिला हुआ, वती, व्यास माता, शांतनु की पत्री। मिलित, दो या अधिक शब्दों के योग से योजना-संज्ञा, स्त्री० सं०) नियुक्ति, व्यवहार, बना शब्द, प्रकृति और प्रत्यय के योग से प्रयोग, मिलान, जोड़, मेल, रचना, बनावट, बना शब्द, अट्ठाईस मात्राओं की छंदों का आयोजन, श्रागे के कामों की व्यवस्था । नाम | वि०.-योग-सम्बन्धी। वि०-योजनीय, योजित। योतक, यौनक--संज्ञा, पु. (सं०) दायज, योद्धा-संज्ञा, पु. ( सं० योद्ध ) लड़ाका, दहेज, जहेज (ग्रा.) व्याह में वर-कन्या को लड़ने वाला, सिपाही, वीर, योधा, जोधा प्राप्त धन । योतिक-संज्ञा, पु० दे० (सं० ज्योतिष् ) योधन- संज्ञा, पु० (सं०) युद्ध, संग्राम, ज्योतिष । लड़ाई। यौधेय-संज्ञा, पु० (सं०) वीर, शूर, योद्धा, योधा, जोधा-संज्ञा, पु० दे० ( सं० योद्ध) एक प्राचीन योद्धा जाति, एक प्राचीन देश । योद्धा। यौवन-संज्ञा, पु० (सं०) जीवन का मध्य योधापन-- संज्ञा, पु० दे० (सं० याद्ध त्व) भाग (काल), लड़कपन और बुढ़ापे के बीच वीरता, शूरता। का समय जो सोलह से पैंतीस वर्ष तक योनि-संज्ञा, स्त्री० (सं०) खानि, प्राकर, माना गया है, जोवन (दे०), जवानी, उत्पत्ति-स्थान, उद्गमस्थान । “चौरासी तरुणता, तरुणाई। लख जिया योनि में भटकत फिरत अनाहक' | यौवनलक्षण-वि० यौ० (सं०) जवानी के -विन । जीवों की जातियाँ, वर्ग या चिह्न लावण्य, सुन्दरता। विभाग जो चौरासी लाख कही गयी है. गाव नाश्व-संज्ञा, पु. (सं०) राजा मान्भग, जननेंद्रिय, स्त्री-चिन्ह, देह, शरीर, पाता। जोनि (दे०)। | यौवराज्य-ज्ञा, पु. (सं०) युवराज का योनिज- संज्ञा, पु० (सं०) भग या योनि से पद, भाव या कर्म । “स यौवराज्ये नवउत्पन्न होने वाले जीव । यौवनोद्धतं :- किरात। योषा, योपित-संज्ञा, स्त्री. (सं०) नारी, यौवराज्याभिषेक-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) स्त्री । “योपा प्रमोदं अचुप्रयाति".-- लो. वह उत्सव या अभिषेक (स्नान, तिलक श्रादि) रा० । “उमादारु योषित की नाई"-रामा० । जो किसी राजकुमार के युवराज बनाये जाने यौंको-प्रव्य० दे० ( हि. यों) यों, इस के समय होता है। प्रकार । योत्सना-संज्ञा, स्त्री. (सं०) ज्योत्सना, यौ-सर्व० दे० ( हि० यह ) यह। उजियाली रात। र-संस्कृत तथा हिन्दी की वर्णमाला में से "ऋपानाम् मूर्धा।" संज्ञा, पु० (सं०) अंतस्थों का दूसरा और समस्त वर्गों में कामाग्नि, प्राग, पावक, सितार का एक २७ वाँ अक्षर, जिसका उच्चारण जिह्वान बोल | भाग-द्वारा मूर्धा के स्पर्श करने से होता है- रंक-वि० (सं०) दरिद्र, कंगाल, सुस्त, कंजूस, For Private and Personal Use Only Page #1471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रंग Recommonsaan रंग कृपण । “मनहु रंक धन लूटन धाये"- | प्रगट करना । यौ०-रस-रंग-क्रीड़ा-कौतुक, रामा० । संज्ञा, स्त्री०-रंकता। काम-क्रीड़ा, प्रेम-क्रीड़ा । मुहा०--रंग रंग-संज्ञा, पु. (सं०) नृत्य-गीत या अभिनय | जमाना (जमना) या बाँधना (बँधना) का स्थान, नाच-गान, नाच-गान का -अातंक बैठाना ( बैठना), प्रभाव डालना स्थान, आकार-भिन्न किसी दृश्य वस्तु | (पड़ना)। रंग दिखाना-प्रभाव, अातंक का नेत्रानुभव जन्य गुण, युद्ध-स्थल, वर्ण या महत्व दिखाना। रंग देखना दिखाना) (वस्तु, देह या मुख का ), किसी वस्तु के | -परिणाम या निष्पत्ति देखना (दिखाना)। रंगने का पदार्थ, रंगत, राँगा धातु । रंग- रंग लाना-फल, गुण या प्रभाव दिखाना। शाला-(सं०-"रंजते यस्मिन्-रंगम् )। "रंग लायेगी हमारी फ़ाक़ा-मस्ती एक मुहा०-(चेहरे का ) रंग उड़ना या दिन" -- ग़ालि० । खेल, कौतुक, क्रीडा, उतर जाना- चेहरे की कांति या श्री का । उत्सव, आनंद । यौ०-रंग-रलियाँ (रँगमिट जाना, हत-श्री या हतप्रभ होना । रेलियाँ)--श्रामोद-प्रमोद, मौज, रंगरेली। रंग निखरना (खिलना)-चेहरे का रंग रलना--मौज करना, श्रामोद-प्रमोद साफ या चमकदार होना। रंग बदलना ! करना मुहा०-रंग में भंग पड़ना--अप्रसन्न या क्रोधित होना। (मुख का) श्रानंद में विघ्न पड़ना (होना) । युद्ध, समर, रंग फीका पड़ना-- चेहरे की कांति का दशा, हाल । जैसे-क्या रंग है। मुहा०-- मलिन हो जाना। (गिरगिट सा) रंग। रंग बिगड़ना (बिगाड़ना) हालत ख़राब बदलना- किसी बात पर स्थिर या स्थायी होना करना) । रंग मचाना-संग्राम में खूब न रहना, बात बदलना, दशा परिवर्तन लड़ना। रंग (रानि) रचाना ( मचाना) करना । मुहा० --- रंग उड़ जाना-रंग -होली में खूब रंग फेंकना, मन की उमंग, फीका या उदास पड़ जाना जवानी, यौवन, श्रानंद, मज़ा । मुहा०-रंग जमनायुवावस्था । मुहा०-रंग चना (आना, अति अानंद होना, आतंक या महत्व या टपकना)-पूर्ण यौवन का विकास थाना । प्रभाव फैलना या होना, खूब मज़ा होना। रंग करना-खुशी करना, 'पानंद में समय रंग मचाना-(शुद्ध में ) धूम मचाना। बिताना । रंग चढ़ना- नशे में चूर होना। रंग रचना-महत्व या प्रभाव रखना। रंग चूना या टपकना-गौवन उभड़ना, रंग रचना-उत्सव करना। रंग होना जवानी प्रगट होना। सुषमा, शोभा, छवि, -अातंक या प्रभाव होना । दशा, अद्भुत, सुन्दरता, छटा, प्रभाव, असर. अातंक । कांड, दृश्य, प्रसन्नता, व्यापार, कृपा, प्रेम, मुहा०- रंग खिल उठना-कांति का ढंग, रीति, चाल । यौ०-राग-रंगबढ़ जाना। रंग या जाना (आना)- श्रामोद-प्रमोद, नाच-गान । “राग-रंग गुण-वृद्धि होना, विशेषता या जाना, मज़ा मनहिं न भावै' ... गिर० । यौ०-रंग ढंग श्रा जाना । रंग चढ़ना (चढ़ाना)- --- हाल, दशा, तौर-तरीका, चाल-ढाल, प्रभाव पड़ना (डालना)। “सूरदास की कारी व्यवहार, लक्षण, बरताव । मुहा०-रंग कमरि चढ़ न दूजो रंग'-- रंग जमना में भंग होना ( करना, डालना)-श्रसर या प्रभाव पड़न', अातंक छा आनंद या अच्छे काम में विघ्न पड़ना जाना । रंग फीका होना ( पड़ना )- ( करना या डालना )। रंग काछना - प्रभाव या कांति का कम होना । गुण महत्व ढंग पकड़ना । प्रकार, भाँति, चौपड़ की का प्रभाव, धाक । रंगदिखाना-प्रभावातंक | गोटियों के दो हिस्सों में से एक । मुहा० For Private and Personal Use Only Page #1472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रंगीला रंगनवनि -रंग मारना-विजय पाना, बाज़ी। रंगरसिया--संज्ञा, पु० यौ० ( हि० रंग+ जीतना । रंग रातना-गहरा प्रेम या रसिया) संसक-विलासी, भोग-विलास करने अति मित्रता । रंग लगना-अधिकार वाला। फैलाना, प्रभाव जमाना। रंगराज. रंगराट-संज्ञा, पु० (सं०) श्रीकृष्ण रंगअवनि-संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) रंगभूमि __ जी । " रमया सह रंगराट"-स्फु.। "रंगप्रवनि सय मुनिहिं दिखाई -रामा०। रंगराता-वि० यो० (हि.) प्रेम या अनुराग रंगक्षेत्र--संज्ञा, पु० यौ० (सं०) रंगभूमि, से पूर्ण । '' अंगराती चली रंगराती भली।" नाटक की जगह, तमाशे या जलसे का स्थान । रंगराग--संज्ञा, पु. यौ० (सं०) श्रामोदरंगत-संज्ञा, स्त्री० (हि. रंग+ त-प्रत्य० ) प्रमोद, रसरंग, रागरंग ।। मानंद, मज़ा, अवस्था, दशा, रंग का भाव। । रंगरावा -- वि० (हि०) रँगा हुआ, प्रसन्न । रंगतरा-संज्ञा, पु० । हि० रंग) मीठी और रंगरूट-संज्ञा, पु० दे० (अं० रिक्रट ) पुलिस बड़ी नारंगी, संगतरा, संतरा (दे०)। या सेना का नया सिपाही, किपी काम का रंगना-स० कि० ( हि० रंग । ना-प्रत्य० ) प्रारम्भ करने वाला प्रादमी। रंग में डुबो कर किसी वस्तु पर रंग चढ़ाना, रंगरूप --संज्ञा, पु० यौ० (सं०) श्राकार-प्रकार, रंगीन करना, निज प्रेम में किसी को चमक दमक, रङ्ग ढङ्ग । फंसाना, स्वानुकूल करना । अ० क्रि० - रंगरेज-संज्ञा, पु० (फ़ा०) कपड़े रगने वाला। किसी पर मोहित या प्रासक्त होना। | " छीपी श्री रंगरेज़ तें नित्य होति तकरार" (स० रूप-रंगाना, प्रे० रूप-रंगवाना )। - स्फु० । नी० रंगरेजिन | संज्ञा, स्त्रीरंगनाथ-संज्ञा, पु० । सं०) एक विष्णु-मुर्ति, रंगरेजी। दक्षिण में वैष्णवों का मुख्य तीर्थ । रंगरेली--संज्ञा, स्त्री० (हि.) आमोद-प्रमोद, रंगबिरंगा--वि० यौ। (हि. रंग-बिरंग) कई क्रीडा, खेल । रंगों वाला, विचित्र, चित्रित ! रंगवाई, रंगाई-संज्ञा, स्त्री० ( हि० रंगवानारंगभवन-संज्ञा, पु० यौ० (सं०. रंगमहल, रंगाना ) रंगने की क्रिया या मज़दूरी। रंगभोन (दे०), भोग-विलास करने का रंगशाला- संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) नाटक स्थान । “रंगमौन भीतर पलंग पर संग खेलने का स्थान, नाट्यशाला, प्रेक्षागृह होत"-फु० । ( नाट्य०)। रंगभूमि--संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) तमाशे रंगसाज-संज्ञा, पु. यौ० (फा०) वस्तुओं या जलसे का स्थान, नाटक खेलने की। पर रंग चढ़ाने वाला. रंग बनाने वाला, जगह, नाट्यशाला, अखाड़ा. यद्धस्थल, रंगसाज (दे०)। संज्ञा, स्त्री० --रंगसाजी । मल्लशाला, रणभूमि। " रंगभूमि जब सिय रंगस्थल, मंगस्थली-संज्ञा, पु० स्त्री०) पगुधारी"-रामा० । यौ० (सं०) उत्सव या क्रीड़ा-कौतुक का स्थान, रंगमहल-संज्ञा, पु० यौ० (हि० रंग+ महल रंगशाला। म०) रंगभवन, रंगमंदिर, भोग-विलास रंगी-वि० ( हि० रंग + ई-प्रत्य० ) आनंदी, करने का स्थान, रंगागार, रंगसदन। मौजी. प्रसन्नचित्त, विनोदी। रंगरली-- संज्ञा, स्त्री० (हि० रंग-। रलना ) रंगीन - वि० (फा०) रंगदार, रंगा हुआ, भामोद-प्रमोद, कीड़ा, खेल । विलास-प्रिय, श्रामोद प्रिय, मजेदार । संज्ञा, रंगरस - संज्ञा, पु. यौ० सं०) श्रामोद- स्त्री०-रंगीनी।। प्रमोद, क्रीड़ा, खेल। रंगीला-वि० (हि० रंग+ ईला-प्रत्य०) For Private and Personal Use Only Page #1473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रंगोपजीवी रइको - रसिया, रसिक, आनंदी, प्रेमी, सुन्दर। | रंता*-वि० दे० ( सं० रत ) अनुरक्त, स्त्री०-रंगीली। प्रेमी। रंगोपजीवी-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) नट। | रति-संज्ञा, स्रो० (सं०) क्रीड़ा। यौ०रंच, रंचक*- वि० दे० (सं० "रंच ) अल्प, रंतिदेव-एक राजा (ग्रा.)। थोड़ा, किंचित । रंद-संज्ञा, पु० दे० ( सं० रंध्र ) रोशनदान, रंज-संज्ञा, पु० (फ़ा०) शोक, दुख, खेद । प्रकाश-छिद्र, झरोखा, किले की दीवालों "रंज से खूगर हुआ इन्साँ तो घट जाता में बंदूक या तोप चलाने के लिये छेद मार। है रंज"-गालि । वि.--रंजीदा।। रंदना-स० क्रि० दे० (हि० रंदा+ना-प्रत्य०) रंजक- वि० (सं०) रँगने वाला, प्रसन्न करने | रंदे से छील कर लकड़ी को चिकना या वाला । संज्ञा, स्त्री० दे० (हि० रंच = अल्प) बराबर करना। बंदूक या तोप की प्याली में रखी जाने रंदा- संज्ञा, पु० दे० (सं० रदन = काटन, वाली तेज़ और थोड़ी सो बारुद, उत्तेजक चीरना ) लकड़ी को छीलकर साफ़, चिकना या भड़काने वाली बात । और समतल करने का एक औज़ार (बढ़ई)। रंजन-संज्ञा, पु. (सं०) रँगने की क्रिया, | रंधक---संज्ञा, पु. ( सं० रंधन ) रसोइया, मन के प्रसन्न करने की क्रिया, लाल चंदन, । रसोई बनाने वाला। छप्पय का ५०वा भेद (पि.)। वि० रंधन-संज्ञा, पु. (सं०) रसोई बनाना, रंजनीय, रंजित । पकाना, राँधना (दे०)। रजना*--स० क्रि० दे० (सं० जन ) प्रसन्न रंभ-संज्ञा, पु० (सं०) गंभीर नाद, भारी या हर्षित करना, स्मरण करना, भजना, शब्द, बाँस, एक बाण । रँगना। रंजनीय-वि० (सं०) श्रानंददायक, रंगने | रंभन संज्ञा, पु० (सं०) श्रालिंगन, भेंटना । वि०-रंभनीय। योग्य । रंजित--वि० (स.) रँगा हुधा, प्रसन्न, रंभा, रम्भा--संक्षा, स्त्री. (स.) केला, वेश्या, एक देव, अप्सरा ( पुरा० ), उत्तर अनुरक्त । रंजिश-संज्ञा, स्त्री० (फा०) रंज होने का | दिशा । संज्ञा, पु० ( १० रंभ ) दीवाल श्रादि भाव, शत्रुता, बैर, मनमुटाव, मनोमालिन्य । के खोदने का लोहे का एक मोटा भारी रंजीदा-वि० (फा०) दुखित, शोकाकुल, डंडा, कुदाल । "रंभा झूमत हो कहा"अप्रसन्न । संज्ञा, स्त्री०-रंजीदगी। दीन। रंडा-संज्ञा, पु० (सं०) वैधव्य, वेश्या, राँड़, भाना--ग्र० क्रि० दे० ( सं० रंभण ) गाय बेवा। का शब्द करना या बोलना। रंडापा-संज्ञा, पु० (हि० राँड़ --- पापा-प्रत्य०) रंभित-वि० (सं०) बजाया या शब्द किया वैधव्य, विधवापन, विधवा की दशा। हुश्रा, श्रालिगित । रंडी-संज्ञा, स्त्री० दे० ( सं० रंडा ) वेश्या । रहचटा-संज्ञा, पु० दे० (हि. रहस---चाट ) पतुरिया, कसवी (प्रान्ती०)। | चस्का, लालच, लोलुप, लालची। " रूप रंडीबाज-संज्ञा, पु. (हि.डी+ बाज़. रँहचटे लगि रहे''- वि० । फ़ा०) वेश्यागामी । संज्ञा, स्त्री-डीबाजी। रअय्यत, रइअत-संज्ञा, स्त्री० (अ०) प्रजा, रँडा , रँडुवा-संज्ञा, पु० दे० ( हि० रॉड रिवाया, रेय्यत (दे०)। +उपा-प्रत्य० ) जिसकी स्त्री मर गयी हो। रइको-कि० वि० दे० ( हि० रंची+कौ For Private and Personal Use Only Page #1474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org रइनि – संज्ञा स्त्री० दे० रैन, रात्रि | रई - संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० रहनि प्रत्य० ) रंघ, कमी, अल्प या थोड़ा भी, afra भी, कुछ भी, रचकों (प्रा० ) । (सं० रजनी ) ૫ર્ य ) खलर बखानै सोई सरस संज्ञा, ( प्रान्ती०) मथानी | रोष की रईसों पुनि " - श्र० व० । स्त्री० ( हि० वा ) मोटा या दरदरा घाटा, सूजी, चूर्ण | वि० स्त्री० ( सं० रंजन ) अनुरक्त डूबी या पगी हुई, सहित, युक्त, मिली हुई, संयुक्त । " करिये एक भूषन रूप-रई " 1 - रामा० । रईस - संज्ञा, पु० (०) तल्लुकेदार, इलाके या रियासत वाला, अमीर, धनी, बड़ा श्रादमी । वि० संज्ञा स्त्री० - रईसी । रउता - संज्ञा, त्रो० (दे०) रायता, रहता रैता ( ग्रा० ) । रामा० । रउताई | - संज्ञा स्त्री० दे० ( हि० रावत + भाई - प्रत्य०) स्वामित्व, ठकुराई, मिलकियत । रउरे | - सर्व० दे० (हि० राव, रावल ) धाप, जनाब, श्रादर सूचक मध्यम पुरुष सर्वनाम | " करहि कृपा सब रउरे नाई " रक - संज्ञा, पु० दे० ( हि० रिकवच ) पत्तों की पकौड़ी, पतौड़ी ( प्रान्ती ० ) । रकत* - संज्ञा, पु० दे० (सं० रक्त ) ख़ून, लोहू, रक्त | वि० -- सुख, लाल । मुहा०रकत के आँसू बड़े दुःख से रोना । रकताक* - संज्ञा, पु० द० (सं० रक्तॉंग ) मूँगा, प्रवाल (डिं० ), केसर, लाल चंदन | रक़बा - संज्ञा, पु० ( प्र०) क्षेत्रफल । " विषमकोन सम चतुरभुज के रकबे की रीति कुं० वि० ला० । " रकवाहा - संज्ञा, पु० (दे०) घोड़े का एक भेद । रकम - संज्ञा, स्त्री० ( ० ) लिखने की क्रिया का भाव, मोहर, छाप, संपत्ति, धन, गहना, धूर्त, चालाक, प्रकार । यौ० - रकम रकम - नाना प्रकार के । रक्तबीज रकाब - संज्ञा, त्रो० ( फा० ) घोड़े के चारनामें या काठी का पावदान । मुहा० - रकाब पर ( में ) पैर रखना - चलने को पूर्ण - तया तैयार होना । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रकाबदार - संज्ञा, पु० ( फा० ) खानसामाँ, हलवाई, साइंस | रकाबी - संज्ञा, स्त्री० ( फ़ा० ) तश्तरी, छोटी forget थालो । रकी - - संज्ञा पु० (अ० ) एक ही प्रेमिका के दो प्रेमी परस्पर rate हैं, सपन | संज्ञा, स्त्री० - रकावत । रक्त - संज्ञा, ५० (सं०) रुधिर, लोहू, ख़ून, देह की नसों में बहने वाला लाल तरल पदार्थ, केसर कुंकुम, कमल, ताँबा, ईंगुर, सिंदूर लाल या रंगा चंदन, लालरंग, शिंगरफ, कुसुंभ | वि० (सं०) लाल, सुर्ख, रँगा हुआ। संज्ञा, खी० - रक्तता, रक्तिमा । रक्तकंठ- -संज्ञा, पु० यौ० (सं०) कोयल, बैंगन, भाँटा रक्तकमल - पंज्ञा, पु० यौ० (सं०) लाल कमल । रक्तचंदन - ज्ञा, पु० यौ० (सं०) लाल या देवी चंदन | रक्तज - वि० (सं०) रक्त विकार से उत्पन्न रोग (वैद्य०) रक्तता -- संज्ञा स्त्री० (सं०) लाली, सुर्खी, रक्तिमा । रक्तपात -संज्ञा, पु० यौ० (सं०) लोहू गिरना, रक्त बहाना, खून-खराबी, ऐसा झगड़ा जिसमें लोग घायल हों । रक्तशयी - वि० (सं० रक्तपायिन् ) लोहू या खून पीने वाला । स्त्री० - रक्तपायिनी । रक्तपित्त संज्ञा, पु० यौ० (सं०) मुँह नाकादि से खून बहने का एक रोग, नाक से लोहू बहना, नकसीर फूटना । " सम्बोधनंनुकिम् रक्तपित्तम् " - लो० । रक्तवीज - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) बीदाना, अनार, एक दैय जो शुंभ निशुंभ का सेनापति था, इसके शरीर से रक्त की जितनी For Private and Personal Use Only Page #1475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - - रक्तवृष्टि रखवार बूंदें गिरें उतने ही नये रूप, इस दैत्य के मादि की बाधा से रक्षित रहने के हेतु की बन जाते थे (दु. स.)। जाने वाली धार्मिक क्रिया । रक्तवृष्टि-संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) व्योम से रक्षित-वि० (सं०) जिसका बचाव या रक्षा लोह या लाल रंग के पानी का गिरना, की गयी हो, पाला-पोषा। 'अरक्षितः रक्षति रक्त-वर्षा । दैव-रक्षितो"- स्फु० । रक्तस्त्राव--संज्ञा, पु. यौ० (सं०) कहीं किसी रक्षी संज्ञा, पु. ( सं० रक्षस्न-ई-प्रत्य०) अंग से लोहू बहना या निकलना। राक्षसोपासक, राक्षम पूजने वाला। संज्ञा, रक्तातिसार-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) ख़न ! पु.-रक्षक। के दस्त श्राना. खूनी बवासीर, बवासीर के | रक्ष्य -- वि० (सं०) रता करने या बचाने मसों से रक्त पाना। योग्य । रक्तार्श- संज्ञा, पु० यौ० ( सं० रक्तार्शस् ) रख, रखा -- संज्ञा, स्त्री० (दे०) गोचर भूमि। खूनी बवासीर रखना-स० कि० दे० (सं० रक्षणा ) एक रक्तिका-संज्ञा, स्त्री. (सं० गुंजा, रत्ती चीज दूसरी पर या में स्थापित करना घंधची, शुमची (दे०)। रत--सज्ञा, पु० (सं०) रक्षक, रखवाला रक्षा, ठहराना, धरना, टिकाना, बचाना, रक्षा छप्पय का ६०वा भेद (पिं० । संज्ञा, पु. करना । स० रूप-रखाना. प्रे० रूप-रख( सं० राक्षस् ) राक्षस। वाना । यो :--रख-रखाव-रक्षा, व्यर्थ रक्षक-- संज्ञा, पु० (सं०) खघाला. रक्षा विनष्ट या बरबाद न होने देना जोड़ना, सौंपना. गिरवी या रेहन करना, निज अधि करने वाला, पहरेदार, रच्छक (दे०)। कार में लेना (विनोद या व्यवहार के लिये), रक्षण-संज्ञा, पु. (सं०) रक्षा करना, बचाना, मुकर्रर करना धारण करना व्यवहार करना, पालन-पोषण, रच्छन (दे०)। ज़िम्मे लगाना. सिर मढ़ना, ऋणी होना, रक्षणीय - वि० (सं०) रक्षा करने योग्य । रक्षन*--संज्ञा, पु० दे० (सं० रक्षणा) रक्षण, मन में धारण या अनुभव करना, संबंध करना (स्त्री या पुरुष से), उपपत्री (उपपति) पालन-पोषण, रच्छन (दे०)। बनाना। रक्षना*-स० क्रि० दे० । सं० रक्षगा ) रखनी-- संज्ञा, स्त्री० (हि० रखना + ई-प्रत्य०) रच्छना (दे०) रक्षा करना। रखेली, बैठाई या रखी स्त्री, सुरैतिन, रक्षस*--संज्ञा, पु० दे० (सं० राक्षस) राक्षस । उपपत्नी। रक्षा-संज्ञा, स्त्री० (सं०) रक्षण, बचाव, रखया-वि० स्त्री० दे० (सं० रक्षा) रक्षा पालन-पोषण, रच्छा (दे०), भूत-प्रेत या करने वाली। दृष्टिदोष से बचाने को बाँधने का सूत ।। रखला-सज्ञा, पु० (दे०) छोटी तोप, तोप रक्षाइद-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० रक्षा । की गाड़ी या चर्ख । प्राइद-हि-प्रत्य. ) राक्षसपन । रक्षागृह--संज्ञा, पु० यो० (सं०) सूतिकागृह, रखवाई संज्ञा, स्त्री० दे० (हि० रखना, रखाना) जच्चाखाना। रखाई (दे०) रखवाली, चौकीदारी. रखवाली रक्षाबंधन-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) श्रावण की मजदूरी रखाने या रखवाने का ढंग या पूर्णिमा को हिन्दुओं का एक त्यौहार, काम वि० संज्ञा, पु. (दे०) रखवैया । सलोनी (प्रान्ती०)। रखवार* --संज्ञा, पु० दे० (हि० रखवाला) रक्षामंगल-संज्ञा, पु० यौ० (६०) भूत-प्रेत , रखवाला, चौकीदार, रक्षक । For Private and Personal Use Only Page #1476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org रखवाला PSGAVE रखवाला - संज्ञा, पु० दे० हि० रखना + वाला प्रत्य० ) चौकीदार, पहरेदार रक्षक | रखवाली-संज्ञा स्त्री० (हि० रखना + वालीप्रत्य० ) रक्षा करने की क्रिया का भाव, चौकीदारी, रखवारी (दे०) । रखाई-संज्ञा, स्त्री० दे० ( हि० रखाना -+माई प्रत्य० ) रखवाली, रक्षा, हिफ़ाज़त, रक्षा का भाव, क्रिया या मज़दूरी । रखिया | संज्ञा, पु० (हि० (खना - इयाप्रत्य० ) रक्षक, रखने वाला, राख, राखी, रक्षा-सूत्र । रखेली - संज्ञा, खो० दे० ( हि० रखनी ) रखी या बैठारी स्त्री उपपत्ती । १४६५ रखैया - संज्ञा, पु० दे० (सं० रक्षक) रक्षक, रखाने या रखने वाला । " राम हैं रखेया तो विगारि कोऊ कैसे सकें ।" रंग - संदा, खो० ( फा० ) देह की नाही या न। मुहा० राग दवना -- दबाव मानना, किसी के अधिकार या प्रभाव में होना : रंग रगड़ना ---देह में प्रवेश के चिह्न प्रगट होना । रंग सारे शरीर में पत्तों की नसें । उत्साह या में 1 र, रकत ( ० ) | " रगड़ - संज्ञा स्त्री० ( हि० रगड़ना ) रगड़ने की क्रिया या भाव, घर्षण, रगड़ने का निशान, श्रधिक श्रम, झगड़ा, रगर (दे० ) । 'कोटि जन्म लगि रगड़ हमारी " - रामा० । रगड़न! -- स० क्रि० दे० (सं० घर्षण या अनु०) घिसना, पीसना, किसी कार्य को शीघ्रता से अति परिश्रम से करना, तंग करना, नट करना । अ० क्रि० अति श्रम करना । रगड़ा -- संज्ञा, पु० ( हि० रगड़ना ) घर्षण, शति श्रम, लगातार झगड़ा । यौ० - रगड़ा झगड़ा, अंजन काजल ( प्रान्ती०) । रगड़, रगण -- संज्ञा, ५० (सं०) श्राद्यंत में गुरु और मध्य में लघु वर्ण वाला एक गण (sis ) (पिं० ), कन्यादि में यह दूषित माना गया है। रगत* -- संज्ञा, ५० दे० (सं० रक्त ) रक्त, मा० श० की ० - १०४ रघुराई रंग पट्टा -- संज्ञा, पु० यौ० ( फ़ा० रंग + पट्टाहि० ) देह के भीतर के भिन्न भिन्न अवयव या अंग । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रंगर* --संज्ञा, स्त्री० (दे०) रगड़ (हि०) | रगरेशा - संज्ञा, पु० यौ० ( फा० ( ग + रेशा ) पत्तियों की नसें देह के भीतर का प्रत्येक अंग, किसी बात, विषय या व्यक्ति का सम्पूर्ण भाग। मुहा० - रगरेशा जानना - सब बातें जानना | गाना -- अ० क्रि० (दे० ) चुपचाप होना । स० क्रि० चुप कराना, शांत कराना । प्रे० रूप - रजवाना । रोदना - स० कि० दे० (सं० खेट, दि०खेदना ) भगाना, दौड़ाना, खदेड़ना, तंग वरना । रघु-संज्ञा, पु० (सं०) अयोध्या के सूर्यवंशीय प्रतापी राजा, दिलीप के पुत्र और रामचंद्र के परदादा | "चकार नाना रघुमात्मसंभवम्" रघु० । रघुकुल - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) राजा रघु का कुटुंब या वंश | " रघुकुल रीति सदा चलि थाई " - रामा० । यौ० - रघुकुलचंद्र | रघुनंदन - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) श्रीरामचंद्र जी । " रघुनंदन चंदन खौर दिये मग बाजि नचावत श्रावत है । " रघुनाथ संज्ञा, पु० यौ० (सं०) श्रीरामचंद्र जी : " प्रातकाल उठि कै रघुनाथा "" रामा० । 4. रघुनायक-- संज्ञा, पु० यौ० (सं०) श्रीरामचंद्र जी | देखत रघुनायक जन सुखदायक संमुख कर जोर रही 'रामा० । रघुपति - सज्ञा, पु० यौ० (स०) श्रीरामचं.: जी । "बहुरि बच्छ कहि लाल कहि, रघुपति, रघुवर तात रघुराई* संज्ञा, ५० दे० यौ० (सं० रघुराज) श्रीरामचंद्र जी । " कहत निषाद सुनौ रघुराई " -- गी० व० । 31 रामा० । For Private and Personal Use Only Page #1477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra रघुराज BRANESSA ANIVERSA www.kobatirth.org रघुराज - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) श्रीरामचंद्र जी, रघुकुलनायक रघुराय, रघुराया संज्ञा, पु० दे० ( सं० रघुराज ) श्रीराम । हा जगदेव वीर रघु 66 " " १४६६ राया -रामा० । रघुवंश - संज्ञा, ५० (सं०) महाराज रघु का कुटुंब या परिवार, महाकवि कालिदाकृत एक महाकाव्य । AL रघुवंशी संज्ञा, पु० यौ० (सं०) जो राजा रघु के वंश में उत्पन्न हुआ हो, क्षत्रियों की एक जाति । काल डरहि न रण रघुवंशी " रामा० वि० रघुवंशीव । रघुवर संज्ञा, ५० यौ० (सं०) श्रीराम, जर (दे० ) । " रघुवर पार उतार बार निहार - स्फुट ० | " खुवीर - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) श्रीराम | 66 - रामा० । वि० ." - ' 'जो रघुबीर होति सुधि पाई " रचक संज्ञा, ५० (सं० ) बनाने या रचने वाला रचयिता, रचना करने वाला | (दे०) रंचक, प राम रचक पालक जग नाशक - स्फुट० । रचना - संज्ञा, स्त्री० (सं०) रखने का भाव या किया, निर्माण, बनाकः, बनाने का कौशल या ढंग, निर्मित पदार्थ, चमत्कारपूर्ण, गद्य या पद्य, लेख, काव्य वि० रवनीय । स० रूप- रचाना, प्रे० रूप-रवाना। स० [क्रि० (सं०] रचन ) सिरजना बनाना, ग्रंथ लिखना, निश्चित या विधान करना, ठानना, उत्पन्न या पैदा करना, कल्पना करना, क्रम से रखना, अनुष्ठान करना, काल्पनिक सृष्टि बनाना, श्रृंगार करना, सजना, सँवारना | भलि रचना नृप उन मुनि कहेऊ रामा० । जुहा० रवि रचि - बहुत ही कौशल और चतुरता ( होशियारी या कारीगरी ) के साथ कोई काम करना | बातें रचना--मोहक, किन्तु झूठी बातें बनाना । अ० क्रि० दे० (सं० रंजन) रंजित करना, रँगना, रंग देना, जैसे---पान S रघुअपनी Sidh राजधानी 35/34 या मेंहदी रचना | अ० क्रि० दे० (सं० रंजन) अनुरक्त होना, रंगा जाना, रंग चढ़ना, सुन्दर बनाना । रचयिता संज्ञा, पु० (सं० रचयितृ ) बनाने या रचने वाला, ग्रंथकार, लेखक । रचाना - अ० क्रि० ६० (सं० रंजन) मेंहदी. महावर आदि से हाथ-पाँव रँगाना, पान से मुख लाल करना, सुन्दर बनाना, रावना (दे० ) प्रे० रूप- रवाना। ६ रचित - वि० (सं०) रचा या बनाया हुआ । - संज्ञा, पु० ६० (सं० राक्षस) राचल । वि० रच्छसौ। -- Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रच्छा -संज्ञा स्त्री० दे० (सं० रक्षा ) रक्षा | वि०-रचित । रज - संज्ञा, पु० (सं० रजस् ) स्तनपायी जीवों की मादा या स्त्रियों के प्रति मास योनि से ३ या ४ दिन निकलने वाला दूषित रक्त | तंव, ऋतु, कुसुम, रजोगुण, पानी, पाप, पुष्प-पराग, आठ परमाणुओं का मान । संज्ञा स्त्री० (सं०) वृल, गर्द, रात, प्रकाश, ज्योति । "रज है जात पख़ान पवार रामा० : संज्ञा, ५० (सं० रजत ) चाँदी | संज्ञा, ५० (सं० रजक) रजक, धोबी । रजक - संज्ञा, पु० (सं०) धोबी । स्रो०की। For Private and Personal Use Only " रजगुण संज्ञा, ५० दे० यौ० (सं० रजोगुण) रजोगुण | रजतंत--संज्ञा स्त्री० द० यौ० (सं० राजतत्व) शूरता, वीरता । 23 रज:----संज्ञा, खी० (सं०) चाँदी, रूपा । 'रजत सीप महँ भास ज्यों, जथा भानुकर वारि ' - रामा० । लोहू, रक्त, सोबा । वि० श्वेत, शुक्ल धवल, रजताई* -- संज्ञा, खो० (सं० रजत) श्वेतता । रजधानी-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० राजधानी) राजधानी । " बहुरि राम धावें रजधानी " लाल । रामा० । Page #1478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org २४६७ " रजनीचर -संज्ञा, पु० (सं०) निशाचर, राक्षस, रजनिचर (दे० ) । " परम सुभट रजनीचर भारी रामा० । रजनीपति- संज्ञा, पु० यौ० (सं०) चन्द्रमा, रजनीश, नक्षत्रेश | रजनीमुख संज्ञा, पु० यौ० (सं०) संध्या । रजनीश संज्ञा, पु० यौ० (सं०) चन्द्रमा । रजपूत-संना, पु० ३० यौ० [सं० राजपुत्र) राजपूत, शूर-वीर, योद्धा, क्षत्रिय । रजपूती | संज्ञा, स्त्री० दे० ( हि० राजपूत +ई. प्रत्य० ) क्षत्रियत्व, वीरता, क्षत्रियता । "धिक धिक ऐसी कुरुराज रजपूती पै” " अ० २० । रजना CREATION रजना - संज्ञा, स्त्री० दे० ( हि० राल ) राल, धूप । * अ० क्रि० दे० (सं० रंजन ) रँगा जाना । स० क्रि० - रंगना, रंग में डुबाना । रजनि, रजनी -- संज्ञा स्त्री० (सं०) रात, रात्रि, निशा, हलदी । रजनीकर - संज्ञा, पु० (सं०) शशांक, मृगांक, चंद्रमा, निशाकर, निधानाथ । रजबहा -- संज्ञा, पु० द० यौ० (सं० राज = बड़ा + बहना - हि०) वह बड़ा बम्बा या नल जिससे और छोटे बस्त्रे निकले हों यौ० ( सं० रज = धूल | बहना ) नाला चौपायों के चलने से बना धूल से भरा मार्ग, गैड़हरा ( प्रान्ती० ) । रजस्वला - वि० स्त्री० (सं० ) ऋतुमती स्त्री, जिसे मासिक रजस्राव हुआ हो । रटना 16 स्रो० (सं० राजा : आई - हि० प्रत्य० ) राजा होने का भाव, राजापन, राजाज्ञा, राजेच्छा । चलै सीप धरि भूप रजाई " रामा० । संज्ञा, स्त्रो० ( प्र० रजा ) रजाई, श्राज्ञा, छुट्टी, इच्छा, मर्जी । रजाई, रजाय-संज्ञा, स्त्री० दे० ( अ० रजा ) श्राज्ञा, छुट्टी, मर्जी, रज़ाइय (दे० ) । रजाना- -स० क्रि० दे० ( सं० राज्य ) राज्यसौख्य का उपभोग कराना । रजामंद - वि० [फा० ) जो किसी बात पर राज़ी हो सहमत | संज्ञा, स्त्री० - रजामंदी | रजाय, रजा-संज्ञा, स्त्री० (अ० रजा) स्वीकृति, छाता, आदेश, इच्छा, मरजी । 'केवट राम-रजायसु पावा" - रामा० । राती - वि० (०) नीच, छोटी जाति का । रजोकुल -- संज्ञा, पु० दे० यौ० (सं० राजकुल ) राज-वंश | रजोगुण-संक्षा, पु० यौ० (सं०) राजस मत्वादि तीन गुणों में से एक गुण, भोगविलास या दिखावे की रुचि पैदा करने वाला प्रकृति का एक गुण या स्वभाव । राजोदर्शन संज्ञा, पु० यौ० (सं०) खियों का मासिक या तु धर्म, रजस्वला होना । रजोधर्म -- संज्ञा, पु० यौ० (सं०) स्त्रियों का : रज़ा - संज्ञा, स्त्री० (०) इच्छा, मरजी छुट्टी, स्वीकृति, श्राज्ञा, अनुमति "तुम्हारी ही रज्ञा पै खुश हैं याँ अपनी रजा क्या है ।" रजाइ, रजाई - संज्ञा, खो० (सं० रजक = कपड़ा ) लिहाफ़, रुई - भरा कपड़ा | संज्ञा, Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तुमती । रजवाड़ा --संज्ञा, पु० (सं० राज्य + वाड़ा - हि०) रज्जु -संज्ञा, बो० (सं०) रस्सी, राज्य, देशी रियासत, राजा । रजवार - संज्ञा, पु० दे० यौ० (सं० राजद्वार) दरबार । ऋऋतु या मासिक धर्म । जीवती-संज्ञा, स्त्री० (सं०) रजस्वला, जेवरी (ग्रा० ) । रजोर्यथामः ।" बागडोर, लगाम की डोरी । " यथा रज्जु में सर्प की भ्रांति होती ' - स्फुट० । रट - संज्ञा, त्रो० (सं०) किसी शब्द को बार बार कहने की क्रिया : रटन - संज्ञा, १० (सं०) घोषणा, बार बार कहना। मुहा० - रटन लगाना- किसी बात को बार बार कहना, रटना । रटना स० क्रि० दे० (सं० रट ) किसी शब्द का बार बार कहना, बिना अर्थ-ज्ञान For Private and Personal Use Only " Page #1479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रताना के एक ही शब्द का बारम्बार वहना, बिना माना-अ० कि. (दे०) बजना। समझे याद वरना। "चातक स्टत तृषा न संज्ञा, पु. (२०) स्त्री प्रसंग, मैथुन, अति श्रोही" रामा० । बार बार शब्द प्रेम, प्रीति । वि०-पासक्त, अनुरक्त, लिप्त । करना या बजना, ज़बानी याद करने को “नरन रत हो विषय में लागु हरिकी बारम्बार कहना। शरण'- कु. वि० । *-संज्ञा, पु. ( सं० रठ-वि० (दे०) शुभक, रूखा सूखा । रक्त) रक्त, खून । रढ़ना*-स० कि० दे० हि० रटना) रटना। रतजगा -- संज्ञा, पु० यौ० दे० ( हि० रात +रण-- संज्ञा, पु० (सं०) युद्ध. संग्राम, जंग, जागना ) विहार, उस्तव या किसी त्योहार रन (दे०)। "जो रण हहि प्रचारै कोई" में सारी रात जागना। -- रामा०। रतन--- संज्ञा, पु. दे. (सं० रत्न : रन, जवारणक्षेत्र... संज्ञा, पु० यौ० (०) युद्धस्थल, हिर, मणि । “रतन रमा रन रेत में, कंकर लड़ाई का मैदान । विनि बिनि खाय"-कबो। रणछोड़-संज्ञा, पु० दे० यौ० (सं० रण रतनजोलि- संज्ञा, स्त्री. द. यौ० सं० छोड़ना-हि० ) श्रीकृष्ण का एक नाम । रत्नज्योति ) एक प्रकार की मणि, एक छोटा रणखेत*- संज्ञा, पु० दे० यो० (सं० रणक्षेत्र) तुप जिसकी जड़ से लाल रंग निकलता है। युद्धस्थल । ग्तनाकर, रतनागर--संज्ञा, पु० दे० रणभूमि - संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) रण-क्षेत्र, (सं० रत्नाकर) समुद्र । “ग कियो रतनागर युद्ध-स्थल। सागर जल खारो करि डारो"--- स्फुट । रणरंग-संज्ञा, पु० यो० (सं०) यद्ध, युद्ध का रतनार, रतनारा--- वि० दे० (सं० रक्त) उत्साह, युद्ध-क्षेत्र, रनरंग (१०) । "कुम्भ कुछ कुछ लाल. सुर्वी लिये हुये । " प्रामी, करण रणरंग विरुद्धा"-रामा० । वि० हलाहल, मद-भरे, स्वेत, स्याम, रतनार" रणरंगी। -वि.। रणलक्ष्मी -संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं.) विजयलघमी, विजय, जय-श्री। रतनारी- संज्ञा, पु० दे० (हि. रतनार + रणसिंघा--- संज्ञा, पु. यौ० (सं० रण--- ई-प्रत्य० ) एक प्रकार का धान । संज्ञा. स्त्री० सिंघा-हि०) नरसिंघा, तुरही, रनसिंगा लाली, लालिमा, सुखी । " रतनारी अँखियाँ (दे०) एक बाजा। "बाजत निसान ढोल निरखि, खंजरीट, मृग, मीन'' क०वि० । भेरी रणसिंधा घने "..--. वि०। रतनालिया -वि० दे० (हि. रतनारा) रणस्तंभ- संज्ञा, पु. यौ० (सं०) विजय के रतनारा, लाल, सुर्व । स्मारक रूप में बनाया गया स्तंभ। रलनियाँ- संज्ञा, पु. (दे०) एक प्रकार का रण-स्थल-संज्ञा, पु. यो० (सं०) रण भूमि, चावल । युद्ध-क्षेत्र । स्त्री०-रण-स्थाली। रतमुहाँ-वि० दे० यौ० (हि. रत= रणहंस-संज्ञा, पु. यौ० (सं.) एक वर्णिक लाल --- मह ) लाल या रक्तमुख वाला । छंद (पि०)। स्त्रो०-रतमुहीं। रणांगण--संज्ञा, पु० यौ० (सं.) रण-प्रांगण रतवाही--संज्ञा, स्त्री० (दे०) सुरैतनी, रखेली। युद्ध क्षेत्र, रण-भूमि, रनाँगन (दे०)। अव्य-रातोंरात, रात ही रात । रणित-वि. (सं०) शब्दित, नादित, बजता रताना -अ० कि० दे० सं० रत) कामातुर हुमा । “रणित शृंग घंटावल्ली झरत दान होना, रत या प्रास्त होना। स० कि०मदनीर"-वि० श०। किसी को अपनी भोर रत करना । For Private and Personal Use Only Page #1480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org | । रतायनी १४६६ रती 9765PR FREE (10 रतायनी - संज्ञा, स्त्री० दे० (सं०) वेश्या, रंडी, रतिमंदिर - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) रतिभवन, पतुरिया | रतालू - संज्ञा, पु० दे० [सं० रक्तालु) बाराहीकंद पिंडालु एक प्रकार की जड़, गंठो ( प्रान्ती० ) । केलि-मंदिर, काम मंदिर, भग, योनि । रतियाना* - अ० क्रि० दे० (सं० रति) प्रीति या स्नेह करना, रति की लालसा रखना । रतिरमण पंज्ञा, पु० यौ० (सं०) कामदेव, मैथुन काम केलि, संभोग | रविराइ, रविराई-- वंज्ञा, पु० दे० यौ० (सं० रतिराज ) रतिराज, कामदेव. रतिराय (दे० ) । रतिराज - संज्ञा, पु० यौ० सं० ) कामदेव | $: रति - संज्ञा, खो० (सं०) दक्ष प्रजापति की परम सुन्दरी कन्या और कामदेव की सौंदर्य की साक्षात् मूर्ति जैसी स्त्री, संभोग, कामक्रीश, मैथुन प्रेम, शोभा शृङ्गार रस का स्थायी भाव ( काव्य०), नायक और नायिका की पारस्परिक प्रीति । कि० वि० (दे०)रती रनी संज्ञा, सी० दे० ( हि० रात ) रात्रि, रैन । रतिक, रतीक कि० वि० दे० ( हि० रती ) रंचक, ज़रा सा किंचित, तनिक, बहुत थोड़ा । पाय ऋतुराज रतिराज को प्रभाव बढ्यौ " मन्ना० । " रतिवंत - वि० (सं०) रतिवान् रतिवाला, सुन्दर, प्रेमी, प्रीतिवान् । खो० - रतिवती । रविशास्त्र - पंज्ञा, पु० यौ० (सं०) कामशास्त्र, काम-विज्ञान | रतिदान - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) मैथुन, रती-संज्ञा, खो० दे० (स० रति ) रति, संभोग ! कामदेव की स्त्री, सौंदर्य, कांति, मैथुन । + - संज्ञा स्त्री० दे० (स० रचिका ) रती, गुंजा । क्रि० वि० (दे०) रत्तीभर, रंच, थोड़ासा किंचित्, रतीक । रती चमकना- --- वा० (दे०) भाग्यवान होना, उन्नति करना, प्रभाव दिखाना । रातीवंत - वि० (दे०) भाग्यवान, तक़दीरी । रतीश - संज्ञा पु० यौ० (सं०) कामदेव | रतोपलं- संज्ञा, पु० दे० लाल कमल, लाल पत्थर | दे० ( रक्त | उपल ) | रतौंधी -- संज्ञा, स्त्री० दे० यौ० ( हि० रात + अंधा ) एक रोग जिसमें रात को बिलकुल दिखाई नहीं देता, नक्तांध (सं०) । रत* -- संज्ञा, पु० दे० ( स० रक्त ) लोहू | रत्ती -- संज्ञा, सी० दे० (स० रक्तिका) घुँघची, गंजा, स्वर्णादि तौलने में एक माशे की तौल का ८ वाँ भाग । मुहा०-- रत्तीभर - aft या रंचक, थोड़ासा । वि० - बहुत ही थोड़ा, किंचित्। - संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० रति ) शोभा, छवि | रतिनाथ - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) कामदेव | रतिनायक-- संज्ञा, पु० यौ० (सं०) कामदेव | " मनु पंच घरे रतिनायक है "कवि० । रतिनाह - संज्ञा, पु० दे० यौ० (सं० रतिनाथ ) कामदेव | रूप देखि रतिनाह लजाहीं " -रामा० । 61 14 रतिपति-संज्ञा, पु० यौं ० ० (सं०) कामदेव | 'ननु रतिपति निज हाथ सँवारे " - रामा० । रतिपद - संज्ञा, पु० (सं०) एक वर्णिक वृत्त (पिं० ) । रतिप्रीता - संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) रति में प्रेम करने वाली नायिका ( काव्य० ), कामिनी । रतिबंध - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) काम-क्रीड़ा के श्रासन (कोक०, मैथुन का ढंग । रतिभवन - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) स्मर-मंदिर, प्रेमी-प्रेमिका का क्रीड़ा स्थल, मैथुन-घर, योनि, भग, रति-मंदिर | रतिभौन -संज्ञा, पु० दे० यौ० (सं० रतिभवन ) रति भवन | Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private and Personal Use Only (स० रक्तोत्पल) संज्ञा, पु० यौ० Page #1481 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रत्यो संज्ञा, स्त्री० दे० सं० रथ ) अस्थी। राक -संज्ञा, पु. यौ० (सं०) शिविका, टिकठी प्रान्ती) अंतिम संस्कारार्थ शव के पालकी । लेजाने का सन्दूक या बाँय का ढाँचा। रक्षगुन्ति ---संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) रथ का रह-ज्ञा, पु० (सं०) कांतिमान, बहुमूल्य परदा या योहार ! खानिज चमकीले पत्थर, मो, जवाहिर. रथावरणचरमा-रथचक्र--संज्ञा, पु० यौ० नगीना, माणिक, लाल. सर्वश्रेष्ठ । "कृत्स्नाच (सं०) पहिया, चाका । भूर्भवति संनिधि रत्नापूर्णा"---भ. श०। रथयात्रा.....संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) हिन्दुओं रनार्म--संज्ञा, पु० यौ० (सं०) पमुद्र, सागर। का एक पर्व जो अपाद शुक्ल द्वितीया को स्त्री० -- रत्नगर्भा। होता है, र जात्रा (दे०)। रलार्भा-संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) भूमि, रमवान --- (सं०) पु. ( सं० रथवाह ) सारथी, पृथ्वी. वसुंधरा रथ हाँकने या चलाने वाला। रत्न बदित-- वि० यौ० (0) वाहिरात से रवाह-रयवाहक--संज्ञा, पु. यौ० (सं०) जड़ा । " रत्न जटित मकराकृत कुंडल"- रथ चलाने वाला, मारथी घोड़ा। साट । रथांग--संज्ञा, पु० यौ० (सं.) पहिया, रथ का रत्ननिधि-संज्ञा, पु. 2 ० (सं०) समुद्। एक अंग । " रथांगनानो इब" ---रघु० । रत्नपरीक्षक-संज्ञा, पु० या ० (सं०) जौहरीरांगना-संज्ञा, पु. यौ० (सं०) चक्रवाक, रत्नपारसी-संज्ञा, पु. दे० ये सं० रत्न " रथांगनाम्नोरिव भाव-बंधनम्" रघु० । + पारखी हि०) रत्नपरीक्षक (सं०) जौहरी, राशाि --संज्ञा, पु० यौ० (सं.) विष्णु, रलनपारखी (दे०) श्रीकृष्ण । “रथांग पाणोः पटलेन रोचिपाम्" रत्नपाला---संज्ञा, स्त्री० या० (सं०) रत्नों, हीरों या मोतियों की बनी माला रत हर! रधिका---संक्षा, पु. (सं०) स्थी, रथ का रत्नसानु - संज्ञा, पु० या ० (सं०) सुमेरु पर्वत, सवार देवलोक। रथी-संज्ञा, पु० (सं० रथिन् ) रथ का सवार, रत्नसिंहासन - संज्ञा, पु० यै० सं०) रत्न एक महल वीरों से अकेले लगने वाला । जटित सिंहायन, राज-सिंहार न, रतन । वि.---रथारुढ़ । संज्ञा स्त्री० (दे०) मृतक की सिंहासन (दे०)। अस्थी रन्थी। रत्नाकर--संज्ञा, पु० या०रा० समुद, रजों की खानि, रतनाकर (दे०) · रत्नाकर रोहता--संज्ञा, स्त्री० (सं०) ११ वर्णों का सेवै रतन, सर सेवै सालूर"- नीति एक वाणिक छंद । रानराविह रथोद्धता रत्नावली--संज्ञा, स्त्री० यो००) ना लगो'... (पिं०)। बत्नी (दे०) मणिमाला. रत्नाजि, मणि रा --संज्ञा, सी० (स०) रास्ता, राह, सड़क, समूह या श्रेणी, मणि-पंत्ति, ए अलंकार गली. मार्ग नाली । " रच्या काट-विरचित जिसमें अन्य वस्तु-समूह के नाम प्रस्ततार्थ कथा "-च० ५० के अतिरिक्त प्रगट होते हैं (अ० पी० रन्द ---क्षा, पु. (सं०) दाँत ।" रद पुट रथ -संज्ञा, पु० (सं०) चार या दो पहियों की फरकत नरन रिमोहैं ".-रामा० । वि. एक प्राचीन गाड़ी (हिन्दू) बहन रच्या (फा०) ---जिया काट-छाँट या परिवर्तन (प्रान्ती०) शरीर, चरण, ऊँट शतरंज किया गया हो र (दे०)। "जिसे राज रद रणकार-संना, पु० (सं०) रथ बनाने वाला, कर चुके थे वह पत्थर'- हाली । बेकाम, बढ़ई, एक वर्ण-संकर जाति विशेष । निकम्मा, बेकार । For Private and Personal Use Only Page #1482 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir commomarcasOODMASHAMARINAMDiesecraHAREstatkar3ORN.CAREMANTRBERacecareADHONIHERE रदच्छद १४७१ रदच्छद-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) पोष्ट, मोंठ। रजना* .... अ० कि० दे० ( सं० रणन ) बजना, रदछद - संज्ञा, पु० दे० ( सं० रदच्छद) झनकार होना, शब्द करना। प्रोष्ठ । संज्ञा, पु. (सं० रदक्षत) कपोलों या रनबंका, रनबांकुरा--संज्ञा, पु० दे० ( सं० मोष्ठों पर रति में चम्बनादि से दाँतों का रस + वॉका-हि० ) योद्धा, शूरवीर । " पवन घाव ( रति-चिन्ह) तनय रनयाँकुरा"--- रामा० । "कूदयो रददान--संज्ञा, पु. पौ० (सं.) कहीं पर रन बंका गढ़ लंका पै फल का मैं।" दांतों का यों दबाव डालना शि चिह्न बन रनवन - सझा, मुं० दे० (सं० र वन) भयानक जावें ( रति-संबन में)। बन, तहस. नाश, महावत । रदन --संज्ञा, पु० (सं०) दाँत, दंत, दशन । रनवादा* --सज्ञा, पु० द. (सं० रणवादी) "एक रदन गजबदन विनायक'- विनय योद्धा, शूर वीर । संज्ञा, पु. यो० (दे०) - रदनी-वि० सं० रहनिन् ) दाँत वाला। वाद मानाद (सं.)। स्नवास, रनिवास -- संज्ञा, पु० दे० (सं० रदपट, रदपुट-संज्ञा, पु. (सं०) ओंठ, राज्ञोवास ) अंतःपुर । ( हि० रानीवास ) पोष्ठ । “रदपुट फरकत नैन रिसी हैं - रानिया का महल, राजापों का जनानखाना। रामा० । रनि*-वि. द. ( सं. रणित ) बजता रह - वि० (अ०) जो काट-छाँट या तोड़-फोड़ या झंकार करता हुआ। रनित भंग घंटाकर बदल दिया गया हो, त्यक्त, अस्वीकृत।। वली भरत दान मदनीर"... वि. यो०-रद-यदत, (ग्दो बदल) हेर-फेर, रनिवास-संशा, पु० दे० (सं० राजीवास ) फेर-फार, परिवर्तन ! जो खराब या निकम्मा रानियों का महल, रानी लोग । “सुनि हो गया हो, बेकाम, व्यर्थ । संज्ञा, सी. हरपो रनिवास - रामा० ।। दि०) कै, वमन । रन* --- ज्ञा, पु० दे० (सं० २ गा - ई-प्रत्य०) रहा- संज्ञा, पु० (दे०) दीवाल पर इंटों की शूरवीर, यो द्वा, लड़ाका । बेदी पंक्ति का एक चुनाव, स्तर, थाली में रपट ----संज्ञा, स्त्री० ( हि० स्पटना ) रपटने दीवाल के स्तर सा मिठाई का चुनाव की क्रिया या भाव, फिालाहट, दौड़, भूमि ऊपर-तले रखी चीज़ों की एक तह, मल्लयुद्ध का ढाल । ज्ञा, स्त्री० दे० ( अं. रिपोट ) वालों की पीठ श्रादि र मार (प्रान्ती : इत्तजा, सूचना, खबर।। रना रही... वि० ( फा० रद ) व्यर्थ, निकम्मा, --- ११० क्रि० दे० (सं० रफन ) नीचे निष्प्रयोजन, बेकाम, बेकार। “जिस्म तो या आगे को फिसलना, झपटना, शीघता से चलना। स० रूप-रपटाना, प्रे० रूप ~~ रद्दी महज़ बेकार है "--- कुं० वि० रन* --संज्ञा, पु० दे० ( सं० रण ) संग्राम, रपट्टा सझा, पु. ( हि० रपटना ) फिसलायुद्ध । “रन मारि अच्छकुमार रावन-गर्व हट फिसलाव, फिलाने की क्रिया, चपेट, हरि पुर जारियो - रामपं० सज्ञा, 'पु० दे० दौड़-धूप, झपहा : ( सं० अरण्य ) बन, जगल । संज्ञा, पु० (दे०) रल-सज्ञा स्त्री० दे० ( अं० राइफल ) वाल, झील, सागर का छोटा भाग। विलायती बंदूक । राज्ञा, पु० दे० (अं० रैपर) सनकना - अ० कि. द. ( स० रगान = मोटी गरम और जाड़ों मे श्रोढ़ने की चादर । शब्द करना ) पायजेब या घघुरू आदि का रा-वि० अ०) निवृत्त दूर किया हुआ, धीमा शब्द करना, बजना, झनकना, शांत. दबा हुआ, निवारित। रुनकना (द०)। रफा-दफा - वि० यौ० (अ.) निवृत्त, दुर For Private and Personal Use Only Page #1483 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रफ़ रमता किया हुमा, शांत, दबाया हुआ, निवारित महारत, मुहावरा, मेल, संबंध, रक्त (दे०) रफ --- संज्ञा, पु. (अ.) फटे वन के छेदों को यौ०-रन-जन ---मेल-जोल ।। तागों से भर कर ठीक करना। । रभस-संज्ञा, पुं० (सं०) वेग, हर्ष, श्रानंद, रफ़गर - संज्ञा, पु० (फा०) रत करने वाला। औत्सुक्य, अत्यातुता। " अति रभस रफूचकार---वि० दे० यौ० (अ० रफ़ --चक्कर- कृतानाम् "-हि। हि०) चंपत. भग जाना। रम- संज्ञा, स्त्री. ( अं० ) मदिरा, शराब रक्तनी-संज्ञा, स्त्री० [फा०) माल का बाहर विशेष : वि० -सुन्दर । संज्ञा, पु० --पति, जाना, जाने का भाव कामदेव । रफता-रफता, रफ्ते-रफ्ते-कि० वि० (फा०) रमक - संज्ञा, स्त्री० दे० ( हि० रगना ) झूले धीरे धीरे, क्रम से, आहिस्ता आहिस्ता । की पंग, लहर, झकोरा, तरंग। रख, रब्ब --संज्ञा, पु. (अ.) मालिक, | रमकना-अ० क्रि० दे० हि० रमना) परमेश्वर । ' रब का शुक श्रदा कर भाई" हिंडोला, झूला, भूलना, भूम भूम कर या --- स्फुट० । इतराते हुये चलना। रबड़- संज्ञा, पु० दे० (अं० रबर) बट या बरगद रमचेरा-संज्ञा, पु.० (दे०) दाल, सेवक, आदि की जाति के वृक्षों के दूध से बना एक नौकर, भृत्य । विख्यात लचीला पदार्थ, बट-वर्ग का एक | रमजान - ज्ञा, पु. (अ.) एक अरबी महीना वृक्ष । संज्ञा, स्त्री० (दे०) रबड़ने का भाव या जिनमें मुसलमान मोजा व्रत रहते हैं । किया, थावट, श्रम, दौड़धूप । रमत--संज्ञा, पु० दे० ( सं० रामठ ) हींग । रबड़न:-- अ० कि० दे० (हि० रपटना) व्यर्थ रमण-संज्ञा, पु० (सं०) केलि, कीड़ा, दौडधूप करना, थकना, श्रम करना चलना। विलाल, गान, मै न घूमना. स्वामी पति, स० रूप रजडाना, प्रे० रूप-बड़वाना। कामदेव एक वर्णिक छंद (पि.)। वि० .. रबड़ा--- वि० द० (हि० रबड़ना, था, श्रमित। सुन्दर, प्रिय, मनोहर, रमने वाला। बड़ी-संज्ञा, स्त्री० दे० ( हि० रवड़ना) रमणगाना --- संज्ञा स्त्री० (सं०) वह नायिका जो यह सोच कर दुस्त्री हो कि नायक औट कर गादा किया हुआ दूध । संकेत-स्थल पर आ गया होगा और मैं अभी रखदा--संज्ञा, पु० दे० ( हि० रबड़ना ) बादा यहीं हूँ ना० भे०)। (ग्रा.), कीचड़, चलने की थकी या श्रम । रमणी---संज्ञा, स्त्री. ( सं०) स्त्री, नारी। मुहा० --- रपदा पड़ना-प्रति वर्षा होना। 'विगादमात्रे रमणीभिरम्भरि'-किरात रबर--संज्ञा, पु० (अं०) रबड़। रमणीक - वि० दे० ( सं० रमणीय ) सुन्दर, रखाना- संज्ञा, पु० (दे०) एक प्रकार का श्रच्छा, मनोरम, रुचिर । संज्ञा, स्त्री० ---- झाँझदार डफ (बाजा। रखाव--- संज्ञा, पु० (अ०) सारंगी जैसा एक रमणीय-वि० (सं०) सुन्दर, मनोहर, अच्छा। बाजा। रमणीयता -- संज्ञा, स्त्री. (सं०) सुन्दरता, रबाविया -- संज्ञा, पु० (अ. रबाब ) रवाब मनोहाता, स्थायी या सव अवस्थाओं में बजाने वान्ना । रहने वाला माधुर्य या सौंदर्य (मा० द.)। रबी --संज्ञा, स्त्री० ( अ० रबीअ ) रब्बी रसना----वि० ( हि० रमना ) एक स्थान पर (ग्रा० , वसंत ऋतु में काटी जाने वाली न रहने वाला, घूमता फिरता, जैसे .. रमताफसल । जोगी । यौ० - रमतंगाला "लो०रबा-संज्ञा, पु. (अ.) आभ्यास, मश्क, । रमता जोगी, बहता पानी।" For Private and Personal Use Only Page #1484 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रमन रय्यत रमन* - संज्ञा, पु. टि. द. ( सं० रमण ) रमित*--वि० दे० ( हि० रमना ) लुभाया स्वामी, पति, रमण । हुआ, मोहित, मुग्ध । रमना-अ० कि० दे० ( सं० रमण ) कहीं। रमज-संज्ञा, स्त्री० ( अ० रम्ज़ का वज०) ठहरना या रहना विस्मना, मज़ा उड़ाना, इशारा, सन, कटाक्ष, रहस्य, श्लप, भेद, आनंद या मौज करना, व्याप्त होना, अनु- पहेली। रक्त होना, घमना-फिरना चन देना ला रमैती-संज्ञा, स्त्री० (दे०) खेती के कामों में जाना, भीनना । स० रूप-रमाना० रूप- किसानों की पापस की सहायता। रमवाना। संज्ञा, पु. ( सं० आराम या रमैनी-पंज्ञा, स्त्री० दे० (सं० रामायण ) रमता ) चरागाह, वह रक्षित स्थान या घेरा कवोर के वीजक का एक खंड । जहाँ पशु पालने या शिकार आदि के लिये रमैया*--संज्ञा, पु० दे० ( सं० राम ) राम, छोड़े जाते हैं, बाग़, कोई मनोहर सुन्दर भगवान, ईश्वर, (हि. राम + ऐया-प्रत्य० )। हरा-भरा स्थान। वि० दे० (हि. रमना ) रमने वाला । रमनी*--संज्ञा, स्त्री० दे० ( सं० रमणी ) "रमैया तोरि दुलहिन लूटा बजार"-- रमणी, सुन्दर स्त्री। कवी। रमनीक*--वि० दे० (हि० रमणीक ) रम रम्माल--संज्ञा, पु. (अ.) रमल फेंकने णीक । संज्ञा, स्वी.---रमनीकता । वाला। रम्य-वि० सं०) सुन्दर, मनोहर, रमणीय, रमन्ना- संज्ञा, पु० (दे.) जाने या प्रवेश करने मनोरम । “ परम रम्य पाराम यह " का प्राज्ञा-पत्र, गमन । -रामा० । स्त्री० ----रम्या। रमल-संज्ञा, पु. (प्र०) एक प्रकार का रभ्यता--संज्ञा, स्त्री० (सं०) सुन्दरता, मनोफलित ज्योतिष जिसमें पाँवा फक कर हरता "पुर रम्यता राम जब देखी"भला-बुरा फल कहा जाता है। रामा०। रमा--संज्ञा, स्त्री. (सं०) लक्ष्मी, संपत्ति । रम्हाना-३० क्रि० दे० ( हि० रॅभाना) "कहिय रमा सम किमि वैदेही"- रामा (भाना, बो जना, (गाय प्रादि)। रमाकांत-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) विःगु रय*-संज्ञा, पु० दे० (सं० रज) लि, भगवान । रमानरेश*-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) विःणु रज, गर्द मिट्टी। संज्ञा, पु० (सं०) तेज़ी, र वेग, प्रवाह, धारा, ऐल के ६ पुत्रों में से भगवान । रमानाथ-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) विष्णु। चौथा पुत्र । रमानिकेत-संज्ञा, पु० (सं०) विगु संग- रया-स० कि० (हि. रयना ) रंगे, मिले । वान, रमेश। । रयन* ---रज्ञा, स्त्री० दे० (सं० रजनि ) रमानिवास -- संज्ञा, ५० यौ० (सं०) विणु ५. यौ० (सं.) विष्णु रयनि, रेन (दे०), रात्रि, रात । 'जाव जू भगवान, रमानायक। कन्हाई जहाँ रयन गँवाई तुम ।" रमापति-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) विष्णु रयना*-० कि० दे० ( सं० रंजन ) रंग भगवान । "राम रमापति कर धनु लेहू” से भिगोना या तर करना । अ० कि०-- -रामा। __ संयुक्त या धन रक्त होना, मिलना। रमारमण-संज्ञा, पु. यौ० (सं०) विष्णु रय्यता-संज्ञा, स्त्री० दे० ( अ० रअय्यन ) भगवान। रयत (दे०) प्रजा, रियाया। भा० श. को०-१८५ For Private and Personal Use Only Page #1485 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Dowmora रय्या १४७४ रवि रय्या-संज्ञा, पु० (दे०) राय, राजा । " रय्या रमण, रमणीक । “गोन रौन रेती सों रावचम्पत "-भू.। कदापि करते नहीं"-उ० श.। रंकार-संज्ञा, पु० दे० ( सं० ररना) रकार रवना*-अ० कि० दे० (सं० रमण ) केलि की ध्वनि, ब्रह्म-द्योतक शब्दः (ओंकार का या क्रीड़ा या रमण करना । अ० कि. ( हि० अनु० )-कवी। ख) शब्द करना। --संज्ञा, पु० दे० रर* --संज्ञा, स्त्री० ( हि० रग्ना) रट, रटन।। (सं० रावण ) रावना (दे०), रावण ।। ररकना-अ० क्रि० (अनु०) पीड़ा देना, रवनि, रवना* --संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० सालना, कसकना। संज्ञा, स्त्रं ररक। रमणी । स्त्री, पती, सुन्दरी, रमणी । “ राज ररना-अ० क्रि० दे० ( सं० रटन) रटना, स्वनि सोरह सहस, परिचारिकन समेत" एक ही शब्द या बात को बार बार कहना। -नरो । लो०-"भोर होत जो काला रै।" रवन्ना - संज्ञा, पु. ( फा० खाना ) माल ररिहा*-संज्ञा, पु० दे० (हि० ररना - आदि के ले जाने या ले पाने का प्राज्ञा हा-प्रत्य० ) ररने वाला, रटुया या रुरुमा पत्र, राहदारी का परवाना, रवाना किये माल पती, भारी भिखारी। का ब्यौरा, बीजक । रर्रा-संज्ञा, पु० दे० (हि. राना ) गिड़गिड़ा रवा--संज्ञा, पु. द. (सं० रज ) रेज़ा, कण, कर माँगने वाला, अधम, न'च, तुच्छ। टुकड़ा, सूजी, बारूद का दाना, एक प्रकार रलना*-अ० कि० दे० (सं० ललन ) का शुद्ध देशी सेना । वि० (फ़ा०) उचित, सम्मिलित होना, एक में मिलना । स० रूप उपयुक्त, चलनसार, प्रचलित । संज्ञा, पु० रलाना, प्रे० रूप-रलवाना। (दे०) परवाह, इच्छा, चिन्ता। रलाना-स० क्रि० (दे०) मिलाना। रवाज, रिवाज-रज्ञा, स्त्री. ( फा०) चलन, रली-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० ललन = क्रीड़ा, . रीति, रस्म, प्रथा, चाल, परिपाटी, केलि ) विहार, क्रोड़ा, प्रसन्नता, भानन्द । रल्ल*-संज्ञा, पु० दे० (हि. रेला) रवादार-वि० (फा०) संबंधी, लगाव रखने हल्ला, रेला। वाला । वि०(दे०) श्राश्रित। वि० (हि० रत्रा--- रल्लक-संज्ञा, पु. (सं०) कम्बल, पश्मीने फ़ा० दार-प्रत्य० ) कण या दाने वाला। का कंबल । रवानगी-संज्ञा, सी० (फा०) प्रयाण, रव-संज्ञा, पु. (सं०) शब्द, गुंजार, नाद, प्रस्थान, कूच, चाला (दे०). रवाना होने शोर-गल, श्रावाज़ । संज्ञा, पु० दे० *1 का भाव या क्रिया। (सं० रवि) सूर्य । रवाना-वि० (फा० ) प्रस्थित, कृच होना, रवकना-अ० कि० (हि० रम्ना = चलना ) भेजना, चल देना। दौड़ना, उछलना, कूदना, उमँगना । रवानी-संज्ञा, स्त्री० (फा० ) प्रवाह, गति । रवताई*-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि० रावत-- रवारवी- संज्ञा, स्त्री. (फा० रवा+रखी अनु०) पाई-प्रत्य० ) स्वामित्व, रावता, प्रभुत्व, शीघ्रता, जल्दी। राव या राजा का भाव । रवायत-संज्ञा, स्त्रीः (अ.) कहानी, किस्सा । रवन*-संज्ञा, पु० दे० (सं० "मण ) स्वामी, रधि-(सं०) पु० (सं०) सूर्य, मदार, प्राक, पति । वि० (दे०) रमण करने वाला, क्रीड़ा नायक, अग्नि, सरदार, रवि (दे०)। " रवि या खेल करने वाला। वि० (दे०) गैन (दे०) दिशि नैन सकै किमि जोरी"- रामा० । प्रणाली। For Private and Personal Use Only Page #1486 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org रविक रविक - संज्ञा, पु० (दे० ) पेड़ | रविकुल- संज्ञा, पु० यौ० (सं०) सूर्य - वंश | रविचंचल - संज्ञा, पु० (सं०) काशी का लोलार्क तीर्थ । १४७५ रविज- रविजात- संज्ञा, पु० (सं०) यम, शनिश्चर, सुग्रीव, कर्ण, श्रश्विनीकुमार | रविजा - संज्ञा, स्त्री० (सं० ) यमुना | रवितनय - संज्ञा, पु० यौ० (स० ) यमराज, शनिश्चर, सुप्रीव, क, अश्विनीकुमार ! रवितनया - संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) यमुना । "रवितनया-तट कदम वृक्ष सोहत छवि छायो " - स्फुट । रविनंदन - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) यम, शनिश्चर, सुग्रीव, कर्ण, श्रश्विनीकुमार । रविनंदिनी - संज्ञा, स्रो० यौ० (सं०) यमुना । 'राम-कथा रविनंदिनि बरणी' - रामा० । रविपुत्र - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) सूर्य का बेटा, यम यादि रवितनय | रविप्रिय - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) कमल, अकवन | रविप्रिया - संज्ञा, त्रो० (सं०) सूर्य की स्त्री या पत्नी । रविपुत* - संज्ञा, पु० यौ० दे० (सं० रविपुत्र) यम, शनिश्चर, सुग्रीव, कर्ण, अश्विनी कुमार | रविमंडल - संज्ञा, ५० यौ० (सं०) सूर्य का गोला, सूर्य के चारों श्रोर का लाल गोला, • रवि-बिव । "रविमंडल देखत लघु लागा" । रविमणि - संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) सूर्यकांतिमणि, श्रातशी शीशा । रविवाण - संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) जिम वाण के चलाने से सूर्य का सा प्रकाश हो । रविवार - संज्ञा, पु० चौ० (सं०) एतवार, आदित्य वार | रविश - संज्ञा, स्त्री० (फ़.०) चाल, गति, ढंग, तरीका, क्यारियों के बीच की छोटी राह । रविसुन- रविसुवन - संज्ञा, पु० दे० यौ० (सं०) रवितनय, सूर्य - पुत्र | रसकोरा रवैया - संज्ञा, पु० दे० ( फा० रविश, रवाँ ) रीति, चलन, व्यवहार, चाल-ढाल, ढंग, प्रथा । यौ० -- रीति रवैया । रशनोपमा - रसनोपमा - संज्ञा, स्त्री० (सं०) गमनापमा या उपमामाला, उपमालंकार का एक भेद, जिनमें कई उपमेयोपमान उत्तरोत्तर उपमानोपमेय होकर चलते हैं (श्र० पी०) । रश्क - संज्ञा, पु० ( फा० ) डाह, ईर्ष्या । रश्मि -संज्ञा, पु० (सं०) किरण, घोड़े की लगाम, बाग। ' रविरश्मि संयुतं " - स्कु० । यौ० - रश्मिमाली - सूर्य, चन्द्र । रस - संज्ञा, पृ० (सं०) रसना का ज्ञान, स्वाद, रस छै प्रकार के हैं, मधुर, अम्ल, लवण, कटु, तिक्त, कषाय (वैद्य ० ) छः की संख्या, देह की ७ धातुनों में से प्रथम धातु, तत्व या सार, काव्य और नाटक से उत्पन्न मनका एक भाव या आनंद ( साहित्य ० ) काव्य में शृंगार, हास्य, करुण, रौद्र, वीर, भयानक, वीभत्स, श्रद्भुत और शान्त हरस हैं, नौ की संख्या, आनंद। मुहा० - रस भीजना या भीगन:- जवानी का प्रारंभ होना । प्रीति, प्रेम, स्नेह । यौ० - रसरंगप्रेम-क्रीड़ा, कलि । वेग, जोश। रसरीतिस्नेह का व्यवहार । यौ० - गोरस - दूध दही यादि। केलि, विहार, काम-क्रीड़ा, उमंग, गुण, द्रवपदार्थ, पानी, शरबत, पारा, धातुओं की भस्म ( वैद्य० ), रगण श्रौर सगण (केश ० ), भाँति, प्रकार, मनकी मौज या इच्छा, हृदय की तरंग | क्रि० वि० (दे०) धीरे धीरे रसे रसे (दे० ) । "रस रस सूख सरित सर पानी" - रामा० । रसकपू ८- संज्ञा, पु० दे० (सं० रस + कर्पूर) एक श्वेत औषधि जो उपधातु मानी जाती है (वै० ) | रसकेलि संज्ञा स्त्री० यौ० (सं०) कामक्रीड़ा, बिहार, दिल्लगी, हँसी । रसकोरा - रुज्ञा, पु० (दे०) एक मिठाई, रसगुल्ला । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private and Personal Use Only Page #1487 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org रसगुनी रसगुनी | संज्ञा, पु० दे० यौ० (स०रगुणी) काव्य और संगीत का ज्ञाता, रसन् । रसगुल्ला - संज्ञा, पु० दे० यौ० (हि० रस -+गोला) देने की एक मिठाई । १४७६ रसग्रह - संज्ञा, पु० (सं०) रसना. जीभ । रसज्ञ - वि० (स० ) भावुक, रसिक, रस-ज्ञानी, काव्य और संगीत का मर्मज्ञ, कुशल, दत्त, निपुण | संज्ञा, स्त्री० रसज्ञता । रसज्ञा - संज्ञा, स्रो० (सं०) रसना, जिह्वा । "येषामाभीर-कन्या-प्रिय गुण-कथने नानुरक्ता रसज्ञा । " रसता - संज्ञा, स्रो० (सं०) रस का धर्म या भाव, सत्व (सं०) | रसद - वि० (सं०) सुख या श्रानंद देने वाला, स्वादिष्ट, मज़ेदार | संज्ञा, स्त्री० ( फ़ा० ) बखरा, बाँट, खाने-पीने की सामग्री। मुहा० - हिस्सा रसद विभा जन में उचित हिस्सा मिलना, बिना पकाया कच्चा अनाज । रसदार - वि० (सं० रस + दार फा०) रसपूर्ण, रस- युक्त, स्वादिष्ट, मजेदार, रसीला ! रसन -- संज्ञा, पु० (सं०) चावना, स्वाद लेना, ध्वनि, जिह्न । रसवत क्रमशः उपमालंकार का वह भेद जिसमें पूर्वगत उपमेय प्रागे क्रमशः उपमान होते हुए उत्तरोत्तर उपमा माला बनावें ( श्र० पी० ) । रसपति - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) चन्द्रमा, रसाधिप, रसाधिपति, राजा, पारा, Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir शृङ्गार रस | रसप्रबंध - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) नाटक, एक ही विषय का सरस सम्बद्ध काव्य-वर्णन | रसभरी -- संज्ञा, स्त्री० दे० यौ० ( ० रेप्स बेरी) एक स्वादिष्ट फल | रसमीना - वि० यौ० ( हि० रस | मीनना) हर्ष- मग्न, थाई, गीला, तर । खो०रसभीनी । रसम रस्म-संज्ञा स्त्री० ( फा० ) रीतिरिवाज, चाल, प्रथा । -- रसमसा वि० दे० ( हि० रस - मस - अनु० ) अनुरक्त, थानंद-मग्न, गीला । त्रो० रसममी। 46 | रसना - संज्ञा, स्त्री० (सं०) जिल्हा, जीभ, ज़बान । रसना कसना ग्राम से " । मुहा० - रसना - खोलना - बोल चलना । रसना (जीभ ) तालु से लगानाबोलना बंद करना । रस्सी, लगाम जिहा नुभवित स्वाद । प्र० क्रि० ( हि०) गीला होकर द्रव वस्तु छोड़ना, धीरे धीरे टपकना या बहना। मुहा० रस-रस या रसे-सेधीरे-धीरे । “रसरस सूख सरित-सर- पानी ” - रामा० । रस लेना या रस में निमग्न तन्मय होना, प्रेम में अनुरक्त होना, स्वाद लेना । रसमि- संज्ञा, स्री० | २०, रश्मि, किरण | रमराज - संज्ञा, पु० ० (सं०) पारा, पारद, शृङ्गार रस | र रसराय* -संज्ञा, पु० दे० (सं० रसराज ) रसराज, पारा, श्रृंगार रस । "हम तुम सूखे एक से, हूजत है रमराय' - गिर० । रसरी- संज्ञा स्त्री० दे० (हि० रस्सी) रस्पी, डोरी, जौरी, लस्सी (दे०) "रपरी थावत जात तें, सिल पर परत निपान" - वृं० । रसल वि० दे० (हि० रसीला ) रसीला | रसवंत संज्ञा, पु० (सं० रसवत्) रसिक, प्रेमी । वि० -- रसीला, रस-भरा रसवंती-- संज्ञा, पु० ० (सं० रसवती) रसोई, रसवती, रसौत | रसवत्संज्ञा, पु० (सं०) वह अलंकार जिसमें एक रस किमी दूसरे रस या भाव का अंग हो ( ० पी० ) । वि० - रस युक्त, या रस तुल्य, रसवाला । "कवीनाम् रसवद्रचः स्फु० सा० । " रसनंद्रिय - संज्ञा स्त्री० यौ० (सं०) जीभ, जिह्वा, रसना । रसनोपमा - संज्ञा, पु० (सं०) गमनोपमा, रमवत -- संज्ञा, पु० (०) रसौत ( श्रौष ० ) । For Private and Personal Use Only Page #1488 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रसवाद १४७७ रसियाउर वि० वी. रसवती (सं०) । रस वाली, रस- वस्तुओं के तत्वों का ज्ञान । वि. रसायन युक्त । संज्ञा, स्त्री० रसोई, पृथ्वी। शास्त्र । हेपा : कल्पित योग जिमसे ताँबे रसवाद--संज्ञा, पु. यौ० (सं०) प्रेमानंद का सोना होना कहा जाता है । की बातचीत, मनोजक वार्तालाप, विनोद- रसायन विद्या---एंज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) वह वार्ता, हमी दिल्लगो, छेड़छाड़, बकवाद । विद्या जिस में पदार्थी या धातुओं के मिलाने " कागा बैठे करत है कोयल को रपवाद और अलावरने की विधि उनकी तत्व. -गिर। विवेचना तथा परिवर्तन, रूपान्तरादि कही रसवादी-संज्ञा, पु, यौ० (सं०) रस को। गयी है, पदार्थ-विद्या ।। काव्य में प्रधान मानने वाले । रसायनशास्त्र - संज्ञा, पु. (सं०) रसायन रसविरोध-संज्ञा, पु.० यौ० (सं०) एकही पद्य, विद्या, या विज्ञान, वह शास्त्र या विद्या में दो विरोधी रमों की स्थिति (काव्य० । जिव में पद के मूल तत्वों को विवेचना रसांजन-ज्ञा, पु. यौ० (सं०) रसौत.। हो और उनके मिलाने और अलगाने की सहजन। विधियों तथा तम्बों के परिवर्तन से पदार्थों के रसा-संज्ञा, खो० सं०) अवनि, पृथ्वी. । परिवर्तनादि का कथन हो, विज्ञान-शास्त्र, भूमि, बसुधा, जिह्वा जीभ । 'एमा रसातल पदार्थ विद्या, वस्तु विज्ञान, तत्व-विद्या । जाइहि तबहीं" गमा० । संज्ञा, पु० हि० रसायनिक --- वि० दे० (सं० रासायनिक ) रस ) तरकारी का मसालेदार रम, शोरबा । रासायनिक रसायनशास्त्र संबंधी, रसायन रसाइनी -संज्ञा, पु० दे० (सं० रसायन ) शास्त्र का नाता ! रसायन विद्या का ज्ञाता, रमायनी। रसाल-संज्ञा, पु० (सं०) श्राम, गन्ना, ऊख, रसाई-संज्ञा, स्त्री० (फा०) पहुँच, सम्बन्ध । गेहूँ, कटहल । वि० खी० ---रसालारसातल- संज्ञा, पु० यौ० (सं०) पृथ्वी का रसीला, मोठा, मधुर, मनोरमा, सुंदर । तल भाग, पृथ्वी के नीचे ७ लोकों में से संज्ञा, पु. ( अं० हरसाल ) राजस्व कर, ६ वाँ लोक पुरा०) । मुहा०- समातल ! महसूल । पाकर जम्बु, रसाल, तमाला" में पहुँचाना ( भेजना )-बरबाद या । ---रामा० तबाह होना (कर देना), मिट्टी में मिलना | रसालय-संज्ञा, पु. यौ० (सं०) रसमंदिर, या मिला देना । रमानल में जाना--- रसभवन, रम-स्थान, रसशाला, थाम्रवृक्ष, पतित या विनष्ट होना। पृथ्वी का श्रालय, भूगर्भ-सद्म ! रसादार-वि० (हि. रसा-दार-फा. प्रत्य०) साम-ज्ञा, ५० सं० साल) कौतुक । मसालेदार, रस-युक्त तरकारी शोरवेदार, सानिका--वि० स्त्री. (सं० रसालक ) रस वाला रसापायी-संज्ञा, पु० (सं०) जीभ से पीले मधुर, छोटा श्राम । वाला जीवधारी। रसावर-रममावल- संज्ञा, पु० द० (हि. रसाभास संज्ञा, पु० यौ० सं०) एक अलं- रसौर ) उख के रस में पके चावल, कार जिसमें अनुचित विषय या स्थान पर रसियाउर, रमौर (दे०)। किसी रस का वर्णन हो, ऐसे अलंकार का । रमाव--संज्ञा, पु. ( हि० रसना ) रसने की प्रसंग। क्रिया का भाव। रसायन - संज्ञा, पु. (सं०) धातूपधातुओं की ! रसियाउर--संज्ञा, पु० दे० (हि० रस ।भस्म, वह औषधि जिपके सेवन से मनुष्य चावल ) रसावर, ईख के रस में पके चावल, बुड्ढा और बीमार नहीं होता ( वैद्य.)। रसौर, विवाद की एक रीति का गीत । For Private and Personal Use Only Page #1489 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रसिक १४७८ रस्म रसिक-संज्ञा, पु. (सं०) रस-स्वाद का दर्शनों से भिन्न एक दर्शन, श्री कृष्ण, ज्ञाता, रस का स्वाद लेने वाला, सहृदय, रसेश। काव्य का मर्मज्ञ, भावुक, सिया, अच्छा रमेस-संज्ञा, पु० दे० यौ० ( सं० रसेश ) मर्मज्ञ या ज्ञाता, एक छंह (पि०)। रसेश, श्रीकृष्ण जी। "पिक्त भागवतं रसमालयं मुहुरहो रसिकाः रसोइया-संज्ञा, पु. (हि० रसोई+ इया -- भुवि भानुकाः"-- भा० प्र० । प्रत्य० ) रसोई दार, रसोई बनाने वाला, रसिकता-संज्ञा, स्त्री. (सं०) सरमता, बावर्ची (फा०)। रसिक होने का भाव या धर्म, हँसी-ठट्टा। रसोई-रसोई-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि० रस-+ " रसिकता लिकता-गत होचती"। सोई-प्रत्य०) भोजन पदार्थ जो पकाया गया रसिकविहारी-संज्ञा, पु. पौ० (सं०) श्री हो ( सं० रसवती)। मुहा०-रसोई कृष्ण जी. एक प्रसिद्ध हिन्दी-कवि । ' रसिक जीमना-- भोजन करना । रसोई तपना बिहारी" भृगु-नाथ भषिये तो नैकु । -भोजन पकाना। " कह गिरधर कविराय रसिकई रसिकाई----संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० तपै वह भीम रसोई।" पाकशाला, भोज. रसिकता ) रसिक होने का भाव या धर्म, नालय, चौका, रमाइया (ग्रा०)। हँसी-ठट्ठा। रसोईघर-संज्ञा, पु. यौ० ( हि०) पाकरसित-संज्ञा, पु. (सं०) शब्द, ध्वनि । शाला, भोजनालय । रसिया-संज्ञा, पु. द. ( सं० रसिक ) रसोईदार- संज्ञा, पु० दे० (हि० रसोई - दार रसिक । लो०- "सब घर रसिया पहित फा०-प्रत्य०) रसोइया, रसोई बनाने वाला। अलोन' । फागुन में एक गाना ( ब्रज)। रसोन--संज्ञा, पु० (सं०) लहसुन । 'नान्या रसियाव--संज्ञा, पु० दे० । हि० रसौर ) निमान्यानि किमौपधानि परन्तु वालेन रसौर, ऊख के रस में पके चावल । रसीन कल्कात"-लो. रा०। रसी-संज्ञा, पु० दे० (सं० रसिक) रसिक, रमापल-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) मुक्ता, मोती। रसिया। वि० रस-युक्त। । रसोया --संज्ञा, सी० (हि० रसोई) रसोई । रसीद-संज्ञा, स्त्री० (फ़ा०) प्राप्ति-पत्र, स्वी- रसौत-संज्ञा, स्त्री. (सं० रसोद भूत) रसवत, कृति-पत्र, मिलने या पाने का प्रमाण-पत्र, दारुहलदी की लकडो या जड़ को पानी में प्राप्ति, पहुँच, रिसीट (अं०) ! | पकाकर बनाई गई एक औषधि ।। रसील-वि० दे० ( हि० रसीला ) रसीला, रसौर-संज्ञा, पु० दे० ( हि० रस + और रसदार । -- प्रत्य०) ऊख के रस में पके हुये चावल । रसीला--वि० ( हि. रसला -प्रत्य०) रसौली-संज्ञा, स्त्री. (दे०) शरीर में गिलटी रसदार, रससे भरा, रसयुक्त, सरस, स्वादिष्ट, निकलने का एक रोग ( वै० )। आनंद-भोगी, रसिया, मनोरम, सुन्दर, रस्ता संज्ञा, पु० दे० (फा० रास्ता ) राह, बाँका । स्त्री. रसीली। मार्ग, रास्ता। मुहा० रास्ते पर आना रसूम-संज्ञा, पु. (अ०) रस्म का बहु वचन, (लाना)-ठीक कार्य करना ( कराना )। नियम, कानून, नेग, लाग ( प्रान्ती०) रस्ता बताना-'योखा देना, बहलाना, प्रचलित प्रथानुसार दिया धन । टालना। रीति, रसम (दे०)। रसूल-संज्ञा, पु० (अ०) पैगंबर, ईश्वर-दूत, रस्तोगी-- संज्ञा, पु० (दे०) वैश्यों की एक " रसूल पैग़म्बर जान बसीठ"--खा। | जाति । रसेश्वर-संज्ञा, पु. यौ० (60) पारा, षट् रस्म--संज्ञा, पु० (अ०) मेल-जोल, For Private and Personal Use Only Page #1490 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रस्मि १४७६ रहस्य यौ०-राहरस्म-व्यवहार, चाल, रिवाज, होना, चुपचाप या शान्ति-संतोष से समय परिपाटी, प्रणाली, रस्म । रिवाज, रीति बिताना, कोई काम या चल ना बन्द करना । रस्म, रसूम (दे०)। मुहा०-रह जाना--कुछ कार्यवाही न रस्मि*-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० रश्मि ) रश्मि करना, सफल न होना, लाभ न उठा पाना, रस्सी, किरण। संतोष करना। कामकाज या नौकरी करना, रस्सा -संज्ञा, पु. द० (स. रसना) बहुत स्थित या स्थापित होना, मैथुन करना, ही मोटी रस्सी । स्त्री० अल्पा० रस्सी।। बचना, जीना, छूट जाना जीवित रहना । रस्सी- संज्ञा, स्त्री० दे० ( हि० रस्सी ) रज्जु, यो-रहासहा-बचाखुचा, बचा-बचाया, डोरी, रसरी, लस्सी (दे०) लजुरी | अवशिष्ट, भूतार्थ में था या थे जैसे-“ रहे (प्रान्तो०)। प्रथम अब ते दिन बीते"--रामा० । रहँकला-संज्ञा, पु. ६० यौ० ( हि० रथ मुहा०-(भंग आदि का) रह जाना--- गाडी न लाने की थक या शून्य हो जाना, शिथिल हो जाना । गाड़ी, उस पर लदी तोप। स्त्री. अल्पा० रह जाना-पीछे छूट जाना, अशिष्ट रहँकलिया, रहकली। रहना, खर्च या व्यवहार से बचना । रहँचटा-संज्ञा, पु० दे० ( हि० रस-+चाट) रहनि*- संज्ञा, स्त्री० (हि० रहना ) रहन, प्रेम का चका. लि. चाट या चाह प्रीति, प्रेम, स्नेह, रहने का ढङ्ग या भाव । " रूप रह चटे लगि रहे "-वि०। रहम- संज्ञा, पु. (अ.) दया, कृपा, रहँट-संज्ञा, पु. दे० (सं० आरघट्ट, प्रा. करुणा, अनुह, अनुकंपा । यो०-रहमदिल अरहट्ट ) एक यंत्र जिसके द्वारा कुयें से पानी -कृपालु, दयालु । संज्ञा, स्त्री० रहमदिली। निकाला जाता है। संज्ञा, पु० ( प्र. रहम ) गर्भाशय । रहँटा- संज्ञा, पु० दे० (हि० रहँट) सूत रहमत-संज्ञा, स्त्री० (अ.) दया, कृपा। कातने का चर्वा । रहल संज्ञा, स्त्री० (अ.) पढ़ने के लिये रहचह-संज्ञा, स्त्री. ( अनु० ) पक्षियों का पुस्तक रखने की एक छोटी चौकी। शब्द, चिड़ियों की चहचहाहट । रहलू*---संक्षा, स्त्री० दे० (हि० रहरू) रहन-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि० रहना ) श्रा रहरू, राह चलने वाला। चार, व्यवहार, रहने की क्रिया का भाव । रहस--संज्ञा, पु. (सं० रहस ) गुप्त भेद, (द०) चने के साग में बेसन का मेल । सुखमय लीला, छिपी बात, क्रीडा, आनंद, रहनसहन-संज्ञा, स्त्री० यौ० ( हि० रहना+ गूढतत्व, मर्म, एकांत स्थान । (७०) एक सहना ) चाल, व्यवहार जीवन निर्वाह, का प्रकार का नाटक या लीला-कौतुक या नाच । ढंग, चालढाल, तौर तरीका। रहसना-अ० कि० ( हि० रहस-+ नारहना-अ० क्रि० दे० (९० राज = विराजना)। प्रत्य०) प्रसन्न या आनंदित होना । ठहरना, रुकना, थमना, स्थित होना, निवास रहस-बधावा----संज्ञा, पु० यौ० (सं० रहस--- या श्रवस्थान करना या होना । मुहा०-रह बधाई ) विवाह की एक रीति । जाना-रह चलना--रुक जाना, ठहर रहसि-संज्ञा, स्त्री. (सं० रहस् ) एकांत, जाना, बिना गति या परिवर्तन के एक ही गुप्त स्थान । स्थिति में अवस्थान या निवास करना, रहस्य-संज्ञा, पु० (सं०) गुप्त भेद, मर्म या टिकना, बसना, उपस्थित या विद्यमान | भेद को गोप्य बात, गृढ़तत्व, मजाक । यौ. For Private and Personal Use Only Page #1491 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रहाइस राई रहस्यवाद-- गूढ दार्शनिक भाव-पूर्ण काव्य पकहना । स० कि० (दे०) रँगना, रंग (आधु०)। वि० रहस्यवादी । चढ़ाना, रचना, बनाना । ' मन जाहि राँच्यो, रहाइस-संज्ञा, स्त्री० दे० ( हि० रहना ) . जो विलाकि मुनिवर मन राँचा"-रामा० । निवास, टिकाव, स्थिति, वाप। "करि अभिमान विषयरस राँच्यो".---सूर। रहाई-संज्ञा, स्त्री० (हि रहना ) कल, "कोटि इन्द्र छिन ही में राँचै, छिन में धाराम, चैन, रहने का भाव । कर विनाप"-'पूर० ।। रहान! --अ० कि० दे० (हि० रहना) रॉजना- अ० क्रि० द. (सं० रंजन) सुरमा, होना. रहना, रखना। अंजन या काजल लगाना । सं० कि० -- रहाव-संज्ञा, पु० दे० (हि० रहना) स्थिति. रंगना रंजित करना, राँगे से फूटे बरतन टिकाव, रहन । की मरम्मत करना। रहावन-संज्ञा, स्त्री. (हि० रहना+- राम--संज्ञा, पु० (दे०) टिटिहरी पक्षी। आवन--प्रत्य० ) वह स्थान जहाँ सारे गाँव। रोड-- वि० वी० दे० ( सं० रंडा ) बेवा, के पशु बन जाने से पहले इकटु होते हैं, विधवा, रडी, वेश्या । संज्ञा, स्त्री० रडापा रहूनो, रहुनियाँ (ग्रा० ।। रहित-वि० (सं०) बिना, हीन, बगैर । रोदना-गढ़ना -- स० कि० दे० (सं० " भक्ति-रहित संपति, प्रभुताई '--गमा०। रुदन ) राना। रहिला लहिला---संज्ञा, पु.. (दे०) चना, राध-संज्ञा, पु० दे० ( सं० परांत ) पड़ोस, अन्न । " रहिमन रहिला की भलो' । । पराय, समीप. पा । “राँव न तवाँ दूसर रहीम-वि० (अ०) दयावान, दयालु.. कोई "--पदा० : वि० - परिपक्क बुद्धि वाला कृपालु । संज्ञा, पु० ( अ० ) ईश्वर, अब्दुल ज्ञानी । " सँध जो मंत्री बोले सोई" रहीम खानखाना का उपनाम । "जो रहीम -पद्म० । उत्तम प्रकृति, का करि सकत कुसंग"। गधना-स० कि० दे० (सं० रंधन ) चावल रहुवा, रहुआ-- संज्ञा, पु० द० (हि. या दाल थादि पानी में पकाना, पाक रहना ) रोटियों पर नौकर रहने वाला । करना । टुकड़हा, रोटी-तोड़ । " कह गिरधर कविराय रॉपी-गायी-- संज्ञा, स्त्री० (दे०) पतली छोटी कहै साहिब सो रहुवा"--गिर। खुरपी जैमा मोचियों का एक यौज़ार । राँका-वि० दे० (सं० रंक ) कंगाल, राँभना .. अ० क्रि० दे० ( सं० रंभगा ) गाय निर्धन । " धनी, राँक सब कम्मधिीना" का बोलना या चिल्लाना, बँबाना। " जैसे -कु. वि. राँभति धेनु लवाई "--कु० वि०।। रॉकब-वि० दे० (सं० २) कंगाल, राया*-संज्ञा, १० (दे०) राजा (स०) । निन । " रॉकब कौन सुदामाहूतें पाप- राइ --- संज्ञा, पु० दे० (सं० राजा ) रइण्या समान करै, . सूर० । (ग्रा० ) राउ, राय, सरदार, छोटा राजा, राँग-रॉगा-संज्ञा, पु० (सं० रंग ) एक राजपद । “ राइ राज सब ही कह नीका" सफ़ेद कोमल धातु, बंग, रंगः ।। ---रामा० राँच - अव्य० दे० ( सं० रंच ) तनिक, गई--संज्ञा, स्त्री० दे० ( सं० राजिका ) छोटा किंचित, रंचक। सरसों जैमा एक तिलहन, अति अल्प मात्रा राँचना* ---अ० कि० द. ( सं० रंजन) या परिमाग । “राई को पर्वत कर, परवत प्रेम करना, चाहना, अनुरक्त होना, रंग राई माहि -कवी । मुहा०-गई-नान For Private and Personal Use Only Page #1492 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org - राउ-राऊ (6 कह नृप बहुरि उतारना - दृष्टि दोष मिटाने के लिये राई और नमक को उतार कर आग में डालना | राई से पर्वत करना - राई का पहाड़ बनाना - थोड़ी बात को बहुत बढ़ा देना । राई काई करना - टुकड़े टुकड़े कर डालना, नष्ट करना | संज्ञा, पु० दे० (सं० राजा ) राजा, श्रेष्ठ । सुनहु मुनिराई " - स्फु० । राउ - राऊळ - संज्ञा, पु० दे० राजा । "राउ सुभाय सुकर कर विवश पुनि पुनि कह राऊ राउत | संज्ञा, पु० दे० (सं० राजा बहादुर, वीर पुरुष, एक जाति, राजा के वंश का । राउर - संज्ञा, पु० दे० (सं० राजपुर ) अंतःपुर रनवास, रनिवास । सर्व०, वि० ( ब० ) आप का, श्रीमान् का । " जो राउर अनुशासन पाऊँ - रामा० । राउल संज्ञा, पु० दे० (सं० राजकुल ) राजा, राजकुल में उत्पन्न व्यक्ति । -राम० । स्त्री० (दे०) राकस - संज्ञा, पु० दे० ( सं० राक्षस ) राक्षस । स्त्री० राकसिन । " भलिभूजि कै राकस खाकस कै, दुख दीरघ देवन कौ दरि दौं १. राकसिन- राकसी-संज्ञा, राजसी (सं०) रातसिन राका संज्ञा, त्रो० (सं०) पूर्णिमा पूर्णमासी की रात्रि | " उयो सरद राका ससी " - वि० । राकापति - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) चंद्रमा । राकेश - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) चंद्रमा, राकेस (दे० ) । राक्षस - संज्ञा, पु० (सं० ) असुर, दैत्य, निशाचर, दुष्ट जीव । स्त्री० राक्षसी । 'पपात राक्षसो भूमौ" भट्टी० । एक प्रकार का व्याह जिसमें युद्ध से कन्या छीन ली जाती है । राख - संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० रक्षा ) भस्म, खाक, विभूति । भा० श० को०- १८६ १४८१ (सं० राजा ) लीन्हा-प्रेम रामा० । राज + पुत्र ) क्षत्रियों की रागनी - रागिनी 81 33 राखना - स० क्रि० दे० (सं० रक्षण ) रखना, आरोप करना, बचाना, रक्षा या रखवारी करना, छल करना, छिपाना, रोक रखना, जाने न देना, ठहरा लेना, बताना । राउ राम-राखन-हित लागी -रामा० । राखी संज्ञा, सी० दे० (सं० रक्षा ) रक्षाबंधन का डोरा, रक्षा, रखिया (दे० ) | संज्ञा स्त्री० दे० ( हि० राख ) भस्म, खाक | " राखी मरजाद पाप-पुन्य की सो राखी गनै' – रत्ना० ! स० क्रि० (दे०) रक्षा करना, बचाना, छिपाना, रखना । " तोहिं हरि, हर, अज सकहिं न राखी " - रामा० । राग - संज्ञा, पु० (सं० ) प्रीति, प्रेम, स्नेह, मत्सर, द्वेष, ईर्ष्या, पीड़ा, कष्ट, किसी प्रिय या इष्ट वस्तु के प्राप्त करने की इच्छा, सांसारिक सुखों की लालसा या चाह, एक वर्णिक छंद (पिं), रंगविशेष, लाल रंग, लाली, महावर, अलता (प्रान्ती० ) अंगराग, देह में लगाने का सुगंधित लेप | मुकलित होत ज्यों, परसिप्रात-रवि- राग " मति० । धुनि विशेष में बैठाये स्वर, गाने की ध्वनि, जिसके ६ भेद हैं:- भैरव, मलार, मेघ, श्री, सारंग, हिंडोल, बसंत, दीपक ( मतभेद है) । मुहा० - अपना (अपना) राग अलापना - अपनी ही बात कहना | "कौ० व्या० | " रंजते अनेनेति रागः कुवलय 1 मुहा० यौ० -राग-लाग ( बैठना ) - सिलसिला, ठीक विधान या प्रबन्ध बनना । रागताग- बिगड़ना - प्रबन्ध का बिगड़ना । राग लगाना- किसी बात का सिलसिला जारी करना । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private and Personal Use Only 9: रागना - अ० क्रि० दे० (सं० राग) अनुरक्त होना, अनुराग करना, रँगजाना, मग्न, लीन या रंजित होना. डूबना । स० क्रि० दे० (सं० राग ) अलापना, गाना | रागनी - रागिनी -संज्ञा, त्री० (सं०) संगीत के ६ रागों में से प्रत्येक राग के ५ वाँ भेद, श्रतः छत्तीस रागिनी हैं फिर प्रत्येक रागिनी Page #1493 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir CAR रागी १४८२ राजगृह के दो दो भेद हैं, अतः बहत्तर राग-पत्नियाँ अधिकार होना । संज्ञा, पु० दे० (सं० या भाायें मानी गयी हैं (संगी०)। राजन् ) राजा, राजगीर । रागी-संज्ञा, पु० (सं० रागिन ) प्रेमी, राज--- संज्ञा, पु० (फ़ा०) रहस्य, भेद । स्नेही, अनुरागी, ६ मात्रामों के छंद (पि०)। राजकन्या-संज्ञा, स्त्री० यो० (सं०) राजा स्त्री० रागनी। वि०-रंगा हुश्रा, रंगीला, की बेटी, राज-सुता, राज-तनया, राजलाल, विषयी, विषय में फँसा, ( विलो. किशोरी, राज-पुत्री, राज-कुमारी। विरागी)। वि०-रंगने वाला, राग गाने राज-कर-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) वह महसूल वाला, राग जानने वाला, गवैया । *.संज्ञा, . या कर जो राजा प्रजा से लेता है, लगान, स्त्री० (सं० राज्ञी) रानी । " छही राग छत्तीस | खिराज । रागनी मुरली में गा"-- स्फुट। राजकीय-वि० (60) राजा या राज्य राघव--- संज्ञा, पु० (सं०) रघुवंशीय, श्रीराम सम्बन्धी, राजा का। चन्द्र जी । " सुग्रीवो राघवाज्ञया"-भट्टी । राजकीय महासभा-- संज्ञा, स्त्री० यौ० राचना-सं० क्रि० दे० (हि० रचना) रचना, (सं.) राजा की सभा, राज-दरबार, बनाना, सजाना । अ० कि० (दे०)-बनना, शाही दारबार । रचा जाना । अ० क्रि० दे० ( सं० रंजन ) राजकुंअर-राजकंवर*-संज्ञा, पु० दे० रँगा जाना, प्रेम में मग्न या अनुरक्त होना, यो० (सं० राजकुमार ) राजा का बेटा, डूबना, प्रेम करना, रंजित या निमग्न होना, राज-पुत्र । स्त्री. राजकुवरि । " राजकुंवर प्रसन्न होना, शोभित होना, रुचिर रोचक तेहि अवसर पाये"..-रामा० । या भला लगना, चिंता या से'च में पहना। राजकुटुम्ब--संज्ञा, पु० यौ० (सं०) राजा का राछ-संज्ञा, पु० दे० (सं० रन) कोरी या वंश, राजा का घराना । वि० राजकुटुम्बी। जुलहों के कपड़ा बुनने का या करवे में राजकुमार-संज्ञा, पु. यौ० (सं०) राजा का ताने के तागों का नीचे-ऊपर उठाने और पुत्र । स्रो. राजकुमारी। गिराने का एक यंत्र, कारीगरों का एक राजदत्त - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) राज-वंश, औज़ार, जलन, बारात । राज-परिवार। राइस, राच्टस -संज्ञा, पु० दे० (सं० राजकृत्य-संज्ञा, पु. यौ० (सं०) राजा का राक्ष ) राक्षस, राच्छत (ग्रा०)। राज-संज्ञा, पु० दे० (सं० राज्य ) राज्य, कार्य या कर्तव्य। राजकोश -- संढा, पु. यौ० (सं०) राना का शासन, हुकूमत, राजा (घल्प.) जैसे खज़ाना राज्य और खजाना । कविराज, धर्मराज । सुहा०--राज पर बैठना-राज-सिंहासन पर बैठना । 'राम राजगद्दी-राजगद्दी--संज्ञा, स्त्री० दे० यौ० राज बैठे जय लोका" .. रामा० । राज ( हि० राजा - गद्दी) राज-सिंहासन,नृपासन । राजना ( करना, भोगना )-राज्य राजगिरि-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) मगधदेश करना, अति सुख से रहना। यौ.---- का एक पहाड़ ( भू. ), राजगृह, पटना। राज-काज- राज्य-प्रबन्ध, राज्य-शासन । राजगीर-- संज्ञा, पु. (सं० राज+गृह ) इंट, राज-पाट-राज सिंहासन, शासन । एक पत्थर से घर बनाने वाला, राज, थवई राजा से शासित देश, राज्य, जनपद राज्य- (प्रान्ती० )। अधिकार, अधिकार-काल । मुहा०- राजगृह--संज्ञा, पु० यौ० (सं०) राजा का (किसी का) राज्य होना-पूर्ण स्वतन्त्र महल, राज-प्रासाद, पटने के समीप एक For Private and Personal Use Only Page #1494 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org राजतरंगिणी स्थान, गिरिबन ( प्राचीन मगध की राजधानी ) । राजतरंगिणी - संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) कल्हण कवि- रचित काश्मीर का संस्कृत इतिहास | १४८३ राजतिलक - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) राजगद्दी के मिलने का उत्सव, राज्याभिषेक । राजत्- वि० सं०) चाँदी - संबंधी या रत्-निर्मित | राजत्व-संज्ञा, पु० ( सं० ) राजा का पद, राजा का शासन, राजा का भाव या कार्य्यं । ० राजत्वकाल | राजदंड - संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) वह दंड जो किसी को किसी राजा की आज्ञा से दिया जावे | राजदंत – संज्ञा, पु० यौ० (सं०) और दाँतों से बड़ा तथा चौड़ा बीच का दाँत । राजदूत - संज्ञा, ५० चौ० (सं० ) राजा का धावन, राजा का चिहोरसा, किसी राजा के द्वारा दूसरे राजा के यहाँ भेजा गया विशेष संवादवाहक अधिकारी । राजद्रोह--संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) राजा या राज्य के प्रति द्रोह, बग़ावत | वि० राजद्रोही । राजद्वार - संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) राजकी योदी, न्यायालय । राजधर - संज्ञा, पु० (सं०) श्रामात्य, मंत्री | राजधर्म्म -संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) राजा का धम्मं या कर्तव्य, वह धर्म जिसे राजा मानता हो । राजधानी - संज्ञा, स्त्री० (सं० ) किसी देश का शासन केन्द्र, राजा के रहने का नगर, 'देश शासक के निवास का नगर । राजना* - श्र० क्रि० दे० (सं० राजन ) शोभित या विराजमान होना, रहना, उपस्थित होना । " राजत राजसमाज महें, कौसल - भूप-किसोर "- रामा० । राजभक्त राजनीति--संज्ञा स्त्री० यौ० (सं०) क़ानून, राजा का शासन नियम, धर्मशास्त्र 1 " राजनीति स क दशानन" - रामा० । राजनीतिक - वि० यौ० (सं० ) राजनीति संबंधी, राजनैतिक (दे०) । राजन्य - संज्ञा, पु० (सं०) राजा, क्षत्रिय । " मंत्र - हीनश्च राजन्यः शीघ्रं नश्यति न संशय " चा० नी० । राजपत्री - संज्ञा, पु० दे० यौ० (सं० राजपक्षिन् ) राज पत्ती, हंस बहुत बड़ा पत्ती, राज (दे०) | राजपंखि तेहि पै मँडरा - पद्मा० । 66 राजपंथ - राजपथ - संज्ञा, पु० यौ० ( सं० राजपथ ) राजमार्ग, सड़क, चौड़ी गली, राजा की बनवाई बड़ी सड़क । राजपत्नी - संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं० ) राजा की रानी राजा की स्त्री । राजपुत्र -- सज्ञा, पु० यौ० (सं०) राज कुमार राजा का लड़का, एक वर्ण संकर जाति, राजपत (दे० ) । स्त्री० राजपुत्री । राजपुष - संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) राज्य का कर्मचारी । 23 Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir राजपूत - संज्ञा, पु० दे० यौ० (सं० राजपुत्र) रजपत (दे०), राजा का बेटा, राजपुत्र, राजपूताने में क्षत्रियों के खास खास वंश । संज्ञा स्त्री० (दे०) राजपूती, रजपूती । राजपताना -- संज्ञा, पु० (दे०) एक प्रदेश जहाँ राजपूत रहते हैं (भारत) ! राजप्रासाद - संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) राजमहल, राज- वेश्म, राजमहल, राजसदन । राजवाड़ी-संज्ञा स्त्री० दे० (सं० राजबाटिका ) राजवाटिका, राज प्रासाद । राजवाहा - संज्ञा, पु० दे० ( हि० राज + बहना ) सबसे बड़ी नहर जिससे कई छोटी छोटी नहरें निकली हों, रजबहा (दे० ) । राजभक्त - वि० यौ० (सं० ) राज्य या राजा में भक्ति करने वाला | संज्ञा, खो० राजभक्ति । For Private and Personal Use Only Page #1495 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - राजभक्ति १४८४ राजसमाज राजभक्ति-संज्ञा, स्त्री० यौ० सं०) राज्य या रामरोग-संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) यचमा या राजा के प्रति श्रद्धा या प्रेम। क्षय रोग, गहन और असाध्य रोग (कै.) । राजभवन-संज्ञा, पु. यौ० ( सं०) राज- राजर्षि-संज्ञा, पु. यौ० (सं० ) राजवंशीय भौन (दे०), राजा का महल, राज-मंदिर, | या क्षत्रिय जाति का ऋषि, तपोबल से राज-प्रासाद, राजसदन "राजभवन की ऋषि हुआ राजा। शोभा न्यारी'"-कु. वि.। राजलतमी- संज्ञा, स्त्री० यौ० ( सं० ) राज. राजभोग - संज्ञा, पु० यौ० ( सं०) दोपहर श्री, राजवैभव, राजा की शोभा या कांति । का नैवेद्य, एक महीन धान । राजलोक-संज्ञा, पु. यौ० (सं० ) राज. राजमंडल- संज्ञा, पु. यौ० (सं०) किसी | महल । “ केशव बहुराय राज राजलोक राज्य के आस-पास के राज्य, राजाओं की देखा"-के०। सभा. समिति या समूह । राजवंत-वि० ( हि० राज-वंत) नृप-कर्मराजमंदिर-संज्ञा, पु. यौ० (सं० ) राज- युक्त, राज्य-युक्त। भवन, राज सन्ना, राज-महल ।। राजवंश-- संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) राजा का राजमहल-संज्ञा, पु० दे० यौ० (सं० कुटुम्ब या कुल, राज-कुल । राजन् + महल) राजभवन, राजमंदिर, संथाल राजवर्म - संज्ञा, पु० यौ० ( सं० राजवर्मन् ) परगने का एक पहाड़। राज-पथ, राज मार्ग। राजमान-वि. ( सं० ) विराजमान, बैठारावार-संज्ञा, पु० दे० यौ० (सं० राज हुआ। " राजमान जलजान उपरि दोउ द्वार ) राजद्वार । कान्ह भानु की नन्दिनी' - श्रीभट्ट। राजविद्रोह--संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) राजराजमार्ग- संज्ञा, पु० यौ० (सं०) चौड़ी | द्रोह, बग़ावत, ग़दर । वि० राजविद्रोही। और बड़ी सड़क, शाही सड़क, राजपथ । राजशासन-संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) राजा की हुकूमत, राज-दंड । राजयक्ष्मा-- संज्ञा, पु० यौ० सं० राजयक्ष्मन् ) राजश्री--संज्ञा, लो. यौ० (सं०) राजयधमा या क्षय रोग, तपेदिक, राजरोग । लघमी, राजसिरी (दे०)। " चमू रघुनाथ राजयोग-संज्ञा, पु. ( सं० ) वह योग जू की राजश्री बिभीषण की रावण की मीच क्रिया जो पतंजलि के योग दर्शन में बताई दर कूच चलि पाई है "- राम । गई है (योग). जन्म-कुंडली में राजा करने राजसंसद-संज्ञा. पु० यौ० (सं० ) राजवाले ग्रहों का योग ( ज्यो.)। सभा, राजदरबार । राजराज-- संज्ञा, पु. यौ० (सं० ) कुबेर, राजस-वि० (सं०) रजोगुण, रजोगुणी, चंद्रमा, सम्राट् । “यहि विलोकि कोपि । रजोगुणोत्पन्न । संज्ञा, पु. कोप, थावेश । राजराज श्राप दियो "-रफु० । स्त्री० राजसी। राजराजेश्वर - संज्ञा, पु. यौ० (सं०) राजसत्ता-संज्ञा, स्रो० यौ० (सं०) राजराजराजेश, महाराजा, महाराजाधिराज, | शक्ति, राज्य की सत्ता। राजाओं का राजा । “ राजराजेश के राजा | राजसभा-संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) राजा धाये यहाँ".-रामा स्त्री. गजराजेश्वरी। का दरबार, राजाओं की सभा । " राजा. राजराणी-राजरानी-संज्ञा, स्त्री० दे. यौ० | सभा मान देय घर को घटावे ना"( सं० राजराज्ञी ) महाराणी, राजा की विजः । रानी, राजमहिषी। | राजसमाज-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) राजाओं For Private and Personal Use Only Page #1496 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir राजसारस १४८५ राजोपजीवी की समाज या दरवार, राजमंडली, राज | राजाभियोग-संज्ञा, पु. यौ० ( सं० ) प्रजा सभा । " राजपमाज विराजत रूरे" की इच्छा के विरुद्ध राजा का कार्य करना । -रामा। रामावत- संज्ञा, पु० (सं०) बाजवर्त नामक राजसारस - संज्ञा, पु. (सं०) मोर, मयूर। एक उपरन, लाजवर्द (दे०)। राजसिंहासन-संज्ञा, पु. यौ० (सं.) रागिनी.-संज्ञा, स्त्री. ( सं० ) प्रवलि, राजा के बैठने का सिंहासन, राजगद्दी, पाँति, पंति, श्रेणी, कतार, रेखा, राई । राजासन । "शुचिष्यपाये वन-राजि पल्वलम्"-- रघु०। राजसिक-वि. ( सं० ) रजोगुणी, रजो- राजिका-ज्ञा, सी० ( सं० ) राई, पंक्ति, गुणोत्पन्न । रेखा, लकीर, श्रेणी। राजसिरी*--संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० राजश्री) राजित - वि० (सं० ) शोभित, विराजित । राजश्री, राज-लक्ष्मी। राजिव-हाज्ञा, पु० दे० ! सं० राजीव ) राजमी-वि० ( हि० ) राजा के योग्य, कमल, राजीव । “ भरि पाये दोउ राजिव राजाओं का सा, बहुमुल्य । नैना"--रामा । राजसूय-संज्ञा, पु. ( सं० ) चक्रवर्ती सम्राट राती-संज्ञा, स्त्री. (सं० ) पंक्ति, श्रेणी। के करने योग्य यज्ञ, जिसमें अन्य राजा ___“ राजीव-राजीवश लोलभृग'-.-माघ । सेवक बनते हैं। राजी- वि० । अ० ) सुखी, खुश, प्रसन्न, राजस्थान - संज्ञा, पु. यौ० (सं० ) राज सम्मत, नीरोग, अनुकूल, कही बात के पूताना, राजा का स्थान, । वि. संज्ञा, राज मानने में तैयार, राती (दे०)। यौ०स्थान की भाश । स्त्री. राजस्थानी। राजो-'बुशी-क्षेम कुशल : -( संज्ञा, राजस्व-संज्ञा, पु. ( सं०) राज-कर। स्त्री० रजामंदी अनुकूलता )। राजहंस-संज्ञा, पु. यो. (सं० ) एक बड़ा राजीनामा-संज्ञा, पु० (फा०) स्वीकृति हंस, सोना पक्षी । स्रो. राजहंसी । “राज. हंस बिन को करै, क्षीर नीर को दोष" या सम्मति-पत्र, अनुकूलता का लेख, वादी प्रतिवादी की परस्पर एकता या मेल का -नीति। राजा- संज्ञा, पु० (सं० राजन् ) नृप, भूपाल, लेख । प्रभु, स्वामी, अधिपति, किसी देश या राजीव-संज्ञा, पु. (सं०) कमल । समाज का मुख्य शासक और रक्षक, " राजीव लोचन स्रवत जल तन ललित मालिक, अंग्रेजी सरकार से बड़े रईसों को पुल कावलि बनी"- रामा० ।। मिलने वाली एक उपाधि, प्रिय, पति, सुन्दर राजीव गण--संज्ञा, पु. (सं०) १८ मात्राओं (व्यंग-श्राधु०)। स्त्री० सं० राज्ञी, हि गनो। ___ का एक छंद (पिं०)। 'रविरिव राजते राजा" - चं० व्या०। राजुक-संज्ञा, पु० (सं०) मौर्य वंशीय राजाज्ञा-संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं० ) राज्ञा का राजाओं के समय का सूबेदार या राजआदेश या हुक्म । कर्मचारी। राजाधिराज-संज्ञा, पु. यौ० (सं०) सम्राट, राजेंद्र-राजेश्वर-संज्ञा, पु. यौ० (सं.) शाहंशाह, राजराजेश्वर, राजामों का राजा। राजाओं का प्रधान, राजाओं का मुखिया, राजानक-संज्ञा, पु. (सं०) संस्कृत-काव्य राजाधिराज, गजेश। स्त्री. राजेश्वरी। शास्त्र के एक प्रमुख लेखक, राजानक रुग्यक, राजोपजीवी--संज्ञा, पु. यौ० (सं०) राज(सं०) प्राधीन राजा। कर्मचारी। For Private and Personal Use Only Page #1497 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir राज्ञी १४८६ राधावल्लभ राज्ञी-संज्ञा, स्त्री० (सं०) रानी, राज-महिषी, रातना*-अ० क्रि० दे० (सं० रक्त) लाल । सूर्य की स्त्री, संज्ञा। | रंग से रंग जाना, रंगा जाना, आसक्त राज्य-संज्ञा, पु. (सं.) राजा का कार्य, होना। शासन, एक राजा से शासित देश । राता-*वि० दे० (सं० रक्त ) लाल, सुर्ख, राज्यतंत्र--संज्ञा, पु० यौ० (सं०) राज्य की | रंगीन, रँगा हुश्रा, अनुरक्त, श्रासक्त । "राम शासन रोति । ( विलो० प्रजातंत्र )। रंग राता पुरुष, रंग राती है नारि ।' स्त्री० राज्य व्यवस्था-संज्ञा, स्त्री. यौ० (सं.) राती-स्फु०। राज्य-नियम, कानून, राजनीति, राज्य- रातिचर* -- संज्ञा, पु० दे० (सं० रातिचर ) विधान। निशाचर, राक्षस । राज्याभिषेक-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) राजसूय राति--संज्ञा, पु. ( श्र०) पशुओं का यज्ञ में या राज सिंहासन पर बैठते समय । भोजन ।। राजा का अभिषेक या तिलक, राज-गद्दी पर रातुल्ल-वि० दे० (सं० रक्तालु) लाल, सुर्ख । बैठने की रीति, राज्य-प्राप्ति, राज्यारोहण । | रात्रि--संज्ञा, पु. ( सं० ) रात, निशा, राट---संज्ञा, पु. (सं०) राजा, सरदार, श्रेष्ठ । यामिनी, रजनी। पुरुष। रात्रिचारी संज्ञा, पु. (सं० ) निशाचर, राटुल-संज्ञा, पु. ( देश० ) सबसे बड़ा निश्चर, राक्षस । वि. रात में चलने या तराजू जो लट्ठों में टॉगा जाता है, तख खाने वाला। स्त्री० गत्रिचारिणी। ( प्रान्ती० )। राद्ध - वि० ( सं० ) सिद्ध किया या पकाया राठ-संज्ञा, पु० दे० (संग) राज्य, राजा। हुआ। राठौर -- संज्ञा, पु० इ० (सं० राष्ट्रकूट) दक्षिणी | राध-संज्ञा, स्त्री० (सं०) सिद्धि, साधन । भारत का एक राज वंश, शत्रियों को एक संज्ञा, स्त्री० (देश) मवाद, कान की पीव । जाति। संज्ञा, पु० (सं०) धन । गड-वि० दे० (हि. राढ़ ) नीच, निकम्मा, राधन-संज्ञा, पु० (सं०) साधना, मिलना, भगोड़ा, डरपोक, कायर । सन्तोप, प्राप्ति, साधन, तुष्टि। राद-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० राटि ) रार, राधना*----स० कि० दे० ( सं० आराधना ) लड़ाई, झगड़ा, कादर, कायर, निकम्मा ! पूजा या आराधना करना, सिद्ध या पूर्ण रादि-संज्ञा, पु. (सं०) उत्तरीय बंगाल | करना, काम निकालना। देश का भाग। राधा-संज्ञा, स्त्री. (सं०) राधिका, वृषभानुराढ़ी-संज्ञा, पु० ( देश० ) राढ़ देशीय पुत्री और कृष्ण प्रिया, धनियाँ. बैसाख की ब्राह्मण । पूर्णमासी, बिजली, प्रेम, प्रीति, वर्णिक राणा---संज्ञा, पु० दे० ( सं० राट् ) राजा, । वृत्त (पिं० ) । “मेरी भव बाधा हरौ, राना ( देश. )। राधा नागर सोय" वि० । राणी-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० राशी ) रानी। राधारमण-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) राधारात-संज्ञा, स्त्री० दे० ( सं० रात्रि ) दोषा, पति, राधाप्रिया, श्री कृष्ण जी । त्रियामा, निशा, यामिनी, रात्रि, रजनी, राधावल्लभ-संज्ञा, पु. यौ० (सं०) राधाराति, संध्या से प्रभात तक का समय ।। कान्त, श्री कृष्ण जी, राधावर । "राधारातडी-रातरी-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० वल्लभ राधिका, नाम लेन को दोय"-कं० रात्रि) रात, रात्रि। , वि.। For Private and Personal Use Only Page #1498 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org १४८७ राधावल्लभी, राधावल्लभीय , राधावल्लभी, राधावल्लभीय-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) एक वैष्णव संप्रदाय । राधिका - संज्ञा स्त्री० (सं०) कृष्ण कान्ता, कृष्ण-प्रिया, राधा जी, वृषभानु-पुत्री । २२ मात्राओं का एक मात्रिक छंद पि० ) { रान - संज्ञा स्त्री० ( फ़ा० ) जाँघ, जंधा । राना -- संज्ञा, पु० दे० ( सं० राट ) राखा । अ० क्रि० दे० (हि० राचना ) अनुरक्त होना | रानी - संज्ञा, त्रो० दे० (सं० राजा ) राजा की स्त्री. स्वामिनी, मालकिन । रानी काजर - संज्ञा, पु० ( हि०) एक भाँति का धान । राव - संज्ञा स्त्री० दे० (सं० द्रावक ) श्रौटा कर गाढ़ा किया गन्ने का रस, गीला गुड़ | रात्रड़ी – संज्ञा, स्त्री० दे० ( हि० रबड़ी ) टाकर गाढ़ा किया दूध | रामना मात्रिक छंद जिसमें छत्तीस मात्रायें होती हैं ( पिं० ) । रामचन्द्र - संज्ञा, पु० (सं० ) राजा दशरथ के ४ पुत्रों में से सर्वश्रेष्ठ और ज्येष्ठ पुत्र जो विष्णु के प्रमुख अवतारों में माने जाते हैं । रामजना - संज्ञा, पु० दे० ( सं० राम + जना उत्पन्न - हि० ) एक वर्ण संकर जाति जिसकी कन्यायें वेश्यावृत्ति करती हैं । स्त्री०रामजनी । रामजनी -- संज्ञा, स्त्री० दे० ( हि० रामजना ) हिन्दू वेश्या । रामटेक संज्ञा, पु० दे० (सं० राम + हि० टेक = पहाड़ी ) नागपुर के जिले की एक पहाड़ी, रामगिरि । रामतरोई - संज्ञा, पु० (दे०) भिंडी । रामला संज्ञा स्त्री० (सं० ) रामपन, राम का गुण, अभिरामता, सुन्दरता । रामतारक- संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) राम जी का मंत्र ( ॐ रां रामाय नमः ) | रामति-संज्ञा, पु० ( हि० रमन ) भिक्षार्थ, | C राम - संज्ञा, पु० (सं० " रमन्ति साधवः यस्मिन् ) " ईश्वर विष्णु के दशावतारों में से एक, अवध नरेश रघुवंशीय राजा दशरथ के बड़े कुमार श्रीराम चंद, परशुराम, वलराम ! चन्द्रों राम नाम रघुवर के " रामा० । मुहा० रामशरण होनाविरक्त या साधु होना, मर जाना । म गम करना--- भगवान का नाम जपना, श्रभिवादन या प्रणाम करना । गम गम करके- बड़ी कठिनता से । राम राम सत्त हो जाना - मर जाना । यौ०राम राम -- प्रणाम, घृष्णा- जुगुप्सा सूचक | ईश्वर, भगवान, एक मात्रिक छंद श्रारमा, ( पिं० ) ३ की संख्या । राम कहानो- संज्ञा, स्त्री० यौ० ( हि० ) दुख भरी या बड़ी कथा | 1 रामकलो- संज्ञा स्त्री० यौ० (सं० ) एक रागिनी ( संगी० ) । रामगिरि-संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) रामटेक, नागपुर के पास की एक पहाड़ी । गिर्याश्रमे पु" - मेघ० । रामगीती-संज्ञा, पु० यौ० ( सं० ) एक राम ➖➖➖➖➖ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir इधर उधर घूमना । रामदल - झा, पु० यौ० (सं० ) रामचंद्र जी की वानरी सेना, प्रति बड़ी और प्रबल सेना जिससे लड़ना दुस्तर हो । रामदाना -- ज्ञा, पु० दे० यौ० ( सं० राम + दाना फा० ) चौराई या मरसे सा एक पौधा जिसके दाने बहुत छोटे होते हैं । रामदास संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) हनुमान जी महाराज शिवाजी के गुरु | 66 " रामदूत- संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) हनुमान नी । रामदूत मैं मातु जानकी रामा० । रामधनुष - संज्ञा, पु० (सं० ) इन्द्र-धनुष । राजधान - संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) बैकुंठ, साकेत लोक । रामनवमी - संज्ञा स्त्री० यौ० (सं०) चैत्र शुक्ल नवमी, रामनौमी (दे०) । रामना ! - अ० क्रि० दे० (हि० रमना) रमना । For Private and Personal Use Only Page #1499 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org रामनामी रामनामी - संज्ञा, पु० यौ० (सं० रामनाम + ई - प्रत्य० ) राम नाम छपा वस्त्र, एक प्रकार के साधु, गले का एक गहना, एक प्रकार की माला | १४८८ ," रामबाँस-संज्ञा, पु० ( हि० ) एक मोटी जाति का बाँस, केतकी या केवड़े का सा एक पौधा जिसके पत्तों के रेशों से रस्से बनते हैं, हाथी चिग्वार ( प्रान्ती० ) । रामरज - संज्ञा, स्त्री० यौ० ( सं० ) साधुधों के तिलक लगाने की पीली मिट्टी ! रामरस-संज्ञा, पु० ( हि० ) नमक, नोन । रामराज्य - संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) राम का राज्य, प्रजा के लिये यति सुखद राज्य 11 राम या शासन, रामराज (दे० ) । राज्य काहू नहिं व्यापा रामलीला संज्ञा, स्त्रो० यौ० ( सं० ) रामचंद्र जी का चरित्र या उसका नाटक या श्रभिनय । - रामा० । रामवाण - वि० (सं० ) सद्यः सिद्ध, तुरन्त प्रभाव दिखलाने वाली अमोघ श्रौषधि, लाभदायक, उपयोगी श्रौषत्रि, अचूक दवा | संज्ञा, पु० यौ० ( सं० ) रामशर, राम सायक । रामशर - संज्ञा, पु० (सं० ) एक प्रकार का सरकंडा या नरसल, राम का वाण | रामसनेही—संज्ञा, पु० दे० (सं० रामस्नेहिन् ) वैष्णवों का एक संप्रदाय । वि० यौ० - राम का प्रेमी, राम का भक्त ! रामसुंदर - संज्ञा, स्त्री० ( ० ) एक तरह की नाव | रामसेतु - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) रामेश्वर के पास समुद्र पर रामचंद्र का बनवाया हुआ पुल, या वहाँ के पत्थर-समूह | रामा -- संज्ञा, स्रो० (सं०) सुन्दर स्त्री, सीता, राधा, लक्ष्मी, रुक्मिणी, नदी, इन्द्रवज्रा और उपेन्द्रवज्रा से मिलकर बना एक उप रामफल- संज्ञा, पु० यौ० (सं०) शरीफ़ा. रामानंद संज्ञा, पु० (सं०) रामावत ( रामासीताफल । नंदी ) नामक एक प्रसिद्ध वैष्णव मत के थाचार्य ( १४वीं शताब्दी वि० ) कबीर इन्हीं के चेले थे । रामानंदी - वि० (सं० रामानंद + ई-प्रत्य० ) रामानंद के संप्रदाय वाला साधु | रामानुज -- संज्ञा, पु० (सं० ) श्री वैष्णव संप्रदाय के एक विख्यात मत प्रवर्तक आचार्य जिन्होंने वेदान्त दर्शन पर भाग्य किया है, इनका वेदान्त-वाद विशिष्टाद्वैत कहलाता है । रामायण रामायण - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) आदि कवि महर्षि वाल्मीकि कृत श्रादिकाव्य, (संस्कृत रामायण ) जिसमें राम चरित्र का वर्णन किया गया है । तुलसीकृत रामचरित मानस ( भाषा- रामायण ) । महा माला रतं वंदेऽनिलात्मनं - तुल० । रामायणी - वि० द० (सं० रमायणीय ) रामायण संबंधी, रामायण का | संज्ञा, पु० ( सं० रामायण + ई - प्रत्य० ) रामायण को कथा कहने वाला । रामायुध - संज्ञा, ५० यौ० (सं०) धनुप | रामावत - संज्ञा, पु० (सं०) श्राचार्य रामानंदका चलाया एक वैष्णव मत या संप्रदाय | रामित - संज्ञा, पु० (सं०) पति, कामदेव | रामेश्वर - संज्ञा, पु० (सं०) दक्षिण भारत में समुद्र तट के मंदिर का शिवलिंग तथा वह स्थान, रामेसुर (दे०) । जे रामेश्वर दर्शन करिहैं रम्या -- संज्ञा, स्त्री० (सं०) रात | वि० रमणीय । राय - संज्ञा, पु० दे० (सं० राजा ) राजा, सामंत, सरदार, बंदीजनों या भादों की पदवी । " राय राजपद तुम कहँ दीन्हा - रामा० । संज्ञा स्त्री० ( फ़ा० ) परामर्श, सम्मति, अनुमति, सलाह, मत यौ० -- 66 रामा० । 15 Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir राय जाति वृत्त, श्रार्थ्याछंद का १७ वाँ भेद, आठ वर्णों का एक वर्णिक वृत्त ( पिं० ) । 'सौंदर्य दूरी कृत राम रामे कषायकः कास- समीर - सर्पः – जो० । 16 For Private and Personal Use Only " Page #1500 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रायज १४५६ राष्ट्रपति रायसाहब, रायबहादुर-उपाधियाँ रावणि-संज्ञा, पु. (सं०) रावण का पुत्र, (अंग्रेज़-सरकार )। मेघनाद, रावणी (दे०)। रायज- वि० (अ.) प्रचलित, चलनसार, रावत--संज्ञः, पु० दे० ( सं० राजपुत्र) छोटा जिसका रिवाज़ हो। राना, शूरवीर, बहादुर, सरदार, सामंत, रायता-संज्ञा, पु. दे. ( सं० राजिकाक्त) राउत (दे०), एक क्षत्रिय जाति । नमकीन दही में पड़ा हुआ शाकादि, रावनगढ़*----संज्ञा, पु० दे० यौ० (सं० रावण रइता, रता, रोता (दे०)। +गढ़ ) रावण का किला, लंकागढ़ । रायभोग-संज्ञा, पु. दे० यौ० (सं० रावना* -- स० क्रि० ( सं० रावण ) रुलाना । राजभोग ) राजभोग, दोपहर का भोजन या रावर-रावरा-रावरो-सर्व० (दे०) राउर नैवेद्य । (अव०), आपका। स्त्री. रावरी । “रावरो रायमानिया -संज्ञा, पु० (दे०) एक प्रकार बावरो नाह भवानी" -- विन । संज्ञा, पु. का चावल, रैमुनियाँ (दे०)। दे० (सं० राजपुर ) रनिवास, राजमहल, रायरासि* -- संज्ञा, स्त्रो० दे० यौ० (सं० अंतःपुर। राजराशि ) राजा का कोष, शाही खज़ाना रावल - संज्ञा, पु० दे० ( सं० राजपुर ) राज(फा०)। महल, रनिवास, अंतःपुर । संज्ञा, पु० दे० रायसा-संज्ञा, पु० दे० (हि. रासो) पृथ्वी । सं० राजुल ) सरदार, प्रधान, मुखिया, राजरासो, रासी (दे०)। * संज्ञा, पु. राजा, राजा की उपाधि ( राजपूताना )। (प्रान्ती० ) झगड़ा, सा। स्त्रीरावलि, रावली। रार, रारि-संज्ञा, दे० (सं० राटि ) तकरार, झगड़ा, टंटा, बखेड़ा । वि० रारी। राशि-संज्ञा, स्त्री० (सं०) समूह, ढेर, पुंज, राल-संज्ञा, स्त्री. (सं०) एक विशेष बड़ा किसी का उत्तराधिकार, क्रांतिवृत्त के बारह पेड़, इस पेड़ का गोंद या निर्यास, धूप । तारा-समूह जो मेष, वृष, मिथुन, कर्क, संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० लाला) पतला लसीला | सिंह, कन्या, तुला वृश्चिक, धन, मकर, थूक, लार (दे०) । मुहा० - राल गिरना, कुंभ और मीन कहाते हैं, राशी (दे०)। चूना या टपकना- किसी पदार्थ के लेने राशिचक्र-सज्ञा, पु. यौ० (सं०) मेषादि की अति लालसा होना। बारह राशियों का मंडल या चक्र, भचक्र । राव, राउ--- संज्ञा, पु० दे० ( सं० राजा ) राशिनाम--संज्ञा, पु. यौ० (सं० राशिराजा, राय, भाट । " राव राम राखन हित नामन् ) किसी मनुष्य का वह नाम जो लागी"--रामा० ! यौ०--रावसाहब, उसकी राशि के अनुसार रखा जावे । रावबहादुर -- उपाधियाँ ( सरकार )। राशीश-संज्ञ', पु. यौ० (सं०) किसी राशि रावटी, राउटी-संज्ञा, स्त्री० ( हि० रावट ) का स्वामीग्रह, राशिपति, राशीश्वर । कपड़े का छोटा घर-जै पा डेरा, छौलदारी, राष्ट्र-संज्ञा, पु. ( सं० ) राज्य, देश, प्रजा, बारादरी, एक प्रकार का पत्थर । "रिमझिम | किसी राज्य या देश के निवासी लोगों का बरसै मेध कि उँची रावटी"-जन। समुदाय। रावण-संज्ञा, पु० (सं० रावयतीति रावणः) राष्ट्रकूट-संज्ञा, पु. ( सं० ) राठौर । लंका का दस सिर और २० भुजा वाला एक राष्ट्रतंत्र-संज्ञा, पु. यो. (सं०) राज्यपरम प्रसिद्ध राक्षस नायक या राजा, दशानन शासन-रीति या प्रणाली। दशकंधर, रावन, रावना (दे०)। । राष्ट्रपति-संज्ञा, पु. यौ० (सं० ) जनता भा. श० को.---१८७ For Private and Personal Use Only Page #1501 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir राष्ट्रिय १४६० राह चलता का चुना हुआ प्रधान राज्य-शासक ( आधु रासो, रासौ-संज्ञा, पु० दे० ( सं० रहस्य ) प्रजातं.)। किसी राजा का जीवन-चरित्र जिसमें उसकी राष्ट्रिय-संज्ञा, पु. (सं० ) गष्ट्रपति । । विजय और वीरतादि का वर्णन पद्य में हो। राष्ट्रीय-वि० ( सं०) राष्ट्र-संबंधी, राष्ट्र का, रास्त-वि० ( फ़ा०) सीधा, सरल, ठीक, अपने राष्ट्र या देश का। उचित । संज्ञा, स्त्री० – रास्तगोई-सिधाई। रास--संज्ञा, स्त्री० (सं० ) प्राचीन काल की रास्ता-संज्ञा, पु० [फा०) राह, पंथ, मार्ग, एक क्रीड़ा जिसमें मंडल बाँध कर नाचा मुहा०-रास्ता देखना-मार्ग (पथ ) जाता था, एक प्रकार का नाटक जिसमें देखना, प्रतीक्षा करना, बाट जोहना, पासरा श्रीकृष्ण जी कीरास-लीला होती है, रहस देखना। रास्ते पर ग्राना (लाना)--- (दे०)। संज्ञा, स्त्रो० (अ०) बाग-डोरी, लगाम । उचित रीति से कार्य करने लगना ( सुधासंज्ञा, लो० दे० (सं० राशि ढेर, समूह, रासि | रना)। रास्ता पकड़ना (लेना, नापना) (दे०), एक छंद (पिं०), पशुओं का झंड, -----चल देना, चले जाना। रास्ता बताना जोड़, दत्तक पुत्र, व्याज । वि० (फा० रास्त) -टालना, चलता करना, सिखाना, तरअनुकूल । " घोड़े की सवारी तो उन्हें कीब बताना। रास्ते पर लगानारास नहीं है''-मीर० । सुधार देना, उचित कार्य करने की ओर रासक-संज्ञा, पु. ( सं०) हास्य रस का । प्रवृत्त करना । चाल, प्रथा, रीति, उपाय । एकाङ्की नाटक (नाट्य० )। रास्ती-संज्ञा, स्त्री० (फ़ा०) सचाई, सिंधाई, रासधारी-संज्ञा, पु. ( सं० रासधारिन ) वह _ "रास्ती मौजिबे रज़ाये खुदास्त"--सादी० । अभिनय-कर्ता जो श्रीकृष्ण जी के चरित्र रास्ना-संज्ञा, स्त्री० (सं० ) रासना नामक या रास-लीला दिखलाता हो। रासना-संज्ञा, पु० दे० ( सं० रास्ना) रास्ना औषधि । “ रास्ना नागर लग मूल हुत् नाम की औषधि। भुक दारु अग्नि मंथै समैः”-लो. रा० । रासभ-संज्ञा, पु. ( सं० ) खच्चर, गर्दभ, राह- संज्ञा, पु० दे० (सं० राहु ) राहुग्रह । गधा, अश्वतर । “पुरोडाप चह रासभ संज्ञा, स्त्री. ( फा० ) रास्ता, मार्ग, पंथ, पावा"-रामा० । ( स्त्री० रासभी)। बाट । मुहा०---(अपनी) राह आना रासमंडल-संज्ञा, पु. यौ० (सं०) रास (अपनी) राह जाना-अपने मतलब लीला करने वालों की मंडली, रासधारियों से मतलब रखना । राह देखना या का अभिनय । ताकना-बाट जोहना, औसेर करना, रासलीला-संज्ञा, स्त्री० यौ० ( सं०) कृष्ण- परखना, प्रतीक्षा करना, मार्ग (पथ ) लीला का नाटक या अभिनय । देखना । राह पड़ना--डाका पड़ना । रासायनिक-वि० (सं० ) रसायन शास्त्र राह लगाना--रास्ते लगाना, लूट पड़ना। संबंधी, रसायन शास्त्र का ज्ञानी, रसाय प्रणाली, चाल, प्रथा, नियम । संज्ञा, स्त्री० निक (दे०)। द० ( सं० रोहिष ) रोहू मछली। रासि, रासी-संज्ञा, स्त्री० दे० ( सं० राशि ) राह-खर्च-संज्ञा, पु० यौ० (फ़ा०) मार्गराशि। व्यय, सफर-खर्च। रासी-संज्ञा, पु० (दे०) मध्यम । राहगीर-संज्ञा, पु० (फा० ) यात्री, बटोही, रासु -वि० दे० (फ़ा० रास्त) ठीक, सीधा, । पथिक, राही (दे०) । सरल। | राह चलता-संज्ञा, पु० दे० (फा० राह+ For Private and Personal Use Only Page #1502 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir राह चौरंगी रिझकवार-भिवार हि० चलता ) बटोही, पथिक, राही, रियायत-रियायत-संज्ञा, स्त्री. (अ.) अनजान । नरमी, नम्रता, दया पूर्ण व्यवहार, ध्यान, राह चौरंगी-संज्ञा, सो० दे० यौ० ( फ़ा० विचार, न्यूनता, कमी । वि०-रियायती। राह + चौरंगी हि० ) चारों ओर को जाने | रियाया रियाया-संज्ञा, स्त्री० (म०) प्रजा, वाला मार्ग या रास्ता। रैय्यत (दे०) . राहजन-संज्ञा, पु० (फ़ा०) बटमार, डाकू। रिकवच-संज्ञा, स्त्री० (दे०) उर्द की पीठी संज्ञा, स्त्री०-राहजनी। । और अरूई के पत्तों से बना सालन ।। राहत-संज्ञा, स्त्री० ( अ० ) सुख, आराम । रिकाब-संज्ञा, स्त्री० दे० (फा० रकाष ) राहदारी-संज्ञा, स्त्री० ( फ़ा० ) सड़क का घोड़े की जीन का पावदान, पैकड़ा, रकाब। कर या महसूल, रास्ता चलने का कर, | रिक्त-वि० ( सं० ) खाली, शून्य, रीता, चंगी, महसूल . यौ० परवाना-राहदारी कंगाल, निर्धन । किसी रास्ते से जाने या माल ले जाने का रिक्ता-संज्ञा, स्त्री. (सं० ) चौथ, नवमी, आज्ञा-पत्र। चतुर्दशी तिथियाँ। राहना *---अ० क्रि० दे० ( हि० रहना) रिक्थ-संज्ञा, पु० (सं० ) बरासत में मिली रहना । जायदाद। राहरीति--संज्ञा, स्त्री० दे० ( फा० राह+ रिकशा-संज्ञा, पु. ( प्रान्ती. ) पर्वतरोति हि. ) व्यवहार, संबंध, रीति-रस्म । प्रांतीय एक प्रकार की पालकी। राहिन-संज्ञा, पु. ( अ०) बंधक या रेहन रिक्ष-रिच्छ- संज्ञा, पु० दे० (सं० अक्ष) रखने वाला। रीक, भालु, नक्षत्र, तारागण । राहो-संज्ञा, पु० (फा० ) यात्री, बटोही, रिक्षा-संज्ञा, सं० (दे०) जू का अंडा, लीख । पथिक । यौ० (फा० ) हमराहो-साथ रिखम -संज्ञा, पु० दे० (सं० ऋषभ ) चलने वाला। सात स्वरों में से एक स्वर ( संगी०)। राहु-संज्ञा, पु. (सं०) ६ ग्रहों में से एक रिग*-संज्ञा, पु० दे० (सं० ऋग् ) एक ग्रह ( ज्यो०)। संज्ञा, पु० दे० (सं० राधव) वेद । रोहू मछली। | रिचा-संज्ञा, स्त्री० (सं० ) ऋग्वेद का मंत्र राहुग्रस्त-संज्ञा, पु० (सं०) सूर्य या चंद्र- । विशेष। ग्रहण। रिच्छ -संज्ञा, पु० दे० (सं० ऋक्ष ) रीछ, गानास-संज्ञा, पु० (सं०) सूर्य या चंद्र- भालु । “ विग्रहानुकूल सब लच्छ लच्छ ग्रहण । रिच्छवल, रिच्छराज मुखी मुख केशवदास गहुल-संज्ञा, पु० ( सं०) महात्मा बुद्ध का गाई है "- राम । पुत्र। रिजक-संज्ञा, पु० दे० ( अ० रिजक ) जीवनरिंगन-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० रिंगण) रेंगना, वृत्ति, जीविका, रोजी। "फ्रिके रोज़ी है चलना । अ० क्रि० (दे०) रिंगना, प्रे० रूप. तो है रिक का रज्जाक कुफ़ील "-जौक० । रिंगाना। रिजाली-संज्ञा, स्त्री० दे० ( फा० रज़ील = रिंद-संज्ञा, पु. ( फ़ा० ) धार्मिक बंधनों का नीच ) रजीलपन, निर्लजता । न मानने वाला व्यक्ति, मनमौजी, स्वच्छंद। रिजु-वि० (दे०) ऋजु (सं० ) सीधा। रिंदा-वि० ( फ़ा० रिंद) निरंकुश, मन रिझकवार-रिझवारा-संज्ञा, पु० दे० मौज़ी, उदंड, स्वच्छंद । (हि. रीझना+वार ) रूप या किसी बात For Private and Personal Use Only Page #1503 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रिझाना १४६२ रिसाल पर प्रसन्न या मोहित होने वाला, अनुरागी, रिर*-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. रार ) हठ, गुणग्राहक । ज़िद। रिझाना-स. क्रि० दे० ( सं० रंजन ) किसी रिरना-अ० कि० (अनु० ) गिड़गिडाना, को अपने उपर खुश कर लेना, अनुरक्त या ! प्रेमी बनाना। रिरहा।---वि० (हि. रिरना ) अति दीनता रिझायल*-वि० दे० ( हि० रोझना ) से गिड़गिड़ा कर मांगने वाला। रीझने या प्रसन्न होने वाला। रिलना* - ----अ० क्रि० ( हि० रेलना) घुपना, रिझाव-संज्ञा, पु. (हि. रीझना-पाव- मिल जाना, पैठना। प्रत्य०) रीझने का भाव । ल० कि० (हि. रिवाज़-- संज्ञा, पु. ( ० ) रीति, रस्म, रिझाना) प्रसन्न करो। " रिझाव मोहिं राज- | प्रथा, प्रणाली। पुत्र राम ले छुड़ाय के "-राम। रिश्ता ----संज्ञा, पु. ( फा० ) नाता, संबंध, रिझावना-स० कि० दे० (हि. रिझना) लगाव ।। रिझाना, प्रसन्न करना। संज्ञा, स्त्री. रिझावनि। रिश्तेदार--संज्ञा, पु. ( फा० ) नातेदार, रित-रितु-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० ऋतु) संबंधी । संज्ञा, स्त्री० रिश्तेदारी । मौसिम, ऋतु । “बरसा बिगत सरद रितु रिश्वत--संज्ञा, स्त्री. ( अ० ) धूस, अकोर, आई"-रामा० । उत्कोच ( सं० ) वि० --रिश्वती। रितवना*-स. क्रि० दे० ( हि० रीता) रि* - वि० दे० (सं० हृष्ट ) मोटा-ताजा, खाली या रिक्त करना। खुश, सज्ञा, पु. अ.) कलाई । रिध्दि -- संज्ञा, पु० दे० (सं० ऋद्धि ) ऋद्धि, रियमक....संज्ञा, पु० दे० (सं० ऋष्यमूक ) एक औषधि, ऐश्वर्य, बढ़ती, संपति । दक्षिण देश का एक पहाड़, रीपमूक, रिनिा -रिनियाँ-रिनी-टि० दे० (सं० रोखमूक (दे०)। "रिण्यमूक पर्वत नियराई" ऋण) ऋणी, कर्जदार । " लो-टूटे रिनियाँ -रामा। घरै मवास"। रिस-रिसि-संज्ञा, स्रो० दे० (सं० रुष ) रिपु-संज्ञा, पु० (सं० ) बैरी, शत्रु । 'रिपुसन __ क्रोध, गुस्पा । “यस रिस होय दसौ मुख करेहु बतकही सोई"-रामा०। तोरौं'-रामा०। रिपुता-संज्ञा, स्त्री० ( सं० ) शत्रुता, बैर। रिसना--- स० क्रि० दे० (हि. रसना ) छन रिपुंजय-संज्ञा, पु० यौ० ( सं०) शत्रु- छन कर बाहर निकलना, धीरे धीरे बहना । विजयी, अरिंदम। रिसवाना--स० क्रि० (हि. रिसाना ) रिपुसूदन-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) शत्रन, क्रोधित करना, कोध दिलाना। रिपुहा । वि०-शत्र का नाशक । “भवन | रिसहा—वि० दे० ( हि० रिस) क्रोधी। भरत रिपुसूदन नाही'-रामा। रिसहाय-वि० ( हि० रिस ) कुद्ध, कुपित, रिपुहा-संज्ञा, पु. ( सं०; शत्रुघ्न, रिपुसूदन । नाराज़ । स्त्री० रिसहाई। वि०-वैरी का नाशक । रिसाना-अ० कि० ( हि० रिस ) कोधित रिमझिम-संज्ञा, स्त्री० (अनु.) छोटी छोटी या कुपित होना। स० कि. किसी पर बूदें लगातार गिरना, रिमिक-मिमिक । कुपित होना या बिगड़ना। " टूट चाप रियासत-संज्ञा, स्त्री० ( अ० ) राज्य, नहिं जुरत रिसाने"-रामा०। हुकूमत, ऐश्वर्य, अमीरी, वैभव । वि.- रिसाला-संज्ञा, पु० दे० (अ. इरसाल) रियासती। राज्य-कर। For Private and Personal Use Only Page #1504 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - - - - - रिसालदार रुंधना रिसालदारा-वि० (फा०) घुड़सवार सेना | मध्य की लम्बी खड़ी हड्डी, मेरु-दंड, जिससे का एक अफ़सर या सरदार । पसलियाँ जुड़ी रहती हैं। रिसाला-संज्ञा, पु. ( फा० ) घुड़सवार रीत-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० रीति) रीति, सेना, अश्वारोही सेना, मासिक पत्र। रस्म, रिवाज । रिसि --संज्ञा, स्त्री० (दे० रिस) "रिसिवश रीतना* .. अ. क्रि० दे० ( सं० रिक्त) कछुक अरुन हुई आवा"-रामा० ।। । खाली, यून्य तथा रिक्त होना। " बंद रिसियाना-रिसियाना- अ० कि० दे० बंद तें घर भर, टपात रीतै सोय"-वृं। ( हि० रिस---ग्राना – प्रत्य० ) कुपित या रीता-- वि० दे० ( सं० रिक्त ) शून्य, रिक्त । कोधित होना । स० क्रि० किसी पर क्रुद्ध __ "रीते सरवर पर गये"-वृ । होना, बिगड़ना, रिसाना। रीति-संज्ञा, स्त्री० (सं० ) ढंग, तरह, रिसिक* ---- संज्ञा, स्त्री० दे० ( सं० रिपीक ) प्रकार, परिपाटी, रिवाज, रस्म, प्रथा, ढब, तलवार, खड़ग । तरह नियम, प्रणाली, काव्य में ऐसी पदरिसौहाँ-वि० दे०, हि० रिस -- यौहाँ-प्रत्य०) योजना जिससे माधुर्य्यादि गुण पाते हैं, क्रोधित सा, शोध से भरा, रोष-सूचक । इसे काव्यात्मा मानते हैं । " रीतिरात्मा रिहल-संज्ञा, स्त्री. (अ.) पुस्तक रख कर काव्यस्य '', " विशिष्ठा पद रचना रीति" पढ़ने की एक काठ की चौकी। -वामन। रिहा- वि० (फ़ा०) छुटकारा, मुक्त, छूटा रीषमूक* --संज्ञा, पु० दे० ( सं० ऋष्यमूक ) हुश्रा । संज्ञा, स्त्री० रिहाई। दक्षिण भारत का एक पहाड़ । " रीपमूक धिना-स० क्रि० दे० ( हि० रांधना ) | पर्वत नियराई "- रामा० । राधना। रीस-रीसि-संज्ञा, स्त्री० दे० ( हि० रिस ) री-अव्य. स्त्री० दे० ( सं० २ ) सखियों का | रिस, क्रोध, कोप । संज्ञा, स्त्री. ( सं० संबोधन, परी, एरी, ओरी। ईर्ष्या ) स्पर्धा, डाह, समानता। रीछ-- संज्ञा, पु० दे० (सं० ऋक्ष ) रिच्छ, रीसना* -- अ० कि० दे० ( हि० रिस ) भालू । क्रोधित होना। रीछराज*--संज्ञा, पु० दे० ( सं० ऋक्षराज) रुंज-संज्ञा, पु० (दे०) एक बाजा। जामवंत । " रीछराज गहि चरन फिरावा" रुंड-संज्ञा, पु. (सं०) कबंध, बिना सिर या --रामा० । रीज्या-संज्ञा, स्त्री० ( सं० ) भर्त्सना, घृणा। हाथ-पैर का धड़ । “रुड लागे कटन पटन रीझ-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० रंजन) प्रसन्नता, काल कुंड लागे"- रत्ना० । मुग्धता । " तुलसी अपने राम कहँ. रीझ रंडिका--- संज्ञा, स्त्री. (सं०) युद्ध-भूमि, भजै कै खीझ'.--तुल०। रणांगण रीझना-अ० क्रि० दे० ( सं० रंजन ) प्रपन्न रुंदवाना--स. क्रि० (हि० रूँदना, रौंदना या मुग्ध होना, अनुरक्त होना। का प्रे० रूप ) पैरों से रौंदवाना, कुचलाना । रीठ*-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० रिष्ट ) युद्ध, रुंधती --- संज्ञा, स्त्रो० (दे०) अरुंधती (डि.) तलवार, खड्ग, वि० अशुभ, ख़राब ।। (सं.)। रीठा-संज्ञा, पु० दे० (सं० रिष्ट ) एक रुधना-अ० क्रि० दे० (सं० रुद्ध ) घिर बड़ा जंगली वृक्ष, इसके बेर-जैसे फल । जाना, रुकना, कहीं मार्ग न मिलना, रीढ़-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० रीढ़क ) पीठ के उलझना, फँसजाना, घेरा जाना, कार्य में For Private and Personal Use Only Page #1505 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रुचक लगना। स० रूप-रूंधाना, प्रे० रूप-रुंध- रुक्मिणी-संज्ञा, स्त्री० (सं०) विदर्भ-राज घाना। भीष्मक की कन्या जो श्रीकृष्ण जी की रु-प्रव्य० दे० ( हि० अरु का सूक्ष्म रूप ) प्रधान पटरानी थी। और। रुक्मी -संज्ञा, पु. ( सं० रुक्मिन् ) राजा रुग्रा -संज्ञा, पु० दे० ( सं० रोम ) रोम, भीष्मक का बड़ा पुत्र, रुक्मिणी का भाई। लोम, रोंघाँ, भुवा ।। रुक्ष-वि० (सं० रून ) चिकनाहट-रहित, रुयाना-रुवाना. स. क्रि० दे० ( हि. खुरदरा, नीरस, रूखा, शुष्क, सूखा । __ रुलाना) रुलाना, रोवाना। रुक्षता--- संज्ञा, स्त्री. द. ( सं० रूक्षता ) रुपाब- संज्ञा, पु० दे० ( अ० रोब ) रोब, | रुखाई, रुक्षत्व। दाब, अातंक । रुख-संज्ञा, पु. (सं० ) श्राकृति, कपोल, रुकना-अ० क्रि० (हि० रोक) अवरुद्ध होना, | मुँह, चेष्टा, गाल, कृपा की दृष्टि, मुखाकृति ठहर जाना, अटकना, स्वेच्छा या मार्गादिन से प्रगट मन की इच्छा, आगे या सामने मिलने से रुकना, बीच ही में चलते हुए। का भाग, शतरंज में हाथी नामक मोहरा । किसी काम या क्रम का बन्द हो जाना ।। क्रि० वि० ओर, तरफ़. सामने । स० रूप-रुकाना, प्रे० रूप-रुकवाना। रुखसत-संज्ञा, स्त्री० (अ.) विदा, पर रुकमंगद-संज्ञा, पु० दे० (सं० रूक्मांगद) वानगी, छुट्टी, प्राज्ञा, प्रस्थान, अवकाश, रुक्मांगद नामक राजा । प्रयाण, काम से छुट्टी । वि० ---जो कहीं से रुकमिनि-संज्ञा, स्त्री० दे० ( सं० रुक्मिणी) चल दिया हो। रुक्मिणी, रुकमिनो। रुखसती-संज्ञा, स्त्री. ( अ० रुखसत ) रुकाव--संज्ञा, पु. ( हि० रुकाना ) रुकाने | विदाई. विशेष करके वधू की विदा। का भाव या क्रिया, रुकावट । “रुकाव खूब रुखाई- संज्ञा, स्त्री० (हि० रूखा-आई-प्रत्य०) नहीं ताव की रवानी में'--मोमि। शुष्कता. .खुश्की, रूखा होने का भाव, रुकुम*-संज्ञा, पु० दे० (सं० रुक्म ) रुखावट, रूखापन, शीलत्याग, बेमुरौवती। रुक्म । रुखाना --अ० क्रि० दे० (हि० रूखा ) रुकुमी*-संज्ञा, पु० दे० (सं० रुक्मी) रूखा या मीरस होना, सूखना । रुक्मी । रुखानी- सज्ञा, स्त्री० दे० (सं० रोक + खनित्र) रुक्का-संज्ञा, पु० दे० (अ० रुरुयः ) छोटा बढ़ेयों का एक हथियार पत्र या चिट्ठी, परचा, पुरजा, कर्न लेने का खिता*-संज्ञा, स्त्री० दे० ( सं० रुषिता ) एक लेख । यौ० रुक्का-पुरजा। मान वाली या मानिनी नायिका (सा.)। रुक्ख*-संज्ञा, पु० दे० ( सं० रुक्ष) पेड़, रुखौहाँ-वि० दे० (हि० रूखा -- प्रौहाँवृक्ष, रूख (दे०)। वि० रुखा । प्रत्य० ) नीरस, रुखाई युक्त, रुखाई लिये रुक्म-संज्ञा, पु. (सं०) सोना, स्वर्ण, धतूरा, हुये, रूखासा । स्त्री० रुखोहीं।। धस्तूर, रुक्मिणी का भाई। रुग्न-वि० (सं०) बीमार, रोगी, रुग्ण रुक्मवती- संज्ञा, स्त्री० (सं.) एक वृत्त, मरीज़ । संज्ञा, स्त्री० रुग्नता, रुग्णता।। रूपवती, चंपक माला (पिं० )। रुच - संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० रुचि ) रुचि । रुक्म सेन-संज्ञा, पु० (सं०) रुक्मिणी का क्रि० वि० (दे०) रुचक-रुचि पूर्वक, भली. छोटा भाई। भाँति । रुक्मांगद-संज्ञा, पु० (सं०) एक राजा। । रुचक-वि० (सं०) सुस्वाद । संज्ञा, पु० For Private and Personal Use Only Page #1506 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir D ना। रुचना २४१५ रुदराच्छ, रुदराक कबूतर, माला, एक प्रकार का नींबू , रुच्य-वि० (स०) सुंदर, मनोहर, रुचिकर । चौखुटा खंभा, रोचना। रुच्छ -वि० दे० (हि० रूखा ) रूखा । रुचना---० क्रि० दे० (सं० रुचि +ना-प्रत्य०) संज्ञा, पु० दे० ( हि० रूख ) रूख, पेड़, वृक्ष । अच्छा लगना, रुचि के अनुकूल होना, रुज-संज्ञा, पु० (सं०) रोग, बीमारी, कष्ट, भला लगना । मुहा०-रुचरुच-अति __ घाव, भाँग, वेदना । “पिव हे नृपराज रुचि से। रुजापहरम्'-~~भा० प्र०। रुचा-संज्ञा, स्त्री० दे० ( सं० रुचि ) इच्छा, रुजाली-संज्ञा, स्त्री. (सं०) रोगों का चाह, चमक सारिका, मैना । समूह, कष्ट-समूह ।। रुचि- संज्ञा, स्त्री. (सं०) चाह, प्रेम, अनु- । रुजीवि० (सं० रुज ) रोगी, बीमार, राग, किरण, प्रवृत्ति, शोभा, स्वाद, भुख, । अस्वस्थ । एक अप्सरा । “निज निज रुचि रामहि सब । रुजू-वि० दे० (अ. रुजूम-प्रवृत) प्रवत्ति देखा"-रामा० । वि० (दे०) उचित, | या चित्त का किसी और को झुकाव । योग्य, फबता हुश्रा। रुझना*-श्र० कि० दे० (सं० रूद्ध) घावादि रुचिकर --- वि० (सं० रुचि उत्पन्न करने का भरना या पूर्ण होना। अ० कि०-उलवाला, रुचिश्द। झना। रुचिकारक वि० (सं०) रुचिकर, रोचक । रुझान--संज्ञा, स्त्री० (दे०) प्रवृत्ति, झुकाव, स्त्री०-रुचिकारी । (चित्त का ), उलझन । रुचित--वि० (सं०) अभिलाषित । रुठ-संज्ञा, पु. दे० (सं० रुष्ट ) क्रोध, रोष, रुचिता- संज्ञा, स्त्री० (सं०) सौंदर्य, प्रेम। कोप । " रुचिर निहारि हारि जाति रुचिता की रुठना-स० कि० (दे०) रूठना । रुचि "---मन्ना। रुठाना-स० क्रि० दे० (सं० रुष्ट ) अप्रसन्न रुचिर वि० (सं०) रोचक, सुंदर, मीठा, या रुष्ट करना। मनोरम । “रूप-रंग रुचि रुचिर रुचि" । रुणित -वि० (सं०) क्वणित, बजता या - कुं० वि० । झनकारता हु'मा । "रुणित, भ्रंग घंटावली" रुचिरता--संज्ञा, स्त्री० (सं०) रुचिराई, सुन्दरता । रुत - संज्ञा, स्त्री० दे० ( सं० ऋतु ) मौसिम, रुचिरवृत्ति-संज्ञा, स्त्री. (सं.) अस्त्र-संहार फसल, ऋतु । संज्ञा, पु. (सं०) चिड़ियों का एक भेद। का शब्द या कलरव, ध्वनि । “कुहूरुतायत रुचिरा--संज्ञा, स्त्री० (सं०) केसर, एक वृत्त । चन्द्र-वैरिणी"--नैष । या छंद पि०)। | रुतबा-संज्ञा, पु. (अ.) पद, श्रोहदा, रुचिराई* -- संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० रुचिर --- प्रतिष्ठा, सम्मान । " रुतबा न इनको पेशए आई-प्रत्य०) मनोहरता, रुचिरता, सुन्दरता। अरबाबे हिम्मता हो"-सौदा० । " रुचि रुचिराई रुचिता के संग ताके अंग, रुदन-संज्ञा, पु० दे० ( सं० रोदन ) कंदन, श्राई लै अनंग-रंग रुचिर लुनाई है " .. रोदन, रोना। " तव रिपुनारि-रुदन-जलकुं० वि०। धारा".--रामा०। रुचिवर्द्धक-- वि० यौ० (सं० ) रुचि या रुदराच्छ, सदगछ*/--संज्ञा, पु० दे० (सं० अभिलाषा बढ़ाने वाला, भूख बढ़ाने वाला। रुद्राक्ष ) रुद्राक्ष, एक बड़ा पेड़ जिसके फलों रुचिष्य-वि० (सं०) अभिलषित | की गुठिली का माला शैव लोग पहनते हैं । For Private and Personal Use Only Page #1507 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - रुदित रुमाली रुदित-संज्ञा, पु०, वि० (सं०) रोदित, रोता रुद्राणी-संज्ञा, स्त्री० (सं०) पार्वती, दुर्गा, हुमा। भवानी, रुद्रजटा नामक औषधि लता। रुद्ध-वि० (सं०) वेष्टित, घिरा या मुँदा रुद्रावास-संज्ञा, पु० (सं०) शिव-निवास, हुघा, श्रावृत्त, बंद, रोका हुश्रा, जिसकी | काशीपुरी। गति रुकी हो। यौ०-रुद्ध कंठ-जिसका | रुद्रिय-वि० सं०, आनंददायी, रुद्र-संबंधी। गला भर भाया हो, जो बोल न सके। रुद्री-संज्ञा, स्त्री० (सं० रुद्र - ई-प्रत्य०) "भोगीव मंत्रौषधि-रुद्ध-वीर्य ".-- रघु० । वेद के रुदानुवाक या अघमर्षण सूक्त की रुद्र-संज्ञा, पु० (सं.) शिव जी का एक रूप, ग्यारह श्रावृत्तियाँ ( वेद०)। ११ रुद्रगण, देवता, रौद्र रस, ११ की संख्या। रुधिर-संज्ञा, पु० (सं०) रक्त, लोहू, खून । वि०-भयंकर, भयानक । । रोपि रन रुद्र रुधिराशी-वि० यौ० (सं०' रक्त पीने वाला। श्री विजै की लहिबो चहौ".--१० व० ! | रुनझुन- संज्ञा, स्त्री० (अनु०) पायजेब या रुद्रका-संज्ञा, पु० दे० (सं० रुद्राक्ष रुद्राक्ष। घघुरू का शब्द, झनकार, कलरव ।। रुद्रगण-संज्ञा, पु. यौ० (सं०) शिव जी के | रुनित* - वि० दे० (सं० रुणित ) बजता सेवक या पारिषद् , भूतगण (पुरा० ), | हुआ। ११ रुद्रों का समूह । रुनी-संश, पु० (दे०) घोड़े की एक जाति | रुद्रजटा-संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) एक क्षुप । | रुनुक-झुनुक - संज्ञा, स्त्री० (अनु०) रुनझुन । रुद्रट-संज्ञा, पु. (सं०) संस्कृत के काव्या- रुपना-अ. क्रि० दे० (हि. रोपना का लंकार ग्रंथ के निर्माता एक प्रसिद्ध कवि अ० रूप ) रोपा जाना, पृथ्वी में गाड़ा या और प्राचार्य । लगाया जाना, थड़ना. डटना, जमना, रुद्रतेज-संज्ञा, पु० यौ० (सं० रुद्रतेजस ) रुकना। षडानन, कार्तिकेय । रुपया, रूपया-- संज्ञा, पु० दे० (सं० रूप्य ) रुद्रपति- संज्ञा, पु० यौ० (सं०) रुद्राधिपति, रुपैय्या (दे०), चाँदी का एक बड़ा सिक्का शिवजी। जो सोलह आने का होता है ( भारत ), रुद्रपत्नी-संज्ञा, स्त्री० यौ० (५०) दुर्गा जी । धन संपति : रुद्रयामल - संज्ञा, पु० (सं०) भैरव भैरवी का रुपहला-वि० द० ( हि० रूपा ) चाँदी का संवाद-ग्रंथ ( तांत्रिक)। सा, चाँदी के रंग का, श्वेत । स्त्रो०--- रुद्रलोक-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) शिव का रुपहली । निवास-लोक। रुबाई---संज्ञा, स्त्री० (अ.) एक छद (पिं०) । रुद्रपंती-संज्ञा, स्त्री. ( सं० रुद्रवती) एक रुमंच *--संज्ञा, पु० दे० (सं० रोमांव ) प्रसिद्ध दिव्य बनौषधि, रुदंती, रुदवंती रोमांच, पुलकावली । (दे०)। रुमन्वान-संज्ञा, पु. (सं०) एक प्राचीन रुद्रविंशति-संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) रुद्रवीसी, | __ ऋषि, एक पहाड़। प्रभवादि साठ संवत्सरों में से अंतिम बीस रुमांचित*-वि० ० यौ० (सं० रोमांचित) संवत्सर । रोमांचित । रुद्राक्रीड-संज्ञा, पु० (सं०) श्मशान । | रुमाल-संज्ञा, पु० (अ०) रुमाल । रुद्राक्ष-संज्ञा, पु० (सं०) एक बड़ा पेड़, उसके रुमाली-संज्ञा, स्त्री० दे० (फा० रूमाल ) फलों की गुठिलियाँ जिनकी माला शैव एक तरह का लँगोटा या छोटी साफी, लोग पहनते हैं। अंगौछी। For Private and Personal Use Only Page #1508 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रुमावली रूखना दशा रुमावली* -- संज्ञा, स्रो० दे० यौ० (सं० | बड़ा पहलवान, बड़ा वीर या बलवान । रोमावली ) रोमावली। मुहा०-छिपा रुस्तम-जो देखने में तो हराई* ---संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. रा ) सीधा-सादा हो पर वास्तव में बड़ा बनी सुन्दरता । और वीर हो। रुरु-संज्ञा, पु. ( सं०) कस्तूरी मृग, एक रुहठि*~ज्ञा, स्त्री० दे० (हि. रोहट = दैत्य जो दुर्गा जी से मारा गया, एक भैरव ।। राना ) रूठने की क्रिया या भाव । रुरुया, रुरुवा-संज्ञा, पु. दे० (हि० ररना) रहिर *----संज्ञा, पु० दे० (सं० रुधिर) रुधिर । बड़ा उल्लू , धुगधु । रुहेलखंड-ज्ञा, पु. यौ० (हि० रुहेला+ रुरुतु-वि० (सं० रूक्ष, रूखा, रुक्ष । खंड ) अवध के उत्तर-पश्चिम में एक रुलना -- अ. क्रि० द० (सं० लुलन- प्रदेश । इधर-उधर डालना ) इधर-उधर मारा मारा रुहेला--- संज्ञा. पु० (दे०) प्रायः रुहेलखंड में फिरना, लोहे से पीसना, चूर्ण करना, | बसी हुई पठानों की एक जाति । अरोरना । " यहाँ की खाक से लेती थी । रूँगटा, रोंगटा · संज्ञा, पु० (दे०) रोम, खल्क मोती रूल''- सौदा० । स० रूप- लोम, रोवाँ, शरीर के बाल । रुलाना, प्रे० रूप-सनवाना। (घट-संज्ञा, स्त्री० (दे०) मैल, मल, रुलाई-संज्ञा, स्त्री० ( हि. राना ---आई- मलिनता । प्रत्य० ) रोने की क्रिया का भाव, रोने की रूंध - वि० दे० (सं० रुद्ध ) घिरा या रुका इच्छा या प्रवृत्ति, रावास, रोवाई (दे०)। हुश्रा, अवरुद्धः। रुलाना-स० क्रि० (हि० रोना का प्रे० रूप) । रूंधना-स० क्रि० दे० ( सं० रुधन ) काँटों रोवाना । (हि० रुलना का प्र० रूप) मारा श्रादि से घेरना, बाढ़ लगाना, छेकना, फिरना, नष्ट करना। रोकना, चारों तरफ से घेरना । “ धहु रुघा--संज्ञा, पु० दे० । सं० लाम ) सेमल पोषहु दै बुधि बारी"-- रामा। के फल का भूमा। रू--संज्ञा, पु. (फ़ा०) चेहरा, मुख, मुँह, रुवाई - संज्ञा, स्त्री० दे० ( हि० राना ) रोने सामना, पागा, कारण, द्वारा । यो०की क्रिया या भाव, रोने की इच्छा या रू-बरू-समक्ष, सामने । सुखरू (होना) प्रवृत्ति, रोवाई (दे०)। --सुखी, सम्मानित होना। रुष-रुषा--संज्ञा, पु. (सं०) क्रोध, कोप, रूई-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० राम, लाम ) रोष । वि०-रुष्ट। रुई (दे०), कपास के कोषगत बीजों के रुष्ट-वि० (सं०) कुपित, क्रुद्ध, अप्रसन्न। ऊपर का रोवाँ या घुश्रा । संज्ञा, स्त्री०-रुष्टता। रूईदार-वि० दे० (हि. रूई+दार फा०) रुटता-संज्ञा, स्त्री० (सं०) क्रुद्धता, अप्रसन्नता। जिसके भीतर रुई भरी हो। रुसना*-अ० कि० दे० ( हि० रूसना) रूख-- संज्ञा, पु० दे० ( सं० रूक्ष ) वृक्ष, पेड़। रूसना, रूठना। वि०-रूखा, रुक्ष, नीरस । रुसवा-वि० (फ़ा०) जिसकी बदनामी हुई रूखड़-- संज्ञा, पु० (दे०) योगी विशेष ।। हो, निदित । संज्ञा, स्त्री० रुसवाई। रूखड़ा --संज्ञा, पु. (हि. रूख ) छोटा रुसित*-वि० दे० ( मं० रुषित ) अप्रसन्न, पेड़, पौधा, बिरवा, वृक्ष, रूखवा (दे०)। रुष्ट, रूठा। रूखना- अ० कि० दे० (सं० रूष) रूठना, रुस्तम-संज्ञा, पु. (फ़ा०) फ़ारस का एक | सूखना। भा० श. को०-१८८ For Private and Personal Use Only Page #1509 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रूखी १४९८ रूपकातिशयोक्ति रूखा-वि० दे० ( स० रुक्ष ) सूखा, शुष्क, जिसका व्यवहार प्रसिद्ध अर्थ से भिन्न नो चिकना या स्निग्ध न हो नीरस, सीठा, अभिप्राय-व्यंजनार्थ न हो (मा.)। स्वाद-हीन, बेमुरौवत, घी-तेल आदि से | रूढ़ि--- संज्ञा, स्त्री. (सं०) उभार, उठान, रहित । "तुझसे रूखा कहीं दुनिया में न देखा | चढ़ाव, उत्पत्ति, ख्याति, चाल, प्रथा, न सुना"-हाली० । मुहा०--रूखा- निश्चय, विचार, प्रसिद्धि, यौगिक न होते सूखा-धी-तेल आदि के बिना बना हुए भी रूढ़ शब्द जिस शक्ति से अपना अर्थ साधारण भोजन । " रूखा-सूखा खाय के दे, एक संज्ञा-भेद (व्या०)। ठंडा पानी पीव"-कवी० । परुष, विरक्त, रूदाद-संज्ञा, स्त्री० दे० ( फ़ा० रूएदाद ) खुरदुरा, कठोर, उदासीन । मुहा० - रूखा वृत्तांत, दशा, अवस्था, विवरण, समाचार, पड़ना या होना- क्रुद्ध होना, बेमुरौवती अदालत की कार्यवाही। करना । संज्ञा, पु० (दे०) रूख, पेड़। रूप --- संज्ञा, पु० (सं०) सूरत, शकल, प्राकृति, रूखापन-संज्ञा, पु. (हि०) रुखाई, रूखे । स्वभाव, सौंदर्य, प्रकृति । " राम-रूप अरु होने का भाव । सिय छवि देखी"-रामा०) महा०-रूप रूखी- संज्ञा, स्त्री० ( हि० रूखा ) चिखुरी, हरना--लज्जित करना । यौ०-रूप-रेखा, गिलहरी। रूप-रंग ( रंग-रूप )--श्राकार-प्रकार. रूचना*-स. क्रि० दे० (हि० रुचना ) शकल, चिन्ह-पता, चिन्ह, पता, शरीर । भला लगना, रुचना, भाना पसंद पाना । मुहा०—रूपलेना (रखना-बनाना)-रूप रूज-संज्ञा, पु० (दे०) एक कीड़ा। धारण करना । वेष, भेस । मुहा० -- रूप रूझना-अ० क्रि० दे० (हि. उलझना ) भरना (धरना)---भेस बनाना । लक्षण, उलझना, फँसना। समान, सदृश, अवस्था, दशा. रूपक, रूपा, रूमा-वि० (दे०) रोगी, बीमार, उलझा । चाँदी। वि० रुपवान, सुन्दर। रूठ-रूठन - संज्ञा, स्त्री० (हि० रूटना) रुष्टता, रूपक - संज्ञा, पु. (सं०) प्रतिकृति, मूर्ति, अप्रसन्नता, रूठने की क्रिया या भाव । नाटक, दृश्यकाव्य। ("रूपंककरोतीति रूपरूठना-अ. क्रि० दे० (सं० रुष्ट) रुष्ट या कम्"-नाव्य० ।) वह काव्य जिसका अभिनय अप्रसन्न होना । स० रूप-रूठाना । वि० ---- हो सके, इस काव्य के दश मुख्य भेद हैं:रूठने वाला, झगड़ालू । नाटक, प्रकरण, व्यायोग, भाण, समवकार, रूठनी-वि० दे० ( हि० रूठना ) झगड़ालू । डिम, अंक, ईहामृग, प्रहसन, बीथी १० । रूड़-रूड़ा-वि० दे० (हि० रूरा ) उत्तम, एक श्रीलंकार जिसमें उपमान और उपमेय श्रेष्ठ, सुन्दर, भला। में अभेद कर दिया जाता है अथवा उपमान रूढ़-वि० (सं०) प्रारूद, सवार, चढ़ा हुआ, के साधर्म्य का प्रारोप उपमेय पर कर उत्पन्न, प्रसिद्ध, उजडु, गवार', कठोर, अकेला, उपमान के रूप में अभेद सा कर उसका रूढ़ि, अविभाज्य । संज्ञा, पु०- शब्द और वर्णन हो (१० पी०)। प्रत्यय या दो शब्दों से बना अर्थानुसार | रूपकरगा--संज्ञा, पु० यौ० (सं०) एक तरह एक शब्द भेद (विलो.--योगिक) । स्त्री० का घोड़ा। रूढ़ि। रूपकातिशयोक्ति--संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) रूढ़यौवना-संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं० प्रारूढ़ अतिशयोक्ति अलंकार का वह भेद जिसमें यौवना ) पूर्णयुवा, तरुणी, नवयोवना। केवल उपमान का वर्णन करके उपमेयों का रूढ़ा-संज्ञा, स्त्री० (सं०) प्रचलित लक्षणा अर्थ प्रगट करते हैं ( काव्य० )। For Private and Personal Use Only Page #1510 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रूपकांता . . रूपक्रांता-संज्ञा, स्त्री० (सं०) १७ वर्णो का रूपहला-संज्ञा, पु० (दे०) रूपे का बना वर्णिक वृत्त ( पिं० ) रूपे के रंग सा सफेद, रुपहरा (दे०)। रूपगविता--संज्ञा, स्त्री० (सं०) अपनी सुन्दरता रूपा—संज्ञा, पु. दे. (सं० रूप्य) चाँदी, पर घमंड करने वाली नायिका।। घटिया चाँदी, सफ़ेद घोड़ा। रूपजीवी--संज्ञा, पु. (सं० रूप जीविन) बहु | रूपित--संज्ञा, पु० (सं०) ज्ञान, वैराग्य आदि रूपिया, रूप बनाकर पेट पालने वाला। पात्र वाला नाटक या उपन्यास । रूपजीविनी-संज्ञा, स्त्री० (सं०) वेश्या, रंडी, रूपी-वि० (सं० रूपिन्) रूपवाला, रूपधारी, पतुरिया। सदृश, समान । स्त्री० रूपिणी । रूपघनाक्षरी--संज्ञा, स्त्री० (सं०) अंत लघु और रूपोश-वि० (फ़ा०) गुप्त, छिपा, भगा हुआ, ३२ वर्गों का एक वर्णिक दंडक छंद (पि.। फरार । संज्ञा, स्त्री०-रूपोशी । " हमसे रूपनिधान-संज्ञा, पु. यौ० (सं०) अति रूपोशी श्रीगरों से मिला करते हो"। सुन्दर, रूपनिधि। रूप्यक-संज्ञा. पु० (सं०) रुपया । रूपमंजरी-संज्ञा, स्त्री० (सं०) एक फूल, रूबकार-संज्ञा, पु. (फ़ा०) सम्मुख जाने एक प्रकार का धान । का भाव, पेशी, अदालत की प्राज्ञा, श्राज्ञारूपमनी--वि० स्त्री० दे० (हि० रूपमान) पत्र, हुक्मनामा। रूपवती। रू-बरू - क्रि० वि० (फा०) समक्ष, सम्मुख, रूपमय - वि० ( हि० ) अति सुन्दर । स्त्री० सामने, आगे, प्रत्यक्ष । रूपमयी। रूप-संज्ञा, पु. (फ़ा०) तरकी या तुरकी देश रूपमान-वि० दे० (सं० रूपवान) रूपवान, अति सुन्दर । का नाम । संज्ञा, पु. (हि.) रुप ।। रूपमाला-संज्ञा, स्त्री० सं०) २४ मात्राों । रूमटी-संज्ञा, स्त्री० (दे०) घुमाव, मिष, का एक मात्रिक छंद ( पिं०)। बहाना, व्याज। रूपमाली-संज्ञा, स्त्री० (सं०) एक छंद जिसमें रूमना* - स० क्रि० दे० ( हिझूमना का अनु०) नौ दीर्घ वर्ण हों (पिं० )। झूलना, झूमना । रूपरूपक --संज्ञा, पु० (सं०) सावयव या साँग रूमाल-संज्ञा, पु. (फ़ा०) मुँह पोछने का रूपकालंकार ( काव्य० )। चौकोर वस्त्र-खंड, चौकोर शाल या दुपट्टा । रूपवंत-वि० (सं० रूपवत्) सुन्दर । स्त्री. रूमाली-संज्ञा, स्त्री० (फा० रूमाल) रूमाली, रूपवती। लंगोट। रूपवती-संज्ञा, स्त्री. (सं०) गौरी छंद, रूमी-वि० (फा०) रूम का, रूम-संबंधी, चेपकमाला वृत्ति (पिं.)। वि. स्त्री० --- रूम का निवासी । यौ०-रूमी-मस्तगीसुन्दरी, .खूबसूरत । " रूपवती नारी जो एक औषधि ! शीलवती होती अरु"--मन्ना। रूरना*--अ० क्रि० दे० (सं० रोरवण ) रूपवान्-रूपवान-वि० (सं० रूपवत्) सुन्दर, चिल्लाना । स्वरूपवान् , प्रियदर्शन । स्त्री० रूपवती।। रूरा-वि० दे० ( सं० रूढ़ प्रशस्त ) उत्तम, रूपरस- संज्ञा, पु० (सं०) चाँदी या रूपा श्रेष्ठ, सुन्दर, बहुत बड़ा, अच्छा । स्त्रीकी भस्म (वैद्य०)। रूरी। “राज-समाज विराजत रूरे"रूपराशि-संज्ञा, पु. यौ० (सं०) अति सुन्दर, रामा०। मनोहर । “वा निरमोहिल रूप की राशि" रूष-संज्ञा, पु० दे० ( सं० रुक्ष ) रूख, पेड़, -ठाकुर। वृत्त । वि० (दे०) रुत, रुखा । For Private and Personal Use Only Page #1511 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रूसना १५०० रेचक रूसना-प्र. क्रि० दे० (हि० रूठना )। खचाइ कहौ बल भाखी"--रामा० । रूठना। यौ०-रूप-रेख--सूरत सकल । सूरत, रूसा-संज्ञा, पु० दे० ( सं० रूपक ) अड़ सा, . स्वरूप, नयी निकली हुई मूंछे, गणना, भरूसा, बासा। संज्ञा, पु. दे० (सं० रोहिण) गिनती। मुहा०--रेख भीजना या एक सुगंधित घास जिसका तेल निकालते हैं। । भीनना (निकलना)-निकलती हुई रूसी--वि० (हि. रूस ) रूस देश का मूछों का दिखाई पड़ना। निवासी, रूस देश का, रूस संबंधी। संज्ञा, रेखता -- संज्ञा, पु० (फा०) एक प्रकार की स्रो०- रूस देश की भाषा या लिपि । गज़ल ( उ० पि० )। " रेखता के तुम्ही संज्ञा, स्त्री० (दे०) भूसी-जैसा सिर का मैल । उस्ताद नहीं हो ग़ालिब-ग़ालिः । रूह-संज्ञा, स्त्री. (अ.) भारमा, जीव, रेखना -- स० क्रि० दे० (सं० रेखन, लेखन) जीवात्मा, सत्तसार, इत्र का एक भेद । रेखा या लकीर खींचना, खरोंचना, खुरांच मुहा०-रूहफना होना-- अति भयभीत डालना । होना, होश उड़ना। रूह फंकना (डालना) रेखा- संज्ञा, स्त्री० (सं०) डाँड़ी, लकीर, -जान डालना, नवशक्ति का संचार सतर, दो विन्दुओं के बीच की दूरी-सुचक करना, नवस्फूर्तिलाना।। चिह्न । मुहा०—रेखा खींच कर कहना रूहना-अ. क्रि० दे० (सं० रोहण ) -प्रण-पूर्वक कहना, बल-पूर्वक या जोरों उमड़ना, चढ़ना। अ० क्रि० दे० (हि. के साथ कहना । रेखा खींच कहौं प्रण. बैधना ) घेरना, सँधना, भावेष्टित करना। भाषी"- रामा० । यो०-कर्म-रेखा रेंकना-अ.क्रि० (अनु०) गदहे का बोलना. (करम-रेख)-भाग्य का लेख । प्राकृति, बुरे ढंग से गाना। गणना, गिनती. श्राकार. हथेली-तलुवे रेंगटा-संज्ञा, पु० (दे०) गदहे का बच्चा। श्रादि पर पड़ी लकीरें जिनसे सामुद्रिक में रेंगना-अ.क्रि० दे० (सं० रिंगण ) चींटी शुभाशुभ का विचार होता है। आदि कीड़ों का चलना धीरे धीरे चलना। रेखांकित-वि. यौ० (सं०) चिह्नित, रेखारेंट-संज्ञा, पु० (दे०) नाक का मैल । द्वारा निर्धारित । रेंड-संज्ञा, पु० दे० ( सं० एरंड ) एक पौधा रेखागणित-संज्ञा, पु. यौ० (सं०) गणित जिसके बीजों का तेल बनता है। स्त्री०- विद्या का वह विभाग जिसमें रेखाओं के रेंडी-रेंड के बीज। द्वारा कुछ सिद्धांत निर्धारित किये जाते हैं रेडी-संज्ञा, स्त्री० दे० ( हि० रेड ) रेंड के जिओमेटरी (अं०)। बीन। | रेखित - वि० (सं०) जिस पर रेखा पड़ी हो, रेंदी-संज्ञा, स्त्री० (दे०) छोटा खरबूजा। फटा हुआ, लकीरदार। रे- भव्य० (सं०) नीच-संबोधन-शब्द । “कि रेगिस्तान-संज्ञा, पु. (फा०) मरुस्थल, रे हनूमान् कपिः "-ह. ना.। संज्ञा, पु० मरुभूमि, रेतीला या बालू का मैदान । दे० (सं० ऋषभ ) ऋसभ-स्वर।। । रेघारी - संज्ञा, स्त्री० (दे०) हलकी रेखा, रेख-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० रेखा ) लकीर । चिह्न या निशान । "तुमते धनु-रेख गई न तरी"-राम। रेचक-वि० (सं०) दस्तावर, जुलाबी दवा । मुहा०-रेख काढ़ना (खींचना-खाँचना) संज्ञा, पु०-प्राणायाम की ३री क्रिया जिसमें -लकीर बनाना, कहने पर जोर देना, खींची हुई सॉस को विधि-पूर्वक बाहर प्रतिज्ञा करना । चिह्न, निशान । " रेख निकालते हैं (योग.)।। For Private and Personal Use Only Page #1512 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रेचन १५०१ रेवतीरमण रेचन - संज्ञा, पु० (सं०) कोष्ट शुद्धि जुल्लाब. रेफ़-संज्ञा, पु० (सं०) हलन्त, रकार का वह जुलाब, दस्त लाना। ज्वर मुक्ते तु रेचनम्" रूप जो अपने अग्रिम व्यंजन के ऊपर लिखा -भ.प्र.। जाता है । "अचं दृष्ट्वा त्वधोयाति हलस्यारेचना–स. क्रि० दे० (सं० रेचन ) वायु परि गच्छति ।" "श्रवसाने विसर्गः स्याद्रेफस्य या मल को बाहर करना युक्ति या वायु नियद्गतिः ...- रा० भो० । द्वारा मल निकाला जाना। रेल-संज्ञा, स्त्री० (अं०) लोहे की पटरियाँ रेजा-संज्ञा, पु० (फा०) सूचमखंड बहुत जिन पर गाड़ी चलती है, रेलगाड़ी वाष्पछोटा टुकड़ा, अदद, थान, नग। वेग से चलने वाली गाड़ी। संज्ञा, स्त्री० रेणु --- पंज्ञा, पु० (सं०) अत्यंत लघु परिमाणु, (हि. रेलना) अधिकता धाराधक्का, भरमार। धुलि, बालू , कण, कणिका, रेनु (दे०), | रेलटेल - संज्ञा, स्त्री० दे० यौ० ( हि. रेलनाएक औषधि । “शठीशंठी रेणू -लो ठेलना • बड़ी भीड़, अधिकता, भरमार। “गरू सुमेरु रेणु सम ताही" -- रामा० ।। रेलना-स० कि० (दे०) आगे या पीछे की रेणुका--संज्ञा, स्त्री०सं०) बालू , रेत, पृथ्वी, भोर ढकेलना. धक्का देना, घुसेड़ना, अधिक धूलि, रज, परशुराम जी की माता ।। खाना | प्र. क्रि० (दे०) ठसाठस भरा होना । "वह रेणुका तिय धन्य धरनी मैं भई जग- रेलपेल-संज्ञा, स्त्री० यौ० दे० (हि. रेलना वंदिनी"-राम । +पेलना ) भारी भीड़, अधिकता, बाहुल्य, रेत-संज्ञा, पु. ( सं० रेतस् ) शुक्र, वीर्य, . ज़्यादती, भरमार, धक्कमधक्का । "रहै उसकी पारा, पानी, जल । संज्ञा, पु० दे० (सं० महफ़िल में नित रेलपेल" -- जौक़ । रेतना ) बालू , बालू का, मरुभूमि, बलुश्रा रेला- संज्ञा, पु० (दे०) पानी का बहाव, मैदान । "रतन लाइ नर रेत मों, काँकर | प्रवाह, दौड़, धावा, चढ़ाई, धक्कमधक्का, बिन बिन खाय"---कबी०। अधिकता, बाहुल्य, रेल । रेतना --स० कि० (हि. रेत ) रेती से किसी रेलारेल-- क्रि० वि० (दे०) अधिकता, धक्कमपदार्थ को रगड़ कर उसके कण अलग धक्का, कशमकश | संज्ञा, स्त्री० भीड़, बाहुल्य ! करना, रगड़ कर काटना। रेलापेल संज्ञा, पु० (दे०) धक्कमधक्का । रेतहा-संज्ञा, पु. (प्रा० ) रेत वाला तट, वंद-संज्ञा, पु० (फा०) एक पहाड़ी, बड़ा रेता । वि०-रेतीला । स्त्री०-रेतही। की जद और लकडी औषधि के रेता--संज्ञा, पु० दे० (हि. रेत ) मिट्टी. काम भाती है और रेवंदचीनी कहाती है । बालुका, बालू , बालुवा मैदान । स्त्री. रेती। ए। रेवड़-संज्ञा, पु० (दे०) भेड़, बकरियों की रेती- संज्ञा, स्त्री. (हि. रेतना ) लोहे श्रादि नार, झंड, गल्ला, लेहड़ा (प्रान्ती०)। को रेतने का एक लोहे का खुरदुरा यंत्र या रेवडी- संज्ञा, स्त्री० (दे०) चीनी और तिलों लोहा। संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. रेत-+-ई- से बनी एक मिठाई।। प्रत्य० ) नदी या सागर के तट की बलुई। रेवत, रेवतक-संज्ञा, पु. (सं०) बलदेव जी भूमि, बलुबा तट। के ससुर। रेतीला--वि० ( हि० रेत + ईला-प्रत्य० ) | रेवतक -संज्ञा, पु. (सं०) कबूतर। बलुबा, बालू वाला । स्त्री० -- रेतीली। रेवती... संज्ञा, स्त्री० (सं०) ३२ तारों से बना रेनु*---संज्ञा, पु० दे० ( सं० रेणु ) बालुका, २७वाँ नक्षत्र, दुर्गा, गाय, राजा रेवतक की बालू, रेत । स्त्री० (दे०) रेनुका-(सं० कन्या और बलराम जी की पत्नी। रेणुका ) । 'पंक न रेनु सोह अस धरनी" रेवतीरमण-- संज्ञा, पु. यौ० (सं०) बलदेव - रामा.1 जी। For Private and Personal Use Only Page #1513 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org रेवा १५०२ राटिया रेवा – संज्ञा, स्रो० (सं०) नर्वदा या नर्मदा | रेतुत्र्या- रतुवा - संज्ञा, पु० (दे०) रायता, नदी, दुर्गा, मदन- प्रिया, रति, रीवाँ राज्य, बघेलखंड | यौ० - रेवा खंड | रेशम -- संज्ञा, पु० (फ़ा० ) कोश में रहने वाले विशेष प्रकार के कीड़ों से बनाया गया हद चमकीला और कोमल तंतु जिससे महीन कपड़ा बनाया जाता है, कौशेय, रेसम (दे०) । की रेशमी - वि० ( फा० ) रेशम से बना । रेशा - संज्ञा, पु० [फा० ) पेड़ों की छाल आदि से निकला तंतु या बारीक़ सूत, रेसा (दे० ), श्रम की गुठली के तंतु । वि० रेशेदार | रेसु - संज्ञा, पु० (दे० ) ईर्ष्या, द्वेष, क्रोध । रेह संज्ञा, स्त्रो० (दे० ) ऊसर - मैदान क्षार या खार मिली मिट्टी, रेह (दे० ) । रेहकल - संज्ञा, पु० ( प्रान्ती०) छोटी गाड़ी रहकल । त्रो० - रेहली, रहकली । रेहड़ – संज्ञा, पु० (दे०) एक प्रकार की छोटी और हलकी बैलगाड़ी ( प्रान्ती० ), लढ़ी (ग्रा० ) । देने रेहन - संज्ञा, ५० ( ० ) गिरवी, बंधक, किसी धनी के पास इस शर्त पर माल या जायदाद रखना कि कर्ज़ का रुपया दे पर वह वापस हो जायगी । रेहनदार - संज्ञा, पु० ( ० रेहन + दार फा० -प्रत्य० ) जिसके यहाँ गिरवी या बंधक रक्खा गया हो, महाजन, धनी । रेहननामा- संज्ञा, पु० ( फा० ) गिरवीनामा, बंधक - पत्र जिस पर रेहन की शर्तें लिखी हों। रेहल - संज्ञा, बी० दे० ( ० रिहल ) पढ़ते वक्त किताब रखने की चौकी । रेहला - संज्ञा, पु० (दे०) चना, रहिला, लहिला (ग्रा० ) । रेह पेह - संज्ञा, स्त्री० (दे० ) अधिकता. बहुता Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रैना (दे० ) । रैदास - संज्ञा, पु० (दे०) कबीर का सम. कालीन स्वामी रामानंद का एक चमार भक्त शिष्य, चमारों की पदवी या जाति । जैन-रेनि--संज्ञा, स्रो० दे० (सं० रजनी ) रात्रि, रात । " रैन-दिन चैन हैन सैन, इहिं उद्दिम मैं " - रत्ना० । रैनिचर -- संज्ञा, पु० दे० (सं० रजनिचर ) राक्षस, निशाचर, रेनचर । 'चली निचर सैनि पराई " रामा० । --- रयत संज्ञा, स्त्री० (०) रिथाया, प्रजा । भैयाराव - संज्ञा, पु० दे० ( हि० राजा + राव) छोटा राजा, मालिक, स्वामी, सरदार | 'रैयाराव चम्पत को " - भूष० । रयत - संज्ञा, पु० (स०) बादल । रेवतक-संज्ञा, पु० (सं०) एक पहाड़ जो गुजरात में है ( भू०), " श्रसौ गिरनार । गिरि रैवतकं ददर्श - माघ० । महादेव जी, चौदह मनुवों में से एक मनु । " रैहर - संज्ञा, पु० ( दे० 'इहर ) झगड़ा, टंटा, बखेड़ा । "रैहर मैं ठानो बलि श्राप सौ सुनौ जू तुम ” – मन्ना० । वि० हरी (दे० ) । रोयाँ-रोवाँ -- संज्ञा, पु० दे० ( सं० रोम ) शरीर पर के बाल, लोम, रोम । रोंगटा -- संज्ञा, ५० दे० ( सं० रोमक ) शरीर पर के बाल । ' देदो करें न रोंगटा जो जग बैरी होय "कबी० । मुहा० - रोंगटे खड़े होना - डरने से शरीर में सोभ उत्पन्न होना, रोमांच होना, रोंयें खड़े होना । रोगटी - संज्ञा, स्रो० दे० ( हि० रोना ) खेल में बुरा मानना, अन्याय या अधर्म करना, बेईमानी करना । यत, भरमार । रे – संज्ञा, पु० (सं०) धन, संपत्ति, सोना, शब्द | रैप्रत* -- संज्ञा, स्रो० दे० ( ० रैयत ) | रैयत, प्रजा, रिश्राया । रोट- संज्ञा, खो० (दे०) छल, कपट, बहाना । रोटना - स० क्रि० (दे०) छल या कपट करना, बहाना करना । रोटिया - संज्ञा, पु० (दे०) छली, विश्वासघातक, कपटी, धूर्त | For Private and Personal Use Only Page #1514 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org रोव, रोउ रोव रोड-संज्ञा, पु० दे० (सं० रोम) लोम, रोम, वाँ । रोमा, रोवा - संज्ञा, पु० दे० (हि० रोया) रोया । रोमाई-रोवाई - संज्ञा, स्त्री० दे० ( हि० रोने का भाव या क्रिया, बिसरना, १५०३ रोना) रोना, रुलाई । रोयाना रोवाना - स० क्रि० दे० (हि० रोना का स० रूप) किसी दूसरे को रुलाना, परेशान रोचि रोक - संज्ञा, पु० (दे०) रोकने या मना करने वाला, वाधा या अड़चन डालने वाला | रोख - संज्ञा, पु० दे० (सं० रोष ) रोष, क्रोध, रिस, कोप । “बिधि हू के रोख कीन राखें परवाह रंच ''–रत्ना० । 1 रोग - रुज्ञा, पु० (सं०) बीमारी, व्याधि, मर्ज़ । वि० रोगी, स्म । लो 'शरीरम् रोग-मंदिरम्" | 6 रोगग्रस्त - वि० यौ० (सं०) रोग से पीड़ित, रोगी, बीमार. व्याधि-पीड़ित । " शरीरे जर्जरी भुते रोगग्रस्ते कलेवरे "-- स्फुट० । रोगदई-गया-संज्ञा, त्रो० दे० (हि० रोना) अन्याय. अंधेर, बेईमानी, रोउनई ( ग्रा० ) । रोगन - संज्ञा, पु० ( फ़ा० रौगन ) चिकनाई, तेल, पालिश (अं०), वस्तु पर पोतने से चमक लाने वाला पतला लेप, वारनिश, मिट्टी के बरतनों पर चढ़ाने का मसाला | रोगनी वि० ( फा० ) रोशन किया हुआ, रोग़न-युक्त, एक प्रकार की रोटी । रोगहा- संज्ञा, पु० (सं०) रोग का नाश करने वाला, वैद्य, श्रौषधि | रोगिया रोगिहा- संज्ञा, ५० दे० (सं० रोगी ) रोगी, बीमार. राहिल (दे० ) । रोगी --- त्रि० (सं० रोगिन् ) बीमार, अस्वस्थ, व्याधि- पीडित स्त्रो० रोगिनी । रोचक - वि० (दे०) रुचिकारक, प्रिय, मनेारंजक, दिलचस्प | संज्ञा, स्रो० रोचकता । रोचन - वि० सं०) रोचक, रुचिकारक, मनोरंजन, दिलचस्प, प्रिय, अच्छा लगने या शोभा देने वाला, लाल । वि० रोचनीय । सज्ञा, ५० - प्याज, काला सेमर, रोरी, स्वारोचिप मन्वंतर के इन्द्र ( पुरा० ) मदन के पाँच बाणों में से एक बाण, रोचना | रोचना - संज्ञा, खो० (सं०) लाल कमल, गोरोचन वसुदेव-प्रिया, रोली, टीका, तिलक, संज्ञा, पु० (दे० ) तिलक करने का हलदी और चूने आदि से बना चंदन | रोचि -संज्ञा, स्त्री० ( सं० रोचिस् ) दीप्ति, i करना । रोभाव -संज्ञा, उ० (अ० रोश्रब ) रूयाव ( ग्रा० ) रोब, श्रातंक | रोभास-संज्ञा स्त्री० दे० ( हि० रोना ) रुलाई रोने की इच्छा | राउँछ – संज्ञा, पु० दे० (सं० रोम) रोम, लोम रोउनई-संज्ञा, खी० (दे०) अन्याय, बेईमानी, ज्यादती, रोउनॉय ( ग्रा० ) । रोक - संज्ञा, स्त्रो० दे० ( सं० रोधक ) गति | या काम का अवरोध, निषेध, मनाही, वाधा, अटकाव, रोकने वाली वस्तु, छैक । यौ० --- रोकथाम | संज्ञा, पु० (हि० रोकड़) रोकड़, नकद | 1 रोकटोक -- संज्ञा, स्त्री० यौ० ( हि० रोकना + टोकना ) बाधा, निषेध, छेड़छाड़, मनाही, प्रतिबंध | अ० क्रि० - रोकना-टोकना । रोकड़ - संज्ञा, स्त्री० (सं० रोक = नकुद ) जमा, नकद, पूँजो, रुपया-पैसा, नगद धन । रोकड़िया -- संज्ञा, पु० ( हि० रोकड़ + इया - प्रत्य० ) कोषाध्यक्ष, खज्ञानची, रुपया लेने वाला । रोकना- (- स० क्रि० (हि० रोक) मना करना, चलने या बढ़ने न देना, निषेध या मनाही करना, ऊपर लेना, किसी चली थाती बात को बंद करना, लोकना (दे०) छंकना, थोड़ना ( प्रोग्ना दे० ) बाधा या अड़चन डालना, वश में रखना, दबाना । स० रूपरोकाना, प्रे० रूप० - रोकावना, रोक घाना । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private and Personal Use Only Page #1515 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रोना रोचित १५०४ कांति प्रभा, शोभा, किरण, मयूख, आभा रहने वाला, महिमान जो रोटी खा सकता या किरण वाला, रश्मि । __ हो । विलो.--पुरिहा । वि० (दे०) रोटी रोचित -वि० (सं० रोचना) सुशोभित, (दूसरे की) खाने वाला (बुरे अर्थ में)। सुन्दर, प्रिय । रोटी-संज्ञा, स्त्री० (दे०) फुलका, गधे श्राटे रोचिष्णु वि० (सं०) प्रकाशमान, दीप्ति- की भाग में संकी टिकिया, चपाती, शील, रुचने योग्य । टिकिया, रसाई, भोजन, जीविका । यौ० रोज*--संज्ञा, पु० दे० ( सं० रोदन ) रोदन, रोटीपानी, रोटीदाल, दाल-रोटी) रुदन, रोना, एक बनैलो पशु, बन-रोज । जीवन-निर्वाह । मुहा० --रोटी-कपड़ारोज-संज्ञा, पु. ( फा० ) दिन, दिवस । भोजन-वस्त्र की सामग्री (किसी बात की) अव्य.--नित्य, प्रति दिन, रोज (दे०)। रोटी खाना--- (उसी से) जीवका कमाना। रोज़गार-संज्ञा, पु. ( फा० ) जीविका, (किसी के यहाँ ) रोटियाँ तोड़ना - व्यवसाय, व्यापार, उद्यम, धंधा, पेशा, कार- किसो के यहाँ पड़ा रह कर पेट पालना। बार, सौदागरी, तिजारत, जीविका या रोटी-दाल या रोटो चलना--गुज़र या धनार्थ काय। निर्वाह होना। रोटी कमाना--रोज़ी या रोजगारी--संज्ञा, पु. ( फा०) सौदागर, जीविका पैदा करना। रोटियों का प्रश्न व्यापारी, रोज़गार करने वाला, उद्यमी, हाना- जीविका की चिन्ता या विचार होना। पेशेवर, व्यवसायी। रोटोकल- संज्ञा, पु. (हि.) एक पेड़ का रोजनामचा - संज्ञा, पु. (फ़ा.) वह पुस्तक स्वादिष्ट फल। जिसमें प्रति दिन का कार्य लिखा जाता है, रोड़ा-सज्ञा, पु. दे० (सं० लोट ) पत्थर या दैनिक कार्य-लेख, दैनिक व्यय लेख । इंट का बड़ा ढेला, बड़ा कंकड़ । मुहा०रोजमर्रा-अव्य० ( फा० ) नित्य, प्रतिदिन, । राड़ा अटकाना या डालना (अड़ाना) हर रोज़ । संज्ञा, पु०-- प्रतिदिन की व्यवहार -विघ्न-बाधा डालना । लो०- "कहीं की की बोली या भाषा, खड़ी या चलती बोली, इंट कहीं का रोड़ा, भानमती ने कुनबा बोल चाल । जोड़ा।" रोज़ा-संज्ञा, पु. ( फा० ) उपवास, व्रत, रोड़ी-संज्ञा, स्त्री० (सं० रोड़ी) छोटा मुसलमानों में रमजान के महीने में रोडा । उपवास। रोदन--संज्ञा, पु० (२०) रुदन, रोना, क्रंदन । रोजी-संज्ञा, स्त्री. ( फा० ) प्रतिदिन का रोदसी-सज्ञा, स्त्री० (सं०) स्वर्ग, श्राकाश, भोजन, जीविका, जीवन निर्वाह का सहारा। भूमि, पृथ्वी । रोझ-संज्ञा, पु० (दे०) नील गाय, राज, रोदा--संज्ञा, पु० दे० ( सं० रोध ) धनुष की बनरोज (दे०)। प्रत्यंचा, कमान की ताँत या डोरी, चिल्ला रोट-संज्ञा, पु. ( हि० रोटी ) बहुत बड़ी (प्रान्ती. )। और मीठी मोटी रोटीया पूड़ी, मीठी, मीठी रोधन-संज्ञा, पु. (सं०) अवरोध, रोक, और बड़ी पूडी। __ रुकावट, घेरवार, दमन । वि० राधनोय। रोटा-वि० दे० ( हि० रोटी) मोटी बड़ी रोधना--स० क्रि० ६० (सं० रोधन ) रोकना, रोटी। घेरना, अवरोध करना। रोटिहा- संज्ञा, पु० दे० (हि० रोटी- राना- अ० क्रि० द. ( सं० रोदन ) रोदन हा-प्रत्य० ) केवल भोजन मात्र पर नौकर या रुदन करना, चिल्ला चिल्ला कर आँसू For Private and Personal Use Only Page #1516 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रोपक १५०५ रोमन बहाना। स० रूप-रुत्लाना, रोवाना, प्रे० दाब, रोब-ताब। मुहा०-रोब जमाना, रूप० रुतवाना । मुहा०-शेना-धोना-- बैठाना ( ग़ालिब करना)-प्रभाव या दुःख-शोक प्रगट करना या क्रंदन करना । श्रातंक उत्पा करना, जमाना । रोब रोना-पीटना - बहुत विलाप या कंदन दिखाना-भय, अातंक या प्रभाव प्रगट करना । रो रो कर ---- ज्यों-त्यों करके, करना। रोब में ग्राना-अातंक में श्राना, कठिनता से, धीरे धीरे । रोना-गाना--.. भय मानना, रोब के वश हो ऐसा काम गिडगिडाना, विनती करना । बुरा मानना, करना जो साधारणतया न किया जाये। मात्र या दुख करना, चिढ़ना। संज्ञा, पु०... (वहरे से) वटपकना-प्रभाव या महत्व खेद, दुख, रंज । वि. स्त्री० रानी! प्रगट होना । चेहरे पर) रोब श्रानावि० पु०-रोउना (ग्रा०) चिड़चिड़ा, मुहमी, क्रांति या प्रतिमा आना । (किसी को) रोने वाले का सा, थोड़ी सी बात पर राव में लाना-प्रभाव या अातंक के भी रने वाला, सेवासा (दे०)। द्वारा श्राधीन करना। रोचक जाना-- मोरक--संज्ञा, पु. (सं०) लगाने, जमाने या अातंक जम जाना। रोब जाना-पातक खड़ा करने वाला। नष्ट होना। रोपण --- संज्ञा, . (सं०) स्थापित करना, रोबदार-वि० (अ० रोब - दार-फा०-प्रत्य०) जमाना लगाना बैठाना (बोज या पौधा) तेजस्वी, प्रभावशाली, रोबदाब वाला, ऊपर रखना, माहित करना, मोहना । रोबोला । रोबीला--वि० (हि.) रोबदार । वि० गापाय, रोपित राय। रोमय-संज्ञा, ६.० (सं० ) पागुर, पगुराना, रोपना-स० कि० द० (रा० शेषण) लगाना, चबाये को फिर चबाना बैठाना. जमाना, दूसरे स्थान पर एक स्थान रोम--- सज्ञा, पु० (सं० रोमन ) रोवाँ, लोम, से उखड़े पौधे का जमाना, स्थापित करना, देह के बाल, रोयौं । " रोम रोम पर टहराना अडाना, बोना. लाकना, रोकना, वारिये, कोटि कोटि ब्रह्मड '--रामा० । मोड़ लेना, लेने के लिये हथेली आदि सामने महा..रोम रोम में-- सारे शरीर में, करना । "सभा मध्य प्रण करि पद रोपा" । देह भर में। शाम से---तन-मन से, - रामा० । संज्ञा, पु० (दे०) व्याह में नाई- पूर्ण हृदय से । छेद, छिद्र, सूराख्न, पानी, द्वारा लाया गया हल्दी मिला चावलों का जल, ऊन, हम एक नगर ( इटली ) एक गीला पाटा। प्राचीन राज्य । रोपना--- संज्ञा, स्त्री० दे० (हि० रोपनी) बोधाई, रोमक- संज्ञा, ६० (सं०) रोम नगर-निवाली, धान आदि के पौधों के गाड़ने का कार्य ।। । रोमन, रोम नगर या देश का. रोमन। रोफिन - वि० (सं.) लगाया या जमाया रोप संज्ञा, पु० यौ० (सं०) रोवों के हुया, स्थापित या रखा हुआ, भ्रांत, मुग्ध, | छेद, रामरत्र, लामाद्र । न रोम-कूपौधा मोहित, श्रारोपित मिषाजगत्कृता कृताश्च किं दूषण-शून्य रोप्य--वि० (स.) रोपणीय, रोपने-योग्य । विन्दवः''-- नैषध । रोमा--- संज्ञा, 'पु. (सं.) गाड़ने था लगाने- महार . संज्ञा, पु० यौ० (सं०) रोवों के वाला, रोपण-कर्ता, रोपने या जमाने वाला। छिद्र या छेद, राम-दि। रोक-संज्ञा, पु० (अ० रुपब) श्रातंक, प्रभाव, रामन-वि० (प.) रोम का रोम की महत्व, धाक, दबदबा, प्रताप, अभाव दे०) भाषा या लिपि. हिन्दी शब्दों को ज्यों का वि० ---गवीला, रावदार । चौ० --राव- त्यो अंग्रेज़ी लिपि में लिखने की रीति । भा. श. को ०.---१८१ For Private and Personal Use Only Page #1517 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org रोमपाट रोमपाट - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) ऊनी कपड़ा । रोमपाद - संज्ञा, पु० (सं०) अंग देश के प्राचीन राजा । रोमराजी - संज्ञा स्त्री० यौ० (सं०) रोमावलि, लोम-पंक्ति, शेवों की पाँति, रोमाली । रोमलता - संज्ञा, स्रो० यौ० (सं०) रोमावलि, रोम-पंक्ति, लोमलता, रोमवल्लुरो । रोमहर्षण - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) लोमहर्षण, प्रेम, आनंद, भय, विस्मयादि से शरीर के रोवों का खड़ा होना, रोमाञ्च । वि० भयंकर, भीषण । वभूवयुद्धम् प्रति रोमहर्षणम्" - स्फु० । 46 १५०६ रोमांच - संज्ञा, पु० (सं०) प्रेम, आनंद भयविस्मयादि से रोंगटे खड़े हो जाना, पुलकावली छाजाना। वि० रोमांचित । रोमांचित - वि० (सं०) पुलकावली-युक्त, रोंगों के उभार से युक्त | रोमावलि - रोमावली -संज्ञा, त्रो० यौ० (सं०) रोम-पंक्ति, लोम-पंक्ति, रोम-राजी, रोमाली, नाभि से ऊपर जाने वाली रोवों की पंक्ति । रोयाँ - संज्ञा, पु० दे० ( सं० रोमन ) प्राणियों के देहों के बाल, रोम, लोभ, रोवाँ (दे०) । मुहा० - रोयाँ खड़ा होना - प्रेम, आनंद या भयादि से पुलकावली थाना । रोयाँ टेढ़ा होना या करना (बाल बाँका होना ) - हानि होना या करना । रोयाँ पसीजना - दया श्राना, तरस लगना । रोर - संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० खण ) रौरा ( ग्रा० ) कोलाहल, शोरगुल, हुल्लड़, हल्ला, बहुत लोगों के रोने-चिल्लाने का शब्द, उपद्रव बखेड़ा, हलचल, (०) गरजना | वि० उद्धत, उपद्रवी, तुट, प्रचंड, उद्दंड, दुर्दमनीय ! रोरा-रोड़ा-संज्ञा, पु० दे० ( हि० रोड़ा ) ईंट या पत्थर का टुकड़ा, बड़ा कंकर । रोरी- संज्ञा स्त्री० दे० (हि० रोली) रं ली संज्ञा, स्त्री० दे० ( हि० शेर ) धूमधाम, रोशनदान TANNIENS चहल पहल | वि" स्री० दे० ( हि० हरा ) रुचिर, सुन्दर, मनोहर, रूरी । 1 गेल - संज्ञा, स्रो० दे० ( सं० रवण ) शेर, हल्ला शोर-गुल, कोलाहल, ध्वनि | संज्ञा, पु० पानी का तोड़, बहाव, रेला, सड़ी सुपारी । रोलना -- स० क्रि० (दे०) बराबर या चिकना करना, चिकनाना, लुढ़काना ! रोला-रौला - संज्ञा, पु० दे० (सं० रावण ) शेर, शोर, रौरा (ग्रा० ) कोलाहल, हल्ला, घमासान लड़ाई | संज्ञा, पु० (सं०) २४ मात्राओं का एक मात्रिक छंद, काव्य छेद ( पि० ) "शेला अथवा काव्य छंद ताको कवि भाखै ” --- स्फु० । रोली संज्ञा स्त्री० दे० (सं० रोचनी) हल्दी और चूने से बना लाल चूर्ण, जिससे तिलक लगाते हैं, श्री, रोरो (दे०) । बोवना -- संज्ञा, पु० (दे०) रोदन, रोना । स० क्रि० (दे०) रोना। स० रूप०-गवाना Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रुजाना । रोवनहार- रोपनिहारक संज्ञा, पु० दे० ( हि० रोना + हार - प्रत्य० ) रोने वाला, रावनहारा, रावनिहारा । रोवनी श्रीवती जी धोनी - संज्ञा, स्त्री० यौ० दे० (हि० रावना -+ धारना, राना + वाना) शोक वृत्ति, मनहूसी वि० स्त्री० - शोकवृत्ति वाली मनहूसिनी, रोने-धोने की वृत्ति वाली । रोवास - संज्ञा, स्त्री० दे० रोने की इच्छा | वासा - वि० दे० ( हि० रोना ) वह पुरुष जो रोना चाहता हो । स्त्री० सेवासी । रोशन - वि० ( फा० ) प्रकाशित, प्रदीप्त, प्रकाशमान, जलता हुआ, प्रसिद्ध, विख्यात, विदित प्रकट | रोशन चौका- संक्षा, स्त्री० ( फा० ) शहनाई बाजा, नकीरी ( फ़ा० ) । रोशनदान संज्ञा, पु० ( फा० ) खिड़की, झरोखा, गवान, मोखा, प्रकाशार्थं छिद्र For Private and Personal Use Only Page #1518 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रोशनाई १५०७ रौनी रोशनाई-संज्ञा, स्त्री० (फ़ा०) मसि, लिखने । रात--संज्ञा, स्त्रो० दे० (सं० रोहिष) एक की स्याही, प्रकाश, रोशनी, तेल, घी, प्रकार की बड़ी मछली । चिकनाई। रौंद--संज्ञा, स्त्री० दे० (हि० रौंदना) रौंदने की रोशनी --- संज्ञा, स्त्री. ( फा० ) प्रकाश, क्रिया या भाव । संज्ञा, स्त्री० दे० ( अं० उजाला, दीपक, ज्ञान-प्रकाश दीप-राशि का राउंड ) चक्कर, गश्त, घूमना । प्रकाश। रोदना-स० कि० दे० ( सं० मर्दन ) पाँवों रोष-संज्ञा, पु० (सं०) कुढ़न, कोप, क्रोध से कुचलना या मर्दित करना । स० रूप - चिढ़, विरोध, बैर, पाबंश, जोश, युद्धोमंग, रोंदाना, प्रे० रूप-रौंदावना, रोंदवाना। " गुनहु लखन कर हम पर रोपू".---शमा०। रौ-संज्ञा, स्त्री० [फा०) चाल, वेग, झोंक, रोषी--- वि० ( सं० रोयिन ) क्रोधी। गति, पानी का बहाव या तोड़, चाल, रोस--संज्ञा, पु. द. ( सं० रोप ) कोप, प्रवाह, किसी बात की धुनि, झोंक, ढंग । क्रोध, रिस, रोष। *t- संज्ञा, ४० दे० (सं० रख) शब्द । रोह--- संज्ञा, पु० (दे०) बनरोज, रोझ, नील रोगन-संज्ञा, पु० दे० ( फा० रोगन ) तेल, चिकनाई, पालिश, वारनिश , गाय । संज्ञा, पु० (सं०) बढ़ना, उगना, रौजा -- संज्ञा, पु. (अ.) समाधि, कब, ऊपर चढ़ना। समाधि का स्थान। रोहज-संज्ञा, पु० (दे०) नेत्र, आँख । रौताइन-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि० रावत ) रोहण --संज्ञा, पु. (सं०) प्रारोहण, चढ़ना, रावत या राव की स्त्री, ठकुराइन । चढ़ाई, ऊपर बदना, पौधा का उगना और रौताई- संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. रावत --- बढ़ना, सवार होना। वि० राहगीय रोहित।। आई - प्रत्य० ) रावत या राव का भाव, रोहना* -- अ. क्रि० दे० ( सं० हगण ) ! सरदारी, ठकुई, रोतई (दे०) चढ़ना, सवार होना, ऊपर को जाना । स० सैद- वि० सं० ) रुद्र-संबंधी, भयंकर, क्रि०-चढ़ाना, धारण या सवार पराना, डरावना, क्रोध-भरा, प्रचंड । संज्ञा, पु. ऊपर करना। काव्य के नौ रलों में से एक रस जिसमें रोहिणी--- संज्ञा, स्त्री० (सं०) बिजली गाय, क्रोध-सूचक शब्दों से भावनाओं और वसुदेव की पत्नी और बलराम जी की माता, चेयाओं के वर्णन हों, ११ मात्राओं के चौथा नक्षत्र, ६ वर्ष की कन्या ( स्मृति ). मात्रिक छंद ( पिं० ) एक अस्त्र (प्राचीन)। रोहिनी (दे०)। " पोछति बदन रोहिणी रोडार्क- संज्ञा, पु. ( सं०) २३ मात्राओं ठाढ़ी लिये लगाय अंकोरे।" सूर० । " पंच के मात्रिक छंद । पि0) वर्षा भवेत्कन्यानववषां च रोहिणी'। रोध- संज्ञा, पु० (दे०) चाँदी, धातु विशेष । रोहित-वि० (सं०) रक्त वर्ण का. लोहित । रौन--संज्ञा, पु० दे० (सं० रमण) स्वामी, संज्ञा, पु० -रोहू मछली, लाल रंग, एक पति। संज्ञा, पु० वि० (दे०) रमणीय । “गौन प्रकार का हरिण, कुंकुम, इन्द्र-धनुष, केसर, रौन रेती सोंदापि करते नहीं" अश। रक्त, लोहू । वि० (सं० रोहण) चढ़ा हुआ। रौनक - संज्ञा, स्त्री० (अ०) प्रफुल्लता, श्राकृति रोहिताश्व--संज्ञा, पु० (सं० ) अग्नि, राजा और वर्ण, दीप्ति, काँति, विकास, सुषमा, हरिश्चन्द्र का पुत्र। “हाय बम हा शोभा, छटा, रूप, मनोहरता । रोहितास्व कहि रोक्न लागे"-हरि० । रोना-संज्ञा, पु० दे० ( हि० रोना ) रोना । रोही-वि० (सं० रोहिन् ) चढ़ने वाला। संज्ञा, रोनी* - संज्ञा स्त्री० दे० (सं० रमणी) रमणी, पु० (दे०) एक हथियार । स्त्री. रोहिणी।। सुन्दरी, स्त्री, नवनी (दे०)। For Private and Personal Use Only Page #1519 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रौप्य wom e no nesteporme r aamRONamaARADUROOPINESS १५०८ लंगर रौप्य-संज्ञा, पु. (सं०) चाँदी, रूपा । वि० गैला-संज्ञा, पु० दे. ( सं० रवण) शोरगुल, रूपे या चाँदी से बना हुआ। हल्ला, हुल्लड़, भम्भर, धूम ! रौरव-वि० (सं०) भयंकर, भयानक, गैलिए--संज्ञा, स्त्री. (दे०) चपत, थप्पड़, बुरा । संज्ञा, पु.--एक भयंवर नरक ।। चपेटा, चपेट, धौल। रौरा-रौला-संज्ञा, पु. (हि० रौला) गुल रोशन -वि० दे० ( फा० रोशन ) प्रदीप्त, प्रकाशित, विदित, विख्यात । शोर, हल्ला, धूम, भम्भार । 'रौला है मच गौस - संज्ञा, स्त्री. द. (फा० रविश) चाल, रहा सब तरफ रौलट बिल का"--मैश० । गति, रंग-ढङ्ग, तौर-तरीका, चालढाल, सर्व० (ब्र० रावर ) श्रापका । स्त्री० रौरी बाग में क्यारियों के बीच का मार्ग । रौराना-स० क्रि० दे० (हि० रोरा) बकना, बहाल--संज्ञा, स्त्री० (दे०) घोड़ा की एक क्रंदन या प्रलाप करना । जाति या चाल। रौरे-सर्व दे. ( हि राव रावल ) आप के रोहिगाव - एंज्ञा, पु. ( सं०) बलदेव जी, (संबोधन) श्राप । “ रोरेहि नाई"-रामा०। बलभद्ग, रोहिणी के पुत्र । ल-संस्कृत और हिंदी की वर्णमाला के राक्षसी ( रामा० ) । " नाम लंकिनी एक अन्तस्थों में से तीसरा वर्ण इसका उच्चारण । निशचरी '' -रामा. स्थान दंत है। " लुतुलसान म् दंतः-" लंकेश-लंकेश्वर -- संज्ञा, पु० यौ० (सं०) सि० कौ० । संज्ञा, पु० (स०) भूमि, इंद्र।। रावण, विभीषण। लंक-संज्ञा, स्त्री० (सं०) कटि, कमर, मध्य लंग--संज्ञा, खो० दे० ( हि० लांग ) ताँ देश । " बारन के भार सुकुमार की लचत (दे०) धोती का वह खंड जो पीछे की थोर लंक' -पद। संज्ञा, स्त्री० दे० सं० लंका) खोसा जाता है, काँक। संज्ञा, पु. (फ़ा०) लंका नामक द्वीप ।" मानमयो गढ़ लंक- लँगड़ापन । पती को"-- तुल. लंगड - वि० दे० (हि. लँगड़ा ) वह पुरुष लंकनाथ, लंकनायक-ज्ञा. पु० यौ० जिसका एक पाँव टूटा हो, लँगड़ा । संज्ञा, (हि. लंक- नाथ,नायक) रावण, विभीषण । पु० (दे०) लंगर । लंकपति, लंकपती (दे०)- संज्ञा, पु० (हि. लँगडा ----वि० दे० 'फा, लंग! जिसका एक लंक- पति-सं० ) रावण, विभीषण । | पाँव निकम्मा या टूटा हो । स्त्री० लँगडी। लंकलाट--संज्ञा, पृ० दे० (अं० लाँगकाथ) लँगड़ाना----अ० कि. (हि. लँगड़ा) लंग एक बढ़िया सफेद मोटा सूती वस्त्र: करने करते चलना, लंगड़ा होकर चलना । लंका-संज्ञा, स्त्री. (सं०) सीलोन (अं) लँगडो---संज्ञा, स्त्री० (हि. लंगड़ा) एक छंद भारत के दक्षिण में एक द्वीप जहाँ रावण (पिं०)। वि० स्त्री० टूटे पैर वाली । यौ०-- का राज्य था। " तापर चढ़ि लंका कपि लँगडी भिन्न- एक भिन्न (गणित)। देखी"- रामा०। नंगा --संज्ञा, स्रो० पु० (दे०) ढीठ व्यक्ति या लंकापति, लंकाधिपति--संज्ञा, पु० यौ० स्त्री । “दौरि पुरुष के गल परै, ऐसी सं०) लंकानायक, रावण, विभीषण। लंगर ढीठ।" संज्ञा, पु. (फ़ा० लोहे का एक लंकिनी- संज्ञा, स्त्री० (सं०) लंका की एक बड़ा काँटा जो नावों और जहाजों के ठहराने For Private and Personal Use Only Page #1520 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir लँगरई, लॅगराई लंबी में काम देता है, ठंगुर प्रान्ती०), दुष्ट ! लंठ--- वि० दे० यौ० (हि० लक) उजड्डु, मूर्ख, गायादि पशुयों के गलों में बाँधने का लकड़ी जाहिल, जड़, ला (दे०) । यौ०-लंठराज, का कदा, लोहे की मोटी भारी जजीर, लटकने लंडाधिराज-जड़, मूर्ख । वाली भारी वस्तु, चौंदी का तोड़ा या पायल लंडूरा वि. ( दे. या सं० लाँगूल ) पंछकपडे की कच्ची मिलाई के बड़े या दर दर कटा पक्षा टाँके, नित्य दरिद्रों को बाँटने का भोजन, लंतरान:--संज्ञा, स्त्री० (अ०) शेखी व्यर्थ दीनों को भोजन तथा उसके बाँटने का स्थान, की बड़ी बड़ी बातें। पहलवानों का लँगोट । वि०-भारी, वज़नी, लंपट-वि० (सं०) कामी, विषयी व्यभिचारी, नटखट, ढीठ : "लरिका लेवे के मिमन. लंगर मों कामुक । ज्ञा, स्त्रीलंपता। 'लोलुप लंपट कीरति चाहा'...--रामा० । दिग अाय'.--.वि० : यौ० -नोहा-लंगर लंपटता-संज्ञा, स्त्री. (सं०) कामुकता, बचा बचाया, रही सामान । मुहागर दुराचार, व्यभिचार, कुकर्म । करना -- बदमाशी या शरारत करना । लंब-संज्ञा, ४० (सं.) किसी रेखा पर खड़ी संज्ञा, स्रो०-गरमाना--रद्दी सामान होकर दोनों ओर सम-कोण बनाने वाली का स्थान, कबाड़खाना। रेखा, एक राक्षस जिसे कृष्ण जी ने मारा लंगई, लँगराई --- ज्ञा, स्त्री० (हि० लंगर था (भा०), पति, अंग । वि० (सं.) लंबा ! - आई-प्रत्य०) ढिठाई. पृष्टता, दुष्टता। संज्ञा, पु० (स.) विलंब, बेर । लंगूर ----संज्ञा, पु० दे० सं० लांगूल ) बंदर. लंबकर्ण-दि. यौ० (सं.) गदहा, गधा दुम, पंछ ( बानर की), बड़ी पूंछ वाला जिसके कान लंबे हों, खरगोश । काले मुह का. एक बड़ा बंदर। लंबग्रीव- संज्ञा, पु. यौ० (२०) क्रमेला ऊँट । लैंग्रहाल--- संज्ञा, पु० दे० ( हि० नारियल) लंब-डंग- वि० दे० यौ० (सं० लंब+ ताड़ नारियल। __-!- अंग जो ताड़ के समान बहुत लंबा हो, लगा-- सज्ञा, पु० द० स० लागृल) पूछ। (दे०) लंबातडंगा । स्त्री० लंबी-तड़गा। लँगोट, लँगोटा-संज्ञा, पु० दे० (सं० लिंग लंबा--- वि० दे० (सं० लंब) जो एक ही दिशा ---.प्रोट-हि० उपस्थ तथा गुदा हूँ कने का में बहुत दूर तक चला गया हो, विशाल, कमर पर बाँधने का छोटा वस्त्र, कोपीन, बड़ा, दीर्घ, अधिक ऊँचाई या विस्तार का रुमाली । श्री. मोटी। गो-मोट (समय)। म्ली. लंबी । (विलो०-चौड़ा) वंद-ब्राह्मचारी स्त्री त्यागी । महा.-लंबा करना---चलता या श्वाना लैंगोत्रीज्ञा . स्त्री० ० (हि० लँगोट ) करना, पृथ्वी पर पटक या लेटा देना। कौपीन, कछनी काँका, समई (प्रान्ती : लंबा होना--लेट जाना, चला या भाग मुहा.... लगोटिया हार - लड़कपन का जाना लंबी तानना-वेग से चलना, मित्र । लँगोटीरालना भाग जाना, खूब सो जाना। अपव्यय या फ़ज़ल खनी वरना, सामर्थ्य से लंबाई -- संज्ञा, स्त्री० (हिं० लंबा) लंबापन । अधिक व्यय करना। लंबान-संज्ञा, स्त्री० (हि० लंबा) लंबाई । लंघन.---.संज्ञा, पु० (सं०) उपवास, निराहार, लंबित - वि० सं०) लंबा। फ़ाका (फा०) लाँधने की क्रिया, फाँदना, लंबा-- वि० स्त्री. (हि० लंबा) लंबा का स्त्री डाँकना, अतिक्रमण । वि०- लंधनीय। लिंग रूप । पहा०-लंबी ताननालंघना* --.अ. क्रि० दे० (हि. लांघना) श्रानंद से लेट कर सोना, वेग से चला नाँधना, फाँदना। जाना, भाग जाना। For Private and Personal Use Only Page #1521 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org लंबोतरा लंबोतरा वि० दे० (हि० लंबा ) लंबे श्राकार वाला, जो लंबा हो । १५१० TO 3 MTERIAN KÖZMEN लंबोदर - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) गणेश जी, "लंबोदरम् मूषक वाहनञ्च " -- स्फुट० । लंबोट -- संज्ञा, पु० (सं०) ऊँट | लंभन -- संज्ञा, पु० (सं०) कलंक, प्राप्ति । लउटी - संज्ञा, खो० दे० (हि० लकुटि, लकुटी ) छड़ी, लाठी । पु० लाउट | लकड़बग्घा -संज्ञा, पु० दे० यौ० ( हि० लकड़ी + बाघ) भेड़िये से कुछ बड़ा एक मांसाहारी बनैला जंतु । लकड़हारा, लकड़िहारा - संज्ञा, पु० दे० ( हि० लकड़ी + हारा प्रत्य० ) वन से लकड़ी लाकर बेचने वाला । लक्षित PEDA DI NOMOR लकुटिया, जसुमति डोलै थोरो थोरो रे भैया करहु सहारो "- ला० दा० । लकुटी - संज्ञा, खो० सं० लगुड़) छोटी लाठी, दंडा, छड़ी । " या लकुटी श्ररु कामरिया पर " लकड़ा - संज्ञा, पु० दे० ( हि० लकड़ी) लकड़ी का मोटा कुंदा, लक्कड़ (दे० ) । लकड़ी - संज्ञा, खो० दे० (सं० लगुड़ ) काष्ठ, काठ, ईंधन, गतका, लाठी, छड़ी, लकरी (दे० ) । मुहा०-( सूखकर ) लकड़ी होना बहुत दुर्बल होना, सूख कर कड़ा हो जाना । लकदक - वि० (ग्र०): घटिपल मैदान, वह मैदान जिसमें वृत्तादि न हों. साफ़, चमकदार | लब - संज्ञा, पु० ( ० ) उपाधि खिताब । लकवा - संज्ञा, पु० ( ० ) एक बात - व्याधि जिसमें प्रायः मुँह टेढ़ा हो जाता है । लकसी संज्ञा स्त्री० (दे०) फल तोड़ने, की लगी । लकीर - संज्ञा, पु० दे० (सं० रेखा, हि० लीक) रेखा ख़त, दूर तक एक ही सीध में जाने वाली प्राकृति, धारी, सतर, पंक्ति । मुहा० -लकीर का फकीर - पुराने ढंग पर चलने वाला, "प्ररुन लकीर को फकीर बनो बैठो है" रसाल । लकीर पीटना बे समझे पुरानी रीति पर चलना । लकुच - संज्ञा, पु० (सं०) बड़हर | संज्ञा, पु० दे० (हि० लकुट) छड़ी । लकुट, लकुटी, लकुटिया - संज्ञा स्त्री० दे० (सं० लगुड़) छड़ी, लाठी, लकड़ी । • लिहे Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - रस० । लक्कड़, लकर संज्ञा, पु० दे० (हि० लकड़ी) काठ का बड़ा कुंदा | लक्का --- संज्ञा, पु० (अ०) पंखे जैसी पूँछ वाला, एक तरह का कबूतर | लक्की - वि० दे० (हि० लाख ) लाख या लोहे के रंग का लाखी। संज्ञा, पु० - घोड़े की एक जाति | संज्ञा, पु० दे० ( हि० लाख. सं०-लक्ष == संख्या) लखपती । लव- वि० (सं०) शन सहस्र, एक लाख, सौ हज़ार | संज्ञा, पु० (सं०) एक लाख की संख्या- सूचक अंक, शत्र के संहार का एक प्रकार. निशाना, लक्ष्य | लक्षक - संज्ञा, पु० (सं०) दर्शक, देखने या दिखाने वाला, बताने वाला । चन्ता-संज्ञा, ५० (सं०) नाम, चिह्न, निशान, थासार, किसी वस्तु की वह विशेषता जिससे उसकी पहिचान हो, परिभाषा, शरीर के रोगादि-सूचक चिह्न शुभाशुभ-प्रदर्शक शारीरिक या ांगिक चिह्न ( सामु० ) शरीर का विशेष काला दाग़, लक्खन, बच्चन (दे०) चाल-ढाल, तौर तरीका | लक्षणा -संज्ञा स्त्री० (सं०) अभिप्राय या तात्पर्य-सूचक शब्द-शक्ति. (काव्य), लच्छना (दे०) । लत्तना - संज्ञा, स्त्री० ६० (सं० लक्षण) लच्छना (दे०), लक्षणा । स० क्रि० दे० (हि० लखना) लखना, देखना | लति--संज्ञा, स्त्री० दे० (सं०) लक्ष्मी) लन्त्रि (दे०) लक्ष्मी ! 'बमति नगर जेहि लक्षि करि, कपट नारि वर वेश" - रामा० । संज्ञा, पु० (दे०) लक्ष्य | लक्षित - वि० (सं०) निर्दिष्ट, देखा या देखाया या बतलाया हुआ, अनुमान से जाना या For Private and Personal Use Only Page #1522 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir लक्षित लक्षणा लखाउ, लखाऊ समझा गया । संज्ञा, पु. लक्षणा-शक्ति के लक्ष्मीवाहन-संज्ञा, पु. यौ० (सं० उल्लू, द्वारा ज्ञात शब्द का अर्थ । यौ०-लक्षिलार्थ । वि० (सं०) भूर्ख धनी (व्यंग्य)। लक्षित लक्षणा--- संज्ञा, स्त्री० यौ० सं०) एक लक्ष्य .. संज्ञा, पु. (सं.) उद्देश्य, निशाना, प्रकार की लक्षणा (काव्य) अभीष्ट वस्तु, जिग्नपर कोई प्राक्षेप किया लतिता--संज्ञा, स्त्री० (सं०) प्रकटित परकीया जाय, शब्द का वह अर्थ जो लक्षणा-द्वारा नायिका अर्थात् जिनका अन्य पुरुष के | ज्ञात हो (काव्य०), अस्त्रों का संहारप्रकार । प्रति-प्रेम दूसरों पर प्रगट हो (मा०)। लक्ष्यभेद---ज्ञा पु० यौ० (सं०) उड़ते या लनी - संज्ञा, स्रो० (सं.) आठ रगण वाले चलते हुए लचय के भेदने का निशाना । वि. चरण का एक वर्णिक छंद ( पि० ), खंजन । लक्ष्यभेदी। गंगाधर । लक्ष्यवेधी ज्ञा, पु० सं० निशाना लगाने लक्ष्म--संज्ञा, पु० (सं०) चिन्ह निशान, अंक, या लचय भेदने वाला। "लक्ष्म लघमों तनोति"--- रघु। लक्ष्यार्थ --संक्षा, पु० यौ० (सं०) शब्द की लक्ष्मगा ज्ञा, 'पु० (सं०) सुमित्रा से उत्पन्न लक्षणा-शक्ति से प्रगट होने वाला अर्थ राजा दशरथ के पुत्र श्रीराम जी के छोटे ( काव्य.), उद्देश्यार्थ । भाई, जा शेरावतार माने जाते हैं लक्षण ल --- संज्ञा, पु. द. (सं० लक्ष, प्रत्यक्ष, चिह्न, निशान, लपन, लखन, जखन (द०)। माथा का प्रण, लाख, ला, लाख संग्या ! लक्ष्मण स----सज्ञा, स्त्री० (सं०) श्रीकृष्ण जी "लख चौरानी भरम गँवाया।" की पटरानी, श्रीकृष्ण के पुत्र साम्ब की स्त्रीलमधर ---संज्ञः, पु० दे० यौ० (सं० लाक्षागृह) जो दुर्योधन की पुत्री थो, सारन पली की लाख का धर । मादा, सारमी, एक प्रौषधि विशेष वैद्य०)। हवन --संज्ञा, पु० द० ( सं० लक्ष्मण ) लक्ष्मी संज्ञा, स्वी० (सं०) सागर-तनया, लक्ष्मण जी, लखन, लपन (दे०) । विष्णु-प्रिया तथा धन की अधिष्ठात्री देवी "सखि जाम राम-लखन कर जोटा"-रामा० । ( पुरा० ) रमा, कमला, रामा, संपति, संज्ञा, स्त्री० (दि. लखना ) देखने या लखने शोभा, सौंदर्य, दुगा, श्री, कांति, एक की क्रिया या लाव । वि० लखनीय। वणिक छंद जिनमें, दो रगण, एक गुरु और लखना-स० क्रि० दे० ( सं० लक्ष ) देखना, एक लघु वर्ण होता है । प्रा- छंद का ताना, लक्षण देखकर अनुमान करना, प्रथम रूप (पि०), गृह स्वामिनी, छवि, विचारना । स० रूप-लखना, प्रे० रूप--- लदिभ, लाहसी, लच्छिमी, (दे०)। लखचाना। लक्ष्मीकांत --- संज्ञा, पु० यौ० (सं०) विष्णु लखपति- पती--संज्ञा, पु० दे० यौ० भगवान, रमाकांत, रमापति । (सं० लक्ष पति ) वह धनी जिसके यहाँ एक लक्ष्मीधर --- संज्ञा, उ० (१०) विष्णु भगवान, । लाख रुपये सदा तैय्यार रहें। स्रग्विणी वृत्त । पि.)। लबताया--- संज्ञा, पुं० [फा०) भूर्जा मिटाने लक्ष्मीनाथ, लक्ष्मी-नायक --- संज्ञा, पु० वाली एक सुगंधित औषधि । यो० (सं०) विष्णु भगवान, रमेश । लावलम्बाना--- अ० क्रि० (दे०) हाँफना। लदा .---.झा, मुयो० (सं०) विष्णु लाजलुट, नायलट --- वि० दे० यौ० (हि. भगवान, लोपाल (दे०)। लाख । लुटाना फ़ज़ल-खर्च, अपव्ययी, बदमापुत्र-- वि० यौ० (सं०) धनी, धनवान। ख़र्चीला, उड़ाऊ। लदीवान--संज्ञा, पु० (सं०) धनी, धनवान। लखाउ, लखा*---संज्ञा, पु० दे० (हि. For Private and Personal Use Only Page #1523 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir लखाना लगना MPIANOARORISMugaamerIVECEIVEramaRIHARASHKESHBOSHDOEARIDDENADURIKIS लखना ) लक्षण, चिन्ह, पहचान, लखने या लों (व०, जगे (ग्रा.) : " जहँ लग नाथ जानने-योग्य, चिन्हारी---चिन्ह-रूप में नेह अरु नाते"--- रामा० । संज्ञा, स्त्री. ---- दिया पदार्थ प्रेम, लगन, लाग, लो। अव्य०-हेतु, लिये, लखाना ---अ०क्रि०दे० हि. लखना) दिखाई । वास्ते, संग, साथ। पड़ना । स० क्रि०-दिखलाना, समझाना । लगतना --अ० क्रि० दे० यौ० (हि.) लखाच* -- संज्ञा, पु० दे० (हि. लखाउ ) साथ साथ चलना, पास जाना। लक्षण, चिन्ह, पहचान । लगड-संज्ञा, पु० (दै०) पनी विशेष, बाज । लश्चिमी* --- संज्ञा, स्त्री० दे० सं० लक्षी) लगड़बग्घा ... संज्ञ, पु० दे० (हि० लकड़ बाघ) रमा, कमला, संपत्ति, छिपी, लच्छिमी लकड़बग्घा । लगम --कि० वि० दे० (दि. लगभग : लखिया*--संज्ञा, पु० दे० (हि. लखना। लगभग, निकट करीब । इया-प्रत्य०) लखने या देखने वाला, लक्षक ! लगन संझा, वं. द. (हि. लगना। लखी--- सज्ञा, पु० दे० ( हि लाखी ) लाख प्रवृत्ति, धुन, रुचि, किसी घोर ध्यान लगने के रंग का घोड़ा, लाखी, लस्सी (दे०)। की क्रिया, लौ, स्नेह, प्रेम, संबंध, चाह. लखेरा--संज्ञा, पु० दे० (हि० लाख -+ एरा- लगाव । गुहा नगन लगना जाना) प्रत्य० ) लाख की चूड़ी बनाने या बेचने --- प्रेम होना (करना) । लगने जाना-- वाला। स्री० लखेरिन । विवाह की लदा पत्रिका का वर के यहाँ पढ़ा लखोट----संज्ञा, स्त्री० दे० (दि० लाख । प्रोट- जाना और बर का तिलक होना । संज्ञा. पु. प्रत्य० ) लाख या लाह की चूड़ी। दे० (सं० लग्न, व्याह की साइत या मुहूर्त, लखोटा-संज्ञा, पु० दे० (हि० लाख - प्रोटा- विवाहादि के होने के दिन, महारग, प्रत्य० ) केसर, चंदनादि से बना शरीर में महावण प्रान्तः), लग्न, मुहर्त्त । सज्ञा, लगाने का अंगराग या सुगधित नेप, संदुर पु० फा०) एक प्रार की बड़ी थाली लगन दानी, लाख की बड़ी चूड़ी। महरत, जोग बल".-- तु० । " लगन लखोरा... वि. दे० (हि० लाख । औरा- लगाये तुम मगन बने रहो .... पाल । प्रत्य० ) लाख या लाह से बना हुधा । मानना --- संता, मो. यो० (सं० लमत्रा ) लखोरी--संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. लाख+ व्याह की निश्चित तिथि स्मृधक. वर के औरी-प्रत्य. ) लाख था लाह से बनी हुई। यहाँ भेजी हुई कन्या के पिता की चिट्ठी। वस्तु । संज्ञा, स्त्री० दे. (हि. लाखा + ग्रौरी- लमनवट --- संज्ञा, स्त्री० दे० (दि. लगन) प्रत्य०) एक प्रकार की भ्रमरी या भुंगी का घर. प्रेम, स्नेह, प्यार, चाह : शृंगी कीड़ा, एक छोटी, पतली ईंट, नौरही लाना-अ० कि० दे० ( सं० लग्न ) सटना, या (शान्तीका संज्ञा, श्री. दे. दो वस्तुओं के तलों का परस्पर मिलना, ( सं० लक्ष ) किसी देवता को उसके प्रिय जुडना, मिलना, दो वस्तु का चिपकाया वृक्ष की एक लाख पत्तियाँ पा फल चढ़ाना! टाँका (सिया) या ना जाना, सम्मिलित लगंत-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. लगना - अत- या शामिल होना, कम से या या सजाया प्रत्य० ) लगने या लगन होने की क्रिया का जाना, छोर या किनारे पर पहुँच कर टहरना, भाव। टिकना या किना, व्यय या खर्च होना, लग, लगि क्रि० वि० दे० (हि. ७० लौं) । जान पड़ना, ज्ञात होना, स्थापित होना, पर्यत, तक, ताई, निकट, समीप, पास, श्राधात या चोट पड़ना, रिश्ते या संबंध For Private and Personal Use Only Page #1524 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org लगनि में कुछ होना किसी वस्तु का चुनचुनाहट या जलन उत्पन्न करना, खाद्य वस्तु का बरतन के तल में जम जाना, प्रारंभ होना, चलना या जारी होना, प्रभाव या असर पड़ना, सड़ना, गलना, " प्राप्त होना, रहना । जैसे भूत, भेड़िया लगना. हानि करना । स० रूप-लगाना. प्रे० रूप-लगावना, लगवाना । लागे श्रति पहार कर पानी" - रामा० । मुहा०लगती बात कहना- मर्मभेदी कड़ी बात कहना, चुटकी लेना। आरोप होना, हिसाब या गणित होना, साथ-साथ या पीछे-पीछे चलना. गायादि पशुओं के दूध होना या दुहा जाना, अँसना, चुभना, गड़ना, छेड़छाड़ या छेड़खानी करना, बंद होना, सुंदना, बदना या दाँव पर रखा जाना, होना, घात या ताक में रहना, पीड़ा या कष्ट देना | नोट- यह क्रिया अनेक शब्दों के साथ arat fन भिन्न अनेक अर्थ देती हैं। संज्ञा, पु० (दे०) जंगली जंतु । वि० (दे०) लगने वाला। लगनि * संज्ञा स्त्री० ० (हि० लगन ) स्नेह, प्रेम, लगाव, संबंध | १५१३ लगार = सिलसिला ) निरंतर, एक के पीछे एक, मिलित, बराबर, एक चाल, एक साँ, क्रमशः । लगान - संज्ञा, पु० ( हि० लगना या लगाना ) भूमिकर, राजस्व, सरकारी महसूल, पोत, जमाबंदी लगने या लगाने का भाव । लगाना - स० क्रि० (हि० लगना का सत्र रूप ) मिलाना, सटाना, जोड़ना, मलना, रगड़ना, चिपकाना, गिराना जमाना, पेड़ पौधे श्रारोपित करना, फेंकना क्रम से रखना या सजाना, चुनना उचित स्थान पर पहुँचना व्यय या खर्च कराना, अनुभव या ज्ञात कराना, नई प्रवृत्ति आदि पैदा करना, चोट पहुँचाना या आघात करना, उपयोग या काम में लाना, श्रारोपित करना या अभियोग लगाना, प्रज्वलित करना, जलाना, जड़ना, गणित या हिसाब करना, कान भरना, ठीक जगह पर बैठाना, नियुक्त करना । यौ-लगानाबुझाना -- लड़ाई-झगड़ा कराना, वैमनस्य करा देना । ( किसी को कुछ ) लग कर कुछ कहना ( गाली देना) -बीच में संबंध स्थापित कर कुछ आरोप करना पशु दुहना, गाड़ना, ठोंकना, धँसाना, घुलाना स्पर्श कराना, दाँव या बाजी पर रखना, श्रभिमान करना, पहिनना, श्रोदना, करना, सम्मिलित करना | नोट - लगने के समान इसका प्रयोग भी विविध क्रियाओं के साथ भिन्न भिन्न अर्थों में होता है । लगाम संज्ञा, स्त्री० ( फा० ) घोड़े का दहाना, करियारी ( प्रान्ती०), रास, बाग, दोनों ओर रस्सी या चमड़े का तस्मादार घोड़े के मुह में रखने का लोहे का कँटीला ढाँचा, तथा इसकी रस्सी या तस्मा जो सवार पकड़े रहता है । ७ लगार - सज्ञा, खो० दे० ( हि० लगना + प्रार- प्रत्य० ) नियमित रूप से कुछ देना या करना, बंधेज, बंधी, प्रांति, लगाव, संबंध, सिलसिला, लगन, क्रम. तार, भेदिया, मेली सम्बंधी । “ घर आवत है पाहुना, बनज न लाभ लगार "-- स्फुट० । लगनी - संज्ञा, स्त्री० ( का० लगन = थाली ) थाली, परात. रकाबी । वि० (दे०) लगने वाली या फबती | लगभग - क्रि० वि० ६ि० लग = पास | भगअनु० ) करीब करीब, प्रायः । लगमात -- संज्ञा, स्त्री० दे० यौ० (हि० लगना + मात्रा सं०) व्यंजनों में मिले स्वरों के सूक्ष्म रूप मात्रा | लगर - संज्ञा, पु० (दे०) लग्बड़ पक्षी | **लगलग - वि० दे० ( श्र० लकलक ) बहुत पतला-दुबला, अति सुकुमार । लगवां - वि० दे० । ० लग़ो ) अनृत, मिथ्या, झूठ, असत्य, बेकार, व्यर्थ निस्सार । लगवारों संज्ञा, पु० द० ( हि० लगना ) यार, प्रेमी, उपपत्ति | लगातार - क्रि० वि० ( हिं० लगना -+-तार भा० श० को० -१६० Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private and Personal Use Only Page #1525 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org लगालगी लगना) लगालगी — संज्ञा, स्त्री० ( हि० प्रीति, लगन, लाग, प्रेम, मेलजोल, संबंध । ' लगालगी लोचन करै ' - रही० । लगाव - संज्ञा, पु० ( हि० लगना + श्रावप्रत्य० ) संबंध, ताल्लुक, वास्ता । लगावट - संज्ञा, स्त्री० ( हि० लगना + आवटप्रत्य० ) संबंध ताल्लुक, वास्ता, प्रीति । लगावन - संज्ञा, स्त्री० दे० ( हि० लगना ) लगाव, संबंध | लगावना – स० क्रि० दे० ( हि० लगाना ) लगाना, मिलाना, जोड़ना । १५१४ - लगि — प्रव्य० दे० ( हि० लौं ) तक, पर्यंत पास | संज्ञा, स्त्री० दे० (हि० लग्गी) लग्गी, लग्घी (ग्रा० ) । लगी + - संज्ञा स्त्री० दे० ( हि० लग्गी ) लग्गी, लग्घी (ग्रा० ) | लगेँहा - वि० (दे०) सुंदर, मनेाहर, मनभावन लगु - अव्य० दे० ( हि० लों, लग ) लौं, तक, पर्यंत, लगि । लगुप्रा, लगुवा - संज्ञा, पु० दे० ( हि० लगाना ) मित्र, प्रेमी, उपपति । लगुड़ - संज्ञा, पु० दे० (सं०) लाठी, छड़ी, डंडा, लकुट लकुटी । लगूर, लगूल संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० लांगूल) पूँछ, दुम, लंगूर । लगे/- - प्रव्य० दे० ( हि० लग) पास, निकट, समीप । लगौहाँ -- वि० दे० ( हि० लगना + मौंहाँप्रत्य० ) प्रेमेच्छु, रिझवार, जगन लगाने की इच्छा वाला | लग्गा - संज्ञा, पु० दे० (सं० लगुड़ ) लम्बा बाँस, वृक्षों से फल आदि तोड़ने की लम्बी लगसी लग्घा ( ग्रा० ) | संज्ञा, पु० दे० ( हि० लगाना ) कार्यारम्भ करना । यौ० मुहा० - लग्गा लगाना । लग्गी-संज्ञा, खो० ( हि० लग्गा ) पतला लंबा बाँस जिससे फलादि तोड़ते हैं, लगसी लग्घी ( प्रान्ती० ) । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir लघुता, लघुताई लग्घड़- संज्ञा, पु० चीता, लकड़बग्घा ! लग्घा - संज्ञा, पु० दे० ( हि० लग्गा ) लंबा बाँस । स्त्री० लग्घी । Langa My ANGOLAMEN (दे०) बाज, शचान, लग्न - संज्ञा, पु० (सं०) एक राशि के उदय रहने का समय, मुहूर्त्त, शुभकार्य की साइत ( ज्यो० ), व्याह का समय या दिन, व्याह, सहारंग, सहालग, लगन (दे० ) । 'लग्न, मुहूरति, योग बल, तुलसी गनत न काहि" - तु० ! वि० (दे०) मिला या लगा हुआ, थासक्त, लज्जित | संज्ञा, पु०, स्त्री० (दे०) लगन, प्रेम, स्नेह | लग्नदिन - संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) विवाह का निश्चित दिन | लग्नपत्र - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) वह चिट्ठी जिसमें विवाह की रीतियों के लिये निश्चित समय क्रम से लिखे रहते हैं, लग्नपत्रिका | लग्नपत्रिका - संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) लग्नपत्र | " लिख्यते लग्नपत्रिका " - स्फुट० । लघिमा - संज्ञा, स्त्री० (सं०) एक सिद्धि जिससे मनुष्य बहुत ही हलका या छोटा हो जाता है, लघुत्व ह्रस्व या लघु होने का भाव । लचित्र - वि० (सं०) अति लघु या छोटा या नीच, अधम, निकृष्ट | .. 56 लघु - वि० (सं०) श्रल्प, छोटा, कनिष्ठ, शीघ्र, सुन्दर, अच्छा, निःसार, कम, थोड़ा, हलका, ह्रस्व | संज्ञा, पु० व्याकरण में एक मात्रिक स्वर, एक मात्रा का ह्रस्व वर्ण जिसका चिन्ह ( 1 ) है ( पिं० ) । यह लघु जलधि तरत कति बारा" - रामा० । लघुकाय -संज्ञा, पु० यौ० (सं०) बकरा, भेड़ा | वि० (सं०) छोटे शरीर वाला ! लघुचेता - संज्ञा, पु० यौ० (सं० लघुचेतस् ) तुच्छ या बुरे विचार वाला, नीच, दुष्ट । लघुता, लघुताई (दे० ) – संज्ञा, स्त्री० (सं० लघुता) छोटाई, हलकाई, तुच्छता, नीचता । For Private and Personal Use Only 'लघुताई सब तें भली, लघुताई तें सब होय " - तुल ० । Page #1526 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org او लघुपाक लघुपाक संज्ञा, ५० (सं०) सहज में शीघ्र पचने वाला भोज्य या खाद्य पदार्थ । लघुमति - वि० यौ० (सं०) कम समझ, मूर्ख, मंदमति । 'लघुमति मोरि चरित " श्रवगाहा रामा० । लघुमान संज्ञा, पु० यौ० (सं०) नायिका का थोड़ा रूठना या कुपित होना या अन्य स्त्री से नायक की बातचीत देख रूठना ( काव्य ), अल्प परिमाण । १५१५ लघुशंका- पंज्ञा, खो० (सं०) पेशाब करना, मूत्र त्याग । लघुहस्त - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) छोटा हाथ। वि०- शीघ्रता से बाण चलाने वाला, हलके हाथ वाला, फुर्तीला । लवी - संज्ञा, स्त्री० (सं०) अति छोटी, प्रति हलकी । लचक - संज्ञा, खो० (हि० लचकना ) झुकाव, aar, वस्तु के झुकने का गुण, लचने का भाव । लचकना - अ० क्रि० ( हिं० लच- अनु० ) लचना, झुकना, कटि आदि का कोमलतादि से झुकना । स० रूप-लचकाना, प्रे० लचकवाना । लचकनि-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि० लचकना ) लचक, लचीलापन | लचन - संज्ञा, स्रो० दे० (हि० लचक लचक, नवनि, लचनि (दे० ) । लचना - अ० क्रि० दे० ( हि० लचकना ) लचकना, झुकना, नवना, नम्र होना । लचार – वि० दे० ( फा० लाचार ) लाचार, मजबूर, विवश, बेबस । लचारी - संज्ञा, स्त्रो० दे० ( फ़ा० लाचारी) लाचारी, मजबूरी, बेवशी | संज्ञा, पु० (दे०) उपहार, नज़र, भेंट, एक प्रकार का गीत ( संगी० ) लच्छ* -- संज्ञा, पु० दे० ( सं० लक्ष्य ) मिल, व्यान, बहाना, निशाना, लक्ष्य, ताक | संज्ञा, पु० ( सं० लक्ष ) लाख, सौ हज़ार | संज्ञा स्त्री० दे० (सं० लक्ष्मी) लच्छि लक्ष्मी । लच्छन Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ----- लक्षण, - राम० । संज्ञा, पु० दे० (सं० लक्षण ) चिन्ह, लक्ष्मण जी । वि० लच्छनी । 'लच्छन लाल कही हँसि के, भृगुनाथ न कोप इतो करिये " लच्छना ६- स० क्रि० दे० ( हि० लखना ) लखना, देखना, चितवना | संज्ञा, त्रो० दे० ( सं० लक्षणा ) लक्षणा-शक्ति । लच्छमी-- संज्ञा, स्रो० दे० (सं० लक्ष्मी) लक्ष्मी, संपत्ति, लच्छिमी, लकिमी (दे० ) । लच्छा - संज्ञा, पु० (अनु० ) गुच्छे या झप्पे के आकार में लगे हुए तार, किसी वस्तु के सूत जैसे पतले लंबे टुकड़े, पैर का एक गहना । लडि - संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० लक्ष्मी ) लक्ष्मी, रमा । " बसति नगर जेहि लच्छि करि, कपट नारि वर वेश " - रामा० । लच्छित - वि० दे० (सं० लक्षित) लक्षित, आलोचित देखा हुआ, अंकित, चिन्हित, " लक्षण वाला । लछमन भूला लच्छिनिवास - संज्ञा, पु० दे० यौ० ( सं० लक्ष्मीनिवास ) विष्णु, नारायण । लच्छी - वि० (दे०) एक तरह का घोड़ा | संज्ञा, स्रो० दे० (सं० लक्ष्मी ) लक्ष्मी, रमा । संज्ञा, स्रो० ( हि० लच्छा) छोटा लच्छा, अंटी । लच्छेदार - वि० ( हि० लच्छा + दार-का० - प्रत्य०) लच्छे वाले (खाद्य पदार्थ), मधुर और मनरोचक बातें | For Private and Personal Use Only लहून संज्ञा, पु० दे० (सं० लक्ष्मण ) लक्ष्मण जी । संज्ञा, पु० दे० ( सं० लक्षण ) लक्षण, चिन्ह | लड़ना -५० क्रि० दे० (हि० लखना) लखना देखना | ८ समाचार जब लछमन, लक्ष्मिन - संज्ञा, पु० दे० (सं० लक्ष्मण ) लक्ष्मण जी । लछमन पाये" - रामा० । लछमन झूला - संज्ञा, पु० दे० यौ० (हि०) rai या तारों से बना पुल ( हरिद्वार से धागे) । Page #1527 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir MATTENILE VIDEOS N ERAIKOTHEROINE लछमना लटकना E लछमना-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० लक्ष्मण ) | शर्म, पत, इज्जत, मान-मर्यादा । वि०-- लचमण, श्रीकृष्ण जी की एक पटरानी, साम्व लजित। " कहत सुकीया ताहि को, की पुत्री, सारस की मादा, सारसी, एक लज्जाशील सुभाव" । औषधि विशेष । लज्जापाया-संज्ञा, स्त्री० (सं०) चार प्रकार लछमी-संज्ञा, स्त्री० दे० । सं० लक्ष्मी) । की मुग्धा नायिका में से एक (केश०)। लघमी, रमा, लकिमी. लछिमी (दे०)। लज्जानी-संज्ञा, स्त्री० (सं.) लजाल, लज*-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि० लाज,सं० लज्जा) छुईमुई. लजवंती (दे०)। लाज, लजा। लज्जावती-वि. सो. (सं०) शर्माला, । लजीली । लजना-- अ० क्रि० दे० (हि. लजाना) लजावान् --वि० (सं० लज्जावत ) लज्जाशील, शर्माना, लजाना। शर्मीला. लजीला । स्त्री नब्जावती। लजलजा- वि० (दे०) लसदार, चिपचिपा। नजा-रहित- वि० (सं०) निर्लज, बेशर्म । लजलजाना--अ० कि० (दे०) चिपचिपाना, लज्जाशीत-- वि० (सं०) लजीला । लसलसाना। लज्जित-वि० (सं०) शर्माया हुआ। लजवाना-स० क्रि० दे० ( हि० लजाना ) लट-संज्ञा, स्त्रो० द. (सं० लटवा ) अलक, दूसरे को लजित करना, लजावना। केश पाश,केश-लता, उलझे बालों का गुच्छा, लजाधुर-वि० (सं० लज्जाधर ) लजालू | बदन सलोनी लट लटकति श्रावै है"--- लजावान्. शर्मीला। संज्ञा, पु०-लजालू । रत्ना० । मुहा०--लद छिटकानापौधा। पिर के बालों को खोलकर इधर-उधर बिखलजाना-अ. क्रि० दे० । सं० लज्जा) राना । संज्ञा, पु० दे० ( हि० लपट ) लपट, शर्माना, लजित होना । स० कि० ---- लजित | करना, लजावना । प्रे० रूप-लजवाना। लटक--- संज्ञा, स्त्री० ( हि० लटकना) लटकने लजार, लजाल-संज्ञा, पु० दे० (सं० लज्जालु) | का भाव, झुकाव, लचक, शरीर के अंगों एक पौधा जिसकी पत्तियाँ छूने से तत्काल की मनोहर चेष्टा, अंगभंगी। सिकुड़ जाती हैं, लजावती, कई मुई (ग्रा० । लटकन ----संज्ञा, पु० ( हि० लटकना ) लटकने लजावना*-स० क्रि० दे० ( हि० लजाना) वाला पदार्थ, लटक, नाक का एक गहना, लजाना, लजना। सरपंच या कलँगी में लगे रनों का गुच्छा। लजिवाना*--अ. क्रि० स० दे० (हि. संज्ञा, पु० (दे०) एक पेड़ जिसके बीजों से लजाना ) लजाना, शर्माना । गेल्या लाल रंग निकलता है। लजीला--वि० दे० (सं० लजाशील) लजालू लटकना-अ० क्रि० दे० (सं० लटन .: झूलना) लज्जावान । स्त्री० लजीली।। झूलना, टॅगना, लचकना, किसी खड़ी वस्तु लजुरी- संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० रज ) का झुकना, बल खाना, किसी कार्य का रस्सी, डोरी, लेजुरी (ग्रा०)। अपूर्ण पड़ा रहना, बिलंब या देर होना, लजोर*-वि० दे० (सं० लज्जाशील) लजालू, ऊँचे आधार से नीचे की ओर अधर में टिका लजाशील । रहना । स० रूप-लटकाना, लटकावना, लजोहाँ, लजौहाँ-वि० दे० ( लज्जावह ) प्रे० रूप-तटकवाना । मुहा०-~लटकती लजाशील, लजीला । स्त्री० लजौहीं। चाल-बल खाती हुई मनोहर चाल । लज्जत-संज्ञा, स्त्री० (अ.) स्वाद, मज़ा। । लटके रहना--उलझन में रहना, फंसे लज्जा-संज्ञा, स्त्री० (सं०) झ्या, लाज (दे०), रहना (अपूर्ण कार्यादि में)। __ लौ, ज्वाला। For Private and Personal Use Only Page #1528 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir murIDEOPmammREFERENarsansamaavakam m arMAKA RISHMAGETRIGINORNRNORANVI लटका लटूरी लटका .लज्ञा, पु. ( हि० लटक ) चाल, लटपटान-संज्ञा, स्त्री. ( हि० लटपटाना ) ढब, गति, बनावटी चेष्टा, हावभाव, बात- -लचक, लटक, लड़खड़ाहट । चीत में बनावटी ढंग, धोखा,संक्षित, उपचार, लटपटाना .... अ० क्रि० दे० (सं० लड-+-पत्) तंत्र-मंत्रादि की युक्ति, टोना, टोटका, चुटकुला। गिरना, पड़ना, डिगना, लड़खड़ाना, चूकना, लटकाव-संज्ञा, पु० ( हि० लटका ) टॅगाव, भली-भाँति न चलना । अ० क्रि० दे० ( सं० झकाव. भलाव । पहा०-- लटका देना-- लल ) मोहित होना, लोभाना, अनुरक्त या झाँसा या धोखा देना, भुलावे में डालना। लीन होना, विचलित होना, घबड़ा जाना। लटकाना-स० कि० दे० ( हि० लटकना) लटा - वि० ६० (सं० लट्ट) दुर्बल, अशक्त, टाँगना, झुकाना, घर में रखना, बिलंव लंपट, लोलुप, नीच, लुच्चा, हीन, तुच्छ, करना, भुलावे में रखना, लटकावना। । बुरा । स्त्री० लटी। लटकीला-वि०दे०हि. लटक - ईला-प्रत्यः) । लटाई ----संज्ञा. स्त्री० (दे०) ची. पेरनी. लटकता या झमता हुआ। स्त्री० लटकीली। । जिसमें डोरा लपेट कर पतंग उड़ाते हैं । लटापटी-- वि० संज्ञा, स्त्री० दे० ( हि० लटलटकौवाँ --- वि० दे० (हि० लटकाना। प्रोवाँ पटाना ) लड़खड़ाती, ढीली-ढाली, अस्त-प्रत्य०) लटकने वाला। व्यस्तीय, अंड-बंडी, लड़ाई-झगड़ा । " लटलटजीग--संज्ञा, पु. दे० (दे० लट । जीरा ___ पटी सी चाल से चलता हुआ पाया यहाँ" हि०) अपामार्ग, चिचड़ा, एक प्रकार का -क० वि० । जड़हन धान। लटापोटी --वि० दे० (हि. लोट-पोट ) लटना--प्र० कि० दे० (सं० लड ) बहुत मोहित, मुग्ध, पासक्त विवश । थक जाना, लड़खड़ाना अशक्त होना, दुर्बल लटी- संज्ञा, स्त्री० (हि. लटा ) निर्बल, और निर्बल होना, हतोत्साह और निकम्मा दुबली, बुरी धेश्या, साधुनी. भक्तिन, ग़प, होना, व्याकुल या विकल होना । " कहा भूठी-बुरी बात । वि० (दे०) फटी, चिथड़ा भानु कुछ लटि गयो देखै जो न उलूक' हुई । 'धोती फटी सु लटी दुपटी'.--- नरो। ---नीति० : अ. क्रि० दे० (सं० लल) लट्या . लटवा--संज्ञा, पु० दे० (हि० लट्ट) चाहना, ललचाना, लुभाना. सप्रेम लीन या लह , एक गोल खिलौना, बरछी या पाला तत्पर होना। का फल । " लीन्हे भाला नागदमन का लटपट-वि० दे० (हि. लटपटाना ) मिला, लटुवा जहर त्रुतायो लाग"-पाल्हा० । सटा, लड़खड़ाना। "लटपट चाल चलति लटुक-संज्ञा, पु० दे० ( हि० लकुट ) छड़ी। मतवारी '.---स्फु०। __ स्रो० लटुकी- लकुटी। लटपटा- वि० दे० ( वि० लटपटाना ) लड़. लटुरी--संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. लटूरी) खड़ाता, गिरता-पड़ता. ढीला-ढाला, अस्पष्ट लटूरी। और अव्यवस्थित, ठीक और स्पष्ट क्रम से लटू-संज्ञा, पु. दे. हि. लह लट्ट, भौंरा । जो न निकले (शब्दादि). अस्तव्यस्त, टूटा- मुहा० --लहू --(लट्ट ) होना मुग्ध फूटा, अंडबंड, थक कर शिथिल, अशक्त । | और प्रसन्न होना, रोझना।। "शोक से हो लटपटा कर हो गये ऐसे भी' लरिया--संज्ञा, पु० (दे०) चोटी जटा, लट। -स्फु० । वि० -- जो अधिक मोटा (गाढ) लटूरी-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि० लट) अलक, और पतला न हो, गिंजा हुश्रा, लुटपुटा, केश, केश-कलाप, लटकता हुआ बालों का मला-दला हुआ (वस्त्रादि)। गुच्छा । For Private and Personal Use Only Page #1529 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir धकाomanoraEYEADYAORTEENarave DAODHAMKENamar d anा लटोरा लड़ना लटोरा-संज्ञा, पु० दे० (हि. लस-चिप लड़-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० यष्टिं ) लड़ी, चिपाहट ) एक पेड़ जिपके फलों में बहुत माला, श्रेणी, रस्सी का एक तार, पान, सा लसदार गूदा होता है, लसोड़ा, लसोढ़ा पंक्ति, पाँति । स० वि० कि० झगड, भिड़ गुथ । (ग्रा० )। लड़कई, लरकई-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. लट्टपट्ट -वि० दे० (हि. लथपथ ) लथ- लड़कपन ) लड़कपन, लरिकई, लरिकार्ड पथ होना, भीग जाना। (दे०)। लटू-संज्ञा, पु० दे० (सं० लुठन = लुढ़कना) लड़कखेल--संज्ञा, पु० यौ० दे० ( हि० लड़का एक गोल खिलौना जिसे कोरे से लपेट फैक + खेल ) बालकों का खेल, सहज काम ! कर नचाते हैं महा-किसी पर लट्ट, लड़कपन--संज्ञा, पु० ( हि० लड़का - पन होना -- शासक्त या मोहित होना, उत्कंठित प्रत्य० ) बालक होने की अवस्था, लड़काई, या लालायित होना। बाल्यावस्था, चंचलता, चपलता। लट्ट-संज्ञा, पु० दे० (सं० यष्टि बड़ी लाठी। लड़कद्धि --- संज्ञा, स्त्री० यौ० दे० (हि. लो०-" पड़ा लट्ठ ते काम, बिसरि गई लड़का । बुद्धि ) बालकों की सी समझ, पट्टे-बाज़ी। नासमझी, बालमति । लट्टबाज़-वि० दे० ( हि० लद्र -- बाज फ़ा ) | लड़का-संज्ञा, पु. (सं० लट, या हिं० लाड़ = लाठी से लड़ने वाला, लटत ( ग्रा० )। दुलार) अल्पवयस्क, बालक, बेटा, पुत्र, थोड़ी संज्ञा, स्त्री० लटलबाजी ! उम्र का मनुष्य, बरका, लरिका (दे०)। लट्टमार-वि० दे० यौ० (हे. ल -मारना) स्त्री० लड़की । मुहा० --लड़कों का लट्ठ मारने वाला, अप्रिय या कठोर, कर्कश खेल-बिना महत्व की बात, सहज कार्य, या कटु बोलने वाला। लडकों का तमाशा ।। लट्टा--संज्ञा, पु० ( हि० लाद) लकड़ी की लड़काई-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. लड़का :शहतीर, बल्ली, कड़ी, धन्नी, लकड़ी का पाई-प्रत्य० ) लड़कपन, बालपन, बालत्व, मोटा और लंबा टुकड़ा, एक मोटा और | शिशुता, शैशव, तरिकाई (दे०), "लड़काई गाढ़ा कपड़ा। को पैरिबो, शागे होत सहाय'---तुल० । लट्टी---संज्ञा, स्त्री० (दे०) लाठी। लड़का-बाला-संज्ञा, पु. यौ० दे० (हि. तल-संज्ञा, पु० दे० ( सं० वष्टि ) बड़ी लाठी, लड़का - बाल सं० ) परिवार, कुंटुब, वंश, लह। संतान, श्रौलाद । लठालठी-संज्ञा, स्त्री. (दे०) लठबाजी, लड़की-संज्ञा, सी० (हि. लड़का ) बेटी, लाठी की लड़ाई। पुत्री, कन्या। लछियोना--स० क्रि० (दे०) लाठी से मारना लड़कौरी-वि. स्त्री० दे० (हि० लड़का -- पीटना या कूटना, लाठी के बल से भगाना। औरी-प्रत्य० ) वह स्त्री जिसकी गोदी में लोत -- वि० दे० (हि. लट-- ऐत-प्रत्य०) लड़का हो, लड़के वालो. लरकोरी (दे०)। लाठी बाज़: वि० (दे०) लठ से लड़ने वाला। लड़खड़ाना-ग्रा० क्रि० दे० ( सं० लड़ = संज्ञा, स्त्री० लठेती। डोलना + खड़ा ) इधर उधर को झुकना या लठठर - वि० (दे०) शिथिल, सुस्त, ढीला, | झोंका खाना, डगमगाना, डगमगा कर धीमा. पालन, मट्ठर । गिरना, चूकना, विचलित होना. पूर्णतया लडंत-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि० लड़ना ) लड़ाई, स्थित न रहना, लरखगना (दे०)। भिडंत, सामना, मुटभेड़, कुश्ती। लड़ना- अ. क्रि० दे० (सं० रणन ) झगड़ना, For Private and Personal Use Only Page #1530 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir लड़बड़ लतमार युद्ध करना, भिड़ना, परस्पर प्राघात करना, लड़ी--संज्ञा, स्त्री० (हि० लड़) पंक्ति, माला, मल्लयुद्ध करना. बहस, तकरार, या हुज्जत रस्सी का एक तार, श्रेणी, लरी (दे०) । करना, विवाद या भगड़ा करना, टकराना स० क्रि० स० भू० (स्त्री०) लड़ना ।। या टक्कर खाना, मुकदमा चलाना, पूरा पूरा लड़ा -लड़वा---- संज्ञा, पु० दे० (सं० ठीक बैठना, सटीक होना, लक्ष्य पर पहुँचना, लडडुक ) मादक, लड्डू. एक मिठाई, लाडू भिड़ आदि का डंक मारना, लरना (दे०)। (प्रान्ता० )। संज्ञा, स्त्री० लड़ाई। वि०-लड़ाका, लड़या। लड़ता-वि० दे० (हि० लाड़ --दुलार -+-एता लड़बड़-वि० (दे०) हकला, तुतला .... प्रत्य० ) दुलारा, लाड-प्यार से इतराया लड़बड़ाना----अ० कि. द० ( हि० लड़बड़) हुश्रा, लाडला. लाडिला, ढीठ, शोख, हकलाना, तुतलाना, लड़खड़ाना । प्रिय, यारा, धृष्ट । वि० दे० ( दि. लड़ना) लड़वावला-वि० दे० यौ० ( हि० लड़ = | योद्धा, लड़ने वाला, लड़ाका । लड़कों का सा- चावल ) मूर्खता-सूचक, लडडू-संज्ञा, पु० दे० ( सं० लड्डुक , मोदक, भनारी, बेसमझ, मूर्ख, गनगर, अल्हड़ । ला , लडुवा, मिठाई, लाड़। मुहा० स्रो० लड़बावनी। --ठग के लडडू खाना--पागल या लड़ाई--संज्ञा, स्त्री० ( हि० लड़ान - आई- बेहोश होना, ना समझी करना । मन के प्रत्य ) युद्ध, संग्राम, मल्लयुद्ध, झगड़ा लडडू (मन-मोदक) खाना या मोड़ना मिहंत, तारार विवाद, बहस, टक्कर, विरुद्ध, -व्यर्थ किसी बड़े लाभ की कल्पना करना। युक्ति या चाल लगाना, मुकदमा चलाना, लड्याना - २० क्रि० दे० (हि. लाड़ -- वैर, विरोध, किसी मामले में सफलतार्थ दुलार ) दुलार करना, दुलराना, लाड़-प्यार विरुद्ध यत्र । करना, लड़ाना। लड़ाका--वि० दे० ( हि. लड़काआका लढ़ा-- संज्ञा, पु० दे० (हि० लुढ़कना) बैलगाड़ी, प्रत्य० ) योद्धा, शूरवीर, झगडालू. तकरारी, छकड़ा, बड़ी गाड़ी । स्त्री० लढो। विवादी, बहसो, लडाँक ( ग्रा० )। स्त्री० लढ़िया --- लाज्ञा, स्त्री० दे० ( हि० लुढ़कना ) लड़ाकी। _बैलगाड़ी, छोटी गाड़ी, छोटा छकड़ा। लड़ाना-स० कि० (हि० लड़ना का ० स० रूप) लहा--- संज्ञा, स्त्री० द. ( हि० लढ़ा ) छोटी दूसरे को लड़ने या झगड़ने में लगा देना, बैलगाड़ी. छोटा छकड़ा। भिडाना, परस्पर उलझाना, तारार या लत--संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० रति ) दुर्व्यसन, हुज्जत करा देना, सफलतार्थ प्रयोग करना, कुटेंव, बुरा स्वभाव, बुरी पादत ।। टकर खिलाना, लक्ष्य पर पहुँचाना । स० कि० लतरवार-ततालारा--वि० यौ० दे० (हि. (ह. लड़ == प्यार ) दुलार या लाड़-प्यार लात + खोर == खाने वाला-फा० ) लाता की करना। "जो पै है कुपूत तौ तिहारेई ।। मार सदा खाने वाला, निर्लज्ज, कमीना, लडाये हैं' -रता। नीच, पायदाज, गुलाम-गर्दा । स्त्री०- लललड़ायता - वि० दे० (हि. लड़ेता) खोरिन । संज्ञा, स्त्री० लत-खोरो। लड़ता, दुलारा, प्यारा, लडेती (व०)। लत-मर्दन - ज्ञा, स्त्री० यौ० ( हिं० लात + "सोई पारबती को लडायतो सु लाल है" मर्दन स० ) लातों से मलना, लतमार, लतखोर। लड़ियाना- स० कि० (दे०) गॅथना, पिरौना, लतमार-वि• यौ० दे० (हि. लात+ पोहमा, लड़वाना। मारना , लतखोर, निर्लज्ज, कमीना, नीच । For Private and Personal Use Only Page #1531 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir A Amins TOPIERMIRMIRINEMANENOMI namamaAAAAAAAA लतर लथेड़ना लतर--संज्ञा, स्त्री० दे० ( सं० लता ) बेल, लतिया-संज्ञा, पु. दे० ( हि० लत+इयालता । प्रत्य०) बुरे स्वभाव का, कुचाली, दुराचारी। लतरा--संज्ञा, पु. (दे०) पुराने जूते । लतियाना--स० कि० दे० (हि० लात + स्त्री० लतरी। __ आना-प्रत्य० ) पैरों से कुचलना या रौंदना, लतरी-संज्ञा, स्त्री० (दे०) एक पौधा जिसकी खूब लातें मारना । फलियों के दानों से दाल बनती है। संज्ञा, लतो-वि० दे० । हि० लत + ई-प्रत्य०) स्त्री० दे० ( हि० लतरा ) पुरानी जूती। स्वभाव या टेंव वाला, श्रादी दुराचारी, लता--संज्ञा, खो० (स०) वह पौधा जो पृथ्वी! कुचाली, कुकर्मी, बुरी लत वाला। पर डोरी सा फैले या किसी बड़े पेड़ से लतीफ - वि० (अ०) बढ़िया, साफ़, निर्मल, लिपट कर ऊपर फैले, लतिका, बेल, बल्लरी, स्वच्छ, मज़ेदार. ( विलो. ----की)। वृतती, बल्ली, बौंड़ कोमल शाखा, सुंदरी लत्ता-संज्ञा, पु० द० ( सं० ल तक ) फटास्त्री। '' लता श्रोट तब सबिन लखाये” | पुराना कपड़ा, चिथड़ा, कपड़े का टुकड़ा। --रामा । स्त्री० लती। महा.... लता लगाना लता-कंज-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) लता- | (लपेटना), फट: वस्त्र पदिनना कंगाल निकंज, लताओं से मंडप के समान छाया ! होना । यो०--कपड़ा-लत्ता-पहनने के हुश्रा स्थान, लतागृह, लता भवन । कपड़े। लत्ती-- संज्ञा, स्त्री० दे० ( हि० लात्त) लात, लतागृह ----संज्ञा, पु. यौ. सं.) जताओं का घर, लता-कुञ्ज, लतानों से छाया स्थान । पद-प्रहार (पशु ) लात मारना संज्ञा, स्त्री० (हि. लात्ता) कपड़े की लंबी और फटी लताड़--संज्ञा, स्त्री० (दे०) डॉट फटकार।। • पुरानी धज्जी । मुहा) या ---दुःवत्ती लताना-२० क्रि० दे. (हे. लात ) पैरों चलाना---घोड़े आदि का पीछे के दोनों से कुचलना, रौंदना, हैरान करना। पैरों से मारना। लतायता-संज्ञा, पु. ( सं० लतापत्र ) पेड़ लथड़ना--अ० कि० (दे०) लदफद होना, पत्ते, जड़ी-बूटी। कीचड़ से भीगना, मैला या धूल धूमरित लता-भवन--- संज्ञा, पु० यौ० (सं०) लताओं होना। से छाया हुआ मंडपाकार स्थान, लताकुंज, लथपथ वि. द. ( अनु० ) तराबोर, लता-मौन (दे०), लतालय, लताया. भीगा हुश्रा, पानी, कीचड़ यादि से भीगा लतासद्म। " लता भवन तं प्रगट भे" या सना हुया। लथर-पथर--- संज्ञा, पु. (दे०) ठसाठस, लता-मंडप - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) लबालब, मुँह नक भरा, लथपथ । लतायों से छाया हुआ स्थान विशेष, लता लथाड़--संज्ञा, स्त्रो० ( श्रनु० लथपथ ) पृथ्वी गृह, लतावास (यो०)। पर पटक कर घसीटने की निया, चपेट, लतिका--संज्ञा, स्त्री० (सं.) छोटी लता, पराजय, झिड़की, डाँट-फटकार । बेलि, वल्लरो। लथाइना---स० के० दे० ( हि० लथड़ना ) लतियर-वि० दे० ( हि० ततखोर ) निर्लज डाँटना फटकारना, लथेड़ना । प्रे० रूप - लतमार, लतियल (हि.) । लथड़ाना, लयलवाना।। लतियन-वि० दे. (हे० लत+ यल- लथेडना----स० के० दे० (हि. अनु० प्रत्य.) लती, लतखोर। लथपथ ) कीचड़ से मैला करना या कीचड़ रामा.. For Private and Personal Use Only Page #1532 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir लदना लपसी में घसीटना, धूल या पृथ्वो पर लोटाना लपका-पंज्ञा, पु० दे० (हि० लपकना) आक्रया घसीटना, हैरान करना, थकाना, डाँट- मण, फुर्ती, शीघ्रता, बुरी चाल, चमक । फटकार बताना, अपमान करना । लपकी-संज्ञा, स्त्री० (दे०) एक मछली। लदना-अ. क्रि० दे० ( सं० ऋद्ध ) बोझ लपची संज्ञा, खो० (दे०) एक मछली । ऊपर लेना, भार युक्त होना, भार लेना या | लपझप-वि० दे० यौ० (हि. लपकना+ उठाना, पूर्ण या पाच्छादित होना, गाड़ी झपकना ) फुर्तीला, चालाक, चंचल । संज्ञा, में माल श्रादि भरा जाना, कैद होना. पु० (दे०) सप्पझप-दिखावटी धोखे वाला जेल जाना, हैरान होना । स० रुप-लदाना, काम या बात, गपशप्प, सतर्क, सावधान । प्रे० रुप-लदवाना। लपट - संज्ञा, स्त्री० दे० । हि० लौ । पट) लदाऊ, लदाव*-- संज्ञा, पु० दे० (हि. ज्वाला अग्निशिस्त्रा, श्राग की लौ, गर्म लदाव ) लादने की क्रिया या भाव. बोझ और तपी हुई वायु, लू . लूक, पाँच, गंध से भार, ईटों की ऐसी जुड़ाई जो बिना सहारे भरा वायु का झोंका, महक, गंध, पकड़न, अधर में लटकी रहे, छत श्रादि का पटाव । पकड़ ! यौ० लपटझपट । लदादा -- वि० यौ० ( हि० लादना-- लपटना---० कि० दे० (हि. लिपटना) फाँदना) बोझे या भार से लदा हुआ. भीगा | लिपटना, चिमटना, कुश्ती लड़ना । स. हुश्रा यौ० क्रि० लदाना-सदाना। रूप०-लपटाना प्रे० रूप०-लपटवाना । लदाद-संज्ञा, पु. ( हि० लादना ) लादने अ० क्रि० सटना, फैसना, उलझना, संलग्न की क्रिया या भाव, बोझ. भार, छत का होना। पटाव, इटों की ऐपी जुड़ाई को कड़ी लपटा----संज्ञा, पु० दे० ( हि० लपटना ) श्रादि के बिना सहारे ठहरी हो। नमकीन हलुमा, लगाव, सम्बन्ध ! ला -बदुवा लद --वि. द. ( हि. लपटी--संज्ञा, स्त्री. दे. (हि. लपटा ) लादना ) बोझ ढोने वाला जिस पर बोझा नमकीन इलया. लपसी चिपकी। बादा जाय। लद्धड-वि० दे० ( हि० लादना ) आलसी. लपड़-चढाई ---संज्ञा, स्त्री० (दे०) सूखी या सुस्त, पड़ी। यौ० तड़बड़। गिरी हुई चूची शिथिल स्तन । लद्धना-स० कि०६० (सं० लब्ध ) प्राप्त लपना-अ. क्रि० दे० ( अनु० लप) करना। झुकना, लचना, चमकना, लपकना, हैरान लप-संज्ञा, स्त्री० दे० ( अनु० ) लचीली होना, ललचना । स० रूप-लपाना, प्रे० वस्तु के हिलाने का कार्य । खङ्गादि के रूप०-लपवाना। चमक की चाल । संज्ञा, पु. (दे०) अंजली । लपलपाना अ० कि० ( अनु० लप) रूपक-संज्ञा, स्त्री० दे० ( अनु० लप ) हिलना-डोलना, लपाना, खड्गादि का सपट, ज्वाला. चमक, लौ. लपलपाहट, वेग । चमकना, झलकना, लपकना, जीभ का लपकना - अ० कि० ( हि० लपक ) झपटना, बार बार बाहर निकालना । स० कि० (दे०) दौड़ना, तेज़ी से चलना, बिजली प्रादि का जीभ, खङ्गादि का निकाल या हिलाकर चमकना । स० रूप०-लपकाना, प्रे० रूप० । चमकाना। लपकवाना । महा-लपक कर- लपसी-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० लप्सिका ) चमक कर, तुरन्त, वेग से जाकर, झट से, थोड़े से घी का हलुवा, गीजी, गादी, गोली पाक्रमण करने या कुछ लेने के लिये वस्तु, पानी में घौटाया हुआ घाटा जो झपटमा, उपर उठ कर पहुँचना। कैदियों को दिया जाता है, लपटा (दे०) । For Private and Personal Use Only Page #1533 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org लपाटिया १५२२ लड़ना लपाटिया -- संज्ञा, पु० (दे०) झूठा, मिथ्या लफंगा - वि० दे० ( फा० लफंग ) लंपट, वादी, लबार । 1 दुराचारी, दुश्चरित्र, शोहदा, कुकर्मी, श्रावारा। स्रो० लगिन । यौ० लुच्चालफंगा -संज्ञा, स्रो० लफंगाँय, लफंगी । लफ़ना* - अ० क्रि० दे० ( हि० लपना ) लपाटी - संज्ञा, स्रो० (दे०) झूठ, मिथ्या, झूठ-मूठ | वि० (दे०) झूठा, लवार । लपाना - स० क्रि० ( अनु० लप ) लचीली छड़ी आदि को इधर-उधर लचाना, आगे बढ़ाना, फटकारना, चमकाना, हिलाना । लपानक - वि० (दे० ) - दुबला, पतला, तीय, सूक्ष्म, भीना । लपालप - क्रि० वि० (दे०) हिलते और चमकते हुए । “वीर अभिमन्यु की लपालप कृपानि वक्र' - रत्ना० । "" लपित - वि० (सं० लप करना ) कहा हुआ, कथित, जो एक बार कहा जा चुका हो, जल्पित । लपेट - संज्ञा, स्त्री० ( हि० लपेटना ) बंधन का घुमाव, ऐंठन, फेरा, मरोड़, घेरा, उलझन, जाल या चक्कर, ढक्कन, परिधि, फंदा, झपट, बल, लपेटने की क्रिया या भाव। लपेट-झपेट संज्ञा, स्त्री० यौ० ( हि० लपेटना + झपटना ) टालमट्रल, बहाना, कुश्ती, धावा, धर पकड़ । लपेटन -संज्ञा, स्रो० ( हि० लपेट ) लपेट, घुमाव, फेरा, मरोड़, घेरा, फंदा, उलझना, जाल या चक्कर, ढक्कन | संज्ञा, पु० ( हि० लपेटना ) उलझने या लपेटने की चीज, बेष्टन, बेठन, बाँधने का वस्त्र । लपेटना - स० क्रि० ( हि० लिपटना ) समे टना, बाँधना, फेरे या घुमाव देकर फँसाना, पकड़ लेना, चक्कर या संकट में फँसाना, फैली वस्तु को समेट कर गट्ठर सा बनाना, घुमाव देकर समेटना, पकड़ लेना वस्त्रादिक में बाँधना, गति-विधि बन्द करना, उलझन में डालना । प्र े० रूप-लपेटवाना । लपेटवाँ - वि० दे० ( हि० लपेटना ) लपेटा हुआ, सोने-चांदी के तारों से लपेटा हुआ, गुप्त अर्थ वाला, व्यंग्य, गूढ़ । क्रि० वि० (दे०) सब को समेट कर सब के साथ । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir झुकना, लपकना, लचना, ललचना, हैरान स० होना, ऊपर उठ कर पहुँचना । रूप लकाना प्रे० रूप०-लवाना । ललकानि - संज्ञा स्त्री० दे० ( हि० लपलपाना ) नरम लम्बी छड़ी आदि का हिलना या डोलना, खङ्गादि का हिलाकर चमकना या चमकाना, झलकाना | लाना - सं० क्रि० दे० ( हि० लपाना ) नरम पतली छड़ी का हिलाना, फटकारना, आगे बढ़ाना, लपकाना ऊपर उठाकर पहुँचाना | लफ्ज़ - - संज्ञा, पु० (प्र०) शब्द लफ़्ज़ी | लाजो-संज्ञा, त्रो० (०) शब्दार्डर, शब्द - बाहुल्य | लब - संज्ञा, पु० ( फ़ा० ) होंठ, घोष्ट, घोंठ । दम लबों पर था दिलेज़ार के घबराने से ". -- अक० । Page #1534 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - लबड़-सबड़ १५२३ लमाना, लँबाना लबड़ सबड़-संज्ञा, पु. (दे०) बकझक, वर्ण भाक तं दिदेश मुनये स लघमणं" झूठ-साँच, इधर उधर की बातें । गप- -रघु० । यौ०-लब्धकीर्ति-यशस्वी । शप । लब्धि - संज्ञा, स्त्री० (सं०) प्राप्ति. लाभ, लबड़ा-नवरा-वि० दे० ( हि० लबार) हाथ लगना, हाथ में आना, भाग करने से झूठा, असत्यवादी, अनर्थकवादी। प्राप्त फल, भजन-फल (गणि.)। लबर-घहा--संज्ञा, पु० (दे०) नकचदा, लभन-संज्ञा, पु. ( सं०) पाना । वि. जरा सी बात में क्रोध करने वाला। लभनोय। लबलवा. वि० (दे०) लिबलिबा, लसदार, लभस · संज्ञा, पु. (सं०) धन, भिक्षुक, पिछाड़ी। चिपचिपा । संज्ञा, स्त्री लबदबाहट ।। लभेडा-लभेरा-संज्ञा, पु. (दे०) लसोदा । लवादा-संज्ञा, पु० ( फा० ) रूई-भरा ढीला लभ्य - वि० (सं० ) पाने-योग्य, उपयुक्त अंगा, रूईदार चोग, 'अबा, दगला। उचित, प्राप्य, जो मिल सके। लबार, लबारा--- वि० दे० (सं० लपन = बकना ) झूठा, असत्य या मिथ्या भाषी, लमक--संज्ञा, पु० दे० (हि. लमकना ) गप्पी, प्रपंची । “मिलि तपसिन सँग लंपट, कुचाली, कुकर्मी, नफना। भयसि लबारा", साँचेहुँ मैं लबार भुज लमकना ----अ० क्रि० दे० (हि. लपकना) लपकना, उत्कंठित होना, लफना, ऊपर उठ बीहा-रामा०। लबारी-संज्ञा, स्त्री० (हि० लबार ) झूठ या कर पहुँचना, बौंकना । (ग्रा० ) स० रूप. असत्य बोलने का काम । वि.-झूठा, लमकाना, रूप. लमकवाना संज्ञा, पु० दे० ( सं० लम्बकर्ण ) लम्बे कानों वाला चुगुलखोर, मिथ्यावादी। गधा, खरगोश, लम्बकर्ण । लबालब-क्रि० वि० (फ़ा०, ऊपर या मह लमकाना-स० क्रि० दे० (हि. लपकान) तक भरा हुआ, छलकता हुा! लपकाना, बढ़ाना, लफाना। संज्ञा, पु० दे० लबालेस--संज्ञा, स्त्री० (दे०) खुशामद, यौ० (सं० लम्बकर्ण ) गधा, खरहा, लम्बे लल्लोपत्तो, चापलूसी, लल्तोचायो, कानों वाला। लवालेस (दे०)। लमछड़-लमहर-संज्ञा, स्त्री० यौ० दे० (हि. लवी-संज्ञा, स्त्री० (दे०) चीनी की चासनी।। । लम्बी-छड़ी ) पथरकला, बन्दूक, लम्बा लबेदा --संज्ञा, पु० दे० । सं० लगुड़ ) मोटा पानी और बड़ा सा डंडा, बड़ी मोटो लबदी लमटंग-लमटंगा-संज्ञा, पु० दे० (हि. या छड़ी। स्त्री० अल्पा० लबेदी।। लम्बी + टाँग ) सारस । वि०-लम्बी टाँगों लबेरा-लभेरा--संज्ञा, पु. (दे०) लसोड़ा वाला । स्त्री० लमटंगी। का वृक्ष और फल । लमतडंग-लमतडंगा-वि० दे० यौ० लब्ध-वि० (सं०) प्राप्त, मिला हुआ, भाग (हि. लम्बा + ताड़+ अंग ) बहुत लंबा या देने का फल, भजन-फल (गणि.)। ऊँचा, लंबातडंगा । स्त्री० लमतडंगी। लब्ध काम--वि० यौ० (सं०) प्राप्त काम, लमधी-संज्ञा, पु० (दे०) समधी का बाप, जिसकी कामना पूरी हो गयी हो। (सं० लम्ब+धी-बुद्धि)। लब्धप्रतिष्ट-वि० यौ० (स०) सम्मानित, लमाना-लँबाना*-स० क्रि० दे० (हि. प्रतिष्ठित, प्रख्यात । लंबा+ना-प्रत्य० ) लम्बा करना, दूर तक लब्ध वर्ण-संज्ञा, पु. यो. (सं.) विद्वान, बढ़ाना या फैलाना । अ० कि० (दे०) लम्बा पंडित, विचक्षण । " कृच्छ लब्धमपि-नध | होना, दूर निकल जाना। For Private and Personal Use Only Page #1535 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org लय १५२४ ललचना DAKOWSKAKELARUSORRY CARE 74355N, MERCHANTERAS ENS लय - संज्ञा, पु० (सं०) एक वस्तु का दूसरी तरना* - अ० क्रि० दे० ( हि० लड़ना ) मैं मिलकर उसी के रूपादि का हो जाना लीन होना, मिलना, प्रवेश, विलीनता, मग्नता, ध्यानमग्नता, एकाग्रता, प्रेम, अनुराग, स्नेह, कार्य का फिर कारण के रूप में हो जाना, संसार का नाश, संश्लेष, विनाश, लोप, प्रलय, नृत्य, गीत और बाजों की परस्पर समता ठेका (संगी० ) । संज्ञा, स्त्री० - गाने का ढङ्ग, धुन, गाने में सम (संगी० ) । लयन - संज्ञा, पु० (सं०) विश्राम, शरण लर*+ संज्ञा, स्त्री० दे० ( हि० लड़ ) लड़, लड़ी। लरकई-लग्काई- संज्ञा, स्त्री० दे० (हि० लड़का + ई - प्रत्य० ) लड़कपन, लरिकाई लरिकई (दे० ) । "लरकाई को पैरबों थागे होत सहाय " - तुल०, बहु धनुहीं तोरेंउ लरकाई ' - रामा० । मुहा० - लरकई करना ना समझी करना । लरकना ० क्रि० दे० : हि० लटकना ) लटकना, पीछे पीछे चलना, "" ललकना, -- रामाः । लरिकई- लरिकाई* +- संज्ञा, स्त्री० दे० ( हि० लड़कपन ) लड़कपन लड़काई । लरिक सलोरी - संज्ञा, खो० दे० यौ० ( हि० लरिका + लोज़ - चंचल ) लड़कों का खेल, खेलवाड़ | ग्रहण, प्रलय, तन्मयता । लय बालक - संज्ञा, पु० यौ० (दे०) गाद लरिका -- संज्ञा, उ० दे० ( हि० लड़का ) लिया हुआ लड़का | लड़का । यौ० aftका सयानी-बच्चों के मामले में बड़ों का पड़ना, संज्ञा, स्त्री० लरिकाई । लरी - संज्ञा, स्रो० दे० ( हि० लड़ी ) लड़ी। लड़ी-संज्ञा, पु० दे० ( हि० लच्छा ) लच्छा, लच्छी, गुच्छा । ललक संज्ञा, खो० दे० ( स० ललन ) बड़ी उत्कट अभिलाषा, गहरी चाह, प्रवलेच्छा | जलकना - ग्र० क्रि० ( ( हि० ललक ) ललचना, श्रभिलाषा या लालसा करना, श्रति इच्छा करना, चाह या उमंग से भरना । भेटे लखन ललकि लघु भाई - रामा० । *L ललकार -संज्ञा, स्त्रो० दे० ( हि० लेले अनु० + कार ) ललकारने की क्रिया या भाव, प्रचारण । ललचना । लकिनी, लरिकिनी - संज्ञा, स्त्री० दे० ( हि० लड़की ) लड़की, बेटी, लड़किनी (दे०) । लरखगना- - अ० क्रि० दे० ( हि० लड़खड़ाना) खड़खड़ाना ! O लरजना - अ० क्रि० दे० (फ़ा लरजा = कंप) काँपना, हिलना, दहल जाना, डरना । " लरजि गई ती फेरि लरजनि लागी री - " पद्मा । स० रूप० लरजाना, प्रे० रूप०लरजवाना । लग्झरी- वि० दे० ( हि० लड़ - + झड़ना) बहुत अधिक ज़्यादा, प्रचुर । - Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir लड़ना । लरनिः संज्ञा, ख े० दे० ( हि० लड़ना ) लड़ना, लड़ाई । लराई – संज्ञा स्त्री० दे० ( हि० लड़ाई ) लड़ाई | सहस्रबाहु सन परी खराई " " ललकारना - स० क्रि० (हि० ललकार ) प्रचारना लड़ने को ज़ोर से बुलाना या श्राह्नान करना लड़ने या प्रतिद्वंद्विता के हेतु उसकाना या बढ़ावा देना, उत्तेजित करना । ललचना - स० क्रि० दे० ( हि० लालच ) लालच करना लुभा जाना, मोहित होना, मुग्ध और लुब्ध होना, श्रति श्रभिलषित होना, पाने की इच्छा से अधीर होना । For Private and Personal Use Only Page #1536 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ललचाना ललौहाँ ललचाना-अ. क्रि० ( ह. लालच ) पु०-गहना, भूषण रत्न, चिह्न, घोड़ा । लालच करना, लुभाना, कुछ दिखा कर कन्या ललाम कमनीयमजस्य लिपपो-'' मन में लोभ या लालच पैदा करना, -रघु.। मोहित करना अ० कि. मोहित होना, | ललित-वि. (सं०) चित चाहा मनोरम, लुब्ध या मुग्ध होना, अभिलाषा से अधीर सुन्दर, प्यारा, मनहरण, हिलता-डोलता होना । महान जी) ललचाना हुभा । " ललित लवंग-लता परिशीलन -- लुभाना, मुग्ध या मोहित होना लालच कोमल मला समीरे " गीत० । सज्ञा, पु० कर अधीर होना। स० रूप०-तलचाना. एक अंगचेटा जिसमें सुकुमारता से अंग प्रे० रुप०-ललचवाना। हिलाये जाते हैं (शृंगार रस में एक कायिक ललचौहाँ-- वि० दे० { हि. लालच + अौहाँ हाव) एक विषम वर्णिक छंद ( पिं०) प्रत्य०) लालच या लोभ से भरा, ललचाया एक अर्थालंकार जिसमें वर्ण्य वस्तु की जगह हुधा । खो० ननचाहीं। पर उसके प्रतिबिंब का कथन किया जाता है ललन- संज्ञा, पु. (सं०) प्यारा बालक, ! (अ.पी.)। प्रियनायक या स्वामी, खेल-क्रीड़ा। ललितई-ललिताई* -- संज्ञा, स्री० दे० ललना-संज्ञा, स्रो० (सं०) कामिनी । भामिनी. स्त्री जीभ, एक वर्णिक छंद पिं०)। ( सं० ललित ) सुंदरता, मनोहरता. सुघराई । ललित-कला--संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं.) लला --संज्ञा, पु० दे० (हि. लाल ) लाला, कलाएं जिनके व्यक्त करने में सोंदर्य को दुलारा या प्यारा लड़का, ललना (दे०)। अपेक्षा हो, जैसे-संगीत चित्रादि कलायें। प्रियनायक या पति । सो० लली। " मोल छला के लला न बिकेही --- पद्मा। ललितपद --संज्ञा, पु० (सं०) २८ मात्राओं ललाई---संज्ञा, स्त्री० ६० ( दि. लाली) का एक मात्रिक छंद, सार. नरेंद्र, दौौ । लाली, सुर्ती, अरुणिमा लालिमा। (पिं० ) । यो० संज्ञा, (सं०) सुन्दर पद। ललाट--संज्ञा, पु. (सं०) मस्तक, भाल, ललिता-संज्ञा, स्त्री. (सं०) एक वर्णिक माया, भाग्य, लिलार (ग्रा.)। " जो छंद जिसके प्रति चरण में त, भ, ज. रगण होते हैं । (पि.) राधिका जी की मुख्य पै दरिद्र ललाट लिखो"..-- नरो । ललाट-पटल----संज्ञा, ४० यौ० (सं० ) सहेलियों में से एक। मम्तक-तल, माथे की सतह, ललाट-पट. लरितोपमा - संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) उपमा ललाटतन। नामक अर्थालंकार का एक भेद जिसमें ललाटरखा-संज्ञा, स्त्री. यौ० (सं.) भाल उपमेय और अपमान को समता-वाचक सम या भाग्य का लेख, मस्तक की लकीर । श्रादि शब्द रखे जाकर निरादर, संमता ललाटिका संज्ञा, स्त्री० (सं.) तिलक, एक ईर्ष्यादि भाव सूचक पद रखे जाते हैं, शिरोभूषण । ( अ० पी०)। ललाना* -- अ० कि० दे०( ललच ) लल- लली-संज्ञा, स्त्री० ( हि० लला ) लड़की. चना, लालच या लोभ करना, लोभाना, पुत्री, नायिका प्रेमिका, प्रेयसी, कन्या के लालायित होना। "द्वार द्वार फिरत ललात लिये प्यार का सम्बोधन । विललात नित"--तु। ललौहाँ---वि० दे० (हि. लाल ) ललाई ललास - वि० (सं०) रमणीय, सुन्दर मनोहर, लिये हुए । ल लछौंहा---कुछ कुछ लाल, लाल, श्रेष्ठ । संज्ञा, स्त्री० ललायता । संज्ञा, सुर्जी मायल । स्त्री० ललोहीं। For Private and Personal Use Only Page #1537 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir लल्ला लवाक लल्ता -संज्ञा, पु० दे० ( हि० लला ) लला, लवनि-लधनी--संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० लड़का, प्रियतम, नायक, लाला। लवन ) अनाज की कटाई, लुनाई. लौनी लल्ली -संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० ललना) (दे०) । संज्ञा, स्त्री. दे. (सं० नवनीत) लड़की, जीभ, लली, लाली । मक्खन, नैनू । लल्लो चप्पो- संज्ञा, स्त्री० द० यौ० ( सं० लव-निमेष-संज्ञा, पु. यौ० (सं.) अल्प, लल । अनु० चप ) ठकुरसुदाती या चिकनी समय । 'लव-निमेष में भुवन निकाया" चुपड़ी बात, ललो पत्तो (दे०)। --रामा० । लनो-पत्तो संज्ञा, सं. (दे०) (सं० लवमात्र-वि० यौ० (सं०) थोड़ी देर, क्षण लल -। पत अनु०) लल्लो चप्पो ठकुरसुहाती भर, अल्पकाल । या चिकनी चुपड़ी बात। लव --संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. लपट ) श्राग लवंग - संज्ञा, पु० (सं० हौंग, लउंग की ज्वाला या लपट, लौ, लव ।। लवाँग (दे०) । " ललित लवंग-लता परि लवलासी-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. शीलन कोमल मलय-समीर "----गीत। लव-प्रेम -- लासी - लसी, लगाव ) प्रेम का लव-संज्ञा, पु० (स०) अत्यंत थोड़ी मात्रा, | लगाव या सम्बन्ध । छत्तीस पल या दो काष्टा का समय, लवा लवलो-संज्ञा, सो० (सं०) हरफा रेवरी पक्षी. लवंग, रामचन्द्र जी के दो यमज सुतों नामक पेड़ और उसका फल, एक विषम ( लव-कुश ) में से बड़े पुत्र, । " लव कुश वर्णिक छंद (पिं० )। नाम पुराणन गाये" -- रामा० । वि० लेश लवलीन- वि० दे० यौ० (हि. लय - लोन ) अल्प, थोड़ा, रंच, तनिक । यौ० लव मिलित, तन्मय, तल्लीन. मग्न । " प्रभु निमेष । मनतें लवलीन मन, चलत बाजि छबि लवक --- संज्ञा, पु० (सं०) करने वाला, कर पाव "--रामा० । वैया। लवण-संज्ञा, पु० (सं०) नमक, नोन, लोन, लवलेश - संज्ञा, पु० यो० (स०) अत्यंत, लवन, लोन (दे०)। अल्प, थोडा. रंच संपर्ग। “जाके वल लवलवण-समुद्र-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) खारी लेश तें, जितेउ चराचर झारि"-रामा० । पानी का समुद्र, लवणसिंध, लवणो- लवा -- संज्ञा, पु० दे० (सं० लाजा ) धानों दधि, लवणाब्धि, लवण सागर। के लावा, खील । संज्ञा, पु० दे० (सं० लावा) लवणाम्बु-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) खारा एक पक्षी जो तीतर सा परन्तु उससे छोटा पानी, खारी पानी का समुद्र, लवणाम्बुध । होता है । “बाज कपटि ज्यों लवा लुकाने' लवणासुर-संज्ञा, पु. यौ० (सं०) मधु दैत्य --- रामा। का पुत्र जो शत्रुघ्न से मारा गया था। लवाई-संज्ञा, स्त्री० वि० (दे०) हाल की लवन-संज्ञा, पु० दे० (सं०) छेदना, काटना, व्यायी गाय, छोटे बच्चे वाली गाय । खेत की कटाई, लुनाई । संज्ञा, पु० दे० (सं० " निरखि बच्छ जनु धेनु लवाई "लवण ) नमक, नोन। रामा० । संज्ञा, स्त्री० दे० (हि० लवना :लवना-स० क्रि० दे० ( सं० लवन ) खेत | आई -- प्रत्य० ) खेत के अनाज की कटाई, काटना, लुनना काटना, छेदना । लुनाई। लवनाई*--संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० लावण्य ) दवाक-संज्ञा, पु० (सं०) हँसिया, हंसवा, लावण्य, सुन्दरता, लुनाई (दे०)। दराती, खेत काटने का हथियार ! For Private and Personal Use Only Page #1538 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir BAR लवाजमा १५२७ लसोड़ा, लसोढ़ा लवाजमा-संज्ञा, पु० दे० ( अ० लवाज़िम) लसदार-वि० ( सं० लस-+-दार-फा० किसी के साथ रहने वाला, दल बल और प्रत्य० ) लसीला, जिसमें लस हो। साज-सामान, श्रावश्यक सामग्री। लसना-स० कि० दे० (सं० लसन) सटाना, लवार-लवारा—वि० दे० (सं० लपन = चिपकाना । प्र० कि० (दे०)-शोभित या बकना) झूठा, असत्यभाषी । “मिलि तपसिन उत्कंठित होना विराजमान होना, छजना, से भयसि लवारा" | " साँचहु मैं लवार छाजना फबना । " लसत राम मुनिभुजबोहा"- रामा० । संज्ञा, पु० दे० मंडली"-रामा० । प्रे० रूप-लसवाना स० (हि. लवाई ) गाय का छोटा बच्चा । संज्ञा, । रूप-लसाना, तसावना। पु० (दे०)-चुगली, शिकायत । वि.- लसनि -- संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. लसना ) लवारी। उपस्थिति विद्यमानता, स्थिति, शोभा, लवासी -वि० दे० (सं० लव - बकना--- छटा, सत्ता, फवनि। मासी - प्रत्य० ) बकबादी, गप्पी, लम्पट । । लसम-वि० (दे०) खोटा, दूषित, बुरा । लशकर-लश्कर--संज्ञा, पु. ( फा० ) सेना, लसलसा -- वि. द० ( सं० लस ) लसदार, दल, फौज, लसकर, छावनी, सेना का लसीला। लसलसाना - प्र. क्रि० दे० (सं० लस) पड़ाव, जहाज़ के कुली आदि, खल्लासी । चिपचिपाना, ललदार होना, लस छोड़ना। यौ०-लाव-लश्कर। लसा-संज्ञा, स्व० दे० (सं० लस ) चिपटा लशकरी- वि० दे० (फा. लशकर) सिपाही, हुआ, शोभित, हलदी। लो०-“गरे मसा, सेना-संबंधी, जहाज़ी, खल्लासी। संज्ञा, सोने लसा"। स्त्री०लशकर वालों की या जहाजियों की ललित-वि० ( सं० लस ) शोभित, विराजभाषा। मान, लक्षित, प्रत्यक्ष, युक्त । लशटम्पाटम----क्रि० वि० दे० हि०) किसी लसियाना-अ. क्रि० दे० ( सं० लस) भाँति, किसी प्रकार, उलटा-सीधा, उलटा चिपचिप होना, चिपकना, लस लस होना, पुलटा, जसटमपसटम (दे०)। रसावेश होना, सरसता पाना, चाव-युक्त लशुन-संज्ञा, पु० (सं.) लहसुन, लहसन, होना, ललचना। एक कंद । "लशुन, जीरक, सैंधक, गंधक लसी-- संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० लस) लस, त्रिकटु, रामठ, चूर्णत्रिदम् समम्-वै०जी०।। लगाव, चिपचिपाहट, श्राकर्पण, फ़ायदे का लषन-लपणा*---संज्ञा, पु० दे० ( सं० डौला, लाभ का योग, संबंध, दूध और लक्ष्मण ) लक्ष्मण जी, लखन (ग्रा.)।। पानी का शर्बत लस्सो (ग्रा०) । अ० क्रि० "लषन शत्रुसूदन एक रूपा"-रामा० । । (हि. लसना ).-शोभित, विराजमान ।। लषित--संज्ञा, पु. (स.) चाहा या देखा लसोला-दे० वि० सं० लस --- ईला-प्रत्य०) हुश्रा, अभिलषित । लसदार, सुन्दर, सरस, शोभावान । स्त्री.. लस-संज्ञा, पु. (सं०) चिपकने या चिप लसौली। काने का गुण या वस्तु चिपचिपाहट, लासा, | लसुनिया-संज्ञा, पु० दे० (सं० लशुन ) श्राकर्षण, चित्त लगने की बात । एक बहुमूल्य धूमिल रंग का रत्न या पत्थर । लसकना-अ० कि० (दे० वा सं० लस ) लहसुनिया, लाजावत, बैडूर्य मणि । चिपचिपा या लसदार होना, लसना, गीला लसोड़ा लसोढ़ा-संज्ञा, पु० दे० (सं० लस होना। | चिपचिपाहट ) एक प्रकार का वृक्ष और उसके For Private and Personal Use Only Page #1539 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org १५२८ लस्टम पस्टम (दे०) ज्यों त्यों फल, लसौटा - संज्ञा, पु० (दे०) बहेलियों के लासा रखने का चोंगा | लस्टम पस्टम क्रि० वि० करके, किसी न किसी प्रकार, किसी भांति या प्रकार, उलटा-सीधा, उलटा-पुलटा । लस्त - वि० दे० ( हि० घटना ) अशक्त, शिथिल, श्रमित, थका हुआ, श्रांत, कृति । लस्सी - संज्ञा, स्त्री० दे० ( सं० लस ) लमी, चिपचिपाहट, महीं मट्टा, तक, छाँछ, श्राधा दूध और आधा पानी । लस्सो संज्ञा स्त्री० दे० ( ० लस ) भक्ष्य विशेष, दूध और पानी मिला भोजन, उलझन, फंदा । कमर लहँगा - संज्ञा, पु० दे० (सं० लंक कटि + अंगा हि० ) खियों का एक पहनावा, के नीचे बाँधरा, कटि से नीचे के अँगों का ढाकने वाला घेरदार पहिनावा । लहक - संज्ञा, स्त्री० दे० ( हि० लहकना ) धारा की लपट, ज्वाला, लौ, छवि, शोभा, कांति, चमकीली, द्युति, दीति । लहकना -- अ० क्रि० दे० (अनु० ) लहराना, झोंके खाना, भाग का लपट छोड़ना, जलना, दहकना, प्रकाशित होना, हवा का चलना, लपकना, झलकना, उत्कंठित होना, म कना । प्रे० रूप- जहकाना, लहकवाना, लहकावना, लहकारना । लहकावट -संज्ञा, खो० दे० (हि० लहकाना ) शोभा, चमक, दीप्ति, कांति । लहकीला - वि० दे० ( हि० लहक + ईलाप्रत्य० ) चमकीला ! लहकौर, लहकौर, लहसौवर -संज्ञा, पु० दे० ( हि० लहना + कौर यास ) वरकन्या का एक-दूसरे के सुख में कौर डालने या खिलाने की रीति, विवाह में एक रीति जिसमें वर को दही चीनी खिलाते हैं लो० समाचार मड़ये के पाये, जब लहकरे भाँदा श्राये" । 66 लहरदार लहजा -संज्ञा, पु० दे० ( ० लहन: ) गाने या बोलने का तरीका या ढंग, लय, स्वर । लहज़ा - संज्ञा, पु० ( ० ) क्षण. पल | लहड़ - संज्ञा, पु० (दे०) छोटी और हलकी बैल गाड़ी, लदी ( ग्रा० ) । लहनदार - संज्ञा, उ० ( हि० लहना - दारफा० प्रत्य० ) ऋण देने वाला, उधार देने चाला, व्यवहर, महाजन | वि० (दे० ) खमीर उठा हुआ | Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir लहना - स० क्रि० दे० ( सं० लभन ) प्राप्त करना, पाना धन, भाग्य फल भोगना | संज्ञा, पु० दे० ( [सं० लभन ) उधार दिया हुआ धन, किसी से मिलने वाला | लहनी संज्ञा स्त्री० दे० ( हि० लहना ) प्राप्ति, फल, भोग, भाग्य फल । " जैसी करनी होति है, तैसहि लहनी होय - कुं० वि० । " लहर --- मज्ञा, ५० दे० ( हि० लहर ) चोगा. लवादा, एक लम्बा ढीला पहनावा, पताका झंडा, विज्ञान, तोता : लहमा पज्ञा, पु० ० ( ० लहमः ) क्षण, ल. लगहा (दे० ) | लहर -- संज्ञा, स्त्री० ६० (सं० लहरी) हिलोरमौज, तरंग, बीचि ऊपर उठती हुई जलराशि, उमंग, धावेश, जोश, झोंका, कुछ अंतर से रह रह कर मूर्छा, पीड़ा आदि का वेग, विष का देह और मन पर प्रभाव । " भांग भखब तौ सहज है लहर कठिन हीं होय । सुहा साँप काटने की लहर -- माँप काटे हुये मनुष्य की विषकृत मूर्छा के बीच बीच में कुछ चैतन्य सा होने की दशा । श्रानंद की उमंग, मज़ा मन की मौज। यह बहर-यानंद और सुखचैन | टेढ़ी चाल साँप की वक्रगति सो कुटिल रेखा हवा का झोंका, महक, लपट | लहरदार - वि० ( हि० लहर | दार- फा० , For Private and Personal Use Only प्रत्य) सीधा न जाकर जो बल खाता हुआ जात्रे, तरंगयुक्त लहर सी रेखाओं से युक्त । Page #1540 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir लहरना लहियतु लहरना-अ. क्रि० दे० (हि. लहराना)। "ज्यों सुकृति-कीर्ति गुणी जनों की फैलती लहराना, हिलना डोलना, लहर देना। है लहलही "-मैं० श०। लहर-बहर - संज्ञा, स्त्री० (दे०) सौ भाग्य, लहलहाना--अ० क्रि० दे० (हि० लहरना = संपत्ति, धन, सुख-चैन । हिलना ) हरे-भरे पौधों का हवा के झोंकों लहर-पटार-संज्ञा, पु० दे० यौ० (हि. से हिलना, हरा-भरा होना, सरसब्ज़ होना, पेड़-पौधों का हरी पत्तियों से भरना, लहर --पट ) धारीदार एक रेशमी वस्त्र । "विरह अगिन ते तनु जर यो रहिगो लहर प्रफुल्लित या प्रसन्न होना, पनपना, सूखे पटोर"-स्फुट। पेड़-पौधों में फिर पतियाँ निकलना । लहरा-संज्ञा, पु० दे० ( हि० लहर ) तरंग, लहलुट--संज्ञा, पु० दे० यौ० (हि. लहना -- लूटना) लेलूट, लेकर न देने वाला । लहर, मौज, प्रानंद, मज़ा, वृष्टि का एक झोंका, बाजे या गाने ( पाल्हा आदि ) को लहलोट-संज्ञ, पु० दे० यौ० ( हि० लहना __-लूटना ) लेलूट, लेकर न देने वाला। एक तान। लहसन - संज्ञा. पु. (दे०) शरीर पर के लहराना-अ० कि० ( हि० लहर -- पाना--- काले दाग़ । प्रत्य०) वायु-वेग से हिलना, लहरें या झोंक लहसुन-संज्ञा, पु० दे० ( सं० लशुन ) एक भाना, डोलना, वायु-वेग से पानी में तरंग कंद, गोल गाँउ का कई फाकों वाला एक उठना या जल का हिलोरे मार बहना । छोटा पौधा (मसाला), लासुन (ग्रा०)। इधर उधर झोंके खाते या मुड़ते चलना, लहनिया-ज्ञा, पु० (हि. लहसुन ) मन में उमंग होना, उत्कंठित होना, एक बहुमूल्य धूमले रंग का रन, रुद्राक्षक, भाग की लपक का लपकना, दीप शिखा वैद्रर्य, कन-रत्न ( ज्यो०)। का हिलना, भाग का भड़कना, दहकना, लहा*-संज्ञा, पु० दे० ( हि० लाह ) लाह । योभित या विराजमान होना, छवि देना, स० क्रि० सा० भृ० (हि. लहना) पाया। बसना, छजना, किसी का फिर फिर उसी तहाचेह-संज्ञा, पु० (दे०) नाच की एक स्थान में पाना । स० कि०-वायु के गति, शीघ्रता और तेजी के साथ झपट । कोंके में इधर-उधर-हिलाना, टेदी चाल से लहालहा*--वि० दे० (हि. लहलहा ) बे बाना। लहलहा, हरा-भरा । लहरिया-संक्षा, पु. द० (हि० लहर) लहर लहालोट-वि० इ० यौ० (हि. लाभ, लाह जैसा चिन्ह, टेढी या वक्र लकीरों की श्रेणी +लोटना) लट्ट, प्रसन्न, हँसी के मारे लोटता पा पंक्ति, रंग-बिरंगी, टेडी मेढ़ी लकीरों हुअा, मुग्ध, प्रेम-अग्न, हर्ष से परिपूर्ण, वावा एक वस्त्र, या उसको साड़ी या मोहित । धोती। संज्ञा, स्त्री० (हि० लहर ) लहर लहास-संज्ञा, सं० दे० ( अ० लाश ) लहरी- संज्ञा, स्त्रो० (सं०) तरंग, मौज, मृतक शरीर, मुर्दा, लाश (दे०)। बहर। -वि० (हि. लहर-1-ई प्रत्य०)। लहासी-संज्ञा, सी० दे० ( स० लभस) मनमौजी, स्वच्छंद, स्वेच्छाचारी, उमंगी, . नाव खींचने की मोटो रस्सी । तरंगी। लहि-अव्य० दे० ( हि० लहना ) तक, लहलहा-वि० दे० (हि. लहलहाना) पर्यंत । स० पू० कि० (हि० लहना) पाकर । हरा-भरा, लहलहाता हुआ, आनंदपूर्ण, लहियतु-स० क्रि०व० (हि० लहना) पाता प्रफुल्लित, हृष्ट-पुष्ट । स्रो० लहलहो । है । For Private and Personal Use Only Page #1541 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org लहु १५३० लहु लहना ) - अव्य० दे० (हि० लौं ) लौं, तक, पय्यंत । स० क्रि० दे० ( हि० पाश्री, लहो । लहुरा - वि० दे० (सं० लघु) छोटा । लाँकित - वि० स्त्री० लहुरी । लाँछन-युक्त | | लहुरी - संज्ञा, त्रो० (दे०) छोटे भाई की स्त्री । वि० (दे०) आयु में छोटी, कम उम्र की । लहू - संज्ञा, पु० दे० ( सं० लोहित) लोहू, रक्त। मुहा० - लहूलहान या लहूलुहान होना- रक्त से सराबोर होना या भर जाना, बहुत रक्त बहना । लहेरा - संज्ञा, पु० दे० ( हि० लाह = लाख + एरा - प्रत्य० ) लाइक, पक्का रंग रँगने वाला । लाँक -संज्ञा, त्री० दे० ( सं० लंक = कटि ) कटि, कमर, खेत से काटे गये धन के पौधे, उनकी राशि ( प्रान्ती० ) । लाँग - संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० लाँगूल = पूछ ) काँछ, धोती का छोर जो पीठ पीछे खोंसा जाता है । लाँगल - संज्ञा, पु० (सं०) जोतने का हल | लाँगली-संज्ञा, पु० (सं० लॉगलिन् ) बलराम, साँप, नारियल | संज्ञा, स्त्री० (सं०) एक नदी ( पुरा० ) । कलिहारी, मजीठ ( औौष ० ) ! लाँगुली, लाँगूली - संज्ञा, पु० (सं० लॉगूलिन् ) बानर, बंदर | लाँघ -संज्ञा, पु० दे० (हि० लाँघना) फलाँग, कूद, कुदान, उछाल, कुलाँच | लाँघना – स० क्रि० दे० (सं० लँघन ) नाँघना ( ग्रा० ) फाँदना, डाँकना, कूद जाना । स० रूप-लँघाना, प्रे० रूप-लघवाना । "जो लाँघे सत जोजन सागर " रामा० । लाँच - संज्ञा, स्त्री० (दे०) घूस, रिशवत । लांछन- संज्ञा, पु० (सं०) चिन्ह, दाग़, कलंक, दोष, ऐब । वि० - - लांछनीय | लाँइना - संज्ञा, स्त्री० (सं०) निन्दा, तिरस्कार अपमान, बुराई, कलंक । लाख लाँछनित - वि० (सं०) लाँछन-युक्त, लाँछित, कलंक -युक्त, कलंकी, दोषी, तिरस्कृत, अपमानित | (सं०) तिरस्कृत, निंदित, Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir लाँबा - वि० दे० ( हि० लंबा ) लम्बा | स्त्री० लॉबी । लाइ- संज्ञा, स्रो० दे० (सं० अलात = लुक ) अग्नि, लव । पू० क्रि० (०) लाकर | लाइक – वि० दे० ( अ० लायक़ ) लायक, योग्य | लाई| संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० लाजा ) धान का लावा या खील, उबाले चावलों का लावा | संज्ञा, स्त्री० दे० (हि० लगाना ) चुग़ली, निन्दा | स० क्रि० स्त्री० सा० भू० (दे०) ले आई । यौ० - लाई लुतरीचुगुली, शिकायत, चुगलखोर (स्त्री) । लाकड़ी - संज्ञा, त्रो० दे० ( हि० लकड़ी ) लकड़ी, काष्ठ, काठ, लाकरी (प्रा० ) । लाक्षणिक - वि० (सं०) लक्षण संबंधी, लक्षण - सूचक संज्ञा, पु० (सं०) ३२ मात्रानों का मात्रिक छंद (पिं०), लक्षणज्ञाता, लक्षणा शक्ति-सम्बंधी ( शब्दार्थ) । लाक्षा - संज्ञा, स्रो० (सं०) लाह, लाख | लाक्षागृह - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) पांडवों के जलाने को दुर्योधन का बनवाया हुआ लाह का घर, लाक्षालय, लाक्षावास । लाक्षारस - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) महावर । लाक्षिक - वि० (सं०) लाह या लाख संबंधी । लाख - वि० दे० (सं० लक्ष ) सौ हजार, afa अधिक | संज्ञा, पु० सौ हजार की संख्या, १०००००। क्रि० वि० – अधिक, बहुत । मुद्दा० -- लाख से लोख होना - सब कुछ होने पर भी पीछे कुछ न रहना | संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० लाता) लाह, लाही, एक तरह के छोटे लाल कीड़े जो लाह बनाते हैं, इन कीड़ों से अनेक वृक्षों पर बना एक लाल पदार्थ । For Private and Personal Use Only Page #1542 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir लाखना लाजवर्द लाखना---० क्रि० दे० (हि० लाख+ना- हेतु, वास्ते, लागि । सा० भू० अ० क्रि० (हि. प्रत्य० ) लाह लगा कर छेद बंद करना ।। लगना ) लगे। *-स० क्रि० दे० ( सं० लक्षण ) जानना। लाघव-संज्ञा, पु० (सं०) लघुता, छोटाई, लाखागृह-संज्ञा, पु० दे० यौ० ( सं० हलकाई, अल्पता, कमी, फुर्ती, शीघ्रता लाक्षागृह ) लाक्षागृह, लाह का घर। हाथ की सफाई, तंदुरुस्ती, आरोग्य । यौ। लाखी- वि० दे० (हि० लाख+ ई-प्रत्य. ) हस्त-लाघव, “ पर्यायवाची शब्दानाम् लाख के रंग का, मटमैला लाल । संज्ञा, लाधवगुरुता नाद्रियामः"-पा०शि० व० । पु०-लाख के रंग का घोड़ा। अव्य. (सं०) शीघ्रता से, सहज में । लाग-संज्ञा, स्त्री. ( हि० लगना ) लगाव, "राघव-समान हस्त-लाघव बिलोकि तासु" लगन, संबंध, संपर्क, प्रीति, प्रेम, युक्ति, - ० व०। मन की तत्परता, उपाय, कौशल-पूर्ण स्वाँग, लाघवी -संज्ञा, स्त्री. ( सं० लाघव+ ईचढ़ा-उपरी, प्रतियोगिता, बैर, शत्रुता, टेना, प्रत्य० ) शीघ्रता, फुर्ती, तेज़ी। मंत्र, शुभ अवसरों पर जादू , ब्राह्मणादिकों लाचार-वि० ( फा०) विवश, मजबूर । को बाँटने का नियत धन, लगान, भूमि-कर, क्रि० वि० (दे०) विवश या मजबूर होकर । एक प्रकार का नाच । कि० वि० दे० ( हि० लाचारी-संज्ञा, स्त्री. (फा०) विवशता, लौं) तक, पर्यंत, लगि (व०) मजबूरी, बेबसी (द०)। लागडाँट-संज्ञा, स्त्री. यौ० दे० (हि. लाची-संज्ञा, स्त्री० (दे०) इलायची। लग= वैर+डांट ) बैर, शत्रुता, प्रति- लाचीदाना-संज्ञा, पु. दे. यौ० (हि. योगिता। संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० लग्नदंड) लाची-दाना) एक प्रकार की मिठाई। नाच की एक क्रिया। लाछन*- संज्ञा, पु० दे० (सं० लांछन ) लागत--संज्ञा, स्त्री. ६० (हि. लगना ) लांछन, कलंक, दोष, अपराध, चिन्ह । पूँजी, किसी वस्तु के बनाने या तैय्यारी में लाज-संज्ञा, सो० दे० (सं० लज्जा ) लजा. व्यय हुआ धन, लग्गत (दे०)। शर्म, इज्जत, पर्दा, पति, मान-मर्यादा । लागना* -- क्रि० दे० (हि. लगना) संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० लाजा ) धान का लगना। लावा, खील । लागि-लागी-अव्य० दे० (हि० लगना) लोजक-संज्ञा, पु. (सं० लाजा ) धान द्वारा, हेतु, कारण, लिये, वास्ते, निमित्त ।। का लावा। "बार बार मोहि लागि बुलावा"-रामा० लाजना*~-अ० क्रि० दे० (हि. लाज-ना"मोर जन्म रघुबर बन-लागो'-रामा० । प्रत्य० ) लज्जिन होना, शर्माना, लजना, लिये, द्वारा । क्रि० वि० दे० ( हि० लौं) लजाना (दे०)। २० रूप-लजवाना। तक, पयंत, लगि (दे०)। लाजवंत --- वि० दे० (हि० लाज-वंतलागी-संज्ञा, स्त्री. अध्य० (दे०) लिये, प्रत्य०) लजावाला, लजा-युक्त, शर्मदार, द्वारा, स्नेह, प्रेम । संज्ञा, पु०-द्वेषी, शत्रु, शर्मिदा । स्त्री० लाजवंती।। विरोधी। लाजवंती-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि० लजालू ) लागा-वि० दे० (हि. लगना ) प्रयुक्त या लजालू. छुईमुई, लजाधुर (ग्रा०)। चरितार्थ होने वाला, लगने-योग्य, लगाने (सं० लज्जावती)। था घटित होने वाला। लाजवर्द-संज्ञा. पु. (फा० ) एक रत्न, लागे-भव्य० दे० (हि. लगना) लिये, एक बहुमूल्य पत्थर, राजवर्तक (सं.)। For Private and Personal Use Only Page #1543 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir लादी लाजवर्दी १५३२ लाजवर्दी-वि० ( फा० ) लाजवर्द के रंग बहुत हैं सदा राखिये संग"-गिर० । मुहा० का, हलकं नीले रंग का। " श्री सिर पै --लाठी चलना (चलाना)-लाठियों लाजवर्दी का सायवाँ बनाया"-म० इ० से मार-पीट होना ( करना )। लाठी सा लाजवाब-वि० ( फा० ) निरुत्तर, अनुपम, मारना--कटु तथा कठोर बात करना। बेजोड़, अद्वितीय, चुप, मौन, मूक । लाड़-संज्ञा, पु. (सं० लालना ) बच्चों का लाजा-संज्ञा, स्त्री० (सं०) धान का लावा, लालन, प्यार, दुलार । " लाइने बहवो चावल, लाई, खील । "अवाकिरन बाललता दोषाः ताड़ने बहवो गुणाः "--नीतिः । प्रसूनैराचार लाजौरिव पौर कन्या"- रघु० । लाइन -- संज्ञा, पु. ( सं० ) दुलार, प्यार, संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० लजा) लजा । " मोहिं । लाड़, चाल-स्नेह न कछु बाँधे कर लाजा"--रामा । लाइना-य० कि. (दे०) दुलराना, लाड़लाजावत-संज्ञा, पु. (सं०) एक मणि या प्यार करना । "लाइन मैं बहु दोष हैं' । रत्न विशेष, रावटी, लावद (दे०)। लाइ लता-वि० दे० यौ० (हि० लाड़ला) लाजिम-वि० (अ.) उचित, योग्य, । __ लाइला, बहुत दुलारा या प्यारा । स्त्री० कर्त्तव्य, मुनासिब, वाजिब, समीचीन, नाइलड़ती। उपयुक्त। लाडला, लाडिला-वि० दे० (हि० लाड़) लाज़िमी - वि० ( अ० ला ज़िम ) श्रावश्यक, | अति दुलारा या प्यारा । स्त्री० लाड़ली । ज़रूरी, उचित । " लाड़ला बेटा था एक माँ बाप का" लाट-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. लट्ठ) ऊँचा -हाली। और मोटा खम्भा, मीनार । संज्ञा, पु० (सं०) लाउन डेनी-ताइनी---संज्ञा, स्त्री० (दे०) वर्तमान अहमदाबाद के समीप का एक बहुत दुलारी या प्यारी बेटी या स्त्रो। प्राचीन देश, वहाँ के निवासी, लाटानुप्रास लाल -- संज्ञा, खी० (दे०) पाद, पाँव, पैर, (काव्य०)। संज्ञा, पु. द. (अ० लार्ड) पद. पादाघात, पादप्रहार । " तात लात मालिक, स्वामी । स्त्री० लामी। रावण मोहिं मारा"-रामा० । “लात लाटानुप्रास-संज्ञा, पु. चौ० (सं०) एक खाय पुच कारिये, होय दुधारू धेनु'.--वृं० । शब्दालङ्कार जिसमें अन्वयान्तर से तात्पर्या- मुहा०- लातखाना-पादाघात सहना, न्तर-पूर्ण वाक्य या शब्द की श्रावृत्ति हो पैर की टोकर या अपमान सहना । लात (५० पी०)। मारना तुच्छ समझ कर छोड़ देना या लाटिका-संज्ञा, स्त्री० (सं०) काव्य में ! त्यागना । स्वल्प समासों या पदोंवाली एक रचना- लाद-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि० लादना) लादने रीति ( काव्य०)। का कार्य, बोझ, भार, पेट की आँत, पेट । लाटी-संज्ञा, स्त्री० ( अनु. लटलट --- गाढ़ लादना-स० क्रि० दे० ( सं० लब्ध ) गाड़ी या चिपचिपा होना ) मनुष्य के होंठों और प्रादि पर ढोने या ले जाने के लिये चीजें मुँह के थूक के सुख जाने की दशा। संज्ञा, । या वस्तुयें भरना चा रखना, भरना, चढ़ाना, स्त्री. (सं०) लाटिका रीति । किसी बात का भार रखना। लाठ-संज्ञा, स्त्री० दे० (हिं० लाट) लाट, लादिया--संज्ञा, पु० दे० ( हि० लादना ) लार्ड। लादने वाला! लाठी-संज्ञा, स्त्री० दे० (मं० यष्टि) मोटा लादी--संज्ञा, स्त्री० दे० (हि० लादना) वह और बड़ा डंडा, लकड़ी। " लाठी मैं गुन गठरी जो गधे श्रादि पर लादी जाती है। For Private and Personal Use Only Page #1544 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org १५३३ लादू लाडू - वि० दे० ( हि० लादना ) लादने योग्य | वि० लढत – जिस पर सदा बोझ लादा जाय । लाघना*- -स० कि० दे० (सं० लब्ध ) पाना, प्राप्त करना । लानत - संज्ञा, स्त्री० दे० (अ०लयनत) भर्त्सना, धिक्कार, फटकार । सौ० लानन-सलामत | लाना - स० क्रि० दे० ( हि० लेना + आना ) कोई वस्तु उठाकर ले थाना, साथ लेकर थाना, सामने रखना, उपस्थित करना । स० क्रि० दे० ( हि० लाय = आग ) आग लगाना, जला देना, नष्ट कर देना (ग्रा० ) । * स० क्रि० (६० लगाना ) लगाना । लाने - अव्य० दे० ( हि० लाना ) वास्ते, लिये, हेतु, कारण । लापक-संज्ञा, पु० ( सं० ) गीदड़, सियार । लापता - - वि० ( फा० ) जिसका पता न लगता हो, गुप्त, दिपा । लापरवा· लापरवाह - वि० ( ० ला + परवाह - फा० ) बेफ़िक, बेखटका, असावधान, निश्चिंत बेपरवाह । चाह घटी, चिंता गयी, मन भा लापरवाह" -- कबी० । लापरवाही - संज्ञा स्त्री० (अ० ला + परवाह फा० + ई-प्रत्य० ) वे फिकी, सावधानी । लापसी संज्ञा स्त्री० दे० ( हि० लपसी ) लपसी, थोड़े घी का पतला हलुवा । लाफना - प्र० क्रि० (३०) लहना (ग्रा० ) कूदना, फाँदना, बदना, हाँफना, लेने को ऊपर उठना या उचकना चौंकना (प्रांती०) | स० रूप- लाना । लावर वि० ० | हि० लबार ) लबार बरा (ग्रा० ) श्रयवादी, मूठा, मिथ्यावादी, धूर्त । लाभ - संज्ञा, पु० (सं०) प्राप्ति, लब्धि, मिलना, नफा, मुनाफ़ा, उपकार, भलाई, फायदा, लाहु ( ब०, ब० ) । • जिमि प्रति लाभ लोभ अधिकाई " - रामा० । लाभकारक लाभकारी - वि० (सं० लाभ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir लार JAWAPURANA SYNES GREEN AMERIKAWAY WWW.SO... करिन् ) लाभदायक, गुणकारी, गुणदायक, फ़ायदेमंद | खो० लाभकरी । लाभदायका - लाभदायक -- वि० (सं०) लाभकारक, लाभकर, लाभकारी लाभदायी । लाभप्रद - वि० (सं०) लाभकारी । लाय संज्ञ, पु० दे० ( फ़ा० लार्म ) फ़ौज, सेना, जनसमूह | T लामज- - रुज्ञा, पु० दे० (सं० लामज्जक) खस जैसी एक पास, पोलाचाला ( प्रान्ती० ) । लामा - संश, पु० ( हि० ) तिब्बत और मंगोलिया के बौद्धों का धर्माचार्य । वि० (दे०) लम्बा, ताँबा, (दे० ) । लामे:- क्रि० वि० दे० ( हि० लाम : लंबा ) लम्बे, दूर, अंतर पर | वि० (दे०) लांब | वाय* -- संज्ञा, खो० दे० (सं० मलात ) लाइ (०) लपट ज्वाला, अग्नि, श्राग । पू० का० कि० अ० ( हि० लाना ) लाकर, ल्याइ ( ब० लायक - वि० ( ० ) समीचीन योग्य, ठीक उचित मुनासिब वाजिब, उपयुक्त, लायक (दे०) । लायक ही सों कीजिये, व्याह, बैर अरु प्रीति - ( ० । सुयोग्य, समर्थ, गुणवान, सामर्थ्यवान् । संज्ञा, पु० दे० ( सं० लाज ) धान का दावा । " जानवंत कह तुम सब लायक --रामा० । लायकी - ज्ञा स्त्री० दे० ( ० लायक ) योग्यता लियाकत, सामर्थ्य | "जामें देखौ लायकी, लायक जानो सोय" - वा० दे० । लायची- संज्ञा, खो० दे० (सं० एला ) "" इलायची याची (प्रा० ) । लार- संज्ञा, स्त्री० दे० ( सं० लाला ) तार के समान पतला और लसदार थूक जो कभी कभी मुख से निकलता है, राल (दे० ) । मुह० - मुँह से लार शुकना किसी पदार्थ को देखकर उसके पाने की प्रति अभिलाषा होना, मुँह में पानी भर आना । (किसी के मुंह से ) लारचुना -- बालपन होना । कतार, पाँति, पंक्ति, लुआब, For Private and Personal Use Only Page #1545 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - - - लाल लालसी लासा । क्रि० वि० दे० ( मार + लैर पीछे) लालड़ी-संज्ञा, पु० दे० (हि. लाल रत्न पीछे, साथ । मुहा०--लार लगाना-- +डी--प्रत्य०) एक लाल नगीना। बझाना, फँसाना । संज्ञा, पु० (दे०) मणि लालन-संज्ञा, पु० (सं०) बालकों के प्रति विशेष, लाड़, दुलार, प्रिय, प्यारा, लाल । आदर-युक्त प्रेम, लाड़, प्यार, दुलार। यौ० वि०-लाल रंग का। -लालन-पालन । संज्ञा, पु० दे० (हि. लाल-संज्ञा, पु० दे० (सं० लालक ) छोटा लाल) प्यारा बच्चा, प्रिय पुत्र, कुमार, बालक । और प्यारा, दुलारा बालक, बेटा, लड़का, अ० क्रि० (दे०) लाड़ प्यार या दुलार करना। प्रियतम, प्रिय, श्रीकृष्ण, लला, लल्ता, । लालना*-२० क्रि० दे० (सं० लालन) लाला (व.)। " कुछ जानत जलथंभ दुलार, प्यार या लाद करना। यौ०बिधि, दुरजोधन लौं लाल'"---वि० । लालना पाजना। " लाल तिहारे मिलना को, नित्त चित्त लालनीय- वि० (सं०) लाड़-प्यार या दुलार अकुलात ''.. स्फु० । संज्ञा, पु० दे० ( सं० करने योग्य । वि०.-लालित । लालन ) लाड़, प्यार, दुलार । संज्ञा, पु. दे० ( हि० लार ) लार* । संज्ञा, स्त्री० दे० लाल-वुमक्कड़-संज्ञा, पु० दे० यौ० (हि. लाल - बूझना ) बातों का मनमाना मतलब (सं० लालसा) इच्छा, अभिलाषा, लालसा, बैठालने या लगाने वाला। "बूझै लाल चाह । संज्ञा, पु. (दे०) मानिक, एक छोटा बुझक्कड़ और न बुझे कोय, “पायन चक्की पत्नी, जिसकी मादा को मुनियाँ कहते हैं। बाँधिकै हरिन न कूदा होय"-जनश्रु० । वि०-रक्तवर्ण, अरुण, अति क्रुद्ध । मुहा० लालभक्ष- संज्ञा, पृ० (सं०) एक नर्क (पु.) । -लाल' (लाल-पीला) पड़ना या लालमन--संज्ञा, पु. ( हि० ) श्री कृष्ण, होना-क्रुद्ध होना, गरम पड़ना। लाल एक प्रकार का शुक या तोता; यो०--- पीले होना-क्रोध करना । खेल में जो | (दे०) लाल मणि, माणिक । सबसे पहिले जीते । मुहा०--लाल होना --- बहुत धन पाकर प्रसन्न होना, खेल में लालमिर्च-~-संज्ञा, स्त्री० यौ० (दे०) सुर्ख सर्व प्रथम जीतना, चौपड़ या पचीसी के मिर्च, लालमिर्चा (दे०)। खेल में गोटियों का घूमकर बीच में पहुँचना । लालमी- संज्ञा, पु० (दे०) खरबूज़ा । लाल-चंदन- संज्ञा, पु. यो० ( हि०) रक्त लालरी- संज्ञा, स्त्री० दे० ( हि० लालड़ी) या देवी चंदन, गोपी चंदन । लाल नग, लाइली। लालच-संज्ञा, पु० दे० ( सं० लालसा ) लालसमुद्र - लालसागर - लालसिंधु --- किसी वस्तु की प्राप्ति की बुरी तरह की इच्छा संज्ञा, पु० यौ० (दे०) भारत-महासागर का लोभ, लोलुपता । वि. लालची। वह भाग जो घरब और अाफ्रिका के मध्य लालचहा-वि० दे० (हि. लालची ) में है (भूगो०)। लालची. लोभी, लोलुप, लाचहा (प्रा.)। लाला - संज्ञा, स्त्री. (सं०) इच्छा, अभिलालची-वि० (हि. लालच + ई-प्रत्य) लाषा, लिप्सा, उत्सुकता, उत्कंठा, चाह । लोभी, लालचहा, लोलुप ।। | लालसिखी-संज्ञा, पु. दे० यौ० ( हि. लालटेन-संज्ञा, स्त्री० दे० ( अ. लैंटर्न) | लाल - शिखा-सं०) कुक्कुट, मुर्गा, अरुणतेल-बत्ती-युक्त चारों ओर शीशे श्रादि पार ! शिखा, (सं०) लालसिखा। दर्शक वस्तु से ढंकी चीज़, कंदील, लालटेम लालमी -- वि० सं० लालसा ) उत्सुक, (ग्रा.)। | इच्छा या अभिलाषा करने वाला, आकांक्षी। For Private and Personal Use Only Page #1546 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - लाला लाववाली लाला-संज्ञा, पु० दे० (सं० लालक ) एक | के हेतु बहुत तरसना । कठिनता, मुश्किल । संबोधन, महाशय, श्रीमान्, साहब, वैश्य । "तिन्है देखिबे के अब लाले परे"-हरि० । और कायस्थ जाति का सूचक शब्द, प्यारे | लाल्हा संज्ञा, पु० दे० (हि. मरसा) बच्चों का संबोधन, लता, लाल, लल्ला, मरसा (साग)। लल्लू (दे०) । संज्ञा, स्त्री० दे० (सं०) लार, | लाव -पंज्ञा, स्त्री० दे० ( हि० लाय ) लव, थूक । संज्ञा, पु. (फा०) पोस्ते का लाल | अग्नि लपक । संज्ञा, स्त्री० (दे०) मोटी फूल, गुलाला। वि० दे० (हि० लाल) रस्सी। संज्ञा, पु० (दे०) लावा, खील । स० लाल रंग का। क्रि० वि० ( हि० लाना ) ले श्रा। लालाटिका-वि० (०)भाग्याधान, भाग्य- | लावक-संज्ञा, पु० (सं०) लवा पक्षी। भरोसी, मस्तक देख कर शुभाशुभ कहने । लावण- वि० (सं०) नमकीन । संज्ञा, पु. वाला। (दे०) संपनी, लावन। लालाभत्त-संज्ञा, पु. (सं०) एक नरक लावण्य-संज्ञा, पु० (सं०) लवण का भाव, (पुरा०)। नमकीन, नमकपन, अति संदरता, मनोलालायित-वि० (०) ललचाया हुआ, । हरता, लुनाई । " लावण्य-लीला मयी" लोभ ग्रसित, अति उत्सुक, उत्कंठित । -प्रि. प्र. लालास्रव-संज्ञा, पु० (सं०) लार गिरना, लावणिक- संज्ञा, पु. (सं.) नमक बेचने वाला, नमक का पात्र । वि०-नमक मकड़ा। संबंधी। लालानाव-संज्ञा, पु. यौ० (सं०) लार | लावदार-वि. (हि. लाल =माग+दार गिरना, मकड़ा का जाला, तालस्त्राव ।। ___ --फा० प्रत्य० ) रंजक देने या छोड़ी जाने लालित- वि० (सं०) प्यारा, दुलारा, पाला वाली तोप । संज्ञा, पु० - तोप छोड़ने वाला, पोषा हुमा । यौ०~-लालित-पालित। तोपची। लालित्य - संज्ञा, पु. (सं०) सुंदरता, सर लावनता -संज्ञा, स्त्री० (दे०) संदरता, सता, सौंदर्य, काव्य का एक गुण (काव्य०) मनोहरता, लावण्य, लावण्यता (सं०) " नैपधेपद-लालित्यं"- स्फु० । लुनाई। लालिमा-संज्ञा, सो० (सं०) अरुणिमा | लावना*-- स० क्रि० दे० (हि० लाना) लाली, सुर्सी, ललाई। "अधिक और | लाना । स० कि० दे० (हि. लगाना) हुई नभ-लालिमा" - प्रि० प्र० । लगाना, छुलाना, स्पर्श कराना, श्राग लाली-संज्ञा, स्त्री० दे० ( हि० लाल + ई- लगाना, जलाना। प्रत्य०) लली, लड़की, ललाई, सुखीलावनि*--संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० लावण्य ) लालिमा, इज्जत, प्रतिष्ठा, श्राबरू, पत, सौंदर्य, लुनाई, लाने का भाव । मान-मर्यादा । "लाली मरे लाल की, जित, लावनी--संज्ञा, स्त्री. (दे०) एक प्रकार का देखौं तित लाल"--कबी०। __ छंद, ख्याल, चंग बजा कर गाया जाने वाला लालुका-संज्ञा, स्त्री० (दे०) एक प्रकार का गाना । वि० लावनीबाज़। हार, माला या गजरा। लावलाव--संज्ञा, पु. यौ० (दे०) लोभ, लाले-संज्ञा, पु. ( सं० लाला ) लालसा, चाह, तृष्णा । इच्छा, अभिलाषा । मुहा०-(किसी लाववाली--संज्ञा, पु. (फा०) आवारा, वस्तु के) लाले पड़ना-किसी वस्तु बेफ़िक्र । For Private and Personal Use Only Page #1547 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir लावल्द लिंगशरीर लावल्द-वि० (फ़ा०) निःसंतान, पुत्रहीन । लाह* --संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० लक्षा) लावलदी--संज्ञा, स्त्री० ( फ़ा. ) निःसंतान लाख, चपरा, चपड़ा । संज्ञा, पु० दे० होने की दशा। (सं० लाभ ) लाहु, लाभ, फायदा, नफ़ा। लावभाव-- संज्ञा, पु० (दे०) लाभ, प्राप्ति, संज्ञा, स्त्री० (दे०) प्राभा, कांति, दीप्ति । बढ़ती, वृद्धि । लाहल ----संज्ञा. पु. ६० ( अ० लाहोल ) एक लावा ----संज्ञा, पु० (सं.) लवा पक्षी । संज्ञा, अरबी पद जो भूत-प्रेत के भगाने वा घृणा पु० दे० ( सं० लाजा ) रामदाना या धान प्रगट करने के हेतु बोला जाता है। श्रादि को भूनने से फूट कर ली हुई खील, . र फूली हुई खाल, लाहा, वाह ... संज्ञा, पु० द. (सं० लाभ ) फुल्ला, लाई, फटका ( ग्रा० ) लाभ । " और बनिज में नाहीं लाहा, है लावा परहन---संज्ञा, पु० द. यौ० ( हि० मूरौ मा हानि '"-- कबी.। लावा --परछना ) विवाह के समय साले का | मय साल का लाही- संज्ञा, सी० दे० (सं० लाक्षा) लावा डालने की एक रीति, लाथा-परसन । लाख, काले रंग का सरसों, महीन वस्त्र या लावारिस--संज्ञा, पु० ( अ० )उत्तराधिकारी कपड़ा, फल को हानिकारी एक लाह के रहित, बेवारिस । ( वि० लवारिसो)। रंग का कीड़ा। वि.--- मटमैलापन लिये लावू-संज्ञा, स्त्री० (दे०) लौका, कढू । लाल रंग। लाश-संज्ञा, स्त्री० ( फा० ) प्राणी की मृतक ला* -- संज्ञा, पु. द० (सं० लाभ) लाभ । देह, शव, मुदी, लोथ, लास,तहास (द०)। लेह तात जग-जीवन लाहू''-रामा० । लाप*--संज्ञा, पु० वि० द० ( हि० लाख) लाहौर - संज्ञा, पु० (दे०) पंजाब की राजलाख । लापना*--- स० क्रि० दे० ( हि लखना ) धानी, एक प्रसिद्ध नार। लखना, देखना, निहारना, अवलोकना। लाहान --- संज्ञा, पु० (ग्र०) एक अरबी-वाक्य लास--- सज्ञा, पु० दे० ( सं० लारय ) एक । का प्रथम पद मो भूत-प्रेतादि के भगाने या प्रकार का नाच, नृत्य, रास, मोद मटके । घृणा प्रगट करने में बोला जाता है। लिंग--- संज्ञा, पु. (सं०) लक्षण, चिन्द, लासक--संज्ञा, पु० (दे०) मोर. मयूर, नर्तक, नचैया : निशान, जिससे किसी पदार्थ का अनुमान लासा-संज्ञा, पु० दे० ( हि० लस । चेप, हो, मूल प्रति ( सांख्य० ) पुरुष की गुप्त लुभाव. चिपचिपा लवाब, लसीली वस्तु, इंद्रिय, शिश्न, शिव मूर्ति, । " लिंग थापि बहेलियों के चिड़िया फँसाने का लसदार करि बिधिवत पूजा"-रामा । संज्ञाओं पदार्थ । मुह-लासा लगाना---कपट में पूरुष-स्त्री का भेद-सूचक विधान (व्या०) । जाल फैलाना, किसी के फंसाने का छद्म लिंग-देह-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) जीव का विधान बनाना। सूक्ष्म शरीर जो स्थूल शरीर के नष्ट होने पर लासानी-वि० ( अ० ) अद्वितीय, अनुपम भी कर्म फल भोगने के लिये जीव के साथ अपूर्व, बेजोड़ । रहता है, लिंग-शरीर (अध्या० )। लासि---संज्ञा, पु० (दे०) लास्य । लिंगपुरागा--संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं.) अठारह लासी-संज्ञा, स्त्री० (दे०) श्राम श्रादि के पुराणों में से शिव-माहात्म विषयक एक फूलों में लसदार विकार । पुराण । लास्य-संज्ञा, पु. (सं०) शृंगारादि मृदु रमों लिंगशरीर -- संज्ञा, पु० यौ० (सं०) जीवारमा का उद्दीपक, कोमलांग नृत्य, सुकुमार, का सूचम शरीर जो स्थून के भीतर मृत्यु के | बाद भी कर्म-फल भोगने को रहता है। नाचा For Private and Personal Use Only Page #1548 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir लिगायत लिपड़ा लिंगायत-संज्ञा, पु० (स०) दक्षिण देश का लिखापढ़ी--संज्ञा, स्त्री० यौ० ( हि० लिखना एक शैव संप्रदाय । +पढ़ना) पत्र व्यवहार, चिट्टियों का आनालिंगी-संज्ञा, पु० सं० लिगिन् ) लक्षणयुक्त, जाना, किसी विषय को लिख कर पक्का चिन्ह वाला, चिन्हधारी. प्राडम्बरी, धर्म- या स्थिर करना। ध्वजी। " सवर्ण लिंगी विदितः समाययौ | लिखावट- संज्ञा, स्त्री० (हि० लिखना+प्रावट -किरा०। । प्रत्य०) लेख, लिपि, लिखने की शैली या लिंगेंद्रिय-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) पुरुषों की ढंग, लिखाई।। गुप्तेंद्रिय या मूनेंद्रिय, शिश्न, लांड (दे०)। लिखित--वि० (सं०) लिखा हुश्रा, अंकित, लिए-हिंदी के संप्रदान कारक का चिन्ह चित्रित, चिह्नित । जो अपने शब्द के लिये क्रिया का होना प्रगट लिखितक--संज्ञा, पु० दे० (सं० लिखित) करता है, हेतु. वास्ते, लिये काज (.)। एक भाँति के प्राचीन चौखटे अक्षर । लिक्खाड़ - संज्ञा, पु० दे० (हि. लिखना) लिख्या--- संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० लिक्षा) बहुत लिखने वाला, लिखैया, बड़ा भारी लीख । लेखक (व्यंग्य)। लिच्छवि-संज्ञा, पु० (सं०) एक राज वंश लिक्षा-संज्ञा, स्त्री० (सं०) जं का अंडा, लीख, जिसका राज्य कोशल, मगध और नेपाल एक परिमाण (कई भेद)। में था (इति)। लिखत-संज्ञा, स्त्री० दे० ( सं० लिखन) लिझड़ी-६ज्ञा, स्त्री० (दे०) हल, पोतड़ी। लेख, लिखी बात, दस्तावेज़, तमस्सुक । लिटाना-२० क्रि० (हि० लेटना) किसी दूसरे लिखतंग-संज्ञा, पु. यौ० (दे०) लेख, को लेटने के कार्य में लगाना । नियमपत्र, चिट्ठी, निवितांग (सं०)। लिट्ट-संज्ञा, पु० (दे०) मोटी रोटी, बाटी, लिखधार-संज्ञा, द० (हि. लिखना- धार अंगाकड़ी। (स्रो० अल्पा० लिट्टी)। प्रत्य०) लिखने वाला, लेखक, मुंशी, मुहरिर, लिठौर- संज्ञा, पु० (दे०) एक पकवान । क्लर्क (अं०)। लिडार-संज्ञा, पु० (दे०) सियार, गीदड़। लिखना-स० कि० (सं० लिखन: स्याही या वि० ---डरपोक, कायर, लैंडार (ग्रा०)। पेंसिल से अक्षरों की श्राकृति या चिन्ह लिथड़ना-प्र० कि० (दे०) धूल धूसरित बनाना, लिखाई करना, चित्रित या अकित । होना, लथड़जाना, अपमानित होना, करना, अतर बना कर किसी विषय की पूर्ति लिथरना। करना, लिपिबद्ध करना, पुस्तक, लेख या लिथाडना-स. क्रि० (हि. लिथड़ना) पछाकाव्य आदि की रचना करना, चित्र बनाना इना, धूल धूपरित या अपमानित करना, लिखा-संज्ञा, पु० ( हि लिखना ) प्रारब्ध, लथाड़ना, डाँटना, फटकारना । होनहार, भाग्य, भवितव्यता। लिपटना-- अ. क्रि० दे० (सं० लिप्त) चिपलिखाई-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि० लिखना--- टना, सटना, चिमटना, गले लगाना, संलग्न ई-प्रत्य०) लिपि, लेख, लिखने का कार्य, होना, शालिंगन करना, किसी कार्य में लिखने की शैली, या रोति, लिखावट, तन, मन या जी-जान से लग जाना। लिखने की मज़दूरी। स० रूप-लिपटाना, प्रे० रूप-लिपटवाना। लिखाना-स० कि० दे० (सं० लिखन) लिखने लिपड़ा-संज्ञा, पु० (दे०) कपड़ा, वस्त्र । का कार्य किसी दूसरे से कराना, लिखा- वि० दे० (हि० लेप) गीला और चिपचिपा, घना (दे०)। प्रे० रूप-लिखवाना । लिपरा (दे०) । संज्ञा, स्त्री० (दे०) लिबड़ी। भा० श० को०-१९३ For Private and Personal Use Only Page #1549 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - on लिपना लिहाफ़ लिपना-अ० कि० दे० (सं० लिप् ) लीपा लिम-संज्ञा, स्त्री० (दे०) कलंक दोष, अपया पोता जाना, रंग या गीला वस्तु का फैल राध, चिह्न, लक्षण । कर भद्दा हो जाना, नष्ट होना । स० रूप-- लियाकत -- संज्ञा, सी० (अ०) गुण, सामर्थ्य, लिपाना, लिपावना, प्रे० रूप-लिपवाना। योग्यता, विद्वता, काविलीयत, शिष्टता, लिपवाई-संज्ञा, स्त्री० (दे०) लिपवाने या | शील गुण, सभ्यता। लीपने की मजदूरी या क्रिया। लिये--अव्य (दे०) वास्ते, निमित्त, हेतु । लिपाई-संज्ञा, स्त्री० ( हिलीपना ) लीपने । (सप्रदान का चिन्ह ) लिए । स० क्रि० (हि. लेना) लिये हुए। का कार्य, भाव या मज़दूरी। लिपाना-स० कि० (हि०) मिट्टी, गोबर या | लिलाट- संज्ञा, पु० दे० ( सं० ललाट ) चूने का लेप चढ़वाना, रंगादि कराना। | ललाट, मस्तक, भाग्य, लिलार (दे०)। लिलाना-स० क्रि० (दे०) चाहना, लललिपि-संज्ञा, स्त्री० (सं०) लिखावट, लिखित चाना, लोभ करना, निगलाना। या अंकित वर्ण-चिह्न, अक्षर लिखने की रोति, जैसे-वाही लिपि, अरबी लिपि, लिखे हुए लिलार- संज्ञा, पु० दे० ( सं० ललाट ) ललाट, मस्तक, माया, भाग्य । संज्ञा, स्त्री० वण या बात, लेख। (दे०) लिलारी-ललाट माथे पर वालों लिपिकर--संज्ञा, पु. (सं०) लेखक, लिखने की रेखा। वाला। लिलाहो- वि० दे० ( सं० लल - चाहना) लिपिबद्ध -- वि० यौ० (सं०) लिखित, लिखा हुआ, अंकित । लिवाना--- स० कि० दे० (हि० लेना या लाना) लिप्त-वि. (सं०) लिपा या पुता हुश्रा, दूसरे के द्वारा किसी के लाने या लेने का अनुरक्त, लीन, अत्यंत तत्पर, पतली तह ___ कार्य कराना, साथ लेना, लिवावना चढ़ा, निमग्न । संज्ञा, स्त्री० लिप्तता। लिप्सा-संज्ञा, स्त्री० (सं०) लोभ, लालच । लिवाल --- संज्ञा, पु. दे० (हि० लेना वाललिफाफा-संज्ञा, पु० (अ.) पत्रादि भर कर प्रत्य० ) मोल लेने वाला, लेने वाला, भेजने की काग़ज़ की चौकोर थैली, दिखा- लवार। वटी महीन वस्त्र, मुलम्मा, वाह्य आडंबर, लिसोड़ा-लिसाढ़ा-संज्ञा, पु० दे० (हि. कलई, शीघ्र नष्ट होने वाली वस्तु । वि. लस ) एक पेड़ और उसके बेर से फल, लिकाफिया । लभेड़ा, लभेरा, लसोढ़ा (ग्रा०)। लिबड़ी-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि० लुगड़ी) वस्त्र, | | लिहाजा---संज्ञा, पु. (अ०) बर्ताव या व्यवहार कपड़ा । यौ०-लिबड़ी-बरतन या में किसी बात का ध्यान, दया दृष्टि, शीलबारदाना-निर्वाह की साधारण सामग्री, संकोच, पक्षपात, मुलाहज़ा, मर्यादा या सामान, माल-असबाब । सम्मानादि का ध्यान, लज्जा, मुरव्वत । लिबलिबा-- वि० (दे०) लसलसा, चिपचिपा, लिहाड़ा-वि० (दे०) नीच, अधम, पतित, लबलबा। संज्ञा, स्त्री० लिबलिवाहट । निकम्मा। लिबास-संज्ञा, पु. (सं०) पोशाक, पहनने लिहाड़ी-संज्ञा, सो० (दे०) निदा, उपहास का वन, परिधान, पहनावा, अच्छादन ।। मुहा०-लिहाड़ी लेना-हँसी या निंदा लिब्बा-- एंज्ञा, पु. (दे०) चपत, चपेटा, करना, खिल्ली उड़ाना । धौल, तमाचा । | लिहाफ-संज्ञा, पु० (अ०) बड़ी रजाई, For Private and Personal Use Only Page #1550 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra लिहित लहाफ (दे०) जाड़े की रात में थोड़ने का रुई - भरा कपड़ा | लिहित- वि० (सं० लिह ) चाटता या चाटा हुधा । लोक-संज्ञा स्त्री० दे० (सं० " www.kobatirth.org लिख) रेखा, लीक लीक - नीति० । " १५३६ लकीर, गहरी पड़ी लकीर । करके - रेखा । गाड़ी चलै, लोकै चलै कपूत मुहा० - लीक खींच खींचकर, ज़ोर या बल देकर, निश्चय-पूर्वक लीक करके, लोक खींचना -- किसी बात का दौर टल होना, साख या मय्यादा बाँधना, प्रतिष्ठा स्थिर होना । लीक खींच कर जोर देकर, निश्चय पूर्वक । मुहा० - लोक पीटना- प्राचीन रीतिया प्रथा के अनुसार चलना, लकीर का फकीर होना । मय्र्यादा. यश, लोकनियम, प्रथा, चाल, रीति, लांछन, धब्बा, गणना, गिनती, सीमा, प्रतिबंत्र, प्रणाली, बैल गाड़ी के मार्ग चिन्ह | लीख संज्ञा स्त्री० दे० (सं० लिक्षा) जूँ का अंडा, लिना नाम का परिमाण । लीचड़ - वि० (दे०) निकम्मा, सुस्त, काहिल, जिसका लेन-देन या व्यवहार ठीक न हो, धन-पिशाच, कंजून, कृपण, जल्द न छोड़ने वाला | लीची-संज्ञा, खो० दे० ( चीनी-लीचू ) एक सदाबहार पेड़ और उसके गोल मीठे फल | लोकी - वि० (दे०) निस्सार, निकम्मा, बीरस, सार-हीन, वशिष्ठ । लीद - संज्ञा स्त्री० (दे०) घोड़े, गधे श्रादि का मल । लीन - वि० (सं०) तन्मय, तत्पर, पूर्णतया लगा हुआ, श्रासक्त, मिलित, मन | संज्ञा, श्रो० लीनता । लीपना स० क्रि० दे० ( सं० लपन ) भूमिसल या दीवाल आदि पर गोबर की पतली तह चढ़ाना या पोतना । यौ० - लीपापोती। मुहा० लीप-पोत कर बराबर 1 | लीलावती ----- चौका करना - विनष्ट या चौपट कर देना, लगाना । लीपापोती करना - जलादि से गीला कर भद्दा करना, नष्ट करना । लोबड - ज्ञा, पु० (दे०) नेत्रों का मैल, कीचड़, पंक, लीवर (दे० ) । लोम - संज्ञा, पु० (दे०) संधि, मेल, मिलाप, शांति । लोमू - संज्ञा, पु० (दे०) नींबू, निम्बू (दे० ) । लीर -- संज्ञा स्त्री० (दे०) चिट, चिथड़ा, Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कतरन । लीलां -- संज्ञा, पु० दे० (सं० नील) नील का पौधा, नीला रंग । वि० - नीला, नीले रंग का । लीलना - स० क्रि० दे० (सं० गिलन या लीन) निगलना, गले से नीचे पेट में उतारना । प्रे० रूप-लिलवाना, स० रूप---- लिलाना । लीलया - क्रि० वि० (सं०) बिना प्रयास, सहज ही में, खेल में । लोलहिं - पंज्ञा स्त्री० (दे०) बिना परिश्रम, सहज ही में, खेल में । स० क्रि० (दे० ) - निगलते हैं | संज्ञा, स्त्री० ( ० ) लीला को । तीला - संज्ञा स्त्री० (सं०) मनोरंजक कार्य, क्रीड़ा, बिहार, प्रेम-विनोद, खेल, केलि, प्रेम - कौतुक, चरित्र, मनोरंजनार्थ ईश्वर के अवतारों का अभिनय, प्रेम विनोदार्थ प्रिय के वेश वाणी, गति आदि का नायिका द्वारा अभिनय सम्बन्धी एक हाव ( साहि० ), बारह मात्रा का एक मात्रिक छंद, चौबीस मात्रा का एक सगणान्त मात्रिक छंद, एक वर्णिक छंद जिसमें प्रत्येक चरण में भगण, नगण और एक गुरु होता है, (पिं० ) | संज्ञा, पु० ( सं० नील ) श्याम रंग का घोड़ा | वि० (दे० ) - नीला | लीलापुरुषोत्तम -- संज्ञा, पु० यौ० (सं०) श्रीकृष्ण जी, लीलापुरुष । लीलावती--संज्ञा स्त्री० (सं०) प्रख्यात ज्योतिषाचार्य भास्कराचार्य की कन्या (स्त्री) 1 For Private and Personal Use Only Page #1551 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir लुगाड़ा लुचई, लुचुई जिसने अपने नाम (लीलावती) से गणित की चमकदार रोग़न, वानिश, पालिश भाग की एक पुस्तक रची थी, ३२ मात्राओं का ज्वाला या लपट. ली, छिपना । एक मात्रिक छंद (पि.)। वि. स्त्री० -- लुकठी-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. लुक ) जलती लीलायुक्ता। लकड़ी, लाठी। लुगाड़ा-संज्ञा, पु. (दे०) लुच्चा, शोहदा, लुकना-अ० कि० दे० ( सं० लुक = लोप) गंडा । स्त्री०-लंगाडी।। छिपना, थोट या आड़ में होना, लोप लंगी, लँगी-संज्ञा, स्त्री० दे० ( हि० लँगोट, होना । स० रूप०-लुकावना, लुकाना, लाँग ) धोती के बदले कमर में लपेटने का प्रे०-लुकवाना। "खड्भ्यः लुक''-अष्टा० । कपड़े का छोटा टुकड़ा, तहमत । लुकमा-संज्ञा, पु. (अ.) ग्रास, कौर ।। लंचन--संज्ञा, पु. (सं०) नोचना, उखेड़ना, लुकाट --- संज्ञा, पु० (दे०) एक पेड़ और उत्पाटन, चुटकी से उखाड़ना । उसका फल। लुंज, लंजा-वि० दे० (सं० लंचन) लँगडा, लुकाना-स० कि० दे० ( हि० लुकना ) लूला, बिना पत्ते का पेड़, Zट । छिपाना, श्राड़ या प्रोट में करना । अ० लंठना-स० क्रि० दे० (सं०) लूटना, लुढ़- क्रि० (दे०) छिपना, लुकना । प्रे० रूपकना, चुराना, लुठना (दे०) । वि० लुकवाना। लंठित, लंठनीय । संज्ञा, पु. लंठन ।। लुकेठा-संज्ञा, पु० दे० ( सं० लोक -- काष्ट) लंड-संज्ञा, पु० (सं० लंड ) रुड, कबंध, सुलगती हुई लकड़ी, चुग्राती (प्रान्ती.)। बिना सिर का धड़ । वि० पु० - लंडा, स्त्री० तुखिया - संज्ञा, स्त्री० (दे०) कुलटा या चाललुंडी। बाज़ स्त्री। लंडमंड-वि० यौ० दे० (सं. हड+मंड) लुगड़ा, लुभग---संज्ञा, पु. (दे०) वस्त्र, सिर और हाथ-पैर कटा धड़, धड़ और सिर, कपड़ा, अोदनी । यौ०-लहँगा-लुगरा । लगदी-संज्ञा, स्त्री० (दे०) गीली वस्तु का पत्रहीन वृक्ष, ठ । निस्सार लोंदा, निस्सार वस्तु का पिंड या लंडा-वि० दे० (सं० रुड ) ऐसा पक्षी गोला, निस्तत्व गूदा। जिसके पर और पूंछ भी झड़ गयी हो, लुगगी-संज्ञा, पु० दे० ( हि० लूगा+ड़ारुड, कबंध । स्त्री०-लंडी। प्रत्य०) कपड़ा, श्रोदनी, फटा-पुराना वस्त्र , लेविनी-संज्ञा, स्त्री. (सं०) कपिलवस्तु के छोटी चादर, लत्ता। यौ०-लॅहगा-लुगरा। समीप का वह वन जहाँ गौतम बुद्ध उत्पन्न लुगरी- संज्ञा, स्त्री० दे० ( हि० लुगरा ) फटी पुरानी धोती। लुाठा -- संज्ञा, पु. दे० (सं० लेाक = काष्ठ) लुगाई -- संज्ञा, स्त्री० दे० (हि० लोग) लोगाई, सुलगती या जलती हुई लकड़ी, चुयाती स्त्री, औरत, नारी। (प्रान्ती०) । स्त्री० अल्या.---'नुअाठी।। लुगी---- संज्ञा, स्त्री० दे० (हि० लूगा) पुराना लुआब-संज्ञा, पु. (अ.) चिपचिपा या वस, घाँघरे या लँहने की संजान या फटा लसदार गूदा, लासा, लबाब (दे०)। चौड़ा किनारा । लुकंजन*-संज्ञा, पु० दे० (सं० लोपांजन) लुग्गा--संज्ञा, पु. द० (हि० लूगा) लुगरा, एक अंजन जिसका लगाने वाला अदृश्य हो लूगा। जाता है, लोपांजन, सिद्धांजन । लुच-वि० (दे०) निरा, केवल, नंगा, उघाड़ा। लुक-संज्ञा, पु० दे० ( सं० ले क = चमकना) लुचई, लचुई।-- संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० रुचि) For Private and Personal Use Only Page #1552 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - - लूट । लुचपन लुनना मैदे की छोटी और बारीक पूरी। “कृपा लट्टस--संज्ञा, पु० (दे०) बिगाड़, नाश, ध्वंस, भई भगवान की, लुचुई दोनों जून "- लूट-खसोट । तुल० । लुठन-संज्ञा, पु० दे० ( सं० लुंठन ) घोड़ा लुचपन - संज्ञा, पु. (हि • लुचकना) लुच्चा- | प्रादि पशुओं का श्रम मिटाने को भूमि पर पन, दुष्टता, कुचाल, दुश्चरित्रता, बदमाशी। लोटना या लोट पोट करना, लुढ़कना, लोटना। लुचरा-संज्ञा, पु. (दे०) मकड़ा ( कीट विशेष )। लुठना*-अ० कि० दे० (सं० लंडन) लोटना, लुच्चा-वि० दे० (हि • लुचकना ) दुराचारी, लुढ़कना, पृथ्वी पर पड़ना । स० रूप लुठाना, लुठावना, प्रे० रूप-लुठवाना। दुश्चरित्र, बदमाश, कुमार्गी, कुचाली, शोहदा । स्त्री० लुच्ची। यौ०-नंगा-लुच्चा।। लुड़का-संज्ञा, पु. (दे०) लुरका, कान का एक गहना । स्त्री० लरकी। संज्ञा, स्त्री०--लुच्चई। लुड़की-संज्ञा, स्त्री० दे० ( हि० लुड़का ) लुजलुजा- वि० (दे०) लचीला, कमजोर। लुरकी (ग्रा.), छोटा लुडका । लुटता* – संज्ञा, स्त्री० दे० (हि० लूट ) लुडखना- अ० कि० (दे०) दुलना, दुल कना, पुलकना । स० रूप - लुड़खाना, प्रे० रूपलुटकना-अ० कि० दे० (सं० लटकना ) लुइखवाना। लटकना। लुडखुडो---संज्ञा, स्त्री० (दे०) ढुलन, लुढ़लुटना-अ० क्रि० दे० सं० लुट = लुटना) कन । स० वि० - लुड़खुड़ाना। लुट या लूटा जाना, नष्ट या बरबाद होना। खुढ़कना-अ० क्रि० दे० (सं० लुंठन ) *-अ० कि० (दे०) लुठना, लोटना । स० | गेंद सा चक्कर खाते जाना, दुल कना, दुररूप-लुटाना, लुटावना, प्रे० रूप -- कना स० रूप-लुढ़काना, लुढ़कावना, लुटवाना। प्रे० रूप -- लुहकवाना। लुटवैया-संज्ञा, पु० दे० (हिलूटना --- लुढ़ना* -१० कि. ( हि० लुढ़कना ) लुढ़वैया-प्रत्य० ) लूटने वाला, ठग, बटमार, कना, ढुलकना । स० रूप---लुढ़ाना, प्रे० धूर्त, उपक्का । रूप-लुढ़वाना। लुटाना-स० क्रि० दे० ( हि० लुटना ) लूटने लढ़िया, लोहिया–संज्ञा, स्त्रो० दे० (हि. लोढा ) छोटा लोढ़ा। देना, व्यर्थ व्यय करना, फेंकना, बहुत दान । लुढ़ियाना-२० क्रि० (दे०) कपड़े सीना, देना या बाँटना, पूरा मूल्य लिये बिना टाँके दिये कपड़े को पक्का सीना। देना, लटावना (दे०)। लुतरा-वि० (दे०) चुगुल, चुगुलखोर, नटलुटिया, लोटिया-संज्ञ, स्त्री० दे० (हि. या-सज्ञा, स्त्रा० ० (ह० खट, बदमाश, नटखट । स्त्री० लुतरी। लोटा ) 'छोटा लोटा । मुहा०-लुटिया लत्थ*--संज्ञा, स्त्री० दे० ( हि० लोथ ) डुबोना (ड्रवना) नष्ट-भ्रष्ट कर देना लोथ, कबंध । (होना), बिगाड़ देना (बिगड़ जाना )। लुफ-संज्ञा, पु० अ०) दया, कृपा, मेहर" लो दी उसने बिलकुल ही लुटिया डुबो' बानी, मनोरंजन, उत्तमता, श्रानंद, मज़ा, -म० इ.। रुचिरता, रोचकता, लुतुझ, लुफुत (दे०)। लुटेरा, लुटेर-संज्ञा, पु० दे० ( हि० लूटना लुनना-स० कि० दे० (सं० लवन ) खेतों +एरा या एरू प्रत्य० ) डाकू, ठग, लूटने का अन्न या फसल काटना, नष्ट करना । वाला, बटमार, धूर्त, दस्यु। | “बुवै सो लुनै निदान" -q० । For Private and Personal Use Only Page #1553 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir लुनाई लुहान लुनाई-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० लावण्य ) | शिकारी, एक अति तेजवान तारा जो सुन्दरता, मनोहरता, लावण्यता । " हृदय उत्तरी गोलार्द्ध में है ( अाधुनिक )। सराहत सीय-लुनाई "-. रामा० । संज्ञा, पना*-अ. क्रि० दे० ( स० लुब्ध) स्त्री० हि० लुनना) लुनने का भाव, मज़दूरी लुभाना, ललचाना, मोहित होना। या क्रिया, कटाई। लुब्धापति--संज्ञा, स्त्री० (सं०) पति और लुनियाँ-संज्ञा, स्त्री० दे० ( सं० लवण हि. कुल-जनों की लज्जा करने वाली प्रौदालोन ) नमक बनाने वाली एक जाति, एक नायिका : काव्यः ० )। प्रकार की घास, लोनिया (दे०)। लुब्ब लुबाब-संज्ञा, पु. (अ.) तत्व, लुनेरा--संज्ञा, पु० दे० ( हि लुनना ) खेत सारांश, मूल, नि'कर्श ।। का पका अन्न काटने वाला, लुनने वाला। लुभाना-अ० कि० दे० (हि. लोभ ) लुपना-अ० कि० दे० (२० लुप) छिपना. मोहित वा लुब्ध होना, लोभ या लालच लुप्त होना, लुकना (दे०)। करना, धामक्त होना, रीझना, तन मन की लुपरी-संज्ञा, स्त्री० (दे०) लपसी, हलुगा । सुधि भूलना । स० क्रि० (दे०) मोहित या लुपलुप स० क्रि० (अनु०) पशु आदि के लुब्ध करना, सुधि-बुधि भुलाना, ललचाना, खाने का शब्द विशेष । मुहा०—लुपलुप प्राप्ति की गहरी चाह उपजाना या मोह में ( लुपुर लुपुर ) करना-अति आतुरता डालना, रिझाना। करना । लुरकी-संज्ञा, स्त्रो० दे० (हि. लुरकना = लुप्त-वि० (सं०) छिपा हुआ. गुप्त, अदृश्य, लटकना ) कान का एक गहना, बाली। अंतर्हित । संज्ञा, पु. लोप । मुरको ( प्रान्ती० ) लुप्तोपमा --संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) उपमा या० (स०) उपमा. लुरना, लुलना -अ० कि० दे० (सं० लंकार का वह भेद जिससे उसके ४ अंगों लुलन ) झूलना, मुक या ढल पड़ना, में से कोई अंग छिपा हो, न कहा गया हो लहराना, हिलना, चाल्यमान, कहीं से सहसा (१० पी०)। श्राजाना, प्रवृत्त या आकर्षित होना। लुबदी-संज्ञा, स्त्री० दे० ( हि० लुगदी ) लरी- संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. लुस्वा = लुगदी। बछड़ा) हाल की व्यायी गाय । लुबुध-वि० दे० ( सं० लुब्ध ) लुब्ध, | ललित- वि० (सं.) चाल्यमान, झूलता मोहित, लोभित । हुया, श्राकषित, लहराता हुआ। लुवुधना-अ० क्रि० दे० (हि० लुवुध- लवास-वि० दे० (हि. लू ) लू, गर्म ना--प्रत्य०) लुभाना, ललचाना, लुब्ध या हवा का झोंका, ग्लूक । मोहित होना। संज्ञा, पु० दे० (सं० लुब्धक) | लहंडा, लोहंडा--संज्ञा, पु. दे. (हि. बहेलिया, अहेरी। लोह -। हंडा ) लोहे का घड़ा, लोहे की लुवुधा* - वि० दे० (सं० लुब्ध ) लोभी, ! गगरी, लौह-पात्र । लालची, मोहित, इच्छुक, प्रेमी, चाहने लुहना*-अ० के० दे० (हि. लुभाना ) वाला। लुभाना, ललचाना। लुब्ध-वि० (सं०) लुभाया या ललचाया लुहान-वि० दे० (हि. लोहू या लहु ) हुश्रा, मोहित, लोभ-ग्रसित, मुग्ध, तन मन लहूभरा, रक्तपूर्ण, रक्तमय । यौ०-लहकी सुधि भूला हुआ। लुहान (होना)- लाठी श्रादि की चोट से लुब्धक-संज्ञा, पु० (सं०) व्याधा, बहेलिया, | कपड़ों का रक्त से रँग जाना । For Private and Personal Use Only Page #1554 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir लुहार, लोहार लुती लुहार, लोहार-संज्ञा, पु. दे. ( सं० लूका-संज्ञा, पु० दे० ( सं० लुक ) भाग की लौहकार ) लोहे की चीज़ बनाने वाला, लपट, ज्वाला, लुबाठा। स्त्री० अल्पा०लोहे के काम करने वाली एक जाति । लूकी। स्त्री० लहारिन । " गंधी और लुहार की, लूको-संज्ञा, स्त्री० (हि० लूका ) स्फुलिंग, देखो बैठि दुकान"-०। । आग की चिंगारी, लूका, जलती लकड़ी। लुहारी, लोहारी-संज्ञा, स्त्री० दे० ( हि० मुहा० -लूको लगाना-वैमनस्यकारी या लुहार ) लोहे की वस्तु बनाने का कार्य, क्रोधोत्पादक बात कहना। लुहार की स्त्री, लोहारिन । | लूख-संज्ञा, स्त्री० (दे०) लूक, प्राग, ज्वाला। लू-संज्ञा, स्त्री० दे० ( सं० लुक = जलना या । लूखा* - वि० दे० (सं० रूक्ष) रूखा, सूखा। हि० लौ - लपट ) ग्रीष्म ऋतु की उष्ण या लूगा- संज्ञा, पु० (दे०) लुगरा, धोती, गर्म वायु का झोंका। महा० - ल लगना। कपड़ा। " रोटी-लूगा नीके राखै भागेहू (मारना)-देह में तपी या उष्ण वायु के | की बेद भाखे , भला है है तेरो ताते जगने से दाह, ताप आदि होना। श्रानंद लहत हौं”-बिन। लुपाठ, लूयाठा- संज्ञा, पु० दे० (सं० लोक लूट - संज्ञा, स्त्री. ( हि० लूटना) किसी के = कठ ) सुलगती हुई लकड़ो, चुपाती। धन को बल-पूर्वक मार कूट कर छीना जाना, रो. अल्पा--लूाठो। डकैती, लूट का माल-असबाब । यौ० लूटलक-संना. सी० ( सं० ल 6 ) श्राग की खसोट । यो०-लूटमार लूटपाठलपट, जलती हुई लकड़ी, लूका। (खी० लोगों को अनुचित रूप से मार पीट, छीनलूकी) लुत्ती (प्रान्ती. ) । लू या गर्म झपट कर उनका धन प्रादि छीनना। यौ० वायु, ग्रीष्म काल की तप्स वायु का झोंका, -लूट खंद-लूट मार, लूटखसोट । लपट (दे०) । मुहा०—लूक लगना ! लूटक-संज्ञा, पु. ( हि० लूट ) लूटने वाला, (मारना )- शरीर में गर्म हवा का लुटेरा, ठग, कांति हरने वाला, कमरबंद । प्रभाव पड़ जाना या उसने झुलस जाना। लूटना-स० कि० (सं० लुट = लूटना ) ( लुक, तृका) लृको लगाना--भाग किसी का माल-असबाब या धन मार-पीट लगाना, जलती बत्ती या लकडी छलाना कर या डाँट फटकार बता कर छीन-झपट क्रोधकारी बात करना । संज्ञा, पु० (दे०) लेना, अनुचित रीति से किसी का धनादि उल्का, टूटा हुआ तारा । “दिनहीं लूक लेना, उचित से बहुत अधिक मूल्य लेना, परन बिधि लागे"-रामा० । ठगना, मुग्ध या मोहित करना । “ रमैया लूकटो-संज्ञा, स्त्री० (दे०) लोमड़ी, लोवा, तोरी दुलहिन लूटा बजार" - कबी० । लोखरी, लखिया, ( प्रान्मी.)। ___ सं० रूप० --- लुटाना, लुरावना (दे०) । लूकना*---सं० क्रि० दे० (हि. ) जलाना, प्रे० रूपलटवाना ) अपहरण, लटि। आग लगाना, लू से जलाना, लू लगाना पू. का. क्रि० (हि. लूटना ) लूटकर । अ० क्रि० दे० ( हि• लुकना ) छिपना, लुप्त लूटि*-- संज्ञा, खो० दे० (हि० लूट) होना, दुरना। लूटना, उगना, छीन लेना । पू० क्रि० (व०) लूकबाहा-संज्ञा, पु. (दे०) श्राग-वाही, | लूटकर। होली के दिन का वह डंडा जिसके छोर पर लूत-लूता-संज्ञा, स्त्री. (सं० लूता) मकड़ी। बूट या बाली बाँध कर होली की श्राग में संज्ञा, पु० दे० (हि० लूका) लूका, लुभाठा । उसे छुलाते हैं। | लूतो-संज्ञा, स्त्री० (दे०) चिनगारी, लुाठी। For Private and Personal Use Only Page #1555 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org १५४४ लून, लोन लून, लोन – संज्ञा, पु० दे० (सं० लवण ) नमक, नोन, काटा गया । लूनना- -स० क्रि० दे० ( हि० लुनना ) खेतों की पकी फसल काटना, लुनना । लूनिया - संज्ञा, पु० (दे०) शोरा-नमक बनाने वाली एक जाति, एक घास, बेलदार या फावड़ागीर, लुनिया, लोनिया (दे० ) । लूनी - संज्ञा, पु० (दे०) नैनू, मक्खन, नवनीत, लौनो एक नदी (राजपूताना ), चने के पौधों पर की वारीक रेणु जो खट्टी और नमकीन होती है, लोनी वि० (दे०) नमकीन, लोनी | ! लूमना लुरना ) लटकना, झूमना, झूलना । लूरना* - ग्र० क्रि० दे० ( हि० भूलना, लहराना, झुक पड़ना । लूला - वि० दे० (सं० लून कटा हुआ ) कटे हाथ का, लुँजा, हुंडा, समर्थ, बेकार । ( स्त्री० लूली ) । लूलू - वि० दे० ( हि० लूला ) नासमझ मूर्ख, निकम्मा | संज्ञा, पु० (दे० ) भयानक जंतु (कल्पित ) । | लूह | संज्ञा, स्त्री० दे० (हि" लू ) लू, गर्म, हवा, लूक, लुहार (ग्रा० ) । लूहर - संज्ञा, पु० (दे०) लुकेठा, लूक या गिरा हुआ तारा, उष्ण वायु, लू । लेंड· - संज्ञा, पु० (दे०) बँधा गाढ़ा सूखा सा लेखा लपसी, अवलेह, घाटा आदि किसी चूर्ण को पानी में पका कर गाढ़ा किया लसीला पदार्थ | स० क्रि० सा० भ० ( हि० लेना ) लेगा, लेगी । यौ० - लेई पंजी-सारा धन या सामान, सारी पूँजी या जमा, सर्वस्व सुख मिला बरी का चूना ( जो ईंटों की जुड़ाई में लगता है । लेख - - संज्ञा, पु० (स०) लिखे तर, लिपि, लिखाई लिखावट हिसाब-किताब, देवता, देव । * -- वि० (दे०) लिखने-योग्य, लेख्य | संज्ञा स्त्री० [सं० (हि० लीक ) लकीर, पक्की बात । अ० क्रि० दे० (सं० लवन ) लेखक- संज्ञा, पु० (सं०) लिपिकार, ग्रंथकार, लिखने वाला, रचयिता, मुहर्रिर, मुंशी । ( स्त्री० लेखिका ) | लेखकी - संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० लेखक + ईप्रत्य० ) लिखाई, लेखक का कार्य, पेशा या मजदूरी | लेखन - संज्ञा, पु० (सं०) लिखने की विद्या या कला, अक्षर या चित्र बनाना, लिखने का काम, हिसाब करना, लेखा लगाना | वि० लेखनीय, लेख्य । लेखना* - स० क्रि० दे० (सं० लेखन ) समझना, विचारना, लिखना, यक्षर या चित्र बनाना, गणित करना, गिनना, देखना अनुमान करना । यौ० - लेखना- जोखना - 66 सुरवर - ठीक ठीक अनुमान या अंदाज़ा करना, हिसाब या लेखा लगाना, जाँच या परीक्षा करना, जोड़ना, सोचना, विचारना । स० रूप- लेखना, प्रे० रूप-लेखवाना, स० रूप - लेखाना, लेखावना । लेखनी -संज्ञा, स्त्री० (सं०) कलम | तरु शाखा लेखनी पत्रमुर्वी --स्फु० । लेखा-संज्ञा, पु० दे० ( हि० लिखना ) गणित, हिसाब-किताब, गणना, ठीक ठीक अंदाज या अनुमान, कूत, श्राय - व्यय विवरण | मुद्दा० - लेखा पढ़ना- व्यापार व्यौहार- गणित पढ़ना । लेखा-डेवढ़ ', या मल । लेंडी - संज्ञा, पु० ( हि० लेंड़ ) बँधे मल की बत्ती, बकरी या ऊँट की मेंगनी । लेंहड - लेहंडा - संज्ञा, पु० (दे०) झुंड, समूह, दल, गल्ला, ( चौपायों का ) एक भाषा ( पश्चिम प्रान्त ) लेहड़ा । ले- अव्य० दे० ( हि० लेकर ) प्रारंभ होकर, लेकर, लौं ( ० ) । - ( सं० लग्न, हि० लग, लगि) पर्यंत तक । लेई - संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० लेही, लेह्य ) कागज़ आदि चिपकाने की धाटे की पतली Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private and Personal Use Only Page #1556 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org लेखिका ( बराबर ) करना ( होना ) - हिसाबचुकता करना ( होना ) या निपटाना, ( निपटना ), चौपट या नाश करना ( होना ) | अनुमान, समन, विचार। मुहा० - किसी के लेखे -- किसी की समझ या विचार मैं । नर-बानर केहि लेखे माँही ". -रामा० । लेखिका -- संज्ञा, स्त्री० (सं०) लिखने वाली, पुस्तक रचने वाली: 16 लेख्य -- वि० (सं०) लिखने योग्य, जो लिखा जाने को हो | संज्ञा, ५० (दे०) दस्तावेज, लेख, तमसुक । लेख्यगृह - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) दफ़्तर, १५४५ कचहरी श्राफ़िस ( ० ) । लेज़म- संज्ञा, स्रो० ( फा० ) एक नरम और लचीली कमान जिससे धनुर्विद्या का अभ्यास किया जाता है, लोहे की जंजीर लगी कमान जिससे कसरत की जाती है, लेजम (दे० ) । लेज -संज्ञा स्त्री० (दे०) रस्सी, डोरी । लेजर-लेजुरी - संज्ञा, स्त्रो० दे० (सं० रज्जु ) डोरी. रस्सी, लजुरी (ग्रा० ) लेट संज्ञा, पु० (दे०) चूने की गच. लेटने का भाव । क्रि० वि० ( ० ) देर, विलंब | लेटना - अ० कि० दे० (सं० लुंठन, दि० लोटना ) पौड़ना, बग़ल की ओर झुककर पृथ्वी पर गिर जाना, बिछौने आदि से पीठ लगाकर पूरा शरीर उस पर ठहराना | स० क्रि० लखना, खिटाना, लिटावना (प्रा० ), मे० रूप०-लेटखाना, लिखाना | लेदी -- संज्ञा, खो० (दे०) एक पक्षी । लेन- संज्ञा, ५० ( हि० लेना ) लेने की क्रिया या भाव, पावना, लहना (दे० ) यौ० - लेन-देन - लेना-देना । लेनदार - संज्ञा, पु० ( हि० लेन + दार- लेपड़ना लेन-देन संबंध, सरोकार । न लेने में न देने में कोई सम्बन्ध न रखना ( रहना) । लेनहार - वि० दे० ( हि० लेना + हारप्रत्य० ) लेने वाला, लेनहारा (दे० ) । लेना- स० क्रि० ( हि० लहना ) प्राप्त या ग्रहण करना, और के हाथ से अपने हाथ में करना, पकड़ना, थामना, ख़रीदना, मोल लेना, अपने अधिकार या क़ब्ज़े में करना, अगवानी करना, जीतना, धरना, जिम्मे लेना, भार उठाना, अभ्यर्थना करना, पीना, सेवन करना, अंगीकार या धारण करना उपहान से लज्जित करना | मुहा० - थोड़े हाथों लेना - गूढ़ व्यंग्य के द्वारा लज्जित करना। लेने के देने पड़ना -- लाभ के बदले हानि उठाना, लेने के बदले देना पड़ना । ले डालना - करना, बिगाड़ना, चौपट करना, हरा देना, समाप्त या पूर्ण करना । ले-दे डालना नष्ट या ख़राब फा० प्रत्य०) महाजन, व्यवहर, लहनेदार | लेन-देन -- संज्ञा, पु० यौ० ( हि० लेना + देना ) श्रादान-प्रदान, उधार लेने देने का व्यवहार, लेने-देने का व्यवहार। मुहा०भा० श० को ० - १६४ ! Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - नष्ट करना, व्यंग्य से अपमानित या लज्जित करना । ले-दे करना - तकरार करना, झगड़ना । लेना एक न देना दो - कुछ मतलब या सरोकार नहीं । ( न कुछ लेना न देना - निष्प्रयोजन । न (ऊधौ के ) लेने में न ( माधव के ) देने में किसी प्रकार का सम्बंध न होना, निष्प्रयोजन, अकारण ले मरना ( ले गिरना ) थपने साथ दूसरे को भी नष्ट या बरबाद करना, कुछ न कुछ कार्य सिद्ध ही कर लेना । कान में लेनासुनना । ले बोलना - नष्ट या ख़राब कर देना, समाप्त वर लेना । लेप - संज्ञा, पु० (सं०) लेई की सी पोतने, छोपने या चुपड़ने की वस्तु, किसी वस्तु पर चढ़ी हुई किसी गादी और गीली वस्तु की तह । लेपड़ना- - स० क्रि० यौ० ( हि० लेना + पड़ना) साथ सोना, ले जाना, नाश करना, बिगाड़ना, कुछ काम पूरा ही कर लेना । For Private and Personal Use Only Page #1557 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir MODE लेपन लेही लेपन-संज्ञा, पु० (सं.) लेपना, लेपने की । लेवार--संज्ञा, पु० (दे०) गीली मिट्टी, वस्तु, मरहम, उबटन आदि। वि० लेप- गिलावा, दीवाल पर छाप लगाने की मिट्टी, नीय, लेपित, लिप्त ।। लेप, लेवा। लेपना-स० कि० दे० (सं० लेपन) छोपना लेवाल, लेवार ... संज्ञा, पु. द. (हि. ( ग्रा० ), गीली और गाढ़ी वस्तु की तह | लेना वाल----प्राट'०) लेने या खरीदने चढ़ाना, लीपना । वाला। लेपालक-संज्ञा, पु. यौ० ( हि० लेना--- लंचास ... संज्ञा, पु० (दे०) गव. लेट । स्त्री. पालना ) दत्तक या गोद लिया लड़का, (दे०) लेने की इच्छा ! पालट ( प्रान्ती०)। लेत्रया--संज्ञा, पु. ( हि० लेना। वैया ----- लेपालना-२० क्रि० यौ० (हि. लेना प्रत्य०) लेने वाला, लेवा, ग्राहक । पालना ) किसी को किसी से लेकर पुत्र के लेश-- संज्ञा, पु० (सं०) चिह्न, अणु, सूक्ष्मता, समान पालना-पोसना, दत्तक पुत्र बनाना, संसर्ग, संबंध, लगाव, लेम (दे०)। एक गोद लेना। अलंकार जिसमें किसी वस्तु के वर्णन के लेपित--वि० (सं.) लिप्त, लेप किया या । एक ही अंश में रोचता हो । वि० --- थोड़ा, लीपा हुआ। रंच, अल्प । यौ० - लेश-मात्र। ले रखना-स० कि० यौ० ( हि. लेना+ लेश्या--- संज्ञा, स्त्री (सं०) जीव, जीव की रखना ) संचय या संग्रह करना, एकत्रित वह दशा जिसमें वह कर्म से बँधता है । करना, रक्षित रखना। लेषना, लेखना--स० कि० दे० ( दि. ले रहना—स. कि० यौ० (हि. लेना-- लखना) समझना. लखना, देखना, विचारना, रहना ) संगी या साथी बनाना, साथ लेकर लिखना । रहना, अपने अधिकार में करना, लेकर ही लेखना--स० क्रि० दे० ( सं० लेश्य ) बारना, शांत होना। जलाना, डंक मारना । " लेसा हिये ज्ञान लेवा -लेरू-संज्ञा, पु. द. ( सं० लेह ) का दिया "..-पहा । स० क्रि० दे० (हि. लयरू, लयरुवा, लएरू (ग्रा.), बछड़ा, लस) किसी वस्तु पर लेख लगाना या पोतना, बछवा। दीवार पर मिट्टी का गिलावा छोपना, लेला--संज्ञा, पु. (दे०) भेड़ का बच्चा, । लीपना, सटाना, चिपकाना, चुगली खाना। मेमना । लेसालस-- संज्ञा, पु. यौ० (दे०) लिपाई, लेलिह-संज्ञा, पु. (सं०) साँप, सर्प, नाग । सब पोरों से लिपाई का काम होना। लेलुट-वि० दे० यौ० (हि० लेना - लूटना) लेह-संज्ञा, स्त्री० (दे०) जल्दी, शीघ्रता, लेकर न देने वाला, लैलूट (दे०)। उतावली । स० वि० (सं०) लेना। लेव-संज्ञा, पु० दे० (सं. लेप्य ) लेप, लेहन-संज्ञा, पु० (सं० लिह ) चाटना । बटलाई श्रादि बरतनों के पेंदे पर उन्हें आग लेहना--- संज्ञा, पु. द० (हि. लहना, लहना । पर चढ़ाने से पूर्व मिट्टी श्रादि का लेप, । स० क्रि० द० (सं० लेहन ) चाटना । लेवा (ग्रा० )। लहाज-संज्ञा, पु. (दे०) लिहाज (फ़ा०)। लेवा - संज्ञा, पु० दे० (सं० लेप्य ) लेप, लेहाज़ा-लिहाजा--क्रि० वि० (अ०) इस कह गिल, गिलावा । वि० दे० (हि. लेना) लिये, इस वास्ते। लेने वाला। यौ-लेवा-दई ( लेवा- हो--संज्ञा, स्त्री० द० (हि. लई ) लेई देवा)-लेन देन । ___ लपसी। For Private and Personal Use Only Page #1558 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org लेह्य सं०) चाटने योग्य वस्तु, लेह्य - वि० चटनी, लेहनीय | लैंगिक - संज्ञा, पु० (सं०) वह ज्ञान जो लिंग या स्वरूप के वर्णन से प्राप्त हो, मान | वि० (सं०) लिंग संबंधी, लिंग का, लक्षण या चिन्ह सम्बन्धी । धनु लै* - अव्य० दे० (हि० लगना) लों, पर्यंत, तक । पू० का ० क्रि० ( हि० लेना ) लेकर । लैस - वि० ( ० लेस ) वर्दी और हथियारों से सजा हुआ, कटिबद्ध तैयार सन्नद्ध । संज्ञा, पु० ( ० ) - कपड़े पर चढ़ाने का फीता | संज्ञा, पु० (दे०) एक तरह का बाण | लो- प्रध्य० दे० ( हि० लौं) लौं. तक, पश्यत । 1 लोंदा - संज्ञा, पु० दे० (सं० लुंठन ) किसी गीली वस्तु का गोला डला, या बँधा भाग । लोइ, लांग - संज्ञा, पु० दे० (सं० लोक ) -- १५४७ लोग | संज्ञा, स्त्रो० ( सं० रोचि ) दीप्ति. प्रभा, कांति, दीप शिखा, लव, लौ (दे०) आँख | लोइन - संज्ञा, ५० दे० ( सं० लावगय ) लावण्य, सुंदरता, मनोहरता | संज्ञा, पु० दे० (सं० लोचन) आँख, लोयन ( ० ) । लोई -संज्ञा, स्रो० दे० ( सं० मोली ) एक रोटी या पूरी के बनाने योग्य गुधे आटे की गोल टिकिया । संज्ञा खो० दे० (सं० लोनीय ) एक प्रकार का ऊनी कम्बल या चादर, लोइया (दे०) 1 लोकंजन * - संज्ञा, पु० दे० यौ० ( सं० लोपांजन ) लोपांजन, वह श्रंजन जिसके लगाने से लोग औरों को दिखाई नहीं देते । लोकंदा- संज्ञा, पु० दे० ( हि० लोकना ) व्याह के बाद कन्या के डोले के साथ भेजी गई दासी | खो० लोकंदी | लोकंदी - संज्ञा स्त्री० ( हि० लोकना ) जो दासी कन्या के साथ ससुराल भेजी जाये । लोक - संज्ञा, पु० (सं०) जगत, संसार प्रदेश, स्थान, निवास स्थान, दिशा, जन, लोग, लोकरीति जीवधारी, प्राणी, समाज, कीर्ति, यश । इह लोक औौर पर लोक दो लोक हैं (उपनि० ) । भूमि, थाकाश, पाताल या पृथ्वी, अंतरिक्ष और लोक, तीन लोक हैं ( निरुक्त ) । भूलोक, भुवतीक, स्वर्लोक, मह, जनः, तप और सत्य लोक ये सात ऊपर के लोक ( पुरा० ) और फिर अतल, वितल, सुतल, महातल ( तल) रसातल ( नितल ), तलातल ( गभस्तिमान् ) पाताल ये सात नीचे के लोक ( पुरा० ), यों कुल चौदह लोक हैं। " Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (6 ' चहहु लोक परलोक नसाऊ रामा० । लोककंटक संज्ञा, पु० यौ० (सं०) समाज की क्षति या हानि पहुँचाने वाला । लोकधुन - सज्ञा स्त्री० दे० यौ० (सं० " रामा० । लोकध्वनि ) शवाह, उड़ती हुई बात । लोकना - स० क्रि० दे० ( हि० लोपन ) ऊपर से गिरते हुये किसी पदार्थ को अपने हाथों से पकड़ या थाम लेना, बीच में से ही उड़ा लेना । स० रूप - लोकाना, प्रे० रूपलोकवाना | लोकनाथ - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) राजा, विष्णु, ब्रह्मा शिव, लोक नायक । लोकन, लोकपति-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) बना, इन्द्र, बरुण, कुबेर श्रादि, राजा, लोकाधिपति | लोकप रहहिं सदा रुख राखे " लोकपाल ले कपालक-संज्ञा, पु० (सं०) इन्द्रादि देवता दिकपाल, दिशाओंों के स्वामी, राजा लोकप्रवाद-पंज्ञा, पु० (सं०) कहावत, मसल लोक- प्रचलित उक्ति । "लोकप्रवादः त्योऽयम् पंडितैः समुदाहृतम् " -- वाल्मी० | लोकमाता संज्ञा, खो० यौ० (सं०) लक्ष्मी, देवी, रमा, कमला । लोकयात्रा-ज्ञा, खो० यौ० (सं०) लोकव्यवहार या रीति संसार यात्रा जीवन | लोकरीति- ज्ञा स्त्री० यौ० (सं०) संसार या समाज में प्रचलित रीति, लोक-नीति / For Private and Personal Use Only Page #1559 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org लोकलाज CELEBS ENG लोकलाज-संज्ञा, स्त्री० दे० यौ० (सं० लोकलज्जा) संसार की शर्म, समाज की लज्जा । लोकलीक* -- संज्ञा, त्रो० यौ० ( हि० ) संसार की मर्यादा, समाज या लोक की रीति । लोकव्यवहार-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) लोकाचार लोक रीति । लोकलोचन - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) सूरज, सूर्य, भास्कर, चंद्रमा, विश्व-नेत्र विश्वविलोचन | लोकश्रुति--संज्ञा, खो० यौ० (सं०) अफवाह | लोकसंग्रह - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) संसार के लोगों को प्रसन्न रखना, सब की भलाई । लोकहार - वि० दे० ( सं० लोकहरगा ) संसार का नाश करने वाला, लोक संहारक । लोकहित - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) विश्व - | मांगल्य । "सर्वे लोक-हिते रताः" वाल्मी० | लोकहित - वि० दे० यौ० (सं०) लोक-हित या संसार की भलाई करने वाला । लोकहितैषी - वि० यौ० (सं०) विश्व हित १५४८ का चाहने वाला | लोकांतर- संज्ञा, पु० यौ० (सं०) परलोक, मरने पर जीव के जाने का लोक | लोकांतरित - वि० (सं०) मृत, मरा हुआ, परलोकवासी । लोकाचार -- संज्ञा, पु० यौ० (सं०) लोकव्यवहार, संसार या समाज का व्यवहार, दुनिया का बर्ताव | लोकाधिप, लोकाधिपति--संज्ञा, पु० यौ० (सं०) राजा, लोकप ! लोकापवाद संज्ञा, पु० यौ० (सं०) संसारसंबंधी निदा, निंदा, अपकीर्ति अयश बदनामी । "लोकापवादी बलवान् मतो मे' - रघु० । 39 लोकाट - संज्ञा, पु० (चीनी - लुः + क्यू एक पेड़ जिसके फल बड़े बेर के से मीठे और गूदेदार होते हैं, काट | लोकाना - स० क्रि० दे० ( हि० लोकना का Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir लोचन प्रे० रूप ) उछालना, ऊपर को आकाश में फेंकना । लोकायत : संज्ञा, पु० (सं०) केवल इस लोक का मानने वाला और परलोक को न मानने वाला, चार्वाक दर्शन, दुर्मिल छंद (पिं० ) । लोकेश लोकेश्वर - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) लोक-पाल | J लोकपणा - संज्ञा, स्त्री० सं०) लौकिक बातों की चाह, यशाचा, कीर्ति लालसा । वि० (सं०) लोकैषी - यशांकाती ↓, लोकोक्ति - संज्ञा, स्रो० यौ० (०) कहावत, लोकोकति, लोकउकति (दे.), मसल, जनश्रुति, एक अलंकार जहाँ लोकोक्ति का प्रयोग रोचकता के साथ भाव-पोषणार्थ हो ( श्र० पी० ) । लोकांत्तर-वि० यौ० (सं०) जो लोक या संसार में न हो, लैौकिक, अत्यंत अद्भुत या विलक्षण, अनोखा, अपूर्व । लोखर संज्ञा, पु० दे० ( हि० लोह + खंड ) लोहार, बढ़यों आदि के लोहे के हथियार या ज्ञार, लोहे के बरतन, भाँड़े । लोखरी - संज्ञा, स्त्री० (दे०) लोमड़ी, हुँडार ( प्रान्ती ), लोवा । पु० (दे०) लेखरा लोग -- संज्ञा, पु० बहु० दे० (सं० लोग ) मनुष्य, आदमी जनता, जन स्त्री० लुगाई 'समय बिलोके लोग सब, जानि जानकी भीर " - - रामा० । ; " लोगाइत – संज्ञा, पु० (दे०) शान, घमंड | मुहा०- लोगाइन बुकना - शान जमाना ! लोगाई, लुगाई | संज्ञा, स्त्री० दे० ( हि० लोग ) नारी, स्त्री, औरत । श्रौध तजी ज्यों पंथ के साथ ज्यों " मग चारा के रूख ,, क० रामा० । लोग लुगाई ' लांच - पंज्ञा, स्त्रो० दे० ( हि० लचक ) लचक, कोमलता, लचलचाहट संज्ञा, पु० दे० ( ० रुचि ) रुचि, अभिलाषा । लोचन - संज्ञा, पु० (सं०) नेत्र, नयन, श्राँख | "लोचन जल रह लोचन कोना "रामा० । For Private and Personal Use Only Page #1560 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir लोचना १५४६ लोन, लोन लोचना - स० कि० दे० (हि० लोचन - सिलना, बटनहाँ (ग्रा.), पत्थर का ना-प्रत्य०) देखना, रुचि या अभिलापा टुकड़ा जिससे सिल पर कोई वस्तु पीसी करना, प्रकाशित करना, प्रकाश करना। जाती है । स्त्री० अल्पा० लोढ़िया। मुहा० अ० क्रि० (दे०) शोभित होना। अ० कि.. ..लोनाडालना-बराबर करना लोहाअभिलाषा या कामना करना, तरसना, ढाल-चौपट, सत्यानाश, विनाश | लोभ या लालच करना, ललचना। लोदिया. लुढ़िया--संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. नाचुन लोचून--संज्ञा, पु० दे० यौ० ( सं० लोढ़ा ) छोटा लोढ़ा। लोहा ) लोहे का चूर्ण । लोदी- संज्ञा, स्त्री० दे० ( हि० लोढ़ा ) छोटा लाद-संज्ञा, स्त्री० (हि. लोटना) लोटने लोढ़ा, लोहिया । का भाव, लुढ़कना । संज्ञा, पु० (हि. लोटना) लोथ. नाथि--संज्ञा, मो० दे० ( सं० लोष्ट ) उतार, त्रिवली, घाट । यो० ---लोट पोट : मुरदा, वृत शरीर लाश, शव महा (होना)-प्रति हँगी गा हर्ष से लोट जाना। लोगों की भीन उटाना.... अनेक मनुष्यों - लोटन--संज्ञा, पु० ( हि० लोटना ) एक तरह को मारना। " लोथनि पैलानि की भीति ५ का बाबृतर, रास्ने के छोटे छोटे कंकड़ । उठि जायगी"-रत्ना । लोथ गिरना लोदा-ना-अ० क्रि० दे० ( सं० लठन ) लुढ़- | -~-मार जाना : लोथ डालना (गिराना) गीली करवट बदलाना, तड़पना । मुहा०- -~-हत्या करना, मार डालना।। लोइ, लेजाना-बेसुध या बेहोश हो जाना, लोथडा -- संज्ञा. पु० दे० (हि. लोथ ) लोर जाना । विश्राम करना. लेटना, सुग्ध या मांस का पिंड: स्त्री. अल्पा. - लोथड़ी। चकित होना। लाथा- संज्ञा, पु० (दे०) धैला, बोरा । लोगटा। संज्ञा, पु. यौ० दे० (हि. लोटना लो - संज्ञा, स्त्री. (दे०) गठीली लाठी, +पाट ) विवाह के समय पाटा या स्थान लहा। बदलने की रीति, लोटपटा (दे०) । दाँव लोदी-संज्ञा, पु. (दे०) पठानों की एक का उलट-फेर । जाति। लोटपोट- वि० यौ० (दे०) तलफन, पटकना, लोध--. पंज्ञा, पु० दे० (सं० लोत्रा) एक पेड़, अति हर्प या हास से लोट जाना। __इसकी छाल और लकड़ी औषधि के काम लोटा-संज्ञा, पु. द० ( हि० लाटना ) धातु पाती है, एक नीच जाति । का एक गोल बरतन जिससे लोग पानी लोधिया, लोधीसंज्ञा, पु० दे० (हि. पीते हैं । स्त्री० अात्पा० लोटिया, लदिया। लोध ) एक जाति विशेष, लोध। लोटिया, लोटी--संज्ञा. स्त्री० ( हि० लोटा) लोध्र-पंज्ञा, पु. (सं०) एक पेड़, लोध । छोटा लोटा। मुहा० -लोटिया इवना "अधि प्रकाशमिव धातुमरयाम् लोभ्रमं (दुबोना)- नष्ट करना : "तो दी उसने गनुमत प्रफुल्लम् -- रघु० । बिलकुल ही लोटिया डुबो''.-म० इ० लोप्रतितक-संज्ञा, पु. (सं० ) उपमा, लोडना-स० क्रि० दे० (पं० लोड़ --- जरूरत) अलंकार का एक भेद (काव्य०)। श्रावश्यकता या जरूरत होना, दरकार या लोन, लोन -संज्ञा, पु० दे० (सं० लवण) चाह होना। नमक लवण । “ मनहु जरे पर लोन लोढ़ना--स० कि० दे० (सं० लचन) लगावनि "---रामा० । मुहा० (किसी चुनना, श्रोटना, तोड़ना । का) तीन खाना--अन्न खाना, पाला लोढ़ा संज्ञा, पु० दे० (सं० लोष्ट । बट्टा, जाना । लोन चुकाना ( उतारना ) For Private and Personal Use Only Page #1561 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org & लोनगमी १५५० नमकहलाली करना | किसी का लोन निकलना - नमकहरामी का फल मिलना | लोन न मानना -- उपकार न मानना । जले पर लोन लगाना या देनादुख पर दुख देना । ( किसी बात का ) लोन सा लगना-- श्रप्रिय या श्ररुचिकर होना । ( राई ) लोन उतारना -दृष्टिदोष दूर करने को राई - नमक उतारना । सौंदर्य, लावण्य | त्रि० (दे०) नमक, लौन । लोनहरामी | - वि० दे० यौ० (हि० लोन + हरामी फा० ) नमकहरामी. उपकार न मानने वाला, नोनहरामी (दे०) । " जिन तन faar are fata ऐसो लोन हरामी " - तुल० । लोना - वि० दे० ( हि० लोन ) नमकीन, सुन्दर, सलोना | संज्ञा, खो० (दे०) -लांनाई, लुनाई | संज्ञा, पु० ( हि० लोन ) नमकीन मिट्टी, मलांनी ( प्रान्ती० ), जिससे शोरा और नमक बनता है, दीवाल का एक विकार जिससे उसकी मिट्टी झडने लगती और वह निर्बल हो जाती है, लाने से दीवार से गिरी मिट्टी | संज्ञा, स्त्रो० (दे०) एक कल्पित चमारिन जो टोना-जादू में बड़ी प्रवीण मानी जाती है । स० क्रि० दे० ( सं० लवण ) अक्ष की फ़सल काटना, लुनना ! " लोनाई - संज्ञा, स्रो० दे० (सं० लावगय ) सुन्दरता, मनोहरता लुनाई (दे० ) । "हिये सराहत सीय लोनाई ' रामा० । लोनारां-- संज्ञा, पु० दे० ( हि० लोन ) नमक बनने या होने का स्थान । लोनिका - संज्ञा, त्रो" ( दि० लोनी ) लोनी, एक प्रकार का साग । लोनिया - संज्ञा, पु० दे० (हि० लोन) नमक बनाने वाली एक जाति. नांनिया ( ग्रा० ) | लोनी -संज्ञा स्त्री० ३० (हि० लोन) कुलफे जैसा एक साग, लोनिया (दे०), चने के पौधे की खट्टी नमकीन धूलि | लोभार लोप - संज्ञा, पु० (सं०) अलक्ष्य, क्षय, नाश, प्रदर्शन, विच्छेद, प्रभाव, छिपना दिखाई न देना, अंतर्धान होना। संज्ञा, पु० लोपन | वि० - लोपनीय, लुप्त, लोपक, लोप्य, लोप्ता । 'लोपः शाकल्यस्य " - सि० कौ० | लोपन - संज्ञा, पु० (सं०) लुप्त या तिरोहित करना, न करना, अदृश्य करना, गोपन | वि०-लोपनीय | लोपना + - स० क्रि० दे० (सं० लोपन ) छिपाना, लुकाना लुप्त या गुप्त करना, मिटाना | प्र० क्रि० (दे० ) मिटना, वििपना | लोपांजन-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) एक कल्पित सिद्धांजन, जिसका लगाने वाला अदृश्य हो जाता है । हो 1 लोपामुद्रा, लोपामुद्रा - संज्ञा, स्त्री० : अगस्त्य ऋषि की स्त्री, अगस्त्य लोक या पास उदय होने वाला एक तारा । पंत अद्भुत लोपी - संज्ञा, पु० (सं० लोपिनू ) लोप कर वाला, नाशकर्त्ता, लोपक | .) लोबा, लोवा - संज्ञा स्त्री० ( हि० लोमडी) लोमड़ी । "लोबा पुनि पुनि दरस दिखावा " रामा० Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir लोबान पंज्ञा, पु० (अ०) एक पेड़ का सुगंधित गोंद जो जलाने और औषधि के काम थाता है । लोबिया-संज्ञा, पु० दे० ( सं० लोभ्य ) एक लता या बौंड़ा जिसमें बड़ी फालियाँ होती हैं, एक अन्न ! लोभ -- संज्ञा, पु० (सं०) लालच, तृष्णा, लेने की इच्छा । वि० लोभी, लुब्ध । "किहि के लाभ विडंबना, कीन्ह न यहि संसार " रामा० । लोभना लोभाना -- स० क्रि० ( सं० लोन + ना हि० प्रत्य० ) मोहित या मुग्ध करना, लुमना । अ० क्रि० (दे०) मोहित या मुग्ध होना । लांभार - वि० दे० ( हि० लोभ ) लाभ करने या लुमाने वाला, लालची, लोभी । For Private and Personal Use Only Page #1562 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir -- नैष । लोभित लोवा लोभित-वि० (हि० लोभ) मोहित, लुब्ध । चपल या चंचल होना, हिलना, डोलना, लोभी- वि० (सं० लोगिन् ) लालची, लुब्ध, ललकना, झुकना, लपकना, लोटना तृष्णाग्रस्त । " लोभी गुरू लालची चेलो, लिपटना । स० कि० (दे०) लोराना। दोनों खेले दाँव"--कवी । लारी----संज्ञा, स्त्री० दे० ( सं० लोल ) बच्चों लोम- संज्ञा. पु० (सं०) रोम, रोवा, बाल, के सुलाने का गीत और थपकी । " लोरी देह पर छोटे पतले रोयें । संज्ञा, पु. ( सं० देके कभी उनको है सुलाती कर प्यार" लोमश ) लोमड़ी। "किमस्य लौम्नां कपटेन । - हाली। कोटिभिविधिन लेखाभिरजीगण दगुणान् '- लोन-वि० (१०) चंचल, अस्थिर, क्षणिक, चपल, हिलता डोलता या काँपता हुआ, लीमकर्ण संज्ञा, पु. (सं० ) खरगोश, चाल्यमान. परिवर्तन शील, कंपायमान, क्षणखरहा। भंगुर, उत्सुक । “प्रभुहि चितै पुनि चितै लामकृप--संज्ञा, पु० यौ० (सं०) रोवों के महि, राजत लोचन लाल ', 'कल-कपोल छेद । " न लोमकूपौमिषाजगत्कृता कृतञ्च श्रुति कुडल लोला"रामा० । किं पण शून्य-विन्दवः' नैप० । लोलक-संज्ञा. पु. (सं०) कान का एक लोमड़ी-संज्ञा, स्त्री० दे० ( सं० लोमश): गहना, कान की बालियों का लटकन, कान स्यार जैसा एक जंगली पशु लोखरी (दे०)। की लव । "लोलक लोल विराजत लोलक' लामवाद-संज्ञा, पु० (सं०) राजा दशरथ के ---स्फुट० । स्त्री लालको। मित्र, अंग देशाधिपति, रोमपाद। लालदिनेश-संज्ञा, पु० (सं०) काशी का लामश-सज्ञा, पु. (सं०) एक ऋषि जो एक तीर्थ लोलार्क । अमर माने जाते हैं । पुरा०) । वि०-अधिक लालना-अ. क्रि० द० (सं० लोल - ना. और बड़े बड़े रोवाँ वाला, लोमड़ी। हि. प्रत्य० ) हिलना, चलायमान होना, लामहर्षण - वि० यौ० (सं०) देखने से डोलना । स० रूप (दे०) लोलाना । रोमांच करने वाला. भयंकर या भीषण, लाला-संज्ञा, स्त्री० (सं०) जीभ, जबान, अति भयावना या रोमांचकारी। "बभूव जिह्वा, लघमी, कमला, रमा, एक वर्णिक छंद युद्धं तदलोम-हर्पणम्'- स्फु.। जिसके प्रति चरण में म, स, य, भ, नोय-संज्ञा, पु० द० ( सं० लोक ) लोग, ( गण ) और अंत में दो गुरु वर्ण होते हैं जन । संज्ञा, स्त्री० दे० ( हि० लव, लाव) (पि० )। लपट, ज्वाला, ला। संज्ञा, पु० दे० (सं० लोलार्क--- संज्ञा, पु. (सं०) काशी का एक लोचन ) नेत्र, नयन, आँख । अत्र्य० दे० तीर्थ, लोल दिनेश । (हि. हो) तक, पर्यत । स० क्रि० (व्र.) लालनी-वि० स्त्री. द. (सं० लेल ) देखो, देखकर । " भाग भरोसे क्यों रहै, चंचल स्वभाव वाली। संज्ञा, स्त्री० (दे०) हाथ पसारै लोय'"-नीति० । लक्ष्मी, बिजली। लायन* -- संज्ञा, पु० दे० ( सं० लोचन ) लोला-वि० सं०) लोभी, लालची, चटोरा नेत्र, आँख। परम उत्सुक । “ लोभी-लोलुप कीरति लारा --वि० दे० (सं० लोल) चंचल, लोल, । चाहा "- रामा० । चपल, इच्छुक, उत्सुक । "वायु-वेग ते लोवा-संज्ञा, सी० दे० ( सं० लोमश ) सिंधु मैं जैसे लोर हिलोर ----वासु०। लोमड़ी, लोखरी (ग्रा०)। " लोवा पुनि लोरना*-अ० क्रि० द. ( सं० लोल) पुनि दरस दिखावा"--रामा । For Private and Personal Use Only Page #1563 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir लोष्ट लोडा SmsareewanaBHEJOBamdeoHIDAMBANDARDARBARABANARAMBIRENDREDIRMER away लोष्ट ----संज्ञा, पु० (सं०) पत्थर, ढेला, मिट्टी। लोहा ) रुधिर-पूर्ण, रक्तमय, लोहू से लद" मृत शरीरमुत्सृज्य काष्ट-लोष्ट समेक्षितौ” फद या भरा हुआ । यौल-लाह लोहान । -~-मनु। लोहाना-अ० क्रि० दे० (हि. लोहा - लोहडा---संज्ञा, पु० दे० ( ० लौहभाँड) अाना --प्रस्य० किसी वस्तु में लोहे का सा लोहे का एक बड़ा पात्र या त पला, कडाहा, रंग या स्वाद आ जाना। (खो. अल्पा० लाहड़ी)। लोझार - संज्ञा, पु० दे० (सं० लोहकार ) लोहंडा----संज्ञा, पु० दे० यौ० (सं० लौहभाड़)। लोहे की वस्तुयं बनाने वाली एक जाति । लोहे का घड़ा, गमरा । स्त्री. अल्पा० संज्ञा, स्त्री० लोहारिन, लोहारिनी! "गंधी (दे०) लोहंडी। और लोहार की. देखो बैठि दुकान" ---- लोह - संज्ञा, पु० (सं०) लोहा । मुहा० --- । वृंद० नीतिः । लोह चलाना (खाना)--- युद्ध में खड्न-लोहारी--संज्ञा, स्त्री. द. ( सं० लोहार । ई धात सहना । लगन विचारे का छत्रीगन ---प्रत्य० ) लोहार का कार्य या पेशा। जे रन ठाढ़े लोह चबाएँ'- श्रा० खं ।। लोहित-वि० (सं० ) रक्तवर्ण, लाल । संज्ञा, लाहकार-संज्ञा, पु० (सं०) लोहे का काम पु० ( हि० लोहितक ) मंगल ग्रह । बनाने वाली एक विशेष जाति, लोहार, लोहित्य-संज्ञा, पु. (सं०) ब्रह्मपुत्रा नदी, लुहार (दे०) लाल सागर । लोहकिट्ट- संज्ञा, पु० यौ० सं०) लोहे का । लोहिया- संज्ञा, पु० दे० (हि० लोहा--इया मैल जो लोहे को आग की आँच देने से --प्र:य. ) लोहे की वस्तुओं का व्यापार निकलता है। करने वाला, बनियों और मारवाड़ियों की लोहा--- संज्ञा, पु० दे० सं० लोह ) अस्त्रादि एक जाति, लाल रंग का बैल । बनाने की एक प्रसिद्ध झालीधात जिरत लोही--संज्ञा, स्त्री० द. (हि. लोई ) सने न उतरै जब रातों दिन लोहा डारिस देह आटे के टुकड़े जिनसे रोटियाँ श्रादि बनती चबाय' -श्रा० खं हा-लोहा करना . हैं, लाई। ---युद्ध में खड्ग या अस्त्र चलाना । (किमी लोह ---सज्ञा, पु० दे० ( सं० लोहित ) रक्त, का) लोहा मान जाना ( मानना ----खून, मह (ग्रा.) बहादुर या शूर वीर जानना, हार या परा- ला--- अव्य. द. ( हि० लग) तुल्य, जय मानना, किसी का प्रभुत्व मानना। समान, सदृश, पात, तक। " तरवार बही लाहा बजना (बजागा)-तलवार तरवा के तरे लौं"---श्रा. ख। चलना (चलाना) युद्ध होना. (करना)। लोकना -क्रि० प्र० दे० ( सं० लोकन ) " तीन महीना लोहा बाजा नदिता बितवाँ दिखाई देना या पड़ना, दृग्गोचर होना, के मैदान ".--श्रा० खं० । मुहा-लोहे लपकना, चमकना (बिजली), दृष्टि में आना। के चने - अति कठिन कार्य । हथियार, लोग---संज्ञा, पु. दे० ( सं० लवंग ) लउँग अस्त्र-शस्त्र । लोहा गहना ( उठाना )- (दे०) एक झाड़ की कली जो तोड़ कर हथियार उठाना, लड़ना । लोहा लेना--- सूखा ली जाती है और मसाले और औषधि लड़ना, युद्ध करना। लोहे की वस्तु, लाल के काम आती है, लौंग जैसा नाक या रंग का बैल आदि। । कान का एक गहना ( स्त्रियों का )। लोहान, लहान--संज्ञा, पु. दे. ( हि० । लोडा--संज्ञा, पु० (दे०) लड़का, बालक, For Private and Personal Use Only Page #1564 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org लौड़ा छोरा, छोरा, छोरा । स्त्री० - लौंडी. लौंडिया | लिंग, शिश्न लौंडा - संज्ञा, पु० (दे०) लाँड, लंड (दे० ) । लौंड़ी - संज्ञा स्त्री० दे० ( हि० लौंड़ा ) दासी, लड़की । लौंद - संज्ञा, पु० (दे० ) अधिकमाल, मल वारि १५५३ Koreyay ay pang STARS >}_{}%._ #LAGANGA लौट - संज्ञा स्त्री० ( हि० लौटना ) लौटने की किया, ढंग या भाव | लौटना- - अ० क्रि० दे० ( हि० उलटना ) पटलना, वापिस थाना, फिर श्राना, पीछे मुड़ना : स० क्रि० (दे०) - स० रूप- लौटाना, प्रे० रूप-लौडवाना। लोटपोट - संज्ञा पु० दे० यौ० ( हि० लौटना + पौटना - अनु० ) उलट-पलट, हेर-फेर, दोनों र - उलटना, पलटना । लौटकर - संज्ञा, पु० दे० यौ० हि० लौटना 1. फेरना ) उलट-पलट हेर-फेर विशाल परिवर्तन, उलट-फेर । लौटान- स० क्रि० ( हि० लौटना ) फेरना, वापस करना, पलटाना, ऊपर- तले करना । लौन - संज्ञा, ५० दे० (सं० लवण ) लोन, नमक । " मानहु लौन जरे पर देई ११ मास । लौदा - संज्ञा, पु० दे० ( हि० लोंदा ) गीली वस्तु का गोल पिंडा, लोंदा, ल्वोंदा (ग्रा० ) । लौ - संज्ञा स्त्री० दे० (सं० दावा ) भाग की ज्वाला या लपट, दीपक की शिखा, या टेम | संज्ञा, स्रो० दे० ( हि० लाग) चाह, लाग, लगन, चित्त-वृत्ति, कामना, याशा । यौ० - लौ-लीन -- किसी के ध्यान में मग्न, लवलीन | प्रभु मन मैं लौलीन मन चलत बाजि छबि पाव लौया, लोari - संज्ञा, पु० दे० (सं० 44 11 रामा० । लघुक ) कद्दू, छोटा बच्चा | लौकना - अ० क्रि० दे० ( हि० लौ ) दूर से दिखलाई पड़ना या देना, कौंधना, चमकना, लपकना । स० रूप- लौकाना । लौका - संज्ञा, ५० (दे०) बिजली, इन्द्रधनुष, बड़ी लौकी नँबा | लॉ० - "चोर चोरी से जाई पै लौकाटारी से न जाई ।" लौकिक - वि० (सं० ) व्यावहारिक, सांसारिक | निष्पत्तये .. लोक संबंधी, लौकिक प्रयोग सा० ०० । संज्ञा, पु० (सं०) ७ मात्रात्रों के छंद ( पिं० ) । भा० श० →→→→ १६५ लोकी – संज्ञा, स्त्री० दे० ( हि० लौका ) कद्दू, छोटा लौका, एक प्रसिद्ध लाग । लोजोरा - संज्ञा, पु० दे० यौ० लौ + जोड़ना ) धातु गलाने शिल्पकार । ( हि० वाला Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रामा० । लौना - संज्ञा, पु० ( हि० लौनी ) फ़सल की कटाई, कटनई, लुनाई । वि० दे० ( सं० लावण्य, हि०-लोन ) सुंदर, मनोहर, लावण्ययुक्त (स्रो० लोनी ) । लौनी-संज्ञा, स्री० ( हि० लौना ) फसल की बाई | कटन, लुनाई | संज्ञा, स्त्री० ० ( सं० नवनीत ) मक्खन, नैनू नवनीत । लौह संज्ञा, पु० (सं०) लोहा । लौहित्य - संज्ञा, पु० (सं०) ब्रह्मपुत्रा नदी, लाल सागर । ल्याना - स० क्रे० दे० ( हि० लाना ) लावना, लाना, ल्यावना ( ब० ) ! ल्यारो) - संज्ञा, पु० (दे०) भेड़िया । ल्यावना* - स० क्रि० दे० ( हि० लाना ) लाना लेखाना, जावना | वारि-संज्ञा, स्त्री० दे० ( हि० लूह ) लूह, लू, लपट, लुमारि, लुवार । For Private and Personal Use Only Page #1565 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १५५४ चंदित व-संस्कृत और हिन्दी भाषा की वर्णमाला वंचना (द०)। ( वि० पंचनीय )। "न के अंतस्थों में का चौथा अर्ध-व्यंजन वर्ण, वंचनीया प्रभवोऽनुजीवभिः-किरा० । स० जो उ का विकार है, इसका उच्चारण स्थान क्रि० दे० ( सं० वंचन ) धोखा देना, ठगना, पोष्ट है । " उपूपध्मानीयानामोष्टौ” । छल करना । स० क्रि० दे० (सं० वाचन ) संज्ञा, पु० (सं०) कल्याण, वंदन, वरुण, वाण, . बाँचना, पढ़ना। वायुः वस्त्र, वाहु, सागर । अव्य०( फ़ा०) वंचित---वि० (0) जो छला या ठगा और-जैसे-राजा व राव।। गया हो, धोखा दिया गया, बिलग, विहीन घंक-वि० (सं०) चक्र, कुटेल, टेढ़ा, बंक रहित । " ते जन वंचित किये बिधाता" (दे०), संज्ञा, स्त्री० (सं.) वंकता। -रामा०। वंकट-वि० दे० (सं० वंक ) बाँका, वक्र, वंट--संज्ञा, पु० (द०) हिस्सा, वेंट | कुटिल, टेदा, विकट, दुर्गम, कठिन । संज्ञा, वंटक-संज्ञा, पु० दे० (हि. वंट -|-अकस्त्री० (दे०) वंकटता। प्रत्य०) हिस्सा, भाग। वंकटेश-संज्ञा, पु० (सं०) विष्णु भगवान | वंठ--संज्ञा, पु० (दे०) मझोला, बौना, की एक मूर्ति (दक्षिण भारत)। विवाहित व्यक्ति । वि० --विकलांग । वंकनार, वंकनाल-संज्ञा, स्त्री० दे० यौ० वंडर-संज्ञा, पु० (दे०) खोजा, कंजूस । (सं० वंक-नाड़ी) सुनारों की टेढ़ी फुकनी। वंडा संज्ञा, स्त्री० (दे०) कुलटा स्त्री । वंकनारी, वंकनाली-संज्ञा, स्त्री० दे० वंदन-संज्ञा, पु. ( सं० ) स्तुति, प्रणाम, यौ० (सं० वंक- नाड़ी ) सुपुम्ना नाम की पूजा । वि० वंदनाय, दिन। “गाइये एक नाड़ी ( हठ योग )। गनपति जग-वंदन'' -- विनय० । वंकिम-वि० (सं० ) वक, टेदा, भुका | वंदनमाला-संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं.) हुश्रा, कुटिल । वंदनवार । "कदलि-खंभयुत् कलश जहाँ वंतु - संज्ञा, स्त्री. ( सं०) आक्सस नदी शोभित हैं वंदनमाला "-कं. वि. । जो हिन्दू कुश पहाड़ से निकल कर अरल वंदना- संज्ञा, स्त्री. (सं०) स्तुति, प्रणाम । सगर में गिरती हैं (भूगो०)। वंदन । स० क्रि० (दे०) बंदन करना, बंदना वंग-संज्ञा, पु. (सं० ) बंगाल प्रदेश, (दे०) । "बंदो पवन-कुमार"- रामा० । राँगा धातु, राँगे की भस्म लो०-"घोड़े | वंदनी -- संज्ञा, स्त्री० दे० ( सं० वंदनीय ) की तंग, मनुष्य की वंग'' प्रणाम करने योग्य, पूजनीय, पूज्य । वंगज-संज्ञा, पु. ( सं० ) पीतल, सिंदुर। "वह रेणुक तिय धन्य धरनी में भई जगवि० सं०)-बंगाल प्रदेश में उत्पन्न । वंदनी"---राम । वंगेश्वर-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) पंग भस्म, वंदनीय-वि० सं०) पूजनीय, स्तुत्य, ( एक रस ) वंग देश का राजा, वंगेश, वंदना या श्रादर करने योग्य, वंदनीय वंगाधिपति, वंग-नाथ, बंग-नायक । (दे०)। " वंदनीय जेहि जग जस पावा" वंचक-वि. ( सं०) छली, धोखेबाज, | -रामा०। धूर्त, ठग, खल । संज्ञा, स्त्री. वंचकता। वंदित-वि० (सं०) कृत-स्तवन, कृतप्रणाम, 'वंचक भक्त कहाय राम के" --विनय० । पूज्य, आदरणीय | " जग-वंदित रघुकुल वंचना-संज्ञा, स्त्री. (सं० ) धोखा, छल, भयो प्रगटे जब श्रीराम "-वासु० । For Private and Personal Use Only Page #1566 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चंदी वकालत चंदी-संज्ञा, पु० (सं० ) एक जाति जो वंशावतंश---वि• यौ० (सं०) वंश-विभूषण, राजाओं का यशोगान करती थी (प्राचीन) वंश-श्रेष्ठ, कुलोत्तम । भाट, बंदी, कैदी । " बोले वंदी बचन- वंशावली- संज्ञा, स्त्री० (सं०) किसी वंश के वर''-रामा० । " वंदे वरदे वंदी विन पुरुषों की पूर्वोत्तर कम-बद्ध सूची। यज्ञो विनीतवत् "-वाल्मी० । वंशी-संज्ञा, स्त्री० (सं०) बाँसुरी, मुरली, चंदीगृह-संज्ञा, पु. यो० ( सं० ) कैदखाना, मुँह से फेंक कर बजाने का बाँस का बाजा, जेलखाना, कारागृह। बंसी (दे०) । "बाजी कहैं बाजी तब बाजी चंदीजन-संज्ञा, पु. यौ० (सं० ) भाट, कहैं कहाँ बाजी, बाजी कहैं बाजी वंसी चंदी। ' तब वंदी जन जनक बुलाये"- साँवरे सुघर की ".- स्फु० । संज्ञा, स्त्री० रामा। (दे०) बंसी, मछली मारने का काँटा ।। धंद्य-वि० (सं०) स्तुत्य, पूजनीय, पूज्य, । वंशीधर----संक्षा, पु. (सं.) श्री कृष्ण । वंदनीय । "वेद-विवुध-बुध-वृंद-वंद्य वृंदारक " वंशीधर हू को बेधि कीन्हें इन चेरे हैं" वंदित"-रसाल । -रमाल । वंश संज्ञा, पु० (सं०) बाँस रीढ़ की हड़ी. वंशीय--वि० (सं०) कुटुंछ में उत्पन, बाँसा या नाक के ऊपर की हड़ी, बाँसुरी, कुटुम्बी, वंश-सम्बन्धी। कुल, कुटुंब, बाहु श्रादि की लम्बी हड़ी वंशीवट-- संज्ञ; पु. (सं०) वृंदावन का एक बंश (दे०) । " वंश-सुभाव उतर तेहि बरगद का पेड़ जिसके तले श्री कृष्ण जी दीन्हा "- रामा० । बहुधा बाँसुरी बजाते थे। वंश्य---वि० (सं०) श्रेष्ठ-कुलोत्पन्न, कुलीन, वंशकपूर-संज्ञा, पु० दे० यौ० ( सं० वंश । कुलवान, सुवंश में उत्पन्न । कसूर ) वंशलोचन (ौर०)। वक-- संज्ञा, पु० (स०) बक (दे०) बगला वंशज-संज्ञा, पु. (सं०) बाँस का चावल, पक्षी, अगस्त का वृन्द और फूल, एक दैत्य वंशलोचन, संतति, संतान । जिसे कृष्ण ने मारा था (भा०), एक राक्षस घंशतिलक-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) कुलका जिसे भीम ने मारा था, (महाभा०)। शिरोमणि, एक छंद (पि.)। वक ध्यान---संज्ञा, पु० यो० (सं०) बगले सा वंशधर- संज्ञा, पु. (सं०) कुल में उत्पन्न, ध्यान, झूठा ध्यान, छल-पूर्ण ध्यान । "तहाँ संतति, कुल की प्रतिष्ठा रखने वाला, संतान, बैठि वक-ध्यान लगावा"-- रामा०।। वंशज । वकयंत्र--संज्ञा, पु. (सं०) अर्क उतरने का वंशलोचन-संज्ञा, पु. (अ०) वंसलोचन । एक यंत्र विशेष। "सितोपला पोड़शिक स्यादष्टौ स्यावश- वकवत्ति- संज्ञः, स्त्री० यौ० (सं०) बगले की लोचनः "--भा० प्र० सी कार्रवाई, वोखा देकर कार्य-सिद्धि की वंशलोचना-चंगरोचना- संज्ञा, स्त्री० (सं०) घात से रहने की वृत्ति । संज्ञा, पु० यौ० वंश-लोचन। (सं०) धूर्त, छली। " हैतुकान् वकवृत्तीन् च वंशशर्करा-मंज्ञा, स्त्री० (सं०) वंशलोचन । वचनमाग्रेणार्चयेत् ''---मनु० । वंशस्थ-संज्ञा, पु० (सं०) ज, त, ज, र वकालत---संज्ञा, स्त्री० (१०) दूसरे की ओर (गण ) से युक्त १२ वर्गों का एक वर्णिक से उसके अनुकूल बात या विवाद करना, वृत्त (पि०) । " जतौ तु वंशस्थमुदीरितं! वकील का काम, दौल्य. मुकदमें में किसी बरौ"। पक्ष के समर्थनार्थ बहस करना, दुत-कर्म । For Private and Personal Use Only Page #1567 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra वकालत नामा WARRENDE TRIMME www.kobatirth.org १५५६ वकालतनामा - संज्ञा, पु० यौ० ( ० वकालत -+- नामा) वह अधिकार-पत्र जिसके द्वारा कोई किसी वकील को अपनी ओर से मुक़दमे की पैरवी या बहस के लिये रख सकता 1 " वकासुर - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) एक दैत्य जिसे श्री कृष्ण जी ने मार था. (भाग ० ) । वर्क - संज्ञा, स्त्री० (सं० ) नूतना नाम की राक्षसी । " मारन को घाई वकी बानाक बनाई वर कान्ह की कृपा सो पाई सुगति सिधाई है वकील-- संज्ञा, पु० (अ०) दुसरे के पक्ष का समर्थक ( मर्डन करने वाला) राज-दूत, दूत, प्रतिनिधि, एलची वकालत परीक्षा में उत्तीर्ण व्यक्ति जो अदालतों में अपने मुवक्किलों के मुक़दमों में बहस करे | - मन्ना० । 66 वकुल- पुष्प- रसासव | वकुल -- संज्ञा, पु० (सं०) मौलसिरी का पेड़ । पेशलध्वनिरगान्निर गान्मधुपावली " --- माघ० । “सोयं सुंगधिमकुलो वकुलो विभाति "लो० रा० । वकप संज्ञा, पु० (०) घटेत होना । चकमा संज्ञा, पु० ( ० ) घटना, वारदात | व -- संज्ञा, पु० (श्र०) समझ, ज्ञान । वक्त संज्ञा, पु० (०) काल, समय, मौका, अवसर, अवकाश, वखत (३०) | वक्तव्य - वि० (सं०) वाच्य, कहने योग्य, कथनीय | संज्ञा, पु० (सं०) वचन, कथन, किसी विषय में कहने की बात । वक्ता - वि० सं० वक्त ) बोलने या कहने वाला, वाग्मी, भाषण में पटु, या कुशल | संज्ञा, पु० (सं० ) कथा कहने वाला व्यास ! वक्तृता -- संज्ञा, स्त्री० (सं०) व्याखान, भाषण, कथन, वाकपटुता या कुशलता । वक्तृता धरि देहु कँपाय " प्र० ना० । वक्तृत्व - संज्ञा, पु० (सं०) वक्ता, वाग्मिता, " व्याख्यान, कथन, भाषण । वक्त्र - संज्ञा पु० (सं०) मुख, मह, एक छंद (पि०) । 1 वचं वक्फ - संज्ञा, पु० (०) धर्मार्थ दान किया गया धन या संपत्ति, किसी को कोई वस्तु देना | चक्र - वि० (सं०) बाँका, बक्र (दे०) टेदा, कुटिल, तिरछा, कुका हुआ | संज्ञा, स्त्री० Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir वक्रता । वक्रगामी - वि० (सं० वक्रगामिन् ) टेढ़ी चाल चलने वाला दुष्ट, शठ, कुटिल । arta aata:- संज्ञा, ५० यौ० (सं० ) ऊंट, टेढ़ी गरदन वाला | J वक्रतंड - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) गणेश जी । वक्रदृष्टि - संज्ञा, त्रो० यौ० (सं०) कुटिल या टेढ़ी निगाह, कटाच, रोष-दृष्टि । वक्री - संज्ञा, ५० (सं०) जन्म से टेढ़े अंगों वाला, बुद्धदेव । वि० (सं०) किसी ग्रह का अपने मार्ग से हट कर वक्रगति से जाना ( ज्यो० ) । वक्रोक्ति -- संज्ञा, स्रो० यौ० (सं०) एक अर्थालंकार जिसमें काकु या श्लेप से वाक्य का भिन्न अर्थ होता है (का० ) ( श्र० पी० ), टेढ़ी बात, बढ़िया उक्ति, काकृक्ति, वकी कति (दे० ) | वन संज्ञा, पु० [सं० वक्षस ) उर- स्थल, छाती । वक्षःस्थल संज्ञा, पु० यौ० (सं०) हृदय, छाती, उर । "वक्षः स्थले कौस्तुभं " स्फु० 1 वतु-- संज्ञा, पु० (सं० वं ) बंतु या आक्सस नदी जो अरल सागर में गिरती है (भूगो०)। बत्ताज संज्ञा, पु० (सं०) उरोज, पयोधर, स्तन, चूँची, छाती । वक्ष्यमाण - वि० (सं०) वक्तव्य, जो कहा जा रहा हो । बगलामुखी - संज्ञ, स्त्री० (सं०) एक महा विद्या या देवी का रूप । वगैरह --- श्रव्य ० प्रभृति | ( ० ) इत्यादि आदि, वचं - - संज्ञा, पु० ( पं० वचन ) वाक्य | For Private and Personal Use Only Page #1568 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir वचन वज्रनाभ - - वचन- संज्ञा, पु० (सं०) मानव मुख से धज, बनावट, दशा, प्रणाली, मुजरा, रीति निकला सार्थक शब्द या शब्द-समूह, मिनहा । यो०-वजा-कता। बात, वाक्य, वाणी । " मम इदम् वचनं वजादार- वि० ( अ० वज़ा--दार-फा० शृणु पुस्तकी"- स्फु० । उक्ति, कथन, प्रत्य० ) तरहदार, सुडौल, सुन्दर, अच्छी, एकरव या बहुत्व का सूचक शब्द के बनावट वाला, सुरचित । रूप का विधान (व्या०) हिन्दी में वचन वजीफा - ज्ञा, पु० (अ.) छात्रवृत्ति (सं० के दो भेद हैं (१) एक वचन. (२) मासिक या वार्षिक आर्थिक सहायता या बहुवचन, (द्विवचन-सं० ) वृत्ति जो विद्यार्थियों, विद्वानों श्रादि को दी धचनकारी-वि. ( सं०) श्राज्ञानुवर्ती, जाती है, जप या पाठ ( मुसल०)। आज्ञाकारी। वजारत - हाज्ञा, स्त्री० (अ०) मंत्री का पद वचन-ललिता-संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) वह या कार्य । परकीया नायिका जिसकी बातों से उसका वज़ोर--संज्ञा, पु० (अ०) अमात्य. मंत्री, प्रेमी ( उपपति ) के प्रति प्रेम प्रगट हो दीवान, शतरंज का एक मुहरा, फरजी। (काव्य०)। वजीरी--संज्ञा, स्त्री० (अ०) वज़ीर या मंत्री पचन विदग्धा-संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) का काम या पद, घोड़ों की एक जाति । वह परकीया जो बातों की चतुराई से नायक वज- संज्ञा, पु० (अ० वुज़ ) नमाज़ पढ़ने से की प्रीति प्राप्त कर कार्य सिद्ध कर ले। पहले शौचार्थ हाथ-मुँह धोना (मुसल०)। " वचनन की रचनानि तें, जो साधै निज वजूद-- संज्ञा, पु० अ०) अस्तित्व, शरीर । काज । वचन विदग्धा कहत हैं, कवि गन वज्र--संज्ञा, पु० (सं०) इन्द्र का एक भाला के सर ताज"..- पदक। जैसा शन्न (पुरा०), कुलिश, पर्व, पवि, पचा- संज्ञा, स्रो० (सं०) वच (औषधि)। बिजली, होरा, बरछा, भाला, फौलाद । "वचाभयासुंठिशतावरीसमा"- भा० प्र० । वि० सं०) बहुत कड़ा या दृढ़, घोर, भीषण, वच्छ* संज्ञा, पु० दे० ( सं० वक्षस् ) दारुण कठिन, कठोर । " वज्र को अखर्व उर, हृदय, छाती । संज्ञा, पु. द० (सं० वत्स) गर्व गंज्यौ जेहि पर्वतारि"--राम । गाय का बछवा, प्यारा पुत्र । " निरखि वज्रक--संज्ञा, पु० (सं०) हीरा।। वच्छ जनु धेनु लवाई"-रामा० । “बहुरि वज्रक्षार - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) एक औषधि, बच्छ कहि लाल कहि"-रामा। बज्रखार (दे०)। वच्छनाग-संज्ञा, पु० (दे०) वत्सनाभ (विष)। वज्रतुंड - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) मच्छड़, घजन-संज्ञा, पु० (म०) बोझा, भार, गरुड़, गणेश, थूहर । मान, तौल, गौरव, मर्यादा । "वज़न वज्रदंत-संज्ञा, पु. यो० (सं०) सूकर, से कम नहीं तुलता कभी बाज़ार में माल, सुअर, चूहा। -हाली। | वज्रदंती-संज्ञा, स्त्री० (सं०) एक पौधा वज़नी-वि० (अ० वजन -- ई-फा०-प्रत्या०) विशेष। भारी, बोझिल । वि०-वजनदार। वज्रधर-संज्ञा, पु० (सं०) इन्द्र, देवराज । वजह-संज्ञा, स्त्री० (अ०) सबब, बायसरफ़ा, वज्रनाभ-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) एक दैत्य कारण, हेतु । जो सुमेरु के पास वज्रपुर में रहता था वजा-संज्ञा, स्त्री० (अ० वज़म) रचना, सज- (पुरा० )। For Private and Personal Use Only Page #1569 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra वज्रपात www.kobatirth.org ए PANTS, INTEREST वज्रपात - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) बिजली गिरना, कठिन श्रापत्ति श्राना । वज्रपाणि- संज्ञा, पु० यौ० (सं०) इन्द्र | वज्रलेप -- संज्ञा, पु० यौ० (सं०) एक प्रकार के मसाले का लेप जिसके लगाने से मूर्ति, दीवाल आदि हद हो जाती हैं । वज्रसार - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) हीरा । वज्रहस्त -- संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) इन्द्र वज्रांग - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) दुर्योधन, महावीर, सुहद शरीर वाले । वज्रांगी - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) हनुमान जी, १५५८ बजरंगी (दे०) वज्राघात - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) वज्रपात, वज्र से मारना, कठिन चोट । वज्रापात -संज्ञा, पु० यौ० (सं०) वज्र से मारना, वज्राघात । वज्रावर्त्त --- संज्ञा, पु० (सं०) एक मेव | वज्रासन - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) इठ योग का एक शासन । वज्रायुध संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) इन्द्र | वज्री - संज्ञा, पु० (सं० वज्रिन ) इन्द्र । वज्रोली- संज्ञा, स्रो० (सं०) हठ योग की एक मुद्रा । वट - संज्ञा, पु० (सं०) बरगद का पेड़, बट (दे० ) ! " तिन तरु- वरनि मध्य वट सोहा 17 --- रामा० । वटक - संज्ञा, पु० (सं०) गोला, बट्टा, बड़ी गोली या बटिका, बड़ा, पकौड़ा | वटर -- संज्ञा, पु० (सं०) मुर्ग, मुर्गा, चोर, पहाड़, शासन, चटाई | वटसावित्री-संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) वटपूजन के साथ एक व्रत जो स्त्रियाँ किया करती हैं, बरगदाही (दे०) । टिका-वटी -संज्ञा, खो० (सं०) गोली, टिकिया, बटी, बटिया (दे० ) । बटु-संज्ञा, पु० (सं०) माणवक, ब्रह्मचारी, विद्यार्थी, ब्राह्मण कुमार, बालक 1. पद जनु वटु-समुदाई --रामा० । " 19 'वेद वदंती वटुक संज्ञा, पु० (सं०) ब्रह्मचारी बालक, एक भैरव । 206 Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir वड़, वर- संज्ञा, पु० (दे०) बरगद का पेड़ । वडवानल, वाडवानल - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) समुद्र की अनि, बड़वाग्नि, बड़वागी, वाडव बडवानल (दे०) । प्रभु प्रताप वडवानल भारी " रामा० । 66 " वडिश - संज्ञा, पु० (सं०) मछली पकड़ने का लोहे का काँटा । " मीन वड़िश जाने नहीं, लोभ छाँव कीन वासु० । " सर्वेन्द्रियार्थ वडिशांघखोपमस्य - शंक० । वणिक - संज्ञा, पु० (सं०) वैश्य, बनियाँ, बानी, व्यापारी, वनिक (दे० ) । 16 साकafe मणिगण- गुण जैसे " रामा० । वतंस - संज्ञा, पु० (सं०) कर - विभूषण, शिरोभूषण, शिरोमणि, श्रेष्ठ पुरुष, श्रवतंस | वतन - संज्ञा, पु० (अ०) घर, देश, जन्मभूमि । मुहब्बत नहीं जिसको अपने वतन की " - स्फुट० । ( वत -- संज्ञा, पु० (सं०) समान तुल्य । वत्स - संज्ञा, पु० (सं० ) गाय का बछवा, वच्छ (दे०) बेटा, पुत्र । यौ० वत्सासुर gar | वत्सनाभ - संज्ञा, पु० (सं०) एक पौधे की विषैली जड़, वच्छलाग, बचनाग ( ग्रा० ), मीठा विष । वत्सर - संज्ञा, पु० (सं०) साल, वर्ष | "चप्सराः वासरीयान्ति वासरीयांति वत्सरः ।" वत्सरीय - वि० (सं०) वार्षिक, वर्ष-संबंधी । वत्सल - वि० (सं०) प्रेमी, दयालु, बच्चे के प्रेम से पूर्ण, बच्चे या छोटे के प्रति दयालु या स्नेहवान, माता-पिता का संतति के प्रति प्रेम-सूचक काव्य में १०वाँ रस ( मत-भेद ) । स्त्री० वत्सला, संज्ञा, स्त्री० वत्सलता । वत्सासुर - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) एक देस्य । वदंती - संज्ञा, त्रो० (सं०) कथा । यौ० किम्बदंती | For Private and Personal Use Only Page #1570 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org वदतोव्याघात 66 वदतोव्याघात - पंज्ञा, पु० (सं०) कही हुई बात के विरुद्ध बात कहने का एक तर्कदोष ( न्याय० ) " वदन -संज्ञा, पु० (०) मुँह, मुख, श्रमि भाग, कथन, वचन । दश बदन-भुजानाम कुंठिता यत्र शक्तिः "१-६० ना० । बदरीनाथ - संज्ञा, ५० (सं०) एक तीर्थ, एक धाम, बदरिकाश्रम, बद्रीनाथ (दे० ) । वदान्य - वि० (सं०) उदार, बड़ा दानी, प्रतिदाता, मधुरभाषी । त्रो० वदान्या । " त्रिभुवन जननी विश्वमान्या वदान्या " - स्कु० । “ गतो वदान्यान्तरमित्यपं मे - रघु० । " दी, वदि- संज्ञा, पु० दे० (सं० प्रवदिन ) कृष्ण-पत्र, नदी (दे० ) | वदुसाना - स० क्रि० दे० (सं० विदूषण ) दोष देना, कलंक लगाना, भला-बुरा कहना, बहुसावना | वध - संज्ञा, पु० (सं०) मार डालना, हत्या या घात करना, प्राण-हिंसा | वि० वध्य | वधक सज्ञा, पु० (सं०) हिंसक, व्याध, घातक, वधिक (३०), मृत्यु, मौत । ' वधक धर्म जाने नहीं, स्वास्थ-रत मतिहीन " वासु० । "" वधजीवी - संज्ञा, पु० (सं०) व्याधा, कसाई । वधत्र - संज्ञा, पु० (सं०) हथियार । वधन - संज्ञा, पु० (सं०) बधन (दे०), हत्या, हिंसा, घात । वि० वचनीय, वध्य । वधना बधना - स० क्रि० (दे०) हिंसा या १५५६ घात करना मार डालना, हत्या करना । arभूमि- संज्ञा, स्त्रो० यौ० (सं०) फाँसी 93 वनरुह स्त्री, दुलहिन, पतोहू, पत्नी, भार्या, बधूटी (दे० ) । “मंगल गावहिं देव वधूटी " । वधूत संज्ञा, पु० दे० ( सं० श्रवधूत ) योगी, संन्यासी, यती, साधु स्त्री० वधूर्तिन | " शंकर वधूत होय गोकुल में श्राये हैं "" मन्ना० । वध्य - वि० (सं०) वध या हत्या करने या मार डालने योग्य | "स मे वध्यः भविष्यति” - वाल्मी० । वन - संज्ञा, पु० (सं०) जंगल. बाग, वन (दे०), वाटिका, जल, पानी, घर, भवन । " काननं जान कहेउ " भुवनं वनं " - इति श्रमरः । वन केहि अपराधा --- रामा० । शंकरा चार्य के अनुयायी संन्यासियों की उपाधि | वनचर, वनेचर - वि० (सं०) वन में रहने वाला, वनवासी, वन में चलने वाला, aar (दे० ) | युधिष्ठरं द्वैप वने वनेचरः " -किरा० । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 33 -रामा० । वनज - पंज्ञा, पु० (सं०) कमल, वन ( जंगल, पानी ) में उत्पन्न । " जै रघुवंस वनज-वनभानू वनदेव - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) वन या जंगल का देवता । स्त्री० वनदेवी । " वनदेवी, वन- देव उदारा " - रामा० । वनपशुली - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) व्याधा, बहेलिया । वनप्रिय संज्ञा, पु० यौ० कोकिला, एक हिरन । तेरी, क्यों न आती मुझे है - कुं०वि० । वनमाला - संज्ञा स्त्री० यौ० (सं०) वन - फूलों की माला, श्रीराम या कृष्ण जी की माला | भूषन वन-माला नयन विशाला (सं०) कोयल, " वन-प्रिय ध्वनि 27 16 *" घर, कसाई खाना | वधू - संज्ञा, स्त्री० (सं०) दुलहिन, पत्नी नयी व्याही स्त्री, भार्या, नव विवाहिता स्त्री, पतोहू, पुत्र-वधू । है दुकूल वासाः स वधू 66 55 समीपं रघु० । वनराज - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) सिंह | वधूटी - - संज्ञा, त्रो० (सं०) नवीन विवाहिता । वनरुह - संज्ञा, ३० (सं०) कमल, जलज । रामा० । वनमाली - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) श्री कृष्ण जी । " वाली वनमाली आय बहियाँ गहतु - पद्मा० । For Private and Personal Use Only Page #1571 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir धनलक्ष्मी घमनी Hamananercommen - memamaaamRMOURemem वनलक्ष्मी-संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) वन- होने वाला, वनोद्भव, जंगली, बनैला। श्री, वन की शोभा या छटा । "वन्यान् विनेष्यन्निव दुष्टसत्वान् ”-रघु० । वनवास-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) जंगल में वपन--संज्ञा, पु. (सं०) बीज बोना. मुंडन । रहना, गाँव-घर छोड़ वन में रहने की वि० (सं०)--वपनीय।। व्यवस्था या विधान । ' तुम कहँ तौ न | वपनी--संज्ञा, स्त्री० (सं०) नापित-शाला, दीन्ह वन-वासू”-रामा० नाइयों का अड्डा । वनवासी--वि० यौ० (सं० बनवासिन् ) ग्राम- वपा-संज्ञा, स्त्री० (सं०) मेद, चरबी । धाम छोड़ वन में रहने वाला । " चौदह । वपु-संज्ञा, पु० (सं० वपुस्) देह, शरीर, बरस राम वन-वासी”-रामा० । स्त्री० वन- गान्न । “ वपुःप्रकर्षादजयद् गुरु रघुः ---- वासिनी। रघु। वनस्थल-संज्ञा, पु. स्त्री० यौ० (सं०) वन. वपुरा, बापुरा--वि० (दे०) बेचारा, तुच्छ, भूमि । स्त्री० वनस्थली।। | नीच, थोड़ा ।' हमको वपुरा सुनिये धनपति--संज्ञा, स्त्री. (सं०) वृक्षमात्र, मुनिराई" - राम० : "कहा सुदामा बापुरो" पेड़-पौधे, जड़ी-बूटी। -रही । वनस्पतिशास्त्र-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) व वपुश्मा-संज्ञा, स्त्री. (सं०) काशीराज की ___ कन्या और राजा जनमेजय की पत्नी। वनस्पति-विज्ञान, पेड़ों, पौधों, लताओं वप्न- वि० (सं०) बीज बोने वाला, नाई । श्रादि के अंग, रूप, रंग, गुण-भेदादि की वप्र-संज्ञा, पु. (सं०) नगर-कोट, प्राचीर, विवेचमा की विद्या। वनहाम---संज्ञा, पु० यौ० (सं०) कॉम। दीवाल, चहार-दीवारी । " सवेला वन बलयां परिखीकृत सागरान् --- रघु० ।। वनिता-संज्ञा, स्त्री. (सं०) स्त्री, औरत, | वा--संज्ञा, स्त्री० (१०) प्रतिज्ञा पूरी करना, नारी, प्रिया, बनिता (दे०), "वनिता बनी बात निबाहना, पूर्णता, निर्वाह, सुशीलता, साँवरे-गोरे के बीच बिलोकहु री सखी मोहि मुरौवत । वि. वफ़ादार । सी है"-- कविः । ६ वर्गों की एक वृत्ति, वफ़ात संज्ञा, स्त्री. (अ०) मौत, मृत्यु, तिलका (पिं०) डिल्ला । प्रा० ) मरण। वनी-संज्ञा, स्त्री० (सं०) छोटा वन, वाटिका । | वादार---वि० ( अ० वफ़ा । दार--फा०) वनेला-बनैल-संज्ञा, पु० दे० (हि. वन | बात या कर्तव्य का पालने वाला। संज्ञा, --एला, ऐल - प्रत्य० ) वनवासी वनेचर, स्त्री० घफ़ादारी: " अच्छी तकदीर से वन्य, बनला (दे०)। माशूक वफादार मिला" - स्फु०। वनेचर--संज्ञा, पु० सं०: वनचर, बंचर ववा--संज्ञा, स्त्रो० (अ०) संक्रामक था फैलने (दे०)। " युधिष्ठिरं द्वैतवने वनेचर'- वाला मारक रोग, मरी । जैसे -प्लेग,हैजा । किरा०। वबाल --- संज्ञा, पु. (अ.) भार, बोझा, वनोत्सर्ग- संज्ञा, पु० यौ० (सं०) सर्व झंझट, झमेला, श्रापत्ति, कठिनाई, जंजाल । साधारण के लिये कुवाँ, मंदिर श्रादि के वभ्र--संज्ञा, पु० (सं०) यदुवंशी विशेष । द्वारा जल-दान । वभ्रुवाहन--संज्ञा, पु० (सं०) अर्जुन का पुत्र। वनौषध, वनौषधि---संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) वमन-संज्ञा, पु० (सं०) कै या उलटी करना, जंगली दवाइयाँ, जंगली जड़ी बूटियाँ। कै किया हुआ पदार्थ । वन्य-वि० (सं०) वनजात, वन में उत्पन्न ! वमनी--संज्ञा, स्त्री. (सं०) जलौका, जोंक । For Private and Personal Use Only Page #1572 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पमि परयात्रा पमि-- संज्ञा, स्त्री० (सं०) वमन रोग। के हेतु चुनना या नियुक्त करना, स्वीकार वर्य, वयम् -सर्व० (सं०) हम । या पूजा करना, पूजा, यज्ञादि शुभ कार्यों वयाक्रम-संज्ञा, पु. यौ० (सं०) अवस्था, में होतादि के लिये विद्वानों को नियुक्त कर समाप्त करना, तथा कुछ देना, वरण किये वयःसंधि-संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) लड़कपन होतादि व्यक्तियों को दिया धन-दानादि, या वाल्यावस्था और जवानी या युवावस्था कन्या का वर को स्वीकार करना । के बीच की अवस्था। वरणा-संज्ञा, स्त्री० (सं०) एक नदी, बरना वय - संज्ञा, स्त्री० (सं० वय ) उम्र, श्रवस्था, (दे०)। वैस, धयस (दे०)। वरणी--संज्ञा, स्त्री० (सं० वरण ) वरण वयस्क-वि० (सं०) श्रवस्था वाला । (यो० में) किया हुआ, निमंत्रित, नियुक्त, नियोजित । पूरी अवस्था को प्राप्त, सयाना, बालिग़। वरद-वि० सं०) बरदान देने वाला देवतादि स्रो० वयस्का । यौ-समवयस्क। (स्त्री० वरदा)। वयस्थ-वि० (सं.) सयाना, वालिस। वरदराज-वरदराट- संज्ञा, पु० (.) शिव, घयस्य-संज्ञा, पु० (सं०) समान अवस्था वाला, विष्णु, ब्रह्मा, सिद्धान्त-कौमुदी के रचयिता सखा, मित्र, संगी, साथी, समवयस्क। । एक प्रसिद्ध वैयाकरणी विद्वान वरदराज ।। घयस्या--संज्ञा, स्त्री० (सं०) सखी, सहेली वरदाता- वि. यौ० (सं० वरदातृ ) वरदान " कतिपय दिवसैर्वयस्यया वःस्वयमभिलष्या देने वाला। परिष्यते वरीयान "--नैप० ।। वयोवृद्ध-वि० यौ० (सं०) बड़ी अवस्था वरदान- वि० यौ० (सं०) किसी देवता या गुरुजनों का अपनी प्रसन्नता से किसी को का, वृद्ध, बड़ा बूढ़ा, आयु में बड़ा । संज्ञा, स्त्री० वयोवृद्धता। कोई इष्ट फल या सिद्धि देना, किसी बड़े परं-अभ्य० (सं०) उत्तम, अच्छा, श्रेष्ठ । की प्रसन्नता से प्राप्त कोई सुफल का लाभ । वरंच-मव्य० (सं०) बल्कि, परन्तु, लेकिन, वरदानी- संज्ञा, पु. (सं०) वरदान देने ऐसा नहीं ऐसा। वाला। घर-संज्ञा, पु० (सं०) वह मनोरथ जो किसी घरदी--संज्ञा, स्त्री. (१०) किसी सरकारी देवता या बड़े से माँगा जाय, किसी बड़े विभाग के अधिकारियों, कार्यकर्ताओं या या देवतादि से प्राप्त सिद्धि या अभीष्ट | नौकरों का पहनावा विशेष । फल, पति, स्वामी. दूल्हा, बर (दे०)। वरन्- मध्य० दे० (सं० वरम् ) किंतु, ऐसा वि०- श्रेष्ठ, उत्तम । जैसे—मुनिवर। नहीं, बल्कि। घरक-संज्ञा, पु० (अ.) पत्र, पुस्तकादि का वरना*~-ज्ञा, पु० दे० (सं० वरण ) ऊँट । पना, पत्रा, पतला पत्तर ( सोना-चाँदी)। । अव्य० (म०) वगरना, नहीं तो, यदि ऐसा परजिस-संज्ञा, स्त्री. (फ़ा०) व्यायाम, कसरत । " दवा कोई वरज़िस से बेहतर | वरपतिक संज्ञा, पु० (२०) अभ्रक, अबरख । घरटा--संज्ञा, खो० (सं०) हंसिनी, हंसी। वरम-संज्ञा, पु० (फ़ा०) सूनन, वर्म । " मवप्रसूतिर्वस्टा तपस्विनी"--नैष । वरयात्रा--संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) बरात, परण-संज्ञा, पु. (६०) सरकार, अर्चना, । बारात, वर का बाजे-गाजे से कन्या के यहाँ किसी योग्य पुरुष को किसी कार्य के करने ! जाना। मा० श. को०-१६६ For Private and Personal Use Only Page #1573 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir हड्डा । विशेष । घररहना १५६२ घर्गक्षेत्र वररहना-वा. (दे०) विजयी या नयवंत जिनका अस्त्र पाश है, जलेश, पानी के होना। स्वामी, बरुन (दे०)। “वरुण, कुबेर इन्द्र, वररुचि-संज्ञा, पु. (सं०) एक विख्यात यम, काला"-नामा० । वरुना का पेड़, विद्वान वैयाकरणी और कवि (विक्रम-सभा सूर्य, पानी, नेपचून ग्रह ( अं.)। के रत्नों में से एक ।)। वरुण-पाश-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) फाँसी. वरल-संज्ञा, पु० (दे०) विरनी, वर्ग, फंदा, वरुण का प्रस्त्र, वरुणास्त्र । वरुणानी-संज्ञा, स्त्री. (सं०) वरुण की वरवर्णिनी-संज्ञा, स्त्री० (स.) रूपवती और स्त्री। गुणवती उत्तमा स्त्री वरुणालय-संज्ञा, पु. यौ० (सं०) वरुण का वरह-संज्ञा, पु० (दे०) पत्ता पत्नी, पत्र ।। । घर, समुद्र, सिंधु, सागर, बरुनालय (दे०) । वरही-बरही* - संज्ञा, पु० दे० (सं० वरुत्थ-संज्ञा, पु० (सं०) समूह, यूथः दल । वर्हिन् ) मोर, मयूर, बहीं। वरुत्थी- संज्ञा, खी० (सं०) सेना, चमू , घरा---संज्ञा, स्त्री० (सं०) वकुची, एक औषधि | मौज । वरूथ-संज्ञा, पु० (सं०) समूह, यूथ, दल, वराक-संज्ञा, सो० (सं०) बेधारा, दुखिया । सेना । "रथ बरुयन को गनै"-राम । वराट, धराटक-संज्ञा, पु(सं०) बड़ी वरूथिनी-संज्ञा, स्त्री. (सं०) सेना, चमू , कौड़ी, दीर्घ कपर्दिका । स्त्री० वराटिका। वगटिका-संज्ञा, स्त्री० (सं.) कौड़ी, वरे--अव्य (दे०) समीप, निकट, हेतु, वास्ते, कपर्दिका। वरानना--संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) सुंदर स्त्री। " सहस्रनाम तत्तुल्यं रामनाम बरानने"। | वरेची--संज्ञा, स्रो० (दे०) अंकोलवृक्ष । वराह-संज्ञा, पु. (सं०) धाराह (दे०)। वरेपी-संज्ञा, स्त्री. (दे०) एक गहने का शूकर, विष्णु का शूकर अवतार, विष्णु. १८ नाम, बर्षी, बरेखी (दे०)।। द्वीपों में से एक द्वीप, एक विद्वान । वरोरू-संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) श्रेष्ठ जंघा वराहक्रांता-संज्ञा, स्त्री. (०) एक कंद | वाली स्त्री। वाराही (औष०) लजाल (दे०), लज्जावंती धरोह--संज्ञा, स्त्री० (सं०) बरोह (दे०) लज्जालु, बाराहीकंद।। बरगद की जटा, सोर। वराह-मिहिर-संज्ञा, पु. (सं०) वृहद् वरोहक-संज्ञा, पु० (दे०) अलगंध औषधि । वाराही संहितादि के कर्ता एक ज्योतिषा- वर्ग-एक जाति की अनेक वस्तुओं का समूह, चार्य जो विक्रमादित्य की सभा के : रत्नों | कोटि, श्रेणी, जाति, समूह, एक सामान्य में थे। धर्म वाली वस्तुओं का समूह, एक ही स्थान वरिष्ट---वि० (सं०) पूजनीय, श्रेष्ठ, उत्तम, से उच्चरित या समान स्थानीय स्पर्श व्यंजनपूज्य। समूह. अध्याय, प्रकरण, परिच्छेद, किसी वरु, बरु-अव्य० (दे०) जो, यदि, भले ही, अंक या राशि का उसी से घात या गुणनपक्षांतर में, बहक (दे०) । " वरु मराल । फल (गणि) ऐसा चतुर्भुज क्षेत्र जिसकी मानस तजै" - रामा। चारों भुजायें समान और कोण सम कोण वरुण-संज्ञा, पु. (सं०) देव-रक्षक, दस्यु- हों (रेखा०)। नाशक जल के अधिपति एक वैदिक देवता, ! वर्गक्षेत्र-संज्ञा, पु. यौ० (सं०) वह चतुर्भुज लिये। For Private and Personal Use Only Page #1574 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir वर्गफल १५६३ वर्णात्मक क्षेत्र जिसकी चारों भुजायें तुल्य और कोण | विचार से प्रस्तारानुसार अमुक संख्या के समकोण हों (रेखा०)। वणों के छंदों के अमुक संख्यक भेद का रूप वर्गफल-संज्ञा, पु. यो० (सं०) वह गुणन- कैसा होगा। फल जो किसी संख्या या राशि को उसी वर्णना-संज्ञा, स्त्री. (सं०) वर्णन, स्तवन, संख्या या राशि से गुणा करने से मिले। स्तुति । स० क्रि० (दे०)-बखान करना, वर्गमूल-संज्ञा, पु. (सं०) किसी वर्गीक बनना (दे०), स्तवन करना, बखानना, संख्या की ऐसी संख्या जिसे यदि उससे ! कहना। गुणा करें तो फल वही पीक हो । जैसे वर्णपताका-संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) पिंगल ३६ का वर्ग मूल ६ है अल्पा० रूप-मूल । की एक क्रिया जिससे यह ज्ञात हो कि धर्गलाना, बरगलाना (दे०)-स. क्रि० वर्णिक छंदों में से कौन सा ऐसा छंद है दे० (फा० वरग़लानीदन) बरगलाना (दे०), जिसमें प्रमुक संख्यक लघु गुरु होंगे (पिं०)। किसी को बहकाना, फुसलाना, उभारना, वर्णप्रस्तार--संज्ञा, पु० यौ० (सं०) पिंगल उसकाना, उत्तेजित करना। की एक क्रिया जिससे ज्ञात होता है कि वर्गीय-वि० (सं०) वर्ग या समूह का। इतने वर्णो के छंदों के इतने भेद हो सकते वर्जन-संज्ञा, पु० (सं०) त्याग, छोड़ना, | हैं और उनके रूप इस तरह होंगे। मनाही, रोक । वि०---धर्जनीय, घi, | वर्णमाला-संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) किसी वर्जित । " घर से निकलने के लिये है भाषा के अक्षरों की क्रमवद लिखित सूची। वज्र वर्जन कर रहा "--मै० श०। वर्जित-वि. (सं०) स्यागा या छोड़ा हुआ, वर्णविचार--संज्ञा, पु० यौ० (सं०) वर्ण-शिक्षा रोका हुया, त्यक्त, निपिद्ध, अग्राह्य ।। (प्राचीन वेदांग) या व्याकरण का वह भाग वर्य-वि० (सं०) त्याज्य, छोड़ने के योग्य, जिसमें अक्षरों के रूप, उच्चारण और संधि जो मना किया गया हो। श्रादि का वर्णन हो (माधु०)। वर्ण-संज्ञा, पु. (सं०) लाल-पीले श्रादि रंग, वर्णवृत्त-संज्ञा, पु. यौ० (सं०) वह छंद जन-समूह के ४ विभाग या जाति : जिसके चरणों में लघु-गुरु-क्रम तथा वर्णब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद, (प्राचीन भार्य) संख्या समान हो। भेद, प्रकार, भाँति, रूप, अक्षर, अकारादि वर्ण संकर--संज्ञा, पु. यो० (सं०, दो भिन्न के चिह्न या संकेत, वर्न. बरन (दे०)। । भिन्न जातियों से उत्पन्न व्यक्ति या जाति, वर्णक-वि० (सं०) प्रशंसक, स्तुति-कर्ता ! दोगला, व्यभिचार-जनित पुरुष, बरनवर्गखंड-मे--संज्ञा, पु. (सं०) पिंगल की संकर (दे०) । “ स्त्रीदुष्टासु वार्ष्णेय जायते वह क्रिया जिससे बिना मेरु बनाये ही ज्ञात वर्णसंकरः ”.... भ. गीता । “ भये वर्ण. हो जाता है कि इतने वर्गों से कितने छंद संकर कलिहि, भिन्न सेत सब लोग"बन सकते हैं (पिं०)। रामा० । संज्ञा, स्त्री० -- वर्णसंकरता। वर्णन-संज्ञा, पु० (सं०) विस्तार से कहना, वर्णसूची-- संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) पिंगल की कथन, लापन, चित्रण, बयान, गुण-कीर्तन. एक रीति या क्रिया जिससे ज्ञात होता है रंगना, प्रशंसा, बरनन, बर्नन (दे०)। कि वर्णिक छंद-संख्या की शुद्धता और उनके वि०-वर्णनीय, घगर्य, धर्णित। भेदों में श्रादि-यंत के लघु-गुरु जाने जाते हैं। वर्णनष्ट-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) पिंगल की वर्णात्मक- वि० (सं०) अक्षर-संबंधी, एक क्रिया जिससे ज्ञात हो कि लघु-गुरु के अक्षरात्मक, जाति या रंग-सम्बन्धी। For Private and Personal Use Only Page #1575 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir वर्णाश्रम वर्णाश्रम-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) ब्राह्मण | वर्तुलाकार-वि० यौ० (सं०) गोलाकार, भादि चार वर्ण और ब्रह्मचर्य आदि चार वृत्ताकार । आश्चम, बनरास्त्रम (दे०)। " वर्णाश्रम वर्म-संज्ञा, पु० (सं०) राह, रास्ता, मार्ग, धर्म-प्रचार गये"-रामा० ।। पंथ, बाट, पथ, बारी, किनारा, तट, आठ वर्णिकवृत्त-संज्ञा, पु. (सं०) वह छंद । (प्रान्ती०), अाँख की पलक. पाश्रय, प्राधार। जिनमें अक्षरों की संख्या का नियम हो, . "पुरस्कृता वर्मनि पार्थिवेन"--रघु० । वर्णवृत्त । वर्दी- संज्ञा, स्रो० दे० (प्र० वरदी) सिपाहियों पर्णिका-संज्ञा, स्त्री० (सं० ) रंग भरने की और उनके अफसरों का पहनावा । लेखनी। पर्द्धक--वि० (सं०) वृद्धि-कारक, बदाने या वर्णित-वि० (सं०) प्रशंसित, कथित, जिस अधिक करने वाला, पूरक । का वर्णन हो चुका हो, कहा हुना।। घर्द्धन-संज्ञा, पु० (सं०) बदाना, अधिक वर्य-वि० (सं०) वर्णन के योग्य, वर्णन करना, उन्नति, बढ़ती. वृद्धि, तराशना, का विषय, उपमेय, प्रस्तुत । संज्ञा, पु० (सं०) ___ काटना । वि० वर्तित, घधनीय।। कुमकुम, बन तुलसी। घद्धमान-वि० (स०) जो बढ़ रहा हो, वर्तन-संज्ञा, पु० (सं०) व्यवहार, बरताव, बढ़ने वाला, वनशील । संज्ञा, पु. (सं०) एक रोजी, वृत्ति, व्यवसाय, घुमाना, फेरना, वर्णिक छंद जिसके चरणों में भिन्न अक्षरहेरफेर, परिवर्तन, रखना, स्थापन, सिल बढे संख्या क्रम से १४, १३, १८, १५ होती से पीसना, पान, बरतन (दे०) । वि० हैं। जैनियों के २४वें महावीर तीर्थकर या वर्तनीय, पर्तित । जिन । वर्तमान-वि० (सं०) उपस्थित, विद्यमान, वद्धित-वि० (सं०) छिन्न, भिन्न, बढ़ा मौजूद, चलता हुश्रा, हाल का, आधुनिक । हुश्रा, पूर्ण, कटा हुश्रा । “सं वर्द्धितानां सुत संज्ञा, पु० (सं०) क्रिया के तीन कालों में से निर्विशेषम्" रघु० । एक काल जिससे प्रकट हो कि क्रिया का वर्म-संज्ञा, पु. (सं० वर्मन्) कवच, बस्तर, श्रारंभ हो गया हो वह चली जाती है और घर, रक्षा-स्थान ।। समाप्त नहीं हुई, समाचार, वृत्तान्त, चलता पम्मा, वा-संज्ञा, पु०(सं० वर्मन् ) क्षत्रियों. व्यवहार । “वर्तमाने लट् "--कौ० व्या०। कायस्थों श्रादि की एक उपाधि । घर्ति- संज्ञा, स्त्री० (सं०) बटी, बत्ती, गोली, वर्य-वि० (सं०) वर, श्रेष्ठ । जैसे-विद्वद्वर्य । अंजन लगाने की सलाई, वर्ती (दे०)। | वर्वर --संज्ञा, पु० (सं०) एक देश, वर्वर देश वत्तिका-संज्ञा, स्त्री० (सं०) बत्ती, सलाई, के धुंघराले बालों वाले असभ्य निवासी। शलाका । अधम, नीच, पामर । “पृथिवी वर्वर-भूरि वर्तित-वि० (सं०) जारी किया या चलाया भार-हरणे"-ह. ना०। हुश्रा, संपादित । वर्ष संज्ञा, पु० (स.) वर्षा, पानी बरसना, वर्ती-वि० (सं० वतिन् ) बरतने वाला, जल वर्षण, वृष्टि, १२ मासों वाला एक वर्तनशील, स्थित रहने वाला (दे०), बर्ती, काल-मान, साल, संवत्सर, वर्ष के चार बत्ती, व्रत रखने वाला, उपास, कृतोपवास । भेद हैं, सौर, चाँद, सावन, और नाक्षत्र, स्रो० वर्तिनी। सात द्वीपों का एक विभाग (पुरा०) किसी घर्तुल-वि० (सं०) गोला, वृत्ताकार । द्वीप का प्रधान भाग, बादल, मेघ । “ वर्ष For Private and Personal Use Only Page #1576 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir वर्षगांठ वल्लभी चतुर्दश विपिन वसि, करि, पितु वचन वलि-संहा, पु० (सं०) रेखा, पेट की रेखा प्रमान"-रामा । या पेटी की रिकुड़न, बल, देवता की भेंट, वर्षगाँठ-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० वर्ष + गांठ) वामन रूप विष्णु से छला गया एक दैत्य, जन्म दिन, साल गिरह, बरम-गाँठ (दे०)। पंक्ति, श्रेणी सिकुड़ना शिकन, झुरीं । वर्षण -- संज्ञा, पु० (सं० बरसना, वृष्टि ।। वलित--वि• (सं०) बल खाया हुआ, मोड़ा वि०--वपिन। या झुकाया हुघा, लिपटा या घेरा हुश्रा, वर्षफल-संज्ञा, पु. यौ० (सं०) फलित झुर्रादार, सहित. युक्त, लिपटा, ढका, लगा. ज्योतिष में एक कुण्डली जिससे मनुष्य के झुका हुमा। साल भर का भला-बुरा ग्रह-फल ज्ञात हो। वली-- संज्ञा, स्त्री० (सं०) सिकुड़न, शिकन, वर्षा-संज्ञा, स्त्री० (सं०) प्रासार से क्वार झुर्रा श्रेणी, पंक्ति लकीर, रेखा । संज्ञा, पु. तक की एक ऋतु जब पानी बरसता है, (अ०) सिद्ध साधु, फ़कीर, स्वामी, मालिक, चौमासा (दे०), वष्टि, बरसने का भाव या हाकिम, शासक, पहुँचा फकीर, संरक्षक ।। किया, बरपा, बरमा (दे०)। "वर्षा विगत वाल-संज्ञा, पु. (सं०) स्वक, पेड़ की शरद ऋतु भाई"-रामा० । मुहा० छाल, बकला. तपस्वियों के छाल के कपड़े, (किसी वस्तु की ) वर्षा होना (करना) बलकल (६०), "वल्कल बसन जटिल तनु -अधिकता के साथ उपर से गिरना श्यामा" -रामा० । (गिराना), बहुतायत से मिलना ( देना)। घल्गु--वि० सं०) सुन्दर, मनोहर । “बरुगुवर्षाकाल ...संज्ञा, पु. यो० (सं०) पावस का भाषितम् "..- स्फुट० । समय, बरसात, प्रावृट । “ वर्षा काल मेघनभ छाये"---रामा० । वल्द-संज्ञा, पु. (ग्र०) औरय पुत्र, बेटा। वर्षाशन ---संज्ञा, पु० यौ० (सं०: एक वर्ष वल्दियत-ज्ञा, स्त्री० (म०) पिता के नाम का भोजन या जीविका । का परिचय। वहीं-संज्ञा, पु. (सं० बर्हिन) मोर, मयूर व लारीक-संज्ञा, पु. (सं०) दीमक का घर, पल-संज्ञा, पु० (सं० एक दैत्य जिसे वृहस्पति । मिट्टी का ढेर, बावी, विमोठ (प्रान्ती०) ने मारा था, मेघ सेना, चमू । "वल वाल्मीकि मुनि ।। भीगाभिरक्षितम् ".--. गी । वल्लभ - वि० (सं०) प्यारा, प्रियतम । संज्ञा, घलन--संज्ञा, पु० (सं०) नक्षत्रादि का साय- पु.-प्रियमित्र, अध्यक्ष, स्वामी, नायक, गांश से हट कर चलना, विचलन (ज्यो०)। पति, मालिक, वैष्णवमत की कृष्णोपासना पलभ-संज्ञा, पु. (सं०) कंकण, हाथ का के प्रवर्तक, एक प्रसिद्ध प्राचार्य, पुष्टि-मार्ग के प्रवर्तक । पलभी-संज्ञा, स्त्री० (सं०) काठियावाड़ की | वल्लभा-संहा, स्त्री० (सं०) प्रियतमा, प्यारी एक पुरानी नगरी, यराबदा।। स्त्री, प्रिया । घलय-संक्षा, पु० (सं०) कंकण, चूड़ी, वेष्टन, मंडल | " भणिना वलयं वलयेन मणिः वल्लभाचार्य-- संज्ञा, पु. (सं०) वैष्णव मत या कृष्ण भक्ति और पुष्टि मार्ग प्रवर्तक पलवला-संज्ञा, पु० (१०) उमंग, जोश, एक प्रसिद्ध धाचार्य। भावेश। पल्लभी--संज्ञा, पु. (सं० बलभी ) काठियापलाहक-संज्ञा, पु. (सं०) बादल, मेघ, वाड़ का एक पुराना नगर, एक वैष्णव पहार, पर्वत, एक दैत्य । । संप्रदाय, वल्लभीय । For Private and Personal Use Only Page #1577 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - घल्लरि-वल्लरी वसन पल्लरि-वल्लरी- संज्ञा, स्त्री० (सं०) वल्ली, वषट-अव्य. (सं०) इसे पढ़ कर देवताओं लता, मंजरी, व्रतती। को हवि दी जाती है। घल्ली -संज्ञा, स्त्री. (सं.) लता, बेल । वसंत--संज्ञा, पु. (सं०) साल की छः " व्रतती तु लता, वल्ली'"- अमर०। ऋतुओं में से चैत्र वैपाख के मामों की वल्वल-संज्ञा, पु० (सं०) इल्वल नामक एक मुख्य और प्रथम ऋतु, बहार का मौसिम, दैत्य जो बलदेवी जी से मारा गया था छः रागों में से दूसरा राग (संगी०), (पुरा.)। शीतला रोग, चेचक । वि. --वासंत, पश-झा, पु० (सं०) इच्छा, 'वाह, अधिकार, वासंतक, वासनिक, वसंती । "विहरति काबू, इख्तियार, शक्ति, बस (दे०) ।। हरिरिह सरस वसंते ''- गीत। मुहा०-वश का--- जिस पर अधिकार हो, वसंततिलक, बसंततिलका स्त्री-संज्ञा, क़ाबू का, वही न दे तो किसके वश का है, पु० (सं०) त, भ, ज, ज ( गण) और दो म.इ. । शक्ति की पहुँच, सामर्थ्य : मुहा० गुरु वर्णान्त १४ वर्णों का एक वर्णिक छंद -वश चलना-सामर्थ्य या शक्ति काम (पि.)। "ज्ञ या वसंततिलका तभजा करना. काबू चलना। प्रभुत्व, कब्जा, दखल । जगौगः।" वशवर्ती- वि० (सं० वशतिन् ) प्राधीन, वसंततिलका--संहा, स्त्री. (सं०) वसंत ताबे ! स्त्री वशवर्तिनी। तिलक छंद। पशिता-संज्ञा, स्त्री. (सं.) ताबेदारी, घसंतदूत-संज्ञा, पु. यौ० (सं०) श्राम की अधीनता, मोहने की क्रिया, घशता। बौर या वक्ष, चैत्र मास, कोयल । वशित्व-संज्ञा, पु० (सं०) वशता, अणिमादि वसंतदृतो-ज्ञा, त्री० यौ० (सं०) पिक, पाठ सिदियों में से एक सिद्धि योग०)। । कोकिला, माधवीलता। वशिष्ट-संज्ञा, पु. (सं०) रघुवंश और राम- वसंतपंचमी-संज्ञा, पु० यो० (सं०) माघ चंद्र जी के पुरोहित या गुरु । " प्रस्थापया. शुक्ल पंचमी ( त्यौहार )। मास वशी वशिष्टः ''- रघु० । वसंती-संज्ञा, पु. (सं०) वसंत-संबंधी, वशी-वि. ( स० वशिन् ) अपने को वश वसंत का, गहरा पीला रंग. पीला वस्त्र । में रखने वाला, इन्द्रियजित, श्राधीन । स्त्री० । मुहा०-वसंती रंग चढ़ना-प्रफुल्लता वशिनी। या रसिकता पाना। वशीकरण -- संज्ञा, पु० यौ० (सं०) मंत्रादि वसंतोत्सव--संज्ञा, पु० यौ० (सं०) एक से किसी को श्राधीन या वश में करना, प्राचीन उत्सव जो वसंत पंचमी के दूसरे वश में करने की क्रिया, बसीकरन (दे०)। दिन होता था, मदनोत्सव, होली का " वशीकरण इक मंत्र है परिहरु बचन उत्सव, होलिकोत्सव। कठोर"-तुल० । वश में करने ( मोहने) वसत-संज्ञा, स्त्री० (अ०) फैलाव, विस्तार, का एक प्रयोग (तंत्र)। वि.--वशीकृत, समाई, चौड़ाई, शक्ति अँटने का स्थान, वशीकरणीय। सामर्थ्य, बल। वशीभूत--वि० (सं०) प्राधीन, ताबे. पर- वसति, पारती- सज्ञा, स्त्री० (सं०) प्राबादी. इच्छानुचारी. मुग्ध, मोहित । गाँव, घर, रात, बस्ती (दे०)। वश्य-वि० (सं०) वश में आने वाला। वमन-- संज्ञा, पु० (सं०) कपड़ा, वस्त्र, पाव. वश्यता-संज्ञा, स्त्री. (सं० ) प्राधीनता, । रण, निवास । "भूमि-सयन, बलकल वपन" दासता, परवशता, परबसता (दे०)। -रामा० । For Private and Personal Use Only Page #1578 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org वसमा १५६७ वस्तुनिर्देश वसमा - संज्ञा, पु० (अ०) उबटन, ख़िज़ाब, सूर्य, शिव, विष्णु, साधु- व्यक्ति, सज्जन, तालाब, सर, छप्पय का ६६ वाँ भेद (पिं० ) । खुदा - संज्ञा, स्त्री० (सं०) भूमि, पृथ्वी, माली नामक राक्षस की पत्नी, जिसके निल, अनज, हर और संपाति ४ पुत्र थे । वसुदेव- रक्षा, पु० (सं०) यदुवंशियों के शूर कुल के राजा और श्रीकृष्ण जी के पिता और कंस के बहनोई | "विरोचमानं वसुदेव रैचत "भा० द० । "" एक तरह का छपा कपड़ा । घसवास - संज्ञा, पु० (०) मोह या प्रलोभन, संदेह, संशय, भ्रम । वि० - वसवासी । षसह * संज्ञा, पु० सं० नृपभ ) बैल | "चले वसह चदि शंकर तबहीं स्फु० ।। वसा - संज्ञा, स्रो० (सं०) चरबी, मेद, वसा (दे०) । "" वसिष्ठ - संज्ञा, पु० (सं०) एक प्राचीन वैदिक ऋषि जो ब्रह्मा के पुत्र थे, वेद, रामायण, महाभारत और पुराणों में इनका उल्लेख है, सप्तर्षि -मंडल का एक तारा, सप्तर्षियों मैं से एक ऋषि, रघुवंश तथा रामचन्द्र जी के गुरु । " तव वसिष्ट बहुविधि समभावा - रामा० । “ वसिष्ट धेनोरनुयायिनं ताम् - रघु० । वसिष्टपुराण - संज्ञा, ५० यौ० (सं०) एक उपपुराण, लिंगपुराण (एकमत) | सीका - संज्ञा, पु० ( ० ) वह धन जो सरकार के खजाने में इसलिये जमा किया नावे कि उसका व्याज उसके संबंधियों को मिलता रहे, ऐसे धन का व्याज, वृत्ति । वसीयत - संज्ञा स्त्री० ( ० ) कोई मनुष्य अपने मरने के समय अपनी धन-संपत्ति के प्रबंध और विभाग आदि के विषय में जो यवस्था लिख जाता है । वसीयतनामा - संज्ञा, पु० यौ० ( ० वसीमत + नामा - फा० ) वह व्यवस्था - लेख या प्रबंध-पत्र जो कोई पुरुष अपने मरते समय अपनी सारी संपत्ति के विभाग या प्रबंधादि के विषय में लिख जाता है। ار बसीला - पंज्ञा, पु० अ० ) श्राश्रय, सहारा, सहायता, द्वारा, जरिया. संबंध । वसुंधरा-पंज्ञा, त्रो० (सं०) अवनि भूमि, पृथ्वी, वसुधा, वसुमती । - संज्ञा, पु० (सं०) आठ देवताओं का गया या समूह, आठ की संख्या, धन, किरण, अनि, सोना, जल, कुवेर, Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 86 वसुधा-संज्ञा, स्रो० (सं०) भूमि, पृथ्वी । 'बावरे वसुधा काकी भई " - स्फु० । वखुवारा संज्ञा, स्त्री० (सं०) जैनों की एक देवी, अलकापुरी, कुबेर नगरी । वसुमती - संज्ञा, स्त्री० (सं०) भूमि, पृथ्वी, एक वर्णिक छंद जिसके प्रत्येक चरण में छः वर्ण होते हैं (पिं० ) । “ नैकेनापि समंगता वसुमती नूनं स्वया यास्यति " - भोज ० । वसुहंस - संज्ञा, पु० (सं०) वसुदेव के पुत्र एक यादव । लब्ध, घसूल - वि० (अ०) प्राप्त मिला हुआ, जो चुका या ले लिया गया हो । वसूली - संज्ञा खो० ( ० वसूल) दूसरों से वसूल या प्राप्त करने का कार्य, प्राप्ति, धि | संज्ञा, स्त्रो० वसूलयात्री | वस्तव्य -संज्ञा, पु० सं०) बसने या ठहरने योग्य | वस्ति - संज्ञा, स्त्री० (सं०) मूत्राशय, पेड़, पिचकारी । वस्तिकर्म -- संता, पु० यौ० (सं०) पिचकारी देना या लगाना ( लिंग या गुदा में ) । वस्तु - संज्ञा, खो० (सं० ) पदार्थ, सत्ता या स्तित्ववान, गोचर पदार्थ, चीज़, नाटक का प्रख्यान या कथन, कथा वस्तु, सत्य । वि० - वास्तव, वास्तविक । वस्तुतः - अव्य० यथार्थतः । (सं० ) सत्यतः, सचमुच, वस्तुनिर्देश - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) मंगला चरण का एक भेद जिसमें कथा का कुछ For Private and Personal Use Only Page #1579 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir MER वस्तुवाद १५६८ वही सूचम भाभास रहता है। "पाशीनमस्क्रिया वहाँ-श्रव्य० (हि० वह), तहाँ (ब० अव०) वस्तुनिर्देशोवापि तन्मुखम्"-काव्य.। उस ठौर, उस जगह, उहाँ (दे०)। घस्तुवाद-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) दृश्य संसार वहावी-संज्ञा, पु. (अ०) मुसलमानों का जैसा दिखाई देता है वैसे ही रूप में उसकी एक संप्रदाय जिसे अब्दुल वहाब नदी ने सत्ता ठीक है यह दार्शनिक विचार ( न्या. चलाया था, वहाब मतानुयायी। वैशे०)। वहिः .. अव्य० सं०) बाहर, जो भीतर न वस्त्र-संज्ञा, पु. (सं०) कपड़ा, बस्तर(दे०)। हो । “अंतर्वहिः पूरुषकाल रूपैः "वस्त्रभवन----संज्ञा, पु० यौ० (सं०) कपड़े का । भा. द. । यौ० - पहिरागत-बाहर घर, वनगृह, डेरा, खेमा, तंबू , रावटी। श्राया हुवा। वस्त्रालय- संज्ञा, पु. यौर (सं०) वस्त्र का वहित्र- संज्ञा, ४० दे० ( सं० वोहिस्य ) घर, कपड़े का भंडार या कारखाना। जहाज, पोत । वहिरंग-संज्ञा, पु० (सं०) किसी पदार्थ का वस्फ़-संज्ञा, पु. (अ.) गुण, हुनर, स्तुति, । बाहिरी भाग, बाहिरी वस्तु, बाहिरी मनुष्य। प्रशंसा, विशेषता, अधिकता, सिफ़त ।। वस्ल- संज्ञा, पु० (अ०) दो वस्तुओं का मेल, (विलो..- अंतरंग)। "प्रसिद्धं वहिरंगमिलाप, मिलन, संयोग, प्रसंग । मन्तरंगे"- की. व्या० । वि.- बाहिरी, ऊपरी, ऊपर का। घह-सर्व० दे० ( सं० सः ) एक वचन, अन्य वर्हिगत-वि० चौ० (सं०) जो बाहर गया पुरुष का सूचक एक संकेत-शब्द ( व्या.), हो, निकला हुथा, बाहर का, वहिरागत । दूरवर्ती या परोक्ष सूचक एक वचन निर्देश संज्ञा, पु० (सं०) वहिर्गमन । कारक या संकेत-शब्द (व्या०), कर्तृकारक में प्रथम पुरुष सर्वनाम । वि.वाहक | वहिद्वार -- संज्ञा, पु. यौ० (सं०) बाहरी फाटक, सदर फाटक, तोरण, सिंह द्वार । ( समास में )। वहित-वि० (सं०) वहिर्गत । वहन-संज्ञा, पु० सं० घसीट या अपने बहिर्मख-वि० (सं०) विमुख, पराङ्मुख । ऊपर लाद कर किसी वस्तु को कहीं से कहीं वहिापिका-संज्ञा, स्त्री० (सं०) ऐसी पहेली ले जाना । वि०-वहनीय, वहमान, जिसका उत्तर बाहर से देना पड़े । (विलो. वहित । " धापीनभारोहन प्रयत्नात् "-- -अंताधिका)। रघु० । उठाना, ऊपर लेना, बेड़ा, तरदा । वहिस्कृत-वि० (सं०) बाहर निकाला हुश्रा, (प्रान्ती)। स्यक्त, त्यागा हुा । “जाति वहिप्कृत ते वहम-संज्ञा, पु. (अ०) भूठी धारण, भ्रम, नर जानहु"- स्फु० । व्यर्थ की शंका, मिथ्याधारण, झूठा संदेह । घहिष्करण, बहिष्कार-संज्ञा, पु० (सं०) वहमी-वि० (अ० वहम) वहम करने वाला, परित्याग, बाहर करना । वि०-हिप्करजो व्यर्थ संदेह में पड़ा हो । गाय। पहला-संज्ञा, पु० (दे०) आक्रमण, धावा, वहीं... अव्य० दे० ( हि० वहां नहीं ) उसी चढ़ाई। स्थान पर, उसी जगह, तहीं, उहैं (ग्रा०)। वहशत-संज्ञा, स्त्री० (अ०) असभ्यता, वही--- सर्व० दे० (हि. वह -1-ही) अन्य जंगलीपन, उजडता, अधीरता, चंचलता। पुरुष या दूरवर्ती निश्चय-वाचक संकेतवहशी-- वि० (१०) जंगली, बनैला, असभ्य, शब्द, जिसके सम्बन्ध में कुछ कहा गया हो जो पालतू न हो। उस निर्दिष्ट पूर्व कथित व्यक्ति या वस्तु, For Private and Personal Use Only Page #1580 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir . घाग्दत्त की मुख्यता-सूचक-शब्द, निर्दिष्ट या उक्त वाकपटु-वि० यौ० (सं०) बातें करने में व्यक्ति या वस्तु । चतुर । संज्ञा, स्त्री० वक-पटुता । " सदसि वह्नि- संज्ञा, पु० (सं०) आग, अग्नि, श्रीकृष्ण वाक-पटुता युधि विक्रमः ।" जी के एक पुत्र, तीन की संख्या । वाकत-संज्ञा, पु. यौ० (सं०) वृहस्पति, "पिपीलिका नृत्यति वह्नि मध्ये।" गुरु, जीव, विष्णु । पाँचनीय–वि० सं०) चाहने योग्य, जिसकी वाकफ़ियत-संज्ञा, स्त्री० (अ०) जानकारी। चाह हो, इष्ट, अभिलाषित । " वांछनीय | वाक्य-संज्ञा, पु. (सं०) वह पद या शब्दजग भगति राम की"- वासु। समूह जिससे किसी श्रोता को वक्ता का चाँया-संज्ञा, स्त्री. (सं०) अभिलाषा, चाह, | अभिप्राय सूचित हो और कोई आकांक्षा इच्छा, कामना । वि०-वाँछित, वांछ- शेष न रहे, जुमला, बाक (दे०)। नीय। वाक्यार्थ-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) वाक्य का वांछित-वि० (सं०) श्राकांक्षित, चाहा अर्थ, शब्दबोध । हुश्रा, इच्छित, इष्ट, अभीष्ट । वाक-सिद्धि-संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं० वह वा--प्रव्य० (सं०) संदेह या विकल्प-वाचक | मिद्धि जिससे वत्ता जो कहै वही ठीक या शब्द, अथवा, व, या, बा (दे०) । “वा | सच उतरे । वि०- वाक सिद्ध । पदान्तस्य -ौ. व्या० । मर्व० दे० वाकची-संज्ञा, स्त्री० (दे०) औषधिविशेष । ( हि० वह ) कारक-विभक्ति लगने से पूर्व | वागीश---.ज्ञा, पु. यौ० (सं०) वृहस्पति, प्रथम या अन्य पुरुष का एक बचन (३०) । वाग्मी, कवि, पंडित, ब्रह्मा । वि० वागमी, जैसे-वाने, वाकों, वासों । पूर्ववर्ती निश्चय- वक्ता, अच्छा बोलने वाला । 'शारद, शेष, सूचक विशेषण । जैसे-वा दिन की। शंभु, वागीशा"- रामा० । वाइ*-सर्व (दे०) वाहि, उसे।। वागीश्वरी---संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) सरस्वती, धाक्-संज्ञा, पु. (सं०) वाणी, सरस्वती, | वागेसुरी (दे०)। जीभ, गिरा, शारदा, रसना वाक्य (दे०)। । वागुर-वागुरा-संज्ञा, पु. (सं०) जाल, वाकई-वि० (अ०) वस्तुतः, सच, वास्तव । फंदा । “ वागुर विषम तुराय, मनहु भाग अध्य० (अ.)- दर असल, सचमुच वास्तव | मृग भाग-धस'-रामा०। या यथार्थ में । वागुरि, वागुरी-संज्ञा, स्त्री० (सं० वागुर) वाफियत-संज्ञा, स्त्री० (अ०) ज्ञान, जानकारी, जान-पहिचान, परिचय । छोटा जाल या फंदा। पाकया-संज्ञा, पु० (अ०) घटना, समाचार, । घागजाल--संज्ञा, पु० यौ० (सं०) बातों का वृत्तांत, विवरण। जाल या लपेट, कथनाडंवर या बातों की वाका-वि. (अ.) घटने या होने वाला, | भरमार । “ अनिलोडित-कार्य्यस्य वाग्जालं खड़ा, स्थित । जैसे--वाकै होना। वाग्मिनो वृथा "-माघ० । पाकिफ-वि० (०) ज्ञाता, जानकार, | वाग्दंड-संज्ञा, पु. यौ० (सं०) वाणी संबंधी अनुभवी। संज्ञा, स्त्री. वाकफियत । सज़ा, भला-बुरा कहने का दंड, डाँटपाककृत-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) तीन प्रकार | फटकार, डाँट-डपट, लिथाड़, बकझक । के छल्लों में से एक (न्या०) विपक्षी के भावार्थ वाग्दत्त--वि० यौ० (सं०) जिसे दूसरों को के विरुद्ध अर्थ लेकर उसका पक्ष काटना, | देने को कह चुके हों, वाणी से दिया, एक काव्य-दोष । | लघमी या सरस्वती का दिया हुआ। भा० श० को०-१७ For Private and Personal Use Only Page #1581 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - वाग्दत्ता घाचालता वाग्दत्ता-संज्ञा, स्त्री० यौ० (५०) वह कन्या धर्म और वाचक शब्द का लोप हो (अ. जिसकाव्याह किसी के साथ ठहर चुका हो। पी०)। वाग्दान-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) वाणी-द्वारा वाचक-लुप्ता- संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) उपमा देना, पिता का कन्या का व्याह किसी के अलंकार का वह भेद जिसमें उपमा वाची साथ पक्का कर देना, वादा करना, वचन शब्द लुप्त हो (अ० पी०)। देना। वाचकापमान-धर्मलुमा-संज्ञा, श्री० यौ० घाग्देव-वाग्देवता-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) । (सं०) उपमा अलंकार का वह भेद जिसमें वाणी का देव या देवता, सरस्वती । स्त्री० केवल उपमेय हो और वाचक शब्द, उपमान वाग्देवी । " वाग्देवता-चरित-चित्रित चित्त- तथा धर्म इन तीनों का लोप हो (अ० पी०) । सद्मः "-गी. गो। वाचकोपमान-लुप्ता-संज्ञा, स्त्री० यौ. वाग्देवी-संज्ञा, स्त्री० (सं०) सरस्वती, वाणी। (सं०) उपमा अलंकार का वह भेद जिसमें वाग्भट्ट-संज्ञा, पु. (सं०) वैद्यक-शास्त्र के | उपमान और वाचक शब्द का लोप हो. एक विख्यात प्राचार्य जिन्होंने, वाग्भट या (१० पी०)। अष्टांग-हृदय संहिता रचा, भाव-प्रकाश, वाचकोपमेयलुना-संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) वैद्यक-निंघटु और शास्त्र-दर्पण श्रादि ग्रंथों एक उपमा अलंकार का वह भेद जिस में उपमेय के कर्ता । " सूत्रस्थाने तु वाग्भट: " और वाचक शब्द का लोप हो (श्र० पी०) । स्फुट० । वाचक्नवी-संज्ञा, स्वी० (सं०) गार्गी, वाच कूटी। वाग्मी-संज्ञा, पु० (सं० वाक्-मिन्-प्रत्य० ) वाचाल, अच्छा वक्ता, पंडित. वृहस्पति । वाचन--संज्ञा, पु. (सं०) बाँचना, पढ़ना, " वाचो-ग्मिन् " - अष्टा० । " वाग्जालं पठन, प्रतिपादन, कहना, कथन । वाचनालय- संज्ञा, पु० यो० (सं०) समाचारवाग्मिनो वृथा''-माध० । वाग्विलास-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) आपस में पत्रों या पुस्तकों के पढ़ने का स्थान । सानंद वर्तालाप करना। वाचनिक-वि०(सं०) वचन-संबंधी, कथित। वाङ्मय- वि० (सं०) वचन संबंधी, वचन वाचसांपति-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) वृहस्पति, __महा विद्वान । द्वारा किया गया। संज्ञा, पु. (सं०) गद्य वाचस्पति -- संज्ञा, पु० यौ० (सं०) वृहस्पति, पद्यात्मक ग्रंथ जो पढ़ने-पढ़ाने का विषय हो, अति विद्वान । साहित्य । वाचा-संज्ञा, स्त्री० (सं०) वाणी, वाक्य, वाङ्-मुख-संज्ञा, पु० (सं०) एक गद्य-काव्य, । शब्द, वचन । “मनुष्य-वाचा मनु-वंश उपन्यास। केतुम्"--- रघु०। वाच-संज्ञा, पु० (सं०) वाणी, वाचा, गिरा । (स०) वाणी, वाचा, गिरा। वाचाबंध-वि० दे० यौ० ( सं० वाचावद्ध ) वाच-संज्ञा, स्त्री० दे० ( सं० वान् ) वाणी प्रतिज्ञा या प्रण से बद्ध, संकल्प से बँधा गिरा, वाचा। हुधा। वाचक-वि० (सं०) सूचक, बताने वाला। वाचाल-वि० सं०) वकवादी, तेज़ बोलने संज्ञा, पु० (सं०) नाम, संज्ञा, संकेत, चिह्न । वाला, वाक्पटु । संज्ञा, स्त्री० वाचालता। " तद् वाचक प्रणवः"-सा० । वि० (सं०) “मूक होहि वाचाल" .. रामा० । बाँचने वाला। वाचालता-संज्ञा, खो० (सं०) अति वाचक-धर्म-लुप्ता-संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) बोलना, पाक् कौशल । “ तथापि वाचाल. उपमा अलंकार का एक भेद जिसमें सामान्य | यता युनक्ति माम् "---मावः । For Private and Personal Use Only Page #1582 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जाति । वाचिक वाणिज्य वाचिक-वि० (सं०) वाणी से किया हुआ, वाजी-संज्ञा. पु. ( सं० वाजिन् ) वाजि. वक्ता-संबंधी। संज्ञा, पु०-केवल वाक्य- घोड़ा, फटे हुये दूध का पानी । "प्रभु मनमों विन्यास से ही होने वाला (सं०) अभिनय, लवलीन मन, चलत वाजि छबि पाव"नाटक में वह स्थान जहाँ केवल परस्पर रामा० । वर्त्तालाप ही होता है। वाजीकरण--संज्ञा, पु. (सं०) वह आयुवाची-वि० (सं० वाचिन् ) सूचक, प्रगट करने बैदिक प्रयोग या औषधि जिसके सेवन से वाला। मनुष्य घोड़े के समान वलिष्ठ और वीर्यवान वाच्य-वि० (सं०) कहने-योग्य, जिसका हो जाता है, बल-वीर्य-वर्द्धक। बोध शब्द-संकेत से हो, अभिधेय । संज्ञा, वाट - संज्ञा, १० (सं०) बाट (दे०), रास्ता, पु०-वाच्याथ, अभिधेयार्थ ( काव्य० ) राह, मार्ग, पंथ । मुहा०-वाट परनाक्रिया का वह रूप जिनसे कर्ता, कर्म या हानि होना । ' वाट परे मोरी नाव उड़ाई" भाव की प्रधानता प्रगट हा व्या०)। -कवि० संज्ञा, पु० (दे०) श्रोट, भाड़, बाट । वाच्य परिवर्तन - संज्ञा, पृ० यौ० (सं०) वाटधान-संज्ञा, पु. (सं०) कश्मीर के वाक्य की क्रिया का रूपान्तर जिससे वाच्य | नैऋत्य कोण में एक जनपद, एक वर्णसंकर बदल जाये (च्या०)। वाच्यार्थ - संज्ञा, पु० यो० (सं०) मूल शब्दार्थ, वाटिका-संज्ञा, स्त्री० (सं०) उद्यान, फुल. वह अर्थ या भाव जो वाक्य गत शब्दों के वाड़ी, बाग़ीचा, श्राराम, बाटिका (दे०)। नियत अथों के द्वारा ज्ञात हा जाय। "तेहिं अशोक-वाटिका उजारी"-रामा० । वाच्यावाच्य --- संज्ञा, पु० यौ० (सं०) बुरी. वाड़-संज्ञा, पु० (दे०) स्थान, वाद, सान । भली या अच्छी बुरी अथवा कहने या न वाडव-संज्ञा, पु० (सं०) समुद्र की श्राग, कहने योग्य बात। धाछिड़-अव्य० (दे०) वाहजी, धन्य, प्रिय बड़वागी (दे०)। वाडवाग्नि- संज्ञा, स्त्री. (सं०) समुद्र की वाक्य । श्राग, बड़वानल। पाज-संज्ञा, पु० (अ०) शिक्षा, उपदेश, धार्मिक उपदेश, कथा । वाडवानल---संज्ञा, पु. (सं०) समुद्र की बाजपेई* (दे०), वाजपेयी-संज्ञा, पु. (सं० श्राग, बड़वानल (दे०)। वाजपेयी) कान्यकुब्ज ब्राह्मणों की एक | वाड़ी-संज्ञा स्त्री० (दे०) वाटिका, फुलवाड़ी। उपाधि, अत्यंत कुलीन या कुलवान, वह वाण-संज्ञा, पु० (सं०) धनुष की डोर से पुरुष जिसने वाजपेय यज्ञ किया हो। खींचकर फेंका जाने वाला एक धारदार घाजपेय- संज्ञा, पु० (सं०) ७ श्रौत यज्ञों में फल युक्त छोटा अस्त्र, तीर, शर, शायक, से ५ वा यज्ञ। बान (दे०), एक दैत्य । “जे मृग राम-वाण पाजपेयी-संज्ञा, पु० (सं०) वाजपेय यज्ञ के मारे"-रामा० । “रावण-वाण महाबली, करने वाला, कान्यकुब्ज ब्राह्मणों की एक जानत सब संसार"-रामा० ।। उपाधि, अत्यंत कुलीन या कुलवान । वाणावली--संज्ञा, स्त्री० यौ० (२०) तीरों पाजसनेय-संज्ञा, पु० (सं०) यजुर्वेद की की पाँति, वाण-समूह, शर-श्रेणी। एक शोखा, याज्ञवल्क्य ऋषि । वाणासुर -- संज्ञा, पु० यौ० (सं०) राजा बलि वाजिब-धाजवी-वि० (अ०) उचित, उप. का पुत्र, एक महाबलवान दैत्य (पुरा०)। युक्त, योग्य, ठीक । | वाणिज्य-संज्ञा, पु० (सं०) वनिज, व्यापार। For Private and Personal Use Only Page #1583 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पाणिनी १५७२ घानवासिका पाणिनी-संज्ञा, स्त्री. (सं.) एक वर्णिक वाद - संज्ञा, पु. (सं.) किसी बात के छंद (पि०)। निर्णयार्थ बात-चीत, शास्त्रार्थ, विवाद, तर्क, वाणी-संज्ञा, स्रो० (सं०) सरस्वती, गिरा, दलील, किसी विषय के तत्वज्ञों-द्वारा निर्णीत वचन, मुख से कहे सार्थक शब्द, बानी सिद्धांत, उसूल, बहस, झगड़ा । यौ०(दे०)। सुहा-पाणी फुरना---वचनों | वाद-विवाद । वि०-वादी। का सत्य होना, मुख से शब्द उजरित वादक-संज्ञा, पु० (सं०) बाजा बजाने वाला, होना । जीभ, रसना, वाक शक्ति। तर्क या शास्त्रार्थ करने वाला, वक्ता । वात-संज्ञा, पु० (सं०) वायु, पवन, हवा, वादन--संज्ञा, पु. (सं०) बाजा बजाना । प्राणियों के पक्वाशय में रहने वाली वायु वि...-वादनीय. आदित। जिसके बिगड़ने से कतिपय रोग उत्पन्न वाद-प्रतिवाद - संक्षा, पु. यौ० (सं०) बहल, होते हैं, बात (दे०)। " ग्रह-गृहीत पुनि तर्क, शास्त्रार्थ, शास्त्रीय बात-चीत । वात वश तापर बीछी मार''--रामा। बादो-प्रतिवादी--संज्ञा, पु. यौ० (सं० वातज-वि० (सं०) वायु से उत्पन्न : "वातज वादिन् ) पक्षी, विपक्षी, प्रतिपक्षो, विवाद में रोग अनेक गनाये"- कं. वि.। दोनों पक्ष वाले। वातजात-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) वायु से | बादरायण-संज्ञा, 'पु. (सं०) वेदव्यास । उत्पन्न, हनुमान जी। "रघुबर-वरदूतं वात- वाद-विवाद-संज्ञा. पु. यौ० (सं०) शास्त्रार्थ, जातं नमामि।" बहस। वातप्रकोप-संज्ञा, पु० यौ० सं०) वायु का वादा-संज्ञा, पु० द. ( अ० वाइदा ) प्रतिज्ञा, बिगड़ना, वातविकार । जिससे अनेक इकरार। मुहा० - वादा मिलाकी करना रोग होते हैं। ----कहने के प्रतिकूल कार्य करना । वादा वातशूल - संज्ञा, पु० यौ० सं०) पेट की रखाना ( रखना )- प्रतिज्ञा कराना. पीड़ा जो वायु-विकार से होती है। ( पूर्ण करना), वचन लेना (पूरा करना)। वातापि-संज्ञा, पु० (सं०) एक दैत्य जो | वादानुवाद-संज्ञा, पु. यौ० (सं०) वाद. श्रातापि का भाई था और जो अगस्त्य के विवाद, बहस । द्वारा खाया गया था | वादित्र--- संज्ञा, पु० (सं०) बाजा। वातायन-संज्ञा, पु० (सं०) झरोखा, खिड़की. | वादी-संज्ञा, पु० (सं० वादिन् ) बोलने एक जनपद ( रामा०)।" तथैव वातायन वाला, वक्ता, मुक़दमा चलाने वाला, मुद्दई संनिकष ययौ शलाकामपरा वहंती"..-- फर्यादी, प्रस्ताव या पक्ष का प्रारोपक । रघु०। वाद्य -- संज्ञा, पु० सं०) बाजा। वातुल, वातृल --संज्ञा, पु. (सं०) उन्मत्त, | वानप्रस्थ-संज्ञा, पु. (सं०) चार आश्रमों में पागल, बावला । स्त्री०-वातुल।। से तीसरा आश्रम, जिसमें मनुष्य गृहस्थी वातोर्मी-संज्ञा, पु. (सं०) ११ वर्णा का छोड़ कर वन में रहता है (प्राचीन आर्य)। एक छंद या वृत्त (पिं०)। | वानर-- संज्ञा, पु० (सं०) बानर, बाँदर वात्सल्य-संज्ञा, पु० (सं०) स्नेह, प्रेम, माता- (दे०), बंदर, दोहे का एक भेद (पिं० )। पिता का अपनी संतान पर प्रेम, तत्प्रेम-सूचक स्त्री. वानरी । “सपने वानर लंका जारी" काव्य का एक रस (एकमत)। -रामा० । वात्स्यायन-संज्ञा, पु. (सं०) न्याय-दर्शन | वानरमुख-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) बंदर का के भाष्यकार एक ऋषि, कामसूत्र के प्रणेता मुख, बंदर का सा मुख वाला, नारियल । एक प्रसिद्ध ऋषि। वानवासिका-संज्ञा, स्त्री. (सं०) चौपाई For Private and Personal Use Only Page #1584 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir वापस १५७३ वारणावत - या १६ मात्राों के छंदों का एक भेद | वामावर्त्त- वि० यौ० (सं०) बाई श्रोर का (पि.)। धुमाव या भौंरी, बायीं ओर से प्रारंभ होने वापस-वि० (फा०) लौटाया या फेरा हुआ, | वाली प्रदक्षिणा। (विलो०-दक्षिणावर्त)। फिरता। वाय-संज्ञा, स्त्री० दे० ( सं० वायु ) बाई, पापसी-वि० ( फ़ा. वापस ) फेरा या लौटा बादी, बाय (दे०) । “नाग, जलौका, हुआ, वापस होने के संबंध का । संज्ञा, स्त्री० वाय"--कु.। लौटने की क्रिया का भाव, प्रत्यावर्तन वायव्य-वि० (सं०) वायु-सम्बन्धी । संज्ञा, पापिका, वापी-- संवा, स्त्री. (सं०) छोटा पु० -- उत्तर-पश्चिम का कोण. पश्चिमोत्तर जलाशय बावली, बापी (दे०)। "बन-बाग, / दिशा. एक अस्त्र । उपवन, वाटिका, सर, कूप, वापी मोहहीं" | वायस---संज्ञा, पु० (सं०) काक, काग, कौश्रा, -रामा। बायस (३०) । "वायस पालिय अति वाम-वि० (सं०) बाम (दे०), बायाँ । अनुरागा' -रामा० । (विलो०-दक्षिण )। विरुद्ध. विपरीत, घायु--संज्ञा, पु० (सं०) पवन, हवा, बात । प्रतिकूल, कुटिल, खल. दुष्ट । “जनक | "टूटै टूटनहार तरु, वायुहि दीजै दोष"-- घाम दिसि सोह सुनैना"... रामा० । संज्ञा, राम। पु० .. ११ रुद्रों में से एक रुद्र, वामदेव, वायुकोण --संज्ञा, पु० यौ० (सं०) पश्चिमोत्तर कामदेव, धन, वरुण, २४ वर्णों का एक दिशा, वायव्य कोण । वर्णिक छंद (पिं०. मकरंद, मंजरी. माधवी, । वायमंडल --- संज्ञा, पु० यौ० (सं०) पृथ्वी के स्त्री। संज्ञा, स्त्री० -- धाता - कुटिलता। चारों ओर ४५ मील ऊपर तक हवा का वामकी-संज्ञा, पु. (सं०) जादूगरों की एक गोला. धाकाश, अंतरिक्ष । देवी। वामदेव--संज्ञा, पु० (सं० वायुलोक-- संज्ञा, पु० यौ० (सं०) एक लोक महादेव, शिव, . । (पुरा०), आकाश। एक वैदिक ऋषि । " वामदेव, वसिष्ठ मुनि | वारंवार-व्य० यौ० (सं०) बार बार, पुनः पाये"-रामा। वामन-वि० (सं०) बौना, नाटा, छोटे शरीर | पुनः, फिर फिर, लगातार । का, ह्रस्व, खर्व, बावन (दे०)। " ह्रस्वः । वार--संज्ञा, पु० (सं०) रोक, द्वार, दरवाजा, खर्वः तु वामनः '' - अमर० । संज्ञा, पु. आवरण, 'अवसर, मरतबा, दाँव, बारी, (सं०) विष्णु, शिव जी, एक दिग्गज, राजा दफ़ा, बेरी, बेर, क्षण, दिन, दिवस । “जात बलि के छनने को विष्णु का पंचमावतार, न लागी वार"... रामा० । 'एक वार १८ पुराणों में से एक पुराण । 'प्रॉशुलभ्ये | जननी अन्हाए” -रामा० । संज्ञा, पु० (सं०) फले लोभादुद्दाहुरिव वामनः "-रघु० । भाघात, चोट थाक्रमण, धावा, हमला । वाममार्ग-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) एक तांत्रिक | वारण संज्ञा, पु० (सं०) निषेध, किसी काम मत, जिसमें मद्य-मांसादि का प्रचार है। के न करने का आदेश, रोक, मनाही, वाममार्गी-वि०, संज्ञा, पु० (सं० वाम | कवच, वाधा, हाथी! “वारण वाजि सहय" मागानुयायी। --राम छप्पय का एक भेद, बारन (दे०)। पामा- संज्ञा, स्त्री० (सं०) स्त्री, औरत, दुर्गा | वि०-वारित, वारक, वारणीय । जी बामा (दे०), १० वर्णों का एक "बारन उबारन में बार न लगाई है"वणिक छंद (पिं०) । “जो हठ करहु प्रेमवश रत्ना। वामा"-रामा०॥ वारणावत--संज्ञा, पु० (सं०) प्राचीन काल For Private and Personal Use Only Page #1585 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पारतिय पारिनिधि - का एक प्रदेश या जानपद जो गंगा जी के वारा-संज्ञा, पु. (सं० वारण) किफ़ायत, किनारे पर था। बचत, खर्च की कमी, लाभ । वि० - वारतिय -संज्ञा, स्त्री० दे० ( सं० वारस्त्री) किफ़ायत, सस्ता । मुहा०-चारे से (पर) वेश्या, रंडी। "वारतिया नाचें करि गाना" । किफायत से। -शि० गो। वाराणसी - संज्ञा, स्त्री० (सं०) काशीपुरी। पारद*---संज्ञा, पु० दे० (सं० वारिद ) वारान्यारा- संज्ञा, दे० यौ० ( हि० वार + बादल। न्यारा ) फैसला, निपटारा, झंझट या झगड़ा वारदात-संज्ञा, स्त्री० (अ.) दुर्घटना, मार- की शांति, किसी पक्ष में निश्चय । पीट, दंगा, फसाद, भीषण कांड, झगड़ा। वाराह-संज्ञा, पु० दे० (सं० वराह ) शूकर, पारन* -- संज्ञा, स्त्री० दे० ( हि० वारन ) बाराह, बराह (दे०)। उत्सर्ग या निछावर, उतारा, वजि, उत्सर्ग । | वाराही- संज्ञा, स्त्रो० (सं०) एक योगिनी, संज्ञा, पु० (सं० वंदन) वंदनवार । संज्ञा, पाठ मात्रिकाओं में से एक । “वाराही नार. पु० दे० ( सं० वारण) हाथी, रुकावट ।। सिंहीं च” स्फु०। पारना-स० क्रि० दे० (हि. उतारना) वाराही कंद - संज्ञा, पु० (सं०) एक कंद, उत्सर्ग या निछावर करना, उतारना । संज्ञा, गैठी (प्रान्ती.)। पु०-उत्सर्ग, निछावर । स्त्री०-वारी। पारि- संज्ञा, पु० (सं०) तोय, पानी, नीर मुहा०-वारने, वार, (वारी) जाना-- जल । “वारि जो नपंसक तो वारिज न चाहिये"- स्फुट० । निछावर होना। वारिजात .. संज्ञा, पु० (सं०) कमल, पकज, वारनारी-संज्ञा, स्त्री० (सं०) वेश्या, रंडी, "श्याम वारिजात के समान है शरीर-रंग' पतुरिया। - शि. गो.। वारपार, वारापार-वि०, संज्ञा, पु० दे० वारिचर--संज्ञा, पु० (सं० ) जल-जंतु, (सं० अवर + पार ) पूर्ण विस्तार, नदी जलचर । श्रादि के एक किनारे से दूसरे कितारे पर, वारिज-संज्ञा, पु. (सं०) कमल, मोती, अंत, संपूर्ण, सारा, इस छोर से उस छोर शंख, कौड़ी, घोंघा, असली सोना । तक, आदि से अंत तक । अव्य० -- एक तट " वारिज-सम मुख नेत्र अरु, कर, पद कहैं (पार्श्व ) से दूसरे तक। सुजान'- स्फु० । वारफेर-संज्ञा, पु० दे० यौ० (हि० वारना+ वारित-वि० (सं०) निवारित, रोका या फेरना ) निछावर, उतारा, बलि, उत्सर्ग। मना किया गया। पारमुखी-संज्ञा, स्त्री० (सं०) वार-वधु, रंडी, ! वारिद-संज्ञा, पु० (सं०) बादल, मेघ । वेश्या । “ वारमुखी को गानसुनि, लखि ' विपति-वारिद-वृन्दमयं तमः " -माघ । कै नृत्य महीप"-कु० वि०। वारिधर-संज्ञा, पु० (सं०) मेघ, बादल । वारांगना-संज्ञा, स्रो० यौ० सं०) वेश्या, पारिधि-संज्ञा, पु. (सं०) समुद्र, सागर, रंडी, श्रेष्ठ और सुन्दर गुणवती स्त्री स्वर्ग वारिध (दे०)। “वारिधि पार गयो मति की स्त्री, अप्सरा । " वारांगनास्त्रप्स विलोल । धीरा"-रामा० । दृष्टयः "-किरा०। वारिनाथ - संज्ञा, पु. (सं०) समुद्र, सागर । वारांनिधि-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) समुद्र, वारिनिधि-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) समुद्र । महासागर। " वारांनिधिम् पश्य वरानने "पूर्वापरौ वारिनिधि विगाह्य, स्थितः पृथिव्या स्वम् "-कुं० वि०। | रिव मान-दंड; "-कुमार। For Private and Personal Use Only Page #1586 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org वारिवर्त्त - संज्ञा, पु० दे० यौ० (सं० वारि + श्रावर्त) एकमेव | वारियाँ १५७५ वारियाँ - संज्ञा, स्रो० दे० ( हि० वारी ) | वाष्र्णेय -- संज्ञा, पु० निछावर, वलि । वारिस - संज्ञा, पु० (अ०) उत्तराधिकारी, किसी के मरने पर जो उसकी संपत्ति का स्वामी हो । (सं०) समुद्र | घर, मकान, गृह । (सं०) समुद्र | -रामा० । बारींद्र - संज्ञा, पु० चौ० घारी - संज्ञा, स्रो० (दे०) वारीश - संज्ञा, पु० यौ० "जेहिं वारीश बँधायो हेला " घारीफेरी - संज्ञा स्त्री० दे० यौ० ( हि० वारना + फेरा ) वारफेर, निछावर, वलि । वारुणी - संज्ञा, स्रो० (सं०) मद्य, मदिरा, शराब, वरुण की स्त्री, उपनिषद् विद्या, पश्चिम दिशा, गंगा स्नान का एक पर्व | 'वारुणीम् मदिराम् पीत्वा " - - भा० द० | घारेंद्र - संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) राजशाही प्रान्त के समीप का एक प्राचीन जानपद | वार्त्ता-संज्ञा, स्त्री० (सं०) बात-चीत, गप्प, जनश्रुति, अफवाह, डाल, वृत्तांत, समाचार, संवाद, विषय, बतकही (ग्रा० ) मामला, वैश्यों की जीविका या वृत्ति जिसमें गोरक्षा, कृषि, व्याज ( कुसीद) और वाणिज्य हैं । "आन्वीक्षिकी श्री, वार्त्ता दंडनीतिश्च शाश्वती " - टी० किरा० । वार्त्तालाप - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) बातचीत । वार्त्तिक - संज्ञा, पु० (०) किसी सूत्रकार के मत का प्रतिपादक ग्रंथ, किसी सूत्र - ग्रंथक, धनु, उक्त और दुरुक्त श्रर्थो का स्पष्टकारक वाक्य या ग्रंथ । बार्द्धक्य - संज्ञा, पु० (सं०) बुढ़ापा, बुढ़ाई, आधिक्य, बदती । वार्षिक - वि० (सं०) वर्ष-संबंधी, सालना । वार्षिकोत्सव - संज्ञा, ५० यौ० (सं०) सालाना बलसा । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir वाष्पाकुलित (सं०) श्रीकृष्ण जी । "eogavaron वलादिव नियोजितः " - भ० गी० । वालखिल्य-संज्ञा, पु० (सं० ) अंगुष्ठ मात्र शरीर वाले ऋषियों का समूह । वाला - संधा, पु० (सं०) उपजाति छंद का एक भेद (पिं० ) । प्रत्य० ( दे० हि० ) हिंदी भाषा में किया के अंत में लग कर कर्तृ वाचक संज्ञा का अर्थ और पदार्थ या वस्तुवाचक के प्रत में होकर संबंध वाचक सयुक्त संज्ञा का देता है, जैसे करना से करने वाला और दूध से दूध वाला । वालिद - संज्ञा, पु० (अ०) बाप, पिता, जनक । वालिदा - संज्ञा, स्त्री० (अ०, माँ, माता । वालुका - संज्ञा, खो० (सं०) रेत, बालू, कपूर, शाखा । वाल्मीकि - संज्ञा, पु० (सं०) एक भृगुवंशीय मुनि जिन्होंने यादि काव्य रामायण का निर्माण किया । " वाल्मीकि मुनि-सिंहस्य कविता-वन-चारिण " -- स्फुट ० । वाल्मीकीय- वि० (सं०) वाल्मीकि का निर्माण किया या बनाया हुआ, वाल्मीकि संबंधी । " वाल्मीकीय " काव्यम् स्फुट० । वावदूक - सज्ञा, पु० (सं०) वक्ता, विख्यात वक्ता, घति बोलने वाला, वाग्मी । घाबैला - संज्ञा, पु० (प्र०) रोना-पीटना, विलाप, शोरगुल | 61 वाशिष्ठ- संज्ञा, पु० (सं०) एक उपपुराण, वि० (सं०) वशिष्ट का, वशिष्ट-संबंधी । वाष्प - संज्ञा, पु० (सं०) धाँसू, भाफ, भाष । निरुद्ध वाष्पोदय सन्न कण्ठमुवाच कृच्छादिति राजपुत्री - किरा० । यौ०वाप्यान ( वाष्प यंत्र ) - रेल यादि भाष से चलने वाली गाड़ियाँ या कलें । वाष्पाकुलित - वि० यौ० (सं०) वाष्प या से भरे । 0 For Private and Personal Use Only Page #1587 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १५७६ वासंतिक वास्तु-प्रजा वासंतिक-संज्ञा, पु० (सं०) विदूषक, भॉड, से अच्छादित, बासी । “जाके मुख की वासते, नचैया, नाचने वाला, नर्तक । वि०- वासित होत दिगंत "-राम । वसंत संबंधी । “ वसंत वासंतिकता बनान्त वासिता-संज्ञा, वि० (सं०) स्त्री, प्रमदा, की,-प्रि० प्र०। । श्रार्या छंद का एक भेद (पिं०)। वासंती--संज्ञा, स्त्री० (सं०) जुही (पुष्प) | वासिल-वि० (अ०) प्राप्त, पहुँचाया हुआ, माधवीलता, मदनोत्सव, दुर्गा, १४वणों का जो वसूल हुश्रा हो । यौ० ---वासिन एक वर्णिक छंद (पि.)। बाकी... वसूल और बाकी (प्राप्त और शेष वास-संज्ञा, पु० (सं०) स्थान, निवास, घर, | रहा ) धन । वामित्वबाकीनवीसगृह, मकान, रहना, सुगंधि खुराबू । “बरु तहसील का एक मुंशी जो प्रत्येक नम्बरदार भल बाम नरक कर ताता"- सामा० । से वसूल और बाकी रहे धन का हिसाब वासक-संज्ञा, पु० (सं०) अड़सा. रूसा, रखता है। वासा । “खाँसी सब विधि की हरै. ज्यों वासिट-वि० (सं०) वसिष्ठ-संबंधी । वासक को क्वाथ'-कुं० वि०। वासी--संज्ञा, पु. (सं० वासिन् ) रहने वाला. निवापी। ये दोउ बंधु शंभु-उर. घासकसज्जा - संज्ञा, स्त्री. (सं०) वह वासी". रामा। नायिका जोसब प्रकार साज सजा कर नायक से मिलने की सब तैय्यारी से तैयार बैठी वायुकि. वानकी-- संज्ञा, पु० (सं०) ८ नागों में से दूपरा नाग, शेष नाग । " भौंर ज्यौं भ्रमतभूत वासुकी गणेशयुत, वासन -- संज्ञा, पु. (सं०) सुरधित करना, मानो मकरंद बुन्द-माल गंगा-जल की" वस्त्र, वसन, वास, बासन, बरतन (दे०) । - राम । “सेवासु वासुकिरयं प्रपितः वि०--वासित, बासनीय । “बदलत सित श्रीः "-नैष । बाहन वासन सबै "-रामचं० । वासुदेव - संज्ञा, पु० (सं०) वसुदेव के पुत्र, वासना-संज्ञा, स्त्री० (सं०) प्रत्याशा भावना, श्रीकृष्ण, पीपल का पेड़ । " वासुदेव इति स्मृति, संस्कार, ज्ञान हेतु, कामना, इच्छा, श्रीमान् तं पौराः प्रचक्ष्यते "--- भा० द०। अभिलाषा । यौ०-विषय वासना । वास्तव - वि० (सं०) यथार्थ, सत्य, सचमुच, " जैसी मन की वासना तस फल होत प्रकृति, वस्तुतः । लखात'-कुं० वि० । "यादृशी वासना यस्य वास्तविक-वि० (सं०) यथार्थ, ठीक ठीक । तादृशी गति मामुयात् ।" संज्ञा, स्त्री०-वास्तविकता---यथार्थता । वासर-संज्ञा, पु. (सं०) दिवस, दिन, बासर वास्तव्य-वि० (सं०) बसने या रहने के (दे०)। " वहुवासर बीते यहि भाँती ".. योग्य । संज्ञा, पु० ..श्राबादी, बस्ती। रामा० । यो०-निशि-वासन । वास्ता ... संज्ञा, पु० (अ०) लगाव, संबंध, ताल्लुक । वासव-संज्ञा, पु. (सं०) शचीश, इन्द्र, वाम्लु---संज्ञा, पु० (सं.) ढीह, जहाँ घर पाकशासन विडोजा। " शशांक निर्वापयितुं । न वासवः "- रघु। बनाया जावे, इमारत, मकान, घर । यौ० -- वास्तु-कला, वास्तु-विज्ञान-गृह निर्माण वासा- संज्ञा, पु० (दे०) वास. अडूसा, की विद्या। रूसा । " वासा पटोल त्रिफला दाता शम्याक | ar वास्तु-पूजा--संज्ञा, नी० यौ० (सं०) निम्बजः "-लो। नव गृह में प्रवेश करने से पूर्व वास्तु पुरुष वासित-वि० (सं०) सुगंधित किया, अस्त्र की पूजा (भारत०) । For Private and Personal Use Only Page #1588 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org वास्तुविद्या वास्तुविद्या- संज्ञा, त्रो० यौ० (सं० ) इन्जिनियरी, इमारत संबंधी ज्ञान जिस विद्या से होता है, इमारती-इल्म, गृह निर्माण शास्त्र | बिंदुसार वाह्य - क्रि० वि० (सं०) बाहर, अलग, जुदा, भिन्न, पृथक | वाह्यांतर, वाह्याभ्यंतर - वि० यौ० (सं० ) भीतर और बाहर का, भीतर-बाहिरी । विद्या, वास्तु-विज्ञान | वास्ते - अव्य० ( अ० ) हेतु, निमित्त, लिये काज ( ० ) " कौन मरता है किसी के वास्ते " स्फुट० । वास्तुशास्त्र - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) वास्तु- वाह्यद्रिय -- संज्ञा, त्रो० यौ० (सं०) बाहिरी विषयों को ग्रहण करने वाली पाँचों बाहर की ज्ञानेंद्रियाँ, नाक, कान, आँख, जीभ, त्वचा । "वाह्यद्रिय वश भये भूलि कै, सारी ज्ञान - कहानी" -- वासु० 1 वाल्हीक- संज्ञा, पु० (सं०) कंधार (गांधारप्राधीन) के समीप का एक प्राचीन प्रदेश, वहाँ का घोड़ा | -14 वास्प - संज्ञा, त्रो० दे० (सं० वाष्प ) भाफ़, भा, सू विजन - संज्ञा, पु० दे० (सं० त्र्यंजन ) व्यंजन, भोजन, वे अक्षर जो स्वरों के योग से बोले जाते हैं, बिजन (दे० ) । विंद - संज्ञा, पु० दे० (सं० वृन्द, बिंदु ) समूह. कुंड, पानी की बूँद, शून्य, तुकता, सिफ़र, विंद (दे० ) | संज्ञा, स्त्री० विन्दुता । विंदक - संज्ञा, पु० (सं०) ज्ञाता, प्राप्त करने या जानने वाला | १४७७ वाह- अव्य० ( फा० ) धन्य, प्रशंसा या आश्चर्य द्योतक शब्द, घृणा सूचक शब्द । संज्ञा, पु० (सं०) बोझा ले जाने वाला, ( यौगिक में ) । (1 यत्तान्प्रयातु मनसोऽपि विमान वाह : " नेप० । वाहक- संज्ञा, पु० (सं०) बोझा ले जाने या ढोने वाला, गाड़ी आदि का खींचने वाला, पालकी, पीनस यादि का उठाने वाला, सारथी । वाहन - संज्ञा, पु० (सं०) सवारी, वाहन (दे०) । “ देवी को वाहन जानि के प्राये पै देख्यौ सिंहासन सीतला वाहन ।" वाहवाही - संज्ञा स्त्री० ( फा० ) प्रशंसा, साधुवाद, स्तुति, तारीफ़ वाहिनी -- संज्ञा, खो० (सं०) सैन्य, सेना, सेना का एक भेद जिसमें ८१ रथ और ८१ हाथी, २४३ घोड़े और ४०५ पैदल रहते हैं । " बहुत वाहिनी संग " - राम० । वाहियात - वि० ( ० वादी + यात - फा० ) फ़जूल, नाहक, व्यर्थ, बुरा, ख़राब । वाही - वि० ( ० ) थावारा, मूर्ख, सुस्त, निकम्मा, ढीला, बुरा, दुष्ट । वाही तबाही - वि० यौ० ( ० ) श्रावारा, बेहूदा, बुरा, ख़राब, अंडबंड, बेसिर-पैर का | संज्ञा, स्त्री० - अंडबंड बातें, गालीगलौज | भा० श० को ० - १३८ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विन्दा - संग, स्त्री० (दे०) वृन्दा, एक स्त्री जो कृष्ण की दासी थी । विन्दावन -संज्ञा, पु० यौ० (दे०) वृन्दावन (सं० ) | बिन्दी - संज्ञ, स्त्री० (दे०) विन्दु, शून्य, बुंदकी, टिकुली । 66 बिंदु - संज्ञा, पु० (सं० बिंदु ) वारि-कण, अनुस्वार, पानी की बूँद, शून्य, विन्दी, सिफ़र, ज़ीरो (अं० ) । बुंदकी, अनुस्वार । मैं एक अचम्भा सुना किविदुमसिंधु समाय " -- कबी० । वह जिसका स्थान हो पर परिमाण कुछ न हो ( रेखा० ), परमाणु, र, कण, बिन्दु (दे०) । विदुमाधव - संज्ञा, पु० (सं० ) एक विख्यात विष्णु - मूर्ति (काशी) । विंदुर-संज्ञा, पु० दे० (सं० बिंदु ) बूँद, बुंदकी । विदुसार - संज्ञा, पु० (सं०) महाराज चंद्रगुप्त For Private and Personal Use Only Page #1589 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विकसना विध के पुत्र तथा सम्राट अशोक के पिता विकराल-वि० (सं०) घोर, भयंकर, भीषण, (इति०)। बिकराला (दे०)। " नाक-कान बिन भइ विंध-संज्ञा, पु० दे० (सं० विध्य ) विंध्य, विकराला"--रामा० । पहाड़, बिंध (दे०)। "विध के बसी उदासी विकर्षण --संज्ञा, पु. (सं०) आकर्षण, तपो-व्रतधारी महा बिनु नारि दुखारे"- आकर्षित करने की विद्या या एक शास्त्र, __ कवि०। संकर्षण । वि. विकर्षणीय, विकर्पित। विंध्य-संज्ञा, पु. यौ० (सं०) विंध्याचल । विकल-वि० (सं०) बेवैन, व्याकुल, बेहोश, विध्यकट - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) विध्याचल । विह्वल, अपूर्ण, कलाहोन, संडित, बिकल विंध्यवासिनी-संज्ञा, स्त्री. (सं०) देवी की (दे०)। संज्ञा, स्त्री० विकलता। " खरभर एक मूर्ति जो विध्याचल (मिज पुर जिले)। देखि विकल नर-नारी"-रामा० । विकलांग-वि० यौ० (सं०) अंग-हीन, विंध्याचल-संज्ञा, पु. (सं०) भारत के न्यूनांग, जिसका कोई अंग टूट या बिगड़ मध्य में पूर्व से पश्चिम तक फैली हुई एक गया हो। पर्वत-श्रेणी, विध्यगिरि, विध्यादि। विकला---संज्ञा, स्त्री० (सं०) समय का एक विंशोत्तरी-संज्ञा, पु. (सं०) मनुष्य के अति अल्प भाग, एक कला का साठवाँ भाग, शुभाशुभ के विचार को एक रीति या ग्रह क्षण, नष्ट, विकला (दे०) । " चारू चातुर्य दशा (ज्यो० फ०)। ही नस्य सकला विकला कला"-स्फु० । वि-उप० (सं०) यह शब्दों के पहले प्राकर, | वि० स्त्री० ---विकल। विशेष ( जैसे-विवाद, वैरूप्य' ( जैसे --- विकलाना-अ० क्रि. दे० (सं० विकल ) विविध), निषेध (जैसे-विक्रय) बिना आदि बेचैन या व्याकुल होना, घबराना, विकका अर्थ देता है। लाना (दे०)। विकंकत--संज्ञा, पु० (सं०) एक धन-वृक्ष जो | कंटाई, किंकिणी या बंज कहाता है। विकल्प संज्ञा, पु. (सं०) भ्रम, धोखा, विकंपित--वि० (सं०) खूब काँपता हुआ। भ्रांति, एक बात ठहराकर फिर उसके संज्ञा, पु०-विकंपन।। विपरीत सोच-विचार, जो केवल शब्द मात्र विकच-वि० (सं०) खिला या फूला का बोधक हो कोई वस्तु न हो, अवांतर हुआ । “विकच तामरसप्रतिमम् भवेत" कल्प, चित्त की पंचविधि वृत्तियों में से एक, लो०रा०। समाधि का एक प्रकार, किसी विषय मे विकट-वि० (सं०) भीषण, भयानक, । कई विधियों का मिलाना, एक अर्थालंकार भयंकर, विशाल, टेढ़ा, कठिन, दुर्गम, वक्र, जिसमें दो विरुद्ध बातों के लिये यह कहा दुस्साध्य । “भकुटी विकट मनोहर नासा" जाय कि या तो यह या वह होगा ( अ० ----रामा। ५०) । " शब्द-ज्ञानानुपाती वस्तु शून्यो विकर--संज्ञा, पु. (सं०) रोग, बीमारी. विकल्पः"। यो० द० । व्याकरण में एक ही व्याधि, तलवार के ३२ हाथों में से एक हाथ। विषय के दो या कई पत्तों या नियमों में से विकरार, बिकरारा*--वि० दे० (सं० एक का इच्छानुसार ग्रहण करना। विकराल ) विकराल, भयंकर, भीषण, विकसन-संज्ञा, पु० (सं०) फूलना, खिलना, डरावना । " नाक-कान बिनु भइ विकरारा" फूटना. प्रस्फुटन, विकचन । वि. विकसित । --रामा० । वि० दे० ( १० फ० बेकरार ) विकसना-अ.क्रि. ३० (सं०) फूलना, व्याकुल, बेचैन, विकल। । खिलना, प्रफुल्लित होना, फूटना, बिगसना For Private and Personal Use Only Page #1590 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - विकसित १५७१ विक्रयी (द०)। स० रूप-विकसाना,विकसावना, खिलने में लगाना । अ० क्रि० (दे०)विकासना, प्रे० रूप-विकसवाना। खिलना, प्रकट होना, प्रफुल्लित होना । विकसित - वि० (सं०) प्रफुल्लित, प्रस्फुटित, विकिर- संज्ञा, पु. (सं०) चिड़िया, पक्षी। खिला या फूला हुआ, विकचित । विकीर्ण --- वि० (सं०) फैलाया या छितराया विकस्वर--संज्ञा, पु० (सं०) एक अर्थालंकार | हुआ, बिवेरा हुश्रा, विख्यात, प्रसिद्ध । जिसमें किसी विशेष बात की पुष्टि सामान्य विकंठ----संज्ञा, पु० (सं०) बैकुंठ, स्वर्ग लोक, बात से की जावे (१० पी०) । वि. ऊँचा, स्त्री विकंठा। तेज़, बड़े जोर का। " विकस्वर-स्वरैः ".--- विकृत--वि० (सं०) कुरूप, भद्दा, बिगड़ा नैष । हुआ, किसी प्रकार के विकार से युक्त, विकार--संज्ञा, पु० (सं०) वास्तविक रूप रंग अस्वाभाविक । यौ० विकृतानन-कुरूप । का बदल या बिगड़ जाना, दोष, अवगुण, विकृति - संज्ञा, स्त्री० (सं०) विकृत रूप, बुराई, वासना. प्रवृत्ति, मनोवेग या परिणाम. विकार, खराबी, बिगाड़, रोग, व्याधि, उलट-फेर, रूपान्तर, परिवर्तन, विकृति । बीमारी, परिणाम, विकार युक्त (विकार पाइ नर तन रतन सों, नर न रत होय पाने पर) मूल प्रकृति का रूप (सांख्य), विकार मैं "-कं० वि० । परिवर्तन, मन का क्षोभ, मूल धातु से विकारी-वि० (सं० विकारिन् ) रूपान्तर | बिगड़ कर बना शब्द-रूप (व्या०), २३ या विकार वाला, 'अवगुणी, दोषी, जिसमें वर्णो के छंद (पि.)। परिवर्तन या विकार हुआ हो, क्रोधादि | विकृष्ट-वि० (सं०) आकृष्ट, खींचा हुआ। मनोविकारों वाला, वह शब्द जिसमें लिंग, विक्रम-ज्ञा, पु० (सं०) पौरुष, पराक्रम, वचन, कारकादि से रूप-विकार हो (व्या०)। शूरता, गति, बल, शक्ति, सामर्थ्य, विष्णु । विकाश---संज्ञा, पु० (सं०) प्रकाश, फैलाव, | वि० -- श्रेष्ठ, उत्तम, बढ़िया। प्रसार, विस्तार, एक अर्थालंकार जिसमें विक्रमाजीत- संज्ञा, पु० दे० (सं० विक्रमाकिसी वस्तु का उन्नति, वृद्धि, प्रवर्धन, दित्य ) विक्रमादित्य राजा, विकरमाजीत स्वाधार छोड़े बिना ही अत्यंत विकसित (दे०)। होना कहा जावे (काव्य०), विकास। विक्रमादित्य--संज्ञा, पु. यौ० (सं०) वर्तमान विकास-संज्ञा, पु० (सं०) खिलना, प्रस्फुटन, विक्रमीय संवत के प्रवर्तक, उज्जैन के एक फूलना, प्रसार, फैलाव, विस्तार, भिन्न रूपान्तर प्रतापी राजा, इनके सम्बन्ध में बहुत सी के साथ किसी वस्तु का उत्पन्न होकर क्रमशः | कहानियाँ हैं। उन्नत होना या बढ़ना, एक नवीन सिद्धान्त विक्रमान्द --संज्ञा, पु. यौ० (सं०) विक्रमा. जो सृष्टि और उसके सब पदार्थों को एक दित्य का चलाया हुया उनके नाम का ही मूल तत्व से निकल कर उत्तरोत्तर उन्नत सम्बत्, विक्रमसम्वत् , विक्रमीय संवत् । होता हुआ मानता है (पाश्चात्य) । " नहिं विक्रमी-संज्ञा, पु० (सं० विकमिन्) पराक्रमी पराग नहिं मधुर मधु, नहि विकास यहि विक्रमवाला, विष्णु । वि.-विक्रम का, काल" । संज्ञा, पु८ विकासन । वि० - विक्रम-संबंधी, विक्रमीय (सं०)। विकासनीय, विकासित। विक्रय-संज्ञा, पु० (सं०) बिक्री, बेचना । विकासना*-स० क्रि० दे० ( सं० विकास ) यौ० क्रय-विक्रय । प्रगट करना, बढ़ाना, निकालना, प्रस्फुटित विक्रयी-संज्ञा, पु. (सं०) बेचने वाला, करना, फुलाना, विकास करना या खिलाना, । विक्रेता। For Private and Personal Use Only Page #1591 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विघटन - विक्रांत १५८० विक्रांत-संज्ञा, पु. (सं०) वैक्रांतमणि, विगंध-वि० (सं०) दुगंधयुक्त, गंध-रहित । पराक्रमी, शूरवीर, व्याकरण में एक प्रकार विगत-वि० (सं०) गत या बीता हुश्रा, की संधि जिसमें विसर्ग प्रकृति-भाव में | पिछला, बीते हुए या अंतिम से पूर्व का, (विकृत) रहता है। विहीन. रहित । “विगत त्रास भइ श्रीय विक्रियोपमा-संज्ञा, स्त्री० (सं०) उपमा- सुखारी''.---रामा० । लंकार का एक भेद जिसमें किसी विशेष | विगर्हणा--संज्ञा, स्त्री० (सं०) निन्दा, डाँटउपाय या क्रिया का सहारा कहा जाय या फटकार, घुड़की । वि०-विहगीय, (काव्य०)। विगर्हित । विक्रेता-संज्ञा, पु० (सं०) बेचने वाला। विगहित-वि० (सं०) निन्दित, बुरा, डाँटा " तुम क्रेता, हम विक्रेता हैं, क्रेय हृदय का फटकारा गया। हीरा"... कं० वि० । विगलित --- वि० (सं०) गला या गिरा हुआ, विक्षत-वि० (सं०) घायल : 'त-विक्षत ढीला, शिथिल, बिगड़ा हुश्रा । “विगलित सीस निचोल".-सूर० । होकर शरीर से"-मै० श० ।। विक्षिप्त-वि० (सं०) छितराया या बिखेरा विगाथा-संज्ञा, स्त्री० (२०) भार्या छंद का | एक भेद, विग्गाहा, उदगीत (पि०)। हुश्रा, पागल, व्याकुल, विकुल, जिसका चित्त ठिकाने न हो। संज्ञा. पु. चित्त के विगुण-वि० (सं०) निर्गुण, गुगण-हीन । कभी स्थिर और कभी अस्थिर रहने की एक विगोना--स० क्रि० वि०) छिपाना, लुलाना दुराना। विशेष अवस्था (योग)। विगोया--वि० (दे०) छिपा, गुप्त, लुका ! विक्षिप्तता-संज्ञा, स्त्री. (सं०) विकलता, चंचल नयन रहैं न विगोये ".-- स्फुट० । पागलपन, विह्वलता। विग्गाहा-संज्ञा, स्त्री० दे० ( सं० विगाथा ) विक्षुब्ध-- वि० (सं०) क्षोभयुक्त, विकलता। भार्या छंद का एक भेद, विगाथा, उद्विक्षेप- संज्ञा, पु. (सं०) इधर-उधर या गीत। ऊपर को फेंकना, हिलाना, डालना। विग्रह -- संज्ञा, पु० (सं०) झगड़ा, कलह, झटका देना, तीर चलाना, धनुष की लड़ाई, समर, युद्ध. अलग या दूर करना, प्रत्यंचा चढ़ाना, (विलो०-संयम), फेंक विभाग, (व्या०) यौगिक या सामासिक पदों कर चलाया जाने वाला एक अस्त्र, विघ्न, के एक या सब पदों को पृथक करने की बाधा, असंयम, व्याकुलता, मन को भटकाना। क्रिया, (व्या०), वैरियों या विपक्षियों में विक्षोभ-संज्ञा, पु० (सं०) मन का चाँचल्य, फूट पैदा कराना, प्राकृति, मूर्ति, शरीर । क्षोभ, उद्विग्नता । वि० -विक्षोभित। "विग्रहानुकूल सब लच्छ लच्छ रिच्छ-बल" विख-संज्ञा, पु० (सं०) विष : -राम। विखान*-संज्ञा, पु० दे० ( सं विषाण) विग्रही-संज्ञा, पु० (सं० विगृहिन् ) युद्ध या सींग, बिखान (दे०)। "बिन विखान अरु लड़ाई-झगड़ा करने वाला, झगड़ालू , पूंछ को, मूरख बैल महान"- वासु०। लड़ाका, देही, शरीरी। विखायँधि-संज्ञा, स्त्री० (दे०) कड़वी गंध । विघटन-संज्ञा, पु० (सं०) तोड़ना, फोड़ना, विख्यात--वि० (सं०) प्रसिद्ध, प्रख्यात विनष्ट या बरबाद करना, विघटन । स० मशहूर । रूप----बिघटाना, अ० रूप-विघटना ! विख्याति-संज्ञा, स्त्री. (सं०) प्रसिद्धि, प्रकटी धनु-विघटन परिपाटी"--रामा० । ख्याति, मशहूरता। वि०-विघटनीय। For Private and Personal Use Only Page #1592 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विघटिका १५८१ विचारना विघटिका-संज्ञा, स्त्री० (सं०) समय का एक विचरनि-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० विचरण) अल्प मान, एक घड़ी का २३वाँ भाग। घूमना-फिरना, चलना, पर्यटन । विघटित - वि० (सं०) जो तोड़ा-फोड़ा विचन--वि० (सं०) अस्थिर, चंचल, स्थान गया हो, बिगडा या नष्ट किया हुआ। से हटा पा । "निज दल विचल सुना जब विधन-संज्ञा, पु० दे० (सं० विघ्न) विन. काना".-रामा० । 'चलो चलु चलो चल बाधा. अडचन. विधन विधन मनाव िविचलन बीच ही मैं'- पद्मा०। देव कुचालो' -रामा० । विचलत-संज्ञा, स्त्री. (सं०) घबराहट, विघातक-संज्ञा, पु० (सं०' बाधक, मारक, चंचलता, अस्थिरता, मगदर। नाशक, घातक। विचलन * -- अ० कि० दे० (सं० विचलन) विघानी-- वि० (सं० विघातिन ) घातक, निज स्थान से हट जाना, चल जाना, घबमारक, विक्षकारी राना. अधीर होना, प्रण, प्रतिज्ञा या संकल्प विघ्न- संज्ञा, पु. (सं०) बाधा, अडचन । पर दृढ़ता से स्थिर न रहना, विचलना "लंबोदर गिरजा-ननय विन-विनाशनहार" र (दे०) स० रूप-विचलाना, विचलावना, -स्फुट । यौ०---विघ्न-विदारगा। प्रे० रूप -विचलवाना। विघ्नजित संज्ञा, पु० (सं०) गणेश जी। विचलित -- वि० (सं०) विकलित, चंचल, विघ्नपति- संज्ञा, पु० (सं०) गणेश जी। अस्थिर. प्रण या संकल्प से हटा हुआ, घबविघ्नविनाशक--संज्ञा, पु. यौ० (सं०) गणेश राया हुआ, व्याकुलित, बेचैन । नी, विघ्न-विदारक। विचार-संज्ञा, पु० (सं०) भाव, मन का विघ्नविनायक-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) सोचा, समझा था निश्चित किया हुआ, गणेश जी। भावना, चित्त में उठी बात, ख़्याल, मुकदमें विघ्नेश--संज्ञा, पु० यौ० (सं०) गगोश जी। की सुनवाई और फैसला निर्णय, मत, विघ्नहारी-संज्ञा, पु. (सं०) विघ्न-नाशक, बिचार (दे०)। ।" विचार दृक् चारगप्य गणेश जी, विघ्नहर। वर्तत"-- नैष । विचक्षण-वि० सं०) प्रकाशित, चतुर. विचारक - संज्ञा, पु. (सं०) विचारने या निपुण, पंडित, पारदर्शी, विद्वान, बुद्धिमान, | सोचने वाला, विचार करने वाला, निर्णय विचन्छन । संज्ञा, स्त्री० दे० (सं०) विच करने वाला, न्यायाधीश, न्यायकर्ता । स्त्री० क्षणता। विचरिका! विचन्छन -संज्ञा, पु० दे० (सं० विचक्षण) विचारणा--संज्ञा, स्त्रो० (सं०) विचार करने विद्वान् , बुद्धिमान , चतुर. निपुण । की क्रिया या भाव। विचरण-संज्ञा, पु. (सं०' घूमना फिरना, विचारणीय- वि० (सं०) स्त्यि, विचार चलना, पर्यटन करना, विवरन (दे०)। करने योग्य, चिन्तनीय, सोचनीय, संदिग्ध, वि. विचरगाशील ।। प्रमाणित करने योग्य । विचरन - संज्ञा, पु. द० सं० विचरण) घूमना- विचार-मूह--वि० यौ० (सं०) मूर्ख, जो फिरना, चलना, पर्यटन करना ! विचार न कर सके । “विचार-मूढः प्रतिभासि विचरना---अ० कि० दे० (सं० विचरण ) मे त्वम्"--रघु०। घूमना फिरना, चलना, पर्यटन करना, विचारना अ० कि० दे० (सं० विचार--नाविनरना (दे०)। " कौन हेतु बन बिचरहु । प्रत्य०) सोचना, समझना, चिंतवन या विचार स्वामी"-रामा० । करना, पता लगाना, पुछना, खोजना, For Private and Personal Use Only Page #1593 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir . विचारपति १५८२ विजना ढूंढना, बिचारना। "बुरे लगें सिख के बचन, विचित्रता-संज्ञा, स्त्री. (सं०) रंग-विरंगा हृदय विचारो श्राप"-वृं० । स० रूप --- होने का भाव, विलक्षण होने का भाव, विचराना, विचरावना, प्रे० रूप-विवर- वैचित्र्य, विलक्षता, वैलक्षण्य । वाना। विचित्रवीर्य-संज्ञा, पु. यौ० (सं०) चंद्रविचारपति-संज्ञा, पु० यौ० (सं.) न्याया- वंशीय राजा शांतनु के पुत्र । धीश, न्यायकर्ता, विचारक । विचेतन-वि० (सं०) चेतना रहित, विचारवान्-संज्ञा, पु. ( सं० विचारवान् ) | विवेकहीन। विचार-शील, ज्ञानी बुद्धिमान, पंडित । । विच्छित्ति--संज्ञा, स्त्री. (सं०) अलगाव, " विचारवान् पाणिन एक सूत्रेस्वानं युवानं ! विच्छेद, त्रुटि, कमी, शरीर को रंगों से रंगना, मघवानमाह "-- स्फुट० ।। कविता में यति, नायिका का स्वल्प शृंगार विचारशक्ति-- संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) सोचने । से नायक के मोहने की चेष्टा-सूचक एक हाव या अच्छा-बुरा जानने की शक्ति, विवेक, (मा.) वैचित्र-पूर्ण वक्रोक्ति (काव्य.)। समझने की शक्ति, बुद्धि, ज्ञान, समझ। विच्छिन्न-वि० (सं०) विभक्त, विलग, भिन्न, विचारशील-संज्ञा, पु० (सं०) विचारवान् , जुदा, छेद या काट कर पृथक कियो ! संज्ञा, ज्ञानी, समझदार, बुद्धिमान। पु. (सं०) चारों केशों की वह दशा जब विचारशीलता--संज्ञा, स्त्री० (सं०) बुद्धिः ! बीच में उनका विच्छेद हो जाये (योग०)। मत्ता । विच्छेद- संज्ञा, पु० (सं०) टुकड़े टुकड़े करना, विचारालय-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) । क्रम का टूट जाना, नाश, वियोग, विछोह, न्यायालय, कचहरी। विरह, छेद या काट कर पृथक करने की विचारित-वि० (सं०) निर्धारित, निर्णित, क्रिया, कविता की यति । वि० ---विच्छव्यवस्थापित। दक, विच्छेदित। विचारी-संज्ञा, पु० दे० ( सं० विचारिन् ) | विच्छेदन-पंज्ञा, पु. (सं.) काट कर अलग विचार करने वाला, ज्ञानी, समझदार । करना, नष्ट करना, खंडन करना । वि०वि० स्त्री० दे० (हि. विचारा) दुखिया, परा- विछेदनीय, विच्छेदित । धीन, विवश, बिगरी, बेचारी (दे०)। विचलना -अ० कि० दे० (हि० फिसलना) "ज्यों दसनन बिच जीभ विचारी' रामा० । फिसलना, रपटना, विछलना, बिकुलना विचार्य-वि. (सं०) विचारणीय, विचार (ग्रा.) । करने योग्य। पू० क्रि० (सं०) विचार कर। विछेद*-संज्ञा, पु. दे. (सं० बिच्छेद ) विचिकित्सा--संज्ञा, स्रो० (सं०) संदेह, विच्छेद । भ्रम, संशय। विछोई --- संज्ञा, पु० दे० ( सं० वियोगी) विचित्र-वि० (सं०) अनेक रंगों वाला, ! वियोगी, बिछोही, बिछोई (दे०)। अनोखा, अद्भुत, विलक्षण, चकित करने | विछोह-संज्ञा, पु० दे० (सं० विच्छेद ) वाला या विस्मयकारी। स्रो० विचित्रा। वियोग, विच्छेद, जुदाई. विरह, बिछोह । संज्ञा, स्त्री० विचित्रता । " दैवी विचित्रा "मित्र मिले ते होत सुख, पै विछोह दुख. गतिः --स्फु० । संज्ञा, पु०-एक थर्थालंकार भूरि "-कु० वि० । जिसमें किसी अभीष्ट फल की प्राप्ति के लिये | विजन--वि० (सं०) निर्जन, निराला, एकांत किसी उलटे प्रयत्न के करने का कथन हो संज्ञा, पु० दे० (सं० व्यंजन) पंखा, बिजना ( काव्य०), बिचित्र (दे०)। विजना*-संज्ञा, पु. द० ( सं० विजन ' For Private and Personal Use Only Page #1594 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विजय १५८३ विजोहा एकांत, निराला, अकेला । संज्ञा, पु० दे० विजाति-संज्ञा, स्रो० (सं०) दूसरी जाति । (सं० व्यंजन ) बिजना, बीजना (दे०) वि०-दूसरी जाति का । पंखा, विनवाँ, वैनवा (ग्रा.)। विजातीय- वि० (सं०) दूसरी जाति का। विजय-संज्ञा, स्रो० (सं०) विवाद या युद्ध विजानना- स० क्रि० (हि०) विशेष रूप से में जीत, जय, विजय, बिज (दे०) विष्णु जानना । के एक पार्शद, एक छंद या मत्तगयंद सवैया विजानु--संज्ञा, पु० (सं०) तलवार चलाने के (केश.) । " न कांक्षे विजयं कृष्ण''--भ० ३२ हाथों में से का एक हाथ. अखवा हाथ । गी। वि.--विजयी यौ० जय-विजय। विज़ारत-संज्ञा, स्त्री. ( अ०) वज़ीर या विजय-पताका- संज्ञा, स्त्री. यो. (सं.)। मंत्री का पद या धर्म अथवा भाव, मंत्रित्व। जीत होने पर उड़ाई जाने वाली पताका विजिगीर-वि० (सं०) जयाकांक्षी, जयाभिजय ध्वज, जय-केतु, जीति का झंडा। लाषी, विजय चाहने वाला, विजयेच्छुक । "विजय-पताका राम की, लंका पै फहराय" संज्ञा, स्त्री० विजिगीषा। " होते हैं धनंजै ~क० वि०। विजिगीष महाभारत के"-अनू० । विजय-यात्रा--संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) देश विजित--संज्ञा, पु. (सं०) जो जीत लिया जीतने के विचार से की गई यात्रा, विजे- गया हो, जीता हुआ देश, हारा हुआ, जात्रा (दे०)। पराजित । " मुझ विजित जरा का, एक विजयलक्ष्मी-विजयश्री-संज्ञा, स्त्री० यौ० श्राधार जो है -पि. प्र.। (सं०) जय-लक्ष्मी. विजय की प्रधान देवी विजेता- संज्ञा, पु. ( सं० विजेतृ ) जीतने जिपकी दया ही पर विजय का होना निर्भर वाला, विजयी, जिसने विजय पाई हो। है, जयश्री। | विजे संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० विजय ) विजया--संज्ञा, स्त्री० (सं०) दुर्गा, सिद्धि, विजय, बिजे (दे०) । भाँग, भंग । " या विजया के सकल गुण, | विजैसार - संज्ञा, पु० दे० (सं० विजयसार ) कहि नहि सकत अन्त'-स्फु० । श्री कृष्ण साल जैसा एक बड़ा वृक्ष । जी की माला, १० मात्राओं का एक छंद. विजोग*---संज्ञा, पु० दे० (सं० वियोग ) ८ वर्णा का एक दणिक वृत्त (पिं०), वियोग। विजयदशमी। विजोगीसंज्ञा, पु० दे० (सं० वियोगी) विजय-दशमी-संज्ञा, स्त्री० यौ० ( सं०) वियोगी। भाश्विन या क्वार शुक्ल ( सुदी) दशमी विजोर-वि० दे० ( हि वि+ जोर-फा०) (हिंदों के त्यौहार या उत्सव का दिन)। बेज़ोर, कमज़ोर, निर्बल, निवल ।। विजयी-संज्ञा, पु० (सं० विजयिन् ) विजोहा, विज्जोहा-संज्ञा, पु० दे० (सं० विजेता, जीतने वाला, जय प्राप्त । स्त्री० विमोह ) दो रगण वाला एक वर्णिक छंद, निजी विजयिनी । “ सो विजयी, विनयी, गुण विमोहा, जाहा (दे०)। सागर"-- रामा। विज्जु-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० विद्युत् ) विजयोत्सव--संज्ञा, पु० यौ० (सं०) विजया बिजली । " फैलि गई सब ओर विज्जु दशमी का उत्सव, विलय होने पर उत्सव, कैसी उजियारी"-रत्ना० । जयोत्सव। विज्जुलता- संज्ञा, स्त्री० दे० यौ० (सं० विद्युत् विजात-- वि० (सं०) कुजात, वर्ण संकर । +लता) बिजली, विघुल्लता। संज्ञा, पु. (सं०) सखी छंद का एक भेद विज्जोहा-संज्ञा, पु० दे० (सं० विमोहा ) (पि०)। | जोहा, विमोहा, विजोहा छंद (पिं०) । For Private and Personal Use Only Page #1595 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - विज्ञ १५८४ वित् विज्ञ-वि० (सं०) पंडित, विद्वान, बुद्धिमान, विटलवण- संज्ञा, पु. ( सं० ) सोचर या ज्ञानी, जानकार । संज्ञा, स्त्री. विज्ञता। साँचर नमक । विज्ञप्ति -- संज्ञा, स्रो० (सं०) विज्ञापन, इश्तहार विठ्ठल-संज्ञा, पु. (दे०) विःणु की एक सर्वसाधारण को सूचित करने या जताने मूत्ति ( दक्षिण भारत ) । यौ० विट्ठल नाथ, की क्रिया। विठ्ठल विपुल-वल्लभाचार्य के शिष्य । विज्ञान --संज्ञा, पु० (सं०) किसी विषय की विडंबना--संज्ञा, स्त्री. (सं०) चिढ़ाने को ज्ञात बातों का शास्त्र-रूप में स्वतंत्र संग्रह, . किपी की नकल करना या उतारना, हँसी साँसारिक पदार्थों का ज्ञान, लत्व विद्या, उड़ाना, चिढ़ाना, उपहाय, मज़ाक करना, पदार्थ ज्ञान, वस्तु-विज्ञान या शास्त्र, पदार्थ, दुर्दशा, विडंबन (दे०) । वि० विउंचनीय, श्रात्मा, ब्रह्म निश्चयात्मिक बुद्धि, अविद्या विडंवित केहिकर लोभ विडंबना, कीन्ह या माया नाम की वृत्ति । न यहि संसार--रामा० । " मेरे भुज. विज्ञानमयकोष-संज्ञा, पु. यो. (सं०) दंडन की बड़ी है विडंबना '—केश । बुद्धि और ज्ञानेंद्रियों का समूह (वेदा०)। विडर - क्रि० वि० (दे०) पृथक, विलग, विज्ञानवाद-संज्ञा, पु० सं० ) ब्रह्म और दूर दूर पर । जीव की एकता का प्रतिपादक सिद्धांत. | विडरना*---अ० क्रि० (दे०) भागना, दूर श्राधुनिक विज्ञान की बातों का मानने होना, दौड़ना, बिखरना, छितरना, तितरवाला सिद्धांत । वि०, संज्ञा, पु. विज्ञान बितर, विदीर्ण होना, फैल जाना, बिडरना। वादी। स० रूप-विडराना, प्रे० रूविडरवाना। विज्ञानी-संज्ञा, पु. (सं० विज्ञानिन् ) बड़ा विडारना-स० क्रि० द० ( हि० विडरना) बुद्धिमान, किसी विषय का विशेष ज्ञाता, बिडारना (दे०), छितराना, बखेरना, बड़ा विद्वान, वैज्ञानिक, विज्ञान-शास्त्र का भगाना, तितर-बितर करना, दौड़ाना, विदीर्ण यो नष्ट करना । “जैसे सिंह बिहारै गाय" ज्ञाता। विज्ञापन-संज्ञा, पु. (सं०) सूचना देना, -श्रा० थं। इश्तहार, जानकारी कराना, सूचना पत्र, विडाल--संज्ञा, पु० (सं०) बिल्ला, बिल्ली। लोगों को किसी बात के जताने का लेख । विडालात-संज्ञा, पु. यौ० (सं०) एक वि. विज्ञापक, विज्ञापनीय। पौ० आत्म राजा ( महा० )। वि० (सं०) कंजा, बिल्ली की सी आँख वाला। विज्ञापन-श्रात्म-श्लाघा । विडोजा--संज्ञा, पु. ( सं० विडोजस् ) इन्द्र । विट-संज्ञा, पु० (सं०) लंपट, कामी, वेश्या " साधु साधु विजयस्व विडोजा''-नैप० । गामी, कामुक, चालाक, धूर्त, धनी, वैश्य, वितंडा-सज्ञा, स्त्री. ( सं० ) पर पक्ष को विषयादि में सारी सम्पत्ति खोने वाला धूर्त दबाते हुये अपने पक्ष की स्थापना करना, स्वार्थी नायक (साहि०) मल, विष्टा, बट ।। (न्याय०) व्यर्थ के लिये झगड़ा या कहा "न नटः न विटः न च गायनः"-भ. श०, सुनी यो० वितंडा वाद।। "नट विट भट गायन नहीं "-.वि. सि० वितंत* -- संज्ञा, पु. द० ( सं० वितंत्र ) विटप-संज्ञा, पु० (सं०) पेड़, वृक्ष, नवीन, बिना तार का बाजा। कोमल, शाखा या पत्ते, कोपल, बिटप वित*--वि० दे० (सं० विद् ) ज्ञाता, चतुर (दे०)। " मोह विटप नहिं सकत उपारी" | जानकार, निपुण । संज्ञा, पु० (दे०) सामर्थ्य, -रामा०। धन, शक्ति, वित्त, बित (दे०), "सुत, वित, विटपी--- संज्ञा, पु० (सं०) पेड़, वृक्ष । नारि, भवन, परिवारा"-रामा० । For Private and Personal Use Only Page #1596 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir वितताना १५८५ विथा वितताना*--अ० क्रि० दे० ( सं० व्यथा ) | वितिक्रम* -- संज्ञा, पु० दे० (सं० व्यतिक्रम) बेचैन या विकल होना। - क्रमशः न होने वाला, उलट-फेर, विघ्न, वितद्र-संज्ञा, पु० (२०) झेलम नदी। बाधा । (विलो०-यथा क्रम)। वितपन्न* --संज्ञा, पु. दे. (सं० व्युत्पन्न) वितोत*--वि० दे० (सं० व्यतीत ) प्रवीण, कार्य कुशल दत्त, निपुण, पटु। बीता या हुआ, गत, बितीत (दे०) । वि०-विकल, घबराया हुआ। सीत वितांत भई सिसियातहि"-रो । वितरक-संज्ञा, पु. (सं० वितरगा ) बाँटने वितंड---संज्ञा, पु. ( सं० वि-- तुंड ) हाथी। वाला । संज्ञा, पु० (दे०) विन (सं०)। '' भूषण वितुंड पर जैसे मृगराज है "--- वितरण-संक्षा, पु. (सं०) अर्पण या दान, वितु*--संज्ञा, पु. दे. (सं० वित्त) सामर्थ्य, करना, बाँटना, देना, बितरन (दे०) । वि. धन, संपत्ति, बित, वित्त (दे०) । " बहु वितरणीय, वितरित। वितु मिलै प्रनीतिते, तो कदापि जनि लेहु" वितरन*-संज्ञा, पु० दे० (सं० वितरण ) -वासु० । बाँटने वाला, बाँटना, बितरन (दे०)। वित्त-संज्ञा. पु. (सं०) संपत्ति, धन, लक्ष्मी । वितरना स० कि० दे० ( सं० वितरण ) “हो दीन वित्त-हीन कैसे दूसरी गढाइ बाँटना, बरताना (दे०)। स० रूप -बित- हौं'-कविः । । राना, बितरवाना। वित्तपति-वित्तनाथ–संज्ञा, पु० यौ० (सं०) वितरिक्त-अव्यः (दे०) अतिरिक्त, कुबेर, वित्ताधिपति, वित्तेश। “वित्तपति अलावा, सिवाय, व्यतिरिक्त ।। सों छीन लीन्हों शुभग नभ को यान, वित्तवितरित - वि० (सं०) बाँटा हुआ। वितरेक*--क्रि० वि० दे० ( सं० व्यतिरिक्त ) नाथहु जेठ ? कै हार लीन्ही मान"-मन्ना। वित्तहीन---संज्ञा, पु० यौ० (सं०) कंगाल, अतिरिक्त, विवा, बोड़ कर. विरुद्ध, अलावा । निर्धन, दरिद्र । " वित्तहीन नर को कहूँ, संज्ञा, पु० (दे०) व्यतिरेक (सं०)। वितर्क-संज्ञा, पु० (सं०) तर्क पर होने वाला श्रादर कबों न होय"-नीतिः। दूसरा तर्क, संदेह, संशय, एक अर्थालंकार विथक--संज्ञा, पु० (हि. थकना ) पवन । जिसमें संदेह या वितर्क का कथन होता विथकना*--- अ० क्रि० दे० (हि. थकना ) थक जाना, शिथिल या सुस्त हो जाना, है। यौ० तर्क-वितक। वितल-- संज्ञा, पु. (सं०) सात पातालों में मोह या श्राश्चर्य से चुप होना । स० रूप से तीसरा पालात ( पुरा )। -विथकाला। वितस्ता-संज्ञा, स्त्री० (सं० झेलम नदी। विथकित* --वि० दे० (हि० थकना) क्लान्त, वितस्ति-संज्ञा, स्रो० (सं०) वित्ता, वीता। | थका हुआ, शिथिल, चकित या मोहित पितान-संज्ञा, पु० (सं०) मंडप, चदोवा, । होकर मौन हुश्रा । “विथकित हाय है खेमा, शामियाना, संघ, समूह, रिक्त या शून्य अनीहू अकुलानी हैं ''-अ० २० । स्थान, कंज, विस्तार यज्ञ, सभ (गण) और बिथरना-२० क्रि० (दे०) बिखरना । दो गुरु वर्णों का एक वर्णिक छंद (पिं०)। विथराना, विथारना*- स० क्रि० दे० (सं० " सो वितान तिहुँ लोक उजागर" वितरण ) छितराना, फैलाना, छिरकाना, "बरन बरन बर बेलि-बिताना"--रामा० । बिखारना, बिखराना, बिथरावना । प्रे० रूप. वितानना-स० क्रि० दे० ( सं० वितान) विथरवाना। चंदोवा या शामियाना तानना, तानना, विथा*-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० व्यथा ) चढ़ाना। | व्यथा, पीड़ा, रोग व्याधि, बिथा। "विरहभा. श० को.--१६ For Private and Personal Use Only Page #1597 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विथित विदिश , विदिशा विथा जल परस बिन, वसियत मों हिय- दरना, दलित या नष्ट करना, दबाना, मलना। ताल"-वि०। स० रूप-विदलाना प्रे० रूप-विदलवाना। विथित*-वि० दे० ( सं० व्यथित ) दुखित, विदा -- संज्ञा, स्त्री० दे० ( सं० विदाय ) कहीं पीड़ित, बिथित (दे०)। से चलने की अनुमति या प्राज्ञा, प्रस्थान, विथुरना-स० क्रि० (दे०) बिखरना, | रुख़सत, प्रयाण । महा.-विदा माँगना फैलना, फूटना, बिथुरना। वि०-बिथुरा, - प्रयाण की आज्ञा मॉगना, विदा देना स्त्री० विथुरी। -प्रस्थान की आज्ञा देना, (दीप) विदा विथोरना-बिथोरना-स० के० (दे०) ! होना (करना) (दीप) वुझना (बुझाना)। अलग या पृथक करना। " बारन बिथोरि विदाई---संज्ञा, स्त्री० दे० ( हि० विदा+ईथोरि थोरि जो निहारे नैन । प्रत्य० ) प्रस्थान की श्राज्ञा, विदा की आज्ञा विदग्ध-संज्ञा, पु० (सं०) 'चतुर, विद्वान, ! या अनुमति, विदा के समय दिया गया धन, कुशल, दक्ष, चालाक, रसिक, भावुक । प्रस्थान, प्रयाण, बिदाई। विदग्धता-संज्ञा, स्त्री. (सं०) चातुरी, विदारक-वि० (सं०) दरने या चीड़ने विद्वता, निपुणता, चालाकी, रसिकता। वाला, फाड़ डालने वाला, विदीर्ण या विदग्धा-संज्ञा, स्त्री० (सं०) ऐसी परकीया विनाश करने वाला, दुखद । नायिका जो चातुरी या चालाकी से पर विदारगा--- संज्ञा, पु० (सं०) फाइना, चीरना, पुरुष को मोहित या अनुरक्त करे । मार डालना, नष्ट करना, विदारन (दे०)। विदमान* ---अव्य० दे० (सं० विद्यमान )| वि०-विदारित, विदारणाय । विद्यमान, उपस्थित प्रस्तुत । विदारना*----स० वि० दे० (हि. विदरना ) विदरना*-अ० कि० दे० ( सं० विदारण ) | फाइना, चीरना, विदारना (दे०) । विदीर्ण होना, फटना। स० रूप ---विदारना। विदारनहार-वि० ( हि० विदारना ) चीड़ने स० कि० (दे०) फाड़ना, विदीर्ण करना। या फाड़ने वाला । " कमल चोरि निकरै विदर्भ-संज्ञा, पु. (सं०) बरार देश का । न अलि, काठ विदारनहार' --नीति । पुराना नाम | "यसवाप्य विदर्भभूः प्रभुम्" विदारी-- वि० ( सं० विदारिन् । फाड़ने या -----नैष । चीरने वाला। विदर्भपुरंदर-संज्ञा, पु. यौ० (सं०) राजा विदारीकंद-संज्ञा, पु० (सं०) एक कंद, भीम, दमयंती के पिता । पृत दरः स विदर्भ- भुइँ-म्हड़ा ( ग्रा० )। पुरंदर:-नैष । विदाही--- संज्ञा, पु० (सं० विदाहिन् ) पेट विदर्भराज- संज्ञा, पु. (सं०) दमयंती के में जलन उत्पन्न करने वाले पदार्थ । पिता, विदर्भनरेश, भीम। विदिक-विदिश---संज्ञा, स्त्री० (सं०) दो विदर्भाधिपति, विदर्भपति--संज्ञा, पु. ! दिशाओं के बीच का कोण । " दिशोमध्ये यौ० (सं०) राजा भीम, विदर्भनरेश, विदिक स्त्रियां ''- अमर० । विदर्भनाथ, विदर्भनायक । “ तं विद- विदित- वि० (सं०) समझा या जाना हुआ, धिपतिः श्रीमान्'- नेपा। ज्ञात, मालूम, बिदित (दे०)। “मोर विदलन-संज्ञा, पु० (सं०) मलने, दलने या सुभाव विदित नहिं तोरे "-रामा० । दबाने आदि का कार्य, नष्ट करना, फाड़ना। विदिश-विदिशा--संज्ञा, स्त्री. (सं०) दो वि० विदलित, विनलनीय। दिशाओं के बीच का कोना, दिकोण। विदलना*--स० क्रि० दे० ( सं० विदलन ) । वर्तमान, भेलसा शहर ( प्राचीन)। For Private and Personal Use Only Page #1598 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - विदीर्ण १५८७ विद्याधर विदीर्ण-वि० सं०) बीच से चीड़ा या विदेह-कुमारी - संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) फाहा हुश्रा, निहत, मार डाला हुअा, विदेह-सता, विदेह-तनया, जानकी जी, विदीरन (दे०)। "फलम्तन-स्थान विदीर्ण सीता जी, विदेह-कन्या, विदेहतनुजा, रागिह द्विशच्छुकास्यस्मर किशुकाशुगाम्” | विदेहात्मजा, विदेह-पुत्री। “केहि पट-नैष । तरिय विह-कुमारी"-- रामा० । विदारन-वि० (दे०) विदागा (स.)। विदेहपुर : विदेहनगर .. संज्ञा, पु० यौ० विदुर-संज्ञा, पु० (सं०) ज्ञाता, ज्ञानी, | (सं.) जनकपुर । " तुरत बिदेहनगर जानकार, पंडित, विद्वान, धृतराष्ट्र के राज- नियराये' -- रामा० । स्त्री० विदेह-पुरी, नीति और धर्म-नीति में अतिकुशल मंत्री। विदेह-नारी। विदुष-संज्ञा, पु० (सं०) पंडित, विद्वान। विदेही-- ज्ञा, पु. (सं० विदेहिन् ) ब्रह्म । " विदुषाम् किमुपेक्षितम् ' -भा० द.। . प. (सं०) पंडित. विदान. विदुपी-संज्ञा, स्त्री. (सं०) पंडिता, पढ़ी जानकार, बुधग्रह ( ज्यो०)। लिखी स्त्री। विद्ध - वि० (सं०) बीच से बेधा या छेद किया विदर --- वि० सं०) जो अत्यंत दूर हो, बहुत हुधा, फेंका हुश्रा, चुटहिल, छेदा, या सटा दूर वाला । संज्ञा, पु० (दे०) वैदूर्य मणि । हुआ, टेढ़ा । वि० (दे०) वृद्ध (सं.)। विदूषक -- संज्ञा, पु० (सं०) मसख़रा, विद्यमान-वि० (सं०) उपस्थित, मौजूद, दिल्लगीबाज़, मम्परा, नाकाल, भाँड़, हाजिर, प्रस्तुत । " विद्यमान रघु-कुलमणि मंत्री, कामुक, विषयो । 'कहत विदूषक सों जानी"..--रामा। कछू, को यह केशवदाप "---रामा० । विद्यमानता-संज्ञा, स्त्री. (सं०) मौजूदगी नायक का वह अंतरंग मित्र जो अपने हाज़िरी, उपस्थिति। परिहासादि से उसे ( या नायिका को) विद्या--संज्ञा, स्त्री. (सं०) शिक्षादि से प्राप्त प्रसन्न करता तथा काम केलि में सहायक ज्ञान, इल्म, वे शास्त्रादि जिनसे ज्ञान प्राप्त होता है ( नाट्य०)। विदूषना-२० कि० दे० (सं० विदूषण ) हो, जानकारी विद्या के चार और चौदह भेद कहे गये है, ४ वेद और उपवेद (प्रायुः, धनुः, कलंक या दोष ( ऐब ) लगाना, सताना, दुख देना । अ० क्रि० -दुखी होना । " इन्हें गांधर्व, अर्थशास्त्र) षडंग ( वेदांग ) शास्त्र न संत विदूषहि काल"-रामा०।। ( मीमांसा, न्यायादि ६ शास्त्र ) धर्मशास्त्र विदेश-संज्ञा, पु० (सं०) परदेश, दूसरा ( स्मृति ) भूगर्भादि अन्यशास्त्र (विज्ञान) देश, विदेस (दे०)। " पूत बिदेश न सोच काव्य कोचादि (साहित्य) पुराण (उपपुराण) तुम्हारे"-रामा० । श्रार्या छंद का पंचम भेद, दुर्गा, विद्या विदेशी, विदेशीय--वि० (सं.) अन्य देश (दे०) । " विद्या भोगकरी यशः, सुखकरी, सम्बंधी, अन्य देश-वासी, परदेशी, पर- विद्या गुरुणां गुरुः "--भ० श० । देसी, बिदेसी (दे०)। विद्यागुरु--- संज्ञा, पु० यौ० (सं०) शिक्षक, घिदेह-संज्ञा, पु० (६०) शरीर-रहित, बिना | पढ़ाने वाला, विद्या में बड़ा । देह का, राजा जनक, जिसकी उत्पत्ति माता- विद्यादान - संज्ञा, पु. यौ० (सं०) विद्या पिता से न हो, मिथिला का प्राचीन नाम, पढ़ाना या देना। संज्ञा-शून्य, विदेह (दे०)। " भये विदेह विद्याधर--संज्ञा, पु. (सं०) किन्नर, गंधर्व विदेह विशोकी"-रामा० ! वि० (सं०) बे तथा अन्य खेचरादि की एक देव योनि सुध, बेहोश, अचेत। | विशेष । " विद्याधर यश कहैं गान गंधर्व For Private and Personal Use Only Page #1599 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org १५८८ विद्याधरी करें किन्नर नाचें ", -मन्ना० | पंडित, विद्वान, एक अस्त्र । यौ० विद्याधरात्र । विद्याधरी - संज्ञा, स्रो० (सं० ) विद्याधर ( देवता ) की स्त्री । विद्याधारी - संज्ञा, पु० (सं० विद्याधारिन् ) ४ मगण का एक वर्णिक छंद ( पिं० ) । विद्यारंभ - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) विद्या पढ़ना शुरू करने का एक संस्कार विशेष । विद्यार्थी - संज्ञा, पु० यौ० (सं० विद्यार्थिन् ) छात्र, शिष्य, विद्या पढ़ने वाला | विद्यालय - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) पाठशाला | विद्यावान् -- संज्ञा, पु० ( सं० विद्यावत् ) विद्वान् पंडित, ज्ञानी विद्यावन्न । विद्युत् – संज्ञा, स्रो० (सं०) बिजली | विद्युत्मापक, विद्युन्मापक – संज्ञा, पु० यौ० (सं० विद्युत् + मापक ) बिजली नापने का यंत्र, जिससे बिजली की शक्ति और गति जानी जाती है । विद्युन्माला, विद्युन्माला -संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) बिजली का समूह या क्रम दो मगण और दो गुरु ( गुरु वर्णों) का एक वकि छंद (पिं० ) " मो मो गो गो विद्य न्माला " | विद्युत्माली, विद्युन्माली - संज्ञा, पु० ( सं० विद्युत् + मालिन् ) एक राक्षस ( पुरा० ) भ और म ( गण ) और २ गुरु वर्णों का एक वर्णिक छंद (०) | विद्युल्लेखा - संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) दो मगण (६ गुरु वर्णो ं) का एक वर्णिक छंद (पिं०) शेषराज, बिजली की धारा या रेखा, बिजली । विद्रधि - संज्ञा, पु० स्त्री० (सं०) पेट के भीतर का एक मारक फोड़ा । 62 विद्रावण - संज्ञा, पु० (सं०) भागना, फाड़ना, उड़ाना, पिघलना, नष्ट कत्ती । वि० विद्रावणीय, विद्रावित | विद्रुम - संज्ञा, पु० (सं०) मूँगा, प्रवाल । • तवाधरस्पर्द्धिषु विद्रुमेषु " - रघु० । विद्रोह - संज्ञा, पु० (सं०) द्व ेष, राजद्रोह, Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विधवाश्रम बलवा, क्रांति, विप्लव, बग़ावत, हुल्लड़, राज्य को नष्ट करने या क्षति पहुँचाने वाला उपद्रव | विद्रोही-संज्ञा, पु० ( [सं० विद्रोहिन् ) हेपी, बलवाई, बाग़ी, हुल्लड़ करने वाला, राज-द्रोही । विद्वत्ता-संज्ञा, खो० (सं० ) पांडित्य, डिमाई, विद्वता (दे० ) । विद्वान - संज्ञा, पु० (सं० विद्वस् ) पंडित, ज्ञानी, जिसने बहुत विद्या पढ़ी हो । विद्वेष-संज्ञा, पु० सं० ) द्रोह, बैर, शत्रुता । विद्वेषण संज्ञा, पु० (सं०) द्रोह, बैर. शत्रुता, दो व्यक्तियों में शत्रुता कराने का एक प्रयोग (तंत्र) बैरी, दुष्टता, शन्न । विधंस - संज्ञा, पु० ६० (सं० विध्वंस ) विनाश, विस (दे० ) । वि० विध्वस्तविनः । विना स० कि० दे० ( विव्वसन् ) नष्ट या बरबाद करना । विष - राज्ञा, पु० दे० (सं० विधि विधाता, विधि, ब्रह्मा, विधि (दे०) । विवना - स० क्रि० दे० (सं० विधि ) प्राप्त करना, ऊपर लेना, साथ लगाना, विधना (दे०) भिदना, बेधा जाना | संज्ञा, स्त्री० - भवितव्यता, होनहार, होनी । संज्ञा, पु०विधि, ब्रह्मा, विधिना (दे० ) । विधरां - क्रि० वि० (दे०) उधर | विधर्म -संज्ञा, पु० (सं०) दूसरे का य पराया धर्म । विधम्म-संज्ञा, पु० (सं० विधर्मिमन् ) धर्म च्युत, पर या अन्य धर्मानुयायी, धर्म-भ्रष्ट धर्म के विपरीताचार करने वाला । विधवा संज्ञा, स्त्री० (सं०) पति - विहीन स्त्री, बेवा, राँड़ स्त्री । विधवापन - संज्ञा, पु० दे० (सं० विधवा + पन- - हि० प्रत्य० ) रँड़ापा, वैधव्य । विधवाश्रम -संज्ञा, पु० यौ० (सं०) विधवाओं के पालन-पोषणादि के प्रबंध का स्थान । For Private and Personal Use Only Page #1600 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विधासना १५८१ विधेया विधासना* -- १० क्रि० दे० (हि० विधंसना) विधिरानी* ---संज्ञा, स्त्री० दे० यौ० (सं० नष्ट या बरबाद करना। विधि - रानी हि०) ब्रह्मा की स्त्री, सरस्वती। विधाता-संज्ञा, पु. ( सं० विधातृ ) प्रबंध “महिमा बखानी जाय कापै विधिरानी या विधान करने वाला उत्पन्न करने या सृष्टि की'... मन्ना। रचने वाला, विरंचि, ब्रह्मा, परमेश्वर, | विधि-पूर्वक--क्रि० वि० यौ० (सं०) यथाबिधाता। स्त्रो० विधात्री । " हमैं जन्म विधि, यथा रीति. सविधान ।। देता जहाँ है विधाता "--मन्नन । विधिवत-क्रि० वि० (सं०) पद्धति या रीति विधान-संज्ञा, पु० (सं०) किसी कार्य की के अनुसार, उचित रूप ले, यथाविधि, विधि या व्यवस्था अनुष्टान प्रबंध, प्रायोजन, | जैसा चाहिये वैसा। लिंग थापि विधिवत् इंतज़ाम, परिपाटी, प्रणाली, पद्धति, रीति, करि पूजा"-रामा०। निर्माण, रचना, युक्ति, उपाय, श्राज्ञा-दान, विधंतद--संज्ञा, पु० (सं०) राहु । " प्रकृतिनाटक में किसी वाक्य से सुख-दुख के एक | एक रस्य विधुतुद दहिका'-नैप० । साथ प्रगट किये जाने का स्थान (नाट्य०)। विधायक - संज्ञा, पु. (सं०) विधान या विधु-संज्ञा, पु० (सं०) चंद्रमा, शशि, मयंक, विष्णु, ब्रह्मा । "विधुरतो द्विजराज इति प्रबंध करने वाला, बनाने वाला । स्त्री० श्रुतिः" - नैप० । किमु विधु ग्रसते स विधायिका ! विधि-संज्ञा, स्त्री. (सं०) ढंग, किसी कार्य विधु तुदः-नैप० । देखहिं विधु चकोर. की रीति, प्रणाली, तरीका, व्यवस्था, युक्ति, समुदाई "-रामा० ।। योजना, विधि (दे०) । मुहा०—विधि विधुदार, विधुदारा- संज्ञा, स्त्री० यौ० बैठना (बैठाना)----टोक मेल या विधान (सं० विधुदारा) रोहिणी, चंद्र-पत्नी। होना 'मिलाना) अनुकूलता होना (करना), | विधुबंधु-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) कुमुद अभीष्ट व्यवस्था होना (करना)। विधि ___ का पुष्प । मिलना (मित्ताना )-- पाय-व्यय का | विधुवदनी-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) चंद्रमुखी हिसाब ठीक होना । शास्त्रादेश, शास्त्रीय ___ या सुरूषा स्त्री। प्राज्ञा या व्यवस्था, शास्त्रोक्त विधान, विधुबैनी*--संज्ञा, स्त्री० यौ० दे० (सं० क्रिया का वह रूप जिसे आदेश या विधुवदनी ) सुन्दर स्त्री, मयंक-मुखी । प्राज्ञा का अर्थ प्राट हो (व्या० ) । एक " विधुबैनी मृग-शावक नैनी"--रामा० । अर्थालंकार जिसमें किसी सिद्ध विषय का विधुर- संज्ञा, पु. (सं०) घबराया हुआ, विधान फिर से किया जाये, (अ० पी० ) दुखी, विकल, व्याकुल, अशक्त, असमर्थ । प्राचार-व्यवहार, चाल-ढाल । यौ० गति "विधुर बंधुर वंधुरमैक्षत"-माघ० । विधि-चेष्टा और कार्यवाही । प्रकार, भाँति, विधुरानना-वि• यौ० (सं०) ग्लानमुखी । तरह, किस्म । " जेहि विधि सुखी होहिं विधुवदनी- संज्ञा, स्त्री० (सं०) सुन्दरी स्त्री पुर-लोगा"-रामा० । संज्ञा, पु० (सं०) चंद्रमुखी, चन्द्रमा सा मुखवाली। " विधुब्रह्मा, विधाता । “विधि सों कवि सब वदनी सब भाँति सँवारी"-रामा० । विधि बड़े"- स्फुट । विधूत -- वि० (सं०) कंपित, हिलाया गया। विधिना, विधिनः---संज्ञा, पु० (दे०) विधि, विधेया-- वि० (सं०) कर्त्तव्य, जिसका करना ब्रह्मा । "जेहि विधिना दारुन दुख देहीं" । उचित हो, करणीय, उचितानुष्टान वाला, विधिपुर, विधिलाक --- संज्ञा, पु. यौ० (सं०) जिसका विधान होने वाला हो, जो विधि ब्रह्मलोक। या नियम से जाना जाये, अधीन, वह शब्द For Private and Personal Use Only Page #1601 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विधेयाविमर्ष १५१० विनाश या वाक्य जिसके द्वारा किसी के विषय में विनयपिटक-संज्ञा, पु० (सं०) बौद्धों का कुछ कहा जावे (व्या०) वशीभूत, होनहार । एक श्रादि शास्त्र । विधेयाविमर्ष- संज्ञा, पु. यौ० (सं०) एक विनयशील-वि० (सं०) सुशील, शिष्ट, काम्य दोष, जहाँ प्रधानतया कहने योग्य या विनम्र, बिनैमील (दे०) । “विनयशील कथनीय बात वाक्य-रचना में छिप या दबी करुणा-गुण-सागर"-. रामा० । रहे। विनयी-- संज्ञा, पु० (सं० विनयिन् ) विनयविध्याभास-संज्ञा, पु० (सं०) एक अर्थालंकार युक्त, सुशील, विनम्र। " सो विनयी विजयी जिसमें किसी महान् अनिष्ट के होने की गुण-सागर"-रामा० । सम्भावना सूचित करते हुये अनिच्छा के दिनयोक्ति-संज्ञा, नो० यौ० (सं०) विनय साथ विवश हो किसी बात की अनुमति दी वाक्य, विनीतवाणी।। जावे (काव्य.)। | विनशन - संज्ञा, पु. (सं०) विनाश, नाश, विध्वंस -- संज्ञा, पु० (सं०) विनाश, बरबादी, बरबादी, नष्ट होना । वि. विनष्ट, विनश्वर । खराबी। वि.विध्वंसक। विनश्वर वि० (सं०) अनित्य, नाशवान, विध्वंसी - संज्ञा, पु. (सं० विध्वंसिन् ) सदा या चिरकाल न रहने वाला संज्ञा, नाश करने वाला, बिगाड़ने वाला । स्त्री० स्त्री. विनश्वरता। विध्वंसिनी। विनट- वि० (सं०) नष्ट, ध्वस्त, नष्ट-भ्रष्ट, विश्वस्त-वि० (सं०) नष्ट किया हुआ। तबाह, बरबाद, खराब, मत पतित, बिगड़ा दिना-सई० दे० (हि. उस ) उस का हुआ । बहु वचन, उन। विनमना" - अ० कि० दे० ( सं० विनशन ) विनत--वि० (सं०) विनीत, नम्र, शिष्ट, नाश या नष्ट होना, मिटि जाना, खराब या झुका हुआ। बरबाद होना, बिनसना (दे०)। ९० रूप विनतडी*/- संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० विनमाना, बिनसावना, प्रे० रूप-विन विनत ) विनति, नम्रता, शिष्टता। सवाना । "उपजै विनसै ज्ञान ज्यों, पाय विनता--संज्ञा, स्त्री० (सं०) कश्यप-पत्नी | सुसंग-कुसंग"-- रामा० । (दक्ष प्रजापति की कन्या ) और गरुड़ की विनसाना स० कि. (दे०) नष्ट करना, माता (अप० संज्ञा,-वैनतेय)। "कद बिगाड़ना, बिनमावना (दे०)। विनतहिं दीन्ह दुख "-- रामा० । विना ... अव्य० (सं०) बिना (दे०) प्रभाव में विनति-संज्ञा, स्त्री० (सं०) नम्रता, शिष्टता, अतिरिक्त, बरौर, सिवा, न रहने या होने सुशीलता, विनय, मुकाव, विनती, प्रार्थना की दशा में। “बिना बातं बिना वर्ष, विनती-संज्ञा, स्त्री० दे० ( सं० विनति ) विद्युत्पतनं बिना''-भा० द०। नम्रता, शिष्टता, विनय, सुशीलता, प्रार्थना, विनाती*-संज्ञा, स्त्री० दे० ( सं० विनति ) झुकाव, बिनती, बिन्ती, (दे०)। "विनती विनय, विनती (सं०) । करि सुरलोक सिधाये" - रामा० । विनाथ-वि० (सं० ) अनाथ । स्त्री० - विनम्र-वि० (सं०) सुशील, विनीत, नम्र, विनायनी। झुका हुा । संज्ञा, स्त्री. विनन्त्रता। विनायक-संज्ञा, पु० (सं०) गणेशजी । विनय-- संज्ञा, स्त्री० (सं०) नम्रता, प्रार्थना, | "लम्बोदर गजवदन विनायक'' ---तु० । वि. विनती, नीति, विनय, विनै (दे० । वि.- विनायिकी। विनयी। ( विनाश-संज्ञा, पु० (सं०) ध्वंस, लोप, For Private and Personal Use Only Page #1602 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - विनाशन विपत्ति खराबी, बरबादी नाश, बिनास (दे०)। विनु*- अव्य० दे० (सं० विना) बिना वि० विनष्ट, विनाशक । “ विनाश-काले वगैर, अतिरिक्त. सिवा, छोड़कर, बिनु विपरीत बुद्धिः "- हितो। (दे०)। 'मणि-विनु, फनिक रहै अति विनाशन- संज्ञा, पु. (सं०) नाश या नष्ट दीना"- रामा० । करना, बरबाद या खराब करना, संहार या विनूठा-वि० दे० ( हि० अनूठा) अनूठा, वध करना, लोप या लय करना, बिनासन अनोखा, सुन्दर । (दे०) । वि०विनाशी, विनाश्य, विनाश- दिनेता- संज्ञा, पु० (सं०) शासक, शिक्षक, नीय। “दश सीम विनाशन बीस भुजा" --रामा० । विनोक्ति-संज्ञा, स्त्री० (सं०) एक अर्यालंकार विनास--संज्ञा, पु० दे० (सं० विनाश) जिसमें किसी के बिना किसी की श्रेष्ठता या नाश । " मूर्ख रहै जा ठौर पर ताको करै हीनता कही जाती है (अ० पी०)। जैसेविनास"-- । संज्ञा, पु. (दे०) . "बिन धन निर्मल सोह अकासा"-रामा० । नासिका, नकसीर, बिनास (दे०)। विनोद-ज्ञा, पु० (सं०) तमाशा, मनोरंजक, विनासन* -- संज्ञा, पु० दे० ( सं० विनाश) कुतूहल, कौतुक, क्रीड़ा, खेलकूद, हर्षानंद, ध्वंस, नाश, विनासन (दे०) । हँसी-दिल्लगी, प्रसन्नता, परिहास, थामादविनासना*-स० कि० दे० (सं० विनाशन)। नष्ट करना, बरबाद करना, संहार या लय विनोदी- वि० ( सं० विनोदिन् ) आनंदी करना, बिगाड़ना, विनासना (दे०)। अ० जीव हँसी-ठट्ठा करने वाला, भामोद-प्रमोद क्रि०-नष्ट या बरबाद होना, बिनसना (दे०)। करने वाल", कौतुकी। स्त्री विनोदिनी । विनिपात - सज्ञा, पु.. (सं०) पतन, विपद्, विन्यस्त-- वि० (सं०) स्थापित, क्रम से अधःपात। रखा हुआ। विनिमय-संज्ञा, पु० (सं०) बदला करना, विन्यास--संज्ञा, पु० (सं०) स्थापन, रचना, एक वस्तु ले कर बदले में दूसरी देना, परि- । सजाना, धरना, यथास्थान जड़ना, रखना। वर्तन, धोखा, भ्रम । " तेजो वारिमृदा यथा वि० विन्यस्त । यौ० --वाक्य-विन्यास । विनिमयः "- भा० प्र० । | विषंची-संज्ञा, स्त्री० (सं०) एक वीणा, खेचविनियोग-संज्ञा, पु. (सं०) अभीष्ट फल के कूद. क्रीड़ा-कौतुक । हेतु किसी वस्तु का प्रयोग, काम में लाना, विपक्ष-- संज्ञा, पु० (सं०) प्रतिद्वंदी, विरोधी, उपयोग. वतना, मत्र प्रयोग (वैदिक कृत्य) पक्ष, खंडन, प्रतिवादी, शत्रु, विरोधी, भेजना, प्रेषण । ' वस्त्र परिधाने विनियोगः" । अपवाद, बाधक नियम (व्या०) । “देने तथा -- वैदिक० । रण का निमंत्रण निज विपक्ष विरुद्ध में "--- विनिगत-वि० (सं०) बाहर निकला हुश्रा, | मै० श.। बीता हुआ। | विपत्ती-संज्ञा, पु. ( सं० विपक्षिन् ) विरुद्ध विनात-- वि० (सं०) विनयी, सुशील, नम्र, पक्षवाला, प्रतिद्वंदी, शत्रु, प्रतिवादी, वैरी, शिष्ट, धार्मिक, नीलानुपार श्राचार-व्यवहार बिना पंख का पक्षी। करने वाला । " अति विनीत मृदु कोमल विपत्ति-संज्ञा, स्त्री० (सं०) विपद, आपत्ति, बानी"- रामा० । दुख या शोक की प्राप्ति, संकट-काल, बुरे विनीतात्मा-वि• यौ० (सं०) सुशील, दिन, बिपति, विपत्ति (दे०) । यौ०नम्र, शिष्ट । विपत्तिकाल । “प्रायः समापन्न विपत्ति For Private and Personal Use Only Page #1603 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir T OPI विपथ विप्र-चरण काले "-हितो। मुहा०-विपति पड़ना को प्राप्त होना। "अति रभस कृतानां (आना)-आपत्ति श्राना, कष्ट, दुख या कर्मणां दुर्विपाकः " । परिणाम, कर्म-फल, संकट आ जाना । विपति-हहना दुदशा, दुर्गति । (ढाहना) अकस्मात् कोई आपत्ति पा विधादिका-संज्ञा, स्त्री० (सं०) विमाई पड़ना (उपस्थित करना)। कठिनाई, झगड़ा, नामक रोग, पहेली, प्रहेलिका।। झंझट, बखेड़ा। विपासा--संज्ञा, स्त्री. (सं०, व्यास नदी विपथ-- संज्ञा, पु. (सं०) कुमार्ग, बुरी राह। (पंजा०)। विपद...- संज्ञा, स्त्री० (सं.) आपत्ति, विपत्ति । विपिन संज्ञा, पु. (सं०) वन, अरण्य, "विपदि धैर्यमथाभ्युदये क्षमा"---हितो०।। जंगल, उपवन, वाटिका, विपिन (दे०)। विपदा----संज्ञा, स्त्री० (सं०) आपत्ति विपत्ति, | ___ "सोह कि कोकिल विपिन-करीला''-रामा० संकट, आपदा । जिनके सम वैभव वा विपिनतिलका ---संज्ञा, 'श्री० (सं०) न, स, विपदा"-रामा० । न और दो र ( गण ) वाला एक वणिक विपन्न-वि० (सं०) आर्त, विपत्तिग्रस्त, छंद (पि०)। दुखी, संकटापन्न । | विपिनपति--संज्ञा, पु. यौ० सं०) सिंह, विपरीत-वि० (सं०) विरुद्ध, विलोम, | विपिन-नायक, विपिनाधियति । उलटा, प्रतिकल, सष्ट, खिलाफ. हित के विपिनविहारी -- संज्ञा, १.० यौ० (सं०) मृग. अनुपयुक्त तथा अहित में तत्पर, विपरीत वन में प्रानंद या विहार करने वाला, (दे०)। "मो कह सकल भयो विपरीता" श्रीकृष्ण। | विपुल-वि० सं०) वृहत, परिणाम, विस्तार ---रामा० । संज्ञा, पु० (सं०) एक अर्थालंकार जिस में कार्य-साधक का ही कार्य सिद्धि में और संख्या में प्रति अधिक या बड़ा और बाधक होना कहा जाता है केश०।। कई या अनेक, धागाध, बड़ा | "विपुल वार महि देवन दीन्ही"--रामा० ।। विपरीतोपमा-संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) विपुलता- संज्ञा, स्त्री० (२०) श्राधिक्य, उपमालंकार का एक भेद जिस में कोई बाहुल्य, अधिकता। भाग्यशाली अति दीन दशा में दिखाया विएला-संज्ञा, स्त्री० (सं०) बसुधा, मेदनो, जाये (केश०)। भूमि, भ र (गण) और दो लघु वर्गों का विपर्याय-संज्ञा, पु० (सं०) और का और, एक छंद, भार्या छंद के ३ भेदों में से एक उलटा, व्यतिक्रम, विरुद्ध, उलट पलट, (पिं०)। विलोम, इधर का उधर, प्रतिकूल, अव्यवस्था विपुलई. विषलाई* -- संज्ञा, स्त्री. (सं. अन्यथा समझना, भूल, गड़बड़ी। विपुल - आई हि०-प्रत्य. ) विपुलता । विपर्यस्त--वि० (सं०) गड़बड़, अस्त- विपोहना-स० कि० दे० (सं० विप्रीति) व्यस्त, अव्यवस्थित । पोतना, लीपना, नाश करना, पोहना। विपर्यास- संज्ञा, पु. (सं०) प्रतिकूल, विप्र- संज्ञा, पु० (सं०) ब्राह्मण, वेदपाठी, विरुद्ध, उलटा पुलटा, व्यतिक्रम। पुरोहित ! " वेदपाठी भवेद्विप्रः ब्रह्म जानाति विपल-संज्ञा, पु. (सं०) एक पल का | ब्राह्मण! ''---स्फुट० । " विप्र वस की अस साठवाँ भाग या अंश । प्रभुताई ”-रामा० । विपश्चित - संज्ञा, पु० (सं०) विद्वान, पंडित, विप्र-चरण-संज्ञा, पु० पौ० (सं.) विप्रदोषज्ञ, बुद्धिमान । पाद, विष्णु के हृदय पर भृगुमुनि के चरणविपाक-संज्ञा, पु० (सं०) पकना, पूर्ण दशा | चिह्न (पुरा०), भृगुलता, ब्राह्मण का पैर । For Private and Personal Use Only Page #1604 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विभात विप्रचित्ति विप्रचित्ति--संज्ञा, पु. (पं०) राहु-जननी विभक्त-वि० (सं०) विभाजित, बँटा हुआ, सिंहिका का पति, एक दानव (पुरा । पृथक या विलग किया हुआ ! "विभुर्विभक्ताविप्रपद, विप्र-पाद-संज्ञा, पु. यो० (सं०) वयवं पुमानिति " --~-माध० । विप्र-चरण, भृगुलता । विभक्ति---संज्ञा, स्त्री. (सं०) बाँट विभाग, विप्रराम--संज्ञा, ५० यौ० (सं०) परशुराम । पार्थक्य, बिलगाव, कारकों के चिह्न या वाक्य विप्रलंभ--संज्ञा, पु. (सं०) अभीष्ट की के किसी शब्द का क्रिया-पद से सम्बन्ध श्रप्राप्ति, वियोग, प्रिय का न मिलना, सूचक प्रत्यय या शब्द ( जो शब्द के विछोह, जुदाई, विरह, पार्थक्य, विच्छेद, । आगे लगाया जाता है - व्या० )। छल, धूर्तता, धोखा, विच्छेद, शृंगार रस विभव---- पंज्ञा, पु० (सं०) प्रताप, धन, संपत्ति, का एक भेद वियोग (सा । अधिकत", ऐश्वर्य, उन्नति, बहुतायत, विप्रलब्ध-वि० (सं०) अभीष्ट वस्तु जिसे न मुक्ति. गोक्ष । " भव-भव-विभव पराभव मिली हो, वंचित रहित, वियोगी, विरही. कारिणि "---रामा० ।। वियोग को प्रात: विभवणानी ---वि० (सं०) विभववान् , विप्रलब्धा--संज्ञा, खी० (सं०) वियोगिनी, प्रतापी. धनी, संपत्तिशाली ऐश्वर्य या संकेत-स्थल पर मिय को न पाकर दुखी वैभव वाला। हुई नायिका। विभाँचक-संज्ञा, पु० (सं०) ऋषि शृंग के विप्लव--संज्ञा, पु० सं०) उत्पात, अशान्ति, पिता, एक महर्षि । क्रांति, विद्रोह, बलवा. उपद्रव, उथल- विभाँनि--संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० वि - भाँतिपुथल, जल की बाद, धापत्ति । हि० ) भेद, प्रकार, किस्म । वि.---अनेक विफल-- वि० (२०) व्यर्थ, निष्प्रयोजन, भाँति क । अन्य ०-अनेक भाँति से। निस्सार, जिसमें फल न लगा हो, परिणाम- विभा - सज्ञा, स्त्री० (सं०) कांति, शोभा, रहित, प्रयत्नवान, असफल, निष्फल ! संज्ञा, फिरण, प्रकाश । स्त्री०-विलना! विगाकर --संज्ञा, पु० (सं०) प्रभाकर, सूर्य, विवुध-संज्ञा, पु. (सं०) देवता, चंद्रमा, । चंद्र, अति, भाग, राजा। बुद्धिमान, पंडित । "अभून्नपो विबुधसखः विभाग-- संज्ञा, पु. (सं०) बँटवारा, बाँट, परंतपः"--भती । हिस्ता अंश, भाग, बस्वरा, सर्ग. प्रकरण विबुधनदी-संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) सुर- अध्याय, मुहकमा, कार्य क्षेत्र । नदी, गंगा जी, देवापगा। “तिन कह विमाजल-- संज्ञा, पु० (सं०) अंश या विभागविवुधनदी बैतरनी "---रामा० । कर्ता, हिस्सा करने वाला, पृथक या अलग विबुधविलासिनी- ज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) करने वाला, बाँटने वाला। देव-वधुटी, देवगना, अप्सरा। विभाजन ----संज्ञा, पु० (सं० बटने की क्रिया, विधवलि- संज्ञा, स्त्री० गौ० (सं०) देव- भाजन, पात्र । वि०-विभाजनीय, लतिका, कल्प लता, विधवारी, विभक्त विभाजित। विवुधवल्लरी, देवदल्ली। विभाजित- वि० (सं०) बँटा हुआ, विभक्त । विवोध- संज्ञा, पु० सं०) जागना, जागरण, विभाव्य -- वि० (सं०) बाँटने-योग्य, विभाग पूर्ण धौर अच्छा ज्ञान या बोध, सावधान करने योग्य, जिसे बाँटना हो, जिसका हिस्सा या सचेत होना, सतर्क था सजग होना या विभाग करना हो, विभाजनीय । विभंग-संज्ञा, पु० (सं०) उपल, प्रोला विभान--संज्ञा, पु० सं०) प्रभात. प्रातःकाल, भा० श० को०-२०० For Private and Personal Use Only Page #1605 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विभाति १५६४ विभेटन भोर, सवेरा, तड़का। " स्वाभाविक परगुणेन हुश्रा, बभीषन (दे०), "विभीषणोऽभाषत विभात-वायुः - रघु०। यातुधानान् "-भही। विभाति--संज्ञा, स्त्री० ( सं० विभा ) शोभा, विभीषिका--संज्ञा, सं० (सं०) भीति, भय, कांति, छवि, छटा, दीप्ति । डराना, भयंकर दृश्य गा कांड । " भोपन विमाना* --- अ० क्रि० दे० (सं० विभा+ विभीषन विभीषिका सो भीति मानि" - ना-प्रत्य० ) प्रकाशित होना, झलकना, शिव० । चमकना, शोभा देना। विभु-वि० (सं०) सर्वत्र गमनशील. सर्वत्र विभारना* -- अ० क्रि० दे० (सं० विभार । सर्वकाल वर्तमान या व्यापक, विस्तृत, ना ) सोहना, चमकना, झलकना, शोभा महान, मन, दृढ़, अचल, नित्य, शाश्वत, देना। सर्वशक्तिमान, समर्थ । संज्ञा, पु०-प्रभु, विभाव-संज्ञा, पु० (सं०) रसों के रत्यादि जीवात्मा, ब्रह्म, ईश्वर, विष्णु, शिव, ब्रह्मा । स्थायी भावों के श्राश्रयी तथा उत्पन्न या विभुर्विभक्तावयवं पुमानिति"---माघ० । उद्दीप्त करने वाले पदार्थादि (काव्य०): विभुना-संज्ञा, स्त्री० सं०) सर्व-व्यापकता, विभावना - संज्ञा, स्त्री० (सं०) एक अर्थालंकार प्रभुत्व, ऐश्वर्य, प्रताप। जहाँ कारण के बिना या विपरीत कारण से विभूति-संज्ञा, स्लो० (सं०) वृद्धि-समृद्धि, कार्य को होना कहा जाये । जैसे- ऐश्वर्य, विभव, धन, संपति, बढ़ती, योग "सहि तनै शिवराज की, सहज टें। यह ऐन। की दिव्य शक्ति जिसमें अणिमा, महिमा, बिनु रीझै दारिद हरै, अनखीझै अरि-सैन ॥" लघुमा, गरिमा, प्राप्ति, प्राकाम्य, ईशित्व -भूष। और वशित्व ये पाठ सिद्धियाँ हैं, राख, विभावरी-संज्ञा, स्त्री० (सं०) निशा, रात, भस्म, शिवांग-रज, लपी, सृष्टि, विश्वामित्र रात्रि, तारकित रजनी, कुटनी, कुहनी, दूती। द्वारा राम को दिया गया एक दिव्यास्त्र । "भाई तू विभावरी मैं कान्ह की विभावरी विभूषण--संज्ञा, पु० (सं०) भूषण, अलंकार, ह"-मन्ना। गहना, शोभा। वि०--विभूषणीय, विभूविभावसु--- संज्ञा, पु. (सं०) वसुधों के पुत्र, पित ! " गये जहाँ त्रैलोक्य-विभूषण "-- सूर्य, चन्द्रमा, अग्नि, मदार का पेड़ । रामा० । 'विभावसुः सारथिनेव वायुना''.-- रघु०। विभूषन --- संज्ञा, पु० दे० ( सं० विभूषण ) विभास-संज्ञा, पु० (सं०) चमक, प्रकाश । गहना, शोभा। विभासना* --अ० कि० दे० ( पं० विभास | विभूषना --स० कि० इ० (सं० विभूषण ) +ना-हि० प्रत्य० ) चमकना, शोभित या सँवारना, गहने आदि से सजना या सुशोप्रकाशित होना, झलकना। भित करना, अलंकृत करना। विभिन्न-वि० (सं०) पृथक्, विलग, जुदा, विभूषित---वि० (सं०) अलंकृत, सुसज्जित, अनेक प्रकार का । " पृथक् विभिन्नश्रुति | गहनों आदि से सुशोभित, शोभित, अच्छी मंडलै स्वरैः "---माघ । वस्तु (गुणादि) से युक्त. सहित । " करहु विभीतक-संज्ञा, पु. (सं०) बहेरा फल । विभूषित नगर सब, हाट-बाट चौहाट"विभीति-संज्ञा, स्रो० (सं०) भय, डर, संशय, कं० वि०।। संदेह, शंका, विभीतिका । विभेदन*-संज्ञा, पु० दे० (हि. भेंट) विभीषण-संज्ञा, पु० (सं०) रावण का छोटा समालिंगन, गले मिलना । ' भरत राम की भाई जो रावण के बाद लंका का राजा देखि विभेटन प्रेम रह्यो सिर नाय..---स्फु०। For Private and Personal Use Only Page #1606 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org विभेद विभेद - संज्ञा, पु० (सं०) अन्तर, पार्थक्य, faaira, ra, विभिन्नता, अनेक भेद या प्रकार, घुसना मना । स्व लिये जुगदाम दिये नहिं एक विभेद विशेष लखाई - जि० ला० £6 55 विभेदना* - -- स० क्रि० दे० (सं० विभेद ) भेद या ग्रन्तर डालना, भेदना, छेदना, छेदकर घुसना, भेदन करना । विभौ * संज्ञा, ५० दे० (सं० विभव) ऐश्वर्य, प्रताप, संपत्ति, धन । विभ्रम- संज्ञा, पु० (सं० पर्यटन, भ्रमण, फेरा, चक्कर, भ्रान्ति, संदेह, भ्रम, संशय, प्राकुलता, स्त्रियों का एक हाव जिसमें वे भ्रमवश उलटे वस्त्राभरण पदन कभी तो क्रोध और कभी हर्षादि प्रगट करती हैं (साहि० ) । विभ्राट - संज्ञा, पु० (सं०) बखेड़ा, झगड़ा, विपत्ति, धापत्ति, उपद्रव, संकट । विमंडन - संज्ञा, पु० (सं०) सँवारना, सजाना, शृंगार करना । वि० - विमंडित. विमंडनीय । विमंडित - वि० (सं०) सुसजित, घलंकृत, सुशोभित, सजामजाया. सजा हुआ, युक्त, सहित ( भली वस्तु से ) । विमत - संज्ञा, पु० (सं०) उलटा या विरुद्व मत, प्रतिकूल सम्मति, विपरीत सिद्धान्त । विमति - संज्ञा, पु० (सं०) राजा जनक का बंदीजन । " सुमति विमति हैं। नाम, राजन को वर्णन करें " विमत्सर --- संज्ञा, पु० (सं० ) यति श्रभिमान | विमन - वि० (सं० विमनस् ) उन्मन, उदास, अनमना, दुखी | संज्ञा, स्त्री० विमानता । विमनस्क - वि० (सं०) धन्यमनस्क, उन्मन, उदास, अनमना, विमन । विमर्द - संज्ञा, पु० (सं०) मर्दन, रगड़ । 'शय्योत्तरच्छद-विमर्द- कृशाङ्ग रागं " रघु० । " विमर्दन - संज्ञा, ० (सं०) भली भाँति - राम० । १५६५ मलना-दलना, मार डालना, नष्ट करना । वि०-विमर्दनीय, विमर्दित । विमुक्ति विमर्श - संज्ञा, पु० (सं०) परामर्श, किसी विषय पर विचार, विवेचन, समीक्षा, थालोचना, परीक्षा । विमर्शन- संज्ञा, पु० (स० ) परामर्श, विचार, विवेचन, समीक्षा, थालोचना, परीक्षा | वि० - विमर्शनीय | विमर्ष-- संज्ञा, पु० (सं०) विमर्श, परामर्श, विवेचन, समीक्षा, थालोचना, परीक्षा, नाटक का एक अंग जिसमें व्यवसाय, प्रसंग, अपवाद, खेद, विरोध, शक्ति और श्रादानादि का वर्णन हो ( नाट्य ० ) । विमल - त्रि० (स० ) निर्मल, साफ़, स्वच्छ, शुद्ध, निर्दोष, सुन्दर, मनोहर । त्रो०विमला | संज्ञा, स्त्री० - विमलता । "विमल सलिल सरसिज बहु रंगा" - रामा० । विमलध्वनि-संज्ञा, पु० (सं०) छः पदों का एक छंद (पिं०) । विमला संज्ञा, स्त्री० (सं०) सरस्वती । विमलापति – संज्ञा, पु० यौ० (सं०) ब्रह्मा जी, विमलेश । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विमाता - संज्ञा, स्त्री० (सं० विमातृ) सौतेली माँ । “जान्यों ना विमाता ताहि माता सदा मान्यो हर " - मन्ना० । विमान - संज्ञा, पु० (सं०) नभ-मार्ग - गामी रथ, वायु-यान, हवाई जहाज़, उड़न खटोला, मृतक की सजी हुई अर्थी, गाड़ी, सवारी, रथ, घोड़ा यादि, रामलीला के स्वरूपों का सिंहासन, परिमाण, अनादर बिमान, मान (दे० ) । " नगर-निकट प्रभु प्रेरेऊ, भूमि विमान रामा० । विमुंचना - स० क्रि० (दे०) फेंकना, छोड़ना, विमोचन | वचन विमुंचत तीर ” – वृंग विमुक्त - वि० (सं०) भली-भाँति मुक्त, पृथक्, छूटा हुआ, मोक्ष, प्राप्त, स्वच्छंद, स्वतंत्र, बरी, छोड़ा या फेंका हुआ ( दंड या हानि से ) बचा हुआ । विमुक्ति-संज्ञा, स्त्री० (सं० मुच् + क्तिन् ) मोक्ष, छुटकारा, रिहाई, मुक्ति । 6. " For Private and Personal Use Only "" Page #1607 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir AwarenesaaHRISEEDO विमुख वियोजक विमुख-वि० (सं०) मुखहीन, किसी बात से ! लुभा जाना, मोहित होना. बेहोश होना, जिसने मह मोड़ लिया हो, निवृत्त, विरत, धोखा खाना : स० कि० (दे०) लुभाना, बेपरवाह, विरोधी, उदासीन, विरुद्ध, यस.. मोहित या बेसुध करना, भ्रम, या धोखे में फल, अपूर्ण काम, अप्रपन्न, निराश । संज्ञा, टालना। स्त्री० विपुलता। " राम-विपुख सपनेहुँ दिलोहा -- संज्ञा, सी० (सं. विमोहा) सुख नाहीं --रामा० । ' सम्मुख की गति विजोहा छंद (पि.। और है, विमुख भये कुछ और"... नीति विहित-वि. (सं.) लुब्ध, मुग्ध, विमुग्ध-- वि० (सं०) अज्ञान, भूर्ख, विशेष लुआया हुआ, अचेत, मूच्छित, भ्रमिन । मोहित. उन्मत्त, भ्रांत, विल । राज्ञा, स्त्री० विही-वि. ( विमोहिन ) चित्त विमुग्धता : "विमुग्धशाली मधु मंजु माग लुभाने वाला, सुधि-बुधि भुलाने या मोहित था"-प्रि० प्र०। करने वाला, अचेत या मूच्छित करने वाला, विमुद-वि० (सं०) उदास, खिन्न । निष्ठुर, निर्दय, भ्रम में डालने वाला। विमढ--वि० (सं०) विशेष रूप से मोहित, सी. विठोहिनी। अत्यन्त मुग्ध, अमित, भ्रांत, अचेत, बे विमो-संज्ञा, पु. द० (सं० वल्मीक ) समझ, मूर्ख । स्त्री० ---विमूढ़ा । सज्ञा, स्त्री० दीमका का बनाया घर, बाँबी। --विमूढ़ता । “पाहि मोह विमूढ़, जे वियं--संज्ञा, पु० दे० यौ० ( हि० विय+ हरि-विमुख न भक्ति-रत''.--रामा० ग) महादेव. दुपांग, अधांगी। विमूढगर्भ - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) वह गर्भ धियः----वि० दे० (सं० द्वि ) दो, जोड़ा, जिसमें बच्चा मर गया या बेहोश हो तथा दुसरा. युग्म, मिथुन । प्रसव में अति कठिनता हो। वियुक्त -- वि० सं० , विलग, वियोगी, विमोचन... संज्ञा, पु. (सं.) मुक्त करना, विरही, विछोही, होन, रहित, जुदा पृथक । छोड़ना या छुड़ाना, बंधनादि खोलना, वियो"-----वि० दे० (सं० द्वितीय ) अन्य, फेंकना, रिहाई, बंधन से छुड़ाना । वि... दूसरा, अपर।। विमोच्य, विनोचनीय, विमोचित । वियोग---संज्ञा, पु. ( सं० ) जुदाई, विरह, विमोचना*--स० क्रि० दे० (सं० विमोचन) विछोह, विच्छेद, पृथकता । वि. वियोगी। मुक्त करना, छोड़ना, गाँठ या बंधनादि वियोगांत--वि० यो० (सं०) दुखान्त कथा खोलना, निकालना, रिहा या बाहर करना। का नाटक या उपन्यास। विलो०-संयोगान्त, विमोह-संज्ञा, पु. (सं०) अज्ञान, भ्रम, सुखान्त। मोह, बेहोशी, मोहित होना, यासक्ति। वियोगिन-वियोगिनी--- संज्ञा, स्त्री० दे० वि०-विमोहक, विमोहित । " तेहि सं० वियोगिनी ) पति या प्रिय से विलग विमोह मो सन चित हारा 'पद्मा। स्त्री, विरहिणी विछोहिनी। “योगिन है विपोहन-- संज्ञा, पु० (सं० ) चिन लुभाना, बैठी है वियो गिनि की अँखियाँ "... देव । मोहित करना, सुधि-बुधि भुलाना कामदेव विगामी-वि० (सं० वियोगिन् ) विरही, के पाँच वाणों में से एक मोह : वि०...- विछोही, जो पत्नी याप्रिया से अलग, वियुक्त विमोहित, विमाही, विनाहनीय। या दूर हो । स्त्री० चियागिनी, वियोगिनि। विमोहनशील-वि० (सं.) मोहित करने वियोजक- संज्ञा, पु.. (सं०) दो मिली हुई या मोहने वाला, भ्रम में डालने वाला। चीज़ों को भिन्न या अलग करने वाला, वह विमोहना*---अ० क्रि० दे० (सं० विमोहन छोटी संख्या (राशि) जो उसी जाति की For Private and Personal Use Only Page #1608 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विरह वियोजन बड़ी संख्या में से घटाई जावे (गणि० )। का, पैदल । वि० (दे०) व्यर्थ । “विरथ कीन "घर्ट वियोजक जब वियोज्य में बाकी शेष तेहि पवन-कुमारा" - रामा० ।। कहावै "-कु० वि०। विरथा-बिरया-वि० (दे०) वृथा, व्यर्थ । वियोजन-संज्ञा, पु० (सं.) घटाना, । विरद- संज्ञ, पु० दे० (सं० विरुद) यश, पृथक्करण । वि० वियोजनीय वियोजित प्रसिद्धि, ख्याति, कीर्ति, प्रशस्ति, यशवियोज्य। कीर्तन । " बाँधे विरद वीर रण गाढ़े"--- विरंग-वि० (सं० ) फीके या बुरे रंग का, रामा० । बदरंग, अनेक रंगों का ! स्त्री. विरंगी। विरदावली---संज्ञा, स्त्री० दे० यौ० (सं. विरंचि-संज्ञा, पु. ( सं० ) ब्रह्मा, विधाता। विरुदावली ) यशोगान, कीर्ति-कथा प्रशस्ति "जेहि विरंचि रचि सीय सँवारी-रामा०। गाथा, सुयश-गाथा। "विरदावली कहत विरंचिपत्नी- संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) चलि आये''---रामा । सरस्वती विधि-प्रिया । विरदैत* -- वि० दे० (हि. विरद --- ऐत-हिविरंचिसुत-संज्ञा, पु० यौ० (सं.) प्रत्य० ) प्रसिद्ध, यशस्वी, नामी, कीर्तिवान, नारद, विरंचितनय। यशी, विख्यात, विरुदैत (दे०) । विरक्त--वि० (सं० ) उदासीन, विमुख, विरमण ---संज्ञा, पु. ( सं० ) ठहर या रम विरागी, अप्रपन्न, त्यागी। " हम अनुरक्त, हो जाना, विराम करना, रुक जाना । विरक्त तुम ऊधौ सुनौ '-मन्ना। विरसना*-- अ० क्रि० दे० (सं० विरमगा ) विरक्ति-संज्ञा, स्रो० (सं० ) उदासीनता, ठहर या रम जाना, विराम करना, रुक अप्रसन्नता, प्रेम का अभाव, विराग। विलो जाना, चित्त लगाना, वेगादि का कम अनुरक्ति। होना या थमना, मुग्ध हो ठहर जाना । विरचन-संज्ञा, पु० (सं० ) बनाना, स० रूप-विरमाना प्रे० रूप विरमारना। निर्माण । वि० विरचनीय, विरचित । विरल-वि० (सं०) बिडर, दूर दूर । (त्रिलो.. विरचना* ---सक्रि० द. (सं० विरचन ) सधन) दुर्लभ, निर्जन, थोड़ा, पतला, अल्प, संवारना, बनाना, रचना, निर्माण करना, न्यून, जो पास पास या घना न हो, विरला, सनाना । अ० कि० दे० (सं० वि रंजन ) शून्य । संज्ञा, श्री. विरलता । “ज्यों शरद विरक्त होना। ऋतु में विमलघान के विरल खंडों से सदा" विरचित-वि० (सं० ) लिखित, निर्मित, --मै० श०। बनाया या रचा हुआ। " जग विरचित । विरला--वि० दे० (सं० विरल ) बिड़र, इम विरचन हारे"-वासु० । दूर दूर, दुर्लभ, जो पास पास या वना न विरत-वि० (सं० ) विरक्त, विमुख, निवृत्त, । हो, कोई कोई, निर्जन, अल्प, थोड़ा, कम, रागी, जो तत्पर, अनुरक्त या लीन न हो, शून्य, पतला। " करत बेगरजी प्रीति यार विरागी, अत्यंत या विशेष रत, अति लीन। हम विरला देखा ''---गिरधर० । विलो०-अनुरत । " गृही विरत ज्यों हर्ष विरस-वि० (सं० ) नीरस, फीका, रस युक्त, विश्णु-भक्त कहँ देखि " -- रामा। हीन, अप्रिय, अरुचिकर रस-रहित या रसविरति-संज्ञा, स्त्री. (सं०) विरक्ति निर्वाह-हीन काव्य । संज्ञा, स्त्री. विरसता । मेराग्य, त्याग, चाह का प्रभाव, उदासीन । विरह-संज्ञा, पु. (सं०) किसी प्रिय वस्तु 'विषया हरि लीन रही विरती' -रामा। या व्यक्ति का विलग होना, वियोग, विछोह बिरथ-वि० (सं० ) रथ-रहित, बिना स्थ विच्छेद, जुदाई, वियोग- व्यथा । For Private and Personal Use Only Page #1609 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विरहिणी २५६८ विरुद्धधर्मा विरहिणी-वि० स्त्री. (सं.) वियोगिनी, का एक राक्षस, विराध (दे०)। " खर. विरहिनी। दूखन विराध अरु बाली"---रामा० । विरहित-वि० (सं०) रहित, बिना, विहीन, . विराम -- संज्ञा, पु. (सं०) ठहरना, रुकना, शून्य, वियोगी, विरह प्राप्त । थमना, विश्राम करना, सुस्ताना, वाक्य का विरही-वि० (सं० विरहिन् ) वियोगी, वह स्थान जहाँ बोलते या पढ़ते समय विछोही, प्रिया-हीन । खी० विरहिणी।। ठहरना आवश्यक है (दो भेद हैं: ... पूर्ण, विरहोत्कठित--संज्ञा, पु० यौ० (सं०) वह अर्ध ) इस का सूचक चिन्ह । , । ) छंद में नायक जो नायिका के संयोग की पूरी श्राशा पाशा यति, देरी, विलंव । होने पर भी उससे न मिल सके। विराव - संज्ञा, पु. (सं०) शब्द, कलरव, विरहात्कंठिना---संज्ञा, स्त्री० यौ० ( सं०) बोली, शोर, हल्ला । आलोक शब्दं वयसां कारण वशात् न पाले हुए प्रिय या नायक विरावैः'-रघु० । के आने की पूरी प्राशा या उत्कंठा से विरास- संज्ञा, पु० द० (सं० विलास ) विलास । युक्त नायिका । विरासी*-वि. द. (सं० विलासी) विराग--संज्ञा, पु. ( सं० ) वैराग्य, त्याग, विलासी। अनुरागाभाव, विषय-भोगों से निवृत्ति, विरुज- वि० (सं०) रोग-रहित, नीरोग । विरक्ति । वि. विरागी । "जैसे बिनु विराग विम्झना*-- अ० कि० दे० (हि० उलझना) संयासी"-रामा। उलझना, अटकना । स० रूप -विरुझाना, विरागी-वि० (सं० विरागिन् ) योगी, विरुझावना, प्रे० रूप ---विरुभवाना। वैरागी (दे०) त्यागी, विरक्त । विरुद- संज्ञा, पु० (सं.) राज स्तवन, यशविराज-संज्ञा, पु. ( सं० ) परमेश्वर का कीर्तन, सुन्दर भाषा में स्तुति, प्रशस्ति, स्थूल रूप, प्रादि पुरुष, क्षत्रिय । “विराजोऽ राजाओं की प्रशंसा-सूचक पदवी (प्राचीन) धिपूरुषः'' -- य० वे। यश, कीर्ति, ख्याति । विराजना---अक्रि० दे० (सं० विराजन ) विरुदावली--संज्ञा, स्त्री० सं०) यश-वान, फाना, शोभित होना, सोहना छवि देना, __ स्तवन, प्रशंसा, गुण-पराक्रमादि का विस्तृत उपस्थित होना बैठना । "राज सभा रघुराज कथन, कीर्ति-कीर्तन, विरदावली (दे०)। विराजा"- रामा० । विरुद्ध-वि० (स.) प्रतिकृल, उलटा, विराजमान-वि० सं०) चमकता हुआ, विपरीत, अप्रसन्न, अनुचित । संज्ञा, स्त्री० सुशोभित, उपस्थित, बैठा हुश्रा, पासीन । विरुद्धता । कि० वि० प्रतिकूल दशा में । विराट-संज्ञा, पु. (सं०) परमात्मा या ब्रह्म विरुद्धकर्मा-संज्ञा, पु० यौ० ( सं० विरुद्ध का विश्वरूप या स्थूल शरीर, दीप्ति, कांति, | कर्मन् ) बुरे चाल-चलन वाला, श्लेषालंकार आभा, क्षत्रिय । वि०-बहुत बड़ा या का एक भेद जिसमें एक ही क्रिया के कई भारी। “ विदुषन प्रभु विराटमय दीसा" विरुद्ध फल सूचित होते हैं। -रामा०! | विरुद्धता--संज्ञा, स्त्री० (सं०) प्रतिकूलता, विराट--संज्ञा, पु. (सं०) मत्स्यदेश, मत्स्यदेश विपरीतता, विलोमता । के राजा जिनके यहाँ अज्ञात वास में पांडव विरुद्धधर्मा-संज्ञा, पु. यौ० (सं० विरुद्ध रहे थे 'महा.)। वि० (दे०) बड़ा, भारी। धर्मन् ) प्रतिकुल धर्म या स्वभाव विराध-संज्ञा, पु० (सं०) कष्ट, पीड़ा, सताने वाला, विपरीताचारी । “विरुद्धधमैरपि वाला, लचमण से मारा गया दंडक वन । भतृ तोज्झिता"--नैष । For Private and Personal Use Only Page #1610 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir DANCE विरुद्ध रूपक विलक्षण विरुद्धरूपक-संज्ञा, पु. यौ० (सं०) करना शत्रुना करना, विनाश, नाटक में रूपकातिशयोक्ति नामक रूपकालं कार का विमर्ष का एक अंग, जहाँ कारण-वश कार्यएक भेद (केशव०)। ध्वंस का सामान या उपक्रम हो (नाट्य०) । विरुद्धार्थ दीपक-सज्ञा, पु. यौ० (सं०) वि.-विरोध्य. विरोधित, विरोधनीय, दीपकलंकार का एक भेद जिसमें दो विरुद्ध विरोधी। क्रियायें एक ही बात से एक ही साथ होती विरोधना*-स. क्रि० (सं० विरोधन ) हुई कही जाती हैं। विरोध करना बैर या झगड़ा करना. विरूप-वि० (सं०) । स्त्री० विरूपा ) कुरूप, प्रतिद्वंदी होना, विपरीत करना । “साई बदशकल, भद्दा, शोभा-हीन, परिवर्तित, ये न विरोधिये, गुरु, पंडित, कवि यार''.-- बदला हुआ, उलटा, विरुद्ध, कई रूप-रंग | गि० दा०। का। संज्ञा, स्त्री. विरूपता । 'यद्यपि भगनी विरोधाभास -- संज्ञा, पु० यौ० (सं०) द्रव्य कीन्ह विरूपा" -- रामा० । जाति, गुण. क्रिया का विरोध सा सूचक, विरूपान्त--संज्ञा, पु. चौ० (सं०) महादेवजी, एक अर्थालंकार (अ० पी०)। एक शिव गण, एक दिग्गज, रावण का एक विरोधी-वि० ( सं० विरोधिन् ) प्रतिकूलता सेनापति । " विरूपाक्ष विश्वेशविश्वाधि- या विरोध करने वाला, विपक्षी, रिपु, केशं"-शंकरा। शत्र, प्रतिकूल, वाधक । स्रो० विरोधिनी। विरेक-संज्ञा, पु० (सं.) अतीसार रोग। विरोधीश्लेष-संज्ञा, पु. यौ० (सं०) विरेचक-वि० (सं०) दस्तावर, दस्त लाने श्लेषालं कार का एक भेद जहाँ श्लिष्ट शब्दों या कराने वाला, मलभेदी।। से दो पदार्थों में भेद, विरोध या न्यूनाधिक्य विरेचन-संज्ञा, पु० (सं.) दस्तावर औषधि, सूचित हो केश०) । जुलाबी दवा । " ज्वरान्ते भेषजंदद्यात बर- विरोधोक्ति--संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) उलटीमुक्ते विरेचनं"... भा० प्र० । पुलटी बातें कहना, अनर्थ वचन, विलोमविरोचन संज्ञा, पु. (सं.) प्रकाशमान, । वाक्य, विरोध-सूचक उक्ति (धलं.)। रवि-रश्मि, सूर्य, अग्नि, चंद्रमा, विष्णु, विरोधोपमा-- संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) राजा वलि का पिता मोर प्रह्लाद के पुत्र । उपमालंकार का एक भेद जहाँ किसी वस्तु "सुता विरोचन की हती, दीरध जिह्वा की उपमा एक साथ दो विरोधी वस्तुनों से नाम"--- राम । दी जावे (केशव०)। विरोध-संज्ञा, पु० (सं०) जो मेल में न हो, विलंब-वि० (सं०) देर, बेर, अतिकाल, प्रतिकूलता, अनैक्य, विपरीत या विरुद्ध अनुमान या आवश्यकता से अधिक समय भाव शत्रुता, अनबन, व्याघात एक साथ बिलम, विलंब (दे०)। "अब विलंब कर दो बातों का न होना, उलटी या विलोम, कारण काहा। ...- रामा ! स्थिति, विनाश, नाटक का एक अंग जहाँ विलंबना---अ.. क्रि० दे० ( विलंबन ) देर किसी प्रसंग-वर्णन में विपत्ति का श्राभाय करना, बेर लगाना, लटकना, चित्त लगने दिखाया जाता है। एक अर्थालंकार जिपमें से रम या बस जाना, सहारा लेना। द्रव्य, जाति, गुण और क्रिया में से किसी विलंवित--- वि० (सं०) लटकता या झूलता एक का दूसरे द्रव्यादि में से किसी एक से हुआ, वह कार्य जिसमें देर हुई हो। विरोध प्रगट हो। वि०-विरोधक, विरोधी। विल-संज्ञा, पु. (सं०) बिल, छेद, माँद । विरोधन-संज्ञा, पु. (सं०) बैर या विरोध विलक्षण ---वि० (सं०) विचित्र, अनोखा, For Private and Personal Use Only Page #1611 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra विलखना अनूठा, असाधारण अपूर्व, अद्भुत चिन (दे० ) | संज्ञा, स्त्री० विलक्षणता । "नवगुण कविता माहिं एक तें एक विलक्षण" - दीन० । विलखना- श्र० क्रि० दे० (सं० विलाप ) रोना विलाप करना, दुखी होना, विलपना | लिखि को मुनि-नाथ 4 रामा० । * - अ० क्रि० सं० लक्ष ) ताड़ना, पता लगाना, समझना । विलग - वि० (हि० उप० + लगना ) अलग, पृथक, भिन्न, माख या बुरा मानना, बिलग विलग जनि k. www.kobatirth.org (दे०) । हूजत है रसराय, याको माना - गो० क० । विलगना- -प्र० क्रि० दे० ( हि० श्लिग | ना प्रत्य० ) विभक्त या अलग होना, पृथक् या भिन्न होना, जुदा होना । सो विलगाय विहाय समाजा - रामा० । बिलगाना, विलगावना -- स० क्रि० दे० ( हि० विलग अलग या पृथक करना, भिन्न या जुदा करना । 66 "" Lim १६०० "" "> विलकुल वि० दे० (सं० विलक्षण ) विचित्र, अनोखा, श्रद्भुत, अनूठा । चिलना* - अ० क्रि० दे० ( सं० विलाप ) रोना, विलपना (दे० ) | स० रूप- बिलवाना, प्रे० रूप - विलपवाना " यहि विधि विलपत भाभिनसारा " - रामा० । विलम-संज्ञा, पु० दे० (सं० विलंब ) बिब (दे०) देर, बेर, अबेर ! बिलमना* -- 1 :- प्र० क्रि० दे० ( हि० विलम --- ना प्रत्य० ) देरी करना ठहर जाना । स० रूप -- बिलगाना, विरमाना । विलय - संज्ञा, पु० (सं०) प्रलय, नाश | विलसन संज्ञा, पु० (सं०) प्रमोद, खेल, क्रीड़ा, चमकना । विलसनाछ- ३- अ० क्रि० दे० ( सं० बिलस ) आनंद मनाना या भोगना, विलास करना शोभा पाना । स० रूप- बिलसाना, | प्रे० रूप--- - विलसवाना । " नित्त कमावै कष्ट करि, विलसै रहि कोय ० । विलीन विलाप - संज्ञा, पु० (सं०) क्रंदन, रोना, प्रलाप, रो रो कर दुख कहना, रुदन, रोदन । " करत विलाप जाति नभ सीता" - रामा० । विलापना अ० क्रि० दे० (सं० विलख ) रोना-चिल्लाना, शोक या क्रंदन करना, बिलापना (दे० ) । विलायत संज्ञा, पु० (अ० ) कोई थन्य देश जहाँ एक ही जाति के लोग रहते हों, दूसरों या दूर का देश | विलायती - वि० ( ० ) विलायत का, विदेशी दूसरे देश का बना हुआ । विलास-संज्ञा, पु० (सं०) विषय-भोग, आमोद प्रमोद, श्रानंद हर्ष मनोविनोद, मनोरंजन पुरुषों को लुभाने वाली स्त्रियों की प्रेम-सूचक क्रियायें, प्रसन्नकारी क्रिया, नाज-नखरा, हाव-भाव, किसी वस्तु का हिलना, किसी अंग की मनहरण चेष्टा, श्रतिसुख भोग, करादि अंगों का रुचिर संचालन | " हास- विलास लेत मन मोला" - रामा० । यौ० भोग-विलास । विलासिका संज्ञा, स्रो० (सं०) एक श्रंक का रूपक (नाट्य० ) । विलासिनी -संज्ञा, त्रो० (सं०) कामिनी सुन्दर स्त्री, वेश्या । ज. र. ज ( गण ) और दो गुरु वर्णों का एक वर्णिक छंद (पिं० ) । विलासिनी बाहुलता वनालयो, विलेपना मोद हताः सिषोविरं " – किरात० । विलासी संज्ञा, ५० (सं० विलासिन् ) भोग-विलास में धनुरक्त या लीन, भोगी या कामी व्यक्ति कामुक, कौतुकी, हँसोड़ा, क्रीड़ा करने वाला, श्राराम चाहने वाला, आराम-तलब । स्त्रो० विलासिनी । " वित्रस्त मंसादपरो विलासी विलोक* - वि० पु० दे० ( सं० अनुपयुक्त, धनुश्चित, बेठीक । तुम्हार न होहिं विलीका रामा० । विलीन - वि० (सं०) छिपा हुधा, लुप्त, लय, जो दूसरे में लीन या मिल गया हो, नाश, दृश्य, निमग्न, लोप | संज्ञा, स्त्रो०- विलीनता । (( -- रघु० । व्यलीक ) 66 वचन " For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir .. Page #1612 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir घिलुप्त १६०१ विवस्वत् विलुप्त-वि० (सं०) अदृश्य, गुप्त । कहने की इच्छा, अर्थ, मतलब, तात्पर्य, विलुलित - वि० (स.) हिलता था लहराता अनिश्चय, संदेह, संशय । हुआ । “विलुलितालक संहतिरामृशन् विवक्षित--वि० (सं०) जिसकी कहने की मृगदृशां श्रमवारि ललाटजम्'-माघ । इच्छा या आवश्यकता हो, अपेक्षित । विलेह-संज्ञा, पु० (पं०) लेप, उबटन । विवदना* -- अ० कि० (सं० विवाद +नाविलेशव--संज्ञा, पु० (सं०) बिल में सोने या हि० प्रत्य० } विवाद या बहस करना, रहने वाला, साँप, सर्प । शास्त्रार्थ करना। विलोकना--स० कि० दे० (सं० विलोकन ) विवर-संज्ञा, पु० (सं०) छेद, बिल, छिद्र, देखना । " नारि विलोकहिं हरपि हिय " सूराख, दरार, गर्त, कंदरा, गुफा, गड्ढा । -- रामा० ! संज्ञा, पु.० -विलोकन । वि०-- | विवरण-पंज्ञा, पु० (सं०) व्याख्या, भाष्य, विलोकनीय। विवेचन, वृत्तांत, बयान, व्योरा, टीका । विलोकित--वि० (सं०) देखा हुआ। विवर्ण - संज्ञा, पु० (सं० क्रोध, मय, मोहादि विलोचन--संज्ञा, पु. (सं०) नेत्र, आँख, से मुख का रंग बदल जाना ( एक भाव नयन, आँख फोड़ने का काम । " भये । सहि.)। वि० --- कमीना, नीच, कुजाति, विलोचन चारु अचंचल''.-रामा० । अधम, बदरंग, कांति-हीन, मुख-श्री-रहित, विलोडना-स० कि० दे० (सं० विलोड़न ) । बुरे रंग का । संज्ञा, स्त्री० ---विवर्णता। मथना, महना. हिलोरना । संज्ञा, पु. (सं०) विवर्त्त--संज्ञा, पु० (सं०) समुह, समुदाय, विलोडन। वि०-विलोडनीय, विलोडित। समुच्चय, श्राफाश, नभ, भ्रम, भ्रांति, संदेह । विलोप ---संज्ञा, पु. (सं०) श्रदर्शन, नाश, "ईशाणिमैश्वर्य विवर्त्त मध्ये "-नैष । ध्वंस, छिपा, लुप्त । वि.-विलुप्त, विलोपक ! विवर्तन-संज्ञा, पु० (सं०) फिरना, टहलना, विलोपना-स० क्रि० दे० (सं० विलोप) | घूमना । वि०-विवर्तित, विवर्तनीय । छिपा लेना, नष्ट या लोप करना, उड़ाकर विवर्तवाद--- संज्ञा, पु० यौ० (सं०) परिणाम भागना, विघ्न डालना संज्ञा, पु०-विलोचन। | वाद सृष्टि को माया तथा ब्रह्म को सृष्टि का विलोमी-वि. ( सं० विलोपिन् ) नष्ट या उद्गम स्थान मानने का सिद्धान्त (वेदा०)। नाश करने वाला, लोप करने या छिपाने | वि०--विवर्तवादी। वाला, लोपक। विवर्द्धन-संज्ञा, पु० (सं.) उन्नति, तरक्की, दिलोर--- वि० (सं०) विपरीत, प्रतिकूल, उन्नति करना । वि०-विवर्धनीय, । विवर्धित. उलटा, विरुद्ध । संज्ञा, पु. ऊँचे से नीचे विवद्धित-वि० (सं०) वृद्धि या उन्नति को भाना । संज्ञा, स्त्री. विलोमता। प्राप्त, बढ़ाया हुआ। विलोल-वि० (सं०) चंचल, चपल, सुन्दर। विवश-वि० (सं.) बेवश, बेबस (दे०) "विलोल नेत्रा तरुणी सुशीला" - रंभा० लाचार, जिसका वश न चले, मजबूर, विल्व--संज्ञा, पु० (सं०) बेल का फल या | पराधीन । सज्ञा, स्त्री०-विवशता, बिबस, बेबसी (दे०)। विल्वपत्र- संज्ञा, पु० यौ० (सं०) बेल-पत्र, विवस्त्र-वि. (सं.) नंगा, नग्न, वस्त्र-हीन, बेल का पत्ता। दिगम्बर । घिल्वमंगल--- संज्ञा, पु. (सं०) अंधे होने विवस्वत्-संज्ञा, पु. (सं.) विवस्वान्, से पहले महाकवि सूरदास का नाम | सूर्य, अरुण (सूर्य-सारथी) । " इमं विवस्वते विवक्षा- संज्ञा, स्रो० (सं० वक्तुमिच्छा ) योगं प्रोक्तवानहमव्यम्”-भ० गी० । भा० श० को०-२.१ For Private and Personal Use Only Page #1613 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विशाख विवसा विवसा-संज्ञा, पु० (सं०) इच्छित, वांछित, विवृत-वि० (सं.) विस्तारित, विस्तृत, चाहा हुथा। फैला या खुला हुअा। संज्ञा, पु०-ऊष्म स्वरों विवाद-संज्ञा, पु. (सं०) शास्त्रार्थ, वाक् के उच्चारण का एक प्रयत्न (व्या०)। युद्ध, बहस, कलह, झगड़ा, मुकदमेबाजी। विवृतोक्ति--संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) एक विवादास्पद -- वि० यौ० (सं०) विवाद- अर्थालंकार जिसमें श्लेष से गुप्त किये अर्थ योग्य, विवादयुक्त, बहस के लायक, जिस को कवि स्वयं अपने शब्दों से प्रगट कर पर बहस हो सके। देता है (अ० पी०)। विवादी-संज्ञा, पु० (सं० विवादिन् ) विवाद | विवेक-संज्ञा, पु० (सं०) भले-बुरे की पहि या बहस करने वाला, झगड़ा-फसाद करने चान या ज्ञान, सदसत् ज्ञान की मानसिक वाला । ( मुकदमें में ) पक्षी या प्रतिपक्षी। शक्ति, ज्ञान, विचार, समझ, बुद्धि । विवाह -- संज्ञा, पु० (सं०) स्त्री-पुरुष को विवेकी-- संज्ञा, पु. (सं० विवेकिन्) विवेकदांपत्य-सूत्र में बाँधने की एक सामाजिक वान् , ज्ञानी, समझदार, प्रवीण, चतुर, रीति, व्याह, शादी, श्राज-कल ब्राह्म विवाह सदसत् या भले-बुरे का ज्ञान रखने वाला, प्रचलित है, यों विवाह के ८ भेद हैं, ब्राह्म, बुद्धिमान, न्यायी, न्यायशील । “बपति दैव, पार्ष, प्राजापत्य, प्रासुर, गांधर्व, राक्षस यदि विवेकी पंच वा षट् दिनानाम्'-स्फु०। और पैशाच (मनु०), पाणिग्रहण, परिणय, | विवेचन--संज्ञा, पु. (सं०) आलोचन, विवाह (दे०) । "टूटत ही धनु भयो मीमांसा, निर्णय, तर्क-वितक, सत्यासत्य, विवाहू"-रामा० । औचित्यानौचित्य की गवेषणा, परीक्षा या विवाहना-स० क्रि० दे० (सं० विवाह ) जाँच । स्त्रो.---विवेचना। वि०-विवेचव्याहना, शादी करना, पाणि-ग्रहण या नीय, विवेचित । परिणय करना। विवेचक-संज्ञा, पु. (सं०) मीमांसक, विवाहित-वि० अ० (सं०) व्याहा हुआ, विचारक, बुद्धिमान् । जिसका व्याह हो चुका हो । स्त्री० विवाहिता । विवेचना --- संज्ञा, श्री० (सं०) विचार, ज्ञान। विवाही-वि० सी० ( ० विवाहिता ) विवेचनीय- वि० (सं०) विचार या विवेचन जिसका व्याह हो चुका हो. व्याही, परि करने योग्य, विचारणीय, पालोचनीय । णीता। विवेचित-वि० (२०) पालोचित, विचारा विवि-वि० दे० (सं० द्वि०) दो, दूसरा। हुया, निर्धारित, वर्णित, निश्चित । विविक्त-संज्ञा, पु. (सं०) पवित्र, एकांत, विवोक-संज्ञा, पु० (सं०) एक हाव जब निर्जन। स्त्रियाँ संभोग के समय प्रिय का अनादर विविचार-वि० (सं०) विचार-हीन, विवेक करती हैं (सा०)। या प्राचार से रहित । विशद-वि० (सं०) निर्मल, विमल, स्वच्छ, विविध--वि० (सं०) अनेक प्रकार या बहुत साफ़, व्यक्त, स्पष्ट, सफेद, सुन्दर । संज्ञा, भाँति का। स्त्री०-विशदता “विरस विशद गुणमय विविर--संज्ञा, पु. (सं०) गुफा, खोह, दरार, फल जासू"..-रामा० । बिल, छिद्र, छेद। विशांपति- संज्ञा, पु. (सं०) राजा । "तवैव धित्रुध-संज्ञा, पु० (सं०) देवता । "अमराः | संदेशहराद्विशांपतिः शृणोति लोकेश तथा निर्जराः देवाः त्रिदशाः विबुधाः सुराः" --- विधीयताम्"-- रघु० । अमर० । “अभून्नृपो विवुधसखा"-भट्टी० । विशाख-संज्ञा, पु. (सं०) कार्तिकेय, शिव, For Private and Personal Use Only Page #1614 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विशाखदत्त विशोक कार्तिकेय के वन चलाने से प्रगट एक अनपच । " सपदि निम्बुरसेन विचिका देवता। हरित भो रति-भोग-विचक्षणे"-- लो० स० विशाखदत्त-संज्ञा, पु० (सं०) संस्कृत भाषा विशृंखल-वि० (सं०) जिसमें शृंखला या के एक कवि जिन्होंने मुद्राराक्षस नामक ___ क्रम न पाया जावे, स्वच्छंद, स्वतंत्र । संज्ञा, संस्कृत-नाटक बनाया है। स्त्री० - विचला। विशाखा-संज्ञा, स्त्री० (सं०) २७ नक्षत्रों में विशेष - संज्ञा, पु. (सं०) साधारण से परे से १६ वाँ नक्षत्र, राधा, कौशांवी के समीप या अतिरिक्त (अधिक), अंतर, भेद, पदार्थ, का एक पुराना प्रदेश। वस्तु, अधिकता, अधिक, विचित्रता, विशार-संज्ञा, पु० (सं.) गली। अनोखापन, सार, तस्व, एक अर्थालंकार विशारद-संज्ञा, पु० (सं०) निपुण, दक्ष, जिसमें (१) आधार के बिना प्राधेय (२) कुशल, ज्ञाता, पंडित, बिमारद (दे०)।। थोड़े श्रम या यत्न से अधिक लाभ या "शिव नारद सनकादि विशारद'-स्फु०।। प्राप्ति (३) तथा एक ही वस्तु का कई विशाल-वि० (सं०) सुविस्तृत, बहुत बड़ा स्थानों में होना कहा जाये ( श्र० पी० )। या लंबा-चौड़ा, वृहत्, सुन्दर, प्रसिद्ध ।। ७ पदार्थों में से एक । “ द्रव्य-गुण-क्रियासंज्ञा, स्त्रो०-विशालता। सामान्य - विशेष - समवायाभावाः सप्तैव विशालात - संज्ञा, पु० यौ० सं०) महादेव पदार्थाः"--वैशे०। जी, शिव, गरुड़, विष्णु । विशेषज्ञ संज्ञा, पु. (सं०) किसी विषय का विशालाती - संज्ञा, मो. यौ० सं०) सुन्दर विशेष या मार्मिक ज्ञाता। संज्ञा, स्त्रीऔर बड़ी बड़ी आँखों वाली स्त्री, पार्वती विशेषज्ञता । जी, देवी की एक मूनि । विशेषण-रज्ञा, पु० (सं०) जो किसी वस्तु विशिख-संज्ञा, पु. (सं०, तीर, बाण, की कुछ विशेषता प्रगट करे, किसी संज्ञा बिसिख (दे०)। "विशिख माश्रवणं परिपूर्य की बुराई-भलाई या विशेषता-सूचक विकारी चेदविचलद्भुज मुभितुमीशिपे"-नैप० ।। शब्द जो उपकी व्याप्ति को मर्यादित करता "संधान्यो तब विशिख कराला".--रामा। है। यह तीन भाँति का है, गुण-वाचक, विशिष्ट--वि० (सं०) युक्त, मिश्रित, मिला संख्या-वाचक, सार्वनामिक (व्या०)। हुआ, जिसमें कुछ विशेषता हो, विलक्षणा. विशेषतः-प्रव्य. (सं०) विशेष रूप से. अधिकता से, विशेषतया। श्रेष्ठ, उत्तम । संज्ञा, स्त्री-विशिष्टता। विशेषता संज्ञा, स्त्री० (सं०) विशेष का विशिष्टाद्वैत- संज्ञा, पु० यौ० (सं०) एक | धर्म या भाव, ख़सूसियत (फा०) अधिकता, दार्शनिक मत या सिद्धान्त जिसमें माया, अमाधारणता प्रधानता, मुख्यता । जीव, ब्रह्म तीन अनादि तथा जीव और विशेषना-प्र. क्रि० (सं० विशेष ) विशेष जगत् ब्रह्म से भिन्न होते हुए भी भिन्न रूप देना, निर्णय या निश्चय करना । नहीं माना जाता है, विशिष्ठाद्वैतवाद । विशेषोक्ति- संज्ञा, स्त्री. यौ० (सं०) एक वि०-विशिष्ठाद्वैतवादी। अर्थालकार लहाँ पूर्ण कारण के होते हुये भी विशुद्ध-वि० (सं०) बिलकुल निर्दोष या कार्य के न होने का कथन हो (१०पी०)। साफ़, सत्य, सच्चा । संज्ञा, स्त्री०-विशुद्धता। विशेष्य-संक्षा, पु. (सं०) वह संज्ञा जिसके विशुद्धि-संज्ञा, स्त्री० (सं०) शुद्धता, सफ़ाई। साथ उसका विशेषण भी हो (व्या०) । विशुचिका-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० विसूचिका) विशोक--वि० (सं०) शोकरहित, विगतरस्त पाने का रोगा, हैजा, बदहजमो, | शोक : वि० (दे०) विशोकी। For Private and Personal Use Only Page #1615 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org विश १६०४ विश्वविद्यालय | विश- संज्ञा, स्त्री० (सं०) प्रजा, रिश्राया । विशुपति, विशांपति - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) राजा । विश्रंभ - संज्ञा, पु० (सं०) विश्वास, भरोसा, प्रतीति, प्रेमिका प्रेम में रति के समय की प्रेम कलह, प्रेम । " माधुर्य विश्रंभ विशेष भाजा " - किरा० । विश्लेषण - संज्ञा, पु० (सं०) किसी पदार्थ के संयोजकों को अलगाना या पृथक करना, पृथक्करण | वि० विश्लेपणीय, विश्लिष्ट । विश्वंभर- -संज्ञा, ५० (सं०) परमेश्वर, विष्णु भगवान, एक उपनिषद्, विसंभर (दे० ) । " का चिन्ता जगजीवने यदि हरिर्विश्वंभरो गीते 1 " विश्रब्ध - वि० (सं० ) विश्वास योग्य, विश्वासनीय, शांत, निडर, निर्भय । " विश्रब्धं परि चुंव्य जातपुलकाम् जगत, विश्वंभरा – संज्ञा, स्रो० (सं० ) वसुंधरा, पृथ्वी, वसुधा, भूमि। "विश्वंभरः पितायस्य माता विश्वंभरा तथा " । विश्व-- संज्ञा, पु० ( सं० ) विष्णु, समस्तब्रह्मांड, चौदहों लोकों या भुवनों का समूह, संसार, देवतों का एक गण जिसमें वसु सत्य, ऋतु दव, काल, काम, धृति, कुरु, पुरूरवा, माद्रवा ये दस देवता हैं, शरीर, विस्व (दे० ) । वि० - सब बहुत समस्त | 6. विश्व भरण-पोषण कर जोई" - रामा० । विश्वकर्मा-संज्ञा, पु० (सं० विश्वकर्मन् ) परमेश्वर, ब्रह्मा, सूर्य, समस्त शिल्प शास्त्र के कर्ता एक विख्यात देवता कारु, देवबर्द्धन, तक्षक, शिव जो, लोहार, बढ़ई, राज, मेमार | "मनहु विश्वकर्मा की रची" - स्फु० । विश्वकोश - संज्ञा, पु० (सं०) वह कोशग्रंथ जिसमें सब प्रकार के शब्दों या विषयों का सविस्तार वर्णन हो । यौ० संसार का कोष । विश्वनाथ - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) महादेव, शिवजी, विष्णु भगवान । विश्वपाल, विश्वपानक-संज्ञा, पु० (सं०) परमात्मा, परमेश्वर, विश्वपोषक, विश्वपति | विश्वरूप - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) शिव, विष्णु | विश्व ही है रूप जिसका वह परमात्मा, गीतोपदेश के समय अर्जुन को दिखाया गया श्रीकृष्ण का विराट रूप | " विश्वरूप कल" नैप० । नादुपपन्नं विश्वलोचन - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) सूर्य और चंद्रमा, विश्वविलोचन, जगन्नेत्र । विश्वविद्यालय - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) वह 66 55 श्रमरुक० । जैसे - पद्मा० । कुबेर के पिता 46 विश्रब्धनवोढ़ा -संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) वह नवोदा नायिका जो पति पर कुछ विश्वास अनुराग करने लगी हो, ( काव्य० ) । -" प्रीतम पान खवाइ बे को परिजंक के पास लौं जान लगी है " ---- विश्रवा - संज्ञा, पु० (सं०) एक प्राचीन ऋषि | विश्रांत - वि० सं०) श्रमित, क्लांत, थकित, थका हुधा, जो धाराम कर चुका हो । दिवं मरुत्वन्निव भोक्ष्यते भुवं दिगन्तविश्रान्त रथो हि तत्सुत - रघु० । विश्रांतघाट - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) मथुरा में यमुना जी का एक घाट । विश्रांति - संज्ञा, त्रो० (सं०) धाराम, विश्राम विश्राम - संज्ञा, पु० (सं० ) थकी मिटाना, श्रम दूर करना, श्राराम करना, सुख-चैन, ठहरने का स्थान, श्राराम. टिकाश्रय, विस्राम, विसराम (दे० ) । संग रघु वंशमणि, करि भोजन विश्राम -- रामा० । यौ० विश्रामस्थान- "विश्राम स्थानम् कविवर वचसाम् " ऋपय د. विश्रुत - वि० (सं० ) विख्यात प्रसिद्ध । विश्लिष्ट - वि० (सं० ) विश्लेषण-युक्त, शिथिल, वियोगी, अलग रहने वाला विकसित प्रस्फुटित, खिला, प्रकाशित, प्रकट, मुक्त, ढीला, विभक्त । विश्लेष- संज्ञा, पु० (सं० ) वियोग, विरह लगाव, भेद । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private and Personal Use Only Page #1616 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विश्वव्यापी १६०५ विषमज्वर विद्यालय जहाँ सब प्रकार की विद्याओं की विश्वेश, विश्वेश्वर-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) उच्च शिक्षा दी जावे, यूनीवर्सिटी (अं०)। परमेश्वर, शिव. विश्वनाथ । विश्वव्यापी-संज्ञा, पु. यौ० (सं० विश्व विष --- सज्ञा, पु० (सं०) गरल, जहर, जो व्यापिन् ) परमात्मा, भगवान । वि०-- किसी की सुख या शांति में बाधा करे। विभु, जो सारे संपार में फैला या व्याप्त हो " विष-रस मरा कनक-घट जैसे'---रामा० । विश्वश्रवा-- संज्ञा, पु. ( मं० विश्वश्रवस् । मुहा- ---विप की गाँठ-बड़ा उपद्रवी कुबेर और रावण के पिता एक मुनि । या अपकारी, दुष्ट ! विष का घुट-बड़ी विश्वसनीय-वि०(सं.) विश्वास याप्रतीति बुरी या कड़ो बात ! वच्छनाग, संखिया, विष दो प्रकार के हैं: - स्थावर-जैसेकरने योग्य, जिसका एतबार हो सके। विश्वसित-वि० (सं०) विश्वस्त, जिसका | | संखिया, श्रादि. जंगम-जैसे-सर्पादि का विष । विश्वास किया गया हो। विश्वस्त - वि० (सं० विश्वसनीय, प्रतीति | विषकन्या --संज्ञा, स्त्री. यौ० (सं०) वह या एतबार के योग्य, विश्वामी (दे०)।। ली जिसके शरीर में इस लिये विष प्रविष्ट किया जाता है कि उससे प्रसंग करने वाला विश्वात्मा-संज्ञा, पु० चौ० (सं० विश्वात्मन) म मर जाये, विषकन्यका (चाणक्य)। परमात्मा, विष्णु, ब्रह्मा, शिवब्रह्म । ब्रह्मा, शिवब्रह्म । विपगण-वि० (सं०) दुखी, उदास, विषाद- . "विश्वात्मा विश्वसंभवः "..-य. वे० पूर्ण । यौ० विषण्णवदन-उदास मुख । विश्वाधार संज्ञा, पु० यौ० (सं०) परमेश्वर वर ! विपदंड --- संज्ञः, पु० यौ० (सं०) कमल-नाल : " विश्वधार जगत पति रामा "-रामा० । विषधर--संज्ञा, पु० (सं०) शिव जी, साँप । विश्वामित्र--संज्ञा, पु. (सं०) गाधेय या विषमंत्र-ज्ञा, पु० यौ० (सं०) सादि के गाधितनय, राम चंद्र जी के धनुविद्यागुरु विष को दूर करने का मंत्र, विष तथा ऐसे कौशिकमुनि ये बड़े क्रोधी और शाप देने ___ मंत्रों का ज्ञाता, वैद्य, सँपेरा ।। वाले कहे गये हैं । " विश्वामित्र महामुनि विषम---वि० (सं०) जो तुल्य, सम, समान ज्ञानी" रामा० । या बराबर न हो, अतुल्य, असम, वह विश्वास - पंज्ञा, पु० (सं०) भरोसा, प्रतीति, संख्या जो दो ये पूरी बँट न सके और एक यकीन, एतबार, विस्वास (दे०) । "कौनिउ शेष बचे. ताक (फा०), अति कठिन, सिद्धि कि बिनु विश्वासा"--रामा० । तीव या तेज़, संकट, विकट, भयंकर, भीषण विश्वासघात- संज्ञा, पु. यौ० (सं०) छल विषमज्वर, धापत्ति-काल । संज्ञा, पु०-वह करना, धोखा देना, विश्वास करने वाले छंद जिपके चरण में समान मात्रायें या के साथ विश्वास के विपरीत कार्य करना । वर्ण न हों वरन् न्यूनाधिक हों। (विलो० -- वि. विश्वासघातक, विश्वासघाती। सम) एक अर्थालंकार जिसमें दो विरोधी विश्वासपात्र-- संज्ञा, पु० यौ० (सं०) विश्वस्त पदार्थों का संबंध या यथायोग्यता का अभाव विश्वसनीय । कहा गया हो। "जरत सकल सुर-वृन्द, विश्वासी-- संज्ञा, पु. ( सं० विश्वासिन् ) विषम गरल जेहिं पान किय"-रामा० ! विश्वास करने वाला, विश्वासनीय। विषमज्वर --संज्ञा, पु. यौ० (सं०) नित्य विश्वेदेव-संज्ञा, पु. (सं०) देवताओं का अनियत समय पर पाने वाला एक बुखार, एक गण जिसमें इन्द्र, अग्नि आदि नौ जाड़ा देकर और उतर चढ़ कर पाने वाला देवता हैं ( वेद०) परमेश्वर, अग्नि। ज्वर जैसे:-जूड़ी, एकजुनियाँ, एकतरा, For Private and Personal Use Only Page #1617 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विष्टंभन विषमता तिजारी, चौथिया श्रादि। "कै प्रभात कै विपांगना--संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) विष. दुपहर श्रावै के संध्या, अधिरात । बायकंप कन्या । ज्वर स्वैद बियापै यही विषम ज्वर तात" - विपाक्त वि० (सं०) विष-युक्त, विष. स्फु० । 'अमृताब्द शिवं मधुमद्विषमे विषमे मिश्रित, विषपूर्ण, जहरीला, विषैला ।। विषमषु विलास-रते"-लो। | विषाण-- संज्ञा, पु० (सं०) पशु का सींग, विषमता-संज्ञा, स्त्री. ( सं० ) असमता, शूकर का दाँत । " मख, विषाण अरु शस्त्रविरोध. बैर, शत्रुता, वैमनस्य । " राम- युत, तासों जनि पतियाय-नीतिः । प्रताप विषमता खोई'. रामा०। विषाद-संज्ञा, पु० (सं०) निश्चेष्ट या जड़ विषमवाण-संज्ञा, पु. यौ० (सं०) कामदेव, । होने वा भाव, दुख, ज, खेद. शोक । विषमायुध । वि० ---विषादी । “नहिं विपाद कर अवसर विषमवृत्त संज्ञा, पु० यौ० (सं०) वह छंद श्राजू" रामा० । जिसके चरण समान (सम) न हों (पिं०)। विपुव-संज्ञा, पु. ( सं०) सूर्य के ठीक (विलो०-सम)। भूमध्य रेखा के सामने पहुँचने का समय विषमशर-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) कामदेव । जब सारे संसार में दिन-रात बराबर होते हैं । २१ मार्च और २३ सितम्बर को ऐसा विषमायुध- संज्ञा, पु० यौ० (सं०) कामदेव। होता है (भू०)। विषय-संज्ञा, पु. (सं०) जिस पर कुछ विषुवतरेखा संक्षा, स्त्री० यौ० (सं०) एक विचार किया जावे, प्रबंध, निबंध, मैथुन, कल्पित रेखा जो दोनों ध्रयों से बराबर दूरी स्त्री-प्रसंग, कर्मेंद्रियों के कार्य, धन, संपत्ति, पर पृथ्वी के मध्य में चारों ओर पूर्व-पश्चिम बड़ा राज्य या प्रदेश, भोग विलास, वासना। खिंची हुई मानी जाती है, विषुववृत "अथ स विषय व्यावृत्तारमा यथाविधि भूमध्य रेखा (ज्यो०, भू०)। सूनवे"- रघु.। विचिका-संज्ञा, स्त्री० द० (सं० विसूचिका) विषयक- वि० (सं०) विषय का, संबंधी।। विसूचिका (रोग)। विषय-वासना--संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०). | विकंभ- संज्ञा, पु० (सं०) एक योग (ज्यो०), भोग-विलास, काम की इच्छा या कामना । | विस्तार, विघ्न, बाधा, नाटक के ग्रंक का "विषय-वासना ना दिन छूटी- स्फु० । एक भेद, जिसमें गत और प्रागत घटना विषयी-संज्ञा, पु. (सं० विषयिन् ) जो ( कथा ) की सूचना मध्यम पात्रों की द्वारा सदा भोग-विलास में लगा रहे, कामी. दी जाती है नाय० । विलासी, धनी, अमीर, कामदेव । " विषयो । विष्कमक-संज्ञा, पु. (सं० विष्कंभ) विष्कम, को हरि-कथा न भावा" - स्फु०। विस्तार, विघ्न, बाधा, नाटक के अंक का विषविद्या-संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) मंत्रादि ___ एक भेद। से विष उतारने की विद्या का ज्ञान । विष्कीर--संज्ञा, पु० (सं०) चिड़िया, पक्षी, विष-विज्ञान-संज्ञा, पु. यौ० (सं०, विषोप खग, विहंग। विष सम्बन्धी शास्त्र, विष-विद्या। विष्टंभ-संज्ञा, पु. (सं०) विघ्न, बाधा रुका. विषवैद्य-संज्ञा, पु. यौ० (सं० तंत्र-मंत्रादि वट, अनाह, आध्मान, पेट फूलने का एक से विष उतारने वाला, बिषवैद (दे०)। रोग (वैद्य० । विषहरमंत्र-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) वह मंत्र विटंभन - संज्ञा, 'पु० (सं०) रोकने या सिको. जिसके द्वारा विष उतारा जावे। __ ड़ने की क्रिया । वि०-विटंभित । For Private and Personal Use Only Page #1618 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org विटप विटप - संज्ञा, पु० (सं०) लोक | विटर - संज्ञा, पु० (सं० ) बिछौना, बिस्तर । विश- संज्ञा, स्त्री० (सं०) मल, मैला, १६०७ पाखाना विष्टि - संज्ञा, स्त्री० (सं०) भद्रा, अशुभ समय, बेगार | विष्णु - संज्ञा, पु० (सं०) परमात्मा के तीन रूपों में से दूसरा, त्रिदेव में से एक जो विश्व का भरा-पोषण करते हैं, ब्रह्मा का एक विशेष रूप, १२ श्रादित्यों में से एक । विष्णुकांता - संज्ञा, खो० (सं०) नीली अपराजिता, नीली कोयल- लता । विष्णुगुप्त संज्ञा, पु० (सं०) एक वैयाकरणी ऋषि, कौटिल्य, प्रख्यात राजनीतिज्ञ चाणक्य का वास्तविक नाम । विष्णुपद - संज्ञा, पु० (सं०) श्राकाश | विष्णुपदी-संज्ञा, स्रो० यौ० (सं०) गंगाजी ! विष्णुलोक - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) बैकुंठ, स्वर्ग । 4. विष्णुलोकं स गच्छति " - स्फु विष्वक्सेन - संज्ञा, ५० (सं०) विष्णु, शिव, एक मनु । विस - सर्व ० (दे० ) वह उस | संज्ञा, पु० (दे०) विष । विसदृश - वि० (संc) प्रतिकूल, विपरीत, विरुद्ध. उलटा, अद्भुत, विलक्षण अनोखा । विसर्ग - संज्ञा, पु० (सं०) त्याग, दान, देना, ऊपर-नीचे दो विन्दु जो अक्षर के श्रागे लगते हैं और प्रायः श्राधे ह के समान बोले जाते हैं । "द्विविन्दुर्विसर्ग: " --- ( व्या०स० ) । मृत्यु, मोक्ष, मुक्ति, प्रलय, वियोग, विरह । विसर्जन संज्ञा, पु० (सं०) छोड़ना, परित्याग, चला जाना, विदा होना, पोडशोपचार पूजन में अंतिम उपचार, श्रावाहन किये देवता को फिर निज स्थान जाने की प्रार्थना समाप्ति । कथा विसर्जन होति है सुनौ वीर हनुमान विसर्जनीय, विसर्जित । विसर्जनीय संज्ञा, १० (सं०) स्यागने योग्य, 6: करना, 33 - - स्फु० 1 वि० - Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir देने योग्य, - कौ० व्या० । 1 विसर्जित -- वि० (सं०) कृतसमाप्ति, परित्यक्त । विसर्प - संज्ञा, पु० (सं०) फुंसियों का रोग जिसमें ज्वर भी होता है विसपी वे० (सं० विसर्पिन् ) फैलने वाला | विसारना- - स० क्रि० दे० (सं० विस्मरण ) भूल जाना, बिसराना । विसासिन -- संज्ञा, स्त्री० (दे०) सौत, सपत्नी, दुष्टा । पु० - विसासी विश्वासघाती, दुष्ट "कबहूँवा विसासी सुजान के श्राँगन” —घना० । उन हाय विसासिन कीन्ही ६६ विसर्ग 1 विस्तृत " विसर्जनीयस्य सः " For Private and Personal Use Only ," दगा - रत्ना० । विसाल--- संज्ञा, पु० (श्र०) मिलाप संयोग, मृ, मौत । "हु विसाल जो हासिल तो फिर फ़िराक़ नहीं " -स्फु० । संज्ञा, पु० दे० ( [सं० विशाल ) बड़ा, विस्तृत | विसूचिका - संज्ञा स्त्री० (सं०) दस्तों का एक रोग, हैजा । "सपदि निंबुरसेन विसूचिकाम् ' - लो० । विसूची - पंज्ञा, स्रो० (सं०) एक रोग, हैजा । विसूरा -- संज्ञा, पु० (सं०) चिंता, शोक | वि०-- विरणीय, विसूरित । विसुरना स० क्रि० दे० (सं० त्रिसूरण) शोक करना, रोना, दुविधा में पड़ना, सरवेद स्मरण करना, बिसूरना । सूरति बैठी बिसूरत राधा " - रसाल । विस्तर - वि० दे० (सं० विष्टर ) बिछौना, 66 विस्तारयुक्त, विस्तृत | विस्तार - संज्ञा, पु० (सं०) फैलाव, विशालता, प्रसाद, प्रस्तार । विस्तारित - वि० (सं०) फैला या बढ़ाया हुथा, विस्तृत । विस्तीर्ण - वि० (सं०) विशाल विस्तृत, बहुत बड़ा, लंबा-चौड़ा, श्रति अधिक । विस्तृत - वि० (सं० ) विस्तार युक्त, बहुत लंबा-चौड़ा, विशाल, यथेष्ट विवरण वाला, बहुत फैला हुआ । (सं० विस्तार, विस्तृति ।) Page #1619 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org विस्फार (सं०) फैलाया हुआ, विस्कार -- संज्ञा, पु० (सं०) फैलाव, विकास, तेजी का शब्द, चिल्ला, प्रत्यंचा । विस्फारित - वि० तीव्र, फाड़ा या खोला हुआ (नेत्र) । विस्फोट - संज्ञा, पु० (सं०) गरमी आदि से किसी पदार्थ का उबल पड़ना या फूट जाना, विषैला और कठिन फोड़ा, ज्वालामुखी का फूटना । विस्फोटक संज्ञा, पु० (सं०) विषाक्त फोड़ा, गरमी या आघात से भभक कर फूट उठने वाला, शीतला रोग, चेचक | विस्मय - संज्ञा, पु० (सं०) या चर्य, श्रचरज, विसमय (दे०), अद्भुत रस का स्थायी भाव ( काव्य ० ) । समय विस्मय करसि' रामा० । विस्मरण - संज्ञा, पु० (सं०) भूल जाना | वि०विस्मरणीय, विस्मरित । (विलो० 66 "" १६०८ स्मरण) । विस्मित- वि० (सं०) चकित, श्रचंभित, विस्मय-युक्त | विस्मृत - वि० (सं०) जो याद न हो, भूला हुआ, विस्मारित। विस्मृति - संज्ञा, खो० (सं०) विस्मरण | विश्राम - संज्ञा, पु० दे० ( पं० विश्राम ) श्राराम, बिसराम (दे० ) | विहंग, विहंगम - संज्ञा, पु० (सं०) खग, द्विज, पत्नी, चिड़िया, मेघ, बादल, बाण, वायु, वायुयान, विमान, सूर्य, चंद्रमा, तारागण, देवता । विहग - संज्ञा, पु० (सं०) पक्षी विमान, बाण, देवता, सूर्य, चन्द्रमा, मेघ, तारागण, वायु, वायुयान | विहरना - अ० क्रि० (सं०) खेल करना, क्रीड़ा करना, भोग करना, आनंद करना : विहसित -- संज्ञा, पु० (सं०) नाति उच्च नाति मृदुहास, मध्यम हास्य | वि० उपहसित | विहायस - संज्ञा, पु० (सं०) आकाश, पक्षी । विहार - संज्ञा, पु० (सं०) घूमन, टहलना, | वीजपूर भ्रमण करना, फिरना, केलि-क्रीड़ा, संभोग, रति-क्रीड़ा, बौद्ध साधुधों ( श्रमणों ) ) के रहने का घर, संघाराम | विहारी - संज्ञा, पु० (सं० विहारिन् ) विहार करने वाला, श्रीकृष्ण जी, बिहारी (दे० ) । स्त्री० - विहारिनी । 'करत विहार विहारी मधुबन विहित- वि० सं०) जिसका विधान किया गया हो। "वेद-विहित थरु कुल श्राचरू" Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir में स्फु - रामा० । विहीन वि० (सं०) बिना, रहित, बग़ैर, हीन | संज्ञा, स्री० - विहीनता । विह्वल - वि० (सं०) व्याकुल, विकल, घबराया बेल ! संजा, स्त्री० -- विहलता | वीक्षण- संज्ञा, पु० (सं०) देखना | वि०वीक्षणीय वीक्षित, वीक्षक । वीक्षित - वि० (सं०) दृष्ट, विलोकित, देखा ६० । हु वीचि संज्ञा, स्रो० (सं०) तरंग लहरी, लहर | " वारि-वीचि जिमि गावहिं वेदा " " - रामा० । वीचिमाली - संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) ऊर्मिमाली, समुद्र, सागर । बीची संज्ञा, स्त्री० (सं०) लहरी, तरंग, लहर, बीची (दे०) | वीज - संज्ञा, पु० (सं०) मुख्य या मूल कारण, वीर्य, शुक्र, तेज, प्रन्नादि का बीजा, वीज (दे०), बीमा (ग्रा), अंकुर, सार, तत्व, एक प्रकार के मंत्र, एक वर्ण -गणित, वीजगणित | तुम कहँ विपति-बीन विधि L For Private and Personal Use Only बयऊ रामा० । वीजगणित - संज्ञा, ० यौ० (सं०) गणना का एक प्रकार, गणित का वह भेद जिसमें ज्ञात राशियों की सहायता से अज्ञात राशियों के स्थान पर कुछ सांकेतिक वर्णों st Tear रख कर थज्ञात राशियों का मान ज्ञात किया जाता है । वीजपूर - संज्ञा, पु० (सं० ) बिजौरा नीबू | Page #1620 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - - पीजांकुर ( न्याय १६०६ वीरभूमि वीजांकुर ( न्याय) संज्ञा, पु. यौ० (सं.) वीर-संज्ञा, पु. (सं०)शूर, साहसी, बलवान, कार्य-कारण का ऐसा संयोग (सम्बन्ध) कि पराक्रमी, सैनिक, योद्धा, जो औरों से किसी उनकी पूर्वापर सत्ता निश्चित न हो सके, . कार्य में बढ़कर हो, लड़का, भाई, पति, अन्योन्याश्रय सम्बन्ध । सखी-सहेजी ( स्त्री०), काव्य में एक रस घीगणा--संज्ञा, सी० (सं०) सितार और एक | जिसमें उत्साह और वीरता की पुष्टि होती प्राचीन बाजा, बीना, बीना (दे०) । “वीणा- है (सा०, तंत्र में साधना के ३ भावों में से वेणु-संख-धुनि द्वारे"-रामा० । एक (तंत्र) । "बहुत चलै सो वीर न होई" वीणापाणि- संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) गिरा, --- रामाः । “ ऐरी मेरी वीर जैसे तैसे इन सरस्वती । संज्ञा, पु.-नारद जी। आँखिनि सों"-पद्मा। वीणावनी, वीणावति-संज्ञा, स्त्री० (स०) वीरकेशरी-संज्ञा, पु. यौ० (सं० वीर केशसरस्वती। रिन् ) वीरों में सिंह सा श्रेष्ठ, वीरकेहरी वीत-वि० (सं०) व्यतीत, गत, समात, जो । छूट या छोड़ दिया गया हो, मुक्त, निवृत्त वारगति--संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) रण-भूमि हुआ. बीता हुआ। में मरने से वीरों को प्राप्त श्रेष्ठ गति । वानराग---- संज्ञा, पु. यौ० (सं०) जिपने __वीर-गति अभिमन्यु पाई शोक उसका रागानुराग या प्रामक्ति श्रादि को त्याग दिया व्यर्थ है '-कुं० वि० । हो, त्यागी, वैरागी, बुद्ध जी का एक नाम । वीरता---संज्ञा, स्त्री० (सं०) बहादुरी, शूरता। 'भित्तुः शेते नृपइवासदावीतरागो जितात्मा"। वीरप्रसू, धीरप्रसवा-संज्ञा, स्त्री० यौ० धोतहव्य - संज्ञा, पु. यौ० (सं०) अग्नि, (सं०) शूर वीर पुत्र उत्पन्न करने वाली माता, हैहयराज का प्रधान । वीर माता। वोतहोत्र--संज्ञा, पु. (सं०) अग्नि, सूर्य, | वीरवधू-संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) वीर पुरुष राजा प्रियव्रत के एक पुत्र का नाम। की वीर स्त्री। वीथि---संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० वीथी ) गली, वीरव्रती-वि० संज्ञा, पु० यौ० (सं०) वीरता मार्ग, प्रतोली, रास्ता, बीथी (दे०)। | का व्रत' वाला । “वीर व्रती तुम धीर वीथिका--संज्ञा, बी० (सं०) गली, मार्ग। अछोभा-रामा० । वीथी .. संज्ञा, स्त्री. (सं०) रास्ता, राह, मार्ग, वीरवन्ति-संज्ञा, पु० यौ० (सं० वीरवृतिन् ) गली, कूचा, सड़क, नभ में रवि-मार्ग, व्योम शूरों की सी वृत्ति या स्वभाव (प्रवृत्ति)। में नक्षत्रों के स्थानों के कुछ विशेष भाग, , वि०-वीरवृत्ती। " वीरवृती तुम धीर रूपक या दृश्य काव्य का एक भेद जो एक अछोभा"-रामा० । नायक युक्त और एक ही अंक का होता है। वीरभद्र--- संज्ञा, पु० (सं०) शिव जी के एक "वीथी सब असवारनि भरी"- राम । गण जो उनके अवतार और पुत्र माने गये वीभ्यंग--संज्ञा, पु. यौ० (सं०) रूपक में हैं ( पुरा० ), अश्वमेध यज्ञ का घोड़ा, वीथी के १३ अंग (नाट्य०)। खस (उशीर)। वीप्सा-संज्ञा, स्त्री. (सं०) अधिकता, । वीरभाव--संज्ञा, पु० यौ० (सं०) शूरता, व्यापकता । " नित्य वीप्सयोः "-कौ० । वीरता का भाव। व्या० । एक शब्दालंकार जिसमें अर्थ या | वीरभूमि --- संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) वीरों की भाव पर बल देने के लिये शब्दावृत्ति होती जन्म-भूमि, युद्ध-क्षेत्र, रण-स्थल, वह पृथ्वी है (५० पी०)। जहाँ वीर ही उत्पन्न होते हों, बंगाल का वीय-वि० (दे०) विय (दे०), दो, युगुल । । एक नगर । For Private and Personal Use Only Page #1621 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir वृत्ति वीरमाता वीरमाता-संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं० वीरमातृ) वृंदावन--संज्ञा, पु० (सं०) श्रीकृष्णजी का वीरप्रसू, वीर-जननी, वीरों की माँ। क्रीडा स्थल जो हिन्दुओं का तीर्थ-स्थान वीररस-संज्ञा, पु० (सं०) रत्माह स्थायी है (मथुरा-प्रान्त) विंदावन (दे०) । “यत्र भाव का एक विशेष रस (काव्य)। वृदावनं नास्ति यत्र न यमुना नदी" - वीरललित-संज्ञा, पु० यौ० (०) वीरों का गर्ग संहिता। सा किन्तु मृदु स्वभाव वाला। वृक-संज्ञा, पु. (सं०) भेड़िया, सियार, वीरशय्या-संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) संग्राम- गीदड़, शृगाल, क्षत्रिय, कौश्रा।। भूमि, रणस्थली। वृकोदर · संज्ञा, पु. गौ० (सं०) भीमसेन । वीरशैव-संज्ञा, पु० (सं०) शैवों का भेद । "भीम का वृकोदरः "--भ० गी० । वीरा- संज्ञा, स्त्री० (सं०) मदिरा, शराब, । वृत्त -संज्ञा, पु. (सं.) विटप, पेड़, दुम, पति और पुत्र वाली स्त्री। पादप, रूग्व, किसी वस्तु ( व्यक्ति के वंश ) वीराचारी-संज्ञा, पु० यौ० (सं० वीराचारिन। के उद्गम तथा शाखादि-सूचक वृक्ष --जैसा वामग्गियों का एक भेद जो देवताओं की चित्र या शाकृति। जैसे-वंश-वृत्त। पूजा वीर-भाव से करते हैं। वृक्षायुर्वेद --संज्ञा, पु० यौ० (सं०) पेड़ों के वीरान -- वि० (फ़ा०) श्री-हत, उजड़ा हुधा. रोगों की चिकित्सा का शास्त्र । उजाड़, वह स्थान जहाँ श्राबादी न रह वृत - संज्ञा, पु० दे० (सं० बज । व्रज । गई हो, निर्जन। वृजिन-संज्ञा, पु. (सं.) पाप, कष्ट, दुख, वीरासन-संज्ञा, पु. यौ० (सं०) बैठने का तकलीफ, खाल, चमड़ा। एक ढंग या श्रासन अर्थात् मुद्रा । " जागन वृत्त --- संज्ञा, पु० (सं०) चरित, चरित्र, समाचार, लगे लखन वीरासन"--- रामा० ! याचार, वृत्तांत. चाल-चलन, हाल, वृत्ति, वीर्य-संज्ञा, पु. (सं०) प्राणियों के शरीर समाचार जीविका-साधन, रोजगार. वर्णिक में बल और कांति उत्पन्न करने वाली छंद, मंडल, गोलाकार क्षेत्र जो एक सीमा सात धातुओं में से एक प्रमुख पातु, रेत, से जिसे परिधि कहते घिरा हो तथा शुक्र, बीज (दे०) पराक्रम, शक्ति, बल, जिसके केंद्र से परिधि की दूरी सर्वत्र बीया (दे०)। समान हो ( रेखा), दंडिका, गंडका, २० वुराना-अ० कि. (दे०) उराना, समाप्त वर्णो का एक सम छंद, नियत वर्ण संख्या होना। तथा लघु-गुरु के क्रम के निश्चित नियम वृंत-संज्ञा, पु० (सं०) बोंड़ी, ढेंडी, नरुत्रा, | से नियंत्रित पदों वाला छंद (पि.)। स्तनाग्रभाग। वृत्तखंड-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) वृत्त या वृताक-संज्ञा, पु. (सं०) बैगन भाँटा। गोल क्षेत्र का कोई भाग, वृत्तांश । "वृताकं कामलं पथ्यं'' - भा० प्र०। वृत्तगंधि-संज्ञा, स्त्री. (स०) गद्य का एक वृंद--संज्ञा, पु० (सं०) समुदाय, झंह, समूह. भेद (सा०)। एक प्रसिद्ध हिन्दी-कवि । ' और भाँति वृत्तांत--संज्ञा, पु० (सं०) वर्णन, समाचार, पल्लव लगे हैं बंद बूंद तरु --द्विजः। हाल. घटनादि का विवरण । “सुनि वृत्तांत वृंदा-संज्ञा, स्त्री. (सं०) तुलसी, राधिका मगन सब लोगू"--रामा। का उपनाम । | वृत्ता -- संज्ञा, पु. यो० (सं०) वृत्त या वृंदारक-संज्ञा, पु. (सं०) एक प्रकार के गोलाकार क्षेत्र का ठीक साधा भाग। देवता । " जय वृंदारक-वृंद-वंद्य "--- रत्न। वृत्ति-सज्ञा, स्त्री० (सं०) जीविका निर्वाह का For Private and Personal Use Only Page #1622 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - वृत्त्यनुप्रास वृषभानु साधन या कार्य, रोजी, जीविका, उद्यम, . वृद्धश्रवा --संज्ञा, पु० (सं० वृद्धश्रवस् ) इन्द्र। उजीफ़ा, दीन या छात्रादि को सहायतार्थ | "स्वस्ति न इन्द्रो वृद्धश्रवा"-य. वे । दिया गया धन, सूत्रों का अर्थ स्पष्ट करने वृद्धा--संज्ञा, स्रो० (सं०) प्रायः ६० वर्ष से या खोलने वाली व्याख्या या विवेचना ऊपर की 'अवस्था, बुड्ढी स्त्री, बुदिया। ( विवरण ), नाटकों में विषय-विचार से वृद्धि -- संज्ञा, खी० (सं०) उन्नति, बढ़ती, ४ प्रकार की वर्णन की रीति या शैली अधिकता, अधिक होने या बढ़ने का भाव नाट्य०), चित्त की दशा जो पाँच प्रकार श्री या क्रिया, सूद, व्याज सूदक, संतान-जन्म मानी गयी है--क्षिप्त, विक्षिप्त, निरुद्ध, मूढ़, पर घर का अशौच, अभ्युदय, समृद्धि, अष्ट एकाग्र (योग०), कार्य, व्यापार, एक संहारक | वर्ग की एक लता एक अलभ्य श्रौषधि । शस्त्र या अस्त्र, प्रकृति, स्वभाव । वृश्चिक-- संज्ञा, पु. (सं०) बिच्छू नामक वृत्त्यनुप्रास---संज्ञा, पु. यौ० (सं०) एक | एक विपैला कीड़ा जो डंक मारता है, शब्दालंकार जिसमें 'प्रादि या अंत के एक बीछु , बीछी (ग्रा०)। बिच्छू या वृश्चिया कई वर्ण वृत्ति के अनुकुल एक या भिन्न काली लता, मेपादि १२ राशियों में से रूप से बार बार पाते हैं, यह अनुप्रास का (विच्छू के से श्राकार वाले तारों की स्थिति वाली) ८ वीं राशि (ज्यो०)। वृत्र- संज्ञा, पु० (सं०) अँधेरा, बादल, मेघ, वृश्चिकाली-संज्ञा, स्रो० (सं०) बिच्छू बैरी, शक्र, वृत्त, इन्य से मारा गया त्वष्टा का नामक लता जिसके काँटे या रोएँ देह में पुत्र, एक असुर इसीलिसे राजा दधीचि (ऋषि) लगकर जलन उत्पन्न करते हैं। की इडियों का वज्र बना था पुरा०)। वृष-- संज्ञा, पु० (सं०) बैल, साँड़, ४ प्रकार वृत्रसूदन--संज्ञा, पु. (सं०) इन्द्र जिसने के पुरुषों में से एक काम०). श्रीकृष्ण, १२ वृत्तासुर को मारा था। राशियों में से २ री राशि (ज्यो०)। यो०वृत्रहा, वृत्तहा-संज्ञा, पु० (सं०) इन्द्र । अपस्कंध । "व्यूटोरस्कः वृषस्कंधः"-रघु० । वृत्तारि, वृत्रारि -- संज्ञा, पु० यौ० (सं०) | वृषकेतन, अपकेनु-संज्ञा, पु. यो० (सं०) महादेव, शिव, शंकरजी। इन्द्र, वृत्तहंता। वृषण ---संझा, पु० (सं०) विष्णु, इन्द्र, कर्ण, वृत्रासुर वृत्तासुर . - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) बैल, साँड़, घोड़ा, पोता, अंडकोष । स्वष्टा का पुत्र एक विख्यात दैत्य जिसे इन्द वृषध्वज-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) महादेव, ने मारा था (पुरा०)। शिव, एक पहाड़ (पुरा०), गणेशजी । वृथा-वि० (सं०) व्यर्थ, निष्प्रयोजन, फ़जूल, "भृगी कि वृषध्वज टेरे"-रामा० ! बेमतलब, नाहक । संज्ञा, पु०--वृथात्व ।। | वृषभ - संज्ञा, पु० (सं०) साँड़, बैल, श्रेष्ठ, वृद्ध ... संज्ञा, पु० (सं०) प्रायः ६० वर्ष से पुरुष । यौ०-वृषभकंध, वृषभस्कंध । उपर की अंतिम अवस्था का बूढ़ा, बुड्ढा, "वृषभकं उर बाहु विशाला'---रामा० । जरा, बुढाई, बुढ़ापा । विद्वान, अनुभवी । ४ प्रकार के पुरुषों में से एक ( काम०), वृद्धता--संज्ञा, स्त्री० (सं०) बुढ़ापा, बुढ़ाई, वैदर्भी रीति का एक भेद (सा०)। वृद्धत्व, बूढ़े का भाव या धर्म, पांडित्यानु वृषभधुज*-संज्ञा, पु. दे॰ यौ० (सं० भव। वृषभध्वज ) महादेवजी। वृद्धत्व-संज्ञा, पु. (२०) जरावस्था, बुढ़ापा, वृषभध्वज--संज्ञा, पु. यौ० (सं०) शिवजी । बुढ़ाई, वृद्धता । “ तस्य धर्म रतेरासीत् वृषभानु-पंज्ञा, पु० (सं०) नारायणांशजात, वृद्धत्वं जरसा विना"-रघु०। राधाजी के पिता। For Private and Personal Use Only Page #1623 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir D HARRORIES रामा०। बृषभानुसुता वेतन वृषभानुसुता-संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) वृहत्-वि० (सं०) महान्, बड़ा, भारी, राधिका, वृषमानुतनया, वृषभानुजा। विशाल । वृषल-संज्ञा, पु० (सं०) शूद, नीच, पतित, वृहद्रथ-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) इन्द्र, सामवेद, पापी, दुष्कर्मी, घोड़ा, राजा चंद्रगुप्त का । यज्ञ-पात्रा एक नाम । वृहनला---संज्ञा, स्त्री. (सं०) अज्ञातवास में वृषला--- संज्ञा, स्त्री० (सं०) रजस्वला, कुलटा, राजा विराट के यहाँ स्त्री वेशधारी अजन दुराचारिणी, नीच जाति की स्त्री, रजस्वला का नाम । हुई कुमारी कन्या ( स्मृति), विपती वृहस्पति-संज्ञा, ० (सं० बृहस्पति) (दे०)। "सदाचार बिनु वृषली स्वामी" देव गुरु वृहस्पति, जीव ६ ग्रहों में से ५ वाँ -रामा० । ग्रह (ज्यो०)। वृषवामी-संज्ञा, पु० (सं०) शिव, शंकर ।। घंकट गरि-संज्ञा, पु० यौ० सं०) दक्षिण __ भारत का एक पहाड़ ! वृषाकपि----मंझा, पु. (सं०) शिव, विष्णु । वेग---संज्ञा, पु० (सं०) तेज़ी बहाव, प्रवाह, वृषाकपायी- संज्ञा, स्त्री. (सं०) पार्वती, देह से मल मूत्रादि निकलने की प्रवृत्ति, लक्ष्मी । शीघ्रता प्रसन्नता, श्रानंद, जल्दी, वेगि वृषादित्य, विषादित (दे०)—संज्ञा, पु. (व.)। " वेग करहु वन-गवन-माजा''--- (सं० विषादित्य ) वृष राशि के सूर्य । “जेठ विषादित की तृषा, मरे मतीरन खोज"-वि० । वेगवान् ---वि० (सं० शीघ्रगामी, तेज चलने वृषासुर--संज्ञा, पु० यौ० (सं०) एक दैत्य, | या बहने वाला, वेगवन्त । स्त्री०-वेगवती। भस्मासुर। वेगि---क्रि० वि० (ब) शीध्र, जल्दी, बेगि। वृषोत्सर्ग-संज्ञा, पु० (सं०) मृत पितादि के वेगि करह किन आखिन पोटा"--- नाम पर चक्रादि दाग कर साँड छोड़ने की | रामा० । एक धार्मिक रीति या विधि (पुरा०) वेगी- संज्ञा, पु. ( सं० वेगिन् ) अधिक वेग वृष्टि-संज्ञा, स्त्री० (सं०) वर्षा, बरसा (दे०) वाला, वेगवान् । वारिश, मेह, ऊपर से किसी वस्तु का कुछ वेण -- संज्ञा, पु. (सं० राजा प्रथु के पिता । देर तक बराबर गिरना, किसी क्रिया का “लोक-वेद ते विमुख भा, नीच को वेण कुछ काल तक लगातार होना । "महा वृष्टि । समान "--रामा० एक वर्ण-संकर प्रचीन चलि फूटि कियारी"---रामा० । जाति । वृष्टिमान, वृधिमापक-संज्ञा, पु. यौ० | वेणि, वेणी-संज्ञा, स्त्री० (सं०) स्त्रियों की (सं०) वर्षा के पानी नापने का यंत्र। गूंधी हुई चोटी, बेगी, वेनी (दे०)। वृष्णि-संज्ञा, पु० (सं०) बादल, मेघ, “कृश तनु, शीस जटा इक वेणी"-रामा० ! यदुवंश, श्रीकृष्णजी, अग्नि, वायु, इन्द्र। वेणु-संज्ञा, पु. (सं०) बाँस, बाँस की वृष्य-संज्ञा, पु. (स०) वीर्य, बल और हर्ष, मुरली, वंशी । “वेणु हरित मणिमय सब उत्पादक वस्तु या पदार्थ ।। कीन्हे"-- रामा०। वृहती-संज्ञा, स्त्री० (सं०) बैंगन, बड़ी वेणुका-संज्ञा, स्त्री० (सं०) बाँसुरी। भटकटैया, बनभाँटा, कंटकारी, बड़ी कटाई, वेत-संज्ञा, पु० दे० ( सं० वेत्र ) बेंत । भ, म, स (गण) का एक वर्णिक छंद वेतन संज्ञा, पु० (सं०) किसी काम के बदले (पिं०) । " देवदारु, घना, विश्वा बृहती है। दिया गया धन, तनख़्वाह, महीना, दरमहा, पाचनम्"-लो। मासिक उजरत, पारिश्रमिक, वेतन (दे०)। For Private and Personal Use Only Page #1624 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - - वेतनभोगी वेधशाला वेतनभोगो~-संज्ञा, पुन्यौ० (सं० वेतनभोगिन् ) | प्रमाणिक बात जिसका खंडन किसी प्रकार तनख़्वाह लेकर कार्य करने वाला, नौकर। न हो सकता हो, स्वभाव-सिद्ध, ईश्वरवेतस --संज्ञा, पु० सं०) बडवानल, बेंत । वाक्य, वेद-वाणी। वेनाल-संज्ञा, पु० (सं०) संतरी, द्वारपाल. वेदव्यास--संज्ञा, पु. यौ० (सं०) कृष्ण शिवजी का एक गणाधिप एक भूतयोनि द्वैपायन, व्यासजी। ( पुरा० ), भूत ग्रहीत मुर्दा, वेताल (दे०) वेदांग संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) वेदों के ६ छप्पय का ६ वाँ भेद । पिं० ) । भूत, अंग :--छः शात्र, शिहा, कल्प, व्याकरण, पिशाच, प्रेत, वेताला"..- रामा० । छंद, निरुक्त, ज्योतिष, षडंग। यौ०-वेदवेत्ता --- वि० सं०) ज्ञाता, जानने वाला । वेदांग । वेत्र-संज्ञा, पु० (सं०) बत, त (दे०)। वेदांत-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) श्रारण्यक वेत्रधर--संज्ञा, पु. (सा०) द्वारपाल । उपनिषदादि वेद के अंतिम भाग जिनमें वेत्रवती - संज्ञा, स्त्री० (सं०) बेतवा नदी जगत, श्रात्मा और ब्रह्म का निरूपण है :"छिपा वेत्रवती मह सुरगदी ख्याता तथा ब्रह्मविद्या, वेदों का अंतिम भाग, ज्ञानकांड, गंडकी"--- स्फु०। अध्यात्म विद्या, वह दर्शनों (शास्त्रों) में से वेत्रासुर-संज्ञा, पु. (सं०) प्राग्ज्योतिष नगर एक प्रमुख दर्शन शास्त्र जिसमें चैतन्य ब्रह्म का राजा, एक दैत्य (पुरा० । की एक मात्र पारमार्थिक सत्ता मानी गई है वेत्री-संज्ञा, पु. ( सं० वेत्रित् ) द्वारपाल । ( अद्वैतवाद ) उत्तर मीमांसा । यौ० ---- वेद----संज्ञा, पु० (सं०) प्राध्यात्मिक या धार्मिक वेदान्लवाद । विषय का ठीक ज्ञान, अति, अाम्नाय. भारत | वेदातसूत्र--संज्ञा, पु० यौ० (सं०) महर्षि के श्रार्यों के सर्व मान्य प्रमुख धार्मिक ! वादरायण या व्यास प्रणीत उतर मीमांसा के मूल सूत्र। ग्रंथ, वेद चार हैं : . ऋग्वेद, यजुर्वेद, वेदांती-- संज्ञा, पु. ( सं० वेदांतिन् ) वेदांतसामवेद (प्रथम के मूल ३ वेद) अथर्वणवेद ज्ञानी, वेदांत का ज्ञाता, वेदांतवादी, (पश्चात्काल में यज्ञांग, वित्त, वृत । ब्रह्मवादी, अद्वैतवादी. वेदान्तवादी। " वेद-विहित संमत सबही का".-- रामा० ! | वेदिका-संज्ञा, स्त्री० (सं०) यज्ञादि के हेतु वेदज्ञ-संज्ञा, पु० (सं०) वेदों का ज्ञाता, बनाई हुई ऊँची भूमि । "वट-छाया वेदिका ब्रह्मज्ञानी, वेद वित् वेद-वक्ता ! सुहाई "----ामा० । वेदन--संज्ञा, पु० (सं०) पीड़ा। वेदित -- वि० (सं०) बतलाया हुश्रा । वेदना-संज्ञा, स्त्री. (सं०) व्यथा, पीड़ा, दर्द। वेदी-संज्ञा, स्त्री. (सं.) शुभ या धर्म "वेदनायाञ्च निग्रहः "..-मा० प्र० कार्य के हेतु बनी हुई ऊँची भूमि । वेदनिंदक ---संज्ञा, पु० यौ० (सं०) वेदों की वेध-संज्ञा, पु० (सं०) वेधना, छेदना यंत्रादि बुराई करने वाला, नास्तिक । “ नास्तिकः से ग्रह-तारा नक्षत्रादि का देवना, एक ग्रह वेदनिंदकः" मनु०। का दूसरे ग्रह के प्रभाव को रोकना (ज्यो०)। वेदमंत्र .. संज्ञा, पु० यौ० (सं०) वेदों के छंद । वेधना-स० कि० दे० ( सं० वेध ) छेदना, वेद-मंत्र तव द्विजन उचारे"-रामा० ।। __ छेद करना, विद्ध करना, बेधना (दे०) । वेदमाता-संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं० वेदमातृ) “सिरस सुमन किमि वेधिय हीरा०"गायत्री, सावित्री, सरस्वती, दुर्गा । " गायत्री रामा०। वेदमाता स्यात् "..--स्फु० ।। वेधशाला-संज्ञा, पु. (सं०) वह भवन जहाँ वेदवाक्य-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) ऐसी ग्रह-नक्षत्रादि के देखने को यंत्रादि रखे हों। For Private and Personal Use Only Page #1625 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir वैचक्षण्य वेधमुख्या वेधमुख्या-संज्ञा, स्त्री० (सं०) कस्तूरी, कपूर।। वेष्टन-संज्ञा, पु. ( सं०) बेठन (दे०), वेधा - संज्ञा, पु. ( सं० वेधस् ) विष्णु, ब्रह्मा, लपेटने या घेरने की क्रिया, पगड़ी, उष्णीष, विधि, सूर्य, शिव । 'तं वेधा विदधे नूनं किसी वस्तु के ऊपर लपेटने का कपड़ा। महाभूत समाधिना"-- रघु० ।। वि०- वेटनीय, वेष्टित ।। वेधी--संज्ञा, पु. ( सं० वेधिन् ) वेध या छेद वेशित-- वि० सं०) चारों ओर से लपेटा या करने वाला जैसे-शब्दवेधी गगनवेधी घिरा हुआ। स्त्री० वेधिनी ! वि०-वेधनीय, वेधित। बैंकना - स० कि० (दे०) छीलना उधेड़ना, वेपथु, वेपथुः-संज्ञा, पु. (सं०६प, कॅप- काढ़ना, काटना। कॅपी। "वेपथश्च शरीरे में रोम-हर्षश्च -अव्य० सं०) निश्चय-सूचक शब्द । जायते"-गीता। सर्व० (७०) वे, वह का बहुवचन । “तत्र वै वेपन-संज्ञा, पु. (सं०) कंप. काँपना। विजयो ध्वम् " वि० वेपित, वेपनीय । वैकलिक वि० (सं०) जो इच्छानुसार वेला -- संज्ञा, स्त्री. ( सं० ) रात दिन का ग्रहण किया जा सके, जो एक ही पक्ष में २४ वाँ भाग, समय, काल, वक्त, बेरा. हो, एकांगी, संदिग्ध बेला (दे०), समुद्र का किनारा, सीमा, समुद्र वकल्प-संज्ञा, पु० (सं०) विकलता : की लहर । " वेलानिलः केतकरेणुभिस्ते " वैकाल-संज्ञा, पु० (दे०) दो पहर के बाद का समय, अपरान्ह, चौथा पहर।। -रघु०। कंठ--संज्ञा, पु. (सं०) विष्ण, विष्णु लोक वेश-संज्ञा, पु. (सं०) वेष, वनादि से अपने (पुरा०) स्वर्ग। वि. चैकंठीय । वैकंठ को सजना या सजाना पहनने का ढंग, भेस कृष्ण मधु सूदन पुष्कराह ' - शंकरा० । (दे०) गुहा-किसी का वेश धारणा वैकंवाम- संज्ञा, 'पुयौ० (०) मृत्यु, करना (बनाना)---किसी के रूप रंग और मरण । वि. कंठवासी- मृत।। पहनावे धादि की नक़ल करन" । पहिनने के वैकृत -- संज्ञा, पु० (स०) विकार, विगाड़, वस्त्र या कपड़े, पोशाक, खेमा, डेरा, घर, ख़राबी, वीभत्सरस, वीभत्सरप का पालंबन मकान, तंबू । यौ०-वेश-भूषा--पहनने के विभाव :-जैसे-तादि । वि०--विकार कपडे श्रादि । से उत्पन्न, जो शीघ्र वन न सके, दुःसाध्य, वेशधारी - संज्ञा, पु. (सं० वेशधारिन् ) कष्ट साध्य । वेशधारण करने वाला। वैकगीय–वि० (सं०) विक्रम संबंधी, वेशवध्र, वेशवनिता - संज्ञा, स्त्री० यौ० | विक्रम का संवत्) विक्रमीय । (सं०) रंडी, वेश्या, गणिका। वैकात -- संज्ञा, पु० (६० चुन्नी मणि । वेशर, वेसर-संज्ञा, पु० (दे०) नथ, नथुनी। वैखरी-- संज्ञा, स्त्री० (सं०) वाग्देवी, वाक्वेष, वेषम-संज्ञा, पु० (सं०) घर, मकान, शक्ति, गंभीर, ऊँचा और स्पष्ट स्वर । गृह, वेश, भेख। वैखानस--संज्ञा, पु. (सं०) वाणप्रस्थ वेश्या-संज्ञा, स्त्री. (सं०) रंडी, पतुरिया, थाश्रम वाला वनवासी तपस्वी, एक गणिका गाने-नाचने और कसब कमाने वनवासी तपस्वी या ब्रह्मचारी। वाली स्त्री, तवायफ वैगंध--- संज्ञा, पु० (सं.) गंधक नामक धातु | वेष-संज्ञा, पु० (सं०) वेश, भेम (दे०). रंग- वैवतण्य-संज्ञा, पु० (सं०) चातुर्य, दक्षता, मंच पर, नेपथ्य (नाट्य०) । “स तत्र मंचेषु प्रवीणता, विचक्षणता, चतुरता, कुशलता, मनोज्ञ वेषान"-रघु० । पटुता। For Private and Personal Use Only Page #1626 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir वैचित्र्य वैधेय वैचित्र्य-संज्ञा, पु. ( सं०) विचित्रता, समेतः, वैदर्भमागन्तुमजं गृहेशम् "विलक्षणता। रघु० । वि.--विदर्भ प्रान्त का। वैजयंत-संज्ञा, पु० (सं०) इन्द्र, इन्द्रपुी। वैदी-संज्ञा, स्त्री० (सं.) रुक्मिणी, वैजयंती-- संज्ञा, स्त्री. (सं०) पताका, झंडी, दमयंती, भैमी, मधुर वर्णों द्वारा मधुर पाँच प्रकार के मोतियों की माला । . धुपे रचना की एक काव्य-शैली व रीति । समुत्सर्पति वैजयंतीः" रघु० । "वैदर्भी केलिशैले मरकत शिखरादुत्थि तैरंशु दर्भः ” नैष । वैज्ञानिक--संज्ञा, पु० (सं०) विज्ञान शास्त्र । वैदिक-संज्ञा, पु० (सं०) वेदविहित कृत्य का पूर्णज्ञाता, निपुण, प्रवीण दक्ष, चतुर। करने वाला, वेदों का पूर्ण ज्ञाता। वि०वि०-विज्ञान का, विज्ञान-संबंधी। | वेद का, वेद सबंधी. बेदिक (दे०)। "लौकिक वैतनिक-- संज्ञा, पु० (२०) वेतन या तनख्वाह | वैदिक करि सब रीती'.-- रामा० । पर काम करने वाला, नौकर, सेवक । वैदूर्य-संज्ञः, पु० (सं०) एक मणि विशेष, वैतरणी--संज्ञा, स्रो० सं० यम द्वार या लहसुनियों (दे०)। यमपुर की नदी (पुरा०), वैतरनी (दे०)। वैदेशिक-वि० सं० विदेश-संबंधी, विदेश 'तिन कहँ विवुध नदी वैतरणी"- राम०। का, विदेशीर, विदेसी (दे०)। वैताल-संज्ञा, पु० (सं० पिशाच, भूतयोनि वैदेही - मज्ञा, स्त्री० (सं०) सीता, जानकी, विशेप, भाट, बंदोजन । ' वैताल कहै । विदेह राजा की कन्या, बैदेही (दे०)। विक्रम सुनो जीभ संभारे बोलिये"--वैता०। “वैदेही मुख पटतर दीन्हे" - रामा० । वैतालिक ---संज्ञा, पु० (सं०) राजाओं को वद्य-संज्ञा, पु.० (सं०) पडित, विद्वान, जगाने वाला स्तुति पाठक । “पैतालिक भिषक, चिकित्सक, आयुर्वेद या चिकित्सायश गान कियो जब धर्मराज तब जागे' शास्त्र के अनुसार रोगियों की दवा करने ---शिव. बा. रा.। वाला। "यौपचं मूढ़ वैद्यस्य त्यजन्तु ज्वरवैतालीय -- संज्ञा, पु० सं०) एक वर्णिक पीडिताः'-लो. रा० । यौ०-वैद्य-विद्या, छंद पि०) । वि०-वैताल का, वैतालसंबंधी। वैद्यक - संज्ञा, पु० (सं.) श्रायुर्वेद, चिकिरला. वैद--संज्ञा, पु० दे० ( सं० वैद्य ) चिकित्सक, शास्त्र, रोगों के निदान एवं चिकित्सादि की वैद्य, हकीम, डाक्टर, बैद । “ नारी को न विवेचना का शास्त्र, वैद्य-विद्या । जानै वैद निपट अनारी है" सूर० । वैद्युत -- वि० सं०) विजली का, बिजली संबंधी। वैदक - संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० वैद्यक ) वैधा-वि० (6) रीति-नीति के अनुकूल, आयुर्वेद, चिकित्साशास्त्र, वेदक (दे०)। विधि के अनुसार, उपयुक्त, ठीक ... वैदकी-संज्ञा, स्त्री० (दे०) वैद्य का काम | वैधर्म्य-संज्ञा, पु. (सं) नास्तिकता, विधर्मी या पेशा, वैदिकी, वैदी, चदाई । दे०)। होने का भाव, निन्नता, पृथकता । विलो०वैदग्ध्य -- संज्ञा, पु० (सं०) धातुर्य, नैपुण्य । साधर्म्य । "वेदग्ध मुग्ध वचसा सु विलासिनीनाम् ' वैधव्य-संज्ञा, पु० (सं.) रँडापा, विधवा - लो । होने का भाव । " नक्षत्रांतेषु वैधव्यं -- वैदर्भ-संज्ञा, पु. (सं० विदर्भ देश का शीघ्र। राजा, दमयंती के पिता भीमसेन, रुक्मिणी वैधेय-वि० (सं०) ब्रह्मा या विधि का, के पिता भीष्मक। " मेने यथा तत्र जनः । विधि-संबंधी, वैध्य, विधि का । वैद्यराज। For Private and Personal Use Only Page #1627 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra 39 www.kobatirth.org वैनतेय १६१६ वैश्वदेव DOUBLE W वैनतेय - संज्ञा, पु० (सं०) विनता की संतान ! वैलत्तराय -संज्ञा, पु० (सं०) विचित्रता, अरुण, गरुड़ । वैनतेय - बलि जिमि चह 66 विलक्षणता, विभिन्नता, अनोखापन । वैप - संज्ञा, पु० (०) विवर्णता, मलिनता । वैवस्वत- संज्ञा, पु० (सं०) सूर्य का एक G- पुत्र, एक मनु, एक रुद्र, वर्तमान मन्वंतर । वैवाहिक -संज्ञा, पु० (सं०) समधी, कन्या या वर का श्वशुर । वि० विवाह-संबंधी, विवाद का । स्री० त्रैवाहिकी। वैशंपायन - संज्ञा, पु० (सं०) व्यास जी के शिष्य एक प्रसिद्ध ऋषि । वैशाख – संज्ञा, पु० (सं०) चैत्र और जेठ के मध्य का महीना, वैसाख (दे० ) । वैशाeet संज्ञा, सो० (सं०) वैशाख की पूर्ण माही. दोशाख की छड़ी, वैसाखी (दे०) । वैशाली -- संज्ञा, खो० (सं०) विशाल नगरी, (प्राचीन बौद्ध काल ) विशाल पुरी या नगरी (मुज़फ़्फ़रपुर प्रान्त का बाढ़ ग्राम) । वैशिक -- संज्ञा, पु० (सं०) वेश्यागामी नायक ( साहि० ) वैशेषिक संज्ञा, ५० (सं०) ६ दर्शन शास्त्रों में से महर्षि कणाद कृत एक दर्शन शास्त्र जिसमें पदार्थों तथा द्रव्यों का निरूपण है, विज्ञान- शास्त्र, पदार्थविद्या, प्रोलूक्य दर्शन, वैशेषिक दर्शन का मानने वाला । न वयम्पट् पदार्थवादिनः वैशेषिकवत् शं० भा० । Gi "3 कागू रामा० । वैपार - संज्ञा, पु० दे० (सं० व्यापार) व्यापार वाणिज्य, मौदागरी, वैपार (दे० ) । (दे०) वैपारी । वि० वैभव - संज्ञा, पु० (सं० ) संपत्ति, ऐश्वर्य, प्रताप, महत्व देखि न कपि मन शंका रामा० । वैभवशाली - संज्ञा, पु० (सं०) प्रतापी, धनी, बड़े ऐश्वर्य वाला, वैभवी वैभaara वैमनस्य - संज्ञा, पु० (सं०) रात्रुता, बैर । वैमात्रेय - वि० (सं०) विमाता या सौतेली "" विभव, धन, 'वैभव 14 माता से उत्पन्न सौतेला । त्रो० चैमात्रेयी वैयाकरण - संज्ञा, पु० (सं०) व्याकरण शास्त्र का पूर्ण ज्ञाता, या पंडित, विद्वान । वैयाकरणसिद्धांत कौमुदीयम् विरच्यते " -- कौ० व्या० । 66 वैर संज्ञा, पु० (सं० भा० वैरता ) शत्रुता, दुश्मनी, विरोध, वैमनस्य, द्वेष | वैर-शुद्धि - संज्ञा, स्रो० यौ० (सं०) किसी से वैर का बदला लेना । यौ० संज्ञा, पु० (सं०) वैरशोधन | वैरागी - संज्ञा, पु० (सं०) विरक्त, त्यागी, संन्यासी, विरागी ।" वहँ हम कौशलेंद्र महराजा कहूँ विदेह वैरागी " वैराग्य-संज्ञा, पु० (सं०) विरक्ति, विराग, त्याग, वैराग (दे०), देखे सुने पदार्थों की चाह का त्याग, संसार को त्याग एकांत में ईशाराधन की चित्त वृत्ति वैराग्यमेवा रामक० । "" भ -- भ० श० । वैराज्य - संज्ञा, पु० (सं०) एक ही देश में दो राजाओं का राज्य या शासन, दो राजाओं से शासित राज्य | वैरी संज्ञा, पु० (सं० वैरिन् ) शत्रु, रिपु, अरि, विरोधी, दुधी । स्त्री० वैरिणी "" बालस वैरी बसत तन, सब सुख को हर लेत "वि० भ० । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir वैश्य - सज्ञा, पु० (सं०) चार वर्णों में से तीसरा वर्णं जिनका धर्म श्रध्ययन, यजन और पशुपालन था तथा जिनकी वृत्ति, कृषि और वाणिज्य था ( भार० श्रार्य० ) बनिया, व्यापारी वस्य (दे० ) । वैश्यता - संज्ञा स्त्री० (सं०) वैश्यत्व, वैश्म का धर्म या भाव ! वैश्यत्व - संज्ञा. ५० (सं०) वैश्यता । वैश्यजनीन - वि० (सं०) सारे संसार के लोगों से संबंध रखने वाला, सब लोगों सार्वभौम | का. वैश्वदेव - संज्ञा, पु० (सं०) विश्वदेव-संबंधी यज्ञ या होम. विश्वदेवार्थ हवन । For Private and Personal Use Only Page #1628 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir वैश्वानर व्यतिरेक वैश्वानर-संज्ञा, पु. (सं०) अग्नि, चेतन, वौल-संज्ञा, पु० (दे०) गोंद, गुग्गुल, परमात्मा। “वैश्वानरे हाटक-संपरीक्षा" धूप विशेष । -स्फु०। | व्यंग्य - संज्ञा. पु. (सं०) व्यंजना वृति से वैषम्य-संज्ञा, पु० (सं०) विषमता। प्रगट शब्द का गूदार्थ, बोली, ताना, चुटकी, वैषयिक-वि० (सं०) विषय-संबंधी, विषय व्यंग (दे०) । "अलंकार अरु नायिका, छंद का । सज्ञा, पु०-विषयी, लंपट ।। लक्षणा व्यंग'-स्फु० । वैष्णव--संज्ञा, पु० (सं०) श्राचार विचार व्यंजक - संज्ञा, पु० (सं०) प्रकाशक, विशेष से रहने वाले विष्णूपासकों का एक संप्रदाय, भाव बोधक शब्द । विष्णु का उपासक । त्री० चैगावी । वि० । व्यंजन --- संज्ञः, पु० (सं०) होने, व्यक्त या -विष्णु का, विष्णु-संबंधी। प्रकट करने का भाव या क्रिया, पका भोजन वैष्यावी-रंज्ञा, स्त्री० (सं०) विष्णु-शक्ति, जिसके छप्पन भेद हैं, साग-तरकारी श्रादि. लघमी, तुलसी, दुर्गा, गंगा ! अच्छा भोजन, वह अक्षर जो स्वर की वैसा--सर्व (दे०) उसके समान या तुल्य सहायता बिना बोला न जावे, वर्ण-माला तत्सदृश, उसके ऐसा या जैसा । यौ० ऐसा के क से ह तक के सब वर्ण, अंग, अवयव । वैसा ----साधारण । स्त्री० (दे०)-चैसी- व्यंजना-संज्ञः, स्त्री. (सं०) प्रगट करने की उधर की भोर । क्रिया, शब्द की वह शक्ति जिससे उसके वैसे-- वि० (दे०) बिना मूल्य, सेंत-मेंत, सामान्यार्थ को छोड़ विशेषार्थ व्यक्त हो । उसी प्रकार, उसी तरह । यौ० ऐसे-वैसे | व्यक्त-वि० सं०) स्पष्ट, प्रकट, साफ़ । साधारण, भले-बुरे । संज्ञा, स्त्री०-व्यक्तता, व्यक्तत्व । घोक --अव्य० (दे०) पोर, तरफ़, दिशा। व्यक्तगणित---संज्ञा, पु. यौ० (सं०) वह वोछा--वि० (द०) श्रोछा, तुच्छ, नीच। गणित जो प्रकट अंकों के द्वारा किया जावे, घोट--- संज्ञा, पु. (अं०) मत, राय, बोट (ग्रा.)। व्यक्ति--संज्ञा, स्त्री० (सं०) व्यक्त होने का वोटर-संज्ञा, पु० (अं०) मत देने वाला। भाव या क्रिया, प्रकट होना, किसी शरीरधारी वोड़ना-स० क्रि० (दे०) फैलाना, पसारना, का शरीर, मनुष्य, आदमी, व्यष्टि, जन, स्वतंत्र पोरना, ओना (ग्रा.)। " दास दान एवं पृथक सत्ता वाला । संज्ञा, स्त्री०तोपै चहै, दृगपल अँजुरी वोड़ "~-रतन। व्यक्तित्व, वैयक्तिक । वोद-बोदा-वि० (दे०) गीला, भीगा, योद, व्यग्र---वि० (सं०) व्याकुल, उद्विग्न, विकल, प्रादा (ग्रा.)। भय-भीत, काध्य में लीन या फंसा हुश्रा, वोदर-संज्ञा, पु० दे० ( सं० उदर ) उदर, घबराया हया । संज्ञा, स्त्री०-व्यग्रता । पेट, योदर ( ग्रा० )। " जग जाके वोदर व्यतिक्रम-संज्ञा, पु० (सं०) क्रम का विगाड़ बसै, तिहि त ऊपर लेय"-दास । या उलट-पलट. विघ्न, वाधा । संज्ञा, स्त्री०वोर-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० भोर) श्रोर, तरा। व्यतिक्रमता। वोल्लाह-संज्ञा, पु० (सं०) पीली अयाल और व्यतिरिक्त-क्रि० वि० (सं०) सिवा, अलावा पूंछ वाला घोड़ा। अतिरिक्त, अन्य, भिन्न । घोहित-संज्ञा, पु० दे० (सं० वोहित्थ ) व्यतिरेक-संज्ञा, पु. (सं०) भेद, अभाव, जहाज़, बड़ी नाव । “शंभु चाप बड़ वोहित अतिक्रम. अंतर, एक अर्थालंकार जहाँ पाई "-रामा। उपमान से उपमेय में कुछ और अधिकता घोहित्थ-संज्ञा, पु० (सं०) जहाज, बड़ी नाव ।। या विशेषता कही जाय (अ.पी.)। भा० श० को०-२०३ r a . /.. -- - - श्रक-गणित, For Private and Personal Use Only Page #1629 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir व्यतिरेकी व्यवस्थापत्र व्यतिरेकी--संज्ञा, पु. ( सं. व्यतिरेकिन ) । व्यनीक-संज्ञा, पु० (सं०) दुख, अनुचित, जो किसी को अतिक्रमण करके जावे : अयोग्य, विट, अपराध, डाँट-फटकार, डाँटव्यतीत-वि० सं०) बीता या गुज़रा हश्रा, उपट, शालीक चिोका (दे०)। " वचन गत, जो चला गया हो, बितीत (दे०)। तुम्हार न होंहि व्यतीका"---रामा० । व्यतीलना-- अ. क्रि० दे० । सं० व्यतीत ) व्यवकतन--- संज्ञा, पु० (सं०) बाक़ी निका वीतना, गुज़रना, गत होना. चला जाना, लना, बड़ी संख्या में से छोटी सजातीय बितीतना (दे०)। संख्या का घटाना आणि.)। व्यतीपात-सज्ञा, पु. (सं०) बहुत बड़ा व्यवनोद · संज्ञा, पु. (सं०) अलगाव, उपद्रव या उत्पात, एक योग जिपमें शुभ पार्थक्य पृथकता, विलगता, हिस्सा, विभाग, कार्य या यात्रा का निषेध है ( ज्यो ।। विराम ठहराव। व्यत्यय---संज्ञा, पु. (सं०) अतिकम व्यतिक्रम, व्यवधान-संज्ञा, पु. (सं०) परदा, बीच में लाँधना, डाँकना। श्रार घोट या पाड़ करने वाली वस्तु, व्यथा--- संज्ञा, स्त्री० (सं०) रोग, क्लेश, पीड़ा, बीच में पड़ने वाला, भेद, खंड, विच्छेद । दुख, वेदना, कष्ट, बिथा (दे०) । " व्यथा व्या ... संज्ञा, पु. (सं०) रोज़गार, उद्यम, असाध्य भूप तब जानी"----रामा० ।। जीविका, व्यापार, काम-धंधा, गोसाय व्यथित--- वि० (सं० ) क्लेशित, पीडित, दुखित, रोगी। व्यवसायी--- संज्ञा, पु. (सं० व्यवसायिन् ) व्यपदेश--संज्ञा, पु० (सं०) व्याज, बहाना, रोज़गारी, उद्यमी. व्यापारी, कामकाजी । श्रमुख्य में मुख्य का भाव । पतिमाता न या नारी, व्यवसायी न यः व्यभिचार-संज्ञा, पुं० (सं०) दूपित या बुरा पुमान् ".- नीति। श्राचार-व्यवहार, बदचलनी, छिनाला, उपायथा - संज्ञा, स्त्री० (सं०) शास्त्रों के द्वारा पुरुष का पर स्त्री तथा खत्री का पर-पुरुष से जिमी कार्य का निधारित या निश्चित अनुचित संबन्ध । व्यभिचारिणी-ज्ञा, स्त्रो० ( सं० ) ए. विधान, निश्चित गोति नीति । महा कीया, कुलटा. छिनाल स्त्री भृण-कर्ता सवा देना-विद्वानों का किसी बात पिता शत्रः माता च व्यभिचारिणी ".. पर शास्त्रीय सिद्राना बतलाना विधान या नीति रीति-नीति बतलाना । प्रबंध इंतिजाम, व्यभिचारी-संज्ञा, पु. ( सं० व्यभिचारिन) स्थिति, स्थिरता, वस्तुओं को सजा कर बदचलन, आचार-भ्रष्ट, पर स्त्रीगामी, यथा स्थान रखना हिनरा (दे०)। स्रो०-व्योमचारिणी। व्यवस्माना, व्यवस पिक-वंज्ञा, पु० (सं०) काव्य में एक संचारी भाव। शास्त्रीय व्यवस्था देने वाला, नियम पूर्वक व्यय--संज्ञा, पु० (सं.) खर्च, सरना, बरबादी, कार्य चलाने वाला, प्रबंध कर्ता, विधायक। खपत, विनाश, जन्म-कुंडली में लग्न से व्याशाका सभ -- संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) १२ वाँ घर । यौ०--व्यय-स्थान, रग सरकार के गवर्नर या वाइसराय की प्रबध.- व्यय-स्थान का राशि-पति ग्रह (ज्यो०)। कारिणी या नियम बनाने वाली सभा व्यर्थ-वि० (सं०) निष्प्रयोजन, निरर्थक, (वर्तमान)। सार या अर्थ-हीन, बेकायदा, नाहक, वृथा। व्यवस्थापन -- संज्ञा, पु० यौ० (सं०) वह पत्र क्रि० वि०-फज़ल, य ही । " व्यर्थ धरहु जिसमें किसी विषय की शास्त्रीय व्यवस्था धनु-वान-कुठारा"-रामा०। लिखी हो। For Private and Personal Use Only Page #1630 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir व्यवस्थित व्याज व्यवस्थित--वि० (सं०) जिसमें किसी प्रकार । लिखना और समझना जाना जाता है। की व्यवस्था या नीति हो, कायदे का। तथा, शब्दों, वाक्यों श्रादि के शुद्ध व्यवहरिया-संज्ञा, पु० दे० (सं० व्यवहारिक) प्रयोगादि के नियमों की विवेचना का शास्त्र । व्यवहार करने वाला, महाजन, ऋणदाता, "अंगीकृत कोटिमितंच शास्त्रं नांगीकृतं व्यवहर, व्यौहर, ज्यौहरिया (दे०) ।। व्याकरणं पायेन"-स्फु०। "अब पानिय व्यवहारिया बोली"-रामा० । व्याकुल-संज्ञा, पु० (सं०) विकल, घबराया व्यवहार-संज्ञा, पु० (सं०) काम, कार्य, . हुश्रा, उत्को ठेत । संज्ञा, स्त्री०-व्याकुलता। क्रिया, बरताव, परस्पर बरतनाव्यापार, व्याकुल कुम्भकरण पहँ श्रावा"-रामा०। लेन-देन का काम, रोजगार, महाजनी, व्यामोम--संज्ञा, पु० (सं०) श्रनादर या विवाद, मुकदमा, झगड़ा । यो... हार- तिरस्कार करते हुए कटाइ करना, चिल्लाना, शोर करना। बहार-शास्त्र--संज्ञा, पु० यौ० सं०) धर्म- व्याख्या ज्ञा, स्त्री० (सं०) टीका. विवेचना, शामा कानून, राजनीति, विवाद निर्णय व्याख्यान, पार्थ, जटिल या क्लिए वाक्यादि और अपराधादि के दंड-विधान का शास्त्र का अर्थ स्पा करने वाली वाक्यावली ! व्यवाहन--वि० सं०) छिपा हुआ, जिपके | व्याख्याता- संज्ञा, पु. ( सं० व्याख्यातृ ) धागे कोई पाई या पदी हो. व्यवधान व्याख्या करने वाला, व्याख्यान देने या प्राल, अंतराल -युक्त । भाषण करने वाला, टीकाकार । व्यवधान वि० (सं०) जो कार्य में लाया व्याख्यान--संज्ञा, पु. (सं०) किसी विषय गया हो, प्रयुक्त, कृनानुशन जिस शाच की व्याख्या, टीका या विवेचनादि करने या रण किया गया हो। सज्ञा, स्त्री०- पवति! बतलाने का कार्य, भाषण, वक्तृता ।। व्यमि--संज्ञा, स्त्री० (सं.) समाज का एक व्याघान-संजा, पु० (सं०) बाधा, विघ्न, पृथक विशेष व्यक्ति । विलो.नधि) चोट, श्राघात', मार. प्रहार, एक अशुभ योग अलग, भिन्न । ( ज्यो०), एक अलंकार जहाँ एक ही साधन या उपाय से दो विरोधी कार्यों के व्यसन---संज्ञा, पु. (सं.) आपत्ति, बुरी या होने का कथन हो ( अ० पी० )। अमंगल बात, दुख, विपत्ति, विषयानुरक्ति, व्याव-संज्ञा, पु. (सं०) बाय, सिंह, शेर । कामादिक विकारों से होने वाला दोष, " वरम वनम् व्याघ्र गजेंद्र सेवितम् "--- प्रवृति, शौक़ विषयासक्ति, बुरी लत या भ० श०। कुटव। "अति लघु रूप व्यसन यह तिनहीं" व्याघ्रचर्म ... संज्ञा, पु० यौ० (सं० बाघ -----रामा० । “यशनि चाभिरुचियं तनं श्रुतौ" या शेर की खाल, व्याघ्राम्बर, बाघम्बर, -~-~म । बघम्बर (दे०)। व्यसनी---संज्ञा, पु० सं० व्यसनिन् ) शौकीन, व्याघनख -... ज्ञा, पु० यौ० (सं०) नख (ग्रंधकिसी वस्तु में पासक्त, विषयानुरागी। द्रव्य) बाघ का नाखून, बघनख (दे०) व्यस्त-वि० (सं०) व्यात, व्याकुल, उद्विग्न, बधनहा जिसे दृष्टि-दोष से बचाने को व्यग्र, घबराया हुआ, कार्य में फंसा या बालकों के गले में पहनाते हैं । लगा हुमा व्याज-संज्ञा, पु. (सं०) मिस (व०) व्याकरण-संज्ञा, पु. (सं०) वह विद्या बहाना, छल, कपट, विन्न, वेर, विलंब, देर, जिससे किसी भाषा का ठीक ठीक बोलना, सूद, व्याज, बियाज (दे०) खाभ । " सिय For Private and Personal Use Only Page #1631 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir व्याजक व्यालिक मुख-छवि विधु-व्याज बखानी"-रामा० । व्यापक--वि० (सं०) श्राच्छादक, सब स्थानों "दिन चलि गये व्याज बहु बादा"-रामा०।। में फैला हुआ, घेरने या ढकने वाला, प्रत्येक व्याजक-वि० (सं०) छली, फणी, व्याजू । पदार्थ के भीतर-बाहर वर्तमान । ' सब व्याजनिंदा-संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) ऐसी में व्यापक पै पृथक. रीति अलौकिक सर्व '' निन्दा जिसमें यों देखने से निन्दा न हो, एक -मा० । संज्ञा, खो०- व्यापकता, पु०शब्दालंकार ( अर्थालंकार ) जिसमें निंदा व्यापकत्व। तो हो किन्तु देखने में वह स्पष्ट न हो।। व्यापना-अ. क्रि० दे० ( सं० व्यापन ) व्याजस्तुति - संज्ञा, स्त्री० य (सं०) ऐसी व्याप्त होना, किसी वस्तु के भीतर-बाहर स्तुति जिसमें देखने से स्तुति न हो वरन् । फैलाना या वर्तमान रहना, आच्छादित व्याज या बहाने से स्तुति हो, एक शब्दा- करना, श्रसर करना, प्रभाव डालना, पैठना। लंकार ( अर्थालंकार ) जिसमें बहाने से | व्यापादन -संज्ञा, पु. ( सं० ) हत्या, नाश, ऐसी स्तुति की जाये कि देखने में वह पर-पीड़न का यन या उपाय । वि... स्पष्ट न जान पड़े। व्यापादनी, व्यापादित। व्याजू-संज्ञा, पु० वि० दे० ( सं० व्याज ) व्यापार ---- संज्ञा, पु० सं०) कार्य, कर्म, कामवह धन जो व्याज या सूद पर उधार दिया धंधा, सौदागरी, रोजगार, व्यवसाय, उद्यम, जावे, बियाज (दे०)। क्रय-विक्रय का कार्य, व्यापार (दे०)। व्याजोक्ति-संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) छल या व्यापारी-संज्ञा, पु. ( सं० व्यापारिन् ) कपट से भरी बात, एक अर्थालंकार जहाँ व्यवसायी सौदागर, रोजगारी, व्यापारी किसी प्रगट बात के छिपाने को कोई (दे०) । वि० (हि० व्यापार-सम्बन्धी। बहाना बनाया जाय (अ० पो०)। व्यापी-संज्ञा, पु. (सं. व्यापिन् ) सर्वगत, व्याड़-वि० (सं०) छली, ठग, धूर्त । संज्ञा, विभु, व्यापक । पु०-व्याघ्र, सिंह, सर्प, । व्याप्त- वि० (सं.) विस्तृत, फैला हुआ। व्याडि---संज्ञा, पु० (सं०) एक व्याकरण ग्रंथ- व्याप्ति- संज्ञा, स्त्री. (सं०) व्याप्त होने का कार प्राचीन ऋषि ।। भाव, एक वस्तु का दूसरी में पूर्ण रूप से व्यादान--संज्ञा, पु. (सं०) फैलावा, विस्तार। फैला या मिश्रित होना, ८ प्रकार की व्याध-संज्ञा, पु. (सं०) निषाद, अहेरी, | सिद्धियों या ऐश्वर्या में से एक । बनैले पशुओं का शिकारी, किरात, बहेलिया व्यामोह-संज्ञा, पु. (सं०) अज्ञान, मोह, ब्याधा (दे०) एक जंगली जाति । "व्याध दुख, व्याकुलता। बधो मृग बान तें, रक्तै दियो बताय"..-.. व्यायाम-संश, पु० (सं०) परिश्रम, कपरत तुल। बल वर्धनार्थ किया गया शारीरिक श्रम । व्याधि-संज्ञा, स्त्री. (सं०) व्यथा, रोग, व्यायाम हद गात्रस्य तेजो बुद्धियशोवलं" बीमारी, झंझट, बखेड़ा, विपत्ति, काम या -स्फु० । वियोगादि से देह में कोई रोग होना (साहि०) | व्यायोग-संज्ञा, पु. (सं.) दृश्य काव्य या बियाधि (दे०) अँगुली की नौक का फोड़ा। रूपक का एक भेद (नाटय० )। याधिप्रसाधि जानि तिन त्यागी .... | व्याल-संज्ञा, पु० (सं०) साँप, बाघ, राजा, रामा०। विष्ण, दंडक छंद का एक भेद (पिं०) । व्यान-संज्ञा, पु. (सं०) देहान्तर की पाँच व्यालि-संज्ञा, पु. (सं० व्याडि ) व्याकरण वायुओं में से सर्वत्र संचार करने वाली एक ग्रंथकार एक ऋषि । वायु। | व्यालिक-संज्ञा, पु० (सं०) सँपेरा, व्याली। For Private and Personal Use Only Page #1632 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - व्यालू ब्रजमंडल व्यालू-संज्ञा, स्त्री० पु० दे० (सं० वेला ) | व्योम-संज्ञा, पु० (सं० व्योमन) गगन, रात्रि का भोजन, विद्यारी। आकाश, नभ, प्रासमान, बादल, पानी। व्यावहारिक-वि० (सं०) बरताव या " ज्वलन्मगि व्योम सदा सनातनम "।व्यवहार का, व्यवहार-संबंधी, व्यवहार | किरात.। शास्त्र संबंधी। व्योमचर, व्योमचारी-संज्ञा, पु. (सं० व्यावृत्त-वि० (सं०) खंडित, निवृत्त, व्योमचारिन् ) देवता, चंद्रमा, सूर्य, पक्षी, मनोनीत, निषिद्ध । “अथ स विषय तारागण मेघ, वायु, बिजली, विमान, व्यावृत्तात्मा०" रघु०।। वायुयान । ''कांतंवपुव्योमचरं प्रपेदे"-रघु० । व्यासंग-संज्ञा, पु. (सं० । अत्यधिक प्राक्ति व्योमयान--संज्ञा, पु० यौ० (सं०) आकाश या मनोयोग । में उड़ने वाला यान विमान, वायुयान, व्यास--संज्ञा, पु० (सं.) पराशर के पुत्र कृष्ण- हवाईजहाज़। द्वैपायन, इन्होंने महाभारत, भागवत, १८ व्रत-संज्ञा, पु. (सं०) गमन, जाना या पुराण और वेदान्तादि की रचना की। चलना. समूह, वृन्द, श्रीकृष्ण का लीलाजिससे वेद-व्याय कहाये इन्होंने वेदों क्षेत्र, मथुरा के आस-पास का देश, बिरिज का संग्रह संपादन और विभाग किया। (प्रा.) । "एती व्रज-वाला मृगछाला कहाँ रामायणादि के कथावाचक, वह सीधी पावैगी'.-- स्फुट। रेखा जो वृत्त गोले के केन्द्र से नाकर | वजन - संज्ञा, पु० सं०) चलना, जाना । परिधि पर समाप्त हो, फैलाव, विस्तार । ___ "व्रजन तिन पदैकेन यथा एकेन गच्छति" "अष्टादशपुराणानि व्यानस्य वचन द्वियं' --- --भा०। व्रजचंद्र- संज्ञा, पु० यौ० (सं.) श्रीकृष्ण, व्यासार्द्ध-संज्ञा, पु० यौ० (सं.) व्यास का ब्रजचंद। श्राधा, अर्ध-व्यास । व्रजनाथ -संज्ञा, पु० यौ० (सं) श्रीकृष्णजी, व्याहत - वि० (सं.) व्यर्थ, निषिद्ध ।। व्रज-नाय । “एहो ब्रजनाथ करी थल की व्याहार-संज्ञा, पु० (६०) वाक्य । न बेड़े की''--स्फु०। व्याहृति-संज्ञा, स्त्रो० (सं०! उक्ति, कथन, | व्रजपतिज्ञा , पु. यौ० (सं०) व्रजाधिभूः, र्भुवः, स्वः, इन तीनों का समुदाय या पति, व्रजाधिप, श्रीकृष्ण जी । मंत्र। व्रजभाषा-संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) व्रजमंडल व्युत्क्रम--संज्ञा, पु. (सं०) व्यतिक्रम, (मथुरा-आगरादि) की बोली या भाषा, क्रम-रहित, उलटा-पुलटा। उत्तर भारत के प्रायः सभी बड़े बड़े व्युत्पत्ति-सज्ञा. स्त्री. (सं०) किसी पदार्थ कवियों ने ( ४ या ५ सौ वर्ष से ) इसी का मूल, उत्पत्ति स्थान, उद्गम, शब्द का में रचनायें की हैं जिनमें सूर, बिहारी, वह मूल रूप जि पसे वह बना हो, किसी केशवादि प्रसिद्ध हैं । “व्रजभाष बरनी शास्त्र का अच्छा ज्ञान । कबिन, निज निज बुद्धि-विलास "-वि० व्युत्पन्न- वि० (सं.) जो किसी शास्त्र का शत। अच्छा ज्ञाता या अभ्यासी हो। व्रजभूप, प्रजभूपति-संज्ञा, पु० यौ० व्यह-संज्ञा, पु. (२०) जमाव, समूह, (सं०) श्रीकृष्ण । “ लखि ब्रज भूप-रूप निर्माण, बनावट, रचना, शरीर, सेना, युद्ध अलख, अरूप ब्रह्म"-उ० श०। में रचा गया सैन्यविन्यास या विशिष्ट व्रजमंडल- संज्ञा, पु० यौ० (सं०) ब्रज और स्थापन । जैसे-चक्र-व्यूह । | उसके पास-पास का प्रान्त या प्रदेश । For Private and Personal Use Only Page #1633 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir व्रजराज १६२२ शंकराचार्य व्रजराज-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) व्रत- व्रत्य - संज्ञा, पु. (सं०) व्रत या उपवास बिहारी, श्रीकृष्णजी। __ करने वाला। व्रजेंद्र-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) श्रीकृष्ण जी। | वाचड़ ---संज्ञा, स्त्री. (अप०) ८ वीं से ११ वीं व्रजेश, ब्रजेश्वर- संज्ञा, पु. यौ० (सं.) शताब्दी तक सिंध प्रदेश की प्राचीन भाषा श्रीकृष्ण । स्त्रो०-व्रजेश्वरी-राधिका । ( अपभ्रंश भेद ) पैशाचिक भाषा का एक व्रज्या --संज्ञा, श्री० (सं०) पर्यटन, भ्रमण, भेद या रूप। धूमना-फिरना, गमन, जाना, चढ़ाई, श्राक्रमण, धावा। बात--संज्ञा, पु. (२०) समूह, भीड़. लोग । व्रण -संज्ञा, पु० (सं.) शरीर का घाव या “गुरु निन्दक बात न कोपि गुणी"फोड़ा। रामा! व्रत-संज्ञा, पु० (सं०) नियम, दृढ़ संकल्प, व्रात्य -- संज्ञा, पु० (सं.) जिसका उपवीत किमी पुण्य तिथि को पुश पार्थ नियम से । (जनेऊ) संस्कार न हुशा हो, द गो संस्कारों उपवास करना, खाना, भज्ञ , उपगम से होन, वर्ण-संकर, अनार्य या पतित । अनुष्ठान । ब्रीडा-संज्ञा, स्त्री० (सं०) अपा, लजा शरम । वतिक ---संज्ञा, पु० (सं.) व्रत का उपवास " बीड़ा न तैराप्तजनोपन तः "---किरा० । करने वाला, व्रती। वी-पंज्ञा, पु. (सं० बस्ति । व्रत या| व्रीहि-संज्ञा, पु. ( सं० ) धान, चावल । उपवास करने वाला, बर्ती (दे०), ब्रह्मचारी, येनाहं स्यामि बहुव्रीहिः"--स्फु० । यजमान कोई व्रत या संकल्प धारण करने वबीहि झा, श्री. (सं०) पट समामों वाला। । में से एक व्या०)। श-संस्कृत और हिंदो को वर्णमाला के वाला, शुभकर्ता, लाभदाता । संज्ञा, पु० --- ऊष्मों में से प्रथम वर्ण, इ का उच्चारण- महादेव जी, शिव, शंभु, शंकराचर्य, २६ स्थान प्रधानतया तालु है । " इचु यशा मात्राओं का एक मात्रिक छंद ( पि.)। नाम् तालु" सि. को० : संज्ञा, पु. (सं०) " निशंक शंकरां के तडिदिव लमिता" ----मंगल, कल्याण, शस्त्र, शिव । --- संज्ञा, पु० दे० (सं० संकर ) दो पदार्थों शं-संज्ञा, पु. सं.) शांति सुख, कल्याण, का मेल । वैराग्य, मंगल । वि० ---शुभ ।..." शंकरी शंकरशैल -- संज्ञा, पु. यौ० (सं०) शंकराशंकरोतु"। " शन्नो मित्रः शंवरुण " चल, कैलाश पर्वत । -~-य. वे०। शंकर स्वामी - संज्ञा, पु. यौ० { सं० शंकर स्वामिन् ) अद्वैत मत प्रर्वतक स्वामी शंकरा शंक- संज्ञा, पु. (सं०) अाशंका, डर, भय, संक (दे०)। " देत-लेत मन शंक न कर | शंकरा -संज्ञा, स्त्री० सं०) शंकरी, पार्वती ही"-रामा० । जी। शंकना-अ० क्रि० दे० (सं० शंका) शंकराचार्य-संज्ञा, पु. यौ० सं०) अद्वैत संकना (दे०) डरना, शंका या संदेह मत के प्रर्वतक, एक प्रसिद्ध शैव प्राचार्य, करना। वेदान्त और गीता' पर इनके भाष्य शंकर-वि० (सं०) कल्याण या मंगल करने परम प्रसिद्ध हैं, शंकर स्वामी जो केरल For Private and Personal Use Only Page #1634 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir शंकरी शंबर प्रांत में सन् ७८८ में जन्में और ३२ वर्ष शंखपुष्पी - संज्ञा, स्त्री. (सं०) शंखाहुली, की अल्पायु में स्वर्ग वापी हुए। शंकरी .. ज्ञा, स्त्री० (सं०) पार्वती जी। | शंखत --- संज्ञा, पु० (सं०) विष्णु । शंका संज्ञा, स्त्री. (सं.) भय, भीति, डर शंखासुर --- ज्ञा, पु० यौ० (सं.) ब्रह्मा जी की आशंका, खटका, चिंता, सन्देह, के पास से वेदों को चुराकर समुद्र में जा संशय, अनुचित व्यवहारादि से होने वाली छिपने वाला एक दैत्य जिसे विष्णु ने मत्स्य अवतार ले कर मारा था (पुव०)। इष्ट-हानि या अनिष्ठ का भय, साहित्य में शंखाली- संज्ञा, स्त्री० (सं०) शंखपुष्पी, एक संचारी. भाव, संका (दे०)। " देखि | सखोली. कौड़ियाला, श्वेत अपराजिता, प्रभाव न कपि मन शंका''---रामा० ! संखाहुली, (दे०)। शंकित वि० (सं.) भयभीत, डरा हुया, शंविनी--संज्ञा, सी. (सं०) शंखाहुली, संदेह युक्त, चिंतित, अनिश्चित : स्त्री० --.. सखौली (दे०) शंखपुष्पी, कौडियाला शंकिता। ( प्रान्ती० ) श्वेत अपराजिता, मुख की शंकु -- संज्ञा, पु० (सं.) कील, मेव, गाँली. नाड़ी, सीप, एक देवी, पद्मिनी श्रादि स्त्रियों खा, ग्वटी, बरछा, भाला, कामदेव, शिव, के ४ भेदों में से एक भेद ( कोक० ), एक वह खटी जिससे सूर्य या दीपक की छाया वन औषधि । " गुड़-च्यपामार्ग विडंग नाप कर समय जाना जाता था ( प्रचीन०) | शंखिनी"- भा० प्र०। शंख, दश लाख कोटि की संख्या (लीला०)। शंखिनी-डंकिनी----संज्ञा, स्त्री० (सं०) एक शंग्य ---- संज्ञा, पु० (सं०) कंबु बड़ा सामुद्रीय प्रकार का उन्माद रोग ( वैद्य० )। घोंघा ग्रह (विशेषतया ) देवतादि के शंजर:-संहा, पु० दे० ( फ़ा० सिंगरफ़ ) सामने बजाया जाता है, पवित्र माना इगुर। जाता है, दग या सौ खर्व की संख्या, हाथी शंठ-संज्ञा, पु० (सं०) मूर्ख, बेवकूफ़, साँड़, का गडस्थल, शंखासुर दैत्य, ६ निधियों में | नपुसक, हिजड़ा, संठ (दे०)। से एक निधि, १४ रगों में से एक, छप्पय | शाह-सज्ञा, ७.० (स०) साड़, पढ, नपुसक, का एक भेद, दडक छंदान्तर्गत प्रावत्त का हिजड़ा, वह पुरुष जिसके संतान उत्पन्न न हो। एक भेद (पि.)। " शंखान् दध्मौ पृथक शंडामर्क --- संज्ञा, पु. यौ० (सं०) शंड और पृथक् -भ० गी। मर्क नामक दो दैत्य, संडामा (दे०)। शंखचूड़ संज्ञा, पु० सं०) कुबेर का मित्र ! शंतनु- संज्ञा, पु० दे० ( सं० शांतनु ) एक या दत एक दैत्य जिसे श्रीकृष्ण ने मारा चंद्रवंशीय राजा. भीष्म पितामह के पिता । था। शंतनुतुत .. संज्ञा, पु० दे० यौ० (सं० शांतनुसुत) शवद्राव--सज्ञा, पु० स०) शंख को भी । भीष्म पितामह । " तौ लाजौं गंगा-जननी गला देने वाला एक अर्क ( वैद्य०)। को शंतनुसुत न कहाऊँ-..- राजा रघु० । शंखधर संशा, पु० सं०) विष्णु, श्रीकृष्ण ।। शंपु-- वि० (स.) प्रसन्न , हर्षित, आनंदित । शंखध्वनि....संज्ञा, पु. यौ० (सं०) विजय- शंख-वि० (०) सुकृती, एण्याम, धर्मी । ध्वनि, शंख का शब्द । शंबर--संज्ञा, पु० (स.) एक दैत्य जिसे इन्द्र शंखना----संज्ञा, स्त्री० यौ० (स.) ६ वौँ । ने मारा था, एक प्राचीन शस्त्र, युद्ध, संग्राम । का सोमराजी छंद (पि.)। " शंबर कायमाया"-नैष । वि०शंखपाणि-संज्ञा, पु० यौ० (२०) विष्णु। } शांबरीय । For Private and Personal Use Only Page #1635 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir शंबरारि, शंबररिपु शकुंत शंबरारि-शंबररिपु-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) | शक-संज्ञा, पु० (सं०) वह राजा जिसके कामदेव, प्रद्युम्न, शंबर शत्रु . नाम से कोई सम्बत् चले, सूर्य-वंशीय राजा शंबल-संज्ञा, पु० (सं०) पाथेय मार्ग-भोजन, नरिण्यंत से उत्पन्न एक क्षत्रिय जाति विशेष विद्वेष, तट, संबल (दे०) जो पीछे म्लेच्छों में मानी गई ( पुरा० )। शंबु- संज्ञा, पु० (सं०) घोंघा, छोटा शंख, राजा शालिवाहन का चलाया संवत् ( ईसा संबु (दे०) के ७८ वर्ष पश्चात् से प्रारम्भ ) संज्ञा, पु० शंबुक-संज्ञा, पु० (सं०) घोंघा, छोटा शंख, (अ.) संदेह, शंका, भ्रम, एक (दे०) । संधुक (दे०)। “ मुक्तास्रवहि कि शंबुक- " राम चाप तोरवा सक नाही' --- रामा० । ताली''-रामा०। शकट-- संज्ञा, पु० (सं०) बैलगाड़ी, छकड़ा, शंक-संज्ञा, पु. (सं०) राम-राज्य में एक लही (ग्रा.), बोझा, भार, एक दैत्य जिसे शूद्र तपस्वी, जिसकी तपस्या से एक कृष्ण जी ने मारा था, देह, शरीर । ब्राह्मण सुत अकाल में मरा और इपी से शकटासुर संज्ञा, पु० यौ० (सं०) एक दैत्य राम ने इसे मार कर उसे जीवित किया जो कृष्ण के द्वारा मारा गया था (भा०) । (रामा०), घोंघा, छोटा शंख : शकठ-संज्ञा, पु० (सं०) मचान । शंभु-संज्ञा, पु० (स०) महादेव, शिव, भु शकर --- सज्ञा, स्त्री० दे० ( सं० शकरा ) शक्कर, (दे०) ११ रुद्रों में से एक, १६ वर्णों का चीनी, खाँड़। एक वृत्त (पि.), एक दैत्य, शुभ । संज्ञा, पु. (सं०) स्वायंभुव । शकरकंद -- संज्ञा, पु० दे० (हि. शकर + शंभुगिरि-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) कैलास : __ कद-सं० ) एक विख्यात मीठी कंद। शंभुधनु - संज्ञा, पु० दे० यौ० सं० शंभुधनुष ) शकरपारा--- संज्ञा, पु० (फा०) नींबू से कुछ शिव-धनुष । “सब की शक्ति शंभु-धनुभानी" बड़ा और स्वादिष्ट एक फल, एक प्रकार का --मा० । चौकोर पक्वान्न या मिष्टान्न, इसी के आकार शंभुवीज-शंभुतेज-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) की सिलाई पारद, पारा, शिव-शुक्र, शभु-वीय । शकल, शक्तः - संज्ञा, स्त्री० दे० ( अ० शक्ल ) शंभुभूषण- संज्ञा, पु. यो. (स०) चंद्रमा, श्राकृति, मुख की बनावट, रूप, चेहरा, साँप । सूरत, चेष्टा, बनावट या गठन, गढन, शंभुलोक-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) कैलास । स्वरूप, उपाय, तरकीब, ढाँचा, ढब । संज्ञा, शंसा-संज्ञा, स्त्री. (सं०) चाहना, चाह, पु० (सं०)--टुकड़ा, खंड। “दष्ट्रा-मयूखै अभिलाषा, उत्सुकता, उत्कट अभिलाष ।। शकलानि कुर्वन् "-रघु० । शंसित-वि० (सं०) उक्त, कथित, प्रक्त, शता-द-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) राजा शालिनिश्चित, स्तुत्य । __ बाहन का शक सम्वत्. यह ईसवी सन् शस्य--वि० (स०) प्रशंसनीय, स्तुत्य, प्रशंसा के योग्य, श्लाघ्य । से ७८ या ७६ वर्ष पीछे चला । शऊर--संज्ञा, पु. (अ.) कार्य करने की | शकार - संज्ञा, पु० (सं०) शक-वंशीय व्यक्ति योग्याता या क्षमता, लियाकत, तमीज़, शवणे । बुद्धि, अक्ल, सहूर (दे०)। शकारि----संज्ञा, पु० यौ० (सं०, राजा विक्रमाशऊरदार-सज्ञा, पु०, वि० अ० शऊर+ दित्य जिन्होंने शकों को पराजित किया था। दार--फा० ) योग्य, लायक, बुद्धिमान, शकत-- संज्ञा, पु० (सं०) पक्षी, पखेरू, विश्वाभक्लमंद । वि०-बेशऊर । । मित्र का पुत्र। For Private and Personal Use Only Page #1636 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra 1 www.kobatirth.org शकुंत ता | शकुंतला -संज्ञा, स्त्री० (स० ) मेनका अप्परा की कन्या और राजा दुष्यंत की रानी और सुविख्गत राजा भरती माता, एक नाटक | शकुन - सज्ञा, ५० (सं०) किसी काय.दि के समय ऐसे लक्षण जो शुभ या अशुभ माने जाते हैं, शुभ सूचक चिन्ह, सगुन (३० ) ! विलो०-अपशकुन, असगुन । मुहा०--- शकुन विचारना या देखना- किसी कार्य के होने या न होने के विषय में लक्षणों या तत् सूचक चिन्हों के द्वारा निर्णय करना. शुभ घड़ी या मुहूर्त या उस घड़ी का कार्य, पक्षी । शकुनशास्त्र - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) शुभाशुभ शकुनों तथा उनके फलों की विवेचना का शास्त्र, शकुनविज्ञ न । शकुनि · संज्ञा, पु० (सं०) पत्री, पखेरु, चिड़िया, हिरण्याक्ष का पुत्र एक दैत्य, कौरवों के विनाश का हेतु और उनका मामा तथा दुर्योधन का मन्त्री, शकुनी, सकुनि । शकुल - सज्ञा, पु० (स० ) मछली विशेष | शकृत -- सज्ञा, पु० (सं०) मल, पुरीष, विश ! शक्कर - संज्ञा, स्रो० दे० (सं० शर्करा फा० शकर) चीनी, खाँड, कच्ची चीनी, सक्कर (दे० ) । शकरी - संज्ञा, खो० (सं०) चौदह वर्णों के छन्द या वृत्त ( पिं० ) । शक्की - वि० (अ० शक | ई + प्रत्य०) शक या संदेह करनेवाला. प्रत्येक बात या विषय में शक करने वाला, संशयात्मा । शक्तः - सज्ञा, पु० (सं०) शक्ति युक्त समर्थ. योग्य --- १÷२५ शकसुत. शक्रसुवन तथा तद्बोधक शब्द का संबंध ( न्याय० ), माया की पीठ की अधिष्ठात्री देवी, दुर्गा, भगवती, लक्ष्मी, गौरी, सरस्वती, एक शत्र साँग, तलवार, बर्डी, शक्ती (दे०) । शक्तिवर, शक्ति-संज्ञा, पु० (सं०) षडानन, सर्त्तिकेय | शक्तिपूजक संज्ञा, पु० यौ० (सं०) वाम मार्गी शाक, तत्रिक, शक्युपासक । शक्तिपूजा संज्ञा स्त्री० यौ० (सं०) शक्ति या देवी की शक्तीविधि से पूजा, वाममार्गियों द्वारा ( तंत्रमंत्रादि विधान से ) देवी का पूजन, शक्तयार्चन । शक्तिमत्ता -- संज्ञा, स्त्री० (सं०) शक्तिमान् होने का भाव, बलिष्टता, सामर्थ्य | शकान् वि० (सं० शक्तिमत्) बली, बलवान् बलिष्ठ स्त्री० - शक्तिमती । शक्तिशाली - वि० ( सं० शक्ति शालिन ) शक्ति-संज्ञा, स्रो० (सं०) बल, ताकत, सामर्थ्य, सक्ति, सक्ती, सकति (दे०) पौरुष, पराक्रम, जोर कूवत वश, प्रभावात्पादक बल, अधिकार, शत्रुओं पर विजयी होने के सेना धन आदि राज्य के साधन तथा सैन्यकोषादि इन यथे साधनों से युक्त बड़ा और पराक्रमी राज्य या राजा, प्रकृति, किसी पदार्थ भा० श० को ० १०- २०४ -- - - Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir बलवान । शक्तिहीन - वि० यौ० (सं० ) निर्बल, बलहीन असमर्थ, नपुंपक, नामर्द, शक्तिरहित, शक्ति-विहीन | खज्ञा, स्त्रो० - शक्ति हीनता । शक्ती-संज्ञा, पु० दे० (सं० शक्ति ) १८ मात्राओं का एक मात्रिक छंद (वि०), बर्डी, देवी, बल सामर्थ्य | For Private and Personal Use Only शक्तु - सज्ञा, पु० (सं०) सत्तू सतुझा (ग्रा० ) । शक्य - वि० (सं०) क्रियात्मक, संभव, किया जाने योग्य होने योग्य, शक्ति-युक्त । संज्ञा, पु० सं०) शब्द शक्ति से प्रकट होने वाला अर्थ (व्याक०) सज्ञा, स्त्री० - शक्यता ---क्रियात्मिकता, योग्यता, क्षमता । शक संज्ञा, पु० (स० ) ६ मात्राधों वाले गण का चौथा भेद (पिं०), इन्द्र | "जहार चान्येन मयूरपत्रिणा शरेण शक्रस्य महाशनिध्वजम् " - रघु० ! शक्रप्रस्थ- संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) इन्द्रप्रस्थ, दिल्ली । शक्रमुत, शक्रसुवन-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) Page #1637 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १६२६ शतरंजी शक्रसूनु, इन्द्र का पुत्र, जयंत, बालि, शत-वि. (सं०) सौ, दस का दस गुना, अर्जुन, शक्रात्मज, शक्रतनय। सैकड़ा, सौ की संख्या (१००)। शक्ल-संज्ञा, स्त्री० (अ.) शकल, सूरत, चेहरा, शतक-संज्ञा, पु० (सं०) सैकड़ा, एक सी बनावट, स्वरूप, प्राकृति ।। सौ वस्तुओं का पमूह, शताब्दी। स्त्री. शख्स-संज्ञा, पु० (अ०) मनुष्य, जन, व्यक्ति। शतिका। शख्सियत-संज्ञा, पु. (अ०) व्यक्तित्व ।। शतकोटि-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) इन्द्र का शग़ल-संज्ञा, पु० (अ.) कामधंधा, कार्य, वज्र, सौ करोड़ की संख्या । " रामायण व्यापार, मनोविनोद। शतकोटि महँ, लिय महेश जिय जानि"-- शगुन, शगून-संज्ञा, पु० दे० (सं० शकुन) रामा०। शकुन, शुभाशुभ सूचक चिन्ह या लक्षण, शतक्रतु --संज्ञा, पुरु (सं०) इन्द्र । " तथा विवाह की बातचीत पक्की होने पर की एक विदुमी मुनयः शतक्रतुं द्वितीयगामी न हि रीति या रस्म, तिलक, टीका, सगुन (द०)। शब्द एष नः"~ रघु० ।। शगुनिया--- संज्ञा, पु. (हि० शगुन - इया + | शतघ्नो-सज्ञा, पु० (सं०) पुराने समय की प्रत्य०) शकुन बतानेवाला छोटा ज्योतिषी।। तोप या बन्दूक-जैसा एक शस्त्र । "शतघ्नी शगूफ़ा-संज्ञा, पु. (फा०) कली, बिना शत संकुलाम् ".-.-वाल्मी० । खिला फूल, पुष्प, फूल, नवीन और अनोखी शतदल संज्ञा, पु. यौ० (सं०) पद्म, कमल । बात या घटना । मुहा०-शगूफा छाड़ना शतदल स्वेत कमल पर राजा".-भारतदु । - नई विलक्षण बात कहना । शत-संज्ञा, स्त्री० (सं०) सतलज नदी। शचि, शची-संज्ञा, स्रो० (१०) इन्द्र की शतपत्र -- संज्ञा, पुरु यौ० (सं०) कमल । स्त्री, पुलोमजा, इन्द्राणी । " पतिव्रता "शतपत्रनेत्र" -- स्फु० । पत्युरनिच्छया शची"--नैष ।। शतपथ (ब्राह्मण)---संज्ञा, पु. (सं०) महर्षि शचापति--संज्ञा, पु. यौ० (सं०) इन्द्र, शचीनाथ । याज्ञवल्क्य कृत यजुर्वेद का एक ब्राह्मण-ग्रंथ । शचीश-संज्ञा, पु. यौ० (स.) इन्द्र। शतपद ---- संज्ञा, पु. (सं०) कनखजूरा. गोजर शजरा--संज्ञा, पु. (अ.) वंश वृक्ष, ग्रा०) ब्यूटी । स्त्री० शतपदी। वंशावली, खेतों का नक्शा (पटवारी)। शतपुष्प --- संज्ञा, नी० (सं०) मौंफ । शटी-संज्ञा, पु० (दे०) एक प्रकार का कबूतर । शतभिषा-संज्ञा, स्त्री० (सं०) सौ तारों के शठ-वि० (सं०) मूर्ख, अपढ़, धूर्त, बेसमझ, समूह से बना गोलाकार २४ वाँ नक्षत्र, दुष्ट, बदमाश, पाजी, लुचा, चालाक, सतभिखा (दे०) (ज्यो०)। सठ (दे०) । संज्ञा, स्त्री. शठता, पु० शतमख-संज्ञा, पु. यौ० (सं०) इन्द्र, शाठ्य । “शठ सुधरहिं सत्संगति पाई" -रामा० । संज्ञा, पु.--वह नायक जो शतमूली-संज्ञा, श्री० (सं०) लता विशेष । अपने अपराध के छल से छिपने में प्रवीण | शतरंज-संज्ञा, स्त्री. (फा० मि० सं० चतुरंग) हो (साहि.)। एक विख्यात खेल जिसके बिछौने में चौंसठ शठता-संज्ञा, स्त्री. (सं०) शाठ्य, शठत्व, घर होते हैं। धूर्तता, बदमाशी, दुष्टता । शतरंजी-संज्ञा, स्त्री० (फ़ा०) कई रंगों का शण--संज्ञा, पु० (सं०) सन, राट । । छपा फर्श, दरी या बिछौना, सतरंगी शणसूत्र--संज्ञा, पु० यौ० (सं०) सुतली, (सतरंगी-सं०), शतरंज की बिसात, वैश्यों का जनेऊ । शतरंज का अच्छा खिलाड़ी। | शतक्रतु। For Private and Personal Use Only Page #1638 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir शतरूपा १६२७ शपथ - शतरूपा-संज्ञा, स्त्री. (सं०) स्वायंभुव मनु शत्रता--संज्ञा, स्त्री० (सं०) बैर-भाव, दुश्मनी, की पत्नी । “ स्वायंभुव मनु अरु सतरूपा' रिपुता, वैमनस्य । ---रामा० । ब्रह्मा की माननी कन्या. तथा शत्रुताई* --संज्ञा, स्त्री० (दे०) शत्रुता (सं०)। पत्नी और स्वायंभुव की माता। शत्रुदमन-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) शत्रुघ्न, शता-संज्ञा, स्त्री. (सं०) सौंफ। रिपूसूदन । शतानंद - संज्ञा, पु. (सं०) विष्णु, ब्रह्मा, शत्रमन--संज्ञा, पु. यौ० (सं०) शत्रुघ्न, कृष्ण, गोतम मुनि. राजा जनक के पुरोहित, रिपुसूदन । सतानंद । " शतानंद तब धायुप दीन्हा" शत्रसाल---वि० ( सं० शत्र + सालना-हि०) -रामा० । बैरी के हृदय को छेदने या शूल देने वाला। शतानीक -- संज्ञा, पु. (सं०) वृद्ध या बूढ़ा, सं० पु. एक राजा। चंद्र वंशीय द्वितीय राजा जिनके. पिता जन्मेजय और पुत्र सहस्रानीक थे (पुरा०), शत्रहंता--वि० (सं०) बैरियों को मारने सौ सैनिकों का नायक । “शतानीक __ वाला । संज्ञा, पु०-शत्रुघ्न । यौ०-शत्रुहंताशतानि च''--भा. द. योग (ज्यो०)। शताब्द, शताब्दी-संज्ञा, सी० (सं०) शत्रुहा - वि० (सं०)रिपुहा, अरिहा, वैरियों सौ वर्षों का समय किसी संवत् के एक से का मारने वाला । संज्ञा, पु०-शत्रुघ्न । सौ वर्षों तक का समय । शदीद--नि. (अ.) अत्यधिक, भारी, शतायु-संज्ञा, पु. यौ० (सं० शतायुस् । बहुत बड़ा, बहुत ज़्यादा, सख़्त । जैसेवह पुरुष जिसकी अवस्था मौ वर्षों की हो। दर्द शदीद. ज़रर-शदीद। शतायुध-संज्ञा, पु. यौ० (सं०) सौ अस्त्रों शनि----संज्ञ', पु. (सं०) शनिश्चर ग्रह, वाला, जिसके सौ हथियार हों। अभाग्य, दुर्भाग्य, दुष्ट, अनिष्टकारी (व्यंग्य , शतावधान-संज्ञा, पु. (सं०) वह मनुष्य 4 शनी, सनि, सनी (दे०)।। जो एक ही समय में एक ही साथ सौ या शनिप्रिय-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) नीलम, बहुत सी बातें सुन कर क्रमानुसार स्मरण । नील-मणि, पाथर, रावटी। रख सके और कई कार्य एक साथ कर सके, श्रतिधर । शनिवार -संज्ञा, पु० यौ० (सं०) शुक्रवार के शतावर, शतावरी--संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० । पीछे और रविवार से पूर्व का एक दिन, शतवरी ) सतावर नामक औषधि. सफेद शनिश्चर। मूसली । “वचाभयो संठि शतावरो समा" शनिश्चर --संज्ञा, पु० (सं०) सौर संसार का - भा० प्र०। ७ वाँ ग्रह जो सूर्य से ८८३०००००० मील शती-संज्ञा, स्त्री० (सं० शतिन ) सैकड़ा. की दूरी पर है और २६ वर्ष तथा १६७ सौ का समुह, (यौगिक में) जैसे सप्तशती दिनों में सूर्य की परिक्रमा करता है, शत्रु-संज्ञा, पु० (सं.) बैरी, रिपु, अरि । शनिवार, शनीचर, सनीचर (दे०)। सत्रु, सत्र (दे०)। संज्ञा, स्त्री. शत्रना। वि० - शनिश्चरी। यौ० -शनिश्चरीशत्रुघ्न-संज्ञा, पु. (सं०) अयोध्या-नरेश दृष्ट्रि-कुष्टि।। श्रीदशरथ की रानी सुमित्रा से उत्पन्न शनैः- अव्य (सं०) धीरे धीरे । यौ० शनैः लचमण जी के छोटे भाई, रिसुसूदन सुमित्रानंद. शनैः ।। शत्रुघन,सत्रुधन, सत्रहन, शत्रहन (दे०)। शनैश्चर-सज्ञा, पु. (सं०) शनिश्चर ग्रह । " नाम शत्रुधन वेद-प्रकाश"- रामा०। शपथ-संना, स्त्री. (सं०) सौगंद, सौगंध, For Private and Personal Use Only Page #1639 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir शप्या १६२८ शम T REAMEDABERamoumimom कसम, कौल, करार, वचन, प्रतिज्ञा । श्रार्ष का कथन जो प्रमाण माना जाता महा०-शपथ खाना (करना)--कसम है (व्या०), केवल कथन प्रमाण, शाब्द । खाना । " शपथ खाय बोले सदा" - ०। शहब्रम-हांज्ञा, पु. यौ० (सं.) वेद शब्द शप्या-संज्ञा, पु० (सं०) चंद्रमा, बोझा। ही ब्रह्म है-यह सिद्धांत । " शब्दब्रह्मणिशफ़तालू -- संज्ञा, पु. (फा०) एक प्रकार का स्नातः ''-- स्फु० । भालू. रतालू. सतालू शेवड़ा श्राई। शब्दभेदी-संज्ञा, पु० दे० यौ० (सं० शरूरी-संज्ञा, पु. (सं०) छोटी मछली शब्दवेधी ) केवल शब्द के श्राधार पर दिशा सारी (दे०) । “मनोऽस्य जहु : शारी जानकर किनी को व ण से बिना देखे वेध विवृत्तयः ----किरातः ।। देना दशरथ. अर्जुन । शफ़ा --- संज्ञा, स्त्री० (अ०) आरोग्यता |श दवेधी संज्ञा, पु० यौ० (सं० शब्द वेधिन) तंदुरुस्ती, स्वास्थ्य । बिना देखे हुये केवल शब्द के हो आधार शफाखाना-संज्ञा, पु. (अ. शफ़ा + खाना पर किसी को वाण से वेध देना, दशरथ, फा०) चिकित्सालय, अस्पताल (दे०) (अं०) । अर्जुन, पृथ्वीराज । हास्पिटल. दवाखाना । शब्दशक्ति संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) शब्द की शब-संज्ञा, स्त्री. ( फ़ा० ) रात्रि, रात। वह शक्ति जिपसे उसका कोई विशेष भाव " शब कटती है एंड़ियाँ रगड़ते"-हाली। ज्ञात होता है, इसके तीन भेद है, अभिधा, शबद, सबद-संज्ञा, पु. (दे०) शब्द, लक्षणा, व्यजना (काव्य शा०)। सब्द (दे०)। शब्दशास्त्र- संज्ञा, पु० यौ० (सं०) शब्दादि शबनम-संज्ञा, स्त्री० (फ़ा०) तुषार, श्रोस, की विवेचना का विज्ञान, व्याकरण । एक तरह का महीन कपड़ा । संज्ञा, स्त्री० "शब्दशास्त्रमनिधीय यः पुमान् वक्तुमिच्छति वि० शबनमी-मसहरी, शामियाना। सतां सभांतरे" - स्फु० । शब्द-वारिधि । शबर-वि० (अ०) कई रंगों का । संज्ञा, पु. . " इन्द्रादयोऽपि यस्यान्तं न ययुः शब्द एक वृक्ष. एक नीच जाति । वारिधेः। शबाब-संज्ञा, पु. (अ०) जवानी, युवावस्था, शब्दसाधन-पंज्ञ', पु० यौ० (०) व्याकरण अति संदरता। यौ०-शबाब का पालम। का वह खंड जिनमें शब्दों की व्युत्पत्ति, शबी, सबी-संज्ञा, स्त्री० दे. ( अ० शवोह ) भेद, व्यवस्था या रूपान्तर आदि का तसवीर. चित्र “लिखन बैठ जाकी सबी, विवेचन होता है। गहि गहि गरब गरूर"- वि०। शब्दाडंबर-- संज्ञा, पु० यौ० (सं०) भाव हीन, शबील-संज्ञा, स्त्री. (फ़ा०) पौपला, प्याऊ। या अल्प भाव वाले, बड़े बड़े शब्दों का शबीह-संज्ञा, स्त्री० (फ़ा० तसवीर चित्र प्रयोग. शब्दजाल । शब्द-संज्ञा, पु. (सं.) किसी पदार्थ या ' शब्दानशासन - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) भावादि-बोधक सार्थक ध्वनि, धावाज़ व्याकरण । लफ़्ज. किमी महत्मा या साधु के बनाये पद शब्दालंकार---संज्ञा, पु० यौ० (सं०) एक (जैपे कबीर के शब्द) सबन, शबद (दे०) : अलंकार जिपमें वर्णों या शब्दों के विन्यास शब्दचित्र-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) अनुप्रास के द्वारा ही चर चमत्कार या लालित्य नामक एक शब्दालक र (अ० पी०)। प्रगट किया जावे, जैसे-अनुप्रासादि। शब्दप्रमाण -- संज्ञा, पु० यौ० (सं०) किसी शम----संज्ञा, पु० (१०) मोक्ष, मुक्ति, शांति, For Private and Personal Use Only Page #1640 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra शमन www.kobatirth.org १६२६ उपचार, शांति. तःकरण या मन और इन्द्रियों का निग्रह, क्षमा, काव्य में शांतरम का स्थायी भाव | संज्ञा, स्रो० - शमता । शमन - संज्ञा, पु० (सं०) दमन हिंसा, यम, यज्ञ में पशु वलिदान समन (दे०) । शमन सकल भवरुज परिवारू " - रामाण वि०मिन, शमनीय, शम्य । गमलोक - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) शांतिलोक, स्वर्ग, वैकंठ । (6 में ऐ यारो शान्ति, क्षमा । कस्य न जायते । " 16 शमशेर - संज्ञा, स्त्री० [फा०) खड्ग, तलवार । 'दस्तवगीरद परे शमशेर तेज़ " - सादी० । शमा - संज्ञा, स्रो० ( ० शमय ) मोमबत्ती | 66 शमा सा है 'यह रोशन तज़किरा दुनिया ६० । संज्ञा स्त्री० (सं०) "" - स्फु " धातु की मेणेषु शमा शमादान संज्ञा पुं० ( फा० ) वह थाली जिपमें रखकर मोमबत्ती जलाई जाती है । शमित - वि० (सं० ) ठहरा हुआ, शांत, जिसका शमन किया गया हो । णमो -- संज्ञा, स्त्री० (सं०) विजया दशमी पर पूजा जाने वाला एक वृक्ष विशेष, अग्नि-गर्भ वृत, लोकर, श्वेत कीकर डिकुर (दे० ) । 'शमीमिवाभ्यन्तर लो न पावकम्" - रघु० शमीक संज्ञा, पु० (सं०) एक क्षमा-शील ऋषि जिनके गले में राजा परीक्षित ने मरा साँप डाला था। 13 शयन - संज्ञा, पु० (सं०) सोना, नींद लेना, पलंग, शय्या, विछौना, सयन (दे० ) | 66 रघुवर शयन कीन्ह तत्र जाई ' शयन प्रार ती -संज्ञा, स्रो० (सं०) सोने के समय से पहले की प्रारती । रामा० । शयनगृह - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) शयनागार (सं०) सोने का घर. शय्यालय | शयनवोधिनी - संज्ञा, स्त्री० (सं०) अगहन वदी एकादशी | शयनागार - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) शयनगृह, सोने का घर, शयन मंदिर, शयनालय | Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir शरतिया, शतिया OCT शय्या -- संज्ञा, स्त्री० (सं०) पलंग, खटिया, खाट, बिछौना, सज्जा (दे०) बिस्तर, बिकावन । "शय्योत्तरपद विमर्द कृशांगरागम् ' रघु० । ' शय्या पल्लव पद्म पत्र रचिता" लो० । शय्यादान - संज्ञा, पु० यौ० सं०) मृतक के निमित्त महापात्र को सब बिछावन और aarभरण सहित पलंग दान में देना, सजादान (दे० ) । शरपंज्ञा, पु० (सं० नाराच, तीर, वाण, शायक, सरई, परत सरकंडा रामशर, दूध-दही की मलाई पाँच की संख्या का सूचक शब्द, चिता, भाजा का फल, एक असुर । शरत्र्य संज्ञा स्त्री० [अ०) कुरान की श्राज्ञा. मज़हब, दीन तरीका, मुसलमानों का धर्म शास्त्र दस्तूर | हि० शरई । शरजन्मा - संज्ञा, पु० यौ० ( सं० शरजन्मन् ) षडानन, कर्तिकेय । 1 शरद संज्ञा, पु० (सं०) गिर गिट. गिरदान. कृकलाम । For Private and Personal Use Only " रामा० । शर - संज्ञा, स्त्री० [सं० ) घाड, आश्रय, रक्षा, पनाह, बचाव का स्थान. मकान श्रधीन । सरन (दे०) तऊ शरण संमुख मोहिं देखी ' शरणागत. शरणापन्न संज्ञा, पु० यौ० (सं०) शरण में छाया हुआ, शरणा को प्राप्त, शिष्य, दान । शरणागतदीनार्तपरित्राणपरायणे १ - दुग: ० | 6. , शरणी - वि० पु० स्त्रो० सं० सरण) शरण देने वाला । शरण्य - वि० (सं०) शरणागत की रक्षा करने वाला । " तीर्थास्पदम् शिव विरचिनुतम् शरण्यम् स्फु० । शरत शर्त संज्ञा स्त्री० दे० ( अ० शर्त ) बाजी. दाँव, बदान, बदावदी । शरनिया, शतिया - क्रि० वि० दे० ( प्र० शर्तिया ) बाज़ी बदकर, शत लगाकर, निश्चय या दृढता पूर्वक कार्य करना वि० निश्चित ! बिलकुल ठीक, Page #1641 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir शरत् , शरद शराबखाना शरत्, शरद-संज्ञा, स्त्री० (सं०) सरद पक्षी, विष्णु । मणिगुण, शशिकला छंद (दे०) एक ऋतु जो कार और कार्तिक में (पि०), दोहा का एक भेद. शेर । मानी जाती है, वर्ष, संवतार । “ शरदि शरम, शर्म-संज्ञा, स्त्री० द० ( फा० शर्म ) हंसरवा परुषी कृतस्वर मयूरमयरमणीयताम्" लज्जा ब्रोडा, हया, सरम (दे०)। वि०---माधः । शरमीना, शरमदार । महा०-शरम शरत्काल--संज्ञा, ५० यौ० (सं.) शरद् ऋतु। से गड़ना या पानी पानी होना बहुत शरद-संज्ञा, स्त्री० दे० ( सं० शरद् ) कार- ही लज्जित होना । गरम के मारे मरनाकार्तिक की ऋतु, सरद (दे०)। "शरद लिहाज, मान मर्यादा, प्रतिष्ठा, संकोच । ताप निशि शशि अपहरई "--रामा० शरम धोकर पी जाना-निर्लज्ज हो शरदऋतु संज्ञा, पु० यौ० (हि. शरद + ऋतु) जाना। कार और कार्तिक की ऋतु । " जानि शरद शरमाना-अ. क्रि० दे० ( फा० शर्म + ऋतु खंजन आये" - रामा० ग्राना--प्रत्य०) लज्जित या ब्रीड़ित होना, शरदपूणिमा ---- संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं.) शर्मिदा होना । म. क्रि० -- लज्जित या कार माप की पूर्णमासी. शरद पूनो, सरद बीड़ित करना. शर्मिंदा करना, मरमाना पूनो (दे०)। (दे०)। शरदचंद्र--संज्ञा, पु० दे० यौ० (सं० शरच्चंद्र) । शरमिंदगी-संज्ञा, स्त्री० (फ़ा० लाज, शरलचंद्र, शरद ऋतु का चंद्रमा : "शरद- लज्जा, बीड़ा, नदामत, शर्मिदगी। चंद्र निंदक मुख नीके''...-रामा०। शरमिंदा--वि० (फ़ा०) लज्जित, शर्मिन्दा । शरदुत-संज्ञा, पु० (सं०) एक ऋषि : शरमीला-- वि० (फा. शर्म - ईला---प्रत्य०) शारपट्टा----संज्ञा, पु. द. (सं० शर। पट्टा लज्जालु, जिसे शीघ लज्जा लगे. लजीता हि० ) एक शस्त्र विशेष । (दे०) । स्त्री०-शरशीली। शरपंच-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) सरफों का | शरह- संज्ञा, स्त्री० (१०) भाष्य, व्याख्या, (औष०) बाग के पीछे लगा हुआ पंख । टीका, भाव, दर।। साराक-पंख । शराकत --- संज्ञा, स्त्री. (अ.) हिस्सेदारी, शरबा -संज्ञा, पु. (अ०) मीठा पानी, साझा, शरीक होने का भाव । मीठा रस, चीनी में मिला या पका किसी शरापना -स० कि०६० ( स० श्राप ) श्राप औषधि या फलादि का अर्क, शक्कर या देना, सरापना (दे०) । 'मति माता करि खाँड घुला पानी। क्रोध शरापै नहिं दानव धिग मतिको" शरवती-संज्ञा, पु. ( अ. शरबत + ई--- -सूर० । प्रत्य० ) हलका पीला रंग, एक नगीना, शराफ़त-संज्ञा, स्त्री. (अ.) सज्जनता, एक नींबू विशेष, एक बढ़िया, वस्त्र । भले मानुपी. भलमंसी, बुजुर्गी, सौजन्य, शरभंग -- संज्ञा, पु० (सं०) एक पि जिनके सभ्यता. शिष्ठता। यहाँ रामचंद्रजी वनवाल की दशा में दर्शनार्थ शराब-संज्ञा, स्त्री. अ.) मधु, मदिरा, गये थे (रामा०). सुरा, मद्य, सराब (दे०) । "ग़ालिब शास-- संज्ञा, पु. (सं०) हाथी का बच्चा, छुरी शराब पर अब भी कभी कभी"पतिगा, शलभ, टिड्डी, रामदल का एक ग़ालिब । बानर विशेष, एक कल्पित अष्टपाद मृग, एक ! शराबखाना --- संज्ञा, पु. यौ० (अ० शराब+ For Private and Personal Use Only Page #1642 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir शराबखोरी शर्मद खाना-फा०) वह स्थान जहाँ शराब बनती या शरीरपात - संज्ञा, पु० यौ० (सं० मरना, बिकती हो। __ मृत्यु, मौत, पंचत्व-प्राप्ति । शराबखोरी--- संज्ञा, स्त्री. (फ़ा०) मद्य-पान, शरीर-रक्षक-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) देह की मदिरा पीना । वि० .-शराबरवीर । रक्षा करने वाला, ( राजा आदि के साथ ), शराबी-संज्ञा, पु. (अ. शराब + ई- अंगरक्षक। प्रत्य० ) मदिरा या शराब पीने वाला। शरीरशास्त्र--संज्ञा, पु. यौ० (सं०) शरीर शराबोर वि० (फा०) भीगा हुआ, और अंगादि के कार्यादि की विवेचना की तर-बतर, लथपथ, 'पाई, सराबोर, तरा- विद्या, शरीर-विज्ञान, शारीरिक शात्र । बोर (दे०)। शरीरात--संज्ञा, पु० यौ० (सं०) मरना, शरारत--संज्ञा, स्त्री० (अ.) शैतानी, ! मृत्यु, मौत, देहान्त, देहावसान । बदमाशी, पाजीपन, दुष्टता । वि०- शरीरापण --- संज्ञा, पु० यौ० (सं०) किसी शरारतो । क्रि० वि०-शरारतन: काम में अपनी देह को भली भाँति लगा शरासन - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) धनुष, देना, शरीर तक दे डालना, दहार्पण धनु. धन्वा, कमान । “शंभु-शरासन | शरीरो-ज्ञा, पु. ( सं० शरीरिन् ) देही, तोरि शठ करसि हमार प्रबोध'- रामा० । देहधारी, जीवधारी, प्राणी, शरीर वाला, शरिष्ठ, गर* --- वि० दे० (सं० श्रेष्ठ ) श्रेष्ठ, श्रात्मा, जीव "ततः शरीरीति विभाविताउत्तम, बढ़कर । कृतिम् "---माव०। शरीअत--संज्ञा, स्त्री. (अ.) मुसलमानों का शर्करा--संज्ञा, स्त्री. (सं०) चीनी, शकर, धर्म शास्त्र । शक्कर, खड, बालू के कण । “शर्करा गरीक---वि० (अ० सम्मिलित, मिश्रित, दुग्धसम्मिश्रितैः पाचितैः .....लो. रा० । शामिल साझी, मिला हुश्रा । संज्ञा, पु० - शर्करी--संज्ञा, स्त्री० (सं०) १४ वर्गों का साथी, हिस्सेदार यामी, सहायक । वि०- एक वर्णिक छद (पिं०) शरीकी। शत--- संज्ञा. स्त्रो० अ०) हार-जीत के शरीफ़-संज्ञा. पु. (अ०) कुलीन या सभ्य अनुसार कुछ लेन-देन बाली बाज़ी, बाजी व्यक्ति, भला मानुष, शिष्ट । “शरीफ़ों का लगाना या बदना. बदान, होड़, नियम, अजब कुछ हाल है इस दौर में यारो''...- दाँव, बाजी किसी कार्य की सिद्धि के लिये जौक । वि०--शीकाना। अपेक्षित या आवश्यक बात या कार्य। शरीफ़ा-संज्ञा, पु० दे० (सं० श्रीफल या शतिया-कि० वि० (अ०) शर्त या बाजी सीताफल ) एक गोल, मीठा हरा फल, इस बदकर, बहुत हो दृढ़ता या निश्चय के फल का वृक्ष, श्रीफल, सीताफल (वृक्ष)। साथ । वि. निश्चित, बिलकुल ठोक । शरोफाना-वि० (फा०) शरीफ़ जैपा। शत-- संज्ञा, पु. (अ.) शक्कर-घुला मीठा शरीर - संज्ञा, पु० (०) तनु, देह, अंग, पानी, शरबत । वि० ... शर्बती । काया, बदन, गात्र, गात, सरीर (दे०) गर्भ---संज्ञा, स्त्री० (फ़ा०) शरम, लज्जा, जिस्म, " श्याम गौर जलजात शरीरा"--- बीड़ा । वि०-शर्मिदा, शत्तिा। रामा० । वि० (अ०) दुष्ट, बदमाश, नटखट, गर्म-संज्ञ', पु० (सं०) श्राराम, सुख, पाजी। संज्ञा, स्त्री० ... शरारत। आनंद, हर्ष, घर, मकान, गृह । शरीरत्याग- संज्ञा, पु० यौ० (सं०) मरना, गर्मद- वि० (सं०) सुखदायक, आनंददायी, मृत्यु, मौत. देह छोड़ना, तन-त्याग। हर्ष या पाराम देने वाला । स्त्री० शर्मदा । For Private and Personal Use Only Page #1643 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir शर्मा शशकलंक शा ---संज्ञा, पु. ( सं० शर्मन ) ब्राह्मणों | शल्य-----संज्ञा, पु. (सं०) मद देशाधिपति, की उपाधि या पदवी। | जो कर्ण के सारथी बने थे, और द्रौपदी के शर्माऊ -- वि० (दे०) शर्मीला, लज्जाशील, स्वयंवर में भीम से मल्ल युद्ध में पराजित लज्जालु लजोला । हुए थे (महा.), अस्त्र-चिकित्मा, अस्थि, शर्मिदा- वि० (फ़ा०) शमांऊ, शर्मीला, | हड्डी, साँग नाम का एक अत्र, वाण, तीर, लज्जित, लज्जालु । सज्ञा, स्त्री०-शर्मिदगो।। छप्पय का ५६ वाँ भेद (पि. ), दुर्वाक्य, शभिष्टा-~-सज्ञा, स्त्री० स०) देवयानी की शलाका। सहेली जो दैत्यराज वृषपर्वा की कन्या थी शल्य की --संज्ञा, स्त्री० द० (सं० शल्लकी ) (पुरा०)। साही या स्पाही नामक वन जंतु । शर्माला-वि० (दे०) शरमीला. शर्माऊ, शल्यक्रिया-सज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) शस्त्रलज्जाशील, लज्जालु। क्रिया, चीर-फाइ की चिकिल्ला । शय्यणावत्--- सज्ञा, पु० (२०) एक सरोवर | शलाशास्त्र-- सज्ञा, पु० यौ० (सं०) शस्त्रास्त्रजो शर्यण जानपद के समीप था (प्राचीन) । विज्ञान। शर्व-सज्ञा, ५० स०) शिव विष्णु। "शर्व | शल्य-संज्ञा, पु० द० (स० शाल्व) सौभराज मगला समेत सव पर्वत उठाय गति | के एक राजा जिन्हें कृष्ण ने मारा था, कीन्हीं है कमल की "-रामः । एक पुराना देश, शाल्व । शर्वरो ... संज्ञा, स्त्री. (स) रजनी, रात्रि, शव ---सज्ञा, पु. (सं०) मृत देह लाश । रात, निशा, सध्या, स्त्री । " प्रभात कल्पा " के शवं पतित दृष्ट्वा द्रोणो हर्षमुपागतः" शशिनेव शवरी''--रघु०। शल-सज्ञा, पु. (स०) कर का एक मल्ल शवदाह-संज्ञा, पु. यौ० (सं०) मनुष्य के मृत शरीर के जलाने की क्रिया, मुर्दा या पहलवान, भाला, ब्रह्म। जलाना, मृतक-संस्कार करना । शलगम, कालजम-संज्ञा, पु० (फ़ा०) गाजर ! । शवभस्म--सज्ञा, पु. यौ० (सं०) मुर्दे की जैला एक कंद जिपको तरकारी बनती है। खाक, चिता की राख । शलभ, शरभ-सज्ञा, पु० सं०) टीड़ी, टिड्डी, शवयान, शवरश- संज्ञा, पु० यौ० (सं० हाथी का बच्चा, पतंग, फतिंगा, सलभ, अर्थी, टिकटी, मुर्दे को ले जाने की। सल्लभ (दे०), छप्पय का ३१ वाँ भेद । शवर --- संज्ञा, पु० (सं०) एक जंगली जाति । "होई सकल शलभ कुल तोरा"-रामा० । शवरी--- सज्ञा, स्त्री० (सं०) श्रमणानाम्नी एक शलाका- संज्ञा, स्त्री० (सं० ) लोहे या पीतल तपस्विनी जो शवर जाति की थो, सवरी श्रादि की लंबी सलाई सीख, सलाख, (दे०) । " शबरी देखि राम गृह श्राये" वाण, शर, जूमा खेलने का पाँसा, सलाका --रामा० । शवर जाति की स्त्री। (दे०)। शश, शशक - सज्ञा, पु० (स०) खरगोश, शलातुर-- संज्ञा, पु. (सं०) पाणिनि मुनि खरहा । “जिमि शश चहहि नागरि का निवास स्थान, एक जनपद (प्राचीन)। भागू ....-रामा " सिंह-बधुहि जिमि शलीता--संज्ञा, पु० (दे०) थैला, बोरा, | शशक, सियारा" रामा०। चंद्र-लांछन एक मोटा कपड़ा, सलीता। या कलंक, मनुष्य के ४ भेदों में से एक शलूका--संज्ञा, पु० (फ़ा०) आधी और पूरी (काम) । बाँह की एक प्रकार की कुरती, सलूका शशकलंक-संज्ञा, पु. (सं०) चंद्रमा । (दे०)। । 'शशकलंक भयंकर यादृशां ''--नैप० । For Private and Personal Use Only Page #1644 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir शशधर, शशभृत् १६३३ शस्त्र-शास्त्र शशधर, शशभृत्-संज्ञा, पु० (सं.) शशिवदना-संज्ञा, स्त्री० (सं.) एक छंद चंद्रमा। | या वृत्त, चौवंसा, चंडरसा, पादांकुलक शशमाही- संज्ञा, स्त्री० (फा०) छमाही। (पिं०)। वि० स्त्री०-शशिवदनी-चंद्रशशलांछन-संज्ञा, पु. यौ० (सं०) चंद्रमा। मुखी। "स्वमुदधौ शश-लांचन चूर्णितः''..नैष । शिशाला-संज्ञा, स्त्री० यौ० दे० (फा० शशभंग, शशकभंग - संज्ञा, पु० यौ० शीशा + सं. शाला ) वह घर जिसमें बहुत (सं०) खरहे का सींग, वैषा ही असंभव कार्य से शीशे लगे हों, शशीमहल । जैसे खरहे के सींग होना, असंभव बात ।। शशिशेखर - संज्ञा, पु. यौ० (सं०) शिव । शशांक-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) चंद्रमा, शशिहीरा--संज्ञा, पु० यौ० (सं० शशि + मगांक। हीरा हि. चंद्रकांतिमणि, शशिमणि । शशा - संज्ञा, पु० दे० ( सं० शश ) खरहा. शश्वत-साव्य. (सं०) सदा, सर्वदा, खरगोश यौ०-शसुंग! निरंतर, सनातन । शशि, शशी-संज्ञा, पु. ( सं० शशिन ) शसा* --संज्ञा, पु० दे० (सं० शश) खरहा । इंदु. चंद्रमा चाँद, रगण का द्वितीय भेद । शसि. शस-संज्ञा, पु० दे० ( सं० शशि(Iss), छप्पय का ५४ वाँ भेद (पिं०)। शशिन ) चंद्रमा, ससि, ससी (दे०)। "शरद-ताप निशि शशि अपहरई"- शस्त-संज्ञा, पु. (फ़ा०) लक्ष्य. निशाना । रामा०। "अाकाश है शशी तुम हो सरोज" शस्त्र-संज्ञा, पु० (सं.) किसी के मारने या -म०प्र०। काटने का उपकरण या साधन, हाथ में शशिकला--संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) चन्द्रमा लेकर मारने के हथियार, जैसे-खड्ग, कार्य की कला, एक छंद या वृत्त (पि०)। | सिद्धि का उत्तम उपाय । यौ० अस्त्र-शस्त्र । शशिकुल-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) चंद्रवंश। शस्त्रक्रिया--संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) नश्तर शिज-संज्ञा, पु. (सं०) चंद्रात्मज, बुध लगाने या पीड़फाड़ करने की क्रिया, जर्राही नामक ग्रह। का काम। शशिधर --- संज्ञा, पु० (सं०) शिव, चंद्रमौलि शस्त्रधर, शस्त्रभृत् - संज्ञा, पु. (सं.) शाशपुत्र, शिसुत--संज्ञा, पु० यौ० (सं.) सिपाही, सैनिक, योद्धा, हथियार बाँधने बुध नामक ग्रह, शशितनय । वाला, हथियारबंद। शशिभान, शशमूनि, शशिमोलि-संज्ञा, शस्त्रधारी--वि० सं० शस्त्रधारिन्) हथियार पु. यो० (सं०) शिवजी महादेवजी बाँधने वाला, शस्त्र धारण करने वाला। शशिभूषण-संज्ञा, पु. यौ० (सं०) शिवजी। स्त्री०---शस्त्रधारिणी। शशिभृत - संज्ञा, पु० (सं०) शिव । शत्रविद्या- संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं.) हथियार शशिमंडल-- संज्ञा, पु. यो. (सं.) चालाने की विद्या, शस्त्र-विज्ञान, धनुर्वेद, चंद्र-मंडल. चन्द्रमा का गोला या घेरा।। ( यजु० उपवेद), शस्त्रास्त्र-सचालन विधि शशिमुख-वि० यो. (सं०) जिसका मुख का विज्ञान चंद्रमा ला सुन्दर हो । स्त्री. शशिमुखी। शस्त्रशाला-संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं.) शस्त्राशशिवदन--वि० यौ० (सं०) जिसका मुख गार, हथियारों के रखने का स्थान, सिलहचंद्रमा सा सुन्दर हो । स्त्री० शशिवदनी। खाना, शस्त्रालय । "शीश जटा शशि-वदन सुहावा"-- शस्त्र-शास्त्र - संज्ञा, पु. यौ० (सं०) शस्त्ररामा। विज्ञान, शस्त्र-विद्या। भा. श. को.-२०१ For Private and Personal Use Only Page #1645 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org शस्त्रागार शस्त्रागार - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) शस्त्र - शाला, सिलह खाना, शस्त्रालय | शस्त्री - संज्ञा, पु० (सं० शत्रिन्) हथियार बाँधने या चलाने वाला, छुरी । शस्य - संज्ञा, पु० (सं०) अन्न, अनाज, धान्य, नई कोमल घास, फ़सल, खेती । " तू पुण्य भूमि और शस्य - श्यामला तू है " - भार० । शहंशाह - संज्ञा, पु० दे० (का० शांहशाह ) सम्राट्, महाराज ! १६३४ शह-- संज्ञा, पु० ( फा० शाह का संक्षिप्त ) बादशाह, दूल्हा, वर । वि० -- श्रेष्ठतर, बढ़ाचढ़ा | संज्ञा, स्त्री० -- शतरंज के खेल में किसी मुहरे को ऐसे स्थान पर रखना जिससे बादशाह के घात में आने का भय हो, किस्त. छिपे तौर पर किसी के बहकाने या उभाड़ने काका, किसी को किसी दबाव से दबाना | मुहा० - शह लगाना (ना ) | शहजादा - संज्ञा, पु० दे० ( फा० शाहज़ादा ) बादशाह का पुत्र, राज कुमार, सहजादा (दे०) स्त्री० -- शहज़ादी, शाहज़ादी । शहज़ोर - वि० ( फा० ) बलवान, बली । संज्ञा, स्त्री० - शहजोरी - ज़्यादती, बल-प्रयोग | शहतीर - संज्ञा, पु० ( फ़ा० ) बड़ा और लंबा लकड़ी का लट्ठा, सहतीर (दे० ) । शहतूत - संज्ञा, पु० (का० ) तूत नामक एक पेड़ और उसके फल | शहद - संज्ञा, पु० (०) चीनी के शीरे का सा एक तरल मीठा रस या पदार्थ जिसे मधुafar फूलों से निकालती हैं, पुष्य रस मधु, माक्षिक, सहत, सहद ( ग्रा० ) | मुहा०-- शहद लगा कर चाटना- किसी बे काम वस्तु को व्यर्थ रखना, (व्यंग) । शहनाई - संज्ञा, स्त्री० (फा० ) नफीरी बाजा, रोशनचौकी सहनाई (दे० ) । शहबाला -- पंज्ञा, पु० [फा०) दूल्हे का छोटा भाई जो विवाह में साथ रहता है । शहमात - संज्ञा, त्रो० यौ० ( फ़ा० ) शतरंज के खेल में शाह के जोर पर शह देकर मात किया जाना । शांतता शहर - संज्ञा, पु० ( फा० ) नगर, पुर, कसबे से बड़ी बस्ती जहाँ पक्की इमारतें और बड़ा बाज़ार हो, सहर (दे०) । शहरपनाह - संज्ञा, स्त्री० यौ० ( फा० ) शहर या नगर की चहार दीवारी, प्राचीर, नगरकोट पुर-परिखा । शहरयार - संज्ञा, पु० ( फ़ा० ) बादशाह | शहराती, शहरी --- वि० ( फ़ा० ) शहर का, शहर का बाशिन्दा, नागरिक नगर निवासी । शहादत संज्ञा, खो० (०) सानी, गवाही प्रमाण, सुबूत, शहीद होना । शहाना संज्ञा, पु० दे० ( फ़ा० शाहाना ) सम्पूर्ण जाति का एक राग । वि० - राजसी, शाही, श्रेष्ठ, उत्तम बढ़िया । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir शहाब - संज्ञा, पु० ( फ़ा० ) एक गहरा लाल रंग | शहिजादा - संज्ञा, पु० ( फा० शाहज़ादा का अल्प० ) शाहजादा, राजकुमार । स्त्री०शहज़ादी । शहीद- संज्ञा, पु० (अ० ) धर्मीदि के हेतु बलिदान होने वाला मुसलमान । शांकर - वि० (सं०) शंकर-संबंधी, शंकराचार्य या शंकर का | संज्ञा, पु० -एक छंद ( पिं० ) । शांडिल्य -- संज्ञा, पु० (सं०) एक मुनि जिन्होंने एक भक्ति-सूत्र और स्मृति का निर्माण किया था, एक गोत्रकार ऋषि ( कान्य० ) । शांत - वि० (सं०) स्थिर, सौम्य, धीर, गंभीर, मौन, चुपचाप, विनष्ट, जितेंद्रिय, कोधादिविहीन शिथिल, मृत, स्वस्थ चित्त, रागादिरहित, वेग, क्रिया या लोभ-रहित, उत्साहादि से शून्य, विघ्नबाधा विहीन, बंद या रुका हुथा | संज्ञा, पु० -- नौ रसों में से एक रस जिसका स्थायी भाव, निर्वेद और संसार की माता, और दुःख पूर्णता, तथा ब्रह्मस्वरूप श्रालंवन विभाव हैं। शांतता - संज्ञा, स्त्री० (सं०) धीरता, गंभीरता, मौनता, सन्नाटा, स्वस्थता, मरण, स्थिरता, शांति, ( काव्य ) । For Private and Personal Use Only Page #1646 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - शांतनु शाख शांतनु- संज्ञा, पु. (सं०) द्वापर के चंद्र- शाकटायन--संज्ञा, पु. (सं०) एक बहुत वंशीय २१ वें गजा, भीष्मपितामह के पुराने व्याकरण कार इनका उल्लेख पाणिनि पिता (महा०) । "शांतनु की शांति कुल- ने किया है, एक अर्वाचीन वैद्याकरण । क्रांति चित्र अंगद को' - रत्ना० । "त्रिप्रभृतिषु शाकटायनस्य'-कौ० व्या० । शांता--संज्ञा, स्त्री० (सं.) राजा दशरथ की शाकद्वीप -- संज्ञा, पु० सं०) सात द्वीपों में कन्या जो ऋष्यशृंग को व्याही थी, रेणुका । से एक ( पुरा. ), ईरान और तुर्किस्तान के शांति--संज्ञा, स्त्री० (सं०) नीरवता, मौनता, बीच में पार्टी और शकों का देश । स्तब्धता. स्थिरता, सौम्यता, उपशम, शाकद्वीपीय-वि० (सं०) शाकद्वीप का। विराग, सन्नाटा, रोगादि नाश तथा चित्त संज्ञा, पु.---ब्राह्मणों का एक भेद, मग का ठिकाने होना, स्वस्थता, मरण, धीरता, ब्रह्माण । गंभीरता, विरागता, अमंगल या विघ्न वाधादि के मिटाने का उपचार, दुर्गा, वासनादि शाकल संज्ञा, पु. (सं०) टुकडा, खंड, ऋग्वेद की एक शाखा या संहिता, मद्र देश विहीनता । " शांतिरापः शांति रोषधयः" का एक शहर, हवन-सामग्री, शाकल्य । -- य. वे। शाकल्य -- संज्ञा, पु. (सं०) होम या हवन शांतिकर्म-संज्ञा, पु. यो. (सं०) पाप की वस्तु या सामग्री, एक प्राचीन वैयाग्रहादि-जन्य अमंगल के निवारण का उप. करण । " लोपः शाकल्यस्य" - सि. कौ० चार । ( व्या०)। शांतिकारी-शौतिकारक-संज्ञा, पु० (सं०) शाका-संज्ञा, धु० (सं०) शालिवाहन का शांति करने वाला । स्त्री०-गांतिकारिणी। शांतिदायक शातिदायी-शांतिप्रद-वि. संवत् , लाका (दे०)। शाकाहार--- संज्ञा, पु० यौ० (सं०) निरामिष (सं०) शांति देने वाला। सी०-शांति भोजन, अन्न, तरकारी और फलों का भोजन । दायिनी। वि० - शाकाहारी। शांति-पाठ-संज्ञा, पु. यौ० (सं०) वेद के शाकाहारी-- वि० यौ० (सं०) शलाहारी, शांति कारक मंत्र। निरामिष भोजी। विलो०-मांसाहारी । शांबरी-संज्ञा, स्त्री० (पं०) इन्द्रजाल, जादू शाकिनी-संज्ञा, स्त्री० (सं०) चुडैल, डाइन। गरनी । संज्ञा, पु०-लाध पेड़ । शांबुक-शावूक-संज्ञा, पु० दे० (सं० शंबुक शाकुन-वि० (सं०) शकुन-संबंधी, पक्षियों के संबंध का। शंबूक ) घोंघा, छोटा, शंख, एक शूद्र तपस्वी ( राम राज्य-वाल्मी० )। शाकुनि- संज्ञा, पु० (सं०) व्याधा, बहेलिया। शाँभर-- संज्ञा, स्त्री०, पु. (दे०) नमक की शाक्त-वि० (सं०) शक्ति-संबंधी । संज्ञा, पु. सांभर झील, ( राज.)। -शक्ति का उपासक, तांत्रिक। शाइस्तगी-संज्ञा, स्त्री. (फा०) सभ्यता, शाक्य-संज्ञा, पु. (सं०) नेपाल की तराई शिता, भलमनसी आदमीयत । की एक प्राचीन क्षत्रिय-जाति, बुद्ध देव शाइस्ता-वि० दे० ( फा० शाइस्तः ) सभ्य, की जाति । शिष्ट, भलामानुष, विनम्र विनीत । शाक्य पनि-शाक्यसिंह-संज्ञा, पु. यौ० शाक-संज्ञा, पु. ( सं०) भाजी, साग, (सं०) गौतम बुद्ध जी। तरकारी । वि०-- शक जाति संबंधी, शकों शाव-संज्ञा, स्त्री. (फ़ा०) शाखा, (सं०) __डाली, टहनी मुहा० --शाख निकालना का। For Private and Personal Use Only Page #1647 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org १६३६ शाखा जाति-वर्ग, - दोष निकालना । भेद, प्रकार, विभाग, टुकड़ा, फाँक, खंड | शाखा -- संज्ञा, स्त्री० (सं०) डाली, टहनी, प्रकार, विभाग, हिस्सा, वेद की संहिताओं के पाठ तथा क्रम-भेद, अंग, हाथ-पैर, किसी वस्तु से निकले भेद-प्रभेद, साखा (दे० ) । शाखामृग - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) बंदर, बानर । शाखामृग की यह प्रभुताई 66 35 -रामा० । शाखी - संज्ञा, पु० (सं० शाखिन् ) पेड़, वृक्ष, तरु | शाखोच्चार - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) व्याह के समय उभय ओर की वंशावली का कथन | शागिर्द - संज्ञा, पु० (फ़ा० ) शिष्य, चेला, 97 सेवक | संज्ञा, स्त्री०-शागिर्दगी, शागिर्दी । शाख्य- संज्ञा, पु० (सं०) क्रूरता, दुष्टता, धुर्तता । लो०--- “ शठे शाठ्यं समाचरेत् ' " शाठ्यं दुष्ट जने 19 - भ० श० । शाण -- संज्ञा, पु० (सं०) कमौटी, चार माशे की तौल, हथियार पैने करने की सान । शात - संज्ञा, पु० (सं०) कल्याण, मंगल | शातकुंभ संज्ञा, पु० (सं०) सोना, सुख । शातवाहन - संज्ञा, पु० दे० (सं० शालिवाहन ) शालिवाहन नाम के एक राजा । शातिर - संज्ञा, पु० ( प्र०) शतरंज - बाज़, शतरंज का खिलाड़ी । वि० -- प्रवीण, पटु । शाद - वि० ( फा० ) खुश, हर्षित, प्रसन्न | विलो०- नाशाद | शादियाना -संज्ञा, पु० (का० ) हर्ष - वाद्य, श्रानंद, मंगल-सूचक बाजा, बधाई, बधावा । शादी - संज्ञा, नो० (फा० ) खुशी, प्रसन्नता, आनंद, आनंदोत्सव, व्याह, विवाह । शाद्वल -- वि० (सं०) हरा-भरा मैदान, हरी घास, दूब । "ययौ मृगाध्यासित शाद्वलानि - रघु० । संज्ञा, पु० - रेगिस्तान के बीच की हरियाली और बस्ती, बैल | शान - संज्ञा, स्त्री० ( प्र०) ठाठ-बाट, सजावट, तड़क-भड़क उसक, गुमान प्रतिष्ठा, शक्ति, शाब्दी व्यंजना विशालता, मान-मर्यादा, विभूति, भव्यता, करामात । वि० शानदार । मुहा०किसी की शान में किसी की इज्जत या प्रतिष्ठा के संबंध में । गर्व की वेशमुहा०--शान करना ( दिखाना ) - गर्व प्रगट करना | शान-शौकत - संज्ञा, स्त्री० यौ० (०) दबदबा, मर्तवा, तड़क-भड़क, सजावट, तैयारी, ठाट-बाट सजधज । शाप -- संज्ञा, पु० (सं० ) कोसना, स्राप, भर्त्सना, बददुआ, अहित - कामना सूचक शब्द फटकारना. धिक्कार, साप (दे० ) । शापग्रस्त - वि० यौ० (सं०) शापित, जिसे शाप लगा हो । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir शापना - स० क्रि० दे० (सं० शाप) सापना (दे० ) शाप देना | " जियमें डस्यो मोहि मति शापै व्याकुल वचन कहंत " - सूरा० । शापित - वि० (सं०) शाप-ग्रस्त, जिसे शाप दिया गया हो । शावर भाष्य संज्ञा, पु० ( सं० ) मीमांससूत्रों पर एक प्रसिद्ध भाष्य या व्याख्या । शावरी - संज्ञा, पु० (सं०) शाबरों की भाषा, प्राकृत भाषा का एक भेद । शाबाश -- भव्य० ( फा० ) खुश रहो, वाहवाह साधु-साधु, धन्य हो । संज्ञा, स्रो०शावाशी । शाब्द वि० (सं०) शब्द का, शब्द-संबंधी, शब्द पर निर्भर, एक प्रमाण । स्त्री० शाब्दी | शाब्दिक - वि० (सं०) शब्द-संबंधी, वैया करण । शाब्दी - वि० स्त्री० (सं०) शब्द - संबधिनी, जो शब्द ही पर निर्भर हो । शाब्दी व्यंजना--संज्ञा, स्रो० यौ० (सं०) वह व्यंजना जो केवल किसी विशेष शब्द के ही प्रयोग पर निर्भर हो और उसके पर्यायवाची शब्द के प्रयोग से न रह जाये । विलो० - प्रार्थी व्यंजना । For Private and Personal Use Only Page #1648 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org शाम 7804AUS शाम - पंज्ञा, स्त्री० (फ़ा० ) संध्या, साँझ "झुटपुटा सा हो गया है शाम का "-- म० इ० । * - वि०, संज्ञा, पु० -- श्याम | संज्ञा, स्त्री० (सं० ) - शामी। संज्ञा, पु० – एक प्राचीन देश जो अरब के उत्तर थोर है, सिरिया । शाम करण, शाम· कर्ण-संज्ञा, पु० दे० यौ० ( सं० श्यामकर्ण ) वह श्वेत घोड़ा जिसके केवल कान काले हों, स्यामकरन (दे०) । शामकरण अगनित हय होते ' " "" १६३७ " शामूक- संज्ञा, पु० (सं०) घोंघा, सीप । शायक - संज्ञा, पु० (सं०) तीर, वाण, शर, तलवार, खड्ग, सायक (दे० ) । शायक मारा मैं बाली -रामा० । 66 जेहि शारी NEEDSTERS, SKIPIGON » EARTH शायक - वि० ( ० ) इच्छुक, शौकीन । शायद - अव्य० (फा० ) संभवतः कदाचित्, चाहे ! शायी - वि० सं० शायिन् ) मोने वाला । शारंग - संज्ञा, पु० दे० (सं० सारंग ) सारंग, रात, वस्त्र, दीपक, साँप, मोर, मेघादि, इस के ५६ अर्थ हैं | संज्ञा, पु० दे० (सं० शार्ङ्ग ) विष्णु का धनुष धनुष । - रामा० । शामत -- संज्ञा, स्त्री० (अ०) दुर्गति, आपत्ति, विपत्ति, दुर्भाग्य, दुर्दशा | मुहा० - किसी | शारंग-पाणि-संज्ञा, पु० दे० यौ० (सं० शार्ङ्गपाणि) विष्णु रामचंद्र, कृष्ण । (सं०) शरद कालका, | शारद - वि० सरस्वती । की ) शामत आना दुरवस्था श्राना | शामत का घेरा या मारा- जिसकी भाग्यता या दुर्दशा का समय आगया हो, दुर्भाग्य का मारा । शामत सवार होना या सिर पर खेलना- दुर्दशा का समय थाना, शामत चढ़ना । शामा संज्ञा, स्रो० दे० (सं० श्यामा ) राधिका, राधा जी, एक छोटा पत्ती, सोलह वर्ष की स्त्री, काली गाय, एक तरह की तुलसी, कोयल, यमुना, रात, स्त्री, धौरत । शामियाना संज्ञा, पु० ( फा० शाम ) एक प्रकार का बड़ा चंदोवा, वितान, तंबू - मंडप, सभ्याना (द०) । 1 शामिल - वि० ( फु० ) युक्त, मिश्रित, मिलित, संमिलित, जो साथ में हो । व० व० शामिलात । संक्षा, स्त्रो०- शामिलाती - साझे का । शामी - संज्ञा, स्त्रो० (दे०) धातु का वह छल्ला जिसे छड़ी आदि के सिरे पर उसकी रक्षार्थ लगाते हैं । वि० - ( शाम देश ) - शाम देश का । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir शायर संज्ञा, पु० ( प्र०) कवि । स्त्री०शायरी । शायरी - संज्ञा, स्रो० (०) कविता, काव्य, पद्यमयी रचना शारदा - संज्ञा, स्त्री० (सं०) सरस्वती, दुर्गा, पुराने समय की एक लिपि, सारदा (दे० ) । शेष, शारदा, व्यास मुनि, कहत न पावैं पार - नीति० । " " 66 शारदी- वि० दे० (सं० शारदीय ) शरद ऋतु संबंधी, शरद कालका, सारदी (दे० ) । कहुँ कहुँ वृष्टि शारदी थोरी " रामा० । शारदीय - वि० (सं०) शरद ऋतु का, शरद ऋतु संबंधी । शारदीय महापूजा -- संज्ञा, स्रो० यौ० (सं०) कार में होने वाली नवरात्रि की दुर्गा पूजा । शारदोत्सव-संज्ञा, पु० (सं०) कुधार की पूर्ण मासी का उत्सव, शरद पूनो का उत्सव | शारिका - संज्ञा, स्रो० (सं०) मैना पक्षी, सारिका (दे० ) । " शुक-शारिका पदावहिं वालक "-- रामा० । शारिवा - संज्ञा, स्त्री० (सं० ) अनंतमूल, सालसा, धमासा, नवापा । "मदा, शारिवा, लोधन: चौद युक्त: "- लो० रा० । शारी -- संज्ञा स्त्री० (सं०) मैना, पाँसे के खेल For Private and Personal Use Only Page #1649 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org शारीर की गोट | "शारी चरंतीं सखि मारयेताम् " - नैष० ० । १६३८ शारीर - वि० (सं०) शरीर-संबंधी । “शारीरे सुश्रुतः प्रोक्तः ". - स्फु० । शारीरक - संज्ञा, पु० (सं०) शरीर की सब दशाओं का विवेचन | यौ० (सं०) श्री शारीरकभाग्य - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) शांकर वेदांतभाष्य या ब्रह्मसूत्र की व्याख्या । शारीरकसूत्र - संज्ञा, पु० व्यास- कृत वेदांत-सूत्र । शारीरविज्ञान -- संज्ञा, पु० यौ० शास्त्र जिसमें जीवों के उत्पन्न शरीरों के बढ़ने आदि की विवेचना हो । शरीर शास्त्र ( यौ० ) । शारीरिक - वि० (सं०) शरीर-संबंधी । शार्ङ्ग - संज्ञा, पु० (सं०) विष्णु का धनुष, (सं० ) वह होने उनके सींग का धनुष । शार्ङ्गधर, शार्ङ्गभृत् – संज्ञा, पु० (सं० ) विष्णु भगवान । १८ शार्ङ्गपाणि - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) विष्णु । शार्दूल - संज्ञा, पु० (सं०) बाघ, चीता, शेर, राक्षस, शरभजंतु, एक पक्षी, सिंह, दोहे का एक भेद (पिं०), सारदूल (दे० ) । वि० - सर्वोत्तम, सर्व श्रेष्ठ ! शार्दूल ललित-संज्ञा, पु० (सं०) वर्गों का एक वर्णिक छंद (पिं० ) । शार्दूलविक्रीडित - संज्ञा, पु० (सं०) वर्गों का वर्णिक छंद (पिं० ) । शाल - संज्ञा, पु० (सं०) साबू, एक विशाल पेड़, एक मछली | संज्ञा, स्त्री० ( फा० ) दुशाला, ऊनी चादर | शालकि, शालकी - संज्ञा, पु० (सं०) पाणिनिमुनि ! १६ । शालग्राम - संज्ञा, पु० (सं० ) विष्णु की एक पत्थर की मूर्ति, सालिगराम (दे० ) । शालपर्णी - संज्ञा, स्त्री० (सं०) सरिवन ( श्रौष ० ) शाला - संज्ञा, स्त्री० (सं०) श्रालय, गृह, | Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir शाश्वत मकान, घर, स्थान । जैसे- चित्रशाल । इन्द्रवज्रा और उपेंद्रवज्रा के योग से बना एक छंद, उपजाति (पिं० ) । शालातुरीय- पंज्ञा, यौ० पु० (सं०) पाणिनि मुनि । शालि - संज्ञा, पु० (सं०) एक प्रकार का धान, जड़हन, बासमती चावल, पौंड़ा, गन्ना । शालिधान - संज्ञा, पु० दे० यौ० (सं० शालिधान् ) बासमती चावल | शालिनी - संज्ञा, स्त्रो० (सं०) ११ वर्गों का एक वर्णिक छंद या वृत्त (पिं० ) । शालिवाहन - संज्ञा, पु० (सं०) एक शक राजा जिसने शकाब्द नामक शाका या संवत् चलाया था । शालिहोत्र - संज्ञा, पु० (सं०) श्राश्व वैद्य, अश्व चिकित्सा या अश्व-विज्ञान का ग्रंथ, घोड़ा, अश्व । शालिहोत्री - संज्ञा, पु० (सं० शालहोत्रि + ईप्रत्य०) श्रश्व-वैद्य, अश्व-विज्ञानी, घोड़े आदि पशुथों का चिकित्सक । शालीन - वि० (सं०) विनम्र, विनति, लज्जावान, सदृश, तुल्य, सुन्दर, आचार-विचार वाला, चतुर, दक्ष, पटु, शिष्ट, सभ्य, धनी, अमीर | संज्ञा, स्त्री० - शालीनता । शाल्मलि - संज्ञा, पु० (सं०) सालमली (दे०), सेमल या सेमर का पेड़, एक द्वीप, एक नरक ( पुरा० ) । शाल्व - संज्ञा, पु० (सं०) सौभराज्य के एक राजा जो कृष्ण द्वारा मारे गये थे । एक देश ( प्राचीन ) । शावक - संज्ञा, पु० (सं०) बच्चा, पशु का बच्चा, सावक (दे० ) । शावर - संज्ञा, पु० (सं०) सावर, मंत्र-तंत्र विशेष | " शावर मंत्र - जाल जेहिं मिरजा -रामा० । शाश्वत - वि० (सं०) सदा रहने वाला, नित्य, स्थायी, नाश-रहित | संज्ञा, पु० (सं०) ब्रह्म । वि० - शाश्वती - स्थायी, नित्य । For Private and Personal Use Only 37 Page #1650 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - - GaourAKADHE शाश्वती १६३६ शिकंजा शाश्वती-संज्ञा, स्त्री० (सं०) सदा रहने शाहंशाह-संज्ञा, पु० यौ० (फा०) सम्राट, वाली। ' मा निषाद प्रतिष्ठां त्वमगमाः बादशाहों का बादशाह, राजाधिराज । शाश्वती-समाः "~वाल्मी० । | शाहंशाही--संज्ञा, स्त्री. (फा०) शाहंशाह शासक-संज्ञा, पु. (सं०) हाकिम, शासन का कार्य या भाव, व्यवहार का खरापन करने वाला। स्रो० - शासिका। (बोल चाल )। शासन-संज्ञा, पु० (सं०) लिखित प्रतिज्ञा, शाह -संज्ञा. पु० (फा०) बादशाह, महाराज, श्रादेश, प्राज्ञा, हुक्म, ठीका. पट्टा, मुश्राफ़ी मुसलमान फ़कीरों की उपाधि, एक कुल राजा से दान दी गई भूमि, श्राज्ञापत्र, या जाति (मुसलमान)। वि० --बड़ा, भारी, शास्त्र, अधिकार-पत्र, इन्द्रिया-निग्रह, सज़ा, महान् , साह (दे०), धनी, समधी (वैश्य)। दंड, हुकूमत, वश या अधिकार में रखना । शाहजादा-- संज्ञा, पु०. (फ़ा०) बादशाह का शासनीय - वि. (सं०) शासन करने योग्य, पुत्र, महाराज-कुमार । स्त्री०-शाहजादी। सज़ा के लायक। शाहना-वि० (फ़ा०) शाही । संज्ञा, पु० दूल्हे शासित-वि० (सं०) जिस पर शासन किया के कपड़े। जावे, जिसे दंड दिया गया हो । स्त्रो०--- शाहराह-संज्ञा, स्त्री० (फ़ा०) राज-मार्ग। शासिता। शाहाना-वि० (फ़ा०) राजसी । संज्ञा, पु. शास्ता-संज्ञा, पु. ( सं० शास्तृ ) राजा, व्याह में वर के नामा, जोड़ा श्रादि वस्त्र, शासक, पिता, गुरु, अध्यापक, उपाध्याय । । एक राग, शहाना (दे०)। शास्ति--संज्ञा, स्त्री० (सं०) शासन, सजा, शाही-वि० (फा०) बादशाहों का, राजसी । दंड। शिगरफ़-संज्ञा, पु० (फ़ा०) इंगुर । शास्त्र---संज्ञा, पु. (सं.) वे धार्मिक या शिबी-संज्ञ, स्त्री. (सं.) बौड़ी, छेमी, शिक्षा-ग्रंथ जो लोगों के हित और फली, सेम, केवाँच. कौंछ (दे०)। अनुशासन के हेतु रचे गये हों, चार वेद शिंवीधान्य-संज्ञा, पु० (सं०) दाल, द्विदल उनके ६ अंग, ६ उपग, धर्म शास्त्र, दर्शन- भा। शास्त्र, पुराण, चार उपवेद, विज्ञान, ये सब शिंशपा-संज्ञा, स्त्री० (सं०) शीशम का पेड़, पृथक पृथक शास्त्र कहे जाते हैं। किसी अशोक पेड़, सिमपा (दे०)। विशेष विषय का यथाकम संग्रहीत पूर्ण शिशुपा --- संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० शिंशपा) ज्ञान, विज्ञान । ' शास्त्रेष्वकुण्ठिता बुद्धिमौर्वी शीशम का पेड़, अशोक वृक्ष, सिंसुपा धनुषि चातता "- रघु० । शास्त्रकार--संज्ञा, पु० (सं०) शास्त्र बनाने शिशुमार-संज्ञा, पु. (सं०) सूस नामक एक वाला, शास्त्रकर्ता, शास्त्र रचयिता। जल-जंतु । शास्त्रज्ञ-संज्ञा, पु. (सं०) शास्त्र ज्ञाता, शिकंजा ज्ञा, पु० (फा०) एक यंत्र जिसमें शास्त्रवेत्ता, शास्त्रविद ।। किताबें दबा कर उनके पन्ने काट कर बराबर शास्त्री-संज्ञा, पु० (सं० शानिन् ) शास्त्रज्ञ, किये जाते हैं, पदार्थों के कसने और दाने शास्त्र-ज्ञाता, धर्म या दर्शन शास्त्र का ज्ञाता, का यंत्र, अपराधियों के पैर कसने का एक ज्ञानी, पंडित, शास्त्रविद् , शास्त्रवेत्ता । प्राचीन यंत्र, काठ। मुहा०—शिकंजे में शास्त्रीय वि० (सं०) शास्त्र संबंधी। खिंचवाना-कठोर कष्ट या घोर यंत्रणा शास्त्रोक्त - वि० यौ० (सं०) शास्त्रों में कहा | दिलाना । शिकंजे में प्राना-काबू में हुआ, प्रमाणिक । भाना, जाल या फंदे में फँसना। For Private and Personal Use Only Page #1651 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir शिकन शिख शिकन-संज्ञा, स्त्रो० (फा०) सिकुड़न, बल, सीखने-मिखाने की क्रिया पढ़ाई, उपदेश, सिलवट, सिकुड़ने से पड़ी धारी । सिखावन, सीख, मत्र मंत्रणा, तालीम. गुरु शिकम संज्ञा, पु. (फा०) पेट, उदर, एक के समीप विद्याभ्यास, सलाह, ६ वेदांगों में छोटे राज्य का नगर ( बंगाल )। से वेदों के स्वर, मात्रा, वर्णादि का निरूपक शिकमी काश्तकार-संज्ञा, पु० यौ० एक विधान दबाब, शासन, सबक़, सज़ा, (फा०) जो काश्तकार किसी दूसरे काश्तकार दंड । यौ०-शिक्षा केन्द्र-वह स्थान की भूमि में खेती करे। जहाँ शिक्षा विभाग तथा प्रधान विद्यालय पाकग-ना. प. (फा०) एक तरह का हो । यौ०-शिक्षा-विभाग। बाज़ पक्षी। शिक्षाक्षेप-संज्ञा, पु. यौ० (सं०) एक शिकवा---संज्ञा, पु० (फ़ा०) शिकायत ।। अलंकार जिसमें उपदेश द्वारा प्रयाण या शिकस्त - संज्ञा, स्त्री० (फा०) पराजय, हार। जाना रोका जाता है (केश.)। मुहा०-शिकस्त खाना-- हार जाना। शिक्षागुरु-संज्ञा, पु. यौ० (सं०) विद्या पाढ़ने वाला, श्रध्यापक, गुरु । शिकायत--संज्ञा, स्त्रो० (अ०) उपालंभ, शिक्षार्थी - संज्ञा, पु. यौ० (सं० शिक्षाथिन् ) उलाहना, चुगुली. निंदा. गिला (फ़ा०), विद्याभ्यासी, विद्यार्थी ।। बीमारी रोग । यौ०-शिकवा-शिकायत । शिक्षालय-- संज्ञा, पु० यौ० (सं०) विद्यालय, शिकार - संज्ञा, पु. (फा०) मुगया, आखेट, __ स्कूल, (अं०) पाठशाला । अहेर, भचय पशु. मारा हुअा जीव, मांस, | शिक्षाविभाग - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) जनता आहार । असामी. वह व्यक्ति जिसके फँसने की शिक्षा या तालीम का प्रबंध करने वाला से लाभ हो, सिकार (दे०) लो० (फ़ा०)। एक सरकारी महकमा। "शिकार कार बेकारा नस्त"। मुहा०-- शिक्षित-वि. पु. (सं०) पढ़ा या सीखा शिकार खेलना-अहेर या 'पाखेट करना। हुआ, उपदेश-प्राप्त, पंडित, विद्वान, पढ़ाकिसी का शिकार होना-किसी के द्वारा लिखा । स्त्री०-शिक्षिता। मारा जाना, वश में श्राना, फॅयना, चंगुल शिखंड-संज्ञा, पु. (सं०) मयूर-पुग्छ, में पाना या फँसना किसी को शिकार । मोर की पूँछ या छोटी, काकपन, काकुल, बनाना--लाभ उठाने को किसी को शिखा, चोटी । स्त्री.----शिखंडिका । फँसाना। शिखंडिनी-संज्ञा, स्त्री. (सं०) मोरनी, शिकारगाह-संज्ञा, स्त्री. (फा०) शिकार | मयूरी, द्रुपद नरेश की एक कन्या, जो या आखेट खेलने का स्थान ।। कुरुक्षेत्र के युद्ध में पुरुष-रूप से लड़ी थी। शिकारी-वि० (फा०) अहेरी, श्राखेट करने | शिखंडी- संज्ञा, पु० (सं० शिखडिन् ) चोटी, वाला, मृगया में काम आने वाला ! शिखा, मयूर मोर, मुर्गा, विष्णु, वाण, शित्तक-संज्ञा, पु. (सं०) उपदेश देने या शिव, कृषा, शिख डिनी, राजा द्रुपद का समझाने वाला, सिखाने या पढ़ाने वाला, पुत्र जो पूर्व जन्म में स्त्री था, भीष्म की गुरु, अध्यापक. उस्ताद, सिन्छक (दे०) मृत्यु का कारण वही था (महा.)। "शिक्षक हौ पिगरे जग को "-नरो । " वान न होहिं शिखंडी तोरे"-स. शिक्षण-- संज्ञा, पु. (सं०) पढ़ाई, उपदेश, सिं०। शिक्षा, तालीम, सिखावन, अध्यापन । शिख*---संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० शिखा ) वि०--शिक्षणीय, शिक्षित । शिखा, चोटी, शिक्षा, सीख सिख, (दे०)। शिक्षा-संज्ञा, स्त्री० (सं.) किसी विद्यादि के । “नखशिख मंजु महा छवि छायी"-रामा For Private and Personal Use Only Page #1652 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir शिखर शिथिलाना AN N AamaOR D urarma शिखर-संज्ञा, पु० (सं०) चोटी, सिरा, शिखा, पु०-मुग़, मयूर, मोर, साँड़, बैल, घोड़ा, पहाड़ का शृंग, मंडप, कँगूरा, कलश, घर के अग्नि, नाराच, वाण, शर, केतु, पूछ लतारा, उपर का नुकीला गिरा, गुंवद, जैनियों का तीन की संख्या। एक तीर्थ, एक अस्त्र, एक रत्न। शिगाफ़-संज्ञा, पु. (फा०, दर्ज, दरर, छेद, शिखरन, शिरन-संज्ञा, स्त्री. ( सं० छिद्र, नश्तर, चीरा, सूराख । शिखरिणी ) दही, दृध और शक्कर से बना शिगफ़ा -- संज्ञा, पु० दे० ( फ़ा. गगूफा ) खाने का एक पदार्थ, श्रोखंड ( गुज.)। कली, बिना फूला या खिला फूल, नयी शिखरा--संज्ञा, पु. ( सं०) पहाड़, पेड़, और अनोखी बात या घटना ।। अपामार्ग। शित* ---वि० दे० ( सं० सित ) र ? श्वेत शिखरिणी-संज्ञा, स्त्री. (सं०) नारी-रत्न, साफ़, सित । ' शितकंठ के कंउन को श्रेष्ठ स्त्री, रमाल, रोमावली, शिखरन, दही, ___ कटुला "- राम । दूध और चीनी मिला पदार्थ, ५७ वर्णों शितलाना--.अ. क्रि० दे० (सं० शीतल ) का य, म, न, स, भ (गण) और ल०, गु० ठंढा होना । स० क्रि०---ठंढा करना। वाला एक वर्णिक छंद या वृत्त (पिं० ), शितलाई-संज्ञा, स्त्री० (दे०) सितलाई सिखरिनी (दे०)। (दे०), शीतलता। शिखरी-संज्ञा, स्त्री० ( ० शिखरा ) विश्वा- | शिताब-कि० वि० (फ़ा०) शीघ्र, जल्द, मित्र द्वारा राम जी को दी गई गदा । वि० । जल्दी, तत्काल, तुरन्त । संज्ञा. श्री०(सं०) शिखर वाला शिताबी। शिखा-संज्ञा, स्त्री० सं०) शिखर, डाली, शिति- वि० (सं०) उज्वल, शुक्ल, सफ़ेद, शाखा, चोटी, चुटैया ग्रा.)। यो०- श्वेत, साफ़, कृष्ण, काला । शिखासत्र-द्विजों के चित-चोटी और शितिकंट- संज्ञा, पु. (सं०) चातका, जलउपवीत। पक्षियों के सिर की कलँगी या काक, मुर्गाधी, पपीहा, मोर, महादेः । चोटी, प्रकाश की किरण, ज्वाला, अग्नि की। | शिथिल--वि० (सं०) ढला, जो पूरा कसा लपट, दीपक की लौ। " छविगृह दीप या जकड़ा न हो, धीमा, मंद, थका-माँदा, शिखा जनु बरई" -- रामा। एक विषम वृत्त श्रांत, जिपत्री पाबंदी न हो. पालस्थ-युक्त, (पिं०), किसी वस्तु की नोक, या नुकीला सुस्त, सिभिल (दे०)। " शिथिलवायुमगाधे सिरा। मग्नमापत्पयोधौ "-किरा० । संज्ञा, पु०शिखावल -- संज्ञा, पु० (सं०) मयूर, मोर ! शैथिल्य, शिथिलता। चोटी वाला, कटहल का पेड़ ।। शिथिलता--संज्ञा, स्त्री० (सं०) ढं लापन, शिखि-संज्ञा, पु. (सं०) मयूर, मोर, अग्नि, ढिलाई, तत्परता-हीनता. थकान, ४५कावट, मदन, कामदेव, तीन की संख्या, शिवी नियम-पालन में दृढ़ता न होना, हालस्य, (दे०)। वाक्य में शब्दों का सुगठित अर्थ- पम्बन्ध शिखिध्वज-संज्ञा, पु. यौ० (सं०) धुश्रा, न होना। धूम, धूम्र, षडानन, कार्तिकेय, मयुरध्वज। शिथिलाई*-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० शिखिनी-संज्ञा, स्त्री० (सं०) मोरनी, मयूरी, शिथिलता ) शिथिलता. ढिलाई. बालस्य मुगी। सिथलाई, सिथिलाई (दे०)। शिखी--वि० ( सं० शिखिनी) चोटी, या शिथिलाना:-अ० क्रि० दे० (सं० शिथिल ) शिखा वाला। स्त्री०-शिखिनी। संज्ञा, । शिथिल, ढीला या सुस्त होना, कना । भा० श० को०-२०६ For Private and Personal Use Only Page #1653 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org शिद्दत १६४२ शिलान्यास स० क्रि० (दे०) शिथिल करना सिथिलाना शिरा - संज्ञा, स्रो० (सं०) रक्तवाही नाही, रक्त नलिका, पानी का स्रोत या धार । शिराकृत- संज्ञा, स्त्री० (०) शिरकत, साझा, मेल । शिरीष- संज्ञा, उ० (सं०) सिरस पेड़ | कोमलं शिरीष-पुष्पं " पदं सहेत भ्रमरस्य (दे०) । शिद्दत - संज्ञा, स्त्री० ( प्र०) उग्रता, तीव्रता तेजी, जोर, श्रधिकता ज़्यादती, प्रचुरता । शिनाख्त -संज्ञा, स्त्री० ( फा० ) पहचान, तमीज़ परख, यह निश्चय कि अमुक व्यक्ति या वस्तु यही है, सिनाखत (दे० ) । शिफ़र + * - संज्ञा, पु० ( फ़ा० सिपर ) ढाल, शून्य, विन्दु, सिफ़र (दे० ) । शिया - संज्ञा, पु० दे० ( अ० शीया ) एक मुसलमानी संप्रदाय, जो हरज़त अली को पैगंबर का उत्तराधिकारी मानता है । विलो०- सुन्नी । शिर - संज्ञा, पु० (सं० शिरस ) सिर, सर, खोपड़ा, कपाल, शीश, माथा, मस्तक, शिखर, सिरा, चोटी । " शिर धरि श्रायसु करिय तुम्हारा - रामा० । " शिरकत - संज्ञा, स्त्री० (अ०) साझा हिस्सा, किसी कार्य में संमिलित होना, किसी वस्तु के अधिकार में भाग लेना । शिरत्राण - संज्ञा, पु० दे० यौ० (स० शिरत्राण) शिर-रक्षा के लिये लोहे की टोपी. खोद. कँडी, शिरत्रान, सिरत्रान । शिरनेत - संज्ञा, पु० (दे० ) एक प्रदेश, ( श्री नगर या गढ़वाल के आस-पास ) क्षत्रियों की एक शाखा, सिरन्यात (ग्रा० ) । शिरफूल - संज्ञा, पु० दे० मौ० (सं० शिरस् 46 + पुष्प ) शीश - फूल नामक एक गहना । शिरमौर संज्ञा, पु० दे० यौ० ( सं० शिरस् + मौलि ) सिर की मौर, शिरोमणि, सिरताज प्रधान, शिरोभूषण, मुकुट, सिर मौर (दे० ) । ताहि कहते हैं खंडिता, afara के शिरमौर " --मति० । शिरस्त्राण – संज्ञा, पु० यौ० (सं०) युद्ध में शीश-रक्षार्थ लोहे की टोपी. खोद कँड़ी । शिरहन - संज्ञा, पु० दे० (सं० शिरस् + प्रधान ) तकिया, उसीपा, सिरहाना, सिरहना (दे० ) । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir -कुमार० । न पुनः पतत्रिणः " शिरोधरा - संज्ञा स्त्री० (सं०) गर्दन, ग्रीवा, गला, चोंच । शिरोधार्य - वि० यौ० (सं० शिरसि + धार्य) शिर पर धरने योग्य, साक्षर स्वीकार करने योग्य | " शिरोधार्य श्रादेश थाप का कौन टाल सकता है - वासु० । शिरोभूषण संज्ञा, पु० यौ० ( सं० ) शिरोमणि, सिर का गहना, मुकुट, श्रेष्ठ पुरुष, शीशफूल | शिरोमणि संज्ञा, पु० (सं०) शिर की मणि, सिर का गहना, मुकुट, श्रेष्ठ व्यक्ति, चूड़ामणि, सिरोमनि (दे०) | शिरोरुह -- संज्ञा, पु० यौ० (सं०) बाल, केश । शिल- संज्ञा, पु० (सं०) उंछ, शीला | संज्ञा, स्त्री० - शिला, सिलौटी, सिल (दे० ) । शिला- संज्ञा, स्रो० (सं०) पाषाण, प्रस्तरखंड, पत्थर की चट्टान, या सिलौटी, पत्थर का बड़ा लंबा-चौड़ा टुकड़ा, शिलाजीत, उँछ, वृत्ति शीला, सिला (दे० ) । " पूछा मुनिहि शिला प्रभु देखी ' - रामा० । शिलाजतु - संज्ञा, पु० (सं०) शिलाजीत | $6 न चास्ति रोगो भुवि मानवानां शिल जतुर्य न जयेत् प्रसह्यम् " - चर० ! शिलाजीत—संज्ञा, पु० स्त्री० दे० (सं० शिलाजतु ) काले रंग का शिलाधों का रस (एक पौष्टिक श्रौषधि) भोमियाई ( प्रान्ती०) । "पुष्ट होय संशय नाहीं है, शोधि शिलाजतु खाये " कं० वि० । शिलादित्य - संज्ञा, ५० (सं०) एक प्राचीन राजा, हर्ष वर्धन । शिलान्यास -संज्ञा, पु० (सं०) किसी मकान For Private and Personal Use Only Page #1654 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir शिलापट-शिलापट्ट शिवालय या मंदिर आदि की नींव रखी जाने का। दस्तकार, शिल्पकार, राज, मेमार, थवई समारोह या उत्सव, तैयारी, आयोजन । (प्रान्ती० )। शिलापट-शिलापट्ट --संज्ञा, पु. ( सं० शिव-संज्ञा, ९० (सं०) क्षेम, कुशल, कल्याण, शिलापट्ट ) पत्थर की चान, सिलवट (दे०) मंगल, पारा, जल, मोन, देव, वेद, रुद्र, स्त्रो०-शिलापटी-मित्त पटी (दे०)। त्रिदेव में से सृष्टि के संहारकर्ता एक देवता शिलारस-- संज्ञा, पु. यौ० (सं.) लोबान (पुरा०), महादेव, वसु काल, लिंग ११ जैसा एक सुगंधित गोंद। मात्राओं का एक मात्रिक छंद (पिं०) शिलालेख-संज्ञा, पु० चौ० (सं०) पत्थर पर परमेश्वर, शंकर जी, सिव, सिउ (दे०) । खुदा या लिखा कोई प्राचीन लेख । " शिव संकल्प कीन्ह मन माहीं "शिलावृष्टि-- संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) ओलों रामा० । की वर्षा, श्रोले गिरना। | शिवता-संज्ञा, स्रो० (सं०) शिव का धर्म शिलाहरि--संज्ञा, पु० यौ० (सं०) शालिग्राम। या भाव, मुक्ति, मोक्ष । शिलीमुख- संज्ञा, पु० (सं०) भ्रमर, भोरा, शिवनंदन-संज्ञा, पु. यौ० (सं०) गणेश बाण, तीर ! ' अलि-बाणौ शिलीमुखौ" जी, स्वामिकार्तिक । --अमर० । “निपीय मानस्तवका शिली- शिवनिर्माल्य--संज्ञा, पु० यौ० (सं०) शिव मुखैरशोक यष्टिश्चल बालपल्लवा - को अर्पित पदार्थ, ( इसके लेने का निषेध किराता। है ) परमत्याज्य वस्तु । शिलोच्चय -- संज्ञा, पु० यौ० (सं०) पहाड़, शिवपुराण - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) १८ पर्वत, पत्थरों की राशि : " शिलोच्चय' चारु पुराणों में से एक शिवोक्त पुराण जिसमें शिलोच्चयं तमेव क्षणान्ने यति गुह्मकस्त्वाम्" शिव जी का माहात्म्य है। -किरातः । “न पादयोन्मूलन शक्ति रंहः । शिवपुरी-संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) काशी। शिलोच्चय मूर्ति मारुतस्य"-रघु०। शिवरात्रि--संक्षा, स्त्री० (सं०) फाल्गुन कृष्ण शिल्प-संज्ञा, पु. (सं०) हाथ से कोई वस्तु चतुर्दशी, शिव चतुर्दशी, सिवरात (दे०) । बना कर प्रस्तुत करना, कारीगरी, दस्तकारी, शिवरानी-संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं० शिव-+कला-संबन्धी व्यवसाय या धंधा। रानी-हि०) पार्वती जी । (सं०) शिवराज्ञी। शिल्पकला--संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) कारी- शिवलिंगन -संज्ञा, पु० यौ० (सं०) महादेव गरी, दस्तकारो, हाथ से चीजें बनाने की जी का लिंग जिसकी पूजा होती है। कला। शिवलिंगी-सज्ञा, स्त्री० दे० (सं० शिवशिल्पकार-संज्ञा, पु० (पं०) शिल्पी, कारी- लिंगिनी ) एक लता ( औष० )। गर, दस्तकार, राज, बढई, मेमार। शिवलोक - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) कैलास । शिल्पजीवी-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) कारीगर, शिव-वाहन-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) नादिया, दस्तकार, शिल्पी, राज, मेमार (प्रान्ती०)। बैल ।। शिल्प विद्या-संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) शिल्प-शिववृषभ--संक्षा, पु. यौ० (सं०) महादेव कला, इनजिनियरी। जी की सवारी का बैल, नाँदिया, नंदी। शिल्पशास्त्र संज्ञा, पु० यौ० (सं.) शिल्प- शिवा-संज्ञा, श्री. (सं०) दुर्गा. पार्वती, कार्य का शास्त्र, कारीगरी की विद्या का गिरजा, मोन, मुक्ति, सियारिन, शृगाली। ग्रंथ. गृह-निर्माण शास्त्र । शिवालय--संज्ञा, पु० यौ० सं०) कोई देवशिल्पी - संज्ञा, पु० (सं० शिल्पिन् ) कारीगर, मंदिर, देवालय, शिव जी का मंदिर। For Private and Personal Use Only Page #1655 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir शिष्या शिवाला शिवाला-संज्ञा, पु० दे० (सं० शिवालय ) शिशुमार-चक्र ---- संज्ञा, पु. यौ० (सं० ) महादेव जी का मंदिर, शिव मंदिर, देवालय समस्त ग्रहों के सहित सूख्य सौर-संसार, या देव मंदिर। (ज्यो०)। शिवि--संज्ञा, पु. (सं०) एक प्रसिद्ध दानी शिश्न-संज्ञा, पु. (सं.) पुरुष का लिंग। राजा जो राजा ययाति के दौहित्र और शिष*-संज्ञा, पु० दे० (स. शिष्य) शिष्य, राजा उशीनर के पुत्र थे पि०)। चेला, सिष, सिध्य, मिक्ख (दे०) । शिविका---संज्ञा, स्त्री० (सं०) डोली, पालकी, "शिष-गुरु अंध-अधिर कर लेखा"-रामा०। सिविका (दे०)। "शिविका सुभग सुखासन संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० शिक्षा) शिक्षा, उपदेश, जाना ''...रामा० । सीख, सिख (३०)। "दीन्ह मोहि शिष शिविर --संज्ञा, पु० (सं०) तंबू, डेरा, खेमा, नीक गोसाँई" - रामा० । संज्ञा, स्त्री० दे० पडाव, निवेश, सेना की छावनी, कोट, (सं० शिखा) शिखा, चोटी। किला । " शिविर द्वारे जाय पहुंचे तीन हूँ शिपरी-वि० दे० (सं० शिखर ) शिखर मति सान''काशी नरे। वाला, शिखरी। शिशिर --- संज्ञा, पु० (सं०) लाड़ा, माध-फागुन । शिषा* ---संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० शिखा ) में हो वाली एक जाड़े की मृतु शीतकाल, शिखा, चोटी, चोटया, पर्वत शृंग। हिम, सिसिर (दे०)। “शिशिर मासम-शिषि*-संज्ञा, पु० दे० (सं० शिष्य) शिष्य, पास्य गुणोऽस्य न: "-- माघ । चेला। शिशिरंगु-- संज्ञा, पु० (सं०) चन्द्रमा। शिषी--संज्ञा, पु० दे० ( सं० शिखी । शिखी, शिशिरमयूख--संज्ञा, पु० यौ० (सं०) शीत मोर, मयूर, मुगा, शिखाधारी।। रश्मि, शिशिर-रश्मि, चन्द्रमा ! शिष्ट-वि० पु० (सं०) धर्मात्मा, सदाचारी, शिशिरांत-संज्ञा, पु. यौ० (सं०) वसंत धर्मशील, भंभीर, धीर, शांत, सुशील, ऋतु, शिशिर ऋतु का अंतिम समय । सभ्य, सज्जन, आर्य, भलामानुस, श्रेष्ठ पुरुष, शिशिगंशु-संज्ञा, पु. यौ.. (सं०) चन्द्रमा, अच्छे स्वभाव या पाचरण वाला, बुद्धिमान । हिमांशु, शीतांशु। शिष्टई-संज्ञा, सी० दे० ( सं० शिष्टता ) शिशु--संज्ञा, पु. (सं०) सिसु (दे०), छोटा शिष्टता, श्रेष्ठता। लड़का, छोटा बच्चा । संज्ञा, पु० (सं०) शैशव। शिष्टता----संज्ञा, स्त्री. (सं०) सौजन्य, मजनता, शिशुतः-संज्ञा, स्त्री० (सं०) बचपन,शिशुत्व। सभ्यता, श्रेष्ठता, सुशीलता, भलमंसी शिशुताई*-संज्ञा, स्त्री० द० ( सं० शिशुता) उत्तमता, शिष्ट का भाव या धर्म । शिशुता, शिशुत्व, बचपन, सिसुताई (दे०)। शिष्टाचार-संज्ञा, पु. यौ० (सं० ) सभ्य शिशुन ग-संज्ञा, पु. ( सं० ) शैशुनाग, पुरुषों का आचरण, आर्य-जनों के योग्य मगध के प्राचीन राजा। धाचरण, साधु व्यवहार, आदर-सम्मान, शिशुप* --- संज्ञा पु० द. ( सं० शिशुला) विनय, सभ्य व्यवहार, दिखावटी भाव-भगति, शिशुला, शिशुता, लड़कपन, बचपन ।। नम्रता। शिशुपाल-संज्ञा, पु. (०) प्रसिद्ध चेदि शिष्य--संज्ञा, पु. ( सं० ) उपदेश या शिक्षा देशाधिपति जो श्री कृष्ण से मारा गया | पाने योग्य, चेला, शागिर्द (फ़ा०), अंतेथा। “तिरोहितात्मा शिशुपाल संज्ञया । वासी, विद्यार्थी, चेला, मुरीद । स्त्रीप्रतीया संप्रति सोऽप्यसः परैः "-माघ । शिष्या। संज्ञा, स्त्री-शिष्यता, शिष्यत्व । शिशुमार--संज्ञा, पु० (सं०) सूस नाम का शिष्या-संज्ञा, वी० (सं० ) ७ गुरु वणों एक जल-जंतु, कृष्ण, नक्षन्न-मंडल। का एक वर्णिक छंद, शीर्षरूपक (पिं०) । For Private and Personal Use Only Page #1656 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir शिस्त BIHARSHIMALURanamananeamannamaina शीर्ष विन्दु शिस्त--संज्ञा, स्त्री० (फ़ा०) लक्ष्य, निशाना, शीतला-संज्ञा, स्त्री० [सं०) चेचक, माता, मछली पकड़ने का काँटा । बिस्कोटक रोग, बिस्फोटक की अधिष्ठात्री शीकर-संज्ञा, पु. (सं०) जल-कण, ओस- एक देवी विदु, फुहार कण, सीकर (दे०)। "श्रम- शीतलाई --- संज्ञा, स्त्री० दे० ( सं० शीतलता) शीकर श्यामल देह लसैं '"--क० रामा० । शीतलता, शितलाई, सितलाई (दे०)। शीघ्र-क्रि० वि० (सं० ) सत्वर, तुरंत, शीतलाष्टमी-- संज्ञा, स्त्री० यौ० (०) चैत्रतत्क्षण, जल्दी, जल्द, तत्काल, चटपट, कृष्ण अष्टमी झटपट, बिना बिलंब या देर, बेगि (वज.)। शीतांग --रज्ञा, पु. यौ० (सं०) एक रोग, शीघ्रगामी-वि० सं० शीघ्रगामिन् ) तेज़ पक्षाघात, लकवा, अद्धींग ।। या जल्द चलने वाला, वेगवान । . | शीतांशु-संज्ञा, पु. यौ० (सं.) हिमांशु, शीघ्रता .... संज्ञा, स्त्री० (सं०) जल्दी, फुरती। चंद्रमा, चाँद, हिमकर, शीतकर : "याति शीत-वि० (सं०) सर्द, ठंढा, शीतल । शीतांशुरस्तम्'- स्फु०। संज्ञा, पु...-- सर्दी, जाड़ा, ठंढ, तुषार, योग, शीतात-वि० यौ० (सं०) शीत-पीड़ित, जाड़े की ऋतु, प्रतिश्याय, सरदी, जुकाम, ठंढ से कंपित, जाड़े से दुखी। संनिपात । | शीतोष्ण---- वि० यौ० (सं०) ठंढा गर्म, सर्दशीतकटिबंध-संज्ञा. पु० यौ० (सं० ) गर्म, सुख-दुख । गात्रास्पर्शास्तु कौंतेय पृथ्वी के गोले में भूमध्य रेखा से २३३ शीतोष्ण सुग्व-दुःखदः "-भ० गी। अंश उत्तर के बाद और इतना ही दक्षिण शीरा--प्रज्ञा, पु० (फा०) चीनी या गुड़ को के बाद के कल्पित विभाग जहाँ सर्दी अधिक पानी में मिलाकर आग पर श्रौटा कर गाढ़ा पड़ती है (भू०)। किया पदार्थ, चाशनी। शीतकर---संज्ञा, पु० यौ० (सं०) चन्द्रमा । शीरी---वि० (फ़ा०) मीठा, मधुर, प्रिय । शीतकाल-संज्ञा, पु. यौ० (सं०) सरदी या यो०-वापाशीरी। जाड़े की ऋतु, अगहन और पूष के महीने ! शीरीनी-ज्ञा, स्त्री० ( फा०) मिठाई, शीताकरमा--संज्ञा, पु. यो० (सं.) चंद्रमा। मिष्टान्न, मिठास । शीतज्वर---संज्ञा, पु. यौ० (सं०) जाड़ा देकर आने वाला ज्वर, जड़ी (दे०) शीर्ण-संज्ञा, पु० (सं०, जीर्ण, पुराना, टूटाशीतदीधित-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) चंद्रमा । 'फूटा, फटा पुराना, मुरझाया हुआ, दुर्बल, शीतमयुख- संज्ञा, पु० यौ० (सं०) चन्द्रमा, कृश, पतला। "शीर्णपर्ण-फलाहारः"--- कपूर, शीतांशु, शीतकर। स्फु० । यौ--जीर्ण-शीर्ण । शीतरश्मि-संज्ञा, पु. यौ० (सं०) चंद्रमा।। शीय - वि० (सं०) नश्वर, भंगुर, नाशवान । शीतल - वि० (सं०) सर्द, रंढा. प्रसन्न, । शोष-संज्ञा. पु० (सं०) सिर, मूंड, मुंड, सीतल (दे०) । " तुमहिं देखि शीतल भई माथा, अग्रभाग, चोटी, सिरा, सामना। छाती"-रामा०। शीर्षक-संज्ञा, पु० (सं०) चोटी, मस्तक, शीतलचीनी-संज्ञा, स्त्री(सं० शीतल लिर, सिरा, किसी विषय का वह परिचायक चीन-देश) कबाब-चीनी, सीतलचीनी(दे०)। संक्षिप्त शब्द या वाक्य जो बहुधा लेखादि शीतलता--संज्ञा, जी. (सं०) ठंढापन, के ऊपर रखा जाता है। सरदी, सीतलता (द०)। शीर्ष-बिन्दुः---संज्ञा, पु० यौ० (सं०) सिर के शीतलताई*-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० शीतलता) ऊपर की ओर सब से ऊँचा स्थान, शिखरशीतलता, ठंढापन, ठंढक, शितलाई (दे०)। विंदु । विलो ~पदतल-विन्द । For Private and Personal Use Only Page #1657 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra शील www.kobatirth.org १६४६ Gene शील- संज्ञा, पु० (सं०) व्यवहार, स्वभाव, थाचरण, चाल ढाल, चरित्र, प्रवृत्ति, सद्वृत्ति, सदाचार, स्वभाव, संकोच, मुरौवत, (फ़ा० ), सील (दे० ) । 'लखन कहा मुनि शील तुम्हारा " - रामा० । यौ०-शील संकोच । 66 शीलवान् - वि० सं० शीलवत्) अच्छे स्वभाव या आचरण का, सुशील, शीलवन्त । स्त्री० - शीलवती । शीश - संज्ञा, पु० (सं०) शिर, शीर्ष, माथा, मूँड, मुंड, शीशा, सोस, सीसा (दे०) । कर कुठार आगे यह शीशा (L " रामा० । शीशम - संज्ञा, पु० (फ़ा० ) एक पेड़, सिंसपा शीशमहल - संज्ञा, पु० यौ० ( फ़ा० शीशा + - मद्दल = घर ) वह महल जिसकी दीवालों में शीशे लगे हां, सीस-महल (दे० ) । शीशा संज्ञा, पु० ( फा० ) खारी मिट्टी, रेह या बालू के गलाने से बनी एक पारदर्शी मिश्र धातु, काँच, श्रईना, दर्पण, धारसी, झाड़-फानूस आदि, काँच से बना सामान सीसा (दे० ) ! शीशी शीशी - संज्ञा, स्त्री० ( फ़ा० शीशा ) काँच का छोटा पात्र, सीसी (दे०) । मुहा०शीशी सुँघाना - औषधि-भरी सुंघाकर बेहोश करना । शीस - संज्ञा, पु० दे० ( सं० शीश ) शिर, सिर, सीस, सीसा (दे०), मुंड, मूँड़ । "तिय मिसु मीचु शीस पर नाची " - रामा० । शुंग - संज्ञा, पु० (सं०) मगध का एक क्षत्रियराज-वंश (मौय्यों के पीछे ) । " - स्फु० 1 शंठि, शंठी- संज्ञा, त्रो० (रु० ) सोंठ | " वचाभया शुंठि शतावरी समः “शुंठी करणा पुष्करजः कषायः' - लो०रा०| शुंड - संज्ञा, पु० (सं०) हाथी की सड़, सुंड (दे०) । शुंडा - संज्ञा, स्त्री० (सं० शुंड ) हाथी की सूंड शराब | शुंडादंड - संज्ञा, पु० (सं०) हाथी की सूंड | शुक्राचार्य शंडी-संज्ञा, पु० ( सं० शुडिन् ) हाथी, गज, शराब बनाने वाला, कलवार । शुभ संज्ञा, पु० (सं०) एक दैत्य जो दुर्गा जी के हाथ से मारा गया । शुक-संज्ञा, पु० (सं०) तोता, सुगना, सुग्गा, (दे० ) शुकदेव जी, कपड़ा, वस्त्र, सुक (दे० ) । " शुकमुखादमृतद्रव संयुतम् । "शुक्रस्तुतो पिच " - नैष० । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir शुकदेव - संज्ञा, पु० (सं०) व्यास जी के पुत्र जो बड़े ज्ञानी थे. सुकदेव (दे०) । शुकराना -- संज्ञा, पु० दे० ( अ० शुक्र ) कृतज्ञता, धन्यवाद, शुक्रिया, धन्यवाद रूप में दिया गया धन । शुकाचार्य - संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) शुकदेव जी । शुक्त संज्ञा, पु० (सं०) सड़ा कर खट्टी की गई काँजी, खटाई, मिरका । वि० - अम्ल, खट्टा, प्रिय, कठोर, नापसन्द, उजाब, सुनसान | 15 शुक्ति, शुक्ती – संज्ञा, स्त्री० (सं०) सीपी, सीप, एक नेत्र रोग, बबासीर रोग, उँगलियों के प्रथम पर्व के चिन्ह ( सामु० ) | रजत शुक्ति में भास जिमि " शुक्तिका - संज्ञा, स्त्री० (सं०) सीपी, सीप, एक नेत्र रोग । -- रामा० । शुक्तिज, शुक्तिवीज- संज्ञा, पु० यौ० (सं०) मोती, शुक्तिजात । शुक्र -संज्ञा, पु० (सं० ) शुक्राचार्य, दैत्य-गुरु ( पुरा० ) एक चमकीला ग्रह, सामर्थ्य, श्रग्नि, शक्ति, वीय्य, बल, गुरुवार के बाद और शनि से पूर्व का एक दिन, सूक, सुक्र, सुक्कर (दे० ) । संज्ञा, पु० (अ०) धन्यवाद । शुक्रगुज़ार - वि० यौ० ( अ० शुक्र + गुज़ार फा० ) कृतज्ञ, आभारी, एहसानमंद । शुक्रांग- संज्ञा, पु० यौ० (सं०) गोरा, गौर शरीर । शुक्राचार्य - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) दैश्यों के गुरु एक ऋषि (पुरा० ) । For Private and Personal Use Only Page #1658 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Me a n warooraemas शुक्रिया शुक्रिया-संज्ञा, पु. (फ़ा०) कृतज्ञता या दिखाकर या उसका निषेध कर उपमान धन्यवाद प्रकाश करना। __ की सत्यता ठहराई जाये ! शुक्ल-वि० (सं०) उज्वल, श्वेत, धवल, शुद्धि - संज्ञा, स्त्री० (सं०) स्वच्छता, सफाई, उजला, सफेद, शुभ्र, निर्दोष। संज्ञा, पु०-- अशुद्ध को शुद्ध करने के समय का कृत्य, ब्राह्मणों की एक पदवी, चाँद्र मास का | संस्कार या कार्य, मृतक अशौच के दूर द्वितीय पक्ष । संज्ञा, स्त्री०-शुक्लता। करने को १० वें दिन का कार्य । “ तदन्वये शुक्लपक्ष - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) चाँद्र मास शुद्धिमति प्रसूतः शुद्धिमन्तरः" -- रघु० । का द्वितीय पन, अमावस्या के बाद की शुद्धिपत्र--संज्ञा, पु. यौ० (सं०) वह पत्र प्रतिपदा से पूर्णिमा तक का पत, उजेला जो पुस्तकादि की अशुद्धियों का सूचक पाख, सुदी (दे०) हो, शुद्धिभूचक लेख, शुद्धाशुद्ध-पत्र । शुक्लांवर-संज्ञा, पु० यौ० (सं.) श्वेत वस्त्र । शुद्धोदन--संज्ञा, पु. (सं०) शाक्य-वंशीय "शुक्लांवरधरं विष्णु शशिवर्णं चतुर्भुजम्।” सुप्रसिद्ध गौतम बुद्धजी के पिता। शुक्ला-संज्ञा, स्त्रो० (सं०) सरस्वती। शुनः शेफ-संज्ञा, पु० (सं०) महर्षि शुक्लाभिमारिका--- संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) ऋचीक के पुत्र एक ऋषि (वैदिक काल)। श्वेत वस्त्रादि पहिन चाँदनी रात में प्रिय-शुनासीर--संज्ञा, पु० (स.) इन्द्र । समीप जाने वाली नायिका ( काव्य.)। शुनि-संज्ञा , पु० (सं०) कुत्ता, स्वान । स्त्री० विलो० -- कृष्णाभिसारिका। शुनी। शुचि- संज्ञा, स्त्री० (सं०) पवित्रता, शुद्धता, शुबहा- संज्ञा, पु० (अ०) सदेह, शंका, स्वच्छता । वि० ----पवित्र, शुद्ध, स्वच्छ, शक, धोखा, भ्रम, वहम, सुभा (दे०)। सुचि (दे०)। "बोले शुचिमन लखन सन, शुभंकर, शुभकारक, शुभकारी वि. वचन समय अनुहार" ... रामा० । साफ (सं०) मंगल या कल्याण करने वाला। निर्दोष, स्वच्छ हृदय वाला । संज्ञा, स्त्री०- शुभ - वि० (सं०) मंगल-प्रद, कल्याणकारी, शुचिता। उत्तम, अच्छा, पवित्र, भला, इष्ट । संज्ञा, शुचिकर्मा-वि० यौ० ( सं० शुचिकर्मान् ) पु० मंगल, भलाई, कल्याण, सुभ (दे०)। कर्मनिष्ट. सदाचारी पवित्र कार्य करने “राज्य देन कहँ शुभ दिन साधा"वाला। रामा० । वि० ---शुभकारक, शुभकारी। शुची-वि० दे० (सं०) साफ़, पवित्र । शुभचिंतक - वि० यौ० (सं.) भलाई या शुतुरमुर्ग---संज्ञा, पु० यौ० (फ़ा०) ऊँट की मंगल चाहने वाला, शुभेन्छु । कल्याणासी गर्दन वाला बहुत बड़ा पसी। कांक्षी, हितैषी, खैरखाह । संज्ञा, पु०-शुभशुदनी- संज्ञा, स्त्री० [फा०) होनहार, होत- चिंतन। व्यता, भवितव्यता, होनी, नियति, भावी। शुभदर्शन--वि० यौ० (सं०) सुन्दर, मनोहर, शुद्ध --- वि० (सं०) स्वच्छ पवित्र, साफ़ मंगलमूर्ति । उज्वल, सफेद, सही, ठीक अशुद्धि हीन, शुभेच्छु-वि० यौ० (सं०) भला चाहने निर्दोष, खालिस, बिना मिलावट का । संज्ञा, वाला, हितैषी शुभाकांछी। संज्ञा, स्त्रीस्त्री०-शुद्धता। शुभेच्छा। शुद्ध पक्ष-संज्ञा, पु. यो० (सं.) शुक्ल पक्ष । शुभ्र-वि० सं०) श्वेत, उज्वल, धवल, शुद्धापह्नति-संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) एक सफेद, मुन्द्र (दे०)। “शुभ्राभ्र विभ्रम धरे अर्थालंकार जिसमें उपमेय को असत्य । शशांक-कर सुन्दरे -लो० । For Private and Personal Use Only Page #1659 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra CHIRAJ www.kobatirth.org शुभ्रता खो० (सं०) श्वेतता, शुभ्रता-संज्ञा, उज्वलता, सफ़ेदी । शुरुवा-संज्ञा, पु० दे० ( फा० शोरुवा ) रसा, सुरुवा (दे०), विशेषतः मांग का पका रसा। शुरू संज्ञा, पु० ( ० गुरूग्र ) प्रारंभ, प्रारंभ, आरंभस्थल, उत्थान, उद्गम, धाग़ाज़ | संज्ञा, श्री० - शुरुआत । शुल्क - संज्ञा, पु० (सं०) घाट श्रादि का महसूल, दायज, दहेज, शर्त, बाजी, भाड़ा. किराया मूल्य, दाम, फीम, किसी कार्य के बदले में दिया गया धन । शुश्रूपक-संज्ञा, पु० (सं०) सेवा करने वाला. सेवक, दास, भृत्य, नौकर, किंकर । शुश्रूषा - संज्ञा, स्री० (सं०) परिचर्या सेवा, खुशामद, टहल | वि० शुश्रूष्य | शुश्रूषया विद्या " यौ० --सेवा-शुश्रूषा । शुषेण -- संज्ञा, पु० (सं० ) वानरी सेना का एक वैद्य, सुखेन (दे० ) । 'गुरु 1 शुष्क - वि० (सं०) खुश्क (फ़ा ) सूखा, नीरस, विरस, जिसमें मन न लगे, व्यर्थ, निरर्थक, निर्मोही, प्रेमादि-विहीन | संज्ञा, स्त्री० – शुल्कता । यौ० - शुष्क- हृदयी । शुक संज्ञा, पु० (सं०) यव, जौ, सींकुर जो जव की बाल के श्रागे निकले रहते हैं एक रोग, एक कीड़ा । " निवशते यदि " नैष० । शूकशिखापदे शूकर-संज्ञा, पु० (सं०) सुवर, सुअर, बाराह, विष्णु का ३ रा या वाराह अवतार 1 6 66 १६४८ शूप 66 'बादहिं , ३ वर्णों की सेवा करे, नीच जाति, निकृष्ट, या बुरा व्यक्ति, सूद (दे० ) | शूद्र द्विजन सन हम तुमने कुछ घाट - रामा० । स्त्री० शूद्रा, शूद्री । शूद्रक - संज्ञा, पु० (सं०) विदिशा नगरी का एक प्राचीन राजा और संस्कृत के मृच्छकटिक नाटक के निर्माता एक महाकवि, शूद्र जाति का एक राजा शंबूक । शूद्रता - संज्ञा, पु० (सं०) शूद्रत्व, नीचता । शूद्रद्युति-संज्ञा, पु० यौ० (सं०, काला या नीला रंग । | ( पुरा० ) । सुकर (दे० ) । स्री० - शुकरी भर भर पेट विषय को धावै जैसे शूकर ग्रामी 59 - विनय० । C. | | शूकरक्षेत्र - संज्ञा, पु० यौ० (स० ) नैमिषारण्य के समीप एक तीर्थ जो अब सोरों कहाता है सूकरखेत (दे० ) | शूची - संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० सूची ) सुई. सूजी (दे० ) । शूद्र--संज्ञा, पु० (सं०) १ वर्णों में से area का चौथा या अंतिम वर्ष जो अन्य Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir शूद्रा-संज्ञा, स्त्री० (सं०) शूद्र जाति या शूद्र व्यक्ति की स्त्री । शूद्रागी, शूद्री-संज्ञा, त्रो० (सं०) शूद की स्त्री । शूना - संज्ञा, खो० (सं०) गृहस्थ के घर के वे स्थान जहाँ नित्य अनजान छोटे जीवों ( चीटी यादि) की हत्या हुधा करती है । जैसे चक्की, चूल्हा पानी के बरतन यादि । शून्य- संज्ञा, पु० (सं०) श्राकाश, खाली जगह, एकांतस्थान, बिन्दी बिन्दु सिर । अभाव, स्वर्ग, परमेश्वर विष्णु सुन्न (दे० ) । संज्ञा, स्त्री० - शून्यता । वि० जिसके भीतर कुछ न हो, खाली, रहित, रिक्त, विहीन, निराकार | शून्यता -- संज्ञा, स्रो० (सं०) रिक्तता, ख़ाली या हूँ छापन निर्जनता 1 शून्यवाद - खज्ञा, पु० यो० सं०) संसार को शून्य मानने का एक दार्शनिक विचार या सिद्धान्त, बौद्धमत का एक सिद्धांत | शून्यवादी संज्ञा, ० सं० शून्यवादिन ) नास्तिक, ईश्वर और जीव में विश्वास न रखने वाला, बौद्धमत के लोग । शूप - संज्ञा, पु० दे० (सं० शूर्प ) अन्नादि पछोरने का सूपा, सूप (दे० ) । “लाला परे शूप के कोन " - जनश्रुति । For Private and Personal Use Only Page #1660 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir शृंगार शूर---संज्ञा, पु० (सं०) वीर, सूरमा. बहादुर, ! शुलपाणि-संज्ञा, पु० यौ० सं०) महादेव योद्धा, सैनिक, सूर्य, सिंह, कृष्ण के जी, मूलवाणी (दे०)। पितामह, विष्णु, सूर (दे०)। शुलभृत्--संज्ञा, पु० (सं०) शिव जी। शुरण, शूरन --- संज्ञा, पु० दे० (सं० सूरण) शूलहस्त--संज्ञा, पु० यौ० (सं०) शंकर जी। जमीकंद, सूरन (दे०)। शूलि-संज्ञा, पु० (सं०) महादेव जी। संज्ञा, शूरता-संज्ञा, स्त्री० (सं०) बहादुरी, वीरता, स्त्री० (दे०) सूली। सूरता (दे०) । " सोई शूरता कि अब शूलिक - संज्ञा, पु. (सं०) फाँसी या सूली कहु पाई "-~-रामा० ! देने वाला। शूरताई*-संज्ञा, स्त्री० दे० ( सं० शूरता) शूली--ज्ञा, पु. ( सं० शूलिन् ) महादेव बहादुरी, वीरता। जी, शिव जी, शूल रोगी, एक नरक । शूरवीर-संज्ञा, पु. यौ० (सं०) बहादुर, संज्ञा, खो--सूली पर चढ़ने वाला, सूली सुरमा । संज्ञा, सी.---शुर-वीरता। देने वाल' । ज्ञा, स्त्री० दे० (सं० शूल ) शूरसेन --- संज्ञा, पु.. (सं०) प्राचीन मथुरा- पीड़ा, दई, शूल, दुख । नरेश जो श्रीकृष्ण जी के पितामह थे, मथुरा शृंबल संज्ञा, पु. (सं०) मेखला, जंजीर. प्रदेश (प्राचीन नाम)। सिक्कड, साँकल, हथकड़ी, बेड़ी। शुरा*-संज्ञा, पु० दे० ( सं० शूर ) वीर, शृंखलना-संज्ञा, स्त्री० (सं०) क्रमबद्ध या सामन्त, बहादुर. सूग (दे०): संज्ञा, पु० दे० सिलसिले वार होने का भाव । (सं० मूर्य्य) सूर्य । | श्रृंखला-- संज्ञा, स्त्री० (सं०) जंजीर, साँकल, शूप-संज्ञा, पु० (स०) अन्नादि पछोरने का कटि वस्त्र, मेखला, तगड़ी. करधनो. श्रेणी, सूप, सूपा (दे०)। पंक्ति, क्रम, एक अर्थालंकार जिसमें कहे हुये शूर्पणखा-संज्ञा, स्त्री. (सं० ) सूपनखा। पदार्थों का यथाक्रम वर्णन किया जाय, (दे०), रावण की बहिन, लक्ष्मण द्वारा | यथाक्रम, यथासंख्य (अ० पी०)। पंचवटी में इसके नाक कान काटे गये थे। अंखलावद्ध-वि० यौ० (सं०) क्रमवद्ध, शूर्पनखा-संज्ञा, स्त्री० (दे०) शुर्पणखा यथाक्रम, सिलसिलेवार, श्रृंखला से बँधा हुआ। शूरक-संज्ञा, पु० (सं०) बंबई प्रान्त के अंग-डा. प. (पशिश ही सोपरा स्थान का पुराना नाम । का सर्वोच्च भाग, गाय आदि के सिर के सींग, शूल----संज्ञा, पु० (सं०) त्रिशूल, बरछी, कंगूरा, श्रृंगी या सिंगी नाम का एक बाजा, जैसा एक अम्ल ( प्राचीन), भाला, शूली, पंकज, कमल, ऋष्य शृंग। प्राण दंड देने की सूली, वायु-विकार जन्य शृंगपुर--संज्ञा, पु. (सं०) शृंगवेरपुर । पेट का तेज़ दर्द, दुःख कोंच. पीड़ा, टीस, शृंगवेरपुर-सज्ञा, पु. (सं०) श्रीराम के एक अशुभयोग (ज्यो०, बड़ा और लंबा प्रिय निषाद-राज गुह का प्राचीन नगर, नुकीला काँटा, मृत्यु, पताका. झंडा. सींक, सिंगरौर (वर्तमान)। छड़. सलाख। वि०-नोकदार वस्तु, नुकीला। श्रृंगार-संज्ञा, पु. (सं०) रम-राज, काव्य शुलधर, शूलधारी-संज्ञा, पु० (सं० शूल- के नौ रसों में से सर्व प्रधान एक रस, धारिन् ) महादेव जी। जिसका स्थायी भाव रति, पालम्बन-विभाव शूलना* ---अ० कि० दे० (सं० शूल+ना. नायक नायिका, उद्दीपन वाटिका, सुन्दर प्रत्य० ) शूल के तुल्य गड़ना, पीड़ा या । वायु आदि, नायक-नायिका के मिलन और दुख देना। विलगाव के आधार पर इसके दो भेद हैं:भा. श० को..... For Private and Personal Use Only Page #1661 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रृंगारना शेरदहां संयोग और वियोग या विप्रलंभ, इष्टदेव के चार वर्गों में से प्रथम श्रेष्ठ वर्ग, बुजर्ग, को पति और निज को पत्री मान कर की । बड़ा, मुसलमान-धर्माचार्य। स्त्री०-शेरवानी। गई माधुर्य भाव की भक्ति सिायों का वस्त्रा- शोष --- संज्ञा, पु. द० सं० शेष ) बाकी, भरण से स्वदेह सजाना, सजावट, बनाव- समाप्त, सेप(दे०), एक नाग-राज. शेष जी। चुनाव, श्रृंगार सोलह हैं. किसी वस्तु को शेव-चिल्ली -संज्ञा, पु. ( अ०-: हि० ) शोभा देने वाले साधन, सिंगार, सिंगार एक कल्पित मूर्ख, बड़े मंसूबे बाँधने वाला. एक मूर्ख मसखरा । शृंगारना-स० क्रि० दे० (सं० श्रृंगार+ना-शेवर-संज्ञा, पु. (40) सिर. माथा, किरीट, प्रत्य ) सजाना, सँवारना, शृंगार करना, मकट शीर्ष. चोटी पिरा. शिवर ( पर्वतसिंगारना (दे०)। भंग ) सर्व श्रेष्ठ या उत्तम, वस्तु या व्यक्ति श्रृंगार-हाट--संज्ञा, स्त्री० यो० (सं० शृङ्गार- टगण का पाँचवा भेद (15-पि.)। घाट-हि० ) वह बाजार जहाँ रंडियों रहता लावल-----संज्ञा, पु. ( अ० शेख ) कछवाहे हों, सिंगारहाट (द०)। राजपूतों की एक शाखा! शृंगारिक-वि० (सं०) शृंगार संबंधी। शेखी---- संज्ञा, स्त्रो. (फा०) अहंकार, घमंड, शृंगारिणी-संज्ञा, स्त्री. (सं०) स्रग्विणी गर्व, शान, अकड़, ऐठन, डींग । मुहा०छंद (पिं०)। शृंगारित--वि० (सं०) सजाया हुआ, शृंगार शेखी बघारना ( हाँकना या मारना) किया हुआ, अलंकृत, सुसजित । -----बढ़ बढ़ कर बात करना, डींग मारना । श्रृंगारिया-संज्ञा, पु० दे० (सं० शृद्धार ---इया. शेषी भाड़ना (निकालना)--गर्व दूर करना। शेखी भूनना (मुलाना )प्रत्य०) वह पुरुष जो देव-मूर्तियों का शृंगार शान या गर्व दूर करना ( होना)। शेखो करता हो, बहुरूपिया, सिंगारिया (दे०) । शृंगि-संज्ञा, पु० (सं०) सिंगी मछली । संज्ञा, दिखाना-शान दिखाना। यो०---गोवो. शान । पु. ( सं० शृङ्गिन् ) सींग वाला ! शृंगी-संज्ञा, पु. (सं० शृडिन् ) सींग वाला शेखीबाज-वि० (फ़ा०) अभिमानी, घमंडी, पशु, वृक्ष, हाथी, पहाड़, शमीक ऋषि के पुत्र ! पहंकारी, झूठी डींग मारने वाला । संज्ञा, एक ऋषि जिनके श्राप से अभिमन्यु-पुत्र । स्त्री०-शेखीबाजी। राजा परीक्षित को तक्षक ने काटा था, शेर--संज्ञा, पु० (फ़ा०) व्याघ्र, बाघ, नाहर, कनफटों के बजाने का सींग का एक बाजा, सिंह, बिल्ली की जाति का एक भयावना हिंसक पशु। स्त्री०-शेरनी । मुहा० --शेर महादेव जी, शिव जी, ऋषभक भामक होना-निर्भीक और पृष्ट होना, अत्यंत एक अष्ट वर्गीय औषधि (वैद्य०)। शृंगीगिरि-संज्ञा, पु. यौ। (सं०) वह वीर और साहसी व्यक्ति । संज्ञा, पु० (अ०) प्राचीन पहाड़ जहाँ शृंगी ऋषि तपस्या उर्दू, फारसी और अरबी के छंद के दो करते थे। चरण । “ कसन गुफ्ता शेर हमचुं सीन शृग-शृगाल-संज्ञा, पु. ( सं० शृगाल ) ऐनो, दाल, ये"...सादो० । संज्ञा, स्त्रीसियार, गीदड़, स्यार। शेवानी-शेर कहना। अजि--संज्ञा. प. (सं.) कंस का एक भाई शेरदहां--वि० (फ़ा०) जिसका मुँह शेर का (पुरा०)। सा है, जिसके छोरों पर शेर का सा मुंह शेख--संज्ञा, पु. (अ०) पैग़म्बर मुहम्मद के बना हो । संज्ञा, पु०-शेर के मुंह की सी घर्ड वंशज मुसलमानों की उपाधि, मुसलमानों वाला. पीछे संकरा और आगे चौड़ा घर । For Private and Personal Use Only Page #1662 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir शेरदिल शैलपति-शैलराज शेरदिल-वि० चौ० (फा०) साहसी या शेषाचल -संज्ञा, पु० यौ० (सं०) एक पर्वत वीर हृदयी। संज्ञा स्त्री०-शेरदिली। (दक्षिण)। शेर पंजा--संज्ञा, पु० यौ० ( फ़ा० शेर - शेषावस्था-संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) वृद्धापन, पंजा-हि. ) शेर के पंजे की प्राकृति का एक बुढ़ापा, अंत की दशा। अस्त्र, बघनख, बबनहा नामक एक अस्त्र । शेषोत्त--वि० (सं०) अंतिम कथन, अंत में शेर बबर--संज्ञा, पु. (फा०) केहरी, केसरी, कहा गया। सिंह, बड़ा व्यान। | शैलान---संज्ञा, पु० (अ०) अज़ाजील फरिश्ता शेल--संज्ञा, पु० (पं०) सेल, बछी, भाला। का वंशज एक तमोगुणी देव जो लोगों शेलु- संज्ञा, पु० (दे०) मेथी का साग: को बहका कर कुकर्म कराता है (मुसल०) । शेरवानी-संज्ञा, स्त्री० (दे०) अंग्रेजी ढंग भूत. त, दुष्ट देव-योनि, दुष्ट व्यक्ति, के काट का एक प्रकार का अंगा, अचकन, बदमाश, नटखट । मुहा० ---शैतान की चपकन । प्रांत-बहुत ही लंबी चीज़ । शेवाल- संज्ञा, पु. द० (सं० शैवाल ) सेवार, शैतानो --संज्ञा, स्त्री० ( अ० शैतान ) दुष्टता, जल की घास, शैवाल । पाजीपन, शरारत, बदमाशी। वि० --शैतान शेष--संज्ञा, पु. (सं०) बाकी, बची वस्तु, का, शैतान-संबधी, नटखट, दुष्टतापूर्ण । अध्याहार, किसी वाक्य का अर्थ करने को मुहा० यो०--शैतानी-वा-शरारत ऊपर से लाया गया शब्द, समाप्ति, अंत, से भरा उलझन का काम । सहन फनों का सर्पराज, शेषनाग, जिसके शैत्य-संज्ञा, पु० (सं०) शीतता, शीतलता, फनों पर पृथ्वी ठहरी है (पुरा० ), बलराम ठंढक, गर्दी। लक्ष्मण, एक दिगाज, परमेश्वर, टगण का शैथिल्य---संज्ञा, पु० (सं०) शिथिलता, पाँचवाँ भेद, छप्पय का २५वाँ भेद पिं०), ढोलापन, सुस्ती। घटाने से बची संख्या (गणि.) । वि० -- | शैल-----ा, पु. (सं०) पहाड़, पर्वत, शिलाबचा हुना, बाक़ी. ख़तम, समाप्त, अंत को जीत. चट्टान, सैल (दे०)। "नाथ शैल पर प्राप्त । कपिपति रहई"-रामा० । शेषधर-शेषन-----संज्ञा, पु० (सं०) शिवजी। शैलकुमारी-संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) शेषनाग- संज्ञा, पु० यौ० (सं०) अपने शैक्षकि मारी, पार्वती जी । “ सुनत वचन सहस्र फनों पर पृथ्वी को धारण करने कह शैल कुमारी '..-- रामा० । वाला सर्पराज ! | शैलगंगा---संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) गोवर्द्धन शेषर*-संज्ञा, पु० द० । सं० शिखा ) पहाड़ से निकली एक नदी। शेखर, सिर, शीर्ष, मस्तक, चोटी। शैलजा - संज्ञा, स्त्री० (सं०) शैलतनया, शेषराज-संज्ञा, पु. (सं०) दो मगण का पार्वती जी, दुर्गा जी। एक वणिक छंद या वृत्त, विद्युलला (पिं०)। शैलतटी--- संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) पर्वत की शेषवत--संज्ञा, पु. (सं०) अनुमान के तीन | तराई । भेदों में से दूसरा, जहाँ कार्य के देग्रने से शैलधर-शैलभृत.....संज्ञा, पु० (सं०; श्रीकृष्ण कारण का ज्ञान या निश्चय हो ( न्या. जी.गिरिधर, गिरिधारी।। शेषशायी--संज्ञा, पु० (सं० शेषशायिन् विष्णु। शैनंदिनः---संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) पार्वती शेषांश-संझा, पु. यो० (सं०) अवशिष्ट या जी, शैलजा, शैलामाजा।। अंतिम भाग, बचा हुआ अंश । शैलपति शैलराज-संज्ञा, पु. ( सं० ) For Private and Personal Use Only Page #1663 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org शैलपुत्री शैलाधिपति, शैलनायक, हिमालय, शैलनाथ, शैलेन्द्र, शैलेश । शैलपुत्री - संज्ञा स्त्री० यौ० (सं०) पार्वती जी, शैल-तनुजा । शैलसुता - संज्ञा, त्रो० यौ० (सं०) पार्वती जी, शैल-कन्या । १६५२ शैलाट-संज्ञा, पु० (सं० ) सिंह. किरात, भील । शैलात्मजा --संज्ञा, स्रो० यौ० (सं०) उमा, पार्वती । शैली - संज्ञा, स्रो० (सं०) ढंग, ढब, चाल, प्रणाली, प्रथा, तरीक़ा, तर्ज, रीति, रस्मरिवाज़, वाक्य रचना का ढंग ! शैलूष - संज्ञा, पु० (सं०) नाटक खेलने वाला, नट, बहुरूपिया, धूर्त्त, छली । " अथोप पत्ति छलनापरोऽपरामवाप्य शैलूप इवैष भूमिकाम् ”—–माघ० । शैलेंद्र - संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) हिमालय । शैलेय - वि० (सं०) पथरीला, पत्थर का, पहाड़ी | संज्ञा, पु० - सेंधानमक, शिलाजीत, छरीला सिंह | शैलोदक - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) शैल - जल, प्रत्येक वस्तु को पत्थर कर देने वाला एक पर्वतीय जल | T शैव - वि० (सं०) शिव का शिव-संबंधी । संज्ञा, पु० - शिवोपासक शैवमतानुयायी, पाशुपत अस्त्र, धतूरा, शिव-भक्त । "यं शैवाः समुपासते शिव इति " - ६० ना० । शैवलिनी - संज्ञा, स्रो० (सं०) नदी, सरिता । शैवाल -- संज्ञा, पु० (सं०) सिवार, सेवार, जल-मल । " शैलोपमा शैवत मंजरीणां " - रघु० । शैवी - संज्ञा, स्रो० (सं०) पार्वती, दुर्गा | वि० (सं०) शिव या शैव सम्बन्धी । शैःया -- संज्ञा, स्त्री० (सं० ) सत्यवती अयोध्यानरेश हरिश्चंद्र की रानी और रोहितश्व की माता । शैशव - वि० (सं०) शिशुता, शिशु या बालकसंबंधी, वाल्यावस्था-संबंधी, बच्चों का | शोध "9 "शैशव शेषवानयम् - नैष० । संज्ञा, पु० (सं०) बालकपन, लड़कपन, शिशुपा व्यवहार । शैशुनाग - संज्ञा, १० (सं०) प्राचीन मगधदेशाधिपति शिशुनाग का वंशज । शोक - संज्ञा, पु० (सं०) दुःख, संताप, रंज, सोक (दे०) किसी प्रिय वस्तु के अभाव या पीड़ा से उत्पन्न सोम । " यह सुनि समुझि शोक परिहरऊ - रामा० । शोकहर - वि० (सं०) दुख-विनाशक । शोकहार - संज्ञा, पु० (सं०) ३ मात्राओंों का एक मात्रिक छंद, शुभंगो ( पिं० ) । शोकाकुल- वि० यौ० (सं०) संताप या दुःख, से व्याकुल, शोक- पीड़ित, शोकातुर, शोकार्त्त । शोकातुर-शोकार्त्त - वि० (सं०) संताप से व्याकुल, शोक - पीड़ित, शोकाकुल । शोकापह - वि० यौ० (सं०) दुःखनाशक, शोक विनाशक । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir शोख - वि० (फ़ा० ) चुष्ट, ढीठ. नटखट, शरीर, चंचल, गहरा चमकदार रंग | संज्ञा, खो० --- गांखी । शोच संज्ञा, पु० (सं० शोचन ) परिताप संताप, शोक, दुःख, चिंता, फिक्र, सोच (दे० ) । "फिर न शोच तन रहै कि जाऊ -रामा० । शाचनीय - वि० (सं०) चिंतनीय, जिसे देख दुःख हो, प्रति हीन - दीन, बुरा? " शोचनीय नहिं अवध-भुवालू "-- रामा० । शोण - संज्ञा, पु० (सं०) लालिमा, ग्ररुणता लाली, लाल रंग, श्रग्नि, रक्त सोननदी | शोणित - वि० (सं०) लाल, रक्त वर्ष का संज्ञा, पु० - रुधिर, रक्क लोहू, सोनित (दे० ) । तव शोणित की ध्यान, तृषित रामशायक- निकर ...... रामा० । शोथ - संज्ञा, पु० (सं०) मोग (दे०) सूजन, वरम, किसी प्राणी के किसी अंग का फूल या सूज उठना । शोध - संज्ञा, पु० (सं०) खोज, शुद्धि-संस्कार, दुरुस्ती, ठीक करना, अदा या चुकता होना, For Private and Personal Use Only Page #1664 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org शोधक १६५३ शोषण परीक्षा, जाँच, अन्वेषण, खोज । " मंदिर शोभांजन - संज्ञा, पु० (सं०) सहिजन वृत्त । शोभा - संज्ञा, स्त्री० (सं०) कांति, आभा, वर्ण, सुन्दरता, छवि, छटा, दीप्ति, रंग, सजावट, २० वर्णों का एक वर्णिक छंद या वृत्त (पिं०) सोभा (दे० ) । " शोभासींव सुभग दोज बीरा " - रामा० । शोभायमान - वि० (सं०) छवियुक्त, सुन्दर, सोहता हुआ, सुशोभित । शोभित - वि० (सं०) सजता हुआ. सुन्दर, सजीला, अच्छा या मंजुल लगता हुआ । शोभित भये मराल ज्यों, शंभुसहित कैलास १ --राम० । 1 #6 शोर - संज्ञा, पु० ( फ़ा० ) कोलाहल, धूम, गुलगपाड़ा, ख्याति । यौ० – शोर-गुल । बड़ा शोर सुनते थे पहलू में दिल का ।" शोरवा - संज्ञा, पु० ( फ़ा० ) उबली वस्तु का रसा जूस (अं०) चूप (सं०) उबाली वस्तु का पानी, जूस (दे० ) । शोरा- संज्ञा, पु० ( फा० शोर ) मिट्टी का वार, सारा (दे० ) । - रामा० । | मंदिर प्रति कर शोधा " शोधक - संज्ञा, पु० (सं० ) शोधने वाला, सुधारक, खोजने वाला, अन्वेषक, गवेषक । शोधन- संज्ञा, पु० ( सं० ) साफ़ या शुद्ध करना, सुधारना, शुद्ध, दुरुस्त या ठीक करना, संस्कार करना, जाँच, छान-बीन विरेचन, दस्तों से उदर शुद्ध करना, खोजना या ढूँढना, श्रन्वेषण, ऋण चुकाना, प्रायश्चित्त, धातुओं का संस्कार करना । वि० - शोधित, शोधनीय, शोध्य । मुहा०वैर-शोधन - शत्रुता का बदला लेना । गोधना- स० क्रि० दे० (सं० शोधन ) साफ़ या शुद्ध करना, सुधारना, ठीक करना, धौषधार्थ धातुथों का संस्कार करना, खोजना, ढूँढना, सोचना (दे० ) । " श्रहा दुष्ट ताहि श्रतिशय शोधा" - रामा० । शोधनी-संज्ञा, स्त्री० (सं०) बुहारी, बढ़नी । शांधवाना - स० क्रि० दे० ( हि० शोधना प्रे० रूप ) शुद्ध करना, ढुंढवाना, खोजवाना -शोधाना शाधावना । शोधैया - सज्ञा, पु० ( हि० शोधना + ऐयाप्रत्य० ) शोधने वाला | शोदा -संज्ञा, पु० (०) इन्द्रजाल, जादू | शोभ--- संज्ञा, त्रो० (सं० शोभा ) शोभा, सुन्दरता । " चढ़ों जो निज मंदिर शोभ बदी तरुनी अवलोकन को रघुनंदन 91 स० रूप- राम० । शोभन - वि० सं०) विमान शोभा-युक्त, सुन्दर मनोहर, सुहावना, उत्तम श्रेष्ठ, शुभ । वि० - शोभनीय शोभित । संज्ञा, पु० इष्टियोग, शिव, अग्नि, २४ मात्राओं का एक मात्रिक छंद, सिंहिका (पिं०), सौंदर्य, भूषण. कल्याण. मंगल, दीप्ति, सुषमा । शोभन कार्य ठयो "रामा० ! शोभना -संज्ञा, स्त्री० (सं० ) सुन्दरी स्त्री, हरिद्रा, हलदी । * - स० क्रि० दे० (सं० शोभत ) मनोरम लगना, शोभित होना, सोभना, सोहना (दे०) । " 6E Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir शोला -- संज्ञा, पु० ( प्र०) धाग की लपट या ज्वाला | संज्ञा, पु० (सं०) वृक्ष विशेष जिसकी छाल से कपड़ा बनाया जाता है । शोशा-संज्ञा, पु० ( फा० ) निकली नोक, विचित्र बात | मुहार - शोशा छोड़नाअनूठी बात कहना | शोप - संज्ञा, पु० (सं०) सूखना, खुश्क या रूखा होना, देह का घुलना या क्षीण होना, थमा रोग का एक भेद (वैद्य० ). क्षयी, बच्चों का सूखा रोग, सुखंडी ( प्रान्ती०) । शोषक संज्ञा, पु० (सं०) सोखने या सुखाने वाला, क्षीण करने वाला, रस, जलादि का खींचने वाला । त्रो० - शांधिका । शशि शोषक पोषक समुझि, जग यशअपयश दीन्ह 'रामा० । शोषण- संज्ञा, पु० (सं०) सोखना सुचाना, खुश्क या सूखा करना क्षीण करना, घुलाना, नाश करना, कामदेव का एक बाण | वि०शोषी, शोषित, शोषणीय । 66 For Private and Personal Use Only Page #1665 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir शोहदा श्यामसुन्दर शोहदा-संज्ञा, पु. (अ.) गंडा, बदमाश, ब्रजभाषा निकली है, नागर या एक प्राचीन लुच्चा, लंपट, व्यभिचारी। अपभ्रंश भाषा। शोहरत-संज्ञा, स्त्रो० अ०) ख्याति, प्रसिद्धि, शौरि-सज्ञा, पु० (सं०) श्री कृष्ण जी। नामवरी, धूम, जनरव, किंवदंनी। शौर्य--संज्ञा, पु० (सं०) शूरता, बहादुरी, शोहरा-संज्ञा, पु० (अ० शोहरत ) शोहरत, वीरता, धारभटी नामक वृत्ति (नाटक)। ख्याति, प्रसिद्धि, नामवरी, धूम। शौहर ---संज्ञा, पु० फा०) भर्ता, स्त्री का शौंडिक-संज्ञा, पु० (सं०) कलवार जाति ।। स्वामी, पति, मालिक, ख़ाविन्द । शौक-संज्ञा, पु. (अ.) किसी वस्तु के श्मशान -संज्ञा, पु० (सं०) मरघट, समउपयोग की तीब अभिलापा, प्राप्ति को सान, मसान (दे०)। लालसा, चाव, चाह । मुहा० --शौक़ श्मशान पति-संज्ञा, पु. यौ० (सं०) शिव करना-प्रयोग या भोग करना । शौक जी, मसानपति (दे०), चांडाल, डोम । से-प्रसन्नतापूर्वक, श्राकांक्षा, हौसला, श्मश्रु-संज्ञा, पु० (सं०) मूंछ, मुँह या ओंठो व्यसन, चसका, प्रवृत्ति, मुकाप । पर के बाल, दाढ़ी, मूछ। शौकत-संज्ञा, स्त्री० (अ०) शान, सजधज, श्याम--संज्ञा, पु. (सं०) श्री कृष्ण, कन्नौज ठाट बाट, ठाठ । यौ०-शान-शौकत ।। से पश्चिम का देश (प्राची०), मेघ, भारत शौकिया-क्रि० वि० (अ०) शौक से, शौक से पूर्व स्याम देश । वि०-साँवला, काला। के साथ, शौक के लिये। संज्ञा, स्त्री०--श्यामता, श्यामलता। शौक़ीन-संज्ञा, पु० ( अ० शौक + ईन-- श्यामकर्ण - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) ऐसा प्रत्य० ) शौक करने वाला, बना-ठना या घोड़ा जिनके एक या दोनों कान काले हों सजा रहने वाला। शौकीनी--संज्ञा, स्त्री० ( अ० शौकीन + ई और मारा शरीर शेत हो, म्यागकरन प्रत्य० ) शोकीन होने का कार्य या भाव । (दे०)। " श्याम कर्ण अगनित हय होने " शौक्तिक-शाक्तिकेय-संज्ञा, पु. ( सं० ) ..... रामा० । मोती। श्यामजीरा--संज्ञा, पु० यौ० (सं०) काली शौच-संज्ञा, पु० (सं०) पावनता, पवित्रता, बाल वाला एक धान, काला यास्थाहजीरा । शुद्धता, स्वच्छता से रहना, शुद्ध जीवन श्यामटीका-संज्ञा, पु. यौ० ( सं० श्याम बिताना.प्रातः काल उठकर प्रथम करने के। टीका --- हि०) काजल का टीका जो कार्य, सौच (दे०), मल याग करना, दृष्टि दोष के बचाने को लड़कों के माथे पर नहाना श्रादि । वि.-अशौच । “ सकल लगाया जाता है, दिठौना (७०)। शौचकरि जाय अन्हाये"-रामा० । श्यामता-संज्ञा, खो. (सं० ) कृष्णता, शौत-सज्ञा, स्त्री० दे० (सं० सपनो ) सपत्नी, कालिमा, साँवलापन', कालापन, उदासी, सवत, सवति (दे०)। मलिनता, स्यामता, स्यामताई (दे०)। शोध-वि० दे० (सं० शुद्ध ) पवित्र, शुद्ध, " तवमूरित तेहि उर बसै, सोइ श्यामता निर्मल, स्वच्छ, सौध (दे०)। भास"-रामा० । शौनक-संज्ञा, पु. (सं० ) एक पुराने ऋषि। श्यामन्त ---वि० (सं० ) साँवला. बाला । शौरसेन ---संज्ञा, पु. (सं०) बज-मंडल का सज्ञा, स्त्री० यानानता । " श्यामल गौर पुराना नाम: सुभग दोउ बीरा "..-रामा० । शौरसेनी- संज्ञा, स्त्री० (सं०) शौरसेन प्रान्त | श्यामसुन्दर-संज्ञा, पु. यौ० (सं० ) श्री की प्राचीन प्राकृत भाषा या बोली जिससे कृष्ण जी, स्यामसँदर (दे०), एक वृक्ष । For Private and Personal Use Only Page #1666 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्यामा श्रमित "श्यामसुन्दर ते दास्यः कुर्वाणि तवोदितम्" श्रद्धास्पद -वि• यौ० (सं०) श्रद्धेय, पूज्य, -भा० द० । पूजनीय, श्रादरणीय । श्यामा--- संज्ञा, स्त्री. (सं० राधिका, राधा श्रदेय - वि० सं०) पूज्य, शृद्धास्पद । जी एक गोपी मधुर और मृदु स्वर वाला श्रम-संज्ञ', पु० सं०) मेहनत, परिश्रम, एक काला पती, सोलह वर्ष की नी, सुरमा मशक्कत (फ़ा०) क्लाति, थकावट, दुख, केश, चुप. तुलसी, काली गाय, कोयल, यमुना, कष्ट, पसीना, परेशानी, दौड़धूप, प्रयास, रात, स्त्री। वि०-काली, श्याम रंग वाली. स्वेद, व्यायाम, एक संचारी भाव (सा०) साँवली। " यो भजेत्समुधुश्यामाम् "..-- किसी कार्य के करने से संतुष्टि तथा शैशिल्य, लो० रा । "श्यामा वाम सुतर पर देखी" स्त्रल (दे०)। " गुरुहिं उरिन होतेउ श्रम -रामा० । थोरे "-रामा० । श्यामाक- संज्ञा, पु. (सं०) सावाँ नामक श्रमकण- संज्ञा, पु. यौ० (सं०)श्रम-सीकर, एक प्रकार का अन्न । पसीने की बद । " श्रम-कण सहित श्याम श्याल-संज्ञा, पु. (सं०) स्त्री का भाई तनु पेखे " रामा० । साला, बहनोई, बहिन का पति । संज्ञा, श्रमजल--- संज्ञा, पु० यौ० (सं०) स्वेद, पु० दे० ( सं० शृगात ) स्थार, सियार। पसीना, धन-सलिल, श्रम-विदु। श्यानक --- संज्ञा, पु० (सं०) साला, बहनोई। श्रमजित--वि० (सं०) अति परिश्रम से भी न श्याला- संज्ञा, पु० सं०) साला, बहनोई। थकने वाला ! " श्यालाः संबंधिनस्तथा"-भ० गी। श्रमजीवी--वि. (सं० श्रमजीविन् ) श्रम श्येन--संज्ञा, पु. ( सं०) बाज़ या शिकरा से पेट पालने वाला, परिश्रम करके जीवनपक्षी, दोहे का चौथा भेद (पि०) निर्वाह करने वाला। श्यनिका संज्ञा, स्त्री. (सं०) मादा बाज़, श्रमण- संचा, पु. ( सं०) बौद्धमत का श्येनी, ११ वर्णों का एक वर्णिक छंद या संन्यासी, मुनि, यति, मज़दूर । वृत्त (पि०)। श्रमविदु-सज्ञा, पु० यो० (सं०)श्रम-सीकर, श्येनी संज्ञा, स्रो० ( सं०) मादा बाज़, पसीने की बूंद। "श्यामगात श्रम-विन्दु श्येनिका. पक्षियों की माता तथा कश्यप सुहाये"--रामा० । की एक कन्या ( मार्क० पु.)। श्रमवारि-संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) स्वेद, श्योनाक-संज्ञा, पु. (सं०) लोध्र, सोना- पसीना, श्रम-सलिल । पाढ़ी वृक्ष, लोध। श्रमविभाग-संज्ञा, पु. यौ० (सं०) किसी श्रद्धा-संज्ञा, स्त्री० (२०) बड़ों के प्रति पूज्य कार्य के भिन्न भिन्न विभागों के लिये अलग भाव, श्रादर, प्रेम, सम्मान, भक्ति, आस्था, ! अलग व्यक्तियों की नियुक्ति । श्राप्त पुरुषों तथा वेदादि के वाक्यों में श्रम-सलिल'--संज्ञा, पु० यौ० (सं०) पसीना। विश्वास, कर्दममुनि की कन्या जो अत्रिमुनि श्रमसीकर--संज्ञा, पु. यौ० (सं०) पसीने को व्याही यो। " श्रद्धा बिना भक्ति नहि, की बूंद। " श्रम-सीकर साँवरे देह लसैं तेहि बिनु द्रवहिं न राम"-- रामा०। । मनो रात महातम तारक में"-कविः । श्रद्धान् संज्ञा, पु. (सं०) श्रद्धा। श्रमार्जित-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) परिश्रम से श्रद्धालु-वि० सं०) श्रद्धावान्, श्रद्धायुक्त। प्राप्त, श्रमोपार्जित । श्रद्धावान्-संज्ञा, पु. ( सं० श्रद्धावत् ) श्रमित-वि. (सं०) श्रांत, थका हुआ, श्रम श्रद्धायुक्त, धर्मनिष्ट, श्रद्धालु । | से शिथिल, कृत श्रम। For Private and Personal Use Only Page #1667 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org श्रमी श्रमी संज्ञा, पु० (सं० श्रमिन् ) मेहनती, परिश्रमी, मजदूर, श्रमजीवी । १६५६ श्रवण - संज्ञा, पु० (सं० ) शब्द का बोध करने वाली इंद्रिय, कर्ण, कान, सवन, ata (दे०), शास्त्रादि या देव-चरित्रादि सुनना तथा तदनुकूल करना, एक प्रकार की भक्ति, वैश्य-तपस्वी अंधकमुनि का पुत्र, सरवन (दे०), वाणाकार २२ वाँ नक्षत्र ( ज्यो०)। यौ० - श्रवणकुमार | श्रवन – संज्ञा, पु० दे० (सं० श्रवण ) कान, कर्ण, वन, स्रौन (दे० ), २२ वाँ नक्षत्र, एक अंध वैश्य तपस्वी का पुत्र, सरवन (दे० ), एक प्रकार की भक्ति । श्रवना* - स० क्रि० दे० (सं० स्राव ) बहना, रसना, चूना, टपकना, स्रवना (दे० ) | स० क्रि० - गिराना, बहाना । श्रवित - वि० दे० ( सं० नाव ) बहता या बा हुआ, वित श्रव्य - वि० (सं०) सुनने योग्य, जो सुना जा सके । यौ० - श्रव्य काव्य - वह काव्य जो केवल सुना जा सके, नाटक के रूप में देखा या दिखाया न जा सके। श्रांत - वि० (सं०) क्लान्त, शिथिल, शांत, जितेंद्रिय, परिश्रम से थका हुआ, दुखी ! श्रांति - संज्ञा, स्त्रो० (सं०) परिश्रम, क्लांति, थकावट, विश्राम, शिथिलता । श्राद्ध - संज्ञा, पु० (सं०) जो कार्य्यं श्रद्धाभक्ति से प्रेम-पूर्वक किया जावे, पितरों के हेतु पितृ यज्ञ, पिंडदान, तर्पण, भोजादि शास्त्रानुकूल कृत्य, सराध (दे०), पितृ पक्ष । श्राद्धपक्ष संज्ञा, पु० यौ० (सं०) पितृ पक्ष | श्राप -- संज्ञा, पु० दे० (सं० शाप ) स्त्राप, सराप (दे०), कोसना, बददुधा देना, धिक्कार, फटकार | श्रावक - श्रावग - संज्ञा, पु० (सं० श्रावक ) बौद्ध मत का साधु या संन्यासी, नास्तिक, जैनी । वि० - श्रवण करने या सुनने वाला | श्रावगी - संज्ञा, पु० दे० (सं० श्रावक ) जैनी, सरावगी (दे० ) । 0 श्रीगिरि श्रावण - संज्ञा, पु० (सं०) सावन (दे०) का महीना, आषाढ़ के बाद और भादों से पूर्व का महीना | Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रावणी - संज्ञा, खो० (सं०) सावन महीने की पूर्णमासी, रजाबंधन स्यौहार, साँवनी (दे०) । श्रावन - स० क्रि० दे० ( हि० स्रवना ) गिराना, टपकाना | श्रावस्ती - संज्ञा, त्रो० (सं०) उत्तर कोशल में गंगा तट की एक प्राचीन नगरी जो अब सहेत महेत कहलाती है । श्राव्य - वि० सं०) श्रोतव्य, सुनने के योग्य । त्रिय - संज्ञा, खो० दे० (सं० श्रिया ) मंगल, कल्याण | संज्ञा, स्रो० ( सं० श्री ) शोभा, आभा, प्रभा । श्री - संज्ञा, खो० (सं०) विष्णु पत्नी, लक्ष्मी, रमा, कमला, सरस्वती, गिरा, सफ़ेद चंदन, कमल, पद्म, धर्म, अर्थ, काम, त्रिवर्ग, संपत्ति, ऐश्वर्य विभूति, धन, कीर्ति, शोभा, कांति, प्रभा, श्राभा, खियों के सिर की बंदी, नाम के यादि में प्रयुक्त होने वाला एक श्रादरसूचक शब्द एक पद-चिन्ह, सिरी (दे०) । संज्ञा, पु० - वैष्णव का एक संप्रदाय. एक एकातर छंद या वृत्त (पिं०) रोरी, एक सम्पूर्ण जाति का राग (संगी० ) । " भयो तेज हत श्री सब गई' रामा० । श्रीकंठ - संज्ञा, पु० (सं०) शंभु, शिवजी । श्रीकांत - संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) विष्णु । श्रीकृष्ण - संज्ञा, पु० (सं०) कृष्णचंद्र | श्रीक्षेत्र - संज्ञा, पु० (सं०) जगन्नाथपुरी | श्रीखंड - संज्ञा, पु० (सं०) सफेद चंदन, हरि चंदन शिखरण, सिकरन । " श्रीखंडमंडित कलेवर वल्लरीणाम् " - लो०रा० । श्रीखंड-शैल-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) श्रीखंडाचल, मलय पर्वत, श्रीखंडादि । श्रीगदित - संज्ञा, पु० (सं०) १८ प्रकार के उपरूपकों में से एक भेद (नाट्य ० ) श्रीरासिका । श्री गिरि-- संज्ञा, पु० यौ० (सं०) मल्लयाचल | For Private and Personal Use Only Page #1668 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीचक्र श्रुतपूर्व श्रीवक्र-- संज्ञा, पु. यौ० (सं०) देवी की पूजा । (जैसे आपके श्रीमुख से उपदेश सुनना है) का चक्र (वाम तंत्र)। सुन्दर मुँह, सूर्य, वेद। श्रीदाम --- संज्ञा, पु० (सं० श्रोदामन ) सुदामा, श्रीयुक्त वि० सं०) शोभावान, कांतिमान, कृष्ण के एक बाल सखा । धनवान, बड़ों के लिये आदर-सूचक, श्रीधर संज्ञा, पु. (सं०) विष्णु, रमेश, विशेषण, श्रीमान् । संस्कृत के एक प्रसिद्ध श्राचार्य श्रीयुत-वि० सं०) शोभावान, सुन्दर, श्रीनाथ--संज्ञा, पु. यौ० (सं०) विष्ण। धनवान, बड़ों के लिये श्रादरार्थ विशेषण । श्रीधाम. श्रीनिकेत-संज्ञा, पु. यौ० (सं०) स०) श्रीरंग. श्रीरमण-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) श्री-निकेतन, नमी-धाम. बैकठ, लाल विष्णु। कमल, पद्म, सोना. स्वर्ण, वि.।। श्रीवंत-- वि० (सं०) धनी, शोभावान, श्रीनाथ - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) लचमीपति, | सुन्दर, श्रीमान् । विष्णु । श्रीवत्स- संज्ञा, पु० (सं०) विष्णु, विष्णा की श्रीनिवास,श्रीनिलय-संज्ञा, पु० यौ० (सं०), छाती पर एक चिह्न जिसे भृगु-चरण-चिह्न विष्णु, बैकुठ, कमल श्री-सदन, श्री-सद्म ।। मानते हैं। " श्रीवर पल धमम् गल-शोभि श्रीपंचमी-संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) बसंत. कौस्तुभम् "-भा. द. । यौ०पंचमी। श्रीवत्सलांछन विष्णु । श्रीपति- संज्ञा, पु. यौ० (सं०) विष्णु । श्रीवास. श्रीवासक-संज्ञा, पु. (सं०) “धेयं श्रीपति-रूपमजखम्'---च० प० । गंधाविरोजा, चंदन, देवदारु वृक्ष, कमल, श्रीपाद-संज्ञा, पु. (सं०) श्रेष्ठ, पूज्य । पंकज, शिव, विष्णु । श्रीफल - संज्ञा, पु० (सं०) नारियल, बेल, श्रीवास्तव --संज्ञा, पु. (हि०) कायस्थों की श्रावला, खिरनी, धन. संपत्ति । " कोमल एक ऊँची जाति । कमल उर जानिये न कैसे ऐसे श्रीफल से श्रीहन-वि० (सं०) शोभारहित, निष्प्रभ, कठिन उरोज उपजाये हैं" निस्तेज प्रभा या कांति से विहीन । श्रीमंत-वि० (सं०) धनवान, श्रीमान , “श्रीहत भये हारि हिय राजा"--रामा० । रुपये वाला, धनी। संज्ञा, पु. ( सं० श्रीमंत ) श्रीहर्ष-ज्ञा, पु० सं०) संस्कृत के प्रसिद्ध एक शिरोभूपण, रिज्यों के सिर की माँग । नैषधकाव्य के बनाने वाले एक विद्वान श्रीमत्-वि० (सं०) धनी, धनवान, अमीर, महाकवि, कान्यकुब्ज देश के प्रसिद्ध सम्राट शोभा या श्री वाला, फाँतिवान, सुन्दर। हर्षवर्द्धन जिन्होंने नागानंद, प्रियदर्शिका श्रीमती- संज्ञा, स्त्री० (सं०) लघमी, श्री या और रत्नावली रचे थे। शोभायुक्त स्त्री, श्रीमान् का स्त्रीलिंग श्रत-वि० (सं०) सुना गया, जिसे परम्परा राधिका, लघमी। या सदा से सुनते चले आते हों, विख्यात, श्रीमान-मज्ञा, पु० (सं० श्रीमन् ) नामादि प्रसिद्ध । के आदि में लगाने का एक प्रादर-सूचक श्रतकीर्ति--- संज्ञा, स्त्री० (सं०) राजा जनक शब्द, श्रीयुत्, धनिक, अमीर, पूज्य या बड़ों के भाई कुशध्वज की कन्या जो रामचंद्र के के लिये आदर-सूचक सम्बोधन । कनिष्ट भाई शत्रुघ्न की पत्नी थी। जेहि श्रीमाल --संज्ञा, स्त्री यौ० (सं० श्री+-माला) नाम श्रुति की रति सुलोचनि सुमुखि सब गले का एक भूपण या हार, कंठश्री। गुन अागरी"-राम । श्रीमुख- संज्ञा, पु० यौ० (सं०) शोभायुक्त श्रुतपूर्व- वि० यौ० (सं०) पहले का सुना पूज्य जनों के मुख के लिये श्रादरार्थ शब्द, या जाना हुआ। भा० श० को.--२०८ For Private and Personal Use Only Page #1669 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रुति - - श्रोन, श्रोनित श्रति--संज्ञा, स्त्री० (सं०) सुनना. कर्णेन्द्रिय, मंडली कंपनी (अं०) जंजीर, सीदी, सिकड़ी, कान, सुनी बात, ध्वनि, शब्द, किंवदंती, जीना, कक्षा, दर्ता । ख़बर, जिसे सदा से सुनते चले आते हैं, श्रेणीवद्ध-वि• यो० (सं०) पंक्ति के रूप वेद या वह ईश्वरीय पुनीत ज्ञान जिले में स्थित, शृंखला बाँधे हुये, क्रम बाँधकर । सृष्टि की धादि में ब्रह्मा या कुछ अन्य "श्रेणो बन्धाद्वितन्वद्भिः ''- रघु० । महर्षियों ने सुना और जिसे ऋषि-परंपरा श्रय-वि० (सं० यस् ) उत्तम, श्रेष्ठ, से सुनते आए, निगम, अनुप्रास अलंकार अधिक या बहुत अच्छा, शुभ, कल्याणकारी, का एक भेद, विद्या, ज्ञान, नाम, त्रिभुज में मंगलदायी । स्त्री०-श्रयामी । संज्ञा, पु०-- समकोण के सामने की भुजा ( रेखा )। मंगल, कल्याण, धर्म, पुण्य, सदाचार, "गुरु-श्रुति-सम्मत धर्म-फल, पाइय बिनहिं । मोक्ष, मुक्ति । " श्रेयसाधिगमः"-न्याय० । कलेश'.--रामा०।। श्रेयस्कर-वि० (सं०) कल्याणकारी, श्रतिकटु-संज्ञा, पु. यौ० (सं०) काव्य में शुभदायक, मंगलप्रद । स्रो०-श्रेयस्करी। कठोर और कर्कश वर्णों का प्रयोग (दोष) | श्रेष्ठ-वि० सं०) बहुत ही अच्छा, उत्कृष्ट, जो सुनने में बुरा लगे । विलो०- सर्वोत्तम, प्रधान, मुख्य. पूज्य, वृद्ध, बड़ा, श्रुतिमधुर, श्रुति-सुखद। सेठ, साहकार। श्रुतिपथ-संज्ञा, पु. यौ० (सं०) वेद-मार्ग, श्रेष्ठता-- संज्ञा, स्त्री. (सं०) उत्तमता, वेदानुकूल, सन्मार्ग, कान की राह से, उत्कृष्टता, गुरुता. बड़ाई, बड़प्पन । श्रवणेंद्रिय, कान, कर्ण-मार्ग, श्रवण-पथ । श्रेष्टो --- संज्ञा, पु. (सं०) महाजन, सेठ, श्रुतिपुट-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) का-रंध्र साहूकार, व्यापारियों या वैश्यों का मुखिया । कान के परदे । " श्रुति-पुट पिकता, जो श्रोण, थाशित ---- संज्ञा, पु० वि० दे० ( सं० सुधा सी वनों में ''-प्रि० प्र० । शोगा, शाणित ) लाल रंग, अरुणता, रक्त । श्रतिमार्ग-संज्ञा, पु० यौ० (सं० । वेद-विहित श्रीशि, श्रोणी-संज्ञा, स्त्री० सं०) नितंब, विधि या रीति, वेद-पथ, श्रुति पथ, कान की कटि-प्रदेश । राह से, स्मृति-माग (दे०) श्रोत ---संज्ञा, पु० (सं० श्रातस ) कर्ण, श्रतिसेत-संज्ञा, पु. यौ० (सं०) वेदमार्ग, कान. श्रवणेंद्रिय । संज्ञा, पु० दे० ( सं० वेद-पथ, (भव-सागर के तरने को) वेद-रूपी | स्रोत ) सोता, चश्मा । सेतु या पुल । “श्रुति-सेतु पालक राम तुम' श्रोतव्य - वि० (सं०) श्रवणीय, सुनने-योग्य, -रामा०। सदुपदेश। श्रुत्यनुप्रास-संज्ञा, पु. यौ० (सं०) अनुप्रास | श्रोता --- संज्ञा, पु० (सं० श्रोतृ) सुनने नामक शब्दालंकार का एक भेद, जिसमें वाला । "श्रोता वक्ता च दुर्लभः''-स्फुट० । काव्य में एक ही स्थान से बोले जाने वाले श्रांत्र--संज्ञा, पु. (सं०) कान, वेद-ज्ञान । व्यंजन दो या अधिक बार पाते हैं। "श्रोत्र-मनोभिरामात् " भा. द. । श्रवा--संज्ञा, पु. दे. (सं० वा ) हवन श्रोत्राभिराम ध्वनिनार थेन'--रघु० । करने में घी डालने का चम्मच, चमचा, श्रोत्रिय, श्रोत्री --- संज्ञा, पु० (सं०) पूर्ण रूप करली, नवा (दे०)। " चार-श्रुवा शर से वेद-वेदांग का ज्ञानी, वेद का ज्ञाता, पाहुति जानू --रामा० । ब्राह्मणों का एक भेद श्रेणि, श्रेगी-- संज्ञा, स्त्री० (सं०) अवलो, श्रीन, धोनित *-----संज्ञा, पु. द० (सं० पाँति, पंक्ति, शृंखला, परंपरा, क्रम, समूह, शोण, शोणित ) लाल रंग, लाली, रक्त, सेना. दल, एक ही व्यापार करने वालों की रुधिर, मोनित (दे०) । For Private and Personal Use Only Page #1670 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रोत श्वासा श्रौत-वि. (सं०) वेदानुकूल, श्रवण श्लेषोपमा-संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) एक संबंधी, श्रुति या वेद-संबंधी, यज्ञ-संबंधी। अर्थालंकार जिसमें ऐसे डिलष्ट, शब्द हों श्रौतसूत्र-संज्ञा, पु. यो. (सं०) कल्पग्रंथ कि उनके अर्थ उपमान और उपमेय दोनों का वह विभाग जिपमें यज्ञों की विधान में घटित हो (काव्य०, केश०) । कहा गया है, जैसे-गोभिल श्रौत सूत्र । श्लेष्मा-संज्ञा, पु. ( सं० श्लेष्मन् ) का, श्रीन* --- संज्ञा, पु० दे० ( सं० श्रवण ) सौन, देह की ३ धातुओं में से एक बलराम, कान, श्रवन, स्त्रवन (दे०)। लामोढ़े का फल, लभेरा, लिसोड़ा (दे०) । श्लथ---वि० (स०) शिथिल, ढीला, अशक्त, " हंप पारावतगतिं धत्ते श्लेष्म-प्रकोपतः" मंद, दुर्बल, धीमा ! -भा०प०। श्लावनीय-वि० (सं०) प्रशंसनीय, बहाई श्लोक-संज्ञा, पु० (सं०) श्राह्वान ; शब्द, के लायक, श्रेष्ठ, उत्तम । पुकार, स्तुति, बड़ाई, प्रशंसा, यश, कीर्ति, श्लाघा-संज्ञा, स्त्री० (सं०) प्रशंसा. बड़ाई, अनुष्टुप छंद, संस्कृत का कोई पद्य । स्तुति, तारीफ़, चाटुकारी, चापलूमी, चाह, "पुण्यश्लोक-शिखा मणि:"-भा० द० । इच्छा, खशामद । 'त्यागे श्लाघाविपर्ययः" श्वन्-संज्ञा, पु० (सं०) कुत्ता, श्वान । स्त्री. .. रघु.। श्वनी। इलाध्य-वि० (सं० प्रशंसनीय, बढ़ाई या श्वपच, श्वपाक-संज्ञा, पु० (सं०) कुत्ते स्तुति के योग्य । " भवान् श्लाध्यतमः का मांस खाने वाला, डोम, चांडाल, डुमार। शूरैः " --भा. द.। रिलय-वि० (०) मिला हुआ, मिश्रित, श्वाल्क--संज्ञा, पु० (सं०) वृष्णियादक के जुड़ा हुआ, (साहिल में) दो या अधिक पुत्र तथा अक्रूर के पिता, सुफलक (दे०)। अों वाला श्लेषयुत्त पद, श्शेषालंकार युक्त। श्वशुर ---- ज्ञा, पु० (सं०) ससुर । यौ. संज्ञा, खो०-शिलता। श्वशुरालय, ससुराल, ससुरार (दे०)। श्लीपद--संज्ञा, पु. (सं०) फीलपाँव पाँव । श्वथ-संज्ञा, स्त्री० (सं.) पति या पत्नी की के मोटे हो जाने का रोग (वैद्य०)। माता, साल, सासु (ब० अ०)। श्लील-वि० (सं०) उत्तम, श्रेष्ठ, बढ़िया, श्वसन-झा, पु० (सं०) साँस लेना, वायु, दमा रोग "हरति श्वसनं कसनं ललने" शुभ, सुन्दर, जो भद्दा न हो, शिष्ठ । संज्ञा, . ----लो० स० स्रो० --श्लीलता। श्वान-संज्ञा, पु० (सं०) कुत्ता, कुक्कुर, कूकुर इतेष --- संज्ञा, पु० सं०) मिलान, प्रालिंगन. दोहे का २१ वाँ तथा छप्पय का १५ वाँ जुड़ना, मिलना, जाड़, संयोग. एक गुण भेद (पि.)। स्त्री०-श्वानी। (दाम), एक अलंकार जिसमें एक शब्द श्वापद-हांज्ञा, पु० (स०) व्याघ्रादि हिंसक, के दो या अधिक अर्थ घटित हो सके। जंतु। (अ० पी०)। श्वास-संक्षा, पु० (सं.) उसाँस, साँस. दम, श्लेषक--वि० (सं०) जोड़ने वाला, मिलने नाक से वायु खींचने और बाहर निकालने वाला । संज्ञा, पु०-मिलना, प्रालिंगन, का कार्य, हाँफना, दमा रोग, साँस फूलने श्लेषालंकार । का रोग, स्वाँस, स्वासा (दे०)। "श्वासश्लेषण --- संज्ञा, पु० (सं०) मिलाना, संयुक्त कास-हरश्चैव-राजाहं बल-बर्द्धनम् "-भा० करना, जोड़ना, आलिंगन, भेटना । वि०-- प्र.। श्लेषणीय, श्लेषित, श्लेषी, श्लिए। श्वासा--संज्ञा, स्त्री० ( सं० श्वास ) साँस, For Private and Personal Use Only Page #1671 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org श्वासोच्छ्वास २६६० षटचक्र "जब तक श्वासा तब तक " श्रासा 1 1 प्राण. दम, प्राण वायु, स्वाँसा स्वास श्वेतद्वीप - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) विष्णु के (दे०) । लो०रहने का एक उज्वल द्वीप (पुरा० ) । श्वेत प्रदर - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) स्त्रियों का एक प्रदर रोग जिसमें मूत्र के साथ सफेद धातु गिरती है श्वेतवाराह - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) बाराह भगवान की एक मूर्ति, ब्रह्मा के माय का प्रथम दिन या एक कल्प, एक शिवावतार | श्वेवर-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) जैनियों का एक श्वेत वस्त्रधारी प्रधान सप्रदाय, (द्वितीय - दिगंबर) । दि० श्वेत वस्त्र | श्वेतांश - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) चन्द्रमा | श्वेता - संज्ञा, स्त्री० (सं०) श्रग्नि की सात जिह्वाथों में से एक जिह्वा, कौड़ी, शंख या श्वेत नामक हस्ती की माता, शंखिनी, चीनी, शकर, सफ़ेद दूब | A R श्वित्र " श्वासोच्छ्वास-पंज्ञा, पु० थौं० [सं० ) वेग के साथ साँस खींचना और छोड़ना । यौ० - स्वाँस, उसाँस । -संज्ञा, पु० (सं०) श्वेत कुष्ट | 'श्वित्रं विनश्यात् " - भा० प्र० । श्वेत - वि० (स० ) धवल, उजला स्वच्छ. सफेद, निर्दोष, निष्कलंक, गोरा, सेत (दे० ) | संज्ञा, स्त्री० - श्वेतता | संज्ञा, पु० सफेद रंग, रजत, चाँदी. एक द्वीप (पुरा०) श्वेत बाराह, एक शिवावतार । ततः श्वेतैर्हयैर्युक्त महत्स्यन्देस्थितो " - भ० गी० । श्वेत- कृष्ण - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) धवल, श्याम, सफेद काला एक पत्र और दूसरा पक्ष, श्वेत-श्याम, एक बात तथा उसके विरुद्ध दूसरी बात । 66 श्वेतकेतु - संज्ञा, पु० (सं० ) उद्दालक मुनि के पुत्र, केतु ग्रह ! श्वेत गज - संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) ऐरावत हाथी, सुरेन्द्र-गजेन्द्र | श्वेतता - संज्ञा, स्त्री० (सं०) धवलता, सफ़ेदी । - संस्कृत और हिन्दी भाषा के वर्णमाला के ऊष्मातरों में से दूसरा वर्ण, या पूर्ण वर्णमाला का ३१ वाँ व्यंजन, इपका उच्चारण-स्थान मूर्द्धा है वर्ण है, यह दो प्रकार से १ -- श के समान २ ख के समान । अतः यह मूर्धन्य बोला जाता है 66 ऋटुरषानां मूर्धा "" रलयौः डल यौश्चैवशष यौः वबयौर्तथा " | Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ष पट - वि० (सं०) छः गिनती में छः । संज्ञा, पु० - छ: की संख्या, ६ । पट्क - संज्ञा, पु० (सं०) ६ की संख्या, छः पदार्थों का समूह । पट्कर्म -संज्ञा, पु० यौ० ( सं० पट्कर्म्मन् ) ब्राह्मणों के ६ कर्म:-यजन, याजन, अध्ययन, अध्यापन, दान देना, दान लेना । खटकरम (दे०), कार्य- जालिका, बहुत सा कर्म-कांड का खेड़ा, व्यर्थ के कार्य । वि० षट्कर्मी - विप्र । षट्कोण - वि० यौ० (सं०) छः कोना, ६ कोने वाला, छः पहला, ६ कोनों का एक क्षेत्र, षड्भुज क्षेत्र । पट्चक्र - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) शरीर के पंड – संज्ञा, पु० (सं०) क्लीव, नपुंसक, हिजड़ा, नामर्द, शिव का एक नाम पंडत्व – संज्ञा, पु० (सं०) क्लीवस्व, नपुंसकता, नामर्दी, हिजड़ापन, क्लीवता । स्त्री० - पंडता । पंडामर्क - संज्ञा, पु० (सं० ) शुक्राचार्य के पुत्र और प्रह्लाद के गुरु का नाम । श्वेताश्वतर - संज्ञा, स्त्रो० (सं०) कृष्ण यजुर्वेद की एक शाखा, उपनिषद् | उसका एक श्वेतिक – संज्ञा, पु० (सं०) एक ऋषि जो उद्दालक मुनि के पुत्र थे । श्वेतिका - संज्ञा, खी० (सं०) सौंफ (श्रौषधि) । For Private and Personal Use Only Page #1672 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पटचरगा षडरस भीतर कुंडलिनी से ऊपर के ६ चक्र, पडंग-संज्ञा, पु० यौ० (सं० षट् + अंग) वेद श्राधार स्वाधिष्ठान. मणिपूरक, अनाहत, के ६ अंगः - शिक्षा, कल्प, व्याकरण, छंद, विशुद्धि, प्रज्ञा (हठ्यो०), षड़यंत्र। निरुक्त, ज्योतिष, शरीर के ६ अंगः - शिर, पटचरण-संज्ञा, पु० चौ. (सं०) भ्रमर. धड़. दो हाथ और दो पैर । वि०- अंग भौरा, पटपट वि०-६ पैरों वाला। या अवयव वाला । " षडंगेषु व्याकरणं पतिला-संज्ञा, स्त्री. (स.) माघ कृष्ण प्रधानम्"-महाभा०। एकादशी। षडंघ्रि-संज्ञा, पु० यौ० ( सं० षट् + अंधि ) पटपद ...- संज्ञा, पु. यो. (सं.) भ्रमर, भौंरा, भ्रमर, भौंरा । वि० -जिसके ६ पैर हों। द्विरेफ, मधु । वि.-६ पैरों वाला। षडानन-संज्ञा, पु० यौ० (सं० षट् । प्रानन) पद पदी-संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) भौंरी, पणमुख, कार्तिकेय । वि०-६ मुखों वाला। भ्रमरो, छप्पय छंद (पि.)। पडूमि - संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) ६ प्रकार की पटप्रयोग-संज्ञा, पु. यो. (सं०) तांत्रिकों तरंगें (प्राण और मन की ):-भूख, के ६ प्रयोग, मारण, मोहन, उच्चाटन, प्यास, शोक, मोह (शरीर की) जरा, मृत्यु । वशीकरण, स्तंभन, शान्ति । " बुभुक्षा च पियासा च प्राणस्य मनसः षट्नुख, पणमुख-संज्ञा, पु० यौ० (सं.) स्मृती। शोक-मोही शरीरस्य जरा-मृत्यू षडूम यः।" पड़ानन, कार्तिकेय, सेनानी, शिव-सुत जो | देव-सेना-पति हैं : “गिरि वेधिषणमुख जीत पड्ऋतु-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) वर्ष की ६ तारकनन्द को जब ज्यों हस्यों''.--राम ।। ऋतुयें । " ग्रीषम, वरषा, शरद, हेमन्त, शिशिर और जानिये वसन्त ॥" पटस--संज्ञा, पु. यो० (सं०) सृष्टि के ६ पड्गुण -- संज्ञा, पु० सं०) छः गुणों का रसः-खट्टा, खारा, कड़वा, कसैला, मीठा, समूह, ६ गुण, राजनीति के छः गुण:तीखा, इन सब रसों का मिश्रण, एक सधि, विग्रह यान, प्रासन, द्वैधीभाव, प्रचार । "पस भोजन तुरत करावा", संश्रय। “षड्गुणाः शक्तयस्तिस्त्रः सिद्धयश्चो---- स्फुट । दयास्त्रयः"-माघ । घटाग-संज्ञा, पु० (सं.) संगीत विद्या के संगीत विद्या के षड्ज-संज्ञा, पु० (सं०) सात स्वरों में से ६ राग-भैरव, मलार, श्री, हिंडोल, प्रथम स्वर (संगीत)। " षडज संवादिनी: दीपक, मालकोस (संगी०), बखेड़ा, झगड़ा, . केका द्विधा भिन्ना शिखंडिभिः "-रघु० । व्यर्थ का झमेला, झंझट, खटराग (दे०)। षड्दर्शन-संज्ञा, पु. यौ० (सं०) न्याय, पारिपु-संज्ञा, पु. यौ० (सं.) प्रात्मा के वैशोषिक, सांख्य, योग, पूर्व मीमांसा और सहज ६ वैरी:-काम, क्रोध, लोभ, मोह, उत्तर मीमांसा या वेदांत, नामक भारतीय मद, मत्सर । ६ शास्त्र, षट्शास्त्र । पटशास्त्र--संज्ञा, पु० यौ० (सं०) प्रसिद्ध पडदर्शी - संज्ञा, पु. ( सं० षड्दर्शन + ई६ दर्शन-शास्त्रः-न्याय, वैशेषिक, सांख्य, प्रत्य० ) दार्शनिक, दर्शनों का पूर्ण ज्ञाता, योग, मीमांसा, वेदान्त या उत्तरीय ज्ञानी। मीमांसा, षड्दर्शन। षड्यंत्र - संज्ञा, पु. (सं०) छद्म-योजना, पटवांग-संज्ञा, पु. (सं.) एक राजर्षि भीतरी चाल, गुप्त रूप से किसी के विरुद्ध जिन्होंने दो घड़ी की साधना से मुक्ति की हुई कार्रवाई, जाल, कपटभरी सामग्री। प्राप्त की। | षड्स -संज्ञा, पु० यौ० (सं०) ६ प्रकार के For Private and Personal Use Only Page #1673 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir षडरिपु ठीवन स्वाद या रसः-मधुर, तिक्त, लवण, कटु, अंगों के सहित पूरी पूरी पूजा, श्रावाहन, कषाय, अम्ल। पालन, अर्ध्य, पाद्य, श्राचमन, मधुपर्क परिपु-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) काम, क्रोध, स्नान, वस्त्राभरण, यज्ञोपवीत, गंध, पुष्प, लोभ, मोह, मद, मत्सर नामक जीव के ६ धूप, दीप, नैवेद्य तांबूल, (द्रव्य, दक्षिणा) शत्र या मनोविकार । " पड्रिपु जीते बिना परिक्रमा (प्रदक्षिणा), वंदना, पोडशोपचार। लोग सुख पावत सपनेहुँ नाहीं''-~-मन्ना०। पोडशमुजा--- संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) दुर्गा पड्वदन-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) षडानन, देवी। कात्तिकेय, सेनानी. षणमुख । पोडशमातृका--संज्ञा, स्त्री० (सं०) एक षड्वर्ग--संज्ञा, पु० यौ० (सं०) क्रोधादि । प्रकार की १६ देवियां, " गौरी, पद्मा, शची, ६ शत्रु । " जितारि पड़वर्गजयेन मानवी मेधा, सावित्री, विजया, जश।" देवसेना, --किरा. स्वधा, स्वाहा, शांति. पुष्टि, तिस्तथा । पडविधि- संज्ञा, पु. यौ (सं०) छः भाँति तुष्टि, मातरश्चैव श्रामदेवीति विश्रुता. का. ६ प्रकार, ६ रीति । " पाइशमातृकाः पृज्याः मंगलार्थ पा-वि० (सं.) छठा, छटवाँ। निरंतरम । पोडशभंगार---पंज्ञा, पु० यौ० (सं०) पूरा पूरा षष्टी-- संज्ञा, स्त्री० (सं०) शुक्ल या कृष्ण पक्ष । शृंगार, शृंगार के सोलह प्रकारः --- उबटन. की छठवीं तिथि, छठि (दे०), पोडश स्नान, वस्त्र धारण, चोटी, अंजन, दो, मातृकाओं में से एक, दुर्गा, कात्यायनी, . सिंदूर, अंगरागादि। संबंध कारक, (व्या०), बालक के उत्पन्न होने पोडशी-वि० सी० (सं.) सोलहवीं, सोलह से छठवाँ दिन तथा उस दिन का उत्सव, वर्ष की स्त्री । संज्ञा, स्त्री०–दश महाछट्टी, छठी, (दे०)। विद्यानों में से एक, एक मृतक संबंधी कर्म पाडव--संज्ञा, पु० (सं०) वह राग जिसमें जो प्रायः १० वें या ११ वें दिन होता है। केवल छः स्वर ही लगें। पोडशोपचार--संज्ञा, पु० यौ० (सं०) पूजन पाणमातुर-संज्ञा, पु० (सं०) षडानन.. के पूरे सोलह अगः अावाहन, श्रासन. कार्तिकेय, सेनानी। अर्य-पाद्य, याचमन, मधुपर्क, स्नान, पागमासिक-वि. (सं०) छमाही, छः वस्त्राभरण, यज्ञोपवीत, गध, पुष्य, धूप. महीने का, छठे महीने में पड़ने वाला। दीप, नैवेछ, तांबूल, परिक्रमा और बंदना । पोडाग---वि. (सं०) सोलहवाँ । वि. पोडश संस्कार-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) ( सं० षोडशन् ) छः अधिक दस, सोलह । गर्भाधान से मनुष्य के मृतक-कर्म पर्यन्त संज्ञा, पु०-सोलह की संख्या, १६। पूरे सोलह संस्कारः---- गर्भाधान, पुंसवन, पोडशकला-संज्ञा, स्त्री. यौ० (सं०)। सीमन्त, जातकर्म, नामकरण, निष्क्रमण, चन्द्रमा के सोलह भाग जो शुक्ल पक्ष में अन्नप्राशन, चूडाकरण, कर्ण-वेध, यज्ञोपवीत, और कृष्ण पक्ष में एक एक करके क्रमशः | वेदारंभ, समापवर्तन, विवाह, द्विरागमन, बढ़ते और घटते हैं । मृतक, प्रौद्ध देहिक । षोडशपूजन-संज्ञा, पु. रौ० (सं०) सोलह टीवन ----संज्ञा, पु० (सं०) थूकना । For Private and Personal Use Only Page #1674 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir संकलपना म-संस्कृत और हिन्दी की वर्णमाला के संकना, सकाना*- अ० कि० दे० (सं० ऊष्म वर्गों में तीसरा वर्ण, इसका उच्चारण- शंका ) डरना संदेह या शंका करना । स्थान दंत है-श्रतः यह दंत्य या दन्ती संकर -- संज्ञा, पु. (सं०) मिला-जुला, कहाता है, "लुतुलसाना दन्तः' । संज्ञा, पु. मिश्रण, दो या अधिक पदार्थों का मेल, (सं०) पक्षी, सर्प, जीवामा, शिव, ईश्वर, भिन्न भिन्न जाति के माता-पिता से उत्पन्न वायु, ज्ञान, चंद्रमा, पडज स्वर-सूचक वर्ण । व्यक्ति, दोगला, जारज, यज्ञ 'जायते वर्ण(संगी०), सगण का संक्षिप्त रूप (छं०) । संकरः"-भ० गी० । एक प्रकार का उप० (सं० सह) विशिष्टार्थ-सूचक संज्ञानों अलंकार-संमिश्रण (काव्य.) । संज्ञा, पु० के पूर्व लगने वाला एक उपपग, जैसे --- दे० (सं० शंकर ) शिवजी। सदेह, सपूत, सगोत्र। संकर-घरनी--संज्ञा, स्त्री० दे० यौ० ( सं० सं-ग्रव्य० ( सं० सम् ) यह शब्दों की श्रादि । शंकर-गृहिण, घर--नी-प्रत्य० हि० ) शिवमें लगकर संगति, शोभा, समानता, पत्नी पार्वती जी। निरंतरता, उत्कृष्टतादि का अर्थ प्रकट करता संकरता-संझा, स्त्री० (सं०) स कर का भाव है। जैसेः --- संतुष्ट, सताप, संयोग, संमान । या धर्म, मिलावट, धोल-मेल, समिश्रण । सँइतना-स० कि० दे० ( सं० संचय ) सँकरा - वि० दे० ( सं० स कोर्ण ) तंग, सतना (ग्रा०) सहेजना, संचय करना, | पतला । स्त्रो० सकरी । संज्ञा, पु०-दुःख, जोड़ना, इकट्ठा करना, पोतना, लीपना, कष्ट, संकट, विपत्ति, श्राफत, साँकर (दे०)। रक्षित रखना। यौ० --गाढ़-साकर । *-संज्ञा, स्त्री० सँउपना* ---स० क्रि० द० ( हि० सौपना) दे० (सं० शृंखला) साँकरी, साँकल, जंजीर । सिपुद करना, सहेजना, सौंपना। संकर्षणा --- संज्ञा, पु० (सं०) हल से जोतने संक*-संज्ञा, स्रो० ६० (सं० शंका ) या किसी पदार्थ के खींचने की क्रिया, कृष्ण शंका, संदेह, भ्रम, डर, भय । " लेत-देत जी के बड़े भाई बलराम, वैष्णवों का एक मन संक न धरहीं"-- रामा० ! संप्रदाय । "सकर्षण इति श्रीमान् " संकट----वि० (सं० सम् + कृत) तंग, सँकरा, -भा० द० ।। संकीर्ण । सज्ञा, पु०--विपत्ति, आपत्ति, संकला - संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० शृंखल ) दुःख, कष्ट । “कौन सो संकट मोर गरीब । सँकड़ी, सँकरी जंजीर, पशु बाँधने का को जो प्रभु श्राप मों जात न टारर्यो" सिक्कड़, सांकर, साँकल (ग्रा०)। ~संक० । दो पर्वतों के मध्य का संकीर्ण संकलन-संज्ञा, पु. (सं०) योग करना, पथ, दर्श, शटी । जोड़ना, संग्रह करना, जमा करना, संग्रह, संकटा--- संज्ञा, स्त्री. (सं०) एक देवी, एक ढेर, गणित में योग करने की क्रिया, जोड़, योगिनी दशा (ज्यो०) । सदा संकटा कट- अच्छे ग्रन्थों से विषयों के चुनने का कार्य । हारिणि भवानो".--संक्टा० । वि०-संकलनीय, संकलित। संकत* --- संज्ञा. पु. ६० (सं० संकेत ) संकलप-- संज्ञा, पु. द० (सं० संकल्प ) इशारा, इंगित, सहेट या मिलने का संकल्प, विचार, निश्चय । “सिव सकलप निश्चित स्थान, चिह्न, पता, निशान, कीन्ह मन माहीं"--राम० । पते की बातें। संकलपना*/---स० क्रि० दे० (सं० संकल्प) For Private and Personal Use Only Page #1675 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir m ommmmmsve संकलित संकोचन किसी कार्य का पक्का निश्चय करना, ६ का वर्णन, देव-स्तवन, देव-वन्दना । वि० विचार करना, किसी धार्मिक कार्य के लिये सं०-कीर्तनीय, संकीर्तित। कुछ दान देना, संकल्प करना । अ० कि०- संकु-संज्ञा, स्त्री० (सं०, बरछी । “जरे अंग विचार या निश्चय करना इच्छा या इरादा । में संकु ज्यों, होत विथा की खानि'--मति० करना। | सँकुचना-अ० क्रि० दे० ( हि० सकुचना) संकलित-वि० (सं०) संगृहीत, चुना हुआ, सिकुड़ना, सकुचना. समिटना, लज्जित छाँट छाँट कर लाया हुश्रा, एकत्रित किया होना, शरमाना, फूलों का सपुटित या बंद हुआ। होना। संकल्प - संज्ञा, पु० (सं०) कुछ कार्य करने संकुचित-वि० (सं०) संकोच को प्राप्त, का विचार, इग्छा, इरादा, निश्चय, अपना | संकोच-युक्त, लज्जित, सिकुड़ा हुआ, सकरा, हद निश्चय या विचार, किसी देव-पूजादि तंग, क्षुद्र, कंजूस : विलो०-उदार । कार्य से पूर्व कोई नियत मंत्र पढ़कर अपना संकुल-वि० (सं०) घना, भरा हुआ. दृढ़ विचार प्रगट करना, ऐसे समय का मंत्र परिपूर्ण, संकीर्ण । " विविध जंतु संकुल दृढ़ निश्चय, पुष्ट विचार । संकल्प (दे०)। महि भ्राजा" ... रामा० । वि० संकुलित । "शिव संकल्प कीन्ह मन माहीं"--रामः। संज्ञा, पु. भीड, समुह, झंड, युद्ध, जनता, संज्ञा, पु०-संकल्पन । वि०-संकल्पित, एक दूसरे के विरोधी वाक्य (व्या०) । संकल्पनीय । वि०-संकल्प-विकल्प। संकुलित-वि० (सं० परिपूर्ण, घना, भरा सकाना, सकाना* -- अ. क्रि० दे. हुश्रा, संकीर्ण । “हरित भूमि तृण (सं० शंक ) डरना, भय खाना। "क्षत्रिय संकुलित, समुझि परै नहिं पंथ"-रामा० । तनु धरि समर सँकाना''-- राम । संकेत - संज्ञा, पु० (सं०) अपना भाव प्रकट सँकार-संज्ञा, श्री० दे० ( सं० संकेत ) करने की शारीरिक चेष्टा, इगित, इशारा, इशारा, इंगित, संकेत, संकार । प्रेमिका के मिलाप का निश्चित स्थान, सहेट, सँकारना-स० क्रि० दे० (हि. संकार) चिह्न, पते की बातें, निशान । वि.-- संकेत या इशारा करना, दाम चुकता करना, सांकेतिक । सकारना (दे०), जैसे- हुन्डी सँकारना। संकेत-वि० (दे०) संकीर्ण, सँकरा, संकुचित, संकाश-प्रव्य० (सं०) सदृश, समान, तंग । तुल्य, समीप, पास, निकट । संज्ञा, पु० (दे०) संकेतना-स० कि० दे० (सं० संकीर्ण । प्रकाश, प्रभा, दीप्ति, कांति | " तुषाराद्रि कष्ट, संकट या विपत्ति में डालना । संकाश-गौरं गभीरं-- रामा०। संकोच-सज्ञा, पु. (सं०) सिकुड़ने का संकीर्ण-वि. (सं०) सँकरा, संकुचित, कार्य, तनाव, खिचाव, पा, लज्जा, बीडा, तंग, मिश्रित, मिला-जुला, छोटा, तुद्र, धागा-पीछा, डर, भय, हिचकिचाहट तुन्छ। संज्ञा, पु० (सं०) जो राग दो रागों के । न्यूनता, कमी एक अलकार जहाँ विकासा. मेल से बने, संकट, पापत्ति । संज्ञा, पु. लंकार के विरुद्ध अति संकोच कहा जाता (सं०) वृत्तगंधि और अवृत्तगंधि के मेल से । है, सकोच, संकोच (दे०) । " छाँड़ि न बना एक गद्य-भेद (सा.)। सकहिं तुम्हार संकोचू".-- रामा० । “जल्लसंकीर्णता-संज्ञा, स्त्री. (सं०) तंगी, क्षुद्रता, | संकोच विकल भये मीना' -रामा० । छोटापन, सांकोच्य। | संकोचन-सक्षा, पु. ( सं० ) संकोच, सिकु. संकीर्तन-संज्ञा, पु. (स.) किसी की कीर्ति बना। वि०--संकोचनीय । For Private and Personal Use Only Page #1676 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir संगत सँकोचना सँकोचना- स० कि० दे० ( सं० संकोच ) संखनारी---संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० शंखनारी) संकुचित करना, संकोच करना।। | सोमराजी, दो यगण का एक वर्णिक छंद संकोचित-संज्ञा, पु. (सं०) खड्ग चलाने की एक रीति । संखिया--संज्ञा, पु. दे० (सं० ,गिका ) संकोचो-- संज्ञा, पु. ( सं० संकोचिन् ) एक विख्यात विष या ज़हर, जो वास्तव संकोच करने वाला, लज्जित होने वाला, में सफ़ेद उपधातु या पत्थर है, इसकी भस्म शर्माने वाला, सिकुड़ने वाला जो औषधि के काम में आती है। सँकोपना* --- अ. क्रि० दे० ( सं० सकोप ) संख्यक-वि० सं०) संख्या वाला। अधिक क्रोध करना, मकापना (दे०)।। संख्या - हांज्ञा, स्त्री. (सं०) एक, दो, तीन संक्रंदन-संज्ञा, पु० (सं०) इन्द्र, शक । संज्ञा, धादि गिनती शुमार, तादाद, अदद फ़ा०) पु. ( सं० क्रंदन ) रोना, रोदन । वह अंक जो किसी पदार्थ का परिमाण गिनती में प्रस्ट करे । गणि.): संक्रमण--संज्ञा, पु० (स.) चलना, गमन, सूर्य का एक राशि से दूसरी में जाना संग संज्ञा, पु. द. (सं०) साथ, मेल, सह वास, सोहबत, मिलन, सम्पर्क। वि० संज्ञा, (ज्यो०।। संक्रांति संज्ञा, स्त्री० (सं.) सूर्य का एक पु. ( हि० ) संगी-" कुशल संगी सब उनके "--नंद। मुहा०-(किसी के ) राशि से दूसरे में जाना या जाने का समय, सँकरांत (दे.)। संग लगना -साथ हो लेना, पीछे लगना, संक्रामक-वि० (म०) छूत या संसर्ग से या चलना. विषय-प्रेम या अनुराग, भासक्ति, फैलने वाला रोगादि )। वासना । क्रि० वि० -साथ, सहित : संज्ञा, संक्रोन*1- संज्ञा, सो० द० ( सं० संक्रांति ) पु० [फा०), पत्थर, जैसे -- संगमरमर । वि. संक्रांति, संक्रमण, गमन, चलना। --- पत्थर के समान कठोर, बहुत कड़ा। यौ०-संग दिल-कठोर हृदयी। संज्ञा, संक्षिप्त-वि० ( स० ) थोड़े में, अल्प में, स्त्री-संगदिली। खुलासा, जो संक्षेप में हो, सूचम । संग जराहत- संज्ञा, पु० यौ० ( फा० संग+ संक्षिप्तलिदि---संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) त्वरा जराहत --५०) एक चिकना, सफ़ेद पत्थर लेखन की एक रीति जिसमें थोड़े समय जो घाव को शीघ्र भर देता है। और स्थान में बड़ा प्रबंध लिखा जा सके, संगठन-संज्ञा, पु० दे० यौ० (सं० सं+ शाटेड (S०।। गठना----हि०) इधर-उधर बिखरी या फैली संत्तिान-सज्ञा, स्त्री० (सं०) नाटक में क्रोधादि हुई शक्तियों, वस्तुओं या लोगों को मिलाकर उग्रभावों की निवृत्ति वाली एक धारभटी ऐसा एक कर देना कि उसमें नई और वृत्ति ( नाटक )। अधिक शक्ति भाजाय, संघटन । वह संस्था संक्षेप-संज्ञा, पु. (स.) सूचम, कोई बात ! जा इस व्यवस्था से बनी हो। वि०-- थोड़े में कहना, कम करना, घटाना, मुख्न- सगंठनात्मक । सिर (फ़ा०) संछेप (दे०) “ यहि लागि संगठिन--वि० दे० (हि. सगठन ) जो तुलसीदास इनकी कथा संक्षेपहि कही" अच्छी व्यवस्था-द्वारा भली भाँति मिलाकर -~-रामा० । संज्ञा, स्त्री.----संक्षेपता। एक किया गया हो, सुव्यवस्थित संघटित । संक्षेपतः-- अव्य० (सं०) सूक्ष्मतया, संक्षेप संगत- संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० संगति ) साथ में, थोड़े में। रहना, संगति, सोहबत,साथ, संबंध, साथी, संख--संज्ञा, पु० दे० (सं० शंख ) शंख । सम्पर्क, संगं । " संगत ही गुन होत हैं भा० श० को०-२०६ For Private and Personal Use Only Page #1677 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir संगतरा संग्रह संगत ही गुन जाहि"--नीति । उदासी जिस से पथर हटाया जाता है, कुयें के और निर्मली साधुओं के रहने का मठ, संग तलने का छेद जिसमें लोहे का पंप लगाया रहने वाला। जाता है। संगतरा-संज्ञा, पु० (दे०) संतरा, बड़ी संगराम-संज्ञा, पु० दे० (सं० संग्राम ) नारंगी। संग्राम युद्ध, रण, समर, संगराम (दे०) । संगतराश-संज्ञा, पु० यौ० (फा०) पथरकट सँगाती, सँघाती--संज्ञा, पु. द० (हिं. (दे०), पत्थरकट, पत्थर काटने या गढ़ने संग या संघ + आती-प्रत्य०) संघी, संगी, वाला मजदूर संज्ञा, स्त्री० ---संगतराशी। साथी, मित्र, सखा । “सूरदास प्रभु ग्वाल संगति-संज्ञा, स्त्री० (सं०) मिलाप, सम्मेलन, सँगाती जानी जाति जनावत"-सूर०। साथ, संग, मेल-जोल, मैथुन, प्रसंग, संबंध, संगिनी--संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. संगी का संगत, ज्ञान । पूर्वापर या आद्यत की बातों स्त्री० ) साथिनी, सहेली, सखी। या वाक्यों का मिलान । मुहा० --संगति संगी-संज्ञा, पु० दे० (हि० संग -:-ई-प्रत्य०) बैठना (मिलना) मेल मिलना। "संगति बंधु, साथी, संग रहने वाला, सखा, मित्र, सुमति न पावही, परे कुमति के धंध ''-- दोस्त । यौ०-संगी-साथी । संज्ञा, स्त्री० नोति। (दे०) एक प्रकार का वस्त्र । वि० ( फा० संगतिया-संज्ञा, पु० (दे०) नाच गान में | संग-1 ई-प्रत्य. ) पत्थर का, संगीन । साथ बाजा बजाने वाला। संगदिन - वि० यौ० ( फा० ) कठोर-हृदय, संगती----संज्ञा, पु. (सं०) एक विद्या या कला जिसमें गाना. बजाना, नाचना आदि निर्दय, निष्ठुर, क्रूर, दया-हीन । " अजब संग दिल है करूँ क्या खुदा"--- स्फु० । कार्य मुख्य गिरे जाते हैं। वि० संगीतज्ञ । संज्ञा, स्त्री० -संगदिली। संगीत-शास्त्र, संगीत-विद्या--- संज्ञा, पु० संगम-संज्ञा, पु. (सं०) सम्मेलन, मिलाप, यौ० (सं०) गंधर्व-विद्या, वह शास्त्र जिसमें मेल, संयोग, दो नदियों के मिलने का संगीत विद्या का विवरण हो । स्थान, संग, साथ सहवास, सहयोग, प्रसंग। संगीन-संज्ञा, पु. ( फा० संग ) लोहे का मुहा०-संगम करना-सहवास या प्रसंग एक तिधारा नुकीला अस्त्र जो बंदूक के करना । "संगम करहिं तलाव-तलाई "। सिरे पर लगाया जाता है । वि. (फा० संगमर्मर--संज्ञा, पु. यौ० (फा० संग :- संग )--पत्थर का बना हुआ, मोटा, दृढ़, मर्मर प्र. ) एक बहुत नरम सफ़ेद चिकना टिकाऊ, विकट, कटिन । प्रसिद्ध कीमती पत्थर, स्फटिक, सग मरमर । संगृहीत-वि० (सं०) संकलित, एकत्रित, संग्रह किया हुआ। संगमूसा-संज्ञा, पु० यौ० (फा०) एक काला संगोतरा-संज्ञा, पु० (दे०) संतरा । नरम और चिकना प्रसिद्ध कीमती पत्थर। संगोपन-- संज्ञा, पु. ( स०) छिपाने का संगयशब-संज्ञा, पु. (फ्रा.) एक हरा कार्य । वि.--संगापनीय, संगोपित, कीमती पत्थर । होलदिली। । संगोप्य । संगर-संज्ञा, पु० (स.) युद्ध, नियम, प्रण, संग्रह-संज्ञा, पु. ( सं० ) संकलन, संचय, विष, विपत्ति, स्वीकार । "संगर यों संगर एकत्र या जमा करना, वह पुस्तक जिसमें किया, करि संगर शिवराज "---मन्ना। एक ही विषय या अनेक विषयों की पुस्तकों संगरा -संज्ञा, पु. (दे०) बाँस का डंडा की बातें चुन कर एकत्र की गयी हों। For Private and Personal Use Only Page #1678 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir dan संग्रहणी संचरण " संग्रह-त्याग न बिनु पहिचाने "- नाश या संहार करना, मिटा देना, मार रामा० । रक्षा, पाणि-ग्रहण, व्याह, ग्रहण | डालना। करने का कार्य । संघर्ष-संघर्षण-संज्ञा, पु० (सं० ) रगड़ संग्रहणी-संज्ञा, सी० (सं.) एक उदर रोग खाना, रगड़ जाना, विस जाना, प्रति. जिसमें पाचन-शक्ति के न रहने से बार- द्वन्द्विता, रगड़, प्रतियोगिता, स्पर्धा, घिसना बार दस्त होता है और सारा भोजन निकल रगड़ना, विस्सा। वि०-संवर्षित, संघर्ष जाता है। णीय, संघर्षक। संग्रहना - स० क्रि० दे० (सं० ग्रहण) संचय संघात-संज्ञा, पु० (सं०) समष्टि, वृंद, समूह, या संग्रह करना, जमा या इकट्ठा करना, चोट, प्राधात, बध, हत्या, नाटक में एक जोड़ना, चुनना, एकत्र करना। वि० - प्रकार की गति, शरीर, घर। संग्रहनीय । संघाती- संज्ञा, पु० दे० (सं० संघ ) साथी, संग्रही-संग्रहीता--संज्ञा, पु. (सं०) संग्रह मित्र, सखा, सहचर । “भूले मन कर ले करने वाला, संकलन करने वाला। — नाम संघाती"-स्फु० । संग्रहीत--वि० (सं०) एकत्र या इकठा संघार --- t-संज्ञा, पु० दे० (सं० संहार ) किया हुश्रा, संकलित, संचित । __ संहार, नाश, प्रलय । संग्राम- संज्ञा, पु० (सं०) रण, लड़ाई, युद्ध, संघारना--*स० कि० दे० (सं. संहार ) समर, सँगराम (दे०)। "करु परितोष मोर ! संहार करना, नाश या प्रलय करना, संग्रामा"-- रामा। मार डालना । "ताडुका सँघारी, तिय न संग्राह्य---वि० (सं०) संग्रह करने योग्य । विचारी"-राम । संघ-संज्ञा, पु० (स.) समुच्चय, समुदाय, संघाराम--संज्ञा, पु. ( सं० ) बौद्धमत के समूह, वृन्द, झंड, दल, समिति, समाज, भिक्षुओं या साधुनों के रहने का मठ, सभा, प्राचीन काल में भारत का एक प्रकार विहार। का प्रजातंत्र राज्य, बौद्ध श्रमणों का एक संच*-पंज्ञा, पु० दे० (सं० संचय ) रक्षा, धार्मिक समाज, साधुओं के रहने का मठ, संचय, संग्रह करना, देख-भाल करना । संगत (दे०) साथ, संग। संचकर* --संज्ञा, पु० दे० (सं० संचयकर ) संघट-संज्ञा, पु. (सं०) युद्ध, संग्राम, संचय करने वाला, कंजूस । राशि, समूह, टेर, झगड़ा, संयोग, संघट्ट संचना*-स० क्रि० दे० (सं० संचयन ) एकत्र करना, संचय या संग्रह करना, रक्षा संघटन--संज्ञा, पु० सं०) संयोग, सम्मेलन, करना । मेल-मिलाप, नायक नायिका का संयोग, संचय-ज्ञा, पु. (सं०) समुदाय, समूह, बनावट, रचना, संगठन, सम्बन्ध, सम्पर्क। झंड, ढेर संग्रह या एकत्र करना, जमा वि.--संघटनीय, संघटित । __करना या जोड़ना। संघट्ट-संघट्टन-संज्ञा, पु. ( सं० ) रचना, | संचयन--संज्ञा, पु. (सं०) भली भाँति बनावट, सयोग, सम्मिलन, मेल-मिलाप, चुनना, संचय करना । वि०-संचयनोय। संघटन, मिलन । वि०-संघट्टनीय।। संचरण--संज्ञा, पु० (सं०) चलना, गमन संघती-संघाती-संज्ञा, पु० (दे०) संगी, करना, टहलना, घूमना, भ्रमण करना, साथी, मित्र, सखा, सहचर ।। फिरना, संचार करना। वि०-संचरित, संघरना--स. क्रि० दे० (सं० संहार ) संचरणीय । For Private and Personal Use Only Page #1679 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मैंजोइल - - संचरना संचरना*-अ० कि० दे० सं० संचरण) मगजी, गोट । संज्ञा, पु० एक प्रकार का चलना, फिरना, घूमना. भ्रमण करना, फैलना, घोड़ा जिपकी श्राधी देह लाल रंग की प्रसारित या प्रचलित होना, प्रयोग होना। और आधी हरे या सफेद रंग की हो। संचार-संज्ञा, पु. (सं०) चलना, गमन संजाली-संज्ञा, पु. (फा०) प्राधा लाल करना, प्रवेश, फैलना, प्रचार करना, प्रयोग, और प्राधा हरा घोड़ा। वि० संजाफ या जाना । संज्ञा, पु० - संचारण, संचारक। गोट वाला। वि०-संचारनीय, संचारित। संजाब - संज्ञा, पु० दे० ( फा० संजाफ़ ) संचारना -स. क्रि० दे० (सं० संचारण) ! सजाफ़ या चौड़ी गीट, गोट किनारी । किसी वस्तु का संचार या प्रचार करना. संजीदा-वि० ( फा०) शान्त, गम्भीर, फैलाना, जन्म देना, सँचारना (दे०)। समझदार,बुद्धिमान । संज्ञा,स्त्री० संजीदगी। संचारिका संज्ञा, स्त्री. (०) कुटनी, मंजीवन --- संज्ञा, पु० (सं०) जीवन देने दूती। वाला, भले प्रकार जीवन बिताना । संचारी-संज्ञा, पु. ( सं० संचारिन् ) वायु, संजीवनी - वि० स्त्रो० (सं०) शक्ति-स्फूर्तिपवन, हवा, साहित्य में वे भाव जो मुख्य कारिणी, जीवन देने वाली । संज्ञा, स्त्री. भाव के पोषक हों, व्याभिचारी भाव । वि. मृत संजीवनी, एक रसायनिक औषधिसंचरण करने वाला, प्रवेश करने वाला, विशेष, जो मरे को भी जिला देती है, गतिशील। ( कल्पित ) एक विशिष्ट औषधि (वैद्य.) । संचालक-संज्ञा, पु० (सं०) चलाने, फिराने संजीवनी-विद्या--संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) या गति देने वाला. परिचालक, किसी एक कल्पित विद्या जिसमें मृतक के जिलाने व्यापार का करने वाला, कार्यकर्ता, प्रबंधक। की रीति कही गयी। संचालन-संज्ञा, पु० (सं० परिचालन, संजुक्त-वि० दे० (सं० संयुक्त) सम्मिलित, चलाना, चलाने की क्रिया, कार्य जारी जुड़ा या मिला हुश्रा, नियुक्त, साथ, उचित । रखना, गति देना । वि.संचालनीय, संजुक्ता -- संज्ञा, स्त्री. (दे०) कन्नौज-नरेश संचालित। __ जयचंद की कन्या तथा पृथ्वीराज की प्रिया संचित-- वि० (सं०) संचय किया या जोड़ा ( इति०), संयुक्ता । वि० सी०-संयुक्त । हुआ, जमा किया हुश्रा, एकत्रित । संज्ञा, संजुग*---संज्ञा, पु. १० (सं० संयुत, संयुग) पु. (सं०) तीन प्रकार के कर्मों में से एक युद्ध, रण, समर । (मीमांसा)। | संजुत* --- वि० दे० (सं० संयुत) सम्मिलित, संजम* -- संज्ञा, पु० दे० (सं० संयम ) साथ सहित।। संयम परहेज, बुराइयों से बचना। संजुता-संज्ञा, स्त्री० ३० (सं० संयुत ) स, संजमी-वि० दे० (सं० संयमी ) संयमी ज, ज (गणों) तथा एक गुरु वर्ण वाला एक संजय-संज्ञा, पु. (सं०) राजा पृतराष्ट्र के छंद ( पिं०)। मंत्री जो महाभारत के युद्ध के समय उसका | सँजोइ* --- क्रि० वि० दे० (सं० संयोग) समाचार सुनाते थे। "किं कुर्वन्ति संजय" साथ में | पू० क्रि० सँजोय, सजा कर । -गी। संजोइल*---वि० दे० ( सं० सज्जित, हि.. संजात-वि० (सं०) प्राप्त, उत्पन्न। सँजोना ) भलीभाँति सजाया हुआ। संजाफ-संज्ञा, स्रो० (फा०) किनारा, झालर सुसज्जित, संचित, एकत्रित, जमा या इकट्ठा रज़ाई श्रादि की चौड़ी और पाड़ी गोट, किया हुआ। For Private and Personal Use Only Page #1680 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org सँजाऊ 66 सँजोऊ – संज्ञा, पु० दे० ( हि० सँजोना ) सामग्री सामान, उपक्रम, तैयारी । 'वेगि मिलन कर करहु सँजोऊ'-- रामा० । संजोग संज्ञा, पु० दे० (सं० संयाग ) मेल, मिश्रण मिलावट, समागम, सहवास, स्त्री-पुरुष का प्रसंग, मिलाप, विवाहसंबंध, उपयुक्त अवसर जो विधिवस श्रम बनै सँजोगू" - रामा० । योग, जोड़, मीज्ञान इत्तफ़ाक़ (फा० ) मौक़ा : सँजोगी -- संज्ञा, ५० दे० (सं० संग्रागी ) मेलमिलाप से रहने वाला, स्वप्रिया के साथ रहने वाला । त्रो० संजोगिनी । विलो०- विजोगी | २६६६ सँजोना - संजीवनाएं --- स० क्रि० दे० (सं० सजा ) सजाना, तैयार करना, एकत्रित करना, रक्षित रखना सँजोवली - वि० दे० ( हि० सँजोना ) सावधान सुसज्जित सैन्य-सभेत । संतप्त हि० बाती) संध्या समय जलाने का दीपक, सँवाती, संध्या का गीत | संभोखा संज्ञा, पु० दे० (सं० संध्या ) संध्या का समय, सखा, सलोखा । संखे * श्रध्य० दे० (सं० संध्या) संध्या काल में, संकलौखे ( ग्रा० ) । खंड-संज्ञा, पु० दे० (सं० शंड ) साँड़ । संडमुसंड - - वि० यौ० ( हि०) मोटा-ताज़ा, हट्टा-कट्टा, हृष्ट-पुष्ट, बहुत मोटा, धमधूसर (ग्रा० ), संडामुसंडा । सँडसा -संज्ञा, पु० दे० उरण या गर्म पदार्थों के लोहे का एक ( लोहारों या हथियार जंबूरा, गहुआ स्त्री० अल्पा - सँडसी । संडा - वि० दे० (सं० शंड ) मोटा ताजा, हृष्ट-पुष्ट । संज्ञा, पु० (दे०) पंडामर्क, istent | 1 संज्ञक --- वि० (सं०) नाम या संज्ञा वाला, नामी, जिसकी संज्ञा हो ( यौगिक में ) । संज्ञा - संज्ञा, स्रो० (सं०) चेतना, बुद्धि, होश, ज्ञान, श्राखा नाम वह सार्थक ! विकारी शब्द जिससे किसी कल्पित या वास्तविक वस्तु के नाम का बोध हो ( व्या० ), विश्वकर्मा की कन्या और सूर्य की पत्नी संज्ञा-हीन, संज्ञा-रहित - वि० (सं०) बेसुध, बेहोश, मूति, संज्ञा-विहीन यौ० संज्ञासुन्य । मँना - वि० दे० सं० संध्या ) संध्या या साँझ का । वि० (०) संझौता । सँवाती-संज्ञा, खो० दे० (सं० संध्या + वती - हि० ) शाम के समय जलाया जाने वाला दीपक, संध्या-दीप, संध्या समय गाने का गीत, संझावाती (दे०) । संका - संज्ञा, त्रो० दे० (सं० संध्या ) शाम, संध्या, साँझ । यौ० - संभा-रा (दे० ) - संध्या-बेला । संझावाती - संज्ञा, पु० दे० (सं० संध्या + I Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private and Personal Use Only संडास - संज्ञा, पु० (सं०) बहुत गहरा एक प्रकार का पाखाना, शौच - कूप, मलगर्त । संत-संज्ञा, ६० दे० (सं० सत्) साधु, सज्जन, त्यागी, सन्यासी, महात्मा, धार्मिक व्यक्ति, परमेश्वर भन्छ । २१ मात्रात्रों का एक मात्रिक छंद (पिं० ) । संत हंस गुनपय गहहिं ' - रामा० । संतता, संवाई (दे० ) । संतत अध्य (स० ) सदैव, हमेशा. सदा, निरंतर, लगातार, बराबर । संतत रहि सुगंधि सिचाये ----रामा० । संज्ञा, खो० "6 संतति- संज्ञा, स्रो० ( सं० ) संतान, प्रजा, श्रलाद, वंश, बाल-बच्चे, फैलाव, रिथाया । संपन -संज्ञा, पु० (सं०) बहुत तपना, श्रति संताप या दुख देना । संतपना - संज्ञा, पु० ( हि०) संत का भाव, संतता । ० क्रि० (दे०) श्रति तपना, संताप देना । संतप्त - वि० (सं०) अति तपा हुआ बहुत गर्म, जला हुआ, पीड़ित, दुग्ध, दुखो, (सं० संदेश ) पकड़ने के हेतु सेानारों का ) ( प्रान्ती० ) । 35 Page #1681 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir संतरक मंदिग्धत्व संतापित । "ह संतप्त देखि हिमकर को नेक! तोष, सब, शान्ति, तृप्ति, इतमीनान, चैन ना पावे"-मन्ना। प्रपन्नता, यानंद, सुख । “मन संतोख संतरक-वि० (सं०) भली भाँति तैरने वाला। सुनत कपि-वानी "--रामा० । संतरण --संज्ञा, पु० (सं०) भली भाँति संतोय ... संज्ञा, पु० (सं०) तोष, संतुष्टि, तरना या पार होना, तारने वाला । वि०- तृप्ति, सब दशा और काल में प्रसन्नता, संतरणीय, संतरित। शान्ति, अानन्द. सुख, इतमीनान । " नहि संतरा-संज्ञा, पु. दे० (पुत संगतरा) संतोष तो पुनि कछु कहऊ'"-रामा० । एक बड़ी और मीठी नारंगी, एक बड़ा संतोषना*-स० क्रि० दे० (सं० संतोष ) मीठा नींबू । संतोष दिलाना या देना, संतुष्ट या प्रसन्न संतरी-संज्ञा, पु० दे० (अ० पेटीनल, संटरी) करना । अ० कि० (दे०) प्रसन्न होना, संतुष्ट पहरेदार, पहरा देने वाला, द्वार पाल । होना, सनोखना (दे०)। संतान - संज्ञा, पु० (सं०) संतति, धौलाद, सतोषि----वि० (सं०) संतोष-युक्त, प्रसन्न बाल बच्चे, कल्पवृक्ष । " संतान कामाय या संतुष्ट किया हुआ, तुष्ट किया हुआ । तथोति कामं"- रघु०। संतोयी--संज्ञा, पु. ( सं० संतोषिन् ) सदा संताए-संज्ञा, पु० (सं०) दाह, जलन, सन्तोष या सब करने या रखने वाला। वेदना, आँच, कष्ट, दुःख, मानसिक कष्ट, लो० -.." संतोषी परम सुखी'...स्फु० । ताप । “हिमकर कर भी हैं शोक-संताप संथा -- संज्ञा, पु० (सं० संहिता ) सबक, पाठ कारी' सास। एक बार का पढ़ा हुश्रा । " शनैः संथा संतापक-वि० (सं०) जलाने या संताप शनैः पंथा, शनैः पर्वतलंघनम्'। देने वाला, दाहक । संदा----संज्ञा, पु० (दे०) दबाव, दरार, संधि संतापन-- संज्ञा, पु० (सं०) जलाना, संताप सदि, सँधि (ग्रा.)। देना, अति कष्ट या दुख देना, काम के ५ वाणों में से एक । वि०.-संतापनीय । संदर्भ-संज्ञा, पु. (सं०) बनावट, रचना, संतापित, संतप्त, खंतापत्र " प्रबंध, लेख, निबंध, कोई छोटा ग्रंथ, अध्याय । संतापना*-स० कि० दे० ( सं० संताप) संदल --- संज्ञा, पु. (फ़ा०) चंदन, श्रीखंड, जलाना. संताप या दुःख देना. कष्ट या " बार सदल से श्रर क पाया जवीने यारपर" पीड़ा पहँचाना। संतापित-वि० (सं०) दग्ध तप्त, जलाया संदली ... वि० (फा० ) चंदन का, चंदन हुआ, तपाया हुआ, दुखी. संतप्त, दग्ध ।। सम्बन्धी, चन्दन के रंग का, हलका पीला, संतापी-संज्ञा, पु. ( सं० संतापिन ) ताप चंदन से बसा : संज्ञा, पु०--एक हलका पीला या संताप देने वाला, दुखदायी। रंग, एक हाथी, घोड़े की एक जाति । संतारक --- वि० (सं०) तारने वाला है। संदि--संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० संधि) संधि, मेलसंती-अव्य० दे० ( सं० सति ) बदले में, मिलाप, जोड़. संयोग, दरार, बीच, सँदि, स्थान में, द्वारा से । संज्ञा, पु. (ग्रा.) पोते संधि (दे०)। का पुत्र। संदिग्ध वि० (०) संशय, संदेह-पूर्ण, संतुष्ट-- वि० (सं०) जो मान गया हो, तृप्त, __ संशयात्मक, भ्रमयुक्त, जिसमें या जिस पर प्रसन, तोष-युक्त, जिसको संतोष हो गया संदेह हो । संज्ञा, खो०---संदिग्धता। हो । संज्ञा, स्त्री०.-संतुष्टता, संतुष्टि। संदिग्धत्व--संज्ञा, पु. (सं०) संदिग्ध का संतोख-संज्ञा, पु० दे० (सं० संतोष) संतुष्टि धर्म या भाव, संदिग्धता । भ्रमात्मिकता, For Private and Personal Use Only Page #1682 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir संदीपन संध्या -men एक अलंकारिक दोष, (काव्य०) किसी बात संदोह ज्ञा, पु० (सं०) वृद, समूह, राशि, का ठीक ठीक अर्थ प्रकट न होना। झंड। " कृपा-सिंधु-संदोह"-रामा० । संदीपन-संज्ञा, पु० (सं०) उद्दीपन, उद्दी संघ---संज्ञा, स्त्री० दे० ( सं० संधि ) मेल, या उत्तेजित करने का कार्य, कामदेव के | संयोग, मिलाप, संधि, सुलह, मित्रता, पांच वाणों में से एक, श्रीकृष्ण जी के गुरु । प्रतिज्ञा । “सत्य-संध प्रभु बध करि एही" वि० ---संदीपक, संदीपनीय, संदीपित, ---रामा०। संदीय वि०-उत्तेजन या उद्दीपन करने वाला संधना-अ० कि० दे० (सं० संधि) मिलना, संदीप्त-वि० सं०) अति दीप्तमान, सयुक्त होना । प्रकाशमान, उद्दीप्त, उत्तेजित : संधान --- संज्ञा, पु. (सं०) लक्ष्य या निशाना संदक-सज्ञा, पु० अ०) लोहे या लकड़ी लगाना, योजन, वाणादि फेंकना, मिलाना, श्रादि से बना बन्द पिटारा, पेटी, बक्स ___ खोज, अन्वेषण, काँजी. संधि, काठियावाड़ (अ०)। अल्पा.-संदनाचा । स्त्री०-सदकत्रो का नाम । " तब प्रभु कठिन वान संधाना" -रामा० । संदूकड़ा-सज्ञा, स्त्री. द. ( अ. संदूक ) । संधानना-- स० क्रि० दे० (सं० सधान ) छोटा बक्स, या संदूक, छोटी पेटी। निशाना लगाना, वाण फेंकना । " संधाने संदर-सज्ञा, पु० द० (सं० सिदूर ) सिन्दूर, तब विशिख कराला"-रामा० । संदुर। संधाना--संज्ञा, पु० दे० (सं० संधानिका ) संदेश- संज्ञा, पु. (स.) हाल, समाचार, अचार, एक खटाई, संधान (प्रान्ती॰) । ख़बर, एक बँगला मिठाई, मदम. सदसा, संधि-संज्ञा, स्त्री. (सं०) संयोग, मेल, सनेस (दे०)। यो०-संदेश वाहक जोड़, मिलने का स्थान, नरेशां की वह सदेश ले जाने वाला, संदसिया (द०)। । प्रतिज्ञा जिसके अनुसार लड़ाई बंद हो संदेस-सज्ञा, पु. द. (सं० संदेश ) जाती और मित्रता तथा व्यापार संबंध समाचार, हाल, संदेश, सँदेसा । “प्रभु स्थापित होता है, मित्रता, सुलह, मैत्री, संदेस सुनत वैदेही''--रामा । गाँठ, देह का कोई जोड़, समीपागत दो संदेमा--संज्ञा, पु. ६० (सं० संदेश ) । वर्णो के मेल से होने वाला विकार मुखागर, जवानी कहाई हुई खबर या बात, (व्याक०) चोरी आदि के लिये दीवार में हाल, समाचार । “स्थाम को सँदेमो एक किया हुआ भारी छेद, संध (दे०), एक पातो लिखि पाई है" -- सूर० । लोक अवस्था का अंत और दूसरो के श्रादि के महा.---सँदेसन खेती (करना)। । जैसे ----वयः संधि, अवकाश, मध्य का संदेमी----संज्ञा, पु. ० ( सं० संदेशिन् ) समय, मध्यवर्ती रिक्त स्थान, मुख्य प्रयोजन संदेश ले जाने वाला, दत, बमीठ । "उधो के साधक कथांशों का किसी मध्यवर्ती जी सँदेवी बनितान नोधि बोधैं हैं"- स्फुट। प्रयोजन के साथ होने वाला सम्बन्ध संदेह-- संज्ञा, पु० (सं.) संदह (दे०), (नाटक)। संशय, भ्रम, शंका, शक, शुबहा, किसी संध्या-संज्ञा, नो० (सं०) दिन और रात विषय या बात पर निश्चय न होने वाला के मिलने का समय, संधि-समय, प्रभात, विश्वास, एक अर्थालंकार जहाँ किसी वस्तु शाम, सायंकाल, सझा, दिन-रुपा का संयोगको देखकर उपमें अन्य वस्तु का सदेह बना। काल । "दिनक्षपामध्यगतेव संध्या"--रघु० । रहे (श्र० पी०) ।" अम्म संदेह करहु जनि एक प्रकार की ध्यानोपासना जो तीनों भोरे" - रामा० । वि० (हि.) संदही। संध्याओं यानी, प्रातः, मध्याह्न और संध्या For Private and Personal Use Only Page #1683 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सँनेस संपुट समय की जाती है (आर्य०) । " संध्या संग, मिश्रण, वास्ता. संसर्ग, सम्बन्ध, करन गये दोऊ भाई"-- राना लगाव, सटना. स्पर्श । सँनेस --- संज्ञा, पु० दे० (सं० देश संदेश। संपा --- संज्ञा, स्त्री० (सं०) बिजली. विद्युत् । "अपर सनेस की न बातें कहि जाति हैं' संपात ---- संज्ञा, पु. (सं०) संगम, संसर्ग, ---ऊ. श. । मेल, सम्पर्क, समागम, एक साथ गिरना संन्यास--संज्ञा, पु. (सं०) चार श्राश्रमों में या पड़ना, जहाँ दो रेखायें एक दूसरी को से अंतिम पाश्रम जिसमें काम्य और कार्ट या मिल (रेखा०)। नित्यादि कम निष्काम रूप ले किये जाते हैं। संपाति-- संज्ञा, पु. (सं०) गरुड़ का ज्येष्ट ( भार० भार्य० )। " जैसे विनु विराग पुत्र तथा जटायु का बड़ा भाई एक गीध, संन्यासी''--रामा० । संपाती (दे०), माली नामक राक्षस का संन्यासी---संज्ञा, पु. (सं० सन्यासिन ) । एक पुत्र । 'सुनि संपाति बधु कै करनी" सन्यासाश्रम में रहने और तदनुकूल नियमों ---- रामा । का पालन करने वाला । " मूंड़ मुंडाय संपाती-संज्ञा, पु. दे० सं० संपाति ) होहिं सन्यासी' - रामा०। गरुड़ पुत्र जटायु का बड़ा भाई एक गीध । संपति संज्ञा, स्त्री० दे० सं० संपत्ति ) | "गिरि कंदरा सुना संपातो'-- रामा० । धन, लचमी, दौलत, जायदाद, वैभव, संपादक--संज्ञा, पु० (सं.) किसो कार्य ऐश्वर्य । " उपकारी की संपति जैसी" का तैयार या पूरा करने वाला, सम्पन्न करने -राम । वाला, प्रस्तुत करने वाला, किसी पुस्तक संपत्ति-संज्ञा, स्त्री० [सं०) धन, लक्ष्मी, या समाचार-पत्र को कम से लगा या ठीक दौलत, जायदाद, वैभव, ऐश्वर्य, सुख करके निकालने वाला । संज्ञा, खो० (हि०) समय । वि० --संपत्तिशाली, संपत्ति संपादकी-संपादक का कार्य । वान । “संपत्तिश्च विपत्तिश्च"-- स्फुट० । संपादकत्व-संज्ञा, पु० (सं०) संपादन करने विलो० ---विपत्ति, आपत्ति । को अवस्था, भाव या कार्य, संवादकता। संपद-संज्ञा, स्त्री. (सं०) धन, पूर्णता, संपादकीय---वि० सं०) सपादक का, लघमी, वैभव, ऐश्वर्य, सौभाग्य, गौरव, संपादक-सम्बन्धी। सिद्धि । “सर्वस्य द्वै सुमति कुमती संपादन ----संज्ञा, ५० स०) कार्य पूर्ण संपदापत्ति हेतु" । विलो०-विपट, भारद ।। करना, प्रदान करना, शुद्ध या सही करना, संपदा-संज्ञा, स्त्री. (सं० सपद् ) धन, ठोक या दुरुस्त करना, किसी पुस्तक या लघमी, दौलत, वैभव, ऐश्वर्या । " सोइ समाचार पत्र को क्रम पूर्वक पाठादि लगाकर संपदा विभीषण को प्रभु सकुच-सहित प्रकाशित करना या निकालना। वि.अति दीन्हीं"--विन । विलो.-आपदा, संपादनाय, सपाद्य, संपादित विपदा। संपादना स० क्रि० द० (सं० संपादन ) संपन्न-वि० (सं०) पूर्ण, भरा हुआ, सिद्ध, पूरा ठीक या दुरुस्त करना । 'विविधि पूर्ण किया हुश्रा, धनी. पहित, युक्त । अन्न सपति संपादहु"--- रा. रघु० । " सस-संपन्न सोह महि कैसी"-रामा || संपादित-वि० ( स०) पूर्ण, ठीक या दुरुस्त संज्ञा, स्त्रो०- संपनता। । किया हुया, ठीक क्रम पाठादि लगाकर संपण्य-संज्ञा, पु० (सं०) मृत्यु, मौत, युद्ध, ( पुस्तक, समाचार-पत्रादि ) को ठीक किया लड़ाई, संकट-समय, विपत्ति । और प्रकाशित किया हुआ । संपर्क-संज्ञा, पु० (सं०) मिलावट, मेल, । संपुट-- सज्ञा, पु० (१०) बरतन के आकार For Private and Personal Use Only Page #1684 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 9 Manome संपुटी १६७३ संबंधी की कोई वस्तु, दोना, ठीकरा, डिब्बा, खप्पर, संप्रति-अत्र्य० (सं०) इदानीम् , साम्प्रतम् कपाल, अंजली, संकुचन, फूलों का कोश, इस समया में, अभी, इस काल, भाजकल, पुष्प-दल का रिक्त स्थान, मिट्टी से सने कपड़े । अधुना। से लपेटा हुश्रा एक बंद गोल पात्र जिसके संप्रदान--संज्ञा, पु. (सं०) दान देने की भीतर रखकर कोई वस्तु भाग में फूंकी क्रिया का भाव, मंत्रोपदेश, दीक्षा, एक जाती है (वैद्य० रसा०) "घोष सरोज भये कारक (चतुर्थी) जो दान-पात्र के अर्थ में हैं संपुट दिन-मणि है बिगसायाँ-भ्रः ।। पाता है और जिसमें संज्ञा-शब्द देना क्रिया घधरू । नाचै तदपि धरीक लौं संपुट पगनि का लक्ष्य होता है (व्या०)। " जाके हेतु बजाय '-छत्र। क्रिया वह होई, संप्रदान तुम जानो साई " संपुटी-संज्ञा, स्त्री० (सं०) प्याली, छोटी -~-कु० वि०। कटोरी, संपती, संपटी (ग्रा०)। | संप्रदाय-संज्ञा, पु. (सं०) कोई विशेष धर्म संपूर्ण- वि० (सं०) सब का सब, पूर्ण, संबंधी मत, किसी मत के अनुयायियों की सारा, तमाम, कुल, समस्त, सब, बिलकुल, मंडली जो एक ही धर्म के मानने वाले समाप्त, पूरा, सर्वस्व, समपूरन (दे०)। हों, परिपाटी, चाल, रीति, पंथ, प्रणाली। संज्ञा, पु०-वह राग जिसमें सातों स्वर वि०-सांप्रदायिक। पाते हों, आकाशभूत । “भा संपूर्ण कहा सांप्रदायिक-वि० (सं०) किसी सम्प्रदाय सखि तोरा"-वासु०।। सम्बन्धो, संप्रदाय का, धार्मिक । संज्ञा, स्त्री० संपूर्णतः- क्रि० वि० (सं०) पूर्ण रूप से, संप्रादायिकता। पूरी तरह से। संप्राप्त---वि० (सं.) (संज्ञा, संप्राप्ति) पाया संपूर्णतया - कि० वि० (सं०) पूर्ण रूप से, हुश्रा, उपस्थित, जो हुआ हो, घटित, पूरी तरह से। मिलना, पाना, लब्ध । संपूर्णता -- संज्ञा, स्त्री० (सं०) पूर्णता, संपूर्ण संप्राप्य --वि० (सं०) प्राप्त करने के योग्य । होने का भाव या कार्य, पूरा पूरा, पूरापन, संबंध-संक्षा, पु. (सं.) संसर्ग, लगाव, समाप्ति । ताल्लुक, संगम, संपर्क, नाता, वास्ता, संपृक्त - वि० (सं०) मिला हुश्रा, मिश्रित । रिश्ता, (फ़ा०) संयोग, मेल, सगाई, व्याह, "वागर्थाविवसंपृक्तो'-रघु० ।। षष्ठी कारक जो एक शब्द का दूसरे से सपेरा-संज्ञा, पु० दे० ( हि० सॉप-+ एरा लगाव या सम्बन्ध प्रगट करता है इसमें प्रत्य० ) साँप नचाने या रखने वाला, | एक पद सम्बन्धी और दूसरा सम्बन्धवान मदारी, संपेला। संज्ञा, स्त्री० --सपेरिन । कहाता है। जैसे-~राम का मुख (व्याक०)। संपै-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० संपत्ति ) संपत्ति ।। | संबंधातिशयाक्ति--संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) " सपै देखि न हर्षिय, विपति देखि नहिं अतिशयोक्ति अलंकार का एक भेद नहाँ रोव"--कबी०। सम्बन्ध न (असंबंध) होने पर भी सम्बन्ध सँपोला-संज्ञा, पु० दे० ( हि० साँप ) छोटा प्रगट किया जाता है (अ० पी०)। साँप, साँप का बच्चा, संपेलवा (ग्रा.)। संबंधी-वि० (सं० संबंधिन्) लगाव या संप्रज्ञात-संज्ञा, पु० (सं०) वह समाधि सम्बन्ध रखने वाला, विषयक । संज्ञा, पु. जिसमें प्रात्मा को अपने रूप का बोध हो | नातेदार, रिश्तेदार, समधी । (सह.) या वह वहाँ तक न पहुँचा हो (योग०)। | संबंधवान । स्त्री-संबधिनी। भा० श. को०-२१० For Private and Personal Use Only Page #1685 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir संबत् १६७४ सँभारना, सँभालना संबत् --संज्ञा, पु० दे० (सं० संवत् ) संवत्, सँभरना, सँभलना - अ० क्रि० दे० (सं० साल, वर्ष, सन् । " संबत् सोरह सै | संभार ) सावधान या होशियार होना, इकतीसा"-रामा०। हानि या चोट से बचना, कार्य का भार संबद्ध-वि० (सं०) संयुक्त, बंधा या जुड़ा उठाया जाना, स्वस्थ या चंगा होना, पाराम हुआ, बंद, संबंधयुक्त । संज्ञा, स्त्री० - होना, भार या बोझ आदि का थामा जा सम्बद्धता। सकना, बिगड़ने से बचना, सुधरना, बनना, संबल-संज्ञा, पु० (सं०) मार्ग का भोजन, | किसी सहारे पर रुक सकना । प्रे० रूपरास्ते का खाना, सफर-खर्च, पाथेय । संभलाना । "राम-नाम संबल करौ, पलौ धर्म को संभव - संज्ञा, पु. (सं०) साध्य, जन्म, पंथ"- जिया। उत्पत्ति, संयोग, मेल होना, मुमकिन, संवुक-संज्ञा, पु० दे० ( सं० रांबुक ) घोंघा, हो सकना, होने के योग्य होना । विलो०सीपी। “मुक्ता स्रवहिं कि संबुक-ताली" असम्भव। -रामा०। संभवतः-प्रव्य० (सं०) हो सकता है, संबुद्ध-संज्ञा, पु० (सं.) ज्ञानी, ज्ञानवान, | ग़ालिबन (फ़ा०) मुमकिन है, संभव है। ज्ञान, जाना हुश्रा, जिन, बुद्ध । संज्ञा, स्त्री० संभवना*--स० कि० दे० (सं० संभव , संबुद्धि, संबुद्धता। उत्पन्न करना, पैदा करना । अ० कि० दे० - संबुल-संज्ञा, स्त्री० (फा०) एक प्रकार की उत्पन्न या पैदा होना, हो सकना, संभव घास। होना। संबोधन -- संज्ञा, पु० (सं०) जगाना, सोते से सँभार, सँभाल (दे०)----संज्ञा, पु. (सं० उठाना, निद्रा-मुक्त करना, पुकारना, सचेत संभार) एकत्रित या संचय करना, इकट्ठा या चैतन्य करना एक कारक (पाठवाँ) करना, साज-सामान, तैयारी, संपत्ति, धन, जिससे शब्द का किसी के बुलाने या पुकारने पालन-पोषण, संचय । "संभारः संभृयंताम्" का प्रयोग जाना जाता है इसके चिह्न हे, रे -वाल्मी। अरे, आदि हैं । जैसे-हे श्याम । विदित करना, सँभार, संभालां*--संज्ञा, पु० दे० (हि. जताना, श्राकाश-भाषित वाक्य (नाटक, सँभालना ) चौकसी, ख़बरदारी, देख-रेख, समझाना, बुझाना, चेताना । #स० क्रि० रक्षा, निगरानी, पालन पोषण, ठीक या दे० (सं०) समझाना, बुझाना, सचेत या उचित रीति-नीति या रूप से रखना । सजग करना, चेताना । वि. सम्बोधनीय, यौ०-सार-संभार -पालन-पोषण तथा संबोधित, संबोध्य । निरीक्षण का भार । "पुनि सँभार उठी सो संबोधना-स० क्रि० दे० (सं० संबोधन) लंका'-रामा० । रोक, निरोध, वश में तसल्ली देना, समझाना, सचेत करना, | रखने का भाव, तन-मन की सुधि । चेताना, जगाना । सँभारना, सँभालना--18-स० कि० दे० संबोधनीय-वि० (सं०) जताने या समझाने (सं० संभार ) याद करना, भार या बोझा योग्य, चेताने योग्य । ऊपर ले सकना, रोके रहना, नीचे न गिरने संबोधित-वि० (सं०) पुकारा हुआ, देना, थामना, वश में रखना, रक्षा करना, जगाया या चेताया हुश्रा। संकट या बुराइयों आदि से बचना-बचाना, संबोध्य-वि० (सं०) जगाने या चेताने दुर्दशा से बचाना, पालन-पोषण करना, के योग्य, समझाने-योग्य । उद्धार करना, निगरानी या देख-रेख करना, For Private and Personal Use Only Page #1686 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org सँभालू चौकसी करना, निर्वाह या गुज़र करना, निबाहना, चलाना, किसी बात या वस्तु के ठीक होने का विश्वास या भरोसा करना, सहेजना, किसी मनोवेग का रोकना, बिगड़ने न देना, सुधारना । स० रूप -- सँभराना, सँभलाना, प्रे० रूप -- सँभलवाना । सँभालू - संज्ञा, पु० (दे०) मेदकी, मेवड़ी ( शान्ती ० ) सफेद सिंधुवार वृक्ष । संभावना - संज्ञा, पु० (सं०) मुमकिन या १६७५ संभव होना, हो सकना, अनुमान, कल्पना, सम्मान, चादर, प्रतिष्ठा, एक अर्थालंकार जिसमें एक बात का होना दूसरी के होने पर निर्भर हो ( श्र० पी० ) । संभावित - वि० (सं०) मन में माना या अनुमाना हुआ, संभव, मुमकिन, आदरणीय, प्रतिष्ठित, कल्पित, संचित या जुटाया हुआ, सम्भवित (दे० ) । संभाव्य - वि० (सं० ) संभव, मुमकिन । संज्ञा, त्रो० - संभाव्यता । संभाषण- संज्ञा, पु० (सं०) वार्त्तालाप । बातचीत, कथोपकथन | वि०-संभाषणीय, संभाषित, संभाष्य । संभाषणीय - वि० (सं०) कथनीय, वार्तालाप, करने योग्य | संभाषी - वि० (सं० संभाषिन् ) वार्त्तालाप करने या बोलने वाला कहने वाला । स्त्री० संभाषिणी । संभाषित - वि० (सं०) कथित । संभाष्य - वि० (सं०) जिससे वार्त्तालाप करना योग्य या उचित हो, कथनीय, बातचीत करने योग्य | संभूत - वि० (सं० ) एक साथ उत्पन्न या उद्भूत, जन्मा हुआ पैदा, प्रगट, सहित, युक्त, साथ | संज्ञा, स्त्री० - संभूति । संभूय - अव्य० (सं०) साझे में, शामिल, या साथ में I संभूयसमुत्थान- संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) ला का कार्य या काम, शामिल कारवार । संयत संभेद - संज्ञा, पु० (सं०) भली भाँति भिदना, भेद नीति, वियोग | संज्ञा, पु० (सं० ) संभेदन | वि० - संभेदनीय । संभोग -- संज्ञा, पु० (सं०) सुख-पूर्वक व्यवहार, स्त्री- प्रसंग, रति-केलि, मैथुन- कार्य्य, मिलाप की हालत, संयोग-शृंगार (शृंगार - रस-भेद ) । विलो०-- वियोग- विप्रलंभ | Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir संभ्रम - पंज्ञा, पु० (सं०) उत्कंठा, व्याकुलता, घवराहट, व्यग्रता, विकलता, सहम, सिटपिटाना, खलबली, गौरव, सम्मान, चादर । क्रि० वि० - उतावली । " लेखि पर- नारी मन सम्भ्रम भुलायो है " - कालि० । संभ्रांत - वि० (सं०) व्यग्र, उद्विग्न, विकल, घबराया हुआ, व्याकुल, सम्मानित समाहत, प्रतिष्ठित । संभ्रांति--संज्ञा, स्त्री० (सं०) भ्रांति, भ्रम, व्यग्रता, व्याकुलता । संभ्राजन * - प्र० क्रि० दे० (सं० संभ्राज ) भली भाँति या पूर्ण रूप से शोभित होना । संमत- वे० (सं० ) सहमत, अनुमत, जिसकी राय या मत मिलता हो । संमति - संज्ञा, त्रो० (सं०) राय, अनुमति, सलाह, “गुरु- श्रुति-संमति धर्म-फल, पाइय विनहिं कलेस " - रामा० । 66 संमान- संज्ञा, पु० (सं०) श्रादर, गौरव, इज्जत, सत्कार, सम्मान । करहु मातुपितु कर संमाना " स्फु० 1 वि०संमाननीय, संमानित । संमानन:- स० क्रि० दे० (सं० संमान ) श्रादर या सत्कार करना । संमेलन - संज्ञा, पु० (सं०) जमाव, जमघट, सभा, समाज, मिलाप, मेल, सम्मिलन | संम्राज संज्ञा, पु० दे० (सं० साम्राज्य ) साम्राज । संयत - वि० (सं०) दमन किया या दबाव में रखा हुआ, बँधा हुआ, बद्ध, क़ैदी, वशीभूत, कैद, बंद किया हुआ, व्यवस्थित क्रम-बद्ध, For Private and Personal Use Only Page #1687 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir संयम संलक्ष्य-क्रम व्यंग्य उचित सीमा के अंदर रोका हुधा. मन-सहित संयागी-संज्ञा, पु. ( सं० संयोगिन् ) संयोग इन्द्रियजित, निग्रही । “न संयतः तस्य या मेल करने वाला, जो व्यक्ति अपनी बभूव रक्षितः"-रघु०। | प्रिया के साथ हो, संजोगी, सँजोगी संयम--संज्ञा, पु० (सं०) रोक, परहेज़ (फा०) (दे०) । स्त्री० --संयोगिनि। निग्रह, दाब, इन्द्रिय निग्रह. चित्तवृत्ति का संयोजक-संज्ञा, पु. (सं०) जोड़ने या निरोध, बंधन, बंद करना. बुरी बातों या मिलाने वाला, दो या अधिक शब्दों या वस्तुओं से बचना, ध्यान, धारणा और वाक्यों का मिलाने वाला शब्द या अव्यय समाधि का साधन योग.)। वि०-संयमी, ( व्याक० )। संयमित, संयत। । संयोजित-वि० (६०) मिला या मिलाया संयमनी-संज्ञा, स्त्री० (स.) यम-लोक, हुआ या गया, संयुक्त । यम-पुरी, यम-नगरी। संयोजन-संज्ञा, पु. (सं०) जोड़ने और संयमी-वि० ( सं० संयभिन ) मनेन्द्रियों मिलाने की क्रिया। वि० संयोगी, संयोजको वश में रखने वाला, इन्द्रियजित, प्रारम नाय, संयोज्य, संयोजित । निग्रही, इन्द्रियनिग्रही, ओगी, रोक या सँयोना--सं० क्रि० दे० ( हि० संजोना ) दबाव रखने वाला, परहेज़गार । " तस्यां सँजोना, सजाना, रक्षित कर रखना। जागति संयमी"-- भ० गी। संयात-वि० (सं०) साथ साथ गया हुआ । संरंभ---संज्ञा, पु० (२०) क्रोध, कोप, मान सिक श्रावेग, प्राक्रोश । संयुक्त-वि० (सं०) सम्मिलित, जुड़ा. या संरक्षक-संज्ञा, पु. ( सं० ) रत्तक, रक्षा लगा हुआ, मिला हुआ, युक्त मिश्रित, करने वाला, देख-रेख और पालन-पोषण सहित, साथ, सम्बद्ध । संज्ञा, को०-संयुक्तता। करने वाला, श्राश्रय या अभय देने वाला। संयुक्ता-संज्ञा, स्त्री० (सं०) राजा पृथ्वीराज की रानी और जयचंद की पुत्री, एक छंद स्त्री-संरक्षिका ( पिं०)। संरक्षण-संज्ञा, पु. (सं० ) रक्षा करना, संयुग --- संज्ञा, पु. (सं०) मेल मिलाप, बचाना. हानि या बुराई श्रादि से बचाना, संयोग, युद्ध, संग्राम, लड़ाई निगरानी देख-रेख, अधिकार, स्वत्व । वि०संयुत-वि० (सं०) जुड़ा या मिला हुआ, . संरक्षणीय, संरती, संरक्षित, संरक्ष्य । सहित, संयुक्त, साथ । संज्ञा, पु. (सं०) संरक्षित-वि० (सं०) हिफाजत से रखा एक सगण, दो जगण और एक गुरु का एक हुश्रा, भली भाँति बचाया हुश्रा । छंद (पिं०)। | संरक्ष्य--वि० (सं०) रक्षा करने योग्य । संयोग-संज्ञा, पु. (सं०) मेल, मिलाप, सँरसी-संज्ञा, स्त्री० (दे०) मछली फँसाने मिलान, मिश्रण, मिलावट, लगाव, समागम, या गरम चीज़ों के पकड़ कर उठाने की संबंध, स्त्री प्रसंग, सहवास, विवाह-संबंध, कटिया, सडेंसी, सन्सी (ग्रा०)। योग, जोड़, मीज़ान, मौका, अवसर, संराधन-संज्ञा, पु. (सं०) सेवा करना। इत्तफाक, संजोग, सँजोग (दे०), दो या । चिन्तन करना, समाराधन । कई बातों का एकत्र होना । "जो विधि वश संराघ-संज्ञा, पु० (सं०) पक्षियों का शब्द । अस होइ सँयोगू"-रामा० । मुहा०-- ! संलक्ष्य-वि० (सं०) जो लखा या देखा संयोग से-दैववशात्, इत्तफ़ाक़ से, बिना जावे, लचय, उद्देश्य । पूर्व निश्चय के, बिना विचारे । संलक्ष्य-क्रम व्यंग्य-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) For Private and Personal Use Only Page #1688 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir संलग्न संविद ऐसी व्यंजना जिस वाच्यार्थ से व्यंग्यार्थ | संवर्द्धन-संज्ञा, पु० (सं०) बढ़ना, बढ़ाना. की प्राप्ति का क्रम सूचित हो ( काव्य० )। पालन पोषण, प्रवर्धन, विवर्धन । वि०संलग्न -- वि० (सं०) संवद्ध, लगा हुआ, संवहनीय, संवर्द्धित, संवृद्ध । सटा या मिला हुआ, लड़ाई में गुथा हुश्रा, | संवाद-ज्ञा, पु० (सं०) कथोपकथन, वातमिलित । संज्ञा, स्त्री० (सं०) संलग्नता। चीत, वार्तालाप, समाचार, हाल, चर्चा, संताप-संज्ञा, पु. (सं०) बातचीत, मामला, प्रसंग, मुकदमा । (कर्ता० संवादक) कथोपत्थन, वार्तालाप, धीरता-युक्त होने संवाददाता- संज्ञा, पु० यौ० (सं०) समाचार वाला संवाद ( नाटक० )। संज्ञा, पु०(सं.)। या हाल देने या भेजने वाला। संतापन, वि०-संलापक, सलापित, संवादी-वि० ( सं० संवादिन् ) संवाद या संलापनीय। वार्तालाप करने वाला, अनुकूल या सहमत संवत्--- पंज्ञा, पु. (सं०) साल, वर्ष, राजा होने वाला। स्त्री०-संवादिनी। संज्ञा, शालिवाहन के समय से मानी गई वर्ष पु० - वादी के साथ सब स्वरों के साथ गणना, शाका, सन्, सम्राट विक्रमादित्य के । मिलने और सहायक होने वाला स्वर समय से चली हुई वर्ष-गणना, संख्या (संगी०)। सूचित वर्ष विशेष । संवार--- संज्ञा, पु० (सं०) संगोपन, छिपाना, संवत्सर-संज्ञा, पु० (सं०) वर्ष, साल, ढाँकना, वर्णोच्चारण का एक बाह्य-प्रयत्न फ़सल । जिसमें काठ-संकुचन हो (व्याक० )। संवत्सरी--संज्ञा, स्त्री. (सं०) संवत् का सँवार--संज्ञा, स्त्री० (सं० स्मृति ) समाचार, व्यवहार। हाल. ख़बर । संज्ञा, स्त्रो० (दे०) -बनावट, संवर--संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० स्मृति ) स्मरण, सजावट, रचना, संवारने क्रिया का भाव । याद, ख़बर, हाल, समर । सँवारना-स. क्रि० दे० ( सं० संवर्णन ) संवरशा--- संज्ञा, पु० (सं०) पाच्छादित करना, अलंकृत या व्यवस्थित करना, सजाना, संगोपन, छिपाना छोपना, बंद करना, दूर ठीक या दुरुस्त करना, क्रम से रखना, रखना या करना, हटाना, किली मनोवृत्ति कार्य ठीक करना।" वे पंडित वे धीर-वीर को दबाना या रोकना, निग्रह, चुनना, जे प्रथम संवारत ---रा० वि० भू० । पसंद करना, विवाह के लिये कन्या का पति संघाहन--संज्ञा, पु० (सं०) उठा कर ले जाना, या बर चुनना । वि० संवरगाोय, संव्रत । ले चलना, ढोना, परिचालन, चलाना, पहुँसँवरना---प्र० वि० दे० (सं० संवर्णन ) चाना। 'जीवन-संवाहन तौधर्म ही बतायो सजना, दुरुस्त होना, सुधरना, बनना, जात”- मन्ना० । वि०-संवाहनीय, संवाअलंकृत होना। * स० कि० दे० (हि० हित, संवाहक, संवाही, संवाह्य । सुमिरना) सुमिरना, स्मरण या याद करना। संविधा वि० (सं०) व्यग्र, आतुर, उद्विग्न, " संवरौं प्रथम श्रादि करतारू"-पद०। घबराया हुआ, व्याकुल । संज्ञा, स्त्री० (सं०) "सब सँवरी बिधि बात बिगारी"-रामा० । संविग्नता। सँवरिया-- वि० दे० (हि० साँवला) साँवला, संविद--संज्ञा, स्त्री० (सं०) समझ, ज्ञानशक्ति, श्याम, सँवलिया, स लिया (दे०)। बुद्धि, बोध, संवेदन, चेतना, महत्तत्व, धनुसंवर्त्त-संज्ञा, पु० (सं०) क ऋषि विशेष । भूति, पूर्व निश्चित मिलन स्थान, संकेतसंवर्द्धक-संज्ञा, पु० (सं०) वृद्धि करने या मंदिर, नाम, युद्ध, लड़ाई, संपत्ति, हाल, बढ़ाने वाला। वृत्तांत, समाचार, संवाद, जायदाद । For Private and Personal Use Only Page #1689 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir संघिद १६७८ संसर्ग संविद-वि० (सं०) अनुभव, ज्ञान, बोध, (ऋणादि ) चुकता या अदा करना: वि. समझ, बुद्धि, चेतन, विचार, चेतना-युक्त । । (सं०) संशोधनीय, संशोधित, संशुद्ध, संविधान-संज्ञा, पु० (सं०) प्रबंध, रीति, संशोध्य। रचना, सुव्यवस्था । संशोधित-वि० ( सं०) स्वच्छ या शुद्ध संवेद-संज्ञा, पु. ( सं० ) अनुभव, ज्ञान, । किया हुश्रा, सुधारा हुआ, निर्दोष । संज्ञा, बोध, समझ, वेदना। पु. (सं०)-संशोधक। संवेदन-संज्ञा, पु. (सं०) अनुभव करना, संश्रय-संज्ञा, पु. (सं०) संबंध, संयोग, जताना, सुखदुःख आदि की प्रतीति करना, मेल, लगाव, शरण, आश्रय, सहारा, प्रगट करना वि०-संवेदनीय संवेदित, अवलंब, घर, गृह, मकान ।। संवेद्य । | संश्रया--संज्ञा, पु० (सं०) सहारा या पाश्रय लेना, अवलंब या शरण लेना। वि०संवेदना-संज्ञा, स्त्री. (सं०) सुख-दुःखादि । संश्रयणीय, संश्रयी, संश्रित । की प्रतीति या अनुभूति, समवेदना (दे०)। संशिल्य-वि० (सं०) श्रालिगित, परिर भित, संवेद्य-वि० (सं०) प्रतीति या अनुभव सम्मिलित, मिश्रित, मिला हृया, संयुक्त, करने योग्य, जताने या बताने के योग्य, । कारकादि-विभक्तियों की संज्ञा शब्दों से प्रकटनीय । मिली हुई अवस्था । संशय -- संज्ञा, पु. (सं०) आशंका, संदेह, संश्लेष-संज्ञा, पु. ( सं० ) श्रालिंगन, शंका, डर, भय, शक, संदेहालंकार, परिरंभण, मिलाप, मिलन. मिश्रण। ( काव्य० ) । "संशय साँप गरेउ माहिं संश्लेषण-संज्ञा, पु० (सं०) एक में मिलाना, ताता ---रामा० । भनिश्चयात्मक ज्ञान, | सटाना, टाँगना, अटकाना ! वि० --संश्लेषसंसय, संसै (दे०)। णीय, संश्लेषित, संश्लेषक, संश्लिष्ट। संशयात्मक-वि० यौ० (सं.) जिपसे संदेह संस-संसइ-संज्ञा, पु० दे० (सं० संशय ) या शक हो, संदिग्ध, संदेह-युक्त। संशय, आशंका, सन्देह, शक, संसे (ग्रा०)। संशयात्मा-संज्ञा, पु० यौ० सं० संशयात्मन् ) “संसह सोक मोह बप अहऊ"---रामा०। अविश्वासी, संदेही । “संशयात्मा विन- संसक्त-वि० (सं०) संयुक्त, संबद्ध, श्रासक्त, ध्यति"---भ० गी० । जो किसी बात पर लिप्त, सहित । विश्वास न करे। संसय-संज्ञा, पु० दे० (सं० संशय ) संशय, संशयी-वि० ( सं० संशयिन् ) संशय या सन्देह । " कछु संसय जिय फिरती बारा" संदेह करने वाला, शक्की। -रामा० । संशयोपमा-संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) उपमा- संसरग-वि० दे० (सं० संसर्ग) उपजाऊ, लंकार का एक भेद जहाँ उपमेय की कई उर्बर, संसर्ग, सम्बन्ध। . उपमानों के साथ समानता संदेह के रूप में संसरण---संज्ञा, पु० (सं०) चलना, गमन कड़ी जावे ( काव्य०)। करना, जगत, संसार, मार्ग, पथ, सड़क, संशोधक-संज्ञा, पु० (सं०) संशोधन करने राह । वि०-संसरणीय, संसरित, या सुधारने वाला, ठीक करने वाला, बुरी संस्कृत। दशा से अच्छी में लाने वाला। संसर्ग--- संज्ञा, पु. (सं०) सम्पर्क, लगाव, संशोधन--संज्ञा, पु० (सं०) साफ़ या शुद्ध संबंध, संग, साथ, मेल-मिलाप, स्त्री-पुरुष करना, सुधारना, दुरुस्त या ठीक करना, का सहवास या प्रसंग । For Private and Personal Use Only Page #1690 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १६७६ संसर्गदोष संस्कृत संसर्गदोष-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) सम्पर्क संसिक्त - वि० (सं०) भली-भाँति सींचा या सम्बन्ध से उत्पन्न बुराई या दोष, हुश्रा, भाई, गीला। संग-साथ से पैदा हुआ दुर्गुण । " होते हैं, | संसिद्ध---वि० सं०) सब प्रकार सिद्ध, प्रनासंसर्ग-दोष बहु श्राप विचारो"-- वासु०। णित, भली-भाँति किया हुआ, मुक्त-पुरुष, संसर्गी-वि० (सं० संसर्गिन् ) साथी, सम्पर्क | निपुण, चतुर, कुशल । या लगाव रखने वाला । स्त्री०-संसर्गिणी।। संमृति--संज्ञा, स्त्री. (सं०) जन्म-मरण की संसा-संज्ञा, पु० दे० ( सं० संशय ) संशय, परम्परा, पावागमन, संसार, सृष्टि । " संसृत न निवर्तते"- स्फु०।। संसार-संज्ञा, पु. (सं0) बराबर एक दशा संस- वि० सं०) मिलित, मिश्रित, सम्बद्ध से दूसरी में परिवर्तित होते रहना, रूपान्त. मिला हुआ, परस्पर लगा हुआ, अंतर्गत। रित होने वाला, जगत्, सृष्टि, दुनिया, संसृष्टि--संज्ञा, स्त्री० (सं०) एक ही साथ जहान, मृत्युलोक, इहलोक, गृहस्थी, जन्म उत्पत्ति या उद्भूति, आविर्भाव, मिश्रण, मरण की परम्परा, आवागमन । “पल्लवति, मिलावट, लगाव संबंध, मेल-जोल, घनिष्ठता, फूलति, फलति नित संसार-विटप नमामि संग्रह या संचय, एकता करना, दो या हे"-रामा । अधिक अलंकारों का ऐला मिश्रण कि सब संसार-चक्र--संज्ञा, पु० यौ० (सं.) जन्म तिल-तंदुलवत् अलग अलग जाने जावें मरण या श्रावागमन का चक्कर, भव-जाल, (अ० पी०)। समय का हेर-फेर, परिवर्तन का चक्कर। संस्करण-संज्ञा, पु० (सं०) शुद्ध या सही संसार-धर्म - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) लौकिक करना, सुधारना, ठीक या दुरुस्त करना, व्यवहार, परिवर्तन, रूपान्तर, लोक-रीति ।। द्विजातियों के स्मृति-विहित संस्कार करना, संसार-तिलक-- संज्ञा, पु. यौ० (सं०) एक । पुस्तकादि की एक बार की छपाई, श्रावृत्ति, प्रकार का बढ़िया चावल । (आधुनिक ) । वि. - संस्करणीय। संसार-विटप-- संज्ञा. पु. (सं.) संसार- संस्कर्ता-संज्ञा, पु. (सं०) संस्कार करने रूपी पेड़, पेड़ रूपी संसार । " संसार विटप वाला । वि०-संस्कृत । नमामि हे'--रामा०। संस्कार-संज्ञा, पु० (सं०) सुधार, शुद्ध या संसार-मूत्ति--- संज्ञा, पु० यौ० (सं०) विष्णु, | साफ करना, सोधना, दुरुस्त या ठीक करना, परमेश्वर, भगवान, संसार-स्वामी। सुधारना, सजाना, परिष्कार, मन पर शिक्षादि संसार-सागर--संज्ञा, पु० यौ० (सं.) सागर का पड़ा हुआ प्रभाव, भात्मा के साथ रहने रूपी संसार, संसार का समुद्र, भव-सागर, वाला पूर्व-जन्म के कर्मों का प्रभाव, धर्मासंसार-सिंधु, भवोदधि । नुपार शुद्ध करना, द्विजातियों के लिये संसारी- वि० (सं० संसारिन् ) लौकिक, जन्म से मरण तक के श्रावश्यक सोलह संसार-संबंधी, क्षणिक, परिवर्तनशील कृत्य, मृतक-क्रिया, मन में होने वाला वह (व्यंग्य), संसार के माया-जाल में फँसा, प्रभाव जो इन्द्रियों के विषय-ग्रहण से हो । धर्मशील, जन्म-मरण, श्रावागमन से बद्ध, संस्कार-हीन वि० यौ० (सं०) जिसका लोक-व्यवहार में निपुण । 'सेमर फूल सरिस | संस्कार न हुआ हो, व्रात्य, संस्कार-रहित । संसारी सुख समझो मन कीर"- स्फु० । । संस्कृत--वि० (सं०) संशोधित, शुद्ध या स्त्री० ---संसारिणी। | संस्कार किया हुआ, परिष्कृत, परिमार्जित, For Private and Personal Use Only Page #1691 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir संस्कृति १६८० सइंतना, सैतना शुद्ध या साफ किया हुआ, सुधारा या संहति-संज्ञा, स्त्री० सं०) मेल, मिलाव, दुरुस्त किया हुश्रा, सँवारा या सजाया हुआ, जुटाव, राशि, वृंद, झुड समूह, धनख, जिसका उपनयनादि संस्कार हुआ हो। संधि, जोड़, संयोग, ठोसपन । संज्ञा, स्त्री० भारतीय पार्यो की प्राचीन संहनन--संज्ञा, पु० (सं०) संहार, वध, मेल, शुद्ध साहित्यिक भाषा, देव-वाणी, संस- मालिश।। कीरत (दे०)। संहरण-(सं०) संहार, नाश, प्रलय, एकत्र संस्कृति--संज्ञा, स्त्री० (सं०) शुद्धि, सफाई, करना ! वि०-सहरमणीय। सुधार, संस्कार, सजावट, सभ्यता, परिष्कार, संहरना -- अ० कि० दे० (सं० संहार ) नाश २४ वर्गों के वर्णिक छंद (पि०)। या नष्ट होना, मिटि जाना, संहार होना। स० क्रि०-विनाश या संहार करना। संस्था-संज्ञा, स्त्री० (सं०) स्थिति, व्यवस्था, ठहरने या स्थिर होने की क्रिया या भाव, संहार-संज्ञा, पु० (सं०) अंत, समाप्ति, नाश, विधि, विधान, मर्यादा, वृंद, समूह, झुड, विनाश, प्रलय, एक नरक, एक भैरव, ध्वंस, परिहार, निवारण, समेट कर बाँधना, एकत्रित समाज, सभा, मंडली, मंडल, संगठित करना, समेटना, बटोरना, गूंधना, गूथना, समुदाय । ग्रंथन, ( केशादि ) विमुक्त बाण को वापस संस्थान--संज्ञा, पु. (सं०) स्थिति, सत्ता, लेना। निवास स्थान, स्थापन, बैठाना, जीवन, संहारक-संज्ञा, पु. (सं०) नाश करने वाला, अस्तित्व, गृह, डेरा, गाँव, घर, जनपद, । मिटाने वाला, विनाशक, ध्वंसक । स्रो०बस्ती, सार्वजनिक स्थान, सर्व साधारण के । संहारिका! एकत्र होने का स्थान, योग, समष्टि, जोड़, संहार काल-संज्ञा, पु. यौ० (सं०) प्रलय नाश, मृत्यु, मौत। या नाश का समय, संहार-बला। संस्थापक-संज्ञा, पु. (सं०) संस्थापन संहारना*-स० क्रि० दे० (सं० संहरण ) करने वाला, नियत करने वाला ! स्त्री०--. नाश या नष्ट करना, ध्वंस करना, मिटाना, संस्थापिका। मार डालना। संस्थापन--संज्ञा, पु. (सं०) खड़ा करना, संहित-- वि० (सं०) एकत्रित किया हुश्रा, बैठाना, ( भवनादि ) उठाना, कोई नवीन संचित, समेटा और मिलाया हुआ, जुड़ा बात चलाना, उठाना, स्थापित करना । हुआ। वि०-संस्थापनीय, संस्थापित, संस्थाप्य। संहिता--संज्ञा, स्त्री० (२०) संयोग, मेल, संस्पर्श-संज्ञा, पु० (सं०) स्पर्श. छूत । संज्ञा, मिलावट, एकत्र, इकट्ठा किया हुधा. संयुक्त, पु. (सं०) संस्पर्शन, वि०-संस्पर्शनीय । सान्निधि, व्याकरण में सधि या दो वर्गों का संस्मरण-संज्ञा, पु. (सं०) भली भाँति मिलकर एक होना, पद पाठादि के नियमायाद, पूर्ण रूप से स्मरण, भलीभाँति नाम नुकूल क्रम वाला ग्रंथ । जैसे-चरक-सहिता, जपना, ध्यान या याद करना । वि०- धर्म-सहिता। "परासनिकर्षा सहिता।" संस्मरणीय, संस्मृत,संस्मारक। " संहितैक पदे निया".--सि० को । संहत-वि० ( सं०) भलीभाँति मिलित, सइँया ~संज्ञा, पु. (दे०) साँई, स्वामी, सर्वथा मिश्रित, खूब मिला, जुड़ा और सटा पति, प्रेमी ईश्वर, सैंयाँ। हुमा, सहित, संयुक्त, सस्त, कड़ा, घना, साँतना-सैंतना--स० क्रि० दे० (सं० संचिय) गठा हुआ, दृढ़, इकट्ठा, एकत्र । __ संचय करना, बचाकर रक्षित रखना। For Private and Personal Use Only Page #1692 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org १६८१ सइ सइ* - श्रव्य० दे० ( सं० सह ) साथ से । धन्य० दे० ( प्रा० सुन्ती) करण और संप्रदान कारक का चिन्ह या विभक्ति ( व्या० ) । सइयो - संत्रा, खी० दे० (सं० साथी) सखी, सहेली. संगिनी, साथिनी । मगर वि० ग्रा० (सं० कल ) बहुत, अधिक, सकल, सैrर (दे० ) । सहराना - सैराना - अ० क्रि० (दे०) बढ़ना, समाप्त न होना, फैलना, ख़तम होना ! सई - संज्ञा, खो० (दे०) एक नदी, तमसा, सखी, वृद्धि, बढ़ती | संज्ञा, स्त्री० ( ० ) कोशिश. ra | सईस - संज्ञा, पु० द० ( हि० साईस ) घोड़े की सेवा या चौकसी करने वाला नौकर | सहीस-माईस (दे० ) | संज्ञा, स्त्री०सईसी-सहीस का काम । सउँ :- अव्य० दे० (हि० सों) सौंह, कसम, शपथ, सों, सौं, करण और अपदान कारक की विभक्ति ( ० ) । सऊं अव्य० (दे०) सीधे, सामने, सौहे । ( ग्रा० ) सौंह । " सर-सहर-संज्ञा, पु० दे० (फा० शऊर ) तमीज़. ढंग, व्यवहाराचार । सक-संज्ञा, बी० दे० (सं० शक्ति) शक्ति, बल कति (दे० ), ( यौ० में- जैसेभरसक ) संज्ञा, पु० दे० (सं० शक) शक जाति | संज्ञा, पु० दे० ( अ० शक ) संदेह, शंका | संज्ञा, पु० दे० ( हि० साका) साका, धाक, श्रातंक | अ० क्रि० (हि० सकना) सकना । "ग छाँह सक सो न उडाई - रामा० । 66 राम चाप तार सक नाहीं " रामा० । सकर - संज्ञा, पु० दे० (सं० शकट) छकड़ा, गाड़ी । सकत-कति / संज्ञा, खो० दे० (सं०शक्ति) शक्ति, बल, जोर, पौरुष, पराक्रम, सामर्थ्य, संपत्ति, वैभव ।" प्रान को सकति अधरान लौं न श्रावनि की " -रत० । क्रि० वि० जहाँ तक हो सके, भरसक । प्र० क्रि० (दे०) सकता है 1 1 भा० श० को०-२११ सकल सकता - संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० शक्ति) शक्ति, बल, सामर्थ्य, पौरुष, पराक्रम | संज्ञा, पु०(प्र०सकतः) स्तब्धता, वेहोशी की बीमारी, यति विराम । मुहा० - सकता पड़ना - यति भंग दोष होना। सकते में ध्याना -- थाश्चर्यादि से स्तब्धता होना । सकति सकती-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० शक्ति) शक्तिः, बल. पौरुष, बछ, सामर्थ्य | "सूर सकति जैसे लछिमन उर विट्ठल होइ मुरानो" । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सकना अ० क्रि० दे० (सं० शक या शक्य ) करने में समर्थ होना, करने योग्य होना । सकपकाना सकवकाना अ० क्रि० दे० (अनु० सकपक) अचंभित होना, हिचकना, लज्जित होना, अनोखी दशा होना, लज्जा, प्रेम, शंकादि से उत्पन्न एक चेटा विशेष, हिलना - डोलना | संज्ञा, स्त्रो० - सकपकी । सकरना - प्र० क्रि० दे० (सं० स्त्रीकरण ) सकारा जाना, स्वीकृत होना, अंगीकृत होना, भुगतान होना । स० रूप-सकराना सवारना, प्रे० रूप - सकरवाना । सकरपाला - सकरपारा - संज्ञा, पु० दे० (हि० शकरपारा) एक प्रकार की मिठाई, एक प्रकार की श्रायताकार सिलाई । सकरा - वि० दे० (सं० संकीर्ण ) संकीर्ण, संकुचित, रोटी दाल आदि कच्चा भोजन । स्त्री० सकरी । मकरण - वि० (सं०) दयावान, कृपापूर्ण । सकर्मक क्रिया - संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) वह क्रिया जिसका फल या कार्य उसके कर्म पर पहुँच कर समाप्त हो (व्याक० ) । जैसे-पीना, लिखना । 64 कुल । सकल -- वि० (सं०) संपूर्ण, समस्त, सब. सकल सभा की मति भइ भोरी"रामा० : संज्ञा, पु० (सं० ) निर्गुण ब्रह्म तथ गु प्रकृति | वि० (सं०) कला या मात्रा युक्त For Private and Personal Use Only - Page #1693 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org सकलात १६८२ सकेत सकलात - संज्ञा, पु० (दे०) श्रोदने की | सकुचा - संज्ञा, स्त्री० दे० सं० (सं० संकोच) रजाई, दुलाई, उपहार, भेंट, सौगात । सकसकाना सकसाना - अ० क्रि० (अनु० ) डर या भय से काँपना, भयभीत होना, डरना । लज्जा, संकोच, लाज शर्म । " सकुचि सीय तब नयन उधारे " रामा० । वि० (सं०) कुच-युक्त | सकुचना-- ० क्रि० दे० (सं० संकोच) लज्जा करना, शरमाना, संकुचित होना या सिकुड़ना, संकोच करना, संपुटित या बंद होना ( फूल का ) । is सकुचाई - सकुचाई* -- संज्ञा, स्त्री० ६० (सं० संकोच ) शर्म, लज्जा, संकोच । सकुचाना- - अ० क्रि० दे० ( सं० संकोच ) संकोच करना, लज्जित होना, शरमाना । " अंगद वचन सुनत सकुचाना "रामा० । स० क्रि० (दे०) सिकोड़ना, (किसी को) संकुचित या लज्जित करना, सकुच्चावना । सकुची - संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० शकुल मत्स्य ) कछुआ 'जैसी एक मछली । अ० क्रि० स० भू० (दे०) लज्जित हुई, शरमाई । सकुची व्याकुलता बड़ि जानी " -रामा० । सकुचौहाँ - वि० दे० ( ० संकेाच) लजीला, संकोची, शर्मिन्दा । स्त्री० - मकुचोही । सकुन संज्ञा, पु० दे० (सं० शकुंत ) पत्ती, चिड़िया | संज्ञा, ५० दे० (सं० शकुन) शकुन, सगुन (दे०), शुभ चिन्ह । श्रवसर पाय सकुन सब नाचे " - रामा० । सकुनी - संज्ञा स्त्री० दे० (सं० शकुंत ) पक्षी, चिड़िया | संज्ञा, पु० (दे०) शकुनि (सं०) कौरवों के मामा | 1 सकाना ० क्रि० दे० (सं० शंका ) डरना, संदेह या शंका करना भय से संकोच करना, हिचकना, दुखी होना । स० क्रि० (दे०) सकना का प्रे० रूप ऋचि० ) । भूप-वचन सुनि सीय स्कानी " - 16 रामा० । सकाम - संज्ञा, पु० (सं०) कामना या इच्छासहित, पूर्ण मनोरथ, काम वासना युक्त, कामी, फल प्राप्ति की इच्छा से कर्म करने वाला | संज्ञा, स्त्री० - सकामता । सकार – संज्ञा, पु० (सं०) स वर्ष | वि० (दे०) साकार | संज्ञा, पु० (दे०) प्रातःकाल, कल । सकारना --- ग्र० क्रि० दे० (सं० स्वीकरण) मंजूर या स्वीकार करना, हुँडी की मंजूरी, हुँडी की मिती पूरी होने से एक दिन पूर्व उस पर हस्ताक्षर कर रुपया देना । स० रूप - सकराना. प्रे० रूपसकरवाना | सकार - संज्ञा, पु० (दे०) सबेरा, प्रभात | क्रि० वि० (दे०) सकारे । वि० (दे० ) साकार (सं० ) । सकारे सकारी - क्रि० वि० ३० (सं० सकाल ) प्रभात में, प्रातःकाल, सवेरे । यौ०—साँझ- सकारे । “भूप के द्वारे सकारे गयी " - क० रामा० । संज्ञा, उ० (दे०) सकार । सकाण - संज्ञा, पु० (सं०) समीप, पास, निकट, नियरे, नेरे । सकिलना- - प्र० क्रि० दे० ( हि० फिसलना या अनु० ) सरकना, हटना, सिमटना, खिसकना सिकुड़ना, संकुचित होना । स० रूप- सकिलाना, प्रे० रूप-सकिलवाना । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सकुपना* - अ० क्रि० दे० ( सं० संकेापन ) संकोपना, रोष या क्रोध करना । महनत-संज्ञा स्त्री० ( ० ) निवास स्थान, गृह, स्थान, रहाइस | सकृत् -- श्रव्य० (सं०) एक बार, एक दफा या मरतबा सदैव साथ, सह । यौ० -- सकृदपि । संकेत -- संज्ञा, पु० दे० (सं० संकेत ) संकेत, इशारा, प्रेमी-प्रेमिका के मिलने का पूर्व For Private and Personal Use Only Page #1694 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir mana Emanumanua सकेतना सखि, सखी निर्धारित स्थान । वि० दे०-(सं० संकीर्ण)| अब"--- राम । संज्ञा, स्त्री० (दे०) शक्ति सँकरा, तंग, संकीर्ण, संकुचित । संज्ञा, पु० या बरछी नामक एक अस्त्र ।। (दे०)---विपत्ति, कष्ट, आपत्ति, दुःख । । सक्त-सक्तक----संज्ञा, पु० दे० (सं० शक्तु) सकेतना-अ० क्रि० द. (सं० संकीर्ण) शक्तू , सत्तू , सतुप्रा (ग्रा०), भुने अन्न सिकुड़ना, सिमिटना, संकुचित या संपुटित __ का श्राटा, भुने चने और जौ का श्राटा । होना । स० कि० (दे०) संकेत करना, संकुचित म* -- संज्ञा, पु० दे० ( सं० शक्र ) इन्द्र । करना। सक्रारि --ज्ञा, पु० दे० यौ० (सं० शकारि) सकलना-स० कि० द. (सं० संकल ) __इन्द्र शत्र, मेघनाद । समेटना, बटोरना, एकत्रित या इकट्ठा करना, मतम-वि० (सं०) क्षमताशाली, क्षमताराशि करना, जमा करना । स० रूप....-सकं । वान, पहन शील, समर्थ, क्षमता युक्त । संज्ञा, नाना, प्रे० रूप--मकलवाना। स्त्री. (सं०) क्षमता।। सकला-संज्ञा, स्त्री० दे० ( अ० मैकल ) एक सब-- संज्ञा, पु. ( सं० सखि ) मित्र, साथी, तरह की तलवार, खड्ग । संज्ञा, पु. (हि० सखा, संगी। स्त्री०सखी । संकेलना ) मकेलने या समेटने वाला। सखरा- संज्ञा. पु० दे० (हि. निखरा) सकरा सकोच-संज्ञा, पु. ६० (सं० संकाच ) (द०) कच्चा भोजन, दाल-भात-रोटी। संकोच, लज्जा, शर्म, सँकोच (दे०)। सखरी-संज्ञा. स्त्री० दे० (हि. निखरी) "बंधु सकोच सरिस वहि पोरा"..-रामा० । सकरी (दे०), कच्ची, रसोई, दाल-भातमकोचना-- स० क्रि० द० (सं० संकाच ) रोटी आदि। सिकोड़ना, सकुचित करना । सखा--संज्ञा, पु० (सं० सखि ) साथी, मित्र, मकोडना -अ० क्रि० ६० ( सं० संकाच ) संगी, दोस्त, पहचर, सहयोगी, नायक का संकोच करना, बटोरना, पकेलना, मिको. मित्र, जो चार प्रकार के हैं -- १ -- पीठमर्द इना, संकुचित या गंपुटित करना। २-विट ३-चेट ४-विदूषक ( नाट०, सकोतरा... संज्ञा, पु० (१०) एक प्रकार का काव्य०) । स्त्री-सखी। " सखा धर्म नींबू, चकीतग। निबहै केहि भाँती"-रामा० । सकोपना*--अ० क्रि० दे० (सं० काप ) सखा-भाव-ज्ञा, पु० यौ० (सं०) भक्ति या रोष या क्रोध करना, कोप या गुस्सा करना । उपासना का वह भाव जिसमें भक्त अपने को सकोरना--स० कि० दे० ( हि० सिकारना) अपने इष्ट देव का सखा या मित्र मान कर सिकोड़ना, समेटना, संकुचित करना । उपासना करता है, जैसे---सूर की भक्ति । सकोरा-संज्ञा, पु० दे० (हि० कसारा ) सख्यभाव (द०)। (विलो०-सखी-भाव) परई, मिट्टी का प्याला, कमोरा प्रान्ती.)। सखावत-संज्ञा, स्त्री. (अ.) उदारता, सकोरी-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. कसारा) दानशीलता । " सखावत कुनद नेक वख़्त मिट्टी की प्याली, कसारी (प्रान्ती. )। इख्तियार"-सादी। सक्का-संज्ञा, पु० ( अ०) मशकी, भिशती, सखि, सखी-संज्ञा, स्त्री० (सं०) सहयोगिनी, भिश्ती। सहचरी, संगिनी, सहेली, नायिका की वह सक्ति--संज्ञा, स्त्री० द० (सं० शक्ति ) शक्ति, संगिनी जिससे कोई बात उसकी छिपी न सामर्थ्य, बल, पौरुष, पराक्रम, सकति । हो (सा०), १४ मात्राओं का एक मात्रिक (दे०) । " सक्ति करी नहिं भक्ति करी छंद (पिं०) । वि० दे० (अ. सखी) For Private and Personal Use Only Page #1695 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सखीभाव १६८४ सगापन दानशील, उदार, दानी, दाता । " सखि मगनौती-संज्ञा, स्त्री० (दे०) शकुन विचारने सब कौतुक देखन हारे"---रामा०। की क्रिया, सगुनौती (दे०)। सखीभाव-संज्ञा, पु० (सं०) एक कृष्ण-भक्ति-सगपहती-संज्ञा, पु० स्त्री० (दे०) साग मार्ग या उपासना-विधि जिसमें भक्त अपने मिली पकी दाल, मगपहिती । पु०का इष्टदव या उसका प्रिया का सखी या सगपहनी (दे०)। सहेली मानकर उपासना करते हैं। (हित सगवग--वि० (अनु.) श्राई, तर, सराबोर, हरि-वंशजी की उपासना-विधि) टट्टी-संप्रदाय ।। द्रवित, लथपथ, परिपूर्ण, भीगा हुआ, विलो०-सखा-भाष, सख्य-भाव । गीला। "चंदसखी भजु बाल कृष्ण-बि' सगबगाना-अ० कि० दे० ( अनु० सगवग ) चंद्र। भीगना, सरावोर या लथपथ होना, सखुआ-सखुवा-संज्ञा, पु०६० (सं० शाल)। सकपकाना, सकनकाना, भयभीत या शालवृक्ष, साखू का पेड़। शंकित होना । " पूछे क्यों रूखी परति सखुन-संज्ञा, पु. (फ़ा०) काव्य, कविता, सगबग गई सनेह"--वि० शत० । वार्तालाप, बातचीत, बात, वचन, उक्ति, सगर ---संज्ञा, पु. (पं०) अयोध्या के एक कथन । " हकीमे सखुन बर ज़बाँ आफरी" सूर्य-वंशीय धर्मालमा प्रजा-पालक राजा, --सादी। इनके ६० हजार पुत्र थे. राजा भगीरथ सखुन-तकिया-संज्ञा, पु० यौ० (फा०) इनके ही वंशज हैं । " नामसगर तिहुँ लोक वाक्याश्रय, तकिया-कलाम, वह शब्द या विराजा''--रामा० : वि० (दे०) सगल, वाक्यांश जो लोग वार्तालाप के बीच में । यों ही ले पाते हैं। सब, अधिक, रेनेगर । प्रा०) सख्त-वि० (फा०) कड़ा, कटोर, दृढ़ । संज्ञा, सगरा, मगला मगरा, मगला- वि० दे० ( सं० सकल ) स्त्री-संकट, विपत्ति । " मुझपै परी अब सब का सब, सारा, तमाम, कुल. सकल, सख्त"-सुजग०। बहुत, संगर (ग्रा०) । स्त्री.-सगरी। सख्ती-संज्ञा, स्त्री० (फा.) ज्यादती. सगर्भा-संज्ञा, स्त्री० (सं०) गर्भवती स्त्री, कड़ाई, कठोरता, करता, दृढ़ना, विपत्ति । सगी बहिन, गर्भयुका। सख्य-संज्ञा, पु० (सं०) मित्रता, दोस्ती, सगल ----वि० दे० ( सं० सकल ) मगर, मैत्री. सखापन, विष्णु-भक्ति का वह भाव सब, संपूर्ण, पूरा पूरा, सारा, कुल, समस्त । जिसमें अपने को विष्णु या उनके अवतार वि० (सं०) गलायुक्त । का सखा मानकर भक्त उपासना करता है, । सगा-वि० दे० (सं० सवक) सहोदर, सखा-भाव । यो०-सख्य-भाव। एक ही माता-पिता से उत्पन्न, जो सम्बन्ध सख्यता-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं०) मित्रता, में निज का हो । स्त्री. सगी । “संपति मैत्री, सखापन, दोस्ती, मिताई (दे०)। के सब ही सगे"... नीतिः । सगड़-संज्ञा, पु० दे० (सं० शकट ) छकड़ा, | सगाई-संज्ञा, स्त्री० दे० ( हि० सगा+ईगाड़ी, बैल-गाड़ी। प्रत्य० ) व्याह का ठीक या निश्चय होना, सगण-संज्ञा, पु. (सं० ) दो लघु और । सम्बन्ध, मॅगनी प्रान्ती०), नाता, रिश्ता, एक दीर्घ वर्ण से बना एक गण जिलका छोटी जातियों में स्त्री-पुरुष का व्याह जैसा रूप (15) होता है (पिं०) । वि० (सं.)। सम्बन्ध, सगापन । गण या समूह के साथ । सगापन–संज्ञा, पु. (हि०) सम्बन्ध का For Private and Personal Use Only Page #1696 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सगुण १६८५ सचाना अपनपन या प्रात्मीयता, सगा होने का कुटुंब की स्त्री । " असपिंडा तु या मातुरसभावा गोत्रा तु या पितुः"-मनु० । मगुगा----संज्ञा, पु० सं०) गुण-सहित. सगौती-संज्ञा, स्त्री० (दे०) मांस, मांस का साकार ब्रह्म, सत्व, रज और तम तीनों बचा भोजन । गुणों से युक्त ब्रह्म का रूप, वह संप्रदाय । सधन ---वि० (सं०) घना, गंजान, अबिरल, जिसमें परमेश्वर को पगुण मान कर उसके उभ, ठोस, निबिड़। संज्ञा, स्त्री०-सघनता। अवतारों की पूजा होती है, सगुन (दे०)। वि० (सं०) घन या बादल के साथ । “सधन"निर्गुण ब्रह्म सगुण भये जैसे "--रामा। सवन था गगन"-रस । यौ०-- सगुणा-वाद-ईश्वर के सगुण-साकार सच वि० दे० ( सं० सत्य ) सत्य, सही, मानने का सिद्धान्त । यौ०-सगुणोपासना ! ठीक, दुरस्त, वास्तविक, यथार्थ, तथ्य, सच्च सगुण ब्रह्म की भक्ति । (दे०)। सगुन --- संज्ञा, पु० दे० (सं० शकुन ) किमी सचना* --स० क्रि० दे० (सं० संचयन ) कार्य के होने की सूचना-सूचक चिह्न, . जोड़ना, एकत्र या संचय करना. इकट्ठा शकुन । विलो०- प्रसगुन) ! संज्ञा, पु० करना, पूर्ण या पूरा करना । अ० क्रि० स० दे० (सं. सगुण ) ईश्वर का सगुण रूप, । (दे०) सजना, रचना। गुण-सहित । सगुन उपासक मुक्ति न लेही" सचमुच-- अव्य० दे० (हि. सच--सुच-~~-रामा० । अनु० ) वस्तुतः, वास्तव में, यथार्थतः, सगुनाना--.स. कि. द. ( सं० शकुन - ठीक ठीक, श्रवश्य, निश्चय, मच्च-पच्च श्राना-प्रत्य०) शकुन बताना, शकुन (ग्रा०)। सी० --- सच मुची। देखना या निकालना। सचरना*--- अ० कि० दे० (सं. संचरण ) सगुनिया --- संज्ञा, पु० दे० (सं० शकुन + संचलित रा संचरित होना, फैलना, अति इया---प्रत्य० ) शकुन विचारने और बताने प्रचलित होना, संचार या प्रवेश करना । वाला । "बड़े सगुनिया महुबे वाले कारज " सब विधि अगम अगाध अगोचर कोटिक सिद्धी लेहिं विचारि--प्रा. खं। विधि मन सचरै” विन० ख० रूप--- मगुनौली-- संज्ञा, स्त्री० दे० ( हि० सगुन -- मचारना। अौती--- प्रत्य० ) शकुन विचारने की क्रिया, खचराचर---संज्ञा, पु० यौ० (२०) संसार के मगनउनी 'ग्रा०)। मुहा-सगुनौती चलने वाले और न चलने वाले, स्थावरउटाना-शकुन देखना या निकालना। जगम । "यापि रह्यो सचराचर माही"-- सगोत, सगाती--पंज्ञा, पु० दे० (सं० -~-वासु सगोत्र ) समगोत्री, एक गोत्र के लोग, सचाई --संक्षा, स्त्री० दे० (सं० सत्य, प्रा. जगोत्र, भाई-बंधु, भैयाचार, भाई-विरा- सच + बाई ---प्रत्य०) सच्चापन, सत्यता, यथार्थता, वास्तविकता। सगोत्र-संज्ञा, पु० (सं०) एक गोत्र के लोग, सचान संज्ञा, पु० दे० (सं० संचान - श्येन) सजातीय, समगोत्रीय, एक ही कुल या श्येन पक्षी, बाज पत्नी। “मन-मतंग गैयर वंश के लोग। बी.-.-सगोत्रा। हने, मनपा भई सचान "--कवो० । सगोत्रा--संज्ञा, स्त्री. (सं० ) सजातीया, सचाना--- १२० कि. (दे०) सत्य या सच अपने गोत्र की, अपने कुल, वंश या करना, सिन्द्र करना। For Private and Personal Use Only Page #1697 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सचारना सजन सचारना-*-२० क्रि० दे० (सं० यथार्थ, वास्तविक, विशुद्ध, असली ।स्त्री०संचारणा ) फैलाना, प्रचार करना, चलाना, सच्ची । 'सच्चा सौदा कीजिये, अपने मन में प्रचलित करना । प्रे० रूप-सचरवाना। जानि" -कवी०।। सचिंत-वि. (सं० ) चिन्ता-युक्त, जिसे सच्चाई--संज्ञा, स्त्री० दे० ( हि० सच्चा --- आईचिन्ता हो. चिंतित । प्रत्य०) सत्यता, सच्चापन, यथार्थता, सचाई, सचिक्कण-वि० (सं० ) बहुत चिकना, । वास्तविकता। सचिकन (दे०)। संज्ञा, स्त्री-मचिक- सच्चापन---संज्ञा, पु. ( हि० सन्ना -- पनगाता। __ प्रत्य०) सच्चाई, मत्यता, सचाई । सचिव-संज्ञा, पु. (सं०) मित्र, सहायक, मच्चिकन* - वि० द. ( सं० सचिक्कण ) मंत्री, घजीर (फा०), मिनिस्टर (अं०)। अत्यंत चिकना, मचिकण । “राम कुभाँति सचिव सँग जाही" | सच्चिदानंद-संज्ञा, पु. यौ० (सं०) सत्, -रामा० । चित् और प्रानन्द से युक्त, ब्रह्म, परमारमा, सची-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० शची) परमेश्वर । इन्द्राणी, शची। सच्छत-वि० दे० (सं० सक्षत ) घायल, सचीस-संज्ञा, पु० यौ० दे० ( सं० संचीश) जखमी, घाव-युक्त । इंद्र । सच्छंद* -- वि० दे० (सं० स्वच्छंद) स्वाधीन, सचु -संज्ञा, पु० (दे०) प्रपन्नता, सुख, स्वतंत्र, स्वच्छंद । संज्ञा, स्वी० (दे०) श्रानंद, खुशी । “कब वह मुख बहुरौ । सच्छंदता। देखौंगी, कब वैसो सचु पैहौं'-सूर० । सच्छी,सान्छी-- संज्ञा, पु० दे० (सं० साक्षी) सचेत-वि० दे० (स० सचेतन ) चैतन्य, साक्षी. गवाह, साखी (दे०) । जो होश में हो, जिसमें चेतना हो, चेतन, सज-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि० सजावट ) सजने चेतना-युक्त, होशियार, सजग, सावधान. की क्रिया या भाव, सजावट, शोभा, सौंदर्य, सतर्क, चतुर । “बैठि बान सब सुनहुँ शाल, डौल । यौ० सज धज । संज्ञा, पु० सचेतू "-रामा०। (दे०) एक पेड़ । सचेतन-संज्ञा, पु० (सं०) जिसमें चेतना हो, सजग-वि० दे० (सं० जागरण ) सचेत, जो जड़ न हो, चेतन, चैतन्य । वि. सावधान, होशियार, सतर्क । संज्ञा, स्त्रीसतर्क, सावधान, सजग, चेतना-युक्त, समझ सजगता । " होहु मजग सुनि श्रायुस दार, चतुर होशियार। मोरा"--रामा०। सचेष्ट-वि० (सं०) जिसमें चेष्टा हो, जो चेष्टा करे। सजदार-वि० दे० (हि० सज+दारसचौरी-संज्ञा, स्त्री० (दे०) स यता, सचाई, प्रत्य०) सुन्दर, अच्छी प्राकृतिवाला, सजासजावट । वट वाला, सजीला। सच्चरित, सच्चरित्र- वि० (सं०) अच्छे | सजधज-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि० सज-धज-- चरित या चरित्र वाला, सुकर्मा । संज्ञा, स्त्री० अनु० ) सजावट, बनाव सिंगार। --सच्चरित्रता । “जो सच्चरित पूज्य सो सजन-संज्ञा, पु० दे० (सं० सत् + जन = सब को ऐसो कबिन बतायो "- वासु० । सज्जन ) सज्जन, सुजन (दे०) भलामानुस, सच्चा-वि० दे० ( सं० सत्य ) सत्यभाषी, शरीफ़ (फ़ा०) पति, स्वामी, भर्ता, प्रियतम, यथार्थावादी, सच बोलने वाला, ठीक, पूरा, मित्र, प्रेमी, यार , साजन (ग्रा०) । स्रो० For Private and Personal Use Only Page #1698 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सजना १६८७ सजावल सजनी । संज्ञा, पु० दे० (सं० स्वजन ) सज़ा ) सज़ा, दंड । संज्ञा, स्त्री० (दे०) सजाप्रात्मीय व्यक्ति । “सजन सगे प्रिय लाहिं । वट । पूका० स० क्रि० (हि० सजाना) सजाकर। जैसे"--रामा० । “ सजन सकारे जायँगे ! सजाई-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. सजाना ) नयन मरेंगे रोय"---स्कु०। संज्ञा, स्त्री० (दे०) सजाने की मज़दूरी, कार्य या भाव, सजावट, सजनता। सजवाई । संज्ञा, स्त्री० दे० (फा० सज़ा) सजना-२० क्रि० दे० (सं० सज्जा) सुसज्जित सज़ा, दंड । "ता मोहि देहि देव सजाई" होना, या शृंगार करना, अल कृत करना, -रामा०। शोभा देना, भला जान पड़ना या अच्छा सजाति-सजताय-वि० (स०) एक ही लगना । अ० क्रि० (दे.)-सुसज्जित होना, जाति, गोत्र या वंश का, सगोत्र, सगोत, सँवारना । “सजि वाहन बाहर नगर. लागी एक ही श्रेणी या भांति के। जुरन बरात"-रामा०स० रूप-सजाना सजान*-सज्ञा, पु० दे० ( सं० सज्ञान) सजावना, प्रे० रूप० --- सजवाना। सुजान, चतुर, ज्ञानी, जानकार, चतुर, सजनि, सजनी--संज्ञ, स्रो० दे० (हि. समझदार, होशियार, सयान (दे०)। सजन ) सखी, सहेला, सहचरी, प्रिय स्त्री। सजाना – स० क्रि० दे० (सं० सज्जा ) चीजों । चलियो सजनी मिलि देखिये जाय जहाँ को क्रम पूधक यथास्थान रखना, क्रम टिकि यै रजनी रहि हैं " ....कविः । या तरतीब लगाना, सँवारना, सुधारना, शृंगार करना, अलंकृत करना, सुसज्जित सजल-वि० (सं०) जल-युक्त या जल से करना, सजावना (दे०)। परिपूर्ण, अश्रुपूर्ण, आँसुओं से भरी प्राख । सजाय -ज्ञा, स्त्री० दे० (फा० सज़ा ) "सजल नयन पुलकावलि बादी'-रामा। सजवल - संज्ञा, पु० दे० ( हि० सजना) सजा, दंड । " रहिमन करुवे मुखन कौ, तैयारी। चहियत यही सजाय।" सजायाफ्ता-सजायाब - संज्ञा, पु. (फ़ा०) सजला - संज्ञा, पु० (दे०) चार भाइयों में से किसी प्रकार का दंड या सज़ा भोग चुका तीसरा भाई. मॅझले से छोटा । वि० स्रो० स्खा हुअा व्यक्ति, दंड-प्राप्त । (सं०) जल पूर्ण, जल से भरी, जल-युक्त । सजाव-संज्ञा पु० दे० (हि० सजाना ) एक "सुफला सजला अरु सस्य-श्यामला तू हैं " __ तरह का बदिया दही, सजावट, बनाव, -भार० । शृंगार, सज-धज । सजवाई-संज्ञा, स्त्री० ० ( हि० सजन-|- सजावट-संज्ञा, स्त्री० दे० ( हि० सजाना--- बाई-प्रत्य० ) सजने या सजवाने का पावट-प्रत्यः ) सज्जित होने का भाव या कार्य, भाव या मज़दूरी, सजावट । धर्म, सजाव, शृंगार, बनावट । मजवाना--स० कि० ( हि. सजना का प्रे. सजावन *-- स्त्री० संज्ञा, पु० दे० (हि. रूप. ) किसी के द्वारा किसी को सुसज्जित सजाना) सजाने या तैयार करने की क्रिया, या अलंकृत कराना, मजाना। "यहि विधि सजावट, सजावनि। सकल नगर सजवायो"- स्फुट० । सजावल-संज्ञा, पु० दे० (तु. सज़ाबुल ) मजा - संज्ञा, स्त्री० (फ़ा०, अपराध-दंड, दंड, सरकारी महसूल या कर उगाहने वाला कर्म. जेल में रहने का दंड, जुर्माना का दंड, । चारी, तहसीलदार, जमादार, सिपाही, नहर प्राण-दंड, देश निकाले बा दंड, सजा (दे०)। की सिंचाई का कर वसूल करने वाला, एक सजाइ, सजाई*-संज्ञा, स्त्री० दे० ( फा० कर्मचारी। संक्षा, स्त्री-सजावली । For Private and Personal Use Only Page #1699 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सजीउ १६८८ सजीउ* --वि० दे० (सं० सजीव ) जीवन- सज्ज ----संज्ञा, पु० दे० ( हि० साज ) साज़, युक्त, जीता हुआ। "सजीउ करी बख़शे साज-सामान, श्रमबाब, चीज़, वस्तु । हैं "-भूष। । सजन--- संज्ञा, पु. (सं० सत्+जन) सुजन सजीला--वि० दे० (हि० सजाना-1-ईला-- (दे०), भलामानुम, अच्छा श्रादमी, आय, प्रत्य० ) छैला. सुन्दर, गीला, मनेाहर, __श्रेष्ठ पुरुष, शरीफ़, प्रियतम, प्रिय । "हृदय हर्षि रसीला, सजधज से रहने वाला, पानी या कपि सज्जन चीन्हा''- रामा० । संज्ञा, पु. कांति से यक्त । स्त्री० सज ली। (सं०) सजाने की क्रिया या भाव । सजीव-वि० (स.) जिसमें जीव या जान ! सजनता--- संज्ञा, स्त्री० (सं० ) भलमंसी, हो, फुरतीला, तेज, स्फूर्तिवान् , प्रोजवान, भलमसाहत, सौजन्य, सुजनता (दे०)। जीवन-युक्त, जीवित । संज्ञा, स्त्री० ( सं० )। सजनताई *- ---संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० सज्जनता) सजीवता। भलमसी, भलम पाहत, सौजन्य, सुजनता (दे०) । " वारेहि ते अस सज्जनताई." सजीवन-संज्ञा, पु० दे० । सं० संजीवनी) - स्फुट०। एक विख्यात औषधि जिपर मृत व्यक्ति भी जी उठता है, संजीवन । वि० ( सं० ) | सजा-संज्ञा, स्त्री० (सं०) मजाने का भाव या क्रिया, सजावट, वेष-भूषा : संज्ञा, स्त्री० जीवन-युक्त । दे० ( स० शय्या ) शय्या, पलँग, खटिया, सजीवनमूल, सजीवन भूमि --संज्ञा, स्त्री० चारपाई, सज्जादान, शय्यादान (मृतकदे० (सं० संजीवनी -- मूल ) एक औषधि सस्कार में ) (दे०)। जिनसे मरा शादमी भी जी उठता है, सजिन---वि० (सं.) अलंकृत, सजा हुआ, अमृत मूल, अमियमूरि (६०) । " जग में श्रावश्यक पदार्थों से युक्त, सँवारा हुआ । राम सजीवनमूला".--स्फुर " भरी सुपज्जित वीर खब, चली अनी सजीवनीमंत्र-संज्ञा, (० दे० यौ० सं० चतुरंग'-कुं० वि०।। संजीवन+मंत्र) मृतक को भी जिलाने वाला सजी --संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० सर्जिका ) एक मंत्र, सजीवन मंत्र। प्रकार का जार ( औप०)। सजुग---वि० दे० ( हि० सजग ) सचेत सन्जीबार----संज्ञा, पु० दे० यौ० (सं० सर्जिका सतर्क, सावधान, होशियार चौकन्ना, चौकस । +क्षार ) सज्जी नमक । “सजुग होय रोको सब घाटा''-- रामा० । सन्ता - संज्ञा, स्त्री. द. (सं० संयुता ) सजुता--संज्ञा, स्त्री० दे० ( सं० संयुता) १० ( स० सयुता ) संयुता छंद (पि.।। संयुता नामक छंद ( पिं०)। सज्ञान-वि० (सं०) ज्ञानी, ज्ञान युक्त, सजूरी-संज्ञा, स्त्री० (दे०) एक मिठाई। सयान, सग्यान (दे०)। बुद्धिमान, चतुर, सजोना, संजोना--स० क्रि० दे० ( हि० सावधान, सजग, सचेत, सुजान (दे०)। सजाना ) सजाना, अलंकृत करना, सँजोना, 'जा तिरिया की सुधरई लखि मोहैं सज्ञान" रक्षित तथा एकत्रित रखना स० रूप०- -पद्मा० । संजोवना। सध्या----संज्ञा, स्त्री० द० ( सं० शय्या ) शव्या सजोयल--वि० दे० ( हि. संजोयल ) पलँग, खाट, सजा (दे०) । " सुन्यो सुसजित, तैय्यार । " सजा सजोयल रोकहु कुवर रन-सज्या सोयो'"--छत्र। घाटा"--- रामा० । एकत्रित तथा रक्षित सटक --- संज्ञा, स्त्री० दे० ( अनु० सट से ) किया हुआ। सटकने की क्रिया, चुपके से खिसक जाना, For Private and Personal Use Only Page #1700 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सटकना १६८६ । सठियाना धीरे से चंपत होना, तंबाकू पीने का लच- सटाना-स० क्रि० दे० (सं० स+स्था या स कीला लंबा नैचा, पतली लचकीली छड़ी, +निष्ट ) मिलाना, दो वस्तुओं के पार्यों सटिया, साँटी (दे०)। को परस्पर मिलाना, लाठी श्रादि से लड़ाई सटकना-अ० क्रि० ( अनु० सट से ) धीरे करना, (गुंडा० ) चिपकाना, मिला कर से भाग या खिसक जाना, चंपत हो जाना। रखना । प्रे० रूप० -सटवाना । सटकाना--- २० क्रि० दे० ( अनु० सट से ) सटासट-संज्ञा, स्त्री० (दे०) तर-ऊपर, एक छड़ी या कोड़े आदि से पीटना, चुपके से पर एक, लगातार, भिड़ाभिड़, ठसाठस, भगा देना, निगलना, खिसकाना । सटसट शब्द के साथ, रेल-पेल । सटकार-संज्ञा, स्त्री० (अनु० सट) साटकाने सटिया-संज्ञा, स्त्री० (दे०) बाँस की पतली की क्रिया या भाव. पशुओं के हाँकने की छड़ी, लम्बी पतली छड़ी, एक गहना, एक क्रिया, सटकार (दे०)। प्रकार की चूड़ी। सटकारना-स० क्रि० (अनु० सट से ) | सटीक-वि० (सं०) वह पुस्तक जिसमें मूल छड़ी या कोड़े आदि से सट सट मारना। के साथ उसकी टीका भी हो, व्याख्या या सटकारा–वि० (अनु०) लंबा और चिकना अर्थ-सहित । क्रि० वि० (हि०) पूर्णतया। साफ़, बाँसादि। मुहा०-सटोक करना (होना)-यथो. सटकारी-संज्ञा, स्त्री. ( अनु० ) पतली चित रूप से पूर्ण करना या होना। और लंबी छड़ी, छोटी कंकड़ी, सिट- सहक - संज्ञा, पु० (सं०) प्राकृत भाषा में कारी (दे०)। विरचित छोटा रूपक । सटना-अ० कि० (सं० सस्था ) दो चीजों सट्टा--संज्ञा, पु. (दे०) इकरारनामा, एक का पार्श्व लगा कर मिलना, चिपकना, मार- प्रकार का व्यापारिक जुआ, अनुमान । यौ० पीट होना, समाना, घुसना । स० रूप०-- | सट्टा-काटका ( व्यापार )। सटाना, प्रे० रूप०--प्टवाना। सट्टाबट्टा- संज्ञा, पु० यौ० हि० सटना+बट्टासटपट-संज्ञा, स्त्रो० (अनु०) सिट-पिटाने । अनु० ) हेल-मेल, मेल-मिलाप, चालाकी की क्रिया, चकपकाहट, शील, संकोच, अस्स धूर्तता-पूर्ण युक्ति, चालबाज़ी, सट्टे में हानि । मंजस, दुविधा, अंड-बंड, सट्ट-पट्ट (ग्रा०) । सट्टी-- संज्ञा, स्त्री० दे० (हि० हाट या हट्टी) सटपटाना--अ० क्रि० दे० ( अनु० ) सकुचना, सिकुड़जाना, डर जाना, दब जाना, एक ही मेल की वस्तुओं का बाजार, हाट। भौचक्का होना, संशय में पड़ जाना, सिपिटाना (दे०)। सठ-संज्ञा, पु० दे० ( सं० शठ ) धूर्त, मूर्ख, सटरपटर- वि० ( अनु० ) मामूली, छोटा दुष्ट, अपढ़, कुपढ़, निद्धि , कमसमझ, मोटा. तुच्छ, व्यर्थ की चीजें, व्यर्थ का काम, खल, पाजी, लुच्चा, बदमाश । "सठ सुधरहि बखेड़ा, अंड-बंड, अटर-सटर, सट्टपट्ट। सतसंगति पाई "-- रामा० । सटसट-क्रि० वि० (अनु० ) शीघ्र, जलदी सठता-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० शठता) दुष्टता, सटासट, सट सट शब्द के साथ, चटपट । मूर्खता, कमसमझी। सटा-वि० (दे०) (हि. सटना ) मिलित, सठियाना....अ. क्रि० दे० (हि. साठ+ मिला हुश्रा । संज्ञा, स्त्री० (सं०) जटा, घोड़े, इयाना -प्ररूप ) साठ वर्ष का होना, की अयाल । “जटा-सटा-भिन्न धनेन विभूतः" । बुड्ढा या बुड़ा होना, वृद्धावस्था से मंद -माघ। बुद्धि होना। भा० श० को०-२१२ For Private and Personal Use Only Page #1701 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir WD सठेरा १६१० सतरंजी सठेरा-संज्ञा, पु० (दे०) सन निकाला हुआ सतकार- संज्ञा, पु० दे० ( सं० सत्कार) डंठल । सम्मान, आदर, इज्जत, खातिरदारी। सठोरा-सठोड़ा-संज्ञा, पु०६० (सं० शंठी) सतकारना*-स० कि० दे० (सं० सत्कार+ शंठीपाक, सोंठ के लडडू , सोंठौरा (ग्रा०)। ना-हि० प्रत्य० ) सम्मान या आदर करना, सड़क-संज्ञा, पु०, स्त्री० दे० ( अ० शरक ) सत्कार करना। चौड़ा रास्ता, चौड़ी राह, राज मार्ग या पथ। सतगुरु---संज्ञा, पु० दे० यौ० (सं० सद्गुरु ) सडना-अ० क्रि० दे० ( सरण' ) किसी वस्तु सच्चा या अच्छा गुरु, परमात्मा । “सतगुरु का कोई विकार पाकर विदीर्ण हो कर मिले तें जाहि निमि, संसय-भ्रम-समुदाय" दुर्गधि देना, खमीर उठना, दुर्दशा में पड़ा ___रामा। रहना । स० रूप० –सड़ाना, प्रे० रूप०-- सतजुग संज्ञा, पु० दे० यौ० (सं० सत्ययुग) सड़वाना। चार युगों में से पहला युग, सत्युग, कृतयुग। सड़ाना-स० क्रि० (हि. राड़ना) किसी सतत-अव्य० (सं०) संतत, सदा, निरंतर, वस्तु को पानी आदि में इस प्रकार से रखना | हमेशा, सदैव। कि वह सड़ जावे, किसी को सड़ने में सतदल... संज्ञा, पु० दे० यौ० (सं० शतदल) लगाना । प्रे० रूपड़वाना सौ पंखड़ियों का कमल । " सतदल श्वेत सड़ाइंध-सड़ायँध-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. कमल पर राजहु"--हरि०। सड़ाना+गंध ) सड़ी हुई वस्तु की महक, | सतनजा--संज्ञा, पु० दे० यौ० (हि. सात+ दुगंधि। अनाज) भिन्न प्रकार के सात अन्नों का सडाव-संज्ञा, पु० दे० (हि० सड़ना ) सड़ने | समूह या मेल । का भाव या कार्य। सतपुतिया--संज्ञा, स्त्रो० दे० ( सं० सप्त सड़ासड़--अव्य० दे० (अनु० सड़ से ) सड़ पुत्रिका ) एक प्रकार की तरोई। सड़ शब्द के साथ, जिसमें सड़ सड़ शब्द हो । सतफेरा -- संज्ञा, पु० दे० यौ० ( हि० ) व्याह सड़ियल-वि० दे० ( हि० साड़ना - इयल- के समय का सप्तपदी-कर्म, भाँवर, व्याह, प्रत्य०) सड़ा-गला हुघा, ख़राब, रद्दी, तुच्छ, सात परिक्रमा या प्रदक्षिणा। बुरा, नीच, बेकाम, निस्सार, व्यर्थ। सतमासा, सतवांसा-- संज्ञा, पु० द. यौ० सत्-संज्ञा, पु० (सं०) परमेश्वर, ब्रह्म । वि० ( हि० सात - मास ; वह बच्चा जो सातवें सत्य, नित्य, स्थायी, शुद्ध, श्रेष्ठ, पवित्र, महीने उत्पन्न हो, प्रथम गर्भिणी के सातवें विद्वान, ज्ञानी, पंडित, साधु, पिज्जन, धोर । मास का एक संस्कार, सप्तमासिक(सं०) । सत-वि० दे० (सं० सत् ) सत्य, सार, मूल, सतयुग--- संज्ञा, पु० दे० (सं० सत्य युग ) तत्व । संज्ञा, पु० दे० (सं० सत् ) सभ्यता सत्युग। पूर्ण धर्म । मुहा०-सत पर चढ़ना-- सतरंगी--संज्ञा, स्त्री. द. (सं० सप्त+रंग पति की मृतक देह के साथ जलना या सती | + ई--- प्रत्य०) सातरंगों वाली रंगीन होना । सत पर रहना--पतिव्रता रहना। जाजिम, चाँदनी। वि० दे० ( सं० शत) शत, मौ । संज्ञा, पु. सतरंज- संज्ञा, स्त्री० दे० ( फा० शतरंज ) दे० (सं० सत्त्व )--सार, मूल तत्त्व, सारांश, शतरंज नामी खेल । सारभाग, जीवन-शक्ति, बल, पौरुष । वि०- सतरंजी-संज्ञा, स्त्री० दे० (फा० शतरंजी) सात (संख्या) का संक्षेप रूप यौगि० में)। दरी, रंगीन बिछौना, जाज़िम । For Private and Personal Use Only Page #1702 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org सतर १६६१ (अ० ) सतर -- संज्ञा, स्त्री० ( ० ) पंक्ति, अवली, क़तार, पाँति, रेखा, लकीर | वि० - वक्र, टेदा, क्रुद्ध, रुष्ट, कुपित | संज्ञा, स्त्री० मनुष्य की मूनेंद्रिय, घोट, परदा था । यौ० क्रि० वि० (दे० ) सतर-बतर - तितरबितर | --- 33 6: भौहें " सतराना - अ० क्रि० दे० (सं० सतर्जन ) क्रोध या कोप करना, रुष्ट होना, अप्रसन्न या नाराज़ होना, चिढ़ना । " कहौ ग्रंघको श्रधरों, बुरो मानि सतरात -चंद | बोली न बोल कछू सतराय के चाय तकी तिरछोही - रस० । संज्ञा, पु० (वा० ) सनराइवो, सनबो । सतगैंहा- वि० दे० (हि० सतराना ) रोष - पूर्ण, रुष्ट, क्रोधित, प्रसन्न कुपित क्रोधया कोप सूचक । " छोटे बड़े न सतरौ हैं चैन "---नीति | " मति । भनि नहीं, दुरै दुराये नेह सतर्क - वि० (सं०) सजग, सावधान, सचेत. युक्ति या तर्क से पुष्ट, तर्क- युक्त । (संज्ञा, स्त्री० सतर्कता ) । हुइ सकें, कहि सतरौहीं C सतना -- स० क्रि० दे० (सं० संतर्पणा ) भली भाँति तृप्त या संतुष्ट करना, प्रसन्न करना । सतलज - संज्ञा, खो० दे० ( सं० शतद्रु ) पंजाब की नदियों में से एक बड़ी नदी । सतलड़ी-सतलरी- संज्ञा, स्त्रो० (दे०) सात लड़ियों की माला | पु० सतलड़ा | सतवंती - वि० स्त्री० दे० (हि० सत्य + बंती - प्रत्य० ) पतिव्रता सती, सतवाली । सतवाँसा संज्ञा, पु० दे० यौ० ( सं० सप्त + मास ) गर्भिणी के ७ वें मास का एक संस्कार, ७ मास में ही उत्पन्न हुआ बालक । " सतसंग-संज्ञा, पु० दे० ( सं० सत्संग ) सत्संग, अच्छा साथ, सुसंगति । सो जाने सतसंग प्रभाऊ ". --. रामा० । वि० दे० सतसंगी सुसंगति वाला, यारबाश । सती सतसंगति--संज्ञा, त्रो० (दे०) सत्संगति । सतसई सज्ञा, स्त्री० दे० यौ० (सं० सप्तशती) सात सौ पद्यों वाला ग्रंथ, सप्तशती, सतमैय्या (दे० ) । " सब सों उत्तम सतसई, करी विहारी दास " | Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सतह -- संज्ञा, स्त्री० (अ०) किसी पदार्थ का ऊपरी तल या भाग, धरातल, वह विस्तार जिसमें केवल लम्बाई और चौड़ाई ही हों । सताग-संक्षा, पु० दे० (सं० शतांग ) रथ, गाड़ी, यान । सतानन्द - संज्ञा, १० (दे०) गौतम ऋषि के पुत्र और राजा जनक के पुरोहित ।" सतानंद दीन्हा 'रामा० "" तब " सताना - स० क्रि० दे० (सं० संतापन ) दुःख या कष्ट देना, संताप देना, हैरान परेशान या दिन करना, सतावना (दे० ) । सतालू - संज्ञा, पु० दे० (सं० सप्तालुक ) शफ़्तालू, घाड़ू नामक एक फल । सतावना -स० क्रि० दे० (सं० संतापन ) सताना, विक करना, हैरान या परेशान करना, संताप या दुःख देना । निसचर - निकर सतावहि मोहीं " रामा० । सतावर, सतावरि-संज्ञा, स्रो० दे० ( सं० शतावरी ) एक बेल जिसकी जड़ और बीज 68 के कमाते हैं, शतावरी, शतमूली । सति - संधा, पु० दे० (सं० सत्य ) सत्य, सच, सती, साध्वी । सतिवन संज्ञा, पु० दे० (सं० सप्तपर्ण ) छतिवन, एक औषधि | सतिया - संज्ञा, स्त्री० दे० ( सं० स्वस्तिक ) मंगल-सूचक एक चिन्ह स्वस्तिक | सती - वि० स्त्री० (सं०) प्रतिव्रता, साध्वी । संज्ञा, स्त्री० (सं०) दक्ष प्रजापति की कन्या जो शिव जी को विवाही थीं। "या तन भेंट सती सन नाहीं "- - रामा० । मृत पति के साथ जीते जी चिता में जल जाने वाली स्त्री, एक नग और गुरू एक वर्ण का एक afe छंद (पिं० ) । For Private and Personal Use Only Page #1703 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सतीत्व सत्पथ, सत्पंथ सतीत्व-संज्ञा, पु० (सं०) पातिव्रत्य, सती. सत्कर्म-संज्ञा, पु० (सं० सत्कर्मन् ) सुकर्म, पन, सती होने का भाव । धर्म या पुण्य का कार्य, अच्छा कार्य । सतीत्वहरण सतीत्वापहरण- संज्ञा, पु० वि०-सत्कर्मी। यौ० (सं०) दूसरे की पत्नी की इज्ज़त ज़बर- सत्कार-संज्ञा, पु. (सं०) सम्मान, पादर, दस्ती बिगाडना, सतीत्व नष्ट करना, या प्रातिथ्य, खातिरदारी, इज्जत, श्रेष्ठ कार्य । बिगाड़ना. पर-स्त्री प्रसंग बलात्कार । सत्कार्य-वि० (सं०) सत्कार करने योग्य । सतीपन-संज्ञा, पु० दे० (सं० सतीत्व ) संज्ञा, पु० (सं०)- अच्छा काम, उत्तम कर्म । सतीत्व, पातिव्रत्य । सक्रिया-संज्ञा, स्त्री० (सं०) सत्कार, श्रादर, सतीर्थ-वि० (सं०) सहपाठी, साथ का | सत्कर्म, सत्य या अच्छी क्रिया । पढ़ने वाला। सत्कीर्ति-संज्ञा, पु० (सं०) सुयश, नेकनामी, सतीता-वि० (दे०) समर्थ, पराक्रमी, सुकीर्ति । सत्तावान, सामर्थ्यवान । सत्कुत-संज्ञा, पु. (सं०) उत्तम या श्रेष्ठ सतीवाड़--संज्ञा, पु० (दे०) सती का स्थान, वंश, अच्छा या बड़ा कुटुम्ब या परिवार । सतियों का श्मशान । वि० सत्कुलीन। संज्ञ", स्त्री०-सत्कुलीनता। सतुआ-सतुवा-संज्ञा, पु० दे० (हि० सत्तू ) सत्त-संज्ञा, पु० दे० ( सं० सत्व ) सारांश, चने और जौ या और किसी भूने हुये | सत, सारभाग, मुख्य तस्व, काम की वस्तु । अनाज का आटा, सेतुवा, सत्त (ग्रा० )। * · संज्ञा, पु० दे० सं० सन्य ) सत्य, सच, सतीत्व, पातिव्रत्य । सतुया, सक्रांति-संज्ञा, स्त्री० यौ० दे० (हि. सत्ता--संज्ञा, स्त्री० (सं०) स्थिति, अस्तित्व, सतुपा संक्रांति सं० ) मेष की संक्रांति जब होने का भाव, हस्ती (फ़ा०) शक्ति, अधिकार, सतुपा दान किया जाता है, सेतुवा हुकूमत प्रभुत्व । संज्ञा, पु० दे० (हि० सात) सकराँत (ग्रा.)। ताश श्रादि का, ७ बूटियों वाला पत्ता। सतून--संज्ञा, पु० (फ़ा०) खम्भा, स्तंभ। "श्रात्म धारणाऽनुकुलो व्यापरस्सत्ता - सतूना-संज्ञा, पु० दे० (फा० सतून ) बाज़ सि. कौ० टी० । " लज्जा, सत्ता, स्थिति, पक्षी की एक प्रकार की झपट । जागरणम् "-सि. कौ० । सतोखना*-स० क्रि० दे० (सं० संतोषण) सत्ताधारी-संज्ञा, पु. ( सं. सत्ताधारिन् ) समझाना, संतोष देना, संतुष्ट करना, दिलासा अधिकारी, हाकिम, अफसर। या ढाढस देना, संतोखना (द०)। सत्ता-शास्त्र-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) वह सतोखी--वि० दे० ( सं० संतोषी ) संतुष्ट, शास्त्र जिसमें मूल पारमार्थिक सत्ता का संतोषी, संतोखी (दे०)। विवेचन हो, सत्ता-विज्ञान । सतोगुण-संज्ञा, पु० दे० यौ० (सं० सत्वगुण) | सत्ती-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० सती ) सती, तीन गुणों में से प्रथम, सत्वगुण, सुकर्म में साध्वी, पतिव्रता । लगाने वाला गुण । सत्त-संज्ञा, पु० दे० ( सं० सक्तक ) सित्तू , सतोगुणी-संज्ञा, पु० दे० (हि. सतोगुण + सेतुश्रा, भुने हुये चने और जौ का आटा, ई-प्रत्य० ) सात्विक, सतोगुण वाला, | सतुआ (दे०)। सद्गुणी, सुकर्मी, सदाचारी, सच्चरित्र। सत्पथ, सत्पंथ-संज्ञा, पु० (सं०) सन्मार्ग, सत्-संज्ञा, पु. (सं०)-सत्य, सार, ब्रह्म। उत्तम मार्ग, सरपंथ, अच्छी चाल, सदाचार, वि०-सत्य, ठीक, भला, प्रशस्त । एक ग्रंथ विशेष । वि. सत्पथी। For Private and Personal Use Only Page #1704 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सत्पात्र सत्यानासी सत्पात्र-संज्ञा, पु. (सं.) सुपात्र, दानादि कर्ता सत्यवती-सुतः" गाधि कन्या और के योग्य, अच्छा व्यक्ति, सदाचारी, विद्वान्, ऋचीक पनो । वि० (सं०) सत्य वाली। सुकर्मी संज्ञा, स्रो०-सत्पात्रता। सत्यवादी-- वि. ( सं० सस्य वादि ) सच सत्पुरुष - संज्ञा, पु० (सं०) भलामानुष, भला बोलने या कहने वाला, अपनी बात को प्रादमी, परमेश्वर ( कवी०)। पूरा करने वाला, सत्य-भाषी। स्त्री०सत्य - वि० (स०) मच, ठीक, सही, यथार्थ, सत्यवादिनी। वास्तविक, तथ्य, असल, साँच । संज्ञा, पु०- सत्यवान-संज्ञा, पु. ( सं० सत्यवत् ) शाल्व ठीक या यथार्थ बात, उचित पक्ष, धर्म देश के राजा द्युमरसेन का पुत्र और पतिव्रता की बात । "सुनु सिय सत्य असीस हमारी" सावित्री का पति जिसे उसने अपने सतीत्व --- रामा० । न्याय-नीति के अनुकूल बात, के प्रभाव से यम से बचाया था (पुरा०)। विकार-रहित वस्तु, ( वेदा० ) ऊपर के सात सत्यव्रत-हाज्ञा, पु० (सं०) सच बोलने का लोकों में से सर्वोपरि प्रथम लोक, विष्णु, नियम या प्रण । " सत्य-व्रतं सत्य परं च कृत युग, चार युगों में से प्रथम युग। सत्यं-भाग । वि. (सं०) सत्य-भाषण सत्य काम--वि० यौ० (सं०) सत्यानुरागी, का व्रत रखने वाला। वि०-सत्यवती। सत्य का प्रेमी. सत्येछु । " सत्यवती हरिचन्द हुते टहरत मरघट सत्यतः-- अव्य. (सं०) वस्तुतः पचमुच, पै"-- रत्ना० । वास्तव में, यथार्थतः : सत्यसंध-वि० (सं०) सत्य-प्रतिज्ञा, वचनों सत्यता-संज्ञा, स्त्री० सं०) सच्चाई. सचाई, को पूरा करने वाला । स्त्री० -सत्यसंधा। यथार्थता, वास्तविकता। संज्ञा, पु० (सं०) सच्ची प्रतिज्ञा वाला, सत्यधाम--संज्ञा, पु० यौ० सं०) विष्णु-लोक रामचंद्र, जन्मेजय । “सत्यसध दृढव्रत स्वर्ग, वैकुंठ, परमधाम । रघुराई"-पामा० । संज्ञा, स्त्री० (सं०) सत्यनाम-पंज्ञा, पु० यौ० सं०) राम नाम। सत्य-संधता। सत्यनारायगा- संज्ञा, पु० यौ० (सं०) विष्णु, सत्यग्रह-सत्याग्रह-संज्ञा, पु. (सं०) किसी "ममोपदेशतो विप्र सत्यनारायण भज".... सच्चे या न्याय-संगत पक्ष की स्थापना के रेवार प० पु०। हेतु सदा शांति-पूर्वक लगातार अपना हठ सत्यभामा - संज्ञा, लो. () सम्राजीत् की। निवाहना, सत्य के पक्ष पर श्राग्रह करना । कन्या तथा श्री कृष्ण जी की पाठ पटरानियों वि०-सत्याग्रही। में से एक । “ याही हेतु पाखत को राखत | सत्यानास-संज्ञा, पु० दे० (सं० सत्ता+ विधान नाहि, पूजा माहिं प्रीतम प्रवीन नाश ) विनाश, मटियामेट, सर्वनाश, नष्टसत्यभामा के "--- रत्ना०। भ्रष्ट, ध्वंस, बरबादी। मुहा०-सत्यानास सत्यभाषण-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) सत्य करना (दे०)- मटियामेट करना, बरबोलना। वि०.-सत्यभाषी। बाद करना। सत्यानास जाना या होनासत्ययुग-संज्ञा, पु. यो० सं०) चार यगों में वा० (दे०) नष्ट होना, मटिया मेट होना, से प्रथम युग, कृत युग। खराब होना. बरबाद होना। सत्यवती-संज्ञा, स्त्री० (सं०) मत्स्यगंधा सत्यानासी-वि० दे० (हि. सत्यानाश+ ईनाम की धीवर कन्या तथा व्यास या कृष्ण प्रत्य०) मटियामेट या सत्यानास करने वाला, द्वैपायन जी की माता। "अष्टादशपुराणानि चौपट करने वाला, विनाशक, ख़राबी या For Private and Personal Use Only Page #1705 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - - सत्यानृत १६६४ सदम बरबादी करने वाला । वि० यौ० (सं०सत्य --- मियों में उठना-बैठना। " सत्संगति-महिमा अनाश+ ई-प्रस्य०) सत्य और अनाश, वाला नहिं गोई"--रामा० । “ सत्संगतिः कथय ब्रह्म। “सत्यानाशी कलेश-कुल-संजातः'। किं न करोति पुंसाम् -भ । संज्ञा, स्त्री०-एक कटीला पौधा, भडभाड, सत्संगी - वि० ( सं० सत्संगिन ) मेल-मिलाप घमोय (प्रान्ती० । रखने वाला, अच्छे संग में रहने वाला, सत्यानत - संज्ञा, पुल्यौ० (सं० सत्य + अमृत)। मिलन-सार । “ मूरख ज्ञानी होत है, जो वाणिज्य, व्यापार, सौदागरो । वि. यौ० सरसंगी होय" क. वि०। (सं०) सत्य और झूठ। सथर* --- संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० सथल) स्थल, सत्र--संज्ञा, पु. (सं.) एक सोमयाग, यज्ञ, भूमि, पृथ्वी । गृह, धन, सदावर्त्त, छेत्र दीन-असहायों सथरी-माथरी-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० को जहाँ भोजनादि बँटे । सस्थली ) पुपाल श्रादि तृण की शव्या। मत्र -- संज्ञा, पु० दे० (सं० शत्रू ) रिपु परि । सथशव ... संज्ञा, पु० (दे०) रण-भूमि में मरे शत्रु, बैरी, दुश्मन । संज्ञा, स्त्री० (दे०) वीरों की लोथें ।। सत्रुता। मथिया मनिया---पंज्ञा, पु० दे० (सं० सत्रुधन-सत्रुहन*... संज्ञा, पु० दे० (सं० स्वस्तिक) मङ्गल-सूचक या ऋद्धि-सिद्ध-दायक शत्रुघ्न ) राम जी के छोटे भाई, शत्रुघ्न । चिह्न, स्वस्तिक चिह्न (म, फोडों या सत्व - संज्ञा, पु. (सं०) सत्ता, हस्ती, (फ़ा०) आँख के रोगों की चिकित्सा करने वाला, अस्तित्व, मूल, तत्व, सारांश, सार, चित जर्राह । की प्रवृत्ति, श्रात्म-तत्व. मनोवृत्ति, चित्तत्व, सद वि० दे० (सं० सद् या सत् ) नवीन, चैतन्य. जीव, तत्व, प्राण, तीन गुणों में से ताज़ा। “सद मा वन साजो दधिमीठो मधु. प्रथम गुण, सतोगुण । संज्ञा, स्त्री० (सं०) | मेवा पकवान".--सूबे० । क्रि० वि० दे० सं० शक्ति, बल, पौरुष, पवित्रता, शुद्धता सद्य तुरन्त, शीत्र, सत्वर, मद्यः त्वरित | विलो०-निसा तत्व। " सूरदास सुर जाँचत तव पद करहु कृण सत्वगुगा --संज्ञा, पु. यौ० (सं०) प्रकृति के अपने जन पर मद" । संज्ञा, स्त्री० दे० तीन गुणों में से प्रथम गुण, जो जीव को (सं० सत्व) स्वभाव, पादत, प्रकृति । सुकर्मों की ओर प्रवृत्त करने वाला, प्रकाशक मदई *-अव्य० दे० ( सं० सदैव ) हमेशा, और इष्ट है, सतोगुण वि० (सं०) सत्व- सदा, सर्वदा, सदैव, मदाई (दे०) ! गुणी। सदका– संज्ञा, पु. ( अ० सदकः ) दान, सत्वर --श्रव्य० (सं०) शीघ्र, जल्द, तुरंत, खैरात, निछावर, उतार (दे०)। “सदकः स्वरित । संज्ञा, स्त्री० (सं०) सत्वरता। तुझपै से निछावर जान है "~-हाली। सत्संग -संज्ञा, पु० (सं०) 'प्रच्छा संग या मदन-संज्ञा, पु० (सं०) सद्म, गृह, मकान, साथ, सज्जनों या साधु पुरुषों की संगति, __घर, मन्दिर, स्थिरता विराम, एक राम-भक्त भले मनुष्यों का साथ, सत्पुरुषों के साथ क़साई, सदना (दे०) । "मिद्धि-सदन गज बैठना उठना और रहना । " तुलै न ताहि बदन विनायक ''..- विनय० । जो सुख लह सत्संग" रामा० । मदबरग-सदबर्ग--संज्ञा, पु० (फ़ा०) गेंदा सत्संगति-संज्ञा, स्त्री० (सं०) अच्छा साथ, का फूल । मज्जनों या साधु पुरुषों का साथ, भले श्राद- सदम-संज्ञा, पु० (दे०) सद्म (सं०) घर । For Private and Personal Use Only Page #1706 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सदमा सदाशिव सदमा-संज्ञा, पु० दे० ( अ० सदमः ) चोट, सदहा-वि• (फ़ा०) सैकड़ों। धक्का, आघात, दुःख, रंज । “सदमों में सदा -अन्य० (सं०) सदैव, सर्वदा, निरतर, इलाजे दिले मजरूह यही है "---अनी।। सतत, हमेशा, नित्य, अनुदिन, लगातार, सदय-वि० (सं०) दयावान, दयालु, दयायुक्त संतत । “सदा काशिनी वासिनं गंगतीरे" संज्ञा, स्त्री० (सं०) सदयता। ...- स्फु०। संज्ञा, स्त्री० (अ.) गँज, प्रतिध्वनि, सदर --- वि० (अ.) मुरय, प्रधान । संज्ञा, पु० शब्द, आवाज पुकार । " सदा सुनके फकीरों केन्द्र स्थान, शाशक स्थान । यौ० ... मदर- की तुझे लाज़िम रहम करना"..-स्फु० । मुकाम, सदर-दरवाज़ा। सदाई --अव्य ० दे० (सं० सद!) हमेशा, नित्य । सदर पाला-संज्ञा, पु. (अ.) छोटा जज । "रहित सदाई हरियाई हिये घायनि मैं ''सदरी- एंज्ञा, स्त्री. (प्र०) एक प्रकार की ऊ. श०। बंडी या कुरती, बिना बाहों की कुरती सदाचरणा, सदाचार --संज्ञा, पु० यौ० (सं०) सदर्थ--संज्ञा, पु० (सं०) सत्यार्थ, सदुद्देश्य । अच्छा व्यवहार, शुद्ध या शुभ श्राचरण, संज्ञा, स्त्रो० (सं०) सदर्थता । भलमनसाहत । "श्रुतिस्मृति सदाचार सदर्थना*-स० क्रि० दे० (सं० सदर्थ, स्वस्य च प्रियमात्मनः"-- मनु । समर्थन ) पुष्ट या समर्थन करना पक्का या सदाचारी---संज्ञा, पु. ( सं० सदाचारिन् ) दृढ़ करना । धर्मात्मा, अच्छे व्यवहार या आचरण वाला। सदसत्-सदसद- वि० यौ० ( सं. सत् ।। स्त्री० --सदाचारिणी। असत् ) सत्यासत्य, सच-झूठ । “सदसद सदादश--संज्ञा, पु० यौ० (सं०) श्रेष्ठ आज्ञा । ज्ञान होय तब ही जब सद्गुरु भले सदाफल..... वि. यो० (सं०) सदैव फलने लखा--मन्ना ! “सदसदव्यक्ति-हतवः" । वाला पेड़ । संज्ञा, पु. (सं०) ऊमर, गूलर, -~-रघु० । श्रीफल, बेल, एक प्रकार का नींबू, नारियल । सदसद्विचार -संज्ञा, पु. यौ० (सं०) सत्या. सदाबरत--- संज्ञा, पु० दे० ( सं० सदाव्रत ) सत्य-निर्णय, सत्य-झूठ का विचार। प्रतिदिन दीन-दुखियों को भोजन बाँटना, सदसद्विवेक-सज्ञा, पु० यौ० (सं०) भले- भूखों कंगालों को बाँटा जाने वाला भोजन बुरे या सत्यासत्य का ज्ञान, अच्छे बुरे की खैरात, दान, सदावर्त (दे०) । पहिचान । वि० सदसद्विवेको।" होवै जब सदावर्त्त-संज्ञा, पु० दे० (सं० सदावत ) सदसद्विवेक तब संग्रह त्यागब होई " ----- दीनों को नित्य भोजन देना, सदाबरत, मन्ना । दुखियों को दिया गया भोजन । सदसद्विवेचन-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) सदाबहार-वि० दे० यौ० (हि० सदा-+ सत्यासत्य की विवेचना। वि० सदसद्विवेचक । फ़ा० बहार ) वह पौधा जो सदैव फूलता रहे, सदसि-सदस--संज्ञा, पु० (सं०) गृह, सभा। जो सदा हरा-भरा रहे (पेड़)। "सदस परिक्षोभित भूमि-भागम्'--भट्टी। सदाशय-वि० यौ० (सं०) उदार और श्रेष्ठ " सदसि वाक-पटुता युधि विक्रमः".-- भाव वाला व्यक्ति, सज्जन, भलामनुस, भत । महाशय । संज्ञा, स्त्री० (स.) सदाशयता। सदस्य-संज्ञा, पु० (सं० सदसिभवः) सभा- सदाशिव--संज्ञा, पु० यौ० ( सं०) नित्य सद, मेम्बर अ०), सभा या समाज का | कल्याणकारी, महादेव जी, सदासिव मनुष्य, यज्ञ करने वाला । संज्ञा, स्त्री० (सं०) (दे०) । "शंभु सदा शिव औघढ़ दानी"सदस्यता। रामा० । For Private and Personal Use Only Page #1707 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - सदासुहागिन १६६६ सधवाना सदासुहागिन-सदासुहागिनी-संज्ञा, स्त्री० सद्ग्रंथ-संज्ञा, पु० (सं०) श्रेष्ठ ग्रंथ, अच्छी दे० यौ० (हि०) वेश्या, पतुरिया, रंडी, पुस्तक, सन्मार्ग-प्रदर्शक ग्रंथ । “ जिमि ( व्यंग्य ) फूलों का एक पौधा । पाखंड-विवाद ते लुप्त होंहि सद्ग्रंथ"-रामा०। सदिया - संज्ञा, स्त्री० दे० ( फ़ा० सादः ) भूरे सह -संज्ञा, पु. दे० (सं० शब्द ) शब्द, रंग का लाल पक्षी, लाल की मादा। ध्वनि । “ हटकंत हुल करि हूह सद्देसदी-संज्ञा, स्त्री० [अ०) शताब्दी, सैकड़ा सुजा० । अव्य० दे० (सं० सघः ) तत्काल, सौ का समूह, सौ वर्षों का समूह, | तुरंत, शीघ्र, सत्वर । सही (दे०)। सदल--- संज्ञा, पु० (सं०) समूह, वृन्द । सदुपदेश-संज्ञा, पु. यौ० सं०) उत्तम सद्भाव--संज्ञा, पु. (सं०) सच्चा और उत्तम शिक्षा, अच्छी सिखावन, या सलाह, सुन्दर भाव, सदाशय, प्रेमी, प्रीति और हित का उपदेश । वि० सदुपदेशक, सदुपदेष्टा ।। भाव, मैत्री, मेलजोल, अच्छी नियत, सदूर* ---संज्ञा, पु० दे० (सं० शार्दूल) व्याघ्र, . सद्विचार । सिंह, चीता, शरभजंतु, एक राक्षस, दोहे का सद्भावना-संज्ञा, स्रो० (सं०) सुन्दर और एक भेद (पि.) एक पक्षी, सारदूल(दे०)। श्रेष्ठ भावना । सदश---वि० (सं० ) समान, तुल्य, सम स--संज्ञा, पु. ( सं० समन् ) सदन, गृह, बराबर, अनुरूप। संज्ञा, पु० (सं०) सादृश्य। घर, मकान, संग्राम, युद्ध, भुमि और प्राकाश। संज्ञा, स्त्री० (सं०) सदृशता। सद्य-अव्य० दे० (सं०. अभी. सत्वर, तुरंत, सदेश-अव्य० (सं०, समीप, पास. निकट। शीघ्र, इसी वक्त या समय, प्राज ही। सदेह-क्रि० वि० (सं०) विना शरीर छोड़े, | सद्यः---अत्र्य० (सं०) अभी, तुरंत, शीघ्र । इसी शरीर से, शरीरी, मूनिमान, सशरीर । "सद्यः बलकरः पयः" सदैव-अव्य. यौ० (सं० सदा+एव) सर्वदा, | सद्यः प्रसूता- वि० स्त्री० यौ० (सं०) वह स्त्री सदा। जिसने तत्काल प्रसव किया हो। सदोष वि० (सं०) दोष या अपराध-युक्त. सद्य स्नात--वि० यौ० (सं०) तत्काल या दोषी, अपराधी । (विलो०-निर्दोष, श्रभा नहाया हुआ। अदोष )। संज्ञा, स्रो० (सं.) सदोषता । सपना-अ० क्रि० (हि. साधना ) पूरा या सद्गंधि-संज्ञा, स्त्री० (सं०) सुगंधि, अच्छी सिद्ध होना, काम होना, या चलना, मत. महक, सुवास। लब निकलना, अभ्यस्त होना, हाथ बैठना, सद्गति-संज्ञा, स्त्री० (सं० मरने पर उत्तम ( सधना ) प्रयोजन की सिद्धि के अनुकूल लोक का निवास, मरणोपरान्त उत्तम दशा होना, गौं पर चढ़ना, भार सँभलना, निशाना की प्राप्ति, सुगति, परमगति । ठीक बैठना। स० रूप०-सधाना, सधासद्गुण-संज्ञा, पु. (सं०) अच्छा और उत्तम वना, प्रे० रूप०--सधवाना । गुण या लक्षण, अच्छी सिफत या तारीफ़। सधर-- संज्ञा, पु० (सं०) ऊपर का ओंठ। वि० --- सद्गुणी। सधवा-संज्ञा, स्त्री. (सं०) वह स्त्री जिसका सद्गुरु-संज्ञा, पु. (सं०) उत्तम या अच्छा स्वामी बीता हो, सुहागिन (दे०) सौभाग्यगुरु. श्रेष्ठ शिक्षक, परमात्मा। " सद्गुरु वती। मिले तें जाहि जिमि, संशय-भ्रम-समुदाय' सधवाना-स० क्रि० (हि. सधना का प्रे. -रामा० । रूप ) पूरा करवाना, सधाना । For Private and Personal Use Only Page #1708 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सधाना सनसनाहट सधाना-स० कि० दे० (हि. सधना का प्र० पागल होना, सिड़ी होना । स० क्रि० (दे०) रूप ) साधने का कार्य दूसरे से कराना, पागल बनाना, सनक चढ़ाना । स० कि. किसी को कोई वस्तु या भार पकड़ाना। (दे०)-संकेत या इशारा करना, ( आँख स. रूप-सधावना, प्रे० रूप--सधवाना। से ) सैन करना। सनंदन- संज्ञा, पु० सं०) ब्रह्मा जी के चार सनत्-संज्ञा, पु. (सं०) ब्रह्मा जी। मानस-पुत्रों में से एक पुत्र । सनत्कुमार-संज्ञा, पु. यौ० (सं०) वैधात्र, सन्--पंज्ञा, पु० (अ०) वर्ष, साल, संवत्पर, ब्रह्मा जी के चार मानस पुत्रों में से एक पुत्र । संवत्, कोई वर्ष विशेष। सनद-संज्ञा, स्त्री० (०) प्रमाण, दलोल, सन-संज्ञा, पु० दे० ( सं० शण ) एक पौधा सुबूत, प्रमाण पत्र, सार्टिफिकेट (अं०)। जिसकी छाल के रेशों से रस्सी आदि चीजें मुहा०--सनद रहना (होना)-प्रमाण बनती हैं। */-प्रत्य० (श्रव०। (सं० सग) रहना (होना)। से, साथ (करण-विभक्ति)। '. मैं पुनि निज सनदयाफ्ता-वि० (अ० सनद + याफ्तःगुरु सन सुनी"---रामा० । संज्ञा, स्त्री० फ़ा०) जिसे किसी बात की सनद मिली हो। ( अनु० ) अति वेग से निकलने का शब्द, सनदो-संशा, पु. स्त्री. (अ० सनद) जिसके वायु-प्रवाह का शब्द । वि० ( अनु० सुन ) पास सनद हो, ठीक २ हाल । वि० (दे०) सन्न, सन्नाटे में पाया हुश्रा, स्तब्ध, (सं० प्रमाण-पुष्ट । शून्य ) चुप, मौन। सनना-अ.क्रि० दे० ( सं० संधम् ) रक में सनई - संज्ञा, दे० ( हि० सन ) छोटी जाति । मिलना, लिप्त या लीन होना, गीला होकर का सन। किसी वस्तु में मिलना । स० रूप-सानना, सनक-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० शंका ) किसी प्रे० रूप० - सनाना, सनवाना। बात की धुन, जनून, खफ्त (फ़ा० मन की सनम -- संज्ञा, पु० (अ.) प्रिय, प्यारा, मित्र, झोंक, सवेग मन की प्रवृत्ति, मौज वि०- दोस्त । " चाहने जिसको लगे उसको सनम सनकी । मुहा०---सनक अाना या कहने लगे'–स्फु०। सवार होना ( चढ़ना )--धुन होना, सनमान-सज्ञा, पु० दे० (सं० सम्मान) जुनून सवार होना । संज्ञा, पु. (सं०) ब्रह्मा सरकार, प्रादर, सन्मान, खातिर । “प्रभुजी के चार मानस-पुत्रों में से एक पुत्र। । सनमान कीन्ह सब भाँतो"-रामा । सनकना-अ० कि० दे० (हि. सनक ) | सनमानना--*-सक्रि० दे० (सं० सम्मान) पागल हो उठना, किपी धुन में हो जाना, ! सत्कार या आदर करना, खातिर करना । पगलाना, नितांत मोन या निरुत्तर रहना, । "सनमाने प्रिय वचन कहि"-रामा । शांत रहना। सनमुख*-अव्य० दे० (सं० सम्मुख ) सनकाना-स० कि० दे० (हि. सनक ) | सम्मुख, सामने । “सनमुख होइ कर जोरि सनक चढ़ाना, इशारा करना, सैन करना। रही"- रामा० । सनकियाना (प्रान्ती.)। सनसनाना--अ० कि० (अनु० ) हवा के सनकारना -स० के० दे० ( हि० सैन । चलने या पनी के खौलने का शब्द होना, करना) सनकाना, संकेत या इशारा करना, | सन २ शब्द होना या करना, वेग से उड़ना । सैन करना । "सनकारे सेवक सकल चले सनसनाहट--संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. सनस्वामि-रुख पाय"---रामा । सनाना) हवा के तेजी से चलने या पानी सनकियाना-अ० क्रि० दे० ( हि० सनक) के खौलने का शब्द । भा० श. को०-२१३ For Private and Personal Use Only Page #1709 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सनसनी सन्न सनसनी-संज्ञा, स्त्री० (अनु० सन २) झुन- रक्षक या स्वामी हो, सनाथा (दे०) । "जो मुनी, घबराहट, उद्वेग, सन्नाटा, खलभली, कदापि मोहिं मारि हैं, तो मैं होब सनाथ" संवेदन-सूत्रों में एक विशेष स्पंदन, भयादि -रामा० । स्त्री०--सनाथा । से उत्पन्न स्तब्धता । सनाय-संज्ञा, स्त्री० दे० ( अ० सनाs ) एक सनहकी-संज्ञा, स्त्री० दे० । अ० सनहक) पौधा जिसकी पत्तियाँ रेचक होती है, सोनारकाबी, सनहक, मिट्टी का एक बरतन मुखी ( प्रान्ती०)। (मुसलमान०)। सनाह-संज्ञा, पु० ( सं० सन्नाह ) बकतर, सनाका--क्रि० वि० (दे०) 'पाश्चर्यादि से कवच, जिरह-बख़्तर, लोहे का अँगरखा । स्तब्ध, मौन । मुहा०-सनाका खाना __ "जहँ तहँ पहिरि सनाह प्रभागे"-रामा० । सन्न या स्तब्ध होना । संज्ञा, पु. (दे०) वि० (दे० स-+नाह = नाथ) सनाथ । सवेग वायु-प्रवाह का शब्द । मुहा० --- सनि संज्ञा, पु. दे. (सं० शनि.) शनिश्चर, सनाका मरना (भरना )- सवेग वायु शनैश्चर, एक ग्रह और दिन । चलना। सनाढ्य-संज्ञा, पु. (सं०) ब्राह्मणों की दश सनिया-रंज्ञा, पु. (दे०) एक सन या मुख्य जातियों में से गौड़ों के अंतर्गत एक टसरी का वस्त्र । जाति । " सनाढ्य जाति गुणाढ्य है जग सनीचर-संज्ञा, पु० दे० (सं० शनैश्चर ) सिद्ध शुद्ध स्वभाव'-- राम । एक ग्रह, रविवार से पूर्व का एक दिन। सनीचरा--वि० दे० (हि० सनीचर) अभागा, सनातन-संज्ञा, पु० (सं०) प्राचीन काल. अभागी, कमबख्त, सनिचरहा (ग्रा.)। या पुराना समय, प्राचीन परम्परा, बहुत सनोचरी--संज्ञा, स्त्री. (हि. सनीचर ) समय से चला आया कारय-क्रम, ब्रह्मा, विष्णु, शिव, ब्रह्म, परमात्मा । वि० बहुत शनि ग्रह, शनि की दुखद दशा । "सनीचरी पुराना, अत्यंत प्राचीन, जो बहुत समय से है मीन की"-कवि० । चला पाता हो, शाश्वत, परम्परागत, नित्य, सनोड-वि० (सं०) निकटवर्ती, समीपी या सदा। वि० (सं०) सनातनी। यौ० (हि. पास का । क्रि० वि० (सं०) पास या समीप सना+तन ) किसी वस्तु से लिप्त देह। में । वि० (सं०) नीड़ या घोसले वाला। सनातनधर्म-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) अति | सनेह -संज्ञा, पु० दे० ( सं० स्नेह ) प्रेम, प्राचीन या परम्परागत धर्म, पौराणिक नेह, प्यार, तेल । “सहित सनेह देह भई धर्म, वेद, पुराण, तंत्र, प्रतिमा-पूजन, तीर्थ- | भोरी"--रामा० । महात्म्यादि को मानने वाला वर्तमान हिन्द- सनेहिया--- *- पंज्ञा, पु० दे० (हि० सनेही) धर्म का एक रूप विशेष । वि०, संज्ञा, पु० प्रेमी, स्नेह करने वाला, नेही।। (सं.) सनातनी, सनातनधर्मी। सनेही-वि० दे० ( सं० स्नेही=स्नेहिन् ) सनातन पुरुष-संज्ञा, पु० यो० (सं०) विष्णु नेही, स्नेह या प्रेम करने वाला, प्रेमी। जी, परमेश्वर, ब्रह्म, पुराण पुरुष । "कहाँ लखन कहँ राम सनेही" - रामा० । सनातनी-संज्ञा, पु० (सं० सनातन + ई- सने सन-क्रि० वि० दे० (सं० शनैः शनैः ) प्रत्य ) जो अत्यन्त प्राचीन काल से चला | धारे २, क्रमशः, रसे रसे। श्राता हो, ईश्वर, सनातन-धर्मावलम्बी, सनोवर --संज्ञा, पु० (अ०) चीड़ का पेड़। सनातनधर्मी। सन्न-वि० दे० ( सं० शून्य ) जड़, भयादि सनाथ-वि० (सं०) वह पुरुष जिसके कोई से, स्तब्ध, संज्ञा-शून्य, भौचक, चुप । For Private and Personal Use Only Page #1710 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सपक्ष सन्नद्ध-वि० (सं०) तैयार, उद्यत, कटिबद्ध, या जुटना, कफ, बात, पित्त तीनों का एक बँधा, लगा, और जुड़ा हुया । संज्ञा, स्त्री. ही साथ बिगड़ जाना, त्रिदोष (वैद्य०), (सं०) सन्नद्धता। सरसाम (फा०)। " उपजै सन्निपात दुखसन्नाटा---संज्ञा, पु० दे० (सं० शून्य ) नीर- दाई"- रामा० "सन्निपात जल्पसि दुर्वादा" वता, निस्तब्धता, निःशब्दता, निर्जनता, रामा०। यौ०–सन्निशत-ज्वर । एकांतता, सून्यता, निरालापन, स्तब्धता । सन्निविष्ट - वि० (सं०) एक ही साथ जमा मुहा०-सन्नाटे में आना--स्तब्ध रह या बैठा हुआ, धरा या रखा हुआ, प्रतिष्ठित, जाना और कुछ कहते-सुनते न बनना, चुप स्थापित, समीपवर्ती, पास या निकट का रह जाना। एक दम ख़ामोशी, चुप्पा, उदा. पैठा हुआ। सीनता, चहल-पहल का अभाव, गुलज़ार सन्निवेश--संज्ञा, पु. (सं०) स्थित होना, न रहना । मुहा-पन्नाटा स्वीं बना या __रखने, बैरने, बैठाने आदि की क्रिया, जमना, मारना-एक बारगी मौन हो जाना। उदापी, जड़ना, लगाना, समाना, रखना. धरना, उन्मनता । सन्नाटा छा जाना---गुलज़ार निवास, स्थान, घर, इकट्ठा होना, जुटना, न रहना, उदासी फैल जाना, रौनक मिट समाज, समूह, बनावट, गढ़न या गठन । जाना, चहल पहल न रह जाना सन्नाटे वि०-संनिवेशित, संनिवेशनीय । संज्ञा, में-अकेले, जन-शून्यता में, वेग से।। सन्निवेशन। वि० - स्तब्ध, नीरव, निर्जन, शून्य । संज्ञा, | सन्निहित--वि० (सं०) साथ या पास रखा पु० (अनु० सन २) सवेग वायु-प्रवाह का । हुआ, समीपस्थ, निकटस्थ, ठहराया या शब्द, हवा को चीर कर तेज़ी से निकल । टिकाया हुआ, अंतर्गत । 'नित्यं सन्निहितो जाने का शब्द । मुहा०-सन्नाटे से जाना- हरिः"--भा० द० । वेग से चलना। सन्माग--- संज्ञा, पु० (सं०) सत्पथ, श्रेष्ठ मार्ग। सन्नाह संज्ञा, पु० (सं०) कवच. जिरह बख़्तर, विलो०-कुमार्ग । वि०-सन्मार्गी। लोहे का अँगरखा, सनाह (दे०) सन्मान-संज्ञा, पु० (सं०) सम्मान, श्रादरमन्निकट---श्रव्य, (सं०) समीप, पाम, सत्कार । स० क्रि० (दे०) सन्मानना। निकट, अति समीप । संज्ञा, स्त्री. (सं.) वि० सम्माननीय, सन्मानित । सन्निकटता। सन्मुख-अव्य० (सं०) सम्मुख, सामने । सन्त्रिकर्ष--संज्ञा, पु. (सं०) नाता, लगाव, सन्यास-संज्ञा, पु० सं० संन्यास) भव-जाल रिश्ता, संबंध, समीपता, निकटता। वि० के छोड़ने या संसार से अलग होने की सनिकृष्ट। अवस्था, त्याग, वैराग्य, यति-धर्म, चौथा सन्निधान-संज्ञा, पु० (सं०) सामीप्य, समी- श्राश्रम । यौ० ---सन्यास-धर्म । “जैसे विन पता, निकटता, स्थापित करना। विराग सन्याला"-रामा० ।। सन्निधि-संज्ञा, स्त्री. (सं०) संहिता, निक- सन्यासी--संज्ञा, पु० (सं० संन्यासिन् ) त्यागी, टता, समीपता, पड़ोस । “कृत्स्ना च भूर्भ- विरागी, जिसने सन्यास ले लिया हो, वति सन्निधि रतापूर्णा-भ० श० । संज्ञा, | चौथे पाश्रम वाला । स्त्री०-सन्यासिनी, पु० (सं०) सान्निध्य । सन्यासिन । “मूड़ मुड़ाय होहिं सन्यासी" सन्निपात-~संज्ञा, पु. (सं०) एक ही साथ -रामा०। गिरना या पड़ना, संयोग, समाहार, मिलाप, सपक्ष-वि० (सं०) तरफ़दार, जो अपने पक्ष मेल, एकत्र या इकट्ठा होना, एक में जुड़ना, में हो, पोषक, समर्थक, सपच्छ (दे०)। For Private and Personal Use Only Page #1711 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org १७०० सपत संज्ञा, पु० तरफ़दार, सहायक, साथी, मित्र, साध्यवाला दृष्टांत या विषय ( न्याय), पंख वाला, सपच्छ (दे० ) । " ननु सपत्र धावहिं बहु नागा " - रामा० । सपत - वि० दे० (सं० सप्त ) सात । " सपत ऋषिन विधि को विलँब जनि लाइय"पा० मं० । 1 सपत्नी - संज्ञा, स्त्री० (सं०) एक ही पति की दूसरी स्त्री, सौन, सौतिन सवति । सपत्नीक - वि० सं०) स्त्री-सहित । यौ० - सपत्नीभाव -सौतिया डाइ । सपथ – संज्ञा, पु० दे० (सं० रापथ ) सौगन्द, क़सम । " राम- सपथ, दशरथ के थाना" रामा० । सपदि - अव्य० (सं०) तत्काल, तुरन्त, फ़ौरन, शीघ्र, सत्वर, त्वरित, तत्-क्षण | राम समीप सपदि से आये " - रामा० । “सपदि fig-रसेन विसूचिकां हरति भो रति-भोगविचक्षणो " - लो० । सपन, सपना – संज्ञा, पु० दे० (सं० स्वम) ख़्वाब, अर्धसुप्तावस्था की बातें, निद्रादशा के दृश्य | " सबहिं बुलाय सुनाइस स्वम, "" सपना - रामा० । सरदाई - संज्ञा, पु० दे० (सं० संप्रदायी ) रंडी के साथ तबला - सारंगी बजाने वाला, समाजी, सपदा, सफदा, भंडुआ (ग्रा० ) । सपरना - अ० क्रि० दे० (सं० संपादन ) काम पूरा या समाप्त होना, निबटना, हो सकना, पार लगना, जा सकना, स्नान करना, नहाना । सपराना – स० क्रि० दे० ( हि० सपरान ) काम पूरा करना, समाप्त करना, स्नान कराना, प्रे० रूप० - सपरवाना । सपरिकर - वि० (सं०) सेवकों या अनुचरवर्ग के साथ, ठाट-बाट के साथ, कमर में फेंट बाँधे हुए, कटिबद्ध, साद्ध, वद्धपरिकर सपाट - वि० दे० (सं० सपट्ट ) समतल, सप्त बराबर, हमवार, चिकना, साफ़, समथल समथर | (दे० ) जिस पर कोई उभाड़ न हो । सपाटा - संज्ञा, पु० दे० ( सं० सर्पण ) दौड़ने या चलने का वेग, तेजी, झोंका, झपट, दौड़, तीव्रगति । सुहा० - सपाटा भरना ( लगाना ) - तेज़ी से भागना । यौ०सैरर-सपाटा घूमना-फिरना, भ्रमण करना । सपाद वि० (सं०) चरण सहित, एक और उसका चौथाई मिला, सवा, सवाया । " सपाद सप्ताध्यायी प्रति त्रिपाद्यसिद्धा सि० कौ० । 13 सपिंड - संज्ञा, पु० (सं०) एक ही वंश का व्यक्ति जो एक पितरों को पिंड दान करने में संमिलित हो । “सपिंडातु या मातुः "मनु० । सपिडी-संज्ञा स्त्री० (सं०) मृतक को धन्य पितरों से मिलाने का कर्म विशेष । सपुत्र संज्ञा, पु० ६० (सं० सुपुत्र ) च्छा लड़का, सुपुत्र सपुत (दे० ) । वि० (सं०) पुत्र के साथ | स्फु० । सपूत - संज्ञा, पु० ६० (सं० सपुत्र, सुपुत्र ) अच्छा लड़का सुपुत्र सुप्त, सत्पुत्र । विलो०- कुप्त-कप्त " लीक छाँड़ि तीनै चलें शायर, सिंह, सपूत संज्ञा, स्रो० (दे०) सपूती । सपूती - संज्ञा, स्त्री० दे० ( हि० सपून + ईप्रत्य० ) लायकी, योग्यता, सुपूत होने का भाव | वि० (दे० ) योग्य पुत्र उत्पन्न करने वाली माता । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private and Personal Use Only -- " सपेन, सफेद) - वि० दे० ( फा० सुफेद ) सफ़ेद, उजला. श्वेत | संज्ञा, खो० (दे० ) सपेती, सपेदी | सपेरा - संज्ञा, पु० दे० (हि० साँप ) सँपेरा, साँप वाला, मदारी | सँपेला सँपोला- संज्ञा, ५० दे० ( हि० साँप + एला, भोला - प्रत्य० ) साँप का बच्चा, छोटा साँप, सँपेलवा (ग्रा० ) । सप्त - वि० (सं०) गिनती में सात । Page #1712 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सप्तऋषि १७०१ सफ़र सप्तऋषि-सप्तर्षि -- पंज्ञा, पु. यौ० (सं० समर्षि -- संज्ञा, पु० (सं०) सात ऋषियों का सप्तर्षि ) सात ऋषियों का समूह । " तबहि समूह या मंडल, गौतम, भरद्वाज, विश्वा. सप्तऋषि शिव पहँ पाये"-रामा। मित्र, यमदग्नि, वसिष्ठ, कश्यप, अत्रि इति, सप्तक-संज्ञा, पु. (सं०) सात पदार्थों का शतपथः । मरीचि, अंगिरा, अत्रि, पुलह, समूह, सात स्वरों का समूह (संगी०)। क्रतु, पुलस्त्य, वसिष्ठ-इति महाभारत । उत्तर सप्तजिह्वा -- संज्ञा, पु० यौ० (सं०) सप्तर्चिषा, दिशा में जदय होने वाले सात तारे जो सात जीभों वाला, अग्नि, श्राग। ध्रुव तारे के चारो ओर घूमते दीखते हैं, मनताल · संज्ञा, पु० यौ० (सं०) ताड़ के (भूगो०)। ७ वृक्ष जिन्हें एक ही बाण से राम ने गिरा सप्तरातो---संज्ञा, स्त्री. (सं०) सात सौ का कर बालि वध की क्षमता प्रगट की थी। । समूह, सात सौ छंदों का समूह, सतसई, सप्तति-संज्ञा, स्त्री० (सं०) सत्तर, ७० की सतसइया (दे०)। संख्या। सप्ताश्व-संज्ञा, पु. यौ० (सं०) सात घोड़ों मप्तदश-वि• यौ० (सं०) सत्तरह, सत्रा । के रथ में बैठने वाले सूर्य । सप्तसागर --- संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) सात सप्तद्वीप-संज्ञा, पु. यौ० (सं० ) पृथ्वी में समुद्रः - क्षीर, दधि, घृत, इच्छु. मधु, स्थल के सात मुख्य बड़े विभाग, जम्बू , प्लक्ष. | मदिरा, लवण, सप्तदधि, सप्ताँबुधि । कुश, शाल्मलि, क्रौंच, शाक और पुष्कर सप्तस्वर---संज्ञा, पु. यो० (सं०) सात प्रकार द्वीप । यो०-सप्तद्वीप-नवखंड। की ध्वनियाँ, सात स्वर, पड्ज, मध्यम, सप्तपदी-संज्ञा, स्त्री. (सं०) भाँवर, भौंरी, गान्धार, ऋषभ, निषाद, धैवत, पंचम व्याह, विवाह में वर बधु की अग्नि के चारों (संगी० - स, रे, ग, म, प, ध, नी)। पोर परिक्रमा की रीति, भाँवरि, भँघरी सप्ताल-ज्ञा, पु० (दे०) शफ़्तालू , सतालू । (दे०) । भाँवरी, भैउरी (ग्रा०)। समाह-हाज्ञा, पु० (सं०) सात दिनों का सप्तपर्ण-संज्ञा, पु. यौ० (सं०) छतिवन समूह, हफ्ता (फा०), ७ दिनों में पढ़ो सुनी वृक्ष । " पप्तपर्णो विशालत्वक् शारदो, . जाने वाली भागवत की कथा । वि० (सं०) विषमच्छदः"-अमर०। साप्ताहिक। समपर्णी-संज्ञा, स्त्री० (सं०) लज्जावंती लता, सप्रीति-श्रव्य (सं०) प्रेम सहित, प्रेम से, लजालू । प्रीति से । “सुनि मुनीस कह वचन सप्रीती" सप्तपाताल-संज्ञा, पु. यो० (सं०) पृथ्वी -रामा०। के नीचे के सात लोक, अतल, वितल, सप्रेम-प्रत्र्य. ( सं० ) प्रीति-पूर्वक, प्रेम सुतल, रसातल, तलातल,महातल, पाताल । सहित, प्रीति से, स्नेह से । “ समय सप्रेम सप्तपुरी--संज्ञा, स्त्री० यौ० सं०) सात पवित्र विनीत ति, सकुच सहित दोउ भाय"-- नगर या तीर्थः --अयोध्या, मथुरा, हरिद्वार, रामा०। (माया) काशी, कांची, अवंतिका (उज्जयनी) सफ़-संज्ञा, स्त्री० (अ०) अवली, पाँति, पंक्ति, द्वारका । ___ कतार, लंबी चटाई, सीतल पाटी, कक्षा । सप्तम-वि० (सं०) सातवाँ । स्त्रो०--प्तमी। सफतालू--संज्ञा, पु० (दे०) श्राड़ फल । सप्तमी - वि० स्त्री. (सं०) सातवीं, सप्तमी, सफ़र--संज्ञा, पु. (अ०) प्रयाण, यात्रा, सत्तिमी (दे०)। संज्ञा, स्त्री० (सं०) किसी प्रस्थान, अमण, राह चलने का समय या पक्ष की सातवीं तिथि, अधिकरण कारक ! दशा । संज्ञा, पु० मुसाकिर । " सफर जो (व्याक०)। ___ कभी था नमूना सेकर का"-हाली। For Private and Personal Use Only Page #1713 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org सफ़र मैना १७०२ सबद सफ़र मैना - संज्ञा, स्रो० दे० ( श्रं० सैंपर ! सफ़ीना-खज्ञा, ५० दे० ( ० सफ़ीन ) समन ( श्रं०), इतिलानामा, कचहरी का परवाना, माइना) वे सिपाही जो खाँई आदि खोदने की सेना के श्रागे चलते हैं । । सफ़री - वि० ( ० सफ़र ) सफ़र या रास्ते का, यात्रा या राह में काम देने वाला सामान । संज्ञा, पु० -- पाथेय (सं०) मार्ग - व्यय, सफ़रखर्च, श्रमरूद फल यात्रा के श्रावश्यक पदार्थ | सरी- पंज्ञा, स्रो० दे० (सं० शफरी) सौरी मछली | “मनोऽस्य जहुः शफरी विवृत्तयः " - किरा० । जातिमरी बिरति घरी जल सफरी की रीति-वि० । संज्ञा, स्रो० (दे०) अमरूद. विही ( प्रान्ती० ) । सफल - वि० (सं० ) फल-युक्त, परिणामसहित, फलवान, फलदायक, कृतार्थ, कृतकार्य, कामयाब | "सफल मनोरथ होहिं तुम्हारे" । - रामा० ! सफलता – संज्ञा, स्त्री० (सं०) कृतार्थता, सिद्धि, पूर्णता, कृतकार्यता, सफल होने का सब के मिटि जाहिं, सफलता भारत पावै दुख 'हरि० । सकलीकृत - वि० (सं०) सफल या कृतार्थ किया हुआ । he सफलीभूत - वि० सं०) जो सिद्ध या पूर्ण हुआ हो, जो सफल या सार्थक हुआ हो । " सफलीभूत हुये सब कारण कृपा-कटाच तुम्हारी "-- ६० वि० । सफ़हा- संज्ञा, पु० ( ० ) पन्ना, पृष्ट, वक्त के एक घर, सफा (दे० ) । सफ़ा - वि० (०) स्वच्छ, साफ़, निर्मल, पवित्र, उज्वल, चिकना, बराबर, चिन्ह-रहित । सफ़ाई - संज्ञा, स्त्री० (अ० सहा -+- ई - प्रत्य० ) निर्मलता, स्वच्छता, उज्वलता, कूड़ा श्रादि हटाने या लीपने पोतने श्रादि का कार्य्य, स्पष्टता, मन की स्वच्छता, कपट का प्रभाव, निर्दोषता, निबटारा, निर्णय । यौ० - सफाई के गवाह । मुहा० - सफाई देनानिर्दोषता दिखाना | सफाचट - वि० (दे०) एक बारगी साफ, सर्वथा स्वच्छ, बिलकुल चिकना, एक दम साफ़ । भाव । fi Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir थाज्ञा पत्र | सफ़ीर - पंज्ञा, पु० (०) राज- दूत, एलची | साफ़-संज्ञा, पु० (०) चूर्ण, बुकनी । सफ़ेद - वि० दे० (फा० सुद) उज्वल, श्वेत, शुक्ल, धवल, धौला. बर्फ़ या दूध के रंग का, सादा, कोरा, सुफ़ेद सपेत, सफेद (दे० ) । मुहा० - स्याह-सफेद (करना) - भला या बुरा कुछ भी करना । सफेद-योग – संज्ञा, पु० यौ० ( फ़ा० ) उज्वल वस्त्रधारी, साफ या स्वच्छ व पहनने वाला, शुक्लाम्बरधारी, शिष्ट, सभ्य, भलामानस । सफेदा - संज्ञा, ५० दे० ( फा० सुदा ) जस्ते की भस्म, श्रम या खरबूजे का एक भेद, सुकेदा । सफ़ेदी - संज्ञा, स्त्री० दे० ( फा० सुदी ) उज्वलता, शुक्लता, धवलता, श्वेतता, सफेद होने का भाव, सुपेदी, सवेदी, सवेती (दे०) । मुहा० सफ़ेदी थाना-- -बुढ़ापा "स्याही गयी सफ़ेदी श्राई स्फु० | दीवार आदि पर सफेद रंग या चूने की पुताई, चूनाकारी । " थाना । सूत्र वि० दे० (सं० सर्व ) समस्त, सम्पूर्ण, तमाम कुल, सारे, सारा पूरा, सर्वस्व } सत्रक - संज्ञा, पु० ( फा० ) पाठ, शिक्षा । सबक सीखना (लेना) - उपदेश लेना, अच्छी बात का अनुकरण करना, शिज्ञा ग्रहण करना, किसी बुरे कार्य या भूल का बुरा फल देख श्रागे उसके करने से सर्तक रहने की याद रखना | सबक सिखाना (देश)- दुष्टता का उचित बदला देकर शिक्षा देना। मुहा० - वक पहाना (व्यंग्य) - उलटी सीधी बात सिखाना, दंड देकर दुष्टता का बदला देना | सबक पहना सीखना | सवज - वि० दे० ( फा० सब्ज़ ) कच्चा और ताजा फल-फूल यादि, हरा, हरित, उत्तम, शुभ | संज्ञा, स्त्री० - मवजी । वि० सवजा । सबद - संज्ञा, पु० दे० (सं० शब्द ) श्रावाज़, For Private and Personal Use Only Page #1714 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org १७०३ सबब बोली, शब्द, किसी महात्मा के वचन | " सबद - बान बेचे नहीं, बाँस बजावै फंक" —कबी० । सबब - संज्ञा, पु० (०) कारण, हेतु, प्रयोजन, वायम (का० ) वजह, साधन, द्वारा सवर संज्ञा, पु० दे० ( ० सत्र ) संतोष, धैर्य । छड़ सवरा - वि० दे० ( सं० सर्व ) सारा, कुल, सत्र का सब, संपूर्ण, । “दूध-दही चाटन में तुमतौ सवरो जनम गँवायो " - सत्य० । सबरी - संज्ञा स्त्री० (दे०) मोटे लोहे की से बना खोदने का एक श्रीज्ञार | पु० सवर | वि० त्रो० (दे०) समस्त सब | सबल - वि० (सं०) पराक्रम या पौरुष सहित, बल-युक्त, सेना-युक्त | संज्ञा, खो०- सबलता । विलो०- नवल, व्यवल । "निबल-सबल के ज़ोर तें, सबलन सो श्रनाखात" - नीति। सबलता - संज्ञा, खो० (सं०) पौरुष, पराक्रम ताकत, जोर, सामर्थ्य | सबलई, सबलाई -- संज्ञा, स्रो० दे० ( सं० सबलता ) बल. सबलता, पौरुष, जोर, सामर्थ्य | यौ० दे० ( हि० सब | लई - लाई = लेना, लाना ) सत्र लेना । बल, सवाद, सवाद संज्ञा, पु० दे० (सं० स्वाद ) स्वाद, मज़ा, ज़ायका । वि० (दे०) सवादी | सवार - क्रि० वि० दे० ( हि० संवरा ) सबेरा, 66 " तड़का, सकार, शीघ्र, तुरंत, जल्दी ! सवील- पंज्ञा, त्रो० ( प्र०) मार्ग, रास्ता, राह तरीका, पथ, पंथ, सड़क, ढंग, उपाय, रीति, तरकीब, युक्ति, पौसला, प्याऊ (दे० ) । राह तरीक़ सबील पहचान --खा० । सवुनाना -- स० क्रि० ( हि० साबुन ) साबुन लगाना (वस्त्रादि में), सबुनियाना (दे० ) । सबुर - संज्ञा, पु० (दे०) सब ( फा० ) संतोष | सबूत - संज्ञा, पु० (फा० ) प्रमाण | वि० (दे० ) पूरा, बिना फटा, समूचा, साबुत (दे० ) । सबूरी - संज्ञा स्त्री० (३०) सत्र (फा० ) तोष | सवेर, सवेरा, सवेरे - क्रि० वि० दे० (सं० सवेला ) प्रातःकाल, तड़के, तड़का, शीघ्र, Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सभागृह प्रथम । " जाग सबेरे हे मन मेरे -- स्फु० । "ताही तें आयो सरन सवेरे " -- विनय० । यौ० – बेर-सवेर - देर और जल्दी | सबै - क्रि० वि० ( ० ) समस्त सब | सवोतर - अव्य० दे० (सं० सर्वत्र ) सब जगह, सब स्थान या ठौर में, सर्वत्र । सब्ज़ - वि० ( फ़ा० ) ताज़ा और कच्चा फल - फूल । मुहा० - सब्ज़ बाग़ (गुलाब) दिखलाना - अपना कार्य साधने के हेतु किसी को बड़ी २ श्राशायें दिलाना, हरा गुलाव दिखाना । हरा, हरित, उत्तम, शुभ । सब्जा -- संज्ञा, पु० ( फा० सब्ज़ : ) हरियाली, भंग या माँग, विजया, पन्ना नामक रत्न, घोड़े का एक रंग, सबजा (दे० ) । सब्जी - संज्ञा, स्रो० ( फ़ा० ) हरियाली, हरी तरकारी, भंग, भाँग, विजया, वनस्पति आदि । यौ० - सब्जी मंडी -- तरकारी या फलों का बाज़ार | सत्र--संज्ञा, पु० (०) धैर्थ्य, संतोष, सवर सवुर, सबूरी (दे० ) । ' करो सब आता है अच्छा ज्ञामाना " - म०इ० | किसी का सत्र पड़ना - किसी के धैर्य पूर्वक सहन किये कष्ट का प्रतिफल होना लो०- सब का फल मीठा-सुफलप्रद संतोष है । सम्बर - संज्ञा, पु० (दे०) लोहे के मोटे छड़ से बना भूमि खोदने का एक औज़ार । सभत्तर - प्रव्य० दे० ( सं० सर्वत्र ) सर्वत्र, सब ठौर, सर्वत्तर (दे०) । समय - वि० (सं०) सभीत, भय-युक्त। "सभय नरेस प्रिया पहँ गयऊ - रामा० । सभा -- संज्ञ, स्त्री० (सं० ) समाज, गोष्ठी, समिति, परिषद्, मजलिस, वह संस्था जो किसी बात के विचार करने के हेतु संगठित हो । " खंडर को सोभिजै सभा मध्य को दंड 35 - राम० । सभाग, सागा - वि० दे० (सं० सौभाग्य ) सुन्दर, भाग्यवान, खुशकिस्मत, तक़दीरवर, सौभाग्यशाली | विलो० - अभागा । सभागृह - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) समाज 1 For Private and Personal Use Only Page #1715 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org सभापति भवन, मजलिस की जगह, बहुत लोगों के साथ बैठने का स्थान, सभा घर, सभासद्म, सभा-सदन । सभापति - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) सभा का प्रधान नेता, सभा का मुखिया, प्रेसीडेंट, चेअर मैन ( अं० ) | संज्ञा, पु० (सं० ) सभापतित्व । १७०४ सभासद - संज्ञा, पु० (सं०) सदस्य, सामाजिक, किसी सभा में सम्मिलित हो भाग लेने वाला मेम्बर ( श्रं०) । सभिक संज्ञा, पु० (सं०) जुआ खेलने वाला, जुना का प्रधान | सभीत - वि० (सं० ) समय भयभीत, डरा हुआ । सभ्य - संज्ञा, पु० (सं०) सदस्य, सभासद, सामाजिक, मेम्बर, उत्तम विचाराचार या व्यवहार वाला, भला मानुष, शिष्ट, शाइस्ता सभ्यता - संज्ञा, स्त्री० (सं०) सभ्य होने का सामाजिकता, भाव, सदस्यता, और सज्जन होने की यवस्था, भलमनसाहत. शिष्ठता, शराफ़त, झाइश्तगी । समंजस - वि० (सं०) उचित, ठीक । " सबै समंजस श्रहै सयानी "-- रामा० । संज्ञा, पु० (दे०) असमंजस । | समंत - संज्ञा, पु० (सं०) सीमा, सिरा, हद, किनारा, शूर- सामंत | समझना पु० ही आप हिल जाता है, एक अर्थालंकार जिसमें योग्य पदार्थों का मेल या संबंध कहा जाय ( काव्य ) | संज्ञा, पु० ( अ० ) विष, गरल, ज़हर | संज्ञा, स्रो० - समता, साम्य । समकक्ष - वि० यौ० (सं०) तुल्य, एक कोटि का, समान, बराबर | संज्ञा, स्त्री० समकक्षता । समकटिबंध - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) शीतकटिबंध और उष्ण कटिबंध के बीच का भूखंड | समकालीन - वि० यौ० (सं०) (दो या कई ) जो एक ही समय में हों, एक ही समय वाले, समसामयिक | समकोण - वि० यौ० (सं०) वह कोण जो नव्ये श्रंश का हो समान कोने 1 यौ० - समकोण त्रिभुज, समकोण चतुर्भुज । समक्ष -- अव्य० (सं०) सामने, सम्मुख, सन्मुख | संज्ञा, स्त्री० - समक्षता । "समक्षं -भा० द० । समागम - वि० (सं०) समान, बराबर, तुल्य । समग्र - वि० (सं०) पूर्ण, समस्त, सब, कुल, सम्पूर्ण, सारा, पूरा । समचतुर्भुज - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) वह चतुर्भुज क्षेत्र जिसकी चारों भुजायें तुल्य हों ( रेखा० ) । समचर - वि० (सं०) एक सा या समान, थार-व्यवहार करने वाला, एक सा श्राचारविचार करने वाला, समचारी (दे० ) । समाज्या - संज्ञा, स्त्री० (सं०) सभा, समाज, गोष्टी, यश, कीर्ति । "" समंद - संज्ञा, पु० ( फा० ) घोड़ा, अश्व । "कुदावें लुल अज़मियों के समंद - स्फु० । समंदर, समुंदर - संज्ञा, पु० दे० (सं० समुद्र ) समुद्र, सागर (फ़ा० ) । एक कीड़ा । "समंदर र आग में जीव कीड़ा ख़ा० बा० । सम... वि० (सं०) तुल्य, बराबर, समान, सदृश, सब, सारा, कुल, नमाम, जिसका तल बराबर या चौरस हो, चौरस, वह संख्या जो दो पर पूरी पूरी बँट जावे जूस । "उमा राम-सम हितु जग माहीं ' - राम० । संज्ञा, पु० - संगीत में वह स्थान जहाँ गाने-बजाने वालों का सिर या हाथ आप 9 Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir " पश्य मे मुखम् ' सुशिक्षित समझ - संज्ञा, सी० (दे०) ज्ञान, बुद्धि, सामुझि (दे० ) । समझदार - वि० दे० ( हि० समझ + दारफा० ) बुद्धिमान्, अक्लमन्द, ज्ञानी । संज्ञा, स्त्री० - समझदारी । समझना - अ० क्रि० ( हि० समझ ) ध्यान या विचार में लाना, बूझना, सोचना | यौ० - समझना बूझना | स० रूपसमझाना, प्रे० रूप- समझवाना । For Private and Personal Use Only Page #1716 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समझाना समया समझाना-स० कि० (हि. समझना) शिक्षा समधिन --- संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० संबंधी) देना, सिखाना, समझने में लगाना । बेटा या बेटी की सास, समधी की स्त्री। समझावा-पंज्ञा, पु० दे० ( हि० समझ ) | समधियान, समधियाना--संज्ञा, पु. यौ० सीख, सिखावन, शिक्षा, उपदेश । (दे०) समधी का घर या गाँव ! समझौता-- संज्ञा, पु० दे० ( हि० समझ ) समधी - संज्ञा, पु० दे० सं० संबंधी) पुत्र या परस्पर का निपटारा, सुलह । पुत्री का ससुर वि० सं०) समान बुद्धि समतल ---- वि० (सं०) जिसकी सतह बराबर वाला । म समधी देखे हम आजू"--- या हमवार हो, साफ. चिकना । " समतल रामा। महि तिन-पल्लव डासी".. रामा । समधोरा ... संज्ञा, १० (दे०) दो समधियों साला----संज्ञा, स्त्री० (सं०) पादृश्य, तुल्यता, की परस्पर भेंट करने या मिलने की एक बराबरी, समानता। “समता कहँ कोऊ रीति (व्याह.), समधियारी (ग्रा.)। त्रिभुवन नाहीं "-- रामा० । समन - पल्ला, पु० दे० (सं० शमन) शमन, समताई-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० समता ) ! तुल्यता, समानता, बगाबरो। यम, हिंसा, शांति, दमन । “मातु मृत्यु पितु समन समाना"-रामा० ।। ममतल--- वि० दे० यौ० ( सं० समतुल्य ) रमान, सदृश, बराबर, तुल्य । " तदपि समन्तात्-श्रव्य० (सं.) चारों ओर, सब तरफ से। सकोच समेत कबि, कहैं सीय समतल "..--- समन्न----संज्ञा, पु० (दे०) सेहुड़ का पेड़ । रामा। समता--वि० दे० ( सं० समर्थ ) शक्तिशाली. समन्वय--संज्ञा, पु० (सं०) मिलाप, मिलन, पराक्रमी, बली, समर्थ । संयोग, मेला, कार्य-कारण का प्रवाह, समत्रिभुज, समविवाह-संज्ञा, पु. यौ० अनुगतता, विरोधाभाव । " तत्तु समन्व(सं० ) वह त्रिभुज क्षेत्र जिएकी तीनों भुजायें यात् "... यो. द. समान हों, समविवाहु । समन्वित- वि० (सं०) संयुक्त मिला हुआ। समय-न-वि० यौ०६० (सं० समस्थल ) " भोजनं देहि राजेन्द्र पृत-सूप-समन्वितम्' समतल भूमि। --भो० प्र० । समदन-संज्ञा, स्त्री० (दे०) नज़र, भेट। समपाद संज्ञा, पु० (सं०) वह छंद जिसके समदना---० कि० (३०) प्रेम से मिलना, चारों चरण एक से हों (पिं० )। नज़र, भेंट या दहेज देना । “दुहिता समदौ समबत्त-वि० (सं०) समान बल, पौरुष या सुख पाय अबै-रामः । "समदि काम पराक्रम वाला । "रामबल थधिक होह मेलिय सिर धूरी"---पद० । बलवाना'.-रामा० । समदर्शी- संज्ञा, पु. ( सं० समदर्शिन् । समभाव--- संज्ञा, पु० यो० (सं०) समता, या सब को समान या एक सा देखने वाला, बराबरी का भाव, समानता ! समदरसी (दे०)! " कहा बालि सुनु भीरु ! समय----संज्ञा, पु. (सं०) अवसर, काल, प्रिय, समदर्शी रघुनाथ'-रामा०। बेला, वक्त.मौका. अवकाश, फुरसत, अंतिम समदृष्टि-संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) सब को ! काल, समै (दे०)! "समय जानि गुरु समान दृष्टि से देखना।। प्रायसु पाई"-रामा० । समद्विबाहु --- संज्ञा, दु. यौ० (सं०) वह समया-संज्ञा. पु० दे० (सं० समय) अवसर, त्रिभुज क्षेत्र जिसकी दो भुजायें तुल्य हों। काल, बेला, वक्त, मौक़ा, अवकाश, फुरसत, भा० श० को०-२१४ For Private and Personal Use Only Page #1717 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir womeDENJAMIAINImunpasanamaANNEasa m - TEAMINETHE ---रामा० । समर समवाय अंतिम काल। " रैहै न रैहै यही समया | का पोषण करना, किसी बात के ठीक होने बहती नदी पाय पखारिजेरी"। संज्ञा, । ___ का प्रमाण देना, विवेधन, उचितानुचित का पु० (सं०) सपथ, प्राचार, काल सिद्धांत, निश्चय, विचार, अनुमोदन, प्रमाण-पुष्ट या संविद, ज्ञान । “समया शपथा चारःकाल- दृढ़ीकरण । वि०-- समर्थनीय, समर्थिन, सिद्धान्त-संविदः".--अम० । 'तथापि वक्तुं । समर्थक, समर्थ्य । व्यवपाययन्ति मां निरस्त नारी-समया समर्थना-संज्ञा, स्त्री० (सं० ) अभ्यर्थना दुराधयः"-किरा। प्रार्थना, निवेदन, सिफारिश, । स० कि० दे० समर-- संज्ञा, पु. (सं०) युद्ध, संग्राम, (सं० समर्थन) प्रमाण-पुष्ट या दृढ़ करना, लड़ाई । “समर बालि सन करि यश पावा" समर्थन करना। समर्पक--वि० (सं.) समर्पण करने या देने समरथ, समरत्थ-वि० दे० (सं० समथ) वाला। बलवान, पराक्रमी, क्षमताशील, योग्य, समर्पण --- संज्ञा, पु. (सं०) सादर भेंट करना, उपयुक्त, जिसमें किसी कार के करने की सत्कार या प्रतिष्ठा पूर्वक देना, उपहार या तमता हो । “समरथ को नहिं दोष दान देना, समपन (दे०)। वि० ---समर्पित, गुसाई "-रामा० । “करौं अरिहा समर समर्पणीय। स्थहिं"-रामा। समर्पना-स० कि० ० (सं० समगा) भेंट समर भूमि-संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) संग्राम- देना, सौंपना, सिपुर्द करना, देना । “तिमि भूमि, युद्ध-क्षेत्र, रण-स्थली "समर-भूमि जनक रामहि सिय समपी विश्व फल कीरति भये दुर्लभ प्राना"-रामाः । संज्ञा, पु. नयी"-रामा० : (दे०) स्मर (सं०) कामदेव । समर्पनीय- वि० (सं०) समर्पण करने योग्य। समरस्थल--संज्ञा, पु. यौ० (सं०) समर- | समर्णित-वि० सं०) समर्पण किया या भूमि । स्त्री०-समरस्थली।। दिया हुआ, जो समर्पण किया या दिया गया समरांगण ---संज्ञा, पु. यौ० (सं०) समर- हो, प्रदत्त, जो सौंपा गया हो। भूमि संग्राम-स्थल, युद्ध-क्षेत्र, लड़ाई का समल-वि० (सं० ) दोष या मल से युक्त, मैदान, समरांगन (द०)। मलीन, मैला, गंदा, पाप-सहित, विकारसमरागिन--संज्ञा, पु०यौ० (सं०) सपरागी युक्त । संज्ञा, स्त्री० (सं०) समलता। युद्ध की भाग। "समराग्नि भड़की लंक में समव, समउ-संज्ञा, पु. (सं०) समय, मानो प्रलय-दिन भा गया"--कं० वि०।। समो। समर्थ-वि० (सं०) शक्तिशाली, बली. बल- समयकार---संज्ञा, पु० (सं०) एक वीररस वान, क्षमताशील, योग्य, उपयुक्त, वह पुरुष प्रधान नाटक जिममें किसी देवता या दैत्य जिसमें किसी कार्य के काने की क्षमता की जीवन-घटना का चित्रण हो (नाट्य०) । हो । " को समर्थ जग राम समाना"- समवर्ती- वि० सं० समवतिन्) जो समीप स्फु० । संज्ञा, स्त्री० (सं०) समर्थता। स्थित हो, जो समान रूप से स्थित हो। समर्थक--वि० (सं०) समर्थन करने वाला, " समवर्ती परमेश्वर जानी-वासुः । जो समर्थन करे, अनुमोदक। समवाय- संज्ञा, पु० (सं०) समुदाय, समूह, समर्थता-संज्ञा, स्त्री० (सं०) शक्ति, बल, वृंद, झंड, भीड़, मिलित, नित्य संबंध, सामर्थ्य, जोर, योग्यता, क्षमता। गुणी के साथ गुण का या अवयवी के साथ समर्थन-संज्ञा, पु. ( सं० ) किसी के मत | अवयव का सम्बन्ध (न्याय०) । "दृव्य-गुण For Private and Personal Use Only Page #1718 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org समवायी MAESYONER MEMBAK क्रिया सामन्य विशेष सयवायाभावा सप्तैव पदार्थाः - वै० द० यौ ० १७०७ ० - समवाय मन्त्र । समवायी - वि० (सं० समवायिन् ) जिसमें नित्य या समवाय संबंध हो । रामवृत्त संज्ञा, पु० (सं०) वह छंद जिसके चारों पाद या चरण समान हों (पिं० ) । समवेत - वि० सं० जमा या इकट्ठा किया हुआ एकत्र, इक्ट्ठा, संचित | "धर्म-क्षेत्रे, कुरुक्षेत्रे समवेता युयुत्सवाः " भ० गी० । समवेदना -- संज्ञा स्त्री० (सं० ) किसी की विपत्ति या दुःख दशा में समान रूप से साथ देना या तदनुभव करना, संवेदना । समशीतोष्ण कटिबंध - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) वे भूमि-भाग जो शीत कटिबंध और उष्ण कटिबंधों या कर्क और मकर रेखाओं के बीच में उत्तरी और दक्षिणी वृत तक हैं । समष्टि - संज्ञा, स्रो० (सं० ) समाहार, सब का समूह, समस्त, सब का सब । विलो०व्यष्टि । समसर-संज्ञा स्त्री० (दे०) समानता, :: सदृशता, बराबरी | दमक दसनि ईषद हँसन, उपमा समसर है न समसूत्रशन -संज्ञा, ५० यौ० (सं०) डोरी | से नापना, पानी की थाह या गहराई लेना --नाग० । या नापना । समसेर - संज्ञा, स्रो० दे० ( फा० शमशेर ) तलवार, खड्ग | समस्त - वि० (सं०) सम्पूर्ण, समग्र, सारा, सब, कुल, पूर्ण, पूरा, एक में मिलाया हुधा, संयुक्त, समास-युक्त, सामासिक । समस्थली - संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) गंगा - यमुना नदियों के बीच का देश, अंतर्वेद । संज्ञा स्त्री० (सं०) समतल भूमि समस्थल । समस्या - संज्ञा स्त्री० (सं० ) कठिन या जटिल प्रश्न, गूढ़ या गहन बात, उलझन, कठिन प्रसंग किसी पद्य का अंतिमांश समाज जिसके आधार पर पूर्ण पद्य रचा जाता है, संघटन, मिश्रण, मिलाने का भाव या क्रिया । समस्याप्रति -संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) किसी समस्या के सहारे किसी पद्य को पूर्ण करना । समाँ-संज्ञा, पु० दे० ( सं० समय ) वक्त, समय । समाँ बाँध (बँधना ) -ऐसी रोचकता से गाना होना कि लोग सन्न हो जायें: शोभा, छटा सुन्दर दृश्य । 'चमकने से जुगुनू के था एक समाँ " । समा-संज्ञा, पु० दे० ( सं० समय ) समय, वक्त, aur मौका, समौ (ग्रा० ) । संज्ञा, स्त्री० (दे०) साल, दृश्य, छटा । "तेरो सो आनन चन्द्र, लसै तु श्रानन में सखि चन्द समा सी' - भावि० । संज्ञा, पु० (दे० ) एक कदन, साँवा । समाई -- संज्ञा स्त्री० दे० (हि० समाना) औक़ात गुंजाइश, फैलाव, विस्तार, सामर्थ्य, शक्ति समाव -- संज्ञा, ५० दे० (हि० समाना) पैठार, गुंजाइश, चौकात, विस्तार, सामर्थ्य, प्रवेश | "जहाँ न होय समाउ, श्रापनो तहाँ Eat जनि जा - स्फु० । समाकुल- वि० (सं०) व्याप्त, व्याकुल, विकल, आकुल, भरा हुआ । समागत- वि० (सं०) श्राया हुआ, प्राप्त । समागम - संज्ञा, पु० (सं०) श्राना, श्रागमन, मिलना, भेंट मुलाक़ात, मैथुन, रति । समाचार - संज्ञा, पु० (सं०) संवाद, हाल, ख़बर | " समाचार जब लछिमन पाये रामा० । यौ० संज्ञा, पु० (सं० ) समान साउ दुखी, " ti Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private and Personal Use Only घिरा, व्यवहार । समाचारपत्र -- संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) प्रखबार (फा० ) गज़ट (अं०) वह पत्र जिसमें अनेक प्रकार के समाचार हों । समाज-संज्ञा, पु० (सं०) समूह, सभा, समिति, दल, वृंद, समुदाय, संस्था, एक स्थान-निवासी तथा समान विचाराचार वाले लोगों का समूह, किसी विशेष उद्देश्य या कार्य के लिये अनेक व्यक्तियों की बनाई Page #1719 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समाजो १७०८ समानाधिकरण या स्थापित की हुई सभा, प्रार्य समाज । या संन्यासियों के मृत शरीर को भूमि में " कोऊ आज राज-समाज में बल शंभु को गाड़ना (संन्यासी मामर जाना)। समाधि धनु कपि है"--राम । लगाना-योगियों का ब्रह्म-ध्यान में लीन समाजी- संज्ञा, पु. ( स० समाजिन् ) रंडी! होकर निश्चल हो जाना। का पछुआ, सदस्य, समाज में रहने वाला। समाधिक्षेत्र ----संज्ञा, पु० यौ० (सं०) वह स्थान वि०-समाज का समाज-संबंधी प्रार्य समाजी। जहाँ मृत योगी गाड़े जाते हैं, कब्रिस्तान । समादर--संज्ञा, उ० (सं०) रूम्मान, आदर, समाधिन-वि० (२०) समाधि प्राप्त योगी, सस्कार, ग्वातिर । वि.-समादत, सभा- वह योगी जिसने समाधि ली या लगाई दरणीय। हो, समाधिस्थ । समादरणीय-वि० (सं०) सकार के योग्य, ! समाधिस्थ - वि० सं०) जो योगी समाधि मान्य, सम्मानीय। लगायी या ली हो, समाधि प्राप्त । “समा समागृत-वि० (सं०) समादर किया हुश्रा ! धिस्थ है के जपै जो पुरारी"-- इन्द्रमणि । सम्मानित। समान - वि० सं०) सदृश, तुल्य, बराबर, समाधान -- संज्ञा, पु० (सं०) समाधि, किसी सम, गुण, रूप, रंग, मूल्य मान एवं के मन के संदेह के मिटाने वाली बात या महत्वादि में एक से । वि० (सं०) मान-युक्त, काम, विरोध मिटाना, निराकरण, निष्पत्ति, सम्मान के साथ । समझाना, धैर्य-प्रदान, तसल्ली नायक या समान ना-- सज्ञा,स्रो० (सं०) सादृश्य, तुल्यता, नायिका का अभिमत सूचक कथा-बीज का बराबरी, समता। पुनः प्रदर्शन विशेष (नाटक०), मन को सब | समानांतर --- संज्ञा, पु० यौ० सं०) जिनके ओर से हदा ब्रह्म में लगाना । " समाधान बीच में सदा बराबर दुरी रहे. तुल्य दूरी सब हो कर कीन्हा ''-रामा० । वि.- __ मुतबाज़ी, वे दो रेखायें जो तुल्य दूरी पर हों। समाधानीय। समानान्तर चतुर्भज--संज्ञा, पु. यो० (सं०) समाधानना - स० कि० दे० सं० समाधन ) चार समानान्तर रेखाओं से घिरा हुया क्षेत्र, निराकरण करना, सांत्वना देना । 'इते पर जिल चतुर्भुज क्षेत्र की आमने सामने की बिनु समाधाने क्यों धरै तिय धीर ''... भुजायें समानान्तर हों ( रेग्वा०)। भ्रम। समानान्तर रेखा -- सिंजा, स्त्री० यौ० (सं०) समाधि--संज्ञा, स्त्री० (सं०) ध्यान, योग की वह रेखा जो किसी रेखा से मदा समान क्रिया विशेष. समर्थन, प्रतिज्ञा, नींद, योग, अन्तर पर रहे ( रेवा. )। योग का अंतिम फल जिसमें योगी के सब समाना -- अ० कि० द० ( समावेश ) अटना, दुःख दूर हो जाते तथा उसे अनेक दिव्य भीतर पाना, प्रविष्ट होना भरना । " श्राध शक्तियाँ प्राप्त हो जाती है (योग० )। सेर के पात्र में, कैसे सर समाय"---नीतिः । काव्य में दो घटनाओं का देव योग से एक स० कि. (दे०) भाना. अंदर करना । ही समय में होना सूचित करने वाला एक रूप० - समबाना । गुण, एक अर्थालंकार जहाँ किती आकस्मिक समानाधिकरणा- संज्ञा,पुख्यौ०(सं०) समास हेतु से कठिन कार्य का सहज ही में सिद्ध में वे शब्द जो एक ही कारक का विभक्ति होना कहा जाता है. (अ.पा.), समाधान, ! से युक्त हों, वह शब्द या वाक्यांश जो किसी मृतक के गाड़ने का स्थान, मृतक को पृथ्वी वाक्य में किसी शब्द का समानार्थक हो में गाड़ना, ध्यान, योग, समाधी (दे०)। और उसे स्पष्ट करने के लिये प्रयुक्त हुआ मुहा०-समाधि देना (लेना)-योगियों । हो ( व्याक० )। For Private and Personal Use Only Page #1720 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir DEMONTROUB sannam a ASHNEERRORNVIRAIPREMIRAMINATIRNDramARNER समानार्थ, समानार्थक २७०६ समासोक्ति समानार्थ, समानार्थक-संज्ञा, पु० (सं०) समालोचक-संज्ञा, पु० (सं०) समालोचना वे शब्द जिनका अर्थ एक सा हो, पर्याय- करने वाला। वाची शब्द। समालोचन--संज्ञा, पु. (सं०) पालोचना, समानिका-संज्ञा, स्त्री० (सं०) रगण, जगण समालोचन, विचार, विवेचन. देखभाल । और एक गुरु वर्ण का एक वणिक छंद, वि० --समालोचनीय, समालोचित । समालोचना -- संज्ञा स्त्री० (सं०) पालोचना, समाना (पि०) । भलीभाँति देख-भाल करना, जाँचना, गुणसमापक---संज्ञा, पु. (सं०) पूर्ण या समाप्त दोष-देखना, गुण-दोष-विवेचना से पूर्ण करने वाला पूर्णक । वि. (सं०) मापक लेख या कथन । (नापने वाले ) के साथ। समालोच्य-वि० (सं०) समालोचना करने समापन--संज्ञा, पु. (सं०) समाप्त या पूरा योग्य, समालोचनीय : करना, इति करना, वध, अंत करना, समाव-संज्ञा, पु० दे० । हि० समाना) मार डालना । वि० समाप्य, समापनीय, समावेश थौर स्थान । समापित। समावर्तन -संज्ञा, पु० (सं०) लौट थाना, समापवर्त -संज्ञा, पु. (सं०) सब प्रकार लौटना, वापस पाना, वैदिक काल का एक बाँटने वाला। यौ०- लधुनम और महत्तम संस्कार जी ब्रह्मचारी के निश्चित समय तक समापवत (गणि.)। गुरुकुल में विद्याध्ययन कर स्नातक हो पाने समापवर्तन ----संज्ञा, पु० (सं०) सम्यक विभा- पर व्याह के प्रथम होता था। वि.-समाजन या अपवर्तन । वि०-समापवर्तनीय । वर्तित, समावर्तक, समावर्तनीय । समापिका --संज्ञा, स्त्री० (सं०) वह क्रिया समाविष्ट -- वि० सं०) व्याप्त, समाया हुआ, जिससे किसी कार्य की पूर्णता या समाप्ति व्यापक, जिपका समावेश हुआ हो, प्रविष्ट । समझी जावे (व्याक०)। समावेश---संज्ञा, पु० (सं०) प्रवेश, एक वस्तु समापित- वि० दे० ( सं० समाप्त ) समाप्त, का दूसरी के भीतर होना, मेल, मनोनिवेश, ख़तम, पूरा किया हुअा, पूर्ण । एक स्थान पर साथ रहना, अंतर्गत होना। समान वि०(सं०) पूर्ण, जो पूरा हो गया हो। समास--संज्ञा,पु० (सं०)संग्रह, संक्षेप, संयोग, समानि--संज्ञा, स्त्री० (सं०) पूर्ति, पूरा या समर्थन, मेल, सम्मिलन, मिश्रण, दो या तमाम होने का भाव, ख़तम होना, इति, अधिक पदों के अपनी अपनी विभक्तियों को अंत, इति श्री। छोड़ कर नियमानुसार मिल जाने और समायोग --- संज्ञा, पु० (सं०) संयोग, मेल, उनसे एक पद बन जाने क्रिया को समास लोगों का एकत्रित होना। कहते हैं (व्याक०)। समास के प्रायः मुख्य समारंभ संज्ञा, पु. ( सं० ) भली भाँति चार भेद है--अव्ययीभाव, तत्पुरुष, द्वन्द्व, प्रारंभ या शुरू होना, समारोह । बहुव्रीहि, तत्पुरुष का भेद कर्मधारय, समारोह---संज्ञा, पु. (सं०) वृहदयोजना, जिसका भेद द्विगु है फिर इनके भी कई भेद धूम-धाम, तड़क-भड़क. बड़ी सजधज का | हैं । " कपि सब चरित समास बखाने " कोई कार्य या उत्सव । -रामा० । वि० --समस्त, सामासिक । समाली- संज्ञा, स्त्री० (दे०) फूलों का गुच्छा, समासोक्तिः- संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) एक पुष्प-स्तवक । अर्थालंकाः, जहाँ प्रस्तुत से अप्रस्तुत वस्तु समालू, सम्हालू-संज्ञा, पु० (दे०) सँभालू का ज्ञान समान विशेषण और समान कार्य नाम का पौधा, एक प्रकार का धान । के द्वारा हो (अ० पी०)। For Private and Personal Use Only Page #1721 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समाहरण १७१० समुच्चय HIST समाहरण --संज्ञा, पु. (सं०) समुदाय, समूह, | समीक्षा--संज्ञा, स्त्री. ( सं० ) भली भाँति संग्रह, राशि, ढेरा, बहुत से पदार्थों का । देखना भालना, विवेचना, पालोचना, समाएक ठौर इक्ट्ठा करना, समाहार । वि.-1 लोचना, प्रयत्न, मीमांसा शास्त्र बुद्धि, समाहरणीय, समाहाय, समाहत । समिश (दे०) । वि.समीक्षित, समाहर्ता --- संज्ञा, पु. ( सं० समाहत ) | सरीक्ष्य, समीना मिलाने या इक्ट्ठा करने वाला, संग्रह कर्ता, समीचीन--- वि० (सं.) यथार्थ ठीक, उपसंचय करने वाला. तहपीलदार. राज-कर युक्त, उचित, वाजिब, मुनासिब ! संज्ञा, का एकत्रित करने वाला कर्मचारी (प्राचीन)! | स्त्री०..समीचीनना। समाहार-संज्ञा, पु. (सं० समूह, संग्रह, | माशीति* --संज्ञा, स्त्री० दे० ( सं० समिति ) पंज, ढेर, राशि, मिलना, संचय, जमघट, सभा, समाज, संस्था, समिति । बहुत से पदार्थों का एक ही स्थान पर एकत्र समीप -- वि० (सं०) पास, निकट, नज़दीक। या इकट्ठा करना। वि० (सं०) समीप : संज्ञा, स्त्री०-समीपता। समाहार-दुन्दु ---संज्ञा, पु० यौ० (सं०) जहाँ समीपवर्ती वि. ( सं० समीपवत्तिन् ) पास द्वंद्व समास में बहुत से पदार्थों का समूह __ का, निकट या समीप का। हो, जैसे संज्ञा परिभाषम् , या ऐसे पदों समीपौ----संज्ञा, पु. ( सं० मीपिन् ) निकट का द्वंद्व समास जिससे पदों के अर्थ के अति- सम्बन्धी, पास पा समीप का। · कृष्ण रिक्त कुछ और अर्थ भी प्रगट हो, जैसे--सेठ- समीपी पांडवा, गले हिवारे जाय"----कवी. साहूकार (व्याक०)। समीर-संज्ञा, पु० (सं०) अनिल, वाय, हवा, समाहित ---वि० (सं०) समाधिस्थ, स्थिरी प्राण-वायु । "मन्द २ श्रावत चल्यो, कंजर कृत, सावधान, एक अलकार ( काव्य० )। कंज-समीर"....वि०। "भुज समाहित दिग्वसना कृतः "-रघु०। । समीरण --संज्ञा, पु. (सं०, अनिल, पवन, समाहूत-वि० (सं०) बुलाया हुथा। वायु, हवा, समीरन (दे०) । समाहान-संज्ञा,पु०(सं.) बुलाना, पुकारना। समीहा -- संज्ञा, स्त्री० (सं०) चेष्टा, प्रयत्न, समिच्छा--संज्ञा, स्त्री० (दे०) समीक्षा (सं०)। अभिलाषा, इच्छा, वांछा, समीक्षा, पूर्णसमिति --- संज्ञा, स्त्रो० (सं०) समाज, सभा, इच्छा । " काहू की न जीहा करै ब्रह्म की प्राचीन काल में राजनीति के विषयों पर समीहा इत".- ऊ० श.। विचार करने वाली सभा (वैदिक ), किसी । समंद-समंदर---संक्षा, पु० ६० ( सं० समुद्र ) खास काम के लिये बनाई हुई सभा । समुद्र, समंदर ( उ० ) सिंधु, सागर ! समिध-संज्ञा, पु० (सं०) अग्नि । शादि। । " लैकै मुंदर फाँदि समुंदर मान मथ्यो गद समिधा-समिधि-संज्ञा, स्त्री० (सं०) हवन | लंक पती को'---तुल । वि० ----मादरी। या यज्ञ में मनाने की लकड़ी । “समिधि- समदरफल --संज्ञा, पु० (दे०) समुद्र-फल, सेन चतुरंग सुहाई"-रामा०। । एक प्रकार का विधारा ( श्रौप० )। समीकरण ... संज्ञा, पु० (सं०. समान या बरा- | समंद फन -- संज्ञा, पु० यौ० (दे०) समुद्रबर करना, ज्ञात से अज्ञात राशि का मूल्य | फेन (सं०)। ज्ञात करने की एक क्रिया (गणि०) । वि.--- समुचित ----वि० (सं०) उचित, ठीक, समीसमीकरणीय, समीकृत ।। चीन, उपयुक्त, वाजिब, जैपा चाहिये वैसा, समीकार--- संज्ञा, पु. (सं०) समान, कर्ता, | दुरुस्त, यथोचित, यथायोग्य । तुल्य या बराबर करने वाला। समुच्चय-संज्ञा, पु० (सं०) समुदाय, समूह, समीक्षक-वि० (सं०) समीक्षा करने वाला। संग्रह. वृंद, राशि, पंज, ढेरी, ढेर, समाहार, For Private and Personal Use Only Page #1722 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समुज्ज्वत्त समुहाना A HARANPAHARIYANAMAHARAMPARKHAND CONOPAURR EImmune HARM मिलान, मिश्रण, एक अर्थालंकार जिसमें समुदाय--संज्ञा, पु. (सं०) समूह झंड, पाश्चर्य, बिषादादि अनेक भावों के एक ढेर । "सद्गुरु मिलेतें जाहि जिमि, संशय-भ्रमसाथ उदित होने अथवा एक ही कार्य के समुदाय" -- रामा० । वि०-सामुदायिक । लिये अनेक कारणों के होने का कथन हो समुदाय -- संज्ञा, पु० दे० (सं० समुदाय ) (अ० पी०) वि. समुचित ।। समुदाय, पमूह, झुड, समुदाउ (ग्रा० )। मनुज्ज्वल-वि० ( सं० ) शुन, बहुत ही सामुद्र-संज्ञा, पु. (सं०) अंबुधि. सागर, साफ, अति उज्वल, अतिस्वच्छ शुक्ल, धवल ।। सिंधु. उदधि, पयोधि, नदीश, वह जल-राशि संज्ञा, स्त्री० (सं०) समुज्वलता। जो चारो ओर से भूमि के तीन-चौथाई समुझ समुझि संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. भाग को घेरे हैं, किसी वस्तु-गुण या समझ) समझ, बुद्धि अक्, सामुझि (दे०)। विषयादि का बड़ा आगार। सम्झना स० कि० दे० ( हि० समझना ) सपद्र-फेन-संज्ञा, पु. यौ० (सं०) समुदसमझना, सोचना, बिचारना. ज्ञात करना। फेन, समुद्र का फेन ( औषधि विशेष) " हरित भूमि तृन-संकुलित समुझि परै नहिं | सिधु-झाग। पंथ ".--- रामा० । स० रूप-समुझाना, समुद्रयात्रा --- संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) समुद्र सम्भावना, प्रे० रूप----सम्भवाना। द्वारा दूसरे देशों में जाना, समुद्री यात्रा । समुझान --- संज्ञा, स्त्री० दे० ( हि० समझना) समुद्रयान----संज्ञा, पु. यौ० (सं०, पोत, समझने की क्रिया या भाव, विचार, समझ। जहाज़ । समुत्थान--संज्ञा, पु० (सं०) उत्थान, उठने समुद्रलवण-संज्ञा, पु. यौ० (सं०) समुद्र की क्रिया, उन्नति, उदय, श्रारंभ, उत्पत्ति, के पानी से बना हुश्रा नमक, समुदलौन रोग का निदान । (दे०)। समुत्थित-वि० (सं०) उठा हुघा, उन्नत । | समुद्रशाप -संज्ञा, पु० (सं०) समुद्र-मोग्य " कल निनाद समुस्थित था हुधा'"-प्रि० । (दे०) एक औषधि विशेष । समुन्नत-वि. (२०) सब प्रकार से ऊँचा मसत्यापन--संज्ञा, पु. (सं०) सब प्रकार उठा हुआ, बहुत ऊँचा प्राप्ताभ्युदय । उठाना, उन्नत करना । वि० --समुत्थाप- समुन्नति---संज्ञा, स्त्री. (सं०) यथेष्ट उन्नति, नीय, ममुन्यापक. समुत्थापित । यथोचित उत्थान, तरक्को, पुर्ण वृद्धि, उच्चता, समुद-संज्ञा, पु० दे० (सं० समुद्र ) समुद्र, बड़ाई, महत्व । वि० समुन्नत । सागर. सिंधु । वि० (सं०) आनंद या हर्ष । समुन्नयन-- संज्ञा, पु० (सं०) सब प्रकार युक्त, मोद-सहित, समोद। ऊपर उठाना । समुद-फल--संज्ञा, पु० दे० यौ० ( हि०) समुल्लास--संज्ञा, पु. (सं०) आनंद, हर्प, एक औषधि विशेष, समुद्र-फल । खुशी, प्रसन्नता, ग्रंथ का परिच्छेद पुस्तक का समुद-फैन--संज्ञा, पु. द. यौ० (हि.) एक अध्याय या प्रकरण । वि० समल्लासित । श्रौषधि विशेष, समुद्र का फेना, समुद्र-फेन । समहा-वि० दे० (सं० सम्मुख ) सम्मुख समुद-लहर संज्ञा, पु० दे० यौ० (सं० या सामने का, सौंह (ग्रा०) । क्रि० वि० समुद्र लहरी ) एक प्रसिद्ध वस्त्र । (दे०) श्रागे, सामने, सौह (ग्रा०) । समुद-सांख-संज्ञा, पु० दे० (सं० समुद्र- समहाना---अ० क्रि० दे० (सं० सम्मुख ) शोष ) एक औषधि विशेष, समुद्रशोष। । सामने या सम्मुख प्राना, लड़ने आना, समुदाइ-संज्ञा, पु० दे० (सं० समुदाय) सौहाना (ग्रा.)। " अतिभय त्रसित न समूह, ढेर, झुड, समुदाय, समुच्चय । कोउ समुहाई"-रामा० । For Private and Personal Use Only Page #1723 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समुहैं, सामुहैं १७१२ सम्मेलन सम हैं, सामह - अव्य० दे० ( सं० सम्मुख ) | समौरिया--वि० दे० (सं० सम्मौलि) जिनका सामने की ओर, सौहैं ( ग्रा० )। 'समुहैं व्याह एक साथ हुश्रा हो। वि० दे० ( सं० छींक भई ठहनाई ”—स्फु०। सम -- उमरिया-हि० ) बराबर उम्र वाले, समूच, समूचा - वि० दे० (सं० सर्व ) समवयस्क। पूरा, समस्त, सारा, संपूर्ण, कुल, श्राद्यन्त- सम्मत--वि० (सं०) राय मिलाने वाला, सहित । स्त्री० ---समूची। अनुमत, सहमत 1 समूर -- संज्ञा, पु० ( सं० शंबर ) साबर नाम सम्पति--संज्ञा, स्त्री० (सं०) मत, राय, का हिरन : वि० दे० (सं० समूल ) जड़ सलाह. अनुज्ञा, श्रादेश, अनुमति, अभिप्राय। या मूल सहित, कारण सहित, पूरा। | "गुरु श्रुति सम्मति धर्म-फल, पाइय बिनहि समूल --- वि० (सं०) जड़-सहित. सब का सब कलेस"-रामा० । सकारण हेतु-युक्त क्रि० वि-जड़ से, | सम्प्रन-संज्ञा, पु० (अं०) समन, अदालत मूल से । “समूल घातं न्यवधीदरीञ्च" की हाज़िरी का श्राज्ञा-पत्र या हुक्मनामा। --मट्टी। सम्मान-संज्ञा, पु० (सं०) सन्मान, पादर, समूह .. संज्ञा, पु० (सं०) पुंज समुदाय, वृंद, सरकार, मान, गौरव, प्रतिष्ठा, इज्ज़त, राशि, ढेर, भीड़. झुंड । वि० --सामूहिक । खातिर । वि० (सं०) सम्माननीय । समृद्ध-वि० (सं०) संपन्न, धनी, समर्थ । सम्मानना-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० सम्मान ) संज्ञा, स्त्री० (सं०) समृद्धता। श्रादर, सत्कार, मान, गौरव, प्रतिष्ठा, इज्जत, समृद्धि-संज्ञा, स्त्री० (सं०) प्रति संपन्नता, खातिर । *-स० कि० (दे०) श्रादर सत्कार धनाढ्यता, अमीरी, समृद्वी (दे०) । करना । “ सब प्रकार दशरथ सम्माने " वि०-समृद्धिशाली, समृद्धिवान् । -रामा० । समेट---संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. समिटना ) सम्मानित-वि० (सं०) समाहत, प्रतिष्ठित, इज्जतदार। विलो०--अपमानित । संकोचना, समिटना। सम्भिलन-संज्ञा, पु. (सं०) सब प्रकार समेटना-- स० क्रि० दे० (हि० समिटना ) मिलना, संयोग, सम्मेलन, मिलाप. मेल । फैली हुई वस्तुओं को इकट्ठा करना, अपने सम्मिलित-वि० सं०) मिश्रित, मिला ऊपर लेना, बटोरना, एकत्र करन', सिमेटना। हुधा, युक्त। समेत - वि० (सं.) संयुक्त, मिला हुधा। सम्मिश्रण--संज्ञा, पु० (सं०) मिलने या अव्य० (हि०) सहित, साथ, युक्त ! " मोहि मिलाने का कार्य या क्रिया, मिलावट, समेत बलि जाऊँ"-रामा। मेल । वि० ---सम्मिश्रित.सम्मिश्रणीय । समै, समैया--- संज्ञा, घु० दे० (सं० समय ) सम्मुख-अव्य० (८०) सम्मुख, सामने, समय, वक्त, समइया, समो (दे०)। समन, सामुहें, श्रागे । 'सम्मुख मरे बीर समो---संज्ञा, पु० दे० ( सं० रामय ) समय, की शोभा' - रामा. खो०-सम्मुखी । वक्त, काल । यौ०---सम्मुखीभूत, सम्मुखीकत। समोना-२० क्रि० (दे०) मिलाना. गर्म सम्मुढ--- वि० (सं०) अज्ञान, मूर्ख, विमूढ । और ठंढा पानी मिलाना । संज्ञा, स्त्री० --सम्मूदता ।। समोखना-स० कि० (दे०) सहेज कर कहना। सम्मेलन-संज्ञा, पु. ( सं०) किसी हेतु समौ--- संज्ञा, पु० दे० (सं० समय ) समय, . मनुष्यों की एकत्रित हुई सभा, सभा, वक्त. समध (ग्रा०) । यौ०-सामोसुकाल। समाज, जमाकड़ा, जमघट, मिलाप, संगम, । समौ जनि चूको साई - गिर० । मेल, सम्मिलन । For Private and Personal Use Only Page #1724 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra सम्मोह १७१३ सम्मोह - संज्ञा, पु० (सं०) मूर्च्छा, मोह | " क्रोधाद्भवति सम्मोहः गो० । सम्मोहन - संज्ञा, पु० (सं० ) मुग्ध या मोहित करना मोहने वाला, मोह पैदा करने वाला, एक काम वाण, प्राचीन काल का एक वाण या ra जिससे शत्रु सेना मोहित हो जाती थी । " सम्मोहनं नाम सममात्रम् 2- रघु० । वि० - सम्मोह नीय, सम्मोहक, सम्मोहित । सम्यक - वि० (सं०) पूरा, सब । क्रि० वि० (सं०) भली भाँति, सब प्रकार से अच्छी यौ० - सम्यक प्रकारे । " सम्पक् व्यवस्थिता बुद्धिस्तव राजर्षिसतम् " -- भा० द० । तरह www.kobatirth.org " सत्राज्ञी - संज्ञा, स्त्रो० (सं० ) महाराज्ञी, सम्राट की पत्नी, साम्राज्य की अधीश्वरी, महारानी । ० -२१३९ सम्बाद - संज्ञा, पु० (सं० सम्म्राज राजराजेश्वर महाराजाधिराज शांहशाह, बहुत बड़ा राजा । सम्राट् समाराधन - तत्परोऽ भूत् " -- रघु० । 66 सय, सै- -संज्ञा, पु० ६० (सं० शत, सौ, शत। संज्ञा, पु० दे० ( फा० शय ) छाया, चीज़, शय (शतरंज) | सयन -संज्ञा, पु० दे० (सं० शयन) शयन, सोना, सो जाना, नींद लेना, सैन (दे०), आँख का इशारा "रघुवर सयन कीन्ह तब जाई " - रामा० । सयरा सैरा - संज्ञा, पु० (दे०) आल्हा | सयराना - सैराना - नं०, क्रि० (दे०), बढ़ना, फैलना. समाप्त न होना. सइराना (ग्रा० ) | सयान - वि० दे० (सं०, सज्ञान ) अनुभवी, चतुर, होशियार, वयोवृद्ध | संज्ञा, स्त्री० सयानता । " कीजै सुख को होय दुख यह कह कौन सयान' - नीति० । सयानप - संज्ञा, पु० दे० (सं० सज्ञान) चतु राई, बुद्धिमत्ता, प्रवीणता, होशियारी, सयानता । भूप सयानप सकल सिरानी "-- " रामा० । भा० श० को Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सरजना सयानपन, सयानपना - संज्ञा, पु० स्त्री० दे० (सं० सज्ञान ) चतुराई, होशियारी, प्रवीणता, दक्षता, चालाकी । सयाना - वि०, संज्ञा, पु० दे० (सं० सज्ञान ) दत्त, कुशल, चतुर, होशियार, पटु, प्रवीण, वयोवृद्ध चालाक, धूर्त्त, जादू मंत्र या टोना जानने या दूर करने वाला । “यही सयानो काम राम को सुमिरन कीजै ” – गिर० । स्त्री० - सयानी । सर - संज्ञा, पु० दे० (सं० सरस्) तड़ाग, तालाब, ताल । " भञ्जन करिसर सखिन समेता"रामा० | संज्ञा, पु० दे० (सं० शर) तीर, बाण, शर | "तब रघुपति निज सर संघाना"रामा० । संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० शर) चिता | संज्ञा, पु० ( फा० ) सिर, मूँड, चोटी, सिरा । वि० ( फ़ा० ) पराजित, जीता हुआ, विजित, दमन किया हुग्रा, अभिभूत । " वदखशाँ सर नहीं होता किसी क़ातिल के कहने पर - स्फु० । वार या गुना सूचक एक प्रत्यय - जैसे- दोसर, एकसर, चौसर । सर-अजाम -- संज्ञा, पु० (का० ) सामग्री, सामान, पूरा करना । सरकंडा -- संज्ञा, पु० दे० (सं० शरकांड ) सरपत की जाति का एक पौधा । सरक - संज्ञा, स्त्री० ( हि० सरकना ) सरकने की क्रिया का भाव, शराब की खुमारी । 'बारम्बार सरक मदिरा की अपरस कहाँ उधार " -- भ्रमर० । सरकना - अ० क्रि० (सं० सरक, सरण ) खिसकना, दलना, काम चलना, निर्वाह होना, फिसलना, नियत काल या स्थान से श्रागे जाना, हटना, पृथ्वी से लगे हुए धीरे से किसी श्रोर बढ़ना स० प्रे० रूप- सरकाना, सरकाधना, सरकवाना । सरजना - स० क्रि० दे० (सं० सृजन) सिरजना, सृष्टि करना, रचना, बनाना । "इन सिरोई दुखिया अँखियान को, सुख नाहि" - वि० । For Private and Personal Use Only Page #1725 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सरकश १७१४ सरदी सरकश-वि० (फ़ा०) उइंड, उद्धत, घमंडी, सरघर -संज्ञा, पु० दे० यौ० ( सं० शरगृह ) सिर उठाने वाला, विरोधी, शंक, (संज्ञा, तरकश, भाथा. तू, तूणीर। नो०-सरकशी। संज्ञा, पु० (अ० सरकस) सरजना, सिरजना-स० कि० दे० ( सं० तमाशा। सृजन ) रचना, बनाना, सृष्टि रचना । सरकशी-संज्ञा, स्त्री. (फ़ा.) उइंडता, सरघा ---संज्ञा, स्त्री० सं०) मधुमक्खी, शहद उद्धता, घमंड, विरोध में सिर उठाना । की मक्खी "सरकशी अाखिर फरोमाया' को देती है सरजा--- संज्ञा, पु० (३०) सिंह, शेर, सरदार, शिकस्त".-स्फु०। शिवा जी की उपाधि । 'शाहतनय सरजा सरकाना-स. क्रि० (हि. सरकना) खिस सिवराज"---भषः । काना, टालना, काम चलाना, निर्वाह करना, | सरजीव-वि० दे० (सं० सजीव) सजीव. सरकावना (दे०)। प्रे० रूप सरकवाना । जीता-जागता, जिंदा । " सरजीव काटै सरकार-संज्ञा, सी० (फा०) स्वामी, प्रभु, निरजीव पूजें अंतकाल को भारी"-कवी मालिक,रियासत, राज्यसंस्था, शापन-सत्ता सरजीवन-वि० दे० (सं० संजीवन) जिलानेवि०---सरकारी। " तेरी सरकार में हो वाला, हराभरा, उपजाऊ सजीवन (दे०) जाते हैं सब उज्र क़बूल"-हाली।। सरजोर-वि० (फा) बलवान, ज़बरदस्त । सरकारी-वि० (फा०) सरकार या स्वामी संज्ञा, स्त्री०- सरजोरी । सम्बन्धी, मालिक का, राज्य का, राजकीय । सरणी-संज्ञा, श्री० (सं०) रास्ता, राह, यौ०-सरकारी कागज-- राज्य के दफ्तर मार्ग, पंथ, रीति, ढर्रा, ढंग, लकीर । का काग़ज़, प्रोमिसरी नोट (0)। सरद-- वि० दे० (फा० सद) सर्द, शीतल । सरखत--संज्ञा, पु. (फ़ा०) दिये हुये या वि० (दे०) ठंढा । संझा, स्त्री० दे० (सं० शरत) चुकाये हुए धन की रसीद या व्यौरा, एक ऋतु जो क्वार-कातिक में होती है । वि० सारदो। "जानि सरद ऋतु खंजन आज्ञापत्र, परवाना, मकान धादि के किराये आये"-रामा० । पर देने की शर्तों का काग़ज,सरखत (दे०)। सरदई - वि० दे० (का० सरदः) सरदे के रंग सरग-संज्ञा, पु० दे० (सं० स्वर्ग, सर्ग) का, हरा पीला मिला रंग, हरित-पात । स्वर्ग, वैकुण्ठ, देव-लोक, आकाश, सर्ग वि०---(दे०) शरद (सरद) सम्बंधिनी। (सं०) अध्याय, अंक । लो०- "सरग से सरदर-क्रि० वि० (फ़ा० सर-+ दर-भाव) गिरा तो खजूर में अटका"। सब एक साथ मिला कर, एक सिरे से, सरग़ना-संज्ञा, पु. (फ़ा०) मुखिया, सरदार, औसत से। (अगुमा), सरगना (दे०)। सरदरद-संज्ञा, पु० दे० यौ० ( फ़ा०-सिर सरगम-संज्ञा, पु. ( हि० स, रे, ग, मादि ) +दद) सिर की पीड़ा। गाने में ७ स्वरों के चढ़ाव-उतार का क्रम, | सरदा--- संज्ञा, पु० दे० ( फ़ा० सरदः ) एक (संगी०)स्वर-ग्राम (सं०), स, रे, ग, म, प, प्रकार का बहत बढ़िया ख़रबूजा, तरबूज । ध, नी, सा। | सरदार-संज्ञा, पु० (फ़ा०) मुखिया, अफसर, सरगर्म-वि० (फा० ) उमंग से भरा, अमीर, शासक, नायक, रईस, अगुवा । जोशीला, उत्साही, आवेश-पूर्ण । संज्ञा, सरदारी-संज्ञा, खो० (फ़ा०) सरदार का स्त्री०-सरगर्मी। पद या भाव। सरगुन-वि० दे० (सं० सगुण) गुण-सहित, सरदी-संज्ञा, स्त्री० दे० (फा० सर्दी) ठंढक, "सरगुन-निरगुन नहिं कछु भेदा"-रामा०। शीतता, सर्दी, जुकाम, सर्दी। For Private and Personal Use Only Page #1726 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सरधन १७१५ सरबराह सरधन-वि० दे० (सं० सधन) सधन, धनी. विशेष, बड़े बड़े पत्तों की कुश काँस धनवान ! "जो निरधन सरधन के जाई"- के जाति की एक घास, पताई (ग्रा.)। कवी। सरपरस्त---संज्ञा, पु० (फा०) संरक्षक, अभि. सरधा-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० श्रद्धा) श्रद्धा, भावक । संज्ञा, स्त्री०-सरपस्ती भक्ति। सरपा-संज्ञा, पु० दे० (सं० सर्प) सर्प, साँप । सरन--संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० शरणा) शरण, "सर धावहिं मानहु बहु सरपा''-रामा० । रक्षा, बचाव । “ जिमि हरि-सरन न एको सरपि--संज्ञा, पु० दे० (सं० सरिस्) घी। बाधा"--रामा० । संज्ञा, पु० (दे०) सर या "मधुसीयुतो लिहेत्'-~-भा० प्र० । शर का बहुबचन . सरपंच, सरपेच ---संज्ञा, पु० (फ़ा०) पगड़ी, सरनद्वीप - संज्ञा, पु० यौ० दे० (सं० सिंहलद्वीप) सिर पर लगाने का एक जड़ाऊ गहना। भारत के दक्षिण में एक द्वीप । सरपोश-ज्ञा, पु० (फ़ा०) थाल या किसी सरना-प्रक्रि० दे० (सं० सरण) खिसकना. पात्र के ढकने का कोई बरतन या कपड़ा। सरकना, डोलना, हिलना, काम निकलना या सरकराना--अ० क्रि० ( दे०) घबराना, चलना, किया जाना, सधना, निवटना, पूरा व्याकुल होना, तड़पड़ाना,तरफ़राना (दे०)। पड़ना । "जप माला, छापा, तिलक सैर न सरफ़रोशी--संज्ञा, स्त्री० (फा०) सिर बेंचना, एको काम ".-वि० : सड़ना, बिगड़ना।। कल होना। संज्ञा, स्त्री० (दे०) शरण । "तब ताकेसि सरकोका-सरकोका-संज्ञा, पु० (दे०) एक रघुवर-पद-सरना''--मा०। पौधा (औषध), सरकंडा। सरनाम--वि० (फा०) प्रख्यात, प्रसिद्धसरबंध-सरपंधी-संज्ञा, पु० दे० यौ० (सं० विख्यात, मशहूर। शरबंध) तीरंदाज़, धनुर्धर । सरनामा--संज्ञा, पु० (फा०) सिरनामा सच - वि० दे० (सं० सर्व) समस्त, सर्व, (दे०) शीर्षक, पत्र के ऊपरी भाग का लेख, सब, कुल, सरा, सम्पूर्ण, सर्वस्व । “तुम कह पत्रारंभ का संबोधनादि, पत्र का पता।। सरब काल कल्याना"---रामा० । सरनी--संज्ञा, स्त्री० द. (सं० सरण) रास्ता, सरबत्तरी-श्रव्य ० (दे०) सर्वत्र (सं०) “सो राह, मार्ग. वि० (दे०) शरणागत । मुलना सरबत्तरि गाजा'-कवी० । सरपंच -- संज्ञा, पु० फ़िा. सर -- (च हिं०) सरबदा-क्रि० वि० दे० (सं० सर्वदा) सर्वदा, पंचों का मुखिया या सरदार, पंचायत का सदा, हमेशा । वि० (दे०) सर्वदा, सब देने सभापति। वोली। सरपंजर - सज्ञा, पु. द० (सं० शरपंजर) सरवर-संज्ञा, पु. दे० यौ० (सं० सरोबर) वाणों या तीरों का पिंजड़ा । 'सर-पंजर अच्छा तड़ाग, तालाब, ताल, श्रेष्ठ वाण । अर्जुन रच्यो, जीव कहाँ ते जाय" -राम० ।। "चलो हंस चलिये कहीं, सरबर गयो सुखाय' सरप---संज्ञा, पु० (दे०) सर्प (सं०) सरफ (ग्रा०)। सरब-बियाप"-- वि० दे० यौ० ( स० सर्वसरपट-क्रि० वि० दे० (सं० सर्पगा) घोड़े का व्यापिन्) जो सर्वत्र व्याप्त या फैला हो, अगले दोनों पैर साथ फकते हुए तेज दौड़ना, सर्व व्यापी । वि० (दे०) सरब-बियापत वेग से चलना, दुलकी चाल, तेज़ दौड़। (सर्व व्याप्त)। सरपत- संज्ञा, पु० दे० ( सं० शर पत्र ) तृण सरबराह-संज्ञा, पु. (फा०) प्रबंधकर्ता, For Private and Personal Use Only Page #1727 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org सरबराहकार कारिन्दा, मज़दूरों से काम लेने वाला सरदार, सरवराहकार (दे० ) । १७१६ सर बराहकार संज्ञा, पु० (का० ) किसी काम का प्रबन्धकर्ता, कारिंदा, मुनीम | संज्ञा, स्त्री० -- सरवराहकारी । सरबरि-सरबरी - संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० सदृशू ) समता, तुल्यता, बराबरी, ढिठाई, गुस्ताख़ी, उत्तर प्रति उत्तर देना । • हमहिं ** तुमहिं सरवरि कस नाथा - रामा० । सरबस– संज्ञा, पु० दे० (सं० सर्वस्व ) सम्पूर्ण, सब कुछ, सारी सम्पत्ति, सारा धन । सरबस खाय भोग करि नाना - रामा० । यौ० दे० ( हि सर + बस ) वाण -वश, वाणाधीन । 66 " लज्जा । सरभ - संज्ञा, पु० दे० (सं० शलभ) पतिंगा । सरम -संज्ञा, स्त्री० दे० ( फ़ा० शर्म ) शर्म, " लागति सरम कहत जसुदा सों अनट करत जो कान्हा " – रुकु० । सरमा-संज्ञा, खो० (सं० ) देवताओं की एक कुतिया (वैदिक), लंका की एक राक्षसी, कुतिया | " उत्तर सरमाना - अ० क्रि० (दे०) शरमाना, लज्जित होना । स० रूप- सरमावना । सरय - संज्ञा, पु० ( सं० ) बानर विशेष | सरयू - संज्ञा स्त्री० (सं० ) सरजू (दे० ) अवध की एक नदी, घाघरा । दिशि सरयू बह पावनि " - रामा० । सरराना - अ० क्रि० दे० (अनु० सरसर ) सरसर शब्द करते हुए हवा को फाड़ कर वेग से चलने का शब्द, सवेग, वायु प्रवाह का रव करना, वेग से चलना या भागना, सर्राना (दे० ) । सरल - वि० (सं० ) सीधा, ऋजु, सीधासादा, निष्कपट, श्रासान, सहज | संज्ञा, स्त्री० सरलता | संज्ञा, पु० चीड़ का वृक्ष, धारोजा, सरल का गोंद । वि० त्रो०सरना । सरलसुभाव छुवाछल नाहीं" "" -रामा० । सरस सरलता - संज्ञा स्त्री० (सं० ) ऋऋजुता, सीधापन, सिधाई, निष्कपटता, आसानी सुगमता, भोलापन, सादगी । सरल-निर्यास संज्ञा, पु० (सं०) तारपीन का तेल, गंधाविरोजा । सरलीकृत सरनीभूत(सं०) सरल किया या हुथा । - क्रि० वि० यौ० | सरव - संज्ञा, पु० दे० (सं० सराब) मद्य पात्र, सरवा (दे०) कटोरा, प्याला, दिया, परई (ग्रा० ) । सब के उर- सरवन सनेह भरि सुमन तिली को वास्यो - भ्रम० । सरवन - संज्ञा, पु० दे० (सं० श्रमण ) मुनि के परम पितृ भक्त पुत्र । - संज्ञा, पु० दे० (सं० श्रवण ) कान, सुनना, एक नक्षत्र | संज्ञा, पु० दे० ( सं० शालपर्णी ) शालपर्ण ( श्रौषधि ), मरिवन (दे० ) | यौ० दे० - शर वन सर ( तड़ाग ) और वन ( वाटिका ) । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सरवर -- संज्ञा, पु० दे० (सं० सरोवर) तड़ाग, तालाब, ताल वर सुखे खग उड़े, atra सरन समाहिं " - रही० । सरवरिt - संज्ञा, स्त्री० दे० ( सदृश ) समता, तुल्यता, तुलना. बराबरी, सदृशता । " सरवरि को कोउ त्रिभुवन नाहीं " + रामा० । सरवा -- संज्ञा, पु० (दे०) शराबक, प्याला, कटोरा, परई, छोटा टोंटीदार पात्र । सरवाक - संज्ञा, पु० दे० (सं० शरावक ) प्याला, कटोरा, कोरा, संपुट, सरवा, दिया, परई ( ग्रा० ) सरवान - राज्ञा, पु० (दे०) खेमा, डेरा, तम्बू | सरस वि० (सं० ) रसीला, रयुक्त, गीला, भीगा, सज्ल, ताज़ा, हरा, सुन्दर, मनोरम, मीठा, मधुर, भावोद्दीपक, भावपूर्ण. उत्तम, भावुक, रसिक, सहृदय, रस भावोत्तेजक । " सरस होय अथवा अति फीका " -- - रामा० । संज्ञा, खो० - सरमता | संज्ञा, पु० (सं०) छप्पय छंद का ३५वाँ भेद (पिं० ) | For Private and Personal Use Only Page #1728 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org सरमई सरसई -- संज्ञा, स्रो० दे० (सं० सरस्वतीसरयू) सरस्वती देवी, शारदा देवी, सरस्वती नदी, सरयू नदी | संज्ञा, त्री० दे० (सं०सरस) सरसता, रसिकता, रसीलापन, रसपूर्णता, हरापन व ताज़गी | संज्ञा, स्त्री० दे० ( हि० सरसों ) फल के छोटे अंकुर या दाने जो प्रथम देख पड़ते हैं । वि० (६०) सरमही | सरसना - अ० क्रि० दे० (सं० सरस + नाप्रत्य० ) हरा होना या पनपना बढ़ना, सुशोभित होना, रसयुक्त होना, सोहना, भावो मंग से भरना । ' अलि वृदनि मैं अतिशय सरसै " - रघु० । स० रूप - सरसाना । सरसब्ज - वि० ( फा० ) हराभरा, तरताजा, लहलहाता हुआ, जहाँ हरियाली हो । " बागे हिन्दुस्तां जल से खूब ही सरसब्ज़ है" -- स्फु० । संज्ञा, स्त्री० - सरसब्जी | सरसर- संज्ञा, पु० ( अनु० ) भूमि पर सर्पादि के रेंगने का शब्द सवेग वायुप्रवाह से उत्पन्न ध्वनि, लुवों की लपट । बाद सरसर का तूफाँ "हाली० । सरसराना -- अ० क्रि० ( अनु० सरसर ) सर (6 १७१७ सरस्वती सरसाना - स० क्रि० ( हि० सरसना का स० रूप) रस भरना, हरा-भरा करना, अधिक करना, रसयुक्त करना, भावोद्दीप्ति करना ० क्रि० ( ० ) सजना, शोभा देना । *म० क्रि० सरसना, अधिक होना, रसयुक्त होना, सरसावना (दे० ) । सरसाम- -पंज्ञा, ५० ( फा० ) सन्निपात रोग । सरसार - वि० दे० ( फ़ा० शरसार) निमग्न, विलीन, डूबा हुआ, नशे में चूर, मदमस्त । इश्क में सरसार है दुनिया उसे भाती नहीं " - कृ० वि० । सरसिज - ज्ञा, पु० (सं०) कमल, तालाब में उत्पन्न होने वाला । निर्मल जल सरसिज बहु रामा० । रंगा सरह - ज्ञा स्त्री० दे० ( सं० सरसी ) छोटा तालाब । सरसिरुह - सरसीव्ह - संज्ञा, पु० (सं० ) कमल । सुभग सोह सरसीरुह लोचन 46 19 सरी निगाह- -स्थूल या विहंगम दृष्टि । सरसाई - संज्ञा, स्रो० दे० (हि० सरस + श्राई -- प्रत्य० ) सरसता, रसीलापन, शोभा, श्रधिकता । प्रीति सरसाई मोह जाल में फँसाई अब अलि अलिगाई ऐसे रहे लि गाई हौ ” " '-मन्ना० । श्राहट सर ध्वनि करते हुये वायु का वेग से चलना, सनसनाना, साँप आदि का रेंगना । सरसराहट - संज्ञा स्त्री० ( हि० सरमर + - प्रत्य० ) साँप आदि के रेंगने का शब्द, खुजली, सुरसुराहट (दे०) वायुवेग की ध्वनि । सरसरी - वि० दे० ( फ़ा० सरसरी) जल्दी | में, उतावली में, मोटे तौर पर, साधारण या स्थूल रूप से । सुहा० - सरसरी में खारिज होना (सुकमा) - केवल कुछ बातें देख कर खारिज करना । यौ०-सर 1 Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir -रामा० । सरसी--- संक्षा, स्त्री० (सं०) छोटा तालाब, पुष्करणी, बावली. न ज भ ( गण ), ४ जगण और रगण युक्त एक २४ वर्णों का वर्ण-वृत्त (पिं० ) । सम्मुति-सरमुती - संज्ञा, त्रो० दे० ( सं० सरस्वती) सरस्वती, शारदा, गिरा, वाली, सरस्वती नदी । सरसुति के भंडार की बड़ी अनोखी बात "वृं सरसेटना - स० क्रि० ( अनु० ) फटकारना, .. पीछा कर दौड़ना, हैरान करना, खरी-खोटी सुनाना, डाँटना | सरसों, सरसों-संज्ञा स्त्री० दे० (सं० सर्पत्र ) एक पौधा और उसके राई जैसे छोटे गोल तेल भरे बीज । सरसौहाँ - वि० दे० (सं० सरस ) सरस " For Private and Personal Use Only बनाया हुआ । सरस्वती संज्ञा, स्रो० (सं०) पंजाब की एक पुरानी नदी, गंगा-यमुना से प्रयाग में मिलने वाली एक नदी, वाणी, शारदा, Page #1729 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सरस्वती-पजा सराय-मरॉय वाणी या विद्या की देवी, गिरा, वाग्देवी, पितरों का पूजन । लो० ..." संत मेंत के भारती, विद्या, कविता ब्राह्मीबूटी। "शृणु । चाउर, मौसिया की सराध " । यौ०तदा जयदेव-सरस्वतीम् " ... गी० गो०।। सराध-साख । सोमलता, हक छंद । " मत्वा सरस्वती सराना-स० क्रि० ( हि० सारना ) देवीम् "--ल. कौ० ।। संपादित या पूर्ण कराना, काम पूरा कराना, सरस्वती-पूजा -- संज्ञा, स्त्री यौ० (सं०) सरावना (दे०), सड़ाना । सरस्वती-उत्सव, जो कहीं आश्विन मास में सराप-संज्ञा, पु० दे० (सं० शाप ) शाप, और कहीं बसंतपंचमी को होता है। श्राप, बददुआ, बुरा मानना, धिक्कारना, सरह-सरभ-संज्ञा, पु० दे० (सं० शलभ ). फटकारना, कोसना। पतंग, पतिमा, टिड्डी। । सरापना*-स० क्रि० दे० (सं० शाप + सरहज --- संज्ञा, स्त्री० दे० (सं.) श्यालजाया) ना -- हिं. प्रत्य० ) शाप या श्राप देना, साले की स्त्री, पत्नी के भाई की स्त्री सल सापना कोसना। हज । लो०-"निपसे की जोय सब की | सरापा- क्रि० वि० ( फ़ा०) सिर से पैर सरहज"। तक, पूर्णतया । संज्ञा, पु० (दे०) सराप, सरहटी--संज्ञा, स्त्री० दे० ( सं० साक्षी)। श्राप, शाप । नकुलकंद, साक्षी नाम का पौधा । सराफ़---संज्ञा, पु. ( अ० सर्राफ ) चाँदी और सोने का व्यापारी, रुपये-पैसे का बदला सरहद-सरहद--संज्ञा, स्त्री० (फा० सर । करने वाला, दूकानदार । हद -- सीमा ) सीमा, मर्यादा, किसी स्थान सराफल - संज्ञा, स्त्री० दे० ( फ़ा० शराफ़त ) की चौहद्दी निश्चित करने की रेखा, सीव । भलमंसी, शिष्टता। सरहद-सरहदी--- वि० ( फा० सरहद + ई सराफा -- संज्ञा, पु. दे० (अ. सर्राफ: ) प्रत्य० ) सीमा या मर्यादा-सम्बन्धी. सराफों का बाजार, सराफी का काम, सरहद का। चाँदी-सोने या रुपये-पैसे के लेन-देन का साहरी-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० शर ) सर काम, बंक, कोठी (दे०)। पत या मूंज की जाति का एक पौधा । सराफी - संज्ञा, स्त्री० दे० (अ० सर्राफ़+ई सरा-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं०ार ) चिता । ...-प्रत्य. ) सोने-चांदी का व्यापार, सराफ़ संज्ञा, स्त्री० दे० ( फा० सराय । यात्री-भवन, का काम या पेशा, रूपये-पैसे के बदले का मुसाफ़िर ख़ाना । वि० (दे०) बाड़ा (हि.)। काम, महाजनी लिपि, मुडा, मुड़िया। सराइध-संज्ञा, स्त्री० (दे०) सडाइँध, सड़ने सराव -संज्ञा, स्त्री० दे० ( फ़ा० शराघ) की बास या दुगंधि। शराब, मदिरा, मद्य, वारुणी. सुरा, मधु । सराई। --- संज्ञा, स्त्री० दे० ( सं० शलाका ) संज्ञा, पृ० ( अ ) उजाड या निर्जन मैदान. सलाई (दे०), शलाका, सुरना या अंजन रेतीला मैंदान । लगाने की सलाई । संज्ञा, स्त्रो० दे० (सं० सराबोर-शराबोर - वि० दे० (सं० स्राव शराव ) सकारा, दिया, परई । + घोर हि० ) तरबतर, बिलकुल भीगा, काराग-सराणा - संज्ञा, पु. दे. ( सं० श्राप्लावित, याद, गीला। शलाका ) छड़, सीख़, सीवचा, लोहे की राय-सराय-- संज्ञा, स्त्री० ( फा०) यात्रियों शलाख। या पथिकों के टिकने का स्थान, ठहरने का सराध - संज्ञा, पु० दे० (सं० श्राद्ध) श्राद्ध, मकान या घर, यात्री-भवन, मुसाफ़िर For Private and Personal Use Only Page #1730 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १७१६ सरारत सरीक खाना, पथिकालय । “ दुनिया दुरंगी श्लाघनीय, प्रशंसा के योग्य, स्तुत्य या मकारा सराय"। धड़ाई के लायक, श्रेष्ठ, अच्छा, बदिया। सरारत- संज्ञा, स्त्री० (दे०) शरारत (फा०) सरि* ---संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० सरित) सरिता. दुष्टता, बदमाशी। वि० ---सरारती (दे०)। नदी। संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० सदृश ) समता, सराव सरावक---संज्ञा, पु० दे० (सं० समानता, बराबरी। वि० समान, सदृश, शराव ) मद्य-पात्र, शराब पीने का प्याला, . बराबर । " उतरे जाय देव-सरि तीरा" कटोरा, सकोरा, दिया। -रामा० । अव्य. (दे०) तक, पर्यन्त । सरावग-सरावगा -- संज्ञा, पु० दे० (सं० "आऊ सरि राजा तह रहा "-पद्म । श्रावक ) जैनी, जैन-धर्मावलंबी, जैन । " सुर-परि रावरी न सुर सरि पावै फरि" सरावन-मरावना-संज्ञा, पु० (दे०) मिट्टी -रसाल बराबर करने का हंगा, मोटी लकड़ी। सरित-सरिता -- संज्ञा, खो० (सं.) नदी सज्ञा, पु० (दे०) सड़ावन. सड़ाव (हि.) दरिया। सरावना--स० क्रि० (दे०) सड़ाना, सड़ने सरित्पांत-संज्ञा, पु. यौ० (सं० ) सिंधु, देना। समुद्र, सागर, नदीश । सराम · संज्ञा, पु. (दे०) भूपी। " कहो सरिया--संज्ञा, स्त्री० (दे०) लोहे श्रादि धातु कौन पै कदो जाय कन, बहुत सराल पछोरी" की छोटी मोटी छड़ी। -सूबे० । सरियाना--स० कि० (दे०) क्रम या सरासन: - संज्ञा, पु० दे० यौ० (सं० शरासन) तरतीब से इकट्ठा करना. सिलसिले से धनुप. शरासन । ' देखि कुटार-सरामन लगाना, लगाना, मारना (बाज़ारु) । बाना''... रामा० ! यौ० (दे०) सड़ा हुआ | सरिवन-ज्ञा, पु० दे० (सं० शाल पर्णी ) शालपर्ण नामक औषधि त्रिपर्णी । सरासर ---अध्य० ( फा० ) एक सिरे से | सरिवर-रिवरि*--संज्ञा, स्त्री० (दे०) दूसरे मिरे तक, पूर्ण रूप से, पूर्णतया, समता, तुल्यता, बराबरी । “ हम हिं तुमहिं सारा, प्रत्यन, साक्षात । " सरावर वसीला है अब वह ज़फ़र का'' हाली। सरिवरि कसा नाथा ".--रामा० । सरासरी-संज्ञा, स्त्री. ( फा० ) शीघ्रता, सरिश्ता-ज्ञा, पु० दे० (फा० सरिश्तः ) जल्दी, श्रासानी, फुरती, स्थूलानुमान, कार्यालय का विभाग, कचहरी, अदालत, मोटा अंदाज़ । क्रि० वि० जल्दी या शीघ्रता महकमा, दातर । से, सड़बड़ी में, स्थूल रूप से । सरिश्तेदार - संज्ञा, पु० दे० ( फा० सरिश्तःसराह-सराहन* --रज्ञा, स्त्री० दे० ( सं० दार ) किसी महकमें या विभाग का प्रधान श्लाघा ) तारीफ़, प्रशंसा, बड़ाई, स्तुति, कर्मचारी, मुकदमों की देशी भाषा की सराहन (व.)। मिसलें रखने वाला अदालत का कर्मचारी। सराहना-- स० क्रि० दे० ( सं० श्लाघन) सरिस* -- वि० दे० (सं० सदृश ) सदृश, प्रशंसा या तारीफ करना, बड़ाई या स्तुति तुल्य, समान, बराबर । " पर हित सरिस करना संज्ञा, स्त्री. ... प्रशंसा, बड़ाई, स्तवन। धर्म नहिं भाई” रामा० ! " जाकी ह्याँ सराहना है ताकी हाँ सराहना सरिहन--कि० वि० (दे०) समन, प्रत्यक्ष, सामने। सराहनीय--वि० (हे. सराहना ) श्लाध्य, सरीक- वि० दे० ( अ० शरीक ) साझी । For Private and Personal Use Only Page #1731 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सरीकता १७२० सरोसामान सरीकता-संज्ञा, स्त्री० दे० ( का० शरीक + इस वक्त, अभी, इस दम, इस समय ता-हि० प्रत्य०) हिस्सा, साझा, साथ, के हेतु। मेल । | सरे बाजार-क्रि० वि० (फ़ा० ) हाट में, सरीखा-वि० दे० (सं० सदृश ) जैसा, बाजार में, सब लोगों या जनता के सन्मुख, तुल्य, बराबर, समान, सदृश । सब के सामने, खुले श्राम । सरी-वि० (दे०) शरीफ़, ( फ़ा० ) भला. संरेस--संज्ञा, पु० दे० ( फा० सरेश ) सरेश, मनुष्य । एक ललदार वस्तु. जो भैप श्रादि के चमड़े सरीफा---संज्ञा, पु० दे० (सं० श्रीफल ) एक या मछली के पोटे को पका कर बनाई छोटा पेड़ और उसके गोल मीठे फल, जाती है, सरेस प्रान्ती.)। शरीफ़ा। सरो-संज्ञा, पु. (दे०) भाऊ जैसा एक सरीर -संज्ञा, पु० दे० (सं० शरोर) सदा हरा रहने वाला सीधा वृन । शरीर, देह, अंग। “राम-काज छन-भंग सरोकार - सज्ञा, पु० (फा०) वास्ता, लगाव, सरीरा"-रामा० । वि०, संज्ञा, पु० (दे०) ताल्लुक, सम्बन्ध, प्रयोजन, परस्पर व्यवहार। शरीरी । वि० (दे०) शरीर ( फ़ा०) “श्र.प को हमसे सरोकार नहीं क्या मानी" बदमाश, दुष्ट । -स्फु०। सरीरहप-संज्ञा, पु. ( सं० ) रेंगने वाला सराज --- संज्ञा, पु. ( सं० ) कमल । " मुखजन्तु. साँप, सर्प आदि । सरोज मकरन्द छवि "-रामा०। सरुज--वि० (सं०) रुग्ण, रोगयुक्त, रोगी। सरोजना-२० क्रि० (दे०) प्राप्त करना, " क्षण भंगी है सरुज शरीरा'-- वासु। पाना। सरुष-वि० (सं०) कुपित को प्रयुक्त । सराजिनी—संज्ञा, खी० ( सं०) कमलों का सरुहाना-अ० कि० (दे०) अच्छा होना।। समूह, कमलों का तालाब, कमल का फूल, " अजों न सरुहें निठुर तुम, मये और ही कमलिनी। भाय"-मति। सरोट -संज्ञा, पु. दे० (हि. सिलवट ) सरुहाना-स० क्रि० (दे०) रोन-युक्त करना, बिछौने में पड़ी सिलवट या शिकन, मुरीं । अच्छा करना। सरोता-सरौता-संज्ञा, पु. (दे०) सुपारी सरूप-वि० (सं०) साकार, थाकार वाला, काटने का हथियार, सरउता (ग्रा०)। रूप-युक्त, समान, सदृश, तुल्य, सम, सरोद-संज्ञा, पु. ( फ़ा० ) बीन जैसा एक सुन्दर, रूपवान । संज्ञा, पु० (दे०) स्वरूप । बाजा। सरूर--संज्ञा, पु० दे० (फ़ा० सरूर) प्रसन्नता, सरोरूह-- संज्ञा, पु० (सं० ) कमल ।। खुशी, हष, हलका नश।।। सरोवर--संज्ञा, पु० (सं०) तड़ाग ताल, सरेख, सरेखा -वि० दे० (सं० श्रेष्ठ) झील, तालाब, पुवरा । " तथा सरोवर चतुर, सज्ञान, होशियार चाला , सयाना, ताकि पियासा"-रामा०। बड़ा और समझदार । संज्ञा, स्त्री० सरेखी। सरोष-वि० (सं० ) सक्रोध, कोप-युक्त, "हँसि हँसि पूछहि सखी सरेखी"---पद्मा० । कुपित । " सुनि सरोष भृगुवंश-मणि, बोले संज्ञा, स्त्री० (दे०) सरेखता- चतुरता। गिरा गंभीर"- रामा० । सरेखना-अ.क्रि० (दे०) सहेजना, सौंपना, सरो-सामान -- संज्ञा, पु. (फा०) मालसिपुर्द करना । असबाब, सामग्री. उपकरण, सामान, सरदस्त-क्रि० वि० (फा०) इस समय, | मालटाल । For Private and Personal Use Only Page #1732 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सर्बस सरोही १७२१ सरोही-- संज्ञा, स्त्री० (दे०) राजपूताने में एक सुस्त, काहिल, धीमा, मंद, नामर्द, राज्य की राजधानी। नपुंसक। सरौं करे - बा. (दे०) श्रम करना, पटे- | सर्दी-संज्ञा, स्त्री० (फा० ) ठंढक, शीतलता, बाज़ी का कर्तब करना । " सरौं करें पायक ठंढ़, शीत, जाड़ा, जुकाम। फहराई "-रामा०। सर्प-संज्ञा, पु. (सं० ) साँप, नाग, तेज़ी सरौता-संज्ञा, पु० दे० ( सं० सार = लोहा | से चलना, एक म्लेच्छ जाति, सरप (दे०)। --पत्र ) सुपारी काटने का एक लोहे का स्त्री० सपिणी। औज़ार । स्त्री०, अल्पा०-सरौती! सर्पकाल--संज्ञा, पु० यौ० (सं०) गरुड़, सर्करा-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० शर्करा) शक्कर, | मोर, नेवला । खाँड़, बूरा (प्रान्ती.) चीनी । सर्पयज्ञ-सर्पयाग-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) एक यज्ञ जो राजा जन्मेजय ने साँपों के सर्कार-संज्ञा, स्त्री० दे० ( फ़ा. सरकार ) नाश के हेतु किया था, नागयज्ञ । “ सर्पसरकार। वि० (दे०) सकारी । याग जन्मेजय कीन्हीं"- स्फु० । सर्ग--- संज्ञा, पु० (सं०) प्रकृति, सृष्टि, संसार, सर्पराज--- संज्ञा, पु. यौ० (सं०) साँपों का उद्गम, उत्पत्ति-स्थान, जीव, संतान. प्राणी, राजा, शेषनाग, वासुकि, सपेश, साधीश । स्वभाव, गति, फेंकना, प्रवाह, गमन, बहाव, सर्पविद्या---संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) वह चलना, अध्याय, (विशेषतया काव्य का) विद्या जिसके द्वारा साँप पकड़ कर वश में प्रकरण । “सर्ग च प्रति सगं च वंश किये जाते हैं। मन्वन्तराणि च".--भा० । " सर्ग-स्थितिसंहार-हेतवे "-रघु। | सर्पशत्रु - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) गरुड़, मोर, सर्गबंध-वि० यौ० (सं०) वह पुस्तक नेवला। जो कई अध्यायों में बँटी हो । " सर्ग-बंधो | सारि- पंज्ञा, पु० यौ० (सं०) गरुड़, मोर, महाकाव्यो".... सा. द० । नेवला। सर्गन-वि० दे० ( सं० सगुण) गुण सहित, सर्पिणी-संज्ञा, स्त्री. (सं०) साँपिनी, गुण-युक्त, गुणी, सरगुन (दे०) । " सर्गुन नागिनी, मादा साँप, भुजंगीलता । " पुत्रामेरे पिता लगत हैं, निर्गुन हैं महतारी, दिनी सर्पिणी ".--.सि. कौ०। -कबी०। सी-संज्ञा, पु. ( सं० सर्पिस ) घी, पेट के सर्ज---संज्ञा, पु. (६०) बड़ी जाति का | बल चलने वाला, साँप । " सर्पिः पिवेच्चाशाल पेड़, धूना, राल, सलाई का पेड़, एक तुरः "-लो० । ऊनी कपड़ा, सरज (दे०)। सई-संज्ञ', पु. ( अ०) व्यय या खर्च सर्जन-संज्ञा, पु० (सं०) छोड़ना, त्यागना, किया हुश्रा। निकालना, फेंकना, सिरजना, रचना, सफ़ा-संज्ञा, पु० दे० ( अ० सर्फः ) व्यय, बनाना, सृष्टि, पैदा करना । “खालिक खर्च, सरसा (दे०)। बारी सरजनहार ".-मी. खु०। वि० शर्बत-सरवत-संज्ञा, पु० (दे०) सर्बत, सजनीय, सजित। चिनी मिला पानी। सर्ज-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० सरयू) सरजू, सर्बस-संज्ञा, पु० दे० ( सं० सर्वस्व ) अवध प्रान्त की एक विख्यात नदी। समस्त, सम्पूर्ण, सब कुछ, सर्वस्व, सारी सर्द-वि० ( फ़ा० ) शीतल, ठंढा, ढीला, वस्तुऐं, सरबस (दे०)। भा० श० को०-२९६ For Private and Personal Use Only Page #1733 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org सर्म शर्मं, सर्म – संज्ञा, पु० दे० ( फा० शर्म ) लज्जा, सरम, शरम (दे० ) । अ० क्रि० (दे०) सर्माना । वि० (दे०) सर्मिन्दा, सर्मीला । सर्राफ -संज्ञा, पु० ( अ० ) सराफ, सोनेचाँदी का व्यापारी | संज्ञा, खो० सर्राफी - सर्राफ का काम या पेशा । सर्राफा - संज्ञा, पु० ( बाज़ार, सराफा (दे० ) । ० ) सराफों का १७२२ सर्व - वि० (सं०) सम्पूर्ण, सब, सारा, समस्त, कुल, सर्वस्व, तमाम | संज्ञा, पु० (सं० ) - पाश शिव, विष्णु । " " सर्व काम - संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) सब इच्छायें रखने या पूरी करने वाला । सर्वकामेश्वरी ' -स० श० । सर्व काल - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) नित्य, सदा सर्वदा, सब समयों में, हमेशा, हरदम, सर्व समय । तुम कहँ सर्वकाल कल्याना " - रामा ० सर्वग, सर्वगामी - वि० (सं०) सब जगह जाने वाला, सर्वव्यापी, सब स्थानों में फैलने 66 वाला । सर्वगत–वि० (सं०) सर्वग, सर्वव्यापक, सर्वव्यापी, सब स्थानों में फैलने वाला । सर्वग्रास -- संज्ञा, पु० यौ० (सं०) चंद्रमा या सूर्य का पूर्ण ग्रहण, पूराग्रहण, खग्रास । सर्व जनीन - वि० (सं०) सार्वजनिक, सब लोगों से संबंध रखने वाला, सब लोगों का । 61 क्षणम्मया सर्वजनीन मुच्चते " - माघ० । सर्वज्ञ - वि० (सं०) सब कुछ जानने वाला | संज्ञा, स्त्री० (सं०) सर्वज्ञता । स्त्री० सर्वज्ञा । संज्ञा, पु० - ईश्वर, देवता, अर्हन् या बुद्ध, शिव, विष्णु, सर्ववेत्ता, सर्वज्ञानी, सर्वज्ञाता । सर्वज्ञता - संज्ञा, स्त्री० (सं०) सर्वज्ञ का भाव । सर्वतंत्र - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) सर्वशास्त्राविरुद्ध, सर्व शास्त्र-सिद्धान्त । वि० जिसे सब शास्त्र मानते हों। संज्ञा, स्त्री० (सं० ) सर्वतंत्रता । सर्वभक्षी सर्वतः - अव्य० (सं०) सब प्रकार से, सब ओर या तरफ़ से, चारों ओर । सर्वतोभद्र - वि० (सं०) सब थोरों से, कल्याण या मंगल, जिसके सिर, दादी और मूल सब के बाल मुड़े हों । संज्ञा, पु० (सं० ) -- वह चार कोने का मंदिर जिसके चारों ओर द्वार हों, पूजा के कपड़े पर बना एक कोठेदार मांगलिक चिह्न या यंत्र जिसकी पूजा होती है, एक चित्र काव्य, एक प्रकार की पहेली, जिसमें शब्द के कबंडातरों के भी हों, विष्णु का रथ । सर्वतोभाव - व्य ० (सं०) भलीभाँति अच्छी तरह सब प्रकार से, सर्वतोभावेन । सर्वत्र - - अव्य० (सं०) सब ठौर या जगह, सब कहीं, सर्वतः । पंडिता: नहिं सर्वत्र चन्दनम् न वने वने : स्फुट० । सर्वथा -- व्य० (सं०) सब तरह, सब प्रकार से, सब, बिलकुल । सर्वदमन - संज्ञा, पु० ० (सं०) राजा दुष्यंत का पुत्र | वि० यौ० (सं०) सब का दमन करने वाला । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सर्वदर्शक, सर्वदर्शी -- संज्ञा, पु० यौ० (सं० सर्वदर्शिन् ) सब कुछ देखने वाला, परमेश्वर । स्त्री० सर्वदर्शिणी, सर्वद्रष्ठा । सर्वदा - - अव्य० (सं०) सदैव, सदा, नित्य, हमेशा, संतत, नितांत, निरंतर, सतत । सर्वनाम - संज्ञा, पु० (सं० सर्वनामन् ) संज्ञा के स्थान पर प्रयुक्त होने वाला शब्द( व्याक० ) । सर्वनाश संज्ञा, पु० यौ० (सं०) सर्वध्वंस, पूरी पूरी बरबादी, सत्यानाश, पूर्ण विनाश । सर्वप्रिय - वि० सौ० (सं०) सब का प्रिय, सब को प्यारा | संज्ञा, स्त्री० – सर्वप्रियता । सर्वभक्षक – संज्ञा, पु० यौ० (सं०) सब कुछ खाने वाला, धर्म्मच्युत, श्रधर्मी । सर्वभक्षी - संज्ञा, पु० ( सं० सर्वभक्षिन् ) सब कुछ खाने वाला । स्त्री० सर्व भक्षिणी । संज्ञा, पु० (सं०) अग्नि, भाग । For Private and Personal Use Only Page #1734 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सर्वभूत १७२३ सर्वोत्तम सर्वभूत-संज्ञा, पु० (सं०) चराचर, संसार । सर्वस्व-संज्ञा, पु० (सं०) सम्पूर्ण, समस्त, सर्वभोगी-वि० ( सं० सर्व भोगिन् ) सब सब कुछ, सारी-संपत्ति, सारा धन, सब का आनंद लेने वाला सब खाने वाला, माल-असबाब, सब सामग्री। अधर्मी । स्त्री० सर्व भोगिनी। सर्वहर ----संज्ञा, पु० (सं०) सब नाश करने सर्वमंगला-संज्ञा, स्त्री. (सं०) पार्वती, दुर्गा, वाला, शिव, महादेव, काल, यमराज । लचमी, सरस्वती । " श्रायुध सघन सर्व- सर्वान--वि) यौ० (सं०) सबसे आगे, सर्वमंगला समेत सर्व पर्वत उठाय गति श्रेष्ठ, सर्वोत्तम । यौ० सर्वाग्रगण्य । कीन्हीं है कमल को ''.... राम। सींग--संहा, पु. यौ० (सं०) सारा या सर्वमांगल्य --संज्ञा, पु० यौ० (सं०) सब का संपूर्ण शरीर, सब देह, सब अवयव या कल्याण या मंगल वि० सं०) सर्व- भाग, समस्त, सवींश । क्रि० वि० (सं०) पूर्ण मांगलिक। रूप से, सर्वथा । वि० (सं०) सींगोण । सर्वमय--वि० (सं०) सर्व-स्वरूप, सर्वत्र सींश- संज्ञा, पु० यौ० (सं०) समस्त भाग व्याप्त। या अंश, सींग, सम्पूर्ण । क्रि० वि० (सं०) सर्वरी*---संज्ञा, पु० दे० (सं० शर्वरी) रात, पूर्ण रूप से, पूर्णतया, सर्वथा । रात्रि, निशा । सर्वात्मा--संज्ञा, पु० यौ० (सं० सर्वात्मन्) सर्वव्यापक-संज्ञा, पु. यौ० (सं०) सब में संपूर्ण संसार की धारमा या विश्वात्मा, उपस्थित या फैला हुआ, सर्वव्यापी, सव लोकारमा, ब्रह्म, अखिलात्मा, परमेश्वर, पदार्थों में रमणशील । विष्णु, शिव, ब्रह्मा। "सर्वात्मा सच्चिदा सर्वव्यापी--वि. (सं. सर्व व्यापिन् ) सब नन्दोऽनन्तोन्याय कृच्छविः'--६० स०। पदार्थों में व्याप्त. सब में फैला या उपस्थित, सर्वाधिकार--संज्ञा, पु० यौ० (सं०) पूर्ण सब में रमणशील । स्त्री. सर्व व्यापिनी।। अधिकार, पूरा इख्तियार, सब कुछ करने का सर्वशक्तिमान्-वि० यौ० (सं० सर्वशक्तिमत्) अधिकार । सब कुछ करने की सामर्थ्य रखने वाला। सर्वाधिकारी--संज्ञा, पु० (सं०) पूर्ण अधिस्त्री० . सर्व शक्तिमती । संज्ञा, पु० (सं०) कार वाला,जिसके हाथ में पूरा अधिकार हो । परमेश्वर । संज्ञा स्त्री० सर्व शक्तिमत्ता। सर्वाधीश-सर्वाधीश्वर ---संज्ञा, पु. यौ० सर्वश्रेष्ठ-वि० यौ० (सं०) सबसे बढ़कर, (सं०) सब का राजा या मालिक, ईश्वर । सर्वोत्तम, सर्वोच्च । सर्वाशी-वि० (सं० सर्वाशिन् ) सब कुछ सर्वसंहार ... संज्ञा, पु. यो० (सं०) सबका खाने वाला, पर्वभक्षी । स्त्री० सर्वाशिनी। नाश, सबका नाशक, काल । यौ. सर्व सर्वास्तिवाद--संज्ञा, पु० यौ० (सं०) एक संहारक, सर्वसंहारकर्ता। दार्शनिक सिद्धांत कि सर्व पदार्थ सत् या सर्वस-सर्बसु-संज्ञा, पु. द० (सं० सर्वस्व) सत्य सत्तावान् हैं असत्य या असत् नहीं, सर्वस्व, सब कुछ, सर्बस, सरबस (दे०)। सत्त्वत्तावाद, वि० सर्वास्तिवादी। "श्राद्ध तर्जाहं बुध सर्वस जाता"-- रामा० । सर्वेश-सर्वेश्वर-संज्ञा, पु. यो. (सं.) सब सर्वसाधारण-संज्ञा, पु० यौ०(सं०) साधारण का स्वामी या मालिक, परमेश्वर, अखिलेश्वर, या श्राम लोग, जनता, सब लोग । वि. राजाधिराज, पक्रवर्ती सम्राट । आम (फा०) जो सब में मिले। सच्चि -वि० यौ० (सं०) सब से ऊँचा । सर्व सामान्य ....वि. यौ० (सं०) जो सबमें सर्वोत्तम--वि. यौ० (सं०) सर्व श्रेष्ठ, सबसे समता से पाया जावे, मामूली, साधारण । । उत्तम, सर्वोत्कृष्ट । For Private and Personal Use Only Page #1735 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir RomamamMERASwamRRENIMA सर्वोपरि १७२४ सलामती सर्वोपरि--अव्य यौ० (सं०) सर्वश्रेष्ठ, सर्वो- सलसलाना--सं० (दे०) पसीना निक त्तम, सबसे बड़ा, सबसे उत्तम या श्रेष्ठ । । लना, सिलसिलाना, सरसराना, छुजलाना, सर्वाग्रगण्य, सर्वाच्य। पानी ले .खूब भीगना, दीवाल में खूब साषधि-संज्ञा, स्त्री० (सं०) औषधियों का पानी घुस जाना एक वर्ग जिसमें दस जड़ी बूटियाँ हैं। मलहर ---संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० श्याल जाया, (पायु०) । यौ० साशधीश (सं.)--- हि० सर हज) सरहज, साले की स्त्री। चन्द्रमा, मृगांक रस । मलाई --- संज्ञा, वं. दे. ( सं० शलाका ) सर्षप-संज्ञा, पु. (सं०) सरसों, सरसों के लोहे आदि धातु की पतली छड़, शलाका, बराबर का मान या परिमाण । “यवहविर्जतु सगई (दे०)। मुहा० --सलाई फेरनासर्षप-धूपनम्” - लो । अंधा करने के लिये गरम सलाई अाँख में सलई--संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० शल्लकी) चीड़ लगाना । संज्ञा, 'त्री० दे० (हि० सालना ) या शल्ल की वृक्ष, चीड़ का गोंद, कंदर सालने की क्रिया या भाव अथवा मज़दूरी। प्रान्ती. साई। सलाक-संज्ञा, पु० द० (सं० शलाका ) सलकी-संज्ञा, स्त्री० (दे०) कमल की जड़। पतली लोहे प्रादि छड़, तीर सलाका, सलगम, सलजम-संज्ञा, पु० दे० (फा० (स्त्री०)। शलजम ) शलजम । सलाख-सज्ञा, स्त्री० (फ़ा० मि० सं० शलाका) सलज-वि० (सं०) लज्जालू, लज्जावान् , लोहे श्रादि धातु की पतली छड़, सलाई शर्मीला, हयावाला, लज्जाशील । संज्ञा, (दे०). शलाका । स्त्री० (सं०) सलज्जता । मो०-सलज्जा । सलाद, मलादा-संज्ञा, पु० दे० (अ. "सलजा गणिका नष्टा निर्लज्जा च कुलां- सैलाड ) मूली. प्याज श्रादि के पत्तों का गना".-नीति०। अंग्रेज़ी अचार, कच्चे खाने के एक कंद के सलतनत सल्तनत-संज्ञा, स्त्री० दे० अ० पत्ते । सल्तनत) बादशाहत (फ़ा०) साम्राज्य, राज्य, सलाम-संज्ञा, पु. (अ०) प्रणाम, बंदगी, प्रबंध, इंतिज़ाम, श्राराम, सुभीता। नमस्कार, आदाब : यौ०--सलाम अले सलना-अ० क्रि० दे० (सं० शल्य) छिदना, कुम् । मुहा०-दूर से सलाम करना भिदना, छेद में डाला या पहनाया जाना, ---किसी बुरी वस्तु के पास न जाना, साला जाना (खाट श्रादि)। स० रूप-सालना सलाम बोलन। --- उपस्थित या हाज़िर प्रे० रूप--सलवाना। होना, हाजिरी देना, सलाम देना--सलाम सलब-वि० दे० ( अ० शल्व ) नष्ट भ्रष्ट, करना, श्राने या बुलाने की सूचना देना, खराब, बरबाद। सलाम लेना-सलाम का जवाब देना। सलभ-संज्ञा, पु० (दे०) शलभ (सं०) सलामत-वि० (ग्र०) रक्षित, बचा हुआ, पतिंगा। जीवित, स्वस्थ लिदा वतनदुरूस्त, बरकरार, सलमा-संज्ञा, पु० दे० (अ० सलम) सोने या कायम । क्रि० वि० --कुशलक्षेम से, कुशलचाँदी का गोल लपेटा हुआ तार जो बेल-बूटे क्षेम-पूर्वक, खैरियत से । यौ० - सहीबनाने के काम में आता है, बादला सलामत । (प्रान्ती०)। यौ०-सलमा-सितारा। सलामती-संज्ञा, स्त्री० ( अ० सलामत+ई सलवट-संज्ञा, स्त्री० दे० (हिं० सिलवट ) | ...--प्रत्य० ) स्वस्थता, तन्दुरुस्ती, कुशलक्षेम । सिलवट, शिकन, सिकुड़न । यौ० ---सही सलामत से। For Private and Personal Use Only Page #1736 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सलामी १७२५ सल्लम सलामी-संज्ञा, स्त्री० (अ. सलाम-न-ई ---- ! सलीम-वि० (अ.) सरल. सगम. सहज. प्रत्य० ) सलाम या प्रणाम करना, बंदगी मुहावरेदार, प्रचलितभाषा ।। करना, सैनिकों के प्रणाम करने की रीति. सलूक --संज्ञा, पु० (अ०) प्राचार, व्यवहार, तोपों या बंदूकों की बाद जो बड़े अफ़सर आचरण, बरताव, मेल, मिलाप, भलाई, या माननीय पुरुष के श्राने पर दागी जाती उपकार, नेकी । है। महा०-सलामी उतारना (दागना) सलूका--संज्ञा, पु. (सं०) बानर नचाने -किसी के स्वागतार्थ तोपों था बंदूकों की | वाला मदारी। संज्ञा, पु० (दे०) बंडी, कुरती। बाद दागना। "एक दिन एक सलूका अावा" --रामा० । सलार--पंज्ञा, पु. (दे०) एक भांति की सलूप-वि० दे० (सं० स्वल्प ) स्वल्प, चिड़िया। बहुत कम या थोड़ा। सलाह--संज्ञा, स्त्री० (३०) सल्लाह (ग्रा०) सलूना, सलोना--वि० दे० (सं० सलवण ) परामर्श, सम्मति, राय, मशविरा, सुलह, सलोना, नमकीन, स्वादिष्ट, मज़ेदार, लावण्यमेल, सुमति । मय, सुन्दर, मनोहर : विलो० --लोना। सलाह कार--संज्ञा, पु. ( अ० सलाह --- कार सलूनो--संज्ञा, स्त्री० (दे०) रक्षा बंधन का ---फा० ) सम्मति या परामर्श देने वाला, त्यौहार। राय देने वाला, अनुमतिदाता। सलैला--..वि . (दे०) वह भूमि जिपपर पाँव सलाही--- संज्ञा, पु. (फा०) सलाहकार, फिसले । 'बाट सलैली सैलमग" --कबीर० । साथी, मेली, मित्र, सल्लाही (ग्रा०)। सलोतर-ज्ञा, पु० दे० ( सं० शालिहोत्र ) सलि-संज्ञा, स्त्री० (दे.) चिता। सलिता-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० सरिता ) अश्व-चिकित्मा-विज्ञान, वह पुस्तक जिसमें घोड़े आदि 'पशुओं के भेद और उनकी दवा सरिता, नदी। श्रादि का वर्णन है। सलिल-संज्ञा, पु० (सं०) वारि, पानी, जल, नीर । " विमल सलिल उत्तर दिशि बहई" सलोतरी--पंज्ञा, पु० दे० सं० शालिहोत्री) -रामा० । अश्वचिकित्सक, घोड़ों का वैद्य, पशु-वैद्य । सलिल-पति-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) वरुण, सलोन-सलौना, सलोना-वि० (सं० समुद्र । सलवण ) सुंदर, मनोहर, स्वादिष्ट, नमकीन, सलिलाधिपति-संज्ञा, पु० यौ० (सं.) लावण्यमय ' स्त्री० -सलोनी-सलोनी । सलिलेश, सागर, वरुण । सलोनापन--संज्ञा, पु. (हि०) सलोना होने सलिलेश--संज्ञा, पु० यौ० (सं०) सागर का भाव या क्रिया। वरुण नीरनिधि । । सलोनी---- संसा, पु० दे० (सं० श्रावणी ) मलीका - संज्ञा, पु० (अ०) योग्यता, लिया. ब्राह्मणों का सावन की पूर्णमासी का कत, तमीज़, अच्छा ढंग या तरीक़ा, चाल- त्यौहार, श्रावणी, राखीपूनो, रक्षाबंधन, चलन, श्राचार-व्यवहार, चाल-ढाल। । सलूनो (दे०)। सलीकामंद-वि० (अ० सलीका - फा०- सल्लभ-संज्ञा. पु. (दे०) एक प्रकार का मंदफा ) अक्लमंद, बुद्धिमान, तमीज़दार, कपड़ा, शलभ, कीट-पतंग । " विप्र के न हुनरमंद, शिष्ट, सभ्य, शऊरदार। बल्लभ, ये साल्लभ से एक संग" स्फु० । सलीता-संज्ञा, पु० (दे०) एक बहुत मोटा सल्लम---संज्ञा, स्त्री० (दे०) गज़ो, गाढ़ा, सूती कपड़ा। । खद्दर, एक मोटा कपड़ा। For Private and Personal Use Only Page #1737 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org E १७२६ सल्लु सवाल सल्लु-संज्ञा, पु० (दे०) जूता सीने का नुसंधान करना, पता लगाना, ढूँढना खोजना | चमड़ा | सल्लो - संज्ञा, स्त्री० (दे०) भोली-भाली स्त्री, भोदली या मूर्ख श्रौरत । सवाद - संज्ञा, पु० दे० (सं० स्वाद ) स्वाद, मज़ा, जायका | वि० (दे०) सवादी । सव - संज्ञा, पु० दे० (सं० श) शव, मृतक, सवादिका - वि० दे० (हि० सवाद + इकलास, जल, पानी । प्रत्य०) स्वादिष्ट, स्वाद देने वाला । सवगात संज्ञा, स्त्री० (फ़ा० ) तुहफ़ा, भेंट, सवादिल- वि० दे० ( हि० सत्राद + इलसौगात (दे० ) । प्रत्य० ) स्वादिष्ट | (सं० सवादी - वि० (दे०) स्वाद लेने वाला, स्वाद- प्रेमी । सवत, सवति - संज्ञा, त्रो० दे० सपत्नी ) एक ही व्यक्ति की दो स्त्रियाँ परस्पर सति या पत्नी कही जाती हैं सपत्नी, सौति । " जियत न करब सवति सेवकाई ”-रामा० । सवत्सा - वि० स्त्री० (सं०) बच्चा के सहित, बच्चायुक्त, पु० सवत्स । सवन - संज्ञा, पु० (सं०) बच्चा जनना, प्रसव, यज्ञ, यज्ञ-स्नान, अग्नि, चन्द्रमा । सवर - संज्ञा, पु० (सं०) कोल, भील । सवरी - संज्ञा, त्रो० (सं०) भीलिनी, कोलिनी । " सवरी के श्राश्रम प्रभु श्राये " रामा० । 66 सवर्ण - वि० (सं०) समान वर्ण (रंग) या जाति का समान वर्ण (अक्षर) युक्त, सदृश, तुल्य | संज्ञा, पु० (सं० ) स नामका अक्षर । सरस सवर्ण परहिं नहिं चीन्हे " - रामा० । संज्ञा, स्रो० (सं०) सवर्णता । सवाँग - संज्ञा, पु० दे० ( पं० सु + अंग ) स्वाँग, दूसरे का सा भेष, नक़ल, पर-रूपधारण | संज्ञा, पु० (दला० ) दो की संख्या । सवा -- संज्ञा, खो० दे० (सं० सपाद ) एक पूरी और उसी की चौथाई मिलकर, चतुर्थीशयुक्त पूर्ण ! सवाई -संज्ञा, स्त्री० दे० ( हि० सवा + ईप्रत्य० ) मूलधन और उसकी चौथाई व्याज ( ऋण-भेद ) जयपुर के महाराजाओं की उपाधि । वि० (दे०) एक और चौथाई, सवा, सचैया (दे०) । सवाचना स० क्रि० (दे०) जाँचना, Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सवाब संज्ञा, पु० ( ० ) सुकर्म का फल, पुण्य, नेको, भलाई । " सवाया पंज्ञा, पु० दे० (सं० सपाद ) सवाई, सवा, सवावा (ग्रा० ), सवैया - एक और चौथाई का पहाड़ा । सवार - संज्ञा, पु० ( फ़ा० ) वह व्यक्ति जो घोड़े पर चढ़ा हो, अश्वारोही, श्रश्वारोही सैनिक, जो किसी पर बैठा या चढ़ा हो । वि० - किसी पर चढ़ा या बैठा हुआ, प्रभावित हुश्रा, श्रावेश-युक्त (होना) | क्रि० वि० (दे० ) -- सवेरे शीघ्र | " ऊधो जाहु सवार इहाँ तें वेगि गहरू जनि लावो ' भ्रम गीत । मुहा० - भूत सवार होना - उन्माद या प्रेतावेश होना, क्रोधादि से प्रभावित होना, व्यर्थ बकना । सवारी - संज्ञा, खो० ( फ़ा० ) चढ़ने की क्रिया, चढ़ने या सवार होने की वस्तु, वह व्यक्ति जो सवार हो, जलूस मुहा०( राजा आदि की) सवारी निकलनाराजा का जलूस निकलना । (किसी पर) सवारी गांठना- किसी पर) आतंक या प्रभाव डालना, श्रधीन करना । सवारे, सवारें - क्रि० वि० दे० (हि० सवार) शीघ्र, सवेरे, दिन रहते । 'तुरत चलौ फिर भावैं गोरस बेंचि सवारें । 6.८ " सूबे० । सवाल - संज्ञा, पु० (०) पूछना, जो पूछा जावे, प्रश्न, विश्वारणीय बात, समस्या, For Private and Personal Use Only Page #1738 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सवाल-जबाव १७२७ ससि माँग, निवेदन, प्रार्थना, दरखास्त, गणित सबैया--संज्ञा, पु० दे० ( हि० सवा+ऐयोका प्रश्न जिसका उत्तर माँगा नाता है। प्रत्य०) तौलने का सवा सेर का बाट या (विलो० --जवाब)। मान, ७ भगण और एक गुरुवर्ण का एक छंद सवाल-जवाब-संज्ञा, पु० यौ० (अ.) के दिवा, मालिनी पिं०) । एक, दो, तीन, प्रश्नोत्तर, वाद-विवाद, बहस, हुज्जत, आदि संख्याओं सवाया का पहाड़ा। तकरार, झगड़ा। सव्य-वि० (०) दक्षिण, दाँया, दाहिना, सविकल्प-वि०(सं०) संदेहयुक्त, संशयात्मक, वाम, बायाँ, विरुद्ध, प्रतिकूल । (विलो.विकल्प-नहित, संदिग्ध. जो दोनों पक्षों का अपसव्य । संज्ञा, पु० (सं०)-यज्ञोपवीत, निर्णय न कर सकने पर किसी विषय के मान | विष्णु । ले । संज्ञा, पु. (सं०) --किसी आलंबन की सब्यसाची-संज्ञा, पु. (सं० ) अर्जुन । सहायता से युक्त साध्य समाधि । 'निमित्त मात्रो भव सव्यसाची" भ० गी। सविता-संज्ञा, पु. ( सं० सवितृ ) रवि, । सशंक-वि० (सं०) शंकित,सभीत, भयभीत, सूर्य, भानु, भास्कर, मार्तण्ड, बारह की भयानक, भयंकर । संज्ञा, पु० स्त्री० (सं०) संख्या, मदार, पाक, अर्क । “ सविता जो सशंकता । विलो०-अशंक। जग उत्पन्न करि ऐश्वर्य सब के देत है" सशंकना*-:प्र० क्रि० दे० (सं० सशंक+ -कं० वि०। ना--प्रत्य० ) शंका करना, डरना, भयभीत सविता-तनय - संज्ञा, पु. यौ० (सं०) यम, __ होना। शनि, कर्ण, बालि । स्त्री-सविता सशंकित-वि• (सं०) आशंकित, सभीत । तनया-~~यमुना। सस* --- संज्ञा, पु० दे० ( सं० शशि ) ससि सवितात्मज-संज्ञा, पु, यौ० (सं०) यम, (दे०) चंद्रमा । " सस महँ प्रगट श्यामता करण, बालि, शनि । स्त्री०- सविता सोई"-रामा० । संज्ञा, पु० दे० (सं० शस्य) स्मजा-यमुना। खेतों में खड़े हरे अनाज के पौधे, खेतों में सवितापुत्र -संज्ञा, पु० यौ० ( सं० सवितृ + खड़ा अन्न खेतीबारी। " सस-संपन्न सेोह पुत्र ) सूर्य के पुत्र, यम, शनिश्चर, करण, महि कैसी"--रामा० । बालि, हिरण्यपाणि। ससक, ससा--- संज्ञा, पु० दे० ( सं० शशक) सवितासुत-संज्ञा, पु० यौ० (सं० सवितृ + सुत ) सूर्य के पुत्र, यम, शनिश्चर, करण, खरहा (ग्रा.) खरगोश । “सिंह-बधुहिं बालि। जिमि ससक-सियारा"-रामा० । यो०-~ सविधि,सविधान-वि० (सं०) विधि-पूर्वक, ससस्त्र ग (दे०) ससकरुंग-असम्भव विधान के साथ। बात । “ससा-संग गहिवो चहौ'-ऊ० श० । सविनय अवज्ञा-संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) । ससकना---० क्रि० (दे०) जी घबराना, गजा की किसी प्राज्ञा या राज्य के किसी ! सिसकना, रोना, झिझकना । "कॉपी ससी कानन को न मानना और नम्र रहना। । ससकी थहराय बिसरि बिसरि बिथा हिय सवेग-वि० (सं०) वेग के साथ, तेजी से।। हूली"-नव० । सवेरा-सज्ञा, पु० दे० सं० सबेला) प्रभात, ससधर-ससहर-संज्ञा, पु० दे० ( सं० प्रातःकाल, तड़के, सुबह, निश्चित समय के शशिधर-शशिहर ) चंद्रमा, ससिधर । पहले का समय, सबर सकार (ग्रा०)। ससांक · संज्ञा, पु० (दे०) शशांक, चंद्रमा। क्रि० वि० (दे०) सबेरे । यौ०-साँझ-१ ससि*-संज्ञा, पु० दे० (सं० शशि) चंद्रमा, सबेरे। | "प्राची दिसि ससि उगेउ सुहावा"-रामा। For Private and Personal Use Only Page #1739 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ससुर --- संज्ञा, पु० दे० पत्नी का पिता, श्वशुर । सिधर, ससिहर ससिघर-ससिहर* -- संज्ञा, पु० दे० (सं० शशिधर ) चन्द्रमा । उदय न अस्त सूर नहीं ससिहर " कवी० । 66 श्वर ) पति या १७२८ I " ससुरा -- संज्ञा, पु० दे० (सं० वशुर) श्वशुर, ससुर, एक प्रकार की गाली ससुराल | "कित नैहर पुनि धाउब कित ससुरे यह खेल ' - पद्य० । स्त्री० (दे०) ससुरी- सास पति या पत्नी की माता ( गाली ) । सरार-ससुरारि, ससुराल संज्ञा स्त्री० दे० (सं० श्वशुरालय ) ससुर का घर या गाँव, ससुरारी (ग्रा० ), पति या पत्नी के पिता का घर या गाँव । सस्ता - वि० दे० ( सं० स्वस्थ ) कम या थोड़े मूल्य का, जिसका भाव बहुत गिर गया हो । विलो० - मँहँगा । स्त्री० सस्ती । मुहा० - सस्ते छूटना ( निबटना ) - थोड़े श्रम व्यय या कष्ट में कोई कार्य हो जाना । घटिया, मामूली, साधारण । सस्ता पड़ना -- किसी कार्य या वस्तु का कम श्रम या मूल्य में प्राप्त होना । सस्तानां अ० क्रि० ( हि० सस्ता + ना--- प्रत्य० ) कम दाम पर बिकना, भाव गिर जाना । स० क्रि० (दे० ) - सस्ते दामों या अल्पमूल्य पर बेचना | सस्ती - संज्ञा, स्त्री० ( हि० सस्ता ) सस्ता होने का भाव, सस्तापन, वह समय जब सब वस्तुयें कम मूल्य पर मिलें । सस्त्रीक - वि० (सं०) जिसके साथ स्त्री भी हो, पत्नी सहित स्त्री युक्त 4 सस्य - संज्ञा, पु० (सं०) धान्य, अनाज । सह - अव्य० (सं०) साथ, सहित समेत, युक्त | वि० (सं० ) – उपस्थित मौजूद, योग्य, समर्थ, सहनशील । सहकार -- संज्ञा, पु० (सं० ) ग्राम का पेड़, सहयोग, सहायक, सुगंधित पदार्थ । सहचारी सहकारता - संज्ञा, स्त्री० (सं०) योग्यता, सहायता, मदद | सहकारिता-संज्ञा, स्त्री० (सं०) सहायक होने वाला, सहकारी, सहायता, या मदद सहायक, सहायतार्थ कार्य । सहकारी – संज्ञा, पु० (सं० सहकारिन् ) साथ साथ काम करने वाला, सहयोगी, साथी, सहायक, मददगार । स्त्री० सहकारिणी । सहगमन - संज्ञा, पु० (सं०) पति के शव के साथ पत्नी का जल जाना, सती होना, सहगवन, सहगौन (दे० ) । सहगामिनी - संज्ञा, स्री० (सं०) वह स्त्री जो अपने स्वामी के शव के साथ जल जावे या सती हो । 'सहगामिनी विभूषण जैसे " - रामा० । स्त्री, पत्नी, सहचारी, साथिन, साथिनी, सहगौनी (दे० ) । सहगामी- संज्ञा, पु० (सं० सहगामिन् ) साथ चलने वाला, साथी, सहचर । स्त्री० सहगामिनी । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir " सहगौन -सहगवन -संज्ञा, पु० दे० (सं० सह गमन) सहगमन, पति के शव के साथ पती का मत होना, साथ चलना । सहचर - संज्ञा, पु० (सं०) संगी, साथी, साथ चलने वाला, दास सेवक, नौकर, अनुचर, मित्र, स्नेही, दोस्त । स्रो० सहचरी | संज्ञा, पु० (सं०) साहचर्य । सहचरी - संज्ञा, स्त्री० (सं० ) साथ चलने वाली, पत्नी, स्त्री, सखी, सहेली, संगिनी, साथिनी । For Private and Personal Use Only सहचार - संज्ञा, पु० (सं०) साथी, संगी, मित्र, साथ, सोहबत, संग । सहचारिणी - संज्ञा, स्त्री० (सं०) साथ साथ रहने वाली, सखी, सहेली, संगिनी, साथिनी, स्त्री, पत्नी । सहचारिता - संज्ञा स्त्री० (सं०) सहचार्य, सहचारी होने का भाव, साहचारीपन । सहचारी - संज्ञा, पु० (सं० सहचारिन् ) Page #1740 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सहज १७२६ सहभोज, सहभोजन साथी, संगी, मित्र, स्नेही, सेवक, अनुचर, चिन्ह, निशानी, पहचान, उपमा सहिदानी स्वामी, पति । स्त्री० सहचारिणी। (दे०) । " दीन्ह राम तुम कहँ सहदानी" सहज-संज्ञा, पु० (सं०) सहोदर भाई, सगा- -रामा० । भाई, साथ उत्पन्न होने वाले दो भाई, सहदेई-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० सहदेवी) स्वभाव, प्रकृति । स्त्री. सहजा । वि० -- तुप जाति की एक पर्वतीय वनौषधि । स्वाभाविक, प्राकृतिक, साधारण, सरल, सहदेव-संज्ञा, पु० (सं०) पांडु नृप के पुत्र, सीधा, सुगम, साथ पैदा होने वाला। पाडवों में सब से छोटे भाई, माद्री के " सहज अपावनि नारि, पति सेवै सुभ गति | गर्भ से अश्विनीकुमारों के औरस पुत्र, लहै ”-रामा० । जरासंध का पुत्र, जो अभिमन्यु के हाथ से सहजन-सहिजनि-संज्ञा, पु. दे. ( सं० | मारा गया ( महा.)। रसांजन ) एक वृक्ष विशेष, सहिजना, सहधर्म चारिणी-संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) मुनगा, ( प्रान्तो०)। पत्नी, स्त्री, भार्या । सहजपंथ-- संज्ञा, पु. यौ० (सं०) गौड़ीय सहन -- सज्ञा, पु०(सं०) क्षमा करना, सह लेना, वैष्णव संप्रदाय का एक निम्न वर्ग, सखी या बरदास्त करना, तितिक्षा, झाँति, क्षमा, सहजिया-संप्रदाय । शांति । यौ० सहन शक्ति । संज्ञा, पु. सहजात--वि० (सं०) यमज, सहोदर. एक | (अ०) घर के बीच या सामने का खुला भाग, साथ उत्पन्न होने वाले। आँगन, मैदान, चौक, एक रेशमी वस्त्र । सहजानि -- संज्ञा, स्त्री० (सं०) स्त्री, पनी। सहनभंडार-संज्ञा, पु. यौ० (दे०) कोष, सहजिया--संज्ञा, पु० (सं० सहज पंथ) सहज. धनराशि, खजाना, संपत्ति । पंथ का अनुयायी व्यक्ति। सहनशील वि० (सं०) संज्ञा, स्त्री० सहिष्णु, सहज-अव्य० दे० (सं० सहज ) अनायास, सहने या बरदाश्त करने वाला, संतोषी, सहज ही । "सहजै चले सकल जग-स्वामी" साविर (फ़ा०) सहनशी ता। -रामा । सहना-स० कि० दे० (सं० सहन ) फल सहत- संज्ञा,पु० दे०(फा० सहद) शहद, मधु । भोगना, झेलना, बरदाश्त करना, अपने सहत-महत- संज्ञा, पु० दे० यो० (सं० ऊपर लेना, बोझा उठाना, भार सहन श्रावस्ति ) गंगा किनारे एक प्राचीन नगरी, करना। स० रूप० सहाना, सहावना, प्रे० जो सहेत-महेत कहाती है। रूप०-सहवाना। सहनाई-संज्ञा, स्त्री० दे० (फा० शहनाई ) सहतररा-संज्ञा, पु. दे. ( फा० शाहताह ) रोशनचौकी, नफ़ीरी बाजा। पित्त पापड़ा, पर्पटक, पर्पट (सं०)। सहनायना-संज्ञा, स्त्री० दे० (फा० शहनाई) सहताना, सहिताना* --अ०क्रि० दे० (हि. शहनाई बजाने वाली स्त्री। सुस्ताना) विश्राम या पाराम करना, सुस्ताना, सहनीय-वि० (सं०) सहन करने योग्य । थकावट मिटाना। सहपाठी-संज्ञा, पु० (सं० सहपाठिन् ) सहतूत--संज्ञा, पु० दे० ( फ़ा० शहतूत् ) साथ पढ़ने वाला, सहाध्यायी। स्त्री०शहतूत, एक पेड़ और फल : सहपाठनी। सहत्व-संज्ञा, पु० (सं०) सह का भाव, सहभोज-सहभोजन -संज्ञा, पु. (सं०) एकता, मेल, जोल, मेल-मिलाप। साथ साथ खाना, एक साथ बैठकर खाना । सहदानी -संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० सज्ञान) संज्ञा, स्त्री०-सहभोजता। भा. श. को०-२१७ For Private and Personal Use Only Page #1741 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सहभोजी १७३० सहसकिरन सहभोजी-संज्ञा, पु. ( सं० सहभोजिन् ) वे फा० ) वह भोजन जो व्रत रखने के पूर्व लोग जो एक साथ बैठ कर खाते हों। बड़े तड़के किया जाता है, सहरी। सहम-संज्ञा, पु० (फ़ा०) शंका, भय, डर, सहराती वि० दे० ( फा० शहराती) शहर संकोच, मुलाहिज़ा, लिहाज़ । का, नागरिक, शहर-सम्बंधी। सहमत-वि० (सं०) एक मत या विचार सहराना* ---- २५० क्रि० दे० (हि० सहलाना) का, जिसका मत या विचार दूसरे से सहलाना, धीरे धीरे हाथ फेरना, सहरावना मिलता हो, एक धर्म का। सोहराना (दे०) । *-अ० क्रि० दे० सहमना-अ० क्रि० दे० ( फा० सहम ---ना (हि० संहरना ) भय से काँपना। वि० (दे०) -प्रत्य० ) डर जाना, डरना, भयभीत शहराना (फा०) नागरिक । होना । मूञ्छित होना, घबरा जाना, सुख सहरावनि- संज्ञा, स्त्री. ( हि० सहराना ) जाना । "गयी सहमि सुनि वचन कठोरा'। सुरसुरी, गुदगुदी, सहलाई, माहराई (दे०) सहमरण-संज्ञा, पु. (०) मृत पति के ! स० क्रि० (दे०) महरावना--सहलाना ! शव के साथ पत्नी का चिंता में जलना, सहरी--संज्ञा, बी. दे. ( सं० शफरी) सती होना। सफरी, मछली । संज्ञा, स्त्री. (दे०) सहरसहमाना-स० क्रि० ( हि० सहमना का स० गही, प्रात-भोजन । संज्ञा, स्त्री० (हि० सहारा) रूप ) डराना, भयभीत करना, धमकाना ।। नौका, नाव, डोंगी । “ पातभरी सहरी सहमृता-संज्ञा, स्त्री० (सं.) सती. सहमरण सकल सुत बारे वारे केवट की जाति कछू करने वाली स्त्री। बेद ना पढ़ाय हो' .... कवि० । सहयोग-संज्ञा, पु० (सं०) परस्पर मिलकर सहल -- वि० ('अ० मि० सं० सरल ) सरल, साथ कार्य करने का भाव, संग, साथ, सहज. यासान । “ सहल था सुम्बहल वले सहायता, भाज-कल सरकार के साथ मिल यह सलत मुश्किल था पड़ी"---ग़ालि० । कर कार्य करना, सरकारी सभाओं में सहलाना-२० क्रि० (अनु०) किसी के सम्मिलित होना और सरकार के पदाधिकार ऊपर धीरे धीरे हाथ फेरना, सहराना (दे०) ग्रहण करना, ( भा० राज.)। सुहराना, गुदगुदाना, मलना । अ० क्रि० (दे०) सहयोगी-संज्ञा, पु० (सं.) सहायक, सह गुदगुदी होना, खुजलाना, सोहराना (दे०)। कारी, सहयोग करने वाला, मिलकर साथ सहवास----संज्ञा, पु. (सं.) साथ रहना, काय्य करने वाला, समकालीन, जो किसी संग, साथ, रति, संभोग, मैथुन, प्रसंग। के साथ एक ही समय में रहे, भाज-कल सहवासिनी-संज्ञा, स्त्री. (सं० सहवास ) सरकार के साथ मिलकर कार्य करने उलकी। ___ साथ रहने वाली, साथिनी, संगिनी । सभाओं में जाने वाला, तथा सरकारी पदो. सहवासी-सज्ञा, पु० (सं० सहवासिन् ) पाधियों का ग्रहण करने वान्ता (भा. राज.)। _साथ रहने वाला, पड़ोसी। सहर-संज्ञा, पु० अ०) प्रपात, सबेरा, प्रातः । | महरया--वि० दे० (हि० सहना ) सहन करने वाला काल, तड़का । संज्ञा, पु० दे० (अ० सेहर) बहने वाला, सहनशील, सहिष्णु। टोना, जादू । संज्ञा, पु. ६० ( फा० शहर ) सहस- संज्ञा, पु० दे० (सं० सहस्र ) दश शहर, नगर । वि० (दे०) सहराती । क्रि० । सौ की संख्या । वि० (दे०) जो गिनती में वि० दे० ( हि० सहारना ) धीरे धीरे, मंदगति दस सौ हो। ' सहसबाहु सम सो रिपु से, रुक रुक कर, शनैः शनैः । ___ मोरा"-रामा। सहरगही-संज्ञा, स्त्री० ( अ० सहर + गह- सहसकिरन--संज्ञा, पु० दे० यौ० (सं. For Private and Personal Use Only Page #1742 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सहसगी १७३१ सहानुभूति सहस्रकिरण ) सूर्य, भानु, भास्कर, रवि, सहस्रनाम--संज्ञा, पु० (सं०) किसी देवता सहस्रांशु, सहस्ररश्मि । के हज़ार नाम वाला स्तोत्र, जैसे-विष्णुसहसगो-संज्ञा, पु. ६० यौ० (सं० सहस्रगु) । सहस्रनाम । सूर्य, भानु, भास्कर, रवि ।। सहस्रनेत्र--संज्ञा, पु. यौ० (सं०) इन्द्र, सहमदल-सहसपत्र--संज्ञा, पु० दे० यौ० । देवराज, सहस्रनयन सहस्र-लोचन । (सं० सहस्रदल, सहस्रपत्र ) कमल । "लसत सहस्रपाद-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) सूर्य, वदन सतपत्र सौ, सहसपत्र से नैन'- विष्णु । “सहस्रपाद् पभूमिम्"-यजुर्वे० । मति। सहस्रबाहु-संज्ञा, पु. यौ० (सं०) राजा सहसनैन-संज्ञा, पु० दे० यौ० ( सं० सहस्र- | कृतवीर्य के पुत्र कार्तिवीर्यार्जुन, हैहयराज । नपन ) इन्द्र, देवराज, सहस-तोचन । "सहस्रबाहुस्त्वमहम् द्विवाहुः"- ह. ना० । सहस बदन, सहसतख-संज्ञा, पु० दे० सहस्त्रमुख-संज्ञा, पु० यौ० सहस्रानन, शेष यो० (सं० सहस्रवदन-सहस्रमुख ) शेषनाग । नाग। " सहसबदन बरनै पर-दोषा --रामा० । सहस्त्रभुजा--संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) देवी सहसा--अव्य० (सं.) शीघ्र, झटपट जी का एक रूप, सहसभुजी (दे०)। अचानक, अकस्मात्, एकाएक । “सहसा सहस्ररश्मि--संज्ञा, पु० यौ० (सं०) सूर्य, करि पाछे पछिताहीं''-रामा० । भानु । " अशक्नुवन् सोढुमधीर लोचनः सहसात्ति-सहसावी --संज्ञा, पु. द. | सहस्ररश्मेरिख यस्य दर्शनम्"-माघ । यौ० ( सं० सहस्राक्ष ) इन्द्र, देवराज । सहस्त्रवचन--संज्ञा. पु. यौ० (सं०) शेषनाग। सहसान* --- संज्ञा, पु० दे० यौ० (सं० " वासुदेवकलानंतः सहस्रवदन स्वराट् ''सहलानन ) शेषनाग । " उपमा कहि न भा० द०। सकत सहसानन "---रामा० । सहस्रशीर्ष---संज्ञा, पु. यौ० (सं०) ब्रह्म, सहसांस्नु--संज्ञा, पु० यौ० (दे०) सहस्रांशु विष्णु, परमात्मा । "सहस्रशीर्षःपुरुषः"(सं०), सूर्य । यजु०। सहस्र-संज्ञा, पु० (सं.) दप सौ की संख्या। सहस्राक्ष-संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) इन्द्र, वि० (सं०) जो गिनती में दस सौ हो। विष्णु, परमात्मा । “सहस्राक्षः"--यजुः । " सहस्र शीपःपुरुषःसहस्राक्षःसहस्रपाद् " सहस्रानन--संज्ञा, पु० यौ० (सं०) शेषनाग । -यजुर्वे० । सहाइ-सहाई -संज्ञा, पु० दे० ( सं० सहरकर--संज्ञा, पु० यौ० (सं०) सूर्य । । सहाय्य ) सहायक, मददगार । संज्ञा, स्त्री. सहस्रकिरण --- संज्ञा, पु. (सं०) सूर्य, (दे०) सहायता, मदद, सहाय (दे०) । सहस्रांशु। " बोलि पटौतेहुँ पिता सहाई "-रामा० । सहनचच - संज्ञा, पु० यौ० (सं० सहस्रचक्षुस सहाउ, सहाऊ---संज्ञा, पु० दे० (सं० इन्द्र, देवराज, सहमान । सहाय ) सहायता, मदद, सहारा, श्राश्रय, सहस्त्र दल, सहस्र-पत्र--संज्ञा, पु. यौ० भरोसा, सहायक, मददगार । (सं०) कमल। सहस्र-धारा-संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) एक सहाध्यायी-- संज्ञा, पु. यौ० (सं०) साथ छेददार पात्र जिपसे देवताओं को स्नान पढ़ने वाला, सहपाठी। कराया जाता है। सहानुभूति--संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) किसी सहस्रनयन-संज्ञा, १० यौ० (सं०) इन्द्र, को दुखी जानकर आप भी दुखी होना, देवराज, महन्नलोचन । हमदर्दी, पर विपदादि का अनुभव । For Private and Personal Use Only Page #1743 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - सहाय १७३२ सहृदय सहाय-संज्ञा, पु. (सं०) सहायता, मदद -रामा० । वि. ( सं००--सह --हित= सहारा, श्राश्रय, भरोसा, सहायक, मददगार। हितेनसहितं ) हित के साथ । सहायक-वि० (सं०) सहायता या मदद सहिथी -- संज्ञा, स्त्री० (दे०) बरछी । करने वाला, मददगार, छोटी नदी जो किसी सहिदान* -- संज्ञा, पु० दे० ( सं० सजान ) बड़ी नदी में गिरे, अधीन रहकर काम में चिह्न, पहिचान, निशानी। स्त्री० महिदानी। सहायता करने वाला । स्त्री०-सहायिका। सहिदानी -- संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. सहिदान सहायता-संज्ञा, स्त्री० (सं०) साहाय्य, मदद का स्रो०) निशानी, समता, उपमा, करना, किसी के कार्य को श्रागे बढ़ाने के पहिचान, चिह्न । “ दीन्ह राम तुम कह लिये दिया गया धन, मदद किसी के । सहिदानी"-- रामा० ! किसी कार्य में शारीरिक, आर्थिक आदि सहिय-सहिया-संज्ञा.. पु० दे० (सं० योग देना। सहायक ) सहाय, मददगार, श्राश्रय, सहायी, सहाई-संज्ञा, पु० दे० (सं० भरोसा, संग, साथ, समेत । सा० भु० स० सहाय+ ई-प्रत्य० ) मदहगार, सहायक, क्रि० दे० ( हि० सहना) सहना, बर्दाश्त मदद, सहायता। करना । " कहँ लगि सहिय रहिय मन सहार--संज्ञा, पु० दे० ( हि० सहना ) सहन- मारे".-रामा० । शोलता, बर्दाश्त, सहना । सहि - वि० (सं०) रहने वाला, बर्दाश्त सहारना -स. क्रि० दे० (F० सहन या | करने वाला, सहनशील । हि० सहारा ) सहन या बर्दाश्त करना, महिपाना-पंज्ञा, सो० (सं०) सहनअपने सिर पर भार लेना, सहना। शीलता। सहारा-संज्ञा, पु० दे० (सं० सहाय ) | सही--वि० दे० ( अ० सहीह ) ठीक, शुद्ध, सहायता, मदद, पासरा, श्राश्रय, भरोसा. . यथार्थ, प्रमाणिक, सत्य । " परसत-पद इतमीनान । पावन शोक नयावन प्रगट भई तप-पुज सहालग-संज्ञा, पु० दे० ( सं० साहित्य) सही"--रामा० । १० क्रि० दे० (हि. व्याह-शादी की मुहूत्तों के दिन, व्याह-शादी। सहना ) सहे। मुहा० --सही भरनाकी लग्नों के महीने, सहारग (दे०)। मान लेना । दस्तखत, हस्ताक्षर ।। सहावल--संज्ञा, पु० (दे०) लोहे इत्यादि का सही-सलामत-वि० (अ.) यकुशल. लटकन जिससे दीवाल की बरारी जाँची क्षेम-कुशल, भला-चंगा, आरोग्य, तंदुरुस्त, जाती है, साहुल, नहर विभाग का एक दोष, या न्यूनता से रहित । संज्ञा, स्त्री० कर्मचारी। यौ० (हि०) सही-सलामती से।। सहिजन-संज्ञा, पु० दे० ( सं० शोभांजन ) सहुँ, सौं, सऊँ, सौंह--मध्य० दे० (सं० लम्बी फलियों का एक बड़ा वृक्ष, शोभांजन, सम्मुख) सम्मुख, सामने, सौ हैं. सउँ मुनगा, एक वृक्ष विशेष, सहजना (दे०)। तरफ़, ओर, सीधे । " जा सहुँ हेरि मार " सहिजन अति फूलै तऊ'-वृ। । विषबाना'"- पद्मा। सहिजानी-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० | सहूलियत-संज्ञा, स्त्री. (अ.) सरलता, सजान ) पहिचान, चिह, निशानी, समता, सुगमता, श्रासानी, अदब कायदा, शऊर, उपमा, सहिदानी। सहित-व्य० (सं०) साथ, युक्त, समेत, | सहृदय-वि० (सं०) सरस-हृदयी, भावुक, संग । " बंधु सहित नतु मारहुँ तोही" | रसिक, वह पुरुष जो दूसरे का भी सुख-दुख योग्यता। For Private and Personal Use Only Page #1744 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - सहेजना साँगी अपना सा समझता हो, दयालु, दयावान, । साँई'- संज्ञा, पु० दे० (सं० स्वामी) स्वामी, सज्जन, भलामानुप, सदय । संज्ञा, खो० ।। सँईयाँ, सांइयाँ (ग्रा.) परमेश्वर, मालिक, (सं०) सहृदयता। पति, भर्ता, मुसलमान फकीरों की उपाधि । सहेजना -- स० कि० द० ( अ० सही ) भली "माँई के दरबार में, कमी काहु की नाहि" भाँति जाँचना, गिनना, या सँभालना, खूब --कबी० । " साँई सब संसार में मतलब समझा-बुझाकर पौंपना या कह-सुनकर को व्यवहार"---गिर० । “जाको राखै सिपुर्द करना साइयाँ"---कबी०। सहेजवाना-स० कि० द. ( हि० सहेजना साँऊगी--संज्ञा, स्त्री० (दे०) साँगी, गाड़ी का का प्र रूप ) सहेजने का कार्य दूसरे से भंडार । वि० ( प्रान्ती० ) ठीक रास्ते पर कराना ! स० कि० (दे०) सउगियाना। सहेट-मदत--संज्ञा, पु० दे० (सं० संकेत ) साँक--संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० शंका ) शंका, प्रेमी और प्रेमिकाओं के मिलने का पूर्व ! भय, डर, श्वास रोग । निश्चित या निर्दिष्ट स्थान, संकेत भवन, साँकडा - संज्ञा, पु० दे० (सं० शृंखला ) संकेतस्थान, मम्मिलनस्थल । पैरों का एक प्राभूषण विशेष, बड़ी मोटी सहेत, सहेतुक-वि० (सं०) जिसका कुछ और भारी जंजीर । प्रयोजन या मतलब हो, उद्देश्य या कुछ सांकर* ---- संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० शृंखल ) कारण से युक्त। जंजीर, पकरी श्रृंखला । संज्ञा, पु० दे० सहेली-संज्ञा, स्त्री० द० (सं० सह + एली (सं० सकीर्ण) संकट, आपत्ति, कष्ट । -~-हि० प्रत्य० सम्वी, संगिनी,साथिनी दासी। वि० (दे०)-संकीर्ण, तंग, सकरा, कष्टमय, " गावहिं छवि अविलोकि सहेली दुःखमय । स्त्री० (दे०) साँकरी । “साँकरी रामा० । यौ० मस्त्री सहेली। गली मैं प्रली कैयौ बेर अटकी"- पद्मा० । सहया* ----संज्ञा, पु० दे० ( सं० सहाय ) "साँकरन की साँकर सम्मुख होत ही".-. महायक, मददगार । वि० दे० ( सं० सहन ) राम० । अस सांकर चलि सकै न सहिष्ण,, सहन या बर्दाश्त करने वाला। , चाँटी"... पद्म। सहोक्ति --संज्ञा, मो. यौ० (सं.) एक सॉकरा ---वि० दे० । सं० संकट ) संकट, काव्यालंकार, जहाँ संग, साथ, महादि सँकरा, जंजीर. संकीर्ण, तंग। शब्दों के प्रयोग के साथ, अनेक कार्य एक साँख. साधू-संज्ञा, पु० दे० ( सं० शाल ) हो साथ होते कहे जायें (अ० पी०)। एक पेड़, शाल वृक्ष । सहोदर---संज्ञा, पु० (सं०) एक ही माता से सांख्य-संज्ञा, पु. (सं०) महर्षि कपिल-कृत उत्पन्न संतान, एक दिल वाला । वि०- एक दर्शन शास्त्र जिसमें सत्व, रज, तममयी सगा, अपना, ख़ास । स्त्री० सहोदरा। प्रकृति को ही मूल (सृष्टि सार) माना है। " मिलै न जगत सहोदर भ्राता"-रामा०।। "साँख्य शास्त्र जिन प्रकट बखाना"-रामा । सहोटी-संज्ञा, स्त्री. (दे०) चौखट, द्वार। सांग वि० (सं०) अंगों के सहित, पूर्ण । सहा--संज्ञा, पु० सं०) सह्याद्रि पर्वत ! साँग-संज्ञा, स्त्री० दे० ( सं० शक्ति ) शक्ति, विशेष । वि० (सं०) सहने योग्य, बर्दाश्त फेंक कर मारने की बरछी, बरछा, भाला। करने लायक । ( विलो० --असहा)। वि० दे० (सं० साग ) सम्पूर्ण, पूरा, अंगों सह्याद्रि-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) एक पर्वत के सहित । विशेष (बंबई प्रान्त)। | मांगी-संक्षा, स्त्री० दे० (सं० शक्ति ) शक्ति, For Private and Personal Use Only Page #1745 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra साँगूस www.kobatirth.org WHAMIA PASTAR CARRIED AND | फेंककर मारने की बरछी, भाला, बरछा | " मारी ब्रह्म दीन्हि सोइ साँगी " - रामा साँगूस - संज्ञा, पु० (दे०) एक प्रकार की मछली । सांगोपांग - अव्य० यौ० (सं० सांग + उपांग) अंगों और उपांगों के सहित, समस्त, सम्पूर्ण, सब । साँघर - संज्ञा, पु० (दे०) स्त्री के प्रथम पति का लड़का । साँच, साँचा - वि० ५० दे० (सं० सत्य ) वास्तविक, सत्य, ठीक, यथार्थ, साँचो ( ० ) सही । स्त्री० साँची । “साँच बरोबर तप नहीं, झूठ बरोबर पाप — क़बी० । 93 १७३४ साँचला - वि० दे० ( हि० साँच+लाप्रत्य० ) सत्यवादी, सच्चा । खो० साँचली । लो०--" साँची बात साँचला कहै ' साँठि, साँठी साँझ - संज्ञा स्त्री० दे० ( सं० संध्या ) संभा (दे०), संध्या, शाम । यौ० - साँझसकारे (सरे) । साँझा - संज्ञा, पु० दे० (हि० साझा) साझा, संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० संध्या ) संध्या । साँझी - संज्ञा, स्त्री० (दे० ) प्रायः सावन के महीने में देव मंदिरों में भूमि पर की गई फूलों- पत्तों की सजावट, एक उत्सव । साँट --- सज्ञा, स्त्री० दे० ( अनु० सट से ) पतली कमची या छडी, कोड़ा, शरीर पर कोड़े आदि के आघात का दाग । सॉटन, साटन - संज्ञा, पु० (दे०) एक प्रकार - स्फुट० । साँचा -- संज्ञा, पु० दे० (सं० स्थात) फ़रमा, वह उपकरण जिसमें कोई गीली वस्तु डालकर कोई विशेष आकार-प्रकार की वस्तु बनाई जाये। मुहा० - साँचे में ढालना - विशेष सुन्दर बनाना | साँचे में ढाला होनाबहुत ही सुन्दर होना, बड़ी आकृति की वस्तु के बनाने से पूर्व नमूने के लिये बनाई गई छोटी प्राकृति की वस्तु, बेल-बूटे बनाने का ठप्पा छापा | वि० दे० (सं० सत्यवक्ता सत्यवादी, सत्यवक्ता, सच बोलने वाला, सत्य, यथार्थ । " साँचे को साँचा मिलै, साँचे मांहि समाय " -- कवी० । “कै परिहास कि साँचेहु साँचा ' - रामा० । साँची - संज्ञा, पु० ( साँची नगर ) एक तरह काठंढा पान | संज्ञा, पु० (दे० ) पुस्तकों की वह छपाई जिसमें पंक्तियाँ बेड़े बल में होती हैं । वि० स्त्रो० दे० ( हि० साँचा का स्त्री० ) सत्य, सच | 'हरखी सभा बात सुनि साँची " - रामा० I "लखी नरेस बात सब साँची ". | 66 GORAN रामा० । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir का कपड़ा । साँटना. साटना--स० क्रि० (दे०) मिलाना, लिपटाना, चिपकाना, गाँठना, सदाना । स० रूप० सटाना, प्रे० रूप० सटवाना । साँटासंज्ञा, पु० दे० ( हि० साँट ) कोड़ा, छड़ी, गन्ना, ईख । त्रो० सटिया (ग्रा० ) । साँटिया - संज्ञा, पु० दे० ( हि० साँटो ) मुनादी करने वाला, डुग्गी या डौंड़ी पीटने वाला । साँटी- संज्ञा, स्त्रो० दे० ( हि० साँटा ) लचीली पतली छोटी छड़ी, छोटा कोड़ा । साँटी लिये उगलावति माँटी " - रस० । संज्ञा, स्त्री० ( हि० साँटना ) मेल-मिलाप, प्रतिकार, बदला, प्रतिहिंसा " साँदी की रही के काहू साँची स्वच्छ - रसिक० । | साँठ- संज्ञा, ५० (दे०) साँकड़ा, सरकंडा, गन्ना, ईख । यौ०—साँठ-गाँठ-मेलमिलाप, अनुचित गुप्त संबंध | साँठना-स० क्रि० ३० (हि० सांठ) साँटना, पकड़े रहना, गुप्त और अनुचित सम्बन्ध करना । साँठि, साँठी-संज्ञा, खो० दे० ( हि० गांठ) धन, लक्ष्मी, पूँजी-पसार । " बाम्हन तहवाँ लेय का, गाँठि साँठि सुठि थोर " - पद्म० । For Private and Personal Use Only माँटी लाय' " Page #1746 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ADS mutaJAaunu c osaman साँड़ १७३५ साँभर साँड - संज्ञा, पु० दे० (सं० वंड) मृतक सांध्य-वि० (सं०) संध्या का, संध्याकी स्मृति के रूप में दाग़ कर छोड़ा हुआ सम्बन्धी। बैल, अच्छे बच्चे होने के लिये केवल जोड़ा साँप--संज्ञा, पु. ( सं० सर्प, प्रा. सप्य ) खिलाने को पाला हुआ बैल या घोड़ा। एक रेंगने वाला विपैला लंबा क्रीड़ा, सर्प, " छाँड़ि दीन्ह तेहि साँड़ बनाई .... तु.।। नाग, भुजंग । स्त्री० साँपिन, साँपिनी । साँडनी, साँडिनी-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. मुहा०--कलेजे पर साँप लोटनासाँडिया ) शीघ्र गामिनी ऊँटिनी। ईयादि से) बहुत ही दुखी होना। साँप माँड़ा--संज्ञा, पु० दे० (हि. सांड़ ) ऊपर सूंघ जाना-निर्जीव होना, मर जाना । साँड़ा, एक जंगली जंतु जिसकी चर्बी दवा के साँप चा दर की दशा-बड़े दुविधा या काम पाती है। असमंजन की अवस्था । “ भइ गति साँपसांडिया--संज्ञा, पु० दे० ( हि० साँड़) छठू दरि केरी "--रामा० । मुहा०शीघ्रगामी, ऊँट । श्रास्तीन का साँप होना-- अपना आश्रित मांढ--संज्ञा, पु० (३०) माँड, अँडुआ बैन । व्यक्ति होकर अपना ही घातक होना. अंडू (ग्रा०)। विश्वास-घाती होना, गुप्त शत्रु होन' । मांत--वि० (सं०) अंत-पहित, जिसका अत आस्तीन में साँप पालना-अपने ही पास हो । वि० दे० (सं० शांत ) शांत, नीधा, अपने घातक शत्रु को आश्रय देना। क्रोध-रहित, सांत (दे०)। "मांत सकल सांपत्तिक- वि० (सं०) संपत्ति या धन से संमार है, केवल ब्रह्म अनंत...--क० वि० । सम्बन्ध रखनेवाला, आर्थिक, माली (फ़ा०); मालि-- अव्य० द० (सं० शांति : शांति । सांपत्य- वि० (सं०) संपत्ति-सम्बन्धी। अध्य० (दे०) बदला, ख़ातिर, हेतु, लिये सापद्य-वे. (सं.) धन-सम्बन्धी। संती (ग्रा.)। मांन्वना-संज्ञा, स्त्री० (सं०) धैर्य, प्राश्वासन. साँपधरन--- संज्ञा. पु. दे. यो. (सं० स धारणा ) महादेव, शिव । धीरज, ढारम, ढाढस, किसी दुखी व्यक्ति को उसका दुख कम करने को शांति या माँपिन, सांपिनी- संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० धीरज देना। सर्पिणी ) साँप की स्त्री, मादा साँप, सर्पिणी। सांदीपनि-- संज्ञा, पु. (सं.) एक मुनि सांप्रत, साम्प्रतम् अन्य० (सं०) इसी जिनके यहाँ श्रीकृष्ण और बलदेवजो ने धनु- समय, सद्यः, तत्काल, अभी, अधुना, र्वेदादि सीखा था, और विद्या पढ़ी थी। इदानीम् । वि० साम्प्रतिक-श्राधुनिक । सांध-संज्ञा, पु. ( सं० स -- अंध ) अंध के सांप्रदायिक-वि. (सं०) किसी संप्रदाय सहित । ( सं० संधान) लषय, निशाना। का, किसी संप्रदाय-संबंधी,सप्रदाय-विषयक। साँधना--स० क्रि० द. ( सं० सधान ) सांच-संज्ञा, पु. (सं०) जाँववती के गर्भ निशाना लगाना या साधना, लक्ष्य करना. से उत्पन्न श्रीकृष्णजी के पुत्र, ये प्रति संधान करना । “वरतल चाप रुचिर सर सुन्दर थे किन्तु दुर्वारण और श्रीकृष्ण के साँधा ----रामा० । स० कि० दे० ( सं० । शाप से केढ़ी हो गये थे। संधि ) मिलाना. मिश्रण । स० क्रि० द० सांभर--संज्ञा, पु० दे० (सं० संभल, साँभल) (सं० साधन ) साधना, पूर्ण करना । राजपूताने की एक झील, जिसके पानी से " तेहि महँ विप्र माँस खल गाँधा"--- नमक बनता है। सांभर झोल के पानी से रामा० । बना नमक । एक प्रकार की मृग-जाति । For Private and Personal Use Only Page #1747 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra " www.kobatirth.org समुह, सामु संज्ञा, पु० दे० (सं० संवल ) पाथेय, मार्ग भोजन, संबल, रास्ते का खाना | साँहे, सामु हैं। - अध्य दि० (सं० सम्मुख ) समक्ष, सम्मुख, सामने | संज्ञा, पु० दे० ( श्यामक ) साँवाँ नामक अनाज | साँव-संज्ञा, पु० दे० (सं० सामंत) सामंत, वीर । " कोउ कोउ साँवत हैं घोड़न पै को उ को हाथिन पर सवार बाल्हा० । साँवर, सांवरो - वि० दे० ( ० श्यामला ) साँवला । " साँवर कँवर सखी सुठि लोना" - रामा० | संज्ञा, स्त्री० (दे०) साँवरिताई । साँवरा - वि० दे० (सं० श्यामला) साँवला. श्यामल | "मघपंचक लै गयो सांवरो तातें जिव घबरात " -- सूर० । स्त्री० साँवरी । साँवल, सांवला --- वि० दे० (सं० श्यामला ) श्यामला, श्यामवर्ण का | खो० साँवली । संज्ञा, पु० (दे०) श्री कृष्ण जी, प्रेमी या पति आदि का सूचक शब्द ( गीतों में ) । सज्ञा, स्त्री० । संज्ञा, पु० - साँवलता, सांवलापन ! सांवलताई | संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० श्यामलता श्यामलता, श्याम होने का भाव, साँवरताई "ससि महँ देखिये साँवलताई" रामा० । साँवलापन -संज्ञा, पु० दे० (हि० सॉगला + पन - प्रत्य० ) श्यामलता, श्यामता, साँवलताई । साँवलिया संज्ञा, पु० (दे०) श्यामल, श्री -- १७३६ कृष्ण | I साँवाँ-- संज्ञा, पु० दे० (सं० श्यामक) एक अन्न विशेष जो कंगुनी या चेना की जाति का है "साँवाँ-जवा जुस्तो भरि पेट" -नरो० । साँस - खज्ञा, स्त्री० दे० (सं० वाँस) श्वास, दम, जीवधारी के फेफड़े तक नाक या मुँह से वायु के भीतर ले जाने और फिर बाहर निका लने की क्रिया " साँस सॉस पर राम कहु, वृथा साँस जनि खोय" - तु० । मुहा०साँस (दम) उखड़ना - दम या सांस टूटना, कष्ट से शीघ्र गति से साँस चलना, ( मृत्यु के समय ) । साँस ऊपरर-नीचे 1 साँसत घर होना - साँस रुकना, भलीभाँति ठीक ठीक साँस का भीतर-बाहर या ऊपर-नीचे न चलना । साँस चढ़ना - श्रत्रिक परिश्रम के कारण वेग और शीघ्रता से साँस का चलना । साँस चढ़ाना - प्राणायाम करना, साँस खींच कर भीतर रोक रखना सॉस टूटना - साँस या दम उखड़ना । साँस तक न लेना - नितांत मौन या चुपचाप रहना, कुछ न बोलना | साँसों का तार स्वास-क्रम | साँस (दम) फूलना-वेग से बार बार साँस चलना, साँस चढ़ना । साँस बढ़ना - साँस फूलना, शीघ्रता और वेग से साँस थाना | साँस रहते - जीते-जागते । उलटी सांस लेना - गहरी साँस लेना, मरते समय रोगी का कष्ट से रुक रुक कर प्रतिम साँस लेना। साँस पूरी करनारोगी शादि का देर तक मरणासन्न रहना । गहरी, ठंढी या लम्बी साँस लेनाऋत्यंत शोकादि की दशा में साँस को देर तक भीतर खींचना और देर तक भीतर रोक कर बाहर छोड़ना । फुरस्त, अवकाश । साँस न होना - (मिलना ) -- )- श्रवकाश या फुरसत न होना ( मिलना ) मुहा० - साँस (दम) लेना -- विश्राम करना, दस लेना, सुस्ताना, ठहरना, दम, गुंजाइश, दरार या संधि जिससे वायु श्रा जा सके, किसी रिक्त वस्तु के भीतर भरी वायु, । मुहा० - साँस भरना- किसी वस्तु के भीतर वायु समाना या भरना । दम फूलने का रोग, दमा या श्वास रोग | साँसत-साँसति-संज्ञा स्त्री० दे० (हि० साँस + त, ति - प्रत्य०) साँस रुकने या दम घुटने का साकष्ट, अति पीड़ा या कष्ट, संकट, जंजाल, बखेड़ा, झगड़ा, दिक्कत, कठिनाई, डांट-फटकार । साँसति सहत हौं" -विन० । साँसत घर - संज्ञा, ५० द० यौ० (हि०) अपराधियों को विशेष कष्टप्रद दंड देने की अँधेरी और तंग कोठरी (जेल) काल कोठरी, कठिन कारावास | 66 Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private and Personal Use Only Page #1748 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org साँसना साँसना स० क्रि० दे० (सं० शासन) शासन करना, दंड देना, डाँटना, उपटना, ताड़ना कष्ट या दुख देना, फटकारना । साँसा -संज्ञा, पु० दे० (सं० श्वांस) स्वासा (दे०) श्वास, सॉस, दम, जीवन, प्राण, जिंदगी | संज्ञा, पु० दे० (सं० संशय) संशय शक. संदेह, शंका भय, डर. दहशत | सांसारिक वि० (सं०) भौतिक लौकिक, ऐहिक, संसार का संसार-संबंधी | संज्ञा, खो०- सांसारिकता । सांहारिक - वि० (सं० संहार | इक प्रत्य० ) संहार-सम्बन्धी । १७३७ ZAPANJE ME KAS GAS TEEN MALKOŠANAS सा- श्रव्य० दे० (सं० सदृश) सदृश, समान, तुल्य, सम, बराबर, मान सूचक एक शब्द | जैसे - जरासा । 'तुझसा रूखा कोई दुनिया में न देखा न सुना" - हाली० । साइक & सज्ञा, पु० दे० (सं० शायक) शायक, तीर, सायक (दे० ) । "रामनाम धनुसाइक पानी" --रामा० । ----- वाण, २१८ साइत - संज्ञा, स्रो० दे० (प्र० साधत ) एक घंटे या ढाई घड़ी का समय, मुहूर्त्त, शुभलग्न, पल, लम्हा ( फा ) । अव्य० दे० (फ़ा० ) शायद, कदाचित, सायत | मुहा० (दे०) साइत आय-कदाचित, शायद ऐसा ही मौका हो । साइयाँ -संज्ञा, पु० दे० (सं० स्वामी ) साँई (दे०), स्वामी, मालिक, पति, नाथ, सइयाँ ( ग्रा० ), परमेश्वर । " जाको राखे साइयाँ मारिन सकि है कोय" - कबी० । साइरी -- संज्ञा, पु० दे० (सं० सागर ) सागर । समुद्र, ऊपरी भाग, शायर, कवि, सायर (दे० ) ! सज्ञा, पु० (अ०) माफ़ी ज़मीन, स्फुट, फुटकर | "मन साइर मनसा लगी, बूड़े बहे अनेक” -कबी० ! साई -- संज्ञा, पु० दे० (सं० स्वामी) स्वामी, मालिक, पति, परमेश्वर । "साई तुम न बिसारियो" कवी० । कपति बाज्यौ " साँई " - गिर० । भा० श० को ० साका 117 साई - राज्ञा, स्त्री० दे० ( हि० साइत ) पेशे वालों को किसी अवस्था पर नियुक्ति पक्की करने के लिये जो वस्तु या अल्प धन प्रथम दिया जाता है, बयाना, पेशगी | संज्ञा, स्त्रो० दे० (हि० सड़ना) घाव में मक्खी की बीट पड़ने से जो सफ़ेदी छा जाती है और फिर कीड़े पड़ जाते हैं । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir साईस - संज्ञा, पु० दे० ( हि० रईस का अनु० ) वह नौकर जो घोड़े के मलने-दलने, शरीर के खुजलानें, दाना- घास आदि देने और ख़बरदारी के हेतु रखा जाता है, सहीस, सईस (दे० ) । साईसी - - संज्ञा, त्रो० दे० (हि० साईस - प्रत्य०) सईस का काम, पद तथा भाव या पेशा, सईसी, सहीसी (ग्रा० ) । साउ, साहु-संज्ञा, पु० दे० ( फ़ा० शाह ) महाजन शाह, सेठ, साहूकार | "साउ करै भावु तौ चबा कर चाकर' - लो० । साउज - संज्ञा, पु० (दे०) वनजीव, ग्राखेट के लिये वन-जंतु । " कीन्हेसि साउज श्रारनि रहैं" -- पद्मा० । संज्ञा, पु० (दे०) सायुज्य मुक्ति (सं०) । साकंभरी -संज्ञा, पु० दे० (सं० शाकंभरी) साँभर झील और उसके चारों ओर वा प्रांत पज्ञा, खो० दे० (सं० शाकंभरी) एक देवी । साक-संज्ञा, पु० दे० (सं० शाक) शाक, भाजी, तरकारी, सब्जी, साग (दे० ) | यौ० - साक-भाजी । साकचेगिरी- संज्ञा, स्त्रो० (दे० ) मेंहदी । साकट, साकत -- संज्ञा, पु० दे० (सं० शाक्त) शाक्त मतावलंबी, जिसने गुरु दीक्षा न ली हो, निगुरा, दुष्ट, बदमाश, पाजी । साकम् - अव्य० (सं०) सह, साथ, सहित | साकर, भाकल - वि० दे० (सं० श्रृंखला ) साँकर, जंजीर | साका - संज्ञा, पु० दे० (सं० शाका) प्रसिद्धि, For Private and Personal Use Only 11 Page #1749 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir NAREN Drumeature साकार १७३८ साखाचार-साखोचारन ख्याति, शाका, संवत्, इच्छा, अभिलाषा, देखने वाला, जिसने कोई घटना अपनी शौक । “श्राजु प्राय पूरी वह साका'- आँखों से देखी हो, चश्मदीद गवाह, पद । यश-स्मारक, कीर्ति, यश, रोबदाब, गवाही देने वाला। संज्ञा, स्त्री. (सं०) धाक, अवसर, मौका, समय । “ तस फल ! गवाही, शहादत, कोई बात कह कर उसे उन्है देउँ करि साका"--रामा० । मुहा० प्रमाणित करना । स्रो० साक्षिणी । -साका चलाना-संवत् चलना, धाक साक्ष्य-संज्ञा, पु० (२०) गवाही, शहादत जमाना । साका बाँधना-संवत्या साका ( फ़ा० )। चलाना, रोब जमाना । ऐसा कार्य जिससे साख-संज्ञा, पु० दे० ( सं० साक्षी) साक्षी, करने वाले का यश फैले । गवाह, गवाही, शहादत, प्रमाण । संज्ञा, साकार-वि० (सं०) साक्षात्, श्राकार या पु० दे० (सं० शाका ) धाक, रोबदाब, स्वरूपवान् , मूर्तिमान् , स्थूल रूप, दृश्य । मर्यादा, देने-लेने में प्रमाणिकता या रूप । संज्ञा, पु० (सं०) परमेश्वर का आकार- विश्वास । संज्ञा, स्रो० (दे०) शाखा (सं०) सहित स्वरूप । “निराकार साकार रूप तेरे शाख (फ़ा०)। मुहा०-साख होना--- हैं गाये''-मन्ना। संज्ञा स्त्री० (सं०) ( लेन-देन में ) एतबार या विश्वास होना, साकारता। साख उठना (न रहना)--विश्वास या साकारोपासना--संज्ञा, स्त्री. (सं०) परमे- एतबार न रहना ( लेनदेन में )। श्वर की मूर्ति स्थापित कर उसकी अर्चनोपा- साखना*- --स० क्रि० दे० (सं० साक्षि ) सना करना। गवाही या साक्षी देना, शहादत देना । साकिन-वि० (प्र०) निवास', रहने वाला, साखर -वि० ० ( साक्षर ) साक्षर, वाशिंदा। पढ़ा-लिखा, विद्वान, पडित । " सोन होय साक़ी-संज्ञा, पु० (अ०) शराब पिलाने वाला, लोहा यथा, साखर मूरख होय"-स्फु० । माशूक । “पिला साक़ी मुहब्बत की शराब साखा*---संज्ञा, स्त्री० द० ( सं० शाखा ) आहिस्ता आहिस्ता”। शाखा, डाली, शारख, साख (दे०)। साकृत-वि० (सं०) प्राकृत-युक, सानुमान । साखी-संज्ञा, पु० दे० (सं० साक्षिन् ) साक्षी, गवाह । संज्ञा, स्त्री० (दे०) साक्षी, साकेत, साकेतन-संज्ञा, पु० (सं०) अयोध्या गवाही । " सत्य कहौं करि शङ्कर साखी" पुरी। “साकेत-निवासिना"--रघु० । -रामा० । मुहा०-साखी पुकारना साक्षर-वि० (सं०) शिक्षित, पढ़ा-लिखा, (देना)-गवाही देना : साखी होनापंडित, विद्वान् । संज्ञा, स्त्री०--साक्षरता। गवाह होना। ज्ञान सम्बन्धी पद या "साक्षराः विपरीतश्चेत् राक्षसारेव केवलम्"। कविता । " रमैनी सब्दी साखी"-- साक्षात्-अव्य. (सं०) प्रत्यक्ष, सन्मुख, भक्तमा० । संज्ञा, पु० द० (सं० शाखिन् ) सामने, आँखों के आगे। वि० मूर्तिमान, पेड़, वृक्ष, साखौ (दे०)। साकार । संज्ञा, पु० (सं०) मुलाकात, भेंट, साखू-संज्ञा, पु. द. (सं० शाखा ) शाल देखा-देखी। - वृत्त । साक्षात्कार--संज्ञा, पु. (सं० ) दर्शन, साखोचार-साखोचारन*---- संज्ञा, पु. मुलाकात, भेंट, इन्द्रियों से होने वाला दे० यौ० (सं० शाखोच्चारण ) गोत्रोच्चार, पदार्थ ज्ञान । विवाह के समय वर-कन्या के वंशों के साक्षी-संज्ञा, पु० (सं० सान ) दर्शक, ! पूर्व पुरुषों के नाम तथा गोत्रादि का परिचय For Private and Personal Use Only Page #1750 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra साख्या WOOVEXTASCOECTREAT $6 देना लेना । परन लागी भाँवरी " - रामा० । साख्या - संज्ञा, पु० (सं०) साक्षात्कार | www.kobatirth.org १७३६ दोउ बस साखोचार करि कै । साजना 66 साग - संज्ञा, पु० दे० भाजी, तरकारी, खाने पत्तियों की भाजी | सागपात स्वीकार कीजिये प्रेम सों" रसाल । यौ० १० सागपाल-रूखा सूखा भोजन । सागर – संज्ञा, पु० (०) सिंधु, समुद्र, बड़ी झील या तालाब, पानी भरने का बहुत बड़ा पात्र, संन्यासियों का एक भेद । " जो लाँधै सत योजन सागर - रामा० । वि० सागरीय, सागरी (दे०) । सागू - संज्ञा, पु० दे० ( ० सैगो ) ताड़ की जाति का एक वृक्ष, सागूदाना । के सागूदाना - संज्ञा, पु० यौ० ( हि०) सागू पेड़ का गूदा जो दानों के रूप में बना कर सुवा लिया जाता है, साबूदाना (दे० ) । सागौन - संज्ञा, ५० दे० (सं० शाल ) साख , ' की जाति का एक पेड़, शालवृक्ष । साग्निक - संज्ञा, पु० (सं० ) निरंतर अग्निहोत्रादि करने वाला, अग्निहोत्री याज्ञिक | साथ - वि० (सं०) समग्र, समस्त, सम्पूर्ण, सब, कुल, सारा, सब का सब अग्रांशयुक्त । साज-संज्ञा, पु० (का०मि० सं० सज्जा ) ठाट-बाट, सजावट का सामान या काम, समग्री, उपकरण, जैसे- घोड़े का साज़, बाजा, वाद्य, युद्ध के अनादि, मेलजोल । वि० मरम्मत या तैयार करने वाला, बनाने वाला ( यौ० के अंत में !, जैसे -घड़ीसाज़ | यौ० - जपाना-साज़ - समयानुकूल कार्य | करने वाला । (सं० शाक ) शाक, योग्य पौधों और साजन-संज्ञा, पु० दे० (सं० सज्जन ) पति, स्वामी, बल्लभ, प्रेमी, परमेश्वर, सज्जन, भला मानुष, सुजन (दे० ) ! " कहु सखि साजन नहि सखि रेल' कं० वि० । संज्ञा, पु० ( हि० साजना ) सजावट का सामान ! साटना - स० क्रि० (हि० सजाना) सजना, सजाना, श्रलंकृत या श्रभूषित करना, सुसज्जित करना संज्ञा, पु० दे० (हि०साजन), साजन, पुजन, स्वामी, पति, सज्जन, भला आदमी, प्रेमी । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir साजवाज - संज्ञा, पु० यौ० (हि० साज + बाज - अनु० ) सामान, माल असबाब, सामग्री, तैयारी, मेल-जोल, उपकरण, ठाठ-बाट । यौ० साज-सामान । साज सामान-संज्ञा, पु० यौ० ( फ़ा० ) उपकरण, सामग्री, माल असबाब, ठाठ-बाट । साजा - संश, पु० ( वि० सजाना) अच्छा, साफ़ । सुन्दर ये सुत कौन के सोभहि साजें - रामा० । 86 साजिदा - संज्ञा, पु० दे० ( फ़ा० साजिदः ) बाजा बजाने वाला, सरदाई, समाजी । साजिश - संज्ञा स्त्री० ( फ़ा० ) मेलजोल, किसी के विरुद्ध कोई काम करने वालों का सहायक होना या साथ देना, षड्यंत्र, उत्तजना, सहयोग | 25 साजी - संज्ञ, त्रो० (दे०) सज्जी, सज्जीखार | साजन्य - संज्ञा, पु० दे० ( सं० सायुज्य ) किसी में पूर्ण रूप से मिल जाना, मुक्ति के चार भेदों में से एक जब जीव परमात्मा में लीन हो कर एक ही हो जाता है । प्राप्त होय साजुज्य कौ, ज्योतिहि ज्योति मिलाय " - नंद० । 66 साझा - संज्ञा, पु० दे० (सं० सहार्घ्य) हिस्सेदारी, शराकत, भाग, हिस्पा, बाँट । साझी-संज्ञा, पु० दे० (हि० साझा) साझेदार, हिस्सेदार, शरीक साझेदार - संज्ञा, पु० ( हि० साझा + दार[फा० ) साझी, हिस्सेदार, शरीक । साटक - संज्ञा, पु० (दे०) छिलका, भूसी, तुच्छ और बेकार वस्तु, एक छंद (पिं० ) । साटन - संज्ञा पु० द० ( श्रं० सैटिन ) एक afदिया रेशमी वस्त्र | साटना - स० क्रि० दे० ( हि० सदाना ) For Private and Personal Use Only Page #1751 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org १७४० साठ संयुक्त करना, मिलाना, दो परतों को एक में मिला देना, बहका कर अपने पक्ष में करना, लाठी-डंडे आदि से लड़ाई करना । स० रूप- साँटना (दे०), प्रे० रूप-सटाना, सटवाना । साठ - वि० दे० (सं० षष्टि) पचास और दस । संज्ञा, पु० (हि०) ५० और १० की संख्या ६० । साउनाट - वि० दे० यौ० ( हि० साठि + नाट = नष्ट ) निर्धन, कंगाल, दरिद्र, रूखा, नीरस, तितर-बितर इधर-उधर साठसाती-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि० साढ़ेसाती : शनिश्चर ग्रह की बुरी दशा जो साढ़े सात वर्ष या माया दिन रहती है साहसाती । साठा - संज्ञा, पु० (दे०) ऊख, गन्ना, ईख. साठीधान, साठी । वि० दे० ( हि० साठ ) साठ वर्ष की अवस्था वाला। लो०साठा सो पाठा " । 16 साठगाँठा - संज्ञा, पु० (दे०) युक्ति, तदवीर. उपाय, पेंच, मेल-जोल । साठी- संज्ञा, पु० दे० (सं० षष्टिक ) एक प्रकार का धान जो साठ दिन में होता है । साठे - संज्ञा, पु० (दे० ) महाराष्ट्र ब्राह्मणों की एक जाति । साड़ी - संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० श टिका) त्रियों के पहनने की रंगीन बेल-बूटेदार चौड़े किनारे की धोती, सारी (दे०) | संज्ञा, त्रो० दे० ( हि० साड़ी ) साढ़ी. दूध की मलाई । साढ़ेसाती - संज्ञा, स्रो० दे० ( हि० साढ़े 66 साती ) साढ़े साती शनिश्चर ग्रह की दशा जो साढ़े सात वर्ष, मास या दिन तक रहती हैं ( प्रायः अशुभ) । नगर सादसाती जनु बोली " - रामा० । सादी-पंज्ञा, स्त्री० दे० ( हि० मसाढ़ ) असाढ़ महीने में बोये जाने वाली फसल, सादी | संज्ञा, त्रो० दे० (सं० सार ) दूध के ऊपर जमने वाली बालाई, मलाई । संज्ञा स्त्री० दे० ( हि० साड़ी ) साड़ी, रंगीन छपी धोती । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सात्वत A साद - संज्ञा, पु० दे० (सं० श्यालिवोढा ) साली का स्वामी, पत्नी का बहनोई, साढ ( प्रान्ती० ) । साडेसाती - संज्ञा स्त्री० द० ( हि० साढ़ेसात + ई - प्रत्य० ) सादमाती, शनि की ७३ वर्ष, मास या दिन की शुभ दशा । सात - वि० दे० (सं० सप्त ) छः से एक afari at से एक कम | संज्ञा, पु० पाँच और दो के योग की संख्या, ७ । मुहा०सात-पाँच -- चालाकी, धूर्तता, मक्कारी | लो० सान पाँच को लाठी एक जने का बोझ । मानपाँच करनाकसमस करना, इधर-उधर करना, संशय या संदेह युक्त होना । सात समुद्र पार -- बहुत ही दूर । भान राजाओं की साक्षी देना- किसी बात की सत्यता सिद्ध करने को ज़ोर देना सात सीके बनाना - लड़के की छठी के दिन ७ सीकों के रखने की एक रीति । सारी-संज्ञा, स्रो० द० यौ० ( हि० ) विवाह में सात भाँव करना सातभौरी, सतफेरी ( ग्रा० ) । सातला संज्ञा, पु० दे० (सं० सप्तला ) थूहर का एक भेद, स्वर्ण- पुप्पी, सप्तला । सात - संज्ञा, पु० दे० (हि० सत्तू सं० सत्तुक) सत्त जब और बने का भुना श्राय, सतुया (ग्रा० ), सातिकासिंग - वि० दे० (सं० सात्विक ) सात्विक, सत्वगुण प्रधान, सत्वगुण-संबंधी । राजस तामस सातिग तीनौ, ये सब मेरी माया "कबी० । We सात्मक -- वि० (सं०) श्रात्मा - सहित । सात्म्य - संज्ञा, पु० (सं०) सरूपता, सारूप्य । सात्यकि संज्ञा, पु० (सं०) युयुधान, अर्जुन का शिष्य एक यदुवंशी राजा, सत्यकी (दे० ) । “सात्यकिः चापराजतः " -- भ० गी० । सात्वत - संज्ञा, पु० (सं०) श्रीकृष्ण, बलराम, विष्णु, यदुवंशी । For Private and Personal Use Only Page #1752 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सात्वती १७५१ साधक सात्वती-संज्ञा, स्त्री० (सं०) शिशुपाल की सादगी-संज्ञा, स्त्री. (फा० ) सरलता, माता, श्रीकृष्ण जी की बुश्रा, सुभद्रा। सादापन, निष्कपटता, सीधापन । "न दूये सात्वती-सूनुर्यन्मह्ममपराध्यति" | सादर-वि० (सं०) श्रादर या सत्कार-पहित । --माघ०। “सादर जनक सुता करि भागे" --रामा० । मात्वनी बुत्ति-संज्ञा, स्त्री० यौ० ( सं० ) ! सादा--वि० दे० ( फा० सादः ) सरल और पक वृत्ति जिसका प्रयोग वीर, रौद्र, अद्भुत सीधी-सूचम बनावट का, सूचम या संक्षिप्त और शांत रसों की कविता में होता है । रूप का, 'जस वस्तु पर कोई विशेष कारीगरी ( काव्य.)। या अतिरिक्त काम न हो, जो सजाया या मात्विक----वि. (सं०) सत्वगुण संबंधी, सँवारा न गया हो, खालिप, बिना मिलावट सत्वगुण वाला, सतोगुणी, सत्वगुण से का, निष्क स्ट, सरल हृदय, छल-छिद्र-रहित, उत्पन्न । संज्ञा, पु० - सास्वती वृत्ति (काव्य०) | सीधा, मुख, साफ़, जिस पर कुछ अंकित सत्वगुण से होने वाले संपूर्ण स्वाभाविक न हो । यो०-सीधा-सादा । स्त्री०अंग-विकार, जैसे--- स्वेद, स्तंभ, रोमांच, सादी। स्वरभंग, कंप, अश्व, वैवर्ण्य और प्रलय सादापन--संज्ञा, पु० दे० ( फ़ा० साद-+-यन श्रादि भाव (साहि०)। हि०--प्रत्य०) सादगी, सरलता, सादा साथ-संज्ञा, पु. ६० (सं० सहित ) संग, होने का भाव । सादी-संक्षा, स्त्री० दे० (फा० सादः ) सहित, युक्त, साथा, साथू ( ग्रा० ), लाल की जाति का एक छोटा पक्षी, सदिया, संगत, सहचार, मेल-मिलाप घनिष्टता, बिना दाल या पीठी ग्रादि भरी खालिस पूरी। निरंतर समीप रहने वाला, साथी, संगी। यौ०-संग-साथ । अव्य०-सहचार-या संज्ञा, पु० (दे०) शिकारी, घोड़ा । संज्ञा, स्त्री० संबंध-सूचक अव्यय, से, सहित । “परिहरि (दे०) शादी (फ़ा०), व्याह । वि० स्त्री. (हि. सादा) सीधी। सोक चलौ बन साथा"--रामा० । मुहा० सादूर-संक्षा, पु० दे० (सं० शादूर्ल ) --साथ ही ( साथ ही साथ, साथ । सिंह, शार्दूल, कोई हिंसक जंतु। साथ )-इससे अधिक, अतिरिक्त, पिवा, सादृश्य --संश, पु० (सं०) समता, तुखना, और । साथ ही साथ (एक साथ)----एक तुल्यता, बराबरी. समानता, एकरूपता, पिल मिले में, सिवः, अतिरिक्त, अलावा, सदृशता द्वारा, से, प्रति, विरुद्ध । " दिनेश जाय दूर साध-. संज्ञा, पु० दे० ( सं० साधु ) साधु, बैठ इन्द्र श्रादि साथ ही"--राम। सज्जन, महात्मा, योगी। संज्ञा, स्त्री० दे० साथरा-संज्ञा, पु० (दे०) विस्तर, तृगादि । (सं० उत्सह ) लालसा, कामना, इच्छा, का बिछौना, कुश की चटाई । स्त्री० - गर्भाधान से सातवें महीने में होने वाला साथरी। उत्सव या संस्कार संज्ञा, पु० (दे०) फर्रुखासाथरी-संज्ञा, स्त्री० दे० ( हि० साथरा) बाद के जिले की एक जाति वि० दे० विस्तर. तृणादि का बिछौना, कुश की चटाई (सं० साधु ) अच्छा, श्रेष्ठ, उत्तम। "कुश किशलय साथगे सुहाई'-रामा० । साधक-संज्ञा, पु० (सं०) कार्य सिद्ध करने साथी-- संज्ञा, पु० दे० (हि. साथ ) मित्र. वाला, योगी, साधने वाला, साधना करने संगी, साथ रहने वाला, दोस्त । स्त्री०-- वाला, तपस्वी. करण, हेतु, द्वारा जरिया, माथिन, साथिनी । “ को उ नहिं राम | वसीला, परार्थ-साधन में सहायक । “साधक बिपति मैं साथी"- स्फु० । मन जस होय बिवेका"- रामा० । For Private and Personal Use Only Page #1753 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir साधन १७४२ साधु-साधु साधन-संज्ञा, पु० (सं०) कार्य-लिद्धि की साधस--संज्ञा, पु. (सं०) भय, 'डर। किया, रीति, विधान, सिद्धि, युक्ति, सामग्री, "साधस नाकर चलु प्रिय पासा "उपकरण, सामान, उपाय, हिकमत, यत्न, । विद्या० । युक्ति, साधना, उपासना, धातुओं की साधारण ---वि० (सं०) सामान्य, मामूली, शोधन-क्रिया, हेतु, कारण । सहज, सरल, सार्वजनिक, श्राम (फा०), साधनता-संज्ञा, स्त्री. (सं० ) साधना, समान, सदृश, साधारन, सधाग्न (दे०)। साधना का भाव या धर्म । पु०-साधनत्व यौ० --सर्व-साधरण। संज्ञा, स्त्रो० (सं०) वि० (हि०) साधनवाला, साधनवारा- साधारणता । (दे०) साधन-युक्त। साधारणतः---अव्य० (सं०) सामान्यतः, साधनहार*--संज्ञा, पु० दे० (सं० साधन । +हार-हि० प्रत्य०) साधने वाला, साधारणतया-क्रि० वि० सं०) साधारण जो साधा जा सके, साधन हारा।। या सामान्यरूप से । साधना-संज्ञा, स्त्री. (सं०) किसी कार्य साधित-वि० (सं.) जो साधा या सिद्ध के सिद्ध करने की युक्ति या क्रिया, सिद्धि, किया गया हो। देवतादि के सिद्ध करने के हेतु उपासना, साधी-संज्ञा, स्त्री० (दे०) ठहराई हुई, बनी सिद्धि, उपाय । स० कि० दे० (सं० साधन ) हई। कोई कार्य सम्पन्न या पूरा करना, पूर्ण साधु-संज्ञा, पु. ( सं० ) श्रार्य, सज्जन करना, संधान करना, निशाना लगाना, महात्मा, भला मानुष, धर्मात्मा परोपकारी, जाँचना, नापना, अभ्यास करना, स्वभाव कुलीन, संत, साधु, साधी (दे०)। यौ०डालना, पक्का करना, शुद्ध करना, निश्चित साधु-संत । " बाधु. अवज्ञा कर फल करना, ठहराना, इकट्ठा करना, किसी व्यक्ति ऐसा "-रामा० । यौ० संज्ञा, पु० सं०) को अपने पक्ष में रखना, वश में करना, साधुवाद । मुहार--साधु माधु कहना पकड़ना, थामना, सिद्ध करना ( शब्द- -- किसी के अच्छा काम करने पर उसे साधना) वश में रखना, यथेष्ट रूप से चलना शाबाशी देना या उपकी प्रशंषा करना । (बैल आदि पशुओं को) ! स. रूप वि० (सं०) अच्छा, भला. उत्तम, श्रेष्ठ, सधाना, प्रे० रूप० - सधवाना। उपयुक्त, उचित, श्लाघनीय, प्रशंसनीय, साधनिका-संज्ञा, स्त्री. (सं०) साधना, सच्चा । " साधु साधु इतिवादिनः" - उपाय, सिद्ध या पूर्ण करने की रीति । भट्टी। साधनीय-वि० (सं.) सिद्ध या साधन साधुता-संज्ञा, स्त्री. (सं०) सज्जनता, साधु करने योग्य, उत्तम कर्म, जिपका साधन होने का भाव या धम्म, भलमंसी, सुजनता, करना उपयोगी हो. आराधनीय, राधनोय। सिधाई, सीधापन, भलमनसाहत, सरसाधर्म्य-संज्ञा, पु. ( सं० सह --धर्म ) एक- लता। धर्माता, तुल्य या सम-धर्माता, समान साधुवाद-संज्ञा, पु. यौ० (सं०) उनम धर्म होने का भाव । (विलो-धर्म्य)। काम करने पर साधु साधु कह कर किसी साधव -संज्ञा, पु० दे० (सं० वः व० साधवः) की प्रशंसा करना या उसे शाबाशी देना साधु (प्रादरार्य बहु. ५० के स्थान पर एक साधु-साधु-प्रव्य. यौ० (सं० । वाह वाह, व. )। धन्य धन्य, शाबाश, बहुत या खूब अच्छा। For Private and Personal Use Only Page #1754 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir साधू १७४३ सापराध साधू-संज्ञा, पु० दे० (सं० साधु ) संत, साधु, करना, उत्तरदायी या ज़िम्मेदार बनाना, महात्मा, सज्जन, भलामानुस । वि० (दे०) पम्मिलित करना (बुराई में)। प्रे० रूपसीधा, आर्य, श्रेष्ठ । “सब कोउ कहै राम | सनाना, सनावना, सनवाना। सुठि साधू”– रामा०। सानी संज्ञ, स्त्री० दे० (हि० सानना) खारी साधी, साधी-संज्ञा, पु० दे० (सं० साधु) या खली पानी प्रादि में सान कर पशुओं को संत, साधु, साधव (दे०), साधवः (सं०)। देने का भोजन । वि० अ०) द्वितीय, दूसरा, "कहत कबीर सुनौ भाई साधो ''--1 समता या तुल्यता का, बराबरी या मुकाबले साध्या--वि० (सं०) सिद्ध करने योग्य, जो । का कि० वि० (हि.)-सनी हुई। यौ---- सिद्ध हो सके, सरल, सहज, जिसे सिद्ध या लासानी -... अप्रतिम, अद्वितीय, अद्वैत । प्रमाणित करना हो (न्या०) रेखा-गणित में मुहा० --सानी न होना ( रखना )सिद्ध करने योग्य सिद्धान्त । संज्ञा, पु० --- समान न होना। देवता, वह पदार्थ जिसका अनुमान किया सानु-संज्ञा, पु० (सं०)पर्वत-शृंग, पहाड़ की जावे ( न्या. ) सामर्थ्य,शक्ति । “ततःसाध्यं चोटी, अन्त', शिखर, सिरा, चौरस भूमि, समीक्षेत् पश्चादिषगुपाच रेत्".-लो०रा० । जंगल, वन । “पाश्चात्य भागमिह सानुयु वि० (सं०) सम्भव, साधन करने योग्य या संनिषण्णाः " - माघ । जिसे पूर्ण या सम्पन्न कर सके। वि० -- सानुकूल-वि० (सं०) प्रसन्न, कृपालु, दुस्साध्य। विलो०- असाध्य । दयालु । संज्ञा, स्त्री० (सं० ) सानुकूलता, साध्यता---संज्ञा, स्त्री० (सं० ) साध्य का ! पु. (सं०) सानुकूल्य। धर्म या भाव, साध्यत्व। साध्यवसानिका--संक्षा, स्त्री० (सं० ) सानुकरण---वि० (सं०) अनुकरण-पूर्वक । सान्निध्य-हाज्ञा, पु० (सं०) समीपता, निकलक्षणा का एक भेद (सा० द०)। टता, सामीप, सन्निकटता, मुक्ति या मोक्ष साध्यसम-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) वह हेतु या कारण जो माध्य की भाँति साधनीय __ का एक रूप या भेद। हो ( न्या० )। साप, सापा - संज्ञा, पु० दे० ( सं० शाप ) साध्वी--वि० स्त्री. (सं०) पतिवता, पवित्र । शाप, साप, बददुश्रा । “साँचे साप न या शुद्ध चरित्र वाली स्त्री । यौ०-सती. लागई, साँचे काल न खाय "..- कवी० । सापयश-वि० (सं०) अयश के साथ । साध्वी। सानंद-वि० (सं०) हर्ष या आनंद के साथ, r-वि. lione या ग्रानेटमा सम्पत्ति-वि० स्त्री. (सं०) आपत्तिया श्रानंद-पूर्वक, सहर्ष । सापत्य - वि० (सं०) सपत्य या लड़के के सान, शान--- संज्ञा, पु० दे० ( सं० शाण ) के साथ । विनो-अनपत्य । बाद रखना, वह पत्थर जिस पर हथियार सापत्न्य--सझा, पु० (स०) सातपन, सौत का पैने किये जाते हैं। महा-सानदेना या लड़का, सपली या सौत का धर्म या कार्य । धरना (रखना)-धार पैनी या तेज़ करना। सापना - स० क्रि० दे० (सं० शाप) शाप सान (शान ) रचना (चढ़ाना ) ! या बददुश्रा देना, कोसना, गाली देना। उत्तेजित या उत्साहित करना। संज्ञा, पु० (दे०) सपना, स्वम (सं.)। मानना-स० कि० दे० ( हि० अ० कि० सापराध--वि० (सं० ) अपराधविशिष्ठ सनना ) मिश्रित करना, मिलाना, गधना, | अपराधयुक्त, दोषी, सदोष, कलंकी, कसूरी, चूर्णादि को द्रवपदार्थ में मिला कर गीला गुनहगार, गनाही। For Private and Personal Use Only Page #1755 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - EDREMADRID सापवाद सापवाद-वि० (सं०) अपवाद या बदनामी साबिक-दस्तर--पूर्व रीत्यानुसार, पहले के साथ। के समान, जैसा पहले था वैसा ही, सापेक्ष्य --वि० (सं०) जिसकी अपेक्षा या यथापूर्व । परवाह की जाये। साबिका ----संश, पु. (अ०) भेट, मुलाकात, साफ़-वि० (अ०) स्वच्छ, बिमल, निर्मल, | सरोकार, संबंध, सावका (दे०) । उज्वल, जिसमें झझट या बखेड़ा न हो, स्पष्ट, सावित - वि० (अ०) सिद्ध प्रमाणित, जिसका शुद्ध, बे ऐब, निष्कलंक, निर्दीष, विकार प्रमाण या सबूत दिया गया हो, ठीक, रहित, शुभ्र, चमकीला, निष्कपट, छलादि प्रमाण पुष्ट, सही, दुरुस्त. सावुत (ग्रा०) । से रहित, हमवार, समतल, कोरा, ख़ालिस, " दुइ पाटन के बीच परि, साबित गया न सादा,अनावश्यक या रद्दी अंश निकाला हुआ, कोय'-कबी० । वि० दे० (अ० सबूत) जिसमें कुछ सार या तत्व न रह गया हो। दुरुस्त, पूरा, ठीक, साबूत । मुहा०-साफ़ करना-मार डालना, नष्ट सावुन, साबूत-वि० दे० ( अ० सबूत ) या बरबाद करना। चुक्ती या लेन-देन का | संपूर्ण, ठीक, दुरुस्त, अखंडित, अभंग। चुकता करना । क्रि० वि० (दे०) बिलकुल, संज्ञा, पु० (दे०) सबूत, प्रमाण । नितांत. ऐसे कि किसी को कुछ पता न चले, मावन --संज्ञा. प. (म.) रमायनिक क्रिया बिना किसी दोषापवाद, कलंक या अपराध के द्वारा बना हुआ शरीर और वस्त्रादि के, बिना कुछ हानि या कष्ट उठाये। साफ़ करने का एक पदार्थ । "काजर होय न साफल्य-संज्ञा, पु० (सं०) सफलता। संत, सौ मन साबुन खाय बरु' । साफा-संज्ञा, पु० (अ० साफ़) पगड़ी, मुडासा, सवदाना .. संज्ञा, पु० दे० (हि. सगूदाना) (प्रान्ती) मुरेठा, सिर में लपटने का कपड़ा, सागू नामक पेड़ के गूदे से बने नन्हें नन्हें पहिनने के कपड़े सावुन से धोना। दाने, साग दाना। साफ़ी-संज्ञा, स्त्री० दे० (अ० साफ़) अंगौछी, | सामंजस्य --- संज्ञा, पु० (सं०) प्रौचित्य, अनु. रूमाल, छनना, छन्ना । दे०) वह वस्त्र कूलता, उपयुक्तता, समीचीनता, संगति, जिससे भंग छानी जाती या जिसे चिलम के मेल, मिलान ! नीचे लगा कर गाँजा पीते हैं। सामंत-संज्ञा, पु० (सं०) वीर, योद्धा, राजा, साबर-संज्ञा, पु० दे० (सं० शंवर) शिवकृत | सरदार, बड़ा जमादार। यौ०-शूर-सामंत । एक प्रसिद्ध सिद्ध मंत्र, मिट्टी खोदने का एक साम--संज्ञा, पु० (० सामन्) प्राचीन काल हथियार, सम्बर, सबरी । स्त्री० अल्पा.- में यज्ञादि में गाने के सामवेद के मंत्र, सामसाँभर नामक जंगली मृग़ या पशु, उसका वेद, मीठा या मधुर, मृदु-मधुर वाणी, मधुर चर्म (ग्रा०)। " साबर मंत्र-जाल जेहि भाषण, शत्रु को मीठी बातों से निज पक्ष में सिरजा"-रामा० । वि० (दे०) साबरी- मिलाना (नीति०). सामान, असबाब । संज्ञा, साबर मंत्र शास्त्र का, साबर चर्म, साबर पु० दे० (सं० श्याम) श्याम, स्याम. शाम । या साँभर मृग का। संज्ञा, स्त्री. (दे०).-शाम, शामी । “ साम साबस-संज्ञा, पु० दे० ( फ़ा० शाबाश) दाम, अरु दंड, विभेदा"-रामा० । “कियो शाबाश, वाह वाह, बहुत, खूब, साधु । मंत्र अंगद पठवन को साम करन रघुराई'साबिक़-वि० (अ०) प्रथम या पूर्व का, रघु० । “जमुना साम भई तेहि झारा"पहले का, आगे का, भूत पूर्व। यो०- पद०। संज्ञा, स्त्री० (दे०) शाम (फ़ा०) संध्या। For Private and Personal Use Only Page #1756 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सामग सामान सामग-संज्ञा, पु० (सं०) सामवेद का पूर्ण : सामरिक-वि० (सं० ) युद्ध-संबंधी, समर ज्ञाता, ग्यामवेदज्ञ। “वेदैः सांग पद-क्रमोप- का, लड़ाई वाला। संज्ञा, स्त्री. (सं०) निषदैः गायन्ति यां सामगाः" | स्त्री०-- सामरिकता।। सामगी। | सामर्थ-संज्ञा, स्त्री० (दे०) सामर्थ्य (सं०) । सामग्री--संज्ञा, स्त्री. (सं०) किसी कार्य की वि० (दे०) समर्थ । उपयोगी वस्तुयें, आवश्यक पदार्थ, जरूरी सामर्थी - संज्ञा, पु० दे० (सं० सामर्थ्य ) शक्तिचीज़, उपकरण, सामान, असबाब, साधन । मान्, पौषी, पराक्रमी, वली, बलवान्, सामध - संज्ञा, पु. (दे०) समधियों के सामर्थ्यवान् । स्त्री०-सामर्थिनी। परस्पर मिलने की रीति, समघौटा, सामय-संज्ञा, स्त्री० (सं०) शक्ति, बल, सामधारा (ग्रा० । “सामय देखि देव । पौरुष, पराक्रम, ताकत, क्षमता, योग्यता, अनुरागे"-- रामा। | समर्थ होने का भाव, भाव-प्रकाशक सामना -संज्ञा, पु० । हि० सामने) मुकाबिला, शब्द-शत्तिः । विरोध, मुलाकात, भेट मुठभेड़, किसी के | सामवायिक-वि० (सं०) समवाय-संबंधी, समूह या झंड-संबंधी, सामूहिक, सामुदासामने होने का भाव या क्रिया । मुहा यिक। सामना करना--- मुकाबिला या विरोध सामवेद - संज्ञा, पु. यौ० (सं० सामन् ) करना, सामने घटना कर जवाब देना । भारत के प्रार्यो के चार वेदों में से तीपरा मुहा०---सामने होना-किसी के राय । वेद जिसमें यज्ञों में गाने के स्तोत्रादि का आगे पाना, उसके विरोधी का मुकाबिला संग्रह है। करना सामने आना-प्रत्यक्ष हाना, समन । सामवेदीय - वि० (सं.) सामवेद संबंधी। श्राना, विरुद्ध । किसी वस्तु का अगला भाग। विलो.--पीछायाँ --- ग्रामना-सामना। संज्ञा, पु० (सं०) सामवेद का ज्ञाता या तदनुयारी, ब्राह्मणों की एक जाति । सामने--क्रि० वि० दे० (सं० सम्मुख) सन्मुख, सामसाली--संज्ञा, पु० दे० (सं० सामशाली) श्रागे. समत, सम्मुख, सीधे, उपस्थिति या राजनीतिज्ञ, राजनीति कुशल, नीति-निपुण । विद्यमानता में, विरुद्ध, मुकाबिले में । यौ०. सामहि-व्य० दे० (सं० सन्मुख) सामने, आमने-सामने -- एक दूसरे के सम्मुख । सम्मुख, भागे। संज्ञा, पु. (व. कर्मका.) विलो०-पीके। साम (वेद या साम) को, श्याम को। सामयिक-वि० (सं०) समयानुकूल, समया सामाँ सामा---संज्ञा, पु. (दे०)सावाँ नामक नुसार, वर्तमान समय संबंधी। संक्षा, स्त्री० अन्न ! संज्ञा, पु० ( फा० सामान) असबाब । (सं०) सामयिकता । यो०-सामयिक " भला समाँ भला जामाँ सुन्दरी मुंदरी पत्र-वर्तमान समाचार-पत्र । भली"-रफु०। सामर-संज्ञा, पु० (दे०) साँवर, श्यामल, सामाजिक--वि० (सं०) समाज का, समाजसमर का भाव । (सं० सह - अमर ) देव- संबंधी. समाज या सभा से संबंध रखने सहित। वाला, सदस्य। सामरथ-सामर्थी- ज्ञा, स्त्री० दे० (सं० सामाजिकता--संज्ञा, स्त्री. (सं०) सामासामर्थ्य ) शक्ति, बल, पराकम, समरथ, जिक होने का भाव, लौकिकता, सांसासमर्थ (दे०)। पौरुष, योग्यता, लियाकत, रिकता। ताक़त, भाव-प्रकाशक शब्द शक्ति । सामान-संज्ञा, पु. ( फा०) उपकरण, भा० श० को०-२१६ For Private and Personal Use Only Page #1757 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सामान्य १७४६ सामुद्र सामग्री, असबाब, मालटाल, प्रबंध, बंदोबस्त, | प्रकार या जाति को और सब वस्तुओं का इंतिज़ाम, किसी कार्य के साधन की भाव- बोध करावे । श्यक चीजें । यो०-साज-सामान। सामान्य वर्तमान-संज्ञा, पु० यो० (सं०) सामान्य-वि० (सं०) साधारण, मामूली, । वर्तमान काल की क्रिया का वह रूप जिससे श्राम । विलो०-विशेष । ज्ञा, पु० (सं०) वर्तमान काल के निश्चित समय का बोध किसी जाति की सब चीज़ों में समानता से न हो किन्तु कर्ता का उस समय कोई कार्य पाया जाने वाला गुण या लक्षण, तुल्यता, करते रहने का ज्ञान हो । जैसे-पाता है समानता, बराबरी, एक गुण (न्या.) एक (व्याक०)। काव्यालंकार, जिसमें एक ही आकार-प्रकार सामान्यविधि-संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) की ऐसी वस्तुओं का वर्णन हो जिनमें देखने । साधारण विधान या रीति, साधारण आज्ञा में कोई अन्तर या भेद न ज्ञात हो। या व्यवस्था, श्राम हुक्म (फा०), जैसे - सामन्यतः सामान्यतया--डाव्य. (सं.) सत्य बोलो, साधारण आदेश-सूचक क्रिया साधारणतः, साधारणतया, साधारण रीति का रूप ( व्याक० )। से, सामान्य रूप से। सामान्या- संज्ञा, स्त्री० (सं०) गणिका, रंडी, सामान्यतोदृष्ट--संज्ञा, पु. यौ० (सं०) अनु. वेश्या, पतुरिया, धन लेकर प्रेम करने वाली मान के तीन भेदों में से तसीरा भेद, एक नायिका (साहि०) अनुमान-दोष (न्या०) कार्य और कारण से सामासिक-वि० (सं०) समस्त, समास भिन्न किसी अन्य वस्तु से 'अनुमान करने का, समास-संबंधी, समामाश्रित । की भूल, जैसे - देशी गाय के समान सुरा सामिग्री-संज्ञा, स्वी० दे० ( सं० सामग्री) गाय होती है, दो या अधिक वस्तुओं या सामग्री, उपकरण, सामान । बातों में ऐसा साधर्म्य-संबंध जो कार्य सामिप-वि० (सं०) मांस-सहित । पिलो०कारण से भिन्न हो। निरामिष) । संज्ञा, स्त्री. (सं.) सामिषता। सामान्य भविष्यत्-संज्ञा, ९० यौ० (सं०) सामी*- संज्ञा, 'पु० दे० ( सं० स्वामी ) क्रिया का ऐसा भविष्यत् काल जिससे भविष्य स्वामी, पति. नाथ। संज्ञा, स्त्री० (दे०) लाठी के निश्चित समय का बोध न हो। जैसे आदि के सिरे पर लगाने का धातु का आवेगा, साधारण भविष्य-रूप (व्याक०)। प.प (व्याक०)। छल्ला । वि० (दे०) श्याम-देश-निवासी। सामान्यभूत-संज्ञा, पु. यौ० (सं०) सामीप्य-संज्ञा, पु. ( सं० ) समीपता, का क्रिया का वह रूप जिससे निकटता, मुक्ति के चार भेदों में से एक भूत काल का निश्चित समय और उसकी जिसमें मुक्त जीव परमेश्वर के निकट पहुँच कुछ विशेषता तो न समझी जावे ; किन्तु जाता है। क्रिया की पूर्णता ज्ञात हो (व्याक०), सामभि -संज्ञा, स्त्री० दे० ( हि० समझ) जैसे-पाया (गुण )। समझ, बूझ, बुद्धि, ज्ञान, अकल । “अक्रय सामान्य लक्षण-संज्ञा, पु० यौ० (सं.) वह अनादि सुमामुझि साधी-रामा० । गुण जो किसी जाति की लव वस्तुओं में सामुदायिक-वि० (सं०) समूह, समुदाय समान रूप से पाया जावे। का, सामूहिक, समुदाय-सम्बंधी। सामान्य लक्षणा–संज्ञा, सो. यौ० (सं०) सामुद्र- संज्ञा, पु. (सं०) गामुद्रिक शास्त्र, वह शक्ति जो एक वस्तु को देखकर उसी समुद्र से निकला नमक, समुद्र-फेन । वि० For Private and Personal Use Only Page #1758 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir शौकीन । सामुद्रिक सायल (सं० ) समुद्रोस्पन्न, समुद्र-संबंधी, समुद्र सायं-वि० (सं०) संध्या-संबंधी । संज्ञा, पु. का। (सं०)-संध्या, शाम साँझ । यौ० (सं०) सामुद्रिक --- वि० (सं०) सागरीय, सागर मागीय सागर- सायंप्रातः। संबंधी। संज्ञा, पु. (सं.)-फलित ज्योतिष सायंकाल ... संज्ञा, पु० यो० (सं०) (वि. शास्त्र का एक अंग या भेद जिसके द्वारा सायंकालीन ) शाम का वक्त, संध्या का समय मनुष्यों के शुभाशुभ फल, गुण-दोष या दिवसावमान, संध्या, दिनात्यय ।। भली-बुरी घटनायें या बातें हस्त रेखा या सायंसंध्या--संज्ञा, स्रो० यौ० (सं०) वह शरीर के तिलादि और चिन्हों को देख - विनों को देख संध्योपासन कर्म जो संध्या समय किया कर कहे जाते हैं,सामुद्रिक विद्या का ज्ञाता।। जाता है। " सायं संपामुपास्यते "यौ०-समुद्रिक शास्त्र या विज्ञान, स्फु० । सामुद्रिक विद्या। सायक-संक्षा, पु० (सं०) खड्ग, तीर, शर, बाण। स, भ, त (गण) और एक लघुतथा सामुहाँ सामुहे-सामुंह-श्रव्य० दे० (सं० । एक दीर्घ वर्ग वाला एक वर्णिक छंद पिं०), सम्मुख ) सामने, सम्मुख, श्रागे, समक्ष ।। पाँच की संख्या। "पावक सायक सपदि "धरै पौन के सामुहैं, दिया भौन को बारि" चलावा"-रामा० । वि० दे० (फा० शायक) -मतिः । साम्य-संज्ञा, पु. (स.) सम या समान सायण-संज्ञा, पु. (सं०) वेदों का भाष्य होने का भाव, समानता, तुल्यता, समता, | करने वाले एक प्रसिद्ध श्राचार्य, सायणाबराबरी सादृश्य । विलो. वैषम्य । चाय । श्रयण युक्त, घर-सहित । साम्यता----संज्ञा, स्त्री० दे० (सं०) लाम्य, । सायत, साइत, साइति-संज्ञा, स्त्री० दे० समता तुल्यता, समानता । (अ० साप्रत ) शुभ घड़ी, मुहूर्त, शुभमुहूर्त सास्यवाद --संज्ञा, पु० (सं०) समाजवाद का अच्छा समय, लग्न, ढाई घड़ी या एक घंटे वह सिद्धान्त जिसमें सबको समान या तुल्य का समय। समझने और समाज में समता स्थापित सायन-संज्ञा, पु० दे० (सं० सायण ) करने तथा समाज से विषमता के हटाने के सायणाचार्य, सायण । वि० (सं०) अयमभाव का प्राधान्य है (पाश्चात्य)। वि. युक्त, जिसमें अयन हो ( ग्रहादि ) । संज्ञा, सास्यवादी। पु० (सं०)-सूर्य की एक गति । साम्यावस्था--- संज्ञा, स्त्री. यो० (सं०) वह सायवान-ज्ञा, पु० दे० ( फा० सायःअवस्था या दशा जब सत्व, रज और तम बान-हि. प्रत्य० ) घर के आगे का वह तीनों गुण समान रहते हैं, प्रकृति-दशा। छःपर श्रादि जो छाया के हेतु बनता है। साम्राज्य-संज्ञा, पु० (सं०) वह विशाल | सायरी-संज्ञा, पु० दे० (सं० सागर ) समुद्र राज्य जिममें बहुत से तदाधीन देश हों। सागर, शीर्ष, ऊपरीभाग । “ मन सायर और जिसमें एक ही सम्राट या महाराजा- मनसा लहरि बुड़े, बहे अनेक "-कवी । धिराज का शामन हो, सार्वभौम राज्य, संज्ञा, पु० (अ.) बिना कर के मानी ज़मीन, पूर्णाधिकार, आधिपत्य । फुटकल, स्फुटिक । संज्ञा, पु० दे० (अ० शायर) साम्राज्यवाद-संज्ञा, पु. यौ० ( सं०) कबि । " लीक छाड़ि तीनै चलें, सावर, साम्राज्य की लगातार उन्नति या वृद्धि करने । सिंह, सपूत ''। का सिद्धांत । वि० (सं०)-साम्राज्यवादी। सायल-संज्ञा, पु. (अ.) माँगने या सवाल For Private and Personal Use Only Page #1759 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir साया १७४८ सार करने वाला, प्रश्नकर्ता, भितुक, फकीर, में सारंग चली, सारंग लीन्हें हाथ"। प्रार्थना करने वाला, प्रार्थी प्राकांक्षी, उम्मीद- "पारंग झीनो जानि के, सारंग कीन्ही वार । " सायल खुदा का शाह से बढ़कर है। घात" । " सारंग ने सारंग गह्यो, सारंग जहाँ में"-स्फु०। बोले प्राय । जो सारंग सारंग कहै, साया-संज्ञा, पु० दे० ( फ़ा. सायः ) छाया, सारंग मुँह ते जाय"-स्फु० । " सारंग छाँह, छाँही ( प्रा० )। वि०-सायादार । नैन बैन पुनि साग, सारंग तमु समधाने" मुहा०-साये में रहना-शरण में रहना । -विद्या० । “सारंग दुखी होत प्रतिबिंब, परछाहीं, प्रेत, भूत, जिन, शैतान : मारंग बिनु तोहि दया नहि श्रावत। सारंगआदि, प्रभाव, असर, । संज्ञा, पु० दे० ( अ० रिपु को नैकु प्रोट कहि ज्यों सारंग सुख शेमीज़ ) घाँघरे का सा स्त्रयों का एक पावत"। " स'रंग केहि कारण सारंगवस्त्र एक जनाना पहनावा । कुलहिं लजावत" -सूर० । सायान-संज्ञा, पु. (सं०) संध्या, साँझ सारंगपाणि-संज्ञा, पु. यौ० (सं०) विष्णु, शाम, सायंकाल । सारंगधर । सायुज्य-संज्ञा, पु. (सं०) अभेद के साथ सारंगिक संज्ञा, पु. (सं०) चिड़ीमार, मिल कर एक हो जाना, मुक्ति के ४ भेदों किरात, बहेलिया, न, य सगण) वाला एक में से वह भेद जब जीव य” आमा ब्रह्म या वर्णिक छंद (पि.)।। परमात्मा से मिल कर एक हो हो जाता है। सारंगिया--- संज्ञा, पु० दे० ( हि० सरंगी संज्ञा, स्त्रो०-सायुज्यता। इया-प्रत्य० ) सारंगी बजाने वाला, सारंग-संज्ञा, पु. (सं०) 'अनेकार्थक शब्द साजिदा। है, बाज़, श्येन, कोयल, को कल, हंस मोर, सारंगी--संज्ञा, बी० ( सं० सारंग ) अति मयूर, चातक, पपीहा, भ्रमर, भौंरा, खंजन, : अतिमधुर और प्रिय स्वर वाला तार का एक खंजरीट, एक मधुमक्खी, सोनचिड़ी, पत्नी. बाजा, सरंगी (दे०)। चिड़िया, सूर्य, चन्द्रमा, ग्रह, नक्षत्र, परमे- सार-संज्ञा, पु० (सं.) पत्त, तत्व, मूल, श्वर, श्रीकृष्ण, विष्णु, शिवजी, कामदेव, ! मुख्याभिप्राय, निकप, किसी वस्तु का हाथी, घोड़ा, मृग, हिरन, मेंढक, साँप, सर्प, अमली भाग, निर्यास, अर्क, रस गूदा. मगज़ सिंह, छत्र, छाता, शंख, कमल, चंदन, पुष्प, दूध की मलाई था सादी, हीर (काष्टादि का), फूल, सोना, स्वर्ण, गहना, ज़ेवर, जमीन फल, नतीना, परिणाम, धन-संपति, मक्खन, भूमि, पृथ्वी, केश, बाल. अलक, कपूर, नवनीत, अमृत, शक्ति, बल, पौरुष, कर्पूर, विष्णु का धनुष, समुद, सागर, वायु, सामर्थ्य, मज्जा, जुना खेलने का पासा. तालाब, सर, पानी, वस्त्र, दीपक, वाण, तलवार, खड्ग, पानी, जल, २८ मात्राओं शर, छवि, कांति, सुन्दरता, शोभा, छटा, वाला एक मानि छद (पि.), एक स्त्री, रात, रात्रि, दिन, तलवार, खड्ग, बादल, वर्णिक छंद (पिं०), एक अर्थालंकार जिसमें मेघ, हाथ, कर, आकाश, नभ, सारंगी बाजा, . वस्तुओं का उत्तरोत्तर उत्कर्ष या अपकर्ष बिजली, सब रागों का एक साग, चार तगण कहा गया हो (अ० पी०), उदार, लोहा। का एक वर्णिक छंद मैनावली (पि.)। "मरे चाम की साँस सों, सार भसम होइ छप्पय का २६वाँ भेद, काजल, मोर की जाय"-कबी० । वि.-~श्रेष्ठ, उत्तम, सुदृढ़, बोली। वि० (सं०)-रंगीन, रँगा हुआ, मजबूत । *-लंका, पु० दे० (सं० सारिका) सुन्दर, सुहावना मनोरम, सरस । " सारंग मैना, सारिका । संज्ञा, पु. द० (हि० सारना) For Private and Personal Use Only Page #1760 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सारखा १७४६ सारा पालन-पोषण, देख-रेख, पर्यक, पलँग । बनाना. संभालना, सुधारना, रक्षा करना, +-संज्ञा, पु० दे० (सं० श्याल ) साला। आँखों में अंजन और मस्तक में तिलकादि श्याला (सं०), पनी का भाई। संज्ञा, स्त्री. लगाना, शस्त्रास्त्र चलाना। (सं०) सारता। सारभाटा -संज्ञा, पु० दे० (हि. चार का सारखा--वि० दे० (सं० सदृश ) सदृश, अनु० +भाटा ) ज्वारभाटा का विलोम, समान, सरीखा, सारिखा । तट से आगे निकल जाकर कुछ देर में फिर सारगर्भित - वि० यौ० (सं०) जिसमें तस्व लौटने वाली समुद्र के जल की बाढ़। भरा पड़ा हो, तत्व पूर्ण, सारांशयुक्त। सारमेय- संज्ञा, पु. (सं०) सरमा की सारता-संज्ञा, स्त्र' (सं०) सारख, सार संतान, स्वान, कुत्ता, ककुर, (दे०) । स्त्री० का भाव या धर्म । विलो०-असारता, । -सारमेयी। निस्सारता। साग्ल्य -ज्ञा, पु. (सं.) सरलता, सारथ--वि० दे० (० सार्थ) चरितार्थ पूर्ण, सीधापन, सिधाई। अर्थयुक्त । संज्ञा, स्त्री० सारथता (दे०)। सारवती--संज्ञा, स्त्री० (सं०) ३ भगण और "चाहत बिजै को सारथी जो कियो सारथ एक गुरु वर्ग का एक वर्णिक छंद (पिं०)। तौ"--रत्ना० । सारस--संज्ञा, पु० (सं०) एक सुन्दर बड़ा सारथि, सारथी-संज्ञा, पु. (सं०) रथ का पही, हम, कमल, चंद्रमा, छप्पय का हाँकने या चलाने वाला, सूत, अधिरथ, । ३७ वाँ भेद (पिं०)। "सारसैः कल निर्हादैः रथवान, रथ-वाहक, सागर, समुद्र । संज्ञा,पु०- क्वचिदुन्नमिताननौ"-रघु० । स्त्री०-सारसी। सारथ्य। सारसी-संज्ञा, स्त्री० (सं०) भार्या छंद का मारद-संज्ञा, स्रो० (सं० शारदा ) वाणी, २३ वाँ भेद (पिं०), मादा सारस । सरस्वती। “सनकादिक, नारद, अति, सारद, सारमुता- संज्ञा, स्त्री० दे० यौ० (सं० शेष ना पावै पार" -स्फु० । वि० (दे०) सुरसुता ) यमुना नदी। शारद (सं०), शरद-संबंधी वि० (सं०) सार ! सारसुती -संज्ञा, स्त्री० दे० (सं. या अभीष्ट देने वाला । संज्ञा, पु० दे० ( सं० सरस्वती ) एक नदी, सरस्वती, वाणी, शरद् ) शरद ऋतु । : सरसुति, सरसुती (दे०)। सारदा--संज्ञा, स्त्री. द. (सं० शारदा) सारस्य-संज्ञा, पु० सं०) सरसता, वाणी गिरा, शारदा, सरस्वती जी। " शेष रसीलापन । वि०-विशेष रसदार । सारदा, व्याप मुनि, कहत न पावें पार"- सारस्वत- पंज्ञा, पु० (सं०) दिल्ली के स्फु० । वि० स्त्री० (सं०) अभीष्ट देने वाली। पश्चिमोत्तर की ओर सरस्वती नदी के समीप सारदि, सारदी-वि० दे० (सं० शारदीय ) का देश (पूर्वीय पंजाब), वहाँ के ब्राह्मण, शारदीय शरदशतु-संबंधी, शरद ऋतु की। व्याकरण का एक प्रसिद्ध ग्रंथ । वि० (सं०)"कहुँ कहुँ वृष्टि सारदी थोरो'-रामा०।। सरस्वती-संबंधी, सारस्वत देश का। " सारसाग्दुल- संज्ञा, पु. ३० ( सं० शार्दूल ) स्वतीम जुम् कुर्वे प्रक्रियांनाति विस्तराम्"सिंह, शार्दल । “ सारदूल-सावक बितुंड सार० । झंड ज्यों ही त्यौं ही"-रत्ना। सारांश-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) मूलतत्व, मारना--- स० क्रि० ( हि० सरना का स० रूप ) सार, संक्षेप, खुलापा, तात्पर्य, मतलब, पूरा या समाप्त करना, बनाना, साधना, . परिणाम, नतोजा, फल, निष्कर्ष, निचोड़ । दुरुस्त या ठीक करना, सुशोभित या सुन्दर सारा-संज्ञा, पु० (स.) एक अर्थालंकार For Private and Personal Use Only Page #1761 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org सारावती १७५० जहाँ एक वस्तु दूसरी से उत्तम कही जाय । + संज्ञा, पु० दे० (सं० श्यला ) साला | संज्ञा, स्त्रो० (दे०) सारी । वि० (३०) संपूर्ण, समस्त, पूरा, सब का सब । स्रो० - सारी । संज्ञा, पु० (दे०) सार - तख । सारावती -संज्ञा, त्रो० (सं०) छंद, सारावली (पिं० ) । सारि - संज्ञा, पु० (सं०) चौपड़ या पाँसा खेलने वाला, जुश्रारी, जूधा खेलने का पाँ सालंक :6 25 सारो - संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० सारिका ) सारिका, मैना पक्षी | 'हवगर हिय सुक सों कह सारो - गीता० । वि० ( ब्र० हि० सारा ) सारा, सब | संज्ञा, पु० ( ० ) साला | सारोवा - संज्ञा, स्रो० (सं०) एक लक्षणा जिससे एक पदार्थ में दूसरे का धारोप होने पर कोई विशेष अर्थ प्राप्त होता है ( काव्य० ) । सारौं - संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० सारिका ) सारिका मैना, पक्षी । सार्थ - वि० (सं०) सोद्देश्य अर्थ सहित चरि तार्थ, सफल, सारथ (दे० ) । सार्थक - वि० (सं०) श्रर्थवान्, पहित सफल, पूर्ण- मनोरथ पूर्णकाम, गुणकारी, उपयोगी, उपकारी, हितकर, प्रयोजनीय, सोद्देश्य, चरितार्थ सारथक (दे० ) | संज्ञा, खो० - सार्थकता । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 66 सारिक - संज्ञा, पु० (सं०) मैना पक्षी । सारिका - संज्ञा, स्रो० (सं०) मैना पक्षी । 'शुकसारिका पदावहिं बालक :- रामा० । सारिख, सारिखा - वि० दे० ( हि० सरीखा ) समान, सदृश, तुल्य, बराबर, सरीखा | संज्ञा, स्त्री० (दे०) सारिख । सारिणी-संज्ञा, त्रो० (सं०) सहदेई, नागवला, गंधप्रसारिणी, कषाय, रक्त, पुनर्नवा ( औौष ० ) । सार्दूल - संज्ञा, पु० दे० (सं० शार्दूल ) सिंह | सारिवा - संज्ञा, स्त्री० (सं०) सरिवा (दे० ) अनंत मूल । | सार्द्ध - वि० (सं०) पूरा और थाधा मिला, श्रर्द्धयुक्त, घाधे के साथ पूरा, डेढ़ । सार्व वि० (सं०) सब से संबंध रखने वाला | संज्ञा, पु० (सं०) सर्व का भाव । सार्वकालिक - वि० यौ० (सं० ) सब समयों का. जो सब समयों में होता हो । सार्वजनिक, सार्वजनीन -- वि० यौ० (सं०) सब लोगों या सर्वसाधारण से संबंध रखने सारी - संज्ञा, स्त्री० (सं०) सारिका, मैना पक्षी, गोटी, जुए या चौपड़ का पाँसा, थूहर वृक्ष | सारी चरंत सखि मारयैतामित्यक्षदाये कथिते कयापि " - नैष० । संज्ञा, खो० दे० (सं० शाटिका ) रंगीन धोती, साड़ी | संज्ञा, पु० (सं० सारिन् ) अनुकरण या नकल करने वाला । वि० खो० (दे० ) सम्पूर्ण, पूरी, सब, समूची, समस्त । सारु#+ - संज्ञा, पु० दे० (सं० सर ) सार, 16 --- तत्व, मूल, सारांश, निचोड़, अर्क, रस । सारूप्य - संज्ञा, पु० (सं०) चार प्रकार की मुक्ति में से एक जिसमें उपासक अपने इष्टदेव के रूप को पा जाता है, रूप-साम्य का भाव, एकरूपता, सरूपता । संक्षा, स्त्री० सारूप्यता । सारूप्यता -- संज्ञा, स्त्री० (सं०) सारूप्य का धर्म या भाव । वाला । सार्वत्रिक - वि० (सं०) सर्वत्र सम्बन्धी, सर्वत्र व्यापक, सर्वव्यापी । सार्वदेशिक - वि० यौ० (सं०) सारे देश का, सपूर्ण देश -संबंधी । सार्वभौम-संज्ञा, प० चौ० (सं०) चक्रवर्ती राजा हाथी । वि० -- सब पृथ्वी-संबंधी । संज्ञा, स्त्रो० -- सार्वभौमता । सार्वराष्ट्रीय - वि० यौ० (सं०) जिसका संबंध कई राष्ट्रों से हो, सर्वराष्ट्र-सम्बन्धी । सालंक-संज्ञा, पु० (सं०) वह शुद्ध राग For Private and Personal Use Only Page #1762 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org साल जिसमें दूसरे राग का मेल तो न हो किन्तु किसी राग का श्राभास सा ज्ञात हो (संगी० ) १७५१ साल-संज्ञा, खो० ( हि० सालना ) सलना या सालना किया का भाव, छिद्र, छेद, बिल, सूराख़, पलंग के पायों के चौकोर छेद, जखम, घाव, पीड़ा, दुःख, वेदना । संज्ञा, पु० (सं०) शाल वृक्ष, जड़, राल ! संज्ञा, पु० ( फा०) बरस, वर्ष संज्ञा, पु० दे० (सं० शालि, शाल) शालि, धान, शाल का पेड़ | संज्ञा, पु० दे० ( फ़ा० शाल ) शाल, दुशाला | संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० शाला ) शाला, स्थान, घर । सालक - वि० दे० ( हि० सालना ) सालने या पीड़ा देने वाला, दुःखद । सालगिरह - संज्ञा स्त्री० यौ० (फा० ) बरसगाँठ, वर्ष-ग्रंथि जन्मतिथि, जन्म-दिवस | सालग्राम - संज्ञा, ५० दे० ( सं० शालग्राम ) शालग्राम, विष्णु की धनगद मूर्ति जो गंडकी नदी से मिलती है, शालिगराम, सालिगराम (दे० ) 1 सालग्रामी-संज्ञा, खो० दे० (सं० शालग्राम ) गंडकी नदी जहाँ विष्णु की नगद मूर्त्ति मिलती है। सालन - संज्ञा, पु० दे० (सं० सलवण ) रोटी के साथ खाने के दाल, तरकारी, कढ़ी श्रादि पदार्थ । सालना - प्र० क्रि० दे० ( सं० शूल ) खटकना, कसकना, पीड़ा या दुख देना चुभना, गड़ना । स० क्रि० -- पीड़ा या दुख पहुँचाना, चुभाना, गड़ाना सालत सौत बचाइबो तेरो ' सालनियांस पंज्ञा, पु० यौ० (सं०) राल, "> - पद्मा० । धूप, धूना । सालम मिश्री - संज्ञा स्त्री० ( प्र० सालब + मिश्री सं० ) सुधामूली, वीरकंदा, एक पौष्टिक कंद वाला एक तुप सालिममिसिरी (दे० ) । सालरस - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) राल, धूप सालोक्य सालस -- संज्ञा, पु० (प्र०) दो पक्षों के बीच मैं निर्णायक, मध्यस्थ, बिचवानी, पंच । सालसा -- सज्ञा, पु० (०) रक्त शोधक अर्क, सारसा (दे० ) । वि० स्त्री० (सं०) घालस्ययुक्त | वि० यौ० (हि०) शाल के समान । सालसी- संज्ञा, स्त्री० ( ० ) सालस होने पंचायत । वि० स्त्री० Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir का भाव या क्रिया, ( हि०) शाल जैसी । सालस्य -- वि० (सं०) धालस्य-युक्त । साला - संज्ञा, पु० दे० (सं० श्यालक ) स्त्री या पत्नी का भ्राता, एक गाली । त्रो०साली | संज्ञा, पु० दे० (सं० सारिका ) सारिका, मैना | संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० शाला) स्थान, सालाना सालियाना - वि० दे० ( फ़ा० सालान: ) वार्षिक, वर्ष या साल संबंधी । सालि -- संज्ञा, पु० दे० (सं० शालि ) शालि घर | धान | सालिग्राम - संज्ञा, पु० दे० (सं० शालिग्राम) शालिग्राम, विःगु मूर्ति, सालिगराम (दे०) । सालिबमिश्री - संज्ञा, स्त्रो० दे० (प्र० सालब + मिश्री सं० ) पौष्टिक कंद वाला एक तुप, सालम मिश्री, सुधामूली, वीरकंद । सालिम - वि० (०) पूरा, संपूर्ण, सब समस्त | सारा, साली-संज्ञा, स्त्री० दे० ( सं० श्याली) पत्नी की बहन । सालु -संज्ञा, पु० दे० ( हि० सालना ) दुख, कष्ट, ईर्ष्या, डाह (दे०) । सालू- संक्षा, पु० (दे०) एक मांगलिक लाल वस्त्र, सारी, परमीना, दुशाला । सालूर - संज्ञा, पु० (दे०) एक मांगलिक लाल वस्त्र, सारी, पश्मीना, दुशाला, घोंघा, घोंबी । .6 रतनाकर सेवै रतन, सर सेवै सालूर - नीति० । सालोक्य-संज्ञा, पु० (सं०) चार प्रकार की मुक्ति में से एक जिसमें मुक्त जीव परमात्मा के साथ उसके लोक में निवास करता है, सलोकता । For Private and Personal Use Only Page #1763 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सावं १७५२ सावित्र साव-वि० दे० ( सं० श्याम ) श्याम, काला। सावधान- वि० (सं०) सतर्क, सचेत, सजग "रकत लिखे आखर भये सावाँ'-पद०। होशियार, ख़बरदार । सावकरन-संज्ञा, पु० दे० (सं० श्यामकर्ण) सावधानता-संज्ञा, सी. (सं०) सचेतता, श्यामकर्ण, घोड़ा । " सावकरन धोरे बहु सतर्कता, सजगपन, होशियारो, ख़बरदारी। जोरे "--स्फु०। सावधानी-संज्ञा, स्त्री० दे० ( सं० सावसावंत, सावत-संज्ञा, पु० दे० (सं० सामत) धानता) सावधानता, सतर्कता, सचेतता, ___ होशियारी, खबरदारी, सजगता। सामंत वीर, योद्धा, ज़मीदार । " बड़े बड़े सावत तह ठाढ़े एक तें एक दर्द के लाल" सावन-संज्ञा, पु० दे० (सं० श्रावण ) बारह महीने में से एक महीना जो अषाद के -प्रा. खं। बाद और भादों से पूर्व होता है, एक प्रकार सावर-वि० दे० (सं०) श्यामला, साँवला, श्यामला । स्त्री०-सावरी। का सावन महीने का गीत (पूरब) । "राम सावाँ-संज्ञा, पु० (दे०) साँवा नामक एक नाम के बरन दोउ, सावन-भादौं मास"अन्न | "सावाँ जवा जुरतो भरि पेट"-नरो। रामा० । संज्ञा, पु० (सं०) एक सूर्योदय से साव-संज्ञा, पु० दे० ( फा० शाह ) सेठ, दूसरे तक चौबीस घंटे का समय, दड, (ज्यो. )। साहु, साहूकार, महाजन, धनिक, साह । सावनी-- संज्ञा, स्त्री० दे० ( सं० श्रावणी ) संज्ञा, पु० (दे०) स्त्राव (सं.)। वह उपकरण या सामान जो वर के यहाँ से सावक -- संज्ञा, पु० दे० ( मं० शावक ) शिशु, कन्या के यहाँ व्याह के प्रथम वर्ष सावन में बच्चा, छोटा बच्चा । " जहँ बिलोक मृगसावक-नैनी"-रामा० । संज्ञा, स्रो० (दे०) भेजा जाता है, सावन की पूर्ण माती या पूनो । वि०-सावन का (की), सावन-संबंधी । सावकता। मावयव वि० (सं०) अवयव सहित, खंडसावकरन-संज्ञा, पु० दे० (सं० श्यामकर्ण ) सहित, सांग। एक प्रकार का घोड़ा, श्यामकर्ण ।। सावर- संज्ञा, पु. दे. (सं० शावर ) लोहे सावकाश-संज्ञा, पु०(सं० फुरसत, अवकाश का एक लंबा औजार, शिवकृत एक प्रसिद्ध युक्त, सामर्थ्य, समाई (दे०) छुट्टी, अवापर, तंत्र-मंत्र शास्त्र, माबर (दे०)। " साबर मौका, विस्तृत, सावकास (दे०)। "साव मंत्र जाल जेहि सिरजा"-रामा० । संज्ञा, काश सब भूमि समान".- रामः । पु० दे० (सं० शवर ) एक तरह का मृग, साधकासी-संज्ञा, स्त्री० (दे०) सावकाश साँभर। सावर्ण-रावर्णि-संज्ञा, पु. (सं०) चौदह सावचेत*-वि० (सं०) सावधान, सचेत, मनुओं में से पाठवें मनु जो सूर्य के पुत्र सतर्क, सजग। हैं, उनकी आयु का समय, एक मन्वन्तर । सावज-संज्ञा, पु. (दे०) बनैले पशु या मावा- संज्ञा, पु. द० सं० श्यामक) काकुनजन्तु, हरिण प्रादि ऐसे वनजीव जिनका जैसा एक अन्न । योग-साँवा-काकुन । लोग शिकार करते हैं। " सावज ससा "सावा जवा जुरतो भरी पेट"-नरो। सलक संसारा''-~कवीर। सावित्र-संज्ञा, पु० (सं०) सूर्य, वसु, शिव, साधत-संज्ञा, पु० दे० ( हि० सौत ) सौतों ब्रह्मा, ब्राह्मण, यज्ञोपवीत, एक अस्त्र । के श्रापस का द्वेष, ईर्ष्या, सौतिया डाह । ' सावित्रेव हुतासनः " - रघु० । वि. सावध-वि० दे० ( सं० सावधान ) सचेत, -सूय या सविता का, सविता-संबंधी, सावधान । सूर्य-बंशी। (सं०) सामर्थ्य । For Private and Personal Use Only Page #1764 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सावित्री १७५३ साहसिक सावित्री-संज्ञा, स्त्री. (सं०) वेद-माता, साहु (दे०) व्यापारी. सज्जन, साधु. भला गायत्री ब्रह्मा जी की पत्नी, सरस्वती, उप- मानुस, साह जी। यो०-समधी वैश्य), नयन के समय का एक संस्कार, दक्ष प्रजा- शिवा जी के पिता। "बोलत ही पहिचानिये, पति की कन्या, मद्र-नरेश अश्वपति की चोर-साह के बाट"-नीतिः । "तापर साहकन्या और सत्यवान की सती स्त्री, सरस्वती तनै सिवराज सुरेश की ऐसी सभा सुभ नदी, यमुना नदी, सधवा स्त्री।। साजै "- भूष०। सागॉग-वि• यौ० (सं०) पाठों अंगों के पाहचर्य-- संज्ञा, पु. (सं०) साथ, संग, सहित। यौ०-साष्टांग प्रणाम-दण्डवत, संगति, साहचरता, सहचर का भाव।। प्रणाम, पृथ्वी पर लेट कर मस्तक, हाथ पैर साहनी --- संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० सेनानी ) आँख, जंघा, हृदया, मन और वचन से सेना, फौज, संघी, संगी साथी, पारिषद । नमस्कार करना । मुहा०-मायांग प्रणाम । “ भरत सकल साहनी बुलाये "-रामा० । (दंडवत) करना--दूर रहना, बहुत ही माहब. साडेब-संज्ञा, पु० दे० (अ० सादिब) बचना (व्यंग), दूर हो से दंडवत करना। मित्र, साथी, संगी, दोस्त. स्वामी, मालिक, सास-सासु-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० श्वत्र ) । परमेश्वर ( कवी० ), सम्मान-सूचक शब्द, पति या पत्नी की माता । " तब जानकी महाशय, अंग्रेज या गोरी जाति का व्यक्ति। सासु-पग लागी” रामा० । "साहब सो सब होत है, बदे से कछु नाहिँ" सासत--संज्ञा, स्त्री० (दे०) जाँसति, संस्कृति -कबी० । स्त्री०--साहिबा। (सं०) कष्ट । साति---संज्ञा, स्त्री० दे० ( सं० शासन ) । साहबजादा -संज्ञा, पु० यौ० ( अ०साहिब+ संसृति, दुख, शासन, दंड । " सासति ज़ादा-फ़ा०) अमीर का पुत्र, भलेमानुष का करि पुनि करहिं पसाऊ"-रामा। लड़का, बेटा पुत्र । स्त्री० साहबजादी। सासनलेट-संज्ञा, स्त्री० (दे०) एक जाली- साहब-पल'मत - संज्ञा, स्त्री० यौ० (अ०) दार सफेद महीन वरू। मुलाकात. धातचीत. सलाम, बंदगी. पारस्पसामन--सज्ञा, स्त्री० दे० (सं० शासन ) रिक अभिवादन । यौ० ---सलाम-दुश्रा। शासन, दण्ड, सज़ा, हुकूमत । वि० (स.) । साहनी, साहिबी-वि० दे० (अ० साहब) शासन के साथ। साहब का । संज्ञा, स्त्री०-साहब होने का सामना-स० कि० दे० (सं० शासन ) भाव, प्रभुता, स्वामित्व, मालिकपन, शासन करना, दंड देना, कष्ट पहुँचाना। बड़प्पन, बडाई । "कै तौ कैद कीजिये सासरा-सज्ञा, स्त्री० दे० ( स० श्वशुरालय ) कमडल मैं फेरि गंग । "कै तौ यह साहिबी ससुराल, मासुर, ससुरा । " जेठी धीय हमारी फेर लीजिये "रत्ना० । सासरै पठवौं ' - कबी० । माह ----सा, पु० (सं०) हिम्मत, हियाव सासा*-सज्ञा, स्त्री० दे० (सं० संशय ) । (दे०) भापत्यादि का दृढ़ता से सामना कराने संशय, संदेह । सज्ञा, पु० दे० ( सं० श्वास ) वाली एक मानविक शक्ति. वलात्कार उद्योगश्वास, साँस। उत्साह. वीरता, कार्य-तत्परता हौसला सासुरा--संज्ञा, पु० दे० ( सं० श्वशुर श्वशु- "साहस अति चपलता माया' रामा रालय ) ससुर, ससुराल, ससरार (द०)। जबरदस्तो धनादि का अपहरण करना, साह-सज्ञा, पु० दे० (फा० शाह ) राजा, लूटना, कुकर्म, सज़ा, दड, जुर्माना । बादशाह, सेठ, साहूकार, धनी, महाजन, | साहसिक-सज्ञा, पु. (सं०) हिम्मतवर, भा० श. को०-२२० For Private and Personal Use Only Page #1765 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir साहसी सिंकना, सेंकना साहसी, पराक्रमी, निश्शंक, निर्भीक, चोर, | स्वामी, मालिक, पति, नाथ, परमेश्वर, डाकू, निर्भय, निडर। साई, साइयाँ। साहसी-वि० (सं० साहसिन् ) बहादुर, साही-- संज्ञा, स्त्री० दे० ( सं० शल्पका ) एक दिलेर, हिम्मती, हौसलेवाला । " साह के विख्यात जंगली जंतु जिपके शरीर पर बड़े सपूत महा साहसीसिवा जी तेरी, धाक सब बड़े पैने काँटे होते हैं । वि० दे० ( फा० देसन-विदेसन मैं छाई है' - फु० । शाही ) शाही, बादशाह का, शाह-सबंधी। साहस्त्र-साहस्त्रिक-वि० (सं.) सहस्र या संज्ञा, स्त्री० (दे०) स्याही ( फ़ा० )। हजार संबंधी, हज़ार का।। । साहु-संज्ञा, पु० दे० (फ़ा० शाह, सं० साधु) साहा-संज्ञा, पु० दे० (सं० साहित्य ): साहूकार, सेठ, महाजन, शाह, राजा, व्याहादि शुभ कार्यों के लिये शुभमुहूर्त या सज्जन । विलो०-चोर । शिवा जी के लग्न। पिता साहि जी। " साहु को सराहों के साहाय्य-संज्ञा, पु० (सं.) सहायता। सराहौं सिवराज को"... भूष० ।। साहि*- संज्ञा, पु० दे० ( फा० शाह ) साहुल-संज्ञा, पु० दे० (फा० शाकूल ) साह, साहु, राजा, बादशाह, सेठ सहूकार, राजों का दीवाल की समता की जाँच करने शिवा जी के पिता, साहि जी। “तापर का एक यत्र, सहावल (दे०)। साहि-तनै सिवराज सुरेश की ऐसी सभा सुभ साहू ---संज्ञा, पु० दे० ( फ़ा० शाह ) सेठ, साजै"- भूष० । सहकार. साहु, सज्जन, महाजन, धनी, साहित्य-संज्ञा, पु. (सं०) उपहारण, सामान, शिवाजी के पौत्र। असबाब, सामग्री, वाक्यों में एक ही क्रिया साहूकार - संज्ञा, ५० दे० ( सं० साधुकार ) से अन्वय कराने वाला पदों का पारस्परिक बड़ा सेठ, बड़ा महाजन, कोठीवाल । संज्ञा, संबंध विशेष, विद्याविशेष, कवियों का पु० (६०)- सहकारी। सुलेख, सार्वजनिक हित-सम्बंधी स्थायी साहूकारा--संज्ञा, पु० दे० ( हि० साहूकार ) विचारों या भावों के गद्य-पद्य मय ग्रंथों का लेन देन का कार्य. महाजनी, महाजनों का सुरक्षित समूह, काव्य, वाड:मय, मिलन, बाज़ार । वि.-सेठों का, सेठ-सबंधी। प्रेम करना, एकत्रित होना, संचय । “साहित्य- साहूकारी--- संज्ञा, स्त्री० (हि. सहकार ) संगीत कला विहीन" - भ० ० सेठ होने का भाव. सेठपन, सेठों का कार्य, साहित्यिक-वि० (सं०) साहित्य-संबंधी, साहकारपन । सहित्य का । संज्ञा, पु०-साहित्य-सेवी, जो साहेब - संज्ञा, पु० दे० (फा० साहिब ) साहित्य-सेवा करता हो। साहिब, स्वामी, मालिक, प्रभु, नाथ पति, साहिब-संज्ञा, पु. (अ०) पाहब, साथी, परमेश्वर, संगी, दोस्त, मित्र । मित्र, मालिक. स्वामी, परमेश्वर । "साहिब सा*--सज्ञा, सी० दे० ( सं० वाहु) तुम ना बिसारियो, लाख लोग मिल जाहि" भुजा, हाथ, बाज । भव्य० दे० हि० सामुहें) --कवी। सोहे (ब्र०) सम्मुख, सामने, समक्ष । साहिबी-वि. (अ. साहिब ) साहिब, सिउँ– अध्य दे. (सं० सह ) सहित, संबंधी, साहिब का । संज्ञा, स्त्री०. साहिब युक्त, समीप, पास, निकट, स्यों (द०)। का भाव, प्रभुता, स्वामित्व, बड़प्पन, सिकना, संकना--अ० कि० दे० (हि. बड़ाई। सेकना ) भाग की आँच पर पकना या गरम साहियाँ-संज्ञा, पु० दे० ( स० स्वामी) होना, सेंका नाना । For Private and Personal Use Only Page #1766 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सिंगरौल सिंदुवार गिरौल-संज्ञा, पु० दे० (सं० शृंगवेरपुर ) । सिंघा* - पंज्ञा, पु. दे. ( सं० सिंह ) सिंह, श्रृंगवेर पुर ग्राम विशेष, शृंगवेर पुर का । क्षत्रियों की एक उपाधि । निवासी। सिंघल-संज्ञा, पु० दे० (सं० सिंहल ) सिंहल सिंगा-संज्ञा, पु० दे० (हि. सींग ) फॅककर द्वीप । बजाने का सींग का बाजा, रणसिंगा, सिंघाडा, निधारा--संज्ञा, पु० दे० (सं० तुरही। संज्ञा, पु० (दे.)-सींगा, मुट्ठी बंद झंगाटक ) जल में फैलने वाली एक लता कर धंगूठा दिखाने की एक मुद्रा (अस्वीकार । का विख्यात काँटेदार तिकोना फल, सिंघाड़े सूचक )। के आकार की सिलाई या बुटा, समोसा सिंगार - संज्ञा, पु० दे० (सं० शृंगार ) नाम का एक तिकोना पक्वान, जल-फल । सजावट शोभा, बनाव, शृंगाररल. स्रियोंघासन-संज्ञा, पु० दे० यौ० (सं० के सोलह शृंगार। सिंहासन , सिंहासन, राज-गद्दी । सिंगारदान - संज्ञा, पु. दे० (सं० गार+ सिंघी--संज्ञा, स्त्री. (दे०) शुंठी, सोंठ, एक दान-फा० ) शीशा, कंधा आदि शृंगार छोटी मछली, एक जाति । की सामग्री रखने का संदूकचा। मिधेलासंहा, पु० दे० ( सं० सिंह ) सिंह सिंगारना-स० क्रि० दे० (सं० गार) का बच्चा, मिंधेग। सजाना, अलकृत या सुपाजत करना, मिचन--संज्ञा, पु. (सं०) पानी छिड़कन. सँवारना। सींचना । वि० --सिंचित ।। सिंगारहाट-संज्ञा, सो० यौ० द० (हि.), ' (ह) । सिंचना-अ.क्रि० दे० (सं० सिंचन) सींचा वेश्याओं का निवास स्थान, चकला। जाना । २० प -मीचना, सिंचाना, सिंगारहार --- संज्ञा, पु० दे० यौ० ( मं० हार र सिंचवाना. ० रूप -सिंचवाना। *गार ) हरसिंगार नामक फूल. पारिजात, " सिंचाई--संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० सिंचन ) परजाता (दे०)। सिगारिया - वि० द० (सं० भंगार) पूजारी.. सींचने या पानी छिड़काने का काम. सींचने देव मूर्तियों का श्रृंगार करने वाला। का कर या मजदूरी ! लिगारी-वि. पु. (हि. सिंगार :-ई- सिंचाना-२० क्रि० ( हि० सींचना का प्रे. प्रत्य० ) सजाने या शृगार करने वाला। रूप ) दूसरे से सिंचवाना, सिंचावना, गिया--सज्ञा, पु० दे० ( सं० jगिक ) एक सिंचवाना ग्रा०)। विरुपात स्थावर विष विशेष। सिचित-वि. (सं०) सींचा हुआ। लिगी-सज्ञा, पु० दे० ( हि० सींग ) हिरन, सिंजा-- संज्ञा, स्त्री० (सं०) ध्वनि, शब्द, श्रादि के सींग का फूक फूंक कर बजाने का श्रावाज़, शिक्षा। एक बाजा। संज्ञा, स्त्रो० (दे०) एक मछली. सिंजित-संज्ञ', स्त्री. (सं०) शिजित, सींग की नली जिपसे चूस कर देहाती ध्वनित, शब्द. झंकार, झनक । संज्ञा. पु. जर्राह देह से रक्त निकालते हैं। (सं०) सिंजन - मंकार । मिंगौटी-संज्ञा, सी० दे० ( हि० सींग ) मिंदन--संज्ञा, पु० दे० ( सं० स्यन्दन ) बैलों के सीगों का एक गहना, छोटे सींग।, स्यन्दन, स्थ । “गज सिंदन दै अश्व पुजाई" संज्ञा, स्रो० दे० (हि. सिंगार - श्रोटो) ---तु० रामा० ।। स्त्रियों की सिंदूर आदि रखने की छोटी सिंदुवार-संक्षा, पु. (सं.) निगुंडी या पिटारी। सँभूल का पेड़। For Private and Personal Use Only Page #1767 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सिंदूर सिंधुमुत सिंदूर · संज्ञा, पु० (सं०) इंगुर से बना मधवा समुद्र, सिंध देश, चार और सात की स्त्रियों के माँग और माथे पर लगाने का | संख्या एक राग (संगी०)। एक विख्यात लाल चूर्ण । | सिंधज----संज्ञा, पु. (सं०) सेंधा नमक, सिंदूर-दान--संज्ञा, पु० यौ० (सं० सिंदूर - सिध देश का घोड़ा, चंद्रमा, विषादि दान--प्रत्य० ) वर का कन्या की माँग में १४ रन मोती।। सिंदूर देना । संज्ञा, पु. यौ० सं० सिंदूर - सिंधुजा संज्ञा, सो. (सं०) लघमी । दान -- फ़ा०-प्रत्य० ) सिदूर रखने का पात्र । मिधुजात-संज्ञा, पु० (सं०) चंद्रमा । स्खो. अल्या. रानी। सिंधु तनय -संज्ञा, पु० यौ० (सं०) चंद्रमा । दिर-पप्पी संज्ञा, खो. यो. (सं.) वीर सिंधु नया - संज्ञा, स्त्री० (सं०) लचमो। पुष्पी. एक पौधा और उसके लाल फूल ।। "सिंधु के सपूत सुत सिंधुतनया के वंधु" सिंदूर-बंदन--संज्ञा, पु. (सं०) वर का - पद्मा० । कन्या की मांग में सिंदूर देना, सिंदूर सिंधुपुत्र -संज्ञा, १० यौ० (सं०) सिंधुप्त दान । (दे०) चंद्रमा, विष मोती। सिंदरया - वि० दे० (सं० सिंदूर + इया सिंधुपाता--संज्ञा, स्रो० यौ० (सं. सिंधुमातृ) समुद्र की माता सरस्वती। हि. --प्रत्य० ) सिंदूर के रंग का, बहुत सिंधुर-संज्ञा, पु० सं०) हाथी, हस्ती, लाल । " शोख यह सिंदूरिया का रंग है" पाठ की सख्या : की. सिंधुग । " सिद्धि-ग़ालि० । एक लाल श्राम । सदन सिंधुर-बदन, एक रदन गनराय'"सिंदी वि० दे० (सं० सिंदूर + ई - प्रत्य०) रसाल। सिंदूर के रंग का, अति लाल । सिंधुर गति--संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) सिंदारा, सिंदौरा - संज्ञा, पु. दे. (सं० गजगति. हाथी की मी मंद मतवाली चाल । सिंदूर । सिदूर रखने का पत्र, सिंधौरा सिंधरगामिनी-वि० स्त्री० यौ० (सं०) (ग्रा०)। गजगामिनी, हाथी की सी चाल चलने सिंध-संज्ञा, पु० दे० ( सं० सिंधु ) भारत वाली : पु०-सिधुरगामी।। का एक पश्चिमीय प्रदेश (बंबई प्रान्त)। सिधर-मरण ----सज्ञा, पु० यौ० (सं०) संज्ञा, स्त्री० (दे०)-पंजाब की सबसे बड़ी! गजमुक्ता गजमोती । "सिंधुरमणि कंठा नदी, भैरव राग की एक रागिनी। कलित, उर तुलसी की माल' -रामा०। सिंधव-संज्ञा, पु० दे० ( सं० सैंधव ) सैंधव सिंधुरमुक्ता-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) गन या सेंधा नमक, सिंध देश का घोड़ा, मुत्ता, गजमोती। सिंध देश का निवासी। सिधुर-मदन-संज्ञा, पु. यौ० (सं०) सिंधो-- संज्ञा, स्त्री० दे० ( हि सिंध+ ई- गणेशजी, सिंधुरानन । “एक दंत सिंधुर प्रत्य० ) सिंध देश की भाषा । संज्ञा, पु० | वदन, चार भुजा शुभ वेश"--स्फु० । (हि० सिंध देश का निवापी, सिंध का सिंधुरानन संज्ञा, पु. यौ० (सं०) गणेश । घोड़ा। वि० (हि.)-सिंध देश का, सिध. सिंधुविप-संज्ञा, पु० यो० (सं०) महा विष, सम्बन्धी। हलाहल, समुद्र का विष । “पान कियो सिंधु-संज्ञा, पु० (सं०) पंजाब के पश्चिम हर सिधु-विष, राम नाम वल पाय"भाग की एक बड़ी नदी । “ गंगा-सिंधु स्फु० ।। सरस्वती ध यमुना'.--स्फुट० । सागर, सिंधुसुत-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) सागर For Private and Personal Use Only Page #1768 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सिंही । द्वीप! सिंधुसुना १७५७ सुत, चन्द्रमा, जलंधर राक्षस, शंख, सिंधु- सिंहत-ज्ञा. पु० (सं०) भारत के दक्षिण सपूत। में एक द्वीप जिसे लोग लंका भी कहते हैं । सिंधुसुता - संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) लघमी, मिघल (दे०) । यौ०~-सिंहलद्वीप : वि. मीप। (हि.) सिंहली। सिंधुसुनामुत-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) सिंहल द्वीप-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) लंका मोती। सिंधूरा-संज्ञा, पु० दे० (सं० सिंधुर ) सिंहलद्वीपी--- वि० यौ० ( सं० सिंहलद्वीप -- समस्त जाति का एक राग (संगी०)। ई.-प्रत्य. ) सिंहल द्वीप का सिंघली सिंधोरा, सिंधौरा-- संज्ञा, पु० दे० (सं० (दे०) सिंहलद्वीप का निवापी या सम्बन्धी। सिंदूर ) सिंदूर रखने का एक काष्ठ-पान " संज्ञा, स्त्री। -सिंहाली (दे०) । सिंहलद्वीप सज्ञा, ' ' की भाषा, सिंहली। सिंपप-सिंसपा--ज्ञा, पु० वी० दे० (सं० " सिंहवाहिनी-संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) दुर्गा शिंशपा) शीशम या सीसों का पेड़ ।। सिंह-संज्ञा, पु० (सं०) बिल्ली की जाति - देवी. सिंघवाहिनी (दे०)। का एक पगक्रमी, बलवान् और भव्य सिंहस्थ-वि० (सं०) सिंह राशि में स्थित जंगली जंतु जिसके नर-वर्ग की गरदन पर (वृहस्पति) सिहस्थित । स्त्री०-सिंहस्था -----देवी। बडे बाल होते हैं, सिंघ (दे०) शेरबबर. सिंहावलोकन--संज्ञा, पु. यौ० (सं०) सिंह केपरी, मृगराज, शार्दूल, मृगेन्द्र, बारह की पी चितवनि. सिंह-द्वधि, आगे बढ़ते राशियों में से ५ वीं राशि (ज्यो०), वीरता हये सिंहसा पीछे देखना, आगे बढ़ने से सूचक एक शब्द. जैसे-पुरुष सिंह क्षत्रियों पूर्व पहिले की बातों का संक्षिप्त कथन, की एक उपाधि, छप्पय का १६ वाँ भेद पद्यरचना की एक शैली जिपमें पिछले (पि०) । "वाल्मीकि मुनि-सिहस्प कविता चरणांत के कुछ वर्ण या पद आगे के वनचारिणः"-वा० रामा० टी० । स्त्री० चरणादि में आते हैं, सिह-बिनोकनि मिहनी। सिंहद्वार-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) सदर-सिंहासन--संज्ञा, पु० यौ० (सं०) राजा या फाटक, बड़ा दरवाजा, सिंहपौर (दे०)। किसी देवता के बैठने का आमन, राजगही, सिंहनाद-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) सिंह की तहत (फा । "तुरतहि दिव्य सिंहासन गरज, लड़ाई में वीरों की ललकार, जोर माँगा". रामा० । देकर या ललकार कर कहना, कलहस- सिंहिका--- संज्ञा, स्त्री० (सं० राहु की माता नंदिनी नामक एक वर्णिक छंद (पिं०), एक राक्षसी, जिसे हनुमानजी ने लंका कवियों की आत्मश्लाघा।। जाते समय मारा था ( रामा० ). शोभन सिंहनी, सिहिनी--संज्ञा, स्त्री. (सं०) छंद पिं०।। शेरनी, बाधिनी, बाय की मादा, सिघिनी सिंहिकासुत सिंहिका-सूनु-संज्ञा, पु. (दे०) । एक मात्रिक छंद जिसके चारों यौ० सं०) राहु नामक ग्रह, सिंहका-पुत्र चरणों में क्रम से १२, १८, २० और २२ सिंहिका-तनय । मात्रायें होती हैं (पिं०)। विलो०-गाहिनी। मिहिनी - संज्ञा, स्त्री. (सं०) बाधिनी, सिंह-गौर--संज्ञा, पु० दे० यौ० (सं० शेरनी, शेर की मादा। सिंह प्रतोली ) सिंघ-पौरि (दे०), सदर सिंही--संज्ञा, स्त्री० (सं०) बाधिनी, शेरनी, फाटक, सिंह-द्वार । __ भार्या छंद का ३ गुरु और ५१ लघु वर्णों For Private and Personal Use Only Page #1769 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सिंहोदरी मिकुड़न वाला २५वाँ भेद (पिं०) एक औषधि विशेष तागदो, जंजीर जैसा सोने का गले का एक (वैद्य०) । “घनदारु सिही शंठी कण- गहना। पुष्करजा कषायः '-लो. ! मिकत-संज्ञा, स्त्री० दे० ( सं० सिकना) सिंहोदरी-वि० सी० यौ० (सं०) सिंह की बालू , रेत । " सूर सिकत हठि नाव चलायो सी सूचम कटिवाली। ये सरिता हैं सूवी''--भ० गी० । सिन, सियनि-संज्ञा, खी० (दे०) ! सिका संज्ञा, स्त्री० (सं०) बालू , रेत रेग, सिलाई, सीवन । बलुई भूमि, शकरा. चीनी। रसिकता सियरा* - वि० दे० (सं० शोतल ) ठंढा, । सिकता दिग्वला रही"-सरस । “सिकता तें वरु तेल''.--रामा। शीतल । " सिअरे बदन सूखि गये कैसे" । -रामा० । संज्ञा. पु. (दे.)- छाया, सिकत्तर - संज्ञा, पु० दे० ( अं० सेकेटरी) किसी सभा या संस्था का मंत्री, वजीर, छाहीं, छाँह । सेक्रेटरी ( अं०) संज्ञा, स्त्री० (दे०) सिमाना --स. क्रि० दे० ( हि० सिलाना ) सिकत्तरी। सिलाना, सिवाना वस्त्रादि)। सिकन-संज्ञा, स्त्री० (दे०) शिकन (फ़ा०) सिपार-संज्ञा, पु० दे० (सं० शृगाल ) सिकुड़न ।। स्यार (दे०), गीदड़, शृगाल, एक जंगली सिकर--संज्ञा, स्त्री० द० (सं० श्रृंखला ) जंतु । स्त्री०-मिश्रारनी, सिग्रारिन। जज़ीर, सँकरी। सिकंजबीन-संज्ञा, स्त्री० (फा०) सिरका सिकर बार-- संज्ञा, पु० (दे०) क्षत्रियों की एक शावा। या नीबू के रस में पका शरबत ! सिकरा-संज्ञा, पु. (दे०) शिकरा नामक सिकजा--संज्ञा, पु० दे० ( फ़ाः शिकंजा) एक शिकारी पती। फंदा, जाल। सिकली--संज्ञा, स्त्री० दे० । अ० सैकल ) सिकंदर-संज्ञा, पु० दे० ( अं. सिगनल) - धारदार हथियारों की धार पैनी करने या रेल की सड़क के किनारे पर ऊँचे खम्भे में खान धरने का काम।। लगा हा हाथ या तलता था डंडा. जो सिकलीगर-संज्ञा, पु. द० (अ० संकलन झुम्कर पाती-जाती हुई गाड़ी की सूचना | गर--फा० --प्रत्य०) धारदार हथि पारों को देता है, सिगनल (अं०) सिगल (दे०)। धार पैनी करने वाला, सान धाने वाला। संज्ञा, पु. (फा०) यूनान का एक प्रतापी "हमहिं न मारयो हहि न मारयो हम सम्राट । महा-कदीर का सिकंदर सिकलीगर अहिन तुम्हार"---श्रा० वि० । -अति भाग्यशाली। सिकहर-सिकहग--सज्ञा, पु० दे० ( सं० सिकंदरा-संज्ञा, पु० दे० ( फ़ा. सिकंदर ) | शिक्य : घर ) सींका, छीका । मुहा०एक नगर । सिकहर पर चढ़ना-इतराना। सिकड़ा-संज्ञा, पु० द० ( सं० श्रृंखला ) । सिकार--- संज्ञा, पु० दे० ( फ़ा० शिकार ) जंजीर, साँकर, साँकल (प्रान्ती.) । स्त्री० --- शिकार करने वाला, अहेरी, पाखेटी, शिकार मिकड़ो। का जंतु । सिकना-संज्ञा, पु० (दे०) सीकचा, | सिकारी---वि० दे० (फा० शिकारी) शिकार साखचा (फ़ा०)। करने वाला, अहेरी. आखेटी । सिकड़ी-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं. शृंखला) सिकुड़न संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० संकुचन) किवाड़ की कुंडी, जज़ीर, साँकन, करधनी, संकोच, आकुंचन, शिकन, वल । For Private and Personal Use Only Page #1770 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org सिकुड़ना A "SABETHANE LEWENS सिकुड़ना - सिकुरना - अ० कि० दे० (सं० संकुचन ) संकुचित या आकुंचित होना, बटुरना, संकीर्ण होना, शिकन या बल पड़ना । १७५६ सिकाइना-सिकोरना - स० क्रि० ( हि० सिकुड़ना ) संकुचित करना, समेटना, बटो रना । सिकोरा - संज्ञा, पु० दे० (हि० कसोरा) सकारा, कसारा, प्याला, मिट्टी का कटोरा | सिकोला-सिकोला - संज्ञा, पु० (दे०) काँस, मूज या बेंत यादि की डलिया । सिकाहो - वि० दे० ( फा० शिकोह ) वीर, बहादुर गर्वीला, प्रानवान वाला, अभिमानी गुमानी सिक्कड़ - सिक्कर- संज्ञा, पु० दे० (सं० सीकर ) पसीना । पानी की बूँद या छींट, जल-कण, * संज्ञा स्त्री० द० (सं० श्रृंखला, जंजीर । सिक्का संज्ञा, ५० दे० ( ० सिक्का) छाण, मुहर छाप ठप्पा मुद्रित चिह्न रुपया, अशर्फ़ी पैसा, मुद्रा, इन पर राजकीय छाप, निश्चित मूल्य का टकसाल में ढला धातु का टुकड़ा। मुहा०-सिक्का बैठना या जमना - अधिकार या प्रभुत्व होना रोब या श्रातक जमना धाक बैठना । पदक, तमग़ा, मुहर पर अंक बनाने का ठप्पा | सि+ख सज्ञा, पु० दे० (सं० शिष्य) शिष्य, चेला, गुरु नानक का अनुयायी, नानकपंथी सिख (दे० ) | सिक्त - वि० (सं०) सींचा या भीगा हुआ, तर, गीला । सज्ञा, स्त्री० (सं०) (सक्तना । सिखंड -- पंज्ञा, पु० द० (सं० शिखंड) शिखंड, चोटी शिखा । वालानाम् तु शिवा प्रोक्ता काकपत शिखंडकौ " अमर० { वि० (स० ) शिखंडी - लिखंड वाला, एक राजा (HETO) I सिख सज्ञा, स्त्री० दे० (सं० शिक्षा) शिक्षा, सिखावन, उपदेश, सिखापन, सीख (दे० ) । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सिचान CENTRE ANALYSE shor " सिख हमारि सुन परम पुनीता रामा० । सज्ञा, पु० दे० (सं० शिव्य) शिष्य, शागिर्द, चेला, गुरु नानक के अनुयायी, सिक्ख । पज्ञा, खो० दे० (सं० शिखा ) शिखा, चोटी। " नख लिख तें सब रूप अनूपा 19 For Private and Personal Use Only " रामा० । सिखना - स० क्रि० दे० ( हि० सीखा ) सीखना सिखना । द्वि० रूप-सिखाना, सिखावना, मे० - रूप- सिखवाना | सिखर - ज्ञा, पु० दे० (सं० शिखर) शृंग, शिखर, पहाड़ की चोटी । सिवन सज्ञा स्त्री० दे० (सं० श्रीखंड) दही, दुध प्रौर चोनो मिला पदार्थ, सिकरन (दे० ) अरन (ग्रा० । सिखलाना - स० क्रि० दे० (हि० सिखाना ) सिखाना | सिखा-संवा, खो० दे० (सं० शिखा) शिखा, चोटी। सिखाई - ज्ञा स्त्री० दे० (सं० शिक्षा ) शिक्षा उपदेश पढाई | सिवाना ० क्रि० दे० (सं० शिक्षणा ) शिक्षा या उपदेश देना पढ़ाना । यौ०सिखाना-पढाना - चालाकी मिखाना | सिखापन- सज्ञा, पु० दे० (सं० शिक्षा + पन- हि०, शिक्षा, उपदेश, सिखाने का काम । सिखान - सज्ञा, पु० दे० शिक्षण) सीख, शिक्षा, उपदेश, सिखापन । स्रो० - सिखाafal सिखावना सं० क्रि० ( हि० सिखाना ) सिखाना | सिखिर पंज्ञा, पु० दे० ( सं० शखर ) पचत-श्रृंग, शिखर, चोटी । सिखा- सज्ञा, पु० दे० (सं० शिखी) मोर, मयूर, वह । सिगरा सिगरी सिगरौ - वि० दे० (सं० समग्र) समस्त, सम्पूर्ण, सब का सब सारा । स्त्री० - सिगरी । सिचानज्ञा, पु० दे० (सं० संचान) बाज़ Page #1771 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सिचाना १७६० सिताखंड पक्षी। " मन मतंग गैयर हने, मनसा भई गले वाला । संज्ञा, पु० (सं० शितकंठ) महासिचान"-कबी० । देव जो। “दस कठ के कंठन को कठुला सिचाना-स. क्रि० दे० (हि. सिचना का सितकंठ के कंठन को करिहौं' - रामा। सक रूप) पानी दिलाना, सिंचाना। सितकर --संज्ञा, पु. यौ० (सं०) सितांशु, सिच्छा- संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० शिक्षा शिक्षा, चन्द्रमा, सितरश्मि । उपदेश, सीख । " चक्रधर-सिच्छा की सितता-मज्ञा, स्त्री० (सं०) सफ़ेदी, उज्व. समिच्छा करि लैहों मैं"- श्रव०।। लता, श्वेतता, धवलता। सिजदा- संज्ञा, पु. (अ.) प्रणाम, सितपत्त ---संज्ञा, पु० यौ० (सं०) हंस पक्षी, दण्डवत । धवल या श्वेत पक्ष शुक्ल पक्ष । सिझना--अ० कि० दे० (सं० सिद्ध) आँच सितभानु- संज्ञा, पु० यौ० (सं०) चंद्रमा, पर पकना, सिझाया जाना। सितरश्मि । सिझाना - स० कि० दे० (सं० सिद्ध) श्राँच सितम-संज्ञा, पु. (फ़ा०) अन्याय, जुल्म, पर पका कर गलाना, तपस्या करना, रस । अत्याचार, अनर्थ, ग़ज़ब । " तिसपै है यह या तेल आदि में तर करना, सिझावना सितम कि निहाली तले उसकी" - (दे०)। प्रे० रूप-सिझवाना। सौदा। सिटकिनी- सज्ञा, स्त्री. (अनु०) चटकनी, सितमगर--संज्ञा, पु. (फ़ा०) अन्यायी, चटखनी, कीवाड़ बंद करने का यंत्र। जालिम, अत्याचारी । " माशूक सितमगर सिटापिटाना--अ० क्रि० दे० (अनु०) दब ने मेरी एक न मानी'- स्फुट० । जाना, मंद पड़ जाना। सितमदीदह-वि० (फा०) जिसने अन्याय सिट्टी--सज्ञा, स्त्री० दे० (हि० सीटना) बहुत या जुल्म देखा हो. मज़लूम । ही बढ़ बढ़ कर बोलने वाला', वाकपटुता। सितरी-संज्ञा, स्त्री० (दे०) पसीना, स्वेद। मुहा०--सिट्टी (सिट्टी-पट्टो) भूलना- सितला-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० शीतला) सिपिटा जाना। शीतला, चेचक, सीतला। सिठनी-सज्ञा, स्त्री० दे० (सं. अशिष्ट) व्याह सिनवराह-- सज्ञा, पु. यौ० (सं०) श्वेत के समय गाने को गाली, सीठना प्रान्ती०)। शूकर, सफेद सुअर । सिठाई--- संज्ञा, स्त्री० दे० (हि० सीठी) नीर- सितवराह-पत्नी - संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) सता. फीकापन, मंदता । विलो-मिठाई। भूमि, पृथ्वी। सिड़-सज्ञा, स्त्री० (दे०) पागल पन, सनक, ! सितसागर--संज्ञा, पु० यौ० (सं०) श्वेत धुन, उन्माद। । सागर, क्षीर सागर, सफेद समुद्र । सिड़ी-वि० दे० (सं० शृणक) उन्मत्त, पागल, सितांशु- सज्ञा, पु० यौ० (स०) सितरश्मि, बावला, सनकी, धुनी। चन्द्रमा (दे०), शीतांशु। सित-वि० (सं०) उज्वल, श्वेत, धवल, सिता-संज्ञा, स्त्री. (सं०) मिश्री. शक्कर, सफेद, चमकीला, स्वच्छ, सान । “करन चीनी। “दूनी सिता डारि दिन प्रति सो समीप भये सित केसा" रामा० । संज्ञा, खवाइये" -- कुवि० । शुक्ल पक्ष, मोतिया, पु. (सं.) उजाला पाख, शुक्ल-पक्ष, चाँदी, मल्लिका, शराब, मद्य । " सिता, मधुक, चीनी, शक्कर । 'सितोपलापाड़शकं स्यात्" | खजुर"-भा० प्रा० । -भा० प्र०। सिताखंड-- संज्ञा, पु० (सं०) मिश्री, शहद सितकंठ-वि० यौ० (सं०) सितग्रीव, श्वेत । से बनाई हुई शक्कर । For Private and Personal Use Only Page #1772 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir নিসা-দিনাৰী सिद्धरस सिनाव-सिताबी--- क्रि० वि० दे० (फा०पदरी-ज्ञा, स्त्री० दे० ( फ़ा. सहदरी ) शिताब) झटपट, शीत. जल्दी, फौरन, सत्वर, । ३ द्वार की दालान, तीन द्वार का बरामदा । तुरंत, तत्काल । "ताते ढील न होय काम लिदिक-वि० दे० ( अ. सिदक ) सत्य, यह है सिताब को" --सुजा. सच्चा। सिताभा-सितम-संज्ञा, पु. यौ० (सं० सिदोसी-क्रि० वि० (दे०) शीघ्र, जल्दी, सित - ग्राभा, धवलकांति. च द्रमा । । तुरंत. तत्काल । “ श्राप सिदौसी लौटिया, । सितार--संज्ञा, पु० दे० सं० सप्ततार या फा० दीजो लाया सँस "। सहतार सात तारों का एक बाना । स्त्री० सिद्ध -- वि० (सं०) जिसका साधन पूर्ण हो अल्पा० --सिनारी। चुका हो, संपन्न, प्राप्त, संपादित, उपलब्ध, सितारः ....संज्ञा, पु० दे० ( फा० सितारः । प्रात, सफल-प्रयत्न, कृत कार्य, कृतार्थ, नक्षत्र, तारा, भाग्य. किस्मन. प्राय । हासिल, - योगादि से सिद्धि प्राप्त योगी, महा०--मितारा गदिश पर होना--- तपस्वी, मोनाधिकारी, मुक्त, योग-विभूतिभाग्य चक्र का चक्कर लगाना दुर्भाग्य होना । प्रदर्शक प्रमाण या तर्क से निश्चित या सितारा चाकन" या ननंद होना निधारित, प्रमाणित, जिस कथन के अनुसार भाग्योदय होना अच्छी भाग्य होना । सोने कुछ हुआ हो, निरूपित, प्रतिपादित, साया चाँदी की गोल बिदी जिसे शो गर्थ वातुनों बित. अनुकूल किया हुआ, कार्य-साधन के पर लगाने हैं, चमकी (प्रान्ती० । सज्ञा, उपयुक्त या अनुकूल किया या बनाया हुआ, पु०-लितार । आँच से पकाया या उबाला हुआ, महात्मा, जितारिवा ---संज्ञा, पु० दे० ( हि० सितार पहुँचा हुआ । लो०-"घर का जोगी और इया-प्रत्य० ) सितार बजाने वाला। गांव का सिद्ध"। संज्ञा, पु० (स.) योग मिनारी--- संज्ञा, स्त्री. ( हि० सितौर ) छोटा या तप से सिद्धि प्राप्त व्यक्ति ज्ञानी, भक्त, सितार। महात्मा. एक प्रकार के देवता, एक योग मिनाहिद-ज्ञा, पु. यौ० फा०) एक सिद्धका--वि० यौ० (सं०) सफल-मनोरथ, उपाधि जो अंग्रेजी सरकार की ओर से दी जाती है। "सितारेहिंद शिवपरशाद बाबू" । पूर्ण मनोरथ, कृतार्थ, सफल, कृतकाय । लिद्धटका--संज्ञा, स्त्री० यौ० (स०) मंत्र-~-द० ला० । सितामिन-संज्ञा,पुख्यौ० (सं०) श्वेत-श्याम.. द्वारा सिद्धि को हुई वह रसायनिक गोली सफ़ेद-काला, उजला-नीला; बलदेव जी।। जिले मुख में रखने से योगी को अश्य होने मिति वि० दे० ( सं शिति ) श्वेत, शुक, या सब स्थानों में शीघ्र पहुँचने को शक्ति । प्राप्त होती है, खेचरी गुटिका। सफ़ेद. काला, कृष्ण । सिहता-ज्ञा, स्त्री. (सं.) सिद्ध होने लितिकंट- संज्ञा, पु० द० यौ० [सं० शितिकंठ, की दशा, या अवस्था, सिद्धि, पूर्णता, प्रमामहादेव जी. नीलकंठ। णितकता, सिद्धत्व, सफलता, सिद्धताई सितुई ... संज्ञा, स्त्री० (दे०) सीपी । संज्ञा, स्त्री. (दे०) हि सत्त) स्तुिपासी (दे०) सितुआ ! सिद्धत्व --हज्ञा, पु० (सं०) सिद्धता । संक्रांति । सिद्धपीठ-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) ऐ । स्थान मिथिल* . वि० दे० (सं० शिथिल क्लान्त, । जहाँ तपस्य", योग और तांत्रिक प्रयोग शीघ्र शिथिल, ढीला, थका, मांदा, हारा, सुस्त । सिद्ध होते हों, सिद्धाश्रम, सिद्ध-भूमि । संज्ञा, स्त्रो० (दे०) सिथिलता, सिथिलाई। सिद्धरस--- संज्ञा, पु० (सं०) पारा । भा. श. को०-२२१ For Private and Personal Use Only Page #1773 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १७३२ सिद्धरसायन सिधारना सिद्ध रसायन-संज्ञा, पु. यो. (सं०) दीर्घ- सिद्धि-संज्ञा, स्त्री. (सं०) कामना, इच्छा जीवी और शक्तिशाली करने वाली एक या मनोरथ का पूर्ण होना, सफलता मिलना, रसादिक औषधि । प्रयोजन निकलना, कामयाबी। " कौनउ सिद्धहस्त - वि० यौ० (सं०) दक्ष, निपुण, सिद्धि कि बिनु विश्वासा".-रामा० । कुशल, जिसका हाथ किसी कार्य में मैंज प्रमाणित या सिद्ध होना, निश्चय या निर्धागया हो, पटु। रित किया जाना, फैसला, निर्णय, स्थिर या सिद्धांजन -- संज्ञा, पु. यौ० (सं०) वह अंजन साबित होना, सीझना, पकना, तपस्या या जिसके प्रभाव से पृथ्वी में गड़ी वस्तुयें योग की पूर्ति का दिव्य फल, विभूति, दिखलाई देती हैं। ऐश्वर्य, योग की ८ सिद्धियाँ: --अणिमा, सिद्धांत-संज्ञा, पु० (सं०) निर्धारित विचार, महिमा, गरिमा, लघिमा, प्राप्ति, प्राकाम्य, निश्चित मत, सोच-विचार के पीछे स्थिर ईशि व, वशित्व, मोक्ष, मुक्ति, दक्षता, निपु. किया हुआ मत, उसूल, प्रधान मंतव्य, णता पटुता, कौशल, दक्ष प्रजापति की एक मुख्य अभिप्राय या उद्देश्य, मत, ऐपी बात कन्या और धर्म की पत्नी, गणेश जी की दो जो विद्वानों या उनके किसी वगं या संप्रदाय स्त्रियों में से एक, विजया, भाँग, छप्पय का के द्वारा सत्य मानी जाती हो, निर्णीत विषय ३० गुरु और २२ लघु वर्णों वाला ४१ वाँ या अर्थ, तस्व की बात, पूर्व पक्ष के खंडन के भेद । “पाठ सिद्धि नौ निधि के दाता"पीछे स्थिर मत, ज्योतिष श्रादि शास्त्रों पर ह. चा० । लिखी हुई कोई पुस्तक विशेष! " यह | सिद्धिगुटिका-- संज्ञा, स्त्री. यो० (सं०) सिद्धांत अपेल''-रामा० ।। रसायन आदि बनाने की गुटिका या गोली। सिद्धांती- संज्ञा, पु. ( सं० ) मीमांसक, सिद्धिदाता--संज्ञा, पु० यौ० (सं० सिद्धिदातृ) विचारक, सिद्धांत ग्रंथों का ज्ञाता। गणेश जी। “अखिल सिद्धिदाता सदा, सिद्धान्तीय--वि० (सं०) सिद्धान्त-सम्हांधी, तुमहीं एक गणेस" - स्फु० । सिद्धीश-पंज्ञा, पु० यौ० (सं०) गणेश जी। सिद्धान्त वाला, सैद्धांतिक ।। सिद्धेश, सिद्धेश्वर-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) सिद्धा- संज्ञा, स्त्री० (सं०) सिद्धपुरुष की स्त्री, महादेव जी, महायोगी, बड़ा सिद्ध, बड़ा देवांगना, १३ गुरु और ३१ लघु वर्णों महात्मा । स्त्री० ---मईश्वरी। " हे सिद्धे. वाला भार्या छंद का १५हवाँ भेद (पि.)। श्वर सिद्धि दे, पूरौ मन का श्रास"सिद्धाई --संज्ञा, स्त्री० दे० ( सं० सिद्ध+पाई शि० गो। हि.- प्रत्य० ) सिद्धता, सिद्धत्व, सिद्धपन, सिधाई-संज्ञा, स्त्री० दे० ( हि० सीधा) सिद्ध होने की दशा, सिद्धः (दे०)। सीधापन, सरलता, ऋजुता । सिद्धार्थ-वि० (सं०) कृतार्थ, पूर्ण काम, विधाना* --अ० कि० द० ( हि० सिधारना ) पूर्ण-मनोरथ, पूर्ण कामना वाला। सज्ञा, पु. प्रस्थान या गमन करना, जाना, मरना । (सं०) जैनों के २४ वें श्रर्हत महाबीर के स० क्रि० द. (हि. सीधा ) सीधा करना, पिता, गौतमबुद्ध । सुधारना। सिद्धाश्रम संज्ञा, पु. यौ० सं०) सिद्धपुरुषों | सिधारना--प्र० कि० दे० ( हि० सिधाना ) या देवताओं के रहने का स्थान, हिमालय प्रस्थान या गमन करना, जाना, मरना, पहाड़ पर का सिद्ध लोगों का एक स्थान, स्वर्गवासी होना।" यह कहिकै स्वग-पुर सिद्धि-प्राप्ति का स्थान । दशरथ सिधारे"-हरिश्चंद्र । For Private and Personal Use Only Page #1774 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सिफ़ात ADS सिधि ** -- स० कि० दे० (हि. सुधारना ) । सिपाहियाना--वि० (फ़ा०) सिपाहियों या सुधारना, बनाना, सँवारना, ठीक करना। सैनिकों का सा, सिपाहाना । सिधि -सज्ञा, स्त्री० दे० (सं० सिद्धि ) सिपाही-ज्ञा, पु. (फा०) शूर, योद्धा, विद्धि, सफलता, योग से प्राप्त शक्ति, पाठ सैनिक. तिलंगा, ( ग्रा० ) चपरासी, कांस्टे. सिद्धियाँ। बिल, सिपाई (दे०)। "सिपाही रखते सिन-संज्ञा, पु० (अ०) अवस्था, उम्र, श्रायु । थे नौकर अमीर दौलतमंद"-सौदा० ।। सिनक- संज्ञा, पु० दे० ( सं० सिंदधाणक ) सिपुर्द-संज्ञा, पु० दे० (फ़ा० सुपुर्द ) नाक का मैल। हवाले या सुपुर्द करना, सौंपना, सिपुरुद सिनकना-अ० कि० दे० (हि. सिनक) (दे०)। मुहा०-सिपुर्द होना-हवाले बड़े जोर से वायु को नथुनों से निकाल होना, सौंपा जाना। कर नाक का मल बाहर फेंकना, किनकना | सिर--संज्ञा, स्रो० दे० ( फा० सिपर ) सिपर, ढाल। सिनि सिनी-संज्ञा, पु० दे० (सं० शिनि) सात्यकि का पिता एक यदुवंशी, क्षत्रियों सिपा-संज्ञा, पु० (दे०) कार्य-साधन का की एक पुरानी शाखा । उपाय, तदबीर, यन, युक्ति, लक्षाघात, सिनीवाली--संज्ञा, स्त्रो० (सं०) एक देवी सूत्रपात, रोग । मुहा०—सिप्पा जमाना (वैदिक), शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा । ( जलना )-भूमिका बाँधना, किसी मिनी-संज्ञा, स्त्री० दे० ( फ़ा० शीरीनी) कार्य के अनुकूल परिस्थिति साधनादि मिठाई, वह मिठाई जो किसी देवता या उत्पन्न करना । सिप्पा बैठना (लगना)पीर पर चढ़ा कर प्रसाद की रीति से बाँटी कार्य-सिद्धि की युक्ति का सफल होना, जावे । मुहा०-सिन्नी मानना (चढ़ाना) डौल लगना । सिप्पा बांधना-धाक मनौती मानना, बाँटना, अति प्रसन्न होना । जमाना, धाक, प्रभाव, रंग। सिपर-संज्ञा, स्त्री० (फ़:०) ढाल । “तलवार सिप्र-संज्ञा, पु० (सं०) निदाघ, पसीना, जो घर में तो विपर बनियाँ के याँ है" स्वेद, जल, पानी। .--सौदा। मित्रा-संज्ञा, स्त्री० सं०) महिषी, मैंस, सिपहगरी-संज्ञा, स्त्री. (फा०) सिपाही मालवा की नदी जिसके तट पर उज्जैन है, का काम, लड़ने का काम या पेशा । “न | छिपा (दे०)। बेजा मरने को लड़कर सिपहगरी जाने" सिफ़त-संज्ञा, स्त्री० (अ.) विशेषता, लक्षण -~-सौदा। गुण, हुनर, स्वभाव, प्रकृति । सिपह सालार-संज्ञा, पु० (फ़ा०) सेना- सिकर--संज्ञा, पु० दे० (अं० साइफर ) पति। शून्य, ज़ीरो, सीकर (ग्रा.) सुन्ना, सुन्न सिपाई-संज्ञा, पु. दे. (फा० सिपाही) (दे०)। सिपाही। सिफ़ला--वि. (अं०) बेसमझ, बेवकूफ़, सिपारा-संज्ञा, पु. (१०) कुरान का एक मोठा, नीच, कमीना, छिछोरा । संज्ञा, स्त्री० अध्याय । सिरुलापन । सिपाह-संज्ञा, स्त्री० (फा०) सेना, फ़ौज। सिफ़ात--संज्ञा, स्त्री० (अ०) सितत का सिपाहगिरी-संज्ञा, खो० (फ़ा०) सिपह- बहुवचन, गुण, लक्षण, हुनर । " पाक जाति गरी, सिपाही का काम. युद्ध-व्यवसाय । की निधि जगत, सिफ़ात दिखाय'-रतन। For Private and Personal Use Only Page #1775 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सिफ़ारिश सियार-सियाल सिफ़ारिश --संज्ञा, स्त्री० (फा०) किमी का सिमेटनास-१० कि० दे० हि० समेटना) अपराध के क्षमा कराने या किसी की भलाई समेटना, इकट्ठा करना, लपेटना, बटोरना, कराने के हेतु किसी से उसके विषय में कुछ तह करना। प्रशंगा या भलाई की बातें कहना-सुनना, सिमत -संज्ञा, स्त्री० [फा०) दिशा । अनुरोध मित्र--संज्ञा, स्त्री. द. (सं० सीता) सिफारशी वि० (फा०) जिसकी सिफ़ारिश | सीताजी, जानकीजी। "जो पिय भवन की गई हो. जिसमें सिफ़ारिश हो। रहे कह अंवा "-रामा० : सिफ़ारशी दट्ट ---- संज्ञा, पु. यौ० ( फा० सियना*-अ. क्रि० दे० (सं० सृजन ) सिफारशी+टट्ट, हि०) फ़िरिश से किसी उत्पन्न करना. रचना, बनाना । स० क्रि० ऊँचे पद को प्राप्त प्रायोग्य व्यक्ति । दे० (हि.सीना ) मीना मिना, सिवना सिबिका* -- संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० शिविका सिप्रना (दे०)। पालकी । “तत्तद्विरागमुदितं शिविका लिया ---वि० दे० • शीतल ) शीतल, धरस्थाः"... नैप० । " सिबिका सुभग ठंढा, कच्चा स्त्री० सियरी! "मियरे सुखासन याना"-रामा० ।। बचन अगिन सम लागे "...वामु० : सिमंत-संज्ञा, पु० दे० सं० सीमंत ) स्त्रियों सियराई -संज्ञा, स्त्री० दे० ( हि० मिया ) की मांग, हड्डियों का संधि स्थान, सीमांतो शीतलता । " यश गावत रसना पियराई" नयन । सिमटना---अ० क्रि० दे० (सं) समित - ना ...शि. गो। हि० ) संकुचित या इकट्ठा होना, सिकुड़ना, पियराना* --अ० क्रि० दे० ( हि० निबटना, पूरा होना, लज्जित होना, बटुरना, सियराना प्रत्य. ) शीतल या ठंढा होना जुटाना, बीतना, समाप्त होना । 'मियरानी सहमना, शिकन या सिलवट पड़ना, क्रम कौ देखि सबै सियरानी"-सरस। से व्यवस्थित होना, समिटना । स० कि० सिमटाना, प्रे० रूप सिमरवाना। सिया-- ज्ञा, स्त्री० दे० ( स० सीता) सिमर-संज्ञा, पु० दे० ( स० शाल्मली ) सीताजी, जानकीजो । सियाराम मय सब जग जानी"--रामा । स० भू० क्रि० सेमर वृक्ष विशेष । " चंदन भस्म सिमर स० (हि. सियना ) सिला हुआ। श्रालिंगन सालि रहल हिय काँट".---- विद्या०। सियाना-वि० द० (सं० सज्ञान) सयाना सिमरन-संज्ञा, पु० दे० (सं० स्मरण ) (दे०) चतुर, प्रवीण, निपुण, दक्ष, अभिज्ञ । सुमिरन, स्मरण, याद ।। लो० -- " काजर की कोठरी मैं कैसहू सिमरना--स० क्रि० दे० ( सं० स्मरण) लियानो जाय'- स्फु० । स० कि० दे० स्मरण, याद, ध्यान, सुमिरना। (हि० सिलाना; पिलाना,सिगारना (दे०)। सिमाना-संज्ञा, पु० दे० (सं० सीमांत) सिगाई-संज्ञा, स्त्री. ६० ( हि० सीना) सिलाई, लिवाना. सीमा का चिह्न, हददो। *-R० मीना, सीने का काम या मज़दूरी । क्रि० दे० ( हि० सिलाना ) सिलाना। सियापा -- संज्ञा, पु० द० (फ़ा० सियाहपोश) सिमिटना, सिमटना*-० क्रि० दे० कई एक स्त्रियों का किसी को मृत्यु पर मिल (हि. सिमटना ) सिमटना, इकट्ठा होना, कर शोक-सूचनार्थ रोना । समिटना (दे०)। सियार-निवाल --- हाज्ञा, पु० दे० सं० शृगाल) सिमृति* - संज्ञा, स्त्री० दे० सं० स्मृति ) जंबुक, शृगाल, गीदड़, स्यार । स्त्री०स्मृति, सुधि, याद, सुमिरण, स्मरण । । सियारी, सियारिन । For Private and Personal Use Only Page #1776 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir w espanoramANESHWAsreen NaMNARESee mawwaunsoom सियाला १७६५ सिर मियाला सज्ञा, पु० दे० सं० शीत काल: साहस या सामना करना (होना)। सिर शीत काल, जाड़े की ऋतु ।। करना--स्त्रियों के बाल संगरना. बेणी सियासत-संज्ञा, स्त्री. (अ.) शासन, बनाना, घोटी गधना । सिर के बल जाना व्यवस्था, हुकूमत । -किपी के समीप अति प्रादर से जाना। मियाह वि. द. ( फा० स्याह ) काला, "सिर बता जाउँ धरम यह मोरा' - रामा० । स्थाह, नीले रंग का। मिर (बोपड़ी) चाली करना-व्यर्थ माह गोर--संज्ञा, पु० दे० यौ० ( फा० बहुत बकवाद करना, माथा पच्ची करना, स्याह : गाश) बन विलार, जंगली चिल्ली। सोच-विचार में हैरान होना, सिर खपाना । नियाहा-- सज्ञा, पु. (फा० स्वाहा (दे०)। सिर (खोबडी) खाना-बकवाद करके जी श्राय-यय की वही, रोजनामचा, सरकारी उबाना। सिर ( खोपड़ी ) खपानाखज़ाने की जमीदारों से प्राप्त मालगुजारी ! सोचने-विचारने में हैरान-परेशान होना, की बही या रजिस्टर । "वह लाये कचहरी बहुत बकना, कार्य में व्यस्त होना । सिर से जो दामों का सियाहा'-बौदा० . पा-सि-स्खया -- वि० (दे०) मनचला पियाहा नवीम-संज्ञा, पु. फा०, सर- पुरुष, अपनी टेक पर अटल । सिर घूमनाकारी ख़ज़ाने का पियाहा लिखने वाला। सिर में दर्द होना घबराहट या मोह होना, संज्ञा, स्त्री० --लियाहानवीसी। वेहाती होना । सिर चकराना-दिमाग़ मियाही-संज्ञा, सी० दे० (फा० स्याही) का चक्कर करना, सिर घूमना । सिर पर स्याही, रोशनायी, ममि, कालिमा । बहना ---मुँह लगना । (किसी के सिर "सियाही है सफेदी है चमक है अत्र वारां है। घर) चहना--बहुत मुँह लगना, (भृतादि सिर--संज्ञा, पु. दे. ( सं० शिरस ) बापड़ी। का) यावेश भाना । सिर चढाना -- पूज्य मूंड, कपाल, सर, देह का सबसे ऊपरी । भाव दिखाना, बहुत ख़ातिर करना, श्रद्धा और अगला गोल तल या कुछ लंबा सा । प्रेम से माथे से लगाना सिर पर लेनावह भाग जिसमें नाक, कान, घाँख बहुत बढ़ा देना, मुंह लगाना, सिर दर्द श्रादि हैं। सुहा) -- सिर प्राला पर पैदा करना । सिर (शोश ) झुकाना, होना-हर्प पूर्वक स्वीकार होना, माननीय । सिर नवाना - सादर प्रणाम-नमस्कार होना । सिर अखिों पर बैठाना (लेना) करना, लजा से गरदन नीची करना । ---प्रत्यत यादर-सत्कार या प्रेम करना।। सिर देना --प्राण निछावर करना, जान सि पर आना भूतादि का)-प्रावेश देना, मन लगाना, दिमाग लगना, प्रणाम होना, देवी, देव (या भूतादि) का प्रभाव करना । सिर धरना-सादर अंगीकार या होना, खेलना । सिर उठना--विरोध का स्वीकार करना । (सिर-माथे लेना) सिर साह होना, उपद्रव करने का दम होना। धुनना --शोक या पश्चात्ताप से सिर सिर उठाना-विरोध में खड़ा होना या पीटना, पछिताना। " सिर धुनि धुनि सामना करना, प्रतिष्टा से खड़ा होना, उप- पछिताय' -रामा० । सिर नीचा करना द्रव या उधम मचाना, सामने मुह करना, (होना). शर्मना, लजा से सिर झुकाना, लजित न होना । अपना या और का) (झुकना) गर्व चूर करना (होना) । सिर मिर ऊँचा करना (होना)-प्रतिष्टा के | पटकना--सिर धुनना, सिर फोड़ना, साथ खड़ा होना, सम्मान देना (होना) बहुत परिश्रम या शोक करना, पछताना, प्रतिष्ठा या मान-मर्यादा बढ़ाना, (बदना) हाथ मलना। सिर पर पाँव रखना For Private and Personal Use Only Page #1777 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सिर सिरजनहारा, सिरजनहार बहुत जल्द भाग जाना, हवा होना। सिर ! सींग होना --कोई विशेषता होना । एर पड़ना--जिम्मे पड़ना, अपने ऊपर सिर पर सवार रहना (होना)-सदा गुज़रना या घटित होना । मिर पर खून | उद्यत या पाम रहना. देख-रेख करते रहना। चढ़ना या सवार होना जान या प्राण सिर होना-गले परना, पीछे पड़ना. पीछा लेने पर उतारू होना, हत्या के कारण उन्मत्त न छोड़ना, किसी बात का हठ करके बार हो जाना, श्रापे में न रहना । (किसी | बार तंग करना, झगड़ा करना, उलझ पड़ना.। के) सिर पर चढ़ना-भूताद का आवेश किसी बात के सिर होना-समझ या श्राना, मह लगना। सिर पर चढ़ कर ताड़ लेना । सिर के बाल सफ़ेद होना बोलना-पूरा प्रभाव प्रगट करना ! मिर - वृद्धावस्था पाना, ख़ब अनुभव होना । पर नाचना खेलना) (मृत्यु आदि)--- सिरा, चोटी, अगला भाग, छोर । अति संनिकट होना । “तिय मित्र मीच सिरका - वि० यौ० (हि०) जिसका सिर सील पै नाचो' रामा । सिर पर होना कट गया हो, दूसरों का अहित करने वाला। (आना)-थोड़े ही दिन रह जाना, बहुत स्त्रो०-सिरकटी। निकट होना । सिर पड़ना--पीछे पड़ना सिरका-संज्ञा, पु. (फ़ा०) धूप में रख कर ज़िम्मे पड़ना, उत्तरदायित्व या भार ऊपर । खट्टा किया गया ईख श्रादि का रस ! दिया जाना, ऊपर था पड़ना या घटित सिर काटना-स० क्रि० यौ० (हि.) मूड़ होना, हिस्से में पाना, पीछे या गले पड़ना। काटना, हानि पहुँचाना। सिर पर (आ) पड़ना ---ऊपर या पड़ना सिर काढना--स० कि. यौ० (हि०) प्रसिद्ध होना, प्रस्तुत या उद्यत होना। या घटित होना, गुजरना, जिम्में श्रा पड़ना सिरकी-संज्ञा, स्त्री० दे. ( हि० सरकंडा) ऊपर भार थाना । (किसी का ) सिर धूप और वर्षा से रक्षा के लिये छतों, पिटना -- ( किसी के ) मत्थे पड़ना या गाड़ियों आदि पर लगाने की सरकंडे की जाना। सिर हिरना--सिर घूमना या टही. सरई, सरकंडा। 'राधा मिरकी पोट चकराना, पागल होना, उन्माद होना । है, हेरति माधव शोर'.-रत० । सिर मारना--समझाते समझाते या सिरखपी -संज्ञा, स्त्री० यौ० (दे०) परिश्रम, सोचने-विचारने में हैरान या परेशान होना, हैरानी, परेशानी, जोखिम। सिर खपाना । सिर तुड़ाते ही ग्रोले सिरमा-संज्ञा, पु. (दे०) घोड़े की एक पड़ना-प्रारंभ में ही कार्य बिगड़ना, जाति। कार्यारंभ में ही विघ्न पड़ना । सिर पर) मिरचंद-- संज्ञा, पु० यौ० (हि०) हाथी के सेहरा होना-किसी कार्य का श्रेय प्राप्त सिर का अद्ध चन्द्राकार एक गहना। होना, वाहवाही मिलना । सिर से पैर तक सिरजक* --- संज्ञा, पु० दे० (हि. सिरजना) (सरापा)--श्रादि से अंत तक. अथ से इति सृष्टि-फर्ता, बनाने या उत्पन्न करने वाला, तक, सींग में, आद्योपान्त, पूर्णतया । रचने वाला । "सिरजक सब संसार को पिर पर पाना-ऊपर आ जाना, सब में रहा समाय''---स्फुट । अति निकट श्राना, ( विपनि आदि)। सिरजनहारा, सिरजनहार*- संज्ञा, पु. सिर से पैर तक आग लग जाना-- हि. सिरजना + हार---प्रत्य.) सृष्टि-कर्ता, अत्यंत क्रोध थाना । सिर से कफ़न बनाने या उत्पन्न करने वाला, रचने वाला। बाँधना--मरने को तैयार होना । सिर । परमेश्वर । "खालिक वारी सिरजनहार"से खेल जाना-प्राण दे देना। सिर पर । अ० खु० । For Private and Personal Use Only Page #1778 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सिरा सिरजना सिरजना*-स० कि० दे० (सं० सृजन) | सिर कंट-सिरकंटा-संज्ञा, पु. (हि.) बनाना, उत्पन्न करना, रचना, सृष्टि करना। साफा, मिरबंद । स० कि० दे० (सं० संचय) इकट्ठा या संचय सिरफोडोवल ---संज्ञा, स्त्री० यौ० (दे०) करना, जोड़ना। __ झगड़ा, लड़ाई, मार-पीट । सिरजित*-वि० दे० (सं० सर्जित) रचित, सिरबंद-- संज्ञा, पु० दे० यौ० (फा० सरबंद) बनाया हुआ, निर्मित ।। साना, सिरफेंटा, सिरफेंट । सिरताज-संज्ञा, पु० दे० यौ० (फा० सरताज) सिरबंदो- संझा, स्त्री० दे० ( फा० सरबंदी ) मस्तक पर पहनने का एक गहना। मुकुट, शिरोमणि, सरदार । "ौ रस मिले सिरमान:--सज्ञा, पु० दे० यौ० (सं० औ सिरताज कछू पूनहिं तौ'-रला। शिरोमणि , शिराभूषण, सिरमौरि, सिरमौर, सिरतापा-कि० वि० दे० (फ़ा० सर+ शिरोमणि। वि० यो० (हि०) सर्वोत्तम, श्रेष्ठ । ता तक+पा पैर) सिर से लेकर पाँव तक, सिरमौर-सिरमोरि- सज्ञा, पु० यौ० (हि०) सींग, पाद्योपान्त, श्रादि से अंत तक, लिरमुकुट, शिरोमणि, सिरताज।। सरापा। सिररुह - ज्ञा, पु० दे० यौ० (सं० शिरोरुह) सिरत्राण-संज्ञा, पु० दे० यौ० (सं० शिर सिर के बाज । स्वाण) टोपी, पगड़ी, साफ़ा। सिरस-सिरिस--- संज्ञा, पु० दे० (सं० सिरदार*-संज्ञा, पु० दे० (फा० सरदार) शिरीष ) शोशम जैसा अति मृदु पुष्प वाला अफ़सर, अमीर । संज्ञा, स्त्री० (दे०) सिर- एक पेड़। सिरस कुसुम मड़रात अलि, झूमि दारी। झपट लपटात '.----वि० । सिरिस कुसुम मिरनामा--संज्ञा, पु० दे० यौ० (फा० सर- सम बाल के, कुम्हिलाने सब गात " नामः) लिफाफे पर लिखा जाने वाला पता.. -मति० । " सरिस सुमन किमि बेधिय किसी लेखादि का विषय-सूचक वाक्य, हीरा" -- रामा० । सुर्वी, शीर्षक। सिरगा --वि० दे० यो० (सं० शिरगिन्) सिरनेत्र-सज्ञा, पु० यौ० (हि० सिर +नेत्री __ झगड़ालू बखेडिया, लँडाका, फ्रसादी। सं०) टोपी, पगड़ी, साना, चोग (प्रान्ती०) सिरहना, सिरहाना---सज्ञा, पु० द० (सं. क्षत्रियों की एक जानि । शिरसावान । पलंग, खाट या चारपाई में सिर-पाँव-सिर-पाव--संज्ञा, पु० दे० यौ० सिर की अर का खंड, लेटते समय सिर के (हि.सिरोपाव, सिर से पाँव तक के पहनने नीचे रखने का तकिया या वन, उसीस के वस्त्र प्रादि जो फिसी राज-दरबार से | (ग्रा.)। " मिट्टी श्रादन मिट्टी डासन मिट्टी सम्मानार्थ किसी को दिये जाने हैं। का सिरहामा - कबी०। खिलअत । सरा-सज्ञा, पु. द० (हि. सिर ) प्रारंभ मिरच-सिरपेच-संज्ञा, पु० यौ० दे० का भाग, ऊपरी या आगे का भाग, छोर, (फा० सिर --- पंच या पेंच-हि.) पगड़ी, अतिम भाग, अनो, नोक, किनारा, लम्बाई पगड़ी पर बाँधने का एक गहना। का अंत । मुहा०-सिरे का-सर्व प्रथम, सिरपोग-सज्ञा, पु० दे० ( फ़ा० एरपोश) अव्वल दर्जे का । (परले या पल्ले) सिर टोपी, टोपा, कुलाह, सिर का ढकने वाला। का-सबसे अधिक, अव्वल दर्जे का । संज्ञा. सिरफूल-संज्ञा, पु० दे० यौ० (सं० स्त्री० दे० (सा० शिरा) रक्तवाही नाड़ी, सिंचाई शिरपुष्प ) एक शिराभूषण, सिर का गहना, । की नाली, नस, रग । " हस, कबूतर चाल शीशफूल, सीस-फूल । की, कफ़ी सिरा ले जान"-कुं० वि० । For Private and Personal Use Only Page #1779 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सिराजी १७८ सिलपोहनी सिराजी-संज्ञा, पु० दे० ( फा० शीराज = तक पहनावा जो किसी राजा के यहाँ से नगर ) शीराज का घोड़ा, कबूतर या शराब, किसी को दिया जावे, खिलग्रत, सिरोपाँव। शीराज का निवापी । “अगर आँ तुर्क सिरोमनि--- संज्ञा, पु.० दे० यौ० (सं० शीराज़ी बदस्त भारद दिले माग"-हाफि० : शिरोमणि ) शिरोमणि, चूड़ामणि, मिरात-अ० कि० दे० (हि० सोराना) शिरोभूषण, सिरताज, सिरमौर, सर्वश्रेष्ठ । शीतल ठंढा, शीत, जूड, बीतना । "प्रिय- सिरोह--संज्ञा, ६० पु. ( सं० शिरोरुह ) वियोग में वावरी कैसे रैन सिरात"-स्फु० । शिरोरुह, बाल। सिराना*-अ० क्रि० दे० ( हि० सोरा+सिराहो-सज्ञा, स्त्री. (दे०) एक काली ना) शीतल. शीत या टढा होना, जुड़ाना । चिड़िया या पत्नी विशेष । संज्ञा, पु० - सेराना (ग्रा०), सुस्त या मंद पड़ना, राजपूताने का एक नार जहाँ की तलवार निराश या हतोत्याह होना, समाप्त या अच्छी होती है, तलवार, लाठी (ग्रा०) । ख़तम होना, नाश होना या मिटना, बीत "हाथ सिराही लीन्हे श्रावे लटकत पावै या गुज़र जाना. काम से छुट्टी मिलना, दूर गैंड़ की ढाल '-प्रा० ख० । होना । स० क्रि० (दे०).. शीतल या ठंढा बि -क्रि. वि. (अ.) केवल, मात्र करना, बिताना या समाप्त करना, मय- सिरि: (दे०) । वि. ...- एक ही, अकेला, राना (व०) । "जनम सिरानो जात है जैसे एक मात्र शुद्ध । लोहे तावरे"-स्फु० । " स व सुख सुकृत सिल----पज्ञा, स्त्रो. दे. (सं० शिला) शिला, सिरान हमारा". रामा० । चरचहि सिगरी पत्थर की चान, मसाला श्रादि पीसने की रैनि सिरानी"-प्रागन। पत्थर की पटिया, जिलाटी (द०)। संज्ञा, सिरावना*----स० क्रि० द० (हि. सिराना) पु० दे० ( सं० शिल ) सीला, शिलोंछ । सिराना, शीतल्ल या ठंढा करना, सेराला, सज्ञा, पु० (अ.) क्षय रोग, राजयधमा । सेरवाना ग्रा०), बिताना. गुजारना, समाप्त सिलक--संज्ञा, स्त्री. (दे०) पंक्ति, पाँति, करना, बहा या फंक देना. दुबो देना। पंगति, कतार, लड़ी। संज्ञा, पु०-धागा । “तुलसी भाँवर के परे. नदो रािवत मौर" संज्ञा, पु. (अ. सिलक) रेशम, रेशमी --तुल० । । वन, सिलिक (दे०)। सिरिश्ता-संज्ञा, पु० दे० (फा० सरिश्तः ) सिलकी-संज्ञा, पु० (दे०) बेल । महकमा, विभाग। सिलबड़ी-सिलवरी-- संज्ञा स्त्री० दे० (हि. सिरिश्तेदार-संज्ञा, पु० दे० (फा०) मुकदमें सिल - खड़िया ) एक नरम चिकना पत्थर के कागज़ श्रादि का रखने वाला कचहरी का खड़िया मिट्टी, दुद्धी, सेलवरी (ग्रा.) : कर्मचारी, सरिश्तेदार (दे०)। संज्ञा, स्त्री० रिलगना---अ० क्रि० द० हि० सुलगना निरिश्तेदारी। श्राग का सुलगना, प्रज्वलित होना। सिरी*-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० श्री ; मिलन --- संज्ञा, पु० द० (सं० शिल्प) लक्ष्मी, शोभा, श्राभा, कांति, श्री. रोना शिल्प, कारीगरी। “पिलप-कला, व्यापार रोली, मस्तक या गले का एक गहना, कंठ- __ और विद्या को बेगि बढ़ाओ"..- स्फु० । सिरी । वि० (दे०) खिड़ी (हे.) पागल।मिलपट-- वि० दे० (सं० शिलापट्ट ) सिरीपाउ-सिरोपाव-संज्ञा, पु. द० यौ० चौरम, समतल, साफ़, बराबर, हमवार, (हि. सिर-पांव ) सिर से लेकर पाँव तक सत्यानाश, चौपट । के पहनने का सामान, पगड़ी से लेकर जूता सिलपोहनी-संज्ञा, स्त्री० दे० यौ० (हि. For Private and Personal Use Only Page #1780 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सिलवट १७६१ सिल्ली सिलपोहना ) व्याह की एक रीति जब स्त्रियाँ सिलाजीत - संज्ञा, पु० दे० (सं० शिला सिल पर उरद की दाल पोलती हैं। जतु ) शिलाजतु, एक पौष्टिक औषधि । सिलवर--संज्ञा, श्री० दे० ( सं० शिलापट्ट) सिलाना--स० कि. ( हि० सीना का द्वि०, सिकुड़न, शिकन, सिलापट, मिल, सिलौटी। प्रे० रूप) सीने का कार्य दूसरे से कराना । मिलचट्टा ---संज्ञा, पु. यौ० (दे०) सिल और सिलावना --स० क्रि० दे० (हि. सिराना) लोढ़ा। सिलाना । अ० क्रि० ( हि० सील ) गीला सिलवाई ----संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. सिलवाना) होना, नम होना, सीलन माना। सिलाने की मजदूरी, सिनाई। सिलारस--सज्ञा, पु० दे० (सं० शिलारस) सिनचाना-स० क्रि० दे० ( हि० सिलाना ) सिल्हक वृक्ष, उसका गोंद, सिलाजीत । सीने का कार्य दूसरे से कराना, सिलाना, सिलावट-- सज्ञा, पु० दे० (सं० शिलापट्ट) सिवाना (ग्रा०)। संग-तराश, पत्थर गाढ़ने वाला। सिलसिला-संज्ञा, पु. (अ०) क्रम, श्रेणी, लिलाह-संज्ञा, पु. (अ.) कवच, अस्त्र, शस्त्र, पंक्ति, परंपरा. बँधा हुआ तार, लड़ी, हथियार, जिरह-बकतर। जंजीर, शृंबला. तरकोव, व्यवस्था । वि• सिलाहवंद --- वि० (अ.+फा०) हथियारदे० (सं० सिक्त ) चिकना, गाला, भीगा बंद, सशस्त्र शस्त्रास्त्र-सुपज्जित । और चिकना जिस पर पैर फिसल जावे। सिलाइर -- संज्ञा, पु० दे० ( हि सिलहार ) अ० कि० (दे०) सिलसिरदाना । सिलहार, खीला बीनने वाला। सिलसिलेवार - वि० दे० ( अ---फा० ) ०) सिलाही-शा, पु० दे० (अ. सिलाह ) तरतीबवार, क्रमानुसार, यथाक्रम । | सिपाही, सैनिक, हथियार वाला। सिलह-संज्ञा, पु० द० ( अ० सिलाह ) सिलिपां* --संज्ञा, पु० दे० ( सं० शिल्प) हथियार, अस्त्र। शिल्प, कारीगरी, दस्तकारी। सिलहखाना- संज्ञा, पु० यौ० (अ० सिलाह सिली- संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० शिला) + खानः-फा०) शस्त्रागार, हथियार रखने शिला, पथरी, सान। का स्थान। सिलहारा-संज्ञा, पु० दे० (सं० शिल कार ) मिनीख--संज्ञा, पु० दे० (सं० शिलीमुख) सीला या खेत में गिरा हुअा अा बीनने शिलीमुख, वाण, तीर, शर, भ्रमर, भौंरा । वाला। "न डिगै न भगै मृग देखि सिलीमुख" सिलहिला--वि० द० (हि. पीड़ । होला ~कविः । -- कीचड़ ) कीचड़ के कारण ऐसा चिकना सिलोच-सिलोच्चय-संज्ञा, पु० दे० (सं० कि पैर फिसले । स्त्री० --सिलाइन्ती । शिल'च, सिलाच्चय ) एक पहाड़ । सिला- संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० शिला) सिलौट-सिलौटा-संज्ञा, पु० दे० (सं० पत्थर की शिला या चट्टान । संज्ञा, पु० दे० (शिला --बट्टा -- हि०) सिल, मसाला ( सं० शिल) कटे खेत में से बिना हश्रा पीसने की सिल तथा बट्टा । स्त्री० अन्न, कटे खेत में गिरे दाने बीनना, सिलौटी। शीलवृत्ति । संज्ञा, पु० दे० (अ. सिलहः ) सिल्ला -संज्ञ, पु० दे० (सं० शिल ) खेत बदला, एवज । | का अनाज काट लेने पर जो दाने खेत में सिलाई-सज्ञा, स्त्री० दे० ( हि० सीना पाई पड़े रहते हैं, सोला ( ग्रा० )। -~~~-प्रत्य० ) सीने का काम या ढंग, सीने | सिल्ली--संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० शिला ) की मजदूरी, सीवन, टाँका, सियाई (ग्रा०)। सान, हथियारों की धार पैनी करने का भा० श. को.-२२२ For Private and Personal Use Only Page #1781 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org सिन सिल्हक १७७० पत्थर, अस्तुरा आदि पैना करने की पतली सिट - संज्ञा, स्त्रो० दे० ( फ़ा० शिस्त ) वंखी पटिया | डोरी । - वि० दे० ( सं० शिष्ट ) शिष्ट, श्रेष्ठ, ज्ञानी, योग्य | संज्ञा, स्त्री० (दे० ) सिटता । सिसकना - ० क्रि० ( अनु० ) रोने में रुक रुक कर साँस लेना, भीतर ही भीतर रोना, फूट फूट कर न रोना, घबराना, तरसना, मृत्यु के निकट उलटी साँस लेना, दिल धड़कना । I सिल्हक - संज्ञा, पु० (सं०) सिलारस । सिव - संज्ञा, पु० दे० (सं० शिव ) शिव, शंकर, शिवा जी । स्त्री० - सिवा । सिवई - संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० समिता ) सेमँई (दे०) गेहूँ के गुँधे आटे या मैदा के सूत जैसे तार जिनके सूखे लच्छे दूध में पका कर चिनी के साथ खाये जाते हैं, सिवैयाँ, सेवई ( ग्रा० ) । सिवता-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० शिवता ) शिवता, शिवत्व । सिवा - संज्ञा स्त्री० दे० ( [सं० शिवा ) शिव, पार्वती, दुर्गा जी । अव्य० ( अ० ) अलावा, अतिरिक्त, सिवाय (दे० ) । वि० – अधिक, ज्यादा, स्फुट, फालतू । सिवाइ -- अत्र्य दे० ( ० सिवा ) अतिरिक्त, अलावा, अधिक, सेवाय (दे० ) । सिवाई -संज्ञा, स्त्री० (दे०) एक तरह की मिट्टी, सिलाई, ( दे० सिवाना ) | सिवान - सिवाना – संज्ञा, पु० दे० (सं० 1 91 सीमांत ) सीमांत, सीमा, हद । सिवाय - क्रि० वि० दे० ( अ० सिवा ) बाद देकर, अतिरिक्त, अलावा छोड़ कर । वि० अधिक, ज्यादा, स्फुट, ऊपरी । सिवार सिवाल - संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० शैवाल ) हरे रंग का लच्छे के रूप में बड़े वालों की सी जल की काई या घास, सेवार (ग्रा० ) । सिवाला - संज्ञा, पु० दे० यौ० (सं० शिवालय ) शिवालय, शिव मंदिर | सिविका - संज्ञा, स्रो० दे० (सं० शिबिका ) पालकी । "सिविका सुभग सुखासन जाना " - रामा० । सिविर - संज्ञा, पु० दे० (सं० शिविर ) शिविर, सेना का पड़ाव, तंबू, डेरा । सिष, सिष्य - संज्ञा, पु० दे० ( सं० शिष्य ) शिष्य, चेला, नानक पंथी, सिक्ख (दे० ) Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सिसकारना - अ० क्रि० ( अनु० सी सी + करना ) मुँह से सीटी सा शब्द निकालना, श्रति पीड़ा या हर्प के कारण मुँह से सशब्द साँस खींचना, सीत्कार करना, सुस कारना । सिसकारी-संज्ञा स्त्री० दे० ( हि० सिसकारना ) सिसकाने का शब्द, सीटी का साशब्द, पीड़ा और हर्ष से मुँह से सी सी का शब्द, सीत्कार । सिसकी - संज्ञा, त्रो० (अनु०) व्यक्त रूप से न रोने का शब्द, सीत्कार, सिसकारी । सिसिर - संज्ञा, पु० दे० (सं० शिशिर ) एक ऋतु ( माघ फागुन ) जाड़ा । सिसी- संज्ञा, स्त्री० ( ० ) शीशी । सिमु - संज्ञा, पु० दे० (सं० शिशु ) शिशु, बच्चा । सिसुसम प्रीति न जाय बखानी ' 66 11 - रामा० । सिसुता - संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० शिशुता ) शिशुता, शिशुत्व, बचपन । सिधुत्व-संज्ञा, पु० दे० (सं० शिशुख ) शिशुस्व, शिशुता । सिसोदिया- सिसौदिया -संज्ञा, पु० दे० ( हि० सीसौ - सिर भी + दिया या सिसोदएक स्थान ) गुहलौत राजपूतों की एक शाखा । " वातें भये सिसोदिया, सीसी दीन्हो चढ़ाय - स्फु० । " सिन - संज्ञा, पु० दे० (सं० शिश्न ) पुरुष की मूनेंद्रिय | लो० - वैश्यः शिश्न वत्सदा " For Private and Personal Use Only Page #1782 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सींचना सिस्य १७७१ "वैश्य सिस्नवत हैं सदा, श्रादि अंत में } लो०-" लड़का नहीं सिहोरा की जड़ नम्र"-स्फु०। सिस्य-संज्ञा, पु० दे० (सं० शिष्य ) | सीक-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० इर्षाका ) मुंज शिष्य, सिष्य । की जाति की एक घास की तीली, किसी सिहरन-संज्ञा, स्त्री० दे० ( सं० शीत ) घास का बारीक डंठल, शंकु, तिनका, नाक कंपन, घबराहट । का एक श्राभूषण, कील, लौंग । " सींकसिहरना-अ० वि० दे० (सं० सीत + धनुष सायक संधाना"- रामा० ना ) जाड़े के मारे कॉपना, घबराना, डरना, सीका-संज्ञा, पु० दे० (हि. सींक ) पेड़काँपना। पौधों की पतली डाली, जैसे- नीम का सिहरा--संज्ञा, पु. (अ.) फूलों से बना सींका, पतली उपशाखा या टहनी । संज्ञा, मुख का श्रावरण जो दूल्हा की पगड़ी से पु० दे० (हि. सिकहर ) सिकहर, छींका नीचे को लटका दिया जाता है, सेहरा सीकिया-संज्ञा, पु० दे० ( हि० सींक ) एक (दे०)। धारीधार संगीन कपड़ा । वि०-सींक सा सिहराना-स. क्रि० दे० ( हि० सिहरना) पतला। जाड़े के मारे पाना, डराना। सींग-संज्ञा. पु० दे० (सं० शृंग ) भृग, सिहरी-सज्ञा, स्त्री० दे० ( हि० सिहरना) । विषाण, कुछ खुर वाले पशुओं के सिरों के कंप, कँपकँपी, सहमना, भय से थर्राना दोनों ओर उठी हुई नोकदार हड्डियाँ । या दहलना, जाड़े का ज्वर, जूडी, लोम "सींग-पूँछि बिन ते पशू, जे नर विद्याहपण या रोमों का खड़ा होना। हीन" । महास-(किसी के सिर पर) सिहाना-अ० क्रि० दे० (सं० ईर्ष्या ) सींग होना-कोई विशेषता होना, ईर्ष्या करना, स्पर्दा या डाह करना, ( व्यंग्य ) । सींग काटकर बछड़ों में लुभाना, ललचाना, मोहित या मुग्ध मिलना-बूढ़े होकर भी बच्चों में मिलना। होना । " देव सकल सुरपतिहि सिंहाही" कही सींग समाना-कहीं जगह या -रामा० । स० क्रि०-ईर्ष्या या अभिलाषा ठिकाना मिलना । फूंक कर बजाने का सींग की दृष्टि से देवना, ललचना । " तिनहिं से बना एक बाजा, सिंगी। नाग-सुर-नगर सिहाही"- रामा। सींगरी-संक्षा, स्त्री० (दे०) मोंगरे या लोसिहारना-स० कि० (दे०) दूँदना, पता | बिया श्रादि की फली, बबूर श्रादि के पेड़ों लगाना, खोजना, तलाश करना, खोज की फली, सिगरी (ग्रा०). भैंसी चढ़ी बंबूर लाना, सँभालना, परखना, जाँचना, रक्षित पर लफि लफि सिंगरी खाय"- स्फु०।। रखना, सहेजना, सावधानी से रखना या सींगी-संज्ञा स्त्री० दे० (हि० सींग) सिंगी, रहना । संज्ञा, पु० (दे०) सिहार। हिरन के सींग का बाजा, वह सींग जिससे सिहिटि-संज्ञा, स्त्री० (दे०) सृष्टि । “ो । देहाती जर्राह शरीर से बुरा लोहू निकाल तेहिं प्रीति सिहिटि उपराजी"-पद्मा।। लेते हैं, एक मछली । मुहा०-सिगी सिहँड-सिहुँढ़ा-संज्ञा. पु० दे० (हि० सेहुँड़ लगाना-सिंगी से रक्त चूसना । थूहर की जाति का एक काँटेदार पेड़। सींचना-स. कि० दे० (सं० सिंचन) सिहोड़-सिहोर-सिहोग-संज्ञा, पु० (दे०) पानी देना, भिगोना, श्रावपाशी, करना, एक झाड़ीदार पेड़ जिसके दूध के मेल से छिड़कना, तर करना । संज्ञा, स्त्री० (हि.) गाय भैंस का दूध तत्काल जम जाता है। सिंचाई। For Private and Personal Use Only Page #1783 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir . सी-सीवां सींव १७७२ सीठना सींघ-सीवाँ-सींव* -- संज्ञा, पु० दे० ( सं० सलाह, सिख (दे०)। " दसमुख मानहु सीमा ) सीमा, मसौदा. हद. सीउ (ग्रा०)। सीख हमारी-स्कु०। " ते दोउ बंधु अतुल बज-सींवा "..- सीख--संज्ञा, स्त्री. (फ़ा०) लोहे की पतली रामा० । “प्राय राम-चरनन परे, अंगदादि धौर लंबी छड़, तीनी, शलाका । " कबाबे बल सींव "-रामा० । महा.-~-सीव सील हैं हम पहलुऐ हरसू बदलते हैं "-- चरना या काँडना-अधिकार दिखाना, सीबचा- संज्ञा, पु. फा०) लोहे की पतली जबरदस्ती करना। लम्बी छड़, सीकचा, शलाका ! सी-वि. स्त्री० दे० (सं० सम) तुल्य, सीखन-*--- संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० समान, बराबर, सदृश, जैसे-छोटी सी। शिक्षण) शिक्षा, उपदेश, सीख, सिम्बावन । मुहा०—अपनी सी-- यथाशक्ति, अपने सीखना- स० कि० दे० (सं० शिक्षण ) भरसक, जहाँ तक हो सके वहाँ तक । संज्ञा, । शिज्ञा लेना, उपदेश सुनना, किसी कार्य के स्त्री० (अनु०) सरकार, सिसकारी । “जाके करने की रीति यादि जानना, समझना, सी सी करिबे में सुधा-सीपी सी ढरकि ज्ञानप्राप्त करना । स० क्रि०-सिखानो, जात"- स्फु० । सिम्खाका, प्रे० रूप---सिखवाना। सीउ-सीव*-संज्ञा, पु० दे० ( सं० शिव ) सीगा -- संज्ञा, पु० (१०) महकमा, विभाग । शिव, शंकर, ब्रह्म । “बंधमोक्ष-प्रद सब-सोपी सीज-लीझ-- संज्ञा, स्त्री. द. ( सं० सिद्धि ) नकर माया-प्रेरक सीव "- रामा० । संज्ञा, सीझने की क्रिया या भाव, गरमी से पु० दे० (सं० शीत ) शीत, जाड़ा, ठंढ ।। पिघलाहट या गलाच । सीकचा-सीखचा-संज्ञा, पु० दे० ( फ़ा० सीजना-सीझना - अ. क्रि० दे० (सं० सिद्ध) जनासीन सोखनः) शलाका, छड़ । गरमी से गलना, चुरना, पकना, गरमी से सीकर-संज्ञा, पु. (सं०) पानी की बैंद, नर्म होना, रस या पानी से भीग कर तर छींटा, जल-कण, पसीना गा स्वेद-कण । या नर्म होना, सूखे चमड़े का मसाले आदि "श्रम-सीकर श्यामल देह तसैं, मनु राति से नरम होना, क्लेश' या कष्ट सहना, तपस्या महातम तारकमैं "-कवि० । संज्ञा, स्त्री. करना, मिलने के योग्य होना। "श्रानंद भीजी दे० (सं० शृंखल ) जंजीर। सनेह में सीझी".. रघु० । " रहिमन नीर सीकल-संज्ञा, पु० दे० ( अ सैकल ) हथि पखान, भीजि पैसीजै नरहु त्यों"। यारों के मोरचा छुड़ाने का कार्य । संज्ञा, सीटना---स० क्रि० ( अनु) शेख़ी या डींग पु० (दे०) पका और पेड़ से गिरा श्राम का मारना, बढ़ बढ़ कर बातें करना। फल, टपका (प्रान्ती०)। महा०-सीकल सीटपटांग--संज्ञा, बी० दे० (हि०) ऊटपटाँग, हो जाना-अत्यंत दुर्वल या कमज़ोर हो गर्व-पूर्ण बात । जाना। सीटी-शीटी-संज्ञा, स्त्री० दे० ( सं० शीत ) सीकस- संज्ञा, पु० (दे०) अनुपजाऊ या ऊसर भूमि । संकुचित अोठों से नीचे की ओर भावात के सीकुर-संज्ञा, पु० दे० (सं० शूक ) गेहूँ, साथ वायु फेंकने से बाजे का सा शब्द जौ, धान आदि की बाली के ऊपरी कड़े करना, फँसने से ऐसा ही शब्द करने वाला, सूत,शूक । __ बाजे यादि से निकला ऐसा ही शब्द।। सीख-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० शिक्षा) सिखा- सीटना- संज्ञा, पु० दे० (सं० अशिष्ट ) वन, शिक्षा, उपदेश, तालीम, सिखापन, व्याह श्रादि में गाने की अश्लील गाली जो बात सिखाई जाये, परामर्ष, मंत्रणा, के गीत, सीठनी। For Private and Personal Use Only Page #1784 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सीठनी १७७३ सीधा सीठनी-संज्ञा, स्त्री० दे० ( हि० सीटना ) (पि.) राजा की निज की भूमि, खेती, व्याह आदि में गाने की गाली, सीठना। मदिरा। सीठा --वि० दे० (सं० शिष्ट, नीरस, फीका। सीताध्यत -- संज्ञा, पु० यौ० (सं०) सीर या " मत दोनौ का सीठा"-कबी। निज की भूमि में खेती थादि का प्रबन्ध मीठी - संज्ञा, स्त्री० दे० ( सं० शिष्ट ) फल- करने वाला राजा का राज कर्मचारी। पत्ते आदि का रस निकल जाने पर मार-हीन सीतानाथ--संज्ञा, पु० यौ० (सं०) श्री रामबची वस्तु, निकम्मी चीज़, लुगदी, फीकी चंद्रजी, सीता-जायक । या विरण वस्तु, खूद (प्रान्ती०)। सीतापति--संज्ञा, पु० यौ० (सं०) श्रीराम सीड-संज्ञा, स्रो० दे० ( सं शीत ) श्रार्द्रता, चंद्रजी।। नमी, तरी, सीलन । | सोता.ल--संज्ञा,पु० (सं०)शरीफा, कुम्हड़ा। सीढ़ी--पंज्ञा, स्त्री० दे० (सं० श्रेणी ) ऊँचे सीत्कार--- संज्ञा, पु० (सं०) पीड़ा या प्रानंद स्थान पर चढ़ने को पैर रखने को एक के से मुँह से निकलने वाला सी सी शब्द, ऊपर एक बना स्थान, नसेनी, पैड़ी, पियकारो। ( प्रान्ती ), जीना, आगे बढ़ने की परं : सीथ-संज्ञा, पु० दे० (सं० सिकथ ) भात परा, सिढी, मिहिया। "गंग की तांग या पके चावल, पके अनाज का दाना। स्वर्ग-सीदी सी दिखाई देत"..--स्फु०।। सीद-संज्ञा, पु० (सं०) ब्याज खाना, सूदसीत--*-संज्ञा, पु० दे० ( सं० ) शीत खोरी. कुसीद। जाड़ा, ठंडक, शीतलता। सीदना -- ३० क्रि० दे० (सं० सीदति ) दुख सीतकर -संज्ञा, पु० दे० (सं० शीतकर पाना, कष्ट उठाना । चन्द्रमा सीध-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि० सीधा ) सम्मुख सीताता*-वि० दे० (सं० शील ) शीतल, की लंबाई, सरलता, सरल, लक्ष्य, निशाना। ठंढा । संज्ञा, स्त्रो० (दे०) मीतलना. सित वि० (दे०) सीधा, सादा. सरल । लाई। सीधा-वि० दे० ( सं० शुद्ध ) ऋजु, सरन, सीतलपाटी-संज्ञा, स्त्री० दे० यो० (सं० अवक्र जो मुड़ा या झुका न हो, जो वक्र शीतल + हि० --पाटी) एक भाँति की उत्तम या टेढ़ा न हो, ठीक लक्ष्य की ओर, सरल चटाई। स्वभाव वाता भोला-भाला, सुशील, शांत । स्त्री० --सीवी । संज्ञा, स्त्री०--सिधाई । सीतला-संज्ञा, स्त्री. द. ( सं० शीतला ) मुहा०-सीधीतरह-अच्छे या शिष्ट व्यवएक रोग, चेचक, एक देवी। हार से, श्राजानी से। यौ०-सीधासादा सीतांसु-संज्ञा, पु० यौ० (दे०) शीतांशु --भोलाभाला । मुहा०-किसी को चन्द्रमा । सीधा करना-सज़ा या उचित दंड देकर सीता-संज्ञा, स्त्रो० (सं०) भूमि जोतने में हल ठीक करना, (काम) सीधा करनाकी फाल से बनी लकीर, कुड, कडा (दे०) ठीक साधनों से कार्य का ठीक करना । सहज, मिथिला-नरेश सरीध्वज जनक की कन्या श्रासान, सुकर, दौहिना, जैसा सीधा हाथ जानकी और श्रीराम की पत्नी, वैदे ही, सीय, करना। सीधे रास्ते चलना (जाना)छीता ( ग्रा.), "भृगुर्पत कर सुभाव सुनि ठीक व्यवहाराचार करना। कि० वि०-- सीता"- रामा० । र, त, म, य, और र सम्मुख, ठीक सामने की ओर । संज्ञा, पु. (गण) वाला एक वर्णिक छंद या वृत्त । दे० ( सं० आसिद्ध ) बिना पका अन्न । For Private and Personal Use Only Page #1785 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - अगिया । सीधापन १७७४ सीय, सीया सीधापन-संज्ञा, पु० दे० (हि० सीधा+पन | सीमंतिनी-संज्ञा, स्त्री० (सं०) नारी, स्त्री। -प्रत्य० ) सिधाई, सीधा होने का भाव, | सीमंती-संज्ञा, स्त्री० (सं०) नारी, स्त्री। सरलता, ऋजुता। सीमतोन्नयन-- संज्ञा, पु. यौ० (सं०) द्विजों सीधे-कि० वि० दे० (हि. पीधा ) बिना के १० संस्कारों में से तीसरा संस्कार जो कहीं रुके या मुड़े, बराबर, सामने, लगातार प्रथम गर्भाधान से चौथे, छठवें, या वें सम्मुख को दिशा में, सम्मुख, नरमी से, मास में होता है। शिष्ट व्यवहार से। सीम- संज्ञा, पु० दे० (सं० सीमा) सीमा, सीना-स. क्रि० दे० (सं० पीवन ) कपड़े हद । सीव, सीउ (दे०)। "कौरव-पांडव या चमड़े आदि के दो टुकड़ों का सुई जानवी, क्रोध छिमा की सीम"-नीतिः । धागा के द्वारा आपस में मिलाना, टाँकना, मुहा०-सीम चरना (काँडना)-दबाना, टाँका मारना । यौ० -- सीनाजोरी-ढिठाई जबरदस्ती करना, अधिकार या प्रभुत्व ज्यादती, विरोध, हुजत । मुहा०-सीना जताना। ज़ोरी करना-ज़बरदस्ती या मुकाबिला सीमांत-संज्ञा, पु. (सं०) सीमा का अंतकरना । लो०-"चोरी और सीनाजोरी" । स्थान, सरहद । यौ०-सीमांत-प्रदेशसंज्ञा, पु० दे० (फ़ा० सीन ) छाती वक्षस्थल । सीमा पर का प्रदेश या प्रान्त, भारत की सीनाबंद - सज्ञा, पु० (फा०) अांगा, चोली, पश्चिमोत्तर सीमा का एक प्रान्त, पश्चिमोत्तर प्रान्त । मीमा-संज्ञा, स्त्री० (सं०) सीम, सीवा, हद, सीप . संज्ञा, पु० दे० (सं० शुक्ति) सीपी, मर्यादा, किसी वस्तु या प्रदेश के विस्तार सितुही, घोंघे या शंख की जाति का एक का अंतिम स्थान, सरहद, कोटि, अंतिम कड़े अवरण में रहने वाला जल का कीड़ा, स्थाना, अंत, माँग । मुहा०-सीमा से इसका सफ़ेद चमकीला और कड़ा प्रावरण बाहर जाना (लाँघना, उल्लंघन करना) या सूती, जिसके बटन बनते हैं, तालाब -~-उचित से अधिक बढ़ जाना । सीमा में मादि की सीपी का संपुर। (के अन्दर) रहना-अपनी मर्यादा के सीपज - संज्ञा, पु० दे० (स० शुक्तिज) मोती। अन्दर रहना। सीपति-संज्ञा, पु० दे० यौ० (सं० श्रीपत्ति) सीमाव-संज्ञा, पु. (फा०) पारा। श्रीपति विष्णु । सीमाबद्ध- संज्ञा, पु. यौ० (सं०) हद या सीपर-संज्ञा, पु० दे० (फ़ा० सिपर) ढाल । सीमा से घिरा, मर्यादा के भीतर, हद के सीपमुत-संज्ञा, पु० दे० यौ० (स० शुक्तिसुत) अंदर। संज्ञा, स्त्री०-सीमा-बद्धता । मोती, सीपात्मज, सीपतनय। सीमोल्लंघन-संज्ञा, पु. यौ० (सं०) हद सीपिज- संज्ञा, पु० दे० (सं० शुक्तिन ) से बाहर चला या फाँद जाना, विजय-यात्रा, मोती। सीमाति क्रमणोत्सव, माद के प्रतिकूल सीपी-संज्ञा, स्रो० दे० (सं० शुक्ति) सीप। या बाहर काम करना, सीमा का उल्लंघन सीबी-संज्ञा, स्त्री० दे० ( अनु० सीसी) करना या लाँघ जाना। सीत्कार, सिसकारी, सीसी शब्द । सीय, सीया-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० सीता) सीमंत---संज्ञा, पु० (सं०) स्त्रियों की मांग, | जानकी जी, सीता जी। "सीय विवाहब हड्डियों का जोड़ या संधि-स्थान, सीमंतो- राम"-रामा० । “रामहि चितव भाव जेहि नवन संस्कार। सीया"- रामा०। For Private and Personal Use Only Page #1786 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सीयन १७७५ सीसौदिया सीयन-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि० सीवन) सीयन, वि० दे० (सं० शीतल) गीला, सीड़। स्त्री० सिन, सीवन, सिलाई। सीली। सीयरा-संज्ञा, पु० दे० (सं० शीत) सियरा। सीवन-संज्ञा, पु. स्त्री० (सं०) सियनि, सीर-संज्ञा, पु. (सं०) सूर्य, हल, हल सिलाई, सीने का कार्य, सीने से पड़ी में जोतने के बैन । संज्ञा, स्त्री० (सं० सीर = | लकीर. संधि, दरार, दराज़ । “सीवन सुन्दर हल) वह भूमि लिसे उसका मालिक या टाट पटोरे'-रामा०। ज़मीदार आप जोतता हो, खुदकाश्त, सीवना--संज्ञा, पु० दे० (हि. सिवाना ) वह भूमि जिसकी उपज बहुत से साझियों सिवाना । स० क्रि० (दे०) सीना, सिलाना। में बँटती हो। संज्ञा, पु. द. (सं० शिरा) सीस-संज्ञा, पु० दे० (सं० शीर्ष) सिर, मूंद, रक्त की नाही* वि० दे० (सं० शोतल) शीश । “सीस गिरा जहँ बैठ दसानन"-- शीतल, ठंढा । "लगत उसीर सीर सीर | रामा० । हू समीर गात"- सरस । सीसक-संज्ञा, पु० (सं०) एक धातु, सीसा । सीरक*-संज्ञा, पु. ( हि० सीरा ) ठंढा सीसताज'-संज्ञा, पु० दे० यौ० (हि० सीस-+करने वाला। ताज-फ़ा०) कुलहा, शिकारी पशुओं की सीरख*--संज्ञा, पु० दे० (सं० शीर्ष) सीरष, टोपी, जो शिकार के समय खोली जाती है। शीर्ष, शिर, चोटी, ऊपरी भाग। सीमत्रान- संज्ञा, पु० दे० यौ० (सं० शिरसीरध्वज-संज्ञा, पु० (सं०) राजा जनक । । खाण) लोहे का टोप या टोपी, शीश. सीरनी-संज्ञा, स्त्री० दे० (फ़ा० शिरोनी) । त्राण, शिस्त्राण। मिठाई, सिन्नी, सिरनी (ग्रा०)। सीसफूल-सज्ञा, पु० दे० यौ० (सं० शीर्षसीरष*-संज्ञा, पु० दे० (सं० शीर्ष) शीर्ष, पुष्प) सिर पर का एक गहना या भूषण, शिर, चोटी, ऊपरी भाग । शीश-फूल । “ सीस-फूल बेंदी लसै. तापै सौरा-संज्ञा, पु० दे० (फा० शीर) पका कर । शुभमणि राज"--स्फु०। गादा किया चीनी का रस, चाशनी, हलवा, सीम-महल-संज्ञा, पु० दे० यौ० (फा० मोहन-भोग । *वि० दे० (सं० शीतल) स्त्री० शीशा+महल अ.) वह महल जिसकी शीतल, ठंढा । स्री-सीरी। " लगै सीरी दीवारों में शीशे जड़े हों, शीशमहल । सीरी, पवन, तन को पालस मिटै"-- | सीसी-मज्ञा, पु० दे० (सं० सीसक) एक लक्ष्म । शांत, चुप, मौन ।। धातु । * सज्ञा, पु० दे० (फ़ा० शीशा) सील-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० शीतल) सीढ़, शीशा, आईना, पारसी, काँच। सीड, नमी, तरी, गीलापन, भूमि की सीला-सज्ञा, स्त्री० (अनु०) सीड़ा, शीत, श्रार्द्रता । * संज्ञा, पु० दे० (सं० शोल) या हर्ष में मुख से निकला हुआ सीसी का शील, अच्छा स्वभाव, सौजन्य । "लखन शब्द, सी:कार, सिसकारी। "जाके सीली कहा मुनि सील तुम्हारा'-रामा० । करिबे में सुधा सी सीपी ढरकि जात 'सीलन-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० शीतल) सील, स्फु० । * संज्ञा, स्त्री० दे० (फ़ा० शीशी) नमी, तरी। शीशी। सीला-संज्ञा, पु० दे० (सं० शिल) खेत की सीमों, सीमों-संज्ञा, पु० दे० (फा० शीशम) फमल के कर जाने पर भूमि पर गिरे दाने शीशम का पेड़। जिन्हें कंगाल बीन लेते हैं, इन दानों से सीसौदिया-संज्ञा, पु० दे० (हि० सिसोदिया) निर्वाह करने की मुनियों की एक वृत्ति । | राजपूत क्षत्रियों की एक पदवी, शिवा जी का For Private and Personal Use Only Page #1787 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org सीह -- सरस । वंश | "जन, धन, मन, सीसौदिया, सीसौदिया- नरेस ". सीह - संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० साधु) गंध, महक, सुगंधि । * संज्ञा, पु० दे० (सं० सिंह ) सिंह १७७६ सुंडी - संज्ञा, पु० दे० (हि० सं० अंडिन्) हाथी । सुंद - संज्ञा, पु० (सं०) निसुंद कासुत तथा सुंदका भाई एक दैय | सीहगोस - संज्ञा, पु० दे० यौ० ( फा० सियाह + गोश) काले कानों वाला एक अंतु । सुं | - प्रत्य० ६० ( हि० से ) सों, से, सूँ ( प्रा० ) करण कारक का चिह्न | सुँघनी - संज्ञा, स्त्री० (हि० सँधना ) सँघनी, नस्य, हुलास, मरज़रोशन, तंबाकू का चूर्ण सूँघा जाता है । सुँघाना- - स० क्रि० दे० (हि० घना ) सुँत्रावन (०), सूंघने की क्रिया कराना, वाघाण कराना । प्रे० रूप-स -सुत्रवाना | सुंडभुलुंड- संज्ञा, पु० दे० (सं० शुड़-भुशुंडि ) सुंडाल - संज्ञा, पु० दे० (हि० सँड ) शुंडाल, हाथी । 1 सूँड़ रूपी अस्त्र वाला हाथी । संडा - संज्ञा, स्री० दे० (हि० सँड़) सूँड, सुटा – संज्ञा, पु० दे० (सं० शुक्र) शुक्र, शुंड (सं०) । सुग्गा, तोता, सुश्रा, सुवा, सुगना । सुमन - संज्ञा, पु० दे० ( सं० सुत) सुत, पुत्र, बेटा, लड़का, सुवन । "अंजिनि-सुचन पवन सुत नामा -- इ० चा० । सुनजद संज्ञा, पु० (दे०) सोनजई । सुचना * - अ० क्रि० दे० ( हि० सुश्चन ) उगना या उत्पन्न होना, उदय होना । संज्ञा, पु० दे० (सं० शुत्रा ) सुधा, सुवा, तोता, सुग्गा, सुगना । सुंदर - वि० (सं०) रूपवान, मनोहर, बढ़िया, अच्छा, मनोरम, ख़ूबसूरत | "दुइ तपसी तपसी बनाये | सुंदर सुंदर सुंदरि लाये" - स्फु० । स्त्री० - सुंदरी । सुंदरता - संज्ञा, स्त्री० (सं०) सौंदर्य, खूबसूरती, मनोहरता । " सुंदरता कहँ सुंदर करई" - रामा० । सुनामी सूरत स्त्री, त्रिपुर सुंदरी देवी, एक योगिनी, सगण और एक गुरु वर्ण वाला एक सवैया छंद का एक भेद, न, भ, भ, र (ग) वाला एक वर्णिक वृत, द्रुतविलंबित। " द्रुत विलंवित माह नभौ भरौ ' - ( पिं० ) । २३ वर्णों का एक वर्णिक छंद, (वृत्त) | “ लखै सुंदरी क्यों दरी को विहारी' रामा० । संघावर - संज्ञा, स्त्री० (दे०) सोंधापन । संवा-संज्ञा, पु० (दे०) स्पंज, इस्पुंज, तोप या बंदूक की गम नलिका को ठंडा करने को गीला कपड़ा, पुचारा ( प्रा० ) । सु-उ० (सं०) शब्दों के पूर्व लगकर सुंदर अच्छा श्रेष्ट, उत्तम श्रादि का अर्थ देता है, जैसे - सुकुल, सुशील | वि० - बढ़िया सुंदर, 1 अच्छा श्रेष्ठ, उत्तम, भला, शुभ । ग्रव्य ० दे० ( सं० सह ) कारण अपादान और संबन्ध का चिह्न | सर्व ० ० (सं० सः ) सो, वह । | सुंदरताई - संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० सुंदरता ) सुंदरता, सौंदर्य्य । " बाजहिपन श्रति सुंदरताई" - स्फु० 1 (i सुंदराई -संज्ञा, स्त्री० दे० ( सं० सुंदरता ) सुंदरता, खूबसूरती । सहज सुंदराई पर राई नून चारती" दास० । सुंदरी - संज्ञा, त्रो० (सं०) सुंदर या खूब - Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मुआ - संज्ञा, पु० दे० (सं० शुक्र ) सुया, तोता, सुग्गा । सुप्राउ - वि० दे० (सं० सु + आयु ) दीर्घजीवी, चिरंजीवी, दीर्घायु । सुमन - संज्ञा, पु० दे० ( सं० श्वान ) श्वान, कुत्ता, कूकर । सुमाना - स० क्रि० दे० ( हि० सुना ) उत्पन्न या पैदा करना । स० क्रि० (दे०) सुलाना, साना (दे०) सुचना । सुयामी - संज्ञा, पु० दे० (सं० स्वामी ) स्वामी, मालिक, पति, नाथ । For Private and Personal Use Only Page #1788 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org सुधार १७७७ सुकाल सुप्रा - संज्ञा, पु० दे० (सं० सुपकार ) | सुकनासा* -- वि० यौ० दे० (सं० शुक्र + भोजन बनाने वाला, रसोइया । ' दिन महँ सब कहँ परसिंगे चतुर सुनार विनोत" नासिका ) होते या शुक की चोंच सी सुन्दर नाक वाला । -रामा० । सुभारव - वि० (सं०) मीठे स्वर से गाने बोलने या जाने वाला : यौ० दे० ( सुभा + रव ) तोते का शब्द | सुकर - वि० (सं०) सहल, सहज, श्रासान, सरल, सुपाध्य | विलो० - दुष्कर । सुकरता -- संज्ञा, स्रो० (सं०) सहज में होने, का भाव, सुसाध्यता, मनोहरता, सौकर्य, सुन्दरता । सुकराना -संज्ञा, पु० दे० ( फा० शुक्राना ) वह धन जो धन्यवाद के रूप में दिया जाय, धन्यवाद, शुकराना (दे० ) । सुकरति* -- वि० दे० (सं० सुकृति ) अच्छा काम, सुकर्म, भलाई । "पुण्य प्रभाव और सुकरति फल राम चरन-रति होई” – स्कु० । सुकर्म - - संज्ञा पु० (सं०) पुण्य, धर्म सत्कर्म, सौभाग्य काम | "जानि सुरुमं, कुकर्मरत, जागत ही रह सोय" नीति० । सुकरम (दे० ) । "सब सुकर्म कर फल सुत एहू" सुप्रासिनी - संज्ञा, खो० दे० (सं० सुवासिनी ) परोसिन, ग्राम-कन्या, सौभाग्यवती या सधवा स्त्री जो उसी गाँव में उत्पन्न हुई हो, सुवासिनि । “सुभग सुप्रासिनि गावहिं गीता" - रामा० । सुप्राहित- संज्ञा, पु० दे० (सं० सु + श्राहत) तलवार के ३२ हाथों में से एक हाथ, सुप्रात । सुई - संज्ञा, स्त्री०, दे० (स० सूची ) सूजी, वस्त्र सोने की एक बारीक नुकीली छोटो छेददार चीज़ | मुहा० - सुई की नोक सा - अति सूक्ष्म ! "देना लगान भूमि सुई की नोक बराबर "मैं० श० । सुकंठ -- वि० (सं०) वह जिसका गला सुन्दर हो. सुरीला स्रो० कंठी। सज्ञा, पु० सुप्रीत्र | "सोइ सुकंठ पुनि कीन्हि कुचाली" 1 -रामा० । सुक-संज्ञा, पु० दे० (सं० शुक्र ) शुक्र, सुगना, तोता सुग्गा, सुश्रा, सुवा, शुरुदेव । 'सुक. सनकादि सेस, नारद मुनि, महिमा सकैं न गाई” – स्फु० । सुकचाना* - श्र० क्रि० दे० ( हि० सकुचाना ) सकुचाना, लज्जित होना, मिकुड़ना । सुकटा-सज्ञा, पु० दे० ( सं० शुक्र ) शुक, तोता, सुग्गा, सुना । वि० ( दश० ० ) दुबला, पतला। स्त्री० - सुकटी । सुकटी -संज्ञा, खी० दे० सं० शुक्र ) तोती या शुक्र की मादा | संज्ञा, स्त्री० दे० ( हि० सुकटा ) सूखी मछली । वि० (सं०) सुन्दर कटि वाला, दुबली । सुकड़ना- - अ० क्रि० दे० ( हि० सिकुड़ना ) सिकुड़ना, सिमिटना, लज्जित होना । भा० श० को ० - २२३ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - रामा० । ( सुकर्मी - वि० सं० सुकर्मिन् ) अच्छे काम करने वाला, सदाचारी, धर्मारमा, धामिक | सुकल -- सज्ञा, पु० दे० ( स० सुकुल) अच्छे वंश का, खानदानी, शुक्ल, सुन्दर कला । स्त्री०सुकला - शुक्ल पक्ष की, शुक्लपक्ष । "सावन सुकला सप्तमी ।" सज्ञा, पु० दे० (सं० शुक्ल) उज्वल, निर्दोष, स्वच्छ, शुद्ध, निष्कलंक, निर्मल, साफ़, श्वेत । सुकवा, सुकुवा - संज्ञा, पु० (दे० ) शुक तारा । सुकवाना - अ० क्रि० (दे०) अचंभे में आना । सुकवि-संज्ञा, पु० दे० (सं० सुकवि ) श्रेष्ठ या उत्तम कवि, सत्कवि । " सुकबि लखनमन की गति गुनई” – रामा० । सुकाना - स० क्रि० दे० ( हि० सुखाना ) सुखाना, सूख जाना । सुकारज, सुकाज - संज्ञा, पु० दे० ( सं० कार्य ) कर्म अच्छा काम | सुकाल - संज्ञा, पु० (सं०) उत्तम और अच्छा For Private and Personal Use Only Page #1789 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुकावना १७७८ सुकेशी समय जब खुब अन्न उपजा हो और भाव बदन । “सुनहु तात सिय अति सुकुमारी" सस्ता हो। विलो०-अकाल, दुकाल । -रामा० । संज्ञा, स्त्री० (सं०) सुन्दर कुमारी। सुकावना*-२० क्रि० दे० ( हि० सुखाना) | सुकुरना* - अ० क्रि० दे० ( हि० सिकुड़ना) सुखाना, सूखा कराना, सुखवाना। सिकुड़ना, सिमिटना । स० रूप-मकुराना, सुकिज, सुकित* ---संज्ञा, पु० दे० (सुकृति) | प्रे० रूप-सकुरवाना। शुभकर्म, अच्छा काम, सुकाज, सुकार्य । सुकुल -संज्ञा, पु० (सं०) उत्तम या श्रेष्ठ वंश, सुकिया, सुकीया*-संज्ञा, स्त्री० दे० श्रेष्ठ कुलोत्पन्न व्यक्ति, कुलीन, ब्राह्मणों का (सं० स्वकीया ) स्वकीया, अपनी स्त्री! एक वंश । स्त्री०- मुकुलाइन । संज्ञा, पु०"सुकिया परकीया कही औ गाणिका दे० ( सं० शुक्ल ) उज्वल, स्वच्छ, निर्मल, सुकुमारि"-पद्मा० । “कहत सुकीया ताहि को निर्दोष, निष्कलंक, शुद्ध, साफ़ । लज्जा शील सुभाव"-पद्मा। सुकुवार-सुकुवार - वि० दे० (सं० सुकुमार) सुकिरति-संज्ञा, स्त्री. (दे०) सकृति सुकुमार, कोमल । सुति, सुकीरति (दे०) । “साहस, सुकि लुकृत् -- वि० (सं०) शुभ या उत्तम कर्म करने रति सत्यवत"-तु०॥ वाला, धार्मिक, शुभ कर्म । सुकी-संज्ञा, स्त्री० दे० ( स० शुक ) तोते सुकृत-संज्ञा, पु. (सं०) शुभ कर्म, पुण्य, की मादा, तोती, सुम्गी, शुकी। दान, धर्म-कर्म । वि०-धर्मशील, भाग्यवान। सुकीउ, सुकीव*- संज्ञा, स्त्री० दे० ( सं० "सकल सुकृत कर फल सुत एहू-रामा० । स्वकीया ) स्वकीया नायिका, अपनी स्त्री। "वदि पिता सुर सुकृत संवारे"-- रामा० । सुकीरति-संज्ञा, स्त्री० (दे०) सुकीति (सं०) सुकृतात्मा-वि० यौ० ( सं० सुकृतात्मन्) धर्मात्मा, सुकम्र्मा, धर्मशील, पुण्यात्मा । सुकुमार, सुकुवार-वि० ६० (सं० सुकुमार) सुकृति-संज्ञा, सो० (सं०) पुण्य कर्म, सुकुमार, कोमल, नम्र । संज्ञा, स्त्री० (दे०), सत्कर्म, शुभकार्य, अच्छा काम । संज्ञा, पु. सकुआरी, सुकुमारता । " तू सुकुमार कि सुकृतित्व । “ सुकृति जाय जो प्रण परिमैं सुकुमार, चल सखि चलिये राज-दुपार" हरऊँ"-रामा०। सुकुति-संज्ञा,स्त्री० दे० (सं० शुक्ति ) सुकृती-वि० (सं० सुकृतिन् ) भाग्यवान, शुक्ति, सीपी, सुकती, सुकति (दे०) “परे | पुण्यशील, धम्मोन्मा, सुकर्मी, बुद्धिमान, सुकुति मुकता विमल"--स्फु०। निपुण, सुकुशल, दक्ष । “सुकृती तुम समान सुकुमार-वि० (सं०) कोमलांग, मृदुल, जग माहीं" - रामा० । नाजुक, नम्र । स्रो०-सुकुमारी। संज्ञा, सुकृत्य-संज्ञा, पु० (सं०) पुण्य, धर्मकार्य, पु० (सं०) सौकुमार्य । स्त्री०-सुकुमारता। सत्कर्म, सत्कार्य। संज्ञा, पु०-कोमलांग बालक, काव्य में कोमल सुकेषि-संज्ञा, पु. (सं०) विद्युत्केश का पुत्र वर्णों या शब्दों का प्रयोग, सुन्दर-कुमार। और माल्यवान, माली और सुमाली नाम सुकुमारता-संज्ञा, स्त्री० (सं०) सौकुमार्य, के राक्षसों का पिता एक राक्षस ।। मृदुलता, सुकुमार का धर्म या भाव, मार्दव सुकेशी-संज्ञा, स्त्री. (सं०) सुन्दर और उत्तम कोमलता, नज़ाकत । “या दरसत अति सुकु- वालों वाली स्त्री। संज्ञा, पु. (सं० सुकेशिन) मारना, परसत मन न पत्यात"-वि.। अति सुन्दर केशों या बालों वाला व्यक्ति। सुकुमारी-वि० (सं०) कोमलांगी, नाजुक । स्त्री०-सुकेशिनी। सुयश । For Private and Personal Use Only Page #1790 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - - - . सुक्ख १७७६ सुखदाइनि सुक्ख-संज्ञा, पु० दे० (हि. सुख) सुख। सुखाकर, सुख-भवन, सुख-मंदिर, सुखरूप, सुक्ति-मुक्ती-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० शुक्ति) सुखद, सुखालय, सुखसदन । सीप, सीपी। सुखक *--वि० दे० (हि० सूखा) सूखा, सुक्रित- संज्ञा, पु० दे० (सं० सुकृत) सुकृत, शुष्क । संज्ञा, पु० (सं० सुख-+-के ) सुखकर, सुकर्म, पुण्य, धर्म । सुख करने या देने वाला, सखकारक । सुत्तम -वि० दे० ( सं० सूक्ष्म ) अति सुखकर-वि० (सं०) सुखद, सुख देने लघु या छोटा, अति बारीक या महीन, वाला, जो सहज में किया जावे, सुकर । सूकम, सूच्छम (दे०)। संज्ञा, पु० -परमाणु, सुखकरण -वि० यौ० (सं० सुख+करण ) परब्रह्म, लिंग-शरीर, एक अलंकार जहाँ सुखद।। चित्त-वृत्ति को सूचम चेष्टा से लक्षित कराने सुखकारक-वि० (सं०) सुखद, सुखदायी। का वर्णन होता है (का०)। सुखकारी--वि० (सं०) सुखद, सुखकारक । सुखंडी---संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. सूखना) स्त्री०--सुन्यकारिणी। बच्चों का एक सूखा रोग जिसमें उनका सुखजनक-वि० पु. यौ० (सं०) सुख देने शरीर सूख जाता है। वि०-बहुत ही वाला। दुबला-पतला। सुखजननी-वि० स्त्री० यौ० (सं०) सुख सुखंद-वि० दे० (सं० सुखद) सुखदायी, देने वाली। सुखज्ञ-वि० (सं०) सुख का जानने वाला, सुखद। सुख-ज्ञाता। सुख-संज्ञा, पु. (सं.) शांति, श्राराम, सुखढरन--वि० यौ० दे० ( सुख --ढरना) सुश्व (दे०) मन की अभीष्ट, प्रिय तथा सुख देने वाला। एक अनुकूल दशा या वेदना, जिसकी सब सुखथर, सूख-थल 8-संज्ञा, पु० दे० अभिलाषा करते है । विलो०-दुख । यौ० (सुख+ स्थल) सुखदायी स्थान, सुखद मुहा०-सुख मानना-अच्छा समझना, बुरा ठौर, सुख का स्थल, सुखस्थली, सुखालय । न मानना, अप्रपन्न न होना, प्रसन्न होना, | सुखद-वि० (सं०) सुख या आनंद देने अनुकूल परिस्थिति से स्वस्थ और प्रसन्न करना। वाला, सुखदायक । स्त्री० -सुखदा । "मो "जो तुम सुख मानहु मन माही'-रामा० । कह सुखद कतहुँ कोउ नाहीं' - रामा० । सुख की नींद सोना (लेना)-बेखटके सुखद गीत-वि० यौ० (सं०) तारीफ़ के या बेफिक्र रहना, निश्चिंत रहना । श्रारोग्य, लायक, प्रशंसनीय । संज्ञा, पु० यौ० (सं०) तंदुरुस्ती,जल, स्वर्ग, ८ सगण और २ लघु सुख देने वाला गान या गायन, स्तवन, वर्णों वाला एक वणिक छंद ( पि०)।। प्रशस्ति-पाठ। क्रि० वि०-स्वभावतः, सुखपूर्वक, सुखेन । सुखदनियाँ *-वि० दे० यौ० (हि. सुख+ सुख-यासन-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) पालकी, | दानी) सुखा देने वाली, सुखदानी। संज्ञा, सुखासन । " सिविका सुभग सुखासन स्त्रो०-८ सगण और अंत्य गुरु वर्ण वाला याना"--रामा०। एक वर्णिक छंद (पिं०) सुंदरी, मल्ली, मुख कंद--वि० यौ० (सं० सुख - कंद) सुख चंद्रकला छंद (पि०)। की जड़, सुख रूप, सुखदायक, सुखद। सुखदा-वि० स्त्री० (सं०) सुख देने वाली। सुख-कंदन-वि० यौ० (सं० सुख-+ कंदन)। "योगिनी सुखदा वामे"-ज्यो । संज्ञा, सुख-कंद, सुखद। स्रो० --एक छंद (पि०)। सुखकंदर-वि० यौ० (सं० सुख+कंदरा) सुखदाइनि*-वि० दे० यौ० (सं० सुखदायिनी) For Private and Personal Use Only Page #1791 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ORD सुखदाई सुखवन सुखदायिनी । “सुखदाइन तेहि सम कोउ सुखधाम--संज्ञा, पु० यौ० (सं० सुख + धाम) नाहीं".-रामा०। सुव-भवन, सुखसहन, सुग्वसभ, सुख का सुखदाई-वि० दे० (सं० सुखदायी) सुख घर, सुखालय, बैकुंड, स्वर्ग सुग्वद । “ सब देने वाला, सुखद। सुख-धाम राम प्रिय, सकल लोक-प्राधार" सुखदाता-वि० यौ० (सं० मुखदातृ) सुखद, -रामा०। सुखदायी। “कोउ न काहु कर सुख-दुख-सुखना * ---अ० कि० दे० ( हि० सूखना ) दाता"-रामा । सूखना. खुश्क या शुष्क होना। सुखदान-वि• यौ० (सं० सुखदातृ) सुख. सुख निदिया-संज्ञा, स्त्री० यौ० दे० (सं० दाता। संज्ञा, पु. यौ० (सं.) सुख का सुखनिंदा) मुख की नींद. सुग्व-नींद। दान। सुखपाल-संज्ञा, पु. (सं०) एक प्रकार की सुखदानि-सुखदानी-वि० स्त्री० (हि. पालकी । “ हग सुम्वपाल लिये खड़े, हाज़िर सुखदान ) श्रानंद या सुख देने वाली। | लगन कहार'-- रतन । "सब प्रकार रघुबर-कथा, सब काहुहिं सुख- सुखपूर्वक -- क्रि० वि० यौ० (सं०) सुख या दानि'-कु० वि० । संज्ञा, स्त्री. (सं०) प्रसन्नता या हर्ष से, श्रानंद के साथ। ८ सगण और एक गुरु वर्ग वाला, एक सुखप्रद -वि. (सं०) सुखद, सुख देने वर्णिक छंद या वृत्त, (पिं०) सुंदरी छंद, वाला । स्त्री०-सुखप्रदा। "मित सुखप्रद चंद्रकला, मल्ली छंद। सुनु राज-कुमारी"--रामा० । सुखदायक-वि० यौ० (सं०) सुख-प्रद, सुख सुखमन -संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० सषुम्ना) देने वाला । "श्री रघुनायक जन-सुख-दायक, सुपुम्ना नाड़ी, सुखुमना (दे०)। करुणा-सिंधु, खरारी"-रामा । स्रो०- सुखमा-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० सुषमा) छवि, सुखदायिका। शोभा, संदरता, वामा छंद या वृत्त (पिं०)। सुखदायी-वि० (सं० सुखदा यन् ) सुखद, ! "जनक भवन की सुखमा जैसो"-रामा० । सुख देने वाला । स्त्री०-सुखदागिनी। सुख-रास, सुख-रानि, सुख-रामीसुखदायो * -- वि० दे० (सं० सुखदायी) वि० दे० यौ० (सं० सुखराशि ) सुखरूप, सुखदायी, सुखद। सुबमय, सुख की राशि । “जो सच्चिदानंद सुखदास-संज्ञा, पु० (दे०) एक प्रकार का सुख-रासी"-रामा० । बढ़िया चावल या अगहनी धान ! यौ०- सुखलाना-२० क्रि० दे० (हि. सुखाना ) सुख का ( के लिये ) दाप। सुग्वाना, शुष्क करना, सुखावना, सुखसुखदेनी-वि० दे० (सं० सुखदायिनी) लावना (दे०)। सुखदायी । “राम-कथा सब कहँ सुख सुखवंत-वि० (सं० सुखवत्) सुखी, खुश, देनी"-क० वि०। प्रसन्न, सुखद, सुखवान। सुखदैन - वि० दे० (सं० सम्वदायी) सुखद, सुखवन-संज्ञा, पु० दे० (हि. सखना ) सुखदायी। "बीति चली रस रैन ह, आये वह कमी जो किसी पदार्थ के सूखने से हो, नहिं सुख-दैन"-शि० गो। वह पदार्थ जो सूख्ने को धूप में रखा सुखदैनी-वि० दे० (सं० सुखदायिनी ) | जाता है । संज्ञा, पु० (हि० सूखना) स्याही सुख देने वाली। "प्रभु-कीरति-की रति, सुखाने वालो बालू या कागज, ब्लाटिंग भगति, सुभ-गति सुख-दैनी सदा"- पेपर ! “खाय गयी राम चिरैया मेरो सुखसाल। वन"-- कवी। For Private and Personal Use Only Page #1792 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुखबाद १७८१ सुगति सुखवाद-संज्ञा, पु० सं०) सुख को ही "सुखिया ससुरे सुख पावति नाही"जीवन का प्रधान लच्य मानने का सिद्धांत । स्फु० ।। वि० सखवादी। | सुखित-वि० (सं०) सुखी, प्रसन्न, हर्षित, सुखवार-वि० दे० (सं० सुख) सुखी, खुश, खुश, उल्लमित प्रमुदित । वि० दे० (हि. प्रसन्न, सुख के दिन । स्त्री०-रखवारी। सूचना ) सूपा हुआ। सुखमाध्य-वि० यौ० (सं०) सरल, सहज, सुखिता-हज्ञा, स्त्री० (सं०) सुखी, प्रसन्न । श्रापान सुकर । "रोगी को सुखमाध्य लवि सुखिर-- संज्ञा, पु० (दे०) साँप का बिल । तब करिये उपचार"---कु० वि०। सुखी - वि० ( सं० सुखिन् ) जिसे सब प्रकार सुखमार-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) मोन, का सुख हो, श्रानंदित, हर्षित, खुश, प्रसन्न । मुक्ति, सुख का तत्व या मूल, परम सुख । “सुखी मीन जहाँ नीर अगाधा"-रामा। "सुकिया परकीया कहो पुनि गणिका सुख. सुखेन-संज्ञः, पु० दे० ( सं० सुत्रेण ) एक सार"-पद्मा। बानर जो सुग्रीव का राज्यवैद्य था।" कोउ साल-सीकर-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) सुवाश्रु, कह लंका वैद्य सुखेना'--रामा० । संज्ञा, श्रानंदाश्रु, सुख-सलिला। पु. ( सं० सुव का करण = रूप) सुख से । सुखांत --संज्ञा, पु० यौ० (सं०) वह वस्तु या "कही सुखेन यथा रुचि जेही "-रामा । काव्य जिसका अंत सुवमय हो । वह नाटक सुखेतक-- हाज्ञा, पु० (सं०) न, ज, भ, ज, र, जिसके अंत में सुखभरी घटना हो, संयो- (गण ) युत्ता । एक वर्णिक वृत्त या छंद, गान्त नाटक । विलो. दुखान्त । प्रभद्रक, प्रभद्रिका (दे०)। मुबाना-२० क्रि० (हि० सूचना ) झा- सुखैना-वि० दे० (सं० सुख ) सुग्वद, घाना, किसी गीली वस्तु को धूप में यों सुवप्रद, सुखदेने वाला । संज्ञा, पु० (दे०) रखना कि उपका गोलापन मिट जावे, गीला- सुपेण । पन या नमी मिटाने की कोई क्रिया करना, मुख्याति-ज्ञा, स्त्री० (सं०) प्रसिद्धि, यश, सुखवाना, सुखावना । अ० क्रि०-सूखना। __ कीर्ति, शोहरत, बड़ाई । " जाकी जग सुखारा-सुखारी - वि० दे० ( हि० सुख । सुख्याति है, सो जीवत जग माँहि " +पारा-~-प्रत्य० ) सुखद, सुखी, प्रसन्न, मन्ना. विख्यात-विख्यात। पाराम से । वि० दे० (हि० खारा ) खूब सुगंध-सुगंधि--संज्ञा, स्त्रो० (सं०) सुरभि, खारा । “ममबिनि अब तुम रहहु सुवारी" अच्छी, सन्दर और प्रिय महक, खुशबू, -राम० । “राम-लखन सुनि भये सुग्वारे" | सुवास सौरभ, वह वस्तु जिससे अच्छी -रामा०। महक निकलती हो, जैसे चंदन, केसर, सुखाला-वि० दे० (सं० सुखालय ) सुखद, कस्तूरी, श्रीखंड श्राम, परमात्मा । वि०सुखदायक, सहज । स्त्री०-सुग्वाली। सुगंधित-ौरभीला, खुशबूदार । सुखावह - वि० (सं०) सुखद, सुखदायी। सुगधवाला - संज्ञा, स्त्रो० दे० ( सं० सुगंध सुखासन-संज्ञा, पु० यो० (सं०) शिविका, +हि० वाला ) एक सुगधित बनौषधि । सुखद श्रासन, डोली, पालकी। "लिविका दुगंधित-वि० ( सं० सुगंधि ) सुगंधयुक्त, सुभग सुखापन जाना''-रामा०। खुशबूदार, अच्छी महक वाला। सुखिश्रा-सुखिया-क्रि० दे० (सं० सुत्री) सुगत-संज्ञा, पु० (सं०) बुद्ध जी, बौद्ध । सुखी, सुखयुक्त, सुखवाला | “ सुखिया सुगति-संज्ञा, स्त्री० (सं०) मरणोपरान्त सब संसार खाय सुख से हैं बैठे" - कबी०। उत्तमगति, सद्गति, मुक्ति, मोक्ष । "कीरति For Private and Personal Use Only Page #1793 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org CUSTOM SADA ,' १७८२ सुगना -- रामा० । एक भूति सुगति प्रिय जाही ७ मात्राओं और दीर्घ वर्णान्त एक मात्रिक छंद (पिं० ) | सुगना | संज्ञा, पु० दे० (सं० शुक्र ) शुक्र, तोता, सुग्गा ( ग्रा० ) सुवा सुया । सुगम - वि० (सं०) जिसमें या जहाँ जाने में कठिनता या कष्ट न हो, सहज, सरल, थालान । “अगम सुगम होइ जात है सत्संगतिबल पाय" -- मन्ना० । संज्ञा, खो०सुगमता ! सुगमता - संज्ञा, स्त्री० (सं० ) सरलता, श्रसानी, सहजपन | सुगम्य - वि० (सं० ) जिसमें था जहाँ सहज ही में प्रवेश हो सके जा सकें । 19 सुगल- संज्ञा, पु० दे० (सं० सु + गल या गला - हि०) सुग्रीव । “कुम्भकरण की नासिका कागल तुरंत 1 सुगाध - वि० (सं०) शासानी से पार करने या सुख पूर्वक नहाने के योग्य । सुगाना* - अ० क्रि० दे० ( हि० या सं० शोक ) नाराज या दुखित होना, बिगड़ना । संज्ञा, पु० (दे०) सुन्दर गान । सुगीविका - संज्ञा, त्रो० (सं० ) एक मात्रिक छंद जिसके प्रत्येक चरण में पचीस मात्रायें यादि में लघु और अंत में गुरुतथा लघु वर्गा होते हैं (पं) । सुगुरा- संज्ञा, पु० दे० ( पं० सुगुरू ) यह पुरुष जिसका गुरु श्रेष्ठ धौर विज्ञ हो, सद्गुरुदीक्षित | विलो०- निगुरा । सुगैया - संज्ञा, त्रो० दे० ( हि० सुग्गा ) चोली, अँगिया, चोलिया, सुन्दर गाय | " मोहिं लखि सोवत बिधोरि गौ सुत्रेनी बनी, तोरि गौ हिये को हरा छोरि गौ सुगैया को " - पद्भा० । सुग्गा - संज्ञा, पु० दे० (सं० शुक्र ) शुक, तोता, सुश्रा या सुवा, सुगना । सुग्रीव - संज्ञा, पु० (सं०) वानरेश बालि का भाई और श्रीराम का मित्र । कह सुग्रीव 16 सुचा 35 नयन भरि बारी - रामा० । शंख, इंद्र | वि० - जिसकी गर्दन अच्छी हो, सुकंठ । सुघट - वि० (सं०) सुन्दर, मनोहर, सुडौल, जो आसानी से बन सके । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir "" सुघटित - वि० (सं० सुघट ) भली भाँति बनाया गढ़ा हुआ, सर्वथा चरितार्थ । सुघड़ सुघर - वि० दे० (सं० सुघट) सुन्दर, सुडौल, मनोरम, चतुर, कुशल, प्रवीण, निपुण | 'सुघर सुप्रासिनि गावहिं गीता" -- रामा० । संज्ञा, पु० - (हि०) सुन्दर घर । सुबड़ई- सुबरई -संज्ञा स्त्री० दे० (सं० सुघट --- हि०. सुघड़, सुघर ) सुंदरता, सुडौलपन, चतुरता, सुघराई | " जा तिरिया की सुरई लखि मोहैं प्रज्ञान - पद्म० । सुघड़ना सुघरता - संज्ञा, स्त्री० दे० ( हि० सुघड़, सुघर) सुंदरता, सुडौलपन, दक्षता । सुघड़पन सुधरपन - संज्ञा, पु० दे० ( हि० सुघड़, सुघर ) सुंदरता, निपुणता, चतुरता । सुघड़ाई गई -संज्ञा, स्त्रो० दे० ( हि० सुघड़, सुघर ) सौंदर्य, सुन्दरता, चतुरता । सुघड़ाया सुबराया - संज्ञा, पु० दे० ( हि० सुघड़, सुघर) सुंदरता, खूबसूरती सुघराई । सुघरी - संज्ञा, स्रो० दे० (सं० सुघटी) भली सायन, अच्छी घडी या समय, शुभमुहूर्त्त, व्याह, विदा वि० स्रो० ( हि० सुचर ) सुडौल, सुंदर, खूबसूरत । सुच- सुचि - वि० दे० (सं० शुचि) पवित्र । "सुच सेवक सब लिये हँकारी -रामा० । सुचना - स० क्रि० दे० ( सं० संचन ) संचय या इकट्ठा करना, एकत्र या जमा करना । सुचरित - सुचरित्र - संज्ञा, पु० (सं०) सच्चरित्र, उत्तम या श्रेष्ठ द्याचरण वाला, सुचाली, नेक चलन, सुन्दर चरित या चरित्र, सुन्दर जीवनवृत्त या कथा | खी० – सुचरित्रा | सुचा - वि० दे० (सं० शुचि ) पवित्र । संज्ञा, खो० दे० (सं० सूचना ) ज्ञान, बुद्धि, चेतना, समझ, शान्ति, सावधानी । For Private and Personal Use Only " Page #1794 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org १७८३ सुचाना, सोचाना ( हि० सुचाल ) वि० दे० ( सं० सुचाना, सोचाना-स० क्रि० दे० ( दि० सोचना) किसी दूसरे पुरुष को सोचने-विचारने के काम में लगाना, सोचवाना, सोचावना (दे०), किसी बात की ओर ध्यान खींचना, दिखलाना | सुचार* - संज्ञा, स्रो० दे० अच्छी चाल, सदाचरण | सुचारु ) सुंदर, मनोरम | सुचारु -- वि० ( सं० ) रम्य, श्रति सुंदर, यति मनोरम | संज्ञा, स्त्री० - सुत्राता । सुचाल - संज्ञा, त्रो० दे० ( सं० सु + हि० चाल ) श्रेष्ठ या शुद्ध श्राचरण, अच्छी चाल, सदाचार | विलो० कुचाल । सुत्राती- वि० (हि०) सदाचारी, अच्छे चालचलन वाला | विलो० कुचाली । सुचि - वि० दे० (सं० शुचि ) शुचि, पवित्र । 66 " 'बोले सुचि मन श्रनुज सन रामा० । सुचित - वि० दे० (सं० सुचित ) शान्त, निश्चित, एकाग्र, सावधान, स्थिर, जो ( किसी काम से ) निवृत्त हो । सुचितई - संज्ञा स्त्री० दे० ( सुचित + ई प्रत्य० ) बेफ़िक्री. निश्चितता, एकाग्रता, शांति, फुर्सत छुट्टी, सुचित्तता । सुचिताई - संज्ञा, स्त्री० दे० ( हि० सुचित + भाई -- प्रत्य० ) निश्चितता, सुबितई । सुचिती | - वि० दे० (सं० सुचित ) बेफ़िक्र, निश्चित, सावधान, सुचित्ती । सुचित्त - वि० (सं०) शान्त, स्थिर मन या चित्त वाला, कार्य से निवृत्त, निश्चित, बेफ़िक्र, बेखटके । संज्ञ, पु० (सं०) सुन्दर चित्त या मन | सुचिमंत - वि० (सं० शुचिमत् ) सदाचारी, शुद्धाचारी, अच्छे श्राचरण वाला | सुचिर - वि० (सं०) पुराना | संज्ञा, पु० बहुत काल तक । सुची -- संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० शुचि ) पवित्र, शुद्ध, निर्दोष, निष्कलंक । सुचेत सुचेता - वि० दे० (सं० सुचेतस् ) सुजाति सावधान, सजग, सतर्क, चौकन्ना | संज्ञा, पु० (सं०) सुन्दर चेत या ज्ञान । सुकंद, सुकंद - वि० दे० (सं० स्वच्छंद) स्वच्छंद, स्वतंत्र, स्वाधीन | संज्ञा, स्त्री० (दे० ) सुच्छंदता, सुकंदता । सुरु -- वि० दे० (सं० स्वच्छ ) स्वच्छ, साफ़. शुद्ध, निर्मल | संज्ञा, स्त्री० (दे०) सुच्छता. सुन्छ । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुम - वि० दे० (सं० सूक्ष्म ) सूक्ष्म, सूक्ष्म | संज्ञा, स्त्री० - सुच्छमता । सज्जन, सुजन - संज्ञा, पु० (सं०) धार्य, सभ्य, भलामनुष, सत्पुरुष, शिष्ट या भला श्रादमी, शरीफ़ | संज्ञा, ५० दे० ( सं० स्वजन ) वंश या परिवार के लोग, कुटुंबी, नातेदार | " सुजन साहिय सोय " - नीति० । सुजनता -- संज्ञा, स्री० (सं०) सज्जनता, सौजन्य भलमनसाहत भलमंसी, भद्रता, सुजन का नाव, शिष्टता । सुजनी -संज्ञा, स्रो० दे० ( फ़ा० सोज़नी ) सुई के काम का एक प्रकार का बिछौना । संज्ञा, स्त्री० (सं० सुजन ) सजनी | सुजन्य - वि० (सं०) उत्तम या श्रेष्ठ कुल में उत्पन्न, कुलीन । 46 सुजस - पंज्ञा, पु० दे० (सं० सुयश ) सुयश, सुकीर्त्ति, सुख्याति, नामवरी । सुजस सुनिथायेॐ, प्रभु मंजन - भव- भार स्रवन 59 - रामा० । सुजागर - वि० (हि०) प्रकाशमान, सुशोभित, मनोहर, देखने में श्रुति सुन्दर या सुरूपवान, विख्यात | सुजात - वि० (सं०) विवाहित स्त्री धर पुरुष से उत्पन्न, श्रेष्ठ या अच्छे वंश या कुल में उत्पन्न, अच्छा, सुन्दर । बो०- सुजाता । सुजातयो पंकज-कोषयो श्रियम् "-- रघु० । सुजाति -संज्ञा, स्त्री० (सं०) सदवंश, श्रेष्ठ या अच्छी जाति सकुल । वि० - उत्तम जाति या कुल का | 3 For Private and Personal Use Only Page #1795 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुजातिया १७८४ सुढार, सुढारु सुजातिया-वि० दे० (हि० जाति+इया- सुहर सुठाहर --सज्ञा, पु० दे० (सं० सु प्रत्य० ) उत्तम जाति या कुल का, श्रेष्ठ वंश । ठहर ---हि. ) उत्तम या बढ़िया स्थान, अच्छा का। वि० (सं० स्वजाति । स्वजातिका ठौर, अच्छी जगह । अपनी जाति वाला, सजातीय। मुठार--- वि० दे० (सं० सुष्टु) सुन्दर, सजान-वि० दे० ( सं० सुज्ञान ) चतुर, सुढार, सुडौल । प्रवीण, निपुण, सयाना, कुशल. समझदार, सठि*-वि० दे० ( दे० सुष्छु ) बढ़िया, बुद्धिमान, ज्ञानी, विज्ञ, सुजाना (दे०)। उत्तम, श्रेष्ठ, अच्छा, सुनकर, अत्यंत, सज्जन, पंडित । " अस जिग जानि सुजान ! अधिक, बहुत । सबहिं सुहाय मोहिं सुठि सिरोमनि ".-रामा० । संज्ञा, पु० पति या नीका'-- रामा० : अत्र्य० (दे० सं० सुष्टु) प्रेमी, परमेश्वर । "कब वा बिसासी बिलकुल, पूरा पूरा। सुजान के धाँगन'"- घना । सुटाना--वि० दे० (सं० सुष्टु ) सुठि, सुजानता-संज्ञा, स्त्री० हि० ( सं० सुझानता) बढ़िया, उत्तम, अच्छा, सुन्दर, अत्यंत, चतुरता, सयानप, प्रवीणता, सज्ञानता, __ अधिक, बहुत। निपुणता, कुशलता समझदारी, बुद्धिमानी, सुऔर--संज्ञा, पु. ६० ( सं०-सु । ठौर-हि० ) विज्ञता। सदर स्थान। सुजाना--स० कि० दे० ( हि० सूजना) सुडाना-स० कि० ( अनु०) सुख सुड़ फुलाना, बढ़ाना । संज्ञा, पु० (दे०) सुजान ।। शब्द उत्पन्न करना, मटमटाना। सुजानी-वि० (हि. सुजान ) ज्ञानी, चतुर, सुहकना, मुरफना----स० कि. ( दे. या पंडित, समझदार, बुद्धिमान अनु० सुड़ सुड़) थोड़ा थोड़ा करके वायुवेग सुजोग*-सज्ञा, पु० दे० ( सं० सुयोग ) से पीना। सुयोग, अच्छा अवसर या मौक़ा, अच्छा सडकी-संज्ञा, स्वी० (दे०) पतंग या गुड्डी संयोग । वि० दे० (सं० सुरोग्य ) सुयोग्य, | की डोरी छोड़ना। दक्ष, योग्य, सजाग्य। सुजोधन*--सज्ञा, पु० दे० ( सं० सुयोधन ) सुड़ए-सज्ञा, स्त्री० (दे०) कौर, कौल, ग्रास, कवल। कौरवों में सब से ज्येष्ठ, सुयोधन, दुर्यो सउपना ...- सं० क्रि० (दे०) निगलना चाटना, सुजोर-वि० दे० (सं० सु+ज़ोर-फा०) चूपना, चाटना, सरपोटना, सुटकना, मजबुत, सुद, बलवान शहडोर, { फा०)। सुड़कना । सुझना–२० क्रि० (दे०) सूमाना। सुडाल-वि० दे० ( सं० सु+ डौल हि०) सुझाना-स० कि० (हि० सूझना) दिखाना, अच्छे आकार का, सुन्दर डौल का सुन्दर । समझाना बुझाना, दूसरे के ध्यान या सुहग-सज्ञा, पु० द० ( सं० सु। हिं ढंग ) दृष्टि में लाना. सुझवाना, सुझावना उतम ढग, अच्छी रीति, सुबड़, सुन्दर, (दे०)। अच्छा । " जो जाने प्रस्तार-धुनि, सो कबि सुटुकना-अ० क्रि०(दे०) निगलना, लीलना, गनिय सुदंग"--- स्फुट । सटकना, सिकुड़ना, संकुचित होना । स० सुढर-वि० दे० (सं० सु-- ढलना हि०) क्रि० (दे०) चाबुक लगाना। अनुकंपित, दयालु, प्रसन्न, कृपालु । वि. सुठ-वि० दे० (सं० सुष्छु ) सुन्दर, अच्छा, दे० ( हिं सुघड़ ) सुन्दर, सुडौल । बदिया, बहुत, अत्यंत । । सुढार, सुढारु-*-वि० दे० (सं० For Private and Personal Use Only Page #1796 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुतंत-सुतंतर-सुतंत्र १७८५ सुतीच्छन, सुतीछन सु-+ ढलना-हि० ) सुन्दर, खूबसूरत, सुडौल सुतहर, सुतहारी-संज्ञा, पु० दे० (हि. स्त्री० सुढारी। सुतार ) सुतार, शिल्पकार, बढ़ई । वि० (दे०) सुतंत-सुतंतर-सुतंत्र-वि० दे० (सं० स्व. सूत वाला, सुतहा । तंत्र ) स्वतंत्र, स्वाधीन, स्वच्छंद । क्रि० वि० सुतहा-वि० (दे०) सूत वाला, सुतली से (दे०) स्वतंत्रतापूर्वक। बना या बुना हुआ सुत-संज्ञा, पु० (सं०) लड़का, बेटा, पुत्र। सुता-सज्ञा, स्त्री. (सं०) पुत्री, लड़की, " सकल सुकृत कर फल सुत एहू"- कन्या, बेटी। “सादर जनक-सुता करि रामा० वि०-पार्थिव, जात, उत्पन्न. पैदा।। भागे".-रामा । सुनधार-संज्ञा, पु. दे. (सं० सूत्रधार ) सुतार -संज्ञा, पु० दे० ( सं० सूत्रकार ) सूत्रधार, नियंता। कारीगर, बढ़ई, शिल्पकार। वि० (सं०) सुतना-अ० क्रि० (दे०) सूतना, सोना। अच्छा, उनम, सूत वाला। संज्ञा, पु० दे० संज्ञा, पु० (दे०) सुथना, पायजामा। ( हि० सर्भता ) सुभीता, सुविधा। मुहा० सुतनी-वि० स्त्री०, (सं०) सुत या पुत्र- -सुतार बैठना (होना)-सुभीता या वाली, पुत्रवती । " तेनाम्बा यदि सुतनी सुविधा होना। वंध्या कीदृशी नाम'। सुतारी-ज्ञा, स्त्री० दे० (सं० सूत्रकार ) सुतनु-वि० (सं०) सन्दर देह या शरीर जूता आदि सीने का मोचियों का सूजा या वाला संज्ञा, स्त्री०–सुन्दर शरीरवाली, । सुपा, सुतार या बदई का काम । संज्ञा, पु. कृशांगी स्त्री। (हि० सुतर ) शिल्पकार, कारीगर, बदई । सुतर*- संज्ञा, पु. दे० (फा० शुतुर ) सुतिन*-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० सुतनु ) सुंदरी, रूपवती स्त्री। शुतुर, ऊँट। सुतर-नाल-संज्ञा, स्त्री० दे० यौ० (फा० सुतिया-ज्ञा, स्रो० (दे०) हंसुली, गले का शुतुर --नाल ) एक प्रकार की तोप जो एक गहना । संज्ञा, स्त्री० (दे०) सुंदर तिया ऊँट पर चलती है। या अच्छी स्त्री। सुतरां-भव्य० (सं० सुतराम् ) इस हेतु, इस सुतिहारा--संज्ञा, पु० दे० (हि० सुतार) सुतार, बढ़ाई, कारीगर, शिल्पकार । कारण, किंपुनः, और भी, किंबहुना, अतः, सुती-सज्ञा, पु० (सं०) पुत्र वाला, लड़के अपितु, निदान। वाला । सुतरा--संज्ञा, पु० (दे०) एक आभुषण, कड़ा, सुतीखन--वि० दे० (सं० सतीक्ष्ण ) भति बाला। तीषण या पैना। सुतरी-संज्ञा, स्त्री (दे०) सुतली, सन सुतीखा- वि० (हि०) अति कटु या पैना। की बनी रस्सी, या कोरी, तुरही नामक एक सुतीक्ष्ण-संज्ञा, पु० (सं०) सुतीक्षण, बाजा। अगस्त्य जी के भाई जो बनवास में श्रीराम सुतल-संज्ञा, पु० (०) सात पातालों में | से मिले थे । वि० (सं०) अति तीषण । से एक पाताल या लोक। सुतीच्छन, सुतीछन -संज्ञा, पु० दे० सुत-ती-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि० सूत+ली- | (सं० सुतीक्ष्ण ) अगस्त्य मुनि का भाई या प्रत्य० ) सन की रस्सी, डोरी, सुतरी। शिष्य । वि० (दे०) सुतीषण, सुतीखन सुतवाना-स. क्रि० दे० (सुलवाना) (दे०)। " नाम सुतीछन रत भगवाना" सुलवाना, सुताना (दे०)। -रामा०। भा० श० को०-२२४ For Private and Personal Use Only Page #1797 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुतीची १७८६ सुद्धि सुतीछी-संज्ञा, स्रो० (दे०) अति पैनी या सुदावन-संज्ञा, पु० द० (सं० सुदामा ) चोखी, धारदार, सुतीखी। सुदामा, कृष्ण मित्र । सुतुही-संज्ञा, स्त्री० दे० (७० शुक्ति) सुदास-संज्ञा, पु० (सं०) प्रसिद्ध वैद्य राजा छोटी शुक्ति, सूती, सीपी। दिवोदास के पुत्र, एक जनपद (प्राचीन)। सुतून-संज्ञा, पु. (फ़ा०) स्तंभ, खंभा। सुदि-संज्ञा, स्त्री० दे० ( हि० सुदी) सुदी। सुत्ता-वि० (दे०) सोया हुआ। सुदिन-संज्ञा, पु. दे० (सं०+दिन ) सुत्रामा-संज्ञा, पु. ( सं० सुत्रामन् ) इन्द्र । शुभ या अच्छा दिन। “सुदिन, सुअवसर सुथना, सूथना-संज्ञा, पु. (दे०) सूचन, तबहिं जब, राम होहिं जुबराज"- रामा० पायजामा, सुत्थन (ग्रा०)। सुदी-संज्ञा, स्त्री. द. ( सं० शुद्ध या शुक्ल) सुथनी, सूथनी-संज्ञा, स्त्री० (दे०) स्त्रियों किसी महीने का शुक्ल पक्ष, उजेला पाख । का एक ढीला पायजामा, रताल, पिंडालू। सुदीपति* --संज्ञा, सं० दे० (सं० सुदीप्ति ) सुथरा-वि० दे० (सं० स्वच्छ ) निर्मल, | सुदीप्ति, अधिक उजेला या प्रकाश । यौ० साफ़, स्वच्छ । स्त्री०-सुथरी । यौ०- (हि. सुदी+ पति सं० ) चंद्रमा। साफ़-सुथरा। सुदूर-वि० (सं०) अति दूर। सुथराई-एंज्ञा, स्त्री० दे० (हि. सुथरा) सुदृढ़-वि० (सं०) अति दृढ़, बहुत मजबूत सुथरापन, स्वच्छता, सफाई। या पक्का । संज्ञा, स्त्री--सुदृढता। सुथरापन-संज्ञा, पु० दे० (हि. सुथरा+ | सुदृश्य-वि० (सं०) सुन्दर, मनोज्ञ, दर्शपन-प्रत्य.) सफाई, निर्मलता, स्वच्छता, नीय, देखने योग्य, मनोहर, उत्तम, अच्छा। सुथराई। सुदेव-संज्ञा, पु० (सं०) देवता।। सुथरेशाही-संज्ञा, पु. ( हि० पुथरा+ शाह सुदेश-संज्ञा, पु. (सं०) सुन्दर या उत्तम =महात्मा) गुरु नानक के शिष्य', सुथराशाह | देश, उपयुक्त स्थान, यथा-योग्य ठौर । का सप्रदाय, इस शाह के अनुयायी, सुथरे- वि०- सुन्दर, मनोहर । “भूषण सकल साई । सुदेश सुहाये"-रामा०।। सुदती-वि० (सं०) सुदर दाँतों वाली स्त्री, सुदस-सज्ञा, पु० दे० (सं० सुद्देश ) सुदेश। सुदंती। सुदेह - वि० (सं०) सुन्दर, मनोहर, कमसुदर्शन-संज्ञा, पु. (सं०) विष्णु का चक्र, नीय । संज्ञा, पु. (सं०) सुन्दर शरीर । सुमेरु, शिव, सुदरसन (दे०)। वि०- | सुद्दा (सुद्दी)-संज्ञा, पु० (स्रो०) दे० ( म० देखने में सुन्दर, मनोहर, मनोरम, रुचिर।। सुदः ) पेट में जमा सूखा मल । यौ०-सुदर्शन-चूर्ण--सर्व ज्वर-नाशक | सुद्ध*- वि० दे० ( सं० शुद्ध ) शुद्ध, साफ, एक प्रसिद्ध औषधि या चूर्ण या अर्क सही, ठीक, पवित्र, निर्दोष, निष्कलंक । (वैद्य०)। संज्ञा, स्त्री०-सुद्धता। सुदरसन--संज्ञा, पु० दे० (सं० सुदर्शन) सुद्धा-अध्य० दे० (स० सह) समेत, युक्त, विष्णु का चक्र, समेरु, शिव । सहित। सुदामा-संज्ञा, पु. ( सं० सुदामन ) श्रीकृष्ण सुद्धि-संज्ञा, स्त्री० दे० ( सं० शुद्धि) शुद्धि, जी के मित्र, एक दरिद्र ब्राह्मण जिन्हें उन्होंने पवित्रता, स्वच्छता । संज्ञा, स्रो० दे० (हि. ऐश्वर्यशाली बना दिया था । " द्वार सधि ) स्मरण, स्मृति, याद, ख्याल, ध्यान । खदो द्विज दुर्बल एक ''बतावत प्रापनो नाम | "होनहार हिरदै बस, बिसरि जाय सब सुदामा"-सु००। सुद्धि"-नीति०। For Private and Personal Use Only Page #1798 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir DAR सुधंग १७८७ सुधाना सुधंग-संज्ञा, पु० दे० (हि. सु+ ढंग), संशोधन करना, ठीक या दुरुस्त कराना, उत्तम या अच्छा ढंग, अच्छी रीति । सुधराना। | सुधराना-२० क्रि० (दे०) सुधार कराना । सुध, सुधि-संज्ञा, स्त्री० दे० ( सं० शुद्ध = सुधां-प्रत्य० दे० (सं० पह) सहित, समेत, बुद्धि ) याद, स्मरण, स्मृति, स्याल, ध्यान, पता, खबर, चेत। "सुग्रीवहुँ सुधि मोरि सुधांग-संज्ञा, पु० यौ० ( सं० सुधा+अंगबिसारी । सुध न तात सीता की पाई" सुधांशु) चन्द्रमा। " नाम तौ सुधाँग पै रामा० । मुहा०--सुध दिलाना- याद | विषाँग पो जनाई देत"-मन्ना० । दिलाना । सुध न रहना (होना)-भूल जाना, याद न रहना । सुध बिसरना सुधांशु-संज्ञा, पु० यौ० (सं० सुधा-+-अंशु) चन्द्रमा, सुधाकर, चाँद। भूल जाना। सुध बिसराना या बिसा सुधा-ज्ञा, स्त्री. (सं०) पीयूष, अमृत, रना-किसी को भूल जाना । सुध जल, गंगा, मकरंद, दूध, मधु, रस, मदिरा, भूलना-सुध बिसरना । यो०-सुध अर्क, पृथ्वी, विष, एक वर्णिक वृत्त (पि.)। बुध (सुधि-बुधि)-होश-हवास । मुहा० । "सुधा-समुद्र समीप बिहाई", "मुये करैका -सुध बिसरना-चेत या होश में न सुधा-तड़ागा"-रामा० । रहना । सुध बिसराना-बेहोश या अचेत सुधाई-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि० सूधा = सीधा) करना । वि० दे० ( सं० शुद्ध ) शुद्ध। संज्ञा, सीधापन, सिधाई, सरलता। स्त्री० दे० ( सं० सुधा) सुधा, अमृत, सुधी। सुधाकर-संज्ञा, पु. (सं०) चंद्रमा। "लिखत सुधन्वा-संज्ञा, पु. (सं० सुधन्वन् ) विष्णु, सुधाकर लिखिगा राहू"-रामा० । श्रेष्ठ धनुर्धर, विश्वकर्मा, अंगिरस, एक राजा सुधागेह-संज्ञा, पु० यौ० (सं० सुधा+गेह(महा०) । संज्ञा, पु० (हि.) अच्छा धनुष ।। हि०) चन्द्रमा, सुधागृह । “नाम सुधागेह सुधमना --वि० दे० (हि० सुध =होश+ ताहि शशांक मलीन कियो, ताहु पर चाहु मन ) सजग, सचेत, सावधान, जिसे चेत बिनु राहु भखियतु है"-कविः ।। हो । स्त्री०-सुधमनी। सुधाघट-संज्ञा, पु. यौ० (सं० सुधा+घट) सुधरना-अ० कि० दे० (सं० शोधन ) चन्द्रमा सुधापात्र। सँभलना, दुरुस्त होना, संशोधन होना, सुधाधर-संज्ञा, पु० (सं०) चन्द्रमा । बिगड़े हुये का बन जाना। स० रूप "वसुधा घर पै बसुधाधर पै और सुधाधर पै सुधारना, प्रे० रूप-सुधरवाना, सुध त्यों सुधा पै लसै"-रघु०।। राना। सुधाधाम-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) चन्द्रमा । सुधराई-संज्ञा, स्त्री० (हि. सुधरना) सुधार, "एरे सुधा-धाम सुधा-धाम को सपूत है के, बनाव, सुधारने की मजदूरी, सुधरने का बिना सुधा धाम तू जरावै कहा वाम को" -कुं० वि०। भाव। सुधाधार-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) चंद्रमा। सुधर्म-संज्ञा, पु० (सं०) सुन्दर या उत्तम सुधाधी-वि० (सं० सुधा) अमृत के समान । धर्म, पुण्य-कार्य, श्रेष्ठ कर्त्तव्य । सुधाना--स० क्रि० दे० (हि. सुध) स्मरण सधी -वि० सं० सुम्मिन् ) धार्मिक, या सुधि कराना, याद दिलाना, सुधि धर्मात्मा, धर्मनिष्ट, सुधर्मिष्ठ ।। याना । अ० क्रि० दे० (हि० सूधा) सीधा सुधरवाना-स० क्रि० दे० (हि. सुधरना का । होनाया करना । स० क्रि० दे० (हि. सोधना) प्रे० रूप) कोई दोष या त्रुटि मिटाना, सोधना, सोधवाना-सोधने का काम For Private and Personal Use Only Page #1799 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - सुधानिकेत, सुधानिकेतन १७८८ सुनबहरी किसी दूसरे से कराना, दुरुस्त या ठीक सुधासदन-सुधासम-संज्ञा, पु. यौ० (सं०) चन्द्रमा। कराना, लग्न या जन्मपत्र लीक कराना, सोधाना। | सुधि-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० शुद्धबुद्धि) याद, सुधानिकेत, सुधानिकेतन-ज्ञा, पु० यौ। स्मृति, स्मरण, समाचार, ख़बर, पता, सुध (सं०) चन्द्रमा, सागर। (दे०)। " खेलत रहे तहाँ सुधि पाई "सुधानिधि-संज्ञा, पु० यौ० (०) सुधा रामा। निकेत, चन्द्रमा, समुद्र, क्रमले १६ बार सुधियाना-स० क्रि० दे० (हि. सुधि) सुधि गुरु और लघु वर्ण वाला, दंडक छंद का एक करना, याद करना। "मानौ सुधियात कोज भेद, (पिं०) । "प्रकटी सुधानिधि सों यह भावना भुलाई है"---रामा। सुधानिधि साथ सुधानिधि सुखी भई | सुधी-संज्ञा, पु. (सं०) बुद्धिमान, विद्वान, पंडित । वि० (सं०) चतुर, प्रवीण, बुद्धिमान, सुधानिधिवाम है"-कु० वि०। समझदार, धार्मिक । सुधापाणि-संज्ञा, पु. यौ० (०) पीयूषपाणि, धन्वंतरि । वि० यौ० (सं०) जिसके | सुधेश- संज्ञा, पु० यौ० (सं० सुधा - ईश) हाथ में सुधा की सी शक्ति हो। चन्द्रमा, सुधेश्वर। सुनंदिनी-संज्ञा, खो० (सं०) स, ज, स, न सुधामयूख-संज्ञा, पु० यौ० (सं.) सुधाकर, चन्द्रमा, सुधामरीची। (गण) और एक गुरु वर्ण वाला एक वर्णिक छंद, प्रवोधिता, मंजुभाषिणी (पिं०)। सुधायोनि-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) चन्द्रमा । सुधार-संज्ञा, पु० दे० (हि सुधारना) सुनकातर-संज्ञा, पु. (दे०) एक प्रकार का मटमैला साँप। संस्कार, संशोधन, सुधारने का भाव । संज्ञा, वि० दे० (हि. सीधा) सीधा-त्री० (हि.) सुनकिरवा- संज्ञा, पु० दे० यौ० (हि. सोना---किरवा = कीड़ा ) एक कीड़ा जिसके सुन्दर धारा, सुधारा।। पंख सोने के रंग से होते हैं। सुधारक --संज्ञा, पु० (हि० सुधार - क-प्रत्य०)। सुनखी-वि० (सं०) सुन्दर नख वाला। दोषों और अटियों का सुधार करने वाला, सुनगुन-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. सुनना--गुन) संशोधक, धार्मिक या सामाजिक सुधारों में भेदभाव, सुराग, खोज, टोह, कानाफूसी। प्रयत्नशील। सुधारना-स० क्रि० (हि. सुधरना) दोषों या सुनत-सुनति*-संज्ञा, स्त्री० दे० (अ. सुन्नत) सुन्नत, मुसलमानी। “सेवा बीन अटियों का मिटाना, बुराई दूर करना, संशो होतो तो सुनति होति सब की"-भूष० । धन करना, ठीक करना, बिगड़े को बनाना। सुनना-स० क्रि० दे० (सं० श्रवणा) श्रवण वि०-सुधारने वाला । स्रो०-सुधारनी। करना, कानों से किसी की बात पर ध्यान सुधारश्मि-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) सुधाकर, देना, भली बुरी बातें सुन कर मह लेना, चन्द्रमा। शब्द-ज्ञान करना। मुहा०-सुनी-अन. सुधारा-वि० दे० (हि० सूधा ) सीधा, सुनी करना या कर देना-सुन कर भी सरल, निष्कपट । संज्ञा, स्त्री. (हि०) सुन्दर उसकी ओर ध्यान न देना। स० रूपधारा, सुधार। सुनाना, सुनावना, सुनवाना। सुधालय-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) सुधाकर, सुनका--संज्ञा, पु० दि०) एक ग्रह योग चन्द्रमा। (ज्यो०)। विलो०-अनफा। सुधाश्रवा--संज्ञा, पु० दे० (सं० सुधा + स्रवण) सुनवहरी-संज्ञा, स्रो० ३० यौ० (हि० सुन्न+ अमृत की वर्षा करने वाला, सुधावर्षी। बहरी) यह रोग जिसमें सारा शरीर शून्य हो For Private and Personal Use Only Page #1800 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुन-बहिरी १७८४ सुन्नत नीति । जाता है और गरमी सरदी का ज्ञान नहीं सुनार-संशा, पु० दे० (सं० स्वर्णकार ) होता, यह रोग गलित कुष्ट का पूर्व रूप है, स्वर्णकार, सोनार, चाँदी-सोने के गहने (वैद्य०)। बनाने वाली एक जाति । " ये दसह अपने सुन-बहिरी-संज्ञा, स्त्री. यौ० दे० (हि. नहीं सूजी. सुश्रा, सुनार"-स्फु०। सुनना) सुनी-अनसुनी करने की किया। सुनारी-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि० सुनार + ई सुनय-संज्ञा, पु० (सं०) सुनीति, श्रेष्ठ, । प्रत्य०) सुनार का काम, सुनार की स्त्री, सुनारिन, सुन्दर श्रेष्ठ स्त्री, सुनारि । सुनरा, सुनार-संज्ञा, पु. (दे०) सोनार, सुनाघर - सज्ञा, स्त्री० (दे०) सुनाहट, फोन, स्वर्णकार । संज्ञा, स्त्री. सुनारी (दे०) सोना चुपचाप । का काम, सुन्दर स्त्री। सुनावना-१० कि० दे० (हि नाना ) सुनवाई-संज्ञा, स्रो० दे० (हि. सुनना+वाई सुनाना। प्रत्य०) मुकदमे या शिकायत आदि का सुना | सुनावनी-० क्रि० दे० (हि० सुनाना+ जाना, सुनने की क्रिया। श्रावनी-+-प्रमा०) किसी नातेदार की मृत्यु सुनवार-वि० दे० (हि० सुनना + वार-प्रत्य०) के समाचार का दूर से धाना, ऐसी ख़बर से सुनने वाला। किया गया स्नानादि शौच-कृत्य । सुनचैया-वि० दे० हि. सुनना--वैया- सुनासीर--'ज्ञा, पु. (सं० - नासोर = प्रत्य०) सुनने या सुनाने वाला, सुनवार सोना का अग्र-नाग) इन्द्र ।। (सं०) सुनैया (दे०)। सुनाहक-वि० वि० दे० (फ़ा० ना+हक अ०) सुनसर-संज्ञा, पु० (दे०) एक प्रकार का । निष्प्रयोजन, व्यर्थ, बेमतलव । गहना। सुनीति-संज्ञा, स्त्री. (सं०) सुन्दर, श्रेष्ठ, सुनसान-वि० यौ० दे० (सं० शून्य-स्थान) नीति, ध्रव की माता । "समुझि सुनीति, जन-हीन, निर्जन देश, उजाड़, वीरान, कुनीति-रत जागत ही रह सोय"-तुल० । जहाँ कोई न हो । संज्ञा, पु. (दे०) सन्नाटा। वि० सुनीतिज्ञ। सुनहरा-सुनहला-वि० दे० (हि. सोना+ सुनया--वि० दे० (हि० सुनना-+-ऐया प्रत्य०) हरा, हला-प्रत्य०) सोने का, सोने के रंग का, | सुनने वाला। " जोपै कहूँ सुघर सुनैया सोनहरा (दे०)। स्त्री सुनहरी, सुनहली। पाइयतु हैं".-स्फु० । संज्ञा, स्त्रो० दे० सुनहा- संज्ञा, पु. (दे.) कुत्ता । “सुनहा (हि० सं० सुनौ का) सुन्दर नाव । खेदै कंजर भसवारा" --कबी० । सुनोची-पंज्ञा पु० (दे०) एक प्रकार का सुनाई-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. सुनना+आई । घोड़ा। प्रत्य०) मुकदमें या शिकायत आदि का सुन्न-वि० दे० ( सं० शून्य ) निश्चेष्ट, सुना जाना, सुनवाई। निस्तब्ध, निर्जीव, चेष्टा-रहित, स्पन्दन-हो न । सुनाना-स० क्रि० (हि० सुनना ) श्रवण संज्ञा, पु० दे० । सं० शून्य ) शून्य, बिन्दी, कराना, खरी-खोटी या बुरी-भली कहना, सिफर, मुन्ना (ग्रा०)। कथा प्रादि कहना। सुन्नत-संज्ञा, स्त्री० (अ०) ख़तना, मुगलसुनाभ-संज्ञा, पु० (सं०) सुदर्शन चक्र। मानी, बालक की लिंगेन्द्रिय के अग्रिम गाग सुनाम-संज्ञा, पु० (सं०) कीर्ति, यश। के चमड़े को काटने की एक रस्म (मुसल०), विलो०---कुनाम। सुनति, सुन्नति (दे०)। For Private and Personal Use Only Page #1801 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - पथ्य। सुन्ना १७६० सुपेद, सुपेत सुन्ना-संज्ञा, पु० दे० ( सं० शून्य ) शून्य, सुपारी, सुपाड़ी----संज्ञा, स्रो० दे० (सं० बिंदी, साईफ़र । सुप्रिया) पूग, छालिया (प्रान्ती०) । पूँगी. सुन्नी--संज्ञा, पु. (अ०) चारयारी, चारों फल, नारियल की जाति का एक पेड़ जिसके खलीफाओं को प्रधान मानने वाला मुसल- छोटे फल पान में काट कर खाये जाते हैं, मानों का एक समुदाय । विलो०-शिया । इस पेड़ के बेर जैसे कड़े फल, गुवाक सुपंथ-संज्ञा, पु० (हि०) सुन्दर मार्ग, सदा- (प्रान्ती०)। मुहा०-सुपारी लगनाचार, अपना मार्ग या कर्तव्य, स्वपथ सुपारी का हृदय देश में अटकना जो दुखदायी (सं.)। होता है । सुपारी फोड़ना-निठल्ले सुपक्क-वि० (सं०) भली भाँति पका हुआ। बैठे रहना। सपारी में खेलना-व्यर्थं संज्ञा, स्त्री० सुपक्कता। अपव्यय या हानिप्रद कार्य करना। सुपच-संज्ञा, पु० दे० (सं० श्वपच ) | सपार्श्व - संज्ञा, पु० (सं०) जैन मत के २४ चाँडाल, डोम, भंगी। तीर्थकरों में से ७वें तीर्थकर. सुन्दर सुखद, सुपत-वि० दे० (सं० मु+पत= इज्जत- | पड़ोस । हि० ) प्रतिष्ठित, सम्मानित । सुपास -- संज्ञा, पु० (दे०) पाराम, सुख, सुपत्थ-संज्ञा, पु० दे० (सं० सुपथ ) सुपंथ, | सुवाय, सुखद निवास स्थान या पड़ोस । उत्तम मार्ग, अच्छा रास्ता, सन्मार्ग, अच्छा | "जहँ सब कहँ सब भाँति सुपासा"-रामा० । सुपासी-वि० दे० (हि. सुपास ) सुखद, सुपथ-संज्ञा, पु० (सं०) सत्पथ, सदाचार, सुखदायी, सुख देने वाला। “सीकर ते सन्मार्ग, उत्तम रास्ता, अच्छी राह, सदा त्रैलोक्य सुपासी"-रामा० । " तुलसी वसि चरण, र, न, भ, र (गण) और दो गुरु चरें | हर पुरी राम जपु जो भयो चहै सुपासी" वाला एक वार्णिक छंद (पिं०)। संज्ञा, पु. -विन० । दे० ( सं० सुपथ्य ) सुन्दर या उचित पथ्य । सुपुत्र--संज्ञा, पु० (सं०) अच्छा लड़का, वि० (सं० सु+पथ) समतल, बराबर।। सुपूत (दे०)। सुपना, सपना-संज्ञा, पु. १० ( सं० स्वप्न) सुपुर्द-संज्ञा, पु० दे० (फ़ा० सिपुर्द) सौंपना, स्वप्न, सोना, सपनो। सुपनाना-*स० क्रि० दे० (हि. सुपना) पिपुर्द करना, सुपुरुद, सिपुरद (ग्रा०)। स्वम दिखाना, सपनाना (द०)। सुपूत-संज्ञा, पु० दे० (सं० सुपुत्र ) सपूत। सुपरस-संज्ञा, पु० दे० ( सं० स्पर्श ) स्पर्श, अचछा लड़का, सुपुत्र । "लोक छाँड़ि तीनै छूना, सुखद स्पर्श। चलें, सायर, सिंह, सुपूत"-नीति । सुपर्ण संज्ञा, पु. (सं०) पक्षी, गरुड़, विष्ण, सुपूती---संज्ञा, स्रो० दे० ( हि० सुपूत +ई+ किरण, घोड़ा। संज्ञा, पु० (सं.) सुन्दर पत्र प्रत्य० ) सुपुत्रता, सप्रती (दे०), सुप्तपन, सुपर्णी-संज्ञा, स्त्री० (सं०) गरुड़ की माता, सुपूत होने का भाव । सपर्ण, पद्मिनी, कमलिनी। संज्ञा, पु. ( सं० सुपेत-वि० दे० ( फा० सुफ़ेद ) सफेद, सु+पर्ण ई०-प्रत्य० ) सन्दर पत्तों वाला। उज्वल, सपेद (ग्रा.)। सुपात्र-संज्ञा, पु. (सं०) किसी कार्य के सुपेती-संज्ञा, स्त्री० दे० (फा० सफेदी) योग्य या उचित व्यक्ति, श्रीष्ठ या उत्तम, सफ़ेद होने का भाव, श्वेतता, धवलता, सुयोग्य पात्र, उपयुक्त व्यक्ति, अच्छा बरतन । सफ़ेद रजाई या तोशक । "दानं परम् किंच सुपात्रदत्तम्'-प्र०२०। | सुपेद, सुपेता-वि० दे० ( फा० सुक्कैद ) संज्ञा, स्त्री० -सुपात्रता । सफ़ेद, उजला, साफ़, स्वच्छ । For Private and Personal Use Only Page #1802 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुपेदी १७६१ सुबू सुपेदी*-संज्ञा, स्त्री० दे० ( फ़ा० सफेदी) देश का राजा शकुनि का बाप । वि.-प्रति उज्वलता, सफेदी, कलई, चूना, सफेद वली, अति दृढ़, बलवान । रजाई या तोषक, विछौना। मुबस-अव्य दे० (सं० स्ववश ) स्वाधीन, सुपेली-संज्ञा, स्त्री० दे० ( हि० सूप ) छोटा स्वतंत्र, स्वच्छंद । “कीन्हे सुबस सकल नर नारी"-रामा० । वि० भली भाँति बला सुन-वि० (सं०) सोता या सोया हुआ, हुधा। निद्रित, बंद, ठिठुरा हुमा, मुँदा हुआ। सुबह-संज्ञा, पु. (म.) प्रात, प्रभात, यो०-सुप्तावस्था। सबेरा, प्रातःकाल । सुप्ति-संज्ञा, स्त्री. (सं०) मनुष्य की चार सुबहान-संज्ञा', पु. (अ.) पवित्र भगवान, दशाओं में से एक दशा, नींद, निद्रा, निदोष या नि कलंक, परमेश्वर । उधाई। सुवहान-अल्ला -अव्य. यौ० (अ.) सुप्रज्ञ-वि० (सं०) प्रत्यंत ज्ञानी या बुद्धि- परमेश्वर पवित्र है, हर्ष या पाश्चर्य मान। सूचक पद, सुभानअल्ला (दे०)। सुप्रतिष्ठ-वि० (सं०) अत्यंत प्रतिष्ठा वाला, सुबास-संज्ञा, स्त्री० (सं० सु + वास) सुगंध, प्रति प्रसिद्ध या विख्यात । सुरभि, अच्छी महक ! संज्ञा, पु० --- अच्छा सुप्रतिष्ठा-पदा, स्त्री० (सं०) प्रसिद्धि, नाम निवास, अच्छा वस्त्र, एक प्रकार का धान । वि०-सुबास्ति वरी, शोहरत, ख्याति, ५ वर्णों का एक । वार्णिक छंद (पि०)। सुबासना-संज्ञा, पु० स्रो० दे० (सं० सुन वास ) सुगंध, खुशबू, सुन्दर वासना या सुप्रतिष्ठित-वि० (सं०) सम्मानित, विशेष इच्छा । स० कि० (दे०)-सुगंधित करना, माननीय, सम्मान्य, बड़ाई या प्रतिष्ठा के महकाना। योग्य प्रति बड़ाई वाला। सुबासिक, सुबासित-वि० (सं०) सुगंसुप्रसिद्धि -वि. (सं०) अति विख्यात, बहुत धित, सोरभित, सुगंधि सं बसाया हुश्रा : नामी, बहुत प्रसिद्ध, मशहूर । संज्ञा, स्त्रो०. मुवाहु-संज्ञा, पु. (सं०) एक राक्षस जो (सं०) सुप्रसिद्धि । मारीच का भाई था। "पावक-सर सुबाह सुप्रिया-संज्ञा, स्त्री० (सं०) एक चौपाई पुनि मारा'-रामा० । मृतराष्ट्र का पुत्र जिसके अंत के एक या दो वर्ण तो गुरु शेष | और चेदि देश का राजा ( महा० ) सेना, सब लघु होते हैं (पिं०) । संज्ञा, स्त्री० (सं०) कटक । वि०-दृढ़ या सुन्दर हाथों या अति प्रिया या प्रेमिका, प्रेयसी, प्रियतमा । बाहुओं वाला। पु०-सुप्रिय। सुबिस्ता, सुबीता-संज्ञा, पु० दे० ( हि०मुफल-संज्ञा, पु० (सं०) सुन्दर परिणाम, सुभीता) सुभीता, समाई, सामर्थ्य । अच्छा फल या नतीजा। वि० सुन्दर फल-सुबुक-वि० (फा०) हलका, सुन्दर । संज्ञा, वाला ( वृक्ष, अस्त्र ) सफल, कृतार्थ, कृत- पु०-घोड़े की एक जाति । कार्य । संज्ञा, स्त्री० (सं०) सुफलता। | सुबुद्धि-वि० (सं०) सुधी, ज्ञानी, धीमान, सुवरन-संज्ञा, पु० दे० (सं० सुवर्ण), बुद्धिमान, अच्छी बुद्धि वाला । संज्ञा, स्त्रो. सोना, सुबर्न (दे०)। "सुबरन को खोजत (सं०) उत्तम बुनि ।। फिरें, कवि विभिचारी चोर"-स्फुट। सुबू-संज्ञा, पु० दे० (अ० सुबह ) प्रातः सुबल-संज्ञा, पु. (स०) शिवजी, गंधार काल, सबेरा, तड़का। For Private and Personal Use Only Page #1803 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org १७६२ सुबूत सुबूतत - संज्ञा, पु० दे० ( ० सबूत ) सबूत, सिद्धांत, प्रमाण, जिससे कोई बात सिद्ध या प्रमाणित हो । सुबोध - वि० (सं०) सुधी, ज्ञानी, पंडित, बुद्धिमान, सहज ही में समझने वाला, जिसे बोध हो, स्पष्ट, सरलता से समझ थानेवाला | संज्ञा, स्त्री० (०) सुत्रो धता । - रामा० । सुब्रह्मण्य - संज्ञा, पु० (सं० ) विष्णु, शिव, दक्षिण देश का एक पुराना प्रांत । "सुरा देव रघुराया"सुभ - वि० दे० (सं० शुभ ) शुभ, कल्याणकारी, मंगल कारक । "राज देन कह सुभ दिन साधा " - रामा० । 65 चरण सुभग - वि० (सं०) सुन्दर, अच्छा, मनोरम, भाग्यवान, प्रियतम, सुखद, प्रिय । सुभग सेवक सुखदाता " - रामा० । संज्ञा, स्त्री० - सुभगता । सुभगा - वि० स्त्री० (सं०) सुन्दरी, रूपवती, सौभाग्यवती, सुहागिन । संज्ञा, स्त्री० (सं०) प्रेयसी, प्रियतमा, स्वामिप्रिया अपने पति को अति प्यारी स्त्री पंच वर्षीया कुमारी । सुभाग - वि० दे० ( सं० सुभग ) सौभाग्य 1 शाली, सुभग, सुंदर | संज्ञा, स्त्री० (हि०) सौभाग्य, सुन्दर भाग्य | सुभर -- संज्ञा, पु० (सं०) बड़ा वीर या योद्धा । "सीय स्वयंबर सुभट अनेका " - रामा० । सुभटवंत - वि० सं० सुभल ) वीर, बली योद्धा | सुभट्ट - संज्ञा, पु० (सं०) बड़ा पंडित, भारी योद्धा । सुभद्र - संज्ञा, पु० (सं०) सनकुमार, विष्णु, सौभाग्य, श्रीकृष्ण जी के एक पुत्र, कल्याण, मंगल | वि०० - सज्जन, भाग्यशाली । सुभद्रा - संज्ञा स्त्री० (सं०) श्रीकृष्ण की बहन और अर्जुन की स्त्री, दुर्गा जो । सुभद्रिका - संज्ञा स्त्री० (सं० ) न, न, र ( गण ) तथा लघु गुरु वाला एक वर्णिक वृत्त या छंद (पिं० ) । सुभाव " सुभर - वि० दे० (सं० शुभ्र ) शुभ्र, सुभ्र (दे०) सफेद, उज्वल । मानसरोवर सुभर जल, हंसा केलि कराहि " – कबी० । सुभा - संज्ञा, त्रो० दे० (सं० शुभा ) अमृत, सुधा, सोभा, हड़, हरीतकी, पर- स्त्री । सुभाइ- सुभाउ-पंज्ञा, पु० दे० (सं० स्वभाव ) सुभाय, स्वभाव, प्रकृति, सुन्दर भाव, अच्छा भाई, श्रादत, सुभाऊ । " बररै बालक एक सुभाऊ - रामा० । क्रि० वि० (दे०) सुभाये (दे०) सहज भाव से, स्वभावतः । " ठाढ भये उठि सहज सुभाये" " -रामा० । सुभाग | संज्ञा, पु० दे० (सं० सौभाग्य ) सौभाग्य, अच्छा भाग्य. सुहाग (दे० ) । संज्ञा, पु० (सं०) सुन्दर भाग या हिस्सा । सुभागा – संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० सौभाग्यवती) सौभाग्यवती, सधवा, सुहागिन । सुभागिनि - वि० दे० (सं० सौभाग्य, सुभाग ) सौभाग्यवती, सुहागिन । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुभागी - वि० दे० (सं० सुभाग) भाग्यवान, सौभाग्यवान, अच्छे भाग वाला । सुभागीन – संज्ञा, पु० दे० (सं० सौभाग्य ) भाग्यवान, सुभग । स्त्री० - सुभागिनी । सुभान - अव्य० दे० ( अ० सुबहान ) पाक, पवित्र, परमेश्वर । यौ० (दे०) सुभान - अल्ला । सुभाना | -- प्र० क्रि० दे० ( हि० शोभना ) शोभित होना, देखने में अच्छा लगना, सुहाना, साभाना, सोहाना (दे० ) । सुभाय | संज्ञा, पु० दे० (सं० स्वभाव ) स्वभाव, प्रकृति, सहज, सुन्दर भाव, अच्छा भाई, सुभाइ (दे० ) । स्त्री० – सुभाइ । क्रि० वि० (दे०) स्वभावतः, सुन्दर भाव से । "राम सुभाय चले गुरु पाहीं" - रामा० । सुभायक* -- वि० दे० (सं० स्वाभाविक ) स्वाभाविक, प्राकृतिक, सुन्दर भाव वाला । सुभाव -संज्ञा, पु० दे० (सं० स्वभाव ) स्वभाव, प्रकृति, श्रादत | संज्ञा, पु० (सं०) सुन्दर भाव | " भृगुपति कर सुभाव सुवि For Private and Personal Use Only Page #1804 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १७६३ FORDPROne सुभाषित सुमरनी सीता"..---रामा० । कि० वि० (दे०) स्व- सुमंद्र-संज्ञा, पु. (सं०) अंत में गुरु-लघु भावतः. सहज मैं ! “राउ सुभाव मुकुर के साथ २७ मात्राओं का एक मात्रिक छंद, कर लीन्हा"--रामा । सरसी छंद (पिं० )। सुभाषित-वि० (सं०) भली भांति या | सुम-संज्ञा, 'पु० (फा०) घोड़े की टाप, सुम्मा अच्छी तरह कहा हुश्रा, सुन्दर रूप या रीति । (ग्रा० ), चौपायों के खुर । से कहा गया, सुकथित, सुव्यक्त । सुमत-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० सुमति ) अच्छी सुभाषी-वि० ( सं० सुभाषिन् ) मधुर भाषी, बुद्धि, सुमति । संज्ञा, पु० (सं०) सुन्दर मत प्रिय या मीठा बोलने वाला, अच्छे रूप या या विचार। रोति से बोलने वाला। बी. --सुभाषिणी। सुमति-संज्ञा, स्त्री० (सं०) राजा सगर की सुमित -संज्ञा, पु. (सं०) सुभिच्छ (दे०), स्त्री, मेल-जोल । “जहाँ सुमति तह संपति मुकाल, ऐसा वर्ष जिसमें अनाज बहुत नाना"-रामा० । प्रार्थना, सुन्दर या उपजे । विलो०-दुभित । अच्छी मति, सुवुद्धि, भक्ति । संज्ञा, पु०सुभी-वि० सी० दे० (सं० शुभ ) कल्याण राजा जनक के एक बंदीजन । वि. - अच्छी कारिणी शुभकारिणी, शुभी। बुद्धि वाला, बुद्धिमान् । 'सुमति, विमति उनुभीता-सज्ञा, पु० (दे०) सुविधा, सुयोग. है नाम, राजन को वर्णन करहिं"-रामा० । सुगमता, सुअवापर, सहूलियत, समायी, " सर्वस्य द्वं सुमति-कुमतिः संपदापत्ति सामर्थ्य । मुहा० --भीत से ---सुविधा हेतुः "-कालि। नुसार। सुमन-संज्ञा, पु० (सं० सुमनस् ) देवता, सुभाटी -संज्ञा, स्त्री० दे० ( सं० शोभा ) विद्वान, पंडित, फूल । "सुमन पाय मुनि शोभा, सुन्दरता। पूजा कीन्ही ''-रामा० । वि०-दयालु, सुभ्र-वि० दे० ( सं० शुभ्र ) सफेद, धवल, उज्वल । सज्ञा, स्त्री० (दे०) शुभ्रता। सरस, सहृदय, सुन्दर, अच्छे मन वाला । सुभ्र -वि० (सं०) सुन्दर भौहों वाला। स्त्री--सुमना। सुभ-वि० स्त्री. (सं०) सुन्दर भौहों वाली सुमनचाप- संज्ञा, पु० यौ० (सं०) कामदेव, स्त्री। "हा पिता कापि हे सुम्र"-भट्टी। पुष्पधन्वा । सुमंगल-संज्ञा, पु० (सं.) शुभ समय. शुभ, सुमनस-संज्ञा, पु० दे० (सं० सुमनस् ) कल्याण, कुशल-मंगल समय । “ सुदिन देवता, सुमनस् । “सुपर्वाणः सुमनसनि. सुमंगल तहि नब" - रामा० । दिवेशाः दिवौकसाः "-अमर । विद्वान, सुमंगली-संज्ञा, स्त्री. (स.) विवाह में पंडित, फूल । वि०-सहृदय, प्रसन्नचित्त, सप्तपदी पूजन के बाद, पुरोहित की दक्षिणा । सुन्दर मन वाला। या उसका नेग। सुमनित-वि० दे० (सं० सुमणि+तसुमंत-संज्ञा, पु० दे० । सं० सुमंत्र ) राजा प्रत्य०) श्रेष्ठ मणि जटित । दशरथ के मंत्री। राव सुमंत लीन्ह उर सुमरन, सुमिरन*-संज्ञा, पु० दे० (सं० लाई "-रामा०। स्मरण ) स्मरगा, ध्यान, याद, जप, भजन । सुमंत्र-संज्ञा, पु. (सं.) राजा दशरथ के सुमरना*-स० कि० दे० (सं० स्मरण ) सारथी और मंत्री " मंत्री सकल सुमंत्र ध्यान या स्मरण करना, याद करना, जपना, ध्यान या र बुलाये "-रामा० । सुमिरन, प्रे० रूप-सुमराना, समरावना। सुमंथन-संज्ञा, पु. (सं०) भली भाँति सुमरनी*-- संज्ञा, स्त्री. ( हि० सुमरना) मथना, (मंदर पर्वत से सिंधु-मंथन)। स्मरणी, छोटो माला, जप करने की २७ मा० श० को०-२२५ For Private and Personal Use Only Page #1805 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुमानिका सुरंग दानों वाली माला, सुमिरनी (दे०)। "लिहे | वाली स्त्री! "सुमुखि मातु-हित राबौं तोही" सुमरनी हैं हाथे मां जिनके राम राम रट -रामा० । ११ वर्णो का एक वर्णिक लागी"-श्रा० सं०। छंद (पिं०), दर्पण। सुमानिका-संज्ञा, स्त्री० (सं०) सात वर्णी सुमृत-मृति* - संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० का एक वर्णिक छंद (पि.)। स्मृति ) स्मृति स्मृति, धर्म-शास्त्र, सुधि, सुमारग-संज्ञा, पु० दे० (सं० सुमार्ग) सुमार्ग, सुपथ, अच्छा पंथ, पदाचार। | समेध-वि० दे० (सं० सुमेधस) बुद्धिमान् । सुमार्ग-संज्ञा, पु० (सं०) सत्पथ, उत्तम पंथ, । सुमेधा-वि० दे० (सं० सुमेधस) बुद्धिमान् । अच्छा रास्ता, सदाचार, उत्तम या श्रेष्ठ | समर- संज्ञा, पु० दे० (सं० सुमेरु ) सुमेरु, मार्ग। विलो०-कुमागे । वि.--सुमागी। पहाड़ । “चाहै सुमेर को छार करै अरु छार सुमालिनी-संज्ञा, स्रो० (सं०) छः वर्णों को चाहै सुमेर बनावै "-- देव० । का एक वर्णिक छंद (पिं० । सुमेरु-संज्ञा, पु० (सं०) शिव, समस्त पर्वतों सुमाली- संज्ञा, पु. ( सं० सुमालिन् ) रावण | का राजा, एक खोने का पहाड़ (पुरा०), के नाना एक राक्षस जिसकी कन्या कैकसी माला का सब से ऊपर या बीच की दाना, कुंभकर्ण, रावण, शूर्पणखा और विभीषण | उत्तरीय ध्रुव, १७ मात्राओं का एक मात्रिक की माँ हैं। छद ( पि० ) । वि० -- बहुत ऊँचा, सुन्दर । सुमित्रा-संज्ञा, स्त्री० (सं० राजा दशरथ | मुमेम्वृत्त-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) वह की तीसरी रानी और लघमण और शत्रुघ्न कल्पित रेखा जो उत्तरीय ध्रुव से २३३ जी की माता । " समुभिः सुमित्रा राम- अक्षांश पर है (भूगो०)। सिय, रूप-सनेह सुभाव "--रामा० । सुयम् ---अव्य० दे० ( सं० स्वयम् ) श्राप से सुमित्रानंद-सुमित्रानंदन - संज्ञा, पु० यौ० श्राप, श्राप, खुद. खुद ब खुद । (सं०) लक्ष्मण और शन्नन्न जी। सुयश-संज्ञा, पु० (सं०) सुकीति, सुख्याति, सुमिरण-सुमिरन*- संज्ञा, पु० दे० (सं० अच्छी कीर्ति, सुनाम, सुजस (दे०) । स्मरण) स्मरण, जप, भजन, ध्यान । 'सुमिरन "श्रवण सुयश सुनि श्रायेऊँ प्रभु भंजन भवकरिकै रामचंद्र का लै बजरंग बली का भीर"-रामा० । वि० (सं० सुयशस्) यशस्वी। नाम"-प्रा. खं०। वि० --सुयशी। सुमिरना-स० क्रि० दे० (सं० स्मरण ) सुयोग--संज्ञा, पु. (सं०) अच्छा संग, सुन्दर याद करना, स्मरण या ध्यान करना । प्रे. योग, अच्छा मेल, संयोग, सुअवसर, अच्छा रूप-सुमिराना, सुमिरावना । " ऐसो मौका, सुजोग (दे०) । " ग्रह, भेषत्र, राम-नाम निसि-बासरजे सुमिरत सुमिरावत" जल, पवन, पट, पाय सुयोग, कुयोग'-रामा०। रामा०। सुमिरनी-संज्ञा, स्त्री० दे० ( हि० सुमिरना) । सयोग्य-वि० (सं.) अत्यंत योग्य या स्मरणी, जप करने की छोटी माला। "राह । बाट में जमैं सुमिरनी, घर में कहैं न राम"! सुयोधन .. संज्ञा, पु. (सं०) कौरवों का सब -कबी०। से बड़ा भाई, दुर्योधन, सुजाधन (दे०)। सुमुख-संज्ञा, पु. (सं०) "विष्णु, शिव, “ भयो सुयोधन तें पलटि, दुर्योधन तब गणेश, प्राचार्य, पंडित । वि०- सुन्दर | नाम'- कुं० वि० मुख वाला, मनोहर, सुन्दर, प्रसन्न, दयालु । सुरंग-वि० (सं०) सुन्दर या अच्छे रंग का, सुमुखी-संज्ञा, स्त्री. (सं०) सुन्दर मुख , सुन्दर, मनोरम, सुडौल, रस-मय, रक्त वर्ण लायक। For Private and Personal Use Only Page #1806 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - १७६५ सुरझाना, सुरझावना का, साफ़, निर्मल, स्वच्छ, लाल । संज्ञा, पु० रक्षित । । अरक्षितम् रक्षति दैव-रक्षितम् -~- नारंगी, शिगरफ़. रंग के अनुसार घोड़े सुरक्षितम् देव-हतं विनश्यति"-नीतिः । का एक भेद । संज्ञा, स्त्री. द. (सं० सुरंगा) सुरख-सुरखा-~-वि० दे० (फा० सुर्ख) बारूद से उड़ाकर पहाड़ या भूमि के तले सुर्ख, लाल, सुरुख (दे०)। बनाई हुई राह, किले की दीवाल के नीचे सुरवाब-हसंज्ञा, पु० (फ़ा०) चकया । मुहा० वह छेद जिसमें बारूद भर कर उसे उड़ाते -सुरखाव का पर लगना-कुछ हैं, शत्रओं के जहाजो के नष्ट करने का एक विशेषता या विचित्रता होना। यंत्र ( श्राधु०), संध, संधि । सुरखी-संज्ञा, स्त्री० दे० (फा० सुखर्जी ) सुर---संज्ञा, पु० (सं०) बित्रुध, देवता, सूय्यं, लालरंग, सुर्थी, ईटों का महीन चूर्ण जो ऋषि, मुनि, विद्वान्, पंडित । संज्ञा, पु० दे० इमारत बनाने के काम आता है, लाली, (गं० स्वा) धनि, स्वर । मुहा०-सुर अरुणता, शेर्षक। में सुर मिलाना --- हाँ में हाँ मिलाना, सुरखरू, सुर्खरू-वि. देव्यौ० (फा० सुर्खरू) चापलूसी करना । प्रतिष्ठित, यशस्वी या कीर्तिवान, प्रतापी, सुरकंत:--संज्ञा, पु० दे० यौ० (सं० सुरवात) तेजस्वो । संज्ञा, पु. (दे०) सुर्खरुई । इन्द, विष्णु । " प्रगट भये सुरकता"-- सुरग -संज्ञा, पु० दे० (सं० स्वर्ग) स्वर्ग, रामा देवलोक, सुरलोक, बैकुंठ, सरग (दे०)। सुरक-संज्ञा, पु० दे० (सं० सुर ) नाक सुरगाय, सुभगो-संज्ञा, स्त्री० यौ० (हि०) पर भाल के श्राकार का एक तिलक । सुरधेनु, कामधेनु सुरागाय, एक जंगली सुरकना--स० कि० । अनु० ) वायु-वेग से गाय । व वस्तु को धीरे धीरे ऊपर को खींचना, सुगगिरि-रज्ञा, पु. यो० (सं०) सुमेरु, नाक से पीना, बुड़कना (दे०)। देवाद्रि. सुगाद्रि, सुराचल । सुरकरी-संज्ञा, पु० पौ० ( सं० सुरकरिन् ) सुरगुरु- संज्ञा, पु. यौ० (सं०) वृहस्पति, ऐरावत, सुर राज, देवतों का हाथी, दिग्गज, जीव । " तब सुरगुरु इन्द्रहि समुझावा" दिग्गज, इन्द, सुरराज । -~~-रामा०। सुरकांता - संज्ञा, स्त्री. यो. (सं०) देव. सुरगया-- संज्ञा, स्त्री० दे० ( सं० सुर+गो) बधूटी. देवी। । कामधेनु, सुरागाय । सुरकानन-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) देव-वन, सुस्चाप-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) इन्द्रनंदन विपिन या इंद्र का बाग, देवाराम, धनुष, सुर-धनु । सुरोपवन। सुरज*---संज्ञा, पु० दे० (सं० सूर्य ) सूर्य, सुरकुदाँव * -- संज्ञा, पु० दे० यौ० (सं० स - सूरज, सुरिज (दे०)। कु–दाँव --- धोखा-हि० धोखा देने को स्वर सुर-जन--संज्ञा, पु० (सं०) देव समूह या बदल कर बोलना। । सूर-द । वि० (दे०) सुजन, सज्जन, चतुर । सुरकेतु---संज्ञा, पु. यौ० (सं०) इंद्र, इंद्र या मुरझना-अ. कि० दे० ( हि० सुलझना) देवताओं का झंडा. देव-ध्वजा । सुलझना, हल होना । विलो०-उरझना। सरतण----संज्ञा, 'पु० (सं०) सुरक्षा, रखवाली। | सुरझाना, मुरझावना-म० कि० दे० भली भाँति रक्षा करना । वि०-सरक्षणीय। । (हि० मुलझाना ) सुलझाना, हल कराना, सालित-वि० (सं.) जिसकी रक्षा हल करना, खोलना । विलो. उरझाना। अच्छी तरह से या भली भाँति की गयी हो, प्रे० रूप--मुरझवाना। For Private and Personal Use Only Page #1807 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुरत सुर-नदी सुरत-संज्ञा, पु. (सं०) मैथुन, संभोग। सुरती-पंज्ञा, स्त्री० दे० ( हि० सूरतनगर ) संज्ञा, स्त्री० दे० ( सं० स्मृति ) सुरति, सुधि, पान के साथ या यों ही खाने की तंबाकू, याद, ध्यान । वि० (सं०) अति लीन, सुनि- खैनी (प्रान्ती०)। मन्न । मुहा०-सुरत बिसारता (विस- सुरतीला-वि० दे० (हि. सुरत + ईला रना)-भूल जाना ! प्रत्य०) स्मरण कर्ता, सावधान, सुचेत, सुरतरंगिनी, सुरतरंगिणी-ज्ञा, स्त्री याददाश्त रखने वाला यौ० (सं०) सुर-नदी, गंगानदी अाकाश- सुरतेन - संज्ञा, स्त्री० (दे०) रखी हुई स्त्री। गंगा, देव-नदी, सुरतटनी, देवाएगा। सुर-त्राण -- संज्ञा, पु० यौ० (सं०) देव-रक्षक, सुरतटनी-संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) देव-नदी, सुर-त्राता, विष्णु । गगन-गंगा, सुर-सरिता। सुरत्राता--संज्ञा, पु. पौ० ( सं० मरवात ) सुरतरु-- संज्ञा, पु. यौ० (सं०) कल्प वृक्ष ! | इंद्र, देव-रक्षक, कृष्ण सुर त्राण, विष्णु | " सुरतरु-वर-शाखा लेखनी पत्रमुर्वी ''--- “निश्चर-वंश, जन्म सुरवाता"-- रामा० । स्फुट। सुरथ-संज्ञा, पु० (सं०) दुर्गा जी के एक सुरता-संज्ञा, स्त्री० (सं०) सुर का भाव या सर्व प्रथम भाराधक चद्रवंशीय राजा (पुरा०), कार्य-देवत्व, देव-वृद, सरत्व । संज्ञा, स्त्री० सुन्दर रथ, जयद्रथ का एक पुत्र, एक पहाड़ । दे० (हि० सुरत ) स्मरण. याद, ख़याल, सुरदार--वि० दे० (हि. सुर- दार फा०) ध्यान, चिंता, सुधि, चेत । वि०.-होशियार, सुस्वर, सुरीला, जिस हा स्वर अच्छा हो । चतुर, सयाना। संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० सुरदारा ) देव-नारी, सुरतान, सुरंतान*-संज्ञा, पु. दे० ( अ० देव-स्त्री, देव-दारा, सुर-बटी । सुलतान) सुलतान, बादशाह, राजाधिराज । " सुरंतानभट्ट मध्माद इदं "--प्र० रा० । सुरदारा-संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं० ) देव बधूटी। सुरति-संज्ञा, स्त्री० (सं०) भोग-विलास, सुरदीर्घिका - संज्ञा, श्री० (सं०) अाकाश. प्रसंग, संभोग, काम-केलि, मैथुन । संज्ञा, गंगा। स्त्री० दे० (सं० स्मृति ) स्मरण, सुधि, याद । “सुरति बिसरि जनि जाय" सुरदोषी, सुरद्रोही--- संज्ञा, पु० दे० यौ० रामा० । संज्ञा, स्त्री० दे० (अ० सूरत) सूरत, ( सुरद्वेषी ) देवशत्रु, सरद्वेपी। रूप, प्राकृति, सूरति (दे०)। पावरी सुरति सुरद्रुम----संज्ञा, पु० यौ० (सं०) सुर-तरु, मैं लगाये है सुरति वह " - सरस। कल्प वृक्ष. देव-वृक्ष । सुरति-गोपना-संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) वह सुर-धाम - संज्ञा, पु० यौ० (सं० पुरधामन्) नायिका जो अपनी रति-क्रीड़ा को सखियों स्वर्ग, बैकुंठ, देवलोक । “राम-विरह तनु श्रादि से छिपाती हो, सुरति-संगोपना। परिहरेउ, राव गयो सुर-धाम"-- रामा० सुरतिवंत-वि० दे० (सं०) सुरतिवान्, सुगधिप ---संज्ञा, पु० यो ० (सं०) सुगधिकामातुर। पति, देवनाथ, इंद्र देवराज । सुरति-विचित्रा-संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) सुरधुनी-संज्ञा, स्त्री० (सं०) गंगाजी, देववह मध्य नायिका जिसकी रति क्रिया नदी, सुर-नदी। अनोखी हो ( सा०)। सुर-धनु-संज्ञा, श्री. यो० (सं०) कामधेनु । सुरतिय--संज्ञा, स्वी० यौ० (सं० सुर+ सुर-नदी--संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) देवापगा, तिय-हि० ) देव-बधूटी। गंगा जी, देव नदी, श्राकाश गंगा, सुरनद । For Private and Personal Use Only Page #1808 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुरनायक. सुरनाथ १७६७ सुरमचू Womope सुरनायकसुरनाथ----संज्ञा, पु० यौ० (सं०) भय या प्रेमानंद से स्वर के रूपांतर या इंद्र. देवनाथ, देवराज. सुरपति । विपर्यास. (माविक भाव)।। सुरनारी-संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) देवताओं सुर-भवन - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) देव-मंदिर, की स्त्री, देव-वधू , श्रमर-बधूटी। देवालय, देव स्थान, देव लोक, सुरपुरी, अमसुरनाह- संज्ञा, पु० दे० यौ० (सं० सुरनाथ रावती, सुर-भौन (दे०)। सुरनाथ, देवनाथ, इना. देवराज । सुरभान-सज्ञा, पु० दे० यौ० (सं० सुर--- सर-नकेन, सर-निकेतन · संज्ञा, खी० पु. भानु) सूर्य, इन्द्र। यौ० (सं०) स्वर्ग, वैकठ, अमरावती, देवालय, सुरभि-संज्ञा, पु० (सं०) बसंत ऋतु, मधु, देव स्थान, सुर-लदन। चैत्रमास, स्वर्ण, कंचन, सोना । संज्ञा, स्त्री० सुर-निलय--संज्ञा, ५० यौ० (सं०) सुमेरु गौ, पृथ्वी, गायों की अधिष्ठात्री, और श्रादि पहाड़। जननी, कामधेनु, मदिरा, सुरा. सौरभ सुगंधि, सुरप*-संज्ञा, पु० दे० (सं० सुरपति) इन्द्र। तुलसी : वि. --सुवासित. सुगंधित, मनोज्ञ, सुर-पति-संज्ञा, पु०यौ० (सं०) सुराधिपति, मनोहर, सुन्दर, उत्तम, श्रेष्ठ । “ताम् सौरसुरेश, इन्द्र, विष्णु | 'सुरपति रहै सदा भेयीम् सुरभिः यशोभिः”-रघु० । 'सुरभिः रुख ताके''-रामा० । “ सुरपति सुत धरि स्थानमनोज्ञे पि'-अमर० । बायस-भेखा'-मा०। सुरभित-ज्ञा, वि० (सं०) सुवासित, सुगं चित, सौरभित । सुर-एथ-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) नभ, श्राकाश, व्योम, गगन । सुरभी - संज्ञा, स्त्री० (सं०) सुवास, सुगंधि, सुरपाल - संज्ञा, पु० दे० यौ० (सं० सुरपालक । खुशबू . सौरभ, अच्छी महक. चंदन, गाय, इंद्र, देव-राज । कामधेनु, सुरागाय । सुर-पालक --संज्ञा, पुरु यौ० (सं०) इंद्र। सुरभी-पुर--संज्ञा, पु० यो० (सं०) गोलोक। सुर-पुर-संज्ञा, पु. यौ० (सं०) स्वर्ग, देव | सरमीला--- वि० ( हि० सुरभि + ईला-प्रत्य०) लोक, वैकुंठ । "पितु (पुरपुर सिय राम वन सुगंधि देने वाला। करन कही मोहिं राज''-रामा० । सुरभूप-संहा, पु० यौ० (सं०) विम्णु, इन्द्र ! सुर-बहार --संज्ञा, पु० दे० यौ० (हि सुर -- बहार-फ़ा०) सितार जैसा एक बाजा सुरभोग--संज्ञा, पु० यौ० (सं०) अमृत, विशेष । सुर-मौन*~-संज्ञा, पु० दे० यौ० (सं० सुरसुर-बाला-संज्ञा, वी० यौ० (सं०) देव । भवन ) सुर भवन, स्वर्गलोक, देव-सदन, बधटी. देवांगना, सुर वधू , अमर-बधू ।। देवालय । सुर-वधू.सुर-वधूटी--संज्ञा स्त्री० यो० (सं०) सर-मंडल--संज्ञा, पु० यौ० (सं०) देवताओं देवांगना, देव-वधूटी। का मंडल, एक तरह का बाजा । लो०-सुरसुरतृच्छ-संज्ञा, पु० दे० यौ० (सं० सुर वृक्ष) मंडली। सुर-तरु, कल्पवृक्ष, देववृत्त, सुर-बिग्छि सरमई-सरमयी-वि० (फा०) सुरमे के रंग का, हलका नीला, सुरमें से युक्त । संज्ञा, पु. सर-बेल, सुर बेलि, सर-बेली-संज्ञा, एक तरह का हलका नीला रंग, इस रंग का स्रो० दे० ( सं० सुरवल्ली ) कल्पलता, कल्प. एक कपड़ा : वि.-सुरों से युक्त ।। वल्ली , अमर-बेल। सुरमन्चू-संज्ञा, पु. (फा०), सुरमा लगाने की सर भंग- संज्ञा, पु० द० यौ० (सं० स्वरभंग) | सलाई। पीयूष । For Private and Personal Use Only Page #1809 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org सुरमणि सुरमणि - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) देव-मणि चिंतामणि, सुरमनि (दे० ) । सुरमा - संज्ञा. पु० दे० ( फा० सुरमः) एक नीले रंग का खनिज पदार्थ जिसका चूर्ण थाँखों में लगाया जाता है । १७३८ सुर-सुंदरी | सुरश्रेष्ठ - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) देवताओं में श्रेष्ठ-विष्णु, शिव, ब्रह्मा, इन्द्र, सुरोत्तम । सुरस - वि० (सं०) रसीला, सुस्वाद, स्वादिष्ट, अच्छे रसका, मधुर, सरस | संज्ञा, पु० दे० (सं० स्वरस ) गीली औषधि का निकाला हुआ रस | सुरमादानी - संज्ञा स्त्री० दे० ( फा० सुरम: + दान - प्रत्य) सुरमा रखने का शीशी जैसा एक पात्र, सुरमेदानी | सुरमै – वि० दे० (का० सुरमई) सुरमई । सुरमौर सुरमौरि - संज्ञा, पु० दे० चौ० (सं० सुर+मौलि, मौर-हि०) विष्णु । सुरम्य - वि० (सं०) सुरमणीक, श्रति मनोरम, अति सुन्दर, अत्यंत सुशोभित । " अति सुरम्य जहाँ जनक -निवासा " - रामा० । संज्ञा, स्त्री० - सुरम्यता । सुर-राइ, सुर-राई* – संज्ञा, पु० दे० यौ० (सं० मुरराज ) देवराज, विष्णु, इन्द्र । सुर-राउ, सुर-राऊ - संज्ञा, पु० दे० यौ० (सं० सुरराज) सुरराज, विष्णु, इन्द्र । सुर- राज - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) देवराज, विष्णु, इन्द्र सुर-राय, सुर-राव* -- संज्ञा, ५० दे० यौ० (सं० सुरराज ) देवराज, सुर राज, विष्णु, इन्द्र । सुर-रिपु-संज्ञा, पु० यौ० ( सं० ) दैस्य, दानव, राक्षस, असुर, सुरारि, देवारि । सुर-रूख - संज्ञा, पु० दे० यौ० (सं० सुररूक्ष) सुर-तरु, कल्पवृक्ष । सुर-लतिका, सुर- लता - संज्ञा, त्री० यौ० (सं०) देव लता, कल्पलता ! सुरली -- पंज्ञा, स्त्री० दे० (सं० सु + रलो- हि०) सुन्दर खेल या क्रीड़ा | सुर लोक - संज्ञा, पु० (सं०) देवलोक, स्वर्ग । सुर-वल्ली, सुर-वल्लरी - संज्ञा, त्र ० यौ० (सं०) कल्पलता, सुर-वृतती । सुर वधू - संज्ञा, त्रो० यौ० (सं०) देवांगना, सुर-वधूटी । सुरवृत्त - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) सुर-तरु, कल्पतरु, कल्पवृक्ष, सुर-पादप । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुरसती-सूरसती-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० सरस्वती) सरस्वती, वाणी, शारदा, गिरा, सरसुती (दे० ) । सुर-सदन, सुर- सद्म – संज्ञा, पु० यौ० (सं०) देवलोक, स्वर्ग, देवालय, देव मंदिर | सुर-सर- संज्ञा, पु० यौ० (सं०) देव-ताल, मानसरोवर | संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० सुरसरी) देवसरी, गंगा जी, सुरसरि । सरसरसता - संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) सरयु - नदी, घाघरा । सुरसरि, सुरसरी - संज्ञा, स्त्री० दे० यौ० ( सुरसरित्) देवनदी गंगा जी, गोदावरी । 'सुनि सुरसरि उत्पति रघुराई" - रामा० । सुरसरित, सुरसरिता-संज्ञा, स्रो० यौ० (सं०) देवनदी गंगा जी । सुरमा - संज्ञा, स्त्री० (सं०) हनुमान जी को सिन्धु लांघने में रोकने वाली एक नाग-माता, ( रामा० ) एक अप्सरा । "सुरमा नाम श्रहिन की माता " -- रामा० । ब्राह्मीबूटी, तुलसी, दुर्गा जी, एक छंद या वृत्त (पिं० ) । सुर-साई -संज्ञा, पु० दे० यौ० (सं०सुरस्वामी) इन्द्र जी, विष्णु, शिव जी, सुर-सैंया (दे०) । सुरसारी* - संज्ञा, स्रो० ६० (सं० सुरसरी) देवनदी गंगा जी । सुरसाल-सुरसालु -- वि० दे० यौ० (सं० सुर + सालना - हि०) देव पीड़क, देन शत्रु, देवताओं का सताने वाला, सुरारि । सुर-साहव, सुर साहिब, सुर-साहेबसंज्ञा, पु० दे० यौ० (सं० सुर + साहिब प्र०) देवनाथ, देवराज, इन्द्र, विष्णु, शिव । सुर सुंदरी - संज्ञा स्त्री० यौ० (सं०) देवांगना, देवी, अप्सरा, दुर्गा, देवकन्या, एक योगिनी । "गावहिं नावहिं सुर सुंदरी " - रामा० । - For Private and Personal Use Only Page #1810 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir MPOR. सुर-सुरभी १७६६ सुराही सुर-सुरभी-संज्ञा, स्त्री० यौ०(सं०) कामधेनु । सुराज्य ) अच्छा राज्य । संज्ञा, पु० दे० (सं० सुरसुराना-प्र० के० दे० (अनु०) शरीर स्वराज्य , अपना या निज का राज्य । संज्ञा, पर कीड़े आदि के रेंगने से उत्पन्न खुजली, । पु०-सुराजा, अच्छा राजा । “जिमि सुराज खुजली होना । संज्ञा, स्त्री० --सुरसुराहट, । लहि प्रजा सुखारी"। "बढे प्रजा जिमि पाइ सुरसुरी। सुराजा''-रामा । सुर-सैंया -संज्ञा, पु० दे० यौ० (सं० सुर-सुराज्य-संज्ञा, पु. (सं०) सुख-शांति पूर्ण, स्वामी) देवनाथ, इन्द्र, विष्णु, शिव। सुन्दर राज्य । संज्ञा, पु० दे० (सं० स्वराज्य ) सुर-स्वामी- संज्ञा, पु. यौ० (सं०) देवनाथ, प्रजा-तंत्र या अपना राज्य । सुराधिप, सुराधीश-संज्ञा, पु. यौ० (सं०) सुरहना-अ. क्रि० (दे०) भर पाना। इन्द्र, देव राज, सुरपति, सुराधीश्वर । "सुरहो घाव देह बल प्रायो'-छत्र० सुरानीक--संज्ञा, पु० यौ० (सं०) देव सेना । सुरहरा-वि० (अनु०) सुर सुर शब्द करने सुराप, सरापी-वि० (सं०) मदिरा या वाला, जिसमें सुर सुर शब्द हो। शराब पीने वाला। सरही-संज्ञा, स्त्री० दे० ( सं० सरभी) सुरापगा--संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) देव नदी, सुरभी, कामधेनु । संज्ञा, स्त्री० दे० ( हि... गंगा जी, देवाएगा। सोलह ) जुश्रा खेलने को चित्तीदार सोलह । सुरा-पात्र--संज्ञा, पु० यौ० (सं०) मदिरा पीने या रखने का बरतन। कौड़ियाँ, इनसे खेला जाने वाला जुमा का सरा-पान--संज्ञा, पु. यो० (सं०) मदिरा खेल, सोलही, सारही। पीना, महा-पान । सरांगना-संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) देवांगना, सुगरि. सुरारी (दे०)-संज्ञा, पु० यौ० देव पली, अपरा! “सुरांगना-गोपित चाप | (सं० सुरारि। सुराशत्रु देवारि, असुर, राक्षस । गोपुरम्"-किरा। "मूद न जानसि मोहिं सुरारी"-रामा० । सुरा-संज्ञा, स्त्री० (सं०) मधु, मदिरा, शराब, सुरालय-संज्ञा, पु. यौ० (सं०) बैकुण्ठ, मद्य, वारुणी । 'सुरा-पान करि रहसि स्वर्ग, मंदिन, देव-भवन, देव-लोक, सुमेरु, सुखारी"--स्फु। देवालय, मधुशाला, शराबखाना (सं० सुराई* --संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० शूरता )। सुरा+भालय )। शूरता, बीरता, बहादुरी, सुरत्व । "हम रे सुरावती--- संज्ञा, स्त्री० ( सं० सुरातानि ) देवकुल इन पै न सुराई "-रामा० । माता, अदिति, ( कश्यप-पत्नी)। सुराख-संज्ञा, पु० दे० ( फ़ा० सूराख ) सुराष्ट्र--संज्ञा, पु० (सं०) सुन्दर राष्ट्र, एक बिल, छिद्र, छेद । संज्ञा, पु० दे० (अ० सुराग़) देश या राज्य (काठियावाड़ या सूरत, मतांखोज, टोह, पता। तर से)। सुराग-संज्ञा, पु. ( सं० सु+ राग ) अति सुरासुर-ज्ञा, पु० यौ० (सं०) देव-दैत्य, प्रेम, अति अनुराग। (दे०) सुन्दर राग, देवासुर देवदानव, सुर और असुर । " चहै (संगीत)। संज्ञा, पु० दे० ( अ० सुराग) सुरासुर जुएँ जुझारा"-रामा०। पता, खोज। सुरासुर-गुरु-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) शिवजी, स्मरा-गाय-- संज्ञा, स्त्री० दे० यौ० (सं० सुर- कश्यप मुनि ।। गो) एक प्रकार की दो नस्ल वाली गाय सुराही-संक्षा, स्त्री० (अ०) पानी रखने का जिसकी झवरीली पूछ से चँवर बनाते हैं। बरतन, जोशन, बाजू आदि में लगाने की सुराज, सुराजा-संज्ञा, पु० दे० (सं०. सुराही के आकार की वस्तु । For Private and Personal Use Only Page #1811 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org सुराहीदार सुराहीदार - वि० ( अ० सुराही + दार ) सुराही के आकार का लंबा और गोलाकार । सुरिज - संज्ञा, पु० दे० (सं० सूर्य ) सूरज । सुरी - संज्ञा, स्त्री० (सं०) देवांगना | "कहो इन्द्र को ज्ञान को सिखावे । “ सुरी १८०० छोड़ि के मानुषी लेन धावे " - मन्ना० । । सुरीला - वि० ( हि० सुर + इला - प्रत्य० ) सुस्वर पुरुष, मधुर गला और स्वर वाला, सुस्वर कंठ, मधुर स्वर वाला । स्त्री० - सुरोली सुख - वि० दे० (सं० सु + रुख - फा० ) प्रसन्न, अनुकूल, सदय | संज्ञा, पु० (३०) सुर्ख ( फा० ) सुरख | संज्ञा, स्त्री० (दे०) सुरुखी । सुरूखरू - वि० दे० (फा० सुरू ) यशस्वी प्रतिष्ठित, सम्मानित, जिसे किसी कार्य में यश मिला हो । सुरूचि - संज्ञा, स्त्री० (सं०) राजा उत्तानपाद की रानी और उत्तम कुमार की माता तथा ध्रुव की विमाता, अच्छीरुचि । वि० - जिसको उत्तम या श्रेष्ठ रुचि हो । सुरूज | संज्ञा, पु० दे० ( सूर्य, सुरज (दे० ) । सुरूज मुखी | संज्ञा, पु० दे० ( सं० सूटमुखी) सूर्यमुखी, गेंदा का फूल, सूरजमुखी । ० सूर्य्य ) सुवा - संज्ञा, पु० दे० ( फा० शाखा ) तरकारी का मसालेदार पानी, शोखा । सुरूप - वि० (सं०) रूपवान, सुन्दर व्यक्ति, खूबसूरत । स्त्री० - सुरूपा | संज्ञा, स्त्री० (सं०) सुरूपता | संज्ञा, पु० - कुछ देव व्यक्ति, कामदेव, अश्विनी कुमार, पुरुरवा, नकुल, सांब, नलकूवर । * संज्ञा, पु० दे० (सं०स्वरूप ) स्वरूप । | सुरूपता - संज्ञा स्त्री० (सं०) सुन्दरता, खूब सूरती । सुरूपा -- संज्ञा, स्त्री० (सं०) सुन्दरी । सुरूर - संज्ञा, पु० (दे०) सरूर ( फ़ा० ) । सुरेंद्र - संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) इन्द्र, राजा, देवेन्द्र, सुरेश । सुतंक सुरेंद्र चाप - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) इन्द्र धनुष । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुरेंद्र वज्रा - संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) त, व, ज, (गण) और दो गुरु वर्णों वाला एक वर्णिक छंद या वृत्त, इन्द्रवज्रा । "स्यादिन्द्रवज्रा यदि तौ जगौगः " (पिं० ) । G सुरेध - संज्ञा, पु० (१) शिशुमार, सँस । सुरेश, सुरेश्वर-संज्ञा, पु० दे० (सं०) इन्द्र, विष्णु, शिव, लोकपाल, कृष्ण, सुरसुर (दे०) । सुरेश्वर - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) रुद्र, इंद्र, ब्रह्मा, विष्णु । सुरेश्वरी - संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) लघमी, सरस्वती, दुर्गा जी, स्वर्ग गंगा | सुरेस - संज्ञा, पु० दे० ( सं० सुरेश ) सुरेश | सुरत, सुरैतिन -संज्ञा स्त्री० दे० (सं०सुरति) उपपत्ती, बैठाली स्त्री, रखनी रखेली। सुरोचि - वि० दे० (सं० सुरुचि ) सु दर, कांतिमान | सुरोचिप - संज्ञा, पु० (०) चन्द्रमा, कांति मान | सुख - वि० ( फा० ) लाल | संज्ञा, पु० - गहरा लाल रंग, सुरख, सुरुख (दे० ) | संज्ञा, स्त्री० – सुख । सखरू - वि० ( फा० ) जिसके मुख की कांति (लाली) किसी कार्य में सफलता न होने से रह गई हो, प्रतिष्ठित, कांतिमान, प्रतापी, तेजस्वी | संज्ञा, स्त्री० - सुरूई । सुख - संज्ञा, स्त्री० (फा० ) श्ररुणिमा, लाली, लालिमा, लेख- प्रबन्धादि का शीर्षक, रक्त, लोहू, खून, ईंट का चूर्ण, सुरखी (दे०) । सुर्ता- वि० दे० ( हि० सुरति स्मृति ) स्मरण, याद, चतुर, समझदार, धीमान | सुर्ती - संज्ञा, स्त्री० (दे०) सुरती, तम्बाकू | सुर्मा - संज्ञा, पु० ( फ़ा० ) सुरमा, (नेत्रों में लगाने का ) । सुलंक- संज्ञा, पु० दे० ( हि० सोलंक ) क्षत्रियों की एक पदवी, सोलंक | संज्ञा, स्त्री० (सं०) सुन्दर लंका सुन्दर कटि । For Private and Personal Use Only Page #1812 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir TODAE - सुलकी १८०१ सुलेखक सुलंकी-संज्ञा, पु० दे० ( हि० सोलंकी) सुलतानी-संज्ञा, स्त्री० (अ० सुलतान) राज्य, एक प्रकार के क्षत्रिय, सोलंकी। बादशाही, बादशाहत, एक रेशमी कपड़ा। सुनक्खन-संज्ञा, पु.. (ग्रा०) सुलन्छन वि० (दे०) लाल रंग का। (दे०) सुलनण। सुलप, सलु-वि० दे० ( स० स्वल्प ) सुलक्षण- वि० (सं०) अच्छे चिन्हों वाला, स्वल्प, थोड़ा, किंचित्, रंच । संज्ञा, पु० दे० भाग्यवान, गुगां, सलच्छन (दे०)। "लखें (सं० सु + पालाप) सुंदर पालाप । सुलक्षण लोग"--रफु० । संज्ञा, पु०- सला - वि० दे० (सं० सु+लपना हि०) शुभ लक्षण, शुभ चिन्ह । सातमात्राओं पर मात्रात्रा पर लचने वाला, कोमल, लचीला. लफनेवाला। गुरु और लघु के साथ तब विराम वाला सुलफ़ा---संज्ञा, पु० दे० (फा० सुल्फः) बिना १४ मात्राओं का एक मात्रिक छंद पिं०)। तवा की चितम में भरकर पीने की तंबाकू सुलक्षणा-वि० स्त्री० (सं०) अच्छे चिन्हों या चरप । मुहा०-सुलका झंकना। या लक्षणों वाली स्त्री। सुलके बाज-- वि० दे० (हि० सुलफ़ा+बाज़सुलक्षणी-वि० स्त्री० ( सं० सुलक्षणा ) फा०) चरस या गाँजा पीने वाला। संज्ञा, सुलक्षणा, सुतच्छनी (दे०) । स्त्री० --सुल के बाजी। सुलग-- अध्य० दे० ( हि० सुलगना ) पास, .. सुलभ-वि० (स.) सहज, सुगम, सरलता निकट, समीप । से प्राप्त होने वाला, पासान, साधारण । मुलगना---ग्र० कि० दे० (सं० सु-+ लगना) संज्ञा, स्त्री०-मुलभता, सुलभत्व । 'स्वारथ दहकना, जलना. बहुत संताप होना। परमारथ, सकल सलभ एक ही भोर"--- स० रूप-सुलगना, प्रे० रूप-मुलगवाना। तुल। सुलच्छन-वि० द० ( सं० सुलक्षण ) सतम्य --- वि० सं०) सहज में मिलने वाला, सुलक्षण, मुलाखन 'ग्रा०)। सुगम, सुलभ. मामूली। विलो०-अलभ्य । सुलधनी - वि० (दे०) सुलतगा (सं०)। सलह - सज्ञा, स्त्री० (अ०) मेल-मिलाप, लड़ाई सुलक-वि० दे० ( सं० सुलक्ष ) सुन्दर। के पीछे किय गया मेल, मिलाप । सुलझन --संज्ञा, स्त्री० ६० हि• सुलझना) सलहनामा- संज्ञा, पु० दे० यौ० ( अ० सुलह सुलझाव, सुलझना क्रिया का भाव, सुर- -नामः-फा०) संधि-पत्र, मेल होने का लेखभनि (दे०) : विलो . .--उलझन । पत्र, परस्पर युद्ध करने वाले राजाओं के द्वारा सलझना -अ० क्रि० द० (हि० उलझना) : सुलह या मेल की शर्तो का कागज़, दो उलझे हुये पदार्थ की उलझन दूर होना, लड़ने वाले व्यक्तियों या दलों के समझौते मिटना या खुलना, जटिलतानों का नष्ट की शर्ती का लेख । होना, सुरझना (दे०)। स० रूप --सुल- सुलगना--प्र० क्रि० दे० हि० सुलगना) भाना, प्रे० रूप-सुलझवाना। सुलगना, प्रज्वलित होना, सुलगाना। सुलटा-वि० दे० (हि. उलटा) सीधा : स्त्री० मुलाना-स० कि० (हि. सोना ) शयन सुलटी। विलो०-उत्तटा। कराना, किसी को सोने में लगाना, डाल सुलतान- संज्ञा, पु० (प्र०) बादशाह । देना, लिटाना, सोवाना (दे०)। सुलताना चंपा-संज्ञा, पु. यो. (अ० सुल- सुलेखक-संज्ञा, पु. (सं०) उत्तम लेख या ताना-- चंपा) एक प्रकार के चंपा का पेड़, प्रबंध लिखने वाला, लेखक, सुलेख या पुत्रताग। सुन्दर लिखने वाला। भा० श० को.----२२६ For Private and Personal Use Only Page #1813 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुलेमान १८०२ सुवासिनी सुलेमान - संज्ञा, पु. (फ़ा०) एक प्रसिद्ध "सुवर्णस्य सुवर्णस्य सुवर्णस्यच मैथलि"बादशाह जो पैग़म्बर माना गया है (यहूदी। ह. ना० । पंजाब और बिल्यूचिस्तान के बीच का एक सुवर्ण करणी--संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं० पहाड़। सुवर्ण --- करणा) एक जड़ी या औपधि जो सुलेमानी--संज्ञा, पु० (फा०) सफेद आँखों शरीर के रंग को सुन्दर कर देती हैं। का घोड़ा, एक दो रंग का पत्थर । वि. सुवर्ण रेखा-संज्ञा, स्त्री० (सं०) राँची सुलेमान-संबंधी, सुलेमान का। (बिहार से निकल कर बंगाल की खाड़ी में सुलोचन-वि० (सं०) सुनयन, सुनेत्र, अच्छी गिरने वाली एक नदी भूगो०), सुबरुनः आँखों वाला । स्त्री० - लुलोचना। रेखा (दे०), सुवर्ण की रेखा (कसौटी पर)। सुलोचना-संज्ञा, स्त्री० (सं०) एक अप्सरा, सुवम-वि० दे० (सं० स्ववश) स्वतंत्र, मेघनाद की स्त्री, नरेश माधव की स्त्री। स्वाधीन, भली भाँति जो वश में हो, अपने वि० (स्रो०) सुन्दर नेत्रों वाली। वश में । "विश्व विमोहनि सुक्स-बिहारनि" सुलोचनी- वि० स्त्री० दे० (सं० सुलोचना) ---रामा० । सुन्दर नेत्रों वाली, सुनयनी।। सुवाँग-सुआँगी--संज्ञा, पु० दे० (हि० स्वांग) सुल्तान-संज्ञा, पु. दे. (अ. सुलतान ) | दूसरे का रूप बनाना, भेप, रूप, हँसी का बादशाह, सुरतान (दे०) खेल या तमाशा, अभिनय, नकल, छलने के सुव-संज्ञा, पु० दे० (सं० पुत) सुत, पुत्र, लिये बनाया हुआ कपट रूप । सुवन। सुवा---संज्ञा, पु. ६० (सं० शुक) शुक, तोता, सुवक्ता-वि० (सं० सुवक्त) वाक पटु, वाग्मी, सुगा, सुश्रा। उत्तम व्याख्यान देने वाला, अच्छा कहने सुवाना* -- स० क्रि० दे० (हि. सुलाना) वाला । सुलाना, सोबाना (दे०)। सुवचन--वि० (सं०) मधुर भाषी, सुन्दर सुवार*-संज्ञा, पु० दे० (सं० सूपकार) बोलने वाला । स्त्री०-सुवचनी। रसोइया, पाक करी। संज्ञा, पु. अच्छा दिन । सुवटा-संज्ञा, पु० दे० (० शुक) शुक. सुवान -संज्ञा, पु० अ०) सवाल, प्रश्न, तोता, सुग्गा, सुश्रा, सुश्रया (ग्रा०)। मगना याचना ! सुवन-संज्ञा, पु०(सं०) चंद्रमा, सूर्य, अग्नि। सुवास-संज्ञा, पु. (सं०) सुगंधि, अच्छी संज्ञा, पु० दे० (सं० सुत) सुमन, पुत्र, बेटा । महक, सुरभि, खुशबू . सुदर घर, न, ज "राम, लखन, तुम, शत्रुधन, सरिस सुवन (गण) और एक लघु वर्ण वाला एक वर्णिक सुठि-जासु"-रामा०। छंद (11, 151. I-पि०)। सुवनारा-संज्ञा, पु० दे० (सं० सुत) सुवन, सुवासिका--वि० स्त्री० दे० (सं० सुवासिक) सुत, पुत्र । सुवास देने वाली, सौरभीली । सुवरन-संज्ञा, पु० दे० (सं०सुवर्ण) सोना। सुवासित - वि० (सं०) सुरभित, सुगंधित, सुवर्ण-संज्ञा, पु. (सं०) स्वर्ण, सोना, धन, खुशबूदार । दश माशे की एक स्वर्ण-मुद्रा (प्राचीन), सुवासिनो--संज्ञा, स्त्री. (सं०) युवावस्था धतूरा, सुबरन (दे०)। एक छद (पि.), में भी पिता के घर पर रहने वाली स्त्री, १६ माशे की एक तौल । वि०-सुन्दर चरंटी (प्रान्तो०) सधवा स्त्री, सुवासिन वर्ण या रंग का, सोने के रंग का, पीला, (द०)। "करें सुवासिनि मंगल गाना"उज्वख, बड़ी या सुदर जाति का। स्फुट० । For Private and Personal Use Only Page #1814 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org सुविचार सुविचार-संज्ञा, पु० (सं०) अच्छा विचार, सुन्दर न्याय या निर्णय श्रेष्ठ भाव या मत । सुविज्ञ - वि० (सं०) श्रति चतुर, प्रवीण, पंडित, विद्वान | संज्ञा, स्रो० (सं०) सुविज्ञता । सुविधा- पंज्ञा स्त्री० (सं०) सुभीता, समाई। सुवृत्ता-पंश, खो० (सं०) एक अप्सरा, १६ वर्णो ं वाला एक वर्णिक छंद (पिं० ) । सुवेल - पंज्ञा, पु० (सं०) लंका का त्रिकूटाचल (रामा० ) ! सुवेश - वि० (सं०) वस्त्राभरण से सुसज्जित, श्रलंकृत, सुन्दर वेश-युक्त, सुन्दर, सुरूपवान, श्रभूषित | सुमेध - वि० ६० (सं० सुत्रेश) सुन्दर, सुसज्जित, सुन्दर वेश-युक्त ! सुषित --- वि० दे० (० मुवेश) सुसज्जित, सुन्दर वेश-युक्त । १८०३ -- सुवेस - वि० दे० (सं० सुवेश) मनोहर, सुन्दर, सुवेश युक्त | सुब-- वि० (स०) सुध्दता से व्रत का पालन करने वाला | सुशोभन वि० (सं०) प्रति सुन्दर, दिव्य, श्रति शोभनीय | वि० दुशाभनीय । सुशोभित - वि० (सं०) अति शोभायमान, अत्यंत शोभित ! सुश्राव्य वि० (सं०) जो सुनने में प्रिय लगे, श्रुति-वि । (सुश्री - वि० (सं०) अतिशोभित, शोभायुक्त, अत्यंत सुंदर या धनी, कांतिमान ! Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुषुम्ना सुश्रुत - संज्ञा, पु० (सं०) सुप्रसिद्ध, सुश्रुतसंहिता के रचयिता एक प्रमुख श्रायुर्वेदाचार्य, उनका ग्रंथ । " शारीरे सुश्रुतः प्रोक्तः " - स्फु० 1 सुखा (दे० ) - सुश्रूषा – संज्ञा स्त्री० दे० (सं० शुश्रूप) सेवा, परिचर्य्या, टहल, खुशामद । यौ० - सेवा सुश्रूषा । सुन्लोक - वि० (सं०) यशस्वी, विख्यात, प्रसिद्ध धर्मात्मा । "सुश्लोक-शिखामणिः " सुशिक्षित - वि० (सं०) भलीभाँति शिक्षा प्राप्त, भली-भाँति सीवा हुआ ! स्त्री० - सुशिक्षिता । सज्ञा, सी० सुशिला । सुशील - वि० (०) उत्तम स्वभाव वाला, शीलवान, साधु, सज्जन, विनीत । "समुझि सुमित्रा राम सिय, रूप सुशील सुभाव'"रामा० । खो०- सुशील। सज्ञा, खो०सुनीता | या अवस्था । सुथुंग-संज्ञा, पु० (सं०) श्रृंगी ऋषि सुन्दर सुपुति - संज्ञा, स्रो० (सं०) घोर निद्रा, गहरी शृंग या सींग वाला | नींद, अज्ञान (वेदा० ), चार अवस्थाओं में से एक अवस्था, चित की वह अनुभूति या वृत्ति जिसमें जीव नित्य ब्रह्म की प्राप्ति करता हुआ भी उसका ज्ञान नहीं रखता (पा० योग० ) । सुषुम्ना -- संज्ञा, स्त्री० (सं०) शरीर की ३ प्रमुख नाड़ियों में से नासिका के मध्य भाग ( ब्रह्मरंध्र) में स्थित रहने वाली एक नाड़ी ( हठ योग ), १४ प्रमुख नाड़ियों में से नाभि के मध्य में स्थित एक नाड़ी (वैद्य० ) - भा० द० । सुप - संज्ञा, पु० दे० ( सं० सुख ) सुख । सुषमना- सुषमनि-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० सुषुम्ना ) एक नाही ( हठ योग ) । सुषमा - संज्ञा, स्रो० (सं० ) अति शोभा, श्रतिसुंदरता, सुखमा (दे०), १० वर्णों का एक वर्णिक वृत्त (पिं० ) । " सुषमा यस कहुँ सुनियत नाहीं ". सुपाना* - अ० क्रि० दे० ( हि० सुखाना ) सुखाना, ग या धूप में आर्द्रता मिटाना । सुपारा - वि० दे० (हि० सुखारा ) सुखारा, प्रसन्न, खुशी | - रामा० । सुषिर -संज्ञा, पु० (सं०) बेंत, बाँल, अग्नि, वायु बल ने बजने वाला एक बाजा । वि० - पोला, छिद्रयुक्त, छेददार । सुषुप्त - वि० (सं०) गहरी, निद्रा से युक्त, गहरी नींद में सोया हुआ, प्रति निद्रित । संज्ञा, स्त्रो० ६० (सं० सपुप्ति ) सोने की दशा For Private and Personal Use Only Page #1815 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org सुषेण सुषेण - संज्ञा, पु० (सं०) विष्णु राजा परीक्षित का एक पुत्र, वरुण -पुत्र एक बानर जो अंगद का नाना और सुग्रीव का राजवैद्य था, सुखेन (दे० ) । -- सुपोपति - संज्ञा स्त्री० दे० (सं० सुषुप्ति ) सुपुप्ति, चित्त की चार अवस्थाओं में से एक व्यवस्था, गहरी निद्रा । सुष्ट – क्रि० वि० (सं०) भली भाँति, मी तरह । वि० - सुंदर, उत्तम, भला, अच्छा । संज्ञा, पु० सौष्ठव । विलो० - दुष्ट | सुष्टुता - संज्ञा स्त्री० (सं०) सुंदरता, सौभाग्य, सौga | १८०४ का साथ संग विलो० – कुसंग | सुसंगति-खज्ञा, स्रो० (सं०) सत्संगति, का संग या साथ, सुसंग, अच्छों की मैत्री, अच्छी संगति । पुस - संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० स्वर ) वहिन | सुसकना - अ० क्रि० दे० ( हि० सिसकना ) सिसकना, रोना । सुसजित - वि० (सं०) अलंकृत, भलीभाँति, सजाया हुआ, अति सजा हुआ, श्रत्यंत शोभायमान । सुसताना- [ - ० क्रि० दे० ( फा० सुस्त ) थकावट मिटाना, विश्राम या आराम करना, दम लेना । | सुसती - पंज्ञा, स्री० दे० ( फ़ा० सुस्ती ) सुस्ती, ढीलापन । सुसमय – संज्ञा, पु० (सं०) सुकाल, सुसमै (दे० ) सुभित, अच्छा समय | विलो०कुसमय । सुसमा - संज्ञा, स्रो० दे० (सं० सुषमा ) सुषमा, शोभा, सुन्दरता । सुसमुझि सुसामुझि - वि० दे० (हि० समझ ) बुद्धिमान, अक्कु, अच्छी समझ | - सुसंग–संज्ञा, पु० दे० (सं० सुसंगति) सम्मंग, अच्छा साथ अच्छी मित्रता या संगति, सुष्मना* - संज्ञा स्त्री० दे० (सं० सुषुम्ना ) सुसा#i - संज्ञा, त्रो० दे० (सं० स्वस) सुषुम्ना नाड़ी । बहन. बहिन | संज्ञा, पु० (दे० ) एक चिड़िया | सुबाध्य - वि० (०) सुव-साध्य, जो सहज या सरलता से किया जा सके, थासानी से हो । " देखि लेहु सुपाय रोगिहिं कबहु तब उपचार -कं० वि० । संज्ञा, स्त्री० - सुसाध्यता । सुमाना- - अ० सिसकना । सुमिद्धि-संज्ञा, त्री० (सं०) एक अलंकार जहाँ करता तो कोई है, और फल दूसरा भोगता है | साहि०), श्रम या उद्योग कोई करे, फल कोई पात्रे | चि० (सं०) सुसिद्ध - सुप्रमाणित । क्रि० दे० ( हि० साँस ) सुसीतलाई* - संज्ञा स्त्री० दे० (सं० सुशीतलता ) सुशीलता, सुन्दर ठंडक, सुसि तलाई (दे० ) । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir " उभयभेद निज रामा० । सुसर-सुसरा - संज्ञा, पु० दे० (सं० श्वशुर) श्वशुर, ससुर, पति या पत्नी का पिता । सुसराल सुसुराल - संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० श्वशुरालय) ससुर का घर या गाँव, ससुरार, ससुरारि (दे० ) । सुसरित-सुसरिता - संज्ञा, स्त्री० (सं०) गंगा नदी, अच्छी नदी । सुस्त सामुझि साधी " - सुसरी - संज्ञा, खो० दे० ( हि० ससुरी ) सासु पत्नी या पति की माता । संज्ञा, स्त्रो० दे० (सं० सुरसरी ) गंगा नदी । ܕܕ For Private and Personal Use Only सुसुकना ० कि० दे० ( हि० सिसकना ) सिसकना, रोना, सुकना (दे० ) । सुसुभिः संज्ञा, स्त्री० (दे०) सुप्ति (सं०) गहारी निद्रा | वि० (दे०) सुसुप्त । सुसेन - संज्ञा, ५० दे० ( सं० सुंपण ) अंगद का नाना, सुग्रीव का वैद्य, सुपेण, सुखेन (दे०) । सुस्त - वि० (का० ) मंदगति वाला, श्रालसी, ढीला, चितादि से निस्तेज, उदासीन, Page #1816 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुस्तना-सुस्तनी १८०५ सुहारी-सुहाली हतप्रभ, धीमा, तत्परता रहित, जिसकी। सुहराना--स० क्रि० दे० ( हि० सहलाना) तेजी या गति धीमी हो गई हो। सहलाना, सोहराना, धीरे धीरे खुजलाना। सस्तना-सस्तनी---संज्ञा, स्त्री० (सं०) सुन्दर सुशव--संज्ञा, पु० दे० ( हि० सोहन ) सूहास्तनों वाली, सनोक्षयौवना।। । राग ( संगी०)। मुस्ताई-संज्ञा, स्त्री० दे० ( फ़ा० मुस्ती) मुहवी -- संज्ञा, स्त्री० दे० (हि० सूहा ) शिथिलता, सुस्ती, बालस्य, थकावट । सूहाराग, ( संगी०)! सुस्ताना--प्र. क्रि० दे० ( फ़ा० सुस्त ) सुहाई -वि० दे० ( हि० सुहाना ) अच्छी सुमताना (दे०) विश्राम या पाराम करना, । लगना, शोभा देना। "सियनिज पाणि सरोज थकी मिटाना। सुहाई ".-रामा० । सुस्ती-- संज्ञा, स्त्री० (फा०) श्रालस्य, ढोला- मुहाग -- ज्ञा, पु० दे० (सं० सौभाग्य ) पन, शिथिलता। अहिवात, सौभाग्य, सोहाग (दे०), सधवा सम्मन --संज्ञा, पु० दे० ( सं० स्वस्थ्यमन) रहने की दशा, विवाह में वर का जामा, स्वस्त्ययन, मंगल कार्य में पढ़े जाने वाले स्त्रियों के गाने का मंगल गीत (वर-पत)। स्वस्विवा वक वेद-मंत्र । “स्वस्तिनः इन्द्रो " सुठि सुहाग तुम कह दिन दूना"-----आदि-यजु । रामा०। मुम्थ---वि० (सं० ) आरोग्य, तंदुरुस्त, सुहागा-संज्ञा, पु० दे० ( सं० सुभा) गर्म नीरोग, भला चंगा, प्रसन्न, भले प्रकार गंधकी रोतों से निकला एक प्रकार का स्थित या ठहरा हुआ। संज्ञा, स्त्री० --- क्षार, सोहागा। सुहागिन मुहागन-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. सस्थिर - वि० (सं०) अविचल, अतिदृढ़, सुहाग, सं० सौभाग्य ) सधवा स्त्री, सौभाग्यया स्थिर, भली भाँति ठहरा हुश्रा । स्त्री. वती, सोहागिन, सोहागिनी (दे०)। -सस्थिरा । संज्ञा, स्त्री. --सुस्थिरता। सुहागिनि सुहागिनी-संज्ञा, स्त्री० दे० सुस्वर-वि० (सं०) सुरीला, सुकंठ, मधुर (सं० सौभाग्यवती) सौभाग्यवती, सधवा स्वर वाला । स्रो०---सुम्बरा । संज्ञा, स्त्री० स्त्री, अहिगाती, सोहागिनी। ---स्नुस्वरता। सुहागिल--संज्ञा, स्त्री० (दे०) सुहागिन, सस्वादु-वि० (सं०) अत्यंत स्वादिष्ट, अति सधवा, सौभाग्यवती। स्वाद-युक्त, बहुत मदार, सुमवाद (दे०)। सुहाता--- वे० दे० (हि० सुहाना ) प्रिय, जो समुहँगा*---वि० ( हि. महँगा का अनु०) अच्छा लगे, सहने योग्य, सह्य, सोहाता सस्ता, महा। महंगम-वि० दे. ( सं० सुगम ) सरल सुहाना-प० क्रि० दे० ( सं० शोभन ) शोभा सुगम, सहज, श्रासान। देना, अच्छा लगना, भला जान पड़ना । सुहटा*-वि० दे० ( हि० सुहावना ) सुन्दर, वि० दे० (हि. सहावना) सुहावना, सोहाना सुहावना, मनोज्ञ । स्त्री०-सुहटी। सुहनी ---संज्ञा, स्त्री० दे० ( सं० शोधनी ) सहाया* ---वि० द० (हि. सुहावना ) झाड़, बदनी । वि० स्त्री० दे० (हि० सोहना) सुहावना सुन्दर, सोहाया (दे०)। "जामवंत सुन्दर, सुहावना, शोभनीय, सोहनी। के बचन सुहाये"-रामा० । सुहबत-संज्ञा, स्त्री. (अ.) संग, साथ, सुहारी-तुहाली --संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० सोहबत । वि०-हबती। सु-याहार ) पूड़ी, पूरी, सोहारी (दे०) । For Private and Personal Use Only Page #1817 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - - सुहाल १८०६ सुहाल--संज्ञा, पु० दे० (हि. सुहारी )| ब्रज में करण और भापदान कारक का एक प्रकार की नमकीन पूढी या पकवान । चिह्न, से, सों, सों। सहाव*- वि० दे० (हि० सुहावना) सुहावना, | सँगग-संज्ञा, पु. (दे०) भैंस का बछड़ा, प्रिय । संज्ञा, पु. (सं० सु- हाव, सुन्दर पड़वा।। हाव। सँघना-स० कि० दे० ( सं० सघ्राण ) महक सुहावता -- वि० दे० (हि० सुहावना) या बास लेना, सुगंधि लेना । मुहा० - सुहावना. अच्छा लगने वाला। सिर सँघना-मंगल कामना या प्रेमादि सुहावन-सुहावना*- वि० दे० (हि० । से बड़े लोगों का छोटों का सिर संघना । सुहाना ) मनोरम, अच्छा लगने वाला, बहुत ही कम भोजन करना (व्यंग), साँप सुन्दर, शोभित, प्रिय, प्रिय दर्शन । स्त्री० का काटना। --- सुहावनी । अ० कि० सुहाना. अच्छा सँघनी सँघनी --संज्ञा, स्त्री० दे० (हि० संघना) लगना। हुलास, नास। सुहावल - संज्ञा, पु० (दे०) सहावल । सँवा --संज्ञा, पु० द. (हि. सँधना ) वह सुहावला* --- वि० दे० (हि. सुहावना ) पुरुष जो केवल सूंघकर बतावे कि इस सुहावना, सुन्दर, अच्छा लगने वाला। स्थान पर पृथ्वी के नीचे पानी है या धन, सुहावा- वि० दे० ( हि० सुहावना ) शोभित, जासूम, भेदिया। प्रिय, सुहावना, सुन्दर, मनोरम । " मध्य सँट- संज्ञा, स्त्री० (दे०) मौन, चुप्पी, अवाक। बाग़ सर मोह सुहावा "- समा० सँड-सडि--संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० शुगड ) सुहास-वि० (सं०) मधुर या सुन्दा हँसी हाथी की लंबी नाक, शंडावंड. शुड ।। घाला । स्त्री०-सुहामा । संज्ञा, पु० (सं०) सँडी-संज्ञा, स्त्री० दे० ( पं० शडी ) एक सुन्दर हास। प्रकार का छोटा कीड़ा। पु.---जडा।। सुहासी-वि० (सं० सुहासिन् । सुन्दर या सँग-सूल-संज्ञा, पु० दे० (मं० शिशुमार) मधुर हसो वाला, चारुहासी, अच्छा हँसने सूईम, सुइस (ग्रा०) । मगर की जाति का वाला । स्त्री० -~-मुहासिनी। । एक बड़ा जल जंतु। सुहृत्-सुहृद --संज्ञा, पु० (सं०) मित्र, सखा, सूह-अव्य० दे० (सं० सम्मुख) सम्मुख, साथी, जिसका मन अच्छा हो। संज्ञा, सामने, आगे, मोह (व०) । स्त्री०-सुहृत्ता। विलो०-दहा-दुहृद। सही--संज्ञा, पु० (दे०) एक प्रकार का रंग। " सहज सुहृद् बोली मृदुबानी-रामा। सूअर, सुअर -- संज्ञा, पु० दे० (सं० शूकर) " सुहृद् दुहृदौमित्रामिलनयो । सुवर, सूकर (दो भेद १-बनैला, २-पालतू ), सुहेल --- संज्ञा, पु. (अ.) एक शुभ तारा एक गाली, एक स्तन-पायी जंतु । स्वी.---- ( खगो० ) । वि.--शुभ, सुखद, सुन्दर ।। सुहेलरा-वि० दे० (सं० शुभ ) सुन्दर, सूत्रा, मुया--पंज्ञा, पु. ६० (सं० शुक) सुहावना, सुखद। शुक सुवा (दे०) सुग्गा, तोता । संज्ञा, पु. सुहेला - वि० दे० ( सं० शुभ ) सुन्दर, दे० (हि० सूई) बड़ी सूई, सूजा। सुहावना, सुखद, रुचिर । संज्ञा, पु० ---- स्तुति, सूई--संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० सूची) एक ओर मांगलिक गीत । छोटे छेद तथा दूसरी ओर नोकदार, एक सं*---अव्य० दे० ( सं० सह ) पश्चिमीय पतले तार का टुकड़ा जिससे सीने हैं। For Private and Personal Use Only Page #1818 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूक १८०७ सूचना सूजी, मुई, सूची, अन्नादि का अंखुपा, बुद्धि जिससे गूढ़ और कठिन बातें या विषय किसी बात का सूचक काँटा या तार। भी शीध समझ लिये जावें । संज्ञा, पु. (सं०) सुका-संज्ञा, पु० दे० (सं० शुक) तोता। सहमदशी। संज्ञा, पु० दे० सं० शुक्र शुक्र तारा,मकवा। सूचमशरीर- संज्ञा, पु. यौ० (सं०) पाँच सूकना-- अ० कि० दे० (हि. सूखना ) प्राण, पाँच ज्ञानेंद्रियाँ, पाँच सूक्ष्मभूत, मन सूखना, शुष्क हो जाना। और बुद्धि का समूह । सूकर-संज्ञा, पु० (सं०) शूकर, सुपर । सूखा-वि० दे० (हि० सूखा) सूखा । सूकरक्षेत्र - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) एक प्राचीन सूबछड़ा-संज्ञा, स्त्री. (दे०) यी रोग, यचमारीग। तीर्थ, ( मथुरा प्रांत ) सोरौं, सूकरखेत सूखना--अ० क्रि० दे० (सं० शुष्क) किसी (दे०) । "मैं पुनि निज गुरु मन सुनी, कथा पदार्थ से नमी या तरी का निकल जाना, सु सूकर खेत"- रामा० ! श्रार्द्रता या गीलापन न रहना, रस-हीन सूकरी---संज्ञा, स्त्री० (सं०) सूअर की मादा।। हो जाना, पानी का नाश या कम हो जाना, सूका--संज्ञा, पु० दे० (सं० सपदिक) चवन्नी, चार पाने का रिका। झुराना (ग्रा०) उदास या मलिन होना, तेज या कांति का नष्ट हो जाना, डरना, सूक्त-संज्ञा, पु० (सं०) वेद-मंत्रों का समूह, श्रेष्ठ कथन | वि० भले प्रकार कहा हुश्रा, सन्न होना, कृश या दुर्बल होना, नष्ट होना । सुकथित । स० रूप----सुखाना, प्रे० रूप-मुखवाना। सूक्ति-संज्ञा, स्त्री० (सं०) श्रेष्ठ उक्ति या सूखा--- वि० दे० (सं० शुष्क) शुष्क, जिसकी कथन, सुन्दर पद चा वाक्यादि । नमी, तगी या पानी नष्ट हो गया हो या सूच्छप-वि० संज्ञा, पु. द० (सं० सूक्ष्म) जाता रहा हो, कोरा, उदाल, कांति-हीन, सुच्छम, सूक्ष्म, सूछम (दे०), छुच्छम कठोर, कड़ा, कर, हृदय हीन, नीरस, निर्दय, ग्रा०)। निरा, कोरा, केवल । स्रो०-सूखी। मुहा० सूक्ष्म-वि० (सं०) अति लघु, छोटा, महीन -सूखा. (कोरा) जवाब देना--- साफ या बारीक, संक्षिप्त । संज्ञा, स्त्री०- साफ नाहीं कर देना, साफ इनकार करना। सूक्ष्मता। संज्ञा, पु०- परब्रह्म, परमाणु, संज्ञा, पु. (दे०) तम्बाकू का सूखा पत्ता, लिंग शरीर, एक अलंकार जहाँ सूचम चेष्टा अनावृष्टि, पानीन बरसना, जल-हीन स्थान, से चित्त वृत्ति के दिखाने या लक्षित करने नदी-तट, एक खाँसी, हब्बा-इब्बा रोग, का कथन हो"--(अ० पी०)। लड़कों का एक रोग, सुखंडी। सूक्ष्मता-संज्ञा,स्त्री० (सं०) सूक्ष्मत्व, बारीकी, सूघर* - वि० दे० (हि० सुघड़) सघर (दे०) महीनपन, स्वल्पता अणुता । क्रि० वि० -- सुन्दर, मनोहर, मनोरम। सक्ष्मतः, सक्ष्मतया ।। सूचक - वे० (सं०) बताने या सूचना देने सूक्ष्मदर्शकयंत्र-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) खुर्द- वाला, बोधक, ज्ञापक । स्त्री०- सचिका। वीन जिससे छोटे पदार्थ बड़े देख पड़ते हैं। "प्रभु-प्रभाव-सूचक मृदु बानी"--रामा० । सूक्ष्मदर्शिता-संज्ञा, स्त्री० (सं०) कठिन या संज्ञा, पु० - सूची. सुई, दर्जी, सीने वाला. बारीक बातों के सोने या समझने का गुण। कुत्ता, सूचधार, नाटककार । सूदनदर्शी-वि० (० सूक्ष्मदर्शिन् ) कठिन, सूचना-पज्ञा, स्त्री० (सं०) विज्ञप्ति, विज्ञा. गूद या बारीक बातों का समझने वाला. पन, इश्तहार किसी को बताने, सावधान तीब बुद्धि । करने या जताने की बात, किसी को सूचित सूक्ष्मदृष्टि-संज्ञा, स्त्री० यौ० ( स०) ऐसी की जाने वाली बात का कागज़ या पत्र, For Private and Personal Use Only Page #1819 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूचना-पत्र १८०८ (वैद्य०)। चितावनी, भोटिस, (अं०)। *अ० कि० दे० प्रादि के कारण शरीर के किसी अवयव का (सं० सूचना) बतलाना, छेदना, वेधना। फूल उठना, फूलना, शोथ होना, उसुवाना सूचना-पत्र-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) विज्ञप्ति, (ग्रा० )। इश्तहार (फा०),विज्ञापन, नोटिस(अं०)। सृजनी--संज्ञा, स्त्री० दे० ( फा० सोज़नी ) सूचा-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० सूचना) सूचना, विशेष कौशल से सिला हुश्रा एक बिछौना, विज्ञप्ति, विज्ञापन | -संज्ञा, स्त्री० दे० सुजनो (दे०)। (हि. सुचित्त) सावधान, सचेत, सुचित्त। सूजा-मज्ञा, पु. द० (सं• सूची) बड़ी और सूचिका--संज्ञा, स्त्री० (सं०) सुई. हस्ति-शुंड. ! मोटी सुई, सूत्रा। हाथी की सँड़, तालिका, सूची, (सं. अल्प सूजाक -- सज्ञा, पु. (फ़ा०) मूत्रकृच्छ रोग, सूची। दाह और पीडायुक्त एक मून्द्रिय-रोग, सूचिकामरगा -संज्ञा, पु० (सं०) सन्निपात श्रौपसगिक प्रमेह, सूजाक (द०)। प्रादि मारक रोगों की अंतिम महौषधि सूजाख- ज्ञा, पु. द० (फा० सूजाक ) - सूजाक रोग, मूत्र-कृच्छ । सूचिन-वि० (सं०) ज्ञापित, प्रकाशित, सूजी-संज्ञा, स्त्री० दे० सं० शुचि) गेहूँ का जताया या प्रगट किया हुआ, जिसे या मोटा श्राटा! संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० सूची) जिपकी सचना दी गई हो. सूचना-प्रात।सुई। संज्ञा, पु. द. (पं० सूची) दरजी, सूची- संज्ञा, पु० (सं० सूचिन्: भेदिया, चर, सूचिक। गुप्तदूत, चुकुलखोर, दुष्ट, खल | संज्ञा, स्त्री. सूझ-संज्ञा, स्त्री० द० (हि. मूझना) दृष्टि, (सं०) दृष्टि, कपड़ा सीने का सुई. सेना का निगाह, नज़र, सूझने का भाव । यो०एक व्यूह, तालिका, सूचीपत्र, मात्रिक छंद सूझ बूझ-समझ, बुद्धि, ज्ञान, अक्ल, भेदों में श्राद्यत लघु या गुरु की संखा जानने अनोबी कल्पना. उपज, उद्भावना: “मुनिहि की एक रीति या विधि (पि.)। हरिअरे सूझ-रामा० । सूचीकर्म-संज्ञा, पु० यौ० (सं० म्चीकर्मन्) सझना -- अ० कि० दे० (सं० संज्ञान) देख दरजी का सिलाई का काम, सुई का काम, पड़ना, दिवलाई देना, दृष्टि या समझ में सुईकारी अाना, छुट्टी पाना, ध्यान या ख्याल में सूचोपत्र-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) वह छोटी श्राना, ज्ञात होना । " जैसे काग जहाज पुस्तक आदि जिसमें एक ही भांति के अनेक | को सूझ और न ठौर' - नीति । सं० रूप. पदार्थी या उनके अंगादि की कम पे नामा. मुझाना, प्र० रूप-सुझावना,सुझवाना। बली हो, सूची, तालिका, फेहरिस सूटा-संज्ञा, पु० (अनु०) गाँजे या तम्बाकू सूच्छम-सूनिकम - वि० दे० (सं० मूक्ष्म) आदि के धुवों को वेग से खींचना । सूक्ष्म, बारीक, महीन, पतला, सुच्छिम, सूत, सता--संज्ञा, पु० द० (सं० सूत्र) रुई, सुच्छम, सूप (दे०) रेशम या ऊन का महीन तार, तागा, डोरा, सूच्यार्थ-ज्ञा, पु. यौ० (सं०) जो अर्थ धागा, सूत्र, ततु, डोरी, नापने का एक मान, शब्दों की व्यंजना-शक्ति से ज्ञात हो। लकड़ी, पत्थर आदि पर चिह्न करने की डोर, सूहम-सूछिम -वि० दे० ( सं० सूक्ष्म ) (बदई, राज, संगतराश) । लो०-" सूत न सूचम, बारीक, महीन, पतला। कपास कोरियों में लहम ल?" । मुहा० सूज-सूजन-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि० सूजन) -सून धरना-चिन्ह' बनाना । संज्ञा, शोथ, फुलाव, सूजने का भाव।। पु. (दे०) निशान, खोज, पता । सूजना-अ० क्रि० दे० (फ़ा० सोजित) चोट मुहा०-सूत मिलना-पता या चिह्न For Private and Personal Use Only Page #1820 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra सतक ५ www.kobatirth.org १८०६ neets मिलना । सूत में सूत मिलना (बैठना ) - बात पर बात, मिलना, जैसे को तैसा मिलना संज्ञा, पु० (सं०) एक वर्ण संकर जाति, स्त्री० - सूती | रथ चलाने या रथ हाँकने वाला, सारथी, चारण, भाट, बंदीजन पौराणिक, पुराण- वक्ता, कथा वाचक बढ़ई, सूत्रधार, सूत्रकार, सूर्य । वि० (सं० ) - प्रसूत, उत्पन्न | संज्ञा, पु० दे० (सं० सूत्र ) शब्दi किन्तु अधिक अर्थ वाला वचन, पद या शब्द- समूह | संज्ञा, पु० दे० (सं० सूत्र = सूत ) श्रच्छा भला | संज्ञा, ५० दे० ( हि० सुत) लड़का, बेटा । --- सूतक संज्ञा, पु० (दे०) जन्म, किसी के उत्पन्न होने या मरने से जो अशौच कुटुंबियों को होता है. सूदक (दे०) | सूनक- गेह - संज्ञा, पु० दे० यौ० (सं० सूतिकागृह) सूतिकागार, सूतिकालय, जच्चाखाना, प्रसूता स्त्री के रखने का स्थान । सूतकाघर - संज्ञा, पु० यौ० (दे०) सूतिका का स्थान सूतिकागृह | सूतकी - वि० सं० सूतकिन् ) वह पुरुष जिसे सूतक लगा हो, जिसके घर या वंश में कोई उत्पन्न या मरा हो । सूतधार - संज्ञा, पु० दे० (सं० सूत्रधार ) सूत्रधार ( नाट्य० ) बढ़ई । सूतना- - अ० क्रि० (दे०) सोना, नींद लेना 1 स० रूप- सुताना । सूतपुत्र - संज्ञा, सारथी, कर्ण । सूतरी - संज्ञा, त्रो० दे० ( हि० सुतली ) सुतली, पतली रस्सी, सुतरी (दे० ) । सूता - संज्ञा, पु० दे० (सं० सूत्र ) डोरा, सूत, तंतु | संज्ञा, खो० (सं० ) प्रसूता । सृति -- संज्ञा, स्त्री० (सं०) प्रसूव, जन्म, पैदाइश, जनन, उत्पत्ति, उत्पति का स्थान या घर, उद्गम । सूतिका - संज्ञा, स्त्री० (सं० ) ऐसी स्त्री जिसने हाल ही में बच्चा जना हो, जच्चा (फा० ) । भा० श० को ० १०- २२७ पु यौ० (सं०) सारथि, Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूद सूतिकागार-सूतिकागृह - संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) प्रसवभवन, सौरी, सोवर (दे०), सूतिकालय जच्चाखाना (फा० ) । सूती - वि० दे० ( हि० सूत) सूत से बुना या बना हुआ । संज्ञा स्त्री० दे० (सं० शुक्ति) सीपी, शुक्ति । सूतीघर - संज्ञा, पु० दे० (सं० सूतिकागृह ) सूतिकागार, सूतिकागृह, सौरी, जच्चाख़ाना । सूत्र - संज्ञा, पु० (सं०) सूत, तागा, धागा, डोरा, जनेऊ, यज्ञोपवीत, लकीर, रेखा, कटि-भूषण, कटि-सूत्र, करधनी, करगता ( प्रान्ती० ), व्यवस्था, नियम, थोड़े अक्षरों में कहा हुआ ऐसा शब्द या शब्द- समूह जो • अधिक अर्थ प्रकट करे, सुरारा, पता । यौ०सूत्रपात । सूत्रकार संज्ञा, पु० (दे०) सूत्र - रचियता, सूत्रों का रचने या बनाने वाला, जुलाहा, बढ़ई, कुविद | " पाणिनिः सूत्रकारंच "सि० कौ० । सूत्र ग्रंथ - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) वे पुस्तकें जो सूत्रों में हो। जैसे - योग सूत्र । सूत्रधर-सूत्रधार - संज्ञा, पु० (सं०) नाव्यशाला का प्रमुख नट या व्यवस्थापक, बढ़ई, एक वर्णसंकर जाति (पुरा० ) काष्ट - शिल्पी । सूत्रपात -- संज्ञा, पु० यौ० (सं०) प्रारंभ । सूत्रपिटक - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) बौद्ध-सूत्रों का एक प्रसिद्ध संग्रह - ग्रंथ । सूत्रात्मा -- संज्ञा, पु० यौ० (सं० सूत्रात्मन् ) जीव, जीवात्मा । सूथन -सूथना -- संज्ञा, पु० (दे०) ढीला पायजामा, सुथना, सुत्थन (दे० ) । सुथनी - पंज्ञा, त्रो० (दे०) छोटा पायजामा, सुधनिया, सुथनी (दे०) । सूद - संज्ञा, पु० ( फ़ा० ) व्याज, लाभ, नफा, वृद्धि । मुहा०- सूद दर सूदचक्रवृद्धि व्याज, व्याज पर व्याज | संज्ञा, पु० दे० (सं० शूद्र ) नीच जाति । For Private and Personal Use Only Page #1821 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूदन १८१० सूदन-वि० (सं०) नाश करने वाला। संज्ञा, सूप-संज्ञा, पु० (सं०) पकी दाल या उसका पु. (सं०) हनन, बधन, मारने या वध करने । रसा, रसेदार तरकारी, व्यंजन, रसोइया, का कार्य फेंकना, अंगीकरण “ लखन, बाण, पाचक । " भोजनं देहि राजेन्द्र घृतशत्रु-सुदन एक रूपा"-रामा । सूप-समन्वितम्"---भो० प्र० । सज्ञा, पु० सूदना--स० कि० दे० (सं० सुदन ) नाश दे० ( सं० सूय ) अन्न फटकने या पछोरने करना, मार डालना या वध, हनना। का सींक, सरई या बाँस का छाज, सूपा । सूदी-वि० (फ़ा०) व्याज पर उठा धन, लो०-"लाला परे सूप के कोन'-कहा। व्याजू । सूपक-संज्ञा, पु० (सं०) सुवार, रसोइया, सूद्र-संज्ञा, पु० दे० ( सं० शूद्र ) शूद, नीच रसोई बनाने वाला, रोटकरा (ग्रा०)। जाति । सूपकार--संज्ञा, पु० (सं०) सुवार, पाचक, रसोइया। सूध, सूधा-वि० दे० ( हि० सीधा ) अजु, सूपच*-संज्ञा, पु० दे० (सं० श्वपच ) सीधा, सरल । “सूध दूध मुख करिय न श्वपच, डोमार, डोम, सुपच (दे०)। कोहू"-रामा० । “बॉवी सूधो साँप" सूपनखा-संज्ञा, स्त्री० दे० ( सं० शूर्पणखा ) -नोति । स्रो० सूधी। शूर्पणखा। सूधना*-अ० क्रि० दे० ( सं० शुद्ध ) सिद्ध | सूपशास्त्र-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) सूप-विद्या, होना, सत्य या ठीक होना । स० रूप पाक-शास्त्र, पाक-विद्या या कला। सुधाना-साधा करना, सुधियाना। सूपा-संज्ञा, पु० दे० ( सं० शूर्प) अन्न पछोसूधे-क्रि० वि० दे० (हि. सीधा ) सीधे, रने का सूप । सीधे से । “भय वश सूधे परे न पाऊँ , सूफ़-- संज्ञा, पु० (अ०) ऊन, पश्म, देशी -रामा० वि० (दे०) सूधा का वहुववन । ___ काली स्याही को दावात में डालने का । लत्ता। सून-संज्ञा, पु. (सं०) जनन, प्रसव, पुत्र, | सूफी - संज्ञा, पु० (अ.) उदार मुसलमानों कलिका, फूल, फल । *संज्ञा, पु० वि० | का एक धार्मिक संप्रदाय । दे० ( सं० शून्य ) शून्य, सूना, ख़ाली। सूबा-संज्ञा, पु० (फा०) किसी देश का एक "सून भवन दसकधर देखा "--रामा० । भाग, प्रदेश, प्रांत । 'वे (दे०) सूबेदार । सूना-वि० दे० (सं० शून्य ) शून्य, खाली, सूबेदार-संज्ञा, पु० (फा०) प्रांत या प्रदेश निर्जन, सुनसान । स्त्री०–सूनी । संज्ञा, ___ का शासक, सूबे का हाकिम, सेना में एक पु०-एकांत, निर्जन स्थान । संज्ञा, स्त्री० छोटा श्रोहदा, गवर्नन (अ०)। (सं०) कन्या, बेटी, पुत्री, कसाई-खाना, सूबदारी--दा, स्त्री० (फा०) सूबेदार का हत्या-स्थान, गृहस्थ घर में जीव-हिंसा की श्रोहदा, प्रांताधीश का पद या कार्य। सम्भावना के स्थान, चूल्हा-चक्की आदि, घात, सूभर*-वि० दे० ( सं० शुभ्र ) सुंदर, मनो. हत्या । " सोना लादन पिय गये, सूना रम, दिव्य, धवल, सफ़ेद, श्वेत, उज्ज्वल । करिगे देस"-गिर। सूम --- वि० दे० ( अ. शूम ) कंजूम, कृपण, सूनापन-संज्ञा, ५० दे० (हि० सूना -- पन- पूँजी । “खाय न खरचै सम धन"-वृ० । प्रत्य०) सन्नाटा, सूना होने का भाव । संज्ञा, स्त्री०-समता, सूमताई, सूमई । सूनु-संज्ञा, पु० (सं०) पुत्र, लड़का, बेटा, सूर --- संज्ञा, पु० (सं०) अर्क, सर्दी, मदार, संतान, अनुज, छोटा भाई, दौहित्र, नाती, आचार्य, पंडित (दे०) सूरदास, अंधा, १६ सूर्य, भानु । गुरु और १२० लघु वाला छप्पय छंद का For Private and Personal Use Only Page #1822 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुरमुखी सूरकांत १८११ ५श्वाँ भेद (पि०) । स्त्री० -सूरी। 'सूर | सूरत, सूरति-संज्ञा, स्त्री० (फा०) शक्ल. सूर तुलपी ससी, उड़गण केसवदाम" ---- श्राकृति, रूप । मुहा०-सूरत बिगड़नास्फु० । *---संज्ञा, पु० दे० ( सं० शूर) मुँह क" रंग फीका पड़ना । सूरत बनाना बहादुर, वीर । " सूर समर करनी करहिं" ---रूप बनाना, भेस बदलना, नाक-भौं --रामा० । --संज्ञा, पु० दे० (सं० सिकोड़ना, मुँह बनाना । सूरत दिखानाशूकर ) सुअर, भुरे रंग का घोड़ा। संज्ञा, सम्मुख पाना। सुंदरता, सौंदर्य, छबि, छटा. पु० दे० (सं० शूल) बरछी, भाला. पेट का शोभा, युक्ति, उपाय, ढंग, दशा, अवस्था । दर्द। संज्ञा, पु० (दे०) पठानों की एक जाति। संज्ञा, सी० दे० (सं० स्मृति ) स्मरण, सुधि । सूरकांत- संज्ञा, पु० दे० यौ० (सं० सूर्यकांत) वि० दे. (सं० सुरत ) अनुकूल, कृपालु । मातंड-मणि, सूरजमुखी या भातशी शीशा, संज्ञा, पु० (दे०) एक नगर (बम्बई)। संज्ञा, एक तरह का बिल्लौर या स्फटिक । स्त्री० (१० सूरः ) कुरान का अध्याय । सूर-कुमार-संज्ञ', पु० दे० यो० सं० शूरसेन | सूरता सुरताई-संज्ञा, स्त्रो० दे० सं० शूरता) +-कुमार ) शूरसेन के पुत्र, वसुदेव जी। शूरता, वीरता, बहादुरी। " सोइ सूरता सूरज--संज्ञा, पु० दे० ( सं० सूर्य ) सूर्य । बिक पाई"-रामाः । मुहा०-सूरज पर थूकना या धूल सरति--संज्ञा, खी० दे० (फ़ा० सूरत ) सूरत, कना-किसी निदेष या साधु को दोष शक्ल, प्राकृति। संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० लगाना । सूरज को दीपक दिखाना दखाना- सुरति ) सुरति (दे०), स्मरण, सुधि । बड़े भारी गुणी को सिखाना, सुविख्यात सूरदास-संज्ञा, पु. (सं०) एक प्रसिद्ध सिद्ध व्यक्ति का परिचय देना। संज्ञा, पु. (सं०) कृष्ण भक्त तथा हिन्दी के सर्वोच्च महाकवि शनि, यम, सुग्रीव, कर्ण राना, सूरदास । जो अंधे थे। “सूरदास बलिहारी।" संज्ञा, पु० दे० (सं० शूरज ) वीर-पुत्र, शूर सूर्य नंदन--संज्ञा, पु० यौ० दे० (सं० सूर्यपुत्र ! " डारि डरि हथियार सरज प्राण लै नंदन) सूर्य सुत । स्त्री०-सूरनंदिनी। लै भजहीं"-राम। सूरन-संज्ञा, पु० दे० (सं० सूरण ) जमीकंद, सूर-तनया, सूर-मनुजा-पंज्ञा, स्त्री० यौ० एक कंद विशेष, अोल (प्रान्तो०)। " रन(दे०) सूर्य तनया. सूर्य सुता, सूर्य तनुजा, सूरन को लगत प्रिय, सूरन केर प्रचार"सूर्य-तनूजा यमुना मना। सूरजतनी-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० सूर्यतनया ) सूर्य्यतनया, यमुना जी। सूरपना --संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० शूर्पणखा) सूरज-मुखी-संज्ञा, पु० दे० यौ० (सं० सूर्य सूर्पणखा, शूर्पणखा, रावण की बहन । मुखी ) दिन में सूर्य की ओर मुख रखने सूर-पुत्र, सूर-पूत (दे०) -- संज्ञा, पु. (सं०) और सर्यास्त या संध्या में नीचे भान यम, शनि, सुग्रीव, कर्ण, सूर-नंदन । वाले पीले फूल का एक पौधा, एक प्रकार | सूर-वीर--संज्ञा, पु० दे० यौ० (सं० शूरवीर ) की आतिशबाज़ी, एक तरह का पंखा या! __बहादुर पुरुष । छत्र, पातशी शीशा। सूरमा --संज्ञा, पु० दे० (सं० शूरमानी) योद्धा, सूरज-सुत संज्ञा. पु. यौ० (सं० सूर्यसुत) वीर, बहादुर।। सूर्यात्मज, सुग्रीव. कर्ण, शनि, यम । सूरमापन-संज्ञा, पु० दे० (हि०) शूरमा, सूरज-सुता -संज्ञ', स्त्री० दे० यौ० (सं० वीरता, बहादुरी, वीरत्व । सूर्यसुता) सूर्यसुता, यमुना जी, तरनि- सूरमुखी-संज्ञा, स्रो० दे० यौ० (२०) सूर्यतनूजा, भानुना, रविजा । । मुखी, सूरजमुख । For Private and Personal Use Only Page #1823 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org सुरमुखी मनि १८१२ सूर्य-मंडल | सुरमुखी मनि| संज्ञा, स्त्री० दे० ( सं० सूर्यकांत मणि ) सूर्यकांत मणि, श्रातशी शीशा । सूर्म्य – संज्ञा, पु० (सं०) सूरज (दे०), मार्तंड, अर्क भास्कर भानु रवि, श्रादित्य, दिवाकर, दिनकर, प्रभाकर, श्राकाश में ग्रहों के बीच सब से बड़ा एक ज्वलंत पिंड जिसकी परिक्रमा सब ग्रह करते तथा जिससे गर्मी सूरवाँ ---संज्ञा, पु० दे० ( हि० सूरमा ) सूरमा वीर, शूर सूर सावंत, सूर-सामंत - संज्ञा, पु० दे० यौ० (सं० शूर + सामंत ) सेनापति, मंत्री, सरदार, नायक | युद्ध सुर-सुत – संज्ञा, पु० दे० यौ० ( सं० सूर्य + सुत) शनि, यम, सुग्रीव, कर्ण । सूर- सुता -- संज्ञा, स्रो० (सं०) रविजा, यमुना जी. भानुजा । सूर- सुवन, सूर-सुमन - संज्ञा, पु० दे० (सूर्य) सूर्य पुत्र | ● सूरसेन - संज्ञा, पु० दे० (सं० यूरसेन ) बसुदेव जी के पिता । सूरसेनपुर —– संज्ञा, पु० दे० यौ० (सं० शूरसेन पुर) मथुरा नगरी । 6. सुरा - संज्ञा, पु० दे० ( सं० सूर ) अंधा, शूर, वीर, एक कीड़ा । सूरा गति है तुमहीं लौं मानौ सत्य मुरारी सूर. | "सूरा मेंोहा करो "" मिसंक " - स्फु० । सूरदास, की सुराख - संज्ञा, पु० ( फा० ) बिल, छेद, छिद्र । सूरि - संज्ञा, पु० (सं०) ऋत्विज, यज्ञ क वाला, विद्वान्, आचार्य्य, पंडित, सूर्य, कृष्ण । " अथवा कृत्-वाग-द्वारे वंशेऽस्मिन् पूर्व सूरिभिः - रघु० ० । " सूरी – संज्ञा, पु० ( सं० सूरिन् ) पंडित, विद्वान | संज्ञा, स्रो० (सं०) पंडिता. विदुषी, कुंती, सूर्य्य पत्नी । * – संज्ञा, स्त्री० (दे०) सूली, शूली (सं०) । * t – संज्ञा, पु० दे० ( सं० शूल ) भाला, बरछी । सूरुज*† – संज्ञा, पु० दे० (सं० सूर्य) सूर्य | सूरुवाँ (* --- संज्ञा, पु० (दे०) सूरमा ( हि०), शूर-वीर योद्धा । सूर्पणखा सूर्पनखा – संज्ञा, स्री० ३० (सं० शूर्पणखा ) सूर्पणखा, सूपनखा रावण की बहिन | Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir I र प्रकाश पाते हैं, श्राक, मदार, बारह की संख्या, सूरज, सुरिज, सूरज (दे० ) । स्त्री० - सूर्या, सूर्याणी | सूर्य्यकांत - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) सूरजमुखी शीशा, श्रातशी शीशा, एक तरह का बिल्लौर या स्फटिक । यौ० - सूर्य काँतमणि । सूर्यकन्या. सूर्यकन्यका - संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) यमुना । सूर्यग्रहण - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) सूर्य का ग्रहण जब सूर्य चंद्रमा की छाया में श्राता है, सूरज गहन (दे०) । सूर्य तनय -संज्ञा, पु० यौ० (सं०) सूर्य नंदन, सूर्यपुत्र कर्णादि । --- सूर्य-तनया – संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) यमुना, रवि-तनया । सूर्य-तापिनी - संज्ञा, ख े० ( सं० ) एक उपनिषद् | सूर्यनंदन - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) सूर्य - सुत । स्त्री० - सूर्य नंदिनी - यमुना । सूर्य- पत्नी - संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) सूर्य - प्रिया । सूर्य्य-पुत्र - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) सूर्य - तनय, शनि, यम, वरुण, सुग्रीव, कर्ण, सूर्य-सुत, सूरज - पूत (दे० ) । सूय्य - पुत्री - संज्ञा, स्त्री० (सं०) सूर्य-कन्या, यमुना, बिजली (०) । सूर्य्यप्रभ - वि० (सं०) सूर्य के सदृश कांति मानू या प्रकाशवान । सूर्यप्रभा, सूर्य-प्रतिभा - संज्ञा, स्त्रो० यौ० (सं०) सूर्याभा, सूर्य की कांति या रोशनी, सूर्य का प्रकाश, धूप, घाम, सूर्यप्रिया, सूर्य- पत्नी, दीप्ति । सूर्य प्रिय - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) कमल, माणिक | सूर्य मंडल - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) रवि-मंडल | For Private and Personal Use Only Page #1824 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org सूर्य-मणि सूर्य-मणि-संज्ञा, पु० यौ० (सं० सूर्यकांतमणि ) सूर्यकांत मणि, श्रातशी शीशा । सूर्यमुखी -संज्ञा, पु० यौ० (सं० सूर्यमुखिन् ) सूरजमुखी (दे०) दिन में ऊपर और संध्या में नीचे झुक जाने वाले पीले फूल का एक पौधा | सूर्य-लोक-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) सूर्य का लोक ( कहा जाता है कि रण में मरे वीर इसी लोक में जाते हैं ) । सूर्य वंश - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) भानु- वंश, pear वंश, क्षत्रियों के दो प्रधान और आदि के कुलों में से एक कुल, जिसका यदि राजा इताकु से होता है। " कसूर्य प्रभवो वंशः ". - बधु० । सूर्यवंशी - वि० (सं० सूर्यवंशिन् ) सूर्यवंश का, सूर्य वंश में उत्पन्न | वि०सूर्यवंशीय | १८१३ सूर्य संक्रांति - संज्ञा, स्रो० यौ० (सं०) सूर्य का एक राशि से दूसरी में जाना (ज्यो० ) । सूर्य सारथी - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) अरुण | सूर्य-सुत - संज्ञा, पु० (सं०) सूर्यपुत्र, सूरजसुत । सूर्यसुता – संज्ञा, स्री० (सं०) यमुना, सूरजसुता (दे० ) । सूर्या - संज्ञा, त्रो० सूर्य प्रिया, रवि-पत्ती ! सूर्यामा - संज्ञा, स्री० यौ० (सं०) सूर्य की प्रभा, घाम, धूप । सूय्र्यावर्त्त - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) हुलहुल पौधा, एक प्रकार का अर्ध शिर-शूल, श्राधाशीशी । (सं०) सूर्य की स्त्री, सूर्यास्त - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) सायंकाल, संध्या, सूर्य का डूबना या छिपना | सूर्योदय - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) सूर्य का उदय या प्रकट होना, प्रकाशित होना, निकलना, प्रातःकाल । " सूर्योदय सकुचे कुमुद, उड़गण जोति मलीन" - रामा० । सूर्योपासक - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) सूर्या सूही चक. सूर्य पूजक, सूर्य की पूजा या उपासना करने वाला, सौर | सूर्योपासना - संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) सूर्य की पूजा या उपासना, सूर्याराधन, सूर्या न्चन । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूल - संज्ञा, पु० दे० (सं० शूल) बरछा, भाला, साँग, काँटा कोई चुभने वाली चीज़, एक प्रकार की चुमने की सी पीड़ा, कसक, दर्द, पेट की पीड़ा, भाला का ऊपरी भाग । " 'वचन सूल-सम नृप उर लागे " - रामा० । सूलघर - संज्ञा, पु० दे० ( सं० शूलधर ) शिव जी । · i सुनना - ए० क्रि० दे० (हि०) भाले से छेदना, पीड़ित करना । अ० क्रि० (दे०) भाले से छिदना, पीड़ित या व्यथित होना, वेदना पाना, दुखना । सूज-पानि - संज्ञा, पु० दे० यौ० (सं० शूलपाणि) शूलपाणि शिव जी । सूली - संज्ञा, त्रो० दे० (सं० शूल ) दंडित व्यक्ति को एक नुकीले लोहे पर बैठा कर ऊपर से थाघात कर प्राण दंड देने की एक पुरानी रोटि फाँसी | संज्ञा, पु० दे० (सं० शूलिन् ) शूली, शिवजी । सूचना* अ० क्रि० दे० (सं० स्रवण ) बहना | संज्ञा, पु० दे० (सं० शुक्र ) तोता, सुश्रा, सुचना, सुगना । सूवा संज्ञा, पु० दे० ( सं० शुक्र ) तोता, सुग्गा, सुवा. सुगना । सुस- सूसि - संज्ञा, पु० दे० ( सं० शिशुमार ) मगर जैसा एक जल-जंतु, सुइस । सूसी - संज्ञा, खी० (दे० ) एक प्रकार का कपड़ा । सुसुम - वि० (दे०) कुनकुना, थोड़ा गरम | सुहा -- संज्ञा, पु० दे० ( हि० सोहना ) एक तरह का लाल रंग एवं मिश्रित राग, ( संगी० ) । वि० ( स्त्री० सूही ) लाल, लाल रंग का । सूही - वि० सी० दे० ( हि० सोहना ) लाल रंग, सूहा । For Private and Personal Use Only Page #1825 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सेतना सुंखला १८१४ मुंखला*-संज्ञा, स्त्री० दे० ( सं० शृंखला ) सृप -- वि० (सं०) उत्पन्न, उद्भूत, विरचित, श्रृंखला, जंजीर, जंजीर। निर्मित, युक्त, मोक्ष. छोड़ा हुया उत्पादित | संग% ---संज्ञा, पु० दे० ( सं० नंग ) सींग सृया-संज्ञा, पु० वि० सं०) बिरंचि, ब्रह्मा, (दे०), चोटी। __सृष्टिकर्ता, रचने वाला। सुंगवेरपुर* ---संज्ञा, पु० दे० यौ० (सं० स्मृष्टि-संज्ञा, स्त्री० (सं०) उत्पत्ति, रचना, शृंगवेरपुर) श्रृंगवेरपुर निषाद-नगर,सिंगरौर | निर्माण, बनावट, विश्व की उत्पत्ति, संसार, (वर्तमान)। .संगबेरपुर पहुँचे जाई " जगत, जहान, निसर्ग, प्रकृति ।। ---रामा० । स्मृष्टिकर्ता-संज्ञा, पु० यौ० ( सं० सृष्टिकर्ता ) सुंगी (रिषि)---संज्ञा, पु. (दे०) शृंगी संसार का उत्पन्न करने या बनाने वाला, (ऋषि) । विधाता, ब्रह्मा, विधि, विरंच, परमेश्वर । संजय-संज्ञा, पु० (सं०) मनुजी के एक सृधिविज्ञान - संज्ञा, पु. यौ० (सं०) वह पुत्र. धृष्टद्युम्न का वंश । शास्त्र जिनमें सृष्टि की रचना आदि पर सृक-संज्ञा, पु० (सं०) बरछा. शूल, भाला, | विचार किया गया हो, संमृति शास्त्र, हवा, वायु, तीर, बाण, शर । संज्ञा, पु० दे० | रष्टिविद्या । (सं० स्रज, स्वक्, लग ) हार, गजरा, माला। संक--संज्ञा, स्त्री० दे० ( हि० सेंकना ) सेंकने सृकाल, मृगान --- संज्ञा, पु. ३० (सं० की क्रिया का भाव । शृगाल ) सियार, गीदड़। सेंकना-स० कि० दे० (सं० श्रेषण। किसी सृग*---संज्ञा, पु० दे० (सं० सक) शूल, वस्तु को पाग में भूनना या पकाना, किसी बरका, भाला, शर, तीर । संज्ञा, पु० दे० वस्तु में गरमी पहुँचाना। मुहा० - अाँख (सं० स्रज, स्त्रक) गजरा, माला, हार।। सेंकना--सुन्दर रूप देवना । धप सेंकना स्मृग्विनी*- संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० स्राविणी) -धूप से देह गरम करना। ४ रगण का एक वर्णिक छंद (गि०) संगर-संज्ञा, पु० दे० (सं० शृंगार) एक पौधा सृजक % ---- संज्ञा, पु० (सं०) विरंचि, सृष्टि का जिसकी फलियों की तरकारी बनती है, एक बनाने या उत्पन्न करने वाला, सर्जक, ब्रह्म, । प्रकार का अगहनी धान । संज्ञा, पु० दे० सिरजनहार (दे०)। (सं० भंगोवर) क्षत्रियों को एक जाति । सृजन-संज्ञा, पु० (सं०) सृष्टि के उत्पादन संगरी-संज्ञा, स्त्री० (हि० सेंगर) बबूल की या रचने का कार्य, सृष्टि, सिरजन फली, सिंगरी, छेमी। संटा- संज्ञा, पु० (दे०) सरपत, मोटी सींक । सृजनहार *-----संज्ञा, पु० दे० (सं० सृज) संत-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० संहित) बिना या ( सं० सृजन+ हार-हि०-प्रत्य० ) सृष्टि- मुल्य. बेदाम, बिना खर्च, बिना कुछ लगे कर्ता, स्रष्टा, ब्रह्मा, विरंचि, सिरजनहार | या ख़र्च पड़े मुफ़्त । यौ० (दे०) संत-मंत । (दे०)। मुहा०-संत का-जिसमें कुछ दाम न सृजना-स० क्रि० दे० ( सं० सृजन ) लगा हो, मुफ्त का। *बहुत, ढेर का ढेर । सिरजना (दे०), सृष्टि का उत्पन्न करना | संत में-- बिना कुछ दाम दिये, मुफ्त में | या बनाना, रचना, बनाना। २० रूप- | व्यर्थ, निष्प्रयोजन, फज़ल, निरर्थक | *वि. सृजाना, सृजवाना। (दे०) ढेर सा, बहुत। सृति-संज्ञा, स्त्री० (सं०) आवागमन, रास्ता, सेतना--. क्रि० दे० ( हि० सैंतना) सेतना (दे०), रक्षा में रखना, इकट्ठा करना। For Private and Personal Use Only Page #1826 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सेजपाल RAPEHARMER READEEP संत-मेंत १८१५ संत-मेंत-क्रि० वि० दे० ( हि० सेंत + मंत सेंमर, सेंमल- संज्ञा, पु० दे० (हि० सेमर) अनु०) बिना मूल्य दिये, मुफ्त में, व्यर्थ, सेमर पेड़ शाल्मली। नाहक । संपई, सेंबई --संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० सेविका) सेंति, संती*-- संज्ञा, स्त्री० दे० (हि० संत) मैदे से बने सूत के से लच्छे जिन्हें दूध में बिना दाम दिये बिना मोल दिये मुफ्त में, | पकाकर खाते हैं। व्यर्थ । प्रत्य० (प्रा० सुंती) करण और अपा- संवर-*--संज्ञा, पु० दे० (हि० सेमल) दान कारकों की विभक्ति (प्राचीन हिन्दी)। सेमर, सेमल । संथी। --- संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० शक्ति) भाला। संड, संडा-संज्ञा, पु० दे० (हि. थूहर) संदुर*-संज्ञा, पु० दे० (सं० सिंदूर) सिंदूर । थूहर की जाति का एक कटीला पेड़। मुहा०-संदुर चढ़ना-कन्या का व्याह से-प्रत्य० दे० ( प्रा० संतो) तृतीया या होना। संदुर दना ( भरना )--पति का कारण और पंचमी या अपादान कारक की पत्नी की माँग भरना (व्याह में)। विभक्ति : वि० (हि.सा का बहुवचन) सदृश, संदरिया-संज्ञा, पु० दे० (सं० सिंदूर) लाल समान, तुल्य । सर्व. (हि० सो का बहु. फलों का एक सदाबहार पौधा । वि० सिदूर व., वे, ते (श्रव०)। के रंग का, गादा लाल । संज्ञा, पु० एक सेइ-स० कि. (व.) सेवा करके, सेवन प्रकार का लाल-पीला ग्राम । "शोख यही सेंदूरिये का रंग है"-ग़लि। सेउ*/- संज्ञा, पु० दे० (हि० सेव) एक मीठा संदुरी--- संज्ञा, स्त्री. द. (हि० सेंदुर) लाल फल, सेव । स० क्रि० वि० (व. सेवना) गाय । संद्रिय-वि० (सं०) इन्द्रियों के सहित । सेक -- संज्ञा, पु. (सं०) जल-सिंचन, छिड़ काव, जल प्रक्षेप, सिंचाई । संघ- संज्ञा, स्त्री. द. (सं० संधि) संधि, सेब*--संज्ञा, पु० दे० (सं० शेष) शेष, अवबड़ा छेद, सुरंग, नाब, चोरी करने को दीवाल में किया गया बड़ा छेद । गुहा० शिष्ट, शेषनाग जी। "सहस सारदा सेख" नीति०। संज्ञा, पु० (अ० शेख) मुसलमानों संध लगाना (मारना)--चोरी करने को की एक जाति । " सेख काबे हो के पहुँचा दीवाल में सधि या बड़ा छेद करना। संधना-स. क्रि० दे० ( सं० संधि ) सेंध या| हम कनश्ते दिल में हो"--ज़ौक़ । वि. सुरंग लगाना। (दे०) शेषवाकी। संधा-- संज्ञा, पु० दे० (सं० सैंधव) एक खनिज सेखर* -संज्ञा, पु० दे० सं० शेखर, शेखर, नमक,संधी (दे०), सैंधव या लाहौरी नमक। शीश, सिर । " और हर संधा चीत"कुवि. सेगा-संज्ञा, पु. (अ०) सीगा (उ.) संधिया-वि. द. ( हि० संध ) सेंध करने महकमा, विभाग, क्षेत्र, विषय । वाला, नकब लगाने वाला, चोर । संज्ञा, पु. सेचक-वि० (सं०) सींचने वाला। दे. (मरा० शिंदे लिधिया, ग्वालियर के सेचन-संहा, पु० (सं०) पानी सींचना, मरहटा राज-वंश की पदवी। सिंचाई, सिंचन, अभिषेक, मार्जन, छिड़संधी-संज्ञा, पु० (दे०) खजूर का रस ।। काव । वि०-सेचनीय, सेचित, सेच्य । संधर-संज्ञा, पु० दे० (हि० सेंदुर) सेदुर, सेज संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० शय्य) शय्या, सिदूर। पलंग, चारपाई। पारिगो को मैया मेरी संधो-संज्ञा, पु० दे० (सं० संधव) सेंधा सेज पै कन्हैया कौ'-पद्मा। नमका | सेजपाल, सेज-पालक-संज्ञा, पु० दे० For Private and Personal Use Only Page #1827 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir RamRamNDImammarnamasuomaram सेजरिया, सेज्या १८१६ सेना शायनागार का रक्षक, राजादि की सेज का सेतुबंध-संज्ञा,पु० यौ० (सं०) पुल की बधाई, पहरेदार। लंका पर आक्रमणार्थ समुद्र पर रामचन्द्र सेजरिया, सेज्या*---संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० का बंधाया पुल । " सेतुबंध इतिख्यातः " शय्या) सेज, शय्या पलँग, सेनिया (दे०) .. वाल्मी । यौ० सेतुबंध-रामेश्वर । सेझदादि संज्ञा, पु० दे० (सं० सह्यादि) सेतुवा --- संज्ञा, पु० दे० (सं० शक्तु ) सत्तू, सहयाद्रि, पर्वत (दक्षिण)। | सित्त, सितुपा, भुने हुए जवों और धनों सेझना--० क्रि० दे० (सं० सेधन) हटना, | का आटा, सेतुश्रा (ग्रा०) । संज्ञा, पु० अलग या दूर होना, सीझना । (प्रान्ती०) सूस जन्तु । सेटना-संटना*-अ. क्रि० दे० (सं० श्रत) सेथिया--संज्ञा, पु० दे० तेलगू चेटि) आँखों ख़्याल करना, मानना, समभाना, महत्व की दवा करने वाला, नेत्र-चिकित्सक । स्वीकार करना, कुछ समझना सेद* -- संज्ञा, पु० दे० (सं० स्वेद) पसीना । सेठ-संज्ञा, पु० द० (सं० श्रेष्ठ, बड़ा महाजन “सेद-कन मारत, सँभारत उसाँसह न"या साहूकार, कोठीवाल, बड़ा धनी, थोक | | रखा। व्यापारी, सुनार, सराफ़ | स्त्री०--सेठानी। सेदज*--वि० दे० (सं० स्वेदज) स्वेदज, सेढा--संज्ञा, पु० (दे०) नाक का मैल । पसीने से उत्पन्न कीड़े चीलर, जूं । सेत*-वि० दे० (सं० श्वेत) सफेद, श्वेत. सेन--संज्ञा, पु. (सं०) देह, जीवन, एक भक्त उजला । "सेत लेत सब एक से करर कपास नाई, बंगालियों की एक जाति · संज्ञा, पु. कपूर" - नीतिः । संज्ञा, दे० । सं० सेतु ) द० सं० श्यन) बाज पदी ! संज्ञा, स्त्री० दे० पुल, बांध, धुस्स, मेंड़, सीमा, मर्यादा, (सं० सेना) सेना, फौज, सैन, आँख का नियम, व्यवस्था । " धर्म-सेत-पालक तुम इशारा । “समधि सेन चतुरंग सुहाई".-- ताता"- रामा० । “सेत सेत सबही भले रामा०। सेतो भलो न केश''-स्फु०। सेनजित--वि० यौ० (सं०) सेना को जीतने सेतकुली-संज्ञा, पु० द० यौ० (सं० श्वेत वाला । संज्ञा, पु. श्रीकृष्ण जी का एक कुलीय) सफ़ेद जाति के नाग । लड़का। सेतदुति-संज्ञा, पु० दे० (सं० श्वेत द्युति) सेनए-सेन-पति*-संज्ञा, पु० दे० (सं० चन्द्रमा। सेनापति) सेनापति । "मंत्री, सेनप, सचिव सेतवाह-सेतवाहन* --संज्ञा, पु० दे० यौ० । शुभ " .... रामा। (सं० श्वेत वाहन) अर्जुन, चन्द्रमा (डि०)। सेन-वंश-- संज्ञा, पु. यौ० (सं०) बंगाल का सेतिका-संज्ञा, स्त्री० दे० (० साकेत ) एक राज-वंश जिसने ३०० वर्ष ( ११ हवीं अयोध्यानगरी, साकेत। से १४ हवीं शताब्दी) तक राज्य किया सेतु, सेत (दे०)--संज्ञा, पु० (०) बाँध, धुस्स, बंधाव, मेंड़, नदी आदि का पुल, सेना-संज्ञा, स्त्री० (सं०) कटक, दल, फौज, डांड, मार्ग, हद, सीमा, नियम या व्यवस्था, पलटन, युद्ध-शिक्षा-प्राप्त शस्त्रास्त्र सज्जित मर्यादा, व्याख्या, ओंकार, प्रणव । “वैदेहि मनुष्य-दल, इन्द्र का बज्र, भाला, इन्द्राणी, पश्या मलयात् विभक्तम् मत्सेतुना फेनि शची। स० कि० दे० (सं० सेवन ) सेवालमम्बुराशिम्"-रघु०। सुश्रूषा या टहल करना । यौ० मुहा०सेतुक-प्रव्य (दे०) सौतुक, सामने । संज्ञा, । चरण-सेना-नीच नौकरी करना या पु० (सं०) छोटा पुल । बजाना । पूजना, माराधना करना, नियम For Private and Personal Use Only Page #1828 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir IITIOUSLATARRABOD पति । सेनाजीवी १८१७ सेराना, सिराना पूर्वक व्यवहार करना, लगातार निवास सेनिका--- संज्ञा, स्त्री० दे. ( सं० श्येनिका ) करना, लिये बैठे रहना, कभी न छोड़ना, मादा वाज', एक छंद (पिं० )। मादा चिड़िया का गर्मी पहुँचाने को अंडों सेनी-सा, स्नो० दे० ( फ़ा० सोनी ) सीनी, पर बैठना। बड़ी तश्तरी । *---संज्ञा, स्त्रो० दे० (सं० सेनाजीवा-संज्ञा, 'पु० ( सं० सेना जीविन् ) | श्यनी ) मादा बान । * --संज्ञा, स्त्री० दे० सिपाही, सैनिक, योद्धा, वीर । (सं० श्रेणी ) श्रेणी, कतार, पंक्ति, जीना, सेनादार ---संज्ञा, पु. दे० ( सं० सेना । दार- सीढ़ी । पक्षा, पु०-सहदेव का अज्ञात-वास फ़ा० प्रत्य० ) सेनापति, सेनाध्यक्ष, सेना में नाम । नायक। सेव--संज्ञा. पु० (फा०) नाशपाती की जाति मेनाधिप-सेनाधीश---संज्ञा, पु० (सं०) का एक छोटा पेड़ और उसका स्वादिष्ट सेना-पति, सेना-नायक । फल ( एक मेवा ) । " सेब समरकंदी भी सेनाध्यत्त-मेनाधीश्वर--संज्ञा, पु० यौ० | (सं० सेना पति, मेनय। सेम-संज्ञा स्त्री० दे० (सं० शिंवा ) एक सेना-नायक-सज्ञा, पु० यौ० (सं०) सेना फली जिपकी तरकारी बनती है। सेमई *--संज्ञा, खी० दे० ( सं० सेविका ) सेनानी---संज्ञा, पु० सं०) सेना-पति, काति-संबई (दे०) गेहूँ के मैदे से बने बारीक तारों केय, षडानन, एक रुद्र । के लच्छे जो दूध में पका कर खाये जाते हैं। सेनापति-सेनाधिपति- संज्ञा, पु. यौ० मेमर-लेमा--- संज्ञा, पु० दे० (सं० शाल्मली) (सं०) सेनाध्यक्ष, सेना-नायक, मेनप, मना लाल फूलो' और रुई सी चीज़ दार फलों धिप। वाला एक बड़ा पेड़ । " सेमर सुनना सेनापत्य -- सज्ञा, पु० (सं०) सेनापति का सेइयो, लखि फूलन को रूप"-स्फु० । पद. अधिकार या कार्य । सेर-संज्ञा, पु० दे० (सं० सेत ) सोलह सेनापाल-सेनापालक-संज्ञा, पु. (सं.) छटाक या अस्पी रुपये भर की तौल । सेना-रक्षक. सेना पति, सेनाध्यक्ष । " सेर भर मर्द सवा सेर वर्ध"-स्फु० । सेनामुख-संज्ञा, पु. यौ० (सं०) सेना का संज्ञा, पु. ३० ( फा० शेर ) व्याघ्र, बाव, अग्रभाग, फ़ौज के आगे का हिस्सा, हरावुल, फ़ारसी का छंद, शेर । वि० (फ़ा०) अधाना, सफ़र मैना, ३ या ६ हाथी, ३ या ६ रथ, तृप्त । "सेर अधाना, कोर काना भेद राज़" १ या २१ घोड़े. और १५ या ४५ पैदल -मी. खु.। वाला सेना का एक नाग। | लेरसाहि-संज्ञा, पु० दे० यौ० (फा० शेरशाह) सेनावास-संज्ञा, पु. यो. (सं०) छावनी. दिल्ली का एक बादशाह, शेरशाह । " सेरपड़ाव, मिविर, डेरा,खीमा, सेना के रहने का साहि दिल्ली सुलतान ''-पद० । स्थान । सेरा-संज्ञा, पु० दे० ( हि० सिर ) पलँग में सेनाव्यह-संज्ञा, पु. यो० (सं०) सैन्य- सिर की अोर की पट्टी, सिरवा, सेरवा विन्यामे, सेना की नियुक्ति या स्थापना, (दे०) । संज्ञा, पु० दे० ( फा० सेराब ) पानी भिन्न भिन्न स्थानों पर सेना के विविधांगों | से तर ज़मीन, सिंची भूमि ।। की व्यवस्था। सेराना-सिगना*-अ. क्रि० दे० (सं० सेनि* -- संज्ञा, स्त्री० ६० ( सं० श्रेगी ) श्रेणी, शीतल ) सिरावना (दे०) शीतल या ठंढा पंक्ति, सेनी । “जनु तहँ बरस कमल सित- होना, तुष्ट या तृप्त होना, समाप्त होना, सेनी"-रामा० । । बीतना, मर जाना, तै होना, चुकना, भूलना। भा० श. को०-२२८ For Private and Personal Use Only Page #1829 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सेराब १८१८ सेवनीय "जनम सिरानो ऐसहि ऐसे।" स० क्रि०- सेवा ) सेवा । संज्ञा, पु० दे० (फ़ा० सेब ) शीतल या ठंढा करना। “जनम सेरानो जात सेब फल ( मेवा ) । " सेव कदम कचनार, है जैसे लोहे-ताव रे"- स्फु० । मूर्ति श्रादि । पीपर रत्ती तून तज"-फु० । का पानी में प्रवाह करना । “नदी सिरावत | सेवक-संज्ञा, पु. (सं० सेवा या टहल मौर"-तुल. । करने वाला, किंकर अनुचर, छोड़ कर कहीं सेराब–वि० (फ़ा०) जलाई, पानी से तर, न जाने वाला, दास, नौकर, भृत्य, चाकर, सींचा हुश्रा, सराबोर। भक्त, उपासक, निवास करने वाला, दरजी, सेरी-संज्ञा, स्त्री० (फा० ) तुष्टि, तृप्ति, प्रयोग करने या काम में लाने वाला। पासूदगी। “जा सेरी साधू गया सो तो | "सेवक सो जो करै सेवकाई"-रामा० । राखी मूंद'- कबी०।। स्त्रो०-सेविका, सेवकी, सेवकनी, सेल-संज्ञा, पु० दे० (सं० शल , भाला, सेवकिन, सेवकिनी। बरछा । संज्ञा, स्त्री० (दे०) माला, बद्वी। सेवकाई-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० सेवक + सेलखड़ी--संज्ञा, स्त्री० दे० (सं. शिला, आई --हि० प्रत्य० ) सेवक का काम, सेवा, शैल + खटिका ) एक प्रकार की खड़िया, ___टहल, नौकरी, दासता। सेलखरो, सिलाखरी (दे०)। सेवग--संज्ञा, पु० दे० (सं० सेवक ) दास, सेलना-अ० कि० दे० (सं० शेल) मर सेवक। जाना। सेवड़ा--संज्ञा, पु० (दे०) जैन मत के साधुओं सेला-संज्ञा, पु० दे० (सं० शल्लक ) रेशमी का एक भेद । संज्ञा, पु० दे० (हि. सेव ) चादर । मैदे के मोटा सेव या पकवान विशेष । सेलिया-संज्ञा, पु० (दे०) घोड़े की एक सेवति-संज्ञा, स्रो० दे० ( सं० स्वाति ) जाति । स्वाति नक्षत्र । सेली-संज्ञा, स्त्रो० (हि० सेल) छोटा भाला। सेवती- संज्ञा, स्त्री० (सं०) सफ़ेद गुलाब । संज्ञा, स्त्री० (हि. सेला ) छोटा दुपट्टा, गाँती (प्रान्ती०), यती-योगियों के गले | सेवन-संज्ञा, पु. ( सं०) खिदमत. सेवा, की माला या सिर में लपेटने की बद्धी, श्राराधना, परिचर्या, वास करना, उपासना, स्त्रियों का एक भूषण । उपयोग, नियमित व्यवहान. गंथना, प्रयोग, सेल्ल-सेल्ला-संज्ञा, पु० दे० (सं० शल) उपभोग, सीना, खाना, पीना । स्त्रीभाला, बरछा, सेल । सेवनीय, सवित, सेव्य, सेवितव्य । सेल्ह-संज्ञा, पु० दे० (सं० शल ) सेल, . सेवना*-स० क्रि० दे० (सं० सेवन ) सेवा भाला, बरछा। करना, उपासना करना, पूजना, प्रयोग या सेल्हा-संज्ञा, पु० दे० (सं० शल्लक ) सेला, उपभोग करना (अंडा) सेना। " सेवत रेशमी चादर। तोहिं सुलभ फल चारी"--- रामा० । सेवई-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० सेविक) लेमई। सेवनी- संज्ञा, स्त्री० (सं०) परिचारिका, दासी सेवर*-संज्ञा, पु. दे० (सं० शाल्मली) अनुचरी । “ स्वसेवनीमेव पवित्रयिष्यति" सेमर, सेमल, वृक्ष विशेष ।। -नैप० । सेव--संज्ञा, पु० दे० (सं० सेविका ) मोटे सेवनीय-वि० (सं०) सेवा या पूजा के योग्य, डोरे जैसे चने के आटे या बेसन से बने उपभोग या व्यवहार के योग्य, प्रयोग के एक पकवान ! *-संज्ञा, स्त्री० दे" (सं० लायक, सीने-योग्य । For Private and Personal Use Only Page #1830 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org सेवर सेवर - संज्ञा, पु० दे० (सं० शबर) शबर, एक जंगली जाति । वि० - ( प्रान्ती०) श्राँच से कम पका हुआ । मेवरा -- संज्ञा, पु० दे० ( हि० सेवड़ा ) जैन साधुयों का एक भेद | वि० (दे०) पाँच में कम पका, कच्चा । स्री० - सेवरी । सेवरी - संज्ञा, त्रो० दे० (सं० शबरी ) शबर जाति की एक स्त्री जो राम की भक्तिन थी (रामा० ) । वि० स्रो० ( हि० सेवरी) । सेवल - संज्ञा, पु० (दे०) व्याह में एक रीति १८१६ या रूम । सेवा - संज्ञा, स्रो० (सं०) श्राराधना, पूजा, परिचर्या, टहल, ख़िदमत, नौकरी, दासता, उपासना, दूसरे को श्राराम पहुँचाने की क्रिया। मुहा० मेवा में - सम्मुख, समीप, पास । शरण, आश्रय, रत्ता, मैथुन, संभोग, रति । सेवा टहल-संज्ञा स्त्रो० यौ० (सं० हि० ) परिचर्या, खिदमन, सेवा-शुश्रवा । मेवाती-संज्ञा स्त्री० दे० (सं० स्वाति) स्वाति नक्षत्र, सेवती का पुष्प । सेवाधारी-संज्ञा, पु० (सं० ) उपासक, पुजारी । सेवापन -- संज्ञा, पु० दे० (सं० सेवा + पनहि० प्रत्य०) सेवावृत्ति, नौकरी, दासता । सेवा बंदगी-संज्ञा, स्त्रो० दे० (सं० सेवा + बंदगी - फा० ) पूजा, उपासना, श्राराधना । मेवार - मेवाल - सज्ञा, स्त्रो० दे० (सं० शैवाल) पानी में फैलने वाली एक घास । " ज्यों नदियन में बधै सेवार " - बाल्हा० । सेवा-वृत्ति-पंज्ञा, त्रो० यौ० (सं०) नौकरी, दासत्व, दासता, भत्य-जीविका । सेवि - संज्ञा, पु० ( पं० ) सेवी का समास में रूप, सेवा करने वाला । वि० (दे०) सेव्य, सेवित । मेविका - संज्ञा, स्त्री० (सं० ) किंकरी, दासी, नौकरानी, सेवा करने वाली, अनुचरी, परिचारिका ! सेसर सेवित - - वि० (सं०) पूजित, जिसकी पूजा या सेव" की गई हो, व्यवहृत, उपयोग या उपभोग किया हुआ, प्रयुक्त, प्राराधित, जिसका भोग या प्रयोग किया हुआ । सेवी - त्रि० (सं० सेविन् ) सेवा या पूजा करने वाला, सेवन या संभोग करने वाला | "तुम सुर, धेनु विप्र, गुरु-सेवी" - -- रामा०| संज्ञा, पु० (सं०) दास । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सेव्य - वि० (सं०) पूज्य, उपास्य, जिसकी सेवा करना उचित हो, जिसकी सेवा की जाये या करना हो, सेवा और धाराधना करने योग्य, उपभोग या प्रयोग के योग्य, रक्षण और संभोग के योग्य | संज्ञा, पु० स्वामी, प्रभु, पीपल वृक्ष, अश्वत्थ, पानी, जल । स्त्री० मेव्या । सेव्य-सेवक - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) स्वामी, और दास । यौ० - सेव्य-सेवक भावभक्ति मार्ग में उपासना का वह भाव जिसमें भक्त अपने को दास और उपास्य देव को अपना स्वामी माना जाता है, दास्य-भाव । सेश्वर - वि० सं०) परमेश्वर के सहित, ईश्वर-संयुक्त, जिसमें परमेश्वर की स्थिति मानी गयी हो । सेप - पंज्ञा, पु० दे० (प्र० शेख) मुसलमानों का एक जाति, शेख, सेख (दे० ) | संज्ञा, पु० (दे०) शेषनाग (सं०) शेष, धवशिष्ठ । सेस - संज्ञा, पु० वि० दे० नाग, शेषजी, जो बाक़ी शेषावतार लक्ष्मण । सेवनाग संज्ञा, पु० दे० यौ० (सं० शेषनाग ) शेषनाग | "सेषनाग पृथ्वी लीन्हे हैं इनमें को भगवान” – कवी० । सेसरंग - संज्ञा, पु० दे० यौ० (सं० शेषरंग) श्वेतरंग | सेसर संज्ञा, पु० दे० ( फ़ा ० से हसर तीनबाज़ी) ताश का खेल, जाल, बालसाजी, वि० (दे० ) तिगुना । For Private and Personal Use Only (सं० शेष) शेषबचे, श्रवशिष्ठ, Page #1831 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ब SHERSIO सेसरिया १८२० सैगर सेसरिया-वि० ( हि० सेसर- इयः-प्रत्य० ) । (सं०) जयद्रथ, सेंधव नृपाल, सेंधवछल-छन्द से पर धन हरने वाला, जालिया, पति । जालसाज़। सेंधवपति - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) राजा सेससायी-संज्ञा, पु० यौ० (दे०) शेषशायी, जयद्रथ, संघवाधिए, पिध-नरेश । विष्णु भगवान । सैंधवाधिपति--संज्ञा, पु० यौ० (सं०) सिंध. सेहत-संज्ञा, स्त्री० (अ०) श्रारोग्यता, तन्दु नृप, जयद्रथ । रुस्ती, सुख-चैन, रोग मुक्ति । मैं बवी- संज्ञा, स्त्रो० (सं०) सव रागों की सेहतखाना-संज्ञा, पु. यौ० (अ सेहत- एक रागिनी, (स्त्री। खाना फ़ा०) मल-मूत्रादि की कोठरी। मैं धवेश-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) सैंधवनसेहरा---संज्ञा, पु० दे० यौ० (हि. सिरहार) पति, जयद्रथ, सेंधव-नृपाल । वर के यहाँ विवाह में गाने के मंगल गीत, सेंध-संक्षा, स्त्री० दे० (सं० संघवी) सब जाति पगड़ी में बाँधकर मौर के नीचे दल के मुख की एक रागिनी, सैंधवी । के सामने लटकाने की फूल, गोटे आदि की सैंवरी- संज्ञा, पु० दे० (हे० सांभर) साँभर मालायें । " देख लो इस तरह कहते हैं सखुनवर सेहरा"--जौक । मुहा० -- किसी सैंह-कि० वि० दे० (हि० सोह) सौंह, के सिर सेहरा बाँधना (बंधना) सामने, सम्मुख । किसी का कृत कार्य करना (होना )। महथी-संज्ञा, खो० (सं० शक्ति) बरछी। सै--वि० संज्ञा, पु. दे. (सं० शत) सौ । किसी के सिर सेहरा होना--- किसी के कृतकार्य या सफल होना, उसी पर संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० सत्व) तत्व, सत्य, सार, शक्ति. वीय, वृद्धि, बरकत, बढ़ती । "पृथ्वी कृतार्थता का निर्भर होना। सेही संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० संधा) साही या की सै गई, अन्न थोरो उपजावति''--कुं० वि.। स्याही नामक काँटेदार छोटा जंगजी जंतु । सैकड़ा, सैकरा--संज्ञा, पु० दे० (सं० शत. सेहँड*--एंज्ञा, पु० दे० ( सं० सेंहुड़) कांड) सौ का समूह, शत-यमप्टि। थूहर की जाति का एक काँटेदार पेड़। सैकड़-वि० (हि० सैकड़ा) कई सौ, बहुसेहुाँ - संज्ञा, पु० (दे०) विवर्णताकारक संख्यक, प्रतिशत, प्रति सौ के हिसाब से, एक प्रकार का चर्म-रोग, सेहवाँ । फ्री सदी। सैंतना-स० क्रि० दे० (सं० संचय। हाथ से मैकडो-वि० (हि० सैकड़ा) श्रगणित, बहुसमेटना, बटोरना, एकत्रित य" संचित संख्यक, कई सौ। करना, सहेजना, सँभाल कर रखना, सैकन-वि० (सं०) स्कितामय, रेतीला, सतना (ग्रा०)। बालू का बना, बलुश्रा । स्त्री० --सैकती। सैंथी-संज्ञा, स्त्री. (सं० शक्ति) भाला. कल--- संज्ञा, पु० (अ० शस्त्रास्त्र पर सान बरछा, शक्ति। “इन्द्रजीत लीन्ही जब रखने या उनके साफ करने का कार्य । सैंथी देवन हहा कर्यो'-सूर०. मैकन्नगर - संज्ञा, पु० (अ. सैकल +गर-फा०) सैंधव-संज्ञा, पु० (सं०) सेंधा नमक, सैंधव शस्त्रास्त्र पर बाढ़ या सान रखने वाला। (दे०) सिंध प्रदेश का घोड़ा, सिंध देश का सैग-सइग---संज्ञा, स्त्रो० (७०) समानता, रहने वाला । वि० (सं०) सिंध देश का, बराबरी । वि० (ग्रा०) पूरा, सहिग। सिंधु-संबंधी, समुद्र का। सैगर--- वि० दे० (सं० सरल) अधिक, बहुत, मैंधव-नायक सैंधव-नृप-संज्ञा, पु० यौ० मइगर (ग्रा०)। For Private and Personal Use Only Page #1832 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सैथी १८२१ सैरंध्री सैथी --संज्ञा, स्त्री. ६० (सं० शक्ति बरछी। । सैनिकता-संज्ञा, स्त्री० (सं०) सेना या मैदा-संज्ञा, पु० दे० (अ० सैयद) सैयद, सैनिक का कार्या, लड़ाई, युद्ध, सैनिकत्व । मुसलमानों की एक जाति, अमीर। सैनिका- संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० श्येनिका) सैद्धांतिक-संज्ञा, पु० (सं०) सिद्धांत का। एक छंद पि०)। ज्ञाता, विद्वान, पंडित, तांत्रिक । वि० सैनियाना-स० क्रि० (दे०) सैन या संकेत सिद्धांत-संबंधी, तत्व-विषयक। करना, आँख से इशारा करना। मैन--संज्ञा, स्त्री. द.० (सं० संज्ञएन) संकेत, सैनी- संज्ञा, पु० दे० (सं० सेनाभक्त) नाई, इंगित. चिन्ह, इशारा निशान । “सैनहिं ! हज्जाम । संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० सेना) सेना, रघुपति लखन निवारे"-- रामा० * संज्ञा, फौज, कटक, दल । संज्ञा, स्त्री० (दे०) श्रेणी पु० द० (सं० शयन) शयन, मोना । सज्ञा, (सं०) कतार, सेनी (दे०), श्रेणी, पंक्ति । पु० दे० (सं० श्येन) श्येन, बाज पती * " जनु त बरस कमल सित सैनी" रामा०। संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० सेना) सेना, कटक, फौज | " समधि सैन चतुरंग सुहाई "--- सैन-संज्ञा, पु० (दे०) बेल बूटेदार नैनु कपड़ा। रामा० . संज्ञा. पु. (दे०) एक तरह का मैनेय --- वे० ( सं० सेना ) लड़ने-योग्य । बंगला। सैनेश-सैनेल - संज्ञा,पु० दे० यौ० (सं० सेनेश, सैन्येश) सेनापति, सेना-नायक । सैननाथ-सैनपति-संज्ञा, पु० दे० यौ० | सैन्य-संज्ञा, पु० (सं०) कटक. सेना, फ़ौज, (सं० सेनापति ) सेनापति, मेना-नापक, सैनाधिपति, मैनर, सैन नायक (दे०)। सिपाही, सैनिक, छावनी, शिविर । वि० - / सेना का, पैन्य-सबंधी। सैनभोग-संज्ञा, पु० दे० यौ० (से. शायन । सैफ-संज्ञा स्त्री० (अ०) तलवार । भोग) रात्रि के समय का नैवेद्य, मंदिरों में मही- वि. ( अ० सैफ ) टेदा. तिरछा । देव मूर्ति पर चढ़ाने का नैवेद्य (भोजन) और सैनिक -- संज्ञा, पु० (सं०) सेंदुर, सिंदूर । शयन । सैयद - संज्ञा, पु० (अ०) मुहम्मद साहिब के सैना--संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० सेना) सेना, नाती हुसैन के वंश के लोग, मुसलमानों कटक, दल | "चली भालु-कपि-मैना भारी" की ४ जालियों में से एक ऊँची जाति, रामा० । संज्ञा, पु० दे० सं० संज्ञपन) सैन, सैय्यद। इशारा, संकेत । " ये नैना सैना करें, उरज | मैयाँ* ---ज्ञा, पु० दे० (सं० स्वामी ) उमैठे जाहि"-रही। स्वामी, साई, मालिक, पति,मइयाँ, साइयाँ मैनाविप, मैनाधिपत्रि---पंज्ञा, पु० दे० यौ० (दे०)। (सं० मेनापति) सैनापति. सेनानायक। मैया -- संज्ञा, स्त्री० दे० ( सं० शय्या ) शय्या, मैनापत्य - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) सेनापति । पलँग । “ हौंही जमवैया ो धरैया निज का कार्य या पद, सेनापतित्व । वि० सेनाः | सैया तरे"-दूल्हा० । पति-संबंधी। | सैरंध्र -- संज्ञ', पु. (सं०) घर का दास या सैना-सैनी - वि० (दे०) इशारे से बात नौकर, एक वर्ण-संकर-जाति । स्त्री०करना। | सैरंध्री। मैनिक --- संज्ञा, पु० (सं०) सिपाही, सेना का सैरंध्री-संक्षा, स्त्री. (सं.) अन्तः पुर की तिलंगा, संतरी, फौजो आदमी । वि० सेना- दासी या नौकरनी, सैरंध्र जाति की स्त्री, संबंधी, सेना का। द्रौपदी। For Private and Personal Use Only Page #1833 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सोंठौरा सैर १८२२ सैर---संज्ञा, स्त्री० (फ़ा०) बाहर जाना, बहार, सैव -संज्ञा, पु० दे० ( सं० शैव ) शैव, मन बहलाने को बाहर घूमना-फिरना, शिवोपासक । कौतुक, तमाशा, मौज, श्रानंद, मित्रों का सैवल-सैवाल* --संज्ञा, पु० दे० (सं० शैवाल) बगीचे श्रादि में नाच-रंग, खान पान सिवार, पानी की घास, सेवार (दे०)। करना। "सैर कर दुनिया की ग़ाफिल सैवलनी* --- संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० शैवलिनी) जिंदगानी फिर कहाँ"--मीर० । यौ० नदी, सरिता । -सैर-सपाटा। सैव्या - संज्ञा, पु० दे० ( सं० शैव्या ) राजा सैरा-संज्ञा, पु० (प्रान्ती०) पाल्हा। हरिश्चंद्र की रानी। सैला-संज्ञा, स्त्री० दे० ( फ़ा० सैर ) सैर, सैसव -- संज्ञा, पु० (दे०) शैशव (सं०) घूमना-फिरना । संज्ञा, स्त्री० दे० (फ़ मैलाब) शिशुता, शिशुत्व, लड़कपन, खेल। " सैसव पानी की बाढ़, बहाव, स्रोत, जल-प्लावन । खेलन मैं गयो, जुवा तरूनि-रस-राग" संज्ञा, पु० दे० ( सं० शैल ) पहाड़, पर्वत। -क० वि० । "सैल बिसाल देखि इक आगे"- रामा०। । सैसवता-संज्ञा, स्त्री० (दे०) शैशव (सं०) सैलजा*--संज्ञा, स्त्री० दे० ( सं० शैलजा) शिशुता । गिरिजा, पार्वती। यौ०-सैजानंदन- सैहथी-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० शक्ति) बरछी। गणेश। सो-सौं --प्रत्य० दे० ( प्रा० सुत्तो ) करण सैल-तनया-संज्ञा, स्त्री० दे० यौ० ( सं० । और अपादान कारकों की विभक्ति (३०), शैलतनया) शैलतनया, गिरजा, पार्वती। से, द्वारा । वि० (३०)-सा, समान । संज्ञा, सैलतनूजा-संज्ञा, स्त्री० दे० यौ० (सं० स्त्री० (७०) सौंह का अल्प० रूप, शपथ, शैलतनुजा ) पार्वती, शैलतनुज', सैल- सौगंद । अध्य० (७०)--सौंह सम्मुख ! क्रि० तनुजा। वि०-संग, साथ । सर्व० (दे०) सो, वह । सैलसुता -संज्ञा, स्त्री० दे० यो० (सं० सांच-सांच-संज्ञा, पु. द० (सं० शोच ) शैलसूता ) शैल-सुता, गिरिजा, पार्वती, चिंता, फ़िक्र, शोक, दुख, पछतावा । सैलपुत्री, सैलकन्या । " सैलसुता-पति मोचर (नोन या लोन)- संज्ञा, पु० (दे०) तासुत-बाहन बोल न जात सहे.".-प्सर। काला नमक, सोचर नमक। सैनात्मजा-संज्ञा, स्त्री० यौ० (दे.) शैला- मोटा-संज्ञा, पु० दे० ( सं० गुण्ड ) मोटी स्मजा (सं०). गिरिजा, पार्वती । “सैला छड़ी, लाठी, डंडा, मोटा डंडा, ( भाँग रमजा सुत बुद्धिदाता श्री गणेश मनाइये" घोंटने का ), स्वाँटा (आ.)। ---- मन्ना। | सोंटा ( सोंटे ) बरदार-संज्ञा, पु० दे० सैलानी-वि० दे० ( फ़ा० सैर ) प्रानंदी, यौ० (हि. सोंटा +-घरदार-फा० ) श्रासा. मन-माना घूमने-फिरने वाला, पैर करने बल्लम बरदार । संज्ञा, स्रो०-सोंटेबरदारी। वाला, मन मौजी, रंगी-तरंगी। सोंठ - संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० शुगठी ) सैलाब- संज्ञा, पु० (फा०) पानी की बाद, । सुण्ठी, सूखी अद्रक । " सोंठ मिरच पीपर जल-प्लावन । त्रिकुटा है सवै वैद्य बतलाते"-कु० वि० । सैलाबो-वि० (फ़ा०) बाढ़ वाला, वह स्थान मुहा०-मोठे करना-खूब मारना, जो बाढ़ पाने पर डूब जाता है, कहार। कुचलना । संज्ञा, स्त्री०-तरी, सीड़, सील, नमी। सोंठौरा-संज्ञा, पु. ० ( हि० सोंठ+ सैलूख-सैलूष-संज्ञा, पु० दे० ( सं . शैलूष ), औरा --- प्रत्य०), सोठौरा (दे०) सोंठ पड़े नाटक खेलने वाला नट, बहुरूपिया, छली। मेवों के लड्डू (प्रसुता सी के लिये)। For Private and Personal Use Only Page #1834 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सोंध १८२३ सोख्ता सोध-प्रव्य दे० (व० सौंह ) सौगंद, सोश्रा--संज्ञा, पु० दे० (सं० मिश्रेया ) एक शपथ । वि० दे० ( सं० सुगंध ) सुगंधित, तरह की भाजी या साग, सोया स्वावा, खुशबुदार, महकदार, सोंधा, सौंधा(ग्रा.)। सोवा (दे०)। "सोश्रा जो साथ होता सोंधा-वि० दे० ( सं० सुगंध ) महकदार, ! जो चाहतो सो लेती' - स्फु० । खुशबूदार, सुगंधिता, भुने चने या मिट्टी सोइ, सोई-सर्व० ० ( हि० सों) वही। के नये बर्तन में पानी पड़ने की सी महक 'सोइ पुरारि को दण्ड कठोरा''- रामा०। या वैसा स्वाद, सौधा (ग्रा.)। स्त्री०- "तात जनक-तनया यह सोई"- रामा० । सोधी । संज्ञा, पु० दे० सं० सुगंधि) सिर प्रव्य-पो, सा, तुल्य, समान । अ० कि० मलने का सुगंधित मसाला ( स्त्रियों के ), (हि. सोन) सोकर, सो गई। गरी के तेल को सुगधित करने का एक | सोक - संज्ञा, पु० दे० (सं० शोक ) शोक मसाला । संज्ञा, पु०-सुगंधि । संज्ञा, स्त्री० दुख, पछितावा, खेद। -सोधाई। सोकन-सज्ञा, पु० (दे०) सोखना, अनेक सांधाना-अ० क्रि० (दे०) सोधी सुगंधि या शोक । यो० (हि.) वेकण, शोक रहित । सोंधा स्वाद देना। सांकना*--स० कि० दे० (सं० शोक) शोक, सांध-वि० दे० ( हि० सोंधा ) सोंधा | या दुख काना, रंज करना, खिन या दुखित सुगंधित । होना, सोखना। सोपना-स० क्रि० (दे०) सौंपना। सोकित* --वि० दे० (सं० शोक) खिन्न, शोकसावनिया-सज्ञा, पु० ० एस० सुवण) नाक युक्त, दुखित, संतप्त । का एक गहना। सांकन- संज्ञा, पु० दे० ( हि० सोखन ) साह सोह - म० दे० (हि. सौह ) सोखना, गज़ब कर लेना। सम्मुख, सामने, श्रागे । संज्ञा, स्त्री० (व०) सारख-वि० दे० ( फा० शोख ) धृष्ट, ढीठ, सौगंध, शपथ । गादा, गहर' . संज्ञा, स्त्री०--सोखी, शोखी। सोही--अव्य० (दे०) सौंह। सोखक*---वि० दे० ( सं० शोषक ) सोखने सो-सर्व० दे० ( सं० सः ) वह । * वि. या शोषण करने वाला, नष्ट करने वाला। सा, समान, तुल्य, ऐसा, सौं, लों (व.)। "ससि सोखक-पोखक समुझि, जग जसअव्य० (दे०) निदान, इस हेतु, अतः इसलिये। अपजस दीन्ह "- रामा० । सोऽहम-पर्व. यौ० (सं० सः- अहम् )। सोखता- संज्ञा, पु० दे० ( फा० सोनः ) वही मैं हूँ, मैं वही ब्रह्म हूँ, (जीव और स्याही सुखाने वाला एक खुरदरा कागज़, ब्रह्म का एकत्वसूचक वेदान्तीय सिद्धान्त ताटिग पेपर (यं०)। वि०-जला हुआ। का प्रतिपादक पद), तत्वमसि, अहं ब्रह्मास्मि | सांखन --- संज्ञा, पु० (दे०) एक जंगली धान, ( उपनिषद ) साह (द०)। " सोऽहमाजन्म फ़सई (ग्रा.), शोषण, शोखना । वि०शुद्धानाम-रघु। सोखनीय, सोखित। सोऽहमस्मि-वाक्य. (सं० सः + अहम् सोखना-८० कि० दे० (सं० शोषण) शोषण + अस्मि ) मैं वही ब्रह्म हूँ, सोऽहम् ।। करना, सुखा डालना, चूस लेना । स० रूप“सोऽहमस्मि इति वृत्त अखंडा"-रामा०। सोखाना, ० रूप-सोखवाना । "सोखिय सोयना --अ० क्रि० दे० (हि० सोना )। सिंधु करिय मन रोखा"- रामा० । सोना, नींद लेना, शयन करना, सावना। सोरता-संज्ञा, पु० दे० (फ़ा० सोख्तः) स्याही स० रूप-सांयाना, सोवाना। । सोखाने वाला एक खुरदरा काग़ज, ब्लाटिंग For Private and Personal Use Only Page #1835 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org साग पेपर (अं० ) । “काँसोख़त रा जाँदो आवाज़ नयामद" - सादी० । सोग - संज्ञा, पु० दे० (सं० शोक) शोक, दुख, खेद, पछतावा | सोगिनी - वि० दे० (हि० जोग) शोकाकुल, शोकार्ता, शोक करने वाली दुखिया । सोगी - वि० दे० (सं० शांक) शोकाकुल, दुखित शोक करने वाला | सी० - सांगिनी । सोच - पज्ञा, पु० दे० (सं० शोच) संताप, शोच, शोक, पश्चाताप, खेद या दुख, चिता, खिन्नता, फिक, रंज सोचने का भाव । "तजहु सोच मन श्रानहु धीरा " - रामा० । सोचना - ० क्रि० दे० (सं० शोचन ) मन में किसी विषय पर विचार करना, ध्यान करना, चिंता या फ़िक्र करना, पछताना, खेद या दुख करना । स० रूप - सोचाना, प्रे० रू - सोचवाना । यौ० -- सोचना-विचारना, सोचना-समझना । 'तनु धीर सोच लागु जनु सोचन" - रामा० । सोचविचार - संज्ञा, पु० दे० यौ० (हि०) समझबूझ, ध्यान, सोच, समझ । “सोचविचार कीन्ह विधि नाना" - स्फु० । सोचाना -- स० क्रि० दे० ( हि० सुचाना ) सोचावना, सुचाना, सोबवाना । सोचु, सोचू - संज्ञा, पु० दे० (सं० शोच) खेद, शोक, सोच, पछतावा । फिर न सो त रहै कि जाऊ २-- रामा० । सोज - संज्ञा, त्रो० दे० (हि० सूजना) शोथ, सूजन | संज्ञा, खो० दे० (सं० शय्या) शय्या, पलंग, खाट, सीज ( प्रान्ती०) | सोज़न - संज्ञा, पु० ( फ़ा० ) पुडे, सूई, सूची । " सोजनारिफ़ता व हिंदी सुई-ताग मी० खु० । "कहि हित सुमनन तोरि हैं, छेदत सोज़न जात - रतन० । सोज़िश -- संज्ञा, खो० (फ़ा० ) शोथ, सूज़न । सोझ सोझा - वि० दे० (सं० सम्मुख ) सम्मुख की ओर गया हुआ, सीधा, सरल । स्त्री० सेो । 64 92 " ''. सोटा - संज्ञा, पु० दे० (हि० सुभटा) सुटा १८२४ साधना (दे०), शुक, तोतरा, सुग्गा, सुआ, सुगना, सोंटा, डंडा ! सोढर - वि० (दे०) सोढ (दे०) वे समझ, बेवकूफ़, मूर्ख, भोंदू । सांत साता-संज्ञा, पु० दे० (सं० स्रोतस् ) निर्भर, झरना, निरंतर प्रवाहित जल-प्रवाह की पतली धारा, 'घरमा (का० ) | सांति--संज्ञा, स्त्री० दे० ( ० स्रोत ) धारा, स्रोत, झरना, सोता | संज्ञा, स्त्री० दे० (स० स्वाति ) स्वाति नक्षत्र | संज्ञा, पु० दे० (सं० श्रात्रिय) श्रोत्रिय, वेदपाठी, सोतिय (दे० ) । सोनिय - प्रज्ञा, पु० दे० (सं० स्रोत) सोता । सोती -सज्ञा, स्री० द० (सं० स्त्राति) स्वाति, नक्षत्र संज्ञा स्त्री० दे० (सं० स्रोत ) सोता, झरना । अ० क्रि० सा० भू० स्त्री० ( हि० सोना ) | सादर - खज्ञा, पु० (सं०) सहोदर भ्राता, सगा भाई । त्री० – बोदरा, सोदरी । वि०- एक ही माँ के पेट से उत्पन्न । त्वं सोदरस्याऽतिमदोद्वतस्य " भट्टी० । सोदरा-सांदरी - संज्ञा, स्रो० बहन, सहोदरा । (सं०) सगी सांची - सज्ञा, ५० दे० (सं० शोध) खोज, पता, ख़बर, टोह | सूर महिं पहुँचाइ मधुपुरी बहुरौ सोध न लीन्हा सूर० । सुधि, याद, होश, " यानन्द मगन भये सब डोलत कछू न सोध शरीर " -- सूर० । सुधारना. संशोधन चुकता या अदा होना। सज्ञा, पु० दे० ( ० सोध ) प्रासाद महल | सोवन संज्ञा, पु० दे० सं० शोधन ; खोज, तलाश, दूद, संशोधन, सुधार | वि०सोधनीय, साधित । (सं० शोधन ) शुद्ध साधनाया ठीक करना, साफ़ करना, सुधारना, दोष मिटाना, कटिं या भूल-चूक ठीक करना, निर्णय करना, सुधारना, जाँचना खोजना, ढूँदना, तलाश करना, निश्चित करना । "रे रे दुष्ट बहुत तोहि सोधा " - रामा० । सही या दुरुस्त करना, ऋण चुकाना या - स० क्रि० दे० Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private and Personal Use Only Page #1836 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १८२५ सोधाना सोपत अदा करना, धातुओं या विषोपविषों का अरुणिमा लिये पीले रंग की एक क्रीमती औषधार्थ संस्कार करना, शोधना (दे०)। धातु : "सोना लादन पिय गये, सूना करिगे सांधाना-स० कि० दे० ( हि० सोधना) देश ।' राज हंस, कोई सुन्दर और कीमती सोधने का काम दूसरे से कराना । प्रे० वस्तु । यहा०---सोने का घर मिट्टी रूप-सोधावना, सोधवाना। होना (में मिलना)---सर्वस्व नष्ट-भ्रष्ट हो सोन-संज्ञा, पु० दे० ( सं० शोण ) गंगा जाना. सोने में घुन लगना-असंभव या की सहायक एक बड़ी नदी । संज्ञा, पु० दे० अनहोनी बान होना। सोने में सुगंधि (सं० स्वर्ण ) योना, सुवर्ण, स्थान (दे०) (सोना और सुगंध )-किसी अछी संज्ञा, पु० (दे०) एक जल पक्षी, एक फूल वस्तु में कोई और अधिक विशेषता होना। सान जुही। वि० दे० (सं० शोण ) अरुण, "ये दोऊ कहं पाइये सोना और सुगंध ।" लाल । संज्ञा, पु० (सं० स्वान ) कुत्ता। संज्ञा, स्त्री० (दे०) एक तरह की मछली। सोनकीकर --- संज्ञा, पु. यौ० (हि० सोना । अ० कि० द० ( सं० शयन ) आँख लगना, +कीकर ) एक बहुत बड़ा पेड़ । शयन करना, नींद लेना । मुहा०-सोना सोनकेला-संज्ञा, पु० यौ० (हि०) कनक हराम ह'ना-कार्य या चिन्ता से सोने कदली, चंपाकेला, पीला केला, सुवर्ण को समय न मिलना । मुहा०--सोते केला. कंचन केला। जागते-सदा प्रत्येक समय, देह के किसी मोनचिरी, सोनवड़ी -- संज्ञा, स्त्री०, दे० अङ्ग का स्न्न ( संज्ञा शून्य ) होना । संज्ञा, यौ० (हि.) योने की चिड़िया, नटी, पु० (दे०) एक वृक्ष । सोन चिग्या (दे०)। सोना-गेरू-संज्ञा, पु. द. यौ० (हि.) सोनज़रद-सोनजद ---संज्ञा, स्त्री० दे० (हि.) एक प्रकार का गेरू। सोनजूही) सोन जूही नामक फूल का पौधा । सोनजुही. सानजही --- संज्ञा, स्त्री० यौ० साना-पाठा, सानापाढ़ी-संज्ञा, पु० दे० (हि०) पीली जूही, स्वर्ण-यूथिका, पीले ( स० शो ---पाठा-हि० ) एक ऊँचा पेड़ फूलों की जुही। जिसकी छाल, फल और बीज औषधि के सोनभद्र -- संज्ञा, पु० दे० (सं० शोणभद्र ) काम आते हैं। गंगा की सहायक एक नदी । “ नदिया सानामती--संज्ञा, पु० दे० ( सं० स्वर्ण. सोनभद्र के घाट"..-अल्हा० । माक्षिक ) सानामाखी (दे०), एक खानिज सोनवाना--वि० ० ( हि० सुनहला) पदार्थ ( उपधातु )। सुनहला । स० कि० (दे०) सुनवाना। मोनार -- ज्ञा, पु० दे० ( हि. सुनार, सोनहला, सोनहरा-वि० दे० (हि० सुन- सं० स्वणकार ) सुनार (दे०), सोने का हला ) सुनहला, सोने के रंग का, पीला काम बनाने वाली एक जाति । "बिसुश्रा स्रो० -सानहली, सोनहरी। बन्दर थगिनि जल, कूटी कटक, सोनार।" सोल्हा-संज्ञा, पु० दे० (सं० शुन =कुत्ता सोनित--संज्ञा, पु० दे० (सं० शोणित ) +हा = मार डालने वाला ) कुत्ते की जाति शोणित, रुधिर, रक, लोह । "तव सोनित का एक छोटा जंगली जंतु । की प्यास, तिखित राम-सायक-निकर"सोनहार--संज्ञा, पु० (दे०) एक समुद्री पती। सांनी -- ज्ञा, पु० ( हि० सोना ) सुनार । सोना-संज्ञा, पु० दे० (सं० स्वर्ण ) स्वर्ण, | साप-संज्ञा, पु० (अं०) सावुन । कांचन, हेम, हाटक, कनक, सुवर्ण, सुन्दर | सोपत ---सहा, पु० दे० (सं० सूपपत्ति) भा० श० को०-२२६ रामा। For Private and Personal Use Only Page #1837 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सोपान १८२६ सोमराजी सुभीता, सुबीता, सुपास, सुख का प्रबंध जिसका प्रयोग काया-वल्प में होता है या विधान । | (वैद्य०)। सोपान-संज्ञा, पु. (सं०) सीढ़ी, जीना। सोमकर-संज्ञा, पु. यौ० (सं०) चंद्रमा की "मनि-सोपान विचित्र बनावा"-रामा०। किरण, सोमरश्मि । सोपानित - वि० (सं०) सोपान-युक्त, सीदी. सोमजाजी-संज्ञा, पु. (दे०) सोमयाजी, दार। (सं०) सोमयज्ञ करने वाला। सोपि, सोऽपि-- वि० यौ० (सं० सः + अपि) सोम-तनय, सेमि-तनुज- संज्ञा, पु० यौ० वही, वह भी। (सं०) बुध । सोरुता-संज्ञा, पु० दे० ( हि० सुभीता) सोमनंदन--संज्ञा, पु० यौ० (सं०) सोमात्मज, निर्जन या एकांत स्थान, निराला ठौर, बुध, सोम-सुत, साम पुत्र । निराली जगह, रोगादि में कमी होना। सोन-संज्ञा, पु० दे० ( सं० सौमन ) एक सोफ़ा-संज्ञा, पु. (अं०) गद्दा। अन्न। सोफ़ियाना--वि० (अ० सूफी --- इटाना-फा० सोमनस -- संज्ञा, पु० दे० (सं० सौमनस्य ) -प्रत्य० ) सूफी-संबधी, सुफ़ियों का सा, प्रपन्नता। देखने में सादा परन्तु अतिप्रिय और सुन्दर। सोमनाथ --- संज्ञा, पु. यौ० (सं०) शिव जी, सोफ़ी-संज्ञा, पु० दे० ( अ. सूफो ) एक १२ ज्योतिलिंगों में से एक, शिवमूर्ति, प्रकार के मुसलमान। इसकी मूर्ति गुजरात ( काठियावाड़ ) के सोम* --संज्ञा, स्त्रो० दे० (सं० शोभा) पश्चिमीय तट के एक प्राचीन नगर । शोभा, सुन्दरता । “बढ़ी प्रति मदिर सोमपान----संज्ञा, पु० यौ० (सं०) सोम रस सोभ चढ़ी तरुनी अवलोकन को रघुनंदन" पीना । - राम। सोमपायी-वि० ( सं० सोमपायिन् ) सोम सोभना -अ० कि० दे० ( सं० शोभन ) रस पीने वाला। स्त्री.-सोमपायिनो। छजना, सजना, सोहना, सुशोभित होना, सोमपृत-संज्ञा, पु० यौ० दे० सं० सोमपुत्र) प्रिय या अच्छा लगना, सुन्दर होना। सोम-पुत्र, बुध । सोभनीक, सोभनीय-वि० दे० (सं० सोमदोष---संज्ञा, पु. यौ० (सं०) सोमवार शोभनीय ) सुदर, सुहावना । का व्रत । सोभा-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० शोभ') शोभा, सोमयज्ञ-संज्ञा, पु. यौ० (सं०) एक प्रकार सुंदरता । "नीकै निरखि नैन भरि सोभा" का वैदिक यज्ञ, सोमयाग । -रामा० । सोमयाग--- संज्ञा, पु० यौ० (सं०) एक वार्षिक सोभाकर, सोभाकरी-वि० दे० ( सं० या त्रैवार्षिक यज्ञ जिसमें सोम रस पिया शोभाकर ) सुंदर, सोभाकरि। जाता था, साम-यज्ञ (वैदिक) । सोभित-वि० दे० ( सं० शोभित ) शोभित, सोमयाजी-संज्ञा, पु. ( सं० सोमयाजिन् ) शोभायमान । वि० (दे०) सोभनीय। सोमयज्ञ करने वाला। सोम-संज्ञा, पु. (सं०) मादक रस वाली सोमरस-संज्ञा, पु. यो० (सं०) सोमलता एक लता जिसका रस वैदिक ऋषिपान करते | थे (प्राची०), चंद्रमा, एक प्राचीन देवता, सोमराज-संज्ञा, पु. यौ० (सं०) चन्द्रमा, (वैदिक काल) यम, कुवेर, अमृत, वायु, सोमराय (दे०)। जल, एक सोम-यज्ञ, आकाश, स्वर्ग, सोम- सोमराजी-संज्ञा, पु. ( सं० सोमराजिन् ) वार, चंद्रवार, एक सोम से भिन्न, अन्यलता बकुची, दो यगण वाला एक छंद (पिं० )। का रस। For Private and Personal Use Only Page #1838 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir लता। सोमलता १८२७ सावज सोमलता-संज्ञा, पु. यौ० (सं०) सोम- पु. ( 'हे. ) सोरठा छंद (पिं० ) एक लतिका, सेामवल्ली, सोमवल्लरी, एक श्रोड़व राग ( संगी०)। लता। | सोरठा--संज्ञा, पु० दे० (सं० सौराष्ट्र) ४८ सोमवंश-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) चंद्र-वंश । मात्राओं का एक मात्रिक छंद जिसके प्रथम सोमवंशीय-वि० (सं०) चंद्रवंश-संबंधी, और तृतीय चरण में ग्यारह, ग्यारह और चंद्र-वंश में उत्पन्न व्यक्ति। दूसरे और चौथे चरण में तेरह, तेरह मात्रायें सोमवती अमावास्या-संज्ञा, स्त्री० यौ०. होती हैं, दोहे को उलट देने से सोरठा बन (सं०) सोमवार को पड़ने वाली अमावास्या । जाता है, (पिं० )। जिसे शुभ मानते हैं ( पुरा० )। सोरनी --संज्ञा, स्त्री० दे० ( हि० सँवारना+ सोमवल्लरी----संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) ब्राह्मी- ई-प्रत्य . ) झाइ, बुहारी, कूचा, विरात्रिबूटी, र, ज, र, जर (गण) वाला एक वर्णिक नामक एक मृतक-संस्कार जो तीसरे दिन छंद, तूण, चामर छद (पि०)। होता है। सोमवल्ली-संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) सोम- सोरखा-संज्ञा, पु. (दे०) शोरबा, रसा, सुरुवा (दे०)। सोमवार--संज्ञा, पु. यौ० (सं०) चंद्रवार । सोरह-सोलह-वि० दे० (सं० षोडश) सोमवारी--संज्ञा, ४० दे० ( सं० सोमवती) षोडश, दश और छै। संज्ञा, पु०-2 अधिक सोमवती अमावस्या, सोमवारी अमावस। दश की संख्या, षोडश या अंक, १६ । साम-सुत-संज्ञा, पृ.० यौ० (सं०) बुध । मुहा०-सोलही आने-पूरा पूरा, संपूर्ण, सोमात्मज-संज्ञा, पु. यौ० (सं०) बुध, सब का सब । सोलह आने पावरत्ती चंद्रात्मज । (मुहा० )। सोमावती--- संज्ञा, सो० (सं०) चंद्रमा की सोरही-लही--संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. माता। सोलह ) जुआ खेलने की सोलह चित्ती सीमास्त्र-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) एक अस्त्र कौड़ियाँ, इनसे खेले जाने वाला जुआ। या बाण। सारा-स्वाग*-संज्ञा, पु० दे० (फा० शोरा) सोमेश, मोमेश्वर--संज्ञा, पु० यौ० (सं०) शोरा । वि. दे० ( हि० सोलह ) सोलह । शिवजी सोमनाथ जी, एक संगीताचार्य । सोलंकी-संज्ञा, पु० (दे०) क्षत्रियों का एक सोय*-सर्व दे. ( हि० सोही+ई ) सोई, । ह० साहा+इ ) साइ, राज-वंश जो प्राचीन काल में गुजरात का वही, सो। " करहु अनुग्रह सेोय"- अधिकारी था। रामा०। अ० कि० पू० का० ( हि० सोना ) सोलहसिंगार-संज्ञा, पु० दे० यौ० ( सं० सोकर। गार ) सब श्रृंगार मिलकर, उबटन साया- संज्ञा, पु० दे० ( सं० मिश्रेय ) साप्रा, स्नानादि, सोरहसिगार। सोवा, एक प्रकार की भाजी या साग । सा० सोला --- संज्ञा, पु. (दे०) एक ऊँचा झाड़ भू० कि० वि० ( हि० सोना )। जिसकी डालियों के छिलकों से टोप (हैट) सार* -- संज्ञा, पु० दे० (फा० शोर ) शोर, बनता है। संज्ञा, पु० वि० (दे०) सोलह, कोलाहल, हल्ला, प्रसिद्धि, ख्याति, नाम। आग की लपट ।। संज्ञा, सो० दे० (सं० शटा ) मूल, जड़। सोलाना-१० क्रि० दे० (हि. सुलाना ) सोरठ-संज्ञा, पु०दे० (सं० सौराष्ट्र ) दक्षिणी सुलाना। काठियावाड़ या गुजरात का पुराना नाम, सोवज-संज्ञा, पु. (दे०) सावज (हि.) वहाँ की राजधानी ( सूरत नगर )। संज्ञा, वह वन पशु जिसका लोग शिकार करते हैं। For Private and Personal Use Only Page #1839 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पास w w wAND R ODAmananeKURaranewmMMITTEmain सोवन १८२८ सोहराना सोवन -संज्ञा, पु० दे० (हि. सोवना)| प्रादि भेजे जाते हैं, लेंहदी, सिंदूर वास्त्रासोने की क्रिया का भाव । भूषणादि सोहगो की वस्तुएँ । सोवना -अ० क्रि० दे० (हि. सोना) सोहन ---वि० दे० ( सं० शोभन ) सुहावना, सोना, नींद लेना। अच्छा लगने वाला, सुंदर । “ मोहन को सेवा-संज्ञा, पु० दे० (हि० सोया ) सोया, मुख सोहन जोहन जोग ---व० रा. । एक प्रकार की भाजी या साग, साया। संज्ञा, पु० (दे०) नायक, सुंदर व्यक्ति। संज्ञा, सोवाना-स० क्रि० दे० (हि. सुलाना ) स्त्री० (दे०) एक बड़ा पक्षी विशेष । स्त्री०-- सुलाना, सुवाना। सोहनी। सोवैया*-संज्ञा, पु० (हि. सोवना) | सोहन-गपड़ी--संज्ञा, सी० यौ० ( हि.) सोने वाला। एक प्रकार की मिठाई, मोहनपपरी (दे०) सोषक-संज्ञा, पु० दे० (सं० शोषक ) मोहन-हलवा, सोहन-हलुवा- संज्ञा, पु० सोखने वाला, शोषक। दे० यौ० ( हि. सोहन । हलवा-अ.) एक सोषण-सोपन*-संज्ञा, पु. दे० ( सं० स्वादिष्ट मिठाई । शोषण ) सोखने वाला । वि.-सोपनीय. मोहना-अ० क्रि० दे० (सं० शोभन ) सोषित । छजना, सजना, फबना, सुशोभित होना, सोषना*-- अ० क्रि० दे० (हि. सोखना) अच्छा या प्रिय लगना सोभना। स. रूपसोखना । स० रूप सोपाना, प्रे० रूप- सोहाना. सुहाना । वि० (दे०) शोभन, सोषवाना। मनोहर, सुन्दर, सुहावना, मोहावना । स्रो. सोषु-सोलु*-वि० ( हि० सोखना ) सोखने -सोहनी! वाला। सोहनी-- संज्ञा, स्त्री० ० ( सं० शोधनी ) सोसन-संज्ञा, पु० दे० ( फा० सेसन ) एक | झाड़, बुहारी, बढ़नी । वि० स्त्री० ( हि० फूल, सोखन, शोषण (सं.)। यो०-गुले- सोहना ) सुंदर, सुहावनो। सौसन । मोहबत - संज्ञा, पु० दे० ( अ० मुहब्बत ) सोसनी-वि० दे० ( फा० सौसनी) सोपन संग, साथ, संभोग, संगत, प्रसंग । वि. के फूल के रंग का, लालीमिला नीला रंग। माहवती। सोऽसि-वाक्य० (सं० सोऽसि ) सो तू है, सोहंमोहमस्मि-वा० (सं०) सोऽहम् , सोऽहमस्मि । “सोहमस्मि इति वृत्ति सोऽस्मि*-बा० यौ० (सं०) सोऽहम्, वह अखंडा"- रामा। मैं हूँ, सोऽहमरिम। मोहर, सोहल, मोहला-संज्ञा, पु० दे० सोह-क्रि० वि० ( हि० सोहना ) सोभा (हि० सोहना ) मांगलिक गीत बच्चा पैदा देना। " मध्य वाग सर साह सुहावा" | होने पर स्त्रियों से गाया जाने वाला गीत, -रामा० । क्रि० वि० दे० (हि० सौह ) स्वाहर !ग्रा०) । संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० सूत शपथ, कसम, सौंह (व.)। का ) सूतिका-गृह, सोवा, सौरी। सोह-सोहंग-वा० दे० (सं० सोऽहम् ) सोहरल-संज्ञा, स्त्री० दे० ( अ० शोहरत ) सोऽहम् । (अ०) प्रख्याति, कीर्ति, शुहरत। सोहगी-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. सोहाग) सोहराना -- स० क्रि० दे० (हि. सुहलाना ) तिलक चढ़ने के बाद व्याह की एक रीति धीरे धीरे पलना या हाथ फेरना, सोहजिसमें लड़की के हेतु वस्त्राभरण और सिंदूर | रावना, साहलाना । तस्वमसि । For Private and Personal Use Only Page #1840 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सौंचाना सोहाइन १८२६ सोहाइन -वि० दे० (दि. सुहावना ) सोहि-सोही-कि० वि० दे० (सं० सम्मुख) सुहावना, सुंदर, मनोरम, सुहावन, शोभन। सम्मुख, सामने, आगे की ओर । " तो सोहाई-स. क्रि० (हि. सोहाना ) शोभा सोही कैसे कहैं, ऊभव कमो न जाय"-स्फु० देना, अच्छा या संदर जान पड़ना । वि० सोहिनी--वि० स्त्री० ( हि० सोहना ) सुहास्त्री० (दे०) रुचिर, संदरी, प्रिय । " कर- वनी। संज्ञा, स्त्री०-करुण रस की एक सरोज जय-माल सुहाई " .. रामा० । स० रागिनी संगी०)। कि० दे० (हि. सोहना) निराने की क्रिया या सोहिल --संज्ञा, पु० दे० (अ. सुहैल ) मजदूरी। अगस्त्य तारा। सोहागी--संज्ञा, पु० दे० ( हि० सुहाग । सोहिला---संज्ञा, पु० दे० (हि. सोदना ) सौभाग्य, सुहाग । सोहर. वे गीत जो बच्चा उत्पन्न होने पर सोहागिन साहाणिनि सोहागिनी--संज्ञा, गाये जाते हैं. मांगलिक गीत ।। स्त्री० दे० (हि० सुहागिनी ) सुहागिनो. सोही-कि०वि० (दे०)मन्मुख (सं०) सामने । सौभाग्यवती, सामागन।। सोहैं-कि० वि० द० (सं० सम्मुख ) सम्मुख, सोहागिल-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. सुहागिनी) सामने, प्रागे । संज्ञा,पु० (दे० सौंह का ब०५०) सुहागिनी, सौभाग्यवती।। __ अ० क्रि० दे. ( हि. सोहना ) शोभा दें, सोहाता-वि० (हि० सोहना ) अच्छा, सदर, अच्छे लगे, सौं हैं । " सोहैं जनु जुग जलज शोभित, सुहावना, अच्छा, रुचिर, सुन्दर, सनाला ''-रामा० । रोचक । स्त्री०-सोहती। यौ०-मोहाना, मो-..संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. सौगंद ) सौंह, सोहाता-इतना गर्म या ज़ोर का कि शपथ, कलम । अध्य० (३०) सों, से, हारा, सहा जा सके, महाना (दे०)। स्त्री० --- करण और अपादान का एक चिन्ह (व्याक०) । सोहाती। यौ० ---ठकुरसाहानी। प्रत्प० (१०) सा, सों। सोहाना-अ० कि० दे० (सं० शोभन ) सौंगी--वि० दे० (सं० सरल ) सीचे, सरल । रुचना, सजना, शोभित, रुचिर होना, प्रिय महा० (दे०) - सोगी न आना-सीधा रोचक या अच्छा लगना, सुन्दर या उचित जान पड़ना, सुदाना (दे०)। "सबहिं सोहाय सौंगियाना-स. क्रि० (दे०) ठीक या सीधा मोहिं सुठि नीका'--रामा०। । करना। साहाया--वि० द. ( हि० सोहाना ) संदर, सौंघा-वि० दे० (हि. मँहगा का उलटा ) सुशोभित, रुचिर ! स्त्री० - सोहाई। उत्तम श्रीष्ट, अच्छा, ठीक, उचित । सोहरद, मोहारदार-संज्ञा, पु० दे० (सं० लोंघाई ---संज्ञा, स्रो० दे० (हि० सौंघा ) मौहार्द ) सुहृद् का भाव, मित्रता, मैत्रो, ज्यादती, अधिस्ता, उत्तमता, उपयुक्तता । साहारद । सोचना ---स० क्रि० दे० ( सं० शौच ) साहारी--संज्ञा, स्त्री. ( हि० सुहाना ) मलत्यागादि कर्म करना, मल-त्याग पर पूड़ी, पूरी, सुहारी (दे०)। गुह्यन्द्रिय को जल से धोना, सउँचना सोहावना--- वि० दे० हि० सुहावना) सुन्दर, (ग्रा.)। सुहावना । अ० वि० दे० (हि० सोहाना) सोंचर-संज्ञा, पु० दे० ( हि• सोचर ) सोहाना, रुचना, मजना । सोचर नमक, सोंचर। सोहासिन --वि० दे० ( हि० सोहना ) सौंचाना-स० क्रि० दे० (हि. सौंचना ) आच्छा या प्रिय लगने वाला, रुचिकर, मल-त्याग कराना, तथा गुदादि को धुलाना, सुहासित, उपहस्पित । शौच कराना। नह For Private and Personal Use Only Page #1841 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सौंज - १८३० सौंज*-संज्ञा, स्त्री० दे० ( सं० शय्या) सौंपना-स० कि० दे० ( सं० समर्पण) सौज, साज-सामान, सामग्री, उपकरण । सिपुर्द करना, सहेजना, हवाले करना । स० . " मातु वचन सुनि मैथली, सकल सौंज लै रूप-सौंपाना, प्रे० रूप.--सौंपवाना। . साथ"-रामा०। "सौपेहु मोहिं तुमहिं गहि पानी'-रामा०। सौड़, सोडा-संज्ञा, पु. (दे०) श्रोढ़ने का सौंफ-संज्ञा, स्त्री० दे० (१० शतपुष्य । एक बड़ा कपड़ा, सौर, चादर। विख्यात छोटा पौधा जिसके बीज औषधि सौंडियाना-२० क्रि० (दे०) सभीत, शंकित और मसाले में पड़ते हैं। "मिर्च भौ मसाला या लज्जित होना। सौंफ़ काशनी मिलाय '-शि० रा.। सौंतुख* --संज्ञा, पु० दे० ( सं० सम्मुख ) सौंफ़िया-सौंफ़ी-संज्ञा, स्त्री० (हि.) सौंफ सम्मुख, सामने । क्रि० वि० ... आँखों के की मदिरा। वि०- सौंफ युक्त । पागे, प्रत्यक्ष । “सोवत, जागत, सपने, सौंभरि--संज्ञा, पु० दे० ( सं० सौभरि ) एक सौंतुख रहि हैं सो पति मानि"-भ्रम || ऋषि । सौंदन-संज्ञा, पु० दे० (हि. दिना) सौर-सौर-संज्ञा, स्त्री० (हि. सौर ) श्रोदने धोबियों का कपड़ों को रेह-मिले पानी का भारी कपड़ा, रजाई लिहाफ़, चादर में भिगोना । स्त्री-सौंदनि। "तेते पाँव पसारिये, जेती लांबी सौर'सौंदना - स० क्रि० दे० ( सं० संधम् ) वृं० । संज्ञा, स्त्री० (हि. सौरी) जच्चाखाना, सानना, परस्पर मिलाना, श्रोत-प्रोत करना, सौरी, सोवर । कपड़ों को रेह मिले पानी में भिगो कर सौरई-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० श्यामता रौंदना । स० रूप - सौंदाना, प्र० रूप हि. साँवरा ) साँवलापन, श्यामता। सौंदवाना । सौरना*-स. क्रि० दे० (सं० स्मरण ) सौंदर्ज-संज्ञा, पु० दे० (सं० सौंदर्य ) स्मरण या याद करना, सुमिरना (दे०)। सुन्दरता, सुधरता। स० रूप-सौराना, प्रे० रूप०-सौरवाना। सौंदर्य-संज्ञा, पु०(सं०) सुधराई. सुन्दरता। सौंदर्यता-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं०) सौंदर्य, अ० क्रि० (दे०) सवारना।। सुन्दरता। सौह-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि० सौगंद ) सौंध* --संज्ञा, पु० दे० ( सं० सघ) महल, कसम शपथ, सौं, सोह, सों। क्रि० वि०, हबेली, प्रासाद । संज्ञा, स्त्री० दे० ( सं० । संज्ञा, पु० दे० (सं० सम्मुख) समक्ष, सामने । सुगंधि) सुगंध, सुवास । सौहन संज्ञा, पु० दे० (हि. सोहन, सं० सौंधना-स० क्रि० दे० (सं० सुगंध ) सुवा- शोभन ) सुहावना, सुन्दर । सित या सुगंधित करना, वासना । स. सोहाना-अ० कि० (दे०) सीधा करना, रूप-सौंधाना, ० रूप-सौंधवाना।। सामने जाना। सौंधा-- वि० दे० (हि. सोंधा ) सोंधा, सोही-संज्ञा, स्त्री० (दे०) एक हथियार। रुचिकर अच्छा, सुगंधित । संज्ञा, स्त्री० (दे०) सौ-वि० दे० ( सं० शत) नब्बे और दस, सौंधाई। शत, पाँच बीस, पचास का दूना । संज्ञा, सौनमक्खी -सौनामाखी--संज्ञा, पु० दे० पु. (दे०) दश के दश धात की संख्या या (हि. सोनामक्खी, सं० स्वर्गा-मानिक) सोना अंक, १००। वि० (दे०) सा, समान । मक्खी । मुहा०-सो बात की एक बातसौनी-संज्ञा, पु० दे० (हि० सुनार) सुनार । निचोड़, तत्व, सारांश. तात्पर्य । एक For Private and Personal Use Only Page #1842 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org सौक १८३१ सौदामनी सौदामिनी ( बात ) की मौ सुनना - बहुत उत्तर- | सौजन्य -- संज्ञा, पु० (सं०) सुजनता, शिष्टता प्रत्युत्तर देना ( लड़ाई या विवाद में ) । सौक- संज्ञा, खो० दे० ( दि० सौत ) सपत्नी, सौत । वि० -- एक सौ | संज्ञा, पु० (दे०) शौक (फ़ा० ) सौख ( ग्रा० ) । सौकन) – संज्ञा, स्त्री० दे० (हि० सौत ) सौत । सौकर्य - संज्ञा, पु० (सं०) सुकरता, सुविधा, सुसाध्यता, सुभीता, सुरपन, सूकरता । सौकुमार्य - संज्ञा, पु० (सं०) मार्दव, कोम - लता, मृदुलता, सुकुमारता, यौवन, नजाकत (का० ) काव्य का एक गुण, जिसमें ग्राम्य और कर्ण कटु शब्दों का प्रयोग स्याज्य है । सौख – संज्ञा, पु० दे० ( श्रं० शौक़ ) शौक, उत्सुकता, उत्कंठा, चाह सउख । वि० (दे०) सौखी, सौखीन, शौकीन ( फा० ) । . संज्ञा, स्त्री० (दे०) सौखीनी । सौख्य-संज्ञा, पु० (सं०) सुखत्व, सुख भाराम, सुख का भाव । सौगंद संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० सौगंद) शपथ, कसम, सौगंध, सह । सौगंध - संज्ञा, पु० (दे०) सौगंद, शपथ, सौंह | संज्ञा, पु० (सं०) सुगंधित, तेल इत्यादि का व्यापारी गंधी, सुवास, सुगंध । सौगरिया - संज्ञा, पु० (३०) क्षत्रियों की एक जाति । । सौगात - संज्ञा, स्त्री० (तु० ) भेंट, उपहार, तोहफ़ा ( फ़ा० ), परदेश से इष्ट मित्रों को देने के हेतु लाई हुई चीज़, सौगात (दे० ) सौari - वि० दे० ( हि० मँहगा का उलटा ) सस्ता, महा, कम दाम या मोल का । सौच -- संज्ञा, पु० दे० सकल सौच कर (सं० शौच ) शौच जाइ श्रन्हाए ". -- । रामा० । करण, सौज - संज्ञा, स्त्री० दे० ( सं० शय्या ) उपसाज सामान, सामग्री । सोजना - अ० क्रि० द० ( हि० सजना) सजना, सँवरना, श्रभूषित होना । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भलमनसाहत । सौजन्यता - संज्ञा, स्त्री० दे० (सं०) सौजन्य, सुजनता, भलमनसाहत । सौजा- पंजा, पु० दे० (हि० सावज ) शिकार का बनैला पशु या पक्षी, साउज (दे० ) । सौत-सौति - संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० सपत्नी ) किसी स्त्री के प्रेमी या पति की दूसरी प्रेमिका या स्त्री, सपत्नी, सवति (दे० ) । जियत न करब सौति सेवकाई " - रामा० | मुहा० - सोतियाडाह - दो सौतों की आपस की ईण्या-द्वेष, बैर-भाव, जलन । सौतन- सौतिन संज्ञा, स्त्री० दे० ( हि० सौत ) सौति, सौन, सपत्नी, सौतिनि (दे० ) । सौतुक - सौतुख*- * संज्ञा, पु० दे० ( हि० सौख ) सामने, जागने की दशा में । सौतेला - वि० दे० ( हि० सौत + एलाप्रत्य० ) सौत का पुत्र, सौत से उत्पन्न, सौत का सौत-संबंधी । त्रो०-सौतेली । सौत्रमणी - संज्ञा स्त्री० (सं०) इन्द्र के प्रसन्नतार्थ एक यज्ञ । सौदा - संज्ञा, पु० (०) बेचने - ख़रीदने का पदार्थ, वस्तु, माल, लेन-देन, क्रय-विक्रय व्यवहार, व्यापार । यौ० - सौदा - सुलुकमोल लेने की वस्तु या सामान, सौदासूत, व्यवहार | संज्ञा, पु० ( फ़ा० ) उन्माद, पागलपन, एक उर्दू के शायर का उपनाम | "सौदा तुम तो इस हाट में कभी न बिके" -सौदा० । पागल, सौदाई - संज्ञा, पु० ( अ० सौदा उन्मादी, बावला । " चाँद सूरज हैं उसके सौदाई " -- स्फु० । सौदागर संज्ञा, पु० ( फा० ) व्यवसायी, व्यापारी, व्यापार करने वाला । सौदागरी - - संज्ञा, स्रो० ( फ़ा० ) व्यापार, व्यवसाय, उद्यम, रोज़गार तिजारत, धंधा । सौदामनी सौदामिनी (दे० ) – संज्ञा, स्त्री० (सं० सौदामनी) बिजली, विद्युत । For Private and Personal Use Only Page #1843 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सौर REA DOHORMATIMADIMANI DAILadinHEIRMIRIRAMATARISHMAHASYAMIMIMRADABLETAMBO L MANGARAANILEODASIYEMANNERVEI सौम्य-लिखा सौध-संज्ञा, पु० (सं०) महल. प्रासाद, भवन, । भाग्यवान्, सौभाग्यशाली सुखी और रजत, चाँदी, दुधिया पत्थर । “संदरि दिया संपन्न । स्त्री सौभाग्यवती। बुझाय के, सावति सौध मैं झार"-दास । सौम-वि० दे० (सं० सौम्य ) सोम-संबंधी सौधना-स० क्रि० दे० ( सं० सोधना ) सोम का, शीतल, त्रिग्ध, सुशील, शांत, साधना। शुभ, सुन्दर । संज्ञा, पु० -- सोम-यज्ञ, बुध, सौन* -क्रि० वि० दे० (सं० सम्मुख) सम्मुख ब्राह्मण, श्रगहन मास, एक संवत्सर, सामने, भागे । संज्ञा, पु०-कलाई । संज्ञा, सज्जनता, एक अस्त्र। पु० दे० ( सं० श्रवण ) कान, सोन। सौमन--संज्ञा, पु० (स०) एक अस्त्र। सौनक- संज्ञा, पु० दे० (सं० शौनक ) सौमनस-वि० (सं०) सुमन या फूलों का, शौनक । रुचिकर, मनोरम, प्रिय । संज्ञा, पु० पानंद, सौनन-सौननि--संज्ञा, स्त्री० ० ( हि० प्रफुल्लता, पश्चिम दिशा का दिग्गज (पुरा०) सौंदन ) सौंदन, स्रोनन, कानों। अस्त्र, निष्फल कारक एक अस्त्र । सामनस्य-संज्ञा, पु. (सं०) प्रसन्नता । सौना* --- संज्ञा, पु० दे० (हि० सोना) सोना। सौमित्र--संज्ञा, पु. (सं.) सुमित्रा के पुत्र, सौपना*-स. क्रि० दे० ( हि० सौंपना ) लक्ष्मण और शन्नन्न. मित्रता, मैत्री। सौंपना, सिपुर्द करना, सहेजना । " सौमित्रः वाक्यमब्रवीत' ---वा० रामा० । सौबल-संज्ञा, पु० (सं०) गांधार-नरेश सुबल | सौमित्रा* -- संज्ञा, स्त्री० दे० ( सं० सुमित्रा) का पुत्र, शकुनि। सुमित्रा रानी, मुमितरा (दे०) । सौभ-संज्ञा, पु० (सं०) कामचारि पुर, एक सौमित्रि-संज्ञा, पु० (सं०) सुमित्रा के पुत्र, पुराना प्रदेश, वहाँ के प्राचीन राजा, आकाश लक्ष्मण, शन्न । " सौमित्रिः सह राधवः" में राजा हरिश्चंद्र की एक कल्पित नगरी। _..-वा. रामा० । सौभग --- संज्ञा,पु० दे०(सं०) सौभाग्य, संपत्ति, सौम्य-वि० (सं०) चंद्रमा या सोमलता ऐश्चर्य, धन, श्रानंद, सुख, सुन्दरता । सम्बन्धी, शीतल, स्निग्ध, शान्त, सुशील, सौभद्र-संज्ञा, पु० (सं०) सुभद्रा पुत्र, सीधा, शुभ, सुन्दर, मांगलिक । खी० --- अभिमन्यु, सुभद्रा के कारण हुआ युद्ध । सौम्या । संज्ञा, पु० (सं.) सोम-यज्ञ, चन्द्रावि० -सुभद्रा-सबधी, सुभद्रा का।। स्मज, बुध, ब्राह्मण, सज्जनता, ६० संवत्परों सौभरि-संज्ञा, पु० (सं.) एक ऋषि जिन्होंने में से एक, एक दिव्यास्त्र, मार्गशीर्ष या राजा मानधाता की ५० कन्या प्रों से व्याह अगहन का महीना । संज्ञा, पु० (सं०) करके पाँच हजार पुत्र पैदा किये पुरा०)। सौम्यता। सौभागिनी---सज्ञा, स्रो० दे० (रा. सोभाग्य) | सौम्यकृच्छ-संज्ञा, पु, यौ० (सं०) एक व्रत, उपवास । सोहागिनि, सधवा या सोमाग्यवती स्त्री। सौम्यता -- संज्ञा, पु० (सं०) सुशीलता, सौभाग्य-संज्ञा, पु० (सं०) सुन्दर भाग्य, सज्जनता, शान्तता, सौंदर्या, सुन्दरता, खुशकिस्मतो, कल्याण, आनंद ब, कुशल सौम्य का भाव या धर्म। क्षेम, सुहाग, अहिवात, वैभव, सौंदर्य, सौम्य-दशन-वि. यो. (सं०) सुन्दर, मनोरम, प्रिय-दर्शन । सौभाग्यवती-वि० स्त्री० (सं० सधवा-स्त्री, सौम्य-शिबा--संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) सुहागिन, सुहागिनी। विषम मुक्तक वृत के दो भेदों में से एक सौभाग्यवान्-वि० (सं० सौभा यक्त् ) बड़ा भेद (पि० )। ऐश्वर्य । For Private and Personal Use Only Page #1844 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सौम्या १८३३ सौहृद सौम्या- संज्ञा, स्त्री० (सं०) अच्छे स्वभाव सौराष्ट्रिक-वि० (सं०) सोरठ देश-सम्बन्धी, की स्त्री, सुन्दर और सुशीला स्त्री, प्रार्या सौराष्ट्र देश का । छंद का एक भेद । पिं०)। सौरास्त्र--संज्ञा, पु० यौ० (सं०)एक दिव्यास्त्र, सौर-वि० (२०) सूर्य से उत्पन्न, सूर्य का, सूर्यास्त्र । सूर्य-सम्बन्धी। संज्ञा, पु० (सं०) सूर्योपासक, सौरि-संज्ञा, पु० दे० ( शौरि ) श्रीकृष्ण, शनिश्चर । *संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. सोड़)। वसुदेव | संज्ञा, स्त्री० (दे०) सोवर, सौरी, प्रोदना, रजाई, लिहाफ़, चादर । "तेते प्रसूता-गृह । संज्ञा, पु. (सं०) शनि ।। पाँव पसारिये, जेती लांबी सौर"--नीति। सोरी-संज्ञा, स्त्री० (सं० सूतिका ) सूतिकासोरज* --- संज्ञा, पु० दे० (सं० सौर्य) गृह, सूतिकागार, जच्चाखाना, स्त्री के बच्चा सूर्य से उत्पन्न, सूर्य का, सूर्य-सम्बन्धो। जनने क कमरा । संज्ञा, स्त्रो० दे० (सं० संज्ञा, पु. सूर्य का उपासक, सुर्य-सुत, शफरी ) एक प्रकार की मछली। संज्ञा, स्त्री. शनिश्चर । संज्ञा, पु. (दे०) शौर्य (सं०) (दे०) सुअरिया, शूकरी (सं०) सोरी (दे०)। शूरता। सौरीय-सौर्य-वि० (सं०) सूर्य-सम्बन्धी, सौर-दिवस- संज्ञा, पु. यौ० (सं०) एक | । सूर्य का । संज्ञा, पु. (दे०) शौर्य (सं०) सूर्योदय से दूसरे तक साठ घड़ी का समय । | सोज (दे०)। सोरभ-संज्ञा, पु. (सं०) सुगंध, सुवास, सोवचल-संज्ञा, पु. (सं०) सोंचर नमक । अच्छी महक, सुरभि, केसर, पाम । सौवर्ण- संज्ञा, पु० (सं०) सुवर्ण या सोने सौरभक-- संज्ञा, पु० (सं०)एक वर्णिक छन्द | का, सोगा। (पि.)। सौवीर - संज्ञा, पु. (सं०) सिंधु नदी के सौरभित–वि० (सं० सौरभ ) सुरभित, समीप का प्रदेश (प्राचीन), उस देश का सुगंधित, महकने वाला, सुवासित । निवासी या राजा। सौर मास-संज्ञा, पु. यौ० (सं०) एक सौवीरांजन-संज्ञा, पु० (सं०) सुरमा । संक्रान्ति से दूसरी तक का समय, सूर्य के | | सौरव-संज्ञा, पु० (सं० सुष्ठु ) सुडौलपन, एक राशि के पार करने का समय। सौंदर्य, सुन्दरता, उपयुक्तता, नाटक का सौर घर्प-संज्ञा, पु० यो० (सं०) एक मेष एक अंग ( नाट्य०)। की संक्रान्ति से दूसरी तक का समय, एक | सौसन-संज्ञा, पु० दे० (फा० सोसन ) एक फूल । पक्का वर्ष। सौसनी--वि० संज्ञा, पु० दे० (फा० सोसनी) सौरसेन--संज्ञा, पृ० दे० (सं० शौरसेन ) । सोसन फूल के रंग का। शूरसेन का पुत्र, बसुदेव जी। सोह-रज्ञा, स्त्री० दे० (सं० शपथ ) शपथ, सौरसेनी-संज्ञा, मो० (दे०) शौरसेनी क़सम, सौगंद, सौगंध । क्रि० वि० दे० (सं० (सं०) शूरसेन प्रान्त की प्राकृत भाषा । सम्मुख) समक्ष, सामने, भागे, सम्मुख । सौराष्ट्र-संज्ञा, पु० (सं०) काठियावाड़ और | | सौहाद-सौहार्य-संज्ञा, पु. ( सं० ) मैत्री, गुजरात का देश (प्राचीन ), सोरठदेश मित्रता, सुहृद का भाव । (दे०), सोरठ-वासी, एक वर्णिक छन्द सौही-सौं हैं-क्रि० वि० दे० ( हि० सौंह) (पि०)। सामने, सम्मुख, भागे। सौराष्ट्र-मृत्तिका-संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) सौहृद - ज्ञा, पु० (सं०) मित्रता, मैत्री, गोपी चन्दन। दोस्ती, मित्र, साथी। संज्ञा, पु०-सौहृद्य । भा० श. को०-२३० For Private and Personal Use Only Page #1845 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १८३४ स्तब्धता स्कंद-संज्ञा, पु० (सं०) गिरना, बहाना, | थंभा, थूनी, तरु-स्कंध, पेड़ की पेड़ी या निकलना, ध्वंस, विनाश, शिव-सुत, जो देव तना, शरीर के अंगों की गति का अवरोध, सेनापति और युद्ध के देवता हैं, कार्तिकेय अचलता, जड़ता, रुकावट, प्रतिबंध, किसी शिव, देह शरीर, बालकों के ६ घातक | शक्ति के रोकने का एक तांत्रिक प्रयोग, ग्रहों या रोगों में से एक ग्रह या रोग। शरीर के जड़वत् हो जाने का एक साविक " स्कन्दस्य मातु पयसां रसज्ञा" - रघु० । भाव (सा०)। स्कंदगुप्त-संज्ञा, पु. ( सं०) पटने के गुप्त- स्तंभक-वि० (सं०) अवरोधक, रोकने वंश का एक सम्राट् (ई. सन् ४५० से | वाला, वीर्य के पतन को रोकने वाला, ४६७ तक)। मलावरोध-कारक । स्कंदन-- संज्ञा, पु० (सं०) रेचन, कोठे की स्तंभन-संज्ञा, पु० (सं.) निवारण, रुकावट, सफाई, निकलना, गिरना, बहना । वि. अवरोध, वीर्य के स्खलन में रुकावट, स्कंदनीय, स्कंदित।। विलम्ब या बाधा, वीर्य-पात के रोकने की स्कंदपुराण-संज्ञा, पु. यौ० (सं० ) औषधि, जड़ यो निश्चेष्ट करना, जड़ी अठारह पुराणों में से एक महापुराण जिसमें कारण, किसी की शक्ति या चेष्टा के रोकने कातिकेय का वर्णन है। का एक तान्त्रिक प्रयोग, पाँच बाणों में स्कंदित-वि. ( सं० ) निकला हुया, से एक, मलावरोध, मदन के कब्ज । वि० स्खलित, गिरा हुआ, पतित, सवित ।। स्तंभनीय, स्तंभित । स्कंध-संज्ञा, पु. (सं०) मोढा, कंधा, | स्तंभित--वि० (सं०) जड़, अचल, स्तब्ध, काँधा, पेड़ की डालियों के फूटने का स्थान, निश्चल, सुन्न, निस्तब्ध, अवरुद्ध, रुका या दंड, कांड, शाखा, डाली, वृन्द, झुड, रोका हुश्रा। समूह, व्यूह. सेना का अंग, पुस्तक का | स्तन-संज्ञा, पु० (सं०) मादा पशुओं या विभाग जिसमें एक पूर्ण प्रसंग हो, शरीर, स्त्रियों के दूध रहने का अंग, पयोधर, थन, खंड, प्राचार्य, मुनि, युद्ध, रण, संग्राम, अस्तन, अस्थन (द०), उरोज, चूंची, श्रार्या छन्द का एक भेद (पिं०), पांच | छाती। मुहा०-स्तन पीना-शिशु पदार्थः-रूप, वेदना, विज्ञान, संज्ञा, संस्कार | का स्तनों से दूध पीना, शैशव का सा (बौद्ध), रूप, रस, गंध, पर्श, शब्द व्यवहार करना ( व्यंग्य०)। (द० शास्त्र)। स्तनंधय-संज्ञा, पु० (सं०) बालक, लड़का। स्कंधावार-संज्ञा, पु. (सं० ) राजा का | स्तनन-संज्ञा, पु० (सं.) मेघ गर्जन, बादल, शिविर या डेरा-नीमा, छावनी,सेना-निवास, गर्जना, ध्वनि, आर्तनाद । सेना, कैंप (अ.)। स्तन-पान-संज्ञा, पु० यौ० ( सं० ) स्तनों स्कंभ-संज्ञा, पु० (सं० ) स्तंभ, खम्भा, | या थनों से दूध पीना, स्तन्यपान । ईश्वर, ब्रह्म। स्तनपायो-वि० (सं० स्तनपायिन् ) माता स्खलन-संज्ञा, पु. ( सं० ) पतन. गिरना, के स्तनों या थनों से दूध पीने वाला, शिशु, निकलना, फिसलना, चूकना । वि०- छोटा बालक, बच्चा। स्खलनीय। स्तब्ध-वि० (सं०) अचल, जड़ीभूत, स्खलित-वि० (सं०) पतित, विचलित, दृढ़, स्तंभित, निश्चेष्ट, स्थिर, धीमा, मन्द। गिरा हुश्रा, च्युत, फिसला हुश्रा, चूका हुआ। स्तब्धता-संज्ञा, स्त्री. ( सं०) जड़ता, स्तंभ-संज्ञा, पु. (सं०) स्थंभ, खम्भा, । निश्चेष्टता, पता, स्थिरता, स्तन्ध का भाव। For Private and Personal Use Only Page #1846 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org स्तर स्तर -- संज्ञा, पु० (सं० ) परत, तह, थर, तबक, तल्प, शय्या, सेज, पृथ्वो- विद्या में भिन्न भिन्न कालों में बनी तहों के श्राधार पर भूमि की बनावट और विभाग का विचार, प्रस्तर (दे०), दोहरे कपड़े की भीतरी वस्त्र | स्तरण – संज्ञा, पु० ( सं० ) फैलना या बखेरना, छितराना। वि० - स्तरणीय, स्तरित । १८३५ स्तव - संज्ञा, पु० (सं० ) स्तुति स्तोत्र, किसी देवता या महापुरुष का गुणगान, या रूपादि का पदबद्ध, वर्णन | स्तवक - संज्ञा, पु० (सं०) फूलों या फलों का गुच्छा, गुलदस्ता, समूह, राशि, ढेर, पुस्तक का परिच्छेद या श्रध्याय, स्तुति करने वाला, स्तवक (दे० ) । " निपीय मानस्तवकाः शिलीमुखैः " - किरा० । स्तवन -- संज्ञा, पु० (सं०) स्तुति, स्तव, यशोगान, कीर्ति - कीर्तन, गुण-कथन । वि० स्तवनीय | स्तीर्ण – वि० (सं० ) फैलाया, छितराया या बिखेरा हुआ, विकीर्ण, विस्तृत । स्तुत - वि० (सं०) प्रशंसित, जिसकी स्तुति की गई हो । स्त्रीत स्तुत्य - वि० (सं०) श्लाध्य, प्रशंसनीय, कीर्तिनीय, स्तुति या बड़ाई के योग्य । स्तूप - संज्ञा, पु० (सं०) ऊँचा टीला या दूह, वह ऊँचा टीला जिसके तले भगवान बुद्ध या अन्य किसी महात्मा की हड्डियाँ या केशादि स्मृति चिह्न रखे हों । स्तेय - संज्ञा, पु० (सं० ) चौरी, स्तोक - संज्ञा, पु० (सं० ) चातक, पपीहा । स्तोता - वि० (सं० स्तोतृ ) प्रशंसक, करने वाला । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चौर्य बिंदु, बूँद, 1 स्तुति स्तोत्र - संज्ञा, पु० (सं० ) किसी देवी-देवता का पद्यबद्ध रूप, गुण, यशादि का कथन, स्तुति, स्तव, गुण या यश का कीर्त्तन, स्तवन । स्तोम - संज्ञा, पु० (सं० ) स्तवन, स्तुति, प्रार्थना, यज्ञ, राशि, समूह, एक यज्ञ विशेष । स्त्री - संज्ञा, स्रो० (सं० ) नारी, तिरिया (दे०), पत्नी, जोरू, औरत, मादा, दो गुरु वर्णों का एक वर्णिक वृत्त ( पिं० ) । संज्ञा, स्त्री० (दे०) इस्तिरी । For Private and Personal Use Only स्त्रीत्व - संज्ञा, पु० (सं० ) स्त्रीपन, स्त्री का भाव या धर्म, जनानापन, स्त्रीलिंग सूचक प्रत्यय ( व्याक० ) । स्त्रीधन- संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) जिस धन परस्त्री का पूर्ण अधिकार हो । स्त्रीधर्म - पंज्ञा, पु० यौ० (सं०) रजोदर्शन, स्त्रियों का रजस्वला होना, मासिक-धर्म, कोर्स (०)। यौ० (सं०) स्त्रियों का कर्तव्य । स्तुति - संज्ञा, स्रो० (सं०) स्तवन, यशोगान, कीर्ति कीर्तन, गुण-कथन, प्रशंसा, प्रशंस्ति, बड़ाई, दुर्गा, प्रस्तुति (दे० ) । " स्तुति प्रभु तोरी मैं मतिभोरी केहि विधि करौं अनन्ता "रामा० । स्तुति - पाठ-संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) स्त्री-प्रसंग - संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) संभोग, प्रशस्ति-पाठ, स्तुति पढ़ना । स्तुति पाठक - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) स्तवन करने वाला, स्तुति पढ़ने वाला, भाट, मागध, चारण, सूत, बंदीजन । स्तुतिवाचक संज्ञा, पु० यौ० (सं०) स्तुति या प्रशंसा करने वाला, खुशामदी, कीर्ति कहने वाला । मैथुन, रति । स्त्रीलिंग - संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) योनि, स्त्रियों का गुह्य स्थल, भग, स्मर- मन्दिर, जिस शब्द से स्त्री का बोध हो ( व्याक० ), जैसे- लड़की खीलिंग है । विलो०पुल्लिंग | स्त्रीव्रत - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) पत्नी व्रत, 9-1 Page #1847 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir स्त्री-समागम १८३६ स्थापत्य एक नारी-व्रत, अपनी स्त्री को छोड़ किसी स्थविर-संज्ञा, पु. ( सं० ) ब्रह्मा, बूढ़ा, दूसरी स्त्री की इच्छा न करना। बुड्दा, वृद्ध, पूज्य, वृद्ध बौद्ध भिक्षु । स्त्री-समागम-संज्ञा, पु. यौ० (सं०) स्थाई-वि० दे० (सं० स्थायी ) स्थायी, प्रसंग, मैथुन, सम्भोग, रति, स्त्री-सहास। थाई (दे०)। स्त्रैण-वि० (सं०) स्त्री-सम्बन्धी, स्त्रियों का, | स्थाणु-संज्ञा, पु. (सं०) स्तंभ, खंभा, थूनी, स्त्री-रत, स्त्रियों के अधीन या वश में रहने | हूँठा पेड़, शिव जी। वि० - स्थिर, अटल, वाला। अचल । स्थ-प्रत्य० ( सं० ) यह शब्दों के अंत में | स्थान-संज्ञा, पु० (सं०) जगह, ठाँव, ठौर, लग कर स्थिति ( सत्ता), उपस्थिति ठाम, टिकाव, स्थल, ठहराव, घर, डेरा, (वर्तमान ), निवासी (रहने वाला), लीन | आवास, स्थिति, मैदान, भू-भाग, कार्यालय, (रत) आदि का द्योतक है।। ओहदा, पद, देवालय, मंदिर, मौका, अवसर, स्थकित-वि० (हि. थक्ति) श्रान्त, असथान (दे०)। क्लान्त, थका हुआ। स्थानच्युत--वि० यौ० (सं०) जो अपनी स्थगित-वि० (सं०) आच्छादित, अवरुद्ध, . जगह या स्थान से हट या गिर गया हो। रोका हुआ, मुलतबी, जो कुछ समय के स्थानभ्रष्ट- वि० यौ० (सं०) स्थानच्युत, लिये रोक दिया गया हो। जो अपने स्थान से हट या गिर गया हो । स्थपति-संज्ञा, पु. (सं०) बढ़ई, शिल्पी। स्थानांतर-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) दूसरी स्थल-संज्ञा, पु. ( सं० ) लल-रहित जगह, दूसरा घर, प्रस्तुत या प्रकृत स्थान भू-भाग, जल-रहित या सूखी भूमि, खुश्की, से भिन्न । मरुभूमि, जगह, स्थान, मौका, अवसर, कर । स्रो०-स्थली। स्थानांतरित-वि• यौ० (सं०) जो एक स्थलकमल-संज्ञा, पु० यौ० ( सं० ) सूखी स्थान को छोड़ दूसरे पर गया हो।। भूमि में होने वाला कमल, गुलाब । स्थानापन्न-वि. ( सं० ) एवज़, कायमस्थलचर, स्थलचारी-वि० (सं०) सूखी मुकाम, प्रतिनिधि, दूसरे के स्थान पर भूमि पर रहने या चलने वाला। अस्थायी रूप से कार्य करने वाला। स्थलज-वि० ( सं० ) सूखी भूमि में उत्पन्न स्थानिक--वि० (सं०) स्थान या ठौर वाला, होने वाला। स्थानीय, उस जगह का जिसका उल्लेख स्थलपद्म-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) स्थल हो। कमल, गुलाब। स्थानीय-वि० (सं०) स्थानिक, उसी स्थान स्थलयुद्ध -- संज्ञा, पु० यौ० (सं०) स्पन-रण, का जिसके विषय में कोई उल्लेख हो । सूखी भूमि पर होने वाला संग्राम, युद्ध | स्थापक-वि० (सं०) सूत्रधार का सहयोगी या लड़ाई । विलो०-जल-युद्ध। (नाट्य०), स्थापना करने वाला, कायम करने स्थली-संज्ञा, स्त्री० (सं०) सूखी भूमि, या रखने वाला, मूर्ति स्थापित करने या स्थान, जगह, थली (दे०)। " दसकंठ की। बनाने वाला, संस्थापक, स्थापनकर्ता, कोई देखि यों केल-स्थली"-राम । संस्था खड़ी करने या खोलने वाला। स्थलीय--वि० (सं०) सूखी भूमि-संबंधी, स्थापत्य-संज्ञा, पु० (सं०) राजगीरी, मेमारी, स्थल का, सूखी भूमि पर का, किसी स्थान | भवन-निर्माण, भवन निर्माण के सिद्धान्तादि का, स्थानीय। के विवेचन की विद्या। For Private and Personal Use Only Page #1848 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - - - स्थापत्यवेद १८३७ स्थिर स्थापत्यवेद-संज्ञा, पु. यौ० ( सं०) चार | स्थाली-पुत्लाक-न्याय-संज्ञा, पु० यौ० उपवेदों में से एक, शिल्पवेद, वास्तु-शिल्प- (सं०) एक बात को जानकर उसके संबंध की शास्त्र, कारीगरी की विद्या। । अन्य सब बातें जान लेना। स्थापन-संज्ञा, पु. (सं०) रखना, उठाना, स्थावर --- वि० (सं०) अचल, अटल. स्थिर, खड़ा करना, जमाना, किपी विषय को गैरमनकूला (फ़ा०), जो एक जगह से दूसरी प्रमाणों से सिद्ध करना, प्रतिपादन या ! पर न लाया जा सके। संज्ञा, स्त्रीसाबित करना, निरूपण, नया काम जारी स्थावन्ता। विलो. ---जंगम | संज्ञा, पु. करना, थापन (दे०)। वि०--स्थापनीय, -पहाड़, पेड़, अचल धन या संपत्ति । स्थापित। स्थावरविष-संज्ञा, पु. यौ० (सं०) वृक्षादि स्थापना-संज्ञा, स्त्रो० (सं०) थापना (दे०), स्थावर पदार्थों में होने वाला विष । बैठाना, जमाना, रखना, स्थित या प्रतिष्ठित स्थाविर-संज्ञा, पु. (सं०) बुढ़ापा, बुढ़ाई । करना, सिद्ध या प्रतिपादन करना, साबित स्थित--वि० (सं०) अपने स्थान पर स्थित करना। या ठहरा हुआ, अवलंबित, आसीन, बैठा स्थापित-वि० सं०) प्रतिष्ठित, व्यवस्थित, हुआ, स्वप्रण पर जमा हुआ, उपस्थित, निश्चित, निर्दिष्ट, जिसकी स्थापना की गई। विद्यमान, ऊर्ध्व, निवासी, अवस्थित, खड़ा हो, थापित (दे.)। "प्रभु स्थापित मूनि हुश्रा, रहने वाला। शंभु रामेश्वर जानो"- स्फु० । स्थितता -- संज्ञा, स्त्री० (सं०) स्थिति, ठहराव । स्थायित्व-संज्ञा. पु. (सं०) स्थिरता, स्थितप्रज्ञ-वि० (सं०) सब मनोविकारों सुदृढ़ता, स्थायी होने का भाव। से रहित, स्थिर विचार-शक्ति या विवेकस्थायी-वि० ( सं० स्थायिन् ) स्थिर रहने बुद्धि वाला, श्रात्मसंतोषी । " स्थितया टिकने वाला, टिकाऊ, ठहरने वाला, प्रज्ञस्य का भाषा"-भ० गी। दृढ़, बहुत दिनों तक रहने या चलने वाला, स्थिति--संज्ञा, स्रो० (सं०) परिस्थिति, थाई (दे०)। ठहराव, टिकाव, रहना, ठहरना, निवास, स्थायीभाष-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) विभा- दशा, अवस्था, अवस्थान, दर्जा, पद, एक वादि में अभिव्यक्त हो रसत्व को प्राप्त होने दशा या स्थान में रहना, सदा बना रहना, वाले तथा रस में सदा स्थित रहने वाले अस्तित्व, स्थिरता, पालन । तीन प्रकार के भावों में से एक, इसके नौ स्थितिस्थापक-संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) भेद हैं:--हास्य. शोक, भय, जुगुप्सा या वह शक्ति या गुण जिसके कारण कोई वस्तु घृणा, रति, क्रोध, उत्साह, विस्मय, और, । नई स्थिति में पाकर भी फिर अपनी पूर्व दशा निर्वेद ( साहि.)। को प्राप्त हो जाये । वि.--किसी पदार्थ को स्थायी समिति --संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) ! उसकी पूर्व दशा में प्राप्त कराने वाली किसी सभा या सम्मेलन के दो अधिवेशनों शक्ति, लचीला। के बीच के समय में उसका कार्य संचालन स्थिति-स्थापकता (स्त्रो०) स्थिति स्थापकरने वाली समिति है। कत्व-संज्ञा, पु. यौ० (सं०) लचीलापन, स्थाल-- संज्ञा, पु० (सं० स्थल ) बड़ी थाली, | स्थिति-स्थापक का भाव । बड़ी हाँड़ी, रकाबी, थाल (दे०)। | स्थिर----वि० (सं०) अचल, निश्चल, शाश्वत, स्थाली-- संज्ञा, स्त्री. ( हि० स्थाल ) थाली | अटल, ठहरा हुआ, शांत, स्थायी, दृढ़, (दे०), तश्तरी, रकाबी, हाँड़ी। | मुकर्रर, नियत, निश्चित। संज्ञा, पु०-शिव, For Private and Personal Use Only Page #1849 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir स्थिरचित्त १८३८ स्पर्श देवता, एफ योग, (ज्यो०) पहाड़, एक स्निग्ध- वि० (सं०) जिसमें तेल या स्नेह छंद (पि०)। हो, चिकना, प्रेम-युक्त, मृदुल । स्थिरचित्त--वि० यौ० (सं०) जिसका मन स्निग्धता-संज्ञा, स्त्री० (सं०) मसणता, अचल या स्थिर हो, दमन, थिरचित चिकनापन, चिकनाहट, प्रियता, प्रिय होने (द०)। संज्ञा, स्नो-स्थिरचित्तता। का भाव। स्नुषा-संज्ञा, स्त्री० (सं०) पुत्रवधु, पतोहू । स्थिरता-संज्ञा, स्रो० (सं०) निश्चलता, | स्नेह-संज्ञा, पु. (सं०) प्यार, प्रेम, छोह, अचलस्व. ठहराव, दृढ़ता, धैर्य, स्थायित्व, मुहब्बत, चिकना पदार्थ, चिकना, चिकनई थिरता (द०)। या चिकनाहट वाली वस्तु. तेल, मृदुलता, स्थिरबुद्धि-वि० यौ० (सं०) दृढ़चित्त, अटल मसणता, सनेह, नेह (दे०)। " मैं शिशु मन, जिसकी बुद्धि स्थिर हो, स्थिरधी।। प्रभुस्नेह प्रतिपाला"-रामा० । स्थूल-वि० (सं०) पीवर, पीन, मोटा, मोटी, | स्नेहपात्र-संज्ञा, पु. यौ० (सं०) प्रेम करनेवस्तु, सहज में समझ में आने या दिखलाई | योग्य, प्रेम-पात्र, प्यारा, चिकनाई का बरतन । देने वाला। विलो०-सूक्ष्म । संज्ञा, पु. स्नेहपान-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) कुछ -इंद्रिय-ग्राम पदार्थ, गोचर वस्तु । कि. विशिष्ठ रोगानुसार तेल, घी आदि का पीना वि० यौ० (सं०) स्थूल रूप से, स्थूलदृष्टि (वैद्य०)। स्नेही-संज्ञा, पु. (सं० स्नेहिन्) नेही, प्रेमी, स्थूलता-संज्ञा, स्त्री० (सं०) मोटाई, मोटा- प्रिय, प्यारा, प्रेम करने वाला, मित्र, साथी, पन, स्थूल का भाव, भारीपन, पीनता, अस्नेही, सनेही, नेही (द०)। पीवरस्व । संज्ञा, पु०-स्थूलत्व । स्पंद-स्पंदन-संज्ञा, पु. (सं०) धीरे धीरे स्थैर्य-संज्ञा, पु० (सं०) दृढ़ता, स्थिरता। काँपना या हिलना, स्फुरण, हृदय या अंगों स्नपित-स्नात-वि० (सं०) नहाया हुआ। का फड़कना । वि०-स्पंदित, स्पंदनीय। स्नातक-संज्ञा, पु. (सं०) ब्रह्मचर्य व्रत स्पर्द्धा-संज्ञा, स्त्री० (सं०) रगड़, डाह, संघर्ष, पूर्ण कर गृहस्थाश्रम में प्रविष्ट हुमा व्यक्ति । द्वेष, साम्य, किसी के मुक़ाबिले में उससे आगे बढ़ने की इच्छा, हौसिला, होड़, स्त्री०-स्नातिका। साहस, बराबरी। वि०-स्पद्धिन् । स्नान-संज्ञा, पु. (सं०) अवगाहन, नहाना, स्पर्धी--वि० ( सं० स्पर्द्धिन् ) डाही, द्वेषी, स्वच्छतार्थ शरीर को पानी से धोना, देह स्पर्धा करने वाला, ईर्षालू ।। साफ़ करना, असनान, अन्हान, न्हान, स्पर्श-संज्ञा, पु. (सं०) दो वस्तुओं का नहान (दे०), देह को वायु या धूप में रख इतना सामीप्य कि उनके तल परस्पर छू उस पर उनका प्रभाव पड़ने देना । “ करि या लग जायें, छू जाना, छूना, स्वम् इन्द्रिय स्नान ध्यान अरु पूजा"-स्फु०। का वह विषय या गुण जिससे उसे किसी स्नानागार ---संज्ञा, पु० यौ० (सं०)स्नानालय, वस्तु के दबाव या छू जाने का ज्ञान हो । नहाने का कमरा या स्थान । उच्चारण के श्राभ्यंतर प्रयत्न के ४ भेदों में स्नायविक- वि० (सं०) नाड़ी या स्नायु- से स्पष्ट नामक एक भेद जिसमें, क से संबंधी। लेकर म तक के २५वे व्यंजन वर्ण हैं जिनके स्नायु-संज्ञा, स्त्री. (सं०) वेदना तथा उच्चारण में वागेंद्रिय का द्वार बंद रहता है स्पर्शादि का ज्ञान कराने वाली शरीर की | (व्याक०), ग्रहण में रवि या शशि पर भीतरी नाड़ियाँ या नसें। छाया पड़ने का प्रारम्भ (ज्यो०)। For Private and Personal Use Only Page #1850 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir स्फुट - स्पर्शजन्य १८३३ स्पर्शजन्य-वि० यौ० (सं०) संक्रामक, जो स्पष्टवादी-संज्ञा, पु. (सं०) स्पष्टवक्ता, छूने से उत्पन्न हो, छुतहा । साफ़ साफ कहने वाला। स्पर्शन=संज्ञा, पु. (सं०) स्पर्श, छूना, ' स्पष्टीकरण-संज्ञा, पु० (सं०) किसी बात श्रालिंगन । वि०-स्पर्शनीय, स्पर्शित । को ठीक ठीक या साफ़ साफ़ कहना या स्पर्शनेंद्रिय-संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) स्पर्शे- । करना, लगी-लिपटी परखना, स्पष्ट करने न्द्रिय, त्वगिन्द्रिय, छूने या स्पर्श करने की की क्रिया, प्रकटीकरण । इन्द्रिय, त्वचा, खाल । स्पृक्का--संज्ञा, स्त्री० (सं०) लजालू, लाजवंती, स्पर्शमणि-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) पारस ब्राह्मी बूटी, अलबरग (प्रान्ती.)। पत्थर। स्पृश-वि०(सं०) छूने या स्पर्श करने वाला। स्पर्शास्पर्श-संज्ञा, पु० यौ० ( सं० स्पर्श + | स्पृश्य--वि० (सं०) स्पर्श करने योग्य, छूने अस्पर्श ) छूने या न छूने का विचार या योग्य । संज्ञा, स्त्री० (सं०) स्पृश्यता। भाव, छूत-पाक। स्पृष्ट---वि० (सं०) स्पर्शित, छुपा हुआ । स्पर्शित-वि० (सं०) जो छुपा गया हो, स्पृहणीय- वि० (सं०) श्राकांक्षनीय, इच्छा जिसका स्पर्श किया गया या हुआ हो। या कामना के योग्य, अभिलाषा करने योग्य, स्पर्शी-वि० (सं० स्पर्शिन् ) छूने वाला। वांछनीय, गौरवशाली। स्पर्शन्द्रिय-संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं० त्वर्गिद्रिय, स्पृहा-संज्ञा, स्त्री० (सं०) आकांक्षा, अभि. स्वचा, खाल, स्पर्शज्ञान-कारिणी इंद्रिय ।। लाषा, कामना, इच्छा, चाह, वांछा । स्पष्ट-वि० (सं०) सान समझ में श्राने या "स्पृहावतीवस्तुपुकेषु मागधी"-रघु० । दिखाई देने वाला, प्रगट, सुव्यक्त, साफ़ स्पृही-वि० (सं०) आकांक्षी, इच्छा या साफ़, सपष्ट (दे०)। संज्ञा, पु. (सं.)। कामना करने वाला, इच्छुक, अभिलाषी। उच्चारण का एक प्रयत्न-भेद जिसमें दोनों | स्फटिक-संज्ञा, पु० (सं०) काँच जैसा पार. श्रोठ परस्पर छूते हैं। दर्शी एक मूल्यवान पत्थर, बिल्लौर पत्थर, स्पष्टकथन-संज्ञा, पु. यौ० (सं०) साफ़ | सूर्य-कांत-मणि, काँच, शीशा, फिटकरी, साफ या ठीक ठीक कहना, जिसमें साफ़ फटिक (दे०)। " बभूव तस्य स्फटिकाक्षसमझ पड़े, स्पष्टवचन, किसी के कथन मालया'-माघ० । को ठीक उसी रूप में जैसे उसने कहा था, | स्कार-वे. (सं०) विपुल, बहुत, प्रचुर, कहना। विकट, अधिक, ज़्यादा, फाडा या फैला स्पष्टतया-स्पष्टतः-कि० वि० (सं०) यथार्थ हुश्रा । वि०-स्फारित । रूप से, साफ़ साफ़,ठीक ठीक,स्पष्ट रूप से। काल-संज्ञा, पु. (सं०) धीरे धीरे हिलना, स्पष्टता-संज्ञा, स्त्री. (सं०) यथार्थता, फड़कना, फुरती, तेजी, स्फूर्ति । वि०समाई, स्पष्ट होने का भाव । स्फालित । संज्ञा, पु० स्फालन । स्पष्टवक्ता- सज्ञा, पु० यौ०(सं०) स्फ़ साफ़ | स्फीत-वि० (सं०) वर्द्धित, बढ़ा या फूला कहने वाला, जो कहने में किसी का कुछ हुआ, समृद्ध । “स्फीतो जन पदो महान" भी लिहाज़ न करे। - वा. रा.। स्पष्टवाद-संज्ञा, पु. यो० (सं०) साफ या स्फुट-वि० (सं०) जो सम्मुख दिखलाई देता ठीक कहना, यथार्थवाद । संज्ञा, स्त्री. (सं०) हो, व्यक्त, प्रकाशित, विकसित, खिला स्पष्टवादिता, यथार्थ वादिता, सत्य- हुआ, साफ़, स्पष्ट, भिन्न भिन्न, अलग वादिता। अलग, फुटकल, पृथक । For Private and Personal Use Only Page #1851 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir स्मृति - स्फुटन-संज्ञा, पु. (सं०) फूटना, खिलना, स्मरणपत्र ---संज्ञा, पु० यौ० (सं०) किसी को विकसना, हँसना । वि०... स्फुटनीच । । किसी बात की याद दिलाने के लिये लिखा स्फुटित-वि० (सं०) खिला हुआ, विकसित, गया लेख। हँसता हुआ, फूला हुआ, स्पष्ट या साफ़ स्मरण शक्ति-संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) स्मृति, किया हुआ। “ स्फुटितमप्यखिलं वरणद्वयं । याददाश्त, याद रखने की शक्ति, धारणा विकचताम-रस-प्रितिमं भवेत् "-लो.।। शक्ति, मन की वह शक्ति जो किसी देखी स्फुरण-संज्ञा, पु० (सं०) कंपन, किसी वस्तु | सुनी या अनुभव की हुई वस्तु या बात को का धीरे धीरे और थोड़ा थोड़ा हिलना, ग्रहण कर रख छोड़ती है। फुटना, अंगों का फड़कना, स्पंदन। सारणीय --- वि० (सं०) स्मरण या याद रखने स्फुरति*-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० स्फूर्ति) के योग्य । धीरे धीरे हिलना या कॉपना, फड़कना, स्मरना--स० क्रि० दे० (सं० स्मरण ) स्मरण फुटना। __ या याद करना, सुमिरना (दे०)। स्फुरित-वि०सं०) स्फुरण-युक्त, स्फूर्तिमय। | स्मरारि-संज्ञा, पु० यो० (सं०) कामारि, स्फुलिंग-संज्ञा, पु० (सं०) चिनगारी। महादेव जी । “स्मरारे पुरारे यमारे हरेति" स्फूर्ति-संज्ञा, स्त्री० (सं०) धीरे धीरे हिलना, __-शं० । " स्मरारि मन अस अनुमाना" स्फुरण होना, फड़कना, किसी कार्य के लिये --स्फु० । मन में हुई ईषत, उत्तेजना, तेज़ी फुरती। स्मर्ण*--संज्ञा, पु० दे० (सं० स्मरण ) स्मरण, याद। स्फोट-संज्ञा, पु०(सं०) वाह्यावरण को तोड़ स्मशान-संज्ञा, पु० दे० (सं० श्मशान ) कर किसी वस्तु का बाहर आना, फूटना, श्मशान, मरघट, मसान, समसान (दे०)। बाहर निकलना, शरीर का फोहा फसी, स्मारक-वि० (सं०) याद दिलाने या स्मरण ज्वालामुखी पर्वत से सहसा अति आदि कराने वाला, किसी की स्मृति बनी रखने का फोड़ निकलना। को प्रस्तुत की गई वस्तु या कृत्य, यादगार, सकोटक-- संज्ञा, पु० (सं०) फोड़ा, फुसी। स्मरण रखने को दी गई वस्तु । स्फोटन-संज्ञा, पु० (सं०) विदारण, फोड़ना, | स्मार्त-संज्ञा, पु. (सं०) स्मृति-लिखित फाड़ना, विदीर्ण होना। कार्य या कृत्य, स्मृति-लिखित कार्य स्मर-संज्ञा, पु० (सं०) मार, मदन, कामदेव, | करने वाला, स्मृति शास्त्र का ज्ञाता । वि०-- मनोज, स्मरण, याद, स्मृति, समर (दे०)। स्मृति का, स्मृति-संबंधो। यौ०-स्मात "श्राप विाधा कुसुमानि तवाशुगान् स्मरवैषाव। विधाय न निवृतिमाप्तवान्'--नैष । स्मित-संज्ञा, पु० (सं०) मुसकान, मंदहास स्मरण-- संज्ञा,पु० (सं०) याद बना पा करना, या हँसी। " स्मित-पूर्वानुभाषिणीः "किसी देखी-सुनी या अनुभव की हुई बात वा० रामा० । वि०-विकसित, खिला हुआ, का फिर मन में थाना, नौ प्रकार की भक्ति प्रस्फुटित, फूला हुआ। में से एक जिसमें भक्त भगवान को सदैव | सात - वि० (सं०) याद किया या स्मरण में स्मृति में रखता है, एक अलंकार जिसमें | पाया हुआ। किसी वस्तु या बात को देख वैसी ही किसी स्मृति--संज्ञा, स्त्री० (सं०) स्मरण, याद, विशेष वस्तु या बात के याद 'पाने का स्मरण शक्ति से संचित किया ज्ञान, हिंदुओं कथन हो (भ० पी०), अस्मरण (दे०)। के धर्म ( कर्तव्य ) प्राचार-व्यवहार शासन, For Private and Personal Use Only Page #1852 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीकाशा स्मृतिकार १८४१ स्यारपन नीति तथा दर्शनादि की विवेचना-सम्बंधी की रीति । मुहा० -- स्यापा पड़ना-रोनाधर्म-शास्त्र, लो आठरह हैं, अठारह की पीटना पड़ना रोना-चिल्लाना मचना, प्रति संख्या, एक छंद (पिं० ) " श्रुतेरिवार्थम् हानि होना, बिलकुल नाश होना, उनाद स्मृतिरन्वगच्छत् "-रघु०। या सूना हो जाना। स्मृतिकार -ज्ञा, पु० सं०) धर्म-शास्त्र के स्यावास* - अव्य० दे० (फा० शावास ) कर्ता और ज्ञाता। किसी छोटे के किसी अच्छे कार्य पर स्मृतिकारक, स्मृतिकारी-वि० (सं०) प्रसन्न हो बड़ों का उसे भशीष और स्मरण कराने वाला। उत्साह देना, तथा प्रशंसा करना, शाबाश । स्पंदन-सज्ञा, पु० (सं०) पकना, चुना, सज्ञा, स्त्री० (दे०) म्याबासी। रसना, बहना, जाना. गलना, चलना, रथ स्याम-संज्ञा, पु० वि० दे० ( सं० श्याम ) (विशेषत युद्ध का रथ ) वायु । " सुबरन | श्रीकृष्ण जी, श्याम रंग, श्याम रंग वाला। स्पंदन पै सेलजा-सुनंदन लौं"--सरम।। संज्ञा, पु० दे० भारत से पूर्व में एक देश । स्यमंतक-सज्ञा, पु० (सं०) सूर्य-प्रदत्त एक "सूर स्याम को मधुर कौर दै कीन्हें तात मांगलिक मणि जिसकी चोरी का कलंक निहोरे"- सूर। कृष्ण को लगा था, बड़ा हीरा। स्यामक-- संज्ञा, पु० दे० (सं० श्यमक) स्यात् -- अव्य० (सं०) कदाचित्, शायद । " स्यादिद्रवज्रा यदि तौ जगौगः । स्याम करन, स्याम-कर्न*-संज्ञा, पु० दे० स्याद्वाद-संज्ञा, पु. (सं०) अनेकांतवाद, ( सं. श्याम -- कर्ण) एक बिलकुल सफ़ेद जैनों का एक दर्शन, जिसमें स्यात् यह है घोड़" जिसके केवल दोनों कान काले हों। स्यात् वह है ऐसा कहा गया है, संदेहवाद। "स्याम करन अगनित हय जोते"-रामा । स्यान-स्याना--वि० दे० (सं० सज्ञान) स्यामता-स्थामताई-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० बुद्धिमान, चतुर, प्रवीण, चालाक, धृत, श्यामता) कालापन । ' सोई स्यामता वास" बालिग, वयस्क. वयोवृद्ध,मयान, सयाना | -रामा०। (दे०) । स्त्री०--स्यानी । संज्ञा, पु०-चढ़ा- स्यामल-वि० दे० (सं० श्यामला ) श्याम, बढ़ा, वृद्ध पुरुष, अोझा, जादू-टोना जानने श्यामला "स्यामन गात कसे धनु-भाया" वाला. चिकित्यक, वैद्य। -रामा०। स्यानता- संज्ञा स्त्री० (दे०) चतुराई, चालाकी स्यामालया-संज्ञा, पु. दे० (सं० श्यामला) सयानता (दे०)। श्यामला, साँवला, साँवलिया (दे०)। स्यानप, स्यानपन, स्यानपना-संज्ञा, पु० स्यामा*--संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० श्यामा ) दे० (हि० स्याना+ पन-प्रत्य०) बुद्धिमानी, श्यामा, राधिका जी, सोलह वर्ष की स्त्री, चतुरता, चालाकी, धूर्तता, सयानप (दे०)। । एक छोटा काला पक्षी। " स्यामा-स्याम स्थानापन-संज्ञा, पु० दे० (हि० स्याना+पन- हिंडोला झूलत"--सूर० । " स्यामा बाम प्रत्य०) युवावस्था, जवानी, होशियारी, सुतरू पर देखी"--रामा । चतुराई, धूर्तता, चालाकी। "स्थानापन स्यार--संज्ञा, पु० दे० (सं० शृगाल) केहि काम को, जातें होवे हानि".-नीति। शृगाल, सियार, गीदड़ । स्रो०-स्यारनी। स्यापा-संज्ञा, पु. दे० ( फा० स्याह-पोश) स्यारपन-संज्ञा, पु० दे० (हि. सियार + पन किसी के मरने पर कुछ समय तक प्रतिदिन | प्रत्य.) सियार या गीदद का सा स्वभाव नियों के एकन्ना रोने और शोक मनाने | या व्यवहार । भा० श. को०--२३१ For Private and Personal Use Only Page #1853 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org स्यारी स्यारी - संज्ञा, स्त्री० दे० ( हि० सियारी ) स्यार की गीदड़ी, कातिक की फसिल, सियारी ( प्रान्ती ० ) । मादा, १८४२ स्याल, स्याला - संज्ञा, पु० दे० (सं० श्याला) श्यालक, साला, पत्नी का भाई | संज्ञा, (दे०) स्यार, सियार । पु० स्यालिया - संज्ञा, पु० दे० ( हि० सियार ) गीदड़, सियार. स्यार । स्याहा नवीस - संज्ञा, पु० दे० यौ० ( फ़ा० सियाहा + नवीश) स्यादा लिखने वाला कर्मचारी । नापित चार नगरा और एक सगण का एक वर्णिक छंद (पिं० ) । स्रग्धरा - संज्ञा, स्रो० (सं०) म, र, भ, न, और तीन ( गण ) का एक वर्णिक छंद (पिं० ) । त्रग्विणी - संज्ञा, त्रो० (सं०) ४ रगण का एक वर्णिक छंद (पिं० ) । स्त्रज् संज्ञा, स्त्री० (सं०) माला | स्यावज - संज्ञा, पु० दे० ( हि० सामज ) स्रजना - १० क्रि० दे० ( सं० सृज ) सृष्टि सावज शिकारी जीव, जंगली जंतु । स्याह - वि० ( फा० ) काला, नीला कृष्णवर्ण का | संज्ञा, पु० (दे०)-घोड़े की एक जाति । स्याहगोस - संज्ञा, पु० दे० यौ० ( फ़ा० मनाना, उत्पादन करना, रचना, सिरजना (दे० ) | संज्ञा, पु० - स्रुजन । वि० स्त्रजित । स्रद्धा - संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० श्रद्धा ) श्रद्धा, स्याहगाश ) एक जंगली जंतु । स्याहा - संज्ञा, पु० दे० ( फ़ा० सियाहा ) खजाने का रोजनामचा या जमा-खर्च की किताब या वही । भक्ति, प्रेम, समाई, सर्धा (दे० ) । त्रम - संज्ञा, पु० दे० (सं० श्रम ) श्रम, मेहनत, थकाई । “बिनु सम नारि परम गति लहई " - रामा० । स्त्रमित# - वि० दे० (सं० श्रमित) श्रमित, थका हुआ । स्रवण-संज्ञा, पु० (सं०) बहना, प्रवाह, बहाव, धारा, गर्भपात, सूत्र, पसीना, वि०(दे०) एक नक्षत्र ( ज्यो० ), कान । स्रवित | स्रवन - संज्ञा, पु० दे० ( सं० श्रवण ) श्रवण, कान | मुख नासिका स्रवन की बाटा - रामा० । स्रवण, प्रवाह, स्वेद, मूत्र, गर्भपात, एक नक्षत्र | स्याही – संज्ञा, स्त्री० ( फ़ा०) रोशनायी, लिखने की मसि, कालापन, कालिख, कालिमा, सियाही (दे० ) । सियाही है सफेदी है। चमक है वारां है"। मुहा० - स्याही जाना -- जवानी जाना, बालों की कालिमा म रहना । ( चेहरे या मुँह पर ) स्याही दौड़ना आना - रोग या भयादि से मुख के रंग का काला पड़ना | संज्ञा, स्त्री० दे० ( सं० शल्यकी ) स्याही, काँटेदार देह वाला एक जंगली जंतु । स्यूत - वि० (सं०) सिया हुआ, बुना हुआ । "गुरु- स्यूत मेको वपुश्चैकमंतः " - शं० । स्यों स्यो* - अव्य० दे० (सं० सह ) पो, सह, सहित, युक्त, समीप, पास । स्प्रंग - संज्ञा, पु० दे० (सं० श्रृंग ) सींग, चोटी, शिखर । स्रक - स्रग - संज्ञा, स्त्री० (सं०) फूलों की माला Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 15 स्त्रवना* - अ० क्रि० दे० (सं० स्रवण ) बहना, टपकना, चूना, रसना, गिरना । स० क्रि० - बहाना, रसाना, चुवाना, गिराना, टपकाना । स्रष्टा - संज्ञा, पु० दे० (सं० राष्ट्र ) संसार या सृष्टि का बनाने वाला, ब्रह्मा, विरंचि, विष्णु शिव । वि० - सृष्टि रचने वाला, विश्वरचयिता । For Private and Personal Use Only स्राप - संज्ञा, पु० दे० (सं० शाप) शाप, सराप (दे० ) । स्रापित - वि० दे० (सं० शापित ) शापित ! Page #1854 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org स्राव स्राव - संज्ञा, पु० (सं०) बहना, गिरना, स्तरण, भरना, गर्भस्राव, गर्भपात, रस, निर्यास । स्रावक - वि० (सं० ) टपकाने, चुवाने या बहाने वाला, स्राव कराने वाला । स्रावी - वि० सं० खाविन्) बहाने वाला । स्त्रिग- संज्ञा, पु० दे० (सं० शृङ्ग) सींग, चोटी । त्रिजन संज्ञा, पु० दे० (सं० सृजन ) रचना, बनाना, सृष्टि करना, स्रजन (दे० ) । त्रिजना - स० कि० दे० (सं० सृजन) रचना, १८४३ बनाना, सिरजना, त्रजना (दे० ) । स्त्रिय - संज्ञा, खो० दे० (सं० श्रिय ) श्रिय, लक्ष्मी, कांति, ऐश्वर्य, शोभा । स्रुत - वि० दे० (सं० श्रुत) श्रुत, सुना हुआ । स्रुति - संज्ञा स्त्री० दे० (सं० श्रुति ) श्रुति, वेद | " जे कहुँ स्रुति मारग प्रतिपालहिं | सम्बन्ध का । स्वकीया संज्ञा स्त्री० (सं०) पतिव्रता, अपने ही पति की अनुरागिणी स्त्री । "कहत स्वकीया ताहि को ” मति० । स्वत* - वि० (दे०) स्वच्छ (सं०) साफ़ । स्वगत - संज्ञा, पु० (सं०) अपने ही से, अपने ही मन में, स्वगत कथन | स्वगत राव तब कहेउ विचारी - रामा० । क्रि० वि० अपने ही से, अपने-आप | "6 - स्वगत कथन – संज्ञा, पु० यौ० (सं०) स्वगत, अश्राव्य, आरमगत, आप ही आप किसी पात्र का आप ही आप यों कहना कि उसे न तो कोई सुनता ही है और न वह किसी को सुनाना ही चाहता है ( नाटक ) । स्वच्छंद - वि० (सं०) स्वाधीन, स्वतंत्र, मनमाना काम करने वाला, निरंकुश | " जिमि स्वच्छन्द नारि बिन साहीं" - स्फु० । क्रि० वि० - मनमाना, निर्द्वन्द्व, बेधड़क । स्वच्छंदता - संज्ञा, खो० (सं०) स्वतन्त्रता, स्वाधीनता. आजादी | स्वच्छ — वे० (सं० ) शुद्ध, साफ़, निर्मल, पवित्र | शुभ, उज्वल, स्पष्ट, स्वच्छता-संज्ञा, स्रो० (सं०) पवित्रता, सफाई, उज्वलता, निर्मलता, शुद्धता । स्वच्छना – स० क्रि० दे० (सं० स्वच्छ ) शुद्ध या निर्मल करना, पवित्र या उज्वल करना, साफ करना । स्वच्छी — वि० दे० (सं० स्वच्छ) स्वच्छ, साफ, - रामा० । स्रुतिमाथ* – संज्ञा, पु० दे० यौ० (सं० श्रुति + मस्तक ) विष्णु भगवान । और भरते नहीं "ॐ० श० । स्रोनित – संज्ञा, पु० ( दे० शोणित ) शोणित, रक्त, खून, लोहू, सोनित (दे० ) । " स्रुवा - संज्ञा, पु० (सं०) हवनादि में प्राहुति देने का लकड़ी का एक चम्मच या चमचा | "चाप सुवा सर आहुति जानू' - रामा० । स्त्री संज्ञा स्त्री० दे० (सं० श्रेणी) पंक्ति, पाँति, क़तार, समूह | जनुतहँ बरस | कमल-सित-सेनी ". -रामा० । C स्रोत -संज्ञा, पु० (सं० स्रोतस् ) निर्भर, पानी का झरना, सोता, धारा, नदी, चश्मा (फ़ा० ) 1 स्रोतस्वती स्रोतस्विनी -संज्ञा, स्त्री० (सं०) नदी । स्रोता* -संज्ञा, पु० दे० (सं० श्रोता ) सुनने वाला, कथा सुनने वाला । " स्रोतावक्ता ज्ञान-निधि ". - रामा० । स्रोन, स्रौन -संज्ञा, पु० दे० (सं० श्रवण ) श्रवण, कान, कर्ण । खौन - रसना में रस 66 स्वजन 66 aa स्रोत की प्यास, विषित रामसायक- निकर - रामा० । " स्वः -- संज्ञा, पु० (सं०) स्वर्ग, बैकुण्ठ । स्व- - वि० (सं०) निल का, अपना । स्वकीय - वि० पु० (सं०) निजका, अपने Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उज्वल । स्वजन - संज्ञा, पु० (सं०) अपने सम्बन्धी, अपने कुटुम्बी, नातेदार, रिश्तेदार, आत्मीयजन | "स्वजनं हि कथम् इत्वा सुखिनः स्याम् माधव For Private and Personal Use Only 39 - भ० गी० । Page #1855 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir स्वजन्मा १८४४ स्वभाव स्वजन्मा-वि० (सं० स्वजन्मन् ) अपने पितृभ्यः स्पधा " | " नमः, स्वस्ति, स्वाहा, भाप उत्पन्न होने वाला, परमेश्वर, ब्रह्म ।। स्वधा, अलम वषट योगाच"-को। संज्ञा, स्वजात - वि० (सं०) अपने से पैदा होना, | स्त्री०--पितृ-भोजन, पितृ-अन्न, पितरों को अपने आप उत्पन्न होने वाला । ज्ञा, पु. दिया गया भोजनान्न, दक्ष प्रजापति (सं०) अपने से उत्पन्न पुत्र, बेटा। की कन्या। स्वजाति -- संज्ञा, स्त्री० (सं०) अपनी जाति। स्वन-संज्ञा, पु. (सं०) रव, शब्द, ध्वनि, वि०-अपनी जाति का। निस्वन, अावाज । स्वजातीय-वि० (सं०) अपनी जाति का, स्वनामधन्य-वि० यौ० (सं०) जो अपने अपनी कोम या वर्ग का। नाम से प्रशंसनीय या धन्य हो। स्वतंत्र-वि० (सं०) स्वाधीन, जो किसी स्वपच*-संज्ञा, पु० दे० (सं० स्वपच ) के प्राधीन न हो, स्वच्छन्द, मुक्त, खुद श्वपच, चांडाल, भंगी, डोम। मुख्तार, निरंकुश, स्वेच्छाचारी, अलग, स्वपन, स्वपना*-संज्ञा, पु० दे० ( सं० पृथक, माज़ाद (फा०), नियम या बन्धनादि स्वप्न ) सपना । स० कि० (दे०) स्वपनाना । से रहित “जिमि स्वतन्त्र होइ बिगरहिं स्वप्न-संज्ञा, पु. (सं०) नींद, निद्रा, जो पारी"-रामा० । बातें सोते समय दिखाई दें या मन में स्वतन्त्रता-संज्ञा, स्त्री. (सं०) स्वाधीनता, श्रावें, मन में उठो हुई. ऊँची या असम्भव, निरंकुशता, स्वच्छंदता, भाज़ादी। कल्पना या विचार, पोने की दशा या स्वतः-अव्य. (सं० स्वतस् ) श्राप ही, क्रिया, निद्रावस्था में कुछ घटनादि देखना, अपने भाप, स्वयम् । सपन, सपना (दे०)। " लखन स्वप्न यह स्वतो-विरोधी-संज्ञा, पु० यौ० (सं० स्वतः नीक न होई"-रामा० । +विरोधी) आप ही अपना खंडन या स्वप्नगृह-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) शयनागार, विरोध करने वाला। स्वप्नालय, स्वाम-भवन, खाबगाह । स्वत्व-संज्ञा, पु. (सं०) अधिकार, हक। स्वप्नदोष-संज्ञा, पु. यौ० (सं०) एक प्रकार संज्ञा, पु०-निजस्व, अपना होने का भाव, का प्रमेह रोग, निद्रा की दशा में वीर्य-पात अपनत्व । यौ०-स्वत्वधिकार । होने का रोग (वैद्य०)। स्वत्वाधिकारी-संज्ञा, पु. यौ० (सं० स्वप्नाना-स० कि० दे० । सं० स्वप्न-+ माना स्वत्वाधिकारिन् ) जिसके हाथ में किसी प्रत्य०) स्वम दिखाना, स्वप्न देना, सपनाना वस्तु का पूर्ण रूप से अधिकार हो, स्वामी, (दे०)। मालिक, अधिकारी। स्वबरन- संज्ञा, पु. दे. (सं० सुवर्ण। सुबर्ण, स्वदेश-संज्ञा, पु. (सं०) अपना या अपने सोना, हेम, कनक, सुबरन (दे०), पूर्वजों का देश, मातृभूमि, वतन । अपना वर्ण। स्वदेशी वि० दे० (सं० स्वदेशीय ) अपने स्वभाउ*-संज्ञा, पु. द. (सं० स्वभाव ) देश का. स्वदेश-सम्बन्धी, स्वदेशीय। स्वभाव, सुभाव । “पहिचानेड तो कही स्वधर्म-पा, पु. (सं०) अपना धर्म । स्वभाऊ ''-रामा०। "स्वधर्मे मरणम् श्रेयः पर धौभयावहः" | स्वभाव संज्ञा, पु. (सं०) मनोवृत्ति, प्रकृति, -म. गी। टेंव, बान, सदा रहने वाला मुख्य या मूल स्वधा -अव्य० (सं.) इसका उच्चारण गुण, पादत, मिजाज़, गुण, तासीर । "जो पितरों को हन्य देने में होता है। " यथा- | पै प्रभु स्वभाव कछु जाना"-रामा । For Private and Personal Use Only Page #1856 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org स्वभावज स्वभावज - वि० ( सं० ) प्राकृतिक स्वाभाविक, सहज, स्वभाव से उत्पन्न, स्वभाव का। १८४४ 3 स्वभावतः - अव्य० (सं० स्वभावतस् ) निर्गतः स्वभाव से, वस्तुतः, प्रकृति प्रभाव से, सहज ही, स्वभावतया । स्वभावसिद्ध - वि० यौ० (सं०) स्वाभाविक, प्राकृतिक, प्रकृति-विद्ध, सहज ही, स्वभावतः सिद्ध | स्वभावांति--संज्ञा स्त्री० यौ० (सं०) एक थर्थालंकार जिसमें किसी वस्तु या विषय के यथावत प्राकृतिक स्वरूप का या अवस्था नुसार उसकी जाति का वर्णन हो ( अ० पी० ) । 6. स्वभू-संज्ञा, पु० (सं०) ब्रह्मा, विष्णु, । वि० आपसे श्राप होने वाला, स्वयंभू । स्वयं - अव्य० सं० स्वयम् ) स्वतः, आप, खुद, आप से आप खुद ब खुद । स्वयं दूत - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) नायिका के प्रति अपनी वासना प्रगट करने में दूत का काम आप ही करने वाला नायक (सा० ) । स्वयंती - संज्ञा स्त्री० यौ० (सं०) स्वतः दूती का कार्य (स्ववासना - प्रकाशन) करने वाली परकीया नायिका | स्वयंप्रकाश - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) जो i ही आप प्रकाशित हो, जैसे सूर्य, परमेश्वर, परब्रह्म, परमात्मा, खुदरोशन । स्वयंभू - संज्ञा, पु० (सं०) ब्रह्मा, विष्णु, शिव, काल, कामदेव, स्वायंभुव मनु कविर्मनीषी परिभुः स्वयंभूः " - श्रुति वि० - जो आपसे श्राप पैदा हुआ हो, स्वभू । स्वयंवर - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) कुछ उपस्थित व्यक्तियों में से कन्या का अपना पति थाप ही चुनना, वह स्थान जहाँ कन्या स्वपति चुने "सीय स्वयंबर देखिय जाई - रामा० । स्वयंवर झा, पु० यौ० ( सं०) स्वयंवर | स्वरभंग स्वयंवरा - संज्ञा, पु० यौ० सं०) वर्या, पतिवरा इच्छानुसार अपना पति चुनने वाली कन्या या स्त्री । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir स्वयंसिद्ध - वि० यौ० ( सं० ) वह बात जिसकी सिद्धि के हेतु प्रमाण या तर्क अनावश्यक हो, स्वतःद्धि । स्वयं सेवक - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) स्वेच्छासेवक, स्वेच्छादास, स्वेच्छा से पुरस्कार के बिना ही किसी कार्य में योग देने वाला | स्त्री० स्वयंसेविका । स्वयमेव क्रि० वि० यौ० (सं० ) स्वतः, पी. स्वयं ही खुद ही । स्वर -संज्ञा, पु० (सं० ) बैकुण्ठ, स्वर्ग, आकाश, परलोक । स्वर - संज्ञा, पु० (सं० ) जीवधारी के गले से या किसी बाजे या पदार्थ पर श्राघात पड़ने से उत्पन्न, कोमलता, उदात्तता-नुदा त्तता तथा तिव्रतादि गुण वाला शब्द, एक निश्चित रूप वाली वह ध्वनि जिसके रोहावरोह का अनुमान सहन में सुनते ही हो. सुर (दे०), ऐसे स्वर क्रम से सात हैं:- १ षड्ज । २ ऋषभ । ३ गाँधार । ४ मध्यम । ५ पंचम । ६ धैवत । ७ निषाद ( सा, रे, ग, म, प ध नी ) । मुहा०स्वर उतारना - स्वर धोमा ( मंद ) या नीचा करना | स्वर बढ़ाना - स्वर को ऊँचा करना, व्याकरण में वे वर्ण जो स्वतन्त्रता पूर्वक आपसे थाप उच्चरित हों और व्यंजनों के उच्चारण में सहायक होते हैं, श्रा) इ ई उ ऊ ऋ ऌ ए (ऐ) " थोथौ संस्कृत में ह और हिंदी में ११ लृ सहित) हैं, वेद में शब्दों का उतारचढ़ाव संज्ञा, पु० दे० (सं० स्वर) अंतरिक्ष, थाकाश । स्वरग―संज्ञा, पु० दे० (स्वर्ग) स्वर्ग, बैकुण्ठ, सरग (दे० ) । स्वरभंग - संज्ञा, पु० यौ० ( सं० ) कंठ- स्वर के बैठ जाने का एक रोक 1 For Private and Personal Use Only Page #1857 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir स्वरमंडल १८४६ स्वर्गनदी स्वरमंडल-संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) एक | स्वरूपवान्-वि० (सं० स्वरूपवतू ) सुन्दर, तारदार बाजा । " पृथग विभिन्न स्वर-मंडलै मनोरम, खूबसूरत, अच्छे रूपवाला। स्त्री. स्वरैः " माघ । स्वरूपवती, सुरूपा। स्वरबेधी-सज्ञा, पु० यौ० (सं०) शब्द बेधी। स्वरूपी-वि० ( सं० स्वरूपिन् ) सुन्दर, स्वर-शास्त्र--सज्ञा, पु. यौ० ( सं० ) स्वर- स्वरूपयुक्त, स्वरूपवाना. जो किपी के विज्ञान, वह शास्त्र जिसमें स्वर-विषयक स्वरूप के अनुसार हो स्त्री०-स्वरूपिणी। विवेचन हो। *संज्ञा, पु० (दे०) सारूप्य। स्वरस - संज्ञा, पु. (सं०) पत्ती भादि को स्वरोचिस--सज्ञा, पु. (सं०) स्वारोचिष कूट-पोस और कपड़े से छान कर निकाला। मनु के पिता और कलि नामक गंधर्व के पुत्र । हुधा रम। स्वरोद-संज्ञा, पु० दे० (सं० स्वरोदय ) स्वरांत वि० यौ० सं०) वह शब्द जिसके अंत में कोई स्वर हो, जैसे-विष्णु शिव। स्वरोदय-संज्ञा, पु. यो० (सं०) वह शास्त्र स्वराज-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) स्वराज्य। जिसमें श्वापों के द्वारा शुभाशुभ के जानने स्वराज्य-संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) अपना को बताया गया है। राज्य, वह राज्य जिसमें किसी देश के स्वगंगा-ज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) मंदाकिनी। निवासी ही स्वदेश का शासन या प्रबन्ध स्वर्ग-संज्ञा, पु. (सं०) देव-लोक, नाक, करते हैं, प्रजातन्त्र, स्वराज (दे०)। वैकुंठ, सरग ( ग्रा.), ७ लोकों में से तीसरा लोक जिसमें पुण्यात्मायें मृत्यूपरान्त स्वराट-संज्ञा, पु. ( सं० ) परमात्मा, ब्रह्मा, जाकर निवास करती हैं (हिन्दू पुरा०)। ब्रह्मा, स्वराज्य-शासन-प्रणाली वाले राज्य का शासक या राजा । वि०-जो स्वयं प्रकाश. मुहा०-स्वर्ग के पथ पर पैर देनामान होता हुआ औरों को प्रकाशित मरमा, जान को जोखिम में डालना। स्वर्ग जाना या सिधारना-मरना, करता हो। देहावसान होना। यो०.--स्वर्ग:सुखस्वरित--संज्ञा, पु. ( सं० ) वह स्वर जो बहुत ही उच्च कोटि का सुख । स्वर्ग की मध्यम स्वर से उच्चरित हो, जिसका उच्चारण धार-आकाश-गंगा । दिव्य सुख स्थान, न तो बहुत जोर से ही हो और न धीरे से सुख, भाकाश, ईश्वर । ही हो। वि० - स्वर-युक, गूंजता हुआ। स्वर्ग-गमन-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) मरगा, स्वरूप-संज्ञा, पु. (सं०) अपना रूप, मृत्यु। प्राकृति, आकार, शक्ल, सूरत, मूर्ति, चित्र, स्वर्ग-गामी - वि० ( सं० स्वर्गगामिन् ) देववह पुरुष जो किसी देवतादि का रूप बनाये । लोक को जाने वाला, मृत, मरा हुआ, हो, देवादि का धारण किया रूप । वि० स्वर्गीय । सुन्दर, समान, तुल्य । मध्य-रूप में, स्वर्ग-तरु-संज्ञा, पु. यौ० (सं०) देवतरु, तौर पर। संज्ञा, पु. (दे०)-सारूप्य । कल्पवृक्ष । "राम-जप मग स्वर्ग-तरु है स्वरूपज्ञ-संज्ञा, पु. (सं०) तत्वज्ञ, मारमा | करत इच्छा पूर"-स्फुट.। और परमात्मा के यथार्थ रूप का ज्ञाता, | स्वर्गद-वि० (सं०) स्वर्ग देने वाला। स्वरूपज्ञाता। संज्ञा, खो०-स्वरूपज्ञाता। स्वर्गनदी-संज्ञा, स्रो० यौ० (सं०) स्वर्गगा, स्वरूपमान* --संज्ञा, पु० दे. (सं० स्वरूपवान) आकाश गंगा, स्वर्ग-सरिता, स्वर्ग: स्वरूपवान् , सुरूपवान, सुन्दर । । सलिला। For Private and Personal Use Only Page #1858 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org स्वर्ग-पुरी स्वर्ग-पुरी-संज्ञा, स्रो० यौ० (सं०) स्वर्गनगरी, अमरावती, श्रमरपुरी । पु० यौ० - स्वर्ग पुर. देव-पुर। स्वर्ग लोक-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) देवलोक, देव-पुरी, वैकुंठ । स्त्री० यौ० 'स्वर्ग बंधू 66 १८४७ स्वर्ग-बध, स्वर्ग-धूटी - संज्ञा, 9) रामा० । (सं०) अप्सरा, देव-बधुरी | raft करि गाना स्वर्ग -वाणी- एंज्ञा, पु० यौ० (सं०) गगनगिरा, आकाश-वाणी । स्वर्गवास - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) देव-लोक जाना, मरना । स्वर्ग घासी–वि० ( सं० स्वर्गवासिन् ) स्वर्ग में रहने वाला, मरा हुआ, मृत, स्वर्गीय । स्त्री० - स्वर्गवासिनी । स्वर्गारोहण1 - सज्ञा, ५० यौ० (सं०) स्वर्ग गमन, स्वर्ग का जाना या सिधारना, मरना । स्वर्गीय - वि० (सं०) स्वर्ग का या स्वर्गसंबंधी, जो मर गया हो, मृत। स्त्री०स्वर्गीया। स्वर्ण - संज्ञा, पु० (सं०) सोना, हेम, हिरण्य, कंचन, कनक, सुवर्ण धतूरा, स्वनं, सुबरन, सुवर्ण, सुवन (दे०)। स्वर्ण कमल - ज्ञा, पु० यौ० (सं०) कनक, कमल, रक्त या लाल कमल । स्वर्णकार -- संज्ञा, पु० (सं०) सुनार । स्वर्ण- गिरि - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) सुमेरु पहा, स्वर्णाचल, हेमाद्रि, स्वर्णादि । स्वर्ण-पर्पटी - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) संग्रहणी रोग नाशक एक औषधि विशेष । स्वणमय - वि० पु० (स० ) जो सर्वथा सोने का हो, हिरण्यमय । स्त्री० - स्वर्णमयी । स्वर्णमाक्षिक-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) सोना मक्खी, सोनामाखी । स्वर्णमुद्रा - संज्ञा स्त्री० यौ० (सं०) अशरफी | स्वर्ण यूथिका-संज्ञा स्त्री० यौ० (सं०) पीली जूती । स्वस्तिक स्वर्गाचिल - सज्ञा, पु० यौ० (सं०) कनका चल. सुमेरु पर्वत स्वर्णादिइ - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) सुमेरु, कंचनाचल, हेमाद्रि । स्वर्धुनी - संज्ञा, स्त्री० (सं०) गंगा नदी, सुरधुनी (दे०) स्वर्नगरी - संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) श्रमरावती । उ० – स्वर्नगर - श्रमरपुर । स्वनंदी - - संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) स्वर्गगा । स्वभिषग् - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) देव-वैद्य अश्विनी कुमार स्वर्लोक --- संज्ञा, पु० यौ० (सं०) स्वर्ग. वैकुंठ' स्वर्वधू. स्वर्वधूटी - संज्ञा स्त्री० यौ० (सं०) देव-बटी, अप्सरा, स्वर्गीगना । स्वर्वेश्या - संज्ञा, स्त्रो० स्वर्वरांगना, स्वर्गगना । सर्वैद्य - सज्ञा, पु० यौ० (सं० ) अश्विनी - स्वचिकित्सक | सं०) अप्सरा, Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private and Personal Use Only i कुमार. स्वल्प वि० (सं० ) अत्यंत थोड़ा । स्वचरन* - - संज्ञा, पु० दे० ( सं० सुवर्ण ) स्वर्ण, सुवर्ण, सोना, सुवरन, सुधर्न । स्वशुर, स्वपुर - संज्ञा, पु० दे० (सं० श्वशुर) पति या पत्नी के पिता, ससुर (दे० ) । स्वशुराल. स्वसुराल - संज्ञा, पु० यौ० (सं० श्वशुरालय) ससुराल, ससुरार (दे० ) । स्वसा - संज्ञ, स्त्री० (सं० स्वसृ ) बहिन | “ करयुगं हसतिस्म दमस्वसुः - नैष० 'दमस्वसा कहती नल सों वहाँ " स्वस्ति " । 46 - कुं० । ( - श्रश्य० (सं०) कल्याण या मंगल हो ( आशीष ) | संज्ञा, त्रो०- कल्याण, मंगल, ब्रह्मा की ३ स्त्रियों में से एक स्त्री, सुख | "स्वस्ति नः इन्द्रो वृद्धश्रवा " - यजु० । स्वस्तिक ज्ञा, पु० (सं०) हठ योग का एक आसन, एक शुभचिन्ह. ऐपन- चिन्ह, पानी में पिसे चावलों के चूर्ण से बनाया गया एक मांगलिक द्रव्य जिसमें देव वास मानते हैं । प्राचीन काल में शुभावसरों पर शुभ वस्तुओं से बनाने का एक मांगलिक चिन्ह । Page #1859 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir स्वस्तिवाचन १८४ स्वाती देह के विशेष अगों पर स्वभावतः उक्त चिन्ह स्वाक्षर - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) हस्ताक्षर, (शुभ, सामु०)। | दस्तख़त। स्वस्तिवाचन--संज्ञा, पु. यौ० (स० शुभ स्वाक्षरित वि० (सं०) अपने हस्ताक्षर से कार्यारम्भ पर देव-पूजन और मांगलिक वेद- युक्त, अपना दस्तख़त किया हुआ । मंत्रों के पाठ के रूप में एक धार्मिक कृत्य स्वागत-संज्ञा, पु. (सं०) अगवानी, (कर्मकांड) । वि०-स्वास्तिवाचक।। अभ्यर्थना, पेशवायी, अतिथि या भागंतुकादि स्वस्त्ययन-सज्ञा, पु. (सं० विशिष्ट शुभ । के आने पर उसका आदर-सत्कार से अभिकार्यारम्भ पर शुभ-स्थापनार्थ वेद के मांग- नंदन करना। लिक मंत्रों का पाठादि (एक धार्मिक कृत्य)। स्वागतकारिणी सभा-संज्ञा, स्त्री० यौ० स्वस्थ-वि० (सं०) नीरोग, तंदुरुस्त, (सं०) वह सभा जो किसी बड़ी सभा में प्रारोग्य, भला-चंगा, सावधान | सज्ञा,- पाने वाले प्रतिनिधियों या अन्य लोगों स्वस्थता। के स्वागतादि की व्यवस्था के लिये संगठित स्वहाना - अ० क्रि० दे० ( हि० सोहाना) सुहाना, सोहाना, अच्छा या प्रिय लगना। स्वागत-पतिका .. संज्ञा, स्त्री. यो. (सं०) स्वांग-संज्ञा, पु० दे० ( सं० F+ अग) वह नायिका जो पति के पादेश से आने रूप, भेल. मज़ाक़ का खेल. तमाशा. नकल, पर प्रसन्न होती है. प्रागत-पतिका । सो का रूप बनाने को धरा गया बनावटी स्वागत प्रिया-मज्ञा, पु. यौ० (सं०) वह वेष, धोखा देने को बनाया गया कोई रूप, । नायक जो अपनी प्रिया के परदेश से पाने सुराँग (ग्रा०)। के कारण प्रसन्न हो, धागत-प्रिया । स्वाँगना* स० क्रि० दे० (हि. स्वाँग ) स्वागता संज्ञा, स्त्रो० (सं०) र, न, भ (गण) स्वाँग बनाना, बनावटो भेष धरना। तथा दो गुरु वों (ss+1+ 50-ss) स्वांगी-संज्ञा, पु० दे० ( हि० साँग । स्वाँग वाला एक वर्णिक छंद (पि.)। बनाने तथा यों ही जीविकोपार्जन करने | स्वागताध्यक्ष-संज्ञा, पु. यौ० (सं०) स्वागत वाला, बहुरूपिया, सुरोंगी (ग्रा०) । वि. कारिणी सभा का सभापति । -रूप धरने वाला। स्वातंत्र्य-संज्ञा, पु० (सं०) स्वतत्रता । स्वांत-संज्ञा, पु० (सं०) मन, अंतःकरण । स्वात-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० स्वाति) स्वाति " स्वाँतः सुखाय तुलसी रघुनाथ-गाथा" नक्षत्र। -रामा । स्वाति-संज्ञा, स्त्री० (सं०) स्वाती, पंद्रहवाँ स्वाँस-संज्ञा, पु. दे. ( सं० श्वास ) स्वास. नक्षत्र, जो शुभ माना गया है (फ० ज्यो०)। साँस, स्वाँसा । " स्वाँस स्वाँस पर राम स्वातिपय-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) श्राकाशराम कहु, वृथा स्वाँस मत खोय"-तुल। गंगा, स्वातीपथ। स्वाँसा-संज्ञा, पु० दे० ( सं० श्वास ) स्वास, स्वातिसुत-संज्ञा, पु. यौ० (सं०) स्वातिसाँस । लो०-"जब लौं स्वाँसा तब लौं पुत्र, स्वाति-तनय, मुक्ता, मोती।। भासा ।" मुहा०--स्वाँसा साधना - स्वातिसुवन--संज्ञा, पु० (सं०) मोती, प्राणायाम करना, शुभाशुभ विचारार्थ, | स्वाती-प्रत (दे०), स्वाति-तनुज । दाहिने या बाँय स्वास की गति देखना | स्वाती- संज्ञा, पु० दे० ( सं० स्वाति ) स्वाति (स्वरो०)। नक्षत्र। For Private and Personal Use Only Page #1860 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org १८४६ स्वाद स्वाद संज्ञा, पु० (सं०) मज़ा, जायका, रसानुभूति, किसी वस्तु के खाने या पीने से रसना को होने वाला अनुभव या धानंद, सवाद (दे० ) । मुहा० - स्वाद ( मज़ा ) चखाना ( चखना) - किसी को किसी अपराध का यथावत दण्ड देना ( पाना ) | वांछा, चाह, श्राकांक्षा, कामना, इच्छा । मुहा० - स्वाद (न) जानना - किसी वस्तु का आनंद (न) जानना, अनुभूति रखना । स्वाद मिलना ( पाना ) - रसानुभूति होना, बुरे काम का बुरा फल मिलना ( व्यंग्य ० ) । जीभ स्वाद के कारने ". स्फु० । | 16 - स्वादक - संज्ञा, पु० (सं० स्वाद ) स्वाद जानने वाला, स्वादु-विवेकी, वह व्यक्ति जो भोजन के तैयार होने पर उसे पहले चख कर जाँचता है। स्वादन - संज्ञा, पु० (सं०) स्वाद लेना, घना, मजा या श्रानंद लेना । वि० - स्वादनीय, स्वादित | स्वादिष्ट (दे०), स्वादिष्ट - वि० (सं०) अच्छे स्वाद वाला, सुस्वादु, जायकेदार, मज़ेदार । स्वादी- वि० ( सं० स्त्रादिन् ) स्वाद लेने या चखने वाला, रसिक, मज़ा लेने वाला, सवादी (दे०) । स्वादिलो, स्वादीला - वि० दे० (सं० स्वादिष्ठ ) स्वादिष्ठ, मजेदार, सवादिल । स्वादु - संज्ञा, पु० (सं०) मधुरता, मधुराई, मीठा रस, दूध, गुड़, मिठास, स्वाद, जायका, मज़ा । वि० - मीठा, मिष्ठ, मधुर, स्वादिष्ट, जायकेदार, सुंदर । स्वाद्य - वि० (सं०) स्वाद लेने के योग्य । स्वाधीन - वि० यौ० (सं०) जो परतंत्र या पराधीन न हो, स्वतंत्र, स्वच्छंद, मनमानी करने वाला, भाजाद, निरंकुश | संज्ञा, पु० -- समर्पण, सुपुर्द, हवाला, स्वाधीनता । " सुख जग में स्वाधीन " - बुं० । भा० श० को० - २३२ स्वामित्व स्वाधीनता - संज्ञा, स्त्रो० (सं०) स्वच्छंदता, स्वतंत्रता, श्राज्ञादी । "सुख जानो स्वाधीनता, पराधीनता कष्ट - स्फु० । 19 स्वाधीन पतिका - संज्ञा, त्रो० यौ० (सं०) वह नायिका जिसका पति उसके वश में हो। स्वाधीनप्रिया – संज्ञा, पु० (सं०) वह पुरुष जिसकी प्यारी उसके वशीभूत हो । स्वाधीनभर्तृका - संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) स्वाधीन पतिका, वह नायिका जिसका पति उसके वश में हो । स्वाधीनी - संज्ञा, त्रो० (दे०) स्वाधीनता । स्वाध्याय-- संज्ञा, पु० यौ० (सं०) नियमपूर्वक निरंतर वेदाध्ययन, वेद पढ़ना, यन, पढ़ना, अनुशीलन | तपस्वाध्याय निरतः वाल्मीकिर्वाग्विदांवरः । " वि० स्वाध्यायी | ་་ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir स्वान:- संज्ञा, पु० दे० (सं० श्वान ) कुत्ता, सुवर्ण । स्वाना | - स० क्रि० दे० ( हि० सुलाना ) सोवना, सुलाना | स्वापन - संज्ञा, पु० (सं०) शत्रुओं को निद्रित करने वाला एकत्र (प्राचीन ० ) । वि० नींद लाने वाला, निद्राकारी । स्वाभाविक - वि० (सं०) स्वभाव- सिद्ध, नैसर्गिक, प्राकृतिक, जो स्वतः हो, कुदरती । "स्वाभाविक सुन्दरता हो तो फिर सिंगार का काम नहीं " - शि० गो० । स्वाभाविकी—वि० (सं०) प्राकृतिक, नैस - गिक, स्वभाव-सिद्ध, कुदरती । "स्वाभाविकीज्ञानत्रक्रिया च - उप० । स्वामि – संज्ञा, पु० दे० (सं० स्वामी ) प्रभु, स्वामी, नाथ, पति, ईश्वर | संज्ञा, स्त्री० (३०) स्वामिता | स्वामिकार्त्तिक- संज्ञा, पु० (सं०) शिवसुत, स्कंद, षड़ानन, कार्त्तिकेय । स्वामिता - संज्ञा, स्त्री० स्वामिव । स्वामित्व - संज्ञा, पु० (सं०) प्रभुत्व, स्वामिता स्वामी का भाव । (सं० ) प्रभुता, For Private and Personal Use Only Page #1861 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir स्वामिन, स्वामिनि १८५० स्वार्थसाधन स्वामिन, स्वामिनि-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० स्वारस्य–वि. (सं०) रसीलापन, सरसता, स्वामिनी ) श्रीराधिका, गृहणी, स्वामिनी, स्वाभाविकता। स्वत्वाधिकारिणी, मालकिनी । “ स्वामिनि- स्वाराज्य-संज्ञा, पु० (सं०) स्वर्ग या वैकंठमन मानौ जनि ऊना"-रामा० । लोक, स्वाधीन राज्य, स्वर्ग का राज्य । स्वामिनी-संज्ञा, स्त्री० (सं०) राधा जी, स्वारी- संज्ञा, स्रो० (दे०) सवारी मालकिनी, सुगृहणी, स्वामिनी । “कहति | (हि.)। स्वामिनी तें है दासी स्वामी हैं घर आये' | स्वारोचिष-संज्ञा, पु० (सं०) स्वरोचिषात्मज, -स्फु० । दूसरे मनु । स्वामी-संज्ञा, पु. ( सं० स्वामिन् ) प्रभु. स्वार्थ-संज्ञा, पु० (सं०) अपना प्रयोजन या नाथ, मालिक, स्वात्वाधिकारी, पति, शोहर, मतलब, अपना लाभ या हित, अपना अन्नदाता, भगवान, राजा, घर का प्रधान, | उद्देश्य, अपनी भलाई, स्वारथ (दे०) । मुग्विया, धर्माचार्यादि की उपाधि, कात्ति- "स्वार्थ-साधन-तत्पर"-स्फु० । मुहा० - केय, संन्यासी, साधु । “विनती करहुँ बहुत (किसी बात में) स्वार्थ लेना (रखना) का स्वामी"-- रामा० । स्त्री० स्वामिनी। -दिलचस्पी लेना (रखना), अनुराग या स्वायंभुष-संज्ञा, पु० (सं०) स्वयंभू, ब्रह्मा प्रेम रखना (श्राधु०)। स्वार्थ चीन्हना - के पुत्र, १४ मनुवों में से प्रथम। स्वार्थ ही ही देखना । वि० दे० (सं० सार्थक) स्वायंभू-संज्ञा, पु० (सं० स्वायंभुव ) स्वायं- सार्थक, सफल । भुव, एक मनु । “स्वायंभू मनु अरु सत. स्वार्थता-संज्ञा, स्त्री० (सं०) निज प्रयोजन रूपा"-रामा । या उद्देश्य, खुदगर्जी, स्वलाभ, स्वहित, स्वायत्त-वि० (०) जो अपने वश में हो, । स्वार्थ का भाव । जो अपने अधीन हो, जिस पर अपना ही | स्वार्थत्याग - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) अपने अधिकार हो। लाभ का विचार छोड़ कर परोपकार करना, स्वायत्तशासन-संज्ञा, पु. यौ० (सं०) विसी भले कार्य के लिये स्वहित का ध्यान स्वराज्य, स्थानिक स्वराज्य, वह शासन जो न रखना। अपने अधिकार में हो। स्वार्थ त्यागी--संज्ञा, पु० यौ० ( सं० स्वार्थ स्वारथ -संज्ञा, पु० दे० (सं० स्वार्थ) | त्यागिन् ) परार्थ या परोपकार के हेतु अपने स्वार्थ, अपना प्रयोजन या मतलब, अपना लाभ का विचार न करने वाला। लाभ या उद्देश्य, अपनी भलाई। विलो०- स्वार्थपर-वि० (सं०) स्वहित का ही ध्यान परार्थ, परमार्थ । " स्वारथ परमारथ सबै, | | रखने वाला स्वार्थी, खुदगर्ज । सिद्ध एक ही ठौर"--तुल० । “स्वारथ स्वार्थपरता-संज्ञा, स्त्री. (सं०) स्वार्थता, लागि करें सब प्रीती"-- रामा० । वि० दे० । खुदगर्जी, स्वार्थपर होने का भाव, अपने ( सं० सार्थ ) सफल, सार्थक, सिद्ध, सुग्रा- प्रयोजन या उद्देश्य की ही सिद्धि का रथ (दे०)। मुहा०-स्वारथ चीन्हना- ध्यान रखना। स्वार्थ देखना या पहचानना । "थजौं | स्वार्थ परायण-वि० यौ० (सं०) स्वार्थी, स्वास्थ नहिं चीन्ह्यो” रत्ना। स्वार्थपर, खुदग़रज़, मतलवी। संज्ञा, स्वारथी-वि० दे० ( सं० स्वार्थो) स्वार्थी, स्त्री० स्वार्थपरायणता। खुदगर्ज़, अपना प्रयोजन सिद्ध या लाभ | स्वार्थसाधन-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) अपने करने वाला। ___ मतलब या प्रयोजन का सिद्ध करना, FREEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEE For Private and Personal Use Only Page #1862 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir स्वाधि स्वेच्छासेवक अपना काम निकालना, अपना लाभ या प्रयुक्त होने वाला एक शब्द विशेष। जैसेहिस साधना । वि० स्वार्थसाधक। 'इन्दाय स्वाहा ” । मुहा०-स्वाहा स्वार्थाध - वि० यौ० (सं०) स्वार्थ के वश | करना (होना)-नष्ट या नाश करना हो कुछ विचार न करने वाला, अपने, । (होना), जला देना, (जल जाना)। संज्ञा, मतलब के लिये अंधे के समान कुछ न देखने । स्त्री०.- अग्निदेव की पत्नी। “ नमः स्वस्ति वाला । संज्ञा, स्त्री. (सं०) स्वार्थांधता। स्वाहा स्वधा वषट् योगाच्च "-कौ० । स्वार्थी-वि० (सं० स्वार्थिन् ) स्वार्थ-परायण, । स्वीकरण-संज्ञा, पु० ( सं० ) स्वीकार या मतलबी, खुदग़रज़, अपने ही प्रयोजन की अंगीकार करना, कुबूल या मंजूर करना, सिद्धि में तत्पर. अपना ही लाभ या हित अपनाना, राज़ी होना, मानना । वि० देखने वाला, स्वारथी (दे०) । " स्वार्थी स्वीकरणीय। दोषान्न पश्यति"। स्वीकर-संज्ञा, पु. (सं०) अंगीकार, स्वाल-वि० दे२ (अ० सवाल ) सवाल, मंजूर, कुबूल, लेना, स्वीकृत । संज्ञा, स्त्री० प्रश्न, माँगना, पूंछना। (सं०) स्वीकारता । स्वावस-रज्ञा, पु० दे० (सं० श्वास) श्वास, स्वीकारोक्ति-संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं० ) ऐसा बयान जिसमें अभियुक्त अपना दोषा. प्राणवायु, साँस । स्वास*-संज्ञा, पु० दे० (सं० श्वास) पराध श्राप ही मान ले या स्वीकार कर ले । श्वास, साँस । " स्वास-वस बोलत सो स्वीकार्य-वि० (सं० स्वीकार या अंगीकार याको विसवास कहा"-पद्मा० । करने के योग्य, मानने के योग्य, मान्य । स्वामा --- संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० श्वास) श्वास, स्वीकृत --- वि० ( सं०) स्वीकार या अंगीकार साँस । लो०-.." जब तक स्वासा तब किया हुश्रा, कुबूल या माना हुआ, मंजर किया हुआ तक श्रासा"। मुहा०-स्वासा साधना--- स्वीकृति-संज्ञा, स्त्री० (सं०) मंजूरी, प्राणायाम करना, स्वाप-गति (शुभाशुभार्थ) रजामन्दी सम्मति, स्वीकार का भाव । देखना (स्वरो०)। स्वीय- वि० ( सं० ) अपना, निजका । स्वास्थ्य-संज्ञा, पु. (सं०) आरोग्य, नीरोग, सज्ञा, पु० सम्बन्धी, आत्मीय, स्वजन | स्वस्थ होने की दशा, तंदुरुस्ती, सावधान । स्वे*-वि० दे० (सं० स्व) अपना, निजका। स्वास्थ्यकर, स्वास्थ्यकारक, स्वास्थ्य- स्वेच्छा--संज्ञा, स्त्री० यौ० ( सं० ) अपनी कारी-वि० ( सं० ) आरोग्य-वर्द्धक, इच्छा था अभिलाषा। तंदुरुस्त या नीरोग रखने वाला। स्वेच्छाचार-संज्ञा, पु. यौ० (सं०) यथेच्छास्वास्थ्य रक्षा -- संज्ञा, स्त्री० यौ० ( सं०) चार, मनमानी करना । संज्ञा, स्त्री० स्वेच्छाश्रारोग्य की रक्षा या तंदुरुस्ती का बचाव । चारिता। संज्ञा, पु० यौ० (सं०) स्वास्थ्य-रक्षण। स्वेच्छाचारी-वि० ( सं० स्वेच्छाचारिन् ) स्वास्थ्यवर्धक - संज्ञा, वि. यौ० (सं०) अवाध्य. मनमानी करने वाला, निरंकुश, धारोग्यता का बढ़ाने पाला। संज्ञा, पु० यौ० स्वच्छन्दाचारी। स्त्री० स्वेच्छाचारिणी। (सं०) स्वास्थ्यवर्धन । संज्ञा, स्त्री० स्वेच्छाचारिता । स्वास्थ्य-सुधार--संज्ञा, पु० यौ० (सं०स्वास्थ्य स्वेच्छानुचर--संज्ञा, पु० यौ० ( सं० ) +सुधार-हि० बिगड़े स्वास्थ्य का बनाना। स्वयं सेवक। स्वाहा----अव्य. ( सं० ) इसका प्रयोग हवन स्वेच्छासेवक-- संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) के समय होता है, देवताओं के हवि देने में स्वयं सेवक । For Private and Personal Use Only Page #1863 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir स्वेत हँकार १८५२ स्वेत* - वि० दे० (सं० श्वेत) श्वेत, उज्वल, स्वै*-वि० दे० (सं० स्वीय) अपना, निजी, धवल, सफेद, सेत (दे०)। " स्वेत स्वेत | निजका । सर्व० (दे०) सो। सब एक से, कररि, कपूर, कपास'--नीति । स्वैर-वि० (सं०) स्वतंत्र, स्वच्छंद, स्वाधीन, संज्ञा, स्त्री० (दे०) स्वेतता। मनमाना करने वाला, स्वेच्छाचारी, यथेच्छ, स्वेद-संज्ञा, पु० (सं०) प्रस्वेद, पसीना, | मन्द, धीमा । श्रमकण, वाष्प, भाफ, गरमी, ताप, सेत, स्वैरचारी-वि० ( सं० स्वैचारिन् ) व्यभि. सेद (दे०)। " स्वेद-प्रवाह बहता रहता चारी, निरंकुश, स्वच्छंद, सेच्छाचारी । स्त्री० स्वरचारिणी। नितान्त'-मै० गु०। | स्वैरता-संज्ञा, स्त्री० (सं०) स्वेच्छाचारिता, स्वेदक, स्वदेकर, स्वेदकारक, स्वेदकारी | यथेच्छाचारिता । -वि० (सं०) प्रस्वेद-कारक, पसीना लाने वैरिणी-संज्ञा, स्त्री० (सं०) व्यभिचारिणी, वाला। | स्वेच्छाचरिणी। स्वेदज-वि० (सं०) पसीने से पैदा होने स्वैरिता-संज्ञा, सी० द० (सं० स्वैरता) वाला (जूं, लटमल श्रादि जीव)। स्वैरता, यथेच्छाचारिता । स्वेदन-संज्ञा, पु. (सं०) पसीना निकलना । | स्वोपर्जित-वि० ( सं० ) अपना कमाया स्वेदित-वि० (सं० ) बफारा दिया या या उपार्जित किया हुश्रा, निज का पैदा सेंका हुआ, पसीने से युक्त। किया हुआ। ह-संस्कृत और हिंदी की वर्णमाला का श्रोर कर देने वाला, शेर के शिकार का यह ३३वा तथा उच्चारण-विचार से ऊष्म वर्णों ढंग । संज्ञा, स्त्री० (दे०) हंकवाई-हकाई । में का अंतिम वर्ण । संज्ञा, पु. ( सं०) | हँकवाना--स० कि० दे० ( हि० हाँकना) शिव, मङ्गल, शुभ, शून्य, आकाश, जल, बुलवाना, हाँक लगवाना, हाँकने का काम ज्ञान, हँसी, हास, घोड़ा। दूसरे से कराना। हक-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. हांक ) किसी हंकवैया -संज्ञा, पु० दे० (हि. होकना के बुलाने को ज़ोर से निकाला शब्द हाँक, + वैया–प्रत्य. ) हाँकने वाला। हुँकार, गर्जन, ललकार। हंका -- संज्ञा, स्त्री० दे० (हि० हाँक) ललकार। हंकड़ना-हंकरना-अ० क्रि० दे० (हि० हँकाई-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. हाँकना ) हांक ) घमंड से बोलना, ललकारना हाँकने की क्रिया या मजदूरी, हाँकने का हँकारना* - स० क्रि० दे० (हि० हाँक ) भाव। बुलाना, पुकारना, टेरना, बुलवाना। हँकाना-स० क्रि० दे० (हि० हाँक) हॉकना, हँकराना-स. क्रि० दे० (हि० हाँक ) | पुकारना, चलाना, बुलाना, हकवाना, हाक देकर बुलाना, टेरना, पुकारना, चलवाना, बुलवाना। बुलवाना । “सुठि सेवक सब लिये हैं कारी" हँकार-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० हकार ) -रामा० । ज़ोर की पुकार । ऊंचे स्वर से बुलाने या हँकवा-संज्ञा, पु० दे० (हि. हाँक ) शेर सम्बोधित करने का शब्द, ज़ोर से पुकारना। के शिकार में उसे हाँक देकर शिकारी की। मुहा०—हँकार पड़ना-- बुलाने को For Private and Personal Use Only Page #1864 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १८५३ हंकार हँसन, हँसनि श्रावाज़ लगाना, पुकार लगाना, पुकार सुन हता-संज्ञा, पु. (सं० हत) वध करने वाला, कर जाना। मारने वाला। स्त्री० हंत्री । " खलानास्य हंकार*- संज्ञा, पु० दे० (सं० अहंकार) हन्ता भविता तवात्मजः "---भा० द। अहङ्कार, घमंड, दर्प, गर्व, । संज्ञा, पु. दे हत्री-संज्ञा, स्त्री० वि० ( सं० ) मारने वाली, (सं० हुँकार ) ललकार, डाँट, डपट, नाशक, वध करने वाली । " भवति विषम का वर्ण । हको चैतकी छौद्र युक्ता'-लो। हंकारना-स. क्रि० दे० (हि. हँकार ) हँ नि--संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. हांफना ) ज़ोर से पुकारना, टेरना या बुलाना, युद्धार्थ हाँफने का भाव या क्रिया। सुहा-हँ फनि बुलाना या श्राह्वान करना, ललकारना। मिटाना-सुस्ताना आराम करना, थकी हँकारना- अ. क्रि० दे० (सं० हुँकार ) ऊँचे । मिटाना। स्वर से हुँकार शब्द करना, दपटना। हंस -- संज्ञा, पु. ( सं० ) बड़ी झील में रहने हंकारा-संज्ञा, पु० दे० (हि० हँकारना ) वाला बतख जैमा एक जल-पक्षी, मराल, थाह्वान, पुकार. बुलाहट, थामन्त्रण, परमात्मा, जीवात्मा सूर्य, ब्रह्मा, शिव, विष्णु, निमन्त्रण, न्योता, बुलौवा ।। ब्रह्म परमेश्वर, माया से निर्लिप्त जीव, हँकारी--संज्ञा, स्त्री० दे० ( हि० हंकार ) श्रात्मा, परम हस, संन्यासियों का एक भेद, दूत, वह व्यक्ति जो औरों को बुला कर घोड़ा, प्राण वायु, १४ गुरु और २० लघु लाता हो। "सुचि सेवक सब लिये हकारी" वर्ष वाला दाहे एक भेद, एक भगण और --रामा० । दो गुरु वर्णों का एक वर्णिक छंद ( पिं० )। हंगामा-संज्ञा, पु० दे० (फा० हंगामः ) स्त्री० हंसिनि, हंसिनी। शोरगुल, कलकज, हल्ला, उपद्रव. कोला. हंसक-- संज्ञा, पु० ( सं०) मराल, हंस पसी, हल, लड़ाई झगड़ा ! “गर्म हंगामा है । पैर की उँगली का बिछुवा (गहना)। "जिन इस बाज़ारे दुनिया का यहाँ"-- स्फु०।। नगरी जिन नागिरी प्रतिपद हंसुक हीन" हंडना -- अ० क्रि० दे० (सं० अभ्यटन) चलना --राम। फिरना, घूमना-फिरना, व्यर्थ यत्र-तत्र, हंसगति-संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) हंस की सी घूमना या ढ ढना, वस्त्रादि का पहनना या सुन्दर मन्द गति, सायुज्य मुक्ति, २० श्रोदना। मात्राों का एक मात्रिक छंद (पिं०)। हंडा-संज्ञा, पु० दे० ( सं० भांडक) पानी रखने का बहुत ही बड़ा पीतल या ताँबे हंसगापिनी--वि० स्त्री० यौ० (सं० ) हंस का बरतन । की सी सुन्दर धीमी चाल से चलने वाली हँडाना-स० मि० द० (हि० हंडना) स्त्री, हस-गभिनि (दे०)। " हंस-गमिनि धुमाना, काम में लाना, फिराना। तुम नहि वन जोगू"--रामा० । हँडिया- संज्ञा, स्त्री० (सं० भांडिका ) मिट्टी हंसतनय-संज्ञा, पु० यौ० ( सं० ) सूर्य-सुत, का एक छोटा पात्र, शोभार्थ लटकाने का यम, पनि, हंसात्मज, हंसतनुज । संज्ञा, ऐसा ही काँच का पात्र या हाँडी, एक स्त्री० हलतनया-यमुना, हंसतनुजा । कृपया। हँसतामुखी-संज्ञा, पु. यौ० ( हि० हँसता हंडी-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० भांडिका) हाँडी। +मुख ) प्रसन्न मुख, हँसते मुखवाली स्त्री। हत--प्रव्य० (सं०) शोक या खेद सूचक । स्मितानना. हँसमुखी। शब्द। " हा हन्त हन्त नलिनी गज हँसन, हँसनि-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि० हँसना) उज्जहार"। हंसने का भाव, क्रिया या ढंग । For Private and Personal Use Only Page #1865 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir हँसना हँसना-अ० कि० दे० ( सं० हसन ) प्रपन्नता अंसली ) गले के नीचे की धनुषाकार हड्डी, से मुख फैला कर एक प्रकार का शब्द (स्त्रियों का ) गले में पहनने का एक निकालना, हाप करना, खिलखिलाना, गोलाकार गहना, सुतिया। कहकहा लगाना । स० रूप-हँसाना, प्रे० हँस वंश--- संज्ञा, पु० (सं०) सूर्य-वंश, रूप हँसवाना । यौहँसना-बोलना- | रघुवंश । " हंस-वश अवतंस''--रामा० । प्रसन्नता की बातचीत करना । हुँसना- | हंसवाहन--संज्ञा, पु० यौ० (सं०) ब्रह्मा । हँसाना-मनोरंजन या मनोविनोद करना। हंस-वाहिनी-संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) हँसना-खेलना-आनंद करना । मुहा० सरस्वती। किसी पर हँसना-विनोद या दिल्लगी हंस-सुत-संज्ञा, पु. यौ० (सं०) सूर्य सुत, की बात कह कर मूर्ख या तुच्छ हंसतनय, शनि, यम, कर्ण । ठहराना, उपहास या हँसो करना। हँसते हँसमुता-- संज्ञा, स्त्रो०(सं०) सूर्यसूता, यमुना हंसते-खुशी या अति हर्ष से । ठठा कर नदी, हंसतनया। ( ठट्टा मार कर) हँसना-अहास | हँसाई संज्ञा, स्रो० दे० ( हि० हँसना ) हमने करना, जोर से हँसना। बात हँसकर का भाव या क्रिया, अकीर्ति, बदनामी, (हँसी में) उड़ाना (टालना)-किसी बात निंदा, अपयश, उपहास । " तो प्रन करि को तुच्छ या साधारण समझ कर दिल्लगी करत्यौं न हँसाई "-रामा। में टाल देना । (किसी बात को) हँस कर हँसात्मज-संज्ञा, पु. यौ० (सं०) सूर्यसुत, टालना--- फबती या लगती बात पर कर्ण, यम, शनि । ध्यान न देना, बुरा न मानना, विनोद में हँसात्मजा- संज्ञा, स्त्री० यौ०(सं०) यमुनाजी। उड़ा देना । हँसी या दिल्लगी करना, हँसाना-स० कि० (हि० हंसना ) दूसरे प्रसन्न, सुखी या खुश होना, खुशी मनाना व्यक्ति को हँसने में लगाना, हँसावना(दे०)। रम्य लगना, रौनक या गुलज़ार होना। हँसाय -संज्ञा, स्त्री० दे० ( हि० हँसना) स० क्रि०-किसी का उपहास करना. अनादर हँसाई, निंदित. निन्दा, बदनाम । " काम करना, हँसी उड़ाना। बिगारै मापनो, जग में होत हँसाय"हँसनि*--संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. हसना) गिर। हँसना, हँसने की क्रिया, भाव, या हंग। हंसालि-संज्ञा, स्त्री० (सं०) हंसावलि. हंसों हंसनी-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० हंसो ) हँस की पंक्ति या समूह, हँस-माल, ३७ मात्राओं की मादा, हंसी, हंमिनी हँसिनि दे०)। का एक मात्रिक छंद (पिं०)) हंसपदी-संज्ञा, स्त्री० (सं०) एक लता। हंसिनि,हसिनी-- संज्ञा, पु० स्त्री० (सं० हंसी) हँसपुत्र- संज्ञा, पु. यौ० (सं०) हंसात(दे०) हंसी। " न्याय मैं हंसिनी ज्यों बिलगावहु सूर्य-सुत । स्त्री० हंसपुत्री। दूध को दूध में पानी को पानी "हममुख-वि• यौ० ( हि० हँसना --- मुख) प्रा० ना०। प्रसन्नवदन, जिसके मुख से प्रसन्नता या हँसिया- संज्ञा, स्त्री० (दे०) एक लोहे का हर्ष प्रकट हो, हास्यप्रिय, विनोद विनोदशील। भौज़ार जिससे खेत की घास या साग हंसराज-संज्ञा, पु० (सं०) समलपती, एक श्रादि काटी जाती है. दुराती (प्रान्ती०)। पर्वतीय बूटी, एक अगहनी धान । यौ०- हंसी-संज्ञा, स्त्री. (सं०) हंस की मादा, हँसों में राजा, विधि - हँस, श्रेष्ठ हँग। हंसिनी, २२ वर्णो का एक वर्णिक छंद हँसली, हँसुली-संज्ञा, स्रो० दे० (सं० (पिं० )। For Private and Personal Use Only Page #1866 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra - हँसी TWEAR Cer 66 -रामा० । हँसी - संज्ञा, स्त्री० दे० ( हि० हँसना ) हँसने की क्रिया या भाव, हास, निंदा, बदनामी । 'हॅपी करैहों पर पुर जाई - यौ० - हंसी खुशी - राजी खुशी, प्रसन्नता । हँसी-खेल - - तमाशा, साधारण वा कम काम | हँसी मजाक, दिल्लगी, धानंद, विनोद क्रीड़ा, विनोद श्रौ पुराण हँसीठट्टा में उड़ाय देत" स्फु० "हँसी दिल्लगी- उपहास, विनोद, मजाक । हँसी मजाक- उपहास, दिल्लगी- विनोद। मुहा०(किसी पर या किसी बात पर ) हंसी आना मूर्खता पूर्ण तथा कौतुक या हास, समझना, बच्चों का खेल या मजाक सा ज्ञात होना। मुहा०-हँसी छूटना - हँसी श्राना. कौतुक या विनोद सा सरज और सुनने में प्रिय लगना, मूर्खता जान पड़ना । विनोद, दिल्लगी यौ० हँसी-खेलविनोद, कौतुक, दिल्लगी, सहज या साधारण बात। मुहा०-हमी सम्झना या हँसी खेल समझना श्रासान, सरल या साधारण बात समझना । हँसी में उड़ाना ( टालना ) - साधारण कौतुक या विनोद समझ टालना परिहास की बात कह कर टाल देना । हँसी में कहना - मजाक या विनोदार्थ कहना हँसी करना (कराना) 1 www.kobatirth.org " कथा १८५५ - उपहास या निंदा करना ( कराना ) हँसी में लेना या ले जाना - किसी बात को मजाक समझना, लोक-निंदा, अनादर उपहास । यनादर-सूचक हंसी हंसी में टालना - साधारण तथा मजाक के रूप में लेना, विनोदार्थ समझ टाल देना । मुहा०-हँसी उड़ाना - उपहास करना, व्यंग पूर्वक निंदा करना । - हँसुवा - संज्ञा, पु० दे० ( हि० हँसिया ) हसिया, दाँती । हँसली - संज्ञा, स्त्री० (दे०) हँसली, हँसुली (दे०) । हँसोड़, हँसार - वि० दे० ( हि० हँसना + Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir हकला प्रोड़ - प्रत्य० ) मज़ाकिया, दिल्लगीबाज़, ख़रा, हँसी-ठट्ठा करने वाला, विनोदप्रिय विनोदी | हँसो हाँ* - वि० दे० ( हि० हँसना ) कुछ हँसी-युक्त हँसने का स्वभाव रखने वाला, दिल्लगी या मज़ाक से भरा, ईषद् हास युक्त | स्रो० मही । हइ - ज्ञा १० (दे० ) इय, घोड़ा । हुई - संज्ञा, पु० दे० (सं० दयन् ) अश्वारोही; घोड़े का सवार संज्ञा, स्त्रो० ( हि० ६ ) आश्चर्य अ० क्रि० ( अव०) हूँ यही (ग्रा० ) । ॐ * - अ० क्रि० सर्व० ( हि० हौं ) मैं, हौं । हो - अव्य० ( ग्रा० ) हाँ, स्वीकार सूचक अव्यय । हरू - वि० ( ० ) सत्य, सच, उपयुक्त, उचित, ठीक, न्याय्य | संज्ञा, पु० - किसी वस्तु को काम में लाने या रखने या लेने का अधिकार स्वत्व, कोई काम करने या कराने का इख़्तियार हक्क (ग्रा० ) । मुहा०-हक़ में विषय में, पक्ष में, कर्त्तव्य, धर्म, फ़र्ज़ । मुहा०-हक़ प्रदा या पूरा करनाकर्त्तव्य पालन करना | पाने, रखने या काम में लाने का, न्याय से जिस पर अधिकार हो वह वस्तु निश्चित रीति से मिलने वाला धन, दस्तूरी, उचित पक्ष या बात, न्याय पत्र । मुहा०-हक़ पर होना ( रहना ) -- ठीक बात की हठ या आग्रह ख़ुदा परमेश्वर (मुस० ) । करना, हक़दार -- संज्ञा, पु० ( अ० हक़ + दार फ़ा० ) अधिकार या स्वत्व रखने वाला | संज्ञा, स्त्री० हकदारी | हक़ नाहक - अव्य० यौ० ( अनु० - फा० ) वलात् धींगा-धींगी, जबरदस्ती, अकारण, निष्प्रयोजन, फ़जूल, व्यर्थ । हकबकाना - अ० क्रि० दे० (अनु० इकावका ) घबरा जाना हक्का-बक्का हो जाना, भौचक 1 रह जाना । हकला - वे० दे० ( हि० हकलाना ) हकलाने या रुक रुक कर बोलने वाला । For Private and Personal Use Only Page #1867 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir हकलाना १८५६ हजार का धक्का । हकलाना-अ० क्रि० दे० ( अनु० हक) हगास-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. हगना + रुक रुक या अटक अटक कर बोलना। आस - प्रत्य.) मल त्याग की इच्छा, उसका हकसफ़ा- संज्ञा, पु० (अ०) गाँव के हिस्से- वेग। दारों को वहाँ की ज़मींदारी के मोल लेने हचकना-स. क्रि० दे० ( हि० हचका) में औरों से अधिक अधिकार या हक । धाका देकर किसी वस्तु को हिलाना। स० हकीकत--संज्ञा, स्त्री० अ०) असलियत, रूप० हचकाना प्रे० रूप० हचकवाना । सचाई, तत्व, ठीक बात, तथ्य, सत्य बात, हचका-सज्ञा, पु० दे० ( हि० हचकाना ) असली हाल । " जब अपनी न ज़ाहिर | गाड़ो श्रादि के हिलने का धक्का। हकीकत हुई।" मुहा० --हकीकत में हचकोला, हचकोरा--संक्षा, पु० दे० (हि. (दरहकीकत ) वास्तव में, सचमुच। हवका ) खाद, गाड़ी आदि के हिलने डोलने मुहा०-हकीकत खुलना ( का पता | लगना)-~असली बात का पता लगना । हिचना अ० कि० दे० ( हि० हिचकना ) हकीम -- संज्ञा, पु० (अ०) प्राचार्य, विद्वान, । डरना। वैद्य, चिकित्सक, ( युनानी रीति का)। हचरमचर--सज्ञा, पु० (दे०) हिलन डोलन, "हकीमे सखुन बर जबाँ आफ़री"-- स० । ढीलापन विवाह, पागा पीछा, सोचहकीमी-संज्ञा, स्त्री० ( अ० हकीम + ई विचार, अटकना । प्रत्य० ) हकीम का पेशा या काम, यूनानी हचहचाना-अ० क्रि० (दे०) हिलना, डोलना । चिकित्साशास्त्र । हज-सज्ञा, पु० (अ०) मुसलमानों का मक्के हकीयत-संज्ञा, स्त्री० (अ.) वह वस्तु जिस जाना और काबे के दर्शन करना, हज(दे०) पर अधिकार स्वस्व या हक हो, हरियत हजः - संज्ञा, पु. (अ०) पेट में भोजन के (दे०)। पचने की क्रिया या भाव, पाचन । वि.हकीर-वि० (अ०) तुच्छ, नाचीज़, नगण्य । पेट में पचा हुआ, अधर्म या अन्याय से अधिहकूमता-सज्ञा, स्त्री० दे० ( ० हुकूमत ) कार किया, अपनाया या लिया हुश्रा। बादशाही, शासन । हजरत-सज्ञा, पु० (अ०) महापुरुष, महात्मा, हकाक-संज्ञा, पु० (दे०) नग को काटने, महाशय, चालाक, खोटा या बुरा मनुष्य सान पर चढ़ाने और जड़ने आदि का काम ( व्यग्य०)। करने वाला, जड़िया। हजामत-संज्ञा, स्त्री० अ०) बाल बनाने का हक्का-बका-वि० दे० ( अनु० एक, धक) ___ काम, क्षौर, सिर और दाढ़ी के बढ़े हुये और विकल, घबराया हुआ. विस्मित, शचंभित, कटाने या बनवाने-योग्य बाल । मुहा०भौचक । माह-हका-वका रहना (भल हजामत बनाना-दादी या सिर के बाल जाना) विस्मित या विकल हो जाना । साफ़ करना या काटना, लूटना, धन छीन हक्कियत-संज्ञा, स्त्री० (दे०) हक्क ।। लेना, मारना-पीटना । उलेट छुरे से हगना--स० क्रि० दे० (सं० भग) भाड़ा या हजामत बनाना (मडना)-बुरी तरह पाखाना फिरना, मल त्याग करना, झखमार किसी को लूटना या धनापहण करना मारना, कर लेना। स० रूप० हगाना ० रू. पोटना। हगवाना। हजार-वि० (फा०) सहस्र , दस सौ, अनेक, हगनोटी- संज्ञा, स्त्री० (दे०) हगने की भूमि, । बहुत से । संज्ञा, पु. दर सो की गिनती, झाड़े की जगह । | या संख्या या अक १०००) । कि० वि० For Private and Personal Use Only Page #1868 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org हज़ारा कितना ही, चाहे जितना अधिक, हजार (दे०) । हज़ारा - वि० ( फा० ) सहस्र दल वाला पुष्प, हजार या अधिक पंखडी वाला फूल । पु० - फौनारा. फुहारा । हज़ारी - संज्ञा, पु० ( फा० ) एक हजार सिपाहियों का सरदार, वर्ण-संकर, दोगला, हजारिया (दे० ) । १८५७ हजुर - पंज्ञा, पु० दे० (अ० हुज़ूर ) किसी बड़े पुरुष की सनिकटता, समता, राजा या हाकिम का दरबार, कचहरी, बहुत बड़े लोगों का संबोधन | हज़री - संज्ञा, पु० दे० अ० हुज़ूर ) नौकर, दास, दरबारी, मुसाहब, राजा का निकटवर्ती अनुचर । वि० -- हुजूर का, सरकारी । हजो- संज्ञा स्त्री० दे० ( अ० हज्व ) निंदा | हज - संज्ञा, पु० दे० ( अ० हज) मक्के जा कर काये के दर्शन करना । हजाम -संज्ञा, पु० (०) नापित, नाई, 1 नाऊ, हजामत बनाने वाला, नउवा (ग्रा० ) । हटक, हरक-संज्ञा स्त्री० दे० ( हि० हटकना) बारण, वर्जन मुहा०-हटक मानना - रोकने या मना करने पर किसी काम को न करना । गायों के हाँकने की क्रिया या भाव। हट्टी हटना - ० क्रि० दे० (सं० घट्टन ) खिसकना, टलना, सरकना, पीछे सरकना, एक स्थान से दूसरे पर चला जाना, न रह जाना, भागना, जी चुराना, सम्मुख से दूर होना, या चला जाना, दूर होना, टलना, स्थिर याद न रहना, ( बात पर ) । - स० क्रि० दे० ( हि० हटकना ) निषेध या मना करना । स० रूप- हटाना, हटावना, प्रे० रूप -- हटवाना । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir हटवा - संज्ञा, पु० दे० ( हि० हाट ) दूकानदार, बनियाँ बाजार । इटवाई* +- संज्ञा, स्रो० दे० ( हि० + हाट वाई- ई - प्रत्य० ) सौदा ख़रीदना या बेचना, क्रय विक्रय | संज्ञा, स्त्री० दे० (हि० हटवाना) हटाने की क्रिया, भाव या मज़दूरी । हटवाना - स० क्रि० ( हि० हटाना ) हटाने का कार्य किसी दूसरे से कराना । वि० (दे०) वैय्या | इटवारी - संज्ञा, पु० दे० ( हि० हाट + चारा या वाला - प्रत्य० ) बाज़ार में सौदा बेचने वाला, दूकानदार । हटाना स० क्रि० दे० (हि० हटना ) टालना, खिसकाना, सरकाना, दूर करना, नियत स्थान पर न रहने देना, एक स्थान से दूसरे पर करना, भगाना, जाने देना, आक्रमण से हटकन, हरकन संज्ञा, त्रो० दे० (हि० भगाना । हटकना) वारण, बर्जन, गायों के हाँकने हटिया- संज्ञा स्त्री० दे० (सं० हह ) बाजार, की क्रिया या भाव, चौपायों के हाँकने की छड़ी या लाठी | हटकना, हरकना - स० क्रि० दे० ( हि० हट - दूर करना ) रोकना, निषेध या मना करना, चौपायों को किसी श्रोर जाने से रोक कर दूसरी ओर ले जाना | तुम हटकहु जो चहहु उबारा" - रामा० । मुहा० हरकि वलात्, अकारण । 66 हटता) --संज्ञा, पु० दे० ( हि० हरताल ) हरताल, हड़ताल | संज्ञा, पु० दे० (६ि० हठतार) माला का सूत । To To aro२३३ 16 हाट । गरम कबैलों तोरि हटिया रहैगी यह " - स्फु० । हटौती - संज्ञा, स्त्रो० ( हि० हटाना ) शरीर की गठन | हट्ट -संज्ञा, पु० (सं०) बाज़ार, दूकान | $6 चौहट यौ० - चौहट्ट - चौक बाजार | हाट बाज़ार वीथी चारु पुर बहुविधि बना For Private and Personal Use Only در - राम० । हट्टा-कट्टा - वि० दे० यौ० (सं० हृष्ट + काट) मोटा-ताज़ा, हृष्ट-पुष्ट । स्त्री० - हट्टीकट्टी । हट्टी- संज्ञा स्त्री० दे० ( हि० हाट ) दूकान, 1 Page #1869 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १८५८ हड़काया हठ-संज्ञा, पु. ( सं० ) ज़िद, भाग्रह, टेक, । हठाना-स० कि० (दे०) हठ करने में प्रवृत्त किसी बात के लिये रुकना या अड़ना।। करना, हठावना (दे०)। वि०-हठी, हठीला । " दसकंठ रे सठ हठो-वि० (सं० हठिन् ) ज़िद्दी, टेकी, हठ छोड़ दे इठ बार बार न बोलिये" -रामा | करने वाला । "हठी दसकंधर न टेक निज "हठ-वश सब संकट सहै,गालव-नहुष नरेश' | त्यागैगो"- स्कु० । -रामा० । मुहा०-हठ पकड़ना हठीला-वि० दे० (सं० हठ+ ईला --प्रत्या०) (करना)-ज़िद करना । हठ रखना- हठी, जिद्दी. टेकी, दुराग्रही, हठ करने जिपके लिये अड़ना उसे पूरा करना या लेना, वाला, हद प्रतिज्ञ, बात का पक्का या धनी, ज़िद पूरी करना, जिसके हेतु किलो की हठ संग्राम में अटल, धीर । स्त्री०-हठीली । हो उसे वही देना . " हठ राखै नहिं राखै " लेत हरि गोरस हठीलो हरि तेरो री" प्राना"- रामा० । हठ में पड़ना (अाना) | -शि० गो। -ज़िद करना । हठ माँड़ना-हठ ठानना, | हठौना-स० कि० दे० (हि० हठ ) हठावना, प्रण करना । अचल सकल्प, हद प्रतिज्ञा, हठ कराना। 'हो हठती पै तुम्हें न हठौती" जबरदस्ती, बलात्कार। -नरो । हठधर्म-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) सत्यासत्य हड़-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० हरीतकी ) हरड़, का विचार छोड़ अपनी ही बात पर अड़े एक बड़ा वृक्ष जिसके फल औषधि के काम, रहना, दुराग्रह, कट्टरपन । सज्ञा, स्त्री | आते हैं, हर, हरी, हड़ जैसा एक गहना, हठधर्मता । सज्ञा, स्रो० वि०-हउधर्मी। लटकन। हट-धर्मी-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० हठ+धर्म) हड़कंप- संज्ञा, पु० दे० यौ० (हि. हाड़+ अपनी ही बात पर जमे या अटल रहना, कापना ) बड़ी हलचल, बलभल, तहलका, सत्यासत्य योग्यायोग्य या धर्माधर्मादि का हनकंप (दे०) । मुहा०-हड़कंप मचना कुछ विचार न करना, अपने ही मत या | (होना )-हलचल होना। हड़क-संज्ञा, स्त्री. ( अनु० ) पागल कुत्ते सम्प्रदाय की बात पर अड़ने को प्रवृत्ति, के काटने पर पानी के हेतु अति प्राकुलता, दुराग्रह, अड़जाना, अड़ा रहना, कटरपन । किसी पदार्थ के पाने की बड़ी धुन, गहरी हठना-अ० कि० दे० ( हि० हठ ) जिद या अभिलाषा, उत्कट इच्छा, धुन, रट, झक । हठ करना या पकड़ना, दुराग्रह करना, हड़कना-अ. क्रि० दे० (हि. हड़क) हड़ प्रतिज्ञा या संकल्प करना । मुहा० तरसना, प्रति उत्कंठित होना, किसी वस्तु हठ कर - ज़बरदस्ती, बलात् : " हौ के न मिलने से अति दुग्बी होना, हुड़कना हठती मैं तुम्है न हठौती"-नरो । “हठि ( ग्रा.)। राखै न.ह राखै प्राना”-रामा० स० रूप हड काना-कि० (दे०) हुलकारना, हठाना, प्रे० रूप-हठवाना। लहकारना, किपी वस्तु के न मिलने का हठयांग-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) नेती धोती | दुख होना, तरसाना, किसी वस्तु के अभाव फटिन भासन और मुद्रादि, जैसे कठिन | का दुख देना, कोई वस्तु के याचक को साधनों से शरीर के साधने का योग- न देकर भगवाना या आक्रमण, तन करने सम्बन्धी एक विधान। को पीछे लगाना। हठात्-प्रत्य० (स.) हठयुक्त, हठपूर्वक, | हड़काया-वि० दे० ( हि० हड़क) बावला, दुराग्रह के साथ, ज़बरदस्ती, वलात, अवश्य । हड़कायल, पागल कुत्ता। For Private and Personal Use Only Page #1870 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org हड़ गिल्ला, हडगीला हड़गिल्ला - हड़गीला - संज्ञा, पु० दे० (हि० हाड़ + गिलना ) वगुले की जाति का एक पक्षी । १८५६ हड़जोड़ - हरजोर - संज्ञा, पु० दे० ( हि० हाड़ + जोड़ना) एक प्रकार की औषधि - लता, कहते हैं कि इनसे टूटी हुई हड्डी भी जुड़ जाती है । हड़ताल, हरताल - संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० हड्ड + ताला ) किसी बात से असंतोष सूचनार्थ, बाज़ार या अन्य कारबार बन्द कर देना । ज्ञा, स्रो० (दे०) हरताल, पीले रंग को एक खनिज वस्तु । हड़ना - प्र० क्रि० दे० ( हि० घड़ा ) तौल में जाँचा जाना । हडप - वि० ( धनु० ) पेट में डाला हुआ, निगला या लीला हुआ, छिपाया या गायत्र किया हुआ । 1 हड़पना1- स० क्रि० ( अनु० हड़प ) खा जाना, निगल या लील जाना, छीन या उड़ा लेना, अनुचित रीति से ले लेना । हड़बड़ - संज्ञा, स्त्रो० ( अनु० ) हरबर, उतावली या जल्दबाज़ी - सूचक, गति-विधि । हड़बड़ाना- - प्र० क्रि० ( अनु० ) उतावली, जल्दी या शीघ्रता करना, श्रातुर होना, हरबराना (दे० ) । स० क्रि० (दे०) किसी को जल्दी करने को कहना | हड़बड़िया - वि० ( हि० हड़बड़ी + इया - प्रत्य० ) धातुर, हड़बड़ी करने वाला, जल्दबाज़, उतावला, हरबरिया । हड़बड़ी - संज्ञा, स्त्रो० ( अनु० ) उतावली, जल्दी जल्दी के मारे घबराहट, आतुरता, हरबरी हड़हड़ाना - स० क्रि० ( अनु० ) उतावली करके या जल्दी मचाकर दूसरे को घबराना हड़ावरि हडावल -संज्ञा, स्त्री० दे० ( हि० हाड़ + प्रवल सं० ) हड्डियों की माला या समूह, हड्डियों का ढाँचा, ठठरी, कंकाल । हतभाग हड्डा--संज्ञा, पु० दे० ( सं० हडाचिका) बरं, भिड़ मधु मक्खी जैसा एक कीड़ा, बड़ी हड्डी । हड्डो --संज्ञा, स्रो० दे० (सं० अस्थि ) हाड़, अस्थि जीवों के देह की मूल कड़ी वस्तु जिसमे देह का ढाँचा बनता है। मुहा०हड्डियाँ गढ़ना या तोड़ना बहुत मारना, पटना । हड्डियाँ निकल आना ( रह जान" ) - शरीर का अति दुबला होना । ( किसी की ) हड्डी चूसना - सर्वस्व लेकर और छीनना । पुरानी हड्डीपुराने मनुष्य का सुहद शरीर । कुटुम्ब, वंश, कुल, ख़ानदान | Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir -U. हत वि० (सं० ) t मारा या पीटा हुधा, वध किया हुश्रा, ताडित, श्राहत, खोया या गँवाया हुआ, विहीन, रहित, जिस पर या जिसमें ठोकर या धक्का लगा हो. नष्टभ्रष्ट किया या बिगड़ा हुआ, ग्रस्त, पीड़ित, गुणित, गुणा किया हुआ ( गणि० ) । हतक सज्ञा, त्री० ( ० ) बेइज्जती, निरादर, प्रतिष्ठा, हेठी अब पापी दोनों वढ्यो, हतक मनोजहि दाव मति० 15 " ० । हतक इज्ज़ती-संज्ञा स्त्री० यौ० ( ०हतक + इज्जत ) बेइज्जती, मान-हानि, प्रतिधा । For Private and Personal Use Only 86 हतदेव -- वि० (सं० ) अभागा, कमबख़्त, भाग्यहीन, बदकिस्मत, हत-विधि । हतना - स० क्रि० दे० (सं० इत + ना प्रत्य० ) मार डालना, वध करना, मारना पीटना, न मानना, न पालना । तदपि हतौं मोहि राम दुहाई' "रामा० । हतप्रभ - वि० यौ० (सं० छत + प्रभा ) कांति या प्रभाहीन, निष्प्रभ । हतबुद्धि - वि० यौ० (सं०) बुद्धि-रहित, हती. निर्बुद्धि, वे धक्क, मूर्ख । हतभाग - वि० यौ० ( हि० ) हतभाग्य, जिसका भाग हर लिया गया हो । Page #1871 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org १८६० हतभाग, हतभागी हतभाग- हतभागी - वि० दे० (सं० हृत + भाग्य ) बद- क़िस्मत, कमबख़्त अभागा, भाग्यहीन, हतभाग्य । स्त्री० - हतभातिनि हतभागिनी । To हतभाग्य - वि० (सं०) भाग्य-हीन, अभागा, बद क़िस्मत, हतभाग (दे० ) । 66 हतभाग्य हिन्दू जाति तेरा पूर्व गौरव है कहाँ " । हतवाना - स० क्रि० दे० ( हि० इतना ) मरवा डालना, मरवाना, वध कराना । था। हता - स० क्रि० ( होना का भूत० हताना - स० क्रि० दे० (हि० इतना ) मारना, मार डालना, बधाना, बध कराना । हताभा - वि० यौ० (सं०) हतप्रभ, निष्प्रभ । हताश - वि० यौ० (सं०) निराश, ना उम्मेद G " जनक हताश है कह्यो यौ लखि भूपन को ". हतोत्साह - वि० यौ० (सं० ) जिसमें कुछ करने का उत्साह न रह गया हो । हत्थ - संज्ञा, पु० दे० ( हि० हाथ सं० हस्त ) हाथ । हत्था - संज्ञा, पु० दे० (हि० हाथ, या नृत्य ) दस्ता, मूठ अनादि का वह भाग जो हाथ में रहता है, बैंड, हथेरा, हाथा, केले के फलों की घौद, खेत की नालियों का पानी उलचने का लकड़ी का बल्ला । हत्थि - संज्ञा, पु० दे० (सं० हस्ती ) हाथी । हत्थी - संज्ञा, खो० ( हि० हाथ, हत्था ) चौज़ार या हथियार की बेटी, मूठ, दस्ता । पु० (दे०) हाथी । हत्थे - क्रि० वि० दे० (सं० हस्त, हि० हत्थ, हाथ ) हाथ में। मुहा० - हत्थे लगना या बढ़ना) -- प्राप्त होना, हाथ में थाना, वश होना। हत्थे पर काटना - प्राप्ति के -मन्ना० । घायल | हताहत - वि० यौ० (सं० ) मारे गये और हथकंडा - संज्ञा, पु० दे० यौ० ( हि० हाथ + कांड – सं० ) हस्त-कौशल, हस्तलाघव, हाथ की सफ़ाई, चालाकी का ढंग, गुसचाल । हथकडी - संज्ञा, स्त्री० ( हि० हाथ + कड़ी ) कैदी या बंदी के हाथ में पहनाने का लोहे का कड़ा, हतकड़ी (दे० ) । यौ० - हथकड़ी-बड़ी । समय बाधा डालना । हत्या - संज्ञा, खो० (सं०) मार डालने की Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir हथफेर क्रिया, खून, बध । " गोहत्या ब्रह्म हत्या च " - स्फु० । मुहा०-हत्या लगना- - किसी के मार डालने का पाप लगना, बध का दोष लगना । संकट, उपद्रव, बखेड़ा | हत्या चढ़ना ( सवार होना ) करने का प्रवृत्ति जगना । - बध हत्यार - हत्यारा - संज्ञा, पु० दे० ( सं० हत्या + कार ) बध या हत्या करने वाला बधिक खूनी, पापी। स्त्री० - हत्यारिन, हत्यारिनी । हत्यारी - संज्ञा, स्रो० ( हि० हत्यारा ) प्राण लेने, बध या हत्या करने वाली, हत्या का पाप, वध करने का दोष, हत्यारे का काम, हत्या की प्रवृत्ति । " हत्यारी दुसकर्म है, गरुड़ मुख्य तेहि कीन्ह " - तुलमीराम० । हथ - संज्ञा, पु० दे० ( हि० हाथ, सं० हस्त ) हाथ का संक्षिप्त रूप ( समाय में ) हथनाल - संज्ञा, पु० दे० यौ० (हि० हाथी + नाल ) हाथी पर चलने वाली तोप, गज-नाल । हथनी - संज्ञा स्त्री० दे० (हि० हाथी + नी प्रत्य० ) हाथी की मादा हथिनी (दे० ) । हथफूल - संज्ञा, पु० दे० यौ० ( हि० हाथ + फूल) हथेली के पीछे पहनने का एक गहना, साँकर, हथसंकर ( प्रान्ती० ) । हथफेर - संज्ञा, पु० दे० यौ० ( हि० हाथ + फेरना) प्यार से किसी के देह पर हाथ फेरने का कार्य, दूसरे का धन सफाई से उड़ा लेना, थोड़े दिनों के हेतु लिया, या दिया जाने वाला ऋण धन, हथ उधार | संज्ञा, स्त्री० यौ० (दे०) हथफेरी । For Private and Personal Use Only Page #1872 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir हथलेवा हथवा -संज्ञा, पु० दे० यौ० ( हि० हाथ + हथेशी, हथेली-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० हस्तलेना ) विवाह में घर का अपने हाथ में तल । करनल, कलाई से आगे हाथ का कन्या का हाथ लेना पाणिग्रहण । उंगलियों वाला भाग मुहा०-हथेली में हवाँस-सज्ञा, पु० दे० यौ० । हि. हाथ -- पाना ( होना )-प्राप्त होना. मिलना, वाँस ) नाव चलाने का बस, या पतवार, सुलभ होना. थाधीन या वश में होना । डॉ. श्रादि मामान । होनी पर जान (होना)-जान जाने हगवाँसना स० क्रि० (दे०) हाथ में लेना, | के भय की स्थिति होना । हथेली पर प्रयोग करना, मिल कर पकड़ना। जान लेना-मरने से न डरना । हथवाल-संज्ञा, पु० दे० ( हि० हाथी+ हथेव - संज्ञा, पु० दे० ( हि. हाय ) हथौड़ा, वाला) महावत। हथौड़ी। हथसांकर-संज्ञा, पु० दे० यौ० हि० हाथ हथोरी*-संज्ञा, स्त्री० दे० ( हि० हथेली) +साँकर) हथफूल ( भूषण )। हथेली, गदोरी ( प्रान्ती.)। हथमार-सक्षा, स्त्री० दे० यौ० ( सं० हस्ति. हगोटी-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. हाथ+मोटी शाला) फील ख़ाना. हाथी के रहने का प्रत्य० ) हस्त-कौशल, किसी काम में हाथ घर या स्थान। डालने की क्रिया या भाव, किसी काम में हथाहथी* --अव्य० दे० (हि. हाथ) हाथ लगाने का ढंग। हाथों हाथ, तुरंत, शीघ्र. जल्दी। हथौड़ा-संज्ञा, पु० दे० (हि. हाथ +ौड़ा हथिनी-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० हस्तो) हाथी -प्रत्य० ) लोहे का वह औजार जिससे की मादा, हस्तिनी, हथनी (दे०)। कागर लोग किसी धातु के टुकड़े को बढ़ाते हभिया--संज्ञा, पु. दे. (सं० हस्त ) हस्त या गढ़ते हैं, मारतौल (प्रान्तो०), कील नक्षत्र. हाथी । “हथिया चले गिरंदी चाल" खूबी श्रादि के गाड़ने का हथियार । स्त्री० -श्रा. खं०। अल्पा०-हथौड़ी। हथियाना-स० कि० दे० (हि. हाथ + हयोड़ी-संज्ञा, स्त्री० ( हि० हथौड़ी) छोटा माना या याना-प्रत्य० ) अपने प्राधीन या हथोड़ा। वशीभूत करना, ले लेना, हाथ में करना, हथ्या -स कि० दे० ( हि० हथियाना ) धोखे से ले लेना, उड़ा लेना, हाथ में पकड़ना, छीन लेना, हाथ में करना, हथियाना, हाथ लगाना। ग़ायब करना। हथियार-संक्षा, पु० दे० ( हि० हथियाना ) | हथ्य र*-संज्ञा, पु० दे० ( हि० हथियार ) श्रौज़ार शस्त्रास्त्र, तलवार, भाला श्रादि, | हथियार, औजार, श्रन, शस्त्र । " डारि किसी कार्य का साधन, हथ्यार (दे०)। डानि हथ्यार, सूरज प्राण लै लै भज्जही" महा०-हथियार लेना (उठाना,गहना) -नाम । --मारने के लिये अस्त्र हाथ में लेना, लड़ने | हद--संज्ञा, स्त्री. (अ.) मर्यादा, सीमा, को तैयार होना । हाथ में हरियार किसी वस्तु की लंबाई, चौड़ाई, ऊँचाई आदि होना-युद्ध का साधन-सामान होना, की प्रतिम पहुँच, हद (दे०) । मुहा०बल होना। हद बाँधना-सीमा नियत या निर्धारित हथियार-बंद- वि० दे० यौ० (हि. हथियार करना । " बाँधो हद हिंदुवाने की"-+फा० चंद) सशस्त्रास्त्र, जो हथियार भूषः । किसी बात का नियत किया गया बाँधे हो। थंतिम परिणाम । मुहा०-हद से ज्यादा For Private and Personal Use Only Page #1873 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org हदीस - बेहद, अत्यंत अत्यधिक । हद या हिसाब नहीं - अत्यंत, बहुत अधिक । हद दर्जे का --सब से अधिक बहुत अधिक। किसी बात की उचित मर्यादा या सीमा । १८६२ हम --रामा० । श्रौर सेवा की (रामा० ), महावीर | "ऐपहि होय कहा हनुमाना हनू काल संज्ञा, पु० दे० (सं० हनु + फाल हि० ) बारह मात्रायें और अंत में गुरु लघु वाला एक मात्रिक छंद ( पिं० ) । हनूमान् - संज्ञा, पु० दे० (सं० हनुमत् ) हनुमान् महावीर । " हनूमान् तब गरजि कै, लीन्हेसि face उपारि "- - रामा० । हनोज़ - अव्य० (फा० ) अभी तक अभी । हप - संज्ञा, पु० (अनु०) जल्दी से किसी वस्तु को मुख में रख कर होंठ बंद करने का शीघ्र शब्द | महा० - हप कर जानाखा जाना । या बंध करना, मार डालना, मारना, हपहपाना - अ० क्रि० (दे०) हाँफना। 1 1 हनवा - स०क्रि० ( हि० हनना का ० रूप० ) हनने का काम किसी दूसरे से कराना । अ० क्रि० (दे०) अन्हाना नहवाना, नहलाना, स्नान कराना, अन्हवाना | हनाना - थ० क्रि० (दे०) स्नान करना, पीटना, प्रहार करना, ठोंकना, लकड़ो से हफ्ता - (संज्ञा, पु० (०) सप्ताह. फा० ) हमा ठोक या पीट कर बजाना ! gani - अ० क्रि० ( अनु० हय ) खाने या काटने को शीघ्र मुख खोलना । स० क्रि० (दे० ) - दाँत से काटना । हवडा वि० (दे०) फूहड़ । हवर-हवर - क्रि० वि० दे० ( धन० हड़बड़ ) उतावली या शीघ्रता, जल्दी जल्दी, हड़बड़ी से, शीघ्रता के कारण उचित रीति से नहीं । हवरानri३ - प्र० क्रि० दे० (हि० हड़बड़ाना) शीघ्रता या उतावली करना, हड़बड़ाना । हबशी - संज्ञा, पु० ( फा० ) हबश देश का अति काला कुरूप निवासी, हबसी (दे० ) । हविला - वि० (दे०) बडदन्ता, जिसके श्रागे दाँत बड़े हों। हदीस - संज्ञा स्त्री० ( ० ) मुसलमानों का स्मृति जैसा धम्मं ग्रंथ जो मुहम्मद साहिब की बातों का संग्रह है । हद्द - संज्ञा स्त्री० (दे०) हद सीमा । हनन - संज्ञा, पु० (सं०) वध करना, मार डालना, घाघात करना, मारना पीटना, गुणा करना, ( प्रान्ती० ) । वि० - हननीय, हनित, हन्य । हना - स० क्रि० दे० (सं० हनन, श्राघात नहाना । " हरिवंत, हनुवंत संज्ञा, पु० दे० (सं० हनुमत् ) हनुमान् महावीर । " जेहि गिरि चढ्यो जाइ हनुवंता - तुल० । हनुवा, हनुवान—पंज्ञा, पु० दे० (सं० हनुमत् ) हनुमान्, महावीर । हनु – संज्ञा, त्रो० (सं०) चिबुक, ठोढ़ी ठुड्डी, जबड़ा, डाढ की हड्डी । -- हनुमंत, हनुवंत संज्ञा, पु० दे० (सं० हनुमत् ) हनुमान्, महावीर । " हनुमंत ये जिन मित्रता रवि पुत्र सों हम सों करी " - रामा० । हनुमान् - वि० (सं० हनुमत् ) बड़े जबड़े या दाढ वाला, ठुड्डी वाला, प्रति बड़ा या भारी शूरवीर | संज्ञा, पु० - पवनात्मज, मारुति, पंपा के एक प्रति वीर बंदर जो सुग्रीव के मंत्री थे जिन्होंने राम की बड़ी सहायता Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 37 संज्ञा, पु० हबूब दे० ( ० हवाब ) पानी का बुलबुला, बुल्ला. झूठ बात । हत्रेली-संज्ञा, स्त्री० दे० (अ० हवेली ) बड़ा महल । हब्बा डब्बा - संज्ञा, पु० दे० ( हि० हांफ + डब्बा अनु० ) बच्चों की डब्बे की बीमारी जिसमें जोर जोर से साँस और पसली चलती है। हब्स - संज्ञा, पु० (०) कैद | For Private and Personal Use Only हम - सर्व० दे० (सं० ग्रहम् ) उत्तम पुरुष एक वचन मैं सर्वनाम का बहुवचन रूप | Page #1874 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir हमजोली १८६३ हमेशा संज्ञा, पु०- अहंकार, घमंड, हम का भाव । बरी. तुल्यता । “किसी की मजाल है जो अव्य.- फा०) संग, साथ, तुल्य, समान, करे उसकी हमसरी।" बराबर । 'जो हम निदरहिं विप्र वदि, यत्स, हम हमाव संज्ञा, पु. यौ० (दे०) यह सुनहु भृगुनाथ'-रामा० । हमारा है, यह पराया है इसका भाव, हमजोली - सज्ञा, पु० दे० यौ० (फा० हम+ अपना-पराया। जोड़ो हि० ) सगी साथी, मित्र, सखा सह- हमहमी-संज्ञा, पु० दे० (हि. हम, सं० योगी, सम वयस्य । अहम् । स्वार्थ परता, अहंकार. अपने अपने हमता*-सज्ञा, स्त्री० दे० हि० हम+ता लाभ का उतावली से उपाय । प्रत्य० ) अहं कार, घमंड, अहंभाव, हमत्व । हमाम--संज्ञा, पु० दे० (अ. हम्माम ) स्नानागार। हमदद-सज्ञा, पु. यो. (फा०) दुख में सहानुभूति रखने वाला । “कोई हमदर्द हमार-हारा-सर्व० दे० (हि. हम - श्रा. नहीं, यार नहीं, दोस्त नहीं -स्फु.। पारा प्रत्य० । हम का संबंध कारक में रूप, हमदर्दी-सज्ञा, स्त्री० (फा० ) समवेदना, हमारो (ब्र०), हमरा (ग्रा.)। "बचन सहानुभूति । हमार मानि गृह रहऊ'... रामा० । '' कहि प्रताप वल-रोष हमारा"-रामा०। स्त्री०हमरा-सर्व दे० (हि. हमारा ) हमारा, हमरा ( ब्र.)। स्त्री हमारी। हमारि, हमारी, हमरी ग्रा०)। हमाल--संज्ञा, पु० दे० (अ. हम्माल) बोझा हमराह-अव्य० (फा०) कहीं जाने में किसी उठाने या वहन करने वाला, मजदूर, के संग या माथ में जाना, माथ सग। कुली, रक्षक। "आप के हमराह काये जायेंगे ज़्यारत को हमा-हमी-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. हम ) हम''- स्फु०। स्वार्थ-परता, अहकार, घमंड, निज स्वार्थ हमगहा- सज्ञा, पु० वि० (फा० हमराह + ई या लाभ का प्रातुर प्रयत्न । -प्रत्य.)माथी संगी। हमीर -- संज्ञा, पु० दे० (सं० हम्मीर ) एक हमल- संज्ञा, पु० (१०) गर्भ. स्त्री के पेट मिश्रित राग ( संगी०), रणथंभौर के का बच्चा, स्त्री के पेट में बच्चे का होना। राजा हम्मीर देव ( इति०) । “तिरिया. " रिज़क देता है हमन में वह बड़ा रज्जाक तेल, हमीर-हठ, चढ़े न दुजी बार"। है"- स्फु०। हमें-सर्व दे० (हि. हम ) हमका कर्म और हमला - संज्ञा, पु. (अ.) धावा, चदाई, | संप्रदान कारक में रूप, हमको. हमारे हेतु युद्ध-यात्रा प्रहार, आक्रमण, युद्धार्थ चढ़ या लिये, हम हि ( श्रव०), हमें (दे०)। दौड़ना, विराध में कही गई बात, मारने हमेल -सज्ञा, स्त्री० दे० (अ० हमायल) चाँदी को झपटना, वार । सोने के सिक्कों या मोहरों का हार जिसे हपवार -वि० (फ़ा०) सपाट, समतल, बरा- गले में पहनते हैं, हुमेल । बर सतह वाला, समधरातल । हमेव*----सज्ञा, पु० दे० ( सं० अहम् + हमसर --सज्ञा, पु० वि० (फा० सदृश, समान एव ) हमी अहंकार, घमंड, अहमेव, अहंबल, पद, गुणादि में सम व्यक्ति तुल्य । • कोई हम पर है नहीं उसका बताऊँ क्या | हमेशा-भव्य० (फ़ा०) संतत, सदा, सर्वदा, तुझे"-स्फु० । सज्ञा, स्त्री० हि०) हमपरी। निरंतर, सदेव, सब दिन या सब काल, हमसरी-सज्ञा, स्रो० (फा०) समता, बरा- सतत, हमेसा, हमेस (दे०)। For Private and Personal Use Only Page #1875 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir हरख हमेस, हमेसा हमेस-हमेसा*-अव्य० दे० (फा० हमेशा) | हयात - सज्ञा, स्त्री० ( अ०) जीवन, प्रायु, सदा, सर्वदा, सदैव, सबदिन, सब कान। जिंदगी यौ०-हीन-हयात में-जीवन हमें* - अव्य० दे० (हि० हमहमें, हमको, काल में प्राबे हयात-श्रमत । हमारे हेतु, हाह ( अव० ) "हमैं तुम्हें । हयादार सज्ञा, पु. यौ० । अ० हया+दार सरवरि कस नाथ'- रामा० । | फा० ) शमिन्दा, लज्जाशील, शर्मदार । हम्माम-संज्ञा, पु० (अ.) उष्ण जल का | सज्ञा, स्त्री० -हयादारी। स्नानागार,नहाने की गर्म कोठरो । हर-वि० (सं० ) लूटने, छीनने या हरने हम्मीर-संज्ञा, पु० (सं०) रण थंभौर के | वाला, दूर करने या मिटाने वाला, विनाश एक वीर चौहान राजा जो १३०० स० में , या वध करने वाला, वाहक, वहन करने अलाउद्दीन के साथ लड़ कर मरे इति।।। या ले जाने वाला । सज्ञा, पु. (स.) शकर "पै न टरै हम्मीर-इठ"-- स्फु० । यौ० | जी, शिव जी। "नहँ न जाय मन विधि मुहा०-हम्मीर-हर-हठ आग्रह या हठ।। हरि हर का"-रामा० । विभीषण का हयंद-संज्ञा, पु० दे० यो० (सं० हमें बड़ा मत्री एक राक्षस, ( भिन्न में ) वह संख्या और बढ़िया घोड़ा। जिससे भाग दिया नावे, ( विलो. अंग) हय-संज्ञा, पु. ( सं०) इन्द्र, अश्व, बोड़ा। भाजक (गणि. ), अग्नि, छप्पय छद का " एकाकी हयमारुह्य जगाम गहनं वनम् " | १० वाँ भेद, टगण का प्रथम भेद (पि०) । -सप्त०। ४ मात्राों का एक छन्द ०ि)। सज्ञा, पु० द० (स० हल) हल । वि० (फा०) ७ की मात्रा का सूचक शब्द ( काव्य )। प्रत्येक, एक-एक। मुहा०-हर एक स्त्री०-हया, हयी। (हरेक)-प्रत्येक, एक एक हरवासयोहयग्रीव--संज्ञा, पु. ( सं०) विष्णु के २४ आम-सर्व साधारण । हर राज-प्रति अवतारों में से एक, अवतार कल्पान्त में दिन । हरदम (वक्त )-सदा. प्रत्येक ब्रह्मा की निद्रावस्था में वेद उठा ले जाने । समय : हर दिल-अजोज-सर्व पिय। वाला एक राक्षस (पुरा०)। हरउद-सज्ञा, पु० (दे०) पलने की गीत। हयना-स० कि० दे० ( सं० हत ---ना-- हर', हरुए-अव्य० दे० (हि. हवा ) प्रत्य० ) मार डालना. बध या हिंसा करना, । रसे रमे, धीरे-धीरे। " ताके भार गरुए भए जीव मारना, मारना-पीटना, प्राण लेना, हरुएँ धरति पाय"-मतिः । ठोंकना-बजाना, रहने न देना, नष्ट करना, मिटा देना। हरकत-सज्ञा,स्त्री० (अ०, चाल गति क्रिया, हयनाल-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० हय + नाल चेष्टा. छेड़-छाड़, हिलना-डोलना, नटखटी, हि० ) घोड़ों से खींची जाने वाली नोप।। दुष्टता मुहा०-हरकत से बाज़ न हयमेध-सज्ञा, पु० यौ० ( सं० ) अश्वमेध आना-नटखटी या दुष्टता न छोड़ना। यज्ञ । “ यह होय जो यह हयमेध तो, पूण | हर मना*-स० क्रि० दे० ( हि० हटकना ) मनोरथ होय''..-स्फु०। हटकना रोकना मना करना । "तुम हरकहु हयशाला-मज्ञा, स्त्री० यौ० (सं० ) अश्व- जो चहहु उबारा ''-- रामा। शाला, अस्तबल घुइसार, हयसार (दे०) हरकारा, हरकाला-सज्ञा, पु. (फा० ) "बनी विचित्र तहाँ हयशाला" - वासु० । चिट्ठोरसाँ, डाकिया, दूत । " वैद्य, चितेरा, हया-सज्ञा, स्त्री० ( अ०) शर्म, लज्जा, बानियाँ. हरकारा औ कव्य -- स्फु०।। बड़ों का लिहाज़ । यौ०-हया-शर्म। हरख- t--संज्ञा, पु० दे० (सं० हर्ष ) For Private and Personal Use Only Page #1876 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org १८६५ हरखना हर्ष, धानन्द, प्रसन्नता, खुशी । "हरख समय बिसमय करसि कारन मोहिं सुनाव' रामा० । हरखना- - भ० क्रि० दे० (सं० हर्ष हि० दरख ) प्रसन्न होना, हर्षित या मुदित होना, हरपना (दे० ) । " सुनि हरखा रनिवास " - रामा० । 15 हरखाना - अ० क्रि० दे० ( हि० हरखना ) हरखना, प्रसन्न होना, हर्षित होना प्रमुदित, होना । " सुनि दससीस बहुत हरखाना - स्फु० । स० क्रि० (दे०) मुदित या प्रसन्न करना, आदित या हर्षित करना । हरखित - वि० (दे० ) हर्षित, मुदित, प्रसन्न । हरगिज़ - अव्य० ( फ़ा० ) किसी दशा में भी, कभी, कदापि । हरचंद - धन्य० ( फा० ) यद्यपि, अगरचे, कितना ही बहुत या बहुत बार, हर तरह से । " मैंने तो हरचंद समझाया मगर माने न तुम " -- शि० गो० । संज्ञा, पु० यौ० ( हि०) शिव- शोरा पर की चन्द्रकला, राजा हरिचंद, हरिश्चन्द्र । हरचंदन - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) श्वेत चदन मलयाचल चन्दन | हरज - ज्ञा ५० दे० ( ० दर्ज) हर्ज, क्षति, हानि, नुकसान, अड़चन, बाधा । हरजा - संज्ञा, पु० दे० ( अ० हर्ज ) हर्जा (दे०), हानि, तति, नुकसान, बाधा, अड़चन । हरजाई - संज्ञा, पु० ( फ़ा० ) हर जगह रहने या घूमने वाला, धावारा, बहल्ला ( प्रान्ती० ) | संज्ञा, स्त्रो० दे० ( फा० हर + जाया-सं० ) कुलटा, स्वैरिणी, व्यभिचारिणी श्री । हरजाना - संज्ञा, १० ( फा० ) क्षति पूर्ति, नुकसान या हानि का बदला । हरट्ट, हरिस्ट - वि० दे० (सं० हृष्ट ) हृष्टपुष्ट, मोटा ताजा, मजबूत, दृढ, हिरिस्ट । भा० श० को० - २३४ हरना हरण - संज्ञा, पु० (सं० ) लूटना या छीनना, हाना, चुराना, मिटाना, नाश या दूर करना, संहार करना, विनाश, वहन, ले जाना, भाग देना, बाँटना, घटाना, हरन (दे० ) । वि० - हरणीय । हरता -- संज्ञा, पु० दे० (सं० हर्तृ ) हर्त्ता, नाशक, लूटने या छीन लेने वाला, हरने वाला, Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चुराने वाला | हरता धरता - संज्ञा, पु० दे० यौ० (सं० हर्तृ घर्तृ - वैदिक ) पूर्ण अधिकारी, सब बातों का अधिकार रखने वाला, कर्ता-धर्ता | हरतार हरताल - संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० हरिताल ) पीले रंग का एक खानिज पदार्थ । "गंधक पारा और हरताल । चूरन बनै दाद को काल" - स्फु० । मुहा० - किसी बात पर हरताल लगाना ( फेरना ) - रख या नष्ट करना, मिटा देना । हरद-दी- सज्ञा, स्रो० दे० (सं० हरिद्रा ) हरिद्रा, हलड़ी, हर्दी (दे०) । हरदौर- हरदौल - संज्ञा, पु० दे० ( सं० हरदत्त ) चोरछा के राजा जुझारसिंह ( सन् १६२६ – ३५ ई०) के भ्रातृ-भक्त भनुन, जिन्हें हरदियादेव या हरदेव भी कहाते हैं। हरद्वान - सज्ञा, पु० (दे०) एक पुराना नगर जो तलवार के हेतु विख्यात था। हरद्वार- सज्ञा, ५० दे० ( स० हरिद्वार ) एक प्रसिद्ध तीथ जहाँ गंगा जी पर्वतों से भूमि पर उतरती हैं, हरिद्वार । हरना - स० क्रि० द० सं० हरण) हरण करना, लूटना, छीनना, चुरा लेना, हटाना, उड़ा ले जाना, दूर करना, नाश करना या मिटाना, घटाना, भाग देना। मुहा०चित्त या मन (हिय-हृदय) हरना - मन लुभाना, चित्ताकषित करना, खींचना। प्राण हरना - मार डालना, बहुत दुख देना । * अ० क्रि० दे० ( हि० हारना ) हारना । | संज्ञा, ५० दे० (सं० हरिण ) हरिया, मृग, हरिना, हरना (दे० ) । For Private and Personal Use Only Page #1877 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - हरनाकुस, हरिनाकुस हरसना हरनाकुस, हरिनाकुस -संज्ञा, पु० दे० (फा० हरामजादः ) नटखटी, बदमाशी, (सं० हिरण्यकशिपु) दैत्य-राज, हिरण्यकशिपु, शठता, दुष्टता, शरारत । वि०-हरामजादा । प्रहलाद का पिता। हरमुष्ठा- संज्ञा, पु० (दे०) हृष्ट-पुष्ट, हट्टा-कट्टा, हरनाच्छ-हरिनाच्छा*-संज्ञा, पु. दे. मोटा-ताजा, बलवान । ( सं० हिरण्याक्ष ) हिरण्याक्ष नामक दैत्य, हरये*-अव्य० दे० ( हि० हरुवा ) धीरे हिरण्यकशिपु का छोटा भाई। धीरे, रसे रसे, हौले-हौले, हरएँ । हरनी-संज्ञा, स्त्री० दे० ( हि. हिरन ) मृगी, हरवल*--संज्ञा, पु० दे० ( तु. हरावल ) छिगारी, हिरन की मादा, हरिनी, हिरनी। सेना का अग्रभाग, वे सिपाही जो सेना में | सब से भागे रहते हैं। हरनोटा-संज्ञा, पु० दे० (हि. हिरन ) हिरन हरवली-संज्ञा, स्त्री० ( तु० हरावल ) फौज का बच्चा. हिरनौटा, हरिनौटा। की अफसरी या सरदारी, सेना की अध्यक्षता। हरफ़-संज्ञा, पु० (अ०) वर्ण, अक्षर, हर्फ, हरवा-संज्ञा, पु० दे० (सं० हार ) माला, हरूक (दे०) । मुहा०-किसी पर हरफ़ हार । वि. हरुवा, हलका। आना-दोष या अपराध लगना, कलंक हरवाना-प्र. क्रि० दे० (हि. हड़बड़ ) लगना । हरफ़ उठाना- वर्ण या अक्षर शीघ्रता, या जल्दी करना, उतावली या पहिचान कर पढ़ लेना। आतुरता करना । स० कि० दे० (हि. हारना) हरफा-रेवड़ी-संज्ञा, स्त्री० दे० ( सं० हरि- हारना का प्रे० रूप । पर्वरी ) कमरख की जाति का एक पेड़ और हरवाह-हरवाहा-संज्ञा, पु० दे० (सं० उसके फल । हलवाह ) हल चलाने या जोतने वाला । हरबर-क्रि० वि० दे० (सं० शीव हि० हड़बड़) स्त्री-हरवाहिन । संज्ञा, न्त्री०-दरवाही। हड़बड़, शीघ्रता, शीघ्र, घबराहट के साथ। हरष*-संज्ञा, पु० दे० ( सं० हर्ष ) पानंद राम-काज को काज जानि तह मुनिवर प्रमोद, खुशी, सुख, मोद, प्रसन्नता, हरख हरबर प्रायो"-रा. घु० । संज्ञा, स्त्री. (दे०)। " सिय-हिय हरष न जाय कहि" (दे०) हरबरी-शीघ्रता, श्रातुरता -रामा०। संज्ञा, पु० (दे०) हरषन, हर्षण हरबराना -अ.क्रि० दे०(हि. हड़बड़ाना) हड़बड़ाना, शीघ्रता करना, शीता के हरपना*---अ० क्रि० दे० (सं० हर्ष+नाकारण घबरा जाना। प्रत्य० ) प्रसन्न या हर्षित होना, मुदित हरबा-संज्ञा, पु० दे० (अ० हरबः ) औज़ार, होना, प्रानंदित होना, हरखना (दे०)। अस्त्र, हथियार। " हरषि सुरन दु'दुभी बजाई "-रामा० । हरबोंग-वि० दे० यौ० (हि० हल -- बोंग ) हराना* - अ० क्रि० दे० (हि० हरष - लहम र, गँवार, देहाती. अक्खड़, मूर्ख, भाना-प्रत्य० ) प्रसन्न या हर्षित होना, जड़ । संज्ञा, पु० अत्याचार, अंधेर, उपदव, खुश होना, हरखाना (दे०) । स० कि. हर्षित या प्रसन्न करना। कुशासन । हरषित-वि० दे० (सं० हर्षित ) हर्षित, हरम-संज्ञा, पु० (अ०) जनानखाना, अंत: प्रसन्न, मुदित । " हरषित भई सभा सुनि पुर । संज्ञा, स्त्रो०-रखेली स्त्री, मुताही दासी, __ बानी"--स्फु०। पत्नी । यो०-हरमसरा-अंतःपुर, रसना-अ० कि० दे० (हि. हरषना) जनानखाना । प्रसन्न या हर्षित होना मुदित होना । स० हरमजदगी, हरामजदगी-संज्ञा, स्रो० रूप-हरसाना, हरसावना । For Private and Personal Use Only Page #1878 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir हरि - हरसिंगार हरसिंगार-संज्ञा, पु० दे० यौ० (सं० हार+ में निषेध हो. सुअर (मुस० ) । " जितनो सिंगार ) परजाता (प्रान्ती.), नारंगी चाव हराम पै, उतनो हरि पै होय" स्फु० । रंग की डाँदो और ५ पंखडियों वाले एक महा.-कोई बात (काम) हराम सुन्दर फूल का पेड़। संज्ञा, पु. यौ० दे० करना--किसी कार्य का करना कठिन ( सं० हर+गार सूर्प, चंद्रमा। कर देना। कोई काम या बात हराम हरहा- संज्ञा, पु० (दे०) चौपाया, जानवर। होना-किसी कार्य का कठिन होना । पाप, हरहाई-वि० स्त्री० (दे० दि० हार) जंगली, अधर्म, बेईमानी । मुहा०-हराम कानटखट, दुष्ट, बनैली गाय । “जिमि कपि अनुचित रूप या अन्याय से प्राप्त, मुफ्त लहि घालय हरहाई"--रामा० । का. संत का, स्त्री पुरुष के अनुचित संबंध से उत्पन्न बच्चा। व्यभिचार, स्त्री-पुरुष का हर-हार-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) शिव जी की अनुचित सम्बन्ध । माला, साँप, सर्प, शेषनाग। हरा वि० दे० ( सं० हरित ) हरित, घास हरामखोर --संज्ञा, पु० यौ० ( श्रा+फा० ) या पत्ती के रंग का, सब्ज, ताजा, प्रसन्न पार की कमाई खाने वाला, संत का खाने अम्लान, अमूर्छित, प्रफुल्ल वह घाव जो सूखा वाला, मुफ्त खीर , निकम्मा, थालसी, सुस्त । संज्ञा, स्त्री-हराम-खोरी। या भरा न हो, कच्चा दाना या फल | स्त्रो०हरी । मुहा०-हरा बाग (हरा गुलाब) हरामजादा-संज्ञा, पु० यौ० ( अ० हराम+ दिखाना-व्यर्थ पाशा देने या बाँधने वाली फा० जादः) वर्णसंकर, दोगला, पाजी, दुष्ट, बात करना । यौ०-हराभरा-तरताजा, बदमाश (गाली) । स्त्री-हरामजादी। हरामी-वि० दे० (अ० हराम-ई-प्रत्य.) हरा, हरे पेड़-पत्तों से भरा। संज्ञा, पु. व्यभिचार से पैदा, पाजी, दुष्ट, पापी, हरित वर्ण, हरीतिमा, पत्ती या घास जैसा (गाली)। संज्ञा, पु०-हरामीपन । रंग । *संज्ञा, पु० दे० (हि० हार) माला, हरारत-संज्ञा, स्त्री० (अ०) ताप, उष्णता, हार। संज्ञा, स्त्री० (सं०) हर की स्त्री, पार्वती। गरमी, ज्वरांश, हलका ज्वर। हराई -- संज्ञा, स्त्री० (हि. हारना ) हार, रावरि*-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. हडावरि) द्वारने की क्रिया या भाव, खेत का वह अस्थि समूह, हाड़ों का पंजर । संज्ञा, पु. भाग जो एक बार में जोता जाता है, हल (नु० हरावल ) सेना का अग्र भाग । में चलना। हरावल-संज्ञा, पु. (तु. ) सेना का प्रय हराना-स० क्रि० दे० (हि. हारना) रण में भाग, वे सैनिक जो सेना में सब से आगे शत्रु या प्रतिद्वंदी को पीछे हटाना, पराजित रहते हैं, हरोल (दे०)। या परास्त करना, बैरी को विफल मनोरथ गम-संज्ञा, पु० दे० (फ़ा० हिरास) आशंका या शिथिल प्रयत्न करना, थकाना । प्रे० भय, शंका, डर. खटका, शोक, दुख, नैराश्य । रूप०--हरवाना, हरावना । " वय विलोकि जिय होत हरासू"हरापन--संज्ञा, पु. (हि. हरा+पन- रामा० । संज्ञा, पु० दे० ( सं० हास ) हास, प्रत्य० ) सब्जी, हरितता, हरे होने का घटती, कमी। भाव, हरीतिमा। हराहर* --संज्ञा, पु० द० (सं० हलाहल ) हराम - वि० (अ.) अनुपयुक्त, निषिद्ध, । विष, नहर, माहुर, मगरल । अनुचित, विधि-विरुद्ध दूषित, बुरा । संज्ञा, हरि-वि० (सं०) पीला, बादामी या भूरा, पु. वह बात या कर्म जिसका धर्म-शास्त्र हरित, हरा । संज्ञा, पु०-विष्णु, जिष्णु, इन्द्र, For Private and Personal Use Only Page #1879 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir हरिताल हरिअर, हरियर १८५८ बंदर, घोड़ा सिंह, चन्द्रमा, सूर्य, दादुर, डोम घर वे राजा हरिचन्द"-गिर० । मेढक, साँप, मोर. पानी, अग्नि, वायु, श्री हिन्दी के एक प्रसिद्ध कवि और नाटककार । कृष्ण, शिव, राम, एक वर्ष, एक पहाड़, एक हरिचंदन-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) एक तरह भू खंड, १८ वर्णों का एक वर्णिक छंद का चंदन । " मंद भयौ खौर हरि-चंदन (पि.)। "हरि बोले हरि ही सुनी, हरि कपूर कौ"-रत्ना० ।। आये हरि पास । एकै हरि हरि में गये, हरिजन-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) परमेश्वर दूजे भये निरास"- स्फु० । अध्य० दे० का दास या भक्त । 'सुर, महिसुर, हरि-जन (हि. इरुए) धीरे, आहिस्ता। अरु गाई"-रामा । शूद था नीच जाति हरिअर-हरियर *-वि० दे० (सं० हरित) का व्यक्ति (आधु०) । हरि-जन नानि प्रीति हरित, इरा । “मुनहिं हरिअरहिं सूझ" अति बादी'-- रामा० ।। -रामा०। हरिजान - संज्ञा, पु० दे० यौ० ( सं० हरि + हरिअरी*-संज्ञा, स्त्री० दे० ( हि० इरि- यान ) भगवान की सवारी, गरुड़। " सत्य पाली ) हरिपाली, हरियाली. हरेरी (ग्रा०) सुनहु हरि-जान "-रामा०।। सब्ज़ो, हरियरी, हरिपारी (दे०)। हरिण-संज्ञा, पु० (सं०) हंस, सूर्य, हिरन. हरि-भरे-वि० (दे०) हरा हरा। मृग, छिगार, हरिन, हरिना, हिरन, हरियाली, हरियाली, हरियारी-मज्ञा, हिरना (दे०)। स्त्री०-हरिणी। श्री. दे. ( सं० हरित+पालि ) हरियाई हरिणप्लुता-संज्ञा, स्त्री० (सं०) एक वर्णिक (दे०), हरेपन का फैलाव या विस्तार, घास अर्धसम छंद जिसके विषम पदों में तीन और पेड़-पौधों का विस्तृत समूह, हरि- सगण, दो भगण और एक रगण हो (पिं०)। प्रारी। हरिणाक्षी-वि. स्त्री. यो० (सं.) हिरन हरिकथा-संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) परमेश्वर, के से सुन्दर नेत्रों या आँखों वाली, सुन्दरी या उनके अवतारों का चरित्र-चित्रण ।। स्त्री, मृगनयनी, मृगलोचनी । "संतसंगति हरि-कथा न भावा"-रामा। हिरणी-संज्ञा, स्त्री० (सं०) हिरनी, मृगी हरि-कीर्तन-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) स्त्रियों के ४ भेदों में से एक भेद जिसे ईश्वर या उनके अवतारों का यशोगान, चित्रिणी भी कहते हैं (काम०), १७ हरि-स्तवन । वर्णों का एक वर्णिक छंद, दस वर्णों का हरि-कुमार--संज्ञा, पु० यौ० (सं०) शिव-सुत एक वर्णिक वृत्त (पि०)। इन्द्र-पुत्र, पवन-कुमार, सूर्य-सुत, कृष्ण या हरित-वि० (सं०) भूरे या बादामी रंग का, राम के पुत्र। हरा, कपिश, सब्ज़ । “हरित् मणिन के पत्र हरिगीतिका-संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं.)... फल, पद्मराग के फूल"-रामा० । सूर्य का १२, १६, २६ वी मात्रा लघु, औ अंत में घोड़ा. हरिदश्व, मरकत, पन्ना, सूर्य, सिंह। लधु-गुरु के साथ २८ मात्राओं का एक हरित-वि० (सं०) हरा, पीला, सब्ज, मात्रिक छंद, ७.७ मात्रामों या १४, १४ बादामी या भूरे रंग का । “ परन हरित या १६-१२ मात्राओं पर विराम के साथ | मणिमय सब कीन्हे ".-रामा० । २८ मात्राओं का एक मात्रिक छंद (पिं०)। हरित मणि-संज्ञा, पु. यौ० (सं०) पन्ना, "हरिगीतिका, हरिगीतिका, हरिगोतिका, मरकत मणि । “ वेणु हरितमणिमय सब हरिगीतिका।" हरिचंद-संज्ञा, पु० दे० (सं० हरिश्चन्द्र ) हरिताल-संज्ञा, पु. (सं०) हरताल, एक सत्यवती राजा हरिश्चन्द्र । " नाय बिकाने | खानिज पदार्थ जो पीला होता है। For Private and Personal Use Only Page #1880 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir हरितालिका १८ हरियाली हरितालिका-संज्ञा. स्रो० (सं०) भादों सुदी हरिपुर- संज्ञा, पु० (सं०) वैकुंठ । “ हरिपुर तीज या तृतीया ( स्त्रियों का एक व्रत)। गे नरलोक विहाई "-स्फु० । हरिद्रा- संज्ञा, स्त्री० (सं०) हलदी. जंगज, हरिपुत्र, हरिपूत (दे०) - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) बन, मंगल, सोपाधातु (अनेकार्थ० )। सूर्य-सुत. इन्द्र-सुत, शिव सुत, कृष्ण या "हरिद्रा रजोमानिकाम्यां विमिश्रः''-लो। राम के पुत्र। हरिद्राराग - संज्ञा, पु. यौ० (सं०) वह पूर्व हरि-पैंडी-संज्ञा, स्त्री. (दे०) विष्णु घाट । राग जो पक्का या स्थायी न हो (मा.)। हरिप्रिया- संज्ञा, स्त्री० यो० (सं० ) लघमी, हरिद्वार-संक्षा, पु. (सं.) एक विख्यात तुलनी, लाल चन्दन, ४६ मात्राओं और तीर्थ जहाँ से गंगा से नहर निकाली गयी। अंत में गुरु वर्ण वाला एक मात्रिक छन्द, है, और गंगा पहाड़ों से समतल भूमि पर चंचरी छन्द (पिं०)। "लक्ष्मी, कमला हरिउतरी है । यौ० (सं.) ईश्वर का द्वार । प्रिया " --(अनेका०) के० वि० । हरिधाम-संहा, पु० यौ० (सं०) बैकंठ, हरि- हरिप्रीता-संज्ञा, स्त्री. ( सं०) एक शुभ मुहर्त ( ज्यो० ) हरि-प्रिया। हरिन -संज्ञा, पु० दे० (सं० हरिगा ) मृग, हरि-भक्त-संज्ञा, पु० यौ० ( सं० ) कृष्णाछिगार, हिरन, हरिण स्त्री०-हरिनी।। नुरागी. भगवान का प्रेमी, भगवान की हरिनगर-संज्ञा, पु. यौ० (६०) साँप भजन-उपासना करने वाला, हरिभगत की मणि हरिनाकुस ---संज्ञा, पु० दे० (सं० हिरण्य- रि-भक्ति-संज्ञा, स्त्री० यौ० ( सं० ) हरि. कशिपु ) प्रह्लाद का पिता, हिरण्यकशिपु । प्रीति, भगवान का प्रेम, हरिभगति (दे०)। | "जिमि हरि-भक्तिहिं पाइ नन'-रामा० । हग्निात -संज्ञा. पु० दे० ( सं० हिरण्यात ) हिरण्याक्ष, प्रहलाद का चचा, हरिनाच्छ, हरियर, हरियरा-वि० दे० (हि. हरा सं० हरित ) हरा। हरिनाछ (दे०)। हरियरी-संज्ञा, स्त्री० (दे०) हरोतिमा, हरिनाथ -संज्ञा, पु. यौ० (सं०) हनुमान जी हरापन, हरियाली, हरेरी । " मुनिहि सर्पराज, उच्चैश्रवा, हरि नायक। हरियरी सूझ"-रामा० । हरिनाम-संज्ञा, पु० यौ० ( सं० हरिनामन्) रियल-संज्ञा, पु० (दे०) हरा कबूतर । भगवान का नाम। "है हरिनाम को श्राधार" हरियाई । - संज्ञा, स्त्री० दे० (हि० हरियाली) -तुल। हरियाली. हरे रंग का फैलाव, हरे-हरे पेड़हरिनायक-संज्ञा, पु० यौ० (सं.) मारुति, पौधों का विस्तार या समूह, दूब । “रहति शेष, उच्चैश्रवा। सदाई हरियाई हिये घायनि मैं "-रखा। हरिनो-संज्ञा, स्त्री० (हि. हरिन) मृगी. हरियाना-स० कि० दे० ( हि० हरा ) हरिणी, हिरनी (दे०), हरिन की मादा। फिर हरा होना, पनपना, ताज़ा या नया हरिपद --संज्ञा, पु० यौ० ( सं० ) बैकुण्ठ, होना । संज्ञा, पु. ( ? ) हिसार से रोहतक विष्णु-लोक, भगवान के चरण, एक मात्रिक तक का प्रान्त । छन्द जिसके विषम चरणों में १६ और हरियारी--संज्ञा, स्त्री. (दे०) हरियाली। सम में ११ मात्राएँ होती हैं और अंत में यौ० हि०) हरि-प्रीति । " को न हरियारी गुरु-लघु होना आवश्यक है (वि०)। करै ऐसी हरियारी में"-द्विजः । हरिपति-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) वानरेश, हरियाली--संज्ञा, स्त्री० दे० ( सं० हरित+ सर्पश, अश्वपति। । आलि ) हरे हरे पेड़ पौधों का विस्तार या For Private and Personal Use Only Page #1881 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir हरियाली तीज, हरियारी तीज १८७० हरुफ़ समूह, दूब, हरे रंग का फैलाव । महा-- हरिहाई-वि० स्त्री० दे० ( हि० हरहाई ) हरियाली सूझना-सर्वत्र हर्षही हर्ष दुष्ट गाय, हरहाई । “जिमि कपिलहि घाई समझ पड़ना। हरिहाई"-रामा। हरियाली तीज, हरियारी-तीज-संज्ञा, हरी-संज्ञा, स्त्री. (सं०) १४ वर्णों का स्त्री० (हि०) सावन कृष्ण पक्षीय तृतीया एक वर्णिक छन्द अनन्द (पि०) । वि० स्त्री. या तीज, हरेरी तीजा ( ग्रा० )। (हि०) हरा का स्त्रीलिङ्ग । संज्ञा, पु० दे० हरि-रस, हरि-राग-संज्ञा, पु० यौ० सं०)। (सं० हरि) हरि, भगवान, कृष्ण । "हरी तरी ईश्वर-प्रेम, कृष्णानुराग। पुकारती हरी हरी छटीलिये। हरिलीला-संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) भगवान हरीतकी- संज्ञा, स्त्री. (सं०) हर, हड़, का चरित्र, १४ वर्णों का एक वर्णिक छंद । हरड़, हरें। "हरीतकी मनुष्याणाम् मातेव (पिं० )। हितकारिणी"-भाव० । हरिलोक-संज्ञा, पु० यौ० ( सं० ) स्वर्ग, हरीफ़--संज्ञा, पु. ( सं० ) शत्रु, बैरी, (दे०) बैकंठ, विष्णु-लोक। चंट, चालाक । एंज्ञा, खो०-हरीफ़ी। हरीरा-संज्ञा, पु० दे० (अ० हारेः) मसाला हरिवंश-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) कृष्ण जी और मेवा श्रादि को दूध में प्रोटाने से बना का कुटुम्ब, कृष्ण-कुल, एक पुराण जिसमें श्रीकृष्ण जी और उनके कुटुम्ब का वृत्तांत एक पेय पदार्थ, हरेरा (दे०)। कुछ हरीरा है। यौ०-हरिवंश पुराण। वि०-हरिवंशी। पिलाय कुछ हल्दी"-मीर। *-वि० दे० ( हि० हरिभर) हरेरा, हरा, सब्ज़, हरि वास-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) पीपल वृक्ष, जिसमें शिव का वास हो। प्रसन्न, हर्षित, प्रफुल्ल । स्त्री०-- हरीरी। हरीस-संज्ञा, स्त्री० दे० ( हरिस ) हरिस, हरि-वासर-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) रविवार, हल की सबसे बड़ी लकड़ी! संज्ञा, पु. सोमवार, एकादशी, विष्णु का दिन, | जन्माष्टमी, रामनवमी, वावन द्वादशी, नृसिंह (दे०) हरीश, वानरेश, उच्चैश्रवा, शेष । हाअ, हरया--वि० (सं० लघुक) थोड़ा, चतुर्दशी। हलका, हरुव (दे०) । विलो०-गरू, हरि-वाहन-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) गरुड़ । गरुश्रा, गरुया हरिशयनी-संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) भाषाद हरुमा - वि० दे० (सं० लघुक) हलका । सुदी एकादशी, जब देव सोते हैं। हरुभाई हरुवाई-संज्ञा, स्त्रो० दे० (हि. हरिश्चंद्र-संज्ञा, पु० (सं०) सुर्य-वंश के | | हरुमा ) फुरती. हलकापन । " दृढ शरीर अट्ठाईसवें राजा जो त्रिशंकु के पुत्र थे ये बड़े अति ही हरुमाई"-रामा । सत्यवादी और दानी थे, हरिचन्द, हिन्दी हरुयाना-हरुवाना--अ० कि० दे० (हि. के एक प्रसिद्ध कवि, भारतेन्दु। हरुमा) लघु या हलका होना, फुरती होना। हरिस --संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० हलीषा) ईषा, रुए *-क्रि० वि० दे० ( हि० हरुमा ) हल की सबसे बड़ी वह लकड़ी जिसके एक हौले हौले, धीरे धीरे, रसे रमे ( ग्रा० ). छोर पर फाल वाली लकड़ी और दूसरे पर चुपचाप, बिना पाहट के। वि०-हलके, जुधा रहता है। हरिहर-क्षेत्र-संज्ञा, पु. (सं०) एक तीर्थहरू-वि० ( हि० हरुमा ) हलका । "हरू (बिहार), जहाँ कार्तिक की पूर्णमासी को गरू कछु जाइ न तोला"-कबी। बड़ा भारी मेला होता है, हरिहरक्षेत्र | हरूफ़-संज्ञा, पु० ( अ० हरफ का बहुवचन) | अक्षर समूह, वर्णमाला, अक्षर. वर्ण । For Private and Personal Use Only Page #1882 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org हरे, हरे, हरें १८७१ हल मन्द मन्द, हड़, हरड़ । | " हरे, हरे, हरें - क्रि० वि० दे० ( हि० हरुए ) | धर्म - पंज्ञा, स्त्री० (दे० ) हरीतकी (सं०), धीरे या रसे रसे धीमा, कोमल (शब्द), नम्र, हलका (स्पर्शाधाता ) (दे० ) | संज्ञा, पु० (सं० हरि का संबो० ) हे भगवान् हरे दयालो नः पाहि " - सि० कौ० । " बातें बानाय मनाय के लाल हँसाय कै बाल हरें मुख चुम्यो " - भावि० । “सपने में से बिरे हरि हरि हरें ई हरें हरिनी-हग रो' "-- भावि० । हरेव -संज्ञा, पु० (दे०) मंगोल नाति, मंगोलों का देश, मंगोलिया । यौ० - हर जैवा । - हरेवा – संज्ञा, पु० दे० ( हि० हरा ) हरी | बुलबुल हरे रंग का एक छोटा पती । हरें, हरें - क्रि० वि० दे० (हि० महए) धीरे धीरें, रसे रसे, हरे । हरें, हरें – क्रि० वि० (दे०) धीरे धीरे । हरैया * - संज्ञा, पु० दे० ( हि० हरना) हरने वाला या दूर करने वाला, मिटाने वाला, चोर, हारने वाला । हरौल संज्ञा, पु० दे० ( अ० हरावल ) सेना भाग, सेनाप्रगामी सैनिकों का समूह, हरावल | हर्कत - संज्ञा, स्त्रो० (दे०) हरकत ( फ़ा० ) | हर्गिज़ - कि० वि० (दे० ) हरगिज़, कदापि नहीं, कभी । 1 हर्ज - संज्ञा, पु० (अ०) बाधा, हानि, अड़चन, रुकावट, हरज, हरजा, हर्जा (दे० ) | संज्ञा, पु० - हर्जाना - क्षतिपूर्ति | हर्त्ता - संज्ञा, पु० (सं० हर्ट) हरण या नारा करने वाला चुराने वाला हरता (दे० ) । स्त्री० त्र । इतर - संज्ञा, पु० (सं० ) हर्ता, हरतार (दे० ) | संज्ञा, पु० (दे० ) हरवार, हरताल । हर्फ़-संज्ञा, पु० ( अ० ) अक्षर, वर्ण, हरफ़, हरूफ (दे० ) । मुहा०-हर्फ़ प्राना-ति होना, हानि पहुँचना | धर्म-संज्ञा, पु० दे० ( अ० हरम ) बड़ा भारी महल, प्रासाद, हर्म्य (सं०) हरम | Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir हरइया - संज्ञा, स्त्री० (दे०) स्त्रियों के हाथ का एक गहना । हर्रा - संज्ञा, पु० दे० जाति की हड़ | फिटकरी रँग चोखा श्रावै । " हरे - संज्ञा, पु० दे० ( हि० हड़ ) हड़ | ब० व० हरे । हर्ष - संज्ञा, पु० (सं०) प्रफुल्लता, प्रसन्नता, आनन्द, हर्षादि से रोमांच होना, खुशी, हरप, हरख (दे० ) । "हर्ष-विषाद न कछु उर नावा - रामा० । , धर्षण – संज्ञा, पु० (सं० ) प्रफुलित करना या होना, हर्षादि से रोमांच होना, मदन के ५ वाणों में से एक बाण, एक योग (ज्यो०), हरषन (दे० ) । वि० - हर्षणीय | हर्षना - अ० क्रि० (सं० हर्षण) प्रसन्न होना, हरपना, हरखना । स० रूप- हर्षाना, हर्षावना | हर्षवर्द्धन - संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) वैस क्षत्रिय वंशीय एक बौद्ध धर्मानुयायी भारतसम्राट् जिसकी सभा में वाण कवि रहते थे ( इति० ) । हर्षाना - अ० कि० दे० (सं० हर्ष ) मुदित होना, प्रसन्न या श्रानन्दित होना, प्रफुल्लित या हर्षित होना । स० क्रि० प्रसन्न या हर्षित करना, हर्षाविना । हर्षित - वि० (सं०) प्रसन्न, धानन्दित, हरषित (दे० ) । (सं० हरीतकी) बड़ी लो०- " हर्रा लगै न हरिकुल्त - वि० यौ० ( सं० ) हर्ष से प्रफुल्लित, प्रमुदित । छत्त् - संज्ञा, पु० (सं० ) स्वर - रहित शुद्ध व्यंजन वर्ण । For Private and Personal Use Only हलंत - संज्ञा, पु० (सं० ) वह शब्द जिसके अंत में वर्ण हो, हलू | हल् द्दल -- संज्ञा, पु० (सं० ) लांगल, सीर, भूमि जोतने का यंत्र, हर (दे० ) । मुहा० - हल जोतन ( चलाना ) -- खेती करना, हल Page #1883 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir हलकंप १८७२ हलदियाइंध चलाना । एक अत्र ( बलराम )। संज्ञा, हलकाई-संज्ञा, स्रो० ( हि० हलका ) पु० (प्र०) गणित करना, हिसाब लगाना, हलकापन, हलुकई, हलुकाई। किसी समस्या का उत्तर निकालना, मिश्रण, हलकान -वि० दे० ( ० हैरान ) हैरान, मिलाना । मुहा०-हल होना ( करना) परेशान, तंग, हलाकान ।। मिलना, मिलाना। हलकाना-अ० कि० दे० ( हि० हलकाहलकंप-संज्ञा, पु० यौ० दे० (हि. हलना, ना-प्रत्य०) हलका होना, बोझा कम हिलना-कंप = काँपना ) हलचल, हड़कंप, होना । स० क्रि० (हि. हलकना ) लहराना, सर्वत्र फैली हुई घबराहट । मुहा० हल हिलोरें देना। स० क्रि० (हि. हिलगना ) हिलगना, उलझना लुटकना ।। कंप मचना ( मचाना)। हलकापन--संज्ञा, पु. (हि० हलका --पनहलक-संज्ञा, पु० ( अ०) गले की नली, प्रत्य० ) लघुता नीचता, तुच्छता, श्रोछागला, कंठ। मुहा०-हलक के नीचे पन, हेठी, अप्रतिष्ठा, हलका होने का भाव । उतरना-- पेट में जाना, ( बात का ) मन | में बैठना। हलकारा, हरकारा --संज्ञा. पु. दे. (फा० हरकारः ) पत्र वाहक, हरकारा. हलकई--संज्ञा, स्त्री० दे० ( हि० हलका चिटठीरमाँ, दुत । -ई - प्रत्य०) हलकापन, तुच्छता, ओछा. हलकोरना-स० कि० (हि. हलकोरा) पन, अप्रतिष्ठा, हेठी, हलुकई (दे०)। समेटना, बटोरना, हलोरना, हिलाना, हलकना --अ० कि० दे० ( सं० हल्लन ) लहराना, हलकाना। पानी आदि द्रव पदार्थों का हिलना-डोलना हलकारा --संज्ञा, पु. ( अनु०) लहर, या शब्द करना, लहराना, हिलोरें लेना, तरंग, झोंका। हिलना, दीपक की लौ का झिलमिलाना, हलकौवा- संज्ञा, पु. (ग्रा.) कंपन, लहर। लहकना (ग्रा०) । संज्ञा, पु० (दे०) हलका। हलचल-संज्ञा, स्त्री० यौ० ( हि. हलना+ स्रो०-हलकनि। चलना ) जनता में फैली अधीरता, घबराहट, हलका-वि० दे० (लघुक) तौल में जो भारी शोरगुल, खलबली, धूम, दौड़-धूप. कंपायन हो, जो गहरा या गादा न हो, जो चट मान, विचलन, दंगा, उपद्रव । मुहा०कीला न हो, पतला, उथला, जो उपजाऊ हलचल मचना (मचाना )-हुल्लड़ न हो, हरुघा, थोड़ा, कम, मंद, जो ज़ोर का होना (करना), शोर-गुल हाना (करना)। या ऊँचा न हो (शब्द ), आसान, सुख वि.-हिलता या डगमगाता हुमा, कंपायसाध्य, निश्चित. ताजा, पतला, घटिया, | मान, कंपित । महीन, छंछा, रिक्त, खाली, तुच्छ, नीच, हलद-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० हरिद्रा) हलदी। भोला, टुचा स्त्रो --हलकी । मुहा० -- हलद-हात, हलद हाथ-सज्ञा, स्त्री० दे० हलका करना--तुच्छ ठहराना, अपमानित यौ० (हि० हलद + हाथ ) व्याह में हलदी करना । हलके हलके-धीरे धीरे। सज्ञा, से हाथ पीले करने की रीति. हरदहाथ पु० दे० ( अनु० हलहल ) लहर, तरंग। हलका-संज्ञा, पु० (अ.) मंडल, गोला, हलदिया-संज्ञा, पु० (दे०) एक प्रकार का वृत्त, परिधि, गोलाई. घेरा, मण्डली, दल- विष. एक रोग जिसे पीलिया (पांडु) कहते वृन्द, झंड, हाथियों का झंड, किसी हैं जिसमें शरीर पीला हो जाता है। कार्यार्थ निर्धारित कई गाँवों या नगरी हदियाइँध, हरदियाइँथ-ज्ञा, सी. का समूह । (दे०) हलदी की गंध । For Private and Personal Use Only Page #1884 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir हलदी १८७३ हलाक हलदी-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० हरिदा) एक हलर-संज्ञा, पु. (दे०) तरंग, लहर, पौधा जिसकी गेंठीली जड़ मसाले, रँगाई हिलार । या अौषधि के काम में आती है, इसकी हलराई-संज्ञा, स्त्री० (हि० हलराना) हलराने गाँठ हरिद्रा नामक औषधि, हरदी। मुहा० का भाव किया या मज़दूरी। -हनदी उठना या चढ़ना-व्याह के हलराना स० कि० दे० (हि. हिलोरना) प्रथम वर-कन्या के शरीरों में हलदी-तेल हाथ में लेकर किसी वस्तु को इधर-उधर लगाने की रीति । हलदी लगा--व्याह | हिलाना, मुलाना। होना। हनदी (हरी) लगै न टिकरी हलरावना-स० कि० दे० (हि. हिलोरना ) रंग चोखा आवे - कुछ भी खर्च न पड़े, बहलावना, विनोद करना, हिलाना, काम बन जाये, संत मेत, मुफ्त । झुलाना । "कबहुँक लै पलना हलरावै”। हनद-संज्ञा, पु० (दे०) एक बहुत ऊँचा पेड़। ह नवा, हलुवा-संज्ञा, पु० (अ०) मोहनहलधर-संज्ञा, पु० (सं०) बलदेव जी, भोग. हलुवा, एक प्रकार का मीठा भोजन । बलराम जी। " हरि हलधर की जोटी "हलवा अस हलवनियाँ गलवा लाल''सूर० । " .'वे हलधर के वीर -वि० । वर० । मुहा-हलवे-माँडे से काम केवल स्वार्थ साधन से प्रयोजन, अपने ही हलना*-अ० कि० दे० (सं० हल्लन) लाभ या फायदे से मतलब । डोलना, हिलना, पैठना, घुमना । हलवाई, हेलवाई--संज्ञा, पु. दे० (अ. हलफ़-संज्ञा, पु. (अ.) शपथ, कसम, हलवा + ई-प्रत्य०) मिठाई बनाने और बेचने सौगंद, सौगंध । मुहा०-हलफ़ उठाना- वाला । स्त्री०-हलवाइन । शपथ या क़सम खाना । हलक से (पर)- हलवाइ, हलवाहा (दे०)-संज्ञा, पु. ( सं० शपथ पूर्वक। हलवाहा ) दूसरे के यहाँ हल जोतने वाला। हलफ़-नामा-ज्ञा, पु. यौ० (५०---फा०) सज्ञा, पु० (२०) हलवाहेन, हलवाहक । वह कागज़ जिम् पर शपथ के साथ ईश्वर हलवाही-संज्ञा, स्त्री. ( सं० हलवाह ) हल को साक्षी कर कोई बात लिखी गई हो। चलाने की क्रिया या भाव, हलवाह का हलझा--संज्ञा, ४० ( अनु० दलहत ) तरंग, पद, काम या मजदूरी, हरवाही (दे०)। लहर, हिलोर । हलहलाना-स० क्रि० दे० (अनु० हल हल) हलकिया-- वि० ( अ०) हलफ या शपथ | बड़े जार से हिलाना-डुलाना, झकझोरना। के साथ, कसमिया । अ. वि. काँपना, थरथराना, हिलना। हलबल*- संज्ञा, पु० दे० (हि० हख+बल) हलहलाहट --संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. हलहरवर, हलचल, खलबली, धूम । यो० हलाना ) ज्वर या जाड़े से थर थर काँपना, (हि० हल के बज से। थरथराहट। हलब, हलब्यो--वि० दे० (हलब देश) हलब हलहलिया-संज्ञा, पु० दे० (सं० हलाहल ) देश का शीशा, बदिया, अच्छा शीशा। । विष, जहर, जूड़ी, ज्वर । हलहला-सज्ञा, स्त्री० दे० (हि० हलहलाना) हलमल-हलभली-संज्ञा, स्त्री. (हि. हल जाड़े का ज्वर, जूड़ी, व्याधि, रोग। बल ) हलचल, खलभली, धूम, उतावली, | हलाई --संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० हल + भाईउत्पात, शोर गुल. दंगा। प्रत्य.) खेत को जोताई या बुनाई, हिलने हलमुखी--सज्ञा, पु० यौ० (सं०) र, न, स ( हलने ) का भाव । ( गण ) युक्त एक वर्ण-वृत्त (पिं०)। हलाक--वि० (अ० हलाकृत) मारा हुआ। भा० श० को०-२३५ For Private and Personal Use Only Page #1885 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir हवन हलाकान १८७४ - हलाकान -वि. (अ. हलाक ) हैरान, हलियाना-अ० क्रि० (दे०) जी मचलाना, परेशान, तंग । संज्ञा, स्त्री. हलाकानी। उबकाई या मिचली धाना। हलाकानी-संज्ञा, स्त्री. (अ० हलाकान ) हली-संज्ञा, पु० (सं०) बलराम जी । हैरानी, परेशानी तंगी। हलीम-वि० (अ.) शांत, सीधा । हलाको-वि० (अ० हलाक) मार डालने हलुआ-हलुवा --संज्ञा, पु० दे० (अ० हलवा) वाला, घातक, मारक, बधिक, मारू। मोहनभाग, एक मोठा भोजन, हलुवा (दे०) हलाकू-वि० ( अ० हलाक ) हलाक करने हलुक हलुका*-वि० दे० (हि० हलका ) या मार डालने वाला, घातक । पज्ञा, पु० हलका, हरुपा, तुच्छ, जो भारो या गरू चंगेज़खाँ का पोता, एक हत्याकारी तुर्क न हो। सरदार (इति०)। हलुकाना-५० कि० (दे०) हलका होना। हलाभला-सज्ञा, पु० यो० दे० ( बानु० हला हलूक -संज्ञा, स्त्री० ( अनु० ).कै, वमन । +भला हि०) निर्णय. परिणाम, निबटारा । हलेरा, हलोर, हलोरा* -- सज्ञा, पु. दे० (वि० साधारण, काम चलाऊ । स्त्री० दे० ( हि० हिलोरा ) लहर, तरङ्ग, मौज, -हलीभली। __ हिलोर, हिलोरा। हलायुध-संज्ञा, पु. यो० (सं०) बलदेव जी, हलोरा-स० क्रि० दे० (हि० हिलोर) हाथ बलराम जी, एक प्रसिद्ध संस्कृत-कोष। डाल कर पानी आदि द्रव पदार्थों को हलाल-वि० (५०) शरघ या मुसलमानी मथना, पानी में हाथ डाल कर हिलानाधर्म पुस्तक के अनुकूल, दुरुस्त, जायज़ । दुलाना, अनाज फटकना, किसी पदार्थ का संज्ञा, पु०--वह पशु जिसका मात्र खाने अधिकता से इकट्ठा करना। की मुसलमानी धर्म में प्राज्ञा हो । मुहा० हलोरा* -- सज्ञा, पु० दे० (हि. हिलोरा ) -हलाली चढना - पशु वध की प्रवृत्ति । लहर, तरङ्ग, मोज, हिलोर. हिलोरा। होना । हलाल करना--जबह करना, हलारे-- सज्ञा, पु० (दे०) समेटे, बटोरे, किपी पशु को शरन के अनुसार धीरे धीरे लहर या तरङ्ग । " देखौ चलि नमुना-प्रभाव गला काट कर मारन। ( खाने के लिये )। कै हिलारें आप "-रत्ना०।। हलाल का-ईमानदारी से प्राप्त । हलाल | हल्दी- सज्ञा, स्त्री० दे० (हि. हलदी) हलदी। का खाना-मेहनत कर ईमानदारी से हल्लक- सज्ञा, पु० (दे०) लाल कमल । प्राप्त कर खाना। हल्ला-संज्ञा, पु. ( अनु० ) कोलाहल, हलालखीर-सज्ञा, पु० यौ० (१० हलाल चिल्लाहट, शोरगुल, हांक, ललकार ( युद्ध +खोर फा०) परिश्रम करके जीविका करने में ) धावा, आक्रमण, हमला। यो०वाला, भंगी, मेहतर । संज्ञा. स्त्री० हल्ला-गुल्ला-शोरगुल । "हल्ला होइगा हलालखोरी। सब लसकर में पाये खेत बिसेना राब"हलाहल-सज्ञा, पु० (सं०) वह विकट श्रा० खं० । और भयंकर विष जो समुद्र मन्थन से हल्लीश-संज्ञा, पु. (सं०) नृत्य-प्रधान एक निकला था, तेज़ ज़हर, तीन विष या एकांकी उपरूपक (नाट्य०)। गरल, एक विषैला पौधा । 'घटिहै हलाहल हवन-सज्ञा, पु० (२०) होम, किसी देवता कै बूडिहै जलाहल मैं "- रत्ना। के लिये मन्त्रादि पढ़ कर अग्नि में तिल, हलिया-सज्ञा, पु. (दे०) बैलों का समूह नौ, घी आदि डालना, आहुति, भग्नि, या अड। हवन का चमचा, श्रुवा। For Private and Personal Use Only Page #1886 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir हवनीय १८७५ हवादार हवनीय-वि० (सं०) हवन के योग्य 1 संज्ञा, धाक होना. विश्वास या प्रादर न रहना, पु. हवन के समय अग्नि में डालने की वस्तु।। नष्ट करना, बदनामी करना, शंकित करना, हमलदार-संज्ञा, पु. ( श्र० रावल - फा० संक्रामक रोग फैलना, रीति या चाल दार ) सेना का सबसे छोटा अफ़सर या बिगड़ना, बुरे विचार फैलना । (किसी की) सरदार, राज-कर वसूल करने तथा फसल | हवा बिगाड़ना-सेखी या रोब बिगाड़ना। की निगरानी करने वाला अफापर ( शाही | हवा सा-बहुत ही बारीक या हलका । समय में ) । संज्ञा, स्त्री० --हवनदारी। हवा से लड़ना-अकारण लड़ना। हवा हवस-संज्ञा, स्त्री० (०) चाह, इच्छा, से बातें करना - बहुत वेग से चलना या होम, लाल सा, तृष्णा, कामना । "न रह | दौड़ना, गप उड़ाना, व्यर्थ आप ही श्राप नाये हवस दिल में हमारे"-हरि०। बहुत बोलना, अभिमान होना । (किसी हवा–संज्ञा, स्रो० (१०) पवन, वायु, की ) हवा लगना-किसी की सगति भू-मण्डल के चारों ओर फैला हुआ प्रवाह . का प्रभाव होना । हवा हो जाना-प्रति रूप प्राणियों के जीवन के लिये श्रावश्यक वेग' या शीघ्रता से भाग जाना, रह न एक सूचम पदार्थ । मुहा० - हवा उड़ना--- जाना, एक बारगी छिप या लुप्त हो जाना । खबर फैलना । हवा और होना- हवा भूत प्रेत, ख्याति, अच्छा नाम, प्रसिद्धि, बदलना। हवा करना--पंखा हाँकना, उत्तम व्यवहार या बड़प्पन का विश्वास, उड़ा देना, रद्द करना । हवा के घोड़े साख । मुहा०-हवा बंधना ( बाँधना) पर सवार - बहुत ही उतावली या जल्दी अच्छा नाम हो जाना, साख या रोब होना। में। हवा खाना--टहलना, शुद्ध पवन हवा ढीली होना (करना)-चकित या सेवन के हेतु घर से बाहर जाना, घूमना, भयभीत होना (करना) । यौ०-हवाखोरी सैर करना, घूमना फिरना, भ्रमण करना, --सैर-सपाटा, हवा खाना, किसी बात की अकृत कार्य होना । (जायो) हवा खाना धुन या जनक ।। (सानो)--निराश लौट जाना। हवा हवाई-वि० ( अ० हवा ) वायु-सम्बन्धी, पीकर ( खाकर ) रहना- भोजन बिना वासु का. हवा में चलने वाला, झूठ या रहना (व्यंग्य में भी)। हवा निकल जाना। कम्पित, निर्मल, निराधार । संज्ञा, स्त्री --आश्चर्य से स्तम्भित या चकित हो | एक प्रकार की प्रातिशबाज़ी, वान, जाना, डर जाना, शंकित हो जाना। आनमानी। 'हा' -ह पर हवाइयाँ हवा बताना-टाल देना, वंचित रखना। उड़ना-मुँह का रङ्ग फीका पड़ जाना, (किसी की) हवा बंधना · रङ्ग जमना, विवणता होना। रोब या धाक होना, विश्वाय या सम्मान हवा-चकी-मज्ञा, स्त्री० दे० (अ. हवा+ होना। हवा बाँधना-शेखी हाँकना, गप हि चको) वायु बज से चलने वाली पाटा हाँकना या उड़ाना धाक या रोब जमाना पीसने की चक्की। रङ्ग जमाना, लंबी-चौड़ी बात करना । हवाई जहाज --संज्ञा, पु. यौ० (१०) हवा पलटना (फिरना या बदलना)- वायुयान, हवा में चलने वाला जहाज । दूसरी ओर को हवा चलने लगना, दूसरी हवादार-वि० [फा०) वह मकान जिसमें श्रवस्था या स्थिति (दशा) होना, परिस्थिति वायु के आने-जाने का मार्ग. द्वार या या हालत बदलना। हवा बिगड़ना - खिड़कियां हों। संज्ञा, पु०-बादशाहों की रोब या धाक कम होना, विश्वास या सवारी का एक हलका तख़्त । For Private and Personal Use Only Page #1887 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir aani हवाल १८७६ हस्तत्राण हवाल-संज्ञा, पु० दे० ( ० अहवाल ) | शहमत-संज्ञा, स्त्री० (अ०) वैभव, बड़ाई, गति, वृत्तांत, हाल, समाचार, हालत, परि- ऐश्वर्य, गौरव । णाम. दशा, अवस्था । यौ० - हाल-हवाल। हसद-संज्ञा, पु० (अ०) डाह. ईयां । हवालदार-संज्ञा, पु० दे० ( उर्दू हवलदार) हसन-संज्ञा, पु० (सं०) हँसना, हास, एक सैनिक अफसर, हवलदार । परिहास विनोद, दिल्लगी। संज्ञा, पु० (अ०) हवाला-संज्ञा, पु. (अ०) प्रमाणोल्लेख, इमाम हुसेन के भाई ( मुगला० )। दृष्टांत, उदाहरण, मिसाल. सुपुर्दगी, ज़िम्मे-हमब-अव्य (अ०) हस्व (दे०) मुताविक, दारी, उत्तर-दायित्व । मुहा०--किसी के अनुपार. अनुकूल । हवाले करना--किसी के सुपुर्द करना, हसरत संज्ञा, स्त्री० [अ०) शोक, अफसोस, सौंपना। दुःख, रंज, दिली इच्छा, लालसा, हादिक हवालात-संज्ञा, स्त्री० (अ०) कैद, पहरे में कामना । " मेरी हसरत देखती है किस रखने की क्रिया या भाव, नजरबंदी, अभि तरह सवार में युक्त की साधारणा कैद, जो मुकदमें के निर्णय हसित-वि० सं०) जिसे या जिस पर लोग से पूर्व उसे रोकने को दी जाती है, हाजत, हपते हों, जो हँसा हो या हया गया हो। कैदखाना, अभियुक्त के रखने का स्थान. | संज्ञा, पु०-हँसना, हास्य, हँसी-ठट्टा, बंदीगृह । हवास-संज्ञा, पु० (अ०) इन्द्रियाँ, सौदन, मदन-धनुष । होश, संज्ञा, चेतना । यौ०---होश-हवास। हसीन-- वि० (अ) खूबसूरत, सुन्दर। संज्ञा, पु. -सुन्दर व्यक्ति । मुहा०-हवास गुम होना-भय से स्तंभित होना । होश उड़ जाना या टिकाने हस्स-सला, पु०० हाथ, हाथी की सूड, हाथ के आकार वाला पाँच तारों का एक न रह जाना । हवास फाख्ता होनाहोश उड़ जाना । समूह या एक नक्षत्र (ज्यो. ) हाथ या हवि-संज्ञा, पु. ( सं० हविस् ) हवन की चौबीस अंगुल की नाप. हाथ का लिखा वस्तु, पाहुति का पदार्थ, पाहुति का लेख, लिखावट । शेषांश. अग्नि का प्रसाद ।" यह हवि बाँटि हस्तकौशल-ज्ञा, पु० यौ० (सं०) किली देहु तुम जाई 'रामा०। कार्य में हाथ चलाने की निपुणता, करहविस-संज्ञा, स्त्री० (सं०) हवस. इच्छा। । कौशल : हविष्य-वि० (सं०) हवन करने योग्य । हस्तक्रिया-- संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) हाथ का संज्ञा, पु. हवि, पाहुति, वलि, होम करने । काम, दस्तकारी, हाथ से इन्द्रिय-संचालन, या किसी देवता के लिये अग्नि में डालने सरका कूटना ( मारना ) हस्त-मैथुन।। की वस्तु। हस्तक्षेप-संज्ञा, पु. (सं.) किसी होते हुए हविष्यान-संज्ञा, पु. यौ० (सं०) या के काम में हाथ लगाना, या कुछ कर देना, समय का भोजन या श्राहार।। दखल देना। हवेली-हवेली (दे०)-संज्ञा, स्त्री. (१०) हस्तगत--वि० (सं०) करगत, हाथ में पाया प्रासाद, महल, बड़ा पक्का घर, स्त्री, पनी। हुआ, प्राप्त, लब्ध । हव्य-संज्ञा, पृ० (सं०) होम की सामग्री, हस्तच्छाया - संज्ञा, स्त्री० यो० (सं०) रता, हवन का पदार्थ, हवि, आहुति । शरण । हविर्भुज-संज्ञा, पु. ( सं० हविभु ) अग्नि, हस्ताण-- संज्ञा, पु० यौ० (सं०) अस्त्राघात | से रक्षा के लिये हाथ में पहनने का दस्ताना। भाग। For Private and Personal Use Only Page #1888 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Teriya १८७७ हस्तमैथुन संज्ञा, पु० यौ० (सं०) हाथ से इंद्रिय संचालन, सरका करना (प्रान्ती० ) । हस्तरेखा संज्ञा स्त्री० यौ० (सं०) हथेली की लकीरें जिनसे शुभाशुभ का विचार | किया जाता है, ( सामु० ) । हस्तलाघव - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) हाथ की तेजी या फुरती हाथ की सफाई । राघव-समान हस्तलाघव विलोकि ६६ अव० -- हस्तलिखित वि० यौ० (सं०) हाथ का लिखा 'हुश्रा ( पुस्तकादि ) । हस्तलिपि संज्ञा, स्रो० यौ० (सं०) हाथ की लिखावट या लेख | हनलेख- पंज्ञा, पु० लिखा हुआ । यौ० (सं०) हाथ का हस्ताक्षर संज्ञा, पु० यौ० (सं०) दस्तखत, किसी लेखादि के नीचे अपने हाथ से लिखा गया अपना नाम । हस्तामलक संज्ञा, पु० यौ० (सं०) वह बात या वस्तु जो सब थोर से पूर्ण रूप से स्पष्ट और ज्ञात होकर दिखलाई देती हो, जैसे हाथ पर का आँवला । --- हस्ति - संज्ञा, पु० दे० (सं० हस्तिन् ) हस्ती, हाथी । हस्तिदंत - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) हाथी -दाँत । हस्तिदंतक - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) मूली । हस्तिनापुर - संज्ञा, पु० (सं०) वर्तमान दिल्ली से कुछ दूर पर कौरवों की राजधानी का एक प्राचीन नगर । -- हस्तिनी संज्ञा स्त्री० सं०) हथिनी मादा हाथी, खियों के ४ भेदों में से एक निकृष्ट भेद ( काम ० ) । हस्तिपक - संज्ञा, पु० (सं०) महावत, हाथीवान, हथवाल, हथवान । हाँक BEST CHOOS हस्ती - संज्ञा, पु० (सं० हस्तिन् ) हाथी | स्त्री० - हस्तिनी | संज्ञा, स्त्री० ( फा० ) अस्तित्व होने का भाव । हस्ते - अव्य० (सं०) मारफ़त हाथ से हत्थे (है०) । 'ताके हस्ते रावनहि, मनहु चुनौती दीन - रामा० । 19 हस - ग्रव्य० (दे०) हसत्र (फा० ) अनुसार । हस्ती - संज्ञा स्त्री० (३०) स्त्रियों के गले का एक गहना, हसली, हँसुनी, हसुली (दे०)। | -- हस्तिकंद – पंज्ञा, पु० यौ० (सं०) एक पौधा जिसका कंद लोग खाते हैं, हाथीकंद (दे०) । हहा -संज्ञा, स्त्री० (अनु० ) उट्ठा, हँसने का शब्द, गिड़गिड़ाने का दीनता, शोकादिसूचक शब्द, हा ! हा !, हाय हाय । मुहा० - हहा ( हाहा ) खाना - बहुत गिड़गिड़ाना, हाहाकार करना | हाँ ग्रव्य दे० (सं० श्रम् ) स्वीकृति, स्वीकार या सम्मति-सूचक शब्द किसी बात के ठीक या उपयुक्त होने का सूचक शब्द ठीक । मुहा० - हाँ करना - राजी होना, स्वीकार करना, सम्मत होना। हाँ जी हाँ जी करना - खुशामद करना, यहाँ । “साँकरी गली मैं प्यारी हाँ करी न नाकरी " 1 हाँक - संज्ञा, स्त्री० दे० ( सं० हुँकार ) किसी के बुलाने या डाँट बताने को जोर से बोला Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir EET - संज्ञा, स्त्री० ( हि० हहरना ) कंपकंपी, भर, डर, थर्राहट | संज्ञा, पु० (दे० ) वायु या जल के वेग का शब्द | हहरना - अ० क्रि० (अनु०) काँपना, थर्राना, डर से काँप उठना, थरथराना, दंग रह जाना, दहलना, चकित या स्तंभित होना, सिहाना या डाह करना, अधिकता देख चकपकाना ! हहाना - ग्र० क्रि० ( अनु० ) काँपना, थरथराना भयभीत होना या डरना, हरहराना (दे० ) | स० क्रि० - दहलाना, डराना, भयभीत करना | " रँगराती हरी हहराती लता कि जाती समीर के फोंकनि सों - स्फु० । --- For Private and Personal Use Only Page #1889 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org हाँकना गया शब्द, ललकारने का शब्द । मुहा०हाँक देना या हाँक लगाना - जोर से पुकारना | हाँक मारना - हाँक लगाना । हाँक-पुकार कर कहना - सब के सम्मुख बेधड़क और निस्प्रंकोच कहना. ललकार, गर्जन, हुँकार, प्रोत्साहक और उत्तेजक शब्द, बढ़ावा देने का शब्द सहायतार्थ की हुई पुकार, दुहाई. गोहार 1 " सुनि हाँक हनुमान की - स्फुट । हाँकना - स० क्रि० दे० ( हि० हाँक ) चिल्ला कर पुकारना या बुलाना, श्राक्रमण या संग्राम में गर्व से चिल्लाना, हुँकारना, सीटना, बढ़ बढ़ कर बातें करना, बोल कर या मार कर जानवरों को आगे बढ़ाना या चलाना, गाड़ी रथादि के पशुओं को चला कर गाड़ी को चलाना, बोल या मार कर पशुओं को भगाना, पंखे से हवा करना । ジ ܕܕ १८७८ स० रूप- काना । प्रे० रूप- —हँकवाना | 16 53 "हाँक्या बाघ उठ्यो विरभायो" - छत्र० । तुम तौ काल हाँकि जनु लावा रामा० । मुहा०- गप हाँकना- झूठी बातें कहना । दून की हाँकना - बंद बद बात करना । हाँका संज्ञा, पु० दे० ( हि० हाँक ) गर्जन, ललकार, पुकार, ढेर, हॅकवा (दे०) सिंहादि को उत्तेजित कर हाँकने वाला । हाँगी - संज्ञा, स्त्री० दे० ( हि० हाँ ) स्वीकृति, स्वीकार, मंजूरी हामी (दे०) । मुहा०हाँगी भरना स्वीकार करना, मंजूर करना, हामी भरना हाँड़ना+1- स० क्रि० दे० ( सं० भंडन ) व्यर्थ इधर-उधर घूमना-फिरना, थावारा घूमनाफिरना | वि० स्त्री० - हाँड़नी - थावारा घूमने फिरने वाली । हाँडी - संज्ञा, खो० दे० (सं० भाँड ) हँडिया, हंडी, मिट्टी का मझोला बटलोई सा बरतन । मुहा०-छाँड़ी पकना हाँडी की चीन पकना, षड्यंत्र या चक्र रचा जाना, Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir हा भीतर ही भीतर कोई युक्ति खड़ी होना । ( काठ की ) हाँड़ी दुबारा न चढ़नाछल-कपट का फिर न चलना । हाँडी चढ़ना - कोई वस्तु पकाने को हाँडी श्राग पर चढ़ाया जाना । शोभार्थ कमरे में टाँगने का काँच का हाँडी के आकार का पात्र । " जैसे हाँडी काठ की चढ़े न दूजी बार"वं० । हाँता - वि० दे० (सं० हात ) अलग या दूर किया हुआ, छोड़ा या हटाया हुआ । स्रो० हाँती | हाँपना हाँकना - भ० क्रि० ( धनु० हॅफ २ ) श्रम, रोगादि से सवेग, जल्दी जल्दी साँस लेना. तीव्र गति से साँस लेना, हँकना । संज्ञा स्त्री० (०) हँफी | हाँ - संज्ञा, पु० दे० ( हि० हाँकना ) तीव्र और चित्र श्वास, हाँकने की क्रिया या भाव। हाँसना- :- अ० क्रि० दे० ( हि० हँसना ) हँसना | हाँसल - संज्ञा, पु० दे० ( हि० हाँस ) देह में मेंहदी के से रंग का किन्तु काले पैरों वाला घोड़ा, हिनाई, कुम्मैत । हाँसी - संज्ञा, स्त्री० दे० ( सं हास ) हँसी, परिहास, उपहास, दिल्लगी, मज़ाक, हँसीठठ्ठा, हंसने की क्रिया या भाव, निन्दा | हाँ हाँ - श्रव्य० दे० यौ० ( हि० ग्रहाँ + नहीं ) रोकने या मना करने का शब्द, निषेध या निवारण-सूचक शब्द, स्वीकार सूचक शब्द. युग्म ! हाँ-हुज़ूर - वि० यौ० ( हि० हाँ + हुज़ूर [फा० ) चापलूस, खुशामदी । संज्ञा, स्त्री०हाँ हुजूरी । हा - अव्य० (सं०) दुःख या शोक-सूचक शब्द, धाश्चर्याह्लाद या भय-सूचक- शब्द | "हा पिता कासि हे सुत्र,” भट्टी० । संज्ञा, पु० - मार डालने वाला, हनन या नाश करने वाला । भगत तुम गदहा काहे न भयो ” -कबी० । 66 For Private and Personal Use Only Page #1890 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १८७६ हाता हाइ*-अध्य० दे० (सं० हा) हाय, शोक। हाज़िरी-संज्ञा, स्त्री० (प.) उपस्थिति, हाई -संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० घात) अवस्था, विद्यमानता। दशा, हालत, ढंग, तार, घात, ढव। हाजो-सज्ञा, पु. (अ.) वह पुरुष जो हज हाऊ-संज्ञा, पु० दे० (अनु०) भकाऊ, हौवा कर पाया हो (मुसल०)। जून । “दूरि खिलन जनि जाव लाल वन हाट - संज्ञा, स्त्री० दे० ( सं० हट्ट ) बाजार, हाऊ बोले रे"-सूर०।। दुकान, पेठ । " चौहट हाट बजार बीथी हाकल-संज्ञा, पु० (सं०) १५ मात्राओं और चान पुर बहुविधि बना ''-रामा० । यौ० दीन्ति वाला एक मात्रिक छंद (पिं०)। -हाट-बजार । मुहा०-हाट करनाहाकलिका- संज्ञा, स्त्रो० (स०) १५ वौँ । दुकान लगा कर बैठना, सौदा लेने बाज़ार का एक वर्णिक छद (पि०)। जाना । हाट लगना (लगाना)--बाजार हाकली-सज्ञा, स्त्री० (सं०) १० वर्णो का | या दुकान में विक्री के पदार्थ रखे जाना एक वर्णिक छद (पि.)। ( रखना) । हाट चढ़ना-बाज़ार में हाकिम-सज्ञा, पु० (अ० ) शासक, बड़ा बिकने अाना । हाट चढ़ना ( उतारना, अफ़सर, हुकूमत करने वाला। घटना)-चीज़ों का भाव बढ़ ( घट) हाकिमी-सहा, स्त्री. (अ. हाकिम ) हुकू- जाना । बाजार का दिन। मत, शासन, प्रभुत्व, हाकिम का काम । हाटक-संज्ञा,पु० (सं०) कनक, स्वर्ण, कंचन, वि०-हाकिम का । हाकिम-संबंधी। सोना. हेम, हिरण्य । हाजत-सज्ञा, स्त्री. ( अ०) आवश्यकता, हाटकपुर-संज्ञा, पु० यौ० (सं.) लंकापुरी, जरूरत. चाह. हिरासत, पहरे में रखना ।। स्त्री० हाटकपुरी। " हाजत इस फिरके की याँ मुतलक नहीं' हाटकलाचन-संज्ञा, पु० यो० (सं०) हिर- सौदा० । मुहा०—हाजत दूर (रफ़ा) ण्यात । "कनक कशिपु अरु हाटक करना-शौचादि से निवृत्त होना। लोचन ---रामा० । हाजत में देना या रखना-पहरे के | हाटू--संज्ञा, पु० ( दे० सं० हट्ट ) बाज़ार भीतर देना, कैद या हवालात में रखना। करने वाला बाज़ार में सौदा बेवने या हाज़मा-सज्ञा, पु. (अ.) पाचन की शक्ति लेने वाला। या क्रिया, भोजन पचने की क्रिया। हाडा-संज्ञा, पु० दे० (सं० हहु ) अस्थि, हाजिम-वि० अ०) पाचक, हजम करने या हड्डी, कुलीनता, कुल या जाति की मर्यादा, पचाने वाला। " पानी में निसिदिन बसै, जाके हाइ न हाज़िर-वि० (अ०) उपस्थित, प्रस्तुत, मौजूद, मास "-- पहे। विद्यमान, सम्मुख। हाडा--संज्ञा, पु० दे० (हि० हड्डा) एक प्रकार हाजिर-जवाब-- वि० यौ० (म.) किसी की बड़ या भिड़, बरैया, क्षत्रियों की एक बात का तत्काल अच्छा उत्तर देने में प्रवीण | गति “ हाड़ा कुल केशरी भूपवर"-भे० या कुशल, चाक-चतुर, प्रत्युत्पन्नमति । श । सज्ञा, स्त्रो०-हाजिर-जवाबी। हाता- संज्ञा, पु० दे० ( म० अहाता) बाड़ा, हाजिरात-सज्ञा, स्त्री. (अ.) वंदना, या | घेरा हुा स्थान, देश विभाग, सूबा, मंत्रादि के द्वारा किसी के ऊपर कोई धारमा हलका, प्रांत, हद, सीमा । “छोरोदक बुलाना जिससे वह विविध प्रकार की बिना घूघट होतोकरि सम्मुख दिया उघारि"देखी बातें बता सके। सूर० वि० (सं० हात ) अलग, पृथक्, दूर For Private and Personal Use Only Page #1891 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १९८० हातिम हाथ किया हुश्रा, बरबाद, विनष्ट । स्त्री-हाती। चलाना-मारना, थप्पड़ तानना । हाथ संज्ञा, पु० दे० (सं० हता) मारने वाला। चूमना-कारीगरी पर प्रसन्न होकर किसी हातिम--- संज्ञा, पु. (अ.) दक्ष, कुशल, पटु । के हाथों को सस्नेह देखना । हाथ छोड़ना निपुण, होशियार, चतुर, किसी काम में -~-प्रहार या प्राधात करना, मारना । हाथ पक्का, उस्ताद, एक परोपकारी. उदार दानी, छुडाना (बाँह छुड़ाना)-पीछा छुटाना। अरब-सरदार, (प्राचीन) । मुहा०-हातिम | हाथ छोटा होना-- कंजूम होना। हाथ की कबर पर लात मारना-प्रत्यंत बड़े (विशाल ) होना-श्रति उदार या परोपकार या उदारता करना (व्यंग्य) । प्रति दानी होना। " दयालु दोन-बंधु के बड़े दानी व्यक्ति। विशाल हाथ हैं'-मै० श. । हाथ जोड़ना हाथ-सज्ञा, पु० दे० (सं० हस्त ) हस्त, -नमस्कार या प्रणाम करना, विनती या कर, बाहु, भुजा, बाहु ले पंजे तक का अंग, अनुनय-विनय करना, मनाना। दूर से हाथ विशेषतः कलाई और हथेली । मुहा० --- जोड़ना.... सबंध या साथ न रखना, अलग हाथ में पाना या पड़ना --अधिकार या या किनारे रहना, त्यागना या छोड़ देना। वश में श्राना, मिलाना, हाथ लगना। हामा जोडाना--विनय करान', श्राधीन हाथ उठना- स्वीकारता-सूचनार्थ हाथ कर लेना । हाथ डालना - ( किसी काम ऊपर करना । (किसी को) हाथ उकाना में ) हाथ लगाना, योग देना करना प्रारंभ - प्रणाम या बंदगी सलाम करना। (किमी करना । हाथ हीना करना-सुविधा के पर ) हाथ उठाना-किसी को मारने के लिये आवश्यकता से कुछ अधिक व्यय लिये थप्पड़ या धूसा तानना, मारना । करना, काम में सुस्ती करना । हाथ तंग हाथ ऊंचा होना-दान देना. दान देने हाना-तंग-हाल होना, सर्च के लिये में प्रवृत्त होना सम्पन्न होना । (बाँये) हाथ पर्याप्त धन न रहना । (किसी बात या का खेल होना-- अति सरल या साधारण वस्तु से ) हाथ धोना-खो देना, प्राप्ति होना । हाथ कटा लेना (बैठना )- की अाशा या सम्भावना न रखना, नष्ट प्रतिज्ञा-बद्ध कर लेना ( हो बैठना ), पचन कर देना, छोड़ना, त्यागना। हाथ धोकर या प्रतिज्ञा-बद्ध होना । हाथ कट जाना- पीछे पड़ना-जी जान से लग जाना, कुछ करने योग्य न रहना, प्रण श्रादे से हानि पहुँचाने को उतारू होकर विविध बँध जाना। हाथ का मैन-अति साधारण उपाय करना । हाथ धो रखना ( हाथ वस्तु, तुच्छ पदार्थ । हाथ की सफाई-हाथ धोकर पाना, तैयार हो जाना (धाना)। का कौशल, इस्त-कौशल, कर-कौतुक । हाथ दबना-योग्यता या शक्ति सामर्थ्य हाथ खाली होना--पास में धन या काम न रहना, तंग-हाल होना, व्ययार्थ पर्याप्त न रह जाना । हाथ खुजलाना---मारा की धन न रह जाना। (किमो के ) हाथ इच्छा होना, प्राप्ति के लक्षण दिखाई देना। दना--मारना (खड्ग या हाथ से)। हाथ हाथ खुल जाना-बंधन से मुक्त हो। पकड़ना - मना करना, रोकना, आश्रय जाना, व्ययाधिक्य में प्रवृत्त होना, मारने या शरण देना या स्वरहा में लेना, शरण में की बान सी पड़ना । हाथ खीचना | लेना बाना या जाना) पाह या पाणिग्रहण खींच लेना (हटाना)-किसी काम से करना । किसी के हाथ पड़नाअलग हो जाना, या किसी कार्य में योग प्राप्त होना, मिल जाना, पाले पड़ना, न देना, देना बंद करना । हाथ (चना) । हाथ पड़ना, किसी पर हाथ का श्राघात For Private and Personal Use Only Page #1892 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir हाथ १८८१ या मार पड़ना । हाथ पत्थर तले । हाथ फैलना (पसारना, बढ़ाना)-माँगने दबना-बड़ी कठिनता या बड़े संकट को हाथ बढ़ाना । (किसी काम में किसी में पड़ना, विवश या लाचार होना, कठिन का ) हाथ बटाना--सम्मिलित, शामिल परिस्थिति में पड़ना हाथ पर हाथ धरे या शरीक होना, योग देना, सहायक होना । बैठे रहना--विना काम-धंधे के रहना, हाथ बाँधे खड़े रहना-सेवा में बराबर कुछ काम धंधा न करना, बेकार या निठल्ला उपस्थित रहना । हाथ-मॅजना (माँजना) रहना । हाथ पसारना या फैलाना-- ---हाथ से किसी काम के करने का माँगना, याचना, श्रागे हाथ बढ़ाना। हाथ- अभ्यास होना ( करना )। हाथ मलनापैर (पाँव) बलना ---श्रम से काम करने बहुन पछिताना, निराश तथा दुखी होना । की सामर्थ्य या योग्यता होना। हाथ-पाँव " हाथ मलै पछिताय "-वृन्द । “ रह चलाना-काम-धंधा करना, श्रम या । गया मैं मलते हाथ "--- हरि०। (किसी प्रयत्न करना, उद्योग करना । हाथ-पाँध ठंढे वस्तु पर ) हाथ मारना-छिपा देना, (सुन्न) होना-मरन के समीप होना, भय उड़ा लेना, ग़ायब कर देना। हाथ (में) से व्याकुल या स्तब्ध होना। हाथ-पाँव अाना-प्राप्त होना । हाथ में करना(पर) ढाले पड़ना-निराशादि से शिथिलता कब्ज या वश में कर लेना, ले लेना. अाना, हतोत्साह या अशक्त होजाना । हाम- स्वाधिकार में या आधीन करना । (मन ) पाँव निकालना-मोटा-ताजा या हट-पुष्ट हाथ में करना-मन लुभाना, मोहित होना,सीमा का उल्लंघन करना या लांघना, करन । ( अपना मन ) हाँथ में करना शरारत करना । हाथ-पांव फतना-भय या (होना)-- मन को स्वाधीन करना (होना)। शोक से घबरा जाना, हतोत्याह या निराश हाथ में होना -- वश या अधिकार में होना, हो अशक्त हो जाना।हाथ पाँव (पैर) पट- सामर्थ्य में होना। हाथ रॅगना-घूस या कना-तड़पना, प्रयत्न या दौड़-धूप करना । रिशवत लेना। हाथ रोपना या ओड़ना हाथ-पाँव (के) होना ( न होना )- ----मांगना. हाथ फैलाना या पसारना । समर्थ या योग्य होना ( न होना )। हाथ बढ़ाना-किसी की सहायता करने हाथ-पाँव पटकना (घट कटाना ) -- । को उग्रत होना, हाथ बटाना । (किसी छटपटाना, फरफराना उद्योग या प्रयत्न काम के लिये) हाथ बढ़ाना-किसी करना । (किसी के ) हाथ-पाँव ( पैर) कार्य के करने को प्रथम या धागे उद्यत जोड़ना-विनय करना । हाथ-पाँव या तैयार होना । ( कोई वस्तु ) हाथ मारना या हिलाना-बहुत प्रयत्न या लगना-प्राप्त होना, मिलाना, हाथ में उपाय करना, बड़ा उद्योग या परिश्रम । पाना (किसी काम में किसी का करना । हाथ पर (पांव ) पसारना हाथ होना-सहयोग या राय होना, (फैलाना)-अधिक पाने की इच्छा करना, अधिकार होना, सम्मिलत होना । (किसी आगे बढ़ना । हाथ-पीले करना (होना) काम में ) हाथ लगना-प्रारंभ या शुरू - व्याह करना ( होना) या व्याह में किया जाना या होना, किसी के द्वारा किया हाथों को हल्दी से रँगना (रंग जाना )। जाना । (किसीवस्तु में) हाथ लगना(किसीवस्तु पर)हाथ फेरना-ले लेना, स्पर्श होना, छू जाना। (किसो काम उड़ा लेना । (किसी पर) हाथ फेरना- में), हाथ लगाना-योग देना, प्रारंभ या मान्त्वना और प्रोत्साहन देना, प्यार करना ।। शुरू वरना । (किसी चीज़ में ) हाथ मा. को.-30 For Private and Personal Use Only Page #1893 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org हाथ-पान लगाना स्पर्श करना, छूना, ले लेना। हाथ लगे मैला होना -- इतना स्वच्छ और पवित्र होना कि हाथ लगने से गंदा होजाये । (मोना) हाथ लगे मिट्टी होना - सब कार्य में असफलता होना । विलो० मिट्टी हाथ लगे सोना होना सब काम में सफलता होना। हाथों-हाथ - एक के हाथ से दूसरे के हाथ में होते हुये । हाथों हाथ लेना - बड़े श्रादर और सम्मान से स्वागत करना। हाथ खाली होनाफुरसत होना, कार्य न होना, पास में पैसा न होना । खाली हाथ हिलाते थाना - कुछ लेकर न श्राना । (किसी कार्य, वस्तु या व्यक्ति का किसी के) हाथ में होना - उसके अधीन, अधिकार या वश में होना हाथ चलना ( चलाना ) - मारने की प्रवृत्ति होना ( मारना ) | हाथोंहाथ चिकना - तेज़ी से बिकना मनुष्य की कुहनी से पंजे के सिरे तक की नाप, 1 गज़ की लंबाई, जुए या ताश श्रादि के खेल में एक मनुष्य की बारी, दाँव । यौ हाथ का खिलौना - पूर्णतया अपने वश में या श्राधीन हाथ-पान - संज्ञा, पु० यौ० ( हि० ) हथेली की दूसरी ओर पहनने का एक गहना, ( स्त्रियों का ) । हाथ फूल - संज्ञा, पु० यौ० ( हि० ) स्त्रियों की हथेली की दूसरी ओर पहनने का एक गहना, हथ - फूल (दे० ) । हाथा - संज्ञा, पु० ( हि० हाथ ) दस्ता, मुठिया, बेंट, गीले पिसे चावल और हल्दी से दीवार आदि पर लगाया हुआ पंजे या हाथ का छापा, या चिन्ह | हाथा जोड़ी - संज्ञा स्त्री० दे० ० ( हि० हाथ + जोड़ना ) एक औषधीय पौधा । हाथा-पाँई, हाथा बाँही संज्ञा, खो० यौ० दे० ( हि० हाथ-पाँव याँ बाँह ) मल्ल युद्ध, कुश्ती, धौल धप्पड़, भिड़ंत, मार-पीट | १८८२ हानि हाथी - संज्ञा, पु० दे० (सं० हस्तिन ) एक बड़ा भारी सूंड़ के रूप की विलक्षण नाक और दो बड़े बाहर निकले दाँतों वाला स्तनपायी प्रसिद्ध पशु, गज, नाग, कुजर. हस्ती । स्त्री० - हथिनी । मुहा०-हाथी की राह -- श्राकाश-गंगा, हथ उहर । हाथी पर चढना - बहुत अमीर होना । हाथो बाँधना - बहुत प्रमीर या धनी होना, अत्यधिक व्यय का कार्य करना । ( द्वार पर ) हाथी भूमना - अति धनी और सम्पन्न होना। हाथी के संग गाँड़े खाना - प्रत्यंत बड़े भारी बलवान की बराबरी करना । लो०- " हाथी अपनी राह जाता है, कुत्ते भुंकते हैं हाथी के दाँत - (देखने के धौर और खाने के और) यथार्थ और दिखावटी बात : संज्ञा, स्त्री० (हिं० हाथ ) हाथ का सहारा, करावलंब | हाथी खाना-संज्ञा, पु० दे० यौ० ( हि० हाथी + खाना : फा० ) फ़ील- खाना, हथवार, हस्तिशाला, हाथी के रखने का घर । हाथी- दाँत - संज्ञा, पु० दे० यौ० ( हि० हाथी + दाँत ) मुँह के दोनों छोरों पर निकले हुए हाथी के दो बड़े सुनेद दिखा 9" 1 दाँत, उन दाँतों की हड्डी । हाथी- नाल - संज्ञा, स्त्री० यौ० (हि० हाथी + नाल ) हाथ-नाल, गजनाल, हाथी पर चलने वाली तोप | Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir हाथी पाँव -- संज्ञा, पु० यौ० ( हि० ) पीलपाँव या फीलपाँ नामक एक पैर के मोटे हो जाने का रोग | हाथीवान -- संज्ञा, पु० ( हि० हाथी + वान प्रत्य ) महावत, फीलवान्, हथवाल, हथवान । हादसा - संज्ञा, पु० ( ० ) दुर्घटना | हान* - संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० हानि ) हानि, घटी, क्षति । हानि - संज्ञा, खो० (सं०) क्षति, घटी, नुक्कसान, टोटा, घाटा, स्वास्थ्य में बाधा, नाश, For Private and Personal Use Only Page #1894 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir हानिकर १८८३ हारा बुराई, अनिष्ट, प्रभाव, अपकार । " हानि- लड़ाई या चढ़ा-ऊपरी में प्रतिद्वंदी के लाभ, जीवन-मरण, यश-अपयश विधि सम्मुख न जीतना, पराजय, शिकस्त, थकाहाथ"-रामा। ट, हानि । मुहा० हार खाना -- हारना, हानिकर-वि० (सं०) क्षति पहुँचाने वाला, | पराजित होना । शिथिलता थकावट, क्षति, हानि करने वाला आरोग्यता या तंदुरुस्ती हानि, घटी, ज़ब्ती, वियोग, विरह, राज्य बिगाड़ने वाला, बुरा फल देने वाला। से अपहरण । संज्ञा, पु. (सं०) चाँदी, स्त्री०-हानिकरी। सोना और मोतियों श्रादि की माला, हानिकारक - वि० (सं०) हानिकर, हानि- ले जाने या वहन करने वाला, सुन्दर, भाजक (गणि०), गुरु मात्रा (पिं०), विना. हानिकारी--वि० ( सं० हानिकारिन् ) हानि- शक, एक प्रत्यय (व्या०) वन, नंगल, खेत। कर, हानिकारक, क्षतिप्रद। स्त्रो०-हानि. प्रत्य० दे० (हि० हारा ) वाला, जैसेकारिणी। ट्रानहार। हाफ़िज़--संज्ञा, पु० (अ०) वह मुसलमान हारक - संज्ञा, पु० (सं०) चोर, लुटेरा हरण जिसे कुरान कंठस्थ हो। करने वाला, संदर, मनोहर, भाजक हामी-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि० हाँ ) स्वीकार, (गणि०), माला, हार। " नव उज्वल जलहाँ करने की क्रिया या भाव, स्वीकृति। धार हार हीरक सी सोहति"--- हरि० । मुहा० --हामी भरना-स्वीकार या हारद, हारदिक* -- वि० (सं०) हार्दिक, मंजूर करना । संज्ञा, पु.-सहायक, सहायता हृदय-संबंधी, हृदय का। या हिमायत करने वाला। हारना-अ० कि० दे० ( सं० हार ) पराजित हाय-अव्य० दे० (सं० हा ) दुख, कष्ट या होगा, शिकस्त खाना, रण या प्रतिद्वंद्वितादि शोक-सूचक शब्द । संज्ञा, स्त्री० (दे०) कष्ट, में रान के सम्मुख विफल होना. थक जाना, पीड़ा, दुख । मुहा०—(किसी की) हाय शिथिल होना, प्रयत्न में असमर्थ या निराश पड़ना (लगना)---दुख देने का बुरा परि. होना । मुहा०-हारे दर्जे-विवश होकर, णाम या फल होना। हाय खाकर मरना लाचार या मजबूर होकर । हार कर--दुःख के कारण मर जाना। लाचार या असमर्थ होकर । स० कि०-खोना, हाय हाय-अव्य० दे० यौ० (सं० हा हा )। गँवाना, छोड़ देना, दे देना. रख न सकना, दुख, केश या शारीरिक कष्ट-सूचक शब्द।। लड़ाई, बाजी श्रादि को सफलता से न पूरा पंज्ञा, स्त्री०-दुख, कष्ट, शोक, झंझट, करना। परेशानी । मुहा०-हाय हाय करना-- हारबंध---संज्ञा, पु० यौ० (सं०) एक चित्रझीखना, झंझट करना। हाय हाय में काय जिस में पद्य माला के रूप में रखे पड़ना-परेशानी या झंझट में पड़ना। जाते हैं। हायन-संज्ञा, पु. (सं० ) वर्ष, साल। हारल-संज्ञा, पु० (दे०) अपने चंगुल में "एकादश हायन के अंतर, लहहि जनेउ लकड़ो लिये रहने वाला एक पक्षी, हारिल। कुमारा"-रघु । हार-वार-संज्ञा, स्त्री० दे० हि० हड़बड़ी) हायल --- वि० (दे०) मूर्छित, घायल, बेकाम, शीघ्रता, पातुरता, जल्दी, हड़बड़ी, हरबरी। शिथिल । वि० पु. (अ.) दो वस्तुओं के हारनगर--संज्ञा, पु० (दे०) हरसिंगार, बीच में पड़ने वाला, अंतर्वती, रोकने वाला। पारिवात । हार-संज्ञा, स्रो० दे० (सं० हरि ) खेल, हारा-प्रत्य० दे० (सं० धार रखने वाला) For Private and Personal Use Only Page #1895 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org हारिल शब्द के धागे आकर, कर्तव्य, संयोग, धारणादि सूचक एक प्रत्यय, हार । स्त्री०हारी | वि० ( हि० हारना ) पराजित | हारिल - संज्ञा, पु० (दे०) अपने चंगुल में लकड़ी का टुकड़ा लिये रहने वाला एक मझोला पती । मुहा० - हारिल की लकड़ी - सदा पास रहने वाली प्रिय १८८४ वस्तु । हारी - वि० (सं० हारिन् ) हरण करने वाला, चुराने वाला, ले जाने या पहुँचाने वाला, नाश या दूर करने वाला, मोहित करने वाला । स्त्री० हारिणी। संज्ञा, पु० - एक तगण और २ गुरु वर्णों का एक वर्णिक छंद ( पिं० ) । सा० क्रि० भू० दे० ( हि० हारना ) हार गयी । " फिरहिं राम सीता मैं हारी " - रामा० । हारीत - संज्ञा, पु० (सं०) लुटेरा, चोर, चोरी, लुटेरापन, कण्वऋषि का एक शिष्य । हारीतकी संज्ञा स्त्री० (सं०) हरीतकी, हरड़ | " हारीतकी मनुष्याणां मातेव हितकारिणी " । हार्दिक - वि० (सं०) हृदय-संबंधी, हृदय का, हृदय से निकला, सच्चा, मानसिक, वांतरिक । हाल - संज्ञा, पु० ( प्र०) वृत्तांत, समाचार, संवाद, विवरण, व्योरा, आख्यान, कथा, चरित्र, अवस्था, दशा, माजरा, परिस्थिति, परमेश्वर में तन्मयता, लीनता (मुस० ) । यौ० - ० - हाल-चाल हाल-हवाल । वि० वर्त्तमान, उपस्थित, विद्यमान चलता, मौजूद । यौ० -- फिलहाल -- साम्प्रतं । मुहा० - हाल में - थोड़े ही दिन बीते या हुये। हालका -हाली, ताजा, नया, तुरंत का । अव्य० -- अभी इस समय, शीघ्र, तुरंत | एकै संग हाल नंदलाल और गुलाल दोऊ - पद्मा०| संज्ञा, स्रो० दे० ( हि० हालना ) हिलने की क्रिया या भाव, कंप, पहिये के चारों ओर चढ़ाने का लोहे का बंद | G 33 Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir हाव हाल-गोला - संज्ञा, पु० यौ० ( हि० हाल ? + गोला) गेंद, गोलाहाल । "डारि दियो महि गोलाहाल " - राम० । हालडोल - संज्ञा, पु० दे० यौ० ( हि० दालना + डोलना ) हलचल, हलकंप, कंप, गति, विस्तर- बंद, होलडोल, भूकंप, हलाडोल (दे०) । हालत - संज्ञा, स्त्री० (अ० ) अवस्था, दशा, परिस्थिति, कैफियत, आर्थिक या साम्पत्तिक दशा या स्थिति, संयोग । “सूरत बीं हालत मपुर्स " सादी० । हालना* " १- प्र० क्रि० दे० ( सं० इल्लान ) हरकत करना, डोलना, हिलना, झूमना, काँपना | केर पास ज्यों बेर निरंतर हालत दुख दै नाय" - भ्रम० । हाल में - क्रि० वि० दे० ( अ० हाल ) अभी, शीघ्र, जल्दी, थोड़ा समय हुए । हालरा - संज्ञा, ५० दे० ( हि० हालना ) लड़कों को भोंका देकर हिलाना- दुलाना लहर, हिलोर, झोंका हालाँकि - 5 -- भव्य (फ़ा० ) गोकि, ऐसा है, फिर भी हालाँकि वह मुँह जोर बड़े 1 हैं यद्यपि, अगचि, ( कमजोर है -मा० " शु० । हालाहल - संज्ञा, पु० दे० ( सं० हलाहल ) समुद्र से निकला प्रतिती विष, विकट विष, महा विष या गरल । For Private and Personal Use Only हालिम -- संज्ञा, पु० (दे०) एक पौधा जिसके के काम थाते हैं, चंसुर । हाली - अव्य० ( ० हाल ) हालका, शीघ्र, जल्दी, ताज़ा, इसी समय का, तुरंत का । हालीम - वि० (प्र०) सहन-शील, बुर्दवार । हालों - संज्ञा, पु० दे० ( हि० हालिम ) चंसुर । हाव - संज्ञा, पु० (सं०) नायिका की संयोग समय की वे स्वाभाविक चेष्टायें जो नायक को लुभाती है, ये अनुभावों के अन्तर्गत हैं और संख्या में ११ हैं । “लीला, विनम Page #1896 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १८॥ हावन-दस्ता हिंडोर-हिंडोरा किलकिंचित श्री ललित, विलास कहावै । हास्यास्पद-संज्ञा, पु० यौ० ( सं० ) विच्छिति हेला, विहृत, कुमित, मोहायित वह व्यक्ति जिसके बुरे ढङ्ग को देख हँसी हो, बतलावै इसमें स्यौं विच्चोक अंत में सब हँसी करने योग्य। गेरह गिनि खोजे। स्वाभाविक संयोग-समय हा-हंत-अव्य० यौ० (सं०) अति शोक को चेष्ठा ये कहि दीजै' - कं० वि० ला। सूचक शब्द। " हा हंत हंत नलिनी गज हावन-दस्ता -संज्ञा, पु० (फा०) खरल-वटा, उजहार" । खल-लोढ़ा। हा हा--संज्ञा, पु० (अनु० ) हँसने का शब्द । हाव-भाव --संज्ञा, पु० यौ० (सं०) पुरुषों का चौ०-हाहा-हीही, हाहा-ठीठी-हसीमन आकर्षित करने वाली स्त्रियों की मनोरम ठठा, बहुत बिनती की पुकार, दुहाई, गुहार । चेष्टाय, नाज़-नखरा । “नाना हाव-विभाव- मुहा०-हाहा करना (खाना)भाव कुशला"-प्रि० पु०। अति अनुनय-विनय या विनती करना, हाशिया--पंज्ञा, पु० दे० ( अ. हाशियः ) अति गिड़गिड़ाना । अव्य० (सं० हा ) मगजी, गोट, कोर, पाड़, किनारा, किनारे अति शोक । " हा हा कहि सब लोग पर का लेख, नोट, टिप्पणी, हासिया पुकारे ".-रामा० । (दे०)। मुहा० · हाशिये का गवाह- हाहाकार-संज्ञा, पु. ( सं०) कोलाहल, वह गवाह जिसका हस्ताक्षर दस्तावेज़ के कुहराम, घबराहट की चिल्लाहट । “हा हा. किनारे पर हो । हाशिया चढ़ाना- कार भयो पुर भारी''-रामा० । टिप्पणी लगाना, अधिकता करना, कुछ हाही-संज्ञा, स्त्री० ( हि० हाय ) कुछ पाने और मिलाना, विनोदार्थ कुछ बात जोड़ना। को सदैव हाय-हाय करते रहना । हास--- संज्ञा, पु. (५०) हँसी दिल लगी, हाह*-संज्ञा, पु० ( अनु० ) कोलाहल, उपहाप, ठट्ठा, मज़ाक, परिहाल, हंसने की कुहराम, हल्ला-गुल्ला, धूम, हलचल ! क्रिया या भाव। हाहू बेर-संज्ञा, पु० यौ० ( दे. हाहू । बेर हासिल- वि० (अ०) मिला या पाया हुआ, हि० ) जंगली बेर, झड़बेरी क: बेर, एक लब्ध, प्राप्त । संज्ञा, पु० ---जोड़ या गुणा औषधि, हाऊबेर, झाऊबेर (प्रान्ती०) । करने में इकाई के रखने के पीछे का अंक हिकरना-प्र० क्रि० (दे०) हिनहिनाना । किसी संख्या का वह भाग या यंक जो "हिंकरहिं अश्व न मारग लेहीं'-रामा० शेषांक के कहीं रखने पर बच रहे (गणि०), हिकार-संज्ञा, पु० (सं०) गाय के राँभने पैदावार, उपज, नफा, लाभ, लगान, जमा, | का शब्द । गणित की क्रिया का फल । हिंगलाज-- संज्ञा, स्रो० दे० (सं० हिंगुलाजा) हासी--वि० ( सं० हासिन् ) हपने वाला, दुर्गा देवी की मूर्ति जो सिंध देश में है। हाँसो, हँसी । स्त्री०-हासिनी। हिगु-संज्ञा, पु० (सं०) हींग, रामठ । हास्य-वि० (सं०) हँसने या उपहास के हिंगोट-संज्ञा, पु० दे० (सं० हिगुपत्र ) योग्य, जिसे या जिस पर लोग हँसे। संज्ञा, । ___एक जंगली कटीला पेड़ जिसके गोल छोटे पु० हपी, हँसने की क्रिया या भाव। फलों से तेल निकाला जाता है, इंगुदी। स्थायी भावों या रसों में से एक भाव या रस। हिंछा* --संज्ञा, स्त्री० (दे०) इच्छा। "श्रृंगार-हास्य-करुणा रौद्र वीर भयानकाः" हिडन-संज्ञा, पु० (सं०) घूमना, फिरना । ---सा. २० । निन्दायुक्त हँसी, उपहास, हिडोर हिडोरा संज्ञा, पु० दे० (सं० मज़ाक, दिल्लगी। | हिन्दोल) हिंडोला, दोला, एक प्रकार का For Private and Personal Use Only Page #1897 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - हिंडोल-हिंडोला १८८६ हिंसा राग, हिडोरना । "हिंडोरो झूलत गोकुल- वाला। संज्ञा, स्त्री-भारत की भाषा, चंद"-सूर०। हिन्दुस्तान की सामान्य व्यवहारिक बोली हिंडोल-हिंडोला-संज्ञा, पु० दे० (सं० । या भाषा। "पढ़े फारसी, हिन्दुस्तानी हिंदोल) हिंडोला, एक राग, पालना, मूला, | राजा भल पढ़ये परिमाल "-श्रा० खं० । ऊपर नीचे घूमने वाला चक्कर जिसमें बैठने | हिंदू-संज्ञा, पु. ( फा० ) भारत वासी, को मंच लगे रहते हैं। वेद-स्मृति. पुराणादि का मतानुयायी भारतहिंडोलना-संज्ञा, पु. ( सं० हिंदोल ) वासी थार्य-संतान. श्राय । हिंडोला, पालना, झूला, हिंडोरना। हिंदूपन-संज्ञा, पु० दे० (फा० हिंदू+पन हिताल-संज्ञा, पु. (सं०) छोटी जाति का हि०-प्रत्य० ) हिन्दू होने का भाव या खजूर । “कहुँ ताल, ताल, तमाल-तरु | गुण, हिन्दुत्व । हिंताल अरु करवीर हैं"। हिंदोस्तान-संज्ञा, पु० दे० (फा० हिंदुस्तान) हिंद-संज्ञा, पु. ( फ़ा० ) भारतवर्ष, भरत- भारतवर्ष, आर्यावर्त । वि० हिंदोस्तानी। खंड, हिन्दुस्तान, आर्यावर्त । हिंयाँ, हिन*-अध्य० दे० ( सं० अत्र ) हिंदवाना, हिंदुवाना-संज्ञा, पु० दे० | यहाँ, यहाँ पर। (फा० हिंद+वान) तरबूज, कलींदा, हिद्वाना हिंव-संज्ञा, पु० दे० (सं० हिम) बर्फ, तुषार । (दे०)। संज्ञा, पु० दे० (सं० हृदय ) हृदय, दिल । हिंदवी-संज्ञा, स्त्री० (फा०) हिंदी भाषा। हिवार, हिवार-संज्ञा, पु० दे० (सं० हिंदी-वि० (फा० ) भारतीय, हिन्दुस्तान हिमालि ) पाला, हिम, बर्फ़ । “ कृष्ण का । संज्ञा, पु.-भारतवासी, हिन्द या समीपी पांडवा गले हिवारे जाय' --कबी. हिन्दुस्तान का रहने वाला। संज्ञा, स्त्री०- हिंस-संज्ञा, स्त्री. (अनु० हिं २) घोड़ों हिन्द के उत्तरीय प्रधान भाग की भाषा के बोलने का शब्द हिनहिनाहट । जिसमें कई बोलियाँ हैं और जो समस्त हिंसक-संज्ञा, पु० (सं०) घातक, हत्यारा, देश की सामान्य राष्ट्र-भाषा है, भारतीय मार डालने वाला, हिंसा करने वाला, हिन्दी भाषा. नागरी भाषा। बुराई या हानि करने वाला, पशु-बधक, हिंदुस्तान-संज्ञा, पु० (फा०) दिल्ली से शत्र, बधिक। पटने तक का भारत का उत्तरीय मध्य भाग, हिंसन --संज्ञा, पु. (सं०) जीवों को मार भारतवर्ष, भरत-खंड, आर्यावर्त । डालना या वध करना, सताना, संताप या हिदुस्तानी-वि० ( फ़ा०) भारतवर्षीय, दुख देना, जान मारना, अनिष्ट करना या भारतीय। संज्ञा, पु०-हिन्दुस्तान-निवासी, चाहना, पीड़ा पहुँचाना। वि. हिंसनीय भारतवासी। संज्ञा, स्त्री०-भारत की भाषा, हिसित, हिस्य। बोल-चाल की वह व्यवहारिक हिन्दी हिंसना-अ० क्रि० (दे०) घोड़े का हिन. जिसमें न तो अनेक फारसी-अरबी के और हिनाना। स० क्रि० (दे०) मारना, वध न बहुत संस्कृत के शब्द हों। करना। हिंदुस्थान-संज्ञा, पु० दे० यौ० (फा० हिंसा-संज्ञा, स्त्री० (सं०) जीवों का वध हिंदुस्तान) हिन्दुस्तान,भारतवर्ष. भरत-खंड। करना या मार डालना, सताना, कष्ट या हिंदुस्थानी- वि० दे० ( फ़ा० हिन्दुस्तानी)। दुख देना, पीड़ा पहुँचाना, बुराई करना या हिन्दुस्तानी, भारतवर्षीय । संज्ञा, पु. भारत- चाहना, शरीर और प्राणों का वियोग करना वासी, हिंदुस्तान का बाशिंदा या रहने ही हिंसा है। "हिंसा महा पाप बतरायो"। For Private and Personal Use Only Page #1898 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir हिंसात्मक १८८७ हिंसात्मक-वि० यौ० (सं०) जिसमें हिंसा हिचकना--..अ० कि० दे० (सं० हिका ) हो, हिंसा-मम्बन्धी। इचकना. हिचकी लेना, पागा पीछा हिमाल-वि० (सं०) हिंसा करने वाला, करना, संकेच, अनिच्छा या भयादि से हिंपक, हिंसाकारी। किसी कार्य में प्रवृत्त न होना। हिर -वि० (सं०) हिन्सक, हिंसा करने वाला, हिचकिचाना-अ० कि० दे० (हि. खू खार। हिचकना ) हिचकना, पागा पीछा करना । हिं-विभ० (दे०) र्म और संप्रदान हिचकिचाहट-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. कारकों का चिन्ह या विभक्ति । " सादर हिचकिचाना ) भागा-पीछा, सोच-विचार । जनक-सुतहिं करि आगे''--रामा० । हिचकी--संज्ञा, स्त्री. (अनु० हिच या सं० "रामहि सौंपह जान कीहिं राखौ मोर दुलार", हिक्का ) एक रोग, उदर-वायु का ऊपर झोंके ---रामा० । को, को, के हेतु, के लिये, 1 से चढ़ कर कंठ में धक्का दे निकलना, प्राचीन काल में यह सब कारकों की विभक्ति । हुचकी मुहा०—हिचकियाँ लगनामानी गयी थी। " बोलत लखनहिं जनक मरने के समीप होना, रह रह कर सिसकने डराही '.--रामा० । “तुमहिं देखि सीतल का शब्द । हिचकी आना-किसी की भई छाती"- रामा० । अव्य०-ही, याद करना या श्राना। विशेषतः। हिजड़ा-हिजरा-संज्ञा, पु० (दे०) पंढ, हिस, हिया--संज्ञा. पु० दे० (सं० हृदय ) नपुंसक, नामर्द, जनखा, हीनड़ा। हृदय, उर, छाती, दिल, मन हय, हिजरी- संज्ञा, पु. ( अ.) मुसलमानी सन् हिया, हीय (०)। "हिश्र भानहु रघुपति- ___ जो मुहम्मद साहिब के मक्का से मदीने प्रभुताई"-रामा०। भागने की याद में चलाया गया है (१५ हिाव-हिग्राउ - संज्ञा, पु० दे० (हि. जुलाई सन् ६२२ ई.)। हियाव ) साहस, हिम्मत । " जाकै हियँ हिज्जे-संज्ञा, पु. ( अ. हिज्जः ) किसी हिसाव सिंधु-लांघन मैं होई"-शि० गो।। शब्द के अक्षरों को मात्रा-सहित कहना, हिकमत--- संज्ञा, स्त्री० अ०) निर्माण-बुद्धि, स्पेलिंग ( अंग्रे.)। तत्वज्ञान विद्या, कजा-कौशल, युक्ति, उपाय, | हिज्र-संज्ञा, पु. (अ.) वियोग, विरह । तदवीर, चतुरता, 'चातुरी का ढंग, चाल, "माँगा करेंगे अब से दुश्रा हिज्र यार का" वैद्यक, हकीमी, हकीम का पेशा या काम । -जौक । हिकमती-वि. (अ. हिकमत ) तदवीर | हिडिंब--संज्ञा, पु० (सं०) एक दैत्य या सोचने या निकालने वाला, कार्य-कुशल, राक्षस जिसे भीम ने वन-वास के समय में क्रिया चतुर, चालाक, किफायती, कार्य- मारा था ( महा.)। साधन की युक्ति निकालने वाला। हिडिम्बा-सज्ञा, स्त्री० (सं०) हिडिम्ब की हिकायत - संज्ञा, स्त्री. (अ.) कहानी, बहिन जिसे भीम ने व्याह लिया था कथा, किस्सा। (महा.)। हिक्का-संज्ञा, स्त्री० (सं०) हिचकी, हिचकी हित-वि० (सं.) भलाई चाहने या करने रोग। वाला, ग्वैरख़ाह, हितू, मित्र, शुभाकांक्षी । हिचक-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. हिचकना)। संज्ञा, पु.-लाभ, कुशल, कल्याण, भलाई, श्रागा पीछा करना, किसी कार्य के करने मङ्गल, हेत, उपकार, स्वास्थ्य-लाभ,अनुराग, में मन में प्रगट होने वाली रुकावट। । प्रेम, मित्रता, स्नेह, मित्र, भला चाहने For Private and Personal Use Only Page #1899 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir हितकर-हितकारक १८८८ हिम वाला, नातेदार, सम्बन्धी। अव्य..-लाभ करने वाला, नातेदार, स्नेहो, मित्र, सुहृद, के लिये, प्रसन्नता के लिये, हेतु, वास्ते, सम्बन्धी । “ विपति परे कोऊ हितू , नाह लिये, काज । " पर-हित सरिस पुन्य नहिं काहु कर होय " - वा० । भाई "- रामा०। हितेच्छु-वि० (सं०) भलाई या हित चाहने हितकर-हितकारक-संज्ञा, पु० (सं०) वाला, शुभाकांक्षी। फायदेमन्द, लाभदायक, लाभकर, स्वास्थ्य- हितैपिता-संज्ञा, स्त्री० (सं०) खैरखाही, कर, भलाई करने वाला। भलाई चाहने को वृत्ति, हित की इच्छा : हितकारी- वि० (सं० हितकर ) भलाई हितैषी- वि० (सं० हित्तौपिन् ) खैरखाह, करने या चाहने वाला. लाभदायक स्वास्थ्य- भला चाहने वाला । स्त्री० हितषिणी।। कर । "मातु, पिता, भ्राता, हितकारो"--- हितोना*-० क्रि० दे० (हि. तिाना ) रामा०। प्रिय या अच्छा लगना, भाना, सुहाना । हितचिंतक--संज्ञा, पु० यौ० (सं०) भलाई हिदायत-संज्ञा, स्त्री. (म.) अधिकारी चाहने वाला, शुभचिन्तक, हितेच्छु. की शिक्षा, निर्देश, श्रादेश, ताकीद, सूचना ! शुभाकांक्षी, शुभेच्छु। हिनती-रज्ञा, स्त्री० दे० ( सं० हीनता ) हितचिंतन --सज्ञा, पु० यौ० (सं०) हित की हीनता. लधुता, छोटाई, नम्रता, नवनसारी। इच्छा, भलाई की कामना, सुभाकांक्षा। हिनहिनाना---० कि. ( अनु० ) घोड़े हितजनक-वि• यौ० (स०) लाभप्रद । का बोलना, हींसना ( प्रान्ती.)। संज्ञा, हितता-संज्ञा, स्त्री. (सं० हित + ता- स्त्री० हिनहिनाहट । प्रत्य० ) भलाई, रखाही। । हिना- संज्ञा, सो० (१०) मेंहदी। हितवना-अ० क्रि० दे० (हि. हिताना) हिनाई--संज्ञा, स्त्री० दे० ( हि० होन) हीनता, अच्छा लगना, हिताना। निबलता। हितवाद-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) हित की हिनाव--संज्ञा, पु० दे० (सं० हीन- श्राव -- हि. प्रत्य० ) हीनता। बात। हितवादी-वि० (सं० हितवादिन् ) हित या हिफ़ाजत-संज्ञा, स्त्री० (अ०। रक्षा, बचाव भलाई की बात कहने वाला । स्त्री० खबरदारी. देख-रेख. किपी वस्तु को यों रखना कि वह किसी प्रकार नष्ट न हो सके । हितवादिनी। हिताई-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० हित -- प्राई | हिब्बा-संज्ञा, पु० द० (अ. हिव्वः ) दाना, २ दान, हम्बा, हिबा (दे०)। -प्रत्य ) रिश्ता, सम्बन्ध, नाता। हिब्बा नामा--संज्ञा, पु० यौ० (अ+ फा०) हिताना*--० क्रि० दे० (सं० हित) प्रच्छा दान-पत्र, हिवानामा (दे०)। या प्यार लगना, सुहाना, हितकारी होना, हिमंचल - संज्ञा, पु. दे. यौ० ( सं० प्रेमयुक्त या अनुकूल होना । स० कि० प्रिय । हिमाचल) हिमालय पर्वत, पार्वती के पिता, लगना । "कैहर बहुत हिताय'-क० वि०। "गिरजहिं पिता हिमंचल जैसे" - स्फु० । हितवाह-वि० (सं० ) हितकारी, मलाई । हिमंत -संज्ञा, पु० दे० (सं० हेमंत्त) एक करने वाला, लाभकारी। ऋतु हेमंत। . हिताहित-संज्ञा, पु० (सं०) हानि-लाभ, | हिम-संज्ञा, पु. (सं०) तुहिन, पाला, तुषार, भलाई-बुराई, नफा-नुकसान। बफ़, जाड़ा. शीत, शीत ऋतु, चंदन, हिती, हितु, हित-सज्ञा, पु० दे० (सं० हित) चन्द्रमा, कपूर, मोती, कमल । वि० ---टंढा. हितचिन्तक, गैरवाह, भलाई चाहने या ! शीत, सर्द । For Private and Personal Use Only Page #1900 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir हियरा - हिमउपल १८८६ हिमउपल - संज्ञा,पु० यौ० (स०) हिमोपल, हिमाद्रि--संज्ञा, पु० यौ० (सं०) हिमालय श्रोला, पत्थर । " जिमि हिमउपल कृषी । पहाड़ । दलि गरहीं '.-- रामा। | हिमाग्नि-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) हिम-जन्य हिमकण संज्ञा, पु० यौ० (सं०) हिमकन ताप या भाग । (दे०) पाला या बर्फ के बारीक टुकड़े, हिमामदस्ता-संज्ञा, पु० दे० (फा हावनतुहिन-कण। दस्ता) खरल और बट्टा, इपामदस्ता (दे०)। हिमकर-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) चन्द्रमा, हिमायत-संज्ञा, स्त्री० (प्र.) मंडन, पक्ष. हिमांशु । “सीय बदन सम हिमकर नाही" पात, नहायता, प्रतिपादन, समर्थन। "देत -रामा०॥ हिमायत की गधी, ऐराकी को लात" हिमकिरण-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) चन्द्रमा, ~ नीति । " लिये फिरती है उचक्कों को हिमकिरन (दे०)। " नाम हिम किरण हिमायत तेरी'-हाली । जरावै ज्वाल-जाल सी"--मन्ना। हिमायती- वि० (फ़ा०) सहायता देने या हिम-पर्वत-संज्ञा, पु. यौ० (सं०) हिमालय, पक्ष करने वाला, मददगार, समथक, मडन उत्तरीय सागरों में हिम या बर्फ के पहाड़।। या प्रतिपादन करने वाला । " हिन्दी के हिमता--संज्ञा, सो० (सं०) हिम का भाव, श्राप हिमायती हैं बड़े''-पद्मधः । शीतलता. ठंढक। हिमालय- ज्ञा, पु० यो० (स०) भारत की हिमभानु --- संज्ञा, पु. यौ० (सं०) चन्द्रमा। उत्तरीय सीमा का संपार में सब से बड़ा हिमयानी-सज्ञा, स्त्री० ( फ़ा० ) कमर में __ और ऊँग तथा सदा हिमाच्छादित एक बाँधने की रुपये-पैसे रखने की जालदार पहाड़, हिमाचल, पर्वतराज । थैली, बसनी (प्रान्ती.)। हिमि* -- सज्ञा, पु० दे० (सं० हिम ) पाला, हिम-रश्मि-संज्ञा, पु. (सं०) चन्द्रमा । ___ बर्फ़ तुपार। हिमरुचि -- संज्ञा, पु० (स०) चद्रमा | हिम्मत--सज्ञा, स्त्री० (०) साहस, क्लिष्ट हिमवंत --संज्ञा, पु० (सं०) हिमालय, उमा के और दुसाध्य कार्यों के करने की मानसिक पिता। दृढ़ता, विक्रम, पराक्रम, बहादुरो, शूरता, हिमवत्-संज्ञा, पु. (सं०) हिमवान्, हिमा- ह्यिाव, जियरा, जीवट । " हारिये न चल । " हिमवत् सब कह न्यौति बुलावा" | हिम्मत बिसारिये न राम नाम।" महा०-रामा० । हिम्मत हारना-साहप छोड़ना । हिम्मत हिमवान-वि. ( हिमवत् ) जिसमें हिम हिराना - साहल न रहना । " हिम्मत हो, बर्फ या पाले वाला । स्त्री. हिमवती। हिरानी हाय हिम्मती हमारे की"-सरस । संज्ञा, पु० - हिमालय, कैलाश, चन्द्रमा। हिम्मती-- वि० ( फा०) साहसी, बहादुर, "हिमवान ज्यां गिरजा समरपी'-रामा०, दृढ़, पराक्रमी।। हिमांशु--संज्ञा, पु. यौ० (सं०) चन्द्रमा, हिय, हिया संज्ञा, पु० दे० (सं० हृदय, प्र. हिमकर । हिम ) वक्षःस्थल, हृदय, छाती, मन, उर, हिमाकत-संज्ञा, सी० (अ.) बेसमझी या दिल, हीय। मुहा० - हिय हारनाबेवकूफी, मूर्खता। हिम्मत छोड़ना । " हेरि हिय हारे सारे हिमांचल-सज्ञा, पु० यौ० (सं०) हिमाचल, पडित प्रबोन तऊ''- रसाल । हिमालय । | हियरा--संज्ञा, पु० दे० (हि. हिय ) दिज, हिमाचल-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) हिमालय ।। छाती, मन, वक्षःस्थल, हृदय । भा० श.को०-२३७ For Private and Personal Use Only Page #1901 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir हिया, हियन १८६० हिरस हियाँ, हियन-अव्य० दे० (सं० अत्र) यहाँ, वतार धारण कर इसे मारा था, हिरनाइहाँ. ह्या (दे०), यहाँ पर, इस स्थान में, | कुस, हरनाकुस (दे०)। हिन (ग्रा०)। हिरण्य करयप-संज्ञा, पु. ( सं० हिरण्यहिया, हियो --संज्ञा, पु० दे० (सं० हृदय) कशिपु ) प्रह्लाद का पिता दैत्यराज हिरण्यहृदय, दिन, छाती. मन । " बहु छल-बल __ कशिपु, हिरन्यकस्यप (दे०) । सुप्रीव करि हिये हारि भय मान"--रामा हिरण्य-गर्भ-संज्ञा, पु. यौ० (सं०) वह मुहा०-हिये का अंधा-मुर्ख, अज्ञान। प्रकाश-रूप या ज्योतिर्मय अंड जिससे ब्रह्मा हिये की फूटना (बंद होना) या मुदना और समस्त सृष्टि प्रकट हुई, सूचम शरीर - बुद्धि न होना, अन्तर्दृष्टि का न होना। युक्त श्रात्मा, ब्रह्मा, विष्णु, परमात्मा। हिया जलना-बहुत कोप या शोच होना। "हिरण्य गभःसमवर्तताग्रे"-यजु० । हिये लगाना - भंटना, गले या छाती से | हिरण्य-नाभ-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) विष्णु, लगा कर मिलना, आलिंगन करना । हिये | मैनाक पहाड़। में लोन सा लगना ( लगाना )-बहुत | हिरण्य रेता-संज्ञा, पु० (सं० हिरण्य रेत्तस्) बुरा लगना (जले को जलाना जले पर शिव, अग्नि. सूर्य । नमक लगाना या छिड़कना ), दुग्वादि का | हिरण्याक्ष-संज्ञा, पु. (सं०) दैत्य-राज भाव और बढ़ाना (विशेष-मुहा० देखो- हिरण्य कशिपु का भाई और प्रह्लाद का जी और कलेजा)। चचा। हियाव-संज्ञा, पु० दे० (हि. हिय ) हिम्मत, हिरदय, हिरदै, हिरदा*--संज्ञा, पु० दे० साहस, जीवट । मुहा०-हियाक खुलना | ( सं० हृदय ) हृदय, मन । " जाके हिस्दै -हिम्मत बंधना साहस हो जाना, भय | साँच है, ताके हिरदै भाप"-~-कबी० । या संकोच न रहना । हियाव पड़ना हिरन-संज्ञा, पु० दे० (सं० हरिण ) मृग, (होना)-हिम्मत या साहस होना। हरिन, दिगार (प्रान्ती), हिरना, हिन्ना हियो - संज्ञा, पु० (७०) हृदय, हिय । (दे०)। मुहा०-हिरन हो जाना-भाग हिरकना*-अ० क्रि० दे० ( सं० हरुक = | जाना। समीप ) पास या निकट होना या जाना, हिरनाकुस-संज्ञा, पु० दे० (सं० हिरण्य समीप धाना या जाना, सटना। __कशिपु ) हिरण्य-कशिपु. हरिनाकुस(दे०) । हिरकाना*-स० कि० दे० हि. हिरकना) | हिरफ़त-संज्ञा, स्त्री. (अ.) कला-कौशल, सटाना, समीप या पास करना या ले जाना, | दस्तकारी. हाथ की कारीगरो. शिल्पकारी, भिड़ाना। हुनर, चतुराई. धूर्तता. चालाकी, चालबाजी। हिरण, हिरणा*-संज्ञा, पु. ३० (सं० हिरफ़त-बाज ---वि. ( अ०-फ़ा० ) धूर्त, हरिण ) हरिण, हरिन, हिरन, हिरना। चालाक चालबाज । हिरण्य-सज्ञा, पु. (स.) कंचन, सुवर्ण, हिरमिजी--- संज्ञा, स्रो० (अ०) एक प्रकार कनक, स्वर्ण सोना, शुक्र, वीय, धतूरा, को लाल मिट्टी, हिलमिजी (दे०)। कौड़ी, अमृत । हिरवाना-स० क्रि० दे० ( हि० हिराना ) हिरण्य कशिपु-संज्ञा, पु० (६०) विष्णु. । हेरवाना, हिरावना, ढुंढवाना, खो देना । विरोधी, एक प्रसिद्ध दैत्य-राज जो विष्णु | हिरसा-संज्ञा, स्त्री० दे० (अ० हिर्स ) हिर्स, बहाद का पिता था, विष्णु ने नृसिंहा- डाह, ईर्षा । For Private and Personal Use Only Page #1902 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir हिराती १८६१ हिलाना हिराती-संज्ञा, पु० (हिरात देश ) हिरात | हिलकोरना-९० क्रि० (हि०) लहराना, प्रदेश का घोड़ा जो गरमी में भी नहीं । तरगित करना। थकता, हिरात का निवासी, हिरात संबंधी। हिलग---संज्ञा, स्त्री० दे० ( हि० हिलगना ) हिराना-अ. क्रि० दे० (सं० हरण ) | परिचय, प्रेम, संबंध, लगाव, लगन । हराना (दे०) न रह जाना, गुम या गायब हिगना-अ० क्रि० दे० ( सं० मधिलग्न ) हो जाना, मिटना, खो जाना, अति चकित ! फंपना, टॅगना. लटकना, अटकना, बझना, होना, दूर होना, अपने को भूल जाना। परचना, हिलमिल जाना। अ० कि० दे. स० कि० (दे०) भूल जाना, ध्यान में न । सं० हिरुक - पास ) समीप होना, हिरकना रहना, विस्मरण हो जाना । स० रूप.- सटना. था भिड़ना। हिरावना। हिलगाना-स० क्रि० दे० ( हि० हिलगना) हिरावल --- संज्ञा, पु. दे. (अ. हरावल ) लटकाना. अटकाना, फँसाना, टाँगना, सेना का अग्र भाग, हरावल । बझाना, मेल जोल में करना. परचाना, हिरास-संज्ञा, सो० (अ०) निराशा, ना- अनुरक्त और परिचित करना । स० कि० दे० उम्मैद । संज्ञा, पु० (दे०) हास, हरास । (सं० द्विरुक ) समीप लाना. सटाना। वि०-निराश, दुखी। "यों कहि सुमंत | हिलना--अ० क्रि० दे० (सं० हल्लन ) कंपित हिय है हिरास "-रामसा० । " वय या चलायमान होना, हरकत करना, विलोकि हिय होत हिरासू"-रामा०। । डोलना, स्थिर न रहना। मुहा० यौ०हिरासत-संज्ञा, स्त्री. (अ.) कैद. बंदी, हिलना डोलना-कंपित या चलायमान नज़रबंदी, पहरा-चौकी । " खुश हुमा होना, 'चलना फिरना, घूमना, प्रयत्न या बुलबुल हिरासत से छुटा"--स्फु०। उद्योग करना । सरकना, हटना, टलना हिरौंजी-संज्ञा, स्त्री० दे० ( अ० हिरमजी) चलना, कंपित होना, दृढ़ या स्थिर न लाल रंग की एक मिट्टी। रहना जमकर न बैठना ढीला या शिथिल हिरौल* --संज्ञा, पु० (दे०) हरावल (अ०) होना, भूमना, पैठना लहराना ( पानी में ) सेनाग्रभाग। धंसना या प्रवेश करना. हैलना (ग्रा०)। हिर्स-संज्ञा, स्त्री० (अ.) लोभ, तृष्णा, अ० कि. ( हि० हिलगना ) परचना, अनुरक्त लालच, मनोवेग, स्पर्धा । " हिर्स कर और परिचित होना । स० रूप-हि नाना। वाती है रोबा बाजियाँ सब वर्ने याँ "- | यौ-हिलना-मिलना -घनिष्ट मेलमीर० । मुहा०-हिर्म छुटना (होना )। जोल या सबध रखना । " हिल-मिल जानै -लोभ या लालच होना, किसी की देखा | तामों हिल-मिल लावै हेत"-ठाकुर । देखी किसी काम के करने की अभिलाषा | अ० कि. (दे०) धुपना, प्रवेश करना, पैठना या इच्छा, स्पर्धा । (विशेषतया जल में)। हिलकी*--संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० हिक्का ) हिलसा संज्ञा, स्त्री० दे० ( सं० हल्लिश ) हिवकी, सिसक, सिसकने का शब्द । | एक तरह की मछली। "जागत हू पिय हिय लगी हिलकी तऊ न । हिलाँव --वि० दे० (हि. हिलना ) हिलने नाय"-मति। या धंसने-योग्य ( जल में)। हिलकोर-हिलकोरा-संज्ञा, पु० दे० (सं० हिलाना--स० कि० दे० (हि• हिलना ) हिल्लोल ) लहरी, लहर, तरंग, मौज, कंपित करना त देना, डुलाना, हिलोर, हलकोर, हलकोरा (दे०)। in चलायमान करना, हटाना, For Private and Personal Use Only Page #1903 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra हिलोर - हिलोरा स्थान से हटाना या उठाना, भुलाना, ऊपर नीचे या इधर उधर डुलाना, हिलावना (दे० ) । स० क्रि० दे० ( हि० हिलगनt ) परवाना, अनुरक्त और परिचित करना । स० क्रि० (दे० ) पैठाना, घुमाना, धँसाना | हिलोर - हिलोरा - संज्ञा, पु० दे० हिल्लोल ) लहरी, मौज, तरंग, मुहा० - हिलोरे लेना - तरंगित www.kobatirth.org . १८६२ ( सं० लहर । होना, लहराना । हिलोरना स० क्रि० ( हि० हिलोर + ना - प्रत्य० ) पानी में हिलकर उसमें लहरें, उठाना, लहराना, हलोरना | हिलोल - संज्ञा, पु० (दे०) हिलोर (हि०) लहर, तरंग | हिल्लोल - संज्ञा, पु० (सं०) लहरी, लहर, तरंग, मौज, हिलोरा, हर्ष की हिलोर, आनंद तरंग, उमंग | हिवंचल - संज्ञा, पु० दे० (सं० हिमाचल ) हिमालय, हिमंचल | संज्ञा, ५० दे० (सं० हिम ) बर्फ, तुषार, पाला । हिवर, हिवार - संज्ञा, पु० दे० (सं० हिम ) हेवार (ग्रा० ), बर्फ, तुषार, पाला । हिसका - संज्ञा, पु० दे० (सं० ईर्ष्या ) डाह, ईर्ष्या, स्पर्द्धा देखादेखी में होने वाली इच्छा । हिसाब - संज्ञा, पु० (अ० ) गणित, गिनती, लेखा, महाजनों के छाय - व्यय या लेन-देन की बही का लेख, उच्चापन ( प्रान्ती० ) । मुहा० - हिसाब चुकाना या चुकता करना - जो जिम्में निकले उसे सब का सब दे डालना । " हिसाबे दोस्तां दर दिल अगर वह दिलरुबा समझे" - ज़ौक़ | हिसाब ( किताब ) साफ़ करना - लेन देन का हिसाब करना, अपना ऋण दे डालना | हिसाब करना ( ) -- लेन-देन के : ब्योरे का निर्णय करना ( होना), • नेय are Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir हिसाब-किताब 1 दे देना । हिसाब लेना - जमा-खर्च या प्राय-व्यय का ब्यौरा पूछना, किसी से जो पाना है उसे लेना । हिसाब देनाजमा - खर्च का ब्यौरा बताना या समझाना, जो जिम्में निकलता हो उसे देना । हिसाब लेना या समझना - यह पूछना जाँचना या जानना कि कितना धन कहाँ व्यय हुआ । ( ईश्वर या ख़ुदा के यहाँ या सामने ) हिसाब होना - किये हुए पाप-पुण्य की जाँच ईश्वर के यहाँ होना । वे हिसाबप्रत्यंत, बहुत ज्यादा या अधिक । हिसाब रखना - आय व्यय का ठीक व्यौरा लिख रखना । हिसाब बैटना ( बैठाना ) - यथायोग्य प्रबंध होना ( करना ), यथेष्ठ सुपास या सुभीता होना, श्रभीष्ट सुविधा करना या होना ( करना ), आय-व्यय या जमा - खर्च ( लेने-देने) का व्यौरा ठीक होना, विधि मिलाना (मिलना ) | हिसाब से - संयम से, कायदे से, रीत्यानुसार, नियमपूर्वक, परिमित ठीक ठीक, लिखे व्योरे के अनुकूल । हिसाब न होना अति अधिक मात्रा या संख्यादि) होने से अनुमान या अंदाजा न होना | बेड़ा या देहा हिसाब - कठिन या कड़ा कार्य, गड़बड़ी, I व्यवस्था | संख्या मानादि को निर्धारित करने वाली विद्या, गणित-विद्या, गणित का प्रश्न, दर, भाव यौ० हिसाब-किताब । मुहा०-- हिसाब से क्रम, गति या परि माण के विचार या ध्यान से मुताबिक, अनुसार । व्यवस्था, नियम, रीति, कायदा, विधान, समझ, विचार, धारणा, मत, दशा, चाल ढाल, हाल, ढंग, मितव्यय किफायत, रहन-सहन, रीति रस्म, श्राचार-व्यवहार, अवस्था तरीका | हिसाब किताब - संज्ञा, पु० यौ० ( अ० ) श्राव्ययादि का लिखा हुधा व्यौरा, रीति, तरीक़ा, चाल, ढंग । यौ० - गणित की पुस्तक, थाय-व्ययादि की बही या लेखा । For Private and Personal Use Only Page #1904 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir हीनता हिसाबी हिसावी-वि० (अ० हिसाब-1-ई-हि०-- पर जोर देने के लिये होता है। संज्ञा, पु० प्रत्य०) गणितज्ञ, हिसाब-किताब में चतुर। दे० (हि. हिय, सं० हृदय ) हृदय, हिय, हिसिषा* --संज्ञा, स्त्री० दे० ( सं० ईया) हीय. मन, चित्त, छाती अ० कि० दे० ईर्ष्या, डाह, स्पर्धा, होड़, हिसका (दे०), भूत० स्वी० (व्र न० हेानो = होना) थी, हुती, बराबरी करने का भाव, समता या तुल्यता हती (पु.), भूत हो= था का स्त्री० । की भावना। ही, हीमा - संज्ञा, पु० दे० ( सं० हृदय ) हिस्सा- संज्ञा, पु० दे० (अ० हिस्सः ) | हिय हीय (दे०), हृदय, मन. चित्त, छाती। खंड, अंश, भाग, टुकड़ा, विभाग या उससे "राखौ राम-ध्यान महँ हीरा"-- वासु० । मिला हुआ प्रत्येक का भाग या अंश, होक -- संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० हिक्का) अरुचिहीसा (ग्रा.), तकसीम, बखरा (प्रान्ती०), कारी गंध, बदबू , हिचकी। अवयव. अंग, साझा, अन्तर्भत वस्तु, हीचना*-अ० कि० दे० (हि. हिचस्ना) विभाग। यौ-हिस्सा बाँट-बटवारा, हिचकना, रुकना, खींचन. हींचना (दे०)। विभाजन । स० ० रूप-हिचाना, हिचवाना । हिस्सेदार - संज्ञा, पु. ( अ० हिम्सः + दार- होछना-अ० कि० (दे०) इच्छा करना । फा०-प्रत्य०) साझी, साझेदार, व्यापार में | हीठना-अ० क्रि० दे० (सं० अधिष्ठा ) सम्मिलित, जिसे कुछ हिस्सा या भाग निकट जाना, पहुँचना, समीप या पास मिला हो । संज्ञा, स्त्री० - हिस्सेदारी- होना, फटकना, जाना। साझेदारी। हीन--वि० (सं०) रहित, वंचित. विहीन, हिहिनाना-अ० कि० दे० (हि. हिनहिना) शून्य, छोड़ा या त्यागा हुमा, परित्यक्त, घोड़े की बोली, हिनहिनाना। वियुक्त । निकृष्ट. निम्न कोटि या श्रेणी का, हींग-संज्ञा, स्त्री० दे० ( सं० हिंगु ) एक घटिया, तुच्छ, नीच, बुरा, नाचीज़, पोछा, छोटा पौधा जो ईरान या अफ़ग़ानिस्तान दीन. नम्र, अल्प, कम, निर्बल, अशक्त, में श्राप से श्राप उगता और बहुतायत से सुख समृद्धि रहित । संज्ञा, पु०-अयोग्य या पाया जाता है. इसका अति तीव गंध वाला बुरा गवाह या साती ( प्रमाण में ), अधम दवा तथा मसाले के काम को जमाया हुआ नायक ( साहि.)। गोंद या दूध । " राखौ मेलि कपूर में, हींग हीनकल-वि० यौ० (सं०) नीच वंश या न होय सुगंध"-नीति । कुल का, नीच। हींस-संज्ञा, स्त्रो० दे० (सं० हेष ) गधे या हीनक्राम-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) काव्य का घोड़े के बोलने का शब्द, हिनहिनाहट या एक दुर्गुण, जहाँ गुणी और गुणों की गणना या वर्णन का क्रम उचित, समान या हींसना-अ० कि० (अनु०) हिनहिनाना, | एक सा न हों। गधे या घोड़े का बोलना। | हीनचरित, हीनचरित्र-वि० (सं०) दुराहींसा-संज्ञा, पु० (दे०) हिस्सा। चारी, बुरे आचरण वाला, दुश्चरित्र, भ्रष्टा. हीही-संज्ञा, स्त्री० (अनु०) हँसने का शब्द, चारी, चरित्र-हीन, हीनाचारी। हीनता-संज्ञा, स्त्री. (सं०) अशक्तता, ही-अव्य. ( सं० हि =निश्चयार्थक ) भी, निर्बलता, कमी, अल्पता, त्रुटि, तुच्छता, इसका प्रयोग, निश्चय, परिमिति, स्वीकृति । श्रोछापन, बुद्रता, हिनाई, निकृष्टता, बुराई, अल्पतादि सूचित करने या किसी बात | न्यूनता । रंक। For Private and Personal Use Only Page #1905 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir हुँकार हीनताई १८६४ हीननाई-संज्ञा, स्त्री० दे० ( हि० हीनता) भेद 'पिं०) । संज्ञा, पु० (हि. हीरा, सं० हीनता, हिनाई (ग्रा०)। हीरक ) किसी वस्तु का सार भाग, गूदा हीनत्व-संज्ञा, पु. (सं०) हीनता. कमो। या सत. (लकडी का) सार भाग, धातु, देह हीनबल-वि० यौ० (सं०) निर्बल, अशक्त, की सार-वस्तु, वीर्य, बल, शक्ति. तत्व । कमज़ोर। हीरक-संज्ञा, पु. (सं०) हीग नामक रत्न, हीनबुद्धि-वि० यौ० (सं०) मूर्ख. दुर्मति । हीर छंद पिं०)। "नव उज्वल जलधार निर्बुद्धि धी-विहीन. बेसमझ, दुद्धि । हार हीरक सी सोहति"-डरि० । हीनयान-संज्ञा, पु. (सं०) बौद्ध मत की हीग-संज्ञा, पु० दे० सं० हरिक ) वज्रमणि, एक आदिम और पुरानी शाग्वा जिसके ग्रंथ एक प्रति दृढ़ और चमकीला बहुमूल्य रत्न, पाली भाषा में है। यह स्याम-ब्रह्मा में | कुलिस । वि० (हि.) श्रेष्ठ. उत्तम। महा० रचा गया। विलो०-सहायान । -हीरे की कनी चाटना- हीरे का चूर हीनयोनि-वि० यौ० (सं०) नीच कुन्त या खाकर मरना या आत्म हत्या करना। जाति का। हीराकसीस-संज्ञा, पु० यौ० (हि. हीरा + हीनरस-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) वह कविता कसीस-सं० ) हरापन लिये मटमैले रंग का जिसमें रम न हो, नीरस, रसविरोध, किसी | लोहे का एक विकार, एक औषधि, हीरारस के प्रसंग में उसके विरोधी रस के प्रसंग । कौसीस। के लाने का एक काव्य-दोष (सा.) हीरामन--संज्ञा, पु. यौ० दे० (हि. हीरा+ हीनवीर्य -- संज्ञा, पु०, वि० यौ० (सं०) मणि-सं० ) सोने के से रंग का एक कल्पित निर्बल, अशक्त, बल रहित, नपंसक। सुग्गा या तोता। हीनहयात-संज्ञा, स्त्री० यौ० (अ०) जिंदगी हीलना*-अ० क्रि० दे० (हि. हिलना ) का समय, जीवन काल । हिलना, डोलना, परिचित और अनुरक्त हीनांग-वि० यौ० (सं०) खंडित अंग वाला, होना । किषी अंग से रहित व्यक्ति, अधूरा, अपूर्ण । हीला-संज्ञा, पु० (अ० हीलः) मिस, बहाना। हीनोपमा-संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) उपमा- ___ संज्ञा, पु० (दे०) कीचड़, चहला । यौ.लंकार का एक सदोष रूप, जहाँ बड़े उपमेय | होला-हवाला-बहाना । व्याज, वसीला, के लिये छोटा उपमान लिया जावे ( काव्य.)। निमित्त, द्वार। हीय-हिया* ----संज्ञा, पु० दे. ( हि हिय | हीही- संज्ञा, स्त्री० (अनु०) हसने का शब्द, सं० हृदय ) हृदय, दिल, मन, चित, छाती। हीही शब्द करके हंसने की क्रिया । "दीपक ज्ञान धरै घर हीया"-देव.। हूँ-अध्य० दे० सं० उप = आगे) एक अतिहीयरा*-संज्ञा, पु० दे० (हि. हिय सं० रेक बोधक शब्द, भी, स्वीकृति-सूचक शब्द, हृदय ) हृदय, हिय, दिल, मन, चित, हाँ । " हमहुँ कहब अब ठकुर-सुहाती"छाती, हियरा (दे०)। रामा०। हीर-संज्ञा, पु० (सं०) हीरा नामक हँकरना-अ० क्रि० (द०) हुँकार शब्द करना, रत्न, बिजली, वज्र. साँप । म, स, न, हुँकारना. गाय आदि का प्रेम दिखाते हुए ज, र (गण ) वाला एक वर्णिक छंद बच्चे के लिये बोलना । (पिं० ). ६. ६ और ११ मात्रानों पर हँकार-संज्ञा, पु. (स.) ललकार. पुकार, विराम के साथ २३ मात्राओं का एक डाँटने का शब्द, गरज, गर्जन, चिल्लाहट, .'- छंद (पिं०), छप्पय का ६ वाँ चीत्कार । For Private and Personal Use Only Page #1906 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org १८६५ हुँकारना हुँकारना - अ० क्रि० दे० (सं० हुँकार + नाहि० - प्रत्य० ) गरजना, डाँटना, उपटना, चिल्लाना, चिग्घाड़ना, हुँकार शब्द करना, गाय आदि का प्रेम से बोलना । ', हुँकारी - संज्ञा, स्त्री० (भनु हुँ हुँ + करना ) हाँ हाँ करना, स्वीकृति-सूचक शब्द हामी, हुँकार करने की क्रिया । संज्ञा, पु० बिकारी । मुहा० - हुँकारी भरना - हाँ करना, स्वीकार करना । हुँडार -- संज्ञा, पु० (दे०) भेड़िया । हुँडी - संज्ञा, स्त्री० (दे०) विधिपत्र, लेखपत्र, चेक (अ०), वह लेख जिसे एक महाजन दूसरे को लिखकर किसी अन्य को रुपये के बदले में रुपया दिलाता है । मुह० हुँडी करना - किसी के नाम हुँड । लिखना । हुँडी खड़ी रखना (रहना) - हुंडी के रुपयों का देना स्वीकार न करना ( होना), हुंडी न सकारना (सकरना) । हुँडी चुक करना ( चुकाना ) - हुंडी का रुपया देना । यौ० हुँडी पुरजा | मुहा०-हुँडी सकारना - हुंडी का रुपया देना स्वीकार कर लेना । यौ०-दर्शनी हुँडी--वह हुंडी जिसके दिखाते ही तुरंत रुपया देने या चुकाने का नियम है | रुपया उधार देने की एक रीति जिसमें १५, २०), या २५) वार्षिक लेने वाले को देना पड़ता है । हुँत - प्रत्य० दे० ( ० विभक्ति हिंती ) प्राचीन हिंदी में तृतीया और पंचमी की विभक्ति, से खातिर निमित्त, वास्ते, लिये, द्वारा, ज़रिये, कान, हित, हेतु, हुँने अव्य० (प्र० हित्तो ) से, द्वारा, घोर या तरफ़ से । -- हु - अव्य० दे० ( सं० उप ) अतिरेकसूचक शब्द भी, कथित के अतिरिक्त और भी । " हमहु कहब अब ठकुर सुहाती " - रामा० । हुमाना- हुवाना- अ० कि० दे० ( अनु० हुआ या हुवा ) स्यारों की बोली की नक़ल Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir हुक्म करना, गीदड़ों का बोलना, हुआ हुआ करना । हुक - संज्ञा, पु० दे० (अ० ) टेढ़ी कँटिया | हुकरना - अ० क्रि० दे० ( हि० हुँकारना ) हुँकारना, हुँकरना | हुकारना - अ० क्रि० दे० ( हि० हुंकारना ) हुँकारना । हुकुम - पंज्ञा, पु० दे० ( ० हुक्म ) श्राज्ञा, श्रादेश, निर्देश, निदेश । हुकूमत - संज्ञा, स्त्री० (०) शासन, प्रभुत्व, प्राधिपत्य, अधिकार । मुहा०-- (किसी की) हुकूमत चलना - किसी का प्रभुत्व होना, उसकी श्राज्ञा मानी जाना । हुकूमत चलाना - प्रभुत्व या अधिकार से काम लेना । हुकूमत जताना ( दिखाना ) - प्रभुत्व या रोब दिखाना, बड़प्पन अधिकार प्रकट करना । राज्य, राजनीतिक श्राधिपत्य शासन । हुक्का - संज्ञा, पु० ( ० ) तम्बाकू पीने या उसका धुवाँ खींचने का विशेषाकार-प्रकार वाला एक नल यत्र फरशी गड़गड़ा | हुक्का पानी-संज्ञा, पु० यौ० ( अ० हुक्का + पानी हि० ) एक दूसरे के हाथ से साथ बैठकर जलपान या खाना पानी करने या हुक्का तम्बाकू श्रादि खाने-पीने का व्यवहार, विरादरी या भैया चारे की रीति- रस्म । मुहा० - हुक्का-पानी करना - जल-पान करना, मेल करना | हुक्का-पानी बंद करना - बिरादरी से थलग करना । हुक्कापानी न होना - बिरादरी में न रहना, जाति स्युत होना, जाति या समाज से अलग होना । हुक्काम संज्ञा, पु० ( ० ) हाकिम का बहु वचन, शासक लोग, अधिकारी वर्ग | हुक्म संज्ञा, पु० ( ० ) श्राज्ञा, आदेश, गुरुजनों के वे वचन जिनका पालना कर्तव्य हो, हुकुम (दे० ) । मुहा० - हुक्म उठाना - श्राज्ञा रद करना, श्राज्ञा भंग करना, For Private and Personal Use Only Page #1907 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir हुक्म-नामा हुताशन आदेश पालन करना । हुम की तामील हाकिम की कचहरी, बहुत बड़े लोगों के -आज्ञा पालन । हुक्म चलाना या संबोधन का शब्द । " हुजूर बैठे हैं ख्वाजा जारी करना-प्राज्ञा या आदेश देना। खड़े मिले हैं रुमाल'–पौदा । (बैठे बैठे) हुक्म चलाना-शासन साहुज़री-संज्ञा, पु. (अ. हुजूर ) दरबारी, करना, रोब से आज्ञा देना, प्रभुत्व दिखाना। मुसाहिब, खास सेवा में रहनेवाला दास (किसी का) हुक्म चलना-प्रभुत्व या नौथर । “ हुजूरी गर तुमी ख्वाही अजी या शापन होना। हुक्म तोड़ना - प्राज्ञा | ग़ाफिल मशब हाफ़िज़-हाफ़िज़ । यौ०भंग करना । हुम देना ( लेना)- हाँ-हुजूर-सेवक, चापलूप। मुहा०आज्ञा देना, (लेना । हुक्म बजाना हाँ हुजरी करना-सेवा में रह प्राज्ञा या बजा लाना-प्राज्ञा मानना या पालन पालना, चापलूसी करना। करना । हुम मानना-प्राज्ञा स्वीकृति, । हुजन-संज्ञा, स्त्री० (अ०) विवाद. झाड़ा, आज्ञा पालन करना, श्राज्ञा स्वीकार करना । व्यर्थ का तर्क, तकार। “हुन्जती तकरार अनुमति, स्वीकृति, इजाज़त, अधिकार, हमको कुछ नहीं है हुक्म से' -कु० वि० । शासन, प्रभुत्व, नियम, विधान, शिक्षा, हुन्ज ती वि० ( अ० हुज्जत्त ) हुज्जत या विधि व्यवस्था, ताश का एक रंग। तकरार करने वाला, व्यर्थ तर्क या विवाद हुक्म-नामा-सज्ञा, पु० यौ० ( अ० हुक्म + करने वाला। नामः फ़ा० ) आज्ञा-पत्र, प्रादेश-पत्र, हुक्म हुडकना, हुइकना - अ० कि० दे० (हि. लिखा कागज़, हुकुमनामा (द०)। हुड़क) भयभीत और दुखी होना, तरसना, हुक्म बरदार-सज्ञा, पु० यौ० अ० हुक्म + याद में विफल होना, स्मरण करना । स० वरदार फा०) आज्ञाकारी, सेवक, नौकर, रूप-हुड़काना, प्रे० रूप-डकवाना। प्राधीन दास । सज्ञा, स्रो०--हुक्म-बर- हुड़दा-दु दंगा-संज्ञा, पु० दे० (अनु० दारी। हुड़+ दंगा-हि. ) उत्पात, उपद्रव, बखेड़ा, हुक्मा-वि० ( अ० हुक्म ---ई फा०-प्रत्य०)। हुरदंग (दे०) घमा-चौकड़ी (प्रान्ती० )। पराधीन, प्राज्ञानुवर्ती, सेवक, नौकर, दाप, हुडुक-पज्ञा, पु० दे० (सं० हुडुक ) एक अवश्य प्रभाव करने वाला, अचूक, अमोब, बहुत छोटा ढोल ।। अव्यर्थ, अवश्य कर्त्तव्य, ज़रूरी, लाजिमी, हुडुन -सज्ञा, पु० दे० ( सं० हुडुक्क ) छोटा अनिवार्य, श्रावश्यक। ढोल। हुक्मरां-- वि० (फा०) प्रभुत्व वाला । मुहा० हुडुडुवा-संज्ञा, पु० (दे०) कबड्डी का खेल । -हुक्मरां हाना-शासक होना, हुकूमत हुढका*-सज्ञा, दे० (हि. हुडुक ) हुडुक । करना। हुत- वि० (स०) हवन किया या पाहुति हुक्मरानी-संज्ञा, स्त्री. ( फ़ा० ) शासन, दिया हुआ । अ० कि० होना किया के भूत. अधिकार । " बहुत दिन तक करै वह काल का पुराना रूप, था। हुक्मरानी ताकि हम सब पर"। हुता, हुता*-० कि०व० (हि. हुत ) हुजूम-सज्ञा, पु. (अ.) भीड़ जमघट । हता, हतो (दे०) होना क्रिया के भूतकाल " खटमलों का चारपाई पर हुआ ऐसा का प्राचीन रूप (अव०) था । स्त्री-हुती। हुजूम"--प्रक०। हुताशन-संज्ञा, पु. (२०) श्राग, अग्नि, हुजर-झा, पु. (अ.) समक्षता राज दर हुतासन (द०) । " हुताशनश्चंदन पकबार, किसी बड़े का सामीच, शाही दरबार, | शीतलः "- भो० प्र० । For Private and Personal Use Only Page #1908 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org हुति हुति - वि० (सं०) हवन किया या चाहुति दिया हुआ | व्य० दे० ( प्रा० हितो ) करण और थपादान कारकों का चिन्ह, से, ओर से तरफ से द्वारा, हुली - वि० दे० (सं०) हुत, धाहुति । *अव्य० (दे०) संती, लिये, बजाय । सा० म० स्त्री० (अव०) थी, हती । हुते - अन्य दे० ( प्रा०हितो ) से, भोर से, द्वारा, तरफ़ से । १८६७ हुतां [अ० क्रि० दे० ( हि० होना ) ब्रजभाषा में होना क्रिया के भूत काल का रूप, हतो, था । काना - स० क्रि० दे० ( हि० उसकना ) उसकाना, उभारना, कुदकाना, हुदकावना । अ० रूप- हुकना | हुदना- -- ० कि० दे० ( सं० हुडन ) रुकना, स्तब्ध होना, भौचक या afta होना । हुदहुद संज्ञा, पु० (०) एक पक्षी । हुद्दा -- संज्ञा, १० (दे० ) प्रदा ( फा० ), दर्जा, पद | हुन संज्ञा, पु० दे० (सं० हूण ) स्वर्ण, सोना, मोहर, अशरफ्री। मुहा०-हुन बरसना- धन की अति श्रधिकता होना । हुनर - संज्ञा, पु० ( फा० ) गुण, कला, करतब, कारीगरी, चतुराई, कौशल, युक्ति, हुन्नर (दे० ) । " हुनर से न्यारियों के बात यह सावित हुई हमको ' ज़ौक़ | हुनरमंद - वि० (फ़ा० ) कला - कुशल, चतुर, गुणी, निपुण "हुनरमंदों को वतन में रहने देता गर फलक " जौक | , हुन संज्ञा, ५० (दे०) हुनर (का० ) गुण | वि० ६० हुन्नरी --- गुणी, चतुर । हु ---संज्ञा, पु० (०) प्रेम, स्नेह । यौ०-वतन देश-प्रेम, देश-भक्ति । हुमकना तुमगना- -- प्र० कि० दे० (अनु० हुँ) कूदना, उछलना, पाँवों को जोर देना, उन पर बल लगाना, श्राघात के लिये जोर से पैर भा० श० को ०२३८ हुलसी उठाना, ज़ोर से मारने के लिये पाँव उठाना, उच्चकना, ऊपर उठना, चलने का उपाय करना, ठुमकना ( बच्चों का ) दबाने के लिये बल लगाना, हुमसना (दे०) । स० रूप-हुमकाना । हुमा -- संज्ञा, स्त्री० ( फा० ) एक कल्पित पक्षी, कहते हैं कि इसकी छाया जिसपर पड़े वह बादशाह हो जाता 66 । हुमा थजीं वजह हमा जानवरों शरफ़ दारद हुमेल -- संज्ञा, त्रो० दे० अशर्फियों का हार, मोहरों - सादी० । ( (6 की माला । बाइस पनवाँ जा हुमेल सो घोड़े को दई पिन्हाय ". - धाल्हा० । हुरदंग, हुरदंगा - संज्ञा, पु० दे० (हि०) हुड़दंगा उत्पात, उपद्रव । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir י, י, हुरमत- हुरमति - संज्ञा स्त्री० (०) मानमर्यादा, इज्ज़त- श्रावरू । " हुरमति राखौ मेरी - कबी० । हुरुमयी संज्ञा, स्रो० (सं०) एक तरह का नाच या नृत्य | हुलकी - संज्ञा, स्त्री० (दे०) वमन रोग, धाना, उबांत होना, हैजा । मुहा॰--हुलकी याना (दे० ) - हैजा होना । हुलसना - अ० क्रि० दे० ( हि० हुलास ) प्रसन्नता या आनंद से फूलना, खुशी से भरना, उठना, उभरना, बढ़ना, उमड़ना । "हिये हुलसै वन माल सुहाई” रसनि० । स० क्रि० - प्रसन्न या आनंदित करना । स० रूपप - हुलसाना, मे० रूप-- हुलस For Private and Personal Use Only अ० हमालय ) वाना । हुलसाना- स० क्रि० दे० ( हि० हुलसना ) प्रसन्न या हर्षित करना, हुलसावना (दे० ) । अ० क्रि० (दे०) हुलसना । हुलसी संज्ञा स्त्री० दे० हि० हुलसना ) आनंद या प्रसन्नता की उमंग, उल्लास, हुलाल, तुलसीदास की माता ( मतान्तर से ) । 'हुलसी सी हुली फिरै, तुलसी सों सुत होय "---- रही० । 6. Page #1909 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir हुलड्डल, हुरहुर १८६८ हूकना हुलहुल, हुरहुर-संज्ञा, पु० (दे०) एक लुनाई । “ खुदा जब हुस्न देता है नज़ाकत छोटा पौधा ( औषधि)। प्राही जाती है "---स्फु०। हुलाम-संज्ञा, पु० दे० ( सं० उल्लास ) हुस्नपरस्त-वि० यौ० (फा०) सौंदर्य-प्रेमी, श्राह्लाद, प्रसन्नता या आनंद की उमंग, सौंदर्योपासक । उल्लास, हर्ष, हौसिला, उत्साह, बदना, हुस्न-परस्ती-संज्ञा, पु० यौ० (फा० ) उमगना । संज्ञा, स्त्री. (दे०) तम्बाकू की सौंदर्य-प्रेम, सौंदर्योपासना। सुघनी, मरज़रोशन। हूँ-- अत्र्य० दे० (अनु०) हाँ, स्वीकार या हुलिया-संज्ञा, पु० दे० (अ० हुलिया) समर्थन सूचक शब्द । अव्य० (दे०) -हू, प्राकृति, डील-डौल, किसी व्यक्ति के रूप हूँ। सर्व . -हौं (०)। अ० क्रि० (हि०) रंग आदि का विवरण, सूरत-शकल । मुहा० वर्तमान कालिक क्रिया है का उत्तम पुरुष -हुलिया कराना या लिखाना- किसी एक वचन का रूप (व्या०)। की खोज के लिये उसकी प्राकृति, डील- हूँकना--- अ० कि० (अनु०) गाय का बछड़े डौल या शकल सूरत आदि का विवरण के लिये राँभना (दुख या प्रेम से), हुँकरना, पुलिस में लिखाना । मुहा०-हुलिया हुँकार शब्द करना, शूर-वीरों का ललकारना बिगड़ना (बिगाड़ना)-- बहुत तंग होना | या डपटना। (करना) । हुलिया तबाह करना (होना) हूँठ-हूठा ---संज्ञा, पु० (दे०) हुँठा (दे०) साढ़े - अत्यत तंग करना होना)। तीन, उपका पहाड़ा। " हूँठ पैगदै बसुधा हुल्लड़, हुल्लर-संज्ञा, पु० (अनु०) कोला- | राजा तहाँ करौं तपसारी'—सूर० । हल. शोरगुल, हल्ला . धूम, ऊधम, उपद्रव, । हँण -- सज्ञा, पु. (तु०) एक शक जाति । आंदोजन, हलचल, उत्पात, ग़दर. कांति । हूँस - संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० हिंस) डाह, ईष्यां हुल्लास--संज्ञा, पु० दे० (सं० उल्लास) । बुरी निगाह, या नज़र, कुदृष्टि, फटकार, टोंक, चौपाई और त्रिभंगी के मिश्रण से बना एक | कोसना। छंद (पिं०)। हँसना-स० कि० (हि. हँस) नज़र लगाना। हुश-अव्य० (अनु०) अयोग्य बात के कथन अ० क्रि० (दे०) कोसना, ईर्ष्या से लजाना, का निवारक शब्द, हश। ललचाना। हुसियार हुस्यार*-वि० दे० (फ़ा० हू-अव्य० दे० (सं० उप- प्रांग ) अतिरेकहोशियार ) बुद्धिमान, समझदार, चतुर, वाचक शब्द, भी, हु (दे०) । संज्ञा, पु० निपुण, हो सयार, होस्यार (दे०)। (दे०) कोलाहल (यो० में) जैसे-हू-हल्ला । हुसियारी, हुस्यारी-संज्ञा, स्त्री. (दे०) हूक-संज्ञा, स्त्री० दे० ( सं० हिक्का ) कलेजे होशियारी, धतुरता, चालाकी। या छाती की पीड़ा, दर्द, साल, कसक, पीड़ा. हुसैन-संज्ञा, पु० (अ०) हज़रत मुहम्मद । दुख, संताप, खटका, आशंका । मुहा०साहिब के दामाद, अली के बेटे (नवासे) नो! (कमर में) हूक (चली) जाना-कमर करबला में मारे गये थे और जिनके शोक में , की नम टल जाना और पीड़ा होना । मुहर्रम मनाया जाता है, हुसेन (दे०)।। " कोकिल की कूक हिये हक उपजावै है " "जिनको हुसैन और हसन हैं बहुत अज़ीज' | -सरस। हूकना-अ. क्रि० दे० ( हि० हूक+ना हुस्न-संज्ञा, पु० (अ०) लावण्य, सुन्दरता, प्रत्य.) दुखना, सालना, पोड़ा या दर्द सौंदर्य, प्रशंसनीय बात, खूबी, सुबराई, करना, पीड़ा से चौंक पड़ना। ख. क्रि० For Private and Personal Use Only Page #1910 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir हटना १८६६ हृदयग्राही (दे०) दुखाना । "कूकन लागी न कोइलिया हुलने का भाव या क्रिया संज्ञा, स्त्री० (दे०) वा बियागिनि को हिये इकन लागी"। कपक, पीड़ा, शूल, हर्ष-तरंग. कोलाहल । हटना--अ० कि० दे० ( सं० हुइ --चलना ) हाश, हस-वि० (हि० हूड़) अशिष्ट, जगली, टलना, हटना, फिरना मुड़ना, पीठ फेरना।। अनभ्य, बेहूदा, उजड्डु गँवार । १० रूप-हुटाना। हह --संज्ञा, स्त्री० अनु०) कोलहल, गरज, हठा--संज्ञा, पु० दे० सं० अगुष्ट ) गँवारू हुकार, रण नाद, हू-हल्ला । " कपि-दल या भद्दी चेष्टा, अँगूठा दिवाने की प्रशिष्ट चला करत अति हूहा"----रामा० । मुद्रा, टेंगा, 3गा (प्रान्ती.)। मुहा- हहू -- संज्ञा, पु. (सं०) गंधर्व । संज्ञा, पु. हटा देना(दिखाना-टेंगा देना दिखाना), अनु०) अग्नि के जलने का धाँय-धाय हाथ मटकाना (अशिष्टता-सूचक) शब्द, हव्वा (कल्पित दैत्य या प्रेत । हुड- वि० (दे०) लापरवाह, उजड्ड : हा-वि० (सं०) हरण किया या लिया हुश्रा, हा -- संज्ञा,पु० (दे०) हैण, एक मंगोल जाति चुराया या छीना हुधा पहुँचाया हुआ। की शाखा जो प्रवल हो धावा करती हुई हरि--संज्ञा, स्त्री० (सं०) हरण, नाश, लूट, थोरूप और एशिया के सभ्य देशों में फैली ले जाना । थो (इति०) । हृत् --संज्ञा, पु० (सं०) हृदय । यो०-हृदयाम। हुदा--संज्ञा. पु. ( अ० ) योग्य, लायक । हृत्कए- संज्ञा, पु० यौ० (सं०) हृदय का बिलो. बेहूदा । संज्ञा, पु० (दे०) धक्का, कंपन. हृदय-स्पंदन, अति भय, अति भोति। शूल, पीड़ा हृता पज्ञा, मुं० यौ० (सं०) हृदयोलाय. हबहू--वि० (अ०) ठोक ठीक वैसा ही, ज्यों मन की मौज। का त्यों, सर्वथा समान । हृत्पटल-संज्ञा, पु. यो. (सं०) हृदय-पटल। हर-संज्ञा, स्त्री. (अ०) स्वर्ग की अप्सरा हृत्पिड संज्ञा, पु. यौ० (सं०) हृदय, (मुस०) । “ मुझे तो हूर बेहश्ती की भी कलेजा, दिल। परवाह नहीं"-स्फु०। हृद-संज्ञा, पु० (सं०) हृदय, दिल, कलेजा ! हल-संज्ञा, सी० दे० (सं० शूल ) भाला, हृदधाम --संज्ञा, पु. यौ० (सं०) हृदय । लाठी, दंडा या छड़ी आदि की नोक को हृदयंगम-वि• यौ० (सं०) समझ में पाया जोर से भोंकना या उससे ठेलना. शूल, हुआ, मन या चित्त में बैठा हुआ, हृदय में हूक, पीड़ा । संज्ञा, स्त्री० (अनु०) हल्ला. समाया हुआ। शोर-गुल, कोलाहल, हर्प-ध्वनि, धूम, हृदय-संज्ञा, पु. (सं.) कलेजा, दिल, ललकार, श्रानंद, हर्ष, खुशी। " हूलहूले छाती, वक्षस्थल, छाती के वाम भाग में से हिये मैं हाय"-उ० श० । भीतर का मांस-कोश जिसमें से होकर शुद्ध हूलना-हरना-स० कि० दे० ( हि० हल + रक्त नाड़ियों के द्वारा सारी देह में सञ्चार ना-प्रत्य०) भाला था लाठी भादि की नोक करता है, हर्ष, प्रेम, शोक, क्रोध करुणादिभोंक देना या घुसेड़ना या उससे किसी को मनोविकारों का स्थान, मन, चित्त, हिरदा, ठेलना, घुसाना, गढ़ाना, पीड़ा या शूल पैदा हिरदै. हिय. हीय (दे०) । मुहा० - हृदय करना । " नहि यह उक्त मृदुल श्रीमुख की विदीर्ण होना बड़ा भारी शोक होना। जो तुम उर मैं हुलहु".-भ्र०। अंतरात्मा, अंत करण, बुद्धि. विवेक । हूला-हल-संज्ञा, पु० दे० (हि. हूलना) हृदयग्राही.. संज्ञा, पु. यौ० (सं० हृदयग्राहिन्) For Private and Personal Use Only Page #1911 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir हत - - हृदयनिकेत १६०० मन को मोहित करने वाला, हृदय हरने हृषीकेश -संज्ञा, पु० यौ० (सं०) विष्णु, वाला । स्त्री०-हृदयग्राहिणी। ईश्वर, श्रीकृष्ण जी, पूस का महीना, इदियहृदयनिकेत-संज्ञा, पुन्यौ० (सं०) कामदेव ।। पति । हृदयविदारकवि• यौ० ( सं० ) अति हग वि० (सं०) अत्यन्त प्रपन. प्रति दया, शोक या करुणा उत्पन्न करने वाजा। हर्षित। हृदयवेधी-वि० यौ० (सं० हृदयवेधिन् ) हप-पुष्ट-वि० यौ० ( सं० ) दृधा-कट्टा, मन मोहित करने वाला, अति शोकप्रद, मोटा-ताजा, तगड़ा। प्रति कटु, हृदय को वेधने वाला। स्त्री० हह-संज्ञा, पु० (अनु०) धीरे से हमने या हृदयवेधिनी गिड़गिड़ाने का शब्द । गुहार--हे हैं हृदयस्पर्शी-वि० यौ० ( सं० हृदयस्पर्शिन् ) करना-अनुनय-विनय करना। हृदय पर प्रभाव डालने वाला। स्त्री० हंगा-हैंगा- संज्ञा, पु० दे० ( सं० अभ्यंग ) हृदयाशिनी। जुते हुए खेत की मिट्टी बराबर करने का हृदयस्पंदन-संज्ञा, पु. यौ० (सं० ) हृदय | पहा, एहटा (प्रान्ती०)। का स्वास के कारण काँपना, हृदय की गतिः । हे-अव्य० (सं० ) संबोधन शब्द, रे, अरे । हृदयहारी-वि० (सं० हृदयहारिन् ) मन "हे कदम्ब हे अम्ब निम्ब हे जम्ब सुहावन" को लुभाने या मोहित करने वाला, -स्फु० । अ० कि० (बज०) हो (था) का हियहारी (दे०) । स्त्री०-हृदय-हारिणी। बहुवचन, थे। हृदया-संज्ञा, पु० दे० ( सं० हृदय) हिरदा, हेकड़-वि० दे० यौ० (हि. हिया -- कड़ा) (दे०), मन, दिल, कलेजा, छाती, वक्षस्थल । कड़े दिल का, साहसी, हिम्मतवर, हृष्टपुष्ट, "जाकी जिभिया बन्द नहि, हृदया नाही मोटा-ताज़ा, प्रबल, बली, जबरदस्त, प्रचंड, साँच " ----कबीर० । उजड्डु, अक्खड़, उइंड । हृदयाकर्षक-वि० यौ० (सं०) चित्ताकर्षक, हेकडी- संज्ञा, स्त्री० ( हि० हेकड़ ) उग्रता, मनोरम । संज्ञा, पु०-हृदयाकर्षण । स्त्री०- प्रचंडता, ज़बरदस्ती, दृढ़ता. साहस, हृदयाकर्षिका, हृदयाकर्षिणी। वलात्कार, अक्खड़पन, उजडता, बहादुरी। हृदयेश-हृदयेश्वर-संज्ञा, पु० यौ० ( सं०) हेच-वि० (फा० ) तुच्छ, नाचीज़ पोच, प्रियतम, प्यारा, स्वामी, पति । स्त्री०- निःसार, नीच । संज्ञा, स्त्री०-हुंची। हृदयेशा, हृदयेश्वरी।। हेट, हेठ-क्रि० वि० (दे०) नीचे, तले । “हेठ हृदि -क्रि० वि० (सं०) हृदय में। दाधि कपि-भालु निशाचर" - रामा० । हृदगत--वि• यौ० (सं०) मानसिक, प्रांतरिक, हेठा--वि० दे० (हि. हेठ =नीचे ) तुच्छ, भीतरी, मन में बैठा या समाया हुआ, हृदय नीचा, कम, घटकर, नीच, हेय । ज्ञा, स्त्री. में जमा हुआ, हृदय का, रुचिकर, भिय, -हंठाई। रोचक । स्त्री० -हृदुगता। इंदापन ---संज्ञा, पु. (हि. हेठा - पनहृद्य-वि० (सं०) भौतरिक, दिल का, प्रत्य. ) क्षुद्रता, नीचता, तुच्छता । भीतरी, सुन्दर, अच्छा लगने या लुभाने हेठो, हेटी-संज्ञा, स्रो० (हि० हेठा) अपमान, वाला, सुहावना, स्वादिष्ट, हृदय में पैठा। मान-हानि, तौहीन, अप्रतिष्ठा मान-मर्यादा हुआ, रुचिका, रोचक, हृदय का लुभावना। में न्यूनता या कमी, नाकदरो, अनादर। हपि --संज्ञा, स्त्री० (सं०) प्रानन्द, हर्ष । हेत--- संज्ञा, पु० दे० (सं० हेतु हेतु, कारण, हृषीकि- संज्ञा, पु. (सं०) इन्द्रिय। सबब, वजह, लिये, वास्ते, उद्देश्य, For Private and Personal Use Only Page #1912 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir हेरंब अभिप्राय, उत्पन्न करने वाला, तर्क, दलील, लंकार (के०), उपमा का वह रूप जिसमें दूसरी बात के सिद्ध करने वाली बात, कारण भी दिया हो। मित्र, हितू. हित, मेल । हत्वपगुति-संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) हेति-संज्ञा, स्त्री० (२०) अग्नि की लपट, अपहति अलंकार का वह भेद जिपमें प्रकृत भाला, चोट ! के निषेध का कुछ कारण भी कहा गया हो हेती-संज्ञा, पु० दे० (सं० हेतु) प्रेमी, संबंधी, (श्र० पी०) नातेदार, हितेच्छु, हितू, मेली। यौ० - हेत्वाभास-संज्ञा, पु० य (सं०) किसी हती-व्यवहारी। पक्ष के सिद्ध करने को ऐका कारण ला हेतु-संज्ञा, पु० (सं०) उद्देश्य, वह बात जिसे रखना जो कारण सा तो प्रतीत हो पर ध्यान में रख कर अन्ध बात की जाये, वस्तुतः ठीक कारण न हो, असत् हेतु अभिप्राय, कारण, सबब, वजह, उत्पादक, (न्याय०) या कारक विषय, उत्पन्न करने वाला (वस्तु डेमंत--संज्ञा, पु. ( सं० ) शीन काल, ६ या व्यक्ति), दलील, तर्क वह बात जिससे ऋतुनों में से एक ऋतु जो अंगहन-पून मास दूसरी बात सिद्ध हो, साध्य का साधक में मानी जाती है। " ग्रीषम वर्षा शरद विषय, एक अर्थालंकार जिसमें कारण ही हेमन्त"। को काय कह दिया जाता है (काव्य०)। वि० (३०) संप्रदान कारक का चिन्ह, लिये, हेम--संज्ञा, पु. ( सं० हेमन् ) पाला, हिम, वास्ते, हित, अर्थ, काज, हेतू (दे०)। बर्फ, सोना, कंचन, स्वर्ण । " हिम बबर " तुमरेहि हेतु राम वन जाही"---रामा । मरकत घवर लसत पाटमय डोर-रामा० । सज्ञा, पु० सं० हित, प्रेम-सम्बन्ध, प्रीति, कृष्ण कपोटी पै परख, प्रभ हेम खुलि लगाव, अनुराग, मेल, मित्रता । जाय"--रसाल। हेतुवाद ---सज्ञा, पु० यौ० (सं०) कारणवाद. | हेपकर -संज्ञा, पु० यौ० (सं०) हिमालय के तर्क विद्या, कुतकं, नास्तिकता, कारण कार्य ऊपर की एक चोटी, हिमाद्रि से उत्तर का सम्बन्धी सिद्धान्त । वि० -तुवादी। एक पर्वत पुरा०) हेमाद्रि, सुमेह । हेतुशास्त्र--सज्ञा, पु० यौ० (सं० तर्क-शास्त्र. हेमगिरि - संज्ञा, पु० यौ० (सं०)सुमेरु पहाड़। न्याय-शास्त्र। हेमचन्द्र-संज्ञा, पु. ( सं० ) गुजरात-नरेश हेतुतुबद्भाव-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) कार्य- कुमारपाल के गुरु एक जैनाचार्य ( सन् कारण भाव, कार्य और कारण का अन्योन्य १०८६ -- ११७३ के बीच में थे) इन्होंने व्याकरण और कोश की कई पुस्तकें सम्बन्ध । हेतु हेतुमद्भ तकाल-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) लिखी हैं। क्रिया के भूतकाल का वह भेद जिसमें हेमपर्वत-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) सुमेरु पहाड़। ऐसी दो क्रियायें हों कि एक का होना अन्य हेमाद्रि--- संज्ञा, पु० यौ० (सं०) सुमेरु पहाड़, के होने पर निर्भर हो या ऐमी दो बातों एक प्रसिद्ध ग्रंथकार (ई० १३वीं शताब्दी)। का न होना सूचित हो जिनमें दूसरी प्रथम हमाचल - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) सुमेरु पर्वत। पर निर्भर हो (ज्या०) हेय---वि० सं०, त्यागने या छोड़ने योग्य, हेतू - विभ० (३० हेतु. वास्ते । संज्ञा, पु० त्याज्य. निकृष्ट. रा. तुच्छ, नीच, गोच, (दे०) हितू , हेती। निंद्य । “हेयम् दुःख-मनागतम्''-सांख्य । हेतृपमा-संज्ञा, खी० यौ० (सं०) उत्प्रेक्षा- हेरंब-संज्ञा, पु. (सं०) गणेश जी, हेरम्ब । For Private and Personal Use Only Page #1913 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १९०२ " हेरम्ब षड-मुख जीति तारकनंद को जब पुकार, बुलाना । स्त्री. प्रत्य. या विभक्ति ज्यों हस्यो"- रामा। (यो०) ऐरी, अोरी, अरो। मुहा०-हेरी हेरा--संक्षा, स्त्री० दे० (हि. हेरना) तलाश. | देना (लगाना)--पुकारना, आवाज़ देना खोज, उद। संज्ञा, पु० (दे०) --अहेर. शिकार। (लगाना )। पु० यौ० विभक्ति( संबोधन ) हेरना-स० क्रि० दे० (सं० आखेट) खोजना, हे, रे। सा० भू० स० क्रि० स्त्री० (हि. ढूँढना, तलाश करना, पता लगाना, ताकना. हेरना ) निहारी देखी. ढूँढी. परवी। देखना, परखना, जाँचना, देखना, निहारना। हेल - संज्ञा, पु० दे० (हि. हील ) कीचड़, " हेरत रहेउँ तोहि सुत-धाती"--रामा० । कींच, गोबर-मिट्टी का खेप, गोबर इत्यादि। " हारे से हरे से रहे हेरत हिराने से"- (यौ० में) मेल, जैसे-हलमेल । अ. श० । स० रूप-हेराना, प्रे० रूप- हेलना-१० कि० दे० (सं० वेलन ) खेल हेरवाना। करना, केलि या क्रीडा करना, हंसी-ठट्ठा हेरना-फेरना-२० क्रि० ( हि० अनु० हेरना करना। स० कि० (दे०) तुच्छ समझना, +फेरना ) परिवर्तन करना, बदलना, इधर- अवहेलना करना । अ० क्रि० दे० (हि. उधर करना, उलटना-पलटना। हिलना) घुसना, प्रवेश करना, पैठना, तैरना, हेर-फेर-संज्ञा, पु. यौ० (हि. हेरना+ पैरना, प्रविष्ट होना। फेरना ) चक्कर, घुमाव बात का प्राडम्बर, | हेलमेल-संज्ञा, पु० दे० यौ० (हि. हिलना दाँव पेंच, कुटिल युक्ति, चाल, विनिमय, __ +मिलना) मेल-जोल, मित्रता, घनिष्टता, रूपान्तर, अदल-बदल, इधर का उधर संग-पाथ, रन्त-जन्त. परिचय सोहबत, परिवर्तन, अंतर, उलट-पलट, उलट-फेर। मिलने जुलने का सम्बन्ध । सज्ञा, पु०, वि० • दिनन के फेर सो भयो है हेरफेर ऐसो (दे०) हला-मेली। जाके हेरफेर हेरबोई हिरबो करें-ऊ० श. । हेला - संज्ञा, स्त्री. ( सं०) तुच्छ या हीन हेरवाना--स० कि० (हि. हेरना) गँवाना, समझना, तिरस्कार, क्रीड़ा, खेल, खेलवाड़, खो देना स० कि० (हि. हेरना) ढ्दवाना, केलि, प्रेम की क्रीड़ा, एक हाव, नायक खोज या तलाश करवाना, खोजवाना से मिलने के समय में नायिका की विनोद. दिखवाना। सूचक सविलास क्रीड़ा की मुद्रा (सा.) हेराना-प्रकि० दे० (सं० हरण) खो जाना. संज्ञा, पु. (हि. खेलना) मेहतर, हलालन रह जाना, पास से निकल जाना, नष्ट या खोर, मैला उठाने वाला । स्त्रो०-लिन । लुप्त होना, छिप जाना, सुधि-बुधि भूल ! संज्ञा, पु० दे० (हि. रेलना ) रेलने या जाना, फीका या मन्द पड़ जाना, तल्लीन या ठेलने की क्रिया का भाव । संज्ञा, पु० दे० तन्मय हो जाना, अभाव हो जाना । स० (हि० हल्ला) हाँक, धावा, पुकार, चढ़ाई, कि० दे० (हि. हेरना का प्रे० रूप) खोजवाना. . भाक्रमण । तलाश करवाना, हुँदवाना, दिखवाना, हेली*-अव्य० दे० यौ० (संबो० हे+ अली) बँचाना। हे सखी। संज्ञा, स्त्री० सहेली, सखी। हेराफेरी-संज्ञा, स्त्री० दे० यौ० (हि. हेरना हेलीमेली--संज्ञा, पु० यौ० (हि. हेल-मेल) +फेरना ) हेरफेर, इधर का उधर होना या संगी साथी। करना. अदल-बदल, परिवर्तन, विनिमय, हेवंतसंज्ञा, पु० दे० (हेमन्त) हेमन्त ऋतु । उलट-पलट । । हैं-अव्य० (हि.) श्राश्चर्थ सूचक शब्द, ऐं. हरी * - संज्ञा, स्त्री० यौ० (संबोधन-हे--री)। अरे, निषेध या असम्मति सूचक शब्द, रोकने For Private and Personal Use Only Page #1914 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ११०३ होंठ, होठ या मना करने का शब्द । अ० क्रि० (हि. व्यग्र । " तेरे दर पै खड़ा हैरान हूँ मैं देख सत्तार्थक होना क्रिया के वर्तमान काल के शौकत को"--स्फु०। यौ०-हैरानहै का बहु वचन रूप, ( सम्मानार्थ में एक परेशान । संज्ञा, स्त्री-हैरानी। वचन)। । हैवान--संज्ञा, पु० अ०) जानवर. पशु, है--अ० क्रि० ( हि० होना ) सत्तार्थक होना । बे समझ, बेवकूफ, गवार या मूर्ख मनुष्य । क्रिया के वर्तमान काल का एक वचन रूप । " नहीं है उन्स तो इन्सान है हैवान से बढ़ * संज्ञा, पु० दे० ( सं० हय ) घोड़ा। हैकड़-वि० द० (हि० हेकड ) कड़े दिल हैवानी-वि० (अ. हैवानी) पाशविक, का, हेकड़, बहादुर, साहसी। संज्ञा, स्त्री० पशु-सम्बन्धी, पशु का, पशु के करने योग्य (दे०) हेकड़ी। काम। हैकल-सज्ञा, स्त्रो० दे० यौ० (सं० हय+हैसियत-संज्ञा, स्त्री० ( अ०) लियाकत, गल ) घोड़ों के गले का एक गहना, हुमेल, योग्यता वित्त, सामर्थ्य, शक्ति, विसात, ताबीज़ । " डारि हैकलें दई गरे माँ औ प्रतिष्ठा. औक़ात, समाई. दरजा, श्रेणी, धनमोहरन की बढ़ी हुमेल''---श्रा० ख०। दौलत, आर्थिक दशा, मान-मर्यादा । वि. हैजा-पंज्ञा, पु० दे० (अ. हैजः) विशूचिका हैसियतदार । संज्ञा, स्त्री० हैसियतदारी। रोग, कै और दस्त होने का रोग, बदहज़मी। हैहय संज्ञा, पु० (सं०) कलचुरि नाम से है। - अव्य० ( अ०) शोक, अफ़सोस, हाय, प्रसिद्ध एक क्षत्रिय वंश, जिसकी उत्पत्ति हा। " हैफ तुमने न की कुछ इल्म की यदु से कही गई है, हैहै (दे०), हैहय-वंशी, दौलत हामिल '' .- कु. वि०। सहस्त्रार्जुन. कार्तवीर्य। हैबत - संज्ञा, स्त्री. (अ०) डर. भय, दहशत। हैहयराज, हेहयाधिराज-संज्ञा, पु. यौ० हैबर*---संज्ञा, पु० दे० यो० (सं० ह्य+ वर ) (सं०) हैहयवशी, कार्तवीर्य, सहस्त्रार्जन, श्रेष्ठ या अच्छा घोड़ा। हैहयेश, हैहयनाथ, हैहयपति, हैहयहैम-वि० (सं०) सोने का, स्वर्णमय, नायक, हैहयाधिपति । " हैहयराज करी सुनहले रंग का । स्त्रो०-हैमी। वि० (सं.)। सो कोगे"-राम० । हिम सम्बन्धी, सुषार का, बर्फ या जाड़े में हैहै-भव्य० दे० (सं० हाहा ) दुःख या होने वाला। शोक-सूचक शब्द, हाय हाय, शोक. हाहा । हैमवत-वि०(सं.) हिमालय का, हिमालय- संज्ञा, पु० (दे०) हैहय (सं.)। यौ० प्र० सम्बन्धी । स्रो० --हैमवती । सज्ञा, पु०- क्रि० ० एक व० (हि. होना)। हिमालय वासी. एक सम्प्रदाय, एक राक्षस। हों-अ० क्रि० ( हि० ) सत्तार्थक होना क्रिया हैमवती--संज्ञा, स्त्री० (सं०) पार्वती जी, का संभाव्य भविष्यत काल के बहु० का गंगा जी। रूप, होवे, होय होय (दे०)। हैरत--संज्ञा, स्त्री. ( अ० ) अचरज, अचंभा, | होंठ, होठ-संज्ञा, पु० दे० (सं० पोष्ठ) श्राश्चर्य । “ हुई हैरत बड़ी मुझको जो श्रोष्ठ, मुख-विवर का दाँतों को ढाकने देखा पाइना मैंने'-स्फु० । यौ०-हेरत- वाला उभरा हुआ किनारा, रदच्छद, भोंठ, अंगेज --- श्राश्चर्यजनक । मुहा०-हैरत ओठ (दे०)। मुहा० ..होंठ काटना या में ग्राना-चक्ति होना । चबाना-भीतरी क्षोभ या क्रोध प्रकट हैरान - वि० (१०) चकित, अचंभित, करना । होंठ फड़कना- क्रोधादि से पाश्चर्य से स्तब्ध, भौंचक्का, तङ्ग, परेशान, श्रोष्टों का कंपित होना। For Private and Personal Use Only Page #1915 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org हो हो- संज्ञा, पु० (सं०) एक संबोधन शब्द ऐ. रे. हे । अ० क्रि० (हि०) सत्तार्थक होना क्रिया के काल तथा वर्तमान काल क हो १६०४ में मध्यम पुरुष के बहुवचन का रूप ( श्रव० ), हांवे व्रज ० ) वर्तमान कालिक है के सामान्य भूत का रूप था । होई संज्ञा स्त्री० दे० ( हि० होना ) दिवाली से ८ दिन पूर्व एक पूजन ! अ० क्रि० ( हि० होना ) होगा, है, होइ है ( ० ) । अव्य० (दे०) होगा कोई चिन्ता नहीं । होऊ - प्र० क्रि० दे० ( हि० होना ) होवो, हो, हो जायो । 1 •----- होड संज्ञा, स्त्री० दे० ( स० हार = विवाद ) बाजी बदना, शर्त लगाना, बाज़ी, शर्त, स्पर्धा, एक दूसरे से बढ़ जाने या समान होने का यत्न या उपाय, समानता, बराबरी, हठ, श्राग्रह, जिद, टेक । यौ०:- परस्पर होड़ । यौ० - होड़ाहोड़ा-होड़ होड़ी होड़ावदी संज्ञा स्त्री० (हि० होड़ ) चढ़ाऊपरी, लाग-डॉट शर्त, बाजी, होडा-होड़ी (दे०) । i होड़ा-होड़, होड़ा होड़ी - - संज्ञा, स्त्री० यौ० दे० ( हि० होड़ ) बाजी, चढ़ा- ऊपरी, शर्त, लाग- डाँट, बदावदी । होड़ा चक्र - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) ज्योतिष में गणना की एक बीति । होता - संज्ञा स्त्री० दे० ( हि० होना) सम्पन्नता, पास धन होने की दशा, समाई, सामर्थ्य, वित्त, समृद्धि । ० कि० दे० ( हि० होना ) हेमा सूचक होता । होतच होतञ्च संज्ञा, ५० द० ( हि० होन - हार ) होनहार होतव्यता होतव्यता संज्ञा स्त्री० दे० ( हि० होनहार ) होनहार होनहारी, भवितव्यता । तुलसी जस होतव्यता, तैसी मिलै सहाय । " होता- पंज्ञा, पु० (सं० होतृ ) यज्ञ में Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private and Personal Use Only होना DARYTER HOA SENA. स्त्री० - [होत्री । प्र० श्राहुति देने वाला क्रि० (हि होना हे० हे० सूत । 16 " होती - संज्ञा, सी० दे० ( हि० होना) समाई. सम्पन्नता, धन होने का भाव, सामर्थ्य, योग्यता, वित्त । मुहा० (दे०) -होनी दिखाना - सम्पन्नता या घमंड से शान दिखाना, अपव्यय करना। अ० क्रि० हि० होना) हे० हे० भूत० स्त्री० होनहार - वि० ( हि० होना । हारा प्रत्य० ) जो होने को हो या जो होकर हो रहे होने वाला, जो अवश्य होने को हो, उन्नति करने वाला, अच्छे लक्षणों या गुणों वाला, जिसके श्रेष्ठ होने या बढ़ने की आशा हो । "होनहार होइ रहें, मिटे मेदी न मिटाई --राम० । होनहार बिरवान के होत चीकने पात - नीति० । संज्ञा, पु० हि० ) भावी, भवितव्यता होनी वह बात जो श्रवश्यम्भावी हो, जो होने का हो । होना- - स० क्रि० दे० (सं० भवन ) क क्रिया, उपस्थिति मौजूदगी वर्तमानता सूचक क्रिया, अस्तित्व रखना । मुहा ( किसी के) होकर ( हो ) रहना-किसी को अपना कर उसके साथ आश्रय में) रहना किसी का होना किसी के अधिकार में या आज्ञावर्त्ती होना श्राधीन होना, किसी का प्रेमी या प्रेमपात्र होना, धात्मीय, कुटुम्बी या संबंधी होना, रुगा होना। कहीं का होना या रिश्ते में कुछ लगना, हो रहना ( हो जाना ) - कहीं से न लौटना बहुत ठहर या रुक जाना। कहीं से होकर या हुये ) जाना- गुज़रने हुये, मध्य से या बीच से, बीच में ठहरने हुये पहुँचना, जाना. मिलना । हो आना - भेंट करने को जाना. मिल थाना होने पर -- पास धन होने की हालत में संपन्नता या समाई में । एक से दूसरे रूप में थाना रूपान्तर में थाना, दूसरी दशा, स्वरूप या गुण प्राप्त करना । } Page #1916 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir हानो होरेश मुहा०-होने की बात (है)-सम्पन्नता या अग्नि में डालना । मुहा०—होम कर समाई समृद्धि) की बात, मामर्थ्य का काम | दना-जला डालना. बरबाद कर देना, (है)। होना क्या है ---कुछ फल नहीं । भस्म कर डालना, स्वाहा कर देना, नष्ट या होना होवाना, कुछ नहीं होना था सो नारा कर डालना. छोड़ देना, उत्सर्ग या हुआ ( हो गया होनहार हो गई। त्याग कर देना । होम हो जाना--जल या होना हो मा हो-भावी-फल की चिन्ता नष्ट होना, स्वाहा हो जाना। नहीं, कोई परवाह नहीं। मुहा०—हो होमकंड- सज्ञा, पु० यौ० (सं०) होम करने वैठना-बना जाना, अपने का समझने या का गड्ढा, हवन-कुंड । प्रकट करने लगना , मासिक धर्म से होना। हामना-स० क्रि० दे० (सं० होम + नाकाय का साधित या संपन्न किया जाना, प्रत्य०) हवन करना. देवादि के लिये अग्नि सरना, भुगतना । मुहा०- किसी के) में घृतादि डालना उत्पर्ग या त्याग करना, हो वैठना (चुकना) - किसी को अपना नष्ट या बरबाद करना, छोड़ देना । "हामहिं लेना । हा जाना या हो चुकना सुत्र की कामना, तुमहि मिलन को लाल" (चलो ) हो चुका-पूरा होना, समाप्ति पर पहुँचना, बनना, तुम्हारे किये न होगा, होमीय-वि० (सं०) होमका, होम-सबंधी। रचा जाना, निर्माण किया जाना, किसो | होरमा- सज्ञा, पु० द० सं० घष घिसावा) घटना या व्यवहार का प्रस्तुत रूप में आना, पत्थर की छोटी गोल चौकी जिस पर चंदन घटित किया जाना । मुहा• होकर । रगड़ते या रोटी बेलते हैं चौका चका। रहना- अवश्य घटित होना, न टलना, स्त्री० अल्पा०-हारसी। जरूर होना. किपी रोग, अस्वस्थता व्याधि, होरहा-सज्ञा, पु० दे० (सं० हेालक ) चने प्रेत बाधा श्रादि का पाना, व्यतीत होना, का पौधा, चने के कच्चे दाने बिरवा गुजरना बीतना, नतीजा देखने में थाना, (पान्ती०)। परिणाम या फल निकालना. जन्म लेना. | होग-सक्षा, पु० दे० (हि. हेला ) होला, प्रभाव या गुण देख पड़ना । काम निकलना, द्वारा (ग्रा.) । संज्ञा, स्त्री० [(२०) (यूनानो प्रयोजन या कार्य साधना, क्षति या हानि __ भाषा से)] एक घंटा या ढाई घड़ी का समय, पहुँचना, काम बिगड़ना। एक राशि या लग्न का प्राधा या एक होनी-संज्ञा, स्त्रो० दे० ( हि. होना ) अहोरात्र का २४ वाँ भाग. जन्म-कुंडली। पैदाइश, उत्पत्ति, समाचार, वृत्तांत, हाल, यौ०-होराचक्र-जन्मांक (ज्यो०)। भावो, भवितव्यता, होनहार, अवश्य | होग्लि-संज्ञा, पु० (दे०) नवीन उत्पन्नहोने वाली, ध्रुव बात. जिसका होना संभव बालक, नवजात शिशु, होरिला-एक हो । “निज निज मुखन कही निज होनी" | पक्षी, हारिन । --रामा० । " होनी होय सो होउ"- होरिहार*-संज्ञा, पु० (हि.होरी+ हारमुहा०—होनी जानना या देखना- प्रत्य०) होली खेलने वाला। " होरिहारन होनहार बात का जानना या ज्ञात करना। पै प्रतिसै सरसै"-रा. घु.। होनी न टलना-होनहार का हो कर ही होरी-संज्ञा, स्त्री० दे० (हि. हाली ) होली रहना। फाल्गुन की पूर्णिमा का एक त्योहार, फाग । होम-संक्षा, पु. (सं०) हवन, यज्ञ, अग्नि- होरेश-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) जिस राशि की होत्र, देवादि के उद्देश्य से घृत, जौ आदि होरा में जन्म हो उसका स्वामी ग्रह । भा० श० को०-२३६ For Private and Personal Use Only Page #1917 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir होला होस होला-संज्ञा, स्त्री० (सं०) होली का त्योहार । होना, दिमाग़ ठीक करना, अपने को संज्ञा, पु०-सिक्खों की होली जो हिंदुओं | सँभालना, सावधान होना। होश में की होली के दूसरे दिन होती है । संज्ञा, पु० | अाना - चेतना प्राप्त करना, ज्ञान या (सं० हालक ) भाग में भूनी हुई चने या | बोध की वृत्ति को फिर से प्राप्त करना मटर श्रादि की फलियाँ, चने का हरा दाना, सतर्क या सावधान होना । होश की दवा होरहा, होरा (दे०)। करो-बुद्धि या ज्ञान ठीक करो, समझहोलाटक-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) होली से बुझकर बोलो । (किसी के ) होश पूर्व के आठ दिन जिनमें विवाहादि कार्यो ठिकाने करना-ताड़ना श्रादि देकर उसे के करने का निषेध है, जरता बरता सतर्क और सावधान कर ठीक रास्ते पर (प्रान्ती०)। लाना। होश ठिकाने होना (ग्राना)होलिका-संज्ञा, पु० (सं०) हिरण्यकशिपु भ्रांति या मोह मिट जाना या दूर होना, की बहिन, एक राक्षसी, होली का त्योहार, बुद्धि या ज्ञान ठीक होना, चित्त की होली में जलाने का लकड़ियों श्रादि का व्याकुलता या घबराहट. मिटना सावधानी ढेर। श्राना, दंड भोग कर भूल का पश्चाताप होली—संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० हेालिका) करना ( होना ) होश संभालकर बातें फाल्गुन-पूर्णिमा के दिन हिन्दुत्रों का एक करना-परिस्थिति श्रादि समझ कर ठीक बड़ा त्योहार जब लोग होली जलाते तथा | ढंग से या सावधानी से बात करना । होश एक दूसरे पर रंग-अबीर डालते हैं, होरी उड़ाना ( उड़ा देना )-श्राश्चर्य में (दे०)। "पान वह होली है अब तक न डाल देना । होश फाख्ता (पैतरे ) कभी होली है "-। मुहा०-होली होना-होश उड़ जाना (आश्चर्यादि से) खेलना - फाग खेलना, एक दूसरे पर सुधि बुधि न रहना. स्मरण, सुधि, याद । रंग-अबीर आदि डालना। होली के दिन मुहा०-होश दिलाना ( कराना)जलाने का घास-लकड़ी आदि का ढेर, हौली याद दिलाना | होश होना-ध्यान या के दिनों में गाने का एक गीत (गग०) स्मरण होना, चेत होना । समझ, बुद्धि, फाग, फागुवा (दे०)। अक्ल । विलो०-बेहोश। होश-संज्ञा, पु० (फा० ) होस (दे०), होशियार-वि० (फ़ा०) समझदार, बुद्धिसमझ, बोध-वृत्ति, ज्ञान, अक्ल, बुद्धि, चेत, मान्, अक्लमंद, चतुर, प्रवीण, निपुण, दक्ष, चेतना, ज्ञान-वृत्ति संज्ञा। यो०-होश सचेत, कुशल, ख़बरदार, सावधान, सयाना, व हवास (होश-हवास)-बुद्धि, चेतना, | धूर्त, चालाक, जिसने होश सँभाला हो। सुधि-बुधि । मुहा०-होश उड़ना या | होशियार, हुसियार (दे०)। जाता रहना-मन या चित्त का व्याकुल होशियारी-संज्ञा, स्त्री० (फ़ा०) बुद्धिमानी, होना, सुधि-बुधि भुल जाना। होश करना अक्लमंदी, चतुराई, निपुणता, प्रवीणता, ----बुद्धि या समझ ठीक करना, सचेत या दक्षता, कौशल, ख़बरदारी, सावधानी, सावधान होना, याद करना, ध्यान या समझदारी, होसियारी, हुसियारी (दे०)। स्मरण करना । होश दंग होना-चित्त होस*-संज्ञा, पु० दे० ( फ़ा. होश ) का चकित होना, आश्चर्य से स्तब्ध होना। बुद्धि, समझ, ज्ञान, अक्ल, होश । संज्ञा, पु. होश सँभालना-उम्र बढ़ने पर सब बातें (हि. हौस ) हौंस, लालसा, कामना, समझने-बूझने या जानने लगना, सयाना | हौसला, उत्साह, साहसभरी इच्छा। For Private and Personal Use Only Page #1918 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १९०७ हौसला हो*-सर्व० द० (सं० महम् ) व्रजभाषा ! बैठन! ---जी में डर समाना । ( दिल में ) का उत्तम-पुरुष सर्वनाम का एक वचन, । हाल समाना- मन में भय घुप जाना। मैं । ".हों बरजो कै बार तू, उत क्यों लेत होलविल-संज्ञा, पु. यौ० (फ़ा०) दिल की करौंट "-वि० । अ० क्रि० बज. (हि. धड़कना, दिल धड़कने का रोग, कलेजे, होना ) वर्तमान काल के उत्तम पुरुष एक | का कॉपना । वि०-वह जिसका दिल वचन का रूप. हूँ। धड़कता हो. डर या आशंका में पड़ा हुआ, होकना---० कि० दे० ( हि० हुँकार ) भयभीत, सशंकित, घबराया या डरा हुआ, हु कारना, गरजना, हाँफना, डाँटना, डौंकना। व्याकुल । हउँकना (ग्रा० )। हौलदिला-वि• (फ़ा० हौलदिल) डरपोक । होस--सज्ञा, स्त्री० दे० ( अ० हवस ) हौस, हौलदिली-संज्ञा, स्त्री. (फ़ा०) दहशत, प्रबल इच्छा, चाह, कामना, लालसा, भय से दिल की धड़कन, शंका, भय । उत्साह । हौलनाक--वि० ( म० हौल +नाक-फा०) हौसला-सज्ञा, पु० दे० (अ. हौसला) भयंकर, डरावना, भयानक । हौसला, उत्कंग, लालसा, हिम्मत। होली, हउली-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० हाला हो*-अव्य० दे० (हि० हाँ) स्वीकृति सूचक गद्य ) भावकारी, कलवरिया, शराब बनने शब्द, ( मध्य प्रान्त ) हाँ हो । अ० कि० और बिकने का स्थान । दे० ( हि० होना ) सत्तार्थक होना क्रिया के हौलू-वि० दे० (प्र. होल) जिसके दिल में वर्तमान काल में मध्यम पुरुष एक वचन शीघ्र ही हौल, शंका या भय पैठ जावे । का रूप, हो होना के भूत काल का रूपथा। हौले-क्रि० वि० दे० (हि० हरुमा) शनैः, होश्रा, हौवा--संज्ञा, पु० ( अनु० हौ ) बच्चों से, धीरे, मंदगति से, क्षिप्रता या जोर के के डराना को एक कल्पित भायनक वस्तु साथ नहीं. हलके हाथ से । " हौले हौले का नाम, हाऊ, भकाऊँ। संज्ञा, स्त्री० दे० जाते है पिव अपने के पास"। (म० होवा ) हज़रत श्रादम की स्त्री, हौवा। हौवा-संज्ञा, स्त्री० (अ.) मानव जाति की होज -- सक्षा, पु. (अ.) पानी का कुंड, आदि माता, हजरत आदम ( आदि पुरुष) चहबच्चा, होज (दे०)। की स्त्री, स्त्री जाति की आदि स्त्री मुल.)। हौद-संज्ञा, पु० (दे०) हाथी या हौदा, पानी संज्ञा, पु. ( हि० हौत्रा) हाऊ, होश्रा का हौज। भकाऊँ (प्रान्ती०)। होदा--सज्ञा, पु० दे० ( फा० हौजः) अम्बारी, होस-पंज्ञा, स्त्री० दे० ( म० हवस ) हौंस चारो ओर रोकवाला हाथी की पीठ पर ! (दे०) चाह, कामना, लालसा, प्रवल इच्छा कसने का बैठने को श्रासन, हउदा, नाँद । उमंग, उत्सुकता, हौसिला, उत्साह, साहस, हौज़, मिट्टी का बड़ा पात्र । हत्किंठा, हुलास । होगा-संज्ञा, पु. ( अनु० हाव हाव ) को- होसला-संज्ञा, पु० (अ०) हवस, अरमान, लाहल, शोर-गुल, रौला, हल्ला। कामना, उत्कंठा, हौंस, हौसिला (दे०) होरे होरे--कि. वि. (व.) धीरे धीरे, । लालसा, किसी कार्य के करने की हर्षो धीरे से, रसे रसे, रसे से, हौले-हौले।। रकंठा, उत्सुकता, हिम्मत, साहस । मुहा० हौल-संज्ञा, पु. (म.) भय, डर, दहशत । | --हौसिला निकलना-अरमान निका" लाहौल बिला कूवत यह कौन वशर है" | लना, हौंस या इच्छा पूरी होना । उत्साह, -स्फ० । मुहा०-हौल पैठना या मोश । मुहा०-होसला पस्त होना For Private and Personal Use Only Page #1919 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir होसलाद १९०८ उत्साह या साहस मिटजाना, जोश ठंढा नीचा, नाचीज़. लघु । विलो०-दीर्घ। पड़ जाना । उमंग, बढ़ी हुई तबीयत, संज्ञा, पु०--बावन बामन, बौना, खर्ब । प्रसन्नता या प्रफुल्लता, हर्षानंद-तरंग ।। " ह्रस्वः खर्वः तु वामनः "-अमर० । हौसलामंद-वि० (फ़ा०, होसिलेमंदा वह दीर्घ की अपेक्षा कम बल से उच्चरित स्वर, जिसकी तबीयत बढ़ी हो, माहसी हिम्मत- लघु स्वर. जैसे-अ, इ, उ (विलो०-गुरु), वर, उत्साही, कामना या लालसा रखने एक मात्रा वाला वर्ण । " एक मात्रो भवे. वाला, उत्सुक, उत्कंठित । सज्ञा, स्रो०-- तह्रस्वः द्विमात्रो दीर्घ उच्यते''- पा०शि० । हौसलामंदी। हस्वता-संज्ञा, स्रो० (सं०) खर्वता, लघुता, ह्याँ* -- अब्य० दे० ( हि. यहाँ । वहाँ (दे०) छोटाई न्यूनता, तुच्छता। यहाँ. हियाँ (ग्रा.) । विलोहाँ-वहाँ । हास-संज्ञा, पु. (सं०) न्यूनता, कमी, हो* सज्ञा, पु० दे० (हि० हिया, हिया) घटती, तीणता, घटाव हीनता, अवनति, हृदय, मन चित्त. कलेजा, छाती. पेट, बल शक्ति, वैभव. गुणादि की कमी, ध्वनि, हियो, हिय ही, होय। " वा बजबसन शब्द, हराम (दे०)। वारी ह्या-हरनहारी है"-पा० । हृद सज्ञा, पु० (स०) झील, बड़ा तालाब, ही-सज्ञा, स्त्री० स०) नीडा, लज्जा अपा, तडाग, विशाल ताल, सरोवर ध्वनि, हया, शर्म, दक्ष प्रजापति की कन्या और किरण । “मानसरोवर रावण ह्रद । तिब्बत धर्म की पत्नी. ''श्री ही धी नामुदाहृता" - झोल सुहाई ' ----कु० वि०। सि० कौ०। हृदिी -सज्ञा, स्त्री० (स०) नदी, सरिता, ह्लाद- संज्ञा, पु. (सं०) प्रानंद, प्रसन्नता, तटनी । ___ हर्ष, प्रफुल्लता आह्लाद उल्लास । " ह्लादहसित- वि० (सं०) घटाया हुआ, हाप-प्राप्त। | प्रपूर्ण प्रह्लाद हुये तदैव "-सरस । " पौरुष हमित भयो तन दुबल, नयन-लादन-संज्ञा, पु० (सं०) प्रसन्न या प्रफुल्लित जोति अब नाही". मन्ना० । । करना, हर्षण । वि०-लादनीय, हादित । हस्व-वि० (स.) नाटा, वावन, लघुडील हाँ*--प्रव्य० दे० (हि. वहाँ ) वहाँ, का, छोटा, खर्व, कम, न्यून, थोड़ा, तुच्छ, उहाँ (दे०)। 100 ॐ शान्तिः 00 For Private and Personal Use Only Page #1920 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ग्रंथ-समाप्ति समय राम, अंक, निधि, चंद्र शुभ, संवत, कातिक मास । कृष्ण वठी गुरुवार को, पूरन ग्रंथ प्रकास ॥ -:: वंशा-परिचय कुल द्विज-कुल-वर सुकुल, सुकुल जाको जाम छाया, भरद्वाज सो चल्यो राम जिनको सिर नाया ॥ १ ॥ तिनके द्रोणाचार्य आर्य धनु-विद्या-पंडित । भे हरि-मान्य, वदान्य महा महिमा महि-मंडित ॥२॥ सब गुन-निधि निधिलाल भये तेहि बंस-उजागर । तिनके बंदन जोग भये सुखनंदन ागर ॥ ३॥ तिनके सब गुन-निपुन, सब कला-कुसल प्रतापी । महादेव देवज्ञ सुकवि कुल-कीरति थापी ॥४॥ तिनके पंडित - प्रघर शास्त्र - वक्ता, विज्ञानी, कुंज-बिहारीलाल भये निगमागम - ज्ञानी ॥५॥ कविता - कला • प्रवीन, फारसी - अरबी - पंडित । श्रुति - स्मृति - व्याकरन - भाष्य - वैद्यक सों मंडित ॥६॥ तिनके भयो “रसाल" मंद मति अस्प ज्ञानी । पितु-गुरु-पद-रज पाय रंच विद्या पहिचानी ॥ ७॥ पितु प्रसाद अरु अनुज सरस सों पाइ सहाई । कोश-रूप यह शब्द-रतन की रासि रचाई ॥ ८ ॥ प्रकटत आज समाज मैं, धरि उर यहै विचार । निज जन की कृति जानि बुध, लै हैं याहि सुधार ॥ -:: For Private and Personal Use Only Page #1921 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private and Personal Use Only