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प्रकलंक
अकाथ
बेचैनी।
अक्ल, बुद्धि, अकलता-भा० संज्ञा, स्त्री० अकसीर-संज्ञा, स्त्री. (अ.) धातु को
सोना या चाँदी बनाने वाला रस या भस्म । अकलंक-वि० (सं० ) निष्कलंक, दोष- रसायन, कीमिया, प्रत्येक रोग को नष्ट हीन, बेऐब, बेदाग़, निर्दोष, न बदनाम, | करने वाली औषधि, वि०-अव्यर्थ, अचूक । अलांछित ।
अकस्मात् --- क्रि० वि० (सं० ) अचानक, अकलंकता-भा० संज्ञा, स्त्री. (सं० ) अनायास, सहसा, दैवयोग से, संयोगवश, निर्दोषता, कलंक-हीनता, "अकलंकता कि आप से प्राप, बलात्, अचानक, हठात् । कामी लहई" रामा० ।
अकह-वि० - देखो अकथ, (हिं० अ+ अकलंकित-वि० ( (सं.) निष्कलंक, । कह)" कीन्हीं सिवराज वीर अकह कहानिर्दोष ।
नियाँ- भू." अकलखुरा:- वि० (हिं. अकेला+फा० | अकहुवा--वि०-देखो अकथ । खोर ) अकेला खानेवाला, स्वार्थी, रूखा, अका-वि० (सं०) निर्बोध, जड़मूद, पागल । मनहूस, डाही, ईर्षालू जो मिलनसार न हो। प्रकांड-वि० (सं० अ+ कांड ) अखंड, प्रकलबीर-~-संज्ञा, पु. ( सं० करबीर ? ) बिना शाखा का, क्रि० वि० अचानक, भाँग का सा एक पौधा, करमबीर, बज्र । | अकारण, अकस्मात् (अ+कांड=घटना), प्रकपन-संज्ञा, पु. ( हिं. आक) पाक, घटना-रहित । मदार ।
अकांड तांडव संज्ञा, पु. (सं० ) व्यर्थ प्रकल्पन-संज्ञा पु. (सं० अ-1-कल्पना) | की उछल-कूद, व्यर्थ की बकवाद, वितंडसत्य, प्रकृत, यथार्थ, वास्तविक । बाद। अकल्पना।
अकांड-पात-संज्ञा, पु. ( सं० ) होते ही अकल्पित-वि० ( सं० अ+ कल्पित ) मरने वाला। कल्पना-रहित, सञ्चा।
अकाज-संज्ञा, पु. ( सं० अ+कार्यअकल्याण-संज्ञा, पु० (सं० अ+कल्याण) | काज ) कार्य-हानि, हानि, नुकसान, विघ्न, अमंगल, अशकुन, अशुभ, अमंगल, बुरा। बिगाड़, बुरा कार्य, खोटा काम, क्रि० वि०. प्रकल्मष-संज्ञा, पु. (सं० अ+कल्मष) व्यर्थ, निष्प्रयोजन । निष्पाप ।
प्रकाजना-अ० क्रि० ( हिं . अकाज ) हादि अकवार -संज्ञा, पु. ( हिं० दे० ) काँख, होना, गत होना, मरना, कि० स०-हानि गोद, कुक्षि ।
करना, हर्ज करना। प्रकस-संज्ञा,पु० ( सं० अाकर्ष ) बैर, डाह, | अकाजी*-वि० (हिं० अकाज) कार्य-हानि विरोध, " काम काहे बाइकै देखाइयत | करने वाला, बाधक, स्त्री-प्रकाजिनआँखि मोहि, एतेमान अकस कीबे को कार्य बिगाड़ने वाली। आपु प्राहि को" कवि०, द्वेष, शत्रुता, बुरी अकट्य-वि० (सं० अ-+-कट+य ) न उत्तेजना (फा० अक्स)-~-छाया, प्रतिबिम्ब, कटने के योग्य, जो कट या काटा न जा (दे०)-आकाश।
सके, अखंडनीय, दृढ़। अकसर-कि० वि० (अ.) प्रायः, बहुधा, | अकाथ-क्रि० वि० (दे०) अकारथ, वृथा, अधिकतर क्रि० वि० (सं० एक+सर ) व्यर्थ भयो है सुगमतो को अमर-अगम, अकेले, बिना किसी के साथ । " कवन हेतु | तन समुझि धौंकत खोवत वि०-अकथ, . मन व्यग्र करि अकसर आएहु तात" रामा० | अकथनीय । अकाथ-वि० भा. श. को०-१
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