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श्रुति
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श्रोन, श्रोनित श्रति--संज्ञा, स्त्री० (सं०) सुनना. कर्णेन्द्रिय, मंडली कंपनी (अं०) जंजीर, सीदी, सिकड़ी, कान, सुनी बात, ध्वनि, शब्द, किंवदंती, जीना, कक्षा, दर्ता । ख़बर, जिसे सदा से सुनते चले आते हैं, श्रेणीवद्ध-वि• यो० (सं०) पंक्ति के रूप वेद या वह ईश्वरीय पुनीत ज्ञान जिले में स्थित, शृंखला बाँधे हुये, क्रम बाँधकर । सृष्टि की धादि में ब्रह्मा या कुछ अन्य
"श्रेणो बन्धाद्वितन्वद्भिः ''- रघु० । महर्षियों ने सुना और जिसे ऋषि-परंपरा श्रय-वि० (सं० यस् ) उत्तम, श्रेष्ठ, से सुनते आए, निगम, अनुप्रास अलंकार अधिक या बहुत अच्छा, शुभ, कल्याणकारी, का एक भेद, विद्या, ज्ञान, नाम, त्रिभुज में मंगलदायी । स्त्री०-श्रयामी । संज्ञा, पु०-- समकोण के सामने की भुजा ( रेखा )। मंगल, कल्याण, धर्म, पुण्य, सदाचार, "गुरु-श्रुति-सम्मत धर्म-फल, पाइय बिनहिं । मोक्ष, मुक्ति । " श्रेयसाधिगमः"-न्याय० । कलेश'.--रामा०।।
श्रेयस्कर-वि० (सं०) कल्याणकारी, श्रतिकटु-संज्ञा, पु. यौ० (सं०) काव्य में शुभदायक, मंगलप्रद । स्रो०-श्रेयस्करी। कठोर और कर्कश वर्णों का प्रयोग (दोष) | श्रेष्ठ-वि० सं०) बहुत ही अच्छा, उत्कृष्ट, जो सुनने में बुरा लगे । विलो०- सर्वोत्तम, प्रधान, मुख्य. पूज्य, वृद्ध, बड़ा, श्रुतिमधुर, श्रुति-सुखद।
सेठ, साहकार। श्रुतिपथ-संज्ञा, पु. यौ० (सं०) वेद-मार्ग, श्रेष्ठता-- संज्ञा, स्त्री. (सं०) उत्तमता, वेदानुकूल, सन्मार्ग, कान की राह से, उत्कृष्टता, गुरुता. बड़ाई, बड़प्पन । श्रवणेंद्रिय, कान, कर्ण-मार्ग, श्रवण-पथ । श्रेष्टो --- संज्ञा, पु. (सं०) महाजन, सेठ, श्रुतिपुट-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) का-रंध्र साहूकार, व्यापारियों या वैश्यों का मुखिया । कान के परदे । " श्रुति-पुट पिकता, जो श्रोण, थाशित ---- संज्ञा, पु० वि० दे० ( सं० सुधा सी वनों में ''-प्रि० प्र० ।
शोगा, शाणित ) लाल रंग, अरुणता, रक्त । श्रतिमार्ग-संज्ञा, पु० यौ० (सं० । वेद-विहित श्रीशि, श्रोणी-संज्ञा, स्त्री० सं०) नितंब, विधि या रीति, वेद-पथ, श्रुति पथ, कान की कटि-प्रदेश । राह से, स्मृति-माग (दे०)
श्रोत ---संज्ञा, पु० (सं० श्रातस ) कर्ण, श्रतिसेत-संज्ञा, पु. यौ० (सं०) वेदमार्ग, कान. श्रवणेंद्रिय । संज्ञा, पु० दे० ( सं० वेद-पथ, (भव-सागर के तरने को) वेद-रूपी | स्रोत ) सोता, चश्मा । सेतु या पुल । “श्रुति-सेतु पालक राम तुम' श्रोतव्य - वि० (सं०) श्रवणीय, सुनने-योग्य, -रामा०।
सदुपदेश। श्रुत्यनुप्रास-संज्ञा, पु. यौ० (सं०) अनुप्रास | श्रोता --- संज्ञा, पु० (सं० श्रोतृ) सुनने नामक शब्दालंकार का एक भेद, जिसमें वाला । "श्रोता वक्ता च दुर्लभः''-स्फुट० । काव्य में एक ही स्थान से बोले जाने वाले श्रांत्र--संज्ञा, पु. (सं०) कान, वेद-ज्ञान । व्यंजन दो या अधिक बार पाते हैं। "श्रोत्र-मनोभिरामात् " भा. द. । श्रवा--संज्ञा, पु. दे. (सं० वा ) हवन श्रोत्राभिराम ध्वनिनार थेन'--रघु० । करने में घी डालने का चम्मच, चमचा, श्रोत्रिय, श्रोत्री --- संज्ञा, पु० (सं०) पूर्ण रूप करली, नवा (दे०)। " चार-श्रुवा शर से वेद-वेदांग का ज्ञानी, वेद का ज्ञाता, पाहुति जानू --रामा० ।
ब्राह्मणों का एक भेद श्रेणि, श्रेगी-- संज्ञा, स्त्री० (सं०) अवलो, श्रीन, धोनित *-----संज्ञा, पु. द० (सं० पाँति, पंक्ति, शृंखला, परंपरा, क्रम, समूह, शोण, शोणित ) लाल रंग, लाली, रक्त, सेना. दल, एक ही व्यापार करने वालों की रुधिर, मोनित (दे०) ।
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