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सिर
सिरजनहारा, सिरजनहार बहुत जल्द भाग जाना, हवा होना। सिर ! सींग होना --कोई विशेषता होना । एर पड़ना--जिम्मे पड़ना, अपने ऊपर सिर पर सवार रहना (होना)-सदा गुज़रना या घटित होना । मिर पर खून | उद्यत या पाम रहना. देख-रेख करते रहना। चढ़ना या सवार होना जान या प्राण सिर होना-गले परना, पीछे पड़ना. पीछा लेने पर उतारू होना, हत्या के कारण उन्मत्त न छोड़ना, किसी बात का हठ करके बार हो जाना, श्रापे में न रहना । (किसी | बार तंग करना, झगड़ा करना, उलझ पड़ना.। के) सिर पर चढ़ना-भूताद का आवेश किसी बात के सिर होना-समझ या श्राना, मह लगना। सिर पर चढ़ कर ताड़ लेना । सिर के बाल सफ़ेद होना बोलना-पूरा प्रभाव प्रगट करना ! मिर
- वृद्धावस्था पाना, ख़ब अनुभव होना । पर नाचना खेलना) (मृत्यु आदि)--- सिरा, चोटी, अगला भाग, छोर । अति संनिकट होना । “तिय मित्र मीच सिरका - वि० यौ० (हि०) जिसका सिर सील पै नाचो' रामा । सिर पर होना कट गया हो, दूसरों का अहित करने वाला। (आना)-थोड़े ही दिन रह जाना, बहुत
स्त्रो०-सिरकटी। निकट होना । सिर पड़ना--पीछे पड़ना
सिरका-संज्ञा, पु. (फ़ा०) धूप में रख कर ज़िम्मे पड़ना, उत्तरदायित्व या भार ऊपर ।
खट्टा किया गया ईख श्रादि का रस ! दिया जाना, ऊपर था पड़ना या घटित
सिर काटना-स० क्रि० यौ० (हि.) मूड़ होना, हिस्से में पाना, पीछे या गले पड़ना।
काटना, हानि पहुँचाना। सिर पर (आ) पड़ना ---ऊपर या पड़ना
सिर काढना--स० कि. यौ० (हि०) प्रसिद्ध
होना, प्रस्तुत या उद्यत होना। या घटित होना, गुजरना, जिम्में श्रा पड़ना
सिरकी-संज्ञा, स्त्री० दे. ( हि० सरकंडा) ऊपर भार थाना । (किसी का ) सिर
धूप और वर्षा से रक्षा के लिये छतों, पिटना -- ( किसी के ) मत्थे पड़ना या
गाड़ियों आदि पर लगाने की सरकंडे की जाना। सिर हिरना--सिर घूमना या
टही. सरई, सरकंडा। 'राधा मिरकी पोट चकराना, पागल होना, उन्माद होना ।
है, हेरति माधव शोर'.-रत० । सिर मारना--समझाते समझाते या
सिरखपी -संज्ञा, स्त्री० यौ० (दे०) परिश्रम, सोचने-विचारने में हैरान या परेशान होना,
हैरानी, परेशानी, जोखिम। सिर खपाना । सिर तुड़ाते ही ग्रोले सिरमा-संज्ञा, पु. (दे०) घोड़े की एक पड़ना-प्रारंभ में ही कार्य बिगड़ना, जाति। कार्यारंभ में ही विघ्न पड़ना । सिर पर) मिरचंद-- संज्ञा, पु० यौ० (हि०) हाथी के सेहरा होना-किसी कार्य का श्रेय प्राप्त सिर का अद्ध चन्द्राकार एक गहना। होना, वाहवाही मिलना । सिर से पैर तक सिरजक* --- संज्ञा, पु० दे० (हि. सिरजना) (सरापा)--श्रादि से अंत तक. अथ से इति सृष्टि-फर्ता, बनाने या उत्पन्न करने वाला, तक, सींग में, आद्योपान्त, पूर्णतया । रचने वाला । "सिरजक सब संसार को पिर पर पाना-ऊपर आ जाना, सब में रहा समाय''---स्फुट । अति निकट श्राना, ( विपनि आदि)। सिरजनहारा, सिरजनहार*- संज्ञा, पु. सिर से पैर तक आग लग जाना-- हि. सिरजना + हार---प्रत्य.) सृष्टि-कर्ता, अत्यंत क्रोध थाना । सिर से कफ़न बनाने या उत्पन्न करने वाला, रचने वाला। बाँधना--मरने को तैयार होना । सिर । परमेश्वर । "खालिक वारी सिरजनहार"से खेल जाना-प्राण दे देना। सिर पर । अ० खु० ।
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