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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २४ - श्रानि प्रापण प्रानि-संज्ञा स्त्री. (दे०) श्रान, शपथ, प्रान-स० क्रि० (दे० प्रानना ) ले जाना, मर्यादा। पानना। पूर्व० का० क्रि० (दे०) लाकर, ले पा कर।। श्राप- सर्व० दे० (सं० प्रात्मन् ) स्वयं, "पानि धरे प्रभु पास"- रामा०।। खुद (तीना पुरुषों में)। आनिहौं-स० कि. भा० का० (दे० ) | यौ० भापकाज--अपना काम, जैसेलाऊँगा। " आपकाज महाकाज"। पानीजानी-वि० स्त्री० ( दे० ) आने- वि० श्रापकाजी-स्वार्थी, मतलबी । जाने वाली, अस्थिर। श्रापबीती-अपने ऊपर घटी हुई घटना। प्रानीत-वि० (सं० प्रा+नो+क्त) श्राप रूप-स्वयं, श्राप । लाया हुआ। मु०-पाप-श्राप की पड़ना-अपनी प्रानुकूल्य-संज्ञा, पु० (सं० ) अनुकूलता, अपनी लगना, अपने-अपने काम या स्वार्थ सहायता, कृपा। में लगना अपनी अपनी रक्षा या लाभ का प्रानुपूर्व-संज्ञा, पु. ( सं० ) क्रमिक, ध्यान रहना। अनुकम, क्रमागत, पर्याय, ढब । पार आप को- अलग-अलग, न्यारेप्रानुपूर्वी-वि० (सं०) क्रमानुसार, एक | न्यारे। के बाद दूसरा, क्रमानुगत, अनुक्रम, | प्रापको भूलना--किसी मनोवेग के श्रानुपूर्वीय (सं.)। कारण बेसुध हो जाना, मदांध होना, प्रानुमानिक-वि० ( सं० ) अनुमान घमंड में चूर होना, अज्ञानता में रहना। संबन्धी, काल्पनिक। श्राप को जानना-अपनी आत्मा का श्रानुवंशिक-वि० (सं० ) जो किसी वंश ज्ञान होना, अपने गुण-कर्मादि का बोध में बराबर होता आया हो, वंशानुक्रमिक, होना। वंशपरम्परागत। श्राप से-स्वयं, खुद, स्वतः, श्राप ही। प्रानुश्राविक-वि० (सं०) परंपरा से | आप से प्राप- स्वयमेव, खुद, अकारण । सुना हुआ, जिसे बराबर सुनते चले । श्राप ही श्राप (प्रापही)- बिना किसी थाये हो। और की प्रेरणा के, श्राप से श्राप, स्वगत, प्रानुषंगिक-वि० (सं० ) जिसका साधन मन ही मन में, किसा को संबोधित न किसी दूसरे प्रधान कार्य के करते समय करके, अकारण। थोड़े प्रयास से ही हो जाये, गौण अप्रधान, सर्व०-तुम और वे के स्थान में श्रादरार्थक प्रासांगिक, प्रसंगाधीन, धानुमंगिक । प्रयोग, (व्यंग्य में ) छोटे के लिये-तू, पानृशस्य-संज्ञा, पु० (सं० ) अनिष्ठुरता, के स्थान पर, ईश्वर, भगवान । दया, स्नेह । " जाके हिरदै साँच है, ताके हिरदै आन्वीक्षिकी—संज्ञा, स्त्रो० (सं० ) प्रात्म- श्राप " -- कबीर० । विद्या, तर्क विद्या, न्याय । संज्ञा, पु० दे० (सं० श्राप = जल ) पानी आनेता-संज्ञा, पु० (सं०) पानयन- वारि। कर्ता, बाहरणकर्ता। प्रापगा-संज्ञा, स्त्री. (सं०) नदी, सरिता। प्रान्तरिक-वि० (सं० ) अन्तःकरण- " शैलापगाः शीघ्रतरं बहन्ति"-वाल्मी० । सम्बन्धी, अन्तरस्थ, अंदरूनी, मनोगत, | प्रापण संज्ञा, पु० (सं० ) पण्य, विक्रयमानसिक । __ शाला, दूकान, हाट, बाज़ार । For Private and Personal Use Only
SR No.020126
Book TitleBhasha Shabda Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamshankar Shukla
PublisherRamnarayan Lal
Publication Year1937
Total Pages1921
LanguageHindi
ClassificationDictionary
File Size51 MB
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