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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - श्रापजनक आपसी प्रापजनक-वि० यौ० (सं० ) विपत्ति | श्रापन-संज्ञा, पु० (दे०) श्रात्मा, जीव, जनक, अनिष्टकारक, आपत्तिकारी। ब्रह्म। आपणिक-संज्ञा, पु० (सं० ) वणिक, "तुलसिदास परिहरै तीन भ्रम, सो आपन व्यवसायी, दूकानदार। पहिचान"। आपत्काल-संज्ञा, पु० यौ० ( सं० श्रापनिक-संज्ञा, पु. ( दे० ) पन्नग, विपत्ति, दुर्दिन, दुष्काल, कुसमय, (दे०) पन्ना, मरकत, इन्द्र, नीलमणि, देशविशेष । प्रापनकाल । प्रापन्न-वि० (सं०) आपद्ग्रस्त, दुखी, " प्रापत काल परखिये चारी"। प्रात, जैसे संकटापन्न । श्रापत-संज्ञा, स्त्री० (दे० ) आपत्ति, "प्रायः समापन्न विपत्ति-काले"-हितो। (सं० ) विपत्ति । प्रापन्नसत्वा--संज्ञा, स्त्री० (सं० ) गर्भवती, आपत्ति-संज्ञा, स्त्री० (सं० ) दुःख, क्लेश, गर्भिणी। विपत्ति, संकट, विघ्न, वाधा, श्राफ़त, कष्ट प्रापन्न नाश-संज्ञा, पु० (सं.) आपत्तिकाल, जीविका कष्ट, कठिनाई, दोषारोपण नाश, विपत्ति-विनाश, क्लेशास्त। उज्र, एतराज़। आपमित्यक-- संज्ञा, पु. ( सं०) विनिमयप्रापद-संज्ञा, स्त्री. ( सं० ) विपत्ति, प्राप्त, बदला किया हुश्रा, ग्रहीत द्रव्य ।। आपत्ति, दुःख, कष्ट, विघ्न । प्रापया*-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० आपगा) वि० यौ० (सं० ) मापदग्रस्त -यापत्ति नदी, सरिता । में फँसा हुआ। श्राप रूप-वि० ( हि० प्राप+रूप (सं० ) अपने रूप से युक्त, मूर्तमान, साक्षात् प्रापदा-संज्ञा, स्त्री० ( सं० ) दुःख, (महा पुरुष के लिये ) आप, ईश्वर ।। विपत्ति, क्लेश, अाफ़त, कष्ट-काल। सर्व०-साक्षात् श्राप पाप, महापुरुष, प्रापद्धर्म-संज्ञा, पु० यौ० ( सं० ) केवल हज़रत ( व्यंग्य)। आपत्काल के ही लिये जिसका विधान हो, प्रापम-संज्ञा, स्त्री. (हि. आप + से) ऐसा धर्म या कर्तव्य विशेष, किसी वर्ण के संबन्ध, नाता, भाई-चारा, (जैसे वापस व्यक्ति के लिये वह व्यवसाय या काम के लोग) एक दूसरे का साथ, पारस्परिक का जिसकी आज्ञा और कोई जीवनोपाय के न सम्बन्ध ( केवल सम्बन्ध और अधिकरण होने पर ही हो-जैसे बाह्मण के लिये कारकों में ) परस्पर, निज । वाणिज्य (स्मृति०)। वि० श्रापमाना। प्रापन आपना 8-सर्व० दे० (हि. अपना) मु०-यापस का-इष्टमित्र या भाईअपना, श्राप, श्रात्मा, ( ७० भा० ) बंधु के बीच का, पारस्परिक, एक दूसरे का, आपनो, आपुनो श्रापुन । परस्पर का। स्त्री० श्रापनी। पापस में परस्पर, एक दूसरे के साथ । " श्रापुन खात नंद-मुख ना३"। 2. धापसदारी-परस्पर का व्यवहार, " एहिते जानहु मोर हित, के आपन बड़। __ भाई-चारा। काज"-रामा० । श्रापसा- संज्ञा, पु० (दे०) श्राप के पापनपो, आपनपौ--संज्ञा, पु. यो. समान, श्राप जैसा। (हि. अपना+पराया ) अपनपौ, प्रात्म- श्रापसो-वि. ( हि. आपस ) निजी, भाव, अपना पराया, सुध। | लगे, घरेलू , अपने। For Private and Personal Use Only
SR No.020126
Book TitleBhasha Shabda Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamshankar Shukla
PublisherRamnarayan Lal
Publication Year1937
Total Pages1921
LanguageHindi
ClassificationDictionary
File Size51 MB
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