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१६७६
संसर्गदोष
संस्कृत संसर्गदोष-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) सम्पर्क संसिक्त - वि० (सं०) भली-भाँति सींचा या सम्बन्ध से उत्पन्न बुराई या दोष, हुश्रा, भाई, गीला। संग-साथ से पैदा हुआ दुर्गुण । " होते हैं, | संसिद्ध---वि० सं०) सब प्रकार सिद्ध, प्रनासंसर्ग-दोष बहु श्राप विचारो"-- वासु०। णित, भली-भाँति किया हुआ, मुक्त-पुरुष, संसर्गी-वि० (सं० संसर्गिन् ) साथी, सम्पर्क | निपुण, चतुर, कुशल । या लगाव रखने वाला । स्त्री०-संसर्गिणी।।
संमृति--संज्ञा, स्त्री. (सं०) जन्म-मरण की संसा-संज्ञा, पु० दे० ( सं० संशय ) संशय,
परम्परा, पावागमन, संसार, सृष्टि ।
" संसृत न निवर्तते"- स्फु०।। संसार-संज्ञा, पु. (सं0) बराबर एक दशा संस- वि० सं०) मिलित, मिश्रित, सम्बद्ध से दूसरी में परिवर्तित होते रहना, रूपान्त.
मिला हुआ, परस्पर लगा हुआ, अंतर्गत। रित होने वाला, जगत्, सृष्टि, दुनिया, संसृष्टि--संज्ञा, स्त्री० (सं०) एक ही साथ जहान, मृत्युलोक, इहलोक, गृहस्थी, जन्म
उत्पत्ति या उद्भूति, आविर्भाव, मिश्रण, मरण की परम्परा, आवागमन । “पल्लवति,
मिलावट, लगाव संबंध, मेल-जोल, घनिष्ठता, फूलति, फलति नित संसार-विटप नमामि
संग्रह या संचय, एकता करना, दो या हे"-रामा ।
अधिक अलंकारों का ऐला मिश्रण कि सब संसार-चक्र--संज्ञा, पु० यौ० (सं.) जन्म
तिल-तंदुलवत् अलग अलग जाने जावें मरण या श्रावागमन का चक्कर, भव-जाल,
(अ० पी०)। समय का हेर-फेर, परिवर्तन का चक्कर।
संस्करण-संज्ञा, पु० (सं०) शुद्ध या सही संसार-धर्म - संज्ञा, पु० यौ० (सं०) लौकिक
करना, सुधारना, ठीक या दुरुस्त करना, व्यवहार, परिवर्तन, रूपान्तर, लोक-रीति ।।
द्विजातियों के स्मृति-विहित संस्कार करना, संसार-तिलक-- संज्ञा, पु. यौ० (सं०) एक ।
पुस्तकादि की एक बार की छपाई, श्रावृत्ति, प्रकार का बढ़िया चावल ।
(आधुनिक ) । वि. - संस्करणीय। संसार-विटप-- संज्ञा. पु. (सं.) संसार- संस्कर्ता-संज्ञा, पु. (सं०) संस्कार करने रूपी पेड़, पेड़ रूपी संसार । " संसार विटप वाला । वि०-संस्कृत । नमामि हे'--रामा०।
संस्कार-संज्ञा, पु० (सं०) सुधार, शुद्ध या संसार-मूत्ति--- संज्ञा, पु० यौ० (सं०) विष्णु, |
साफ करना, सोधना, दुरुस्त या ठीक करना, परमेश्वर, भगवान, संसार-स्वामी।
सुधारना, सजाना, परिष्कार, मन पर शिक्षादि संसार-सागर--संज्ञा, पु० यौ० (सं.) सागर
का पड़ा हुआ प्रभाव, भात्मा के साथ रहने रूपी संसार, संसार का समुद्र, भव-सागर, वाला पूर्व-जन्म के कर्मों का प्रभाव, धर्मासंसार-सिंधु, भवोदधि ।
नुपार शुद्ध करना, द्विजातियों के लिये संसारी- वि० (सं० संसारिन् ) लौकिक, जन्म से मरण तक के श्रावश्यक सोलह संसार-संबंधी, क्षणिक, परिवर्तनशील कृत्य, मृतक-क्रिया, मन में होने वाला वह (व्यंग्य), संसार के माया-जाल में फँसा, प्रभाव जो इन्द्रियों के विषय-ग्रहण से हो । धर्मशील, जन्म-मरण, श्रावागमन से बद्ध, संस्कार-हीन वि० यौ० (सं०) जिसका लोक-व्यवहार में निपुण । 'सेमर फूल सरिस | संस्कार न हुआ हो, व्रात्य, संस्कार-रहित । संसारी सुख समझो मन कीर"- स्फु० । । संस्कृत--वि० (सं०) संशोधित, शुद्ध या स्त्री० ---संसारिणी।
| संस्कार किया हुआ, परिष्कृत, परिमार्जित,
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