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सरधन
१७१५
सरबराह
सरधन-वि० दे० (सं० सधन) सधन, धनी. विशेष, बड़े बड़े पत्तों की कुश काँस धनवान ! "जो निरधन सरधन के जाई"- के जाति की एक घास, पताई (ग्रा.)। कवी।
सरपरस्त---संज्ञा, पु० (फा०) संरक्षक, अभि. सरधा-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० श्रद्धा) श्रद्धा, भावक । संज्ञा, स्त्री०-सरपस्ती भक्ति।
सरपा-संज्ञा, पु० दे० (सं० सर्प) सर्प, साँप । सरन--संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० शरणा) शरण, "सर धावहिं मानहु बहु सरपा''-रामा० । रक्षा, बचाव । “ जिमि हरि-सरन न एको सरपि--संज्ञा, पु० दे० (सं० सरिस्) घी। बाधा"--रामा० । संज्ञा, पु० (दे०) सर या "मधुसीयुतो लिहेत्'-~-भा० प्र० । शर का बहुबचन .
सरपंच, सरपेच ---संज्ञा, पु० (फ़ा०) पगड़ी, सरनद्वीप - संज्ञा, पु० यौ० दे० (सं० सिंहलद्वीप) सिर पर लगाने का एक जड़ाऊ गहना। भारत के दक्षिण में एक द्वीप ।
सरपोश-ज्ञा, पु० (फ़ा०) थाल या किसी सरना-प्रक्रि० दे० (सं० सरण) खिसकना. पात्र के ढकने का कोई बरतन या कपड़ा। सरकना, डोलना, हिलना, काम निकलना या सरकराना--अ० क्रि० ( दे०) घबराना, चलना, किया जाना, सधना, निवटना, पूरा व्याकुल होना, तड़पड़ाना,तरफ़राना (दे०)। पड़ना । "जप माला, छापा, तिलक सैर न सरफ़रोशी--संज्ञा, स्त्री० (फा०) सिर बेंचना, एको काम ".-वि० : सड़ना, बिगड़ना।। कल होना। संज्ञा, स्त्री० (दे०) शरण । "तब ताकेसि सरकोका-सरकोका-संज्ञा, पु० (दे०) एक रघुवर-पद-सरना''--मा०।
पौधा (औषध), सरकंडा। सरनाम--वि० (फा०) प्रख्यात, प्रसिद्धसरबंध-सरपंधी-संज्ञा, पु० दे० यौ० (सं० विख्यात, मशहूर।
शरबंध) तीरंदाज़, धनुर्धर । सरनामा--संज्ञा, पु० (फा०) सिरनामा सच - वि० दे० (सं० सर्व) समस्त, सर्व, (दे०) शीर्षक, पत्र के ऊपरी भाग का लेख, सब, कुल, सरा, सम्पूर्ण, सर्वस्व । “तुम कह पत्रारंभ का संबोधनादि, पत्र का पता।।
सरब काल कल्याना"---रामा० । सरनी--संज्ञा, स्त्री० द. (सं० सरण) रास्ता,
सरबत्तरी-श्रव्य ० (दे०) सर्वत्र (सं०) “सो राह, मार्ग. वि० (दे०) शरणागत ।
मुलना सरबत्तरि गाजा'-कवी० । सरपंच -- संज्ञा, पु० फ़िा. सर -- (च हिं०)
सरबदा-क्रि० वि० दे० (सं० सर्वदा) सर्वदा, पंचों का मुखिया या सरदार, पंचायत का
सदा, हमेशा । वि० (दे०) सर्वदा, सब देने सभापति।
वोली। सरपंजर - सज्ञा, पु. द० (सं० शरपंजर) सरवर-संज्ञा, पु. दे० यौ० (सं० सरोबर) वाणों या तीरों का पिंजड़ा । 'सर-पंजर अच्छा तड़ाग, तालाब, ताल, श्रेष्ठ वाण । अर्जुन रच्यो, जीव कहाँ ते जाय" -राम० ।। "चलो हंस चलिये कहीं, सरबर गयो सुखाय' सरप---संज्ञा, पु० (दे०) सर्प (सं०) सरफ (ग्रा०)।
सरब-बियाप"-- वि० दे० यौ० ( स० सर्वसरपट-क्रि० वि० दे० (सं० सर्पगा) घोड़े का व्यापिन्) जो सर्वत्र व्याप्त या फैला हो, अगले दोनों पैर साथ फकते हुए तेज दौड़ना, सर्व व्यापी । वि० (दे०) सरब-बियापत वेग से चलना, दुलकी चाल, तेज़ दौड़। (सर्व व्याप्त)। सरपत- संज्ञा, पु० दे० ( सं० शर पत्र ) तृण सरबराह-संज्ञा, पु. (फा०) प्रबंधकर्ता,
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