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श्रो
प्रोजस्विनी
ओ
प्रो-संस्कृत-वर्णमाला का तेरहवाँ और समूल, पाश्रम, समूह। संज्ञा, स्त्री० (अनु०) हिन्दी वर्णमाला का दसवाँ स्वर वर्ण, मिचली, न । संज्ञा, पु० (हि. बूक ) संयुक्त स्वर । अ+उ) जिसका उच्चारण- अंजलि । क्रि० अ० अोकना--के करना। स्थान -कंठ और श्रोष्ठ है ( " श्रोदौतौ- ओकाई-संज्ञा, स्त्री० (दे० ) वमन, के । कंठोष्ठौ ,) अव्य०-सबोधन, करुणा, प्रोकेश-----संज्ञा, पु० (सं० ) सूर्य, चन्द्र । विस्मय या आश्चर्य-सूचक शब्द । संज्ञा, अोखद:--- संज्ञा, पु० (दे० ) औषध, दवा । पु० (सं०) ब्रह्मा, विष्णु ।
ओखरी (ोखलो ---संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० ओं-अव्य० ( अनु०) अधीगीकार या उलूखल) ऊखल । स्वीकृति-सूचक शब्द. हाँ, अच्छा, तथास्तु.: go ---अमोललो में सिर देना-कष्ट सहने ब्रह्म-सूचक शब्द जो प्रणव वाचक है, पर उतारू होना। ओ३म् का सूक्ष्म रूप ।
ओला-रंज्ञा, पु० दे० (सं० अोख ) मिस, श्रोइकना--स० कि० दे० (सं० अंचन् ) बहाना, हीला । वि० ( सं० ओख-सूखना ) वारना, निछावर करना, अोछना, ऐंछना। सूखा सूखा, कठिन, विकट, टेढ़ा, खोटा, ओंकार-संज्ञा, पु० (सं० ) ब्रह्म-सूचक
जो शुद्ध या खालिस न हो, चोखा का ओं शब्द, सोहन पक्षी।
विपरीत, झीना, विरल । भोंकना ( कना )-अ० कि० (दे० ) प्रोग: ----संज्ञा, पु० दे० (हि. उगहना ) चंदा, के करना. भैंस के समान चिल्लाना, कर, महसूल । “सूर हमहि मारग जनि ऊबना, फिर जाना। "मो से कहा हरि रोकहु धरले लीजे श्रोग"..-- सूर० । को मन ओंको"..-सुदा० ।
आगरा-संका, पु० (दे०) खिचड़ी. पथ्य । अंगता-स० कि. दे. (सं० अंजन ) अोध - संज्ञा, पु. ( सं० ) समूह, ढेर, घनत्व, गाड़ी की धुरी में चिकनई लगाना ताकि बहाव । धारा, समय श्राये सब हो जायगा' पहिया आसानी से घुमे । संज्ञा, पु० ऑग। ऐसा संतोष, काल-तुष्टि (सांख्य ) पुंज, प्रे० स० क्रि० श्रीगाना।
प्रवाह, राशि । ओंठ--संज्ञा, पु० दे० (सं० प्रोष्ठ, प्रा० अोछा-वि० दे० (सं० तुच्छ ) तुच्छ, शुद्र, अोठ ) लब, होठ, ओठ, अधर।
छिछोरा, खाटा, जो गहरा न हो, छिछला, -ओठ चबाना -- क्रोध और दुख हलका, छोटा, कम, नीच । संज्ञा, स्त्री० प्रगट करना, ओंठ चाटना-स्वादिष्ट वस्तु ओछाई --ओछापन, तुच्छता। खाकर स्वाद के लिये लालच से अोठों पर प्रोज-संज्ञा, पु० (सं० प्रोजस ) बल, प्रताप, जीभ फेरना । ओंट फड़कना-कोध से तेज, उजाला, प्रकाश, वीरता आदि का श्रोठों का झाँपना।
श्रावेश पैदा करने वाला एक काव्य-गुण, श्रोडा--वि दे० (सं० कुण्ड) गहरा.. शरीर के भीतर के रसों का सार-भाग, काँति। गंभीर । संज्ञा, पु०-गड्ढा, चोरों की खोदो ओजस्विता--संज्ञा, स्त्री. (सं० ) तेज, हुई सेंध।
कांति, दीप्ति, प्रभाव। अोंक-संज्ञा, पु० (सं० ) घर, निवास-स्थान, ओजस्विनी-वि० स्त्री० (सं० ) श्रोज-पूर्ण, आश्रय, ठिकाना, नक्षत्रों या ग्रहों का प्रावेश-पूर्ण।
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