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विरहिणी
२५६८
विरुद्धधर्मा विरहिणी-वि० स्त्री. (सं.) वियोगिनी, का एक राक्षस, विराध (दे०)। " खर. विरहिनी।
दूखन विराध अरु बाली"---रामा० । विरहित-वि० (सं०) रहित, बिना, विहीन, . विराम -- संज्ञा, पु. (सं०) ठहरना, रुकना, शून्य, वियोगी, विरह प्राप्त ।
थमना, विश्राम करना, सुस्ताना, वाक्य का विरही-वि० (सं० विरहिन् ) वियोगी, वह स्थान जहाँ बोलते या पढ़ते समय
विछोही, प्रिया-हीन । खी० विरहिणी।। ठहरना आवश्यक है (दो भेद हैं: ... पूर्ण, विरहोत्कठित--संज्ञा, पु० यौ० (सं०) वह अर्ध ) इस का सूचक चिन्ह । , । ) छंद में नायक जो नायिका के संयोग की पूरी श्राशा
पाशा यति, देरी, विलंव । होने पर भी उससे न मिल सके। विराव - संज्ञा, पु. (सं०) शब्द, कलरव, विरहात्कंठिना---संज्ञा, स्त्री० यौ० ( सं०) बोली, शोर, हल्ला । आलोक शब्दं वयसां कारण वशात् न पाले हुए प्रिय या नायक
विरावैः'-रघु० । के आने की पूरी प्राशा या उत्कंठा से विरास- संज्ञा, पु० द० (सं० विलास )
विलास । युक्त नायिका ।
विरासी*-वि. द. (सं० विलासी) विराग--संज्ञा, पु. ( सं० ) वैराग्य, त्याग,
विलासी। अनुरागाभाव, विषय-भोगों से निवृत्ति,
विरुज- वि० (सं०) रोग-रहित, नीरोग । विरक्ति । वि. विरागी । "जैसे बिनु विराग
विम्झना*-- अ० कि० दे० (हि० उलझना) संयासी"-रामा।
उलझना, अटकना । स० रूप -विरुझाना, विरागी-वि० (सं० विरागिन् ) योगी,
विरुझावना, प्रे० रूप ---विरुभवाना। वैरागी (दे०) त्यागी, विरक्त ।
विरुद- संज्ञा, पु० (सं.) राज स्तवन, यशविराज-संज्ञा, पु. ( सं० ) परमेश्वर का
कीर्तन, सुन्दर भाषा में स्तुति, प्रशस्ति, स्थूल रूप, प्रादि पुरुष, क्षत्रिय । “विराजोऽ
राजाओं की प्रशंसा-सूचक पदवी (प्राचीन) धिपूरुषः'' -- य० वे।
यश, कीर्ति, ख्याति । विराजना---अक्रि० दे० (सं० विराजन ) विरुदावली--संज्ञा, स्त्री० सं०) यश-वान, फाना, शोभित होना, सोहना छवि देना,
__ स्तवन, प्रशंसा, गुण-पराक्रमादि का विस्तृत उपस्थित होना बैठना । "राज सभा रघुराज कथन, कीर्ति-कीर्तन, विरदावली (दे०)। विराजा"- रामा० ।
विरुद्ध-वि० (स.) प्रतिकृल, उलटा, विराजमान-वि० सं०) चमकता हुआ, विपरीत, अप्रसन्न, अनुचित । संज्ञा, स्त्री०
सुशोभित, उपस्थित, बैठा हुश्रा, पासीन । विरुद्धता । कि० वि० प्रतिकूल दशा में । विराट-संज्ञा, पु. (सं०) परमात्मा या ब्रह्म विरुद्धकर्मा-संज्ञा, पु० यौ० ( सं० विरुद्ध का विश्वरूप या स्थूल शरीर, दीप्ति, कांति, | कर्मन् ) बुरे चाल-चलन वाला, श्लेषालंकार आभा, क्षत्रिय । वि०-बहुत बड़ा या का एक भेद जिसमें एक ही क्रिया के कई भारी। “ विदुषन प्रभु विराटमय दीसा" विरुद्ध फल सूचित होते हैं। -रामा०!
| विरुद्धता--संज्ञा, स्त्री० (सं०) प्रतिकूलता, विराट--संज्ञा, पु. (सं०) मत्स्यदेश, मत्स्यदेश विपरीतता, विलोमता ।
के राजा जिनके यहाँ अज्ञात वास में पांडव विरुद्धधर्मा-संज्ञा, पु. यौ० (सं० विरुद्ध रहे थे 'महा.)। वि० (दे०) बड़ा, भारी। धर्मन् ) प्रतिकुल धर्म या स्वभाव विराध-संज्ञा, पु० (सं०) कष्ट, पीड़ा, सताने वाला, विपरीताचारी । “विरुद्धधमैरपि वाला, लचमण से मारा गया दंडक वन । भतृ तोज्झिता"--नैष ।
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