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सम्मोह
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सम्मोह - संज्ञा, पु० (सं०) मूर्च्छा, मोह | " क्रोधाद्भवति सम्मोहः गो० । सम्मोहन - संज्ञा, पु० (सं० ) मुग्ध या मोहित करना मोहने वाला, मोह पैदा करने वाला, एक काम वाण, प्राचीन काल का एक वाण या ra जिससे शत्रु सेना मोहित हो जाती थी । " सम्मोहनं नाम सममात्रम् 2- रघु० । वि० - सम्मोह नीय, सम्मोहक, सम्मोहित । सम्यक - वि० (सं०) पूरा, सब । क्रि० वि० (सं०) भली भाँति, सब प्रकार से अच्छी यौ० - सम्यक प्रकारे । " सम्पक् व्यवस्थिता बुद्धिस्तव राजर्षिसतम् " -- भा० द० ।
तरह
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सत्राज्ञी - संज्ञा, स्त्रो० (सं० ) महाराज्ञी, सम्राट की पत्नी, साम्राज्य की अधीश्वरी, महारानी ।
० -२१३९
सम्बाद - संज्ञा, पु० (सं० सम्म्राज राजराजेश्वर महाराजाधिराज शांहशाह, बहुत बड़ा राजा । सम्राट् समाराधन - तत्परोऽ भूत् " -- रघु० ।
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सय, सै- -संज्ञा, पु० ६० (सं० शत, सौ, शत। संज्ञा, पु० दे० ( फा० शय ) छाया, चीज़, शय (शतरंज) |
सयन -संज्ञा, पु० दे० (सं० शयन) शयन, सोना, सो जाना, नींद लेना, सैन (दे०), आँख का इशारा "रघुवर सयन कीन्ह तब जाई " - रामा० ।
सयरा सैरा - संज्ञा, पु० (दे०) आल्हा | सयराना - सैराना - नं०, क्रि० (दे०), बढ़ना, फैलना. समाप्त न होना. सइराना (ग्रा० ) | सयान - वि० दे० (सं०, सज्ञान ) अनुभवी, चतुर, होशियार, वयोवृद्ध | संज्ञा, स्त्री० सयानता । " कीजै सुख को होय दुख यह कह कौन सयान' - नीति० । सयानप - संज्ञा, पु० दे० (सं० सज्ञान) चतु राई, बुद्धिमत्ता, प्रवीणता, होशियारी, सयानता । भूप सयानप सकल सिरानी "--
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रामा० । भा० श० को
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सरजना
सयानपन, सयानपना - संज्ञा, पु० स्त्री० दे० (सं० सज्ञान ) चतुराई, होशियारी, प्रवीणता, दक्षता, चालाकी ।
सयाना - वि०, संज्ञा, पु० दे० (सं० सज्ञान ) दत्त, कुशल, चतुर, होशियार, पटु, प्रवीण, वयोवृद्ध चालाक, धूर्त्त, जादू मंत्र या टोना जानने या दूर करने वाला । “यही सयानो काम राम को सुमिरन कीजै ” – गिर० । स्त्री० - सयानी ।
सर - संज्ञा, पु० दे० (सं० सरस्) तड़ाग, तालाब, ताल । " भञ्जन करिसर सखिन समेता"रामा० | संज्ञा, पु० दे० (सं० शर) तीर, बाण, शर | "तब रघुपति निज सर संघाना"रामा० । संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० शर) चिता | संज्ञा, पु० ( फा० ) सिर, मूँड, चोटी, सिरा । वि० ( फ़ा० ) पराजित, जीता हुआ, विजित, दमन किया हुग्रा, अभिभूत । " वदखशाँ सर नहीं होता किसी क़ातिल के कहने पर - स्फु० । वार या गुना सूचक एक प्रत्यय - जैसे- दोसर, एकसर, चौसर । सर-अजाम -- संज्ञा, पु० (का० ) सामग्री, सामान, पूरा करना ।
सरकंडा -- संज्ञा, पु० दे० (सं० शरकांड ) सरपत की जाति का एक पौधा । सरक - संज्ञा, स्त्री० ( हि० सरकना ) सरकने की क्रिया का भाव, शराब की खुमारी । 'बारम्बार सरक मदिरा की अपरस कहाँ
उधार " -- भ्रमर० ।
सरकना - अ० क्रि० (सं० सरक, सरण ) खिसकना, दलना, काम चलना, निर्वाह होना, फिसलना, नियत काल या स्थान से श्रागे जाना, हटना, पृथ्वी से लगे हुए धीरे से किसी श्रोर बढ़ना स० प्रे० रूप- सरकाना,
सरकाधना, सरकवाना । सरजना - स० क्रि० दे० (सं० सृजन) सिरजना, सृष्टि करना, रचना, बनाना । "इन सिरोई दुखिया अँखियान को, सुख नाहि" - वि० ।
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