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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अनंगी ७४ अनक परि ) कामदेव के शत्रु, कामारि, मदन-रिपु, । कज़ियारी, अनन्तमूल, दूब, पीपर, अनन्त शिव, महादेव, त्र्यंबक । सूत्र, वि. पु. (दे०) अनन्त "श्रस्तुति अनंगी-वि० (सं० ) यौ० ( अन+अडी) तोरी केहि विधि करौं अनन्ता"-रामा० । अंग-रहित, बिना देह का, विदेह, संज्ञा, पु० अनंद-- संज्ञा, पु० ( सं० ) चौदह वर्णों का (सं० अनगिन् ) ईश्वर, कामदेव । (वा.)। एक वृत्त, दे० ( संज्ञा, पु० सं० आनन्द) अनंगिनी। आनन्द, वि० (अ+नन्द - पुत्र ) बिना अनंत-वि० (सं० अन् + अन्त) अन्तर पुत्र का, ( दे० ) अनंदा। या पार-रहित, असीम, बेहद, बहुत विस्तृत, अनंदन - वि० सं० अ + नन्दन ) निपुत्री, अपार, अविनाशी, अशेष, अनवधि, संज्ञा, पुत्र हीन, निपूता। पु० वि णु, शेषनाग, लघमण, बलराम, अनंदना*-अ० कि० (सं० आनन्द ) आकाश, बाहु का एक भूषण, सूत का एक आनन्दित या प्रसन्न होना, खुश होना, गंडा जिसे भादों सुदी चतुर्दशी (अनन्त " तब मैना हिमवंत अनन्दे "- रामा० । चतुर्दशी ) के व्रत के दिन बाहु पर बाँधते अनंदी-संज्ञा, पु० (सं० ) एक प्रकार का हैं, अभ्रक, अबरख, सिहुँवार वृक्ष, अनन्त- धान, वि० (सं० अनन्दी ) श्रानन्दयुक्त, जित नामके जैनाचार्य, काश्मीर देश का (स्त्री. आनंदिनी, अनंदिनी)। एक राजा, संज्ञा पु०-ब्रह्म । अनंभ-वि० ( सं० ) बिना पानी का अनन्तगोर-संज्ञा, पु. (सं० ) स्वर-भेद, ( अन् - अम्भ ) *वि० दे० (सं० अन + अंह सङ्गीत-शास्त्र। -विन्न ) निर्विघ्न, अबाध । अनन्त-चतुदशी-संज्ञा, स्त्री० (सं० यौ०) अन-क्रि० वि० (सं० अन् ) बिना, बगैर, भादों शुक्ल चतुर्दशी, जिस दिन लोग अनन्त वि० (सं० अन्य ) अन्य, दूसरा । देव का व्रत रहत हैं और अनन्त बाँधते हैं । “कहि जु चली अनही चितै, ओठनि ही इस व्रत को अनन्त व्रत कहत हैं। मैं बात ।' वि० । अनन्तमूल-संज्ञा, पु. ( स० यो०) एक अनहिवात-संज्ञा, पु० (हि. यौ० अन + पौधा या बेल, जो रक्त-शोधक होता है, अहिवात सौभाग्य ) वैधव्य, विधवापन, औषधि विशेष। डापा । वि० स्त्री० अनअहिवाती। अनंतर-क्रि० वि० (सं०) पीछे, उपरांत, अनइच्छा ( अनिच्छा ) संज्ञा, स्त्री० (दे०) बाद, निरंतर, लगातार, अनवकाश, अव्य | अरुचि, इच्छा-हीन, बिना चाह के, बे मन, निष्प्रयोजनता। वि० अनइच्छित ( अनिवहित, समोप, पाल, परचात् । च्छित ) अनभीष्ट, अरुचि से। अनतरज- संज्ञा, पु. (सं० ) क्षत्रिया से अनइस-वि. पु. ( दे०) अनैप, (सं० उत्पन्न ब्राह्मण का पुत्र, या क्षत्रिय से वैश्या अनिष्ट ) बुरा, व्यर्थ, निकम्मा, स्त्री० अनइसी स्त्री के गर्भ से उत्पन्न सन्तान । अनेसी (ब्र०) अनैपो-“अहित अनैसो अनन्तावजय-संज्ञा, पु० (सं० यो० ) ऐसो कौन उपहास अरी"-पद्माकर । युधिष्ठिर का शङ्ख। अनऋतु-संज्ञा स्त्री० (सं० अन्+ऋतु) अनन्तवाय-वि० यौ० (सं०) अपार | ऋतु के विरुद्ध, बेऋतु, बेमौसिम, अकाल, पौरुष, असीम बल। ऋतु-विपर्यय, ऋतु विरुद्ध व्यापार । अनंता-वि० स्त्री० (सं०) जिसका अंत अनक ---संज्ञा, पु. ( दे० ) प्रानक, या पारावार न हो, संज्ञा, स्त्री० पृथ्वी, पार्वती नगाड़ा, मृदंग, नीच । For Private and Personal Use Only
SR No.020126
Book TitleBhasha Shabda Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamshankar Shukla
PublisherRamnarayan Lal
Publication Year1937
Total Pages1921
LanguageHindi
ClassificationDictionary
File Size51 MB
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