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काश्तकार
काश्तकार - संज्ञा, पु० ( फ़ा० ) किसान, खेतिहर (दे० ) ज़मींदार से लगान पर भूमि लेने वाला | संज्ञा, स्त्री० ( फ़ा० ) काश्तकारी -किसानी, खेती, काश्तकार का हक़ । काश्मरी - संज्ञा, स्त्री० (सं० ) गंभारी का पेड़ ।
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काश्मीर - संज्ञा, पु० (सं०) भारत के उत्तर मैं एक पहाड़ी प्रान्त, पुष्करमूल, सुहागा, केसर | संज्ञा, पु० (सं० ) काश्मीरजकश्मीर में उत्पन्न कूट, कुंकुम । वि० काश्मीरी-काश्मीर सम्बन्धी, काश्मीरवासी । काश्मीरा-कशमीरा—संज्ञा, पु० ( दे० ) एक प्रकार का मोटा ऊनी कपड़ा । काश्यप – दि० ( सं० ) कश्यप प्रजापति के वंश या गोत्रका | संज्ञा, पु० (सं०) करणादि मुनि, मृग विशेष । यौ० काश्यपमेरू काश्मीर देश, कश्यप मुनि का पर्वत । काश्यपि संज्ञा, पु० (सं० ) अरुण, सूर्य का सारथी ।
काश्यपी -संज्ञा, स्त्री० (सं०) पृथ्वी, प्रजा । काषाय - वि० (सं० ) हर-बहेड़े श्रादि कसैले पदार्थों में रँगा, गेरुचा ।
काष्ठ- संज्ञा, पु० (सं०) लकड़ी काठ (दे० ) ईंधन |
काष्ठा -- संज्ञा, स्त्री० (सं० ) सीमा, अवधि, ऊँचाई, ऊँची चोटी, उत्कर्ष, १८ पल या ३० कला, समय, चन्द्रमा की एक कला, दिशा, धोर, दत्त - कन्या, सड़क । काठी-संज्ञा, स्त्री० (सं० ) फिटकिरी । कास संज्ञा, स्त्री० (सं० ) कास या श्वासखाँसी, (दे० ) सरपत | संज्ञा, पु० दे० (सं० काश ) काँस, तृण । "फूले कास सकल महि छाई" - रामा० । कासनी - संज्ञा, स्त्री० ( फा० ) एक औषधि का पौधा, कासनी के बीज, कासिनी के फूलों सा नीला रंग ।
किंकर्तव्यविमूढ़
कासबी - संज्ञा, पु० ( दे० ) तंतुवाय, जुलाहा, कोरी ( ० ) ।
कासा - संज्ञा, पु० ( फ़ा० ) प्याला, कटोरा, आहार, दरियाई नारियल का बर्तन ( फ़कीरों का ) । कासार - संज्ञा, पु० (सं० ) छोटा ताल, २० रगण का एक दंडक भेद, पँजीरी । क़ासिद - संज्ञा, पु० ( अ० ) हरकारा,
पत्र - बाहक ।
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कासु–सर्व० (दे०) किस का क़ाको (०) केहिकर ( श्रव० ) ।
काह* - क्रि० वि० दे० (सं० कः ) क्या, कौन वस्तु ।
काहिण – संज्ञा, पु० (सं०) १६ पण की एक तौल |
काहि – सर्व दे० ( हि० प्रत्य० ) किसे, किसको किससे " कहहु काहि यह लाभ न भावा ।" रामा० ।
काहिल - वि० (अ० ) सुस्त | संज्ञा, स्त्री० ( श्र०) काहिली - सुस्ती ।
-सर्व ० (दे० ) काहू (दे०) किसी । काहु न संकरचाप चढ़ावा " रामा० । काहू सर्व० दे० ( हि० का + हू – प्रत्य० ) किसी काहु (दे० ) संज्ञा, पु० ( फ़ा० ) गोभी सा एक पौधा जिसके बीज दवा के काम में आते हैं।
काहे - क्रि० वि० दे० (सं० कथं प्रा० कह ) क्यों, किस लिये । सर्व० (दे० ) किस, जैसे -- काहे से, काहे को क्यों 1 किं - भव्य ० ( सं० किम् ) क्यों, वि० (सं० किम् ) क्या, सर्व० (सं० ) कौन सा । यौ० किमपि - —कुछ भी, कोई भी, कैसे ही। किंकर -संज्ञा, पु० (सं० किं + कृ + भ ) दास, नौकर, राक्षसों की एक जाति । स्त्री० किंकरी - दासी | किंकर्तव्यविमूढ़ - वि० यौ० (सं० ) क्या करना चाहिये यह जिसे न सूझे, भौचका, घबराया हुआ, व्याकुल | संज्ञा स्त्री० किंकर्तव्यविमूढ़ता |
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