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वैनतेय
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वैश्वदेव
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वैनतेय - संज्ञा, पु० (सं०) विनता की संतान ! वैलत्तराय -संज्ञा, पु० (सं०) विचित्रता, अरुण, गरुड़ । वैनतेय - बलि जिमि चह
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विलक्षणता, विभिन्नता, अनोखापन । वैप - संज्ञा, पु० (०) विवर्णता, मलिनता । वैवस्वत- संज्ञा, पु० (सं०) सूर्य का एक
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पुत्र, एक मनु, एक रुद्र, वर्तमान मन्वंतर । वैवाहिक -संज्ञा, पु० (सं०) समधी, कन्या या वर का श्वशुर । वि० विवाह-संबंधी, विवाद का । स्री० त्रैवाहिकी। वैशंपायन - संज्ञा, पु० (सं०) व्यास जी के शिष्य एक प्रसिद्ध ऋषि । वैशाख – संज्ञा, पु० (सं०) चैत्र और जेठ के मध्य का महीना, वैसाख (दे० ) । वैशाeet संज्ञा, सो० (सं०) वैशाख की पूर्ण माही. दोशाख की छड़ी, वैसाखी (दे०) । वैशाली -- संज्ञा, खो० (सं०) विशाल नगरी,
(प्राचीन बौद्ध काल ) विशाल पुरी या नगरी (मुज़फ़्फ़रपुर प्रान्त का बाढ़ ग्राम) । वैशिक -- संज्ञा, पु० (सं०) वेश्यागामी नायक ( साहि० )
वैशेषिक संज्ञा, ५० (सं०) ६ दर्शन शास्त्रों में से महर्षि कणाद कृत एक दर्शन शास्त्र जिसमें पदार्थों तथा द्रव्यों का निरूपण है, विज्ञान- शास्त्र, पदार्थविद्या, प्रोलूक्य दर्शन, वैशेषिक दर्शन का मानने वाला । न वयम्पट् पदार्थवादिनः वैशेषिकवत् शं० भा० ।
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कागू रामा० ।
वैपार - संज्ञा, पु० दे० (सं० व्यापार) व्यापार वाणिज्य, मौदागरी, वैपार (दे० ) । (दे०) वैपारी ।
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वैभव - संज्ञा, पु० (सं० ) संपत्ति, ऐश्वर्य, प्रताप, महत्व देखि न कपि मन शंका रामा० । वैभवशाली - संज्ञा, पु० (सं०) प्रतापी, धनी, बड़े ऐश्वर्य वाला, वैभवी वैभaara वैमनस्य - संज्ञा, पु० (सं०) रात्रुता, बैर । वैमात्रेय - वि० (सं०) विमाता या सौतेली
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विभव, धन,
'वैभव
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माता से उत्पन्न सौतेला । त्रो० चैमात्रेयी वैयाकरण - संज्ञा, पु० (सं०) व्याकरण शास्त्र का पूर्ण ज्ञाता, या पंडित, विद्वान । वैयाकरणसिद्धांत कौमुदीयम् विरच्यते " -- कौ० व्या० ।
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वैर संज्ञा, पु० (सं० भा० वैरता ) शत्रुता, दुश्मनी, विरोध, वैमनस्य, द्वेष | वैर-शुद्धि - संज्ञा, स्रो० यौ० (सं०) किसी से वैर का बदला लेना । यौ० संज्ञा, पु० (सं०) वैरशोधन | वैरागी - संज्ञा, पु० (सं०) विरक्त, त्यागी, संन्यासी, विरागी ।" वहँ हम कौशलेंद्र महराजा कहूँ विदेह वैरागी " वैराग्य-संज्ञा, पु० (सं०) विरक्ति, विराग, त्याग, वैराग (दे०), देखे सुने पदार्थों की चाह का त्याग, संसार को त्याग एकांत में ईशाराधन की चित्त वृत्ति वैराग्यमेवा
रामक० ।
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भ -- भ० श० ।
वैराज्य - संज्ञा, पु० (सं०) एक ही देश में दो राजाओं का राज्य या शासन, दो राजाओं से शासित राज्य | वैरी संज्ञा, पु० (सं० वैरिन् ) शत्रु, रिपु, अरि, विरोधी, दुधी । स्त्री० वैरिणी "" बालस वैरी बसत तन, सब सुख को हर लेत "वि० भ० ।
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वैश्य - सज्ञा, पु० (सं०) चार वर्णों में से तीसरा वर्णं जिनका धर्म श्रध्ययन, यजन और पशुपालन था तथा जिनकी वृत्ति, कृषि और वाणिज्य था ( भार० श्रार्य० ) बनिया, व्यापारी वस्य (दे० ) । वैश्यता - संज्ञा स्त्री० (सं०) वैश्यत्व, वैश्म का धर्म या भाव ! वैश्यत्व - संज्ञा. ५० (सं०) वैश्यता । वैश्यजनीन - वि० (सं०) सारे संसार के लोगों से संबंध रखने वाला, सब लोगों सार्वभौम |
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वैश्वदेव - संज्ञा, पु० (सं०) विश्वदेव-संबंधी यज्ञ या होम. विश्वदेवार्थ हवन ।
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