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व्रजराज
१६२२
शंकराचार्य व्रजराज-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) व्रत- व्रत्य - संज्ञा, पु. (सं०) व्रत या उपवास बिहारी, श्रीकृष्णजी।
__ करने वाला। व्रजेंद्र-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) श्रीकृष्ण जी।
| वाचड़ ---संज्ञा, स्त्री. (अप०) ८ वीं से ११ वीं व्रजेश, ब्रजेश्वर- संज्ञा, पु. यौ० (सं.)
शताब्दी तक सिंध प्रदेश की प्राचीन भाषा श्रीकृष्ण । स्त्रो०-व्रजेश्वरी-राधिका ।
( अपभ्रंश भेद ) पैशाचिक भाषा का एक व्रज्या --संज्ञा, श्री० (सं०) पर्यटन, भ्रमण,
भेद या रूप। धूमना-फिरना, गमन, जाना, चढ़ाई, श्राक्रमण, धावा।
बात--संज्ञा, पु. (२०) समूह, भीड़. लोग । व्रण -संज्ञा, पु० (सं.) शरीर का घाव या “गुरु निन्दक बात न कोपि गुणी"फोड़ा।
रामा! व्रत-संज्ञा, पु० (सं०) नियम, दृढ़ संकल्प, व्रात्य -- संज्ञा, पु० (सं.) जिसका उपवीत किमी पुण्य तिथि को पुश पार्थ नियम से । (जनेऊ) संस्कार न हुशा हो, द गो संस्कारों उपवास करना, खाना, भज्ञ , उपगम से होन, वर्ण-संकर, अनार्य या पतित । अनुष्ठान ।
ब्रीडा-संज्ञा, स्त्री० (सं०) अपा, लजा शरम । वतिक ---संज्ञा, पु० (सं.) व्रत का उपवास
" बीड़ा न तैराप्तजनोपन तः "---किरा० । करने वाला, व्रती। वी-पंज्ञा, पु. (सं० बस्ति । व्रत या| व्रीहि-संज्ञा, पु. ( सं० ) धान, चावल । उपवास करने वाला, बर्ती (दे०), ब्रह्मचारी, येनाहं स्यामि बहुव्रीहिः"--स्फु० । यजमान कोई व्रत या संकल्प धारण करने वबीहि झा, श्री. (सं०) पट समामों वाला।
। में से एक व्या०)।
श-संस्कृत और हिंदो को वर्णमाला के वाला, शुभकर्ता, लाभदाता । संज्ञा, पु० --- ऊष्मों में से प्रथम वर्ण, इ का उच्चारण- महादेव जी, शिव, शंभु, शंकराचर्य, २६ स्थान प्रधानतया तालु है । " इचु यशा मात्राओं का एक मात्रिक छंद ( पि.)। नाम् तालु" सि. को० : संज्ञा, पु. (सं०) " निशंक शंकरां के तडिदिव लमिता" ----मंगल, कल्याण, शस्त्र, शिव । --- संज्ञा, पु० दे० (सं० संकर ) दो पदार्थों शं-संज्ञा, पु. सं.) शांति सुख, कल्याण,
का मेल । वैराग्य, मंगल । वि० ---शुभ ।..." शंकरी
शंकरशैल -- संज्ञा, पु. यौ० (सं०) शंकराशंकरोतु"। " शन्नो मित्रः शंवरुण "
चल, कैलाश पर्वत । -~-य. वे०।
शंकर स्वामी - संज्ञा, पु. यौ० { सं० शंकर
स्वामिन् ) अद्वैत मत प्रर्वतक स्वामी शंकरा शंक- संज्ञा, पु. (सं०) अाशंका, डर, भय, संक (दे०)। " देत-लेत मन शंक न कर
| शंकरा -संज्ञा, स्त्री० सं०) शंकरी, पार्वती ही"-रामा० ।
जी। शंकना-अ० क्रि० दे० (सं० शंका) शंकराचार्य-संज्ञा, पु. यौ० सं०) अद्वैत संकना (दे०) डरना, शंका या संदेह मत के प्रर्वतक, एक प्रसिद्ध शैव प्राचार्य, करना।
वेदान्त और गीता' पर इनके भाष्य शंकर-वि० (सं०) कल्याण या मंगल करने परम प्रसिद्ध हैं, शंकर स्वामी जो केरल
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