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अरण्यरोदन
अरना अरण्यरादन-संज्ञा, पु. यो. ( सं० ) अरदना-स० क्रि० दे० ( सं० अर्दन ) निष्फल रोना, ऐपा क्रंदन या पुकार जिपका रौंदना, कुचलना, ध्वंस करना, वध या सुनने वाला कोई न हो, वह बात जिस नाश करना, मर्दन करना। पर कोई ध्यान न दे।
- वि० (अ+रदना) बिना दाँत वाली सी०। अरण्यवासा-संज्ञा, पु. ( सं० ) वनवासी, अरदली-संज्ञा, पु० दे० (अ० आईरली) तपस्वी, मुनि, जंगली लोग, वनमानुष । दरवाजे पर रहने वाला चपरासी, साथ अरत-वि. (सं०) विरक्त, जो लीन न रहने वाला नौकर । हो, उदासीन । क्रि० अ० (हि. अड़ना) अरदावा-संज्ञा, पु० दे० (सं० अर्दित ) श्रड़ता है।
कुचला हुआ अन्न, भरता, चोखा । परति-संज्ञा, स्त्री० ( सं० ) विरति, विराग, “नख ते बघारि कीन्ह अरदावा"-५०।
वैराग्य, चित का न लगना, अप्रीति । अरदास-संज्ञा, स्त्री० दे० (फा० अर्जदाश्त) श्ररथ -संज्ञा, पु० दे० ( सं० अथ ) अर्थ, ।
निवेदन के साथ भेंट, नज़र, देवता के मतलब, धन, अभिप्राय, हेतु, तात्पर्य, । निमित्त भेट, विनय, प्रार्थना, प्रार्थना-पत्र । मंतव्य, प्रयोजन ।
" सुना साह अरदासें चढ़ीं"-प० । नि० (अ+रथ ) रथ-रहित, बिना रथ के। "यह अरदास दास की सुनिये" कबीर० । " अरथ न धरम, न काम-रुचि "-
बात माती रामा० ।
हुई, रौंदा हुआ, मदित, चूर्णित । मु०--अरथ लगाना या बैठानामु० अरथ लगाना या बठाना स्त्री० अरदिता । मतलब निकालना । अरथ निकालना
अरधंग-संज्ञा, पु० दे० (सं० अधांग ) तात्पर्ष निकालना।
आधा अंग, शिव, महादेव, अधागदेव । प्ररथाना-स० कि० दे० (सं० अर्थ )
(दे० ) अरधंगा। समझाना, प्राशय का स्पष्ट करना, बताना,
। अरधंगी-अरधाँगी-संज्ञा, पु० दे० व्याख्या करना, विवेचना करना, विवरण
(सं० अधांगी ) श्रद्धांगी, शिव, महादेव । देना। " दसरथ-वचन राम बन गवने यह कहियो
। (दे० ) अरधंगा। प्ररथाई" -सूर० ।
अरघ - वि० दे० (सं० अर्ध) अर्ध, प्राधा। अरथी-संज्ञा, स्त्री० दे० ( सं० रथ ) सीढ़ी (दे० ) आधो। के आकार का एक बाँस का बना हुआ __ कि० वि० (सं० अधः) नीचे, अंदर, भीतर । ढाँचा, जिल पर रखकर मुर्दे को ले जाते | अरन -संज्ञा, पु० दे० (सं० अरण्य ) हैं, टिखटी।
बन, जंगल। संज्ञा, पु० (सं० अ+रथी ) जो रथी न हो,
संज्ञा, पु. (अ+रण ) रण के बिना, वि० दे० (अर्थी) अर्थयुक्त, धनी, मतलबी। बुरा युद्ध । " अर्थी दोषान्न पश्यति"-1
अरना*-संज्ञा, पु० दे० (सं० अरण्य ) जंगली अरदन-वि० (सं०) बिना दाँत का, भैंसा । दंत-विहीन।
नि.. अ० (दे० ) अड़ना, रुकना। स्त्री० अरदना।
"नवरंग विमल जलद पर मानौ है ससि संज्ञा, पु० कष्ट पहुँचाना, विनाश, माँगना। पानि अरे"-सूर० । भा० श० को०-३
पैदल ।
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