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मोक्ष ।
अतिगति
अतिमुक्त अतिगति-संज्ञा, स्त्री० (सं० ) उत्तमगति, अतिपतन-( अतिपात ) संज्ञा, पु० (सं०)
अतिक्रम, बाधा, गड़बड़ी, अतिपात । अतिचार-संज्ञा, पु. (सं०) ग्रहों की अतिपराक्रम-संज्ञा, पु० (सं० ) बड़ा शीघ्र चाल, एक राशि का भोग-काल प्रताप, बड़ा तेज । समाप्त किये बिना किसी ग्रह का दूसरी अतिबल-संज्ञा, पु. ( सं०) बड़े बल वाला, राशि में चला जाना, विधात व्यतिक्रम। एक राक्षस, प्रबल " नारी अति बल होत अतिचारी--वि० (सं० ) अन्यथाचारी है अपने कुल की नाश-गिरधर । प्रतिचर, अति करने वाला।
| अतिपात-संज्ञा, पु. (सं० ) अतिक्रम, अतिथि-संज्ञा, पु. ( सं० ) घर में आया | अव्यवस्था, गड़बड़ी, बाधा, विघ्न । हुअा अज्ञातपूर्व व्यक्ति, अभ्यागत, मेह- अतिपातक-संज्ञा, पु० (सं० ) पुरुष का मान, पाहुना एक स्थान पर एक रात से | माता, बेटी, और पतोहू के साथ और स्त्री अधिक न ठहरने वाला संन्यासी, व्रात्य, का पिता, पुत्र, दामाद के साथ गमन, & अग्नि, यज्ञ में सोमलता लाने वाला श्रीराम | प्रकार के पातकों में से ३ बड़े पाप । जी के पौत्र और कुश के पुत्र,-" वार प्रतिपान-संज्ञा, पु० (सं० ) बहुत पीना, है न तिथि है वे अतिथि विचारे हैं" - मत्तता, पीने का व्यसन । रसाल।
अतिपाव-क्रि० वि० (सं०) सन्निकट, अतिथि-पूजा संज्ञा, स्त्री० (सं० अतिथि +
समीप, पास, बगल में। पूजा ) अतिथि का आदर सत्कार, अतिथि
अतिप्रसंग-संज्ञा, पु० (सं० ) अत्यंत मेल, सेवा, मेहमानदारी।
पुनरुक्ति, अति विस्तार व्यभिचार, क्रम का अतिथि-भक्ति-संज्ञा, स्त्री० (सं० ) अतिथि
नाश करना। पूजा। अतिथि-भक्त-संज्ञा, पु. ( सं० ) अतिथि
अतिबला-संज्ञा, स्त्री. (सं० ) एक प्रकार पूजक, अतिथि की सेवा-सुश्रुषा करने
की प्राचीन युद्ध-विद्या जिसके प्रभाव से
श्रम और प्यास-भूख आदि बाधाओं का वाला। अतिथियज्ञ -संज्ञा, पु० (सं० ) अतिथि
भय नहीं रहता, ककई नामक पौधा - का आदर-सत्कार, अतिथि-पूजा।
बरियारी। अतिथिसेवा-संज्ञा, स्त्री० (सं० ) अतिथि- | " चुत्पिपासे न ते राम ! भविष्यतेनरोत्तम । सत्कार, प्रातिथ्य-संज्ञा, पु. ( सं० ) |
बलामतिबलाम् चैव ....." वाल्मीकिपहुनाई।
अतिबरवै-संज्ञा, पु० (सं० ) एक प्रकार तिदेश-संज्ञा, पु० (सं० ) एक स्थान के का छंद (मात्रिक) जिसके प्रथम और तृतीय धर्म का दूसरे स्थान पर प्रारोपण, और में १२ मात्रायें और द्वितीय तथा चतुर्थ विषयों में भी काम आने वाला नियम । में ६ मात्रायें होती हैं, विषम पदों में जगण प्रतिधृति-संज्ञा, स्त्री० (सं० ) उन्नीस और अंत में गुरु वर्ण नहीं आता, बरवा वणों के वृत्तों का नाम ।
छंद में २ मात्राओं के और बढ़ाने से अतिपन्था-संज्ञा, स्त्री० (सं० ) बड़ा मार्ग अतिबरवै बन जाता है - (पिंगल)। राजपथ, सड़क ।
“ कवि-समाज को बिरवा-भल चले लगाय" अतिपर--संज्ञा, पु० (सं० ) महाशत्रु, | अतिमुक्त-वि० (सं० ) मुक्तिप्राप्त, विषयउदासीन, असम्बन्ध, अत्यंत शत्रु। विरक्त, संज्ञा, पु० (सं० ) एक लता।
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