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पु०
अचमन
प्रचमन - संज्ञा,
श्राचमन ।
प्रवर
र - वि० (सं० ) न चलने वाला,
४१
( सं० आचमन )
स्थावर, जड़ |
प्रचरज - संज्ञा, पु० दे० (सं० आश्चर्य ) थारचर्य, अचम्भा, ताश्रजुब श्राजु हमैं
(6
|
बड़ अचरज लागा १- रामा० ।
प्राचरज - संज्ञा, पु० दे० (सं० ग्राश्चर्य - अचरज) “ सुनिचरज करें जनि कोई ---
रामा० ।
1
प्रचल - वि० (सं० ) जो न चले, स्थिर, ठहरा हुआ, चिरस्थायी, ध्रुव, दृढ़, पक्का, जो नष्ट न हो, मज़बूत, पुख्ता, संज्ञा, पु० पहाड़, पर्बत " चित्रकूट गिरि अचल अहेरी ". रामा० जैनियों का प्रथम तीर्थंकर । अचलधृति - संज्ञा स्त्री० (सं० ) एक प्रकार का वणिक वृत्त | प्रचला - वि० स्त्री० (सं० ) जो न चले, स्थिर, ठहरी हुई, संज्ञा, स्त्री० पृथ्वी, भूमि, संज्ञा पु० - एक प्रकार का ढीला और बिना तीन या बाँहों का लम्बा कुरता जो सन्यासी लोग पहना करते हैं । प्रचला सप्तमी - संज्ञा स्त्री० (सं० ) माव शुक्ला सप्तमी । इस दिन के किये कर्म अचल हो जाते हैं इसीसे इसे चला कहते हैं । दे० - चला सातौं ।
प्रचवन - संज्ञा, पु० (सं० याचमन ) श्राचमन, , पीना, कुल्ला करना, " भोजन करि अचवन कियो "
प्रचवना - स० क्रि० (सं० आचमन ) चमन करना, पीना, कुल्ला करना, छोड़ देना, खो बैठना, दावानल अचयो ब्रजराज ब्रज जन जरत बचाये " -- सूबे० ।
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चवाना - स० क्रि० (सं० आचमन ) श्राचमन कराना, पिलाना, कुल्ली कराना ।
वाई - वि० (दे० ) प्रक्षालित, स्वच्छ | प्रचाक, अचाका* क्रि०
वि० (हिं " दिनहिं रात
दे० ) अचानक, एकाएक, भा० श० को ० - ६
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श्रचिंतनीय
अस परी चाका, भा रवि अस्त, चंद रथ हाँ "
-प० ।
अचान - क्रि० वि० दे० अचानक । प्रचांचक - क्रि० वि० दे० अचानक, अचांचकी— दे०
अचानक - क्रि० वि० दे० (सं० श्रज्ञानात ) एक बारगी, सहसा, अकस्मात, दैवयोग से,
हठात् ।
चार - संज्ञा, पु० ( फा० ) मसालों के साथ तेल में रख कर खट्टा किया हुआ आम आदि फल, कचूमर, थाना, एक फल संज्ञा. पु० (सं० ) श्राचार - श्राचार-विचार, संज्ञा, पु० ( प्रान्ती० ) चिरौंजी का फल, पेड़ । व्यवहार, चाल चलन ।
अचरज * - संज्ञा, पु० दे० (सं० आचार्य ) देखो - आचार्य |
अचारां* संज्ञा, पु० (सं० आचारी ) आचार-विचार से रहने वाला, बिधि पुर्वक नित्य कर्म करने वाला ।
रामानुज सम्प्रदाय का वैणव संज्ञा स्त्री० ( फा० अचार ) कच्चे ग्रामों की छिली हुई और धूप में सुखाई हुई फाँके । प्रवाह -संज्ञा खो० (हिं० अ + चाह ) अरुचि, अनिच्छा, fro निस्पृह, निरीह, इच्छारहित ।
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चाहा - वि० ( हि० दे० ) जिस पर इच्छा या चाह या रुचि न हो । संज्ञा पु० जिस व्यक्ति पर प्रेम न हो, जो प्रेम न करे, निमेोही, जो इष्ट न हो ।
चाहो * - वि० दे० ( अ + चाह + ई ) न चाही हुई, निःकाम, अनचाही । प्रांत - वि० सं० अचित्य ) न चिंत्य, चिन्ता करने योग्य जा न हो, अज्ञेय, कल्पनातीत, अतुल, आकस्मिक, श्राशा से अधिक, वि० (सं० अचिंत ) निश्चित, चिन्ता रहित, बेफ़िक्र ।
चिंतनीय वि० (सं० ) जो ध्यान में न या सके, अज्ञेय, दुर्बोध, चिन्ता न करने योग्य |
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