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अत्यन्त
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अत्यन्त-वि० (सं० ) बहुत अधिक, अति- गुणों का अधिक, विचिन और अतथ्य वर्णन शय. ज्यादा।
किया जाता है, ( अ० पी० )। अत्यन्ताभाव-संज्ञा पु० (सं० ) किसी अत्युकथा-संज्ञा स्त्री. (सं० ) बारह वस्तु का बिलकुल अभाव, सत्ता की नितान्त | अक्षरों का एक चतुष्पाद छंद विशेष । शून्यता, पाँच प्रकार के अभावों में से एक, अत्युत्कट-वि० (सं० )अति कठिन, तीन । तीनों कालों में असम्भव, (वैशेषिक) अत्युत्कंठा-संज्ञा स्त्री० (सं० ) अत्यन्त बिलकुल कमी।
चिन्ता, मनस्ताप, अति अभिलाषा। अत्यन्तगामी---वि० (सं० ) शीघ्रगामी, अत्युत्कृष्ट-वि० (सं० ) अत्युत्तम, श्रेष्ठ । अधिक चलने वाला।
अत्युत्तम-वि० (सं०) बहुत अच्छा, श्रेष्ठ । अत्यन्तवासी-संज्ञा पु. (सं० ) बहुत | प्रत्युत्तर-संज्ञा पु० (सं० ) सिद्धान्त, रहने वाला, नैष्ठिक ब्रह्मचारी।
मीमांसा का निर्धारण, पाश्चात्य । प्रत्यंतिक-वि० (सं० ) समीपी. निकट- अत्र-क्रि० वि० (सं० ) यहाँ, इस जगह, वर्ती बहुत घूमने वाला।
संज्ञा पु० अस्त्र का अपभ्रंश । “चले अत्र अत्यम्ल-संज्ञा पु. (सं० अति ---अम्ल ) लै कृष्ण मुरारी '-५० । इमली-बहुत खट्टा. वि. अति खा। अत्रक--वि० ( सं० ) यहाँ का, इस लोक प्रत्यय-संज्ञा पु० (सं० ) मृत्यु, नाश, दंड, का, ऐहिक । सज़ा, हद से बाहर जाना, कष्ट, दोष, राजाज्ञा | | अत्रत्य-अ० (सं० ) यहीं का, इसी का उल्लंघन, विनाश, अपराध, अति- स्थान का। क्रमण, दुःख।
अत्रय-विव्य० (सं० ) निर्लज्ज, बेशर्म, प्रत्यर्थ-संज्ञा पु. (सं.) विस्तार, अधिक। बेहया। अत्यष्टि---संज्ञा पु. (सं० ) १७ वर्णों के | अत्रभवान्-संज्ञा पु. (सं० ) माननीय, वृत्तों की संज्ञा, अष्टादशवर्णवृत्त ।
पूज्य, श्रेष्ट, श्लाघ्य ( नाटक में)। अत्याचार-संज्ञा पु० (सं० ) आचार
अत्रभवती-संज्ञा स्त्री० (सं० ) पूज्या,
श्लाघ्या। काप्रति क्रमण, अन्याय, जुल्म, दुराचार. पाप, पाखंड, ढोंग, श्राडम्बर. दौराम्य
अत्रस्थ-संज्ञा पु० (सं० ) इसी स्थान का अनीति, दुराचार, निषिद्धाचरण ।
निवासी, इसी जगह पर रहने वाला। अत्याचारी-वि० (सं०) अन्यायी,
अत्रि-संज्ञा पु० (सं० ) ब्रह्मा के पुत्र जो पाखंडी, ढोंगी।
सप्तर्षियों में गिने जाते हैं, कर्दम प्रजापति
की कन्या अनसूया इन्हें व्याही थीं। अत्याज्य-- वि० (सं० ) न छोड़ने के योग्य,
महर्षि, दुर्वासा दत्तात्रेय और चन्द्र इसके जो न छोड़ा जा सके।
पुत्र हैं । मनु के दस प्रजापति-पुत्रों में से अत्यावश्यक-वि० (सं० ) अति प्रयोज
एक ये भी हैं । सप्तार्षि-मंडल का एक तारा । नीय, बहुत जरूरी।
अत्रिजात--संज्ञा पु. ( सं० ) चन्द्र, दिग्गज, प्रत्युक्त-वि. (सं० प्रति+उक्त) बहुत । नेत्रज, नेत्रभू, निशाकर, सुधांशु, चन्द्रमा । बढ़ा-चढ़ाकर कहा हुआ।
| अगुण्य-संज्ञा पु० (सं० ) सत्, रज, तम, अत्युक्ति-संज्ञा स्त्री० (सं० ) बढ़ा-चढ़ा कर | __ तीनों गुणों का अभाव । वर्णन करने की शैली, मुबालिग़ा, एक प्रकार | अथ-अव्य. (सं० ) ग्रन्थारम्भ में प्रयुक्त का अलंकार जिसमें उदारता, शूरता आदि | होने वाला, शब्द, अनन्तर, प्रश्न, अधिकार
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