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वर्गफल
१५६३
वर्णात्मक क्षेत्र जिसकी चारों भुजायें तुल्य और कोण | विचार से प्रस्तारानुसार अमुक संख्या के समकोण हों (रेखा०)।
वणों के छंदों के अमुक संख्यक भेद का रूप वर्गफल-संज्ञा, पु. यो० (सं०) वह गुणन- कैसा होगा। फल जो किसी संख्या या राशि को उसी वर्णना-संज्ञा, स्त्री. (सं०) वर्णन, स्तवन, संख्या या राशि से गुणा करने से मिले। स्तुति । स० क्रि० (दे०)-बखान करना, वर्गमूल-संज्ञा, पु. (सं०) किसी वर्गीक
बनना (दे०), स्तवन करना, बखानना, संख्या की ऐसी संख्या जिसे यदि उससे !
कहना। गुणा करें तो फल वही पीक हो । जैसे
वर्णपताका-संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) पिंगल ३६ का वर्ग मूल ६ है अल्पा० रूप-मूल ।
की एक क्रिया जिससे यह ज्ञात हो कि धर्गलाना, बरगलाना (दे०)-स. क्रि०
वर्णिक छंदों में से कौन सा ऐसा छंद है दे० (फा० वरग़लानीदन) बरगलाना (दे०),
जिसमें प्रमुक संख्यक लघु गुरु होंगे (पिं०)। किसी को बहकाना, फुसलाना, उभारना,
वर्णप्रस्तार--संज्ञा, पु० यौ० (सं०) पिंगल उसकाना, उत्तेजित करना।
की एक क्रिया जिससे ज्ञात होता है कि वर्गीय-वि० (सं०) वर्ग या समूह का।
इतने वर्णो के छंदों के इतने भेद हो सकते वर्जन-संज्ञा, पु० (सं०) त्याग, छोड़ना,
| हैं और उनके रूप इस तरह होंगे। मनाही, रोक । वि०---धर्जनीय, घi, |
वर्णमाला-संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) किसी वर्जित । " घर से निकलने के लिये है
भाषा के अक्षरों की क्रमवद लिखित सूची। वज्र वर्जन कर रहा "--मै० श०। वर्जित-वि. (सं०) स्यागा या छोड़ा हुआ,
वर्णविचार--संज्ञा, पु० यौ० (सं०) वर्ण-शिक्षा रोका हुया, त्यक्त, निपिद्ध, अग्राह्य ।।
(प्राचीन वेदांग) या व्याकरण का वह भाग वर्य-वि० (सं०) त्याज्य, छोड़ने के योग्य,
जिसमें अक्षरों के रूप, उच्चारण और संधि जो मना किया गया हो।
श्रादि का वर्णन हो (माधु०)। वर्ण-संज्ञा, पु. (सं०) लाल-पीले श्रादि रंग, वर्णवृत्त-संज्ञा, पु. यौ० (सं०) वह छंद जन-समूह के ४ विभाग या जाति :
जिसके चरणों में लघु-गुरु-क्रम तथा वर्णब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद, (प्राचीन भार्य)
संख्या समान हो। भेद, प्रकार, भाँति, रूप, अक्षर, अकारादि वर्ण संकर--संज्ञा, पु. यो० (सं०, दो भिन्न के चिह्न या संकेत, वर्न. बरन (दे०)। । भिन्न जातियों से उत्पन्न व्यक्ति या जाति, वर्णक-वि० (सं०) प्रशंसक, स्तुति-कर्ता ! दोगला, व्यभिचार-जनित पुरुष, बरनवर्गखंड-मे--संज्ञा, पु. (सं०) पिंगल की संकर (दे०) । “ स्त्रीदुष्टासु वार्ष्णेय जायते वह क्रिया जिससे बिना मेरु बनाये ही ज्ञात वर्णसंकरः ”.... भ. गीता । “ भये वर्ण. हो जाता है कि इतने वर्गों से कितने छंद संकर कलिहि, भिन्न सेत सब लोग"बन सकते हैं (पिं०)।
रामा० । संज्ञा, स्त्री० -- वर्णसंकरता। वर्णन-संज्ञा, पु० (सं०) विस्तार से कहना, वर्णसूची-- संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) पिंगल की
कथन, लापन, चित्रण, बयान, गुण-कीर्तन. एक रीति या क्रिया जिससे ज्ञात होता है रंगना, प्रशंसा, बरनन, बर्नन (दे०)। कि वर्णिक छंद-संख्या की शुद्धता और उनके वि०-वर्णनीय, घगर्य, धर्णित। भेदों में श्रादि-यंत के लघु-गुरु जाने जाते हैं। वर्णनष्ट-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) पिंगल की वर्णात्मक- वि० (सं०) अक्षर-संबंधी, एक क्रिया जिससे ज्ञात हो कि लघु-गुरु के अक्षरात्मक, जाति या रंग-सम्बन्धी।
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