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पतंजलि
पतंजलि -संज्ञा, पु० (सं०) योगदर्शन और पाणिनि - कृत अष्टाध्यायी के महाभाष्य के रचयिता एक महर्षि
पतळ -- संज्ञा, पु० दे० ( सं० पति ) पति, स्वामी, मालिक | संज्ञा, खो० दे० (सं० प्रतिष्ठा ) लज्जा, कानि, प्रतिष्ठा, मर्यादा | यौ० -- पतपानी --- लज्जा, आबरू मुहा० - पत उतारना या लेना- अपमान करना । पत रखना- इज्जत बचाना। पतझड़ पतझर -- संज्ञा, स्त्रो० दे० यौ० ( हि० पत - पत्ता + झड़ना) वह ऋतु जिसमें पेड़ों की पत्तियाँ झड़ जाती हैं। शिशिर ऋतु, अवनति का समय !
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पतझाड़- पतकारां - संज्ञा, स्त्री० दे० यौ० ( हि० पतझड़ ) पत्ते गिरना, पतझड़, पतभर, शिशिर ऋतु जब वृत्तों के पत्ते झड़ जाते हैं। " होत पतकार भार तरुनि समूहनि कौ" - ऊ० श० ।
पततप्रकर्ष – संज्ञा, पु० यौ० (सं०) दश प्रकार का रस दोष ( काव्य ) |
पतन - संज्ञा, पु० (सं० ) गिरना, डूबना, अवनति, अधोगति, तबाही, नाश, मृत्यु, पाप, जाति- बहिष्कार, उड़ान ।
पतनशील - वि० (सं०) गिरने के स्वभाव वाला, गिरने वाला, पतनोन्मुख । पतनीय -- वि० (सं०) गिरने - योग्य । पतनोन्मुख - वि० यौ० (सं०) जो गिरने की घोर लगा ( प्रवृत्त) हो, जिसका विनाश, अधोगति या अवनति निकट आ रही हो । पत-पानी -संज्ञा, पु० दे० यौ० (हि०) मानमर्यादा, प्रतिष्ठा, लज्जा ।
पतरां - वि० दे० (सं० पत्र ) पतला,
दुर्बल, कृश, पत्ता, पत्तल । पतरा-पतला - वि० दे० (सं० पात्रट) दुबला, कृश, भीना, महीन, बारीक, अधिक द्रव या तरल, असमर्थ, पातर पातरो, पतरों, ( ब० ) । स्त्री० पतरी, पतली । मुहा०
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पताई
DESPREY WEST NE
पतला पड़ना -- बुरी दशा में फँस जाना, पतला हाल - कष्ट और दुख की दशा, बुरा हाल |
पतरी - पातरि - वि० दुबली | संज्ञा, स्त्री० थाली सा पात्र । 66
दे०
( हि० पतली )
(दे०) पत्तों से बना जूठी पातरि खात हैं "
- प्र० रा० ।
पतलाई - पतराई -संज्ञा स्त्री० दे० ( हि० पतला ) दुबलाई, कृशता । पतलापन - संज्ञा, पु० ( हि०) दुबला होने का भाव, दुर्बलता, दुबलाई, कृशता, बारीकी! पतलाना - पतराना -- स० क्रि० दे० ( हि० पताका ) पतला करना ।
पतलून - संज्ञा, पु० दे० (अ० पेंटलून) अंग्रेज़ी
पायजामा ।
पतलो - संज्ञा, पु० दे० (हि० पतला ) सरपत, साँकड़ा । वि० (दे०) पतला, पतरो ।
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पतरां - क्रि० वि० दे० यौ० ( सं० पंक्ति ) पंगति के क्रम से, पंक्ति के अनुसार, पाँति
वार, बराबर बराबर ।
पतवार -पतवारी - संज्ञा, स्त्रो० दे० (सं० पात्रपाल ) नाव के पीछे रहने वाला डाँड़ जिससे नाव घुमाई जाती है, करिया, कन्हर, (दे० ) कर्ण (सं० ) ।
पता -- संज्ञा, पु० ( फा० ) ठिकाना, खोज, पत्र पर लिखा नाम, ठिकाना, परिचय । यौ० - पता ठिकाना- किसी चीज़ का परिचय या उसका ठीक ठीक स्थान, अनुसंधान, टोह, सुराग, खोज, ज्ञान, जैसे- - मुहा०क्या पता - न मालूम। यौ० - पता निशान - नाम निशान, भेद, रहस्य, गूढ़ तत्व या मर्म, ख़बर । मुहा०-पते की या पते की बात - रहस्य या भेदसूचक, मर्म या खोलने वाली बात, ठीक, सत्य या उपयुक्त बात । पताई - संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० पत्र ) पतियों का ढेर, सूखी गिरी पत्तियाँ ।