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हरख
हमेस, हमेसा हमेस-हमेसा*-अव्य० दे० (फा० हमेशा) | हयात - सज्ञा, स्त्री० ( अ०) जीवन, प्रायु,
सदा, सर्वदा, सदैव, सबदिन, सब कान। जिंदगी यौ०-हीन-हयात में-जीवन हमें* - अव्य० दे० (हि० हमहमें, हमको, काल में प्राबे हयात-श्रमत । हमारे हेतु, हाह ( अव० ) "हमैं तुम्हें । हयादार सज्ञा, पु. यौ० । अ० हया+दार सरवरि कस नाथ'- रामा० । | फा० ) शमिन्दा, लज्जाशील, शर्मदार । हम्माम-संज्ञा, पु० (अ.) उष्ण जल का | सज्ञा, स्त्री० -हयादारी। स्नानागार,नहाने की गर्म कोठरो । हर-वि० (सं० ) लूटने, छीनने या हरने हम्मीर-संज्ञा, पु० (सं०) रण थंभौर के | वाला, दूर करने या मिटाने वाला, विनाश एक वीर चौहान राजा जो १३०० स० में , या वध करने वाला, वाहक, वहन करने अलाउद्दीन के साथ लड़ कर मरे इति।।। या ले जाने वाला । सज्ञा, पु. (स.) शकर "पै न टरै हम्मीर-इठ"-- स्फु० । यौ० | जी, शिव जी। "नहँ न जाय मन विधि मुहा०-हम्मीर-हर-हठ आग्रह या हठ।। हरि हर का"-रामा० । विभीषण का हयंद-संज्ञा, पु० दे० यो० (सं० हमें बड़ा मत्री एक राक्षस, ( भिन्न में ) वह संख्या और बढ़िया घोड़ा।
जिससे भाग दिया नावे, ( विलो. अंग) हय-संज्ञा, पु. ( सं०) इन्द्र, अश्व, बोड़ा। भाजक (गणि. ), अग्नि, छप्पय छद का " एकाकी हयमारुह्य जगाम गहनं वनम् " | १० वाँ भेद, टगण का प्रथम भेद (पि०) । -सप्त०। ४ मात्राों का एक छन्द ०ि)।
सज्ञा, पु० द० (स० हल) हल । वि० (फा०) ७ की मात्रा का सूचक शब्द ( काव्य )। प्रत्येक, एक-एक। मुहा०-हर एक स्त्री०-हया, हयी।
(हरेक)-प्रत्येक, एक एक हरवासयोहयग्रीव--संज्ञा, पु. ( सं०) विष्णु के २४ आम-सर्व साधारण । हर राज-प्रति
अवतारों में से एक, अवतार कल्पान्त में दिन । हरदम (वक्त )-सदा. प्रत्येक ब्रह्मा की निद्रावस्था में वेद उठा ले जाने । समय : हर दिल-अजोज-सर्व पिय। वाला एक राक्षस (पुरा०)।
हरउद-सज्ञा, पु० (दे०) पलने की गीत। हयना-स० कि० दे० ( सं० हत ---ना--
हर', हरुए-अव्य० दे० (हि. हवा ) प्रत्य० ) मार डालना. बध या हिंसा करना, ।
रसे रमे, धीरे-धीरे। " ताके भार गरुए भए जीव मारना, मारना-पीटना, प्राण लेना,
हरुएँ धरति पाय"-मतिः । ठोंकना-बजाना, रहने न देना, नष्ट करना, मिटा देना।
हरकत-सज्ञा,स्त्री० (अ०, चाल गति क्रिया, हयनाल-संज्ञा, स्त्री० दे० (सं० हय + नाल चेष्टा. छेड़-छाड़, हिलना-डोलना, नटखटी, हि० ) घोड़ों से खींची जाने वाली नोप।। दुष्टता मुहा०-हरकत से बाज़ न हयमेध-सज्ञा, पु० यौ० ( सं० ) अश्वमेध आना-नटखटी या दुष्टता न छोड़ना। यज्ञ । “ यह होय जो यह हयमेध तो, पूण | हर मना*-स० क्रि० दे० ( हि० हटकना ) मनोरथ होय''..-स्फु०।
हटकना रोकना मना करना । "तुम हरकहु हयशाला-मज्ञा, स्त्री० यौ० (सं० ) अश्व- जो चहहु उबारा ''-- रामा। शाला, अस्तबल घुइसार, हयसार (दे०) हरकारा, हरकाला-सज्ञा, पु. (फा० ) "बनी विचित्र तहाँ हयशाला" - वासु० । चिट्ठोरसाँ, डाकिया, दूत । " वैद्य, चितेरा, हया-सज्ञा, स्त्री० ( अ०) शर्म, लज्जा, बानियाँ. हरकारा औ कव्य -- स्फु०।। बड़ों का लिहाज़ । यौ०-हया-शर्म। हरख- t--संज्ञा, पु० दे० (सं० हर्ष )
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