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स्थिरचित्त १८३८
स्पर्श देवता, एफ योग, (ज्यो०) पहाड़, एक स्निग्ध- वि० (सं०) जिसमें तेल या स्नेह छंद (पि०)।
हो, चिकना, प्रेम-युक्त, मृदुल । स्थिरचित्त--वि० यौ० (सं०) जिसका मन स्निग्धता-संज्ञा, स्त्री० (सं०) मसणता,
अचल या स्थिर हो, दमन, थिरचित चिकनापन, चिकनाहट, प्रियता, प्रिय होने (द०)। संज्ञा, स्नो-स्थिरचित्तता। का भाव।
स्नुषा-संज्ञा, स्त्री० (सं०) पुत्रवधु, पतोहू । स्थिरता-संज्ञा, स्रो० (सं०) निश्चलता,
| स्नेह-संज्ञा, पु. (सं०) प्यार, प्रेम, छोह, अचलस्व. ठहराव, दृढ़ता, धैर्य, स्थायित्व,
मुहब्बत, चिकना पदार्थ, चिकना, चिकनई थिरता (द०)।
या चिकनाहट वाली वस्तु. तेल, मृदुलता, स्थिरबुद्धि-वि० यौ० (सं०) दृढ़चित्त, अटल
मसणता, सनेह, नेह (दे०)। " मैं शिशु मन, जिसकी बुद्धि स्थिर हो, स्थिरधी।।
प्रभुस्नेह प्रतिपाला"-रामा० । स्थूल-वि० (सं०) पीवर, पीन, मोटा, मोटी, |
स्नेहपात्र-संज्ञा, पु. यौ० (सं०) प्रेम करनेवस्तु, सहज में समझ में आने या दिखलाई | योग्य, प्रेम-पात्र, प्यारा, चिकनाई का बरतन । देने वाला। विलो०-सूक्ष्म । संज्ञा, पु. स्नेहपान-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) कुछ -इंद्रिय-ग्राम पदार्थ, गोचर वस्तु । कि.
विशिष्ठ रोगानुसार तेल, घी आदि का पीना वि० यौ० (सं०) स्थूल रूप से, स्थूलदृष्टि (वैद्य०)।
स्नेही-संज्ञा, पु. (सं० स्नेहिन्) नेही, प्रेमी, स्थूलता-संज्ञा, स्त्री० (सं०) मोटाई, मोटा- प्रिय, प्यारा, प्रेम करने वाला, मित्र, साथी, पन, स्थूल का भाव, भारीपन, पीनता,
अस्नेही, सनेही, नेही (द०)। पीवरस्व । संज्ञा, पु०-स्थूलत्व ।
स्पंद-स्पंदन-संज्ञा, पु. (सं०) धीरे धीरे स्थैर्य-संज्ञा, पु० (सं०) दृढ़ता, स्थिरता।
काँपना या हिलना, स्फुरण, हृदय या अंगों स्नपित-स्नात-वि० (सं०) नहाया हुआ।
का फड़कना । वि०-स्पंदित, स्पंदनीय। स्नातक-संज्ञा, पु. (सं०) ब्रह्मचर्य व्रत
स्पर्द्धा-संज्ञा, स्त्री० (सं०) रगड़, डाह, संघर्ष, पूर्ण कर गृहस्थाश्रम में प्रविष्ट हुमा व्यक्ति ।
द्वेष, साम्य, किसी के मुक़ाबिले में उससे
आगे बढ़ने की इच्छा, हौसिला, होड़, स्त्री०-स्नातिका।
साहस, बराबरी। वि०-स्पद्धिन् । स्नान-संज्ञा, पु. (सं०) अवगाहन, नहाना, स्पर्धी--वि० ( सं० स्पर्द्धिन् ) डाही, द्वेषी, स्वच्छतार्थ शरीर को पानी से धोना, देह
स्पर्धा करने वाला, ईर्षालू ।। साफ़ करना, असनान, अन्हान, न्हान, स्पर्श-संज्ञा, पु. (सं०) दो वस्तुओं का नहान (दे०), देह को वायु या धूप में रख
इतना सामीप्य कि उनके तल परस्पर छू उस पर उनका प्रभाव पड़ने देना । “ करि
या लग जायें, छू जाना, छूना, स्वम् इन्द्रिय स्नान ध्यान अरु पूजा"-स्फु०।
का वह विषय या गुण जिससे उसे किसी स्नानागार ---संज्ञा, पु० यौ० (सं०)स्नानालय, वस्तु के दबाव या छू जाने का ज्ञान हो । नहाने का कमरा या स्थान ।
उच्चारण के श्राभ्यंतर प्रयत्न के ४ भेदों में स्नायविक- वि० (सं०) नाड़ी या स्नायु- से स्पष्ट नामक एक भेद जिसमें, क से संबंधी।
लेकर म तक के २५वे व्यंजन वर्ण हैं जिनके स्नायु-संज्ञा, स्त्री. (सं०) वेदना तथा उच्चारण में वागेंद्रिय का द्वार बंद रहता है स्पर्शादि का ज्ञान कराने वाली शरीर की | (व्याक०), ग्रहण में रवि या शशि पर भीतरी नाड़ियाँ या नसें।
छाया पड़ने का प्रारम्भ (ज्यो०)।
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