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सँजाऊ
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सँजोऊ – संज्ञा, पु० दे० ( हि० सँजोना ) सामग्री सामान, उपक्रम, तैयारी । 'वेगि मिलन कर करहु सँजोऊ'-- रामा० । संजोग संज्ञा, पु० दे० (सं० संयाग ) मेल, मिश्रण मिलावट, समागम, सहवास, स्त्री-पुरुष का प्रसंग, मिलाप, विवाहसंबंध, उपयुक्त अवसर जो विधिवस श्रम बनै सँजोगू" - रामा० । योग, जोड़, मीज्ञान इत्तफ़ाक़ (फा० ) मौक़ा : सँजोगी -- संज्ञा, ५० दे० (सं० संग्रागी ) मेलमिलाप से रहने वाला, स्वप्रिया के साथ रहने वाला । त्रो० संजोगिनी । विलो०- विजोगी |
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सँजोना - संजीवनाएं --- स० क्रि० दे० (सं० सजा ) सजाना, तैयार करना, एकत्रित करना, रक्षित रखना
सँजोवली - वि० दे० ( हि० सँजोना ) सावधान सुसज्जित सैन्य-सभेत ।
संतप्त
हि० बाती) संध्या समय जलाने का दीपक, सँवाती, संध्या का गीत |
संभोखा संज्ञा, पु० दे० (सं० संध्या ) संध्या का समय, सखा, सलोखा । संखे * श्रध्य० दे० (सं० संध्या) संध्या काल में, संकलौखे ( ग्रा० ) । खंड-संज्ञा, पु० दे० (सं० शंड ) साँड़ । संडमुसंड - - वि० यौ० ( हि०) मोटा-ताज़ा, हट्टा-कट्टा, हृष्ट-पुष्ट, बहुत मोटा, धमधूसर (ग्रा० ), संडामुसंडा । सँडसा -संज्ञा, पु० दे० उरण या गर्म पदार्थों के लोहे का एक ( लोहारों या हथियार जंबूरा, गहुआ स्त्री० अल्पा - सँडसी । संडा - वि० दे० (सं० शंड ) मोटा ताजा, हृष्ट-पुष्ट । संज्ञा, पु० (दे०) पंडामर्क, istent |
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संज्ञक --- वि० (सं०) नाम या संज्ञा वाला, नामी, जिसकी संज्ञा हो ( यौगिक में ) । संज्ञा - संज्ञा, स्रो० (सं०) चेतना, बुद्धि, होश, ज्ञान, श्राखा नाम वह सार्थक ! विकारी शब्द जिससे किसी कल्पित या वास्तविक वस्तु के नाम का बोध हो ( व्या० ), विश्वकर्मा की कन्या और सूर्य की पत्नी
संज्ञा-हीन, संज्ञा-रहित - वि० (सं०) बेसुध, बेहोश, मूति, संज्ञा-विहीन यौ० संज्ञासुन्य ।
मँना - वि० दे० सं० संध्या ) संध्या या साँझ का । वि० (०) संझौता । सँवाती-संज्ञा, खो० दे० (सं० संध्या + वती - हि० ) शाम के समय जलाया जाने वाला दीपक, संध्या-दीप, संध्या समय गाने का गीत, संझावाती (दे०) । संका - संज्ञा, त्रो० दे० (सं० संध्या ) शाम, संध्या, साँझ । यौ० - संभा-रा (दे० ) - संध्या-बेला । संझावाती - संज्ञा, पु० दे० (सं० संध्या +
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संडास - संज्ञा, पु० (सं०) बहुत गहरा एक प्रकार का पाखाना, शौच - कूप, मलगर्त । संत-संज्ञा, ६० दे० (सं० सत्) साधु, सज्जन, त्यागी, सन्यासी, महात्मा, धार्मिक व्यक्ति, परमेश्वर भन्छ । २१ मात्रात्रों का एक मात्रिक छंद (पिं० ) । संत हंस गुनपय गहहिं ' - रामा० । संतता, संवाई (दे० ) । संतत अध्य (स० ) सदैव, हमेशा. सदा, निरंतर, लगातार, बराबर । संतत रहि सुगंधि सिचाये ----रामा० ।
संज्ञा, खो०
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संतति- संज्ञा, स्रो० ( सं० ) संतान, प्रजा, श्रलाद, वंश, बाल-बच्चे, फैलाव, रिथाया । संपन -संज्ञा, पु० (सं०) बहुत तपना, श्रति संताप या दुख देना ।
संतपना - संज्ञा, पु० ( हि०) संत का भाव, संतता । ० क्रि० (दे०) श्रति तपना, संताप देना ।
संतप्त - वि० (सं०) अति तपा हुआ बहुत गर्म, जला हुआ, पीड़ित, दुग्ध, दुखो,
(सं० संदेश ) पकड़ने के हेतु सेानारों का ) ( प्रान्ती० ) ।
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