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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir T OPI विपथ विप्र-चरण काले "-हितो। मुहा०-विपति पड़ना को प्राप्त होना। "अति रभस कृतानां (आना)-आपत्ति श्राना, कष्ट, दुख या कर्मणां दुर्विपाकः " । परिणाम, कर्म-फल, संकट आ जाना । विपति-हहना दुदशा, दुर्गति । (ढाहना) अकस्मात् कोई आपत्ति पा विधादिका-संज्ञा, स्त्री० (सं०) विमाई पड़ना (उपस्थित करना)। कठिनाई, झगड़ा, नामक रोग, पहेली, प्रहेलिका।। झंझट, बखेड़ा। विपासा--संज्ञा, स्त्री. (सं०, व्यास नदी विपथ-- संज्ञा, पु. (सं०) कुमार्ग, बुरी राह। (पंजा०)। विपद...- संज्ञा, स्त्री० (सं.) आपत्ति, विपत्ति । विपिन संज्ञा, पु. (सं०) वन, अरण्य, "विपदि धैर्यमथाभ्युदये क्षमा"---हितो०।। जंगल, उपवन, वाटिका, विपिन (दे०)। विपदा----संज्ञा, स्त्री० (सं०) आपत्ति विपत्ति, | ___ "सोह कि कोकिल विपिन-करीला''-रामा० संकट, आपदा । जिनके सम वैभव वा विपिनतिलका ---संज्ञा, 'श्री० (सं०) न, स, विपदा"-रामा० । न और दो र ( गण ) वाला एक वणिक विपन्न-वि० (सं०) आर्त, विपत्तिग्रस्त, छंद (पि०)। दुखी, संकटापन्न । | विपिनपति--संज्ञा, पु. यौ० सं०) सिंह, विपरीत-वि० (सं०) विरुद्ध, विलोम, | विपिन-नायक, विपिनाधियति । उलटा, प्रतिकल, सष्ट, खिलाफ. हित के विपिनविहारी -- संज्ञा, १.० यौ० (सं०) मृग. अनुपयुक्त तथा अहित में तत्पर, विपरीत वन में प्रानंद या विहार करने वाला, (दे०)। "मो कह सकल भयो विपरीता" श्रीकृष्ण। | विपुल-वि० सं०) वृहत, परिणाम, विस्तार ---रामा० । संज्ञा, पु० (सं०) एक अर्थालंकार जिस में कार्य-साधक का ही कार्य सिद्धि में और संख्या में प्रति अधिक या बड़ा और बाधक होना कहा जाता है केश०।। कई या अनेक, धागाध, बड़ा | "विपुल वार महि देवन दीन्ही"--रामा० ।। विपरीतोपमा-संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) विपुलता- संज्ञा, स्त्री० (२०) श्राधिक्य, उपमालंकार का एक भेद जिस में कोई बाहुल्य, अधिकता। भाग्यशाली अति दीन दशा में दिखाया विएला-संज्ञा, स्त्री० (सं०) बसुधा, मेदनो, जाये (केश०)। भूमि, भ र (गण) और दो लघु वर्गों का विपर्याय-संज्ञा, पु० (सं०) और का और, एक छंद, भार्या छंद के ३ भेदों में से एक उलटा, व्यतिक्रम, विरुद्ध, उलट पलट, (पिं०)। विलोम, इधर का उधर, प्रतिकूल, अव्यवस्था विपुलई. विषलाई* -- संज्ञा, स्त्री. (सं. अन्यथा समझना, भूल, गड़बड़ी। विपुल - आई हि०-प्रत्य. ) विपुलता । विपर्यस्त--वि० (सं०) गड़बड़, अस्त- विपोहना-स० कि० दे० (सं० विप्रीति) व्यस्त, अव्यवस्थित । पोतना, लीपना, नाश करना, पोहना। विपर्यास- संज्ञा, पु. (सं०) प्रतिकूल, विप्र- संज्ञा, पु० (सं०) ब्राह्मण, वेदपाठी, विरुद्ध, उलटा पुलटा, व्यतिक्रम। पुरोहित ! " वेदपाठी भवेद्विप्रः ब्रह्म जानाति विपल-संज्ञा, पु. (सं०) एक पल का | ब्राह्मण! ''---स्फुट० । " विप्र वस की अस साठवाँ भाग या अंश । प्रभुताई ”-रामा० । विपश्चित - संज्ञा, पु० (सं०) विद्वान, पंडित, विप्र-चरण-संज्ञा, पु० पौ० (सं.) विप्रदोषज्ञ, बुद्धिमान । पाद, विष्णु के हृदय पर भृगुमुनि के चरणविपाक-संज्ञा, पु० (सं०) पकना, पूर्ण दशा | चिह्न (पुरा०), भृगुलता, ब्राह्मण का पैर । For Private and Personal Use Only
SR No.020126
Book TitleBhasha Shabda Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamshankar Shukla
PublisherRamnarayan Lal
Publication Year1937
Total Pages1921
LanguageHindi
ClassificationDictionary
File Size51 MB
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