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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मागी। श्रा -लुब्धक २६२ श्रालंबन श्रार्द्रा नक्षत्र में होता है, श्राषाढ़ का आर्या-संज्ञा, स्त्री० (सं० ) पार्वती, सास, श्रारम्भ-काल, ग्यारह वर्णों का एक वर्णिक | दादी, पितामही, एक प्रकार का अर्ध वृत्त, अदरक, प्रादी-अद्रा (दे०)। मात्रिक छंद। प्रार्दा-लुब्धक-संज्ञा, पु० यौ० (सं०) यौ० प्रार्या सप्तसती-संस्कृत का एक केतु ग्रह । प्रधान काव्य-ग्रंथ जिसमें ७०० आर्या प्रार्द्रा-धीर--संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) वाम छंद हैं। आर्या-गीत-संज्ञा, स्त्री० यौ० (सं०) श्रााशनि-संज्ञा, पु. यौ० (सं० ) बिजली, आर्या छंद का एक भेद विशेष।। एक प्रकार का अग्नि सम्बन्धी अस्त्र । आर्यावर्त-संज्ञा, पु. ( सं० ) उत्तरीय आर्य- वि० (सं० ) श्रेष्ठ, उत्तम, बड़ा, भारत, विन्ध्य और हिमालय पर्वत का पूज्य, श्रेष्ठ कुल में उत्पन्न, मान्य, सेव्य ।। मध्यवर्ती देश, पुण्य भूमि, आर्यों का संज्ञा, पु० (सं० ) श्रेष्ठ पुरुष, सत्कुलोत्पन्न, . निवास स्थान । एक मानव जाति जिसने सबसे प्रथम संसार | प्रार्ष-वि० (सं० ) ऋषि सम्बन्धी, ऋषिमें सभ्यता प्राप्त कर प्रचालित की थी। प्रणीत, ऋषिकृत, वैदिक, ऋषि-सेवित । स्त्री०-आर्या। पार्षप्रयोग-संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) शब्दों प्रार्य पुत्र-संज्ञा, पु० यौ० (सं० ) पति का वह व्यवहार या प्रयोग जो व्याकरण के पुकारने का एक संबोधन शब्द (प्राचीन) के नियमानुकूल न हो, परन्तु प्राचीन ऋषिभर्ता, स्वामी, गुरु-पुत्र, पति। प्रणीत ग्रंथों में प्राप्त हो। ऐसे प्रयोगों का आर्य भट्ट-संज्ञा, पु० (सं० ) सुविख्यात । अनुकरण नहीं किया जाता, यद्यपि इन्हें भारतीय ज्योतिर्वेत्ता एवं गणित-विद्या- अशुद्ध भी नहीं माना जाता। विशारद, जो ४७५ ई० में कुसुमपुर नामक भाषे विवाह-संज्ञा, 'पु० यौ० (सं० ) पाठ स्थान में हुये थे, इन्होंने प्रसिद्ध ज्योतिष प्रकार के विवाहों में से तीसरे प्रकार का ग्रंथ, आर्य सिद्धान्त की रचना की और विवाह, जिलमें वर के पिता से या वर से सप्रमाण सिद्ध करके सौर केन्द्रिय मत का कन्या का पिता दो बैल शुल्क में लेकर प्रचार किया और पृथ्वी श्रादि ग्रहों को कन्या देता है। अब इस प्रकार के विवाह सौर जगत में अवस्थित होकर सूर्य की का प्रचार नहीं रहा। प्रदक्षिणा करता हुआ सिद्ध किया, इन्होंने | आलंकारिक-वि० ( सं० ) अलंबारबीज गणित का भी एक ग्रंथ रचा। सम्बन्धी, अलंकार युक्त, अलंकार जानने श्रार्य मिश्र-वि० यौ० ( सं० ) मान्य, । वाला श्रालंग-संज्ञा, पु० दे० घोड़ियों की मस्ती। प्रार्य क्षेमेश्वर-संज्ञा, पु० (सं० )[समय- पालंब-संडा, पु० ( सं० ) अवलंब, पाश्रय, १०२६-१०४० ई. के लगभग ] बंगाल के सहारा, गति, शरण, उपजीव । पाल वंशीय राजा कवि, इन्होंने नृपाज्ञा से प्रालंबन --- संज्ञा, पु०( सं० ) सहारा श्राश्रय, चंड कौशिक नामक महीपाल के राज का अवलंब, वह वस्तु जिसके अवलंब से रस एक सुन्दर नाटक संस्कृत में रचा।। की उत्पत्ति होती है, जिसके प्रति किसी श्रार्य समाज-संज्ञा, पु. ( सं० यौ० ) एक भाव का होना कहा जाय, जिसमें किसी धार्मिक समाज या समिति जिसके संस्था स्थायी भाव को जाग्रति हुई हो, जो रस पक स्वामी दयानंद सरस्वती थे। का प्राधार हो, जैसे नायक-नायिका पूज्य, श्रेष्ठ । For Private and Personal Use Only
SR No.020126
Book TitleBhasha Shabda Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamshankar Shukla
PublisherRamnarayan Lal
Publication Year1937
Total Pages1921
LanguageHindi
ClassificationDictionary
File Size51 MB
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