________________ प्रथम प्रज्ञापनापद ] [ 109 (जिसमें सूक्ष्म कषाय को विद्यमानता होती है) तथा बादरसम्पराय-सरागचारित्र (जिसमें स्थूल कषाय हो, वह)। इनसे जो आर्य हो, वह तथारूप आर्य होता है / सूक्ष्मसम्पराय-चारित्रार्य के अवस्था भेद से चार भेद बताए हैं-प्रथमसमयवर्ती व अप्रथमसमयवर्ती, तथा चरमसमयवर्ती और अचरमसमयवर्ती / इनकी व्याख्या पूर्ववत् समझ लेनी चाहिए / सूक्ष्मसम्पराय-सरागचारित्रार्य के पुनः दो भेद बताए गए हैं-संक्लिश्यमान (ग्यारहवें गुणस्थान से गिरकर दसवें गुणस्थान में आया हुआ)। और विशुद्धयमान (नौवें गुणस्थान से ऊपर चढ़कर दसवें गुणस्थान में आया हुआ)। बादरसम्पराय-चारित्रार्य के भी पूर्ववत् प्रथमसमयवर्ती आदि चार भेद बताए गए हैं। इनके भी प्रकारान्तर से दो भेद किये गए हैं--प्रतिपाती और अप्रतिपाती। उपशमश्रेणी वाले प्रतिपाती (गिरने वाले) और क्षपकश्रेणीप्राप्त अप्रतिपाती (नहीं गिरने वाले) होते हैं। वीतराग के दो प्रकार हैं-उपशान्तकषायवीतराग और क्षीणकपायवीतराग / उपशान्तकषायवीतराग (एकादशम-गुणस्थान वर्ती) की व्याख्या तथा इसके चार भेदों की व्याख्या पूर्ववत् समझ लेनी चाहिए। क्षीणकषायवीतराग के भी दो भेद होते हैं-छद्मस्थक्षीणकषायवीतराग और केवलिक्षीणकषायवीतराग / इनमें से छद्मस्थक्षीणकषायवीतराग के दो प्रकार हैं स्वयंबुद्ध और बुद्धबोधित / इन दोनों के प्रथमसमयवर्ती आदि पूर्ववत् चार-चार भेद होते हैं। इन सबकी व्याख्या भी पूर्ववत् समझ लेनी चाहिए। इसी प्रकार केवलिक्षीणकषायवीतराग के भी पूर्ववत् सयोगिकेवली और अयोगिकेवली तथा प्रथमसमयवर्ती आदि चार भेद होते हैं। इनकी व्याख्या भी पूर्ववत् समझ लेनी चाहिए। इन सबको अपेक्षा से जो प्रार्य होते हैं, वे तथारूप चारित्रार्य कहलाते हैं / सामायिकचारित्रार्य का स्वरूप-सम का अर्थ है-राग और द्वेष से रहित / समरूप प्राय को समाय कहते हैं / अथवा सम का अर्थ है-सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र, इनके आय अर्थात् लाभ अथवा प्राप्ति को समाय कहते हैं / अथवा 'समाय' शब्द साधु की समस्त क्रियाओं का उपलक्षण है; क्योंकि साध की समस्त क्रियाएँ राग-द्वेष से रहित होती हैं। पूर्वोक्त 'समाय' से जो निष्पन्न हो, सम्पन्न हो अथवा 'समाय' में होने वाला सामायिक है। अथवा समाय ही सामायिक है; जिसका तात्पर्य है-सर्व सावध कार्यों से विरति / महाव्रती साध-साध्वियों केच चारित्र कहा गया है; क्योंकि महाव्रती जीवन अंगीकार करते समय समस्तसावध कार्यों अथवा योगों से निवृत्तिरूप सामायिक चारित्र ग्रहण किया जाता है। यद्यपि सामायिक चारित्र में साध के समस्त चारित्रों का अन्तर्भाव हो जाता है, तथापि छेदोपस्थापना आदि विशिष्ट चारित्रों से सामायिकचारित्र में उत्तरोत्तर विशुद्धि और विशेषता आने के कारण उन चारित्रों को पृथक् ग्रहण किया गया है / सामायिकचारित्र के दो भेद हैं-इत्वरिक और यावत्कथिक / इत्वरिक का अर्थ है-अल्पकालिक और यावत्कथिक का अर्थ है-आजीवन (जीवनभर का, यावज्जीव का)। इत्वरिकसामायिक-चारित्र, भरत और ऐरवत क्षेत्रों में, प्रथम और अन्तिम तीर्थंकर के तीर्थ में, महाव्रतों का आरोपण नहीं किया गया हो, तब तक शैक्ष (नवदीक्षित) को दिया जाता है। अर्थात्-दीक्षाग्रहणकाल से महाव्रतारोपण से पूर्व तक का शैक्ष (नवदीक्षित) का चारित्र इत्वरिकसामायिक-चारित्र होता है। भरत और ऐरवत क्षेत्र के मध्यवर्ती वाईस तीर्थंकरों तथा महाविदेहक्षेत्रीय तीर्थंकरों के तीर्थ में साधुअों के यावत्कथिकसामायिक-चारित्र होता है / क्योंकि उनके उपस्थापना नहीं होती, अर्थात्१. (क) प्रज्ञापनासूत्र, मलय. बृत्ति, पत्रांक 55 से 60 तक, (ख) प्रज्ञापना. प्रमेयबोधिनी टीका भा. 1, पृ. 453 से 513 तक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org